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سُورَةُ عَبَسَ

80. अ-ब-स

(मक्का में उतरी, आयतें 42)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'अ़-ब-स' (त्योरी चढ़ाई) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

टीकाकारों और हदीस के विद्वानों ने एकमत होकर इस सूरा के उतरने की वजह यह बताई है कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की सभा में मक्का मुअज़्ज़मा के कुछ बड़े सरदार बैठे हुए थे और नबी (सल्ल०) उनको इस्लाम अपना लेने पर तैयार करने की कोशिश कर रहे थे। इतने में इब्ने-उम्मे-मक्तूम नामक एक नेत्रहीन व्यक्ति नबी (सल्ल०) की सेवा में उपस्थित हुए और उन्होंने आपसे इस्लाम के बारे में कुछ पूछना चाहा। नबी (सल्ल०) को उनका यह हस्तक्षेप बुरा लगा और आपने उनसे बेरुख़ी बरती। इसपर अल्लाह की ओर से यह सूरा उतरी। इस ऐतिहासिक घटना से इस सूरा के उतरने का समय आसानी से निश्चित हो जाता है। एक तो यह कि यह बात सिद्ध है कि हज़रत इब्ने-उम्मे-मक्तूम बिल्कुल आरंभिक काल के इस्लाम लानेवालों में से हैं। दूसरे यह कि हदीस की जिन रिवायतों में इस घटना का वर्णन हुआ है, उनमें से कुछ से मालूम होता है कि उस समय वे इस्लाम ला चुके थे और कुछ से मालूम होता है कि इस्लाम की ओर उनका झुकाव हो चुका था और सत्य की खोज में नबी (सल्ल०) के पास आए थे। तीसरे यह कि नबी (सल्ल०) की सभा में जो लोग उस समय बैठे थे, विभिन्न रिवायतों में उनके नामों का उल्लेख किया गया है। इस सूची में हमें उत्बा, शैबा, अबू-जहल, उमैया-बिन-ख़ल्फ़ और उबई-बिन-ख़ल्फ़ जैसे इस्लाम के घोर विरोधियों के नाम मिलते हैं। इससे मालूम होता है कि यह घटना उस समय घटी थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ इन लोगों का मेल-जोल अभी बाक़ी था और संघर्ष इतना नहीं बढ़ा था कि आपके यहाँ उनका आना-जाना और आपके साथ उनकी मुलाक़ातों का सिलसिला बन्द हो गया हो। ये सब बातें इसका प्रमाण हैं कि यह सूरा अति आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

प्रत्यक्ष रूप से इस सूरा में नबी (सल्ल०) के प्रति रोष व्यक्त किया गया है, लेकिन पूरी सूरा पर सामूहिक रूप से विचार किया जाए तो मालूम होता है कि वास्तव में रोष क़ुरैश के उन सरदारों पर व्यक्त किया गया है जो अपने गर्व, हठधर्मी, सत्य-विमुखता के आधार पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सत्य-प्रचार का तुच्छता के साथ खंडन कर रहे थे और [जहाँ तक नबी (सल्ल०) का ताल्लुक़ है, आपको सिर्फ़ प्रचार का सही तरीक़ा बताया गया है । आप (सल्ल०) ने नेत्रहीन के प्रति बेरुख़ी का और क़ुरैश के सरदारों के प्रति ध्यान देने का जो रवैया उस वक़्त अपनाया था, उस] का प्रेरक पूर्णत: निष्ठा और सत्य-सन्देश को आगे बढ़ाने की भावना थी, न कि बड़े लोगों का सम्मान और छोटे लोगों के अपमान का विचार। लेकिन अल्लाह ने आपको समझाया कि इस्लामी दावत का सही तरीक़ा यह नहीं है, बल्कि इस दावत की दृष्टि से आपके ध्यान देने के अस्ल हक़दार वे लोग हैं जिनमें सत्य अपनाने की तत्परता पाई जाती हो और आप और आपके उच्चस्तरीय आह्वान के पद से यह बात गिरी हुई है कि आप उसे उन अहंकारियों के सामने रखें जो अपनी बड़ाई के घमंड में यह समझते हों कि उनको आपकी नहीं, बल्कि आपको उनकी ज़रूरत है। यह सूरा के आरम्भ से आयत 16 तक का विषय है। इसके बाद आयत 17 से सीधे-सीधे रोष की दिशा उन काफ़िरों (इंकारियों) की ओर बदल जाती है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पैग़ाम को रद्द कर रहे थे।

