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سُورَةُ الشَّمۡسِ

92. अश-शम्स

(मक्का में उतरी, आयतें 15)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'अश-शम्स' (सूरज) को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

विषय और वार्ताशैली से मालूम होता है कि यह सूरा भी मक्का के आरम्भिक काल में उस समय उतरी है जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का विरोध पूरा ज़ोर पकड़ चुका था।

विषय और वार्ता

इसका विषय भलाई और बुराई का अन्तर समझाना और उन लोगों को बुरे अंजाम से डराना है जो इस अन्तर को समझने से इंकार और बुराई की राह पर चलने का आग्रह करते हैं । विषय की दृष्टि से इस सूरा के दो हिस्से हैं।

पहला हिस्सा सूरा के आरंभ से लेकर आयत-10 पर समाप्त होता है, और दूसरा हिस्सा आयत-17 से अन्त तक चलता है। पहले हिस्से में तीन बातें समझाई गई हैं :

एक, यह कि भलाई-बुराई एक-दूसरे से भिन्न और अपने प्रभाव एवं परिणामों में परस्पर विरोधी हैं।

दूसरे, यह कि अल्लाह ने मनुष्य को शरीर, इन्द्रियाँ और बुद्धि की शक्तियाँ देकर दुनिया में बिल्कुल बे-ख़बर नहीं छोड़ दिया है, बल्कि एक फ़ितरी इलहाम (दैवी-प्रेरणा) के जरिए उसके अवचेतन में भलाई और बुराई का अन्तर, भले और बुरे की पहचान और भलाई के भलाई और बुराई के बुराई होने का एहसास उतार दिया है।

तीसरे, यह कि इंसान का अच्छा या बुरा भविष्य इसपर निर्भर करता है कि उसके भीतर समझ, इरादे और निर्णय की जो शक्तियाँ अल्लाह ने रख दी हैं, उनको इस्तेमाल करके वह अपने मन के अच्छे और बुरे रुझानों में से किसको उभारता और किसको दबाता है।

दूसरे भाग में समूद क़ौम के ऐतिहासिक दृष्टान्त को प्रस्तुत करते हुए रिसालत (पैग़म्बरी) के महत्त्व को समझाया गया है। रसूल दुनिया में इसलिए भेजा जाता है कि भलाई और बुराई का जो इलहामी इल्म अल्लाह ने इंसान की फ़ितरत में रख दिया है, वह अपने आप में इंसान के मार्गदर्शन के लिए काफ़ी नहीं है। इस कारण अल्लाह ने उस फ़ितरी इलहाम की सहायता के लिए नबियों पर स्पष्ट और साफ़-साफ़ वह्य उतारी, ताकि वे लोगों को खोलकर बताएँ कि भलाई क्या है और बुराई क्या। ऐसे ही एक नबी हज़रत सालेह (अलैहि०) समूद कौम की ओर भेजे गए थे, मगर वह क़ौम अपने मन की बुराई में डूबकर इतनी सरकश हो गई थी कि उसने उनको झुठला दिया। इसका नतीजा अन्ततः यह हुआ कि पूरी क़ौम तबाह करके रख दी गई। समूद का यह क़िस्सा [जिस वक़्त सुनाया गया था, मक्का में] उस समय हालात वही मौजूद थे जो सालेह के मुक़ाबले में समूद क़ौम के दुष्टों ने पैदा कर रखे थे। इसलिए उन हालात में यह क़िस्सा सुना देना अपने आप ही मक्कावालों को यह समझा देने के लिए पर्याप्त था कि समूद की यह ऐतिहासिक मिसाल उनपर किस तरह चस्पाँ हो रही है।

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سُورَةُ الشَّمۡسِ
91. अश-शम्स
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلشَّمۡسِ وَضُحَىٰهَا
(1) सूरज़ और उसकी धूप1 की क़सम,
1. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़ुहा’ इस्तेमाल किया गया है जो बताता है कि सूरज से रौशनी और गर्मी, दोनों हासिल होती हैं। अगरचे अरबी ज़बान में इसका जाना-माना मतलब चाश्त का वक़्त है जबकि सूरज निकलने के बाद अच्छा-ख़ासा बुलन्द हो जाता है। लेकिन जब सूरज चढ़ता है तो सिर्फ़ रौशनी ही नहीं देता, बल्कि गर्मी भी देता है, इसलिए ‘ज़ुहा’ का लफ़्ज़ जब सूरज की तरफ़ जोड़ा गया हो तो उसका पूरा मतलब उसकी रौशनी, या उसकी बदौलत निकलनेवाले दिन के बजाय उसकी धूप ही से ज़्यादा सही तौर पर अदा होता है।
