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سُورَةُ الأَحۡزَابِ

33. अल-अहज़ाब

(मदीना में उतरी, आयतें 73)

 

परिचय

नाम

आयत 20 के वाक्य “यहसबूनल अहज़ा-ब लम यज़-हबू” [ये समझ रहे हैं कि आक्रमणकारी गिरोह (अल-अहज़ाब) अभी गए नहीं हैं से लिया गया है।

उतरने का समय

[यह सूरा मदीना में उतरी है। इस सूरा के विषय का संबंध तीन महत्त्वपूर्ण घटनाओं से है-

एक, अहज़ाब का युद्ध, जो शव्वाल सन् 05 हिजरी में हुआ,

दूसरा, बनी-क़ुरैज़ा का युद्ध जो ज़ी-कादा सन् 05 हिजरी में हुआ,

तीसरा, हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) का निकाह जो इसी साल ज़ी-क़ादा में हुआ।

इन ऐतिहासिक घटनाओं से सूरा के उतरने का समय सही-सही निश्चित हो जाता है, [और यही घटनाएँ इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी हैं।]

सामाजिक सुधार

उहुद और अहज़ाब के युद्ध के बीच के दो वर्ष का समय यद्यपि ऐसे हंगामों का था जिनके कारण नबी (सल्ल०) और आपके साथियों (रज़ि०) को एक दिन के लिए भी सुख-शान्ति प्राप्त न हुई। लेकिन इस पूरी अवधि में नए मुस्लिम समाज का निर्माण और ज़िन्दगी के हर पहलू में सुधार का काम बराबर चलता रहा। यही समय था जिसमें मुसलमानों के निकाह और तलाक़ के क़ानून लगभग पूरे हो गए। विरासत का क़ानून बना, शराब और जुए को हराम किया गया, [परदे के आदेश आने शुरू हुए] और अर्थव्यवस्था तथा सामाजिकता और समाज के दूसरे बहुत-से पहलुओं में नए क़ानून लागू किए गए।

विषय और वार्ता

यह पूरी सूरा एक व्याख्यान नहीं है जो एक ही समय में उतरा हो, बल्कि यह अनेक आदेश, फ़रमान और व्याख्यानों पर सम्मिलित है। इसके निम्नलिखित अंश स्पष्ट रूप से अलग-अलग दिखाई देते हैं-

  • आयत नम्बर 1 से 8 तक का भाग अहज़ाब अभियान से कुछ पहले का अवतरित मालूम होता है। इसके अवतरण के समय हज़रत ज़ैद (रज़ि०), हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को तलाक़ दे चुके थे। नबी (सल्ल०) इस ज़रूरत को महसूस कर रहे थे कि मुँह बोले बेटे के विषय में अज्ञानकाल की धारणाओं [को मिटाने के लिए हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से स्वयं निकाह कर लें] लेकिन सेक साथ ही इस कारण बहुत संकोच में थे कि यदि [मैंने ऐसा] किया तो इस्लाम के विरुद्ध हँगामा उठाने के लिए मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) और यहूद और बहुदेववादियों को एक भारी शोशा हाथ आ जाएगा।
  • आयत 9 से लेकर 27 तक में अहज़ाब और बनी-क़ुरैज़ा के अभियान की समीक्षा की गई है। यह इस बात का स्पष्ट लक्षण है कि ये आयतें इन अभियानों के पश्चात् अवतरित हुईं हैं।
  • आयत 28 के आरंभ से आयत 35 तक का अभिभाषण दो विषयों पर आधारित है। पहले भाग में नबी (सल्ल.) की पत्नियों को जो उस तंगी और निर्धनता के समय में अधीर हो रही थीं, अल्लाह ने नोटिस दिया है कि संसार और उसकी सजावट और अल्लाह के रसूल और परलोक में से किसी को चुन लो। दूसरे भाग में सामाजिक सुधार [के पहले क़दम के रूप में] आपकी धर्म-पत्नियों को आदेश दिया गया है कि अज्ञानकाल की सज-धज से बचें, प्रतिष्ठापूर्वक अपने घरों में बैठें और अन्य पुरुषों के साथ बातचीत में बहुत सतर्कता से काम लें। ये परदे के आदेशों का आरंभ था।
  • आयत 36 से 48 तक का विषय हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के साथ नबी (सल्ल०) के विवाह से सम्बन्ध रखता है। इसमें उन सभी आक्षेपों का उत्तर दिया गया है, जो विधर्मियों की ओर से किए जा रहे थे।
  • आयत 49 में तलाक़ के क़ानून की एक धारा वर्णित हुई है। यह एक अकेली आयत है जो सम्भवतः इन्हीं घटनाओं के सिलसिले में किसी अवसर पर अवतरित हुई थी।
  • आयत 50 से 52 तक में नबी (सल्ल०) के लिए विवाह का विशिष्ट विधान प्रस्तुत किया गया है।
  • आयत 53 से 55 तक में सामाजिक सुधार का दूसरा क़दम उठाया गया है। यह निम्नलिखित आदेशों पर आधारित है : नबी (सल्ल०) के घरों में पराए पुरुषों के आने-जाने पर प्रतिबंध, मिलने-जुलने और भोज-निमंत्रण का नियम, नबी (सल्ल०) की पत्नियों के विषय में यह आदेश कि वे मुसलमानों के लिए माँ की तरह हराम (प्रतिष्ठित) हैं।
  • आयत 56 और 57 में उन निराधार कानाफूसियों पर सख़्त चेतावनी दी गई है जो नबी (सल्ल०) के विवाह और पारिवारिक जीवन के सम्बन्ध में की जा रही थीं।
  • आयत 59 में सामाजिक सुधार का तीसरा क़दम उठाया गया है। इसमें समस्त मुस्लिम स्त्रियों को यह आदेश दिया गया है कि जब घरों से बाहर निकलें तो चादरों से अपने आपको ढाँककर और घूँघट काढ़कर निकलें—इसके पश्चात् सूरा के अन्त तक अफ़वाह उड़ाने के उस अभियान (Whispering Campaign) पर बड़ी भर्त्सना की गई है, जो मुनाफ़िक़ों और मूर्खों और नीच प्रकृति के लोगों ने उस समय छेड़ रखा था।

 