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سُورَةُ عَبَسَ
80. अ-ब-स
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
عَبَسَ وَتَوَلَّىٰٓ
(1) त्योरी चढ़ाई और बेरुख़ी बरती
أَن جَآءَهُ ٱلۡأَعۡمَىٰ ۝ 1
(2) इस बात पर कि वह अन्धा उसके पास आ गया।1
1. यह पहला जुमला जिस अन्दाज़ में बयान किया गया है वह अपने अन्दर बड़ी बारीकी रखता है। अगरचे बाद के जुमलों में सीधे तौर पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ख़िताब किया गया है, जिससे यह बात ख़ुद ज़ाहिर हो जाती है कि त्योरी चढ़ाने और बेरुख़ी बरतने का यह काम नबी (सल्ल०) ही से हुआ था, लेकिन बात की शुरुआत इस तरह की गई है कि मानो नबी (सल्ल०) नहीं कोई और शख़्स है जिससे यह हरकत हुई है। इस बयान के अन्दाज़ से एक बहुत लतीफ़ तरीक़े पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को एहसास दिलाया गया है कि यह ऐसा काम था जो आपके करने का न था। आपके बुलन्द अख़लाक़ को जाननेवाला इसे देखता तो यह समझता कि यह आप नहीं कोई और है जो यह रवैया अपना रहा है। जिन अन्धे शख़्स का यहाँ ज़िक्र हो रहा है उनसे मुराद, जैसा कि हम परिचय में बयान कर आए हैं, मशहूर सहाबी हज़रत इब्ने-उम्मे-मकतूम हैं। हाफ़िज़ इब्ने-अब्दुल-बर्र ने ‘अल-इस्तीआब’ में और हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने ‘अल-इसाबा’ में बयान किया है कि यह उम्मुल-मोमिनीन हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के फुफेरे भाई थे, इनकी माँ उम्मे-मकतूम और हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के बाप ख़ुवैलिद आपस में बहन-भाई थे। नबी (सल्ल०) के साथ उनका यह रिश्ता मालूम हो जाने के बाद इस शक की कोई गुंजाइश बाक़ी नहीं रहती कि आप (सल्ल०) ने उनको ग़रीब या कम हैसियत आदमी समझकर उनसे बेरुख़ी बरती और बड़े आदमियों की तरफ़ ध्यान दिया था, क्योंकि यह नबी (सल्ल०) के अपने बिरादरे-निस्बती (बीवी के रिश्ते के भाई) थे, ख़ानदानी आदमी थे, कोई गिरे-पड़े आदमी न थे। अस्ल वजह जिसके सबब आप (सल्ल०) ने उनके साथ यह रवैया अपनाया, लफ़्ज़ ‘अअ्मा’ (अन्धा) से मालूम होती है जिसे अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) की बेरुख़ी के सबब की हैसियत से ख़ुद बयान कर दिया है। यानी नबी (सल्ल०) का ख़याल यह था कि मैं इस वक़्त जिन लोगों को सीधे रास्ते पर लाने की कोशिश कर रहा हूँ उनमें से कोई एक आदमी भी हिदायत पा ले तो इस्लाम को बल मिलने का बड़ा ज़रिआ बन सकता है, इसके बरख़िलाफ़ इब्ने-मकतूम (रज़ि०) एक अन्धे आदमी हैं, अपनी लाचारी के सबब ये इस्लाम के लिए उतने ज़्यादा फ़ायदेमन्द नहीं हो सकते जितने इन सरदारों में से कोई मुसलमान होकर फ़ायदेमन्द हो सकता है, इसलिए इनको इस मौक़े पर बातचीत में दख़ल नहीं देना चाहिए, यह जो कुछ समझना या मालूम करना चाहते हैं उसे बाद में किसी वक़्त भी मालूम कर सकते हैं।
وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّهُۥ يَزَّكَّىٰٓ ۝ 2
(3) तुम्हें क्या ख़बर, शायद वह सुधर जाए
أَوۡ يَذَّكَّرُ فَتَنفَعَهُ ٱلذِّكۡرَىٰٓ ۝ 3
(4) या नसीहत पर ध्यान दे और नसीहत करना उसके लिए फ़ायदेमन्द हो?
أَمَّا مَنِ ٱسۡتَغۡنَىٰ ۝ 4
(5) जो शख़्स बेपरवाही बरतता है
فَأَنتَ لَهُۥ تَصَدَّىٰ ۝ 5
(6) उसकी तरफ़ तो तुम ध्यान देते हो,
وَمَا عَلَيۡكَ أَلَّا يَزَّكَّىٰ ۝ 6
(7) हालाँकि अगर वह न सुधरे तो तुमपर इसकी क्या ज़िम्मेदारी है?
