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سُورَةُ البَيِّنَةِ

98. अल-बैयिनह

(मदीना में उतरी, आयतें 8)

परिचय

नाम

पहली आयत के शब्द 'अल-बैयिनह' (रौशन दलील) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इसके भी मक्की और मदनी होने में मतभेद है। कुछ टीकाकार कहते हैं कि अधिकतर विद्वानों के नज़दीक यह मक्की है और कुछ दूसरे टीकाकार कहते हैं कि अधिकतर विद्वानों के नज़दीक मदनी है। इब्ने-ज़ुबैर और अता-बिन-यसार का कथन है कि यह मदनी है। इब्ने-अब्बास और क़तादा के दो कथन उल्लेख किए जाते हैं— एक यह कि यह मक्की है, दूसरा यह कि यह मदनी है। हज़रत आइशा (रज़ि०) इसे मक्की क़रार देती हैं। ‘बहरुल-मुहीत' के लेखक अबू-हय्यान और 'अहकामुल क़ुरआन' के लेखक अब्दुल-मुनइम इब्नुल-फ़रस इसके मक्की होने को प्राथमिकता देते हैं। जहाँ तक इसके विषय का ताल्लुक़ है, उसमें कोई निशानी ऐसी नहीं पाई जाती जो इसको मक्की या मदनी होने की ओर संकेत करती हो।

विषय और वार्ता

क़ुरआन मजीद के संकलन-क्रम में इसको सूरा-96 अल-अलक़ और सूरा-97 अल-क़द्र के बाद रखना अत्यन्त अर्थपूर्ण है। सूरा-96 अल-अलक़ में पहली वह्य अंकित है। सूरा-97 अल-क़द्र में बताया गया है कि वह कब उतरी, और इस सूरा में बताया गया है कि इस पाक किताब के साथ एक रसूल भेजना क्यों ज़रूरी था। सबसे पहले रसूल भेजने की ज़रूरत बयान की गई है, और वह यह है कि दुनिया के लोग भले ही वे अहले-किताब में से हों या मुशरिकों में से, जिस कुफ़्र (अधर्म) की हालत में पड़े थे उससे उनका निकलना इसके बिना मुमकिन न था कि एक रसूल भेजा जाए, जिसका अस्तित्त्व स्वयं अपनी पैग़म्बरी पर रौशन दलील हो और वह लोगों के सामने अल्लाह की किताब को उसकी असली और सही शक्ल में पेश करे जो असत्य की उन तमाम मिलावटों से पाक हो, जो पिछली आसमानी किताब में मिला दी गई हैं और जो बिल्कुल साफ़-सुथरी और ठीक शिक्षाओंवाली हो। इसके बाद अहले-किताब की पथभ्रष्टताओं के बारे में खुलकर कहा गया है कि उनके उन विभिन्न रास्तों में भटकने की वजह यह न थी कि अल्लाह ने उनका कोई मार्गदर्शन न किया था, बल्कि वे इसके बाद भटके जबकि सीधे रास्ते का खुला बयान उनके पास आ चुका था। इससे अपने आप यह नतीजा निकलता है कि अपनी पथभ्रष्टताओं के वे स्वयं ज़िम्मेदार हैं। और अब फिर अल्लाह के इस रसूल के ज़रिए से खुला बयान आ जाने के बाद भी अगर वे भटकते ही रहेंगे तो उनकी ज़िम्मेदारी और अधिक बढ़ जाएगी। इस सिलसिले में यह बताया गया है कि अल्लाह की ओर से जो नबी भी आए थे और जो किताबें भी भेजी गई थीं, उन्होंने इसके सिवा कोई और आदेश नहीं दिया था कि सब रास्तों को छोड़कर अल्लाह की ख़ालिस बन्दगी का रास्ता अपनाया जाए। किसी और की इबादत और बन्दगी तथा आज्ञापालन और आराधना को उसके साथ शामिल न किया जाए, नमाज़ क़ायम की जाए और ज़कात अदा की जाए। यही सदा से एक सही दीन रहा है। इससे भी यह