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سُورَةُ الأَحۡزَابِ
33. अल-अहज़ाब
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ ٱتَّقِ ٱللَّهَ وَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا
(1) ऐ नबी!1 अल्लाह से डरो और इनकार करनेवालों और मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) का कहना न मानो, हक़ीक़त में सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला तो अल्लाह ही है।2
1. जैसा कि हम इस सूरा के परिचय में बयान कर चुके हैं, ये आयतें उस वक़्त उतरी थीं जब हज़रत ज़ैद (रज़ि०) हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) को तलाक़ दे चुके थे। उस वक़्त नबी (सल्ल०) ख़ुद भी यह महसूस करते थे और अल्लाह तआला का इशारा भी यही था कि मुँह बोले रिश्तों के मामले में जाहिलियत की रस्मों और अंधविश्वासों पर चोट लगाने का यह ठीक मौक़ा है। अब आप (सल्ल०) को ख़ुद आगे बढ़कर अपने मुँह बोले बेटे (ज़ैद) की तलाक़शुदा बीवी से निकाह कर लेना चाहिए, ताकि यह रस्म पूरी तरह टूट जाए। लेकिन जिस वजह से नबी (सल्ल०) इस मामले में क़दम उठाते हुए झिझक रहे थे, वह यह डर था कि इससे इस्लाम-दुश्मनों और मुनाफ़िक़ों को, जो पहले ही आप (सल्ल०) की लगातार कामयाबियों से जले बैठे थे, आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ प्रोपेगण्डा करने के लिए एक ज़बरदस्त हथियार मिल जाएगा। यह डर कुछ अपनी बदनामी के अन्देशे से न था, बल्कि इस वजह से था कि इससे इस्लाम को नुक़सान पहुँचेगा, दुश्मनों के प्रोपेगण्डे से मुतास्सिर होकर बहुत-से लोग जो इस्लाम की तरफ़ झुकाव रखते हैं, बदगुमान हो जाएँगे, बहुत-से ग़ैर-जानिबदार (निष्पक्ष) लोग दुश्मनों में शामिल हो जाएँगे और ख़ुद मुसलमानों में से कमज़ोर अक़्ल और ज़ेहन के लोग शक-शुब्हों में पड़ जाएँगे। इसलिए नबी (सल्ल०) यह सोचते थे कि जाहिलियत की एक रस्म को तोड़ने की ख़ातिर ऐसा क़दम उठाना मस्लहत के ख़िलाफ़ है, जिससे इस्लाम के ज़्यादा बड़े मक़सदों को नुक़सान पहुँच जाए।
2. तक़रीर की शुरुआत करते हुए पहले ही जुमले में अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) के इन अन्देशों को दूर कर दिया। कहने का मतलब यह है कि हमारे दीन की मस्लहत किस चीज़ में है और किसमें नहीं है, इसको हम ज़्यादा जानते हैं। हमको मालूम है कि किस वक़्त क्या काम करना चाहिए और कौन-सा काम मस्लहत के ख़िलाफ़ है। इसलिए तुम वह रवैया न अपनाओ जो इस्लाम-दुश्मनों और मुनाफ़िक़ों की मर्ज़ी के मुताबिक़ हो, बल्कि वह काम करो जो हमारी मर्ज़ी के मुताबिक़ हो। डरना हम ही से चाहिए न कि इस्लाम-दुश्मन और मुनाफ़िक़ लोगों से।
وَٱتَّبِعۡ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ مِن رَّبِّكَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٗا ۝ 1
(2) पैरवी करो उस बात की जिसका इशारा तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हें किया जा रहा है, अल्लाह हर उस बात से बाख़बर है जो तुम लोग करते हो।3
3. इस जुमले में बात नबी (सल्ल०) से भी कही गई है और मुसलमानों से भी और इस्लाम-दुश्मनों से भी। मतलब यह है कि नबी अगर अल्लाह के हुक्म पर अमल करके बदनामी का ख़तरा मोल लेगा और अपनी इज़्ज़त पर दुश्मनों के हमले सब के साथ बरदाश्त करेगा तो अल्लाह से उसकी यह वफ़ादारी भरी ख़िदमत छिपी न रहेगी। मुसलमानों में से जो लोग नबी की अक़ीदत (श्रद्धा) में साबित क़दम रहेंगे और जो शक-शुब्हों में पड़े होंगे, दोनों ही का हाल अल्लाह से छिपा न रहेगा और इस्लाम-दुश्मन और मुनाफ़िक़ उसको बदनाम करने के लिए जो दौड़-धूप करेंगे, उससे भी अल्लाह बेख़बर न रहेगा। लिहाज़ा घबराने की कोई बात नहीं। हर एक अपने अमल के लिहाज़ से जिस इनाम या सज़ा का हक़दार होगा, वह उसे मिलकर रहेगी।
وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا ۝ 2
(3) अल्लाह पर भरोसा करो, अल्लाह ही वकील होने के लिए काफ़ी है।4
4. यह बात फिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है। नबी (सल्ल०) को हिदायत की जा रही है कि जो फ़र्ज़ तुमपर डाला गया है, उसे अल्लाह के भरोसे पर पूरा करो और सारी दुनिया भी अगर मुख़ालिफ़ हो तो उसकी परवाह न करो। जब आदमी को यक़ीन के साथ यह मालूम हो कि फ़ुलाँ हुक्म अल्लाह तआला का दिया हुआ है तो फिर उसे बिलकुल मुत्मइन हो जाना चाहिए कि सारी भलाई और मस्लहत इसी हुक्म को पूरा करने में है। इसके बाद हिकमत और मस्लहत देखना उस आदमी का अपना काम नहीं है, बल्कि उसे अल्लाह के भरोसे पर सिर्फ़ हुक्म का पालन करना चाहिए। अल्लाह इसके लिए बिलकुल काफ़ी है कि बन्दा अपने मामले उसके सिपुर्द कर दे। वह रहनुमाई के लिए भी काफ़ी है और मदद के लिए भी और वहीं इस बात की ज़मानत देनेवाला भी है कि उसकी रहनुमाई में काम करनेवाला आदमी कभी बुरे अंजाम से दोचार न होगा।
مَّا جَعَلَ ٱللَّهُ لِرَجُلٖ مِّن قَلۡبَيۡنِ فِي جَوۡفِهِۦۚ وَمَا جَعَلَ أَزۡوَٰجَكُمُ ٱلَّٰٓـِٔي تُظَٰهِرُونَ مِنۡهُنَّ أُمَّهَٰتِكُمۡۚ وَمَا جَعَلَ أَدۡعِيَآءَكُمۡ أَبۡنَآءَكُمۡۚ ذَٰلِكُمۡ قَوۡلُكُم بِأَفۡوَٰهِكُمۡۖ وَٱللَّهُ يَقُولُ ٱلۡحَقَّ وَهُوَ يَهۡدِي ٱلسَّبِيلَ ۝ 3
(4) अल्लाह ने किसी के धड़ में दो दिल नहीं रखे हैं,5 न उसने तुम लोगों की उन बीवियों को जिनसे तुम 'ज़िहार' करते हो, तुम्हारी माँ बना दिया है6 और न उसने तुम्हारे मुँह बोले बेटों को तुम्हारा सगा बेटा बनाया है।7 ये तो वे बातें हैं जो तुम लोग अपने मुँह से निकाल देते हो, मगर अल्लाह वह बात कहता है जो हक़ीक़त पर मबनी (आधारित) है और वही सही तरीक़े की तरफ़ रहनुमाई करता है।
5. यानी एक आदमी एक ही वक़्त में मोमिन और मुनाफ़िक़, सच्चा और झूठा, बदकार और नेकोकार नहीं हो सकता। उसके सीने में दो दिल नहीं हैं कि एक दिल में ख़ुलूस (निष्ठा) हो और दूसरे दिल में ख़ुदा से बेख़ौफ़ी। इसलिए एक वक़्त में आदमी की एक ही हैसियत हो सकती है। या तो वह मोमिन होगा या मुनाफ़िक़। या तो वह कुफ़्र करनेवाला होगा या मुस्लिम। अब तुम अगर किसी मोमिन को मुनाफ़िक़ कह दो या मुनाफ़िक़ को मोमिन तो इससे मामले की हक़ीक़त न बदल जाएगी। उस शख़्स को अस्ल हैसियत ज़रूर एक ही रहेगी।
6. 'ज़िहार' अरब का एक ख़ास लफ़्ज़ है। पुराने ज़माने में अरब के लोग बीवी से लड़ते हुए कभी यह कह बैठते थे कि “तेरी पीठ मेरे लिए मेरी माँ की पीठ जैसी है।” और यह बात जब किसी के मुँह से निकल जाती थी तो यह समझा जाता था कि अब यह औरत उसपर हराम हो गई है, क्योंकि वह उसे माँ जैसी कह चुका है। इसके बारे में अल्लाह तआला फ़रमाता है कि बीवी को माँ कहने या माँ जैसी कह देने से वह माँ नहीं बन जाती। माँ तो वही है जिसने आदमी को जना है। सिर्फ़ ज़बान से माँ कह देना हक़ीक़त को नहीं बदल देता कि जो बीवी थी, वह तुम्हारे कहने से माँ बन जाए। (यहाँ 'ज़िहार' के बारे में शरीअत का क़ानून बयान करना मक़सद नहीं है। उसका क़ानून सूरा-58 मुजादला, आयतें—2 से 4 में बयान किया गया है।)
7. यह अस्ल बात है जो बतानी है। ऊपर के दोनों जुमले इसी तीसरी बात को ज़ेहन में बिठाने के लिए दलील के तौर पर कहे गए थे।
ٱدۡعُوهُمۡ لِأٓبَآئِهِمۡ هُوَ أَقۡسَطُ عِندَ ٱللَّهِۚ فَإِن لَّمۡ تَعۡلَمُوٓاْ ءَابَآءَهُمۡ فَإِخۡوَٰنُكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَمَوَٰلِيكُمۡۚ وَلَيۡسَ عَلَيۡكُمۡ جُنَاحٞ فِيمَآ أَخۡطَأۡتُم بِهِۦ وَلَٰكِن مَّا تَعَمَّدَتۡ قُلُوبُكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمًا ۝ 4
(5) मुँह बोले बेटों को उनके बापों के ताल्लुक़ से पुकारो, यह अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा इनसाफ़वाली बात है।8 और अगर तुम्हें मालूम न हो कि उनके बाप कौन हैं तो वे तुम्हारे दीनी भाई और साथी हैं।9 अनजाने में जो बात तुम कहो उसके लिए तुमपर कोई पकड़ नहीं है, लेकिन उस बात पर ज़रूर पकड़ है जिसका तुम दिल से इरादा करो।10 अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।11
8. इस हुक्म पर अमल करने में सबसे पहले जो सुधार जारी किया गया, वह यह था कि नबी (सल्ल०) के मुँह बोले बेटे हज़रत ज़ैद (रज़ि०) को ज़ैद-बिन-मुहम्मद (मुहम्मद का बेटा) कहने के बजाय उनके सगे बाप के ताल्लुक़ से ज़ैद-बिन-हारिसा (हारिसा का बेटा) कहना शुरू कर दिया गया। बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी और नसई ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) से यह रिवायत नक़्ल की है कि ज़ैद-बिन-हारिसा को पहले सब लोग ज़ैद-बिन-मुहम्मद कहते थे। यह आयत उतरने के बाद उन्हें ज़ैद-बिन-हारिसा कहने लगे। इसके अलावा इस आयत के उतरने के बाद यह बात हराम ठहरा दी गई कि कोई शख़्स अपने सगे बाप के सिवा किसी और की तरफ़ अपना नसब (वंश) जोड़े। बुख़ारी, मुस्लिम और अबू-दाऊद ने हज़रत सअद-बिन-अबी-वक़्क़ास की रिवायत नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिसने अपने आपको अपने बाप के सिवा किसी और का बेटा कहा, हालाँकि वह जानता हो कि वह आदमी उसका बाप नहीं है, उसपर जन्नत हराम है।” इसी तरह की कुछ दूसरी रिवायतें भी हदीसों की किताबों में मिलती हैं जिनमें इस काम को सख़्त गुनाह ठहराया गया है।
9. यानी इस हालत में भी यह दुरुस्त न होगा कि किसी शख़्स से ख़ाह-मख़ाह उसका नसब (वंश) मिलाया जाए।
10. मतलब यह है कि किसी को प्यार से बेटा कह देने में कोई हरज नहीं है। इसी तरह माँ, बेटी, बहन, भाई वग़ैरा अलफ़ाज़ भी अगर किसी के लिए सिर्फ़ अख़लाक़ी तौर पर इस्तेमाल कर लिए जाएँ तो कोई गुनाह नहीं। लेकिन इस इरादे से यह बात कहना कि जिसे बेटा या बेटी वग़ैरा कहा जाए उसको सचमुच वही हैसियत दे दी जाए जो इन रिश्तों की है और उसके लिए वही हक़ हों जो इन रिश्तेदारों के हैं और उसके साथ वैसे ही ताल्लुक़ात हों जैसे उन रिश्तेदारों के साथ होते हैं, यह यक़ीनन एतिराज़ के क़ाबिल बात है और इसपर पकड़ होगी।
11. इसका एक मतलब यह है कि पहले इस सिलसिले में जो ग़लतियाँ की गई हैं, उनको अल्लाह ने माफ़ किया। उनपर अब कोई पूछ-गछ न होगी। दूसरा मतलब यह है कि अल्लाह अनजाने में किए गए कामों पर पकड़ करनेवाला नहीं है। अगर बेइरादा कोई ऐसी बात की जाए जिसकी ज़ाहिरी सूरत एक मना किए जा चुके काम की-सी हो, मगर उसमें हक़ीक़त में इस मना किए हुए काम की नीयत न हो, तो सिर्फ़ काम की ज़ाहिरी शक्ल पर अल्लाह तआला सज़ा न दे डालेगा।
ٱلنَّبِيُّ أَوۡلَىٰ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ مِنۡ أَنفُسِهِمۡۖ وَأَزۡوَٰجُهُۥٓ أُمَّهَٰتُهُمۡۗ وَأُوْلُواْ ٱلۡأَرۡحَامِ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلَىٰ بِبَعۡضٖ فِي كِتَٰبِ ٱللَّهِ مِنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُهَٰجِرِينَ إِلَّآ أَن تَفۡعَلُوٓاْ إِلَىٰٓ أَوۡلِيَآئِكُم مَّعۡرُوفٗاۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَسۡطُورٗا ۝ 5
(6) बेशक नबी तो ईमानवालों के लिए उनके अपने वुजूद से बढ़कर है12 और नबी की बीवियाँ उनकी माएँ हैं,13 मगर अल्लाह की किताब के मुताबिक़ आम मोमिनों और मुहाजिरों के मुक़ाबले में रिश्तेदार एक-दूसरे के ज़्यादा हक़दार हैं, अलबत्ता अपने साथियों के साथ तुम कोई भलाई (करना चाहो तो) कर सकते हो।14 यह हुक्म अल्लाह की किताब में लिखा हुआ है।
12. यानी नबी (सल्ल०) का मुसलमानों से और मुसलमानों का नबी (सल्ल०) से जो ताल्लुक़ है, वह तो तमाम दूसरे इनसानी ताल्लुक़ात से एक बढ़कर हैसियत रखता है। कोई रिश्ता उस रिश्ते से और कोई ताल्लुक़ उस ताल्लुक़ से जो नबी (सल्ल०) और ईमानवालों के बीच है, ज़र्रा बराबर भी कोई निस्बत नहीं रखता। नबी (सल्ल०) मुसलमानों के लिए उनके माँ-बाप से भी बढ़कर मुहब्बत और रहम करनेवाले और उनके अपने आपसे भी बढ़कर भला चाहनेवाले हैं। उनके माँ-बाप और उनके बीवी-बच्चे उनको नुक़सान पहुँचा सकते हैं, उनके साथ ख़ुदग़रज़ी बरत सकते हैं, उनको गुमराह कर सकते हैं, उनसे ग़लतियाँ करा सकते हैं, उनको जहन्नम में धकेल सकते हैं, मगर नबी (सल्ल०) उनके हक़ में सिर्फ़ वही बात करनेवाले हैं जिसमें उनकी हक़ीक़ी भलाई और कामयाबी हो। वे ख़ुद अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार सकते हैं, बेवक़ूफ़ियाँ करके अपने हाथों अपना नुक़सान कर सकते हैं, लेकिन नबी (सल्ल०) उनके लिए वही कुछ तय करेंगे जो सचमुच उनके लिए फ़ायदेमन्द हो और जब मामला यह है तो नबी (सल्ल०) का भी मुसलमानों पर यह हक़ है कि वे आप (सल्ल०) को अपने माँ-बाप और औलाद और अपनी जान से बढ़कर प्यारा रखें, दुनिया की हर चीज़ से ज़्यादा आप (सल्ल०) से मुहब्बत रखें, अपनी राय पर आप (सल्ल०) की राय को और अपने फ़ैसले पर आप (सल्ल०) के फ़ैसले को बढ़कर समझें और आप (सल्ल०) के हर हुक्म के आगे फ़रमाँबरदारी में सर झुका दें। इसी बात को नबी (सल्ल०) ने उस हदीस में फ़रमाया है जिसे बुख़ारी और मुस्लिम वग़ैरा ने थोड़े से लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ रिवायत किया है कि “तुममें से कोई शख़्स ईमानवाला नहीं हो सकता जब तक कि में उसको उसके बाप और औलाद से और तमाम इनसानों से बढ़कर महबूब और प्यारा न होऊँ।"
13. उसी ख़ासियत की वजह से जो ऊपर बयान हुई, नबी (सल्ल०) की एक ख़ासियत यह भी है कि मुसलमानों की अपनी मुँह बोली माएँ तो किसी मानी में भी उनकी माँ नहीं हैं, लेकिन नबी (सल्ल०) की बीवियाँ उसी तरह उनके लिए हराम हैं जिस तरह उनकी सगी माएँ हराम हैं। यह ख़ास मामला नबी करीम (सल्ल०) के सिवा दुनिया में और किसी इनसान के साथ नहीं हैं। इस सिलसिले में यह भी जान लेना चाहिए कि नबी (सल्ल०) की बीवियाँ सिर्फ़ इस मानी में ईमानवालों की माएँ हैं कि उनकी इज़्ज़त और एहतिराम मुसलमानों पर वाजिब है और उनके साथ किसी मुसलमान का निकाह नहीं हो सकता था। बाक़ी दूसरे हुक्मों में वे माँ की तरह नहीं हैं। मसलन उनके हक़ीक़ी रिश्तेदारों के सिवा बाक़ी सब मुसलमान उनके लिए ग़ैर-महरम थे जिनसे परदा वाजिब था। उनकी बेटियाँ मुसलमानों के लिए माँ-जाई बहनें न थीं कि उनसे भी मुसलमानों का निकाह मना होता। उनके भाई-बहन मुसलमानों के लिए ख़ाला (मौसी) और मामूँ के हुक्म में न थे। उनसे किसी ग़ैर-रिश्तेदार मुसलमान को वह मीरास नहीं पहुँचती थी जो एक शख़्स को अपनी माँ से पहुँचती है। यहाँ यह बात भी बयान करने के क़ाबिल है कि क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ यह मर्तबा नबी (सल्ल०) की तमाम पाक बीवियों को हासिल है जिनमें लाज़िमन हज़रत आइशा (रज़ि०) भी शामिल हैं। लेकिन एक गरोह ने जब हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनकी औलाद को दीन का मर्कज़ बनाकर दीन का सारा निजाम उन्हीं के आस-पास घुमा दिया और इस वजह से दूसरे बहुत-से सहाबा (रज़ि०) के साथ हज़रत आइशा (रज़ि०) को भी तानों और लानतों का निशाना बनाया, तो उनकी राह में क़ुरआन मजीद की यह आयत रुकावट बन गई, जिसके मुताबिक़ हर उस शख़्स को उन्हें अपनी माँ मानना पड़ता है जो ईमान का दावेदार हो। आख़िरकार इस मुश्किल को दूर करने के लिए यह अजीब-ग़रीब दावा किया गया कि नबी करीम (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि०) को यह हक़ दे दिया था कि आप (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद आप (सल्ल०) की पाक बीवियों में से जिसको चाहें आप (सल्ल०) की बीवी के तौर पर बाक़ी रखें और जिसको चाहे आप (सल्ल०) की तरफ़ से तलाक़ दे दें। अबू-मंसूर अहमद-बिन-अबू-तालिब तबरसी ने किताबुल-एहतिजाज में यह बात लिखी है। और सुलैमान-बिन-अब्दुल्लाह अल-बुहरानी ने उसे नक़्ल किया है कि नबी (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि०) से फ़रमाया, “अबुल-हसन! इज़्ज़त और क़द्र तो उसी वक़्त तक बाक़ी है, जब तक हम लोग अल्लाह की फ़रमाँबरदारी पर क़ायम रहें। इसलिए मेरी बीवियों में से जो भी मेरे बाद तेरे ख़िलाफ़ ख़ुरूज करके (यानी तेरी मातहती से निकलकर) अल्लाह की नाफ़रमानी करे, उसे तू तलाक़ दे देना और उसको ईमानवालों की माँ होने की ख़ुशनसीबी से अलग कर देना।" रिवायत के उसूल के एतिबार से तो यह रिवायत सरासर बेअस्ल है ही, लेकिन अगर आदमी इसी सूरा-33 अहज़ाब की आयत-28, 29 और 51, 52 पर ग़ौर करे तो मालूम हो जाता है कि यह रिवायत क़ुरआन के भी ख़िलाफ़ पड़ती है, क्योंकि ‘तख़ईर' (तलाक़ का हक़ मिलने) की आयत के बाद जिन पाक बीवियों ने हर हाल में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही के साथ को अपने लिए पसन्द किया था, उन्हें तलाक़ देने का हक़ नबी (सल्ल०) को बाक़ी न रहा था। इस बात को आगे हाशिया-12 और 99 में हमने ज़्यादा खोलकर बयान कर दिया है। इसके अलावा एक आदमी जो किसी तरह के तास्सुब (पक्षपात) और किसी की नामुनासिब तरफ़दारी की बीमारी में पड़ा हुआ न हो, अगर सिर्फ़ अक़्ल ही से काम लेकर इस रिवायत के मज़मून पर ग़ौर करे तो साफ़ नज़र आता है कि यह इन्तिहाई बेहूदा और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के हक़ में बहुत ही रुसवाकुन झूठ है जो आप (सल्ल०) से जोड़ा गया है। रसूल का मक़ाम तो बहुत ऊँचा और बरतर है, एक मामूली शरीफ़ आदमी से भी यह उम्मीद नहीं की जा सकती कि वह अपनी मौत के बाद अपनी बीवी को तलाक़ देने की फ़िक्र करेगा और दुनिया से रुख़सत होते वक़्त दामाद को यह हक़ दे जाएगा कि अगर कभी तेरा इसके साथ झगड़ा हो तो मेरी तरफ़ से तू इसे तलाक़ दे देना। इससे मालूम होता है कि जो लोग 'अहले-बैत' (रसूल के घरवालों) की मुहब्बत के दावेदार हैं, उनके दिलों में 'साहिबुल-बैत' (सल्ल०) की नेकनामी और इज़्ज़त का ख़याल कितना कुछ है और इससे भी गुज़रकर ख़ुद अल्लाह तआला के हुक्मों का वे कितना एहतिराम करते हैं।
14. इस आयत में यह बताया गया है कि जहाँ तक नबी (सल्ल०) का मामला है, उनके साथ तो मुसलमानों का ताल्लुक़ ही सबसे अलग तरह का है। लेकिन आम मुसलमानों के बीच आपस के ताल्लुक़ात इस उसूल पर क़ायम होंगे कि रिश्तेदारों के हक़ एक-दूसरे पर आम लोगों के मुक़ाबले में बढ़कर हैं। कोई ख़ैरात इस सूरत में सही नहीं है कि आदमी अपने माँ-बाप, बाल-बच्चों और भाई-बहनों की ज़रूरतें तो पूरी न करे और बाहर ख़ैरात करता फिरे। ज़कात से भी आदमी को पहले अपने ग़रीब रिश्तेदारों की मदद करनी होगी, फिर वह दूसरे हक़दारों को देगा। मीरास लाज़िमी तौर से उन लोगों को पहुँचेगी जो रिश्ते में आदमी से ज़्यादा क़रीब हों। दूसरे लोगों को अगर वह चाहे तो हिबा (दान), या वक़्फ़ या वसीयत के ज़रिए से अपना माल दे सकता है, मगर इस तरह नहीं कि वारिस महरूम (वंचित) रह जाएँ और सब कुछ दूसरों को दे डाला जाए। अल्लाह के इस हुक्म से वह तरीक़ा भी ख़त्म हो गया जो हिजरत के बाद मुहाजिरों और अनसार के बीच भाईचारा क़ायम करने से शुरू हुआ था, जिसके मुताबिक़ सिर्फ़ दीनी बिरादरी के ताल्लुक़ की बुनियाद पर मुहाजिर और अनसार एक-दूसरे के वारिस थे। अल्लाह तआला ने साफ़ फ़रमा दिया कि विरासत तो रिश्तेदारी की बुनियाद पर ही बँटेगी, अलबत्ता एक शख़्स हदिए, तोहफ़े या वसीयत के ज़रिए से अपने किसी दीनी भाई की कोई मदद करना चाहे तो कर सकता है।
وَإِذۡ أَخَذۡنَا مِنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مِيثَٰقَهُمۡ وَمِنكَ وَمِن نُّوحٖ وَإِبۡرَٰهِيمَ وَمُوسَىٰ وَعِيسَى ٱبۡنِ مَرۡيَمَۖ وَأَخَذۡنَا مِنۡهُم مِّيثَٰقًا غَلِيظٗا ۝ 6
(7) और (ऐ नबी!) याद रखो उस अह्द और वादे को जो हमने सब पैग़म्बरों से लिया है, तुमसे भी और नूह और इबराहीम और मूसा और मरयम के बेटे ईसा से भी। सबसे हम पक्का वादा ले चुके हैं,15
15. इस आयत में अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) को यह बात याद दिलाता है कि तमाम पैग़म्बरों (अलैहि०) की तरह आप (सल्ल०) से भी अल्लाह तआला एक पक्का अह्द (वचन) ले चुका है, जिसकी आप (सल्ल०) को सख़्ती से पाबन्दी करनी चाहिए। इस अह्द से कौन-सा अह्द मुराद है? ऊपर से बात का जो सिलसिला चला आ रहा है, उसपर ग़ौर करने से साफ़ मालूम हो जाता है कि इससे मुराद यह अह्द है कि पैग़म्बर अल्लाह तआला के हर हुक्म को ख़ुद मानेगा और दूसरों से मनवाएगा, अल्लाह की बातों को बिना घटाए-बढ़ाए पहुँचाएगा और उन्हें अमली तौर से लागू करने की कोशिश करने में कोई कमी न करेगा। क़ुरआन मजीद में इस अह्द का ज़िक्र कई जगहों पर किया गया है। जैसे— “अल्लाह तआला ने मुक़र्रर कर दिया तुम्हारे लिए दीन का वही तरीक़ा जिसका हुक्म उसने नूह को दिया था और जिसकी वह्य की गई (ऐ मुहम्मद) तुम्हारी तरफ़ और जिसकी हिदायत हम इबराहीम और मूसा और ईसा को कर चुके हैं, इस ताकीद के साथ कि तुम लोग क़ायम करो इस दीन को और इसमें फूट न डालो।” (सूरा-42 शूरा, आयत-13) "और याद करो इस बात को कि अल्लाह ने अह्द लिया था, उन लोगों से जिनको किताब दी गई थी कि तुम लोग उसकी तालीम को बयान करोगे और उसे छिपाओगे नहीं।" (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-187) "और याद करो कि हमने बनी-इसराईल से अह्द लिया था कि तुम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करोगे।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-83) "क्या उनसे किताब का अह्द नहीं लिया गया था?......मज़बूती के साथ थामो उस चीज़ को जो हमने तुम्हें दी है और याद रखो इस हिदायत को जो इसमें है। उम्मीद है कि तुम अल्लाह की नाफ़रमानी से बचते रहोगे।” (सूरा-7 आराफ़, आयतें—169 से 171) "और ऐ मुसलमानो! याद रखो अल्लाह के उस एहसान को जो उसने तुमपर किया है और उस अह्द को जो उसने तुमसे लिया है, जबकि तुमने कहा, हमने सुना और माना।" (सूरा-5 माइदा, आयत-7) इस अह्द को इस मौक़े पर अल्लाह तआला जिस वजह से याद दिला रहा है, वह यह है कि नबी (सल्ल०) दुश्मनों के मज़ाक़ उड़ाने और ताने देने के अन्देशे से मुँह बोले रिश्तों के मामले में जाहिलियत की रस्म को तोड़ते हुए झिझक रहे थे। आप (सल्ल०) को बार-बार यह शर्म महसूस हो रही थी कि मामला एक औरत से शादी करने का है। मैं चाहे कितनी ही नेक नीयती के साथ सिर्फ़ समाज-सुधार के लिए यह काम करूँ, मगर दुश्मन यही कहेंगे कि यह काम अस्ल मन की ख़ाहिश पूरी करने के लिए किया गया है और सुधारक का चोला इस आदमी ने सिर्फ़ धोखा देने के लिए ओढ़ रखा है। इसी वजह से अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) से फ़रमा रहा है कि तुम हमारे मुक़र्रर किए हुए पैग़म्बर हो, तमाम पैग़म्बरों की तरह तुमसे भी हमारा यह पक्का अह्द है कि जो कुछ भी हुक्म हम देंगे, उसको ख़ुद पूरा करोगे और दूसरों को उसकी पैरवी का हुक्म दोगे। लिहाज़ा तुम किसी के तानों और लानत-मलामत की परवाह न करो, किसी से शर्म न करो और न किसी से डरो और जो काम हम तुमसे लेना चाहते हैं, उसे बिना झिझक कर डालो। एक गरोह इस अह्द से वह अह्द मुराद लेता है जो नबी (सल्ल०) से पहले के तमाम नबियों और उनकी उम्मतों से इस बात के लिए लिया गया था कि वे बाद के आनेवाले नबी पर ईमान लाएँगे और उसका साथ देंगे। इस मतलब की बुनियाद पर इस गरोह का दावा यह है कि नबी (सल्ल०) के बाद भी नुबूवत (पैग़म्बर आने) का दरवाज़ा खुला हुआ है और नबी (सल्ल०) से भी यह अह्द लिया गया है कि आप (सल्ल०) के बाद जो नबी आए आप (सल्ल०) की उम्मत उसपर ईमान लाएगी। लेकिन आयत का मौक़ा और महल साफ़ बता रहा है कि यह मतलब बिलकुल ग़लत है। बात के जिस सिलसिले में यह आयत आई है, उसमें यह कहने का सिरे से कोई मौक़ा ही नहीं है कि आप (सल्ल०) के बाद भी नबी आएँगे और आप (सल्ल०) की उम्मत को उनपर ईमान लाना चाहिए। यह मतलब इसका लिया जाए तो यह आयत यहाँ बिलकुल बेजोड़ और बेमौक़ा हो जाती है। इसके अलावा आयत के अलफ़ाज़ में कोई इशारा ऐसा नहीं है जिससे यह ज़ाहिर होता हो कि यहाँ अह्द से मुराद कौन-सा अह्द मुराद है। यह किस तरह का अह्द है, यह मालूम करने के लिए लाज़िमन हमको क़ुरआन मजीद के दूसरे मक़ामात की तरफ़ रुजू करना होगा जहाँ नबियों से लिए हुए अह्दों का ज़िक्र किया गया है। अब अगर सारे क़ुरआन में सिर्फ़ एक ही अह्द का ज़िक्र होता और वह बाद के आनेवाले नबियों पर ईमान लाने के बारे में होता तो यह समझना दुरुस्त होता कि यहाँ भी अह्द से मुराद वही अह्द है। लेकिन क़ुरआन पाक को जिस शख़्स ने भी आँखें खोलकर पढ़ा है, वह जानता है कि इस किताब में बहुत-से अह्दों का ज़िक्र है, जो नबियों (अलैहि०) और उनकी उम्मतों से लिए गए हैं। लिहाज़ा उन अलग-अलग अह्दों में से वह अह्द यहाँ मुराद लेना सही होगा जो इस मौक़ा-महल से मेल खाता हो, न कि वह अह्द जिसके ज़िक्र का यहाँ कोई मौक़ा न हो। इसी तरह के ग़लत मतलबों से यह हक़ीक़त खुल जाती है कि कुछ लोग क़ुरआन से हिदायत लेने नहीं बैठते, बल्कि उसे हिदायत देने बैठ जाते हैं।
لِّيَسۡـَٔلَ ٱلصَّٰدِقِينَ عَن صِدۡقِهِمۡۚ وَأَعَدَّ لِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 7
(8) ताकि सच्चे लोगों से (उनका रब) उनकी सच्चाई के बारे में सवाल करे16 और इनकार करनेवालों के लिए तो उसने दर्दनाक अज़ाब जुटा ही रखा है।17
16. यानी अल्लाह तआला सिर्फ़ अह्द लेकर नहीं रह गया है, बल्कि उस अह्द के बारे में वह सवाल करनेवाला है कि उसकी कहाँ तक पाबन्दी की गई। फिर जिन लोगों ने सच्चाई के साथ अल्लाह से किए हुए अह्द को निभाया होगा, वही अह्द के सच्चे ठहरेंगे।
17. इस रुकू के मज़मून (विषय-वस्तु) को पूरी तरह समझने के लिए ज़रूरी है कि इसको इसी सूरा की आयतों-36 से 41 के साथ मिलाकर पढ़ा जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ نِعۡمَةَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ جَآءَتۡكُمۡ جُنُودٞ فَأَرۡسَلۡنَا عَلَيۡهِمۡ رِيحٗا وَجُنُودٗا لَّمۡ تَرَوۡهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرًا ۝ 8
(9) ऐ लोगो!18 जो ईमान लाए हो, याद करो अल्लाह के उस एहसान को जो (अभी-अभी) उसने तुमपर किया है। जब लश्कर तुमपर चढ़ आए तो हमने उनपर एक सख़्त आँधी भेज दी और ऐसी फ़ोजें रवाना की जो तुमको नज़र न आती थीं।19 अल्लाह वह सब देख रहा था जो तुम लोग उस वक़्त कर रहे थे।
18. यहाँ से रुकू-3 के आख़िर (आयत-27) तक की आयतें उस वक़्त उतरी थीं जब नबी (सल्ल०) बनी-क़ुरैज़ा की जंग से निबट चुके थे। इन दोनों रुकूओं में अहज़ाब और बनी-क़ुरैज़ा की जंगों के वाक़िआत पर तबसिरा (समीक्षा) किया गया है। इनको पढ़ते वक़्त इन दोनों जंगों की वे तफ़सीलात निगाह में रहनी चाहिए जो हम परिचय में बयान कर आए हैं।
19. यह आँधी उसी वक़्त नहीं आ गई थी, जबकि दुश्मनों के लश्कर मदीना पर चढ़ आए थे, बल्कि उस वक़्त आई थी जब घेराबन्दी को लगभग एक महीना बीत चुका था। नज़र न आनेवाली 'फ़ौजों' से मुराद वे छिपी हुई ताक़तें हैं जो इनसानी मामलों में अल्लाह तआला के इशारे पर काम करती रहती हैं और इनसानों को उनकी ख़बर तक नहीं होती। इनसान वाक़िआत और हादिसों को सिर्फ़ उनके ज़ाहिरी असबाब (कारकों) की वजह समझता है। लेकिन अन्दर-ही-अन्दर ग़ैर-महसूस तौर पर जो क़ुव्वतें काम करती हैं, वह उसके हिसाब में नहीं आती, हालाँकि अकसर हालात में इन्हीं छिपी ताक़तों की कारफ़रमाई फ़ैसलाकुन होती है। ये ताक़तें चूँकि अल्लाह तआला के फ़रिश्तों के तहत काम करती हैं, इसलिए 'फ़ौजों’ से मुराद फ़रिश्ते भी लिए जा सकते हैं, अगरचे यहाँ फ़रिश्तों की फ़ौजें भेजने की बात साफ़ तौर पर बयान नहीं की गई है।
وَإِذۡ قَالَت طَّآئِفَةٞ مِّنۡهُمۡ يَٰٓأَهۡلَ يَثۡرِبَ لَا مُقَامَ لَكُمۡ فَٱرۡجِعُواْۚ وَيَسۡتَـٔۡذِنُ فَرِيقٞ مِّنۡهُمُ ٱلنَّبِيَّ يَقُولُونَ إِنَّ بُيُوتَنَا عَوۡرَةٞ وَمَا هِيَ بِعَوۡرَةٍۖ إِن يُرِيدُونَ إِلَّا فِرَارٗا ۝ 9
(13) जब उनमें से एक गरोह ने कहा कि “ए यसरिब के लोगो, तुम्हारे लिए अब ठहरने का कोई मौक़ा नहीं है, पलट चलो।"23 जब उनके कुछ लोग यह कहकर नबी से रुख़़सत (इजाज़त) तलब कर रहे थे कि “हमारे घर ख़तरे में हैं,"24 हालाँकि वे ख़तरे में न थे,25 अस्ल में वे (जंग के मोर्चे से) भागना चाहते थे।
23. इस जुमले के दो मतलब हैं। ज़ाहिरी मतलब यह है कि ख़न्दक़ के सामने इस्लाम-दुश्मनों के मुक़ाबले पर ठहरने का कोई मौक़ा नहीं है, शहर की तरफ़ पलट चलो और छिपा हुआ मतलब यह है कि इस्लाम पर ठहरने का कोई मौक़ा नहीं है, अब अपने बाप-दादा के धर्म की तरफ़ पलट जाना चाहिए, ताकि सारे अरब की दुश्मनी मोल लेकर हमने जिस ख़तरे में अपने आपको डाल दिया है, उससे बच जाएँ। मुनाफ़िक़ अपनी ज़बान से इस तरह की बातें इसलिए कहते थे कि जो उनकी बातों में आ सकता हो, उसको तो अपना छिपा हुआ मतलब समझा दें, लेकिन जो उनकी बात सुनकर चौकन्ना हो और उसपर गिरिफ़्त करे, उसके सामने अपने ज़ाहिर अलफ़ाज़ की आड़ लेकर गिरिफ़्त से बच जाएँ।
24. यानी जब बनी-क़ुरैज़ा भी हमला करनेवालों के साथ मिल गए तो उन मुनाफ़िक़ों को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लश्कर से निकल भागने के लिए एक अच्छा बहाना हाथ आ गया और उन्होंने यह कहकर रुख़सत माँगनी शुरू की कि अब तो हमारे घर ही ख़तरे में पड़ गए हैं, लिहाज़ा हमें जाकर अपने बाल-बच्चों की हिफ़ाज़त करने का मौक़ा दिया जाए। हालाँकि उस वक़्त सारे मदीनावालों की हिफ़ाज़त के ज़िम्मेदार नबी (सल्ल०) थे। बनी-क़ुरैज़ा के समझौता तोड़ने से जो ख़तरा भी पैदा हुआ था, उससे शहर और उसके वासियों को बचाने की तदबीर करना नबी (सल्ल०) का काम था, न कि फ़ौज के एक-एक शख़्स का।
25. यानी इस ख़तरे से बचाव का इन्तिज़ाम तो नबी (सल्ल०) कर चुके थे। यह इन्तिज़ाम भी बचाव की उस पूरी स्कीम ही का एक हिस्सा था जिसपर फ़ौज के कमाँडर की हैसियत से नबी (सल्ल०) अमल कर रहे थे। इसलिए कोई फ़ौरी ख़तरा उस वक़्त सामने न था, जिसकी वजह से उनका यह बहाना किसी दरजे में भी सही होता।
وَلَوۡ دُخِلَتۡ عَلَيۡهِم مِّنۡ أَقۡطَارِهَا ثُمَّ سُئِلُواْ ٱلۡفِتۡنَةَ لَأٓتَوۡهَا وَمَا تَلَبَّثُواْ بِهَآ إِلَّا يَسِيرٗا ۝ 10
(14) अगर शहर के चारों तरफ़ से दुश्मन घुस आए होते और उस वक़्त उन्हें फ़ितने की तरफ़ दावत दी जाती26 तो ये उसमें जा पड़ते और मुश्किल ही से इन्हें फ़ितने में पड़ने से कोई हिचक होती।
26. यानी अगर शहर में दाख़िल होकर जीत हासिल करनेवाले इस्लाम-दुश्मन इन मुनाफ़िक़ों को दावत देते कि आओ, हमारे साथ मिलकर मुसलमानों को ख़त्म कर दो।
وَلَقَدۡ كَانُواْ عَٰهَدُواْ ٱللَّهَ مِن قَبۡلُ لَا يُوَلُّونَ ٱلۡأَدۡبَٰرَۚ وَكَانَ عَهۡدُ ٱللَّهِ مَسۡـُٔولٗا ۝ 11
(15) इन लोगों ने इससे पहले अल्लाह से वादा किया था कि ये पीठ न फेरेंगे और अल्लाह से किए हुए वादे की पूछ-गछ तो होनी ही थी।27
27. यानी उहुद की जंग के मौक़े पर जो कमज़ोरी उन्होंने दिखाई थी, उसके बाद शर्मिन्दगी और पछतावा ज़ाहिर करके उन लोगों ने अल्लाह से वादा किया था कि अब अगर आज़माइश का कोई मौक़ा पेश आया तो हम अपने इस क़ुसूर की भरपाई कर देंगे। लेकिन अल्लाह तआला को सिर्फ़ बातों से धोखा नहीं दिया जा सकता। जो शख़्स भी उससे कोई अह्द बाँधता है, उसके सामने कोई-न-कोई आज़माइश का मौक़ा वह ज़रूर ले आता है, ताकि उसका झूठ-सच खुल जाए। इसलिए वह उहुद की जंग के दो ही साल बाद उससे भी ज़्यादा बड़ा ख़तरा सामने ले आया और उसने जाँचकर देख लिया कि उन लोगों ने कैसा कुछ सच्चा अह्द उससे किया था।
قُل لَّن يَنفَعَكُمُ ٱلۡفِرَارُ إِن فَرَرۡتُم مِّنَ ٱلۡمَوۡتِ أَوِ ٱلۡقَتۡلِ وَإِذٗا لَّا تُمَتَّعُونَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 12
(16) ऐ नबी! इनसे कहो, अगर तुम मौत या क़त्ल से भागो तो यह भागना तुम्हारे लिए कुछ भी फ़ायदेमन्द न होगा। उसके बाद ज़िन्दगी के मज़े लूटने का थोड़ा ही मौक़ा तुम्हें मिल सकेगा।28
28. यानी इस तरह भागने से कुछ तुम्हारी उम्र बढ़ नहीं जाएगी। इसका नतीजा बहरहाल यह नहीं होगा कि तुम क़ियामत तक जियो और तमाम धरती की दौलत पा लो। भागकर जियोगे भी तो ज़्यादा-से-ज़्यादा कुछ साल ही जियोगे और उतना ही कुछ दुनिया को ज़िन्दगी का मज़ा ले सकोगे, जितना तुम्हारी क़िस्मत में लिखा है।
قُلۡ مَن ذَا ٱلَّذِي يَعۡصِمُكُم مِّنَ ٱللَّهِ إِنۡ أَرَادَ بِكُمۡ سُوٓءًا أَوۡ أَرَادَ بِكُمۡ رَحۡمَةٗۚ وَلَا يَجِدُونَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 13
(17) इनसे कहो : कौन है जो तुम्हें अल्लाह से बचा सकता हो, अगर वह तुम्हें नुक़सान पहुँचाना चाहे? और कौन उसकी रहमत को रोक सकता है, अगर वह तुमपर मेहरबानी करना चाहे? अल्लाह के मुक़ाबले में तो ये लोग कोई हिमायती या मददगार नहीं पा सकते हैं।
۞قَدۡ يَعۡلَمُ ٱللَّهُ ٱلۡمُعَوِّقِينَ مِنكُمۡ وَٱلۡقَآئِلِينَ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ هَلُمَّ إِلَيۡنَاۖ وَلَا يَأۡتُونَ ٱلۡبَأۡسَ إِلَّا قَلِيلًا ۝ 14
(18) अल्लाह तुममें से उन लोगों को ख़ूब जानता है जो (जंग के काम में) रुकावटें डालनेवाले हैं, जो अपने भाइयों से कहते हैं कि “आओ हमारी तरफ़।"29 जो लड़ाई में हिस्सा लेते भी हैं तो बस नाम गिनाने को,
29. यानी छोड़ो इस पैग़म्बर का साथ। कहाँ दीन-ईमान और हक़ और सच्चाई के चक्कर में पड़े हो? अपने आपको ख़तरों और मुसीबतों में मुब्तला करने के बजाय वही सुकून और बचने की पॉलिसी अपनाओ जो हमने अपना रखी है।