وَأَمَّا مَن جَآءَكَ يَسۡعَىٰ ۝ 7
(8) और जो ख़ुद तुम्हारे पास दौड़ा आता है
وَهُوَ يَخۡشَىٰ ۝ 8
(9) और डर रहा होता है,
فَأَنتَ عَنۡهُ تَلَهَّىٰ ۝ 9
(10) उससे तुम बेरुख़़ी अपनाते हो।2
2. यही है वह अस्ल नुक्ता (Point) जिसे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दीन की तबलीग़ के मामले में इस मौक़े पर नज़र-अन्दाज़ कर दिया था, और इसी को समझाने के लिए अल्लाह तआला ने पहले इब्ने-मकतूम (रज़ि०) के साथ आप (सल्ल०) के रवैये पर पकड़ की, फिर आप (सल्ल०) को बताया कि हक़ की तरफ़ बुलानेवाले की निगाह में हक़ीक़ी अहमियत किस चीज़ की होनी चाहिए और किसकी न होनी चाहिए। एक वह शख़्स है जिसकी ज़ाहिरी हालत साफ़ बता रही है कि वह हक़ का तलबगार है, इस बात से डर रहा है कि कहीं वह बातिल (असत्य) की पैरवी करके ख़ुदा के ग़ज़ब में घिर न जाए, इसलिए वह सीधे रास्ते का इल्म हासिल करने की ख़ातिर ख़ुद चलकर आता है। दूसरा वह आदमी है जिसका रवैया साफ़ तौर पर ज़ाहिर कर रहा है कि उसमें हक़ की कोई तलब नहीं पाई जाती, बल्कि वह अपने आपको इससे बेनियाज़ (निस्पृह) समझता है कि उसे सीधा रास्ता बताया जाए। इन दोनों तरह के आदमियों के बीच देखने की चीज़ यह नहीं है कि कौन ईमान ले आए तो दीन के लिए बहुत फ़ायदेमन्द हो सकता है और किसका ईमान लाना दीन के फैलने में कुछ ज़्यादा फ़ायदेमन्द नहीं हो सकता। बल्कि देखना यह चाहिए कि कौन हिदायत को क़ुबूल करके सुधरने के लिए तैयार है और कौन इस क़ीमती दौलत का सिरे से क़द्रदान ही नहीं है। पहली तरह का आदमी, चाहे अन्धा हो, लंगड़ा हो, लूला हो, बिलकुल ग़रीब हो, बज़ाहिर दीन के फैलने में कोई बड़ा काम कर सकने के क़ाबिल दिखाई न देता हो, बहरहाल हक़ की दावत देनेवाले के लिए वही क़ीमती आदमी है, उसी की तरफ़ उसे ध्यान देना चाहिए, क्योंकि इस दावत का अस्ल मक़सद ख़ुदा के बन्दों का सुधार है, और उस आदमी का हाल यह बता रहा है कि उसे नसीहत की जाएगी तो वह फ़ौरन इस्लाह और हिदायत क़ुबूल कर लेगा। रहा दूसरी तरह का आदमी, तो चाहे वह समाज में कितना ही असरवाला हो, उसके पीछे पड़ने की हक़ की तरफ़ दावत देनेवाले को कोई ज़रूरत नहीं है। क्योंकि उसका रवैया खुल्लम-खुल्ला यह बता रहा है कि वह सुधरना नहीं चाहता, इसलिए उसके सुधार की कोशिश में वक़्त लगाना वक़्त की बरबादी है, वह अगर न सुधरना चाहे तो न सुधरे, नुक़सान उसका अपना होगा, हक़ की तरफ़ दावत देनेवाले पर इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं।
كَلَّآ إِنَّهَا تَذۡكِرَةٞ ۝ 10
(11) हरगिज़ नहीं,3 यह तो एक नसीहत है,4
3. यानी ऐसा हरगिज़ न करो। ख़ुदा को भूले हुए और अपनी दुनियावी बड़ाई और शोहरत पर फूले हुए लोगों को नामुनासिब अहमियत न दो। न इस्लाम की तालीम ऐसी चीज़ है कि जो इससे मुँह मोड़े उसके सामने इसे ख़ुशामदें करके पेश किया जाए, और न तुम्हारी यह शान है कि इन घमण्डी लोगों को इस्लाम की तरफ़ लाने के लिए किसी ऐसे अन्दाज़ से कोशिश करो जिससे ये इस ग़लतफ़हमी में पड़ जाएँ कि तुम्हारी कोई ग़रज़ इनसे अटकी हुई है, ये मान लेंगे तो तुम्हारा पैग़ाम फैल सकेगा, वरना नाकाम हो जाएगा। हक़ इनसे उतना ही बेपरवाह है जितने ये हक़ से बेपरवाह हैं।
4. मुराद है क़ुरआन।
فَمَن شَآءَ ذَكَرَهُۥ ۝ 11
