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سُورَةُ السَّجۡدَةِ

32. अस-सजदा

(मक्का में उतरी, आयतें 30)

 

परिचय

नाम

आयत 15 में सजदे का जो उल्लेख हुआ है, उसी को सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णनशैली से ऐसा लगता है कि इसके उतरने का समय मक्का का मध्यकाल है और उसका भी आरंभिक काल [जब मक्का के इस्लाम-विरोधियों के अत्याचारों में अभी शिद्दत पैदा नहीं हुई थी] ।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय तौहीद (एकेश्वरवाद), आख़िरत (परलोकवाद) और रिसालत (ईशदूतत्व) के बारे में लोगों के सन्देहों को दूर करना और इन तीनों सच्चाइयों पर ईमान लाने की दावत देना है। [सत्य की दावत की इन तीनों बुनियादी बातों पर मक्का के इस्लाम-विरोधियों की आपत्तियों का जवाब देते हुए सबसे पहले उनसे] यह कहा गया है कि निस्सन्देह यह अल्लाह की वाणी है और इसलिए उतारी गई है कि नुबूवत की बरकत से वंचित, ग़फ़लत में पड़ी हुई एक क़ौम को चौंकाया जाए। इसे तुम झूठ कैसे कह सकते हो, जबकि इसका अल्लाह की ओर से उतारा जाना पूरी तरह स्पष्ट है। फिर उनसे कहा गया है कि यह कुरआन जिन सच्चाइयों को तुम्हारे सामने पेश करता है, बुद्धि से काम लेकर ख़ुद सोचो कि इनमें क्या चीज़ अचंभे की है। आसमान और ज़मीन के प्रबन्ध को देखो, स्वयं अपनी पैदाइश और बनावट पर विचार करो, क्या यह सब कुछ क़ुरआनी शिक्षाओं के सच्चे होने पर गवाह नहीं है। फिर आख़िरत की दुनिया का एक चित्र खींचा गया है और ईमान के सुख़द फल और कुफ़्र (इनकार) के कुपरिणामों को बयान करके इस बात पर उभारा गया है कि लोग बुरा अंजाम सामने आने से पहले कुफ़्र छोड़ दें और क़ुरआन की इस शिक्षा को स्वीकार कर लें। फिर उनको बताया गया है कि यह अल्लाह की बड़ी रहमत है कि वह इंसान के कु़सूरों पर यकायक अन्तिम और निर्णायक अज़ाब में उसे नहीं पकड़ लेता, बल्कि उससे पहले हल्की-हल्की चोटें लगाता रहता है, ताकि उसे चेतावनी हो और उसकी आँखें खुल जाएँ। फिर कहा कि दुनिया में किताब उतरने की यह कोई पहली और अनोखी घटना तो नहीं है, इससे पहले आख़िर मूसा (अलैहिस्सलाम) पर भी तो किताब आई थी जिसे तुम सब लोग जानते हो। विश्वास करो कि यह किताब अल्लाह ही की ओर से आई है और खू़ब समझ लो कि अब फिर वही कुछ होगा जो मूसा के समय में हो चुका है। पेशवाई और नेतृत्त्व अब उन्हीं के हिस्से में आएगा जो अल्लाह की इस किताब को मान लेंगे। इसे रद्द कर देनेवाले के लिए नाकामी मुक़द्दर हो चुकी है। फिर मक्का के इस्लाम विरोधियों से कहा गया है कि अपनी व्यापारिक यात्राओं के दौरान में तुम जिन पिछली तबाह हुई क़ौमों की बस्तियों पर से गुजरते हो, उनका अंजाम देख लो। क्या यही अंजाम तुम अपने लिए पसन्द करते हो? प्रत्यक्ष से धोखा न खा जाओ।आज [ईमानवाले जिन हालात से दोचार हैं, उन्हें देखकर] तुम यह समझ बैठे हो कि यह चलनेवाली बात नहीं है, लेकिन यह केवल तुम्हारी निगाह का धोखा है। क्या तुम रात-दिन यह देखते नहीं रहते कि आज एक भू-भाग बिल्कुल सूखा मुर्दा पड़ा हुआ है, मगर कल एक ही बारिश में वह भू-भाग इस तरह फबक उठता है कि उसके चप्पे-चप्पे से विकास की शक्तियाँ उभरनी शुरू हो जाती हैं। अन्त में नबी (सल्ल.) को सम्बोधित करके कहा गया है कि ये लोग [तुम्हारे मुँह से फै़सले के दिन की बात] सुनकर उसका मज़ाक़ उड़ाते हैं । इनसे कहो कि जब हमारे और तुम्हारे फ़ैसले का समय आ जाएगा, उस समय मानना तुम्हारे लिए कुछ भी लाभप्रद न होगा। मानना है तो अभी मान लो।

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سُورَةُ السَّجۡدَةِ
32. अस-सजदा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ لَا رَيۡبَ فِيهِ مِن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 1
(2) इस किताब का उतरना बिला शुब्हा तमाम जहानों के रब की तरफ़ से है।1
1. क़ुरआन मजीद की कई सूरतें इस तरह के किसी-न-किसी परिचय करानेवाले जुमले से शुरू होती हैं, जिसका मक़सद बात के शुरू ही में यह बताना होता है कि यह कलाम कहाँ से आ रहा है। यह बज़ाहिर उसी तरह का एक शुरुआती जुमला है, जैसे रेडियो पर एलान करनेवाला प्रोग्राम के शुरू में कहता है कि हम फ़ुलाँ स्टेशन से बोल रहे हैं। लेकिन रेडियो के उस मामूली से एलान के बरख़िलाफ़ क़ुरआन मजीद की किसी सूरत की शुरुआत जब इस ग़ैर-मामूली एलान से होती है कि यह पैग़ाम कायनात के बादशाह की तरफ़ से आ रहा है तो यह सिर्फ़ बात कहाँ से आ रही है यह बताना ही नहीं होता, बल्कि इसके साथ इसमें एक बहुत बड़ा दावा, एक बड़ा चैलेंज और एक सख़्त चेतावनी भी शामिल होती है। इसलिए कि वह छूटते ही इतनी बड़ी ख़बर देता है कि यह इनसानी कलाम नहीं है, तमाम जहानों के ख़ुदा का कलाम है। यह एलान फ़ौरन ही यह भारी सवाल आदमी के सामने ला खड़ा करता है कि इस दावे को मानूँ या न मानूँ। मानता हूँ तो हमेशा-हमेशा के लिए उसके आगे फ़रमाँबरदारी में सर झुका देना होगा, फिर मेरे लिए इसके मुक़ाबले में कोई आज़ादी बाक़ी नहीं रह सकती। नहीं मानता हूँ तो लाज़िमी तौर पर यह बड़ा ख़तरा मोल लेता हूँ कि अगर सचमुच यह सारी कायनात के ख़ुदा का कलाम है तो इसे रद्द करने का नतीजा मुझको हमेशा की बदनसीबी और बदबख़्ती की सूरत में देखना पड़ेगा। इस बुनियाद पर यह शुरुआती जुमला अकेले अपनी इस ग़ैर-मामूली हैसियत की वजह से आदमी को मजबूर कर देता है कि चौकन्ना होकर इन्तिहाई संजीदगी के साथ इस कलाम को सुने और यह फ़ैसला करे कि इसको अल्लाह का कलाम होने की हैसियत से मानना है या नहीं। यहाँ सिर्फ़ इतनी बात कहने पर बस नहीं किया गया है कि यह किताब तमाम जहानों के रब की तरफ़ से आई है, बल्कि इसके अलावा पूरे ज़ोर के साथ यह भी कहा गया है कि ‘ला रै-ब फ़ीह' यानी 'बेशक यह ख़ुदा की किताब है, यह अल्लाह के पास से आई है, इस बात में किसी शक की कोई गुंजाइश नहीं है’। ज़ोर देकर कही गई इस बात को अगर क़ुरआन के उतरने के वाक़िआती पसमंज़र (घटनाक्रमानुसार पृष्ठभूमि) और ख़ुद क़ुरआन के अपने सियाक़ (सन्दर्भ) में देखा जाए तो महसूस होता है कि उसके अन्दर दावे के साथ दलील भी छिपी है, और यह दलील मक्का के उन निवासियों से छिपी न थी जिनके सामने यह दावा किया जा रहा था। इस किताब के पेश करनेवाले को पूरी ज़िन्दगी उनके सामने थी, किताब पेश करने से पहले की भी और उसके बाद की भी। वे जानते थे कि जो आदमी इस दावे के साथ यह किताब पेश कर रहा है, वह हमारी क़ौम का सबसे ज़्यादा सच्चा, संजीदा और पाक-साफ़ किरदार का इनसान है। वे यह भी जानते थे कि पैग़म्बरी के दावे से एक दिन पहले तक भी किसी ने उससे वे बातें कभी न सुनी थीं जो पैग़म्बरी के दावे के बाद अचानक उसने बयान करनी शुरू कर दीं। वे इस किताब की ज़बान और अन्दाज़े-बयान में और ख़ुद मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान और अन्दाज़े-बयान में नुमायाँ फ़र्क़ पाते थे और इस बात को अच्छी तरह जानते थे कि एक ही आदमी के दो स्टाइल इतने साफ़ फ़र्क़ के साथ नहीं हो सकते। वे इस किताब के इन्तिहाई मोजिज़ाना अदब (चामत्कारिक साहित्य) को भी देख रहे थे और अरबी ज़बान के माहिर होने की हैसियत से ख़ुद जानते थे कि उनके सारे अदीब (साहित्यकार) और शाइर इसकी मिसाल पेश नहीं कर सकते। वे इससे भी अनजान न थे कि उनकी क़ौम के शाइरों, काहिनों और तक़रीर करनेवालों के कलाम (वाणी) में और इस कलाम में कितना बड़ा फ़र्क़ है, और जो पाकीज़ा बातें इस कलाम में बयान की जा रही हैं, वे कितने ऊँचे दरजे की हैं। उन्हें इस किताब में और इसके पेश करनेवाले की दावत में कहीं दूर-दूर भी उस ख़ुदग़रजी का हल्का-सा असर तक नज़र नहीं आता था जिससे किसी झूठे दावेदार का काम और कलाम कभी ख़ाली नहीं हो सकता। वे ख़ुर्दबीन (सूक्ष्मदर्शी यंत्र) लगाकर भी इस बात की निशानदेही नहीं कर सकते थे कि पैग़म्बरी का यह दावा करके मुहम्मद (सल्ल०) अपने लिए या अपने ख़ानदान के लिए या अपनी क़ौम और क़बीले के लिए क्या हासिल करना चाहते हैं और इस काम में उनकी अपनी क्या ग़रज़ छिपी है। फिर वे यह भी देख रहे थे कि इस दावत की तरफ़ उनकी क़ौम के कैसे लोग खिंच रहे हैं और इससे जुड़कर उनकी ज़िन्दगियों में कितना बड़ा इंक़िलाब आ रहा है। ये सारी बातें मिल-जुलकर ख़ुद दावे की दलील बनी हुई थीं, इसी लिए इस पसमंज़र में यह कहना बिलकुल काफ़ी था कि इस किताब का तमाम जहानों के रब की तरफ़ से उतरना हर शक-शुब्हे से परे है। इसपर किसी दलील के इज़ाफ़े की कोई ज़रूरत न थी।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۚ بَلۡ هُوَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أَتَىٰهُم مِّن نَّذِيرٖ مِّن قَبۡلِكَ لَعَلَّهُمۡ يَهۡتَدُونَ ۝ 2
(3) क्या2 ये लोग कहते हैं कि इस शख़्स ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है।3 नहीं, बल्कि यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से4 ताकि तू ख़बरदार करे एक ऐसी क़ौम को जिसके पास तुझसे पहले कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया, शायद के वे सीधा रास्ता पा जाएँ।5
2. ऊपर के शुरुआती जुमले के बाद मक्का के मशरिक लोगों के पहले एतिराज़ को लिया जा रहा है जो वे मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) पर करते थे।
3. यह सिर्फ़ सवाल नहीं है, बल्कि इसमें सख़्त ताज्जुब का अन्दाज़ पाया जाता है। मतलब यह है। कि उन सारी बातों के बावजूद, जिनकी बुनियाद पर यह बात हर शक व शुब्हे से परे है कि यह किताब ख़ुदा की तरफ़ से उतरी है, क्या ये लोग ऐसी खुली हठधर्मी की बात कह रहे हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) ने इसे ख़ुद गढ़कर झूठ-मठ अल्लाह, सारे जहान के रब, से जोड़ दिया है। इतना बेहूदा और बेसिर पैर का इलज़ाम (आरोप) रखते हुए कोई शर्म इनको नहीं आती? इन्हें कुछ महसूस नहीं होता कि जो लोग मुहम्मद (सल्ल०) को और उनके काम और कलाम को जानते हैं और इस किताब को भी समझते हैं, वे इस बेहूदा इलज़ाम को सुनकर क्या राय क़ायम करेंगे?