नतीजा अपने आप निकल आता है कि अहले-किताब ने इस असल दीन से हटकर अपने धर्मों में जिन नई-नई बातों को बढ़ा लिया है वे सब असत्य हैं और अल्लाह का यह रसूल जो अब आया है, उसी असल दीन की ओर पलटने की उन्हें दावत दे रहा है। अन्त में साफ़-साफ़ कहा गया है कि जो अहले-किताब और मुशरिक इस रसूल को मानने से इंकार करेंगे वे सबसे बुरे लोग हैं, उनकी सज़ा सदा-सर्वदा की जहन्नम है, और जो लोग ईमान लाकर अच्छे कर्मों का मार्ग अपना लेंगे और अल्लाह से दुनिया में डरते हुए जीवन बिताएँगे, वे सर्वश्रेष्ठ लोग हैं। उनका बदला यह है कि वे हमेशा जन्नत में रहेंगे, अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से राज़ी हो गए।

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سُورَةُ البَيِّنَةِ
98. अल-बैयिनह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
لَمۡ يَكُنِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ مُنفَكِّينَ حَتَّىٰ تَأۡتِيَهُمُ ٱلۡبَيِّنَةُ
(1) अहले-किताब और मुशरिकों1 में से जो लोग काफ़िर थे2 (वे अपने कुफ़्र से) बाज़ आनेवाले न थे जब तक कि उनके पास रौशन दलील न आ जाए3
1. कुफ़्र (इनकार) में शरीक होने के बावजूद इन दोनों गरोहों को दो अलग-अलग नामों से याद किया गया है। अहले-किताब से मुराद वे लोग हैं जिनके पास पहले नबियों की लाई हुई किताबों में से कोई किताब, चाहे बिगड़ी हुई शक्ल ही में सही, मौजूद थी और वे उसे मानते थे। और मुशरिकों से मुराद वे लोग हैं जो किसी नबी की पैरवी करनेवाले और किसी किताब के माननेवाले न थे। क़ुरआन मजीद में अगरचे अहले-किताब के शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का ज़िक्र बहुत-सी जगहों पर किया गया है। मसलन ईसाइयों के बारे में कहा गया कि वे कहते हैं अल्लाह तीन ख़ुदाओं में का एक है (सूरा-5 माइदा, आयत-73)। वह मसीह ही को ख़ुदा कहते हैं (सूरा-5 माइदा, आयत-17)। वह मसीह को ख़ुदा का बेटा ठहराते हैं (सूरा-9 तौबा, आयत-30)। और यहूदियों के बारे में कहा गया कि वे उज़ैर को ख़ुदा का बेटा कहते हैं (सूरा-9 तौबा, आयत-30)। लेकिन इसके बावजूद क़ुरआन में उनके लिए ‘मुशरिक’ की परिभाषा इस्तेमाल नहीं की गई, बल्कि उनका ज़िक्र अहले-किताब या ‘अल्लज़ी-न ऊतुल-किताब’ (जिनको किताब दी गई थी), या यहूद और नसारा के अलफ़ाज़ से किया गया है, क्योंकि वे अस्ल दीन तौहीद (एकेश्वरवाद) ही को मानते थे और फिर शिर्क करते थे। इसके बरख़िलाफ़ दूसरे लोगों के लिए ‘मुशरिक’ का लफ़्ज़ इस्तिलाह (परिभाषा) के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। क्योंकि वे अस्ल दीन ही शिर्क को ठहराते थे और तौहीद के मानने से उनको बिलकुल इनकार था। यह फ़र्क़ इन दोनों गरोहों के बीच सिर्फ़ इस्तिलाह (परिभाषा) ही में नहीं, बल्कि शरीअत के हुक्मों में भी है। अहले-किताब का ज़ब्ह किया हुआ मुसलमानों के लिए हलाल किया गया है, अगर वे अल्लाह का नाम लेकर हलाल जानवर को सही तरीक़े से ज़ब्ह करें, और उनकी औरतों से निकाह की इजाज़त दी गई है। इसके बरख़िलाफ़ मुशरिकों का न ज़ब्ह किया हुआ हलाल है और उन उनकी औरतों से निकाह हलाल।