(12) जिसका जी चाहे, इसे क़ुबूल करे।
فِي صُحُفٖ مُّكَرَّمَةٖ ۝ 12
(13) यह ऐसे सहीफ़ों (पन्नों) में दर्ज है जो क़ाबिले-एहतिराम हैं,
مَّرۡفُوعَةٖ مُّطَهَّرَةِۭ ۝ 13
(14) बुलन्द मर्तबा हैं, पाकीज़ा हैं,5
5. यानी हर तरह की मिलावटों से पाक (मुक्त) हैं। इनमें ख़ालिस हक़ की तालीम (शिक्षा) पेश की गई है। किसी तरह के ग़लत और बिगाड़वाले ख़यालात और नज़रिए इनमें जगह नहीं बना सके हैं। जिन ख़राबियों से दुनिया की दूसरी मज़हबी किताबें ख़राब कर दी गई हैं उनका कोई हल्का-सा असर भी इनके अन्दर दाख़िल नहीं हो सका है। इनसानी ख़यालात हों, या शैतानी वस्वसे, उन सबसे ये पाक (मुक्त) रखे गए हैं।
بِأَيۡدِي سَفَرَةٖ ۝ 14
(15) क़ाबिले-एहतिराम और नेक कातिबों6
6. इनसे मुराद वे फ़रिश्ते हैं जो क़ुरआन के इन सहीफ़ों (पन्नों) को अल्लाह तआला की सीधे तौर पर दी गई हिदायत के मुताबिक़ लिख रहे थे, उनकी हिफ़ाज़त कर रहे थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तक उन्हें ज्यों-का-त्यों पहुँचा रहे थे। उनकी तारीफ़ में दो लफ़्ज़ इस्तेमाल किए गए हैं। एक ‘किराम’ यानी मुअज़्ज़ज़ (इज़्ज़तदार)। दूसरे ‘बार्र’ यानी नेक और भले। पहले लफ़्ज़ का मक़सद यह बताना है कि वे इतने इज़्ज़तदार हैं कि जो अमानत उनके सिपुर्द की गई है उसमें ज़र्रा बराबर भी ख़ियानत इन जैसी बुलन्द दर्जे की हस्तियों से होना मुमकिन नहीं है। और दूसरा लफ़्ज़ यह बताने के लिए इस्तेमाल किया गया है कि इन सहीफ़ों को लिखने, इनकी हिफ़ाज़त करने और ख़ुदा के रसूल (सल्ल०) तक इनको पहुँचाने की जो ज़िम्मेदारी उनके सिपुर्द की गई है उसका हक़ वे पूरी ईमानदारी से अदा करते हैं।
كِرَامِۭ بَرَرَةٖ ۝ 15
(16) (लिखनेवालों) के हाथों में रहते हैं।7
7. बात के जिस सिलसिले में यह आयतें आई हैं उनपर ग़ौर किया जाए तो मालूम होता है कि इस जगह क़ुरआन मजीद की यह तारीफ़ सिर्फ़ उसकी बड़ाई बयान करने के लिए नहीं की गई है, बल्कि अस्ल मक़सद उन तमाम घमण्डी लोगों को, जो नफ़रत के साथ इसके पैग़ाम से मुँह मोड़ रहे हैं, साफ-साफ़ जता देना है कि यह अज़ीमुश्शन किताब इससे कई गुना बेहतर और बुलन्द है कि तुम्हारे सामने इसे पेश किया जाए और तुमसे यह चाहा जाए कि तुम इसे क़ुबूल कर लो। यह तुम्हारी मुहताज नहीं है, बल्कि तुम इसके मुहताज हो। अपनी भलाई चाहते हो तो जो ख़न्नास (शैतानी ख़याल) तुम्हारे दिमाग़ में भरा हुआ है उसे निकालकर सीधी तरह इसके पैग़ाम के आगे फ़रमाँबरदारी में सिर झुका दो। वरना जितना तुम इससे बेपरवाह बनते हो उससे बहुत ज़्यादा यह तुमसे बेपरवाह है। तुम्हारे न मानने से इसकी बड़ाई में ज़र्रा बराबर फ़र्क़ न आएगा, अलबत्ता तुम्हारी बड़ाई का सारा घमण्ड मिट्टी में मिलाकर रख दिया जाएगा।
قُتِلَ ٱلۡإِنسَٰنُ مَآ أَكۡفَرَهُۥ ۝ 16
(17) लानत8 हो इनसान पर,9 कैसा सख़्त हक़ का इनकारी है यह!10
8. यहाँ से ग़ुस्से का रुख़ सीधे तौर पर उन इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की तरफ़ फिरता है जो हक़ से बेपरवाही बरत रहे थे। इससे पहले सूरा की शुरुआत से आयत-16 तक बात नबी (सल्ल०) से कही जा रही थी और ग़ुस्सा छिपे तौर पर इस्लाम-मुख़ालिफ़ों पर किया जा रहा था। उसका अन्दाज़े-बयान यह था कि ऐ नबी, हक़ के एक तलबगार को छोड़कर आप यह किन लोगों पर अपना ध्यान लगा रहे हैं जो हक़ के पैग़ाम के पहलू से बिलकुल बेक़द्रो-क़ीमत (मूल्यहीन) हैं और जिनकी यह हैसियत नहीं है कि आप जैसा इन्तिहाई क़ाबिले-क़द्र पैग़म्बर क़ुरआन जैसी बुलन्द मर्तबा चीज़ को उनके आगे पेश करे।