4. जिस तरह पहली आयत में 'ला रै-ब फ़ीह' कहना काफ़ी समझा गया था और इससे बढ़कर कोई दलील क़ुरआन के अल्लाह के कलाम होने के हक़ में पेश करने की ज़रूरत न समझी गई थी, उसी तरह अब इस आयत में भी मक्का के ग़ैर मुस्लिमों के इस क़ुरआन को गढ़ने के इलज़ाम (आरोप) पर कि मुहम्मद (सल्ल०) क़ुरआन को ख़ुद गढ़कर पेश कर रहे हैं, सिर्फ़ इतनी बात कहने पर बस किया जा रहा है कि “यह हक़ है तेरे रब की तरफ़ से।” इसकी वजह वही है जो ऊपर हाशिया-1 में हम बयान कर चुके हैं। कौन, किस माहौल में, किस शान के साथ यह किताब पेश कर रहा था, यह सब कुछ सुननेवालों के सामने मौजूद था और यह किताब भी अपनी ज़बान और अपने अदब (साहित्य) और मज़ामीन (विषयों) के साथ सबके सामने थी। और इसके असरात और नतीजे भी मक्का की उस सोसाइटी में सब अपनी आँखों से देख रहे थे। इस सूरतेहाल में इस किताब का तमाम जहानों के रब की तरफ़ से आया हुआ हक़ होना ऐसी खुली हक़ीक़त थी जिसे सिर्फ़ फ़ैसलाकुन अन्दाज़ से बयान कर देना ही इस्लाम मुख़ालिफ़ों के इलज़ाम को रद्द कर देने के लिए काफ़ी था। इसपर किसी दलील देने की कोशिश बात को मज़बूत करने के बजाय उलटे उसे कमज़ोर करने का सबब होती। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे दिन के वक़्त सूरज चमक रहा हो और कोई ढीठ आदमी कहे कि यह अंधेरी रात है। इसके जवाब में सिर्फ़ यही कहना काफ़ी है कि तुम इसे रात कहते हो? यह चमकता दिन तो सामने मौजूद है। इसके बाद दिन के मौजूद होने पर अगर आप दलीलें क़ायम करेंगे तो अपने जवाब के ज़ोर में कोई इज़ाफ़ा न करेंगे, बल्कि हक़ीक़त में उसके ज़ोर को कुछ कम ही कर देंगे।
5. यानी जिस तरह इसका हक़ होना और अल्लाह की तरफ़ से होना पक्की और यक़ीनी बात है, उसी तरह इसका हिकमत के मुताबिक़ होना और ख़ुद तुम लोगों के लिए ख़ुदा की एक रहमत होना भी ज़ाहिर है। तुम ख़ुद जानते हो कि सैकड़ों सालों से तुम्हारे अन्दर कोई पैग़म्बर नहीं आया है। तुम ख़ुद जानते हो कि तुम्हारी सारी क़ौम जहालत और अख़लाक़ी गिरावट और बहुत पिछड़ेपन में मुब्तला है। इस हालत में अगर तुम्हें जगाने और सीधा रास्ता दिखाने के लिए एक पैग़म्बर तुम्हारे बीच भेजा गया है तो इसपर हैरान क्यों होते हो। यह तो एक बड़ी ज़रूरत है जिसे अल्लाह तआला ने पूरा किया है और तुम्हारी अपनी भलाई के लिए किया है। यह बात सामने रहे कि अरब में सच्चे दीन (इस्लाम) की रौशनी सबसे पहले हज़रत हूद (अलैहि०) और हज़रत सॉलेह (अलैहि०) के ज़रिए से पहुँची थी जो इतिहास से पहले के ज़माने में गुज़रे हैं। फिर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) आए जिनका ज़माना नबी (सल्ल०) से ढाई हज़ार साल पहले गुज़रा है। उसके बाद आख़िरी पैग़म्बर जो अरब की सरज़मीन में नबी (सल्ल०) से पहले भेजे गए, वे हज़रत शुऐब (अलैहि०) थे और उनको आए हुए भी लगभग दो हज़ार साल बीत चुके थे। यह इतनी लम्बी मुद्दत है कि इसके लिहाज़ से यह कहना बिलकुल सही था कि उस क़ौम के अन्दर कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया। इस कहने का मतलब यह नहीं है कि उस क़ौम में कभी कोई ख़बरदार करनेवाला न आया था, बल्कि इसका मतलब यह है कि एक लम्बी मुद्दत से यह क़ौम एक ख़बरदार करनेवाले की मुहताज चली आ रही है। यहाँ एक और सवाल सामने आ जाता है जिसको साफ़ कर देना ज़रूरी है। इस आयत को पढ़ते हुए आदमी के ज़ेहन में यह खटक पैदा होती है कि जब नबी (सल्ल०) से पहले सैकड़ों साल तक अरबों में कोई नबी नहीं आया तो उस जाहिलियत के दौर में गुज़रे हुए लोगों से आख़िर क़ियामत के दिन पूछ-गछ किस बुनियाद पर होगी? उन्हें मालूम ही कब था कि हिदायत क्या है और गुमराही क्या? फिर अगर वे गुमराह थे तो अपनी इस गुमराही के ज़िम्मेदार वे कैसे ठहराए जा सकते हैं? इसका जवाब यह है कि दीन (धर्म) की तफ़सीली जानकारी चाहे उस जाहिलियत के ज़माने में लोगों के पास न रही हो, मगर यह बात उस ज़माने में भी लोगों से छिपी न थी कि अस्ल दीन तौहीद (एकेश्वरवाद) है और पैग़म्बरों (अलैहि०) ने कभी बुत-परस्ती नहीं सिखाई है। यह हक़ीक़त उन रिवायतों में भी महफ़ूज़ थी जो अरब के लोगों को अपनी सरज़मीन के पैग़म्बरों से पहुँची थीं और उसे क़रीब की सरज़मीन में आए हुए पैग़म्बरों, हज़रत मूसा (अलैहि०), हज़रत दाऊद (अलैहि०), हज़रत सुलैमान (अलैहि०) और हज़रत ईसा (अलैहि०) की तालीमात के ज़रिए से भी वे जानते थे। अरब की रिवायतों में यह बात भी मशहूर और जानी-पहचानी थी कि पुराने ज़माने में अरबवालों का अस्ल दीन, इबराहीम (अलैहि०) का दीन था और बुत-परस्ती उनके यहाँ अम्र-बिन-लुहई नाम के एक आदमी ने शुरू की थी। शिर्क और बुत-परस्ती के आम रिवाज के बावजूद अरब के अलग-अलग हिस्सों में जगह-जगह ऐसे लोग मौजूद थे जो शिर्क से इनकार करते थे, तौहीद का एलान करते थे और बुतों पर क़ुरबानियाँ करने को खुल्लम-खुल्ला बुरा और ग़लत कहते थे। ख़ुद नबी (सल्ल०) के दौर से बिलकुल क़रीब ज़माने में कुस्स-बिन-साइदतुल-इयादी, उमैया-बिन-अबी-सल्त, सुवेद-बिन-अमरुल-मुस्तलक़ी, वकी-बिन-सुलमा-बिन- ज़ुहैरुल-इयादी, अम्र-बिन-जुन्दुब-अल-जुहनी, अबू-क़ैस-सरमा-बिन-अबी-अनस, ज़ैद-बिन-अम्र-बिन-नुफ़ैल, वरक़ा-बिन-नौफ़ल, उसमान-बिन-हुवैरिस, उबैदुल्लाह-बिन-जहश, आमिर-बिन-ज़रब अदवानी, अल्लाफ़-बिन-शिहाब तमीमी, अल-मुतलम्मिस-बिन-उमैया-अल-किनानी, ज़ुहैर-बिन-अबी-सुलमा, ख़ालिद-बिन-सिनान-बिन-ग़ैस अबसी, अब्दुल्लाह अल-क़ुज़ाई और ऐसे ही बहुत-से लोगों के हालात हमें इतिहासों में मिलते हैं जिन्हें 'हुनफ़ा' के नाम से याद किया जाता है। ये सब लोग खुल्लम-खुल्ला तौहीद को अस्ल दीन कहते थे और अरब के मुशरिकों के मज़हब से ख़ुद के अलग होने का साफ़-साफ़ इज़हार करते थे। ज़ाहिर है कि इन लोगों के ज़ेहन में यह ख़याल पैग़म्बरों (अलैहि०) की पिछली तालीमात के बचे हुए असरात ही से आया था। इसके अलावा यमन में चौथी-पाँचवीं सदी ईसवी के जो कतबे (शिलालेख) आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) की नई खोजों के सिलसिले में निकले हैं, उनसे पता चलता है कि उस दौर में वहाँ एक तौहीदी दीन (एकेश्वरीय धर्म) मौजूद था जिसकी पैरवी करनेवाले 'अर-रहमान’ (दयावान ख़ुदा) और आसमानों और ज़मीन के रब ही को अकेला माबूद मानते थे। 378 ई० का एक कतबा एक इबादतगाह के खण्डहर से मिला है, जिसमें लिखा गया है कि यह इबादगाह आसमान के इलाह या आसमान के रब की इबादत के लिए बनाई गई है। 465 ई० के एक कतबे में भी ऐसे अलफ़ाज़ लिखे हैं जो तौहीद के अक़ीदे की दलील देते हैं। इसी दौर का एक और कतबा एक क़ब्र पर मिला है, जिसमें 'अर-रहमान' से मदद माँगने की बात लिखी हुई है। इसी तरह उत्तरी अरब में फ़ुरात और किन्नसरीन के बीच 'ज़बद' के मक़ाम पर 512 ई० का एक कतबा मिला है जिसमें 'बिसमिल इलाह, ला इज़-ज़ इल्ला लहू, ला शुक-र इल्ला लहू' (अल-इलाह के नाम से, उसके सिवा किसी के लिए इज़्जत नहीं, उसके सिवा किसी के लिए शुक्र नहीं) के अलफ़ाज़ पाए जाते हैं। ये सारी बातें बताती हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) को नबी बनाए जाने से पहले पिछले पैग़म्बरों की तालीमात की निशानियाँ अरब से बिलकुल मिट नहीं गई थीं और कम-से-कम इतनी बात याद दिलाने के लिए बहुत-से ज़रिए मौजूद थे कि “तुम्हारा ख़ुदा एक ही ख़ुदा है।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-84)
