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سُورَةُ الفُرۡقَانِ

25. अल-फ़ुरक़ान 

(मक्का में उतरी-आयतें 77)

परिचय

नाम

पहली ही आयत 'त बा-र-कल्लज़ी नज़्ज़-लल फ़ुर-क़ान' अर्थात् 'बहुत ही बरकतवाला है वह, जिसने यह फ़ुरक़ान (कसौटी) अवतरित किया' से लिया गया है। यह भी क़ुरआन की अधिकतर सूरतों के नामों की तरह पहचान के रूप में है, न कि विषय के शीर्षक के रूप में। फिर भी इस सूरा के विषय में यह नाम क़रीबी लगाव रखता है, जैसा कि आगे चलकर मालूम होगा।

उतरने का समय

वर्णन-शैली और विषय पर विचार करने से स्पष्ट हो जाता है कि इसके उतरने का समय भी वही है जो सूरा-23 मोमिनून आदि का है, अर्थात् मक्का निवास का मध्यकाल।

विषय और वार्ताएँ

इसमें उन सन्देहों और आपत्तियों पर वार्ता की गई है जो क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत और आपकी पेश की हुई शिक्षा पर मक्का के विधर्मियों की ओर से की जाती थीं। उनमें से एक-एक का जंचा-तुला उत्तर दिया गया है और साथ-साथ सत्य सन्देश से मुंँह मोड़ने के दुष्परिणाम भी स्पष्ट शब्दों में बताए गए हैं। अन्त में सूरा-23 मोमिनून की तरह ईमानवालों के नैतिक गुणों का एक चित्र खींचकर आम लोगों के सामने रख दिया गया है कि इस कसौटी पर कस कर देख लो, कौन खोटा है और कौन खरा है। एक ओर इस चरित्र एवं आचरण के लोग हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) की शिक्षा से अब तक तैयार हुए है और आगे तैयार करने की कोशिश हो रही है। दूसरी ओर नैतिकता का वह नमूना है जो आम अरबो में पाया जाता है और जिसे बाक़ी रखने के लिए अज्ञानता के ध्वजावाहक एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा रहे हैं। अब स्वयं फ़ैसला करो कि इन दोनों नमूनों में से किसे पसन्द करते हो? यह एक सांकेतिक प्रश्‍न था जो अरब के हर वासी के सामने रख दिया गया और कुछ साल के भीतर एक छोटी सी तादाद को छोड़कर सारी क़ौम ने इसका जो उत्तर दिया वह समय की किताब में लिखा जा चुका है।

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سُورَةُ الفُرۡقَانِ
25. अल-फ़ुरक़ान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
تَبَارَكَ ٱلَّذِي نَزَّلَ ٱلۡفُرۡقَانَ عَلَىٰ عَبۡدِهِۦ لِيَكُونَ لِلۡعَٰلَمِينَ نَذِيرًا
(1) बहुत बरकतवाला1 है वह जिसने यह फ़ुरक़ान2 अपने बन्दे पर उतारा है3 ताकि सारे जहानवालों के लिए ख़बरदार कर देनेवाला हो4
1. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘तबा-र-क' इस्तेमाल हुआ है जिसका पूरा मतलब किसी एक लफ़्ज़ तो दूर जुमले में भी अदा होना मुश्किल है। इसका माद्दा (धातु) 'ब र क’ है, जिससे दो मसदर (मूलस्रोत) 'ब-र-कतुन' और 'बुरूक' निकले हैं। 'ब-र-कतुन' में बढ़ने, बहुतायत होने और ज़्यादा होने का तसव्वुर है और 'बुरुक’ में जमे रहने, बाक़ी रहने और लाज़िम होने का तसव्वुर। फिर जब इस मसदर से 'तबा-र-क' का लफ़्ज़ बनाया जाता है तो इसमें इन्तिहा पर होने और मुकम्मल होने का तसव्वुर और शामिल हो जाता है और इसका मतलब इन्तिहाई बहुतायत और इन्तिहाई दरजे का टिकाऊपन हो जाता है। यह लफ़्ज़ अलग-अलग मौक़ों पर अलग-अलग हैसियतों से किसी चीज़ की बहुतायत के लिए, या उसके टिकाऊपन और बाक़ी रहने की कैफ़ियत बयान करने के लिए बोला जाता है। मसलन कभी इससे मुराद बुलन्दी में बहुत बढ़ जाना होता है। जैसे कहते हैं, 'तबारकतन-नख़्ल:' यानी फ़ुलाँ खजूर का पेड़ बहुत ऊँचा हो गया। इसमई कहता है कि एक बद्दू एक ऊँचे टीले पर चढ़ गया और अपने साथियों से कहने लगा, 'तबारकतु अलैकुम' (मैं तुमसे ऊँचा हो गया हूँ)। कभी इसे बड़ाई और बुज़ुर्गं में बढ़ जाने के लिए बोलते हैं। कभी इसको फ़ायदा पहुँचाने और भलाई में बढ़े हुए होने के लिए इस्तेमाल करते हैं। कभी इससे पाकीज़गी और तक़द्दुस (पावनता) में मुकम्मल होना मुराद होता है। और यही कैफ़ियत इसके मानी जमाव और ज़रूरी होने की भी है। मौक़ा और महल बता देता है कि किस जगह इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल किस मक़सद के लिए किया गया है। यहाँ जो बात आगे चलकर कही जा रही है उसको निगाह में रखा जाए तो मालूम होता है कि इस जगह अल्लाह तआला के लिए 'तबा-र-क' एक मानी में नहीं, बहुत-से मानी में इस्तेमाल हुआ है। जैसे— (1) बहुत एहसान करनेवाला और बहुत भला करनेवाला, इसलिए कि उसने अपने बन्दे को फ़ुरक़ान को अज़ीमुश्शान नेमत से नवाज़कर दुनिया भर को ख़बरदार करने का इन्तिज़ाम किया। (2) बहुत बुज़ुर्गीवाला और अज़ीम (महान), इसलिए कि ज़मीन व आसमान की बादशाही उसी की है। (3) बहुत पाकीज़ा और पाक, इसलिए कि उसका वुजूद शिर्क के हर धब्बे से पाक है। न कोई उसके जैसा है कि ख़ुदावन्दी (प्रभुत्व) की सिफ़त में उसके जैसी मिसाल बन सके और न उसके लिए मिट जाना और बदलाव कि उसे जानशीनी के लिए बेटे की ज़रूरत हो। (4) बहुत ही बुलन्द और बरतर, इसलिए कि बादशाही सारी की सारी उसी की है और किसी दूसरे का मर्तबा नहीं कि उसके इख़्तियारात (अधिकारों) में उसका साझी हो सके। (5) पूरी क़ुदरत रखनेवाला होने के एतिबार से बुलन्द और बरतर, इसलिए कि वह कायनात (सृष्टि) की हर चीज़ को पैदा करनेवाला और हर चीज़ की तक़दीर तय करनेवाला है (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-28 मोमिनून, हाशिया-14; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-19)
2. यानी क़ुरआन मजीद। ‘फ़ुरक़ान' मसदर है माद्दा 'फ़ र क़' से, जिसका मतलब है दो चीज़ों को अलग करना, या एक ही चीज़ के हिस्सों का अलग-अलग होना। क़ुरआन मजीद के लिए इस लफ़्ज़ का इस्तेमाल या तो 'फ़ारिक़’ (अलग-अलग करनेवाला) के मानी में हुआ है, या 'मफ़रूक़’ (अलग-अलग किया हुआ) के मानी में, या फिर इसको मुबालग़ा (अतिशयोक्ति) के लिए इस्तेमाल किया जाता है, यानी फ़र्क़ करने के मामले में उसका कमाल इतना बढ़ा हुआ है कि मानो वह ख़ुद ही फ़र्क़ है। अगर इसे पहले और तीसरे मानी में लिया जाए तो इसका सही तर्जमा कसौटी और फ़ैसला कर डालनेवाली चीज़ और फ़ैसले का पैमाना (Criterion) होगा। और अगर दूसरे मानी में लिया जाए तो इसका मतलब अलग-अलग हिस्सों पर मुश्तमिल (आधारित) और अलग-अलग वक़्तों में आनेवाले हिस्सों पर मुश्तमिल चीज़ का होगा। क़ुरआन मजीद को इन दोनों ही लिहाज़ से 'अल-फ़ुरक़ान' कहा गया है।
3. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘नज़्ज़-ल’ इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब है थोड़ा-थोड़ा करके उतरना। बात के इस तरह शुरू करने की मुनासबत आगे चलकर आयत-32 को पढ़ने से मालूम होगी, जहाँ मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के इस एतिराज पर बहस की गई है कि “यह क़ुरआन पूरा-का-पूरा एक ही वक़्त में क्यों न उतार दिया गया?”
4. यानी ख़बरदार करनेवाला, चौंकानेवाला, ग़फ़लत और गुमराही के बुरे नतीजों से डरानेवाला। इससे मुराद 'फ़ुरक़ान’ भी हो सकता है और वह 'बन्दा' भी, जिसपर फ़ुरक़ान उतारा गया। अलफ़ाज़ ऐसे हैं कि दोनों ही मुराद हो सकते हैं और हक़ीक़त के एतिबार से चूँकि दोनों एक हैं और एक ही काम के लिए भेजे गए हैं, इसलिए कहना चाहिए कि दोनों ही मुराद हैं। फिर यह जो फ़रमाया कि सारे जहानवालों के लिए ख़बरदार करनेवाला हो, तो इससे मालूम हुआ कि क़ुरआन की दावत और मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत (पैग़म्बरी) किसी एक देश के लिए नहीं, पूरी दुनिया के लिए है और अपने ही ज़माने के लिए नहीं, बल्कि आनेवाले तमाम ज़मानों के लिए है। यह बात कई जगहों पर क़ुरआन में बयान हुई है। मसलन फ़रमाया, “ऐ इनसानो! मैं तुम सब की तरफ़ अल्लाह का रसूल हूँ।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-158) “मेरी तरफ़ यह वह्य के ज़रिए से क़ुरआन भेजा गया है ताकि इसके ज़रिए से मैं तुम्हें और जिस-जिस को यह पहुँचे सबको ख़बरदार कर दूँ।” (सूरा-6 अनआम, आयत-19) “हमने तुमको सारे ही इनसानों के लिए ख़ुशख़बरी देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला बनाकर भेजा है। (सूरा-34 सबा, आयत-28) “और हमने तुमको तमाम दुनियावालों के लिए रहमत बनाकर भेजा है।” (सूरा-21 अम्बिया, आयत-107) और इसी बात को ख़ूब खोल-खोलकर नबी (सल्ल०) ने हदीसों में बार-बार बयान किया है कि “मैं काले और गोरे सबकी तरफ़ भेजा गया हूँ।” और “पहले एक नबी ख़ास तौर पर अपनी ही क़ौम की तरफ़ भेजा जाता था और में आम तौर पर तमाम इनसानों की तरफ़ भेजा गया हूँ।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) और “मैं तमाम दुनियावालों की तरफ़ भेजा गया हूँ और ख़त्म कर दिए गए मेरे आने पर पैग़म्बर।” (हदीस : मुस्लिम)
ٱلَّذِي لَهُۥ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَخَلَقَ كُلَّ شَيۡءٖ فَقَدَّرَهُۥ تَقۡدِيرٗا ۝ 1
(2) वह जो ज़मीन और आसमानों की बादशाही का मालिक5 है, जिसने किसी को बेटा नहीं बनाया है,6 जिसके साथ बादशाही में कोई साझी नहीं है,7 जिसने हर चीज़ को पैदा किया, फिर उसकी एक तक़दीर मुक़र्रर की।8
5. दूसरा तर्जुमा यह भी हो सकता है कि “आसमानों और ज़मीन की बादशाही उसी के लिए है,” यानी वही इसका हक़दार है और उसी के लिए वह ख़ास है, किसी दूसरे को न इसका हक़ पहुँचता है और न किसी दूसरे का इसमें कोई हिस्सा है।
6. यानी न तो किसी से उसका कोई ख़ानदानी ताल्लुक़ है और न किसी को उसने अपना मुँह बोला बेटा बनाया है। कोई हस्ती कायनात में ऐसी नहीं है कि अल्लाह तआला से नस्ली ताल्लुक़ की बुनियाद पर उसको माबूद होने का हक़ पहुँचता हो। उसका वुजूद अपने-आप में निराला है, कोई उसके जैसा नहीं और कोई ख़ुदाई ख़ानदान नहीं है कि अल्लाह की पनाह, एक ख़ुदा से कोई नस्ल चली हो और बहुत-से ख़ुदा पैदा होते चले गए हों। इसलिए शिर्क करनेवाले तमाम लोग सरासर जाहिल और गुमराह हैं जिन्होंने फ़रिश्तों, या जिन्नों, या कुछ इनसानों को ख़ुदा की औलाद समझा और इस बुनियाद पर उन्हें देवता और माबूद ठहरा लिया। इसी तरह वे लोग भी निरी जहालत और गुमराही में मुब्तला हैं जिन्होंने नस्ली ताल्लुक़ की बुनियाद पर न सही, किसी ख़ासियत की बुनियाद पर ही सही, अपनी जगह यह समझ लिया कि सारे जहान के ख़ुदा ने किसी शख़्स को अपना बेटा बना लिया है। “बेटा बना लेने” के इस तसव्वुर (धारणा) को जिस पहलू से भी देखा जाए यह सरासर अक़्ल के ख़िलाफ़ नज़र आता है, यह तो बहुत दूर की बात है कि उसे हक़ीक़त मान लिया जाए। जिन लोगों ने यह तसव्वुर गढ़ा उनके घटिया ज़ेहन, अल्लाह के वुजूद की बुलन्दी और बड़ाई का तसव्वुर कर ही नहीं सकते थे। उन्होंने उस बेमिसाल और बेनियाज़ (निस्पृह) हस्ती को इनसानों के जैसा समझ लिया जो या तो तन्हाई से घबराकर किसी दूसरे के बच्चे को गोद ले लेते हैं, या मुहब्बत के जज़बात की ज़्यादती से किसी को बेटा बना लेते हैं, या 'बेटा बनाने’ की इसलिए ज़रूरत महसूस करते हैं कि मरने के बाद कोई तो उनका वारिस और उनके नाम और काम को ज़िन्दा रखनेवाला हो। यही तीन वजहें हैं जिनकी बुनियाद पर इनसानी ज़ेहन में बेटा बनाने का ख़याल पैदा होता है और उनमें से जिस वजह को भी अल्लाह से जोड़ा जाए, सख़्त जहालत और गुस्ताख़ी और कमअक़्ली है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें, तसहीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिए—66-68)
7. अस्ल लफ़्ज़ 'मुल्क’ इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में बादशाही, इक़तिदारे-आला (सम्प्रभुत्व) और हाकिमिय्यत (Sovereignity) के लिए बोला जाता है। मतलब यह है कि अल्लाह ही सारी कायनात का अकेला और पूरी तरह मालिक है और हुकूमत के अधिकारों में बाल बराबर भी किसी का कोई हिस्सा नहीं है। यह चीज़ आप-से-आप इस बात को लाज़िम कर देती है कि फिर माबूद (उपास्य) भी उसके सिवा कोई नहीं है। इसलिए कि इनसान जिसको भी माबूद बनाता है यह समझकर बनाता है कि उसके पास कोई ताक़त है, जिसकी वजह से वह हमें किसी तरह का फ़ायदा या नुक़सान पहुँचा सकता है और हमारी क़िस्मतों पर अच्छा या बुरा असर डाल सकता है। बेज़ोर और बेअसर हस्तियों को पनाहगाह बनाने के लिए कोई बेवक़ूफ़-से-बेवक़ूफ़ इनसान भी कभी तैयार नहीं हो सकता। अब अगर यह मालूम हो जाए कि अल्लाह तआला के सिवा इस कायनात में किसी के पास भी कोई ज़ोर नहीं है तो फिर न कोई गर्दन उसके सिवा किसी के आगे आजिज़ी और नियाज़ (विनम्रता) ज़ाहिर करने के लिए झुकेगी, न कोई हाथ उसके सिवा किसी के आगे नज़्र (भेंट) पेश करने के लिए बढ़ेगा, न कोई ज़बान उसके सिवा किसी की हम्द (तारीफ़ और शुक्र) के तराने गाएगी या दुआ और दरख़ास्त के लिए खुलेगी और न दुनिया का कोई नादान-से-नादान आदमी भी कभी यह बेवक़ूफ़ी करेगा कि वह अपने हक़ीक़ी ख़ुदा के सिवा किसी और की फ़रमाँबरदारी और बन्दगी करे, या किसी को अपने-आप में हुक्म चलाने का हक़दार माने। इस बात को और ज़्यादा ताक़त ऊपर के इस जुमले से पहुँचती है कि “आसमानों और ज़मीन की बादशाही उसी की है और उसी के लिए है।"
8. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “हर चीज़ को एक ख़ास अन्दाज़े पर रखा” या “हर चीज़ के लिए ठीक-ठीक पैमाना तय कर दिया।” लेकिन चाहे कोई तर्जमा भी किया जाए, बहरहाल उससे पूरा मतलब अदा नहीं होता। पूरा मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने सिर्फ़ यही नहीं किया कि वह कायनात की हर चीज़ को वुजूद में लाया है, बल्कि वही है जिसने एक-एक चीज़ के लिए सूरत, साख़्त, क़ुव्वत व सलाहियत, आदतें और ख़ासियतें, काम और काम करने का ढंग, दुनिया में बाक़ी रहने की मुद्दत, तरक़्क़ी की हद और दूसरी वे तमाम तफ़सीलात तय की हैं जो उन चीज़ों से ताल्लुक़ रखती हैं और फिर उसी ने इस दुनिया में वे असबाब और वसाइल (साधन-संसाधन) और मौक़े पैदा किए हैं जिनकी बदौलत हर चीज़ यहाँ अपने-अपने दायरे में अपने हिस्से का काम कर रही है। इस एक आयत में तौहीद (एकेश्वरवाद) की पूरी तालीम समेट दी गई है। क़ुरआन मजीद की ऐसी आयतों में से, जो अपने अन्दर कई गहरे मतलब रखती हैं, यह एक अज़ीमुश्शान आयत है जिसके कुछ लफ़्ज़ों में इतना बड़ा मज़मून (विषय) समो दिया गया है कि एक पूरी किताब भी उसकी गहराइयों को समेटने के लिए काफ़ी नहीं हो सकती। हदीस में आता है कि “नबी (सल्ल०) का यह तरीक़ा था कि आप (सल्ल०) के ख़ानदान (बनी-अब्दुल-मुत्तलिब) में जब किसी बच्चे की ज़बान खुल जाती थी तो आप (सल्ल०) उसे यह आयत सिखाते थे।” (अब्दुर्रज़्ज़ाक, इब्ने-अबी-शैबा, अम्र-बिन-शुऐब की अपने दादा की रिवायत से) इससे मालूम हुआ कि आदमी के ज़ेहन में तौहीद का पूरा तसव्वुर बिठाने के लिए यह आयत एक ज़रिआ है। हर मुसलमान को चाहिए कि उसके बच्चे जब होशियार होने लगे तो शुरू ही में उनके मन में यह बात बिठा दे।
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةٗ لَّا يَخۡلُقُونَ شَيۡـٔٗا وَهُمۡ يُخۡلَقُونَ وَلَا يَمۡلِكُونَ لِأَنفُسِهِمۡ ضَرّٗا وَلَا نَفۡعٗا وَلَا يَمۡلِكُونَ مَوۡتٗا وَلَا حَيَوٰةٗ وَلَا نُشُورٗا ۝ 2
(3) लोगों ने उसे छोड़कर ऐसे माबूद बना लिए जो किसी चीज़ को पैदा नहीं करते, बल्कि ख़ुद पैदा किए जाते हैं,9 जो ख़ुद अपने लिए भी किसी फ़ायदे या नुक़सान का इख़्तियार नहीं रखते, जो न मार सकते हैं, न जिला सकते हैं, न मरे हुए को फिर उठा सकते हैं।10
9. अपने अन्दर कई मानी को समेटे हुए अलफ़ाज़़ हैं जो हर तरह के जाली माबूदों पर हावी हैं। वे भी जिनको अल्लाह ने पैदा किया और इनसान उनको माबूद मान बैठा, मसलन फ़रिश्ते जिन्न, पैग़म्बर, नेक बुज़ुर्ग, सूरज, चाँद, सितारे, पेड़, नदियाँ और जानवर वग़ैरा। और वे भी जिनको इनसान ख़ुद बनाता है और ख़ुद ही माबूद बना लेता है, मसलन पत्थर और लकड़ी के बुत।
10. ख़ुलासा यह कि अल्लाह तआला ने अपने एक बन्दे पर फ़ुरक़ान इसलिए उतारा कि हक़ीक़त तो थी वह और लोग उसको भुलाकर पड़ गए इस गुमराही में। लिहाज़ा एक बन्दा ख़बरदार करनेवाला बनाकर उठाया गया है, ताकि लोगों को इस बेवक़ूफ़ी के बुरे नतीजों से ख़बरदार करे और उसपर थोड़ा-थोड़ा करके यह फ़ुरक़ान उतारना शुरू किया गया है, ताकि इसके ज़रिए से वह हक़ को बातिल से और खरे को खोटे से अलग करके दिखा दे।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّآ إِفۡكٌ ٱفۡتَرَىٰهُ وَأَعَانَهُۥ عَلَيۡهِ قَوۡمٌ ءَاخَرُونَۖ فَقَدۡ جَآءُو ظُلۡمٗا وَزُورٗا ۝ 3
(4) जिन लोगों ने नबी की बात मानने से इनकार कर दिया है, वे कहते हैं कि यह फ़ुरक़ान एक मनगढ़न्त चीज़ है जिसे इस आदमी ने आप ही गढ़ लिया है और कुछ दूसरे लोगों ने इस काम में इसकी मदद की है। बड़ा ज़ुल्म11 और सख़्त झूठ है जिसपर ये लोग उतर आए हैं।
11. दूसरा तर्जमा “बड़ी बेइनसाफ़ी की बात” भी हो सकता है।
وَقَالُوٓاْ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ٱكۡتَتَبَهَا فَهِيَ تُمۡلَىٰ عَلَيۡهِ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلٗا ۝ 4
(5) कहते हैं, “ये पुराने लोगों की लिखी हुई चीज़ें हैं जिन्हें यह शख़्स नक़्ल कराता है और वे इसे सुबह-शाम सुनाई जाती हैं।"
قُلۡ أَنزَلَهُ ٱلَّذِي يَعۡلَمُ ٱلسِّرَّ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّهُۥ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 5
(6) ऐ नबी, इनसे कहो, “इसे उतारा है उसने जो ज़मीन और आसमानों का राज़ (भेद) जानता, है।"12 हक़ीक़त यह है कि वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।13