9. क़ुरआन मजीद में ऐसी तमाम जगहों पर इनसान से मुराद इनसानी नस्ल का हर शख़्स नहीं होता, बल्कि वे लोग होते हैं जिनकी नापसन्दीदा सिफ़ात (गुणों) की बुराई ज़ाहिर करना मक़सद होता है। ‘इनसान’ का लफ़्ज़ कहीं तो इसलिए इस्तेमाल किया जाता है कि इनसानी नस्ल के अकसर लोगों में वे बुरी बातें पाई जाती हैं, और कहीं इसके इस्तेमाल की वजह यह होती है कि ख़ास लोगों को नाम के साथ अगर मलामत की जाए तो उनमें ज़िद पैदा हो जाती है, इसलिए नसीहत का यह तरीक़ा ज़्यादा असर डालनेवाला होता है कि आम अन्दाज़ में बात कही जाए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिया-65; सूरा-42 शूरा, हाशिया-75)।
10. दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि “किस चीज़ ने उसे कुफ़्र (इनकार) पर आमादा किया?” यानी दूसरे अलफ़ाज़ में किस बल-बूते पर यह कुफ़्र करता है? कुफ़्र से मुराद इस जगह हक़ का इनकार भी है, अपने पर एहसान करनेवाले के एहसानों की नाशुक्री भी, और अपने पैदा करनेवाले और रोज़ी देनेवाले और मालिक के मुक़ाबले में बग़ावत का रवैया भी।
مِنۡ أَيِّ شَيۡءٍ خَلَقَهُۥ ۝ 17
(18) किस चीज़ से अल्लाह ने इसे पैदा किया है?
مِن نُّطۡفَةٍ خَلَقَهُۥ فَقَدَّرَهُۥ ۝ 18
(19) नुतफ़े (वीर्य) की एक बूँद से।11 अल्लाह ने इसे पैदा किया, फिर इसकी तक़दीर मुक़र्रर की,12
11. यानी पहले तो ज़रा यह अपनी हक़ीक़त पर ग़ौर करे कि किस चीज़ से यह वुजूद में आया? किस जगह इसने परवरिश पाई? किस रास्ते से यह दुनिया में आया? और किस बेबसी की हालत से दुनिया में इसकी ज़िन्दगी की शुरुआत हुई? अपनी इस अस्ल को भूलकर यह अपने आप ही को सब कुछ समझने की ग़लतफ़हमी में कैसे पड़ जाता है और कहाँ से इसके दिमाग़ में यह हवा भरती है कि अपने पैदा करनेवाले के मुँह आए? (यही बात है जो सूरा-36 या-सीन, आयतें—77-78 में कही गई है)।
12. यानी यह अभी माँ के पेट ही में बन रहा था कि इसकी तक़दीर (भाग्य) तय कर दी गई। इसकी जिंस (सेक्स) क्या होगी, इसका रंग क्या होगा, इसका क़द कितना होगा, इसका डील-डौल कैसा और कितना होगा, इसके जिस्म के हिस्से (अंग) किस हद तक सही-सलामत और किस हद तक ऐबदार होंगे, इसकी शक्ल-सूरत और आवाज़ कैसी होगी, इसके जिस्म की ताक़त कितनी होगी, इसके ज़ेहन की सलाहियतें (क़ाबिलियतें) क्या होंगी, किस सरज़मीन, किस ख़ानदान, किन हालात, और किस माहौल में यह पैदा होगा, परवरिश और तरबियत पाएगा और क्या बनकर उठेगा। इसकी शख़सियत के बनने में बुज़ुर्गों के असरात, माहौल के असरात और इसकी अपनी ख़ुदी का क्या और कितना असर होगा, क्या किरदार यह दुनिया की ज़िन्दगी में अदा करेगा, और कितना वक़्त इसे ज़मीन पर काम करने के लिए दिया जाएगा। इस तक़दीर से यह बाल बराबर भी हट नहीं सकता, न इसमें ज़र्रा बराबर हेर-फेर कर सकता है। फिर कैसी अजीब है उसकी यह जुरअत (दुस्साहस) कि जिस पैदा करनेवाले की बनाई हुई तक़दीर के आगे यह इतना बेबस है उसके मुक़ाबले में कुफ़्र (इनकार और नाशुक्री) करता है!
