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سُورَةٌ أَنزَلۡنَٰهَا وَفَرَضۡنَٰهَا وَأَنزَلۡنَا فِيهَآ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لَّعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ

24. अन-नूर

(मदीना में उतरी-आयतें 64)

परिचय

नाम

आयत 35 'अल्लाहु नूरुस्समावाति वल अरज़ि' (अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है) से लिया गया है।

उतरने का समय

इसपर सभी सहमत हैं कि यह सूरा बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के बाद उतरी है, लेकिन इस बारे में मतभेद है कि क्या यह लड़ाई सन् 05 हि० में अहज़ाब की लड़ाई से पहले हुई थी या सन् 15 हि० में अहज़ाब की लड़ाई के बाद। वास्तविक घटना क्या है, इसकी जाँच शरीअत के उस निहित हित [को समझने के लिए भी ज़रूरी है जो परदे के आदेशों में पाया जाता है, क्योंकि ये] आदेश क़ुरआन की दो ही सूरतों में आए हैं, एक यह सूरा-24, दूसरी सूरा-33 अहज़ाब, जो अहज़ाब को लड़ाई के अवसर पर उतरी है और इसमें सभी सहमत हैं। इस उद्देश्य से जब हम संबंधित रिवायतों की छानबीन करते हैं तो सही बात यही मालूम होती है कि यह सूरा सन् 06 हि० के उत्तरार्द्ध में सूरा अहज़ाब के कई महीने बाद उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिन परिस्थतियों में यह सूरा उतरी है, वे संक्षेप में ये हैं-

बद्र की लड़ाई में विजय प्राप्त करने के बाद अरब में इस्लामी आंदोलन का जो उत्थान शुरू हुआ था, वह ख़न्दक (खाई) की लड़ाई तक पहुँचते-पहुँचते इस हद तक पहुंँच चुका था कि मुशरिक (बहुदेववादी) यहूदी, मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और इन्तिज़ार करनेवाले, सभी यह महसूस करने लगे थे कि इस नई उभरती ताकत को मात्र हथियार और सेनाओं के बल पर पराजित नहीं किया जा सकता। [इसलिए अब उन्होंने एक नया उपाय सोचा और अपनी इस्लाम दुश्मन] गतिविधियों का रुख़ जंगी कार्रवाइयों से हटाकर नीचतापूर्ण हमलों और आन्तिरिक षड्‍यंत्रों की ओर फेर दिया। यह नया उपाय पहली बार ज़ी-क़ादा 05 हि० में सामने आया, जब कि नबी (सल्ल0) ने अरब से लेपालक की अज्ञानतापूर्ण रीति का अन्त करने के लिए ख़ुद अपने मुँह बोले बेटे (ज़ैद-बिन-हारिसा रज़ियल्लाहु अन्हु) की तलाक़शुदा बीवी (जैनब-बिन्ते-जहश रज़ि०) से निकाह किया। इस अवसर पर मदीना के मुनाफ़िक़ दुष्प्रचार का भारी तूफ़ान लेकर उठ खड़े हुए और बाहर से यहूदियों और मुशरिकों ने भी उनकी आवाज़ से आवाज़ मिलाकर आरोप गढ़ने शुरू कर दिए। इन बेशर्म झूठ गढ़नेवालों ने नबी (सल्ल०) पर निकृष्ट झूठे नैतिक आरोप लगाए ।

दूसरा आक्रमण बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर किया गया। [जब एक मुहाजिर और एक अंसारी के मामूली से झगड़े को मुनाफ़िक़ों के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने एक बड़ा भारी फ़ितना बना देना चाहा। इस घटना का विवरण आगे सूरा-63 अल-मुनाफ़िकून के परिचय में आ रहा है। यह आक्रमण] पहले से भी अधिक भयानक था।

वह घटना अभी ताज़ा ही थी कि उसी सफ़र में उसने एक और भयानक फ़ितना उठा दिया। यह हज़रत आइशा (रज़ि०) को आरोपित करने का फ़ितना था। इस घटना को स्वयं उन्हीं के मुख से सुनिए, वे फ़रमाती हैं कि-

"बनी-मुस्तलिक़ की लड़ाई के अवसर पर मैं नबी (सल्ल०) के साथ थी।। वापसी पर, जब हम मदीना के क़रीब थे, एक मंज़िल (पड़ाव) पर रात के समय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पड़ाव किया और अभी रात का कुछ हिस्सा बाक़ी था कि कूच की तैयारियांँ शुरू हो गई। मैं उठकर अपनी ज़रूरत पूरी करने निकली और जब पलटने लगी तो पड़ाव के क़रीब पहुँचकर मुझे लगा कि मेरे गले का हार टूटकर कहीं गिर पड़ा है। मैं उसे खोजने में लग गई और इतने में क़ाफ़िला रवाना हो गया।

क़ायदा यह था कि मैं कूच के समय अपने हौदे में बैठ जाती थी और चार आदमी उसे उठाकर ऊँट पर रख देते थे। हम औरतें उस वक़्त खाने-पीने की चीज़ों की कमी की वजह से बहुत हलकी-फुलकी थीं। मेरा हौदा उठाते समय लोगों को यह महसूस ही नहीं हुआ कि मैं उसमें नहीं हूँ। वे बेख़बरी में ख़ाली हौदा ऊँट पर रखकर रवाना हो गए।

मैं जब हार लेकर पलटी तो वहाँ कोई न था। आख़िर अपनी चादर ओढ़कर वही लेट गई और दिल में सोच लिया कि आगे जाकर जब ये लोग मुझे न पाएँगे तो स्वयं ही ढूँढते हुए आ जाएँगे। इसी हालत में मुझको नींद आ गई। सुबह के वक़्त सफ़वान-बिन-मुअत्तल सुलमी (रज़ि०) उस जगह से गुज़रे जहाँ मैं सो रही थी और मुझे देखते ही पहचान लिया, क्योंकि परदे का आदेश आने से पहले वे मुझे कई बार देख चुके थे। (यह साहब बद्री सहाबियों में से थे । इनको सुबह देर तक सोने की आदत थी, इसलिए ये भी फ़ौजी पड़ाव पर कहीं पड़े सोते रह गए थे और अब उठकर मदीना जा रहे थे।)

मुझे देखकर उन्होंने ऊँट रोक लिया और सहसा उनके मुख से निकला, "इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन (निस्सन्देह हम अल्लाह के हैं और उसी की ओर हमें पलटना है।) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पत्नी यहीं रह गईं।" इस आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने उठकर तुरन्त अपने मुँह पर चादर डाल ली। उन्होंने मुझसे कोई बात न की, लाकर अपना ऊँट मेरे पास बिठा दिया और अलग हटकर खड़े हो गए। मैं ऊँट पर सवार हो गई और वे नकेल पकड़कर रवाना हो गए। दोपहर के क़रीब हमने सेना को पा लिया, जबकि वह अभी एक जगह जाकर ठहरी ही थी और लश्करवालों को अभी यह पता न चला था कि मैं पीछे छूट गई हूँ। इसपर लांछन लगानेवालों ने लांछन लगा दिए और उनमें सब से आगे-आगे अब्दुल्लाह-बिन-उबई था।

“मगर मैं इससे बे-ख़बर थी कि मुझपर क्या बातें बन रही हैं। मदीना पहुँचकर मैं बीमार हो गई और एक माह के क़रीब पलंग पर पड़ी रही। शहर में इस लांछन की ख़बरें उड़ रही थीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के कानों तक भी बात पहुँच चुकी थी, मगर मुझे कुछ पता न था। अलबत्ता जो चीज़ मुझे खटकती थी, वह यह कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का वह ध्यान मेरी ओर न था जो बीमारी के ज़माने हुआ करता था। आख़िर आप (सल्ल०) से इजाज़त लेकर मैं अपनी माँ के घर चली गई, ताकि वे मेरी देखभाल अच्छी तरह कर सकें ।

“एक दिन रात के समय ज़रूरत पूरी करने के लिए मैं मदीने के बाहर गई। उस वक़्त तक हमारे घरों में शौचालय न थे और हम लोग जंगल ही जाया करते थे। मेरे साथ मिस्तह-बिन-उसासा को माँ भी थीं। [उनकी ज़बानी मालूम हुआ कि] लांछन लगानेवाले झूठे लोग मेरे बारे में क्या बातें उड़ा रहे हैं? यह दास्तान सुनकर मेरा ख़ून सूख गया। वह ज़रूरत भी मैं भूल गई जिसके लिए आई थी। सीधे घर गई और रात रो-रोकर काटी।"

आगे चलकर हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती हैं कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्त०) ने ख़ुतबे (अभिभाषण) में फ़रमाया, “मुसलमानो ! कौन है जो उस व्यक्ति के हमलों से मेरी इज़्ज़त बचाए जिसने मेरे घरवालो पर आरोप रखकर मुझे बहुत ज़्यादा दुख पहुँचाया है। अल्लाह की क़सम ! मैंने न तो अपनी बीवी ही में कोई बुराई देखी है और न उस व्यक्ति में जिसके साथ तोहमत लगाई जाती है। वह तो कभी मेरी अनुपस्थति में मेरे घर आया भी नहीं।"

इस पर उसैद-बिन-हुज़ैर (रजि०) औस के सरदार (कुछ रिवायतों में साद-बिन-मुआज़ रज़ि०) ने उठकर कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल ! अगर वह हमारे क़बीले का आदमी है तो हम उसकी गरदन मार दें और अगर हमारे भाई खज़रजियों में से है तो आप हुक्म दें, हम उसे पूरा करने के लिए हाज़िर हैं।"

यह सुनते ही साद बिन उबादा, खज़रज के सरदार उठ खड़े हुए और कहने लगे, “झूठ कहते हो, तुम हरगिज़ उसे नहीं मार सकते।" उसैद-बिन-हुजैर (रज़ि०) ने जवाब में कहा, “तुम मुनाफ़िक़ हो, इसलिए मुनाफ़िक़ों का पक्ष लेते हो।" इस पर मस्जिदे-नबवी में एक हंगामा खड़ा हो गया, हालाँकि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मिम्बर पर तशरीफ़ रखते थे। क़रीब था कि औस और खज़रज मस्जिद ही में लड़ पड़ते, मगर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको ठंडा किया और फिर मिम्बर पर से उतर आए।

इन विवेचनों से पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने यह शोशा छोड़कर एक ही समय में कई शिकार करने की कोशिश की।

एक ओर उसने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) की इज़्ज़त पर हमला किया। दूसरी ओर उसने इस्लामी आन्दोलन की श्रेष्ठतम नैतिक प्रतिष्ठा को आघात पहुँचाने की कोशिश की। तीसरी ओर उसने यह एक ऐसी चिंगारी फेंकी थी कि अगर इस्लाम अपने अनुपालकों के जीवन की काया न पलट चुका होता तो मुहाजिरीन, अंसार और ख़ुद अंसार के भी दोनों क़बीले (औस और खज़रज) आपस में लड़ मरते।

विषय और वार्ताएँ

ये थीं वे परिस्थितियाँ, जिनमें पहले हमले के मौक़े पर सूरा-33 (अहज़ाब) की आयतें 28 से लेकर 73 तक उतरीं और दूसरे हमले के मौक़े पर यह सूरा नूर उतरी। इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर इन दोनों सूरतों का क्रमवार अध्ययन किया जाए तो वह हिकमत (तत्वदर्शिता) अच्छी तरह समझ में आ जाती है जो उनके आदेशों में निहित है। मुनाफ़िक़ मुसलमानों को उस मैदान में परास्त करना चाहते थे, जो उनकी श्रेष्ठता का असल क्षेत्र था। अल्लाह ने बजाय इसके कि मुसलमानों को जवाबी हमले करने पर उकसाता, पूरा ध्यान उनपर यह शिक्षा देने पर लगाया कि तुम्हारे मुक़ाबले के नैतिक क्षेत्र में जहाँ-जहाँ अवरोध मौजूद हैं उनको हटाओ और उस मोर्चे को और अधिक मज़बूत करो। [ज़ैनब (रज़ि०) के निकाह के मौके पर] जब मुनाफ़िक़ो और काफ़िरों (दुश्मनों) ने तूफ़ान उठाया था, उस वक़्त सामाजिक सुधार के संबंध में वे आदेश दिए गए थे जिनका उल्लेख सूरा-33 अहज़ाब में किया गया है। फिर जब लांछन की घटना से मदीना के समाज में एक हलचल पैदा हुई तो यह सूरा नूर नैतिकता, सामाजिकता और क़ानून के ऐसे आदेशों के साथ उतारी गई जिनका उद्देश्य यह था कि एक तो मुस्लिम समाज को बुराइयों के पैदा होने और उनके फैलाव से सुरक्षित रखा जाए और अगर वे पैदा ही हो जाएँ तो उनकी भरपूर रोकथाम की जाए।

इन आदेशों और निर्देशों को उसी क्रम के साथ ध्यान से पढ़िए जिसके साथ वे इस सूरा में उतरे हैं, तो अन्दाज़ा होगा कि क़ुरआन ठीक मनोवैज्ञानिक अवसर पर मानव-जीवन के सुधार और निर्माण के लिए किस तरह क़ानूनी, नैतिक और सामाजिक उपायों को एक साथ प्रस्तावित करता है। इन आदेशों और निर्देशों के साथ-साथ मुनाफ़िक़ों और ईमानवालों की वे खुली-खुली निशानियाँ भी बयान कर दी गईं जिनसे हर मुसलमान यह जान सके कि समाज में निष्ठावान ईमानवाले कौन लोग और मुनाफ़िक़ कौन हैं ? दूसरी ओर मुसलमानों के सामूहिक अनुशासन को और कस दिया गया। इस पूरी वार्ता में प्रमुख चीज़ देखने की यह है कि पूरी सूरा नूर उस कटुता से ख़ाली है जो अश्लील और घृणित हमलों के जवाब में पैदा हुआ करती है। इतनी अधिक उत्तेजनापूर्ण परिस्थितियों में कैसे ठंडे तरीक़े से क़ानून बनाए जा रहे हैं, सुधारवादी आदेश दिए जा रहे हैं, सूझ-बूझ भरे निरदेश दिए जा रहे हैं और शिक्षा और उपदेश देने का हक़ अदा किया जा रहा है। इससे केवल यही शिक्षा नहीं मिलती कि हमें फ़ितनों के मुक़ाबले में तीव्र से तीव्र उत्तेजना के अवसरों पर भी किस तरह ठंडे चिन्तन, विशाल हृदयता और विवेक से काम लेना चाहिए, बल्कि इससे इस बात का प्रमाण भी मिलता है कि यह कलाम (वाणी) मुहम्मद (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ नहीं है, किसी ऐसी हस्ती ही का उतारा हुआ है जो बहुत उच्च स्थान से मानवीय परिस्थतियों और दशाओं को देख रही है और अपने आप में उन परिस्थतियों और दशाओं से अप्रभावित होकर विशुद्ध निर्देश और मार्गदर्शन के पद का हक़ अदा कर रही है। अगर यह हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी लिखी होती तो आपकी अति उच्चता और श्रेष्ठता के बावजूद उसमें उस स्वाभाविक कटुता का कुछ न कुछ प्रभाव तो ज़रूर पाया जाता जो स्वयं अपनी प्रतिष्ठा पर निकृष्ट हमलों को सुनकर एक सज्जन पुरुष की भावनाओं में अनिवार्य रूप से पैदा हो जाया करती है।

