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خَافِضَةٞ رَّافِعَةٌ

56. अल-वाक़िआ

(मक्का में उतरी, आयतें 96)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-वाक़िआ' (वह होनेवाली घटना) को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने सूरतों के उतरने का जो क्रम बयान किया है, उसमें वे कहते हैं कि पहले सूरा-20 ता-हा उतरी, फिर अल-वाक़िआ और उसके बाद सूरा-26 शुअरा [अल-इतक़ान लिस-सुयूती] । यही क्रम इक्रिमा ने भी बयान किया है, (बैहक़ी, दलाइलुन्नुबुव्वत)। इसकी पुष्टि उस क़िस्से से भी होती है जो हज़रत उमर (रज़ि०) के ईमान लाने के बारे में इब्‍ने-हिशाम ने इब्‍ने-इस्हाक़ से उद्धृत किया है। उसमें यह उल्लेख हुआ है कि जब हज़रत उमर (रज़ि०) अपनी बहन के घर में दाख़िल हुए तो सूरा-20 ता-हा पढ़ी जा रही थी और जब उन्होंने कहा था कि अच्छा, मुझे वह सहीफ़ा (लिखित पृष्ठ) दिखाओ जिसे तुमने छिपा लिया है तो बहन ने कहा, "आप अपने शिर्क के कारण नापाक हैं और इस सहीफ़े को सिर्फ़ पाक व्यक्ति ही हाथ लगा सकता है।" अतएव हज़रत उमर (रज़ि०) ने उठकर स्‍नान किया और फिर उस सहीफ़े को लेकर पढ़ा। इससे मालूम हुआ कि उस समय सूरा-56 अल-वाक़िआ उतर चुकी थी, क्योंकि इसी में आयत "इसे पवित्रों के सिवा कोई छू नहीं सकता" (आयत-79) आई है। और यह ऐतिहासिक तौर पर सिद्ध है कि हज़रत उमर (रज़ि०) हबशा की हिजरत के बाद सन् 05 नबवी में ईमान लाए हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय आख़िरत (परलोक), तौहीद (एकेश्वरवाद) और क़ुरआन के सम्बन्ध में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों का खंडन है। सबसे अधिक जिस चीज़ को वे अविश्वसनीय ठहराते थे, वह [क़ियामत और आख़िरत थी। उनका कहना] यह था कि ये सब काल्पनिक बातें हैं जिनका वास्तविक लोक में घटित होना असम्भव है। इसके जवाब में कहा गया कि जब वह घटना घटित होगी तो उस समय कोई यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह घटित नहीं हुई है, न किसी में यह शक्ति होगी कि उसे आते-आते रोक दे या घटना को असत्य कर दिखाए। उस समय निश्चित रूप से तमाम इंसान तीन वर्गों में बँट जाएँगे। एक आगेवाले, दूसरे आम नेक लोग, तीसरे वे लोग जो आख़िरत के इंकारी रहे और मरते दम तक कुफ़्र (इंकार), शिर्क और बड़े-बड़े गुनाहों पर जमे रहे। इन तीनों वर्गों के लोगों के साथ जो व्यवहार होगा उसे आयत 7 से 56 तक में सविस्तार बयान किया गया है। इसके बाद आयत 57 से 74 तक इस्लाम के उन दोनों बुनियादी अक़ीदों (आधारभूत अवधारणाओं) की सत्यता पर निरन्तर प्रमाण दिए गए हैं, जिनको मानने से विरोधी इंकार कर रहे थे अर्थात् तौहीद और आख़िरत। फिर आयत 75 से 82 तक क़ुरआन के सम्बन्ध में उनके सन्देहों का खंडन किया गया है और क़ुरआन की सत्यता पर दो संक्षिप्त वाक्यों में यह अतुल्य प्रमाण प्रस्तुत किया गया है कि इसपर कोई विचार करे तो इसमें ठीक वैसी ही सुदृढ़ व्यवस्था पाएगा, जैसी जगत् के तारों और नक्षत्रों की व्यवस्था सुदृढ़ है और यही इस बात का प्रमाण है कि इसका रचयिता वही है जिसने सृष्टि की यह व्यवस्था बनाई है। फिर इस्लाम-विरोधियों से कहा गया है कि यह किताब उस नियति-पत्र में अंकित है जो मख़लूक (सृष्ट प्राणियों) की पहुँच से परे है। तुम समझते हो कि इसे मुहम्मद (सल्ल०) के पास शैतान लाते हैं, हालाँकि 'लौहे-महफूज़' (सुरक्षित पट्टिका) से मुहम्मद (सल्ल०) तक जिस माध्यम से यह पहुँचती है, उसमें पवित्र आत्मा फ़रिश्तों के सिवा किसी को तनिक भी हस्तक्षेप करने की सामर्थ्य प्राप्त नहीं है। अंत में इंसान को बताया गया है कि तू अपनी स्वच्छन्दता के घमंड में कितना ही आधारभूत तथ्यों की ओर से अंधा हो जाए, मगर मौत का समय तेरी आँखें खोल देने के लिए पर्याप्त है। [तेरे रिश्ते-नातेदार] तेरी आँखों के सामने मरते हैं और तू देखता रह जाता है। अगर कोई सर्वोच्च सत्ता तेरे ऊपर शासन नहीं कर रही है और तेरा यह दंभ उचित है कि संसार में बस तू ही तू है, कोई ख़ुदा नहीं है, तो किसी मरनेवाले की निकलती हुई जान को पलटा क्यों नहीं लाता? जिस तरह तू इस मामले में बेबस है, उसी तरह ख़ुदा की पूछ-गच्छ और उसके इनाम और सज़ा को भी रोक देना तेरे बस में नहीं है। तू चाहे माने या न माने, मौत के बाद हर मरनेवाला अपना अंजाम देखकर रहेगा।

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خَافِضَةٞ رَّافِعَةٌ ۝ 1
(3) वह तलपट (उलट-पलट) कर देनेवाली आफ़त होगी।2
2. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं— 'ख़ाफ़ि-ज़तुर-राफ़िअह' यानी 'गिरानेवाली और उठानेवाली'। इसका एक मतलब यह हो सकता है कि वह सब कुछ उलट-पलटकर रख देगी। नीचे की चीज़े ऊपर और ऊपर की चीज़े नीचे हो जाएँगी। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि वह गिरे हुए लोगों को उठानेवाली और उठे हुए लोगों को गिरानेवाली होगी, यानी उसके आने पर इनसानों के बीच इज़्ज़त और रुसवाई का फ़ैसला एक दूसरी ही बुनियाद पर होगा। जो दुनिया में इज़्ज़तवाले बने फिरते थे वे बेइज़्ज़त हो जाएँगे और जो बेइज़्ज़त समझे जाते थे वे इज्ज़त पाएँगे।
إِذَا رُجَّتِ ٱلۡأَرۡضُ رَجّٗا ۝ 2
(4) ज़मीन उस वक़्त एकाएक हिला डाली जाएगी3
3. यानी वह कोई मक़ामी ज़लज़ला न होगा जो किसी महदूद इलाक़े में आए, बल्कि पूरी-की-पूरी ज़मीन एक वक़्त में हिला मारी जाएगी। उसको एक़दम एक ज़बरदस्त झटका लगेगा, जिससे वह लरज़कर रह जाएगी।
وَبُسَّتِ ٱلۡجِبَالُ بَسّٗا ۝ 3
(5) और पहाड़ इस तरह चूर-चूर कर दिए जाएँगे
فَكَانَتۡ هَبَآءٗ مُّنۢبَثّٗا ۝ 4
(6) कि बिखरी हुई धूल बनकर रह जाएँगे।
وَكُنتُمۡ أَزۡوَٰجٗا ثَلَٰثَةٗ ۝ 5
(7) तुम लोग उस वक़्त तीन गरोहों में बँट जाओगे4:
4. बात अगरचे ज़ाहिर में उन लोगों से कही जा रही है जिन्हें यह कलाम सुनाया जा रहा था, या जो अब इसे पढ़ें या सुनें, लेकिन अस्ल में यह पूरी इनसानियत के लिए है। तमाम इनसान जो पैदाइश की इबतिदा से क़ियामत तक पैदा हुए हैं वे सब आख़िरकार तीन गरोहों में बँट जाएँगे।
فَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَيۡمَنَةِ ۝ 6
(8) दाएँ बाज़ूवाले,5 तो दाएँ बाज़ूवालों (की ख़ुशनसीबी) का क्या कहना!
5. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘असहाबुल-मै-मनह्' इस्तेमाल हुआ है। 'मै-मनह्' अरबी क़ायदे के मुताबिक़ 'यमीन' से भी हो सकता है जिसका मतलब ‘सीधा हाथ' है, और 'युम्न' से भी हो सकता है, जिसका मतलब है नेक फ़ाल (शुभ संकेत)। अगर इसको यमीन से लिया हुआ माना जाए तो ‘असहाबुल-मै-मनह' का मतलब होगा ‘सीधे हाथवाले'। लेकिन इससे लफ़्ज़ी मतलब मुराद नहीं है, बल्कि इसका मतलब है आला दरजे के लोग। अरब के लोग सीधे हाथ को क़ुव्वत और बुलन्दी और इज़्जत का निशान समझते थे। जिसका एहतिराम करना मक़सद होता था उसे मजलिस में सीधे हाथ पर बिठाते थे। किसी के बारे में यह कहना होता कि मेरे दिल में इसकी बड़ी इज़्ज़त है तो कहते, 'फ़ुलानुम-मिन्नी बिल-यमीन' यानी 'वह तो मेरे सीधे हाथ की तरफ़ है'। उर्दू (और हिन्दी) में भी किसी शख़्स को किसी बड़ी हस्ती का दाहिना हाथ इस मानी में कहा जाता है कि वह उसका ख़ास आदमी है। और अगर इसको 'युम्न' से लिया हुआ माना जाए तो 'असहाबुल-मै-मनह' का मतलब होगा ख़ुशनसीब और ख़ुशक़िस्मत लोग।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡمَشۡـَٔمَةِ ۝ 7
(9) और बाएँ बाज़ूवाले,6 तो बाएँ बाज़ूवालों (की बदनसीबी) का क्या ठिकाना!