ٱللَّهُ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ مَا لَكُم مِّن دُونِهِۦ مِن وَلِيّٖ وَلَا شَفِيعٍۚ أَفَلَا تَتَذَكَّرُونَ ۝ 3
(4) वह6 अल्लाह ही है जिसने आसमानों और ज़मीन को और उन सारी चीज़ों को जो उनके बीच हैं छः दिनों में पैदा किया और इसके बाद अर्श (राजसिंहासन) पर जलवा-फ़रमा (विराजमान) हुआ,7 उसके सिवा न तुम्हारा कोई हिमायती और मददगार है और न कोई उसके आगे सिफ़ारिश करनेवाला, फिर क्या तुम होश में न आओगे?8
6. अब मुशरिकों के दूसरे एतिराज़ को लिया जाता है जो वे नबी (सल्ल०) की तौहीद की दावत पर करते थे। उनको इस बात पर सख़्त एतिराज़ था कि नबी (सल्ल०) उनके देवताओं और बुज़ुर्गों के माबूद होने का इनकार करते हैं और हाँके-पुकारे यह दावत देते हैं कि एक अल्लाह के सिवा कोई माबूद, कोई कारसाज़, कोई ज़रूरत पूरी करनेवाला, कोई दुआएँ सुननेवाला और बिगड़ी बनानेवाला, और कोई पूरा इख़्तियार रखनेवाला हाकिम नहीं है।
7. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-51; सूरा-10 यूनुस, आयत-3; सूरा-13 रअद, आयत-2।
8. यानी तुम्हारा अस्ल ख़ुदा तो ज़मीन और आसमान का पैदा करनेवाला है। तुम किस ग़लतफ़हमी में पड़े हो कि कायनात की इस अज़ीमुश्शान सल्तनत में उसके सिवा दूसरों को कारसाज़ समझ बैठे हो। इस पूरी कायनात (जगत्) का और इसकी हर चीज़ का पैदा करनेवाला अल्लाह तआला है। उसकी हस्ती के सिवा हर दूसरी चीज़ जो यहाँ पाई जाती है, पैदा की हुई है। और अल्लाह इस दुनिया को बना देने के बाद कहीं जाकर सो भी नहीं गया है, बल्कि अपनी इस सल्तनत का हाकिम और बादशाह भी वह आप ही है। फिर तुम्हारी अक़्ल आख़िर कहाँ चरने चली गई है कि तुम पैदा की हुई चीज़ों में से कुछ हस्तियों को अपनी क़िस्मतों का मालिक ठहरा रहे हो? अगर अल्लाह तुम्हारी मदद न करे तो इनमें से किसकी यह ताक़त है कि तुम्हारी मदद कर सके? अगर अल्लाह तुम्हें पकड़े तो इनमें से किसका यह ज़ोर है कि तुम्हें छुड़ा सके? अगर अल्लाह सिफ़ारिश न सुने तो इनमें से कौन यह बल-बूता रखता है कि उससे अपनी सिफ़ारिश मनवा ले?
يُدَبِّرُ ٱلۡأَمۡرَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ثُمَّ يَعۡرُجُ إِلَيۡهِ فِي يَوۡمٖ كَانَ مِقۡدَارُهُۥٓ أَلۡفَ سَنَةٖ مِّمَّا تَعُدُّونَ ۝ 4
(5) वह आसमान से ज़मीन तक दुनिया के मामलों का इन्तिज़ाम करता है और इस इन्तिज़ाम की रूदाद ऊपर उसके सामने जाती है एक ऐसे दिन में जिसकी मिक़दार (माप) तुम्हारी गिनती से एक हज़ार साल है।9
9. यानी तुम्हारे नज़दीक जो एक हज़ार साल का इतिहास है यह अल्लाह तआला के यहाँ मानो एक दिन का काम है जिसकी स्कीम आज फ़ैसलों को लागू करनेवाले कारिन्दों (फ़रिश्तों) के सामने पेश की जाती है सिपुर्द की जाती है और कल ये उसकी रूदाद उसके सामने पेश करते हैं, ताकि दूसरे दिन (यानी तुम्हारे हिसाब से हज़ार साल) का काम उनके सिपुर्द किया जाए। क़ुरआन मजीद में यह बात दो जगहों पर और भी आई है, जिन्हें निगाह में रखने से इसका मतलब अच्छी तरह समझ में आ सकता है। अरब के ग़ैर-मुस्लिम कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) को नुबूवत (पैग़म्बरी) का दावा लेकर सामने आए कई साल बीत चुके हैं। वे बार-बार हमसे कहते हैं कि अगर मेरी इस दावत (पैग़ाम) को तुम लोग क़ुबूल न करोगे और मुझे झुठला दोगे तो तुमपर ख़ुदा का अज़ाब आ जाएगा। मगर कई सालों से वे अपनी यह बात दोहराए जा रहे हैं और आज तक अज़ाब न आया, हालाँकि हम एक बार नहीं हज़ारों बार उन्हें साफ़-साफ़ झुठला चुके हैं। उनकी ये धमकियाँ सचमुच सच्ची होतीं तो हमपर न जाने कभी का अज़ाब आ चुका होता। इसपर अल्लाह तआला क़ुरआन की सूरा-22 हज में फ़रमाता है— “ये लोग अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं। अल्लाह हरगिज़ अपने वादे के ख़िलाफ़ नहीं करेगा। मगर तेरे रब के यहाँ का एक दिन तुम लोगों की गिनती के हज़ार साल जैसा हुआ करता है।” (आयत-47)। दूसरी जगह इसी बात का जवाब दिया गया है— “माँगनेवाले ने अज़ाब माँगा है (वह अज़ाब जो ज़रूर आनेवाला है), इनकार करनेवालों के लिए है, कोई उसे टालनेवाला नहीं है, उस अल्लाह की तरफ़ से है जो तरक़्क़ी के ज़ीनों का मालिक है। फ़रिश्ते और रूह उसके पास चढ़कर जाते हैं, एक ऐसे दिन में जो पचास हज़ार साल के बराबर है। तो ऐ नबी! सब्र करो, अच्छा सब्र। ये लोग उसे दूर समझाते है और हम उसे क़रीब देख रहे हैं।” (सूरा-70 मआरिज, आयतें—1 से)। इन सारी बातों से जो बात ज़ेहन में बिठाई गई है, वह यह है कि इनसानी तारीख़ (मानव-इतिहास) में ख़ुदा के फ़ैसले दुनिया की घड़ियों और जंतरियों के हिसाब से नहीं होते। किसी क़ौम से अगर यह कहा जाए कि तुम फ़ुलाँ रवैया अपनाओगे तो उसका अंजाम तुम्हें यह कुछ देखना होगा, तो वह क़ौम बहुत ही बेवक़ूफ़ होगी, अगर इसका यह मतलब समझे कि आज वह रवैया अपनाए और कल उसके बुरे नतीजे सामने आ जाएँ। नतीजे सामने आने के लिए दिन, महीने और साल तो क्या चीज़ हैं, सदियाँ भी कोई बड़ी मुद्दत नहीं हैं।
ذَٰلِكَ عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ وَٱلشَّهَٰدَةِ ٱلۡعَزِيزُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 5
(6) वही है हर छिपे और खुले का जाननेवाला,10 ज़बरदस्त11 और रहमकरनेवाला।12
10. यानी दूसरे जो भी हैं उनके लिए एक चीज़ ज़ाहिर है तो अनगिनत चीज़ें उनसे छिपी हैं। फ़रिश्ते हों या जिन्न, या नबी और वली और नेक इनसान, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं है जो सब कुछ जाननेवाला हो। यह सिफ़त सिर्फ़ अल्लाह तआला की है कि उसपर हर चीज़ ज़ाहिर है। जो कुछ बीत चुका है, जो कुछ मौजूद है और जो कुछ आनेवाला है, सब उसपर रौशन है।
11. यानी हर चीज़ पर ग़ालिब (प्रभावी)। कायनात में कोई ताक़त ऐसी नहीं है जो उसके इरादे में रुकावट बन सके और उसके हुक्म को लागू होने से रोक सके। हर चीज़ उसके मातहत है और किसी में उसके मुक़ाबले का बल-बूता नहीं है।
12. यानी इस ग़लबे (प्रभाव) और ज़बरदस्त ताक़त के बावजूद वह ज़ालिम नहीं है, बल्कि अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) पर रहम करनेवाला और मेहरबानी करनेवाला है।
ٱلَّذِيٓ أَحۡسَنَ كُلَّ شَيۡءٍ خَلَقَهُۥۖ وَبَدَأَ خَلۡقَ ٱلۡإِنسَٰنِ مِن طِينٖ ۝ 6
(7) जो चीज़ भी उसने बनाई ख़ूब13 ही बनाई। उसने इनसान की पैदाइश की इब्तिदा गारे से की,
13. यानी इस अज़ीमुश्शान कायनात में उसने बेहद और बेहिसाब चीज़ें बनाई हैं, मगर कोई एक चीज़ भी ऐसी नहीं है जो बेढंगी और बेतुकी हो। हर चीज़ अपनी एक अलग ख़ूबसूरती रखती है। हर चीज़ अपनी जगह बिलकुल मुनासिब और सही है। जो चीज़ जिस काम के लिए भी उसने बनाई है, उसके लिए सबसे मुनासिब शक्ल पर, सबसे मुनासिब सिफ़ात के साथ बनाई है। देखने के लिए आँख और सुनने के लिए कान की बनावट से ज़्यादा मुनासिब किसी बनावट के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता। हवा और पानी जिन मक़सदों के लिए बनाए गए हैं, उनके लिए हवा ठीक वैसी ही है जैसी होनी चाहिए, और पानी वही सिफ़तें रखता है जैसी होनी चाहिएँ। तुम ख़ुदा की बनाई हुई किसी चीज़ के नक़्शे में किसी कमी की निशानदेही नहीं कर सकते, न उसमें कोई बदलाव पेश कर सकते हो।
ثُمَّ جَعَلَ نَسۡلَهُۥ مِن سُلَٰلَةٖ مِّن مَّآءٖ مَّهِينٖ ۝ 7
(8) फिर उसकी नस्ल एक ऐसे सत् से चलाई जो हक़ीर (तुच्छ) पानी की तरह का है,14
