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وَصَدَّقَ بِٱلۡحُسۡنَىٰ

92. अल-लैल

(मक्का में उतरी, आयतें 21)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'वल्लैल' (क़सम है रात की) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा का विषय सूरा-91 अश-शम्स से इतना ज़्यादा मिलता-जुलता है कि ये दोनों सूरतें एक-दूसरे की व्याख्या महसूस होती हैं। एक ही बात है, जिसे सूरा अश-शम्स में एक तरीक़े से समझाया गया है और इस सूरा में दूसरे तरीक़े से। इससे अनुमान होता है कि ये दोनों सूरतें लगभग एक ही समय में उतरी हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय ज़िन्दगी के दो भिन्न रास्तों का अन्तर और उनके अंजाम और नतीजों का अलग-अलग होना बयान करना है। विषय की दृष्टि से इस सूरा के दो भाग हैं : पहला भाग शुरू से आयत 11 तक है और दूसरा भाग आयत 12 सें आख़िर तक।

पहले भाग में सबसे पहले यह बताया गया है कि मानव-जाति के सभी लोग, क़ौमें और गिरोह दुनिया में जो भी कोशिश और काम कर रहे हैं, वे अनिवार्य रूप से अपने नैतिक स्वरूप की दृष्टि से उसी तरह भिन्न हैं जिस तरह दिन रात से और नर मादा से भिन्न है। इसके बाद क़ुरआन की छोटी सूरतों की सामान्य वार्ता-शैली के अनुसार तीन विशेषताएँ एक प्रकार की और तीन विशेषताएँ दूसरे प्रकार की कोशिशों और कामों के एक बड़े संग्रह में से लेकर नमूने के तौर पर पेश की गई हैं। पहली प्रकार की विशेषताएँ ये हैं कि आदमी भलाई के कामों में माल दे, ख़ुदा का डर और परहेज़गारी अपनाए और भलाई को भलाई माने। दूसरे प्रकार की विशेषताएँ ये हैं कि वह कंजूसी करे, अल्लाह की ख़ुशी-नाख़ुशी की परवाह न करे और भली बात को झुठला दे। फिर बताया गया है कि ये दोनों रवैये जो खुले तौर पर एक-दूसरे से अलग हैं, अपने नतीजों की दृष्टि से कदापि बराबर नहीं हैं, बल्कि जितने ज़्यादा ये स्वरूप और प्रकार की दृष्टि से एक दूसरे के विपरीत हैं, उतना ही इनके नतीजे भी एक-दूसरे के भिन्न हैं। पहले तरीक़े को जो आदमी या गिरोह अपनाएगा, अल्लाह उसके लिए ज़िन्दगी के साफ़ और सीधे रास्ते को आसान कर देगा, यहाँ तक कि उसके लिए नेकी (अच्छे काम) करना आसान और बदी (बुरे काम) करना कठिन हो जाएगा। और दूसरे रवैये को जो भी अपनाएगा अल्लाह उसके लिए ज़िन्दगी के विकट और कठिन रास्ते को आसान कर देगा, यहाँ तक कि उसके लिए बदी करना आसान और नेकी करना मुश्किल हो जाएगा। दूसरे भाग में भी इसी संक्षेप के साथ तीन तथ्य बयान किए गए हैं।