أَشِحَّةً عَلَيۡكُمۡۖ فَإِذَا جَآءَ ٱلۡخَوۡفُ رَأَيۡتَهُمۡ يَنظُرُونَ إِلَيۡكَ تَدُورُ أَعۡيُنُهُمۡ كَٱلَّذِي يُغۡشَىٰ عَلَيۡهِ مِنَ ٱلۡمَوۡتِۖ فَإِذَا ذَهَبَ ٱلۡخَوۡفُ سَلَقُوكُم بِأَلۡسِنَةٍ حِدَادٍ أَشِحَّةً عَلَى ٱلۡخَيۡرِۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَمۡ يُؤۡمِنُواْ فَأَحۡبَطَ ٱللَّهُ أَعۡمَٰلَهُمۡۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا ۝ 15
(19) जो तुम्हारा साथ देने में सख़्त कंजूस हैं।30 ख़तरे का वक़्त आ जाए तो इस तरह दीदे फिरा-फिराकर तुम्हारी तरफ़ देखते हैं जैसे किसी मरनेवाले पर बेहोशी छा रही हो, मगर जब ख़तरा टल जाता है तो यही लोग फ़ायदों के लोभी बनकर क़ैंची की तरह चलती हुई ज़बानें लिए तुम्हारे इस्तिक़बाल (स्वागत) के लिए आ जाते हैं।"31 ये लोग हरगिज़ ईमान नहीं लाए, इसी लिए अल्लाह ने उनके सारे आमाल बेकार कर दिए।32 और ऐसा करना अल्लाह के लिए बहुत आसान है।33
30. यानी अपनी मेहनतें, अपने वक़्त, अपनी फ़िक़्र, अपने माल, ग़रज़ कोई चीज़ भी वे उस राह में लगाने के लिए ख़ुशी से तैयार नहीं हैं जिसमें सच्चे ईमानवाले अपना सब कुछ झोंके दे रहे हैं। जान खपाना और ख़तरों में पड़ना तो बड़ी चीज़ है, वे किसी काम में भी खुले दिल से ईमानवालों का साथ नहीं देना चाहते।
31. अरबी ज़बान के हिसाब से इस आयत के दो मतलब हैं। एक यह कि लड़ाई से जब तुम कामयाब पलटते हो तो वे बड़े तपाक से तुम्हारा इस्तिक़बाल (स्वागत) करते हैं और बातें बना-बनाकर यह धौंस जमाने की कोशिश करते हैं कि हम भी बड़े ईमानवाले हैं और हमने भी इस काम को फैलाने में हिस्सा लिया है, इसलिए हम भी ग़नीमत के माल (लड़ाई में दुश्मन के छोड़े हुए माल) के हक़दार हैं। दूसरा मतलब यह है कि अगर जीत मिलती है तो ग़नीमत के माल के बँटवारे के मौक़े पर ये लोग ज़बान की बड़ी तेज़ी दिखाते हैं और बढ़-चढ़कर माँगें करते हैं कि लाओ हमारा हिस्सा, हमने भी ख़िदमत अंजाम दी हैं, सब कुछ तुम ही लोग न लूट ले जाओ।
32. यानी इस्लाम क़ुबूल करने के बाद जो नमाज़ें उन्होंने पढ़ीं, जो रोज़े उन्होंने रखे, जो ज़कातें दीं और बज़ाहिर जो नेक काम भी किए, उन सबको अल्लाह तआला रद्द कर देगा और उनका कोई बदला उन्हें न देगा, क्योंकि अल्लाह तआला के यहाँ फ़ैसला आमाल की ज़ाहिरी शक़्ल पर नहीं होता, बल्कि यह देखकर होता है कि इस ज़ाहिर की तह में ईमान और सच्चाई है या नहीं। जब यह चीज़ सिरे से उनके अन्दर मौज़ूद ही नहीं है तो ये दिखावे के काम सरासर बेमतलब हैं। इस जगह इस बात पर गहराई से ध्यान देने की ज़रूरत है कि जो लोग अल्लाह और रसूल (सल्ल०) का इक़रार करते थे, नमाज़ें पढ़ते थे, रोज़े रखते थे, ज़कात भी देते थे और मुसलमानों के साथ उनके दूसरे नेक कामों में भी शरीक होते थे, उनके बारे में साफ़-साफ़ फ़ैसला दे दिया गया है कि ये सिरे से ईमान लाए ही नहीं और यह फ़ैसला सिर्फ़ इस बुनियाद पर दिया गया है कि कुफ़्र और इस्लाम की कश्मकश में जब कड़ी आज़माइश का वक़्त आया तो उन्होंने दोग़लेपन का सुबूत दिया, दीन के फ़ायदे पर अपने फ़ायदे को आगे रखा और इस्लाम की हिफ़ाज़त के लिए जान, माल और मेहनत लगाने में कोताही की। इससे मालूम हुआ कि फ़ैसले की अस्ल बुनियाद ये ज़ाहिरी आमाल नहीं हैं, बल्कि यह सवाल है कि आदमी की वफ़ादारियाँ किस तरफ़ हैं। जहाँ ख़ुदा और उसके दीन से वफ़ादारी नहीं है, वहाँ ईमान का इक़रार और इबादतों और दूसरी नेकियों की कोई क़ीमत नहीं।
33. यानी इनके आमाल कोई वज़्‌न और क़ीमत नहीं रखते कि उनको बरबाद कर देना अल्लाह को बुरा लगे और ये लोग कोई ज़ोर भी नहीं रखते कि उनके आमाल को बरबाद करना उसके लिए मुश्किल हो।
يَحۡسَبُونَ ٱلۡأَحۡزَابَ لَمۡ يَذۡهَبُواْۖ وَإِن يَأۡتِ ٱلۡأَحۡزَابُ يَوَدُّواْ لَوۡ أَنَّهُم بَادُونَ فِي ٱلۡأَعۡرَابِ يَسۡـَٔلُونَ عَنۡ أَنۢبَآئِكُمۡۖ وَلَوۡ كَانُواْ فِيكُم مَّا قَٰتَلُوٓاْ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 16
(20) ये समझ रहे हैं कि हमला करनेवाले गरोह अभी गए नहीं हैं और अगर वे फिर हमला कर दें तो इनका जी चाहता है कि उस मौक़े पर ये कहीं रेगिस्तान में बद्दुओं (देहातियों) के बीच जा बैठें और वहीं से तुम्हारे हालात पूछते रहें। फिर भी अगर ये तुम्हारे बीच रहे भी तो लड़ाई में कम ही हिस्सा लेंगे।
لَّقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِي رَسُولِ ٱللَّهِ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَ وَذَكَرَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا ۝ 17
(21) हक़ीक़त में तुम लोगों के लिए अल्लाह के रसूल में एक बेहतरीन नमूना था,34 हर उस आदमी के लिए जो अल्लाह और आख़िरी दिन की उम्मीद रखता हो और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करे35
34. जिस पसमंज़र में यह आयत उतरी है उसके लिहाज़ से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के रवैये को इस जगह नमूने के तौर पर पेश करने का मक़सद उन लोगों को सबक़ देना था जिन्होंने अहज़ाब की जंग के मौक़े पर अपना फ़ायदा देखा और ख़तरों में पड़ने से बचे रहे थे। उनसे कहा जा रहा है कि तुम ईमान और इस्लाम और रसूल की पैरवी के दावेदार थे। तुमको देखना चाहिए था कि जिस रसूल की पैरवी करनेवालों में तुम शामिल हुए हो, उसका इस मौक़े पर क्या रवैया था। अगर किसी गरोह का लीडर ख़ुद ख़तरों से बचनेवाला आराम तलब हो, ख़ुद अपने निज़ी फ़ायदे की हिफ़ाज़त को सबसे ज़्यादा अहमियत और तरजीह देता हो, ख़तरे के वक़्त ख़ुद भाग निकलने की तैयारियाँ कर रहा हो, फिर तो उसकी पैरवी करनेवालों की तरफ़ से इन कमज़ोरियों का ज़ाहिर होना सही हो सकता है। मगर यहाँ तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का हाल यह था कि हर मेहनत और मशक्कत जिसकी आप (सल्ल०) ने दूसरों से माँग की, उसे बरदाश्त करने में आप (सल्ल०) ख़ुद सबके साथ शरीक थे, बल्कि दूसरों से बढ़कर ही आप (सल्ल०) ने हिस्सा दिया। कोई तकलीफ़ ऐसी न थी जो दूसरों ने उठाई हो और आप (सल्ल०) ने न उठाई हो। ख़ंदक़ खोदनेवालों में आप (सल्ल०) ख़ुद शामिल थे। भूख और सर्दी की तकलीफ़ें उठाने में एक मामूली मुसलमान के साथ आप (सल्ल०) का हिस्सा बिलकुल बराबर था। घेराबन्दी के दौरान में आप (सल्ल०) हर वक़्त जंग के मोर्चे पर मौजूद रहे और एक पल के लिए भी दुश्मन के मुक़ाबले से न हटे। बनी-क़ुरैज़ा की ग़द्दारी के बाद जिस ख़तरे में सब मुसलमानों के बाल-बच्चे मुब्तला थे, उसी में आप (सल्ल०) के बाल-बच्चे भी मुब्तला थे। आप (सल्ल०) ने अपनी हिफ़ाज़त और अपने बाल-बच्चों की हिफ़ाज़त के लिए कोई ख़ास इन्तिज़ाम न किया जो दूसरे मुसलमानों के लिए न हो। जिस बड़े मक़सद के लिए आप (सल्ल०) दूसरों से क़ुरबानियाँ माँग रहे थे, उसपर सबसे पहले और सबसे बढ़कर आप (सल्ल०) ख़ुद अपना सब कुछ क़ुरबान कर देने को तैयार थे। इसलिए जो कोई भी आप (सल्ल०) की पैरवी का दावेदार था, उसे यह नमूना देखकर उसकी पैरवी करनी चाहिए थी। यह तो मौक़ा और महल के लिहाज़ से इस आयत का मतलब है। मगर इसके अलफ़ाज़ आम हैं और इसके मक़सद को सिर्फ़ उसी मतलब तक महदूद रखने की कोई वजह नहीं है अल्लाह तआला ने यह नहीं फ़रमाया है कि सिर्फ़ उसी लिहाज़ से उसके रसूल की ज़िन्दगी मुसलमानों के लिए नमूना है, बल्कि पूरी तरह उसे नमूना बताया है। इसलिए इस आयत का तक़ाज़ा यह है कि मुसलमान हर मामले में आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी को अपने लिए नमूने की ज़िन्दगी समझें और उसके मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी और किरदार को ढालें।
35. यानी अल्लाह को भूले हुए आदमी के लिए तो यह ज़िन्दगी नमूना नहीं है, मगर उस शख़्स के लिए ज़रूर नमूना है जो कभी-कभार इत्तिफ़ाक़ से ख़ुदा का नाम लेनेवाला नहीं, बल्कि बहुत ज़्यादा उसको याद करने और याद रखनेवाला हो। इसी तरह यह ज़िन्दगी उस आदमी के लिए तो नमूना नहीं है जो अल्लाह से कोई उम्मीद और आख़िरत के आने की कोई उम्मीद न रखता हो, मगर उस आदमी के लिए ज़रूर नमूना है जो अल्लाह के फल और उसकी मेहरबानियों का उम्मीदवार हो और जिसे यह भी ख़याल हो कि कोई आख़िरत आनेवाली है, जहाँ उसकी भलाई का सारा दारोमदार ही इसपर है कि दुनिया की ज़िन्दगी में उसका रवैया अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के रवैये से किस हद तक क़रीब रहा है।
وَلَمَّا رَءَا ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡأَحۡزَابَ قَالُواْ هَٰذَا مَا وَعَدَنَا ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥ وَصَدَقَ ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥۚ وَمَا زَادَهُمۡ إِلَّآ إِيمَٰنٗا وَتَسۡلِيمٗا ۝ 18
(22) और सच्चे ईमानवालों (का हाल उस वक़्त यह था कि)36 जब उन्होंने हमला करनेवाले लश्करों को देखा तो पुकार उठे कि “यह तो वही चीज़ है जिसका अल्लाह और उसके रसूल ने हमसे वादा किया था, अल्लाह और उसके रसूल की बात बिलकुल सच्ची थी।”37 इस वाक़िए ने उनके ईमान और उनकी सिपुर्दगी (समर्पण भाव) को और ज़्यादा बढ़ा दिया।38
36. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के नमूने की तरफ़ ध्यान दिलाने के बाद अब अल्लाह तआला सहाबा किराम (रज़ि०) के रवैये को नमूने के तौर पर पेश करता है, ताकि ईमान के झूठे दावेदारों और सच्चे दिल से रसूल की पैरवी इख़्तियार करनेवालों का किरदार एक-दूसरे के मुक़ाबले में पूरी तरह नुमायाँ कर दिया जाए। अगरचे ईमान के ज़ाहिरी इक़रार में वे और ये दोनों एक जैसे थे। मुसलमानों के गरोह में दोनों की गिनती होती थी और नमाज़ों में दोनों शरीक होते थे। लेकिन आज़माइश की घड़ी पेश आने पर दोनों एक-दूसरे से छँटकर अलग हो गए और साफ़ मालूम हो गया कि अल्लाह और उसके रसूल के सच्चे और वफ़ादार कौन हैं और सिर्फ़ नाम के मुसलमान कौन।
37. इस मौक़े पर आयत-12 को निगाह में रखना चाहिए। वहाँ बताया गया था कि जो लोग मुनाफ़िक़ और दिल के रोगी थे, उन्होंने दस-बारह हज़ार के लश्कर को सामने से और बनी-क़ुरैज़ा को पीछे से हमला करते देखा तो पुकार-पुकारकर कहने लगे कि “सारे वादे जो अल्लाह और उसके रसूल ने हमसे किए थे सिर्फ़ झूठ और छल निकले। कहा तो हमसे यह गया था कि ख़ुदा के दीन पर ईमान लाओगे तो ख़ुदा की मदद और हिमायत तुम्हारी पीठ पर होगी। अरब और अजम (अरब से बाहर के इलाक़े) पर तुम्हारा सिक्का चलेगा और क़ैसरो-किसरा के ख़ज़ाने तुम्हारे लिए खुल जाएँगे। मगर हो यह रहा है कि सारा अरब हमें मिटा देने पर तुल गया है और कहीं से फ़रिश्तों की वे फ़ौजें आती दिखाई नहीं दे रही हैं जो हमें इस मुसीबतों के सैलाब से बचा लें।” अब बताया जा रहा है कि अल्लाह और उसके रसूल के वादों का एक मतलब तो वह था जो ईमान के उन झूठे दावेदारों ने समझा था। दूसरा मतलब वह है जो इन सच्चे ईमानवाले मुसलमानों ने समझा। ख़तरे उमड़ते देखकर अल्लाह के वादे तो उनको भी याद आए, मगर ये वादे नहीं कि ईमान लाते ही उंगली हिलाए बिना तुम दुनिया के बादशाह हो जाओगे और फ़रिश्ते आकर तुम्हारी ताजपोशी की रस्म अदा करेंगे, बल्कि ये वादे कि सख़्त आजमाइशों से तुमको गुज़रना होगा, मुसीबतों के पहाड़ तुमपर टूट पड़ेंगे, बड़ी-से-बड़ी क़ुरबानियाँ तुमको देनी होंगी, तब कहीं जाकर अल्लाह की मेहरबानियाँ तुमपर होंगी और तुम्हें दुनिया और आख़िरत की वे कामयाबियाँ दी जाएँगी जिनका वादा अल्लाह ने अपने मोमिन बन्दों से किया है— "क्या तुम लोगों ने यह समझ रखा है कि तुम जन्नत में बस यूँ ही दाख़िल हो जाओगे हालाँकि अभी ये हालात तो तुमपर गुज़रे ही नहीं जो तुमसे पहले ईमान लानेवालों पर गुज़र चुके हैं। उनपर सख़्तियाँ और मुसीबतें आईं और वे हिला मारे गए, यहाँ तक कि रसूल और उसके साथी पुकार उठे कि कब आएगी अल्लाह की मदद — सुनो अल्लाह की मदद क़रीब ही है।" (सूरा-2 बक़रा, आयत-214) "क्या लोगों ने यह समझ रखा है कि बस यह कहने पर वे छोड़ दिए जाएँगे कि 'हम ईमान लाए’, और उन्हें आज़माया न जाएगा? हालाँकि हमने उन सब लोगों को आज़माया है जो इनसे पहले गुज़रे हैं। अल्लाह को तो यह ज़रूर देखना है कि सच्चे कौन हैं और झूठे कौन।" (सूरा-29 अन्‌कबूत, आयतें—2, 3)
38. यानी मुसीबतों के इस सैलाब को देखकर उनके ईमान डगमगाने के बजाय और ज़्यादा बढ़ गए और अल्लाह की फ़रमाँबरदारी से भाग निकलने के बजाय वे और ज़्यादा यक़ीन और इत्मीनान के साथ अपना सब कुछ उसके हवाले कर देने पर तैयार हो गए। इस जगह यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि ईमान और तस्लीम अस्ल में मन की एक ऐसी कैफ़ियत है जो दीन के हर हुक्म और हर माँग पर इम्तिहान में पड़ जाती है। दुनिया की ज़िन्दगी में हर-हर क़दम पर आदमी के सामने वे मौक़े आते हैं, जहाँ दीन या तो किसी चीज़ का हुक्म देता है या किसी चीज़ से मना करता है, या जान-माल और वक़्त और मेहनत और मन की ख़ाहिशों की क़ुरबानियों की माँग करता है। ऐसे हर मौक़े पर जो शख़्स ख़ुदा व रसूल की फ़रमाँबरदारी से मुँह मोड़ेगा, उसके ईमान और मानने में कमी हो जाएगी और जो शख़्स भी हुक्म के आगे सर झुका देगा, उसके ईमान और इस्लाम में बढ़ोतरी होगी। अगरचे शुरू में आदमी सिर्फ़ इस्लाम के कलिमे को क़ुबूल कर लेने से मोमिन और मुस्लिम हो जाता है, लेकिन यह कोई ठहरी हुई या जमी हुई हालत नहीं है जो बस एक ही जगह पर ठहरी रहती हो, बल्कि इसमें घटने और बढ़ने दोनों के इमकान हैं। ख़ुलूस और हुक्म मानने में कमी उसके घटने का सबब होती है, यहाँ तक कि एक आदमी पीछे हटते-हटते ईमान की उस आख़िरी सरहद पर पहुँच जाता है जहाँ से बाल बराबर भी आगे बढ़ जाए तो मोमिन के बजाय मुनाफ़िक़ हो जाए। इसके बरख़िलाफ़ खुलूस (निष्ठा) जितना ज़्यादा हो, फ़रमाँबरदारी जितनी मुकम्मल हो और सच्चे दीन (इस्लाम) की सरबुलन्दी के लिए लगन और धुन जितनी बढ़ती चली जाए, ईमान उसी हिसाब से बढ़ता चला जाता है, यहाँ तक कि आदमी 'सिद्दीक़ियत' (बेहद सच्चा होने) के मक़ाम तक पहुँच जाता है। लेकिन यह कमी ज़्यादती जो कुछ भी है अख़लाक़ी दर्जों में है, जिसका हिसाब अल्लाह के सिवा कोई नहीं लगा सकता। बन्दों के लिए ईमान बस एक ही इक़रार और मान लेने का नाम है जिससे हर मुसलमान इस्लाम में दाख़िल होता है और जब तक उसपर क़ायम रहे, मुसलमान माना जाता है। उसके बारे में हम यह नहीं कह सकते कि यह आधा मुसलमान है और यह चौथाई, या यह दो गुना मुसलमान है और यह तीन गुना। इसी तरह क़ानूनी हक़ों में सब मुसलमान बराबर हैं, यह नहीं हो सकता कि किसी को हम ज़्यादा मोमिन कहें और उसके अधिकार ज़्यादा हों और किसी को कम मोमिन ठहराएँ और उसके अधिकार कम हों। इन पहलुओं से ईमान के घटने-बढ़ने का कोई सवाल पैदा नहीं होता और अस्ल में इसी मानी में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने यह कहा है कि “ईमान कम और ज़्यादा नहीं होता।” (और ज़्यादा तफ़सील के लिए। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, हाशिया-2; सूरा-18 फ़तह, हाशिया-7)।
مِّنَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ رِجَالٞ صَدَقُواْ مَا عَٰهَدُواْ ٱللَّهَ عَلَيۡهِۖ فَمِنۡهُم مَّن قَضَىٰ نَحۡبَهُۥ وَمِنۡهُم مَّن يَنتَظِرُۖ وَمَا بَدَّلُواْ تَبۡدِيلٗا ۝ 19
(23) ईमान लानेवालों में ऐसे लोग मौज़ूद हैं जिन्होंने अल्लाह से किए हुए अह्द (वचन) को सच्चा कर दिखाया है। उनमें से कोई अपनी नज़्र (मन्नत) पूरी कर चुका और कोई वक़्त आने का इन्तिज़ार कर रहा है।39 उन्होंने अपने रवैये में कोई बदलाव नहीं किया।
39. यानी कोई अल्लाह की राह में जान दे चुका है और कोई उसके लिए तैयार है कि वक़्त आए तो उसके दीन की ख़ातिर अपने ख़ून का नज़राना (तोहफ़ा) पेश कर दे।
لِّيَجۡزِيَ ٱللَّهُ ٱلصَّٰدِقِينَ بِصِدۡقِهِمۡ وَيُعَذِّبَ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ إِن شَآءَ أَوۡ يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 20
(24) (यह सब कुछ इसलिए हुआ) ताकि अल्लाह सच्चों को उनकी सच्चाई का अच्छा बदला दे और मुनाफ़िक़ों को चाहे तो सज़ा दे और चाहे तो उनकी तौबा क़ुबूल कर ले, बेशक अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
وَرَدَّ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِغَيۡظِهِمۡ لَمۡ يَنَالُواْ خَيۡرٗاۚ وَكَفَى ٱللَّهُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلۡقِتَالَۚ وَكَانَ ٱللَّهُ قَوِيًّا عَزِيزٗا ۝ 21
(25) अल्लाह ने इनकार करनेवालों का मुँह फेर दिया, वे कोई फ़ायदा हासिल किए बिना अपने दिल की जलन लिए यों ही पलट गए और ईमानवालों की तरफ़ से अल्लाह ही लड़ने के लिए काफ़ी हो गया। अल्लाह बड़ी क़ुव्वतवाला और ज़बरदस्त है।
وَأَنزَلَ ٱلَّذِينَ ظَٰهَرُوهُم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مِن صَيَاصِيهِمۡ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلرُّعۡبَ فَرِيقٗا تَقۡتُلُونَ وَتَأۡسِرُونَ فَرِيقٗا ۝ 22
(26) फिर अहले-किताब में से जिन लोगों ने हमला करनेवालों का साथ दिया था,40 अल्लाह उनकी गढ़ियों से उन्हें उतार लाया और उनके दिलों में उसने ऐसा रोब डाल दिया कि आज उनमें से एक गरोह को तुम क़त्ल कर रहे हो और दूसरे गरोह को क़ैद कर रहे हो।
40. यानी बनी-क़ुरैज़ा के यहूदी।
وَأَوۡرَثَكُمۡ أَرۡضَهُمۡ وَدِيَٰرَهُمۡ وَأَمۡوَٰلَهُمۡ وَأَرۡضٗا لَّمۡ تَطَـُٔوهَاۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٗا ۝ 23
(27) उसने तुमको उनकी ज़मीन और उनके घरों और उनके मालों का वारिस बना दिया और वह इलाक़ा तुम्हें दिया जिसे तुमने कभी पैरों से न रौंदा था। अल्लाह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ إِن كُنتُنَّ تُرِدۡنَ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتَهَا فَتَعَالَيۡنَ أُمَتِّعۡكُنَّ وَأُسَرِّحۡكُنَّ سَرَاحٗا جَمِيلٗا ۝ 24
(28) ऐ नबी!41 अपनी बीवियों से कहो, अगर तुम दुनिया और उसकी ज़ीनत (शोभा) चाहती हो तो आओ, मैं तुम्हें कुछ दे-दिलाकर भले तरीक़े से रुख़सत कर दूँ।
41. यहाँ से नम्बर-35 तक की आयतें अहज़ाब की जंग और बनी-क़ुरैज़ा से लगे हुए ज़माने में उतरी थीं। उनका पसमंज़र (पृष्ठभूमि) हम परिचय में मुख़्तसर तौर पर बयान कर आए हैं। सहीह मुस्लिम में हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह उस ज़माने का यह वाक़िआ बयान करते हैं कि एक दिन हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और देखा कि आप (सल्ल०) की बीवियाँ आप (सल्ल०) के पास बैठी हैं और आप (सल्ल०) चुप हैं। आप (सल्ल०) ने हज़रत उमर (रज़ि०) से कहा, “ये मेरे आस-पास बैठी हैं जैसा कि तुम देख रहे हो। ये मुझसे ख़र्च के लिए रुपये माँग रही हैं।” इसपर दोनों सहाबियों ने अपनी-अपनी बेटियों को डाँटा और उनसे कहा कि तुम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तंग करती हो और वह चीज़ माँगती हो जो आप (सल्ल०) के पास नहीं है। इस वाक़िए से पता चलता है कि नबी (सल्ल०) उस वक़्त कैसी माली कठिनाइयों में मुब्तला थे और कुफ़्र और इस्लाम की बड़ी ही सख़्त कश्मकश के ज़माने में ख़र्च के लिए पाक बीवियों के तक़ाज़े नबी (सल्ल०) पर क्या असर डाल रहे थे।
وَإِن كُنتُنَّ تُرِدۡنَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَٱلدَّارَ ٱلۡأٓخِرَةَ فَإِنَّ ٱللَّهَ أَعَدَّ لِلۡمُحۡسِنَٰتِ مِنكُنَّ أَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 25
(29) और अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत के घर की तलबगार हो तो जान लो कि तुममें से जो भले काम करनेवाली हैं अल्लाह ने उनके लिए बड़ा बदला जुटाकर रखा है।42
42. इस आयत के उतरने के वक़्त नबी (सल्ल०) के निकाह में चार बीवियाँ थीं, हज़रत सौदा (रज़ि०), हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत हफ़सा (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०)। अभी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) का निकाह नहीं हुआ था। (अहकामुल-क़ुरआन लिइब्निल-अरबी, एडीशन मिस्र 1958 ई०, हिस्सा-3, पे० 1512-13)। जब यह आयत उतरी तो नबी (सल्ल०) ने सबसे पहले हज़रत आइशा (रज़ि०) से बात की और फ़रमाया, “मैं तुमसे एक बात कहता हूँ, जवाब देने में जल्दी न करना, अपने माँ-बाप की राय ले लो, फिर फ़ैसला करो।” फिर नबी (सल्ल०) ने उनको बताया कि अल्लाह तआला की तरफ़ से यह हुक्म आया है और यह आयत उनको सुना दी। उन्होंने कहा, “क्या इस मामले को में अपने माँ-बाप से पूछू? मैं तो अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत को चाहती हूँ।” इसके बाद नबी (सल्ल०) बाक़ी पाक बीवियों में से एक-एक के यहाँ गए और हर एक से यही बात कही और हर एक ने वही जवाब दिया जो हज़रत आइशा (रज़ि०) ने दिया था। (हदीस : मुसनद अहमद, मुस्लिम, नसई) इस्लामी ज़बान में इसको 'तख़ईर' कहते हैं, यानी बीवी को इस बात का इख़्तियार देना कि वह शौहर के साथ रहने या उससे अलग हा जाने के बीच किसी एक चीज़ का ख़ुद फ़ैसला कर ले। यह 'तख़ईर' नबी (सल्ल०) पर वाजिब थी, क्योंकि अल्लाह तआला ने उसका नबी (सल्ल०) को हुक्म दिया था। अगर पाक बीवियों में से कोई बीवी अलग होना पसन्द करती तो आप-से-आप अलग न हो जाती, बल्कि नबी (सल्ल०) के अलग करने से अलग होती, जैसा कि आयत के अलफ़ाज़ “आओ मैं तुम्हें कुछ दे-दिलाकर भले तरीक़े से रुख़़सत (विदा) कर दूँ” से ज़ाहिर होता है। लेकिन नबी (सल्ल०) पर यह वाजिब था कि इस हालत में उनको अलग कर देते, क्योंकि नबी की हैसियत से आप (सल्ल०) का यह मंसब न था कि अपना वादा पूरा न करते। अलग हो जाने के बाद बज़ाहिर यही मालूम होता है कि वह उम्महातुल-मोमिनीन (मुसलमानों की माओं) के दायरे से बाहर हो जातीं और उनसे किसी दूसरे मुसलमान का निकाह हराम न होता, क्योंकि वे दुनिया और उसकी ज़ीनत (शोभा) ही के लिए तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से अलग होतीं, जिसका हक़ उन्हें दिया गया था और ज़ाहिर है कि उनका यह मक़सद निकाह से महरूम हो जाने की हालत में पूरा न हो सकता था। दूसरी तरफ़ आयत का मंशा यह भी मालूम होता है कि जिन बीवियों ने अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) और आख़िरत के घर को पसन्द कर लिया उन्हें तलाक़ देने का इख़्तियार नबी (सल्ल०) के लिए बाक़ी न रहा, क्योंकि 'तख़ईर' के दो ही पहलू थे। एक यह कि दुनिया को अपनाती हो तो तुम्हें अलग कर दिया जाए। दूसरा यह कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) और आख़िरत के घर को अपनाती हो तो तुम्हें अलग न किया जाए। अब ज़ाहिर है कि इनमें से जो पहलू भी कोई बीवी अपनातीं उनके हक़ में दूसरा पहलू आप-से-आप मना हो जाता। इस्लामी फ़िक़्ह में 'तख़ईर' अस्ल में तलाक़ का इख़्तियार सौंपने की हैसियत रखती है, यानी शौहर इस ज़रिए से बीवी को यह इख़्तियार दे देता है कि चाहे तो उसके निकाह में रहे, वरना अलग हो जाए। इस मसले में क़ुरआन और हदीस के हुक्मों में ग़ौर करके फ़ुक़हा ने जो अहकाम बयान किए हैं उनका ख़ुलासा यह है— (1) यह इख़्तियार एक बार दे देने के बाद शौहर न तो उसे वापस ले सकता है और न औरत को उसके इस्तेमाल से रोक सकता है। अलबत्ता औरत के लिए लाज़िम नहीं है कि वह इस इख़्तियार को इस्तेमाल ही करे। वह चाहे तो शौहर के साथ रहने पर रज़ामन्दी ज़ाहिर कर दे, चाहे अलग होने का एलान कर दे और चाहे तो किसी चीज़ का इज़हार न करे और इस इख़्तियार को यूँ ही ख़त्म हो जाने दे। (2) इस इख़्तियार के औरत को मिलने के लिए दो शर्ते हैं। एक यह कि शौहर ने या तो साफ़ अलफ़ाज़ में तलाक़ का इख़्तियार दिया हो, या अगर तलाक़ को साफ़ तौर से बयान न किया हो तो फिर उसकी नीयत यह इख़्तियार देने की हो। मसलन अगर वह कहे, “तुझे इख़्तियार है,” या “तेरा मामला तेरे हाथ में है,” तो इस तरह के इशारों में शौहर की नीयत के बिना तलाक़ का इख़्तियार औरत की तरफ़ न जाएगा। अगर औरत इसका दावा करे और शौहर क़सम खाकर यह बयान दे कि उसकी नीयत तलाक़ का इख़्तियार देने की न थी तो शौहर का बयान क़ुबूल किया जाएगा। सिवाय यह कि औरत इस बात की गवाही पेश कर दे कि ये अलफ़ाज़ नाराज़ी और झगड़े की हालत में, या तलाक़ की बातें करते हुए कहे गए थे, क्योंकि इस पसमंज़र में इख़्तियार देने का मतलब यही समझा जाएगा कि शौहर की नीयत तलाक़ का इख़्तियार देने की थी। दूसरे यह कि औरत को यह मालूम हो कि यह इख़्तियार उसे दिया गया है। अगर वह ग़ायब हो तो उसे इसकी ख़बर मिलनी चाहिए और अगर वह मौजूद हो तो उसे ये अलफ़ाज़ सुनने चाहिएँ। जब तक वह सुने नहीं, या उसे उसकी ख़बर न पहुँचे, इख़्तियार उसको न मिलेगा। (3) अगर शौहर कोई वक़्त तय किए बिना आज़ादी के साथ उसको इख़्तियार दे तो औरत इस इख़्तियार को कब तक इस्तेमाल कर सकती है? इस मसले में फ़क़ीहों की अलग-अलग राय है। एक गरोह कहता है कि जिस बैठक में शौहर उससे यह बात कहे, उसी बैठक में औरत अपने इख़्तियार का इस्तेमाल कर सकती है। अगर वह कोई जवाब दिए बिना वहाँ से उठ जाए, या किसी ऐसे काम में लग जाए जो इस बात की दलील बनता हो कि वह जवाब देना नहीं चाहती, तो उसका इख़्तियार ख़त्म हो जाएगा। यह राय हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत उसमान (रज़ि०), हज़रत इब्ने-मसऊद (रज़ि०), हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह, जाबिर-बिन-ज़ैद, अता, मुजाहिद, शअबी, नख़ई, इमाम मालिक, इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम शाफ़िई, इमाम औज़ाई, सुफ़ियान सौरी और अबू-सौर (रह०) की है। दूसरी राय यह है कि उसका इख़्तियार उस बैठक तक महदूद (सीमित) नहीं है, बल्कि वह उसके बाद भी उसे इस्तेमाल कर सकती है। यह राय हज़रत हसन बसरी, क़तादा और ज़ुहरी (रह०) की है। (4) अगर शौहर वक़्त तय कर दे, मसलन कहे कि एक महीने या एक साल तक तुझे इख़्तियार है, या इतनी मुद्दत तक तेरा मामला तेरे हाथ में है तो यह इख़्तियार उसी मुद्दत तक उसको हासिल रहेगा। अलबत्ता अगर वह कहे कि तू जब चाहे इस इख़्तियार को इस्तेमाल कर सकती है तो इस हालत में उसका इख़्तियार ग़ैर-महदूद होगा। (5) औरत अगर अलग होना चाहे तो उसे साफ़-साफ़ अलफ़ाज़ में उसका इज़हार करना चाहिए। ग़ैर-वाज़ेह अलफ़ाज़ जिनसे मक़सद वाज़ेह न होता हो, असरदार नहीं हो सकते। (6) क़ानूनी तौर से शाहर की तरफ़ से औरत को इख़्तियार देने के तीन अन्दाज़ हो सकते हैं। एक यह कि वह कहे “तेरा मामला तेरे हाथ में है।” दूसरा यह कि वह कहे “तुझे इख़्तियार है।” तीसरा यह कि वह कहे, “तुझे तलाक़ है अगर तू चाहे।” इनमें से हर एक के क़ानूनी नतीजे अलग-अलग हैं— अ, “तेरा मामला तेरे हाथ में है” के अलफ़ाज़ अगर शौहर ने कहे हों और औरत उसके जवाब में कोई साफ़ बात ऐसी कहे, जिससे ज़ाहिर हो कि वह अलग होती है तो हनफ़ी मसलक के नज़दीक एक तलाक़ 'बाइन' पड़ जाएगी (यानी उसके बाद शौहर को रुजू (मिलाप) करने का हक़ न होगा, लेकिन इद्दत गुज़र जाने पर ये दोनों फिर चाहें तो आपस में निकाह कर सकते हैं) और अगर शौहर ने कहा हो कि “एक तलाक़ की हद तक तेरा मामला तेरे हाथ में है” तो इस हालत में एक तलाक़ 'रजई' पड़ेगी (यानी इद्दत के अन्दर शौहर रुजू (मिलाप) कर सकता है)। लेकिन अगर शौहर ने मामला औरत के हाथ में देते हुए तीन तलाक़ की नीयत की हो, या उसको साफ़ बयान किया हो तो इस सूरत में औरत का इख़्तियार तलाक़ ही के मानी में लिया जाएगा, चाहे वह साफ़-साफ़ अपने ऊपर तीन तलाक़ क़ायम करे या सिर्फ़ एक बार कहे कि मैं अलग हो गई या मैंने अपने आपको तलाक़ दी। ब, “तुझे इख़्तियार हे” के अलफ़ाज़ के साथ अगर शौहर ने औरत को अलग होने का अधिकार दिया हो और औरत अलग होने को साफ़ तौर पर बयान कर दे तो हनफ़ी आलिमों के नज़दीक एक ही तलाक़ 'बाइन' पड़ेगी, चाहे शौहर की नीयत तीन तलाक़ का इख़्तियार देने की हो, अलबत्ता अगर शौहर की तरफ़ से तीन तलाक़ का इख़्तियार देने को साफ़ बयान किया गया हो तब औरत के तलाक़ के इख़्तियार से तीन तलाक़ें होंगी। इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक अगर शौहर ने इख़्तियार देते हुए तलाक़ की नीयत की हो और औरत अलग हो जाए तो एक तलाक़ 'रजई’ होगी। इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक जिस बीवी से हमबिस्तरी हो चुकी हो, उसपर तीन तलाक़ें पड़ जाएँगी, लेकिन अगर जिससे हमबिस्तरी न हुई हो उसके मामले में शौहर एक तलाक़ की नीयत का दावा करे तो उसे क़ुबूल कर लिया जाएगा। ज, “तुझे तलाक़ है अगर तू चाहे” कहने की हालत में अगर औरत तलाक़ का इख़्तियार इस्तेमाल करे तो तलाक़ 'रजई होगी, न कि 'बाइन'। (7) अगर मर्द की तरफ़ से अलग होने का इख़्तियार दिए जाने के बाद औरत उसी की बीवी बनकर रहने पर अपनी रज़ामन्दी ज़ाहिर कर दे तो कोई तलाक़ न होगी। यही राय हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अबू-दरदा (रज़ि०), इब्ने-अबास (रज़ि०) और इब्ने-उमर (रज़ि०) की है और इसी राय को ज़्यादातर फ़ुक़हा ने अपनाया है। हज़रत आइशा (रज़ि०) से मसरूक़ ने यह मसला पूछा तो उन्होंने जवाब दिया, “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को इख़्तियार दिया था और उन्होंने नबी (सल्ल०) ही के साथ रहना पसन्द किया था, फिर क्या उसे तलाक़ समझा गया?” इस मामले में सिर्फ़ हज़रत अली (रज़ि०) और ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) की राय सामने आई है कि एक तलाक़ 'रजई’ होगी। लेकिन दूसरी रिवायत इन दोनों बुज़ुर्गों में भी यही है कि कोई तलाक़ न होगी।
يَٰنِسَآءَ ٱلنَّبِيِّ مَن يَأۡتِ مِنكُنَّ بِفَٰحِشَةٖ مُّبَيِّنَةٖ يُضَٰعَفۡ لَهَا ٱلۡعَذَابُ ضِعۡفَيۡنِۚ وَكَانَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱللَّهِ يَسِيرٗا ۝ 26
(30) नबी की बीवियो, तुममें से जो किसी खुली बेहयाई की हरकत करेगी उसे दोहरा अज़ाब दिया जाएगा,43 अल्लाह के लिए यह बहुत आसान काम है।44
43. इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह! नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों से किसी गन्दी हरकत का अन्देशा था, बल्कि इसका मक़सद नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों को यह एहसास दिलाना था कि इस्लामी समाज में उनका मक़ाम जितना ऊँचा है, उसी के लिहाज़ से उनकी ज़िम्मेदारियाँ भी बहुत सख़्त हैं, इसलिए उनका अख़लाक़ी रवैया बेहद पाकीज़ा होना चाहिए। यह ऐसा ही है जैसे नबी (सल्ल०) को ख़िताब करते हुए अल्लाह तआला फ़रमाता है, “अगर तुमने शिर्क किया तो तुम्हारा सब किया-कराया बरबाद हो जाएगा।” (क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, आयत-65) इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की पनाह! नबी (सल्ल०) से शिर्क का कोई अन्देशा था, बल्कि इसका मक़सद नबी (सल्ल०) को और आप (सल्ल०) के ज़रिए से आम इनसानों को यह एहसास दिलाना था कि शिर्क कितना ख़तरनाक जुर्म है जिससे सख़्ती सख़्ती के साथ बचना ज़रूरी है।
44. यानी तुम इस भुलावे में न रहना कि नबी (सल्ल०) की बीवियाँ होना तुम्हें अल्लाह की पकड़ से बचा सकता है, या तुम्हारे मर्तबे कुछ इतने ऊँचे हैं कि उनकी वजह से तुम्हें पकड़ने में अल्लाह को कोई मुश्किल पेश आ सकती है।
۞وَمَن يَقۡنُتۡ مِنكُنَّ لِلَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتَعۡمَلۡ صَٰلِحٗا نُّؤۡتِهَآ أَجۡرَهَا مَرَّتَيۡنِ وَأَعۡتَدۡنَا لَهَا رِزۡقٗا كَرِيمٗا ۝ 27
(31) और तुममें से जो अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करेगी और भले काम करेगी, उसको हम दोहरा बदला देंगे45 और हमने इसके लिए इज़्ज़तदार रोज़ी जुटाकर रखी है।
45. गुनाह पर दोहरे अज़ाब और नेकी पर दोहरे इनाम की वजह यह है कि जिन लोगों को अल्लाह तलाह इनसानी समाज में कोई ऊँचा दरजा देता है वे आम तौर पर लोगों के रहनुमा बन जाते हैं और ख़ुदा के बन्दों की बड़ी तादाद भलाई और बुराई में उन्हीं की पैरवी करती है। उनकी बुराई तन्हा उन्हीं की बुराई नहीं होती, बल्कि एक क़ौम के बिगाड़ का सबब भी होती है और उनकी भलाई सिर्फ़ उन्हीं की अपनी भलाई नहीं होती, बल्कि बहुत-से इनसानों की भलाई का सबब भी बनती है। इसलिए जब ये बुरे काम करते हैं तो अपने बिगाड़ के साथ दूसरों के बिगाड़ की भी सज़ा पाते हैं और जब वे भले काम करते हैं तो उन्हें अपनी नेकी के साथ इस बात का इनाम भी मिलता है कि उन्होंने दूसरों को भलाई की राह दिखाई। इस आयत से यह उसूल भी निकलता है कि जहाँ जितना ज़्यादा हराम काम से रोकने पर ओर होगा और जितनी ज़्यादा ईमानदारी की उम्मीद होगी, वहाँ उसी क़द ज़्यादा हराम काम करने और सियासत व बेईमानी करने का जुर्म संगीन होगा और उतना ही ज़्यादा उसका आज़ाब सख़्त होगा। मसलन मस्जिद में शराब पीना अपने घर में शराब पीने से ज़्यादा संगीन जुर्म है और उसकी सज़ा ज़्यादा सख़्त है। महरम औरतों से ज़िना (व्यभिचार) करना ग़ैर-औरत को ज़िना के मुक़ाबले में ज़्यादा सख़्त है और इसपर ज़्यादा सख़्त आज़ाब होगा।
يَٰنِسَآءَ ٱلنَّبِيِّ لَسۡتُنَّ كَأَحَدٖ مِّنَ ٱلنِّسَآءِ إِنِ ٱتَّقَيۡتُنَّۚ فَلَا تَخۡضَعۡنَ بِٱلۡقَوۡلِ فَيَطۡمَعَ ٱلَّذِي فِي قَلۡبِهِۦ مَرَضٞ وَقُلۡنَ قَوۡلٗا مَّعۡرُوفٗا ۝ 28
(32) नबी को बीवियो, तुम आम औरतों की तरह नहीं हो।46 अगर तुम अल्लाह से डरनेवाली हो तो दबी ज़बान से बात न किया करो कि दिल की ख़राबी में पड़ा कोई शख़्स लालच में पड़ जाए, बल्कि साफ़ सीधी बात करो।47