14. यानी पहले उसने सीधे तौर पर अपनी पैदा करने की क़ुव्वत (Direct creation) से इनसान को पैदा किया और उसके बाद ख़ुद उसी इनसान के अन्दर नस्ल चलाने की यह ताक़त रख दी कि उसके नुत्फ़े (वीर्य) से वैसे ही इनसान पैदा होते चले जाएँ। एक कमाल यह था कि ज़मीन के माद्दों को इकट्ठा करके पैदा करने के एक हुक्म से उसमें वह ज़िन्दगी और वह अक़्ल और समझ पैदा कर दी जिससे इनसान जैसा एक हैरतअंगेज़ जानदार वुजूद में आ गया। और दूसरा कमाल यह है कि आगे और ज़्यादा इनसानों की पैदाइश के लिए एक ऐसी अजीब मशीनरी ख़ुद इनसानी बनावट (मानव-संरचना) के अन्दर रख दी जिसकी बनावट और कारगुज़ारी को देखकर अक़्ल हैरान रह जाती है। यह आयत क़ुरआन मजीद की उन आयतों में से है जिसमें साफ़ तौर से पहले इनसान की पैदाइश के बारे में बताया गया है। डार्विन के ज़माने से साइंसदों लोग (वैज्ञानिक) इस बात पर बहुत नाक-भौं चढ़ाते हैं और बड़ी नफ़रत के साथ वे इसको एक ग़ैर-साइंटिफ़िक नज़रिया ठहराकर मानो फेंक देते हैं कि सबसे पहले इनसान को सीधे तौर पर पैदा किया गया है। लेकिन इनसान की न सही, तमाम जानदारों की न सही, सबसे पहले जरसूमा-ए-हयात (जीवाणु) की सीधे तौर पर पैदाइश से तो वे किसी तरह पीछा नहीं छुड़ा सकते। इस पैदाइश को न माना जाए तो फिर यह इन्तिहाई बेमतलब बात माननी पड़ेगी कि ज़िन्दगी की शुरुआत सिर्फ़ एक हादिसे के तौर पर हुई है, हालाँकि सिर्फ़ एक ख़लीया (कोशिका Cell) वाले हैवान में ज़िन्दगी की सबसे सादा शक्ल भी इतनी पेचीदा और नाज़ुक हिकमतों से भरी हुई है कि उसे हादिसे का नतीजा बताना उससे लाखों गुना ग़ैर-साइंटिफ़िक बात है जितना नज़रिया-ए-इरतिक़ा (विकासवाद के सिद्धान्त) के माननेवाले पैदाइश के नज़रिए को ठहराते हैं। और अगर एक बार आदमी यह मान ले कि ज़िन्दगी का पहला जरसूमा (कीटाणु) सीधे तौर पर पैदा किया गया था, तो फिर आख़िर यही मानने में क्या बुराई है कि हर जानदार की पहली इकाई पैदा करनेवाले के पैदा करने से पैदा हुई है और फिर उसकी नस्ल पैदाइश (Procreation, प्रजनन) की अलग-अलग सूरतों से चली है। इस बात को मान लेने से वे बहुत-सी गुत्थियाँ सुलझ जाती हैं जो डार्विनिज़्म के अलमबरदारों की सारी साइंटिफ़िक शाइरी के बावजूद उनके नज़रिया-ए-इरतिक़ा (विकासवाद के सिद्धान्त) में अनसुलझी रह गई हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-53; सूरा-4 निसा, हाशिया-1; सूरा-6 अनआम, हाशिया-63; सूरा-7 आराफ़, हाशिए—10, 145; सूरा-15 हिज्र, हाशिया-17; सूरा-22 हज, हाशिया-5; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—12, 13।
۞قُلۡ يَتَوَفَّىٰكُم مَّلَكُ ٱلۡمَوۡتِ ٱلَّذِي وُكِّلَ بِكُمۡ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُمۡ تُرۡجَعُونَ ۝ 8
(11) इनसे कहो, “मौत का वह फ़रिश्ता जो तुमपर मुक़र्रर किया गया है, तुमको पूरा का पूरा अपने क़ब्ज़े में ले लेगा और फिर तुम अपने रब की तरफ़ पलटा लाए जाओगे।21
21. यानी तुम्हारा वह 'हम' मिट्टी में रल-मिल न जाएगा, बल्कि उसके अमल की मुहलत ख़त्म होते ही ख़ुदा की तरफ़ से मौत का फ़रिश्ता आएगा और उसे जिस्म से निकालकर पूरा-का-पूरा अपने क़ब्जे में ले लेगा। उसका कोई मामूली-सा हिस्सा भी जिस्म के साथ मिट्टी में न जा सकेगा। वह पूरा का पूरा हिरासत (Custody) में ले लिया जाएगा और अपने रब के सामने पेश कर दिया जाएगा। इस छोटी-सी आयत-में बहुत-सी हक़ीक़तों पर रौशनी डाली गई है जिनपर से सरसरी तौर पर न गुज़र जाइए— (1) इसमें साफ़ तौर पर बताया गया है कि मौत कुछ यूँ ही नहीं आ जाती कि एक घड़ी चल रही थी, कूक ख़त्म हुई और वह चलते-चलते अचानक बन्द हो गई, बल्कि अस्ल में इस काम के लिए अल्लाह तआला ने एक ख़ास फ़रिश्ता मुक़र्रर कर रखा है जो आकर बाक़ायदा रूह को ठीक उसी तरह वुसूल करता है जिस तरह एक सरकारी अमीन (official Receiver) किसी चीज़ को अपने क़ब्ज़े में लेता है। क़ुरआन की दूसरी जगहों पर इसकी और ज़्यादा तफ़सीलात जो बयान की गई हैं, उनसे मालूम होता है कि मौत के इस अफ़सर के तहत फ़रिश्तों का एक पूरा अमला (Staff) है जो मौत लाने और रूह को जिस्म से निकालने और उसको क़ब्जे में लेने के बहुत-से अलग-अलग तरह के काम करता है। इसके अलावा यह कि अमले का बर्ताव मुजरिम रूह के साथ कुछ और होता है और ईमानवाली नेक रूह के साथ कुछ और। (इन तफ़सीलात के लिए देखिए— सूरा-4 निसा, आयत-97; सूरा-6 अनआम, आयत-93; सूरा-16 नह्ल, आयत-28; सूरा-56 वाक़िआ, आयत-83 से 94)। (2) इससे यह भी मालूम होता है कि मौत से इनसान मिट नहीं जाता, बल्कि उसकी रूह जिस्म से निकलकर बाक़ी रहती है। क़ुरआन के अलफ़ाज़ “मौत का फ़रिश्ता तुमको पूरा-का-पूरा अपने क़ब्ज़े में ले लेगा” इसी हक़ीक़त की दलील देते हैं, क्योंकि कोई मिटी हुई या ग़ैर-मौजूद चीज़ क़ब्ज़े में नहीं ली जाती। क़ब्ज़े में लेने का तो मतलब ही यह है कि क़ब्ज़े में ली गई चीज़ क़ब्ज़ा करनेवाले के पास रहे। (3) इससे यह भी मालूम होता है कि मौत के वक़्त जो चीज़ क़ब्ज़े में ली जाती है वह आदमी की हैवानी ज़िन्दगी (Biological Life) नहीं, बल्कि उसकी वह ख़ुदी, उसकी वह अना (अहं, Ego) है जो 'मैं' और 'हम' और 'तुम' के अलफ़ाज़ से जानी जाती है। यह अना (अहं) दुनिया में काम करके जैसी कुछ शख़्सियत भी बनती है, वह पूरी-की-पूरी ज्यों-की-त्यों (Intact) निकाल ली जाती है, बिना इसके कि उसकी सिफ़ात में कोई कमी ज़्यादती हो और यही चीज़ मौत के बाद अपने रब की तरफ़ पलटाई जाती है। इसी को आख़िरत में नया जन्म और नया जिस्म दिया जाएगा, इसी पर मुक़द्दमा क़ायम किया जाएगा, इसी से हिसाब लिया जाएगा और इसी को इनाम और सज़ा देखनी होगी।
وَلَوۡ تَرَىٰٓ إِذِ ٱلۡمُجۡرِمُونَ نَاكِسُواْ رُءُوسِهِمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ رَبَّنَآ أَبۡصَرۡنَا وَسَمِعۡنَا فَٱرۡجِعۡنَا نَعۡمَلۡ صَٰلِحًا إِنَّا مُوقِنُونَ ۝ 9
(12) काश,22 तुम देखो वह वक़्त जब ये मुजरिम सर झुकाए अपने रब के सामने खड़े होंगे! (उस वक़्त ये कह रहे होंगे,) “ऐ हमारे रब, हमने ख़ूब देख लिया और सुन लिया, अब हमें वापस भेज दे, ताकि हम अच्छे काम करें, हमें अब यक़ीन आ गया है।”
22. अब उस हालत का नक़्शा पेश किया जाता है जब अपने रब की तरफ़ पलटकर यह इनसानी 'अना' अपना हिसाब देने के लिए उसके सामने खड़ी होगी।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَأٓتَيۡنَا كُلَّ نَفۡسٍ هُدَىٰهَا وَلَٰكِنۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ مِنِّي لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ ٱلۡجِنَّةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 10
(13) (जवाब में कहा जाएगा,) “अगर हम चाहते तो पहले ही हर शख़्स को उसकी सही राह दिखा दे देते।23 मगर मेरी वह बात पूरी हो गई जो मैंने कही थी कि मैं जहन्नम को, जिन्नों और इनसानों, सबसे भर दूँगा।24
