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سُورَةُ الزُّخۡرُفِ

43. अज़-ज़ुख़रुफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 89)

परिचय

नाम

आयत 35 के शब्द ‘वज़्ज़ुख़रुफ़न ' (चाँदी और सोने के) से लिया गया है। अर्थ यह है कि वह वह सूरा हैं जिसमें शब्द ‘ज़ुख़रुफ़' आया है।

उतरने का समय

इसकी वार्ताओं पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा भी उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-40 अल-मोमिन, सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा और सूरा-42 अश-शूरा उतरीं। [यह वह समय था,] जब मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल.) की जान के पीछे पड़े हुए थे।

विषय और वार्ता

इस सूरा में पूरे ज़ोर के साथ क़ुरैश और अरबवालों को उन अज्ञानतापूर्ण धारणाओं और अंधविश्वासों की आलोचना की गई है, जिनपर वे दुराग्रह किए चले जा रहे थे, और अत्यन्त दृढ़ और दिल में घर करनेवाले तरीक़े से उनके बुद्धिसंगत न होने को उजागर किया गया है। वार्ता का आरंभ इस तरह किया गया है कि तुम लोग अपनी दुष्टता के बल पर यह चाहते हो कि इस किताब का उतरना रोक दिया जाए, मगर अल्लाह ने कभी दुष्टताओं की वजह से नबियों को भेजना और किताबों को उतारना बन्द नहीं किया है, बल्कि उन ज़ालिमों को तबाह कर दिया है जो उसके मार्गदर्शन का रास्ता रोककर खड़े हुए थे। यही कुछ वह अब भी करेगा। इसके बाद बताया गया है कि वह धर्म क्या है जिसे ये लोग सीने से लगाए हुए हैं और वे प्रमाण क्या हैं जिनके बल-बूते पर ये मुहम्मद (सल्ल०) का मुक़ाबला कर रहे हैं। ये स्वयं मानते हैं कि ज़मीन और आसमान का और इनका अपना और इनके उपास्यों का पैदा करनेवाला [भी और इनको रोज़ी देनेवाला भी] अल्लाह ही है। फिर भी दूसरों को अल्लाह के साथ प्रभुत्व में साझी करने पर हठ किए चले जा रहे हैं। बन्दों को अल्लाह की सन्तान कहते हैं और [फ़रिश्तों के बारे में] कहते हैं कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनकी उपासना करते हैं। आख़िर इन्हें कैसे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते औरतें हैं ? इन अज्ञानतापूर्ण बातों पर टोका जाता है तो तक़दीर का बहाना बनाते हैं और कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे इस काम को पसन्द न करता तो हम कैसे इन बुतों की पूजा कर सकते थे, हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का माध्यम उसकी किताबें हैं, न कि वे काम जो दुनिया में उसकी मशीयत (उसकी दी हुई छूट) के अन्तर्गत हो रहे हैं। [अपने शिर्क का एक तर्क यह भी] देते हैं कि बाप-दादा से यह काम यों ही होता चला आ रहा है। मानो इनके नज़दीक किसी धर्म के सत्य होने के लिए यह पर्याप्त प्रमाण है, हालाँकि इबराहीम (अलैहि०) ने जिनकी सन्तान होने पर ही इनका सारा गर्व और इनकी विशिष्टता निर्भर करती है, ऐसे अंधे अनुसरण को रद्द कर दिया था, जिसका साथ कोई बुद्धिसंगत प्रमाण न देता हो। फिर अगर इन लोगों को पूर्वजों का अनुसरण ही करना था, तो इसके लिए भी अपने सबसे बड़े पूर्वज इबराहीम और इसमाईल (अलैहि०) को छोड़कर इन्होंने अपने सबसे बड़े अज्ञानी पूर्वजों का चुनाव किया। मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी स्वीकार करने में इन्हें संकोच है तो इस कारण कि उनके पास माल-दौलत और राज्य और सत्ता तो है ही नहीं। कहते हैं कि अगर अल्लाह हमारे यहाँ किसी को नबी बनाना चाहता तो हमारे दोनों शहरों (मक्का और ताइफ़) के बड़े आदमियों में से किसी को बनाता। इसी कारण फ़िरऔन ने भी हज़रत मूसा (अलैहि०) को तुच्छ जाना था और कहा था कि आसमान का बादशाह अगर मुझ ज़मीन के बादशाह के पास कोई दूत भेजता तो उसे सोने के कंगन पहनाकर और फ़रिश्तों की एक फ़ौज उसकी अरदली में देकर भेजता। यह फ़क़ीर कहाँ से आ खड़ा हुआ। आख़िर में साफ़-साफ़ कहा गया है कि न अल्लाह की कोई सन्तान है, न आसमान और ज़मीन के प्रभु अलग-अलग हैं और न अल्लाह के यहाँ कोई ऐसा सिफ़ारिशी है जो जान बूझकर गुमराही अपनानेवालों को उसकी सज़ा से बचा सके।

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سُورَةُ الزُّخۡرُفِ
43. अज़-जुख़रुफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा-मीम।
وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 1
(2) क़सम है इस साफ़-साफ़ बयान करनेवाली किताब की
أَفَنَضۡرِبُ عَنكُمُ ٱلذِّكۡرَ صَفۡحًا أَن كُنتُمۡ قَوۡمٗا مُّسۡرِفِينَ ۝ 2
(5) अब क्या हम तुमसे बेज़ार (तंग) होकर यह नसीहत तुम्हारे यहाँ भेजना छोड़ दें,सिर्फ़ इसलिए कि तुम हद से गुज़रे हुए लोग हो?4
4. इस एक जुमले में वह पूरी दास्तान समेट दी गई है जो मुहम्मद (सल्ल०) के नबूवत (पैग़म्बरी) के एलान के वक़्त से लेकर इन आयतों के उतरने तक पिछले कुछ सालों में हो गुज़री थी। यह जुमला हमारे सामने यह तस्वीर खींचता है कि एक क़ौम सदियों से सख़्त जहालत, गिरावट और बदहाली में मुब्तला है। यकायक अल्लाह की मेहरबानी की नज़र उसपर पड़ती है। वह उसके अन्दर एक बेहतरीन रहनुमा उठाता है और उसे जहालत के अंधेरों से निकालने के लिए ख़ुद अपना कलाम उतारता है, ताकि वह ग़फ़लत से जागे, जहालत के अंधविश्वासों के चक्कर से निकले और हक़ीक़त से आगाह होकर ज़िन्दगी का सही रास्ता अपनाए। मगर उस क़ौम के नादान लोग और उसके क़बीलों के ख़ुदग़रज़ सरदार उस रहनुमा के पीछे हाथ धोकर पड़ जाते हैं और उसे नाकाम करने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा देते हैं। साल-पर-साल गुज़रते जाते हैं, उनकी दुश्मनी और शरारत बढ़ती चली जाती है, यहाँ तक कि वे उसे क़त्ल कर देने की ठान लेते हैं। इस हालत में कहा जा रहा है कि क्या तुम्हारी इस नालायक़ी की वजह से हम तुम्हारे सुधार की कोशिश छोड़ दें? इस नसीहत के सबक़ का सिलसिला रोक दें? और तुम्हें उसी गिरावट में पड़ा रहने दें जिसमें तुम सदियों से गिरे हुए हो? क्या तुम्हारे नज़दीक सचमुच हमारी रहमत का तक़ाज़ा यही होना चाहिए? तुमने कुछ सोचा भी कि ख़ुदा की मेहरबानी को ठुकराना और हक़ के सामने आ जाने के बाद बातिल (नाहक़) पर अड़े रहना तुम्हें किस अंजाम से दो-चार करेगा?
وَكَمۡ أَرۡسَلۡنَا مِن نَّبِيّٖ فِي ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 3
(6) पहले गुज़री हुई क़ौमों में भी बहुत बार हमने नबी भेजे हैं।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن نَّبِيٍّ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 4
(7) कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई नबी उनके यहाँ आया हो और उन्होंने उसका मज़ाक़ न उड़ाया हो।'5
5. यानी यह बेहूदगी अगर नबी और किताब के भेजने में रुकावट होती तो किसी क़ौम में भी कोई नबी न आता, न कोई किताब भेजी जाती।
فَأَهۡلَكۡنَآ أَشَدَّ مِنۡهُم بَطۡشٗا وَمَضَىٰ مَثَلُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 5
(8) फिर जो लोग उनसे कहीं ज़्यादा ताक़तवर थे, उन्हें हमने हलाक कर दिया। पिछली क़ौमों की मिसालें गुज़र चुकी हैं।6
6. यानी ख़ास लोगों की बेहूदगी का नतीजा यह कभी नहीं हुआ कि पूरी इनसानियत को नुबूवत (पैग़म्बरी) और किताब की रहनुमाई से महरूम कर दिया जाता, बल्कि इसका नतीजा हमेशा यही हुआ है कि जो लोग बातिल-परस्ती (असत्यवाद) के नशे और अपनी ताक़त के घमण्ड में बदमस्त होकर नबियों (अलैहि०) का मज़ाक़ उड़ाने से बाज़ न आएँ, उन्हें आख़िरकार तबाह कर दिया गया। फिर जब अल्लाह का क़हर टूट पड़ा तो जिस ताक़त के बल पर ये क़ुरैश के छोटे-छोटे सरादार अकड़ रहे हैं, उससे हज़ारों गुनी ज़्यादा ताक़त रखनेवाले भी मच्छर और पिस्सू की तरह मसलकर रख दिए गए।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ لَيَقُولُنَّ خَلَقَهُنَّ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 6
(9) अगर तुम इन लोगों से पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है तो ये ख़ुद कहेंगे कि “इन्हें उसी ज़बरदस्त, सब कुछ जाननेवाली हस्ती ने पैदा किया है।"
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ مَهۡدٗا وَجَعَلَ لَكُمۡ فِيهَا سُبُلٗا لَّعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 7
(10) वही न जिसने तुम्हारे लिए इस ज़मीन को गहवारा बनाया7 और उसमें तुम्हारी ख़ातिर8 रास्ते बना दिए8 ताकि तुम अपनी अस्ल मंज़िल पा सको।9
7. दूसरी जगहों पर तो ज़मीन को फ़र्श कहा गया है, मगर यहाँ उसके लिए गहवारे (पालने) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। यानी जिस तरह एक बच्चा अपने पालने में आराम से लेटा होता है, ऐसे आराम की जगह तुम्हारे लिए इस अज़ीमुश्शान (ज़मीन) के गोले को बना दिया जो फ़िज़ा में लटका हुआ है। जो एक हज़ार मील प्रति घण्टा की रफ़्तार से अपनी धुरी पर घूम रहा है। जो 66600 मील फ़ी घण्टा की रफ़्तार से भाग रहा है, जिसके पेट में वह आग भरी है कि पत्थरों को पिघला देती है और ज्वालामुखियों की शक्ल में लावा उगलकर कभी-कभी तुम्हें भी अपनी शान दिखा देती है। मगर इसके बावजूद तुम्हारे पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने इसे इतना पुरसुकून बना दिया है कि तुम आराम से इसपर सोते हो और तुम्हें ज़रा झटका तक नहीं लगता। तुम इसपर रहते हो और तुम्हें यह महसूस तक नहीं होता कि यह गोला लटका हुआ है और तुम इसपर सर के बल लटके हुए हो। तुम इत्मीनान से उसपर चलते-फिरते हो और तुम्हें यह ख़याल तक नहीं आता कि तुम बन्दूक़ की गोली से भी ज़्यादा तेज़ रफ़्तार गाड़ी पर सवार हो। बिना झिझक उसे खोदते हो, उसका सीना चीरते हो, तरह-तरह से उसको पीटकर अपनी रोज़ी उससे वुसूल करते हो, हालाँकि इसकी एक मामूली-सी झुरझुरी कभी ज़लज़ले की शक्ल में आकर तुम्हें ख़बर दे देती है कि यह किस बला का ख़ौफ़नाक देव है जिसे अल्लाह ने तुम्हारी ख़िदमत पर लगा रखा है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिए—74, 75)
8. पहाड़ों के बीच-बीच में दर्रे और फिर पहाड़ी और मैदानी इलाक़ों में नदियाँ वे क़ुदरती रास्ते हैं जो अल्लाह ने ज़मीन की पीठ पर बना दिए हैं। इनसान इन्हीं की मदद से ज़मीन के इस गोले पर फैला है। अगर पहाड़ी सिलसिलों को किसी दर्रे के बिना बिलकुल ठोस दीवार के रूप में खड़ा कर दिया जाता और ज़मीन में कहीं समुद्र, नदियाँ-नाले न होते तो आदमी जहाँ पैदा हुआ था, उसी इलाक़े में क़ैद होकर रह जाता। फिर अल्लाह ने और ज़्यादा मेहरबानी यह की तमाम धरती को एक जैसी नहीं बनाकर रख दिया, बल्कि उसमें तरह-तरह के ऐसे पहचान के लिए निशान (Land Marks) क़ायम कर दिए जिनकी मदद से इनसान अलग-अलग इलाक़ों को पहचानता है और एक इलाक़े और दूसरे इलाक़े का फ़र्क़ महसूस करता है। यह दूसरा अहम ज़रिआ है जिसकी वजह से इनसान के लिए ज़मीन में चलना-फिरना और आना-जाना आसान हुआ। इस नेमत की क़द्र आदमी को उस वक़्त मालूम होती है जब उसे किसी वीरान रेगिस्तान में जाने का इत्तिफ़ाक़ होता है, जहाँ सैंकड़ों मील तक ज़मीन हर तरह के पहचान के निशानों और अलामतों से ख़ाली होती है और आदमी को कुछ पता नहीं चलता कि वह कहाँ से कहाँ पहुँचा है और आगे किधर जाए।
9. यह जुमला एक ही वक़्त में दो मतलब दे रहा है। एक मतलब यह कि तुम इन क़ुदरती रास्तों और रास्ते के इन निशानों की मदद से अपना रास्ता मालूम कर सको और उस जगह तक पहुँच सको जहाँ जाना चाहते हो। दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह तआला की इस कारीगरी को देखकर तुम हिदायत हासिल कर सको, अस्ल हक़ीक़त को पा सको और यह समझ सको कि ज़मीन में यह इन्तिज़ाम यूँ ही अलल-टप नहीं हो गया है, न बहुत-से ख़ुदाओं ने मिलकर यह तदबीर की है, बल्कि एक हिकमतवाला रब है जिसने अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) की ज़रूरतों को सामने रखकर पहाड़ों और मैदानों में ये रास्ते बनाए हैं और ज़मीन के एक-एक इलाक़े को अनगिनत तरीक़ों से एक अलग शक्ल दी है जिसकी बदौलत इनसान हर इलाक़े को दूसरे से अलग महसूस कर सकता है।
وَٱلَّذِي نَزَّلَ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءَۢ بِقَدَرٖ فَأَنشَرۡنَا بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗاۚ كَذَٰلِكَ تُخۡرَجُونَ ۝ 8
(11) जिसने एक ख़ास मिक़दार (मात्रा) में आसमान से पानी उतारा10 और उसके ज़रिए से मुर्दा ज़मीन को जिला उठाया, इसी तरह एक दिन तुम ज़मीन से निकाले जाओगे11
10. यानी हर इलाक़े के लिए बारिश की एक औसत मिक़दार (मात्रा) मुक़र्रर की जो लम्बी मुद्दत तक साल-दर-साल एक ही हमवार तरीक़े से चलती रहती है। इसमें ऐसी बेक़ायदगी नहीं रखी कि कभी साल में दो इंच बारिश हो और कभी दो सौ इंच हो जाए। फिर वह उसको अलग-अलग ज़मानों में और अलग-अलग वक़्तों में जगह-जगह फैलाकर इस तरह बरसाता है कि आम तौर से वह बड़े पैमाने पर ज़मीन के उपजाऊ बनने के लिए फ़ायदेमन्द होती है और यह भी उसकी हिकमत ही है कि ज़मीन के कुछ हिस्सों को उसने बारिश से क़रीब-क़रीब बिलकुल महरूम करके बंजर बना दिया है और कुछ दूसरे हिस्सों को वह सूखाग्रस्त कर देता है और कभी तूफ़ानी बारिश कर देता है, ताकि आदमी यह जान सके कि ज़मीन के आबाद इलाक़ों में बारिश और उसका आम बाक़ायदगी से आना बड़ी नेमत है और यह भी उसको याद रहे कि इस निज़ाम पर कोई दूसरी ताक़त हुक्मराँ है जिसके फ़ैसलों के आगे किसी की कुछ नहीं चलती। किसी में यह ताक़त नहीं है कि एक देश में बारिश के आम औसत को बदल सके, या ज़मीन के बड़े इलाक़ों पर उसकी तक़सीम में फ़र्क़ डाल सके, या किसी आते हुए तूफ़ान को रोक सके, या रूठे हुए बादलों को मनाकर अपने देश की तरफ़ खींच लाए और उन्हें बरसने पर मजबूर कर दे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिए—13, 14; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-17, 18)
11. यहाँ पानी के ज़रिए से ज़मीन के अन्दर पेड़-पौधों की पैदाइश को एक ही वक़्त में दो चीज़ों की दलील ठहराया गया है। एक यह कि ये काम अकेले एक ख़ुदा की क़ुदरत और हिकमत से हो रहे हैं, कोई दूसरा इस ख़ुदाई काम में उसका शरीक नहीं है। दूसरी यह कि मौत के के बाद दोबारा ज़िन्दगी हो सकती है और होगी। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-53 (अ); सूरा-22 हज, हाशिया-79; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-73; सूरा-30 रूम, हाशिए—25, 34, 35; सूरा-35 फ़ातिर, हाशिया-19; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-29)
وَٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا وَجَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلۡفُلۡكِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ مَا تَرۡكَبُونَ ۝ 9
