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سُورَةُ الشُّورَىٰ

42. अश-शूरा

(मक्का में उतरी, आयतें 53)

परिचय

नाम

आयत 38 के वाक्यांश “व अमरुहुम शूरा बैन-हुम' अर्थात् 'वे अपने मामले आपस के परामर्श (अश-शूरा) से चलाते हैं' से लिया गया है। इस नाम का अर्थ यह है कि वह सूरा जिसमें शब्द 'शूरा' आया है।

उतरने का समय

इसकी विषय-वस्तु पर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा-41 'हा-मीम अस-सजदा' के ठीक बाद उतरी होगी, क्योंकि यह एक तरह से बिल्कुल उसकी अनुपूरक दिखाई देती है। सूरा-41 (हा-मीम अस-सजदा) में क़ुरैश के सरदारों के अंधे-बहरे विरोध पर बड़ी गहरी चोटें की गई थीं। उस चेतावनी के तुरन्त बाद यह सूरा अवतरित की गई, जिसने समझाने-बुझाने का हक़ अदा कर दिया।

विषय और वार्ता

बात इस तरह आरंभ की गई है कि [मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर वह्य (ईश-प्रकाशना) का आना कोई निराली बात नहीं] ऐसी ही वह्य, इसी तरह के आदेश के साथ अल्लाह इससे पहले भी नबियों (उनपर ख़ुदा की दया और कृपा हो) पर निरन्तर भेजता रहा है। इसके बाद बताया गया है कि नबी सिर्फ़ ग़ाफ़िलों को चौंकाने और भटके हुओं को रास्ता बताने आया है। [वह खुदा के पैदा किए हुए लोगों के भाग्यों का मालिक नहीं बनाया गया है।] उसकी बात न माननेवालों की पकड़ करना और उन्हें अज़ाब देना या न देना अल्लाह का अपना काम है। फिर इस विषय के रहस्य को स्पष्ट किया गया है कि अल्लाह ने सारे इंसानों को जन्म ही से सीधे रास्ते पर चलनेवाला क्यों न बना दिया और यह मतभेद की सामर्थ्य क्यों दे दी, जिसकी वजह से लोग विचार और कर्म के हर उलटे-सीधे रास्ते पर चल पड़ते हैं। इसके बाद यह बताया गया है कि जिस धर्म को मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं, वह वास्तव में है क्या? उसका पहला आधार यह है कि अल्लाह चूँकि जगत् और इंसान का पैदा करनेवाला, मालिक और वास्तविक संरक्षक है, इसलिए वही इंसान का शासक भी है और उसी का यह अधिकार है कि इंसान को दीन और शरीअत (धर्म और विधि-विधान अर्थात् धारणा और कर्म की प्रणाली) प्रदान करे। दूसरे शब्दों में, प्राकृतिक प्रभुत्त्व की तरह विधि-विधान सम्‍बन्‍धी प्रभुत्‍व भी अल्‍लाह के लिए विशिष्‍ट है। इसी आधार पर अल्‍लाह तआला ने आदिकालत से इंसान के लिए एक धर्म निर्धारित किया है। वह एक ही धर्म या जो हर युग में तमाम नबियों को दिया जाता रहा। कोई नबी भी अपने किसी अलग धर्म का प्रवर्तक नहीं था। वह धर्म हमेशा इस उद्देश्य के लिए भेजा गया है कि ज़मीन पर वही स्थापित, प्रचलित और लागू हो। पैग़म्‍बर इस धर्म के सिर्फ़ प्रचार पर नहीं, बल्कि उसे स्थापित करने की सेवा कार्य पर लगाए गए थे। मानव-जाति का मूल धर्म यही था, किन्‍तु नबियों के बाद हमेशा यही होता रहा कि स्‍वार्थी लोग उसके अन्‍दर अपने स्‍वेच्‍छाचार, अहंकार और आत्‍म-प्रदर्शन की भावना के कारण अपने स्‍वार्थ के लिए साम्प्रदायिकता खड़ी करके नए-नए धर्म निकालते रहे। अब मुहम्मद (सल्ल०) इसलिए भेजे गए है कि कृत्रिम पंथों और कृत्रिम धर्मों और इंसानों के गढ़े हुए धर्मों की जगह वही मूल धर्म लोगों के सामने प्रस्तुत करें और (पूरे जमाव के साथ) उसी को स्थापित करने की कोशिश करें। तुम लोगों को यह एहसास नहीं है कि अल्लाह के दीन को छोड़कर अल्लाह के अतिरिक्त दूसरों के बनाए हुए दीन (धर्म) और क़ानून को अपनाना अल्‍लाह के मुक़ाबले में कितना बड़ा दुस्‍साहास है। अल्‍लाह के नज़दीक यह सब से बुरा शिर्क और बड़ा संगीन अपराध है, जिसकी कड़ी सज़ा भुगतनी पड़ेगी। इस तरह दीन की एक स्पष्ट धारणा प्रस्तुत करने के बाद फ़रमाया गया है कि तुम लोगों को समझाकर सीधे रास्‍ते पर लाने के लिए जो बेहतर से बेहतर तरीक़ा सम्भव था, वह प्रयोग में लाया जा चुका। इसपर भी अगर तुम मार्ग न पाओ तो दुनिया में कोई चीज़ तुम्हें सीधे रास्ते पर नहीं ला सकती। इन यथार्थ तथ्यों को बयान करते हुए बीच-बीच में संक्षेप में तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) की दलीलें दी गई हैं और दुनियापरस्‍ती के नतीजों पर सचेत किया गया है। फिर वार्ता को समाप्त करते हुए दो महत्त्वपूर्ण बातें कही गई हैं। एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) का अपनी समस्याओं और वार्ताओं से बिलकुल अनभिज्ञ रहना और फिर यकायक इन दोनों चीजों को लेकर दुनिया के सामने आ जाना, आप (सल्ल.) के नबी होने का स्पष्ट प्रमाण है। दूसरे यह कि अल्लाह ने यह शिक्षा तमाम नबियों की तरह आप (सल्ल.) को भी तीन तरीक़ों से दी है, एक वह्य (प्रकाशना), दूसरे परदे के पीछे से आवाज़ और तीसरे फ़रिश्तों के द्वारा सन्देश। यह स्पष्ट इसलिए किया गया कि विरोधी लोग यह आरोप न लगा सकें कि नबी (सल्ल०) अल्लाह से उसके सम्मुख होकर बात करने का दावा कर रहे हैं।

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سُورَةُ الشُّورَىٰ
42. अश-शूरा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा-मीम,
عٓسٓقٓ ۝ 1
(2) ऐन-सीन-क़ाफ़,
كَذَٰلِكَ يُوحِيٓ إِلَيۡكَ وَإِلَى ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِكَ ٱللَّهُ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 2
(3) इसी तरह ग़ालिब (प्रभुत्त्वशाली) और हिकमतवाला अल्लाह तुम्हारी तरफ़ और तुमसे पहले गुज़रे हुए (रसूलों) की तरफ़ वह्य करता रहा है।1
1. बात को शुरू करने का यह अन्दाज़ ख़ुद बता रहा है कि पसमंज़र (पृष्ठभूमि) में वे चर्चाएँ हैं जो मक्का की हर महफ़िल, हर चौपाल, हर गली और बाज़ार और हर मकान और दुकान में उस वक़्त नबी (सल्ल०) की दावत और क़ुरआन के बारे में हो रही थीं। लोग कहते थे कि न जाने यह आदमी कहाँ से ये निराली बातें निकाल-निकालकर ला रहा है। हमने तो ऐसी बातें न कभी सुनीं, न होते देखीं। वे कहते थे, यह अजीब माजरा है कि बाप-दादा से जो दीन चला आ रहा है, सारी क़ौम जिस दीन की पैरवी कर रही है, सारे देश में जो तरीक़े सदियों से चले आ रहे हैं, यह आदमी उन सबको ग़लत ठहरा देता है और कहता है कि जो दीन मैं पेश कर रहा हूँ, वह सही है। वे कहते थे, इस दीन को भी अगर यह इस हैसियत से पेश करता कि बाप-दादा के दीन और मौजूदा ज़माने में जो तरीक़े रिवाज पा गए हैं, उनमें मुझे कुछ ख़राबी नज़र आती है और उनकी जगह इसने ख़ुद कुछ नई बातें सोचकर निकाली हैं, तो उसपर कुछ बात भी की जा सकती थी, मगर यह तो कहता है कि यह ख़ुदा का कलाम है जो मैं तुम्हें सुना रहा हूँ। यह बात आख़िर कैसे मान ली जाए? क्या ख़ुदा इसके पास आता है? या यह ख़ुदा के पास जाता है? या इसकी और ख़ुदा की बातचीत होती है? इन्हीं चर्चाओं और अटकलों पर बज़ाहिर ख़ुदा के रसूल (सल्ल०) को ख़िताब करते हुए, मगर अस्ल में इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सुनाते हुए कहा गया है कि हाँ, यही बातें ख़ुदा ज़बरदस्त और भी हिकमतवाला वह्य (प्रकाशना) कर रहा है और यही बातें लिए हुए उसकी वह्य पिछले तमाम नबियों पर उतरती रही है। वह्य के लफ़जी मानी हैं 'तेज़ (तीव्र) इशारा' और 'छिपा हुआ इशारा', यानी ऐसा इशारा जो तेज़ी के साथ इस तरह किया जाए कि बस इशारा करनेवाला जाने या वह शख़्स जिसे इशारा किया गया है, बाक़ी किसी और शख़्स को उसका पता न चलने पाए। इस लफ़्ज़ को इस्लामी ज़बान में उस हिदायत के लिए इस्तेमाल किया गया है जो बिजली की कौंध की तरह अल्लाह तआला की तरफ़ से उसके किसी बन्दे के दिल में डाली जाए। अल्लाह के फ़रमान का मक़सद यह है कि अल्लाह के किसी के पास आने या उसके पास किसी के जाने और आमने-सामने बात करने का कोई सवाल पैदा नहीं होता। वह ग़ालिब और हिकमतवाला है। इनसानों की हिदायत और रहनुमाई के लिए जब भी वह किसी बन्दे से राब्ता करना चाहे, कोई दुश्वारी उसके इरादे की राह में आड़े नहीं आ सकती और वह अपनी हिकमत से इस काम के लिए वह्य का तरीक़ा अपना लेता है। इसी बात को सूरा की आख़िरी आयतों में दोहराया गया है और वहाँ इसे ज़्यादा खोलकर बयान किया गया है। फिर यह जो उन लोगों का ख़याल था कि ये निराली बातें हैं, इसपर कहा गया है कि ये निराली बातें नहीं हैं, बल्कि मुहम्मद (सल्ल०) से पहले जितने नबी आए हैं, उन सबको भी ख़ुदा की तरफ़ से यही कुछ हिदायतें दी जाती रही हैं।
لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 3
(4) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ भी है, उसी का है। वह सबसे बढ़कर और अज़मतवाला (महान) है।2
2. यह शुरुआती जुमले सिर्फ़ अल्लाह की तारीफ़ में नहीं कहे जा रहे हैं, बल्कि इनका हर लफ़्ज़ उस पसमंज़र से गहरा ताल्लुक़ रखता है जिसमें ये आयतें उतरी हैं। नबी (सल्ल०) और क़ुरआन के ख़िलाफ़ जो लोग तरह-तरह की बातें कर रहे थे, उनके एतिराज़ों की सबसे पहली बुनियाद यह थी कि नबी (सल्ल०) उनको तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत दे रहे थे और वे उसपर कान खड़े कर-करके कहते थे कि अगर अकेला एक अल्लाह ही माबूद (उपास्य), ज़रूरतें पूरी करनेवाला और रास्ता बतानेवाला है तो फिर हमारे बुज़ुर्ग क्या हुए? इसपर फ़रमाया गया है कि यह पूरी कायनात अल्लाह तआला की मिलकियत है। मालिक के साथ उसकी मिलकियत में किसी और का राज आख़िर किस तरह चल सकता है? ख़ास तौर से जबकि वे दूसरे जिनको ख़ुदा माना जाता है, या जो ख़ुदा बनकर अपनी हुकूमत चलाना चाहते हैं, ख़ुद भी उसके ग़ुलाम ही हैं। फिर फ़रमाया गया कि वह बरतर और अज़ीम है, यानी इससे परे और बहुत बुलन्द है कि कोई उसके जैसा हो और उसके बराबर हो और उसके वुजूद, सिफ़ात, इख़्तियारों और हक़ों में से किसी चीज़ में भी हिस्सेदार बन सके।
تَكَادُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ يَتَفَطَّرۡنَ مِن فَوۡقِهِنَّۚ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يُسَبِّحُونَ بِحَمۡدِ رَبِّهِمۡ وَيَسۡتَغۡفِرُونَ لِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 4
(5) क़रीब है कि आसमान ऊपर से फट पड़ें,3 फ़रिश्ते अपने रब की हम्द के साथ उसकी तसबीह कर रहे हैं और ज़मीनवालों के हक़ में माफ़ कर देने की दरख़ास्तें किए जाते हैं।4 ख़बरदार रहो, हक़ीक़त में अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला ही है।5
3. यानी यह कोई मामूली बात तो नहीं है कि किसी मख़लूक़ का नसब ख़ुदा से जा मिलाया गया और उसे ख़ुदा का बेटा या बेटी ठहरा दिया गया। किसी को ज़रूरतें पूरी करनेवाला और फ़रियाद सुननेवाला ठहरा लिया गया और उससे दुआएँ माँगी जाने लगीं। किसी बुज़ुर्ग को दुनिया भर का कारसाज़ (काम बनानेवाला) समझ लिया गया और खुल्लम-खुल्ला कहा जाने लगा कि हमारे हज़रत हर वक़्त हर जगह हर शख़्स की सुनते हैं और वही हर एक की मदद को पहुँचकर उसके काम बनाया करते हैं। किसी को हुक्म देने, मना करने और हलाल-हराम ठहराने का मालिक मान लिया गया और ख़ुदा को छोड़कर लोग उसके हुक्मों की पैरवी इस तरह करने लगे मानो वही उनका ख़ुदा है। ख़ुदा के मुक़ाबले में ये वे जसारतें (दुस्साहस) हैं जिनपर अगर आसमान फट पड़ें तो कुछ नामुमकिन नहीं। (यही बात सूरा-19 मरयम, आयतें—88 से 91 में भी कही गई है)।
4. मतलब यह है कि फ़रिश्ते इनसानों की ये बातें सुन-सुनकर कानों पर हाथ रखते हैं कि यह क्या बकवास है जो हमारे रब की शान में की जा रही है और यह कैसी बग़ावत है जो ज़मीन के इस जानदार ने कर रखी है। वे कहते हैं, सुब्हानल्लाह (पाक है अल्लाह), किसकी यह हैसियत हो सकती है कि सारे जहान के रब के साथ उलूहियत (ईश्वरत्व) और हुक्म में शरीक हो सके और कौन उसके सिवा हमारा और सब बन्दों पर एहसान करनेवाला है कि उसकी तारीफ़ और शुक्र के गीत गाए जाएँ और उसका शुक्र अदा किया जाए। फिर वे महसूस करते हैं कि यह ऐसा बहुत बड़ा जुर्म दुनिया में किया जा रहा है जिसपर अल्लाह का ग़ुस्सा हर वक़्त भड़क सकता है, इसलिए वे ज़मीन पर बसनेवाले इन ख़ुद को भूल जानेवाले और ख़ुदा को भुला देनेवाले बन्दों के लिए बार-बार रहम की दरख़ास्त करते हैं कि अभी इनपर अज़ाब न भेजा जाए और इन्हें संभलने का कुछ और मौक़ा दिया जाए।
5. यानी यह उसकी बरदाश्त, रहमदिली और अनदेखा और माफ़ कर देना ही तो है जिसकी बदौलत कुफ़्र और शिर्क और नास्तिकता, जुर्म, गुनाह, बुराई और ज़ुल्मो-सितम की इन्तिहा कर देनेवाले लोग भी सालों तक, बल्कि इस तरह पूरे-पूरे समाज सदियों तक मुहलत-पर-मुहलत पाते चले जाते हैं और उनको सिर्फ़ रोज़ी ही नहीं मिले जाती, बल्कि दुनिया में उनकी बड़ाई के डंके बजते हैं और दुनिया की रंगीनियों के वे सरो-सामान उन्हें मिलते हैं जिन्हें देख-देखकर नादान लोग इस ग़लतफ़हमी में पड़ जाते हैं कि शायद इस दुनिया का कोई ख़ुदा नहीं है।
وَٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَ ٱللَّهُ حَفِيظٌ عَلَيۡهِمۡ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِوَكِيلٖ ۝ 5
(6) जिन लोगों ने उसको छोड़कर अपने कुछ दूसरे सरपरस्त6 बना रखे हैं, अल्लाह ही उनपर निगराँ है। तुम उनके हवालेदार नहीं हो।'7
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'औलिया' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब अरबी ज़बान में बहुत मानी रखता है। झूठे माबूदों के बारे में गुमराह इनसानों के अलग-अलग अक़ीदे और बहुत-से अलग-अलग रवैये हैं, जिनको क़ुरआन मजीद में “अल्लाह के सिवा दूसरों को अपना वली (सरपरस्त) बनाना” कहा गया है। क़ुरआन पाक को गहराई और ग़ौर से पढ़ने से लफ़्ज़ 'वली' के नीचे लिखे मतलब मालूम होते हैं— (1) जिसके कहने पर आदमी चले, जिसकी हिदायतों पर अमल करे और जिसके मुक़र्रर किए हुए तरीक़ों, रस्मों और क़ानूनों और ज़ाब्तों की पैरवी करे। (सूरा-1 निसा, आयतें—118 से 120; सूरा-7 आराफ़, आयतें—3, 27 से 30) (2) जिसकी रहनुमाई (Guidance) पर आदमी भरोसा करे और यह समझे कि वह उसे सही रास्ता बतानेवाला और ग़लती से बचानेवाला है। (सूरा-2 बक़रा, आयत-257; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-97; सूरा-18 कह्फ़, आयतें—17, 50; सूरा-45 जासिया, आयत-19) (3) जिसके बारे में आदमी यह कहे कि मैं दुनिया में चाहे कुछ करता रहूँ, वह मुझे उसके बुरे नतीजों से और अगर ख़ुदा है और आख़िरत भी होनेवाली है, तो उसके अज़ाब से बचा लेगा। (सूरा-4 निसा, आयतें—123, 173; सूरा-6 अनआम, आयत-51; सूरा-13 रअद, आयत-37; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-22; सूरा-33 अहज़ाब, आयत-65; सूरा-39 जुमर, आयत-3) (4) जिसके बारे में आदमी यह समझे कि वह दुनिया में ग़ैर-फ़ितरी तरीक़े से उसकी मदद करता है, आफ़तों और मुसीबतों से उसकी हिफ़ाज़त करता है, उसे रोज़गार दिलवाता है, औलाद देता है, मुरादें पूरी करता है और दूसरी हर तरह की ज़रूरतें पूरी करता है। (सूरा-11 हूद, आयत-20; सूरा-13 रअद, आयत-16; सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-41) कुछ जगहों पर क़ुरआन में वली (सरपरस्त) का लफ़्ज़ इनमें से किसी एक मानी में इस्तेमाल किया गया है और कुछ जगहों पर ऐसे इस्तेमाल किया गया है कि उससे इसके सारे मानी मुराद हैं। इस आयत की तशरीह भी उन्हीं में से एक है। यहाँ अल्लाह के सिवा दूसरों को वली बनाने से मुराद ऊपर बयान किए गए चारों मतलबों में उनको अपना सरपरस्त बनाना और हिमायती और मददगार समझना है।
7. “अल्लाह ही उनपर निगराँ है” यानी वह उनके सारे कामों को देख रहा है और उनके आमालनामे तैयार कर रहा है। उनकी पकड़ करना और उनसे हिसाब लेना उसी का काम है। “तुम उनके हवालेदार नहीं हो,” यह बात नबी (सल्ल०) से कही गई है। मतलब यह है कि उनकी क़िस्मत तुम्हारे हवाले नहीं कर दी गई है कि जो तुम्हारी बात न मानेगा, उसे तुम जलाकर भस्म कर दोगे, या उसका तख़्ता उलट दोगे, या उसे बरबाद करके रख दोगे। इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह, नबी (सल्ल०) अपने आपको ऐसा समझते थे और आप (सल्ल०) की यह ग़लतफ़हमी या ग़लती को दूर करने के लिए यह बात कही गई है, बल्कि इसका मक़सद इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सुनाना है। अगरचे बज़ाहिर बात नबी (सल्ल०) से कही गई है, लेकिन अस्ल मक़सद इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को यह बताना है कि अल्लाह का नबी उस तरह का कोई दावा नहीं रखता जैसे लम्बे-चौड़े दावे ख़ुदा तक पहुँच रखने और रूहानियत का ढोंग रचानेवाले आम तौर से तुम्हारे यहाँ किया करते हैं। जाहिलियत के समाजों में आम तौर से यह ग़लत ख़याल पाया जाता है कि पारसा और मज़हबी तरह के लोग हर उस आदमी की क़िस्मत बिगाड़कर रख देते हैं जो उनकी शान में कोई गुस्ताख़ी करे, बल्कि मर जाने के बाद उनकी क़ब्र की भी अगर कोई तौहीन कर गुज़रे, या और कुछ नहीं तो उनके बारे में कोई बुरा ख़याल ही दिल में ले आए, तो वे उसका तख़्ता उलट देते हैं। यह ख़याल ज़्यादा तर इन मज़हबी क़िस्म के लोगों का अपना फैलाया हुआ होता है और नेक लोग जो ख़ुद ऐसी बातें नहीं करते, उनके नाम और उनकी हड्डियों को अपने कारोबार का सरमाया बनाने के लिए कुछ दूसरे होशियार लोग उनके बारे में इस ख़याल को फैलाते हैं। बहरहाल आम लोगों में इसे रूहानियत और ख़ुदा तक पहुँच रखने के लिए ज़रूरी समझा जाता है कि आदमी को क़िस्मतें बनाने और बिगाड़ने के अधिकार हासिल हों। इसी फ़रेब का जादू (भ्रमजाल) तोड़ने के लिए अल्लाह तआला इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सुनाते हुए अपने रसूल (सल्ल०) से फ़रमा रहा है कि बेशक तुम हमारे पैग़म्बर हो और हमने अपनी वह्य से तुम्हें नवाज़ा है, मगर तुम्हारा काम सिर्फ़ लोगों को सीधा रास्ता दिखाना है। उनकी क़िस्मतें तुम्हारे हवाले नहीं कर दी गई हैं। वे हमने अपने ही हाथ में रखी हैं। बन्दों के आमाल और कामों को देखना और उनको अज़ाब देना या न देना हमारा अपना काम है।