ثُمَّ ٱلسَّبِيلَ يَسَّرَهُۥ ۝ 19
(20) फिर इसके लिए ज़िंदगी की राह आसान की13,
13. यानी दुनिया में वे तमाम असबाब व वसाइल (साधन-संसाधन) जुटाए जिनसे यह काम ले सके, वरना इसके जिस्म और ज़ेहन की सारी क़ुव्वतें बेकार साबित होतीं अगर पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने उनको इस्तेमाल करने के लिए ज़मीन पर यह सरो-सामान न जुटाया होता और ये इमकानात न पैदा कर दिए होते। इसके अलावा पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने इसको यह मौक़ा भी दे दिया कि अपने लिए भलाई या बुराई, शुक्र या नाशुक्री, फ़रमाँबरदारी या नाफ़रमानी की जो राह भी यह अपनाना चाहे अपना सके। उसने दोनों रास्ते इसके सामने खोलकर रख दिए और हर राह इसके लिए आसान कर दी कि जिसपर भी यह चलना चाहे चले।
ثُمَّ أَمَاتَهُۥ فَأَقۡبَرَهُۥ ۝ 20
(21) फिर इसे मौत दी और क़ब्र में पहुँचाया।14
14. यानी अपनी पैदाइश और अपनी तक़दीर के मामले ही में नहीं, बल्कि अपनी मौत के मामले में भी यह अपने ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) के आगे बिलकुल बेबस है। न अपने इख़्तियार से पैदा हो सकता है, न अपने इख़्तियार से मर सकता है, और न अपनी मौत को एक लम्हे के लिए भी टाल सकता है। जिस वक़्त, जहाँ, जिस हाल में भी इसकी मौत का फ़ैसला कर दिया गया है उसी वक़्त, उसी जगह और उसी हाल में यह मरकर रहता है, और जिस तरह की क़ब्र भी इसके लिए तय कर दी गई है उसी तरह की क़ब्र में चला जाता है, चाहे वह ज़मीन का पेट हो, या समुद्र की गहराइयाँ, आग का अलाव, या किसी दरिन्दे का पेट। इनसान ख़ुद तो एक तरफ़, सारी दुनिया मिलकर भी अगर चाहे तो किसी शख़्स के मामले में पैदा करनेवाले (ख़ुदा) के इस फ़ैसले को बदल नहीं सकती।
ثُمَّ إِذَا شَآءَ أَنشَرَهُۥ ۝ 21
(22) फिर जब चाहे वह इसे दोबारा उठा खड़ा कर दे।15
15. यानी इसकी यह मजाल भी नहीं है कि पैदा करनेवाला (ख़ुदा) जब इसे मौत के बाद दोबारा ज़िन्दा करके उठाना चाहे तो यह उठने से इनकार कर सके। पहले जब इसे पैदा किया गया था तो इससे पूछकर पैदा नहीं किया गया था। इससे राय नहीं ली गई थी कि तू पैदा होना चाहता है या नहीं। यह इनकार भी कर देता तो पैदा होकर रहता। इसी तरह अब दोबारा पैदाइश भी इसकी मर्ज़ी पर टिकी नहीं है कि यह मरकर उठना चाहे तो उठे और उठने से इनकार कर दे तो न उठे। पैदा करनेवाले (ख़ुदा) की मर्ज़ी के आगे इस मामले में भी यह बिलकुल बेबस है। जब भी वह चाहेगा इसे उठा खड़ा करेगा और इसको उठना होगा, चाहे यह राज़ी हो या न हो।
كَلَّا لَمَّا يَقۡضِ مَآ أَمَرَهُۥ ۝ 22
(23) हरगिज़ नहीं, इसने वह फ़र्ज़ अदा नहीं किया जिसका अल्लाह ने इसे हुक्म दिया था।16
16. हुक्म से मुराद वह हुक्म भी है जो अल्लाह तआला ने फ़ितरी हिदायत की शक्ल में हर इनसान के अन्दर रख दिया है, वह हुक्म भी जिसकी तरफ़ इनसान का अपना वुजूद और ज़मीन से लेकर आसमान तक कायनात का हर ज़र्रा और अल्लाह की क़ुदरत को ज़ाहिर करनेवाली हर निशानी इशारा कर रही है, और वह हुक्म भी जो हर ज़माने में अल्लाह तआला ने अपने नबियों और अपनी किताबों के ज़रिए से भेजा और हर दौर के नेक लोगों के ज़रिए से फैलाया है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-76 दह्‍र, हाशिया-5)। बयान के इस सिलसिले में यह बात इस मानी में कही गई है कि जो सच्चाइयाँ ऊपर की आयतों में बयान हुई हैं उनकी बुनियाद पर फ़र्ज़ तो यह था कि इनसान अपने पैदा करनेवाले की फ़रमाँबरदारी करता, मगर उसने उलटी नाफ़रमानी की राह अपनाई और मख़लूक़ (पैदा किए हुए बन्दे) होने का जो तक़ाज़ा था उसे पूरा न किया।
فَلۡيَنظُرِ ٱلۡإِنسَٰنُ إِلَىٰ طَعَامِهِۦٓ ۝ 23
(24) फिर ज़रा इनसान अपने खाने (भोजन) को देखे।17
17. यानी जिस खाने (ख़ूराक) को वह एक मामूली चीज़ समझता है, उसपर ज़रा ग़ौर तो करे कि यह आख़िर पैदा कैसे होता है। अगर ख़ुदा ने इसके सबब न जुटा दिए होते तो क्या इनसान के बस में यह था कि ज़मीन पर यह खाना (ग़िज़ा) वह ख़ुद पैदा कर लेता?