وَٱلۡقَمَرِ إِذَا تَلَىٰهَا ۝ 1
(2) और चाँद की क़सम जबकि वह उसके पीछे आता है,
وَٱلنَّهَارِ إِذَا جَلَّىٰهَا ۝ 2
(3) और दिन की क़सम जबकि वह (सूरज को) नुमायाँ कर देता है,
وَٱلَّيۡلِ إِذَا يَغۡشَىٰهَا ۝ 3
(4) और रात की क़सम जबकि वह (सूरज को) ढाँक लेती है2,
2. यानी रात के आने पर सूरज छुप जाता है और उसकी रौशनी रात भर ग़ायब रहती है। इस कैफ़ियत को यूँ बयान किया गया है कि रात सूरज को ढाँक लेती है, क्योंकि रात की अस्ल हक़ीक़त सूरज का उफ़ुक़ (क्षितिज) से नीचे उतर जाना है, जिसकी वजह से उसकी रौशनी ज़मीन के उस हिस्से तक नहीं पहुँच सकती जहाँ रात छा गई हो।
وَٱلسَّمَآءِ وَمَا بَنَىٰهَا ۝ 4
(5) और आसमान की और उस हस्ती की क़सम जिसने उसे क़ायम किया,3
3. यानी छत की तरह उसे ज़मीन पर उठा खड़ा किया। इस आयत और इसके बाद की दो आयतों में ‘मा’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है यानी ‘मा बनाहा’, और ‘मा तहाहा’ और ‘मा सव्वाहा’। इस लफ़्ज़ ‘मा’ को क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के एक गरोह ने मसदरी (क्रियात्मक) मानी में लिया है और वे इन आयतों का मतलब यह बयान करते हैं कि आसमान और उसके क़ायम किए जाने की क़सम, ज़मीन और उसके बिछाए जाने की क़सम, और नफ़्स (मन) और उसके ठीक-ठाक किए जाने की क़सम। लेकिन यह मतलब इसलिए दुरुस्त नहीं है कि इन तीन जुमलों के बाद यह जुमला कि “फिर उसकी बुराई और उसकी परहेज़गारी उसके दिल में डाल दी” बात के इस सिललिसे के साथ ठीक नहीं बैठता। दूसरे क़ुरआन के आलिमों ने यहाँ ‘मा’ को ‘मन’ या ‘अल्लज़ी’ के मानी में लिया है, और वे इन जुमलों का मतलब यह लेते हैं कि जिसने आसमान को क़ायम किया, जिसने ज़मीन को बिछाया और जिसने मन को ठीक-ठाक किया। यही दूसरा मतलब हमारे नज़दीक सही है, और उसपर यह एतिराज़ नहीं हो सकता कि ‘मा’ अरबी ज़बान में बेजान चीज़ों और बेअक़्ल जानदारों के लिए इस्तेमाल होता है। ख़ुद क़ुरआन में इसकी बहुत-सी मिसालें मौजूद हैं कि ‘मा’ को ‘मन’ के मानी में इस्तेमाल किया गया है। मिसाल के तौर पर सूरा-109 काफ़िरून, आयत-3 में है, ‘व ला अन्तुम आबिदू-न मा अअ्बुद’ (और न तुम उसकी इबादत करनेवाले हो जिसकी मैं इबादत करता हूँ)। और सूरा-4 निसा, आयत-3 और 22 में है, ‘फ़न्‌किहू मा ता-ब लकुम-मिनन्निसाइ’ (तो औरतों में से जो तुम्हें पसन्द आएँ उनसे निकाह कर लो)। ‘वला तन्‌किहू मा न-क-ह आबाउकुम मिनन्निसाइ’ (और जिन औरतों से तुम्हारे बापों ने निकाह किया हो उनसे निकाह न करो)।
وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا طَحَىٰهَا ۝ 5
(6) और ज़मीन की और उस हस्ती की क़सम जिसने उसे बिछाया,
وَنَفۡسٖ وَمَا سَوَّىٰهَا ۝ 6
(7) और इनसानी जान की और उस हस्ती की क़सम जिसने उसे ठीक-ठाक किया,4
4. ठीक-ठाक करने से मुराद यह है कि अल्लाह ने उसको ऐसा जिस्म दिया जो अपनी उठान, अपने हाथ-पाँव और अपने दिमाग़ के एतिबार से इनसान की-सी ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए इन्तिहाई मुनासिब था। उसको देखने, सुनने, छूने, चखने और सूँघने के ऐसे हवास (इन्द्रियाँ) दिए जो अपने तनासुब (अनुपात) और अपनी ख़ासियतों की बुनियाद पर उसके लिए इल्म का बेहतरीन ज़रिआ बन सकते थे। उसको अक़्ल और फ़िक्र की क़ुव्वत, दलील और दलील लेने की क़ुव्वत, सोचने की क़ुव्वत, याद रखने की क़ुव्वत, पहचानने की क़ुव्वत, फ़ैसला करने की क़ुव्वत, इरादा करने की