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'असहाबुल-मश्अमह' इस्तेमाल हुआ है। 'मश्अमह', 'शुअम' से है जिसका मतलब बदनसीबी, नुहूसत (अशुभ) और बदफ़ाली (अपशकुन) है। और अरबी ज़बान में बाएँ हाथ को भी 'शुअमा' कहा जाता है। उर्दू में 'शूमिए-क़िस्मत' (बदनसीबी) इसी लफ़्ज़ से बना है। अरबवाले 'शिमाल' (बाएँ हाथ) और 'शुअम' (अपशकुन) का एक ही मतलब लेते थे। उनके यहाँ बायाँ हाथ कमज़ोरी और रुसवाई का निशान था। सफ़र को जाते हुए अगर परिन्दा उड़कर बाएँ हाथ की तरफ़ जाता तो वे उसको बुरा शगुन समझते थे। किसी को अपने बाएँ हाथ बिठाते तो उसका मतलब यह था कि वे उसे कमतर दरजे का आदमी समझते हैं। किसी के बारे में यह कहना हो कि मेरे यहाँ उसकी कोई इज़्ज़त नहीं तो कहा जाता कि “वह मेरे बाएँ हाथ की तरफ़ है।” उर्दू (हिन्दी) में भी किसी काम को बहुत हल्का और आसान क़रार देना हो तो कहा जाता है कि यह मेरे बाएँ हाथ का खेल है। सो 'असहाबुल-मश्अमह्' (बाएँ हाथवालों) से मुराद है बदक़िस्मत लोग, या वे लोग जो अल्लाह तआला के यहाँ रुसवाई से दोचार होंगे और अल्लाह के दरबार में बाएँ तरफ़ खड़े किए जाएँगे।
سُورَةُ الوَاقِعَةِ
56. अल-वाक़िआ
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِذَا وَقَعَتِ ٱلۡوَاقِعَةُ
(1) जब वह होनेवाला वाक़िआ पेश आ जाएगा,
لَيۡسَ لِوَقۡعَتِهَا كَاذِبَةٌ ۝ 8
(2) तो कोई उसके पेश आने को झुठलानेवाला न होगा।1
1. इस जुमले से बात की शुरुआत करना ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर कर रहा है कि यह उन बातों का जवाब है जो उस वक़्त हक़ का इनकार करनेवालों की मजलिसों में क़ियामत के ख़िलाफ़ बनाई जा रही थीं। ज़माना वह था जब मक्का के लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मुबारक ज़बान से नई-नई इस्लाम की दावत सुन रहे थे। उसमें जो चीज़ उन्हें सबसे ज़्यादा अजीब और अक़्ल और इमकान से परे नज़र आती थी वह यह थी कि एक दिन ज़मीन और आसमान का यह सारा निज़ाम दरहम-बरहम (अस्त-व्यस्त) हो जाएगा और फिर एक दूसरी दुनिया क़ायम होगी जिसमें सब अगले-पिछले मरे हुए लोग दोबारा ज़िन्दा किए जाएँगे। यह बात सुनकर हैरत से उनके दीदे फटे-के-फटे रह जाते थे। वे कहते थे कि ऐसा होना बिलकुल नामुमकिन है। आख़िर यह ज़मीन, ये पहाड़, ये समुद्र, यह चाँद, यह सूरज कहाँ चले जाएँगे? सदियों के गड़े मुर्दे कैसे जी उठेंगे? मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी, और फिर उसमें जन्नत के बाग़ और जहन्नम की आग, आख़िर यह ख़ाब और ख़याल की बातें अक़्ल और होश रखते हुए हम कैसे मान लें? यही चर्चाएँ उस वक़्त मक्का में हर जगह हो रही थीं। इस पसमंज़र (पृष्ठभूमि) में कहा गया है कि जब वह होनेवाला वाक़िआ पेश आ जाएगा उस वक़्त कोई उसे झुठलानेवाला न होगा। इस आयत में क़ियामत के लिए 'वाक़िआ' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब लगभग वही है जिसके लिए उर्दू (और हिन्दी) में 'क़िस्मत का लिखा' के अलफ़ाज़ बोले जाते हैं, यानी वह ऐसी चीज़ है जिसे ज़रूर होकर ही रहना है। फिर इसके पेश आने को 'वक़अह’ कहा गया है जो अरबी ज़बान में किसी बड़े हादिसे के अचानक बरपा हो जाने के लिए इस्तेमाल होता है। अस्ल अरबी अलफ़ाज़ 'लै-स लिवक़-अतिहा काज़िबह्' के दो मतलब हो सकते हैं— एक यह कि इसके पेश आने का टल जाना और इसका आते-आते रुक जाना और उसके आने को फेर दिया जाना मुमकिन न होगा, या दूसरे अलफ़ाज़ में कोई ताक़त फिर उसको वाक़िआ (घट जानेवाली घटना) से ग़ैर-वाकिआ (अघटित घटना) बना देनेवाली न होगी। दूसरा यह कि कोई शख़्स उस वक़्त यह झूठ बोलनेवाला न होगा कि वह वाक़िआ पेश नहीं आया है।
وَقَلِيلٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 9
(14) और पिछलों में से कम।8
8. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के दरमियान इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि 'अव्वलीन' और 'आख़िरीन' यानी अगलों और पिछलों से मुराद कौन हैं। एक गरोह का ख़याल है कि आदम (अलैहि०) के वक़्त से नबी (सल्ल०) के आने तक जितनी उम्मतें गुज़री हैं। वे 'अव्वलीन' हैं, और मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने के बाद क़ियामत तक के लोग ‘आख़िरीन' हैं। इस लिहाज़ से आयत का मतलब यह होगा कि मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने से पहले हज़ारों साल के दौरान में जितने इनसान गुज़रे हैं उनके 'साबिक़ीन' (आगेवालों) की तादाद ज़्यादा होगी, और नबी (सल्ल०) के आने के बाद से क़ियामत तक आनेवाले इनसानों में से जो लोग 'साबिक़ीन' का मर्तबा पाएँगे उनकी तादाद कम होगी। दूसरा गरोह कहता है कि यहाँ 'अव्वलीन' और 'आख़िरीन' से मुराद नबी (सल्ल०) की उम्मत के 'अव्वलीन' और 'आख़िरीन' हैं। यानी आप (सल्ल०) की उम्मत में इबतिदाई दौर के लोग अव्वलीन हैं, जिनमें साबिक़ीन की तादाद ज़्यादा होगी, और बाद के लोग आख़िरीन हैं, जिनमें साबिक़ीन की तादाद कम होगी। तीसरा गरोह कहता है कि इससे मुराद हर नबी की उम्मत के अव्वलीन और आख़िरीन हैं, यानी हर नबी के इबतिदाई पैरोकारों में साबिक़ीन बहुत होंगे और बाद के आनेवालों में वे कम पाए जाएँगे। आयत के अलफ़ाज़ में ये तीनों मतलब शामिल हैं और मुमकिन है कि ये तीनों ही सही हों, क्योंकि हक़ीक़त में इनमें कोई टकराव नहीं है। इनके अलावा एक और मतलब भी इन अलफ़ाज़ से निकलता है और वह भी सही है कि हर पहले दौर में इनसानी आबादी के अन्दर साबिक़ीन का तनासुब (अनुपात) ज़्यादा होगा। और बाद के दौर में उनका तनासुब कम निकलेगा। इसलिए कि इनसानी आबादी जिस रफ़्तार से बढ़ती है, भलाइयों में आगे बढ़नेवालों की तादाद उसी रफ़्तार से नहीं बढ़ती। गिनती के एतिबार से ये लोग चाहे पहले दौर के साबिक़ीन से तादाद में ज़्यादा हों, लेकिन कुल मिलाकर दुनिया की आबादी के मुक़ाबले में इनका तनासुब घटता ही चला जाता है।
عَلَىٰ سُرُرٖ مَّوۡضُونَةٖ ۝ 10
(15) जड़ाऊ तख़्तों पर
مُّتَّكِـِٔينَ عَلَيۡهَا مُتَقَٰبِلِينَ ۝ 11
(16) तकिए लगाए आमने-सामने बैठेंगे।
يَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ وِلۡدَٰنٞ مُّخَلَّدُونَ ۝ 12
(17) उनकी मजलिसों में हमेशा रहनेवाले लड़के,9
9. इससे मुराद हैं ऐसे लड़के जो हमेशा लड़के ही रहेंगे, उनकी उम्र हमेशा एक ही हालत पर ठहरी रहेगी। हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत हसन बसरी (रह०) फ़रमाते हैं कि ये दुनियावालों के वे बच्चे हैं जो बालिग़ होने से पहले मर गए, इसलिए न उनकी कुछ नेकियाँ होंगी कि उनका इनाम पाएँ और न बुराइयाँ होंगी कि उनकी सज़ा पाएँ। लेकिन ज़ाहिर बात है कि इससे मुराद सिर्फ़ वही दुनियावाले हो सकते हैं जिनको जन्नत न मिली हो। रहे नेक ईमानवाले, तो उनके बारे में अल्लाह तआला ने ख़ुद क़ुरआन में यह ज़मानत दी है कि उनकी औलाद उनके साथ जन्नत में ला मिलाई जाएगी, (सूरा-52 तूर, आयत-21)। इसी की ताईद उस हदीस से होती है जो अबू-दाऊद तयालिसी, तबरानी और बज़्ज़ार ने हज़रत अनस (रज़ि०) और हज़रत समुरा-बिन-जुन्दुब (रज़ि०) से नक़्ल की है। इसमें नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं कि मुशरिकों के बच्चे जन्नतवालों के ख़ादिम (सेवक) होंगे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-26; सूरा-52 तूर, हाशिया-19)
بِأَكۡوَابٖ وَأَبَارِيقَ وَكَأۡسٖ مِّن مَّعِينٖ ۝ 13
(18) जारी रहनेवाले चश्मे (स्रोत) की शराब से भरे प्याले और कंटर और साग़र लिए दौड़ते-फिरते होंगे,
لَّا يُصَدَّعُونَ عَنۡهَا وَلَا يُنزِفُونَ ۝ 14
(19) जिसे पीकर न उनका सर चकराएगा न उनकी अक़्ल में ख़राबी आएगी।10
10. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-27; सूरा-47 मुहम्मद, हाशिया-22; सूरा-52 तूर, हाशिया-18।
وَفَٰكِهَةٖ مِّمَّا يَتَخَيَّرُونَ ۝ 15
(20) और वे उनके सामने तरह-तरह के मज़ेदार फल पेश करेंगे कि जिसे चाहें चुन लें,
وَلَحۡمِ طَيۡرٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 16
(21) और परिन्दों के गोश्त पेश करेंगे कि जिस परिन्दे का चाहें इस्तेमाल करें।11
11. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-52 तूर, हाशिया-17।
وَحُورٌ عِينٞ ۝ 17
(22) और उनके लिए ख़ूबसूरत आँखोंवाली हूरें होंगी,
كَأَمۡثَٰلِ ٱللُّؤۡلُوِٕ ٱلۡمَكۡنُونِ ۝ 18
(23) ऐसी ख़ूबसूरत जैसे छिपाकर रखे हुए मोती।12
12. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—28, 29; सूरा-44 दुख़ान, हाशिया-42; सूरा-55 रहमान, हाशिया-51।
جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 19
(24) यह सब कुछ उन कामों के बदले के तौर पर उन्हें मिलेगा जो वे दुनिया में करते रहे थे।
لَا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا تَأۡثِيمًا ۝ 20
(25) वहाँ वे कोई बेहूदा बात या गुनाह की बात न सुनेंगे।13
13. यह जन्नत की बड़ी नेमतों में से एक है, जिसे क़ुरआन मजीद में अलग-अलग जगहों पर बयान किया गया है कि इनसान के कान वहाँ बेहूदगी, बकवास, झूठ, ग़ीबत (पीठ-पीछे बुराई), चुग़ली, बुहतान (झूठा लाँछन), गाली, डींगें मारने, तंज़ और मज़ाक़ उड़ाने और ताने देने की बातें सुनने से बचे होंगे। वह बद-ज़बान और बदतमीज़ लोगों की सोसाइटी न होगी जिसमें लोग एक-दूसरे पर कीचड़ उछालें। वह शरीफ़ और तहज़ीबदार लोगों का समाज होगा, जिसके अन्दर ये बेहूदा बातें न होंगी। अगर किसी शख़्स को अल्लाह ने कुछ भी तहज़ीब और शाइस्तगी और अच्छे ज़ौक़ (रुचि) से नवाज़ा हो तो वह अच्छी तरह महसूस कर सकता है कि दुनियावी ज़िन्दगी का यह कितना बड़ा अज़ाब है जिससे इनसान को जन्नत में नजात पाने की उम्मीद दिलाई गई है।
إِلَّا قِيلٗا سَلَٰمٗا سَلَٰمٗا ۝ 21
(26) जो बात भी होगी ठीक-ठीक होगी।14
14. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं— 'इल्ला क़ीलन सलामन सलामा'। क़ुरआन का तर्जमा और तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इसका मतलब यह लिया है कि वहाँ हर तरफ़ 'सलाम-सलाम' ही की आवाजें सुनने में आएँगी। लेकिन सही बात यह है कि इससे मुराद है 'ठीक-ठीक बात', यानी ऐसी बात जो बोलने की ख़राबियों से पाक हो, जिसमें वे ख़राबियाँ न हों जो पिछले जुमले में बयान की गई हैं। यहाँ 'सलाम' का लफ़्ज़ क़रीब-क़रीब उसी मतलब में इस्तेमाल किया गया है जिसके लिए अंग्रेज़ी में लफ़ज्र Sane इस्तेमाल होता है।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلۡيَمِينِ ۝ 22
(27) और दाएँ बाजूवाले, दाएँ बाजू़वालों की ख़ुशनसीबी का क्या कहना!