2. यहाँ कुफ़्र (इनकार) अपने वसीअ मानी में इस्तेमाल किया गया है, जिनमें इनकार के रवैये की अलग-अलग शक्लें शामिल हैं। मसलन, कोई इस मानी में इनकारी था कि सिरे से अल्लाह ही को न मानता था। कोई अल्लाह को मानता था, मगर उसे अकेला माबूद न मानता था, बल्कि अल्लाह की हस्ती, या ख़ुदाई की सिफ़ात और इख़्तियारात में किसी-न-किसी तौर पर दूसरों को शरीक ठहराकर उनकी इबादत भी करता था। कोई अल्लाह के एक अकेला होने का भी मानता था मगर इसके बावजूद किसी तरह का शिर्क भी करता था। कोई ख़ुदा को मानता था, मगर उसके नबियों को नहीं मानता था और उस हिदायत को क़बूल करने को तैयार न था जो नबियों के ज़िरए से आई है। कोई किसी नबी को मानता था और किसी दूसरे नबी का इनकार करता था। कोई आख़िरत का इनकार करता था। ग़रज़ यह कि अलग-अलग तरह के कुफ़्र (इनकार) थे जिनमें लोग मुब्तला थे। और यह जो फ़रमाया कि, ‘‘अहले-किताब और मुशरिकों में से जो लोग इनकारी थे,’’ इसका मतलब यह नहीं है कि उनमें से कुछ लोग कुफ़्र में मुब्तला न थे, बल्कि यह है कि कुफ़्र (इनकार) में मुब्तला होनेवाले दो गरोह थे। एक अहले-किताब, दूसरे मुशरिकीन। यहाँ ‘मिन’ कुछ को अलग करने के लिए नहीं, बल्कि बयान करने के लिए है। जिस तरह सूरा-22 हज, आयत-30, में फ़रमाया गया, ‘फ़ज्तनिबुर-रिज-स मिनल-अवसान’। इसका मतलब यह है कि बुतों की गन्दगी से बचो, न यह कि बुतों में जो गन्दगी है उससे बचो। इसी तरह ‘अल-लज़ी-न क़-फ़रु मिन अहलिल-किताबि वल-मुशरिकीन’ का मतलब भी यह है कि, ‘‘कुफ़्र करनेवाले जो अहले-किताब और मुशरिकों में से हैं,’’ न यह कि, ‘‘इन दोनों गरोहों में से जो लोग कुफ़्र करनेवाले हैं।’’
3. यानी उनके इस कुफ़्र (इनकार) की हालत से निकलने का कोई रास्ता इसके सिवा न था कि एक रौशन दलील आकर उन्हें कुफ़्र की हर शक्ल का ग़लत और सच के ख़िलाफ़ होना समझाए और सीधी राह को साफ़ और साबित-शुदा तरीक़े से उनके सामने पेश कर दे। इसका मतलब यह नहीं है कि उस रौशन दलील के आ जाने के बाद वे सब कुफ़्र को छोड़ देनेवाले थे। बल्कि इसका मतलब यह है कि इस दलील की ग़ैर-मौजूदगी में तो उनका इस हालत से निकलना मुमकिन ही न था। अलबत्ता उसके आने के बाद भी उनमें से जो लोग अपने कुफ़्र पर क़ायम रहें उसकी ज़िम्मेदारी फिर उन्हीं पर है, इसके बाद वे अल्लाह से शिकायत नहीं कर सकते कि आपने हमारी हिदायत के लिए कोई इन्तिज़ाम नहीं किया। यह वही बात है जो क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से बयान की गई है। मसलन, सूरा-16 अन-नह्ल में फ़रमाया, ‘‘सीधा रास्ता बताना अल्लाह के ज़िम्मे है।’’ (आयत-9)। सूरा-92 लैल में फ़रमाया, ‘‘रास्ता बताना हमारे ज़िम्मे है।’’ (आयत-12)। ‘‘(ऐ नबी) हमने तुम्हारी तरफ़ उसी तरह वह्य भेजी है जिस तरह नूह और उसके बाद के नबियों की तरफ़ भेजी थी ...... इन रसूलों को ख़ुशख़बरी देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला बनाया गया, ताकि रसूलों के बाद लोगों के लिए अल्लाह के मुक़ाबले में कोई हुज्जत (दलील) न रहे।’’ (सूरा-4 निसा, आयते—164, 165)। ‘‘ऐ अहले-किताब, तुम्हारे पास हमारा रसूल हक़ीक़त वाज़ेह करने के लिए रसूलों का सिलसिला एक मुद्दत तक बन्द रहने के बाद आ गया है, ताकि तुम यह न कह सको कि हमारे पास न कोई ख़ुशख़बरी देनेवाला आया न ख़बरदार करनेवाला। तो लो अब तुम्हारे पास ख़ुशख़बरी देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला आ गया।’’ (सूरा-5 माइदा, आयत-19)।
رَسُولٞ مِّنَ ٱللَّهِ يَتۡلُواْ صُحُفٗا مُّطَهَّرَةٗ ۝ 1
(2) (यानी) अल्लाह की तरफ़ से एक रसूल4 जो पाक सहीफ़े (पवित्र पृष्ठ) पढ़कर सुनाए5
4. यहाँ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ख़ुद अपने-आपमें एक रौशन दलील कहा गया है, इसलिए कि आप (सल्ल०) की नुबूवत से पहले की और बाद की ज़िन्दगी, आप (सल्ल०) का उम्मी (अनपढ़) होने के बावजूद क़ुरआन जैसी किताब पेश करना, आप (सल्ल०) की तालीम और आप (सल्ल०) की सोहबत (साथ) के असर से ईमान लानेवालों की ज़िन्दगियों में ग़ैर-मामूली तब्दीली आ जाना, आप (सल्ल०) के बिलकुल सही और अक़्ल के मुताबिक़ अक़ीदे, निहायत साफ़़-सुथरी इबादतें, इन्तिहाई दर्जे के पाकीज़ा अख़लाक़, और इनसानी ज़िन्दगी के लिए बेहतरीन उसूलों और हुक्मों की तालीम देना, आप (सल्ल०) की कथनी और करनी में पूरी तरह यकरंगी का पाया जाना, और आप (सल्ल०) का हर तरह की रुकावटों और मुख़ालफ़तों के मुक़ाबले में इन्तिहाई बुलन्द और पक्के इरादे के साथ अपनी दावत पर जमे रहना, ये सारी बातें इस बात की खुली निशानियाँ थीं कि आप (सल्ल०) अल्लाह के रसूल हैं।
5. लुग़त (शब्दकोश) के एतिबार से तो सहीफ़ों का मतलब है ‘‘लिखे हुए पन्ने,’’ लेकिन क़ुरआन मजीद में इस्तिलाह (परिभाषा) में यह लफ़्ज़ नबियों पर उतरनेवाली किताबों के लिए इस्तेमाल होता है। और पाक सहीफ़ों से मुराद हैं ऐसे सहीफ़े जिनमें किसी तरह के झूठ, किसी तरह की गुमराही, और किसी अख़लाक़ी गन्दगी की मिलावट न हो। इन अलफ़ाज़ की पूरी अहमियत उस वक़्त वाज़ेह होती है जब इनसान क़ुरआन मजीद के मुक़ाबले में बाइबल (और दूसरे धर्मों की किताबों) को भी पढ़ता है और उनमें सही बातों के साथ ऐसी बातें लिखी हुई देखता है जो हक़, सच्चाई और अक़्ल के भी ख़िलाफ़ हैं और अख़लाक़ी एतिबार से भी बहुत गिरी हुई हैं। उनको पढ़ने के बाद जब आदमी क़ुरआन को देखता है तो उसे अन्दाज़ा होता है कि यह कितनी पाक और साफ़ किताब है।
فِيهَا كُتُبٞ قَيِّمَةٞ ۝ 2
(3) जिनमें बिलकुल सीधी और ठीक तहरीरें लिखी हुई हों।
وَمَا تَفَرَّقَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَتۡهُمُ ٱلۡبَيِّنَةُ ۝ 3