46. यहाँ आयत-32 से आयत-34 तक की आयतें वे हैं जिनसे इस्लाम में परदे के हुक्म की शुरुआत हुई है। इन आयतों में बात नबी (सल्ल०) की बीवियों से कही गई है, मगर मक़सद तमाम मुसलमानों के घरों में इन सुधारों को लागू करना है। आप (सल्ल०) की पाक बीवियों को मुख़ातब करने का मक़सद सिर्फ़ यह है कि जब नबी (सल्ल०) के घर से ज़िन्दगी के इस पाकीज़ा तरीक़े की शुरुआत होगी तो बाक़ी सारे मुसलमान घरानों को औरतें ख़ुद इसकी नक़्ल करेंगी, क्योंकि यही घर उनके लिए नमूने की हैसियत रखता था। कुछ लोग सिर्फ़ इस बुनियाद पर कि इन आयतों में नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों से बात की गई है, यह दावा कर बैठते हैं कि ये हुक्म उन्हीं के लिए ख़ास हैं। लेकिन आगे इन आयतों में जो कहा गया है, उसे पढ़कर देख लीजिए कि कौन-सी बात ऐसी है जो नबी की बीवियों के लिए ख़ास हो और बाक़ी मुसलमान औरतों से उनकी माँग न हो। क्या अल्लाह ताआला का मंशा यही हो सकता था कि सिर्फ़ नबी (सल्ल०) की पाक बीवियाँ ही गन्दगी से पाक हों और वही अल्लाह और रसूल की बात मानें और वही नमाज़ें पढ़ें और ज़कात दें? अगर यह मशा नहीं हो सकता तो फिर घरों में चैन से बैठने और जाहिलियत के ज़माने की सज-धज से परहेज़ करने और ग़ैर-मर्दों के साथ दबी ज़बान से बात न करने का हुक्म उनके लिए कैसे ख़ास हो सकता है और बाक़ी मुसलमान औरतें इससे अलग कैसे हो सकती हैं? कोई मुनासिब दलील ऐसी है, जिसकी बुनियाद पर बात के एक ही सिलसिले के मजमूई हुक्मों में से कुछ को आम और कुछ को ख़ास ठहराया जाए? रहा यह जुमला की “तुम आम औरतों की तरह नहीं हो", तो इससे भी यह मतलब नहीं निकलता कि आम औरतों को तो बन-ठनकर निकलना चाहिए और ग़ैर-मर्दों से ख़ूब लगावट की बातें करनी चाहिएँ, अलबत्ता तुम ऐसा रवैया न अपनाओ, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ बात का यह अन्दाज़ कुछ इस तरह का है जैसे एक शरीफ़ आदमी अपने बच्चे से कहता है कि “तुम बाज़ारी बच्चों की तरह नहीं हो, तुम्हें गाली न बकनी चाहिए।” इससे कोई अक़्लमन्द आदमी भी कहनेवाले का यह मक़सद न लेगा कि वह सिर्फ़ अपने बच्चे के लिए गालियाँ बकने को बुरा समझता है, दूसरे बच्चों में यह ऐब मौज़ूद रहे तो उसे उसपर कोई एतिराज़ नहीं है।
47. यानी ज़रूरत पड़ने पर किसी मर्द से बात करने में हरज नहीं है, लेकिन ऐसे मौक़ों पर औरत का लहजा और बात करने का अन्दाज़ ऐसा होना चाहिए जिससे बात करनेवाले मर्द के दिल में कभी यह ख़याल तक न गुज़र सके कि इस औरत से कोई और उम्मीद भी लगाई जा सकती है। उसके लहजे में कोई लोच न हो, उसकी बातों में कोई लगावट न हो, उसकी आवाज़ में जान-बूझकर कोई मिठास घुली हुई न हो जो सुननेवाले मर्द के जज़बात में हलचल पैदा कर दे और उसे आगे क़दम बढ़ाने की हिम्मत दिलाए। बात के इस अन्दाज़ के बारे में अल्लाह तआला साफ़ फ़रमाता है कि यह किसी ऐसी औरत को शोभा नहीं देता जिसके दिल में ख़ुदा का डर और बुराई से बचने का जज़बा हो। दूसरे अलफ़ाज़ में यह गुनाहगार और अल्लाह की खुली नाफ़रमान औरतों के बात करने का अन्दाज़ है, न कि ईमानवाली और परहेज़गार औरतों का। इसके साथ अगर सूरा-24 नूर की आयत-31 भी देखी जाए जिसमें अल्लाह तआला फ़रमाता है, “और वे ज़मीन पर इस तरह पाँव मारती हुई न चलें कि जो ज़ीनत (सिंगार) उन्होंने छिपा रखी है, उसका पता लोगों को हो।” तो तमाम जहानों के मालिक का साफ़ मंशा यह मालूम होता है कि औरतें ख़ाह-मख़ाह अपनी आवाज़ या अपने ज़ेवरों की झंकार ग़ैर-मर्दों को न सुनाएँ और अगर ज़रूरत की वजह से अजनबियों से बोलना ही पड़ जाए तो पूरी एहतियात के साथ बात करें। इसी वजह से औरत के लिए अज़ान देना मना है और अगर जमाअत से पढ़ी जानेवाली नमाज़ में कोई औरत मौज़ूद हो और इमाम कोई ग़लती करे तो मर्द की तरह 'सुब्हानल्लाह' कहने की उसे इजाज़त नहीं है, बल्कि उसको सिर्फ़ हाथ पर हाथ मारकर आवाज़ पैदा करनी चाहिए, ताकि इमाम ख़बरदार हो जाए। अब यह ज़रा सोचने की बात है कि जो दीन औरत को ग़ैर-मर्द से बात करते हुए भी लोचदार अन्दाज़ में बात करने की इजाज़त नहीं देता और उसे मदों के सामने बिना ज़रूरत आवाज़ निकालने से भी रोकता है, क्या वह कभी यह पसन्द कर सकता है कि औरत स्टेज पर आकर गाए, नाचे, थिरके, भाव बताए और नाज़-नखरे दिखाए? क्या वह इसकी इजाज़त दे सकता है कि रेडियो पर औरत आशिक़ाना गीत गाए और सुरीले गीतों के साथ गन्दी बातें सुना-सुनाकर लोगों के जज़बात में आग लगाए? क्या वह इसे जाइज़ रख सकता है कि औरतें ड्रामों में कभी किसी की बीवी और कभी किसी की महबूबा का रोल अदा करें? या हवाई मेज़बान (Air-hostess) बनाई जाएँ और उन्हें ख़ास तौर पर मुसाफ़िरों का दिल लुभाने की ट्रेनिंग दी जाए? या क्लबों और इजतिमाई पार्टियों और औरतों-मर्दों की मिली-जुली महफ़िलों में बन-ठनकर आएँ और मर्दों से ख़ूब घुल-मिलकर बातचीत और हँसी-मज़ाक़ करें? यह कल्चर आख़िर किस क़ुरआन से निकाला गया है? ख़ुदा का उतारा हुआ क़ुरआन तो सबके सामने है। उसमें कहीं इस कल्चर की गुंजाइश नज़र आती हो तो उस जगह की निशानदेही कर दी जाए।
وَقَرۡنَ فِي بُيُوتِكُنَّ وَلَا تَبَرَّجۡنَ تَبَرُّجَ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِ ٱلۡأُولَىٰۖ وَأَقِمۡنَ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتِينَ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِعۡنَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓۚ إِنَّمَا يُرِيدُ ٱللَّهُ لِيُذۡهِبَ عَنكُمُ ٱلرِّجۡسَ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِ وَيُطَهِّرَكُمۡ تَطۡهِيرٗا ۝ 29
(33) अपने घरों में टिककर रहो48 और पिछले जाहिलियत के दौर की-सी सज-धज न दिखाती फिरो।49 नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो और अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करों। अल्लाह तो यह चाहता है कि तुम नबी के घरवालों से गन्दगी को दूर करे और तुम्हें पूरी तरह पाक कर दे।50
48. अस्ल अरबी लफ़्ज़ ‘क़र्न' इस्तेमाल हुआ है। ज़बान के कुछ माहिरों ने इसको क़रार (ठहरना) से निकला बताया है और कुछ ने 'वक़ार' (सुकून) से। अगर इसको 'क़रार' से लिया जाए तो मतलब होगा 'क़रार पकड़ो', 'टिककर रहो’। और अगर 'वक़ार' से लिया जाए तो मतलब होगा 'सुकून से रहो', 'चैन से बैठो।' दोनों हालतों में आयत का मंशा यह है कि औरत के काम की अस्ल जगह उसका घर है, उसको उसी दायरे में रहकर इत्मीनान के साथ अपनी ज़िम्मेदारियाँ पूरी करनी चाहिएँ और घर से बाहर सिर्फ़ ज़रूरत ही से निकलना चाहिए। यह मंशा ख़ुद आयत के अलफ़ाज़ से भी ज़ाहिर है और नबी (सल्ल०) की हदीसों से यह और ज़्यादा साफ़ हो जाता है। हाफ़िज़ अबू-बक्र बज़्ज़ार हज़रत अनस (रज़ि०) से बयान करते हैं कि औरतों ने नबी (सल्ल०) से पूछा कि सारी फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) तो मर्द लूट ले गए, वे जिहाद करते हैं और ख़ुदा की राह में बड़े-बड़े काम करते हैं। हम क्या अमल करें कि हमें भी जिहाद करनेवालों के बराबर बदला मिल सके? जवाब में आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो तुममें से घर में बैठेगी, वह जिहाद करनेवालों के अमल को पा लेगी।” मतलब यह है कि जिहाद करनेवाला पूरी लगन के साथ उसी वक़्त तो ख़ुदा की राह में लड़ सकता है जबकि अपने घर की तरफ़ से उसको पूरा इत्मीनान हो, उसकी बीवी उसके घर और बच्चों को संभाले बैठी हो और उसे कोई ख़तरा इस बात का न हो कि पीछे वह कोई गुल खिला बैठेगी। यह इत्मीनान जो औरत उसे देगी, वह घर बैठे उसके जिहाद में बराबर की हिस्सेदार होगी। एक और रिवायत जो बज़्ज़ार और तिरमिज़ी ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) से बयान की है उसमें वह नबी (सल्ल०) की फ़रमाई हुई यह बात बयान करते हैं कि “औरत छिपी रहने के क़ाबिल चीज़ है। जब वह निकलती है तो शैतान उसको ताकता है और अल्लाह की रहमत से सबसे ज़्यादा क़रीब वह उस वक़्त होती है जबकि वह अपने घर में हो।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़सीर सूरा-21 नूर, हाशिया-49)
49. इस आयत में दो अहम अलफ़ाज़़ इस्तेमाल किए गए हैं, जिनका समझना आयत के मंशा को समझने के लिए ज़रूरी है। एक तबर्रुज, दूसरा 'जाहिलियते-ऊला'। ‘तबर्रुज’ का मतलब अरबी ज़बान में नुमायाँ होना और उभरना और खुलकर सामने आना है। हर ज़ाहिर और उभरी हुई चीज़ के लिए अरब लफ़्ज़ 'ब-र-ज’ इस्तेमाल करते हैं। 'बुर्ज’ को बुर्ज उसके ज़ाहिर और उभरे होने की वजह ही से कहा जाता है। बादबानी कश्ती के लिए बारजा का लफ़्ज़ इसी लिए बोला जाता है कि उसके बादबान दूर से नुमायाँ होते हैं। औरत के लिए जब लफ़्ज़ तबर्रुज इस्तेमाल किया जाए तो उसके तीन मतलब होंगे। एक यह कि वह अपने चेहरे और जिस्म की ख़ूबसूरती लोगों को दिखाए, दूसरा यह कि वह अपने लिबास और ज़ेवर की शान दूसरों के सामने नुमायाँ करे और तीसरा यह कि वह अपनी चाल-ढाल और चटक-मटक से अपने आपको नुमायाँ करे। यही तशरीह इस लफ़्ज़ की ज़बान के बड़े-बड़े माहिरों और क़ुरआन के बड़े-बड़े आलिमों ने की है। मुजाहिद, क़तादा और इब्ने-अबी-नुजैह कहते हैं, तबर्रूज का मतलब है नाज़ो-अदा के साथ लचके खाते और इठलाते हुए चलना। मुक़ातिल कहते हैं, “औरत का अपने हार और अपने बुन्दे और अपना गला नुमायाँ करना।” अल-मुबर्रद का कहना है, “यह कि औरत अपने वे पुर-कशिश हिस्से ज़ाहिर कर दे जिनको उसे छिपाना चाहिए।” अबू-उबैदा की तफ़सीर है, “यह कि औरत अपने जिस्म और लिबास की ख़ूबसूरती को नुमायाँ करे, जिससे मर्दो को उसकी तरफ़ कशिश हो।” 'जाहिलियत' का लफ़्ज़ क़ुरआन मजीद में इस जगह के अलावा तीन और जगहों पर इस्तेमाल हुआ है। एक सूरा-3 आले-इमरान की आयत-154 में, जहाँ अल्लाह की राह में लड़ने से जी चुरानेवालों के बारे में कहा गया है कि “वे अल्लाह के बारे में हक़ के ख़िलाफ़ जाहिलियत के-से गुमान रखते हैं।” दूसरी सूरा-5 माइदा, आयत-50 में, जहाँ ख़ुदा के क़ानून के बजाय किसी और क़ानून के मुताबिक़ अपने मुक़द्दमों का फ़ैसला करानेवालों के बारे में कहा गया, “क्या वे जाहिलियत का फ़ैसला चाहते हैं।” तीसरी सूरा-48 फ़तह, आयत-26 में, जहाँ मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों के इस अमल को 'हमीयते-जाहिलियह' कहा गया है कि उन्होंने सिर्फ़ तास्सुब (दुराग्रह) की बुनियाद पर मुसलमानों को उमरा न करने दिया। हदीस में आता है कि एक बार हज़रत अबू-दरदा (रज़ि०) ने किसी शख़्स से झगड़ा करते हुए उसको माँ की गाली दे दी। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने सुना तो फ़रमाया, “तुममें अभी तक जाहिलियत मौजूद है।” (हदीस : बुख़ारी) एक और हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तीन काम जाहिलियत के हैं। दूसरों के ख़ानदान को ताने देना, सितारों की गर्दिश से शगुन लेना और मुर्दों पर नौहा करना (यानी उनकी ख़ूबियों को बयान कर-कर के रोना)।” इन तमाम इस्तेमालों से यह बात साफ़ हो जाती है कि जाहिलियत से मुराद इस्लाम की ज़बान में हर वह रवैया है जो इस्लामी तहज़ीब व सक़ाफ़त (सभ्यता और संस्कृति) और इस्लामी अख़लाक़ और आदाब और इस्लामी ज़ेहनियत के ख़िलाफ़ हो और जाहिलियते-ऊला का मतलब वे बुराइयाँ हैं जिनमें इस्लाम से पहले अरब के लोग और दुनिया भर के दूसरे लोग मुब्तला थे। इस तशरीह से बात साफ़ हो जाती है कि अल्लाह तआला जिस रवैये से औरतों को रोकना चाहता है वह उनका अपनी ख़ूबसूरती की नुमाइश करते हुए घरों से बाहर निकलना है। वह उनको हिदायत देता है कि अपने घरों में टिककर रहो, क्योंकि तुम्हारा अस्ल काम घर में है, न कि उससे बाहर। लेकिन अगर बाहर निकलने की ज़रूरत पड़ जाए तो इस शान से न निकलो जिसके साथ पिछले जाहिलियत के ज़माने में औरतें निकला करती थीं। बन-ठनकर निकलना, चेहरे और जिस्म की ख़ूबसूरती और सजावट और चुस्त लिबासों या अधनंगे लिबासों से अपने आपको नुमायाँ करना और नाज़ो-अदा से चलना एक मुस्लिम-समाज की औरतों का काम नहीं है। यह जाहिलियत के रंग-ढंग हैं जो इस्लाम में नहीं चल सकते। अब यह बात हर शख़्स ख़ुद देख सकता है कि जो कल्चर हमारे यहाँ रिवाज दिया जा रहा है वह क़ुरआन के मुताबिक़ इस्लाम का कल्चर है या जाहिलियत का कल्चर। अलबत्ता अगर कोई और क़ुरआन हमारे ‘मेहरबानों’ के पास आ गया है, जिससे इस्लाम की यह नई रूह निकालकर मुसलमानों में फैलाई जा रही है तो बात दूसरी है।
50. जिस मौक़ा-महल (सन्दर्भ) में यह आयत आई है, उससे साफ़ ज़ाहिर है कि यहाँ अहले-बैत से मुराद नबी (सल्ल०) की बीवियाँ हैं, क्योंकि बात की शुरुआत ही 'या निसाअन-नबी' (ऐ नबी की औरतो) के अलफ़ाज़ से की गई है और इससे पहले और बाद की पूरी तक़रीर में उन्हीं से बात की गई है। इसके अलावा 'अहले-बैत' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में ठीक उन्हीं मानी में इस्तेमाल होता है जिनमें हम 'घरवालों' का लफ़्ज़ बोलते हैं और उसके मतलब में आदमी की बीवी और उसके बच्चे, दोनों शामिल होते हैं। बीवी को अलग करके 'घरवालों’ का लफ़्ज़ कोई नहीं बोलता। ख़ुद क़ुरआन मजीद में भी इस जगह के सिवा दो और जगहों पर यह लफ़्ज़ आया है और दोनों जगह पर इसके मतलब में बीवी भी शामिल, बल्कि उसका शुमार पहले है। सूरा-11 हूद, आयत-73 में जब फ़रिश्ते हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को बेटे की पदाइश की ख़ुशख़बरी देते हैं तो उनकी बीवी उसे सुनकर हैरत ज़ाहिर करती हैं कि भला बुढ़ापे में हमारे यहाँ बच्चा कैसे होगा। इसपर फ़रिश्ते कहते हैं, “क्या तुम अल्लाह की बात पर जाज्जुब करती हो? इस घर के लोगो, तुमपर तो अल्लाह की रहमत है और उसकी बरकतें है।” सूरा-28 क़सस, आयत-12 में जब हज़रत मूसा (अलैहि०) एक दूध पीते बच्चे की हैसियत से फ़िरऔन के घर में पहुँचते हैं और फ़िरऔन की बीवी को किसी ऐसी अन्ना की तलाश होती है, जिसका दूध बच्चा पी ले तो हज़रत मूसा (अलैहि०) की बहन जाकर कहती हैं, “क्या मैं तुम्हें ऐसे घरवालों का पता दूँ जो तुम्हारे लिए इस बच्चे की परवरिश का ज़िम्मा लें?” इसलिए मुहावरा और क़ुरआन के इस्तेमालों और ख़ुद इस आयत का मौक़ा-महल, हर चीज़ इस बात पर दलील देती है कि नबी (सल्ल०) के अहले-बत में आप (सल्ल०) की पाक बीवियाँ भी दाख़िल हैं और आप (सल्ल०) की औलाद भी, बल्कि ज़्यादा सही बात यह है कि आयत का अस्ल ख़िताब (सम्बोधन) पाक बीवियों से है और औलाद लफ़्ज़ के मतलब के एतिबार से उसमें शामिल क़रार पाती है। इसी बुनियाद पर इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और उरवा-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) और इकरिमा (रज़ि०) कहते हैं कि इस आयत में अहले-बैत से मुराद नबी (सल्ल०) की पाक बीवियाँ हैं। लेकिन अगर कोई यह कहे कि 'अहले-बैत' का लफ़्ज़ सिर्फ़ बीवियों के लिए इस्तेमाल हुआ है। और इसमें कोई दूसरा दाख़िल नहीं हो सकता, तो यह बात भी ग़लत होगी। सिर्फ़ यही नहीं कि 'घरवालों के लफ़्ज़ में आदमी के सब बीवी-बच्चे शामिल होते हैं, बल्कि नबी (सल्ल०) ने ख़ुद वाज़ेह किया है कि वे भी शामिल हैं। इब्ने-अबी-हातिम की रिवायत है कि हज़रत आइशा (रज़ि०) से एक बार हज़रत अली (रज़ि०) के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहा, “तुम उस शख़्स के बारे में पूछते हो जो अल्लाह के रसूल के सबसे प्यारे लोगों में से था और जिसकी बीवी नबी (सल्ल०) की वह बेटी थी जो आप (सल्ल०) को सबसे बढ़कर प्यारी थी।” इसके बाद हज़रत आइशा (रज़ि०) ने यह वाक़िआ सुनाया कि नबी (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि०) और फ़ातिमा (रज़ि०) और हसन (रज़ि०) और हुसैन (रज़ि०) को बुलाया और उनपर एक कपड़ा डाल दिया और दुआ फ़रमाई कि “या अल्लाह, ये मेरे अहले-बैत हैं, इनसे गन्दगी को दूर कर दे और इन्हें पाक कर दे।” हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि मैंने अर्ज़ किया, “मैं भी तो आपके अहले-बैत में से हूँ।” (यानी मुझे भी इस कपड़े में दाख़िल करके मेरे लिए दुआ कर दीजिए)। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम अलग रहो, तुम तो ख़ैर हो ही।” इससे मिलते जुलते मज़मून को बहुत-सी हदीसें मुस्लिम, तिरमिज़ी, अहमद, इब्ने-जरीर, हाकिम, बैहक़ी वग़ैरा मुहद्दिसों ने अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) हज़रत आइशा (रज़ि०) हज़रत अनस (रज़ि०), हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) हज़रत वासिला-बिन-असक़अ और कुछ दूसरे सहाबा से नक़्ल की हैं। जिनसे मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने हज़रत अली (रज़ि०), फ़ातिमा (रज़ि०) और उनके दोनों बेटों को अपना अहले-बैत बताया है। इसलिए उन लोगों का ख़याल ग़लत है जो इन लोगों को इससे बाहर ठहराते हैं। इसी तरह उन लोगों की राय भी ग़लत है जो ऊपर बयान की गई हदीसों की बुनियाद पर नबी (सल्ल०) को पाक बीवियों को अहले-बैत के दायरे से बाहर ठहराते है। अव्वल तो जो चीज़ साफ़ तौर से क़ुरआन से साबित हो उसको किसी हदीस के बल पर रद्द नहीं किया जा सकता। दूसरे, ख़ुद उन हदीसों का मतलब भी वह नहीं है जो उनसे निकाला जाता है। उनमें से कुछ रिवायतों में जो यह बात आई है कि हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) को नबी (सल्ल०) ने उस चादर के नीचे नहीं लिया, जिसमें नबी (सल्ल०) ने उन चारों को लिया था, उसका यह मतलब नहीं है कि नबी (सल्ल०) ने उनको अपने घरवालों के परे से बाहर कर दिया था, बल्कि इसका मतलब यह है कि बीवियाँ तो अहले-बैत में शामिल थीं ही, क्योंकि क़ुरआन ने उन्हीं को मुख़ातब किया था, लेकिन नबी (सल्ल०) को अन्देशा हुआ कि इन दूसरे लोगों के बारे में क़ुरआन के ज़ाहिरी अलफ़ाज़़ के लिहाज़ से किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो जाए कि ये अहले-बैत के दायरे से बाहर हैं, इसलिए आप (सल्ल०) ने यह बात वाज़ेह कर देने की ज़रूरत उनके हक़ में महसूस की, न कि पाक बीवियों के हक़ में। एक गरोह ने इस आयत की तफ़सीर में सिर्फ़ इतना ही सितम नहीं किया है कि पाक बीवियों को ‘अहले-बैत’ के दायरे से बाहर करके सिर्फ़ हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनकी औलाद के लिए इस लफ़्ज़ को ख़ास कर दिया, बल्कि इसपर और सितम यह भी किया है कि उसके अलफ़ाज़़ “अल्लाह तो यह चाहता है कि तुमसे गन्दगी को दूर करे और तुम्हें पूरी तरह पाक कर दे” से यह नतीजा निकाल लिया कि हज़रत अली (रज़ि०) हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) और उनकी औलाद नबियों (अलैहि०) की तरह मासूम (ग़लतियों और गुनाहों से पूरी तरह महफ़ूज़) हैं। उनका कहना यह है कि गन्दगी से मुराद ग़लत और गुनाह है और अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ ये अहले-बैत इससे पाक कर दिए गए हैं। हालाँकि आयत के अलफ़ाज़ ये नहीं है कि तुमसे गन्दगी दूर कर दी गई और तुम बिलकुल पाक कर दिए गए, बल्कि अलफ़ाज़ ये हैं कि अल्लाह तुमसे गन्दगी को दूर करना और तुम्हें पाक कर देना चाहता है। मौक़ा-महल भी यह नहीं बताता कि यहाँ मक़सद अहले-बैत की तारीफ़े बयान करना है, बल्कि यहाँ तो अहले-बैत को नसीहत की गई है कि तुम फ़ुलाँ काम करो और फ़ुलाँ न करो, इसलिए कि अल्लाह तुम्हें पाक करना चाहता है। दूसरे लफ़्ज़ों में मतलब यह है कि तुम फ़ुलाँ रवैया अपनाओगे तो पाकीज़गी की नेमत तुम्हें मिलेगी, वरना नहीं। फिर भी अगर “युरीदुल्लाहु लियुज़हि-ब अनकुमुर-रिज-स.....व युतहि-र-कुम ततहीरा” का मतलब यह लिया जाए कि अल्लाह ने उनको मासूम कर दिया तो फिर कोई वजह नहीं कि वुज़ू और ग़ुस्ल और तयम्मुम करनेवाले मुसलमानों को मासूम न मान लिया जाए, क्योंकि उनके बारे में भी अल्लाह तआला फ़रमाता है, “मगर अल्लाह चाहता है कि तुमको पाक करे और अपनी नेमत तुमपर तमाम कर दे।” (सूरा-5 माइदा, आयत-6)।
وَٱذۡكُرۡنَ مَا يُتۡلَىٰ فِي بُيُوتِكُنَّ مِنۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ وَٱلۡحِكۡمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ لَطِيفًا خَبِيرًا ۝ 30
(34) याद रखो अल्लाह की आयतों और हिकमत की उन बातों को जो तुम्हारे घरों में सुनाई जाती हैं।51 बेशक अल्लाह लतीफ़ (सूक्ष्मदर्शी)52 और ख़बर रखनेवाला है।
51. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'वज़कुर-न' इस्तेमाल हुआ है जिसके दो मतलब हैं, 'याद रखो' और 'बयान करो'। पहले मतलब के लिहाज़ से मतलब यह है कि ऐ नबी की बीवियो, तुम कभी इस बात को भूल न जाना कि तुम्हारा घर वह है जहाँ से दुनिया भर को अल्लाह की आयतों और हिकमत और सूझ-बूझ को तालीम दी जाती है, इसलिए तुम्हारी ज़िम्मेदारी बड़ी सख़्त है। कहीं ऐसा न हो कि इसी घर में लोग जाहिलियत के नमूने देखने लगें। दूसरे मतलब के लिहाज़ से मतलब यह है कि नबी की बीवियो, जो कुछ तुम सुनो और देखो उसे लोगों के सामने बयान करती रही, क्योंकि रसूल (सल्ल०) के साथ हर वक़्त के रहन-सहन से बहुत-सी हिदायतें तुम्हारी जानकारी में ऐसी आएँगी जो तुम्हारे सिवा किसी और ज़रिए से लोगों को मालूम न हो सकेंगी। इस आयत में दो चीज़ों का ज़िक्र किया गया है। एक अल्लाह की आयतें, दूसरी हिकमत। अल्लाह की आयतों से मुराद तो अल्लाह की किताब को आयतें ही हैं, मगर हिकमत का लफ़्ज़ अपने अन्दर बेशुमार मानी रखता है, जिसमें वे तमाम अक़्लमन्दी और सूझ-बूझ की बातें आ जाती हैं जो नबी (सल्ल०) लोगों को सिखाते थे। इस लफ़्ज़ में अल्लाह की किताब की तालीमात भी आ सकती हैं, मगर सिर्फ़ उन्हीं के साथ इसको ख़ास कर देने की कोई दलील नहीं है। क़ुरआन की आयतें सुनाने के अलावा जिस हिकमत की तालीम नबी (सल्ल०) अपनी पाक ज़िन्दगी (सीरत) से और अपनी कही हुई बातों से देते थे वे भी लाज़िमन इसमें शामिल हैं। कुछ लोग सिर्फ़ इस बुनियाद पर कि आयत में ‘मा युतला' (जो पड़कर सुनाई जाती हैं) का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है, ये दावा करते हैं कि अल्लाह की आयतों और हिकमत से मुराद सिर्फ़ क़ुरआन है, क्योंकि तिलावत का लफ़्ज़ इस्लामी ज़बान में क़ुरआन को तिलावत (पढ़ने) के लिए ख़ास है। लेकिन यह दलील बिलकुल ग़लत है। ‘तिलावत' के लफ़्ज़ को इस्लामी ज़बान के लिहाज़ से क़ुरआन या अल्लाह की किताब की तिलावत के लिए ख़ास कर देना बाद के लोगों का काम है। क़ुरआन में इस लफ़्ज़ को इस्लामी ज़बान (इसतिलाह) के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया गया है। सूरा-2 बक़रा आयत-102 में यही लफ़्ज़ जादू के उन मंत्रों के लिए इस्तेमाल किया गया है जिन्हें शैतान हज़रत सुलैमान (अलैहि०) की तरफ़ जोड़कर लोगों को सुनाते थे। “उन्होंने पैरवी की उस चीज़ की जिसकी तिलावत करते थे (यानी जिसे सुनाते थे) शैतान सुलैमान की बादशाही की तरफ़ जोड़कर।” इससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि क़ुरआन इस लफ़्ज़ को उसके आम मानी में इस्तेमाल करता है, अल्लाह की किताब को आयतें सुनाने के लिए इस्लामी ज़बान के तौर पर ख़ास नहीं करता है।
52. अल्लाह लतीफ़ है, यानी छिपी-से-छिपी बातों तक उसका इल्म पहुँच जाता है। उससे कोई चीज़ छिपी नहीं रह सकती।
إِنَّ ٱلۡمُسۡلِمِينَ وَٱلۡمُسۡلِمَٰتِ وَٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ وَٱلۡقَٰنِتِينَ وَٱلۡقَٰنِتَٰتِ وَٱلصَّٰدِقِينَ وَٱلصَّٰدِقَٰتِ وَٱلصَّٰبِرِينَ وَٱلصَّٰبِرَٰتِ وَٱلۡخَٰشِعِينَ وَٱلۡخَٰشِعَٰتِ وَٱلۡمُتَصَدِّقِينَ وَٱلۡمُتَصَدِّقَٰتِ وَٱلصَّٰٓئِمِينَ وَٱلصَّٰٓئِمَٰتِ وَٱلۡحَٰفِظِينَ فُرُوجَهُمۡ وَٱلۡحَٰفِظَٰتِ وَٱلذَّٰكِرِينَ ٱللَّهَ كَثِيرٗا وَٱلذَّٰكِرَٰتِ أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُم مَّغۡفِرَةٗ وَأَجۡرًا عَظِيمٗا ۝ 31
(35) यक़ीनन53 जो मर्द और औरतें मुस्लिम हैं,54 मोमिन हैं,55 फ़रमाँबरदार है,56 सच्चे हैं,57 सब्र करनेवाले हैं,58 अल्लाह के आगे झुकनेवाले हैं,59 सदक़ा देनेवाले हैं.60 रोज़ा रखनेवाले हैं,61 अपनी शर्मगाहों (छिपे अंगों) की हिफ़ाज़त करनेवाले हैं,62 और अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करनेवाले हैं,63 अल्लाह ने उनके लिए माफ़ी और बड़ा बदला तैयार कर रखा है।64
53. पिछले पैराग्राफ़ के बाद उसी से मिलाकर यह बात कहकर एक बारीक-सा इशारा इस बात की तरफ़ कर दिया गया है कि ऊपर नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों को जो हिदायतें दी गई हैं, वे उनके लिए ख़ास नहीं हैं, बल्कि मुस्लिम समाज को आम तौर से अपने किरदार का सुधार उन्हीं हिदायतों के मुताबिक़ करना चाहिए।
54. यानी जिन्होंने इस्लाम को अपने लिए जीने के तरीक़े की हैसियत से क़ुबूल कर लिया है और यह तय कर लिया है कि अब वे उसी की पैरवी में ज़िन्दगी गुज़ारेंगे। दूसरे अलफ़ाज़ में, जिनके अन्दर इस्लाम के दिए हुए सोचने-समझने और जीने के तरीक़े के ख़िलाफ़ किसी तरह की रुकावट बाक़ी नहीं रही है, बल्कि वे उसकी पैरवी की राह अपना चुके हैं।
55. यानी जिनकी ये पैरवी सिर्फ़ ज़ाहिरी नहीं है, अनचाहे मन से नहीं है, बल्कि दिल से वे इस्लाम ही की रहनुमाई को सही मानते हैं। उनका ईमान यही है कि सोचने और अमल करने का जो रास्ता क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) ने दिखाया है, वही सीधा और सही रास्ता है और उसी की पैरवी में हमारी कामयाबी और नजात है। जिस चीज़ को अल्लाह और उसके रसूल ने ग़लत कह दिया है, उनकी अपनी राय भी यही है कि वह यकीनन ग़लत है और जिसे अल्लाह और उसके रसूल ने हक़ और सही कह दिया है, उनका अपना दिल और दिमाग़ भी उसे सही ही समझता है। उनके मन और ज़ेहन की हालत यह नहीं है कि क़ुरआन और सुन्नत से जो हुक्म साबित हो, उसे वे नामुनासिब समझते हों और इस फ़िक्र में डूबे और उलझे रहें कि किसी तरह उसे बदलकर अपनी राय के मुताबिक़, या दुनिया के चलते हुए तरीक़ों के मुताबिक़ टाल भी दिया जाए और यह इलज़ाम भी अपने सर न लिया जाए कि हमने अल्लाह के और रसूल के हुक्म में बदलाव कर डाला है। हदीस में नबी (सल्ल०) ईमान की सही कैफ़ियत को यूँ बयान फ़रमाते हैं— "ईमान का मज़ा पा गया वह शख़्स जो राज़ी हुआ इस बात पर कि अल्लाह ही उसका रब हो और इस्लाम ही उसका दीन हो और मुहम्मद ही उसके रसूल हों।” (हदीस : मुस्लिम) एक दूसरी हदीस में आप (सल्ल०) इसकी तशरीह फ़रमाते हैं— "तुममें से कोई शख़्स मोमिन नहीं होता जब तक कि उसके मन की ख़ाहिश उस चीज़ के मातहत न हो जाए जिसे में लाया हूँ।" (हदीस : शरहुस्सुन्ना)
56. यानी वे सिर्फ़ मानकर रह जानेवाले भी हैं, बल्कि अमली तौर से पैरवी करनेवाले हैं। उनकी यह हालत नहीं है कि ईमानदारी के साथ हक़ तो उसी चीज़ को मानें जिसका अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने हुक्म दिया है, मगर अमली तौर से उसके ख़िलाफ़ करें और अपने दिल से तो उन सब कामों को बुरा ही समझते रहें जिन्हें अल्लाह और उसके रसूल ने मना किया है, मगर अपनी अमली ज़िन्दगी में वही काम करते चले जाएँ।
57. यानी अपनी बातों में भी सच्चे हैं और अपने मामलों में भी खरे हैं। झूठ, फ़रेब, बदनीयती, दग़ाबाज़ी और छल-कपट उनकी ज़िन्दगी में नहीं पाए जाते। उनकी ज़बान वही बोलती है जिसे उनका ज़मीर (अन्तर्मन) सही जानता है। वे काम वही करते हैं जो ईमानदारी के साथ उनके नज़दीक सही तरीक़े और सच्चाई के मुताबिक़ होता है और जिससे भो वे कोई मामला करते हैं, ईमानदारी के साथ करते हैं।
58. यानी ख़ुदा और रसूल के बताए हुए सीधे रास्ते पर चलने और ख़ुदा के दीन को क़ायम करने में जो मुश्किलें भी पेश आएँ, जो ख़तरे भी सामने हों, जो तकलीफ़ें भी उठानी पड़ें और जिन नुक़सानों से भी दोचार होना पड़े, उनका पूरे जमाव और मज़बूती के साथ डटकर मुक़ाबला करते हैं। कोई डर, कोई लालच और मन की ख़ाहिशों की कोई माँग उनको सीधी राह से हटा देने में कामयाब नहीं होती।
59. यानी वे घमण्ड, तकब्बुर (अहंकार) और अपनी बड़ाई के एहसास से ख़ाली हैं। वे इस हक़ीक़त का पूरा एहसास रखते हैं कि हम बन्दे हैं और बन्दगी से बढ़कर हमारी कोई हैसियत नहीं है। इसलिए उनके दिल और जिस्म दोनों ही अल्लाह के आगे झुके रहते हैं। उनपर ख़ुदा का डर छाया रहता है। उनसे कभी वह रवैया ज़ाहिर नहीं होता जो अपनी बड़ाई के घमण्ड में मुब्तला और ख़ुदा से निडर लोगों से ज़ाहिर हुआ करता है। बात की तरतीब को ध्यान में रखा जाए तो मालूम होता है कि यहाँ परहेज़गारी के इस आम रवैये के साथ ख़ास तौर पर ख़ुशू से मुराद नमाज़ है, क्योंकि इसके बाद ही सदक़े और रोज़े का ज़िक्र किया गया है।
60. इससे मुराद सिर्फ़ फ़र्ज़ ज़कात अदा करना ही नहीं है, बल्कि आम ख़ैरात भी इसमें शामिल है। मुराद यह है कि वे अल्लाह की राह में खुले दिल से अपने माल ख़र्च करते हैं। अल्लाह के बन्दों की मदद करने में अपनी सकत भर वे कोई कसर नहीं छोड़ते। कोई यतीम, कोई बीमार, कोई मुसीबत का मारा, कोई कमज़ोर और अपाहिज, कोई ग़रीब और ज़रूरतमन्द आदमी उनकी बस्तियों में मदद से महरूम नहीं रहता और अल्लाह के दीन को सरबुलन्द करने के लिए ज़रूरत पेश आ जाए तो उसपर अपने माल लुटा देने में वे कभी कंजूसी से काम नहीं लेते।
61. इसमें फ़र्ज़ और नफ़्ल दोनों तरह के रोज़े शामिल हैं।
62. इसमें दो मतलब शामिल हैं। एक यह कि वे ज़िना (व्यभिचार) से परहेज़ करते हैं। दूसरा यह कि वे बेशर्मी और नंगेपन से बचते हैं। इसके साथ यह भी समझ लेना चाहिए कि बेशर्मी और नंगापन सिर्फ़ इसी चीज़ का नाम नहीं है कि आदमी लिबास के बिना बिलकुल नंगा हो जाए, बल्कि ऐसा लिबास पहनना भी नंगापन ही है जो इतना बारीक हो कि जिस्म उसमें में झलकता हो, या इतना चुस्त हो कि जिस्म की बनावट और उसके उतार-चढ़ाव सब उसमें से नुमायाँ नज़र आते हों।
وَمَا كَانَ لِمُؤۡمِنٖ وَلَا مُؤۡمِنَةٍ إِذَا قَضَى ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥٓ أَمۡرًا أَن يَكُونَ لَهُمُ ٱلۡخِيَرَةُ مِنۡ أَمۡرِهِمۡۗ وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَقَدۡ ضَلَّ ضَلَٰلٗا مُّبِينٗا ۝ 32
(36) किसी65 मोमिन मर्द और किसी मोमिन औरत को यह हक़ नहीं है कि जब अल्लाह और उसका रसूल किसी मामले का फ़ैसला कर दे तो फिर उसे अपने उस मामले में ख़ुद फ़ैसला करने का इख़्तियार मिला रहे और जो कोई अल्लाह और उसके रसूल की नाफ़रमानी करे तो वह खुली गुमराही में पड़ गया।66
65. यहाँ से वे आयतें शुरू होती हैं जो हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) के निकाह के सिलसिले में उत्तरी थीं।
66. इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद, क़तादा, इकरिमा और मुक़ातिल-बिन-हैयान कहते हैं कि यह आयत उस वक़्त उतरी थी, जब नबी (सल्ल०) ने हज़रत ज़ैद (रज़ि०) के लिए हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के साथ निकाह का पैग़ाम दिया था और हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) और उनके रिश्तेदारों ने उसे नामंज़ूर कर दिया था। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि जब नबी (सल्ल०) ने यह पैग़ाम दिया तो हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) ने कहा, “मैं ख़ानदान में उससे बेहतर हूँ।” इब्ने-सअद का बयान है कि उन्होंने जवाब में यह भी कहा था कि “मैं उसे अपने लिए पसन्द नहीं करती, मैं क़ुरैश की शरीफ़ज़ादी हूँ।” इसी तरह की नारज़ामन्दी का इज़हार उनके भाई अब्दुल्लाह-बिन-जहश (रज़ि०) ने भी किया था। इसलिए कि हज़रत ज़ैद (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के आज़ाद किए हुए ग़ुलाम थे और हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) नबी (सल्ल०) की फूफी (उमैमा-बिन्ते-अब्दुल-मुत्तलिब) की बेटी थीं। इन लोगों को यह बात सख़्त नागवार थी कि इतने ऊँचे घराने की लड़की और वह भी कोई और नहीं, बल्कि नबी (सल्ल०) की अपनी फुफेरी बहन है और उसका पैग़ाम आप (सल्ल०) अपने आज़ाद किए हुए ग़ुलाम के लिए दे रहे हैं। इसपर यह आयत उत्तरी और इसे सुनते ही हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) और उनके सब ख़ानदानवालों ने बिना झिझक नबी (सल्ल०) का हुक्म मान लिया। इसके बाद नबी (सल्ल०) ने उनका निकाह पढ़ाया, ख़ुद हज़रत ज़ैद (रज़ि०) की तरफ़ से दस दीनार और 60 दिरहम मह्‍र अदा किया, चढ़ावे के कपड़े दिए और खाने-पीने का कुछ सामान घर के ख़र्च के लिए भिजवा दिया। यह आयत अगरचे एक ख़ास मौक़े पर उतरी है, मगर जो हुक्म इसमें बयान किया गया है, वह इस्लामी क़ानून का सबसे बुनियादी उसूल है और यह पूरे इस्लामी निज़ामे-ज़िन्दगी (जीवन-व्यवस्था) पर लागू होता है। इसके मुताबिक़ किसी मुसलमान शख़्स, या काम, या इदारे, या अदालत, या पार्लियामेंट, या हुकूमत को यह हक़ नहीं पहुँचता कि जिस मामले में अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से कोई हुक्म साबित हो, उसमें वह ख़ुद अपनी राय की आज़ादी का इस्तेमाल करे। मुसलमान होने का मतलब ही ख़ुदा और रसूल के आगे अपने आज़ाद इख़्तियार को छोड़ देना है। किसी शख़्स या क़ौम का मुसलमान भी होना और अपने लिए इस इख़्तियार को महफ़ूज़ भी रखना, दोनों एक-दूसरे से टकराते हैं। कोई अक़्लमन्द इनसान इन दोनों रवैयों को जमा करने के बारे में सोच भी नहीं सकता। जिसे मुसलमान रहना हो उसको लाज़िमन अल्लाह और रसूल के हुक्म के आगे झुक जाना होगा और जिसे न झुकना हो उसको सीधी तरह मानना पड़ेगा कि वह मुसलमान नहीं है। न मानेगा तो चाहे अपने मुसलमान होने का वह कितना ही ढोल पीटे, ख़ुदा और बन्दों दोनों की निगाह में वह मुनाफ़िक़ ही ठहरेगा।
