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سُورَةُ مُحَمَّدٍ

47. मुहम्मद

(मदीना में उतरी, आयतें 38)

परिचय

नाम

आयत 2 के वाक्यांश ‘व आमिनू बिमा नुज़्ज़ि-ल अला मुहम्मदिन' (उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर उतरी है) से लिया गया है। तात्पर्य यह है कि यह वह सूरा है जिसमें  मुहम्मद (सल्ल०) का शुभ नाम आया है। इसके अतिरिक्त इसका एक और मशहूर नाम क़िताल' (युद्ध) भी है जो आयत 20 के वाक्यांश ‘व जुकि-र फ़ीहल क़िताल' (जिसमें युद्ध का उल्लेख था) से लिया गया है।

इसकी विषय-वस्तुएँ इस बात की गवाही देती हैं कि यह हिजरत के बाद मदीना में उस समय उतरी थी, जब युद्ध का आदेश तो दिया जा चुका था, लेकिन व्यावहारिक रूप से अभी युद्ध शुरू नहीं हुआ था। इसका विस्तृत प्रमाण आगे टिप्पणी 8 में मिलेगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस कालखंड में यह सूरा उतरी है, उस समय परिस्थिति यह थी कि मक्का मुअज़्ज़मा में विशेष रूप से और अरब भू-भाग में सामान्य रूप से हर जगह मुसलमानों को ज़ुल्म और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा था और उनका जीना दूभर कर दिया गया था। मुसलमान हर ओर से सिमटकर मदीना तय्यिबा के शान्ति-गृह में इकट्ठा हो गए थे, मगर क़ुरैश के इस्लाम-विरोधी यहाँ भी उनको चैन से बैठने देने के लिए तैयार न थे। मदीने की छोटी-सी बस्ती हर ओर से शत्रुओं के घेरे में थी और वे उसे मिटा देने पर तुले हुए थे। मुसलमानों के लिए ऐसी स्थिति में दो ही रास्ते शेष बचे थे। या तो वे सत्य-धर्म की ओर बुलावे और उसके प्रचार-प्रसार ही से नहीं, बल्कि उसके अनुपालन तक से हाथ खींचकर अज्ञानता के आगे हथियार डाल दें। या फिर मरने-मारने के लिए उठ खड़े हों और सिर-धड़ की बाज़ी लगाकर हमेशा के लिए इस बात का फ़ैसला कर दें कि अरब भू-भाग में इस्लाम को रहना है या अज्ञान को। अल्लाह ने इस अवसर पर मुसलमानों को उसी दृढ़ संकल्प और साहस का रास्ता दिखाया जो ईमानवालों के लिए एक ही राह है। उसने पहले सूरा-22 हज (आयत 39) में उनको युद्ध की अनुज्ञा दी, फिर सूरा-2 बक़रा (आयत 190) में इसका आदेश दे दिया। मगर उस समय हर व्यक्ति जानता था कि इन परिस्थितियों में युद्ध का अर्थ क्या है। मदीना में ईमानवालों का एक मुट्ठी भर जन-समूह था, जो पूरे एक हज़ार सैनिक भी जुटा पाने की क्षमता न रखता था, और उससे कहा जा रहा था कि सम्पूर्ण अरब के अज्ञान से टकरा जाने के लिए खड़ा हो जाए। फिर युद्ध के लिए जिन साधनों की जरूरत थी, एक ऐसी बस्ती अपना पेट काटकर भी मुश्किल से वह जुटा सकती थी, जिसके अंदर सैकड़ों बे-घर-बार के मुहाजिर (हिजरत करनेवाले) अभी पूरी तरह से बसे भी न थे और चारों ओर से अरबवालों ने आर्थिक बहिष्कार करके उसकी कमर तोड़ रखी थी।

विषय और वार्ता

इसका विषय ईमानवालों को युद्ध के लिए तैयार करना और उनको इस सम्बन्ध में आरंभिक आदेश देना है। इसी पहलू से इसका नाम सूरा क़िताल (युद्ध) भी रखा गया है। इसमें क्रमश: नीचे की ये वार्ताएँ प्रस्तुत की गई हैं :

आरंभ में बताया गया है कि इस समय दो गिरोहों के बीच मुक़ाबला आ पड़ा है। एक गिरोह [सत्य के इंकारियों और अल्लाह के दुश्मनों का है। दूसरा गिरोह सत्य के माननेवालों का है।] अब अल्लाह का दो-टूक फ़ैसला यह है कि पहले गिरोह की तमाम कोशिशों और क्रिया-कलापों को उसने अकारथ कर दिया और दूसरे गिरोह की परिस्थितियाँ ठीक कर दीं। इसके बाद मुसलमानों को युद्ध सम्बन्धी प्रारम्भिक आदेश दिए गए हैं। उनको अल्लाह की सहायता और मार्गदर्शन का विश्वास दिलाया गया है। उनको अल्लाह की राह में क़ुर्बानियाँ करने पर बेहतरीन बदला पाने की आशा दिलाई गई है। फिर इस्लाम के शत्रुओं के बारे में बताया गया है कि वे अल्लाह के समर्थन और मार्गदर्शन से वंचित हैं। उनकी कोई चाल ईमानवालों के मुक़ाबले में सफल न होगी और वे इस दुनिया में भी और आख़िरत (परलोक) में भी बहुत बुरा अंजाम देखेंगे। इसके बाद वार्ता का रुख़ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की ओर फिर जाता है जो लड़ाई का हुक्म आने से पहले तो बड़े मुसलमान बने फिरते थे, मगर यह हुक्म आ जाने के बाद अपनी कुशल-क्षेम की चिन्ता में इस्लाम विरोधियों से सांँठ-गाँठ करने लगे थे। उनको साफ़-साफ़ सचेत किया गया है कि अल्लाह और उसके दीन के मामले में निफ़ाक़ (कपट) अपनानेवालों का कोई कर्म भी अल्लाह के यहाँ स्वीकार्य नहीं है। फिर मुसलमानों को उभारा गया है कि वे अपनी अल्प संख्या और साधनहीनता और इस्लाम-विरोधियों की अधिक संख्या और उनके साज-सामान की अधिकता देखकर साहस न छोड़ें, उनके आगे समझौते की पेशकश करके कमज़ोरी प्रकट न करें जिससे उनके दुस्साहस इस्लाम और मुसलमानों के मुक़ाबले में और अधिक बढ़ जाएँ। बल्कि अल्लाह के भरोसे पर उठें और कुफ़्र (अधर्म) के उस पहाड़ से टकरा जाएँ। अल्लाह मुसलमानों के साथ है। अन्त में मुसलमानों को अल्लाह के रास्ते में ख़र्च करने की दावत (आमंत्रण) दी गई है। यद्यपि उस समय मुसलमानों की आर्थिक दशा बहुत दयनीय थी किन्तु सामने समस्या यह खड़ी थी कि अरब में इस्लाम और मुसलमानों को ज़िन्दा रहना है या नहीं। इसलिए मुसलमानों से कहा गया कि इस समय जो व्यक्ति भी कंजूसी से काम लेगा, वह वास्तव में अल्लाह का कुछ न बिगाड़ेगा, बल्कि स्वयं अपने आप ही को तबाही के ख़तरे में डाल लेगा।

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سُورَةُ مُحَمَّدٍ
47. मुहम्मद
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ أَضَلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ
(1) जिन लोगों ने कुफ़्र किया1 और अल्लाह के रास्ते से रोका,2 अल्लाह ने उनके आमाल को अकारथ कर दिया।3
1. यानी उस तालीम और हिदायत को मानने से इनकार कर दिया जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे थे।
2. अस्ल अरबी में 'सद्‍दू अन सबीलिल्लाह' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। इसलिए इन अलफ़ाज़ का मतलब यह भी है कि वे ख़ुद अल्लाह के रास्ते पर आने से बाज़ रहे, और यह भी कि उन्होंने दूसरों को इस राह पर आने से रोका। दूसरों को ख़ुदा की राह से रोकने की बहुत-सी शक्लें हैं। इसकी एक शक्त यह है कि आदमी ज़बरदस्ती किसी को ईमान लाने से रोक दे। दूसरी शक्ल यह है कि वह ईमान लानेवालों पर ऐसा ज़ुल्म और सितम ढाए कि उनके लिए ईमान पर क़ायम रहना और दूसरों के लिए ऐसे भयानक हालात में ईमान लाना मुश्किल हो जाए। तीसरी शक्ल यह है कि वह अलग-अलग तरीक़ों से दीन और दीनवालों के ख़िलाफ़ लोगों को बहकाए और ऐसे ग़लत ख़यालात दिलों में डाले जिससे लोग इस दीन से बदगुमान हो जाएँ। इसके अलावा हर ग़ैर-मुस्लिम इस मतलब के लिहाज़ से अल्लाह की राह से रोकनेवाला है कि वह अपनी औलाद को कुफ़्र के तरीक़े पर पालता-पोसता है और फिर उसकी आनेवाली नस्ल के लिए बाप-दादा के दीन को छोड़कर इस्लाम क़ुबूल करना मुश्किल हो जाता है। इसी तरह हर ग़ैर-मुस्लिम समाज ख़ुदा के रास्ते में एक भारी पत्थर है, क्योंकि वह अपनी तालीम और तरबियत से, अपने इजतिमाई निज़ाम और रस्म व रिवाज से, और अपने तास्सुबों (पक्षपातों) से सच्चे दीन के फैलने में सख़्त रुकावटें डालता है।
3. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'अज़ल-ल आमा-लहुम' यानी उनके आमाल को भटका दिया, गुमराह कर दिया, अकारथ कर दिया। इन अलफ़ाज़ में बहुत-से मतलब पाए जाते हैं। इनका एक मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने उनसे यह बेहतरीन मौक़ा छीन लिया कि उनकी कोशिशें और मेहनतें सही रास्ते में लगें। अब वे जो कुछ भी करेंगे ग़लत मक़सदों के लिए ग़लत तरीक़ों ही से करेंगे, और उनकी तमाम कोशिश और जिद्दो-जुह्द हिदायत के बजाय गुमराही की राह में लगेगी। दूसरा मतलब यह है कि जो काम अपने नज़दीक वे भलाई के काम समझकर करते रहे हैं, मसलन काबा की देखभाल, हाजियों की ख़िदमत, मेहमानों की ख़ातिरदारी, रिश्तेदारों के साथ अच्छा सुलूक, और ऐसे ही दूसरे काम जिन्हें अरब में मज़हबी कामों और अख़लाक़ी ख़ूबिया में गिना जाता था, अल्लाह तआला ने उन सबको अकारथ कर दिया। उनका कोई बदला और सवाब उनको न मिलेगा, क्योंकि जब वे अल्लाह की तौहीद (एकेश्वरवाद) और सिर्फ़ उसी की इबादत का तरीक़ा अपनाने से इनकार करते हैं और दूसरों को भी इस राह पर आने से रोकते हैं तो उनका कोई अमल भी अल्लाह के यहाँ क़ुबूल नहीं हो सकता। तीसरा मतलब यह है कि हक़ की राह को रोकने और अपने कुफ़्रवाले मज़हब को अरब में ज़िन्दा रखने के लिए जो कोशिशें वे मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में कर रहे हैं, अल्लाह ने उनको अकारथ कर दिया। उनकी सारी तदबीरें अब सिर्फ़ एक बेनिशाने का तीर हैं। इन तदबीरों से वे अपने मक़सद को हरगिज़ न पहुँच सकेंगे।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَءَامَنُواْ بِمَا نُزِّلَ عَلَىٰ مُحَمَّدٖ وَهُوَ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّهِمۡ كَفَّرَ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَأَصۡلَحَ بَالَهُمۡ ۝ 1
(2) और जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने नेक काम किए और उस चीज़ को मान लिया जो मुहम्मद पर उतरी है4— और वह सरासर हक़ है उनके रब की तरफ़ से अल्लाह ने उनकी बुराइयाँ उनसे दूर कर दीं5 और उनका हाल दुरुस्त कर दिया।6
4. हालाँकि 'जो लोग ईमान लाए' कहने के बाद 'मान लिया उसे जो उतरी मुहम्मद पर' कहने की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती, क्योंकि ईमान लाने में मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) पर उतरनेवाली तालीमात (शिक्षाओं) पर ईमान लाना आप-से-आप शामिल है, लेकिन इसका अलग से ज़िक्र ख़ास तौर पर यह जताने के लिए किया गया है कि मुहम्मद (सल्ल०) के नबी बनाए जाने के बाद किसी शख़्स का ख़ुदा और आख़िरत और पिछले रसूलों और पिछली किताबों को मानना भी उस वक़्त तक फ़ायदेमन्द नहीं है जब तक कि वह आप (सल्ल०) को और आप (सल्ल०) की लाई हुई तालीमात को न मान ले। इस बात को साफ़-साफ़ बयान करना इसलिए ज़रूरी था कि हिजरत के बाद अब मदीना तय्यबा में उन लोगों से भी सामना था जो ईमान की दूसरी तमाम ज़रूरी बातों को तो मानते थे, मगर मुहम्मद (सल्ल०) को पैग़म्बर मानने से इनकार कर रहे थे।