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ قُرۡءَانًا عَرَبِيّٗا لِّتُنذِرَ أُمَّ ٱلۡقُرَىٰ وَمَنۡ حَوۡلَهَا وَتُنذِرَ يَوۡمَ ٱلۡجَمۡعِ لَا رَيۡبَ فِيهِۚ فَرِيقٞ فِي ٱلۡجَنَّةِ وَفَرِيقٞ فِي ٱلسَّعِيرِ ۝ 6
(7) हाँ, इसी तरह ऐ नबी! यह अरबी क़ुरआन हमने तुम्हारी तरफ़ वह्य किया है,8 ताकि तुम बस्तियों के मर्कज़ (मक्का शहर) और उसके आस-पास रहनेवालों को ख़बरदार कर दो9 और इकट्ठा होने के दिन से डरा दो10 जिसके आने में कोई शक नहीं। एक गरोह को जन्नत में जाना है और दूसरे गरोह को जहन्नम में।
8. वही बात फिर दोहराकर ज़्यादा ज़ोर देते हुए कही गई है जो बात के शुरू में कही गई थी। और 'अरबी क़ुरआन' कहकर सुननेवालों को ख़बरदार किया गया है कि यह किसी अजनबी ज़बान में नहीं है, तुम्हारी अपनी ज़बान में है। तुम सीधे तौर से इसे ख़ुद समझ सकते हो। इसकी बातों पर ग़ौर करके देखो कि यह पाक-साफ़ और बेग़रज़ रहनुमाई क्या ख़ुदा के सिवा किसी और की तरफ़ से भी हो सकती है।
9. यानी उन्हें ग़फ़लत से चौंका दो और ख़बरदार कर दो कि ख़यालात और अक़ीदों की जिन गुमराहियों और अख़लाक़ और किरदार की जिन ख़राबियों में तुम लोग मुब्तला हो और तुम्हारी निज़ी और समाजी (क़ौमी) ज़िन्दगी जिन बिगड़े हुए उसूलों पर चल रही है, उनका अंजाम तबाही के सिवा कुछ नहीं है।
10. यानी उन्हें यह भी बता दो कि यह तबाही और बरबादी सिर्फ़ दुनिया ही तक महदूद नहीं है, बल्कि आगे वह दिन भी आना है जब अल्लाह तआला तमाम इनसानों को इकट्ठा करके उनका हिसाब लेगा। दुनिया में अगर कोई शख़्स अपनी गुमराही और बुरे कामों के बुरे नतीजों से बच भी निकला तो उस दिन बचाव की कोई सूरत नहीं है और बड़ा ही बदक़िस्मत है वह जो यहाँ भी ख़राब हो और वहाँ भी उसकी शामत आए।
وَلَوۡ شَآءَ ٱللَّهُ لَجَعَلَهُمۡ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗ وَلَٰكِن يُدۡخِلُ مَن يَشَآءُ فِي رَحۡمَتِهِۦۚ وَٱلظَّٰلِمُونَ مَا لَهُم مِّن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٍ ۝ 7
(8) अगर अल्लाह चाहता तो इन सबको एक ही उम्मत (समुदाय) बना देता, मगर वह जिसे चाहता है, अपनी रहमत में दाख़िल करता है और ज़ालिमों का न कोई सरपरस्त है, न मददगार।"11
11. यह मज़मून चल रही बात के सिलसिले में तीन मक़सदों के लिए आया है— (i) इसका मक़सद नबी (सल्ल०) को तालीम और तसल्ली देना है। इसमें नबी (सल्ल०) को यह बात समझाई गई है कि आप (सल्ल०) मक्का के इस्लाम-दुश्मनों की जहालत, गुमराही और ऊपर से उनकी ज़िद और हठधर्मी को देख-देखकर इतने ज़्यादा न कुढ़ें, अल्लाह की मरज़ी यही है कि इनसानों को अधिकार और चुनाव की आज़ादी दी जाए फिर जो हिदायत चाहे उसे हिदायत मिले और जो गुमराह ही होना पसन्द करे उसे जाने दिया जाए जिधर वह जाना चाहता है। अगर यह अल्लाह की मस्लहत न होती तो नबी (अलैहि०) और किताबें भेजने की ज़रूरत ही क्या थी, इसके लिए तो अल्लाह तआला का एक इशारा ही काफ़ी था जो वह इनसान की पैदाइश के वक़्त कर देता, सारे इनसान उसी तरह हुक्म माननेवाले होते जिस तरह नदियाँ, पहाड़, पेड़-पौधे, मिट्टी, पत्थर और सब जानदार हैं। (इस मक़सद के लिए यह बात दूसरी जगहों पर भी क़ुरआन मजीद में बयान हुई है। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—23 से 25, 71) (ii) यह बात उन तमाम लोगों से कही जा रही है जो इस ज़ेहनी उलझन में पड़े थे और अब भी हैं कि अगर अल्लाह सचमुच इनसानों की रहनुमाई करना चाहता था और अगर अक़ीदे और अमल के ये इख़्तिलाफ़, जो लोगों में फैले हुए हैं, उसे पसन्द न थे और अगर उसे यही पसन्द था कि लोग ईमान और इस्लाम की राह अपनाएँ, तो उसके लिए आख़िर वह्य और किताब और पैग़म्बर भेजने की क्या ज़रूरत थी? यह काम तो वह आसानी से इस तरह भी कर सकता था कि सबको ईमानवाला और अपना फ़रमाँबरदार पैदा कर देता। इसी उलझन से निकली हुई एक दलील यह भी थी कि जब अल्लाह ने ऐसा नहीं किया है तो ज़रूर वह अलग-अलग तरीक़े जिनपर हम चल रहे हैं, उसको पसन्द हैं और हम जो कुछ कर रहे हैं, उसी की मरज़ी से कर रहे हैं, इसलिए उसपर एतिराज़ का किसी को हक़ नहीं है। (इस ग़लत-फ़हमी को दूर करने के लिए भी यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान की गई है। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—80, 110, 124, 125; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-101; सूरा-11 हूद, हाशिया-116, नह्ल, हाशिए—10, 31, 32) (iii) तीसरे, इसका मक़सद ईमानवालों को उन मुश्किलों की हक़ीक़त समझाना है जो दीन को लोगों तक पहुँचाने और उन्हें सुधारने की राह में अकसर पेश आती हैं। जो लोग अल्लाह की दी हुई इरादे और चुनाव की आज़ादी और उसकी बुनियाद पर मिज़ाजों और तरीक़ों के अलग-अलग होने की हक़ीक़त को नहीं समझते, वे कभी तो सुधार के काम को धीमी रफ़्तार देखकर मायूस होने लगते हैं और चाहते हैं कि अल्लाह तआला की तरफ़ से कुछ करामतें और मोजिज़े (चमत्कार) हो जाएँ, ताकि उन्हें देखते ही लोगों के दिल बदल जाएँ। और कभी वे ज़रूरत से ज़्यादा जोश से काम लेकर सुधार के ग़लत तरीक़े अपनाने लगते हैं। (इस मक़सद के लिए भी यह बात कुछ जगहों पर क़ुरआन मजीद में बयान हुई है। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-13 रअद, हाशिए—47 से 49; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—89 से 97) इन मक़सदों के लिए एक बड़ी अहम बात इन थोड़े-से जुमलों में बयान की गई है। दुनिया में अल्लाह की हक़ीक़ी ख़िलाफ़त और आख़िरत में उसकी जन्नत कोई मामूली रहमत नहीं है, जो मिट्टी और पत्थर और गधों और घोड़ों के दरजे के जानदारों पर एक आम रहमत की तरह बाँट दी जाए। यह तो एक ख़ास रहमत और बहुत ऊँचे दरजे की रहमत है, जिसके लिए फ़रिश्तों तक को मुनासिब (योग्य) न समझा गया। इसी लिए इनसान को एक अधिकार रखनेवाले जानदार की हैसियत से पैदा करके अल्लाह ने अपनी ज़मीन के ये बेशुमार ज़राए (साधन) उसके इस्तेमाल में दिए और यह हंगामा मचानेवाली ताक़तें उसको दीं, ताकि यह उस इम्तिहान से गुज़र सके जिसमें कामयाब होकर ही कोई बन्दा उसकी यह ख़ास रहमत पाने के क़ाबिल हो सकता है। यह रहमत अल्लाह की अपनी चीज़ है। इसपर किसी का क़ब्ज़ा नहीं है, न कोई उसे अपने निज़ी हक़ की बुनियाद पर दावे से ले सकता है, न किसी में यह ताक़त है कि इसे ज़बरदस्ती हासिल कर सके। इसे वही ले सकता है जो अल्लाह के सामने बन्दगी पेश करे, उसको अपना सरपरस्त बनाए और उसका दामन थामे। तब अल्लाह उसकी मदद और रहनुमाई करता है और इसे इस इम्तिहान से सही-सलामत गुज़रने की ख़ुशनसीबी देता है, ताकि वह उसकी रहमत में दाख़िल हो सके। लोकिन जो ज़ालिम अल्लाह ही से मुँह मोड़ ले और उसके बजाय दूसरों को अपना सरपरस्त बना बैठे, अल्लाह को कुछ ज़रूरत नहीं पड़ी है कि ख़ाह-मख़ाह ज़बरदस्ती उसका सरपरस्त बने और दूसरे जिनको वह सरपरस्त बनाता है, सिरे से कोई इल्म, कोई ताक़त और किसी तरह के अधिकार ही नहीं रखते कि उसकी सरपरस्ती का हक़ अदा करके उसे कामयाब करा दें।
أَمِ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءَۖ فَٱللَّهُ هُوَ ٱلۡوَلِيُّ وَهُوَ يُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 8
(9) क्या ये (ऐसे नादान हैं कि) इन्होंने उसे छोड़कर दूसरे सरपरस्त बना रखे हैं? सरपरस्त तो अल्लाह ही है, वही मुर्दों को ज़िन्दा करता है और वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।12
12. यानी वली (सरपरस्त) बनाना कोई मनमानी चीज़ नहीं है कि आप जिसे चाहें अपना वली बना बैठें और वह हक़ीक़त में भी आपका सच्चा और असली वली बन जाए और वली होने का हक़ अदा कर दे। यह तो एक सच्चाई है जो लोगों की ख़ाहिशों के साथ बनती और बदलती नहीं चली जाती, बल्कि जो हक़ीक़त में वली है वही वली है, चाहे आप उसे वली न समझे और न मानें और जो हक़ीक़त में वली नहीं है, वह वली नहीं है, चाहे आप मरते दम तक उसे वली समझते और मानते चले जाएँ। अब रहा यह सवाल कि सिर्फ़ अल्लाह ही के हक़ीकी वली होने और दूसरे किसी के वली न होने की दलील क्या है? तो इसका जवाब यह है कि इनसान का हक़ीक़ी वली वही हो सकता है जो मौत को ज़िन्दगी में तबदील करता है। जिसने बेजान माद्दों में जान डालकर जीता-जागता इनसान पैदा किया है और जो वली होने का हक़ अदा करने की क़ुदरत और इख़्तियार भी रखता है। वह अगर अल्लाह के सिवा कोई और हो तो उसे वली बनाओ और अगर वह सिर्फ़ अल्लाह ही है, तो फिर उसके सिवा किसी और को अपना वली बना लेना जहालत, बेवक़ूफ़ी और ख़ुदकुशी के सिवा और कुछ नहीं है।
فَاطِرُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ جَعَلَ لَكُم مِّنۡ أَنفُسِكُمۡ أَزۡوَٰجٗا وَمِنَ ٱلۡأَنۡعَٰمِ أَزۡوَٰجٗا يَذۡرَؤُكُمۡ فِيهِۚ لَيۡسَ كَمِثۡلِهِۦ شَيۡءٞۖ وَهُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ ۝ 9
(11) आसमानों और ज़मीन का बनानेवाला, जिसने तुम्हारी अपनी जिंस (जाति) से तुम्हारे लिए जोड़े पैदा किए और इसी तरह जानवरों में भी (उन्हीं के सहजाति) जोड़े बनाए और इस तरीक़े से वह तुम्हारी नस्लें फैलाता है। कायनात की कोई चीज़ उसके जैसी नहीं,17 वह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।18
17. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, “लै-स कमिस्लिही शैउन” (कोई चीज़ उसके जैसी नहीं है)। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों और अरबी ज़बान की अच्छी जानकारी रखनेवालों में से कुछ कहते हैं कि इसमें लफ़्ज़ 'मिस्ल' पर 'काफ़' (मिसाल देनेवाला हर्फ़) का इज़ाफ़ा मुहावरे के तौर पर किया गया है, जिसका मक़सद सिर्फ़ बात में ज़ोर पैदा करना होता है और अरबी में बयान का यह अन्दाज़ राइज है। कुछ दूसरे लोगों का कहना यह है कि उस जैसा कोई नहीं कहने के बजाय उसके मिस्ल (प्रतिरूप जैसा) कोई नहीं कहने का अन्दाज़ बात को बेहतरीन और वाज़ेह करना है। मुराद यह है कि अगर मुश्किल ही से यह मान लिया जाए कि अल्लाह का कोई मिस्ल (प्रतिरूप) होता तो उस जैसा भी कोई न होता, कहाँ यह कि अल्लाह जैसा कोई हो।
18. यानी एक ही वक़्त में सारी कायनात में हर एक की सुन रहा है और हर चीज़ को देख रहा है।
لَهُۥ مَقَالِيدُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّهُۥ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 10
(12) आसमानों और ज़मीन के ख़ज़ानों की कुंजियाँ उसी के पास हैं। जिसे चाहता है, खुली रोज़ी देता है और जिसे चाहता है नपी-तुली रोज़ी देता है। उसे हर चीज़ का इल्म है।19
19. ये दलीलें हैं इस बात की कि सिर्फ़ अल्लाह तआला ही क्यों सच्चा सरपरस्त है और क्यों उसी पर भरोसा करना सही है और क्यों उसी की तरफ़ रुजू किया जाना चाहिए। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73 से 83; सूरा-30 रूम, हाशिए—25 से 31)
۞شَرَعَ لَكُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا وَصَّىٰ بِهِۦ نُوحٗا وَٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ وَمَا وَصَّيۡنَا بِهِۦٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَىٰٓۖ أَنۡ أَقِيمُواْ ٱلدِّينَ وَلَا تَتَفَرَّقُواْ فِيهِۚ كَبُرَ عَلَى ٱلۡمُشۡرِكِينَ مَا تَدۡعُوهُمۡ إِلَيۡهِۚ ٱللَّهُ يَجۡتَبِيٓ إِلَيۡهِ مَن يَشَآءُ وَيَهۡدِيٓ إِلَيۡهِ مَن يُنِيبُ ۝ 11
(13) उसने तुम्हारे लिए दीन का वही तरीक़ा मुक़र्रर किया है जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था और जिसे (ऐ मुहम्मद) अब तुम्हारी तरफ़ हमने वह्य के ज़रिए से भेजा है और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को दे चुके हैं, इस ताक़ीद के साथ कि क़ायम करो इस दीन को और इसमें टुकड़े-टुकड़े न हो जाओ।20 यही बात इन मुशरिकों को सख़्त नागवार हुई, जिसकी तरफ़ (ऐ नबी) तुम उन्हें दावत दे रहे हो। अल्लाह जिसे चाहता है, अपना कर लेता है और वह अपनी तरफ़ आने का रास्ता उसी को दिखाता है जो उसकी तरफ़ पलटे।21
20. यहाँ उसी बात को फिर ज़्यादा खोलकर बयान किया गया है जो पहली आयत में कही गई थी। इसमें साफ़-साफ़ बताया गया है कि मुहम्मद (सल्ल०) किसी नए मज़हब की बुनियाद डालनेवाले नहीं हैं, न नबियों (अलैहि०) में से कोई अपने किसी अलग मज़हब की बुनियाद डालनेवाला गुज़रा है, बल्कि अल्लाह की तरफ़ से एक ही दीन है जिसे शुरू से तमाम पैग़म्बर पेश करते चले आ रहे हैं और उसी को मुहम्मद (सल्ल०) भी पेश कर रहे हैं। इस सिलसिले में सबसे पहले हज़रत नूह (अलैहि०) का नाम लिया गया है, जो तूफ़ान के बाद मौजूदा इनसानी नस्ल के सबसे पहले पैग़म्बर थे, उसके बाद नबी (सल्ल०) का ज़िक्र किया गया है जो आख़िरी नबी हैं, फ़िर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का नाम लिया गया है, जिन्हें अरबवाले अपना पेशवा मानते थे और आख़िर में हज़रत मूसा (अलैहि०) और हज़रत ईसा (अलैहि०) का ज़िक्र किया गया है, जिनसे यहूदी और ईसाई अपने मज़हब को जोड़ते हैं। इसका मक़सद यह नहीं है कि इन्हीं पाँच नबियों को उस दीन की हिदायत की गई थी, बल्कि अस्ल मक़सद यह बताना है कि दुनिया में जितने पैग़म्बर (अलैहि०) भी आए हैं, सब एक ही दीन लेकर आए हैं और नमूने के तौर पर उन पाँच बड़े नबियों का नाम ले दिया गया है, जिनसे दुनिया को सबसे ज़्यादा मशहूर आसमानी शरीअतें मिली हैं। यह आयत चूँकि दीन और उसके मक़सद पर बड़ी अहम रौशनी डालती है, इसलिए ज़रूरी है कि इसपर पूरी तरह ग़ौर करके इसे समझा जाए— कहा कि “श-र-अ लकुम” (मुक़र्रर किया तुम्हारे लिए)। अस्ल अरबी लफ़्ज़ 'श-र-अ' के मानी रास्ता बनाने के हैं और इस्लामी ज़बान में इससे मुराद तरीक़ा और ज़ाब्ता और क़ायदा तय करना है। अरबी ज़बान में इसी इस्लामी मानी के लिहाज़ से तशरीअ (क़ानूनी हुक्म) के लफ़्ज़ क़ानून साज़ी (Legislation) का, शरअ और शरीअत का लफ़्ज़ क़ानून (Law) का और शारेअ का लफ़्ज़ क़ानून बयान करनेवाले (Lawgiver) का हममानी (समानार्थी) समझा जाता है। यह ख़ुदाई क़ानून अस्ल में फ़ितरी और मनतिक़ी (तार्किक) नतीजा है उन उसूली हक़ीक़तों का जो ऊपर आयत 1, 9 और 10 में बयान हुई हैं कि अल्लाह ही कायनात की हर चीज़ का मालिक है और वही इनसान का हक़ीक़ी वली (सरपरस्त) है और इनसानों के बीच जिस बात में भी इख़्तिलाफ़ हो, उसका फ़ैसला करना उसी काम है। अब चूँकि उसूली तौर पर अल्लाह ही मालिक और वली (सरपरस्त) और हाकिम है, इसलिए लाज़िमन वही इसका हक़ रखता है कि इनसान के लिए क़ानून और ज़ाब्ता बनाए और उसी की यह ज़िम्मेदारी है कि इनसानों को यह क़ानून और ज़ाब्ता दे। चुनाँचे अपनी इस ज़िम्मेदारी को उसने यूँ अदा कर दिया है। फिर फ़रमाया, “मिनद्-दीन” (दीन की क़िस्म में से)। शाह वलीयुल्लाह साहब (रह०) ने इसका तर्जमा “अज़ आईन” किया है। यानी अल्लाह तआला ने जो शरीअत बनाई है, वह आईन (दस्तूर व संविधान) की हैसियत रखती है। लफ़्ज़ 'दीन' की जो तशरीह हम इससे पहले सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-3 में कर चुके हैं, वह अगर निगाह में रहे तो यह समझने में कोई उलझन पेश नहीं आ सकती कि दीन का मतलब ही किसी की सरदारी और हाकिमियत तस्लीम करके उसके हुक्मों की पैरवी करना है और जब यह लफ़्ज़ 'तरीक़े' के मानी में बोला जाता है तो इससे मुराद वह तरीक़ा होता है जिसे आदमी पैरवी के लिए ज़रूरी और जिसके मुक़र्रर करनेवाले को फ़रमाँबरदारी के क़ाबिल माने। इस बुनियाद पर अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए इस तरीक़े को दीन की तरह की शरीअत कहने का साफ़ मतलब यह है कि इसकी हैसियत सिर्फ़ सिफ़ारिश (Recommendation) और नसीहत की नहीं है, बल्कि यह बन्दों के लिए उनके मालिक का ऐसा क़ानून है जिसकी पैरवी वाजिब (अनिवार्य) है, जिसकी पैरवी न करने का मतलब बग़ावत करना है और जो आदमी इसकी पैरवी नहीं करता, वह अस्ल में अल्लाह की सरदारी और हाकिमियत और अपनी बन्दगी इनकार करता है। इसके बाद कहा गया कि दीन की तरह की यह शरीअत वही है जिसकी हिदायत नूह (अलैहि०), इबहराहीम (अलैहि०) और मूसा (अलैहि०) को दी गई थी और उसी की हिदायत अब मुहम्मद (सल्ल०) को दी गई है। इस बात से कई बातें निकलती हैं। एक यह कि अल्लाह तआला ने अपनी इस शरीअत को सीधे तौर पर हर इनसान के पास नहीं भेजा है, बल्कि वक़्त-वक़्त पर जब उसने मुनासिब समझा है एक शख़्स को अपना रसूल बनाकर यह शरीअत उसके हवाले की है। दूसरी यह कि यह शरीअत इबतिदा से एक जैसी रही है। ऐसा नहीं है कि किसी ज़माने में किसी क़ौम के लिए कोई दीन मुक़र्रर किया गया हो और किसी दूसरे ज़माने में किसी और क़ौम के लिए उससे अलग और उसके बिलकुल उलट दीन भेज दिया गया हो। ख़ुदा की तरफ़ से बहुत-से दीन नहीं आए हैं, बल्कि जब भी आया है यही एक दीन आया है। तीसरी यह कि अल्लाह की सरदारी और हाकिमियत मानने के साथ उन लोगों की पैग़म्बरी को मानना जिनके ज़रिए से यह शरीअत भेजी गई है और उस वह्य को मानना जिसमें यह शरीअत बयान की गई है, इस दीन का ज़रूरी हिस्सा है और अक़्ल और मनतिक़ तर्क (तार्किकता) का तक़ाज़ा भी यही है कि उसको ज़रूरी हिस्सा होना चाहिए, क्योंकि आदमी इस शरीअत की पैरवी कर ही नहीं सकता जब तक वह उसके ख़ुदा की तरफ़ से मुस्तनद (Authentic) होने पर मुत्मइन न हो। इसके बाद फ़रमाया इन सब नबियों (अलैहि०) को दीन की हैसियत रखनेवाली यह शरीअत इस हिदायत और ताकीद के साथ दी गई थी कि “अक़ीमुद्-दीन” (दीन क़ायम करो)। इस जुमले का तर्जमा शाह वलीयुल्लाह साहब (रह०) ने “क़ायम कुनीद दीन रा” किया है और शाह रफ़ीउद्दीन साहब (रह०) और शाह अब्दुल-क़ादिर साहब (रह०) ने भी “क़ायम रखो दीन को।” ये दोनों तर्जमे सही हैं। 