12. यह वही एतिराज़ है जो इस ज़माने के मग़रिबी मुस्तशरिक़ीन (पश्चिम के ग़ैर-मुस्लिम आलिम जो इस्लाम का आलोचनात्मक अध्ययन करनेवाले है) क़ुरआन मजीद के ख़िलाफ़ पेश करते हैं। लेकिन यह अजीब बात है कि नबी (सल्ल०) के ज़माने के दुश्मनों में से किसी ने भी यह नहीं कहा कि तुम बचपन में बुहैरा राहिब से जब मिले थे, उस वक़्त ये सारी बातें तुमने सीख ली थीं और न यह कहा कि जवानी में जब तुम तिज़ारती सफ़रों के सिलसिले में बाहर जाया करते थे, उस ज़माने में तुमने ईसाई राहिबों और यहूदी रिब्बियों से ये जानकारियाँ हासिल की थीं। इसलिए कि इन सारे सफ़रों का हाल उनको मालूम था। ये सफ़र अकेले नहीं हुए थे, उनके अपने क़ाफ़िलों के साथ हुए थे और वे जानते थे कि उनमें कुछ सीख आने का इलज़ाम हम लगाएँगे तो हमारे अपने ही शहर में सैकड़ों ज़बानें हमको झुठला देंगी। इसके अलावा मक्का का हर आदमी पूछेगा कि अगर ये मालूमात इस आदमी को बारह-तेरह साल की उम्र ही में बुहैरा से हासिल हो गई थी, या 25 साल की उम्र से, जबकि उसने तिजारती सफ़र शुरू किए थे, हासिल होनी शुरू हो गई थी तो आख़िर यह आदमी कहीं बाहर तो नहीं रहता था, हमारे ही दरमियान रहता-बसता था। क्या वजह है कि चालीस साल की उम्र तक उसका यह सारा इल्म छिपा रहा और कभी एक लफ़्ज़ भी इसकी ज़बान से ऐसा न निकला जो इस इल्म को ज़ाहिर करता? यही वजह है कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने इतने सफ़ेद झूठ की जुरअत न की और उसे बाद के ज़्यादा बेशर्म लोगों के लिए छोड़ दिया। वे जो बात कहते थे वह पैग़म्बरी से पहले के बारे में नहीं, बल्कि पैग़म्बरी के दावे के बारे में थी। उनका कहना यह था कि यह आदमी अनपढ़ है। ख़ुद पढ़ करके नई मालूमात हासिल नहीं कर सकता। पहले इसने कुछ सीखा न था। चालीस साल की उम्र तक उन बातों में से कोई बात भी न जानता था जो आज इसकी ज़बान से निकल रही हैं। अब आख़िर ये जानकारियाँ आ कहाँ से रही हैं? जहाँ से ये बातें ली जा रही हैं वे ज़रूर कुछ पिछले ज़माने के लोगों की किताबें हैं जिनमें से बीच-बीच में से कुछ हिस्से रातों को चुपके-चुपके तर्जमा और नक़्ल कराए जाते हैं, उन्हें किसी से यह शख़्स पढ़वाकर सुनता है और फिर उन्हें याद करके हमें दिन को सुनाता है। रिवायतों से मालूम होता है कि इस सिलसिले में वे कुछ आदमियों के नाम भी लेते थे जो अहले-किताब (यहूदी और ईसाई) थे, पढ़े-लिखे थे और मक्का में रहते थे, यानी अद्दास (हुवैतिब-बिन-अब्दुल-उज़्ज़ा का आज़ाद किया हुआ ग़ुलाम), यसार (अला-बिन-अल-हज़रमी का आज़ाद किया हुआ ग़ुलाम) और जब्र (आमिर-बिन-रबीआ का आज़ाद किया हुआ ग़ुलाम)। बज़ाहिर बड़ा वज़नी एतिराज मालूम होता है। वह्य के दावे को रद्द करने के लिए उन चीज़ों की निशानदेही कर देने से बढ़कर जिनसे नबी ये बातें हासिल करता है और कौन-सा एतिराज़ वज़नी हो सकता है। आदमी पहली ही नज़र में यह देखकर हैरान रह जाता है कि जवाब में सिरे से कोई दलील पेश नहीं की गई, बल्कि सिर्फ़ यह कहकर बात ख़त्म कर दी गई कि तुम सच्चाई पर ज़ुल्म कर रहे हो, खुली बेइनसाफ़ी की बात कह रहे हो, सख़्त झूठ का तूफ़ान उठा रहे हो, यह तो उस ख़ुदा का कलाम है जो आसमान और ज़मीन का राज़ (भेद) जानता है क्या यह हैरत की बात नहीं कि सख़्त मुख़ालफ़त के माहौल में ऐसा ज़ोरदार एतिराज़ पेश किया जाए और उसको यूँ नफ़रत से रद्द कर दिया जाए? क्या सचमुच यह ऐसा ही बेमतलब और बेवजह एतिराज़ था कि इसके जवाब में बस 'झूठ और ज़ुल्म' कह देना काफ़ी था? आख़िर वजह क्या है कि इस मुख़्तसर से जवाब के बाद न आम लोगों ने किसी तफ़सीली और साफ़ जवाब की माँग की, न नए-नए ईमान लानेवालों के दिलों में कोई शक पैदा हुआ और न मुख़ालफ़त करनेवालों ही में से किसी को यह कहने की हिम्मत हुई कि देखो, हमारे इस वज़नी एतिराज़ का जवाब बन नहीं पड़ रहा है और सिर्फ़ झूठ और ज़ुल्म कहकर बात टाली जा रही है। इस गुत्थी का हल हमें उसी माहौल से मिल जाता है जिसमें इस्लाम के मुख़ालिफ़ों ने यह एतिराज़ किया था— पहली बात यह थी कि मक्का के वे ज़ालिम सरदार जो एक-एक मुसलमान को मारते-कूटते और तंग करते फिर रहे थे, उनके लिए यह बात कुछ मुश्किल न थी कि जिन-जिन लोगों के बारे में वे कहते थे कि ये पुरानी-पुरानी किताबों के तर्जमे कर-कर के मुहम्मद (सल्ल०) को याद कराया करते हैं, उनके घरों पर और ख़ुद नबी (सल्ल०) के घर पर छापा मारते और वह सारा ज़ख़ीरा बरामद करके आम लोगों के सामने ला रखते जो उनके दावे के मुताबिक़ इस काम के लिए जुटाया गया था। वे ठीक उस वक़्त छापा मार सकते थे जबकि यह काम किया जा रहा हो और एक भीड़ को दिखा सकते थे कि लो देखो, ये नुबूवत (पैग़म्बरी) की तैयारियों हो रही हैं। बिलाल (रज़ि०) को तपती हुई रेत पर घसीटनेवालों के लिए ऐसा करने में कोई दस्तूर और क़ानून रुकावट न था और ऐसा करके वे हमेशा के लिए मुहम्मद (सल्ल०) को पैग़म्बरी के ख़तरे को मिटा सकते थे। मगर वे बस ज़बानी एतिराज़ ही करते रहे और एक दिन भी यह फ़ैसलाकुन क़दम उठाकर उन्होंने न दिखाया। दूसरी बात यह थी कि इस सिलसिले में वे जिन लोगों के नाम लेते थे वे कहीं बाहर के न थे, उसी मक्का शहर के रहनेवाले थे। उनकी क़ाबिलियतें किसी से छिपी हुई न थीं। हर शख़्स जो थोड़ी-सी अक़्ल भी रखता था, यह देख सकता था कि मुहम्मद (सल्ल०) जो चीज़ पेश कर रहे हैं वह किस दरजे की है, किस शान की ज़बान है, किस बुलन्दी का अदब (साहित्य) है, बात में कितना ज़ोर और असर है, कैसे बुलन्द ख़यालात और कैसी बातें हैं और वे किस दरजे के लोग हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि मुहम्मद (सल्ल०) उनसे यह सब कुछ हासिल कर-करके ला रहे हैं। इसी वजह से किसी ने भी इस राज़ को काई वज़न न दिया। हर शख़्स समझता था कि इन बातों से बस दिल के जले फफोले फोड़े जा रहे हैं, वरना इस बात में किसी शक के क़ाबिल भी जान नहीं है। जो लोग इन लोगों को जानते न थे वे भी आख़िर इतनी ज़रा-सी बात तो सोच सकते थे कि अगर ये लोग ऐसी ही क़ाबिलियत रखते थे तो आख़िर उन्होंने ख़ुद अपना चिराग़ क्यों न जलाया? एक-दूसरे आदमी के चिराग़ के लिए तेल जुटाने की उन्हें ज़रूरत क्या पड़ी थी? और वह भी चुपके-चुपके कि इस काम की चर्चा का ज़रा-सा हिस्सा भी उनको न मिले? तीसरी बात यह थी कि वे सब लोग, जिनका इस सिलसिले में नाम लिया जा रहा था, दूसरे देशों से आए हुए ग़ुलाम थे, जिनको उनके मालिकों ने आज़ाद कर दिया था। अरब की क़बीलेवाली ज़िन्दगी में कोई शख़्स भी किसी ताक़तवर क़बीले की हिमायत के बिना न जी सकता था। आज़ाद हो जाने पर भी ग़ुलाम अपने पिछले मालिकों की सरपरस्ती में रहते थे और उनकी हिमायत ही समाज में उनके लिए ज़िन्दगी का सहारा होती थी। अब यह ज़ाहिर बात थी कि अगर मुहम्मद (सल्ल०) उन लोगों की बदौलत, अल्लाह की पनाह, एक झूठी पैग़म्बरी की दुकान चला रहे थे तो ये लोग किसी ख़ुलूस (निष्ठा) और अच्छी नीयत के साथ तो इस साज़िश में आपके साझी न हो सकते थे। आख़िर ऐसे आदमी के वे मुख़लिस (निष्ठावान) साथी और सच्चे अक़ीदतमन्द कैसे हो सकते थे, जो रात को उन्हीं से कुछ बातें सीखता हो और दिन को दुनिया भर के सामने यह कहकर पेश करता हो कि यह ख़ुदा की तरफ़ से मुझपर वह्य उतरी है। इसलिए उनकी साझेदारी किसी लालच और किसी ग़रज़ ही की बुनियाद पर हो सकती थी। मगर समझ-बूझ रखनेवाला कौन आदमी यह मान सकता था कि ये लोग ख़ुद अपने सरपरस्तों को नाराज़ करके मुहम्मद (सल्ल०) के साथ इस साज़िश में शरीक हो गए होंगे? आख़िर क्या लालच हो सकता था जिसकी वजह से वे ऐसे आदमी के साथ मिल जाते जो सारी क़ौम के ग़ज़ब (प्रकोप) और तानों और दुश्मनी का शिकार था और अपने सरपरस्तों से कट जाने के नुक़सान को ऐसे मुसीबत के मारे आदमी से हासिल होनेवाले किसी फ़ायदे की उम्मीद पर गवारा कर लेते? फिर यह भी सोचने की बात थी कि उनके सरपरस्तों को यह मौक़ा तो आख़िर हासिल ही था कि मार-कूटकर उनसे इस साज़िश को क़ुबूल करा लें। इस मौक़े से उन्होंने क्यों न फ़ायदा उठाया और क्यों न सारी क़ौम के सामने ख़ुद उन्हीं से यह क़ुबूल करवा लिया कि हमसे सीख-सीखकर यह पैग़म्बरी की दुकान चमकाई जा रही है? सबसे ज़्यादा अजीब बात यह थी कि वे सब मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान लाए और उस मिसाली अक़ीदत में शामिल हुए जो सहाबा किराम (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की पाक हस्ती से रखते थे। क्या यह मुमकिन है कि बनावटी और साज़िशी पैग़म्बरी पर ख़ुद वही लोग ईमान लाएँ और गहरी अक़ीदत के साथ ईमान लाएँ, जिन्होंने उसके बनाने की साज़िश में ख़ुद हिस्सा लिया हो? और मान लीजिए कि अगर यह मुमकिन भी था तो उन लोगों को ईमानवालों की जमाअत में कोई रुतबा तो मिला होता। यह कैसे हो सकता था कि पैग़म्बरी का कारोबार तो चले अद्दास, यसार और जब्र के बल-बूते पर और नबी के दाहिने हाथ और मददगार बनें अबू-बक्र (रज़ि०) और उमर और अबू-उबैदा (रज़ि०)? इसी तरह यह बात भी बड़ी हैरानी की थी कि अगर कुछ आदमियों की मदद से रातों को बैठ-बैठकर नुबूवत के इस कारोबार का सामान तैयार किया जाता था तो वह ज़ैद-बिन-हारिसा (रज़ि०), अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०),अबू-बक़्र सिद्दीक़ (रज़ि०) और दूसरे उन लोगों से किस तरह छिप सकता था जो रात-दिन मुहम्मद (सल्ल०) के साथ लगे रहते थे? इस इलज़ाम में नाम के लिए भी सच्चाई की कोई बात होती तो कैसे मुमकिन था कि ये लोग इतने ज़्यादा ख़ुलूस के साथ नबी (सल्ल०) पर ईमान लाते और आप की हिमायत में हर तरह के ख़तरे और नुक़सान बरदाश्त करते? ये वजहें थीं जिनकी बुनियाद पर हर सुननेवाले की निगाह में यह एतिराज़ आप ही बेवज़न था। इसलिए क़ुरआन में इसको किसी वज़नी एतिराज़ की हैसियत से, जवाब देने के लिए नक़्ल नहीं किया गया है, बल्कि यह बताने के लिए इसका ज़िक्र किया गया है कि देखो, हक़ (सच) की दुश्मनी में ये लोग कैसे अंधे हो गए हैं और कितने साफ़ झूठ और बेइंसाफ़ी पर उतर आए हैं।
13. इस जगह यह जुमला अपने अन्दर कई मतलब रखता है। मतलब यह है कि क्या शान है ख़ुदा के रहम और माफ़ करने की सिफ़त की, जो लोग (सत्य) को नीचा दिखाने के लिए ऐसे-ऐसे झूठ के तूफ़ान उठाते हैं उनको भी वह मुहलत (छूट) देता है और सुनते ही अज़ाब का कोड़ा नहीं बरसा देता। इस चेतावनी के साथ इसमें एक पहलू नसीहत का भी है कि ज़ालिमो, अब भी अगर अपनी दुश्मनी ख़त्म कर दो और हक़ बात को सीधी तरह मान लो तो जो कुछ आज तक करते रहे हो, वह सब माफ़ हो सकता है।
وَقَالُواْ مَالِ هَٰذَا ٱلرَّسُولِ يَأۡكُلُ ٱلطَّعَامَ وَيَمۡشِي فِي ٱلۡأَسۡوَاقِ لَوۡلَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِ مَلَكٞ فَيَكُونَ مَعَهُۥ نَذِيرًا ۝ 6
(7) कहते हैं, “यह कैसा रसूल है जो खाना खाता है और बाज़ारों में चलता-फिरता है?14 क्यों न इसके पास कोई फ़रिश्ता भेजा गया जो इसके साथ रहता और (न माननेवालों को) धमकाता?15
14. पहले तो इनसान का रसूल होना ही अजीब बात है। ख़ुदा का पैग़ाम लेकर आता तो कोई फ़रिश्ता आता न कि एक हाड़-माँस का आदमी जो ज़िंदा रहने के लिए खाने-पीने का मुहताज हो। फिर भी अगर आदमी ही रसूल बनाया गया था तो कम-से-कम यह बादशाहों और दुनिया के बड़े लोगों की तरह एक आला दरजे की हस्ती होना चाहिए था, जिसे देखने के लिए आँखें तरसतीं और जिसके सामने हाज़िर होने का नसीब बड़ी कोशिशों से किसी को मिलता, न यह कि एक ऐसा आम आदमी सारे जहानों के ख़ुदा का पैग़म्बर बना दिया जाए जो बाज़ारों में चलता-फिरता हो। भला इस आदमी को कौन ख़ातिर में लाएगा जिसे हर राह चलता रोज़ देखता हो और किसी पहलू से भी उसके अन्दर कोई ग़ैर-मामूलीपन न पाता हो। दूसरे अलफ़ाज़ में उनकी राय में पैग़म्बर की ज़रूरत अगर थी तो आम लोगों को हिदायत देने के लिए नहीं, बल्कि अजूबा दिखाने या ठाट-बाट से धौंस जमाने के लिए थी। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-29 मोमिनून, हाशिया-26)
15. यानी अगर आदमी ही को नबी बनाया गया था तो एक फ़रिश्ता उसके साथ कर दिया जाता जो हर वक़्त कोड़ा हाथ में लिए रहता और लोगों से कहता कि मानो इसकी बात, वरना अभी ख़ुदा का अज़ाब बरसा देता हूँ। यह तो बड़ी अजीब बात है कि कायनात का मालिक एक ऐसे आदमी को पैग़म्बरी का इतना अहम और बुलन्द मंसब देकर बस यूँ ही अकेला छोड़ दे और वह लोगों से गालियाँ और पत्थर खाता फिरे।
أَوۡ يُلۡقَىٰٓ إِلَيۡهِ كَنزٌ أَوۡ تَكُونُ لَهُۥ جَنَّةٞ يَأۡكُلُ مِنۡهَاۚ وَقَالَ ٱلظَّٰلِمُونَ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا رَجُلٗا مَّسۡحُورًا ۝ 7
(8) या और कुछ नहीं तो इसके लिए कोई ख़ज़ाना ही उतार दिया जाता, या इसके पास कोई बाग़ ही होता जिससे यह (इत्मीनान की) रोज़ी हासिल करता।"16 और ये ज़ालिम कहते हैं, “तुम लोग तो एक जादू के मारे आदमी17 के पीछे लग गए हो।”
16. यह मानो आख़िरी दरजे में उनकी माँग थी कि अल्लाह मियाँ कम-से-कम इतना तो करते कि अपने पैग़म्बर के लिए रोज़ी का कोई अच्छा इन्तिज़ाम कर देते। यह क्या माजरा है कि ख़ुदा का रसूल हमारे मामूली रईसों से भी गया गुज़रा हो। न उसके पास ख़र्च के लिए माल मौजूद, न फल खाने को कोई बाग़ नसीब और दावा यह कि हम सारे जहानों रब अल्लाह के पैग़म्बर हैं।
17. यानी दीवाना। अरबवालों के नज़दीक दीवानगी की दो ही वजहें थीं। या तो किसी पर जिन्न का साया हो या किसी दुश्मन ने जादू करके पागल बना दिया हो। एक तीसरी वजह उनके नज़दीक और भी थी और वह यह कि किसी देवी-देवता की शान में कोई आदमी गुस्ताख़ी कर बैठा हो और उसकी मार पड़ गई हो। मक्का के इस्लाम-दुश्मन रह-रहकर ये तीनों वजहें नबी (सल्ल०) के बारे में बयान करते थे। कभी कहते कि इस आदमी पर किसी जिन्न का क़ब्ज़ा हो गया है। कभी कहते कि किसी दुश्मन ने बेचारे पर जादू कर दिया है और कभी कहते कि हमारे देवताओं में से किसी की बेअदबी करने का ख़मियाज़ा है जो बेचारा भुगत रहा है। लेकिन साथ ही इतना होशियार भी मानते थे कि एक इदारा और दफ़्तर इस आदमी ने क़ायम कर रखा है और पुरानी-पुरानी किताबों की इबारतें निकलवा-निकलवाकर याद करता है। इसके अलावा वे आप (सल्ल०) को जादूगर भी कहते थे, यानी आप (सल्ल०) उनके नज़दीक जादू का शिकार भी थे और जादूगर भी। इसपर एक और रद्दा शाइर होने की तुहमत का भी था।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ ضَرَبُواْ لَكَ ٱلۡأَمۡثَٰلَ فَضَلُّواْ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ سَبِيلٗا ۝ 8
(9) देखो कैसी-कैसी अजीब दलीलें ये लोग तुम्हारे आगे पेश कर रहे हैं, ऐसे बहके हैं कि कोई ठिकाने की बात इनको नहीं सूझती।18
18. ये एतिराज़ भी जवाब देने के लिए नहीं, बल्कि यह बताने के लिए नक़्ल किए जा रहे हैं कि एतिराज़ करनेवाले दुश्मनी और तास्सुब में कितने ज़्यादा अंधे हो चुके हैं। उनकी जो बातें ऊपर नक़्ल की गई हैं उनमें से कोई भी इस लायक़ नहीं है कि उसपर संजीदगी (गम्भीरता) के साथ चर्चा की जाए। उनका बस ज़िक्र कर देना ही यह बताने के लिए काफ़ी है कि मुख़ालफ़त करनेवालों का दामन सही और अक़्ली दलीलों से कितना ख़ाली है और वे कैसी लचर और बेहूदा बातों से दलीलों से भरी एक उसूली दावत का मुक़ाबला कर रहे हैं। एक शख़्स कहता है, “लोगो, यह शिर्क (अनेकेश्वरवाद) जिसपर तुम्हारे मज़हब (धर्म) और तमद्दुन (संस्कृति) की बुनियाद क़ायम है, एक ग़लत अक़ीदा (धारणा) है और उसके ग़लत होने की ये और ये दलीलें है।” जवाब में शिर्क के सही होने पर कोई दलील क़ायम नहीं की जाती, बस फबती कस दी जाती है कि “यह जादू का मारा हुआ आदमी है।” वह कहता है, “कायनात का सारा निज़ाम (व्यवस्था) तौहीद पर चल रहा है और ये-ये हक़ीक़तें हैं जो इसकी गवाही देती हैं।” जवाब में शोर उठता है, “जादूगर है!” वह कहता है, “तुम दुनिया में बेनकेल के ऊँट बनाकर नहीं छोड़ दिए गए हो, तुम्हें अपने रब के पास पलटकर जाना है। दूसरी ज़िन्दगी में अपने कामों का हिसाब देना है और इस हक़ीक़त पर ये अख़लाक़ी और ये ऐतिहासिक और ये इल्मी (ज्ञानपरक) और अक़्ली बातें दलील दे रही हैं।” जवाब में कहा जाता है, “शाइर है।” वह कहता है, “मैं अल्लाह की तरफ़ से तुम्हारे लिए सच्ची तालीम लेकर आया हूँ और यह है वह तालीम।” जवाब में उस तालीम पर तो कोई बात नहीं होती है और न उसका जाइज़ा लिया जाता है, बस बिना सुबूत एक इलज़ाम लगा दिया जाता है कि यह सब कुछ कहीं से नक़्ल कर लिया गया है वह अपने पैग़म्बर होने के सुबूत में ख़ुदा के मोजिज़ाना कलाम (चामत्कारिक बातों) को पेश करता है, ख़ुद अपनी ज़िन्दगी और अपनी सीरत और क़िरदार को पेश करता है और उस अख़लाक़ी इंक़िलाब को पेश करता है जो उसके असर से उसकी पैरवी करनेवालों की ज़िन्दगी में हो रहा था। मगर मुख़ालफ़त करनेवाले इनमें से किसी चीज़ को भी नहीं देखते। पूछते हैं तो यह पूछते हैं कि तुम खाते क्यों हो? बाजारों में क्यों चलते-फिरते हो? तुम्हारे साथ कोई फ़रिश्ता क्यों नहीं है। तुम्हारे पास कोई ख़ज़ाना या बाग़ क्यों नहीं है? ये बातें ख़ुद ही बता रही थीं कि दोनों में से कौन हक़ पर है और कौन उसके मुक़ाबले में बेबस होकर बेतुकी हाँक रहा है।
تَبَارَكَ ٱلَّذِيٓ إِن شَآءَ جَعَلَ لَكَ خَيۡرٗا مِّن ذَٰلِكَ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ وَيَجۡعَل لَّكَ قُصُورَۢا ۝ 9