5. इसके दो मतलब हैं: एक यह कि जाहिलियत के ज़माने में जो गुनाह उनसे हो गए थे, अल्लाह तआला ने वे सब उनके हिसाब से मिटा दिए। अब उन गुनाहों पर कोई पूछ-गछ उनसे न होगी। दूसरा मतलब यह है कि अक़ीदों और ख़यालात और अख़लाक़ और आमाल (कर्मों) की जिन ख़राबियों में वे मुब्तला थे, अल्लाह तआला ने वे उनसे दूर कर दीं। उनके ज़ेहन बदल गए। उनके अक़ीदे और ख़यालात बदल गए। उनकी आदतें और मिज़ाज़ बदल गए। उनकी सीरतें और उनके किरदार बदल गए। अब उनके अन्दर जाहिलियत की जगह ईमान है और बुरे कामों की जगह भले और अच्छे काम।
6. इसके भी दो मतलब हैं : एक यह कि पिछली हालत को बदलकर आगे के लिए अल्लाह ने का उनको सही रास्ते पर डाल दिया और उनकी ज़िन्दगियाँ सँवार दीं। और दूसरा मतलब यह कि जिस कमज़ोरी, बेबसी और मज़लूमी (दयनीयता) की हालत में वे अब तक मुब्तला थे, अल्लाह तआला ने उनको उससे निकाल दिया है। अब उसने ऐसे हालात उनके लिए पैदा कर दिए हैं जिनमें वे ज़ुल्म सहने के बजाय ज़ालिमों का मुक़ाबला करेंगे, ग़ुलाम और मातहत होकर रहने के बजाय अपनी ज़िन्दगी का निज़ाम ख़ुद आज़ादी के साथ चलाएँगे, और दूसरों के मातहत होकर रहने के बजाय ग़ालिब होकर रहेंगे।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱتَّبَعُواْ ٱلۡبَٰطِلَ وَأَنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّبَعُواْ ٱلۡحَقَّ مِن رَّبِّهِمۡۚ كَذَٰلِكَ يَضۡرِبُ ٱللَّهُ لِلنَّاسِ أَمۡثَٰلَهُمۡ ۝ 2
(3) यह इसलिए कि कुफ़्र (इनकार) करनेवालों ने बातिल (असत्य) की पैरवी की और ईमान लानेवालों ने उस हक़ की पैरवी की जो उनके रब की तरफ़ से आया है। इस तरह अल्लाह लोगों को उनकी ठीक-ठीक हैसियत बताए देता है7
7. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'कज़ालि-क यज़रिबुल्लाहु लिन्नासि अमसा-लहुम'। इस जुमले का लफ़्ज़ी तर्जमा तो यह है कि “इस तरह अल्लाह लोगों के लिए उनकी मिसालें देता है।” लेकिन इस लफ़्ज़ी तर्जमे से अस्ल मतलब वाज़ेह (साफ़) नहीं होता। अस्ल मतलब यह है कि अल्लाह इस तरह दोनों तरफ़वालों (पक्षों) को उनकी पोज़िशन ठीक-ठीक बताए देता है। एक गरोह बातिल (असत्य) की पैरवी पर अड़ा है, इसलिए अल्लाह ने उसकी सारी कोशिश और अमल को अकारथ कर दिया है। और दूसरे गरोह ने हक़ (सत्य) की पैरवी का रवैया अपनाया है, इसलिए अल्लाह ने उसको बुराइयों से पाक करके उसके हालात दुरुस्त कर दिए हैं।
فَإِذَا لَقِيتُمُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَضَرۡبَ ٱلرِّقَابِ حَتَّىٰٓ إِذَآ أَثۡخَنتُمُوهُمۡ فَشُدُّواْ ٱلۡوَثَاقَ فَإِمَّا مَنَّۢا بَعۡدُ وَإِمَّا فِدَآءً حَتَّىٰ تَضَعَ ٱلۡحَرۡبُ أَوۡزَارَهَاۚ ذَٰلِكَۖ وَلَوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ لَٱنتَصَرَ مِنۡهُمۡ وَلَٰكِن لِّيَبۡلُوَاْ بَعۡضَكُم بِبَعۡضٖۗ وَٱلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَلَن يُضِلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 3
(4) तो जब इन कुफ़्र करनेवालों (दुश्मनों) से तुम्हारी मुठभेड़ हो तो पहला काम गरदनें मारना है, यहाँ तक कि जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मज़बूत बाँधो, उसके बाद (तुम्हें अधिकार है) एहसान करो या फ़िदये का मामला कर लो, यहाँ तक कि लड़ाई अपने हथियार डाल दे।8 यह है तुम्हारे करने का काम। अल्लाह चाहता तो ख़ुद ही उनसे निमट लेता, मगर (यह तरीक़ा उसने इसलिए अपनाया है, ताकि तुम लोगों को एक-दूसरे के ज़रिए से आज़माए।9 और जो लोग अल्लाह की राह में मारे जाएँगे, अल्लाह उनके आमाल को हरगिज़ अकारथ न करेगा।10
8. इस आयत के अलफ़ाज़ से भी, और जिस मौक़े में यह आई है उससे भी यह बात साफ़ मालूम होती है कि यह लड़ाई का हुक्म आ जाने के बाद और लड़ाई शुरू होने से पहले उतरी है। 'जब कुफ़्र करनेवालों (दुश्मनों) से तुम्हारी मुठभेड़ हो' के अलफ़ाज़ इसकी दलील हैं कि अभी मुठभेड़ हुई नहीं है और उसके होने से पहले यह हिदायत दी जा रही है कि जब वह हो तो क्या करना चाहिए। आगे आयत-20 के अलफ़ाज़ इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यह सूरा उस ज़माने में उतरी थी जब सूरा-22 हज की आयत-39, और सूरा-2 बक़रा की आयत-190 में लड़ाई का हुक्म आ चुका था और इसपर डर के मारे मदीना के मुनाफ़िक़ और कमज़ोर ईमानवाले लोगों का हाल यह हो रहा था कि जैसे उनपर मौत छा गई हो। इसके अलावा सूरा-8 अनफ़ाल की आयतें—67 से 69 भी इस बात पर गवाह हैं कि यह आयत बद्र की जंग से पहले उतर चुकी थी। वहाँ कहा गया है— "किसी नबी के लिए यह सही नहीं है कि उसके पास क़ैदी हों जबतक कि वह ज़मीन में दुश्मनों को अच्छी तरह कुचल न दे। तुम लोग दुनिया के फ़ायदे चाहते हो, हालाँकि अल्लाह के सामने आख़िरत है और अल्लाह ग़ालिब और हिकमतवाला है। अगर अल्लाह का लेख पहले न लिखा जा चुका होता तो जो कुछ तुम लोगों ने लिया है उसके बदले में तुमको बड़ी सज़ा दी जाती। तो जो कुछ तुमने माल हासिल किया है उसे खाओ कि वह हलाल (वैध) और पाक है। इस इबारत और ख़ास तौर से इसके Underline किए हुए जुमलों पर ग़ौर करने से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इस मौक़े पर सज़ा जिस बात पर दी जा रही थी वह यह थी कि बद्र की जंग में दुश्मनों को अच्छी तरह कुचल देने से पहले मुसलमान दुश्मन के आदमियों को क़ैद करने में लग गए थे, हालाँकि जंग से पहले जो हिदायत सूरा-47 मुहम्मद, आयत-4 में उनको दी गई थी वह यह थी कि “जब तुम उनको अच्छी तरह कुचल दो तब क़ैदियों को मज़बूत बाँधो।” मगर चूँकि सूरा-47 मुहम्मद में मुसलमानों को क़ैदियों से फ़िदया लेने की इजाज़त पूरी तरह दी जा चुकी थी इसलिए बद्र की जंग के क़ैदियों से जो माल लिया गया उसे अल्लाह ने हलाल ठहराया और मुसलमानों को उसके लेने पर सज़ा न दी। 'अगर अल्लाह का लेख पहले न लिखा जा चुका होता' के अलफ़ाज़ इस बात की तरफ़ साफ़ इशारा कर रहे हैं कि इस घटना से पहले फ़िदया लेने की इजाज़त का हुक्म क़ुरआन में आ चुका था, और ज़ाहिर है कि क़ुरआन के अन्दर सूरा-47 मुहम्मद की इस आयत के सिवा कोई दूसरी आयत ऐसी नहीं है जिसमें यह हुक्म पाया जाता हो। इसलिए यह मानना पड़ेगा कि यह आयत सूरा-8 अनफ़ाल की ऊपर बयान की गई आयत से पहले उतर चुकी थी। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, हाशिया-49) यह क़ुरआन मजीद की पहली आयत है जिसमें जंग के क़ानून के बारे में शुरुआती हिदायतें दी गई हैं। इससे जो हुक्म निकलते हैं, और इसके मुताबिक़ नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रज़ि०) ने जिस तरह अमल किया है, और फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) ने इस आयत और नबी (सल्ल०) की सुन्नत से जो हुक्म निकाले हैं उनका ख़ुलासा यह है— (i) जंग में मुसलमानों की फ़ौज का अस्ल निशाना दुश्मन की जंगी ताक़त को तोड़ देना है, यहाँ तक कि उसमें लड़ने की ताक़त न रहे और जंग ख़त्म हो जाए। इस मक़सद से ध्यान हटाकर दुश्मन के आदमियों को गिरफ़्तार करने में न लग जाना चाहिए। क़ैदी पकड़ने की तरफ़ ध्यान उस वक़्त देना चाहिए जब दुश्मन को अच्छी तरह उखाड़ फेंका जाए और जंग के मैदान में उसके कुछ आदमी बाक़ी रह जाएँ। अरबवालों को यह हिदायत शुरू ही में इसलिए दे दी गई को कि वे कहीं फ़िदया हासिल करने, या ग़ुलाम जुटाने के लालच में पड़कर जंग के अस्ल मक़सद को भुला न बैठें। (ii) जंग में जो लोग गिरफ़्तार हों उनके बारे में कहा गया कि तुम्हें इख़्तियार है, चाहे उनपर एहसान करो, या उनसे फ़िदये का मामला कर लो। इससे आम क़ानून यह निकलता है कि जंगी क़ैदियों को क़त्ल न किया जाए। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), हसन बसरी, अता और हम्माद-बिन-अबी-सुलैमान (रह०) क़ानून के इसी आम होने की बात को लेते हैं, और यह अपनी जगह बिलकुल दुरुस्त है। वे कहते हैं कि आदमी को क़त्ल लड़ाई की हालत में किया जा सकता है। जब लड़ाई ख़त्म हो गई और क़ैदी हमारे क़ब्ज़े में आ गया तो उसे क़त्ल करना दुरुस्त नहीं है। इब्ने-जरीर और अबू-बक्र जस्सास (रह०) की रिवायत है कि हज्जाज-बिन-यूसुफ़ का ने जंगी क़ैदियों में से एक क़ैदी को हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) के हवाले किया और हुक्म दिया कि उसे क़त्ल कर दें। उन्होंने इनकार कर दिया और यह आयत पढ़कर कहा कि हमें क़ैद की हालत में किसी को क़त्ल करने का हुक्म नहीं दिया गया है। इमाम मुहम्मद (रह०) ने 'अस्सियरुल-कबीर' में भी एक वाक़िआ लिखा है कि अब्दुल्लाह-बिन-आमिर (रज़ि०) ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) को एक जंगी क़ैदी के क़त्ल का हुक्म दिया था और कि उन्होंने इसी वजह से उस हुक्म पर अमल करने से इनकार कर दिया था। (iii) मगर चूँकि इस आयत में क़त्ल की साफ़ मनाही भी नहीं की गई है, इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अल्लाह तआला के हुक्म का मंशा यह समझा और उसी पर अमल भी किया कि अगर कोई ख़ास वजह ऐसी हो जिसकी बुनियाद पर इस्लामी हुकूमत का हुक्मराँ किसी क़ैदी या कुछ क़ैदियों को क़त्ल की सज़ा देना ज़रूरी समझे तो वह ऐसा कर सकता है। यह आम क़ायदा नहीं है, बल्कि आम क़ायदे में एक अलग गुंजाइश है, जिसे ज़रूरत के मुताबिक़ ही इस्तेमाल किया जाएगा। चुनाँचे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बद्र की जंग के 70 क़ैदियों में से सिर्फ़ उक़बा-बिन-अबी-मुऐत और नज़्र-बिन-हारिस को क़त्ल की सज़ा दी। उहुद की जंग के क़ैदियों में से सिर्फ़ अबू-अज़्ज़ा शाइर को क़त्ल की सज़ा दी। बनी-क़ुरैज़ा ने चूँकि अपने-आपको हज़रत साद-बिन-मुआज़ (रज़ि०) के फ़ैसले पर हवाले किया था, और उनके अपने माने हुए हकम (पंच) का फ़ैसला यह था कि उनके मर्दों को क़त्ल कर दिया