وَإِذۡ تَقُولُ لِلَّذِيٓ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ وَأَنۡعَمۡتَ عَلَيۡهِ أَمۡسِكۡ عَلَيۡكَ زَوۡجَكَ وَٱتَّقِ ٱللَّهَ وَتُخۡفِي فِي نَفۡسِكَ مَا ٱللَّهُ مُبۡدِيهِ وَتَخۡشَى ٱلنَّاسَ وَٱللَّهُ أَحَقُّ أَن تَخۡشَىٰهُۖ فَلَمَّا قَضَىٰ زَيۡدٞ مِّنۡهَا وَطَرٗا زَوَّجۡنَٰكَهَا لِكَيۡ لَا يَكُونَ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ حَرَجٞ فِيٓ أَزۡوَٰجِ أَدۡعِيَآئِهِمۡ إِذَا قَضَوۡاْ مِنۡهُنَّ وَطَرٗاۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ مَفۡعُولٗا ۝ 33
(37) ऐ नबी!67 याद करो वह मौक़ा जब तुम उस आदमी से कह रहे थे जिसपर अल्लाह ने और तुमने एहसान किया था68 कि अपनी बीवी को न छोड़ और अल्लाह से डर ।"69 उस वक़्त तुम अपने दिल में वह बात छिपाए हुए थे जिसे अल्लाह खोलना चाहता था, तुम लोगों से डर रहे थे, हालाँकि अल्लाह इसका ज़्यादा हक़दार है कि तुम उससे डरो।70 फिर जब ज़ैद उससे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुका71 तो हमने उस (तलाक़ पाई हुई औरत) का तुमसे निकाह कर दिया,72 ताकि ईमानवालों पर अपने मुँह बोले बेटों की बीवियों के मामले में कोई तंगी न रहे, जबकि वे उनसे अपनी ज़रूरत पूरी कर चुके हों।73 और अल्लाह का हुक्म तो अमल में आना ही चाहिए था।
67. यहाँ से आयत-48 तक का मज़मून उस वक़्त उतरा जब हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) निकाह कर चुके थे और उसपर मुनाफ़िक़ों, यहूदियों और मुशरिकों ने आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ प्रोपेगण्डे का एक बड़ा तूफ़ान खड़ा कर रखा था। इन आयतों को पढ़ते वक़्त यह बात ज़ेहन में रहनी चाहिए कि अल्लाह तआला के वे फ़रमान उन दुश्मनों को समझाने के लिए नहीं थे जो जान-बूझकर नबी (सल्ल०) को बदनाम करने और अपने दिल की जलन निकालने के लिए झूठ और बुहतान और तानों की मुहिम चला रहे थे, बल्कि अस्ल मक़सद मुसलमानों को उनकी इस मुहिम के असरात से बचाना और उनके फैलाए हुए शक-शुब्हों से महफ़ूज़ करना था। ज़ाहिर बात है कि अल्लाह का कलाम इनकार करनेवालों को मुत्मइन नहीं कर सकता था। इससे अगर इत्मीनान मिल सकता था तो उन्हीं लोगों को जो जानते और मानते थे कि वह अल्लाह का कलाम है। अल्लाह के इन बन्दों के बारे में उस वक़्त यह ख़तरा पैदा हो गया था कि दुश्मनों के एतिराज कहीं उनके दिलों में भी शक और उनके दिमामों में भी उलझन न पैदा कर दें। इसलिए अल्लाह तआला ने एक तरफ़ तमाम पैदा हो सकनेवाले शक और शुब्हों को दूर कर दिया और दूसरी तरफ़ मुसलमानों को भी और ख़ुद नबी (सल्ल०) को भी यह बताया कि इन हालात में उनका रवैया क्या होना चाहिए।
68. मुराद हैं हज़रत ज़ैद (रज़ि०), जैसा कि आगे साफ़ तौर से बयान कर दिया गया है। उनपर अल्लाह तआला का एहसान क्या था और नबी (सल्ल०) का एहसान क्या? इसको समझने के लिए ज़रूरी है कि मुख़्तसर तौर पर यहाँ उनका क़िस्सा बयान कर दिया जाए। यह अस्ल में कल्ब नामक क़बीले के एक आदमी हारिसा-बिन-शराहील के बेटे थे और उनकी माँ सुअदा-बिन्ते-सअलबा क़बीला तै की एक शाख़ बनी-मअन से थीं। जब वह आठ साल के बच्चे थे, उस वक़्त उनकी माँ उन्हें अपने मायके लेकर गईं। वहाँ बनी-क़ैन-बिन-जसर के लोगों ने उनके पड़ाव पर हमला किया और लूटमार के साथ जिन आदमियों को वे पकड़कर ले गए, उनमें हज़रत ज़ैद भी थे। फिर उन्होंने ताइफ़ के क़रीब उकाज़ के मेले में ले जाकर उनको बेच दिया। ख़रीदनेवाले हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के भतीजे हकीम-बिन-हिज्राम थे। उन्होंने मक्का लाकर अपनी फूफी साहिबा की ख़िदमत में भेंट कर दिया। नबी (सल्ल०) से हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) का जब निकाह हुआ तो नबी (सल्ल०) ने उनके यहाँ ज़ैद को देखा और उनके तौर-तरीक़े आप (सल्ल०) को इतने ज़्यादा पसन्द आए कि आप (सल्ल०) ने उन्हें हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से माँग लिया। इस तरह यह ख़ुशक़िस्मत लड़का दुनिया की इस सबसे बेहतर शख़्सियत की ख़िदमत में पहुँच गया, जिसे कुछ साल बाद अल्लाह नबी बनानेवाला था। उस वक़्त हज़रत ज़ैद (रज़ि०) की उम्र 15 साल थी। कुछ मुद्दत बाद उनके बाप और चाचा को पता चला कि हमारा बच्चा मक्का में है। वे उन्हें तलाश करते हुए नबी (सल्ल०) तक पहुँचे और अर्ज़ किया कि आप जो फ़िदया चाहें हम देने को तैयार हैं, आप हमारा बच्चा हमें दे दें। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “मैं लड़के को बुलाता हूँ और उसी की मर्ज़ी पर छोड़े देता हूँ। कि वह तुम्हारे साथ जाना चाहता है या मेरे पास रहना पसन्द करता है। अगर वह तुम्हारे साथ जाना चाहेगा तो मैं कोई फ़िदया न लूँगा और उसे यूँ ही छोड़ दूँगा। लेकिन अगर वह मेरे पास रहना चाहे तो मैं ऐसा आदमी नहीं हूँ कि जो शख़्स मेरे पास रहना चाहता हो, उसे ख़ाह-मख़ाह निकाल दूँ।” उन्होंने कहा, “यह तो आपने इनसाफ़ से भी बढ़कर दुरुस्त बात कही है। आप बच्चे को बुलाकर पूछ लीजिए।” नबी (सल्ल०) ने ज़ैद (रज़ि०) को बुलाया और इन दोनों साहिबों को जानते हो? उन्होंने कहा, “जी हाँ, ये मेरे बाप हैं और ये मेरे चाचा।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, तुम इनको भी जानते हो और मुझे भी। अब तुम्हें पूरी आज़ादी है कि चाहो इनके साथ चले जाओ और चाहो तो मेरे साथ रहो।” उन्होंने जवाब दिया, “मैं आपको छोड़कर किसी के पास नहीं जाना चाहता।” उनके बाप और चाचा ने कहा, “ज़ैद, क्या तू आज़ादी पर ग़ुलामी को अहमियत देता है और अपने माँ-बाप और ख़ानदान को छोड़कर ग़ैरों के पास रहना चाहता है?” उन्होंने जवाब दिया कि “मैंने इस शख़्स की जो ख़ूबियाँ देखी हैं, उनका तजरिबा कर लेने के बाद में अब दुनिया में किसी को भी इससे बढ़कर अहमियत नहीं दे सकता।” ज़ैद का यह जवाब सुनकर उनके बाप और चाचा ख़ुशी से राज़ी हो गए। नबी (सल्ल०) ने उसी वक़्त ज़ैद को आज़ाद कर दिया और हरम में जाकर क़ुरैश के बीच सबके सामने एलान किया कि आप सब लोग गवाह रहें, आज से ज़ैद मेरा बेटा है, यह मुझसे विरासत पाएगा और में इससे इसी बुनियाद पर लोग ज़ैद को ज़ैद-बिन-मुहम्मद (मुहम्मद का बेटा ज़ैद) कहने लगे। ये सब वाक़िआत मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने से पहले के हैं। फिर जब मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह तआला की तरफ़ से नबी बनाए गए तो चार हस्तियाँ ऐसी थीं जिन्होंने एक पल के लिए भी शक या झिझक किए बिना आप (सल्ल०) की पैग़म्बरी का दावा सुनते ही उसे मान लिया। एक हज़रत ख़दीजा (रज़ि०), दूसरी हज़रत ज़ैद (रज़ि०), तीसरी हज़रत अली (रज़ि०) और चौथी हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०)। उस वक़्त हज़रत ज़ैद की उम्र तीस (30) साल थी और उनको नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में रहते हुए पन्द्रह (15) साल बीत चुके थे। हिजरत के बाद 4 हि० में नबी (सल्ल०) ने अपनी फुफेरी बहन हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से उनका निकाह कर दिया, अपनी तरफ़ से उनका मह्‍र अदा किया और घर बसाने के लिए उनको ज़रूरी सामान दिया। यही हालात हैं जिनकी तरफ़ अल्लाह तआला इन अलफ़ाज़ में इशारा फ़रमा रहा है कि “जिसपर अल्लाह ने और तुमने एहसान किया था।"
69. यह उस वक़्त की बात है जब हज़रत ज़ैद (रज़ि०) से हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के ताल्लुक़ात बेहद ख़राब हो चुके थे और उन्होंने बार-बार शिकायतें पेश करने के बाद आख़िरकार नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में अर्ज़ किया था कि मैं उनको तलाक़ देना चाहता हूँ। हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) ने अगरचे अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म मानकर उनके निकाह में जाना क़ुबूल कर लिया था, लेकिन वे अपने दिल से इस एहसास को किसी तरह न मिटा सकीं कि ज़ैद (रज़ि०) एक आज़ाद किए हुए ग़ुलाम हैं, उनके अपने ख़ानदान के पाले हुए हैं और वे अरब के सबसे ज़्यादा इज़्ज़तदार और शरीफ़ घराने की बेटी होने के बावजूद इस कमतर दरजे के आदमी से ब्याही गई हैं। इस एहसास की वजह से शौहर बीवी की ज़िन्दगी में उन्होंने कभी हज़रत ज़ैद (रज़ि०) को अपने बराबर का न समझा और इसी वजह से दोनों के बीच कड़ुवाहटें बढ़ती चली गई। एक साल से कुछ ही ज़्यादा मुद्दत गुज़री थी कि नौबत तलाक़ तक पहुँच गई।
70. कुछ लोगों ने इस जुमले का उलटा मतलब यह निकाल लिया है कि नबी (सल्ल०) ख़ुद हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से निकाह करना चाहते थे और आप (सल्ल०) का जी चाहता था कि हज़रत ज़ैद (रज़ि०) उनको तलाक़ दे दें, मगर जब उन्होंने आकर कहा कि मैं अपनी बीवी को तलाक़ देना चाहता हूँ तो आप (सल्ल०) ने, अल्लाह की पनाह, उनको ऊपरी दिल से मना किया, इसपर अल्लाह तआला फ़रमा रहा है कि “तुम दिल में वह बात छिपा रहे थे जिसे अल्लाह ज़ाहिर करना चाहता था।” हालाँकि अस्ल बात इसके बिलकुल बरख़िलाफ़ है। अगर इस सूरा की आयतों 1, 2, 3 और 7 के साथ मिलाकर यह जुमला पढ़ा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि जिस ज़माने में हज़रत ज़ैद (रज़ि०) और उनकी बीवी के बीच कड़ुवाहट बढ़ती चली जा रही थी उसी ज़माने में अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) को यह इशारा कर चुका था कि ज़ैद (रज़ि०) जब अपनी बीवी को तलाक़ दे दें तो उनकी तलाक़शुदा बीवी से आपको निकाह करना होगा। लेकिन चूँकि नबी (सल्ल०) जानते थे कि अरब के इस समाज में मुँह बोले बेटे की तलाक़शुदा बीवी से निकाह करना क्या मानी रखता है और वह भी ठीक उस हालत में जबकि मुट्ठी भर मुसलमानों के सिवा बाक़ी सारा अरब आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ पहले ही ख़ार खाए बैठा था। इसलिए आप इस ज़बरदस्त आज़माइश में पड़ने से हिचकिचा रहे थे। इसी वजह से जब हज़रत ज़ैद (रज़ि०) ने बीवी को तलाक़ देने का इरादा ज़ाहिर किया तो नबी (सल्ल०) ने उनसे कहा कि “अल्लाह से डरो और अपनी बीवी को तलाक़ न दो।” आप (सल्ल०) का मंशा यह था कि यह आदमी तलाक़ न दे तो में इस आज़माइश में पड़ने से बच जाऊँ, वरना इसके तलाक़ दे देने की हालत में मुझे हुक्म पर अमल करना होगा और फिर मुझपर वह कीचड़ उछाली जाएगी कि ख़ुदा की पनाह! मगर अल्लाह तआला अपने नबी को बुलन्द इरादे और ख़ुदा के फ़ैसले पर राज़ी रहने के जिस दरजे पर देखना चाहता था, उसके लिहाज़ से नबी (सल्ल०) की यह बात उसको कमतर नज़र आई कि आप (सल्ल०) ने जान-बूझकर ज़ैद (रज़ि०) को तलाक़ से रोका, ताकि आप (सल्ल०) उस काम से बच जाएँ, जिसमें आप (सल्ल०) को बदनामी का अन्देशा था, हालाँकि अल्लाह एक बड़ी मस्लहत की ख़ातिर वह काम आप (सल्ल०) से लेना चाहता था। “तुम लोगों से डर रहे थे, हालाँकि अल्लाह इसका ज़्यादा हकदार है कि तुम उससे डरो” के अलफ़ाज़ साफ़-साफ़ इसी बात की तरफ़ इशारा कर रहे हैं। यही बात इस आयत की तशरीह में इमाम जैनुल-आबिदीन हज़रत अली-बिन-हुसैन (रज़ि०) ने फ़रमाई है। वे कहते हैं कि “अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) को ख़बर दे चुका था कि ज़ैनब (रज़ि०) आप (सल्ल०) की बीवियों में शामिल होनेवाली हैं, मगर ज़ैद (रज़ि०) ने आकर उनकी शिकायत आप (सल्ल०) से की तो आप (सल्ल०) ने उनसे फ़रमाया कि अल्लाह से डरो और अपनी बीवी को न छोड़ो। इसपर अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि मैं तुम्हें पहले ख़बर दे चुका था कि मैं तुम्हारा निकाह ज़ैनब से करनेवाला हूँ। तुम ज़ैद से यह बात कहते वक़्त उस बात को छिपा रहे थे जिसे अल्लाह ज़ाहिर करनेवाला था।” (इब्ने-जरीर, इब्ने-कसीर, इब्ने-अबी हातिम के हवाले से)। अल्लामा आलूसी ने भी तफ़सीर 'रूहुल-मआनी' में इसका यही मतलब बयान किया है। वे कहते हैं कि “यह नाराज़ी का इज़हार है 'बेहतर' के छोड़ने पर। इस हालत में बेहतर यह था कि नबी (सल्ल०) चुप रहते, या ज़ैद से कह देते कि तुम जो कुछ करना चाहो कर सकते हो। नाराज़ी का नतीजा यह है कि तुमने ज़ैद से यह क्यों कहा कि अपनी बीवी को न छोड़ो, हालाँकि मैं (अल्लाह) तुम्हें पहले ही बता चुका था कि ज़ैनब (रज़ि०) तुम्हारी बीवियों में शामिल होंगी।"
71. यानी जब ज़ैद (रज़ि०) ने अपनी बीवी को तलाक़ दे दी और उनकी इद्दत पूरी हो गई। “ज़रूरत पूरी कर चुका” के अलफ़ाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि ज़ैद की उससे कोई ज़रूरत बाक़ी न रही और यह सूरते-हाल सिर्फ़ तलाक़ देने से पैदा नहीं होती, क्योंकि इद्दत के दौरान में शौहर को अगर कुछ दिलचस्पी बाक़ी हो तो वह दोबारा रिश्ता बना सकता है और शौहर की यह ज़रूरत भी तलाक़शुदा बीवी से बाक़ी रहती है कि उसके हामिला (गर्भवती) होने या न होने का पता चल जाए। इसलिए तलाक़शुदा बीवी के साथ उसके पिछले शौहर की ज़रूरत सिर्फ़ उसी वक़्त ख़त्म होती है, जब इद्दत गुज़र जाए।
72. ये अलफ़ाज़ इस बात को वाज़ेह करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने यह निकाह ख़ुद अपनी ख़ाहिश की वजह से नहीं, बल्कि अल्लाह के हुक्म की वजह से किया था।
73. ये अलफ़ाज़ इस बात को साफ़ तौर पर बयान करते हैं कि अल्लाह तआला ने यह काम नबी (सल्ल०) से एक ऐसी ज़रूरत और मस्लहत की ख़ातिर कराया था जो इस तदबीर के सिवा किसी दूसरे ज़रिए से पूरी न हो सकती थी। अरब में मुँह बोले रिश्तों के बारे में जो ग़लत रस्में रिवाज पा गई थीं, उनको तोड़ने की कोई सूरत इसके सिवा न थी कि अल्लाह का रसूल ख़ुद आगे बढ़कर उनको तोड़ डाले। इसलिए यह निकाह अल्लाह तआला ने सिर्फ़ नबी के घर में एक बीवी का इज़ाफ़ा करने के लिए नहीं, बल्कि एक अहम ज़रूरत की ख़ातिर करवाया।
مَّا كَانَ عَلَى ٱلنَّبِيِّ مِنۡ حَرَجٖ فِيمَا فَرَضَ ٱللَّهُ لَهُۥۖ سُنَّةَ ٱللَّهِ فِي ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلُۚ وَكَانَ أَمۡرُ ٱللَّهِ قَدَرٗا مَّقۡدُورًا ۝ 34
(38) नबी पर किसी ऐसे काम में रुकावट नहीं है जो अल्लाह ने उसके लिए मुक़र्रर कर दिया हो।74 यही अल्लाह की सुन्नत (नीति) उन सब नबियों के मामले में रही है जो पहले गुज़र चुके हैं और अल्लाह का हुक्म एक बिलकुल तय किया हुआ फ़ैसला होता है।75
74. इन अलफ़ाज़ से यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि दूसरे मुसलमानों के लिए तो इस तरह का निकाह सिर्फ़ मबाह (जाइज़) है मगर नबी (सल्ल०) के लिए यह एक फ़र्ज़ था जो अल्लाह ने आप (सल्ल०) पर डाल दिया था।
75. यानी नबियों (अलैहि०) के लिए हमेशा से यह उसूल मुक़र्रर रहा है कि अल्लाह की तरफ़ से जो हुक्म भी आए, उसपर अमल करना उनके लिए लाज़िमी है, जिससे बचने का कोई रास्ता उनके लिए नहीं है। जब अल्लाह तआला अपने नबी पर कोई काम फ़र्ज़ कर दे तो उसे वह काम करके ही रहना होता है, चाहे सारी दुनिया उसकी मुख़ालफ़त पर तुल गई हो।
ٱلَّذِينَ يُبَلِّغُونَ رِسَٰلَٰتِ ٱللَّهِ وَيَخۡشَوۡنَهُۥ وَلَا يَخۡشَوۡنَ أَحَدًا إِلَّا ٱللَّهَۗ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ حَسِيبٗا ۝ 35
(39) (यह अल्लाह की सुन्नत है उन लोगों के लिए) जो अल्लाह के पैग़ाम पहुँचाते हैं और उसी से डरते हैं और एक अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते और हिसाब लेने के लिए बस ख़ुदा ही काफी है76
76. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'कफ़ा बिल्लाहि हसीबा'। इसके दो मतलब हैं। एक यह कि हर डर और ख़तरे के मुक़ाबले में अल्लाह काफ़ी है। दूसरा यह कि हिसाब लेने के लिए अल्लाह काफ़ी है, उसके सिवा किसी की पूछ-गछ से डरने की कोई ज़रूरत नहीं।
مَّا كَانَ مُحَمَّدٌ أَبَآ أَحَدٖ مِّن رِّجَالِكُمۡ وَلَٰكِن رَّسُولَ ٱللَّهِ وَخَاتَمَ ٱلنَّبِيِّـۧنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 36
(40) (लोगो!) मुहम्मद तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं, मगर वे अल्लाह के रसूल और आख़िरी नबी हैं और अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखनेवाला है।77
77. इस एक जुमले में उन तमाम एतिराज़ों की जड़ काट दी गई है जो मुख़ालफ़त करनेवाले नबी (सल्ल०) के इस निकाह पर कर रहे थे। उनका सबसे पहला एतिराज़ यह था कि आप (सल्ल०) ने अपनी बहू से निकाह किया है, हालाँकि आप (सल्ल०) की अपनी शरीअत में भी बेटे के निकाह में आ चुकी औरत बाप पर हराम है। इसके जवाब में कहा गया कि “मुहम्मद तुम्हारे मर्दों में से किसी के बाप नहीं हैं.” यानी जिस आदमी की तलाक़शुदा औरत से निकाह किया गया है, वह बेटा था कब कि उसकी छोड़ी हुई औरत से निकाह हराम होता? तुम लोग तो ख़ुद जानते हो कि मुहम्मद (सल्ल०) का सिरे से कोई बेटा है ही नहीं। उनका दूसरा एतिराज़ यह था कि अच्छा, अगर मुँह बोला बेटा हक़ीक़ी (सगा) बेटा नहीं है। तब भी उसकी छोड़ी हुई औरत से निकाह कर लेना ज़्यादा-से-ज़्यादा बस जाइज़ ही हो सकता था, आख़िर उसका करना क्या ज़रूरी था। इसके जवाब में कहा गया, “मगर वे अल्लाह के रसूल हैं,” यानी रसूल होने की हैसियत से उनपर यह फ़र्ज़ लागू होता था कि जिस हलाल चीज़ को तुम्हारी रस्मों ने ख़ाह-मख़ाह हराम कर रखा है, उसके बारे में तमाम तास्तुबात (पक्षपात) को ख़त्म कर दें और इसके हलाल होने के बारे में किसी शक-शुब्हे की गुंजाइश बाक़ी न रहने दे। फिर और भी ताकीद के लिए फ़रमाया, “और वह ख़ातमुन-नबिय्यीन (आख़िरी नबी) हैं,” यानी उनके बाद कोई रसूल तो दूर की बात कोई नबी तक आनेवाला नहीं है कि अगर क़ानून और समाज का कोई सुधार उनके ज़माने में होने से रह जाए तो बाद का आनेवाला नबी यह कसर पूरी कर दे, इसलिए यह और भी ज़रूरी हो गया था कि जाहिलियत की इस रस्म को वे ख़ुद ही ख़त्म करके जाएँ। इसके बाद और ज़्यादा ज़ोर देते हुए कहा गया कि “अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखनेवाला है।” यानी अल्लाह को मालूम है कि इस वक़्त मुहम्मद (सल्ल०) के हाथों जाहिलियत की इस रस्म को ख़त्म करा देना क्यों ज़रूरी था और ऐसा न करने में क्या बुराई थी। वह जानता है कि अब उसकी तरफ़ से कोई नबी आनेवाला नहीं है, इसलिए अगर अपने आख़िरी नबी के ज़रिए से उसने इस रस्म को ख़त्म न कराया तो फिर कोई दूसरी हस्ती दुनिया में ऐसी न होगी जिसके तोड़ने से यह तमाम दुनिया के मुसलमानों में हमेशा के लिए टूट जाए। बाद के इस्लाह करनेवाले (सुधारक) अगर इसे तोड़ेंगे भी तो उनमें से किसी का अमल भी अपने पीछे ऐसा हमेशा रहनेवाला और तमाम दुनिया के लिए असरदार न होगा कि हर देश और हर ज़माने में लोग उसकी पैरवी करने लगें और उनमें से किसी की शख़्सियत भी अपने अन्दर इतना एहतिराम और क़द्र न रखती होगी कि किसी काम का सिर्फ़ उसका तरीक़ा होना ही लोगों के दिलों से नफ़रत के हर ख़याल को मिटा डाले। अफ़सोस है कि मौजूदा ज़माने में एक गरोह ने इस आयत का ग़लत मतलब निकालकर एक बहुत बड़े फ़ितने का दरवाज़ा खोल दिया है। इसलिए पैग़म्बरी के ख़त्म होने के मसले की पूरी वज़ाहत (स्पष्टीकरण) और उस गरोह की फैलाई हुई ग़लतफ़हमियों को रद्द करने के लिए हमने इस सूरा की तफ़सीर के आख़िर में एक तफ़सीली नोट शामिल कर दिया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱذۡكُرُواْ ٱللَّهَ ذِكۡرٗا كَثِيرٗا ۝ 37
(41) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करो
وَسَبِّحُوهُ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلًا ۝ 38
(42) और सुबह- शाम उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो।78
78. इसका मक़सद मुसलमानों को यह नसीहत करना है कि जब दुश्मनों की तरफ़ से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर तानों और मलामतों की बौछार हो रही हो और सच्चे दीन को नुक़सान पहुँचाने के लिए रसूल की शख़्सियत को निशाना बनाकर प्रोपेगण्डे का तूफ़ान खड़ा किया जा रहा हो, ऐसी हालत में ईमानवालों का काम न तो यह है कि इन बेहूदगियों को इत्मीनान के साथ सुनते रहें और न यह कि ख़ुद भी दुश्मनों के फैलाए हुए शक-शुब्हों में मुब्तला हों और न यह कि जवाब में उनसे गाली-गलौच करने लगें, बल्कि उनका काम यह है कि आम दिनों से बढ़कर इस ज़माने में ख़ास तौर से अल्लाह को और ज़्यादा याद करें। “अल्लाह को बहुत ज़्यादा याद करने” का मतलब हाशिया नम्बर-63 में बयान किया जा चुका है। सुबह-शाम तसबीह करने से मुराद हमेशा तसबीह करते रहता है और तसबीह का मतलब अल्लाह की पाकीज़गी और बड़ाई बयान करने के हैं, न कि सिर्फ़ दानोंवाली तसबीह फिराने के।
هُوَ ٱلَّذِي يُصَلِّي عَلَيۡكُمۡ وَمَلَٰٓئِكَتُهُۥ لِيُخۡرِجَكُم مِّنَ ٱلظُّلُمَٰتِ إِلَى ٱلنُّورِۚ وَكَانَ بِٱلۡمُؤۡمِنِينَ رَحِيمٗا ۝ 39
(43) वही है जो तुमपर रहमत करता है और उसके फ़रिश्ते तुम्हारे लिए रहमत की दुआ करते हैं, ताकि वह तुम्हें अंधेरों से निकालकर रौशनी में ले लाए, वह ईमानवालों पर बहुत मेहरबान है।'79
79. इसका मक़सद मुसलमानों को यह एहसास दिलाना है कि इस्लाम के इनकारियों और मुनाफ़िक़ों की सारी जलन और कुढ़न उस रहमत ही की वजह से है जो अल्लाह के इस रसूल की बदौलत तुम्हारे ऊपर हुई है। उसी के ज़रिए से ईमान की दौलत तुम्हें मिली, कुफ़्र और जाहिलियत के अंधेरों से निकलकर तुम इस्लाम की रौशनी में आए और तुम्हारे अन्दर थे बुलन्द अख़लाक़ी और इजतिमाई ख़ूबियाँ पैदा हुईं, जिनकी वजह से तुम साफ़ तौर पर दूसरों से बेहतर नज़र आते हो। इसी का ग़ुस्सा है जो जलनेवाले लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर निकाल रहे हैं। ऐसी हालत में कोई ऐसा रवैया न अपना बैठना जिससे तुम ख़ुदा की इस रहमत से महरूम हो जाओ। 'सलात' का लफ़्ज़ जब 'अला' के साथ मिलकर अल्लाह तआला की तरफ़ से बन्दों के हक़ में इस्तेमाल होता है तो उसका मतलब रहमत, मेहरबानी और प्यार होता है और जब फ़रिश्तों की तरफ़ से इनसानों के हक़ में इस्तेमाल होता है तो उसका मतलब रहमत की दुआ होता है, यानी फ़रिश्ते इनसानों के लिए अल्लाह से दुआ करते हैं कि तू इनपर फ़्ज़्ल फ़रमा और अपनी मेहरबानियों से इन्हें मालामाल कर दे। एक मतलब “युसल्ली अलैकुम” का यह भी है कि “अल्लाह तुम्हें अपने बन्दों के बीच नामवरी देता है और तुम्हें इस दरजे को पहुँचा देता है कि ख़ुदा के बन्दे तुम्हारी तारीफ़ करने लगते हैं और फ़रिश्ते तुम्हारी तारीफ़ के चर्चे करते हैं।"
تَحِيَّتُهُمۡ يَوۡمَ يَلۡقَوۡنَهُۥ سَلَٰمٞۚ وَأَعَدَّ لَهُمۡ أَجۡرٗا كَرِيمٗا ۝ 40
(44) जिस दिन वे उसे मिलेंगे, उनका इस्तिक़बाल (स्वागत) सलाम से होगा80 और उनके लिए अल्लाह ने बड़ा इज़्ज़तवाला इनाम तैयार कर रखा है।
80. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं “तहिय्यतुहुम यौ-म यल-क़ौनहू सलामुन” “उनका तहिय्या (स्वागत) उससे मुलाक़ात के दिन सलाम होगा।” इसके तीन मतलब हो सकते हैं। एक यह कि अल्लाह तआला ख़ुद 'अस्सलामु अलैकुम' के साथ उनका इस्तिक़बाल करेगा, जैसा कि सूरा-36 यासीन, आयत-58 में फ़रमाया, “सलामुन क़ौलम-मिर्रबिर्रहीम” यानी रहम करनेवाले रब की तरफ़ से उनको सलाम कहा गया। दूसरा यह कि फ़रिश्ते उनको सलाम करेंगे, जैसे सूरा-16 नह्ल, आयत-32 में कहा गया, “जिन लोगों की रुहें फ़रिश्ते इस हालत में अपने क़ब्ज़े में लेंगे कि वे पाकीज़ा लोग थे, उनसे वे कहेंगे कि सलामती हो तुमपर, दाख़िल हो जाओ जन्नत में अपने उन भले कामों की वजह से जो तुम दुनिया में करते थे। तीसरा यह कि वे ख़ुद आपस में एक-दूसरे को सलाम करेंगे, जैसे; सूरा-10 यूनुस, आयत-10 में कहा गया, “वहाँ उनकी आवाज़ यह होगी कि ऐ ख़ुदा, पाक है तेरी ज़ात, उनका तहिय्या होगा सलाम और उनकी तान टूटेगी इस बात पर कि सारी तारीफ़ अल्लाह, सारे जहानों के रब, ही के लिए है।”
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِنَّآ أَرۡسَلۡنَٰكَ شَٰهِدٗا وَمُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 41
(45) ऐ नबी!81 हमने तुम्हें भेजा है गवाह बनाकर,82 ख़ुशख़बरी देनेवाला और डरानेवाला बनाकर83
81. मुसलमानों को नसीहत करने के बाद अब अल्लाह तआला अपने नबी को ख़िताब करके सुकून और तसल्ली देनेवाली कुछ बातें फ़रमाता है। बात का मक़सद यह है कि आपको हमने ये कुछ ऊँचे दरजे दिए हैं, आपकी शख़्सियत इससे बहुत बुलन्द है कि ये मुख़ालफ़त करनेवाले अपने बुहतान और झूठ के तूफ़ान उठाकर आपका कुछ बिगाड़ सकें। इसलिए आप न इनकी शरारतों से दुखी हों और न इनके प्रोपगण्डे को बाल बराबर भी कोई अहमियत दें। अपनी मंसबी ज़िम्मेदारियाँ अदा किए जाइए और उन्हें जो कुछ उनका जी चाहे बकने दीजिए। इसके साथ ही इसी सिलसिले में तमाम लोगों को, जिसमें ईमानवाले और ईमान न लानेवाले सब शामिल हैं, यह बताया गया है कि उनका वास्ता किसी मामूली इनसान से नहीं है, बल्कि एक बहुत बड़ी शख़्सियत से है जिसको अल्लाह तआला ने सबसे ऊँचे मक़ाम पर खड़ा किया है।
82. नबी को ‘गवाह' बनाने का मतलब अपने अन्दर बड़े-बड़े मानी रखता है, जिसमें तीन तरह की गवाहियाँ शामिल हैं— एक ज़बान से दी जानेवाली गवाही, यानी यह कि अल्लाह के दीन की बुनियाद जिन सच्चाइयों और उसूलों पर है, नबी उनकी सच्चाई का गवाह बनकर खड़ा हो और दुनिया से साफ़-साफ़ कह दे कि वही हक़ हैं और उनके ख़िलाफ़ जो कुछ है बातिल (असत्य) है। ख़ुदा की हस्ती और उसकी तौहीद, फ़रिश्तों का वुजूद, वह्य का उतरना, मौत के बाद ज़िन्दगी का होना और जन्नत-जहन्नम का ज़ाहिर होना चाहे दुनिया को कैसा ही अजीब मालूम हो और दुनिया उन बातों के पेश करनेवाले का मज़ाक़ उड़ाए या उसे दीवाना कहे, मगर नबी किसी की परवाह किए बिना उठे और हाँक-पुकारकर कह दे कि यह सब कुछ हक़ीक़त है और गुमराह हैं वे लोग जो इसे नहीं मानते। इसी तरह अख़लाक़ और तहज़ीब और रहन-सहन के जो तसव्वुरात (धारणाएँ), क़द्रें, उसूल और ज़ाब्ते ख़ुदा ने उसपर ज़ाहिर किए हैं, उन्हें अगर सारी दुनिया ग़लत कहती हो और उनके ख़िलाफ़ चल रही हो तब भी नबी का काम यह है कि उन्हीं को खुल्लम-खुल्ला पेश करे और उन तमाम ख़यालात और तरीक़ों को ग़लत ठहरा दे जो उनके ख़िलाफ़ दुनिया में चल रहे हों। इसी तरह जो कुछ अल्लाह की शरीअत में हलाल है, नबी उसको हलाल ही कहे, चाहे सारी दुनिया उसे हराम समझती हो और जो कुछ ख़ुदा की शरीअत में हराम है, नबी उसको हराम ही कहे चाहे सारी दुनिया उसे हलाल और पाक-साफ़ ठहरा रही हो। दूसरी अमल से दी जानेवाली गवाही। यानी यह कि नबी अपनी पूरी ज़िन्दगी में उस मसलक (पंथ) का अमली तौर से इज़हार करे जिसे दुनिया के सामने पेश करने के लिए वह उठा है। जिस चीज़ को वह बुराई कहता है, उसके हर छोटे-से हिस्से तक से उसकी ज़िन्दगी पाक हो। जिस चीज़ को वह भलाई कहता है, उसकी अपनी ज़िन्दगी में वह पूरी शान के साथ नज़र आए। जिस चीज़ को वह फ़र्ज़ कहता है, उसे अदा करने में वह सबसे बढ़कर हो। जिस चीज़ को वह गुनाह कहता है, उससे बचने में कोई उसकी बराबरी न कर सके। ज़िन्दगी के जिस क़ानून (जीवन-विधान) को वह ख़ुदा का क़ानून कहता है, उसे लागू करने में वह कोई कसर न उठा रखे। उसका अपना अख़लाक़ और किरदार इस बात पर गवाह हो कि वह अपनी दावत में कितना ज़्यादा सच्चा और कितना मुख़लिस (निष्ठावान) है और उसका वुजूद उसकी तालीम का ऐसा मुकम्मल नमूना हो जिसे देखकर हर आदमी मालूम कर ले कि जिस दीन की तरफ़ वह दुनिया को बुला रहा है, वह किस मेयार का इनसान बनाना चाहता है, क्या किरदार उसमें पैदा करना चाहता है और क्या निज़ामे-ज़िन्दगी (जीवन-व्यवस्था) उससे क़ायम कराना चाहता है। तीसरी आख़िरत की गवाही, यानी आख़िरत में जब अल्लाह की अदालत क़ायम हो, उस वक़्त नबी इस बात की गवाही दे कि जो पैग़ाम उसके सिपुर्द किया गया था, वह उसने बिना कुछ घटाए-बढ़ाए लोगों तक पहुँचा दिया और उनके सामने अपनी ज़बान और अपने अमल से हक़ (सत्य) खोलकर रख देने में उसने कोई कोताही नहीं की। इसी गवाही पर यह फ़ैसला किया जाएगा कि माननेवाले किस इनाम के और न माननेवाले किस सज़ा के हक़दार हैं। इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि नबी (सल्ल०) को गवाही के मक़ाम पर खड़ा करके अल्लाह तआला ने कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी आप (सल्ल०) पर डाली थी और वह कैसी अज़ीम (महान) शख़्सियत होनी चाहिए जो इस बुलन्द मक़ाम पर खड़ी हो सके। ज़ाहिर बात है कि नबी (सल्ल०) से सच्चे दीन (इस्लाम) की ज़बानी और अमली गवाही पेश करने में ज़र्रा बराबर भी कोई कोताही नहीं हुई है, तभी तो आख़िरत में आप (सल्ल०) यह गवाही दे सकेंगे कि मैंने लोगों पर हक़ पूरी तरह वाज़ेह कर दिया था और तभी अल्लाह की हुज्जत (तर्क) लोगों पर क़ायम होगी। वरना अगर अल्लाह की पनाह! आप (सल्ल०) ही से यहाँ गवाही अदा करने में कोई कसर रह गई हो तो न आप आख़िरत में उनपर गवाह हो सकते हैं और न हक़ का इनकार करनेवालों के ख़िलाफ़ मुक़द्दमा साबित हो सकता है। कुछ लोगों ने इस गवाही का यह मतलब निकालने की कोशिश की है कि नबी (सल्ल०) आख़िरत में लोगों के आमाल पर गवाही देंगे और इससे वे यह दलील लेते हैं कि नबी (सल्ल०) तमाम लोगों के आमाल को देख रहे हैं, वरना बे-देखे गवाही कैसे दे सकेंगे। लेकिन क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ यह मतलब बिलकुल ग़लत है। क़ुरआन हमें बताता है कि लोगों के आमाल पर गवाही क़यम करने के लिए तो अल्लाह तआला ने एक दूसरा ही इन्तिज़ाम किया है। इस ग़रज़ के लिए उसके फ़रिश्ते हर शख़्स का आमालनामा (कर्मपत्र) तैयार कर रहे हैं। (देखिए; सूरा-50 क़ाफ़, आयतें—17, 18 और सूरा-18 कह्फ़, आयत-149) और इसके लिए वे लोगों के अपने जिस्मानी हिस्सों (अंगों) से भी गवाही ले लेगा (सूरा-36 या-सीन, आयत-65; सूरा-41 हा-मीम-सजदा, आयतें—20, 21)। रहे पैग़म्बर (अलैहि०), तो उनका काम बन्दों के आमाल पर गवाही देना नहीं, बल्कि इस बात पर गवाही देना है कि बन्दों तक हक़ (सत्य) पहुँचा दिया गया था। क़ुरआन साफ़ कहता है— "जिस दिन अल्लाह तमाम रसूलों को इकट्ठा करेगा, फिर पूछेगा कि तुम्हारी दावत का क्या जवाब दिया गया, तो वे कहेंगे कि हमको कुछ पता नहीं, तमाम ग़ैब की बातों को जाननेवाले तो आप ही हैं।" (सूरा-5 माइदा, आयत-109) और इसी सिलसिले में हज़रत ईसा (अलैहि०) के बारे में क़ुरआन कहता है कि जब उनसे ईसाइयों की गुमराही के बारे में सवाल होगा तो वे कहेंगे— "मैं जब तक उनके बीच था, उसी वक़्त तक उनपर गवाह था। जब आपने मुझे उठा लिया तो आप ही उनपर निगराँ थे।" (सूरा-5 माइदा, आयत-117) ये आयतें इस बारे में बिलकुल साफ़-साफ़ हैं कि नबी (अलैहि०) लोगों के आमाल के गवाह नहीं होंगे। फिर वे गवाह किस चीज़ के होंगे? इसका जवाब क़ुरआन इतना ही साफ़-साफ़ यह बयान करता है— "और ऐ मुसलमानो! इसी तरह हमने तुमको एक उम्मते-वसत (बेहतरीन उम्मत) बनाया, ताकि तुम लोगों पर गवाह हो और रसूल तुमपर गवाह हों।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-143) “जिस दिन हम हर उम्मत में उन्हीं के अन्दर से एक गवाह उठा खड़ा करेंगे जो उनपर गवाही देगा और (ऐ मुहम्मद) तुम्हें उन लोगों पर गवाह की हैसियत से लाएँगे।" (सूरा-16 अन-नह्ल, आयत-89) इससे मालूम हुआ कि क़ियामत के दिन नबी (सल्ल०) की गवाही अपनी क़िस्म में उस गवाही से अलग न होगी जिसे अदा करने के लिए नबी (सल्ल०) की उम्मत को और हर उम्मत पर गवाही देनेवाले शहीदों को बुलाया जाएगा। ज़ाहिर है कि अगर यह गवाही आमाल की हो तो उन सबका भी हर वक़्त सब जगह मौजूद होना और सब कुछ देखते रहना लाज़िम आता है और अगर ये गवाह सिर्फ़ इस बात की गवाही देने के लिए बुलाए जाएँगे कि लोगों तक उनके पैदा करनेवाले का पैग़ाम पहुँच गया था तो लाज़िमन नबी (सल्ल०) भी इसी ग़रज़ के लिए पेश होंगे। इसी बात की ताईद (समर्थन वे हदीसें भी करती हैं जिनको बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा और इमाम अहमद वग़ैरा ने अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), अबू-दरदा (रज़ि०) अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) और बहुत से दूसरे सहाबा (रज़ि०) से नक़्ल किया है, जिनमें सबने यह बात कही है कि नबी (सल्ल०) क़ियामत के दिन अपने कुछ सहाबियों को देखेंगे कि ये लाए जा रहे है, मगर वे आप (सल्ल०) की तरफ़ आने के बजाय दूसरी तरफ़ जा रहे होंगे या धकेले जा रहे होंगे। नबी (सल्ल०) उनको देखकर अर्ज़ करेंगे कि “ऐ अल्लाह, ये तो मेरे सहाबी हैं।” इसपर अल्लाह तआला फ़रमाएगा कि तुम नहीं जानते कि तुम्हारे बाद इन्होंने क्या करतूत किए हैं। यह बात इतने सहाबा से इतनी ज़्यादा सनदों के साथ नक़्ल हुई है कि इसके सही होने में किसी शक की गुंजाइश नहीं और इससे यह बात साफ़ तौर से साबित होती है कि नबी (सल्ल०) अपनी उम्मत के एक-एक शख़्स और उसकी एक-एक हरकत के गवाह बिलकुल नहीं है। रही वे अहादीस जिसमें यह ज़िक्र आया है कि नबी (सल्ल०) के सामने आप (सल्ल०) की उम्मत के आमाल पेश किए जाते हैं सो वह किसी तरह भी इस बात से टकराती नहीं है। इसलिए कि उसका हासिल सिर्फ़ यह है कि अल्लाह तआला के नबी (सल्ल०) को उम्मत के हालात से बाख़बर रखता है। इसका यह मतलब कब है कि नबी (सल्ल०) हर आदमी के आमाल को आँखों से देख रहे हैं।