(12) वही जिसने ये तमाम जोड़े पैदा किए,12 और जिसने तुम्हारे लिए नावों और जानवरों को सवारी बनाया,
12. जोड़ों से मुराद सिर्फ़ इनसानों के औरत-मर्द और जानवरों और पेड़-पौधों ही के नर-मादा नहीं हैं, बल्कि दूसरी अनगिनत चीज़ें भी हैं जिनको पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने एक-दूसरे का जोड़ बनाया है और जिनके बाहम मिलने या मिलावट से दुनिया में नई-नई चीज़ें वुजूद में आती हैं।
لِتَسۡتَوُۥاْ عَلَىٰ ظُهُورِهِۦ ثُمَّ تَذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ رَبِّكُمۡ إِذَا ٱسۡتَوَيۡتُمۡ عَلَيۡهِ وَتَقُولُواْ سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي سَخَّرَ لَنَا هَٰذَا وَمَا كُنَّا لَهُۥ مُقۡرِنِينَ ۝ 10
(13) ताकि तुम उनकी पीठ पर चढ़ो और जब उनपर बैठो तो अपने रब का एहसान याद करो और कहो कि “पाक है वह जिसने हमारे लिए इन चीज़ों को ख़िदमतगार बनाया वरना हम इन्हें क़ाबू में लाने की ताक़त न रखते थे।13
13. यानी ज़मीन के तमाम जानदारों में से अकेले इनसान को नावें और जहाज़ चलाने और सवारी के लिए जानवर इस्तेमाल करने की यह क़ुदरत अल्लाह तआला ने इसलिए तो नहीं दी थी कि अनाज की बोरियों की तरह उनपर लद जाए और कभी न सोचे कि आख़िर वह कौन है जिसने हमारे लिए इतने गहरे और दूर फैले समुद्र में जहाज़ दौड़ाने के इमकान पैदा किए और जिसने जानवरों की अनगिनत क़िस्मों में से कुछ को इस तरह पैदा किया कि वे हमसे कई गुना ताक़तवर होने के बावजूद हमारे हुक्म के पाबन्द बन जाते हैं और हम उनपर सवार होकर जिधर चाहते हैं, उन्हें लिए फिरते हैं। इन नेमतों से फ़ायदा उठाना और नेमत देनेवाले को भुला देना, दिल के मुर्दा और अक़्ल और ज़मीर (अन्तरात्मा) के बेहिस (संवेदनहीन) होने की निशानी है। एक ज़िन्दा और हस्सास (संवेदनशील) दिल और ज़मीर रखनेवाला इनसान तो इन सवारियों पर जब बैठेगा तो उसका दिल नेमत के एहसास और शुक्र के ज़ज़्बे से भर जाएगा। वह पुकार उठेगा कि पाक है वह हस्ती जिसने इन चीज़ों को मेरी ख़िदमत में लगाया। पाक है इससे कि उसके वुजूद, सिफ़ात और अधिकारों में कोई उसका शरीक हो। पाक है इस कमज़ोरी से कि अपनी ख़ुदाई का काम ख़ुद चलाने से वह आजिज़ हो और दूसरे मददगार ख़ुदाओं की उसे ज़रूरत पेश आए। पाक है इससे कि मैं इन नेमतों का शुक्रिया अदा करने में उसके साथ किसी और को शरीक करूँ। इस आयत के मंशा की बेहतरीन अमली तफ़सीर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की वे दुआएँ हैं जो सवारियों पर बैठते वक़्त आप (सल्ल०) की मुबारक ज़बान पर जारी होती थीं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि नबी (सल्ल०) जब सफ़र पर जाने के लिए सवारी पर बैठते तो तीन बार 'अल्लाहु-अकबर' कहते, फिर यह आयत पढ़ते और इसके बाद यह दुआ माँगा करते थे, “अल्लाहुम-म इन्नी अस-अलु-क फ़ी स-फ़री हाज़ल-बिर-र वत-तक़वा, व मिनल-अ-मलि मा तरज़ा, अल्लाहुम-म हव्विन अलैनस स-फ़-र, हाज़ा वतव-ल-नल बईद, अल्लाहुम-म अन्तस्साहिबु फ़िस-स-फ़रि वल-ख़लीफ़तु फ़िल-अहलि अल्लाहुम-म असहिब्ना फ़ी स-फ़रिना वख़ूलुफ़ना फ़ी अहलिना” यानी “ऐ अल्लाह! मैं तुझसे दरख़ास्त करता हूँ कि मेरे इस सफ़र में मुझे नेकी और तक़वा और ऐसे अमल का बेहतरीन मौक़ा दे, जो तुझे पसन्द हो, ऐ अल्लाह! हमारे इस सफ़र को आसान कर दे और लम्बे सफ़र को कम कर दे, ऐ अल्लाह! तू ही सफ़र का साथी और हमारे पीछे हमारे घरवालों का निगहबान है, ऐ अल्लाह! हमारे सफ़र में हमारे साथ रहना और पीछे हमारे घरवालों की ख़बर रखना।" (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, नसई, दारमी, तिरमिज़ी) हज़रत अली (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बिसमिल्लाह कहकर रकाब में पाँव रखा, फिर सवार होने के बाद फ़रमाया, “अल-हम्दुलिल्लाह, सुब्हानल्लज़ी सख़्ख़-र लना हाज़ा वमा कुन्ना लहू मुक़रिनीन” फिर तीन बार “अल-हम्दुलिल्लाह” और तीन बार “अल्लाहु-अकबर” कहा, फिर फ़रमाया, “सुबहा-न-क ला इला-ह इल्ला अन-त, क़द ज़लम्तु नफ़्सी फ़ग़ाफ़िरली”। इसके बाद आप हँस दिए। मैंने पूछा, ऐ अल्लाह के रसूल! आप हँसे किस बात पर? फ़रमाया, “बन्दा जब ‘रब्बिग़फ़िरली' कहता है तो अल्लाह तबारक व तआला को उसकी यह बात बड़ी पसन्द आती है, वह फ़रमाता है कि मेरा यह बन्दा जानता है कि मेरे सिवा माफ़ करनेवाला कोई और नहीं है। (हदीस : अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई वग़ैरा)। एक साहब अबू-मिजलज़ बयान करते हैं कि एक बार मैं जानवर पर सवार हुआ और मैंने आयत “सुब्हानल्लज़ी सख़्ख़-र लना हाज़ा......” पढ़ी। हज़रत हसन (रज़ि०) ने फ़रमाया, “क्या इस तरह करने का तुम्हें हुक्म दिया गया है?” मैंने कहा, “फिर क्या कहूँ?” फ़रमाया, “यूँ कहो कि शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने हमें इस्लाम की हिदायत दी, शुक्र है उसका कि उसने मुहम्मद (सल्ल०) को भेजकर हमपर एहसान फ़रमाया, शुक्र है उसका कि उसने हमें उस बेहतरीन उम्मत में दाख़िल किया जो ख़ुदा के बन्दों के लिए निकाली गई है, उसके बाद यह आयत पढ़ो।” (इब्ने-जरीर, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)।
وَإِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا لَمُنقَلِبُونَ ۝ 11
(14) और एक दिन हमें अपने रब की तरफ़ पलटना है।"14
14. मतलब यह है कि हर सफ़र पर जाते हुए याद कर लो कि आगे एक बड़ा और आख़िरी सफ़र भी पेश आनेवाला है। इसके अलावा चूँकि हर सवारी को इस्तेमाल करने में यह इमकान भी होता है कि शायद कोई हादिसा इसी सफ़र को आदमी का आख़िरी सफ़र बना दे, इसलिए बहतर है कि हर बार वह अपने रब की तरफ़ वापसी को याद करके चले, ताकि अगर मरना ही है तो बेख़बर न मरे। यहाँ थोड़ी देर ठहरकर ज़रा इस तालीम के अख़लाक़ी नतीजों का भी अन्दाज़ा कर लीजिए। क्या आप यह सोच सकते हैं कि जो शख़्स किसी सवारी पर बैठते वक़्त समझ-बूझकर पूरे होशो-हवास के साथ इस तरह अल्लाह को और उसके सामने अपनी वापसी और जवाबदेही को याद करके चला हो वह आगे जाकर नाफ़रमानी, गुनाह या किसी ज़ुल्मो-सितम का जुर्म करेगा? क्या किसी ग़लत औरत से मुलाक़ात के लिए, या किसी क्लब में शराब पीने और जूआ खेलने के लिए जाते वक़्त भी कोई शख़्स ये कलिमे ज़बान से निकाल सकता है या उनका ख़याल कर सकता है? क्या कोई हाकिम, या सरकारी अधिकारी, या कारोबारी, जो यह कुछ सोचकर और अपने मुँह से कहकर घर से चला हो, अपने काम की जगह पर पहुँचकर लोगों के हक़ मार सकता है? क्या कोई सिपाही बेगुनाहों का ख़ून बहाने और कमज़ोरों की आज़ादी पर डाका मारने के लिए जाते वक़्त भी अपने हवाई जहाज़ या तोप पर क़दम रखते हुए ये अलफ़ाज़ ज़बान पर ला सकता है? अगर नहीं, तो यही एक चीज़ हर उस चलत-फिरत पर रोक लगा देने के लिए काफ़ी है जो गुनाह और बुराई के लिए हो।
وَجَعَلُواْ لَهُۥ مِنۡ عِبَادِهِۦ جُزۡءًاۚ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَكَفُورٞ مُّبِينٌ ۝ 12
(15) (यह सब कुछ जानते और मानते हुए भी) इन लोगों ने उसके बन्दों में से कुछ को उसका हिस्सा (अंश) बना डाला,15 हक़ीक़त यह है कि इनसान खुला एहसान- फ़रामोश है।
15. 'हिस्सा बना देने' से मुराद यह है कि अल्लाह के किसी बन्दे को उसकी औलाद ठहरा दिया जाए, क्योंकि औलाद हर हाल में बाप की जिंस (जाति) और उसके वुजूद का एक हिस्सा होती है और किसी शख़्स को अल्लाह का बेटा या बेटी कहने का मतलब ही यह है कि उसे अल्लाह की ज़ात में शरीक किया जा रहा है। इसके अलावा किसी मख़लूक़ (सृष्टि) को अल्लाह का हिस्सा बनाने की एक शक्ल यह भी है कि उसे उन सिफ़ात (गुणों) और अधिकारोंवाला ठहरा दिया जाए जो अल्लाह ही के साथ ख़ास हैं और इसी तसव्वुर के तहत उससे दुआएँ माँगी जाएँ, या उसके आगे इबादत की रस्में अदा की जाएँ, या उसके ठहराए हुए हराम और हलाल को पैरवी के लिए वाजिबे-शरीअत ठहरा लिया जाए, क्योंकि इस सूरत में आदमी उलूहियत (माबूद होने की सिफ़त) और रुबूबियत (पालनहार होने की सिफ़त) को अल्लाह और उसके बन्दों के बीच बाँटता है और उसका एक हिस्सा बन्दों के हवाले कर देता है।
أَمِ ٱتَّخَذَ مِمَّا يَخۡلُقُ بَنَاتٖ وَأَصۡفَىٰكُم بِٱلۡبَنِينَ ۝ 13
(16) क्या अल्लाह ने अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) में से अपने लिए बेटियाँ चुनी और तुम्हें बेटे दिए?
وَإِذَا بُشِّرَ أَحَدُهُم بِمَا ضَرَبَ لِلرَّحۡمَٰنِ مَثَلٗا ظَلَّ وَجۡهُهُۥ مُسۡوَدّٗا وَهُوَ كَظِيمٌ ۝ 14
(17) और हाल यह है कि जिस औलाद को ये लोग उस मेहरबान ख़ुदा से जोड़ते हैं, उसकी पैदाइश की ख़ुशख़बरी जब ख़ुद इनमें से किसी को दी जाती है उसके मुँह पर स्याही छा जाती है और वह ग़म से भर जाता है।16
16. यहाँ अरब के मुशरिक लोगों की ग़लती और नासमझी को पूरी तरह बेनक़ाब करके रख दिया गया है। वे कहते थे कि फ़रिश्ते अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनके बुत उन्होंने औरतों की शक्ल के बना रखे थे और यही उनकी वे देवियाँ थीं जिनकी पूजा की जाती थी। इसपर अल्लाह तआला फ़रमाता है कि अव्वल तो तुम यह जानने और मानने के बावजूद कि ज़मीन और आसमान का पैदा करनेवाला अल्लाह है और इस ज़मीन को उसी ने तुम्हारे लिए गहवारा बनाया है और वही आसमान से पानी बरसाता है और उसी ने ये जानवर तुम्हारी ख़िदमत के लिए पैदा किए हैं, उसके साथ दूसरों को माबूद बनाया। हालाँकि जिन्हें तुम माबूद बना रहे हो वे ख़ुदा नहीं, बल्कि बन्दे हैं। फिर और ज़्यादा ग़ज़ब यह किया कि कुछ बन्दों को अल्लाह की सिफ़ात (गुणों) ही में नहीं, बल्कि अल्लाह की ज़ात में भी उसका शरीक बना डाला और यह अक़ीदा ईजाद किया कि वे अल्लाह की औलाद हैं। इसपर भी तुमने बस न किया और अल्लाह के लिए वह औलाद ठहराई जिसे तुम ख़ुद अपने लिए शर्म और तौहीन की बात समझते हो। बेटी घर में पैदा हो जाए तो तुम्हारा मुँह काला हो जाता है, ख़ून का-सा घूँट पीकर रह जाते हो, बल्कि कभी-कभी तो ज़िन्दा बच्ची को दफ़न कर देते हो। यह औलाद तो आई अल्लाह के हिस्से में और बेटे, जो तुम्हारे नज़दीक फ़ख़्र (गर्व) के क़ाबिल औलाद हैं, ख़ास हो गए तुम्हारे लिए? इसपर तुम्हारा दावा यह है कि हम अल्लाह के माननेवाले हैं।
أَوَمَن يُنَشَّؤُاْ فِي ٱلۡحِلۡيَةِ وَهُوَ فِي ٱلۡخِصَامِ غَيۡرُ مُبِينٖ ۝ 15
(18) क्या अल्लाह के हिस्से में वह औलाद आई जो ज़ेवरों में पाली जाती है और बातचीत (वाद-विवाद) में अपना मक़सद पूरी तरह बयान भी नहीं कर सकती?17
17. दूसरे अलफ़ाज़ में जो नर्म व नाज़ुक और ज़ईफ़ व कमज़ोर औलाद है वह तुमने अल्लाह के हिस्से में डाली और ताल ठोंककर मैदान में उतरनेवाली औलाद ख़ुद ले उड़े। इस आयत से यह पहलू निकलता है कि औरतों के लिए ज़ेवर पहनना जाइज़ है, क्योंकि अल्लाह तआला ने उसके लिए ज़ेवर को एक फ़ितरी चीज़ ठहराया है। यही बात हदीसों से भी साबित है। इमाम अहमद, अबू-दाऊद और नसई हज़रत अली (रज़ि०) से रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने एक हाथ में रेशम और दूसरे हाथ में सोना लेकर फ़रमाया, “ये दोनों चीज़ें लिबास में इस्तेमाल करना मेरी उम्मत के मर्दों पर हराम हैं।” तिरमिज़ी और नसई ने हज़रत अबू-मूसा अशअरी की रिवायत नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “रेशम और सोना पहनना मेरी उम्मत की औरतों के लिए हलाल और मर्दों पर हराम किया गया।” अल्लामा अबू-बक्र जस्सास (रह०) ने अहकामुल-क़ुरआन में इस मसले पर बहस करते हुए नीचे लिखी रिवायतें नक़्ल की हैं— हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि एक बार हज़रत ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०) के बेटे उसामा-बिन-ज़ैद को चोट लग गई और ख़ून बहने लगा। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को उनसे अपनी औलाद जैसी मुहब्बत थी। आप (सल्ल०) उनका ख़ून चूस-चूसकर थूकते जाते और उनको यह कहकर बहलाते जाते कि उसामा अगर बेटी होता तो हम उसे ज़ेवर पहनाते, उसामा अगर बेटी होता तो हम उसे अच्छे-अच्छे (यानी रेशमी) कपड़े पहनाते। हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “रेशमी कपड़े और सोने के ज़ेवर पहनना मेरी उम्मत के मर्दों पर हराम और औरतों के लिए हलाल है।" हज़रत अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि एक बार दो औरतें नबी (सल्ल०) के पास आईं और वे सोने के कंगन पहने हुए थीं। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या तुम पसन्द करती हो कि अल्लाह तुम्हें इनके बदले आग के कंगन पहनाए?” उन्होंने कहा, “नहीं।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तो इनका हक़ अदा करो, यानी इनकी ज़कात निकालो।" हज़रत आइशा (रज़ि०) का क़ौल (कहना) है कि ज़ेवर पहनने में कोई हरज नहीं, शर्त यह है कि उसकी ज़कात अदा की जाए। हज़रत उमर (रज़ि०) ने हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) को लिखा कि तुम्हारी हुकूमत में जो मुसलमान औरतें रहती हैं, उनको हुक्म दो कि अपने ज़ेवरों की ज़कात निकालें। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने अम्र-बिन-दीनार के हवाले से यह रिवायतें नक़्ल की हैं कि हज़रत आइशा (रज़ि०) ने अपनी बहनों को और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने अपनी बेटियों को सोने के ज़ेवर पहनाए थे। तमाम रिवायतों को नक़्ल करने के बाद अल्लामा अबू-बक्र जस्सास लिखते हैं कि “नबी (सल्ल०) और सहाबा (रज़ि०) से जो रिवायतें औरतों के लिए सोने और रेशम के हलाल होने के बारे में आई हैं, वे जाइज़ न होने की रिवायतों से ज़्यादा मशहूर और नुमायाँ हैं और ऊपर बयान की गई आयत भी इसके जाइज़ होने पर दलील दे रही है। फिर उम्मत का अमल भी नबी (सल्ल०) और सहाबा के ज़माने से हमारे ज़माने (यानी चौथी सदी हिजरी के आख़िरी दौर) तक यही रहा है, बिना इसके कि किसी ने इसपर एतिराज़ किया हो। इस तरह के मसलों में 'अख़बारे-अहाद' (सिर्फ़ किसी एक रावी की बयान की हुई रिवायतों) की बुनियाद पर कोई एतिराज़ माना नहीं जा सकता।"
وَجَعَلُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ ٱلَّذِينَ هُمۡ عِبَٰدُ ٱلرَّحۡمَٰنِ إِنَٰثًاۚ أَشَهِدُواْ خَلۡقَهُمۡۚ سَتُكۡتَبُ شَهَٰدَتُهُمۡ وَيُسۡـَٔلُونَ ۝ 16
(19) उन्होंने फ़रिश्तों को, जो मेहरबान ख़ुदा के ख़ास बन्दे हैं,18 औरतें ठहरा लिया। क्या उनके जिस्म की बनावट इन्होंने देखी है?19 इनकी गवाही लिख ली जाएगी और इन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी।
18. यानी नर या मादा होने से आज़ाद हैं। यह मतलब मौक़ा-महल से ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ाहिर हो रहा है।
19. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “क्या उनकी पैदाइश के वक़्त ये मौजूद थे?"