जाए, इसलिए नबी (सल्ल०) ने उनको क़त्ल करा दिया। ख़ैबर की जंग में जो लोग गिरफ़्तार हुए उनमें से सिर्फ़ किनाना-बिन-अबी-हुक़ैक़ को क़त्ल की सज़ा दी गई, क्योंकि उसने अह्द (समझौते) को तोड़ा था। मक्का की फ़तह के बाद नबी (सल्ल०) ने तमाम मक्कावालों में से सिर्फ़ कुछ ख़ास लोगों के बारे में हुक्म दिया कि उनमें से जो भी पकड़ा जाए, उसे क़त्ल की सज़ा दी जाए। इन कुछ वाक़िआत के सिवा नबी (सल्ल०) का आम तरीक़ा जंगी क़ैदियों को क़त्ल करने का कभी नहीं रहा। और यही अमल ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन का भी था। उनके ज़माने में भी जंगी क़ैदियों के क़त्ल की मिसालें कभी-कभार ही मिलती हैं और हर मिसाल में क़त्ल किसी ख़ास वजह से किया गया है। हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) ने भी ख़िलाफ़त (हुकूमत) के अपने पूरे दौर में सिर्फ़ एक जंगी क़ैदी को क़त्ल किया, और उसकी वजह यह थी कि उसने मुसलमानों को बहुत तक़लीफ़ें पहुँचाई थीं। इसी वजह से फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) में से ज़्यादातर इस बात को मानते हैं कि इस्लामी हुकूमत अगर ज़रूरत समझे तो क़ैदी को क़त्ल की सज़ा दे सकती है। लेकिन यह फ़ैसला करना हुकूमत का काम है। हर फ़ौजी इसका इख़्तियार नहीं रखता कि जिस क़ैदी को चाहे क़त्ल कर दे। अलबत्ता अगर क़ैदी के भाग जाने का या उससे किसी ख़तरनाक शरारत का अन्देशा हो जाए तो जिस आदमी को भी इस सूरते-हाल का सामना हो वह उसे क़त्ल कर सकता है। इस सिलसिले में इस्लामी फ़क़ीहों ने तीन बातों को और भी साफ़ कर दिया है। एक यह कि अगर क़ैदी इस्लाम क़ुबूल कर ले तो उसे क़त्ल नहीं किया जाएगा। दूसरी यह कि क़ैदी सिर्फ़ उसी वक़्त तक कत्ल किया जा सकता है जब तक वह हुकूमत के क़ब्ज़े में हो। बाँटे जाने या बेच दिए जाने की वजह से अगर वह किसी शख़्स की मिलकियत में जा चुका हो तो फिर उसे क़त्ल नहीं किया जा सकता। तीसरी यह कि क़ैदी को क़त्ल करना हो तो बस सीधी तरह कत्ल कर दिया जाए, अज़ाब देकर न मारा जाए। (iv) जंगी क़ैदियों के बारे में आम हुक्म जो दिया गया है वह यह है कि या उनपर एहसान करो, या फ़िदये (लेन-देन) का मामला कर लो। एहसान में चार चीज़े शामिल हैं : एक यह कि क़ैद की हालत में उनसे अच्छा बरताव किया जाए। दूसरी यह कि क़त्ल की सज़ा देने या उम्र-भर के लिए क़ैद करने के बजाय उनको ग़ुलाम बनाकर मुसलमानों के हवाले कर दिया जाए। तीसरी यह कि जिज़्‌या (टैक्स) लगाकर उनको ज़िम्मी बना लिया जाए। चौथी यह कि उनको बिना कुछ लिए रिहा कर दिया जाए। फ़िदये का मामला करने की तीन शक्लें हैं : एक यह कि पैसा लेकर उन्हें छोड़ा जाए। दूसरी यह कि रिहाई की शर्त के तौर पर उनसे कोई ख़ास काम लेने के बाद उन्हें छोड़ दिया जाए। जो दुश्मन के क़ब्ज़े में हों, उनका तबादला कर लिया जाए। इन सब अलग-अलग सूरतों पर नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रज़ि०) ने अलग-अलग वक़्तों में मौक़े के मुताबिक़ अमल किया है। ख़ुदा की शरीअत ने इस्लामी हुकूमत को किसी एक ही शक्ल का पाबन्द नहीं कर दिया है। हुकूमत जिस वक़्त जिस तरीक़े को सबसे ज़्यादा मुनासिब पाए उसपर अमल कर सकती है। (v) नबी (सल्ल०) और सहाबा (रज़ि०) के अमल से यह साबित है कि एक जंगी क़ैदी जब तक हुकूमत की क़ैद में रहे, उसका खाना-कपड़ा, और अगर वह बीमार या ज़ख़्मी हो तो उसका इलाज, हुकूमत के ज़िम्मे है। क़ैदियों को भूखा-नंगा रखना या उनको तकलीफ़ देना इस्लामी शरीअत में किसी तरह जाइज़ नहीं है। बल्कि इसके बरख़िलाफ़ अच्छा सुलूक और मेहरबानी व कुशादादिली के रवैये की हिदायत भी की गई है और अमली तौर पर भी इसकी मिसालें नबी (सल्ल०) की सुन्नत (फ़रमान और अमल) में मिलती हैं। बद्र की जंग के क़ैदियों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अलग-अलग सहाबा (रज़ि०) के घरों में बाँट दिया और हिदायत की कि “इन क़ैदियों के साथ अच्छा सुलूक करना।” उनमें से एक क़ैदी अबू-अज़ीज़ का बयान है कि मुझे जिन अनसारियों के घर में रखा गया था वे सुबह-शाम मुझको रोटी खिलाते थे और ख़ुद सिर्फ़ खजूर खाकर रह जाते थे। एक और क़ैदी सुहैल-बिन-अम्र के बारे में नबी (सल्ल०) से कहा गया कि यह बड़ी भड़काऊ बातें करनेवाला है, आपके ख़िलाफ़ तक़रीरें करता रहा है, इसके दाँत तुड़वा दीजिए। नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “अगर मैं इसके दाँत तुड़वाऊँ तो अल्लाह मेरे दाँत तोड़ देगा, अगरचे मैं नबी हूँ,” (सीरत इब्ने-हिशाम)। यमामा के सरदार सुमामा-बिन-उसाल जब गिरफ़्तार होकर आए तो जब तक वे क़ैद में रहे, नबी (सल्ल०) के हुक्म से उनके लिए अच्छे खाने और दूध का इन्तिज़ाम किया जाता रहा, (इब्ने-हिशाम)। यही रवैया सहाबा किराम (रज़ि०) के दौर में भी रहा। जंगी क़ैदियों से बुरे सुलूक की कोई मिसाल उस दौर में नहीं मिलती। (vi) क़ैदियों के मामले यह शक्ल इस्लाम ने सिरे से अपने यहाँ रखी ही नहीं है कि उनको हमेशा क़ैद रखा जाए और हुकूमत उनसे जबरदस्ती काम लेती रहे। अगर उनके साथ या उनकी क़ौम के साथ जंगी क़ैदियों के तबादले या फ़िदये का कोई मामला तय न हो सके तो उनके मामले में एहसान का तरीक़ा यह रखा गया है कि उन्हें ग़ुलाम बनाकर लोगों की मिलकियत में दे दिया जाए और उनके मालिकों को हिदायत की जाए कि वे उनके साथ अच्छा सुलूक करें। नबी (सल्ल०) के दौर में भी इस तरीक़े पर अमल किया गया है, सहाबा किराम के दौर में भी यह जारी रहा है और इस्लामी क़ानून के सभी आलिम (फ़क़ीह) इसको जाइज़ कहते हैं। इस सिलसिले में यह बात जान लेनी चाहिए कि जो शख़्स क़ैद में आने से पहले इस्लाम क़ुबूल कर चुका हो और फिर किसी तरह गिरफ़्तार हो जाए वह तो आज़ाद कर दिया जाएगा, मगर जो शख़्स क़ैद होने के बाद इस्लाम क़ुबूल करे, या किसी शख़्स की मिलकियत में दे दिए जाने के बाद मुसलमान हो तो यह इस्लाम उसके लिए आज़ादी का सबब नहीं बन सकता। मुसनद अहमद, मुस्लिम और तिरमिज़ी में हज़रत इमरान-बिन-हुसैन की रिवायत है कि बनी-उक़ैल का एक आदमी गिरफ़्तार होकर आया और उसने कहा कि मैंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर यह बात तूने उस वक़्त कही होती जब तू आज़ाद था तो यक़ीनन आज़ादी पा जाता।” यही बात हज़रत उमर (रज़ि०) ने कही है कि “जब क़ैदी मुसलमानों के क़ब्ज़े में आने के बाद मुसलमान हो तो वह क़त्ल होने से तो बच जाएगा, मगर ग़ुलाम रहेगा।” इसी बुनियाद पर इस्लाम के सभी फ़क़ीह (क़ानून के माहिर आलिम) इस बात पर एक राय हैं कि क़ैद होने के बाद मुसलमान होनेवाला ग़ुलामी से नहीं बच सकता, (अस्सियरुल-कबीर, इमाम मुहम्मद)। और यह बात सरासर मुनासिब भी है। अगर हमारा क़ानून यह होता कि जो शख़्स भी गिरफ़्तार होने के बाद इस्लाम क़ुबूल कर लेगा, वह आज़ाद कर दिया जाएगा, तो आख़िर वह कौन-सा नादान क़ैदी होता जो मुसलमान बनकर रिहाई न हासिल कर लेता। (vii) क़ैदियों के साथ एहसान की तीसरी सूरत इस्लाम यह रखी गई है कि जिज़्‌या (माली टैक्स) लगाकर उनको 'दारुल-इस्लाम' (इस्लामी हुकूमत) का ज़िम्मी शहरी बना लिया जाए और वे इस्लामी हुकूमत में उसी तरह आज़ाद होकर रहें जिस तरह मुसलमान रहते हैं। इमाम मुहम्मद अस्सियरुल-कबीर में लिखते हैं कि “हर वह शख़्स जिसको ग़ुलाम बनाना जाइज़ है उसपर जिज़्‌या लगाकर उसे ज़िम्मी बना लेना भी जाइज़ है।” और एक दूसरी जगह फ़रमाते हैं, “मुसलमानों के हुक्मराँ को यह हक़ है कि उनपर जिज़्‌या और उनकी ज़मीनों पर ख़िराज (टैक्स) लगाकर उन्हें अस्ल में आज़ाद ठहरा दे।” इस तरीक़े पर आम तौर से उन हालात में अमल किया गया है जबकि क़ैद होनेवाले लोग जिस इलाक़े के रहनेवाले हों वह हारकर इस्लामी हुकूमत में शामिल हो चुका हो। मिसाल के तौर पर नबी (सल्ल०) ने ख़ैबरवालों के मामले में यह तरीक़ा अपनाया था, और फिर हज़रत उमर (रज़ि०) ने इराक़ के एक बड़े हिस्से और दूसरे इलाक़ों पर जीत हासिल करने के बाद बड़े पैमाने पर उसकी पैरवी की। अबू-उबैद ने किताबुल-अमवाल में लिखा है कि इराक़ की फ़तह के बाद उस इलाक़े के नुमायाँ लोगों का एक नुमाइन्दा वफ़्द (गरोह) हज़रत उमर (रज़ि०) के पास हाज़िर हुआ और उसने कहा कि “ऐ मुसलमानों के ख़लीफ़ा! पहले ईरानवाले हमपर सवार थे। उन्होंने हमको बहुत सताया, बड़ा बुरा बरताव हमारे साथ किया और तरह-तरह की ज़्यादतियाँ हमपर करते रहे। फिर जब ख़ुदा ने आप लोगों को भेजा तो हम आपके आने से बड़े ख़ुश हुए और आपके मुक़ाबले में न कोई बचाव हमने किया न जंग में कोई हिस्सा लिया। अब हमने सुना है कि आप हमें ग़ुलाम बना लेना चाहते हैं।