فِي سِدۡرٖ مَّخۡضُودٖ ۝ 23
(28) वे बिना काँटे की बेरियों,15
15. यानी ऐसी बेरियाँ जिनके पेड़ों में काँटे न होंगे। एक शख़्स ताज्जुब का इज़हार कर सकता है कि बेर ऐसा कौन-सा बेहतरीन फल है जिसके जन्नत में होने की ख़ुशख़बरी सुनाई जाए। लेकिन सच्चाई यह है कि जन्नत के बेरों का तो क्या ज़िक्र, ख़ुद इस दुनिया में भी कुछ इलाक़ों में यह फल इतना मज़ेदार, ख़ुशबूदार और मीठा होता है कि एक बार मुँह को लगने के बाद इसे छोड़ना मुश्किल हो जाता है। और बेर जितने आला दरजे (उच्च कोटि) के होते हैं, उनके पेड़ों में काँटे उतने ही कम होते हैं। इसी लिए जन्नत के बेरों की यह तारीफ़ बयान की गई है कि उनके पेड़ बिलकुल ही काँटों से ख़ाली होंगे, यानी ऐसी बेहतरीन क़िस्म के होंगे जो दुनिया में नहीं पाई जाती।
وَطَلۡحٖ مَّنضُودٖ ۝ 24
(29) और ऊपर-तले चढ़े हुए केलों,
وَظِلّٖ مَّمۡدُودٖ ۝ 25
(30) और दूर तक फैली हुई छाँव,
وَمَآءٖ مَّسۡكُوبٖ ۝ 26
(31) और हर दम बहता पानी,
وَفَٰكِهَةٖ كَثِيرَةٖ ۝ 27
(32) और कभी ख़त्म न होनेवाले
لَّا مَقۡطُوعَةٖ وَلَا مَمۡنُوعَةٖ ۝ 28
(33) और बे- रोक-टोक मिलनेवाले बहुत-से फलों,16
16. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ है— 'ला मक़्तूअतिंव-वला ममनूअह'। 'ला मक़्तूअतिन' से मुराद यह है कि ये फल न मौसमी होंगे कि मौसम गुज़र जाने के बाद न मिल सकें, न उनकी पैदावार का सिलसिला कभी टूटेगा कि किसी बाग़ के सारे फल अगर तोड़ लिए जाएँ तो एक मुद्दत तक वे बेफल के रह जाए, बल्कि हर फल वहाँ हर मौसम में मिलेगा और चाहे कितना ही खाया जाए, लगातार पैदा होता चला जाएगा। और 'ला ममनूअह' का मतलब यह है कि दुनिया के बाग़ों की तरह वहाँ कोई रोक-टोक न होगी, न फलों के तोड़ने और खाने में कोई बात रुकावट होगी कि पेड़ों पर काँटे होने या ज़्यादा ऊँचाई पर होने की वजह से तोड़ने में कोई परेशानी हो।
وَفُرُشٖ مَّرۡفُوعَةٍ ۝ 29
(34) और ऊँची बैठकों में होंगे।
إِنَّآ أَنشَأۡنَٰهُنَّ إِنشَآءٗ ۝ 30
(35) उनकी बीवियों को हम ख़ास तौर पर नए सिरे से पैदा करेंगे
فَجَعَلۡنَٰهُنَّ أَبۡكَارًا ۝ 31
(36) और उन्हें कुँआरियाँ बना देंगे,17
17. इससे मुराद दुनिया की वे नेक औरतें हैं जो अपने ईमान और नेक अमल की वजह से जन्नत में जाएँगी। अल्लाह तआला उन सबको वहाँ जवान बना देगा, चाहे वे कितनी ही बूढ़ी होकर मरी हों। बहुत ख़ूबसूरत बना देगा चाहे दुनिया में वे ख़ूबसूरत रही हों या न रही हों। कुँआरियाँ बना देगा, चाहे दुनिया में वे कुँआरी मरी हों या बाल-बच्चोंवाली होकर। उनके शौहर अगर उनके साथ जन्नत में पहुँचेंगे तो वे उनसे मिला दी जाएँगी, वरना अल्लाह तआला किसी और जन्नती से उनको ब्याह देगा। इस आयत का यही मतलब कई हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से नक़्ल हुआ है। शमाइले-तिरमिज़ी में रिवायत है कि एक बुढ़िया ने नबी (सल्ल०) से कहा, “मेरे लिए जन्नत की दुआ फ़रमाएँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जन्नत में कोई बुढ़िया दाख़िल न होगी।” वे रोती हुई वापस चली गईं तो आप (सल्ल०) ने लोगों से फ़रमाया कि “उन्हें बताओ, वे बुढ़ापे की हालत में जन्नत में दाख़िल नहीं होंगी, अल्लाह तआला का फ़रमान है कि हम उन्हें ख़ास तौर पर नए सिरे से पैदा करेंगे और कुँआरियाँ बना देंगे।” इब्ने-अबी-हातिम ने हज़रत सलमा-बिन-यज़ीद की यह रिवायत नक़्ल की है कि मैंने इस आयत की तशरीह में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना, “इससे मुराद दुनिया की औरतें हैं, चाहे वे कुँआरी मरी हों या शादी-शुदा।" तबरानी में हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) की एक लम्बी रिवायत है, जिसमें वे जन्नत की औरतों के बारे में क़ुरआन मजीद के अलग-अलग मक़ामात का मतलब नबी (सल्ल०) से पूछती हैं। इस सिलसिले में नबी (सल्ल०) इस आयत की तशरीह करते हुए फ़रमाते हैं, “ये वे औरतें हैं जो दुनिया की ज़िन्दगी में मरी हैं। बूढ़ी फूँस, आँखों में चीपड़, सर के बाल सफ़ेद। इस बुढ़ापे के बाद अल्लाह तआला उनको फिर से कुँआरी पैदा कर देगा।” हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) पूछती हैं, “अगर किसी औरत के दुनिया में कई शौहर रह चुके हों और वे सब जन्नत में जाएँ तो वह उनमें से किसको मिलेगी?” नबी (सल्ल०) फ़रमाते हैं, “उसको इख़्तियार दिया जाएगा कि वह जिसे चाहे चुन ले, और वह उस शख़्स को चुनेगी जो उनमें सबसे अच्छे अख़लाक़ का था। वह अल्लाह तआला से कहेगी कि ‘ऐ रब! इसका बरताव मेरे साथ सबसे अच्छा था, इसलिए मुझे इसी की बीवी बना दे’। ऐ उम्मे-सलमा! अच्छा अख़लाक़ दुनिया और आख़िरत की सारी भलाई लूट ले गया है।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-55 रहमान, हाशिया-51)
وَٱلسَّٰبِقُونَ ٱلسَّٰبِقُونَ ۝ 32
(10) और आगेवाले तो फिर आगेवाले ही हैं।7
7. ‘साबिक़ीन’ (आगेवालों) से मुराद वे लोग हैं जो नेकी और भलाई के हर काम में सबसे आगे हों, ख़ुदा और रसूल की पुकार पर सबसे पहले आगे आनेवाले हों, जिहाद का मामला हो या अल्लाह की राह में ख़र्च का, या लोगों की ख़िदमत का, या भलाई की दावत और हक़ की तबलीग़ का, ग़रज़ दुनिया में भलाई फैलाने और बुराई मिटाने के लिए ईसार (त्याग) और क़ुरबानी और मेहनत और जान लुटाने का जो मौक़ा भी पेश आए उसमें वही आगे बढ़कर काम करनेवाले हों। इस वजह से आख़िरत में भी सबसे आगे वही रखे जाएँगे। मानो वहाँ अल्लाह तआला के दरबार का नक़्शा यह होगा कि दाएँ बाज़ू में नेक लोग, बाएँ बाज़ू में फ़ासिक़ (अल्लाह के नाफ़रमान), और सबसे आगे अल्लाह के दरबार के क़रीब साबिक़ीन (आगेवाले)। हदीस में हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने लोगों से पूछा, “जानते हो क़ियामत के दिन कौन लोग सबसे पहले पहुँचकर अल्लाह के साए में जगह पाएँगे?” लोगों ने कहा, “अल्लाह और अल्लाह के रसूल ही ज़्यादा जानते हैं।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “वे जिनका हाल यह था कि जब उनके आगे हक़ (सत्य) पेश किया गया तो उन्होंने क़ुबूल कर लिया, जब उनसे हक़ (अधिकार) माँगा गया उन्होंने अदा कर दिया, और दूसरों के मामले में उनका फ़ैसला वही कुछ था जो ख़ुद अपने मामले में था।" (हदीस : मुसनद अहमद)
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلۡمُقَرَّبُونَ ۝ 33
(11) वही तो (अल्लाह के) क़रीबी लोग हैं।
فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 34
(12) नेमत-भरी जन्नतों में रहेंगे।
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 35
(13) अगलों में से बहुत होंगे
وَكَانُواْ يُصِرُّونَ عَلَى ٱلۡحِنثِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 36
(46) और बड़े गुनाह पर अड़ जाते थे।20
20. यानी ख़ुशहाली ने उनपर उलटा असर किया था। अल्लाह तआला के शुक्रगुज़ार होने के बजाय वे उलटे नाशुक्रे हो गए थे। अपने मन की लज़्ज़तों में मग्न होकर ख़ुदा को भूल गए थे और 'बड़े गुनाह' पर डट गए थे। 'बड़े गुनाह' में कई मतलब शामिल हैं। इससे मुराद कुफ़्र, शिर्क और नास्तिकता भी है और अख़लाक़ और आमाल का हर बड़ा गुनाह भी।
وَكَانُواْ يَقُولُونَ أَئِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 37
(47) कहते थे, “क्या जब हम मरकर मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पिंजर रह जाएँगे तो फिर उठा खड़े किए जाएँगे?
أَوَءَابَآؤُنَا ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 38
(48) और क्या हमारे वे बाप-दादा भी उठाए जाएँगे जो पहले गुज़र चुके हैं?”
قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَوَّلِينَ وَٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 39
(49) ऐ नबी! इन लोगों से कहो, यक़ीनन अगले और पिछले,
لَمَجۡمُوعُونَ إِلَىٰ مِيقَٰتِ يَوۡمٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 40
(50) सब एक दिन ज़रूर जमा किए जानेवाले हैं जिसका वक़्त मुक़र्रर किया जा चुका है।
ثُمَّ إِنَّكُمۡ أَيُّهَا ٱلضَّآلُّونَ ٱلۡمُكَذِّبُونَ ۝ 41
(51) फिर ऐ गुमराह लोगो और झुठलानेवालो!