وَقَالُواْ لَوۡ شَآءَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مَا عَبَدۡنَٰهُمۗ مَّا لَهُم بِذَٰلِكَ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِنۡ هُمۡ إِلَّا يَخۡرُصُونَ ۝ 17
(20) ये कहते हैं, “अगर मेहरबान ख़ुदा चाहता (कि हम उनकी इबादत न करें) तो हम कभी उनको न पूजते।"20 ये इस मामले की हक़ीक़त को बिलकुल नहीं जानते, सिर्फ़ तीर-तुक्के लड़ाते हैं।
20. यह अपनी गुमराही पर तक़दीर से उनकी दलील थी जो हमेशा से बुरे काम करनेवाले लोगों का तरीक़ा रहा है। उनका कहना यह था कि हमारा फ़रिश्तों की इबादत करना इसी लिए तो मुमकिन हुआ कि अल्लाह ने हमें यह काम करने दिया। अगर वह न चाहता कि हम यह काम करें तो हम कैसे कर सकते थे। फिर एक लम्बी मुद्दत से हमारे यहाँ यह काम हो रहा है और अल्लाह की तरफ़ से इसपर कोई अज़ाब न आया। इसका मतलब यह है कि अल्लाह को हमारा यह काम नापसन्द नहीं है।
أَمۡ ءَاتَيۡنَٰهُمۡ كِتَٰبٗا مِّن قَبۡلِهِۦ فَهُم بِهِۦ مُسۡتَمۡسِكُونَ ۝ 18
(21) क्या हमने इससे पहले कोई किताब इनको दी थी जिसकी सनद (अपनी इस फ़रिश्तों की पूजा के लिए) ये अपने पास रखते हों?21
21. मतलब यह है कि ये लोग अपनी जहालत से यह समझते हैं कि जो कुछ दुनिया में हो रहा है वह चूँकि अल्लाह की मशीयत (मरज़ी) के तहत हो रहा है, इसलिए ज़रूर इसको अल्लाह की रिज़ा (ख़ुशी) भी हासिल है। हालाँकि अगर यह दलील सही हो तो दुनिया में सिर्फ़ एक शिर्क ही तो नहीं हो रहा है। चोरी, डाका, क़त्ल, बदकारी, रिश्वत, वादा ख़िलाफ़ी और ऐसे ही दूसरे अनगिनत जुर्म भी हो रहे हैं जिन्हें कोई आदमी भी नेकी और भलाई नहीं समझता। फिर क्या दलील देने के इसी अन्दाज़ की बुनियाद पर यह भी कहा जाएगा कि ये तमाम काम हलाल और पाक हैं, क्योंकि अल्लाह अपनी दुनिया में इन्हें होने दे रहा है और जब वह इन्हें होने दे रहा है तो ज़रूर वह इनको पसन्द भी करता है? अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का ज़रिआ वे वाक़िआत नहीं हैं जो दुनिया में हो रहे हैं, बल्कि अल्लाह की किताब है जो उसके रसूल के ज़रिए से आती है और जिसमें अल्लाह ख़ुद बताता है कि उसके कौन से अक़ीदे, कौन से काम और कौन से अख़लाक़ पसन्द हैं और कौन से नापसन्द। इसलिए अगर क़ुरआन से पहले आई हुई कोई किताब इन लोगों के पास ऐसी मौजूद हो जिसमें अल्लाह ने यह फ़रमाया हो कि फ़रिश्ते भी मेरे साथ तुम्हारे माबूद हैं और तुमको उनकी इबादत भी करनी चाहिए, तो ये लोग उसका हवाला दें। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—71, 79, 80, 110, 124 से 125; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-16; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-101; सूरा-11 हूद, हाशिया-116; सूरा-13 रअद, हाशिया-49; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—10, 31, 94; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-20; सूरा-42 शूरा, हाशिया-11)
بَلۡ قَالُوٓاْ إِنَّا وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا عَلَىٰٓ أُمَّةٖ وَإِنَّا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم مُّهۡتَدُونَ ۝ 19
(22) नहीं, बल्कि ये कहते हैं कि हमने अपने बाप-दादा को एक तरीक़े पर पाया है और हम उन्हीं के नक़्शे-क़दम पर चल रहे हैं।22
22. यानी इनके पास अल्लाह की किसी किताब की कोई सनद नहीं है, बल्कि सनद सिर्फ़ यह है कि बाप-दादा से यूँ ही होता चला आ रहा है, इसलिए हम भी उनकी पैरवी में फ़रिश्तों को देवियाँ बनाए बैठे हैं।
وَكَذَٰلِكَ مَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ فِي قَرۡيَةٖ مِّن نَّذِيرٍ إِلَّا قَالَ مُتۡرَفُوهَآ إِنَّا وَجَدۡنَآ ءَابَآءَنَا عَلَىٰٓ أُمَّةٖ وَإِنَّا عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِم مُّقۡتَدُونَ ۝ 20
(23) इसी तरह तुमसे पहले जिस बस्ती में भी हमने कोई ख़बरदार करनेवाला भेजा, उसके खाते-पीते लोगों ने यही कहा कि हमने अपने बाप-दादा को एक तरीक़े पर पाया है और हम उन्हीं के नक़्शे-क़दम की पैरवी कर रहे हैं।23
23. यह बात ग़ौर करने के क़ाबिल है कि नबियों (अलैहि०) के मुक़ाबले में उठकर बाप-दादा की पैरवी का झण्डा बुलन्द करनेवाले हर ज़माने में अपनी क़ौम के खाते-पीते लोग ही क्यों रहे हैं? आख़िर क्या वजह है कि वही हक़ की मुख़ालफ़त में आगे-आगे और पहले से क़ायम जाहिलियत को बनाए रखने की कोशिश में सरगर्म रहे और वहीं आम लोगों को बहका और भड़काकर नबियों (अलैहि०) के ख़िलाफ़ फ़ितने उठाते रहे? इसकी बुनियादी वजहें दो थीं। एक, यह कि खाते-पीते और ख़ुशहाल लोग अपनी दुनिया बनाने और उससे मज़े लेने में इतने ज़्यादा लगे रहते हैं कि सही और ग़लत की, उनकी अपनी समझ और अक़्ल के मुताबिक़, बेकार की बहस में सर खपाने के लिए तैयार नहीं होते। उनका ज़ेहन और जिस्म दोनों से आलसी होना, उन्हें दीन के मामले में इन्तिहाई बेफ़िक्र और इसके साथ अमली तौर पर क़दामतपसन्द (Conservative) बना देता है, ताकि जो हालत पहले से क़ायम चली आ रही है वही, यह देखे बग़ैर कि वह सही है या ग़लत है, ज्यों-की-त्यों क़ायम रहे और किसी नए निज़ाम (व्यवस्था) के बारे में सोचने की तकलीफ़ न उठानी पड़े। दूसरे, यह कि पहले से क़ायम निज़ाम से उनके फ़ायदे पूरी तरह से जुड़ चुके होते हैं और नबियों (अलैहि०) के पेश किए हुए निज़ाम को देखकर पहली ही नज़र में वे भाँप जाते हैं कि यह आएगा तो उनकी चौधराहट की बिसात भी लपेटकर रख दी जाएगी और उनके लिए हराम खाने और हराम काम करने की भी कोई आज़ादी बाक़ी न रहेगी। (और ज़्यादा तशरीह के लिए दखिए, तफ़हीमुल-क़ुरआन सूरा-6 अनआम, हाशिया-91; सूरा-7 आराफ़, हाशिए—46, 53, 58, 74, 88, 92; सूरा-11 हूद, हाशिए—31, 32, 41; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-18; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—26, 27, 35; सूरा-34 सबा, आयत-34, हाशिया-54)
۞قَٰلَ أَوَلَوۡ جِئۡتُكُم بِأَهۡدَىٰ مِمَّا وَجَدتُّمۡ عَلَيۡهِ ءَابَآءَكُمۡۖ قَالُوٓاْ إِنَّا بِمَآ أُرۡسِلۡتُم بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 21
(24) हर नबी ने उनसे पूछा, क्या तुम उसी डगर पर चले जाओगे, चाहे मैं उस रास्ते से ज़्यादा सही रास्ता तुम्हें बताऊँ जिसपर तुमने अपने बाप-दादा को पाया है? उन्होंने सारे रसूलों को यही जवाब दिया कि जिस दीन की तरफ़ बुलाने के लिए तुम भेजे गए हो, हम उसका इनकार करते हैं।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡۖ فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 22
(25) आख़िरकार हमने उनकी ख़बर ले डाली और देख लो कि झुठलानेवालों का क्या अंजाम हुआ।
وَإِذۡ قَالَ إِبۡرَٰهِيمُ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦٓ إِنَّنِي بَرَآءٞ مِّمَّا تَعۡبُدُونَ ۝ 23
(26) याद करो वह वक़्त जब इबराहीम ने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा था24 कि “तुम जिनकी बन्दगी करते हो मेरा उनसे कोई ताल्लुक़ नहीं।
24. तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—124 से 133; सूरा-6 अनआम, हाशिए—50 से 55; सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—46 से 53; सूरा-19 मरयम, हाशिए—26, 27; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—54 से 66; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—50 से 62; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—26 से 47; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—83 से 100, हाशिए 44 से 55।
إِلَّا ٱلَّذِي فَطَرَنِي فَإِنَّهُۥ سَيَهۡدِينِ ۝ 24
(27) मेरा ताल्लुक़ सिर्फ़ उससे है जिसने मुझे पैदा किया, वही मेरी रहनुमाई करेगा।"25
25. इन अलफ़ाज़ में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने सिर्फ़ अपना अक़ीदा ही बयान नहीं किया, बल्कि इसकी दलील भी दे दी। दूसरे माबूदों से ताल्लुक़ न रखने की वजह यह है कि न उन्होंने पैदा किया है, न वे किसी मामले में सही रहनुमाई करते हैं, न कर सकते हैं और सिर्फ़ अल्लाह से, जिसका कोई शरीक नहीं, ताल्लुक़ जोड़ने की वजह यह है कि वही पैदा करनेवाला है और वही इनसान की सही रहनुमाई करता है और कर सकता है।
وَجَعَلَهَا كَلِمَةَۢ بَاقِيَةٗ فِي عَقِبِهِۦ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 25
(28) और इबराहीम यही कलिमा26 अपने पीछे छोड़ गया, ताकि वे इसकी तरफ़ रुजू करें।27
26. यानी यह बात कि पैदा करनेवाले के सिवा कोई माबूद होने का हक़दार नहीं है।
27. यानी जब भी सीधे रास्ते से ज़रा क़दम हटे तो यह कलिमा उनकी रहनुमाई के लिए मौजूद रहे और वे इसी की तरफ़ पलट आएँ। इस वाक़िए को जिस मक़सद से यहाँ बयान किया गया है, वह यह है कि क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के ग़लत होने को पूरी तरह बेनक़ाब कर दिया जाए और उन्हें इस बात पर शर्म दिलाई जाए कि तुमने बुज़ुर्गों की पैरवी की भी तो उसके लिए अपने बेहतरीन बुज़ुर्गों को छोड़कर अपने सबसे बुरे बुज़ुर्गों को चुना। अरब में क़ुरैश की सरदारी जिस बुनियाद पर चल रही थी, वह तो यह थी कि वे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की औलाद थे और उनके बनाए हुए काबे की मुजाविरी कर रहे थे। इसलिए उन्हें पैरवी उनकी करनी चाहिए थी, न कि अपने उन जाहिल बुज़ुर्गों की जिन्होंने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) के तरीक़े को छोड़कर आस-पास की बुतपरस्त क़ौमों से शिर्क सीख लिया। फिर इस वाक़िए को बयान करके एक और पहलू से भी उन गुमराह लोगों की ग़लती बताई गई है। वह यह है कि सही-ग़लत का फ़र्क़ किए बिना अगर आँखें बन्द करके बाप-दादा की पैरवी करना दुरुस्त होता तो सबसे पहले हज़रत इबराहीम (अलैहि०) यह काम करते। मगर उन्होंने साफ़-साफ़ अपने बाप और अपनी क़ौम से कह दिया कि मैं तुम्हारे इस जाहिलाना मज़हब की पैरवी नहीं कर सकता, जिसमें तुमने अपने पैदा करनेवाले को छोड़कर उन हस्तियों को माबूद बना रखा है जो पैदा करनेवाले नहीं हैं। इससे मालूम हुआ कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) बुज़ुर्गों की अन्धी पैरवी को दुरुस्त नहीं मानते थे,बल्कि उनका तरीक़ा यह था कि बाप-दादा की पैरवी करने से पहले आदमी को आँखें खोलकर देखना चाहिए कि वे सही रास्ते पर हैं भी या नहीं और अगर सही दलील से यह ज़ाहिर हो कि वे ग़लत रास्ते पर जा रहे हैं तो उनकी पैरवी छोड़कर वह तरीक़ा अपनाना चाहिए जो दलील के मुताबिक़ सही हो।
بَلۡ مَتَّعۡتُ هَٰٓؤُلَآءِ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ وَرَسُولٞ مُّبِينٞ ۝ 26
(29) (इसके बावजूद जब ये लोग दूसरों की बन्दगी करने लगे तो मैंने इनको मिटा नहीं दिया), बल्कि मैं इन्हें और इनके बाप-दादा को ज़िन्दगी गुज़ारने का सामान देता रहा, यहाँ तक कि इनके पास हक़ और खोल-खोलकर बयान करनेवाला रसूल28 आ गया।
28. अस्ल में अरबी अलफ़ाज़ ‘रसूलुम-मुबीन' इस्तेमाल किए गए हैं, जिनका दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि ऐसा रसूल आ गया जिसका रसूल होना बिलकुल ज़ाहिर और खुला हुआ था। जिसकी नुबूवत (पैग़म्बरी) से पहले की ज़िन्दगी और बाद की ज़िन्दगी साफ़ गवाही दे रही थी कि वह यक़ीनन ख़ुदा का रसूल है।
وَلَمَّا جَآءَهُمُ ٱلۡحَقُّ قَالُواْ هَٰذَا سِحۡرٞ وَإِنَّا بِهِۦ كَٰفِرُونَ ۝ 27
(30) मगर जब वह हक़ इनके पास आया तो इन्होंने कह दिया कि यह तो जादू है29 और हम इसको मानने से इनकार करते हैं।
29. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-5; सूरा-38 सॉद, हाशिया-5।
وَقَالُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانُ عَلَىٰ رَجُلٖ مِّنَ ٱلۡقَرۡيَتَيۡنِ عَظِيمٍ ۝ 28
(31) कहते हैं, यह क़ुरआन दोनों शहरों के बड़े आदमियों में से किसी पर क्यों न उतारा गया?30
30. दोनों शहरों से मुराद मक्का और ताइफ़ हैं। इस्लाम मुख़ालिफ़ों का यह कहना था कि अगर सचमुच ख़ुदा को कोई रसूल भेजना होता और वह उसपर अपनी किताब उतारने का इरादा करता तो हमारे इन मर्कज़ी (केन्द्रीय) शहरों में से किसी बड़े आदमी को इस मक़सद के लिए चुनता। रसूल बनाने के लिए अल्लाह मियाँ को मिला भी तो वह शख़्स जो यतीम (अनाथ) पैदा हुआ, जिसके हिस्से में कोई विरासत न आई, जिसने बकरियाँ चराकर जवानी गुज़ार दी, जो अब गुज़र-बसर भी करता है तो बीवी के माल से तिजारत करके और जो किसी क़बीले का शैख़ और किसी ख़ानदान का मुखिया नहीं है। क्या मक्का में वलीद-बिन-मुग़ीरा और उत्बा-बिन-रबीआ जैसे नामी-गिरामी सरदार मौजूद न थे? क्या ताइफ़ में उरवा-बिन-मसऊद, हबीब-बिन-अम्र, किनाना-बिन-अब्दे-अम्र और इब्ने-अब्दे-यालील जैसे रईस मौजूद न थे? यह था उन लोगों की दलील देने का तरीक़ा। पहले तो वे यही मानने के लिए तैयार न थे कि कोई इनसान भी रसूल हो सकता है। मगर जब क़ुरआन मजीद में एक के बाद एक दलीलें देकर उनके इस ख़याल को पूरी तरह ग़लत साबित कर दिया गया और उनसे कहा गया कि इससे पहले हमेशा इनसान ही रसूल होकर आते रहे हैं और इनसानों की हिदायत के लिए इनसान ही रसूल हो सकता है, न कि इनसान से अलग कोई और और जो रसूल भी दुनिया में आए हैं वे यकायक आसमान से नहीं उतर आए थे, बल्कि इन्हीं इनसानी बस्तियों में पैदा हुए थे, बाज़ारों में चलते-फिरते थे, बाल-बच्चोंवाले थे और खाने-पीने से परे न थे (देखिए— सूरा-16 नह्ल, आयत-43; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-94, 95; सूरा-12 यूसुफ़, आयत-109; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-7, 20; सूरा-21 अम्बिया, आयत-7, 8; सूरा-13 रअद, आयत-38)। तो उन्होंने ये दूसरा पैंतरा बदला कि अच्छा, इनसान ही रसूल सही, मगर वह कोई बड़ा आदमी होना चाहिए। मालदार हो, असरदार हो, बड़े जत्थेवाला हो, लोगों में उसकी शख़सियत की धाक बैठी हुई हो। मुहम्मद-बिन-अब्दुल्लाह (सल्ल०) इस मर्तबे के लिए कैसे मुनासिब हो सकते हैं?