(4) पहले जिन लोगों को किताब दी गई थी उनमें फूट नहीं पड़ी मगर इसके बाद कि उनके पास (सीधे रास्ते का) साफ़ बयान आ चुका था।6
6. यानी इससे पहले अहले-किताब जो अलग-अलग गुमराहियों में भटककर अनगिनत गरोहों में बँट गए उसकी वजह यह न थी कि अल्लाह तआला ने अपनी तरफ़ से उनकी रहनुमाई के लिए रौशन दलील भेजने में कोई कमी कर रखी थी, बल्कि यह रवैया उन्होंने अल्लाह की तरफ़ से रहनुमाई आ जाने के बाद अपनाया था, इसलिए अपनी गुमराही के वे ख़ुद ज़िम्मेदार थे, क्योंकि उनको पूरी तरह से दलील दी जा चुकी थी। इसी तरह अब चूँकि उनके सहीफ़े पाक नहीं रहे हैं और उनकी किताबों में बिलकुल सीधी और सच्ची तालीमात बाक़ी नहीं रह गई हैं, इसलिए अल्लाह तआला ने एक रौशन दलील की हैसियत से अपना एक रसूल भेजकर और उसके ज़रिए से पाक सहीफ़े बिलकुल सीधी और सच्ची तालीमात के साथ पेश करके उनपर फिर दलीलों से साबित कर दिया है, ताकि इसके बाद भी अगर वे बँटे रहें तो इसकी ज़िम्मेदारी उन्हीं पर हो, अल्लाह के मुक़ाबले में वे कोई हुज्जत पेश न कर सकें। यह बात क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर कही गई है। मिसाल के तौर पर देखिए, सूरा-2 बक़रा, आयते—213, 253; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-19; सूरा-5 माइदा, आयत-44 से 50; यूनुस, आयत-93; सूरा-42 शूरा, आयते—13 से 15; सूरा-45 जासिया, आयते—16 से 18। इसके साथ अगर वे हाशिए भी सामने रखे जाएँ जो तफ़हीमुल-क़ुरआन में इन आयतों पर हमने लिखे हैं तो बात समझने में और भी आसानी होगी।
وَمَآ أُمِرُوٓاْ إِلَّا لِيَعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ حُنَفَآءَ وَيُقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُواْ ٱلزَّكَوٰةَۚ وَذَٰلِكَ دِينُ ٱلۡقَيِّمَةِ ۝ 4
(5) और उनको इसके सिवा कोई हुक्म नहीं दिया गया था कि अल्लाह की बन्दगी करें अपने दीन को उसके लिए ख़ालिस करके, बिलकुल यकसू (एकाग्र) होकर, और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें। यही निहायत सही और दुरुस्त दीन है।7
7. जिस दीन को अब मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं, इसी दीन की तालीम अहले-किताब को उनके यहाँ आनेवाले नबियों और उनके यहाँ भेजी जानेवाली किताबों ने दी थी, और उन ग़लत अक़ीदों और बिगाड़ के कामों में से किसी चीज़ का उन्हें हुक्म नहीं दिया गया था, जिन्हें उन्होंने बाद में अपनाकर अलग-अलग मज़हब बना डाले। सही और दुरुस्त दीन हमेशा से यही रहा है कि ख़ालिस अल्लाह की बन्दगी की जाए, उसके साथ किसी दूसरे की बन्दगी की मिलावट न की जाए, हर तरफ़ से मुँह फेरकर इनसान सिर्फ़ एक अल्लाह का बन्दा और हुक्म माननेवाला बन जाए, नमाज़ क़ायम की जाए और ज़कात अदा की जाए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-9; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—108, 109; सूरा-30 