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने जवाब दिया, “तुमको इख़्तियार है कि मुसलमान हो जाओ, या जिज़्‌या क़ुबूल करके आज़ाद रहो।” उन लोगों ने जिज़्‌या क़ुबूल कर लिया और वे आज़ाद छोड़ दिए गए। एक और जगह इसी किताब में अबू-उबैद बयान करते हैं कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने हज़रत अबू-मूसा अश्अरी (रज़ि०) को लिखा कि “जंग में जो लोग पकड़े गए हैं उनमें से हर खेती करनेवाले और किसान को छोड़ दो।” (viii) एहसान की चौथी सूरत यह है कि क़ैदी को बिना किसी फ़िदये और बिना कुछ लिए यूँ ही रिहा कर दिया जाए। यह एक ख़ास छूट है जो इस्लामी हुकूमत सिर्फ़ उसी हालत में कर सकती है जबकि किसी ख़ास क़ैदी के हालात इसका तक़ाज़ा करते हों, या उम्मीद हो कि यह छूट उस क़ैदी को हमेशा के लिए एहसानमन्द कर देगी और वह दुश्मन से दोस्त या ग़ैर-मुस्लिम से मोमिन (ईमानवाला) हो जाएगा। वरना ज़ाहिर है कि दुश्मन-क़ौम के किसी आदमी को इसलिए छोड़ देना कि वह फिर हमसे लड़ने आ जाए किसी तरह भी मस्लहत का तक़ाज़ा नहीं हो सकता। इसी लिए इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों (फ़क़ीहों) ने आम तौर से इसकी मुख़ालफ़त की है, और इसके जाइज़ होने के लिए यह शर्त लगाई है कि “अगर मुसलमानों का ज़िम्मेदार क़ैदियों को, या उनमें से कुछ को एहसान के तौर पर छोड़ देने में मस्लहत पाए तो ऐसा करने में हरज नहीं है,” (अस्सियरुल-कबीर)। नबी (सल्ल०) के दौर में इसकी बहुत-सी मिसालें मिलती हैं और क़रीब-क़रीब सबमें मस्लहत का पहलू नुमायाँ है। बद्र की जंग के क़ैदियों के बारे में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर मुतइम-बिन-अदी ज़िन्दा होता और वह मुझसे इन घिनौने लोगों के बारे में बात करता, तो मैं उसकी ख़ातिर इन्हें यूँ ही छोड़ देता,” (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, मुसनद अहमद)। यह बात नबी (सल्ल०) ने इसलिए फ़रमाई थी कि आप (सल्ल०) जब ताइफ़ से मक्का वापस हुए थे उस वक़्त मुतइम ही ने आप (सल्ल०) को अपनी पनाह में लिया था और उसके लड़के हथियार बाँधकर अपनी हिफ़ाज़त में आप (सल्ल०) को हरम में ले गए थे। इसलिए आप (सल्ल०) उसके एहसान का बदला इस तरह उतारना चाहते थे। बुख़ारी, मुस्लिम और मुसनद अहमद की रिवायत है कि यमामा के सरदार सुमामा-बिन-उसाल जब गिरफ़्तार होकर आए तो नबी (सल्ल०) ने उनसे पूछा, “सुमामा! तुम्हारा क्या ख़याल है?” उन्होंने कहा, “अगर आप मुझे क़त्ल करेंगे तो ऐसे आदमी को क़त्ल करेंगे जिसका ख़ून कुछ क़ीमत रखता है, अगर मुझपर एहसान करेंगे तो ऐसे आदमी पर एहसान करेंगे जो एहसान माननेवाला है, और अगर आप माल लेना चाहते हैं तो माँगिए, आपको दिया जाएगा।” तीन दिन तक आप (सल्ल०) उनसे यही बात पूछते रहे और वे यही जवाब देते रहे। आख़िर आप (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि सुमामा को छोड़ दो। रिहाई पाते ही वे क़रीब के एक नख़लिस्तान (रेगिस्तान का वह हिस्सा जहाँ कुछ पानी और हरियाली हो) गए, नहा-धोकर वापस आए, कलिमा पढ़कर मुसलमान हुए और कहा कि “आज से पहले कोई आदमी मेरे लिए आपसे और कोई दीन आपके दीन से बढ़कर नापसन्द न था, मगर अब कोई आदमी और कोई दीन मुझे आपसे और आपके दीन से बढ़कर प्यारा नहीं है।” फिर वे उमरा के लिए मक्का गए और वहाँ क़ुरैश के लोगों को नोटिस दे दिया कि आज के बाद कोई अनाज तुम्हें यमामा से न पहुँचेगा जब तक मुहम्मद (सल्ल०) इजाज़त न दें। चुनाँचे उन्होंने ऐसा ही किया और मक्कावालों को नबी (सल्ल०) से दरख़ास्त करनी पड़ी कि यमामा से हमारे अनाज की रसद बन्द न कराएँ। बनी-कुरैज़ा के क़ैदियों में से नबी (सल्ल०) ने ज़ुबैर-बिन-बाता और अम्र-बिन-साद (या इब्ने-सुअदा) की जान बख़्श दी। ज़ुबैर को इसलिए छोड़ा कि उसने जाहिलियत के ज़माने में बुआस की जंग के मौक़े पर हज़रत साबित-बिन-क़ैस अनसारी (रज़ि०) को पनाह दी थी, इसलिए आप (सल्ल०) ने उसको हज़रत साबित (रज़ि०) के हवाले कर दिया, ताकि उसके एहसान का बदला अदा कर दें। और अम्र-बिन-साद को इसलिए छोड़ा कि जब बनी-क़ुरैज़ा नबी (सल्ल०) के साथ समझौते की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर रहे थे उस वक़्त यही आदमी अपने क़बीले को ग़द्दारी से मना कर रहा था। (किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद) बनी-मुस्तलिक़ की जंग बाद जब उस क़बीले के क़ैदी लाए गए और लोगों में बाँट दिए गए, उस वक़्त हज़रत जुवैरिया (रज़ि०) जिस आदमी के हिस्से में आई थीं उसको उनका बदला अदा करके आप (सल्ल०) ने उन्हें रिहा कराया और फिर उनसे ख़ुद निकाह कर लिया। इसपर तमाम मुसलमानों ने यह कहकर अपने-अपने हिस्से के क़ैदियों को आज़ाद कर दिया कि “ये अब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के रिश्तेदार हो चुके हैं।” इस तरह सौ ख़ानदानों के आदमी रिहा हो गए। (हदीस : मुसनद अहमद, तबक़ाते-इब्ने-साद, सीरत इब्जे-हिशाम) सुलह-हुदैबिया (हुदैबिया की सन्धि) के मौक़े पर मक्का के 80 आदमी तनईम की तरफ़ से आए और फ़ज्र की नमाज़ के क़रीब उन्होंने नबी (सल्ल०) के कैम्प पर अचानक हमला करने का इरादा किया। मगर वे सब-के-सब पकड़ लिए गए और नबी (सल्ल०) ने सबको छोड़ दिया, ताकि इस नाज़ुक मौक़े पर यह मामला लड़ाई का सबब न बन जाए। (हदीस : मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी, मुसनद अहमद) मक्का की फ़तह के मौक़े पर आप (सल्ल०) ने कुछ आदमियों को अलग करके तमाम मक्कावालों को उनपर एहसान करते हुए माफ़ कर दिया, और जिन्हें अलग किया गया था उनमें से भी तीन-चार के सिवा कोई क़त्ल न किया गया। सारा अरब इस बात को जानता था कि मक्कावालों ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों पर कैसे-कैसे जु़ल्म किए थे। इसके मुक़ाबले में जीत पाकर जिस ज़बरदस्त हौसले के साथ नबी (सल्ल०) ने उन लोगों को माफ़ किया उससे अरबवालों को यह इत्मीनान हासिल हो गया कि उनका वास्ता किसी ज़ालिम से नहीं, बल्कि एक बहुत ही रहमदिल, मेहरबान और कुशादादिल रहनुमा से है। इसी वजह से मक्का की फ़तह के बाद पूरे अरब के इलाक़ों को मातहत होने में दो साल से ज़्यादा देर न लगी। हुनैन की जंग के बाद जब हवाज़िन क़बीले का नुमाइन्दा गरोह अपने क़ैदियों की रिहाई के लिए हाज़िर हुआ तो सारे क़ैदी बाँटे जा चुके थे। नबी (सल्ल०) ने सब मुसलमानों को इकट्ठा किया और फ़रमाया कि ये लोग तौबा करके आए हैं और मेरी राय यह है कि इनके क़ैदी इनको वापस दे दिए जाएँ। तुममें से जो कोई अपनी ख़ुशी से अपने हिस्से में आए हुए क़ैदी को बदले में बिना कुछ लिए हुए छोड़ना चाहे वह इस तरह छोड़ दे, और जो मुआवज़ा लेना चाहे उसको हम बैतुल-माल में आनेवाली पहली आमदनी से मुआवज़ा दे देंगे। चुनाँचे छह हज़ार क़ैदी रिहा कर दिए गए और जिन लोगों ने मुआवज़ा लेना चाहा उन्हें हुकूमत की तरफ़ से मुआवज़ा दे दिया गया। (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, मुसनद अहमद, तबक़ाते-इब्ने-साद) इससे यह भी मालूम हुआ कि बाँटे जा चुकने के बाद हुकूमत क़ैदियों को ख़ुद रिहा कर देने की हक़दार नहीं रहती, बल्कि यह काम उन लोगों की रज़ामन्दी से, या उनको मुआवज़ा देकर किया जा सकता है जिनकी मिलकियत में क़ैदी दिए जा चुके हों। नबी (सल्ल०) के बाद सहाबा किराम (रज़ि०) के दौर में भी एहसान के तौर पर क़ैदियों को रिहा करने की मिसालें बराबर मिलती हैं। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने अशअस-बिन-फ़ैस किन्दी को रिहा किया, और हज़रत उमर (रज़ि०) ने हुरमुज़ान को और मनाज़िर और मैसान के क़ैदियों को आज़ादी दी। (किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद) (ix) बदले में रकम लेकर क़ैदियों को छोड़ने की मिसाल नबी (सल्ल०) के दौर में सिर्फ़ बद्र की जंग के मौक़े पर मिलती है, जबकि एक क़ैदी से एक हज़ार से चार हज़ार तक की रक़में लेकर उनको रिहा किया गया, (तबक़ाते-इब्ने-साद, किताबुल-अमवाल) सहाबा किराब (रज़ि०) के दौर में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। और इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों (फ़क़ीहों) ने आम तौर पर इसको नापसन्द किया है, क्योंकि इसका मतलब यह है कि हम रुपए लेकर दुश्मन के एक आदमी को छोड़ दें, ताकि वह फिर हमारे ख़िलाफ़ तलवार उठाए। लेकिन चूँकि क़ुरआन में फ़िदया लेने की इजाज़त दी गई है, और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने एक बार इसपर अमल भी किया है, इसलिए ऐसा करना पूरी तरह मना नहीं है। इमाम मुहम्मद (रह०) अस्सियरुल-कबीर में कहते हैं कि अगर मुसलमानों को इसकी ज़रूरत पड़े तो वे बदले में पैसे लेकर क़ैदियों को छोड़ सकते हैं। (x) कोई ख़िदमत लेकर छोड़ने की मिसाल भी बद्र की जंग के मौक़े पर मिलती है। क़ुरैश के क़ैदियों में से जो लोग माल की शक्ल में फ़िदया देने के क़ाबिल न थे, उनकी रिहाई के लिए नबी (सल्ल०) ने यह शर्त रख दी कि वे अनसार के दस-दस बच्चों को लिखना-पढ़ना सिखा दें। (हदीस : मुसनद अहमद, तबक़ाते-इब्ने-साद, किताबुल-अमवाल) (xi) क़ैदियों के तबादले (अदला-बदली) की कई मिसालें हमको नबी (सल्ल०) के दौर में मिलती हैं। एक बार नबी (सल्ल०) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को एक मुहिम पर भेजा और उसमें कुछ क़ैदी गिरफ़्तार हुए। उनमें एक बहुत ही ख़ूबसूरत औरत भी थी जो हज़रत सलमा-बिन-अकवा के हिस्से में आई। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ज़ोर देकर उसको हज़रत सलमा से माँग लिया और फिर उसे मक्का भेजकर उसके बदले कई मुसलमान क़ैदियों को रिहा कराया, (हदीस मुस्लिम, अबू-दाऊद, तहावी, किताबुल-अमवाल लि-अबी-उबैद, तबक़ाते-इब्ने-साद)। हज़रत इमरान-बिन-हुसैन की रिवायत है कि एक बार क़बीला सक़ीफ़ ने मुसलमानों के दो आदमियों को क़ैद कर लिया। उसके कुछ मुद्दत बाद सक़ीफ़ के हलीफ़ (साथ देने की क़सम खानेवाले) क़बीले, बनी-उक़ैल का एक आदमी मुसलमानों के पास गिरफ़्तार हो गया। नबी (सल्ल०) ने उसको ताइफ़ भेजकर उसके बदले उन दोनों मुसलमानों को रिहा करा लिया, (हदीस : मुस्लिम, तिरमिज़ी, मुसनद अहमद)। इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों (फ़क़ीहों) में से इमाम अबू-यूसुफ़, इमाम मुहम्मद, इमाम शाफ़िई, इमाम मालिक और इमाम अहमद (रह०) क़ैदियों की अदला-बदली को जाइज़ समझते हैं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) की एक राय यह है कि अदला-बदली नहीं करनी चाहिए, मगर दूसरी राय उनकी भी यही है कि अदला-बदली की जा सकती है। अलबत्ता इस बात पर सब एक राय हैं कि जो क़ैदी मुसलमान हो जाए उसे बदले में ग़ैर-मुस्लिमों के हवाले न किया जाए। इस तशरीह से यह बात साफ़ हो जाती है कि इस्लाम ने जंगी क़ैदियों के मामले में एक ऐसा कुशादा क़ानून बनाया है जिसके अन्दर हर ज़माने और हर तरह के हालात में इस मसले से निबटने की गुंजाइश है। जो लोग क़ुरआन मजीद की इस आयत का बस यह ज़रा-सा मतलब ले लेते हैं कि जंग में क़ैद होनेवालों को “या तो एहसान के तौर पर छोड़ दिया जाए या फ़िदया लेकर रिहा कर दिया जाए,” वे इस बात को नहीं जानते कि जंगी क़ैदियों का मामला कितने अलग-अलग पहलू रखता है, और अलग-अलग ज़मानों में वह कितने मसले पैदा करता रहा है और आगे भी कर सकता है।