23. यानी इस तरह हक़ीक़त को दिखाकर और तजरिबा कराकर ही लोगों को हिदायत देना हमारा मक़सद होता तो दुनिया की ज़िन्दगी में इतने बड़े इम्तिहान से गुज़ारकर तुमको यहाँ लाने की क्या ज़रूरत थी, ऐसी हिदायत तो हम पहले ही तुमको दे सकते थे। लेकिन तुम्हारे लिए तो शुरू ही से हमारी स्कीम यह न थी। हम तो हक़ीक़त को निगाहों से ओझल और हवास (इन्द्रियों) से छिपी रखकर तुम्हारा इम्तिहान लेना चाहते थे कि तुम सीधे तौर पर उसको बेनक़ाब देखने के बजाय कायनात में और ख़ुद अपने वुजूद में उसकी निशानियों को देखकर अपनी अक़्ल से उसको पहचानते हो या नहीं। हम अपने पैग़म्बरों और किताबों के ज़रिए से इस हक़ीक़त तक पहुँचने में तुम्हारी जो मदद करते हैं, उससे फ़ायदा उठाते हो या नहीं और हक़ीकत जान लेने के बाद अपने मन पर इतना क़ाबू पाते हो या नहीं कि ख़ाहिशों और फ़ायदों की बन्दगी से आज़ाद होकर इस हक़ीक़त को मान जाओ और उसके मुताबिक़ अपना रवैया ठीक कर लो। इस इम्तिहान में तुम नाकाम हो चुके हो। अब दोबारा इसी इम्तिहान का सिलसिला शुरू करने से क्या मिलेगा। दूसरा इम्तिहान अगर इस तरह लिया जाए कि तुम्हें वह सब कुछ याद हो जो तुमने यहाँ देख और सुन लिया है तो यह सिरे से कोई इम्तिहान ही न होगा और अगर पहले की तरह तुम्हारे ज़ेहन से सब कुछ मिटाकर और हक़ीक़त को निगाहों से ओझल रखकर तुम्हें फिर दुनिया में पैदा कर दिया जाए और नए सिरे से तुम्हारा उसी तरह इम्तिहान लिया जाए, जैसे पहले लिया गया था, तो नतीजा पिछले इम्तिहान से कुछ भी अलग न होगा। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-2 बक़रा, हाशिया-228; सूरा-6 अनआम, हाशिए—6, 141; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-26; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-91)
24. इशारा है उस बात की तरफ़ जो अल्लाह तआला ने आदम (अलैहि०) को पैदा करते वक़्त इबलीस को मुख़ातब (सम्बोधित) करते हुए कही थी। सूरा-38 सॉद की आयत-71 से 85 तक में उस वक़्त का पूरा क़िस्सा बयान किया गया है। इबलीस ने आदम (अलैहि०) को सजदा करने से इनकार किया। आदम की नस्ल को बहकाने के लिए क़ियामत तक की मुहलत माँगी। जवाब में अल्लाह तआला ने फ़रमाया, “तो सच यह है और मैं सच ही कहा करता हूँ कि मैं जहन्नम को भर दूँगा तुझसे और उन लोगों से जो इनसानों में से तेरी पैरवी करेंगे।” अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अजमईन' (सबको) इस्तेमाल हुआ है। यह लफ़्ज़ यहाँ इस मानी में इस्तेमाल नहीं किया गया है कि तमाम जिन्न और तमाम इनसान जहन्नम में डाल दिए जाएँगे, बल्कि इसका मतलब यह है कि शैतान और इन शैतानों की पैरवी करनेवाले इनसान सब एक साथ जहन्नम में जाएँगे।
فَذُوقُواْ بِمَا نَسِيتُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَآ إِنَّا نَسِينَٰكُمۡۖ وَذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡخُلۡدِ بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 11
(14) तो अब चखो मज़ा अपनी इस हरकत का कि तुमने इस दिन की मुलाक़ात को भुला दिया,25 हमने भी अब तुम्हें भुला दिया है। चखो हमेशा रहनेवाले अज़ाब का मज़ा अपने करतूतों के बदले में।"
25. यानी दुनिया के ऐश में गुम होकर तुम लोगों ने इस बात को बिलकुल भुला दिया कि कभी अपने रब के सामने भी जाना है।
إِنَّمَا يُؤۡمِنُ بِـَٔايَٰتِنَا ٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُواْ بِهَا خَرُّواْۤ سُجَّدٗاۤ وَسَبَّحُواْ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَهُمۡ لَا يَسۡتَكۡبِرُونَ۩ ۝ 12
(15) हमारी आयतों पर तो वे लोग ईमान लाते हैं जिन्हें ये आयतें सुनाकर जब नसीहत की जाती है तो सजदे में गिर पड़ते हैं और अपने रब की तारीफ़ के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) करते हैं और घमंड नहीं करते।26
26. दूसरे अलफ़ाज़ में वे अपने ख़यालात को छोड़कर अल्लाह की बात मान लेने और अल्लाह की बन्दगी अपनाकर उसकी इबादत करने को अपनी शान से गिरी हुई बात नहीं समझते। अपनी बड़ाई का एहसास उन्हें हक़ क़ुबूल करने और रब की फ़रमाँबरदारी से नहीं रोकता।
تَتَجَافَىٰ جُنُوبُهُمۡ عَنِ ٱلۡمَضَاجِعِ يَدۡعُونَ رَبَّهُمۡ خَوۡفٗا وَطَمَعٗا وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 13
(16) उनकी पीठें बिस्तरों से अलग रहती हैं, अपने रब को डर और लालच के साथ पुकारते हैं,27 और जो कुछ रोज़ी हमने उन्हें दी है, उसमें से ख़र्च करते हैं।28
27. यानी रातों को अय्याशियाँ करते फिरने के बजाय वे अपने रब की इबादत करते हैं। उनका हाल उन दुनियापरस्तों का-सा नहीं है जिन्हें दिन की मेहनतों की थकन दूर करने के लिए रातों को नाच-गाने, शराब पीने और खेल-तमाशों की तफ़रीह (मनोरंजन) चाहिए होती हैं। इसके बजाय उनका हाल यह होता है कि दिन भर अपने फ़र्ज़ पूरे करके जब वे फ़ारिग़ होते हैं तो अपने रब के सामने खड़े हो जाते हैं। उसकी याद में रातें गुज़ारते हैं। उसके डर से काँपते हैं और उसी से अपनी सारी उम्मीदें बाँधते हैं। बिस्तरों से पीठें अलग रहने का मतलब यह नहीं है कि वे रातों को सोते ही नहीं हैं, बल्कि इससे मुराद यह है कि वे रातों का एक हिस्सा ख़ुदा की इबादत में गुज़ारते हैं।
28. रोज़ी से मुराद है हलाल रोज़ी। हराम माल को अल्लाह तआला अपनी दी हुई रोज़ी नहीं कहता। लिहाज़ा इस आयत का मतलब यह है कि जो थोड़ी या बहुत पाक रोज़ी हमने उन्हें दी है, उसी में से ख़र्च करते हैं। इससे आगे बढ़कर अपने ख़र्चे पूरे करने के लिए हराम माल पर हाथ नहीं मारते।
فَلَا تَعۡلَمُ نَفۡسٞ مَّآ أُخۡفِيَ لَهُم مِّن قُرَّةِ أَعۡيُنٖ جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 14
(17) फिर जैसा कुछ आँखों की ठण्डक का सामान उनके आमाल (कर्मा) के बदले में उनके लिए छिपाकर रखा गया है, उसकी किसी को ख़बर नहीं है।29
29. हदीस की किताबें बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी और मुसनद अहमद में कई तरीक़ों से हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की यह रिवायत नक़्ल की गई है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह तआला फ़रमाता है कि मैंने अपने नेक बन्दों के लिए वह कुछ जुटाकर रखा है जिसे न कभी किसी आँख ने देखा, न कभी किसी कान ने सुना, न कोई इनसान कभी उसके बारे में सोच सका है।” यही बात थोड़े-से लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०), हज़रत मुग़ीरा-बिन-शोबा (रज़ि०) और हज़रत सहल-बिन-सअद साइदी ने भी नबी (सल्ल०) से रिवायत की है जिसे मुस्लिम, अहमद, इब्ने-जरीर और तिरमिज़ी ने सहीह सनदों के साथ नक़्ल किया है।
أَفَمَن كَانَ مُؤۡمِنٗا كَمَن كَانَ فَاسِقٗاۚ لَّا يَسۡتَوُۥنَ ۝ 15
(18) भला कहीं यह हो सकता है कि जो शख़्स ईमानवाला हो, वह उस शख़्स की तरह हो जाए जो नाफ़रमान30 हो? ये दोनों बराबर नहीं हो सकते।31
30. यहाँ अस्ल अरबी में 'मोमिन' और 'फ़ासिक़' के दो लफ़्ज़ इस्तेमाल किए गए हैं जो अपने मानी के लिहाज़ से एक-दूसरे के बरख़िलाफ़ हैं। 'मोमिन' से मुराद वह शख़्स है जो अल्लाह तआला को अपना रब और अकेला माबूद मानकर उस क़ानून की पैरवी अपना ले जो अल्लाह ने अपने पैग़म्बरों के ज़रिए से भेजा है। इसके बरख़िलाफ़ 'फ़ासिक़' वह शख़्स है जो ‘फ़िस्क़' (फ़रमाँबरदारी से निकल जाने, या दूसरे लफ़्ज़ों में बग़ावत, अपनी मरज़ी का मालिक होने और अल्लाह के बजाय दूसरों की पैरवी) का रवैया अपनाए।
31. यानी न दुनिया में उनका सोचने और जीने का ढंग एक जैसा हो सकता है और न आख़िरत में उनके साथ ख़ुदा का मामला एक जैसा हो सकता है।
أَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَلَهُمۡ جَنَّٰتُ ٱلۡمَأۡوَىٰ نُزُلَۢا بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 16
(19) जो लोग ईमान लाए हैं और जिन्होंने अच्छे काम किए हैं, उनके लिए तो जन्नतों के ठिकाने हैं,32 मेहमानदारी के तौर पर उनके कामों के बदले में।