एक यह कि अल्लाह ने दुनिया के इस परीक्षा-स्थल में इंसान को बेख़बर नहीं छोड़ा है, बल्कि उसने यह बता देना अपने ज़िम्मे ले लिया है कि ज़िन्दगी के विभिन्न रास्तों में से सीधा रास्ता कौन-सा है। दूसरा तथ्य यह बयान किया गया है कि दुनिया और आख़िरत दोनों का मालिक अल्लाह ही है। दुनिया माँगोगे तो वह भी उससे ही मिलेगी और आख़िरत माँगोगे तो उसका देनेवाला भी वही है। यह फ़ैसला करना तुम्हारा अपना काम है कि तुम उससे क्या माँगते हो? तीसरा तथ्य यह बयान किया गया है कि जो अभागा उस भलाई को झुठलाएगा, जिसे रसूल और [ख़ुदा की] किताब के ज़रिए से पेश किया जा रहा है, उसके लिए भड़कती हुई आग तैयार है, और जो ख़ुदा से डरनेवाला आदमी पूरी नि:स्वार्थता के साथ सिर्फ़ अपने रब की प्रसन्नता प्राप्त करने के लिए अपना माल भलाई के रास्ते में लगाएगा, उसका रब उससे प्रसन्न होगा और उसे इतना कुछ देगा कि वह प्रसन्न हो जाएगा।

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وَصَدَّقَ بِٱلۡحُسۡنَىٰ ۝ 1
(6) और भलाई को सच माना2,
2. यह इनसानी कोशिशों की एक क़िस्म है जिसमें तीन चीज़ें गिनी गई हैं और ग़ौर से देखा जाए तो मालूम होता है कि उनमें तमाम ख़ूबियाँ आ गई हैं। एक यह कि इनसान दौलत-परस्ती में मुब्तला (माल का पुजारी) न हो, बल्कि खुले दिल से अपना माल, जितना कुछ भी अल्लाह ने उसे दिया है, अल्लाह और उसके बन्दों के हक़ अदा करने में, नेकी और भलाई के कामों में और ख़ुदा के बन्दों की मदद करने में ख़र्च करे। दूसरे यह कि उसके दिल में ख़ुदा का डर हो और वह अख़लाक़, आमाल, समाजी कामों, रोज़ी-रोज़गार, ग़रज़ अपनी ज़िन्दगी के हर हिस्से में उन कामों से बचे जो ख़ुदा की नाराज़ी का सबब हों। तीसरे यह कि वह भलाई की तसदीक़ (पुष्टि)। भलाई एक ऐसा लफ़्ज़ है जो बहुत-से मानी रखता है, जिसमें अक़ीदे, अख़लाक़ और आमाल तीनों की भलाई शामिल है। अक़ीदे में भलाई की तसदीक़ यह है कि आदमी शिर्क, नास्तिकता और कुफ़्र को छोड़कर तौहीद, आख़िरत और रिसालत को सही माने। और अख़लाक़ और आमाल में भलाई की तसदीक़ यह है कि आदमी भलाइयाँ बेसोचे-समझे किसी मुक़र्रर निज़ाम के बिना न कर रहा हो, बल्कि वह भलाई और सुधार के उस निज़ाम को सही माने जो ख़ुदा की तरफ़ से दिया गया है, जो भलाइयों को उनकी तमाम शक्लों और सूरतों के साथ एक नज़्म (अनुशासन) में बाँधता है, जिसको अल्लाह की भेजी हुई शरीअत कहा जाता है।
فَسَنُيَسِّرُهُۥ لِلۡيُسۡرَىٰ ۝ 2
(7) उसको हम आसान रास्ते के लिए सुहूलत देंगे।3
3. यह है कोशिशों की इस क़िस्म का नतीजा। आसान रास्ता से मुराद वह रास्ता है जो इनसान की फ़ितरत के मुताबिक़ है, जो उस पैदा करनेवाले की मर्ज़ी के मुताबिक़ है जिसने इनसान को और सारी कायनात को बनाया है, जिसमें इनसान को अपने ज़मीर (अन्तरात्मा) से लड़कर नहीं चलना पड़ता, जिसमें इनसान अपने जिस्मो-जान और अक़्ल और ज़ेहन की क़ुव्वतों पर ज़बरदस्ती करके उनसे वह काम नहीं लेता जिसके लिए ये ताक़तें उसको नहीं दी गई हैं, बल्कि वह काम लेता है जिसके लिए हक़ीक़त में ये उसको दी गई हैं, जिसमें