9. यानी अल्लाह तआला को अगर सिर्फ़ बातिल-परस्तों (असत्यवादियों) का सर कुचलना ही होता तो वह इस काम के लिए तुम्हारा मुहताज न था। यह काम तो उसका एक ज़लज़ला या एक तूफ़ान पलक झपकते में कर सकता था। मगर उसके सामने तो यह है कि इनसानों में से जो हक़-परस्त हों वे बातिल-परस्तों से कश्मकश करें और उनके मुक़ाबले में जिद्दो-जुह्द करें, ताकि जिसके अन्दर जो कुछ खूबियाँ हैं वे इस इम्तिहान से निखरकर पूरी तरह नुमायाँ हो जाएँ और हर एक अपने किरदार के लिहाज़ से जिस मक़ाम और मर्तबे का हक़दार हो वह दिया जाए।
10. मतलब यह है कि अल्लाह की राह में किसी के मारे जाने का मतलब यह हरगिज़ नहीं है कि आदमी अपनी जान से गया और उसकी ज़ात की हद तक उसका किया-कराया सब मिट्टी में मिल गया। अगर कोई शख़्स यह समझता है कि शहीदों की क़ुरबानियाँ ख़ुद उनके लिए नहीं बल्कि सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिए फ़ायदेमन्द हैं जो उनके बाद इस दुनिया में ज़िन्दा रहें और उनकी क़ुर्बानियों से यहाँ फ़ायदा उठाएँ, तो वह ग़लत समझता है। अस्ल हक़ीक़त यह है कि ख़ुद शहीद होनेवालों के लिए भी यह नुक़सान का नहीं, बल्कि फ़ायदे का सौदा है।
سَيَهۡدِيهِمۡ وَيُصۡلِحُ بَالَهُمۡ ۝ 4
(5) वह उनकी रहनुमाई करेगा, उनका हाल दुरुस्त कर देगा,
وَيُدۡخِلُهُمُ ٱلۡجَنَّةَ عَرَّفَهَا لَهُمۡ ۝ 5
(6) और उनको उस जन्नत में दाख़िल करेगा जिससे वह उनको वाक़िफ़ करा चुका है।11
11. यह है वह फ़ायदा जो ख़ुदा की राह में जान देनेवालों को हासिल होगा। इसके तीन मरहले बयान किए गए हैं : एक यह कि अल्लाह उनकी रहनुमाई करेगा। दूसरा यह कि उनका हाल दुरुस्त कर देगा। तीसरा यह कि उनको उस जन्नत में दाख़िल करेगा जिससे वह पहले ही उनको वाक़िफ़ करा चुका है। रहनुमाई करने से मुराद ज़ाहिर है कि इस जगह पर जन्नत की तरफ़ रहनुमाई करना है। हालत दुरुस्त करने से मुराद यह है कि जन्नत में दाख़िल होने से पहले अल्लाह तआला उनको ख़िलअतों (बेहतरीन कपड़ों) से सजाकर वहाँ ले जाएगा और उस गन्दगी को दूर कर देगा जो दुनिया की ज़िन्दगी में उनको लग गई थी। और तीसरे दरजे का मतलब यह है कि दुनिया में पहले ही उनको क़ुरआन और नबी (सल्ल०) की ज़बान से बताया जा चुका है कि वह जन्नत कैसी है जो अल्लाह ने उनके लिए तैयार कर रखी है। उस जन्नत में जब वे पहुँचेंगे तो बिलकुल अपनी जानी-पहचानी चीज़ में दाख़िल होंगे और उनको मालूम हो जाएगा कि जिस चीज़ के देने का उनसे वादा किया गया था वही उनको दी गई है, उसमें बाल बराबर भी फ़र्क़ नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تَنصُرُواْ ٱللَّهَ يَنصُرۡكُمۡ وَيُثَبِّتۡ أَقۡدَامَكُمۡ ۝ 6
(7) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे तो वह तुम्हारी मदद करेगा12 और तुम्हारे क़दम मज़बूत जमा देगा।
12. अल्लाह की मदद करने का एक सीधा-साधा मतलब तो यह है कि उसका कलिमा बुलन्द करने के लिए जान-माल से जिद्दो-जुह्द की जाए। लेकिन उसका एक और अहम और ख़ास मतलब भी है जिसकी तशरीह हम इससे पहले कर चुके हैं। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया 50)
وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَتَعۡسٗا لَّهُمۡ وَأَضَلَّ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 7
(8) रहे वे लोग जिन्होंने कुफ़्र (सत्य का इनकार) किया है, तो उनके लिए हलाकत है,13 और अल्लाह ने उनके आमाल को भटका दिया है।
13. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : ‘फ़-तअसन' । 'तअस' ठोकर खाकर मुँह के बल गिरने को कहते हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَرِهُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ فَأَحۡبَطَ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 8
(9) क्योंकि उन्होंने उस चीज़ को नापसन्द किया जिसे अल्लाह ने उतारा है14 इसलिए अल्लाह ने उनके आमाल अकारथ कर दिए।
14. यानी उन्होंने अपनी पुरानी जाहिलियत के अंधविश्वासों व ख़यालात, रस्म व रिवाज और अख़लाक़ी बिगाड़ को ज़्यादा अहमियत दी और उस तालीम को पसन्द न किया जो अल्लाह ने उनको सीधा रास्ता बताने के लिए उतारी थी।
۞أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۖ دَمَّرَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡۖ وَلِلۡكَٰفِرِينَ أَمۡثَٰلُهَا ۝ 9
(10) क्या वे ज़मीन में चले-फिरे न थे कि उन लोगों का अंजाम देखते जो उनसे पहले गुज़र चुके हैं? अल्लाह ने उनका सब कुछ उनपर उलट दिया, और ऐसे ही नतीजे इन इनकार करनेवालों के लिए मुक़द्दर हैं।15
15. इस जुमले के दो मतलब हैं : एक यह कि जिस तबाही का उन हक़ के इनकारियों को सामना करना पड़ा वैसी ही तबाही अब इन हक़ के इनकारियों के लिए मुक़द्दर है जो मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़ाम को नहीं मान रहे हैं। दूसरा मतलब यह है कि उन लोगों की तबाही सिर्फ़ दुनिया के अज़ाब पर ख़त्म नहीं हो गई है, बल्कि यही तबाही उनके लिए आख़िरत में भी मुक़द्दर है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ مَوۡلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَأَنَّ ٱلۡكَٰفِرِينَ لَا مَوۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 10
(11) यह इसलिए कि ईमान लानेवालों का हिमायती और मददगार अल्लाह है और इनकार करनेवालों का हिमायती और मददगार कोई नहीं।16
16. उहुद की जंग में जब नबी (सल्ल०) ज़ख़्मी होकर कुछ सहाबा (रज़ि०) के साथ एक घाटी में ठहरे हुए थे, उस वक़्त अबू-सुफ़ियान ने नारा लगाया, “हमारे पास उज़्ज़ा है और तुम्हारा कोई उज़्ज़ा नहीं है।” इसपर नबी (सल्ल०) ने सहाबा (रज़ि०) से फ़रमाया कि इसे जवाब दो, “हमारा हिमायती और मददगार अल्लाह है और तुम्हारा हिमायती और मददगार कोई नहीं।” नबी (सल्ल०) का यह जवाब इसी आयत से लिया हुआ था।
إِنَّ ٱللَّهَ يُدۡخِلُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَتَمَتَّعُونَ وَيَأۡكُلُونَ كَمَا تَأۡكُلُ ٱلۡأَنۡعَٰمُ وَٱلنَّارُ مَثۡوٗى لَّهُمۡ ۝ 11
(12) ईमान लानेवालों और नेक अमल करनेवालों को अल्लाह उन जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती हैं, और इनकार करनेवाले बस दुनिया की कुछ दिनों की ज़िन्दगी के मज़े लूट रहे हैं, जानवरों की तरह खा-पी रहे हैं,17 और उनका आख़िरी ठिकाना जहन्नम है।
17. यानी जिस तरह जानवर खाता है और कुछ नहीं सोचता कि यह रोज़ी कहाँ से आई है, किसकी पैदा की हुई है और इस रोज़ी के साथ मेरे ऊपर रोज़ी देनेवाले ख़ुदा के क्या हक़ और अधिकार लागू हो जाते हैं, इसी तरह ये लोग भी बस खाए जा रहे हैं, चरने-चुगने से आगे किसी चीज़ की इन्हें कोई फ़िक्र नहीं है।
وَكَأَيِّن مِّن قَرۡيَةٍ هِيَ أَشَدُّ قُوَّةٗ مِّن قَرۡيَتِكَ ٱلَّتِيٓ أَخۡرَجَتۡكَ أَهۡلَكۡنَٰهُمۡ فَلَا نَاصِرَ لَهُمۡ ۝ 12
(13) ऐ नबी! कितनी ही बस्तियाँ ऐसी गुज़र चुकी हैं जो तुम्हारी उस बस्ती से बहुत ज़्यादा ज़ोरावर थीं जिसने तुम्हें निकाल दिया है। उन्हें हमने इस तरह हलाक कर दिया कि कोई उन्हें बचानेवाला न था।18
18. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को मक्का से निकलने का बड़ा दुख था। जब आप (सल्ल०) हिजरत करने पर मजबूर हुए तो शहर से बाहर निकलकर आप (सल्ल०) ने उसकी तरफ़ मुँह करके फ़रमाया था, “ऐ मक्का! तू दुनिया के तमाम शहरों में ख़ुदा को सबसे ज़्यादा प्यारा है, और अल्लाह के तमाम शहरों में मुझे सबसे बढ़कर तुझसे मुहब्बत है। अगर मुशरिकों ने मुझे न निकाला होता तो मैं तुझे छोड़कर कभी न निकलता।” इसपर कहा गया है कि मक्कावाले तुम्हें निकालकर अपनी जगह ये समझ रहे हैं कि उन्होंने कोई बड़ी कामयाबी हासिल की है। हालाँकि हक़ीक़त में यह हरकत करके उन्होंने अपनी शामत बुलाई है। आयत के बयान का अन्दाज़ साफ़ बता रहा है कि यह ज़रूर हिजरत के क़रीब ही उतरी होगी।
أَفَمَن كَانَ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّهِۦ كَمَن زُيِّنَ لَهُۥ سُوٓءُ عَمَلِهِۦ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُم ۝ 13
(14) भला कहीं ऐसा हो सकता है कि जो अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ और वाज़ेह हिदायत पर हो, वह उन लोगों की तरह हो जाए जिनके लिए उनका बुरा अमल लुभावना बना दिया गया है और वे अपनी ख़ाहिशों की पैरवी करनेवाले बन गए हैं?19
19. यानी आख़िर यह कैसे हो सकता है कि पैग़म्बर और उसकी पैरवी करनेवालों को जब ख़ुदा की तरफ़ से एक साफ़ और सीधा रास्ता मिल गया है और पूरी बसीरत (गहरी सूझ-बूझ) की रौशनी में वे इसपर क़ायम हो चुके हैं, तो अब वे उन लोगों के साथ चल सकें जो अपनी पुरानी जाहिलियत के साथ चिमटे हुए हैं, जो अपनी गुमराहियों को हिदायत और अपनी बुरी आदतों को ख़ूबी समझ रहे हैं, जो किसी दलील की बुनियाद पर नहीं बल्कि सिर्फ़ अपनी ख़ाहिशों की बुनियाद पर ये फ़ैसले करते हैं कि हक़ क्या है और बातिल क्या। अब तो न इस दुनिया में इन दोनों गरोहों की ज़िन्दगी एक जैसी हो सकती है और न आख़िरत में इनका अंजाम एक जैसा हो सकता है।
مَّثَلُ ٱلۡجَنَّةِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۖ فِيهَآ أَنۡهَٰرٞ مِّن مَّآءٍ غَيۡرِ ءَاسِنٖ وَأَنۡهَٰرٞ مِّن لَّبَنٖ لَّمۡ يَتَغَيَّرۡ طَعۡمُهُۥ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ خَمۡرٖ لَّذَّةٖ لِّلشَّٰرِبِينَ وَأَنۡهَٰرٞ مِّنۡ عَسَلٖ مُّصَفّٗىۖ وَلَهُمۡ فِيهَا مِن كُلِّ ٱلثَّمَرَٰتِ وَمَغۡفِرَةٞ مِّن رَّبِّهِمۡۖ كَمَنۡ هُوَ خَٰلِدٞ فِي ٱلنَّارِ وَسُقُواْ مَآءً حَمِيمٗا فَقَطَّعَ أَمۡعَآءَهُمۡ ۝ 14
(15) परहेज़गारों के लिए जिस जन्नत का वादा किया गया है उसकी शान तो यह है कि उसमें नहरें बह रही होंगी निथरे हुए पानी की,20 नहरें बह रही होंगी ऐसे दूध की जिसके मज़े में ज़रा फ़र्क़ न आया होगा,21 नहरें बह रही होंगी ऐसी शराब की जो पीनेवालों के लिए मज़ेदार होगी,22 नहरें बह रही होंगी साफ़-सुथरे शहद की23 उसमें उनके लिए हर तरह के फल होंगे और उनके रब की तरफ़ से बख़शिश।24 (क्या वह शख़्स जिसके हिस्से में यह जन्नत आनेवाली है) उन लोगों की तरह हो सकता है जो जहन्नम में हमेशा रहेंगे और जिन्हें ऐसा गर्म पानी पिलाया जाएगा जो उनकी आँतें तक काट देगा?
20. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'माइन ग़ैरि आसिन'। अरबी ज़बान में 'आसिन' उस पानी को कहते हैं जिसका मज़ार और रंग बदला हुआ हो, या जिसमें किसी तरह की बू (गन्ध) पैदा हो गई हो। दुनिया में नदियों और नहरों के पानी आम तौर से गदले होते हैं। उनके साथ रेत, मिट्टी और कभी-कभी तरह-तरह के पेड़-पौधों के मिल जाने से उनका रंग और मज़ा बदल जाता है और कुछ-न-कुछ बू भी उनमें पाई जाती है। इसलिए जन्नत की नदियों और नहरों के पानी की यह तारीफ़ बयान की गई है कि वह 'आसिन' से पाक होगा। यानी वह ख़ालिस, साफ़-सुथरा पानी होगा। किसी तरह की मिलावट उसमें न होगी।
21. हदीस में नबी (सल्ल०) ने इसकी तशरीह यह की है कि “वह जानवरों के थनों से निकला हुआ दूध न होगा।” यानी अल्लाह तआला यह दूध चश्मों (स्रोतों) की शक्ल में ज़मीन से निकालेगा और नहरों की शक्ल में इसे बहा देगा। ऐसा न होगा कि जानवरों के थनों से उसको निचोड़ा जाए और फिर जन्नत की नहरों में डाल दिया जाए। इस क़ुदरती दूध की तारीफ़ में बयान किया गया है कि “उसके मज़े में ज़रा फ़र्क़ न आया होगा,” यानी उसके अन्दर वह ज़रा-भी बू न होगी जो जानवर के थन से निकले हुए हर दूध में होती है।
22. नबी (सल्ल०) ने इसकी तशरीह यह की है कि इस शराब को “इनसानों ने अपने पैरों से रौंदकर न निचोड़ा होगा।” यानी वह दुनिया की शराबों की तरह फलों को सड़ाकर और पैरों से रौंदकर निचोड़ी न गई होगी, बल्कि अल्लाह उसे भी चश्मों (स्रोतों) की शक्ल में पैदा करेगा और नहरों की शक्ल में बहा देगा। फिर उसकी तारीफ़ यह बयान की गई है कि “वह पीनेवालों के लिए मज़ेदार होगी,” यानी दुनिया की शराबों की तरह वह कड़वी और बदबूदार न होगी, जिसे कोई बड़े-से-बड़ा शराब का रसिया भी कुछ-न-कुछ मुँह बनाए बिना नहीं पी सकता। सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-47 में इसकी और ज़्यादा तारीफ़ यह की गई है कि इसके पीने से न जिस्म को कोई नुक़सान पहुँचेगा और न अक़्ल ख़राब होगी और सूरा-56 वाक़िआ, आयत-19 में कहा गया है कि इससे न सर भारी होगा न आदमी बहकेगा। इससे मालूम हुआ कि वह शराब नशीली न होगी, बल्कि सिर्फ़ लज़्ज़त और सुरूर देनेवाली होगी।
23. नबी (सल्ल०) ने इसकी तशरीह यह की है कि “वह मक्खियों के पेट से निकला हुआ शहद न होगा। यानी वह भी चश्मों से निकलेगा और नहरों में बहेगा। इसी लिए उसके अन्दर मोम और छत्ते के टुकड़े और मरी हुई मक्खियों की टाँगें मिली हुई न होंगी, बल्कि वह ख़ालिस शहद होगा।
24. जन्नत की इन नेमतों के बाद अल्लाह की तरफ़ से मग़फ़िरत का ज़िक्र करने के दो मतलब हो सकते हैं : एक यह कि इन सारी नेमतों से बढ़कर यह नेमत है कि अल्लाह उनकी मग़फ़िरत (नजात व मुक्ति) कर देगा। दूसरा मतलब यह है कि दुनिया में जो कोताहियाँ उनसे हुई थीं उनका ज़िक्र तक जन्नत में कभी उनके सामने न आएगा, बल्कि अल्लाह उनपर हमेशा के लिए परदा डाल देगा ताकि जन्नत में वे शर्मिन्दा न हों।
وَمِنۡهُم مَّن يَسۡتَمِعُ إِلَيۡكَ حَتَّىٰٓ إِذَا خَرَجُواْ مِنۡ عِندِكَ قَالُواْ لِلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ مَاذَا قَالَ ءَانِفًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ طَبَعَ ٱللَّهُ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَهۡوَآءَهُمۡ ۝ 15
(16) इनमें से कुछ लोग ऐसे हैं जो कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं और फिर जब तुम्हारे पास से निकलते हैं तो उन लोगों से, जिन्हें इल्म की नेमत दी गई है, पूछते हैं कि अभी-अभी इन्होंने क्या कहा था?25 ये वे लोग हैं जिनके दिलों पर अल्लाह ने ठप्पा लगा दिया है और ये अपनी ख़ाहिशों की पैरवी करनेवाले बने हुए हैं26 ।
25. ये उन कुफ़्र करनेवालों, मुनाफ़िक़ों और इनकार करनेवाले अहले-किताब का ज़िक्र है जो नबी (सल्ल०) की मजलिस में आकर बैठते थे और आप (सल्ल०) की बातें या क़ुरआन मजीद की आयतें सुनते थे, मगर चूँकि उनका दिल उन बातों से दूर था जो आप (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से निकलती थीं, इसलिए सब कुछ सुनकर भी वे कुछ न सुनते थे और बाहर निकलकर मुसलमानों से पूछते थे कि अभी-अभी आप (सल्ल०) क्या फ़रमा रहे थे।
26. यह था वह अस्ल सबब जिसकी वजह से उनके दिल के कान नबी (सल्ल०) की बातों के लिए बहरे हो गए थे। वे अपनी ख़ाहिशों के बन्दे थे, और नबी (सल्ल०) जो तालीमात पेश कर रहे थे वे उनकी ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ थी, इसलिए अगर वे कभी आप (सल्ल०) की मजलिस में आकर मुश्किल से आप (सल्ल०) की तरफ़ कान लगाते भी थे तो उनके पल्ले कुछ न पड़ता था।
وَٱلَّذِينَ ٱهۡتَدَوۡاْ زَادَهُمۡ هُدٗى وَءَاتَىٰهُمۡ تَقۡوَىٰهُمۡ ۝ 16
(17) रहे वे लोग जिन्होंने हिदायत पाई है, अल्लाह उनको और ज़्यादा हिदायत देता है।27 और उन्हें उनके हिस्से का तक़वा (परहेज़गारी) देता है28
27. यानी वही बातें, जिनको सुनकर हक़ का इनकार करनेवाले और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) पूछते हैं अभी-अभी नबी (सल्ल०) क्या फ़रमा रहे थे, हिदायत पाए हुए लोगों के लिए और ज़्यादा हिदायत का सबब होती हैं, और जिस मजलिस से वे बदनसीब अपना वक़्त बरबाद करके उठते हैं, उसी मजलिस से ये ख़ुशनसीब लोग इल्म और (रब को) जानने का एक नया ख़ज़ाना हासिल करके पलटते हैं।
28. यानी जिस परहेज़गारी की सलाहियत और समझ वे अपने अन्दर पैदा कर लेते हैं, अल्लाह तआला इसका सुनहरा मौक़ा उन्हें दे देता है।
فَهَلۡ يَنظُرُونَ إِلَّا ٱلسَّاعَةَ أَن تَأۡتِيَهُم بَغۡتَةٗۖ فَقَدۡ جَآءَ أَشۡرَاطُهَاۚ فَأَنَّىٰ لَهُمۡ إِذَا جَآءَتۡهُمۡ ذِكۡرَىٰهُمۡ ۝ 17
(18) अब क्या ये लोग बस क़ियामत ही के इन्तिज़ार में हैं कि वह अचानक इनपर आ जाए?29 उसकी निशानियाँ तो आ चुकी हैं।30 जब वह ख़ुद आ जाएगी तो इनके लिए नसीहत क़ुबूल करने का कौन-सा मौक़ा बाक़ी रह जाएगा?
29. यानी जहाँ तक हक़ साफ़-साफ़ बता देने का ताल्लुक़ है वह तो दलीलों से, क़ुरआन के जादुई बयान से, मुहम्मद (सल्ल०) की पाक सीरत से और सहाबा किराम (रज़ि०) की ज़िन्दगियों के इनक़िलाब से इन्तिहाई रौशन तरीक़े पर वाज़ेह किया जा चुका है। अब क्या ईमान लाने के लिए ये लोग इस बात का इन्तिज़ार कर रहे हैं कि क़ियामत इनके सामने आ खड़ी हो?
30. क़ियामत की निशानियों से मुराद वे निशानियाँ हैं जिनसे ज़ाहिर होता है कि उसके आने का वक़्त अब क़रीब आ लगा है। इनमें से एक ख़ास निशानी अल्लाह के आख़िरी नबी का आ जाना है, जिसके बाद फिर क़ियामत तक कोई और नबी आनेवाला नहीं है। बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी और मुसनद अहमद में हज़रत अनस, हज़रत सह्ल-बिन-साद साइदी और हज़रत बुरैदा (रज़ि०) की रिवायतें नक़्ल हुई हैं कि नबी (सल्ल०) ने अपनी शहादत की उँगली (अंगूठे के पासवाली उँगली) और बीच की उँगली खड़ी करके फ़रमाया, “मेरा भेजा जाना और क़ियामत इन दो उँगलियों की तरह हैं।” यानी जिस तरह इन दो उँगलियों के बीच कोई और उँगली नहीं है, इसी तरह मेरे और क़ियामत के बीच कोई और नबी भी भेजा जानेवाला नहीं है। मेरे बाद अब बस क़ियामत ही आनेवाली है।
فَٱعۡلَمۡ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱللَّهُ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لِذَنۢبِكَ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مُتَقَلَّبَكُمۡ وَمَثۡوَىٰكُمۡ ۝ 18
(19) तो ऐ नबी! ख़ूब जान लो कि अल्लाह के सिवा कोई इबादत का हक़दार नहीं है, और माफ़ी माँगो अपने क़ुसूर के लिए भी और ईमानवाले मर्दों और औरतों के लिए भी31 अल्लाह तुम्हारी सरगर्मियों को भी जानता है और तुम्हारे ठिकाने से भी वाक़िफ़ (परिचित) है।
31. इस्लाम ने जो अख़लाक़ इनसान को सिखाए हैं, उनमें से एक यह भी है कि बन्दा अपने रब की बन्दगी और इबादत करने में, और उसके दीन की ख़ातिर जान लड़ाने में, चाहे अपनी हद तक कितनी ही कोशिश करता रहा हो, उसको कभी इस गुमान में न पड़ना चाहिए कि जो कुछ मुझे करना चाहिए था वह मैंने कर दिया है, बल्कि उसे हमेशा यही समझते रहना चाहिए कि मेरे मालिक का मुझपर जो हक़ था वह मैं अदा नहीं कर सका हूँ, और हर वक़्त अपने क़ुसूर को तसलीम करके अल्लाह से यही दुआ करते रहना चाहिए कि तेरी ख़िदमत में जो कुछ भी कोताही मुझसे हुई है उसे माफ़ कर दे। यही अस्ल रूह है अल्लाह तआला के यह कहने की कि “ऐ नबी! अपने क़ुसूर की माफ़ी माँगो।” इसका मतलब यह नहीं है कि अल्लाह की पनाह! नबी (सल्ल०) ने सचमुच जान-बूझकर कोई क़ुसूर किया था, बल्कि इसका सही मतलब यह है कि अल्लाह के तमाम बन्दों से बढ़कर जो बन्दा अपने रब की बन्दगी करनेवाला था, उसका मंसब भी यह न था कि अपने कारनामे पर फ़ख़्र (गर्व) का कोई हल्का-सा एहसास तक उसके दिल में रास्ता पाए, बल्कि उसका मक़ाम भी यह था कि अपनी सारी क़ाबिले-क़द्र ख़िदमतों के बावजूद अपने रब के सामने अपनी ग़लती को तसलीम ही करता रहे। इसी कैफ़ियत का असर था जिसके तहत अल्लाह के रसूल हमेशा बहुत ज़्यादा इसतिग़फ़ार (क्षमा याचना) करते रहते थे। अबू-दाऊद, नसई और मुसनद अहमद की रिवायत में नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान नक़्ल हुआ है कि “मैं हर दिन सौ बार अल्लाह से इसतिग़फ़ार करता हूँ।"
وَيَقُولُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوۡلَا نُزِّلَتۡ سُورَةٞۖ فَإِذَآ أُنزِلَتۡ سُورَةٞ مُّحۡكَمَةٞ وَذُكِرَ فِيهَا ٱلۡقِتَالُ رَأَيۡتَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ نَظَرَ ٱلۡمَغۡشِيِّ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَأَوۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 19
(20) जो लोग ईमान लाए हैं, वे कह रहे थे कि कोई सूरा क्यों नहीं उतारी जाती (जिसमें जंग का हुक्म दिया जाए। मगर जब एक पक्की सूरा उतार दी गई, जिसमें जंग का ज़िक्र था, तो तुमने देखा कि जिनके दिलों में बीमारी थी वे तुम्हारी तरफ़ इस तरह देख रहे थे जैसे किसी पर मौत छा गई हो।32 अफ़सोस उनके हाल पर!