(10) बड़ा बरकतवाला19 है वह जो अगर चाहे तो उनकी बताई हुई चीज़ों से भी ज़्यादा बढ़-चढ़कर तुमको दे सकता है, (एक नहीं) बहुत-से बाग़ जिनके नीचे नहरें बहती हों, और बड़े-बड़े महल।
19. अस्ल अरबी में यहाँ फिर वही 'तबा-र-क' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है और बाद का मज़मून बता रहा है कि इस जगह इसका मतलब है “बड़े वसीअ ज़रिओं (व्यापक साधनों) का मालिक है", “बेइन्तिहा क़ुदरत रखनेवाला है", “इससे बहुत बुलन्द है कि किसी के लिए भलाई करना चाहे और न कर सके।"
بَلۡ كَذَّبُواْ بِٱلسَّاعَةِۖ وَأَعۡتَدۡنَا لِمَن كَذَّبَ بِٱلسَّاعَةِ سَعِيرًا ۝ 10
(11) अस्ल बात यह है कि ये लोग “उस घड़ी"20 को झुठला चुके हैं21— और जो उस घड़ी को झुठलाए उसके लिए हमने भड़कती हुई आग तैयार कर रखी है।
20. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अस्साअत’ इस्तेमाल हुआ है। साअत का मतलब घड़ी और वक़्त है और ‘अल' उसपर अह्द (दौर) का है, यानी वह ख़ास घड़ी जो आनेवाली है, जिसके बारे में हम पहले ही तुमको ख़बर दे चुके हैं। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह यह लफ़्ज़ एक इस्तिलाह (पारिभाषिक शब्द) के तौर पर उस ख़ास वक़्त के लिए बोला गया है जबकि क़ियामत क़ायम होगी, तमाम पहले और बाद के लोग नए सिरे से ज़िन्दा करके उठाए जाएँगे, सबको इकट्ठा करके अल्लाह तआला हिसाब लेगा और हर एक को उसके अक़ीदे और अमल के लिहाज़ से इनाम या सज़ा देगा।
21. यानी जो बातें ये कर रहे हैं उनकी वजह यह नहीं है कि उनको सचमुच किसी मानने लायक़ बुनियाद पर क़ुरआन के जाली होने का शक है, या उनको हक़ीक़त में यह गुमान है कि जिन आज़ाद किए हुए ग़ुलामों के नाम ये लेते हैं, वही तुमको सिखाते-पढ़ाते हैं, या उन्हें तुम्हारे पैग़म्बर (रसूल) होने पर ईमान लाने से बस इस चीज़ ने रोक रखा है कि तुम खाना- खाते और बाज़ारों में चलते-फिरते हो, या वे तुम्हारी हक़ की तालीम को मान लेने के लिए तैयार थे, मगर सिर्फ़ इसलिए रुक गए थे कि न कोई फ़रिश्ता तुम्हारे साथ था और न तुम्हारे लिए कोई ख़ज़ाना उतारा गया था। अस्ल वजह इनमें से कोई भी नहीं है, बल्कि आख़िरत का इनकार है जिसकी वजह से ये हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) के मामले को संजीदगी (गम्भीरता) से लेते ही नहीं। इसी का नतीजा है कि वे सिरे से किसी सोच-विचार और जाँच-पड़ताल की ज़रूरत ही महसूस नहीं करते और अक़्ल को अपील करनेवाली तुम्हारी दावत को रद्द करने के लिए ऐसी-ऐसी दलीलें पेश करने लगते हैं, जिनपर हँसी आती है उनके ज़ेहन इस ख़याल से ख़ाली हैं कि इस ज़िन्दगी के बाद कोई ओर ज़िन्दगी भी है जिसमें उन्हें ख़ुदा के सामने जाकर अपने आमाल (कर्मों) का हिसाब देना होगा। ये समझते हैं कि इस चार दिन की ज़िन्दगी के बाद मरकर सबको मिट्टी हो जाना है। बुतपरस्त भी मिट्टी हो जाएगा और ख़ुदापरस्त भी और ख़ुदा का इनकार करनेवाला भी। नतीजा किसी चीज़ का भी कुछ नहीं निकलना है। फिर क्या फ़र्क़ पड़ जाता है बहुत-से ख़ुदाओं को माननेवाला होकर मरने और एक ख़ुदा को माननेवाला या ख़ुदा का इनकार करनेवाला होकर मरने में सही और ग़लत के फ़र्क़ की अगर उनके नज़दीक कोई ज़रूरत है तो इस दुनिया की कामयाबी और नाकामी के लिहाज़ से है। और यहाँ वे देखते हैं कि किसी अक़ीदे या अख़लाक़ी उसूल का भी कोई तयशुदा नतीजा नहीं है जो पूरी यकसानी के साथ हर शख़्स और हर रवैये के मामले में निकलता हो। नास्तिक, आग की पूजा करनेवाले, ईसाई, यहूदी, सितारों को पूजनेवाले, बुतपरस्त, सब अच्छे और बुरे दोनों ही तरह के हालात से दोचार होते हैं। कोई एक अक़ीदा नहीं जिसके बारे में तजरिबा बताता हो कि उसे अपना लेनेवाला, या रद्द कर देनेवाला लाज़िमी तौर पर इस दुनिया में ख़ुशहाल या बदहाल रहता हो। बुरे काम करनेवाले और भले काम करनेवाले भी यहाँ हमेशा अपने आमाल का एक ही लगा-बंधा नतीजा नहीं देखते। एक बदकार मज़े कर रहा है और दूसरा सज़ा पा रहा है। एक नेक आदमी मुसीबत झेल रहा है और दूसरा इज़्ज़त और एहतिराम पा रहा है। इसलिए दुनियावी नतीजों के एतिबार से किसी ख़ास अख़लाक़ी रवैये के बारे में भी आख़िरत का इनकार करनेवाले इस बात पर मुत्मइन नहीं हो सकते कि वह भला है या बुरा है। इस सूरते-हाल में जब कोई शख़्स उनको एक अक़ीदे और एक अख़लाक़ी उसूल की तरफ़ दावत देता है तो चाहे वह कैसी ही संजीदा और मुनासिब दलीलों से अपनी दावत पेश करे, आख़िरत का इनकार करनेवाला एक शख़्स कभी संजीदगी के साथ इसपर ग़ौर नहीं करेगा, बल्कि बचकाना एतिराज़ करके उसे टाल देगा।
إِذَا رَأَتۡهُم مِّن مَّكَانِۭ بَعِيدٖ سَمِعُواْ لَهَا تَغَيُّظٗا وَزَفِيرٗا ۝ 11
(12) वह जब दूर से उनको देखेगी22 तो यह उसके ग़ुस्से और जोश की आवाज़ें सुन लेंगे
22. आग का किसी को देखना मुमकिन है कि अलामती तौर पर हो, जैसे हम कहते हैं कि वे मस्जिद के मीनार तुमको देख रहे हैं और हो सकता है कि अस्ल मानी में हो, यानी जहन्नम की आग दुनिया की आग की तरह बेशुऊर न हो, बल्कि देख-भालकर जलानेवाली हो।
وَإِذَآ أُلۡقُواْ مِنۡهَا مَكَانٗا ضَيِّقٗا مُّقَرَّنِينَ دَعَوۡاْ هُنَالِكَ ثُبُورٗا ۝ 12
(13) और जब ये हाथ-पैर बाँधकर उसमें एक तंग जगह ठूँसे जाएँगे तो अपनी मौत को पुकारने लगेंगे।
لَّا تَدۡعُواْ ٱلۡيَوۡمَ ثُبُورٗا وَٰحِدٗا وَٱدۡعُواْ ثُبُورٗا كَثِيرٗا ۝ 13
(14) (उस वक़्त उनसे कहा जाएगा कि) आज एक मौत को नहीं, बहुत-सी मौतों को पुकारो।
قُلۡ أَذَٰلِكَ خَيۡرٌ أَمۡ جَنَّةُ ٱلۡخُلۡدِ ٱلَّتِي وُعِدَ ٱلۡمُتَّقُونَۚ كَانَتۡ لَهُمۡ جَزَآءٗ وَمَصِيرٗا ۝ 14
(15) इनसे पूछो, यह अंजाम अच्छा है या वह हमेशा रहनेवाली जन्नत जिसका वादा ख़ुदा से डरनेवाले परहेज़गारों से किया गया है? जो उनके अमल का बदला और उनके सफ़र की आख़िरी मंज़िल होगी,
لَّهُمۡ فِيهَا مَا يَشَآءُونَ خَٰلِدِينَۚ كَانَ عَلَىٰ رَبِّكَ وَعۡدٗا مَّسۡـُٔولٗا ۝ 15
(16) जिसमें उनकी हर ख़ाहिश पूरी होगी, जिसमें वे हमेशा-हमेशा रहेंगे, जिसका देना तुम्हारे रब के ज़िम्मे एक ऐसा वादा है जिसे पूरा करना ज़रूरी है।23
23. अस्ल अरबी में अलफ़ाज़़ हैं 'वअदम-मसऊला', यानी ऐसा वादा जिसके पूरा करने की माँग की जा सकती हो। यहाँ एक शख़्स यह सवाल उठा सकता है कि जन्नत का यह वादा और दोज़ख़ का यह डरावा किसी ऐसे शख़्स पर क्या असर डाल सकता है जो क़ियामत और दोबारा जी उठकर एक जगह जमा होने और जन्नत-जहन्नम का पहले ही इनकार करता हो? इस लिहाज़ से तो यह बज़ाहिर एक मौक़-महल से हटी हुई बात मालूम होती है, लेकिन थोड़ा-सा ग़ौर किया जाए तो बात आसानी से समझ में आ सकती है। अगर मामला यह हो कि मैं एक बात मनवाना चाहता हूँ और दूसरा नहीं मानना चाहता तो बहस और दलील का अन्दाज़ कुछ और होता है लेकिन अगर मैं सामनेवाले से इस अन्दाज़ में बात कर रहा हूँ कि जिस मसले पर बात हो रही है, मेरी बात मानने न मानने का नहीं, बल्कि तुम्हारे अपने फ़ायदे का है, तो सामनेवाला चाहे कैसा ही हठधर्म हो, एक बार सोचने पर मजबूर हो जाता है। यहाँ बात का अन्दाज़ वही दूसरा है। इस सूरत में सामनेवाले को ख़ुद अपनी भलाई के नज़रिए से यह सोचना पड़ता है कि दूसरी ज़िन्दगी के होने का चाहे सुबूत मौजूद न हो, मगर बहरहाल उसके न होने का भी कोई सुबूत नहीं है और इमकान दोनों ही का है। अब अगर दूसरी ज़िन्दगी नहीं है, जैसा कि हम समझ रहे हैं, तो हमें भी मरकर मिट्टी हो जाना है और आख़िरत के माननेवाले को भी इस सूरत में दोनों बराबर रहेंगे। लेकिन अगर कहीं बात वही सच निकली जो यह आदमी कह रहा है तो यक़ीनन फिर हमारी ख़ैर नहीं है। इस तरह बात का यह अन्दाज़ सामनेवाले की हठधर्मी में एक दरार डाल देता है और यह दरार उस वक़्त और चौड़ी हो जाती है जब क़ियामत, दोबारा ज़िन्दा होकर सबका इकट्ठा होना, हिसाब और जन्नत-जहन्नम का ऐसा तफ़सीली नक़्शा पेश किया जाने लगता है कि जैसे कोई वहाँ का आँखों देखा हाल बयान कर रहा हो। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-52, हाशिया-69; सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-10)
وَيَوۡمَ يَحۡشُرُهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ فَيَقُولُ ءَأَنتُمۡ أَضۡلَلۡتُمۡ عِبَادِي هَٰٓؤُلَآءِ أَمۡ هُمۡ ضَلُّواْ ٱلسَّبِيلَ ۝ 16
(17) और वही दिन होगा जबकि (तुम्हारा रब) इन लोगों को घेर लाएगा और इनके उन माबूदों24 को भी बुला लेगा जिन्हें आज ये अल्लाह को छोड़कर पूज रहे हैं, फिर वह उनसे पूछेगा, “क्या तुमने मेरे इन बन्दों को गुमराह किया था? या ये ख़ुद सीधे रास्ते से भटक गए थे?”25
24. आगे की बात से यह ख़ुद ज़ाहिर हो रहा है कि वहाँ माबूदों से मुराद बुत नहीं हैं, बल्कि फ़रिश्ते, पैग़म्बर, वली, शहीद और नेक लोग हैं जिन्हें अलग-अलग क़ौमों के मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) लोग माबूद बना बैठे हैं। बज़ाहिर एक शख़्स 'वमा यअ्बुदू-न' के अलफ़ाज़ पढ़कर यह समझता है कि इससे मुराद बुत हैं, क्योंकि अरबी ज़बान में आम तौर पर 'मा' बेजान और बे-अक़्ल चीज़ों (जैसे जानवरों) के लिए और 'मन' अक़्ल रखनेवाली चीज़ों के लिए बोला जाता है, जैसे हम उर्दू हिन्दी में ‘क्या है’ बेजान और बे-अक़्ल चीज़ों के लिए और ‘कौन है' जानदार चीज़ों के लिए बोलते हैं। मगर उर्दू हिन्दी की तरह अरबी में भी ये अलफ़ाज़ बिलकुल इन मानी के लिए ख़ास नहीं हैं। कई बार हम उर्दू हिन्दी में किसी इनसान के बारे में उसको घटिया ज़ाहिर करने के लिए कहते हैं वह क्या है और मुराद यह होती है कि उसकी हैसियत कुछ भी नहीं है। वह कोई बड़ी हस्ती नहीं है। ऐसा ही हाल अरबी ज़बान का भी है। चूँकि मामला अल्लाह के मुक़ाबले में उसकी मख़लूक़ (पैदा किए हुए लोगों) को माबूद बनाने का है, इसलिए चाहे फ़रिश्तों और बुज़ुर्ग इनसानों की हैसियत अपने आपमें ख़ुद बहुत बुलन्द हो मगर अल्लाह के मुक़ाबले में तो मानो कुछ भी नहीं है। इसी लिए मौक़ा-महल को देखते हुए उनके लिए 'मन' की जगह 'मा' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है।
25. यह बात कई जगहों पर क़ुरआन में आई है। मिसाल के तौर पर सूरा-34 सबा में है— “जिस दिन वह उन सबको इकट्ठा करेगा, फिर फ़रिश्तों से पूछेगा, क्या ये लोग तुम्हारी ही बन्दगी कर रहे थे? वे कहेंगे, पाक है आपकी ज़ात, हमारा ताल्लुक़ तो आपसे है, न कि इनसे। ये लोग तो जिन्नों (यानी शैतानों) की बन्दगी कर रहे थे। इनमें से ज़्यादातर उन्हीं पर ईमान रखते थे।” (आयतें—40-41) इसी तरह सूरा-5 माइदा में है— "और जब अल्लाह पूछेगा, ऐ मरयम के बेटे ईसा, क्या तूने लोगों से यह कहा था कि अल्लाह को छोड़कर मुझे और मेरी माँ को माबूद बना लो? वह अर्ज़़ करेगा, पाक है आपकी ज़ात, मेरे लिए यह कब दुरुस्त था कि वह बात कहता जिसके कहने का मुझे हक़ न था ....... मैंने तो इनसे बस वही कुछ कहा था जिसका आपने मुझे हुक्म दिया था, यह कि अल्लाह की बन्दगी करो जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी।” (आयतें—116-117)
قَالُواْ سُبۡحَٰنَكَ مَا كَانَ يَنۢبَغِي لَنَآ أَن نَّتَّخِذَ مِن دُونِكَ مِنۡ أَوۡلِيَآءَ وَلَٰكِن مَّتَّعۡتَهُمۡ وَءَابَآءَهُمۡ حَتَّىٰ نَسُواْ ٱلذِّكۡرَ وَكَانُواْ قَوۡمَۢا بُورٗا ۝ 17
(18) वे कहेंगे, “पाक है आपकी ज़ात! हमारी तो यह भी मजाल न थी कि आपके सिवा किसी को अपना मौला (सरपरस्त) बनाएँ मगर आपने इनको और इनके बाप-दादा को ज़िन्दगी गुज़ारने का बहुत सामान दे दिया, यहाँ तक कि ये सबक भूल गए और शामतज़दा होकर रहे।"26
26. यानी ये तंगदिल और छिछोरे लोग थे। आपने रोज़ी दी थी कि शुक्र करें, ये खा-पीकर नमक हराम हो गए और वे सब नसीहतें भुला बैठें, जो आपके भेजे हुए पैग़म्बरों ने उनको की थीं।
فَقَدۡ كَذَّبُوكُم بِمَا تَقُولُونَ فَمَا تَسۡتَطِيعُونَ صَرۡفٗا وَلَا نَصۡرٗاۚ وَمَن يَظۡلِم مِّنكُمۡ نُذِقۡهُ عَذَابٗا كَبِيرٗا ۝ 18
(19) यूँ झुठला देंगे वे (तुम्हारे माबूद) तुम्हारी उन बातों को जो आज तुम कह रहे हो,27 फिर तुम न अपनी शामत को टाल सकोगे, न कहीं से मदद पा सकोगे और जो भी तुममें से ज़ुल्म28 करे, उसे हम सख़्त अज़ाब का मज़ा चखाएँगे।
27. यानी तुम्हारा यह मज़हब, जिसको तुम सच्चा समझे बैठे हो, बिलकुल बेबुनियाद साबित होगा और तुम्हारे वे माबूद जिनपर तुम्हें भरोसा है कि ये ख़ुदा के यहाँ तुम्हारे सिफ़ारिशी हैं, उलटे तुमको क़ुसूरवार ठहराकर ज़िम्मेदारी से अलग हो जाएँगे। तुमने जो कुछ भी अपने माबूदों को ठहरा रखा है, अपने तौर पर ही ठहरा रखा है। उनमें से किसी ने भी तुमसे यह न कहा था कि हमें यह कुछ मानो और इस तरह हमें कुछ भेंट किया करो और हमसे कुछ माँगा करो और हम ख़ुदा के यहाँ तुम्हारी सिफ़ारिश करने का ज़िम्मा लेते हैं। ऐसी कोई बात किसी फ़रिश्ते या किसी बुज़ुर्ग की तरफ़ से न यहाँ तुम्हारे पास मौजूद है, न क़ियामत में तुम इसे साबित कर सकोगे, बल्कि वे सब-के-सब ख़ुद तुम्हारी आँखों के सामने इन बातों को ग़लत बता देंगे और तुम अपने कानों से सुन लोगे कि उन्होंने उसे बिलकुल नकार दिया है।
28. यहाँ ज़ुल्म से मुराद हक़ीक़त और सच्चाई पर ज़ुल्म है, यानी कुफ़्र और शिर्क मौक़ा-महल से ख़ुद ज़ाहिर हो रहा है कि नबी को न माननेवाले और ख़ुदा के बजाय दूसरों को माबूद बना बैठनेवाले और आख़िरत का इनकार करनेवाले ‘ज़ुल्म' करनेवाले ठहराए जा रहे हैं।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ مِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ إِلَّآ إِنَّهُمۡ لَيَأۡكُلُونَ ٱلطَّعَامَ وَيَمۡشُونَ فِي ٱلۡأَسۡوَاقِۗ وَجَعَلۡنَا بَعۡضَكُمۡ لِبَعۡضٖ فِتۡنَةً أَتَصۡبِرُونَۗ وَكَانَ رَبُّكَ بَصِيرٗا ۝ 19
(20) ऐ नबी, तुमसे पहले जो रसूल भी हमने भेजे थे, वे सब भी खाना खानेवाले और बाजारों में चलने-फिरनेवाले लोग ही थे।29 अस्ल में हमने तुम लोगों को एक-दूसरे के लिए आज़माइश का ज़रिआ बना दिया है।30 क्या तुम सब्र करते हो?31 तुम्हारा रब सब कुछ देखता है।32
29. यह जवाब है मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की उस बात का जो वे कहते थे कि वह कैसा पैग़म्बर है जो खाना खाता और बाज़ारों में चलता-फिरता है। इस मौक़े पर यह बात ज़ेहन में रहे कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ हज़रत नूह (अलैहि०), हज़रत इबराहीम (अलैहि०), हज़रत इसमाईल (अलैहि०), हज़रत मूसा (अलैहि०) और बहुत-से दूसरे पैग़म्बरों को न सिर्फ़ जानते थे, बल्कि उनको पैग़म्बर भी मानते थे। इसलिए फ़रमाया गया कि आख़िर मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में यह निराला एतिराज़ क्यों उठा रहे हो? पहले कौन-सा नबी (पैग़म्बर) ऐसा आया है जो खाना न खाता हो और बाज़ारों में न चलता-फिरता हो? और तो और, ख़ुद मरयम के बेटे ईसा (अलैहि०), जिनको ईसाइयों ने ख़ुदा का बेटा बना रखा है (और जिनका बुत मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों ने भी काबा में रख छोड़ा था) इंजीलों के अपने बयान के मुताबिक़ खाना भी खाते थे और बाज़ारों में चलते-फिरते भी थे।
30. यानी पैग़म्बर और ईमानवालों के लिए हक़ के इनकारी आज़माइश हैं और इनकार करनेवालों के लिए पैग़म्बर और ईमानवाले। इनकार करनेवालों ने ज़ुल्मो-सितम और जाहिलाना दुश्मनी की जो भट्टी गर्म कर रखी है वही तो वह ज़रिआ है जिससे साबित होगा कि रसूल और उसके सच्चे ईमानवाले पैरोकार खरा सोना है। खोट जिसमें भी होगी वह उस भट्टी से सही सलामत न गुज़र सकेगा और इस तरह सच्चे ईमानवालों का एक चुना हुआ गरोह छँटकर निकल आएगा, जिसके मुक़ाबले में फिर दुनिया की कोई ताक़त न ठहर सकेगी। यह भट्टी गर्म न हो तो हर तरह के खोटे और खरे आदमी नबी के आसपास इकट्ठे हो जाएँगे और दीन की शुरुआत ही एक कमज़ोर जमाअत से होगी। दूसरी तरफ़ इनकार करनेवालों के लिए भी रसूल और रसूल के साथी एक कड़ी आज़माइश हैं। एक आम इनसान का अपनी ही बिरादरी के दरमियान से यकायक नबी बनाकर उठा दिया जाना उसके पास कोई फ़ौज-फ़र्रा और माल-दौलत न होना, उसके साथ अल्लाह के कलाम और पाकीज़ा सीरत (आचरण) के सिवा कोई अजूबा चीज़ न होना, उसके शुरू के पैरोकारों में ज़्यादातर ग़रीबों, ग़ुलामों और नई उम्र के लोगों का शामिल होना और अल्लाह तआला का इन कुछ मुट्ठी-भर इनसानों को मानो भेड़ियों के दरमियान बेसहारा छोड़ देना, यही वह छलनी है जो ग़लत तरह के आदमियों को दीन की तरफ़ आने से रोकती है और सिर्फ़ ऐसे ही लोगों को छान-छानकर आगे गुज़ारती है जो हक़ को पहचाननेवाले और सच्चाई को माननेवाले हों। यह छलनी अगर न लगाई जाती और रसूल बड़ी शान-शौकत के साथ आकर हुकूमत के तख़्त पर बैठ जाता, ख़ज़ानों के मुँह उसके माननेवालों के लिए खोल दिए जाते और सबसे पहले बड़े-बड़े रईस आगे बढ़कर उसके हाथ पर बैअत (फ़रमाँबरदारी का अहद) करते, तो आख़िर कौन-सा दुनिया-परस्त और मतलब का बन्दा इनसान इतना बेवक़ूफ़ हो सकता था कि उसपर ईमान लानेवालों में शामिल न हो जाता। इस हालत में तो सच्चाई-पसन्द लोग सबसे पीछे रह जाते और दुनिया के तलबगार बाज़ी ले जाते।
31. यानी इस मस्लहत को समझ लेने के बाद क्या अब तुमको सब्र आ गया कि आज़माइश की यह हालत उस भले मक़सद के लिए इन्तिहाई ज़रूरी है जिसके लिए तुम काम कर रहे हो? क्या अब तुम वे चोटें खाने पर राज़ी हो जो इस आज़माइश के दौर में लगनी ज़रूरी हैं?