83. यहाँ इस फ़र्क को सामने रखिए कि किसी शख़्स का अपने आप ईमान और अच्छे कामों पर अच्छे अंजाम की ख़ुशख़बरी देना और कुछ और बुरे कामों के बुरे अंजाम से डराना और बात है और किसी का अल्लाह ताआला की तरफ़ से ख़ुशख़बरी देनेवाला और ख़बरदार करनेवाला बनाकर भेजा जाना बिलकुल ही एक दूसरी बात है। जो आदमी आल्लाह तआला की तरफ़ से इस ज़िम्मेदारी पर लगा हो, वह तो अपनी ख़ुशख़बरी देने और अपनी तरफ़ से ख़बरदार करने के पीछे लाज़िमन एक ज़ोर रखता है, जिसकी बुनियाद पर उसकी ख़ुशख़बरी और उसके ख़बरदार करने को क़ानूनी हैसियत हासिल हो जाती है। उसका किसी काम पर ख़ुशख़बरी देना यह मानी रखता है कि जिस सबसे बड़े हाकिम (अल्लाह) की तरफ़ से यह भेजा गया, यकीनन फ़र्ज़ या वाजिब या मुस्तहब है और उसका करनेवाला ज़रूर इनाम पाएगा और उसका किसी काम के बुरे अंजाम को ख़बर देना यह माने रखता है कि सारी ताक़तों का मालिक इसका करनेवाला सज़ा पाएगा। यह हैसियत किसी ऐसे आदमी को हासिल नहीं हो सकती जिसे अल्लाह की तरफ़ से ख़ुशख़बरी देने और ख़बरदार करने को ज़िम्मेदारी न सौंपी गई हो।
وَدَاعِيًا إِلَى ٱللَّهِ بِإِذۡنِهِۦ وَسِرَاجٗا مُّنِيرٗا ۝ 42
(46) अल्लाह की इजाज़त से उसकी तरफ़ दावत देनेवाला।84 बनाकर और रौशन चिराग़ बनाकर।
84. यहाँ भी यह भी एक आम तब्लीग़ करनेवाले (प्रचारक) की तब्लीग़ और नबी की तब्लीग़ के बीच वही फ़र्क़ है जिसकी तरफ़ ऊपर इशारा किया गया है। अल्लाह की तरफ़ दावत तो हर तबलीग़ करनेवाला देता है और दे सकता है, मगर वह अल्लाह की तरफ़ से इस काम पर मुक़र्रर नहीं होता। इसके बरख़िलाफ़ नबी अल्लाह के हुक्म (Sanction) से दावत देने उठता है। उसकी दावत निरी तबलीग़ नहीं है, बल्कि उसके पीछे भी उसके भेजनेवाले, तमाम जहानों के रब की बादशाही का ज़ोर होता है। इसी वजह से अल्लाह के भेजे हुए पैग़म्बर की मुख़ालफ़त ख़ुद अल्लाह के ख़िलाफ़ जंग ठहरती है, जिस तरह दुनियावी हुकूमतों में सरकारी काम अंजाम देनेवाले सरकारी नौकर की मुख़ालफ़त ख़ुद हुकूमत के ख़िलाफ़ जंग समझी जाती है।
وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ بِأَنَّ لَهُم مِّنَ ٱللَّهِ فَضۡلٗا كَبِيرٗا ۝ 43
(47) ख़ुशख़बरी दे दो उन लोगों को जो (तुमपर) ईमान लाए हैं कि उनके लिए अल्लाह की तरफ़ से बड़ी मेहरबानी है।
وَلَا تُطِعِ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَدَعۡ أَذَىٰهُمۡ وَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ وَكَفَىٰ بِٱللَّهِ وَكِيلٗا ۝ 44
(48) और हरगिज़ न दबो इनकार करनेवालों और मुनाफ़िक़ों से, कोई परवाह न करो, उनके तकलीफ़ें पहुँचाने की और भरोसा कर लो अल्लाह पर। अल्लाह ही इसके लिए काफी है कि आदमी अपने मामले उसके सिपुर्द कर दे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نَكَحۡتُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ ثُمَّ طَلَّقۡتُمُوهُنَّ مِن قَبۡلِ أَن تَمَسُّوهُنَّ فَمَا لَكُمۡ عَلَيۡهِنَّ مِنۡ عِدَّةٖ تَعۡتَدُّونَهَاۖ فَمَتِّعُوهُنَّ وَسَرِّحُوهُنَّ سَرَاحٗا جَمِيلٗا ۝ 45
(49) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो, जब तुम ईमानवाली औरतों से निकाह करो और फिर उन्हें हाथ लगाने से पहले तलाक़ दे दो85 तो तुम्हारी तरफ़ से उनपर कोई इद्दत लाज़िम नहीं है जिसके पूरा होने की तुम माँग कर सको। लिहाज़ा उन्हें कुछ माल दो और भले तरीक़े से रुख़सत (विदा) कर दो।86
85. यह इबारत इस बारे में साफ़ है कि यहाँ लफ़्ज़ निकाह सिर्फ़ 'अक़्द' (शादी के बन्धन) के लिए आया है। अरबी ज़बान के माहिरों में इसपर बहुत कुछ इख़्तिलाफ़ हुआ है कि अरबी ज़बान में 'निकाह' का अस्ल मतलब क्या है। एक गरोह कहता है कि इस लफ़्ज़ में 'वती' (सम्भोग) और 'अक़्द' दोनों शामिल हैं। दूसरा गरोह कहता है कि इस लफ़्ज़ में मानी के लिहाज़ से दोनों मानी पाए जाते हैं। तीसरा गरोह कहता है कि इसका अस्ल मतलब औरत-मर्द के बीच 'अक़्द' (शादी का बन्धन) है और 'वती' (सम्भोग) के लिए इसको अलामत के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है और चौथा गरोह कहता है कि इसका अस्ल मतलब 'वती' है और 'अक़्द’ के लिए यह अलमात के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। इसके सुबूत में हर गरोह ने अरब के कलाम से दलीलें पेश करने की कोशिश की है। लेकिन इमाम राग़िब असफ़हानी ने पूरे ज़ोर के साथ यह दावा किया है कि “निकाह लफ़्ज़ का अस्ल मतलब अक़्द ही है, फिर यह लफ़्ज़ अलामत के तौर पर सोहबत के लिए इस्तेमाल किया गया है और यह बात नामुमकिन है कि इसका अस्ल मतलब सोहबत के हो और अलामत के तौर पर इसे 'अक़्द' के लिए इस्तेमाल किया गया हो।” इसकी दलील वे यह देते हैं कि जितने अलफ़ाज़ भी सोहबत के लिए अरबी ज़बान, या दुनिया की किसी दूसरी ज़बान में हक़ीक़त में बनाए गए हैं, वे सब फ़ुह्श (अश्लील) हैं। कोई शरीफ़ आदमी किसी भली मजलिस में उनको ज़बान पर लाना भी पसन्द नहीं करता। अब आख़िर यह कैसे मुमकिन है कि जो लफ़्ज़ हक़ीक़त में इस काम के लिए बनाया गया हो उसे कोई समाज शादी-ब्याह के लिए अलामत और इशारे के तौर पर इस्तेमाल करे। इस मतलब को अदा करने के लिए तो दुनिया की हर ज़बान में अच्छे अलफ़ाज़ ही इस्तेमाल किए गए हैं, न कि गन्दे अलफ़ाज़। जहाँ तक क़ुरआन और सुन्नत का ताल्लुक़ है, उनमें निकाह एक इस्तिलाही लफ़्ज़ (पारिभाषिक शब्द) है जिससे मुराद या तो सिर्फ़ 'अक़्द' है या फिर ‘अक़्द’ के बाद 'वती' (सम्भोग और सोहबत)। लेकिन बिना अक़्द के 'वती' और सोहबत के लिए इसको कहीं इस्तेमाल नहीं किया गया है। इस तरह की 'वती’ को तो क़ुरआन और सुन्नत में 'ज़िना' और 'सफ़ाह' कहते हैं, न कि 'निकाह'।
86. वह एक अकेली आयत है जो शायद उसी ज़माने में तलाक़ का कोई मसला पैदा हो जाने पर उतरी थी, इसलिए पहले से चले आ रहे बात के सिलसिले और बाद के सिलसिले के बीच इसको रख दिया गया। इस तरतीब से यह बात ख़ुद खुल जाती है कि यह पिछली तक़रीर के बाद और इसके बाद की तक़रीर से पहले उतरी थी। इस आयत से जो क़ानूनी हुक्म निकलते हैं उनका ख़ुलासा यह है— 1. आयत में अगरचे 'मोमिन औरतों' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, जिससे बज़ाहिर यह गुमान किया जा सकता है कि किताबी (यहूदी और ईसाई) औरतों के मामले में क़ानून वह नहीं है जो यहाँ बयान हुआ है, लेकिन तमाम आलिम इसपर एक राय है कि मानी के लिहाज़ से वही हुक्म अहले-किताब को औरतों के बारे में भी है। यानी किताबी औरत से भी किसी मुसलमान ने निकाह किया हो तो उसको तलाक़, उसके महर, उसकी इद्दत और उसको मुतअ-ए-तलाक़ (तलाक़ का हर्जाना) देने के सारे हुक्म वही हैं जो मोमिन औरत से निकाह को सूरत में हैं। सभी आलिम इसपर भी एकराय हैं कि अल्लाह तआला ने यहाँ ख़ास तौर पर सिर्फ़ मोमिन औरतों का ज़िक्र जो किया है, उसका मक़सद अस्ल में इस बात की तरफ़ इशारा करना है कि मुसलमानों के लिए मोमिन औरतें ही मुनासिब हैं। यहूदी और ईसाई औरतों से निकाह जाइज़ ज़रूर है, मगर मुनासिब और पसन्दीदा नहीं है। दूसरे अलफ़ाज़ में क़ुरआन के इस अन्दाज़े-बयान से यह बात ज़ाहिर होती है कि अल्लाह तआला के नज़दीक ईमानवालों से उम्मीद यही है कि वे मोमिन औरतों से निकाह करेंगे। 2. 'हाथ लगाने' या 'मस' करने से मुराद ज़बान के लिहाज़ से तो सिर्फ़ छूना है, लेकिन यहाँ यह लफ़्ज़ इशारे के तौर पर हमबिस्तरी और सोहबत के लिए इस्तेमाल हुआ है। इस लिहाज़ से ज़ाहिर आयत का तक़ाज़ा यह है कि अगर शौहर ने हमबिस्तरी न की हो तो चाहे वह औरत के पास तन्हाई में रहा हो, बल्कि उसे हाथ भी लगा चुका हो तब भी तलाक़ देने की हालत में इद्दत ज़रूरी न हो। लेकिन फ़कीहों ने एहतियात के लिए यह हुक्म लगाया है कि अगर दोनों तन्हाई में मिल लें (जिसमें सोहबत हो सकती हो) तो उसके बाद तलाक़ देने की हालत में इद्दत ज़रूरी हो जाएगी और इद्दत सिर्फ़ उस हालत में ख़त्म होगी जबकि तन्हाई में मिलने से पहले तलाक़ दे दी गई हो। 3. तन्हाई में मिलने से पहले तलाक़ देने की हालत में इद्दत ख़त्म हो जाने का मतलब यह है कि इस सूरत में मर्द का रुजू (दोबारा बीवी बनाने) का हक़ बाक़ी नहीं रहता और औरत को यह हक़ हासिल हो जाता है कि तलाक़ के फ़ौरन बाद जिससे चाहे निकाह कर ले। लेकिन याद रखना चाहिए यह हुक्म सिर्फ़ तन्हाई में मिलने से पहले की तलाक़ का है। अगर तन्हाई में मिलने से पहले औरत का शौहर मर जाए तो इस सूरत में मौत की इद्दत ख़त्म नहीं होती, बल्कि औरत को वही चार महीने दस दिन की इद्दत गुज़ारनी होती है जो निकाह के बाद हमबिस्तरी से गुज़र चुकनेवाली औरत के लिए वाजिब है। (इद्दत से मुराद वह मुद्दत है जिसके गुज़रने से पहले औरत के लिए दूसरा निकाह जाइज़ न हो।) 4. "तुम्हारे लिए उनपर कोई इद्दत लाज़िम नहीं है” के अलफ़ाज़ इस बात की दलील देते हैं कि इद्दत औरत पर मर्द का हक़ है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि यह सिर्फ़ मर्द ही का हक़ है। अस्ल में इसमें दो हक़ और भी शामिल हैं। एक औलाद का हक़, दूसरा अल्लाह का हक़ या शरीअत का हक़। मर्द का हक़ इस बुनियाद पर है कि इस दौरान में उसको रुजू कर लेने का हक़ है, इसके अलावा इस बुनियाद पर कि उसकी औलाद के नसब के सुबूत का दारोमदार इस बात पर है कि इद्दत के ज़माने में औरत का हामिला (गर्भवती) होना या न होना ज़ाहिर हो जाए। औलाद का हक़ इसमें शामिल होने की वजह यह है कि अपने बाप से बच्चे के नसब का साबित होना उसके क़ानूनी हक़ क़ायम होने के लिए ज़रूरी है और उसकी अख़लाक़ी हैसियत का दारोमदार भी इस बात पर है कि उसके नसब के बारे में कोई शक और शुब्हा न हो। फिर इसमें अल्लाह का हक़ (या शरीअत का हक़) इसलिए शामिल हो जाता है कि अगर लोगों को अपने और अपनी औलाद के हक़ों की परवाह न भी हो तो अल्लाह की शरीअत उन हक़ों की हिफ़ाज़त ज़रूरी समझती है। यही वजह है कि अगर कोई मर्द किसी औरत को यह परवाना भी लिखकर दे दे कि मेरे मरने के बाद या मुझसे तलाक़ ले लेने के बाद तेरे ऊपर मेरी तरफ़ से कोई इद्दत वाजिब न होगी तब भी शरीअत किसी हाल में उसको ख़त्म न करेगी। 5. “उनको कुछ माल दो और भले तरीक़े से रुख़सत (विदा) कर दो।” इस हुक्म का मंशा दो तरीक़ों में से किसी एक तरीक़े पर पूरा करना होगा। अगर निकाह के वक़्त मह्‍र मुक़र्रर किया गया था और फिर तन्हाई की मुलाक़ात से पहले तलाक़ दे दी गई तो इस हालत में आधा मह्‍र देना वाजिब होगा, जैसा कि सूरा-2 बक़रा की आयत-237 में कहा गया है। इस वाजिब से ज़्यादा कुछ देना लाज़िम नहीं है, मगर मुस्तहब (पसन्दीदा) है। मसलन यह बात पसन्दीदा है कि आधा मह्‍र देने के साथ मर्द वह जोड़ा भी औरत के पास ही रहने दे जो दुल्हन बनने के लिए उसे भेजा गया था, या और कुछ सामान अगर शादी के मौक़े पर उसे दिया गया था तो वह वापस न ले। लेकिन अगर निकाह के वक़्त मह्‍र मुक़र्रर न किया गया हो तो इस हालत में औरत को कुछ-न-कुछ देकर रुख़सत करना वाजिब है और यह 'कुछ-न-कुछ' आदमी की हैसियत और ताक़त के मुताबिक़ होना चाहिए, जैसा कि सूरा-2 बक़रा की आयत-236 में कहा गया है। आलिमों (इस्लामी विद्वानों) का एक गरोह इस बात को भी मानता है कि मुतअ-ए-तलाक़ देना बहरहाल वाजिब है चाहे मह्‍र मुक़र्रर किया गया किया गया हो (इस्लामी फ़िक़्ह की ज़बान में 'मुतअ-ए-तलाक़' उस माल को कहते हैं जो तलाक़ देकर रुख़सत करते वक़्त औरत को दिया जाता है)। 6. भले तरीक़े से रुख़सत करने का मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि औरत को कुछ देकर रुख़सत किया जाए, बल्कि इसमें यह बात भी शामिल है कि किसी लड़ाई-झगड़े के बिना भले और शरीफ़ाना तरीक़े से अलग हो जाया जाए। एक आदमी को अगर औरत पसन्द नहीं आई है या शिकायत की कोई और वजह पैदा हुई है, जिसके सबब वह उस औरत को नहीं रखना चाहता तो भले आदमियों की तरह उसे तलाक़ दे और रुख़सत कर दे। यह नहीं होना चाहिए कि वह उसकी कमियों और ख़राबियों को लोगों के सामने बयान करे और अपनी शिकायतों के दफ़्तर खोले, ताकि कोई दूसरा भी उस औरत को क़ुबूल करने के लिए तैयार न हो। क़ुरआन के इस हुक्म से साफ़ तौर पर ज़ाहिर होता है कि तलाक़ के लागू करने को किसी पंचायत या अदालत की इजाज़त के साथ जोड़ देना ख़ुदाई शरीअत की हिकमत और मस्लहत के बिलकुल ख़िलाफ़ है, क्योंकि इस हालत में “भले तरीक़े से रुख़सत करने” का कोई इमकान नहीं रहता, बल्कि मर्द न भी चाहे तो लड़ाई-झगड़ा और बदनामी और रुसवाई होकर ही रहती है। इसके अलावा आयत के अलफ़ाज़ में इस बात को कोई गुंजाइश भी नहीं है कि मर्द का तलाक़ का हक़ किसी पंचायत या अदालत की इजाज़त की शर्त के साथ जुड़ा हो। आयत बिलकुल साफ़-साफ़ निकाह करनेवाले को तलाक़ का हक़ दे रही है और उसी पर यह ज़िम्मेदारी डाल रही है कि अगर वह हाथ लगाने से पहले औरत को छोड़ना चाहे तो लाज़िमी तौर से आधा मह्‍र देकर या अपनी हैसियत के मुताबिक़ कुछ माल देकर छोड़े। इससे आयत का मक़सद साफ़ यह मालूम होता है कि तलाक़ को खेल बनने से रोकने के लिए मर्द पर माली ज़िम्मेदारी का एक बोझ डाल दिया जाए, ताकि वह ख़ुद ही तलाक़ के अपने हक़ को सोच-समझकर इस्तेमाल करे और दो ख़ानदानों के अन्दरूनी मामले में किसी बाहरी दख़ल-अन्दाज़ी की नौबत न आने पाए, बल्कि शौहर सिरे से किसी को यह बताने पर मजबूर ही न हो कि वह बीवी को क्यों छोड़ रहा है। 7. इब्ने-अब्बास (रज़ि०), सईद-बिन-मुसय्यब, हसन बसरी, अली-बिन-हुसैन (ज़ैनुल-आबिदीन), इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) ने आयत के अलफ़ाज़ “जब तुम निकाह करो, फिर तलाक़ दे दो” से यह दलील ली है कि तलाक़ उसी सूरत में होती है, जबकि उससे पहले निकाह हो चुका हो। निकाह से पहले तलाक़ बेअसर है। इसलिए अगर कोई आदमी यूँ कहे कि “अगर मैं फ़ुलाँ औरत से, या फ़ुलाँ कबीले या क़ौम की औरत से, या किसी औरत से निकाह करूँ तो उसपर तलाक़ है,” तो यह बात बेमतलब और बेमानी है, इससे कोई तलाक़ नहीं हो सकती। इस ख़याल की ताईद में ये हदीसें पेश की जाती हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “आदमी जिस चीज़ का मालिक नहीं है, उसके बारे में तलाक़ का इख़्तियार इस्तेमाल करने का वह हक़ नहीं रखता।” (हदीस : अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा) और “निकाह से पहले कोई तलाक़ नहीं।” (हदीस : इब्ने-माजा)। मगर फ़क़ीहों की एक बड़ी जमाअत यह कहती है कि यह आयत और ये हदीसें सिर्फ़ इस बात पर चस्पाँ होती हैं कि कोई आदमी एक ग़ैर-औरत को जो उसके निकाह में न हो यूँ कहे कि “तुझपर तलाक़ है” या “मैंने तुझे तलाक़ दी।” यह बात बेशक बेमतलब है, जिसका कोई क़ानूनी नतीजा नहीं निकलता। लेकिन अगर वह यूँ कहे कि “अगर मैं तुझसे निकाह करूँ तो तुझपर तलाक़ है,” तो यह निकाह से पहले तलाक़ देना नहीं है, बल्कि अस्ल में वह आदमी इस बात का फ़ैसला और एलान करता है कि जब वह औरत उसके निकाह में आएगी तो उसपर तलाक़ पड़ जाएगी। यह बात बेमतलब और बेअसर नहीं हो सकती, बल्कि जब भी वह औरत उसके निकाह में आएगी, उसी वक़्त उसपर तलाक़ पड़ जाएगी। यह मसलक (राय) जिन फ़क़ीहों का है, उनके बीच फिर इस बात में इख़्तिलाफ़ हुआ है कि इस तरह तलाक़ पड़ने की हद कहाँ तक है। इमाम अबू-हनीफ़ा, इमाम मुहम्मद और इमाम जुफ़र कहते हैं कि चाहे कोई आदमी औरत या क़ौम या क़बीले का नाम ले या मिसाल के तौर पर आम बात इस तरह कहे कि “जिस औरत से भी मैं निकाह करूँ, उसपर तलाक़ है,” दोनों हालतों में तलाक़ पड़ जाएगी। अबू-बक्र जस्सास ने यही राय हज़रत उमर (रज़ि०), अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), इबराहीम नख़ई, मुजाहिद और उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) से भी नक़्ल की है। सुफ़ियान सौरी और उसमान अल-बत्ती कहते हैं कि तलाक़ सिर्फ़ उसी सूरत में पड़ेगी जब कहनेवाला यूँ कहे कि “अगर मैं फ़ुलाँ औरत से निकाह करूँ तो उसपर तलाक़ है।” हसन-बिन-सॉलेह, लैस-बिन-सअद और आमिर अश-शअबी कहते हैं कि इस तरह की तलाक़ आम अलफ़ाज़ के साथ भी पड़ सकती है, शर्त यह है कि उसमें किसी तरह की ख़ास बात हो। मसलन आदमी ने यूँ कहा हो कि “अगर मैं फ़ुलाँ ख़ानदान, फ़ुलाँ क़बीले, या फ़ुलाँ शहर या देश या क़ौम की औरत से निकाह करूँ तो उसपर तलाक़ है।” इब्ने-अबी-लैला और इमाम मालिक (रह०) ऊपर की राय से इख़्तिलाफ़ करते हुए यह शर्त और लगाते हैं कि इसकी मुद्दत तय होनी चाहिए। मसलन अगर आदमी ने कहा हो कि “अगर मैं इस साल या आइन्दा दस साल के अन्दर फ़ुलाँ औरत या फ़ुलाँ गरोह की औरत से निकाह करूँ तो उसपर तलाक़ है” तब यह तलाक़ पड़ेगी वरना नहीं, बल्कि इमाम मालिक (रह०) इसपर इतना इज़ाफ़ा और करते हैं कि अगर यह मुद्दत इतनी लम्बी हो जिसमें उस आदमी के ज़िन्दा रहने की उम्मीद न हो तो उसकी बात बेअसर रहेगी।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِنَّآ أَحۡلَلۡنَا لَكَ أَزۡوَٰجَكَ ٱلَّٰتِيٓ ءَاتَيۡتَ أُجُورَهُنَّ وَمَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَ مِمَّآ أَفَآءَ ٱللَّهُ عَلَيۡكَ وَبَنَاتِ عَمِّكَ وَبَنَاتِ عَمَّٰتِكَ وَبَنَاتِ خَالِكَ وَبَنَاتِ خَٰلَٰتِكَ ٱلَّٰتِي هَاجَرۡنَ مَعَكَ وَٱمۡرَأَةٗ مُّؤۡمِنَةً إِن وَهَبَتۡ نَفۡسَهَا لِلنَّبِيِّ إِنۡ أَرَادَ ٱلنَّبِيُّ أَن يَسۡتَنكِحَهَا خَالِصَةٗ لَّكَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۗ قَدۡ عَلِمۡنَا مَا فَرَضۡنَا عَلَيۡهِمۡ فِيٓ أَزۡوَٰجِهِمۡ وَمَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُمۡ لِكَيۡلَا يَكُونَ عَلَيۡكَ حَرَجٞۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 46
(50) ऐ नबी! हमने तुम्हारे लिए हलाल कर दीं तुम्हारी वे बीवियाँ जिनके मह्‍र तुमने अदा किए हैं87 और वे औरतें जो अल्लाह की दी हुई लौडियों में से तुम्हारी मिल्कियत में आएँ और तुम्हारी वे चचेरी और फुफेरी और ममेरी और मौसेरी बहनें जिन्होंने तुम्हारे साथ हिजरत की है और वह ईमानवाली औरत जिसने अपने आपको नबी के लिए हिबा किया हो अगर नबी उसे निकाह में लेना चाहे।88 ये छूट सिर्फ़ तुम्हारे लिए है, दूसरे ईमानवालों के लिए नहीं है।89 हमको मालूम है कि आम ईमानवालों पर उनकी बीवियों और लौड़ियों के बारे में हमने क्या हदें तय की हैं। (तुम्हें उन हदों से हमने इसलिए अलग किया है) ताकि तुम्हारे ऊपर कोई तंगी न रहे,90 और अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
87. यह अस्ल में जवाब है उन लोगों के एतिराज़ का जो कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) दूसरे लोगों के लिए तो एक ही वक़्त में चार से ज़्यादा बीवियाँ रखना मना ठहराते हैं, मगर ख़ुद उन्होंने यह पाँचीं बीवी कैसे कर ली। इस एतिराज़ की बुनियाद यह थी कि हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) से निकाह के वक़्त नबी (सल्ल०) की चार बीवियाँ मौजूद थीं। एक हज़रत सौदा (रज़ि०) जिनसे हिजरत से तीन साल पहले आपने निकाह किया था। दूसरी हज़रत आइशा (रज़ि०) जिनसे निकाह तो हिजरत से तीन साल पहले हो चुका था, मगर उनकी रुख़सती शव्वाल 1 हिजरी में हुई थी। तीसरी हज़रत हफ़सा (रज़ि०) जिनसे शाबान 3 हि० में आप (सल्ल०) का निकाह हुआ और चौथी हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) जिन्हें नबी (सल्ल०) ने शव्वाल 4 हि० में अपनी बीवी बनाया। इस तरह हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) आप (सल्ल०) की पाँचवीं बीवी थीं। इसपर मक्का के इस्लाम मुख़ालिफ़ और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) जो एतिराज़ कर रहे थे, उसका जवाब अल्लाह तआला यह दे रहा है कि ऐ नबी, तुम्हारी ये पाँचों बीवियाँ जिन्हें मह्‍र देकर तुम अपने निकाह में लाए हो, हमने तुम्हारे लिए हलाल (वैध) की हैं। दूसरे अलफ़ाज़ में, इस जवाब का मतलब यह है कि आम मुसलमानों के लिए चार की क़ैद लगानेवाले भी हम ही हैं और अपने नबी को इस क़ैद से अलग रखनेवाले भी हम ख़ुद हैं। अगर वह क़ैद लगाने का हमें हक़ था तो आख़िर इस क़ैद से अलग करने का हमें हक़ क्यों नहीं है। इस जवाब के बारे में यह बात फिर ध्यान में रखनी चाहिए कि इसका मक़सद इस्लाम मुख़ालिफ़ों और मुनाफ़िक़ों को मुत्मइन करना नहीं था, बल्कि उन मुसलमानों को मुत्मइन करना था जिनके दिलों में इस्लाम के मुख़ालिफ़ लोग वसवसे डालने की कोशिश कर रहे थे। उन्हें कि यक़ीन था कि यह क़ुरआन अल्लाह का कलाम है और अल्लाह तआला के अपने अलफ़ाज़़ में उतरा है, इसलिए क़ुरआन की एक मज़बूत आयत के ज़रिए से अल्लाह तआला ने एलान किया कि नबी ने चार बीवियों के आम क़ानून से अपने आपको ख़ुद अलग नहीं कर लिया है, बल्कि इस क़ानून से अलग करने का फ़ैसला हमारा किया हुआ है।
88. पाँचवीं बीवी को नबी (सल्ल०) के लिए हलाल करने के अलावा अल्लाह तआला ने इस आयत में नबी (सल्ल०) को कुछ और तरह की औरतों से भी निकाह की इजाज़त दी— 1. वे औरतें जो अल्लाह की दी हुई लौंडियों में से नबी (सल्ल०) की मिलकियत में आएँ। इस इजाज़त के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) ने बनी-क़ुरैज़ा को जंग के क़ैदियों में से एक हज़रत रैहाना (रज़ि०), बनी-मुस्तलिक़ के क़ैदियों में हज़रत जुवैरिया (रज़ि०), ख़ैबर जंग के क़ैदियों में से हज़रत सफ़िय्या (रज़ि०) और मिस्र के मुक़ौक़िस की भेजी हुई हज़रत मारिया क़िबतिया (रज़ि०) को अपने लिए ख़ास किया। इनमें से पहली तीन को आप (सल्ल०) ने आज़ाद करके उनसे निकाह किया था, लेकिन हज़रत मारिया (रज़ि०) से लौंडी की हैसियत से ताल्लुक़ बनाया, इनके बारे में यह साबित नहीं है कि आप (सल्ल०) ने इनको आज़ाद करके उनसे निकाह किया हो। 2. नबी (सल्ल०) की चचेरी, ममेरी, फुफेरी और ख़लेरी बहनों में से वे औरतें जिन्होंने हिजरत में आप (सल्ल०) का साथ दिया हो। आयत में आप (सल्ल०) के साथ 'हिजरत’ करने का जो ज़िक्र आया है, उसका मतलब यह नहीं है कि वे हिजरत के सफ़र में आप (सल्ल०) के साथ रही हों, बल्कि यह था कि वे भी इस्लाम की ख़ातिर अल्लाह की राह में हिजरत कर चुकी हों। नबी (सल्ल०) को इख़्तियार दिया गया कि इन रिश्तेदार मुहाजिर (हिजरत करनेवाली) औरतों में से भी आप (सल्ल०) जिससे चाहें निकाह कर सकते हैं। चुनाँचे इस इजाज़त के मुताबिक़ आप (सल्ल०) ने 7 हि० में हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) से निकाह किया (साथ ही इस आयत में यह बात भी बयान कर दी गई है कि चचा, मामूँ, फूफी और ख़ाला की बेटियों से एक मुसलमान का शादी करना जाइज़ है। इस मामले में इस्लामी शरीअत ईसाई और यहूदी दोनों मज़हबों से अलग है। ईसाइयों के यहाँ किसी ऐसी औरत से निकाह नहीं हो सकता जिससे सात पीढ़ियों तक मर्द का नसब (वंश) मिलता हो और यहूदियों के यहाँ सगी भाँजी और भतीजी तक से निकाह जाइज़ है)। 3. वह ईमानवाली औरत जो अपने आपको नबी (सल्ल०) के लिए हिबा करे, यानी बिना मह्‍र अपने आपको नबी (सल्ल०) के निकाह में देने के लिए तैयार हो और नबी (सल्ल०) उसे क़ुबूल करना पसन्द करें। इस इजाज़त की वजह से आप (सल्ल०) ने शव्वाल 7 हि० में हज़रत मैमूना (रज़ि०) से निकाह किया। लेकिन आप (सल्ल०) ने यह पसन्द न किया कि मह्‍र के बिना उनके हिबा से फ़ायदा उठाएँ। इसलिए आप (सल्ल०) ने उनकी किसी ख़ाहिश और माँग के बिना उनको मह्‍र दिया। क़ुरआन के कुछ आलिम (मुफ़स्सिरीन) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) के निकाह में कोई हिबा की हुई बीवी मौज़ूद न थी। मगर इसका मतलब अस्ल में यह है कि आप (सल्ल०) ने हिबा करनेवाली बीवी को भी मह्‍र दिए बिना न रखा।
89. इस जुमले का ताल्लुक़ अगर सिर्फ़ क़रीब के जुमले से माना जाए तो मतलब यह होगा कि दूसरे किसी मुसलमान के लिए यह जाइज़ नहीं है कि कोई औरत अपने आपको उसके लिए हिबा करे और वह बिना मह्‍र उससे निकाह कर ले और अगर उसका ताल्लुक़ ऊपर की पूरी इबारत से माना जाए तो इससे मुराद यह होगा कि चार से ज़्यादा निकाह करने की छूट भी सिर्फ़ नबी (सल्ल०) के लिए है, आम मुसलमानों के लिए नहीं है। इस आयत से यह बात भी मालूम हुई कि कुछ हुक्म नबी (सल्ल०) के लिए ख़ास हैं जिनमें उम्मत के दूसरे लोग आप (सल्ल०) के साथ शरीक नहीं हैं। क़ुरआन और सुन्नत में तलाश करने से ऐसे कई हुक्मों का पता चलता है। मसलन नबी (सल्ल०) के लिए तहज्जुद की नमाज़ फ़र्ज़ थी और बाक़ी उम्मत के लिए वह नफ़्ल है। आप (सल्ल०) के लिए और आप (सल्ल०) के ख़ानदानवालों के लिए सदक़ा लेना हराम है और किसी दूसरे के लिए वह हराम नहीं है। आप (सल्ल०) की विरासत बँट नहीं सकती थी, बाक़ी सबकी विरासत के लिए वे हुक्म हैं जो सूरा-- निसा में बयान हुए। हैं। नबी (सल्ल०) के लिए चार से ज़्यादा बीवियाँ हलाल की गईं, बीवियों के बीच इनसाफ़ आप (सल्ल०) पर वाजिब नहीं किया गया, अपने आपको हिबा करनेवाली औरत से बिना मह्‍र निकाह करने की आप (सल्ल०) को इजाज़त दी गई और आप (सल्ल०) के इन्तिक़ाल के बाद आप (सल्ल०) की बीवियाँ तमाम उम्मत पर हराम कर दी गईं। इनमें से कोई ख़ासियत भी ऐसी नहीं है जो नबी (सल्ल०) के अलावा किसी मुसलमान को हासिल हो। क़ुरआन के आलिमों ने नबी (सल्ल०) की एक ख़ासियत यह भी बयान की है कि आप (सल्ल०) के लिए अहले-किताब की औरत से निकाह मना था, हालाँकि बाक़ी उम्मत के लिए उनसे शादी करना जाइज़ है।
90. यह वह मस्लहत है जिसकी वजह से अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को आम क़ायदे से अलग रखा है। ‘तंगी न रहे' का मतलब यह नहीं है कि अल्लाह की पनाह! आप (सल्ल०) की नफ़सानी ख़ाहिशें बहुत बढ़ी हुई थीं, इसलिए आप (सल्ल०) को बहुत-सी बीवियाँ करने की इजाज़त दे दी गई, ताकि आप (सल्ल०) सिर्फ़ चार बीवियों तक महदूद रहने में तंगी महसूस न करें। इस जुमले का यह मतलब सिर्फ़ वही आदमी ले सकता है जो तास्सुब में अन्धा होकर इस बात को भूल जाए कि मुहम्मद (सल्ल०) ने 25 साल की उम्र में एक ऐसी औरत से शादी की थी जिनकी उम्र उस वक़्त 40 साल थी और पूरे 25 साल तक आप (सल्ल०) उनके साथ बहुत ही ख़ुशगवार शादी-शुदा ज़िन्दगी गुज़ारते रहे। फिर जब उनका इन्तिक़ाल हो गया तो आप (सल्ल०) ने एक और ज़्यादा उम्र को पहुँची हुई औरत हज़रत सौदा (रज़ि०) से निकाह किया और पूरे चार साल तक अकेली वे आप (सल्ल०) की बीवी रहीं। अब आख़िर कौन अक़्लमन्द और ईमानदार आदमी यह सोच सकता है कि 53 साल की उम्र गुज़र जाने के बाद एकाएक नबी (सल्ल०) की नफ़सानी ख़ाहिशें बढ़ती चली गईं और आप (सल्ल०) को ज़्यादा से ज़्यादा बीवियों की ज़रूरत पेश आने लगी। अस्ल में 'तंगी न रहने' का मतलब समझने के लिए ज़रूरी है कि आदमी एक तरफ़ तो उस बड़े और अहम काम को निगाह में रखे जिसकी ज़िम्मेदारी अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) पर डाली थी और दूसरी तरफ़ उन हालात को समझे जिनमें यह बड़ा काम करने के लिए आप (सल्ल०) को मुक़र्रर किया गया था। तास्सुब (दुराग्रह) से ज़ेहन को पाक करके जो शख़्स भी इन दोनों हक़ीक़तों को समझ लेगा, वह अच्छी तरह जान लेगा कि बीवियों के मामले में आप (सल्ल०) को खुली इजाज़त देना क्यों ज़रूरी था और चार की क़ैद में आप (सल्ल०) के लिए क्या 'तंगी’ थी। नबी (सल्ल०) के सिपुर्द जो काम किया गया था, वह यह था कि आप (सल्ल०) एक अनपढ़ क़ौम को जो इस्लामी पहलू ही से नहीं, बल्कि आम तहज़ीब और रहन-सहन के नज़रिए से भी अनपढ़ थी, ज़िन्दगी के हर मैदान में तालीम और तरबियत देकर एक आला दरजे की तहज़ीब-याफ़्ता (सभ्य), शाइस्ता (शालीन) और पाकीज़ा क़ौम बनाएँ। इस ग़रज़ के लिए सिर्फ़ मर्दों को तरबियत देना काफ़ी न था, बल्कि औरतों की तरबियत भी उतनी ही ज़रूरी थी। मगर तहज़ीब और रहन-सहन के जो उसूल सिखाने के लिए आप (सल्ल०) मुक़र्रर किए गए थे, उनके मुताबिक़ मर्दों और औरतों का आज़ादी से मिलना-जुलना मना था और इस क़ायदे को तोड़े बिना आप (सल्ल०) के लिए औरतों को सीधे तौर पर ख़ुद तरबियत देना मुमकिन न था। इस वजह से औरतों में काम करने की सिर्फ़ यही एक सूरत आप (सल्ल०) के लिए मुमकिन थी कि अलग-अलग उम्रों और ज़ेहनी सलाहियतों (प्रतिभाओं) की कई औरतों से आप (सल्ल०) निकाह करें, उनको सीधे तौर पर ख़ुद तालीमो-तरबियत देकर अपनी मदद के लिए तैयार करें और फिर उनसे शहरी और देहाती और जवान और अधेड़ और बूढ़ी, हर तरह की औरतों को दीन सिखाने और अख़लाक़ और तहज़ीब के नए उसूल समझाने का काम लें। इसके अलावा नबी (सल्ल०) के सिपुर्द यह काम भी किया गया था कि पुराने जाहिली निज़ामे-ज़िन्दगी (जीवन-व्यवस्था) को ख़त्म करके उसकी जगह इस्लामी निज़ामे-ज़िन्दगी अमली तौर से क़ायम कर दें। इस काम के पूरा करने में जाहिली निज़ाम के अलमबरदारों से जंग ज़रूरी थी और यह कश्मकश एक ऐसे देश में हो रही थी, जहाँ ज़िन्दगी का क़बाइली अन्दाज़ अपनी ख़ास रिवायतों (परम्पराओं) के साथ राइज (प्रचलित) था। इन हालात में दूसरी तदबीरों के साथ आप (सल्ल०) के लिए यह भी ज़रूरी था कि आप (सल्ल०) अलग-अलग ख़ानदानों में निकाह करके बहुत-सी दोस्तियों को मज़बूत और बहुत-सी दुश्मनियों को ख़त्म कर दें। चुनाँचे आप (सल्ल०) ने जिन औरतों से शादियाँ कीं उनकी निजी ख़ूबियों के अलावा उनके चुनाव में यह मस्लहत भी कम-ज़्यादा शामिल थी। हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत हफ़सा (रज़ि०) के साथ निकाह करके आप (सल्ल०) ने हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) और हज़रत उमर (रज़ि०) के साथ अपने ताल्लुक़ात को और ज़्यादा गहरा और मज़बूत कर लिया। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) उस ख़ानदान की बेटी थीं जिससे अबू-जह्ल और ख़ालिद-बिन-वलीद (रज़ि०) का ताल्लुक़ था और हज़रत उम्मे-हबीबा (रज़ि०) अबू-सुफ़ियान की बेटी थीं। इन शादियों ने बहुत बड़ी हद तक इन ख़ानदानों की दुश्मनी का ज़ोर तोड़ दिया, बल्कि उम्मे-हबीबा (रज़ि०) के साथ नबी (सल्ल०) का निकाह होने के बाद तो अबू-सुफ़ियान फिर कभी आप (सल्ल०) के मुक़ाबले पर न आया। हज़रत सफ़िय्या (रज़ि०), हज़रत जुवैरिया (रज़ि०) और रैहाना (रज़ि०) यहूदी ख़ानदानों से थीं। इन्हें आज़ाद करके जब नबी (सल्ल०) ने इनसे निकाह किए तो आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ यहूदियों की सरगर्मियाँ ठण्डी पड़ गईं, क्योंकि उस ज़माने की अरबी रिवायतों के मुताबिक़ जिस आदमी से किसी क़बीले की बेटी ब्याही जाती थी, वह सिर्फ़ लड़की के ख़ानदान ही का नहीं, बल्कि पूरे ख़ानदान का दामाद समझा जाता था और दामाद से लड़ना बड़ी शर्म की बात थी। समाज के अमली सुधार और उसकी जाहिलाना रस्मों को तोड़ना भी नबी (सल्ल०) की मंसबी ज़िम्मेदारियों में शामिल था। चुनाँचे एक निकाह आपको इस मक़सद के लिए भी करना पड़ा, जैसा कि इसी सूरा-33 अहज़ाब में तफ़सील से बयान हो चुका है। ये मस्लहतें इस बात का तक़ाज़ा करती थीं कि नबी (सल्ल०) के लिए निकाह के मामले में कोई तंगी बाक़ी न रखी जाए, ताकि जो बड़ा काम आप (सल्ल०) के सिपुर्द किया गया था उसकी ज़रूरतों के लिहाज़ से आप (सल्ल०) जितने निकाह करना चाहें, कर लें। इस बयान से उन लोगों की ग़लत-फ़हमी दूर हो जाती है जो समझते हैं कि एक साथ एक से ज़्यादा बीवियाँ रखना सिर्फ़ ख़ास निजी ज़रूरतों की ख़ातिर ही जाइज़ है और उनके सिवा कोई ग़रज़ ऐसी नहीं हो सकती जिसके लिए यह जाइज़ हो। ज़ाहिर बात है कि नबी (सल्ल०) ने जो एक से ज़्यादा निकाह किए उनकी वजह यह न थी कि वीवी बीमार थी, या बाँझ थी, या कोई बेटा न था, या कुछ यतीमों की परवरिश का मसला सामने था। इन महदूद निजी ज़रूरतों के बिना आप (सल्ल०) ने तमाम निकाह या तो तबलीग़ी ज़रूरतों के लिए किए, या समाज-सुधार के लिए, या सियासी और सामाजिक मक़सदों के लिए। सवाल यह है कि जब अल्लाह ने ख़ुद एक से ज़्यादा बीवियाँ रखने को उन कुछ गिने-चुने ख़ास मक़सदों तक, जिनका आज नाम लिया जा रहा है, महदूद नहीं रखा और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनके अलावा बहुत-से दूसरे मक़सदों के लिए कई निकाह किए, तो कोई दूसरा शख़्स क्या हक़ रखता है कि क़ानून में अपनी तरफ़ से कुछ हदें तय करे और ऊपर से दावा यह करे कि ये हदबन्दियाँ वह शरीअत के मुताबिक़ कर रहा है। अस्ल में इन सारी हदबन्दियों की जड़ यह मग़रिबी (पश्चिमी) सोच है कि एक वक़्त में कई बीवियाँ रखना अपनी जगह ख़ुद एक बुराई है। इसी सोच की बुनियाद पर यह नज़रिया पैदा हुआ है कि यह हराम काम अगर कभी हलाल हो भी सकता है तो सिर्फ़ ऐसी सख़्त ज़रूरतों के लिए हो सकता है जिन्हें पूरा करना लाज़िमी हो। अब बाहर से आई इस सोच पर इस्लाम का जाली ठप्पा लगाने की चाहे कितनी ही कोशिश की जाए, क़ुरआन और सुन्नत और पूरे मुस्लिम समाज का लिट्रेचर इससे बिलकुल अनजान है।
۞تُرۡجِي مَن تَشَآءُ مِنۡهُنَّ وَتُـٔۡوِيٓ إِلَيۡكَ مَن تَشَآءُۖ وَمَنِ ٱبۡتَغَيۡتَ مِمَّنۡ عَزَلۡتَ فَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكَۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن تَقَرَّ أَعۡيُنُهُنَّ وَلَا يَحۡزَنَّ وَيَرۡضَيۡنَ بِمَآ ءَاتَيۡتَهُنَّ كُلُّهُنَّۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلِيمًا حَلِيمٗا ۝ 47
(51) तुमको इख़्तियार दिया जाता है कि अपनी बीवियों में से जिसको चाहो अपने से अलग रखो, जिसे चाहो अपने साथ रखो और जिसे चाहो अलग रखने के बाद अपने पास बुला लो। इस मामले में तुमपर कोई गुनाह नहीं है। इस तरह ज़्यादा उम्मीद है कि उनकी आँखें ठण्डी रहेंगी और वे दुखी न होंगी और जो कुछ भी तुम उनको दोगे इसपर वे सब राज़ी रहेंगी91 अल्लाह जानता है जो कुछ तुम लोगों के दिलों में है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और सहन करनेवाला है।92