क़ुव्वत और दूसरी ऐसी ज़ेहनी क़ुव्वतें दीं जिनकी बदौलत वह दुनिया में उस काम के क़ाबिल हुआ जो इनसान के करने का है। इसके अलावा ठीक-ठाक करने में यह मतलब भी शामिल है कि उसे पैदाइशी गुनहगार और फ़ितरी बदमाश बनाकर नहीं, बल्कि पेचीदगी और टेढ़ के बिना सही और सीधी फ़ितरत पर पैदा किया कि वह सीधी राह पर चलना चाहे भी तो न चल सके। यही बात है जिसे सूरा-30 रूम में इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है कि “क़ायम हो जाओ उस फ़ितरत पर जिसपर अल्लाह तआला ने इनसानों को पैदा किया है।” (आयत 30)। और इसी बात को नबी (सल्ल०) ने एक हदीस में यूँ बयान किया है कि “कोई बच्चा ऐसा नहीं है जो फ़ितरत के सिवा किसी और चीज़ पर पैदा न होता हो, फिर उसके माँ-बाप उसे यहूदी या ईसाई या मजूसी बना देते हैं। यह ऐसा ही है जैसे जानवर के पेट से पूरा-का-पूरा सही-सलामत बच्चा पैदा होता है। क्या तुम उनमें किसी का कान कटा हुआ पाते हो?” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। यानी ये मुशरिक लोग हैं जो बाद में अपने जाहिलियत के अंधविश्वासों की बुनियाद पर जानवरों के कान काटते हैं, वरना ख़ुदा किसी जानवर को माँ के पेट से कटे हुए कान लेकर पैदा नहीं करता। एक और हदीस में नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं, “मेरा रब कहता है कि मैंने अपने तमाम बन्दों को हनीफ़ (सही फ़ितरत पर) पैदा किया था, फिर शैतान ने आकर उनको उनके दीन (यानी उनके फ़ितरी दीन) से गुमराह कर दिया और उनपर वे चीज़ें हराम कर दीं जो मैंने उनके लिए हलाल की थीं, और उनको हुक्म दिया कि मेरे साथ उनको शरीक करें जिनके शरीक होने पर मैंने कोई दलील नहीं उतारी।” (हदीस : मुसनदे-अहमद, मुस्लिम ने भी इससे मिलते-जुलते अलफ़ाज़ में नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान नक़्ल किया है)।
فَأَلۡهَمَهَا فُجُورَهَا وَتَقۡوَىٰهَا ۝ 7
(8) फिर उसकी बुराई और उसकी परहेज़गारी उसके दिल में डाल दी,5
5. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ इलहाम आया है। ‘इलहाम’ का मतलब किसी चीज़ को निगलना है। अरबी में यह इस मतलब में इस्तेमाल होता है कि कोई चीज़ ज़बरदस्ती किसी के हलक़ से उतार दी। इसी बुनियादी मतलब के लिहाज़ से इलहाम का लफ़्ज़ इस्लाम की ज़बान में अल्लाह तआला की तरफ़ से किसी तसव्वुर (कल्पना) या किसी ख़याल को बिना महसूस कराए बन्दे के दिलो-दिमाग़ में उतार देने के लिए इस्तेमाल होता है। इनसानी जान पर उसकी बुराई और उसकी परहेज़गारी इलहाम कर देने (दिल में डाल देने) के दो मतलब हैं। एक यह कि उसके अन्दर पैदा करनेवाले ने नेकी और बुराई दोनों तरह के रुझान और दिलचस्पियाँ रख दी हैं, और यह वह चीज़ है जिसको हर शख़्स अपने अन्दर महसूस करता है। दूसरा मतलब यह है कि हर इनसान के लाशुऊर (अचेतन) में अल्लाह तआला ने ये ख़यालात डाल दिए हैं कि अख़लाक़ में कोई चीज़ भलाई है और कोई चीज़ बुराई, अच्छे अख़लाक़ और आमाल और बुरे अख़लाक़ और आमाल बराबर नहीं हैं, फ़ुजूर, (बद किरदारी) एक बहुत बुरी चीज़ है और तक़वा (बुराइयों से बचना) एक अच्छी चीज़। यह सोच इनसान के लिए अजनबी नहीं है, बल्कि उसकी फ़ितरत इनसे वाक़िफ़ है और पैदा करनेवाले ने बुरे और भले में फ़र्क़ करने की क़ुव्वत पैदाइशी तौर पर उसको दे दी है। यही बात सूरा-90 बलद, आयत-10 में कही गई है कि “और हमने उसको भलाई और बुराई के दोनों रास्ते दिखा दिए।” इसी को सूरा-76, दह्‍र, आयत-3 में यूँ बयान किया गया है, “हमने उसको रास्ता दिखा दिया