32. इसके दो मतलब हैं और शायद दोनों ही मुराद हैं। एक यह कि तुम्हारा रब जो कुछ कर रहा है कुछ देखकर ही कर रहा है, उसकी नगरी अंधेर नगरी नहीं है। दूसरा यह कि जिस ख़ुलूस और सच्चाई के साथ इस मुश्किल काम को तुम कर रहे हो वह भी तुम्हारे रब की निगाह में है और तुम्हारी अच्छी कोशिशों का मुक़ाबला जिन ज़्यादतियों और बेईमानियों से किया जा रहा है, वह भी उससे कुछ छिपा हुआ नहीं है। लिहाज़ा पूरा इत्मीनान रखो कि न तुम अपनी ख़िदमतों की कद्र से महरूम रहोगे और न वे अपनी ज़्यादतियों की सज़ा से बचे रह जाएँगे।
۞وَقَالَ ٱلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ لِقَآءَنَا لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ أَوۡ نَرَىٰ رَبَّنَاۗ لَقَدِ ٱسۡتَكۡبَرُواْ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ وَعَتَوۡ عُتُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 20
(21) जो लोग हमारे सामने पेश होने का अन्देशा नहीं रखते वे कहते हैं, “क्यों न फ़रिश्ते हमारे पास भेजे जाएँ?33 या फिर हम अपने रब को देखें।”34 बड़ा घमण्ड ले बैठे ये अपने आप में और हद से गुज़र गए ये अपनी सरकशी में।
33. यानी अगर सचमुच ख़ुदा का इरादा यह है कि हम तक अपना पैग़ाम पहुँचाए तो एक नबी को वास्ता बनाकर सिर्फ़ उसके पास फ़रिश्ता भेज देना काफ़ी नहीं है, हर शख़्स के पास एक फ़रिश्ता आना चाहिए जो उसे बताए कि तेरा रब तुझे यह हिदायत देता है। या फ़रिश्तों का एक झुण्ड आम भीड़ में हम सबके सामने आ जाए और ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचा दे। एक दूसरी जगह भी उनके इस ऐतिराज़ को नक़्ल किया गया है— “जब कोई आयत उनके सामने पेश होती है तो कहते हैं कि हम हरगिज़ न मानेगे जब तक हमें वही कुछ न दिया जाए जो अल्लाह के रसूलों को दिया गया है। हालाँकि अल्लाह ज़्यादा बेहतर जानता है कि अपना पैग़ाम पहुँचाने का क्या इन्तिज़ाम करे।” (क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, आयत-124)
34. यानी अल्लाह मियाँ ख़ुद तशरीफ़ ले आएँ और फ़माएँ कि बन्दो, मेरी तुमसे यह गुज़ारिश है।
35. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है, “बड़ी चीज़ समझ लिया अपनी समझ से उन्होंने अपने आपको।”
يَوۡمَ يَرَوۡنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ لَا بُشۡرَىٰ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡمُجۡرِمِينَ وَيَقُولُونَ حِجۡرٗا مَّحۡجُورٗا ۝ 21
(22) जिस दिन ये फ़रिश्तों को देखेंगे, वह मुजरिमों के लिए किसी ख़ुशख़बरी का दिन न होगा,36 चीख़ उठेंगे कि ख़ुदा की पनाह,
36. यही बात सूरा-6 अनआम, आयत-8 और सूरा-15 हिज्र, आयतें—7, 8 और आयतें—51-64 में तफ़सील के साथ बयान हो चुकी है। इसके अलावा सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—90-95 में भी इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की बहुत-सी अजीब-अजीब माँगों के साथ इसका ज़िक्र करके जवाब दिया गया है।
وَقَدِمۡنَآ إِلَىٰ مَا عَمِلُواْ مِنۡ عَمَلٖ فَجَعَلۡنَٰهُ هَبَآءٗ مَّنثُورًا ۝ 22
(23) और जो कुछ भी इनका किया-धरा है, उसे लेकर हम धूल की तरह उड़ा देंगे।37
37. तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—25, 26।
أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ يَوۡمَئِذٍ خَيۡرٞ مُّسۡتَقَرّٗا وَأَحۡسَنُ مَقِيلٗا ۝ 23
(24) बस वही लोग जो जन्नत के हक़दार हैं, उस दिन अच्छी जगह ठहरेंगे और दोपहर गुज़ारने को अच्छी जगह पाएँगे।38
38. यानी हश्र के मैदान में जन्नत के हक़दार लोगों के साथ मुजरिमों से अलग बरताव होगा। वे इज़्ज़त के साथ बिठाए जाएँगे और हश्र के दिन की सख़्त दोपहर गुज़ारने के लिए उनको आराम की जगह दी जाएगी। उस दिन की सारी सख़्तियाँ मुजरिमों के लिए होंगी, न कि नेक और भले काम करनेवालों के लिए। जैसा कि हदीस में आया है, नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क़सम है उस हस्ती की जिसके हाथ में मेरी जान है, क़ियामत का अज़ीमुश्शान और भयानक दिन एक ईमानवाले के लिए बहुत हल्का कर दिया जाएगा, यहाँ तक कि इतना हल्का जितना दुनिया में एक फ़र्ज़ नमाज़ पढ़ने का वक़्त होता है।” (हदीस : मुसनद अहमद)
وَيَوۡمَ تَشَقَّقُ ٱلسَّمَآءُ بِٱلۡغَمَٰمِ وَنُزِّلَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ تَنزِيلًا ۝ 24
(25) आसमान को चीरता हुआ एक बादल उस दिन ज़ाहिर होगा और फ़रिश्तों के परे-के-परे उतार दिए जाएँगे।
ٱلۡمُلۡكُ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡحَقُّ لِلرَّحۡمَٰنِۚ وَكَانَ يَوۡمًا عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ عَسِيرٗا ۝ 25
(26) उस दिन हक़ीक़ी बादशाही सिर्फ़ रहमान39 की होगी और वह इनकार करनेवालों के लिए बड़ा सख़्त दिन होगा।
39. यानी वे सारी ग़ैर-हक़ीक़ी बादशाहियाँ और रियासतें ख़त्म हो जाएँगी जो दुनिया में इनसान को धोखे में डालती हैं। वहाँ सिर्फ़ एक बादशाही रह जाएगी और वह वही अल्लाह की बादशाही है जो इस कायनात का हक़ीक़ी बादशाह है। सूरा-40 मोमिन में कहा गया है— “वह दिन जबकि ये सब लोग बेनक़ाब होंगे, अल्लाह से उनकी कोई चीज़ छिपी हुई न होगी। पूछा जाएगा, आज बादशाही किस की है? हर तरफ़ से जवाब आएगा, अकेले अल्लाह की जो सबपर ग़ालिब (प्रभावी) है।” (आयत-16) हदीस में इस बात को और ज़्यादा खोल दिया गया है नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह तआला एक हाथ में आसमानों और दूसरे हाथ में ज़मीन को लेकर फ़रमाएगा, “मैं हूँ बादशाह, मैं हूँ हुकूमत करनेवाला, अब कहाँ हैं वे ज़मीन के बादशाह? कहाँ हैं वे जब्बार (ताक़त और क़ुव्वतवाले) कहाँ हैं तकब्बुर करनेवाले (अहंकारी) लोग?” (यह रिवायत मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम और अबू-दाऊद में थोड़े-थोड़े लफ़्जी फ़र्क़ के साथ बयान हुई है।)
وَيَوۡمَ يَعَضُّ ٱلظَّالِمُ عَلَىٰ يَدَيۡهِ يَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي ٱتَّخَذۡتُ مَعَ ٱلرَّسُولِ سَبِيلٗا ۝ 26
(27) ज़ालिम इनसान अपना हाथ चबाएगा और कहेगा,"काश, मैंने रसूल का साथ दिया होता!
يَٰوَيۡلَتَىٰ لَيۡتَنِي لَمۡ أَتَّخِذۡ فُلَانًا خَلِيلٗا ۝ 27
(28 ) हाय मेरी कमबख़्ती! काश, मैंने फ़ुलाँ शख़्स को दोस्त न बनाया होता!
لَّقَدۡ أَضَلَّنِي عَنِ ٱلذِّكۡرِ بَعۡدَ إِذۡ جَآءَنِيۗ وَكَانَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لِلۡإِنسَٰنِ خَذُولٗا ۝ 28
(29) उसके बहकावे में आकर मैंने वह नसीहत न मानी जो मेरे पास आई थी, शैतान इनसान के हक़ में बड़ा ही बेवफ़ा निकला।"40
40. हो सकता है कि यह भी इस्लाम-दुश्मन ही की बात का एक हिस्सा हो और हो सकता है कि यह उसकी बात पर अल्लाह तआला का अपना कहना हो। इस दूसरी हालत में मुनासिब तर्जमा यह होगा, “और शैतान तो है ही इनसान को ठीक वक़्त पर धोखा देनेवाला।"
وَقَالَ ٱلرَّسُولُ يَٰرَبِّ إِنَّ قَوۡمِي ٱتَّخَذُواْ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ مَهۡجُورٗا ۝ 29
(30) और रसूल कहेगा कि “ऐ मेरे रब, मेरी क़ौम के लोगों ने इस क़ुरआन को मज़ाक़ की चीज़41 बना लिया था।"
41. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'महजूर’ इस्तेमाल हुआ है जिसके कई मतलब हैं। अगर इसे 'हज्र’ से लिया हुआ माना जाए तो मतलब होगा छोड़ा हुआ, यानी लोगों ने क़ुरआन को ध्यान देने के क़ाबिल ही न समझा, न उसे क़ुबूल किया और न उससे कोई असर लिया। और अगर 'हुज्र’ से निकला हुआ माना जाए तो इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उन्होंने इसे बेसिर-पैर की बड़बड़ाहट और बकवास समझा। दूसरा यह कि उन्होंने उसे अपनी बेमतलब की बड़बड़ाहट और अपनी बकवास का निशाना बना लिया और उसपर तरह-तरह की बातें छाँटते रहे।
وَكَذَٰلِكَ جَعَلۡنَا لِكُلِّ نَبِيٍّ عَدُوّٗا مِّنَ ٱلۡمُجۡرِمِينَۗ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ هَادِيٗا وَنَصِيرٗا ۝ 30
(31) ऐ नबी, हमने तो इसी तरह मुजरिमों को हर नबी का दुश्मन बनाया है42 और तुम्हारे लिए तुम्हारा रब ही रहनुमाई और मदद को काफ़ी है।43
42. यानी आज जो दुश्मनी तुम्हारे साथ की जा रही है यह कोई नई बात नहीं है। पहले भी ऐसा ही होता रहा है कि जब कोई नबी हक़ और सच्चाई की दावत देने उठा तो वक़्त के सारे मुजरिमाना काम करनेवाले लोग हाथ धोकर उसके पीछे पड़ गए। यह बात सूरा-6 अनआम, आयतें—112-113 में भी गुज़र चुकी है। और यह जो फ़रमाया कि हमने उनको दुश्मन बनाया है, तो इसका मतलब यह है कि हमारा क़ुदरती क़ानून यही कुछ है। लिहाज़ा हमारी इस मरज़ी पर सब्र करो और फ़ितरत के क़ानून के तहत जिन हालात का सामना होना ज़रूरी है, उनका मुक़ाबला ठण्डे दिल और मज़बूत इरादे के साथ करते चले जाओ। इस बात की उम्मीद न रखो कि इघर तुमने हक़ (सत्य) पेश किया और उधर एक दुनिया-की-दुनिया उसे क़ुबूल करने के लिए उमड़ आएगी और सारे बुरे काम करनेवाले अपने-अपने बुरे कामों से तौबा करके उसे हाथों-हाथ लेने लगेंगे।
43. रहनुमाई से मुराद सिर्फ़ हक़ का इल्म दे देना ही नहीं है, बल्कि इस्लामी तहरीक (आन्दोलन) को कामयाबी के साथ चलाने के लिए और दुश्मनों की चालों को नाकाम करने के लिए वक़्त पर सही तदबीरें सुझाना भी है। और मदद से मुराद हर तरह की मदद है। हक़ और बातिल की कशमकश में जितने मोरचे भी खुलें, हर एक पर हक़परस्तों की ताईद (समर्थन) में मदद पहुँचाना अल्लाह का काम है। दलील की लड़ाई हो तो वही हक़-परस्तों को मज़बूत दलील देता है। अख़लाक़ की लड़ाई हो तो वही हर पहलू से हक़-परस्तों को अख़लाक़ी बुलन्दी अता करता है। एकता और मज़बूती का मुक़ाबला हो तो वही बातिल-परस्तों के दिल फाड़ता और हक़-परस्तों के दिल जोड़ता है। इनसानी ताक़त का मुक़ाबला हो तो वही हर मरहले पर मुनासिब और सही लोगों और गरोहों को ला-लाकर हक़-परस्तों की जमाअत को बढ़ाता है। माद्दी चीज़ों (भौतिक संसाधनों) की ज़रूरत हो तो वही हक़-परस्तों के थोड़े माल व असबाब में इतनी बरकत देता है कि बातिल-परस्तों के माल व असबाब की बहुतायत उनके मुक़ाबले में सिर्फ़ धोखे की टट्टी साबित होती है। कहने का मतलब यह है कि कोई पहलू मदद और रहनुमाई का ऐसा नहीं है जिसमें हक़-परस्तों के लिए अल्लाह काफ़ी न हो और उन्हें किसी दूसरे सहारे की ज़रूरत हो, शर्त यह है कि वे अल्लाह के काफ़ी होने पर ईमान और भरोसा रखें और हाथ-पर-हाथ धरे न बैठे रहें, बल्कि सरगर्मी के साथ बातिल के मुक़ाबले में हक़ की सरबुलन्दी के लिए जानें लड़ाएँ। यह बात निगाह में रहे कि आयत का यह दूसरा हिस्सा न होता तो पहला हिस्सा इन्तिहाई दिल तोड़नेवाला था। इससे बढ़कर हिम्मत तोड़नेवाली चीज़ और क्या हो सकती है कि एक शख़्स को यह ख़बर दी जाए कि हमने जान-बूझकर तेरे सिपुर्द एक ऐसा काम किया है जिसे शुरू करते ही दुनिया-भर के दुश्मन तुझसे लिपट जाएँगे। लेकिन इस ख़बर का सारा भयानकपन तसल्ली के ये बोल सुनकर दूर हो जाता है कि इस जानलेवा कशमकश के मैदान में उतारकर हमने तुझे अकेला नहीं छोड़ दिया है, बल्कि हम ख़ुद तेरी मदद को मौजूद हैं। ईमान दिल में हो तो इससे बढ़कर हिम्मत दिलानेवाली बात और क्या हो सकती है कि सारे जहानों का रब ख़ुदा हमारी मदद और रहनुमाई का ज़िम्मा ले रहा है। इसके बाद तो सिर्फ़ एक कमज़ोर एतिक़ाद रखनेवाला बुज़दिल ही मैदान में आगे बढ़ने से हिचकिचा सकता है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡلَا نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلۡقُرۡءَانُ جُمۡلَةٗ وَٰحِدَةٗۚ كَذَٰلِكَ لِنُثَبِّتَ بِهِۦ فُؤَادَكَۖ وَرَتَّلۡنَٰهُ تَرۡتِيلٗا ۝ 31
(32) इनकार करनेवाले कहते हैं, “इस आदमी पर सारा क़ुरआन एक ही वक़्त में क्यों न उतार दिया गया?"44— हाँ, ऐसा इसलिए किया गया है कि इसको अच्छी तरह हम तुम्हारे ज़ेहन में बिठाते रहें45 और (इसी ग़रज़ के लिए) हमने इसको एक ख़ास तरतीब (क्रम) के साथ अलग-अलग हिस्सों की शक्ल दी है।
44. यह मक्का के इस्लाम मुख़ालिफ़ों का बड़ा दिलपसन्द एतराज़ था, जिसे वे अपने नज़दीक बहुत ज़ोरदार एतिराज़ समझकर बार-बार दोहराते थे और क़ुरआन में भी इसको कई जगहों पर नक़्ल करके इसका जवाब दिया गया है (तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिए—101-106; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-119)। उनके सवाल का मतलब यह था कि अगर यह आदमी ख़ुद सोच-सोचकर, या किसी से पूछ-पूछकर और किताबों में से नक़्ल कर-करके ये बातें नहीं ला रहा है, बल्कि यह सचमुच अल्लाह की किताब है, तो पूरी किताब इकट्ठी एक वक़्त में क्यों नहीं आ जाती! ख़ुदा तो जानता है कि पूरी बात क्या है जो वह कहना चाहता है। वह उतारनेवाला होता तो सब कुछ एक ही वक़्त में कह देता। यह जो सोच-सोचकर कभी कोई बात लाई जाती है और कभी कुछ, यह इस बात की खुली निशानी है कि वह्य ऊपर से नहीं आती, यहीं कहीं से हासिल की जाती है, या ख़ुद गढ़-गढ़कर लाई जाती है।
45. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “इसके ज़रिए से हम तुम्हारा दिल मज़बूत करते रहें या “तुम्हारी हिम्मत बँधाते रहें। आयत के अलफ़ाज में दोनों मतलब आ जाते हैं और दोनों ही मुराद भी हैं। इस तरह एक ही जुमले में क़ुरआन को थोड़़ा-थोड़ा करके उतारने की बहुत-सी हिकमतें बयान कर दी गई हैं— (1) उसका हर लफ़्ज याददाश्त में महफ़ूज़ हो सके, क्योंकि उसकी तबलीग़ व इशाअत (प्रचार-प्रसार) लिखी हुई नहीं, बल्कि एक अनपढ़ नबी के ज़रिए से अनपढ़ क़ौम में ज़बानी तक़रीर की शक्ल में हो रही है। (2) उसकी तालीमात अच्छी तरह ज़ेहन में बैठ सकें, इसके लिए ठहर-ठहरकर थोड़ी-थोड़ी बात कहना और एक ही बात को अलग-अलग वक़्तों में अलग-अलग तरीक़ों से बयान करना ज़्यादा फ़ायदेमन्द है। (3) ज़िन्दगी गुज़ारने के उसके बताए हुए तरीक़े पर दिल जमता जाए इसके लिए हुक्मों और हिदायतों को थोड़ा-थोड़ा करके उतारना ज़्यादा हिकमत के मुताबिक़ है, वरना अगर सारा क़ानून और ज़िन्दगी का पूरा निज़ाम (व्यवस्था) एक बार में बयान करके उसे क़ायम करने दे का हुक्म दिया जाए तो होश उड़ जाएँ। इसके अलावा यह भी एक हक़ीक़त है कि हर हुक्म अगर मुनासिब मौक़े पर दिया जाए तो उसकी हिकमत और रूह ज़्यादा अच्छी तरह समझ में आती है, इसके मुक़ाबले में कि तमाम हुक्म दफ़ावार देकर एक वक़्त में दे दिए गए हों। (4) इस्लामी तहरीक (आन्दोलन) के दौरान में जबकि हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) की लगातार कशमकश चल रही हो, नबी और उसके पैरोकारों की हिम्मत बाँधाई जाती रहे। इसके लिए ख़ुदा की तरफ़ से, बार-बार, वक़्त-वक़्त पर, मौक़े-मौक़े से पैग़ाम आना ज़्यादा कारगर है, बजाय इसके कि बस एक बार एक लम्बा-चौड़ा हिदायतनामा देकर उम्र-भर के लिए दुनिया भर की मुख़ालफ़तों और रुकावटों का मुक़ाबला करने के लिए यूँ ही छोड़ दिया जाए। पहली सूरत में आदमी महसूस करता है कि जिस ख़ुदा ने उसे इस काम पर लगाया है वह उसकी तरफ़ ध्यान लगाए हुए है, उसके काम से दिलचस्पी ले रहा है, उसके हालात पर निगाह रखता है, उसकी मुश्किलों में रहनुमाई कर रहा है और हर ज़रूरत के मौक़े पर उसे अपने सामने हाज़िरी और बात का मौक़ा देकर उसके साथ अपने ताल्लुक़ को ताज़ा करता रहता है। यह चीज़ हौसला बढ़ानेवाली और इरादे को मज़बूत रखनेवाली है। दूसरी सूरत में आदमी को यूँ महसूस होता है कि बस वह है और तूफ़ान की मौजें।
وَلَا يَأۡتُونَكَ بِمَثَلٍ إِلَّا جِئۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ وَأَحۡسَنَ تَفۡسِيرًا ۝ 32
(33) और (इसमें यह मस्लहत भी है कि) जब कभी वह तुम्हारे सामने कोई निराली बात (या अजीब सवाल) लेकर आए, उसका ठीक जवाब उसी वक़्त हमने तुम्हें दे दिया और बेहतरीन तरीक़े से बात खोल दी।46
46. क़ुरआन के उतरने में दरजा-ब-दरजा आगे बढ़ने का तरीक़ा अपनाने की यह एक और हिकमत है। क़ुरआन मजीद उतरने की वजह यह नहीं है कि अल्लाह तआला 'हिदायत’ (मार्गदर्शन) के बारे में एक किताब लिखना चाहता है और उसकी इशाअत (प्रकाशन) के लिए उसने नबी को नुमाइन्दा बनाया है। बात अगर यही होती तो यह माँग दुरुस्त होती कि पूरी किताब लिखकर एक ही वक़्त में नुमाइन्दे के हवाले कर दी जाए, लेकिन अस्ल में इसके उतरने की वजह यह है कि अल्लाह तआला कुफ़्र (ख़ुदा का इनकार) और जाहिलियत (अज्ञानता) और फ़िस्क़ (ख़ुदा की नाफ़रमानी) के मुक़ाबले में ईमान और इस्लाम और फ़रमाँबरदारी और परहेज़गारी को एक तहरीक (आन्दोलन) चलाना चाहता है और इसके लिए उसने एक नबी को दावत देनेवाला और रहनुमा बनाकर उठाया है। इस तहरीक के दौरान में अगर एक तरफ़ रहनुमाई करनवाले और उसके पैरोकारों को ज़रूरत के मुताबिक़ तालीम और हिदायतें देना उसने अपने ज़िम्मे लिया है तो दूसरी तरफ़ यह काम भी अपने ही ज़िम्मे रखा है कि मुख़ालफ़त करनेवाले जब भी कोई ऐतिराज़ या शक या उलझन पेश करें उसे वह साफ़ कर दे। और जब भी वे किसी बात का ग़लत मतलब निकालें तो वह उसका सही मतलब और मानी बता दे। इन अलग-अलग ज़रूरतों के लिए जो तक़रीरें अल्लाह की तरफ़ से उतर रही हैं उनके मजमूआ (संग्रह) का नाम क़ुरआन है और यह क़ानून या अख़लाक़ या फ़लसफ़े (दर्शन) की किताब नहीं, बल्कि तहरीक की किताब है जिसके वुजूद में आने की सही फ़ितरी सूरत यही है कि तहरीक के पहले लम्हे के साथ शुरू हो और आख़िरी पलों तक जैसे-जैसे तहरीक चलती रहे यह भी साथ-साथ मौक़ा और ज़रूरत के मुताबिक़ उतरती रहे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, पेज-13-25 मुक़द्दमा)
ٱلَّذِينَ يُحۡشَرُونَ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ إِلَىٰ جَهَنَّمَ أُوْلَٰٓئِكَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضَلُّ سَبِيلٗا ۝ 33
(34) जो लोग औंधे मुँह जहन्नम की तरफ़ धकेले जानेवाले हैं उनका ठिकाना बहुत बुरा और उनका रास्ता बहुत ही ग़लत है।47
47. यानी जो लोग सीधी बात को उलटी तरह सोचते हैं और उलटे नतीजे निकालते हैं उनकी अक़्ल औधी है। इसी वजह से वे क़ुरआन के सच होने पर दलील देनेवाली हक़ीक़तों को उसके झुठलाने पर दलील बता रहे हैं और इसी वजह से वे औधे मुँह जहन्नम की तरफ़ घसीटे जाएँगे।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَا مَعَهُۥٓ أَخَاهُ هَٰرُونَ وَزِيرٗا ۝ 34
(35) हमने मूसा को किताब48 दी और उसके साथ उसके भाई हारून को मददगार के तौर पर लगाया
48. यहाँ किताब से मुराद शायद वह किताब नहीं जो तौरात के नाम से जानी जाती है और मिस्र से निकलने के बाद हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी गई थी, बल्कि इससे मुराद वे हिदायतें हैं जो पैग़म्बरी के मंसब पर मामूर (नियुक्त) होने के वक़्त से लेकर मिस्र से निकलने तक हज़रत मूसा (अलैहि०) को दी जाती रहीं। उनमें वे तक़रीरें भी शामिल हैं जो हज़रत मूसा (अलैहि०) ने फ़िरऔन के दरबार में कीं और वे हिदायतें भी शामिल हैं जो फ़िरऔन के ख़िलाफ़ जिद्दो-जुह्द के दौरान में उनको दी जाती रहीं। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह इन चीज़ों का ज़िक्र है, मगर ज़्यादा इमकान है कि ये चीज़ें तौरात में शामिल नहीं की गईं। तौरात की शुरुआत उन दस हुक्मों से होती है जो मिस्र से निकलने के बाद सीना पहाड़ पर पत्थर की तख़्तियों की शक्ल में मूसा (अलैहि०) को दिए गए थे।
فَقُلۡنَا ٱذۡهَبَآ إِلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلَّذِينَ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَدَمَّرۡنَٰهُمۡ تَدۡمِيرٗا ۝ 35
(36) और उनसे कहा कि जाओ उस क़ौम की तरफ़ जिसने हमारी आयतों को झुठला दिया है।49 आख़िरकार उन लोगों को हमने तबाह करके रख दिया।
49. यानी उन आयतों को जो हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और यूसुफ़ (अलैहि०) के ज़रिए से उनको पहुँची थीं और जिनकी तबलीग़ बाद में एक मुद्दत तक बनी-इसराईल के नेक और भले लोग करते रहे।
وَقَوۡمَ نُوحٖ لَّمَّا كَذَّبُواْ ٱلرُّسُلَ أَغۡرَقۡنَٰهُمۡ وَجَعَلۡنَٰهُمۡ لِلنَّاسِ ءَايَةٗۖ وَأَعۡتَدۡنَا لِلظَّٰلِمِينَ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 36
(37) यही हाल नूह की क़ौम का हुआ जब उन्होंने रसूलों को झुठलाया।50 हमने उनको डुबो दिया और दुनिया भर के लोगों के लिए सबक़ लेने लायक़ निशानी बना दिया और उन ज़ालिमों के लिए एक दर्दनाक अज़ाब हमने जुटा रखा है।51
50. चूँकि उन्होंने सिरे से यही बात मानने से इनकार कर दिया था कि बशर (इनसान) कभी रसूल बनकर आ सकता है, इसलिए उनको झुठलाना अकेले हज़रत नूह (अलैहि०) को झुठलाना ही न था, बल्कि अपने आपमें नुबूवत (पैग़म्बरी) के मंसब को झुठलाना था।
51. यानी आख़िरत का अज़ाब।
وَعَادٗا وَثَمُودَاْ وَأَصۡحَٰبَ ٱلرَّسِّ وَقُرُونَۢا بَيۡنَ ذَٰلِكَ كَثِيرٗا ۝ 37
(38) इसी तरह आद और समूद और अर-रसवाले52 और बीच की सदियों के बहुत-से लोग तबाह किए गए।
52. अर-रस्सवालों के बारे में यह पता न चल सका कि ये कौन लोग थे। तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने अलग-अलग रिवायतें बयान की हैं मगर उनमें कोई चीज़ इत्मीनान के क़ाबिल नहीं है। ज़्यादा-से-ज़्यादा जो कुछ कहा जा सकता है वह यही है कि यह एक ऐसी क़ौम थी जिसने अपने पैराम्बर को कुएँ में फेंककर या लटकाकर मारा था। 'रस्स' अरबी ज़बान में पुराने कुएँ या अंधे कुएँ को कहते हैं।
وَكُلّٗا ضَرَبۡنَا لَهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَۖ وَكُلّٗا تَبَّرۡنَا تَتۡبِيرٗا ۝ 38
(39) उनमें से हर एक को हमने (पहले तबाह होनेवालों की) मिसालें दे-देकर समझाया और आख़िरकार हर एक को तबाह व बरबाद कर दिया।
وَلَقَدۡ أَتَوۡاْ عَلَى ٱلۡقَرۡيَةِ ٱلَّتِيٓ أُمۡطِرَتۡ مَطَرَ ٱلسَّوۡءِۚ أَفَلَمۡ يَكُونُواْ يَرَوۡنَهَاۚ بَلۡ كَانُواْ لَا يَرۡجُونَ نُشُورٗا ۝ 39
(40) और उस बस्ती पर तो इनका गुज़र हो चुका है जिसपर बहुत ही बुरी बारिश बरसाई गई थी।53 क्या इन्होंने उसका हाल देखा न होगा? मगर ये मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी की उम्मीद ही नहीं रखते।54
53. यानी लूत (अलैहि०) की क़ौम की बस्ती। बदतरीन बारिश से मुराद पत्थरों की बारिश है जिसका ज़िक्र कई जगह क़ुरआन मजीद में आया है। हिजाज़वालों के क़ाफ़िले फ़िलस्तीन और शाम (सीरिया) जाते हुए इस इलाक़े से गुज़रते थे और न सिर्फ़ तबाही के आसार देखते थे, बल्कि आस-पास के रहनेवालों से लूत की क़ौम की इबरत देनेवाली दास्तानें भी सुनते रहते थे।
54. यानी चूँकि ये आख़िरत को नहीं मानते हैं, इसलिए इन पुरानी निशानियों को इन्होंने सिर्फ़ एक तमाशाई की हैसियत से देखा, उनसे कोई सीख न ली। इससे मालूम हुआ कि आख़िरत के माननेवालों की निगाह और उसका इनकार करनेवाले की निगाह में कितना बड़ा फ़र्क़ होता है। एक तमाशा देखता है या ज़्यादा-से-ज़्यादा यह कि इतिहास लिखता है। दूसरा इन्हीं चीज़ों से अख़्लाक़ी सबक़ लेता है और दुनिया की ज़िन्दगी के अलावा पाई जोनवाली हक़ीक़तों तक पहुँचता है।
وَإِذَا رَأَوۡكَ إِن يَتَّخِذُونَكَ إِلَّا هُزُوًا أَهَٰذَا ٱلَّذِي بَعَثَ ٱللَّهُ رَسُولًا ۝ 40
(41) ये लोग जब तुम्हें देखते हैं तो तुम्हारा मज़ाक़ बना लेते हैं। (कहते हैं) “क्या यह शख़्स है जिसे ख़ुदा ने रसूल बनाकर भेजा है?