لَأٓكِلُونَ مِن شَجَرٖ مِّن زَقُّومٖ ۝ 42
(52) तुम ज़क्कूम (थूहड़) के पेड़21 का खाना खानेवाले हो।
21. जक़्क़ूम की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-34।
فَمَالِـُٔونَ مِنۡهَا ٱلۡبُطُونَ ۝ 43
(53) उसी से तुम पेट भरोगे
فَشَٰرِبُونَ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡحَمِيمِ ۝ 44
(54) और ऊपर से खौलता हुआ पानी
فَشَٰرِبُونَ شُرۡبَ ٱلۡهِيمِ ۝ 45
(55) तौंस लगे हुए ऊँट की तरह पियोगे।
هَٰذَا نُزُلُهُمۡ يَوۡمَ ٱلدِّينِ ۝ 46
(56) यह है बाएँ बाजू़वालों की मेहमानी का सामान बदला दिए जाने के दिन।
نَحۡنُ خَلَقۡنَٰكُمۡ فَلَوۡلَا تُصَدِّقُونَ ۝ 47
(57) हमने तुम्हें22 पैदा किया है, फिर क्यों तसदीक़ (पुष्टि) नहीं करते?23
22. यहाँ से आयत-74 तक जो दलीलें पेश की गई हैं उनमें एक ही वक़्त में आख़िरत और तौहीद, दोनों पर दलील दी गई है। चूँकि मक्का के लोग नबी (सल्ल०) की तालीम के इन दोनों बुनियादी हिस्सों पर एतिराज़ करते थे, इसलिए यहाँ दलीलें इस अन्दाज़ से दी गई हैं कि आख़िरत का सुबूत भी उनसे मिलता है और तौहीद की सच्चाई का भी।
23. यानी इस बात की तसदीक़ (पुष्टि) कि हम ही तुम्हारे रब और माबूद हैं, और हम तुम्हें दोबारा भी पैदा कर सकते हैं।
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تُمۡنُونَ ۝ 48
(58) कभी तुमने ग़ौर किया, यह नुतफ़ा (वीर्य) जो तुम डालते हो,
ءَأَنتُمۡ تَخۡلُقُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 49
(59) इससे बच्चा तुम बनाते हो या उसके बनानेवाले हम हैं?24
24. इस छोटे-से जुमले में एक बड़ा अहम सवाल इनसान के सामने पेश किया गया है। दुनिया की तमाम दूसरी चीज़ों को छोड़कर इनसान अगर सिर्फ़ इसी एक बात पर ग़ौर करे कि वह ख़ुद किस तरह पैदा हुआ है तो उसे न क़ुरआन में दी गई तौहीद की तालीम में कोई शक रह सकता है न आख़िरत के बारे में उसकी तालीम में। इनसान आख़िर इसी तरह तो पैदा होता है कि मर्द अपना नुतफ़ा (वीर्य) औरत की बच्चेदानी तक पहुँचा देता है। मगर क्या इस नुतफ़े में बच्चा पैदा करने की और लाज़िमन इनसान ही का बच्चा पैदा करने की सलाहियत आप-से-आप पैदा हो गई है? या इनसान ने ख़ुद पैदा की है? या ख़ुदा के सिवा किसी और ने पैदा कर दी है? और क्या यह मर्द के, या औरत के, या दुनिया की किसी ताक़त के बस में है कि इस नुतफ़े से हमल (गर्भ) ठहरा दे? फिर हमल ठहरने से बच्चा पैदा होने तक माँ के पेट में बच्चे का दरजा-ब-दरजा बनाया और सँवारा जाना, और हर बच्चे की अलग सूरत बनाना, और हर बच्चे के अन्दर अलग-अलग ज़ेहनी और जिस्मानी क़ुव्वतों को एक ख़ास तनासुब (अनुपात) के साथ रखना जिससे वह एक ख़ास शख़सियत का इनसान बनकर उठे, क्या यह सब कुछ एक ख़ुदा के सिवा किसी और का काम है? क्या इसमें किसी और का ज़र्रा बराबर भी कोई दख़ल है? क्या यह काम माँ-बाप ख़ुद करते हैं? या कोई डॉक्टर करता है? या वे नबी और वली लोग करते हैं जो ख़ुद इसी तरह पैदा हुए हैं? या सूरज और चाँद और तारे करते हैं जो ख़ुद एक क़ानून के ग़ुलाम हैं? या वह फ़ितरत (Nature) करती जो अपने आपमें कोई इल्म, हिकमत या इरादा और इख़्तियार नहीं रखती? फिर क्या यह फ़ैसला करना भी ख़ुदा के सिवा किसी के बस में है कि बच्चा लड़की हो या लड़का? ख़ूबसूरत हो या बदसूरत? ताक़तवर हो या कमज़ोर? अन्धा-बहरा, लूला-लंगड़ा हो या सही-सलामत जिस्मवाला? तेज़ दिमाग़ हो या कमज़ोर दिमाग़़? फिर क्या ख़ुदा के सिवा कोई और यह तय करता है कि क़ौमों की तारीख़ (इतिहास) में किस वक़्त किस क़ौम के अन्दर किन अच्छी या बुरी सलाहियतों के आदमी पैदा करे जो उसे तरक़्क़ी (और बुलन्दी) की चोटी पर ले जाएँ या पतन की तरफ़ धकेल दें? अगर कोई शख़्स ज़िद और हठी में मुब्तला न हो तो वह ख़ुद महसूस करेगा कि शिर्क या नास्तिकता की बुनियाद पर इन सवालों का कोई सही जवाब नहीं दिया जा सकता। इनका सही जवाब एक ही है और वह यह है कि इनसान पूरा-का-पूरा ख़ुदा का बनाया और सँवारा हुआ है। और जब हक़ीक़त यह है तो ख़ुदा के बनाए और सँवारे हुए इस इनसान को क्या हक़ पहुँचता है कि अपने पैदा करनेवाले के मुक़ाबले में आज़ादी और ख़ुदमुख़्तारी (बा-इख़्तियार होने) का दावा करे? या उसके सिवा किसी दूसरे की बन्दगी करे? तौहीद (अल्लाह के एक होने) की तरह यह सवाल आख़िरत के मामले में भी फ़ैसला कर देनेवाला है। इनसान की पैदाइश एक ऐसे कीड़े (शुक्राणु) से होती है जो ताक़तवर ख़ुर्दबीन (सूक्ष्मदर्शी यन्त्र, Microscope) के बिना नज़र तक नहीं आ सकता। यह कीड़ा औरत के जिस्म के अंधेरों में किसी वक़्त उस मादा अण्डे (अण्डाणु) से जा मिलता है जो उसी की तरह एक मामूली-सा ख़ुर्दबीन (सूक्ष्मदर्शी) से दिखाई देनेवाला वुजूद होता है। फिर इन दोनों के मिलने से एक छोटा-सा ज़िन्दा ख़लिय्या (कोशिका, Cell) बन जाता है जो इनसानी ज़िन्दगी की शुरुआत है, और यह ख़लिय्या (Cell) भी इतना छोटा होता है कि ख़ुर्दबीन के बिना उसको नहीं देखा जा सकता। इस ज़रा-से ख़लिय्ये (Cell) को तरक़्क़ी देकर अल्लाह तआला 9 महीने कुछ दिन के अन्दर माँ के पेट में एक जीता-जागता इनसान बना देता है, और जब उसके बनने का अमल पूरा हो जाता है तो माँ का जिस्म ख़ुद ही उसे धकेलकर दुनिया में ऊधम मचाने के लिए बाहर फेंक देता है। तमाम इनसान इसी तरह दुनिया में आए हैं और रात-दिन अपने ही जैसे इनसानों की पैदाइश का यह मंज़र देख रहे हैं। इसके बाद सिर्फ़ एक अक़्ल का अन्धा ही यह कह सकता है कि जो ख़ुदा इस तरह इनसानों को आज पैदा कर रहा है, वह कल किसी वक़्त अपने ही पैदा किए हुए इन इनसानों को दोबारा किसी और तरह पैदा न कर सकेगा
نَحۡنُ قَدَّرۡنَا بَيۡنَكُمُ ٱلۡمَوۡتَ وَمَا نَحۡنُ بِمَسۡبُوقِينَ ۝ 50
(60) हमने तुम्हारे बीच मौत को बाँट दिया है,25 और हम इससे बेबस नहीं हैं
25. यानी तुम्हारी पैदाइश की तरह तुम्हारी मौत भी हमारे बस में है। हम यह तय करते हैं कि किसको माँ के पेट ही में मर जाना है, और किसे पैदा होते ही मर जाना है, और किसे किस उम्र तक पहुँचकर मरना है। जिसकी मौत का जो वक़्त हमने मुक़द्दर कर दिया है उससे पहले दुनिया की कोई ताक़त उसे मार नहीं सकती, और उसके बाद एक पल के लिए भी ज़िन्दा नहीं रख सकती। मरनेवाले बड़े-बड़े अस्पतालों में बड़े-से-बड़े डॉक्टरों की आँखों के सामने मरते हैं, बल्कि डॉक्टर ख़ुद भी अपने वक़्त पर मर जाते हैं। कभी कोई न मौत के वक़्त को जान सका है, न आती हुई मौत को रोक सका है, न यह मालूम कर सका है कि किसकी मौत किस ज़रिए से, कहाँ और किस तरह होनेवाली है।
عَلَىٰٓ أَن نُّبَدِّلَ أَمۡثَٰلَكُمۡ وَنُنشِئَكُمۡ فِي مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 51
(61) कि तुम्हारी शक्लें बदल दें और किसी ऐसी शक्ल में तुम्हें पैदा कर दें जिसको तुम नहीं जानते।26
26. यानी जिस तरह हम इससे बेबस न थे कि तुम्हें तुम्हारी मौजूदा शक्ल और बनावट में पैदा करें, उसी तरह हम इससे भी बेबस नहीं हैं कि तुम्हारी पैदाइश का तरीक़ा बदलकर किसी और शक्ल-सूरत में, कुछ दूसरी ख़ूबियों और ख़ासियतों के साथ तुमको पैदा कर दें। आज तुमको हम इस तरह पैदा करते हैं कि तुम्हारा नुतफ़ा (वीर्य) ठहरता है और तुम माँ के पेट में दरजा-ब-दरजा बनकर एक बच्चे की शक्ल में बाहर आते हो। पैदाइश का यह तरीक़ा भी हमारा ही मुक़र्रर किया हुआ है। मगर हमारे पास बस यही एक लगा-बंधा तरीक़ा नहीं है जिसके सिवा हम कोई और तरीक़ा न जानते हों, या न अमल में ला सकते हों। क़ियामत के दिन हम तुम्हें उसी उम्र के इनसान की शक्ल में पैदा कर सकते हैं जिस उम्र में तुम मरे थे। आज तुम्हारे देखने-सुनने के दूसरे हवास (इन्द्रियों) का पैमाना हमने कुछ और रखा है। मगर हमारे पास इनसान के लिए बस यही एक पैमाना नहीं है जिसे हम बदल न सकते हों। क़ियामत के दिन हम उसे बदलकर कुछ-से-कुछ कर देंगे, यहाँ तक कि तुम वह कुछ देख और सुन सकोगे जो यहाँ नहीं देख सकते और नहीं सुन सकते। आज तुम्हारी खाल और तुम्हारे हाथ-पाँव और तुम्हारी आँखों में कोई बोलने की ताक़त नहीं है। मगर ज़बान को बोलने की ताक़त हम ही ने तो दी है। हम इससे बेबस नहीं हैं कि क़ियामत के दिन तुम्हारे जिस्म का हर हिस्सा और तुम्हारे जिस्म की खाल का हर टुकड़ा हमारे हुक्म से बोलने लगे। आज तुम एक ख़ास उम्र तक ही जीते हो और उसके बाद मर जाते हो। यह तुम्हारा जीना और मरना भी हमारे ही मुक़र्रर किए हुए क़ानून के तहत होता है। कल हम एक दूसरा क़ानून तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए बना सकते हैं, जिसके तहत तुम्हें कभी मौत न आए। आज तुम एक ख़ास हद तक ही अज़ाब बरदाश्त कर सकते हो, जिससे ज़्यादा अज़ाब अगर तुम्हें दिया जाए तो तुम ज़िन्दा नहीं रह सकते। यह उसूल भी हमारा ही बनाया हुआ है। कल हम तुम्हारे लिए एक दूसरा उसूल बना सकते हैं, जिसके तहत तुम ऐसा अज़ाब ऐसी लम्बी मुद्दत तक भुगत सकोगे जिसका तुम तसव्वुर नहीं कर सकते, और किसी सख़्त-से-सख़्त अज़ाब से भी तुम्हें मौत न आएगी। आज तुम सोच नहीं सकते कि कोई बूढ़ा जवान हो जाए, कभी बीमार न हो, कभी उसपर बुढ़ापा न आए और हमेशा-हमेशा वह एक ही उम्र का जवान रहे। मगर यहाँ जवानी पर बुढ़ापा हमारे बनाए हुए ज़िन्दगी के क़ानून ही के मुताबिक़ तो आता है। कल हम तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए कुछ दूसरे क़ानून बना सकते हैं, जिनके मुताबिक़ जन्नत में जाते ही हर बूढ़ा जवान हो जाए और उसकी जवानी और तन्दुरुस्ती कभी ख़त्म न होनेवाली हो।
وَلَقَدۡ عَلِمۡتُمُ ٱلنَّشۡأَةَ ٱلۡأُولَىٰ فَلَوۡلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 52
(62) अपनी पहली पैदाइश को तो तुम जानते हो, फिर क्यों सबक़ नहीं लेते?27
27. यानी तुम यह तो जानते ही हो कि पहले तुम कैसे पैदा किए गए थे। किस तरह बाप की सुल्ब (पीठ) से वह नुतफ़ा निकलकर एक दूसरी जगह जाकर ठहरा जिससे तुम वुजूद में आए। किस तरह माँ के पेट में, जिसमें क़ब्र से कुछ कम अंधेरा न था, तुम्हें परवरिश करके ज़िन्दा इनसान बनाया गया। किस तरह एक मामूली से ज़र्रे को परवान चढ़ाकर ये दिल व दिमाग़, ये आँख-कान और ये हाथ-पाँव उसमें पैदा किए गए और अक़्ल-समझ, इल्म व हिकमत, कारीगरी व ईजाद और तदबीर करने और अपने क़ाबू में करने की ये हैरत-अंगेज़ सलाहियतें उसको दी गईं। क्या यह मोजिज़ा (चमत्कार) मुर्दों को दोबारा जिला उठाने से कुछ कम अजीब है? इस अजीब मोजिज़े को जब तुम आँखों से देख रहे हो और ख़ुद इसकी ज़िन्दा गवाही के तौर पर दुनिया में मौजूद हो तो क्यों इससे यह सबक़ नहीं लेते कि जिस ख़ुदा की क़ुदरत से यह मोजिज़ा रात-दिन सामने आ रहा है उसी की क़ुदरत से मौत के बाद की ज़िन्दगी और दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाने और इकट्ठा किए जाने और जन्नत-जहन्नम का मोजिज़ा भी सामने आ सकता है?