चाहे (वह अपने रब का) शुक्रगुज़ार बने या नाशुक्रा।” और इसी बात को सूरा-75 क़ियामह, में इस तरह बयान किया गया है कि इनसान के अन्दर एक ‘नफ़्से-लव्वामा’ (ज़मीर, अन्तरात्मा) मौजूद है जो बुराई करने पर उसे मलामत करता है (आयत-2) और हर इनसान चाहे कितनी ही मजबूरियाँ पेश करे, मगर वह अपने आपको ख़ूब जानता है कि वह क्या है। (आयत-14, 15)। इस जगह यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि फ़ितरी इलहाम अल्लाह तआला ने हर मख़लूक़ पर उसकी हैसियत और उसकी क़िस्म के लिहाज़ से किया है, जैसा कि सूरा-20 ता-हा, आयत-50 में कहा गया है, “जिसने हर चीज़ को उसकी बनावट दी फिर राह दिखाई।” मसलन जानवरों की हर क़िस्म (जाति) को उसकी ज़रूरतों के मुताबिक़ इलहामी इल्म दिया गया है, जिसकी वजह से मछली को आप-से-आप तैरना, परिन्दे को उड़ना, शहद की मक्खी को छत्ता बनाना और बए को घोंसला तैयार करना आ जाता है। इनसान को भी उसकी अलग-अलग हैसियतों के लिहाज़ से अलग-अलग क़िस्म के इलहामी इल्म दिए गए हैं। इनसान की एक हैसियत यह है कि वह एक हैवानी वुजूद है और इस हैसियत से जो इलहामी इल्म उसको दिया गया है उसकी एक सबसे नुमायाँ मिसाल बच्चे का पैदा होते ही माँ का दूध चूसना है, जिसकी तालीम अगर अल्लाह ने फ़ितरी तौर पर न दी होती तो कोई उसे यह हुनर न सिखा सकता था। उसकी दूसरी हैसियत यह है कि वह एक अक़्ल रखनेवाली हस्ती है। इस हैसियत से ख़ुदा ने इनसान की पैदाइश के आग़ाज़ से लगातार उसके दिल में बात डालकर उसको रहनुमाई दी है, जिसकी बदौलत वह एक के बाद एक खोजें और ईजादात (आविष्कार) करके समाज में तरक़्क़ी करता रहा है। इन खोजों और ईजादात (आविष्कारों) के इतिहास को जो कोई भी पढ़ेगा वह महसूस करेगा कि इनमें से शायद ही कोई ऐसी चीज़ हो जो सिर्फ़ इनसानी सोच और कोशिश का नतीजा हो, वरना हर एक की शुरुआत इसी तरह हुई है कि यकायक किसी आदमी के ज़ेहन में एक बात आ गई और उसकी बदौलत उसने किसी चीज़ की खोज की या कोई नई चीज़ बना ली। इन दोनों हैसियतों के अलावा इनसान की एक और हैसियत यह है कि वह एक अख़लाक़ी वुजूद है, और इस हैसियत से भी अल्लाह तआला ने उसे भलाई और बुराई में फ़र्क़, और भलाई के भलाई होने और बुराई के बुराई होने का एहसास दिल में डालकर कराया है। यह फ़र्क़ और एहसास तमाम दुनिया की एक जानी-पहचानी सच्चाई है जिसकी बुनियाद पर दुनिया में कभी कोई इनसानी समाज भलाई और बुराई के तसव्वुरात (धारणाओं) से ख़ाली नहीं रहा है, और कोई ऐसा समाज न इतिहास में कभी पाया गया है न अब पाया जाता है जिसके निज़ाम में भलाई और बुराई पर इनाम और सज़ा की कोई-न-कोई शक्ल अपनाई न गई हो। इस चीज़ का हर ज़माने, हर जगह और तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता और संस्कृति) के हर मरहले में पाया जाना इसके फ़ितरी होने का खुला सुबूत है और इसके अलावा यह इस बात का सुबूत भी है कि एक हिकमतवाले और अक़्लमन्द पैदा करनेवाले (स्रष्टा) ने इसे इनसान की फ़ितरत में रख दिया है, क्योंकि जिन चीज़ों से इनसान बना है और जिन क़ानूनों के तहत दुनिया का माद्दी निज़ाम (भौतिक व्यवस्था) चल रहा है उनके अन्दर कहीं इस बात की निशानदेही नहीं की जा सकती कि अख़लाक़ अस्ल में आता कहाँ से है।
قَدۡ أَفۡلَحَ مَن زَكَّىٰهَا ۝ 8
(9) यक़ीनन कामयाब हो गया वह जिसने मन को पाक (विशुद्ध) किया और उसे तरक़्क़ी दी,
وَقَدۡ خَابَ مَن دَسَّىٰهَا ۝ 9
(10) और नाकाम हुआ वह जिसने उसको दबा दिया।6