أَهُمۡ يَقۡسِمُونَ رَحۡمَتَ رَبِّكَۚ نَحۡنُ قَسَمۡنَا بَيۡنَهُم مَّعِيشَتَهُمۡ فِي ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَرَفَعۡنَا بَعۡضَهُمۡ فَوۡقَ بَعۡضٖ دَرَجَٰتٖ لِّيَتَّخِذَ بَعۡضُهُم بَعۡضٗا سُخۡرِيّٗاۗ وَرَحۡمَتُ رَبِّكَ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 29
(32) क्या तेरे रब की रहमत ये लोग बाँटते हैं? दुनिया की ज़िन्दगी में इनकी गुज़र-बसर के ज़रिए तो हमने इनके बीच बाँट दिए हैं और इनमें से कुछ लोगो को कुछ दूसरे लोगों पर हमने कुछ ज़्यादा दरजा दे रखा है, ताकि ये एक-दूसरे से काम लें।31 और तेरे रब की रहमत उस दौलत से ज़्यादा क़ीमती है जो (इनके मालदार लोग) समेट रहे हैं।32
31. यह उनके एतिराज का जवाब है जिसके अन्दर कुछ थोड़े-से अलफ़ाज़ में बहुत-सी अहम बातें कही गई हैं— पहली बात यह कि तेरे रब की रहमत को बाँटना इनके सिपुर्द कब से हो गया? क्या यह तय करना इनका काम है कि अल्लाह अपनी रहमत से किसको नवाज़े और किसको न नवाज़े? (यहाँ रब की रहमत से मुराद उसकी आम रहमत है जिसमें से हर एक को कुछ-न-कुछ मिलता रहता है) दूसरी बात यह कि नुबूवत (पैग़म्बरी) तो ख़ैर बहुत बड़ी चीज़ है, दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारने के जो आम ज़रिए हैं, उनका बाँटना भी हमने अपने ही हाथ में रखा है, किसी और के हवाले नहीं कर दिया। हम किसी को ख़ूबसूरत और किसी को बदसूरत, किसी को अच्छी आवाज़वाला और किसी को बुरी आवाज़वाला, किसी को लम्बा-चौड़ा और ताक़तवर और किसी को कमज़ोर, किसी को तेज़ ज़ेहन का और किसी को कम ज़ेहनवाला, किसी को तेज़ याददाश्त का और किसी को भुलक्कड़, किसी को सही-सलामत आज़ा (अंगों) वाला और किसी को अपाहिज या अन्धा या गूँगा-बहरा, किसी को अमीर और किसी को ग़रीब का बेटा, किसी को तरक़्क़ी याफ़्ता (विकसित) क़ौम का शख़्स और किसी को ग़ुलाम या पिछड़ी हुई क़ौम का आदमी पैदा करते हैं। इस पैदाइशी क़िस्मत में कोई ज़र्रा बराबर भी दख़ल नहीं दे सकता। जिसको जो कुछ हमने बना दिया है, वही कुछ बनने पर वह मजबूर है और इन अलग-अलग पैदाइशी हालतों का जो असर भी किसी की तक़दीर पर पड़ता है, उसे बदल देना किसी के बस में नहीं है। फिर इनसानों के बीच रोज़ी, ताक़त, इज़्ज़त, शुहरत, दौलत, हुकूमत वग़ैरा को भी हम ही बाँट रहे हैं। जिसको हमारी तरफ़ से बुलन्दी मिलती है, उसे कोई गिरा नहीं सकता और जो हमारी तरफ़ से गिरा दिया जाता है, उसे गिरने से कोई बचा नहीं सकता। हमारे फ़ैसलों के मुक़ाबले में इनसानों की सारी तदबीरें धरी-की-धरी रह जाती हैं। पूरी कायनात में फैले इस ख़ुदाई निज़ाम में ये लोग कहाँ फ़ैसला करने चले हैं कि कायनात का मालिक किसे अपना नबी बनाए और किसे न बनाए। तीसरी बात यह कि इस ख़ुदाई इन्तिज़ाम में यह मुस्तक़िल (स्थायी) क़ायदा सामने रखा गया है कि सब कुछ एक ही को, या सब कुछ सबको न दे दिया जाए। आँखें खोलकर देखो, हर तरफ़ तुम्हें बन्दों के बीच हर पहलू में फ़र्क़-ही-फ़र्क़ नज़र आएगा। किसी को हमने कोई चीज़ दी है तो दूसरी किसी चीज़ उसको नहीं दी है और वह किसी और को दे दी है। यह इस हिकमत की बुनियाद पर किया गया है कि कोई इनसान दूसरों से बेनियाज़ (बेज़रूरत) न हो, बल्कि हर एक किसी-न-किसी मामले में दूसरे का मुहताज रहे। अब यह कैसा बेवक़ूफ़ीवाला ख़याल तुम्हारे दिमाग़ में समाया है कि जिसे हमने हुकूमत और दबदबा दिया है उसी को नुबूवत (पैग़म्बरी) भी दे दी जाए? क्या इसी तरह तुम यह भी कहोगे कि अक़्ल, इल्म, दौलत, हुस्न, ताक़त, हुकूमत और दूसरी तमाम ख़ूबियाँ एक ही में इकट्ठी कर दी जाएँ और जिसको एक चीज़ नहीं मिली है उसे दूसरी भी कोई चीज़ न दी जाए?
32. यहाँ रब की रहमत से मुराद उसकी ख़ास रहमत, यानी नुबूवत (पैग़म्बरी) है। मतलब यह है कि तुम अपने जिन रईसों को उनकी दौलत, दबदबे और सरदारी की वजह से बड़ी चीज़ समझ रहे हो, वे इस दौलत के क़ाबिल नहीं हैं जो अब्दुल्लाह के बेटे मुहम्मद (सल्ल०) को दी गई है। यह दौलत उस दौलत से कहीं ज़्यादा आला दरजे की है और उसके लिए मुनासिब होने का पैमाना कुछ और है। तुमने अगर यह समझ रखा है कि तुम्हारा हर चौधरी और सेठ नबी बनने का हक़दार है तो यह तुम्हारे अपने ही ज़ेहन की गिरावट है। अल्लाह से इस नादानी की उम्मीद क्यों रखते हो?
وَلَوۡلَآ أَن يَكُونَ ٱلنَّاسُ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ لَّجَعَلۡنَا لِمَن يَكۡفُرُ بِٱلرَّحۡمَٰنِ لِبُيُوتِهِمۡ سُقُفٗا مِّن فِضَّةٖ وَمَعَارِجَ عَلَيۡهَا يَظۡهَرُونَ ۝ 30
(33) अगर यह अन्देशा न होता कि सारे लोग एक ही तरीक़े के हो जाएँगे तो हम मेहरबान ख़ुदा का इनकार करनेवालों के घरों की छतें और उनकी सीढ़ियाँ जिनसे वे अपने घरों की ऊपरी मंज़िलों पर चढ़ते हैं,
وَلِبُيُوتِهِمۡ أَبۡوَٰبٗا وَسُرُرًا عَلَيۡهَا يَتَّكِـُٔونَ ۝ 31
(34) और उनके दरवाज़े और उनके तख़्त जिनपर वे तकिए लगाकर बैठते हैं,
وَزُخۡرُفٗاۚ وَإِن كُلُّ ذَٰلِكَ لَمَّا مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَٱلۡأٓخِرَةُ عِندَ رَبِّكَ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 32
(35) सब चाँदी और सोने के बनवा देते।33 यह तो सिर्फ़ दुनियावी ज़िन्दगी का सामान है और आख़िरत तेरे रब के यहाँ सिर्फ़ परहेज़गारों के लिए है।
33. यानी यह धन-दौलत जिसका किसी को मिल जाना तुम्हारी निगाह में नेमत और क़द्रो-क़ीमत साल की इन्तिहा है, अल्लाह की निगाह में इतनी मामूली चीज़ है कि अगर तमाम इनसानों के कुफ़्र की तरफ़ लुढ़क पड़ने का ख़तरा न होता तो वह कुफ़्र करनेवाले हर शख़्स का घर सोने-चाँदी का बना देता। इस धन-दौलत का ज़्यादा होना आख़िर कब से इनसान की शराफ़त और दिल और रूह की पाकीज़गी की दलील बन गया? यह माल तो उन इन्तिहाई बुरे इनसानों के पास भी पाया जाता है जिनके घिनौने किरदार की सडाँध से पूरा समाज बदबूदार होकर रह जाता है। इसे तुमने आदमी की बड़ाई का पैमाना बना रखा है।
وَمَن يَعۡشُ عَن ذِكۡرِ ٱلرَّحۡمَٰنِ نُقَيِّضۡ لَهُۥ شَيۡطَٰنٗا فَهُوَ لَهُۥ قَرِينٞ ۝ 33
(36) जो शख़्स रहमान (मेहरबान ख़ुदा) के ज़िक्र34 से लापरवाही बरतता है, हम उसपर एक शैतान मुसल्लत (मुक़र्रर) कर देते हैं और वह उसका साथी बन जाता है।
34. इस लफ़्ज़ के कई मतलब हैं। रहमान के ज़िक्र से मुराद उसकी याद भी है, उसकी तरफ़ से आई हुई नसीहत भी और यह क़ुरआन भी।
وَإِنَّهُمۡ لَيَصُدُّونَهُمۡ عَنِ ٱلسَّبِيلِ وَيَحۡسَبُونَ أَنَّهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 34
(37) ये शैतान ऐसे लोगों को सीधे रास्ते पर आने से रोकते हैं और वे अपनी जगह यह समझते हैं कि हम ठीक जा रहे हैं।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَنَا قَالَ يَٰلَيۡتَ بَيۡنِي وَبَيۡنَكَ بُعۡدَ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ فَبِئۡسَ ٱلۡقَرِينُ ۝ 35
(38) आख़िरकार जब यह शख़्स हमारे यहाँ पहुँचेगा तो अपने शैतान से कहेगा, “काश मेरे और तेरे बीच पूरब-पश्चिम की दूरी होती, तू तो बहुत ही बुरा साथी निकला।”
وَلَن يَنفَعَكُمُ ٱلۡيَوۡمَ إِذ ظَّلَمۡتُمۡ أَنَّكُمۡ فِي ٱلۡعَذَابِ مُشۡتَرِكُونَ ۝ 36
(39) उस वक़्त इन लोगों से कहा जाएगा कि जब ज़ुल्म कर चुके तो आज यह बात तुम्हारे लिए कुछ भी फ़ायदेमन्द नहीं है कि तुम और तुम्हारे शैतान अज़ाब में एक-दूसरे के शरीक हैं।35
35. यानी इस बात में तुम्हारे लिए तसल्ली का कोई पहलू नहीं है कि तुम्हें ग़लत राह पर डालनवाले को सज़ा मिल रही है, क्योंकि वही सज़ा गुमराही क़ुबूल करने के बदले में तुम भी पा रहे हो।
أَفَأَنتَ تُسۡمِعُ ٱلصُّمَّ أَوۡ تَهۡدِي ٱلۡعُمۡيَ وَمَن كَانَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 37
(40) अब क्या ऐ नबी, तुम बहरों को सुनाओगे? या अन्धों और खुली गुमराही में पड़े हुए लोगों को राह दिखाओगे?36
36. मतलब यह है कि जो सुनने के लिए तैयार हों और जिन्होंने सच्चाइयों की तरफ़ से आँखें बन्द न कर ली हों उनकी तरफ़ ध्यान दो और अन्धों को दिखाने और बहरों को सुनाने की कोशिश में अपनी जान न खपाओ, न इस ग़म में अपने आपको घुलाते रहो कि तुम्हारे ये भाई-बन्धु क्यों सीधे रास्ते पर नहीं आते और क्यों अपने आपको ख़ुदा के अज़ाब का हक़दार बना रहे हैं।
فَإِمَّا نَذۡهَبَنَّ بِكَ فَإِنَّا مِنۡهُم مُّنتَقِمُونَ ۝ 38
(41) अब तो हमें इनको सज़ा देनी है, चाहे तुम्हें दुनिया से उठा लें,
أَوۡ نُرِيَنَّكَ ٱلَّذِي وَعَدۡنَٰهُمۡ فَإِنَّا عَلَيۡهِم مُّقۡتَدِرُونَ ۝ 39
(42) या तुमको आँखों से इनका वह अंजाम दिखा दें जिसका हमने इनसे वादा किया है, हमें इनपर पूरी क़ुदरत हासिल है।”37
37. इसका मतलब उस माहौल को निगाह में रखने से ही अच्छी तरह समझ में आ सकता है जिसमें यह बात कही गई है। मक्का के इस्लाम-दुश्मन यह समझ रहे थे कि मुहम्मद (सल्ल०) का वुजूद ही उनके लिए मुसीबत बना हुआ है, यह काँटा बीच से निकल जाए तो फिर सब अच्छा हो जाएगा। इसी गन्दे गुमान की बुनियाद पर वे रात-दिन बैठ-बैठकर मशवरे करते थे कि आप (सल्ल०) को किसी-न-किसी तरह ख़त्म कर दिया जाए। इसपर अल्लाह तआला उनकी तरफ़ से मुँह फेरकर अपने नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करते हुए फ़रमाता है कि तुम्हारे रहने या न रहने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। तुम ज़िन्दा रहोगे तो तुम्हारी आँखों के सामने इनकी शामत आएगी, उठा लिए जाओगे तो तुम्हारे पीछे इनकी ख़बर ली जाएगी। इनके बुरे कामों का अंजाम अब इनके पीछे लग चुका है जिससे ये बच नहीं सकते।
فَٱسۡتَمۡسِكۡ بِٱلَّذِيٓ أُوحِيَ إِلَيۡكَۖ إِنَّكَ عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 40
(43) तुम बहरहाल उस किताब को मजबूती से थामे रहो जो वह्य के ज़रिए से तुम्हारे पास भेजी गई है, यक़ीनन तुम सीधे रास्ते पर हो।38
38. यानी तुम इस फ़िक्र में न पड़ो कि ज़ुल्म और बेईमानी के साथ हक़ की मुख़ालफ़त करनेवाले अपने किए की क्या और कब सज़ा पाते हैं, न इस बात की फ़िक्र करो कि इस्लाम तुम्हारी ज़िन्दगी ही में फलता-फूलता है या नहीं। तुम्हारे लिए बस यह इत्मीनान काफ़ी है कि तुम हक़ पर हो। इसलिए नतीजों की फ़िक्र किए बिना अपना फ़र्ज़ पूरी तरह अदा करते चले जाओ और यह अल्लाह पर छोड़ दो कि वह बातिल (असत्य) का सर तुम्हारे सामने नीचा करता है या तुम्हारे पीछे।
وَإِنَّهُۥ لَذِكۡرٞ لَّكَ وَلِقَوۡمِكَۖ وَسَوۡفَ تُسۡـَٔلُونَ ۝ 41
(44) हक़ीक़त यह है कि यह किताब तुम्हारे लिए और तुम्हारी क़ौम के लिए एक बहुत बड़ी ख़ुशनसीबी है और जल्द ही तुम लोगों को इसकी जवाबदेही करनी होगी।39
39. यानी इससे बढ़कर किसी शख़्स की कोई ख़ुशनसीबी नहीं हो सकती कि तमाम इनसानों में से उसको अल्लाह अपनी किताब उतारने के लिए चुने और किसी क़ौम के लिए भी इससे बढ़कर किसी ख़ुशनसीबी के बारे में नहीं सोचा जा सकता कि दुनिया की दूसरी सब क़ौमों को छोड़कर अल्लाह तआला उसके यहाँ अपना नबी पैदा करे और उसकी ज़बान में अपनी किताब उतारे और उसे दुनिया में अल्लाह के पैग़ाम की अलमबरदार बनकर उठने का मौक़ा दे। इस बड़ी ख़ुशनसीबी और इज़्ज़त का एहसास अगर क़ुरैश और अरबवालों को नहीं है और वे इसकी नाक़द्री करना चाहते हैं तो एक वक़्त आएगा जब उन्हें इसकी जवाबदेही करनी होगी।
وَسۡـَٔلۡ مَنۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ مِن رُّسُلِنَآ أَجَعَلۡنَا مِن دُونِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ءَالِهَةٗ يُعۡبَدُونَ ۝ 42
(45) तुमसे पहले हमने जितने रसूल भेजे थे, उन सबसे पूछ देखो, क्या हमने मेहरबान ख़ुदा के सिवा कुछ दूसरे माबूद (उपास्य) भी मुक़र्रर किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?40
40. रसूलों से पूछने का मतलब उनकी लाई हुई किताबों से मालूम करना है। जिस तरह, “फिर अगर तुममें किसी मामले में झगड़ा हो जाए तो उसको अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ फेर दो” का मतलब यह नहीं है कि किसी मामले में अगर तुम्हारे बीच झगड़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल के पास ले जाओ, बल्कि यह है कि इसमें अल्लाह की किताब और उसके रसूल की सुन्नत की तरफ़ रुजू करो, इसी तरह रसूलों से पूछने का मतलब भी यह नहीं है कि जो रसूल दुनिया से तशरीफ़ ले जा चुके हैं, उन सबके पास जाकर पूछो, बल्कि इसका सही मतलब यह है कि ख़ुदा के रसूल दुनिया में जो भी तालीमात छोड़ गए हैं, उन सबमें तलाश करके देख लो, आख़िर किसने यह बात सिखाई थी कि अल्लाह तआला के सिवा भी कोई इबादत का हक़दार है?