'इक़ामत' का मतलब क़ायम करना भी है और क़ायम रखना भी और नबी (अलैहि०) इन दोनों ही कामों पर मुक़र्रर थे। उनका पहला फ़र्ज़ यह था कि जहाँ यह दीन क़ायम नहीं है, वहाँ इसे क़ायम करें और दूसरा फ़र्ज़ यह था कि जहाँ यह क़ायम हो जाए या पहले से क़ायम हो वहाँ इसे क़ायम रखें। ज़ाहिर बात है कि क़ायम रखने की नौबत आती ही उस वक़्त है जब एक चीज़ क़ायम हो चुकी हो। वरना पहले उसे क़ायम करना होगा, फिर यह कोशिश लगातार जारी रखनी पड़ेगी कि वह क़ायम रहे। अब हमारे सामने दो सवाल आते हैं। एक यह कि दीन को क़ायम करने से मुराद क्या है? दूसरा यह कि ख़ुद दीन से क्या मुराद है, जिसे क़ायम करने और फिर क़ायम रखने का हुक्म दिया गया है? इन दोनों बातों को भी अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। क़ायम करने का लफ़्ज़ जब किसी माद्दी (भौतिक) चीज़ के लिए इस्तेमाल होता है तो इससे मुराद बैठे को उठाना होता है। मसलन किसी इनसान या जानवर को उठाना या पड़ी हुई चीज़ को खड़ा करना होता है, जैसे बाँस या खम्बे को क़ायम करना या किसी चीज़ के बिखरे हुए टुकड़ों को इकट्ठा करके बुलन्द करना होता है, जैसे किसी ख़ाली ज़मीन में इमारत बनाना। लेकिन जो चीज़ें माद्दी (भौतिक) नहीं, बल्कि उनका ताल्लुक़ किसी बात या किसी मानी या मतलब से होता है उनके लिए जब क़ायम करने का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है तो उससे मुराद उस चीज़ की सिर्फ़ तबलीग़ करना नहीं, बल्कि उसपर पूरी तरह अमल करना, उसे रिवाज देना और उसे अमली तौर पर लागू करना होता है। मसलन जब हम कहते हैं कि फ़ुलाँ आदमी ने अपनी हुकूमत क़ायम की तो इसका मतलब यह नहीं होता कि उसने अपनी हुकूमत की तरफ़ दावत दी, बल्कि यह होता है कि उसने देश के लोगों को अपने मातहत कर लिया और हुकूमत के तमाम महकमों को इस तरह तरतीब दिया कि देश का सारा इन्तिज़ाम उसके हुक्मों के मुताबिक़ चलने लगा। इसी तरह जब हम कहते हैं कि देश में अदालतें क़ायम हैं तो इसका मतलब यह होता है कि इनसाफ़ करने के लिए जज मुक़र्रर हैं और वे मुक़द्दमों की सुनवाई कर रहे हैं और फ़ैसले दे रहे हैं, न यह कि इनसाफ़ की ख़ूबियाँ ख़ूब-ख़ूब बयान की जा रही हैं और लोग उनको मान रहे हैं। इसी तरह जब क़ुरआन मजीद में हुक्म दिया जाता है कि नमाज़ क़ायम करो तो इससे मुराद नमाज़ की दावत और तबलीग़ नहीं होती, बल्कि यह होती है कि नमाज़ को उसकी तमाम शर्तों के साथ न सिर्फ़ ख़ुद अदा करो, बल्कि ऐसा इन्तिज़ाम करो कि वह ईमानवालों में बाक़ायदा से रिवाज पा जाए। मस्जिदें हों, जुमा और जमाअत का एहतिमाम हो, वक़्त की पाबन्दी के साथ अज़ानें दी जाएँ, इमाम और ख़ुतबा देनेवाले मुक़र्रर हों और लोगों को वक़्त पर मस्जिदों में आने और नमाज़ अदा करने की आदत पड़ जाए। इस तशरीह के बाद यह बात समझने में कोई दिक़्क़त पेश नहीं आ सकती कि नबियों (अलैहि०) को जब इस दीन के क़ायम करने और क़ायम रखने का हुक्म दिया गया तो इससे मुराद सिर्फ़ इतनी बात न थी कि वे ख़ुद इस दीन पर अमल करें और इतनी बात भी न थी कि वे दूसरों में इस दीन की तबलीग़ करें, ताकि लोग इसका सही होना तस्लीम कर लें, बल्कि यह भी थी कि जब लोग इसे तस्लीम कर लें तो इससे आगे बढ़कर पूरा-का-पूरा दीन उनमें अमली तौर पर राइज और लागू किया जाए, ताकि उसके मुताबिक़ अमल होने लगे और होता रहे। इसमें शक नहीं कि दावत और तबलीग़ इस काम का लाज़िमी इब्तिदाई मरहला है जिसके बिना दूसरा मरहला पेश नहीं आ सकता। लेकिन हर अक़्ल रखनेवाला आदमी ख़ुद देख सकता है कि इस हुक्म में दावत और तबलीग़ को मक़सद की हैसियत नहीं दी गई है, बल्कि दीन क़ायम करने और क़ायम रखने को मक़सद ठहराया गया है। दावत और तबलीग़ इस मक़सद को हासिल करने का ज़रिआ जरूर है, मगर अपने आपमें ख़ुद मक़सद नहीं है, कहाँ यह कि कोई आदमी इसे नबियों के मिशन का सिर्फ़ एक अकेला मक़सद ठहरा बैठे। अब दूसरे सवाल को लीजिए। कुछ लोगों ने देखा कि जिस दीन को क़ायम करने का हुक्म दिया गया है वह दीन तमाम नबियों (अलैहि०) के बीच एक रहा है और शरीअतें उन सबकी अलग-अलग रही हैं, जैसा कि अल्लाह तआला ख़ुद फ़रमाता है, “हमने तुममें से हर एक के लिए एक शरीअत और एक राह मुक़र्रर कर दी” (सूरा-5 माइदा, आयत-48)। इसलिए उन्होंने यह राय क़ायम कर ली कि लाज़िमन इस दीन से मुराद शरई हुक्म और ज़ाब्ते नहीं हैं, बल्कि सिर्फ़ तौहीद और आख़िरत और किताब और नुबूवत का मानना और अल्लाह तआला की इबादत करना है, या हद-से-हद इसमें वे मोटे-मोटे अख़लाक़ी उसूल शामिल हैं जो सभी शरीअतों में मौजूद रहे हैं। लेकिन यह एक बड़ी सतही राय है जो सिर्फ़ सरसरी निगाह से दीन के एक होने और शरीअतों के इख़्तिलाफ़ को देखकर क़ायम कर ली गई है और यह ऐसी ख़तरनाक राय है कि अगर इसका सुधार न कर दिया जाए तो आगे बढ़कर बात दीन और शरीअत के उस अलगाव तक जा पहुँचेगी जिसमें मुब्तला होकर सेंट पॉल ने बिना शरीअत के दीन का नज़रिया पेश किया और हज़रत ईसा मसीह (अलैहि०) की उम्मत को ख़राब कर दिया। इसलिए कि जब शरीअत दीन से अलग एक चीज़ है और हुक्म सिर्फ़ दीन को क़ायम करने का है, न कि शरीअत को, तो यक़ीनन मुसलमान भी ईसाइयों की तरह शरीअत को ग़ैर-अहम और उसके क़ायम करने को ग़ैर-जरूरी समझकर नज़रअन्दाज़ कर देंगे और सिर्फ़ ईमान से मुताल्लिक़ बातों और मोटे-मोटे अख़लाक़ी उसूलों को लेकर बैठ जाएँगे। इस तरह की अटकलों से दीन का मतलब तय करने के बजाय आख़िर क्यों न हम ख़ुद अल्लाह की किताब से पूछ लें कि जिस दीन को क़ायम करने का हुक्म यहाँ दिया गया है, क्या इससे मुराद सिर्फ़ ईमान से मुताल्लिक़ (ईमानियात) और कुछ बड़े-बड़े अख़लाक़ी उसूल ही हैं, या शरई हुक्म भी। क़ुरआन मजीद पर जब हम गहराई से ग़ौर करते हैं तो उसमें जिन चीज़ों को दीन के दायरे में रखा गया है उनमें नीचे लिखी चीज़ें भी हमें मिलती हैं— (1) “और उनको हुक्म नहीं दिया गया, मगर इस बात का कि यकसू होकर अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करते हुए उसकी इबादत करें और नमाज़ क़ायम करें और ज़कात दें और यही सीधी राह पर चलनेवाली मिल्लत (समुदाय) का दीन है।" (सूरा-98 बय्यिना, आयत-5)। इससे मालूम हुआ कि नमाज़ और ज़कात इस दीन में शामिल हैं, हालाँकि इन दोनों के हुक्म अलग-अलग शरीअतों में अलग-अलग रहे हैं। कोई शख़्स भी यह नहीं कह सकता कि तमाम पिछली शरीअतों में नमाज़ की यही शक्ल और तरीक़ा, यही उसके हिस्से, यही उसकी रकअतें, यही उसका क़िबला (जिधर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाए), यही उसके वक़्त और यही उसके दूसरे तमाम हुक्म रहे हैं। इसी तरह ज़कात के बारे में भी कोई यह दावा नहीं कर सकता कि तमाम शरीअतों में यही उसका निसाब (वाजिब होने की मिक़दार), यही उसकी दरें और यही उसको वुसूल करने और बाँटने के हुक्म रहे हैं। लेकिन शरीअतों के इख़्तिलाफ़ होने के बावजूद अल्लाह तआला इन दोनों चीज़ों को दीन में शुमार कर रहा है। (2) “तुम्हारे लिए हराम किया गया मुर्दार और ख़ून और सूअर का गोश्त और वह जानवर जो अल्लाह के सिवा किसी और के नाम पर ज़ब्ह किया गया हो और वह जो गला घुटकर, या चोट खाकर, या बुलन्दी से गिरकर, या टक्कर खाकर मरा हो, या जिसे किसी दरिन्दे ने फाड़ा हो, सिवाय उसके जिसे तुमने ज़िन्दा पाकर ज़ब्ह कर लिया और वह जो किसी आस्ताने पर ज़ब्ह किया गया हो। इसके अलावा यह भी तुम्हारे लिए हराम किया गया कि तुम पाँसों के ज़रिए से अपनी क़िस्मत मालूम करो। ये सब काम फ़िस्क़ (अल्लाह की नाफ़रमानी) हैं। आज कुफ़्र और इनकार करनेवालों को तुम्हारे दीन की तरफ़ से मायूसी हो चुकी है, लिहाज़ा तुम उनसे न डरो, बल्कि मुझसे डरो। आज मैंने तुम्हारे दीन को तुम्हारे लिए मुकम्मल कर दिया ....” (सूरा-5 माइदा, आयत-3)। इससे मालूम हुआ कि शरीअत के ये सब हुक्म भी दीन ही हैं। (3) “जंग करो उन लोगों से जो अल्लाह और आख़िरी दिन पर ईमान नहीं लाते और जो कुछ अल्लाह और उसके रसूल ने हराम किया है उसे हराम नहीं करते और सच्चे दीन को अपना दीन नहीं बनाते।” (सूरा-9 तौबा, आयत-29)। मालूम हुआ कि अल्लाह और आख़िरत पर ईमान लाने के साथ हलाल और हराम के उन हुक्मों को मानना और उनकी पाबंदी करना भी दीन है जो अल्लाह और उसके रसूल ने दिये हैं। (4) “बदकार औरत और मर्द, दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो और उनपर तरस खाने का जज़्बा अल्लाह के दीन के मामले में तुमको रोक न दे, अगर तुम अल्लाह और आख़िरी दिन पर ईमान रखते हो।” (सूरा-24 नूर, आयत-2)। “यूसुफ़ अपने भाई को बादशाह के दीन में पकड़ लेने का अधिकार न रखता था।” (सूरा-12 यूसुफ़, आयत-76)। इससे मालूम हुआ कि फ़ौजदारी क़ानून भी दीन है। अगर आदमी ख़ुदा के फ़ौजदारी क़ानून पर चले तो वह ख़ुदा के दीन की पैरवी करनेवाला है और अगर बादशाह के क़ानून पर चले तो वह बादशाह के दीन की पैरवी करनेवाला। ये चार तो वे नमूने हैं जिनमें शरीअत के हुक्मों को साफ़ अलफ़ाज़ में दीन कहा गया है। लेकिन इसके अलावा अगर ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होता है कि जिन गुनाहों पर अल्लाह तआला ने जहन्नम की धमकी दी है (मसलन बदकारी, ब्याज खाना, ईमानवाले को क़त्ल करना, यतीम का माल खाना, ग़लत तरीक़ों से लोगों के माल लेना, वग़ैरा) और जिन जुर्मों को अल्लाह के अज़ाब का सबब ठहराया गया है (मसलन लूत अलैहि० की क़ौम की बदकारी और लेन-देन में शुऐब अलैहि० की क़ौम का रवैया)। उनकी रोकथाम लाज़िमन दीन ही के दायरे में आनी चाहिए, इसलिए कि दीन अगर जहन्नम और अल्लाह के अज़ाब से बचाने के लिए नहीं आया है तो और किस चीज़ के लिए आया है? इसी तरह शरीअत के वे हुक्म भी दीन ही का हिस्सा होने चाहिएँ जिनकी ख़िलाफ़वर्ज़ी को जहन्नम में दाख़िले का सबब ठहराया गया है। मसलन मीरास के हुक्म, जिनको बयान करने के बाद आख़िर में कहा गया है कि “जो अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी और अल्लाह की हदों को पार करेगा, अल्लाह उसको जहन्नम में डालेगा जिसमें वह हमेशा रहेगा और उसके लिए रुसवा कर देनेवाला अज़ाब है।” (सूरा-4 निसा, आयत-14)। इसी तरह जिन चीज़ों का हराम होना अल्लाह तआला ने पूरी शिद्दत और फ़ैसलाकुन अन्दाज़ में बयान किया है, मसलन माँ, बहन और बेटी से शादी का हराम होना, शराब का हराम होना, चोरी का हराम होना, जूए का हराम होना, झूठी गवाही का हराम होना, इनके हराम होने को अगर दीन क़ायम करने में शामिल न किया जाए तो इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने कुछ ग़ैर-ज़रूरी हुक्म भी दे दिए हैं। जिनका जारी होना मक़सद नहीं है। इसी तरह अल्लाह ने जिन कामों को फ़र्ज़ ठहराया है, मसलन रोज़ा और हज, उनके क़ायम करने को भी सिर्फ़ इस बहाने दीन क़ायम करने से अलग नहीं किया जा सकता कि रमज़ान के 30 रोज़े तो पिछली शरीअतों में न थे और काबा का हज तो सिर्फ़ उस शरीअत में था जो इबराहीम (अलैहि०) की औलाद की इसमाईली शाखा को मिली थी। अस्ल में सारी ग़लत-फ़हमी सिर्फ़ इस वजह से पैदा हुई है कि आयत “हमने तुममें से हर एक के लिए एक शरीअत और एक राह मुक़र्रर कर दी” का उलटा मतलब लेकर उसे यह मानी पहना दिए गए हैं कि शरीअत चूँकि हर उम्मत के लिए अलग थी और हुक्म सिर्फ़ उस दीन के क़ायम करने का दिया गया है जो तमाम नबियों (अलैहि०) के बीच एक था, इसलिए दीन क़ायम करने के हुक्म में शरीअत का क़ायम करना शामिल नहीं है। हालाँकि हक़ीक़त में इस आयत का मतलब इसके बिलकुल बरख़िलाफ़ है। सूरा-5 माइदा में जिस जगह यह आयत आई है, उसके पूरे मौक़ा-महल को आयत-41 से आयत-50 तक अगर कोई आदमी ग़ौर से पढ़े तो मालूम होगा कि इस आयत का सही मतलब यह है कि जिस नबी की उम्मत को जो शरीअत भी अल्लाह ने दी थी, वह उस उम्मत के लिए दीन थी और उसकी पैग़म्बरी के दौर में उसी को क़ायम करना मक़सद था और अब चूँकि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का दौर है, इसलिए मुहम्मद (सल्ल०) की उम्मत को जो शरीअत दी गई है, वह इस दौर के लिए दीन है और उसका क़ायम करना ही दीन का क़ायम करना है। रहा उन शरीअतों का इख़्तिलाफ़, तो उसका मतलब यह नहीं है कि ख़ुदा की भेजी हुई शरीअतें आपस में एक-दूसरे के बरख़िलाफ़ थीं, बल्कि इसका मतलब यह है कि उनकी छोट-छोटी मामूली बातों में हालात के लिहाज़ से कुछ फ़र्क़ रहा है। मिसाल के तौर पर नमाज़ और रोज़े को देखिए। नमाज़ तमाम शरीअतों में फ़र्ज़ रही है, मगर क़िबला (जिधर मुँह करके नमाज़ पढ़ी जाती है) सारी शरीअतों का एक न था और इसके वक़्तों और रकअतों और दूसरी चीज़ों में भी फ़र्क़ था। इसी तरह रोज़ा हर शरीअत में फ़र्ज़ था, मगर रमज़ान के 30 रोज़े दूसरी शरीअतों में न थे। इससे यह नतीजा निकालना सही नहीं है कि पूरे तौर पर नमाज़-रोज़ा तो दीन क़ायम करने में शामिल है, मगर एक ख़ास तरीक़े से नमाज़ पढ़ना और ख़ास ज़माने में रोज़ा रखना दीन क़ायम करने से बाहर है, बल्कि इससे सही तौर पर जो नतीजा निकलता है वह यह है कि हर नबी की उम्मत के लिए उस वक़्त की शरीअत में नमाज़-रोज़े के लिए जो क़ायदे तय किए गए थे, उन्हीं के मुताबिक़ उस ज़माने में नमाज़ पढ़ना और रोज़े रखना दीन क़ायम करना था और अब दीन क़ायम करना यह है कि इन इबादतों के लिए मुहम्मद (सल्ल०) की शरीअत में जो तरीक़ा रखा गया है, उसके मुताबिक़ इन्हें अदा किया जाए। इन्हीं दो मिसालों के मुताबिक़ शरीअत के दूसरे तमाम हुक्मों को भी समझा जा सकता है। क़ुरआन मजीद को जो शख़्स भी आँखें खोलकर पढ़ेगा, उसे यह बात साफ़ नज़र आएगी कि यह किताब अपने माननेवालों को कुफ़्र और कुफ़्र करनेवालों का ग़ुलाम मानकर ग़ुलामाना हैसियत में मज़हबी ज़िन्दगी गुज़ारने का प्रोग्राम नहीं दे रही है, बल्कि यह खुल्लम-खुल्ला अपनी हुकूमत क़ायम करना चाहती है, अपने पैरोकारों से माँग करती है कि वे सच्चे दीन को फ़िक्री (वैचारिक), अख़लाक़ी, तहज़ीबी, क़ानूनी और सियासी हैसियत से ग़ालिब करने के लिए जान लड़ा दें और उनको इनसानी ज़िन्दगी के सुधार का वह प्रोग्राम देती है जिसके बहुत बड़े हिस्से पर सिर्फ़ उसी सूरत में अमल किया जा सकता है जब हुकूमत की बागडोर ईमानवालों के हाथ में हो। यह किताब अपने नाज़िल (अवतरित) किए जाने का मक़सद यह बयान करती है कि नबी! हमने यह किताब हक़ के साथ तुमपर उतारी है, ताकि तुम लोगों के बीच फ़ैसला करो उस रौशनी में जो अल्लाह ने तुम्हें दिखाई है।” (सूरा-4 निसा, आयत-105)। इस किताब में ज़कात वुसूल करने और उसे बाँटने के जो हुक्म दिए गए हैं, वे साफ़-साफ़ अपने पीछे एक ऐसी हुकूमत का तसव्वुर (परिकल्पना) रखते हैं जो एक मुक़र्रर क़ायदे के मुताबिक़ ज़कात वुसूल करके हक़दारों तक पहुँचाने का ज़िम्मा ले (सूरा-9 तौबा, आयतें-60, 103)। इस किताब में सूद (ब्याज) को बन्द करने का जो हुक्म दिया गया है और सूदख़ोरी जारी रखनेवालों के ख़िलाफ़ जो जंग का एलान किया गया है (सूरा-2 बक़रा, आयतें-275, 279), वह उसी सूरत में अमल में आ सकता है जब देश का सियासी और मआशी निज़ाम (राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था) पूरी तरह ईमानवालों के हाथ में हो। इस किताब में क़ातिल से क़िसास (क़त्ल का बदला) लेने का हुक्म (सूरा-2 बक़रा, आयत-178), चोरी पर हाथ काटने का हुक्म (सूरा-5 माइदा, आयत-36), ज़िना (व्यभिचार) करने और 'क़ज़्फ़' (ज़िना का झूठा इलज़ाम लगाने) पर हद्द (सज़ा) जारी करने का हुक्म (सूरा-24 नूर, आयतें-2 से 4) इस मनगढ़न्त ख़याल पर नहीं दिया गया है कि इन हुक्मों के माननेवाले लोगों को उन लोगों की पुलिस और अदालतों के मातहत रहना होगा जो ख़ुदा के इनकारी हैं। इस किताब में कुफ़्र करनेवालों से जंग का हुक्म (सूरा-2 बक़रा, आयतें-190, 216) यह समझते हुए नहीं दिया गया है कि इस दीन की पैरवी करनेवाले कुफ़्र की हुकूमत में फ़ौज भरती करके इस हुक्म पर अमल करेंगे। इस किताब में अहले-किताब से जिज़्या लेने का हुक्म (सूरा-9 तौबा, आयत-29) इस मनगढ़न्त ख़याल पर नहीं दिया गया है कि मुसलमान ग़ैर-मुस्लिमों के मातहत रहते हुए उनसे जिज़्या वुसूल करेंगे और उनकी हिफ़ाज़त का ज़िम्मा लेंगे और यह मामला सिर्फ़ मदनी सूरतों ही तक महदूद नहीं है, मक्की सूरतों में भी देखनेवाली आँख को यह साफ़ नज़र आ सकता है कि शुरू ही से जो नक़्शा सामने था वह दीन के ग़लबे (प्रभुत्त्व) और इक़तिदार का था, न कि कुफ़्र की हुकूमत के तहत इस्लाम और मुसलमानों के 'ज़िम्मी' बनकर रहने का। मिसाल के तौर पर देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—89, 99, 101; सूरा-28 क़सस, हाशिए—104, 105; सूरा-30 रूम, हाशिए—1 से 3; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—171 से 179, हाशिए—93, 94; सूरा-38 सॉद, परिचय और आयत-11 हाशिया 12 के साथ। ऊपर का मतलब लेने से सबसे ज़्यादा जो ग़लती टकराती है, वह ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का वह अज़ीमुश्शान काम है जो नबी (सल्ल०) ने 23 साल की पैग़म्बरी के ज़माने में अंजाम दिया। आख़िर कौन नहीं जानता कि आप (सल्ल०) ने तबलीग़ और तलवार दोनों से पूरे अरब को जीत लिया और उसमें एक मुकम्मल हुकूमत का निज़ाम एक तफ़सीली शरीअत के साथ क़ायम कर दिया जो अक़ीदों और इबादतों से लेकर शख़्सी किरदार, इजतिमाई अख़लाक़़, तहज़ीब और तमद्दुन (रहन-सहन), मईशत (आर्थिकता) और सामाजिकता, सियासत और अदालत और सुलह और जंग तक ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं पर हावी थी। अगर नबी (सल्ल०) के इस पूरे काम को 'इक़ामते-दीन' के उस हुक्म की तफ़सीर न माना जाए जो इस आयत के मुताबिक़ तमाम नबियों (अलैहि०) समेत आप (सल्ल०) को दिया गया था, तो फिर इसके दो ही मतलब हो सकते हैं, या तो, अल्लाह की पनाह, नबी (सल्ल०) पर यह इलज़ाम लगाया जाए कि आप (सल्ल०) को काम तो सिर्फ़ ईमान और अख़लाक़ के मोटे-मोटे उसूलों की सिर्फ़ तबलीग़ और दावत का दिया गया था, मगर आप (सल्ल०) ने इससे आगे बढ़कर अपने तौर पर एक हुकूमत क़ायम कर दी और एक तफ़सीली क़ानून बना डाला जो सभी नबियों की शरीअतों में पाए जानेवाली क़द्रों (मूल्यों) से अलग भी था और ज़्यादा भी। या फिर अल्लाह तआला पर यह इलज़ाम रखा जाए कि वह सूरा-42 शूरा में ऊपर बयान किया गया एलान कर चुकने के बाद ख़ुद अपनी बात से पलट गया और उसने अपने आख़िरी नबी से न सिर्फ़ वह काम लिया जो इस सूरा के एलान किए हुए ‘इक़ामते-दीन' से बहुत कुछ ज़्यादा और अलग था, बल्कि इस काम के पूरा होने पर अपने पहले एलान के ख़िलाफ़ यह दूसरा एलान भी कर दिया कि “आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन मुकम्मल कर दिया।” हम इससे अल्लाह की पनाह माँगते हैं। इन दो सूरतों के सिवा अगर कोई तीसरी सूरत ऐसी निकलती हो जिससे 'इक़ामते-दीन' का यह मतलब भी बाक़ी रहे और अल्लाह या उसके रसूल पर कोई इलज़ाम भी न आता हो तो हम ज़रूर उसे मालूम करना चाहेंगे। दीन क़ायम करने का हुक्म देने के बाद, आख़िरी बात जो अल्लाह तआला ने इस आयत में फ़रमाई है वह यह है कि “ला त-तफ़र्रक़ू फ़ीह” यानी “दीन में फूट न डालो,” या “उसके अन्दर बिखर न जाओ।” दीन में 'तफ़रिक़ा' (फूट, बिखराव) से मुराद यह है कि आदमी दीन के अन्दर अपनी तरफ़ से कोई निराली बात ऐसी निकाले जिसकी कोई मुनासिब गुंजाइश उसमें न हो और ज़ोर दे कि उसकी निकाली हुई बात के मानने ही पर कुफ़्र और ईमान का दारोमदार है, फिर जो माननेवाले हों उन्हें लेकर न माननेवालों से अलग हो जाए। यह निराली बात कई तरह की हो सकती है। वह यह भी हो सकती है कि दीन में जो चीज़ न थी, वह उसमें लाकर शामिल कर दी जाए। यह भी हो सकती है कि दीन में जो बात शामिल थी, उसे निकाल बाहर किया जाए और यह भी हो सकती है कि दीन की साबित-शुदा बातों में फेर-बदल की हद तक पहुँचे हुए मतलब निकालकर निराले अक़ीदे और अनोखे काम पैदा किए जाएँ और यह भी हो सकती है कि दीन की बुनियादी बातों में फेर-बदल करके उसका हुलिया बिगाड़ा जाए। मसलन जो चीज़ अहम थी उसे ग़ैर-अहम बना दिया जाए और जो चीज़ हद-से-हद मुबाह (पसन्दीदा) के दरजे में थी, उसे फ़र्ज़ और वाजिब, बल्कि इससे भी बढ़ाकर इस्लाम का अहम सुतून बना डाला जाए। इसी तरह की हरकतों से नबियों (अलैहि०) की उम्मतों में पहले फूट पड़ी, फिर धीरे-धीरे उन फ़िरक़ों (गुटों) के रास्ते बिलकुल अलग अपने में एक दीन बन गए, जिनके माननेवालों में अब यह तसव्वुर तक बाक़ी नहीं रहा है कि कभी उन सबकी अस्ल एक थी। इस फूट का उस जाइज़ और अक़्ल के मुताबिक़ राय के इख़्तिलाफ़ से कोई ताल्लुक़ नहीं है जो दीन के हुक्मों को समझने और नुसूस (क़ुरआन और हदीस के हुक्मों) पर ग़ौर करके उनसे मसाइल निकालने में फ़ितरी तौर पर इल्मवालों के बीच पाया जाता है और जिसके लिए ख़ुद अल्लाह की किताब के अलफ़ाज़ में लुग़त (शब्दकोश) और मुहावरे और ज़बान के क़ायदों के लिहाज़ से गुंजाइश होती है। (इस बारे में और ज़्यादा तफ़सीली बहस के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-220; सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—16 से 17; सूरा-4 निसा, हाशिए—211 से 216; सूरा-5 माइदा, हाशिया-101; सूरा-6 अनआम, हाशिया-141; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—117 से 121; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—89 से 91; सूरा-हज, हाशिए—114 से 117; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—45 से 48; सूरा-28 क़सस, हाशिए—72 से 74; सूरा-30 रूम, हाशिए—50, 51)।
21. यहाँ फिर वही बात दुहराई गई है जो इससे पहले आयत 8, 9 में बताई जा चुकी है और जिसकी तशरीह हम हाशिया-11 में कर चुके हैं। इस जगह यह बात कहने का मक़सद यह है कि तुम इन लोगों के सामने दीन का साफ़ रास्ता पेश कर रहे हो और ये नादान इस नेमत की क़द्र करने के बजाय उलटे इसपर बिगड़ रहे हैं। मगर इन्हीं के बीच इन्हीं की क़ौम में वे लोग मौजूद हैं जो अल्लाह की तरफ़ रुजू कर रहे हैं और अल्लाह भी उन्हें खींच-खींचकर अपनी तरफ़ ला रहा है। अब ये अपनी-अपनी क़िस्मत है कि कोई इस नेमत को पाए और कोई इससे महरूम रहे। मगर अल्लाह की बाँट अंधी बाँट नहीं है। वह उसी को अपनी तरफ़ खींचता है जो उसकी तरफ़ बढ़े। दूर भागनेवालों के पीछे दौड़ना अल्लाह का काम नहीं है।
وَمَا تَفَرَّقُوٓاْ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى لَّقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّ ٱلَّذِينَ أُورِثُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 12
(14) लोगों में जो फूट पड़ी, वह इसके बाद पड़ी कि उनके पास 'इल्म' (सत्यज्ञान) आ चुका था22 और इस वजह से कि वे आपस में एक-दूसरे पर ज़्यादती करना चाहते थे।23 अगर तेरा रब पहले ही यह न फ़रमा चुका होता कि एक तयशुदा वक़्त तक फ़ैसला टाले रखा जाएगा तो उनका झगड़ा चुका दिया गया होता।24 और हक़ीक़त यह है कि अगलों के बाद जो लोग किताब के वारिस बनाए गए, वे उसकी तरफ़ से बड़े बेचैन करनेवाले शक में पड़े हुए हैं।25
22. यानी फूट की वजह यह न थी कि अल्लाह तआला ने पैग़म्बर (अलैहि०) नहीं भेजे थे और किताबें नहीं उतारी थीं, इस वजह से लोग सीधा रास्ता न जानने की वजह से अपने-अपने अलग मज़हब और नज़रिए और निज़ामे-ज़िन्दगी ख़ुद बना बैठे, बल्कि यह फूट उनमें अल्लाह की तरफ़ से इल्म आ जाने के बाद पड़ी। इसलिए अल्लाह इसका ज़िम्मेदार नहीं है, बल्कि वे लोग ख़ुद इसके ज़िम्मेदार हैं, जिन्होंने दीन के साफ़-साफ़ उसूल और शरीअत के साफ़ हुक्मों से हटकर नए-नए मज़हब और मसलक (रास्ते) बनाए।
23. यानी इस फूट के लिए उभारनेवाला कोई नेक जज़्बा न था, बल्कि यह अपनी निराली उपज दिखाने की ख़ाहिश, अपना अलग झण्डा बुलन्द करने की फ़िक्र, आपस की ज़िद्दम-ज़िद्दा, एक दूसरे को नीचा दिखाने की कोशिश और माल और शुहरत की तलब का नतीजा थी। होशियार और हौसला रखनेवाले लोगों ने देखा कि ख़ुदा के बन्दे अगर सीधे-सीधे ख़ुदा के दीन पर चलते रहें तो बस एक ख़ुदा होगा जिसके आगे लोग झुकेंगे, एक रसूल होगा जिसको लोग पेशवा और रहनुमा मानेंगे, एक किताब होगी जिसकी तरफ़ लोग रुजू करेंगे और एक साफ़ अक़ीदा और बेलाग ज़ाब्ता (नियम) होगा, जिसकी पैरवी वे करते रहेंगे। इस निज़ाम में उनकी अपनी ज़ात के लिए कोई ख़ास जगह नहीं हो सकती, जिसकी वजह से उनकी सरदारी चले और लोग उनके आस-पास इकट्ठा हों और उनके आगे सर भी झुकाएँ और जेबें भी ख़ाली करें। यही वह अस्ल सबब था जो नए-नए अक़ीदों और फ़ल्सफ़े (दर्शन), इबादत के नए-नए तरीक़े और नई-नई मज़हबी रस्में और नए-नए निज़ामे-ज़िन्दगी ईजाद करने का सबब बना और इसी ने ख़ुदा के बन्दों (इनसानों) के एक बड़े हिस्से को दीन की साफ़ डगर से हटाकर अलग-अलग राहों में भटका दिया। फिर यह भटकाव इन गरोहों की आपसी बहस और झगड़ों और मज़हबी और मआशी (आर्थिक) और सियासी कशमकश की बदौलत कड़वाहटों में तबदील होता चला गया, यहाँ तक कि नौबत उन ख़ून-खराबों तक पहुँची जिनकी छींटों से इनसानी इतिहास लाल हो रहा है।
24. यानी दुनिया ही में अज़ाब देकर उन सब लोगों का ख़ातिमा कर दिया जाता जो गुमराहियाँ निकालने और जान-बूझकर उनकी पैरवी करने के मुजरिम थे और सिर्फ़ सीधे रास्ते पर चलनेवाले बाक़ी रखे जाते, जिससे यह बात वाज़ेह (स्पष्ट) हो जाती कि ख़ुदा के नज़दीक हक़ पर कौन हैं और बातिल (ग़लत रास्ते) पर कौन। लेकिन अल्लाह तआला ने यह दो टूक फ़ैसला क़ियामत तक के लिए टाले रखा है, क्योंकि दुनिया में यह फ़ैसला कर देने के बाद इनसान की आज़माइश बेमतलब हो जाती है।
25. मतलब यह है कि हर नबी और उसके क़रीबी पैरोकारों का दौर गुज़र जाने के बाद जब पिछली नस्लों तक अल्लाह की किताब पहुँची तो उन्होंने उसे यक़ीन और भरोसे के साथ नहीं लिया, बल्कि वे उसके बारे में सख़्त शक-शुब्हों और उलझनों में मुब्तला हो गई। इस हालत में उनके मुब्तला हो जाने की बहुत-सी वजहें थीं, जिन्हें हम उस सूरते-हाल का जाइज़ा लेकर आसानी से समझ सकते हैं जो तौरात और इंजील के मामले में पेश आई है। इन दोनों किताबों को पहले की नस्लों ने उनकी असली हालत पर उनकी अस्ल इबारत और ज़बान में महफ़ूज़ रखकर बाद में आनेवाली नस्लों तक नहीं पहुँचाया। उनमें ख़ुदा के कलाम के साथ तफ़सीर और इतिहास और सुनी-सुनाई रिवायतों और फ़क़ीहों की निकाली हुई बारीकियों की सूरत में इनसानी बातें गड्ड-मड्ड कर दीं। उनके तर्जमों को इतना रिवाज दिया कि अस्ल ग़ायब हो गई और सिर्फ़ तर्जमे बाक़ी रह गए। उनकी तारीख़़ी सनद भी इस तरह बरबाद कर दी कि अब कोई शख़्स भी पूरे यक़ीन के साथ नहीं कह सकता कि जो किताब उसके हाथ में है, वह वही है जो हज़रत मूसा (अलेहि०) या हज़रत ईसा (अलैहि०) के ज़रिए से दुनियावालों को मिली थी। फिर उनके बड़ों ने वक़्त-वक़्त पर मज़हब, इलाहियात, फ़लसफ़ा, क़ानून, तबीइयात (भौतिकी), नफ़सियात (मनोविज्ञान) और सामाजिकता की ऐसी बहसें छेड़ीं और ऐसे निज़ामे-फ़िक्र (चिन्तन-प्रणाली) बना डाले जिनकी भूल-भुलैयों में फँसकर लोगों के लिए यह तय करना मुश्किल हो गया कि इन पेचीदा रास्तों के बीच हक़ की सीधी राह कौन-सी है और चूँकि अल्लाह की किताब अपनी अस्ल हालत और भरोसेमन्द हालत में मौजूद न थी, इसलिए लोग किसी ऐसी सनद की तरफ़ रुजू भी न कर सकते थे जो सही को ग़लत से अलग करने में उनकी मदद करती।
فَلِذَٰلِكَ فَٱدۡعُۖ وَٱسۡتَقِمۡ كَمَآ أُمِرۡتَۖ وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَهُمۡۖ وَقُلۡ ءَامَنتُ بِمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِن كِتَٰبٖۖ وَأُمِرۡتُ لِأَعۡدِلَ بَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ رَبُّنَا وَرَبُّكُمۡۖ لَنَآ أَعۡمَٰلُنَا وَلَكُمۡ أَعۡمَٰلُكُمۡۖ لَا حُجَّةَ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُۖ ٱللَّهُ يَجۡمَعُ بَيۡنَنَاۖ وَإِلَيۡهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 13
(15) (चूँकि यह हालत पैदा हो चुकी है) इसलिए (ऐ नबी!) अब तुम उसी दीन की तरफ़ दावत दो और जिस तरह तुम्हें हुक्म दिया गया है, उस पर मज़बूती के साथ क़ायम हो जाओ और इन लोगों की ख़ाहिशों की पैरवी न करो26 और इनसे कह दो कि “अल्लाह ने जो किताब भी उतारी है, मैं उसपर ईमान लाया।”27 मुझे हुक्म दिया गया है कि मैं तुम्हारे दरमियान इनसाफ़ करूँ।28 अल्लाह ही हमारा रब भी है और तुम्हारा रब भी। हमारे आमाल हमारे लिए हैं और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए।29 हमारे और तुम्हारे बीच कोई झगड़ा नहीं30 अल्लाह एक दिन हम सबको इकट्ठा करेगा और उसी की तरफ़ सबको जाना है।
26. यानी उनको राज़ी करने के लिए इस दीन के अन्दर कोई फेर-बदल और कमी-ज़्यादती न करो। “कुछ लो और कुछ दो” के उसूलों पर इन गुमराह लागों से कोई समझौता न करो। इनके अंधविश्वासों, तास्सुबात (पक्षपातों) और जहालतवाले तौर-तरीक़ों के लिए दीन में कोई गुंजाइश सिर्फ़ इस लालच में आकर न निकालो कि किसी-न-किसी तरह ये इस्लाम के दायरे में आ जाएँ। जिसको मानना है, ख़ुदा के असली और ख़ालिस दीन को जैसा कि उसने भेजा है, सीधी तरह मान ले, वरना जिस जहन्नम में जाकर गिरना चाहे, गिर जाए। ख़ुदा का दीन लोगों की ख़ातिर नहीं बदला जा सकता। लोग अगर अपनी भलाई चाहते हैं तो ख़ुद अपने आपको बदलकर इसके मुताबिक़ बनाएँ।
27. दूसरे अलफ़ाज़ में, मैं उन फूट डालनेवाले लोगों की तरह नहीं हूँ जो ख़ुदा की भेजी हुई कुछ किताबों को मानते हैं और कुछ को नहीं मानते। मैं हर उस किताब को मानता हूँ जिसे ख़ुदा जाने भेजा है।
28. यह ठोस जुमला अपने अन्दर कई मतलब रखता है— एक मतलब यह है कि मैं उन सारी गरोहबन्दियों से अलग रहकर बेलाग इनसाफ़-पसन्दी अपनाने पर मुक़र्रर हूँ। मेरा काम यह नहीं है कि किसी गरोह के हक़ में और किसी के ख़िलाफ़ तास्सुब (पक्षपात) बरतूँ। मेरा सब इनसानों से एक जैसा ताल्लुक़ है और वह है सरासर अद्ल और इनसाफ़ का ताल्लुक़। जिसकी जो बात सही है, मैं उसका साथी हूँ, चाहे वह ग़ैरों-का-ग़ैर ही क्यों न हो और जिसकी जो बात हक़ के ख़िलाफ़ है, मैं उसका मुख़ालिफ़ हूँ, चाहे वह मेरा सबसे क़रीबी रिश्तेदार ही क्यों न हो। दूसरा मतलब यह है कि मैं जिस हक़ को तुम्हारे सामने पेश करने पर मुक़र्रर हूँ, उसमें किसी के लिए भी कोई भेद-भाव नहीं है, बल्कि वह सबके लिए एक बराबर है। इसमें अपने और पराए, बड़े और छोटे, ग़रीब और अमीर, शरीफ़ और नीच के लिए अलग-अलग हक़ और अधिकार नहीं हैं, बल्कि जो कुछ है वह सबके लिए हक़ है, जो गुनाह है वह सबके लिए गुनाह है, जो हराम है वह सबके लिए हराम है और जो जुर्म है वह सबके लिए जुर्म है। इस बेलाग उसूल में मेरे ख़ुद के लिए भी कोई अलग उसूल नहीं है। तीसरा मतलब यह है कि मैं दुनिया में इनसाफ़ क़ायम करने पर मुक़र्रर हूँ। मेरे सिपुर्द यह काम किया गया है कि मैं लोगों के बीच इनसाफ़ करूँ और उन बे-एतिदालियों (असन्तुलनों) और नाइनसाफ़ियों का ख़ातिमा कर दूँ जो तुम्हारी ज़िन्दगियों में और तुम्हारे समाज में पाई जाती हैं। इन तीन मतलबों के अलावा इस जुमले का एक चौथा मतलब भी है जो मक्का में न खुला था, मगर हिजरत के बाद खुल गया और वह यह है कि मैं अल्लाह का मुक़र्रर किया हुआ क़ाज़ी और जज हूँ, तुम्हारे बीच इनसाफ़ करना मेरी ज़िम्मेदारी है।
29. यानी हममें से हर एक अपने-अपने अमल का ख़ुद ज़िम्मेदार और जवाबदेह है। तुम अगर नेकी करोगे तो उसका फ़ज़्ल हमें नहीं पहुँच जाएगा, बल्कि तुम्हीं उससे फ़ायदा उठाओगे और हम अगर बुराई करेंगे तो उसके बदले में तुम नहीं पकड़े जाओगे, बल्कि हमें ख़ुद ही उसका ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा। यही बात सूरा-2 बक़रा, आयत-139; सूरा-10 यूनुस, आयत-41; सूरा-11 हूद, आयत-35 और सूरा-28 क़सस, आयत-55 में इससे पहले कही जा चुकी है। (देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-129; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-49; सूरा-11 हूद, हाशिया-39; सूरा-28 क़सस, हाशिया-77)।
30. यानी मुनासिब दलीलों से बात समझाने का जो हक़ था वह हमने अदा कर दिया। अब की ख़ाह-मखाह तू-तू मैं-मैं करने से क्या हासिल, तुम अगर झगड़ा करो भी तो हम तुमसे झगड़ने के लिए तैयार नहीं हैं।
وَٱلَّذِينَ يُحَآجُّونَ فِي ٱللَّهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا ٱسۡتُجِيبَ لَهُۥ حُجَّتُهُمۡ دَاحِضَةٌ عِندَ رَبِّهِمۡ وَعَلَيۡهِمۡ غَضَبٞ وَلَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٌ ۝ 14
(16) अल्लाह की पुकार को आगे बढ़कर क़ुबूल कर लेने के बाद जो लोग (क़ुबूल करनेवालों से) अल्लाह के दीन के मामले में झगड़े करते हैं,31 उनकी हुज्जतबाज़ी (वाद-विवाद) उनके रब के नज़दीक ग़लत है, और उनपर उसका ग़ज़ब (प्रकोप) है और उनके लिए सख़्त अज़ाब है।
31. यह इशारा है उस सूरते-हाल की तरफ़ जो मक्का में उस वक़्त आए दिन पेश आ रही थी कि जहाँ किसी के बारे में लोगों को मालूम हो जाता कि वह मुसलमान हो गया है, हाथ धोकर उसके पीछे पड़ जाते, मुद्दतों उसको तंग किए रखते, न घर में उसे चैन लेने दिया जाता, न मुहल्ले और बिरादरी में, जहाँ भी वह जाता, एक न ख़त्म होनेवाली बहस छिड़ जाती, जिसका मक़सद यह होता कि किसी तरह वह मुहम्मद (सल्ल०) का साथ छोड़कर उसी जाहिलियत में पलट आए जिससे वह निकला है।
ٱللَّهُ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ وَٱلۡمِيزَانَۗ وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّ ٱلسَّاعَةَ قَرِيبٞ ۝ 15
(17) वह अल्लाह ही है जिसने हक़ के साथ यह किताब और मीज़ान (तराजू) उतारी है।32 और तुम्हें क्या पता, शायद कि फ़ैसले की घड़ी क़रीब ही आ लगी हो।33
32. 'मीज़ान' से मुराद अल्लाह की शरीअत है जो तराज़ू की तरह तौलकर सही और ग़लत, हक़ और बातिल, ज़ुल्म और इनसाफ़, सच और झूठ का फ़र्क़ खोलकर रख देती है। ऊपर नबी (सल्ल०) की ज़बान से यह कहलवाया गया था कि “मुझे हुक्म दिया गया है कि तुम्हारे बीच इनसाफ़ करूँ। यहाँ बता दिया गया कि इस पाक किताब के साथ वह मीज़ान आ गई है जिसके ज़रिए से यह इनसाफ़ क़ायम किया जाएगा।
33. यानी जिसको सीधा होना है देर किए बिना सीधा हो जाए। फ़ैसले की घड़ी को दूर समझकर टालना नहीं चाहिए। एक साँस के बारे में भी आदमी यक़ीन के साथ नहीं कह सकता कि उसके बाद दूसरी साँस उसे मुहलत ज़रूर ही मिल जाएगी। हर साँस आख़िरी साँस हो सकती है।
يَسۡتَعۡجِلُ بِهَا ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِهَاۖ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مُشۡفِقُونَ مِنۡهَا وَيَعۡلَمُونَ أَنَّهَا ٱلۡحَقُّۗ أَلَآ إِنَّ ٱلَّذِينَ يُمَارُونَ فِي ٱلسَّاعَةِ لَفِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٍ ۝ 16
(18) जो लोग उसके आने पर ईमान नहीं रखते वे तो उसके लिए जल्दी मचाते हैं, मगर जो उसपर ईमान रखते हैं, वे उससे डरते हैं और जानते हैं कि यक़ीनन वह आनेवाली है। ख़ूब सुन लो, जो लोग उस घड़ी के आने में शक डालनेवाली बहसें करते हैं, वे गुमराही में बहुत दूर निकल गए हैं।
ٱللَّهُ لَطِيفُۢ بِعِبَادِهِۦ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُۖ وَهُوَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡعَزِيزُ ۝ 17
(19) अल्लाह अपने बन्दों पर बहुत मेहरबान है।34 जिसे जो कुछ चाहता है देता है।35और वह बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त है।36
34. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'लतीफ़' इस्तेमाल हुआ है, जिसका पूरा मतलब 'मेहरबान' से अदा नहीं होता। इस लफ़्ज़ में दो मतलब शामिल हैं— एक यह कि अल्लाह अपने बन्दों पर बड़ी मुहब्बत और मेहरबानी रखता है। दूसरा यह कि वह बड़ी बारीकी के साथ उनकी छोटी-से-छोटी ज़रूरतों पर भी निगाह रखता है जिन तक किसी की निगाह नहीं पहुँच सकती और उन्हें इस तरह पूरा करता है कि वे ख़ुद भी महसूस नहीं करते कि हमारी कौन-सी ज़रूरत कब किसने पूरी कर दी। फिर यहाँ बन्दों से मुराद सिर्फ़ ईमानवाले लोग नहीं, बल्कि तमाम बन्दे हैं, यानी अल्लाह की यह मेहरबानी उसके सब बन्दों पर आम है।
مَن كَانَ يُرِيدُ حَرۡثَ ٱلۡأٓخِرَةِ نَزِدۡ لَهُۥ فِي حَرۡثِهِۦۖ وَمَن كَانَ يُرِيدُ حَرۡثَ ٱلدُّنۡيَا نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَا وَمَا لَهُۥ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِن نَّصِيبٍ ۝ 18
(20) जो कोई आख़िरत की खेती चाहता है, उसकी खेती को हम बढ़ाते हैं और जो दुनिया की खेती चाहता है, उसे दुनिया ही में से देते हैं, मगर आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं है।37
35. मतलब यह है कि इस आम मेहरबानी का तक़ाज़ा यह नहीं है कि सब बन्दों को सब कुछ बराबर दे दिया जाए। हालाँकि वह अपने ख़ज़ानों से दे सब ही को रहा है, मगर इस बख़शिश और देन में यकसानी (एकरूपता) नहीं है। किसी को कोई चीज़ दी है तो किसी दूसरे को कोई और चीज़। किसी को एक चीज़ ज़्यादा दी है तो किसी और को कोई दूसरी चीज़ बहुतायत के साथ दे दी है।
36. यानी उसकी देन और बख़शिश का यह निज़ाम उसके अपने ज़ोर पर क़ायम है। किसी का यह बलबूता नहीं है कि उसे बदल सके, या ज़बरदस्ती उससे कुछ ले सके, या किसी को देने से उसको रोक सके।
37. पिछली आयत में दो हक़ीक़तें बयान की गई थीं, जिनको हम हर वक़्त हर तरफ़ देख रहे हैं। एक यह कि तमाम बन्दों पर अल्लाह की मेहरबानी आम है। दूसरी यह कि उसकी देन और बख़शिश और रोज़ी पहुँचाना सबके लिए एक जैसा नहीं है, बल्कि उसमें फ़र्क़ पाया जाता है। अब इस आयत में बताया जा रहा है कि इस मेहरबानी और रोज़ी पहुँचाने में छोटे-छोटे फ़र्क़ तो अनगिनत हैं, मगर एक बहुत बड़ा उसूली फ़र्क़ भी है और वह यह है कि आख़िरत के चाहनेवाले के लिए एक तरह की रोज़ी है और दुनिया के तलबगार के लिए दूसरी तरह की रोज़ी। यह एक बड़ी अहम हक़ीक़त है जिसे इन थोड़े-से अलफ़ाज़ में बयान किया गया है। ज़रूरत है कि इसे पूरी तफ़सील के साथ समझ लिया जाए, क्योंकि यह हर इनसान को अपना रवैया तय करने में मदद देती है। आख़िरत और दुनिया, दोनों के लिए कोशिश और अमल करनेवालों को इस आयत में किसान से मिसाल दी गई है जो ज़मीन तैयार करने से लेकर फ़स्ल के तैयार होने तक लगातार मेहनत और लगन से काम करता है और ये सारी मेहनतें इस मक़सद के लिए करता है कि अपनी खेती में जो बीज वह बो रहा है, उसकी फ़स्ल काटे और उसके फल से फ़ायदा उठाए। लेकिन नीयत और मक़सद के फ़र्क़ और बहुत बड़ी हद तक रवैये के फ़र्क़ से भी, आख़िरत की खेती बोनेवाले किसान और दुनिया की खेती बोनेवाले किसान के बीच बहुत बड़ा फ़र्क़ पैदा हो जाता है, इसलिए दोनों की मेहनतों के नतीजे और फल भी अल्लाह तआला ने अलग-अलग रखे हैं, हालाँकि दोनों के काम करने की जगह यही ज़मीन है। आख़िरत की खेती बोनेवाले के बारे में अल्लाह तआला ने यह नहीं फ़रमाया कि दुनिया उसे नहीं मिलेगी। दुनिया तो कम या ज़्यादा हर हाल में उसको मिलनी ही है, क्योंकि यहाँ अल्लाह तआला की आम मेहरबानी में उसका भी हिस्सा है और रोज़ी अच्छों और बुरों सभी को यहाँ मिल रही है। लेकिन अल्लाह ने उसे ख़ुशख़बरी दुनिया मिलने की नहीं, बल्कि इस बात की सुनाई है कि उसकी आख़िरत की खेती बढ़ाई जाएगी, क्योंकि उसी का वह तलबगार है और उसी के अंजाम की उसे फ़िक्र लगी है। इस खेती के बढ़ाए जाने की बहुत-सी सूरतें हैं। मसलन जिस क़द्र ज़्यादा अच्छी नीयत के साथ वह आख़िरत के लिए नेक अमल करता जाएगा उसे और ज़्यादा नेक अमल करने का सुनहरा मौक़ा दिया जाएगा और उसका सीना नेकियों के लिए खोल दिया जाएगा। पाक मक़सद के लिए पाक ज़रिए अपनाने का जब वह पक्का इरादा कर लेगा तो उसके लिए पाक ही ज़रिओं में बरकत दी जाएगी और अल्लाह इसकी नौबत न आने देगा कि उसके लिए भलाई के सारे दरवाज़े बन्द होकर सिर्फ़ बुराई ही के दरवाज़े खुले रह जाएँ और सबसे ज़्यादा यह कि दुनिया में उसकी थोड़ी नेकी भी आख़िरत में कम-से-कम दस गुनी तो बढ़ाई ही जाएगी और ज़्यादा की कोई हद नहीं है, हज़ारों-लाखों गुना भी अल्लाह जिसके लिए चाहेगा बढ़ा देगा। रहा दुनिया की खेती बोनेवाला, यानी वह आदमी जो आख़िरत नहीं चाहता और सब कुछ दुनिया ही के लिए करता है, उसे अल्लाह तआला ने उसकी मेहनत के दो नतीजे साफ़-साफ़ सुना दिए हैं— एक यह कि चाहे वह कितना ही सर मारे, जिस क़द्र दुनिया वह हासिल करना चाहता है वह पूरी-की-पूरी उसे नहीं मिल जाएगी, बल्कि उसका एक हिस्सा ही मिलेगा, जितना अल्लाह ने उसके लिए मुक़र्रर कर दिया है। दूसरा यह कि उसे जो कुछ मिलना है बस दुनिया ही में मिल जाएगा, आख़िरत की भलाइयों में उसका कोई हिस्सा नहीं है।
أَمۡ لَهُمۡ شُرَكَٰٓؤُاْ شَرَعُواْ لَهُم مِّنَ ٱلدِّينِ مَا لَمۡ يَأۡذَنۢ بِهِ ٱللَّهُۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةُ ٱلۡفَصۡلِ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۗ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 19
(21) क्या ये लोग ख़ुदा के कुछ ऐसे शरीक रखते हैं जिन्होंने इनके लिए दीन की तरह का एक ऐसा तरीक़ा मुक़र्रर कर दिया है जिसकी अल्लाह ने इजाज़त नहीं दी?38 अगर फ़ैसले की बात पहले तय न हो गई होती तो इनका झगड़ा चुका दिया गया होता।"39 यक़ीनन इन ज़ालिमों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
38. इस आयत में लफ़्ज़ 'शुरका' से मुराद, ज़ाहिर बात है वे शरीक नहीं हैं जिनसे लोग दुआएँ माँगते हैं, या जिनपर भेंटें और चढ़ावे चढ़ाते हैं, या जिनके आगे पूजा-पाठ की रस्म अदा करते हैं, बल्कि यक़ीनन इनसे मुराद वे इनसान हैं जिनको लोगों ने हुक्म देने के (अल्लाह के) अधिकार में शरीक ठहरा लिया है, जिनके सिखाए हुए ख़यालात, अक़ीदों, नज़रियों और फ़ल्सफ़ों पर लोग ईमान लाते हैं, जिनकी दी हुई क़द्रों (मूल्यों) को मानते हैं, जिनके पेश किए हुए अख़लाक़ी उसूलों और तहज़ीब व सक़ाफ़त (सभ्यता और संस्कृति) के मेयारों (पैमानों) को क़ुबूल करते हैं, जिनके बनाए हुए क़ानून और तरीक़ों और जालों को अपनी मज़हबी रस्मों और इबादतों में, अपनी निज़ी ज़िन्दगी में, अपने समाज में, अपने रहन-सहन में, अपने कारोबार और लेन-देन में, अपनी अदालतों में और अपनी सियासत और हुकूमत में इस तरह कि अपनाते हैं कि मानो यही वह शरीअत है जिसकी पैरवी उनको करनी चाहिए। यह एक पूरा-का-पूरा दीन है जो अल्लाह तमाम जहानों के रब की शरीअत के ख़िलाफ़ और उसकी इजाज़त (Sanction) के बिना ईजाद करनेवालों ने ईजाद किया और माननेवालों ने मान लिया और यह वैसा ही शिर्क है जैसा अल्लाह के सिवा किसी को सजदा करना और दूसरों से दुआएँ माँगना शिर्क है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—170, 286; सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-57; सूरा-4 निसा, हाशिया-90; सूरा-5 माइदा, हाशिए—1 से 5, 104, 105; सूरा-5 अनआम, हाशिए—86, 87, 106, 107; सूरा-9 तौबा, हाशिया-31; सूरा-10 यूनुस, हाशिए—60, 61; सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—30 से 32; सूरा-16 नह्ल, हाशिए—114 से 116; सूरा-18 कह्फ़, हाशिए—49, 50; सूरा-19 मरयम, हाशिया-27; सूरा-28 क़सस, हाशिया-86; सूरा-34 सबा, आयत-41, हाशिया-63; सूरा-36 या-सीन, आयत-60, हाशिया-53)
39. यानी अल्लाह के मुक़ाबले में यह ऐसी सख़्त जुर्रत (दुस्साहस) है कि अगर फ़ैसला क़ियामत पर न उठा रखा गया होता तो दुनिया ही में हर उस शख़्स पर अज़ाब भेज दिया जाता जिसने अल्लाह का बन्दा होते हुए, अल्लाह की ज़मीन पर ख़ुद अपना दीन जारी किया और वे सब लोग भी तबाह कर दिए जाते जिन्होंने अल्लाह के दीन को छोड़कर दूसरों के बनाए हुए दीन को क़ुबूल किया।
تَرَى ٱلظَّٰلِمِينَ مُشۡفِقِينَ مِمَّا كَسَبُواْ وَهُوَ وَاقِعُۢ بِهِمۡۗ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فِي رَوۡضَاتِ ٱلۡجَنَّاتِۖ لَهُم مَّا يَشَآءُونَ عِندَ رَبِّهِمۡۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَضۡلُ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 20
(22) तुम देखोगे कि ये ज़ालिम उस वक़्त अपने किए के अंजाम से डर रहे होंगे और वह इनपर आकर रहेगा। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग ईमान ले आए हैं और जिन्होंने अच्छे काम किए हैं, वे जन्नत के बाग़ों में होंगे, जो कुछ भी वे चाहेंगे अपने रब के यहाँ पाएँगे, यही बड़ी मेहरबानी है।
ذَٰلِكَ ٱلَّذِي يُبَشِّرُ ٱللَّهُ عِبَادَهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِۗ قُل لَّآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًا إِلَّا ٱلۡمَوَدَّةَ فِي ٱلۡقُرۡبَىٰۗ وَمَن يَقۡتَرِفۡ حَسَنَةٗ نَّزِدۡ لَهُۥ فِيهَا حُسۡنًاۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ شَكُورٌ ۝ 21
(23) यह है वह चीज़ जिसकी ख़ुशख़बरी अल्लाह अपने उन बन्दों को देता है जिन्होंने मान लिया और भले काम किए। ऐ नबी! इन लोगों से कह दो कि मैं इस काम पर तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ,40 अलबत्ता क़रीब होने की मुहब्बत ज़रूर चाहता हूँ।"41 जो कोई भलाई कमाएगा, हम उसके लिए उस भलाई में ख़ूबी को बढ़ा देंगे। बेशक अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और क़द्रदान है।42
40. 'इस काम' से मुराद वह कोशिश है जो नबी (सल्ल०) लोगों को ख़ुदा के अज़ाब से बचाने और जन्नत की ख़ुशख़बरी का हक़दार बनाने के लिए कर रहे थे।
41. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'इल्लल-मवद्द-त फ़िल-क़ुर्बा' यानी “मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता मगर 'क़ुर्बा' की मुहब्बत ज़रूर चाहता हूँ।” इस लफ़्ज़ 'क़ुर्बा' की तफ़सीर में क़ुरआन के आलिमों के बीच बड़ा इख़्तिलाफ़ पैदा हो गया है। एक गरोह ने इसको 'क़राबत' (रिश्तेदारी) के मानी में लिया है और आयत का मतलब यह बयान किया है कि “मैं तुमसे इस काम पर कोई बदला नहीं चाहता, मगर यह ज़रूर चाहता हूँ कि तुम लोग (यानी क़ुरैश के लोग) कम-से-कम उस रिश्तेदारी का तो लिहाज़ करो जो मेरे और तुम्हारे बीच है। चाहिए तो यह था कि तुम मेरी बात मान लेते। लेकिन अगर तुम नहीं मानते तो यह सितम तो न करो कि सारे अरब में सबसे बढ़कर तुम ही मेरी दुश्मनी पर तुल गए हो।” यह हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की तफ़सीर है जिसे बहुत-से रिवायत करनेवालों के हवाले से इमाम अहमद (रह०), बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, इब्ने-जरीर, तबरानी, बैहक़ी और इब्ने-सअद वग़ैरा ने नक़्ल किया है और यही तफ़सीर मुजाहिद, इकरिमा, क़तादा, सुद्दी, अबू-मालिक, अब्दुर्रहमान-बिन-ज़ैद-बिन-असलम, ज़ह्हाक, अता-बिन-दीनार और (क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले) दूसरे बड़े आलिमों ने भी बयान की है। दूसरा गरोह “क़ुर्बा” को 'क़ुर्ब' और 'तक़र्रुब' के मानी में लेता है और आयत का मतलब यह बयान करता है कि “मैं तुमसे इस काम पर कोई बदला इसके सिवा नहीं चाहता कि तुम्हारे अन्दर अल्लाह से क़रीब होने की चाहत पैदा हो जाए।” यानी तुम ठीक हो जाओ, बस यही मेरा बदला है। यह तफ़सीर हज़रत हसन बसरी (रह०) से नक़्ल हुई है और एक क़ौल (कथन) क़तादा (रह०) से भी इसकी ताईद में नक़्ल हुआ है, बल्कि तबरानी की एक रिवायत में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की तरफ़ भी यह कौल जोड़ा गया है। ख़ुद क़ुरआन मजीद में एक दूसरी जगह यही बात इन अलफ़ाज़ में कही गई है, “इनसे कह दो कि मैं इस काम पर तुमसे कोई मेहनताना नहीं माँगता, मेरी मेहनत का बदला बस यही है कि जिसका जी चाहे, वह अपने रब कार रास्ता पकड़ ले।” (सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-57) तीसरा गरोह 'क़ुर्बा' को 'अक़ारिब' (रिश्तेदारों) के मानी में लेता है और आयत का मतलब यह बयान करता है कि “मैं तुमसे इस काम पर कोई बदला इसके सिवा नहीं चाहता कि तुम मेरे क़रीबियों (रिश्तेदारों) से मुहब्बत करो।” फिर इस गरोह के कुछ लोग 'अक़ारिब' से तमाम बनी-अब्दुल-मुत्तलिब मुराद लेते हैं और कुछ इसे हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनकी औलाद तक महदूद रखते हैं। यह तफ़सीर सईद-बिन-जुबैर और अम्र-बिन-शुऐब से नक़्ल हुई है और कुछ रिवायतों में यही तफ़सीर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अली-बिन-हुसैन (ज़ैनुल-आबिदीन रह०) की तरफ़ जोड़ी गई है। लेकिन कई वजहों से यह तफ़सीर किसी भी तरह क़ुबूल करने लायक़ नहीं हो सकती। अव्वल तो जिस वक़्त मक्का में सूरा-42 शूरा नाज़िल (अवतरित) हुई है, उस वक़्त हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की शादी तक नहीं हुई थी, औलाद का क्या सवाल और बनी-अब्दुल मुत्तलिब में सब-के-सब नबी (सल्ल०) का साथ नहीं दे रहे थे, बल्कि उनमें से कुछ खुल्लम-खुल्ला दुश्मनों के साथी थे और अबू-लहब की दुश्मनी तो सारी दुनिया जानती है। दूसरी, नबी (सल्ल०) के रिश्तेदार सिर्फ़ बनी-अब्दुल मुत्तलिब ही न थे। आप (सल्ल०) की माँ, आप (सल्ल०) के बाप और आप (सल्ल०) की बीवी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के वास्ते से क़ुरैश के तमाम घरानों में आप (सल्ल०) की रिश्तेदारियाँ थीं और उन सब घरानों में आप (सल्ल०) के बेहतरीन सहाबी भी थे और बदतरीन दुश्मन भी। आख़िर नबी (सल्ल०) के लिए यह किस तरह मुमकिन था कि इन सब रिश्तेदारों में से आप (सल्ल०) सिर्फ़ अब्दुल-मुत्तलिब की नस्ल को अपना रिश्तेदार ठहराकर मुहब्बत की इस माँग को उन्हीं के लिए ख़ास रखते। तीसरी बात, जो इन सबसे ज़्यादा अहम है, वह यह है कि एक नबी जिस बुलन्द मक़ाम पर खड़ा होकर अल्लाह की तरफ़ आने की पुकार लगाता है, उस मक़ाम से इस बड़े काम पर यह बदला माँगना कि तुम मेरे रिश्तेदारों से मुहब्बत करो, इतनी गिरी हुई बात है कि कोई साफ़-सुथरी सोच रखनेवाला इसका तसव्वुर भी नहीं कर सकता कि अल्लाह ने अपने नबी को यह बात सिखाई होगी और नबी ने क़ुरैश के लोगों में खड़े होकर यह बात कही होगी। क़ुरआन मजीद में नबियों (अलैहि०) के जो क़िस्से आए हैं, उनमें हम देखते हैं कि नबी-पर-नबी उठकर अपनी क़ौम से कहता है कि मैं तुमसे कोई बदला नहीं माँगता, मेरा बदला तो अल्लाह सारे जहान के रब के ज़िम्मे है। (सूरा-10 यूनुस, आयत-72; सूरा-11 हूद, आयत-29, 51; सूरा-26 शुअरा, आयत-109, 127, 145, 164, 180)। सूरा-36 या-सीन में नबी की सच्चाई जाँचने का मेयार यह बताया गया है कि वह अपनी दावत में बेग़रज़ होता है (आयत-21)। ख़ुद नबी (सल्ल०) की ज़बान से क़ुरआन मजीद में बार-बार कहलवाया गया है कि मैं तुमसे किसी बदले का तलबगार नहीं हूँ (सूरा-6 अनआम, आयत-90; सूरा-12 यूसुफ़, आयत-104; सूरा-23 मोमिनून, आयत-72; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-57; सूरा-34 सबा, आयत-47; सूरा-38 सॉद, आयत-86; सूरा-52 तूर, आयत-40; सूरा-68 क़लम, आयत-46)। इसके बाद यह कहने का आख़िर क्या मौक़ा है कि मैं अल्लाह की तरफ़ बुलाने का जो काम कर रहा हूँ, उसके बदले में तुम मेरे रिश्तेदारों से मुहब्बत करो। फिर यह बात और भी ज़्यादा बेमौक़ा नज़र आती है जब हम यह देखते हैं कि यह बात ईमानवालों से नहीं की जा रही है, बल्कि इनकारियों से कही जा रही है। ऊपर से सारी बात उन्हीं से करते हुए चली आ रही है और आगे भी बात का रुख़ उन्हीं की तरफ़ है। बात के इस सिलसिले में मुख़ालफ़त करनेवालों से किसी तरह का बदला माँगने का आख़िर सवाल ही कहाँ पैदा होता है। बदला तो उन लोगों से माँगा जाता है जिनकी निगाह में उस काम की कोई क़द्र हो जो किसी आदमी ने उनके लिए किया हो। ग़ैर-मुस्लिम नबी (सल्ल०) के इस काम की कौन-सी क़द्र कर रहे थे कि आप (सल्ल०) उनसे यह बात कहते कि यह काम जो मैंने तुम्हारा किया है, इसपर तुम मेरे रिश्तेदारों से मुहब्बत करना। वह तो उलटा इसे जुर्म समझ रहे थे और उसकी वजह से आप (सल्ल०) की जान के पीछे पड़े थे।
42. यानी जान-बूझकर नाफ़रमानी करनेवाले मुजरिमों के बरख़िलाफ़, नेकी और भलाई की कोशिश करनेवाले बन्दों के साथ अल्लाह तआला का मामला यह है कि (1) जितनी कुछ अपनी तरफ़ से वे नेक बनने की कोशिश करते हैं, अल्लाह उनको उससे ज़्यादा नेक बना देता है। (2) उनके काम में जो कमियाँ रह जाती हैं, या नेक बनने की कोशिश के बावजूद जो गुनाह उनसे हो जाते हैं, अल्लाह उनको अनदेखा करता है और (3) जो थोड़े-से नेक कामों की पूँजी वे लेकर आते हैं, अल्लाह उसपर उनकी क़द्र करता है और उन्हें ज़्यादा इनाम देता है।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗاۖ فَإِن يَشَإِ ٱللَّهُ يَخۡتِمۡ عَلَىٰ قَلۡبِكَۗ وَيَمۡحُ ٱللَّهُ ٱلۡبَٰطِلَ وَيُحِقُّ ٱلۡحَقَّ بِكَلِمَٰتِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 22
(24) क्या ये लोग कहते हैं कि इस शख़्स ने अल्लाह पर झूठा बोहतान (आरोप) गढ़ लिया है?43 अगर अल्लाह चाहे तो तुम्हारे दिल पर ठप्पा लगा दे।44 वह बातिल (असत्य) को मिटा देता है और हक़ (सत्य) को अपने फ़रमानों से हक़ कर दिखाता है।45 सीनों में छिपे हुए राज़ तक जानता है।46
43. इस सवालिया जुमले में सख़्त मलामत का अन्दाज़ पाया जाता है। मतलब यह है कि ऐ नबी, क्या ये लोग इस क़द्र निडर और बेख़ौफ़ है कि तुम जैसे शख़्स पर झूठ बोलने का इलज़ाम और वह भी अल्लाह के बारे में झूठ बोलने जैसी घिनौनी हरकत का इलज़ाम रखते हुए इन्हें ज़रा शर्म नहीं आती? ये तुमपर झूठा इलज़ाम लगाते हैं कि तुम इस क़ुरआन को ख़ुद गढ़कर झूठ-मूठ अल्लाह की तरफ़ जोड़ते हो?