إِن كَادَ لَيُضِلُّنَا عَنۡ ءَالِهَتِنَا لَوۡلَآ أَن صَبَرۡنَا عَلَيۡهَاۚ وَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ حِينَ يَرَوۡنَ ٱلۡعَذَابَ مَنۡ أَضَلُّ سَبِيلًا ۝ 41
(42) इसने तो हमें गुमराह करके अपने माबूदों से फेर ही दिया होता, अगर हम उनकी अक़ीदत (श्रद्धा) पर जम न गए होते।”55 अच्छा, वह वक़्त दूर नहीं है जब अज़ाब देखकर इन्हें ख़ुद मालूम हो जाएगा कि कौन गुमराही में दूर निकल गया था।
55. इस्लाम-दुश्मनों की ये दोनों बातें एक-दूसरे से टकराती हैं। पहली बात से मालूम होता है कि वे नबी (सल्ल०) को हक़ीर (तुच्छ) समझ रहे हैं, मज़ाक़ उड़ाकर आप (सल्ल०) की क़द्र कम करना चाहते हैं, मानो उनके नज़दीक नबी (सल्ल०) ने अपनी हैसियत से बहुत बड़ा दावा कर दिया था। दूसरी बात से मालूम होता है कि वे आप (सल्ल०) की दलीलों की ताक़त और आप (सल्ल०) की शख़्सियत का लोहा मान रहे हैं और ख़ुद-ब-ख़ुद क़ुबूल कर लेते हैं कि अगर हम तास्तुब और हठधर्मी से काम लेकर अपने ख़ुदा की बन्दगी पर जम न गए होते तो यह शख़्स हमारे क़दम उखाड़ चुका होता। ये एक-दूसरे से टकरानेवाली बातें ख़ुद बता रही हैं कि इस्लामी तहरीक ने उन लोगों को कितना ज़्यादा बौखला दिया था। खिसियाने होकर मज़ाक़ भी उड़ाते थे तो एहसासे-कमतरी (हीनभावना) अनचाहे उनको ज़बान से ये बातें निकलवा देता था, जिनसे साफ़ ज़ाहिर हो जाता था कि दिलों में वे इस ताक़त से कितने ज़्यादा ख़ौफ़ खाए हुए हैं।
أَرَءَيۡتَ مَنِ ٱتَّخَذَ إِلَٰهَهُۥ هَوَىٰهُ أَفَأَنتَ تَكُونُ عَلَيۡهِ وَكِيلًا ۝ 42
(43) कभी तुमने उस शख़्स के हाल पर ग़ौर किया है जिसने अपने नफ़्स (मन) की ख़ाहिश को अपना ख़ुदा बना लिया हो?56 क्या तुम ऐसे शख़्स को सीधे रास्ते पर लाने का ज़िम्मा ले सकते हो?
56. नफ़्स (मन) की ख़ाहिश को ख़ुदा बना लेने से मुराद उसकी बन्दगी करना है और यह भी हक़ीक़त के एतबार से वैसा ही शिर्क है जैसा बुत को पूजना या किसी मख़लूक़ (सृष्टि) को माबूद (पूज्य) बनाना। हज़रत अबू-उमामा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “इस आसमान के नीचे अल्लाह तआला के सिवा जितने माबूद भी पूजे जा रहे हैं, उनमें अल्लाह के नज़दीक सबसे बुरा माबूद वह मन की ख़ाहिश है जिसकी पैरवी की जा रही हो।” (हदीस : तबरानी) और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-50। जो शख़्स अपने मन की ख़ाहिश को अक़्ल के मातहत रखता हो और अक़्ल से काम लेकर फ़ैसला करता हो कि उसके लिए सही राह कौन-सी है और ग़लत कौन-सी, वह अगर किसी तरह के शिर्क और कुफ़्र में मुब्तला भी हो तो उसको समझाकर सीधी राह पर लाया जा सकता है और यह एतिमाद भी किया जा सकता है कि जब वह सीधी राह अपनाने का फ़ैसला कर लेगा तो उसपर जमा रहेगा। लेकिन मन का बन्दा और ख़ाहिशों का ग़ुलाम एक बेनकेल के ऊँट की तरह है। उसे तो उसकी ख़ाहिशें जिघर-जिधर ले जाएँगी वह उनके साथ-साथ भटकता फिरेगा। उसको सिरे से यह फ़िक्र ही नहीं है कि सही और ग़लत, हक़ और बातिल में फ़र्क़ करे और एक को छोड़कर दूसरे को अपनाए। फिर भला कौन उसे समझाकर सही रास्ते को माननेवाला बना सकता है और अगर मान लो कि वह बात मान भी ले तो उसे किसी ज़ाबिते और क़ानून का पाबन्द बना देना किसी इनसान के बस में नहीं है।
أَمۡ تَحۡسَبُ أَنَّ أَكۡثَرَهُمۡ يَسۡمَعُونَ أَوۡ يَعۡقِلُونَۚ إِنۡ هُمۡ إِلَّا كَٱلۡأَنۡعَٰمِ بَلۡ هُمۡ أَضَلُّ سَبِيلًا ۝ 43
(44) क्या तुम समझते हो कि इनमें से अकसर लोग सुनते और समझते हैं? ये तो जानवरों की तरह है, बल्कि उनसे भी गए गुज़रे।57
57. यानी जिस तरह भेड़-बकरियों को यह पता नहीं होता कि हाँकनेवाला उन्हें चरागाह की तरफ़ ले जा रहा है या बूचड़खाने की तरफ़ से बस आँखें बन्द करके हाँकनेवाले के इशारों पर चलती रहती हैं, इसी तरह ये आम लोग भी अपने मन और अपने गुमराह लीडरों के इशारों पर आँखें बन्द किए चले जा रहे हैं, कुछ नहीं जानते कि वे उन्हें कामयाबी की तरफ़ हाँक रहे हैं या तबाही और बरबादी की तरफ़। इस हद तक तो उनकी हालत भेड़-बकरियों के जैसी है। लेकिन भेड़-बकरियों को अल्लाह ने अक़्ल और समझ नहीं दी है। वे अगर चरवाहे और क़साई में फ़र्क़ नहीं करतीं तो कुछ ऐब नहीं। अलबत्ता अफ़सोस है उन इनसानों पर जो ख़ुदा से अक़्ल और समझ की नेमतें पाकर भी अपने आपको भेड़-बकरियों के जैसी ग़फ़लत और नासमझी में मुब्तला कर लें। कोई शख़्स यह न समझे कि इस तक़रीर का मंशा तबलीग़ को बेनतीजा कोशिश ठहराना है और नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करके ये बातें इसलिए कही जा रही हैं कि लोगों को समझाने की फ़ुज़ूल कोशिश छोड़ दें। नहीं, यह तक़रीर अस्ल में सुननेवालों के लिए ही है, अगरचे बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है। अस्ल में मक़सद उनको सुनाना है कि ग़ाफ़िलो, यह किस हाल में पड़े हुए हो! क्या ख़ुदा ने तुम्हें समझ-बूझ इसलिए दी थी कि दुनिया में जानवरों की तरह ज़िन्दगी गुज़ारो!
أَلَمۡ تَرَ إِلَىٰ رَبِّكَ كَيۡفَ مَدَّ ٱلظِّلَّ وَلَوۡ شَآءَ لَجَعَلَهُۥ سَاكِنٗا ثُمَّ جَعَلۡنَا ٱلشَّمۡسَ عَلَيۡهِ دَلِيلٗا ۝ 44
(45) तुमने देखा नहीं कि तुम्हारा रब किस तरह साया फैला देता है? अगर वह चाहता तो उसे हमेशा रहनेवाला साया बना देता। हमने सूरज को उसपर दलील बनाया,58
58. यहाँ लफ़्ज़ दलील ठीक उसी मानी में इस्तेमाल हुआ है जिसमें अंग्रेज़ी लफ़्ज़ पायलट (Pilot) इस्तेमाल होता है। मल्लाहों की ज़बान में दलील उस शख़्स को कहते हैं जो कश्तियों को रास्ता बताता हुआ चले। साये पर सूरज को दलील बनाने का मतलब यह है कि साये का फैलना और सिकुड़ना सूरज के उभरने और ढलने और निकलने और डूबने के मातहत है। साये से मुराद रौशनी और अंधेरे के बीच में वह दरमियानी हालत है जो सुबह के वक़्त सूरज निकलने से पहले होती है और दिन-भर मकानों में, दीवारों की ओट में और पेड़ों के नीचे रहती है।
ثُمَّ قَبَضۡنَٰهُ إِلَيۡنَا قَبۡضٗا يَسِيرٗا ۝ 45
(46) फिर (जैसे-जैसे सूरज उठता जाता है) हम उस साए को धीरे-धीरे अपनी तरफ़ समेटते चले जाते हैं।59
59. अपनी तरफ़ समेटने से मुराद ग़ायब करना और मिटा देना है, क्योंकि हर चीज़ जो मिटती है वह अल्लाह ही की तरफ़ पलटती है। हर चीज़ उसी की तरफ़ से आती है और उसी की तरफ़ जाती है। इस आयत के दो रुख़ (पहलू) हैं। एक ज़ाहिरी और दूसरा छिपा हुआ। ज़ाहिर के एतिबार से ये ग़फ़लत में पड़े हुए मुशरिकों को बता रही है कि अगर तुम दुनिया में जानवरों की तरह न जीते और कुछ अक़्ल और समझ की आँखों से काम लेते तो यही साया जिसको तुम हर वक़्त देखते हो, तुम्हें यह सबक़ देने के लिए काफ़ी या कि नबी जिस तौहीद (एकेश्वरवाद) की तालीम तुम्हें दे रहा है, वह बिलकुल सच्ची है। तुम्हारी सारी ज़िन्दगी इसी साये के घटने-बढ़ने से जुड़ी है। हमेशा के लिए साया हो जाए तो ज़मीन पर कोई जानदार, बल्कि पेड़-पौधे तक बाक़ी न रह सकें, क्योंकि सूरज की रौशनी और गर्मी ही पर इन सबकी ज़िन्दगी का दारोमदार है। साया बिलकुल न रहे तब भी ज़िन्दगी मुश्किल है; क्योंकि हर वक़्त सूरज के सामने रहने और उसकी किरणों से कोई पनाह न पा सकने की सूरत में न जानदार ज़्यादा देर तक बाक़ी रह सकते हैं और न पेड़-पौधे, बल्कि पानी तक की ख़ैर नहीं। धूप और साये में एकदम बदलाव होते रहें तब भी ज़मीन पर बसनेवाले जानदार इन झटकों को ज़्यादा देर तक नहीं सहार सकते। मगर एक हिकमतवाला ख़ालिक़ (स्रष्टा) और पूरी क़ुदरत रखनेवाला ख़ुदा है जिसने ज़मीन और सूरज के बीच ऐसा तालमेल बनाए रखा है जो लगातार एक लगे-बंधे तरीक़े से धीरे-धीरे साया डालता और बढ़ाता और घटाता है और तदरीज (दरजे और सिलसिले) के साथ धूप निकालता और चढ़ाता और उतारता रहता है। यह हिकमतवाला निज़ाम न अंधी फ़ितरत के हाथों ख़ुद-ब-ख़ुद क़ायम हो सकता था और न बहुत-से इख़्तियारात रखनेवाले ख़ुदा इसे क़ायम करके यूँ एक लगातार बाक़ायदगी के साथ चला सकते थे। मगर इन ज़ाहिरी अलफ़ाज़़ के पीछे छिपा हुआ एक और हल्का-सा इशारा भी झलक रहा है और वह यह कि कुफ़्र और शिर्क की जहालत का यह साया जो इस वक़्त छाया हुआ है, कोई हमेशा रहनेवाली चीज़ नहीं है। हिदायत का सूरज, क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की सूरत में निकल चुका है। बज़ाहिर साया दूर-दूर तक फैला दिखाई देता है, मगर ज्यों-ज्यों यह सूरज चढ़ेगा, साया सिमटता चला जाएगा। अलबत्ता ज़रा सब्र की ज़रूरत है। ख़ुदा का क़ानून कभी एकदम तब्दीलियाँ नहीं लाता। माद्दी (भौतिक) दुनिया में जिस तरह सूरज धीरे-धीरे ही चढ़ता और साया धीरे-धीरे ही सिकुड़ता है, उसी तरह सोच और अमल की दुनिया में भी हिदायत के सूरज का चढ़ना और गुमराही के साये का घटना धीरे-धीरे ही होगा।
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلَّيۡلَ لِبَاسٗا وَٱلنَّوۡمَ سُبَاتٗا وَجَعَلَ ٱلنَّهَارَ نُشُورٗا ۝ 46
(47) और वह अल्लाह ही है जिसने रात को तुम्हारे लिए लिबास,60 और नींद को मौत का-सा सुकून, और दिन को जी उठने का वक़्त बनाया।61
60. यानी ढाँकने और छिपानेवाली चीज़।
61. इस आयत के तीन पहलू हैं। एक पहलू से यह तौहीद (एकेश्वरवाद) पर दलील दे रही है। दूसरे पहलू से यह हर दिन के इनसानी तजरिबे ओर मुशाहदे से मौत के बाद की ज़िन्दगी के इमकान की दलील भी जुटा रही है और तीसरे पहलू से यह एक लतीफ़ अन्दाज़ में ख़ुशख़बरी दे रही है कि जाहिलियत की रात ख़त्म हो चुकी, अब इल्म और समझ और हिदायत और सूझने-बूझने का चमकदार दिन निकल आया है और ज़रूरी है कि नींद के मतवाले देर या सवेर जागे। अलबता जिनके लिए रात की नींद मौत की नींद थी वे न जागेंगे और उनका न जागना ख़ुद उन्हीं के लिए ज़िन्दगी खो देना है, दिन का कारोबार उनकी वजह से बन्द न हो जाएगा।
وَهُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ ٱلرِّيَٰحَ بُشۡرَۢا بَيۡنَ يَدَيۡ رَحۡمَتِهِۦۚ وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ طَهُورٗا ۝ 47
(48) और वही है जो अपनी रहमत के आगे-आगे हवाओं को ख़ुशख़बरी बनाकर भेजता है। फिर आसमान से पाक पानी62 बरसाता है
62. यानी ऐसा पानी जो हर तरह की गन्दगियों से भी पाक होता है और हर तरह की ज़हरीली चीज़ों और कीटाणुओं से भी पाक, जिसकी बदौलत गन्दगियाँ धुलती हैं और इनसान, जानवर, पेड़-पौधे सबको ज़िन्दगी देनेवाला ख़ालिस जौहर हासिल होता है।
لِّنُحۡـِۧيَ بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗا وَنُسۡقِيَهُۥ مِمَّا خَلَقۡنَآ أَنۡعَٰمٗا وَأَنَاسِيَّ كَثِيرٗا ۝ 48
(49) ताकि एक मुर्दा इलाक़े को उसके ज़रिए से ज़िन्दगी दे और अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) में से बहुत-से जानवरों और इनसानों को सैराब (सिंचित) करे।63
63. इस आयत के भी यही तीन पहलू हैं जो ऊपरवाली आयत के थे। इसमें तौहीद की दलीलें भी हैं और आख़िरत की दलीलें भी और इन दोनों बातों के साथ इसमें यह लतीफ़ (सूक्ष्म) बात भी छिपी है कि जाहिलियत का दौर हक़ीक़त में सूखे और अकाल का दौर था, जिसमें इनसानियत की ज़मीन बंजर होकर रह गई थी। अब यह अल्लाह की मेहरबानी है कि वह नुबूवत (पैग़म्बरी) की रहमत का बादल ले आया जो वह्य के इल्म का ख़ालिस आबे-हयात (अमृत) बरसा रहा है, सब नहीं तो ख़ुदा के बहुत-से बन्दे तो इससे फ़ायदा उठाएँगे ही।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَٰهُ بَيۡنَهُمۡ لِيَذَّكَّرُواْ فَأَبَىٰٓ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 49
(50) इस करिश्मे को हम बार-बार उनके सामने लाते हैं64 ताकि वे कुछ सबक़ लें, मगर ज़्यादातर लोग (ख़ुदा का) इनकार और (उसकी) नाशुक्री के सिवा कोई दूसरा रवैया अपनाने से इनकार कर देते हैं।65
64. अस्ल अरबी के अलफ़ाज़ 'लक़द सर्रफ़नाहु’ इस्तेमाल हुए हैं। इसके तीन मतलब हो सकते हैं। एक यह कि बारिश के इस मज़मून (विषय) को हमने बार-बार क़ुरआन में बयान करके हक़ीक़त समझाने की कोशिश की है। दूसरा यह कि हम बार-बार गर्मी और सूखे मौसम के, मौसमी हवाओं और घटाओं के और बरसात और उससे पैदा होनेवाली ज़िन्दगी की रौनक़ के करिश्मे उनको दिखाते रहते हैं। तीसरा यह कि हम बारिश को घुमाते रहते हैं। यानी हमेशा हर जगह एक जैसी बारिश नहीं होती, बल्कि कभी कहीं बिलकुल सूखा होता है, कभी कहीं कम बारिश होती है, कभी कहीं मुनासिब बारिश होती है, कभी कहीं तूफ़ान और सैलाब की नौबत आ जाती है और इन सब हालतों के अनगिनत अलग-अलग नतीजे उनके सामने आते रहते हैं।
65. अगर पहले पहलू (यानी तौहीद की दलील के नज़रिए) से देखा जाए तो आयत का मतलब यह है कि लोग आँखें खोलकर देखें तो सिर्फ़ बारिश के इन्तिज़ाम ही में अल्लाह के वुजूद और उसकी सिफ़ात और उसके सारे जहानों के अकेले रब होने पर दलील देनेवाली इतनी निशानियाँ मौजूद हैं कि सिर्फ़ वही उनको पैग़म्बर की तालीम तौहीद के सच्चे होने का इत्मीनान दिला सकती हैं। मगर बावजूद इसके कि हम बार-बार इस बात की तरफ़ ध्यान दिलाते हैं और बावजूद इसके कि दुनिया में पानी बाँटने के ये करिश्मे नित नए अन्दाज़ से एक-के-बाद एक उनकी निगाहों के सामने आते रहते हैं, ये ज़ालिम कोई सबक़ नहीं लेते। न हक़ और सच्चाई को मानकर देते हैं, न अक़्ल और फ़िक्र की उन नेमतों का शुक्र अदा करते हैं जो हमने उनको दी हैं और न इस एहसान के लिए शुक्रगुजार होते हैं कि जो कुछ वे ख़ुद नहीं समझ रहे थे, उसे समझाने के लिए क़ुरआन में बार-बार कोशिश की जा रही है। दूसरे पहलू (यानी आख़िरत की दलील के नज़रिए) से देखा जाए तो इसका मतलब यह है कि हर साल हक़ के इन इनकारियों के सामने गर्मी और सूखे से अनगिनत जानदारों पर मौत छा जाने और फिर बरसात की बरकत से मुर्दा पेड़-पौधों और कीड़ों-मकोड़ों के जी उठने का मंज़र आता रहता है, मगर सब कुछ देखकर भी ये बेवक़ूफ़ मौत के बाद की ज़िन्दगी को नामुमकिन ही कहते चले जाते हैं। बार-बार इन्हें हक़ीक़त की इस खुली निशानी की तरफ़ ध्यान दिलाया जाता है, मगर कुफ़्र और इनकार की बर्फ़ है कि किसी तरह नहीं पिघलती, अक़्ल और देखने की ताक़त की नेमत की नाशुक्री है कि किसी तरह ख़त्म नहीं होती और याद दिलाने और तालीम देने की नाशुक्री है कि बराबर हुए चली जाती है। अगर तीसरे पहलू (यानी सूखे मौसम से जाहिलियत की और रहमत की बारिश से वह्य और पैग़म्बरी की मिसाल) को निगाह में रखकर देखा जाए तो आयत का मतलब यह है कि इनसानी इतिहास के दौरान में बार-बार यह मंज़र सामने आता रहा है कि जब कभी दुनिया नबी और अल्लाह की किताब की नेमत (अनुग्रह) से महरूम हुई, इनसानियत बंजर हो गई और फ़िक्र और अख़लाक़ (सोच और अमल) की ज़मीन में काँटेदार झाड़ियों के सिवा कुछ न उगा। और जब कभी वह्य और पैऱम्बरी का अमृत इस सरज़मीन को मिल गया, इनसानियत का चमन लहलहा उठा। जहालत और ला-इल्मी की जगह इल्म ने ले ली। ज़ुल्म-ज़्यादती की जगह इनसाफ़ क़ायम हुआ। बुराइयों और गुनाहों की जगह अख़लाक़ी ख़ूबियों के फूल खिले। जिस कोने में जितना भी उसका फ़ायदा पहुँचा, बुराई कम हुई और भलाई में इज़ाफ़ा हुआ। नबियों का आना हमेशा एक ख़ुशगवार और फ़ायदेमन्द फ़िक्री (वैचारिक) और अख़लाक़ी इंक़िलाब ही की बजह बना है, कभी इससे बुरे नतीजे ज़ाहिर नहीं हुए और नबियों की हिदायत से महरूम होकर या उससे मुँह फेरकर हमेशा इनसानियत ने नुक़सान ही उठाया है, कभी इससे अच्छे नतीजे नहीं निकले। यह मंजर इतिहास भी बार-बार दिखाता है और क़ुरआन भी इसकी तरफ़ बार-बार ध्यान दिलाता है, मगर लोग फिर भी सबक़ नहीं लेते। एक आज़माई हुई हक़ीक़त है जिसको सच्चाई पर हज़ारों साल के इनसानी तजरिबे की मुहर लग चुकी है, मगर इसका इनकार किया जा रहा है और आज ख़ुदा ने नबी (पैग़म्बर) और किताब की नेमत से जिस बस्ती को नवाज़ा है, वह इसका शुक्र अदा करने के बजाय उलटी नाशुक्री करने पर तुली हुई है।
وَلَوۡ شِئۡنَا لَبَعَثۡنَا فِي كُلِّ قَرۡيَةٖ نَّذِيرٗا ۝ 50
(51) अगर हम चाहते तो एक-एक बस्ती में एक- एक ख़बरदार करनेवाला उठा खड़ा करते।66
66. यानी ऐसा करना हमारी क़ुदरत से बाहर न था, चाहते तो जगह-जगह नबी (पैग़म्बर) पैदा कर सकते थे, मगर हमने ऐसा नहीं किया और दुनिया भर के लिए एक ही नबी भेज दिया। जिस तरह एक सूरज सारी दुनिया के लिए काफ़ी हो रहा है उसी तरह यह अकेला हिदायत का सूरज ही सब दुनियावालों के लिए काफ़ी है।
فَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَجَٰهِدۡهُم بِهِۦ جِهَادٗا كَبِيرٗا ۝ 51