इनसान को हर तरफ़ उस जंग, रुकावट (प्रतिरोध) और कशमकश से वासिता नहीं पड़ता जो गुनाहों से भरी हुई ज़िन्दगी में पेश आता है, बल्कि इनसानी समाज में हर क़दम पर उसको सुलह व अम्न और क़द्र और इज़्ज़त मिलती चली जाती है। ज़ाहिर बात है कि जो आदमी अपना माल ख़ुदा के बन्दों की भलाई के लिए इस्तेमाल कर रहा हो, जो हर एक से अच्छा सुलूक कर रहा हो, जिसकी ज़िन्दगी जुर्मों, अल्लाह की खुली और छिपी नाफ़रमानियों और बदकिरदारी से पाक हो, जो अपने मामलों में खरा और सच्चा हो, जो किसी के साथ बेईमानी, वादा ख़िलाफ़ी और बेवफ़ाई न करे, जिससे किसी को ख़ियानत (बेईमानी), ज़ुल्म और ज़्यादती का अन्देशा न हो, जो हर शख़्स के साथ अच्छे अख़लाक़ से पेश आए और किसी को उसकी सीरत और किरदार पर उँगली रखने का मौक़ा न मिले, वह चाहे कैसे ही बिगड़े हुए समाज में रहता हो, बहरहाल उसकी क़द्र होकर रहती है, उसकी तरफ़ दिल खिंचते हैं, निगाहों में उसकी इज़्ज़त क़ायम हो जाती है, उसका अपना दिल और ज़मीर भी मुत्मइन होता है और समाज में भी उसको वह वक़ार (मान-सम्मान) हासिल होता है जो कभी किसी बदकिरदार आदमी को हासिल नहीं होता। यही बात है जो सूरा-16 नह्ल, आयत-97 में कही गई है कि “जो कोई नेक अमल करे, चाहे वह मर्द हो या औरत, और हो वह मोमिन, उसे हम अच्छी ज़िन्दगी बसर कराएँगे।” और इसी बात को सूरा-19 मरयम, आयत-96 में यूँ बयान किया गया है कि “यक़ीनन जो लोग ईमान लाए और जिन्होंने भले काम किए रहमान (दयावान प्रभु) उनके लिए दिलों में मुहब्बत पैदा कर देगा।” फिर यही वह रास्ता है जिसमें दुनिया से लेकर आख़िरत तक इनसान के लिए ख़ुशी-ही-ख़ुशी और राहत-ही-राहत है। इसके नतीजे थोड़े दिनों के और वक़्ती नहीं, बल्कि हमेशा क़ायम और बाक़ी रहनेवाले हैं। इसके बारे में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि हम उसे इस रास्ते पर चलने के लिए सुहूलत देंगे। इसका मतलब यह है कि जब वह भलाई की तसदीक़ (पुष्टि) करके यह फ़ैसला कर लेगा कि यही रास्ता मेरे लायक़ है और बुराई का रास्ता मेरे लायक़ नहीं है, और जब वह अमली तौर पर माल की क़ुरबानी और परहेज़गारी की ज़िन्दगी अपनाकर यह साबित कर देगा कि उसकी यह तसदीक़ सच्ची है, तो अल्लाह तआला इस रास्ते पर चलना उसके लिए आसान कर देगा। उसके लिए फिर गुनाह करना मुश्किल और भलाई करना आसान हो जाएगा। हराम माल उसके सामने आएगा तो वह यह नहीं समझेगा कि यह फ़ायदे का सौदा है, बल्कि उसे यूँ महसूस होगा कि यह आग का अंगारा है जिसे वह हाथ में नहीं ले सकता। बदकारी के मौक़े उसके सामने आएँगे तो वह उन्हें लुत्फ़ और लज़्ज़त हासिल करने के मौक़े समझकर उनकी तरफ़ नहीं लपकेगा, बल्कि जहन्नम के दरवाज़े समझकर उनसे दूर भागेगा। नमाज़ उसपर बोझ न होगी, बल्कि उसे चैन नहीं पड़ेगा जब तक वक़्त आने पर वह उसको अदा न कर ले। ज़कात देते हुए उसका दिल नहीं दुखेगा, बल्कि अपना माल उसे नापाक महसूस होगा जब तक वह उसमें से ज़कात निकाल न दे। ग़रज़ हर क़दम पर अल्लाह तआला की तरफ़ से उसको इस रास्ते पर चलने का मौक़ा और मदद मिलेगी, हालात को उसके लिए साज़गार (अनुकूल) बनाया जाएगा, और उसकी मदद की जाएगी। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि इससे पहले सूरा-90 बलद में इसी रास्ते को दुश्वार-गुज़ार घाटी कहा गया है और यहाँ इसको आसान रास्ता कहा गया है। इन दोनों बातों में ताल-मेल कैसे होगा? इसका जवाब यह है कि इस राह को अपनाने से पहले यह आदमी को मुश्किल घाटी ही महसूस होती है जिसपर चढ़ने के लिए उसे अपने मन की ख़ाहिशों से, अपने दुनिया-परस्त घरवालों से, अपने रिश्तेदारों से, अपने दोस्तों और मामलादारों से, और सबसे बढ़कर शैतान से लड़ना पड़ता है, क्योंकि हर एक इसमें रुकावटें डालता है और इसको भयानक बनाकर दिखाता है। लेकिन जब इनसान भलाई की तसदीक़ करके उसपर चलने का इरादा कर लेता है और अपना माल ख़ुदा की राह में देकर और परहेज़गारी का तरीक़ा अपनाकर अमली तौर से इस इरादे को पक्का कर लेता है तो इस घाटी पर चढ़ना उसके लिए आसान और अख़लाक़ी गिरावटों के खड्ड में लुढ़कना उसके लिए मुश्किल हो जाता है।
وَأَمَّا مَنۢ بَخِلَ وَٱسۡتَغۡنَىٰ ۝ 3
(8) और जिसने कंजूसी की और (अपने ख़ुदा से) बेपरवाही बरती
وَكَذَّبَ بِٱلۡحُسۡنَىٰ ۝ 4
(9) और भलाई को झुठलाया4,
4. यह इनसनी कोशिशों की दूसरी क़िस्म है जो अपने हर पहलू में पहली क़िस्म से अलग है। कंजूसी से मुराद सिर्फ़ वह कंजूसी नहीं है जिसके मुताबिक़ आम तौर पर लोग उस आदमी को कंजूस कहते हैं जो रुपया जोड़-जोड़कर रखता है और उसे न अपने ऊपर ख़र्च करता है न अपने बाल-बच्चों पर, बल्कि इस जगह कंजूसी से मुराद ख़ुदा की राह में और नेकी और भलाई के कामों में माल ख़र्च न करना है और इस लिहाज़ से वह शख़्स भी कंजूस है जो अपने ऊपर, अपने ऐशो-आराम पर, अपनी दिलचस्पियों और तफ़रीहों (मनोरंजनों) पर तो ख़ूब दिल खोलकर माल लुटाता है, मगर किसी नेक काम के लिए उसकी जेब से कुछ नहीं निकलता, या अगर निकलता भी है तो यह देखकर निकलता है कि उसके बदले में उसे शुहरत, नामवरी, हाकिमों तक पहुँच, या किसी और तरह का फ़यादा हासिल होगा। बेपरवाही बरतने से मुराद यह है कि आदमी दुनिया के माद्दी (भौतिक) फ़ायदों ही को अपनी सारी दौड़-धूप और मेहनत और कोशिश का मक़सद बना ले और ख़ुदा से बिलकुल बेपरवाह होकर इस बात की कुछ परवाह न करे कि किस काम से वह ख़ुश और किस काम से वह नाराज़ होता है। रहा भलाई को झुठलाना, तो वह अपनी तमाम तफ़सीलात में भलाई को सच मानने के उलट है, इसलिए उसकी तशरीह की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि भलाई की तसदीक़ (पुष्टि) का मतलब हम साफ़ तौर पर बयान कर चुके हैं।