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سُورَةٌ أَنزَلۡنَٰهَا وَفَرَضۡنَٰهَا وَأَنزَلۡنَا فِيهَآ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖ لَّعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ
(1) यह एक सूरा है जिसको हमने (ख़ुदा ने) उतारा है, और इसे हमने फ़र्ज़ किया है, और इसमें हमने साफ़-साफ़ हिदायतें उतारी हैं,1 शायद कि तुम सबक़ लो।
1. इन सब जुमलों में ‘हमने' पर ज़ोर है। यानी इसका उतारनेवाला कोई और नहीं, बल्कि ‘हम' हैं। इसलिए इसे किसी बेज़ोर नसीहत करनेवाले की बात की तरह एक हलकी चीज़ न समझ बैठना। ख़ूब जान लो कि इसका उतारनेवाला वह है जिसके को क़ब्ज़े में तुम्हारी जानें और क़िस्मतें हैं, और जिसकी पकड़ से तुम मरकर भी नहीं छूट सकते। दूसरे जुमले में बताया गया है कि जो बातें इस सूरा में कही गई हैं वे 'सिफ़ारिशें’ नहीं हैं कि आपका जी चाहे तो मानें वरना जो कुछ चाहें करते रहें, बल्कि ये तयशुदा हुक्म हैं जिनकी पैरवी करना ज़रूरी है। अगर मोमिन (ईमानवाले) और मुस्लिम हों तो तुम्हारा फ़र्ज़ है कि उनके मुताबिक़ अमल करो। तीसरे जुमले में बताया गया है कि जो हिदायतें इस सूरा में दी जा रही हैं उनमें कोई बात छिपी हुई नहीं है। साफ़-साफ़ और खुली-खुली हिदायतें हैं जिनके बारे में तुम यह बहाना नहीं कर सकते कि फ़ुलाँ बात हमारी समझ ही में नहीं आई थी तो हम अमल कैसे करते। बस यह इस मुबारक फ़रमान की शुरुआती बात (Preamble) है जिसके बाद हुक्म शुरू हो जाते हैं। शुरू में कही गई इस बात का अन्दाज़े-बयान ख़ुद बता रहा है कि सूरा नूर के हुक्मों को अल्लाह तआला कितनी अहमियत देकर पेश कर रहा है। क़ुरआन की कोई दूसरी सूरा जिसमें समाजी हिदायतें दी गई हों, ऐसी नहीं है जिसकी शुरुआत में इतनी ज़ोरदार बात कही गई हो।
ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِي فَٱجۡلِدُواْ كُلَّ وَٰحِدٖ مِّنۡهُمَا مِاْئَةَ جَلۡدَةٖۖ وَلَا تَأۡخُذۡكُم بِهِمَا رَأۡفَةٞ فِي دِينِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِۖ وَلۡيَشۡهَدۡ عَذَابَهُمَا طَآئِفَةٞ مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 1
(2) ज़िना (व्यभिचार) करनेवाली औरत और ज़िना करनेवाले मर्द, दोनों में से हर एक को सौ कोड़े मारो।2 और उनपर तरस खाने का जज़्बा अल्लाह के दीन के मामले में तुमको रोक न दे, अगर तुम अल्लाह तआला और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हो।3 और उनको सज़ा देते वक़्त ईमानवालों का एक गरोह मौजूद रहे।4
2. इस मसले के बहुत-से क़ानूनी, अख़लाक़ी और तारीख़़ी पहलू हैं जो तशरीह (व्याख्या) चाहते हैं जिनको अगर तफ़सील के साथ बयान न किया जाए तो मौजूदा ज़माने में एक आदमी के लिए ख़ुदा के इस क़ानून का समझना मुश्किल है। इसलिए नीचे हम इसके अलग-अलग पहलुओं पर एक सिलसिले के साथ रौशनी डालेंगे— (1) ज़िना (व्यभिचार) का आम मतलब जिससे हर शख़्स वाक़िफ़ है, यह है कि “एक मर्द एक औरत, बिना इसके कि उनके बीच मियाँ-बीवी का जाइज़ रिश्ता हो, आपस में हमबिस्तरी (सम्भोग) करें।” इस काम का अख़लाक़ी तौर से बुरा होना, या मज़हबी तौर से गुनाह होना, या सामाजिक हैसियत से बुरा होना और एतिराज़ के क़ाबिल होना एक ऐसी चीज़ है जिसपर पुराने ज़माने से आज तक तमाम इनसानी समाज एक राय रहे हैं, और इसमें सिवाय उन अलग-अलग बिखरे हुए लोगों के जिन्होंने अपनी अक़्ल को अपनी नफ़्स-परस्ती और अपने मन की ख़ाहिशों की बन्दगी का ग़ुलाम बना दिया है, या जिन्होंने पागलपन की उपज को फ़लसफ़ा (दर्शन) समझ रखा है, किसी ने आज तक इख़्तिलाफ़ नहीं किया है। सारी दुनिया की इस बात पर एक राय हो जाने की वजह यह है कि इनसानी फ़ितरत ख़ुद ज़िना के हराम (अवैध) होने का तक़ाज़ा करती है। इनसानी नस्ल का बाक़ी रहना और इनसानी तमद्दुन (संस्कृति) का क़ायम होना दोनों का दारोमदार इस बात पर है कि औरत और मर्द सिर्फ़ लुत्फ़ और लज़्ज़त के लिए मिलने और फिर अलग हो जाने में आज़ाद न हों, बल्कि हर जोड़े का आपसी ताल्लुक़ एक ऐसे मुस्तक़िल और हमेशा रहनेवाले और पुख़्ता वादे पर क़ायम हो जो समाज में जाना-माना भी हो और जिसे समाज की ज़मानत भी हासिल हो। इसके बिना इनसानी नस्ल एक दिन के लिए भी नहीं चल सकती, क्योंकि इनसान का बच्चा अपनी ज़िन्दगी और अपनी इनसानी नशो-नमा (लालन-पालन और पलने-बढ़ने) के लिए कई साल की हमदर्दी भरी देखभाल और तरबियत का मुहताज होता है, और अकेली औरत इस बोझ को उठाने के लिए कभी तैयार नहीं हो सकती जब तक कि वह मर्द उसका साथ न दे जो उस बच्चे के वुजूद में आने का सबब बना हो। इसी तरह उस मुआहदे के बिना इनसानी तमद्दुन भी बाक़ी नहीं रह सकता, क्योंकि तमद्दुन की तो पैदाइश ही एक मर्द और एक औरत के मिलकर रहने, एक घर और एक ख़ानदान वुजूद में लाने, और फिर ख़ानदानों के बीच रिश्ते और राब्ते पैदा होने से हुई है। अगर औरत और मर्द घर और ख़ानदान के बनाने को नज़र-अन्दाज़ करके सिर्फ़ मज़े और लज़्ज़त के लिए आज़ादाना मिलने लगे तो सारे इनसान बिखरकर रह जाएँ, इजतिमाई ज़िन्दगी की जड़ कट जाए, और वह बुनियाद ही बाक़ी न रहे जिसपर तहज़ीब और तमद्दुन (संस्कृति और सभ्यता) की यह इमारत उठी है। इन वजहों से औरत और मर्द का ऐसा आज़ादाना ताल्लुक़ जिसकी बुनियाद किसी मालूम और जाने-पहचाने और तस्लीमशुदा मुआहदे पर न हो, इनसानी फ़ितरत के ख़िलाफ़ है। इन्हीं वजहों से इनसान इसको हर ज़माने में एक बड़ा ऐब, एक बड़ी बद-अख़लाक़ी, और मज़हबी ज़बान में सख़्त गुनाह समझता रहा है। और इन्हीं वजहों से हर ज़माने में इनसानी समाजों ने निकाह (विवाह) को रिवाज देने के साथ-साथ ज़िना (व्यभिचार) की रोकथाम की भी किसी-न-किसी तौर पर ज़रूर कोशिश की है। अलबत्ता इस कोशिश की शक्लों में अलग-अलग क़ानूनों और अख़लाक़ों और सामाजिक और मज़हबी निज़ामों (व्यवस्थाओं) में फ़र्क़ रहा है जिसकी बुनियाद अस्ल में इस फ़र्क़ पर है कि जाति और समाज के लिए ज़िना के नुक़सानदेह होने का एहसास कहीं कम है और कहीं ज़्यादा, कहीं वाज़ेह है और कहीं दूसरे मसलों में उलझकर रह गया है। (2) ज़िना के हराम होने पर सब लोगों के एक राय होने के बाद इख़्तिलाफ़ जिस बात में हुआ है वह उसके जुर्म, यानी क़ानूनी तौर पर उसपर सज़ा का हक़दार होने का मामला है, और यही वह मक़ाम है जहाँ से इस्लाम और दूसरे मज़हबों और क़ानूनों का फ़र्क़ शुरू होता है। इनसानी फ़ितरत से क़रीब जो समाज रहे हैं, उन्होंने हमेशा ज़िना, यानी औरत और मर्द के नाजाइज़ ताल्लुक़, को अपने आपमें एक जुर्म समझा है और उसके लिए सख़्त सज़ाएँ रखी हैं। लेकिन ज्यों-ज्यों इनसानी समाजों को तमद्दुन (संस्कृति) ख़राब करता गया है, रवैया नर्म होता चला गया है। इस मामले में सबसे पहली कोताही जो आम तौर से की गई, यह थी कि सिर्फ़ ज़िना (Fornication) और 'दूसरे की बीवी के साथ ज़िना’ (Adultery) में फ़र्क़ करके, पहले को एक मामूली-सी ग़लती, और सिर्फ़ दूसरे को सज़ा के क़ाबिल जुर्म ठहरा दिया गया। मुख़्तलिफ़ क़ानूनों में ज़िना जिस चीज़ को कहते हैं, वह सिर्फ़ यह है कि “कोई मर्द, चाहे वह कुँआरा हो या शादीशुदा, किसी ऐसी औरत से हमबिस्तरी करे जो किसी दूसरे शख़्स की बीवी न हो।” इसमें अस्ल एतिबार मर्द की हालत का नहीं, बल्कि औरत की हालत का किया गया है। औरत अगर बे-शौहर है तो उससे हमबिस्तरी सिर्फ़ ज़िना है, यह देखे बिना कि मर्द चाहे बीवी रखता हो या न रखता हो। क़दीम (प्राचीन) मिस्र, बाबिल, आशूर (असीरिया) और भारत के क़ानूनों में इसकी सज़ा बहुत हलकी थी। इसी क़ायदे को यूनान और रोम ने अपनाया, और इसी से आख़िरकार यहूदी भी मुतास्सिर हो गए। बाइबल में यह सिर्फ़ एक ऐसा क़ुसूर है जिससे मर्द पर सिर्फ़ माली जुर्माना ज़रूर लग सकता है। किताब 'निर्गमन' में इसके बारे में जो हुक्म है उसके अलफ़ाज़ ये हैं— “अगर कोई आदमी किसी कुँआरी को जिसकी निस्बत (यानी मंगनी) न हुई हो, फुसलाकर उससे हमबिस्तरी कर ले तो वह ज़रूर ही उसे मह्‍र देकर उससे ब्याह कर ले, लेकिन अगर उसका बाप हरगिज़ राज़ी न हो कि उस लड़की को उसे दे तो वह कुँआरियों के मह्‍र के बराबर (यानी जितना मह्‍र किसी कुँआरी लड़की को दिया जाता हो) उसे नक़दी दे।" (अध्याय-22, आयत-16, 17) किताब 'इस्तिसना’ (व्यवस्थाविवरण) में यही हुक्म ज़रा अलग अलफ़ाज़़ में बयान हुआ है, और फिर खोलकर बयान किया गया है कि मर्द से लड़की के बाप को पचास मिस्क़ाल चाँदी हर्जाना दिलवाया जाए। (अध्याय-22, आयतें—28, 29) अलबत्ता अगर कोई शख़्स काहिन (यानी पुरोहित, Priest) की बेटी से ज़िना करे तो उसके लिए यहूदी क़ानून में फाँसी की सज़ा है, और लड़की के लिए ज़िन्दा जलाने की। (Everyman's Talmud, p. 319-20) यह सोच और ख़याल हिन्दुओं के ख़याल से कितना ज़्यादा मिलता-जुलता है इसका अन्दाज़ा करने के लिए मनुस्मृति से मुक़ाबला करके देखिए। वहाँ लिखा है कि “जो व्यक्ति अपनी जाति की कुँआरी लड़की से उसकी मरज़ी (सहमति) से ज़िना (व्यभिचार) करे, वह किसी दण्ड का पात्र नहीं है। लड़की का पिता राज़ी हो तो वह उसको बदले में कुछ देकर विवाह कर ले। अलबत्ता अगर लड़की ऊँची जाति की हो और पुरुष निचली जाति का तो लड़की को घर से निकाल देना चाहिए और पुरुष को अंग काटने का दण्ड देना चाहिए।” (अध्याय-8, श्लोक-365, 366) और यह दण्ड जीवित जला दिए जाने के दण्ड में परिवर्तित किया जा सकता है जबकि लड़की ब्राह्मण हो। (श्लोक-377) अस्ल में इन सब क़ानूनों में दूसरे की बीवी के साथ ज़िना ही अस्ली और बड़ा जुर्म या यानी यह कि कोई शख़्स (चाहे वह शादीशुदा हो या ग़ैर-शादीशुदा) किसी ऐसी औरत से हमबिस्तरी करे जो दूसरे की बीवी हो। इस काम के जुर्म होने की बुनियाद यह न थी कि एक मर्द और औरत ने ज़िना का जुर्म किया है, बल्कि यह थी कि उन दोनों ने मिलकर एक शख़्स को इस ख़तरे में डाल दिया है कि उसे किसी ऐसे बच्चे को पालना पड़े जो उसका नहीं है। यानी ज़िना नहीं, बल्कि नसब (वंश) के गड्ड-मड्ड हो जाने का ख़तरा और एक के बच्चे का दूसरे ख़र्च पर पलना और उसका वारिस होना जुर्म की अस्ल बुनियाद या जिसकी वजह से औरत और मर्द दोनों मुजरिम ठहरते थे। मिस्रवालों के यहाँ इसकी सज़ा यह थी कि मर्द को लाठियों से ख़ूब पीटा जाए और औरत की नाक काट दी जाए। लगभग ऐसी ही सज़ाएँ बाबिल, अशूर और प्राचीन ईरान में भी राइज थीं। हिन्दुओं के यहाँ औरत की सज़ा यह थी कि उसको कुत्तों से फड़वा दिया जाए और मर्द की यह कि उसे लोहे के गर्म पलंग पर लिटाकर चारों तरफ़ आग जला दी जाए। यूनान और रोम में शुरू में एक मर्द को यह हक़ हासिल था कि अगर वह अपनी बीवी के साथ किसी को ज़िना करते देख ले तो उसे क़त्ल कर दे, या चाहे तो उससे माली हर्जाना वुसूल कर ले। फिर पहली शताब्दी ई० पू० में क़ैसर ऑगस्टस ने यह क़ानून बनाया कि मर्द की आधी जायदाद ज़ब्त करके उसे देश-निकाला दे दिया जाए, और औरत का आधा मह्‍र ख़त्म और उसकी आधी जायदाद ज़ब्त करके उसे भी मुल्क के किसी दूर-दराज इलाक़े में भेज दिया जाए। क़ुस्तनतीन ने इस क़ानून को बदलकर औरत और मर्द दोनों के लिए मौत की सज़ा मुक़र्रर की। लिओ (Leo) और मारसियन (Marcian) के दौर में इस सज़ा को उम्र क़ैद में बदल दिया गया। फिर क़ैसर जसटिनीन ने इसमें कुछ और कमी करके यह क़ायदा मुक़र्रर कर दिया कि औरत को कोड़ों से पीटकर किसी राहिबाने (संन्यास-गृह) में डाल दिया जाए और उसके शौहर को यह हक़ दिया जाए कि चाहे तो दो साल के अन्दर उसे निकलवा ले, वरना सारी उम्र वहीँ पड़ा रहने दे। यहूदी क़ानून में दूसरे की औरत के बारे में जो अहकाम (आदेश) पाए जाते हैं वे ये हैं “अगर कोई किसी ऐसी औरत से हमबिस्तरी करे जो लोंडी और किसी आदमी की मंगेतर हो और न तो उसका फ़िद्या ही दिया गया हो और न वह आज़ाद की गई हो तो उन दोनों को सज़ा मिले, लेकिन वे जान से न मारे जाएँ, इसलिए कि औरत आज़ाद न थी।" (लैव्यव्यवस्था, 19:20) "जो आदमी दूसरे की बीवी से, यानी अपने पड़ोसी की बीवी से ज़िना (व्यभिचार) करे, वे व्यभिचारी और व्यभिचारिणी दोनों ज़रूर जान से मार दिए जाएँ।”(लैव्यव्यवस्था, 20:10) “अगर कोई मर्द किसी शौहरवाली औरत से ज़िना करते पकड़ा जाए तो वे दोनों मार डाले जाएँ।” (व्यवस्थाविवरण, 22:22) "अगर कोई कुँआरी लड़की किसी शख़्स से जुड़ गई हो (यानी उसकी मंगेतर हो) और कोई दूसरा आदमी उसे शहर में पाकर उससे हमबिस्तरी करे तो तुम उन दोनों को उस शहर के फाटक पर निकाल लाना और उनको तुम संगसार कर देना कि वे मर जाएँ। लड़की को इसलिए कि वह शहर में होते हुए न चिल्लाई और मर्द को इसलिए कि उसने अपने पड़ोसी की बीवी को बेइज़्ज़त किया, पर अगर उस आदमी को वही लड़की जिसका रिश्ता तय हो चुका हो, किसी मैदान या खेत में मिल जाए और वह आदमी उससे ज़बरदस्ती सहवास (बलात्कार) करे तो सिर्फ़ वह आदमी ही जिसने सहवास किया मार डाला जाए, पर उस लड़की से कुछ न करना।” (व्यवस्थाविवरण, 22:22-26) लेकिन हज़रत ईसा (अलैहि०) के ज़माने से बहुत पहले यहूदी आलिम, फ़क़ीह, हाकिम और आम लोग, सब इस क़ानून को अमली तौर पर ख़त्म कर चुके थे। यह हालाँकि बाइबल में लिखा हुआ था और ख़ुदाई हुक्म इसी को समझा जाता था, मगर इसे अमली तौर से लागू करने को कोई तैयार न था, यहाँ तक कि यहूदियों के इतिहास में इसकी कोई मिसाल तक न पाई जाती थी कि यह हुक्म कभी लागू किया गया हो। हज़रत ईसा (अलैहि०) जब हक़ की दावत लेकर उठे और यहूदियों के आलिमों ने देखा कि इस सैलाब को रोकने की कोई तदबीर काम नहीं कर रही है तो वे एक चाल के तौर पर ज़िना करनेवाली एक औरत को उनके पास पकड़ लाए और कहा कि इसका फ़ैसला कीजिए (यूहन्ना, अध्याय-8, आयतें—1-11) इससे उनका मक़सद यह था कि हज़रत ईसा (अलैहि०) को कुएँ या खाई, दोनों में से किसी एक में कूदने पर मजबूर कर दें। अगर वे रज्म (संगसार करने) के सिवा कोई और सज़ा देने के लिए कहें तो उनको यह कहकर बदनाम किया जाए कि लीजिए, ये निराले पैग़म्बर साहब आए हैं जिन्होंने दुनियावी फ़ायदों के लिए ख़ुदा का क़ानून बदल डाला और अगर वे रज्म (पत्थर मार-मारकर मार डालने) का हुक्म दे दें तो एक तरफ़ रूमी क़ानून से उनको टकरा दिया जाए और दूसरी तरफ़ क़ौम से कहा जाए कि मानो इन पैग़म्बर साहब को, देख लेना, अब तौरात की पूरी शरीअत (क़ानून) तुम्हारी पीठों और जानों पर बरसेगी। लेकिन हज़रत ईसा (अलैहि०) ने एक ही जुमले में उनकी चाल को उन्हीं पर उलट दिया। हज़रत ईसा ने फ़रमाया, “तुममें से जो ख़ुद पाकदामन हो वह आगे बढ़कर इसे पत्थर मारे। यह सुनते ही फ़क़ीहों (क़ानूनदानों) की सारी भीड़ छँट गई, एक-एक मुँह छिपाकर चला गया और 'दीन और शरीअत रखने का दावा करनेवालों' की अख़लाक़ी हालत बिलकुल बेनक़ाब होकर रह गई। फिर जब औरत अकेली खड़ी रह गई तो उन्होंने उसे नसीहत की और तौबा कराके वापस भेज दिया, क्योंकि न हज़रत ईसा क़ाज़ी (जज) थे कि इस मुक़द्दमे का फ़ैसला करते, न उसके ख़िलाफ़ किसी ने गवाही दी थी, और न कोई इस्लामी हुकूमत ख़ुदा का क़ानून लागू करने के लिए मौजूद थी। हज़रत ईसा (अलैहि०) के इस वाक़िए से और उनकी कुछ और बहुत-सी बातों से जो अलग-अलग मौक़ों पर उन्होंने कहीं, ईसाइयों ने ग़लत नतीजा निकालकर ज़िना के जुर्म का एक और तसव्वुर क़ायम कर लिया। उनके यहाँ ज़िना अगर ग़ैर-शादीशुदा मर्द ग़ैर-शादीशुदा औरत से करे तो यह गुनाह तो है, मगर इस जुर्म पर सज़ा नहीं होगी। और अगर इस काम को करनेवालों में का कोई एक शख़्स, चाहे वह औरत हो या मर्द, शादीशुदा हो या दोनों शादीशुदा हो तो यह जुर्म है, मगर इसको जुर्म बनानेवाली चीज़ अस्ल में 'अहद तोड़ना’ है, न कि सिर्फ़ ज़िना। उनके नज़दीक जिसने भी शादीशुदा होकर ज़िना का जुर्म किया, वह इसलिए मुजरिम है कि उसने उस वफ़ादारी के अह्द (प्रतिज्ञा) को तोड़ दिया जो क़ुरबानगाह के सामने उसने पादरी के वास्ते से अपनी बीवी या अपने शौहर के साथ बाँधा था। मगर इस जुर्म की कोई सज़ा इसके सिवा नहीं है कि ज़िना करनेवाले मर्द की बीवी अपने शौहर के ख़िलाफ़ बेवफाई का दावा करके अलग होने (तलाक़) की डिग्री हासिल कर ले और ज़िना करनेवाली औरत का शौहर एक तरफ़ अपनी बीवी पर दावा करके अलग होने की डिग्री (तलाक़) ले और दूसरी तरफ़ उस शख़्स से भी हर्जाना लेने का हक़दार हो जिसने उसकी बीवी को ख़राब किया। बस यह सज़ा है जो मसीही क़ानून शादीशुदा ज़िना करनेवालों और ज़िना करनेवालियों को देता है, और ग़ज़ब है कि यह सज़ा भी दोधारी तलवार है। अगर एक औरत अपने शौहर के ख़िलाफ़ 'बेवफाई’ का दावा करके अलग होने की डिग्री हासिल कर ले तो वह बेवफ़ा शौहर से तो नजात हासिल कर लेगी लेकिन मसीही क़ानून के मुताबिक़ फिर वह उम्र भर कोई दूसरी शादी नहीं कर सकेगी और ऐसा ही अंजाम उस मर्द का भी होगा जो बीवी पर 'बेवफ़ाई' का दावा करके अलग होने की डिग्री ले: क्योंकि मसीही क़ानून उसको भी दूसरी शादी का हक़ नहीं देता। मानो मियाँ-बीवी में से जिसको भी तमाम उम्र राहिब (जोगी) बनकर रहना हो, वह अपने जीवन-साथी की बेवफ़ाई का शिकवा मसीही अदालत में ले जाए। मौज़ूदा ज़माने के मग़रिबी (पश्चिमी) क़ानून जिनकी पैरवी अब ख़ुद मुसलमानों के भी बहुत-से देश कर रहे हैं, उनकी बुनियाद भी इन्हीं मुख़्तलिफ़ तसव्वुरों पर है। उनके नज़दीक ज़िना, ऐब या बदअख़लाक़ी या गुनाह जो कुछ भी हो, जुर्म बहरहाल नहीं है। उसे अगर कोई चीज़ जुर्म बना सकती है तो वह ज़ोर-ज़बरदस्ती है जबकि दूसरे शख़्स की मरज़ी के ख़िलाफ़ ज़बरदस्ती उससे हमबिस्तरी की जाए। रहा किसी शादीशुदा मर्द का ज़िना कर बैठना तो वह अगर शिकायत की वजह है तो उसकी बीवी के लिए है, वह चाहे तो उसका सुबूत देकर तलाक़ हासिल कर ले। और ज़िना करनेवाली अगर शादीशुदा औरत है तो उसके शौहर की न सिर्फ़ उसके ख़िलाफ़, बल्कि ज़िना करनेवाले मर्द के ख़िलाफ़ भी शिकायत की वजह पैदा होती है, और दोनों पर दावा करके वह बीवी से तलाक़ और ज़िना करनेवाले मर्द से हर्जाना वुसूल कर सकता है। (3) इस्लामी क़ानून इन सब बातों के बरख़िलाफ़ ज़िना को अपने आपमें ख़ुद एक सज़ा के क़ाबिल जुर्म ठहराता है और शादीशुदा होकर ज़िना करना उसके नज़दीक जुर्म की शिद्दत को और ज़्यादा बढ़ा देता है, न इस बुनियाद पर कि मुजरिम ने किसी से ‘अह्द तोड़ा', या किसी दूसरे के बिस्तर पर हाथ मारा, बल्कि इस बुनियाद पर कि उसके लिए अपनी ख़ाहिशों को पूरा करने का एक जाइज़ ज़रिआ मौजूद था और फिर भी उसने नाजाइज़ ज़ारिआ अपनाया। इस्लामी क़ानून ज़िना को इस नज़रिए से देखता है कि यह वह काम है जिसकी अगर आज़ादी हो जाए तो एक तरफ़ इनसानी नस्ल की और दूसरी तरफ़ इनसानी तहज़ीब की जड़ कट जाए। नस्ल के बाक़ी रहने और तहज़ीब को क़ायम रखने, दोनों के लिए ज़रूरी है कि औरत और मर्द का ताल्लुक़ सिर्फ़ क़ानून के मुताबिक़ भरोसेमन्द ताल्लुक़ तक महदूद हो। और उसे महदूद रखना मुमकिन नहीं है, अगर उसके साथ-साथ आज़ादी से किसी और से ताल्लुक़ बनाने की भी खुली गुंजाइश मौजूद रहे; क्योंकि घर और ख़ानदान की ज़िम्मेदारियों का बोझ संभाले बिना जहाँ लोगों को मन की ख़ाहिशों को पूरा करने के मौक़े हासिल रहें, वहाँ उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती कि इन्हीं ख़ाहिशों को पूरा करने के लिए वे फिर इतनी भारी ज़िम्मेदारियों का बोझ उठाने पर आमादा होंगे। यह एसा ही है जैसे ट्रेन में बैठने के लिए टिकट की शर्त बेमतलब है, अगर बिना टिकट सफ़र करने की आज़ादी भी लोगों को हासिल रहे। टिकट की शर्त अगर ज़रूरी है तो उसे असरदार बनाने के लिए बिना टिकट सफ़र जुर्म होना चाहिए। फिर अगर कोई आदमी पैसा न होने की वजह से बेटिकट सफ़र करे तो कम दरजे का मुजरिम है, और मालदार होते हुए भी यह हरकत करे तो जुर्म और ज़्यादा सख़्त हो जाता है। (4) इस्लाम इनसानी समाज को ज़िना के ख़तरे से बचाने के लिए सिर्फ़ क़ानूनी सज़ा के हथियार पर बस नहीं करता, बल्कि इसके लिए बड़े पैमाने पर इसके सुधार और इसे रोकने की तदबीरें इस्तेमाल करता है और यह क़ानूनी सज़ा उसने सिर्फ़ एक आख़िरी रास्ते के तौर पर रखी है। इसका मक़सद यह नहीं है कि लोग यह जुर्म करते रहें और दिन-रात उनपर कोड़े बरसाने के लिए नज़रें गड़ी रहें, बल्कि इसका मक़सद यह है कि लोग यह जुर्म न करें और किसी को इसपर सज़ा देने की नौबत ही न आने पाए। वह सबसे पहले आदमी के अपने नफ़्स (मन) को सुधारता है, उसके दिल में ग़ैब की बातें जाननेवाले और सब कुछ करने की क़ुदरत रखनेवाले ख़ुदा का डर बिठाता है, उसे आख़िरत की पूछ-गछ का एहसास दिलाता है जिससे मरकर भी आदमी का पीछा नहीं छूट सकता। उसमें अल्लाह के क़ानून पर चलने का जज़बा पैदा करता है जो ईमान का लाज़िमी तक़ाज़ा है, और फिर उसे बार-बार ख़बरदार करता है कि ज़िना करना और पाकबाज़ी को छोड़ देना उन बड़े गुनाहों में से है जिनपर अल्लाह सख़्त पूछ-गछ करेगा। यह बात सारे क़ुरआन में जगह-जगह आपके सामने आती है। इसके बाद वह आदमी के लिए शादी की तमाम मुमकिन आसानियाँ पैदा करता है। एक बीवी से इत्मीनान न हो तो चार-चार तक से जाइज़ ताल्लुक़ का मौक़ा देता है। दिल न मिलें तो मर्द को तलाक़ देने (शादी का रिश्ता तोड़ने) और औरत को ख़ुलअ (तलाक़ लेने) की आसानियाँ देता है। और आपस में अगर मन-मुटाव हो तो इस सूरत में ख़ानदानी पंचायत से लेकर सरकारी अदालत तक जाने का रास्ता खोल देता है, ताकि या तो सुलह-सफ़ाई हो जाए, या मियाँ-बीवी एक-दूसरे से आज़ाद होकर जहाँ दिल मिले निकाह कर लें। यह सब कुछ आप सूरा-2 बक़रा; सूरा-4 निसा; सूरा-65 तलाक़ में देख सकते हैं। और इसी सूरा नूर में आप अभी देखेंगे कि मर्दों और औरतों के बिन-ब्याहे बैठे रहने को नापसन्द किया गया है और साफ़ हुक्म दे दिया गया है कि ऐसे लोगों के निकाह कर दिए जाएँ, यहाँ तक कि लौंडियों और ग़ुलामों को भी बिन-ब्याहा न छोड़ा जाए। फिर वह समाज से उन बातों और वजहों का ख़ातिमा करता है जो ज़िना पर उभारनेवाले, उसके लिए उकसानेवाले और उसके मौक़े पैदा करनेवाले हो सकते हैं। ज़िना की सज़ा बयान करने से एक साल पहले सूरा-33 अहज़ाब में औरतों को हुक्म दे दिया गया था कि घर से निकलें तो चादरें ओढ़कर और पूँघट डालकर निकलें, और मुसलमान औरतों के लिए जिस नबी का घर नमूने का घर था, उसकी औरतों को हिदायत कर दी गई थी कि घरों में इज़्ज़त और सुकून के साथ बैठो, अपनी ख़ूबसूरती और हुस्न की नुमाइश न करो, और बाहर के मर्द तुमसे कोई चीज़ लें तो परदे के पीछे से लें। यह नमूना देखते-देखते उन तमाम ईमानवाली औरतों में फैल गया जिनके नज़दीक जाहिलियत के ज़माने की बेहया औरतें नहीं, बल्कि नबी (सल्ल०) की बीवियाँ और बेटियाँ ही इस लायक थीं कि उनको नमूना बनाकर उनके रास्ते पर चला जाए। इस तरह फ़ौजदारी क़ानून की सज़ा मुक़र्रर करने से पहले औरतों और मर्दो का घुलना-मिलना बन्द कर दिया गया, बनी-संवरी औरतों का बाहर निकलना बन्द कर दिया गया, और उन सब बातों और वजहों और ज़रिओं का दरवाज़ा बन्द कर दिया गया जो ज़िना के मौक़े देते और उसकी आसानियाँ पैदा करते हैं। इन सबके बाद जब ज़िना की फ़ौजदारी सज़ा मुक़र्रर की गई तो आप देखते हैं कि उसके साथ-साथ इसी सूरा नूर में बेहयाई और बेशर्मी के फैलाने को भी रोका जा रहा है, जिस्म-फ़रोशी (Prostitution) की क़ानूनी बन्दिश भी की जा रही है, औरतों और मर्दों पर बदकारी के बेसुबूत इलज़ाम लगाने और उनकी चर्चाएँ करने के लिए भी सख़्त सज़ा रखी जा रही है, निगाहें नीची करने का हुक्म देकर निगाहों पर पहरे भी बिठाए जा रहे हैं, ताकि नज़रबाज़ी से हुस्न-परस्ती तक और हुस्न-परस्ती से इश्कबाज़ी तक नौबत न पहुँचे और औरतों को यह हुक्म भी दिया जा रहा है कि अपने घरों में महरम (शौहर और वे क़रीबी रिश्तेदार जिनसे निकाह को शरीअत ने हराम किया है) और ग़ैर-महरम (वे लोग जिनसे निकाह हो सकता है) रिश्तेदारों के बीच फ़र्क़ करें और ग़ैर-महरमों के सामने बन-संवरकर न आएँ इससे आप उस पूरी स्कीम को जो इस्लाह और सुधार के लिए पेश की गई है, समझ सकते हैं जिसके एक हिस्से के तौर पर ज़िना की क़ानूनी सज़ा मुक़रर्र की गई है। यह सज़ा इसलिए है कि सुधार की तमाम अन्दरूनी और बाहरी तदबीरें अपनाने के बावजूद जो बिगड़ैल लोग खुले हुए जाइज़ रास्तों को छोड़कर नाज़ाइन तरीक़े से ही अपने मन की ख़ाहिश पूरी करने पर अड़े हों, उनकी खाल उधेड़ दी जाए, और एक बदकार को सज़ा देकर समाज के उन बहुत-से लोगों का नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) ऑपरेशन कर दिया जाए जो इस तरह के रुझान रखते हों। यह सज़ा सिर्फ़ एक मुजरिम की सज़ा ही नहीं है, बल्कि इस बात का अमली एलान भी है कि मुस्लिम समाज बदकारों की तफ़रीहगाह (मनोरंजन-स्थल) नहीं है जिसमें मज़े लूटनेवाले और मज़े लूटनेवालियाँ अख़लाक़ी पाबन्दियों से आज़ाद होकर मज़े लूटते फिरें। इस नज़रिए से कोई शख़्स इस्लाम की इस स्कीम को समझे जो उसने इस्लाह और सुधार के लिए पेश की है तो वह आसानी से महसूस कर लेगा कि इस पूरी स्कीम का एक हिस्सा भी अपनी जगह से न हटाया जा सकता है और न कम-ज़्यादा किया जा सकता है। इसमें रद्दो-बदल का ख़याल या तो वह नादान कर सकता है जो इसे समझने की सलाहियत रखे बिना सुधारक बन बैठा हो, या फिर वह बिगाड़ फैलानेवाला ऐसा कर सकता है जिसकी अस्ल नीयत उस मक़सद को बदल देने की हो जिसके लिए यह स्कीम उस ख़ुदा ने पेश की है जो निहायत हिकमतवाला है। (5) ज़िना (व्यभिचार) को सज़ा के क़ाबिल जुर्म तो 03 हि० में ही ठहरा दिया गया था लेकिन उस वक़्त यह एक 'क़ानूनी' जुर्म न था जिसपर हुकूमत की पुलिस और अदालत कोई कार्रवाई करे, बल्कि इसकी हैसियत एक ‘सामाजिक' या 'ख़ानदानी’ जुर्म की-सी थी जिसपर ख़ानदान के लोगों ही को ख़ुद अपने तौर पर सज़ा दे लेने का अधिकार था। हुक्म यह था कि अगर चार गवाह इस बात की गवाही दे दें कि उन्होंने एक मर्द और एक औरत को ज़िना करते देखा है तो दोनों को मारा-पीटा जाए और औरत को घर में क़ैद कर दिया जाए। इसके साथ यह इशारा भी कर दिया गया था कि यह क़ायदा 'दूसरा हुक्म' आने तक के लिए है, (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-4 निसा, आयतें—15, 16) इसके ढाई-तीन साल बाद यह दूसरा हुक्म उतरा जो आप इस आयत में पा रहे हैं, और इसने पिछले हुक्म को रद्द करके ज़िना को एक ऐसा क़ानूनी जुर्म (Cognizable offence) ठहरा दिया जिसमें सरकार कार्रवाई करे। (6) इस आयत में ज़िना की जो सज़ा मुक़र्रर की गई है वह अस्ल में ‘सिर्फ़ ज़िना’ की सज़ा है, शादीशुदा होने की हालत में ज़िना कर बैठने की सज़ा नहीं है जो इस्लामी क़ानून की निगाह में ज़्यादा सख़्त जुर्म है। यह बात ख़ुद क़ुरआन ही के एक इशारे से मालूम होती है कि वह यहाँ उस ज़िना की सज़ा बयान कर रहा है जिसके दोनों मुजरिम ग़ैर-शादीशुदा हों सूरा-4 निसा में पहले कहा गया— “तुम्हारी औरतों में से जो बदकारी कर बैठे, उनपर अपने में से चार आदमियों की गवाही लो, और अगर वे गवाही दे दें तो उनको घरों में बन्द रखो, यहाँ तक कि उन्हें मौत आ जाए, या अल्लाह उनके लिए कोई रास्ता निकाल दे।” (आयत-15) इसके बाद थोड़ी दूर आगे चलकर फिर कहा गया— “और तुममें से जो लोग इतनी क़ुदरत न रखते हों कि ईमानवालों में से मुहसनात (आज़ाद औरतें जो ग़ुलाम न हों) के साथ निकाह करें तो वे तुम्हारी ईमानवाली लौंडियों से निकाह कर लें....फिर अगर वे (लौडियाँ) मुहसना हो जाने के बाद कोई बदचलनी का काम कर बैठें तो उनपर उस सज़ा की बनिस्बत आधी सज़ा है जो मुहसनात को (ऐसे जुर्म पर) दी जाए।” (आयत-25) इनमें से पहली आयत में उम्मीद दिलाई गई है कि ज़िना करनेवाली औरतें जिनको फ़ौरन क़ैद करने का हुक्म दिया जा रहा है, उनके लिए अल्लाह तआला बाद में कोई रास्ता पैदा करेगा। इससे मालूम हुआ कि सूरा नूर का यह दूसरा हुक्म चही चीज़ है जिसका वादा सूरा- निसा की ऊपर बयान की गई आयत में किया गया था। दूसरी आयत में शादीशुदा लौंडी के ज़िना कर बैठने की सज़ा बयान की गई है। यहाँ एक ही आयत और एक ही बयान के एक ही सिलसिले में दो जगह 'मुहसनात' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है और लाज़िमन यह मानना पड़ेगा कि दोनों जगह इसका एक ही मतलब है। अब शुरू के जुमले को देखिए तो वहाँ कहा जा रहा है कि जो लोग “मुहसनात से निकाह करने की क़ुदरत (सामर्थ्य) न रखते हों।” ज़ाहिर है कि इससे मुराद शादीशुदा औरत नहीं हो सकती, बल्कि एक आज़ाद ख़ानदान की बिन-ब्याही औरत ही हो सकती है। इसके बाद आख़िरी जुमले में कहा जाता है कि लड़की निकाह कर लेने के बाद अगर ज़िना करे तो उसको उस सज़ा से आधी सज़ा दी जाए जो ‘मुहसनात' को इस जुर्म पर मिलनी चाहिए। मौक़ा-महल साफ़ बताता है कि इस जुमले में भी मुहसनात का मतलब वही है जो पहले जुमले में था, यानी शादीशुदा औरत नहीं, बल्कि आज़ाद ख़ानदान की हिफ़ाज़त में रहनेवाली बिन-ब्याही औरत। इस तरह सूरा-4 निसा की ये दोनों आयतें मिलकर इस बात की तरफ़ इशारा कर देती हैं कि सूरा नूर का यह हुक्म जिसका वहाँ वादा किया गया था, ग़ैर-शादीशुदा लोगों के ज़िना कर बैठने की सज़ा बयान करता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-4 निसा, हाशिया-46)
(7) यह बात कि शादीशुदा होने पर ज़िना करने की सज़ा क्या है, क़ुरआन मजीद नहीं बताता, बल्कि इसकी जानकारी हमें हदीस से हासिल होती है। बहुत-सी भरोसेमन्द रिवायतों से साबित होता है कि नबी (सल्ल॰) ने न सिर्फ़ अपनी ज़बान से इसकी सज़ा रज्म (पत्थर मार-मारकर मार डालना) बयान की है, बल्कि अमली तौर से कई मुक़द्दमों में यही सज़ा लागू भी की है। फिर आप (सल्ल॰) के बाद आप (सल्ल॰) के चारों ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन ने अपने-अपने दौर में यही सज़ा लागू की और इसी के क़ानूनी सज़ा होने का बार-बार एलान किया। सहाबा किराम और ताबिईन इस मामले में एक राय थे। किसी एक शख़्स का भी कोई क़ौल (कथन) ऐसा मौजूद नहीं है जिससे यह नतीजा निकाला जा सके कि शुरू के दौर में किसी को इसके एक साबित-शुदा शरई हुक्म होने में कोई शक था। उनके बाद तमाम ज़मानों और देशों के इस्लामी फ़क़ीह (धर्मशस्त्री) इस बात पर एक राय रहे हैं कि यह एक साबित-शुदा सुन्नत है; क्योंकि इसके सही होने के इतने मुसलसल चले आ रहे और मज़बूत सुबूत मौजूद हैं जिनके होते कोई इल्म रखनेवाला इससे इनकार नहीं कर सकता। मुस्लिम उम्मत के पूरे इतिहास में सिवाय ख़ारिजियों और कुछ मुअतज़ला के किसी ने भी इससे इनकार नहीं किया है, और उनके इनकार की बुनियाद भी यह नहीं थी कि नबी (सल्ल॰) से इस हुक्म के सुबूत में वे किसी कमज़ोरी की निशानदेही कर सके हों, बल्कि वे इसे ‘क़ुरआन के ख़िलाफ़’ ठहराते थे। हालाँकि यह क़ुरआन को समझने में उनकी अपनी ग़लती थी। वे कहते थे कि क़ुरआन ‘अज़-ज़ानी वज़-ज़ानिया’ (ज़िना करनेवाला और ज़िना करनेवाली) के आम अलफ़ाज़ इस्तेमाल करके इसकी सज़ा सौ कोड़े बयान करता है। इसलिए क़ुरआन के मुताबिक़ हर तरह के ‘ज़ानी’ (व्यभिचारी) और ‘ज़ानिया’ (व्यभिचारिणी) की सज़ा यही है और इससे शादीशुदा ज़ानी को अलग करके उसकी कोई और सज़ा तय करना अल्लाह के क़ानून की ख़िलाफ़वर्ज़ी है। मगर उन्होंने यह नहीं सोचा कि क़ुरआन के अलफ़ाज़ जो क़ानूनी वज़्‌न रखते हैं, वही क़ानूनी वज़्‌न उनकी उस तशीरीह का भी है जो नबी (सल्ल॰) ने की हो; शर्त यह है कि वह आप (सल्ल॰) से साबित हो। क़ुरआन ने ऐसे ही आम अलफ़ाज़ में ‘अस-सारिक़ वस-सारिक़ा’ (चोर और चोरनी) का हुक्म भी हाथ काटना बयान किया है। इस हुक्म को अगर उन तशीरीहों (व्याख्याओं) के दायरे से अलग कर दिया जाए जो नबी (सल्ल॰) से साबित हैं तो इसके अलफ़ाज़ के आम होने का तक़ाज़ा यह है कि आप एक सूई या एक बेर की चोरी पर भी आदमी को ‘चोर’ ठहरा दें और फिर पकड़कर उसका हाथ कन्धे के पास से काट दें। दूसरी तरफ़ लाखों रुपये की चोरी करनेवाला भी अगर गिरफ़्तार होते ही कह दे कि मैंने अपने आप को सुधार लिया है और अब मैं चोरी से तौबा करता हूँ तो आपको उसे छोड़ देना चाहिए; क्योंकि क़ुरआन कहता है, ‘‘फिर जो ज़ुल्म करने के बाद तौबा करे और अपने को सुधार ले तो अल्लाह उसे माफ़ कर देगा।” (सूरा-5 माइदा, आयत-39) इसी तरह क़ुरआन सिर्फ़ दूध पिलानेवाली माँ और उस रिश्ते से हुई बहन का हराम होना बयान करता है, दूध के रिश्ते से हुई बेटी का हराम होना इस दलील के हिसाब से क़ुरआन के ख़िलाफ़ होना चाहिए। क़ुरआन सिर्फ़ दो बहनों के (एक के निकाह में) जमा करने से मना करता है। ख़ाला और भाँजी, और फूफी और भतीजी के जमा करने को जो शख़्स हराम कहे उसपर क़ुरआन के ख़िलाफ़ हुक्म लगाने का इलज़ाम लगना चाहिए। क़ुरआन सिर्फ़ उस हालत में सौतेली बेटी को हराम करता है जबकि उसने सौतेले बाप के घर में परवरिश पाई हो। पूरी तरह उसका हराम होना क़ुरआन के ख़िलाफ़ ठहरना चाहिए। क़ुरआन सिर्फ़ उस वक़्त रहन (गिरवी) की इजाज़त देता है जबकि आदमी सफ़र में हो और क़र्ज़ की दस्तावेज़ लिखनेवाला न मिले। अपने शहर में रहते हुए और लिखनेवाले के मुहैया होने की सूरत में रहन का जाइज़ होना क़ुरआन के ख़िलाफ़ होना चाहिए। क़ुरआन आम लफ़्ज़ों में हुक्म देता है, ‘‘गवाह बनाओ जबकि आपस में ख़रीद-फ़रोख़्त करो।” अब वह तमाम ख़रीद-फ़रोख़्त नाजाइज़ होनी चाहिए जो रात-दिन हमारी दुकानों पर गवाही के बिना हो रही है। ये सिर्फ़ कुछ मिसालें हैं जिनपर एक निगाह डाल लेने से ही उन लोगों की दलीलों की ग़लती मालूम हो जाती है जो ‘रज्म’ के हुक्म को क़ुरआन के ख़िलाफ़ कहते हैं। शरीअत के निज़ाम (व्यवस्था) में नबी का यह मंसब नाक़ाबिले-इनकार है कि वह ख़ुदा का हुक्म पहुँचाने के बाद हमें बताए कि इस हुक्म का मक़सद क्या है, इसपर अमल करने का तरीक़ा क्या है, इसे किन मामलों के लिए समझा जाए, और किन मामलों के लिए दूसरा हुक्म है। इस मंसब का इनकार सिर्फ़ दीन के उसूल ही के ख़िलाफ़ नहीं है, बल्कि इससे इतनी अमली ख़राबियाँ और पेचीदगियाँ पैदा होती हैं कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती। (8) क़ानूनी तौर पर जिना किसे कहते हैं, इस बात में इस्लामी आलिमों के बीच रायें अलग-अलग हैं। हनफ़ी मसलक के आलिम ज़िना के बारे में कहते हैं कि “एक मर्द का किसी ऐसी औरत से अगले हिस्से (योनि) में सोहबत (संभोग) करना जो न तो उसके निकाह या उसकी मिल्कियत में हो और न इस बात के शक की कोई मुनासिब वजह हो कि उसने उसे अपने निकाह में या अपनी लड़की समझते हुए उससे सोहबत की है।” इस राय के मुताबिक़ पिछले हिस्से में सोहबत करना, अमले-क़ौमे-लूत (मर्द के साथ मर्द का ताल्लुक़) जानवरों से सोहबत करना वग़ैरा ज़िना के दायरे से बाहर हो जाते हैं और सिर्फ़ औरत से अगले हिस्से में सोहबत करना ही ज़िना कहलाएगा जबकि शरई (क़ानूनी) हक़ या उसके शक के बिना यह काम किया गया हो। इसके बरख़िलाफ़ शाफ़िई मसलक के आलिम ज़िना के बारे में यूँ बयान करते हैं, “शर्मगाह को ऐसी शर्मगाह में दाख़िल करना जो शरई तौर पर हराम हो, मगर तबीअत जिसकी तरफ़ राग़िब (प्रवृत्त) हो सकती हो।” और मालिकी मसलक के आलिमों के नज़दीक ज़िना यह है, “शरई हक़ या उसके शक के बिना आगे या पीछे से मर्द या औरत से सोहबत करना।” इन दोनों रायों के मुताबिक़ अमले-क़ौमे-लूत (मर्द का मर्द के साथ सोहबत करना) भी ज़िना में शामिल हो जाता है। लेकिन सही बात यह है कि ये दोनों रायें ज़िना लफ़्ज़ के जाने-माने मानी से हटी हुई हैं। क़ुरआन मजीद हमेशा अलफ़ाज़ को उनके जाने-माने और आम मानी में इस्तेमाल करता है, सिवाय इसके कि वह किसी लफ़्ज़ को अपना ख़ास मानी दे रहा हो, और ख़ास मानी की सूरत में वह ख़ुद अपने ख़ास मतलब को ज़ाहिर कर देता है। यहाँ ऐसा कोई इशारा नहीं है कि लफ़्ज़ ज़िना को किसी ख़ास मानी में इस्तेमाल किया गया हो, लिहाज़ा उसे जाने-माने मतलब ही में लिया जाएगा, और वह औरत से फ़ितरी मगर नाजाइज़ ताल्लुक़ तक ही महदूद है, शहवत पूरी करने (वासनापूर्ति की दूसरी सूरतों पर लागू नहीं होता। इसके अलावा यह बात मालूम है कि अमले-क़ौमे-लूत (मर्द के साथ मर्द का ताल्लुक़) की सज़ा के बारे में सहाबा किराम के बीच इख़तिलाफ़ हुआ है। अगर इस काम का शुमार भी इस्लामी इस्तिलाह (परिभाषा) के मुताबिक़ ज़िना में होता तो ज़ाहिर है कि इख़्तिलाफ़ की कोई वजह न थी। (9) क़ानूनी तौर पर ज़िना के एक अमल को सज़ा के लायक़ ठहराने के लिए सिर्फ़ मर्द के लिंग के अगले हिस्से (सुपारी) का शर्मगाह में दाख़िल हो जाना काफ़ी है। पूरा दाख़िल करना या इस काम को पूरे तौर पर करना इसके लिए ज़रूरी नहीं है। इसके बरख़िलाफ़ अगर मर्द की सुपारी शर्मगाह में दाख़िल न हो तो सिर्फ़ एक बिस्तर पर एक साथ पाया जाना, या एक-दूसरे से खेलते हुए देखा जाना, या बिना कपड़ों की हालत में पाया जाना किसी को ज़ानी (व्यभिचारी) क़रार देने के लिए काफ़ी नहीं है और इस्लामी शरीअत इस हद तक भी नहीं जाती कि कोई जोड़ा ऐसी हालत में पाया जाए तो उसका मेडिकल चेकअप कराके ज़िना का सुबूत जुटाया जाए और फिर उसे ज़िना की सज़ा दी जाए। जो लोग इस तरह की बेहयाई में मुब्तला पाए जाएँ, उनपर सिर्फ़ वह सज़ा है जिसका फ़ैसला हालात के लिहाज़ से जज ख़ुद करेगा, या जिसके लिए इस्लामी हुकूमत की मजलिसे-शूरा (सलाहकार समिति) कोई सज़ा तय करेगी। यह सज़ा अगर कोड़ों की शक्ल में हो तो दस कोड़ों से ज़्यादा नहीं लगाए जा सकते, क्योंकि हदीस में साफ़ तौर से कहा गया है, “अल्लाह की मुक़र्रर की हुई सज़ाओं के सिवा किसी और जुर्म में दस कोड़ों से ज़्यादा न मारे जाएँ।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद) और अगर कोई शख़्स पकड़ा न गया हो, बल्कि ख़ुद शर्मिन्दा होकर ऐसे किसी क़ुसूर को क़ुबूल करे तो उसके लिए सिर्फ़ तौबा की नसीहत काफ़ी है। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने बयान किया है कि एक शख़्स ने हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि “शहर के बाहर मैं एक औरत से सब कुछ कर गुज़रा सिवाय सोहबत के। अब आप जो चाहे मुझे सज़ा दें।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा, “जब ख़ुदा ने परदा डाल दिया था तो तू भी परदा पड़ा रहने देता।” नबी (सल्ल०) चुप रहे और यह शख़्स चला गया। फिर आप (सल्ल०) ने उसे वापस बुलाया और यह आयत पढ़ी, “नमाज़ क़ायम करो दिन के दोनों किनारों पर और कुछ रात गुज़रने पर। बेशक नेकियाँ बुराइयों को दूर कर देती हैं।” (सूरा-11 हूद, आयत-114) एक आदमी ने पूछा, “क्या यह इसी के लिए ख़ास है?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, सबके लिए है।” (हदीस : मुस्लिम, तिरमिजी, अबू-दाऊद, नसई) यही नहीं, बल्कि शरीअत इसको भी जाइज़ नहीं रखती कि कोई शख़्स अगर जुर्म को खोलकर बयान किए बिना अपने मुजरिम होने का इक़रार करे तो खोज लगाकर उससे पूछा जाए कि तूने कौन-सा जुर्म किया है। नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में एक आदमी ने हाज़िर होकर अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं सज़ा (हद) का हक़दार हो गया हूँ। मुझपर सज़ा (हद) जारी फ़रमाइए।” मगर आप (सल्ल०) ने उससे नहीं पूछा कि तूने क्या गुनाह किया है। फिर नमाज़ पढ़ चुकने के बाद वह आदमी फिर उठा और कहने लगा, “मैं मुजरिम हूँ, मुझे सज़ा दीजिए।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या तूने अभी हमारे साथ नमाज़ नहीं पढ़ी है?” उसने कहा, “जी हाँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बस तो अल्लाह ने तेरा क़ुसूर माफ़ कर दिया।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद) (10) किसी शख़्स (मर्द या औरत) को मुजरिम ठहराने के लिए सिर्फ़ यह बात काफी नहीं है कि उससे ज़िना का काम हुआ है, बल्कि इसके लिए मुजरिम में कुछ शर्ते पाई जानी चाहिएँ ये शतें सिर्फ़ ज़िना के मामले में और हैं, शादीशुदा होने के बावजूद ज़िना करने के मामले में और। सिर्फ़ ज़िना के मामले में शर्त यह है कि मुजरिम समझदार और बालिग़ हो। अगर किसी पागल या किसी बच्चे से यह ग़लती हो जाए तो वह ज़िना की सज़ा का हक़दार नहीं है। और शादीशुदा होकर ज़िना करनेवाले के लिए समझदार और बालिग़ होने के अलावा कुछ और शर्ते हैं जिनको हम नीचे बयान करते हैं— पहली शर्त यह है कि मुजरिम आज़ाद हो। इस शर्त पर सबकी एक राय है, क्योंकि क़ुरआन ख़ुद इशारा करता है कि ग़ुलाम को रज्म (संगसारी) की सज़ा नहीं दी जाएगी। अभी यह बात गुज़र चुकी है कि लौंडी अगर निकाह के बाद ज़िना कर बैठे तो उसे ग़ैर-शादीशुदा आज़ाद औरत के मुक़ाबले में आधी सज़ा देनी चाहिए। फ़क़ीहों ने इसे माना है कि क़ुरआन का यही क़ानून ग़ुलाम पर भी लागू होगा। दूसरी शर्त यह है कि मुजरिम बाक़यदा शादीशुदा हो। इस शर्त पर भी सब एक राय हैं, और इस शर्त के मुताबिक़ कोई ऐसा शख़्स जो मालिकाना हक़ की बुनियाद पर ताल्लुक़ कायम कर चुका हो, या जिसका निकाह किसी ग़लत तरीक़े से हुआ हो, शादीशुदा न माना जाएगा, यानी उससे अगर ज़िना हो जाए तो उसको रज्म की नहीं, बल्कि कोड़ों की सज़ा दी जाएगी। तीसरी शर्त यह है कि उसका सिर्फ़ निकाह ही न हुआ हो, बल्कि निकाह के बाद जिस्मानी ताल्लुक़ भी क़ायम हो चुका हो। सिर्फ़ निकाह का बन्धन किसी मर्द को 'मुहसिन’ (सुरक्षा देनेवाला), या औरत को 'मुहसना' (सुरक्षित) नहीं बना देता कि ज़िना कर बैठने की सूरत में उसको संगसार कर दिया जाए। इस शर्त पर भी ज़्यादातर फ़क़ीह एक राय हैं। मगर इमाम अबू-हनीफ़ा और इमाम मुहम्मद इसमें इतना इज़ाफ़ा और करते हैं कि एक मर्द या एक औरत को मुहसिन/मुहसना सिर्फ़ उसी सूरत में ठहराया जाएगा जबकि निकाह और जिस्मानी ताल्लुक़ के वक़्त मियाँ-बीवी आज़ाद, बालिग़ और समझदार हों। इस शर्त से जो फ़र्क़ पड़ता है वह यह है कि अगर एक मर्द का निकाह एक ऐसी औरत से हुआ हो जो लौंडी हो, या नाबालिग़ हो, या पागल हो तो चाहे वह इस हालत में अपनी बीवी से लज़्ज़त ले भी चुका हो, फिर भी वह ज़िना कर बैठने की हालत में संगसार किए जाने का हक़दार न होगा। यही मामला औरत का भी है कि अगर उसको अपने नाबालिग़ या पागल या ग़ुलाम शौहर से लज़्ज़त पाने का मौक़ा मिल चुका हो, फिर भी वह ज़िना कर बैठने की हालत में रज्म की हक़दार न होगी। ग़ौर किया जाए तो महसूस होता है कि यह एक बहुत ही मुनासिब इज़ाफ़ा है जो इन दोनों दूरअन्देश बुज़ुर्गों ने किया है। चौथी शर्त यह है कि मुजरिम मुसलमान हो। इसमें फ़क़ीहों के बीच इख़्तिलाफ़ है। इमाम शाफ़िई, इमाम अबू-यूसुफ़ और इमाम अहमद इसको नहीं मानते। उनके नज़दीक ज़िम्मी (इस्लामी राज्य में रहनेवाला ग़ैर-मुस्लिम) भी अगर शादीशुदा होते हुए ज़िना कर बैठे तो रज्म (संगसार) किया जाएगा। लेकिन इमाम अबू-हनीफ़ा और इमाम मालिक इस बात पर एक राय है कि शादीशुदा के ज़िना कर बैठने की सज़ा रज्म सिर्फ़ मुसलमान के लिए है। इसकी दलीलों में सबसे ज़्यादा मुनासिब और वज़नी दलील यह है कि एक आदमी को संगसारी जैसी भयानक सज़ा देने के लिए ज़रूरी है कि वह पूरी तरह 'एहसान’ (सुरक्षा) की हालत में हो और फिर भी ज़िना करने से बाज़ न आए। 'एहसान' का मतलब है ‘अख़लाक़ी क़िला-बन्दी' और यह तीन घेरों से पूरा होता है। सबसे पहला घेरा यह है कि आदमी ख़ुदा पर ईमान रखता हो, आख़िरत की जवाबदेही और अल्लाह की शरीअत को मानता हो। दूसरा घेरा यह है कि वह समाज का आज़ाद सदस्य हो, किसी दूसरे की ग़ुलामी में न हो जिसकी पाबन्दियाँ उसे अपनी ख़ाहिशों को पूरा करने के लिए जाइज़ तदबीरें अपनाने में रुकावट बनती हैं, और लाचारी और मजबूरी उससे गुनाह करा सकती है, और कोई ख़ानदान उसे अपने अख़लाक़ और अपनी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त में मदद देनेवाला नहीं होता। तीसरा घेरा यह है कि उसका निकाह हो चुका हो और उसे नफ़्स (मन) की तसकीन (सन्तुष्टि) का जाइज़ ज़रिआ हासिल हो। ये तीनों घेरे जब पाए जाते हैं, तब 'क़िला-बन्दी' पूरी होती है और तब ही वह शख़्स सही तौर पर संगसारी का हक़दार ठहर सकता है जिसने नाजाइज़ शहवत पूरी करने के लिए तीन-तीन घेरे तोड़ डाले। लेकिन जहाँ पहला और सबसे बड़ा घेरा, यानी ख़ुदा और आख़िरत और ख़ुदा के क़ानून पर ईमान ही मौजूद न हो, वहाँ यक़ीनी तौर पर क़िला-बन्दी मुकम्मल नहीं है और इस वजह से फ़ुजूर (अल्लाह का क़ानून तोड़ने) का जुर्म भी उस शिद्दत को पहुँचा हुआ नहीं है जो उसे इन्तिहाई सज़ा का हक़दार बना दे। इस दलील की ताईद (समर्थन) इब्ने-उमर (रज़ि०) की वह रिवायत करती है जिसे इसहाक़-बिन-राहवया ने अपनी 'मुसनद' में और दारे-क़ुतनी ने अपनी 'सुनन' में नक़्ल किया है कि “जिसने अल्लाह के साथ शिर्क किया, वह मुहसन नहीं है।” अगरचे इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि क्या इब्ने-उमर (रज़ि०) ने इस रिवायत में नबी (सल्ल०) का क़ौल नक़्ल किया है या यह उनका अपना फ़तवा है। लेकिन इस कमज़ोरी के बावजूद इसका मज़मून अपने मतलब के लिहाज़ से निहायत मज़बूत है। इसके जवाब में अगर यहूदियों के उस मुक़द्दमे से दलील लाई जाए जिसमें नबी (सल्ल०) ने रज्म का हुक्म लागू किया था तो हम कहेंगे कि वह दलील सही नहीं है। इसलिए कि उस मुक़द्दमे के बारे में तमाम भरोसेमन्द रिवायतों को जमा करने से साफ़ मालूम होता है कि उसमें नबी (सल्ल०) ने उनपर इस्लाम का मुल्की क़ानून (Law of the Land) नहीं, बल्कि उनका अपना मज़हबी क़ानून (Personal Law) लागू किया था बुख़ारी और मुस्लिम दोनों में यह रिवायत है कि जब यह मुक़द्दमा आप (सल्ल०) के पास लाया गया तो आपने यहूदियों से पूछा, “तुम्हारी किताब तौरात में इसका क्या हुक्म है?” फिर जब यह बात साबित हो गई कि उनके यहाँ रज्म का हुक्म है तो नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैं वही फ़ैसला करता हूँ जो तौरात में है।” और एक दूसरी रिवायत में है कि आप (सल्ल०) ने इस मुक़्द्दमे का फ़ैसला करते हुए फ़रमाया, “ऐ अल्लाह, मैं पहला शख़्स हूँ जिसने तेरे हुक्म को ज़िन्दा किया जबकि उन्होंने इसे मुर्दा कर दिया था।” (हदीस : मुस्लिम अबू-दाऊद, अहमद) (11) ज़िना करनेवाले को मुजरिम ठहराने के लिए यह भी ज़रूरी है कि उसने अपनी आज़ाद मरज़ी से यह काम किया हो। ज़ोर-ज़बरदस्ती से अगर किसी शख़्स को इस काम पर मजबूर किया गया हो तो वह न मुजरिम है, न सज़ा का हक़दार। इस मामले में शरीअत का सिर्फ़ यह आम क़ायदा ही लागू नहीं होता कि “आदमी ज़बरदस्ती कराए गए कामों की ज़िम्मेदारी से बरी है,” बल्कि आगे चलकर इसी सूरा में ख़ुद क़ुरआन उन औरतों की माफ़ी का एलान करता है जिनको ज़िना पर मजबूर किया गया हो। साथ ही कई हदीसों में साफ़-साफ़ बयान हुआ है कि ज़ोर-ज़बरदस्ती से ज़िना (बलात्कार) की सूरत में सिर्फ़ ज़ोर-ज़बरदस्ती करनेवाले को सज़ा दी गई और जिसपर ज़ोर-ज़बरदस्ती की गई थी, उसे छोड़ दिया गया। तिरमिज़ी और अबू-दाऊद की रिवायत है कि एक औरत अंधेरे में नमाज़ के लिए निकली। रास्ते में एक आदमी ने उसको गिरा लिया और ज़बरदस्ती उसकी इज़्ज़त लूटी। उसके शोर मचाने पर लोग आ गए और मुजरिम पकड़ा गया। नबी (सल्ल०) ने उसको संगसार करा दिया और औरत को छोड़ दिया। बुख़ारी की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के ज़माने में एक आदमी ने एक लड़की की ज़ोर-ज़बरदस्ती से इज़्ज़त लूटी। हज़रत उमर (रज़ि०) ने उसे कोड़े लगवाए और लड़की को छोड़ दिया। इन दलीलों की बुनियाद पर औरत के मामले में जो क़ानून है उसपर सब एक राय हैं, लेकिन इख़्तिलाफ़ इस बात में है कि क्या मर्द के मामले में भी ज़ोर-ज़बरदस्ती का एतिबार किया जाएगा या नहीं? इमाम अबू-युसुफ़ (रह०), इमाम मुहम्मद (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम हसन-बिन-सॉलिह (रह०) कहते हैं कि मर्द भी अगर ज़िना करने पर मजबूर किया गया हो तो माफ़ किया जाएगा। इमाम जुफ़र (रह०) कहते हैं कि उसे माफ़ नहीं किया जाएगा, क्योंकि वह इस काम को इसके बग़ैर नहीं कर सकता जब कि उसके ख़ास हिस्से (अंग) में तनाव पैदा न हो और उसमें तनाव और जोश पैदा होना इस बात की दलील है कि उसकी अपनी शहवत (जिंसी ख़ाहिश) इसका सबब हुई थी। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) कहते हैं कि अगर हुकूमत या उसके किसी अधिकारी ने आदमी को ज़िना पर मजबूर किया हो तो सज़ा नहीं दी जाएगी; क्योंकि जब ख़ुद हुकूमत ही जुर्म पर मजबूर करनेवाली हो तो उसे सज़ा देने का हक़ नहीं रहता। लेकिन अगर हुकूमत के सिवा किसी और ने मजबूर किया हो तो ज़िना करनेवाले को सज़ा दी जाएगी, क्योंकि ज़िना बहरहाल वह अपनी शहवत (कामोत्तेजना) के बिना नहीं कर सकता था, और शहवत ज़बरदस्ती पैदा नहीं की जा सकती। इन तीनों बातों में से पहली बात ही ज़्यादा सही है, और इसकी दलील यह है कि ज़िना करनेवाले के ख़ास हिस्से (अंग) का तनाव चाहे जिंसी ख़ाहिश की दलील हो, मगर मरज़ी और चाहत की लाज़िमी दलील नहीं है। मान लीजिए कि एक ज़ालिम किसी शरीफ़ आदमी को ज़बरदस्ती पकड़कर क़ैद कर देता है और उसके साथ एक जवान, ख़ूबसूरत औरत को भी बेलिबास करके एक ही कमरे में बन्द रखता है और उसे उस वक़्त तक रिहा नहीं करता जब तक वह बदकारी न कर गुज़रे। इस हालत में अगर ये दोनों ज़िना कर बैठते हैं और वह ज़ालिम उसके चार गवाह बनाकर उन्हें अदालत में पेश कर दे तो क्या यह इनसाफ़ होगा कि उनके हालात को नज़र-अन्दाज़ करके उन्हें संगसार कर दिया जाए या उनपर कोड़े बरसाए जाएँ। इस तरह के हालात अक़्ली या फ़ितरी तौर पर मुमकिन हैं जिनमें शहवत (काम-वासना) पैदा हो सकती है, बिना इसके कि उसमें आदमी की अपनी मरज़ी या ख़ाहिश का दख़ल हो। अगर किसी शख़्स को क़ैद करके शराब के सिवा पीने को कुछ न दिया जाए, और इस हालत में वह शराब पी ले तो क्या सिर्फ़ इस दलील से उसको सज़ा दी जा सकती है कि हालात तो सचमुच उसके लिए मजबूरी के थे, मगर हलक़ से शराब का घूँट वह अपने इरादे के बिना न उतार सकता था? जुर्म साबित होने के लिए सिर्फ़ इरादे का पाया जाना काफ़ी नहीं है, बल्कि इसके लिए आज़ाद इरादा ज़रूरी है। जो शख़्स ज़बरदस्ती ऐसे हालात में मुब्तला किया गया हो कि वह जुर्म का इरादा करने पर मजबूर हो जाए, वह कुछ सूरतों में तो बिलकुल मुजरिम नहीं होता, और कुछ सूरतों में उसका जुर्म बहुत हलका हो जाता है। (12) इस्लामी क़ानून हुकूमत के सिवा किसी को यह इख़्तियार नहीं देता कि वह ज़ानी (व्यभिचारी) और ज़ानिया (व्यभिचारिणी) के ख़िलाफ़ कार्रवाई करे, और अदालत के सिवा किसी को यह हक़ नहीं देता कि वह इसपर सज़ा दे। इस बात पर पूरी उम्मत के उलमा और फ़क़ीह एक राय हैं कि इस आयत में जिसपर इस वक़्त बात हो रही है, “इनको कोड़े मारो” का हुक्म आम लोगों को नहीं, बल्कि इस्लामी हुकूमत के अधिकारियों और जजों को दिया गया है। अलबत्ता ग़ुलाम के बारे में इख़्तिलाफ़ है कि उसपर उसका मालिक सज़ा जारी कर सकता है या नहीं। हनफ़ी मसलक के तमाम आलिम इसपर एक राय हैं कि ग़ुलाम के मालिक को सज़ा देने का इख़्तियार नहीं है। शाफ़िई उलमा कहते हैं कि उसको इख़्तियार है। और मालिकी मसलक के उलमा कहते हैं कि ग़ुलाम के मालिक को चोरी की सज़ा में हाथ काटने का तो हक़ नहीं है, मगर ज़िना, क़ज़्फ़ (तुहमत लगाने) और शराब पीने पर वह सज़ा (इस्लाम की बताई हुई सज़ा) जारी कर सकता है। (13) इस्लामी क़ानून ज़िना की सज़ा को मुल्क के क़ानून का एक हिस्सा क़रार देता है, इसलिए मुल्क की तमाम जनता पर यह हुक्म जारी होगा, चाहे वह मुस्लिम हो या ग़ैर-मुस्लिम इससे इमाम मालिक के सिवा शायद फ़ुक़हा में से किसी ने इख़तिलाफ़ नहीं किया है रज्म की सज़ा ग़ैर-मुस्लिमों पर जारी करने में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) का इख़तिलाफ़ इस बुनियाद पर नहीं है कि यह मुल्क का क़ानून नहीं है, बल्कि इस बुनियाद पर है कि उनके नज़दीक रज्म की शर्तों में से एक शर्त ज़िना करनेवाले का पूरा मुहसिन होना है और एहसान की तकमील (पूर्णता) इस्लाम के बिना नहीं होती, इस वजह से वह ज़िना करनेवाले ग़ैर-मुस्लिम को रज्म की सज़ा से अलग कर देते हैं। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक यह हुक्म मुसलमानों के लिए है, न कि ग़ैर मुस्लिमों के लिए। इसलिए वह ज़िना की सज़ा को मुसलमानों के निजी क़ानून (Personal Law) का एक हिस्सा क़रार देते हैं। रहा ‘मुस्तामन’ (जो किसी दूसरे देश से इस्लामी मुल्क में इजाज़त लेकर आया हो) तो इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) के नज़दीक वह भी अगर दारुल-इस्लाम (इस्लामी राज्य) में ज़िना करे तो उसपर हद (सज़ा) जारी की जाएगी। लेकिन इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम मुहम्मद कहते हैं कि उसपर सज़ा जारी नहीं कर सकते। (14) इस्लामी क़ानून यह लाज़िम नहीं करता कि कोई शख़्स अपने जुर्म का ख़ुद इक़रार करे, या जो लोग किसी शख़्स के ज़िना के जुर्म को जानते हों, वे ज़रूर ही इसकी ख़बर हाकिमों तक पहुँचाएँ। अलबत्ता जब हाकिम को इसकी ख़बर हो जाए तो फिर इस जुर्म के लिए माफ़ी की कोई गुंजाइश नहीं है। हदीस में आता है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुममें से जो शख़्स इन गन्दे कामों में से कोई काम कर बैठे तो अल्लाह के डाले हुए परदे में छिपा रहे। लेकिन अगर वह हमारे सामने अपना परदा खोलेगा तो हम उसपर अल्लाह की किताब का क़ानून लागू करके छोड़ेंगे।” (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) अबू-दाऊद में है कि माइज़-बिन-मालिक असलमी जब ज़िना कर बैठे तो हज़्ज़ाल-बिन-नुऐम ने उनसे कहा कि जाकर नबी (सल्ल०) के सामने अपने इस जुर्म को क़ुबूल कर लो। चुनाँचे उन्होंने जाकर नबी (सल्ल०) से अपना जुर्म बयान कर दिया। इसपर नबी (सल्ल०) ने एक तरफ़ तो उन्हें रज्म की सज़ा दी और दूसरी तरफ़ हज़्ज़ाल से फ़रमाया, “काश, तुम उसका परदा ढाँक देते तो तुम्हारे लिए ज़्यादा अच्छा था!” अबू-दाऊद और नसई में एक और हदीस है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “सज़ाओं को आपस ही में माफ़ कर दिया करो। मगर जिस सज़ा (यानी ऐसा जुर्म जिसपर सज़ा ज़रूरी हो) का मामला मुझ तक पहुँच जाएगा, फिर वह वाजिब हो जाएगी।" (15) इस्लामी क़ानून में यह जुर्म ऐसा नहीं है जिसपर दोनों फ़रीक़ों (पक्षों) के बीच समझौता हो जाए। हदीस की लगभग तमाम किताबों में यह वाक़िआ मौजूद है कि एक लड़का एक शख़्स के यहाँ मज़दूरी पर काम करता था और वह उसकी बीवी से ज़िना कर बैठा। लड़के के बाप ने सौ बकरियों और एक लौंडी देकर उस शख़्स को राज़ी किया। मगर जब यह मुक़द्दमा नबी (सल्ल०) के पास आया तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तेरी बकरियाँ और तेरी लौंडी तुझी को वापस,” और फिर आप (सल्ल०) ने ज़िना करनेवाले लड़के और औरत दोनों पर हद (सज़ा) जारी फ़रमा दी। इससे सिर्फ़ यही नहीं मालूम होता कि इस जुर्म में राज़ीनामे की कोई गुंजाइश नहीं, बल्कि यह भी मालूम होता है कि इस्लामी क़ानून में इस्मतों (अस्मिताओं) का मुआवज़ा माली हर्जानों की शक्ल में नहीं दिलवाया जा सकता। आबरू की क़ीमत का यह शर्मनाक तसव्वुर (परिकल्पना) मग़रिबी (पश्चिमी) क़ानूनों ही को मुबारक रहे। (16) इस्लामी हुकूमत किसी शख़्स के ख़िलाफ़ ज़िना के जुर्म में कोई कार्रवाई न करेगी जब तक कि उसके जुर्म का सुबूत न मिल जाए। जुर्म के सुबूत के बिना किसी की बदकारी चाहे कितने ही ज़रिओं से अधिकारियों की जानकारी में हो, वे बहरहाल उसपर सज़ा जारी नहीं कर सकते। मदीना में एक औरत थी जिसके बारे में रिवायतें हैं कि वह खुली-खुली बेहया और बदकार औरत थी। बुख़ारी की एक रिवायत में है, “इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी वह बदकारी करती फिरती थी।” दूसरी रिवायत में है, “इस्लाम क़ुबूल करने के बाद भी वह अलानिया बदकारी करती थी।” इब्ने-माजा की रिवायत है, “उसकी बातचीत और हावभाव से शक हो गया था और कौन उसके पास आता है (यह भी उसको शक के घेरे में लाता है)।” लेकिन चूँकि उसके ख़िलाफ़ बदकारी का सुबूत न था, इसलिए उसे कोई सज़ा न दी गई हालाँकि उसके बारे में नबी (सल्ल०) की ज़बान से ये अलफ़ाज़़ तक निकल गए थे कि "अगर मैं सुबूत के बिना रज्म करनेवाला होता तो इस औरत को ज़रूर रज्म करा देता।” (17) ज़िना के जुर्म का पहला मुमकिन सुबूत यह है कि गवाही उसपर क़ायम हो। इसके बारे में क़ानून के अहम हिस्से ये हैं— (क) क़ुरआन साफ़ बयान करता है कि ज़िना के लिए कम-से-कम चार चश्मदीद गवाह होने चाहिएँ। इसको सूरा निसा-4 आयत-15 में बयान किया जा चुका है और आगे इसी सूरा नूर में भी दो जगह बयान किया जा रहा है। गवाही के बिना क़ाज़ी (न्यायाधीश) सिर्फ़ अपनी जानकारी की बुनियाद पर फ़ैसला नहीं कर सकता, चाहे वह अपनी आँखों से जुर्म होते हुए देख चुका हो। (ख) गवाह ऐसे लोग होने चाहिएँ जो इस्लामी क़ानूनी गवाही के मुताबिक़ भरोसे के लायक़ हों। मसलन यह कि वे पहले किसी मुक़द्दमे में झूठे गवाह साबित न हो चुके हों, ख़ियानत (ख़ुर्द-बुर्द) करनेवाले न हों, पहले के सज़ा पाए हुए न हों, मुलज़िम से उनकी दुश्मनी साबित न हो, वग़ैरा। बहरहाल नाक़ाबिले-भरोसा गवाही की बुनियाद पर न तो किसी को रज्म किया जा सकता है और न किसी की पीठ पर कोड़े बरसाए जा सकते हैं। (ग) गवाहों को इस बात की गवाही देनी चाहिए कि उन्होंने मुलज़िम और मुलज़िमा को ठीक सोहबत की हालत में देखा है, यानी “इस तरह जैसे सुर्मेदानी में सलाई और कुँए में रस्सी।” (घ) गवाहों को इस बात में एक होना चाहिए कि उन्होंने कब, कहाँ, किसको, किससे ज़िना करते देखा है। इन बुनियादी बातों में इख़तिलाफ़ उनकी गवाही को ख़त्म कर देता है। गवाही की ये शर्तें ख़ुद ज़ाहिर कर रही हैं कि इस्लामी क़ानून का मक़सद यह नहीं है कि टकटकियाँ लगी हों और रोज़ लोगों की पीठों पर कोड़े बरसते रहें, बल्कि वह ऐसी हालत ही में यह सख़्त सज़ा देता है जबकि तमाम सुधार और रोकथाम की तदबीरों के बावजूद इस्लामी समाज में कोई जोड़ा ऐसा बेहया हो कि चार-चार आदमी उसको जुर्म करते देख लें। (18) इस बात में उलमा के बीच इख़्तिलाफ़ है कि क्या सिर्फ़ हमल (गर्भ) का पाया जाना जबकि औरत का कोई शौहर, या लड़की का कोई मालिक लोगों के इल्म और जानकारी में न हो ज़िना के सुबूत के लिए क़रीने की गवाही (परिस्थितिजन्य साक्ष्य) के तौर पर काफ़ी है या नहीं। हज़रत उमर (रज़ि०) की राय यह है कि यह औरत के मुजरिम होने के लिए काफ़ी (पर्याप्त) सुबूत है और इसी को मालिकी उलमा ने अपनाया है। मगर ज़्यादातर फ़क़ीहों की राय यह है कि सिर्फ़ हमल इतना मज़बूत सुबूत नहीं है कि इसकी बुनियाद पर किसी को रज्म (संगसार) कर दिया जाए या किसी की पीठ पर सौ कोड़े बरसा दिए जाएँ। इतनी बड़ी सज़ा देने के लिए ज़रूरी है कि या तो गवाही मौजूद हो, या फिर इक़रार। इस्लामी क़ानून के बुनियादी उसूलों में से एक यह है कि शक का फ़ायदा मुलज़िम को मिलना चाहिए यानी शक की बुनियाद पर किसी को सज़ा देने के बजाय उसे माफ़ करना चाहिए नबी (सल्ल०) का इरशाद है कि “सज़ाओं को टालो, जहाँ तक भी उन्हें टालने की गुंजाइश पाओ।” (हदीस : इब्ने-माजा) एक दूसरी हदीस में है, “मुसलमानों से सज़ाओं को दूर रखो, जहाँ तक भी मुमकिन हो। अगर किसी मुलज़िम के लिए सज़ा से बचने का कोई रास्ता निकलता है तो उसे छोड़ दो, क्योंकि हाकिम का माफ कर देने में ग़लती कर जाना इससे बेहतर है कि वह सज़ा देने में ग़लती कर जाए।” (हदीस : तिरमिज़ी) इस क़ायदे के लिहाज़ से हमल की मौजूदगी, चाहे शक के लिए कितनी ही मज़बूत बुनियाद हो ज़िना का यक़ीनी सुबूत बहरहाल नहीं है, इसलिए कि लाख में एक दरजे की हद तक इस बात का भी इमकान है कि मर्द से जिस्मानी ताल्लुक़ बनाए बिना किसी औरत के पेट में किसी मर्द के नुत्फ़े (वीर्य) का कोई जुज़ (अंश) पहुँच जाए और वह हामिला (गर्भवती) हो जाए। इतने हलके-से शक का इमकान भी इसके लिए काफ़ी होना चाहिए कि मुलज़िमा को ज़िना की भयानक सज़ा से माफ़ रखा जाए। (19) इस बात में भी उलमा के बीच इख़्तिलाफ़ है कि अगर ज़िना के गवाहों में इख़्तिलाफ़ हो जाए, या और किसी वजह से उनकी गवाहियों से जुर्म साबित न हो तो क्या उलटे गवाह झूठे इलज़ाम की सज़ा पाएँगे? फ़कीहों का एक गरोह कहता है कि इस सूरत में वे क़ाज़िफ़ (झूठा इलज़ाम लगानेवाले) ठहरेंगे और उन्हें 80 कोड़ों की सज़ा दी जाएगी। दूसरा गरोह कहता है कि उनको सज़ा नहीं दी जाएगी, क्योंकि वे गवाह की हैसियत से आए हैं, न कि मुद्दई की हैसियत से। और अगर इस तरह गवाहों को सज़ा दी जाए तो फिर ज़िना की गवाही हासिल होने का दरवाज़ा ही बन्द हो जाएगा। आख़िर किसकी शामत ने धक्का दिया है कि सज़ा का ख़तरा मोल लेकर गवाही देने आए, जबकि इस बात का यक़ीन किसी को भी नहीं हो सकता कि चारों गवाहों में से कोई टूट न जाएगा। हमारे नज़दीक यही दूसरी राय मुनासिब है, क्योंकि शक का फ़ायदा जिस तरह मुलज़िम को मिलना चाहिए, उसी तरह गवाहों को भी मिलना चाहिए। अगर उनकी गवाही की कमज़ोरी इस बात के लिए काफ़ी नहीं है कि मुलज़िम को ज़िना की खौफ़नाक सज़ा दे डाली जाए तो इसे इस बात के लिए भी काफ़ी न होना चाहिए कि गवाहों पर क़ज़्फ़ (झूठा इलज़ाम लगाने) की भयानक सज़ा बरसा दी जाए, सिवाय इसके कि उनका साफ़ तौर से झूठा होना साबित हो जाए। पहली राय की ताईद में दो बड़ी दलीलें दी जाती हैं। एक यह कि क़ुरआन ज़िना की झूठी तुहमत को सज़ा का हक़दार ठहराता है। लेकिन यह दलील इसलिए ग़लत है कि क़ुरआन ख़ुद क़ाज़िफ़ (तुहमत लगानेवाले) और गवाह के बीच फ़र्क़ कर रहा है, और गवाह सिर्फ़ इस बुनियाद पर क़ाज़िफ़ नहीं ठहराया जा सकता कि अदालत ने उसकी गवाही को जुर्म के सुबूत के लिए काफ़ी नहीं पाया। दूसरी दलील यह दी जाती है कि मुग़ीरा-बिन-शोबा के मुक़द्दमे में हज़रत उमर (रज़ि०) ने अबू-बकरा और उनके दो साथी गवाहों को क़ज़्फ़ की सज़ा दी थी। लेकिन इस मुक़द्दमे की पूरी तफ़सीलात देखने से मालूम हो जाता है कि यह मिसाल हर उस मुक़द्दमे पर चस्पाँ नहीं होती जिसमें जुर्म के सुबूत के लिए गवाहियाँ ना-काफ़ी पाई जाएँ। मुक़द्दमे के वाक़िआत ये हैं कि बसरा के गवर्नर मुग़ीरा-बिन-शोबा से अबू-बकरा के ताल्लुक़ात पहले से ख़राब थे। दोनों के मकान एक ही सड़क पर आमने-सामने थे एक दिन अचानक हवा के ज़ोर से दोनों के कमरों की खिड़कियाँ खुल गईं। अबू-बकरा अपनी खिड़की बन्द करने के लिए उठे तो उनकी निगाह सामने के कमरे पर पड़ी और उन्होंने हज़रत मुग़ीरा को एक औरत के साथ सोहबत करते हुए देखा। अबू-बकरा के पास उनके तीन दोस्त (नाफ़िअ-बिन-कलदा ज़ियाद और शिब्ल-बिन-माबद) बैठे थे। उन्होंने कहा कि आओ, देखो और गवाह रहो कि मुग़ीरा क्या कर रहे हैं। दोस्तों ने पूछा, “यह औरत कौन है?” अबू-बकरा ने कहा, “उम्मे-जमील।” दूसरे दिन इसकी शिकायत हज़रत उमर (रज़ि०) के पास भेजी गई। उन्होंने फ़ौरन हज़रत मुग़ीरा को उनके ओहदे से हटाकर हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) को बसरा का गवर्नर मुक़र्रर किया और मुलज़िम को गवाहों समेत मदीना तलब कर लिया। पेशी पर अबू-बकरा और दो गवाहों ने कहा कि “हमने मुग़ीरा को उम्मे-जमील के साथ अमली तौर से सोहबत करते देखा।” मगर ज़ियाद ने कहा कि “औरत साफ़ नज़र नहीं आती थी और मैं यक़ीन से नहीं कह सकता कि वह उम्मे-जमील थी।” मुग़ीरा-बिन-शोबा ने जिरह में यह साबित कर दिया कि जिस रुख़ से ये लोग उन्हें देख रहे थे उससे देखनेवाला औरत को अच्छी तरह नहीं देख सकता था। उन्होंने यह भी साबित किया कि उनकी बीवी और उम्मे-जमील की शक्ल एक-दूसरे से बहुत मिलती-जुलती है। हालात ख़ुद बता रहे थे कि हज़रत उमर (रज़ि०) की हुकूमत में, एक सूबे का गवर्नर, ख़ुद अपने सरकारी मकान में, जहाँ उसकी बीवी उसके साथ रहती है, एक और औरत को बुलाकर ज़िना नहीं कर सकता था। इसलिए अबू-बकरा और उनके साथियों का यह समझना कि मुग़ीरा अपने घर में अपनी बीवी के बजाय उम्मे-जमील से सोहबत कर रहे हैं, एक निहायत नामुनासिब बदगुमानी के सिवा और कुछ न था। यही वजह है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने सिर्फ़ मुलज़िम को बरी करने ही पर बस नहीं किया, बल्कि अबू-बकरा, नाफ़िअ और शिब्ल को तुहमत की (सज़ा) भी दी। यह फ़ैसला इस मुक़द्दमे के ख़ास हालात की बुनियाद पर था, न कि इस बुनियादी उसूल पर कि जब कभी गवाहियों से ज़िना का जुर्म साबित न हो तो गवाह ज़रूर पीट डाले जाएँ। (मुक़द्दमे की तफ़सीलात के लिए देखिए-अहकामुल-क़ुरआन, इब्नुल-अरबी, हिस्सा-2, पेज- 88, 89)
(20) गवाही के सिवा दूसरी चीज़ जिससे ज़िना का जुर्म साबित हो सकता है, वह मुजरिम का अपना इक़रार है। यह इक़रार साफ़ और खुले अलफ़ाज़ में इस बात का होना चाहिए कि उसने ज़िना किया है, यानी उसे वह तस्लीम करना चाहिए कि उसने एक ऐसी औरत से जो उसके लिए हराम थी, 'सुर्मेदानी में सलाई डालने जैसा’ अमल किया है। और अदालत को पूरी तरह यह इत्मीनान कर लेना चाहिए कि मुजरिम किसी बाहरी दबाव के बिना ख़ुद से पूरे होशो-हवास में यह इक़रार कर रहा है। कुछ फ़क़ीहों का कहना है कि एक इक़रार काफ़ी नहीं है, बल्कि मुजरिम को चार बार अलग-अलग इक़रार करना चाहिए (यह इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम अहमद, इब्ने-अबी-लैला, इसहाक़-बिन-राहवया और हसन-बिन-सॉलिह का मसलक है) और कुछ कहते हैं कि एक ही इक़रार काफ़ी है (इमाम मालिक, इमाम शाफ़िई, उसमान अल-बत्ती और हसन बसरी वग़ैरा इसी को मानते हैं) फिर ऐसी सूरत में जबकि जुर्म को साबित करनेवाले दूसरे सुबूत के बिना सिर्फ़ मुजरिम के अपने ही इक़रार पर फ़ैसला किया गया हो, अगर ठीक सज़ा के दौरान में भी मुजरिम अपने इक़रार से फिर जाए तो सज़ा को रोक देना चाहिए, चाहे यह बात साफ़-साफ़ ही क्यों न ज़ाहिर हो रही हो कि वह मार की तकलीफ़ से बचने के लिए इक़रार से पलट रहा है। यह पूरा क़ानून उन नज़ीरों से लिया गया है जो ज़िना के मुक़द्दमों के बारे में हदीसों में पाए जाते हैं। सबसे बड़ा मुक़द्दमा माइज़-बिन-मालिक असलमी का है जिसे कई सहाबा से बहुत-से रिवायत करनेवालों ने नक़्ल किया है और हदीस की लगभग तमाम किताबों में इसकी रिवायतें मौजूद हैं। यह शख़्स असलम क़बीले का एक यतीम लड़का था, जिसने हज़रत हज़्ज़ास-बिन-नुऐम के यहाँ परवरिश पाई थी। यहाँ वह एक आज़ाद की हुई लौंडी से ज़िना कर बैठा। हज़रत हज़्ज़ाल ने कहा कि जाकर नबी (सल्ल०) को अपने इस गुनाह की ख़बर दे, शायद कि ख़ुद तेरे लिए मग़फ़िरत की दुआ कर दें। उसने जाकर मस्जिदे-नबवी में नबी (सल्ल०) से कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे पाक कर दीजिए, मैंने ज़िना किया है। आप (सल्ल०) ने मुँह फेर लिया और फ़रमाया, “अरे चला जा और अल्लाह से तौबा-इस्तिग़फ़ार कर।” मगर उसने फिर सामने आकर वही बात कही और आप (सल्ल०) ने फिर मुँह फेर लिया। उसने तीसरी बार वही बात कही और आप (सल्ल०) ने फिर मुँह फेर लिया। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उसको ख़बरदार किया कि देख अब चौथी बार अगर तूने इक़रार किया तो अल्लाह के रसूल तुझे रज्म करा देंगे। मगर वह न माना और फिर उसने अपनी बात दोहराई। अब नबी (सल्ल०) उसकी तरफ़ मुतवज्जेह हुए और उससे कहा, “शायद तूने चुम्बन वग़ैरा लिया होगा या छेड़-छाड़ की होगी या बुरी नज़र डाली होगी (और तू समझ बैठा होगा कि यह ज़िना करना है) उसने कहा, “नहीं। आप (सल्ल०) ने पूछा, “क्या तू उससे हमबिस्तर हुआ?” उसने कहा, “हाँ।” फिर पूछा, “क्या तूने उससे सोहबत की?” उसने कहा, “हाँ।” फिर पूछा, “क्या तूने उससे मिलन (सम्भोग) किया?” उसने कहा, “हाँ।” फिर आप (सल्ल०) ने वह लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जो अरबी ज़बान में साफ़-साफ़ सोहबत करने के लिए बोला जाता है और गन्दा समझा जाता है। ऐसा लफ़्ज़ नबी (सल्ल०) की ज़बान से न पहले कभी सुना गया, न इसके बाद किसी ने सुना। अगर एक शख़्स की जान का मामला न होता तो आप (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से कभी ऐसा लफ़्ज़ न निकल सकता था। मगर उसने उसके जवाब में भी, 'हाँ' कह दिया। नबी (सल्ल०) ने पूछा, “क्या इस हद तक कि तेरी वह चीज़ उसकी उस चीज़ में ग़ायब हो गई?” उसने कहा, “हाँ।” फिर पूछा, “क्या इस तरह ग़ायब हो गई जैसे सुर्मेदानी में सलाई और कुएँ में रस्सी?” उसने कहा, “हाँ।” पूछा, “क्या तू जानता है कि ज़िना किसे कहते हैं?” उसने कहा, “जी हाँ, मैंने उसके साथ हराम तरीक़े से वह काम किया जो शौहर हलाल तरीक़े से अपनी बीवी के साथ करता है।” आप (सल्ल०) ने पूछा, “क्या तेरी शादी हो चुकी है?” उसने कहा, “जी हाँ।” आप (सल्ल०) ने पूछा, “तूने शराब तो नहीं पी ली है?” उसने कहा, “नहीं।” एक आदमी ने उठकर उसका मुँह सूँघा और बताया कि वह सही कह रहा है। फिर आप (सल्ल०) ने उसके मुहल्लेवालों से पूछा कि यह पागल तो नहीं है? उन्होंने कहा, “हमने इसकी अक़्ल में कोई ख़राबी नहीं देखी।” आप (सल्ल०) ने हज़्ज़ाल से फ़रमाया, “काश! तुमने इसका परदा ढाँक दिया होता तो तुम्हारे लिए अच्छा था।” फिर आप (सल्ल०) ने माइज़ को रज्म करने का फ़ैसला सुना दिया और उसे शहर के बाहर ले जाकर संगसार कर दिया गया। जब पत्थर पड़ने शुरू हुए तो माइज़ भागा और उसने कहा, “लोगो, मुझे अल्लाह के रसूल के पास वापस ले चलो, मेरे क़बीले के लोगों ने मुझे मरवा दिया। उन्होंने मुझे धोखा दिया कि अल्लाह के रसूल मुझे क़त्ल नहीं कराएँगे।” मगर मारनेवालों ने उसे मार डाला। बाद में जब नबी (सल्ल०) को इसकी ख़बर दी गई तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम लोगों ने उसे छोड़ क्यों नहीं दिया? मेरे पास ले आए होते, शायद वह तौबा करता और अल्लाह उसकी तौबा क़ुबूल कर लेता।" दूसरा वाक़िआ ग़ामिदिया का है जो क़बीला ‘ग़ामिद' (क़बीला ‘जुहैना' की एक शाख़) की एक औरत थी। उसने भी आकर चार बार इक़रार किया कि वह ज़िना कर बैठी है और उसके पेट में नाजाइज़ बच्चा है। आप (सल्ल०) ने उससे भी पहले इक़रार पर फ़रमाया, “अरे चली जा, अल्लाह से माफ़ी माँग और तौबा कर।” मगर उसने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या आप मुझे माइज़ की तरह टालना चाहते हैं? मैं ज़िना के नतीजे में हामिला (गर्भवती) हूँ।” यहाँ चूँकि इक़रार के साथ हमल भी मौजूद था, इसलिए आप (सल्ल०) ने उतनी ज़्यादा तफ़सील से जिरह न की जो माइज़ से की थी। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा नहीं मानती तो जा, बच्चा पैदा होने के बाद आना।” बच्चा पैदा होने के बाद वह बच्चे को लेकर आई और कहा, “अब मुझे पाक कर दीजिए।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जा और इसको दूध पिला। दूध छूटने के बाद आना।” फिर वह दूध छुड़ाने के बाद आई और रोटी का एक टुकड़ा भी साथ लेती आई। बच्चे को रोटी का टुकड़ा खिलाकर नबी (सल्ल०) को दिखाया और अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! अब इसका दूध छूट गया है और देखिए यह रोटी खाने लगा है।” तब आपने बच्चे को पालने के लिए एक आदमी के हवाले किया और उसको रज्म करने का हुक्म दिया। इन दोनों वाक़िआत में साफ़-साफ़ चार इक़रारों का ज़िक्र है। और अबू-दाऊद में हज़रत बुरैदा (रज़ि०) की रिवायत है कि सहाबा किराम का आम ख़याल यही था कि अगर माइज़ और ग़ामिदिया चार बार इक़रार न करते तो उन्हें रज्म न किया जाता। अलबत्ता तीसरा वाक़िआ (जिसका ज़िक्र हम ऊपर नम्बर-15 में कर चुके हैं) उसमें सिर्फ़ ये अलफ़ाज़ मिलते हैं कि “जाकर उसकी बीवी से पूछ, और अगर वह इक़रार करे तो उसे रज्म कर दे।” इसमें चार इक़रारों का ज़िक्र नहीं है, और इसी से फ़क़ीहों के एक गरोह ने दलील ली है कि एक ही इक़रार काफ़ी है। (21) ऊपर हमने जिन तीन मुक़द्दमों की मिसालें पेश की हैं, उनसे यह साबित होता है कि इक़रार करनेवाले मुजरिम से यह नहीं पूछा जाएगा कि उसने किसके साथ ज़िना किया है, क्योंकि इस तरह एक के बजाय दो को सज़ा देनी पड़ेगी, और शरीअत लोगों को सज़ाएँ देने के लिए बेचैन नहीं है। अलबत्ता अगर मुजरिम ख़ुद यह बताए कि इस बुरे काम में दूसरा साथी फ़ुलाँ है तो उससे पूछा जाएगा। अगर वह भी क़ुबूल करे तो उसे सज़ा दी जाएगी, लेकिन अगर वह इनकार कर दे तो सिर्फ़ इक़रार करनेवाला मुजरिम ही सज़ा का हक़दार होगा। इस बात में उलमा के बीच इख़्तिलाफ़ है कि इस दूसरी सूरत में (यानी जबकि दूसरा फ़रीक़ इस बात को तस्लीम न करे कि उसने उसके साथ ज़िना किया है) उसपर ज़िना की हद (सज़ा) जारी की जाएगी या तुहमत लगाने की सज़ा। इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक वह ज़िना की सज़ा पाने का हक़दार है; क्योंकि उसी जुर्म का उसने इक़रार किया है इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम औज़ाई की राय में उसपर तुहमत लगाने की सज़ा जारी की जाएगी, क्योंकि दूसरे फ़रीक़ के इनकार ने उसके ज़िना के जुर्म में शक पैदा कर दिया है। अलबत्ता उसका तुहमत लगाने का जुर्म बहरहाल साबित है। और इमाम मुहम्मद (रह०) का फ़तवा यह है (इमाम शाफ़िई की भी एक राय इसकी ताईद में है) कि उसे ज़िना की भी सज़ा दी जाएगी और तुहमत लगाने की भी; क्योंकि ज़िना के अपने जुर्म का उसने ख़ुद इक़रार किया है, और दूसरे फ़रीक़ पर वह अपना इलज़ाम साबित नहीं कर सका है। नबी (सल्ल०) की अदालत में इस क़िस्म का एक मुक़द्दमा आया था। उसकी एक रिवायत जो मुसनद अहमद और अबू-दाऊद में सहल-बिन-सअद से रिवायत हुई है, उसमें ये अलफ़ाज़ हैं, “एक शख़्स ने आकर नबी (सल्ल०) के सामने इक़रार किया कि वह फ़ुलाँ औरत से ज़िना कर बैठा है। आपने औरत को बुलाकर पूछा। उसने इनकार कर दिया। आपने उस मर्द को सज़ा दी और औरत को छोड़ दिया।” इस रिवायत में यह नहीं बताया गया है कि उसको कौन-सी सज़ा दी (यानी ज़िना करने की या तुहमत लगाने की) दूसरी रिवायत अबू-दाऊद और नसई ने इब्ने-अब्बास से नक़्ल की है और उसमें यह है कि पहले उसके इक़रार पर आप (सल्ल०) ने ज़िना की सज़ा दी, फिर औरत से पूछा और उसके इनकार पर उस शख़्स को तुहमत की सज़ा के तौर पर कोड़े लगवाए। लेकिन यह रिवायत सनद के लिहाज़ से भी कमज़ोर है; क्योंकि इसके रिवायत करनेवाले क़ासिम-बिन-फ़ैयाज़ को कई मुहद्दिसों (हदीसों के आलिमों) ने भरोसे लायक़ नहीं बताया है, और क़ियास (गुमान) के भी ख़िलाफ़ है, इसलिए कि नबी (सल्ल०) से यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि आप (सल्ल०) ने उसे कोड़े लगवाने के बाद औरत से पूछा होगा। खुली अक़्ल और इनसाफ़ का तक़ाज़ा जिसे नबी (सल्ल०) नज़र-अन्दाज़ नहीं कर सकते थे, यह था कि जब उसने औरत का नाम ले दिया था तो औरत से पूछे बिना उसके मुक़द्दमे का फ़ैसला न किया जाता। इसी की ताईद सहल-बिन-सअद वाली रिवायत भी कर रही है। लिहाज़ा दूसरी रिवायत भरोसे के लायक़ नहीं है। (22) जुर्म के सुबूत के बाद ज़ानी (व्यभिचारी) और ज़ानिया (व्यभिचारिणी) को क्या सज़ा दी जाएगी, इस मामले में फ़क़ीहों के बीच रायें अलग-अलग हैं, उनमें से कुछ नीचे दी जा रही हैं— शादीशुदा मर्द-औरत के लिए ज़िना की सज़ा : इमाम अहमद, दाऊद ज़ाहिरी इसहाक़-बिन-राहवया के नज़दीक सौ कोड़े लगाना और उसके बाद संगसार करना है। और बाक़ी तमाम फ़क़ीह इस बात पर एक राय हैं कि उनकी सजा सिर्फ़ संगसार करना है रज्म और कोड़ों की सज़ा को एक साथ जमा नहीं किया जाएगा। ग़ैर-शादीशुदा की सज़ा : इमाम शाफ़िई, इमाम अहमद, इसहाक़-बिन-राहवया, दाऊद ज़ाहिरी, सुफ़ियान सौरी, इबने-अबी-लैला और हसन-बिन-सॉलिह के नज़दीक सौ कोड़े और एक साल के लिए जलावतन किया जाना, मर्द-औरत दोनों के लिए। इमाम मालिक और इमाम औज़ाई के नज़दीक मर्द के लिए 100 कोड़े और एक साल के लिए जलावतन किया जाना और औरत के लिए सिर्फ़ कोड़े। (जलावतन करने से मुराद इन सबके नज़दीक यह है कि मुजरिम को उसकी बस्ती से निकालकर कम-से-कम इतनी दूरी पर भेज दिया जाए जिसपर नमाज़ में क़स्र वाजिब होता है। मगर ज़ैद-बिन-अली और इमाम जाफ़र सादिक़ के नज़दीक क़ैद कर देने से भी जलावतन करने का मक़सद पूरा हो जाता है) इमाम अबू-हनीफ़ा और उनके शागिर्द इमाम अबू-यूसुफ़, इमाम ज़ुफ़र और इमाम मुहम्मद कहते हैं कि इस सूरत में ज़िना की सज़ा मर्द और औरत दोनों के लिए सिर्फ़ सौ कोड़े है। उसपर किसी और सज़ा, मसलन क़ैद या जलावतनी का इज़ाफ़ा सज़ा (क़ुरआन औरा हदीस की तयशुदा सज़ा) नहीं, बल्कि ताज़ीर (हाकिम या क़ाज़ी की अपनी तरफ़ से दी हुई सज़ा) है। क़ाज़ी अगर यह देखे कि मुजरिम बदचलन है, या मुजरिम मर्द और मुजरिम औरत के ताल्लुक़ात बहुत गहरे हैं तो ज़रूरत के मुताबिक़ वह उन्हें जलावतन भी कर सकता है और क़ैद भी कर सकता है। ('हद' और 'ताज़ीर' में फ़र्क़ यह है कि 'हद' एक मुक़र्रर सज़ा है जो जुर्म की शर्ते पूरी होने के बाद ज़रूर दी जाएगी। और ताज़ीर उस सज़ा को कहते हैं जो क़ानून में मिक़दार और कैफ़ियत के लिहाज़ से बिलकुल तय न कर दी गई हो, बल्कि जिसे अदालत मुक़द्दमे के हालात के लिहाज़ से घटा-बढ़ा सकती हो) इन अलग-अलग मसलकों में से हर एक ने अलग-अलग हदीसों का सहारा लिया है जिनको हम नीचे दर्ज करते हैं— हज़रत उबादा-बिन-सामित की रिवायत जिसे मुस्लिम अबू-दाऊद, इब्ने-माजा, तिरमिज़ी और इमाम अहमद ने नक़्ल किया है। उसमें ये अलफ़ाज़ हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुझसे लो, मुझसे लो, अल्लाह ने ज़ानिया (ज़िना करनेवाली) औरतों के लिए तरीक़ा मुक़र्रर कर दिया। ग़ैर-शादीशुदा मर्द की ग़ैर-शादीशुदा औरत से बदकारी के लिए सौ कोड़े और एक साल के लिए जलावतन करना, और शादीशुदा मर्द की शादीशुदा औरत से बदकारी के लिए सौ कोड़े और संगसार करना।” (यह हदीस हालाँकि सनद के एतिबार से सही है, मगर बहुत-सी ऐसी सही रिवायतें हैं जो हमें बताती हैं कि इनपर न नबी (सल्ल०) के ज़माने में कभी अमल हुआ, न ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन के ज़माने में और न फ़क़ीहों में से किसी ने ठीक इसके मज़मून के मुताबिक़ फ़तवा दिया। इस्लामी फ़िक़्ह (क़ानून) में जिस बात पर सब उलमा की एक राय है वह वह है कि ज़िना करनेवाले मर्द और औरत के मुहसिन (शादीशुदा) और ग़ैर-मुहसिन (ग़ैर-शादीशुदा) होने का अलग-अलग एतिबार किया जाएगा ग़ैर-शादीशुदा मर्द चाहे शादीशुदा औरत से ज़िना करे या ग़ैर-शादीशुदा से दोनों हालतों में उसकी सज़ा एक है, और शादीशुदा मर्द चाहे शादीशुदा औरत से ज़िना करे या ग़ैर-शादीशुदा से, दोनों हालतों में उसको एक ही सज़ा दी जाएगी। यही मामला औरत का भी है। वह शादीशुदा हो तो हर हालत में एक ही सज़ा पाएगी चाहे उससे ज़िना करनेवाला मर्द शादीशुदा हो या ग़ैर-शादीशुदा, और कुँआरी होने की सूरत में भी उसके लिए एक ही सज़ा है बिना इस बात का ख़याल किए कि उसके साथ ज़िना करनेवाला मुहसिन है या ग़ैर-मुहसिन। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) और हज़रत ज़ैद-बिन-ख़ालिद जुहनी की रिवावत जिसे बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा और इमाम अहमद (रह०) ने नक़्ल किया है, इसमें यह है कि दो आराबी (अरब के देहाती) नबी (सल्ल०) के पास मुक़द्दमा लाए। एक ने कहा कि मेरा बेटा इस शख़्स के यहाँ मज़दूरी पर काम करता था। वह इसकी बीवी से ज़िस्मानी ताल्लुक़ बना बैठा। मैंने इसको सौ बकरियों और एक लौंडी देकर राज़ी किया, मगर इल्म रखनेवालों ने बताया कि यह अल्लाह की किताब के ख़िलाफ़ है। आप हमारे बीच अल्लाह की किताब के मुताबिक़ फ़ैसला कर दें। दूसरे ने भी कहा कि आप अल्लाह की किताब के मुताबिक़ फ़ैसला कर दें। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैं अल्लाह की किताब ही के मुताबिक़ फ़ैसला करूँगा। बकरियाँ और लौंडी तुझी को वापस। तेरे बेटे के लिए सौ कोड़े और एक साल की जलावतनी।” फिर आप (सल्ल०) ने क़बीला असलम के एक आदमी से कहा, “ऐ उनैस, तू जाकर इसकी बीवी से पूछ। अगर वह क़ुबूल करे तो उसे रज्म कर दे।” चुनाँचे उसने क़ुबूल कर लिया और रज्म कर दी गई। (इसमें रज्म से पहले कोड़े लगाने का कोई ज़िक्र नहीं है और ग़ैर-शादीशुदा मर्द को शादीशुदा औरत से बदकारी करने पर कोड़े और जलावतनी की सज़ा दी गई है।) माइज़ और ग़ामिदिया के मुक़द्दमों की जितनी रुदादें हदीसों की अलग-अलग किताबों में बयान हुई हैं, उनमें से किसी में भी यह नहीं मिलता कि नबी (सल्ल०) ने रज्म कराने से पहले उनको सौ कोड़े भी लगवाए हों। कोई रिवायत किसी हदीस में नहीं मिलती कि नबी (सल्ल०) ने किसी मुक़द्दमे में रज्म के साथ कोड़ों की भी सज़ा सुनाई हो। एहसान (शादी-होने) की हालत में ज़िना करने के तमाम मुक़द्दमों में आप (सल्ल०) ने सिर्फ़ रज्म की सज़ा दी है। हज़रत उमर (रज़ि०) का मशहूर ख़ुतबा जिसमें उन्होंने पूरे ज़ोर के साथ शादी के बाद ज़िना करने की सज़ा रज्म बयान की है, बुख़ारी, मुस्लिम और तिरमिज़ी और नसई ने अलग-अलग सनदों से नक़्ल किया है और इमाम अहमद ने भी उसकी कई रिवायतें ली हैं, मगर उसकी किसी रिवायत में भी रज्म के साथ कोड़ों का ज़िक्र नहीं है। ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन में से सिर्फ़ हज़रत अली (रज़ि०) ने कोड़ों की सज़ा और संगसारी को एक सज़ा में जमा किया है। इमाम अहमद और बुख़ारी आमिर शअबी से यह वाक़िआ नक़्ल करते हैं कि शुराहा नाम की एक औरत ने नाजाइज़ हमल (गर्भ) का इक़रार किया। हज़रत अली (रज़ि०) ने जुमेरात के दिन उसे कोड़े लगवाए और जुमे के दिन उसको रज्म कराया, और फ़रमाया, “हमने इसे अल्लाह की किताब के मुताबिक़ कोड़े लगाए हैं और अल्लाह के रसूल की सुन्नत के मुताबिक़ संगसार करते हैं।” इस एक वाक़िए के सिवा ख़िलाफ़ते-राशिदा के दौर का कोई दूसरा वाक़िआ कोड़ों के साथ रज्म के हक़ में नहीं मिलता। जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की एक रिवायत जिसे अबू-दाऊद और नसई ने नक़्ल किया है, यह बताती है कि एक आदमी ने ज़िना का जुर्म किया और नबी (सल्ल०) ने उसको सिर्फ़ कोड़ों की सज़ा दी, फिर मालूम हुआ कि वह शादीशुदा था, तब आप (सल्ल०) ने उसे रज्म कराया। इसके अलावा कई रिवायतें हम पहले नक़्ल कर आए हैं जिनसे मालूम होता है कि ग़ैर शादीशुदा ज़िना करनेवालों को आप (सल्ल०) ने सिर्फ़ कोड़ों की सज़ा दी। मसलन वह आदमी जिसने नमाज़ के लिए जाती हुई औरत से ज़िना-बिल-जब्र (बलात्कार) किया था, और वह आदमी जिसने ज़िना का इक़रार किया और औरत ने इनकार किया। हज़रत उमर (रज़ि०) ने रबीआ-बिन-उमैया-बिन-ख़ल्फ़ को शराब पीने के जुर्म में जलावतन किया और वह भागकर रोमियों से जा मिला। इसपर हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया कि आइन्दा मैं किसी को जलावतनी की सज़ा नहीं दूँगा। इसी तरह हज़रत अली (रज़ि०) ने ग़ैर-शादीशुदा मर्द-औरत को ज़िना के जुर्म में जलावतन करने से इनकार कर दिया और फ़रमाया कि इसमें फ़ितने का अन्देशा है। (अहकामुल-क़ुरआन, लिल-जस्सास, हिस्सा-3, पेज-315) इन तमाम रिवायतों पर कुल मिलाकर नज़र डालने से साफ़ महसूस होता है कि इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके साथियों का मसलक ही सही है, यानी शादीशुदा होने के बाद ज़िना की सज़ा सिर्फ़ रज्म है, और महज़ ज़िना की सज़ा सिर्फ़ 100 कोड़े। कोड़ों और रज्म को एक साथ देने पर तो नबी (सल्ल०) के दौर से लेकर हज़रत उसमान (रज़ि०) के ज़माने तक कभी अमल ही नहीं हुआ। रहा कोड़ों और जलावतनी को जमा करना तो इसपर कभी अमल हुआ है और कभी नहीं हुआ। इससे हनफ़ी मसलक का सही होना साफ़ साबित हो जाता है। (23) कोड़े की मार की कैफ़ियत के बारे में पहला इशारा ख़ुद क़ुरआन के लफ़्ज़ 'फ़ज्लिदू' में मिलता है। ‘जल्द' का लफ़्ज़ 'जिल्द' यानी खाल से लिया गया है। इससे तमाम अहले-लुग़त (ज़बान के माहिर) और तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने यही मतलब लिया है कि मार ऐसी होनी चाहिए जिसका असर जिल्द (खाल) तक रहे। गोश्त तक न पहुँचे एसी चोट जिससे गोश्त के टुकड़े उड़ जाएँ, या खाल फटकर अन्दर तक ज़ख़्म पड़ जाए, क़ुरआन के ख़िलाफ़ है। मार के लिए चाहे कोड़ा इस्तेमाल किया जाए या छड़ी, दोनों सूरतों में उन्हें औसत दरजे का होना चाहिए। न बहुत मोटा और सख़्त, और न बहुत पतला और नर्म। मुवत्ता में इमाम मालिक (रह०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने कोई मारने के लिए कोड़ा माँगवाया और वह बहुत ज़्यादा इस्तेमाल होने की वजह से बहुत कमज़ोर हो चुका था। आपने फ़रमाया, “इससे ज़्यादा सख़्त लाओ।” फिर एक नया कोड़ा लाया गया जो अभी इस्तेमाल से नर्म नहीं पड़ा था। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दोनों के बीच का लाओ।” फिर ऐसा कोड़ा लाया गया जो सवारी में इस्तेमाल हो चुका था। उससे आप (सल्ल०) ने कोड़े लगवाए। इसी मज़मून (विषय) से मिलती-जुलती रिवायत अबू-उसमान अन-नहदी ने हज़रत उमर (रज़ि०) के बारे में भी बयान की है कि वे औसत दरजे का कोड़ा इस्तेमाल करते थे (अहकामुल-क़ुरआन, लिल-जस्सास, हिस्सा-5, पेज-322) गाँठ लगा हुआ कोड़ा या दो-तीन तहोंवाला नुकीला कोड़ा भी इस्तेमाल करना मना है। मार भी औसत दरजे की होनी चाहिए। हज़रत उमर (रज़ि०) मारनेवाले को हिदायत करते थे कि “इस तरह मार कि तेरी बग़ल न खुले।” यानी पूरी ताक़त से हाथ को तानकर न मार (अहकामुल-क़ुरआन, इब्ने-अरबी, हिस्सा-2, पेज-84; अहकामुल-क़ुरआन, जस्सास, हिस्सा-3, पेज-322) तमाम फ़क़ीह इस बात पर एक राय हैं कि मार ऐसी नहीं होनी चाहिए जिससे ज़ख़्म पड़ जाए। एक ही जगह नहीं मारना चाहिए, बल्कि तमाम जिस्म पर मार को फैला देना चाहिए। सिर्फ़ मुँह और शर्मगाह को (और हनफ़ी उलमा के नज़दीक सर को भी) बचा लेना चाहिए, बाक़ी हर हिस्से पर कुछ-न-कुछ मार पड़नी चाहिए हज़रत अली (रज़ि०) ने एक आदमी को कोड़े लगवाते वक़्त कहा, “हर हिस्से को उसका हक़ दे और सिर्फ़ मुँह और शर्मगाह को बचा ले।” दूसरी रिवायत में है कि “सिर्फ़ सर और शर्मगाह को बचा ले।” (अहकामुल-क़ुरआन, लिल-जस्सास, हिस्सा-3, पेज-321) नबी (सल्ल०) का इरशाद है कि “जब तुममें से कोई मारे तो मुँह पर न मारे।” (हदीस : अबू-दाऊद) मर्द को खड़ा करके मारना चाहिए और औरत को बिठाकर। इमाम अबू-हनीफ़ा के ज़माने में कूफ़ा के क़ाज़ी (न्यायाधीश) इब्ने-अबी-लैला ने एक औरत को खड़ा करके पिटवाया। इसपर इमाम अबू-हनीफ़ा ने सख़्त पकड़ की और उनके फ़ैसले को अलानिया ग़लत ठहराया। (इससे अदालत की तौहीन के क़ानून के मामले में भी इमाम साहब के मसलक पर रौशनी पड़ती है) कोड़े की मार के वक़्त औरत अपने पूरे कपड़े पहने रहेगी बल्कि उसके कपड़े अच्छी तरह बाँध दिए जाएँगे, ताकि उसका जिस्म खुल न जाए। सिर्फ़ मोटे कपड़े उतरवा दिए जाएँगे। मर्द के मामले में आलिमों की राय अलग-अलग है कुछ फ़क़ीह कहते हैं कि वह सिर्फ़ पाजामा पहने रहेगा, और कुछ कहते हैं कि कुर्ता भी न उतरवाया जाएगा। हज़रत अबू-उबैदा-बिन-अल-जर्राह ने एक ज़िना करनेवाले को कोड़े की सज़ा का हुक्म सुनाया। उसने कहा, “इस गुनहगार जिस्म को अच्छी तरह मार खानी चाहिए,” और यह कहकर वह कुर्ता उतारने लगा। हज़रत अबू-उबैदा ने फ़रमाया, “इसे कुर्ता न उतारने दो।" (अहकामुल-क़ुरआन, लिल-जस्सास, हिस्सा-3, पेज-322) हज़रत अली के ज़माने में एक आदमी को कोड़े लगवाए गए और वह चादर ओढ़े हुए था। सख़्त सर्दी और सख़्त गर्मी के वक़्त मारना मना है। जाड़े में गर्म वक़्त और गर्मी में ठण्ड के वक़्त मारने का हुक्म है। बाँधकर मारने की भी इजाज़त नहीं है, सिवाय यह कि मुजरिम भागने की कोशिश करे। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “इस उम्मत में नंगा करके और टकटकी (पलंग वग़ैरा) पर बाँधकर मारना हलाल नहीं है।" फ़क़ीहों ने इसको जाइज़ रखा है कि एक दिन में कम-से-कम बीस कोड़े मारे जाएँ। लेकिन बेहतर यही है कि एक साथ पूरी सज़ा दे दी जाए। मार का काम उजड्ड जल्लादों से नहीं लेना चाहिए, बल्कि गहरी सूझ-बूझ रखनेवाले आदमियों को यह काम करना चाहिए जो जानते हों कि शरीअत का तक़ाज़ा पूरा करने के लिए किस तरह मारना मुनासिब है। इब्ने-क़य्यिम ने 'ज़ादुल-मआद' में लिखा है कि नबी (सल्ल०) के ज़माने में हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०), मिक़दाद-बिन-अम्र (रज़ि०), मुहम्मद-बिन-मसलमा (रज़ि०), आसिम-बिन-साबित (रज़ि०) और ज़ह्हाक-बिन-सुफ़ियान (रज़ि०) जैसे नेक और क़ाबिले-एहतिराम लोगों से जल्लाद का काम लिया जाता था। (हिस्सा-1, पेज-41,45) अगर मुजरिम बीमार हो और उसके ठीक होने की उम्मीद न हो, या बहुत बूढ़ा हो तो सौ शाख़ोंवाली एक डाली, या सौ तीलियोंवाला एक झाडू लेकर सिर्फ़ एक बार मार देना चाहिए, ताकि क़ानून का तक़ाज़ा पूरा कर दिया जाए। नबी (सल्ल०) के ज़माने में एक बीमार बूढ़ा ज़िना के जुर्म में पकड़ा गया था और आप (सल्ल०) ने उसके लिए इसी सज़ा का हुक्म दिया था। (हदीस : अहमद, अबू-दाऊद, नसई, इब्ने-माजा) हामिला (गर्भवती) औरत को कोड़ों की सज़ा देनी हो तो बच्चा पैदा होने के बाद निफ़ास (यानी पैदाइश के बाद के कुछ दिन जिसमें कि औरत के पेट से ख़ून वग़ैरा निकलता रहता है) का ज़माना गुज़र जाने तक इन्तिज़ार करना होगा और रज्म करना हो तो जब तक उसके बच्चे का दूध न छूट जाए, सज़ा नहीं दी जा सकती। अगर ज़िना गवाहियों से साबित हो तो गवाह मारने की शुरुआत करेंगे, और अगर इक़रार की बुनियाद पर सज़ा दी जा रही हो तो क़ाज़ी ख़ुद शुरुआत करेगा, ताकि गवाह अपनी गवाही को और जज अपने फ़ैसलों को खेल न समझ बैठें। शुराहा के मुक़द्दमे में जब हज़रत अली (रज़ि०) ने रज्म का फ़ैसला किया तो फ़रमाया, “अगर इसके जुर्म का कोई गवाह होता तो उसी को मार की शुरुआत करनी चाहिए थी, मगर इसको इक़रार की बुनियाद पर सज़ा दी जा रही है, इसलिए मैं ख़ुद शुरुआत करूँगा।” हनफ़ी आलिमों के नज़दीक ऐसा करना वाजिब है। शाफ़िई आलिम इसको वाजिब नहीं मानते, मगर सबके नज़दीक बेहतर यही है। कोड़ों की मार के क़ानून की इन तफ़सीलात को देखिए और फिर उन लोगों की जुरअत और हिम्मत की दाद दीजिए जो इसे तो वहशियाना (बर्बरतापूर्ण) सज़ा कहते हैं, मगर कोड़ों की वह सज़ा उनके नज़दीक बड़ी मुहाज़्ज़ब (शिष्ट) सज़ा है जो आज जेलों में दी जा रही है। मौजूदा क़ानून के मुताबिक़ सिर्फ़ अदालत ही नहीं, जेल का एक मामूली सुपरिटेंडेंट भी एक क़ैदी को हुक्म न मानने या गुस्ताख़ी के क़ुसूर में 30 बेतें मारने तक की सज़ा दे सकता है। यह बेंत लगाने के लिए एक आदमी ख़ास तौर पर तैयार किया जाता है और वह हमेशा इसकी मश्क़ (अभ्यास) करता रहता है। इस मक़सद के लिए बेंतें भी ख़ास तौर पर भिगो-भिगोकर तैयार की जाती हैं, ताकि जिस्म को छुरी की तरह काट दें। मुजरिम को नंगा करके टकटकी से बाँध दिया जाता है, ताकि वह तड़प भी न सके। सिर्फ़ एक पतला-सा कपड़ा उसकी शर्मगाह को छुपाने के लिए रहने दिया जाता है और वह टिंकचर आयोडींन से भिगो दिया जाता है। जल्लाद दूर से भागता हुआ आता है और पूरी ताक़त से मारता है। चोट जिस्म के एक ही ख़ास हिस्से (यानी कूल्हे) पर लगातार लगाई जाती है, यहाँ तक कि गोश्त क़ीमा होकर उड़ता चला जाता है और कई बार हडडी नज़र आने लगती है। अकसर ऐसा होता है कि ताक़तवर-से-ताक़तवर आदमी भी पूरी तीस बेतों की मार झेलने से पहले ही बेहोश हो जाता है और उसके ज़ख़्म भरने में एक मुद्दत लग जाती है। इस 'मुहज़्ज़ब' (सभ्य) सज़ा को जो लोग आज जेलों में ख़ुद लागू कर रहे हैं, उनका यह मुँह है कि इस्लाम की मुक़र्रर की हुई कोड़ों की सज़ा को 'वहशियाना’ सज़ा के नाम से याद करें! फिर उनकी पुलिस मुजरिम साबित हो चुके लोगों को नहीं, बल्कि सिर्फ़ उन लोगों को जिनपर सिर्फ़ शक है, तफ़तीश की ख़ातिर (ख़ास तौर से सियासी जुर्म के शुब्हों में) जैसे-जैसे अज़ाब (यातना) देती है वे आज किसी से छिपे हुए नहीं हैं। (24) रज्म की सज़ा में जब मुजरिम मर जाए तो फिर उससे पूरी तरह मुसलमानों का-सा मामला किया जाएगा। उसको ग़ुस्ल और कफ़न दिया जाएगा। उसके जनाज़े की नमाज़ पढ़ी जाएगी। उसको इज़्ज़त के साथ मुसलमानों के क़ब्रिस्तान में दफ़्न किया जाएगा। उसके लिए मग़फ़िरत की दुआ की जाएगी और किसी के लिए जाइज़ न होगा कि उसका ज़िक्र बुराई के साथ करे। बुख़ारी में जाबिर-बिन-जब्दुल्लाह अनसारी (रज़ि०) की रिवायत है कि जब रज्म से माइज़-बिन-मालिक की मौत हो गई तो नबी (सल्ल०) ने उसको “भलाई के साथ याद किया और उसके जनाज़े की नमाज़ ख़ुद पढ़ाई।” मुस्लिम में हज़रत बुरैदा की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “माइज़-बिन-मालिक के हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करो, उसने ऐसी तौबा की है कि अगर एक पूरी उम्मत में बाँट दी जाए तो सबके लिए काफ़ी हो।” इसी रिवायत में यह भी ज़िक्र है कि ग़ामिदिया जब रज्म से मर गई तो नबी (सल्ल०) ने ख़ुद उसके जनाज़े की नमाज़ पढ़ाई, और जब हज़रत ख़ालिद-बिन-वलीद ने उसका ज़िक्र बुराई से किया तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “ख़ालिद, अपनी ज़बान रोको, उस हस्ती की क़सम जिसके क़ब्ज़े में मेरी जान है, उसने ऐसी तौबा की थी कि अगर ज़ालिमाना तरीक़े से टैक्स वुसूल करनेवाला भी वह तौबा करता तो माफ़ कर दिया जाता।” अबू-दाऊद में हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि माइज़ के वाक़िए के बाद एक दिन नबी (सल्ल०) रास्ते से गुज़र रहे थे। आप (सल्ल०) ने दो आदमियों को माइज़ का ज़िक्र बुराई से करते सुना। कुछ क़दम आगे जाकर एक गधे की लाश पड़ी दिखाई दी। नबी (सल्ल०) ठहर गए और उन दोनों आदमियों से कहा, आप लोग इसमें से कुछ खा लें।” उन्होंने कहा, “ऐ अल्लाह के नबी। इसे कौन खा सकता है।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अपने भाई की आबरू से जो कुछ आप अभी खा रहे थे वह इसे खाने के मुक़ाबले में ज़्यादा बुरी चीज़ थी।” मुस्लिम में इमरान-बिन-हुसैन की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने ग़ामिदिया के जनाज़े की नमाज़ के मौक़े पर अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या अब इस ज़िना करनेवाली की नमाज़े-जनाज़ा पढ़ी जाएगी?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसने वह तौबा की है कि अगर तमाम मदीनावालों में बाँट दी जाए तो सबके लिए काफ़ी हो।” बुख़ारी में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक आदमी को शराब पीने के जुर्म में सज़ा दी जा रही थी। किसी को ज़बान से निकला, “ख़ुदा तुझे रुसवा करे।” इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इस तरह न कहो, उसके ख़िलाफ़ शैतान की मदद न करो।” अबू-दाऊद में इसपर इतना इज़ाफ़ा है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बल्कि यूँ कहो : “ऐ अल्लाह, उसे माफ़ कर दे, ऐ अल्लाह उसपर रहम कर।" यह है इस्लाम में सज़ा की अस्ल रूह। इस्लाम किसी बड़े-से-बड़े मुजरिम को भी दुश्मनी के जज़बे से सज़ा नहीं देता, बल्कि उसके लिए भलाई के जज़बे से देता है, और जब सज़ा दे चुकता है तो फिर उसे रहम और हमदर्दी की निगाह से देखता है। यह तंगनज़री सिर्फ़ मौजूदा तहज़ीब ने पैदा की है कि हुकूमत की फ़ौज या पुलिस जिसे मार दे, और कोई अदालती जाँच जिसके मारने को जाइज़ ठहरा दे, उसके बारे में यह तक गवारा नहीं किया जाता कि कोई उसका जनाज़ा उठाए या किसी की ज़बान से उसका ज़िक्र भलाई के साथ सुना जाए। इसपर अख़लाक़ी जुरअत (यह मौजूदा तहज़ीब में ढिठाई का मुहज़्ज़ब नाम है) का यह हाल है कि दुनिया को रवादारी (उदारता) की नसीहतें की जाती हैं। (25) मुहर्रमात (वे क़रीबी रिश्तेदार औरतें जिनसे निकाह हराम है) से ज़िना के बारे में शरीअत का क़ानून तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-4 निसा, हाशिया-33 में और हमजिंस-परस्ती (समलैंगिकता) के बारे में शरीअत का फ़ैसला तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-68 में बयान किया जा चुका है। रहा जानवर से बदकारी करना तो कुछ फ़क़ीह इसको भी ज़िना के दायरे में रखते हैं और इसके करनेवाले को ज़िना की सज़ा का हक़दार ठहराते हैं। मगर इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०), इमाम मुहम्मद (रह०), इमाम जुफ़र (रह०), इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई कहते हैं कि यह ज़िना नहीं है, इसलिए इसके करनेवाले को क़ुरआन और हदीस की तय की हुई सज़ा नहीं दी जाएगी, बल्कि हाकिम या काज़ी या मुल्क की मजलिसे-शूरा (सलाहकार-समिति) ज़रूरत समझे तो इसके लिए कोई मुनासिब सज़ा तय कर सकती है।
3. सबसे पहली चीज़ जो इस आयत में ध्यान देने के क़ाबिल है वह यह है कि यहाँ फ़ौजदारी क़ानून को 'अल्लाह का दीन कहा जा रहा है। मालूम हुआ कि सिर्फ़ नमाज़ और रोज़ा और हज और ज़कात ही दीन नहीं हैं, मुल्क का क़ानून भी दीन है। दीन को क़ायम करने का मतलब सिर्फ़ नमाज़ ही क़ायम करना नहीं है, बल्कि अल्लाह का क़ानून और शरीअत का निज़ाम (व्यवस्था) क़ायम करना भी है। जहाँ यह चीज़ क़ायम न हो वहाँ नमाज़ अगर क़ायम हो भी तो मानो अधूरा दीन क़ायम हुआ। जहाँ इसको रद्द करके दूसरा कोई क़ानून अपनाया जाए। वहाँ कुछ और नहीं ख़ुद अल्लाह का दीन रद्द कर दिया गया। दूसरी चीज़ जो इसमें ध्यान देने लायक़ है वह अल्लाह तआला की यह डरावा (चेतावनी) है कि ज़िना करनेवाले मर्द और औरत पर मेरी बताई हुई सज़ा लागू करने में मुजरिम के लिए, रहम और तरस का जज़बा तुम्हारा हाथ न पकड़े। इस बात को और ज़्यादा खोलकर नबी (सल्ल०) ने इस हदीस में बयान किया है। आप (सल्ल०) फ़रमाते हैं, “क़ियामत के दिन एक हाकिम लाया जाएगा जिसने हद (ख़ुदा की तय की हुई सज़ा) में से एक कोड़ा कम कर दिया था। पूछा जाएगा कि यह हरकत तूने क्यों की थी? वह कहेगा, आपके बन्दों पर रहम खाकर। कहा जाएगा, अच्छा तो तू उनके लिए मुझसे ज़्यादा रहीम (रहम करनेवाला) था! फिर हुक्म होगा, ले जाओ इसे जहन्नम में। एक और हाकिम लाया जाएगा जिसने हद (सज़ा) पर एक कोड़े का इज़ाफ़ा कर दिया था। पूछा जाएगा, तूने यह किस लिए किया था? वह कहेगा, ताकि लोग आपकी नाफ़रमानियों से बचे रहें। कहा जाएगा, अच्छा तू उनके मामले में मुझसे ज़्यादा हिकमतवाला था! फिर हुक्म होगा, ले जाओ इसे जहन्नम में।” (तफ़सीर कबीर, हिस्सा-6, पेज-225) यह तो उस सूरत में है जबकि घटाने-बढ़ाने का काम रहम या मस्लहत की बुनियाद पर हो। लेकिन अगर कहीं अहकाम में रद्दो-बदल मुजरिमों के मर्तबे की बुनियाद पर होने लगे तो फिर यह एक इन्तिहाई बुरा जुर्म है। बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने ख़ुतबे में फ़रमाया, “लोगो! तुमसे पहले जो उम्मतें गुज़री हैं वे हलाक हो गईं, इसलिए कि जब उनमें कोई इज़्ज़तवाला चोरी करता तो ये उसे छोड़ देते थे और जब कोई कमज़ोर आदमी चोरी करता तो उसपर हद (सज़ा) जारी करते थे।” एक और रिवायत में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “एक सज़ा जारी करना ज़मीन पर रहनेवालों के लिए चालीस दिन की बारिश से ज़्यादा फ़ायदेमन्द है।” (हदीस : नसई और इब्ने-माजा) क़ुरआन के कुछ आलिमों ने इस आयत का मतलब यह लिया है कि मुजरिम को जुर्म साबित होने के बाद छोड़ न दिया जाए और न सज़ा में कमी की जाए, बल्कि पूरे सौ कोड़े मारे जाएँ और कुछ ने यह मतलब लिया है कि हल्की मार न मारी जाए जिसकी कोई तकलीफ़ ही मुजरिम महसूस न करे। आयत के अलफ़ाज़़ में ये दोनों मतलब शामिल हैं, बल्कि सच तो यह है कि दोनों ही मुराद मालूम होते हैं। और इसके अलावा यह मुराद है कि ज़िना करनेवाले को वही सज़ा दी जाए जो अल्लाह ने तय की है, उसे किसी और सज़ा से न बदल दिया जाए। कोड़ों के बजाय कोई और सज़ा देना अगर रहम और हमदर्दी की वजह से हो तो गुनाह है, और अगर इस ख़याल की बुनियाद पर हो कि कोड़ों की सज़ा एक वहशियाना सज़ा है तो यह बिलकुल कुफ़्र है जो एक पल के लिए भी ईमान के साथ एक सीने में जमा नहीं हो सकता। ख़ुदा को ख़ुदा भी मानना और उसको (अल्लाह की पनाह) वहशी भी कहना सिर्फ़ उन्हीं लोगों के लिए मुमकिन है जो सबसे निचले दरजे के मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) हैं।
4. यानी सज़ा अलानिया तौर पर आम लोगों के सामने दी जाए, ताकि एक तरफ़ मुजरिम की रुसवाई हो और दूसरी तरफ़ आम लोगों को नसीहत। इससे सज़ा के बारे में इस्लामी नज़रिए पर साफ़ रौशनी पड़ती है। सूरा-3 माइदा में चोरी की सज़ा बयान करते हुए ख़ुदा ने फ़रमाया था, “उनके किए का बदला और अल्लाह की तरफ़ से जुर्म को रोकनेवाली सज़ा।” (आयत-38) और अब यहाँ हिदायत की जा रही है कि ज़िना करनेवाले को अलानिया तौर पर लोगों के सामने सज़ा दी जाए। इससे मालूम हुआ कि इस्लामी क़ानून में सज़ा के तीन मक़सद हैं। एक यह कि मुजरिम से उस ज़्यादती का बदला लिया जाए और उसको उस बुराई का मज़ा चखाया जाए जो उसने किसी दूसरे शख़्स या समाज के साथ की थी। दूसरा यह कि उसे दोबारा जुर्म करने से बाज़ रखा जाए। तीसरा यह कि उसकी सज़ा को एक सबक़ बना दिया जाए, ताकि समाज में जो दूसरे लोग बुरे रुझानात (प्रवृत्तियाँ) रखनेवाले हों, उनके दिमाग़ का ऑपरेशन हो जाए और वे इस तरह के किसी जुर्म की जुरअत न कर सकें। इसके अलावा अलानिया तौर पर सज़ा देने का एक फ़ायदा यह भी है कि इस सूरत में अधिकारी सज़ा देने में बेजा छूट या बेजा सख़्ती करने की कम ही जुरअत कर सकते हैं।
ٱلزَّانِي لَا يَنكِحُ إِلَّا زَانِيَةً أَوۡ مُشۡرِكَةٗ وَٱلزَّانِيَةُ لَا يَنكِحُهَآ إِلَّا زَانٍ أَوۡ مُشۡرِكٞۚ وَحُرِّمَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 2
(3) ज़िना (व्यभिचार) करनेवाला निकाह न करे मगर ज़िना करनेवाली ओरत के साथ; या शिर्क करनेवाली औरत के साथ, और ज़िना करनेवाली औरत के साथ निकाह न करे मगर ज़िना करनेवाला मर्द या मुशरिक मर्द, और यह हराम कर दिया गया है इमानवालों पर5