44. यानी इतने बड़े झूठ सिर्फ़ वही लोग बोला करते हैं जिनके दिलों पर मुहर लगी हुई है। अगर अल्लाह चाहे तो तुम्हें भी उनमें शामिल कर दे। मगर उसकी यह मेहरबानी है कि उसने तुम्हें जो इस गरोह से अलग रखा है। इस जवाब में उन लोगों पर तीखा तंज़ (व्यंग्य) है जो नबी (सल्ल०) पर यह इलज़ाम रख रहे थे। मतलब यह है कि ऐ नबी, इन लोगों ने तुम्हें भी अपनी तरह का आदमी समझ लिया है। जिस तरह ये ख़ुद अपने फ़ायदों के लिए हर बड़े-से-बड़ा झूठ बोल जाते हैं, इन्होंने समझा कि तुम भी उसी तरह अपनी दुकान चमकाने के लिए एक झूठ गढ़ लाए हो। लेकिन यह अल्लाह की मेहरबानी है कि उसने तुम्हारे दिल पर वह मुहर नहीं लगाई है जो इनके दिलों पर लगा रखी है।
45. यानी यह अल्लाह की आदत है कि वह बातिल (झूठ) को कभी पाएदारी नहीं बख़्शता और आख़िरकार हक़ को हक़ ही करके दिखा देता है, इसलिए ऐ नबी, तुम इन झूठे इलज़ामों की बिलकुल परवाह न करो और अपना काम किए जाओ। एक वक़्त आएगा कि यह सारा झूठ धूल की तरह उड़ जाएगा और जिस चीज़ को तुम पेश कर रहे हो, उसका हक़ (सही) होना ज़ाहिर हो जाएगा।
46. यानी ख़ुदा को मालूम है कि ये इलज़ाम तुमपर क्यों लगाए जा रहे हैं और यह सारी दौड़-धूप जो तुम्हें नीचा दिखाने के लिए की जा रही है, उसके पीछे हक़ीक़त में क्या मक़सद और क्या नीयतें काम कर रही हैं।
وَهُوَ ٱلَّذِي يَقۡبَلُ ٱلتَّوۡبَةَ عَنۡ عِبَادِهِۦ وَيَعۡفُواْ عَنِ ٱلسَّيِّـَٔاتِ وَيَعۡلَمُ مَا تَفۡعَلُونَ ۝ 23
(25) वही है जो अपने बन्दों से तौबा क़ुबूल करता है और बुराइयों को अनदेखा करता है, हालाँकि तुम लोगों के सब कर्मों को वह जानता है।47
47. पिछली आयत के ठीक बाद तौबा पर उभारने से ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात निकलती है कि ज़ालिमो, सच्चे नबी पर ये झूठे इलज़ाम रखकर क्यों अपने आपको और ज़्यादा ख़ुदा के अज़ाब का हक़दार बनाते हो, अब भी अपनी ये हरकतें छोड़ दो और तौबा कर लो तो अल्लाह माफ़ कर देगा। तौबा का मतलब यह है कि आदमी अपने किए पर शर्मिन्दा हो, जिस बुराई को वह कर बैठा है या करता रहा है उससे रुक जाए और आगे से उसको न करे। इसके अलावा यह भी सच्ची तौबा का लाज़िमी तक़ाज़ा है कि जो बुराई किसी शख़्स ने पहले की है, उसकी भरपाई करने की वह अपनी हद तक पूरी कोशिश करे और जहाँ भरपाई का कोई रास्ता मुमकिन न हो, वहाँ अल्लाह से माफ़ी माँगे और ज़्यादा-से-ज़्यादा नेकियाँ करके उस धब्बे को धोता रहे जो उसने अपने दामन पर लगा लिया है। लेकिन कोई तौबा उस वक़्त तक हक़ीक़ी तौबा नहीं है जब तक कि वह अल्लाह को राज़ी करने की नीयत से न हो। किसी दूसरी वजह या ग़रज़ से किसी बुरे काम का छोड़ देना सिरे से तौबा है ही नहीं।
وَيَسۡتَجِيبُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَيَزِيدُهُم مِّن فَضۡلِهِۦۚ وَٱلۡكَٰفِرُونَ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞ ۝ 24
(26) वह ईमान लानेवालों और भले काम करनेवालों की दुआ क़ुबूल करता है और अपनी मेहरबानी से उनको और ज़्यादा देता है। रहे इनकार करनेवाले, तो उनके लिए दर्दनाक सज़ा है।
۞وَلَوۡ بَسَطَ ٱللَّهُ ٱلرِّزۡقَ لِعِبَادِهِۦ لَبَغَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِن يُنَزِّلُ بِقَدَرٖ مَّا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرُۢ بَصِيرٞ ۝ 25
(27) अगर अल्लाह अपने सब बन्दों को खुली रोज़ी दे देता तो वे ज़मीन में सरकशी का तूफ़ान मचा देते, मगर वह एक हिसाब से जितना चाहता है, उतारता है। यक़ीनन वह अपने बन्दों से बाख़बर है और उनपर निगाह रखता है।48
48. बात के जिस सिलसिले (क्रम) में यह बात कही गई है, उसे नज़र में रखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ अस्ल में अल्लाह तआला उस बुनियादी सबब की तरफ़ इशारा कर रहा है जो मक्का के इस्लाम मुख़ालिफ़ों की सरकशी में काम कर रहा था। अगरचे रोम और ईरान के मुक़ाबले में उनकी कोई हस्ती न थी और आस-पास की क़ौमों में वे एक पिछड़ी क़ौम के एक तिजारत-पेशा क़बीले, या दूसरे अलफ़ाज़ में, बंजारों से ज़्यादा हैसियत न रखते थे, मगर अपनी इस ज़रा-सी दुनिया में उनको दूसरे अरबों के मुक़ाबले में जो ख़ुशहाली और बड़ाई मिली हुई थी, उसने उनको इतना घमण्डी बना दिया था कि वे अल्लाह के नबी (सल्ल०) की बात पर कान धरने के लिए किसी तरह तैयार न थे और उनके क़बीलों के सरदार इसको अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते थे कि अब्दुल्लाह के बेटे मुहम्मद (सल्ल०) उनके पेशवा हों और वे उनकी पैरवी करें। इसी पर कहा जा रहा है कि अगर कहीं हम इन छोटे दिल के लोगों पर सचमुच रोज़ी के दरवाज़े खोल देते तो ये बिलकुल ही फट पड़ते, मगर हमने उन्हें देखकर ही रखा है और नाप-तौलकर हम उन्हें बस उतना ही दे रहे हैं जो उनको आपे से बाहर न होने दे। इस मानी के एतिबार से यह आयत दूसरे अलफ़ाज़ में वही बात कह रही है जो सूरा-9 तौबा, आयतें—68, 70; सूरा-18 कह्फ़, आयतें—32, 42; सूरा-28 क़सस, आयत-75, 82, सूरा-30 रूम, आयत-9; सूरा-34 सबा, आयतें—34, 36 और सूरा-10 मोमिन, आयतें—82, 85 में बयान हुई है।
وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِن وَلِيّٖ وَلَا نَصِيرٖ ۝ 26
(31) तुम ज़मीन में अपने ख़ुदा को आजिज़ (बेबस) कर देनेवाले नहीं हो और अल्लाह के मुक़ाबले में तुम कोई हिमायती और मददगार नहीं रखते।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِ ٱلۡجَوَارِ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 27
(32) उसकी निशानियों में से हैं ये जहाज़ जो समुद्रों में पहाड़ों की तरह नज़र आते हैं।
إِن يَشَأۡ يُسۡكِنِ ٱلرِّيحَ فَيَظۡلَلۡنَ رَوَاكِدَ عَلَىٰ ظَهۡرِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٍ ۝ 28
(33) अल्लाह जब चाहे हवा को ठहरा दे और ये समुद्रों की पीठ पर खड़े-के-खड़े रह जाएँ– इसमें बड़ी निशानियाँ हैं हर उस शख़्स के लिए जो बहुत ज़्यादा सब्र और शुक्र करनेवाला हो।53
53. 'सब्र करनेवाले' से मुराद वह शख़्स है जो अपने नफ़्स (मन) को क़ाबू में रखे और अच्छे और बुरे तमाम हालात में बन्दगी के रवैये पर साबित क़दम रहे। जिसका हाल यह न हो कि अच्छा वक़्त आए तो अपनी हस्ती को भूलकर ख़ुदा से बाग़ी और बन्दों के हक़ में ज़ालिम बन जाए और बुरा वक़्त आ जाए तो हिम्मत हार बैठे और हर नीच-से-नीच हरकत पर उतर आए। 'शुक्र करनेवाले' से मुराद वह शख़्स है जिसे अल्लाह की क़ुदरत चाहे कितना ही ऊँचा उठा ले जाए, वह उसे अपना कमाल नहीं, बल्कि अल्लाह का एहसान ही समझता रहे और वह चाहे कितना ही नीचे गिरा दिया जाए, उसकी निगाह उन चीज़ों के बजाय, जिन्हें वह नहीं पा सका, उन नेमतों पर ही लगी रहे जो बुरे-से-बुरे हालात में भी आदमी को हासिल रहती हैं और ख़ुशहाली और बदहाली दोनों हालतों में उसकी ज़बान और उसके दिल से अपने रब का शुक्र ही अदा होता रहे।
أَوۡ يُوبِقۡهُنَّ بِمَا كَسَبُواْ وَيَعۡفُ عَن كَثِيرٖ ۝ 29
(34) या (उनपर सवार होनेवालों के) बहुत-से गुनाहों को माफ़ करते हुए उनके कुछ ही करतूतों की सज़ा में उन्हें डुबो दे
وَيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ يُجَٰدِلُونَ فِيٓ ءَايَٰتِنَا مَا لَهُم مِّن مَّحِيصٖ ۝ 30
(35) और उस वक़्त हमारी आयतों में झगड़े करनेवालों को पता चल जाए कि उनके लिए पनाह लेने की कोई जगह नहीं है।54
54. क़ुरैश के लोगों को अपने तिजारती कारोबार के सिलसिले में हबशा और अफ़्रीक़ा के समन्दर के किनारे बसनेवाले इलाक़ों की तरफ़ भी जाना होता था और इन सफ़रों में वे बादबानी जहाज़ों और नावों पर लाल सागर से गुज़रते थे, जो एक बड़ा ख़तरनाक समन्दर है। इसमें अकसर तूफ़ान उठते रहते हैं और पानी के नीचे चट्टानें बहुत हैं, जिनसे तूफ़ान की हालत में टकरा जाने का अन्देशा होता है। इसलिए जिस कैफ़ियत का नक़्शा अल्लाह तआला ने यहाँ खींचा है, उसे क़ुरैश के लोग अपने निजी तजरिबों की रौशनी में पूरी तरह महसूस कर सकते थे।
فَمَآ أُوتِيتُم مِّن شَيۡءٖ فَمَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ وَأَبۡقَىٰ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَلَىٰ رَبِّهِمۡ يَتَوَكَّلُونَ ۝ 31
(36) जो कुछ भी तुम लोगों को दिया गया है, वह सिर्फ़ दुनिया की कुछ दिन की ज़िन्दगी का सरो-सामान है,55 और जो कुछ अल्लाह के यहाँ है वह बेहतर भी है और रहनेवाला भी।56 वह उन लोगों के लिए है जो ईमान लाए हैं और अपने रब पर भरोसा करते हैं,57
55. यानी यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसपर आदमी फूल जाए। बड़ी-से-बड़ी दौलत भी जो दुनिया में किसी को मिली है, एक थोड़ी-सी मुद्दत ही के लिए मिली है। कुछ साल वह उसको बरत लेता है और फिर सब कुछ छोड़कर दुनिया से ख़ाली हाथ रुख़सत हो जाता है। फिर वह दौलत भी चाहे बही खातों में कितनी ही बड़ी हो, अमली तौर पर उसका एक छोटा-सा हिस्सा ही आदमी के अपने इस्तेमाल में आता है। इस माल पर इतराना किसी ऐसे इनसान का काम नहीं है जो अपनी और इस धन-दौलत की और ख़ुद इस दुनिया की हक़ीक़त को समझता हो।
56. यानी वह दौलत अपनी क़िस्म और कैफ़ियत के लिहाज़ से भी आला दरजे की है और फिर वक़्ती और थोड़े दिनों की भी नहीं है, बल्कि हमेशा रहनेवाली और कभी ख़त्म न होनेवाली है।
57. अल्लाह पर तवक्कुल' (भरोसे) को यहाँ ईमान लाने का लाज़िमी तक़ाज़ा और आख़िरत की कामयाबी के लिए एक ज़रूरी सिफ़त ठहराया गया है। 'तवक्कुल' का मतलब यह है कि एक तो आदमी को अल्लाह तआला की रहनुमाई पर पूरा भरोसा हो और वह यह समझे कि हक़ीक़त का जो इल्म, अख़लाक़ के जो उसूल, हलाल और हराम की जो हदबन्दियाँ और दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए जो क़ायदे-क़ानून अल्लाह ने दिए हैं, वही सही हैं और उन्हीं की पैरवी में इनसान की भलाई है। दूसरा यह कि आदमी का भरोसा अपनी ताक़त, अपनी क़ाबिलियत, अपने ज़राए और वसाइल (साधन-संसाधन), अपनी तदबीरों और अल्लाह के सिवा दूसरों की मदद और मेहरबानी पर न हो, बल्कि वह पूरी तरह यह बात ज़ेहन में बिठाए रखे कि दुनिया और आख़िरत के हर मामले में उसकी कामयाबी का अस्ल दारोमदार अल्लाह के दिए हुए मौक़े और उसकी मदद पर है और अल्लाह के दिए हुए मौक़े और उसकी मदद का वह उसी सूरत में हक़दार हो सकता है, जबकि वह उसकी ख़ुशी को मक़सद बनाकर, उसकी मुक़र्रर की हुई हदों की पाबन्दी करते हुए काम करे। तीसरा यह कि आदमी को उन वादों पर पूरा भरोसा हो जो अल्लाह ने ईमान और नेक अमल का रवैया अपनानेवाले और बातिल (ग़लत) के बजाय हक़ (सही) के लिए काम करनेवाले बन्दों से किए हैं और इन्हीं वादों पर भरोसा करते हुए वह उन तमाम फ़ायदों और मुनाफ़ों और लज्ज़तों को लात मार दे जो बातिल की राह पर जाने की हालत में उसे हासिल होते नज़र आते हों और उन सारे नुक़सानों और तकलीफ़ों और न पा सकने के एहसास को बरदाश्त कर जाए जो हक़ पर डटे रहने की वजह से उसके नसीब में आएँ। 'तवक्कुल' के मतलब की इस तशरीह से यह बात साफ़ हो जाती है कि ईमान के साथ इसका कितना गहरा ताल्लुक़ है और उसके बिना जो ईमान सिर्फ़ ख़ाली-ख़ूली ज़बान से क़ुबूल करने की हद तक हो उससे वे शानदार नतीजे क्यों नहीं हासिल हो सकते जिनका वादा ईमान लाकर तवक्कुल करनेवालों से किया गया है।
وَٱلَّذِينَ يَجۡتَنِبُونَ كَبَٰٓئِرَ ٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡفَوَٰحِشَ وَإِذَا مَا غَضِبُواْ هُمۡ يَغۡفِرُونَ ۝ 32
(37) जो बड़े-बड़े गुनाहों और बेशर्मी के कामों से परहेज़ करते हैं58 और अगर ग़ुस्सा आ जाए तो माफ़ कर देते हैं,59
58. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिए—53, 54; सूरा-6 अनआम, हाशिए—130, 131; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-89 और सूरा-53 नज्म, आयत-32।
59. यानी वे ग़ुस्सैल और झुंझला जानेवाले नहीं होते, बल्कि नर्म मिज़ाज और धीमे लहजे में बात करनेवाले लोग होते हैं, उनकी फ़ितरत इन्तिक़ामी (बदला लेने की) नहीं होती, बल्कि वे ख़ुदा के बन्दों की ग़लतियों को अनदेखा कर देने और उन्हें माफ़ कर देने का रवैया अपनाते हैं और किसी बात पर ग़ुस्सा आ भी जाता है तो उसे पी जाते हैं। यह सिफ़त इनसान की बेहतरीन ख़ूबियों में से है, जिसे क़ुरआन मजीद में बहुत ही क़ाबिले-तारीफ़ ठहराया गया है। (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-34) और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की कामयाबी की बड़ी वजहों में गिना गया है (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-159) । हदीस में हज़रत आइशा (रज़ि०) का बयान है कि “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने कभी अपने ख़ुद के लिए इन्तिक़ाम नहीं लिया। अलबत्ता जब अल्लाह की हुर्मतों (हराम ठहराए हुए कामों या मुहतरम ठहराई हुई चीज़ों) में से किसी की ख़िलाफ़वर्ज़ी, बेअदबी और रुसवाई की जाती तब आप (सल्ल०) सज़ा देते थे।"
وَٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِرَبِّهِمۡ وَأَقَامُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَأَمۡرُهُمۡ شُورَىٰ بَيۡنَهُمۡ وَمِمَّا رَزَقۡنَٰهُمۡ يُنفِقُونَ ۝ 33
(38) जो अपने रब का हुक्म मानते हैं,60 नमाज़ क़ायम करते हैं, अपने मामले आपस के मशवरे से चलाते हैं,61 हमने जो कुछ भी रिज़्क़ उन्हें दिया है, उसमें से ख़र्च करते हैं62
60. लफ़्जी तर्जमा होगा, “अपने रब की पुकार पर लब्बैक कहते हैं, यानी जिस काम के लिए भी अल्लाह बुलाता है, उसके लिए दौड़ पड़ते हैं और जिस चीज़ की भी अल्लाह दावत देता है, उसे क़ुबूल करते हैं।
61. इस चीज़ को यहाँ ईमानवालों की बेहतरीन ख़ूबियों में गिना गया है और सूरा-3 आले-इमरान (आयत-159) में इसका हुक्म दिया गया है। इस वजह से मशवरा करना ज़िन्दगी गुज़ारने के इस्लामी तरीक़े में एक अहम सुतून है और मशवरे के बिना इजतिमाई काम चलाना न सिर्फ़ जाहिलियत का तरीक़ा है, बल्कि अल्लाह के मुक़र्रर किए हुए क़ानून की खुली ख़िलाफ़वर्ज़ी है। मशवरे को इस्लाम में यह अहमियत क्यों दी गई है? इसकी वजहों पर अगर ग़ौर किया जाए तो तीन बातें साफ़ तौर पर हमारे सामने आती हैं। एक यह कि जिस मामले का ताल्लुक़ दो या ज़्यादा आदमियों के फ़ायदे से हो, उसमें किसी एक शख़्स का अपनी राय से फ़ैसला कर डालना और दूसरे आदमी को जिसका उस मामले से ताल्लुक़ हो नज़रअन्दाज़ कर देना ज़्यादती है। ऐसे मामलों में किसी को अपनी मनमानी चलाने का हक़ नहीं है जिनका ताल्लुक़ कई लोगों से हो। इनसाफ़ का तक़ाज़ा यह है कि एक मामला जितने लोगों के फ़ायदे से ताल्लुक़ रखता हो उसमें उन सबकी राय ली जाए और अगर वह किसी बहुत बड़ी तादाद के बारे में हो तो उनके भरोसे के नुमाइन्दों को मशवरे में शरीक किया जाए। दूसरी यह कि इनसान मुश्तरक (संयुक्त) मामलों में अपनी मनमानी चलाने की कोशिश या तो इस वजह से करता है कि वह अपने निजी फ़ायदों के लिए दूसरों का हक़ मारना चाहता है, या फिर इसकी वजह यह होती है कि वह अपने आपको बड़ी चीज़ और दूसरों को कमतर समझता है। अख़लाक़ी हैसियत से ये दोनों ही बातें नापसन्दीदा और बुरी हैं और ईमानवाले के अन्दर इनमें से किसी बात का निशान भी नहीं पाया जा सकता। ईमानवाला न ख़ुदग़रज़ होता है कि दूसरों के हक़ों को मारकर ख़ुद नाजाइज़ फ़ायदा उठाना चाहे और न वह घमण्डी और ख़ुदपसन्द होता है कि अपने आप ही को सबसे बड़ा अक़्लमन्द और सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला समझे। तीसरी यह कि जिन मामलों का ताल्लुक़ दूसरों के हक़ों और फ़ायदों से हो, उनमें फ़ैसला करना एक बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी है। कोई शख़्स जो ख़ुदा से डरता हो और यह जानता हो कि उसकी कितनी सख़्त जवाबदेही उसे अपने रब के सामने करनी पड़ेगी, कभी इस भारी बोझ को अकेले अपने सर लेने की जुरअत नहीं कर सकता। इस तरह की जुरअतें सिर्फ़ वही लोग करते हैं जो ख़ुदा से निडर और आख़िरत से बेफ़िक्र होते हैं। ख़ुदा से डरनेवाला और आख़िरत की पूछ-गछ का एहसास रखनेवाला आदमी तो हर हाल में यह कोशिश करेगा कि एक मुश्तरक मामला जिन-जिन से भी ताल्लुक़ रखता हो उन सबको, या उनके भरोसे के नुमाइन्दों को उसका फ़ैसला करने के मशवरे में शरीक करे, ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा सही और बेलाग और इनसाफ़ के साथ फ़ैसला किया जा सके और अगर अनजाने में कोई ग़लती हो भी जाए तो अकेले किसी एक ही आदमी पर इसकी ज़िम्मेदारी न आ पड़े। ये तीन वजहें ऐसी हैं जिनपर अगर आदमी ग़ौर करे तो उसकी समझ में यह बात अच्छी तरह आ सकती है कि इस्लाम जिस अख़लाक़ की इनसान को तालीम देता है, मशवरा उसका लाज़िमी तक़ाज़ा है और इससे मुँह मोड़ना एक बहुत बड़ी अख़लाक़ी बुराई है, जिसकी इस्लाम कभी इजाज़त नहीं दे सकता। इस्लामी ज़िन्दगी का तरीक़ा यह चाहता है कि सलाह-मशवरे का उसूल हर छोटे-बड़े इजतिमाई मामले में बरता जाए। घर के मामले हों तो उनमें मियाँ-बीवी आपस में मशवरा करें और बच्चे जब जवान हो जाएँ तो उन्हें भी मशवरे में शरीक किया जाए। ख़ानदान के मामले हों तो उनमें ख़ानदान के सब समझदार लोगों की राय ली जाए। एक क़बीले या बिरादरी या बस्ती के मामले हों और सब लोगों का शरीक होना मुमकिन न हो, तो उनका फ़ैसला कोई ऐसी पंचायत या मजलिस करे जिसमें उससे जुड़े तमाम लोगों के भरोसेमन्द ऐसे नुमाइन्दे शरीक हों जिनको सब लोगों ने एक राय होकर चुना हो। एक पूरी क़ौम के मामलात हों तो उनके चलाने के लिए क़ौम का लीडर सबकी मरज़ी से मुक़र्रर किया जाए और वह क़ौमी मामलों को ऐसे सही राय रखनेवाले लोगों के मशवरे से चलाए जिनको क़ौम भरोसे के क़ाबिल समझती हो और वह उसी वक़्त तक सरदार रहे जब तक क़ौम ख़ुद उसे अपना सरदार बनाए रखना चाहे। कोई ईमानदार आदमी ज़बरदस्ती क़ौम का सरदार बनने और बने रहने की ख़ाहिश या कोशिश नहीं कर सकता, न यह धोखा दे सकता है कि पहले ताक़त के बल पर क़ौम के सर पर सवार हो जाए और फिर ज़ोर-ज़बरदस्ती से लोगों की रज़ामन्दी माँगे और न इस तरह की चालें चल सकता है कि उसको मशवरा देने के लिए लोग अपनी आज़ाद मरज़ी से अपनी पसन्द के नुमाइन्दे नहीं, बल्कि वे नुमाइन्दे चुनें जो उसकी मरज़ी के मुताबिक़ राय देनेवाले हों। ऐसी हर ख़ाहिश सिर्फ़ उस मन में पैदा होती है जो नीयत की ख़राबी में मुब्तला हो और इस ख़ाहिश के साथ 'अमरुहुम शूरा बैनहुम' (अपने मामले आपस के मशवरे से चलाते हैं) की ज़ाहिरी शक्ल बनाने और उसकी हक़ीक़त ग़ायब कर देने की कोशिशें सिर्फ़ वही शख़्स कर सकता है जिसे ख़ुदा और बन्दों दोनों को धोखा देने में कोई झिझक न हो, हालाँकि न ख़ुदा धोखा खा सकता है और न दुनिया ही इतनी अंधी हो सकती है कि कोई आदमी दिन की रौशनी में खुल्लम-खुल्ला डाका मार रहा हो और वह सच्चे दिल से यह समझती रहे कि वह डाका नहीं मार रहा है, बल्कि लोगों की ख़िदमत कर रहा है। 