فَسَنُيَسِّرُهُۥ لِلۡعُسۡرَىٰ ۝ 5
(10) उसको हम सख़्त रास्ते के लिए सुहूलत देंगे।5
5. इस रास्ते को सख़्त इसलिए कहा गया है कि इसपर चलनेवाला अगरचे माद्दी (भौतिक) फ़ायदों और दुनियावी लज़्ज़तों और ज़ाहिरी कामयाबियों के लालच में इसकी तरफ़ जाता है, लेकिन इसमें हर वक़्त अपनी फ़ितरत से अपने ज़मीर से, कायनात के पैदाकरनेवाले (ख़ुदा) के बनाए हुए क़ानूनों से, और अपने आस-पास के समाज से उसकी जंग छिड़ी रहती है। सच्चाई, ईमानदारी, अमानतदारी, शराफ़त और पाकबाज़ी (सतीत्व) की अख़लाक़ी हदों को तोड़कर जब वह हर तरीक़े से अपनी ग़रज़ों और ख़ाहिशों को पूरा करने की कोशिश करता है, जब उसकी ज़ात से ख़ुदा के बन्दों को भलाई के बजाय बुराई ही पहुँचती है, और जब वह दूसरों के हक़ों और उनकी इज़्ज़तों पर हाथ डालता है, तो अपनी निगाह में वह ख़ुद गिर जाता है और जिस समाज में वह रहता है उससे भी क़दम-क़दम पर लड़कर उसे आगे बढ़ना पड़ता है। अगर वह कमज़ोर हो तो इस रवैये की बदौलत उसे तरह-तरह की सज़ाएँ भुगतनी होती हैं, और अगर वह मालदार, ताक़तवर और असर रखनेवाला हो, तो चाहे दुनिया उसके ज़ोर के आगे दब जाए, लेकिन किसी के दिल में उसके लिए ख़ैरख़ाही, इज़्ज़त और मुहब्बत का कोई जज़्बा नहीं होता, यहाँ तक कि उसके साथ काम करनेवाले भी उसको एक बुरा आदमी ही समझते हैं। और यह मामला सिर्फ़ लोगों ही तक महदूद नहीं है। दुनिया की बड़ी-से-बड़ी ताक़तवर क़ौमें भी जब अख़लाक़ की हदों को फाँदकर अपनी ताक़त और दौलत के घमण्ड में बदकिरदारी का रवैया अपनाती हैं, तो एक तरफ़ बाहर की दुनिया उनकी दुश्मन हो जाती है, और दूसरी तरफ़ ख़ुद उनका अपना समाज जुर्मों, ख़ुदकुशी, नशाख़ोरी, भयानक मर्दाना-ज़नाना बीमारियों, ख़ानदानी ज़िन्दगी की तबाही, नौजवान नस्लों के भटकाव, तबक़ाती (वर्गीय) कश्मकश, और ज़ुल्मो-ज़्यादती की दिन-पर-दिन बढ़ती महामारी से दोचार हो जाता है, यहाँ तक कि जब वह तरक़्क़ी की बुलन्दी से गिरती है तो दुनिया के इतिहास में अपने लिए लानत और फटकार के सिवा कोई मक़ाम छोड़कर नहीं जाती। और यह जो फ़रमाया गया कि ऐसे शख़्स को हम सख़्त रास्ते पर चलने की आसानी देंगे, इसका मतलब यह है कि उससे भलाई के रास्ते पर चलने का मौक़ा (अवसर) ही छीन लिया जाएगा, बुराई के दरवाज़े उसके लिए खोल दिए जाएँगे, उसी के असबाब और वसाइल (साधन-संसाधन) उसके लिए जुटा दिए जाएँगे, बुराई करना उसके लिए आसान होगा और भलाई करने के ख़याल से उसको यूँ महसूस होगा कि जैसे उसकी जान पर बन रही है। यही कैफ़ियत है जिसे दूसरी जगह क़ुरआन में इस तरह बयान किया गया है— “जिसे अल्लाह हिदायत देने का इरादा करता है उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है और जिसे गुमराही में डालने का इरादा करता है उसके सीने को तंग कर देता है और ऐसा भींचता है कि (इस्लाम के बारे में सोचते ही उसे यूँ महसूस होने लगता है) जैसे उसकी रूह आसमान की तरफ़ जा रही है।” (सूरा-6 अनआम, आयत-125) “बेशक नमाज़ एक सख़्त मुश्किल काम है, मगर फ़रमाँबरदार बन्दों के लिए नहीं।