5. यानी तौबा न करनेवाले ज़ानी (व्यभिचारी) के लिए अगर मुनासिब है तो ज़ानिया (व्यभिचारिणी) ही मुनासिब है, या फिर मुशरिक औरत। किसी नेक ईमानवाली औरत के लिए वह मुनासिब नहीं है, और हराम है ईमानवालों के लिए कि वे जानते-बूझते अपनी लड़कियाँ ऐसे बदकारों को दें। इसी तरह तौबा न करनेवाली ज़ानिया (व्यभिचारिणी) औरतों के लिए अगर मुनासिब हैं तो उन्हीं जैसे ज़ानी या फिर मुशरिक। किसी नेक ईमानवाले के लिए वे मुनासिब नहीं हैं, और हराम है ईमानवालों के लिए कि जिन औरतों की बदचलनी का हाल उन्हें मालूम हो उनसे वे जान-बूझकर निकाह करें। यह हुक्म उन्हीं मर्दों और औरतों के लिए है जो अपनी बुरी रविश पर क़ायम हों। जो लोग तौबा करके अपना सुधार कर लें, उनके लिए यह हुक्म नहीं है; क्योंकि तौबा और सुधार करने के बाद 'ज़ानी' (व्यभिचारी) होने की सिफ़त उनके साथ लगी नहीं रहती। ज़ानी (व्यभिचारी) के साथ निकाह के हराम होने का मतलब इमाम अहमद-बिन-हंबल ने यह लिया है कि सिरे से निकाह का बन्धन बँधता ही नहीं। लेकिन सही यह है कि इससे मुराद सिर्फ़ मनाही है, न यह कि इस हुक्म के ख़िलाफ़ अगर कोई निकाह करे तो वह क़ानूनी तौर पर निकाह ही न हो और इस निकाह के बावजूद दोनों फ़रीक़ ज़ानी समझे जाएँ। नबी (सल्ल०) ने यह बात एक उसूल के तौर पर फ़रमाई है कि “हराम हलाल को हराम नहीं कर देता।” (हदीस : तबरानी, दारे-क़ुतनी) यानी एक ग़ैर-क़ानूनी काम किसी दूसरे क़ानूनी काम को ग़ैर-क़ानूनी नहीं बना देता। इसलिए किसी शख़्स के ज़िना का जुर्म करने से यह ज़रूरी नहीं हो जाता कि वह निकाह भी करे तो उसकी गिनती ज़िना ही में हो और निकाह के बन्धन का दूसरा फ़रीक़ जो बदकार नहीं है, वह भी बदकार ठहरे। उसूली तौर पर बग़ावत के सिवा कोई ग़ैर-क़ानूनी अमल अपने करनेवाले को क़ानून की हदों से बाहर (outlaw) नहीं बना देता है कि फिर उसका कोई काम भी क़ानूनी न हो सके। इस चीज़ को निगाह में रखकर अगर आयत पर ग़ौर किया जाए तो अस्ल मक़सद साफ़ तौर पर यह मालूम होता है कि जिन लोगों की बदकारी जानी-मानी हो उनको निकाह के लिए चुनना एक गुनाह है, जिससे ईमानवालों को परहेज़ करना चाहिए, क्योंकि इससे बदकारों की हिम्मत बढ़ती है, हालाँकि शरीअत उन्हें समाज का एक घिनावना और क़ाबिले-नफ़रत हिस्सा ठहराना चाहती है। इसी तरह इस आयत से यह नतीजा भी नहीं निकलता कि मुस्लिम ज़ानी (व्यभिचारी) का निकाह मुशरिक औरत से, और मुस्लिम ज़ानिया (व्यभिचारिणी) का निकाह मुशरिक मर्द से सही है। इस आयत का मंशा अस्ल में यह बताना है कि ज़िना इतना ज़्यादा गन्दा काम है कि जो शख़्स मुसलमान होते हुए यह कर गुज़रे वह इस क़ाबिल नहीं रहता कि मुस्लिम समाज के पाक और भले लोगों से उसका रिश्ता हो। उसे या तो अपने ही जैसे ज़िना करनेवालों में जाना चाहिए, या फिर उन मुशरिकों में जो सिरे से अल्लाह के अहकाम पर यक़ीन ही नहीं रखते। आयत के मक़सद को सही तौर से वे हदीसें बयान करती हैं जो इस सिलसिले में नबी (सल्ल०) से रिवायत हुई हैं। मुसनद अहमद और नसई में अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) की रिवायत है कि उम्मे-महजूल नाम की एक औरत थी जो जिस्म-फ़रोशी का पेशा करती थी। एक मुसलमान ने उससे निकाह करना चाहा और नबी (सल्ल०) से इजाज़त चाही। आप (सल्ल०) ने मना कर दिया और यही आयत पढ़ी। तिरमिज़ी और अबू-दाऊद में है कि मरसद-बिन-अबी-मरसद एक सहाबी थे जिनके इस्लाम लाने से पहले के ज़माने में मक्का की एक बदकार औरत इनाक़ से नाजाइज़ ताल्लुक़ात रह चुके थे। बाद में उन्होंने चाहा कि उससे निकाह कर लें और नबी (सल्ल०) से इजाज़त माँगी। दो बार पूछने पर आप (सल्ल०) चुप रहे। तीसरी बार फिर पूछा तो आप (सल्ल०) ने फरमाया, “ऐ मरसद, ज़िना करनेवाली या मुशरिक औरत से सिर्फ़ ज़ानी ही निकाह करता है, इसलिए तुम उससे निकाह न करो।” इसके अलावा बहुत-सी रिवायतें हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) और हज़रत अम्मार-बिन-यासिर (रज़ि०) से बयान हुई हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो आदमी दय्यूस हो (यानी जिसे मालूम हो कि उसकी बीवी बदकार है और यह जानकर भी वह उसका शौहर बना रहे) वह जन्नत में दाख़िल नहीं हो सकता।” (हदीस : अहमद, नसई, अबू-दाऊद, तियालिसी) शैख़ैन यानी अबू-बक्र (रज़ि०) और उमर (रज़ि०) का तर्ज़े-अमल यह रहा है कि जो ग़ैर-शादीशुदा मर्द-औरत ज़िना के इलज़ाम में गिरफ़्तार होते, उनको वे पहले कोड़ों की सज़ा देते थे और फिर उन्हीं का आपस में निकाह कर देते थे। इब्ने-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि एक दिन एक आदमी बड़ी परेशानी की हालत में हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के पास आया और कुछ इस तरह बात करने लगा कि उसकी ज़बान पूरी तरह खुलती न थी। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने हज़रत उमर (रज़ि०) से कहा कि इसे अलग ले जाकर मामला पूछो। हज़रत उमर (रज़ि०) के पूछने पर उसने बताया कि एक आदमी उसके घर मेहमान के तौर पर आया था, वह उसकी लड़की से जिस्मानी ताल्लुक़ बना बैठा। हज़रत उमर (रज़ि०) ने कहा, “तेरा बुरा हो, तूने अपनी लड़की का परदा ढाक न दिया।” आख़िरकार लड़के और लड़की पर मुक़द्दमा क़ायम हुआ, दोनों पर हद (सज़ा) जारी की गई और फिर उन दोनों का आपस में निकाह करके हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने एक साल के लिए उनको शहर से निकाल दिया। ऐसे ही और कुछ वाक़िआत क़ाज़ी अबू-बक्र-बिन-अल-अरबी ने अपनी किताब अहकामुल-क़ुरआन में नक़्ल किए हैं। (हिस्सा-2, पेज-86)
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ثُمَّ لَمۡ يَأۡتُواْ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَ فَٱجۡلِدُوهُمۡ ثَمَٰنِينَ جَلۡدَةٗ وَلَا تَقۡبَلُواْ لَهُمۡ شَهَٰدَةً أَبَدٗاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 3
(4) और जो लोग पाकदामन औरतों पर तोहमत लगाएँ, फिर चार गवाह लेकर न आएँ, उनको अस्सी कोड़े मारो और उनकी गवाही कभी क़ुबूल न करो, और वे ख़ुद ही फ़ासिक़ (गुनाहगार) हैं,
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 4
(5) सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद तौबा कर लें और सुधार कर लें कि अल्लाह ज़रूर (उनके हक़ में) बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।6
6. इस हुक्म का मंशा यह है कि समाज में लोगों की आशनाइयों (प्रेम-प्रसंगों) और नाजाइज़ ताल्लुक़ात की चर्चाएँ बिलकुल बन्द कर दी जाएँ, क्योंकि इससे अनगिनत बुराइयाँ फैलती हैं और उनमें सबसे बड़ी बुराई यह है कि इस तरह ग़ैर-महसूस तरीक़े पर ज़िना को बढ़ावा देनेवाला एक आम माहौल बनता चला जाता है। एक शख़्स मज़े ले-लेकर किसी के सही या ग़लत, गन्दे वाक़िआत दूसरों के सामने बयान करता है। दूसरे उसमें नमक-मिर्च लगाकर और लोगों तक उन्हें पहुँचाते हैं, और साथ-साथ कुछ और लोगों के बारे में भी अपनी मालूमात या बदगुमानियाँ बयान कर देते हैं। इस तरह न सिर्फ़ यह कि शहवानी जज़बात (कामुक भावनाओं) की एक आम हवा चल पड़ती है, बल्कि बुरे रुझान रखनेवाले मर्दों और औरतों को यह भी मालूम हो जाता है कि समाज में कहाँ-कहाँ उनके लिए क़िस्मत आज़माई के मौक़े मौजूद हैं। शरीअत इस चीज़ का रास्ता पहले ही क़दम पर रोक देना चाहती है एक तरफ़ वह हुक्म देती है कि अगर कोई ज़िना करे और गवाहियों से उसका जुर्म साबित हो जाए तो उसको वह इन्तिहाई सज़ा दो जो किसी और जुर्म पर नहीं दी जाती। और दूसरी तरफ़ वह फ़ैसला करती है कि जो शख़्स किसी पर ज़िना का इलज़ाम लगाए वह या तो गवाहियों से अपना इलज़ाम साबित करे, वरना उसपर अस्सी कोड़े बरसा दो, ताकि आगे कभी वह अपनी ज़बान से ऐसी बात बिना सुबूत निकालने की जुरअत न करे। मान लीजिए, अगर इलज़ाम लगानेवाले ने किसी को अपनी आँखों से भी बदकारी करते देख लिया हो, तब भी उसे चुप रहना चाहिए और दूसरों तक उसे न पहुँचाना चाहिए, ताकि गन्दगी जहाँ है वहीं पड़ी रहे, आगे न फैल सके। अलबत्ता अगर उसके पास गवाह मौजूद हैं तो समाज में बेहूदा चर्चाएँ करने के बजाय मामला अधिकारियों के पास ले जाए और अदालत में मुलज़िम का जुर्म साबित करके उसे सज़ा दिलवा दे। इस क़ानून को पूरी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि इसकी तफ़सीलात निगाह में रहें। इसलिए हम नीचे उनको यहाँ नम्बरवार बयान करते हैं— (1) आयत में अलफ़ाज़ ‘वल्लज़ी-न यर्मू-न' इस्तेमाल हुए हैं जिनका मतलब है 'वे लोग जो इलज़ाम लगाए। लेकिन मौक़ा-महल यह बताता है कि यहाँ इलज़ाम से मुराद हर तरह का इलज़ाम नहीं, बल्कि ख़ास तौर पर ज़िना का इलज़ाम है। पहले ज़िना का हुक्म बयान हुआ है और आगे 'इल्ज़ाम’ का हुक्म आ रहा है। इन दोनों के बीच इस हुक्म का आना साफ़ इशारा कर रहा है कि यहाँ 'इलज़ाम’ से मुराद किस तरह का इलज़ाम है। फिर अलफ़ाज़ 'यरमूनल-मुहसनात' यानी 'इलज़ाम लगाएँ पाकदामन औरतों पर’ से भी यह इशारा निकलता है कि मुराद वह इलज़ाम है जो पाकदामनी के ख़िलाफ़ हो। उसपर यह और कि इलज़ाम लगानेवालों से अपने इलज़ाम के सुबूत में चार गवाह लाने की माँग की गई है जो पूरे इस्लामी क़ानून में सिर्फ़ ज़िना की गवाही में ज़रूरी होते हैं। इन इशारों की बुनियाद पर तमाम उम्मत के आलिम इस बात पर एक राय हैं कि इस आयत में सिर्फ़ ज़िना के इलज़ाम का हुक्म बयान हुआ है जिसके लिए मुस्लिम आलिमों ने 'क़ज़्फ़' की मुस्तक़िल इस्तिलाह (Term) तय कर दी है, ताकि दूसरे क़िस्म की तुहमतें लगाना (जैसे किसी को चोर, या शराबी, या सूद खानेवाला, या काफ़िर कह देना) इस हुक्म के दायरे में न आएँ 'क़ज़्फ़’ के सिवा दूसरी तुहमतों की सज़ा क़ाज़ी (हाकिम) ख़ुद तय कर सकता है, या हुकूमत की मजलिसे-शूरा (सलाहकार-समिति) ज़रूरत के मुताबिक़ उनके लिए तौहीन (मानहानि) और आम हैसियत की बहाली के लिए कोई आम क़ानून बना सकती है। (2) आयत में अगरचे अलफ़ाज़ 'यर्मूनल-मुहसनाति' (पाकदामन औरतों पर इलज़ाम लगाएँ) इस्तेमाल हुए हैं, लेकिन फ़क़ीह लोग इस बात पर एक राय हैं कि हुक्म सिर्फ़ औरतों ही पर इलज़ाम लगाने तक महदूद नहीं है, बल्कि पाकदामन मर्दों पर भी इलज़ाम लगाने का यही हुक्म है। इसी तरह अगरचे इलज़ाम लगानेवालों के लिए 'अल्लज़ी-न यर्मून’ मुज़क्कर (पुल्लिंग) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, लेकिन यह सिर्फ़ मर्दों ही के लिए ख़ास नहीं है, बल्कि औरतें भी अगर 'क़ज़्फ़' का जुर्म करें तो उनपर भी यही हुक्म लगेगा, क्योंकि जुर्म की संगीनी में झूठा इलज़ाम लगानेवाले या जिसपर यह इलज़ाम लगाया जाए, दोनों के मर्द या औरत होने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। लिहाज़ा क़ानून की शक्ल यह होगी कि जो मर्द या औरत भी किसी पाकदामन मर्द या औरत पर ज़िना का इलज़ाम लगाए उसका यह हुक्म है। (यह बात याद रहे कि यहाँ ‘मुहसिन' और 'मुहसना' से मुराद शादीशुदा मर्द-औरत नहीं, बल्कि पाकदामन मर्द-औरत है) (3) यह हुक्म सिर्फ़ उसी सूरत में लागू होगा जबकि इलज़ाम लगानेवाले ने पाकदामन मर्द या पाकदामन औरतों पर इलज़ाम लगाया हो। जो पाकदामन न हो, उसपर इलज़ाम लगाने की सूरत में यह हुक्म लागू नहीं हो सकता। बदचलन अगर बदकारी में मशहूर हो तब तो उसपर 'इलज़ाम' लगाने का सवाल ही पैदा नहीं होता, लेकिन अगर वह ऐसा न हो तो उसके ख़िलाफ़ बिना सुबूत इलज़ाम लगानेवाले के लिए क़ाज़ी ख़ुद सज़ा तय कर सकता है, या ऐसी सूरतों के लिए मजलिसे-शूरा ज़रूरत के मुताबिक़ क़ानून बना सकती है। (4) 'क़ज़्फ़' (ज़िना के झूठे इलज़ाम) पर सज़ा वाजिब होने के लिए सिर्फ़ यह बात काफ़ी नहीं है कि किसी ने किसी पर बदकारी का बिना सुबूत इलज़ाम लगाया है, बल्कि उसके लिए कुछ शर्तें इलज़ाम लगानेवाले में और कुछ उसमें जिसपर इलज़ाम लगाया गया है और कुछ ख़ुद इस झूठे इलज़ाम लगाने की हरकत में पाई जानी ज़रूरी हैं। झूठा इलज़ाम लगानेवाले में जो शर्तें पाई जानी चाहिएँ वे ये हैं— पहली यह कि वह बालिग़ हो। बच्चा अगर झूठा इलज़ाम लगाए तो उसे हाकिम अपनी समझ से कोई छोटी-मोटी सज़ा दे सकता है, मगर उसपर क़ुरआन और हदीस की बताई हुई सज़ा लागू नहीं की जा सकती। दूसरी यह कि वह सही-सलामत अक़्ल रखता हो। पागल को झूठे इलज़ाम लगाने की सज़ा नहीं दी जा सकती। इसी तरह हराम नशे के सिवा किसी दूसरी तरह के नशे की हालत में, मसलन क्लोरोफ़ार्म के असर में इलज़ाम लगानेवाले को भी मुजरिम नहीं ठहराया जा सकता। तीसरी यह कि उसने अपने आज़ाद इरादे से (फ़ुक़हा की ज़बान में ताइअन) यह हरकत की हो। किसी की ज़बरस्ती करने से झूठा इलज़ाम लगानेवाला मुजरिम नहीं ठहराया जा सकता। चौथी यह कि झूठा इलज़ाम लगानेवाला जिसपर इलज़ाम लगा रहा है, उसका अपना बाप या दादा न हो; क्योंकि उनपर ‘क़ज़्फ़’ की सज़ा जारी नहीं की जा सकती। इनके अलावा हनफ़ी आलिमों के नज़दीक एक पाँचवीं शर्त यह भी है कि वह बोल सकता हो, गूँगा अगर इशारों में इलज़ाम लगाए तो उसपर क़ज़्फ़ की सज़ा वाजिब न होगी, लेकिन इमाम शाफ़िई को इससे इख़्तिलाफ़ है। वे कहते हैं कि अगर गूँगे का इशारा बिलकुल साफ़ और वाज़ेह हो जिसे देखकर हर आदमी समझ ले कि वह क्या कहना चाहता है तो वह क़ाज़िफ़ (इलज़ाम लगानेवाला) है, क्योंकि उसका इशारा एक शख़्स को बदनाम और रुसवा कर देने में साफ़ और खुली-खुली बातों से किसी तरह कम नहीं है। इसके बरख़िलाफ़ हनफ़ी आलिमों के नज़दीक सिर्फ़ इशारे का साफ़ होना इतनी मज़बूत बुनियाद नहीं है कि इसकी बिना पर एक आदमी को 80 कोड़ों की सज़ा दे डाली जाए। वे इसपर सिर्फ़ ताज़ीर देते हैं, यानी हाकिम अपनी समझ से कोई और सज़ा दे सकता है। जिसपर इलज़ाम लगाया गया हो उसको सज़ा देने के लिए उसमें जो शर्तें पाई जानी चाहिएँ वे ये हैं— पहली शर्त यह है कि वह आक़िल हो, यानी उसपर अक़्ल की हालत में ज़िना करने का इलज़ाम लगाया गया हो। पागल पर (चाहे वह बाद में ठीक हो गया हो या न हुआ हो) इलज़ाम लगानेवाला क़ज़्फ़ की सज़ा का हक़दार नहीं है, क्योंकि पागल अपनी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त का एहतिमाम नहीं कर सकता, और उसपर अगर ज़िना की गवाही क़ायम भी हो जाए तो न वह ज़िना की सज़ा का हक़दार होता है, न उसकी इज़्ज़त पर कोई दाग़ आता है। लिहाज़ा उसपर इलज़ाम लगानेवाला भी क़ज़्फ़ की सज़ा का हक़दार न होना चाहिए। लेकिन इमाम मालिक (रह०) और इमाम लैस-बिन-सअद कहते हैं कि मजनून (पागल) पर झूठा इलज़ाम लगानेवाला हद (सज़ा) का हक़दार है; क्योंकि बहरहाल वह एक बेसुबूत इलज़ाम लगा रहा है। दूसरी शर्त यह है कि वह बालिग़ हो। यानी उसपर बालिग़ होने की हालत में ज़िना करने का इलज़ाम लगाया गया हो। बच्चे पर इलज़ाम लगाना, या जवान पर इस बात का इलज़ाम लगाना कि उसने बचपन में यह हरकत की थी, क़ज़्फ़ की सज़ा का हक़दार नहीं बना देता; क्योंकि पागल की तरह बच्चा भी अपनी इज़्ज़त की हिफ़ाज़त का एहतिमाम नहीं कर सकता, न उसे ज़िना की सज़ा दी जा सकती है, और न उसकी इज़्ज़त को बट्टा लगता है। लेकिन इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि बालिग़ होने के क़रीब-क़रीब उम्र के लड़के पर अगर ज़िना कर बैठने का इलज़ाम लगाया जाए तब तो इलज़ाम लगानेवाला सज़ा (सज़ा) का हक़दार नहीं है, लेकिन अगर ऐसी उम्र की लड़की पर ज़िना कराने का इलज़ाम लगाया जाए जिसके साथ सोहबत (संभोग) मुमकिन हो तो उसपर झूठा इलज़ाम लगानेवाला सज़ा का हक़दार है, क्योंकि इससे न सिर्फ़ लड़की, बल्कि उसके ख़ानदान तक की इज़्ज़त पर दाग़ लगता है और लड़की का मुस्तक़बिल ख़राब हो जाता है। तीसरी शर्त यह है कि वह मुसलमान हो, यानी उसपर इस्लाम में रहते हुए ज़िना करने का इलज़ाम लगाया गया हो। ग़ैर-मुस्लिम पर इलज़ाम या मुस्लिम पर यह इलज़ाम कि उसने कुफ़्र की हालत में ऐसा किया था, सज़ा पाने की वजह नहीं बन सकता। चौथी शर्त यह है कि वह आज़ाद हो। लौंडी या ग़ुलाम पर इलज़ाम, या आज़ाद पर इलज़ाम कि उसने ग़ुलामी की हालत में यह हरकत की थी, सज़ा की वजह नहीं बन सकता; क्योंकि ग़ुलाम की बेबसी और कमज़ोरी यह इमकान पैदा कर देती है कि वह अपनी इज़्ज़त का एहतिमाम न कर सके। ख़ुद क़ुरआन में भी ग़ुलामी की हालत को ‘एहसान’ (सुरक्षित होने की हालत) नहीं बताया गया है, चुनाँचे सूरा-4 निसा में 'मुहसनात' (सुरक्षित औरतें) का लफ़्ज़ लौंडी के मुक़ाबले में इस्तेमाल हुआ है। लेकिन दाऊद ज़ाहिरी इस दलील को नहीं मानते। वे कहते हैं कि लौंडी और ग़ुलाम पर झूठा इलज़ाम लगानेवाला भी सज़ा (सज़ा) का हक़दार है। पाँचवीं शर्त यह है कि वह पाकबाज़ हो, यानी उसका दामन ज़िना और ज़िना जैसी दूसरी बातों से पाक हो। ज़िना से पाक होने का मतलब यह है कि उसपर पहले कभी ज़िना का जुर्म साबित न हो चुका हो। ज़िना जैसी बातों से पाक होने का मतलब यह है कि वह फ़ासिद निकाह, या ख़ुफ़िया निकाह, या वह मिल्कियत जिसमें शक-शुब्हा पाया जाए, या निकाह के धोखे में सोहबत (संभोग) न कर चुका हो, न उसकी ज़िन्दगी के हालात ऐसे हों जिनमें उसपर बदचलनी और अपनी इज़्ज़त मिट्टी में मिला देने का इलज़ाम लग सकता हो, और न ज़िना से कमतर दरजे की बद-अख़लाक़ियों का इलज़ाम उसपर पहले कभी साबित हो चुका हो, क्योंकि इन सब सूरतों में उसकी इज़्ज़त दाग़दार हो जाती है, और ऐसी दाग़दार इज़्ज़त पर इलज़ाम लगानेवाला 80 कोड़ों की सज़ा का हक़दार नहीं हो सकता, यहाँ तक कि अगर क़ज़्फ़ की सज़ा लागू होने से पहले इलज़ाम लगाए गए शख़्स के ख़िलाफ़ ज़िना के किसी जुर्म की गवाही क़ायम हो जाए, तब भी इलज़ाम लगानेवाला छोड़ दिया जाएगा; क्योंकि वह शख़्स पाकदामन न रहा जिसपर उसने इलज़ाम लगाया था। मगर इन पाँचों सूरतों में सज़ा (यानी क़ुरआन और हदीस की तय की हुई सज़ा) न होने का मतलब यह नहीं है कि पागल, या बच्चे, या ग़ैर-मुस्लिम, या ग़ुलाम, या दाग़दार दामनवाले आदमी पर बिना सुबूत ज़िना का इलज़ाम लगा देनेवाला किसी और सज़ा का हक़दार भी नहीं है। अब वे शर्ते लीजिए जो ख़ुद झूठे इलज़ाम लगाने की हरकत में पाई जानी चाहिएँ। इस तरह के किसी इलज़ाम को दो चीज़ों में से कोई एक चीज़ क़ज़्फ़ (बुहतान) बना सकती है। या तो इलज़ाम लगानेवाले ने इलज़ाम लगाए गए शख़्स पर ऐसी सोहबत (रति-क्रिया) का इलज़ाम लगाया हो जो अगर गवाहियों से साबित हो जाए तो उसपर सज़ा वाजिब हो जाए जिसपर इलज़ाम लगाया है। या फिर उसने उस शख़्स को जिसपर इलज़ाम लगाया गया वलदुज़्ज़िना (नाजाइज़ औलाद) ठहराया हो। लेकिन दोनों सूरतों में इलज़ाम साफ़ और वाज़ेह होना चाहिए। इशारों का एतिबार नहीं है जिनसे ज़िना या ख़ानदान पर ताना कसना मुराद होने का दारोमदार इलज़ाम लगानेवाले की नीयत पर है। मिसाल के तौर पर किसी को फ़ासिक़, फ़ाजिर, बदकार, बदचलन वग़ैरा अलफ़ाज़़ से याद करना, या किसी औरत को रंडी, कस्बन, या छिनाल कहना, या किसी सैयद को पठान कह देना इशारा है जिससे खुले तौर पर झूठा इलज़ाम लगाना लाज़िम नहीं आता। इसी तरह जो अलफ़ाज़ सिर्फ़ गाली के तौर पर इस्तेमाल होते हैं, मसलन हरामी या हरामज़ादा वग़ैरा, उनको भी साफ़ तौर पर झूठा इलज़ाम नहीं ठहराया जा सकता। अलबत्ता ‘तारीज़’ के मामले में फ़क़ीहों के दरमियान इख़्तिलाफ़ है कि क्या वह भी क़ज़्फ़ (ज़िना का इलज़ाम) है या नहीं। मिसाल के तौर पर कहनेवाला किसी को मुख़ातब करके यूँ कहे कि “हाँ, मगर मैं तो ज़ानी (व्यभिचारी) नहीं हूँ", या “मेरी माँ ने तो ज़िना कराके मुझे नहीं ज़ना है।” इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि इस तरह की तारीज़ जिससे साफ़ समझ में आ जाए कि कहनेवाले की मुराद सामनेवाले को जानी या ज़िना की पैदावार ठहराना है, क़ज़्फ़ है जिसपर सज़ा (सज़ा) वाजिब हो जाती है। लेकिन इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके असहाब और इमाम शाफ़िई (रह०), सुफ़ियान सौरी, इब्ने-शुबरुमा और हसन-बिन-सॉलिह इस बात को मानते हैं कि तारीज़ में बहरहाल शक की गुंजाइश है और शक के साथ सज़ा जारी नहीं की जा सकती। इमाम अहमद (रह०) और इसहाक़-बिन-राहवया कहते हैं कि तारीज़ अगर लड़ाई-झगड़े में हो तो क़ज़्फ़ है और हँसी-मज़ाक़़ में हो तो क़ज़्फ़ नहीं है। चारों ख़लीफ़ा में से हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत अली (रज़ि०) ने ताज़ीर पर सज़ा जारी की है। हज़रत उमर (रजि०) के ज़माने में दो आदमियों के बीच गाली-गलौच हो गई। एक ने दूसरे से कहा, “न मेरा बाप बदकार था, न मेरी माँ बदकार थी।” मामला हज़रत उमर (रज़ि०) के पास आया। उन्होंने वहाँ मौजूद लोगों से पूछा, आप लोग इससे क्या समझते हैं? कुछ लोगों ने कहा कि इसने अपने बाप और माँ की तारीफ़ की है, उसके माँ-बाप पर तो हमला नहीं किया। कुछ दूसरे लोगों ने कहा कि इसके लिए अपने माँ-बाप की तारीफ़ करने के लिए क्या यही अलफ़ाज़ रह गए थे? इन ख़ास अलफ़ाज़़ को इस मौक़े पर इस्तेमाल करने से साफ़ मुराद यही है कि उसके माँ-बाप ज़ानी (बदकार) थे। हज़रत उमर (रज़ि०) ने दूसरे गरोह की बात को सही माना और सज़ा जारी कर दी। (अहकामुल-क़ुरआन, जस्सास, हिस्सा-3, पेज-330) इस बात में भी इख़्तिलाफ़ है कि अगर कोई शख़्स किसी मर्द पर यह इलज़ाम लगाता है कि उसने किसी दूसरे मर्द से जिस्मानी ताल्लुक़ बनाया है तो क्या यह क़ज़्फ़ है या नहीं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) इसको नहीं मानते। इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०), इमाम मुहम्मद (रह०), इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) इसे क़ज़्फ़ ठहराते हैं और इसपर सज़ा का हुक्म लगाते हैं। (5) क़ज़्फ़ (ज़िना का झूठा इलज़ाम लगाने) के जुर्म में क्या सरकार सज़ा दिलाने के लिए कार्रवाई कर सकती है या नहीं, इस बात में फ़क़ीहों के बीच इख़्तिलाफ़ है। इब्ने-अबी लैला कहते हैं कि यह अल्लाह का हक़ है, इसलिए झूठा इलज़ाम लगानेवाले पर बहरहाल सज़ा जारी की जाएगी, चाहे जिसपर इलज़ाम लगाया गया हो, वह शख़्स इसकी माँग करे या न करे। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके साथियों के नज़दीक यह इस मानी में तो अल्लाह का हक़ ज़रूर है कि जब जुर्म साबित हो जाए तो सज़ा जारी करना वाजिब है, लेकिन उसपर मुक़द्दमा चलाने का दारोमदार इलज़ाम का शिकार बने शख़्स की माँग पर है, और इस लिहाज़ से यह आदमी का हक़ है। यही राय इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम औज़ाई की भी है। इमाम मालिक के नज़दीक इसमें तफ़सील है। अगर हाकिम के सामने झूठा इलज़ाम लगाया जाए तो इस जुर्म में सरकार कार्रवाई करेगी और इसपर कार्रवाई करना उस शख़्स के मुतालबे का मुहताज नहीं है जिसपर इलज़ाम लगाया गया है। (6) क़ज़्फ़ का जुर्म क़ाबिले राज़ीनामा (Compoundable offence) नहीं है। इलज़ाम का शिकार शख़्स अदालत में दावा लेकर न आए तो यह दूसरी बात है, लेकिन अदालत में मामला आ जाने के बाद इलज़ाम लगानेवाले को मजबूर किया जाएगा कि वह अपना इलज़ाम साबित करे, और साबित न होने की सूरत में उसपर सज़ा जारी की जाएगी। न अदालत उसको माफ़ कर सकती है और न ख़ुद इलज़ाम का शिकार शख़्स, न किसी माली जुर्माने पर मामला ख़त्म हो सकता है। न तौबा करके या माफ़ी माँगकर वह सज़ा से बच सकता है। नबी (सल्ल०) की यह हिदायत पहले गुज़र चुकी है कि “हुदूद (सज़ाओं) को आपस ही में माफ़ कर दो, मगर जिस हद (सज़ा) का मामला मेरे पास पहुँच गया, वह फिर वाजिब हो गई।" (7) हनफ़ी आलिमों के नज़दीक क़ज़्फ़ की सज़ा की माँग या तो ख़ुद इलज़ाम का शिकार बना शख़्स कर सकता है या फिर वह जिसके नसब (वंश) पर इससे बट्टा लगता हो और माँग करने के लिए ख़ुद इलज़ाम का शिकार शख़्स मौजूद न हो, जैसे बाप, माँ, औलाद और औलाद की औलाद। मगर इमाम मालिक (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक यह हक़ विरासत की तरह एक से दूसरे को पहुँच सकता है। इलज़ाम का शिकार शख़्स मर जाए तो उसका हर क़ानूनी वारिस सज़ा की माँग कर सकता है। अलबत्ता अजीब बात है कि इमाम शाफ़िई (रह०) बीवी और शौहर को इससे अलग करते हैं और दलील यह है कि मौत के बाद मियाँ-बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाता है और बीवी या शौहर में से किसी एक पर इलज़ाम आने से दूसरे के नसब पर कोई आँच नहीं आती। हालाँकि दोनों ही दलीलें कमज़ोर हैं। सज़ा की माँग को विरासत के क़ाबिल मानकर यह कहना कि यह हक़ बीवी और शौहर को इसलिए नहीं पहुँचता कि मौत के साथ मियाँ-बीवी का रिश्ता ख़त्म हो जाता है ख़ुद क़ुरआन के ख़िलाफ़ है; क्योंकि क़ुरआन ने एक के मरने के बाद दूसरे को उसका वारिस ठहराया है। रही वह बात कि मियाँ-बीवी में से किसी एक पर इलज़ाम आने से दूसरे के नसब पर कोई आँच नहीं आती तो यह शौहर के मामले में चाहे सही हो, मगर बीवी के मामले में तो बिलकुल ग़लत है। जिसकी बीवी पर इलज़ाम रखा जाए उसकी तो पूरी औलाद का नसब शक के घेरे में आ जाता है। इसके अलावा यह ख़याल भी सही नहीं है कि क़ज़्फ़ की सज़ा सिर्फ़ नसब पर दाग़ लगने की वजह से वाजिब ठहराई गई है। नसब के साथ इज्ज़त पर धब्बा लगना भी इसकी एक अहम वजह है, और एक शरीफ़ मर्द या औरत के लिए यह कुछ कम बेइज़्ज़ती नहीं है कि उसकी बीवी या उसके शौहर को बदकार ठहरा दिया जाए। लिहाज़ा अगर क़ज़्फ़ की सज़ा की माँग विरासत की तरह हो तो मियाँ-बीवी को इससे अलग करने की कोई मुनासिब वजह नहीं हो सकती। (8) यह बात साबित हो जाने के बाद कि एक शख़्स ने ज़िना का झूठा इलज़ाम लगाया है जो चीज़ उसे सज़ा से बचा सकती है वह सिर्फ़ यह है कि वह चार गवाह ऐसे लाए जो अदालत में यह गवाही दें कि उन्होंने इलज़ाम के शिकार शख़्स को फ़ुलाँ मर्द या फ़ुलाँ औरत के साथ अमली तौर से ज़िना करते देखा है। हनफ़ी आलिमों के नज़दीक ये चारों गवाह एक ही वक़्त में अदालत में आने चाहिएँ और उन्हें एक साथ गवाही देनी चाहिए, क्योंकि अगर वे एक के बाद एक आगे-पीछे आएँ तो उनमें से हर एक क़ज़िफ़ (बेसुबूत इलज़ाम लगानेवाला) होता चला जाएगा और उसके लिए फिर चार गवाहों की ज़रूरत होगी, लेकिन यह एक कमज़ोर बात है। सही बात वही है जो इमाम शाफ़िई (रह०) और उसमान अल-बत्ती ने कही है कि गवाहों के एक साथ आने या अलग-अलग करके आने से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता, बल्कि ज़्यादा बेहतर यह है कि दूसरे मुक़द्दमों की तरह गवाह एक के बाद एक आए और गवाही दे। हनफ़ी आलिमों के नज़दीक इन गवाहों का इनसाफ़-पसन्द होना ज़रूरी नहीं है। अगर इलज़ाम लगानेवाला चार फ़ासिक़ (ख़ुदा के नाफ़रमान) गवाह भी ले आए तो वह क़ज़्फ़ की सज़ा से बच जाएगा, और साथ ही इलज़ाम का शिकार शख़्स भी ज़िना की सज़ा से बचा रहेगा; क्योंकि गवाह आदिल (इनसाफ़ की बात कहनेवाले) नहीं हैं। अलबत्ता काफ़िर या अंधे, या ग़ुलाम, या क़ज़्फ़ के जुर्म में पहले के सज़ा पाए हुए गवाह पेश करके इलज़ाम लगानेवाला सज़ा से नहीं बच सकता। मगर इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि इलज़ाम लगानेवाला अगर फ़ासिक गवाह पेश करे तो वह और उसके गवाह सब सज़ा के हक़दार होंगे। और यही राय इमाम मालिक की भी है। इस मामले में हनफ़ी आलिमों का मसलक ही सही से ज़्यादा क़रीब मालूम होता है। गवाह अगर आदिल (इनसाफ़ की बात कहनेवाले) हों तो इलज़ाम लगानेवाला झूठे इलज़ाम के जुर्म से बरी हो जाएगा और इलज़ाम के शिकार शख़्स पर ज़िना का जुर्म साबित हो जाएगा, लेकिन अगर गवाह आदिल न हों तो झूठा इलज़ाम लगानेवाले का झूठ और इलज़ाम के शिकार शख़्स के ज़िना का अमल, और गवाहों का सच और झूठ, सारी ही चीज़ें शक के घेरे में आ जाएँगी और शक की बुनियाद पर किसी को भी सज़ा का हक़दार न ठहराया जा सकेगा। (9) जो शख़्स ऐसी गवाही पेश न कर सके जो उसे क़ज़्फ़ के जुर्म से बरी कर सकती हो, उसके लिए क़ुरआन ने तीन हुक्म साबित किए हैं: एक यह कि उसे 80 कोड़े लगाए जाएँ दूसरा यह कि उसकी गवाही कभी न क़ुबूल की जाए तीसरा यह कि वह फ़ासिक़ (अल्लाह का नाफ़रमान) है। इसके बाद क़ुरआन कहता है, “सिवाय उन लोगों के जो इसके बाद तौबा करें और सुधार कर लें कि अल्लाह बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।” यहाँ सवाल पैदा होता है कि इस जुमले में तौबा और सुधार से जिस माफ़ी का ज़िक्र किया गया है, उसका ताल्लुक़ इन तीनों हुक्मों में से किसके साथ है। फ़क़ीहों का इसपर इत्तिफ़ाक़ (मतैक्य) है कि पहले हुक्म से इसका ताल्लुक़ नहीं है, यानी तौबा से हद (सज़ा) ख़त्म न होगी और मुजरिम को कोड़ों की सज़ा बहरहाल दी जाएगी। फ़क़ीह इसपर भी एक राय हैं कि इस मानी का ताल्लुक़ आख़िरी हुक्म से है, यानी तौबा और सुधार कर लेने के बाद मुजरिम फ़ासिक़ न रहेगा और अल्लाह तआला उसे माफ़ कर देगा। (इस बात में इख़्तिलाफ़ सिर्फ़ इस पहलू से है कि क्या मुजरिम झूठा इलज़ाम लगाने ही से फ़ासिक़ होता है या अदालती फ़ैसला होने के बाद फ़ासिक़ ठहरता है इमाम शाफ़िई (रह०) और लैस-बिन-सअद के नज़दीक वह इलज़ाम लगाने ही से फ़ासिक़ हो जाता है, इसलिए वे उसको उसी वक़्त से गवाही के नाक़ाबिल ठहरा देते हैं। इसके बरख़िलाफ़ इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके साथी और इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि वह अदालती फ़ैसला लागू हो जाने के बाद फ़ासिक़ होता है, इसलिए वह हुक्म लागू होने से पहले तक उसको गवाही देने लायक़ समझते हैं। लेकिन सच तो यह है कि मुजरिम का अल्लाह की नज़र में फ़ासिक़ होना झूठा इलज़ाम लगाने का नतीजा है और लोगों की नज़रों में फ़ासिक़ होने का दारोमदार इस बात पर है कि अदालत में उसका जुर्म साबित हो और वह सज़ा पा जाए।) अब रह जाता है बीच का हुक्म, यानी यह कि “झूठा इलज़ाम लगानेवाले की गवाही कभी क़ुबूल न की जाए।” फ़क़ीहों के बीच इसपर बड़ा इख़्तिलाफ़ पाया जाता है कि “इल्लल्लज़ी-न ताबू” (सिवाय उन लोगों के जो तौबा कर लें) के जुमले का ताल्लुक़ इस हुक्म से भी है या नहीं। एक गरोह कहता है कि इस जुमले का ताल्लुक़ सिर्फ़ आख़िरी हुक्म से है, यानी जो शख़्स तौबा और सुधार कर लेगा वह अल्लाह और लोगों के नज़दीक फ़ासिक़ न रहेगा, लेकिन पहले दोनों हुक्म इसके बावजूद बाक़ी रहेंगे, यानी मुजरिम पर सज़ा भी जारी की जाएगी और वह हमेशा के लिए गवाही देने के क़ाबिल न रहेगा। इस गरोह में क़ाज़ी शुरैह, सईद-बिन-मुसय्यिब, सईद-बिन-जुबैर, हसन बसरी, इबराहीम नख़ई, इब्ने-सीरीन, मकहूल, अब्दुर्रहमान-बिन-ज़ैद, अबू-हनीफ़ा, अबू-यूसुफ़, ज़फ़र मुहम्मद, सुफ़ियान सौरी और हसन-बिन-सॉलिह जैसे बड़े आलिम लोग शामिल हैं। दूसरा गरोह कहता है कि ‘इल्लल्लज़ी-न ताबू' का ताल्लुक़ पहले हुक्म से तो नहीं है, मगर आख़िरी दोनों हुक्मों से है, यानी तौबा के बाद झूठे इलज़ाम पर सज़ा पानेवाले मुजरिम की गवाही भी क़ुबूल की जाएगी और वह फ़ासिक़ भी न समझा जाएगा। इस गरोह में अता, ताऊस, मुजाहिद, शअबी, क़ासिम-बिन-मुहम्मद, सालिम, ज़ुहरी, इक्रिमा, उमर-बिन-अज़ीज़, इब्ने-अबी-नुजैह, सुलैमान-बिन-यसार, मसरूक़, ज़ह्हाक, मालिक-बिन-अनस, उसमान-अल-बत्ती, लैस-बिन-सअद, शाफ़िई, अहमद-बिन-हंबल और इब्ने-जरीर तबरी जैसे बुज़ुर्ग शामिल हैं। ये लोग अपनी ताईद में दूसरी दलीलों के साथ हज़रत उमर (रज़ि०) के उस फ़ैसले को भी पेश करते हैं जो उन्होंने मुग़ीरा-बिन-शोबा के मुक़द्दमे में किया था, क्योंकि उसकी कुछ रिवायतों में यह ज़िक्र है कि सज़ा जारी करने के बाद हज़रत उमर (रज़ि०) ने अबू-बकरा और उनके दोनों साथियों से कहा, “अगर तुम तौबा कर लो (या 'अपना झूठ क़ुबूल कर लो') तो मैं आगे तुम्हारी गवाही क़ुबूल करूँगा वरना नहीं।” दोनों साथियों ने इक़रार कर लिया, मगर अबू-बकरा अपनी बात पर अड़े रहे। बज़ाहिर यह एक बड़ी मज़बूत ताईद मालूम होती है, लेकिन मुग़ीरा-बिन-शोबा के मुक़द्दमे की रूदाद हम पहले लिख चुके हैं। उसपर ग़ौर करने से साफ़ ज़ाहिर हो जाता है कि उस मिसाल से इस मामले में दलील लेना दुरुस्त नहीं है। यहाँ इस बात पर सब एक राय थे कि हमबिस्तरी की हरकत तो हुई है और ख़ुद मुग़ीरा-बिन-शोबा को भी उससे इनकार न था। बहस इसमें थी कि औरत कौन थी। मुग़ीरा-बिन-शोबा कहते थे कि वह उनकी अपनी बीवी थीं, जिन्हें ये लोग उम्मे- जमील समझ बैठे। साथ ही यह बात भी साबित हो गई थी कि हज़रत मुग़ीरा की बीवी और उम्मे-जमील आपस में इतनी ज़्यादा मिलती-जुलती थीं कि वाक़िआ जितनी रौशनी में जितने फ़ासले से देखा गया उसमें यह ग़लतफ़हमी हो सकती थी कि औरत उम्मे-जमील है। मगर इशारे सारे के सारे मुग़ीरा-बिन-शोबा के हक़ में थे और ख़ुद इस्तिग़ासे का भी एक गवाह इक़रार कर चुका था कि औरत साफ़ नज़र न आती थी। इसी वजह से हज़रत उमर (रज़ि०) ने मुग़ीरा के हक़ में फ़ैसला दिया और अबू-बकरा को सज़ा देने के बाद वह बात कही जो ऊपर बयान की गई रिवायतों में बयान हुई है। इन हालात को देखते हुए साफ़ मालूम होता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) का मंशा अस्ल में था कि तुम लोग मान लो कि तुमने बेवजह बदगुमानी की थी और आगे के लिए ऐसी बदगुमानियों की बुनियाद पर लोगों के ख़िलाफ़ इलज़ाम लगाने से तौबा करो, वरना आइन्दा तुम्हारी गवाही कभी क़ुबूल न की जाएगी। इससे यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि जो शख़्स साफ़ झूठा साबित हो जाए वह भी हज़रत उमर (रज़ि०) के नज़दीक तौबा करके गवाही के क़ाबिल हो सकता था। हक़ीक़त यह है कि इस मसले में पहले गरोह ही की राय ज़्यादा वज़नी है। आदमी की तौबा का हाल ख़ुदा के सिवा कोई नहीं जान सकता। हमारे सामने जो शख़्स तौबा करेगा हम उसे इस हद तक रिआयत दे सकते हैं कि उसे फ़ासिक़ के नाम से याद न करें, लेकिन इस हद तक रिआयत नहीं दे सकते कि जिसकी ज़बान का एतिबार एक बार जाता रहा है, उसपर फिर सिर्फ़ इसलिए एतिबार करने लगे कि वह हमारे सामने तौबा कर रहा है। इसके अलावा ख़ुद क़ुरआन की इबारत का अन्दाज़े-बयान भी यही बता रहा है कि “सिवाय उनके जो तौबा कर लें” का ताल्लुक़ सिर्फ़ “उलाइ-क हुमुल-फ़ासिक़ून” (वे ख़ुद ही गुनाहगार है) से है इसलिए कि इबारत में पहली दो बातें हुक्म के अलफ़ाज़ में कही गई हैं, “उनको अस्सी (80) कोड़े मारो” और “उनकी गवाही कभी क़ुबूल न करो।” और तीसरी बात ख़बर के अलफ़ाज़़ में कही गई है, “वे ख़ुद ही फ़ासिक़ हैं।” इस तीसरी बात के बाद फ़ौरन यह फ़रमाना कि “सिवाय उन लोगों के जो तौबा कर लें” ख़ुद ज़ाहिर कर देता है कि यह इस्तिसना (अपवाद) आख़िरी जुमले से, जो ख़बर के तौर पर कहा गया है, ताल्लुक़ रखता है, न कि पहले दो हुक्मी (आदेशात्मक) जुमलों से। फिर भी अगर यह मान लिया जाए कि यह इस्तिसना आख़िरी जुमले तक महदूद नहीं है तो फिर कोई वजह समझ में नहीं आती कि वह “गवाही क़ुबूल न करो” के जुमले तक पहुँचकर रुक कैसे गया, “अस्सी कोड़े मारो” के जुमले तक भी क्यों न पहुँच गया। (10) सवाल किया जा सकता है कि “इल्लल्लज़ी-न ताबू' (सिवाय उनके जो तौबा कर लें) का इस्तिसना आख़िर पहले हुक्म से भी मुताल्लिक़ क्यों न मान लिया जाए? क़ज्फ़ आख़िर एक तरह की तौहीन ही तो है। एक आदमी उसके बाद अपना क़ुसूर मान ले, जिसपर झूठा इलज़ाम लगाया उससे माफ़ी माँग ले और आगे के लिए इस हरकत से तौबा कर ले तो आख़िर क्यों न उसे छोड़ दिया जाए, जबकि अल्लाह तआला ख़ुद हुक्म बयान करने के बाद फ़रमा रहा है कि “सिवाय उन लोगों के जो इस हरकत के बाद तौबा कर लें और सुधार कर लें कि अल्लाह ज़रूर (उनके हक़ में) बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।” यह तो एक अजीब बात होगी कि अल्लाह माफ़ कर दे और बन्दे माफ़ न करें। इसका जवाब यह है कि तौबा अस्ल में सिर्फ़ ज़बान से कह देने का नाम नहीं है, बल्कि दिल में शर्मिन्दगी के एहसास और सुधार के पक्के इरादे और भलाई की तरफ़ पलटने का नाम है, और इस चीज़ का हाल अल्लाह के सिवा कोई नहीं जान सकता। इसी लिए तौबा से दुनियावी सज़ाएँ माफ़ नहीं होतीं, बल्कि सिर्फ़ आख़िरत में मिलनेवाली सज़ा माफ़ होती है, और इसी लिए अल्लाह तआला ने यह नहीं फ़रमाया कि अगर वे तौबा कर लें तो तुम उन्हें छोड़ दो, बल्कि यह फ़रमाया है कि जो लोग तौबा कर लेंगे मैं उनके लिए माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला हूँ। अगर तौबा से दुनियावी सज़ाएँ भी माफ़ होने लगें तो आख़िर वह कौन-सा मुजरिम है जो सज़ा से बचने के लिए तौबा न कर लेगा? (11) यह भी सवाल किया जा सकता है कि एक शख़्स का अपने इलज़ाम के सुबूत में गवाही न ला सकना लाज़िमी तौर से यही मतलब तो नहीं रखता कि यह झूठा हो। क्या यह मुमकिन नहीं है कि उसका इलज़ाम सचमुच सही हो और वह सुबूत जुटाने में नाकाम रहे। फिर क्या वजह है कि उसे सिर्फ़ सुबूत न दे सकने की बुनियाद पर फ़ासिक़ (गुनहगार) ठहराया जाए, और वह भी लोगों के नज़दीक ही नहीं, अल्लाह के नज़दीक भी? इसका जवाब यह है कि एक शख़्स ने अगर अपनी आँखों से भी किसी को बदकारी करते देख लिया हो, फिर भी यह उसकी चर्चा करने और गवाही के बिना उसपर इलज़ाम लगाने में गुनहगार है। अल्लाह की शरीअत यह नहीं चाहती कि एक शख़्स अगर एक कोने में गन्दगी लिए बैठा हो तो दूसरा शख़्स उसे उठाकर सारे समाज में फैलाना शुरू कर दे। इस गन्दगी की मौजूदगी की अगर उसको जानकारी है तो उसके लिए दो ही रास्ते हैं। या उसको जहाँ वह पड़ी है, वहीं पड़ी रहने दे या फिर उसकी मौजूदगी का सुबूत दे, ताकि इस्लामी हुकूमत के अधिकारी उसे साफ़ कर दें। इन दो रास्तों के सिवा कोई तीसरा रास्ता उसके लिए नहीं है। अगर वह पब्लिक में उसकी चर्चा करेगा तो महदूद गन्दगी को बड़े पैमाने पर फैलाने का मुजरिम होगा और अगर वह क़ाबिले-इत्मीनान गवाही के बिना अधिकारियों तक मामला ले जाएगा तो अधिकारी उस गन्दगी को साफ़ न कर सकेंगे। नतीजा इसका यह होगा कि इस मुक़द्दमे की नाकामी गन्दगी फैलने की वजह भी बनेगी और बदकारों में जुरअत भी पैदा कर देगी। इसी लिए सुबूत और गवाही के बिना ज़िना का इलज़ाम लगानेवाला बहरहाल गुनहगार है, चाहे वह अपनी जगह सच्चा ही क्यों न हो। (12) क़ज़्फ़ की सज़ा के बारे में हनफ़ी फ़क़ीहों की राय यह है कि झूठा इलज़ाम लगानेवाले को बदकार के मुक़ाबले हलकी मार मारी जाए यानी कोड़े तो अस्सी (80) ही हों, मगर चोट इतनी सख़्त न होनी चाहिए जितनी ज़िना करनेवाले को लगाई जाती है। इसलिए कि जिस इलज़ाम के कुसूर में उसे सज़ा दी जा रही है उसमें उसका झूठा होना बहरहाल यक़ीनी नहीं है। (13) ज़िना (व्यभिचार) का झूठा इलज़ाम बार-बार लगाने के बारे में हनफ़ी उलमा और दूसरे ज़्यादातर फ़क़ीहों की राय यह है कि इलज़ाम लगानेवाले ने सज़ा पाने से पहले या सज़ा के दौरान में चाहे कितनी ही बार एक शख़्स पर इलज़ाम लगाया हो, उसपर एक ही सज़ा जारी की जाएगी। और अगर सज़ा जारी होने के बाद वह अपने पिछले इलज़ाम ही को दोहराता रहे तो जो सज़ा उसे दी जा चुकी है वही काफ़ी होगी, अलबत्ता अगर सज़ा जारी करने के बाद वह उस आदमी पर ज़िना का एक नया इलज़ाम लगा दे तो फिर नए सिरे से मुक़द्दमा क़ायम किया जाएगा। मुग़ीरा-बिन-शोबा के मुक़द्दमे में सज़ा पाने के बाद अबू-बकरा खुल्लम-खुल्ला कहते रहे कि “मैं गवाही देता हूँ कि मुग़ीरा ने ज़िना किया था।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने इरादा किया कि उनपर फिर मुक़द्दमा क़ायम करें। मगर चूँकि वे पिछला इलज़ाम ही दोहरा रहे थे, इसलिए हज़रत अली (रज़ि०) ने राय दी कि इसपर दूसरा मुक़द्दमा नहीं चलाया जा सकता, और हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनकी राय क़ुबूल कर ली। इसके बाद फ़क़ीह इस बात पर लगभग एक राय हो गए कि सज़ा पाए हुए क़ाज़िफ़ (बेसुबूत इलज़ाम लगानेवाले) को सिर्फ़ नए इलज़ाम ही पर पकड़ा जा सकता है, पिछले इलज़ाम के दोहराने पर नहीं। (14) कई लोगों पर ज़िना का इलज़ाम लगाने के मामले में फ़कीहों के बीच इख़्तिलाफ़ है। हनफ़ी उलमा कहते हैं कि अगर एक शख़्स बहुत-से लोगों पर भी इलज़ाम लगाए, चाहे एक लफ़्ज़ में या अलग-अलग अलफ़ाज़ में तो उसपर एक ही सज़ा लगाई जाएगी, सिवाय इसके कि सज़ा लगने के बाद वह फिर किसी पर नया इलज़ाम लगाए। इसलिए कि आयत के अलफ़ाज़ ये हैं, “जो लोग पाकदामन औरतों पर इलज़ाम लगाएँ।” इससे मालूम हुआ कि एक शख़्स ही नहीं, एक जमाअत पर इलज़ाम लगानेवाला भी सिर्फ़ एक ही सज़ा का हक़दार होता है। और इसलिए भी कि ज़िना का कोई इलज़ाम ऐसा नहीं हो सकता जो कम-से-कम दो लोगों (मर्द-औरत) पर न लगता हो। मगर इसके बावजूद अल्लाह ने एक ही सज़ा का हुक्म दिया, औरत पर इलज़ाम के लिए अलग और मर्द पर इलज़ाम के लिए अलग सज़ा का हुक्म नहीं दिया। इसके बरख़िलाफ़ इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि एक जमाअत पर इलज़ाम लगानेवाला चाहे एक लफ़्ज़ में इलज़ाम लगाए या अलग-अलग अलफ़ाज़ में, उसपर हर शख़्स के लिए अलग-अलग पूरी सज़ा दी जाएगी। यही राय उसमान अल-बत्ती की भी है। और इब्ने-अबी-लैला का क़ौल (कथन) जिसमें शअबी और औज़ाई भी उनके साथ हैं, यह है कि एक लफ़्ज़ में पूरी जमाअत को ज़ानी (व्यभिचारी) कहनेवाला एक सज़ा का हक़दार है, और अलग-अलग अलफ़ाज़ में हर एक को कहनेवाला हर एक के लिए अलग सज़ा का हक़दार।
وَٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ أَزۡوَٰجَهُمۡ وَلَمۡ يَكُن لَّهُمۡ شُهَدَآءُ إِلَّآ أَنفُسُهُمۡ فَشَهَٰدَةُ أَحَدِهِمۡ أَرۡبَعُ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 5
(6) और जो लोग अपनी बीवियों पर इलज़ाम लगाएँ और उनके पास ख़ुद उनके अपने सिवा दूसरे कोई गवाह न हों तो उनमें से एक शख़्स की गवाही (यह है कि वह) चार बार अल्लाह की क़सम खाकर गवाही दे कि वह (अपने इलज़ाम में) सच्चा है
وَٱلۡخَٰمِسَةُ أَنَّ لَعۡنَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡهِ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 6
(7) और पाँचवीं बार कहे कि उसपर अल्लाह की लानत हो अगर वह (अपने इलज़ाम में) झूठा हो।
وَيَدۡرَؤُاْ عَنۡهَا ٱلۡعَذَابَ أَن تَشۡهَدَ أَرۡبَعَ شَهَٰدَٰتِۭ بِٱللَّهِ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 7
(8) और औरत से सज़ा इस तरह टल सकती है कि वह चार बार अल्लाह की क़सम खाकर गवाही दे कि यह शख़्स (अपने इलज़ाम में) झूठा है
وَٱلۡخَٰمِسَةَ أَنَّ غَضَبَ ٱللَّهِ عَلَيۡهَآ إِن كَانَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 8
(9) और पाँचवीं बार कहे कि उस बन्दी पर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) टूटे अगर वह (अपने इलज़ाम में) सच्चा हो।7
7. ये आयतें पिछली आयतों के कुछ मुद्दत बाद उतरी हैं। क़ज़्फ़ की सज़ा का हुक्म जब उतरा तो लोगों में यह सवाल पैदा हो गया कि ग़ैर-मर्द और औरत की बदचलनी देखकर तो आदमी सब्र कर सकता है, गवाह मौजूद न हों तो ज़बान पर ताला लगा ले और मामले को अनदेखा कर दे। लेकिन अगर वह ख़ुद अपनी बीवी की बदचलनी देख ले तो क्या करे? क़त्ल कर दे तो उलटा सज़ा का हक़दार ठहरे। गवाह ढूँढ़ने जाए तो उनके आने तक मुजरिम कब ठहरा रहेगा? सब्र करे तो आख़िर कैसे करे? तलाक़ देकर औरत को विदा कर सकता है, मगर इस तरह न उस औरत को किसी तरह की जिस्मानी या अख़लाक़ी सज़ा मिलेगी, न उसके आशना को। और अगर उसे नाजाइज़ हमल ठहरा हो तो ग़ैर का बच्चा अलग गले पड़ा, यह सवाल शुरू में तो हज़रत सअद-बिन-उबादा ने एक फ़र्ज़ी सवाल की हैसियत से पेश किया और यहाँ तक कह दिया कि मैं अगर, ख़ुदा न करे, अपने घर में यह मामला देखूँ तो गवाहों की तलाश में नहीं जाऊँगा, बल्कि तलवार से उसी वक़्त मामला तय कर दूँगा (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) लेकिन थोड़ा ही वक़्त बीता था कि कुछ ऐसे मुक़द्दमे अमली तौर पर पेश आ गए जिनमें शौहरों ने अपनी आँखों से यह मामला देखा और नबी (सल्ल०) के पास इसकी शिकायत ले गए। अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) और इब्ने-उमर (रज़ि०) की रिवायतें हैं कि अनसार में से एक शख़्स (शायद उवैमिर अजलानी) ने हाज़िर होकर अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल, अगर एक शख़्स अपनी बीवी के साथ ग़ैर-मर्द को पाए और मुँह से बात निकाले तो आप क़ज़्फ़ की सज़ा जारी कर देंगे, क़त्ल कर दे तो आप उसे क़त्ल की सज़ा देंगे, चुप रहे तो ग़ुस्से मे मुब्तला रहे। आख़िर वह क्या करे? उसपर नबी ने दुआ की कि “ऐ अल्लाह! इस मसले का फ़ैसला फ़रमा।” (हदीस : मुस्लिम, बुख़ारी, अबू-दाऊद, अहमद, नसई) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि हिलाल-बिन-उमैया ने आकर अपनी बीवी का मामला पेश किया जिसे उन्होंने ख़ुद अपनी आँखों से बदकारी करते देखा था। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “सुबूत लाओ वरना तुमपर क़ज़्फ़ की सज़ा जारी होगी।” सहाबा के बीच इसपर आम परेशानी फैल गई, और हिलाल ने कहा, उस ख़ुदा की क़सम। जिसने आपको नबी बनाकर भेजा है, मैं बिलकुल सही वाक़िआ बयान कर रहा हूँ जिसे मेरी आँखों ने देखा और कानों ने सुना है। मुझे यक़ीन है कि अल्लाह तआता मेरे मामले में ऐसा हुक्म उतारेगा जो मेरी पीठ कोड़ों से बचा देगा। इसपर यह आयत उतरी। (हदीस : बुख़ारी, अहमद, अबू-दाऊद) इसमें मामला निबटाने का जो तरीक़ा बताया गया है उसे इस्लामी क़ानून की ज़बान में 'लिआन' कहा जाता है। यह हुक्म आ जाने के बाद नबी (सल्ल०) ने जिन मुक़द्दमों का फ़ैसला फ़रमाया उनकी तफ़सीली रूदादें, हदीस की किताबों में लिखी हैं और वहीं से लिआन के तफ़सीली क़ानून और कार्रवाई के तरीक़े लिए गए हैं। हिलाल-बिन-उमैया के मुक़द्दमे की जो तफ़सीलात 'सिहाह सित्ता' (हदीस की छह भरोसेमन्द किताबें) और मुसनद अहमद और तफ़सीर इब्ने-जरीर में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) से रिवायत हुई हैं, उनमें बयान किया गया है कि इस आयत के उतरने के बाद हिलाल और उनकी बीवी, दोनों नबी (सल्ल०) की अदालत में हाज़िर किए गए। नबी (सल्ल०) ने पहले अल्लाह का हुक्म सुनाया। फिर फ़रमाया, “अच्छी तरह समझ लो कि आख़िरत का अज़ाब दुनिया के अज़ाब से ज़्यादा सख़्त चीज़ है।” हिलाल ने अर्ज़ किया, “मैंने इसपर बिलकुल सही इलज़ाम लगाया है।” औरत ने कहा, “यह बिलकुल झूठ है।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा तो इन दोनों में आपस में 'लिआन' कराया जाए।” चुनाँचे पहले हिलाल उठे और उन्होंने क़ुरआनी हुक्म के मुताबिक़ क़समें खानी शुरू कीं। नबी (सल्ल०) इस बीच बार-बार फ़रमाते रहे, “अल्लाह को मालूम है कि तुममें से एक ज़रूर झूठा है फिर क्या तुममें से कोई तौबा करेगा?” पाँचवीं क़सम से पहले वहाँ मौजूद लोगों ने हिलाल से कहा, “ख़ुदा से डरो, दुनिया का अज़ाब आख़िरत के अज़ाब से हलका है। यह पाँचवीं क़सम तुमपर अज़ाब वाजिब कर देगी।” मगर हिलाल ने कहा, “जिस ख़ुदा ने यहाँ मेरी पीठ बचाई है, वह आख़िरत में भी मुझे अज़ाब नहीं देगा।” यह कहकर उन्होंने पाँचवीं क़सम भी खा ली। फिर औरत उठी और उसने भी क़समें खानी शुरू कीं। पाँचवीं क़सम से पहले उसे भी रोककर कहा गया कि “ख़ुदा से डर, आख़िरत के अज़ाब के मुक़ाबले में दुनिया का अज़ाब बरदाश्त कर लेना आसान है। यह आख़िरी क़सम तुझपर अल्लाह के अज़ाब को वाजिब कर देगी।” यह सुनकर वह कुछ देर रुकती और झिझकती रही। लोगों ने समझा कि वह अपना गुनाह क़ुबूल करना चाहती है। मगर फिर कहने लगी, “मैं हमेशा के लिए अपने क़बीले को रूसवा नहीं करूँगी।” और पाँचवीं क़सम भी खा गई। इसके बाद नबी (सल्ल०) ने दोनों के बीच जुदाई करा दी और फ़ैसला फ़रमाया कि “इसका बच्चा (जो उस वक़्त पेट में था) उसका ताल्लुक़ उसकी माँ से जोड़ा जाएगा, बाप का नहीं पुकारा जाएगा। किसी को इसपर या उसके बच्चे पर इलज़ाम लगाने का हक़ न होगा जो इसपर या इसके बच्चे पर इलज़ाम लगाएगा वह क़ज़्फ़ की सज़ा का हक़दार होगा और उसको इद्दत के ज़माने के ख़र्च और रहने की सुहूलत का कोई हक़ हिलाल पर हासिल नहीं है, क्योंकि यह तलाक़ या मौत के बिना शौहर से अलग की जा रही है।” फिर आप (सल्ल०) ने लोगों से कहा कि इसके यहाँ जब बच्चा हो तो देखो वह किसपर गया है। अगर इस-इस शक्ल का हो तो हिलाल का है, और अगर उस सूरत का हो तो उस आदमी का है जिसके बारे में इसपर इलज़ाम लगाया गया है।” बच्चा पैदा होने के बाद देखा गया कि वह दूसरे आदमी की शक्ल का था। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर क़समें न होती (या एक दूसरी रिवायत के मुताबिक़, अगर अल्लाह की किताब पहले ही फ़ैसला न कर चुकी होती) तो मैं इस औरत से बुरी तरह पेश आता।" उवैमिर अजलानी के मुक़द्दमे की रूदाद सहल-बिन-सअद साइदी (रज़ि०) और इब्ने-उमर (रज़ि०) से बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई, इब्ने-माजा और मुसनद अहमद में मिलती है। उसमें बयान हुआ है कि उवैमिर और उनकी बीवी, दोनों मस्जिदे-नबवी में बुलाए गए। आपस में लिआन करने से पहले नबी (सल्ल०) ने उनको भी ख़बरदार करते हुए तीन बार फ़रमाया, “अल्लाह ख़ूब जानता है कि तुममें से एक ज़रूर झूठा है। फिर क्या तुममें से कोई तौबा करेगा?” जब किसी ने तौबा न की तो दोनों में लिआन कराया गया (यानी दोनों को क़समें दिलाई गईं) उसके बाद उवैमिर ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! अब अगर मैं इस औरत को रखूँ तो झूठा हूँ।” यह कहकर उन्होंने तीन तलाक़ें दे दीं, बिना इसके कि नबी (सल्ल०) ने उनको ऐसा करने का हुक्म दिया होता। सहल-बिन-सअद कहते हैं कि इन तलाक़ों को नबी (सल्ल०) ने लागू कर दिया और उन दोनों के बीच जुदाई करा दी और फ़रमाया कि “यह जुदाई है हर ऐसे जोड़े के मामले में जो आपस में लिआन करे।” और सुन्नत यह क़ायम हो गई कि लिआन करनेवाले मियाँ-बीवी को जुदा कर दिया जाए, फिर वे दोनों कभी आपस में शादी नहीं कर सकते। मगर इब्ने-उमर सिर्फ़ इतना बयान करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने उनके बीच जुदाई करा दी। सहल-बिन-सअद यह भी बयान करते हैं कि औरत के पेट में बच्चा था और उवैमिर ने कहा कि यह बच्चा मेरा नहीं है। इस बुनियाद पर बच्चे का ताल्लुक़ माँ से ठहराया गया और सुन्नत यह जारी हुई कि इस तरह का बच्चा माँ से मीरास पाएगा और माँ ही उससे मीरास पाएगी। इन दोनों मुक़द्दमों के अलावा बहुत-सी रिवायतें हमको हदीस की किताबों में ऐसी भी मिलती है। जिनमें यह साफ़ तौर से बयान नहीं किया गया है कि वे किन लोगों के मुक़दमों की हैं। हो सकता है कि उनमें से कुछ इन्हीं दोनों मुक़द्दमों से ताल्लुक़ रखती हों, मगर कुछ में कुछ दूसरे मुक़द्दमों का भी ज़िक्र है और उनसे लिआन के क़ानून के कुछ अहम बिन्दुओं पर रौशनी पड़ती है। इब्ने-उमर एक मुक़द्दमे की रूदाद बयान करते हुए कहते हैं कि मियाँ-बीवी जब लिआन कर चुके तो नबी (सल्ल०) ने उनके बीच जुदाई करा दी ( हदीस : बुख़ारी मुस्लिम, नसई, अहमद, इब्ने-जरीर) इब्ने-उमर की एक और रिवायत है कि एक आदमी और उसकी बीवी के बीच लिआन कराया गया। फिर उसने पेट में बच्चा होने से इनकार किया। नबी (सल्ल०) ने उनके बीच जुदाई करा दी और फ़ैसला फ़रमाया कि बच्चा सिर्फ़ माँ का होगा (हदीस : सिहाह सित्ता और अहमद) इब्ने-उमर ही की एक और रिवायत है कि आपस में लिआन के बाद नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम्हारा हिसाब अब अल्लाह के ज़िम्मे है, तुममें से एक बहरहाल झूठा है।” फिर आप (सल्ल०) ने मर्द से फ़रमाया, “अब यह तेरी नहीं रही। न तू इसपर कोई हक़ जता सकता है, न किसी तरह की ज़्यादती या इन्तिक़ामी हरकत इसके ख़िलाफ़ कर सकता है।” मर्द ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! और मेरा माल (यानी वह मह्‍र तो मुझे दिलवाइए जो मैंने इसे दिया था)?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “माल वापस लेने का तुझे कोई हक़ नहीं है, अगर तूने इसपर सच्चा इलज़ाम लगाया है तो वह माल उस लज़्ज़त का बदल है जो तूने हलाल करके इससे उठाई, और अगर तूने इसपर झूठा इलज़ाम लगाया है तो माल तुझसे और भी ज़्यादा दूर चला गया। वह इसके मुक़ाबले तुझसे ज़्यादा दूर है। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम अबू-दाऊद) दारे-क़ुतनी ने अली-बिन-अबी-तालिब (रज़ि०) और इब्ने-मसऊद (रज़ि०) का क़ौल (कथन) नक़्ल किया है, “सुन्नत यह मुक़र्रर हो चुकी है कि लिआन करनेवाले मियाँ-बीवी फिर कभी आपस में इकट्ठे नहीं हो सकते।” (यानी उनका दोबारा निकाह फिर कभी नहीं हो सकता) और दारे-क़ुतनी ही में हज़रत अब्दुल्ला-बिन-अब्बास (रज़ि०) से रिवायत वक़्त करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने ख़ुद फ़रमाया है कि ये दोनों फिर कभी इकट्ठे नहीं हो सकते। क़बीसा-बिन-ज़ुऐब की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में एक आदमी ने अपनी बीवी के पेट के बच्चे को नाजाइज़ करार दिया। फिर मान लिया कि यह बच्चा उसका अपना है। फिर बच्चा जनने के बाद कहने लगा कि यह बच्चा मेरा नहीं है। मामला हज़रत उमर (रज़ि०) की अदालत में पेश हुआ। उन्होंने उसपर क़ज़्फ़ की सज़ा जारी की और फ़ैसला किया कि बच्चे का ताल्लुक़ उसी से जोड़ा जाएगा। (हदीस : दारे-क़ुतनी, बैहक़ी) इब्ने-अब्बास (रज़ि०) रिवायत करते हैं कि एक आदमी ने हाज़िर होकर अर्ज़ किया कि “मेरी एक बीवी है जो मुझे बहुत प्यारी है। मगर उसका हाल यह है कि किसी हाथ लगानेवाले का हाथ नहीं झटकती (वाज़ेह रहे कि यह इशारा था जिसका मतलब ज़िना भी हो सकता है और ज़िना से कमतर दरजे की अख़लाक़्री कमज़ोरी भी) नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तलाक़ दे दे।” उसने कहा, “मगर मैं उसके बिना नहीं रह सकता।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तो उसे रखे रह।” (यानी आप सल्ल० ने उससे इस इशारे की तशरीह नहीं कराई और उसकी बात को ज़िना का इलज़ाम मानते हुए लिआन का हुक्म नहीं दिया।) (हदीस : नसई) अबू-हुरैरा (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक आराबी (देहाती) ने हाज़िर होकर अर्ज़ किया, “मेरी बीवी ने काला लड़का जना है और मुझे नहीं लगता कि वह मेरा है।” (यानी सिर्फ़ लड़के के रंग ने उसे शक में डाला था वरना बीवी पर ज़िना का इलज़ाम लगाने के लिए उसके पास कोई और वजह न थी।) आप (सल्ल०) ने पूछा, “तेरे पास कुछ ऊँट तो होंगे” उसने अर्ज़ किया, “हाँ” आप (सल्ल०) ने पूछा, “उनके रंग क्या है?” कहने लगा, “सुर्ख़। आप (सल्ल०) ने पूछा, “उनमें कोई मटमैला भी है।” कहने लगा “हाँ, कुछ ऐसे भी हैं।” आप (सल्ल०) ने पूछा, “यह रंग कहाँ से आया?” कहने लगा “शायद कोई रग खींच ले गई (यानी उनके बाप-दादा में से कोई इस रंग का होगा और उसी का असर उनमें आ गया)।” फ़रमाया, “शायद इस बच्चे को भी कोई रग खींच ले गई।” और आप (सल्ल०) ने उसे बच्चे का बाप होने से इनकार की इजाज़त न दी। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, अबू-दाऊद) अबू हुरैरा (रज़ि०) की एक रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने लिआनवाली आयत पर बात करते हुए फ़रमाया, “जो औरत किसी ख़ानदान में ऐसा बच्चा घुसा लाए जो उस ख़ानदान का नहीं है (यानी नाजाइज़ हमल को शौहर के सर मढ़ दे), उसका अल्लाह से कुछ ताल्लुक़ नहीं। अल्लाह उसको जन्नत में हरगिज़ दाख़िल न करेगा, और जो मर्द अपने बच्चे का बाप होने से इनकार करे, हालाँकि बच्चा उसको देख रहा हो, अल्लाह क़ियामत के दिन उससे परदा करेगा और उसे तमाम अगले-पिछले इनसानों के सामने रुसवा कर देगा (हदीस : अबू-दाऊद, नसई, दारमी) लिआनवाली आयत और ये रिवायतें और मिसालें और शरीअत के आम उसूल इस्लाम में लिआन के क़ानून के वे स्रोत हैं जिनकी रौशनी में फ़क़ीहों ने लिआन का तफ़सीली ज़ाब्ता बनाया है, जिसकी अहम दफ़आत (धाराएँ) ये हैं— (1) जो आदमी अपनी बीवी की बदकारी देखे और लिआन का रास्ता अपनाने के बजाय बीवी से ज़िना करनेवाले को क़त्ल कर डाले, उसके बारे में इख़्तिलाफ़ है। एक गिरोह कहता है कि उसे क़त्ल किया जाएगा; क्योंकि उसको अपने आप सज़ा जारी करने का हक़ न था। दूसरा गरोह कहता है कि उसे क़त्ल नहीं किया जाएगा और न उसकी इस हरकत पर कोई पकड़ होगी, बशर्ते उसका सच्चा होना साबित हो जाए (यानी यह कि उसने सचमुच ज़िना करने ही पर यह हरकत की)। इमाम अहमद और इसहाक़-बिन-राहवया कहते हैं कि उसे इस बात के दो गवाह लाने होंगे कि क़त्ल का सबब यही था। मालिकी आलिमों में से इब्नुल-क़ासिम और इब्ने-हबीब इसपर यह शर्त भी लगाते हैं कि ज़िना करनेवाला जिसे क़त्ल किया गया, वह शादीशुदा हो, वरना कुँआरे ज़ानी को क़त्ल करने पर उससे क़िसास लिया जाएगा। मगर आम फ़क़ीह का मसलक यह है कि उसको क़िसास से सिर्फ़ उस सूरत में माफ़ किया जाएगा जबकि वह ज़िना के चार गवाह पेश करे, या क़त्ल होनेवाला मरने से पहले ख़ुद यह बात क़ुबूल कर चुका हो कि वह उसकी बीवी से ज़िना कर रहा था, और इसके अलावा यह कि क़त्ल होनेवाला शादीशुदा हो। (नैलुल-औतार, हिस्सा-6, पेज-228) (2) लिआन घर बैठे आपस ही में नहीं हो सकता। इसके लिए अदालत में जाना ज़रूरी है। (3) लिआन की माँग का हक़ सिर्फ़ मर्द ही के लिए नहीं है, बल्कि औरत भी अदालत में इसकी माँग कर सकती है जबकि शौहर उसपर बदकारी का इलज़ाम लगाए या उसके बच्चे का बाप मानने से इनकार करे। (4) क्या लिआन हर मियाँ और बीवी के बीच हो सकता है या इसके लिए दोनों में कुछ शर्ते हैं? इस मसले में फ़क़ीहों के बीच इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि जिसकी क़सम क़ानूनी हैसियत से भरोसेमन्द हो और जिसको तलाक़ देने का अधिकार हो वह लिआन कर सकता है, मानो उनके नज़दीक सिर्फ़ आक़िल और बालिग़ होना लिआन के लायक़ होने के लिए काफ़ी है, चाहे मियाँ-बीवी मुस्लिम हों या ग़ैर-मुस्लिम ग़ुलाम हों या आज़ाद, उनकी गवाही क़ुबूल की जाने लायक़ हों या न हों, और मुस्लिम शौहर की बीवी मुसलमान हो या ज़िम्मी। लगभग यही राय इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) की भी है। मगर हनफ़ी आलिम कहते हैं कि लिआन सिर्फ़ ऐसे आज़ाद मुसलमान मियाँ-बीवी ही में हो सकता है जो क़ज़्फ़ के जुर्म में सज़ा न पा चुके हों। अगर औरत और मर्द दोनों ग़ैर-मुस्लिम हों, या ग़ुलाम हों, या क़ज़्फ़ के जुर्म में पहले सज़ा पा चुके हों तो उनके बीच लिआन नहीं हो सकता। इसके अलावा अगर औरत कभी इससे पहले हराम या मशकूक (संदिग्ध) तरीक़े पर किसी मर्द के साथ ताल्लुक़ जोड़ चुकी हो, तब भी लिआन दुरुस्त न होगा। ये शर्तें हनफ़ी आलिमों ने इस बुनियाद पर लगाई हैं कि उनके नज़दीक लिआन के क़ानून और क़ज़्फ़ के क़ानून में इसके सिवा कोई फ़र्क़ नहीं है कि ग़ैर आदमी अगर बेसुबूत इलज़ाम लगाता है तो उसके लिए सज़ा है और शौहर ऐसा करे तो यह लिआन करके छूट सकता है। बाक़ी तमाम हैसियतों से लिआन और क़ज़्फ़ एक ही चीज़ है। इसके अलावा हनफ़ी आलिमों के नज़दीक चूँकि लिआन की क़समें गवाही की हैसियत रखती हैं, इसलिए वे किसी ऐसे शख़्स को इसकी इजाज़त नहीं देते जो गवाही देने के लायक़ न हो। मगर हक़ीक़त यह है कि इस मसले में हनफ़ी आलिमों का मसलक कमज़ोर है और सही बात वही है जो इमाम शाफ़िई (रह०) ने फ़रमाई है। इसकी पहली वजह यह है कि क़ुरआन ने बीवी के बारे में बेसुबूत इलज़ाम के मसले को क़ज़्फ़वाली आयत का एक हिस्सा नहीं बनाया है, बल्कि उसके लिए अलग से क़ानून बयान किया है। इसलिए उसको क़ज़्फ़ के क़ानून के तहत लाकर वे तमाम शर्ते उसमें शामिल नहीं की जा सकतीं जो क़ज़्फ़ के लिए मुक़र्रर की गई हैं। लिआनवाली आयत के अलफ़ाज़ क़ज़्फ़वाली आयत के अलफ़ाज़ से अलग हैं और दोनों अलग-अलग हुक्म हैं, इसलिए लिआन का क़ानून लिआनवाली आयत ही से निकालना चाहिए, न कि क़ज़्फ़वाली आयत से। मसलन क़ज़फ़वाली आयत में सज़ा का हक़दार वह आदमी है जो पाकदामन औरतों (मुहसनात) पर इलज़ाम लगाए, लेकिन लिआनवाली आयत में पाकदामन बीवी की शर्त कहीं नहीं है। एक औरत चाहे कभी गुनहगार भी रही हो, अगर बाद में वह तौबा करके किसी आदमी से निकाह कर ले और फिर उसका शौहर उसपर बेवजह इलज़ाम लगाए तो लिआनवाली आयत यह नहीं कहती कि उस औरत पर तुहमत रखने की या उसकी औलाद के नसब से इनकार कर देने की शौहर को खुली छूट दे दो, क्योंकि उसकी ज़िन्दगी कभी दाग़दार रह चुकी है। दूसरी और इतनी ही अहम वजह यह है कि बीवी पर ज़िना के इलज़ाम और अजनबी औरत पर ज़िना के इलज़ाम में ज़मीन और आसमान का फ़र्क़ है। इसलिए इन दोनों के बारे में क़ानून का मिज़ाज भी एक नहीं हो सकता। ग़ैर-औरत से आदमी का कोई ताल्लुक़ नहीं। न जज़बात का, न इज़्ज़त का, न समाज का, न हक़ों का और न नस्ल और वंश का। उसके चाल-चलन से अगर एक आदमी को कोई बड़ी-से-बड़ी और अहम दिलचस्पी हो सकती है तो बस यह कि समाज को बद-अख़लाक़ी से पाक देखने का जोश उसपर चढ़ा हो। इसके बरख़िलाफ़ अपनी बीवी से आदमी का ताल्लुक़ एक तरह का नहीं, कई तरह का है और बहुत गहरा है। वह उसकी औलाद और उसके माल और उसके घर की अमानतदार है। उसकी ज़िन्दगी की साथी है उसके राज़ों की हिफ़ाज़त करनेवाली है। उसके निहायत गहरे और नाज़ुक जज़बात उससे जुड़े हैं। उसको बदचलनी से आदमी की ग़ैरत (आत्मसम्मान) और इज़्ज़त पर, उसके फ़ायदों पर और उसकी आनेवाली नस्ल पर सख़्त चोट लगती है। ये दोनों मामले आख़िर एक किस हैसियत से हैं कि दोनों के लिए क़ानून का मिज़ाज एक ही हो। क्या एक ज़िम्मी, या एक ग़ुलाम, या एक सज़ा पाए हुए आदमी के लिए उसकी बीवी का मामला किसी आज़ाद गवाही के लायक़ मुसलमान के मामले से कुछ भी अलग या अहमियत और नतीजों में कुछ भी कम है? अगर वह अपनी आँखों से किसी के साथ अपनी बीवी को ताल्लुक़ बनाते हुए देख ले, या उसको यक़ीन हो कि उसकी बीवी के पेट में जो बच्चा है यह किसी ग़ैर का है तो कौन-सी मुनासिब वजह है कि उसे लिआन का हक़ न दिया जाए? और यह हक़ उससे छीन लेने के बाद हमारे क़ानून में उसके लिए और क्या चारा है। क़ुरआन मजीद का मंशा तो साफ़ यह मालूम होता है कि वह शादीशुदा जोड़ों को उस पेचीदगी से निकालने की एक सूरत पैदा करना चाहता है जिसमें बीवी की सचमुच की बदकारी या नाजाइज़ बच्चे से एक शौहर, और शौहर के झूठे इलज़ाम या औलाद का बाप होने से बेजा इनकार की बदौलत एक बीवी मुब्तला हो जाए। यह ज़रूरत सिर्फ़ गवाही के क़ाबिल आज़ाद मुसलमानों के लिए ख़ास नहीं है, और क़ुरआन के अलफ़ाज़ में भी कोई चीज़ ऐसी नहीं है जो उसको सिर्फ़ उन्हीं तक महदूद करनेवाली हो। रही यह दलील कि क़ुरआन ने लिआन की क़समों को गवाही ठहराया है, इसलिए गवाही की शर्तें वहाँ लागू होंगी तो इसका तक़ाज़ा फिर यह है कि अगर आदिल (इनसाफ़ की बात करनेवाला) और गवाही के लायक़ शौहर क़समें खा ले और औरत क़सम खाने से कतराए तो औरत को संगसार कर दिया जाए, क्योंकि उसकी बदकारी पर गवाही क़ायम हो चुकी है। लेकिन यह अजीब बात है कि इस सूरत में हनफ़ी आलिम रज्म का हुक्म नहीं लगाते। यह इस बात का खुला सुबूत है कि वे ख़ुद भी इन क़समों को ठीक गवाही की हैसियत नहीं देते, बल्कि सच यह है कि ख़ुद क़ुरआन भी इन क़समों के लिए गवाही का लफ़्ज इस्तेमाल करने के बावजूद गवाही नहीं ठहराता वरना औरत को चार के बजाय आठ क़समें खाने का हुक्म देता। (5) लिआन सिर्फ़ इशारे या शक के ज़ाहिर करने पर लाज़िम नहीं आता, बल्कि सिर्फ़ उस सूरत में लाज़िम आता है जबकि शौहर खुले तौर पर ज़िना का इलज़ाम लगाए या साफ़ अलफ़ाज़ में बच्चे को अपना बच्चा मानने से इनकार कर दे। इमाम मालिक (रह०) और लैस-बिन-सअद इसके अलावा यह शर्त और बढ़ाते हैं कि क़सम खाते वक़्त शौहर को यह कहना चाहिए कि उसने अपनी आँखों से बीवी को ज़िना करते हुए देखा है। लेकिन यह क़ैद बेबुनियाद है। इसकी कोई अस्ल न क़ुरआन में है और न हदीस में। (6) अगर इलज़ाम लगाने के बाद शौहर क़सम खाने से कतराए तो इमाम अबू-हनीफा (रह०) और उनके साथी कहते हैं कि उसे क़ैद कर दिया जाएगा और जब तक वह लिआन न करे या अपने इलज़ाम का झूठा होना न मान ले, उसे न छोड़ा जाएगा, और झूठ मान लेने की सूरत में उसको क़ज़्फ़ की सज़ा (अस्सी कोड़ों की सज़ा) दी जाएगी। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०), हसन-बिन-सॉलिह और लैस-बिन-सअद की राय यह है कि लिआन से कतराना ख़ुद ही झूठ का इक़रार है, इसलिए क़ज़्फ़ की सज़ा वाजिब आ जाती है। (7) अगर शौहर के क़सम खा चुकने के बाद औरत लिआन से कतराए तो हनफ़ी आलिमों की राय यह है कि उसे क़ैद कर दिया जाए और उस वक़्त तक न छोड़ा जाए जब तक वह लिआन न कर ले या फिर ज़िना के जुर्म का इक़रार न कर ले। दूसरी तरफ़ ऊपर जिनका ज़िक्र हुआ वे इमाम कहते हैं कि इस सूरत में उसे रज्म कर दिया जाएगा। उनकी दलील क़ुरआन के इस इरशाद से है कि औरत से अज़ाब सिर्फ़ इस सूरत में टलेगा जबकि वह भी क़सम खा ले। अब चूँकि वह क़सम नहीं खाती इसलिए वह ज़रूर अज़ाब की हक़दार है। लेकिन इस दलील में कमज़ोरी यह है कि क़ुरआन यहाँ 'अज़ाब’ किस तरह का होगा इसे तय नहीं करता, बल्कि सिर्फ़ सज़ा का ज़िक्र करता है। अगर कहा जाए कि सज़ा से मुराद यहाँ ज़िना ही की सज़ा हो सकती है तो इसका जवाब यह है कि ज़िना की सज़ा के लिए क़ुरआन ने साफ़ अलफ़ाज़ में चार गवाहों की शर्त लगाई है। इस शर्त को सिर्फ़ एक आदमी की चार क़समें पूरा नहीं कर देतीं। शौहर की क़समें इस बात के लिए तो काफ़ी हैं कि वह ख़ुद क़ज़्फ़ की सज़ा से बच जाए और औरत पर लिआन का हुक्म लग सके, मगर इस बात के लिए काफ़ी नहीं हैं कि उनसे औरत पर ज़िना का इलज़ाम साबित हो जाए। औरत का जवाबी क़समें खाने से इनकार शक ज़रूर पैदा करता है, और बड़ा मज़बूत शक पैदा कर देता है, लेकिन शक और शुब्हों की बुनियाद पर हुदूद (सज़ाएँ) जारी नहीं की जा सकतीं। इस मामले को मर्द के क़ज़्फ़ (बेसुबूत इलज़ाम) की सज़ा के जैसा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि उसका क़ज़्फ़ तो साबित है, जभी तो उसको लिआन पर मजबूर किया जाता है। मगर इसके बरख़िलाफ़ औरत पर ज़िना (बदकारी) का इलज़ाम साबित नहीं है, क्योंकि वह उसके अपने इक़रार या चार आँखों देखी गवाही देनेवालों के बिना साबित नहीं हो सकता। (8) अगर लिआन के वक़्त औरत के पेट में बच्चा हो तो इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक लिआन अपने आपमें ख़ुद इस बात के लिए काफ़ी है कि मर्द उस बच्चे से ख़ुद को अलग कर ले और बच्चा उसका न माना जाए, इस बात से अलग कि मर्द ने बच्चे को क़ुबूल करने से इनकार किया हो या न किया हो। इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि मर्द का ज़िना का इलज़ाम लगाना और बच्चे को अपना न मानना दोनों एक चीज़ नहीं हैं, इसलिए मर्द जब तक बच्चे की ज़िम्मेदारी क़ुबूल करने से साफ़ तौर से इनकार न कर दे वह ज़िना का इलज़ाम लगाने के बावजूद उसी का माना जाएगा, क्योंकि औरत के बदकार होने से यह लाज़िम नहीं आता कि उसको बच्चा भी ज़िना ही का हो। (9) इमाम मालिक (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०), और इमाम अहमद (रह०) हमल के दौरान में मर्द को बच्चे को अपनाने से इनकार की इजाज़त देते हैं और इस बुनियाद पर लिआन को जाइज़ रखते हैं। मगर इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) कहते हैं कि अगर मर्द के इलज़ाम की बुनियाद ज़िना न हो, बल्कि सिर्फ़ यह हो कि उसने औरत को ऐसी हालत में हामिला पाया जबकि उसके ख़याल में हमल उसका नहीं हो सकता तो इस सूरत में लिआन के मामले को बच्चा पैदा होने तक टाल देना चाहिए, क्योंकि बहुत बार ऐसा भी होता है कि कोई बीमारी हमल का शक पैदा कर देती है और हक़ीक़त में हमल होता नहीं है। (10) अगर बाप बच्चे को अपना बताने से इनकार करे तो इस बात पर सब एक राय हैं कि उसके लिए लिआन करना ज़रूरी हो जाता है। और इस बात में भी सब एक राय हैं कि एक बार बच्चे को क़ुबूल कर लेने के बाद (चाहे यह क़ुबूल कर लेना साफ़ अलफ़ाज़ में हो या क़ुबूल कर लेने की दलील देनेवाले काम जैसे पैदाइश पर मुबारकबाद लेने या बच्चे के साथ एक बाप की-सी मुहब्बत का बरताव करने और उसकी परवरिश से दिलचस्पी लेने की सूरत में) फिर बाप को इस बात का हक़ नहीं रहता कि वह बच्चे को अपना मानने से इनकार करे, और अगर फिर भी वह इनकार करे तो क़ज़्फ़ की सज़ा का हक़दार हो जाता है। मगर इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि बाप को किस वक़्त तक अपना मानने से इनकार का हक़ हासिल रहता है। इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक अगर शौहर उस ज़माने में घर पर मौजूद रहा है जबकि बीवी हामिला थी तो हमल के ज़माने से लेकर बच्चा पैदा होने तक उसके लिए इनकार का मौक़ा है, उसके बाद वह इनकार का हक़ नहीं रखता। अलबत्ता अगर यह ग़ायब था और उसके पीछे बच्चा पैदा हुआ तो जिस वक़्त उसे ख़बर हो वह इनकार कर सकता है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक अगर पैदाइश के बाद एक दो दिन के अन्दर वह इनकार करे तो लिआन करके वह बच्चे की ज़िम्मेदारी से आज़ाद हो जाएगा, लेकिन अगर साल दो साल बाद इनकार करे तो लिआन होगा, मगर वह बच्चे की ज़िम्मेदारी से बरी न हो सकेगा। इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) के नज़दीक बच्चे की पैदाइश के बाद, या पैदा होने की ख़बर मिलने के बाद चालीस दिन के अन्दर-अन्दर बाप को इस बात का हक़ है कि वह उस बच्चे को अपना मानने से इनकार कर दे, इसके बाद यह हक़ खत्म हो जाएगा, मगर यह चालीस दिन की क़ैद बेमतलब है। सही बात वही है जो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने कही है कि बच्चा पैदा होने के बाद या उसकी ख़बर मिलने के बाद एक-दो दिन के अन्दर-अन्दर ही उसे अपना मानने से इनकार किया जा सकता है, सिवाय इसके कि उसमें कोई ऐसी रुकावट हो जिसे सही और मुनासिब रुकावट माना जा सके। (11) अगर शौहर तलाक़ देने के बाद तलाक़-शुदा बीवी पर ज़िना का इलज़ाम लगाए तो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक लिआन नहीं होगा, बल्कि उसपर क़ज़्फ़ का मुक़द्दमा क़ायम किया जाएगा, क्योंकि लिआन मियाँ-बीवी के लिए है और तलाक़ पाई हुई औरत उसकी बीवी नहीं है। सिवाय यह कि तलाक़ रजई (वह तलाक़ जिसमें दोबारा मिलन की गुंजाइश होती है) हो और रुजू की मुद्दत के अन्दर वह इलज़ाम लगाए। मगर इमाम मालिक के नज़दीक यह क़ज़्फ़ सिर्फ़ उस सूरत में है जबकि किसी हमल या बच्चे के क़ुबूल करने या न करने का मसला बीच में न हो। वरना मर्द को बाइन तलाक़ (वह तलाक़ जिसके बाद मिलन की गुंजाइश नहीं रहती) के बाद भी लिआन का हक़ हासिल है; क्योंकि वह औरत को बदनाम करने के लिए नहीं, बल्कि ख़ुद एक ऐसे बच्चे की ज़िम्मेदारी से बचने के लिए लिआन कर रहा है जिसे वह अपना नहीं समझता। लगभग यही राय इमाम शाफ़िई (रह०) की भी है। (12) लिआन के क़ानूनी नतीजों में से कुछ पर सभी उलमा एक राय हैं और कुछ में फ़क़ीहों के बीच इख़्तिलाफ़ है। जिन नतीजों पर सब एक राय है वे ये है— औरत और मर्द दोनों किसी सज़ा के हक़दार नहीं रहते। मर्द बच्चे को अपना मानने से इनकार करे तो बच्चा सिर्फ़ माँ का माना जाएगा, न बाप का नाम उसे मिलेगा, न उससे मीरास पाएगा। माँ उसकी वारिस होगी और वह माँ का वारिस होगा। औरत को बदकार और उसके बच्चे को नाजाइज़ कहने का किसी को हक़ न होगा, चाहे लिआन के वक़्त उसके हालात ऐसे ही क्यों न हों कि लोगों को उसके बदकार होने में शक न रहे। जो शख़्स लिआन के बाद उसपर या उसके बच्चे पर पिछला इलज़ाम लगाएगा वह सज़ा का हक़दार होगा। औरत का मह्‍र ख़त्म न होगा। औरत इद्दत के दौरान में मर्द से गुज़ारे का ख़र्च और रहने का ठिकाना पाने की हक़दार होगी। औरत उस मर्द के लिए हराम हो जाएगी। इख़्तिलाफ़ दो मसलों में है। एक यह कि लिआन के बाद औरत और मर्द में जुदाई कैसे होगी? दूसरे यह कि लिआन की बुनियाद पर अलग हो जाने के बाद क्या उन दोनों का फिर मिल जाना मुमकिन है? पहले मसले में इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि जिस वक़्त मर्द लिओन कर चुकेगा उसी वक़्त दोनों ख़ुद-ब-ख़ुद अलग हो जाते हैं, चाहे औरत जवाबी लिआन करे या न करे। इमाम मालिक (रह०), लैस-बिन-सअद और ज़ुफ़र कहते हैं कि मर्द और औरत दोनों जब लिआन कर चुकें तब अलग होते हैं। और इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), अबू-यूसुफ़ और अबू मुहम्मद कहते हैं कि लिआन से दोनों ख़ुद ही अलग नहीं हो जाते, बल्कि अदालत के अलग कराने से होते हैं। अगर शौहर ख़ुद तलाक़ दे दे तो बेहतर, वरना अदालत का हाकिम (न्यायाधीश) उनके बोच जुदाई का एलान करेगा दूसरे मसले में इमाम मालिक, अबू-यूसुफ़, ज़ुफ़र, सुफ़ियान सौरी, इसहाक़-बीन-राहवया, शाफ़िई, अहमद-बिन-हंबल और हसन-बिन-ज़ियाद कहते हैं कि लिआन से जो मियाँ-बीवी अलग हुए हों, वे फिर हमेशा के लिए एक-दूसरे पर हराम हो जाते हैं, दोबारा वे आपस में निकाह करना भी चाहें तो किसी हाल में नहीं कर सकते। यही राय हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०) और अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०)की भी है। इसके ख़िलाफ़ सईद-बिन-मुसय्यिब (रह०) इबराहीम नख़ई (रह०), शअबी (रह०), सईद-बिन-जुबैर (रह०), अबू-हनीफ़ा (रह०) और मुहम्मद (रह०) की राय यह है कि अगर शौहर अपना झूठ मानकर सज़ा पा गया तो फिर इन दोनों के बीच दोबारा निकाह हो सकता है। वे कहते हैं कि उनको एक-दूसरे के लिए हराम करने वाली चीज़ लिआन है। जब तक वे उसपर क़ायम रहें हुरमत भी क़ायम रहेगी मगर जब शौहर अपना झूठ मानकर सज़ा पा गया तो लिआन ख़त्म हो गया और एक के लिए दूसरे का हराम होना भी ख़त्म हो गया।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٌ حَكِيمٌ ۝ 9
(10) तुम लोगों पर अल्लाह की मेहरबानी और उसका रहम न होता और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा तौबा क़ुबूल करनेवाला और हिकमतवाला है, (तो बीवियों पर इलज़ाम का मामला तुम्हें बड़ी उलझन में डाल देता)।
إِنَّ ٱلَّذِينَ جَآءُو بِٱلۡإِفۡكِ عُصۡبَةٞ مِّنكُمۡۚ لَا تَحۡسَبُوهُ شَرّٗا لَّكُمۖ بَلۡ هُوَ خَيۡرٞ لَّكُمۡۚ لِكُلِّ ٱمۡرِيٕٖ مِّنۡهُم مَّا ٱكۡتَسَبَ مِنَ ٱلۡإِثۡمِۚ وَٱلَّذِي تَوَلَّىٰ كِبۡرَهُۥ مِنۡهُمۡ لَهُۥ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 10
(11) जो लोग यह बुहतान (मिथ्यारोप) गढ़ लाए हैं8 ये तुम्हारे ही अन्दर का एक टोला हैं।9 इस वाक़िए को अपने लिए बुरा न समझो, बल्कि यह भी तुम्हारे लिए भलाई ही है।10 जिसने उसमें जितना हिस्सा लिया उसने उतना ही गुनाह समेटा और जिस शख़्स ने इस ज़िम्मेदारी का बड़ा हिस्सा अपने सर लिया11 उसके लिए तो बड़ा अज़ाब है।
8. इशारा है उस इलज़ाम की तरफ़ जो हज़रत आइशा (रज़ि०) पर लगाया गया था। अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'इफ़्क' इस्तेमाल हुआ है जिसका तर्जमा 'बुहतान’ किया गया है। 'इफ़्क’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल करना ख़ुद अल्लाह तआला की तरफ़ से इस इलज़ाम को पूरी तरह ग़लत बताना है। 'इफ़्क’ का मतलब है बात को उलट देना, हक़ीक़त के ख़िलाफ़ कुछ-से-कुछ बना देना। इसी मतलब के एतिबार से यह लफ़्ज बिलकुल झूठ और बुहतान के मानी में बोला जाता है। और अगर किसी इलज़ाम के लिए बोला जाए तो इसका मतलब सरासर बुहतान होता है। यहाँ से उस वाक़िए पर चर्चा शुरू होती है जो इस सूरा के उतरने की अस्ल वजह थी। परिचय में हम इसका शुरू का क़िस्सा ख़ुद हज़रत आइशा (रज़ि०) की ज़बानी नक़्ल कर आए हैं। बाद की दास्तान भी उन्हीं की ज़बान से सुनिए। फ़रमाती हैं— "इस बुहतान की अफ़वाहें कम-ज़्यादा एक महीने तक शहर में उड़ती रहीं। नबी (सल्ल०) सख़्त परेशानी में मुब्तला रहे। मैं रोती रही। मेरे मा-बाप इन्तिहाई परेशानी और रंजो-ग़म में डूबे रहे। आख़िर एक दिन नबी (सल्ल०) तशरीफ़ लाए और मेरे पास बैठे। इस पूरी मुद्दत में आप कभी मेरे पास न बैठे थे। मेरे माँ-बाप (हज़रत अबू-बक्र रज़ि० और उम्मे-रूमान) ने महसूस किया कि आज कोई फ़ैसलाकुन बात होनेवाली है। इसलिए वे दोनों भी पास आकर बैठ गए नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आइशा! मुझे तुम्हारे बारे में ये ख़बरें पहुँची हैं। अगर तुम बेगुनाह हो तो उम्मीद है कि अल्लाह तुम्हारा बरी होना ज़ाहिर कर देगा। और अगर सचमुच तुम किसी गुनाह में मुब्तला हुई हो तो अल्लाह से तौबा करो और माफ़ी माँगो, बन्दा जब अपने गुनाह को क़ुबूल करके तौबा करता है तो अल्लाह माफ़ कर देता है।” यह बात सुनकर मेरे आँसू सूख गए। मैंने अपने वालिद से अर्ज़ किया कि आप अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की बात का जवाब दें। उन्होंने फ़रमाया, “बेटी, मेरी कुछ समझ ही में नहीं आता कि मैं क्या कहूँ।” मैने अपनी माँ से कहा कि आप ही कुछ कहें। उन्होंने भी यही कहा कि “मैं हैरान हूँ, क्या कहूँ।” इसपर मैं बोली कि “आप लोगों के कानों में एक बात पड़ गई है और दिलों में बैठ चुकी है, अब अगर में कहूँ कि मैं बेगुनाह हूँ — और अल्लाह जानता है कि मैं बेगुनाह हूँ — तो आप लोग न मानेंगे, और अगर मैं ख़ाह-मख़ाह एक ऐसी बात को क़ुबूल कर लूँ जो मैंने नहीं की — और अल्लाह जानता है कि मैंने नहीं की — तो आप लोग मान लेंगे।” मैंने उस वक़्त हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का नाम याद करने की कोशिश की, मगर याद न आया। आख़िर मैने कहा कि इस हालत में मेरे लिए इसके सिवा और क्या रास्ता है कि वही बात कहूँ जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के वालिद ने कही थी कि “फ़सबरुन-जमील” (सब्रे-जमील, इशारा है उस वाक़िए की तरफ़ जबकि हज़रत याक़ूब के सामने उनके बेटे बिनयमीन पर चोरी का इलज़ाम बयान किया गया था। सूरा-12 यूसुफ़, आयतें—79-83 में इसका ज़िक्र गुज़र चुका है) यह कहकर मैं लेट गई और दूसरी तरफ़ करवट ले ली। मैं उस वक़्त अपने दिल में कह रही थी कि अल्लाह मेरी बेगुनाही को जानता है और वह ज़रूर हक़ीक़त खोल देगा। अगरचे यह बात मैं सोच भी न सकती थी कि मेरे हक़ में वह्य उतरेगी जो क़ियामत तक पढ़ी जाएगी। मैं अपने आपको इससे कमतर समझती थी कि अल्लाह ख़ुद मेरी तरफ़ से बोले। मगर मेरा यह गुमान था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) कोई ख़ाब देखेंगे जिसमें अल्लाह तआला मेरा बेगुनाह होना ज़ाहिर कर देगा। इतने में एकाएक नबी (सल्ल०) पर वह कैफ़ियत छा गई जो वह्य उतरते वक़्त हुआ करती थी, यहाँ तक कि सख़्त जाड़े के ज़माने में भी मोती की तरह आप (सल्ल०) के चेहरे से पसीने की बूँदें टपकने लगती थीं। हम सब चुप हो गए। मुझे तो बिलकुल डर न था, मगर मेरे माँ-बाप का हाल यह था कि काटो तो बदन में लहू नहीं। ये डर रहे थे कि देखिए अल्लाह क्या हक़ीक़त खोलता है। जब यह कैफ़ियत दूर हुई तो नबी (सल्ल०) बेहद ख़ुश थे। आप (सल्ल०) ने हँसते हुए पहली बात जो फ़रमाई वह यह थी कि “मुबारक हो आइशा! अल्लाह ने तुम्हारे बेगुनाह होने की आयत उतार दी।” और इसके बाद नबी (सल्ल०) ने दस आयतें सुनाईं (आयत नम्बर 11 से 21 तक) मेरी माँ ने कहा, “उठो और अल्लाह के रसूल का शुक्रिया अदा करो।” मैंने कहा, “मैं न इनका शुक्रिया अदा करूँगी, न आप दोनों का, बल्कि अल्लाह का शुक्र अदा करती हूँ जिसने मेरे बेकुसूर होने की बात उतारी। आप लोगों ने तो इस बुहतान का इनकार तक न किया।” (मालूम रहे कि यह किसी एक रिवायत का तर्जमा नहीं है, बल्कि हदीस और सीरत की किताबों में जितनी रिवायतें हज़रत आइशा से इस सिलसिले में बयान हुई हैं उन सबको जमा करके हमने उनका ख़ुलासा पेश किया है)। इस मौक़े पर यह बारीक नुक्ता भी समझ लेना चाहिए कि हज़रत आइशा (रज़ि०) के बेगुनाह होने को बयान करने से पहले पूरे एक रुकू में ज़िना (व्यभिचार) और क़ज़्फ़ और लिआन (ज़िना का इलज़ाम लगाना) के अहकाम बयान करके अल्लाह तआला ने अस्ल में इस हक़ीक़त पर ख़बरदार किया है कि ज़िना के इलज़ाम का मामला कोई हँसी-दिल्लगी का मामला नहीं है जिसे महफ़िल का रंग बदलने के लिए इस्तेमाल किया जाए। यह एक इन्तिहाई संगीन बात है। इलज़ाम लगानेवाले का इलज़ाम अगर सच्चा है तो वह गवाही लाए। ज़िना करनेवाले मर्द-औरत को बहुत भयानक सज़ा दी जाएगी। अगर झूठा है तो इलज़ाम लगानेवाला इस लायक़ है कि उसकी पीठ पर अस्सी कोड़े बरसा दिए जाएँ, ताकि आगे से वह या कोई और ऐसी जुरअत न करे। और यह इलज़ाम अगर शौहर लगाए तो अदालत में लिआन करके उसे मामला साफ़ करना होगा। इस बात को ज़बान से निकालकर कोई शख़्स भी ख़ैरियत से बैठा नहीं रह सकता। इसलिए कि यह मुस्लिम समाज है जिसे दुनिया में भलाई क़ायम करने के लिए बरपा किया गया है। इसमें न ज़िना ही तफ़रीह बन सकती है और न उसकी चर्चाएँ ही हँसी-दिल्लगी की बातें बन सकती हैं।
9. रिवायतों में सिर्फ़ कुछ आदमियों के नाम मिलते हैं जो ये अफ़वाहें फैला रहे थे। अब्दुल्लाह-बिन-उबई, ज़ैद-बिन-रिफ़ाआ (जो शायद रिफ़ाआ-बिन-ज़ैद यहूदी मुनाफ़िक़ का बेटा था), मिस्तह-बिन-उसासा, हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) और हमना-बिन्ते-जह्श इनमें से पहले दो मुनाफिक़ थे और बाक़ी तीन ईमानवाले थे जो ग़लती और कमज़ोरी से इस फ़ितने में पड़ गए थे। इनके सिवा और जो लोग इस गुनाह में कम या ज़्यादा मुब्तला हुए, उनका ज़िक्र हदीस और सीरत की किताबों में नज़र से नहीं गुज़रा।
10. मतलब यह है कि घबराओ नहीं, मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) ने अपनी समझ से तो यह बड़े ज़ोर का वार तुमपर किया है, मगर अल्लाह चाहेगा तो यह उन्हीं पर उलटा पड़ेगा और तुम्हारे लिए फ़ायदेमन्द साबित होगा। जैसा कि हम परिचय में बयान कर आए हैं, मुनाफ़िक़ों ने यह बेबुनियाद अफ़वाह इसलिए उड़ाई थी कि मुसलमानों को उस मैदान में हरा दें जो उनकी बरतरी (श्रेष्ठता) का अस्ल मैदान था, यानी अख़लाक़ जिसमें बढ़ा हुआ होने ही की वजह से वे हर मैदान में अपने मुख़ालिफ़ से बाज़ी लिए जा रहे थे। लेकिन अल्लाह तआला ने इसको भी मुसलमानों के लिए भलाई का ज़रिआ बना दिया। इस मौक़े पर एक तरफ़ नबी (सल्ल०) ने, दूसरी तरफ़ हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और उनके ख़ानदानवालों ने और तीसरी तरफ़ आम इमानवालों ने जो रवैया अपनाया, उससे यह बात दिन के उजाले की तरह साबित हो गई कि वे लोग बुराई से कितने ज़्यादा पाक, कैसे सब्र और बरदाश्त से काम लेनेवाले, कैसे इनसाफ़-पसन्द और कितने ज़्यादा पाक-साफ़ दिल रखनेवाले हैं। नबी (सल्ल०) का एक इशारा उन लोगों की गरदनें उड़ा देने के लिए काफ़ी था, जिन्होंने आप (सल्ल०) की इज़्ज़त पर हमला किया था, मगर महीना भर तक आप (सल्ल०) सब्र से सब कुछ बरदाश्त करते रहे, और जब अल्लाह का हुक्म आ गया तो सिर्फ़ उन तीन मुसलमानों को जिनपर क़ज़्फ़ का जुर्म साबित हो गया था, सज़ा लगवा दी, मुनाफ़िक़ों को फिर भी कुछ न कहा। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) का अपना रिश्तेदार जिसका और जिसके घर भर का ख़र्च भी ये उठाते थे, उनके दिल और जिगर पर यह तीर चलाता रहा, मगर अल्लाह के उस नेक बन्दे ने इसपर भी न बिरादरी का ताल्लुक़ ख़त्म किया, न उसकी और उसके ख़ानदान की मदद ही बन्द की। नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों में से किसी ने भी सौतन की बदनामी में ज़र्रा बराबर हिस्सा न लिया, बल्कि किसी ने इसपर अपनी ज़रा-सी भी पसन्दीदगी, या कम-से-कम इसे मान लेने का इज़हार तक न किया, यहाँ तक कि हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) की सगी बहन हमना-बिन्त-जह्श सिर्फ़ उनकी ख़ातिर उनकी सौतन को बदनाम कर रही थीं, मगर ख़ुद उन्होंने सौतन के लिए अच्छी बात ही कही। हज़रत आइशा (रज़ि०) की अपनी रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पाक बीवियों में सबसे ज़्यादा ज़ैनब ही से मेरा मुक़ाबला रहता था, मगर हज़रत आइशा (रज़ि०) पर लगाए गए 'झूठ और बुहतान' के वाक़िए के सिलसिले में जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनसे पूछा कि आइशा के बारे में तुम क्या जानती हो तो उन्होंने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल, ख़ुदा की क़सम, मैं उसके अन्दर भलाई के सिवा और कुछ नहीं जानती।” हज़रत आइशा (रज़ि०) की अपनी शरीफ़ मिज़ाजी का हाल यह था कि हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) ने उन्हें बदनाम करने में नुमायों तौर से हिस्सा लिया, मगर ये हमेशा उनके साथ इज़्ज़त और नर्मी के साथ पेश आती रहीं। लोगों ने याद दिलाया कि यह तो वही आदमी है जिसने आपको बदनाम किया था तो यह जवाब देकर उनका मुँह बन्द कर दिया कि यह वह शख़्स है जो इस्लाम-दुश्मन शाइरों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और इस्लाम की तरफ़ से मुँह तोड़ जवाब दिया करता था। यह था उन लोगों का हाल जिनका इस मामले से सीधा ताल्लुक़ था, और आम मुसलमानों के मन की पाकीज़गी का अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि हज़रत अबू-अय्यूब अनसारी से उनकी बीवी ने जब इन अफ़वाहों का ज़िक्र किया तो ये कहने लगे, “अय्यूब की माँ, अगर तुम आइशा की जगह उस मौक़े पर होतीं तो क्या ऐसी हरकत करतीं?” वे बोली, “ख़ुदा की क़सम, मैं यह हरकत हरगिज़ न करती!” हज़रत अय्यूब ने कहा, “तो आइशा तुमसे बहुत ज़्यादा बेहतर हैं। और मैं कहता हूँ कि अगर सफ़वान की जगह मैं होता तो इस तरह का ख़याल तक न कर सकता था। सफ़वान तो मुझसे अच्छा मुसलमान है।” इस तरह मुनाफ़िक़ जो कुछ चाहते थे, नतीजा उसके बिलकुल उलट निकला और मुसलमानों का अख़लाक़ी तौर पर दूसरों से बढ़कर होना पहले से ज़्यादा नुमायाँ हो गया। फिर इसमें भलाई का एक और पहलू भी था, और वह यह कि यह वाक़िआ इस्लाम के क़ानूनों और हुक्मों और सामाजिक ज़ाब्तों में बड़े अहम इज़ाफ़ों का सबब बन गया। इसकी बदौलत मुसलमानों को अल्लाह तआला की तरफ़ से ऐसी हिदायतें मिलीं जिनपर अमल करके मुस्लिम समाज को हमेशा के लिए बुराइयों को पैदा होने और उनको फैलने से बचाया जा सकता है, और पैदा हो जाएँ तो उनको वक़्त पर दूर किया जा सकता है। इसके अलावा इसमें भलाई का पहलू यह भी था कि तमाम मुसलमानों को यह बात अच्छी तरह मालूम हो गई कि नबी (सल्ल०) को ग़ैब का इल्म नहीं है। जो कुछ अल्लाह बताता है वही कुछ जानते हैं, उसके सिवा आप (सल्ल०) का इल्म उतना ही कुछ है जितना एक आदमी का हो सकता है। एक महीने तक आप (सल्ल०) हज़रत आइशा (रज़ि०) के मामले में सख़्त परेशान रहे। कभी नौकरानी से पूछते थे, कभी दूसरी बीवियों (रज़ि०) से, कभी हज़रत अली (रज़ि०) से और कभी हज़रत उसामा (रज़ि०) से। आख़िरकार हज़रत आइशा (रज़ि०) से फ़रमाया तो यह फ़रमाया कि अगर तुमने यह गुनाह किया है तो तौबा करो और नहीं किया तो उम्मीद है कि अल्लाह तुम्हारी बेगुनाही साबित कर देगा। अगर नबी (सल्ल०) ग़ैब की बातें जाननेवाले होते तो यह परेशानी और यह पूछ-गछ और यह तौबा की नसीहत क्यों होती? अलबत्ता जब अल्लाह ने वह्य के ज़रिए से हक़ीक़त बता दी तो आप (सल्ल०) को वह इल्म हासिल हो गया जो महीने भर तक हासिल न था। इस तरह अल्लाह तआला ने सीधे तौर पर तरजरिबे और मुशाहदे के ज़रिए से मुसलमानों को उस ग़ुलू (अति) और मुबालग़े (अतिशयोक्ति) से बचाने का इन्तिज़ाम कर दिया जिसमें अक़ीदत का अन्धा जोश आम तौर से अपने पेशवाओं के मामले में लोगों को मुब्तला कर देता है। नामुमकिन नहीं कि महीना भर तक वह्य न भेजने में अल्लाह तआला के सामने यह भी एक मस्लहत रही हो। पहले दिन ही वह्य आ जाती तो यह फ़ायदा हासिल न हो सकता। (इल्मे-ग़ैब के बारे में और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, आयतें—65, 66 उनके हाशिए समेत।)
11. यानी अब्दुल्लाह-बिन-उबई जो उस इलज़ाम का अस्ल गढ़नेवाला और फ़ितने की अस्ल जड़ था। कुछ रिवायतों में ग़लती से यह बात आ गई है कि यह आयत हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) के बारे में उतरी थी, मगर यह रिवायत करनेवालों की अपनी ही ग़लत-फ़हमी है, वरना हज़रत हस्सान (रज़ि०) की कमज़ोरी इससे ज़्यादा कुछ न थी कि वे मुनाफ़िक़ों के फैलाए हुए इस फ़ितने में मुब्तला हो गए। हाफ़िज़ इब्ने-कसीर ने सही कहा है कि अगर यह रिवायत बुख़ारी में न होती तो ज़िक्र के क़ाबिल तक न थी। इस सिलसिले में सबसे बड़ा झूठ, बल्कि बुहतान यह है कि बनी-उमैया ने इस आयत को हज़रत अली (रज़ि०) पर चस्पाँ किया है। बुख़ारी, तबरानी और बैहक़ी में हिशाम-बिन-अब्दुल-मलिक उमवी की कही हुई यह बात लिखी है कि 'अल्लज़ी तवल्ला किब-रहू' (जिसने इसकी ज़िम्मेदारी का बड़ा हिस्सा अपने सर लिया) से मुराद हज़रत अली-बिन-अबी-तालिब हैं। हालाँकि हज़रत अली (रज़ि०) का सिरे से इस फ़ितने में कोई हिस्सा ही न था। बात सिर्फ़ इतनी थी कि उन्होंने जब नबी (सल्ल०) को बहुत परेशान देखा तो नबी (सल्ल०) के मशवरा लेने पर अर्ज़ कर दिया कि अल्लाह तआला ने इस मामले में आपपर कोई तंगी तो नहीं रखी है। औरतें बहुत हैं। आप चाहें तो आइशा को तलाक़ देकर दूसरा निकाह कर सकते हैं। इसका यह मतलब हरगिज़ न था कि हज़रत अली (रज़ि०) ने उस इलज़ाम को सच बताया था जो हज़रत आइशा (रज़ि०) पर लगाया जा रहा था। उनका मक़सद सिर्फ़ नबी (सल्ल०) की परेशानी को दूर करना था।
لَّوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ ظَنَّ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ بِأَنفُسِهِمۡ خَيۡرٗا وَقَالُواْ هَٰذَآ إِفۡكٞ مُّبِينٞ ۝ 11
(12) जिस वक़्त तुम लोगों ने इसे सुना था उसी वक़्त क्यों न ईमानवाले मर्दों और ईमानवाली औरतों ने अपने आपसे अच्छा गुमान किया12 और क्यों न कह दिया कि यह खुली तोहमत है?13
12. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि अपने लोगों, या अपनी मिल्लत और अपने समाज के लोगों से अच्छा गुमान क्यों न किया। आयत के अलफ़ाज़ में दोनों मतलब आ जाते हैं, और इस दो मतलबोंवाले जुमले के इस्तेमाल में एक बारीक नुक्ता (Point) है जिसे अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। जो सूरते-हाल हज़रत आइशा (रज़ि०) और सफ़वान-बिन-मुअत्तल के साथ पेश आई थी, वह यही तो थी कि क़ाफ़िले की एक औरत (इस बात से अलग कि वे रसूल की बीवी थी) इतिफ़ाक़ से पीछे रह गई थीं और क़ाफ़िले ही का एक आदमी जो ख़ुद इत्तिफ़ाक़ से पीछे रह गया था, उन्हें देखकर अपने ऊँट पर उन्हें बिठा लाया। अब अगर कोई शख़्स यह कहता है कि अल्लाह की पनाह, ये दोनों अकेले एक-दूसरे को पाकर गुनाह में मुब्तला हो गए तो उसका यह कहना अपने ज़ाहिर अलफ़ाज़़ के पीछे दो और ग़लत बातें भी रखता है। एक यह कि कहनेवाला (चाहे मर्द हो या औरत) अगर ख़ुद इस जगह होता तो कभी गुनाह किए बिना न रहता, क्योंकि वह अगर गुनाह से रुका हुआ है तो सिर्फ़ इसलिए कि उसे मुख़ालिफ़ जिसका कोई शख़्स इस तरह तन्हाई में हाथ न आ गया, वरना ऐसे सुनहरे मौक़े को वह छोड़नेवाला न था। दूसरी यह कि जिस समाज से वह ताल्लुक़ रखता है उसकी अख़लाक़ी हालत के बारे में उसका गुमान यह है कि यहाँ कोई औरत भी ऐसी नहीं है और न कोई मर्द ऐसा है जिसे इस तरह का कोई मौक़ा पेश आ जाए और वह गुनाह न करे। यह तो उस सूरत में है जबकि मामला सिर्फ़ एक मर्द और औरत का हो। और मान लीजिए कि अगर वह मर्द और औरत दोनों एक ही जगह के रहनेवाले हों, और औरत जो इत्तिफ़ाक़ से क़ाफ़िले से पीछे रह गई थी, उस मर्द के किसी दोस्त या रिश्तेदार या पड़ोसी या जाननेवाले की बीवी, बहन या बेटी हो तो मामला और भी ज़्यादा सख़्त हो जाता है। इसका मतलब फिर यह हो जाता है कि कहनेवाला ख़ुद अपने बारे में भी और अपने समाज के बारे में भी ऐसी सख़्त घिनौनी सोच रखता है जिसे शराफ़त से दूर का वास्ता भी नहीं। कौन भला आदमी यह सोच सकता है कि उसके दोस्त या पड़ोसी या जाननेवाले के घर की कोई औरत अगर इत्तिफ़ाक़ से कहीं भूली-भटकी उसे रास्ते में मिल जाए तो वह पहला काम बस उसकी इज़्ज़त पर हाथ डालने ही का करेगा, फिर कहीं उसे घर पहुँचाने की तदबीर सोचेगा, लेकिन यहाँ मामला इससे हज़ार गुना ज़्यादा सख़्त था। औरत कोई और न थीं, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की बीवी थीं, जिन्हें हर मुसलमान अपनी माँ से बढ़कर एहतिराम के लायक़ समझता था। जिन्हें अल्लाह ने ख़ुद हर मुसलमान पर माँ की तरह हराम ठहरा दिया था। मर्द न सिर्फ़ यह कि उसी क़ाफ़िले का एक आदमी, उसी फ़ौज का एक सिपाही और उसी शहर का एक बाशिन्दा था, बल्कि वह मुसलमान था, उस औरत के शौहर को अल्लाह का रसूल और अपना रहनुमा और पेशवा मानता था और उनके फ़रमान पर जान क़ुरबान करने के लिए बद्र की लड़ाई जैसी ख़तरनाक मुहिम में शरीक हो चुका था। इस सूरते-हाल में तो इस बात का ज़ेहनी पसमंज़र घिनौनेपन की उस इन्तिहा पर पहुँच जाता है जिससे बढ़कर किसी गन्दी सोच का तसव्वुर नहीं किया जा सकता। इसी लिए अल्लाह तआला फ़रमा रहा है कि मुस्लिम समाज के जिन लोगों ने यह बात ज़बान से निकाली या उसे कम-से-कम शक के क़ाबिल समझा उन्होंने ख़ुद अपने आपका भी बहुत बुरा तसव्वुर क़ायम किया और अपने समाज के लोगों को भी बड़े घटिया अख़लाक़ और किरदार का मालिक समझा।
13. यानी यह बात तो सोचने के क़ाबिल तक न थी। उसे तो सुनते ही हर मुसलमान को सरासर झूठ और बुहतान कह देना चाहिए था। मुमकिन है कोई शख़्स यहाँ यह सवाल करे कि जब यह बात थी तो ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०) ने इसे क्यों न पहले दिन ही झुठला दिया और क्यों उन्होंने उसे इतनी अहमियत दी? इसका जवाब यह है कि शौहर और बाप की पोज़ीशन आम आदमियों से बिलकुल अलग होती है। अगरचे एक शौहर से बढ़कर कोई अपनी बीवी को नहीं जान सकता और एक शरीफ़ और नेक बीवी के बारे में कोई सही दिमाग़वाला शौहर लोगों के बुहतानों पर हक़ीक़त में बदगुमान नहीं हो सकता, लेकिन अगर उसकी बीवी पर इलज़ाम लगा दिया जाए तो वह इस मुश्किल में पड़ जाता है कि उसे बुहतान कहकर रद्द भी कर दे तो कहनेवालों की ज़बान न रुकेगी, बल्कि वे उसपर एक और रद्दा यह चढ़ाएँगे कि बीवी ने मियाँ साहब की अक़्ल पर कैसा परदा डाल रखा है, सब कुछ कर रही है और मियाँ यह समझते हैं कि मेरी बीवी बड़ी पाकदामन है। ऐसी ही मुश्किल माँ-बाप को पेश आती है। वे बेचारे अपनी बेटी की पाकदामनी पर सिर्फ़ झूठे इलज़ाम को झुठलाने के लिए अगर ज़बान खोलें भी तो बेटी की पोज़ीशन साफ़ नहीं होती। कहनेवाले यही कहेंगे कि माँ-बाप हैं, अपनी बेटी की तरफ़दारी न करेंगे तो और क्या करेंगे। यही चीज़ थी जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और उनकी बीवी उम्मे-रूमान को अन्दर-ही-अन्दर ग़म से घुलाए दे रही थी। वरना हक़ीक़त में कोई शक उनको न था। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने तो ख़ुतबे ही में साफ़ फ़रमा दिया था कि मैंने न अपनी बीवी में कोई बुराई देखी है और न उस आदमी में जिसके बारे में यह इलज़ाम लगाया जा रहा है।
لَّوۡلَا جَآءُو عَلَيۡهِ بِأَرۡبَعَةِ شُهَدَآءَۚ فَإِذۡ لَمۡ يَأۡتُواْ بِٱلشُّهَدَآءِ فَأُوْلَٰٓئِكَ عِندَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 12
(13) वे लोग (अपने इलज़ाम के सुबूत में) चार गवाह क्यों न लाए? अब कि वे गवाह नहीं लाए हैं, अल्लाह के नज़दीक वही झूठे हैं।14
14. ‘अल्लाह के नज़दीक' यानी अल्लाह के क़ानून में, या अल्लाह के क़ानून के मुताबिक़। वरना ज़ाहिर है कि अल्लाह के इल्म में तो इलज़ाम अपने आपमें ख़ुद झूठा था, उसका झूठ होना इस वजह से न था कि ये लोग गवाह नहीं लाए हैं। इस जगह किसी शख़्स को यह ग़लत-फ़हमी न हो कि यहाँ इलज़ाम के ग़लत होने की दलील और बुनियाद सिर्फ़ गवाहों की ग़ैर-मौजूदगी को ठहराया जा रहा है और मुसलमानों से कहा जा रहा है कि तुम भी सिर्फ़ इस वजह से इसको खुला बुहतान ठहराओ कि इलज़ाम लगानेवाले चार गवाह नहीं लाए हैं। यह ग़लत-फ़हमी उस हक़ीक़त को निगाह में न रखने से पैदा होती है जो अस्ल में वहाँ पेश आई थी। इलज़ाम लगानेवालों ने इलज़ाम इस वजह से नहीं लगाया था कि उन्होंने, या उनमें से किसी शख़्स ने वह बात देखी थी जो वे ज़बान से निकाल रहे थे, बल्कि सिर्फ़ इस बुनियाद पर इतना बड़ा इलज़ाम गढ़ डाला था कि हज़रत आइशा (रज़ि०) क़ाफ़िले से पीछे रह गई थीं और सफ़वान बाद में उनको अपने ऊँट पर सवार करके क़ाफ़िले में ले आए। अक़्ल रखनेवाला कोई आदमी भी इस मौक़े पर यह नहीं सोच सकता था कि हज़रत आइशा (रज़ि०) का इस तरह रह जाना, अल्लाह की पनाह, किसी साँठ-गाँठ का नतीजा था। साँठ-गाँठ करनेवाले इस तरीक़े से तो साँठ-गाँठ नहीं किया करते कि फ़ौज के सरदार की बीवी चुपके से क़ाफ़िले के पीछे एक आदमी के साथ रह जाए और फिर वही आदमी उसको अपने ऊँट पर बिठाकर दिन-दहाड़े, ठीक दोपहर के वक़्त लिए हुए खुल्लम-खुल्ला फ़ौज के पड़ाव पर पहुँचे। यह सूरते-हाल ख़ुद ही दोनों के बेक़ुसूर होने की दलील दे रही थी। इस हालत में अगर इलज़ाम लगाया जा सकता था तो सिर्फ़ इस बुनियाद पर ही लगाया जा सकता था कि कहनेवालों ने अपनी आँखों से कोई मामला देखा हो। वरना हालात जिनपर ज़ालिमों ने इलज़ाम की बुनियाद रखी थी, किसी शक और शुब्हे की गुंजाइश न रखते थे।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ لَمَسَّكُمۡ فِي مَآ أَفَضۡتُمۡ فِيهِ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 13
(14) अगर तुम लोगों पर दुनिया और आख़िरत में अल्लाह की मेहरबानी और रहम व करम न होता तो जिन बातों में तुम पड़ गए थे, उनके बदले में बड़ा अज़ाब तुम्हें आ लेता।
إِذۡ تَلَقَّوۡنَهُۥ بِأَلۡسِنَتِكُمۡ وَتَقُولُونَ بِأَفۡوَاهِكُم مَّا لَيۡسَ لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞ وَتَحۡسَبُونَهُۥ هَيِّنٗا وَهُوَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمٞ ۝ 14
(15) (ज़रा सोचो तो, उस वक़्त तुम कैसी भारी ग़लती कर रहे थे) जबकि तुम्हारी एक ज़बान से दूसरी ज़बान उस झूठ को लेती चली जा रही थी और तुम अपने मुँह से वह कुछ कहे जा रहे थे जिसके बारे में तुम्हें कोई इल्म न था। तुम इसे एक मामूली बात समझ रहे थे, हालाँकि अल्लाह के नज़दीक यह बड़ी बात थी।
وَلَوۡلَآ إِذۡ سَمِعۡتُمُوهُ قُلۡتُم مَّا يَكُونُ لَنَآ أَن نَّتَكَلَّمَ بِهَٰذَا سُبۡحَٰنَكَ هَٰذَا بُهۡتَٰنٌ عَظِيمٞ ۝ 15
(16) क्यों न इसे सुनते ही तुमने कह दिया कि “हमें ऐसी बात ज़बान से निकालना ज़ेब (शोभा) नहीं देता, अल्लाह पाक है, यह तो एक बड़ी तोहमत है।"
يَعِظُكُمُ ٱللَّهُ أَن تَعُودُواْ لِمِثۡلِهِۦٓ أَبَدًا إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 16
(17) अल्लाह तुमको नसीहत करता है कि आगे कभी ऐसी हरकत न करना अगर तुम ईमानवाले हो।
وَيُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۚ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ ۝ 17
(18) अल्लाह तुम्हें साफ़-साफ़ हिदायतें देता है, और वह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।15
15. इन आयतों से, और ख़ास तौर से अल्लाह तआला के इस फ़रमान से कि “ईमानवाले मर्दों और ईमानवाली औरतों ने अपने लोगों से अच्छा गुमान क्यों न किया” यह बुनियादी उसूल निकलता है कि मुस्लिम समाज में तमाम मामलों की बुनियाद अच्छे गुमान पर होनी चाहिए, और बदगुमानी सिर्फ़ उस हालत में की जानी चाहिए जबकि उसके लिए कोई ऐसी बुनियाद हो जो उस गुमान को साबित और पक्का करती हो। उसूल यह है कि हर शख़्स बेगुनाह है जब तक कि उसके मुजरिम होने या उसपर जुर्म का शक करने के लिए कोई मुनासिब वजह मौजूद न हो। और हर शख़्स अपनी बात में सच्चा है जब तक कि इस बात की कोई दलील न हो कि अब वह शख़्स भरोसे के लायक़ नहीं रहा है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ ٱلۡفَٰحِشَةُ فِي ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 18
(19) जो लोग चाहते हैं कि ईमान लानेवालों के गरोह में बेहयाई फैले, वे दुनिया और आख़िरत में दर्दनाक सज़ा के हक़दार हैं,16 अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते17
16. मौक़ा-महल के लिहाज़ से तो आयत का सीधा-सीधा मतलब यह है कि जो लोग इस तरह के इलज़ाम गढ़कर और उन्हें फैलाकर मुस्लिम समाज में बदअख़लाक़ी (अनैतिकता) फैलाने और मुस्लिम उम्मत के अख़लाक़ पर धब्बा लगाने की कोशिशें कर रहे हैं, वे सज़ा के हक़दार हैं लेकिन आयत के अलफ़ाज़ बेहूदगी (अश्लीलता) फैलाने की तमाम सूरतों पर हावी हैं। इसके तहत अमली तौर से बदकारी के अड्डे क़ायम करना भी आ जाता है और बदअख़लाक़ी पर उभारनेवाले और उसके लिए जज़बात को उकसानेवाले क़िस्से, अशआर, गाने, तस्वीरें और खेल-तमाशे भी आ जाते हैं। साथ ही ये क्लब और होटल और दूसरे इदारे भी इनकी चपेट में आ जाते हैं जिनमें औरतों-मर्दों के मिले-जुले नाच और तफ़रीहों का इन्तिज़ाम किया जाता है। क़ुरआन साफ़ कह रहा है कि ये सब लोग मुजरिम हैं। सिर्फ़ आख़िरत ही में नहीं, दुनिया में भी इनको सज़ा मिलनी चाहिए। लिहाज़ा एक इस्लामी हुकूमत का फ़र्ज़ है कि बेहयाई फैलानेवाले उन तमाम ज़रिओं और दरवाज़ों को बन्द करे। जिन कामों और हरकतों को क़ुरआन यहाँ पब्लिक के ख़िलाफ़ जुर्म क़रार दे रहा है और फ़ैसला कर रहा है कि उनको करनेवाले सज़ा के हक़दार हैं, उनको इस्लामी हुकूमत की सज़ाओं से मुताल्लिक़ क़ानून में सज़ा के लायक़ ठहराया जाना चाहिए जिनपर पुलिस कार्रवाई कर सके।
17. यानी तुम लोग नहीं जानते कि इस तरह की एक-एक हरकत के असरात समाज में कहाँ-कहाँ तक पहुँचते हैं, कितने लोगों को मुतास्सिर करते हैं और कुल मिलाकर उनका किस क़द्र नुक़सान समाजी ज़िन्दगी को उठाना पड़ता है। इस चीज़ को अल्लाह ही ख़ूब जानता है। इसलिए अल्लाह पर भरोसा करो और जिन बुराइयों की वह निशानदेही कर रहा है, उन्हें पूरी ताक़त से मिटाने और दबाने की कोशिश करो। ये छोटी-छोटी बातें नहीं हैं जिन्हें बरदाश्त कर लिया जाए। अस्ल में ये बड़ी बातें हैं जिनके करनेवालों को सख़्त सज़ा मिलनी चाहिए।
وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ رَءُوفٞ رَّحِيمٞ ۝ 19
(20) अगर अल्लाह की मेहरबानी और उसका रहम व करम तुमपर न होता और यह बात न होती कि अल्लाह बड़ा मेहरबान और रहम करनेवाला है (तो यह चीज़ जो अभी तुम्हारे अन्दर फैलाई गई थी, बहुत बुरे नतीजे दिखा देती)।
۞يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّبِعُواْ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ وَمَن يَتَّبِعۡ خُطُوَٰتِ ٱلشَّيۡطَٰنِ فَإِنَّهُۥ يَأۡمُرُ بِٱلۡفَحۡشَآءِ وَٱلۡمُنكَرِۚ وَلَوۡلَا فَضۡلُ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ وَرَحۡمَتُهُۥ مَا زَكَىٰ مِنكُم مِّنۡ أَحَدٍ أَبَدٗا وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يُزَكِّي مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 20
(21) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, शैतान के रास्ते पर न चलो। उसकी पैरवी कोई करेगा तो वह तो उसे बेहयाई और बुराई ही का हुक्म देगा। अगर अल्लाह की मेहरबानी और उसका रहम व करम तुमपर न होता तो तुममें से कोई शख़्स पाक न हो सकता।18 मगर अल्लाह ही जिसे चाहता है पाक कर देता है, और अल्लाह सुननेवाला और जाननेवाला है।19
18. यानी शैतान तो तुम्हें बुराई की गन्दगियों में लथपथ करने के लिए इस तरह तुला बैठा है कि अगर अल्लाह अपनी मेहरबानी से तुमको अच्छे और बुरे का फ़र्क न समझाए और तुमको सुधार की तालीम और ताक़त न दे तो तुममें से कोई शख़्स भी अपने बल-बूते पर पाक न हो सके।
19. यानी अल्लाह की वह मरज़ी कि वह किसे पाकीज़गी दे, अन्धा-धुन्ध नहीं है, बल्कि इल्म (ज्ञान) की बुनियाद पर है। अल्लाह जानता है कि किसमें भलाई की तलब मौजूद है और कौन बुराई पसन्द करता है। हर शख़्स अपनी तन्हाइयों में जो बातें करता है, उन्हें अल्लाह सुन रहा होता है। हर शख़्स अपने दिल में भी जो कुछ सोचा करता है, अल्लाह उससे बेख़बर नहीं रहता। इसी सीधे तौर पर इल्म की बुनियाद पर अल्लाह फ़ैसला करता है कि किसे पाकीज़गी दे और किसे न दे।
وَلَا يَأۡتَلِ أُوْلُواْ ٱلۡفَضۡلِ مِنكُمۡ وَٱلسَّعَةِ أَن يُؤۡتُوٓاْ أُوْلِي ٱلۡقُرۡبَىٰ وَٱلۡمَسَٰكِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ وَلۡيَعۡفُواْ وَلۡيَصۡفَحُوٓاْۗ أَلَا تُحِبُّونَ أَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 21
(22) तुममें से जो लोग हैसियतवाले और क़ुदरत रखनेवाले हैं वे इस बात की क़सम न खा बैठें कि अपने रिश्तेदारों, मिस्कीनों और अल्लाह के रास्ते में हिजरत करनेवाले लोगों की मदद न करेंगे। उन्हें माफ़ कर देना चाहिए और अनदेखी कर देनी चाहिए। क्या तुम नहीं चाहते कि अल्लाह तुम्हें माफ़ करे? और अल्लाह की सिफ़त यह है कि वह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।20
20. हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि ऊपर बयान की गई आयतों में जब अल्लाह तआला ने मेरा बेगुनाह होना बयान कर दिया तो हज़रत अबू-बक़्र (रज़ि०) ने क़सम खा ली कि वे आइन्दा के लिए मिस्तह-बिन-उसासा की मदद से हाथ खींच लेंगे, क्योंकि उन्होंने रिश्तेदारी का कोई लिहाज़ न किया और न उन एहसानों ही की कुछ शर्म की जो वे सारी उम्र उनपर और उनके ख़ानदान पर करते रहे थे। इसपर यह आयत उतरी और इसको सुनते ही हज़रत अबू-बक्र ने फ़ौरन कहा, “क्यों नहीं, अल्लाह की क़सम हम ज़रूर चाहते हैं कि ऐ हमारे रब, तू हमारी ग़लतियाँ माफ़ फ़रमाए।” चुनाँचे उन्होंने फिर मिस्तह की मदद शुरू कर दी और पहले से ज़्यादा उनपर एहसान करने लगे। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि यह क़सम हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के अलावा कुछ और सहाबा ने भी खा ली थी कि जिन-जिन लोगों ने इस बुहतान में हिस्सा लिया है उनकी वे कोई मदद न करेंगे। इस आयत के उतरने के बाद उन सबने अपने अह्द (प्रतिज्ञा) से रुजू कर लिया। इस तरह देखते-ही-देखते वह कड़वाहट दूर हो गई जो इस फ़ितने ने फैला दी थी। यहाँ एक सवाल पैदा होता है कि अगर कोई शख़्स किसी बात की क़सम खा ले, फिर बाद में उसे मालूम हो कि उसमें भलाई नहीं है और वह उससे रुजू करके वह बात अपना ले जिसमें भलाई है तो क्या उसे क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा करना चाहिए या नहीं। फ़क़ीहों का एक गरोह कहता है कि भलाई को अपना लेना ही क़सम का कफ़्फ़ारा है, उसके सिवा किसी और कफ़्फ़ारे की ज़रूरत नहीं। ये लोग इस आयत से दलील लेते हैं कि अल्लाह तआला ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को क़सम तोड़ देने का हुक्म दिया और कफ़्फ़ारा अदा करने की हिदायत नहीं की। इसके अलावा नबी (सल्ल०) की इस हिदायत को भी वे दलील में पेश करते हैं कि “जो शख़्त किसी बात की क़सम खा ले, फिर उसे मालूम हो कि दूसरी बात इससे बेहतर है तो उसे वही बात करनी चाहिए जो बेहतर है, और यह बेहतर बात को अपना लेना ही उसका कफ़्फ़ारा है।” दूसरा गरोह कहता है कि क़सम तोड़ने के लिए अल्लाह तआला क़ुरआन मजीद में एक साफ़ और मुकम्मल हुक्म उतार चुका है। (सूरा-2 बक़रा, आयत-225; सूरा-5 माइदा, आयत-89) जिसे इस आयत ने न तो रद्द ही किया है और न साफ़ अलफ़ाज़ में उसके अन्दर कोई बदलाव ही किया है। इसलिए वह हुक्म अपनी जगह बाक़ी है। अल्लाह तआला ने यहाँ हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को क़सम तोड़ देने के लिए, तो ज़रूर कहा है, मगर यह नहीं कहा कि तुमपर कोई कफ़्फ़ारा वाजिब नहीं है। रही नबी (सल्ल०) की हिदायत तो उसका मतलब सिर्फ़ यह है कि एक ग़लत या नामुनासिब बात की क़सम खा लेने से जो गुनाह होता है, वह मुनासिब बात अपना लेने से धुल जाता है। इस हिदायत का मक़सद क़सम के कफ़्फ़ारे को ख़त्म कर देना नहीं है, चुनाँचे दूसरी हदीस इसको और साफ़ तौर से बयान कर देती है जिसमें नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है, “जिसने किसी बात की क़सम खा ली हो, फिर उसे मालूम हो कि दूसरी बात इससे बेहतर है, उसे चाहिए कि वही बात करे जो बेहतर है और अपनी क़सम का कफ़्फ़ारा अदा करे।” इससे मालूम हुआ कि क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा और चीज़ है और भलाई न करने के गुनाह का कफ़्फ़ारा और चीज़। एक चीज़ का कफ़्फ़ारा भलाई को अपना लेना है और दूसरी चीज़ का कफ़्फ़ारा वह है जो क़ुरआन ने ख़ुद मुक़र्रर कर दिया है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, तफ़सीर सूरा-38 सॉद, हाशिया-46)
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَرۡمُونَ ٱلۡمُحۡصَنَٰتِ ٱلۡغَٰفِلَٰتِ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ لُعِنُواْ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 22
(23) जो लोग पाकदामन, बेख़बर,21 ईमानवाली औरतों पर तोहमतें लगाते हैं, उनपर दुनिया और आख़िरत में लानत की गई और उनके लिए बड़ा अज़ाब है।
21. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'ग़ाफ़िलात' इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद हैं वे सीधी-सादी शरीफ़ औरतें जो छल-बटटे नहीं जानतीं, जिनके दिल पाक हैं, जिन्हें पता नहीं कि बदचलनी क्या होती है और कैसे की जाती है, जिनके दिमाग़ के किसी कोने में भी वह अन्देशा नहीं गुज़रता कि कभी कोई उनपर भी इलज़ाम लगा बैठेगा। हदीस में आता है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “पाकदामन औरतों पर तुहमत लगाना उन सात बड़े गुनाहों में से है जो तबाह कर देनेवाले हैं।” और तबरानी में हज़रत हुज़ैफ़ा की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “एक पाकदामन औरत पर तुहमत लगाना सौ साल के आमाल को बरबाद कर देने के लिए काफ़ी है।”
يَوۡمَ تَشۡهَدُ عَلَيۡهِمۡ أَلۡسِنَتُهُمۡ وَأَيۡدِيهِمۡ وَأَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 23
(24) वे उस दिन को भूल न जाएँ जबकि उनकी अपनी ज़बानें और उनके अपने हाथ-पाँव उनके करतूतों की गवाही देंगे।21अ
21अ. तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-36 या-सीन, हाशिया-55; सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिया-25।
يَوۡمَئِذٖ يُوَفِّيهِمُ ٱللَّهُ دِينَهُمُ ٱلۡحَقَّ وَيَعۡلَمُونَ أَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ ٱلۡمُبِينُ ۝ 24
(25) उस दिन अल्लाह वह बदला उन्हें भरपूर दे देगा जिसके वे हक़दार हैं और उन्हें मालूम हो जाएगा कि अल्लाह ही हक़ है, सच को सच कर दिखानेवाला।
ٱلۡخَبِيثَٰتُ لِلۡخَبِيثِينَ وَٱلۡخَبِيثُونَ لِلۡخَبِيثَٰتِۖ وَٱلطَّيِّبَٰتُ لِلطَّيِّبِينَ وَٱلطَّيِّبُونَ لِلطَّيِّبَٰتِۚ أُوْلَٰٓئِكَ مُبَرَّءُونَ مِمَّا يَقُولُونَۖ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَرِزۡقٞ كَرِيمٞ ۝ 25
(26) गन्दी औरतें गन्दे मर्दों के लिए हैं और गन्दे मर्द गन्दी औरतों के लिए। पाकीज़ा औरतें पाकीज़ा मर्दों के लिए हैं और पाकीज़ा मर्द पाकीज़ा औरतों के लिए। उनका दामन पाक है उन बातों से जो बनानेवाले बनाते हैं,22 उनके लिए मग़फ़िरत है और अच्छी रोज़ी।
22. इस आयत में एक उसूली बात समझाई गई है कि नापाकों (गन्दों) का जोड़ नापाकों ही से लगता है, और पाकीज़ा लोग पाकीज़ा लोगों ही से फ़ितरी तौर पर मेल खाते हैं। एक बदकार आदमी सिर्फ़ एक ही बुराई नहीं किया करता है कि और तो सब हैसियतों से वह बिलकुल ठीक हो, मगर बस एक बुराई में पड़ा हो। उसके तो रंग-ढंग, आदतों, ख़सलतों हर चीज़ में बहुत-सी बुराइयाँ होती हैं, जो उसकी एक बड़ी बुराई को सहारा देती और परवरिश करती हैं। यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि एक आदमी में एकाएक कोई एक बुराई किसी ग़ैब से आए हुए गोले की तरह फट पड़े जिसकी कोई निशानी उसके चाल-चलन में और उसके रंग-ढंग में न पाई जाती हो। यह एक नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) हक़ीक़त है जिसको आप हर वक़्त इनसानी ज़िन्दगियों में देखते रहते हैं। अब किस तरह आपकी समझ में यह बात आती है कि एक पाकीज़ा इनसान जिसकी सारी ज़िन्दगी से तुम वाक़िफ़ हो, किसी ऐसी औरत से निबाह कर ले और सालों निहायत मुहब्बत के साथ निबाह किए चला जाता रहे जो बदकार हो। क्या आप सोच सकते हैं कि कोई औरत ऐसी भी हो सकती है कि जो बदकार भी हो और फिर उसकी चाल-ढाल, रंग-ढंग और बातचीत के अन्दाज़ किसी चीज़ से भी उसके बुरे लक्षण ज़ाहिर न होते हों? या एक शख़्स पाक-साफ़ मन और बुलन्द अख़लाक़वाला भी हो और फिर ऐसी औरत से ख़ुश भी रहे जिसके ये रंग-ढंग हों? यह बात यहाँ इसलिए समझाई जा रही है कि आगे से अगर किसी पर कोई इलज़ाम लगाया जाए तो लोग अन्धों की तरह उसे बस सुनते ही न मान लिया करें, बल्कि आँखें खोलकर देखें कि किसपर इलज़ाम लगाया जा रहा है, क्या इलज़ाम लगाया जा रहा है, और वह किसी तरह वहाँ चस्पाँ भी होता है या नहीं? बात लगती हुई हो तो आदमी एक हद तक उसे मान सकता है, या कम-से-कम मुमकिन और हो सकनेवाली समझ सकता है। मगर एक अनोखी बात जिसकी सच्चाई की ताईद करनेवाले आसार कहीं न पाए जाते हों, सिर्फ़ इसलिए कैसे मान ली जाए कि किसी पागल या गन्दी ज़ेहनियतवाले ने उसे मुँह से निकाल दिया है। कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने इस आयत का यह मतलब भी बयान किया है कि बुरी बातें बुरे लोगों के लिए हैं (यानी वे उनके हक़दार हैं) और भली बातें भले लोगों के लिए हैं, और भले लोग इससे पाक हैं कि वे बातें उनपर चस्पाँ हों जो बुरी बातें बोलनेवाले उनके बारे में कहते हैं। कुछ दूसरे लोगों ने इसका मतलब यह लिया है कि बुरे आमाल बुरे ही लोगों को सजते हैं और अच्छे आमाल अच्छे ही लोगों को शोभा देते हैं। नेक और भले लोग इससे पाक हैं कि वे बुरे आमाल उनपर चस्पाँ हों जो जोड़नेवाले उनसे जोड़ते हैं। कुछ और लोगों ने इसका मतलब यह लिया है कि बुरी बातें बुरे ही लोगों के करने की हैं और भले लोग भली बातें ही किया करते हैं। भले लोग इससे पाक हैं कि वे इस तरह की बातें करें जैसी ये झूठा इलज़ाम लगानेवाले लोग कर रहे हैं। आयत के अलफ़ाज में इन सब तफ़सीरों की गुंजाइश है। लेकिन इन अलफ़ाज़ को पढ़कर पहला मतलब जो ज़ेहन में आता है वह वही है जो हम पहले बयान कर चुके हैं और मौक़ा-महल के लिहाज़ से भी जो गहरे मानी उसमें हैं वे इन दूसरे मतलबों में नहीं हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ بُيُوتِكُمۡ حَتَّىٰ تَسۡتَأۡنِسُواْ وَتُسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَهۡلِهَاۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تَذَكَّرُونَ ۝ 26
(27) ऐ लोगो23 जो ईमान लाए हो, अपने घरों के सिवा दूसरे घरों में दाख़िल न हुआ करो जब तक कि घरवालों की रज़ामन्दी न ले लो24 और घरवालों पर सलाम न भेज लो, यह तरीक़ा तुम्हारे लिए बेहतर है। उम्मीद है कि तुम इसका ख़याल रखोगे।25
23. इस सूरा के शुरू में जो हुक्म दिए गए थे, वे इसलिए थे कि समाज में बुराई ज़ाहिर हो जाए तो उसकी रोक-थाम कैसे की जाए। अब वे हुक्म दिए जा रहे हैं जिनका मक़सद यह है कि समाज में सिरे से बुराइयों की पैदाइश ही को रोक दिया जाए और रहन-सहन के तौर-तरीक़ों का सुधार करके उन वजहों को दूर कर दिया जाए जिनसे इस तरह की ख़राबियाँ पैदा होती हैं। इन हुक्मों को पढ़ने से पहले दो बातें अच्छी तरह ज़ेहन में बिठा लेनी चाहिएँ— पहली बात यह कि हज़रत आइशा (रज़ि०) पर लगाए गए झूठ इलज़ाम (इफ़्क) के वाक़िए पर तबसिरा करने के फ़ौरन बाद ये हुक्म बयान करना साफ़ तौर पर इस बात की निशानदेही करता है कि अल्लाह तआला की जाँच-पड़ताल में रसूल (सल्ल०) की बीवी जैसी बुलन्द शख़्सियत पर एक खुले बुहतान का इस तरह समाज के अन्दर दाख़िल हो जाना अस्ल में एक शहवानी (कामुक) माहौल की मौजूदगी का नतीजा या, और अल्लाह तआला के नज़दीक इस शहवानी माहौल को बदल देने का कोई तरीक़ा इसके सिवा न था कि लोगों को एक-दूसरे के घरों में बेधड़क आना-जाना बन्द किया जाए, अजनबी औरतों और मर्दों के एक-दूसरे को देखने से और आज़ादी के साथ मर्द-औरतों के मेल-जोल से रोका जाए। औरतों को कुछ क़रीबी रिश्तेदारों के सिवा ग़ैर-महरम रिश्तेदारों और अजनबियों के सामने बन-संवरकर आने से मना कर दिया जाए, जिस्म-फ़रोशी को पूरी तरह बन्द कर दिया जाए, मर्द और औरतों को ज़्यादा देर तक बिना शादी के न रहने दिया जाए, और लौंडी-ग़ुलामों तक के अकेलेपन और बेशादी रहने का इलाज किया जाए और उनकी शादी कराने का इन्तिज़ाम किया जाए। दूसरे अलफ़ाज़ में, यूँ समझिए कि औरतों का बेपरदा रहना, और समाज में बहुत-से लोगों का बेशादी के रहना, अल्लाह तआला के इल्म में वे बुनियादी वजहें हैं जिनसे सामाजिक माहौल में एक महसूस न होनेवाली शहवानिवत (कामुकता) हर वक़्त जारी रहती और इसी शहवानिवत की बदौलत लोगों की आँखें, उनके कान, उनकी ज़बानें, उनके दिल, सबके सब किसी हक़ीक़ी या ख़याली फ़ितने (Scandal) में पड़ने के लिए हर वक़्त तैयार रहते हैं। इस ख़राबी के सुधार के लिए अल्लाह ताला की हिकमत में उन हुक्मों से ज़्यादा सही, मुनासिब और असर करनेवाली कोई दूसरी तदबीर न थी, वरना वह उनके सिवा कुछ दूसरे हुक्म देता। दूसरी बात जो इस मौक़े पर समझ लेनी चाहिए वह यह है कि अल्लाह की शरीअत किसी बुराई को सिर्फ़ हराम कर देने, या उसे जुर्म ठहराकर उसकी सज़ा तय कर देने पर बस नहीं करती, बल्कि वह उन वजहों को भी ख़त्म कर देने की फ़िक्र करती है जो किसी शख़्स को उस बुराई में मुब्तला होने पर उकसाते हों, या उसके लिए मौक़े देते हों, या उसपर मजबूर कर देते हों। साथ ही शरीअत जुर्म के साथ जुर्म की वजहों, जुर्म को उभारनेवाली चीज़ों और जुर्म के ज़रिओं (संसाधनों) पर भी पाबन्दी लगाती है, ताकि आदमी को अस्ल जुर्म की ऐन हद पर पहुँचने से पहले काफ़ी फ़ासले ही पर रोक दिया जाए। वह इसे पसन्द नहीं करती कि लोग हर वक़्त जुर्म की सरहदों पर टहलते रहें और रोज़ पकड़े जाएँ और सज़ाएँ पाया करें। वह सिर्फ़ हिसाब लेनेवाली (Prosecutor) ही नहीं है, बल्कि हमदर्द, सुधारक और मददगार भी है, इसलिए वे तमाम तालीमी, अख़लाक़ी और सामाजिक तदबीरें इस मक़सद के लिए इस्तेमाल करती है कि लोगों को बुराइयों से बचने में मदद दी जाए।
24. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ हत्ता तस्तानिस्' इस्तेमाल हुआ है जिसको आम तौर से लोगों ने 'हता तस्ताज़िनू’ के मानी में ले लिया है, लेकिन हक़ीक़त में दोनों लफ़्ज़ों में एक बारीक फ़र्क़ है जिसको नज़र-अन्दाज़ न करना चाहिए अगर 'हत्ता तस्ताज़िन्' कहा जाता तो आयत का मतलब यह होता कि लोगों के घरों में न दाख़िल हो, जब तक कि इजाज़त न ले लो।” इस अन्दाज़े-बयान को छोड़कर अल्लाह तआला ने ‘हत्ता तस्तानिसू' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हैं। 'इस्तीनास' का माद्दा (धातु) 'उंस' है जो उर्दू ज़बान में भी उसी मानी में बोला जाता है जिसमें अरबी में इस्तेमाल होता है। इस माद्दे से जब ‘इस्तीनास' का लफ़्ज़ बोलेंगे तो इसके मानी होंगे 'उंस’ (लगाव) मालूम करना या अपने से 'मानूस' (लगाव रखनेवाला) करना तो आयत का सही मतलब यह है कि “लोगों के घरों में न दाख़िल हो जब तक कि उनको मानूस न कर लो या उनका उंस मालूम न कर लो” यानी यह मालूम न कर लो कि तुम्हारा आना घरवाले को नागवार तो नहीं है, वह पसन्द करता है कि तुम उसके घर में दाख़िल हो। इसी लिए हमने इसका तर्जमा इजाज़त लेने के बजाय रज़ामन्दी लेने के अलफ़ाज़़ से किया है, क्योंकि वह मतलब अस्ल से ज़्यादा क़रीब है।
25. जाहिलियत के ज़माने में अरबवालों का तरीक़ा यह था कि वे “हुय्यीतुम सबाहन, हुय्यीतुम मसाअन” (Good moming, Good evening) कहते हुए बेधड़क एक-दूसरे के घर में घुस जाते थे और बहुत बार तो घरवालों पर और घर की औरतों पर ऐसी हालत में निगाह पड़ जाती थी जिस हालत में नहीं पड़नी चाहिए। अल्लाह तआला ने इसके सुधार के लिए यह उसूल मुक़र्रर किया कि हर किसी को अपने रहने की जगह में तन्हाई (Privacy) का हक़ हासिल है और किसी दूसरे शख़्स के लिए जाइज़ नहीं है कि वह उसकी तन्हाई में उसकी मरज़ी और इजाज़त के बिना ख़लल डाले। इस हुक्म के उतरने पर नबी (सल्ल०) ने समाज में जो आदाब (शिष्टाचार) और क़ायदे जारी किए उन्हें हम नीचे सिलसिलेवार बयान करते हैं (1) नबी (सल्ल०) ने तन्हाई (Privacy) के इस हक़ को सिर्फ़ घरों में दाख़िल होने के सवाल तक महदूद नहीं रखा, बल्कि इसे एक आम हक़ ठहराया जिसके मुताबिक़ दूसरे के घर में झाँकना, बाहर से निगाह डालना, यहाँ तक कि दूसरे का ख़त उसकी इजाज़त के बिना पढ़ना भी मना है। हज़रत सौबान (नबी सल्ल० के आज़ाद किए हुए ग़ुलाम) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब निगाह दाख़िल हो गई तो फिर ख़ुद दाख़िल होने के लिए इजाज़त माँगने का क्या मौक़ा रहा।” (हदीस : अबू-दाऊद) हज़रत हुज़ैल-बिन-शुरहबील कहते हैं कि एक आदमी नबी (सल्ल०) के यहाँ हाज़िर हुआ और बिलकुल दरवाज़े पर खड़ा होकर इजाज़त माँगने लगा। नबी (सल्ल०) ने उससे कहा, “परे हटकर खड़े हो, इजाज़त माँगने का हुक्म तो इसी लिए है कि निगाह न पड़े।” (हदीस: अबू-दाऊद) नबी (सल्ल०) का अपना क़ायदा यह था कि जब किसी के यहाँ तशरीफ़ ले जाते थे तो दरवाज़े के बिलकुल सामने खड़े न होते, क्योंकि उस ज़माने में घरों के दरवाज़ों पर परदे न लटकाए जाते थे। नबी (सल्ल०) दरवाज़े के दाएँ या बाएँ खड़े होकर इजाज़त माँगा करते थे (हदीस : अबू-दाऊद) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ख़ादिम (सेवक) हज़रत अनस (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक आदमी ने नबी (सल्ल०) के कमरे में बाहर से झाँका। नबी (सल्ल०) उस वक़्त एक तीर हाथ में लिए हुए थे। आप इस तरह उसकी तरफ़ बढ़े जैसे कि उसके पेट में भोंक देंगे (हदीस : अबू-दाऊद) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिसने अपने भाई की इजाज़त के बिना उसके ख़त में नज़र दौड़ाई वह मानो आग में झाँकता है।” (हदीस : अबू-दाऊद) बुख़ारी और मुस्लिम में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर कोई शख़्स तेरे घर में झाँके और तू एक कंकरी मारकर उसकी आँख फोड़ दे तो कुछ गुनाह नहीं। इसी मज़मून की एक और हदीस में है कि “जिसने किसी के घर में झाँका और घरवालों ने उसकी आँख फोड़ दी तो उसकी कोई पकड़ नहीं होगी।” इमाम शाफ़िई (रह०) ने इस इरशाद को बिलकुल लफ़्ज़ी मानी में लिया है और वे झाँकनेवाले की आँख फोड़ देने को जाइज़ रखते हैं, लेकिन हनफ़ी आलिम इसका मतलब यह लेते हैं कि यह हुक्म सिर्फ़ निगाह डालने की हालत में नहीं है, बल्कि इस हालत में है कि जबकि कोई शख़्स घर में बिना इजाज़त घुस आए और घरवालों के रोकने पर वह न माने और घरवाले उसको रोकने की कोशिश करें। इस टकराव और ज़ोर-आज़माइश में उसकी आँख फूट जाए या कोई और अंग टूट जाए तो घरवालों की कोई पकड़ न होगी। (अहकामुल-क़ुरआन, जस्सास, हिस्सा-3, पेज-385) (2) फ़क़ीहों ने देखने ही के हुक्म में सुनने को भी शामिल किया है मसलन अन्धा आदमी अगर बिना इजाज़त आए तो उसकी निगाह न पड़ेगी, मगर उसके कान तो घरवालों की बातें बिना इजाज़त सुनेंगे। यह चीज़ भी नज़र ही की तरह तन्हाई के हक़ में नामुनासिब दख़ल-अन्दाज़ी है। (3) इजाज़त लेने का हुक्म सिर्फ़ दूसरों के घर जाने की हालत ही में नहीं है, बल्कि ख़ुद अपनी माँ-बहनों के पास जाने की हालत में भी है। एक आदमी ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “क्या मैं अपनी माँ के पास जाते वक़्त भी इजाजत लूँ?” आप (सल्न०) ने फरमाया, “हाँ” उसने कहा, “मेरे सिवा उनकी ख़िदमत करनेवाला और कोई नहीं है, क्या हर बार जब मैं उनके पास जाऊँ तो इजाज़त लूँ” आप (सल्ल०) ने फरमाया, “क्या तू पसन्द करता है कि अपनी माँ को बेलिबास देखे?” (इब्ने-जरीर, अता-बिन-यसार से मुर्सलन रिवायत) अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) का क़ौल है, “अपनी माँ-बहनों के पास भी जाओ तो इजाज़त लेकर जाओ!” (इब्ने-कसीर), बल्कि इब्ने-मसऊद तो कहते हैं कि अपने घर में अपनी बीवी के पास जाते हुए भी आदमी को कम-से-कम खंखार देना चाहिए। उनकी बीवी ज़ैनब की रिवायत है कि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) जब कभी घर में आने लगते तो पहले कोई ऐसी आवाज़ कर देते थे जिससे मालूम हो जाए कि वे आ रहे हैं। वे इसे पसन्द न करते थे कि अचानक घर में आन खड़े हों। (इब्ने-जरीर) (4) इजाज़त माँगने के हुक्म से सिर्फ़ यह सूरत अलग है कि किसी के घर पर अचानक कोई मुसीबत आ जाए, मसलन आग लग जाए या कोई चोर घुस आए। ऐसे मौक़े पर मदद के लिए बिना इजाज़त जा सकते हैं। (5) पहले-पहले जब इजाज़त लेने का क़ायदा मुक़र्रर किया गया तो लोग उसके आदाब न जानते थे। एक बार एक शख़्स नबी (सल्ल०) के यहाँ आया और दरवाज़े पर से पुकारकर कहने लगा, “क्या मैं घुस आऊँ?” नबी (सल्ल०) ने अपनी लौंडी रौज़ा से फ़रमाया, “यह आदमी इजाज़त माँगने का तरीक़ा नहीं जानता। ज़रा उठकर उसे बता कि यूँ कहना चाहिए, अस्सलामु अलैकुम, क्या मैं आ जाऊँ?” (हदीस : इब्ने-जरीर, अबू-दाऊद) जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह कहते हैं कि मैं अपने मरहूम बाप के क़र्ज़ों के सिलसिले में नबी (सल्ल०) के यहाँ गया और दरवाज़ा खटखटाया। आप (सल्ल०) ने पूछा, “कौन है?” मैंने अर्ज़ किया, “मैं हूँ।” आपने दो तीन बार फ़रमाया, “मैं हूँ? मैं हूँ?” यानी इस मैं हूँ से कोई क्या समझे कि तुम कौन हो (हदीस : अबू-दाऊद) एक साहब कलदा-बिन-हंबल एक काम से नबी (सल्ल०) के यहाँ गए और सलाम के बिना यूँ ही जा बैठे। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “बाहर जाओ, और अस्सलामु अलैकुम कहकर अन्दर आओ।” (हदीस : अबू-दाऊद) इजाज़त लेने का सही तरीक़ा यह था कि आदमी अपना नाम बताकर इजाज़त माँगे। हज़रत उमर (रज़ि०) के बारे में रिवायत है कि वे नबी (सल्ल०) को ख़िदमत में हाज़िर होते तो कहते “अस्सलामु अलै-क ऐ अल्लाह के रसूल, क्या उमर अन्दर आ सकता है?” (हदीस: अबूदाऊद) इजाज़त लेने के लिए नबी (सल्ल०) ने ज़्यादा-से-ज़्यादा तीन बार पुकारने की हद तय कर दी और फ़रमाया, “अगर तीसरी बार पुकारने पर भी जवाब न आए तो वापस हो जाओ।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम अबू-दाऊद) यही नबी (सल्ल०) का अपना तरीक़ा भी था एक बार आप हज़रत सअद-बिन-उबादा के यहाँ गए और 'अस्सलामु अलैकुम व रहमतुल्लाह’ कहकर दो बार इजाज़त माँगी, मगर अन्दर से जवाब न आया। तीसरी बार जवाब न मिलने पर आप (सल्ल०) वापस हो गए। हज़रत सअद अन्दर से दौड़कर आए और अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! मैं आपकी आवाज़ सुन रहा था, मगर मेरा जी चाहता था कि आपकी मुबारक ज़बान से मेरे लिए जितनी बार भी सलाम और रहमत की दुआ निकल जाए अच्छा है, इसलिए मैं बहुत धीरे-धीरे जवाब देता रहा।” (हदीस : अबू-दाऊद, अहमद) यह तीन बार पुकारना लगातार न होना चाहिए, बल्कि ज़रा ठहर-ठहरकर पुकारना चाहिए, ताकि घर का मालिक अगर कोई ऐसा काम कर रहा है जिसकी वजह से वह जवाब नहीं दे सकता तो उसे काम से निबटने का मौक़ा मिल जाए। (6) इजाज़त या तो ख़ुद घरवाले की भरोसे लायक़ है या फिर किसी ऐसे शख़्स की जिसके बारे में आदमी सही तौर पर यह समझ रहा हो कि वह घरवाले की तरफ़ से इजाज़त दे रहा है, मसलन घरेलू नौकर या कोई और ज़िम्मेदार क़िस्म का शख़्स। कोई छोटा-सा बच्चा अगर कह दे कि आ जाओ तो उसपर भरोसा करके दाख़िल न हो जाना चाहिए। (7) इजाज़त माँगने में नामुनासिब तौर से अड़ जाना, या इजाज़त न मिलने की हालत में दरवाज़े पर जमकर खड़े हो जाना जाइज़ नहीं है। अगर तीन बार इजाज़त माँगने के बाद घरवाले की तरफ़ से इजाज़त न मिले, या वह मिलने से इनकार कर दे तो वापस चले जाना चाहिए।
فَإِن لَّمۡ تَجِدُواْ فِيهَآ أَحَدٗا فَلَا تَدۡخُلُوهَا حَتَّىٰ يُؤۡذَنَ لَكُمۡۖ وَإِن قِيلَ لَكُمُ ٱرۡجِعُواْ فَٱرۡجِعُواْۖ هُوَ أَزۡكَىٰ لَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ عَلِيمٞ ۝ 27
(28) फिर अगर वहाँ किसी को न पाओ, तो दाख़िल न हो जब तक कि तुमको इजाज़त न दे दी जाए,26 और अगर तुमसे कहा जाए कि वापस चले जाओ, तो वापस हो जाओ। यह तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है,27 और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
26. यानी किसी के ख़ाली घर में दाख़िल हो जाना जाइज़ नहीं है, यह और बात है कि घर के मालिक ने आदमी को ख़ुद इस बात की इजाज़त दी हो। मसलन उसने आपसे कह दिया हो कि अगर मैं मौजूद न हूँ तो आप मेरे कमरे में बैठ जाइएगा, या वह किसी और जगह पर हो और आपकी ख़बर मिलने पर वह कहला भेजे कि आप तशरीफ़ रखिए, में अभी आता हूँ। वरना सिर्फ़ यह बात कि मकान में कोई नहीं है, या अन्दर से कोई नहीं बोलता, किसी के लिए यह जाइज़ नहीं कर देती कि वह बिना इजाज़त दाख़िल हो जाए।
27. यानी इसपर बुरा न मानना चाहिए। एक आदमी को हक़ है कि वह किसी से न मिलना चाहे तो इनकार कर दे, या कोई काम मुलाक़ात में रुकावट हो तो मजबूरी ज़ाहिर कर दे। ‘‘इरजिऊ” (वापस हो जाओ) के हुक्म का फ़क़ीहों ने यह मतलब लिया है कि इस सूरत में दरवाज़े के सामने डटकर खड़े हो जाने की इजाज़त नहीं है, बल्कि आदमी को वहाँ से हट जाना चाहिए। किसी शख़्स को यह हक़ नहीं है कि दूसरे को मुलाक़ात पर मजबूर करे, या उसके दरवाज़े पर ठहरकर उसे पेरशान करने की कोशिश करे।
لَّيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَدۡخُلُواْ بُيُوتًا غَيۡرَ مَسۡكُونَةٖ فِيهَا مَتَٰعٞ لَّكُمۡۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا تُبۡدُونَ وَمَا تَكۡتُمُونَ ۝ 28
(29) अलबत्ता तुम्हारे लिए इसमें कोई हरज नहीं है कि ऐसे घरों में दाख़िल हो जाओ जो किसी के रहने की जगह न हों और जिनमें तुम्हारे फ़ायदे (या काम) की कोई चीज़ हो,28 तुम जो कुछ ज़ाहिर करते हो और जो कुछ छिपाते हो सबकी अल्लाह को ख़बर है।
28. इससे मुराद हैं होटल, सराय, मेहमानख़ाने, दुकानें, मुसाफ़िरख़ाने वग़ैरा, जहाँ लोगों के लिए आने की आम इजाज़त हो।
قُل لِّلۡمُؤۡمِنِينَ يَغُضُّواْ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِمۡ وَيَحۡفَظُواْ فُرُوجَهُمۡۚ ذَٰلِكَ أَزۡكَىٰ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا يَصۡنَعُونَ ۝ 29
(30) ऐ नबी, ईमानवाले मर्दों से कहो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें29 और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें,30 यह उनके लिए ज़्यादा पाकीज़ा तरीक़ा है, जो कुछ वे करते हैं अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।
29. अस्ल अरबी में अल्फ़ाज़ हैं, “यग़ुज़्ज़ू मिन अबसारिहिम।” ‘गज़्ज़’ का मतलब है किसी चीज़ को कम करना, घटाना और नीचे करना। 'गज़्ज़े-बसर' का तर्जमा आम तौर पर निगाह नीची करना या रखना किया जाता है। लेकिन अस्ल में इस हुक्म का मतलब हर वक़्त नीचे ही देखते रहना नहीं है, बल्कि पूरी तरह निगाह भरकर न देखना, और निगाहों को देखने के लिए बिलकुल आज़ाद न छोड़ देना है। यह मतलब 'नज़र बचाने' से ठीक अदा होता है, यानी जिस चीज़ को देखना मुनासिब न हो उससे नज़र हटा ली जाए, चाहे इसके लिए आदमी निगाह नीची करे या किसी और तरफ़ उसे बचा ले जाए। 'मिन अबसारिहिम’ (अपनी नज़रों में से) में लफ़्ज़ ‘मिन' (से) 'कुछ' के मानी में इस्तेमाल हुआ है, यानी हुक्म तमाम नज़रों को बचाने का नहीं है, बल्कि 'कुछ' नज़रों को बचाने का है। दूसरे अलफ़ाज़़ में अल्लाह तआला का मक़सद यह नहीं है कि किसी चीज़ को भी निगाह भरकर न देखा जाए, बल्कि वह सिर्फ़ एक ख़ास दायरे में निगाह पर यह पाबन्दी लगाना चाहता है। अब यह बात मौक़ा-महल से मालूम होती है कि यह पाबन्दी जिस चीज़ पर लगाई गई है वह है मर्दों का औरतों को देखना, या दूसरे लोगों के छिपाने लायक अंगों पर निगाह डालना, या गन्दे मनाज़िर पर निगाह जमाना। अल्लाह की किताब के इस हुक्म की जो तशरीह नबी (सल्ल०) ने की है, उसकी तफ़सीलात नीचे दी जा रही हैं— (1) आदमी के लिए यह बात हलाल नहीं है कि वह अपनी बीवी या अपनी महरम औरतों के सिवा किसी दूसरी औरत को निगाह भरकर देखें। एक बार अचानक नज़र पड़ जाए तो यह माफ़ है, लेकिन यह माफ़ नहीं है कि आदमी ने पहली नज़र में जहाँ कोई कशिश महसूस की हो, वहाँ फिर नज़र दौड़ाए। नबी (सल्ल०) ने इस तरह की नज़रबाज़ी को आँख की बदकारी बताया है। आप (सल्ल०) का फ़रमान है कि आदमी अपने तमाम हवास (इन्द्रियों) से बदकारी करता है। देखना आँख की बदकारी है। लगावट की बातचीत ज़बान की बदकारी है। आवाज़ से मज़ा लेना कानों की बदकारी है। हाथ लगाना और नाजाइज़ मक़सद के लिए चलना हाथ-पाँव की बदकारी है। बदकारी की ये सारी शुरुआती बातें जब पूरी हो चुकती हैं, तब शर्मगाहें या तो इसको पूरा कर देती हैं या पूरा करने से रह जाती हैं (हदीस बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद) हज़रत बुरैदा की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि०) से फ़रमाया, “ऐ अली, एक नज़र के बाद दूसरी नज़र न डालना। पहली नज़र तो माफ़ है, मगर दूसरी माफ़ नहीं।” (हदीस : अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, दारमी) हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह बजली कहते हैं कि मैंने नबी (सल्ल०) से पूछा, “अचानक निगाह पड़ जाए तो क्या करूँ?” फ़रमाया, “फ़ौरन निगाह फेर लो, या नीची कर लो।” (हदीस : मुस्लिम, अहमद, अबू-दाऊद, नसई) अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह तआता फ़रमाता है कि निगाहें इबलीस के ज़हरीले तीरों में से एक तीर है। जो शख़्स मुझसे डरकर उसको छोड़ देगा मैं उसके बदले उसे ऐसा ईमान दूँगा जिसकी मिठास वह अपने दिल में पाएगा।” (हदीस : तबरानी) अबू-उमामा की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिस मुसलमान की निगाह किसी औरत की ख़ूबसूरती पर पड़े और वह निगाह हटा ले तो अल्लाह उसकी इबादत में लुत्फ़ और लज़्ज़त पैदा कर देता है।” (हदीस : मुसनद अहमद) इमाम जाफ़र सादिक़ अपने बाप इमाम मुहम्मद बाक़र से और वे हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह अनसारी (रज़ि०) से रिवायत करते हैं कि हज्जतुल-विदाअ के मौक़े पर नबी (सल्ल०) के चचेरे भाई फ़ज़्ल-बिन-अब्बास (जो उस वक़्त एक नौजवान लड़के थे) मशअरे-हराम से वापसी के वक़्त नबी (सल्ल०) के साथ ऊँट पर सवार ये। रास्ते से जब औरतें गुज़रने लगीं तो फ़ज़्ल उनकी तरफ़ देखने। नबी (सल्ल०) ने उनके मुँह पर हाथ रखा और उसे दूसरी तरफ़ फेर दिया (हदीस : अबू-दाऊद) इसी हज्जतुल-विदाअ का क़िस्सा है कि ख़सअम नामक क़बीले की एक औरत रास्ते में नबी (सल्ल०) को रोककर हज के बारे में एक मसला पूछने लगी और फ़ज़्ल-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने उसपर निगाहें गाड़ दीं। नबी (सल्ल०) ने उनका मुँह पकड़कर दूसरी तरफ़ कर दिया। (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी) (2) इससे किसी को यह ग़लत-फ़हमी न हो कि औरतों को खुले मुँह फिरने की आम इजाज़त थी, तभी तो 'ग़ज़्ज़े-बसर’ (निगाहें बचाने) का हुक्म दिया गया, वरना अगर चेहरे के परदे को रिवाज दिया जा चुका होता तो फिर नज़र बचाने या न बचाने का क्या सवाल। यह दलील अक़्ली हैसियत से भी ग़लत है और हक़ीक़त के एतिबार से भी। अक़्ली हैसियत से यह इसलिए ग़लत है कि चेहरे के परदे का आम चलन हो जाने के बावजूद ऐसे मौक़े पेश आ सकते हैं जबकि अचानक किसी औरत और मर्द का आमना-सामना हो जाए और एक परदा करनेवाली औरत को भी कई बार ऐसी ज़रूरत पड़ सकती है कि वह मुँह खोले। और मुसलमान औरतों में परदे का रिवाज हो जाने के बावजूद बहरहाल ग़ैर-मुस्लिम औरतें तो बेपरदा ही रहेंगी। लिहाज़ा सिर्फ़ निगाहें बचाने का हुक्म इस बात की दलील नहीं बन सकता कि इससे औरतों का खुले मुँह फिरना ज़रूरी हो जाए और सच्चाई के एतिबार से यह इसलिए ग़लत है कि सूरा-33 अहज़ाब में हिजाब के हुक्मों को उतारने के बाद जो परदा मुस्लिम समाज में रिवाज पा गया था, उसमें चेहरे का परदा शामिल था और नबी (सल्ल०) के मुबारक दौर में उसका राइज होना बहुत-सी रिवायतों से साबित है। 'इफ़्क' के वाक़िए के बारे में हज़रत आइशा (रज़ि०) का बयान जो बहुत भरोसेमन्द सनदों से बयान हुआ है, उसमें वे फ़रमाती हैं कि “जंगल से वापस आकर जब मैंने देखा कि क़ाफ़िला चला गया है तो मैं बैठ गई और नींद इस तरह छाई कि वहीं पड़कर सो गई। सुबह को सफ़बान-बिन मुअत्तल वहाँ से गुज़रा तो दूर से किसी को पड़े देखकर उधर आ गया। वह मुझे देखते ही पहचान गया; क्योंकि हिजाब के हुक्म से पहले वह मुझे देख चुका था। मुझे पहचानकर जब उसने ‘इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलैहि राजिऊन’ पढ़ा तो उसकी आवाज़ से मेरी आँख खुल गई और मैंने अपनी चादर से अपना मुँह ढाँक लिया।” (हदीस बुख़ारी, अहमद, इब्ने-जरीर, सीरत इब्ने-हिशाम) अबू-दाऊद, किताबुल-जिहाद में एक वाक़िआ बयान हुआ है कि एक औरत, उम्मे-ख़ल्लाद का लड़का एक जंग में शहीद हो गया था। उसके बारे में पूछने के लिए नबी (सल्ल०) के पास आई, मगर इस हाल में भी चेहरे पर नक़ाब पड़ी हुई थी। कुछ सहाबा ने हैरत के साथ कहा कि इस वक़्त भी तुम्हारे चेहरे पर नक़ाब है? यानी बेटे के शहीद होने की ख़बर सुनकर तो एक माँ को तन-बदन का होश नहीं रहता, और तुम इस इत्मीनान के साथ परदे में आई हो। जवाब में वे कहने लगीं, “मैंने बेटा तो खो दिया है, मगर अपनी हया तो नहीं खो दी।” अबू-दाऊद ही में हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक औरत ने परदे के पीछे से हाथ बढ़ाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को दरख़ास्त दी। नबी (सल्ल०) ने पूछा, “यह औरत का हाथ है या मर्द का?” उसने कहा, “औरत का है।” फ़रमाया, “औरत का हाथ है तो कम-से-कम नाख़ुन ही मेंहदी से रंग लिए होते।” रहे हज के मौक़े के वे दो वाक़िआत जिनका हमने ऊपर ज़िक्र किया है तो वे नबी (सल्ल०) के दौर में चेहरे का परदा न होने की दलील नहीं बन सकते; क्योंकि इहराम के लिबास में नक़ाब का इस्तेमाल मना है। फिर भी इस हालत में भी एहतियात-पसन्द औरतें ग़ैर-मर्दों के सामने चेहरा खोल देना पसन्द नहीं करतीं। आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि “हज्ज्तुल-विदाअ के सफ़र में हम लोग इहराम की हालत में मक्का की तरफ़ जा रहे थे। जब मुसाफ़िर हमारे पास से गुज़रने लगते तो हम औरतें अपने सर से चादरें खींचकर मुँह पर डाल लेतीं, और जब वे गुज़र जाते तो हम मुँह खोल देती थीं।" (हदीस : अबू-आऊद) (3) निगाहें बचाने के इस हुक्म से सिर्फ़ वे हालात अलग हैं जिनमें किसी औरत को देखने की काई हक़ीक़ी ज़रूरत हो। मसलन कोई आदमी किसी औरत से निकाह करना चाहता हो इस ग़रज़ के लिए औरत को देख लेने की न सिर्फ़ इजाज़त है, बल्कि ऐसा करना कम-से-कम पसन्दीदा तो ज़रूर है। मुग़ीरा-बिन-शोबा (रज़ि०) की रिवायत है कि मैंने एक जगह निकाह का पैग़ाम दिया। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पूछा, “तुमने लड़की को देख भी लिया है।” मैंने अर्ज़ किया, “नहीं!” फ़रमाया, “उसे देख लो। इस तरह ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है कि तुम्हारे बीच निबाह होगा।” (हदीस : अहमद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा, दारमी) अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक आदमी ने कहीं शादी का पैग़ाम दिया। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “लड़की को देख लो, क्योंकि अनसार की आँखों में कुछ ख़राबी होती है।” (हदीस : मुस्लिम, नसई, अहमद) जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुममें से जब कोई आदमी किसी औरत से निकाह करना चाहता हो तो जहाँ तक हो सके उसे देखकर यह इत्मीनान कर लेना चाहिए कि क्या औरत में ऐसी कोई ख़ूबी है जो उसके साथ निकाह करने पर आमादा करनेवाली हो?” (हदीस : अहमद, अबू-दाऊद) मुसनद अहमद में अबू-हुमैदा की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने इस ग़रज़ के लिए देखने की इजाज़त को “फ़ला जुना-ह अलैहि” के अलफ़ाज़ में बयान किया है जिसका मतलब है “ऐसा कर लेने में कोई हरज नहीं है।” साथ ही इसकी भी इजाज़त दी कि लड़की की बेख़बरी में भी उसको देखा जा सकता है। इसी से फ़क़ीहों ने यह उसूल निकाला है कि ज़रूरत से देखने की दूसरी सूरतें भी जाइज़ हैं। जैसे किसी जुर्म की जाँच-पड़ताल के सिलसिले में किसी मुश्तबह (सन्दिग्ध) औरत को देखना, या अदालत में गवाही के मौक़े पर क़ाज़ी (जज) का किसी गवाह औरत को देखना, या इलाज के लिए डॉक्टर का मरीज औरत को देखना वग़ैरा। (4) निगाह बचाने के हुक्म का मंशा यह भी है कि आदमी किसी औरत या मर्द के सतर (छिपाने लायक अंगों) पर निगाह न डाले। नबी (सल्ल०) का फ़रमान है, “कोई मर्द किसी मर्द के सतर को न देखे, और कोई औरत किसी औरत के सतर को न देखे।” (हदीस : अहमद, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी) हज़रत अली (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने मुझसे फ़रमाया, “किसी ज़िन्दा या मुर्दा इनसान की जाँघ पर निगाह न डालो।” (हदीस : अबू-दाऊद, इब्ने-माजा)
30. शर्मगाहों (गुप्तांगों) की हिफ़ाज़त से मुराद सिर्फ़ नाजाइज़ शहवानी जज़बात (कामुक भावनाओं) से बचना ही नहीं है, बल्कि अपने सतर को दूसरों के सामने खोलने से परहेज़ भी है। मर्द के लिए सतर की हदें नबी (सल्ल०) ने नाभि से घुटने तक तय की हैं। आप (सल्ल०) का फ़रमान है, “मर्द का सतर उसकी नाभि से घुटने तक है।” (हदीस : दारे-क़ुतनी, बैहक़ी) जिस्म के इस हिस्से को बीवी के सिवा किसी दूसरे के सामने जान-बूझकर खोलना हराम है। हज़रत जरहद असलमी जो असहाबे-सुफ़्फ़ा में से एक बुज़ुर्ग थे, रिवायत करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मजलिस में एक बार मेरी जाँघ खुली हुई थी नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या तुम्हें मालूम नहीं है कि जाँघ छुपाने के क़ाबिल चीज़ है?” (हदीस : तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, मुवत्ता) हज़रत अली (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अपनी जाँघ कभी न खोलो।” (हदीस : अबू-दाऊद, इब्ने-माजा) सिर्फ़ दूसरों के सामने ही नहीं, तन्हाई में भी नंगा रहना मना है। चुनाँचे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की हिदायत है, “ख़बरदार! कभी नंगे न रहो; क्योंकि तुम्हारे साथ वे हैं जो कभी तुमसे अलग नहीं होते (यानी भलाई और रहमत के फ़रिश्ते) सिवाय उस वक़्त जब तुम पेशाब-पाख़ाना करते हो या अपनी बीवियों के पास जाते हो। लिहाज़ा उनसे शर्म करो और उनके एहतिराम का ख़याल रखो।” (हदीस : तिरमिज़ी) एक और हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अपने सतर को अपनी बीवी और लौंडी के सिवा हर एक से बचाकर रखो।” सवाल करनेवाले ने पूछा, “और जब हम तन्हाई में हों?” फ़रमाया, “तो बुज़ुर्ग और बरकतवाला अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि उससे शर्म की जाए।” (हदीस : अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा)
وَقُل لِّلۡمُؤۡمِنَٰتِ يَغۡضُضۡنَ مِنۡ أَبۡصَٰرِهِنَّ وَيَحۡفَظۡنَ فُرُوجَهُنَّ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا مَا ظَهَرَ مِنۡهَاۖ وَلۡيَضۡرِبۡنَ بِخُمُرِهِنَّ عَلَىٰ جُيُوبِهِنَّۖ وَلَا يُبۡدِينَ زِينَتَهُنَّ إِلَّا لِبُعُولَتِهِنَّ أَوۡ ءَابَآئِهِنَّ أَوۡ ءَابَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآئِهِنَّ أَوۡ أَبۡنَآءِ بُعُولَتِهِنَّ أَوۡ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ إِخۡوَٰنِهِنَّ أَوۡ بَنِيٓ أَخَوَٰتِهِنَّ أَوۡ نِسَآئِهِنَّ أَوۡ مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّ أَوِ ٱلتَّٰبِعِينَ غَيۡرِ أُوْلِي ٱلۡإِرۡبَةِ مِنَ ٱلرِّجَالِ أَوِ ٱلطِّفۡلِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يَظۡهَرُواْ عَلَىٰ عَوۡرَٰتِ ٱلنِّسَآءِۖ وَلَا يَضۡرِبۡنَ بِأَرۡجُلِهِنَّ لِيُعۡلَمَ مَا يُخۡفِينَ مِن زِينَتِهِنَّۚ وَتُوبُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ جَمِيعًا أَيُّهَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 30
(31) और ऐ नबी, ईमानवाली औरतों से कह दो कि अपनी नज़रें बचाकर रखें,31 और अपनी शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करें,32 और33 अपना बनाव-सिंगार न दिखाएँ34 सिवाय उसके जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाए,35 और अपने सीनों पर अपनी ओढ़नियों के आँचल डाले रहें।36 ये अपना बनाव-सिंगार न ज़ाहिर करें मगर इन लोगों के सामने37— शौहर, बाप, शौहरों के बाप,38 अपने बेटे,शौहरों के बेटे,39 भाई,40 भाइयों के बेटे,41 बहनों के बेटे,42 अपने मेल-जोल की औरतें,43 अपनी मिल्कियत में रहनेवाले (लौंडी-ग़ुलाम),44 वे मातहत मर्द जो किसी और तरह की ग़रज़ न रखते हों,45 और वे बच्चे जो औरतों की छिपी बातों से अभी वाक़िफ़ न हुए हो।46 वे अपने पाँव ज़मीन पर मारती हुई न चला करें कि अपनी जो ज़ीनत (सजावट) उन्होंने छिपा रखी हो, उसका लोगों को पता चल जाए।47 ऐ ईमानवालो, तुम सब मिलकर अल्लाह से तौबा करो,48 उम्मीद है कि कामयाबी पाओगे।49
31. औरतों के लिए भी ‘ग़ज़्ज़ेबसर' (निगाहें बचाने) के हुक्म वही हैं जो मर्दों के लिए हैं यानी, उन्हें जान-बूझकर ग़ैर-मर्दों को न देखना चाहिए। निगाह पड़ जाए तो हटा लेनी चाहिए, और दूसरों के सतर (शर्मगाहों) को देखने से बचना चाहिए। लेकिन मर्द के औरत को देखने के मुक़ाबले में औरत के मर्द को देखने के मामले में हुक्म थोड़े-से अलग हैं। एक तरफ़ हदीस में हमको यह वाक़िआ मिलता है कि हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) और हज़रत मैमूना (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के पास बैठी थीं, इतने में हज़रत इब्ने-उम्मे-मकतूम (रज़ि०) आ गए। नबी (सल्ल०) ने दोनों बीवियों से फ़रमाया, “इनसे परदा करो!” बीवियों ने अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल, क्या ये अन्धे नहीं हैं? न हमें देखेंगे, न पहचानेंगे।” फ़रमाया, “क्या तुम दोनों भी अन्धी हो? क्या तुम इन्हें नहीं देखतीं।” हज़रत उम्मे-सलमा बताती हैं कि “यह वाक़िआ उस ज़माने का है जब परदे का हुक्म आ चुका था।” (हदीस : अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी) और इसकी ताईद (समर्थन) मुवत्ता की यह रिवायत करती है कि हज़रत आइशा (रज़ि०) के पास एक अन्धा आदमी आया तो उन्होंने उससे परदा किया। पूछा गया कि आप इससे परदा क्यों करती हैं, यह तो आपको नहीं देख सकता। जवाब में उम्मुल-मोमिनीन हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़रमाया, “लेकिन मैं तो उसे देख सकती हैं।” दूसरी तरफ़ हमें हज़रत आइशा (रज़ि०) की यह रिवायत मिलती है कि सन् 7 हिo में कुछ हबशी मदीना आए और उन्होंने मस्जिदे-नबवी के अहाते में एक तमाशा किया। नबी (सल्ल०) ने ख़ुद हज़रत आइशा (रज़ि०) को यह तमाशा दिखाया। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद) तीसरी तरफ़ हम देखते हैं कि फ़ातिमा- बिन्ते-क़ैस को जब उनके शौहर ने तीन तलाक़ें दे दीं तो सवाल पैदा हुआ कि वे इद्दत कहाँ गुज़ारें। पहले नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उम्मे-शरीक अनसारिया के यहाँ रहो।” फिर फ़रमाया, “उनके यहाँ मेरे सहाबा बहुत जाते रहते हैं, (क्योंकि वे एक बड़ी मालदार और लोगों की माल से मदद करनेवाली औरत थीं, बहुत-से लोग उनके यहाँ मेहमान रहते और वे उनकी ख़ातिरदारी करती थीं) लिहाज़ा तुम इब्ने-उम्मे-मकतूम के यहाँ रहो, वे अन्धे आदमी हैं, तुम उनके यहाँ बिना किसी झिझक के रह सकोगी।” (हदीस : मुस्लिम, अबू-दाऊद) इन रिवायतों को इकट्ठा करने से मालूम होता है कि औरतों के मर्दों को देखने के मामले में उतनी सख़्ती नहीं है जितनी मर्दों के औरतों को देखने के मामले में है। एक मजलिस में आमने-सामने बैठकर देखना मना है। रास्ता चलते हुए या दूर से कोई जाइज़ क़िस्म का खेल-तमाशा देखते हुए मर्दों पर निगाह पड़ना मना नहीं है। और कोई हक़ीक़ी ज़रूरत पेश आ जाए तो एक घर में रहते हुए भी देखने में कोई हरज नहीं है। इमाम ग़ज़ाली और इब्ने-हजर अस्क़लानी ने भी रिवायतों से क़रीब-क़रीब यही नतीजा निकाला है। शौकानी नैलुल-अवतार में इब्ने-हजर की लिखी हुई यह बात नक़्ल करते हैं कि “जाइज़ होने की ताईद इस बात से भी होती है कि औरतों के बाहर निकलने के मामले में हमेशा जाइज़ होने पर ही अमल रहा है। मस्जिदों में, बाज़ारों में और सफ़रों में औरतें तो नक़ाब मुँह पर डालकर जाती थीं कि मर्द उनको न देखें, मगर मर्दों को कभी यह हुक्म नहीं दिया गया कि वे भी नक़ाब ओढ़ें, ताकि औरतें उनको न देखें। इससे मालूम होता है कि दोनों के मामले में हुक्म अलग-अलग है।” (हिस्सा-6, पेज-101) फिर भी यह किसी तरह भी जाइज़ नहीं है कि औरतें इत्मीनान से मर्दों को घूरें और उनकी ख़ूबसूरती से आँखें सेंकें।
32. यानी नाजाइज़ शहवतरानी (यौन-इच्छा) पूरी करने से भी बचें और अपना सतर (शर्मगाह) दूसरों के सामने खोलने से भी। इस मामले में औरतों के लिए भी वही हुक्म हैं जो मर्दों के लिए हैं। लेकिन औरत के सतर की हदें मर्दों से अलग हैं। और औरत का सतर मर्दों के लिए अलग है और औरतों के लिए अलग। मर्दों के लिए औरत का सतर हाथ और मुँह के सिवा उसका पूरा जिस्म है, जिसे शौहर के सिवा किसी दूसरे मर्द, यहाँ तक कि बाप और भाई के सामने भी न खुलना चाहिए, और औरत को ऐसा बारीक या चुस्त लिबास भी न पहनना चाहिए जिससे बदन अन्दर से झलके या बदन की बनावट नुमायाँ हो। हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि उनकी बहन हज़रत असमा-बिन्ते-अबी-बक्र (रज़ि०) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के सामने आईं और वे बारीक कपड़े पहने हुए थीं। नबी (सल्ल०) ने फौरन मुँह फेर लिया और फ़रमाया, “ऐ असमा, औरत जब बालिग़ हो जाए तो जाइज़ नहीं है कि मुँह और हाथ के सिवा उसके जिस्म का कोई हिस्सा दिखाई दे।” (हदीस : अबू-दाऊद) इसी तरह का एक और वाक़िआ इब्ने-जरीर ने हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत किया है कि उनके यहाँ उनके अख़ियानी (माँ एक, मगर बाप अलग-अलग के रिश्ते से) भाई अब्दुल्लाह-बिन-तुफ़ैल की बेटी आई हुई थीं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) घर में तशरीफ़ लाए तो उन्हें देखकर मुँह फेर लिया। हज़रत आइशा (रज़ि०) ने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! यह मेरी भतीजी है।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब औरत बालिग़ हो जाए तो उसके लिए हलाल नहीं है कि वह ज़ाहिर करे अपने मुँह के सिवा और अपने हाथ के सिवा, और हाथ की हद आप (सल्ल०) ने ख़ुद अपनी कलाई पर हाथ रखकर इस तरह बताई कि आप (सल्ल०) की मुट्ठी और हथेली के बीच सिर्फ़ एक मुट्ठी की जगह और बाक़ी थी। इस मामले में सिर्फ़ इतनी छूट है कि अपने महरम रिश्तेदारों (जैसे बाप-भाई वग़ैरा) के सामने औरत अपने जिस्म का उतना हिस्सा खोल सकती है जिसे घर के काम-काज करते हुए खोलने की ज़रूरत पेश आती है, जैसे आटा गूँधते हुए आस्तीनें ऊपर चढ़ा लेना, या घर का फ़र्श धोते हुए पाँयचे कुछ ऊपर कर लेना। और औरत के लिए औरत के सतर की हदें वही हैं जो मर्द के लिए मर्द के सतर की हैं, यानी नाभि से लेकर घुटने के बीच का हिस्सा। इसका यह मतलब नहीं है कि औरतों के सामने औरत आधी नंगी रहे, बल्कि मतलब सिर्फ़ यह है कि नाफ़ (नाभि) और घुटने के बीच का हिस्सा ढाकना फ़र्ज़ है और दूसरे हिस्सों का ढाँकना फ़र्ज़ नहीं है।
33. यह बात निगाह में रहे कि अल्लाह की शरीअत औरतों से सिर्फ़ उतनी ही माँग नहीं करती जो मर्दों से उसने की है, यानी नज़र बचाना और शर्मगाहों की हिफ़ाज़त करना, बल्कि वह उनसे कुछ और माँगें भी करती है, जो उसने मर्दों से नहीं की हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि इस मामले में औरत और मर्द बराबर नहीं हैं।
34. 'बनाव-सिंगार' हमने ‘ज़ीनत' का तर्जमा किया है जिसके लिए दूसरा लफ़्ज़ 'सजावट' भी है। इसमें तीन चीज़ें आती हैं: ख़ुशनुमा कपड़े, ज़ेवर, और सिर, मुँह और हाथ-पाँव वग़ैरा की तरह-तरह की सजावटें जो आम तौर से औरतें दुनिया में करती हैं, जिनके लिए मौजूदा ज़माने में मेक-अप (MAKE-UP) का लफ़्ज़ बोला जाता है। यह बनाव-सिंगार किसको न दिखाया जाए, इसकी तफ़सील आगे आ रही है।
35. इस आयत के मतलब को तफ़सीरों के अलग-अलग बयानात ने अच्छा-ख़ासा पेचीदा बना दिया है। वरना अपनी जगह बात बिलकुल साफ़ है। पहले जुमले में कहा गया है कि “ला युब्दी-न ज़ी-न-तहुन-न” (वे अपने बनाव-सिंगार को ज़ाहिर न करें।) और दूसरे जुमले में 'इल-ला’ (सिवाय इसके) कहकर इस मना की हुई बात से जिस चीज़ को अलग किया गया है, वह है “जो कुछ इस बनाव-सिंगार में से ज़ाहिर हो या ज़ाहिर हो जाए।” इससे साफ़ मतलब यह मालूम होता है कि औरतों को ख़ुद इसका इज़हार और इसकी नुमाइश नहीं करनी चाहिए, अलबत्ता जो आप-से-आप ज़ाहिर हो जाए (जैसे चादर का हवा से उड़ जाना और किसी बनाव-सिंगार का खुल जाना) या जो आप से आप ज़ाहिर हो (जैसे वह चादर जो ऊपर से ओढ़ी जाती है, क्योंकि बहरहाल उसका छिपाना तो मुमकिन नहीं है, और औरत के जिस्म पर होने की वजह से बहरहाल वह भी अपने अन्दर एक कशिश रखती है) उसपर ख़ुदा की तरफ़ से कोई पकड़ नहीं है। यही मतलब इस आयत का हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हसन बसरी, इब्ने-सीरीन और इबराहीम नख़ई ने बयान किया है। इसके बरख़िलाफ़ कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने “सिवाय इसके जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाए” का मतलब लिया है “जिसे आदत के तौर पर इनसान ज़ाहिर करता है” और फिर वे इसमें मुँह और हाथों को उनकी तमाम सजावटों समेत शामिल कर देते हैं। यानी उनके नज़दीक यह जाइज़ है कि औरत अपने मुँह को मिस्सी और सुर्मे और लाली-पावडर से, और अपने हाथों को अंगूठी, छल्ले और चूड़ियों और कंगन वग़ैरा से सजाकर लोगों के सामने खोले फिरे। यह मतलब इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और उनके शागिदों से बयान हुआ है और हनफ़ी आलिमों के एक अच्छे-ख़ासे गरोह ने इसे क़ुबूल किया है (अहकामुल-क़ुरआन, जस्सास, हिस्सा-3, पेज-388, 389) लेकिन हमारी समझ में यह बिलकुल नहीं आता कि ‘मा ज़-ह-र’ (जो ज़ाहिर हो जाए) का मतलब ‘मा युज़हिरु’ (जो कुछ ज़ाहिर किया जाए) अरबी के किस क़ायदे के मुताबिक़ हो सकता है। ‘ज़ाहिर होने’ और ‘ज़ाहिर करने’ में खुला हुआ फ़र्क़ है, और हम देखते हैं कि क़ुरआन साफ़-साफ़ ‘ज़ाहिर करने’ से रोककर ‘ज़ाहिर होने’ के मामले में छूट दे रहा है। इस छूट को ‘ज़ाहिर करने’ की हद तक बढ़ा देना क़ुरआन के भी ख़िलाफ़ है और उन रिवायतों के भी ख़िलाफ जिनसे साबित होता है कि नबी (सल्ल०) के दौर में हिजाब का हुक्म आ जाने के बाद औरतें खुले मुँह नहीं फिरती थीं, और हिजाब के हुक्म में चेहरे का परदा भी शामिल था, और इहराम के सिवा दूसरी तमाम हालतों में नक़ाब को औरतों के लिबास का एक हिस्सा बना दिया गया था। फिर इससे भी ज़्यादा ताज्जुब करने लायक़ बात यह है कि इस छूट के हक़ में दलील के तौर पर वह बात पेश की जाती है कि चेहरा और हाथ औरत के सतर में दाख़िल नहीं हैं। हालाँकि सतर और हिजाब में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ है। सतर तो वह चीज़ है जिसे महरम मर्दों के सामने खोलना भी जाइज़ नहीं है। रहा हिजाब तो वह सतर से बढ़कर एक चीज़ है जिसे औरतों और ग़ैर-महरम मर्दों के बीच रोक बना दिया गया है, और यहाँ बात सतर की नहीं, बल्कि हिजाब के हुक्मों की है।
36. जाहिलियत के दौर में औरतें सिरों पर एक तरह के कसावे-से बाँधे रखती थीं जिनकी गाँठ जूड़े की तरह पीछे चोटी पर लगाई जाती थी। सामने गिरेबान का एक हिस्सा खुला रहता था, जिससे गला और सोने का ऊपरी हिस्सा साफ़ नुमायाँ होता था। छातियों पर क़मीस के सिवा और कोई चीज़ न होती थी। और पीछे दो-दो, तीन-तीन चोटियाँ लहराती रहती थीं। (तफ़सीर कश्शाफ़, हिस्सा-2, पेज-90, इब्ने-कसीर, हिस्सा-3, पेज-283, 284) इस आयत के उतरने के बाद मुसलमान औरतों में दुपट्टे का रिवाज हुआ, जिसका मक़सद यह नहीं था कि आजकल की लड़कियों की तरह बस उसे बल देकर गले का हार बना लिया जाए, बल्कि यह था कि उसे ओढ़कर सिर, कमर, सीना, सब अच्छी तरह ढाँक लिए जाएँ ईमानवाली औरतों ने क़ुरआन का यह हुक्म सुनते ही फौरन जिस तरह इसपर अमल किया, उसकी तारीफ़ करते हुए हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि जब सूरा-24 नूर उतरी तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से उसको सुनकर लोग अपने घरों की तरफ़ पलटे और जाकर उन्होंने अपनी बीवियों, बेटियों, बहनों को इसकी आयतें सुनाईं। अनसार की औरतों में से कोई ऐसी न थी जो आयत “और अपने सीनों पर अपने दुपट्टों के आँचल डाले रहें” के अलफ़ाज़ सुनकर अपनी जगह बैठी रह गई हो। हर एक उठी और किसी ने अपनी कमर का दुपट्टा खोलकर और किसी ने अपनी चादर उठाकर फ़ौरन उसका दुपट्टा बनाया और ओढ़ लिया। दूसरे दिन सुबह की नमाज़ के वक़्त जितनी औरतें मस्जिदे-नबवी में हाज़िर हुईं, सब दुपट्टे ओढ़े हुए थीं।” इसी सिलसिले की एक और रिवायत में हज़रत आइशा (रज़ि०) और ज़्यादा तफ़सील यह बताती हैं कि औरतों ने बारीक कपड़े छोड़कर अपने मोटे कपड़े छाँटे और उनके दुपट्टे बनाए। (इब्ने-कसीर, हिस्सा-3, पेज-284, हदीस : अबू-दाऊद, किताबुल-लिबास) यह बात कि दुपट्टा बारीक कपड़े का न होना चाहिए, इन हुक्मों के मिज़ाज और मक़सद पर ग़ौर करने से ख़ुद ही आदमी की समझ में आ जाती है, चुनाँचे अनसार की औरतों ने हुक्म सुनते ही समझ लिया था कि इसका मंशा किस तरह के कपड़े का दुपट्टा बनाने से पूरा हो सकता है। लेकिन नबी (सल्ल०) ने इस बात को भी सिर्फ़ लोगों की समझ पर नहीं छोड़ दिया, बल्कि ख़ुद इसको साफ़-साफ़ बयान कर दिया। देहिया कल्बी कहते हैं। नबी (सल्ल०) के पास मिस की बनी हुई बारीक मलमल (क़बाती) आई। आप (सल्ल०) ने उसमें से एक टुकड़ा मुझे दिया और फ़रमाया, “एक हिस्सा फाड़कर अपना कुर्ता बना लो और एक हिस्सा अपनी बीवी को दुपट्टा बनाने के लिए दे दो, मगर उनसे कह देना कि इसके नीचे एक और कपड़ा लगा लें, ताकि जिस्म की बनावट अन्दर से न झलके।” (हदीस : अबू-दाऊद, किताबुल-लिबास)