32. यानी वे जन्नतें सिर्फ़ उनकी सैर करने की जगहें न होंगी, बल्कि वही उनके रहने की जगहें भी होंगी जिनमें वे हमेशा रहेंगे।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ فَسَقُواْ فَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ كُلَّمَآ أَرَادُوٓاْ أَن يَخۡرُجُواْ مِنۡهَآ أُعِيدُواْ فِيهَا وَقِيلَ لَهُمۡ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلنَّارِ ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تُكَذِّبُونَ ۝ 17
(20) और जिन्होंने नाफ़रमानी का रवैया अपनाया है, उनका ठिकाना जहन्नम है। जब कभी वे उससे निकलना चाहेंगे, उसी में धकेल दिए जाएँगे और उनसे कहा जाएगा कि चखो अब उसी आग के अज़ाब का मज़ा जिसको तुम झुठलाया करते थे।
وَلَنُذِيقَنَّهُم مِّنَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَدۡنَىٰ دُونَ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَكۡبَرِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 18
(21) उस बड़े अज़ाब से पहले हम इसी दुनिया में (किसी-न-किसी छोटे) अज़ाब का मज़ा इन्हें चखाते रहेंगे, शायद कि ये (अपने बग़ावतवाले रवैये से) बाज़ आ जाएँ।33
33. 'बड़ा अज़ाब' से मुराद आख़िरत का अज़ाब है जो कुफ़्र और फ़िस्क़ (ख़ुदा के इनकार और उसकी नाफ़रमानी) की सज़ा में दिया जाएगा। इसके मुक़ाबले में ‘छोटा अज़ाब' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है जिससे मुराद वे तकलीफ़ें हैं जो इसी दुनिया में इनसान को पहुँचती हैं। मसलन लोगों की ज़िन्दगी में सख़्त बीमारियाँ, अपने सबसे क़रीबी लोगों की मौत, दर्दनाक हादिसे, घाटे, नाकामियाँ वग़ैरा और इज्तिमाई ज़िन्दगी में तूफ़ान, ज़लज़ले, सैलाब, महामारियाँ, अकाल, दंगे, लड़ाइयों और दूसरी बहुत-सी बलाएँ जो हज़ारों, लाखों, करोड़ों इनसानों को अपनी लपेट में ले लेती हैं। इन आफ़तों और मुसीबतों को भेजने की मस्लहत यह बयान की गई है कि बड़े अज़ाब में मुब्तला होने से पहले ही लोग होश में आ जाएँ और उस सोच और अमल के उस ढंग को छोड़ दें जिसकी सज़ा में आख़िरकार उन्हें वह बड़ा अज़ाब भुगतना पड़ेगा। दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह है कि दुनिया में अल्लाह तआला ने इनसान को बिलकुल ख़ैरियत से (सकुशल) ही नहीं रखा है कि पूरे आराम और सुकून से ज़िन्दगी की गाड़ी चलती रहे और आदमी इस ग़लत-फ़हमी में पड़ जाए कि उससे ऊपर कोई ताक़त नहीं है जो उसका कुछ बिगाड़ सकती हो, बल्कि अल्लाह तआला ने ऐसा इन्तिज़ाम कर रखा है कि वक़्त-वक़्त पर लोगों पर भी और कामों और देशों पर भी ऐसी आफ़तें भेजता रहता है जो उसे अपनी बेबसी का और अपने से ऊपर एक हमागीर (सर्वव्यापी) सल्तनत की हुकूमत का एहसास दिलाती हैं। ये आफ़तें एक-एक आदमी को, एक-एक गरोह को और एक-एक क़ौम को यह याद दिलाती हैं कि ऊपर तुम्हारी क़िस्मतों को कोई और कंट्रोल कर रहा है। सब कुछ तुम्हारे हाथ में नहीं दे दिया गया है। अस्ल ताक़त उसी हुक्म करने और चलानेवाले के हाथ में है। उसकी तरफ़ से जब कोई आफ़त तुम्हारे ऊपर आए तो न तुम्हारी कोई तदबीर उसे दूर कर सकती है और न किसी जिन्न, या रूह, या देवी-देवता, या नबी और वली से मदद माँगकर तुम उसको रोक सकते हो। इस लिहाज़ से ये आफ़तें सिर्फ़ आफ़तें नहीं हैं, बल्कि ख़ुदा की तंबीहात (चेतावनियाँ) हैं जो इनसान को हक़ीक़त से आगाह करने और उसकी ग़लत-फ़हमियाँ दूर करने के लिए भेजी जाती हैं। उनसे सबक़ लेकर दुनिया ही में आदमी अपना अक़ीदा और अमल ठीक कर ले तो आख़िरत में ख़ुदा का बड़ा अज़ाब देखने की नौबत ही क्यों आए।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّن ذُكِّرَ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِۦ ثُمَّ أَعۡرَضَ عَنۡهَآۚ إِنَّا مِنَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ مُنتَقِمُونَ ۝ 19
(22) और उससे बड़ा ज़ालिम कौन होगा जिसे उसके रब की आयतों के ज़रिए से नसीहत की जाए और फिर वह उनसे मुँह फेर ले।34 ऐसे मुजरिमों से तो हम इन्तिक़ाम लेकर रहगे।
34. 'रब की आयतों' यानी उसकी निशानियों के अलफ़ाज़ अपने अन्दर बहुत-से मानी रखते हैं जिनके अन्दर तमाम तरह की निशानियाँ आ जाती हैं। क़ुरआन मजीद के तमाम बयानों को निगाह में रखा जाए तो मालूम होता है कि ये निशानियाँ नीचे लिखी छह तरह की हैं— (1) वे निशानियाँ जो ज़मीन से लेकर आसमान तक हर चीज़ में और कायनात के पूरे निज़ाम (व्यवस्था) में पाई जाती हैं। (2) वे निशानियाँ जो इनसान की अपनी पैदाइश और उसकी बनावट और उसके वजूद में पाई जाती हैं। (3) वे निशानियाँ जो इनसान के विजदान (अन्तर्ज्ञान) में, उसके लाशुऊर (अचेतन) और तहतश्शुऊर (अवचेतन) में और उसके अख़लाक़ी तसव्वुरात में पाई जाती हैं। (4) वे निशानियाँ जो मानव-इतिहास के लगातार तजरिबों में पाई जाती हैं। (5) वे निशानियाँ जो इनसान पर ज़मीनी और आसमानी आफ़तों के आने में पाई जाती हैं। (6) और इन सबके बाद वे आयतें जो अल्लाह तआला ने अपने पैग़म्बरों के ज़रिए से भेजीं, ताकि मुनासिब तरीक़े से इनसान को उन्हीं हक़ीक़तों से आगाह किया जाए जिनकी तरफ़ ऊपर की तमाम निशानियाँ इशारा कर रही हैं। ये सारी निशानियाँ पूरी तरह एक आवाज़ होकर ऊँची आवाज़ के साथ इनसान को यह बता रही हैं कि तू बेख़ुदा नहीं है, न बहुत-से ख़ुदाओं का बन्दा है, बल्कि तेरा ख़ुदा सिर्फ़ एक ही ख़ुदा है, जिसकी इबादत और फ़रमाँबरदारी के सिवा तेरे लिए कोई दूसरा रास्ता सही नहीं है। तू इस दुनिया में आज़ाद और अपनी मरज़ी का मालिक और ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर नहीं छोड़ दिया गया है, बल्कि तुझे अपनी ज़िन्दगी के काम ख़त्म करने के बाद अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर जवाबदेही करनी है और अपने अमल के लिहाज़ से इनाम पाना या सज़ा पानी है। इसलिए तेरी अपनी भलाई इसी में है कि तेरे ख़ुदा ने तेरी रहनुमाई के लिए अपने पैग़म्बरों और अपनी किताबों के ज़रिए से जो हिदायत भेजी है, उसकी पैरवी कर और मनमरज़ी और ख़ुदमुख़्तारी के रवैये को छोड़ दे। अब यह ज़ाहिर है कि जिस इनसान को इतने अलग-अलग तरीक़ों से समझाया गया हो, जिसे समझाने-बुझाने के लिए तरह-तरह की इतनी अनगिनत निशानियाँ जुटा दी गई हों और जिसे देखने के लिए आँखें, सुनने के लिए कान और सोचने-समझने के लिए दिल की नेमतें भी दी गई हों, वह अगर इन सारी निशानियों की तरफ़ से आँखें बन्द कर लेता है, समझानेवालों की याददिहानी और नसीहत के लिए भी अपने कान बन्द कर लेता है, और अपने दिलो-दिमाग़ से भी औंधे फ़लसफ़े (दर्शन) ही गढ़ने का काम लेता है, उससे बड़ा ज़ालिम कोई नहीं हो सकता। वह फिर इसी का हक़दार है कि दुनिया में अपने इम्तिहान की मुद्दत ख़त्म करने के बाद जब वह अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर हो तो बग़ावत की भरपूर सज़ा पाए।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَلَا تَكُن فِي مِرۡيَةٖ مِّن لِّقَآئِهِۦۖ وَجَعَلۡنَٰهُ هُدٗى لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 20
(23) इससे पहले हम मूसा को किताब दे चुके हैं, लिहाज़ा उसी चीज़ के मिलने पर तुम्हें कोई शक न होना चाहिए।35 उस किताब को हमने बनी-इसराईल के लिए हिदायत बनाया था,36
35. बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है, मगर अस्ल में उन लोगों से कही जा रही है जो नबी (सल्ल०) की रिसालत और पैग़म्बरी में और आप (सल्ल०) के ऊपर अल्लाह की किताब उतरने में शक कर रहे थे। यहाँ से बात का रुख़ उसी बात की तरफ़ फिर रहा है जो सूरा के शुरू (आयतें—2, 3) में बयान हुई थी। मक्का के ग़ैर-मुस्लिम कह रहे थे कि मुहम्मद (सल्ल०) पर ख़ुदा की तरफ़ से कोई किताब नहीं आई है, उन्होंने उसे ख़ुद गढ़ लिया है और दावा यह है कि अल्लाह ने इसे उतारा है। इसका एक जवाब शुरू की आयतों में दिया गया था। अब इसका दूसरा जवाब दिया जा रहा है। इस सिलसिले में पहली बात जो कही गई है वह यह है कि ऐ नबी, ये नादान लोग तुमपर अल्लाह की किताब के उतरने को अपने नज़दीक नामुमकिन समझ रहे हैं और चाहते हैं कि हर दूसरा शख़्स भी अगर इसका इनकार न करे तो कम-से-कम इसके बारे में शक ही में पड़ जाए। लेकिन एक बन्दे पर ख़ुदा की तरफ़ से किताब उतरना एक निराला वाक़िआ तो नहीं है जो इनसानी इतिहास में आज पहली बार ही पेश आया हो। इससे पहले कई पैग़म्बरों पर किताबें उतर चुकी हैं, जिनमें सबसे मशहूर किताब वह है जो मूसा (अलैहि०) को दी गई थी। लिहाज़ा इसी तरह की एक चीज़ आज तुम्हें दी गई है तो आख़िर इसमें अनोखी बात क्या है जिसपर बेवजह शक किया जाए।
36. यानी वह किताब बनी-इसराईल के लिए रहनुमाई का ज़रिआ बनाई गई थी, और यह किताब उसी तरह तुम लोगों की रहनुमाई के लिए भेजी गई है, जैसा कि आयत-3 में पहले बयान किया जा चुका है। इस बात का पूरा मतलब और मक़सद उसके तारीख़ी पसमंज़र (ऐतिहासिक पृष्ठभूमि) को निगाह में रखने से ही समझ में आ सकता है। यह बात इतिहास से साबित है और मक्का के ग़ैर-मुस्लिम भी उससे अनजान न थे कि बनी-इसराईल कई सदी तक मिस्र में बेहद रुसवाई और बदहाली की ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। इस हालत में अल्लाह तआला ने उनके बीच मूसा (अलैहि०) को पैदा किया, उनके ज़रिए से उस क़ौम को ग़ुलामी की हालत से निकाला, फिर उनपर किताब उतारी और उसकी मेहरबानी से वही दबी और पिसी हुई क़ौम हिदायत पाकर दुनिया में एक नामवर क़ौम बन गई। इस इतिहास की तरफ़ इशारा करके अरबवालों से कहा जा रहा है कि जिस तरह बनी-इसराईल की हिदायत के लिए वह किताब भेजी गई थी, उसी तरह तुम्हारी हिदायत के लिए यह किताब भेजी गई है।
وَجَعَلۡنَا مِنۡهُمۡ أَئِمَّةٗ يَهۡدُونَ بِأَمۡرِنَا لَمَّا صَبَرُواْۖ وَكَانُواْ بِـَٔايَٰتِنَا يُوقِنُونَ ۝ 21
(24) और जब उन्होंने सब्र किया और हमारी आयतों पर यक़ीन लाते रहे तो उनके अन्दर हमने ऐसे पेशवा पैदा किए जो हमारे हुक्म से रहनुमाई करते थे।37
37. यानी बनी-इसराईल को इस किताब ने जो कुछ बनाया और जिन दर्जों पर उनको पहुँचाया, वह सिर्फ़ उनके बीच किताब के आ जाने का करिश्मा न था कि मानो यह कोई तावीज़ हो जो बाँधकर उस क़ौम के गले में लटका दिया गया हो और उसके लटकते ही क़ौम ने तरक़्क़ी करना शुरू कर दिया हो, बल्कि यह सारी करामत (करिश्मा) उस यक़ीन और ईमान की थी जो वे अल्लाह की आयतों पर लाए, और उस सब्र और जमाव की थी जो उन्होंने अल्लाह के हुक्मों की पैरवी में दिखाया। ख़ुद बनी-इसराईल के अन्दर भी पेशवाई उन्हीं को मिली जो उनमें से अल्लाह की किताब के सच्चे मोमिन थे और दुनियावी फ़ायदों और लज़्ज़तों के लालच में फिसल जानेवाले न थे। उन्होंने जब हक़-परस्ती में हर ख़तरे का डटकर मुक़ाबला किया, हर नुक़सान और हर तकलीफ़ को बरदाश्त किया, और अपने मन की ख़ाहिशों से लेकर बाहर के दीन के दुश्मनों तक हर एक के ख़िलाफ़ मुजाहदे और जिद्दो-जुह्द का हक़ अदा कर दिया तब ही वे दुनिया के इमाम बने। इसका मक़सद अरब के ग़ैर-मुस्लिमों को ख़बरदार करना है कि जिस तरह ख़ुदा की किताब के नुज़ूल (उतरने) ने बनी-इसराईल के अन्दर क़िस्मतों के फ़ैसले किए थे, उसी तरह अब इस किताब का उतरना तुम्हारे बीच भी क़िस्मतों का फ़ैसला कर देगा। अब वही लोग इमाम और पेशवा बनेंगे जो उसको मानकर सब्र और जमाव के साथ हक़ की पैरवी करेंगे। इससे मुँह मोड़नेवालों की तक़दीर गर्दिश में आ चुकी है।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَفۡصِلُ بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 22
(25) यक़ीनन तेरा रब ही क़ियामत के दिन उन बातों का फ़ैसला करेगा जिनमें वे (बनी-इसराईल) आपस में इख़्तिलाफ़ (विभेद) करते रहे हैं।38
38. यह इशारा है उन इख़्तिलाफ़ात (मतभेदों) और गुट-बन्दियों की तरफ़ जिनके अन्दर बनी-इसराईल ईमान और यक़ीन की दौलत से महरूम होने और सीधे रास्ते पर चलनेवाले अपने इमामों और पेशवाओं की पैरवी छोड़ देने, और दुनिया-परस्ती में पड़ जाने के बाद मुब्तला हुए। इस हालत का एक नतीजा तो ज़ाहिर है जिसे सारी दुनिया देख रही है कि बनी-इसराईल रुसवाई और बदहाली में गिरफ़्तार हैं। दूसरा नतीजा वह है जो दुनिया नहीं जानती, और वह क़ियामत के दिन ज़ाहिर होगा।
أَوَلَمۡ يَهۡدِ لَهُمۡ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِن قَبۡلِهِم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ يَمۡشُونَ فِي مَسَٰكِنِهِمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٍۚ أَفَلَا يَسۡمَعُونَ ۝ 23
(26) और क्या इन लोगों को (इन ऐतिहासिक घटनाओं में) कोई हिदायत नहीं मिली कि इनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं, जिनके रहने की जगहों में आज ये चलते-फिरते हैं?39 इसमें बड़ी निशानियाँ हैं, क्या ये सुनते नहीं हैं?
39. यानी क्या इतिहास के इस लगातार तजरिबे से इन लोगों ने कोई सबक़ नहीं लिया कि जिस क़ौम में भी ख़ुदा का रसूल आया है, उसकी क़िस्मत का फ़ैसला उस रवैये के साथ जुड़ गया है जो अपने रसूल के मामले में उसने अपनाया। रसूल को झुठला देने के बाद फिर कोई क़ौम बच नहीं सकी है। उसमें से बचे हैं तो सिर्फ़ वही लोग जो उसपर ईमान लाए। इनकार कर देनेवाले हमेशा-हमेशा के लिए इबरत की निशानी बनकर रह गए।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا نَسُوقُ ٱلۡمَآءَ إِلَى ٱلۡأَرۡضِ ٱلۡجُرُزِ فَنُخۡرِجُ بِهِۦ زَرۡعٗا تَأۡكُلُ مِنۡهُ أَنۡعَٰمُهُمۡ وَأَنفُسُهُمۡۚ أَفَلَا يُبۡصِرُونَ ۝ 24
(27) और क्या लोगों ने यह (दृश्य) मंज़र कभी नहीं देखा कि हम एक सूखी-बंजर ज़मीन की तरफ़ पानी बहा लाते हैं? और फिर उसी ज़मीन से वह फ़सल उगाते हैं। जिससे इनके जानवरों को भी चारा मिलता है और ये ख़ुद भी खाते हैं? तो क्या इन्हें कुछ नहीं सूझता?40
40. मौक़ा-महल (प्रसंग और सन्दर्भ) को निगाह में रखने से साफ़ महसूस होता है कि यहाँ यह ज़िक्र मौत के बाद की ज़िन्दगी पर दलील देने के लिए नहीं किया गया है, जैसा कि क़ुरआन में आम तौर पर होता है, बल्कि बात के इस सिलसिले में यह बात एक और ही मक़सद के लिए कही गई है। इसमें अस्ल में एक हल्का-सा इशारा है इस बात की तरफ़ कि जिस तरह एक बंजर पड़ी हुई ज़मीन को देखकर आदमी यह गुमान नहीं कर सकता कि यह भी कभी लहलहाती खेती बन जाएगी, मगर ख़ुदा की भेजी हुई बरसात का एक ही रेला उसका रंग बदल देता है, उसी तरह इस्लाम की यह दावत (पैग़ाम) भी इस वक़्त तुमको एक न चलनेवाली चीज़ नज़र आती है, लेकिन ख़ुदा की क़ुदरत का एक ही करिश्मा इसको इस तरह फैला देगा कि तुम दंग रह जाओगे।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡفَتۡحُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 25
(28) ये लोग कहते हैं कि “यह फ़ैसला कब होगा अगर तुम सचे हो?"41
41. यानी तुम जो कहते हो कि आख़िरकार अल्लाह की मदद आएगी और हमें झुठलानेवालों पर उसका ग़ज़ब (प्रकोप) टूट पड़ेगा, तो बताओ वह वक़्त कब आएगा? कब हमारा-तुम्हारा फ़ैसला होगा?