أَفَرَءَيۡتُم مَّا تَحۡرُثُونَ ۝ 53
(63) कभी तुमने सोचा, यह बीज जो तुम बोते हो,
ءَأَنتُمۡ تَزۡرَعُونَهُۥٓ أَمۡ نَحۡنُ ٱلزَّٰرِعُونَ ۝ 54
(64) इनसे खेतियाँ तुम उगाते हो या उनके उगानेवाले हम हैं?28
28. ऊपर का सवाल लोगों को इस हक़ीक़त की तरफ़ ध्यान दिला रहा था कि तुम अल्लाह तआला के बनाए और सँवारे हुए हो और उसी के पैदा करने से वुजूद में आए हो। अब यह दूसरा सवाल उन्हें इस दूसरी अहम हक़ीक़त की तरफ़ ध्यान दिला रहा है कि जिस रोज़ी पर तुम पलते हो वह भी अल्लाह ही तुम्हारे लिए पैदा करता है। जिस तरह तुम्हारी पैदाइश में इनसानी कोशिश का दख़ल इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि तुम्हारा बाप तुम्हारी माँ के अन्दर नुतफ़ा (वीर्य) डाल दे, इसी तरह तुम्हारी रोज़ी की पैदावार में भी इनसान की कोशिश का दख़ल इससे बढ़कर कुछ नहीं है कि किसान खेती में बीज डाल दे। ज़मीन, जिसमें यह खेती की जाती है, तुम्हारी बनाई हुई नहीं है। इस ज़मीन को पेड़-पौधे निकालने की सलाहियत तुमने नहीं दी है। इसमें वे माद्दे (तत्त्व) जिनसे तुम्हारे खाने का सामान मिलता है, तुमने नहीं जुटाए हैं। इसके अन्दर जो बीज तुम डालते हो उनको फलने-फूलने के क़ाबिल तुमने नहीं बनाया है। इन बीजों में यह सलाहियत कि हर बीज से उसी नस्ल की कोंपल फूटे जिसका वह बीज है, तुमने पैदा नहीं की है। इस खेती को लहलहाती खेतियों में तबदील करने के लिए ज़मीन के अन्दर जिस अमल (प्रक्रिया) और ज़मीन के ऊपर जिस हवा, पानी, गर्मी, ठण्डक और मौसमी कैफ़ियत की ज़रूरत है, उनमें से कोई चीज़ भी तुम्हारी किसी तदबीर का नतीजा नहीं है। यह सब कुछ अल्लाह ही की क़ुदरत और उसी की परवरदिगारी का करिश्मा है। फिर जब तुम वुजूद में उसी के लाने से आए हो, और उसी की रोज़ी पर पल रहे हो, तो तुमको उसके मुक़ाबले में ख़ुदमुख़्तारी (आज़ादी) का, या उसके सिवा किसी और की बन्दगी करने का हक़ आख़िर कैसे पहुँचता है। इस आयत में बज़ाहिर तो तौहीद (एकेश्वरवाद) के हक़ में दलील दी गई है, मगर इसमें जो बात बयान की गई है उसपर अगर आदमी थोड़ा-सा और ग़ौर करे तो इसी के अन्दर आख़िरत की दलील भी मिल जाती है। जो बीज ज़मीन में बोया जाता है वह अपनी जगह ख़ुद मुर्दा होता है, मगर ज़मीन की क़ब्र में जब किसान उसको दफ़्न कर देता है तो अल्लाह तआला उसके अन्दर वह पौधेवाली ज़िन्दगी पैदा कर देता है जिससे कोंपलें फूटती हैं और लहलहाती हुई खेतियाँ बहार की शान दिखाती हैं। ये अनगिनत मुर्दे हमारी आँखों के सामने आए दिन कब्रों से जी-जीकर उठ रहे हैं। यह मोजिज़ा (चमत्कार) क्या कुछ कम अजीब है कि कोई शख़्स उस दूसरे अजीब मोजिज़े को नामुमकिन क़रार दे जिसकी ख़बर क़ुरआन हमें दे रहा है, यानी इनसानों की मौत के बाद की ज़िन्दगी।
لَوۡ نَشَآءُ لَجَعَلۡنَٰهُ حُطَٰمٗا فَظَلۡتُمۡ تَفَكَّهُونَ ۝ 55
(65) हम चाहें तो इन खेतियों को भुस बनाकर रख दें।
إِنَّا لَمُغۡرَمُونَ ۝ 56
(66) और तुम तरह-तरह की बातें बनाते रह जाओ
بَلۡ نَحۡنُ مَحۡرُومُونَ ۝ 57
(67) कि हमपर तो उलटी चट्टी पड़ गई,
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلۡمَآءَ ٱلَّذِي تَشۡرَبُونَ ۝ 58
(68) बल्कि हमारे तो नसीब ही फूटे हुए हैं।
ءَأَنتُمۡ أَنزَلۡتُمُوهُ مِنَ ٱلۡمُزۡنِ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنزِلُونَ ۝ 59
(69) कभी तुमने आँखें खोलकर देखा, यह पानी जो तुम पीते हो, इसे तुमने बादल से बरसाया है या इसके बरसानेवाले हम हैं?29
29. यानी तुम्हारी भूख मिटाने ही का हुआ है। यह पानी, जो तुम्हारी ज़िन्दगी के लिए रोटी से भी ज़्यादा ज़रूरी है, तुम्हारा अपना जुटाया हुआ नहीं है, बल्कि इसे हम देते हैं। ज़मीन में यह समुद्र हमने पैदा किए हैं। हमारे सूरज की गर्मी से उनका पानी भाप बनकर उठता है। हमने उस पानी में यह ख़ासियत पैदा की है कि एक ख़ास दरजा-ए-हरारत (तापमान) पर वह भाप में तबदील हो जाए। हमारी हवाएँ उसे लेकर उठती हैं। हमारी क़ुदरत और हिकमत से वह भाप जमा होकर बादल की शक्ल अपनाती है। हमारे हुक्म से ये बादल एक ख़ास तनासुब (अनुपात) से बँटकर ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों पर फैलते हैं, ताकि ज़मीन के जिस हिस्से के लिए पानी का जो हिस्सा मुक़र्रर किया गया है वह उसको पहुँच जाए। और हम ऊपरी फ़ज़ा (वार्ता वरण) में वह ठण्डक पैदा करते हैं जिससे यह भाप फिर से पानी में तबदील होती है। हम तुम्हें सिर्फ़ वुजूद में लाकर ही नहीं रह गए हैं, बल्कि तुम्हारी परवरिश के ये सारे इन्तिज़ामात भी हम कर रहे हैं जिनके बिना तुम जी नहीं सकते। फिर हमारे पैदा करने से वुजूद में आकर, हमारी दी हुई रोज़ी खाकर और हमारा पानी पीकर यह हक़ तुम्हें कहाँ से हासिल हो गया कि हमारे मुक़ाबले में पूरी तरह अपनी मरज़ी के मालिक बनो, या हमारे सिवा किसी और की बन्दगी करो?
لَوۡ نَشَآءُ جَعَلۡنَٰهُ أُجَاجٗا فَلَوۡلَا تَشۡكُرُونَ ۝ 60
(70) हम चाहें तो इसे सख़्त खारा बनाकर रख दें,30 फिर क्यों तुम शुक्रगुज़ार नहीं होते?31
30. इस जुमले में अल्लाह की क़ुदरत और हिकमत के एक अहम करिश्मे की निशानदेही की गई है। पानी के अन्दर अल्लाह तआला ने जो हैरत-अंगेज़ ख़ासियतें रखी हैं, उनमें से एक ख़ासियत यह भी है कि इसके अन्दर चाहे कितनी ही चीज़ें घुल जाएँ, जब वह हरारत (तापमान) के असर से भाप में तबदील होता है तो सारी मिलावटी चीज़ें नीचे छोड़ देता है और सिर्फ़ अपने पानी के अस्ल हिस्से को लेकर हवा में उड़ता है। यह ख़ासियत अगर उसमें न होती तो भाप में तबदील होते वक़्त भी वे सब चीज़े उसमें शामिल रहतीं जो पानी होने की हालत में उसके अन्दर घुली हुई थीं। इस सूरत में समुद्र से जो भापें उठतीं उनमें समुद्र का नमक भी शामिल होता और उनकी बारिश तमाम ज़मीन को खारी ज़मीन बना देती। न इनसान उस पानी को पीकर जी सकता था, न किसी तरह के पेड़-पौधे उससे उग सकते थे। अब क्या कोई शख़्स दिमाग़ में ज़रा-सी भी अक़्ल रखते हुए यह दावा कर सकता है कि अन्धी-बहरी फ़ितरत से ख़ुद-ब-ख़ुद पानी में यह हिकमत-भरी ख़ासियत पैदा हो गई है? यह ख़ासियत, जिसकी बदौलत खारे समुद्रों से साफ़-सुथरा मीठा पानी निकलकर बारिश की शक्ल में बरसता है और फिर नदियों, नहरों, चश्मों (स्रोतों) और कुओं की शक्ल में पानी पहुँचाने और सिंचाई का काम करता है, इस बात की साफ़ गवाही देती है कि इस ख़ासियत के देनेवाले ने पानी में इसको ख़ूब सोच-समझकर इरादे के साथ इस मक़सद के लिए डाला है कि वह उसकी पैदा किए हुए जानदारों की परवरिश का ज़रिआ बन सके। जो जानदार खारे पानी से परवरिश पा सकते थे वे उसने समुद्र में पैदा किए और वहाँ वे ख़ूब जी रहे हैं। मगर जिन जानदारों को उसने ख़ुश्की और हवा में पैदा किया था उनकी परवरिश के लिए मीठा पानी दरकार था और इसके जुटाने के लिए बारिश का इन्तिज़ाम करने से पहले उसने पानी के अन्दर यह ख़ासियत रख दी कि गर्मी से भाप बनते वक़्त वह कोई ऐसी चीज़ लेकर न उड़े जो उसके अन्दर घुल गई हो।
31. दूसरे अलफ़ाज़ में नेमतों की क्यों यह नाशुक्री करते हो कि तुममें से कोई इस बारिश को देवताओं का करिश्मा समझता है, और कोई यह समझता है कि समुद्रों से बादल का उठना और फिर आसमान से पानी बनकर बरसना एक फ़ितरी चक्कर है जो आप-से-आप चले जा रहा है, और कोई इसे ख़ुदा की रहमत समझता भी है तो उस ख़ुदा का अपने ऊपर यह हक़ नहीं मानता कि उसी के आगे फ़रमाँबरदारी में सर झुकाए? ख़ुदा की इतनी बड़ी नेमत से फ़ायदा उठाते हो और फिर जवाब में कुफ़्र व शिर्क और गुनाह व नाफ़रमानी करते हो?