37. यानी जिस दायरे में औरत अपनी पूरी सज-धज के साथ आज़ादी के साथ रह सकती है, उसमें ये लोग आते हैं। इस दायरे से बाहर जो लोग भी हैं, चाहे वे रिश्तेदार हों या अजनबी, बहरहाल एक औरत के लिए जाइज़ नहीं है कि वह उनके सामने बन-संवरकर आए। “और अपना बनाव-सिंगार न दिखाएँ सिवाय उसके जो ख़ुद ज़ाहिर हो जाए” के जुमले में जो हुक्म दिया गया था, उसका मतलब यहाँ खोल दिया गया है कि इस महदूद दायरे से बाहर जो लोग भी हों, उनके सामने एक औरत को अपना बनाव-सिंगार जान-बूझकर या बेपरवाही के साथ ख़ुद न ज़ाहिर करना चाहिए। अलबत्ता जो उनकी कोशिश के बावजूद या उनके इरादे के बिना ज़ाहिर हो जाए, या जिसका छिपाना मुमकिन न हो, वह अल्लाह के यहाँ माफ़ है।
38. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘आबा’ इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी में सिर्फ़ बाप ही नहीं, बल्कि दादा, परदादा और नाना, परनाना भी शामिल हैं। लिहाज़ा एक औरत अपनी दधियाल और ननिहाल, और अपने शौहर की दधियाल और ननिहाल के इन सब बुज़ुर्गों के सामने उसी तरह आ सकती है जिस तरह अपने बाप और ससुर के सामने आ सकती है।
39. बेटों में पोते, परपोते और नवासे, परनवासे सब शामिल हैं। और इस मामले में सगे-सौतेले का कोई फ़र्क़ नहीं है। अपने सौतेले बच्चों की औलाद के सामने औरत उसी तरह आज़ादी के साथ जीनत ज़ाहिर कर सकती है जिस तरह ख़ुद अपनी औलाद और औलाद की औलाद के सामने कर सकती है।
40. 'भाइयों’ में सगे और सोतेले और माँ-जाए भाई सब शामिल हैं।
وَأَنكِحُواْ ٱلۡأَيَٰمَىٰ مِنكُمۡ وَٱلصَّٰلِحِينَ مِنۡ عِبَادِكُمۡ وَإِمَآئِكُمۡۚ إِن يَكُونُواْ فُقَرَآءَ يُغۡنِهِمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 31
(32) तुममें से जो लोग मुजर्रद (बिना जोड़े के) हों,50 और तुम्हारे लौंडी-ग़ुलामों में से जो नेक हों,51 उनके निकाह कर दो।52 अगर वे ग़रीब हों तो अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनको मालदार कर देगा,53 अल्लाह बड़ी समाईवाला और जाननेवाला है।
50. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘अयामा’ इस्तेमाल हुआ है जिसे आम तौर पर लोग सिर्फ़ बेवा औरतों के मानी में ले लेते हैं। हालाँकि अस्ल में इसके दायरे में ऐसे तमाम मर्द और औरतें आ जाती हैं जिनका जोड़ा न हो। 'अयामा' जमा (बहुवचन) है 'अय्यिम’ का, और अय्यिम हर उस मर्द को कहते हैं जिसकी कोई बीवी न हो, और हर उस औरत को कहते हैं जिसका कोई शौहर न हो। इसी लिए हमने इसका तर्जमा 'बिना जोड़े’ के किया है।
51. यानी जिनका रवैया तुम्हारे साथ भी अच्छा हो, और जिनमें तुम यह सलाहियत (क्षमता) भी पाओ कि वे शादीशुदा ज़िन्दगी निबाह लेंगे। मालिक के साथ जिस लौंडी या ग़ुलाम का रवैया ठीक न हो और जिसके मिज़ाज को देखते हुए यह उम्मीद भी न हो कि शादी होने के बाद अपने जीवन साथी के साथ उसका निबाह हो सकेगा, उसका निकाह कर देने की ज़िम्मेदारी मालिक पर नहीं डाली गई है; क्योंकि इस हालत में वह एक-दूसरे शख़्स की ज़िन्दगी ख़राब करने का ज़रिआ बन जाएगा, यह शर्त आज़ाद आदमियों के मामले में नहीं लगाई गई, क्योंकि आज़ाद आदमी के निकाह में हिस्सा लेनेवाले की ज़िम्मेदारी अस्ल में एक सलाहकार, एक मददगार और एक पहचान के ज़रिए से ज़्यादा नहीं होती, अस्ल रिश्ता निकाह करनेवाले और जिससे निकाह किया जा रहा हो, उनकी अपनी ही रज़ामन्दी से होता है लेकिन ग़ुलाम या लौंडी का रिश्ता करने की पूरी ज़िम्मेदारी उसके मालिक पर होती है। वह अगर जान-बूझकर किसी ग़रीब को एक बदमिज़ाज और बुरी आदतवाले आदमी के साथ बंधवा दे तो उसका सारा वबाल उसी के सर होगा।
52. बज़ाहिर यहाँ हुक्म देने का अन्दाज़ देखकर आलिमों के एक गरोह ने यह समझ लिया कि ऐसा करना वाजिब है। हालाँकि मामला जिस तरह का है वह ख़ुद बता रहा है कि यह हुक्म ज़रूरी होने के मानी में नहीं हो सकता। ज़ाहिर है कि किसी शख़्स का निकाह कर देना दूसरों पर वाजिब कैसे हो सकता है। आख़िर किसका किससे निकाह कर देना वाजिब हो? और मान लीजिए कि अगर वाजिब हो भी तो ख़ुद उस शख़्स की क्या हैसियत रही जिसका निकाह करना है? क्या दूसरे लोग जहाँ भी उसका निकाह करना चाहें, उसे क़ुबूल कर लेना चाहिए? अगर यह उसपर फ़र्ज़ है तो मानो उसके निकाह में उसकी अपनी कोई मरज़ी का दख़ल नहीं और अगर उसे इनकार का हक़ है तो जिनपर यह काम वाजिब है, वे आख़िर अपनी ज़िम्मेदारी किस तरह पूरी करें? इन्हीं पहलुओं को ठीक-ठीक समझकर ज़्यादतर फ़क़ीहों ने यह राय क़ायम की है कि अल्लाह तआला का यह हुक्म इस काम को वाजिब (ज़रूरी) नहीं, बल्कि नुमाइन्दगी का काम ठहराता है, यानी इसका मतलब अस्ल में यह है कि मुसलमानों को आम तौर पर यह फ़िक्र होनी चाहिए कि उनके समाज में लोग बिन बियाहे न बैठे रहें। ख़ानदानवाले, दोस्त, पड़ोसी सब इस मामले में दिलचस्पी लें और जिसका कोई न हो उसको हुकूमत इस काम में मदद दे।
53. इसका यह मतलब नहीं है जिसका भी निकाह हो जाएगा अल्लाह उसको मालदार बना देगा, बल्कि कहने का मतलब यह है कि लोग इस मामले में बहुत ज़्यादा हिसाबी बनकर न रह जाएँ। इसमें लड़कोवालों के लिए भी हिदायत है कि नेक और शरीफ़ आदमी अगर उनके यहाँ पैग़ाम दे तो सिर्फ़ उसकी ग़रीबी देखकर इनकार न कर दें। लड़केवालों को भी नसीहत है कि किसी नौजवान को सिर्फ़ इसलिए न बिठा रखें कि अभी वह बहुत नहीं कमा रहा है। और नौजवानों को भी नसीहत है कि ज़्यादा ख़ुशहाली के इन्तिज़ार में अपनी शादी के मामले को ख़ाह-मख़ाह न टालते रहें। थोड़ी आमदनी भी हो तो अल्लाह के भरोसे पर शादी कर डालनी चाहिए। कई बार तो ख़ुद शादी ही आदमी के हालात दुरुस्त करने का ज़रिआ बन जाती है। बीवी की मदद से ख़र्चे क़ाबू में आ जाते हैं। ज़िम्मेदारियाँ सर पर आ जाने के बाद आदमी ख़ुद भी पहले से ज़्यादा मेहनत और कोशिश करने लगता है। बीवी रोज़ी के कामों में भी हाथ बटा सकती है। और सबसे ज़्यादा यह कि आगे की ज़िन्दगी में किसके लिए क्या लिखा है, इसे कोई भी नहीं जान सकता। अच्छे हालात बुरे हालात में भी बदल सकते हैं और बुरे हालात अच्छे हालात में भी तब्दील हो सकते हैं। इसलिए आदमी को ज़रूरत से ज़्यादा हिसाब लगाने से बचना चाहिए।
وَلۡيَسۡتَعۡفِفِ ٱلَّذِينَ لَا يَجِدُونَ نِكَاحًا حَتَّىٰ يُغۡنِيَهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦۗ وَٱلَّذِينَ يَبۡتَغُونَ ٱلۡكِتَٰبَ مِمَّا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ فَكَاتِبُوهُمۡ إِنۡ عَلِمۡتُمۡ فِيهِمۡ خَيۡرٗاۖ وَءَاتُوهُم مِّن مَّالِ ٱللَّهِ ٱلَّذِيٓ ءَاتَىٰكُمۡۚ وَلَا تُكۡرِهُواْ فَتَيَٰتِكُمۡ عَلَى ٱلۡبِغَآءِ إِنۡ أَرَدۡنَ تَحَصُّنٗا لِّتَبۡتَغُواْ عَرَضَ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۚ وَمَن يُكۡرِههُّنَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ مِنۢ بَعۡدِ إِكۡرَٰهِهِنَّ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 32
(33) और जो निकाह का मौक़ा न पाएँ, उन्हें चाहिए कि पाकदामनी इख़्तियार करें, यहाँ तक कि अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनको मालदार कर दे।54 और तुम्हारे ममलूकों (ग़ुलामों और लौंडियों) में से जो मुकातबत (लिखा-पढ़ी)55 की दरख़ास्त करें56 उनसे मुकातबत कर लो। अगर तुम्हें मालूम हो कि उनके अन्दर भलाई है, और उनको उस माल में से दो जो अल्लाह ने तुम्हें दिया है।58 और अपनी लौंडियों को अपने दुनियावी फ़ायदों के लिए बदकारी के धंधे (वेश्यावृत्ति) पर मजबूर न करो जबकि वे ख़ुद पाकदामन रहना चाहती हों,59 और जो कोई उनको मजबूर करे तो इस ज़बरदस्ती के बाद अल्लाह उनके लिए माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
54. इन आयतों की बेहतरीन तफ़सीर वे हदीसें हैं जो इस सिलसिले में नबी (सल्ल०) से रिवायत हुई हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नौजवानो, तुममें से जो शख़्स शादी कर सकता हो उसे कर लेनी चाहिए, क्योंकि यह निगाह को बदनज़री से बचाने और आदमी की पाकबाज़ी क़ायम रखने का बड़ा ज़रिआ है। और जो न कर सकता हो वह रोज़े रखे, क्योंकि रोज़े आदमी की तबीअत के जोश को ठण्डा कर देते हैं।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तीन आदमी हैं जिनकी मदद अल्लाह के ज़िम्मे है, एक वह शख़्स जो पाकदामन रहने के लिए निकाह करे, दूसरा वह मुकातब (वह ग़ुलाम जो लिखा-पढ़ी करके आज़ाद होना चाहे) जो लिखा-पढ़ी के मुताबिक़ माल अदा करने की नीयत रखे, तीसरा वह शख़्स जो अल्लाह की राह में जिहाद के लिए निकले।” (हदीस : तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा, अहमद। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-25)
55. 'मुकातबत’ का लफ़्ज़ी मतलब तो है 'लिखा-पढ़ी', मगर शरीअत की ज़बान में यह लफ़्ज़ इस मानी में बोला जाता है कि कोई ग़ुलाम या लौंडी अपनी आज़ादी के लिए अपने मालिक को एक मुआवज़ा अदा करने की पेशकश करे और जब मालिक उसे क़ुबूल कर ले तो दोनों के बीच शर्तों की लिखा-पढ़ी हो जाए। इस्लाम में ग़ुलामों की आज़ादी के लिए जो सूरतें रखी गई हैं यह उनमें से एक है। ज़रूरी नहीं है कि मुआवज़ा माल ही की शक्ल में हो। मालिक के लिए कोई ख़ास काम कर देना भी मुआवज़ा बन सकता है, शर्त यह है कि दोनों इसपर राज़ी हो जाएँ। मुआहदा (अनुबन्ध) हो जाने के बाद मालिक को यह हक़ नहीं रहता कि ग़ुलाम की आज़ादी में बेजा रुकावटें डाले। वह उसको किताबत का माल जुटाने के लिए काम करने का मौक़ा देगा और तयशुदा मुद्दत के अन्दर जब भी ग़ुलाम अपने ज़िम्मे की रक़म या ख़िदमत अंजाम दे दे, वह उसको आज़ाद कर देगा। हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने का एक वाक़िआ है। कि एक ग़ुलाम ने अपनी मालिकिन से मुकातबत की (आज़ाद होने के लिए लिखा-पढ़ी की) और तयशुदा मुद्दत से पहले ही किताबत का माल जुटाकर उसके पास ले गया। मालिकिन ने कहा कि मैं तो एकमुश्त न लूँगी, बल्कि साल-के साल और महीने-के-महीने क़िस्तों की सूरत में लूँगी। ग़ुलाम ने हज़रत उमर (रज़ि०) से शिकायत की। उन्होंने फ़रमाया, “यह रक्म बैतुल-माल में दाख़िल कर दे और जा तू आज़ाद है।” और फिर उसकी मालिकिन को कहला भेजा कि तेरी रक़म यहाँ जमा हो चुकी है, अब तू चाहे एकमुश्त ले ले वरना, हम तुझे साल-के साल और महीने-के-महीने देते रहेंगे।” (दारे-क़ुतनी, अबू-सईद मक़बरी की रिवायत)
56. इस आयत का मतलब फ़क़ीहों के एक गरोह ने यह लिया है कि जब कोई लौंडी या ग़ुलाम मुकातबत की दरख़ास्त करे तो मालिक पर उसका क़ुबूल करना वाजिब है। यह अता, अम्र-बिन-दीनार, इब्ने-सीरीन, मसरूक़, ज़ह्हाक, इक्रिमा, ज़ाहिरिया और इब्ने-जरीर तबरी का मसलक है और इमाम शाफ़िई (रह०) भी पहले इसी को मानते थे। दूसरा गरोह कहता है कि यह वाजिब नहीं है बल्कि मुस्तहब (पसन्दीदा) है और ऐसा करने के लिए उभारनेवाला है। इस गरोह में शअबी, मुक़ातिल-बिन-हय्यान, हसन बसरी, अब्दुर्रहमान-बिन-ज़ैद, सुफ़ियान सौरी, अबू-हनीफ़ा (रह०) और मालिक-बिन-अनस जैसे बुज़ुर्ग शामिल हैं, और आख़िर में इमाम शाफ़िई (रह०) भी इसी को मानने लगे थे। पहले गरोह की राय की ताईद दो चीज़ें करती हैं। एक यह कि आयत के अलफ़ाज़ हैं 'कातिबूहुम' (उनसे मुकातबत कर लो) ये अलफ़ाज़ साफ़ तौर पर इस बात की दलील देते हैं कि ये अल्लाह तआला का हुक्म है। दूसरी यह कि भरोसेमन्द रिवायतों से साबित है कि मशहूर फ़िक़्ह और हदीस के आलिम हज़रत मुहम्मद-बिन-सीरीन के बाप सीरीन ने अपने मालिक हज़रत अनस (रज़ि०) से जब मुकातबत की दरख़ास्त की और उन्होंने क़ुबूल करने से इनकार कर दिया तो सीरीन हज़रत उमर (रज़ि०) के पास अपनी शिकायत ले गए। उन्होंने वाक्य सुना तो दुर्रा लेकर हज़रत अनस (रज़ि०) पर पिल पड़े और फ़रमाया, “अल्लाह का हुक्म है कि मुकातबत कर लो।” (हदीस : बुख़ारी) इस वाक़िए से दलील ली जाती है कि यह हज़रत उमर (रज़ि०) का निजी अमल नहीं था, बल्कि सहाबा की मौजूदगी में ऐसा किया गया था और किसी ने इसपर अपना इख़्तिलाफ़ ज़ाहिर नहीं किया। लिहाज़ा यह इस आयत की भरोसेमन्द तफ़सीर है। दूसरे गरोह की दलील यह है कि अल्लाह तआला ने सिर्फ़ 'उनसे मुकातबत कर लो’ नहीं फ़रमाया है, बल्कि यह फ़रमाया कि “उनसे मुकातबत कर लो, अगर उनके अन्दर भलाई पाओ।” यह भलाई पाने की शर्त ऐसी है जिसका दारोमदार मालिक की राय पर है, और कोई तयशुदा पैमाना इसका नहीं है जिसे कोई अदालत जाँच सके। क़ानूनी हुक्मों की यह शान नहीं हुआ करती। इसलिए इस हुक्म को नसीहत और हिदायत ही के मानी में लिया जाएगा, न कि क़ानूनी हुक्म के मानी में और सीरीन की मिसाल का जवाब वे यह देते हैं कि उस ज़माने में कोई एक ग़ुलाम तो न था जिसने मुकातबत की दरख़ास्त की हो। हज़ारों ग़ुलाम नबी (सल्ल०) के दौर में और ख़िलाफ़ते-राशिदा के दौर में मौजूद थे, और बहुत-से ग़ुलामों ने मुकातबत की है। सीरीनवाले वाक़िए के सिवा कोई मिसाल हमको नहीं मिलती कि किसी मालिक को अदालती हुक्म के ज़रिए से मुकातबत पर मजबूर किया गया हो। लिहाज़ा हज़रत उमर (रज़ि०) के इस अमल को एक अदालती अमल समझने के बजाय हम इस मानी में लेते हैं कि वे मुसलमानों के बीच सिर्फ़ एक क़ाज़ी (जज) ही न थे, बल्कि मिल्लत के लोगों के साथ उनका ताल्लुक़ बाप और औलाद के जैसा था। कई बार वे बहुत-से ऐसे मामलों में भी दख़ल देते थे जिनमें एक बाप तो दख़ल दे सकता है, मगर अदालत का एक जज नहीं दे सकता।
57. भलाई से मुराद तीन चीज़ें हैं— एक यह कि ग़ुलाम में किताबत का माल अदा करने की सलाहियत हो, यानी वह कमाकर या मेहनत करके अपनी आज़ादी का फ़िदया अदा कर सकता हो, जैसा कि एक मुरसल हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर तुम्हें मालूम हो कि वह कमा सकता है तो मुकातबत करो। यह न हो कि उसे लोगों से भीख माँगते फिरने के लिए छोड़ दो।” (इब्ने-कसीर, ब-हवाता हदीस अबू-दाऊद) दूसरी यह कि उसमें इतनी ईमानदारी और सच्चाई पाई जाती हो कि उसकी बात पर भरोसा करके मुआहदा किया जा सके। ऐसा न हो कि मुकातबत करके वह मालिक की ख़िदमत से छुट्टी भी पा ले और जो कुछ इस बीच कमाए उसे खा-पीकर बराबर भी कर दे। तीसरी यह कि मालिक उसमें ऐसे बुरे अख़लाक़ी रुझान, या इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ दुश्मनी के ऐसे तल्ख़ जज़बात न पाता हो जिनकी बुनियाद पर यह अन्देशा हो कि उसकी आज़ादी मुस्लिम समाज के लिए ख़तरनाक होगी। दूसरे अलफ़ाज़ में उससे यह उम्मीद की जा सकती हो कि मुस्लिम समाज का एक अच्छा आज़ाद शहरी बन सकेगा, न कि आस्तीन का साँप बनकर रहेगा। यह बात ध्यान में रहे कि मामला जंगी क़ैदियों का भी था जिनके बारे में ये एहतियातें बरतने की ज़रूरत थी।
58. यह आम हुक्म है जो ग़ुलामों के मालिकों के लिए भी है, आम मुसलमानों के लिए भी और इस्लामी हुकूमत के लिए भी। ग़ुलामों के मालिकों को हिदायत है कि किताबत के माल में से कुछ-न-कुछ माफ़ कर दो, चुनाँचे कई रिवायतों से साबित है कि सहाबा किराम अपने मुकातबों (लिखा-पढ़ी करके आज़ाद होनेवाले ग़ुलामों) को किताबत के माल का एक बड़ा हिस्सा माफ़ कर दिया करते थे, यहाँ तक कि हज़रत अली (रज़ि०) ने तो हमेशा चौथाई हिस्सा माफ़ किया है और इसी की ताकीद की है। (इब्ने-जरीर) आम मुसलमानों को हिदायत है कि जो मुकातब भी अपना किताबत का माल अदा करने के लिए उनसे दरख़ास्त करे, वे दिल खोलकर उसकी मदद करें। क़ुरआन मजीद में ज़कात ख़र्च करने की जो मदें बताई गई हैं, उनमें से एक 'फिर रिक़ाब' भी है, यानी “गर्दनों को ग़ुलामी के बन्धन से रिहा कराना।” (सूरा-9 तौबा, आयत-60) और अल्लाह तआला के नज़दीक 'फ़क्कु र-क़-बह' (गर्दन का बन्धन खोलना) एक बड़ी नेकी का काम है। (सूरा-90 बलद, आयत-15) हदीस में है कि एक देहाती ने आकर नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया कि मुझे वह अमल बताइए जो मुझको जन्नत में पहुँचा दे। नबी (सल्ल०) ने फरमाया, “तूने बड़े कम अलफ़ाज़ में बहुत बड़ी बात पूछ डाली। ग़ुलाम आज़ाद कर, ग़ुलामों को आज़ादी हासिल करने में मदद दे, किसी को जानवर दे तो ख़ूब दूध देनेवाला दे और तेरा जो रिश्तेदार तेरे साथ ज़ुल्म से पेश आए, उसके साथ नेकी कर। और अगर यह नहीं कर सकता तो भूखे को खाना खिला, प्यासे को पानी पिला, भलाई की नसीहत कर, बुराई से मना कर और अगर यह भी नहीं कर सकता तो अपनी ज़बान को रोककर रख। खुले तो भलाई के लिए खुले वरना बन्द रहे।" (हदीस : बैहकी फ़ी शुअबिल-ईमान) इस्लामी हुकूमत को भी हिदायत है कि बैतुल-माल में जो ज़कात जमा हो, उसमें से ग़ुलामों की रिहाई के लिए एक हिस्सा ख़र्च करे। मुकातब इस मौक़े पर यह बात बता देने के लायक़ है कि पुराने ज़माने में ग़ुलाम तीन तरह के होते थे। एक जंगी क़ैदी, दूसरे आज़ाद आदमी जिनको पकड़-पकड़कर ग़ुलाम बनाकर बेच डाला जाता या। तीसरे वे जो नस्लों से ग़ुलाम चले आ रहे थे और कुछ पता न था उनके बाप-दादा कब ग़ुलाम बनाए गए थे और दोनों क़िस्मों में से किस तरह के ग़ुलाम थे। इस्लाम जब आया तो अरब और उसके बाहर, दुनिया भर का समाज इन तमाम तरह के ग़ुलामों से भरा हुआ था और सारा मआशी (आर्थिक) और सामाजिक निज़ाम मज़दूरों और नौकरों से ज़्यादा इन ग़ुलामों के सहारे चल रहा था। इस्लाम के सामने पहला सवाल यह था कि ये ग़ुलाम जो पहले से चले आ रहे हैं, इनका क्या किया जाए और दूसरा सवाल यह था कि आगे के लिए ग़ुलामी के मसले का क्या हल है। पहले सवाल के जवाब में इस्लाम ने यह नहीं किया कि एक बार ही में पुराने ज़माने के तमाम ग़ुलामों पर से लोगों के मालिकाना हक़ों को ख़त्म कर देता; क्योंकि इससे न सिर्फ़ यह कि पूरा सामाजिक निज़ाम नाकारा हो जाता, बल्कि अरब को अमेरिका की अन्दरूनी जंग से भी कहीं ज़्यादा सख़्त तबाह कर देनेवाली घरेलू जंग का सामना करना पड़ता और फिर भी अस्ल मसला हल न होता जिस तरह अमेरिका में हल न हो सका और काले लोगों (Negroes) की बेइज़्ज़ती का मसला बहरहाल बाक़ी रह गया। सुधार के इस बेवक़ूफ़ी भरे तरीक़े को छोड़कर इस्लाम ने 'फ़क्कु र-क़-बह' (गर्दनों को आज़ाद कराने) की एक ज़बरदस्त अख़लाक़ी तहरीक (आन्दोलन) शुरू की और नसीहत और उभारनेवाले मज़हबी हुक्मों और मुल्की क़ानूनों के ज़रिए से लोगों को इस बात पर उभारा कि या तो आख़िरत की नजात के लिए अपनी मरजी और ख़ुशी से ग़ुलामों को आज़ाद करें, या अपने क़ुसूरों के कफ़्फ़ारे अदा करने के लिए मज़हबी हुक्मों के तहत उन्हें रिहा करें, या माली मुआवज़ा लेकर उनको छोड़ दें। इस तहरीक में नबी (सल्ल०) ने ख़ुद त्रेसठ (63) ग़ुलाम आज़ाद किए। आप (सल्ल०) की बीवियों में से सिर्फ़ एक बीवी हज़रत आइशा (रज़ि०) के आज़ाद किए हुए ग़ुलामों की तादाद सड़सठ (67) थी। नबी (सल्ल०) के चचा हज़रत अब्बास (रज़ि०) ने अपनी ज़िन्दगी में सत्तर (70) ग़ुलामों को आज़ाद किया। हकीम-बिन-हिज्राम ने सौ (100), अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) ने एक हज़ार (1000), ज़ुल-कला हिमयरी (रज़ि०) ने आठ हज़ार (8000), और अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) ने तीस हज़ार (30,000) ग़ुलामों को रिहाई दी। ऐसे ही वाक़िआत दूसरे सहाबा की ज़िन्दगी में भी मिलते हैं जिनमें हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उसमान (रज़ि०) के नाम बहुत नुमायाँ हैं। ख़ुदा की ख़ुशनूदी हासिल करने का एक आम शौक़ था जिसकी बदौलत लोग बहुतायत से ख़ुद अपने ग़ुलाम भी आज़ाद करते थे और दूसरों से भी ग़ुलाम ख़रीद-ख़रीदकर आज़ाद करते चले जाते थे। इस तरह जहाँ तक पिछले दौर के ग़ुलामों का ताल्लुक़ है, वे ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन का ज़माना ख़त्म होने से पहले ही लगभग सबके सब रिहा हो चुके थे। अब रह गया आगे का मसला। इसके लिए इस्लाम ने ग़ुलामी की इस शक्ल को तो बिलकुल हराम ठहरा दिया और क़ानूनी तौर पर बिलकुल बन्द कर दिया कि किसी आज़ाद आदमी को पकड़कर ग़ुलाम बनाया और बेचा और ख़रीदा जाए। अलबत्ता जंगी क़ैदियों को सिर्फ़ उस हालत में ग़ुलाम बनाकर रखने की इजाज़त (हुक्म नहीं, बल्कि इजाज़त) दी जबकि उनकी हुकूमत हमारे जंगी क़ैदियों से उनका तबादला करने पर राज़ी न हो, और वे ख़ुद भी अपना फ़िदया अदा न करें। फिर इन ग़ुलामों के लिए एक तरफ़ इस बात का मौक़ा खुला रखा गया कि वे अपने मालिकों से मुकातबत (लिखा-पढ़ी) करके रिहाई हासिल कर लें। और दूसरी तरफ़ वे तमाम हिदायतें उनके हक़ में मौजूद रहें जो पुराने ग़ुलामों के बारे में थीं कि नेकी का काम समझकर अल्लाह को राज़ी और ख़ुश करने के लिए उन्हें आज़ाद किया जाए, या गुनाहों के कफ़्फ़ारे को (प्रायश्चित) में उनको आज़ादी दे दी जाए, या कोई शख़्स अपनी ज़िन्दगी तक अपने ग़ुलाम को ग़ुलाम रखे और बाद के लिए वसीयत कर दे कि उसके मरते ही वह आज़ाद हो जाएगा (जिसे इस्लामी फ़िक़ह की ज़बान में 'तदबीर' और ऐसे ग़ुलाम को 'मुदब्बर' कहते हैं), या कोई शख़्स अपनी लौंडी से हमबिस्तरी करे और उसके यहाँ औलाद हो जाए, इस सूरत में मालिक के मरते ही वह आप-से-आप आज़ाद हो जाएगी, चाहे मालिक ने वसीयत की हो या न को हो— यह हल है जो इस्लाम ने ग़ुलामी के मसले का किया है। एतिराज़ करनेवाले जाहिल लोग इसको समझे बिना एतिराज़ जड़ते हैं, और उन पेश करनेवाले लोग इसका उज़्र करते-करते आख़िरकार इस बात ही का इनकार कर बैठते हैं कि इस्लाम ने ग़ुलामी को किसी-न-किसी रूप में बाक़ी रखा था।
59. इसका यह मतलब नहीं है कि अगर लौंडियों ख़ुद पाकदामन न रहना चाहती हों तो उनको जिस्म-फ़रोशी पर मजबूर किया जा सकता है, बल्कि इसका मतलब यह है कि अगर लौंडी ख़ुद अपनी मरज़ी से बदकारी कर बैठे तो वह अपने जुर्म की आप ज़िम्मेदार है, क़ानून उसके जुर्म पर उसी को पकड़ेगा, लेकिन अगर उसका मालिक ज़ोर-ज़बरदस्ती करके उससे यह धंधा कराए तो ज़िम्मेदारी मालिक की है और वही पकड़ा जाएगा, और ज़ाहिर है कि ज़ोर-ज़बरदस्ती का सवाल पैदा ही उस वक़्त होता है जबकि किसी को उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ किसी काम पर मजबूर किया जाए। रहा ‘दुनियावी फ़ायदों की ख़ातिर' का जुमला तो अस्ल हुक्म के सुबूत के लिए और क़ैद के तौर पर इस्तेमाल नहीं हुआ है कि अगर मालिक उसकी कमाई न खा रहा हो तो लौंडी को जिस्म-फ़रोशी पर मजबूर करने में वह मुजरिम न हो, बल्कि इसका मक़सद उस कमाई को भी हराम कमाई के दायरे में शामिल करना है जो इस ज़ोर-ज़बरदस्ती के ज़रिए से हासिल की गई हो। लेकिन इस हुक्म का पूरा मक़सद सिर्फ़ इसके अलफ़ाज़ और मौक़ा-महल से समझ में नहीं सकता। इसे अच्छी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि उन हालात को भी निगाह में रखा जाए जिनमें यह उतरा है। उस वक़्त अरब में जिस्म-फ़रोशी की दो सूरतें राइज थीं। घर में बैठकर धन्धा करना, और दूसरा बाक़ायदा चकला। ‘घर में बैठकर’ धन्धा करनेवाली ज़्यादातर आज़ाद हो चुकी होती थीं, जिनका कोई सरपरस्त न होता या ऐसी औरतें होती थीं जिनकी देख-रेख और परवरिश करनेवाला कोई ख़ानदान या क़बीला न होता। ये किसी घर में बैठ जातीं और कई-कई मर्दों से एक साथ उनका समझौता हो जाता कि उनको ख़र्च देंगे और अपनी ज़रूरत पूरी करते रहेंगे। जब बच्चा पैदा होता तो औरत उन में से जिसके बारे में कह देती यह बच्चा उसका है, उसी का बच्चा वह मान लिया जाता था। यह मानो समाज में एक तस्लीमशुदा इदारा (संस्थान) था जिसे इस्लाम से पहले जाहिली ज़माने के लोग एक तरह की 'शादी' समझते थे। इस्लाम ने आकर शादी के सिर्फ़ उस जाने-माने राइज तरीक़े को क़ानूनी शादी क़रार दिया जिसमें एक औरत का सिर्फ़ एक शौहर होता है, और इस तरह बाक़ी तमाम शक्लें ज़िना (व्यभिचार) के तहत आकर आप-से-आप जुर्म हो गईं। (हदीस : अबू-दाऊद) दूसरी शक्ल, यानी खुली जिस्म-फ़रोशी, पूरी-की-पूरी लौंडियों के ज़रिए से होती थी। इसके दो तरीक़े थे। एक यह कि लोग अपनी जवान लौंडियों पर एक भारी रक़म की ज़िम्मेदारी लाद देते थे कि हर महीने इतना कमाकर हमें दिया करो, और वे बेचारियाँ बदकारी करा-कराकर यह मुतालबा पूरा करती थीं। इसके सिवा न किसी दूसरे ज़रिए से वे इतना कमा सकती थीं, न मालिक ही यह समझते थे कि वे किसी पाकीज़ा कमाई के ज़रिए से यह रक़म लाया करती हैं, और न जवान लौंडियों पर आम मज़दूरी की दर से कई-कई गुना रक़में लादने की कोई दूसरी मुनासिब वजह ही हो सकती थी। दूसरा तरीक़ा यह था कि लोग अपनी जवान-जवान और ख़ूबसूरत लौंडियों को कोठों पर बिठा देते थे और उनके दरवाज़ों पर झण्डे लगा देते थे, जिन्हें देखकर दूर ही से मालूम हो जाता था कि 'ज़रूरतमन्द' आदमी कहाँ अपनी ज़रूरत पूरी कर सकता है। ये औरतें 'क्लीक़ियात' कहलाती थीं और उनके घर 'मवाख़ीर' के नाम से मशहूर थे। बड़े-बड़े इज़्ज़तदार रईसों ने इस तरह के चकले खोल रखे थे ख़ुद अब्दुल्लाह-बिन-उबई (मुनाफ़िक़ों का सरदार, वही साहब जिन्हें नबी सल्ल० के तशरीफ़ लाने से पहले मदीनावाले अपना बादशाह बनाना तय कर चुके थे, और वही साहब जो हज़रत आइशा पर तुहमत लगाने में सबसे आगे-आगे थे), मदीना में उनका एक बाक़ायदा चकला मौजूद था, जिसमें छः ख़ूबसूरत लौंडियाँ रखी गई थीं। उनके ज़रिए से वह सिर्फ़ दौलत ही नहीं कमाते थे, बल्कि अरब के अलग-अलग हिस्सों से आनेवाले इज़्ज़तदार मेहमानों की ख़ातिरदारी भी उन्हीं से किया करते थे और उनकी नाजाइज़ औलाद से अपने ख़ादिमों और नौकरों की फ़ौज भी बढ़ाते थे। इन्हीं लौडियों में से एक जिसका नाम मुआज़ा था, मुसलमान हो गई और उसने तौबा करनी चाही। इब्ने-उबई ने उसपर सख़्ती की। उसने जाकर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) से शिकायत की। उन्होंने मामला नबी (सल्ल०) तक पहुँचाया और आप (सल्ल०) ने हुक्म दे दिया कि लौंडी उस ज़ालिम के क़ब्ज़े से निकाल ली जाए। (इब्ने-जरीर, हिस्सा-18, पेज 55-58, 103, 104; अल-इस्तीआब, इब्ने-अब्दुल-बिर्र, हिस्सा-2, पेज-762; इब्ने-कसीर, हिस्सा-3, पेज-288, 289) यही ज़माना था जब अल्लाह की तरफ़ से यह आयत उतरी। इस पसमंज़र को निगाह में रखा जाए तो साफ़ मालूम हो जाता है कि अस्ल मक़सद सिर्फ़ लौडियों को बदकारी के जुर्म पर मजबूर करने से रोकना नहीं है, बल्कि इस्लामी हुकूमत की हदों में जिस्म-फ़रोशी (Prostitution) के कारोबार को क़ानून के बिलकुल ख़िलाफ़ ठहराना है, और साथ-साथ उन औरतों के लिए माफ़ी का एलान भी है जो इस कारोबार में ज़बरदस्ती इस्तेमाल की गई हों। अल्लाह तआला की तरफ़ से यह फ़रमान आ जाने के बाद नबी (सल्ल०) ने एलान फ़रमा दिया कि “इस्लाम में जिस्म-फ़रोशी के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। (हदीस : अबू-दाऊद)। दूसरा हुक्म जो आप (सल्ल०) ने दिया, वह यह था कि बदकारी के ज़रिए से हासिल होनेवाली आमदनी हराम, नापाक और बिलकुल मना है। राफ़ेअ-बिन-खदीज की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने बदकारी के मुआवज़े को नापाक और बदतरीन आमदनी क़रार दिया। (हदीस : अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई) अबू-जुहैफ़ा कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने जिस्म-फ़रोशी के पेशे से कमाई हुई आमदनी को हराम ठहराया। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद) अबू-मसऊद, उक़्बा-बिन-अम्र की रिवायत है कि आप (सल्ल०) ने बदकारी के मुआवज़े का लेन-देन मना ठहराया। (हदीस : सिहाह सित्ता और अहमद) तीसरा हुक्म आप (सल्ल०) ने यह दिया कि लौंडी से जाइज़ तौर पर सिर्फ़ हाय-पाँव की ख़िदमत ली जा सकती है और मालिक कोई ऐसी रक़म उसपर नहीं लगा सकता, या उससे वुसूल नहीं कर सकता जिसके बारे में वह जानता न हो कि यह रक़म वह कहाँ से और क्या करके लाती है। राफ़ेअ-बिन-ख़दीज कहते हैं कि “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने लौंडी से कोई आमदनी वुसूल करने से मना किया, जब तक यह न मालूम हो कि वह आमदनी उसे कहाँ से हासिल होती है।” (हदीस : अबू-दाऊद, किताबुल-इजारा) राफ़ेअ-बिन-रिफ़ाआ अनसारी की रिवायत में इससे ज़्यादा साफ़ हुक्म है कि “अल्लाह के नबी (सल्ल०) ने हमको लौंडी की कमाई से मना किया, सिवाय उसके जो वह हाथ की मेहनत से हासिल करे और आप (सल्ल०) ने हाथ के इशारे से बताया कि यूँ, जैसे रोटी पकाना, सूत कातना, या ऊन और रूई धुनकना।” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, किताबुल-इजारा) इसी मानी में एक रिवायत अबू-दाऊद और मुसनद अहमद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से भी रिवायत हुई है जिसमें लौडियों की कमाई और बदकारी की आमदनी वुसूल करने से मना किया गया है। इस तरह नबी (सल्ल०) ने क़ुरआन की इस आयत के मंशा के मुताबिक़ जिस्म-फरोशी की उन तमाम शक्लों को मज़हबी और दीनी तौर पर नाजाइज़ और क़ानूनी तौर पर मना क़रार दे दिया जो उस वक़्त अरब में राइज थीं, बल्कि इससे भी आगे बढ़कर, अब्दुल्लाह-बिन-उबई की लौंडी मुआज़ा के मामले में जो कुछ आप (सल्ल०) ने फ़ैसला किया, उससे मालूम होता है कि जिस लौंडी से उसका मालिक ज़बरदस्ती पेशा कराए, उसपर से मालिक की मिल्कियत भी ख़त्म हो जाती है। यह इमाम ज़ुहरी की रिवायत है जिसे इब्ने-कसीर ने मुसनद अब्दुर्रज़्ज़ाक के हवाले से नक़्ल किया है।
وَلَقَدۡ أَنزَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖ وَمَثَلٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلِكُمۡ وَمَوۡعِظَةٗ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 33
(34) हमने साफ़-साफ़ हिदायत देनेवाली आयतें तुम्हारे पास भेज दी हैं, और उन क़ौमों की इबरतनाक मिसालें भी हम तुम्हारे सामने पेश कर चुके हैं जो तुमसे पहले हो गुज़री हैं, और वे नसीहतें हमने कर दी हैं जो डरनेवालों के लिए होती हैं।60
60. इस आयत का ताल्लुक़ सिर्फ़ ऊपर की आख़िरी आयत ही से नहीं है, बल्कि बहस के उस पूरे सिलसिले से है जो सूरा के शुरू से यहाँ तक चला आ रहा है। साफ़-साफ़ हिदायतें देनेवाली आयतों से मुराद वे आयतें हैं जिनमें ज़िना और क़ज़्फ़ और लिआन का क़ानून बयान किया गया है, बदकार मर्दों और औरतों से ईमानवालों को शादी-ब्याह के मामले में कोई रिश्ता न रखने की हिदायत की गई है, शरीफ़ लोगों पर बेबुनियाद तुहमतें लगाने और समाज में बेहयाई फैलाने से रोका गया है, मर्दों और औरतों को निगाहें बचाने और शर्मगाहों की हिफ़ाज़त की ताक़ीद की गई है। औरतों के लिए परदे की हदें क़ायम की गई हैं। शादी के क़ाबिल लोगों के अकेले (बेशादी के) बैठे रहने को नापसन्द किया गया है ग़ुलामों की आज़ादी के लिए किताबत (लिखा-पढ़ी) की सूरत पेश की गई है और समाज़ को जिस्म-फ़रोशी की लानत से पाक करने का हुक्म दिया गया है। इन बातों के बाद कहा जा रहा है कि ख़ुदा से डरकर सीधी राह अपनानेवालों को जिस तरह तालीम दी जाती है वह तो हमने दे दी है। अब अगर तुम इस तालीम के ख़िलाफ़ चलोगे तो इसका साफ़ मतलब यह है कि तुम उन क़ौमों का-सा अंजाम देखना चाहते हो जिनकी इबरतनाक मिसालें ख़ुद इसी क़ुरआन में हम तुम्हारे सामने पेश कर चुके हैं — शायद एक हुक्मनामे के ख़त्म होने पर इससे ज़्यादा सख़्त तंबीह (चेतावनी) के अलफ़ाज़ और कोई नहीं हो सकते। मगर दाद देनी पड़ती है उस क़ौम को जो माशाअल्लाह ईमानवाली भी हो और इस हुक्मनामे की तिलावत भी करे और फिर ऐसी सख़्त चेतावनियों के बावजूद इस हुक्मनामे की ख़िलाफ़वर्ज़ी भी करती रहे।
۞ٱللَّهُ نُورُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ مَثَلُ نُورِهِۦ كَمِشۡكَوٰةٖ فِيهَا مِصۡبَاحٌۖ ٱلۡمِصۡبَاحُ فِي زُجَاجَةٍۖ ٱلزُّجَاجَةُ كَأَنَّهَا كَوۡكَبٞ دُرِّيّٞ يُوقَدُ مِن شَجَرَةٖ مُّبَٰرَكَةٖ زَيۡتُونَةٖ لَّا شَرۡقِيَّةٖ وَلَا غَرۡبِيَّةٖ يَكَادُ زَيۡتُهَا يُضِيٓءُ وَلَوۡ لَمۡ تَمۡسَسۡهُ نَارٞۚ نُّورٌ عَلَىٰ نُورٖۚ يَهۡدِي ٱللَّهُ لِنُورِهِۦ مَن يَشَآءُۚ وَيَضۡرِبُ ٱللَّهُ ٱلۡأَمۡثَٰلَ لِلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٞ ۝ 34
(35) अल्लाह61 आसमानों और ज़मीन का नूर है।62 (कायनात में) उसके नूर की मिसाल ऐसी है जैसे एक ताक़ में चिराग रखा हुआ हो, चिराग एक फ़ानूस में हो, फ़ानूस का हाल यह हो कि जैसे मोती की तरह चमकता हुआ तारा, और वह चिराग जैतून के एक ऐसे मुबारक63 पेड़ के तेल से रौशन किया जाता है जो न पूरबी हो न पश्चिमी,64 जिसका तेल आप ही-आप भड़का पड़ता हो, चाहे आग उसको न लगे, (इस तरह कि) रौशनी-पर-रौशनी (बढ़ने के तमाम साधन जमा हो गए हों)65 अल्लाह अपने नूर की तरफ़ जिसकी चाहता है रहनुमाई फ़रमाता है,66 वह लोगों को मिसालों से बात समझाता है, वह हर चीज़ को ख़ूब जानता है।67
61. यहाँ से बात का रुख़ मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की तरफ़ फिरता है जो इस्लामी समाज में फ़ितनों-पर-फ़ितने उठाए चले जा रहे थे और इस्लाम, इस्लामी तहरीक और इस्लामी हुकूमत और समाज को नुक़सान पहुँचाने में उसी तरह सरगर्म थे जिस तरह बाहर के खुले-खुले इस्लाम-मुख़ालिफ़ दुश्मन सरगर्म थे। ये लोग ईमान के दावेदार थे, मुसलमानों में शामिल थे, मुसलमानों के साथ और ख़ास तौर से अनसार के साथ रिश्ते और बिरादरी के ताल्लुक़ात रखते थे, इसी लिए उनकी मुसलमानों में अपने फ़ितने फैलाने का ज़्यादा मौक़ा मिलता था, और कुछ सच्चे मुसलमान तक अपनी सादगी या कमज़ोरी की वजह से उनके हथियार भी बन जाते थे और उनका बचाव करनेवाले भी। लेकिन हक़ीक़त में उनकी दुनिया-परस्ती ने उनकी आँखें अंधी कर रखी थों और ईमान के दावे के बावजूद वे उस नूर से बिलकुल अनजान थे जो क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की बदौलत दुनिया में फैल रहा था। इस मौक़े पर उनको ख़िताब किए बिना उनके बारे में जो कुछ कहा जा रहा है, उसका मक़सद तीन बातें बताना है पहली यह कि उनको समझाया जाए, क्योंकि अल्लाह तआला की रहमत और उसके रब होने का सबसे पहला तक़ाज़ा यह है कि जो बन्दा भी बहका और भटका हुआ हो, उसकी तमाम शरारतों और ख़राबियों के बावजूद उसे आख़िर वक़्त तक समझाने की कोशिश की जाए। दूसरी यह कि ईमान और निफ़ाक़ (कपटाचार) का फ़र्क़ साफ़-साफ़ खोलकर बयान कर दिया जाए, ताकि किसी अक़्ल और समझ रखनेवाले इनसान के लिए मुस्लिम समाज के ईमानवाले और मुनाफ़िक़ लोगों के बीच फ़र्क़ करना मुश्किल न रहे, और इस फ़र्क़ के साफ़-साफ़ और पूरी तरह बयान कर देने के बावजूद जो शख़्स मुनाफ़िक़ों के फन्दे में फँसे या उनका साथ दे, वह अपने इस अमल का पूरी तरह ज़िम्मेदार हो। तीसरी यह कि मुनाफ़िक़ों को साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दिया जाए कि अल्लाह के जो वादे ईमानवालों के लिए हैं, वे सिर्फ़ उन्हीं लोगों को पहुँचते हैं जो सच्चे दिल से ईमान लाएँ और फिर उस ईमान के तक़ाज़े पूरे करें। ये वादे उन सब लोगों के लिए नहीं हैं जो सिर्फ़ मुसलमानों की गिनती में शामिल हों। लिहाज़ा मुनाफ़िक़ों (दिखावटी ईमानवाला) और फ़ासिक़ों (अल्लाह के खुले नाफ़रमानों) को यह उम्मीद न रखनी चाहिए कि वे इन वादों में से कोई हिस्सा पा सकेंगे।
62. आसमानों और ज़मीन का लफ़्ज़ क़ुरआन मजीद में आम तौर से 'कायनात' (सृष्टि) के मानी में इस्तेमाल होता है। लिहाज़ा दूसरे अलफ़ाज़़ में आयत का तर्ज़मा यह भी हो सकता है कि अल्लाह सारी कायनात का नूर है। नूर से मुराद वह चीज़ है जिसकी बदौलत चीज़ें ज़ाहिर होती हैं। यानी जो आप-से-आप ज़ाहिर हो और दूसरी चीज़ों को ज़ाहिर करे। इनसान के ज़ेहन में नूर और रौशनी का अस्ल मतलब यही है। कुछ न सूझने की कैफ़ियत का नाम इनसान ने अंधेरा और तारीकी और ज़ुलमत रखा है, और इसके बरख़िलाफ़ जब सब कुछ सुझाई देने लगे और हर चीज़ ज़ाहिर हो जाए तो आदमी कहता है कि रौशनी हो गई। अल्लाह तआला के लिए लफ़्ज़ 'नूर' का इस्तेमाल इसी बुनियादी मतलब के लिहाज़ से किया गया है, न इस मानी में कि, अल्लाह की पनाह, वह कोई किरण है। जो एक लाख छियासी (66) हज़ार मील प्रति सेकेंड के हिसाब से चलती है और हमारी आँख के परदे पर पड़कर दिमाग़ के उस हिस्से पर असर डालती है जो देखने का अमल करता है। रौशनी की यह ख़ास कैफ़ियत उस मानी की हक़ीक़त में शामिल नहीं है जिसके लिए इनसानी ज़ेहन ने यह लफ़्ज़ गढ़ा है, बल्कि उसपर इस लफ़्ज़ को हम उन रौशनियों के मानी में बोलते हैं जो इस माद्दी दुनिया में हमारे तजरिबे में आती हैं। अल्लाह तआला के लिए इनसानी ज़बान के जितने अलफ़ाज़़ भी बोले जाते हैं, वे अपने अस्ल बुनियादी मतलब के लिहाज़ से बोले जाते हैं, न कि उनके माद्दी मानी के एतिबार से। मिसाल के तौर पर हम अल्लाह के लिए देखने का लफ़्ज़ बोलते हैं। इसका मतलब यह नहीं होता कि वह इनसानों और जानवरों की तरह आँख नाम के एक हिस्से के ज़रिए से देखता है। हम उसके लिए सुनने का लफ़्ज़ बोलते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि वह हमारी तरह कानों के ज़रिए से सुनता है। उसके लिए हम पकड़ और गिरिफ़्त के अलफ़ाज़ बोलते हैं। यह इस मानी में नहीं है कि वह हाथ नाम के एक आला (यन्त्र) से पकड़ता है। ये सब अलफ़ाज़ उसके लिए हमेशा एक निराली शान में बोले जाते हैं। और सिर्फ़ एक कम अक़्ल आदमी ही इस ग़लत-फ़हमी में पड़ सकता है कि सुनने, देखने और पकड़ने की कोई दूसरी सूरत उस महदूद और ख़ास तरह की सुनने, देखने और पकड़ने की ताक़त के सिवा होना नामुमकिन है जो हमारे तजरिबे में आती है। इसी तरह 'नूर' के बारे में भी यह समझना महज़ एक तंग सोच है कि उसके मानी के तहत सिर्फ़ वह किरण ही आ सकती है जो किसी चमकनेवाले सितारे (ग्रह) से निकलकर आँख के परदे पर पड़े। अल्लाह तआला को नूर कहने का मतलब इस महदूद मानी में नहीं है, बल्कि वह मुकम्मल तौर से नूर है। यानी इस कायनात में वही एक अस्ल 'ज़ाहिर’ होने का सबब है, बाक़ी यहाँ अंधेरे और ज़ुलमत के सिवा कुछ नहीं है। दूसरी रौशनी देनेवाली चीज़ें भी उसी की दी हुई रौशनी से चमकनेवाली और रौशन करनेवाली हैं, वरना उनके पास अपना कुछ नहीं जिससे वे यह करिश्मा दिखा सकें। नूर का लफ़्ज़ इल्म के लिए भी इस्तेमाल होता है, और इसके बरख़िलाफ़ जाहिलियत को अंधकार और ज़ुलमत कहा जाता है। अल्लाह तआला इस मानी में भी कायनात का नूर है कि यहाँ हक़ीक़तों का इल्म और सीधे रास्ते का इल्म अगर मिल सकता है तो उसी से मिल सकता है। उससे फ़ायदा हासिल किए बिना जहालत का अंधेरा और उसके नतीजे में गुमराही के सिवा और कुछ मुमकिन नहीं है।
63. मुबारक, यानी अपने अन्दर बहुत-से फ़ायदे रखनेवाला।
64. यानी जो खुले मैदान में या ऊँची जगह पर हो, जहाँ सुबह से शाम तक उसपर धूप पड़ती हो। किसी आड़ में न हो कि उसपर सिर्फ़ सुबह की या सिर्फ़ शाम की धूप पड़े। ज़ैतून के ऐसे पेड़ का तेल ज़्यादा पतला होता है और ज़्यादा तेज़ रौशनी देता है। सिर्फ़ पूरब या पश्चिम दिशावाले पेड़ इसके मुक़ाबले में गाढ़ा तेल देते हैं और चिराग़ में उनकी रौशनी हलकी रहती है।
65. इस मिसाल में चिराग़ से अल्लाह तआला के वुजूद को और ताक से कायनात की मिसाल दी गई है, और फ़ानूस से मुराद वह परदा है जिसमें हज़रते-हक़ (अल्लाह तआला) ने अपने आपकी दुनिया की निगाह से छिपा रखा है। मानो यह परदा हक़ीक़त में छिपाने का नहीं, शिद्दत के साथ ज़ाहिर होने का परदा है। दुनिया की निगाह जो इसको देखने की सकत नहीं रखती, उसकी वजह यह नहीं है कि बीच में अंधेरा रुकावट बना हुआ है, बल्कि अस्ल वजह यह है कि बीच का परदा शफ़्फ़ाफ़ (पारदर्शी) है और इस शफ़्फ़ाफ़ (पारदर्शी) परदे से गुज़रकर आनेवाला नूर ऐसा तेज़, फैला हुआ और छाया हुआ है कि महदूद ताक़त रखनेवाली आँखों की रौशनियाँ इसको समझ पाने में बेबस रह गई हैं। आँख की ये कमज़ोर रौशनियाँ सिर्फ़ उन महदूद रौशनियों को समझ सकती हैं जिनके अन्दर कमी-ज़्यादती होती रहती है जो कभी मिट जाती हैं और कभी पैदा हो जाती हैं, जिनके मुक़ाबले में कोई अंधेरा मौजूद होता है और अपनी ज़िद (विपरीत) के सामने आकर वे नुमायाँ होती हैं। लेकिन मुतलक़ (मुकम्मल) नूर जिसके जैसा कोई नहीं, जो कभी मिटता नहीं, जो सदा एक ही शान से हर तरफ़ छाया रहता है, उसको समझ पाना इनके बस से बाहर है। रही यह बात कि “चिराग जैतून के एक ऐसे पेड़ के तेल से रौशन किया जाता हो जो न पूरबी हो न पश्चिमी,” तो यह सिर्फ़ चिराग की रौशनी के कमाल और उसकी शिद्दत का तसव्वुर दिलाने के लिए है। पुराने ज़माने में ज़्यादा -से-ज़्यादा रौशनी जैतून के तेल के चिरागों से हासिल की जाती थी, और उनमें सबसे ज़्यादा रौशनीवाला वह चिराग होता था जो ऊंची और खुली जगह के पेड़ से निकाले हुए तेल का हो। मिसाल में यह बात कहने का मतलब यह नहीं है कि अल्लाह का वुजूद जिसे चिराग़ से मिसाल दी गई है, किसी और चीज़ से ताक़त (Energy) हासिल कर रहा है, बल्कि कहने का मतलब यह है कि मिसाल में मामूली चिराग नहीं, बल्कि उस सबसे ज़्यादा रौशन चिराग़ का तसव्वुर करो जो तुम्हारे देखने में आता है। जिस तरह ऐसा चिराग सारे मकान को जगमगा देता है, उसी तरह अल्लाह के वुजूद ने सारी कायनात को जगमगा रखा है। और यह जो फ़रमाया कि “उसका तेल आप से आप भड़का पड़ता हो, चाहे आग उसको न लगे,” इसका मआसद भी चिराग की रौशनी के ज़्यादा -से ज़्यादा तेज़ होने का तसव्वुर दिलाना है। यानी मिसाल में इस बेहद तेज़ रौशनी के चिराग का तसव्वुर करो जिसमें ऐसा पतला और ऐसा जल्दी भड़क उठनेवाला तेल पड़ा हुआ हो। ये तीनों चीज़ें यानी ज़ैतून, और उसका पूरवी या पश्चिमी न होना, और उसके तेल का आग लगे बिना ही आप-से-आप भड़का पड़ना, अपने आप में मिसाल के अस्ल हिस्से नहीं है, बल्कि मिसाल के पहले हिस्से यानी चिरा से जुड़े हिस्से हैं। मिसाल के अस्ल हिस्से तीन हैं, चिराग, ताक और शफ्फाफ़ (पारदर्शी) फ़ानूस। आयत का यह जुमला भी ध्यान देने के क़ाबिल है कि “इसके नूर की मिसाल ऐसी है।” इससे वह ग़लतफ़हमी दूर हो जाती है जो “अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है” के अलफ़ाज़ से किसी को हो सकती थी। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह को 'नूर' कहने का मतलब यह नहीं है कि, अल्लाह की पनाह, उसकी हक़ीक़त ही बस 'नूर' होना है। हक़ीक़त में तो वह एक मुकम्मल वुजूद है जो इल्मवाला, क़ुदरतवाला, हिकमतवाला वग़ैरा होने के साथ-साथ नूरवाला भी है। लेकिन ख़ुद उसको नूर सिर्फ़ उसके नूरानियत (रौशन करने के गुण) में मुकम्मल होने की वजह से कहा गया है, जैसे किसी की फ़य्याज़ी (दानशीलता) का हाल बयान करने के लिए उसको ख़ुद फ़ैज़ कह दिया जाए, या उसकी ख़ूबसूरती में सबसे बढ़कर होने को बयान करने के लिए ख़ुद उसी को 'हुस्न कह दिया जाए।
66. यानी अगरचे अल्लाह का यह मुकम्मल नूर सारे जहाँ को रौशन कर रहा है, मगर इसका एहसास हर एक को नसीब नहीं होता। उसके एहसास की ख़ुशनसीबी और उसके फ़ैज़ (मेहरबानी) से फ़ायदा उठाने की नेमत अल्लाह ही जिसको चाहता है, देता है। वरना जिस तरह अंधे के लिए दिन-रात बराबर हैं, उसी तरह समझ न रखनेवाले इनसान के लिए बिजली और सूरज और चाँद-तारों की रौशनी तो रौशनी है, मगर अल्लाह का नूर उसको सुझाई नहीं देता। इस पहलू से उस बदनसीब के लिए कायनात में हर तरफ़ अंधेरा-ही-अंधेरा है। आँखों का अंधा अपने पास की चीज़ नहीं देख सकता, यहाँ तक कि जब उससे टकराकर चोट खा जाता है, तब उसे पता चलता है कि वह चीज़ यहाँ मौजूद थी। इसी तरह बसीरत (अन्तर्दृष्टि) न रखनेवाला उन हक़ीक़तों को भी नहीं देख सकता जो ठीक उसके पहलू में अल्लाह के नूर से जगमगा रही हों। उसे उनका पता सिर्फ़ उस वक़्त चलता है जब वह उनसे टकराकर अपनी शामत में गिरफ़्तार हो चुका होता है।
67. इसके दो मतलब हैं। एक यह कि वह जानता है किस हक़ीक़त को किस मिसाल से बेहतरीन तरीक़े से समझाया जा सकता है। दूसरा यह कि वह जानता है कि कौन इस नेमत का हक़दार है और कौन नहीं है। जो शख़्स सच्चाई की रौशनी का तलबगार ही न हो और हर वक़्त अपन दुनियावी फ़ायदों ही में गुम और माद्दी लज्ज़तों और फ़ायदों ही की खोज में डूबा रहता हो, उसे ज़बरदस्ती सच्चाई की रौशनी दिखाने की अल्लाह की कोई ज़रूरत नहीं है। इस देन का हक़दार तो वही है जिसे अल्लाह जानता है कि वह उसका तलबगार और सच्चा तलबगार है।
فِي بُيُوتٍ أَذِنَ ٱللَّهُ أَن تُرۡفَعَ وَيُذۡكَرَ فِيهَا ٱسۡمُهُۥ يُسَبِّحُ لَهُۥ فِيهَا بِٱلۡغُدُوِّ وَٱلۡأٓصَالِ ۝ 35
(36) (उसके नूर की तरफ़ हिदायत पानेवाले) उन घरों में पाए जाते हैं, जिन्हें बुलन्द करने की और जिनमें अपने नाम की याद का अल्लाह ने हुक्म दिया है।68
68. कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने इन 'घरों से मुराद मस्जिदें’ ली हैं, और उनको बुलन्द करने से मुराद उनको तामीर करना और उनका एहतिराम करना लिया है और कुछ दूसरे तफ़सीर लिखनेवाले उलमा इससे मुराद ईमानवालों के घर लेते हैं और उन्हें बुलन्द करने का मतलब उनके नज़दीक उन्हें अख़लाक़ी हैसियत से बुलन्द करना है। “उनमें अपने नाम की याद की अल्लाह ने इजाज़त दी है” ये अलफ़ाज़ बज़ाहिर मस्जिदवाली तफ़सीर की ज़्यादा ताईद करते नज़र आते हैं, मगर ग़ौर करने से मालूम होता है कि ये दूसरी तफ़सीर की भी उतनी ही ताईद करते हैं जितनी पहली तफ़सीर की। इसलिए कि अल्लाह की शरीअत काहिनों से मुतास्सिर मज़हबों की तरह इबादत को सिर्फ़ इबादतगाहों तक ही महदूद नहीं रखती, जहाँ काहिन या पुजारी तबक़े के किसी फ़र्द की पेशवाई के बिना बन्दगी की रस्में अदा नहीं की जा सकतीं, बल्कि यहाँ मस्जिद की तरह घर भी इबादतगाह है और हर शख़्स अपना पुरोहित आप है चूँकि इस सूरा में तमाम घरेलू ज़िन्दगी को बेहतर-से-बेहतर बनाने के लिए हिदायतें दी गई हैं, इसलिए दूसरी तफ़सीर हमको मौक़े और महल के लिहाज़ से ज़्यादा दुरुस्त मालूम होती है, अगरचे पहली तफ़सीर को भी रद्द कर देने के लिए कोई मुनासिब दलील नहीं है। क्या हरज है कि अगर इससे मुराद ईमानवालों के घर और उनकी मस्जिदें, दोनों ही हों।
رِجَالٞ لَّا تُلۡهِيهِمۡ تِجَٰرَةٞ وَلَا بَيۡعٌ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِ وَإِقَامِ ٱلصَّلَوٰةِ وَإِيتَآءِ ٱلزَّكَوٰةِ يَخَافُونَ يَوۡمٗا تَتَقَلَّبُ فِيهِ ٱلۡقُلُوبُ وَٱلۡأَبۡصَٰرُ ۝ 36
(37) उनमें ऐसे लोग सुबह-शाम उसकी तसबीह (महिमागान) करते हैं जिन्हें तिजारत और ख़रीदना-बेचना अल्लाह की याद से और नमाज़ क़ायम करने और ज़कात देने से ग़ाफ़िल नहीं कर देता। वे उस दिन से डरते रहते हैं, जिसमें दिल उलटने और दीदे पथरा जाने की नौबत आ जाएगी,
لِيَجۡزِيَهُمُ ٱللَّهُ أَحۡسَنَ مَا عَمِلُواْ وَيَزِيدَهُم مِّن فَضۡلِهِۦۗ وَٱللَّهُ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 37
(38) (और वे यह सब कुछ इसलिए करते हैं) ताकि अल्लाह उनके बेहतरीन आमाल का बदला उनको दे और अपनी मेहरबानी से और भी नवाज़े, अल्लाह जिसे चाहता है बेहिसाब देता है।69
69. यहाँ उन सिफ़ात की तशरीह कर दी गई है जो अल्लाह के नूर का एहसास करने और उसके फ़ैज़ (दानशीलता) से फ़ायदा उठाने के लिए दरकार हैं। अल्लाह की बाँट अंधी बाँट नहीं है कि यूँ ही जिसे चाहा मालामाल कर दिया और जिसे चाहा धुत्कार दिया। वह जिसे देता है कुछ देखकर ही देता है, और हक़ (सत्य) की नेमत देने के मामले में जो कुछ वह देखता है, वह यह है कि आदमी के दिल में उसकी मुहब्बत और उससे दिलचस्पी और उसका डर और उसके इनाम की तलब और उसके ग़ज़ब (प्रकोप) से बचने की ख़ाहिश मौजूद है। वह दुनिया-परस्ती में गुम नहीं है, बल्कि सारी मसरूफ़ियतों के बावजूद उसके दिल में अपने ख़ुदा की याद बसी रहती है। वह पस्तियों में पड़ा नहीं रहना चाहता, बल्कि उस बुलन्दी को अमली तौर पर अपनाता है जिसकी तरफ़ उसका मालिक उसकी रहनुमाई करे। वह इसी कुछ दिनों की ज़िन्दगी के फ़ायदों का तलबगार नहीं है, बल्कि उसकी निगाह आख़िरत की हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी पर जमी हुई है। यही कुछ देखकर फ़ैसला किया जाता है कि आदमी को अल्लाह के नूर से फ़ायदा उठाने का मौक़ा दिया जाए। फिर जब अल्लाह देने पर आता है तो इतना देता है कि आदमी का अपना दामन ही तंग हो तो दूसरी बात है, वरना उसकी देन के लिए कोई हद और इन्तिहा नहीं है।
وَٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَعۡمَٰلُهُمۡ كَسَرَابِۭ بِقِيعَةٖ يَحۡسَبُهُ ٱلظَّمۡـَٔانُ مَآءً حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَهُۥ لَمۡ يَجِدۡهُ شَيۡـٔٗا وَوَجَدَ ٱللَّهَ عِندَهُۥ فَوَفَّىٰهُ حِسَابَهُۥۗ وَٱللَّهُ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 38
(39) (इसके बरख़िलाफ़) जिन्होंने इनकार किया70 उनके आमाल की मिसाल ऐसी है जैसे बिना पानी के रेगिस्तान में सराब (मरीचिका) कि प्यासा उसको पानी समझे हुए था, मगर जब वहाँ पहुँचा तो कुछ न पाया, बल्कि वहाँ उसने अल्लाह को मौजूद पाया जिसने उसका पूरा-पूरा हिसाब चुका दिया, और अल्लाह को हिसाब लेते देर नहीं लगती।71
70. यानी हक़ की उस सच्ची तालीम को सच्चे दिल से क़ुबूल करने से इनकार कर दिया जो अल्लाह की तरफ़ से उसके पैग़म्बरों ने दी है और जो उस वक़्त अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे थे। ऊपर की आयतें ख़ुद बता रही हैं कि अल्लाह का नूर पानेवालों से मुराद सच्चे और नेक ईमानवाले हैं इसलिए अब उनके मुक़ाबले में उन लोगों की हालत बताई जा रही है जो इस नूर को पाने के असली और सिर्फ़ एक ही ज़रिया, यानी रसूल ही को मानने और उसकी पैरवी करने से इनकार कर दें, चाहे दिल से इनकार करें और सिर्फ़ ज़बान से इक़रार करते हों, या दिल और ज़बान दोनों ही से इनकार करते हों।
71. इस मिसाल में उन लोगों का हाल बयान हुआ है जो कुफ़्र (इनकार) और निफ़ाक़ (दिखावटी इक़रार मगर दिल में इनकार, कपट) के बावजूद बज़ाहिर कुछ अच्छे काम भी करते हों और कुल मिलाकर आख़िरत को भी मानते हों, और इस ग़लतफ़हमी में पड़े हों कि सच्चे ईमान और ईमानवालों की सिफ़ात और रसूल की पैरवी के बिना उनके ये आमाल आख़िरत में उनके लिए कुछ फ़ायदेमन्द होंगे। मिसाल के अन्दाज़ में उनको बताया जा रहा है कि तुम अपने जिन ज़ाहिरी और दिखावटी भलाई के कामों से आख़िरत में फ़ायदे की उम्मीद रखते हो, उनकी हक़ीक़त सराब (मरीचिका) से ज़्यादा नहीं है रेगिस्तान में चमकती हुई रेत को दूर से देखकर जिस तरह प्यासा यह समझता है कि पानी का एक तालाब मौजें मार रहा है और वह मुँह उठाए उसकी तरफ़ प्यास बुझाने की उम्मीद लिए हुए दौड़ता चला जाता है, उसी तरह तुम इन आमाल के झूठे भरोसे पर मौत की मंज़िल का सफ़र तय करते चले जा रहे हो। मगर जिस तरह चमकती रेत के पीछे दौड़नेवाला जब उस जगह पहुँचता है, जहाँ उसे तालाब नज़र आ रहा था तो कुछ नहीं पाता। इसी तरह जब तुम मौत की मंज़िल में दाख़िल हो जाओगे तो तुम्हें पता चल जाएगा कि यहाँ कोई ऐसी चीज़ मौजूद नहीं है जिसका तुम कोई फ़ायदा उठा सको, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ अल्लाह तुम्हारे कुफ़्र (इनकार) और निफ़ाक़ (कपटाचार) का, और उन बुरे कामों का जो तुम इन दिखावटी नेकियों के साथ कर रहे थे, हिसाब लेने और पूरा-पूरा बदला देने के लिए मौजूद है।
أَوۡ كَظُلُمَٰتٖ فِي بَحۡرٖ لُّجِّيّٖ يَغۡشَىٰهُ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ مَوۡجٞ مِّن فَوۡقِهِۦ سَحَابٞۚ ظُلُمَٰتُۢ بَعۡضُهَا فَوۡقَ بَعۡضٍ إِذَآ أَخۡرَجَ يَدَهُۥ لَمۡ يَكَدۡ يَرَىٰهَاۗ وَمَن لَّمۡ يَجۡعَلِ ٱللَّهُ لَهُۥ نُورٗا فَمَا لَهُۥ مِن نُّورٍ ۝ 39
(40) या फिर उसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक गहरे समन्दर में अंधेरा कि ऊपर एक मौज छाई हुई है, उसपर एक और मौज़, और उसके ऊपर बादल, अंधेरे-पर-अंधेरा छाया हुआ है, आदमी अपना हाथ निकाले तो उसे भी न देखने पाए।72 जिसे अल्लाह नूर न दे, उसके लिए फिर कोई नूर नहीं।73