قُلۡ يَوۡمَ ٱلۡفَتۡحِ لَا يَنفَعُ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِيمَٰنُهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 26
(29) इनसे कहो, “फ़ैसले के दिन ईमान लाना उन लोगों के लिए कुछ भी फ़ायदेमन्द न होगा जिन्होंने कुफ़ (इनकार) किया है और फिर उनको कोई मुहलत न मिलेगी।42
42. यानी यह कौन-सी ऐसी चीज़ है जिसके लिए तुम बेचैन होते हो। ख़ुदा का अज़ाब आ गया तो फिर संभलने का मौक़ा तुमको मिलेगा। इस मुहलत को ग़नीमत जानो जो अज़ाब आन से पहले तुमको मिली हुई है। अज़ाब सामने देखकर ईमान लाओगे तो कुछ हासिल न होगा।
فَأَعۡرِضۡ عَنۡهُمۡ وَٱنتَظِرۡ إِنَّهُم مُّنتَظِرُونَ ۝ 27
(30) अच्छा, इन्हें, इनके हाल पर छोड़ दो और इन्तिज़ार करो, ये भी इन्तिज़ार में हैं।
ثُمَّ سَوَّىٰهُ وَنَفَخَ فِيهِ مِن رُّوحِهِۦۖ وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَۚ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 28
(9) फिर उसको नख-शिख से ठीक-ठाक किया15 और उसके अन्दर अपनी रूह फूँक दी,16 और तुमको कान दिए, आँखें दीं और दिल दिए।17 तुम लोग कम ही शुक्रगुज़ार होते हो।18
15. यानी एक इन्तिहाई बारीक ख़ुर्दबीनी (सूक्ष्मदर्शी) वुजूद से बढ़ाकर उसे पूरी इनसानी शक्त तक पहुँचाया और उसका जिस्म सारे आज़ा (अंगों) और हिस्सों (इन्द्रियों) के साथ मुकम्मल कर दिया।
16. 'रूह' से मुराद सिर्फ़ वह ज़िन्दगी नहीं है जिसकी बदौलत एक जानदार जिस्म की मशीन हरकत करती है, बल्कि इससे मुराद वह ख़ास जौहर है जिसमें सोचने-समझने और अक़्ल-तमीज़ और फ़ैसले और इख़्तियार की ख़ूबी पाई जाती है, जिसकी बदौलत इनसान धरती के तमाम दूसरे जानदारों से अलग एक शख़्सियत रखनेवाला, साहिबे-अना (स्वाभिमानी) और ख़ुदा का ख़लीफ़ा बनता है। इस रूह को अल्लाह तआला ने अपनी रूह या तो इस मानी में कहा है कि वह उसी की मिलकियत है और उसकी पाक हस्ती की तरफ़ उसका जोड़ना उसी तरह का है जिस तरह एक चीज़ अपने मालिक से जुड़कर उसकी चीज़ कहलाती है। या फिर इसका मतलब यह है कि इनसान के अन्दर इल्म, सोच, समझ, इरादा, फ़ैसला, इख़्तियार और ऐसी ही दूसरी जो सिफ़तें (गुण) पैदा हुई हैं, वे सब अल्लाह तआला की सिफ़तों का अक्स हैं। उनका सरचश्मा माद्दे की कोई तरकीब (मिश्रण) नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला की हस्ती है। अल्लाह के इल्म से उसको इल्म मिला है, अल्लाह की हिकमत से उसको अक़्लमन्दी मिली है, अल्लाह के इख़्तियार से उसको इख़्तियार मिला है। ये सिफ़ात किसी बेइल्म, बेसमझ और इख़्तियार न रखनेवाले ज़रिए से इनसान के अन्दर नहीं आई है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिए—17 से 19)।
17. यह एक लतीफ़ (सूक्ष्म) अन्दाज़े-बयान है। इनसान के अन्दर रूह फूँकने तक का सारा ज़िक्र सेग़ा-ए-ग़ायब (अन्य पुरुष) के तौर पर किया जाता रहा। “उसको पैदा किया", “उसकी नस्ल चलाई", “उसको नख-शिख से ठीक किया", “उसके अन्दर रूह फूँकी।” इसलिए कि उस वक़्त तक वह इसके लायक़ न था कि उससे बात भी की जाए। फिर जब रूह फूँक दी गई तो अब उससे कहा जा रहा है कि “तुमको कान दिए”, “तुमको आँखें दीं", “तुमको दिल दिए", इसलिए कि रूहवाला हो जाने के बाद ही वह इस क़ाबिल हुआ कि उससे बात की जाए। कान और आँखों से मुराद वे ज़रिए हैं जिनसे इनसान इल्म हासिल करता है। अगरचे इल्म चखने, छूने और सूँघने के ज़रिए से भी हासिल होता है, लेकिन सुनना और देखना तमाम दूसरे बड़े ज़रिओं (इन्द्रियों) से बड़े और अहम ज़रिए हैं, इसलिए क़ुरआन जगह-जगह इन्हीं दो को ख़ुदा की नुमायाँ देन की हैसियत से पेश करता है। इसके बाद 'दिल' से मुराद वह ज़ेहन (Mind) है जो उन ज़रिओं (इन्द्रियों) से हासिल हुई मालूमात को तरतीब देकर उनसे नतीजे निकालता है और अमल की अलग-अलग इमकानी राहों में से कोई एक राह चुनता और उसपर चलने का फ़ैसला करता है।
18. यानी यह बड़ी क़ीमती इनसानी रूह इतने आला और बुलन्द दरजे की सिफ़ात के साथ तुमको इसलिए तो नहीं दी गई थी कि तुम दुनिया में जानवरों की तरह रहो और अपने लिए बस वही ज़िन्दगी का नक़्शा बना लो जो कोई जानवर बना सकता है। ये आँखें तुम्हें इसलिए दी गई थीं कि तुम मन की सच्चाई की आँखों से देखो, होश के कानों से सुनो, न कि अंधे बनकर रहने के लिए। ये कान तुम्हें होश-हवास से सुनने के लिए दिए गए थे, न कि बहरे बनकर रहने के लिए। ये दिल तुम्हें इसलिए दिए गए थे कि हक़ीक़त को समझो और सोच और अमल की सही राह अपनाओ, न इसलिए कि अपनी सारी सलाहियतें सिर्फ़ अपनी हैवानियत की परवरिश के वसाइल (साधन) जुटाने में लगा दो और उससे कुछ ऊँचे उठो तो अपने पैदा करनेवाले (ख़ुदा) से बग़ावत के फ़लसफ़े (दर्शन) और प्रोग्राम बनाने लगो। यह बहुत क़ीमती नेमतें ख़ुदा से पाने के बाद जब तुम नास्तिकता या शिर्क (बहुदेववाद) अपनाते हो, जब तुम ख़ुद ख़ुदा या दूसरे ख़ुदाओं के बन्दे बनते हो, जब तुम ख़ाहिशों के ग़ुलाम बनकर जिस्म और मन की लज़्ज़तों में डूब जाते हो, तो मानो अपने ख़ुदा से यह कहते हो कि हम इन नेमतों के लायक़ न थे, हमें इनसान बनाने के बजाय एक बन्दर, या एक भेड़िया, या एक मगरमच्छ या एक कौआ बनाना चाहिए था।
وَقَالُوٓاْ أَءِذَا ضَلَلۡنَا فِي ٱلۡأَرۡضِ أَءِنَّا لَفِي خَلۡقٖ جَدِيدِۭۚ بَلۡ هُم بِلِقَآءِ رَبِّهِمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 29
(10) और19 ये लोग कहते हैं, “जब हम मिट्टी में रल-मिल चुके होंगे तो क्या हम फिर नए सिरे से पैदा किए जाएँगे?” अस्ल बात यह है कि ये अपने रब की मुलाक़ात का इनकार करते हैं।20
19. रिसालत (पैग़म्बरी) और तौहीद (एकेश्वरवाद) पर ग़ैर-मुस्लिमों के एतिराज़ों का जवाब देने के बाद अब इस्लाम के तीसरे बुनियादी अक़ीदे यानी आख़िरत पर उनके एतिराज़ को लेकर उसका जवाब दिया जाता है। आयत में “व क़ालू” का 'व' पिछली बात से इस पैराग्राफ़ का ताल्लुक़ जोड़ता है, यानी बात का सिलसिला यों है कि “वे कहते हैं : मुहम्मद अल्लाह के रसूल नहीं हैं", “वे कहते हैं : अल्लाह अकेला माबूद नहीं है” और “वे कहते हैं कि हम मरकर दोबारा न उठेंगे।"
20. ऊपर के जुमले और इस जुमले के बीच पूरी एक दास्तान-की-दास्तान है जिसे सुननेवाले के ज़ेहन पर छोड़ दिया गया है। ग़ैर-मुस्लिमों का जो एतिराज़ पहले जुमले में नक़्ल किया गया वह इतना बेमतलब है कि उसको रद्द करने की भी ज़रूरत महसूस न की गई। उसका सिर्फ़ नक़्ल कर देना ही इस बात को ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी समझा गया कि यह बात बेमतलब और बेमानी है। इसलिए कि उनके एतिराज़ में जो दो बातें शामिल हैं, वे दोनों ही सरासर अक़्ल के ख़िलाफ़ हैं। उनका यह कहना कि “हम मिट्टी में रल-मिल चुके होंगे” आख़िर क्या मतलब रखता है? 'हम' जिस चीज़ का नाम है, वह कब मिट्टी में रलती-मिलती है? मिट्टी में तो सिर्फ़ वह जिस्म मिलता है जिससे ‘हम' निकल चुका होता है। इस जिस्म का नाम 'हम' नहीं है। ज़िन्दगी की हालत में जब इस जिस्म के हिस्से (अंग) काटे जाते हैं तो अंग-पर-अंग कटता चला जाता है मगर 'हम' पूरा-का-पूरा अपनी जगह मौजूद रहता है। उसका कोई हिस्सा भी किसी कटे हुए हिस्से के साथ नहीं जाता और जब यह 'हम' किसी जिस्म में से निकल जाता है, तो पूरा जिस्म मौजूद होते हुए भी यह नहीं कहा जा सकता कि उसमें इस 'हम' का कोई मामूली-सा हिस्सा (अंश) तक बाक़ी है। इसी लिए तो एक जाँनिसार आशिक़ अपने माशूक़ के मुर्दा जिस्म को ले जाकर दफ़्न कर देता है, क्योंकि माशूक़ उस जिस्म से निकल चुका होता है और वह माशूक़ नहीं, बल्कि उस ख़ाली जिस्म को दफ़्न करता है जिसमें कभी उसका माशूक़ रहता था। इसलिए एतिराज़ करनेवालों के एतिराज़ का पहला मुक़द्दमा ही बेबुनियाद है। रहा उसका दूसरा हिस्सा : “क्या हम फिर नए सिरे से पैदा किए जाएँगे?” तो यह इनकार और ताज्जुब के अन्दाज़ का सवाल सिरे से पैदा ही न होता अगर एतिराज़ करनेवालों ने बात करने से पहले इस 'हम' और उसके पैदा किए जाने के मतलब पर एक पल के लिए कुछ ग़ौर कर लिया होता। इस 'हम' की मौजूदा पैदाइश इसके सिवा क्या है कि कहीं से कोयला और कहीं से लोहा और कहीं से चूना और इसी तरह की दूसरी चीज़ें जमा हुई और उस मिट्टी के पुतले में यह 'हम' विराजमान हो गया। फिर उसकी मौत के बाद क्या होता है? उस मिट्टी के पुतले में से जब 'हम' निकल जाता है तो उसका मकान बनाने के लिए जो चीज़ें ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों से जुटाई गई थीं, वे सब उसी ज़मीन में वापस चली जाती हैं। सवाल यह है कि जिसने पहले इस 'हम' को यह मकान बनाकर दिया था, क्या वह दोबारा इसी सरो-सामान से वही मकान बनाकर उसे नए सिरे से उसमें नहीं बसा सकता? यह चीज़ जब पहले मुमकिन थी और हक़ीक़त के तौर पर सामने आ चुकी है, तो दोबारा उसके मुमकिन होने और हक़ीक़त बनने में आख़िर क्या बात रुकावट है? ये बातें ऐसी हैं जिन्हें ज़रा-सी अक़्ल आदमी इस्तेमाल करे तो ख़ुद ही समझ सकता है। लेकिन वह अपनी अक़्ल को इस रुख़ (दिशा) पर क्यों नहीं जाने देता? क्या वजह है कि वह बेसोचे-समझे मरने के बाद की ज़िन्दगी और आख़िरत पर इस तरह के बेमतलब एतिराज़ करता है? बीच की सारी बहस छोड़कर अल्लाह तआला दूसरे जुमले में इसी सवाल का जवाब देता है कि “अस्ल में ये अपने रब की मुलाक़ात का इनकार करते हैं।” यानी अस्ल बात यह नहीं है कि दोबारा पैदाइश कोई बड़ी ही अनोखी और नामुमकिन-सी बात है जो इनकी समझ में न आ सकती हो, बल्कि अस्ल में जो चीज़ इन्हें यह बात समझने से रोकती है, वह इनकी यह ख़ाहिश है कि हम ज़मीन में छूटे फिरें और दिल खोलकर गुनाह करें और फिर आज़ादी के साथ सही-सलामत (Scot-Free) यहाँ से निकल जाएँ। फिर हमसे कोई पूछ-गछ न हो। फिर अपने करतूतों का कोई हिसाब हमें न देना पड़े।