أَنَّا صَبَبۡنَا ٱلۡمَآءَ صَبّٗا ۝ 24
(25) हमने ख़ूब पानी लुंढाया18,
18. इससे मुराद बारिश है। सूरज की गर्मी से बेहद व बेहिसाब मिक़दार में समुद्रों से पानी भाप बनाकर उठाया जाता है, फिर उससे घनेरे बादल बनते हैं, फिर हवाएँ उनको लेकर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैलाती हैं, फिर ऊपरी दुनिया की ठण्डक से वे भापें नए सिरे से पानी की शक्ल अपना लेती और हर इलाक़े में एक ख़ास हिसाब से बरसती हैं, फिर वह पानी सीधे तौर से भी ज़मीन पर बरसता है, ज़मीन के नीचे कुओं और चश्मों (स्रोतों) की शक्ल भी अपनाता है, नदियों और नदी-नालों की शक्ल में भी बहता है, और पहाड़ों पर बर्फ़ की शक्ल में जमकर फिर पिघलता है और बारिश के मौसम के सिवा दूसरे मौसमों में भी नदियों के अन्दर बहता है। क्या ये सारे इन्तिज़ाम इनसान ने ख़ुद किए हैं? उसका पैदा करनेवाला (मालिक) उसको रोज़ी देने के लिए यह इन्तिज़ाम न करता तो क्या इनसान ज़मीन पर जी सकता था?
ثُمَّ شَقَقۡنَا ٱلۡأَرۡضَ شَقّٗا ۝ 25
(26) फिर ज़मीन को अजीब तरह फाड़ा19,
19. ज़मीन को फाड़ने से मुराद उसको इस तरह फाड़ना है कि जो बीज या गुठलियाँ या पेड़-पौधों की पनीरियाँ इनसान उसके अन्दर बोए, या जो हवाओं और परिन्दों के ज़रिए से, या किसी और तरीक़े से उसके अन्दर पहुँच जाएँ, वे कोंपलें निकाल सकें। इनसान इससे ज़्यादा कुछ नहीं कर सकता कि ज़मीन को खोदता है या उसमें हल चलाता है और जो बीज ख़ुदा ने पैदा कर दिए हैं, उन्हें ज़मीन के अन्दर उतार देता है। इसके सिवा सब कुछ ख़ुदा का काम है। उसी ने अनगिनत तरह के पेड़-पौधों के बीज पैदा किए हैं। उसी ने इन बीजों में यह ख़ासियत पैदा की है कि ज़मीन में पहुँचकर वे फूटें और हर बीज से उसी की जिंस (प्रजाति) के पेड़-पौधे उगें और उसी ने ज़मीन में यह सलाहियत पैदा की है कि पानी से मिलकर वह इन बीजों को खोले और हर क़िस्म के पेड़-पौधे के लिए उसके मुताबिक़ खाद पहुँचाकर उसे बढ़ाए। यह बीज इन ख़ासियतों के साथ, और ज़मीन की यह ऊपरी तहें इन सलाहियतों (क्षमताओं) के साथ अल्लाह ने पैदा न की होतीं तो क्या इनसान कोई खाने की चीज़ भी यहाँ पा सकता था?
فَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا حَبّٗا ۝ 26
(27) फिर उसके अन्दर उगाए अनाज
وَعِنَبٗا وَقَضۡبٗا ۝ 27
(28) और अंगूर और तरकारियाँ,
وَزَيۡتُونٗا وَنَخۡلٗا ۝ 28
(29) और जैतून और खजूरें,
وَحَدَآئِقَ غُلۡبٗا ۝ 29
(30) और घने बाग़,
وَفَٰكِهَةٗ وَأَبّٗا ۝ 30
(31) और तरह-तरह के फल और चारे,
مَّتَٰعٗا لَّكُمۡ وَلِأَنۡعَٰمِكُمۡ ۝ 31
(32) तुम्हारे लिए और तुम्हारे मवेशियों के लिए ज़िन्दगी के सामान के तौर पर।20
20. यानी तुम्हारे ही लिए नहीं, बल्कि उन जानवरों के लिए भी जिनसे तुमको गोश्त, चरबी, दूध, मक्खन वग़ैरा खाने-पीने का सामान हासिल होता है और जो तुम्हारी मईशत (रोज़गार और रोज़ी-रोटी) के लिए दूसरे बहुत-से काम भी अंजाम देते हैं। क्या यह सब कुछ इसी लिए है कि तुम इस सरो-सामान से फ़ायदा उठाओ और जिस ख़ुदा की रोज़ी पर पल रहे हो उसी की नाशुक्री करो?