72. इस मिसाल में हक़ के तमाम इनकारियों और मुनाफ़िक़ों की हालत बयान की गई है जिनमें दिखावटी नेकियों करनेवाले भी शामिल हैं। इन सबके बारे में बताया जा रहा है कि वे अपनी पूरी ज़िन्दगी बिलकुल और पूरी तरह जहालत की हालत में गुज़ार रहे हैं, चाहे वे दुनियावालों की नज़र में बहुत बड़े आलिम (ज्ञानवान) और उलूमो-फ़ुनून (विज्ञान व कलाओं) के उस्तादों-के-उस्ताद ही क्यों न हों। उनकी मिसाल उस आदमी की-सी है जो किसी ऐसी जगह फँसा हुआ हो जहाँ पूरी तरह अंधेरा हो, रौशनी की एक किरण तक न पहुँच सकती हो। वे समझते हैं कि एटम बम और हाइड्रोजन बम और आवाज़ से तेज़ रफ़्तार हवाई जहाज़, और चाँद तक पहुँचनेवाली हवाइयाँ बना लेने का नाम इल्म (विज्ञान) है। उनके नज़दीक मआशी और माली मामलों में और क़ानून और फ़लसफ़े में महारत का नाम इल्म है। मगर हक़ीक़ी इल्म एक और चीज़ है, और उसकी उनको हवा तक नहीं लगी है। उस इल्म के एतिबार से वे कोरे जाहिल हैं, और एक अनपढ़ देहाती इल्मवाला है, अगर वह हक़ की पहचान रखता हो।
73. यहाँ पहुँचकर वह अस्ल मक़सद खोल दिया गया है जिसकी तमहीद (भूमिका) “अल्लाह आसमानों और ज़मीन का नूर है” की बात से उठाई गई थी। जब कायनात में कोई नूर हक़ीक़त में अल्लाह के नूर के सिवा नहीं है, और सब कुछ उसी नूर की बदौलत ज़ाहिर हो रहा है तो जो शख़्स अल्लाह से नूर न पाए, वह अगर पूरी तरह अंधेरे में पड़ा न होगा तो और क्या होगा। कहीं और तो रौशनी मौजूद ही नहीं है कि उससे एक किरण भी वह पा सके।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُسَبِّحُ لَهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلطَّيۡرُ صَٰٓفَّٰتٖۖ كُلّٞ قَدۡ عَلِمَ صَلَاتَهُۥ وَتَسۡبِيحَهُۥۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِمَا يَفۡعَلُونَ ۝ 40
(41) क्या74 तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह की तसबीह कर रहे हैं वे सब जो आसमानों और ज़मीन में हैं और वे परिन्दे जो पंख फैलाए उड़ रहे हैं? हर एक अपनी नमाज़ और तसबीह का तरीक़ा जानता है, और ये सब जो कुछ करते हैं, अल्लाह उससे बाख़बर रहता है।
74. ऊपर ज़िक्र आ चुका है कि अल्लाह सारी कायनात का नूर है, मगर उस नूर को पाने का मौक़ा सिर्फ़ नेक ईमानवालों ही को मिलता है, बाक़ी सब लोग इस मुकम्मल नूर के तहत होते हुए भी अंधों की तरह अंधेरे में भटकते रहते हैं। अब इस नूर की तरफ़ रहनुमाई करनेवाली अनगिनत निशानियों में से सिर्फ़ कुछ को बतौर नमूना पेश किया जा रहा है कि दिल की आँखें खोलकर कोई उन्हें देखे तो हर वक़्त हर तरफ़ अल्लाह को काम करते देख सकता है। मगर जो दिल के अंधे हैं, वे अपने सर के दीदे फाड़-फाड़कर भी देखते हैं तो उन्हें बायलॉजी (Biology) और ज़ूलॉजी (Zoology) और तरह-तरह की दूसरी लॉजियाँ (Lologies) तो अच्छी ख़ासी काम करती नज़र आती हैं, मगर अल्लाह कहीं काम करता नज़र नहीं आता।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 41
(42) आसमानों और ज़मीन की बादशाही अल्लाह ही के लिए है और उसी की तरफ़ सबको पलटना है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُزۡجِي سَحَابٗا ثُمَّ يُؤَلِّفُ بَيۡنَهُۥ ثُمَّ يَجۡعَلُهُۥ رُكَامٗا فَتَرَى ٱلۡوَدۡقَ يَخۡرُجُ مِنۡ خِلَٰلِهِۦ وَيُنَزِّلُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن جِبَالٖ فِيهَا مِنۢ بَرَدٖ فَيُصِيبُ بِهِۦ مَن يَشَآءُ وَيَصۡرِفُهُۥ عَن مَّن يَشَآءُۖ يَكَادُ سَنَا بَرۡقِهِۦ يَذۡهَبُ بِٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 42
(43) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह बादल को धीरे-धीरे चलाता है, फिर उसके टुकड़ों को आपस में जोड़ता है, फिर उसे समेटकर एक घना बादल बना देता है, फिर तुम देखते हो कि उसके ख़ोल में से बारिश की बूंदें टपकती चली आती हैं। और वह आसमान से, उन पहाड़ों की बदौलत जो उसमें बुलन्द हैं,75 ओले बरसाता है, फिर जिसे चाहता है उनका नुक़सान पहुँचाता है और जिसे चाहता है उनसे बचा लेता है। उसकी बिजली की चमक निगाहों को चकाचौंध किए देती है।
75. इससे मुराद सर्दी से जमे हुए बादल भी हो सकते हैं जिन्हें अलामत के तौर पर आसमान के पहाड़ कहा गया हो और ज़मीन के पहाड़ भी हो सकते हैं जो आसमान में बुलन्द हैं जिनकी चोटियों पर जमी हुई बर्फ़ के असर से कई बार हवा इतनी ठण्डी हो जाती है कि बादलों में जमाव पैदा होने लगता है और ओलों की शक्ल में बारिश होने लगती है।
يُقَلِّبُ ٱللَّهُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 43
(44) रात और दिन का उलट-फेर वही कर रहा है। इसमें एक सबक है ऑँखोंवालों के लिए।
وَٱللَّهُ خَلَقَ كُلَّ دَآبَّةٖ مِّن مَّآءٖۖ فَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ بَطۡنِهِۦ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰ رِجۡلَيۡنِ وَمِنۡهُم مَّن يَمۡشِي عَلَىٰٓ أَرۡبَعٖۚ يَخۡلُقُ ٱللَّهُ مَا يَشَآءُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 44
(45) और अल्लाह ने हर जानदार एक तरह के पानी से पैदा किया, कोई पेट के बल चल रहा है तो कोई दो टाँगों पर और कोई चार टाँगों पर। जो कुछ वह चाहता है पैदा करता है, वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
لَّقَدۡ أَنزَلۡنَآ ءَايَٰتٖ مُّبَيِّنَٰتٖۚ وَٱللَّهُ يَهۡدِي مَن يَشَآءُ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 45
(46) हमने साफ़-साफ़ हक़ीक़त बतानेवाली आयतें उतार दी हैं, आगे सीधे रास्ते की तरफ़ हिदायत अल्लाह ही जिसे चाहता है देता है।
وَيَقُولُونَ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَبِٱلرَّسُولِ وَأَطَعۡنَا ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُم مِّنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَۚ وَمَآ أُوْلَٰٓئِكَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 46
(47) ये लोग कहते हैं कि हम ईमान लाए अल्लाह और रसूल पर और हमने फ़रमाँबरदारी क़ुबूल की, मगर इसके बाद इनमें से एक गरोह (फ़रमाँबरदारी से) मुँह मोड़ जाता है। ऐसे लोग हरगिज़ ईमानवाले नहीं हैं।76
76. यानी फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ना उनके ईमान के दावे को ख़ुद झुठला देता है, और इस हरकत से यह बात खुल जाती है कि उन्होंने झूठ कहा, जब कहा कि हम ईमान लाए और हमने फ़रमाँबरदारी क़ुबूल की।
وَإِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ إِذَا فَرِيقٞ مِّنۡهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 47
(48) जब इनको बुलाया जाता है अल्लाह और रसूल की तरफ़ ताकि रसूल इनके आपस के मुक़द्दमे का फ़ैसला करे77 तो इनमें से एक गरोह कतरा जाता है।78
77. ये अलफ़ाज़ साफ़ बताते हैं कि रसूल का फ़ैसला अल्लाह का फ़ैसला है और उसका हुक्म अल्लाह का हुक्म है रसूल की तरफ़ बताया जाना सिर्फ़ रसूल ही की तरफ़ बुलाया जाना नहीं, बल्कि अल्लाह और रसूल दोनों की तरफ़ बुलाया जाना है। इसके अलावा इस आयत और ऊपरवाली आयत से यह बात बिना किसी शक के बिलकुल साफ़ हो जाती है कि अल्लाह और रसूल की फ़रमाँबरदारी के बिना ईमान का दावा बेमतलब है और अल्लाह और रसूल की फ़रमाँबरदारी का कोई मतलब इसके सिवा और कुछ नहीं कि मुसलमान फ़र्द (व्यक्ति) की हैसियत से भी और क़ौम की हैसियत से भी उस क़ानून के आगे झुक जाएँ जो अल्लाह और उसके रसूल ने उनको दिया है। यह रवैया अगर ये नहीं अपनाते तो उनका ईमान का दावा एक झूठा दावा है। (यह क़िस्सा दूसरी जगह पर भी कुछ फ़र्क़ के साथ आया है। देखिए तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयतें—59-61, हाशिए—89-92 के समेत।)
78. वाज़ेह रहे कि यह मामला सिर्फ़ नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी ही के लिए न था, बल्कि आप (सल्ल०) के बाद जो भी इस्लामी हुकूमत में जज या क़ाज़ी के ओहदे पर हो और अल्लाह की किताब और अल्लाह के रसूल की सुन्नत के मुताबिक़ फ़ैसले करे तो उसकी अदालत का सम्मन (Sommon) अस्ल में अल्लाह और रसूल की अदालत का सम्मन है, और उससे मुँह मोड़नेवाला हक़ीक़त में उससे नहीं, बल्कि अल्लाह और रसूल से मुँह मोड़नेवाला है। इस बात की यह तशरीह ख़ुद नबी (सल्ल०) से एक मुर्सल हदीस में बयान हुई है जिसे हसन बसरी (रह०) ने रिवायत किया है कि “जो शख़्स मुसलमानों के अदालती अधिकारियों में से किसी अधिकारी की तरफ़ बुलाया जाए और वह हाज़िर न हो तो वह ज़ालिम है, उसका कोई हक़ नहीं है।” (अहकामुल-क़ुरआन, जस्सास, हिस्सा-3, पेज-105) दूसरे अलफ़ाज़ में ऐसा आदमी सज़ा का भी हक़दार है, और इसके अलावा इसका भी हक़दार है कि उसे पूरी तरह ग़लत मानकर उसके ख़िलाफ़ एकतरफ़ा फ़ैसला दे दिया जाए।
وَإِن يَكُن لَّهُمُ ٱلۡحَقُّ يَأۡتُوٓاْ إِلَيۡهِ مُذۡعِنِينَ ۝ 48
(49) अलबत्ता अगर हक़ इनकी तरफ़दारी में हो तो रसूल के पास बड़े फ़रमाँबरदार बनकर आ जाते हैं।79
79. यह आयत इस हक़ीक़त को साफ़-साफ़ खोलकर बयान कर रही है कि जो शख़्स शरीअत की फ़ायदेमन्द बातों को ख़ुशी से लपककर ले ले, मगर जो कुछ ख़ुदा की शरीअत में उसके मक़सदों और ख़ाहिशों के खिलाफ़ हो, उसे रद्द कर दे और उसके मुक़ाबले में दुनिया के दूसरे क़ानूनों को अहमियत दे तो वह ईमानवाला नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़ है। उसका ईमान का दावा झूठा है; क्योंकि वह ईमान ख़ुदा और रसूल पर नहीं, अपने फ़ायदों और ख़ाहिशों पर रखता है। इस रवैये के साथ ख़ुदा की शरीअत के किसी हिस्से को अगर वह मान भी रहा है तो ख़ुदा की निगाह में इस तरह के मानने की कोई क़द्र-क़ीमत नहीं।
أَفِي قُلُوبِهِم مَّرَضٌ أَمِ ٱرۡتَابُوٓاْ أَمۡ يَخَافُونَ أَن يَحِيفَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ وَرَسُولُهُۥۚ بَلۡ أُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 49
(50) क्या इनके दिलों को (मुनाफ़क़त का) रोग लगा हुआ है? या ये शक में पड़े हुए हैं? या इनको यह डर है कि अल्लाह और उसका रसूल उनपर ज़ुल्म करेगा? अस्ल बात यह है कि ज़ालिम तो ये लोग ख़ुद हैं।80
80. यानी इस रवैये की तीन वजहें ही हो सकती हैं— एक यह कि आदमी सिरे से ईमान ही न लाया हो और मुनाफ़िक़ाना तरीक़े पर सिर्फ़ धोखा देने और मुस्लिम समाज में शामिल होने का नाजाइज़ फ़ायदा उठाने के लिए मुसलमान हो गया हो। दूसरी यह कि ईमान ले आने के बावजूद उसे इस बात में अभी तक शक हो कि रसूल ख़ुदा का रसूल है या नहीं, और क़ुरआन ख़ुदा की किताब है या नहीं, और आख़िरत सचमुच आनेवाली है भी या यह सिर्फ़ एक गढ़ी हुई कहानी है, बल्कि ख़ुदा भी हक़ीक़त में मौजूद है या यह भी एक ख़याल है जो किसी ज़रूरत से गढ़ लिया गया है। तीसरी यह कि वह ख़ुदा को ख़ुदा और रसूल को रसूल मानकर भी उनसे ज़ुल्म का अन्देशा रखता हो और यह समझता हो कि ख़ुदा की किताब ने फ़ुलाँ हुक्म देकर तो हमें मुसीबत में डाल दिया और ख़ुदा के रसूल का फ़ुलाँ फ़रमान या फ़ुलाँ तरीक़ा तो हमारे लिए सख़्त नुक़सानदेह है। इन तीनों सूरतों में से जो सूरत भी हो, ऐसे लोगों के ज़ालिम होने में कोई शक नहीं। इस तरह के ख़यालात रखकर जो शख़्स मुसलमानों में शामिल होता है, ईमान का दावा करता है और मुस्लिम समाज का एक मेम्बर बनकर तरह-तरह के नाजाइज़ फ़ायदे इस समाज से उठाता है, वह बहुत बड़ा धोखेबाज़, बेईमान और जालसाज़ है वह अपने आपपर भी ज़ुल्म करता है कि उसे दिन-रात के झूठ से घटिया और गिरी हुई सिफ़ात का पुतला बनाता चला जाता है। और उन मुसलमानों पर भी ज़ुल्म करता है जो उसके ज़ाहिरी कलिमा-ए-शहादत पर भरोसा करके उसे अपनी मिल्लत का एक हिस्सा मान लेते हैं और फिर उसके साथ तरह-तरह के समाजी, तमद्दुनी, सियासी और अख़लाक़ी रिश्ते भी जोड़ लेते हैं।
إِنَّمَا كَانَ قَوۡلَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذَا دُعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ أَن يَقُولُواْ سَمِعۡنَا وَأَطَعۡنَاۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 50
(51) ईमान लानेवालों का काम तो यह है कि जब वे अल्लाह और रसूल की तरफ़ बुलाए जाएँ, ताकि रसूल उनके मुक़द्दमे का फ़ैसला करे तो वे कहें कि हमने सुना और मान लिया। ऐसे ही लोग क़ामयाब होनेवाले हैं,
وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَيَخۡشَ ٱللَّهَ وَيَتَّقۡهِ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَآئِزُونَ ۝ 51
(52) और क़ामयाब वही हैं जो अल्लाह और रसूल की फ़रमाँबरदारी करें और अल्लाह से डरें और उसकी नाफ़रमानी से बचें।
۞وَأَقۡسَمُواْ بِٱللَّهِ جَهۡدَ أَيۡمَٰنِهِمۡ لَئِنۡ أَمَرۡتَهُمۡ لَيَخۡرُجُنَّۖ قُل لَّا تُقۡسِمُواْۖ طَاعَةٞ مَّعۡرُوفَةٌۚ إِنَّ ٱللَّهَ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 52
(53) ये (मुनाफ़िक़) अल्लाह के नाम से कड़ी-कड़ी क़समें खाकर कहते हैं कि “आप हुक्म दें तो हम घरों से निकल खड़े हों। इनसे कहो, “क़समें न खाओ, तुम्हारी फ़रमाँबरदारी का हाल मालूम है,81 तुम्हारे करतूतों से अल्लाह बेख़बर नहीं है।82
81. दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि ईमानवालों से जो फ़माँबरदारी चाहिए है, वह जानी मानी फ़रमाँबरदारी है जो हर शक-शुब्हे से ऊपर हो, न कि वह फ़रमाँबरदारी जिसका यक़ीन दिलाने के लिए क़समें खाने की ज़रूरत पड़े और फिर भी यक़ीन न आ सके। जो लोग हक़ीक़त में हुक्म के पाबन्द होते हैं, उनका रवैया किसी से छिपा हुआ नहीं होता। हर शख़्स उनके रवैये को देखकर महसूस कर लेता है कि ये फ़रमाँबरदार लोग हैं। उनके बारे में किसी शक और शुब्हे की गुंजाइश ही नहीं होती कि उसे दूर करने के लिए क़समें खाने की ज़रूरत पड़े।
82. यानी ये धोखेबाज़ियाँ दुनियावालों के मुक़ाबले में तो शायद चल भी जाएँ, मगर ख़ुदा के मुक़ाबले में कैसे चल सकती हैं जो खुले और छिपे सब हालात, बल्कि दिलों में छिपे इरादों और ख़यालात, तक जनता है।
قُلۡ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡهِ مَا حُمِّلَ وَعَلَيۡكُم مَّا حُمِّلۡتُمۡۖ وَإِن تُطِيعُوهُ تَهۡتَدُواْۚ وَمَا عَلَى ٱلرَّسُولِ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 53
(54) कहो, “अल्लाह के फ़रमाँबरदार बनो और रसूल के हुक्म को माननेवाले बनकर रहो। लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो तो ख़ूब समझ लो कि रसूल पर जिस फ़र्ज़ का बोझ रखा गया है, उसका ज़िम्मेदार वह है और तुमपर जिस फ़र्ज़ का बोझ डाला गया है, उसके ज़िम्मेदार तुम। उसकी फ़रमाँबरदारी करोगे तो ख़ुद ही हिदायत पाओगे। वरना रसूल की ज़िम्मेदारी इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि साफ़-साफ़ हुक्म पहुँचा दे।"
وَعَدَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَيَسۡتَخۡلِفَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ كَمَا ٱسۡتَخۡلَفَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ وَلَيُمَكِّنَنَّ لَهُمۡ دِينَهُمُ ٱلَّذِي ٱرۡتَضَىٰ لَهُمۡ وَلَيُبَدِّلَنَّهُم مِّنۢ بَعۡدِ خَوۡفِهِمۡ أَمۡنٗاۚ يَعۡبُدُونَنِي لَا يُشۡرِكُونَ بِي شَيۡـٔٗاۚ وَمَن كَفَرَ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 54
(55) अल्लाह ने वादा किया है तुममें से उन लोगों के साथ जो ईमान लाएँ और अच्छे काम करें कि वह उनको उसी तरह ज़मीन में ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाएगा जिस तरह उनसे पहले गुज़रे हुए लोगों को बना चुका है। उनके लिए उनके उस दीन को मज़बूत बुनियादों पर क़ायम कर देगा जिसे अल्लाह तआला ने उनके लिए पसन्द किया है, और उनकी (मौजूदा) डर की हालत को अम्न से बदल देगा। बस ये मेरी बन्दगी करें और मेरे साथ किसी को शरीक न करें।83 और जो उसके बाद कुफ़्र करे84 तो ऐसे ही लोग नाफ़रमान हैं।
83. जैसा कि इस बात के सिलसिले के शुरू में हम इशारा कर चुके हैं, यह बात कहने का मक़सद मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) को ख़बरदार करना है कि अल्लाह ने मुसलमानों को ख़िलाफ़त (अल्लाह का प्रतिनिधत्व) देने का जो वादा किया है, वह सिर्फ़ नाम के मुसलमानों के लिए नहीं किया है, बल्कि उन मुसलमानों के लिए है जो ईमान में सच्चे हों, अख़लाक़ और आमाल के एतिबार से नेक हों, अल्लाह के पसन्दीदा दीन की पैरवी करनेवाले हों, और हर तरह के शिर्क से पाक होकर ख़ालिस अल्लाह की बन्दगी और ग़ुलामी के पाबन्द हों। इन सिफ़ात से ख़ाली और सिर्फ़ ज़बान से ईमान के दावेदार लोग न इस वादे के लायक़ हैं और न यह उनसे किया ही गया है। इसलिए वे इसमें हिस्सेदार होने को उम्मीद न रखें। कुछ लोग ख़िलाफ़त को सिर्फ़ हुकूमत और फ़माँरवाई और ग़लबे के मानी में ले लेते हैं, फिर इस आयत से यह नतीजा निकालते हैं कि जिसको भी दुनिया में यह चीज़ हासिल है वह ईमानवाला और नेक और अल्लाह के पसन्दीदा दीन की पैरवी करनेवाला और सच पर चलनेवाला और शिर्क से बचनेवाला है। और फिर इसपर यह सितम ढाते हैं कि अपने इस ग़लत नतीजे को ठीक बिठाने के लिए ईमान, नेकी, दीने-हक़, अल्लाह की इबादत और शिर्क, हर चीज़ का मतलब बदलकर वह कुछ बना डालते हैं जो उनके इस नज़रिए के मुताबिक़ हो। यह क़ुरआन में किया जानेवाला सबसे बुरा फेर-बदल है जो यहूदियों और ईसाइयों के फेर-बदल से भी बाज़ी ले गया है। इसने क़ुरआन की एक आयत का वह मतलब निकाल लिया है जो पूरे क़ुरआन की तालीम को बिगाड़ डालता है और इस्लाम की किसी एक चीज़ को भी उसकी जगह पर बाक़ी नहीं रहने देता। ख़िलाफ़त की इस तारीफ़ के बाद लाज़िमी तौर पर वे सब लोग इस आयत के तहत आ जाते हैं जिन्होंने कभी दुनिया में ग़लबा और इक़तिदार पाया है या आज पाए हुए हैं, चाहे वे ख़ुदा, वह्य, रिसालत, आख़िरत हर चीज़ का इनकार करते हों और ख़ुदा की नाफ़रमानियों और गुनाहों की उन तमाम गन्दगियों में बुरी तरह लिथड़े हुए हों जिन्हें क़ुरआन ने बड़े गुनाह ठहराया है, जैसे सूद (ब्याज), ज़िना, शराब और जुआ। अब अगर ये सब लोग नेक और भले ईमानवाले हैं और इसी लिए ख़िलाफ़त के ऊँचे ओहदे पर बिठाए गए हैं तो फिर इंसान का मतलब क़ुदरती क़ानूनों को मानने और सलाह (नेकी) का मतलब उन क़ानूनों को क़ामयाबी के साथ इस्तेमाल करने के सिवा और क्या हो सकता है। और अल्लाह का पसन्दीदा दीन इसके सिवा और क्या हो सकता है कि फ़ितरी उलूम में महारत हासिल करके उद्योग-धंधे, तिजारत, कारोबार और सियासत में ख़ूब तरक़्क़ी की जाए? और अल्लाह की बन्दगी का मतलब फिर इसके सिवा और क्या रह जाता है कि उन उसूलों और नियमों की पाबन्दी की जाए जो इन्फ़िरादी (व्यक्तिगत) और इजतिमाई (सामाजिक) कोशिशों की कामयाबी के लिए फ़ितरी तौर पर फ़ायदेमन्द और ज़रूरी हैं? और शिर्क फिर इसके सिवा और किस चीज़ का नाम रह जाता है कि उन फ़ायदेमन्द क़ायदे-क़ानून के साथ कोई शख़्स या क़ौम कुछ नुक़सानदेह तरीक़े भी अपना ले। मगर क्या कोई शख़्स जिसने खुले दिल और खुली आँखों से कभी क़ुरआन को समझकर पढ़ा हो, यह मान सकता है कि क़ुरआन में सचमुच ईमान और नेक अमल और दीने-हक़ और अल्लाह की इबादत और तौहीद और शिर्क का यही मतलब है? यह मतलब या तो वह शख़्स ले सकता है जिसने कभी पूरा क़ुरआन समझकर न पढ़ा हो और सिर्फ़ कोई आयत कहीं से और कोई कहीं से लेकर उसको अपने नज़रियों और ख़यालों के मुताबिक़ ढाल लिया हो, या फिर वह शख़्स यह हरकत कर सकता है जो क़ुरआन को पढ़ते हुए उन सब आयतों को अपने ख़याल और दावे में सरासर बेमतलब और ग़लत बताता चला गया हो जिनमें अल्लाह तआला को एक अकेला रब और माबूद और उसकी उतारी हुई वह्य को हिदायत का एक ही ज़रिआ और उसके भेजे हुए हर पैग़म्बर को ऐसा रहनुमा मानने की दावत दी गई है जिसकी पैरवी हर हाल में ज़रूरी है और मौजूदा दुनियावी ज़िन्दगी के ख़त्म होने पर एक दूसरी ज़िन्दगी के सिर्फ़ मान लेने ही की माँग नहीं की गई है, बल्कि यह भी साफ़-साफ़ कहा गया है कि जो लोग उस ज़िन्दगी में अपनी जवाबदेही के ख़याल से इनकार करनेवाले या उस तरफ़ से बेपरवाह होकर सिर्फ़ इस दुनिया की कामयाबियों को अपना मक़सद समझते हुए काम करेंगे, वे कामयाबी से महरूम रहेंगे। क़ुरआन में इन बातों को इतना ज़्यादा और ऐसे अलग-अलग तरीक़ों से और ऐसे खुले और साफ़ अलफ़ाज़ में बार-बार दोहराया गया है कि हमारे लिए यह मान लेना मुश्किल है कि इस किताब को ईमानदारी के साथ पढ़नेवाला कोई शख़्स कभी उन ग़लतफ़हमियों में भी पड़ सकता है जिनमें ख़िलाफ़त से मुताल्लिक़ आयत के यह नए तफ़सीर लिखनेवाले मुब्तला हुए हैं, हालाँकि लफ़्ज़ ख़िलाफ़त और इसतिख़्लाफ़ (ख़लीफ़ा बनाए जाने) के जिस मानी पर उन्होंने यह सारी इमारत खड़ी की है, वह उनका अपना गढ़ा हुआ है, क़ुरआन का जाननेवाला कोई शख़्स इस आयत में वह मानी कभी नहीं ले सकता। क़ुरआन अस्ल में ख़िलाफ़त और इसतिख़्लाफ़ को तीन अलग-अलग मानी में इस्तेमाल करता है और हर जगह मौक़ा-महल से पता चल जाता है कि कहाँ किस मानी में वह लफ़्ज बोला गया है— इसका एक मतलब है, “वह शख़्स जिसे ख़ुदा के दिए हुए अधिकार हासिल हों।” इस मानी में आदम की पूरी औलाद ज़मीन में ख़लीफ़ा है। दूसरा मतलब है, “ख़ुदा के इक़तिदारे-आला (संप्रभुता) को मानते हुए उसके शरई हुक्म (न कि सिर्फ़ क़ुदरती हुक्म) के तहत ख़िलाफ़त के अधिकारों को इस्तेमाल करना।” इस मानी में सिर्फ़ नेक ईमानवाला ही ख़लीफ़ा क़रार पाता है; क्योंकि वह सही तौर पर ख़िलाफ़त का हक़ अदा करता है। और इसके बरख़िलाफ़ हक़ का इनकारी और फ़ासिक़ (अल्लाह का नाफ़रमान) खलीफ़ा नहीं, बल्कि बाग़ी है, क्योंकि वह मालिक के मुल्क में उसके दिए हुए अधिकारों को नाफ़रमानी के तरीक़े पर इस्तेमाल करता है। तीसरा मतलब है, एक दौर की गालिब क़ौम के बाद दूसरी क़ौम का उसकी जगह लेना।” पहले दोनों मतलबों में ख़िलाफ़त 'नियाबत’ (प्रतिनिधित्व) के मानी में है और यह आख़िरी मतलब ख़िलाफ़त यानी 'जानशीनी' (उत्तराधिकार) से लिया गया है और इस लफ़्ज़ के ये दोनों मतलब अरबी ज़बान में जाने-माने हैं। अब जो शख़्स भी यहाँ इस मौक़ा-महल में ख़लीफ़ा बनाए जाने की जानकारी देनेवाली आयत को पढ़ेगा, वह एक पल के लिए भी इस बात में शक नहीं कर सकता कि इस जगह ख़िलाफ़त का लफ़्ज़ उस हुकूमत के मानी में इस्तेमाल हुआ है जो अल्लाह के शरई हुक्म के मुताबिक़ (न कि सिर्फ़ क़ुदरती क़ानून के मुताबिक़) उसकी नियाबत का ठीक-ठीक हक़ अदा करनेवाली हो। इसी लिए हक़ के इनकारी तो एक तरफ़, इस्लाम का दावा करनेवाले मुनाफ़िक़ों तक को इस वादे में शरीक करने से इनकार किया जा रहा है। इसी लिए फ़रमाया जा रहा है कि इसके हक़दार सिर्फ़ ईमान और अच्छे कामों की सिफ़ात रखनेवाले लोग हैं इसी लिए ख़िलाफ़त के क़ायम होने का फल यह बताया जा रहा है कि अल्लाह का पसन्द किया हुआ दीन, यानी इस्लाम, मज़बूत बुनियादों पर क़ायम हो जाएगा और इसी लिए इस इनाम को देने की शर्त यह बताई जा रही है कि ख़ालिस अल्लाह की बन्दगी पर क़ायम रहो जिसमें शिर्क की ज़र्रा बराबर मिलावट न होने पाए। इस वादे को यहाँ से उठाकर बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) चौराहे पर ले पहुँचना और अमेरिका से लेकर रूस तक जिसकी बड़ाई का डंका भी दुनिया में बज रहा हो, उसके सामने उसे भेंट कर देना जहालत की इन्तिहा के सिवा और कुछ नहीं है। इन सब ताक़तों को भी अगर ख़िलाफ़त का बुलन्द मंसब हासिल है तो आख़िर फ़िरऔन और नमरूद ही ने क्या क़ुसूर किया था कि अल्लाह तआला ने उन्हें लानत का हक़दार ठहरा दिया? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-99) इस जगह एक और बात भी ज़िक्र करने के लायक़ है। यह वादा बाद के मुसलमानों को तो दूसरों के ज़रिए से पहुँचता है, सीधे तौर पर यह उन लोगों से किया गया है, जो नबी (सल्ल०) के दौर में मौजूद थे। वादा जब किया गया था, उस वक़्त सचमुच मुसलमानों पर खौफ़ की हालत छाई हुई थी और इस्लाम ने अभी हिजाज़ की ज़मीन में भी मज़बूत जड़ नहीं पकड़ी थी। उसके कुछ साल बाद डर की यह हालत न सिर्फ़ अम्न से बदल गई, बल्कि इस्लाम अरब से निकलकर एशिया और अफ़्रीक़ा के बड़े हिस्से पर छा गया और उसकी जड़ें अपनी पैदाइश की ज़मीन ही में नहीं, पूरी दुनिया में जम गईं। यह इस बात का तारीख़ी सुबूत है कि अल्लाह तआला ने अपना यह वादा अबू-बक्र (रज़ि०), उमर फारूक़ (रज़ि०) और उसमान ग़नी (रज़ि०) के ज़माने में पूरा कर दिया। इसके बाद कोई इनसाफ़-पसन्द आदमी मुश्किल ही से इस बात में शक कर सकता है कि इन तीनों लोगों की ख़िलाफ़त पर ख़ुद क़ुरआन की तसदीक़ (पुष्टि) की मुहर लगी हुई है और उनके अच्छे ईमानवाले होने की गवाही अल्लाह तआला ख़ुद दे रहा है। इसमें अगर किसी को शक हो तो नहजुल-बलाग़ा में हज़रत अली (रज़ि०) की वह तक़रीर पढ़ ले जो उन्होंने हज़रत उमर (रज़ि०) को ईरानियों के मुक़ाबले पर ख़ुद जाने के इरादे से रोकने के लिए की थी। इसमें वे फ़रमाते हैं— “इस काम के फलने-फूलने या कम होने का दारोमदार लोगों के ज़्यादा या कम होने पर नहीं है। यह तो अल्लाह का दीन है जिसको उसने बढ़ाया और अल्लाह का लश्कर है जिसकी उसने ताईद और मदद की, यहाँ तक कि यह तरक़्क़ी करके इस मंजिल तक पहुँच गया। हमसे तो अल्लाह ख़ुद फ़रमा चुका है, “अल्लाह ने वादा किया है तुममें से उन लोगों के साथ जो ईमान लाएँ और अच्छे काम करें कि वह उनको ज़रूर ज़मीन में ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाएगा ..... ।” अल्लाह इस वादे को पूरा करके रहेगा और अपने लश्कर की ज़रूर मदद करेगा। इस्लाम में क़य्यिम का मक़ाम वही है जो मोतियों के हार में धागे का मक़ाम है। धागा दूटते ही मोती बिखर जाते हैं और इन्तिज़ाम छिन्न-भिन्न हो जाता है और बिखर जाने के बाद फिर जमा होना मुश्किल हो जाता है। इसमें शक नहीं कि अरब तादाद में कम हैं। मगर इस्लाम ने उनको तादाद में बढ़ा दिया और इजतिमाअ (एक साथ होने) ने उनको क़वी (ताक़तवर) बना दिया है। आप यहाँ धुरी बनकर जमे बेठे रहें और अरब की चक्की को अपने आस-पास घुमाते रहें और यहीं से बैठे-बैठे जंग की आग भड़काते रहें, वरना आप अगर एक बार यहाँ से हट गए तो हर तरफ़ से अरब का निज़ाम (व्यवस्था) टूटना शुरू हो जाएगा और नौबत यह आ जाएगी कि आपको सामने के दुश्मनों के मुक़ाबले पीछे के ख़तरों की ज़्यादा फ़िक्र लगी होगी। और उधर ईरानी आप ही के ऊपर नज़र जमा देंगे कि वह अरब की जड़ है, इसे काट दो तो बेड़ा पार है। इसलिए वे सारा ज़ोर आपको ख़त्म कर देने पर लगा देंगे। रही वह बात जो आपने फ़रमाई है कि इस वक़्त अजम के लोग बहुत बड़ी तादाद में उमड़ आए हैं तो इसका जवाब यह है कि इससे पहले भी हम उनसे लड़ते रहे हैं तो कुछ तादाद में ज़्यादा होने के बल पर नहीं लड़ते रहे हैं, बल्कि अल्लाह की ताईद और मदद ही ने आज तक हमें कामयाब कराया है।” देखनेवाला ख़ुद ही देख सकता है कि इस तक़रीर में हज़रत अली (रज़ि०) किसको 'इस्तिख्लाफ़’ की आयत के दायरे में रख रहे हैं।
84. कुफ़्र से मुराद यहाँ नेमत की नाशुक्री भी हो सकती है और हक़ (सत्य) का इनकार भी। पहले मतलब के लिहाज़ से इसमें वे लोग आते हैं जो ख़िलाफ़त की नेमत पाने के बाद हक़ और सच्चाई के रास्ते से हट जाएँ। और दूसरे मतलब के लिहाज़ से इसमें वे मुनाफ़िक़ जाएँगे जो अल्लाह का यह वादा सुन लेने के बाद भी अपना मुनाफ़िक़वाला रवैया न छोड़ें।
وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِيعُواْ ٱلرَّسُولَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 55
(56) नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और रसूल का कहा मानो, उम्मीद है तुमपर रहम किया जाएगा
لَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَلَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 56
(57) जो लोग कुफ़्र कर रहे हैं उनके बारे में इस ग़लत-फ़हमी में न रहो कि वे ज़मीन में अल्लाह को बेबस कर देंगे उनका ठिकाना दोज़ख़ है, और वह बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِيَسۡتَـٔۡذِنكُمُ ٱلَّذِينَ مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُكُمۡ وَٱلَّذِينَ لَمۡ يَبۡلُغُواْ ٱلۡحُلُمَ مِنكُمۡ ثَلَٰثَ مَرَّٰتٖۚ مِّن قَبۡلِ صَلَوٰةِ ٱلۡفَجۡرِ وَحِينَ تَضَعُونَ ثِيَابَكُم مِّنَ ٱلظَّهِيرَةِ وَمِنۢ بَعۡدِ صَلَوٰةِ ٱلۡعِشَآءِۚ ثَلَٰثُ عَوۡرَٰتٖ لَّكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ وَلَا عَلَيۡهِمۡ جُنَاحُۢ بَعۡدَهُنَّۚ طَوَّٰفُونَ عَلَيۡكُم بَعۡضُكُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 57
(58) ऐ, लोगो85 जो ईमान लाए हो, ज़रूरी है कि तुम्हारी मिल्कियत में रहनेवाले86 और तुम्हारे वे बच्चे जो अभी अक़्ल की हद को नहीं पहुँचे हैं87 तीन वक़्तों में इजाज़त लेकर तुम्हारे पास आया करें— सुबह की नमाज़ से पहले, और दोपहर को जबकि तुम कपड़े उताकर रख देते हो, और इशा की नमाज़ के बाद। ये तीन वक़्त तुम्हारे लिए परदे के वक़्त हैं। इनके बाद वे बिना इजाज़त आएँ तो न तुमपर कोई गुनाह है, न उनपर,89 तुम्हें एक-दूसरे के पास बार-बार आना ही होता है।90 इस तरह अल्लाह तुम्हारे लिए अपने हुक्मों को साफ़-साफ़ बयान करता है, और वह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।
85. यहाँ से फिर समाजी हुक्मों का सिलसिला शुरू होता है कुछ नामुमकिन नहीं कि सूरा नूर का यह हिस्सा ऊपर की तक़रीर के कुछ मुद्दत बाद उतरा हो।
86. ज़्यादातर तफ़सीर लिखनेवालों और फ़क़ीहों के नज़दीक इससे मुराद लौंडियाँ और ग़ुलाम दोनों हैं, क्योंकि यहाँ आम लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, मगर इब्ने-उमर (रज़ि०) और मुजाहिद इस आयत में 'ममलूकों’ से मुराद सिर्फ़ ग़ुलाम लेते हैं और लौडियों को इससे अलग रखते हैं। हालाँकि आगे जो हुक्म बयान किया गया है, उसको देखते हुए इस तरह ख़ास करने की कोई वजह नज़र नहीं आती। तन्हाई के वक़्तों में जिस तरह ख़ुद अपने बच्चों का अचानक आ जाना मुनासिब नहीं है, उसी तरह ख़ादिमा का भी आ जाना नामुनासिब है। इस बात पर सभी एक राय हैं कि इस आयत का हुक्म बालिग़ और नाबालिग़ दोनों तरह के ममलूकों (ख़ादिमों और सेवकों) के लिए आम है।
87. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि बालिग़ों का-सा ख़ाब देखने की उम्र को नहीं पहुँचे हैं। इसी से फ़क़ीहों ने लड़कों के मामले में एहतिलाम (स्वप्नदोष) को बालिग़ होने की शुरुआत माना है और इसपर सब एक राय हैं। लेकिन जो तर्जमा हमने मत्न (मूल) में अपनाया है, वह इस वजह से तरजीह (प्राथमिकता) देने के लायक़ है कि यह हुक्म लड़कों और लड़कियों, दोनों के लिए है, और एहतिलाम को बालिग़ होने की अलामत ठहरा देने के बाद हुक्म सिर्फ़ लड़कों के लिए ख़ास हो जाता है; क्योंकि लड़की के मामले में माहवारी के दिनों (मासिक-धर्म) की शुरुआत बालिग़ होने की अलामत है, न कि एहतिलाम। लिहाज़ा हमारे नज़दीक हुक्म का मंशा यह है कि जब तक घर के बच्चे उस उम्र को न पहुँचे जिसमें उनके अन्दर जिंसी शुऊर बेदार हुआ करता है, वे इस क़ायदे की पाबन्दी करें और जब उस उम्र को पहुँच जाएँ तो फिर उनके लिए वह हुक्म है जो आगे आ रहा है।
88. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'औरात' इस्तेमाल हुआ है और कहा गया है कि “ये तीन वक़्त तुम्हारे लिए औरात हैं।” औरत उर्दू में तो औरत (स्त्री) के लिए बोला जाता है, मगर अरबी में इसका मतलब ख़लल (दख़ल-अन्दाज़ी) और ख़तरे की जगह हैं, और उस चीज़ के लिए भी यह लफ़्ज़ बोला जाता है जिसका खुल जाना आदमी के लिए शर्म का सबब हो, या जिसका ज़ाहिर हो जाना उसको नागवार हो। इसके अलावा इस मानी में भी इसका इस्तेमाल होता है कि कोई चीज़ ग़ैर-महफ़ूज़ हो। ये सब मतलब आपस में एक-दूसरे से मेल खाते हैं और आयत के मानी में किसी-न-किसी हद तक सभी शामिल हैं। मतलब यह है कि इन वक़्तों में तुम लोग अकेले, या अपनी बीवियों के साथ ऐसी हालतों में होते हो जिनमें घर के बच्चों और नौकरों का अचानक तुम्हारे पास आ जाना मुनासिब नहीं है। लिहाज़ा उनको वह हिदायत करो कि इन तीन वक़्तों में जब वे तुम्हारी तन्हाई की जगह आने लगें तो पहले इजाज़त ले लिया करें।
89. यानी इन तीन वक़्तों के सिवा दूसरे वक़्तों में नाबालिग़ बच्चे और घर के नौकर-चाकर हर वक़्त औरतों और मर्दों के पास उनके कमरे में या उनकी तन्हाई की जगह बिना इजाज़त आ जा सकते हैं। इस सूरत में अगर तुम किसी नामुनासिब हालत में हो और वे बिना इजाज़त आ जाएँ तो तुम्हें डाँट-डपट करने का हक़ नहीं है, क्योंकि फिर यह तुम्हारी अपनी बेबक़ूफ़ी होगी कि काम-काज के वक़्तों में अपने आपको ऐसी नामुनासिब हालत में रखो। अलबत्ता अगर ऊपर बयान किए गए तन्हाई के तीन वक़्तों में वे बिना इजाज़त आ जाएँ तो वे क़ुसूरवार हैं; अगर तुम्हारी तरबियत और तालीम के बावजूद यह हरकत करें, वरना तुम ख़ुद गुनाहगार हो, अगर तुमने अपने बच्चों और अपने नौकर-चाकर को यह अदब नहीं सिखाया।
90. यह वजह है उस आम इजाज़त की जो बताए गए तीन वक़्तों के सिवा तमाम वक़्तों में बच्चों और नौकर-चाकरों को बिना इजाज़त आने के लिए दी गई है इससे फ़िक़्ह के उसूल के इस मसले पर रौशनी पड़ती है कि शरीअत के हुक्मों में बड़ी मस्लहत और हिकमत पाई जाती है। और हर हुक्म की कोई-न-कोई वजह ज़रूर है, चाहे वह बयान की गई हो या न की गई हो।
وَإِذَا بَلَغَ ٱلۡأَطۡفَٰلُ مِنكُمُ ٱلۡحُلُمَ فَلۡيَسۡتَـٔۡذِنُواْ كَمَا ٱسۡتَـٔۡذَنَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦۗ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 58
(59) और जब तुम्हारे बच्चे अक़्ल की हृद को पहुँच जाएँ91 तो चाहिए कि उसी तरह इजाज़त लेकर आया करें जिस तरह उनके बड़े इजाज़त लेते रहे हैं। इस तरह अल्लाह अपनी आयतें तुम्हारे सामने खोलता है, और वह जाननेवाला और हिकमतवाला है।
91. यानी बालिग़ हो जाएँ। जैसा कि ऊपर हाशिया-87 में बयान किया जा चुका है, लड़कों के मामले में एहतिलाम और लड़कियों के मामले में माहवारी की शुरुआत बालिग़ होने की अलामत है। लेकिन जिन लड़कों और लड़कियों में किसी वजह से देर तक ये जिस्मानी तब्दीलियाँ न हों, उनके मामले में फ़क़ीहों के बीच इख़्तिलाफ़ है। इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०), इमाम मुहम्मद (रह०), और इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक इस सूरत में पन्द्रह (15) साल के लड़के और लड़की को बालिग़ समझा जाएगा, और इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) का भी एक क़ौल इसी की ताईद में है। लेकिन इमाम अबू-हनीफा (रह०) का मशहूर क़ौल यह है कि इस सूरत में सतरह (17) साल की लड़की और अठारह (18) साल के लड़के को बालिग़ ठहराया जाएगा। ये दोनों रायें किसी नस्स (क़ुरआन या हदीस के वाज़ेह हुक्म) की बुनियाद पर नहीं, बल्कि फ़क़ीहों के अपने इज्तिहाद का नतीजा हैं। लिहाज़ा ज़रूरी नहीं कि तमाम दुनिया में हमेशा पन्द्रह (15) या अठारह (18) साल की उम्र ही को एहतिलाम से न गुज़रनेवाले लड़कों और माहवारी न होनेवाली लड़कियों के मामले में बालिग़ होने की हद माना जाए। दुनिया के अलग-अलग देशों में, और अलग-अलग ज़मानों में जिस्मानी नशो-नमा (विकास) के हालात अलग-अलग हुआ करते हैं। अस्ल चीज़ यह है कि आम तौर से किसी देश में जिन उमरों के लड़के-लड़कियों को एहतिलाम और माहवारी होने शुरू होते हों, उनका औसत फ़र्क़ निकाल लिया जाए, और फिर जिन लड़का-लड़कियों में किसी ग़ैर-मामूली वजह से ये अलामतें अपने तयशुदा वक़्त पर न ज़ाहिर हों, उनके लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा तयशुदा उम्र पर इस औसत का इज़ाफ़ा करके उसे बालिग़ होने की उम्र ठहरा दिया जाए। मिसाल के तौर पर किसी देश में आम तौर से कम-से-कम बारह (12) और ज़्यादा-से-ज़्यादा पन्द्रह (15) साल के लड़के को एहतिलाम हुआ करता हो तो औसत फ़र्क़ डेढ़ साल होगा, और ग़ैर-मामूली क़िस्म के लड़कों के लिए हम साढ़े सोलह (16) साल की उम्र को बालिग़ होने की उम्र ठहरा सकेंगे। इसी क़ायदे पर अलग-अलग देशों के क़ानून बनानेवाले अपने यहाँ के हालात का लिहाज़ करते हुए एक हद मुक़र्रर कर सकते हैं। पन्द्रह (15) साल की हद के हक़ में एक हदीस पेश की जाती है, और वह इब्ने-उमर (रज़ि०) की यह रिवायत है कि मैं चौदह (14) साल का था जब उहुद की जंग के मौक़े पर नबी (सल्ल०) के सामने पेश हुआ और आप (सल्ल०) ने मुझे जंग में शरीक होने की इजाज़त न दी, फिर ख़न्दक़ (खाई) की जंग के मेरे पर जबकि मैं पन्द्रह (15) साल का था, मुझे दोबारा पेश किया गया और नबी (सल्ल०) ने मुझको जंग में हिस्सा लेने की इजाज़त दे दी। (हदीस : सिहाह सित्ता और मुसनद अहमद) लेकिन यह रिवायत दो वजहों से दलील बनाने के क़ाबिल नहीं है। एक यह कि उहुद की जंग शव्वाल 3 हिजरी का वाक़िआ है और ख़न्दक की जंग मुहम्मद-बिन-इसहाक़ के कहने के मुताबिक़ शव्वाल 5 हिजरी में और इब्ने-सअद के कहने के मुताबिक़ ज़ीक़ादा 5 हिजरी में पेश आई। दोनों वाक़िआत के बीच पूरे दो साल या उससे ज़्यादा का फ़र्क़ है। अब अगर उहुद की जंग के ज़माने में इब्ने-उमर (रज़ि०) 14 साल के थे तो किस तरह मुमकिन है कि ख़ंदक़ की जंग के ज़माने में वे सिर्फ़ 15 साल के हों? हो सकता है कि उन्होंने 13 साल 11 महीने की उम्र को 14 साल, और 15 साल 11 महीने की उम्र को 15 साल कह दिया हो। दूसरी वजह यह है कि लड़ाई के लिए बालिग़ होना और चीज़ है और सामाजिक मामलों में क़ानूनी तौर से बालिग़ होना और चीज़। इन दोनों में कोई लाज़िमी ताल्लुक़ नहीं है कि एक को दूसरे के लिए दलील बनाया जा सके। इसलिए सही यह है कि वह लड़का जिसे अभी एहतिलाम न होता हो, उसके लिए 15 साल की उम्र मुक़र्रर करना एक जन्दाज़े का और इज्तिहादी हुक्म है, कोई क़ुरआन या हदीस से साबित शुदा हुक्म नहीं है।
وَٱلۡقَوَٰعِدُ مِنَ ٱلنِّسَآءِ ٱلَّٰتِي لَا يَرۡجُونَ نِكَاحٗا فَلَيۡسَ عَلَيۡهِنَّ جُنَاحٌ أَن يَضَعۡنَ ثِيَابَهُنَّ غَيۡرَ مُتَبَرِّجَٰتِۭ بِزِينَةٖۖ وَأَن يَسۡتَعۡفِفۡنَ خَيۡرٞ لَّهُنَّۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٞ ۝ 59
(60) और जो औरतें जवानी से गुज़री बैठी हों,92 निकाह की उम्मीदवार न हों, वे अगर अपनी चादरें उतारकर रख दें93 तो उनपर कोई गुनाह नहीं, शर्त यह है कि ज़ीनत (सौन्दर्य) की नुमाइश करनेवाली न हों।94 लेकिन फिर भी वे भी हयादारी ही बरतें तो उनके हक़ में अच्छा है, और अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है ।
92. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'कवाइदु मिनन-निसाइ' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं, यानी “औरतों में से जो बैठ चुकी हों” या “बैठी हुई औरतें।” इससे मुराद है औरत का उस उम्र को पहुँच जाना जिसमें वह बच्चा पैदा करने के क़ाबिल न रहे, उसकी अपनी ख़ाहिशें भी मर चुकी हों और उसको देखकर मर्दों में भी कोई जिंसी ज़ज्बा न पैदा हो सकता हो। इसी मतलब की तरफ़ बाद का जुमला इशारा कर रहा है।
93. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, “य-ज़अ-न सियाबहुन-न” (अपने कपड़े उतार दें) मगर ज़ाहिर है कि इससे मुराद सारे कपड़े उतारकर बेलिबास हो जाना तो नहीं हो सकता। इसी लिए तमाम फ़क़ीहों और तफ़सीर लिखनेवालों ने एक राय होकर इससे मुराद वे चादरें ली हैं जिनसे ज़ीनत (बनाव-सिंगार) छिपाने का हुक्म सूरा-33 अहज़ाब की आयत, “अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें” में दिया गया था।
94. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, “ग़ै-र मु-त-बर्रिजातिम बिज़ी-नतिन” (ज़ीनत के साथ तबरूर्रज करनेवाली न हों) अरबी लफ़्ज़ 'तबर्रुज' का मतलब है ज़ाहिर करना या नुमाइश करना। बारिज उस खुली नाव, कश्ती या जहाज़ को कहते हैं जिसपर छत न हो। इसी मानी में औरत के लिए यह लफ़्ज़ उस वक़्त बोलते हैं जबकि वह मर्दों के सामने अपनी ख़ूबसूरती और अपने सिंगार की नुमाइश करे। इसलिए आयत का मतलब यह है कि चादर उतार देने की यह इजाज़त उन बूढ़ी औरतों को दी जा रही है जिनके अन्दर बन-ठनकर रहने का शौक बाक़ी न रहा हो और जिनके जिंसी जज़बात ठण्डे पड़ चुके हों। लेकिन अगर इस आग में कोई चिंगारी अभी बाक़ी हो और वह सिंगार की नुमाइश की शक्ल इख़्तियार कर रही हो तो फिर इस इजाज़त से फ़ायदा नहीं उठाया जा सकता।
لَّيۡسَ عَلَى ٱلۡأَعۡمَىٰ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡأَعۡرَجِ حَرَجٞ وَلَا عَلَى ٱلۡمَرِيضِ حَرَجٞ وَلَا عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ أَن تَأۡكُلُواْ مِنۢ بُيُوتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ ءَابَآئِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أُمَّهَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ إِخۡوَٰنِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخَوَٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَعۡمَٰمِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ عَمَّٰتِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ أَخۡوَٰلِكُمۡ أَوۡ بُيُوتِ خَٰلَٰتِكُمۡ أَوۡ مَا مَلَكۡتُم مَّفَاتِحَهُۥٓ أَوۡ صَدِيقِكُمۡۚ لَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٌ أَن تَأۡكُلُواْ جَمِيعًا أَوۡ أَشۡتَاتٗاۚ فَإِذَا دَخَلۡتُم بُيُوتٗا فَسَلِّمُواْ عَلَىٰٓ أَنفُسِكُمۡ تَحِيَّةٗ مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِ مُبَٰرَكَةٗ طَيِّبَةٗۚ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 60
(61) कोई हरज नहीं अगर कोई अन्धा, या लंगड़ा, या रोगी (किसी के घर से खा ले) और न तुम्हारे ऊपर इसमें कोई हरज है कि अपने घरों से खाओ या अपने बाप-दादा के घरों से, या अपनी माँ-नानी के घरों से, या अपने भाइयों के घरों से, या अपनी बहनों के घरों से, या अपने चचाओं के घरों से, या अपनी फूफियों के घरों से, या अपने मामी के घरों से, या अपनी ख़ालाओं के घरों से, या उन घरों से जिनकी कुंजियाँ तुम्हारे हवाले हों, या अपने दोस्तों के घरों से।95 इसमें भी कोई हरज नहीं कि तुम लोग मिलकर खाओ या अलग-अलग।96 अलबत्ता जब घरों में दाख़िल हुआ करो तो अपने लोगों को सलाम किया करो, अच्छी दुआ अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर की हुई, बड़ी बरकतवाली और पाकीज़ा। इस तरह अल्लाह तआला तुम्हारे सामने आयतें बयान करता है, उम्मीद है कि तुम समझ-बूझ से काम लोगे।
95. इस आयत को समझने के लिए तीन बातों को समझ लेना ज़रूरी है— पहली बात यह कि आयत के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा बीमार, लंगड़े, अंधे और इसी तरह के दूसरे मजबूर लोगों के बारे में है, और दूसरा आम लोगों के बारे में। दूसरी यह कि क़ुरआन की अख़लाक़ी तालीमात से अरबवालों की ज़ेहनियत में जो ज़बरदस्त इन्‌क़िलाब पैदा हुआ था, उसकी वजह से हराम और हलाल और जाइज़-नाजाइज़ के फ़र्क़ के मामले में उनका एहसास बहुत बढ़ गया था। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के कहने के मुताबिक़, अल्लाह ने जब उनको हुक्म दिया कि “एक-दूसरे के माल नाजाइज़ तरीक़ों से न खाओ” तो लोग एक-दूसरे के यहाँ खाना-खाने में भी एहतियात बरतने लगे थे, यहाँ तक कि बिलकुल क़ानूनी शर्तों के मुताबिक़ घरवाले की दावत या इजाज़त जब तक न हो, वे समझते थे कि किसी रिश्तेदार या दोस्त के यहाँ खाना भी नाजाइज़ है। तीसरी यह कि इसमें अपने घरों से खाने का जो ज़िक्र है, वह इजाज़त देने के लिए नहीं, बल्कि मन में यह बात बिठाने के लिए है कि अपने रिश्तेदारों और दोस्तों के यहाँ खाना भी ऐसा ही है जैसे अपने घर में खाना, वरना ज़ाहिर है कि अपने घर से खाने के लिए किसी से इजाज़त की ज़रूरत न थी। इन तीन बातों को समझ लेने के बाद आयत का यह मतलब साफ़ समझ में आ जाता है कि जहाँ तक मजबूर आदमी का ताल्लुक़ है, वे अपनी भूख मिटाने के लिए हर घर और हर जगह से खा सकता है, उसकी मजबूरी अपने आपमें ख़ुद सारे समाज पर उसका हक़ क़ायम कर देती है। इसलिए जहाँ से भी उसको खाने को मिले वह उसके लिए जाइज़ है। रहे आम आदमी तो उनके लिए उनके अपने घर और उन लोगों के घर जिनका ज़िक्र किया गया है, बराबर हैं। उनमें से किसी के यहाँ खाने के लिए इस तरह की शतों की कोई ज़रूरत नहीं है कि घरवाला बाक़ायदा इजाज़त दे तो खाएँ, वरना बेईमानी होगी। आदमी अगर इनमें से किसी के यहाँ जाए और घर का मालिक मौजूद न हो और उसके बीवी-बच्चे खाने को कुछ दें तो बेझिझक खाया जा सकता है। जिन रिश्तेदारों के नाम यहाँ नाम लिए गए हैं, उनमें औलाद का ज़िक्र इसलिए नहीं किया गया कि आदमी की औलाद का घर, उसका अपना ही घर है। दोस्तों के मामले में यह बात ध्यान में रहे कि उनसे मुराद बे-तकल्लुफ़ और जिगरी दोस्त हैं जिनकी ग़ैर-मौजूदगी में अगर यार लोग उनका हलवा उड़ा जाएँ तो नागवार गुज़रना तो दूर की बात, उन्हें इसपर उलटी ख़ुशी हो।
96. पुराने ज़माने के अरबवालों में कुछ क़बीलों की तहज़ीब (सभ्यता) यह थी कि हर एक अलग-अलग खाना लेकर बैठे और खाए। वे मिलकर एक ही जगह खाना बुरा समझते थे, जैसा कि कुछ ग़ैर-मुस्लिमों के यहाँ आज भी बुरा समझा जाता है। इसके बरख़िलाफ़ कुछ क़बीले अकेले खाने को बुरा समझते थे, यहाँ तक कि फ़ाक़ा कर जाते थे., अगर कोई साथ खानेवाला न हो। यह आयत इसी तरह की पाबन्दियों को ख़त्म करने के लिए है।
إِنَّمَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَإِذَا كَانُواْ مَعَهُۥ عَلَىٰٓ أَمۡرٖ جَامِعٖ لَّمۡ يَذۡهَبُواْ حَتَّىٰ يَسۡتَـٔۡذِنُوهُۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ يَسۡتَـٔۡذِنُونَكَ أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ فَإِذَا ٱسۡتَـٔۡذَنُوكَ لِبَعۡضِ شَأۡنِهِمۡ فَأۡذَن لِّمَن شِئۡتَ مِنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمُ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 61
(62) ईमानवाले97 तो अस्ल में वही हैं जो अल्लाह और उसके रसूल को दिल से मानें और जब किसी इजतिमाई काम के मौक़े पर रसूल के साथ हों तो उससे इजाज़त लिए बिना न जाएँ।98 जो लोग तुमसे इजाजत माँगते हैं वही अल्लाह और रसूल के माननेवाले हैं, तो जब वे अपने किसी काम से इजाज़त माँगे99 तो जिसे तुम चाहो इजाज़त दे दिया करो100 और ऐसे लोगों के लिए अल्लाह से मग़फ़िरत (माफ़ी) की दुआ किया करो,101 अल्लाह यक़ीनन बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
97. ये आख़िरी हिदायतें हैं जो मुसलमानों की जमाअत का नज़्म और ज़ब्त (अनुशासन) पहले से ज़्यादा कस देने के लिए दी जा रही हैं।
98. यही हुक्म नबी (सल्ल०) के बाद आप (सल्ल०) के जानशीनों और इस्लामी निज़ामे-जमाअत के अधिकारियों का भी है। जब किसी इजतिमाई मक़सद के लिए मुसलमानों को जमा किया जाए, चाहे जंग का मौक़ा हो या अम्न की हालत का, बहरहाल उनके लिए यह जाइज़ नहीं है कि अमीर की इजाज़त के बिना वापस चले जाएँ या तितर-बितर हो जाएँ।
99. इसमें इस बात पर ख़बरदार किया गया है कि किसी हक़ीक़ी ज़रूरत के बिना इजाज़त माँगना तो सिरे से ही नाजाइज़ है। इजाज़त लेने का पहलू सिर्फ़ इस सूरत में निकलता है जबकि जाने के लिए कोई हक़ीक़ी ज़रूरत पड़ जाए।
100. यानी ज़रूरत बयान करने पर भी इजाज़त देने या न देने का दारोमदार रसूल की और रसूल के बाद अमीरे-जमाअत की मरज़ी पर है अगर वह समझता हो कि इजतिमाई ज़रूरत उस शख़्स की इन्‌फ़िरादी (व्यक्तिगत) ज़रूरत के मुक़ाबले में ज़्यादा अहम है तो वह पूरा हक़ रखता है कि इजाज़त न दे, और इस सूरत में एक ईमानवाले को उससे कोई शिकायत नहीं होनी चाहिए।
101. इसमें फिर ख़बरदार किया गया है कि इजाज़त माँगने में अगर ज़रा-सी बहानेबाज़ी का भी दख़ल हो, या इजतिमाई ज़रूरतों पर इनफ़िरादी ज़रूरतों को आगे रखने का जज़बा काम कर रहा हो तो यह एक गुनाह है। इसलिए रसूल और उसके जानशीन को सिर्फ़ इजाज़त देने ही पर बस न करना चाहिए, बल्कि जिसे भी इजाज़त दे, साथ-के-साथ यह भी कह दे कि ख़ुदा तुम्हें माफ़ करे।
لَّا تَجۡعَلُواْ دُعَآءَ ٱلرَّسُولِ بَيۡنَكُمۡ كَدُعَآءِ بَعۡضِكُم بَعۡضٗاۚ قَدۡ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ يَتَسَلَّلُونَ مِنكُمۡ لِوَاذٗاۚ فَلۡيَحۡذَرِ ٱلَّذِينَ يُخَالِفُونَ عَنۡ أَمۡرِهِۦٓ أَن تُصِيبَهُمۡ فِتۡنَةٌ أَوۡ يُصِيبَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 62
(63) मुसलमानो, अपने बीच रसूल के बुलाने को आपस में एक-दूसरे का-सा बुलाना न समझ बैठो।102 अल्लाह उन लोगों को ख़ूब जानता है जो तुममें ऐसे हैं कि एक-दूसरे की आड़ लेते हुए चुपके से सटक जाते हैं।103 रसूल के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी करनेवालों को डरना चाहिए कि वे किसी फ़ितने में न पड़ जाएँ104 या उनपर दर्दनाक अज़ाब न आ जाए।
102. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'दुआ' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब बुलाना भी है और दुआ करना और पुकारना भी। इसके अलावा 'दुआअर-रसूलि' का मतलब रसूल का बुलाना या दुआ करना भी हो सकता है और रसूल को पुकारना भी। इन अलग-अलग मतलबों के लिहाज़ से आयत के तीन मतलब हो सकते हैं और तीनों ही सही और मुनासिब हैं— एक यह कि “रसूल के बुलाने को आम आदमियों में से किसी के बुलाने की तरह न समझो।” यानी रसूल का बुलावा ग़ैर-मामूली अहमियत रखता है। दूसरा कोई बुलाए और तुम हाज़िर न हो तो तुम्हें आज़ादी है; लेकिन रसूल बुलाए और तुम न जाओ, या दिल में ज़र्रा बराबर भी तंगी महसूस करो तो ईमान जाने का ख़तरा है। दूसरा यह कि “रसूल की दुआ को आम आदमियों की-सी दुआ न समझो।” वह तुमसे ख़ुश होकर दुआ दें तो तुम्हारे लिए इससे बड़ी कोई नेमत नहीं, और नाराज़ होकर बदूदुआ दे दें तो तुम्हारी इससे बढ़कर कोई बदनसीबी नहीं। तीसरा यह कि “रसूल को पुकारना आम आदमियों के एक-दूसरे को पुकारने जैसा न होना चाहिए।” यानी तुम आम आदमियों को जिस तरह उनके नाम लेकर ऊँची आवाज़ में पुकारते हो, उस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को न पुकारा करो। इस मामले में उनके अदब और एहतिराम का बहुत ज़्यादा ध्यान रखना चाहिए, क्योंकि ज़रा-सी बेअदबी भी अल्लाह के यहाँ पकड़ से न बच सकेगी। ये तीनों मतलब अगरचे मानी के लिहाज़ से सही हैं और क़ुरआन के अलफ़ाज़ में तीनों आ जाते हैं, लेकिन बाद की बात से पहला मतलब ही मेल खाता है।
103. यह मुनाफ़िक़ों की एक और अलामत बताई गई है कि इस्लाम के इजतिमाई कामों के लिए जब बुलाया जाता है तो वे आ तो जाते हैं, क्योंकि मुसलमानों में किसी-न-किसी वजह से शामिल रहना चाहते हैं, लेकिन यह हाज़िरी उनको सख़्त नागवार होती है और किसी-न-किसी तरह छिप-छिपाकर निकल भागते हैं।
104. इमाम जाफ़र सादिक़ (रज़ि०) ने फ़ितने का मतलब 'ज़ालिमों का ग़लबा' लिया है। यानी अगर मुसलमान अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के हुक्मों को ख़िलाफ़वर्ज़ी करेंगे तो उनपर जाबिर और ज़ालिम हुक्मरों सवार कर दिए जाएँगे। बहरहाल फ़ितने की यह भी एक सूरत हो सकती है और इसके सिवा दूसरी अनगिनत सूरतें भी मुमकिन हैं। मिसाल के तौर पर आपस की फूट और अन्दरूनी झगड़े, अख़लाक़ी गिरावट, जमाअती निज़ाम का बिगाड़, अन्दरूनी फूट, सियासी और माद्दी ताक़त का टूट जाना, दूसरों के ग़ुलाम हो जाना वग़ैरा।
أَلَآ إِنَّ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ قَدۡ يَعۡلَمُ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ وَيَوۡمَ يُرۡجَعُونَ إِلَيۡهِ فَيُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُواْۗ وَٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمُۢ ۝ 63
(64) ख़बरदार रहो, आसमान और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह का है। तुम जिस डगर पर भी हो अल्लाह उसको जानता है। जिस दिन लोग उसकी तरफ़ पलटेंगे वह उन्हें बता देगा कि वे क्या कुछ करके आए हैं। वह हर चीज़ का इल्म रखता है।
سُورَةُ النُّورِ
24. अन-नूर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।