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-46) “वे नमाज़ की तरफ़ आते भी हैं तो कसमसाते हुए आते हैं और ख़ुदा की राह में ख़र्च करते भी हैं तो मजबूरी में ख़र्च करते हैं।” (सूरा-9 तौबा, आयत-54) “और यह कि इनमें ऐसे-ऐसे लोग मौजूद हैं जो ख़ुदा की राह में कुछ ख़र्च करते हैं तो उसे अपने ऊपर ज़बरदस्ती की चट्टी समझते हैं।” (सूरा-9 तौबा, आयत-98)
وَمَا يُغۡنِي عَنۡهُ مَالُهُۥٓ إِذَا تَرَدَّىٰٓ ۝ 6
(11) और उसका माल आख़िर उसके किस काम आएगा, जबकि वह हलाक हो जाए?6
6. दूसरे अलफ़ाज़ में मतलब यह है कि एक दिन उसे बहरहाल मरना है और वह सब कुछ दुनिया ही में छोड़ जाना है जिसे उसने यहाँ अपने ऐश के लिए जुटाया था। अगर अपनी आख़िरत के लिए कुछ कमाकर वह साथ न ले गया तो यह माल उसके किस काम आएगा? क़ब्र में तो वह कोई कोठी, कोई मोटर, कोई जायदाद और कोई जमा पूँजी लेकर नहीं जाएगा।
إِنَّ عَلَيۡنَا لَلۡهُدَىٰ ۝ 7
(12) बेशक रास्ता बताना हमारे ज़िम्मे है,7
7. यानी इनसान का पैदा करनेवाला होने की हैसियत से अल्लाह तआला ने ख़ुद अपनी हिकमत, अपने इनसाफ़ और अपनी रहमत (दयालुता) की बुनियाद पर यह ज़िम्मा लिया है कि उसको दुनिया में बेख़बर न छोड़े, बल्कि उसे यह बता दे कि सीधी राह कौन-सी है और ग़लत राहें कौन-सी, भलाई क्या है और बुराई क्या, हलाल क्या है और हराम क्या, कौन-सा रवैया अपनाने से वह फ़रमाँबरदार बन्दा बनेगा और कौन-सा रवैया अपनाकर बन्दा नाफ़रमान बन जाएगा। यही बात है जिसे सूरा-16 नह्ल, आयत-9 में यूँ बयान किया गया है कि “और अल्लाह ही के ज़िम्मे है सीधा रास्ता बताना जबकि टेढ़े रास्ते भी मौजूद हैं।” (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-9)।
وَإِنَّ لَنَا لَلۡأٓخِرَةَ وَٱلۡأُولَىٰ ۝ 8
(13) और हक़ीक़त में आख़िरत और दुनिया, दोनों के हम ही मालिक हैं।8
8. इस बात के कई मतलब हैं और वे सब सही हैं। एक यह कि दुनिया से आख़िरत तक तुम कहीं भी हमारी पकड़ से बाहर नहीं हो, क्योंकि दोनों जहानों के हम ही मालिक हैं। दूसरे यह कि हमारी मिलकियत दुनिया और आख़िरत दोनों पर बहरहाल क़ायम है चाहे तुम हमारी बताई हुई राह पर चलो या न चलो। गुमराही अपनाओगे तो हमारा कुछ न बिगाड़ोगे, अपना ही नुक़सान कर लोगे, और सीधा रास्ता अपनाओगे तो हमें कोई फ़ायदा न पहुँचाओगे, ख़ुद ही उसका फ़ायदा उठाओगे। तुम्हारी नाफ़रमानी से हमारी मिलकियत में कोई कमी नहीं हो सकती और तुम्हारी फ़रमाँबरदारी से उसमें कोई इज़ाफ़ा नहीं हो सकता। तीसरे यह कि दोनों जहानों के मालिक हम ही हैं। दुनिया चाहोगे तो वह भी हम ही से तुम्हें मिलेगी और आख़िरत की भलाई चाहोगे तो उसका देना भी हमारे ही इख़्तियार में है। यही बात है जो क़ुरआन में कही गई है— “जो शख़्स दुनिया के फ़ायदे के इरादे से काम करेगा उसको हम दुनिया ही में से देंगे और जो आख़िरत में इनाम पाने के इरादे से काम करेगा उसको हम आख़िरत में से देंगे।