6. यह है वह बात जिसपर उन चीज़ों की क़सम खाई गई है जो ऊपर की आयतों में बयान हुई हैं। अब ग़ौर कीजिए कि वे चीज़ें इसपर किस तरह दलील बनती हैं। क़ुरआन में अल्लाह तआला का क़ायदा यह है कि जिन हक़ीक़तों को वह इनसान के ज़ेहन में बिठाना चाहता है, उनकी गवाही में वह सामने की कुछ ऐसी नुमायाँ चीज़ों को पेश करता है जो हर आदमी को अपने आसपास की दुनिया में, या ख़ुद अपने वुजूद में नज़र आती हैं। इसी क़ायदे के मुताबिक़ यहाँ दो-दो चीज़ों को एक-दूसरे के मुक़ाबले में पेश किया गया है जो एक-दूसरे के उलट हैं, इसलिए उनके असरात और नतीजे भी एक जैसे नहीं हैं, बल्कि लाज़िमी तौर पर एक-दूसरे से अलग हैं। एक तरफ़ सूरज है और दूसरी तरफ़ चाँद। सूरज की रौशनी बहुत ही तेज़ है और उसमें गर्मी भी है। इसके मुक़ाबले में चाँद अपनी कोई रौशनी नहीं रखता। सूरज की मौजूदगी में वह आसमान पर मौजूद भी हो तो बुझा हुआ (प्रकाशहीन) सा रहता है। वह उस वक़्त चमकता है जब सूरज छिप जाए, और उस वक़्त भी उसकी रौशनी न इतनी तेज़ होती है कि रात को दिन बना दे, न उसमें कोई गर्मी होती है कि वह काम कर सके जो सूरज की गर्मी करती है। लेकिन उसके अपने कुछ असरात हैं जो सूरज के असरात से बिलकुल अलग होते हैं। इसी तरह एक तरफ़ दिन है और दूसरी तरफ़ रात। दोनों एक-दूसरे के उलट हैं। दोनों के असरात और नतीजे आपस में इतने ज़्यादा अलग हैं कि कोई उनको एक जैसा नहीं कर सकता, यहाँ तक कि एक बेवक़ूफ़-से-बेवक़ूफ़ आदमी के लिए भी यह कहना मुमकिन नहीं है कि रात हुई तो क्या और दिन हुआ तो क्या, किसी से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसी तरह एक तरफ़ आसमान है, जिसे पैदा करनेवाले ने ऊँचा उठाया है और दूसरी तरफ़ ज़मीन है, जिसे पैदा करनेवाले ने आसमान के नीचे फ़र्श की तरह बिछा दिया है। दोनों अगरचे एक ही कायनात और उसके निज़ाम और उसकी मस्लहतों (हितों) की ख़िदमत कर रहे हैं, लेकिन दोनों के काम और उनके असरात और नतीजों में ज़मीन आसमान का फ़र्क़ है। इन कायनाती गवाहियों को पेश करने के बाद ख़ुद इनसान के अपने नफ़्स (मन) को लिया गया है और बताया गया है कि पैदा करनेवाले ख़ुदा ने उसमें जिस्मानी हिस्से, हवास (इन्द्रियाँ) और ज़ेहनी क़ुव्वतें मुनासिब तौर पर रखीं कि इनसान भलाई और बुराई, दोनों की तरफ़ बराबर तौर पर झुकाव, रुझान और कशिश रखता है, जो एक दूसरे के उलट हैं और ख़ुदा ने उसके दिल में डालकर इन दोनों का फ़र्क़ समझा दिया कि एक ‘फ़ुजूर’ (नाफ़रमानी) है और वह बुरी चीज़ है, और दूसरा ‘तक़वा’ (परहेज़गारी) है, और वह अच्छी चीज़। अब अगर सूरज और चाँद, दिन और रात, ज़मीन और आसमान एक जैसे नहीं हैं, बल्कि उनके असरात और नतीजे एक-दूसरे से ज़रूर ही अलग हैं, तो नफ़्स का फ़ुजूर और तक़्वा दोनों एक-दूसरे के उलट होने के बावजूद एक जैसे कैसे हो सकते हैं। इनसान ख़ुद इस दुनिया में भी भलाई और बुराई को एक जैसा नहीं समझता और नहीं मानता। चाहे उसने अपने बनाए हुए फ़लसफ़ों (दर्शनों) के मुताबिक़ भलाई-बुराई के कुछ भी पैमाने बना लिए हों, बहरहाल जिस चीज़ को भी वह भलाई समझता है उसके बारे में वह यह राय रखता है कि वह क़ाबिले-क़द्र है, तारीफ़, बदले और इनाम की हक़दार है। इसके बरख़िलाफ़ जिस चीज़ को भी वह बुराई समझता है उसके बारे में उसकी अपनी बेलाग राय यह है कि वह बुरी कही जानेवाली और सज़ा की हक़दार है। लेकिन अस्ल फ़ैसला इनसान के हाथ में नहीं है, बल्कि उस पैदा करनेवाले ख़ुदा के हाथ में है जिसने इनसान के दिल में डाला कि बुराई क्या है और भलाई क्या। ‘बुराई’ वही है जो पैदा करनेवाले के नज़दीक ‘बुराई’ है