فَإِذَا جَآءَتِ ٱلصَّآخَّةُ ۝ 32
(33) आख़िरकार जब वह कान बहरे कर देनेवाली आवाज़21 बुलन्द होगी
21. मुराद है आख़िरी सूर फूँके जाने की क़ियामत ढानेवाली आवाज़, जिसके बुलन्द होते ही तमाम मरे हुए इनसान जी उठेंगे।
يَوۡمَ يَفِرُّ ٱلۡمَرۡءُ مِنۡ أَخِيهِ ۝ 33
(34) उस दिन आदमी अपने भाई
وَأُمِّهِۦ وَأَبِيهِ ۝ 34
(35) और अपनी माँ और अपने बाप
وَصَٰحِبَتِهِۦ وَبَنِيهِ ۝ 35
(36) और अपनी बीवी और अपनी आलाद से भागेगा।22
22. इससे मिलती-जुलती बात सूरा-70 मआरिज, आयतें—10 से 14 में गुज़र चुकी है। भागने का मतलब यह भी हो सकता है कि वे अपने उन रिश्तेदारों को, जो दुनिया में उसे सबसे ज़्यादा प्यारे थे, मुसीबत में पड़ा देखकर बजाय इसके कि उनकी मदद को दौड़े, उल्टा उनसे भागेगा कि कहीं वे उसे मदद के लिए पुकार न बैठें। और यह मतलब भी हो सकता है कि दुनिया में ख़ुदा से निडर और आख़िरत से ग़ाफ़िल होकर जिस तरह ये सब एक-दूसरे की ख़ातिर गुनाह और एक-दूसरे को गुमराह करते रहे, उसके बुरे नतीजे सामने आते देखकर उनमें से हर एक दूसरे से भागेगा कि कहीं वे अपनी गुमराहियों और गुनाहगारियों की ज़िम्मेदारी उसपर न डालने लगे। भाई को भाई से, औलाद को माँ-बाप से, शौहर को बीवी से और माँ-बाप को औलाद से ख़तरा होगा कि ये कमबख़्त अब हमारे ख़िलाफ़ मुक़द्दमे के गवाह बननेवाले हैं।
لِكُلِّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُمۡ يَوۡمَئِذٖ شَأۡنٞ يُغۡنِيهِ ۝ 36
(37) इनमें से हर शख़्स पर उस दिन ऐसा वक़्त आ पड़ेगा कि उसे अपने सिवा किसी का होश न होगा।23
23. हदीसों में अलग-अलग तरीक़ों और सनदों से यह रिवायत आई है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क़ियामत के दिन सब लोग नंगे-बुच्चे उठेंगे।” आप (सल्ल०) की पाक बीवियों में से किसी ने (कुछ रिवायतों के मुताबिक़ हज़रत आइशा (रज़ि०) ने और कुछ रिवायतों के मुताबिक़ हज़रत सौदा (रज़ि०) ने और कुछ रिवायतों के मुताबिक़ एक औरत ने) घबराकर पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल, क्या हमारे जिस्म के छिपे हिस्से उस दिन सबके सामने खुले होंगे?” आप (सल्ल०) ने यही आयत तिलावत करके बताया कि “उस दिन किसी को किसी की तरफ़ देखने का होश न होगा।” (हदीस : नसई, तिरमिज़ी, इब्ने-अबी-हातिम, इब्ने-जरीर, तबरानी, इब्ने-मरदुवैह, बैहक़ी और हाकिम)।
وُجُوهٞ يَوۡمَئِذٖ مُّسۡفِرَةٞ ۝ 37
(38) कुछ चेहरे उस दिन दमक रहे होंगे,
ضَاحِكَةٞ مُّسۡتَبۡشِرَةٞ ۝ 38
(39) खिले हुए और ख़ुश होंगे।
وَوُجُوهٞ يَوۡمَئِذٍ عَلَيۡهَا غَبَرَةٞ ۝ 39
(40) और कुछ चेहरों पर उस दिन धूल उड़ रही होगी,
تَرۡهَقُهَا قَتَرَةٌ ۝ 40
(41) और क्लौस छाई हुई होगी,
أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡكَفَرَةُ ٱلۡفَجَرَةُ ۝ 41
(42) यही इनकार करनेवाले और बुरे काम करनेवाले लोग होंगे।