32. मतलब यह है कि जिन हालात से उस वक़्त मुसलमान गुज़र रहे थे और इस्लाम-मुख़ालिफ़ों का जो रवैया उस वक़्त इस्लाम और मुसलमानों के साथ था, उसकी बुनियाद पर जंग का हुक्म आने से पहले ही ईमानवालों की आम राय यह थी कि अब हमें जंग की इजाज़त मिल जानी चाहिए, बल्कि वे बेचैनी के साथ अल्लाह के फ़रमान का इन्तिज़ार कर रहे थे और बार-बार पूछते थे कि हमें इन ज़ालिमों से लड़ने का हुक्म क्यों नहीं दिया जाता? मगर जो लोग मुनाफ़क़त (कपट) के साथ मुसलमानों के गरोह में शामिल हो गए थे उनका हाल मोमिनों के हाल से बिलकुल अलग था। उन्हें अपनी जान और अपना माल अल्लाह और उसके दीन से ज़्यादा प्यारा था और उसके लिए कोई ख़तरा मोल लेने को तैयार न थे। जंग के हुक्म ने आते ही उनको और सच्चे ईमानवालों को एक-दूसरे से छाँटकर अलग कर दिया। जब तक यह हुक्म न आया था, उनमें और आम ईमानवालों में बज़ाहिर कोई फ़र्क़ न पाया जाता था। नमाज़ वे भी पढ़ते थे और ये भी। रोज़े रखने में भी उन्हें कोई दिक़्क़त न थी। ठण्डा-ठण्डा इस्लाम उन्हें क़ुबूल था। मगर जब इस्लाम के लिए जान की बाज़ी लगाने का वक़्त आया तो उनके निफ़ाक़ (खोट) का हाल खुल गया और दिखावटी ईमान का वह चोला उतर गया जो उन्होंने ऊपर से ओढ़ रखा था। सूरा-4 निसा, आयत-77 में उनकी इस कैफ़ियत को यूँ बयान किया गया है, “तुमने देखा उन लोगों को जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? अब जो उन्हें लड़ाई का हुक्म दे दिया गया तो उनमें से एक गरोह का हाल यह है कि इनसानों से इस तरह डर रहे हैं जैसे ख़ुदा से डरना चाहिए, बल्कि कुछ इससे भी ज़्यादा। कहते हैं : ऐ ख़ुदा! यह लड़ाई का हुक्म हमें क्यों दे दिया? हमें अभी और कुछ मुहलत क्यों न दी?"
طَاعَةٞ وَقَوۡلٞ مَّعۡرُوفٞۚ فَإِذَا عَزَمَ ٱلۡأَمۡرُ فَلَوۡ صَدَقُواْ ٱللَّهَ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۡ ۝ 20
(21) (उनकी ज़बान पर है) फ़रमाँबरदारी का इक़रार और अच्छी-अच्छी बातें। मगर जब पूरी तरह हुक्म दे दिया गया उस वक़्त वे अल्लाह से अपने वादे में सच्चे निकलते तो उन्हीं के लिए अच्छा था।
فَهَلۡ عَسَيۡتُمۡ إِن تَوَلَّيۡتُمۡ أَن تُفۡسِدُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَتُقَطِّعُوٓاْ أَرۡحَامَكُمۡ ۝ 21
(22) अब क्या तुम लोगों से इसके सिवा कुछ और उम्मीद की जा सकती है कि अगर तुम उलटे मुँह फिर गए33 तो ज़मीन में फिर फ़साद (बिगाड़) फैलाओगे और आपस में एक-दूसरे के गले काटोगे?34
33. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'इन तवल्लैतुम'। इनका एक तर्जमा वह है जो हमने ऊपर अस्ल इबारत में किया है। और दूसरा तर्जमा यह है कि “अगर तुम लोगों के हाकिम बन गए।”
34. इस बात का एक मतलब यह है कि अगर इस वक़्त तुम इस्लाम की हिफ़ाज़त करने से जी चुराते हो और उस अज़ीमुश्शान इस्लाही (सुधारवादी) इनक़िलाब के लिए जान-माल की बाज़ी लगाने से मुँह मोड़ते हो जिसकी कोशिश मुहम्मद (सल्ल०) और ईमानवाले कर रहे हैं, तो इसका नतीजा आख़िर इसके सिवा और क्या हो सकता है कि तुम फिर उसी जाहिलियत के निज़ाम की तरफ़ पलट जाओ जिसमें तुम लोग सदियों से एक-दूसरे के गले काटते रहे हो, अपनी औलाद तक को ज़िन्दा दफ़्न करते रहे हो, और ख़ुदा की ज़मीन को ज़ुल्म और फ़साद से भरते रहे हो। दूसरा मतलब यह है कि जब तुम्हारी सीरत और किरदार (चरित्र) का हाल यह है कि जिस दीन पर ईमान लाने का तुमने इक़रार किया था उसके लिए तुम्हारे अन्दर कोई इख़लास (निष्ठा) और कोई वफ़ादारी नहीं है, और उसकी ख़ातिर कोई क़ुरबानी देने के लिए तुम तैयार नहीं हो, तो इस अख़लाक़ी हालत के साथ अगर अल्लाह तआला तुम्हें हुकूमत दे दे और दुनिया के मामलों की बागें तुम्हारे हाथ में आ जाएँ तो तुमसे ज़ुल्म व फ़साद और अपने ही भाइयों का क़त्ल करने के सिवा और किस चीज़ की उम्मीद की जा सकती है! यह आयत इस बात को साफ़ तौर से बयान करती है कि इस्लाम में रिश्ते-नाते तोड़ना हराम है। दूसरी तरफ़ क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर रिश्तेदारों के साथ अच्छा सुलूक करने को बड़ी नेकियों में गिना गया है और रिश्ते जोड़ने का हुक्म दिया गया है, (मिसाल के तौर पर देखिए; सूरा-2 बक़रा, आयतें—83; 177; सूरा-4 निसा, आयतें—8, 36; सूरा-16 नह्ल, आयत-90; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-26; सूरा-24 नूर, आयत-22)। रिह्म का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में क़रीबी ताल्लुक़ और रिश्तेदारी के लिए अलामती तौर पर इस्तेमाल होता है। एक शख़्स के तमाम रिश्तेदार, चाहे वे दूर के हों या क़रीब के, उसके 'ज़विल अरहाम' (रिश्तेदार) हैं। जिससे जितना ज़्यादा क़रीब का रिश्ता हो उसका हक़ आदमी पर उतना ही ज़्यादा है और उससे रिश्ता तोड़ना उतना ही बड़ा गुनाह है। सिला-रहमी (रिश्ता जोड़ना) यह है कि अपने रिश्तेदार के साथ जो नेकी करना भी आदमी के बस में हो उसमें कोताही न करे। और क़तअ-रहमी (रिश्ता तोड़ना) यह है कि आदमी उसके साथ बुरा सुलूक करे, या जो भलाई करना उसके लिए मुमकिन हो उससे जान-बूझकर पहलू बचा जाए। हज़रत उमर (रज़ि०) ने इसी आयत से दलील लेकर उम्मे-वलद (वह लौंडी जिसके मालिक से औलाद पैदा हुई हो) के बेचने को हराम ठहराया था और सहाबा किराम (रज़ि०) ने फ़ैसले को सही ठहराया था। हाकिम ने मुस्तदरक में हज़रत बुरैदा (रज़ि०) से यह रिवायत नक़्ल की है कि एक दिन मैं हज़रत उमर (रज़ि०) की मजलिस में बैठा था कि एकाएक मुहल्ले में शोर मच गया। पूछने पर मालूम हुआ कि एक लौंडी बेची जा रही है और उसकी लड़की रो रही है। हज़रत उमर (रज़ि०) ने उसी वक़्त अनसार और मुहाजिरों को इकट्ठा किया और उनसे पूछा कि जो दीन मुहम्मद (सल्ल०) लाए हैं क्या उसमें आप लोगों को रिश्ते काटने की भी कोई गुंजाइश मिलती है? सबने कहा कि नहीं। हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, “फिर क्या बात है कि आपके यहाँ माँ को बेटी से अलग किया जा रहा है? इससे बड़ी क़तअ-रहमी और क्या हो सकती है?” फिर उन्होंने यह आयत पढ़ी। लोगों ने कहा, “आपकी राय में इसको रोकने के लिए जो तरीक़ा मुनासिब हो वह अपनाएँ।” इसपर हज़रत उमर (रज़ि०) ने तमाम इस्लामी देशों के लिए यह आम हुक्म जारी कर दिया कि किसी ऐसी लौंडी को बेचा न जाए जिससे उसके मालिक के यहाँ औलाद पैदा हो चुकी हो, क्योंकि यह रिश्ता काटना है और यह हलाल (जाइज़) नहीं है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُ فَأَصَمَّهُمۡ وَأَعۡمَىٰٓ أَبۡصَٰرَهُمۡ ۝ 22
(23) ये लोग हैं जिनपर अल्लाह ने लानत की और उनको अन्धा और बहरा बना दिया।
أَفَلَا يَتَدَبَّرُونَ ٱلۡقُرۡءَانَ أَمۡ عَلَىٰ قُلُوبٍ أَقۡفَالُهَآ ۝ 23
(24) क्या इन लोगों ने क़ुरआन पर ग़ौर नहीं किया, या दिलों पर उनके ताले चढ़े हुए हैं?35
35. यानी या तो ये लोग क़ुरआन मजीद पर ग़ौर नहीं करते, या ग़ौर करने की कोशिश तो करते हैं, मगर उसकी तालीमात और उसके मानी और मतलब उनके दिलों में उतरते नहीं हैं, क्योंकि उनके दिलों पर ताले चढ़े हुए हैं। और यह जो फ़रमाया कि “दिलों पर उनके ताले चढ़े हुए हैं” तो इसका मतलब यह है कि उनपर वे ताले चढ़े हुए हैं जो हक़ीक़त को न पहचाननेवाले ऐसे दिलों के लिए ख़ास हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱرۡتَدُّواْ عَلَىٰٓ أَدۡبَٰرِهِم مِّنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡهُدَى ٱلشَّيۡطَٰنُ سَوَّلَ لَهُمۡ وَأَمۡلَىٰ لَهُمۡ ۝ 24
(25) हक़ीक़त यह है कि जो लोग हिदायत साफ़-साफ़ मालूम हो जाने के बाद उससे फिर गए, उनके लिए शैतान ने इस रवैये को आसान बना दिया है और झूठी उम्मीदों का सिलसिला उनके लिए बढ़ा रखा है।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لِلَّذِينَ كَرِهُواْ مَا نَزَّلَ ٱللَّهُ سَنُطِيعُكُمۡ فِي بَعۡضِ ٱلۡأَمۡرِۖ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِسۡرَارَهُمۡ ۝ 25
(26) इसी लिए उन्होंने अल्लाह के उतारे हुए दीन (धर्म) को नापसन्द करनेवालों से कह दिया कि कुछ मामलों में हम तुम्हारी मानेंगे।36 अल्लाह उनकी ये छिपी हुई बातें ख़ूब जानता है।
36. यानी ईमान का इक़रार करने और मुसलमानों के गरोह में शामिल हो जाने बावजूद वे अन्दर-ही-अन्दर इस्लाम के दुश्मनों से साँठ-गाँठ करते रहे और उनसे ये वादे करते रहे कि कुछ मामलों में हम तुम्हारा साथ देंगे।
فَكَيۡفَ إِذَا تَوَفَّتۡهُمُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَضۡرِبُونَ وُجُوهَهُمۡ وَأَدۡبَٰرَهُمۡ ۝ 26
(27) फिर उस वक़्त क्या हाल होगा जब फ़रिश्ते इनकी रूहें निकालेंगे और इनके मुँह और पीठों पर मारते हुए इन्हें ले जाएँगे?37