91. इस आयत का मक़सद नबी (सल्ल०) को घरेलू ज़िन्दगी की उलझनों से नजात दिलाना था, ताकि आप (सल्ल०) पूरे सुकून के साथ अपना काम कर सकें। जब अल्लाह तआला ने साफ़ अलफ़ाज़ में नबी (सल्ल०) को पूरे अधिकार दे दिए कि पाक बीवियों में से जिसके साथ जो बर्ताव चाहें करें तो इस बात का कोई इमकान न रहा कि ये ईमानवाली औरतें आप (सल्ल०) को किसी तरह परेशान करतीं या आपस में एक-दूसरे से आगे बढ़ने की कोशिश और एक-दूसरे से नफ़रत और खींचातानी के सबब झगड़े पैदा करके आप (सल्ल०) के लिए उलझने पैदा करतीं। लेकिन अल्लाह तआला से यह अधिकार पा लेने के बाद भी नबी (सल्ल०) ने तमाम पाक बीवियों के बीच पूरा-पूरा इनसाफ़ किया, किसी को किसी पर तरजीह न दी और बाक़ायदा बारी तय करके आप (सल्ल०) सबके यहाँ तशरीफ़ ले जाते रहे। मुहद्दिसीन (हदीसों के आलिमों) में से सिर्फ़ अबू-रज़ीन यह बयान करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने सिर्फ़ चार बीवियों (हज़रत आइशा, हज़रत हफ़सा, हज़रत ज़ैनब और हज़रत उम्मे-सलमा रज़ि० को बारियों के बँटवारे में शामिल किया था और बाक़ी बीवियों के लिए कोई बारी तय न की थी। लेकिन हदीस और क़ुरआन के दूसरे तमाम आलिम इसको ग़लत कहते हैं और बहुत मज़बूत रिवायतों से इस बात का सुबूत पेश करते हैं कि इस अधिकार के बाद भी नबी (सल्ल०) तमाम बीवियों के यहाँ बारी-बारी से जाते थे और सबसे एक-सा बर्ताव करते थे। बुख़ारी, मुस्लिम, नसई और अबू-दाऊद वग़ैरा हज़रत आइशा (रज़ि०) को यह बात नक़्ल करते हैं कि “इस आयत के उतरने के बाद भी नबी (सल्ल०) का तरीक़ा यही रहा कि आप (सल्ल०) हममें से किसी बीवी की बारी के दिन दूसरी बीवी के यहाँ जाते तो उससे इजाज़त लेकर जाते थे। अबू-बक्र जस्सास उरवा-बिन-ज़ुबैर को रिवायत नक़्ल करते है कि हज़रत आइशा (रज़ि०) ने उनसे फ़रमाया, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) बारियों के बँटवारे में हममें से किसी को किसी पर तरजीह न देते थे। अगरचे कम ही ऐसा होता था कि आप (सल्ल०) किसी दिन अपनी सब बीवियों के यहाँ न जाते हों, मगर जिस बीवी की बारी का दिन होता था, उसके सिवा किसी दूसरी बीवी को छूते तक न थे। और यह रिवायत भी हज़रत आइशा (रज़ि०) ही की है कि जब नबी (सल्ल०) अपनी आख़िरी बीमारी में मुब्तला हुए और चलना फिरना आप (सल्ल०) के लिए मुश्किल हो गया तो आप (सल्ल०) ने सब बीवियों से इजाज़त माँगी कि मुझे आइशा (रज़ि०) के यहाँ रहने दो और जब सबने इजाज़त दे दी, तब आप (सल्ल०) ने आख़िरी ज़माना हज़रत आइशा (रज़ि०) के यहाँ गुज़ारा। इब्ने-अबी-हातिम इमाम ज़ुहरी का क़ौल (कथन) नक़्ल करते हैं कि नबी (सल्ल०) का किसी बीवी को बारी से महरूम करना साबित नहीं है। इससे सिर्फ़ हज़रत सौदा (रज़ि०) अलग हैं, जिन्होंने ख़ुद अपनी बारी अपनी मरज़ी से हज़रत आइशा (रज़ि०) को दे दी थी, क्योंकि वे बहुत बड़ी हो चुकी थीं। इस जगह पर किसी के दिल में यह शक न रहना चाहिए कि अल्लाह तआला ने, अल्लाह की पनाह! अपने नबी के साथ कोई बेजा रिआयत की थी और पाक बीवियों के साथ हक़-तल्फ़ी (अधिकार-हनन) का मामला किया था। अस्ल में जिन बड़ी मस्लहतों की ख़ातिर नबी (सल्ल०) को बीवियों की तादाद के मामले में आम क़ायदे से अलग किया गया था, उन्हीं मस्लहतों का तक़ाज़ा यह भी था कि आप (सल्ल०) को घरेलू ज़िन्दगी का सुकून फ़राहम (उपलब्ध) कराया जाए और उन वजहों को दूर किया जाए जो आप (सल्ल०) के लिए परेशानियाँ पैदा कर सकती हों। पाक बीवियों के लिए यह एक बहुत बड़ी इज़्ज़त और ख़ुशनसीबी की बात थी कि उन्हें नबी (सल्ल०) जैसी सबसे ज़्यादा बुज़ुर्ग हस्ती की बीवी बनना नसीब हुआ और उसकी बदौलत उनको यह मौक़ा मिला कि दावत और सुधार के उस अज़ीमुश्शान काम में आप (सल्ल०) की साथी बनें जो रहती दुनिया तक इनसानियत की कामयाबी का ज़रिया बननेवाला था। इस मक़सद के लिए जिस तरह नबी (सल्ल०) ग़ैर-मामूली ईसार (त्याग) और क़ुरबानी से काम ले रहे थे और तमाम सहाबा किराम (रज़ि०) अपने बस भर क़ुरबानियाँ कर रहे थे, उसी तरह पाक बीवियों का भी यह फ़र्ज़ था कि ईसार से काम लें। इसलिए अल्लाह तआला के इस फ़ैसले को तमाम पाक बीवियों ने ख़ुशी से क़ुबूल किया।
92. यह तंबीह (चेतावनी) है पाक बीवियों के लिए भी और दूसरे तमाम लोगों के लिए भी। पाक बीवियों के लिए तंबीह इस बात की है कि अल्लाह का हुक्म आ जाने के बाद अगर वे दिल में भी उसकी तरफ़ से कुछ खटक महसूस करेंगी तो पकड़ से न बच सकेंगी और दूसरे लोगों के लिए इसमें यह तंबीह है कि नबी (सल्ल०) की शादीशुदा ज़िन्दगी के बारे में किसी तरह की बदगुमानी भी अगर उन्होंने अपने दिल में रखी या सोच और ख़याल के किसी कोने में भी कोई बुरा ख़याल पालते रहे तो अल्लाह से उनकी यह चोरी छिपी न रह जाएगी। इसके साथ अल्लाह की सहन और बरदाश्त करने की सिफ़त का भी ज़िक्र कर दिया गया, ताकि आदमी को यह मालूम हो जाए कि नबी (सल्ल०) की शान में गुस्ताख़ी का ख़याल भी अगरचे सख़्त सज़ा का सबब है, लेकिन जिसके दिल में कभी ऐसा कोई बुरा ख़याल आया हो, वह अगर उसे निकाल दे तो अल्लाह तआला के यहाँ माफ़ी की उम्मीद है।
لَّا يَحِلُّ لَكَ ٱلنِّسَآءُ مِنۢ بَعۡدُ وَلَآ أَن تَبَدَّلَ بِهِنَّ مِنۡ أَزۡوَٰجٖ وَلَوۡ أَعۡجَبَكَ حُسۡنُهُنَّ إِلَّا مَا مَلَكَتۡ يَمِينُكَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ رَّقِيبٗا ۝ 48
(52) इसके बाद तुम्हारे लिए दूसरी औरतें हलाल नहीं हैं और न इसकी इजाज़त है कि उनकी जगह और बीवियाँ ले आओ चाहे उनकी ख़ूबसूरती तुम्हें कितनी ही पसन्द हो,93 अलबत्ता लौडियों की तुम्हें इजाज़त है।94 अल्लाह हर चीज़ पर निगराँ है।
93. यह बात कहने के दो मतलब हैं। एक यह कि जो औरतें ऊपर आयत-50 में नबी (सल्ल०) के लिए हलाल (वैध) की गई हैं, उनके सिवा दूसरी कोई औरत अब आप (सल्ल०) के लिए हलाल नहीं है। दूसरा यह कि जब आप (सल्ल०) की पाक बीवियाँ इस बात के लिए राज़ी हो गई हैं कि तंगी की हालत में आप (सल्ल०) का साथ दें और आख़िरत के लिए दुनिया को उन्होंने तज (त्याग) दिया है और इसपर भी ख़ुश हैं कि आप (सल्ल०) जो बर्ताव भी उनके साथ चाहे करें, तो अब आप (सल्ल०) के लिए यह हलाल नहीं है कि उनमें से किसी को तलाक़ देकर उसकी जगह कोई और बीवी ले आएँ।
94. यह आयत इस बात को बयान कर रही है कि निकाह में आई बीवियों के अलावा लौड़ियों से भी जिस्मानी रिश्ता बनाने की इजाज़त है और उनके लिए तादाद की कोई क़ैद नहीं है। इसी बात को सूरा-4 निसा, आयत-3; सूरा-23 मामिनून, आयत-6 और सूरा-70 मआरिज, आयत-30 में भी बयान किया गया है। इन तमाम आयतों में लौंडियों को निकाही बीवियों के मुक़ाबले में एक अलग क़िस्म की हैसियत से बयान किया गया है और फिर उनके साथ जिस्मानी ताल्लुक़ को जाइज़ ठहराया गया है। इसके अलावा सूरा-4 निसा की आयत-3 निकाही बीवियों के लिए चार की हद मुक़र्रर करती है, मगर न उस जगह अल्लाह तआला ने लौंडियों के लिए तादाद की हद तय की है और न इस तरह की दूसरी आयतों में ऐसी किसी हद की तरफ़ इशारा किया है, बल्कि यहाँ नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करते हुए कहा जा रहा है कि आप (सल्ल०) के लिए इसके बाद दूसरी औरतों से निकाह करना, या मौजूदा औरतों में से किसी को तलाक़ देकर दूसरी बीवी लाना तो हलाल नहीं है, अलबत्ता लौडियाँ हलाल हैं। इससे साफ़ ज़ाहिर है कि लौंडियों के मामले में कोई हद मुक़र्रर नहीं है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह की शरीअत यह गुंजाइश मालदार लोगों को बेहिसाब लौंडियाँ ख़रीद-ख़रीदकर अय्याशी करने के लिए देती है। अस्ल में यह तो एक बेजा फ़ायदा है जो नफ़्स-परस्त (भोगवादी) लोगों ने क़ानून से उठाया है। क़ानून अपने आप में ख़ुद इनसानों की आसानी के लिए बनाया गया था, इसलिए नहीं बनाया गया था कि लोग इससे यह फ़ायदा उठाएँ। इसकी मिसाल बिलकुल ऐसी है जैसे शरीअत एक मर्द को चार तक बीवियाँ रखने की इजाज़त देती है और उसे यह हक़ भी देती है कि अपनी बीवी को तलाक़ देकर दूसरी बीवी ले आए। यह क़ानून इनसानी ज़रूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया था। अब अगर कोई आदमी सिर्फ़ अय्याशी करने के लिए यह तरीक़ा अपनाए कि चार बीवियों को कुछ मुद्दत रखकर तलाक़ देता और फिर उनकी जगह बीवियों की दूसरी खेप लाता चला जाए तो यह क़ानून की गुंजाइशों से नाजाइज़ फ़ायदा उठाना है, जिसकी ज़िम्मेदारी ख़ुद उसी आदमी पर होगी, न कि अल्लाह की शरीअत पर। इसी तरह शरीअत ने जंग में गिरफ़्तार होनेवाली औरतों को, जबकि उनकी क़ौम मुसलमान क़ैदियों से उनका तबादला करने या माल देकर उनको छुड़ाने के लिए तैयार न हो, लौंडी बनाने की इजाज़त दी और जिन मर्दों की मिलकियत में वे हुकूमत की तरफ़ से दे दी जाएँ, उनको यह हक़ दिया कि उन औरतों से फ़ायदा उठाएँ, ताकि उनका वुजूद समाज के लिए अख़लाक़ी बिगाड़ का सबब न बन जाए। फिर चूँकि लड़ाइयों में गिरफ़्तार होनेवाले लोगों की कोई तादाद तय नहीं हो सकती थी, इसलिए क़ानूनी तौर पर इस बात की भी कोई हद मुक़र्रर नहीं की जा सकती थी कि एक आदमी एक वक़्त में कितने ग़ुलाम और कितनी लौंडियाँ रख सकता है। लौंडियों और ग़ुलामों के ख़रीदने-बेचने को भी इस वजह से जाइज़ रखा गया कि अगर किसी लौंडी या ग़ुलाम का निबाह एक मालिक से न हो सके तो वह किसी दूसरे शख़्स की मिलकियत में जा सके और एक ही शख़्स की हमेशा की मिलकियत मालिक और ग़ुलाम दोनों के लिए मुसीबत न बन जाए। शरीअत ने ये सारे क़ायदे इनसानी हालात और ज़रूरतों को ध्यान में रखकर आसानी की ख़ातिर बनाए थे। अगर इनको मालदार लोगों ने अय्याशी का ज़रिआ बना लिया तो इसका इलज़ाम उन्हीं पर है, न कि शरीअत पर।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَدۡخُلُواْ بُيُوتَ ٱلنَّبِيِّ إِلَّآ أَن يُؤۡذَنَ لَكُمۡ إِلَىٰ طَعَامٍ غَيۡرَ نَٰظِرِينَ إِنَىٰهُ وَلَٰكِنۡ إِذَا دُعِيتُمۡ فَٱدۡخُلُواْ فَإِذَا طَعِمۡتُمۡ فَٱنتَشِرُواْ وَلَا مُسۡتَـٔۡنِسِينَ لِحَدِيثٍۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ يُؤۡذِي ٱلنَّبِيَّ فَيَسۡتَحۡيِۦ مِنكُمۡۖ وَٱللَّهُ لَا يَسۡتَحۡيِۦ مِنَ ٱلۡحَقِّۚ وَإِذَا سَأَلۡتُمُوهُنَّ مَتَٰعٗا فَسۡـَٔلُوهُنَّ مِن وَرَآءِ حِجَابٖۚ ذَٰلِكُمۡ أَطۡهَرُ لِقُلُوبِكُمۡ وَقُلُوبِهِنَّۚ وَمَا كَانَ لَكُمۡ أَن تُؤۡذُواْ رَسُولَ ٱللَّهِ وَلَآ أَن تَنكِحُوٓاْ أَزۡوَٰجَهُۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦٓ أَبَدًاۚ إِنَّ ذَٰلِكُمۡ كَانَ عِندَ ٱللَّهِ عَظِيمًا ۝ 49
(53) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, नबी के घरों में बिना इजाज़त न चले आया करो।95 न खाने का वक़्त ताकते रहो। हाँ, अगर तुम्हें खाने पर बुलाया जाए तो ज़रूर आओ।96 मगर जब खाना खा लो तो इधर-उधर हो जाओ, बातें करने में न लगे रहो।97 तुम्हारी ये हरकतें नबी को तकलीफ़ देती हैं, मगर वह शर्म की वजह से कुछ नहीं कहते। और अल्लाह हक़ बात कहने में नहीं शर्माता। नबी की वीवियों से अगर तुम्हें कुछ मागना हो तो पर्दे के पीछे से माँगा करो, यह तुम्हारे और उनके दिलों की पाकीज़गी के लिए ज़्यादा मुनासिब तरीक़ा है।98 तुम्हारे लिए यह हरगिज़ जाइज़ नहीं कि अल्लाह के रसूल को तकलीफ़ दो99 और न यह जाइज़ है कि उनके बाद उनकी बीवियों से निकाह करो,100 यह अल्लाह के नज़दीक बहुत बड़ा गुनाह है।
95. यह उस आम हुक्म की शुरुआती बात है जो लगभग एक साल के बाद सूरा-24 नूर की आयत-27 में दिया गया। पुराने ज़माने में अरब के लोग बेधड़क एक-दूसरे के घरों में चले जाते थे। किसी आदमी को किसी दूसरे आदमी से मिलना होता तो वह दरवाज़े पर खड़े होकर पुकारने और इजाज़त लेकर अन्दर जाने का पाबन्द न था, बल्कि अन्दर जाकर औरतों और बच्चों से पूछ लेता था कि घर का मालिक घर में है या नहीं। यह जाहिलाना तरीक़ा बहुत-सी ख़राबियों का सबब था और कई बार इससे बहुत घिनावने अख़लाक़ी बिगाड़ों की शुरुआत हो जाती थी। इसलिए पहले नबी (सल्ल०) के घरों में यह क़ायदा मुक़र्रर किया गया कि कोई आदमी, चाहे वह क़रीबी दोस्त या दूर का रिश्तेदार ही क्यों न हो, आप (सल्ल०) के घरों में इजाज़त के बिना दाख़िल न हो। फिर सूरा-24 नूर में इस क़ायदे को तमाम मुसलमानों के घरों में रिवाज देने का आम हुक्म दे दिया गया।
96. यह इस सिलसिले का दूसरा हुक्म है। जो बुरी आदतें अरब के लोगों में फैली हुई थीं, उनमें से एक यह भी थी कि किसी दोस्त या मुलाक़ाती के घर खाने का वक़्त ताककर पहुँच जाते या उसके घर आकर बैठे रहते, यहाँ तक कि खाने का वक़्त हो जाए। इस हरकत की वजह से घरवाला अकसर अजीब मुश्किल में पड़ जाता था। मुँह फोड़कर कहे कि मेरे खाने का वक़्त है, आप तशरीफ़ ले जाइए, तो यह बात ना-पसन्दीदा होगी। खिलाए तो आख़िर अचानक आए हुए कितने आदमियों को खिलाए। हर वक़्त हर आदमी के बस में यह नहीं होता कि जब जितने आदमी भी उसके यहाँ आ जाएँ, उनके खाने का इन्तिज़ाम फ़ौरन कर ले। अल्लाह तआला ने इस बेहूदा आदत से मना किया और हुक्म दे दिया कि किसी शख़्स के घर खाने के लिए उस वक़्त जाना चाहिए, जबकि घरवाला खाने की दावत दे। यह हुक्म सिर्फ़ नबी (सल्ल०) के घर के लिए ख़ास न था, बल्कि उस नमूने के घर में ये क़ायदे इसी लिए जारी किए गए थे कि वे मुसलमानों के यहाँ आम तहज़ीब के ज़ाब्ते बन जाएँ।
97. यह एक और बेहूदा आदत का सुधार है। कुछ लोग खाने की दावत में बुलाए जाते हैं तो खाने से निबटने के बाद धरना मारकर बैठ जाते हैं और आपस में बातचीत का ऐसा सिलसिला छेड़ देते हैं जो किसी तरह ख़त्म होने में नहीं आता। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि घरवाला और घर के लोगों को इससे क्या परेशानी होती है। ग़ैर-मुहज़्ज़ब लोग अपनी इस आदत से नबी (सल्ल०) को भी तंग करते रहते थे और आप (सल्ल०) अपनी नर्म मिज़ाजी और अच्छे अख़लाक़ की वजह से इसको बरदाश्त करते थे। आख़िरकार हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के वलीमे के दिन यह हरकत तकलीफ़ पहुँचाने की हद से गुज़र गई। नबी (सल्ल०) के ख़ास ख़ादिम हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) की रिवायत है कि रात को वलीमे की दावत थी। आम लोग तो खाना खाकर चले गए, मगर दो-तीन लोग खाना खाकर बैठकर बातें करने में लग गए। तंग आकर नबी (सल्ल०) उठे और पाक बीवियों के यहाँ एक चक्कर लगाया। वापस तशरीफ़ लाए तो देखा वे लोग बेठे हुए हैं। आप (सल्ल०) फिर पलट गए और हज़रत आइशा (रज़ि०) के हुजरे (कमरे) में जा बैठे। अच्छी-ख़ासी रात गुज़र जाने पर जब आप (सल्ल०) को मालूम हुआ कि वे लोग चले गए हैं, तब आप (सल्ल०) हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के मकान में तशरीफ़ लाए। इसके बाद ज़रूरी हो गया कि अल्लाह ताला ख़ुद इन बुरी आदतों पर लोगों को ख़बरदार करे। हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत के मुताबिक़, ये आयतें उसी मौक़े पर उतरी थीं। (हदीस : मुस्लिम, नसई, इब्ने-जरीर)
98. यही आयत है जिसको 'हिजाब की आयत' कहा जाता है। बुख़ारी में हज़रत अनस-बिन- मालिक (रज़ि०) की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) इस आयत के उतरने से पहले कई बार नबी (सल्ल०) से कह चुके थे कि “ऐ अल्लाह के रसूल, आपके यहाँ भले-बुरे सभी तरह के लोग आते हैं। काश! आप अपनी बीवियों को परदा करने का हुक्म दे देते। एक और रिवायत में है कि एक बार हज़रत उमर (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों से कहा कि “अगर आपके हक़ में मेरी बात मानी जाए, तो कभी मेरी निगाहें आपको न देखें। लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) चूँकि क़ानून बनाने का इख़्तियार न रखते थे, इसलिए आप (सल्ल०) अल्लाह के इशारे के इन्तिज़ार में रहे। आख़िरकार यह हुक्म आ गया कि महरम मर्दों के सिवा (जैसा कि आगे आयत-55 में आ रहा है) कोई मर्द नबी (सल्ल०) के घर में न आए और जिसको भी औरतों से कोई काम हो, वह परदे के पीछे से बात करे। इस हुक्म के बाद पाक बीवियों के घरों में दरवाज़ों पर परदे लटका दिए गए और चूँकि नबी (सल्ल०) का घर तमाम मुसलमानों के लिए नमूने का घर था, इसलिए तमाम मुसलमानों के घरों पर भी परदे लटक गए। आयत का आख़िरी जुमला ख़ुद इस बात की तरफ़ इशारा कर रहा है कि जो लोग भी मर्दों और औरतों के दिल पाक रखना चाहें, उन्हें यह तरीक़ा अपनाना चाहिए। अब जिस शख़्स को अल्लाह ने आँखें दी हैं, वह ख़ुद देख सकता है कि जो किताब मर्दों को औरतों से आमने-सामने बात करने से रोकती है और परदे के पीछे से बात करने की मस्लहत यह बताती है कि “तुम्हारे और उनके दिलों की पाकीज़गी के लिए यह तरीक़ा ज़्यादा मुनासिब है,” उसमें से आख़िर यह निराली रूह कैसे निकाली जा सकती है कि मिली-जुली महफ़िलों और मख़लूत तालीम (सहशिक्षा) और जमहूरी इदारों और दाफ़्तरों में मर्दों और औरतों का बेझिझक मेल-जोल बिलकुल जाइज़ है और इससे दिलों की पाकीज़गी में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। किसी को क़ुरआन की पैरवी न करनी हो तो उसके लिए ज़्यादा सही तरीक़ा यह है कि वह उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी करे और साफ़-साफ़ कहे कि में इसकी पैरवी नहीं करना चाहता। लेकिन यह तो बड़ी घटिया हरकत है कि वह क़ुरआन के साफ़ हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी भी करे और फिर ढिठाई के साथ यह भी कहे कि यह इस्लाम की रूह है जो मैंने निकाली है। आख़िर वह इस्लाम की कौन-सी रूह है जो क़ुरआन और सुन्नत के बाहर किसी जगह इन लोगों को मिल जाती है?
99. यह इशारा है उन इलज़ाम-तराशियों की तरफ़ जो उस ज़माने में नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ की जा रही थीं और इस्लाम मुख़ालिफ़ों और मुनाफ़िक़ों के साथ कुछ कमज़ोर ईमानवाले मुसलमान भी उनमें हिस्सा लेने लगे थे।
100. यह तशरीह है उस बात की जो सूरा के शुरू में गुज़र चुकी है कि नबी (सल्ल०) की बीवियाँ ईमानवालों की माएँ हैं।
إِن تُبۡدُواْ شَيۡـًٔا أَوۡ تُخۡفُوهُ فَإِنَّ ٱللَّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٗا ۝ 50
(54) तुम चाहे कोई बात ज़ाहिर करो या छिपाओ, अल्लाह हर बात जानता है।101
101. यानी अगर नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ दिल में भी कोई बुरा ख़याल कोई शख़्स रखेगा, या आप (सल्ल०) की बीवियों के बारे में किसी की नीयत में भी कोई बुराई छिपी हुई होगी तो अल्लाह तआला से वह छिपी न रहेगी और वह उसपर सज़ा पाएगा।
لَّا جُنَاحَ عَلَيۡهِنَّ فِيٓ ءَابَآئِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآئِهِنَّ وَلَآ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ إِخۡوَٰنِهِنَّ وَلَآ أَبۡنَآءِ أَخَوَٰتِهِنَّ وَلَا نِسَآئِهِنَّ وَلَا مَا مَلَكَتۡ أَيۡمَٰنُهُنَّۗ وَٱتَّقِينَ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدًا ۝ 51
(55) नबी की बीवियों के लिए इसमें कोई गुनाह नहीं है कि उनके बाप, उनके बेटे, उनके भाई, उनके भतीजे, उनके भाजे,102 उनके मेल-जोल की औरतें103 और उनके लौंडी-ग़ुलाम104 घरों में आएँ। (ऐ औरतो) तुम्हें अल्लाह की नाफ़रमानी से बचना चाहिए। अल्लाह हर चीज़ पर निगाह रखता है।105
102. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-24 नूर, हाशिए—38 से 42। इस सिलसिले में अल्लामा आलूसी (रह०) की यह तशरीह भी ज़िक्र के क़ाबिल है कि “भाइयों, भाँजों और भतीजों के हुक्म में वे सब रिश्तेदार आ जाते हैं जो एक औरत के लिए हराम हों, चाहे उनसे ख़ून का रिश्ता हो या दूध का। इस फ़ेहरिस्त में चचा और मामूँ का ज़िक्र इसलिए नहीं किया गया कि वे औरत के लिए माँ-बाप की जगह हैं या फिर उनके ज़िक्र को इसलिए ख़त्म कर दिया गया कि भाँजों और भतीजों का ज़िक्र आ जाने के बाद उनके ज़िक्र की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि भाँजे और भतीजे से परदा न होने की जो वजह है, वही चचा और मामूँ से परदा न होने की वजह भी है। (रूहुल-मआनी)
103. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-24 नूर, हाशिया-43।
104. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-24 नूर, हाशिया-44।
105. इस बात का मतलब यह है कि इस साफ़ हुक्म के आ जाने के बाद आइन्दा किसी ऐसे शख़्स को घरों में बेहिजाब (बेपरदा) आने की इजाज़त न दी जाए जो इन अलग किए गए रिश्तेदारों के दायरे से बाहर हो। दूसरा मतलब यह भी है कि औरतों को यह रवैया हरगिज़ न अपनाना चाहिए कि वे शौहर की मौजूदगी में तो परदे की पाबन्दी करें, मगर जब वह मौजूद न हो तो ग़ैर-महरम मर्दों के सामने परदा उठा दें। उनकी यह हरकत चाहे उनके शौहर से छिपी रह जाए, अल्लाह से तो नहीं छिप सकती।
إِنَّ ٱللَّهَ وَمَلَٰٓئِكَتَهُۥ يُصَلُّونَ عَلَى ٱلنَّبِيِّۚ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ صَلُّواْ عَلَيۡهِ وَسَلِّمُواْ تَسۡلِيمًا ۝ 52
(56) अल्लाह और उसके फ़रिश्ते नबी पर दुरुद भेजते हैं,106 ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, तुम भी उनपर दुरुद और सलाम भेजो।107
106. अल्लाह की तरफ़ से अपने नबी पर 'सलात' का मतलब यह है कि वह आप (सल्ल०) पर बेहद मेहरबान है, आप (सल्ल०) की तारीफ़ करता है, आप (सल्ल०) के काम में बरकत देता है, आप (सल्ल०) का नाम बुलन्द करता है, और आप (सल्ल०) पर अपनी रहमतों की बारिश करता है। फ़रिश्तों की तरफ़ से आप (सल्ल०) पर सलात का मतलब यह है कि वे आप (सल्ल०) से बहुत ज़्यादा मुहब्बत रखते हैं और आप (सल्ल०) के हक़ में अल्लाह से दुआ करते। हैं कि वह आप (सल्ल०) को ज़्यादा-से-ज़्यादा बुलन्द दरजे दे, आप (सल्ल०) के दीन को सरबुलन्द करे, आप (सल्ल०) की शरीअत को बढ़ावा दे और आप (सल्ल०) को 'मक़ामे-महमूद' (तारीफ़ के सबसे ऊँचे मकाम) पर पहुँचाए। मौक़ा और महल पर निगाह डालने से साफ़ महसूस हो जाता है कि बयान के इस सिलसिले में यह बात किस लिए कही गई है। वक़्त वह था जब इस्लाम-दुश्मन इस साफ़ और वाजेह दीन की तरक़्क़ी पर अपने दिल की जलन निकालने के लिए नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ इलज़ामों की बौछार कर रहे थे और अपने नज़दीक यह समझ रहे थे कि इस तरह कीचड़ उछालकर वे आप (सल्ल०) के उस अख़लाक़ी असर को कम कर देंगे जिसकी बदौलत इस्लाम और मुसलमानों के क़दम दिन-पर-दिन बढ़ते चले जा रहे थे। इन हालात में यह आयत उतारकर अल्लाह तआला ने दुनिया को यह बताया कि कुफ़्र करेनवाले, मुशरिक और मुनाफ़िक़ मेरे नबी को बदनाम करने और नीचा दिखाने की जितनी चाहें कोशिशें कर देखें, आख़िरकार वे मुँह की खाएँगे, इसलिए कि मैं उसपर मेहरबान हूँ और सारी कायनात का इन्तिज़ाम जिन फ़रिश्तों के ज़रिए से चल रहा है, वे सब उसके तरफ़दार और उसकी तारीफ़ करनेवाले हैं। वे उसको बुरा-भला कहकर क्या पा सकते हैं, जबकि मैं उसका नाम बुलन्द कर रहा हूँ और मेरे फ़रिश्ते उसकी तारीफ़ों की चर्चाएँ कर रहे हैं। वे अपने ओछे हथियारों से उसका क्या बिगाड़ सकते हैं, जबकि मेरी रहमतें और बरकतें उसके साथ हैं और मेरे फ़रिश्ते दिन-रात दुआ कर रहे हैं कि ये तमाम जहानों के रब, मुहम्मद (सल्ल०) का मर्तबा और ज़्यादा ऊँचा कर और उसके दीन को और बढ़ा और फैला दे।
107. दूसरे अलफाज़ में इसका मतलब यह है कि ऐ लोगो, जिनको अल्लाह के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) की बदौलत सीधी राह मिली हुई है, तुम उनकी क़द्र पहचानो और उनके इतने बड़े एहसान का हक़ अदा करो। तुम जहालत के अंधेरों में भटक रहे थे, इस पैग़म्बर ने तुम्हें इल्म की रौशनी दी। तुम अख़लाक़ की पस्तियों में गिरे हुए थे, इस पैग़म्बर ने तुम्हें इतना ज़्यादा उठाया और इस क़ाबिल बनाया कि आज लोग तुमसे हसद (ईर्ष्या) कर रहे हैं। तुम जंगलीपन और हैवानियत में मुब्तला थे, इस पैग़म्बर ने तुमको बेहतरीन इनसानी तहज़ीब से सजाया-सँवारा। ग़ैर-मुस्लिम दुनिया इसी लिए इस शख़्स से नाराज़ रही है कि उसने ये एहसान तुमपर किए, वरना उसने किसी के साथ निजी तौर पर कोई बुराई न की थी। इसलिए अब तुम्हारे एहसान मानने का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि जितनी जलन व दुश्मनी वे इस पैग़म्बर से रखते हैं जो सर से पैर तक भलाई-ही-भलाई है, उतनी ही बल्कि उससे ज़्यादा मुहब्बत तुम उससे रखो, जितनी वे इससे नफ़रत करते हैं, उतने ही बल्कि उससे ज़्यादा तुम उसके चाहनेवाले बन जाओ। जितना वे उसको बुरा कहते हैं, उतना ही, बल्कि उससे ज़्यादा तुम उसकी तारीफ़ करो। जितने वे उसके बुरा चाहनेवाले हैं, उतने ही, बल्कि उससे ज़्यादा तुम भलाई चाहनेवाले बनो और उसके हक़ में वही दुआ करो जो अल्लाह के फ़रिश्ते रात-दिन उसके लिए कर रहे हैं कि ऐ दो जहाँ के रब! जिस तरह तेरे नबी (सल्ल०) ने हमपर अनगिनत एहसान किए हैं, तू भी उनपर बेहद व बेहिसाब रहमत कर, उनका मर्तबा दुनिया में भी सबसे ज़्यादा बुलन्द कर और आख़िरत में भी उन्हें तमाम क़रीबियों से बढ़कर क़रीब कर। इस आयत में मुसलमानों को दो चीज़ों का हुक्म दिया गया है। एक 'सल्लू अलैहि’ और दूसरे 'सल्लिमू तस्लीमा'। 'सलात' का लफ़्ज़ जब 'अला' लफ़्ज़ के साथ जुड़कर आता है तो उसके तीन मतलब होते हैं। एक, किसी पर माइल होना, उसकी तरफ़ मुहब्बत के साथ ध्यान देना और उसपर झुकना। दूसरा, किसी की तारीफ़ करना। तीसरा, किसी के हक़ में दुआ करना। यह लफ़्ज़ जब अल्लाह तआला के लिए बोला जाएगा तो ज़ाहिर है कि तीसरे मानी में नहीं हो सकता, क्योंकि अल्लाह का किसी और से दुआ करने के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता। इसलिए ज़रूर वह पहले दो मानी में होगा। लेकिन जब यह लफ़्ज़ बन्दों के लिए बोला जाएगा, चाहे वे फ़रिश्ते हों या इनसान, तो वह तीनों मानी में होगा। इसमें मुहब्बत का मतलब भी शामिल होगा, तारीफ़ का मतलब भी और रहमत की दुआ का मतलब भी। लिहाज़ा ईमानवालों को नबी (सल्ल०) के हक़ में 'सल्लू अलैहि' का हुक्म देने का मतलब यह है कि तुम उनके दीवाने हो जाओ, उनकी तारीफ़ करो और उनके लिए दुआ करो। 'सलाम' का लफ़्ज़ भी दो मतलब रखता है। एक, हर तरह की आफ़तों और ख़राबियों से बचे रहना, जिसके लिए हम उर्दू और हिन्दी में 'सलामती' का लफ़्ज़ बोलते हैं। दूसरा अम्न व सुकून की हालत और मौजूद दुश्मनी से हिफ़ाज़त। इसलिए नबी (सल्ल०) के हक़ में 'सल्लिमू तस्लीमा' कहने का एक मतलब यह है कि तुम उनके हक़ में पूरी सलामती की दुआ करो और दूसरा मतलब यह है कि तुम पूरी तरह दिल और जान से उनका साथ दो, उनकी मुख़ालफ़त से बचो और उनके सच्चे फ़रमाँबरदार बनकर रहो। यह हुक्म जब उतरा तो कई सहाबा (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल, सलाम का तरीक़ा तो आप हमें बता चुके हैं (यानी नमाज़ में “अस्सलामु अलै-क अय्युहन-नबीयु व रहमतुल्लाहि व ब-रकातुहू’ और मुलाक़ात के वक़्त “अस्सलामु अलैकुम या रसूलल्लाह” कहना) मगर आप (सल्ल०) पर सलात भेजने का तरीक़ा क्या है? इसके जवाब में नबी (सल्ल०) ने बहुत से लोगों को अलग-अलग मौक़ों पर जो दुरूद सिखाए हैं वे हम नीचे नक़्ल करते हैं— कअब-बिन-उजरा (रज़ि०)— “अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद कमा सल्लै-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद, व बारिक अला मुहम्मदिवँ व अला आलि मुहम्मद, कमा बारक-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद। यह दुरूद थोड़े-थोड़े लफ़ज़ी फ़र्क़ के साथ हज़रत क़अब-बिन-उजरा (रज़ि०) से बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा, इमाम अहमद, इब्ने-अबी-शैबा, अब्दुरज़्ज़ाक़, इब्ने-अबी-हातिम और इब्ने-जरीर ने रिवायत किया है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०)— इनसे भी बहुत थोड़े-से फ़र्क़ के साथ वही दुरूद रिवायत हुआ है जो ऊपर नक़्ल हुआ है। (हदीस : इब्ने-जरीर) अबू-हुमैद साइदी (रज़ि०)— “अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अज़वाजिही व ज़ुर्रिय्यातिही कमा सल्लै-त अला इबराही-म व बारिक अला मुहम्मदिवँ व अज़वाजिही व ज़ुर्रिय्यातिही कमा बारक-त अला आलि इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद।" (हदीस : मालिक, अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा) अबू-सईद बद्री (रज़ि०)— “अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद कमा सल्लै-त अला इबराही-म व अला आलि इबराही-म व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद कमा बारक-त अला बराही-म फ़िल-आलमी-न इन्न-क हमीदुम-मजीद।" (मालिक, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, अहमद, इब्ने-जरीर, इब्ने-हिब्बान, हाकिम) अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०)— “अल्लाहुम-म सल्लि अला अब्दि-क व रसूलि-क कमा सल्लै-त अला इबराही-म व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा बारक-त अला इबराहीम।" (हदीस : अहमद, बुख़ारी, नसई, इब्ने-माजा) बुरैदा अल-ख़ुज़ाई— "अल्लाहुम्मजअल सलात-क व रह-म-त-क व ब-रकाति-क अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा जअल-तहा अला इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद।" (हदीस : अहमद, अब्द-बिन-हमीद, इब्ने-मरदुवैह) अबू-हुरैरा (रज़ि०)— “अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा सल्लै-त व बारक-त अला इबराही-म व आलि इबराही-म फ़िल- आलमी-न इन्न-क हमीदुम-मजीद।” (हदीस : नसई) तलहा (रज़ि०)— अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मदिव व अला आलि मुहम्मद, कमा सल्लै-त अला इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद, व बारिक अला मुहम्मदिंव व अला आलि मुहम्मद, कमा बारक-त अला इबराही-म इन्न-क हमीदुम-मजीद।" (हदीस : इब्ने-जरीर) ये तमाम दुरूद अलफ़ाज़ के अलग-अलग होने के बावुजूद मतलब में एक जैसे हैं। इनके अन्दर कुछ अहम नुकते (बिन्दु Points) हैं जिन्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए— सबसे पहले, इन सबमें नबी (सल्ल०) ने मुसलमानों से फ़रमाया है कि मुझपर दुरूद भेजने का बेहतरीन तरीक़ा यह है कि तुम अल्लाह तआला से दुआ करो कि ऐ अल्लाह, तू मुहम्मद पर दुरूद भेज। नादान लोग जिन्हें मतलब जानने की समझ नहीं है इसपर फ़ौरन यह एतिराज़ जड़ देते हैं कि यह तो अजीब बात हुई, अल्लाह तआला तो हमसे फ़रमा रहा है कि तुम मेरे नबी पर दुरूद भेजो, मगर हम उलटा अल्लाह से कहते हैं कि तू दुरूद भेज। हालाँकि अस्ल में इस तरह नबी (सल्ल०) ने लोगों को यह बताया है कि तुम मुझपर 'सलात' का हक़ अदा करना चाहो भी तो नहीं कर सकते, इसलिए अल्लाह ही से दुआ करो कि वह मुझपर सलात करे। ज़ाहिर बात है कि हम नबी (सल्ल०) के मर्तबे बुलन्द नहीं कर सकते। अल्लाह ही बुलन्द कर सकता है। हम नबी (सल्ल०) के एहसानों का बदला नहीं दे सकते। अल्लाह ही उनका बदला दे सकता है। हम नबी (सल्ल०) के ज़िक को बुलन्द करने के लिए और आप (सल्ल०) के दीन को फैलाने के लिए चाहे कितनी ही कोशिशें करें, अल्लाह की मेहरबानी और उसकी मदद और ताईद के बिना उसमें कोई कामयाबी नहीं हो सकती, यहाँ तक कि नबी (सल्ल०) की मुहब्बत और अक़ीदत (श्रद्धा) भी हमारे दिल में अल्लाह ही की मदद से बैठ सकती है वरना शैतान न जाने कितने बुरे ख़यालात दिल में डालकर हमें आप (सल्ल०) से फेर सकता है। अल्लाह हमें इससे बचाए रखे। लिहाज़ा नबी (सल्ल०) पर 'सलात' का हक़ अदा करने की कोई शक्ल इसके सिवा नहीं है कि अल्लाह से आप (सल्ल०) पर सलात की दुआ की जाए। जो शख़्स 'अल्लाहुम-म सल्लि अला मुहम्मद' कहता है, वह मानो अल्लाह के सामने अपनी बेचारगी को क़ुबूल करते हुए अर्ज करता है कि 'ऐ अल्लाह, तेरे नबी पर सलात का जो हक़ है, उसे अदा करना मेरे बस में नहीं है, तू ही मेरी तरफ़ से इसको अदा कर और मुझसे इसके अदा करने में जो ख़िदमत चाहे ले ले। दूसरे, नबी (सल्ल०) की मेहरबान तबीअत और कुशादा दिली ने यह गवारा न किया कि अकेले अपनी ही ज़ात को इस दुआ के लिए ख़ास कर लें, बल्कि अपने साथ अपनी 'आल' और 'अज़वाज' (बीवियों) और 'ज़ुर्रियत' (नस्ल) को भी आप (सल्ल०) ने शामिल कर दिया। 