और ‘नेकी व भलाई’ वही है जो उसके नज़दीक ‘नेकी व भलाई’ है। और पैदा करनेवाले के यहाँ इन दोनों के दो अलग नतीजे हैं। एक का नतीजा यह है कि जो अपने मन को पाक करे वह कामयाबी पाए और दूसरे का नतीजा यह है कि जो अपने मन को दबा दे वह नाकाम हो। ‘तज़किया’ का मतलब है पाक करना, उभारना और नशो-नुमा देना (विकसित करना)। मौक़ा-महल से इसका साफ़ मतलब यह है कि जो अपने मन को ‘फ़ुजूर’ (गुनाह) से पाक करे, उसको उभारकर ‘तक़वा’ (परहेज़गारी) के बुलन्द मक़ाम तक ले जाए और उसके अन्दर भलाई को फलने-फूलने दे वह कामयाबी पाएगा। इसके मुक़ाबले में ‘दस्साहा’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, जो ‘तद्सिया’ से निकला है। ‘तद्सिया’ का मतलब दबाना, छिपाना, इग़वा (अपहरण) करना और गुमराह कर देना है। मौक़ा-महल से इसका मतलब भी वाज़ेह हो जाता है कि वह शख़्स नामुराद होगा जो अपने मन के अन्दर पाए जानेवाले भलाई के रुझानों को उभारने और उन्हें तरक़्क़ी देने के बजाय उनको दबा दे, उसको बहकाकर बुराई के रुझानों की तरफ़ ले जाए, और फ़ुजूर को उसपर इतना हावी कर दे कि तक़वा उसके नीचे इस तरह छिप जाए जैसे एक लाश क़ब्र पर मिट्टी डाल देने के बाद छिप जाती है। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इस आयत का मतलब यह बयान किया है कि “कामयाब हो गया वह जिसके नफ़्स को अल्लाह ने पाक कर दिया और नामुराद हुआ वह जिसके नफ़्स को अल्लाह ने दबा दिया।” लेकिन यह तफ़सीर अव्वल तो ज़बान के लिहाज़ से क़ुरआन के अन्दाज़े-बयान के ख़िलाफ़ है, क्योंकि अगर अल्लाह तआला को यही बात कहनी होती तो वह यूँ फ़रमाता कि ‘क़द अफ़्लहत मन ज़क्काहल्लाहु व-क़द ख़ाबत मन दस्साहल्लाहु’ (कामयाब हो गया वह नफ़्स जिसको अल्लाह ने पाक कर दिया और नाकाम हो गया वह नफ़्स जिसको अल्लाह ने दबा दिया)। दूसरे यह तफ़सीर इसी मौज़ू (विषय) पर क़ुरआन के दूसरे बयानों से टकराती है। सूरा-87 आला में अल्लाह तआला ने फ़रमाया है, ‘क़द अफ़्ल-ह मन तज़क्का’ यानी “कामयाब हो गया वह जिसने पाकीज़गी अपनाई।” (आयत-14)। सूरा-80 अ-ब-स में अल्लाह तआला ने अपने रसूल (सल्ल०) से फ़रमाया, ‘वमा अलै-क अल्ला यज़्ज़क्का’ यानी “और तुमपर क्या ज़िम्मेदारी है अगर वह पाकीज़गी न अपनाए।” (आयत-7) इन दोनों आयतों में पाकीज़गी अपनाना बन्दे का काम ठहराया गया है। इसके अलावा क़ुरआन में जगह-जगह यह हक़ीक़त बयान की गई है कि इस दुनिया में इनसान का इम्तिहान लिया जा रहा है। मिसाल के तौर पर सूरा-76 दह्‍र, आयत-2 में फ़रमाया, “हमने इनसान को एक मिले-जुले नुतफ़े से पैदा किया, ताकि उसकी आज़माइश करें इसी लिए उसे हमने सुननेवाला और देखनेवाला बनाया।” और सूरा-67 मुल्क, आयत-2 में फ़रमाया, “जिसने मौत और ज़िन्दगी को ईजाद (अविष्कृत) किया, ताकि तुम्हें आज़माए कि कौन तुममें बेहतर अमल करनेवाला है।” अब यह ज़ाहिर है कि इम्तिहान सिरे से ही बेमतलब हो जाता है, अगर इम्तिहान लेनेवाला पहले ही एक उम्मीदवार को उभार दे और दूसरे को दबा दे। इसलिए सही तफ़सीर वही है जो क़तादा, इकरिमा, मुजाहिद और सईद-बिन-जुबैर ने बयान की है कि मन को पाक करने और तरक़्क़ी देनेवाला और उसे दबानेवाला बन्दा है न कि ख़ुदा। रही वह हदीस जो इब्ने-अबी-हातिम ने ‘अन जुवैबिर-बिन-सईद अन ज़ह्हाक अन इब्ने-अब्बास’ की सनद से नक़्ल की है कि ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस आयत का मतलब यह बयान किया है कि ‘अफ़्ल-हत नफ़्सुन ज़क्काहल्लाहु अज़-ज़ व जल-ल’ (कामयाब हो गया वह नफ़्स जिसको अल्लाह तआला