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-145) “जो कोई आख़िरत की खेती चाहता है उसकी खेती को हम बढ़ाते हैं और जो दुनिया की खेती चाहता है उसे दुनिया ही में से देते हैं, मगर आख़िरत में उसका कोई हिस्सा नहीं है।” (सूरा-42 शूरा, आयत-20) (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-105; सूरा-42 शूरा, हाशिया-37)।
فَأَنذَرۡتُكُمۡ نَارٗا تَلَظَّىٰ ۝ 9
(14) तो मैंने तुमको ख़बरदार कर दिया है भड़कती हुई आग से।
لَا يَصۡلَىٰهَآ إِلَّا ٱلۡأَشۡقَى ۝ 10
(15) उसमें नहीं झुलसेगा मगर वह इन्तिहाई बदनसीब,
ٱلَّذِي كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 11
(16) जिसने झुठलाया और मुँह फेरा।
وَسَيُجَنَّبُهَا ٱلۡأَتۡقَى ۝ 12
(17) और उससे दूर रखा जाएगा वह बहुत ही परहेज़गार
ٱلَّذِي يُؤۡتِي مَالَهُۥ يَتَزَكَّىٰ ۝ 13
(18) जो पाकीज़ा होने की ख़ातिर अपना माल देता है।9
9. इसका यह मतलब नहीं है कि निहायत बदनसीब के सिवा कोई आग में न जाएगा और बहुत ही परहेज़गार के सिवा कोई उससे न बचेगा। बल्कि यहाँ मक़सद दो बिलकुल उलट किरदारों को एक-दूसरे के मुक़ाबले में पेश करके उनका एक-दूसरे से बिलकुल उलट अंजाम बयान करना है। एक वह शख़्स है जो अल्लाह और उसके रसूल की तालीमात को झुठला दे और फ़रमाँबरदारी की राह से मुँह फेर ले। दूसरा वह शख़्स है जो न सिर्फ़ ईमान लाए, बल्कि इन्तिहाई ख़ालिस मन के साथ किसी दिखावे और नामवरी की चाह के बिना सिर्फ़ इसलिए अपना माल ख़ुदा की राह में ख़र्च करे कि वह अल्लाह के यहाँ पाकीज़ा इनसान कहलाने का तलबगार है। ये दोनों किरदार उस वक़्त मक्का के समाज में सबके सामने मौजूद थे। इसलिए किसी का नाम लिए बिना लोगों को बताया गया है कि जहन्नम की आग में दूसरे किरदारवाला नहीं, बल्कि पहले किरदारवाला ही झुलसेगा, और उस आग से पहले किरदारवाला नहीं, बल्कि दूसरे किरदारवाला ही दूर रखा जाएगा।
وَمَا لِأَحَدٍ عِندَهُۥ مِن نِّعۡمَةٖ تُجۡزَىٰٓ ۝ 14
(19) उसपर किसी का कोई एहसान नहीं है, जिसका बदला उसे देना हो।
إِلَّا ٱبۡتِغَآءَ وَجۡهِ رَبِّهِ ٱلۡأَعۡلَىٰ ۝ 15
(20) वह तो सिर्फ़ अपने बरतर रब की ख़ुशी के लिए यह काम करता है।10