'अमरुहुम शूरा बैनहुम' (अपने मामले आपस के मशवरे से चलाते हैं) का क़ायदा ख़ुद अपनी क़िस्म और फ़ितरत के लिहाज़ से पाँच बातों का तक़ाज़ा करता है— एक, यह कि इजतिमाई मामले जिन लोगों के हक़ों और फ़ायदों से ताल्लुक़ रखते हैं, उन्हें राय ज़ाहिर करने की पूरी आज़ादी हासिल हो और वे इस बात से पूरी तरह बाख़बर रखे जाएँ कि उनके मामले हक़ीक़त में किस तरह चलाए जा रहे हैं और उन्हें इस बात का भी पूरा हक़ हासिल हो कि अगर वे अपने मामलों के चलाए जाने में कोई ग़लती या कोताही देखें तो उसपर टोक सकें, उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठा सकें और सुधार होता न देखें तो ज़िम्मेदारों को बदल सकें। लोगों का मुँह बन्द करके और उनके हाथ-पाँव कसकर और उनको बेख़बर रखकर उनके इजतिमाई मामलात चलाना खुली बेईमानी है, जिसे कोई शख़्स भी, 'अमरुहुम शूरा बैनहुम' के उसूल की पैरवी नहीं मान सकता। दूसरी, यह कि इजतिमाई मामलों को चलाने की ज़िम्मेदारी जिस शख़्स पर भी डालनी हो उसे लोगों की मरज़ी से मुक़र्रर किया जाए और यह रज़ामन्दी उनको पूरी आज़ादी देते हुए ली गई हो। ज़ोर-ज़बरदस्ती से हासिल की हुई, या लालच से ख़रीदी हुई, या धोखे और छल और मक्कारियों से खसोटी हुई रज़ामन्दी हक़ीक़त में रज़ामन्दी नहीं है। एक क़ौम का सही सरदार वह नहीं होता जो हर मुमकिन तरीक़े से कोशिश करके उसका सरदार बने, बल्कि वह होता है जिसको लोग अपनी ख़ुशी और पसन्द से अपना सरदार बनाएँ। तीसरी, यह कि सरदार को मशवरा देने के लिए भी वे लोग मुक़र्रर किए जाएँ जिनको क़ौम का भरोसा हासिल हो और ज़ाहिर बात है कि ऐसे लोग कभी सही मानी में हक़ीक़ी भरोसेमन्द नहीं ठहराए जा सकते जो दबाव डालकर, या माल से ख़रीदकर, या झूठ और चालबाज़ी से काम लेकर, या लोगों को गुमराह करके सरदारी का मक़ाम हासिल करें। चौथी, यह कि मशवरा देनेवाले अपने इल्म और ईमान और ज़मीर (अन्तरात्मा) के मुताबिक़ राय दें और इस तरह की अपनी राय देने की उन्हें पूरी आज़ादी हासिल हो। यह बात जहाँ न हो, जहाँ मशवरा देनेवाले किसी लालच या डर की वजह से, या किसी जत्थेबन्दी में कसे हुए होने की वजह से ख़ुद अपने इल्म और ज़मीर के ख़िलाफ़ राय दें, वहाँ हक़ीक़त में ख़ियानत (ग़बन) और ग़द्दारी होगी, न कि 'अमरुहुम शूरा बैनहुम' की पैरवी। पाँचवीं, यह कि जो मशवरा, मशवरा देनेवालों के इत्तिफ़ाक़े-राय (सर्वसहमति) से दिया जाए, या जिसे उनके जमहूर (बहुमत) की ताईद हासिल हो, उसे माना जाए, क्योंकि अगर एक आदमी या एक टोला सबकी सुनने के बाद अपनी मनमानी करने का मुख़्तार हो तो मशवरा करना बिलकुल बेमतलब हो जाता है। अल्लाह तआला यह नहीं फ़रमा रहा है कि “उनके मामलों में उनसे मशवरा लिया जाता है", बल्कि यह फ़रमा रहा है कि “उनके मामले आपस के मशवरे से चलते हैं।” इस हुक्म पर अमल सिर्फ़ मशवरा ले लेने से नहीं हो जाता, बल्कि इसके लिए ज़रूरी है कि मशवरा लेने के अमल में इत्तिफ़ाक़े-राय या बहुमत से जो बात तय हो, उसी के मुताबिक़ मामलात चलें। इस्लाम में मशवरे के उसूल की इस वज़ाहत के साथ यह बुनियादी बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि यह शूरा मुसलमानों के मामलों को चलाने में पूरी तरह आज़ाद और तमाम अधिकारों की मालिक नहीं है, बल्कि लाज़िमन उस दीन की हदों और पाबन्दियों में क़ैद है जो अल्लाह तआला ने ख़ुद अपनी शरीअत से मुक़र्रर किया है और इस बुनियादी उसूल की पाबन्द है कि “तुम्हारे बीच जिस मामले में भी रायें अलग-अलग हों उसका फ़ैसला करना अल्लाह का काम है।” और “तुम्हारे बीच जो झगड़ा भी हो उसमें अल्लाह और रसूल की तरफ़ रुजू करो।” इस उसूल के मुताबिक़ मुसलमान शरई मामलों में इस बात पर तो मशवरा कर सकते हैं कि किसी 'नस्स' (क़ुरआन या हदीस के हुक्म) का सही मतलब क्या है और उसपर अमल किस तरीक़े से किया जाए, ताकि उसका मंशा ठीक तरह से पूरा हो, लेकिन इस ग़रज़ से कोई मशवरा नहीं कर सकते कि जिस मामले का फ़ैसला अल्लाह और उसके रसूल ने कर दिया हो, उसमें आज़ाद होकर वे ख़ुद कोई फ़ैसला करें।
62. इसके तीन मतलब हैं— एक, यह कि जो हलाल रोज़ी हमने उन्हें दी है उसी में से ख़र्च करते हैं, अपने ख़र्च पूरे करने के लिए हराम माल पर हाथ नहीं मारते। दूसरा, यह कि जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसको सहेज-सहेजकर नहीं रखते, बल्कि उसे ख़र्च करते हैं। तीसरा, यह कि जो कुछ रिज़्क़ (धन-दौलत) उन्हें दिया गया है, उसमें से ख़ुदा की राह में भी ख़र्च करते हैं, सब कुछ अपने ही निज़ी इस्तेमाल के लिए नहीं रख लेते। पहले मतलब की बुनियाद यह है कि अल्लाह तआला सिर्फ़ हलाल और पाक 'रिज़्क़' ही को “अपना दिया हुआ रिज़्क़” कहता है, नापाक और हराम तरीक़ों से कमाए हुए रिज़्क़ को वह अपना रिज़क़ नहीं कहता। दूसरे मतलब की बुनियाद यह है कि अल्लाह तआला जो रिज़्क़ इनसान को देता है वह ख़र्च करने के लिए देता है, सहेज-सहेजकर रखने और उसपर ख़ज़ाने का साँप बनकर बैठ जाने के लिए नहीं देता और तीसरे मतलब की बुनियाद यह है कि ख़र्च करने से मुराद क़ुरआन मजीद में सिर्फ़ अपने आपपर और अपनी ज़रूरतों पर ही ख़र्च कर देना नहीं है, बल्कि इसके मानी में अल्लाह की राह में ख़र्च करना भी शामिल है। इन्हीं तीन वजहों से अल्लाह तआला ख़र्च करने को यहाँ ईमानवालों की उन बेहतरीन ख़ूबियों में गिन रहा है जिनकी बुनियाद पर आख़िरत की भलाइयाँ उन्हीं के लिए ख़ास कर दी गई हैं।
وَٱلَّذِينَ إِذَآ أَصَابَهُمُ ٱلۡبَغۡيُ هُمۡ يَنتَصِرُونَ ۝ 34
(39) और जब उनपर ज़्यादती की जाती है तो उसका मुक़ाबला करते हैं63
63. यह भी ईमानवालों की बेहतरीन ख़ूबियों में से है। वे ज़ालिमों और जब्बारों (दमनकारियों के लिए नर्म चारा नहीं होते। उनकी नर्म मिज़ाजी और माफ़ कर देने की आदत कमज़ोरी की वजह से नहीं होती। उन्हें भिक्षुओं और राहिबों की तरह मिसकीन (दीन-हीन) बनकर रहना नहीं सिखाया गया है। उनकी शराफ़त का तक़ाज़ा यह है कि जब ग़ालिब हों तो अपने मातहतों के क़ुसूर माफ़ कर दें, जब बदला लेने के क़ाबिल हों तो बदला न लें और जब किसी मातहत या कमज़ोर आदमी से कोई ग़लती हो जाए तो उसे अनदेखा कर जाएँ, लेकिन जब कोई ताक़तवर अपनी ताक़त के घमण्ड में उनपर हमला करे तो डटकर खड़े हो जाएँ और उसके दाँत खट्टे कर दें। ईमानवाला कभी ज़ालिम से नहीं दबता और घमण्डी के आगे नहीं झुकता। इस तरह के लोगों के लिए वह लोहे का चना होता है, जिसे चबाने की कोशिश करनेवाला अपना ही जबड़ा तोड़ लेता है।
وَجَزَٰٓؤُاْ سَيِّئَةٖ سَيِّئَةٞ مِّثۡلُهَاۖ فَمَنۡ عَفَا وَأَصۡلَحَ فَأَجۡرُهُۥ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّهُۥ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 35
(40) बुराई64 का बदला वैसी ही बुराई है,65 फिर जो कोई माफ़ कर दे और सुधार करे उसका बदला अल्लाह के ज़िम्मे है66 अल्लाह ज़ालिमों को पसन्द नहीं करता।67
64. यहाँ से पैराग्राफ़ के आख़िर तक की पूरी इबारत पिछली आयत की तशरीह के तौर पर है।
65. यह पहला उसूली क़ायदा है, जिसका बदला लेने में ख़याल रखना ज़रूरी है। बदले की जाइज़ हद यह है कि जितनी बुराई किसी के साथ की गई हो, उतनी ही बुराई वह उसके साथ कर ले, उससे ज़्यादा बुराई करने का वह हक़ नहीं रखता।
66. यह दूसरा क़ायदा है। इसका मतलब यह है कि ज़्यादती करनेवाले से बदला लेना हालाँकि जाइज़ है, लेकिन जहाँ माफ़ कर देने से सुधार हो सकता हो, वहाँ सुधार के लिए बदला लेने के बजाय माफ़ कर देना ज़्यादा बेहतर है और चूँकि यह माफ़ी इनसान अपने दिल पर पत्थर रखकर देता है, इसलिए अल्लाह तआला फ़रमाता है कि इसका बदला हमारे ज़िम्मे है, क्योंकि तुमने बिगड़े हुए लोगों के सुधार की ख़ातिर यह कड़वा घूँट पिया है।
67. इस तंबीह (चेतावनी) में बदला लेने के बारे में एक तीसरे क़ायदे की तरफ़ इशारा किया गया है और वह यह है कि किसी आदमी को दूसरे के ज़ुल्म का बदला लेते-लेते ख़ुद ज़ालिम नहीं बन जाना चाहिए। एक बुराई के बदले में उससे बढ़कर बुराई कर गुज़रना जाइज़ नहीं है। मिसाल के तौर पर अगर कोई शख़्स किसी को एक थप्पड़ मारे तो वह उसे एक ही थप्पड़ मार सकता है। लात-घूसों की उसपर बारिश नहीं कर सकता। इसी तरह गुनाह का बदला गुनाह की सूरत में लेना दुरुस्त नहीं है। मिसाल के तौर पर किसी शख़्स के बेटे को अगर किसी ज़ालिम ने क़त्ल किया है तो उसके लिए यह जाइज़ नहीं है कि जाकर उसके बेटे को क़त्ल कर दे। या किसी आदमी की बहन या बेटी को अगर किसी कमीने इनसान ने ख़राब किया है तो उसके लिए यह जाइज़ नहीं हो जाएगा कि वह उसकी बेटी या बहन से बदकारी करे।
وَلَمَنِ ٱنتَصَرَ بَعۡدَ ظُلۡمِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ مَا عَلَيۡهِم مِّن سَبِيلٍ ۝ 36
(41) और जो लोग ज़ुल्म होने के बाद बदला लें, उनको बुरा नहीं कहा जा सकता,
إِنَّمَا ٱلسَّبِيلُ عَلَى ٱلَّذِينَ يَظۡلِمُونَ ٱلنَّاسَ وَيَبۡغُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 37
(42) बुरे कहे जाने के हक़दार तो वे हैं जो दूसरों पर ज़ुल्म करते हैं और ज़मीन में नाहक़ ज़्यादतियाँ करते हैं। ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक अज़ाब है।
وَلَمَن صَبَرَ وَغَفَرَ إِنَّ ذَٰلِكَ لَمِنۡ عَزۡمِ ٱلۡأُمُورِ ۝ 38
(43) अलबत्ता जो शख़्स सब्र से काम ले और माफ़ कर दे, तो यह बड़े हौसले के कामों में से है।68
68. वाज़ेह रहे कि इन आयतों में ईमानवालों की जो ख़ूबियाँ बयान की गई हैं वे उस वक़्त अमली तौर पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों की जिन्दगियों में मौजूद थीं और मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ अपनी आँखों से उनको देख रहे थे। इस तरह अल्लाह तआला ने अस्ल में इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को यह बताया है कि दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी गुज़ारने का जो सरो-सामान पाकर तुम आपे से बाहर हुए जाते हो, अस्ल दौलत वह नहीं है, बल्कि अस्ल दौलत यह अख़लाक़ और ख़ूबियाँ हैं जो क़ुरआन की रहनुमाई क़ुबूल करके तुम्हारे ही समाज के इन ईमानवालों ने अपने अन्दर पैदा की हैं।
وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن وَلِيّٖ مِّنۢ بَعۡدِهِۦۗ وَتَرَى ٱلظَّٰلِمِينَ لَمَّا رَأَوُاْ ٱلۡعَذَابَ يَقُولُونَ هَلۡ إِلَىٰ مَرَدّٖ مِّن سَبِيلٖ ۝ 39
(44) जिसको अल्लाह ही गुमराही में फेंक दे उसका कोई संभालनेवाला अल्लाह के बाद नहीं है।69 तुम देखोगे कि ये ज़ालिम जब अज़ाब देखेंगे तो कहेंगे, “अब पलटने का भी कोई रास्ता है?"70
69. मतलब यह है कि अल्लाह ने क़ुरआन जैसी बेहतरीन किताब इन लोगों की हिदायत के लिए भेजी जो निहायत मुनासिब और बहुत ही असरदार और दिलनशीं (मनमोहक) तरीक़े से इनको हक़ीक़त का इल्म दे रही है और ज़िन्दगी का सही रास्ता बता रही है। मुहम्मद (सल्ल०) जैसा नबी इनकी रहनुमाई के लिए भेजा, जिससे बेहतर सीरत और किरदार का आदमी कभी उनकी निगाहों ने न देखा था और इस किताब और इस रसूल की तालीम और तरबियत के नतीजे भी अल्लाह ने ईमान लानेवालों की ज़िन्दगियों में उन्हें आँखों से दिखा दिए। अब अगर कोई आदमी यह सब कुछ देखकर भी हिदायत से मुँह मोड़ता है तो अल्लाह फिर उसी गुमराही में उसे फेंक देता है जिससे निकलने का वह ख़ाहिशमन्द नहीं है और जब अल्लाह ही ने उसे अपने दरवाज़े से धुत्कार दिया तो अब कौन यह ज़िम्मा ले सकता है कि उसे सीधे रास्ते पर ले आएगा।
70. यानी आज जबकि पलट आने का मौक़ा है, ये पलटने से इनकार कर रहे हैं। कल जब फ़ैसला हो चुकेगा और सज़ा का हुक्म लागू हो जाएगा, उस वक़्त अपनी शामत देखकर ये चाहेंगे कि अब इन्हें पलटने का मौक़ा मिले।
وَتَرَىٰهُمۡ يُعۡرَضُونَ عَلَيۡهَا خَٰشِعِينَ مِنَ ٱلذُّلِّ يَنظُرُونَ مِن طَرۡفٍ خَفِيّٖۗ وَقَالَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِنَّ ٱلۡخَٰسِرِينَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَأَهۡلِيهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَآ إِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ فِي عَذَابٖ مُّقِيمٖ ۝ 40
(45) और तुम देखोगे कि यह जहन्नम के सामने जब लाए जाएँगे तो रुसवाई के मारे झुके जा रहे होंगे और उसको नज़र बचा-बचाकर कनखियों से देखेंगे।71 उस वक़्त वे लोग जो ईमान लाए थे कहेंगे कि सचमुच अस्ल घाटा उठानेवाले वही हैं जिन्होंने आज क़ियामत के दिन अपने आपको और अपने रिश्तेदारों को घाटे में डाल दिया। ख़बरदार रहो, ज़ालिम लोग हमेशा रहनेवाले अज़ाब में होंगे।
71. इनसान का क़ायदा है कि जब कोई हौलनाक मंज़र उसके सामने होता है और वह जान रहा होता है कि जल्द ही वह उस बला के चंगुल में आनेवाला है जो सामने नज़र आ रही है, तो पहले तो डर के मारे वह आँखें बन्द कर लेता है। फिर उससे रहा नहीं जाता। देखने की कोशिश करता है कि वह बला कैसी है और अभी उससे कितनी दूर है। लेकिन इसकी भी हिम्मत नहीं पड़ती कि सर उठाकर निगाह भरकर उसे देखे। इसलिए वह बार-बार ज़रा-सी आँखें खोलकर उसे कनखियों से देखता है और फिर डर के मारे आँखें बन्द कर लेता है। जहन्नम की तरफ़ जानेवालों की इसी कैफ़ियत का नक़्शा इस आयत में खींचा गया है।
وَمَا كَانَ لَهُم مِّنۡ أَوۡلِيَآءَ يَنصُرُونَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِۗ وَمَن يُضۡلِلِ ٱللَّهُ فَمَا لَهُۥ مِن سَبِيلٍ ۝ 41
(46) और उनके कोई हिमायती और सरपरस्त न होंगे जो अल्लाह के मुक़ाबले में उनकी मदद को आएँ। जिसे अल्लाह गुमराही में फेंक दे, उसके लिए बचाव का कोई रास्ता नहीं।
ٱسۡتَجِيبُواْ لِرَبِّكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ يَوۡمٞ لَّا مَرَدَّ لَهُۥ مِنَ ٱللَّهِۚ مَا لَكُم مِّن مَّلۡجَإٖ يَوۡمَئِذٖ وَمَا لَكُم مِّن نَّكِيرٖ ۝ 42
(47) मान लो अपने रब की बात इससे पहले कि वह दिन आए जिसके टलने की कोई सूरत अल्लाह की तरफ़ से नहीं है।72 उस दिन तुम्हारे लिए पनाह लेने की कोई जगह न होगी और न कोई तुम्हारे हाल को बदलने की कोशिश करनेवाला होगा।73
72. यानी न अल्लाह ख़ुद उसे टालेगा और न किसी दूसरे में यह ताक़त है कि उसे टाल सके।
73. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'मा-लकुम-मिन्नकीर'। इस जुमले के कई मतलब और भी हैं। एक यह कि तुम अपने करतूतों में से किसी का इनकार न कर सकोगे। दूसरा यह कि तुम भेस बदलकर कहीं छिप न सकोगे। तीसरा यह कि तुम्हारे साथ जो कुछ भी किया जाएगा उसकी तुम कोई मुख़ालफ़त और नाराज़ी का इज़हार न कर सकोगे। चौथा यह कि तुम्हारे बस में न होगा कि जिस हालत में तुम मुब्तला किए गए हो उसे बदल सको।
فَإِنۡ أَعۡرَضُواْ فَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ حَفِيظًاۖ إِنۡ عَلَيۡكَ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُۗ وَإِنَّآ إِذَآ أَذَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِنَّا رَحۡمَةٗ فَرِحَ بِهَاۖ وَإِن تُصِبۡهُمۡ سَيِّئَةُۢ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيهِمۡ فَإِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ كَفُورٞ ۝ 43
(48) अब अगर ये लोग मुँह मोड़ते हैं तो ऐ नबी, हमने तुमको उनपर निगहबान बनाकर तो नहीं भेजा है।74 तुमपर तो सिर्फ़ बात पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी है। इनसान का हाल यह है कि जब हम उसे अपनी रहमत का मज़ा चखाते हैं तो उसपर फूल जाता है और अगर उसके अपने हाथों का किया-धरा किसी मुसीबत की शक्ल में उसपर उलट पड़ता है तो सख़्त नाशुक्रा बन जाता है।75
74. यानी तुम्हारे ऊपर यह ज़िम्मेदारी तो नहीं डाली गई है कि तुम उन्हें ज़रूर सीधे रास्ते ही पर लाकर रहो और न इस बात की तुमसे कोई पूछ-गछ होनी है कि ये लोग क्यों सीधे रास्ते पर न आए।
75. इनसान से मुराद यहाँ वे छिछोरे और छोटे दिल के लोग हैं जिनका ऊपर से ज़िक्र चला आ रहा है। जिन्हें दुनिया का कुछ रिज़्क़ (धन-दौलत) मिल गया है तो उसपर फूले नहीं समाते और समझाकर सीधे रास्ते पर लाने की कोशिश की जाती है तो सुनकर नहीं देते। लेकिन अगर किसी वक़्त अपने ही करतूतों की बदौलत उनकी शामत आ जाती है तो क़िस्मत का रोना शुरू कर देते हैं और उन सारी नेमतों को भूल जाते हैं जो अल्लाह ने उन्हें दी हैं और कभी यह समझने की कोशिश नहीं करते कि जिस हालत में वे मुब्तला हुए हैं उसमें उनका अपना क्या क़ुसूर है। इस तरह न ख़ुशहाली उनके सुधार में मददगार होती है, न बदहाली ही उन्हें सबक़ देकर सीधे रास्ते पर ला सकती है। बात के सिलसिले को निगाह में रखा जाए तो मालूम हो जाता है कि अस्ल में यह उन लोगों के रवैये पर तंज़ (व्यंग्य) है जिनसे ऊपर की बात कही जा रही थी। मगर उनको मुख़ातब करके यह नहीं कहा गया कि तुम्हारा हाल यह है, बल्कि बात यूँ कही गई कि इनसान में आम तौर पर यह कमज़ोरी पाई जाती है और यही उसके बिगाड़ की अस्ल वजह है। इससे तबलीग़ (प्रचार) की हिकमत का यह पहलू हाथ आता है कि सामनेवाले की कमज़ोरियों पर सीधे-सीधे चोट नहीं करनी चाहिए, बल्कि आम अन्दाज़ में उनका ज़िक्र करना चाहिए, ताकि वह चिढ़ न जाए और उसके ज़मीर (दिल) में अगर कुछ भी ज़िन्दगी बाक़ी है तो ठण्डे दिल से अपनी ख़राबियों को समझने की कोशिश करे।
لِّلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ يَهَبُ لِمَن يَشَآءُ إِنَٰثٗا وَيَهَبُ لِمَن يَشَآءُ ٱلذُّكُورَ ۝ 44
(49) अल्लाह ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक है,76 जो कुछ चाहता है पैदा करता है, जिसे चाहता है लड़कियाँ देता है, जिसे चाहता है लड़के देता है,
76. यानी कुफ़्र और शिर्क की बेवक़ूफ़ी में जो लोग पड़े हैं, वे अगर समझाने से नहीं मानते तो न मानें, हक़ीक़त अपनी जगह हक़ीक़त है। ज़मीन और आसमान की बादशाही दुनिया के नाम के बादशाहों और ज़ालिमों और सरदारों के हवाले नहीं कर दी गई है, न किसी नबी या वली या देवी-देवता का इसमें कोई हिस्सा है, बल्कि इसका मालिक अकेला अल्लाह तआला है। उससे बग़ावत करनेवाला न अपने बल-बूते पर जीत सकता है, न उन हस्तियों में से कोई आकर उसे बचा सकती है, जिन्हें लोगों ने अपनी बेवक़ूफ़ी से उन अधिकारों का मालिक समझ रखा है जो सिर्फ़ अल्लाह के अधिकार हैं।
أَوۡ يُزَوِّجُهُمۡ ذُكۡرَانٗا وَإِنَٰثٗاۖ وَيَجۡعَلُ مَن يَشَآءُ عَقِيمًاۚ إِنَّهُۥ عَلِيمٞ قَدِيرٞ ۝ 45
(50) जिसे चाहता है लड़के और लड़कियाँ मिला-जुलाकर देता है, और जिसे चाहता है बाँझ कर देता है। वह सब कुछ जानता और हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।77