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَقَالَ إِنِّي رَسُولُ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 43
(46) हमने41 मूसा को अपनी निशानियों के साथ42 फ़िरऔन और उसकी सल्तनत के सरदारों के पास भेजा और उसने जाकर कहा कि मैं सारे जहानों के रब का रसूल हूँ।
41. यह क़िस्सा यहाँ तीन मक़सदों के लिए बयान किया गया है। एक यह कि अल्लाह तआला जब किसी देश और किसी क़ौम में अपना नबी भेजकर उसे वह मौक़ा देता है जो मुहम्मद (सल्ल०) को नबी बनाकर भेजे जाने से अब अरबवालों को उसने दिया है और वह उसकी क़द्र करने और उससे फ़ायदा उठाने के बजाय वह बेवक़ूफ़ी कर बैठती है जो फ़िरऔन और उसकी क़ौम ने की थी तो फिर उसका वह अंजाम होता है जो इतिहास में इबरत का नमूना बन चुका हो। दूसरा यह कि फ़िरऔन ने भी अपनी बादशाही और अपनी शानो-शौकत और दौलत व हुकूमत पर घमण्ड करके मूसा (अलैहि०) को इसी तरह हक़ीर (तुच्छ) समझा था जिस तरह अब क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ अपने सरदारों के मुक़ाबले में मुहम्मद (सल्ल०) को हक़ीर समझ रहे हैं। मगर ख़ुदा का फ़ैसला कुछ और था जिसने आख़िरकार बता दिया कि अस्ल में हक़ीर और नीच कौन था। तीसरा यह कि अल्लाह तआला की आयतों के साथ मज़ाक़ और उसकी तंबीहों (चेतावनियों) के मुक़ाबले में हेकड़ी दिखाना कोई सस्ता सौदा नहीं है, बल्कि यह सौदा बहुत महँगा पड़ता है। इसका ख़मियाज़ा जो भुगत चुके हैं, उनकी मिसाल से सबक़ न लोगे तो ख़ुद भी एक दिन वही ख़मियाज़ा भुगतकर रहोगे।
42. इनसे मुराद वे इब्तिदाई निशानियाँ हैं जिन्हें लेकर हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन के दरबार में गए थे, यानी 'असा' (लाठी) और 'यदे-बैज़ा' (चमकता हुआ हाथ) । (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—87 से 89; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—12,13, 29, 30; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—26 से 29; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-16; सूरा-28 क़सस, हाशिए—44, 45)।
إِنَّا جَعَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 44
(3) कि हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है, ताकि तुम लोग इसे समझो।1
1. क़ुरआन मजीद की क़सम जिस बात पर खाई गई है, वह यह है कि इस किताब के लिखनेवाले 'हम' हैं, न कि मुहम्मद (सल्ल०), और क़सम खाने के लिए क़ुरआन की जिस सिफ़त को चुना गया है, वह यह है कि यह 'खुली किताब' है। इस ख़ूबी के साथ क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने पर ख़ुद क़ुरआन की क़सम खाना आप-से-आप यह मानी दे रहा है कि लोगो, यह खुली किताब तुम्हारे सामने मौजूद है। इसे आँखें खोलकर देखो, इसकी साफ़-साफ़ वाज़ेह बातें, इसकी ज़बान, इसका अदब (साहित्य), इसकी सही और ग़लत के बीच एक साफ़ और वाज़ेह लकीर खींच देनेवाली तालीम, ये सारी चीज़ें इस हक़ीक़त की साफ़ गवाही दे रही हैं कि उसका लिखनेवाला अल्लाह सारे जहान के रब के सिवा कोई दूसरा हो नहीं सकता। फिर यह जो फ़रमाया कि “हमने इसे अरबी ज़बान का क़ुरआन बनाया है, ताकि तुम इसे समझो,” इसके दो मतलब हैं। एक यह कि यह किसी अजनबी ज़बान में नहीं है, बल्कि तुम्हारी अपनी ज़बान में है, इसलिए इसे जाँचने-परखने और इसकी क़द्रो-क़ीमत का अन्दाज़ा करने में तुम्हें कोई दिक़्क़त पेश नहीं आ सकती। यह किसी अजमी (ग़ैर-अरबी) ज़बान में होता तो तुम यह बहाना कर सकते थे कि हम इसके अल्लाह के कलाम होने या न होने की जाँच कैसे करें, जबकि हमारी समझ ही में यह नहीं आ रहा है। लेकिन इस अरबी क़ुरआन के बारे में तुम यह बहाना कैसे कर सकते हो। इसका एक-एक लफ़्ज़ तुम्हारे लिए वाज़ेह है। इसकी हर इबारत अपनी ज़बान और अपनी बातों, दोनों के लिहाज़ से तुमपर रौशन है। ख़ुद देख लो कि क्या यह मुहम्मद (सल्ल०) का या किसी दूसरे अरब का कलाम हो सकता है। दूसरा मतलब इस बात का यह है कि इस किताब की ज़बान हमने अरबी इसलिए रखी है कि हम अरब क़ौम से बात कर रहे हैं और वह अरबी ज़बान के क़ुरआन ही को समझ सकती है। अरबी में क़ुरआन उतारने की इतनी ज़्यादा सही और मुनासिब वजह को नज़रअन्दाज़ करके जो सिर्फ़ इस वजह से इसे अल्लाह के कलाम के बजाय मुहम्मद (सल्ल०) का कलाम ठहराता है कि मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी ज़बान भी अरबी है तो वह बड़ी ज़्यादती करता है। (इस दूसरे मतलब को समझने के लिए देखें— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-44, हाशिया-54)
وَإِنَّهُۥ فِيٓ أُمِّ ٱلۡكِتَٰبِ لَدَيۡنَا لَعَلِيٌّ حَكِيمٌ ۝ 45
(4) और हक़ीक़त में यह उम्मुल-किताब में लिखा है,2 हमारे यहाँ बड़ी आला दरजे की और हिकमत से भरी हुई किताब।3
2. अरबी लफ़्ज़ 'उम्मुल-किताब' से मुराद है 'अस्ल किताब' यानी वह किताब जिसमें से तमाम नबियों (अलैहि०) पर उतरनेवाली किताबें आई हैं। इसी को सूरा-56 वाक़िआ में 'किताबुम-मक्नून' (छिपी हुई और महफ़ूज़ किताब) कहा गया है और सूरा-85 बुरूज में इसके लिए 'लौहे-महफ़ूज़' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, यानी ऐसी लौह (तख़्ती) जिसका लिखा मिट नहीं सकता और जो हर तरह की दख़लअन्दाज़ी से महफ़ूज़ है। क़ुरआन के बारे में यह फ़रमाकर कि यह 'उम्मुल-किताब' में है एक अहम हक़ीक़त पर ख़बरदार किया गया है। अल्लाह तआला की तरफ़ से अलग-अलग ज़मानों में अलग-अलग देशों और क़ौमों की हिदायत के लिए अलग-अलग नबियों (अलैहि०) पर अलग-अलग ज़बानों में किताबें उतरती रही हैं, मगर उन सबमें दावत एक ही अक़ीदे की तरफ़ दी गई है, हक़ एक ही सच्चाई को ठहराया गया है, भलाई-बुराई का एक ही पैमाना पेश किया गया है, अख़लाक़ और तहज़ीब के एक जैसे उसूल बयान किए गए हैं और कुल मिलाकर एक ही दीन है जिसे ये सब किताबें लेकर आई हैं। इसकी वजह यह है कि इन सबकी अस्ल एक है और सिर्फ़ इबारतें अलग-अलग हैं। एक ही मतलब हैं जो अल्लाह तआला के यहाँ एक बुनियादी किताब में लिखे हैं और जब कभी ज़रूरत पड़ी है, उसने किसी नबी को भेजकर वे मानी और मतलब हाल और मौक़े को देखते हुए एक ख़ास इबारत और ख़ास ज़बान में उतार दिए हैं। अगर मान लो कि अल्लाह तआला का फ़ैसला मुहम्मद (सल्ल०) को अरब के बजाय किसी और क़ौम में पैदा करने का होता तो यही क़ुरआन वह नबी (सल्ल०) पर उसी क़ौम की ज़बान में उतारता। उसमें बात उसी क़ौम और देश के हालात के लिहाज़ से की जाती, इबारतें कुछ और होतीं, ज़बान भी दूसरी होती, लेकिन बुनियादी तौर पर तालीम और हिदायत यही होती और वह यही क़ुरआन होता अगरचे अरबी क़ुरआन न होता। इसी बात को क़ुरआन में यूँ अदा किया गया है— “यह रब्बुल-आलमीन की उतारी हुई किताब है....साफ़-साफ़ अरबी ज़बान में और यह अगले लोगों की किताबों में भी मौजूद है।” (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, आयतें—192 से 196, हाशिए—119 से 121)
3. इस जुमले का ताल्लुक़ 'किताबे-मुबीन' से भी है और 'उम्मुल-किताब' से भी। यानी यह पहचान क़ुरआन की भी है और उस अस्ल किताब की भी जिससे क़ुरआन नक़्ल हुआ है या लिया गया है। इस पहचान से यह बात ज़ेहन में बिठानी मक़सद है कि कोई शख़्स अपनी नादानी से इस किताब की क़द्रो-क़ीमत न पहचाने और इसकी हिकमत से भरी तालीम से फ़ायदा न उठाए तो यह उसकी अपनी बदक़िस्मती है। कोई अगर इसकी हैसियत को गिराने की कोशिश करे और इसकी बातों में कीड़े डाले तो यह उसका अपना नीचपन है। किसी नाक़द्री से यह बेक़द्र नहीं हो सकती और किसी के धूल डालने से इसकी हिकमत छिप नहीं सकती। यह तो अपने आप में ख़ुद एक आला दरजे की किताब है, जिसे उसकी बेमिसाल तालीम, उसका हैरतअंगेज़ और जादुई अन्दाज़े-बयान, उसकी ऐब से पाक हिकमत और उसके आलीशान मुसन्निफ़ (रचनाकार) की शख़सियत ने बुलन्द किया है। यह किसी के गिराए कैसे गिर जाएगी। आगे चलकर आयत-44 में क़ुरैश को ख़ास तौर पर और अरबवालों को आम तौर पर यह बताया गया है कि जिस किताब की तुम इस तरह नाक़द्री कर रहे हो उसके नुज़ूल (अवतरण) ने तुमको एक बहुत बड़ी ख़ुशनसीबी और इज़्ज़त का सुनहरा मौक़ा दिया है, जिसे अगर तुमने खो दिया तो अल्लाह के सामने तुम्हें सख़्त जवाबदेही करनी होगी। (देखिए—हाशिया-39)
فَلَوۡلَآ أُلۡقِيَ عَلَيۡهِ أَسۡوِرَةٞ مِّن ذَهَبٍ أَوۡ جَآءَ مَعَهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ مُقۡتَرِنِينَ ۝ 46
(53) क्यों न इसपर सोने के कंगन उतारे गए? या फ़रिश्तों का एक दस्ता इसकी अरदली में न आया?49
49. पुराने ज़माने में जब किसी आदमी को किसी इलाक़े की गवर्नरी, या किसी दूसरे देश के सफ़ारत (राजनयिक) के मंसब पर मुक़र्रर किया जाता तो बादशाह की तरफ़ से उसको 'ख़िलअत' (एक तरह का ख़ास लिबास) दिया जाता था, जिसमें सोने के कड़े या कंगन भी शामिल होते थे और उसके साथ सिपाहियों, चोबदारों और ख़िदमत करनेवालों का एक दस्ता भी होता था, ताकि उसका रोब और दबदबा क़ायम हो और उस बादशाह की शानो-शौकत ज़ाहिर हो जिसकी तरफ़ से वह मुक़र्रर होकर आ रहा है। फ़िरऔन का मतलब यह था कि अगर सचमुच मूसा (अलैहि०) को आसमान के बादशाह ने उसके पास अपना नुमाइन्दा बनाकर भेजा था तो इसे शाही लिबास मिला होता और फ़रिश्तों के झुण्ड-के-झुण्ड उसके साथ आए होते। यह क्या बात हुई कि एक मलंग हाथ में लाठी लिए आ खड़ा हुआ और कहने लगा कि मैं सारे जहानों के रब का रसूल (पैग़म्बर) हूँ।
فَٱسۡتَخَفَّ قَوۡمَهُۥ فَأَطَاعُوهُۚ إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَوۡمٗا فَٰسِقِينَ ۝ 47
(54) उसने अपनी क़ौम को हलका समझा और उन्होंने उसकी पैरवी की, हक़ीक़त में वे थे ही नाफ़रमान लोग।50
50. इस छोटे-से जुमले में एक बहुत बड़ी हक़ीक़त बयान की गई है। जब कोई शख़्स किसी देश में अपनी तानाशाही चलाने की कोशिश करता है और उसके लिए खुल्लम-खुल्ला हर तरह की चालें चलता है, हर छल-कपट और धोखे और दग़ा से काम लेता है, खुले बाज़ार में लोगों के ज़मीर (अन्तरात्मा) को ख़रीदेने-बेचने का कारोबार चलाता है और जो बिकते नहीं, उन्हें बिना झिझक कुचलता और रौंदता है, तो चाहे ज़बान से वह यह बात न कहे, मगर अपने अमल से साफ़ ज़ाहिर कर देता है कि वह हक़ीक़त में उस देश के निवासियों को अक़्ल और अख़लाक़ और मर्दानगी के लिहाज़ से हलका समझता है और उसने उनके बारे में यह राय बना रखी है कि मैं इन बेवक़ूफ़, बेज़मीर और बुज़दिल लोगों को जिधर चाहूँ, हाँककर ले जा सकता हूँ। फिर जब उसकी ये तदबीरें कामयाब हो जाती हैं और देशवासी उसके सामने हाथ बाँधकर खड़े रहनेवाले ग़ुलाम बन जाते हैं तो वे अपने अमल से साबित कर देते हैं कि उस ख़बीस (दुष्ट) ने जो कुछ उन्हें समझा था, सचमुच वे वही कुछ हैं और उनकी इस रुसवाई की हालत में पड़ जाने की अस्ल वजह यह होती है कि वे बुनियादी तौर पर 'फ़ासिक़' (अल्लाह के नाफ़रमान) होते हैं। उनको इससे कुछ बहस नहीं होती कि सही क्या है और ग़लत क्या, इनसाफ़ क्या है और ज़ुल्म क्या। सच्चाई और ईमानदारी और शराफ़त क़द्र के लायक़ है या झूठ और बेईमानी और नीचता। इन मामलों के बजाय उनके लिए अस्ल अहमियत सिर्फ़ अपने ख़ुद के फ़ायदों की होती है जिसके लिए वह हर ज़ुल्म का साथ देने, हर ज़ालिम के आगे दबने, हर बातिल (असत्य) को क़ुबूल करने और हक़ की हर आवाज़ को दबाने के लिए तैयार हो जाते हैं।
فَلَمَّآ ءَاسَفُونَا ٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ فَأَغۡرَقۡنَٰهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 48
(55) आख़िरकार जब उन्होंने हमें ग़ज़बनाक कर दिया तो हमने उनसे इन्तिक़ाम लिया और उनको इकट्ठा डुबो दिया,
فَجَعَلۡنَٰهُمۡ سَلَفٗا وَمَثَلٗا لِّلۡأٓخِرِينَ ۝ 49
(56) और बादवालों के लिए गुज़रे हुए लोग और इबरत (सबक़) के क़ाबिल नमूना बनाकर रख दिया।51
51. यानी जो उनके अंजाम से सबक़ न लें और उन्हीं के रवैये पर चलें, उनका भी वही अंजाम होगा जो गुज़रे हुए लोगों का हुआ और जो सबक़ लेनेवाले हैं, उनके लिए सीख लेने की एक मिसाल।
۞وَلَمَّا ضُرِبَ ٱبۡنُ مَرۡيَمَ مَثَلًا إِذَا قَوۡمُكَ مِنۡهُ يَصِدُّونَ ۝ 50
(57) और ज्यों ही कि मरयम के बेटे की मिसाल दी गई, तुम्हारी क़ौम के लोगों ने इसपर शोर मचा दिया