ने पाक कर दिया), तो यह बात हक़ीक़त में नबी (सल्ल०) से साबित नहीं है, क्योंकि इसकी सनद में जुवैबिर से हदीस नहीं ली जाती है और इब्ने-अब्बास से ज़ह्हाक की मुलाक़ात नहीं हुई है। अलबत्ता वह हदीस सही है जो इमाम अहमद, मुस्लिम, नसई और इब्ने-अबी-शैबा ने हज़रत ज़ैद-बिन-अरक़म से रिवायत की है कि नबी (सल्ल०) यह दुआ माँगा करते थे कि अल्लाहुम-म आति नफ़्सी तक़्वाहा व ज़क्किहा अन-त ख़ैरुम-मन ज़क्काहा अन-त वलिय्युहा व मौलाहा’ यानी “ऐ अल्लाह! मेरे नफ़्स को उसका तक़वा दे और उसको पाकीज़ा कर, तू ही वह बेहतर हस्ती है जो इसको पाकीज़ा करे, तू ही उसका सरपरस्त और मौला है।” इसी से मिलते-जुलते अलफ़ाज़ में नबी (सल्ल०) की यह दुआ हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से तबरानी, इब्ने-मरदुवैह और इब्नुल-मुंज़िर ने और हज़रत आइशा (रजि०) से इमाम अहमद ने नक़्ल की है। इसका मतलब हक़ीक़त में यह है कि बन्दा तो सिर्फ़ तक़्वा और तज़किया की ख़ाहिश और तलब ही कर सकता है, रहा उसका नसीब हो जाना, तो बहरहाल अल्लाह ही की देन पर उसका दारोमदार है। और यही हाल तद्सिया का भी है कि अल्लाह ज़बरदस्ती किसी के नफ़्स को नहीं दबाता, मगर जब बन्दा उसपर तुल जाए तो अल्लाह तआला उसे तक़्वा और तज़किए की ख़ुशनसीबी से महरूम कर देता है और उसे छोड़ देता है कि अपने नफ़्स को जिस गन्दगी के ढेर में दबाना चाहे दबा दे।
كَذَّبَتۡ ثَمُودُ بِطَغۡوَىٰهَآ ۝ 10
(11) समूद7 ने अपनी सरकशी के सबब झुठलाया।8
7. ऊपर की आयतों में जिन बातों को उसूली तौर पर बयान किया गया है अब उन्हीं को एक ऐतिहासिक मिसाल के तौर पर बयान किया जा रहा है। यह किस बात की मिसाल है और ऊपर के बयान से उसका क्या ताल्लुक़ है, इसको समझने के लिए क़ुरआन मजीद के दूसरे बयानों की रौशनी में उन दो बुनियादी हक़ीक़तों पर अच्छी तरह ग़ौर करना चाहिए जो आयत-7 से 10 में बयान की गई हैं। सबसे पहले उनमें कहा गया है कि इनसानी नफ़्स (मन) को एक सही और सीधी फ़ितरत पर पैदा करके अल्लाह तआला ने उसका फ़ुजूर (गुनाह) और उसका तक़वा (भलाई) उसपर इलहाम कर दिया यानी उसके दिल में डाल दिया। क़ुरआन इस हक़ीक़त को बयान करने के साथ यह भी बताता है कि फ़ुजूर और तक़वा का दिल में डाला जानेवाला यह इल्म इस बात के लिए काफ़ी नहीं है कि हर आदमी ख़ुद ही उससे तफ़सीली हिदायत हासिल कर ले, बल्कि इस ग़रज़ के लिए अल्लाह तआला ने वह्य के ज़रिए से नबियों (अलैहि०) को तफ़सीली हिदायत दी जिसमें वाज़ेह तौर पर यह बता दिया गया कि फ़ुजूर (बुराई) के तहत कौन-कौन-सी चीज़ें आती हैं, जिनसे बचना चाहिए और तक़वा (भलाई) किस चीज़ का नाम है और वह कैसे हासिल होता है। अगर इनसान वह्य के ज़रिए से आनेवाली इस साफ़ हिदायत को क़ुबूल न करे तो वह न फ़ुजूर (गुनाह) से बच सकता है और न तक़वा (परहेज़गारी) का रास्ता पा सकता है। दूसरे इन आयतों में कहा गया है कि इनाम और सज़ा वे लाज़िमी नतीजे हैं जो ‘फ़ुजूर’ (बुराई) और ‘तक़वा’ (भलाई) में से किसी एक के अपनाने पर सामने आते हैं। नफ़्स को बुराई से पाक करने और तक़्वा से तरक़्की देने का नतीजा कामयाबी है, और उसके अच्छे रुझानों को दबाकर बुराई में डुबो देने का नतीजा नाकामी, हलाकत और बरबादी है। इसी बात को समझाने के लिए एक ऐतिहासिक मिसाल पेश की जा रही है और इसके लिए समूद की क़ौम को नमूने के तौर पर लिया गया है, क्योंकि पिछली तबाह हो चुकी क़ौमों में से जिस क़ौम का इलाक़ा मक्कावालों से सबसे ज़्यादा क़रीब था वह यही थी। उत्तरी हिजाज़ में उसकी ऐतिहासिक निशानियाँ मौजूद थीं, जिनसे मक्कावाले शाम (सीरिया) की तरफ़ अपने कारोबारी सफ़रों में हमेशा गुज़रते रहते थे, और जाहिलियत के अशआर (काव्य) में जिस तरह इस क़ौम का ज़िक्र बहुत ज़्यादा आया है उससे मालूम होता है कि अरब के लोगों में इसकी तबाही की चर्चा आम थी।