أَفَرَءَيۡتُمُ ٱلنَّارَ ٱلَّتِي تُورُونَ ۝ 61
(71) कभी तुमने ख़याल किया, यह आग जो तुम सुलगाते हो,
ءَأَنتُمۡ أَنشَأۡتُمۡ شَجَرَتَهَآ أَمۡ نَحۡنُ ٱلۡمُنشِـُٔونَ ۝ 62
(72) इसका पेड़32 तुमने पैदा किया है, या इसके पैदा करनेवाले हम हैं?
32. पेड़ से मुराद या तो वे पेड़ हैं जिनसे आग जलाने के लिए लकड़ी मिलती है, या मर्ख़ और अफ़ार नाम के वे दो पेड़ हैं जिनकी हरी-भरी टहनियों को एक-दूसरे पर मारकर पुराने ज़माने में अरबवाले आग झाड़ा करते थे।
نَحۡنُ جَعَلۡنَٰهَا تَذۡكِرَةٗ وَمَتَٰعٗا لِّلۡمُقۡوِينَ ۝ 63
(73) हमने उसको याददिहानी का ज़रिआ33 और ज़रूरतमन्दों34 के लिए ज़िन्दगी का सामान बनाया है।
33. इस आग को याददिहानी का ज़रिआ बनाने का मतलब यह है कि यह वह चीज़ है जो हर वक़्त रौशन होकर इनसान को उसका भूला हुआ सबक़ याद दिलाती है। अगर आग न होती तो इनसान की ज़िन्दगी जानवरों की ज़िन्दगी से अलग न हो सकती थी। आग ही से इनसान ने जानवरों की तरह कच्चा खाना खाने के बजाय उनको पकाकर खाना शुरू किया और फिर इसके लिए कारीगरी और ईजाद के नए-नए दरवाज़े खुलते चले गए। ज़ाहिर है कि अगर ख़ुदा वे ज़रिए पैदा न करता जिनसे आग जलाई जा सके, और वे जलनेवाले माद्दे (पदार्थ) पैदा न करता जो आग से जल सकें, तो इनसान की नई-नई चीज़ें तैयार करने की सलाहियतों का ताला ही न खुलता। मगर इनसान यह बात भूल गया है कि उसका पैदा करनेवाला कोई हिकमतवाला परवरदिगार है जिसने उसे एक तरफ़ इनसानी क़ाबिलियतें देकर पैदा किया तो दूसरी तरफ़ ज़मीन में वह सरो-सामान भी पैदा कर दिया जिससे उसकी ये क़ाबिलियतें काम आ सकें। वह अगर ग़फ़लत में मदहोश न हो तो अकेले एक आग ही उसे यह याद दिलाने के लिए काफ़ी है कि यह किसके एहसानात और किसकी नेमतें हैं जिनसे वह दुनिया में फ़ायदा उठा रहा है।
34. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘मुक़वीन' इस्तेमाल किया गया है। इसके अलग-अलग मतलब अरबी ज़बान जाननेवालों ने बयान किए हैं। कुछ इसे रेगिस्तान में उतरे हुए मुसाफ़िरों के मानी में लेते हैं। कुछ इसके मानी भूखे आदमी के लेते हैं। और कुछ के नज़दीक इससे मुराद वे सब लोग हैं जो आग से फ़ायदा उठाते हैं, चाहे वह खाना पकाने का फ़ायदा हो या रौशनी का या तपिश का।
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 64
(74) तो ऐ नबी! अपने रब्बे-अज़ीम (महान रब) के नाम की तसबीह (महिमागान) करो35
35. यानी उसका मुबारक नाम लेकर यह इज़हार और एलान करो कि वह इन तमाम ऐबों और ख़राबियों और कमज़ोरियों से पाक है जो इनकार और शिर्क करनेवाले लोग उसकी तरफ़ जोड़ते हैं और जो कुफ़्र और शिर्क के हर अक़ीदे और आख़िरत का इनकार करनेवालों की हर दलील में छिपा है।
۞فَلَآ أُقۡسِمُ بِمَوَٰقِعِ ٱلنُّجُومِ ۝ 65
(75) तो नहीं,36 मैं क़सम खाता हूँ तारों की हालतों (स्थितियों) की!
36. यानी बात वह नहीं है जो तुम समझे बैठे हो। यहाँ क़ुरआन के अल्लाह की तरफ़ से होने पर क़सम खाने से पहले लफ़्ज़ 'ला' (नहीं) का इस्तेमाल ख़ुद यह ज़ाहिर कर रहा है कि लोग इस पाक किताब के बारे में कुछ बातें बना रहे थे, जिनको रद्द करने के लिए यह क़सम खाई जा रही है।
وَإِنَّهُۥ لَقَسَمٞ لَّوۡ تَعۡلَمُونَ عَظِيمٌ ۝ 66
(76) और अगर तुम समझो तो यह बहुत बड़ी क़सम है,
إِنَّهُۥ لَقُرۡءَانٞ كَرِيمٞ ۝ 67
(77) कि यह एक बुलन्द दरजे का क़ुरआन है,37
37. तारों और सय्यारों (ग्रहों) की हालतों (स्थितियों) से मुराद उनके मक़ामात, उनकी मंज़िलें और उनके मदार (परिक्रमा-कक्ष) हैं। और क़ुरआन के बुलन्द दरजे की किताब होने पर उनकी क़सम खाने का मतलब यह है कि ऊपरी दुनिया में तारों और सय्यारों (ग्रहों) का निज़ाम (व्यवस्था) जैसा अटल और मज़बूत है वैसा ही मज़बूत और पक्का यह कलाम भी है। जिस ख़ुदा ने वह निज़ाम बनाया है उसी ख़ुदा ने यह कलाम भी उतारा है। कायनात की अनगिनत कहकशानों (आकाशगंगाओं, Galaxies) और उन कहकशानों के अन्दर बेहद और बेहिसाब तारों (Stars) और सययारों (ग्रहों, Planets) में जो कमाल दरजे का ताल्लुक़ और नज़्म (अनुशासन) क़ायम है, हालाँकि वे देखने में बिलकुल बिखरे हुए नज़र आते हैं, उसी तरह यह किताब भी एक कमाल दरजे का मरबूत और मुनज़्ज़म (सुगठित और संगठित) ज़िन्दगी का निज़ाम (व्यवस्था) पेश करती है, जिसमें अक़ीदों की बुनियाद पर अख़लाक़, इबादतों, तहज़ीब और तमद्दुन, मईशत (रोज़ी रोज़गार) और सामाजिकता, क़ानून और अदालत, सुलह और जंग, ग़रज़ इनसानी ज़िन्दगी के तमाम पहलुओं पर तफ़सीली हिदायतें दी गई हैं, और उनमें कोई चीज़ किसी दूसरी चीज़ से बेजोड़ नहीं है, हालाँकि यह निज़ामे-फ़िक्र (वैचारिक व्यवस्था) अलग-अलग आयतों और अलग-अलग मौक़ों पर की गई तक़रीरों में बयान किया गया है। फिर जिस तरह ख़ुदा की बाँधी हुई ऊपरी दुनिया का नज़्म (अनुशासन) अटल है जिसमें कभी ज़र्रा बराबर भी फ़र्क़ नहीं आता, उसी तरह इस किताब में भी जो हक़ीक़तें बयान की गई हैं और जो हिदायतें दी गई हैं वे भी अटल हैं, उनका एक छोटे-से-छोटा हिस्सा भी अपनी जगह हिलाया नहीं जा सकता।
فِي كِتَٰبٖ مَّكۡنُونٖ ۝ 68
(78) एक महफ़ूज़ किताब में दर्ज,38
38. इससे मुराद है लौहे-महफ़ूज़। उसके लिए 'किताबे-मकनून' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब है ऐसी तहरीर (लिखित दस्तावेज़) जो छिपाकर रखी गई है, यानी जिस तक किसी की पहुँच नहीं है। उस महफ़ूज़ तहरीर में क़ुरआन के दर्ज होने का मतलब यह है कि नबी (सल्ल०) पर उतारे जाने से पहले वह अल्लाह तआला के यहाँ उस तक़दीर के लिखे हुए में दर्ज हो चुका है जिसके अन्दर किसी फेर-बदल का इमकान नहीं है, क्योंकि वह हर जानदार की पहुँच से परे है।
لَّا يَمَسُّهُۥٓ إِلَّا ٱلۡمُطَهَّرُونَ ۝ 69
(79) जिसे पाक लोगों के सिवा कोई छू नहीं सकता।39
39. यह रद्द है इस्लाम मुख़ालिफ़ों के उन इलज़ामों का जो वे क़ुरआन पर लगाया करते थे। वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को काहिन ठहराते थे और कहते थे कि यह कलाम आप (सल्ल०) के दिल में जिन्न और शैतान डाला करते हैं। इसका जवाब क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर दिया गया है। मिसाल के तौर पर सूरा-26 शुअरा, आयतें—210 से 212 में कहा गया है, “इसको लेकर शैतान नहीं उतरे हैं, न यह कलाम उनको सजता है और न वे ऐसा कर ही सकते हैं। वे तो इसके सुनने तक से दूर रखे गए हैं।” इसी बात को यहाँ इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है कि “इसे पाक लोगों के सिवा कोई छू नहीं सकता,” यानी शैतानों का इसे लाना, या इसके उतरने के वक़्त इसमें दख़लअन्दाज़ होना तो एक तरफ़ रहा, जिस वक़्त यह लौहे-महफ़ूज़ से नबी (सल्ल०) पर उतारा जाता है उस वक़्त पाक लोगों, यानी फ़रिश्तों के सिवा कोई क़रीब फटक भी नहीं सकता। फ़रिश्तों के लिए 'मुतह्हरीन' का लफ़्ज़ इस मानी में इस्तेमाल किया गया है कि अल्लाह तआला ने उनको हर तरह के नापाक जज़बात और ख़ाहिशों से पाक रखा है। इस आयत की यही तफ़सीर अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०), इकरिमा, मुजाहिद, क़तादा, अबुल-आलिया, सुद्दी, ज़ह्हाक और इब्ने-ज़ैद (रह०) ने बयान की है, और कलाम के सिलसिले के साथ भी यही मेल खाती है। क्योंकि बात का सिलसिला ख़ुद यह बता रहा है कि तौहीद और आख़िरत के बारे में मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के ग़लत ख़यालात को रद्द करने के बाद अब क़ुरआन मजीद के बारे में उनके झूठे गुमानों को रद्द किया जा रहा है और तारों की हालतों (स्थितियों) की क़सम खाकर यह बताया जा रहा है कि यह एक बुलन्द दरजे की किताब है, अल्लाह तआला के महफ़ूज़ लिखे दस्तावेज़ में दर्ज है, जिसमें किसी जानदार की दख़लअन्दाज़ी का कोई इमकान नहीं, और नबी पर यह ऐसे तरीक़े से उतरती है कि पाकीज़ा फ़रिश्तों के सिवा कोई इसे छू तक नहीं सकता। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इस आयत में 'ला' को 'मना करने' के मानी में लिया है और आयत का मतलब यह बयान किया है कि “कोई ऐसा शख़्स इसे न छू पाए जो पाक न हो,” या “किसी ऐसे शख़्स को इसे न छूना चाहिए जो नापाक हो।” और कुछ दूसरे तफ़सीर लिखनेवाले आलिम अगरचे 'ला' को 'नहीं' के मानी में लेते हैं और आयत का मतलब यह बयान करते हैं कि “इस किताब को पाक लोगों के सिवा कोई नहीं छूता,” मगर उनका कहना यह है कि यह 'नहीं' उसी तरह ‘मना करने’ के मानी में है जिस तरह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का यह फ़रमान कि “मुसलमान, मुसलमान का भाई है, वह उसपर ज़ुल्म नहीं करता।” इसमें अगरचे ख़बर दी गई है कि मुसलमान मुसलमान पर ज़ुल्म नहीं करता, लेकिन अस्ल में इससे यह हुक्म निकलता है कि मुसलमान मुसलमान पर ज़ुल्म न करे। इसी तरह इस आयत में अगरचे कहा यह गया है कि पाक लोगों के सिवा क़ुरआन को कोई नहीं छूता, मगर इससे हुक्म यह निकलता है कि जब तक कोई शख़्स पाक न हो, वह इसको न छुए। लेकिन हक़ीकत यह है कि यह तफ़सीर आयत के मौक़ा-महल से मेल नहीं खाती। मौक़ा-महल से अलग करके तो इसके अलफ़ाज़ से यह मतलब निकाला जा सकता है, मगर जिस बात के सिलसिले में यह आई है उसमें रखकर इसे देखा जाए तो यह कहने का सिरे से कोई मौक़ा नज़र नहीं आता “इस किताब को पाक लोगों के सिवा कोई न छुए। क्योंकि यहाँ तो बात इस्लाम का इनकार करनेवालों से की जा रही है और उनको यह बताया जा रहा है कि यह अल्लाह, सारे जहान के रब, की उतारी हुई किताब है, इसके बारे में तुम्हारा यह गुमान बिलकुल ग़लत है कि शैतान इसे नबी के दिल में डाला करते हैं। इस जगह यह शरई हुक्म बयान करने का आख़िर क्या मौक़ा हो सकता था कि कोई शख़्स पाकी के बिना इसको हाथ न लगाए? ज़्यादा-से-ज़्यादा जो बात कही जा सकती है वह यह है कि अगरचे आयत यह हुक्म देने के लिए नहीं उतरी है, मगर बात का मौक़ा-महल इस बात की तरफ़ साफ़ इशारा कर रहा है कि जिस तरह अल्लाह तआला के यहाँ इस किताब को सिर्फ़ पाक लोग ही छू सकते हैं, उसी तरह दुनिया में भी कम-से-कम वे लोग जो इसके अल्लाह का कलाम होने पर ईमान रखते हैं, इसे नापाकी की हालत में छूने से बचें। इस मसले में जो रिवायतें मिलती हैं वे नीचे लिखी हैं— (1) इमाम मालिक (रह०) ने मुवत्ता में अब्दुल्लाह-बिन-अबू-बक्र मुहम्मद-बिन-अम्र-बिन-हज़म की यह रिवायत नक़्ल की है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जो तहरीरी अहकाम (लिखित आदेश) अम्र-बिन-हज़्म के हाथ यमन के सरदारों को लिखकर भेजे थे उनमें एक हुक्म यह भी था कि “क़ुरआन को कोई न छुए सिवाय पाक शख़्स के।” यही बात अबू-दाऊद ने मरासील में इमाम ज़ुहरी से नक़्ल की है कि उन्होंने अबू-बक्र मुहम्मद-बिन-अम्र-बिन-हज़्म के पास अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की जो तहरीर देखी थी उसमें यह भी हुक्म था। (2) हज़रत अली (रज़ि०) की रिवायत, जिसमें वे फ़रमाते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को कोई चीज़ क़ुरआन की तिलावत (पढ़ने) से नहीं रोकती थी सिवाय जनाबत (सोते में या सहवास के कारण वीर्य स्खलित होने से होनेवाली नापाकी) के।” (हदीस : अबू-दाऊद, नसई, तिरमिज़ी) (3) इब्ने-उमर (रज़ि०) की रिवायत, जिसमें वे बयान करते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाइज़ा (हैज़वाली) औरत और जनाबतवाला मर्द क़ुरआन का कोई हिस्सा न पढ़े।" (हदीस : अबू-दाऊद, तिरमिज़ी) (4) बुख़ारी की रिवायत, जिसमें यह बयान हुआ है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने रूम के बादशाह हिरक़्ल को जो ख़त भेजा था उसमें क़ुरआन मजीद की यह आयत भी लिखी हुई थी कि “ऐ अहले-किताब! आओ एक ऐसी बात की तरफ़ जो हममें-तुममें बराबर है........।” सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन से इस मसले में जो मसलक (राएँ) नक़्ल हुए हैं वे ये हैं— हज़रत सलमान फ़ारिसी (रज़ि०) बिना वुज़ू के क़ुरआन पढ़ने में हरज नहीं समझते थे, मगर उनके नज़दीक इस हालत में क़ुरआन को हाथ लगाना जाइज़ न था। यही मसलक हज़रत साद-बिन-अबी-वक़्क़ास (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) का भी था। और हज़रत हसन बसरी (रह०) और इबराहीम नख़ई (रह०) भी वुज़ू के बिना क़ुरआन को हाथ लगाना मकरूह (नापसन्दीदा) समझते थे, (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)। अता, ताऊस, शअबी और क़ासिम-बिन-मुहम्मद (रह०) से भी यही बात नक़्ल हुई है, (अल-मुग़नी लि-इब्ने-क़ुदामा)। अलबत्ता क़ुरआन को हाथ लगाए बिना उसको देखकर पढ़ना या उसको याद से पढ़ना इन सबके नज़दीक बिना वुज़ू के भी जाइज़ था। जनाबत (नापाकी) और हैज़ (माहवारी) और निफ़ास (बच्चे की पैदाइश के सबब हुई नापाकी) की हालत में क़ुरआन पढ़ना हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत हसन बसरी, हज़रत इबराहीम नख़ई और इमाम ज़ुहरी (रह०) के नज़दीक मकरूह था। मगर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की राय यह थी और इसी पर उनका अमल भी था कि क़ुरआन का जो हिस्सा पढ़ना आदमी के रोज़ का मामूल (नियम) हो वह उसे याद से पढ़ सकता है। हज़रत सईद-बिन-मुसय्यब और सईद-बिन-जुबैर से इस मसले में पूछा गया तो उन्होंने कहा, “क्या क़ुरआन उसके हाफ़िज़े (याददाश्त) में महफ़ूज़ नहीं है? फिर उसके पढ़ने में क्या हरज है?" (अल-मुग़नी और अल-मुहल्ला लि-इब्ने-हज़्म) फ़क़ीहों के मसलक इस मसले में नीचे लिखे जा रहे हैं— हनफ़ी मसलक की तशरीह इमाम अलाउद्दीन काशानी (रह०) ने बदाइउस्सनाइ में यूँ की है। "जिस तरह बिना वुज़ू नमाज़ पढ़ना जाइज़ नहीं है उसी तरह क़ुरआन मजीद को हाथ लगाना भी जाइज़ नहीं। अलबत्ता अगर वह ग़िलाफ़ के अन्दर हो तो हाथ लगाया जा सकता है। ग़िलाफ़ से मुराद कुछ फ़क़ीहों के नज़दीक जिल्द है और कुछ के नज़दीक वह थैली या जुज़दान है जिसके अन्दर क़ुरआन रखा जाता और उसमें से निकाला भी जा सकता है। इसी तरह तफ़सीर की किताबों को भी बेवुज़ू हाथ न लगाना चाहिए, न किसी ऐसी चीज़ को जिसमें क़ुरआन की कोई आयत लिखी हुई हो। अलबत्ता फ़िक़्ह की किताबों को हाथ लगाया जा सकता है अगरचे मुस्तहब (पसन्दीदा) यही है कि उनको भी बेवुज़ू हाथ न लगाया जाए, क्योंकि उनमें भी क़ुरआनी आयतें दलील के तौर पर दर्ज होती हैं। कुछ हनफ़ी आलिम इस बात को मानते हैं कि क़ुरआन के सिर्फ़ उस हिस्से को बेवुज़ू हाथ लगाना दुरुस्त नहीं है जहाँ क़ुरआन की इबारत लिखी हुई हो, बाक़ी रहे हाशिए तो चाहे वे सादा हों या उनमें तशरीह के तौर पर कुछ लिखा हुआ हो, उनको हाथ लगाने में हरज नहीं। मगर सही बात यह है कि हाशिए भी क़ुरआन ही का एक हिस्सा हैं और उनको हाथ लगाना मुसहफ़ ही को हाथ लगाना है। रहा क़ुरआन का पढ़ना, तो वह वुज़ू के बिना जाइज़ है।” फ़तावा आलमगीरी में बच्चों को इस हुक्म से अलग क़रार दिया गया है। तालीम के लिए क़ुरआन मजीद बच्चों के हाथ में दिया जा सकता है चाहे वे वुज़ू से हों या बेवुज़ू। शाफ़िई मसलक को इमाम नववी (रह०) ने 'अल-मिनहाज' में इस तरह बयान किया है— “नमाज़ और तवाफ़ की तरह मुसहफ़ (क़ुरआन) और उसके किसी पन्ने को छूना भी वुज़ू के बिना हराम है। इसी तरह क़ुरआन की जिल्द को छूना भी मना है। और अगर क़ुरआन किसी ग़िलाफ़ या सन्दूक़ में हो, या क़ुरआन का दर्स देने के लिए उसका कोई हिस्सा तख़्ती पर लिखा हो तो उसको भी हाथ लगाना जाइज़ नहीं। अलबत्ता क़ुरआन किसी के सामान में रखा हो, या तफ़सीर की किताबों में लिखा हुआ हो, या किसी सिक्के में उसका कोई हिस्सा दर्ज हो तो उसे हाथ लगाना हलाल है। बच्चा अगर बिना वुज़ू के हो तो वह भी क़ुरआन को हाथ लगा सकता है। और बेवुज़ू आदमी अगर क़ुरआन पढ़े तो लकड़ी या किसी और चीज़ से वह उसका पन्ना पलट सकता है।" मालिकी मसलक जो 'अल-फ़िक़्ह अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ' में नक़्ल किया गया है, वह यह है कि ज़्यादा तर फ़क़ीहों के साथ वे इस बात में एक राय हैं कि मुसहफ़ (क़ुरआन) को हाथ लगाने के लिए वुज़ू शर्त है। लेकिन क़ुरआन की तालीम के लिए वे उस्ताद और शागिर्द दोनों को इससे अलग करते हैं। बल्कि माहवारी की हालत में औरत के लिए भी वे तालीम के मक़सद से मुसहफ़ (क़ुरआन) को हाथ लगाना जाइज़ ठहराते हैं। इब्ने कुदामा ने 'अल-मुग़नी' में इमाम मालिक (रह०) की यह राय भी नक़्ल की है कि जनाबत (सहवास से हुई नापाकी) की हालत में तो क़ुरआन पढ़ना मना है, मगर माहवारी की हालत में औरत को क़ुरआन पढ़ने की इजाज़त है, क्योंकि एक लम्बे वक़्त तक अगर हम उसे क़ुरआन पढ़ने से रोकेंगे तो वह भूल जाएगी। हंबली मसलक के अहकाम, जो इब्ने-क़ुदामा (रह०) ने नक़्ल किए हैं, ये हैं कि “जनाबत की हालत में और माहवारी और निफ़ास (बच्चा पैदा होने के बाद की नापाकी) की हालत में क़ुरआन या उसकी किसी पूरी आयत को पढ़ना जाइज़ नहीं है, अलबत्ता 'बिसमिल्लाह, अल-हमदुलिल्लाह' वग़ैरा कहना जाइज़ है, क्योंकि अगरचे ये भी किसी-न-किसी आयत के हिस्से हैं, मगर इन्हें बोलने का मक़सद तिलावत नहीं होता। रहा क़ुरआन को हाथ लगाना, तो वह किसी हाल में वुज़ू के बिना जाइज़ नहीं, अलबत्ता क़ुरआन की कोई आयत किसी ख़त या फ़िक़्ह की किसी किताब, या किसी और तहरीर के सिलसिले में दर्ज हो तो उसे हाथ लगाना मना नहीं है। इसी तरह क़ुरआन अगर किसी चीज़ में रखा हुआ हो तो उसे वुज़ू के बिना उठाया जा सकता है। तफ़सीर की किताबों को हाथ लगाने के लिए भी वुज़ू शर्त नहीं है। इसके अलावा बेवुज़ू आदमी को अगर किसी फ़ौरी ज़रूरत के लिए क़ुरआन को हाथ लगाना पड़े तो वह तयम्मुम कर सकता है।” 