وَقَالُوٓاْ ءَأَٰلِهَتُنَا خَيۡرٌ أَمۡ هُوَۚ مَا ضَرَبُوهُ لَكَ إِلَّا جَدَلَۢاۚ بَلۡ هُمۡ قَوۡمٌ خَصِمُونَ ۝ 51
(58) और कहने लगे कि हमारे माबूद (उपास्य) अच्छे हैं या वह?52 यह मिसाल वे तुम्हारे सामने सिर्फ़ उलटी-सीधी बहस के लिए लाए हैं, हक़ीक़त यह है कि ये हैं ही झगड़ालू लोग।
52. इससे पहले आयत-45 में यह बात गुज़र चुकी है कि “तुमसे पहले जो रसूल हो गुज़रे हैं, उन सबसे पूछ देखो। क्या हमने मेहरबान ख़ुदा के सिवा कुछ दूसरे माबूद भी मुक़र्रर किए थे कि उनकी बन्दगी की जाए?” यह तक़रीर जब मक्कावालों के सामने हो रही थी तो एक आदमी ने, जिसका नाम रिवायतों में अब्दुल्लाह-बिन-अज़-ज़िबारा आया है, एतिराज़ जड़ दिया कि क्यों साहब, ईसाई मरयम के बेटे को ख़ुदा का बेटा ठहराकर उसकी इबादत करते हैं या नहीं? फिर हमारे माबूद क्या बुरे हैं? इसपर इस्लाम-दुश्मनों की भीड़ से एक ज़ोरदार कहक़हा बुलन्द हुआ और नारे लगने शुरू हो गए कि वह मारा, पकड़े गए। अब बोलो, इसका क्या जवाब है? लेकिन उनकी इस बेहूदगी पर बात का सिलसिला नहीं तोड़ा गया, बल्कि जो बात पहले से चली आ रही थी, पहले उसे मुकम्मल किया गया और फिर उस सवाल की तरफ़ ध्यान दिया गया जो एतिराज़ करनेवाले ने उठाया था। (वाज़ेह रहे कि मौक़ा-महल और उन रिवायतों पर ग़ौर करने के बाद हमारे नज़दीक वाक़िए की सही सूरत वही है जो अभी हमने बयान की है।
إِنۡ هُوَ إِلَّا عَبۡدٌ أَنۡعَمۡنَا عَلَيۡهِ وَجَعَلۡنَٰهُ مَثَلٗا لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ۝ 52
(59) मरयम का बेटा इसके सिवा कुछ न था कि एक बन्दा था जिसपर हमने इनाम किया और बनी-इसराईल के लिए अपनी क़ुदरत का एक नमूना बना दिया।53
53. क़ुदरत का नमूना बनाने से मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) को बिना बाप के पैदा करना और फिर उनको वे मोजिज़े (चमत्कार) देना है जो न उनसे पहले किसी को दिए गए थे और न उनके बाद। वे मिट्टी का परिन्दा (पक्षी) बनाते और उसमें फूँक मारते तो वह जीता-जागता परिन्दा बन जाता। वह पैदाइशी अन्धे को देखनेवाला बना देते। वह कोढ़ के रोगी को तन्दुरुस्त कर देते। यहाँ तक कि वे मुर्दे को ज़िन्दा कर देते थे। अल्लाह तआला के कहने का मंशा यह है कि सिर्फ़ इस ग़ैर-मामूली पैदाइश और इन बड़े-बड़े मोजिज़ों की वजह से उनको बन्दा होने से परे समझना और ख़ुदा का बेटा बताकर उनकी इबादत करना ग़लत है। उनकी हैसियत एक बन्दे से ज़्यादा कुछ न थी, जिसे हमने अपने इनामों से नवाज़कर अपनी क़ुदरत का नमूना बना दिया था। (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—42 से 44; सूरा-4 निसा, हाशिया-190; सूरा-5 माइदा, हाशिए—40, 46, 127; सूरा-19 मरयम, हाशिए—15 से 22; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—88 से 90; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-43)
وَلَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَا مِنكُم مَّلَٰٓئِكَةٗ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَخۡلُفُونَ ۝ 53
(60) हम चाहें तो तुमसे फ़रिश्ते पैदा कर दें"54 जो ज़मीन में तुम्हारे जानशीन हों।
54. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि तुममें से कुछ को फ़रिश्ता बना दें।
وَإِنَّهُۥ لَعِلۡمٞ لِّلسَّاعَةِ فَلَا تَمۡتَرُنَّ بِهَا وَٱتَّبِعُونِۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 54
(61) और वह अस्ल में क़ियामत की एक निशानी है,55 तो तुम इसमें शक न करो और मेरी बात मान लो, यही सीधा रास्ता है।
55. इस जुमले का यह तर्जमा भी हो सकता है कि वह क़ियामत के इल्म का एक ज़रिआ है। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि 'वह' से क्या चीज़ मुराद है? हज़रत हसन बसरी (रह०) और सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) के नज़दीक इससे मुराद क़ुरआन है, यानी क़ुरआन से आदमी को यह इल्म हासिल हो सकता है कि क़ियामत आएगी। लेकिन यह तफ़सीर मौक़ा-महल से बिलकुल मेल नहीं खाती। बात के सिलसिले में कोई इशारा ऐसा मौजूद नहीं है जिसकी बुनियाद पर यह कहा जा सके कि इशारा क़ुरआन की तरफ़ है। क़ुरआन के दूसरे आलिम क़रीब-क़रीब सब इसपर एक राय रखते हैं कि इससे मुराद हज़रत ईसा-इब्ने-मरयम (अलैहि०) हैं और यही मौक़ा-महल के लिहाज़ से दुरुस्त है। इसके बाद यह सवाल पैदा होता है कि उन्हें क़ियामत की निशानी या क़ियामत के इल्म का ज़रिआ किस मानी में कहा गया है? इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद (रह०), इकरिमा (रह०), क़तादा (रह०), सुद्दी (रह०), ज़ह्हाक (रह०), अबुल-आलिया (रह०) और अबू-मालिक (रह०) कहते हैं कि इससे मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) का दोबारा उतरना है, जिसकी ख़बर बहुत-सी हदीसों में आई है और आयत का मतलब यह है कि वह जब दोबारा दुनिया में आएँगे तो मालूम हो जाएगा कि क़ियामत अब क़रीब है। लेकिन इन बुज़ुर्गों के बहुत ज़्यादा क़ाबिले-क़द्र होने के बावजूद यह मानना मुश्किल है कि इस आयत में हज़रत ईसा के दोबारा आने को क़ियामत की निशानी या उसके इल्म का ज़रिआ कहा गया है। इसलिए कि बाद की इबारत यह मानी लेने में रुकावट है। उनका दोबारा आना तो क़ियामत के इल्म का ज़रिआ सिर्फ़ उन लोगों के लिए बन सकता है जो उस ज़माने में मौजूद हों या उसके बाद पैदा हों। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के लिए आख़िर वह कैसे इल्म का ज़रिआ हो सकता था कि उनको सुनाकर यह बात कहना सही होता कि “तो तुम इसमें शक न करो।” लिहाज़ा हमारे नज़दीक सही तफ़सीर वही है जो क़ुरआन के कुछ दूसरे आलिमों ने की है कि यहाँ हज़रत ईसा (अलेहि०) के बिना बाप के पैदा होने और उनके मिट्टी से परिन्दा बनाने और मुर्दे को ज़िन्दा करने को क़ियामत के इमकान की एक दलील ठहराया गया है और अल्लाह के फ़रमान का मंशा यह है कि जो ख़ुदा बाप के बिना बच्चा पैदा कर सकता है और जिस ख़ुदा का एक बन्दा मिट्टी के पुतले में जान डाल सकता और मुर्दों को ज़िन्दा कर सकता है, उसके लिए आख़िर तुम इस बात को क्यों नामुमकिन समझते हो कि वह तुम्हें और तमाम इनसानों को मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा कर दे।
يُطَافُ عَلَيۡهِم بِصِحَافٖ مِّن ذَهَبٖ وَأَكۡوَابٖۖ وَفِيهَا مَا تَشۡتَهِيهِ ٱلۡأَنفُسُ وَتَلَذُّ ٱلۡأَعۡيُنُۖ وَأَنتُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 55
(71) उनके आगे सोने के थाल और प्याले फिराए जाएँगे और हर मनभाती और निगाहों को भली लगनेवाली चीज़ वहाँ मौजूद होगी। उनसे कहा जाएगा, “तुम अब यहाँ हमेशा रहोगे।
وَتِلۡكَ ٱلۡجَنَّةُ ٱلَّتِيٓ أُورِثۡتُمُوهَا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 56
(72) तुम इस जन्नत के वारिस अपने उन कामों (कर्मों) की वजह से हुए हो जो तुम दुनिया में करते रहे।
لَكُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ كَثِيرَةٞ مِّنۡهَا تَأۡكُلُونَ ۝ 57
(73) तुम्हारे लिए यहाँ बहुत सारे मेवे मौजूद हैं, जिन्हें तुम खाओगे।”
إِنَّ ٱلۡمُجۡرِمِينَ فِي عَذَابِ جَهَنَّمَ خَٰلِدُونَ ۝ 58
(74) रहे मुजरिम लोग, तो वे हमेशा जहन्नम के अज़ाब में मुब्तला रहेंगे।
لَا يُفَتَّرُ عَنۡهُمۡ وَهُمۡ فِيهِ مُبۡلِسُونَ ۝ 59
(75) कभी उनके अज़ाब में कमी न होगी और वे उसमें मायूस पड़े होंगे।
وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن كَانُواْ هُمُ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 60
(76) उनपर हमने ज़ुल्म नहीं किया, बल्कि वे ख़ुद ही अपने ऊपर ज़ुल्म करते रहे।
وَنَادَوۡاْ يَٰمَٰلِكُ لِيَقۡضِ عَلَيۡنَا رَبُّكَۖ قَالَ إِنَّكُم مَّٰكِثُونَ ۝ 61
(77) वे पुकारेंगे, “ऐ मालिक,61 तेरा रब हमारा काम ही तमाम कर दे तो अच्छा है।” वह जवाब देगा, “तुम यूँ ही पड़े रहोगे,
61. मालिक से मुराद है जहन्नम का दारोगा। जैसा कि मौक़ा-महल से ख़ुद ज़ाहिर हो रहा है।
لَقَدۡ جِئۡنَٰكُم بِٱلۡحَقِّ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَكُمۡ لِلۡحَقِّ كَٰرِهُونَ ۝ 62
(78) हम तुम्हारे पास हक़ लेकर आए थे, मगर तुममें से ज़्यादा तर को हक़ ही नागवार था।"62
62. यानी हमने हक़ीक़त तुम्हारे सामने खोलकर रख दी, मगर तुम हक़ीक़त के बजाय कहानियों के दीवाने थे और सच्चाई तुम्हें सख़्त नागवार थी। अब अपने इस बेवक़ूफी भरे चुनाव का अंजाम देखकर बिलबिलाते क्यों हो? हो सकता है कि यह जहन्नम के दारोग़ा ही के जवाब का एक हिस्सा हो और यह भी हो सकता है कि उसका जवाब “तुम यूँ ही पड़े रहोगे” पर ख़त्म हो गया हो और यह दूसरा जुमला अल्लाह तआला का अपना कहना हो। पहली सूरत में जहन्नम के दारोगा का यह कहना कि “हम तुम्हारे पास हक़ लेकर आए थे” ऐसा ही है, जैसे हुकूमत का कोई अधिकारी हुकूमत की तरफ़ से बोलते हुए “हम” का लफ़्ज़ इस्तेमाल करता है और उसकी मुराद यह होती है कि हमारी हुकूमत ने यह काम किया या यह हुक्म दिया।
أَمۡ أَبۡرَمُوٓاْ أَمۡرٗا فَإِنَّا مُبۡرِمُونَ ۝ 63
(79) क्या इन लोगों ने कोई कार्रवाई करने का फ़ैसला कर लिया है?63 अच्छा तो हम भी फिर एक फ़ैसला किए लेते हैं।
63. इशारा है उन बातों की तरफ़ जो क़ुरैश के सरदार अपनी ख़ुफ़िया बैठकों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ख़िलाफ़ कोई फ़ैसलाकुन क़दम उठाने के लिए कर रहे थे।
أَمۡ يَحۡسَبُونَ أَنَّا لَا نَسۡمَعُ سِرَّهُمۡ وَنَجۡوَىٰهُمۚ بَلَىٰ وَرُسُلُنَا لَدَيۡهِمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 64
(80) क्या इन्होंने यह समझ रखा है कि हम इनकी राज़ की बातें और इनकी काना-फूसियाँ सुनते नहीं हैं? हम सब कुछ सुन रहे हैं और हमारे फ़रिश्ते इनके पास ही लिख रहे हैं।
قُلۡ إِن كَانَ لِلرَّحۡمَٰنِ وَلَدٞ فَأَنَا۠ أَوَّلُ ٱلۡعَٰبِدِينَ ۝ 65
(81) इनसे कहो, “अगर सचमुच रहमान (मेहरबान ख़ुदा) की कोई औलाद होती तो सबसे पहले इबादत करनेवाला मैं होता।64
64. मतलब यह है कि मेरा किसी को ख़ुदा की औलाद न मानना और जिन्हें तुम उसकी औलाद ठहरा रहे हो उनकी इबादत से इनकार करना किसी ज़िद और हठधर्मी की वजह से नहीं है। मैं जिस वजह से इससे इनकार करता हूँ वह सिर्फ़ यह है कि कोई ख़ुदा का बेटा या बेटी नहीं है और तुम्हारे ये अक़ीदे हक़ीक़त के ख़िलाफ़ हैं। वरना मैं तो ख़ुदा का ऐसा वफ़ादार बन्दा हूँ कि अगर मान लो हक़ीक़त यही होती तो तुमसे पहले मैं बन्दगी में सर झुका देता।
سُبۡحَٰنَ رَبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبِّ ٱلۡعَرۡشِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 66
(82) पाक है आसमानों और ज़मीन का बादशाह, अर्श का मालिक, उन सारी बातों से जो ये लोग उसकी तरफ़ जोड़ते हैं।
فَذَرۡهُمۡ يَخُوضُواْ وَيَلۡعَبُواْ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي يُوعَدُونَ ۝ 67
(83) अच्छा, इन्हें अपने ग़लत ख़यालात में डूबे और अपने खेल में लगे रहने दो, यहाँ तक कि ये अपना वह दिन देख लें जिससे इन्हें डराया जा रहा है।
وَهُوَ ٱلَّذِي فِي ٱلسَّمَآءِ إِلَٰهٞ وَفِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَٰهٞۚ وَهُوَ ٱلۡحَكِيمُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 68
(84) वही एक आसमान में भी ख़ुदा है और ज़मीन में भी ख़ुदा और वही हिकमतवाला और सब कुछ जाननेवाला है।65
65. यानी आसमान और ज़मीन के ख़ुदा अलग-अलग नहीं हैं, बल्कि सारी कायनात का एक ही ख़ुदा है। उसी की हिकमत इस कायनात के पूरे निज़ाम में काम कर रही है और वही तमाम हक़ीक़तों का इल्म रखता है।
وَتَبَارَكَ ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَعِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلسَّاعَةِ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 69
(85) बहुत बाला और बरतर है वह जिसके क़ब्ज़े में ज़मीन और आसमानों और उस चीज़ की बादशाही है जो ज़मीन और आसमान के बीच पाई जाती है।66 और वही क़ियामत की घड़ी की जानकारी रखता है और उसी की तरफ़ तुम सब पलटाए जानेवाले हो।67