8. यानी हज़रत सॉलेह (अलैहि०) को ख़दुा का पैग़म्बर मानने से इनकार कर दिया जो उनकी हिदायत के लिए भेजे गए थे, और इस झुठलाने की वजह उनकी यह सरकशी थी कि वे उस ‘बुराई’ को छोड़ने के लिए तैयार न थे जिसमें वे पड़ चुके थे और उस ‘भलाई’ को क़ुबूल करना उन्हें गवारा न था जिसकी तरफ़ हज़रत सॉलेह (अलैहि०) उन्हें बुला रहे थे। इसकी तफ़सील के लिए देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—73 से 76, सूरा-11 हूद, आयतें—61, 62; सूरा-26 शुअरा, आयतें—141 से 153; सूरा-27 नम्ल, आयतें—45 से 49; सूरा-54 क़मर, आयतें—23 से 25।
إِذِ ٱنۢبَعَثَ أَشۡقَىٰهَا ۝ 11
(12) जब उस क़ौम का सबसे बड़ा बदक़िस्मत आदमी बिफरकर उठा
فَقَالَ لَهُمۡ رَسُولُ ٱللَّهِ نَاقَةَ ٱللَّهِ وَسُقۡيَٰهَا ۝ 12
(13) तो अल्लाह के रसूल ने उन लोगों से कहा कि ख़बरदार! अल्लाह की ऊँटनी को (हाथ न लगाना), और उसके पानी पीने (में रुकावट न बनना)।9
9. क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर इसकी तफ़सील यह बताई गई है कि समूद के लोगों ने हज़रत सॉलेह (अलैहि०) को चैलेंज दिया था कि अगर तुम सच्चे हो तो कोई निशानी (मोजिज़ा या चमत्कार) पेश करो। इसपर हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने एक ऊँटनी को मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर उनके सामने हाज़िर कर दिया और उनसे कहा कि यह अल्लाह की ऊँटनी है, यह ज़मीन में जहाँ चाहेगी चरती फिरेगी, एक दिन सारा पानी उसके लिए ख़ास होगा और दूसरा दिन तुम सबके लिए और तुम्हारे जानवरों के लिए रहेगा, अगर तुमने इसको हाथ लगाया तो याद रखो कि तुमपर सख़्त अज़ाब आ जाएगा। इसपर वे कुछ मुद्दत तक डरते रहे। फिर उन्होंने अपने उस सबसे ज़्यादा शरारती और सरकश सरदार को पुकारा कि इस इस ऊँटनी का क़िस्सा तमाम कर दे और वह इस काम का ज़िम्मा लेकर उठ खड़ा हुआ (सूरा-7 आराफ़, आयत-73; सूरा-26 शुअरा, आयतें—154 से 156; सूरा-54 क़मर, आयत-29)।
فَكَذَّبُوهُ فَعَقَرُوهَا فَدَمۡدَمَ عَلَيۡهِمۡ رَبُّهُم بِذَنۢبِهِمۡ فَسَوَّىٰهَا ۝ 13
(14) मगर उन्होंने उसकी बात को झूठा ठहरा दिया और ऊँटनी को मार डाला।10 आख़िरकार उनके गुनाह के बदले में उनके रब ने उनपर ऐसी आफ़त तोड़ी कि एक साथ सबको मिट्टी में मिला दिया,
10. सूरा-7 आराफ़, आयत-77 में है कि ऊँटनी को मारने के बाद समूद के लोगों ने हज़रत सॉलेह (अलैहि०) से कहा कि अब ले आओ वह अज़ाब जिससे तुम हमें डराते थे। और सूरा-11 हूद, आयत-65 में है कि हज़रत सॉलेह (अलैहि०) से उनसे कहा कि तीन दिन अपने घरों में और मज़े कर लो, इसके बाद अज़ाब आ जाएगा और यह ऐसी तंबीह (चेतावनी) है जो झूठी साबित न होगी।
وَلَا يَخَافُ عُقۡبَٰهَا ۝ 14
(15) और उसे (अपने इस काम के) किसी बुरे नतीजे का कोई डर नहीं है।11
11. यानी अल्लाह दुनिया के बादशाहों और यहाँ की हुकूमतों के बादशाहों की तरह नहीं है कि वे किसी क़ौम के ख़िलाफ़ कोई क़दम उठाने के वक़्त यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि इस क़दम उठाने के नतीजे क्या होंगे। उसका इक़तिदार (सत्ता) सबसे ऊपर है। उसे इस बात का कोई अन्देशा नहीं था कि समूद की हिमायती कोई ऐसी ताक़त है जो उससे बदला लेने के लिए आएगी।