(52) तो ऐ नबी, इनकार करनेवालों की बात हरगिज़ न मानो और इस क़ुरआन को लेकर उनके साथ बड़ा जिहाद67 करो।
67. 'बड़ा जिहाद' के तीन मतलब हैं। एक, इन्तिहाई कोशिश, जिसमें आदमी कोशिश करने और जान लगा देने में कोई कसर उठा न रखे। दूसरा, बड़े पैमाने पर जिद्दो-जुह्द जिसमें आदमी अपने तमाम साधन लाकर डाल दे। तीसरा, हर तरह की जिद्दो-जुह्द जिसमें आदमी कोशिश का कोई पहलू और मुक़ाबले का कोई मोरचा न छोड़े, जिस-जिस मोरचे पर दुश्मन ताक़तें काम कर रही हों, उसपर अपनी ताक़त भी लगा दे और जिस-जिस पहलू से भी हक़ की सरबुलन्दी के लिए काम करने की ज़रूरत हो करे। इसमें ज़बान और क़लम का जिहाद भी शामिल है और जान-माल का भी और हथियारों का भी।
۞وَهُوَ ٱلَّذِي مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ هَٰذَا عَذۡبٞ فُرَاتٞ وَهَٰذَا مِلۡحٌ أُجَاجٞ وَجَعَلَ بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٗا وَحِجۡرٗا مَّحۡجُورٗا ۝ 52
(53) और वही है जिसने दो समन्दरों को मिला रखा है। एक मज़ेदार और मीठा, दूसरा तल्ख़ और खारा। और दोनों के बीच एक परदा पड़ा है। एक रुकावट है जो उन्हें गड्ड-मड्ड होने से रोके हुए है।68
68. यह कैफ़ियत हर उस जगह सामने आती है जहाँ कोई बड़ी नदी समन्दर में आकर गिरती है। इसके अलावा ख़ुद समन्दर में भी अलग-अलग जगहों पर मीठे पानी के चश्मे (स्रोत) पाए जाते हैं जिनका पानी समन्दर के बेहद खारे पानी के बीच भी अपनी मिठास पर क़ायम रहता है। तुर्की के समन्दरी कमांडर सैयदी अली रईस (कातिब रूमी) अपनी किताब 'मिरातुल-ममालिक' में, जो 16वीं सदी ईसवी में लिखी गई है, फ़ारस की खाड़ी के अन्दर ऐसे ही एक मक़ाम की निशानदेही करता है। उसने लिखा है कि वहाँ खारे पानी के नीचे मीठे पानी के चश्मे (स्रोत) हैं, जिनसे में ख़ुद अपने जहाज़ के लिए पीने का पानी हासिल करता रहा हूँ। मौजूदा ज़माने में जब अमेरिकी कम्पनी ने सऊदी अरब में तेल निकालने का काम शुरू किया तो शुरू में वह भी फ़ारस की खाड़ी के इन्हीं चश्मों (स्रोतों) से पानी हासिल करती थी। बाद में ज़हरान के पास कुएँ खोद लिए गए और उनसे पानी लिया जाने लगा। बहरैन के क़रीब भी समन्दर के तल में मीठे पानी के चश्मे (स्रोत) हैं जिनसे लोग कुछ मुद्दत पहले तक पीने का पानी हासिल करते रहे हैं। यह तो है आयत का ज़ाहिरी मज़मून, जो अल्लाह की क़ुदरत के एक करिश्मे से उसके अकेले माबूद और अकेले रब होने पर दलील दे रहा है। मगर इसके अन्दर से भी एक बारीक इशारा एक दूसरी बात की तरफ़ निकलता है और वह यह है कि इनसानी समाज का समन्दर चाहे कितना ही खारा और कड़वा हो जाए, अल्लाह जब चाहे उसके तल से अच्छे लोगों के एक गरोह का मीठा चश्मा (स्रोत) निकाल सकता है और समन्दर के खारे पानी की मौजें चाहे कितना ही ज़ोर मार लें, वे उस चश्मे को हड़प कर जाने में कामयाब नहीं हो सकतीं।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ مِنَ ٱلۡمَآءِ بَشَرٗا فَجَعَلَهُۥ نَسَبٗا وَصِهۡرٗاۗ وَكَانَ رَبُّكَ قَدِيرٗا ۝ 53
(54) और वही है जिसने पानी से एक बशर (इनसान) पैदा किया, फिर उससे नसब (वंश) और ससुराल के दो अलग-अलग सिलसिले चलाए।69 तेरा रब बड़ा ही क़ुदरतवाला है।
69. यानी अपने आपमें यही करिश्मा क्या कम था कि ख़ुदा एक मामूली पानी की बूँद से इनसान जैसी हैरतअंगेज़ मख़लूक़ बना खड़ी करता है, मगर इसपर एक और करिश्मा यह कि उसने इनसान का भी एक नमूना नहीं, बल्कि दो अलग नमूने (औरत और मर्द) बनाए जो इनसानियत में एक जैसे, मगर जिस्मानी और नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) ख़ासियतों में बिलकुल अलग हैं और इस अलग होने की वजह से एक-दूसरे के मुख़ालिफ़ और एक-दूसरे के उलट नहीं, बल्कि एक-दूसरे का पूरा जोड़ हैं। फिर इन जोड़ों को मिलाकर वह अजीब तवाज़ुन (सन्तुलन) के साथ (जिसमें किसी दूसरे की तदबीर का धोड़ा-सा भी दख़ल नहीं है) दुनिया में मर्द भी पैदा कर रहा है और औरतें भी, जिनसे रिश्तों का एक सिलसिला बेटों और पोतों का बलता है जो दूसरे घरों से बहुएँ लाते हैं और ताल्लुक़ात का एक दूसरा सिलसिला बेटियों और नवासियों का चलता है जो दूसरे घरों की बहुएँ बनकर जाती हैं। इस तरह ख़ानदान से ख़ानदान जुड़कर पूरे-पूरे देश एक नस्ल और एक समाज से जुड़ जाते हैं। यहाँ भी एक छिपा हुआ हल्का-सा इशारा इस बात की तरफ़ है कि दुनिया के इस सारे कारख़ाने में जो हिकमत काम कर रही है उसके काम का अन्दाज़ ही कुछ ऐसा है कि यहाँ इख़्तिलाफ़ (चीज़ों के एक-दूसरे के बरख़िलाफ़ होने) और फिर एक-दूसरे के बरख़िलाफ़ होनेवालों के जोड़ से ही सारे नतीजे निकलते हैं। लिहाज़ा जिस इख़्तिलाफ़ (भिन्नता) का तुम्हें सामना है उसपर घबराओ नहीं, यह भी एक फ़लदायक चीज़ है।
وَيَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَا لَا يَنفَعُهُمۡ وَلَا يَضُرُّهُمۡۗ وَكَانَ ٱلۡكَافِرُ عَلَىٰ رَبِّهِۦ ظَهِيرٗا ۝ 54
(55) उस ख़ुदा को छोड़कर लोग उनको पूज रहे हैं जो न उनको फ़ायदा पहुँचा सकते हैं, न नुक़सान और ऊपर से यह और भी कि इनकार करनेवाला अपने रब के मुक़ाबले में हर बाग़ी (विद्रोही) का मददगार बना हुआ है।70
70. यानी अल्लाह का कलिमा बुलन्द (बोलबाला) करने और उसके हुक्मों और क़ानूनों को लागू करने के लिए जो कोशिश भी कहीं हो रही हो, हक़ के इनकारियों की हमदर्दियाँ इस कोशिश के साथ नहीं, बल्कि उन लोगों के साथ होंगी जो उसे नीचा दिखाने पर तुले हों। इसी तरह अल्लाह की फ़रमाँबरदारी से नहीं, बल्कि उसकी नाफ़रमानी ही से हक़ के इनकारियों की सारी दिलचस्पियों जुड़ी होंगी। ख़ुदा की नाफ़रमानी का काम जो जहाँ भी कर रहा हो, हक़ का इनकारी अगर अमली तौर पर उसका साझी न हो सकेगा तो कम-से-कम ज़िन्दाबाद का नारा ही लगा देगा, ताकि ख़ुदा के बाग़ियों (विद्रोहियों) की हिम्मत बढ़े। इसके बरख़िलाफ़ अगर कोई ख़ुदा को फ़रमाँबरदारी का काम कर रहा हो तो हक़ का इनकारी उसको रोकने में ज़रा भी देर न करेगा। ख़ुद रुकावट न डाल सकता हो तो उसका हौसला तोड़ने के लिए जो कुछ भी कर सकता है, कर गुज़रेगा, चाहे वह नाक-भौंह चढ़ाने की हद तक ही सही। ख़ुदा की नाफ़रमानी की हर ख़बर उसके लिए दिली ख़ुशख़बरी होगी और ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी की हर ख़बर उसे तीर बनकर लगेगी।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا مُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 55
(56) ऐ नबी, तुमको तो हमने बस एक ख़ुशख़बरी देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला बनाकर भेजा है।71
71. यानी तुम्हारा काम न किसी ईमान लानेवाले को इनाम देना है, न किसी इनकार करनेवाले को सज़ा देना। तुम किसी को ईमान की तरफ़ खींच लाने और इनकार से ज़बरदस्ती रोक देने पर नहीं लगाए गए हो। तुम्हारी ज़ीम्मेदारी इससे ज़्यादा कुछ नहीं कि जो सीधी राह क़ुबूल करे उसे अच्छे अंजाम की ख़ुशख़बरी दे दो और जो अपनी बुरी डगर पर चलता रहे, उसको अल्लाह की पकड़ से डरा दो। इस तरह की बातें क़ुरआन में जहाँ भी आई हैं वे अस्ल में ख़ुदा के इनकारियों से कही गई है। और मक़सद अस्ल में उनको यह बताना है कि नबी (पैग़म्बर) एक सच्चे दिल से इस्लाह और सुधार करनेवाला है, उसकी अपनी कोई दुनियावी ग़रज़ नहीं है, बल्कि लोगों की भलाई के लिए ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचाता है और लोगों को उनके अंजाम का भला और बुरा बता देता है। वह तुम्हें ज़बरदस्ती तो उस पैग़ाम के क़ुबूल करने पर मजबूर नहीं करता कि तुम ख़ाह-मख़ाह उसपर बिगड़ने और लड़ने पर तुल जाते हो। तुम मानोगे तो अपना ही भला करोगे, उसे कुछ न दे दोगे। न मानोगे तो अपना नुक़सान करोगे, उसका कुछ न बिगाड़ोगे। वह पैग़ाम पहुँचाकर अपना फ़र्ज़ पूरा कर चुका। अब तुम्हारा मामला ख़ुदा से है ..... इस बात को न समझने की वजह से कई बार लोग इस ग़लतफहमी में पड़ जाते हैं कि मुसलमानों के मामले में भी नबी का काम बस ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचा देने और अच्छे अंजाम की ख़ुशख़बरी सुना देने तक ही है, हालाँकि क़ुरआन जगह-जगह और बार-बार साफ़-साफ़ बयान करता है, कि मुसलमानों के लिए नबी सिर्फ़ ख़ुशख़बरी देनेवाला ही नहीं है, बल्कि तालीम देनेवाला और उनका तज़किया (विकास) करनेवाला और अपने अमल से नमूना पेश करनेवाला भी है। हाकिम और क़ाज़ी और ऐसा अमीर भी है जिसकी पैरवी करना लाज़िमी है और उसकी ज़बान से निकला हुआ हर फ़रमान उनके लिए क़ानून का दरजा रखता है, जिसके आगे उनको दिल की पूरी रज़ामन्दी से सर झुकाना चाहिए। लिहाज़ा सख़्त ग़लती करता है वह शख़्स जो “मा अलर-रसूलि इल्लल बलाग़” (रसूल का काम सिर्फ़ पहुँचा देना है) और “मा अरसलना-क इल्ला मुबश्शिरवँ व नज़ीरा” (हमने तुम्हें सिर्फ़ ख़ुशख़बरी देनेवाला और आगाह करनेवाला बनाकर भेजा है) और इसी तरह की दूसरी आयतों को नबी और ईमानवालों के आपसी ताल्लुक़ पर चस्पाँ करता है।
قُلۡ مَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍ إِلَّا مَن شَآءَ أَن يَتَّخِذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ سَبِيلٗا ۝ 56
(57) इनसे कह दो कि “मैं इस काम पर तुमसे कोई मुआवज़ा नहीं माँगता, मेरा मुआवज़ा बस यही है कि जिसका जी चाहे वह अपने रब का रास्ता अपना ले।”71अ
71अ. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-70 ।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱلۡحَيِّ ٱلَّذِي لَا يَمُوتُ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِهِۦۚ وَكَفَىٰ بِهِۦ بِذُنُوبِ عِبَادِهِۦ خَبِيرًا ۝ 57
(58) ऐ नबी, उस ख़ुदा पर भरोसा रखो जो ज़िन्दा है और कभी मरनेवाला नहीं। उसकी हम्द (तारीफ़) के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) करो। अपने बन्दों के गुनाहों से बस उसी का बाख़बर होना काफ़ी है।
ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ ثُمَّ ٱسۡتَوَىٰ عَلَى ٱلۡعَرۡشِۖ ٱلرَّحۡمَٰنُ فَسۡـَٔلۡ بِهِۦ خَبِيرٗا ۝ 58
(59) वह जिसने छः दिनों में ज़मीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को बनाकर रख दिया जो आसमानों और ज़मीन के बीच हैं, फिर आप ही 'अर्श' (कायनात के राज-सिंहासन) पर विराजमान हुआ।72 रहमान, उसकी शान बस किसी जाननेवाले से पूछो।
72. अल्लाह तआला के अर्श पर विराजमान होने की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—11-12; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-4 सूरा-11 हूद, हाशिया-7। ज़मीन और आसमान को छः दिनों में पैदा करने की बात मुतशाबिहात (उपलक्षित आयतों) में से है जिसका ठीक-ठीक मतलब निकालना मुश्किल है। मुमकिन है कि एक दिन से मुराद एक दौर हो और मुमकिन है कि इससे मुराद वक़्त की इतनी ही मिक़दार हो जिसे हम दुनिया में दिन का लफ़्ज़ कहते हैं (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—11-15)।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱسۡجُدُواْۤ لِلرَّحۡمَٰنِ قَالُواْ وَمَا ٱلرَّحۡمَٰنُ أَنَسۡجُدُ لِمَا تَأۡمُرُنَا وَزَادَهُمۡ نُفُورٗا۩ ۝ 59
(60) इन लोगों से जब कहा जाता है कि उस रहमान को सजदा करो तो कहते हैं, “रहमान क्या होता है? क्या जिसे तू कह दे, उसी को हम सजदा करते फिरें?”73 यह दावत उनकी नफ़रत में उलटा और बढ़ोतरी कर देती है।74
73. यह बात अस्ल में वे सिर्फ़ गुस्ताख़ाना रवैये और सरासर हठधर्मी की वजह से कहते थे, जिस तरह फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) से कहा था कि “यह रब्बुल-आलमीन क्या होता है?” हालाँकि न मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ रहमान (दयावान) अल्लाह से बेख़बर थे और न फ़िरऔन ही अल्लाह रब्बुल-आलमीन से अनजान था। क़ुरआन के कुछ आलिमों ने इसका यह मतलब निकाला है कि अरबवालों के यहाँ अल्लाह तआला के लिए ‘रहमान' का मुबारक नाम आम न था, इसलिए उन्होंने यह एतिराज़ किया लेकिन आयत के बयान का अन्दाज़ ख़ुद बता रहा है कि यह एतिराज़ न जानने की वजह से नहीं, बल्कि जाहिलियत की हठधर्मी और सरकशी की वजह से था, वरना उसपर गिरिफ़्त करने के बजाय अल्लाह तआला नरमी के साथ उन्हें समझा देता कि यह भी हमारा ही एक नाम है, इसपर कान न खड़े करो। इसके अलावा यह बात तारीख़ (ऐतिहासिक) तौर पर साबित है कि अरब में अल्लाह तआला के लिए पुराने ज़माने से रहमान का लफ़्ज़ जाना-माना और इस्तेमाल में था। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-32 सजदा, हाशिया-5; सूरा-34 सबा, हाशिया-35।
74. तमाम इस्लामी उलमा इस बात पर एकराय है कि यहाँ सजदा-ए-तिलावत है यानी इस आयत के पढ़नेवाले और सुननेवाले को सजदा करना चाहिए साथ ही यह भी सुन्नत है कि आदमी जब इस आयत को सुने तो जवाब में कहे, “ज़ा-द-नल्लाहु खुज़ूअम-मा ज़ा-द लिल-आदाइ नुफ़ूरा” यानी “अल्लाह करे हमारा ख़ूज़ू (आजिज़ी) उतना ही बढ़े जितना दुश्मनों का नुफ़ूर (सरकशी) बढ़ता है।”
تَبَارَكَ ٱلَّذِي جَعَلَ فِي ٱلسَّمَآءِ بُرُوجٗا وَجَعَلَ فِيهَا سِرَٰجٗا وَقَمَرٗا مُّنِيرٗا ۝ 60
(61) बड़ा बरकतवाला है वह जिसने आसमान में बुर्ज बनाए75 और उसमें एक चिराग़76 और एक चमकता चाँद रौशन किया
75. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिए—8-12।
76. यानी सूरज, जैसाकि सूरा-71 नूह, आयत-16 में साफ़-साफ़ फ़रमाया “व ज-अ-लश्शम-स सिराजा” (और उसने सूरज को चिराग़ बनाया)
وَهُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ خِلۡفَةٗ لِّمَنۡ أَرَادَ أَن يَذَّكَّرَ أَوۡ أَرَادَ شُكُورٗا ۝ 61
(62) वही है जिसने रात और दिन को एक-दूसरे की जगह लेनेवाला (जानशीन) बनाया, हर उस शख़्स के लिए जो सबक़ लेना चाहे, या शुक्रगुज़ार होना चाहे।77
77. ये दो दरजे हैं जो अपनी क़िस्म के लिहाज़ से अलग और अपने मिज़ाज के एतिबार से एक-दूसरे के लिए ज़रूरी हैं। रात-दिन के आने-जाने के निज़ाम (व्यवस्था) पर ग़ौर करने का पहला नतीजा यह है कि आदमी उससे तौहीद (ख़ुदा के एक होने) का सबक़ ले और अगर ख़ुदा से ग़फ़लत में पड़ा हुआ था तो चौंक जाए और दूसरा नतीजा यह है कि ख़ुदा की रबूबियत (रब होने) का एहसास करके आजिज़ी (विनम्रता) से सर झुका दे और सरापा शुक्रगुज़ारी (की अलामत) बन जाए।
وَعِبَادُ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلَّذِينَ يَمۡشُونَ عَلَى ٱلۡأَرۡضِ هَوۡنٗا وَإِذَا خَاطَبَهُمُ ٱلۡجَٰهِلُونَ قَالُواْ سَلَٰمٗا ۝ 62
(63) रहमान के (असली) बन्दे वे हैं78 जो ज़मीन पर नर्म चाल चलते हैं79 और जाहिल उनके मुँह आएँ तो कह देते हैं कि तुमको सलाम80
78. यानी जिस रहमान (दयावान ख़ुदा) को सजदा करने के लिए तुमसे कहा जा रहा है और तुम इससे मुँह फेर रहे हो उसके पैदाइशी बन्दे तो सभी हैं, मगर उसके प्यारे और पसन्दीदा बन्दे वे हैं जो सोचते-समझते हुए बन्दगी अपनाकर ये और ये ख़ूबियाँ अपने अन्दर पैदा करते हैं। साथ ही वह सजदा जिसकी तुम्हें दावत दी जा रही है उसके नतीजे ये हैं जो उसकी बन्दगी क़ुबूल करनेवालों की ज़िन्दगी में नज़र आते हैं और उससे इनकार के नतीजे वे हैं जो तुम लोगों की ज़िन्दगी में ज़ाहिर हैं। इस जगह पर अस्ल मक़सद सीरत और अख़लाक़ (चरित्र और आचरण) के दो नमूनों का तक़ाबुल (तुलना) है एक वह नमूना जो मुहम्मद (सल्ल०) की पैरवी क़ुबूल करनेवालों में पैदा हो रहा था और दूसरा वह जो जाहिलियत (अज्ञान) पर जमे हुए लोगों में हर तरफ़ पाया जाता था। लेकिन इस तक़ाबुल (तुलना) के लिए तरीक़ा यह अपनाया गया कि सिर्फ़ पहले नमूने की नुमायाँ ख़ासियतों को सामने रख दिया और दूसरे नमूने को हर देखनेवाली आँख और सोचनेवाले ज़ेहन पर छोड़ दिया कि वह आप ही सामनेवाले की तस्वीर को देखे और आप ही दोनों में फ़र्क़ महसूस करे। उसके बयान की ज़रूरत न थी; क्योंकि वे आस-पास सारे समाज में पाए जाते थे।