10. यह उस परहेज़गार आदमी के ख़ुलूस (निष्ठा) को और ज़्यादा खोलकर बयान करना है कि वह अपना माल जिन लोगों पर ख़र्च करता है उनका कोई एहसान पहले से उसपर न था कि वह उसका बदला चुकाने के लिए, या आइन्दा उनसे फ़ायदा उठाने के लिए उनको हदिये और तोहफ़े दे रहा हो और उनकी दावतें कर रहा हो, बल्कि वह अपने बुलन्द और बरतर रब की ख़ुशी चाहने के लिए ऐसे लोगों की मदद कर रहा है जिनका न पहले से उसपर कोई एहसान था, न आइन्दा उनसे किसी एहसान की उम्मीद रखता है। इसकी बेहतरीन मिसाल हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) का यह काम है कि मक्का में जिन बेसहारा ग़ुलामों और लौंडियों ने इस्लाम क़ुबूल किया था और इस क़ुसूर में जिनके मालिक उनपर बड़े ज़ुल्म ढा रहे थे, उनको ख़रीद-ख़रीदकर वे आज़ाद कर देते थे, ताकि वे उनके ज़ुल्म से बच जाएँ। इब्ने-जरीर और इब्ने-असाकिर ने हज़रत आमिर-बिन-अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) की यह रिवायत नक़्ल की है कि हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) को इस तरह इन ग़रीब ग़ुलामों और लौंडियों की आज़ादी पर रुपया ख़र्च करते देखकर उनके बाप ने उनसे कहा कि “बेटा, मैं देख रहा हूँ कि तुम कमज़ोर लोगों को आज़ाद कर रहे हो। अगर मज़बूत जवानों की आज़ादी पर तुम यही रुपया ख़र्च करते तो कल वे तुम्हारे लिए मदद बनते।” इसपर हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने उनसे कहा, “अब्बाजान, मैं तो वह बदला चाहता हूँ जो अल्लाह के यहाँ है।”
وَلَسَوۡفَ يَرۡضَىٰ ۝ 16
(21) और ज़रूर वह (उससे) ख़ुश होगा।11
11. इस आयत के दो मतलब हो सकते हैं। और दोनों सही हैं। एक यह कि ज़रूर अल्लाह उससे राज़ी हो जाएगा। दूसरा यह कि जल्द ही अल्लाह उस शख़्स को इतना कुछ देगा कि वह ख़ुश हो जाएगा।
سُورَةُ اللَّيۡلِ
92. अल-लैल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلَّيۡلِ إِذَا يَغۡشَىٰ
(1) क़सम है रात को जबकि वह छा जाए,
وَٱلنَّهَارِ إِذَا تَجَلَّىٰ ۝ 17
(2) और दिन की जबकि वह रौशन हो,
وَمَا خَلَقَ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰٓ ۝ 18
(3) और उस हस्ती की जिसने नर और मादा को पैदा किया,
إِنَّ سَعۡيَكُمۡ لَشَتَّىٰ ۝ 19
(4) हक़ीक़त में तुम लोगों की कोशिशें अलग-अलग तरह की हैं।1
1. यह वह बात है जिसपर रात और दिन और नर और मादा की पैदाइश की क़सम खाई गई है। मतलब यह है कि जिस तरह रात और दिन और नर और मादा एक-दूसरे से अलग हैं, और उनमें से हर दो के असरात और नतीजे एक-दूसरे के उलट हैं, इसी तरह तुम लोग जिन राहों और मक़सदों में अपनी काशिशें लगा रहे हो वे भी अपनी क़िस्म के लिहाज़ से अलग-अलग और अपने नतीजों के एतिबार से एक-दूसरे के उलट हैं। इसके बाद की आयतों में बताया गया है कि ये तमाम अलग-अलग कोशिशें दो बड़ी क़िस्मों में बँट जाती हैं।
فَأَمَّا مَنۡ أَعۡطَىٰ وَٱتَّقَىٰ ۝ 20
(5) तो जिसने (ख़ुदा की राह में) माल दिया और (ख़ुदा की नाफ़रमानी से) बचा,