37. यानी दुनिया में तो यह रवैया उन्होंने इसलिए अपनाया कि अपने फ़ायदों की हिफ़ाज़त करते रहें और कुफ़्र और इस्लाम की जंग के ख़तरों से अपने-आपको बचाए रखें, लेकिन मरने के बाद ये अल्लाह की पकड़ से बचकर कहाँ जाएँगे? उस वक़्त तो इनकी कोई तदबीर फ़रिश्तों की मार से इनको न बचा सकेगी। यह आयत भी उन आयतों में से है जो बरज़ख़ के अज़ाब (यानी क़ब्र के अज़ाब) को बयान करती है। इससे साफ़ मालूम होता है कि मौत के वक़्त ही हक़ के इनकारियों, ख़ुदा के नाफ़रमानों और मुनाफ़िक़ों पर अज़ाब शुरू हो जाता है, और यह अज़ाब उस सज़ा से अलग चीज़ है जो क़ियामत में उनके मुक़दमे का फ़ैसला होने के बाद उनको दी जाएगी। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-97; सूरा-6 अनआम, आयतें—93, 94; सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-50; सूरा-16 नह्ल, आयतें—28 से 32; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—99, 100; सूरा-36 या-सीन, आयतें—26, 27 (हाशिए—22, 23 सहित); सूरा-40 मोमिन, आयत-46 (हाशिया-63 सहित)।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمُ ٱتَّبَعُواْ مَآ أَسۡخَطَ ٱللَّهَ وَكَرِهُواْ رِضۡوَٰنَهُۥ فَأَحۡبَطَ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 27
(28) यह इसी लिए तो होगा कि इन्होंने उस तरीक़े की पैरवी की जो अल्लाह को नाराज़ करनेवाला है और उसको राज़ी करनेवाला रास्ता इख़्तियार करना पसन्द न किया। इसी बुनियाद पर उसने इनके सब आमाल (कर्म) अकारथ कर दिए।38
38. 'आमाल' से मुराद वे तमाम आमाल हैं जो मुसलमान बनकर वे करते रहे। उनकी नमाज़ें, उनके रोज़े, उनकी ज़कात, ग़रज़ वे तमाम इबादतें और वे सारी नेकियाँ जो अपनी ज़ाहिरी शक्ल के एतिबार से अच्छे कामों में गिनी जाती थीं इस वजह से अकारथ हो गईं कि उन्होंने मुसलमान होते हुए भी अल्लाह और उसके दीन और मुस्लिम समाज के साथ ख़ुलूस और वफ़ादारी का रवैया न अपनाया, बल्कि सिर्फ़ अपने दुनियावी फ़ायदे के लिए इस्लाम के दुश्मनों के साथ साँठ-गाँठ करते रहे और अल्लाह की राह में जिहाद का मौक़ा आते ही अपने-आपको ख़तरों से बचाने की फ़िक्र में लग गए। ये आयतें इस मामले में बिलकुल साफ़ एलान कर रही हैं कि कुफ़्र और इस्लाम की जंग में जिस शख़्स की हमदर्दियाँ इस्लाम और मुसलमानों के साथ न हों, या कुफ़्र और कुफ़्र (हक़ का इनकार) करनेवालों के साथ हों, उसका ईमान ही सिरे से भरोसेमन्द नहीं है, कहाँ यह कि उसका कोई अमल अल्लाह के यहाँ क़ुबूल हो।
أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَن لَّن يُخۡرِجَ ٱللَّهُ أَضۡغَٰنَهُمۡ ۝ 28
(29) क्या वे लोग जिनके दिलों में बीमारी है, यह समझे बैठे हैं कि अल्लाह उनके दिलों के खोट ज़ाहिर नहीं करेगा?
وَلَوۡ نَشَآءُ لَأَرَيۡنَٰكَهُمۡ فَلَعَرَفۡتَهُم بِسِيمَٰهُمۡۚ وَلَتَعۡرِفَنَّهُمۡ فِي لَحۡنِ ٱلۡقَوۡلِۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 29
(30) हम चाहें तो उन्हें तुमको आँखों से दिखा दें और उनके चेहरों से तुम उनको पहचान लो। मगर उनके बात करने के अन्दाज़ से तो उनको जान ही लोगे। अल्लाह तुम सबके आमाल को ख़ूब जानता है।
وَلَنَبۡلُوَنَّكُمۡ حَتَّىٰ نَعۡلَمَ ٱلۡمُجَٰهِدِينَ مِنكُمۡ وَٱلصَّٰبِرِينَ وَنَبۡلُوَاْ أَخۡبَارَكُمۡ ۝ 30
(31) हम ज़रूर तुम लोगों को आज़माइश में डालेंगे, ताकि तुम्हारे हालात जाँच करें और देख लें कि तुममें मुजाहिद (जिद्दो-जुह्द करनेवाले) और जमे रहनेवाले कौन हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَشَآقُّواْ ٱلرَّسُولَ مِنۢ بَعۡدِ مَا تَبَيَّنَ لَهُمُ ٱلۡهُدَىٰ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗا وَسَيُحۡبِطُ أَعۡمَٰلَهُمۡ ۝ 31
(32) जिन लोगों ने कुफ़्र किया और अल्लाह की राह से रोका और रसूल से झगड़ा किया, जबकि उनपर सीधी राह खुल चुकी थी, हक़ीक़त में वे अल्लाह का कोई नुक़सान भी नहीं कर सकते, बल्कि अल्लाह ही उनका सब किया-कराया अकारथ कर देगा।39
39. इस जुमले के दो मतलब हैं : एक यह कि जिन कामों को उन्होंने अपने नज़दीक नेक समझकर किया है, अल्लाह उन सबको अकारथ कर देगा और आख़िरकार उनका कोई बदला भी वे न पा सकेंगे। दूसरा मतलब यह कि जो तदबीरें भी वे अल्लाह और उसके रसूल के दीन का रास्ता रोकने के लिए कर रहे हैं, वे सब नाकाम और नामुराद हो जाएँगी।
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ تُدۡعَوۡنَ لِتُنفِقُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ فَمِنكُم مَّن يَبۡخَلُۖ وَمَن يَبۡخَلۡ فَإِنَّمَا يَبۡخَلُ عَن نَّفۡسِهِۦۚ وَٱللَّهُ ٱلۡغَنِيُّ وَأَنتُمُ ٱلۡفُقَرَآءُۚ وَإِن تَتَوَلَّوۡاْ يَسۡتَبۡدِلۡ قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ ثُمَّ لَا يَكُونُوٓاْ أَمۡثَٰلَكُم ۝ 32
(38) देखो, तुम लोगों को दावत दी जा रही है कि अल्लाह की राह में माल ख़र्च करो। इसपर तुममें से कुछ लोग हैं जो कंजूसी कर रहे हैं, हालाँकि जो कंजूसी करता है वह हक़ीक़त में अपने-आप ही से कंजूसी कर रहा है। अल्लाह तो ग़नी (धनी) है, तुम ही उसके मुहताज हो। अगर तुम मुँह मोड़ोगे तो अल्लाह तुम्हारी जगह किसी और क़ौम को ले आएगा और वे तुम जैसे न होंगे।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ وَلَا تُبۡطِلُوٓاْ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 33
(33) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम अल्लाह की फ़रमाँबरदारी करो और रसूल की पैरवी करो और अपने आमाल को बरबाद न कर लो।40
40. दूसरे अलफ़ाज़ में आमाल (काम) उसी वक़्त फ़ायदेमन्द हो सकते हैं और नतीजा उसी वक़्त सामने आ सकता है जब आदमी अल्लाह और उसके रसूल का फ़रमाँबरदार हो। फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ने के बाद कोई अमल भी नेक अमल नहीं रहता कि आदमी उसपर कोई नेक बदला पाने का हक़दार हो सके।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ ثُمَّ مَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٞ فَلَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡ ۝ 34
(34) कुफ़्र करनेवालों और ख़ुदा की राह से रोकनेवालों और मरते दम तक कुफ़्र पर जमे रहनेवालों को तो अल्लाह हरगिज़ माफ़ न करेगा।
فَلَا تَهِنُواْ وَتَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱلسَّلۡمِ وَأَنتُمُ ٱلۡأَعۡلَوۡنَ وَٱللَّهُ مَعَكُمۡ وَلَن يَتِرَكُمۡ أَعۡمَٰلَكُمۡ ۝ 35
(35) तो तुम बोदे न बनो और सुलह की दरख़ास्त न करो।41 तुम ही ग़ालिब (हावी) रहनेवाले हो। अल्लाह तुम्हारे साथ है और तुम्हारे आमाल को वह हरगिज़ अकारथ न करेगा।
41. यहाँ यह बात भी निगाह में रहनी चाहिए कि यह बात उस ज़माने में कही गई जब सिर्फ़ मदीना की छोटी-सी बस्ती में कुछ सौ मुहाजिरों और अनसार का एक मुट्ठी-भर गरोह इस्लाम की अलमबरदारी कर रहा था और उसका मुक़ाबला सिर्फ़ क़ुरैश के ताक़तवर क़बीले ही से न नहीं, बल्कि पूरे अरब देश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों और मुशरिकों से था। इस हालत में फ़रमाया जा रहा है कि हिम्मत हारकर इन दुश्मनों से सुलह की दरख़ास्त न करने लगो, बल्कि सिर-धड़ की बाज़ी लगा देने के लिए तैयार हो जाओ। इस बात का यह मतलब नहीं है कि मुसलमानों को कभी सुलह की बातचीत करनी ही न चाहिए। बल्कि इसका मतलब यह है कि ऐसी हालत में सुलह की बात चलाना दुरुस्त नहीं है, जब उसका मतलब अपनी कमज़ोरी ज़ाहिर करना हो और उससे दुश्मन और ज़्यादा दिलेर हो जाएँ। मुसलमानों को पहले अपनी ताक़त का लोहा मनवा लेना चाहिए, उसके बाद वे सुलह की बातचीत करें तो कोई हरज नहीं।
إِنَّمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا لَعِبٞ وَلَهۡوٞۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ يُؤۡتِكُمۡ أُجُورَكُمۡ وَلَا يَسۡـَٔلۡكُمۡ أَمۡوَٰلَكُمۡ ۝ 36
(36) यह दुनिया की ज़िन्दगी तो एक खेल और तमाशा है42 अगर तुम ईमान रखो और परहेज़गारी के रास्ते पर चलते रहो तो अल्लाह तुम्हारे अज्र (इनाम) तुमको देगा और वह तुम्हारे माल तुमसे न माँगेगा।43
42. यानी आख़िरत मुक़ाबले में इस दुनिया की हैसियत इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि कुछ दिनों का दिल बहलावा है। यहाँ की कामयाबी और नाकामी कोई हक़ीक़ी और पाएदार चीज़ नहीं है जिसे कोई अहमियत हासिल हो। अस्ल ज़िन्दगी आख़िरत की ज़िन्दगी है जिसकी कामयाबी के लिए इनसान को फ़िक्र करनी चाहिए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-102)
43. यानी वह ग़नी (धनी) है, उसे अपने-आपके लिए तुमसे कुछ लेने की ज़रूरत नहीं है। अगर वह अपनी राह में तुमसे कुछ ख़र्च करने के लिए कहता है तो वह अपने लिए नहीं, बल्कि तुम्हारी ही भलाई के लिए कहता है।
إِن يَسۡـَٔلۡكُمُوهَا فَيُحۡفِكُمۡ تَبۡخَلُواْ وَيُخۡرِجۡ أَضۡغَٰنَكُمۡ ۝ 37
(37) अगर कहीं वह तुम्हारे माल तुमसे माँग ले और सब-के-सब तुमसे तलब कर ले तो तुम कंजूसी करोगे और वह तुम्हारे खोट उभार लाएगा।44
44. यानी इतनी बड़ी आज़माइश में वह तुम्हें नहीं डालता जिससे तुम्हारी कमज़ोरियाँ उभर आएँ।