79. यानी घमण्ड के साथ अकड़ते और ऐंठते हुए नहीं चलते, ज़ालिमों और बिगाड़ फैलानेवालों की तरह अपनी चाल से अपना ज़ोर जताने की कोशिश नहीं करते, बल्कि उनकी चाल एक शरीफ़ और सही फ़ितरत रखनेवाले और नेक मिज़ाज आदमी की सी चाल होती है। 'नर्म चाल' से मुराद कमज़ारों और रोगियोंवाली चाल नहीं है और न वह चाल है जो एक दिखावा करनेवाला आदमी अपनी इन्‌किसारी (विनम्रता) दिखलाने या अपनी ख़ुदातरसी ज़ाहिर करने के लिए बनावटी तौर पर अपनाता है। नबी (सल्ल०) ख़ुद इस तरह मज़बूत क़दम रखते हुए चलते थे कि मानो ढलान की तरफ़ उतर रहे हैं। हज़रत उमर (रज़ि०) के बारे में रिवायतों में आया है कि उन्होंने एक जवान आदमी को मरियल चाल चलते हुए देखा तो रोककर पूछा, “क्या तुम बीमार हो?” उसने कहा, “नहीं।” उन्होंने दुर्रा उठाकर उसे धमकाया और बोले, “मज़बूती के साथ चलो!” इससे मालूम हुआ कि नर्म चाल से मुराद एक भले मानुस की-सी फ़ितरी चाल है, न कि वह जो बनावट से आजिज़ीवाली बनाई गई हो या जिससे ख़ाह-मख़ाह की मिसकीनी और कमज़ोरी टपकती हो। मगर सोचने के लायक़ पहलू यह है कि आदमी की चाल में आख़िर वह क्या अहमियत है जिसकी वजह से अल्लाह के नेक बन्दों की ख़ूबियों को गिनाते हुए सबसे पहले इसका ज़िक्र किया गया? इस सवाल पर अगर ज़रा ग़ौर किया जाए तो मालूम होता है कि आदमी की चाल सिर्फ़ उसके चलने के ढंग ही का नाम नहीं है, बल्कि हक़ीक़त में वह उसके ज़ेहन और उसकी सीरत और किरदार को सबसे पहली बयान करनेवाली भी होती है। एक चालाक और मक्कार आदमी की चाल, एक ग़ुण्डे बदमाश की चाल, एक ज़ालिम और जाबिर (दुष्ट) की चाल, एक घमण्डी की चाल, एक बावक़ार (गौरवशाली) तहज़ीबवाले आदमी की चाल, एक ग़रीब मिसकीन की चाल और इसी तरह अलग-अलग तरह के दूसरे इनसानों की चालें एक-दूसरे से इतनी ज़्यादा अलग होती हैं कि हर एक को देखकर आसानी से अन्दाज़ा किया जा सकता है कि किस चाल के पीछे किस तरह की शख़्सियत छिपी है। इसलिए आयत का मतलब यह है कि रहमान के बन्दों को तो तुम आम आदमियों के बीच चलते-फिरते देखकर ही बिना किसी पहले से जान-पहचान के अलग पहचान लोगे कि ये किस ढंग के लोग हैं। इस बन्दगी ने उनकी ज़ेहनियत और उनकी सीरत को जैसा कुछ बना दिया है उसका असर उनकी चाल तक में नुमायाँ है। एक आदमी उन्हें देखकर पहली नज़र में जान सकता है कि ये शरीफ़ और नर्मदिल और हमदर्द लोग हैं, इनसे किसी बुराई की उम्मीद नहीं की जा सकती। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल हाशिया-43; सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-33)
80. जाहिल से मुराद अनपढ़ या इल्म न रखनेवाला आदमी नहीं, बल्कि वह शख़्स है जो जहालत और हठधर्मी पर उतर आए और किसी शरीफ़ आदमी से बदतमीज़ी का बरताव करने लगे। रहमान (दयावान ख़ुदा) के बन्दों का तरीक़ा यह है कि वे गाली का जवाब गाली से और बुहतान (तुहमत) का जवाब बुहतान (मिथ्यारोप) से और इसी तरह की हर बेहूदगी का जवाब बैसी ही बेहूदगी से नहीं देते, बल्कि जो उनके साथ यह रवैया अपनाता है, वे उसको सलाम करके अलग हो जाते हैं। जैसाकि सूरा-28 क़सस, आयत-55 में फ़रमाया— और जब वे कोई बेहूदा बात सुनते हैं तो उसे नज़र-अन्दाज़ कर देते हैं, कहते हैं, “भाई हमारे आमाल हमारे लिए और तुम्हारे आमाल तुम्हारे लिए, सलाम है तुमको, हम जाहिलों के मुँह नहीं लगते।” (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, हाशिए—72-78)
وَٱلَّذِينَ يَبِيتُونَ لِرَبِّهِمۡ سُجَّدٗا وَقِيَٰمٗا ۝ 63
(64) जो अपने रब के आगे सजदे में और खड़े होकर रातें गुजारते हैं।81
81. यानी यह उनके दिन की ज़िन्दगी थी और यह उनकी रातों की ज़िन्दगी है। उनकी रातें न अय्याशी में गुज़रती है, न नाच गाने में, न खेल-तमाशे में, न गप्पों और क़िस्से-कहानियों में और न डाके डालने और चोरियाँ करने में। जाहिलियत के इन जाने-माने मशग़लों के बरख़िलाफ़ ये इस समाज के वे लोग है जिनकी रातें ख़ुदा के सामने खड़े और बैठे और लेटे दुआ और इबादत करने में गुज़रती हैं। क़ुरआन मजीद में जगह-जगह उनकी ज़िन्दगी के इस पहलू को नुमायाँ करके पेश किया गया है मसलन सूरा-32 सजदा में फ़रमाया— "उनकी पीठें बिस्तरों से अलग रहती हैं, अपने रब को डर और लालच के साथ पुकारते हैं।” (आयत-16) और सूरा-51 ज़ारियात में फ़रमाया— "ये जन्नतवाले वे लोग थे जो रातों को कम ही सोते थे और सुबह के वक़्तों में मग़फ़िरत की दुआएँ माँगा करते थे।” (आयतें—17-18) आर सूरा-39 जुमर में कहा गया— “क्या उस शख़्स का अंजाम किसी मुशरिक जैसा हो सकता है जो अल्लाह का फ़रमाँबरदार हो, रात के वक़्तों में सजदे करता और (ख़ुदा की इबादत में) खड़ा रहता हो, आख़िरत से डरता हो और अपने रब की रहमत की आस लगाए हुए हो?” (आयत-9)
وَٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا ٱصۡرِفۡ عَنَّا عَذَابَ جَهَنَّمَۖ إِنَّ عَذَابَهَا كَانَ غَرَامًا ۝ 64
(65) जो दुआए करते हैं कि “ऐ हमारे रब, जहन्नम के अज़ाब से हमको बचा ले, उसका अज़ाब तो जान का लागू है,
إِنَّهَا سَآءَتۡ مُسۡتَقَرّٗا وَمُقَامٗا ۝ 65
(66) वह तो बड़ा ही बुरा ठिकाना और मक़ाम है।”82
82. यानी यह इबादत उनमें कोई घमण्ड पैदा नहीं करती। उन्हें इस बात का कोई घमण्ड नहीं होता कि हम तो अल्लाह के प्यारे हैं और उसके चहेते है, भला आग हमें कहाँ छू सकती है, बल्कि अपनी सारी नेकियों और इबादतों के बावजूद वे इस डर से काँपते रहते हैं कि कहीं हमारे अमल की कमियाँ हमको अज़ाब में मुब्तता न कर दें। वे अपनी परहेज़गारी के ज़ोर से जन्नत जीत लेने का ख़याल नहीं रखते, बल्कि अपनी इनसानी कमज़ोरियों को मानते हुए अज़ाब से बच निकलने ही को बहुत कुछ समझते हैं और इसके लिए भी उनका भरोसा अपने अमल पर नहीं, बल्कि अल्लाह के रहमो-करम पर होता है।
وَٱلَّذِينَ إِذَآ أَنفَقُواْ لَمۡ يُسۡرِفُواْ وَلَمۡ يَقۡتُرُواْ وَكَانَ بَيۡنَ ذَٰلِكَ قَوَامٗا ۝ 66
(67) जो ख़र्च करते हैं तो न फ़ुज़ूलख़र्ची करते है न कंजूसी, बल्कि उनका ख़र्च दोनों इन्तिहाओं के बीच एतिदाल (सन्तुलन) पर क़ायम रहता है।83
83. यानी न तो उनका हाल यह है कि अय्याशी और जुआ, शराब, दोस्ती-यारी और मेलों-ठेलों और शादी-ब्याह में बेझिझक और बेरोक-टोक रुपया ख़र्च करें और अपनी हैसियत से बढ़कर अपनी शान दिखाने के लिए खाने, कपड़े और मकान और सजावट पर दौलत लुटाएँ और न उनकी कैफ़ियत यह है कि दौलत के पुजारी की तरह पैसा जोड़-जोड़कर रखें, न ख़ुद खाएँ, न बाल-बच्चों की ज़रूरतें अपनी हैसियत के मुताबिक़ पूरी करें और न भलाई के किसी काम में ख़ुशदिली के साथ कुछ दें। अरब में ये दोनों तरह के नमूने बहुत बड़ी तादाद में पाए जाते थे। एक तरफ़ वे लोग थे जो ख़ूब दिल खोलकर ख़र्च करते थे, मगर उनके हर ख़र्च का मक़सद या तो ख़ुद अपना ऐशो-आराम था, या बिरादरी में नाक ऊँची रखना और अपनी फ़ैयाज़ी (दानशीलता) और दौलतमन्दी के डंके बजवाना। दूसरी तरफ़ वे कंजूस थे जिनकी कंजूसी मशहूर थी। बीच का रवैया बहुत ही कम लोगों में पाया जाता था और इन कम लोगों में उस वक़्त सबसे ज़्यादा नुमायाँ नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के सहाबा थे। इस मौक़े पर यह जान लेना चाहिए कि 'इसराफ़' (फ़ुजूलख़र्ची) क्या चीज़ है और बुख़्ल (कंजूसी) क्या चीज़। इस्लामी नज़रिए से इसराफ़ तीन चीज़ों का नाम है पहली, नाजाइज़ कामों में दौलत ख़र्च करना, चाहे वह एक पैसा ही क्यों न हो। दूसरी, जाइज़ कामों में ख़र्च करते हुए हद से आगे निकल जाना, चाहे इस लिहाज़ से कि आदमी अपनी हैसियत से ज़्यादा ख़र्च करे, या इस लिहाज़ से कि आदमी को जो दौलत उसकी ज़रूरत से बहुत ज़्यादा मिल गई हो उसे वह अपने ही ऐश और ठाठ-बाट में ख़र्च करता चला जाए। तीसरी नेकी के कामों में ख़र्च करना, मगर अल्लाह के लिए नहीं, बल्कि दिखावे के लिए। इसके बरख़िलाफ़ बुख़्ल (कंजूसी) दो चीज़ों को कहते हैं। एक यह कि आदमी अपनी और अपने बाल-बच्चों की ज़रूरतों पर अपनी सकत और हैसियत के मुताबिक़ ख़र्च न करे। दूसरी यह कि नेकी और भलाई के कामों में उसके हाथ से पैसा न निकले। इन दोनों इन्तिहाओं के दरमियान बीच का रास्ता इस्लाम का रास्ता है जिसके बारे में नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं– “अपने माली मामलों में बीच की राह अपनाना आदमी के अक़्लमन्द होने की अलामतों में से है।” (हदीस : अहमद, तबरानी)
وَٱلَّذِينَ لَا يَدۡعُونَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ وَلَا يَقۡتُلُونَ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَلَا يَزۡنُونَۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ يَلۡقَ أَثَامٗا ۝ 67
(68) जो अल्लाह के सिवा किसी और माबूद (पूज्य) को नहीं पुकारते, अल्लाह की हराम की हुई किसी जान को नाहक़ हलाक नहीं करते, और न ज़िना (बदकारी) करते हैं।84—यह काम जो कोई करे वह अपने गुनाह का बदला पाएगा।
84. यानी वे उन तीन बड़े गुनाहों से परहेज़ करते हैं जिनमें अरबवाले बहुत ज़्यादा मुब्तला हैं। एक अल्लाह के साथ किसी को शरीक करना, दूसरा किसी को नाहक़ क़ल्ल करना, तीसरा ज़िना (बदकारी)। इसी बात को नबी (सल्ल०) ने बहुत-सी हदीसों में बयान किया है। मसलन अदुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि एक बार आप (सल्ल०) से पूछा गया कि सबसे बड़ा गुनाह क्या है? फ़रमाया, “यह कि तू किसी को अल्लाह के बराबर का ठहराए, हालाँकि तुझे पैदा अल्लाह ने किया है।” पूछा गया, “इसके बाद?” फ़रमाया, “यह कि तू अपने बच्चे को इस डर से क़त्ल कर डाले कि वह तेरे साथ खाने में शरीक हो जाएगा।” पूछा गया, “इसके बाद?” फ़रमाया, “यह कि तू अपने पड़ोसी की बीवी से बदकारी करे।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, नसई, अहमद) अगरचे बड़े गुनाह और भी बहुत-से हैं, लेकिन अरब की सोसाइटी पर उस वक़्त सबसे ज़्यादा यही तीन गुनाह छाए हुए थे, इसलिए मुसलमानों की इस ख़ासियत को नुमायाँ किया गया कि पूरे समाज में ये कुछ लोग हैं जो इन बुराइयों से बच गए हैं। यहाँ यह सवाल किया जा सकता है कि मुशरिकों के नज़दीक तो शिर्क से बचना एक बहुत बड़ा ऐब था, फिर इसे मुसलमानों की एक ख़ूबी की हैसियत से उनके सामने पेश करने की कौन-सी मुनासिब वजह हो सकती थी? इसका जवाब यह है कि अरब के लोग हालाँकि शिर्क में मुब्तला थे और सख़्त तास्सुब (पक्षपात) की हद तक मुब्तबा थे, मगर अस्ल में उसकी जड़ें ऊपरी सतह ही तक महदूद थीं, कुछ गहरी उत्तरी हुई न थीं और दुनिया में कभी कहीं भी शिर्क की जड़ें इनसानी फ़ितरत में गहरी उतरी हुई नहीं होतीं। इसके बरख़िलाफ़ ख़ालिस ख़ुदापरस्ती की बड़ाई उनके ज़ेहन की गहराइयों में रची हुई मौजूद थी जिसको उभारने के लिए ऊपर की सतह को बस ज़रा ज़ोर से खुरच देने की ज़रूरत थी। जाहिलियत के इतिहास के कई वाक़िआत इन दोनों बातों की गवाही देते हैं। मसलन अब्रहा के हमले के मौक़े पर क़ुरेश का बच्चा-बच्चा यह जानता था कि इस बला को वे बुत नहीं टाल सकते जो काबा में रखे हुए हैं, बल्कि सिर्फ़ अल्लाह तआला ही टाल सकता है जिसका यह घर है। आजतक वे अशआर और क़सीदे महफ़ूज़ है जो हाथियोंवालों की तबाही पर उस ज़माने के शाइरों ने कहे थे। उनका लफ़्ज़-लफ़्ज़ गवाही देता है कि वे लोग इस वाक्य को सिर्फ़ अल्लाह तआला की क़ुदरत का करिश्मा समझते थे और इस बात का हल्का-सा गुमान भी न रखते थे कि इसमें उनके माबूदों का कोई रोल है। इसी मौक़े पर शिर्क का यह बदतरीन करिश्मा भी क़ुरैश और अरब के तमाम मुशरिकों के सामने आया था कि अब्रहा जब मक्का की तरफ़ जाते हुए ताइफ़ के क़रीब पहुँचा तो ताइफ़वालों ने इस डर से कि यह कहीं उनके माबूद “लात' के मन्दिर को भी न गिरा दे, अपनी ख़िदमते काबा को ढहाने के लिए उसके आगे पेश कर दी और अपने कुछ गाइड उसके साथ कर दिए ताकि ये पहाड़ी रास्तों से उसके लश्कर को सही-सलामत मक्का तक पहुँचा दें। इस वाक़िए की कड़वी याद मुद्दतों तक क़ुरैश को सताती रही और सालों तक ये उस आदमी की क़ब्र पर पत्थर मारते रहे जो ताइफ़ के रहबरों का सरदार था। इसके अलावा क़ुरैश और दूसरे अरबबाले अपने दीन (मज़हब) को हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से जोड़ते थे, अपनी बहुत-सी मज़हबी और सामाजिक रस्मों और ख़ास तौर से हज के मनासिक (रस्मों) को हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दीन का हिस्सा ठहराते थे और यह बात भी मानते थे कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ख़ालिस ख़ुदापरस्त थे, बुतों की पूजा उन्होंने कभी नहीं की। उनके यहाँ की रिवायतों में ये तफ़सीलात भी महफ़ूज़ थी कि बुतपरस्ती उनके यहाँ कब से जारी हुई और कौन-सा बुत कब, कहाँ से, कौन लाया। अपने माबूदों की जैसी कुछ इज़्ज़त एक आम अरब के दिल में थी उसका अन्दाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि जब कभी उसकी दुआओं और तमन्नाओं के ख़िलाफ़ कोई घटना घट जाती तो कई बार वह अपने माबूद की तौहीन भी कर डालता था और उसको भेंट चढ़ाने से हाथ खींच लेता था। एक अरब अपने बाप के क़ातिल से बदला लेना चाहता था। ज़ुलख़-ल-सा नाम के बुत के आस्ताने पर जाकर उसने फ़ाल खुलवाई। जवाब निकला, यह काम न किया जाए। इसपर अरबवासी ग़ुस्से में आ गया। कहने लगा, “ऐे ज़ुलख-ल-सा! अगर मेरी जगह तू होता और तेरा बाप मारा गया होता तो तू हरगिज़ यह झूठी बात न कहता कि ज़ालिमों से बदला न लिया जाए।” एक और अरब साहब अपने ऊँटों का झुंड 'सअद' नामी अपने माबूद के आस्ताने पर ले गए, ताकि उनके लिए बरकत हासिल करें। यह एक लम्बा-तड़गा बुत था जिसपर क़ुरबानियों का ख़ून लिथड़ा हुआ था। ऊँट उसे देखकर भड़क गए और हर तरफ़ भाग निकले। अरब अपने ऊँटों को इस तरह तितर-बितर होते देखकर ग़ुस्से में आ गया। बुत पर पत्थर मारता जाता था और कहता जाता था कि “ख़ुदा तेरा सत्यानाश करे। मैं आया था बरकत लेने के लिए और तूने मेरे रहे-सहे ऊँट भी भगा दिए।" कई बुत ऐसे थे जिनकी असलियत के बारे में बहुत ही गन्दे-गन्दे क़िस्से मशहूर थे। मसलन 'असाफ़' और 'नाइला' जिनकी मूर्तियाँ 'सफ़ा’ और 'मरवा' पर रखी हुई थीं। उनके बारे में मशहूर था कि ये दोनों अस्ल में एक औरत और एक मर्द थे जो काबा में ज़िना (व्यभिचार) कर बैठे थे और ख़ुदा ने उनको पत्थर बना दिया। यह हक़ीक़त जिन माबूदों की हो, ज़ाहिर है कि उनकी कोई हक़ीक़ी इज़्ज़त तो इबादत करनेवालों के दिलों में नहीं हो सकती। इन अलग-अलग पहलुओं को निगाह में रखा जाए तो यह बात आसानी से समझ में आ जाती है कि ख़ालिस ख़ुदापरस्ती की एक गहरी क़द्र और इज़्ज़त तो दिलों में मौजूद थी, मगर एक तरफ़ जहालत भरी क़दामत-परस्ती (रूढ़िवादिता) ने इसको दबा रखा था और दूसरी तरफ़ क़ुरैश के पुरोहित उसके ख़िलाफ़ तास्सुबात भड़काते रहते थे; क्योंकि बुतों की अक़ीदत ख़त्म हो जाने से उनको डर था कि अरब में उनको जो मर्कज़ियत (केन्द्रीयता) हासिल है वह ख़त्म हो जाएगी और उनकी आमदनी में भी फ़र्क़ आ जाएगा। इन सहारों पर जो शिर्कवाला मज़हब क़ायम था, वह तौहीद की दावत के मुक़ाबले में किसी वक़ार (गरिमा) के साथ खड़ा नहीं हो सकता था। इसी लिए क़ुरआन ने ख़ुद मुशरिकों को मुख़ातब करके बिना झिझक कहा कि तुम्हारे समाज में मुहम्मद (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को जिन वजहों से बरतरी (श्रेष्ठता) हासिल है उनमें से एक सबसे अहम वजह उनका शिर्क से पाक होना और ख़ालिस अल्लाह की बन्दगी पर क़ायम हो जाना है। इस पहलू से मुसलमानों की बरतरी को ज़बान से मानने के लिए चाहे मुशरिक तैयार न हों, मगर दिलों में वे इसका वज़न ज़रूर महसूस करते थे।
يُضَٰعَفۡ لَهُ ٱلۡعَذَابُ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَيَخۡلُدۡ فِيهِۦ مُهَانًا ۝ 68
(69) क़ियामत के दिन उसे बढ़ाकर अज़ाब दिया जाएगा85 और उसी में वह हमेशा रुसवाई के साथ पड़ा रहेगा।
85. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि अजाब का सिलसिला टूटने न पाएगा, बल्कि एक के बाद दूसरा अज़ाब जारी रहेगा। दूसरा यह कि जो शख़्स कुफ़्र या शिर्क या नास्तिकता और ख़ुदा के इनकार के साथ क़त्ल और ज़िना (बदकारी) और दूसरे गुनाहों का बोझ लिए हुए ख़ुदा के यहाँ जाएगा उसको बग़ावत की सज़ा अलग मिलेगी और एक-एक जुर्म की सज़ा अलग-अलग। उसका हर छोटा-बड़ा क़ुसूर हिसाब में आएगा। कोई एक ख़ता भी माफ़ न होगी। क़त्ल की सज़ा एक नहीं होगी, बल्कि हर क़त्ल की अलग सज़ा उसको भुगतनी होगी। ज़िना की सज़ा भी एक नहीं होगी, बल्कि जितनी बार उसने यह जुर्म किया है उसकी अलग-अलग सज़ा पाएगा। और यही हाल दूसरे तमाम जुर्मों और गुनाहों के मामले में भी होगा।
إِلَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ عَمَلٗا صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ يُبَدِّلُ ٱللَّهُ سَيِّـَٔاتِهِمۡ حَسَنَٰتٖۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 69