'अल-फ़िक़्ह अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ' में हंबली मसलक का यह मसला भी लिखा है बच्चों के लिए तालीम की ग़रज़ से भी वुज़ू के बिना क़ुरआन को हाथ लगाना दुरुस्त नहीं है और यह उनके सरपरस्तों का फ़र्ज़ है कि वे क़ुरआन उनके हाथ में देने से पहले उन्हें वुज़ू कराएँ। ज़ाहिरिय्या मसलक के माननेवालों की राय यह है कि क़ुरआन पढ़ना और उसको हाथ लगाना हर हाल में जाइज़ है, चाहे आदमी बेवुज़ू हो, या जनाबत की हालत में हो, या औरत माहवारी की हालत में हो। इब्ने-हज़्म ने अल-मुहल्ला (हिस्सा-1, पे० 77 से 84) में इस मसले पर तफ़सीली बहस की है जिसमें उन्होंने इस मसलक के सही होने की दलीलें दी हैं और यह बताया है कि फ़क़ीहों ने क़ुरआन पढ़ने और उसको हाथ लगाने के लिए जो शर्ते बयान की हैं उनमें से कोई भी क़ुरआन और सुन्नत से साबित नहीं है।
تَنزِيلٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 70
(80) यह सारे जहान के रब का उतारा हुआ है।
أَفَبِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِ أَنتُم مُّدۡهِنُونَ ۝ 71
(81) फिर क्या इस कलाम के साथ तुम बे-परवाही बरतते हो,40
40. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: ‘अन्तुम-मुदहिनून' । 'इदहान' का मतलब है किसी चीज़ से लापरवाही बरतना, उसको अहमियत न देना, उसको संजीदगी से ध्यान देने के क़ाबिल न समझना। अंग्रेजी में (To take lightly) यानी 'हल्के में लेना' के अलफ़ाज़ इस मतलब से ज़्यादा क़रीब हैं।
وَتَجۡعَلُونَ رِزۡقَكُمۡ أَنَّكُمۡ تُكَذِّبُونَ ۝ 72
(82) और इस नेमत में अपना हिस्सा तुमने यह रखा है कि इसे झुठलाते हो?41
41. इमाम राज़ी (रह०) ने 'तज्अलू-न रिज़ क़क़ुम' की तफ़सीर में एक इमकान यह भी ज़ाहिर किया है कि यहाँ लफ़्ज़ 'रिज़्क़' रोज़ी के मानी में हो। चूँकि क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ क़ुरआन की दावत को अपने मआशी (आर्थिक) फ़ायदे के लिए नुक़सानदेह समझते थे और उनका ख़याल यह था कि यह दावत अगर कामयाब हो गई तो हमारी रोज़ी मारी जाएगी, इसलिए इस आयत का यह मतलब भी हो सकता है कि तुमने इस क़ुरआन के झुठलाने को अपने पेट का धन्धा बना रखा है। तुम्हारे नज़दीक हक़ और बातिल का सवाल कोई अहमियत नहीं रखता, अस्ल अहमियत तुम्हारी निगाह में रोटी की है और उसकी ख़ातिर हक़ की मुख़ालफ़त करने और बातिल (असत्य) का सहारा लेने में तुम्हें कोई झिझक नहीं।
فَلَوۡلَآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلۡحُلۡقُومَ ۝ 73
وَأَنتُمۡ حِينَئِذٖ تَنظُرُونَ ۝ 74
وَنَحۡنُ أَقۡرَبُ إِلَيۡهِ مِنكُمۡ وَلَٰكِن لَّا تُبۡصِرُونَ ۝ 75
فَلَوۡلَآ إِن كُنتُمۡ غَيۡرَ مَدِينِينَ ۝ 76
تَرۡجِعُونَهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 77
(83-87) अब अगर तुम किसी के मातहत नहीं हो और अपने इस ख़याल में सच्चे हो, तो जब मरनेवाले की जान हलक़ तक पहुँच चुकी होती है और तुम आँखों से देख रहे होते हो कि वह मर रहा है, उस वक़्त उसकी निकलती हुई जान को वापस क्यों नहीं ले आते? उस वक़्त तुम्हारे मुक़ाबले में हम उसके ज़्यादा क़रीब होते हैं, मगर तुमको नज़र नहीं आते?
فَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 78
(88) फिर वह मरनेवाला अगर (अल्लाह के) करीबियों में से हो
فَرَوۡحٞ وَرَيۡحَانٞ وَجَنَّتُ نَعِيمٖ ۝ 79
(89) तो उसके लिए राहत और बेहतरीन रोज़ी और नेमत-भरी जन्नत है।
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 80
(90) और अगर वह दाएँ बाज़ूवालों में से हो
فَسَلَٰمٞ لَّكَ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 81
(91) तो उसका इसतिक़बाल (स्वागत) यूँ होता है कि सलाम है। तुझे! तू दाएँ बाज़ूवालों में से है।
وَأَمَّآ إِن كَانَ مِنَ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ٱلضَّآلِّينَ ۝ 82
(92) और अगर वह झुठलानेवाले गुमराह लोगों में से हो
فَنُزُلٞ مِّنۡ حَمِيمٖ ۝ 83
(93) तो उसकी ख़ातिरदारी के लिए खौलता हुआ पानी है
وَتَصۡلِيَةُ جَحِيمٍ ۝ 84
(94) और जहन्नम में झोंका जाना।
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ حَقُّ ٱلۡيَقِينِ ۝ 85
(95) यह सब कुछ बिलकुल हक़ है,
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 86
(96) तो ऐ नबी! अपने रब्बे-अज़ीम के नाम की तसबीह करो।42
42. हज़रत उक़बा-बिन-आमिर जुहनी (रह०) की रिवायत है कि जब यह आयत उतरी तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि इसको तुम लोग अपने रुकू में रख दो, यानी रुकू में 'सुब्हा-न रब्बियल-अज़ीम' कहा करो। और जब आयत ‘सबिहिस-म रब्बिकल-आला' उतरी तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसे अपने सजदे में रखो,” यानी ‘सुब्हा-न रब्बियल-आला’ कहा करो, (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा, इब्ने-हिब्बान, हाकिम)। इससे पता चलता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने नमाज़ का जो तरीक़ा मुक़र्रर किया है उसके छोटे-से-छोटे हिस्से तक क़ुरआन पाक के इशारों से लिए गए हैं।
عُرُبًا أَتۡرَابٗا ۝ 87
(37) अपने शौहरों की आशिक़18 और उम्र में बराबर19 ।
18. अस्ल में लफ़ज्र 'उरुबन' इस्तेमाल हुआ है। यह लफ़्ज़ अरबी ज़बान में औरत की बेहतरीन निसवानी (ज़नाना) ख़ूबियों के लिए बोला जाता है। इससे मुराद ऐसी औरत है जो ख़ूबसूरत हो, अच्छे अख़लाक़वाली हो, मीठे बोलवाली हो, औरतोंवाले जज़बात से भरी हो, अपने शौहर को दिल व जान से चाहती हो, और उसका शौहर भी उसका आशिक़ हो।
19. इसके दो मतलब हो सकते हैं— एक यह कि वे अपने शौहरों की हमउम्र होंगी। दूसरा यह कि है वे आपस में हमउम्र होंगी, यानी तमाम जन्नती औरतें एक ही उम्र की होंगी और हमेशा उसी उम्र की रहेंगी। नामुमकिन नहीं कि ये दोनों ही बातें एक साथ सही हों, यानी ये औरतें ख़ुद भी हमउम्र हों और इनके शौहर भी इनके हमसिन बना दिए जाएँ। हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की बयान की हुई एक हदीस में आता है कि “जन्नती लोग जब जन्नत में दाख़िल होंगे तो उनके जिस्म बालों से साफ़ होंगे। मसें भीग रही होंगी, मगर दाढ़ी न निकली होगी। गोरे-चिट्टे होंगे, गठे हुए बदन होंगे। आँखें कजरारी होंगी। सबकी उम्रे 33 साल की होंगी, (हदीस : मुसनद अहमद)। क़रीब-क़रीब यही बात तिरमिज़ी में हज़रत मुआज़-बिन-जबल (रज़ि०) और हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) से भी रिवायत हुई है।
لِّأَصۡحَٰبِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 88
(38) यह कुछ दाएँ बाजू़वालोंके लिए है।
ثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 89
(39) वे अगलों में से बहुत होंगे
وَثُلَّةٞ مِّنَ ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 90
(40) और पिछलों में से भी बहुत।
وَأَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ مَآ أَصۡحَٰبُ ٱلشِّمَالِ ۝ 91
(41) और बाएँ बाज़ूवाले, बाएँ बाज़ूवालों की बदनसीबी का क्या पूछना!
فِي سَمُومٖ وَحَمِيمٖ ۝ 92
(42) वे लू की लपट और खौलते हुए पानी
وَظِلّٖ مِّن يَحۡمُومٖ ۝ 93
(43) और काले धुएँ के साए में होंगे,
لَّا بَارِدٖ وَلَا كَرِيمٍ ۝ 94
(44) जो न ठण्डा होगा न आरामदेह।
إِنَّهُمۡ كَانُواْ قَبۡلَ ذَٰلِكَ مُتۡرَفِينَ ۝ 95
(45) ये वे लोग होंगे जो इस अंजाम को पहुँचने से पहले ख़ुशहाल थे