रूम, हाशिए—43 से 47; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिए—3, 4)। इस आयत में ‘दीनुल-क़य्यिमह’ के जो अलफ़ाज़ आए हैं उनको कुछ क़ुरआन के कुछ आलिमों ने ‘दीनुल-मिल्लतिल-क़य्यिमह’ यानी ‘सीधे रास्ते पर चलनेवाली मिल्लत (समुदाय) का दीन’ के मानी में लिया है और कुछ के नज़दीक इसका मतलब वही है जो हमने तर्जमा में अपनाया है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ فِي نَارِ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَآۚ أُوْلَٰٓئِكَ هُمۡ شَرُّ ٱلۡبَرِيَّةِ ۝ 5
(6) अहले-किताब और मुशरिकों में जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) किया है8 वे यक़ीनन जहन्नम की आग में जाएँगे और हमेशा उसमें रहेंगे, ये लोग पैदा किए हुए लोगों में से सबसे बुरे हैं।9
8. यहाँ कुफ़्र से मुराद मुहम्मद (सल्ल०) को मानने से इनकार करना है। मतलब यह है कि मुशरिकों और अहले-किताब में से जिन लोगों ने उस रसूल के आ जाने के बाद उसको नहीं माना जिसका वुजूद ख़ुद एक रौशन दलील है और जो बिलकुल दुरुस्त लिखे हुए पाक सहीफ़े उनको पढ़कर सुना रहा है, उनका अंजाम वह है जो आगे बयान किया जा रहा है।
9. यानी अल्लाह की मख़लूक़ात (पैदा की हुई चीज़ों और लोगों) में उनसे ज़्यादा बुरी कोई मख़लूक़ नहीं है, यहाँ तक कि जानवरों से भी गए-गुज़रे हैं, क्योंकि जानवर अक़्ल और इख़्तियार नहीं रखते, और ये अक़्ल रखने के बावजूद हक़ से मुँह मोड़ते हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أُوْلَٰٓئِكَ هُمۡ خَيۡرُ ٱلۡبَرِيَّةِ ۝ 6
(7) जो लोग ईमान ले आए और जिन्होंने अच्छे काम किए, वे यक़ीनन (अल्लाह के) पैदा किए हुओं में से बेहतरीन लोग हैं।10
10. यानी वे ख़ुदा की मख़लूक़ (सृष्टि) में सबसे, यहाँ तक कि फ़रिश्तों से भी बढ़कर और क़ाबिले-एहतिराम हैं। क्योंकि फ़रिश्ते नाफ़रमानी का इख़्तियार ही नहीं रखते, और ये उसका इख़्तियार रखने के बावजूद फ़रमाँबरदारी अपनाते हैं।
جَزَآؤُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡ جَنَّٰتُ عَدۡنٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ رَّضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُۚ ذَٰلِكَ لِمَنۡ خَشِيَ رَبَّهُۥ ۝ 7
(8) उनका इनाम उनके रब के यहाँ हमेशा के ठिकानेवाली जन्नतें हैं जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी, वे उनमें हमेशा-हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से राज़ी हुए। यह कुछ है उस शख़्स के लिए जिसने अपने रब का डर रखा हो।11
11. दूसरे अलफ़ाज़ में जो शख़्स ख़ुदा से बेख़ौफ़ और उसके मुक़ाबले में जरी (दुस्साहसी) और निडर बनकर नहीं रहा, बल्कि दुनिया में क़दम-क़दम पर इस बात से डरते हुए ज़िन्दगी गुज़ारता रहा कि कहीं मुझसे ऐसा कोई काम न हो जाए जो अल्लाह के यहाँ मेरी पकड़ का सबब हो, उसके लिए अल्लाह के पास यह इनाम है।