(70) यह और बात है कि कोई (इन गुनाहों के बाद) तौबा कर चुका हो और ईमान लाकर अच्छे काम करने लगा हो।86 ऐसे लोगों की बुराइयों को अल्लाह भलाइयों से बदल देगा।87 और वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
86. यह ख़ुशख़बरी है उन लोगों के लिए जिनकी ज़िन्दगी पहले तरह-तरह के जुर्मों से भरी रही हो और अब ये अपने सुधार के लिए तैयार हों। यही आम माफ़ी (General Amnesty) का एलान था जिसने उस बिगड़े हुए समाज के लाखों लोगों को सहारा देकर हमेशा के बिगाड़ से बचा लिया। इसी ने उनको उम्मीद की रौशनी दिखाई और हालत के सुधार पर आमादा किया। वरना अगर उनसे यह कहा जाता कि जो गुनाह तुम कर चुके हो उनकी सज़ा से अब तुम किसी तरह नहीं बच सकते, तो यह उन्हें मायूस करके हमेशा के लिए बुराई के भँवर में फँसा देता और कभी उनका सुधार न हो पाता। मुजरिम इनसान को सिर्फ़ माफ़ी की उम्मीद ही जुर्म के चक्कर से निकाल सकती है। मायूस होकर वह इबलीस (शैतान) बन जाता है। तौबा की इस नेमत ने अरब के बिगड़े हुए लोगों को किस तरह संभाला, इसका अन्दाज़ा उन बहुत-से वाक़िआत से होता है जो नबी (सल्ल०) के ज़माने में पेश आए। मिसाल के तौर पर एक वाक़िआ पेश है जिसे इब्ने-जरीर और तबरानी ने रिवायत किया है। हज़रत अबू-हरैरा (रज़ि०) कहते हैं कि एक दिन मस्जिदे-नबवी से इशा की नमाज़ पढ़कर पलटा तो देखा कि एक औरत मेरे दरवाज़े पर खड़ी है। मैं उसको सलाम करके अपने कमरे में चला गया और दरवाज़ा बन्द करके नफ़्ल नमाजें पढ़ने लगा। कुछ देर के बाद उसने दरवाज़ा खटखटाया। मैंने उठकर दरवाज़ा खोला और पूछा कि क्या चाहती है। वह कहने लगी, “मैं आपसे एक सवाल करने आई हूँ। मुझसे ज़िना का जुर्म हुआ। नाजाइज गर्भ हुआ। बच्चा पैदा हुआ तो मैंने उसे मार डाला। अब मैं यह मालूम करना चाहती हैं कि मेरा गुनाह माफ़ होने की भी कोई सूरत है?” मैंने कहा, “हरगिज़ नहीं।” वह बड़े पछतावे के साथ आहें भरती हुई वापस चली गई और कहने लगी कि “अफ़सोस, यह ख़ूबसूरती आग के लिए पैदा हुई थी।” सुबह नबी (सल्ल०) के पीछे जब मैं नमाज़ पढ़ चुका तो मैंने आप (सल्ल०) को रात का क़िस्सा सुनाया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बड़ा ग़लत जवाब दिया ऐ अबू-हुरैरा तुमने, क्या यह आयत क़ुरआन में तुमने नहीं पढ़ी?— जो अल्लाह के सिवा किसी और माबूद को नहीं पुकारते, अल्लाह की हराम की हुई किसी जान को नाहक़ क़त्ल नहीं करते और न ज़िना (व्यभिचार) करते हैं— यह काम जो कोई करे वह अपने गुनाह का बदला पाएगा, क़ियामत के दिन उसको दोहरा अजाब दिया जाएगा और इसी में वह हमेशा ज़िल्लत (अपमान) के साथ पड़ा रहेगा, सिवाय इसके कि कोई (इन गुनाहों के बाद) तौबा कर चुका और ईमान लाकर नेक अमल करने लगा हो।” (सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयतें—68-70)— नबी (सल्ल०) का यह जवाब सुनकर मैं निकला और उस औरत को तलाश करना शुरू किया। रात को इशा ही के वक़्त वह मिली। मैंने उसे ख़ुशख़बरी दी और बताया कि नबी (सल्ल०) ने तेरे सवाल का यह जवाब दिया है। वह सुनते ही सजदे में गिर गई और कहने लगी कि शुक्र है उस अल्लाह पाक का जिसने मेरे लिए माफ़ी का दरवाज़ा खोला। फिर उसने गुनाह से तौबा की और अपनी लौंडी को उसके बेटे समेत आज़ाद कर दिया। इससे मिलता-जुलता वाक़िआ हदीसों में एक बूढ़े का आया है जिसने आकर नबी (सल्ल०) से पूछा था कि “ऐ अल्लाह के रसूल! सारी ज़िन्दगी गुनाहों में गुज़री है। कोई गुनाह ऐसा नहीं जो मैं न कर चुका हूँ। अपने गुनाह ज़मीन पर बसनेवाले तमाम लोगों पर भी बाँट दूँ तो सबको ले डूबे। क्या अब भी मेरी माफ़ी की कोई सूरत है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या तूने इस्लाम क़ुबूल कर लिया है?” उसने कहा, “मैं गवाही देता हूँ कि अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं।” फ़रमाया, “जा, अल्लाह माफ़ करनेवाला और तेरी बुराइयों को भलाई से बदल देनेवाला है।” उसने पूछा, “मेरे सारे जुर्म और क़ुसूर?” फ़रमाया, “हाँ, तेरे सारे जुर्म और क़ुसूर।” (इब्ने-कसीर, इब्ने-अबी-हातिम के हवाले से)
87. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि जब वे तौबा कर लेंगे तो कुफ़्र की ज़िन्दगी में जो बुरे काम ये पहले किया करते थे, उनकी जगह अब फ़रमाँबरदारी और ईमान की ज़िन्दगी में अल्लाह तआला की मेहरबानी से नेक और भले काम करने लगेंगे और तमाम बुराइयों की जगह भलाइयाँ ले लेंगी। दूसरा यह कि तौबा के नतीजे में सिर्फ़ इतना ही न होगा कि उनके आमालनामे से वे तमाम क़ुसूर काट दिए जाएँगे जो उन्होंने कुफ़्र और गुनाह की ज़िन्दगी में किए थे, बल्कि उनकी जगह हर एक के आमालनामे में यह नेकी लिख दी जाएगी कि यह वह बन्दा है जिसने ख़ुदा से बग़ावत और नाफ़रमानी को छोड़कर फ़रमाँबरदारी अपना ली। फिर जितनी बार भी वह अपनी पहले की ज़िन्दगी के बुरे कामों को याद करके शर्मिन्दा हुआ होगा और उसने अपने ख़ुदा से माफ़ी माँगी होगी, उसके हिसाब में उतनी ही नेकियाँ लिख दी जाएँगी, क्योंकि भूल पर शर्मसार होना और माफ़ी माँगना अपने आपमें ख़ुद एक नेकी है। इस तरह उसके आमालनामे में तमाम पिछली बुराइयों की जगह भलाइयाँ ले लेंगी और उसका अंजाम सिर्फ़ सज़ा से बच जाने तक ही महदूद न रहेगा, बल्कि वह उलटा इनामों से नवाज़ा जाएगा।
وَمَن تَابَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَإِنَّهُۥ يَتُوبُ إِلَى ٱللَّهِ مَتَابٗا ۝ 70
(71) जो शख़्स तौबा करके भला रवैया अपनाता है यह तो अल्लाह की तरफ़ पलट आता है जैसाकि पलटने का हक़ है।88
88. यानी फ़ितरत के एतिबार से भी बन्दे के लिए असली लौटने की जगह उसी की बारगाह है। और अख़लाक़ी हैसियत से भी वही एक बारगाह है जिसकी तरफ़ उसे पलटना चाहिए और नतीजे के एतिबार से भी उस बारगाह की तरफ़ पलटना फ़ायदेमन्द है, वरना कोई दूसरी जगह ऐसी नहीं है जिधर पलटकर वह सज़ा से बच सके या सवाब पा सके। इसके अलावा इसका मतलब यह भी है कि वह पलटकर एक ऐसी बारगाह की तरफ़ जाता है जो वाक़ई है ही पलटने के क़ाबिल जगह, बेहतरीन बारगाह, जहाँ से तमाम भलाइयाँ मिलती हैं, जहाँ से क़ुसूरों पर शर्मसार होनेवाले धुतकारे नहीं जाते, बल्कि माफ़ी और इनाम से नवाज़े जाते हैं, जहाँ माफ़ी माँगनेवाले के जुर्म नहीं गिने जाते, बल्कि यह देखा जाता है कि उसने तौबा करके अपना सुधार कितना कर लिया, जहाँ ग़ुलाम को वह मालिक मिलता है जो इन्तिक़ाम पर जला-भुना नहीं बैठा है, बल्कि अपने हर शर्मसार ग़ुलाम के लिए रहमत का दामन खोले हुए है।
وَٱلَّذِينَ لَا يَشۡهَدُونَ ٱلزُّورَ وَإِذَا مَرُّواْ بِٱللَّغۡوِ مَرُّواْ كِرَامٗا ۝ 71
(72) (और रहमान के बन्दे वे हैं) जो झूठ के गवाह नहीं बनते89 और किसी लग़्व (बेकार) चीज़ पर उनका गुज़र हो जाए तो शरीफ़ आदमियों की तरह गुज़र जाते हैं।90
89. इसके भी दो मतलब हैं। एक यह कि वे किसी झूठी बात की गवाही नहीं देते और किसी ऐसी चीज़ को सच और हक़ीक़त नहीं ठहराते जिसके हक़ीक़त होने का उन्हें इल्म न हो, या जिसके हक़ीक़त के ख़िलाफ़ होने का उन्हें इत्मीनान हो। दूसरा यह कि वे झूठ को नहीं देखते, उसके तमाशाई नहीं बनते, उसको देखने का इरादा नहीं करते। इस दूसरे मतलब के एतिबार से 'झूठ' का लफ़्ज़ बातिल और बुराई के मानी में है इनसान जिस बुराई की तरफ़ भी जाता है, लज़्ज़त और लुभावनेपन या ज़ाहिरी फ़ायदे के उस झूठे मुलम्मे (चमक-दमक) की वजह से जाता है जो शैतान ने उसपर चढ़ा रखा है। यह मुलम्मा उतर जाए तो हर बुराई सरासर खोट ही खोट है, जिसपर इनसान कभी नहीं रीझ सकता। लिहाज़ा हर बातिल, हर गुनाह और हर बुराई इस लिहाज़ से झूठ है कि वह अपनी झूठी चमक-दमक की वजह ही से अपनी तरफ़ खींचती है। ईमानवाला चूँकि हक़ को अच्छी तरह पहचान लेता है, इसलिए वह इस झूठ को हर रूप में पहचान जाता है, चाहे वह कैसी ही दिलफ़रेब दलीलों, या नज़रफ़रेब आर्ट, या कानों को लुभानेवाली आवाज़ों का रूप लेकर आए।
90. 'लग़्व' का लफ़्ज़ उस 'झूठ’ पर भी हावी है जिसकी तशरीह ऊपर की जा चुकी है और इसके साथ तमाम फ़ुज़ूल और बेमतलब और बेफ़ायदा बातें और काम भी इसके मानी में शामिल हैं। अल्लाह के नेक बन्दों की ख़ासियत यह है कि वे जान-बूझकर इस तरह की चीज़ें देखने या सुनने या उनमें हिस्सा लेने के लिए नहीं जाते और अगर कभी उनके रास्ते में ऐसी कोई चीज़ आ जाए तो एक उचटती नज़र तक डाले बिना उसपर से इस तरह गुज़र जाते हैं जैसे एक सफ़ाई-पसन्द आदमी गन्दगी के ढेर से गुज़र जाता है। गन्दगी और बदबू से दिलचस्पी एक बुरा ज़ौक़ रखनेवाला और गन्दा आदमी तो ले सकता है, मगर एक अच्छा ज़ौक़ रखनेवाला और तहज़ीबयाफ़्ता इनसान मजबूरी के बिना उसके पास से भी गुज़रना गवारा नहीं कर सकता, कहाँ यह कि वह बदबू से फ़ायदा उठाने के लिए एक साँस भी वहाँ ले। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-4)
وَٱلَّذِينَ إِذَا ذُكِّرُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ لَمۡ يَخِرُّواْ عَلَيۡهَا صُمّٗا وَعُمۡيَانٗا ۝ 72
(73) जिन्हें अगर उनके रब की आयतें सुनाकर नसीहत की जाती है तो वे उसपर अंधे और बहरे बनकर नहीं रह जाते।91
91. अस्ल अरबी में अलफ़ाज़ है, “लम यख़िर-रू अलैहा सुम्मवँ-व उमयाना” जिनका लफ़्ज़ी तर्जमा यह है, “वे उनपर अंधे-बहरे बनकर नहीं गिरते”, लेकिन यहाँ 'गिरने का लफ़्ज़ अपने लफ़्ज़ी मानों के लिए नहीं बल्कि मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल हुआ है। जैसे हम उर्दू हिन्दी में कहते हैं जिहाद का हुक्म सुनकर बैठे रह गए। इसमें बैठे रहने का लफ़्ज़ अपने लफ़्ज़ी मानी में नहीं, बल्कि जिहाद के लिए हरकत न करने के मानी में इस्तेमाल हुआ है। तो आयत का मतलब यह है कि वे ऐसे लोग नहीं हैं जो अल्लाह की आयतें सुनकर टस से मस न हों, बल्कि वे उनका गहरा असर क़ुबूल करते हैं। जो हिदायत उन आयतों में आई हो उसकी पैरवी करते हैं, जिस चीज़ को फ़र्ज़ ठहराया गया हो उसे पूरा करते हैं, जिस चीज़ की बुराई बयान की गई हो उससे रुक जाते हैं और जिस अज़ाब से डराया गया हो उसके बारे में सोचने तक से काँप उठते हैं।
وَٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَا هَبۡ لَنَا مِنۡ أَزۡوَٰجِنَا وَذُرِّيَّٰتِنَا قُرَّةَ أَعۡيُنٖ وَٱجۡعَلۡنَا لِلۡمُتَّقِينَ إِمَامًا ۝ 73
(74) जो दुआएँ माँगा करते हैं, “ऐ हमारे रब हमें अपनी बीवियों और अपनी औलाद से आँखों की ठण्डक दे92 और हमको परहेज़गारों का इमाम बना।”93
92. यानी उनको ईमान और अच्छे काम करने की तौफ़ीक़ (ख़ुशनसीबी) दे और उनके अन्दर पाकीज़ा अख़लाक़ पैदा कर दे, क्योंकि एक ईमानवाले को बीवी-बच्चों के हुस्नो-जमाल से नहीं, बल्कि उनकी अच्छी और नेक आदतों से ठण्डक हासिल होती है। उसके लिए इससे बढ़कर कोई चीज़ तकलीफ़देह नहीं हो सकती कि जो दुनिया में उसको सबसे ज़्यादा प्यारे हैं उन्हें जहन्नम का ईंधन बनने के लिए तैयार होते देखे। ऐसी हालत में तो बीवी की ख़ूबसूरती और बच्चों की जवानी और क़ाबिलियत उसके लिए और भी ज़्यादा रूह को तकलीफ़ देनेवाली होगी, क्योंकि वह हर वक़्त इस रंज में मुब्तला रहेगा कि ये सब अपनी इन ख़ूबियों के बावजूद अल्लाह के अज़ाब में गिरफ़्तार होनेवाले हैं। यहाँ ख़ास तौर पर यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि जिस वक़्त ये आयतें उतरी हैं वह वक़्त वह था जबकि मक्का के मुसलमानों में से कोई एक भी ऐसा न था जिसके बहुत क़रीबी और प्यारे रिश्तेदार कुफ़्र और जाहिलियत में मुब्तला न हों। कोई मर्द ईमान ले आया था तो उसकी बीवी अभी ग़ैर-मुस्लिम थी। कोई औरत ईमान ले आई थी तो उसका शौहर अभी ईमान से दूर था। कोई नौजवान ईमान ले आया था तो उसके माँ-बाप और भाई-बहन, सब-के-सब कुफ़्र में पड़े थे और कोई बाप ईमान ले आया था तो उसके अपने जवान-जवान बच्चे कुफ़्र पर क़ायम ये। इस हालत में हर मुसलमान एक सख़्त रूहानी तकलीफ़ में मुब्तला था और उसके दिल से वह दुआ निकलती थी जिसको बेहतरीन तरीक़े से इस आयत में बयान किया गया है। 'आँखों की ठण्डक' ने इस कैफ़ियत की तस्वीर खींच दी है कि अपने प्यारों को कुफ़्र और जाहिलियत में मुब्तला देखकर एक आदमी को ऐसी तकलीफ़ हो रही है जैसे उसकी आँखें दुखने की वजह से उबल आई हों और खटक से सूइयाँ-सी चुभ रही हों। बात के इस सिलसिले में उनकी इस कैफ़ियत को अस्ल में यह बताने के लिए बयान किया गया है कि वे जिस दीन पर ईमान लाए हैं, पूरे ख़ुलूस (निष्ठा) के साथ लाए हैं, उनकी हालत उन लोगों की-सी नहीं है जिनके ख़ानदान के लोग अलग-अलग मज़हबों और पार्टियों में शामिल रहते हैं और सब मुत्मइन रहते हैं कि चलो, हर बैंक में हमारा कुछ-न-कुछ सरमाया मौजूद है।
93. यानी हम तक़्वा (परहेज़गारी) और ख़ुदा की फ़माँबरदारी में सबसे बढ़ जाएँ, भलाई और नेकी में सबसे आगे निकल जाएँ, सिर्फ़ नेक ही न हों, बल्कि नेक लोगों के पेशवा हों और हमारी बदौलत दुनिया भर में नेकी फैले। इस चीज़ का ज़िक्र भी यहाँ अस्ल में यह बताने के लिए किया गया है कि ये वे लोग हैं जो माल-दौलत और शानो-शौकत में नहीं, बल्कि नेकी और परहेज़गारी में एक-दूसरे से बढ़ जाने की कोशिश करते हैं। मगर हमारे ज़माने में अल्लाह के कुछ बन्दे ऐसे हैं जिन्होंने इस आयत को भी इमामत की उम्मीदवारी और रियासत की तलब के जाइज़ होने की दलील के तौर पर इस्तेमाल किया है। उनके नज़दीक आयत का मतलब यह है। कि “या अल्लाह परहेज़गार लोगों को हमारी प्रजा और हमको उनका हाकिम बना दे।” इस समझदारी की दाद ‘उम्मीदवारों’ के सिवा और कौन दे सकता है।
أُوْلَٰٓئِكَ يُجۡزَوۡنَ ٱلۡغُرۡفَةَ بِمَا صَبَرُواْ وَيُلَقَّوۡنَ فِيهَا تَحِيَّةٗ وَسَلَٰمًا ۝ 74
(75) ये हैं वे लोग जो अपने सब्र94 का फल बुलन्द मंज़िल की शक्ल में पाएँगे।95 आदाब और सलाम से उनका इस्तिक़बाल (स्वागत) होगा।
94. सब्र का लफ़्ज़ यहाँ अपने तमाम मानी के साथ इस्तेमाल हुआ है। हक़ (सत्य) के दुश्मनों के ज़ुल्मों को मर्दानगी के साथ बरदाश्त करना। दीने-हक़ (इस्लाम) को क़ायम और सरबुलन्द करने की जिद्दो-जुह्द में हर तरह की मुसीबतों और तकलीफ़ों को सह जाना। हर डर और लालच के मुक़ाबले में सीधे रास्ते पर जमे रहना। शैतान की तमाम उकसाहटों और मन की सारी ख़ाहिशों के ख़िलाफ़ फ़र्ज़ को पूरा करना। हराम से परहेज़ करना और अल्लाह की क़ायम की हुई हदों पर क़ायम रहना। गुनाह के सारे मज़ों और फ़ायदों को ठुकरा देना और नेकी और सच्चाई के हर नुक़सान और उसकी बदौलत हासिल होनवाली हर महरूमी को बरदाश्त कर जाना। ग़रज़ इस एक लफ़्ज़ के अन्दर दीन और दीनी रवैये और दीनी अख़्लाक़ की एक दुनिया की-दुनिया समोकर रख दी गई है।
95. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'ग़ुरफ़ा’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब ऊँची और बुलन्द इमारत है। इसका तर्जमा आम तौर पर ‘बाला-ख़ाना' किया जाता है जिससे आदमी के ज़ेहन में किसी दो मंज़िला कोठे की-सी तस्वीर आ जाती है, हालाँकि हक़ीक़त यह है कि दुनिया में इनसान जो बड़ी-से-बड़ी और ऊँची-से-ऊँची इमारतें बनाता है, यहाँ तक कि ताजमहल और अमेरिका के ‘गगन भेदी’ (Sky-scrapers) तक जन्नत के उन महलों की सिर्फ़ एक भौंडी-सी नक़्ल है। जिसका एक धुंधला-सा नक़्शा इनसान के लाशुऊर (अवचेतन) में महफ़ूज़ चला आता है।
خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ حَسُنَتۡ مُسۡتَقَرّٗا وَمُقَامٗا ۝ 75
(76) ये हमेशा-हमेशा वहाँ रहेंगे क्या ही अच्छा है वह ठिकाना और वह मक़ाम।
قُلۡ مَا يَعۡبَؤُاْ بِكُمۡ رَبِّي لَوۡلَا دُعَآؤُكُمۡۖ فَقَدۡ كَذَّبۡتُمۡ فَسَوۡفَ يَكُونُ لِزَامَۢا ۝ 76
(77) ऐे नबी, लोगों से कहो, “मेरे रब को तुम्हारी क्या ज़रूरत पड़ी है अगर तुम उसको न पुकारो।96 अब कि तुमने झुठला दिया है, जल्द ही वह सज़ा पाओगे कि जान छुड़ानी मुश्किल होगी।"
96. यानी अगर तुम अल्लाह से दुआएँ न माँगो और उसकी इबादत न करो और अपनी ज़रूरतों के लिए उसको मदद के लिए न पुकारो, तो फिर तुम्हारा कोई वज़न भी अल्लाह तआला की निगाह में नहीं है, जिसकी वजह से वह मक्खी के पर के बराबर भी तुम्हारी परवाह करे। महज़ मख़लूक़ होने की हैसियत से तुममें और पत्थरों में कोई फ़र्क़ नहीं। तुमसे अल्लाह की कोई ज़रूरत अटकी हुई नहीं है कि तुम बन्दगी न करोगे तो उसका कोई काम रुका रह जाएगा। उसके ध्यान को जो चीज़ तुम्हारी तरफ़ मोड़ती है यह तुम्हारा उसकी तरफ़ हाथ फैलाना और उससे दुआ माँगना ही है। यह काम न करोगे तो कूड़े-करकट की तरह फेंक दिए जाओगे।