66. यानी उसकी हस्ती इससे कई गुना ज़्यादा बुलन्द और बरतर है कि कोई ख़ुदाई में उसका शरीक हो और इस अज़ीम कायनात (विशाल जगत्) की हुकूमत चलाने में कुछ भी दख़ल रखता हो। ज़मीन और आसमान में जो भी हैं, चाहे वे पैग़म्बर हों या वली, फ़रिश्ते हों या जिन्न या रूहें, सितारे हों या सय्यारे (ग्रह), सब उसके बन्दे और ग़ुलाम और उसके फ़रमाँबरदार हैं। उनके अन्दर ख़ुदा की कोई सिफ़त और ख़ूबी मौजूद होना या उनका ख़ुदाई अधिकार रखना बिलकुल नामुमकिन है।
67. यानी दुनिया में तुम चाहे किसी को अपना हिमायती और सरपरस्त बनाते फिरो, मगर मरने के बाद तुम्हारा सामना उसी एक ख़ुदा से पड़ना है और उसी की अदालत में तुमको अपने आमाल की जवाबदेही करनी है।
وَلَا يَمۡلِكُ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ مِن دُونِهِ ٱلشَّفَٰعَةَ إِلَّا مَن شَهِدَ بِٱلۡحَقِّ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 70
(86) उसको छोड़कर ये लोग जिन्हें पुकारते हैं, वे किसी सिफ़ारिश का अधिकार नहीं रखते, सिवाय यह कि कोई इल्म की बुनियाद पर हक़ की गवाही दे।68
68. इस जुमले के कई मतलब हैं— एक यह कि लोगों ने जिन-जिनको दुनिया में माबूद (उपास्य) बना रखा है, वे सब अल्लाह के सामने सिफ़ारिश करनेवाले नहीं हैं। उनमें से जो गुमराह और भटके हुए थे, वे तो ख़ुद वहाँ मुजरिम की हैसियत से पेश होंगे। अलबत्ता वे लोग ज़रूर दूसरों की सिफारिश करने के क़ाबिल होंगे जिन्होंने इल्म के साथ (न कि बेजाने-बूझे) हक़ की गवाही दी थी। दूसरा यह कि जिन्हें सिफ़ारिश करने का अधिकार हासिल होगा, वे भी सिर्फ़ उन लोगों की सिफ़ारिश कर सकेंगे जिन्होंने दुनिया में जान-बूझकर (न कि ग़फ़लत और बेख़बरी के साथ) हक़ की गवाही दी हो। किसी ऐसे शख़्स की सिफ़ारिश न वे ख़ुद करेंगे, न कर सकेंगे जो दुनिया में हक़ से मुँह मोड़े रहा था, या बेसमझे-बूझे “अश्हदु अल्ला इला-ह इल्लल्लाह” (मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं है) भी कहता रहा और दूसरे माबूदों की बन्दगी भी करता रहा। तीसरा यह कि कोई शख़्स अगर कहता है कि उसने जिनको माबूद बना रखा है, वे लाज़िमन सिफ़ारिश के अधिकार रखते हैं और उन्हें अल्लाह तआला के यहाँ ऐसा ज़ोर हासिल है कि जिसे चाहें माफ़ करवा लें, चाहे उसके आमाल और अक़ीदे कैसे ही हों, तो वह ग़लत कहता है। यह हैसियत अल्लाह के यहाँ किसी को भी हासिल नहीं है। जो शख़्स किसी के लिए ऐसी सिफ़ारिश के अधिकारों का दावा करता है, वह अगर इल्म की बुनियाद पर इस बात की हक़ीक़त की बुनियाद पर गवाही दे सकता हो तो हिम्मत करके आगे आए, लेकिन अगर वह ऐसी गवाही देने की पोज़ीशन में नहीं है और यक़ीनन नहीं है, तो ख़ाह-मख़ाह सुनी-सुनाई बातों पर, या सिर्फ़ वहम और गुमान की बुनियाद पर ऐसा एक अक़ीदा गढ़ लेना सरासर बेमतलब और इस ख़याली भरोसे पर अपने अंजाम को ख़तरे में डाल लेना बेवक़ूफ़ी है। इस आयत से दो बड़े अहम उसूल भी निकलते हैं। एक, इससे मालूम होता है कि इल्म के बिना हक़ की गवाही देना चाहे दुनिया में भरोसेमन्द हो, मगर अल्लाह के यहाँ भरोसेमन्द नहीं है। दुनिया में तो जो कोई कलिमए-शहादत ज़बान से अदा करेगा, हम उसको मुसलमान मान लेंगे और उसके साथ मुसलमानों का-सा मामला करते रहेंगे जब तक वह खुल्लम-खुल्ला साफ़ कुफ़्र न कर बैठे। लेकिन अल्लाह के यहाँ सिर्फ़ वही शख़्स ईमानवालों में गिना जाएगा जिसने अपने इल्म की बिसात और अक़्ल की हद तक यह जानते और समझते हुए “ला इला-ह इल्लल्लाह” कहा हो कि वह किस चीज़ का इनकार और किस चीज़ का इक़रार कर रहा है। दूसरा, इससे गवाही के क़ानून का यह क़ायदा निकलता है कि गवाही के लिए इल्म शर्त है। गवाह जिस वाक़िए की गवाही दे रहा हो, उसका अगर उसे इल्म नहीं है तो उसकी गवाही बेमतलब है। यही बात नबी (सल्ल०) के एक फ़ैसले से भी मालूम होती है। आप (सल्ल०) ने एक गवाह से फ़रमाया कि “अगर तूने वाक़िआ ख़ुद अपनी आँखों से इस तरह देखा है जैसे तू सूरज को देख रहा है तो गवाही दे वरना रहने दे।” (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَهُمۡ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۖ فَأَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 71
(87) और अगर तुम इनसे पूछो कि इन्हें किसने पैदा किया है तो ये ख़ुद कहेंगे कि अल्लाह ने।69 फिर कहाँ से ये धोखा खा रहे हैं?
69. इसके दो मतलब हैं। एक, यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि ख़ुद इनको किसने पैदा किया है तो कहेंगे कि अल्लाह ने। दूसरे, यह कि अगर तुम इनसे पूछो कि इनके माबूदों (उपास्यों) का पैदा करनेवाला कौन है तो ये कहेंगे कि अल्लाह।
وَقِيلِهِۦ يَٰرَبِّ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ قَوۡمٞ لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 72
(88) क़सम है रसूल की इस बात की कि “ऐ रब, ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते।"70
70. यह क़ुरआन मजीद की बहुत ही मुश्किल आयतों में से है जिसमें नह्व (व्याकरण) का यह बहुत पेचीदा सवाल पैदा होता है कि 'व-क़ीलिही' में 'व' कैसा है और इस लफ़्ज़ का ताल्लुक़ ऊपर से चले आ रहे बात के सिलसिले में किस चीज़ के साथ है। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने इसपर बहुत कुछ कहा है, मगर कोई इत्मीनान के क़ाबिल बात मुझे उनके यहाँ नहीं मिली। मेरे नज़दीक सबसे ज़्यादा सही बात वही है जो शाह अब्दुल-क़ादिर साहब (रह०) के तर्जमे से ज़ाहिर होती है, यानी इसमें 'व' 'और' के लिए नहीं, बल्कि 'क़सम' के लिए इस्तेमाल हुआ है और इसका ताल्लुक़ 'फ़-अन्ना युअफ़कून' (फिर ये कहाँ से धोखा खा रहे हैं) से है और 'क़ीलिही' की ज़मीर (सर्वनाम) 'ही' का ताल्लुक़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से है जिसपर “या रब्बि इन-न हाउलाइ क़ौमुल-ला युअमिनून” का जुमला साफ़ दलील दे रहा है। आयत का मतलब यह है— क़सम है रसूल के इस क़ौल की कि “ऐ रब, ये वे लोग हैं जो मानकर नहीं देते,” कैसा अजीब है इन लोगों का धोखा खाना कि ख़ुद मानते हैं कि इनका और इनके माबूदों का पैदा करनेवाला अल्लाह तआला ही है और फिर भी पैदा करनेवाले को छोड़कर मख़लूक़ (सृष्टि) ही की इबादत पर हठ किए जाते हैं। रसूल के इस क़ौल की क़सम खाने का मक़सद यह है कि इन लागों का यह रवैया साफ़ साबित किए दे रहा है कि सचमुच ये हठधर्म हैं, क्योंकि इनके रवैये का ग़लत होना उनके अपने मानने से ज़ाहिर है और ऐसा ग़लत रवैया सिर्फ़ वही शख़्स अपना सकता है जो न मानने का फ़ैसला किए बैठा हो। दूसरे अलफ़ाज़ में यह क़सम इस मानी में है कि बिलकुल ठीक कहा रसूल ने, सचमुच ये मानकर देनेवाले लोग नहीं हैं।
فَٱصۡفَحۡ عَنۡهُمۡ وَقُلۡ سَلَٰمٞۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 73
(89) अच्छा, ऐ नबी! इन्हें अनदेखा कर दो और कह दो कि सलाम है तुम्हें,71 जल्द ही इन्हें मालूम हो जाएगा।
71. यानी इनकी सख़्त बातों और हँसने और मज़ाक़ उड़ाने पर न इनके लिए बद्दुआ करो और न इनके जवाब में कोई सख़्त बात कहो, बस सलाम करके इनसे अलग हो जाओ।
فَلَمَّا جَآءَهُم بِـَٔايَٰتِنَآ إِذَا هُم مِّنۡهَا يَضۡحَكُونَ ۝ 74
(47) फिर जब उसने हमारी निशानियाँ उनके सामने पेश कीं तो वे ठट्ठे मारने लगे।
وَمَا نُرِيهِم مِّنۡ ءَايَةٍ إِلَّا هِيَ أَكۡبَرُ مِنۡ أُخۡتِهَاۖ وَأَخَذۡنَٰهُم بِٱلۡعَذَابِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 75
(48) हम एक-पर-एक ऐसी निशानी उनको दिखाते चले गए जो पहली से बढ़-चढ़कर थी और हमने उनको अज़ाब में धर लिया, ताकि वे अपने रवैये से बाज़ आए।43
43. इन निशानियों से मुराद वे निशानियाँ हैं जो बाद में अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहि०) के ज़रिए से उनको दिखाईं और वे ये थीं— (1) जादूगरों से अल्लाह के नबी का सब लोगों के सामने मुक़ाबला हुआ और वे हार गए और ईमान ले आए। तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—88 से 92; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—30 से 50; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—29 से 40। (2) हज़रत मूसा (अलैहि०) के पहले से किए हुए एलान के मुताबिक़ मिस्र की सरज़मीन में सख़्त सूखा पड़ गया और वह उनकी दुआ पर ही दूर हुआ। (3) उनके पहले से किए हुए एलान के बाद सारे देश में भयानक बारिशों और ओलों और गरज और कड़क के तूफ़ान आए, जिन्होंने बस्तियों और खेतियों को तबाह कर डाला और यह बला भी उनकी दुआ से दूर हुई। (4) पूरे देश पर उनके एलान के मुताबिक़ टिड्डी दलों का ख़ौफ़नाक हमला हुआ और यह आफ़त भी उस वक़्त तक न टली जब तक उन्होंने उसे टालने के लिए अल्लाह से दुआ न की। (5) देश भर में उनके एलान के मुताबिक़ जूँए और सुरसुरियाँ फैल गईं, जिनसे एक तरफ़ आदमी और जानवर सख़्त तकलीफ़ में पड़ गए और दूसरी तरफ़ अनाजों के गोदाम तबाह हो गए। यह अज़ाब भी उस वक़्त टला जब हज़रत मूसा (अलैहि०) से दरख़ास्त का करके दुआ कराई गई। (6) देश के कोने-कोने में उनके वक़्त से पहले ख़बरदार करने के मुताबिक़ मेंढकों का सैलाब उमड़ आया जिसने पूरी आबादी का जीना दूभर कर दिया। अल्लाह की यह फ़ौज भी हज़रत मूसा (अलैहि०) की दुआ के बिना वापस न गई। (7) ठीक उनके एलान के मुताबिक़ ख़ून का अज़ाब आया, जिससे तमाम नहरों, कुँओं, चश्मों (स्रोतों), तालाबों और हौज़ों का पानी ख़ून में बदल गया, मछलियाँ मर गईं, हर जगह पानी के ज़ख़ीरों (भण्डारों) में सड़ाँध पैदा हो गई और पूरे एक हफ़्ते तक मिस्र के लोग साफ़ पानी को तरस गए। यह आफ़त भी उसी वक़्त टली जब इससे नजात पाने के लिए हज़रत मूसा (अलैहि०) से दुआ कराई गई। तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—94 से 96; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—16, 17; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-37। बाइबल की किताब निर्गमन, अध्याय 7 से 10 और 12 में भी इन अज़ाबों की तफ़सीली रूदाद लिखी है, मगर उसमें गप्प और हक़ीक़त दोनों का घालमेल मौजूद है। उसमें कहा गया है कि जब ख़ून का अज़ाब आया तो जादूगरों ने भी वैसा ही लाकर दिखाया। मगर जब जुओं का अज़ाब आया तो जादूगर जवाब में जूंएँ पैदा न कर सके और उन्होंने कहा कि यह ख़ुदा का काम है। फिर इससे भी ज़्यादा दिलचस्प बात यह है कि जब मेंढकों का सैलाब उठा तो जादूगर भी जवाब में मेंढक चढ़ा लाए, लेकिन इसके बावजूद फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) ही से यह दरख़ास्त की कि अल्लाह से दुआ करके इस अज़ाब (आपदा) को दूर कराइए। सवाल यह है कि जब जादूगर मेंढक चढ़ा ला सकते थे तो फ़िरऔन ने उन्हीं के ज़रिए से यह अज़ाब क्यों न दूर करा लिया? और आख़िर यह मालूम कैसे हुआ कि मेंढकों की इस फ़ौज में अल्लाह के मेंढक कौन-से हैं और जादूगरों के मेंढक कौन-से? यही सवाल ख़ून के बारे में भी पैदा होता है कि जब हज़रत मूसा (अलैहि०) के ख़बरदार करने के मुताबिक़ हर तरफ़ पानी के ज़ख़ीरे (भण्डार) ख़ून में बदल चुके थे तो जादूगरों ने किस पानी को ख़ून बनाया और कैसे मालूम हुआ कि फ़ुलाँ जगह का पानी जादूगरों के करतब से ख़ून बना है? ऐसी ही बातों से साफ़ मालूम हो जाता है कि बाइबल ख़ालिस अल्लाह का कलाम नहीं है, बल्कि उसको जिन लोगों ने लिखा है, उन्होंने उसके अन्दर अपनी तरफ़ से भी बहुत कुछ मिला दिया है और ग़ज़ब की बात यह है कि ये लिखनेवाले कुछ थे भी मामूली अक़्ल के लोग जिन्हें बात गढ़ने का ढंग भी न था।
وَقَالُواْ يَٰٓأَيُّهَ ٱلسَّاحِرُ ٱدۡعُ لَنَا رَبَّكَ بِمَا عَهِدَ عِندَكَ إِنَّنَا لَمُهۡتَدُونَ ۝ 76
(49) हर अज़ाब के मौक़े पर वे कहते, “” जादूगर, अपने रब की तरफ़ से जो मंसब (दरजा) तुझे हासिल है, उसकी बुनियाद पर हमारे लिए उससे दुआ कर, हम ज़रूर सीधे रास्ते पर आ जाएँगे।
فَلَمَّا كَشَفۡنَا عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابَ إِذَا هُمۡ يَنكُثُونَ ۝ 77
(50) मगर ज्यों ही कि हम उनपर से अज़ाब हटा देते, वे अपनी बात से फिर जाते थे।44