77. यह इस बात का एक खुला हुआ सुबूत है कि मुकम्मल बादशाही और अधिकार अल्लाह ही के पास है। कोई इनसान, चाहे वह बड़ी-से-बड़ी दुनियावी ताक़त का मालिक बना फिरता हो, या रूहानी ताक़त का मालिक समझा जाता हो कभी इतनी क़ुदरत और ताक़त उसको हासिल नहीं हो सकी है कि दूसरों को दिलवाना तो एक तरफ़, ख़ुद अपने यहाँ अपनी ख़ाहिश के मुताबिक़ औलाद पैदा कर सके। जिसे अल्लाह ने बाँझ कर दिया वह किसी दवा और किसी इलाज और किसी तावीज़-गण्डे से औलादवाला न बन सका, जिसे ख़ुदा ने लड़कियाँ-ही-लड़कियाँ दीं, वह एक बेटा भी किसी तदबीर से हासिल न कर सका और जिसे ख़ुदा ने लड़के-ही-लड़के दिए वह एक बेटी भी किसी तरह न पा सका। इस मामले में हर एक बिलकुल बेबस रहा है, बल्कि बच्चे की पैदाइश से पहले कोई यह तक मालूम न कर सका कि औरत के पेट में लड़का पल रहा है या लड़की। यह सब कुछ देखकर भी अगर कोई ख़ुदा की ख़ुदाई में तमाम अधिकारों का मालिक होने का दावा करे, या किसी दूसरी हस्ती को ख़ुदा के अधिकारों में हिस्सेदार समझे तो यह उसकी अपनी ही बेवक़ूफ़ी और नासमझी है जिसका ख़मियाज़ा वह ख़ुद भुगतेगा। किसी के अपनी जगह कुछ समझ बैठने से हक़ीक़त में ज़र्रा बराबर भी तबदीली नहीं होती।
۞وَمَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُكَلِّمَهُ ٱللَّهُ إِلَّا وَحۡيًا أَوۡ مِن وَرَآيِٕ حِجَابٍ أَوۡ يُرۡسِلَ رَسُولٗا فَيُوحِيَ بِإِذۡنِهِۦ مَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ عَلِيٌّ حَكِيمٞ ۝ 46
(51) किसी इनसान78 का यह मक़ाम नहीं है कि अल्लाह उससे आमने-सामने बात करे। उसकी बात या तो वह्य (इशारे) के तौर पर होती है,79 या परदे के पीछे से,80 या फिर वह कोई पैग़ाम पहुँचानेवाला (फ़रिश्ता) भेजता है और वह उसके हुक्म से जो कुछ चाहता है, वह्य करता है,81 वह सबसे बुलन्द और हिकमतवाला है।82
78. तक़रीर ख़त्म करते हुए उसी मज़मून (विषय) को फिर लिया गया है जो बात के शुरू में बयान हुआ था। बात को पूरी तरह समझने के लिए इस सूरा की पहली आयत और उसके हाशिए पर दोबारा एक नज़र डाल लीजिए।
79. यहाँ वह्य से मुराद है इलक़ा, इलहाम, दिल में कोई बात डाल देना, या ख़ाब में कुछ दिखा देना, जैसे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को दिखाया गया (सूरा-12 यूसुफ़, आयतें—4, 100; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-102)।
80. मुराद यह है कि बन्दा एक आवाज़ सुने, मगर बोलनेवाला उसे नज़र न आए, जिस तरह हज़रत मूसा (अलैहि०) के साथ हुआ कि तूर के दामन में एक पेड़ से यकायक उन्हें आवाज़ आनी शुरू हुई, मगर बोलनेवाला उनकी निगाह से ओझल था (सूरा-20 ता-हा, आयतें—11 से 48; सूरा-27 नम्ल, आयतें—8 12; सूरा-28 क़सस, आयतें—30 से 35)।
81. यह वह्य के आने की वह शक्ल है जिसके ज़रिए से तमाम आसमानी किताबें नबियों (अलैहि०) तक पहुँची हैं। कुछ लोगों ने इस जुमले का ग़लत मतलब निकालकर इसका मतलब यह बताया है कि “अल्लाह कोई रसूल भेजता है जो उसके हुक्म से आम लोगों तक उसका पैग़ाम पहुँचाता है।” लेकिन क़ुरआन के अलफ़ाज़ “फ़-यूहि-य बिइज़निही मा यशाउ” (फिर वह वह्य करता है उसके हुक्म से जो कुछ वह चाहता है) उनके इस मतलब का ग़लत होना बिलकुल वाज़ेह कर देते हैं। आम इनसानों के सामने नबियों की तबलीग़ और दावत को 'वह्य करना' न क़ुरआन में कहीं कहा गया है और न अरबी ज़बान में इनसान की इनसान से खुल्लम-खुल्ला बातचीत को 'वह्य' कहने की कोई गुंजाइश है। डिक्शनरी में वह्य का मतलब ही ‘छिपा हुआ और तेज़ इशारा' है। नबियों की तबलीग़ (प्रचार) को वह्य सिर्फ़ वही आदमी कह सकता है जो अरबी ज़बान से बिलकुल अनजान हो।
82. यानी वह इससे बहुत बाला व बरतर है कि किसी इनसान से आमने-सामने बात करे और उसकी हिकमत इससे बेबस नहीं है कि अपने किसी बन्दे तक अपनी हिदायतें पहुँचाने के लिए आमने-सामने बातचीत करने के सिवा कोई और तदबीर निकाल ले।
وَكَذَٰلِكَ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ رُوحٗا مِّنۡ أَمۡرِنَاۚ مَا كُنتَ تَدۡرِي مَا ٱلۡكِتَٰبُ وَلَا ٱلۡإِيمَٰنُ وَلَٰكِن جَعَلۡنَٰهُ نُورٗا نَّهۡدِي بِهِۦ مَن نَّشَآءُ مِنۡ عِبَادِنَاۚ وَإِنَّكَ لَتَهۡدِيٓ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 47
(52) और इसी तरह (ऐ नबी) हमने अपने हुक्म से एक रूह तुम्हारी तरफ़ वह्य की है।83 तुम्हें कुछ पता न था कि किताब क्या होती है और ईमान क्या होता है,84 मगर उस रूह को हमने एक रौशनी बना दिया जिससे हम रास्ता दिखाते हैं अपने बन्दों में से जिसे चाहते हैं। यक़ीनन तुम सीधे रास्ते की तरफ़ रहनुमाई कर रहे हो,
83. 'इसी तरह' से मुराद सिर्फ़ आख़िरी तरीक़ा नहीं है, बल्कि वे तीनों तरीक़े हैं जो ऊपर की आयतों में बयान हुए हैं और 'रूह' से मुराद वह्य, या वह तालीम है जो वह्य के ज़रिए से नबी (सल्ल०) को दी गई। यह बात क़ुरआन और हदीस दोनों से साबित है कि नबी (सल्ल०) को इन तीनों तरीक़ों से हिदायतें दी गई हैं— (1) हदीस में हज़रत आइशा (रज़ि०) का बयान है कि नबी (सल्ल०) पर वह्य आने की शुरुआत ही सच्चे ख़ाबों से हुई थी (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। यह सिलसिला बाद में भी जारी रहा है, चुनाँचे हदीसों में आपके बहुत-से ख़ाबों का ज़िक्र मिलता है जिनमें आपको कोई तालीम दी गई है या किसी बात की ख़बर दी गई है और क़ुरआन मजीद में भी आप (सल्ल०) के एक ख़ाब का साफ़ तौर से ज़िक्र आया है (सूरा-48 फ़तह, आयत-27)। इसके अलावा कई हदीसों में यह ज़िक्र भी आया है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि फ़ुलाँ बात मेरे दिल में डाली गई है, या मुझे यह बताया गया है, या मुझे यह हुक्म दिया गया है, या मुझे इससे मना किया गया है। ऐसी तमाम चीज़ें वह्य की पहली क़िस्म से ताल्लुक़ रखती हैं और क़ुदसी हदीसें भी ज़्यादा तर इसी दायरे में आती हैं। (2) मेराज के मौक़े पर नबी (सल्ल०) को वह्य की दूसरी क़िस्म से भी नवाज़ा गया। कई सहीह हदीसों में नबी (सल्ल०) पाँच वक़्तों की नमाज़ का हुक्म दिए जाने और नबी (सल्ल०) के उसपर बार-बार दरख़ास्त करने का ज़िक्र जिस तरह आया है, उससे साफ़ मालूम होता है कि उस वक़्त अल्लाह और उसके बन्दे मुहम्मद (सल्ल०) के बीच वैसी ही बातचीत हुई थी जैसी तूर पहाड़ के आँचल में हज़रत मूसा (अलैहि०) और अल्लाह तआला के बीच हुई। (3) रही तीसरी क़िस्म, तो उसके बारे में क़ुरआन ख़ुद ही गवाही देता है कि उसे जिबरील अमीन के ज़रिए से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तक पहुँचाया गया है (सूरा-2 बक़रा, आयत-97; सूरा-26 शुअरा, आयतें—192 से 195)।
84. यानी पैग़म्बर बनाए जाने से पहले कभी नबी (सल्ल०) के ज़ेहन में यह ख़याल तक न आया था कि उनको कोई किताब मिलनेवाली है या मिलनी चाहिए, बल्कि आप (सल्ल०) सिरे से आसमानी किताबों और उनमें बयान की गई बातों के बारे में कुछ जानते ही न थे। इसी तरह आप (सल्ल०) को अल्लाह पर ईमान तो ज़रूर हासिल था, मगर आप (सल्ल०) न शुऊरी तौर पर अच्छी तरह इस तफ़सील से वाक़िफ़ थे कि इनसान को अल्लाह के बारे में क्या-क्या बातें माननी चाहिएँ और न आप (सल्ल०) को यह मालूम था कि इसके साथ फ़रिश्तों और नुबूवत (पैग़म्बरी) और अल्लाह की किताबों और आख़िरत के बारे में भी बहुत-सी बातों का मानना ज़रूरी है। ये दोनों बातें ऐसी थीं जो ख़ुद मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों से भी छिपी हुई न थीं। मक्का का कोई शख़्स यह गवाही न दे सकता था कि उसने पैग़म्बरी के अचानक एलान से पहले कभी नबी (सल्ल०) की ज़बान से अल्लाह की किताब का कोई ज़िक्र सुना हो, या आपसे इस तरह की कोई बात सुनी हो कि लोगों को फ़ुलाँ-फ़ुलाँ चीज़ों पर ईमान लाना चाहिए। ज़ाहिर बात है कि अगर कोई आदमी पहले से ख़ुद नबी बन बैठने की तैयारी कर रहा हो तो उसकी यह हालत तो कभी नहीं हो सकती कि चालीस साल तक उसके साथ रात-दिन का मेल-जोल रखनेवाले उसकी ज़बान से अल्लाह की किताब और ईमान का लफ़्ज़ तक न सुनें और चालीस साल के बाद यकायक वह इन्हीं बातों पर धुआँधार तक़रीर करने लगे। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल- क़ुरआन; सूरा-28 क़सस, हाशिया-109)
صِرَٰطِ ٱللَّهِ ٱلَّذِي لَهُۥ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ أَلَآ إِلَى ٱللَّهِ تَصِيرُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 48
(53) उस ख़ुदा के रास्ते की तरफ़ जो ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का मालिक है। ख़बरदार रहो, सारे मामले अल्लाह ही की तरफ़ पलटते हैं।85
85. यह आख़िरी तंबीह (चेतावनी) है जो हक़ के इनकारियों को दी गई। इसका मतलब यह है कि नबी (सल्ल०) ने कहा और तुमने सुनकर रद्द कर दिया, इसपर बात ख़त्म नहीं हो जानी है। दुनिया में जो कुछ हो रहा है, वह सब अल्लाह के सामने पेश होना है और आख़िरकार उसी के दरबार से यह फ़ैसला होना है कि किसका क्या अंजाम होना चाहिए।
وَمَا ٱخۡتَلَفۡتُمۡ فِيهِ مِن شَيۡءٖ فَحُكۡمُهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِۚ ذَٰلِكُمُ ٱللَّهُ رَبِّي عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ ۝ 49
(10) तुम्हारे13 बीच जिस मामले में भी इख़्तिलाफ़ (मतभेद) हो, उसका फ़ैसला करना अल्लाह का काम है।14 वही अल्लाह15 मेरा रब है, उसी पर मैंने भरोसा किया और उसी की तरफ़ मैं रुजू करता हूँ।16
13. इस पूरे पैराग्राफ़ की इबारत अगरचे अल्लाह तआला की तरफ़ से वह्य है, लेकिन इसमें बात करनेवाला अल्लाह तआला नहीं है, बल्कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं। मानो अल्लाह तआला अपने नबी को हिदायत दे रहा है कि तुम यह एलान करो। इस तरह की बातें क़ुरआन मजीद में कहीं तो“क़ुल” (ऐ नबी, कहो) से शुरू होती हैं और कहीं इसके बिना ही शुरू हो जाती हैं, सिर्फ़ बात का अन्दाज़ बता देता है कि यहाँ बात करनेवाला अल्लाह नहीं, बल्कि अल्लाह का रसूल है, बल्कि कुछ जगहों पर तो कलाम अल्लाह का होता है और बात करनेवाले ईमानवाले होते हैं, जैसे मसलन सूरा-1 फ़ातिहा में है, या बात करनेवाले फ़रिश्ते होते हैं, जैसे मसलन सूरा-19 मरयम, आयतें—64, 65 में है।
14. यह अल्लाह तआला के सारी कायनात का मालिक होने और हक़ीक़ी वली (सरपरस्त) होने का फ़ितरी और मंतिक़ी (तार्किक) तक़ाज़ा है। जब बादशाह और वली वही है तो ज़रूर ही फिर हाकिम भी वही है और इनसानों के आपसी झगड़ों और इख़्तिलाफ़ों का फ़ैसला करना भी उसी का काम है। उसको जो लोग सिर्फ़ आख़िरत के लिए ख़ास समझते हैं, वे ग़लती करते हैं। कोई दलील इस की नहीं है कि अल्लाह की यह हाकिमाना हैसियत इस दुनिया के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ मौत के बाद की ज़िन्दगी के लिए है। इस तरह जो लोग इस दुनिया में सिर्फ़ अक़ीदों और कुछ ‘मज़हबी' मामलों तक उसे महदूद ठहराते हैं, वे भी ग़लती पर हैं। क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ आम हैं और वे साफ़-साफ़ बिना किसी शर्त के तमाम झगड़ों और इख़्तिलाफ़ों में अल्लाह को फ़ैसला करने का अस्ल हक़दार ठहरा रहे हैं। उनके मुताबिक़ अल्लाह जिस तरह आख़िरत का 'मालिकि-यौमुद्दीन' (हिसाब के दिन का मालिक) है, उसी तरह इस दुनिया का भी 'अहकमुल-हाकिमीन' (सब हाकिमों से बड़ा हाकिम) है और जिस तरह वह अक़ीदे के बारे में पैदा होनेवाले इख़्तिलाफ़ात में यह तय करनेवाला है कि हक़ (सही) क्या है और बातिल (ग़लत) क्या, ठीक उसी तरह क़ानूनी हैसियत से भी वही यह तय करनेवाला है कि इनसान के लिए पाक क्या है और नापाक क्या, जाइज़ और हलाल क्या है और हराम और मकरूह (नापसन्द) क्या? अख़लाक़ में बुराई और भौंडापन क्या है और नेकी और ख़ूबी क्या, मामलात में किसका क्या हक़ है और क्या नहीं है, समाज, रहन-सहन, सियासत और मईशत (आर्थिकता) में कौन-से तरीक़े दुरुस्त हैं और कौन-से ग़लत। आख़िर इसी बुनियाद पर तो क़ुरआन में यह बात क़ानूनी उसूल के तौर पर लिख दी गई है कि “फिर अगर किसी बात पर तुममें झगड़ा हो जाए तो उसे अल्लाह और रसूल की तरफ़ फेर दो।" (सूरा-4 निसा, आयत-59) और “किसी ईमानवाले मर्द और किसी ईमानवाली औरत को यह हक़ नहीं है कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी मामले का फ़ैसला कर दे तो फिर उसे अपने उस मामले में ख़ुद फ़ैसला करने का अधिकार हासिल रहे।”(सूरा-33 अहज़ाब, आयत-36) और “जो कुछ तुम्हारे रब की तरफ़ से उतारा गया है उसकी पैरवी करो और उसे छोड़कर दूसरे सरपरस्तों की पैरवी न करो।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-3) फिर जिस मौक़ा-महल में यह आयत आई है उसके अन्दर यह एक और मानी भी दे रही है और वह यह है कि इख़्तिलाफ़ात का फ़ैसला करना अल्लाह तआला का सिर्फ़ क़ानूनी हक़ ही नहीं है, जिसके मानने या न मानने पर आदमी के ग़ैर-ईमानवाला और ईमानवाला होने का दारोमदार है, बल्कि अल्लाह हक़ीक़त में अमली तौर पर भी हक़ और बातिल का फ़ैसला कर रहा है जिसकी बदौलत बातिल (असत्य) और उसके पुजारी आख़िरकार तबाह होते हैं और हक़ और उसके चाहनेवाले कामयाब किए जाते हैं, चाहे इस फ़ैसले के लागू होने में दुनियावालों को कितनी ही देर होती नज़र आती हो। यह बात आगे आयत-24 में भी आ रही है और इससे पहले क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर गुज़र चुकी है (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-13 रअद, हाशिए—34, 60; सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—26, 34 से 40; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-100; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—15 से 18, 44 से 46)
15. यानी जो इख़्तिलाफ़ात (मतभेदों) का फ़ैसला करनेवाला अस्ल हाकिम है।
16. ये बातें दो हालतों के लिहाज़ से बयान हुई हैं। एक को गुज़रे हुए ज़माने (Past Tense) की हालत में बयान किया गया है और दूसरी को मौजूदा ज़माने (Present Tense) की शक्ल में जिसमें लगातार और मुसलसल होने (Continuity) का मानी पाया जाता है। गुज़रे हुए ज़माने की शक्ल में कहा, “मैंने उसी पर भरोसा किया,” यानी एक बार मैंने हमेशा-हमेशा के लिए फ़ैसला कर लिया कि जीते जी मुझे उसी की मदद, उसी की रहनुमाई, उसी की हिमायत और हिफ़ाज़त और उसी के फ़ैसले पर भरोसा करना है। फिर मौजूदा हालत की शक्ल में कहा, “मैं उसी की तरफ़ रुजू करता हूँ,” यानी जो मामला भी मुझे अपनी ज़िन्दगी में पेश आता है, मैं उसमें अल्लाह ही की तरफ़ रुजू किया करता हूँ। कोई मुसीबत, तकलीफ़ या मुश्किल पेश आती है तो किसी की तरफ़ नहीं देखता, उससे मदद माँगता हूँ। कोई ख़तरा पेश आता है तो उसकी पनाह ढूँढ़ता हूँ और उसकी हिफ़ाज़त पर भरोसा करता हूँ। कोई मसला सामने आता है तो उससे रहनुमाई माँगता हूँ और उसी की तालीम और हिदायत में उसका हल या हुक्म तलाश करता हूँ और किसी से झगड़ा होता है तो उसी की तरफ़ देखता हूँ कि उसका आख़िरी फ़ैसला वही करेगा और यक़ीन रखता हूँ कि जो फ़ैसला भी वह करेगा, वही सही होगा।
وَهُوَ ٱلَّذِي يُنَزِّلُ ٱلۡغَيۡثَ مِنۢ بَعۡدِ مَا قَنَطُواْ وَيَنشُرُ رَحۡمَتَهُۥۚ وَهُوَ ٱلۡوَلِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 50
(28) वही है जो लोगों के मायूस हो जाने के बाद मेंह बरसाता है और अपनी रहमत फैला देता है और वही क़ाबिले-तारीफ़ सरपरस्त है49
49. यहाँ 'वली' से मुराद वह हस्ती है जो अपनी पैदा की हुई सारी चीज़ों के मामलों की देखभाल करनेवाली है, जिसने अपने बन्दों की ज़रूरतें पूरी करने का ज़िम्मा ले रखा है।
وَمِنۡ ءَايَٰتِهِۦ خَلۡقُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَثَّ فِيهِمَا مِن دَآبَّةٖۚ وَهُوَ عَلَىٰ جَمۡعِهِمۡ إِذَا يَشَآءُ قَدِيرٞ ۝ 51
(29) उसकी निशानियों में से है यह ज़मीन और आसमानों की पैदाइश और ये जानदार चीज़ें जो उसने दोनों जगह फैला रखी हैं।50 वह चाहे उन्हें इकट्ठा कर सकता है।51
50. यानी ज़मीन में भी और आसमानों में भी। यह खुला इशारा है इस तरफ़ कि ज़िन्दगी सिर्फ़ ज़मीन पर ही नहीं पाई जाती, बल्कि दूसरे सय्यारों (ग्रहों) में भी जानदार मौजूद हैं।
51. यानी जिस तरह वह उन्हें फैला देने की क़ुदरत रखता है, उसी तरह वह उन्हें इकट्ठा कर लेने की भी क़ुदरत रखता है। लिहाजा यह समझना ग़लत है कि क़ियामत नहीं आ सकती और तमाम पहले और आख़िर के लोगों को एक वक़्त में उठाकर इकट्ठा नहीं किया जा सकता।
وَمَآ أَصَٰبَكُم مِّن مُّصِيبَةٖ فَبِمَا كَسَبَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَيَعۡفُواْ عَن كَثِيرٖ ۝ 52
(30) तुमपर जो मुसीबत भी आई है, तुम्हारे अपने हाथों की कमाई से आई है और बहुत-से क़ुसूरों को तो वह वैसे ही अनदेखा कर जाता है।52
52. वाज़ेह रहे कि यहाँ तमाम इनसानी मुसीबतों की वजह बयान नहीं की जा रही है, बल्कि बात का रुख़ उन लोगों की तरफ़ है जो उस वक़्त मक्का में (ख़ुदा के साथ) कुफ़ और उसकी नाफ़रमानी का जुर्म कर रहे थे। उनसे कहा जा रहा है कि अगर अल्लाह तुम्हारे सारे क़ुसूरों पर पकड़ करता तो तुम्हें जीता न छोड़ता, लेकिन ये मुसीबतें जो तुमपर उतरी हैं (शायद इशारा है मक्का के क़हत और अकाल की तरफ़), ये सिर्फ़ ख़बरदार करने के लिए हैं, ताकि तुम होश में आओ और अपने आमाल का जाइज़ा लेकर देखो कि अपने रब के मुक़ाबले में तुमने क्या रवैया अपना रखा है और यह समझने की कोशिश करो कि जिस ख़ुदा से तुम बग़ावत कर रहे हो, उसके मुक़ाबले में तुम कितने बेबस हो और यह जानो कि जिन्हें तुम अपना सरपरस्त और कारसाज़ बनाए बैठे हो, या जिन ताक़तों पर तुमने भरोसा कर रखा है, वे अल्लाह की पकड़ से बचाने में तुम्हारे किसी काम नहीं आ सकतीं। और ज़्यादा वज़ाहत के लिए यह बता देना ज़रूरी है कि जहाँ तक मुख़लिस (सच्चे) ईमानवाले का ताल्लुक़ है, उसके लिए अल्लाह का क़ानून इससे अलग है। उसपर जो तकलीफ़ें और मुसीबतें भी आती हैं, वे सब उसके गुनाहों और ग़लतियों और कोताहियों का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) बनती चली जाती हैं। सहीह हदीस में है कि पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) ने फ़रमाया, "मुसलमान को जो रंज और दुख और फ़िक्र और ग़म और तकलीफ़ और परेशानी भी पेश आती है, यहाँ तक कि एक काँटा भी अगर उसको चुभता है तो अल्लाह उसको उसकी किसी-न-किसी ग़लती का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) बना देता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) रहीं वे मुसीबतें जो अल्लाह की राह में उसका कलिमा बुलन्द करने के लिए कोई ईमानवाला बरदाश्त करता है तो वे सिर्फ़ ग़लतियों का कफ़्फ़ारा ही नहीं होतीं, बल्कि अल्लाह के यहाँ दर्ज़ों में तरक़्क़ी का ज़रिआ भी बनती हैं। उनके बारे में यह समझने की कोई गुंजाइश नहीं है कि वे मुसीबतें गुनाहों की सज़ा के तौर पर आती हैं।