44. फ़िरऔन और उसकी क़ौम के सरदारों की हठधर्मी का अन्दाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि जब वे ख़ुदा के अज़ाब से तंग आकर हज़रत मूसा (अलैहि०) से उसके टलने की दुआ कराना चाहते थे, उस वक़्त भी वे मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बर कहने के बजाय जादूगर ही कहकर उनको पुकारते थे। हालाँकि वे जादू की हक़ीक़त से अनजान न थे और उनसे यह बात छिपी हुई न थी कि ये करिश्मे किसी जादूगर से ज़ाहिर नहीं हो सकते। एक जादूगर ज़्यादा-से-ज़्यादा जो कुछ कर सकता है, वह यह है कि एक महदूद दायरे में जो लोग उसके सामने मौजूद हों, उनके ज़ेहन पर ऐसा असर डाले जिससे वे यह महसूस करने लगें कि पानी ख़ून बन गया है, या मेंढक उबले पड़ रहे हैं, या टिड्डी दल चढ़े आ रहे हैं और इस महदूद दायरे के अन्दर भी कोई पानी हक़ीक़त में ख़ून न बन जाएगा, बल्कि उस दायरे से निकलते ही पानी-का-पानी रह जाएगा। कोई मेंढक सचमुच पैदा न होगा, बल्कि उसे पकड़कर आप उस दायरे से बाहर ले जाएँगे तो आपके हाथ में मेंढक के बजाय सिर्फ़ हवा होगी। टिड्डी दल भी सिर्फ़ ख़याली दल होगा, किसी खेत को वह न चाट सकेगा। रही यह बात कि एक पूरे देश में सूखा पड़ जाए, या पूरे देश की नहरें और पानी के चश्मे (जल-स्रोत) और कुएँ ख़ून से भर जाएँ, या हज़ार मील के इलाक़े पर टिड्डी दल टूट पड़ें और वे लाखों एकड़ के खेत साफ़ कर जाएँ, यह काम न आज तक कोई जादूगर कर सका है, न जादू के ज़ोर से कभी यह हो सकता है। ऐसे जादूगर किसी बादशाह के पास होते तो उसे फ़ौज रखने और जंग की मुसीबतें झेलने की क्या ज़रूरत थी, जादू के ज़ोर से वे सारी दुनिया को अपने क़ब्ज़े में कर सकता था, बल्कि जादूगरों के पास यह ताक़त होती तो वे बादशाहों की नौकरी ही क्यों करते? ख़ुद बादशाह न बन बैठते? क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों को आम तौर से इस परेशानी का सामना करना पड़ा है कि जब अज़ाब से नजात पाने के लिए फ़िरऔन और उसके दरबारी हज़रत मूसा (अलैहि०) से दुआ की दरख़ास्त करते थे, उस वक़्त वे उनको “ऐ जादूगर” कहकर कैसे मुख़ातब करते थे। मुसीबत के वक़्त मदद की दरख़ास्त करनेवाला तो ख़ुशामद करता है, न कि बुरा-भला कहता है। इसी वजह से उन्होंने यह मतलब निकाला है कि जादू उस ज़माने के मिस्रवालों के नज़दीक बहुत क़ाबिले-क़द्र इल्म था और “ऐ जादूगर” कहकर वे अस्ल में हज़रत मूसा (अलैहि०) को बुरा न कहते थे, बल्कि अपने नज़दीक इज़्ज़त के साथ वे मानो उनको “ऐ आलिम” कहकर पुकारते थे। लेकिन यह मतलब इस वजह से बिलकुल ग़लत है कि क़ुरआन में दूसरी जगहों पर जहाँ-जहाँ भी फ़िरऔन की वे बातें नक़्त की गई हैं जिनमें कहीं उसने हज़रत मूसा (अलैहि०) को जादूगर और उनके पेश किए हुए मोजिज़ों (चमत्कारों) को जादू कहा है, वहाँ बुराई और हक़ीर (तुच्छ) समझने का अन्दाज़ साफ़ ज़ाहिर होता है और साफ़ यह नज़र आता है कि उसके नज़दीक जादू एक झूठी चीज़ थी, जिसका इलज़ाम हज़रत मूसा (अलैहि०) पर रखकर वह उनको नुबूवत (पैग़म्बरी) का झूठा दावेदार ठहराता था। इसलिए यह मानने के क़ाबिल बात नहीं है कि यकायक इस जगह पर उसकी निगाह में 'जादूगर' एक इज़्ज़तदार आलिम का लक़ब बन गया हो। रहा यह सवाल कि जब दुआ की दरख़ास्त करते वक़्त भी वह खुल्लम-खुल्ला हज़रत मूसा (अलैहि०) की तौहीन (बेइज़्ज़ती) करता था तो मूसा (अलैहि०) उसकी दरख़ास्त क़ुबूल ही क्यों करते थे? इस सवाल का जवाब यह है कि उनके सामने अल्लाह के हुक्म से उन लोगों पर दलीलों के ज़रिए से बात पहुँचाने का काम पूरा करना था। अज़ाब टालने के लिए उनका मूसा (अलैहि०) से दुआ की दरख़ास्त करना ख़ुद यह साबित कर रहा था कि अपने दिलों में वे जान चुके हैं कि ये अज़ाब क्यों आ रहे हैं, कहाँ से आ रहे हैं और कौन इन्हें टाल सकता है। इसके बावजूद जब वे हठधर्मी के साथ उनको जादूगर कहते थे और अज़ाब टल जाने के बाद सीधा रास्ता क़ुबूल करने के वादे से फिर जाते थे, तो अस्ल में वे अल्लाह के नबी का कुछ न बिगाड़ते थे, बल्कि अपने ख़िलाफ़ उस मुक़द्दमे को और ज़्यादा मज़बूत करते चले जाते थे जिसका फ़ैसला अल्लाह तआला ने उनके पूरी तरह मिट जाने की शक्ल में आख़िर कर दिया। उनका मूसा (अलैहि०) को जादूगर कहना यह मतलब नहीं रखता था कि वे हक़ीक़त में अपने दिल में भी यह समझते थे कि ये अज़ाब उनपर जादू के ज़ोर से आ रहे हैं, बल्कि अपने दिलों में वे ख़ूब समझते थे कि ये अल्लाह, सारे जहान के रब, की निशानियाँ हैं और फिर जान-बूझकर उनका इनकार करते थे। यही बात है जो सूरा-27 नम्ल में कही गई है कि “उनके दिल अन्दर से मान चुके थे, मगर इन्होंने ज़ुल्म और घमण्ड के कारण इन निशानियों का इनकार किया।" (आयत-14)
وَنَادَىٰ فِرۡعَوۡنُ فِي قَوۡمِهِۦ قَالَ يَٰقَوۡمِ أَلَيۡسَ لِي مُلۡكُ مِصۡرَ وَهَٰذِهِ ٱلۡأَنۡهَٰرُ تَجۡرِي مِن تَحۡتِيٓۚ أَفَلَا تُبۡصِرُونَ ۝ 78
(51) एक दिन फ़िरऔन ने अपनी क़ौम के बीच पुकारकर कहा,45 “लोगो, क्या मिस्र की बादशाही मेरी नहीं है और ये नहरें मेरे नीचे नहीं बह रही हैं? क्या तुम लोगों को नज़र नहीं आता?46
45. शायद पूरी क़ौम में पुकारने की अमली सूरत यह रही होगी कि फ़िरऔन ने जो बात अपने दरबार में सल्तनत के दरबारी और बड़े अधिकारी और क़ौम के बड़े-बड़े सरदारों को मुख़ातब करके कही थी, उसी को मुनादियों (एलान करनेवालों) के ज़रिए से पूरे देश के शहरों और बस्तियों में फैलाया होगा। बेचारे के पास उस ज़माने में ये ज़रिए न थे कि ख़ुशामदी प्रेस, ख़ुद की बनाई हुई ख़बर देनेवाली एजेंसियों और सरकारी रेडियो से मुनादी (एलान) कराता।
46. एलान करने की बात ही यह साफ़ बता रही है कि सरकार के पाँवों तले से ज़मीन निकली जा रही थी। हज़रत मूसा (अलैहि०) के एक के बाद एक मोजिज़ों (चमत्कारों) ने देश की जनता का अक़ीदा अपने देवताओं पर से डगमगा दिया था और फ़िरऔनों का बाँधा हुआ वह सारा जादू टूट गया था, जिसके ज़रिए से ख़ुदाओं का अवतार बनकर यह ख़ानदान मिस्र में अपनी शाख़ुदावन्दी (प्रभुत्त्व) चला रहा था। इसी सूरतेहाल को देखकर फ़िरऔन चीख़ उठा कि कमबख़्तो, तुम्हें आँखों से नज़र नहीं आता कि इस देश में बादशाही किसकी है और नील नदी से निकली हुई ये नहरें, जिनपर तुम्हारी सारी रोज़ी-रोटी का मुकम्मल दारोमदार है, किसके हुक्म से जारी हैं? ये तरक़्क़ियों (Developments) के काम तो मेरे और मेरे ख़ानदान के कि किए हुए हैं और तुम फ़िदा हो रहे हो इस फ़क़ीर पर।
أَمۡ أَنَا۠ خَيۡرٞ مِّنۡ هَٰذَا ٱلَّذِي هُوَ مَهِينٞ وَلَا يَكَادُ يُبِينُ ۝ 79
(52) मैं बेहतर हूँ या यह शख़्स जो बेइज़्ज़त और हक़ीर (हीन) है47 और अपनी बात भी खोलकर बयान नहीं कर सकता?48
47. यानी, जिसके पास न माल-दौलत है, न अधिकार और हुकूमत। यही एतिराज़ क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर किया था।
48. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने यह ख़याल ज़ाहिर किया है कि फ़िरऔन का या एतिराज़ उस हकलेपन पर था जो हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान में बचपन से था। लेकिन यह ख़याल सही नहीं है। सूरा-20 ता-हा में गुज़र चुका है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को जब नबी बनाया जा रहा था, उस वक़्त उन्होंने अल्लाह तआला से दरख़ास्त की थी कि मेरी ज़बान की गाँठ खोल दीजिए, ताकि लोग मेरी बात अच्छी तरह समझ लें और उसी वक़्त उनकी दूसरी दरख़ास्तों के साथ यह दरख़ास्त भी क़ुबूल कर ली गई थी (आयतें—27 से 36)। फिर क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर हज़रत मूसा (अलैहि०) की जो तक़रीरें नक़्ल की गई हैं, वे बोलने की आला दरजे की सलाहियत और क़ुदरत की दलील देती हैं। इसलिए फ़िरऔन के एतिराज़ की वजह कोई हकलापन न था जो हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान में हो, बल्कि इसका मतलब यह था कि यह आदमी न जाने क्या उलझी-उलझी बातें करता है, मेरी समझ में तो कभी इसका मक़सद आया नहीं।
وَلَا يَصُدَّنَّكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 80
(62) ऐसा न हो कि शैतान तुमको उससे रोक दे56 कि वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
56. यानी क़ियामत पर ईमान लाने से रोक दे।
وَلَمَّا جَآءَ عِيسَىٰ بِٱلۡبَيِّنَٰتِ قَالَ قَدۡ جِئۡتُكُم بِٱلۡحِكۡمَةِ وَلِأُبَيِّنَ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي تَخۡتَلِفُونَ فِيهِۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 81
(63) और जब ईसा खुली-खुली निशानियाँ लिए हुए आया था तो उसने कहा था कि “मैं तुम लोगों के पास हिकमत लेकर आया हूँ और इसलिए आया हूँ कि तुमपर कुछ उन बातों की हक़ीक़त खोल दूँ जिनमें तुम इख़्तिलाफ़ कर रहे हो, इसलिए तुम अल्लाह से डरो और मेरी पैरवी करो।
إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 82
(64) हक़ीक़त यह है कि अल्लाह ही मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। उसी की तुम इबादत करो, यही सीधा रास्ता है।"57
57. यानी ईसा (अलैहि०) ने कभी यह नहीं कहा था कि मैं ख़ुदा हूँ या ख़ुदा का बेटा हूँ और तुम मेरी इबादत करो, बल्कि उनकी दावत वही थी जो दूसरे तमाम नबियों की दावत थी और अब जिसकी तरफ़ मुहम्मद (सल्ल०) तुमको बुला रहे हैं। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—45 से 48; सूरा-4 निसा, हाशिए—213, 217, 218; सूरा-5 माइदा, हाशिए—100, 130; सूरा-19 मरयम, हाशिए—21 से 23)।
فَٱخۡتَلَفَ ٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَيۡنِهِمۡۖ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ ظَلَمُواْ مِنۡ عَذَابِ يَوۡمٍ أَلِيمٍ ۝ 83
(65) मगर (उसकी इस साफ़ तालीम के बावजूद) गरोहों ने आपस में इख़्तिलाफ़ किया,58 तो तबाही है उन लोगों के लिए जिन्होंने ज़ुल्म किया एक दर्दनाक दिन के अज़ाब से।
58. यानी एक गरोह ने उनका इनकार किया तो मुख़ालफ़त में इस हद तक पहुँच गया कि उनपर नाजाइज़ औलाद होने की तुहमत लगाई और उनको अपने नज़दीक सूली पर चढ़वाकर छोड़ा। दूसरे गरोह ने उनको माना तो अक़ीदत में इतने आगे निकल गया कि उनको ख़ुदा बना बैठा और फिर एक इनसान के ख़ुदा होने का मसला उसके लिए ऐसी गुत्थी बना जिसे सुलझाते-सुलझाते उसमें अनगिनत गुट बन गए। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिए—211 से 216; सूरा-5 माइदा, हाशिए—39, 40, 101, 130)
هَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا ٱلسَّاعَةَ أَن تَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 84
(66) क्या ये लोग अब बस इसी चीज़ के इन्तिज़ार में हैं कि अचानक इनपर क़ियामत आ जाए और इन्हें ख़बर भी न हो?
ٱلۡأَخِلَّآءُ يَوۡمَئِذِۭ بَعۡضُهُمۡ لِبَعۡضٍ عَدُوٌّ إِلَّا ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 85
(67) वह दिन जब आएगा तो परहेज़गारों को छोड़कर बाक़ी सब दोस्त एक-दूसरे के दुश्मन हो जाएँगे।59
59. दूसरे अलफ़ाज़ में सिर्फ़ वे दोस्तियाँ बाक़ी रह जाएँगी जो दुनिया में नेकी और ख़ुदातरसी पर क़ायम हैं। दूसरी तमाम दोस्तियाँ दुश्मनी में बदल जाएँगी और आज गुमराही, ज़ुल्मो-सितम और गुनाहों में जो लोग एक-दूसरे के साथी और मददगार बने हुए हैं, कल क़ियामत के दिन वही एक-दूसरे पर इलज़ाम डालने और अपनी जान छुड़ाने की कोशिश कर रहे होंगे। यह बात क़ुरआन मजीद में बार-बार जगह-जगह बताई गई है, ताकि हर शख़्स इस दुनिया में अच्छी तरह सोच ले कि किन लोगों का साथ देना उसके लिए फ़ायदेमन्द है और किनका साथ बरबाद कर देनेवाला।
يَٰعِبَادِ لَا خَوۡفٌ عَلَيۡكُمُ ٱلۡيَوۡمَ وَلَآ أَنتُمۡ تَحۡزَنُونَ ۝ 86
(68) उस दिन उन लोगों से, जो हमारी आयतों पर ईमान लाए थे और फ़रमाँबरदार बनकर रहे थे,
ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَكَانُواْ مُسۡلِمِينَ ۝ 87
(69) कहा जाएगा कि “ऐ मेरे बन्दो, आज तुम्हारे लिए कोई डर नहीं और न तुम्हें कोई दुख होगा।
ٱدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ أَنتُمۡ وَأَزۡوَٰجُكُمۡ تُحۡبَرُونَ ۝ 88
(70) दाख़िल हो जाओ जन्नत में तुम और तुम्हारी बीवियाँ,60 तुम्हें ख़ुश कर दिया जाएगा।”
60. अस्ल में 'अज़वाज' (जोड़े) का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जो बीवियों के लिए भी इस्तेमाल हो सकता है और ऐसे लोगों के लिए भी जो किसी आदमी के साथी, हमजोली और एक ही जमाअत (दल) के हों। यह बहुत-से मानी रखनेवाला लफ़्ज़ इसी लिए इस्तेमाल किया गया है, ताकि इसके मतलब में दोनों दाख़िल जाएँ। ईमानवालों की मोमिन बीवियाँ भी उनके साथ होंगी और उनके मोमिन दोस्त भी जन्नत में इनके साथी होंगे।