'अज़वाज' और 'जुर्रियत' का मतलब तो ज़ाहिर है। रहा 'आल' का लफ़्ज़ तो वह सिर्फ़ नबी (सल्ल०) के ख़ानदानवालों के लिए ख़ास नहीं है, बल्कि इसमें वे सब लोग आ जाते हैं जो आप (सल्ल०) की पैरवी करनेवाले हों और आप (सल्ल०) के तरीक़े पर चलें। अरबी ज़बान के मुताबिक़ 'आल' और 'अहल' में फ़र्क़ यह है कि किसी शख़्स की आल वे सब लोग समझे जाते हैं जो उसके साथी, मददगार और पैरोकार हों, चाहे वे उसके रिश्तेदार हों या न हों और किसी शख़्स के अहल वे सब लोग कहे जाते हैं जो उसके रिश्तेदार हों, चाहे उसके साथी और पैरोकार हों या न हों। क़ुरआन मजीद में चौदह (14) जगहों पर आले-फ़िरऔन का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है और उनमें से किसी जगह भी आल से मुराद सिर्फ़ फ़िरऔन के ख़ानदानवाले नहीं हैं, बल्कि वे सब लोग हैं जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के मुक़ाबले में उसके साथी थे। (मिसाल के तौर पर देखिए; सूरा-2 बक़रा, आयतें—49, 50; सूरा-3 आले इमरान, आयत-11; सूरा-7 आराफ़, आयत-130; सूरा-40 मोमिन, आयत-46)। इसलिए आले-मुहम्मद से हर वह शख़्स बाहर है जो मुहम्मद (सल्ल०) के तरीक़े पर न हो, चाहे वह रसूल के ख़ानदान ही का एक शख़्स हो और इसमें हर वह आदमी दाख़िल है जो नबी (सल्ल०) के नक़्शे-क़दम पर चलता हो, चाहे वह नबी (सल्ल०) से कोई दूर का भी नसबी ताल्लुक़ न रखता हो। अलबत्ता रसूल के ख़ानदान के वे लोग पहले दरजे में आले-मुहम्मद हैं जो आप (सल्ल०) से ख़ानदानी ताल्लुक़ भी रखते हैं और आप (सल्ल०) की पैरवी करनेवाले भी हैं। तीसरे, हर दुरूद जो नबी (सल्ल०) ने सिखाया है, उसमें यह बात ज़रूर शामिल है कि आप (सल्ल०) पर वैसी ही मेहरबानी की जाए जैसी इबराहीम (अलैहि०) और आले-इबराहीम पर की गई है। इस बात को समझने में लोगों को बड़ी मुश्किल पेश आई है। इसके अलग-अलग मतलब आलिमों ने बयान किए हैं। मगर उनमें से कोई मतलब दिल को नहीं लगता। मेरे नज़दीक सही मतलब यह है (वैसे अल्लाह ही बेहतर जानता है) कि अल्लाह तआला ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) पर एक ख़ास मेहरबानी की है जो आज तक किसी पर नहीं की और वह यह है कि तमाम वे इनसान जो नुबूवत (पैग़म्बरी) और वह्य और किताब को हिदायत का ज़रिआ मानते हैं, वे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की पेशवाई पर एकमत हैं, चाहे वे मुसलमान हों या ईसाई या यहूदी। लिहाज़ा नबी (सल्ल०) के कहने का मक़सद यह है कि जिस तरह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) पर अल्लाह तआला ने यह ख़ास मेहरबानी की कि तमाम नबियों (अलैहि०) के पैरोकार उनको अपना पेशवा मानते हैं, इसी तरह मुझे भी बना दे और कोई ऐसा शख़्स जो नुबूवत (ख़ुदा के पैग़म्बर) का माननेवाला हो, मेरी नुबूवत पर ईमान लाने से महरूम (वंचित) न रह जाए। यह बात कि नबी (सल्ल०) पर दुरूद भेजना इस्लाम की सुन्नत है, जब आप (सल्ल०) का नाम आए उसका पढ़ना मुस्तहब (पसन्दीदा) है और ख़ास तौर से नमाज़ में इसका पढ़ना सुन्नत है, इसपर तमाम आलिम एकमत हैं। इस बात को भी सभी मानते हैं कि उम्र में एक बार नबी (सल्ल०) पर दुरूद भेजना फ़र्ज़ है, क्योंकि अल्लाह तआला ने साफ़ अलफ़ाज़ में इसका हुक्म दिया है। लेकिन इसके बाद दुरूद के मसले में आलिमों के बीच इख़्तिलाफ़ पाया जाता है। इमाम शाफ़िई (रह०) इस बात को मानते हैं कि नमाज़ में आख़िरी बार जब आदमी 'तशहहुद' (अत्तहिय्यातु लिल्लाहि०.....) पढ़ता है, उसमें 'सलातु अलन-नबी' पढ़ना फ़र्ज़ है, अगर कोई शख़्स न पढ़ेगा तो नमाज़ न होगी। सहाबा (रज़ि०) में से इब्ने-मसऊद (रज़ि०), अबू-मसऊद अनसारी (रज़ि०), इब्ने-उमर (रज़ि०) और जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०), ताबिईन में से शअबी, इमाम मुहम्मद बाक़र, मुहम्मद कअब-बिन-क़ुरज़ी और मुक़ातिल-बिन-हय्यान और फ़क़ीहों में से इसहाक़-बिन-राहवया का भी यही मसलक था और आख़िर में इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) ने भी इसी को अपनाया था। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), इमाम मालिक (रज़ि०) और ज़्यादा तर आलिमों की राय यह है कि दुरूद उम्र में सिर्फ़ एक बार पढ़ना फ़र्ज़ है। यह कलिमा-ए-शहादत की तरह है कि जिसने एक बार अल्लाह के अकेला माबूद होने और रसूल (सल्ल०) की पैग़म्बरी का इक़रार कर लिया, उसने फ़र्ज़ अदा कर दिया। इसी तरह जिसने एक बार दुरूद पढ़ लिया, उसने 'सलातु 'अलन-नबी' का फ़र्ज़ अदा कर दिया। इसके बाद न कलिमा पढ़ना फ़र्ज़ है, न दुरूद। आलिमों और फ़क़ीहों का एक और गरोह नमाज़ में इसका पढ़ना पूरी तरह वाजिब ठहराता है। मगर 'तशहहुद' के साथ इसको क़ैद नहीं करता। एक-दूसरे गरोह के नज़दीक हर दुआ में इसका पढ़ना वाजिब है। कुछ और लोग यह मानते हैं कि जब भी नबी (सल्ल०) का नाम आए, दुरूद पढ़ना वाजिब है और एक गरोह के नज़दीक एक मजलिस में नबी का ज़िक्र चाहे कितनी ही बार आए, दुरूद पढ़ना बस एक बार ही वाजिब है। यह इख़्तिलाफ़ सिर्फ़ वाजिब होने के मामले में है। बाक़ी रही दुरूद की फ़ज़ीलत (श्रेष्ठता) और उसका इनाम और सवाब का सबब होना और उसका एक बहुत बड़ी नेकी होना, तो इसपर सारी उम्मत एकराय है। इसमें किसी ऐसे शख़्स को एतिराज़ नहीं हो सकता जिसमें ज़रा भी ईमान पाया जाता हो। दुरूद तो फ़ितरी तौर पर हर उस मुसलमान के दिल से निकलेगा जिसे यह एहसास हो कि मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह तआला के बाद हमारे सबसे बड़े मुहसिन (उपकारक) हैं। इस्लाम और ईमान की जितनी क़द्र इनसान के दिल में होगी, उतनी ही ज़्यादा क़द्र उसके दिल में नबी (सल्ल०) के एहसानों की भी होगी और जितना ज़्यादा आदमी उन एहसानों की क़द्र करनेवाला होगा, उतना ही ज़्यादा वह नबी (सल्ल०) पर दुरूद भेजेगा, तो हक़ीक़त में दुरूद का ज़्यादा से ज़्यादा भेजा जाना एक पैमाना है जो नापकर बता देता है कि मुहम्मद (सल्ल०) के दीन से एक आदमी कितना गहरा ताल्लुक़ रखता है और ईमान की नेमत की कितनी क़द्र उसके दिल में है। इसी वजह से नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स मुझपर दुरूद भेजता है, फ़रिश्ते उसपर दुरूद भेजते रहते हैं जब तक वह मुझपर दुरूद भेजता रहे।” (हदीस अहमद, इब्ने-माजा) और “जो मुझपर एक बार दुरूद भेजता है अल्लाह उसपर दस बार दुरूद भेजता है।” (हदीस मुस्लिम) “क़ियामत के दिन मेरे साथ रहने का सबसे ज़्यादा हक़दार वह होगा जो मुझपर सबसे ज़्यादा दुरूद भेजेगा।” (हदीस : तिरमिज़ी)। “कंजूस है वह शख़्स जिसके सामने मेरा ज़िक्र किया जाए और वह मुझपर दुरूद न भेजे।” (हदीस : तिरमिज़ी) नबी (सल्ल०) के सिवा दूसरों के लिए 'अल्लाहुम-म सल्लि अला फ़ुलानि' या 'सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम—’ या इसी तरह के दूसरे अलफ़ाज़ के साथ 'सलात' जाइज़ है या नहीं, इसमें आलिमों के रायें अलग-अलग हैं। एक गरोह जिसमें क़ाज़ी अयाज़ सबसे ज़्यदा नुमायाँ हैं, इसे पूरी तरह जाइज़ रखता है। इन लोगों की दलील यह है कि क़ुरआन में अल्लाह तआला ने ख़ुद कई जगहों पर नबियों के अलावा दूसरों पर साफ़ अलफ़ाज़ में 'सलात' की है। मिसाल के तौर पर, “ये वे लोग हैं जिनपर उनके रब की तरफ़ से 'स-ल-वात' हैं और रहमत भी।” (सूरा-2 बक़रा, आयत 157) “तुम उनके मालों में से सदक़ा लेकर उन्हें पाक करो और (नेकी की राह में) उन्हें बढ़ाओ और उनके हक़ में रहमत की दुआ (सल्लि अलैहिम) करो।” (सूरा-9 तौबा, आयत-103)। “वही है जो तुमपर रहमत करता है (युसल्ली) और उसके फ़रिश्ते भी (रहमत की दुआ करते हैं)।” (सूरा-33 अहज़ाब, आयत-43)। इसी तरह नबी (सल्ल०) ने भी कई मौक़ों पर लफ़्ज़ 'सलात' के साथ नबियों के अलावा दूसरों को दुआ दी है। मसलन एक सहाबी के लिए आपने दुआ की कि “अल्लाहुम-म सल्लि अला आलि-अबी-औफ़ा” (ऐ अल्लाह अबू-औफ़ा की आल पर मेहरबानी कर)। हज़रत जाबिर-बिन- अब्दुल्लाह की बीवी की दरख़ास्त पर फ़रमाया, “सल्लल्लाहु अलैकि व अला ज़ौजिकि” (अल्लाह तुमपर और तुम्हारे शौहर पर मेहरबानी करे)। जो लोग ज़कात लेकर हाज़िर होते उनके हक़ में आप (सल्ल०) फ़रमाते, “अल्लाहुम-म सल्लि अलैहिम” (ऐ अल्लाह इनपर मेहरबानी कर)। हज़रत सअद-बिन-उबादा (रज़ि०) के हक़ में आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाहुम-मजअल स-ल-वातु-क व रहमति-क अला आलि सअद-बिन-उबादा।” (ऐ अल्लाह, सअद-बिन-उबादा की आल पर मेहरबानी और रहमत कर) और मोमिन की रूह के बारे में नबी (सल्ल०) ने ख़बर कि फ़रिश्ते उसके हक़ में दुआ करते हैं “सल्लल्लाहु अलै-क व अला जसदि-क” (अल्लाह की मेहरबानी हो तुझपर और तेरे जिस्म पर)। ज़्यादा तर आलिमों के नज़दीक ऐसा करना अल्लाह और उसके रसूल के लिए तो दुरुस्त था, मगर हमारे लिए दुरुस्त नहीं है। वे कहते हैं कि अब यह मुसलमानों की पहचान और आदत बन चुकी है कि वे 'सलात व सलाम' को पैग़म्बरों (अलैहि०) के लिए ख़ास करते हैं, इसलिए दूसरों के लिए इसके इस्तेमाल से बचना चाहिए। इसी वजह से हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) ने एक बार अपने एक आमिल (गवर्नर) को लिखा था कि “मैंने सुना है कि लोगों को नसीहत करनेवाले कुछ लोगों ने यह नया तरीक़ा शुरू किया है कि वे नबी पर 'सलात' भेजने की तरह अपने सरपरस्तों और हिमायतियों के लिए भी 'सलात' का लफ़्ज़ इस्तेमाल करने लगे हैं। मेरा यह ख़त पहुँचने के बाद उन लोगों को इस बात से रोक दो और उन्हें हुक्म दो कि वे 'सलात' को नबियों के लिए ख़ास रखें और दूसरे मुसलमानों के हक़ में सिर्फ़ दुआ करें।” (रूहुल-मआनी)। ज़्यादा तर आलिमों का यह मसलक भी है कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा किसी नबी के लिए भी ‘सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम' के अलफ़ाज़ का इस्तेमाल दुरुस्त नहीं है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ لَعَنَهُمُ ٱللَّهُ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَأَعَدَّ لَهُمۡ عَذَابٗا مُّهِينٗا ۝ 53
(57) जो लोग अल्लाह और उसके रसूल को तकलीफ़ देते हैं, उनपर दुनिया और आख़िरत में अल्लाह ने लानत की है और उनके लिए रुसवा करनेवाला अज़ाब तैयार कर दिया है।108
108. अल्लाह को तकलीफ़ देने से मुराद दो चीज़ें हैं। एक यह कि उसकी नाफ़रमानी की जाए, उसके मुक़ाबले में कुफ़्र और शिर्क और नास्तिकता का रवैया अपनाया जाए और उसके हराम को हलाल कर लिया जाए। दूसरी यह कि उसके रसूल (सल्ल०) को तकलीफ़ दी जाए, क्योंकि जिस तरह रसूल का हुक्म मानना अल्लाह का हुक्म मानना है, उसी तरह रसूल को बुरा-भला कहना ख़ुदा को बुरा-भला कहना है, रसूल की मुख़ालफ़त ख़ुदा की मुख़ालफ़त है और रसूल की नाफ़रमानी ख़ुदा की नाफ़रमानी है।
وَٱلَّذِينَ يُؤۡذُونَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِ بِغَيۡرِ مَا ٱكۡتَسَبُواْ فَقَدِ ٱحۡتَمَلُواْ بُهۡتَٰنٗا وَإِثۡمٗا مُّبِينٗا ۝ 54
(58) और जो लोग ईमानवाले मर्दों और औरतों को बेक़ुसूर तकलीफ़ देते हैं उन्होंने एक बड़े बुहतान (झूठे इलज़ाम)109 और खुले गुनाह का बोझ अपने सर ले लिया है।
109. यह आयत बता देती है कि बुहतान किसे कहते हैं, यानी जो ऐब आदमी में न हो, या जो क़ुसूर आदमी ने न किया हो, वह उससे जोड़ देना। नबी (सल्ल०) ने भी इसको बयान किया है। अबू-दाऊद और तिरमिज़ी की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) से पूछा गया कि “ग़ीबत क्या है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तेरा अपने भाई का ज़िक्र इस तरह करना जो उसे नागवार हो।” पूछा गया, “और अगर मेरे भाई में वह ऐब मौजूद हो?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अगर वह ऐब उसमें मौजूद है जो तूने बयान किया तो तूने उसकी ग़ीबत की और अगर वह उसमें मौजूद नहीं है तो तूने उसपर बुहतान लगाया।” यह हरकत सिर्फ़ एक अख़लाक़ी गुनाह ही नहीं है, जिसकी सज़ा आख़िरत में मिलनेवाली हो, बल्कि इस आयत का तक़ाज़ा यह है कि इस्लामी हुकूमत के क़ानून में भी झूठे इलज़ाम लगाने को सज़ा के क़ाबिल जुर्म क़रार दिया जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ قُل لِّأَزۡوَٰجِكَ وَبَنَاتِكَ وَنِسَآءِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ يُدۡنِينَ عَلَيۡهِنَّ مِن جَلَٰبِيبِهِنَّۚ ذَٰلِكَ أَدۡنَىٰٓ أَن يُعۡرَفۡنَ فَلَا يُؤۡذَيۡنَۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمٗا ۝ 55
(59) ऐ नबी! अपनी बीवियों और बेटियों और ईमानवालों की औरतों से कह दो कि अपने ऊपर अपनी चादरों के पल्लू लटका लिया करें।110 यह ज़्यादा मुनासिब तरीक़ा है ताकि वे पहचान ली जाएँ और न सताई जाएँ।111 अल्लाह तआला माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।112
110. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, “युदनी-न अलैहिन-न मिन् जलाबीबिहिन-न” (वे लटका लिया करें अपने ऊपर अपनी चादरों को)। 'जिलबाब' अरबी ज़बान में बड़ी चादर को कहते हैं और 'इदना' का अस्ल मतलब क़रीब करना और लपेट लेना है, मगर जब इसके साथ 'अला' का 'सिला' (जोड़नेवाला लफ़्ज़) आए तो उसमें 'इरख़ा' यानी ऊपर से लटका लेने का मतलब पैदा हो जाता है। मौजूदा ज़माने के कुछ लोग, जिन्होंने क़ुरआन का तर्जमा और उसकी तफ़सीर लिखी है, मग़रिबी रुझान के असर में आकर इस लफ़्ज़ का तर्जमा सिर्फ़ 'लपेट लेना' करते हैं, ताकि किसी तरह चेहरा छिपाने के हुक्म से बच निकला जाए। लेकिन अल्लाह तआला का मक़सद अगर वही होता जो ये लोग बयान करना चाहते हैं तो वह ‘युदनी-न इलैहिन-न (लपेट लें अपने आस-पास) फ़रमाता। जो शख़्स भी अरबी ज़बान जानता हो वह कभी यह नहीं मान सकता कि 'युदनी-न अलैहिन-न' का मतलब सिर्फ़ लपेट लेना हो सकता है। इसके अलावा 'मिन् जलाबीबिहिन-न' (अपनी चादरों में से) के अलफ़ाज़ यह मतलब निकालने में और ज़्यादा रुकावट हैं। ज़ाहिर है कि यहाँ लफ़्ज़ 'मिन्' 'से' के मानी में आया है, यानी चादर का एक हिस्सा और यह भी ज़ाहिर है कि लपेटी जाएगी तो पूरी चादर लपेटी जाएगी, न कि उसका सिर्फ़ एक हिस्सा। इसलिए आयत का साफ़ मतलब यह है कि औरतें अपनी चादरें अच्छी तरह ओढ़-लपेटकर उनका एक हिस्सा, या उनका पल्लू अपने ऊपर से लटका लिया करें, जिसे आम ज़बान में घूँघट डालना कहते हैं। यही मतलब नबी (सल्ल०) के ज़माने से सबसे क़रीब ज़माने के क़ुरआन के बड़े आलिम (तफ़सीर लिखनेवाले) बयान करते हैं। इब्ने-जरीर और इब्नुल-मुंज़िर की रिवायत है कि मुहम्मद-बिन-सीरीन (रह०) ने हज़रत उबैदतुस-सलमानी से इस आयत का मतलब पूछा। (यह हज़रत उबैदा नबी सल्ल० के ज़माने में मुसलमान हो चुके थे, मगर आप (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर न हो सके थे। हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में मदीना आए और वहीं के होकर रह गए। उन्हें इस्लामी क़ानून के मुताबिक़ फ़ैसला करने में क़ाज़ी शुरैह (रह०) के बराबर माना जाता था)। उन्होंने जवाब में कुछ कहने के बजाय अपनी चादर उठाई और उसे इस तरह ओढ़ा कि पूरा सर और माथा और पूरा मुँह ढाँककर सिर्फ़ एक आँख खुली रखी। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) भी क़रीब-क़रीब यही तफ़सीर करते हैं। उनके जो क़ौल (कथन) इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम और इब्ने-मरदुवैह ने नक़्ल किए हैं, उनमें वे कहते हैं, “अल्लाह तआला ने औरतों को हुक्म दिया है कि जब वे किसी काम के लिए घरों से निकलें तो अपनी चादरों के पल्लू ऊपर से डालकर अपना मुँह छिपा लें और सिर्फ़ आँखें खुली रखें।” यही तफ़सीर क़तादा और सुद्दी ने भी इस आयत की बयान की है। सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन के दौर के बाद जितने बड़े-बड़े तफ़सीर लिखनेवाले इस्लाम के इतिहास में गुज़रे हैं, उन्होंने एक राय होकर इस आयत का यही मतलब बयान किया है। इमाम इब्ने-जरीर तबरी कहते हैं, “युदनी-न अलैहिन-न मिन् जलाबीबिहिन-न-यानी शरीफ़ औरतें अपने लिबास में लौंडियों से मिलती-जुलती बनकर घरों से न निकलें कि उनके चेहरे और सर के बाल खुले हुए हों, बल्कि उन्हें चाहिए कि अपने ऊपर अपनी चादरों का एक हिस्सा लटका लिया करें, ताकि कोई फ़ासिक़ (शरारती) उनको छेड़ने की जुरअत न करे।" (जामिउल-बयान, हिस्सा-22, पे॰ 33) अल्लामा अबू-बक्र जस्सास कहते हैं, “यह आयत इस बात की दलील देती है कि जवान औरत को अजनबियों से अपना चेहरा छिपाने का हुक्म है और उसे घर से निकलते वक़्त सतर और पाकबाज़ी का इज़हार करना चाहिए, ताकि ग़लत सीरत और किरदार के लोग उसे देखकर किसी लालच में मुब्तला न हों।” (अहकामुल-क़ुरआन, हिस्सा-3, पे० 458) अल्लामा जमख़शरी कहते हैं, “युदनी-न अलैहिन-न मिन् जलाबीबिहिन-न”— यानी वे अपने ऊपर अपनी चादरों का एक हिस्सा लटका लिया करें और उससे अपने चेहरे और अपने चारों तरफ़ अच्छी तरह ढाँक लें।” (अल-कश्शाफ़, हिस्सा-2, पे० 221) अल्लामा निज़ामुद्दीन नीशापुरी कहते हैं, “युदनी-न अलैहिन-न मिन् जलाबीबिहिन-न”— यानी अपने ऊपर चादर का एक हिस्सा लटका लें। इस तरह औरतों को सर और चेहरा ढाँकने का हुक्म दिया गया है।” (ग़राइबुल-क़ुरआन, हिस्सा-22, पे० 32) इमाम राज़ी कहते हैं, “इसका मक़सद यह है कि लोगों को मालूम हो जाए कि ये बदकार औरतें नहीं हैं, क्योंकि जो औरत अपना चेहरा छिपाएगी, हालाँकि चेहरा सतर (छिपाने लायक़ हिस्सों) में दाख़िल नहीं है, उससे कोई शख़्स यह उम्मीद नहीं कर सकता कि वह अपना सतर ग़ैर के सामने खोलने पर राज़ी होगी। इस तरह हर शख़्स जान लेगा कि ये परदेवाली और हैं, इनसे बदकारी की उम्मीद नहीं की जा सकती।” (तफ़सीरे-कबीर, हिस्सा-6, पे० 591) इसी सिलसिले में एक और बात जो इस आयत से निकलती है, वह यह है कि इससे नबी (सल्ल०) की कई बेटियाँ साबित होती हैं, क्योंकि अल्लाह तआला फ़रमा रहा है, “ऐ नबी, अपनी बीवियों और बेटियों से कहो।” ये अलफ़ाज़ उन लोगों की बात को पूरे तौर पर रद्द कर देते हैं जो अल्लाह से निडर होकर बेझिझक यह दावा करते हैं कि नबी (सल्ल०) की सिर्फ़ एक बेटी हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) थीं और बाक़ी बेटियाँ नबी (सल्ल०) की अपनी सगी बेटियाँ न थीं, बल्कि हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के पहले शौहर से थीं। ये लोग तास्सुब में अंधे होकर यह भी नहीं सोचते कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की औलाद के नसब (वंश) का इनकार करके वे कितना बड़ा जुर्म कर रहे हैं और इसकी कैसी सख़्त जवाबदेही उन्हें आख़िरत में करनी होगी। तमाम भरोसेमन्द रिवायतें इस बात पर एक राय हैं कि हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के पेट से नबी (सल्ल०) की सिर्फ़ एक बेटी हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) ही न थीं, बल्कि तीन और बेटियाँ भी थीं। नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी के हालात लिखनेवालों में सबसे पुराने मुहम्मद-बिन-इसहाक़ हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) से नबी (सल्ल०) के निकाह का ज़िक्र करने के बाद कहते हैं, “इबराहीम (रज़ि०) के सिवा नबी (सल्ल०) की तमाम औलाद इन्हीं के पेट से हुईं और उनके नाम ये हैं— कासिम, ताहिर, तय्यिब और ज़ैनब, रुक़य्या, उम्मे-कुलसूम और फ़ातिमा।” (सीरत इब्ने-हिशाम, हिस्सा-1, पे० 202)। अनसाब (वंशावली) के मशहूर माहिर हिशाम-बिन-मुहम्मद-बिन-अस्साइब कल्बी का बयान है कि “मक्का में नुबूवत से पहले नबी (सल्ल०) के यहाँ सबसे पहले क़ासिम पैदा हुए, फिर ज़ैनब (रज़ि०), फिर रुक़य्या (रज़ि०), फिर उम्मे-कुलसूम।” (तबक़ाते-इब्ने-सअद, हिस्सा-1, पे० 133)। इब्ने-हज़्म ने 'जवामिउस-सीरत' में लिखा है कि हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के पेट से नबी (सल्ल०) की चार बेटियाँ थीं, सबसे बड़ी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०), उनसे छोटी रुकय्या (रज़ि०), उनसे छोटी फ़ातिमा (रज़ि०) और उनसे छोटी उम्मे-कुलसूम (रज़ि०) (पे० 38-39)। तबरी, इब्ने-सअद, अबू-जाफ़र मुहम्मद-बिन-हबीब ‘अल-मुजर्र' किताब के लेखक और 'अल-इस्तीआब' किताब के लेखक इब्न-अब्दुल-बर्र, भरोसेमन्द हवालों से बयान करते हैं कि नबी (सल्ल०) से पहले हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) के दो शौहर गुज़र चुके थे। एक अबू-हाला तमीमी जिससे उनके यहाँ हिन्द-बिन-अबू-हाला पैदा हुए। दूसरे अतीक़-बिन-आइज़ मख़ज़ूमी जिससे उनके यहाँ एक लड़की हिन्द पैदा हुई। उनके शौहर के इन्तिक़ाल के बाद उनका निकाह नबी (सल्ल०) से हुआ और अनसाब (वंशावली) के माहिर सभी जानकार इस बात पर एकराय हैं कि नबी (सल्ल०) से ख़दीजा (रज़ि०) के यहाँ वे चार बेटियाँ पैदा हुईं जिनके नाम ऊपर बयान हुए हैं। (देखिए— तबरी, हिस्सा-2, पे० 411; तबक़ाते-इब्ने-सअद, हिस्सा-8, पे० 14-16; किताब अल-मुहब्बर, पे० 78, 79, 452; अल-इस्तीआब, हिस्सा-2, पे० 718)। इन तमाम बयानों को क़ुरआन मजीद का यह साफ़ बयान बिलकुल पक्का सुबूत बना देता है कि नबी (सल्ल०) की एक ही बेटी न थीं, बल्कि कई बेटियाँ थीं।
111. 'पहचान ली जाएँ’ से मुराद यह है कि उनको इस सादा और हयादार लिबास में देखकर हर देखनेवाला जान ले कि वे शरीफ़ और इज़्ज़तदार औरतें हैं, आवारा और खिलाड़ी नहीं हैं कि कोई बदकार इनसान उनसे अपने दिल की तमन्ना पूरी करने की उम्मीद कर सके। 'न सताई जाएँ' से मुराद यह है कि उनसे छेड़-छाड़ न की जाए। इस जगह पर ज़रा ठहरकर यह समझने की कोशिश कीजिए कि क़ुरआन का यह हुक्म और हुक्म का वह बड़ा मक़सद जो अल्लाह तआला ने ख़ुद बयान कर दिया है, इस्लामी सामाजिक क़ानून की क्या रूह ज़ाहिर कर रहा है। इससे पहले सूरा-24 नूर, आयत-31 में यह हिदायत गुज़र चुकी है कि औरतें अपने साज-सिंगार को फ़ुलाँ-फ़ुलाँ क़िस्म के मर्दों और औरतों के सिवा किसी के सामने ज़ाहिर न करें, “और ज़मीन पर पाँव मारती हुई भी न चलें कि लोगों को उस सिंगार का पता चला जाए जो उन्होंने छिपा रखा है।” उस हुक्म के साथ अगर सूरा-33 अहज़ाब की इस आयत को मिलाकर पढ़ा जाए तो साफ़ मालूम हो जाता है कि यहाँ चादर ओढ़ने का जो हुक्म दिया गया है उसका मंशा अजनबियों से साज-सिंगार छिपाना ही है और ज़ाहिर है कि यह मंशा इसी सूरत में पूरा हो सकता है जबकि चादर अपने आपमें सादा हो, वरना एक चमक-दमकवाला और दिलकश कपड़ा लपेट लेने से तो यह मक़सद उलटा और ख़त्म हो जाएगा। इसपर यह और भी कि अल्लाह तआला सिर्फ़ चादर लपेटकर सिंगार छिपाने ही का हुक्म नहीं दे रहा है, बल्कि यह भी फ़रमा रहा है कि औरतें चादर का एक हिस्सा अपने ऊपर से लटका लिया करें। कोई समझदार आदमी इस कहने का मतलब इसके सिवा कुछ नहीं ले सकता कि इसका मक़सद घूँघट डालना है ताकि जिस्म और लिबास की ख़ूबसूरती छिपने के साथ-साथ चेहरा भी छिप जाए। फिर इस हुक्म की वजह अल्लाह तआला ख़ुद यह बयान करता है कि यह वह सबसे ज़्यादा मुनासिब तरीक़ा है जिससे ये मुसलमान औरतें पहचान ली जाएँगी और सताई जाने से बची रहेंगी। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि ये हिदायत उन औरतों को दी जा रही है जो मर्दों को छेड़-छाड़ और उनके घूरने और उनकी शहवत भरी (कामुक) नज़रों से मज़े लेने के बजाय उसको अपने लिए तकलीफ़देह महसूस करती हैं, जो समाज में अपनी गिनती बाज़ारू और महफ़िल की शमा जैसी औरतों में नहीं कराना चाहतीं, बल्कि पाकबाज़ और घर का चराग़ होने की हैसियत से अपनी पहचान कराना चाहती हैं। ऐसी शरीफ़ और नेक औरतों से अल्लाह तआला फ़रमाता है कि तुम अगर सचमुच इस हैसियत से अपनी पहचान कराना चाहती हो और मर्दों की हवसनाक निगाहें हक़ीक़त में तुम्हारे लिए मज़ा देनेवाली नहीं, बल्कि तकलीफ़देह हैं तो फिर इसके लिए मुनासिब तरीक़ा यह नहीं है कि तुम ख़ूब बनाव-सिंगार करके पहली रात की दुल्हन बनकर घरों से निकलो और देखनेवालों की ललचाई हुई निगाहों के सामने अपनी ख़ूबसूरती अच्छी तरह निखार-निखारकर पेश करो, बल्कि इस ग़रज़ के लिए तो सबसे ज़्यादा मुनासिब तरीक़ा यही हो सकता है कि तुम एक सादा चादर में अपनी सारी ख़ूबसूरती और सिंगार को छिपाकर निकलो, अपने चेहरे पर घूँघट डालो और इस तरह चलो कि ज़ेवर की झंकार भी लोगों को तुम्हारी तरफ़ ध्यान देने पर मजबूर न करे। जो औरत बाहर निकलने से पहले बन-ठनकर तैयार होती है और उस वक़्त तक घर से क़दम नहीं निकालती जब तक सात सिंगार न कर ले, उसका मक़सद इसके सिवा और क्या हो सकता है कि वह दुनिया भर के मर्दों के लिए अपने आपको जन्नत-निगाह बनाना चाहती है और उन्हें ख़ुद इस बात की दावत देती है कि वे उसकी तरफ़ तवज्जोह करें। इसके बाद अगर वह यह कहती है कि देखनेवालों की भूखी निगाहें उसे तकलीफ़ देती हैं, इसके बाद अगर उसका दावा यह है कि वह 'समाज की बेगम' और 'सब लोगों की पसन्द की जानेवाली औरत' होने की हैसियत से मशहूर होना नहीं चाहती, बल्कि पाकबाज़ घर-गृहस्थिन बनकर रहना चाहती है तो यह एक धोखे के सिवा और कुछ नहीं है। इनसान के बोल उसकी नीयत तय नहीं करते, बल्कि उसकी अस्ल नीयत वह होती है जो उसका अमली रूप लेती है। लिहाज़ा जो औरत पुरकशिश बनकर ग़ैर-मर्दों के सामने जाती है, उसका यह अमल ख़ुद ज़ाहिर कर देता है कि उसके पीछे इस बात पर उभारनेवाली क्या चीज़ें काम कर रही हैं। इसी लिए फ़ितने के तलबगार लोग उससे वही उम्मीदें लगाते हैं जो ऐसी औरत से लगाई जा सकती हैं। क़ुरआन औरतों से कहता है कि तुम एक ही वक़्त में घर का चराग़ और महफ़िल की शमा दोनों नहीं बन सकती हो। घर का चराग़ बनना है तो उन तौर-तरीक़ों को छोड़ दो जो महफ़िल की शमा बनने के लिए मुनासिब हैं और जीने का वह तरीक़ा अपनाओ जो घर का चराग़ बनने में मददगार हो सकता है। किसी शख़्स की निजी राय चाहे क़ुरआन के साथ हो या उसके ख़िलाफ़ और वह क़ुरआन की हिदायत को अपने लिए अमली क़ानून की हैसियत से क़ुबूल करना चाहे या न चाहे, बहरहाल अगर वह मतलब निकालने में बेईमानी करना न चाहता हो तो वह क़ुरआन का मंशा समझने में ग़लती नहीं कर सकता। वह अगर मुनाफ़िक़ नहीं है तो साफ़-साफ़ यह मानेगा कि क़ुरआन का मंशा वही है जो ऊपर बयान किया गया है। इसके बाद जो ख़िलाफ़वर्जी भी वह करेगा, यह मानकर करेगा कि वह क़ुरआन के ख़िलाफ़ अमल कर रहा है या क़ुरआन की हिदायत को ग़लत समझता है।
112. यानी पहले जाहिलियत की हालत में जो ग़लतियाँ की जाती रही हैं, अल्लाह अपनी मेहरबानी से उनको माफ़ कर देगा, शर्त यह है कि अब साफ़-साफ़ हिदायत मिल जाने के बाद तुम अपने रवैये को सुधार लो और जान-बूझकर उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी न करो।
۞لَّئِن لَّمۡ يَنتَهِ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ وَٱلۡمُرۡجِفُونَ فِي ٱلۡمَدِينَةِ لَنُغۡرِيَنَّكَ بِهِمۡ ثُمَّ لَا يُجَاوِرُونَكَ فِيهَآ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 56
(60) अगर मुनाफ़िक़ और वे लोग जिनके दिलों में ख़राबी है,113 और वे जो मदीना में सनसनीख़ेज़ अफ़वाहें फैलानेवाले हैं,114 अपनी हरकतों से बाज़ न आए तो हम उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई करने के लिए तुम्हें उठा खड़ा करेंगे, फिर वे इस शहर में मुश्किल ही से तुम्हारे साथ रह सकेंगे।
113. “दिल की ख़राबी” से मुराद यहाँ दो क़िस्म की खराबियाँ हैं। एक यह कि आदमी अपनी गिनती मुसलमानों में कराने के बावजूद इस्लाम और मुसलमानों का बुरा चाहता हो। दूसरे यह कि आदमी बदनीयती, आवारगी और मुजरिमोंवाली ज़ेहनियत में मुब्तला हो और उसके नापाक इरादे उसकी चाल-ढाल और हरकतों से फूटे पड़ते हों।
114. इससे मुराद वे लोग हैं जो मुसलमानों में घबराहट फैलाने और उनके हौसले कमज़ोर करने के लिए आए दिन मदीना में इस तरह की ख़बरें उड़ाया करते थे कि फ़ुलाँ जगह मुसलमानों को बड़ा नुक़सान पहुँचा है और फ़ुलाँ जगह मुसलमानों के ख़िलाफ़ बड़ी ताक़त जमा हो रही है। और जल्द ही मदीना पर अचानक हमला होनेवाला है। इसके साथ उनका एक काम यह भी था कि वे नबी (सल्ल०) के ख़ानदान और शरीफ़ और इज़्ज़तदार मुसलमानों की घरेलू ज़िन्दगी के बारे में तरह-तरह की कहानियाँ गढ़ते और फैलाते थे, ताकि इससे आम लोगों में बदगुमानियाँ पैदा हों और मुसलमानों के अख़लाक़ी असर को नुक़सान पहुँचे।
مَّلۡعُونِينَۖ أَيۡنَمَا ثُقِفُوٓاْ أُخِذُواْ وَقُتِّلُواْ تَقۡتِيلٗا ۝ 57
(61) उनपर हर तरफ़ से लानत की बौछार होगी, जहाँ कहीं पाए जाएँगे, पकड़े जाएँगे और बुरी तरह मारे जाएँगे।
سُنَّةَ ٱللَّهِ فِي ٱلَّذِينَ خَلَوۡاْ مِن قَبۡلُۖ وَلَن تَجِدَ لِسُنَّةِ ٱللَّهِ تَبۡدِيلٗا ۝ 58
(62) यह अल्लाह की सुन्नत (नीति) है। जो ऐसे लोगों के मामले में पहले से चली आ रही है और तुम अल्लाह की सुन्नत में कोई बदलाव न पाओगे।'115
115. यानी यह अल्लाह की शरीअत का एक ज़ाब्ता है कि एक इस्लामी समाज और हुकूमत में इस तरह के फ़सादियों को कभी फलने-फूलने का मौक़ा नहीं दिया जाता। जब कभी किसी समाज और हुकूमत का निज़ाम ख़ुदा की शरीअत पर क़ायम होगा, उसमें ऐसे लोगों को पहले ख़बरदार कर दिया जाएगा, ताकि वे अपना रवैया बदल दें और फिर जब वे न मानेंगे तो सख़्ती के साथ उनको उखाड़ फेंका जाएगा।
يَسۡـَٔلُكَ ٱلنَّاسُ عَنِ ٱلسَّاعَةِۖ قُلۡ إِنَّمَا عِلۡمُهَا عِندَ ٱللَّهِۚ وَمَا يُدۡرِيكَ لَعَلَّ ٱلسَّاعَةَ تَكُونُ قَرِيبًا ۝ 59
(63) लोग तुमसे पूछते हैं कि क़ियामत की घड़ी कब आएगी।116 कहो: उसका इल्म तो अल्लाह ही को है। तुम्हें क्या पता, शायद कि वह क़रीब ही आ लगी हो।
116. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यह सवाल आम तौर पर इस्लाम-मुख़ालिफ़ और मुनाफ़िक़ किया करते थे और इससे उनका मक़सद जानकारी हासिल करना न था, बल्कि वे दिल्लगी और मज़ाक़ उड़ाने के तौर पर यह बात पूछा करते थे। अस्ल में उनको आख़िरत के आने का यक़ीन न था। क़ियामत के तसव्वुर (धारणा) को वे सिर्फ़ एक ख़ाली-ख़ूली धमकी समझते थे। वे क़ियामत के आने की तारीख़़ इसलिए नहीं पूछते थे कि उसके आने से पहले वे अपने मामले दुरुस्त कर लेने का इरादा रखते हों, बल्कि उनका अस्ल मतलब यह होता था कि ऐ मुहम्मद, हमने तुम्हें नीचा दिखाने के लिए यह कुछ किया है और आज तक तुम हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सके हो, अब ज़रा हमें बताओ तो सही कि आख़िर वह क़ियामत कब आएगी जब हमारी ख़बर ली जाएगी।
إِنَّ ٱللَّهَ لَعَنَ ٱلۡكَٰفِرِينَ وَأَعَدَّ لَهُمۡ سَعِيرًا ۝ 60
(64) बहरहाल यह यक़ीनी बात है कि अल्लाह ने (हक़ का) इनकार करनेवालों पर लानत की है और उनके लिए भड़कती हुई आग तैयार कर दी है
خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدٗاۖ لَّا يَجِدُونَ وَلِيّٗا وَلَا نَصِيرٗا ۝ 61
(65) जिसमें वे हमेशा रहेंगे, कोई हिमायती और मददगार न पा सकेंगे।
يَوۡمَ تُقَلَّبُ وُجُوهُهُمۡ فِي ٱلنَّارِ يَقُولُونَ يَٰلَيۡتَنَآ أَطَعۡنَا ٱللَّهَ وَأَطَعۡنَا ٱلرَّسُولَا۠ ۝ 62
(66) जिस दिन उनके चेहरे आग पर उलट-पलट किए जाएँगे, उस वक़्त वे कहेंगे कि “काश, हमने अल्लाह और रसूल की फ़रमाँबरदारी की होती।”
وَقَالُواْ رَبَّنَآ إِنَّآ أَطَعۡنَا سَادَتَنَا وَكُبَرَآءَنَا فَأَضَلُّونَا ٱلسَّبِيلَا۠ ۝ 63
(67) और कहेंगे, “ऐ रब हमारे, हमने अपने सरदारों और बड़ों का कहा माना और उन्होंने हमें सीधे रास्ते से भटका दिया।
رَبَّنَآ ءَاتِهِمۡ ضِعۡفَيۡنِ مِنَ ٱلۡعَذَابِ وَٱلۡعَنۡهُمۡ لَعۡنٗا كَبِيرٗا ۝ 64
(68) ऐ रब, इनको दोहरा अज़ाब दे और इनपर सख़्त लानत कर।"117
117. यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान हुई है। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी आयतें देखिए; सूरा-7 आराफ़, आयत-187; सूरा-79 नाज़िआत, आयतें—42 से 46; सूरा-34 सबा, आयत-31; सूरा-67 मुल्क, आयतें—24 से 27; सूरा-83 मुतफ़्फ़िफ़ीन, आयतें—10 से 17; सूरा-15 हिज्र, आयतें—2, 3; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयतें—27 से 29; सूरा-41 हा-मीम-सजदा, आयतें—26 से 29।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ ءَاذَوۡاْ مُوسَىٰ فَبَرَّأَهُ ٱللَّهُ مِمَّا قَالُواْۚ وَكَانَ عِندَ ٱللَّهِ وَجِيهٗا ۝ 65
(69) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो,118 उन लोगों की तरह न बन जाओ जिन्होंने मूसा को तकलीफें दी थीं, फिर अल्लाह ने उनकी बनाई हुई बातों से उसको आज़ादी दिलाई और वह अल्लाह के नज़दीक इज़्ज़तदार था119
118. यह बात ध्यान में रहे कि क़ुरआन मजीद में “ऐ लोगो जो ईमान लाए हो” के अलफ़ाज़ से कहीं तो सच्चे ईमानवालों से बात की गई है और कहीं मुसलमानों की जमाअत से मजमूई हैसियत से बात कही गई है, जिसमें मोमिन और मुनाफ़िक़ और कमज़ोर ईमानवाले सब शामिल हैं और कहीं बात सिर्फ़ मुनाफ़िक़ों से की गई है। मुनाफ़िक़ और कमज़ोर ईमानवालों को ‘अल्लज़ी-न आमनू' (ऐ ईमानवालो) कहकर जब मुख़ातब (सम्बोधित) किया जाता है तो इसका मक़सद उनको शर्म दिलाना होता है कि तुम लोग दावा तो ईमान लाने का करते हो और हरकतें तुम्हारी ये कुछ हैं। मौक़ा-महल पर ग़ौर करने से हर जगह आसानी से मालूम हो जाता है कि किस जगह 'अल्लज़ी-न आमनू' से मुराद कौन लोग हैं। यहाँ बात का सिलसिला साफ़ बता रहा है कि बात आम मुसलमानों से की जा रही है।
119. दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह है कि “ऐ मुसलमानो! तुम यहूदियों की-सी हरकतें न करो। तुम्हारा रवैया अपने नबी के साथ वह न होना चाहिए जो बनी-इसराईल का रवैया मूसा (अलैहि०) के साथ था।” बनी-इसराईल ख़ुद मानते हैं कि हज़रत मूसा (अलैहि०) उनके सबसे बड़े मुहसिन (उपकारक) थे। जो कुछ भी यह क़ौम बनी, उन्हीं की बदौलत बनी। लेकिन अपने इतने बड़े एहसान करनेवाले के साथ इस क़ौम का सुलूक जो था, उसका अन्दाज़ा करने के लिए बाइबल की नीचे लिखी जगहों पर सिर्फ़ एक नज़र डाल लेना ही काफ़ी है— किताब निष्कासन : 5:20-21, 14:11-12, 16:2-3, 17:3-5। किताब गिनती : 11:1-15, 14:1-10, । क़ुरआन मजीद बनी-इसराईल की इसी एहसान-फ़रामोशी की तरफ़ इशारा करके मुसलमानों को ख़बरदार कर रहा है कि मुहम्मद (सल्ल०) के साथ यह रवैया अपनाने से बचो, वरना फिर उसी अंजाम के लिए तैयार हो जाओ जो यहूदी देख चुके हैं और देख रहे हैं। यही बात कई मौक़ों पर ख़ुद नबी (सल्ल०) ने भी फ़रमाई है। एक बार का वाक़िआ है कि नबी (सल्ल०) मुसलमानों में कुछ माल बाँट रहे थे। इस मजलिस से जब लोग बाहर निकले तो एक आदमी ने कहा, “मुहम्मद (सल्ल०) ने इस बँटवारे में अल्लाह और आख़िरत का कुछ भी लिहाज़ न रखा।” यह बात हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ने सुन ली और जाकर नबी (सल्ल०) से कहा कि आज आप (सल्ल०) पर ये बातें बनाई गई हैं। आप (सल्ल०) ने जवाब में फ़रमाया, “अल्लाह की रहमत हो मूसा पर। उन्हें इससे ज़्यादा तकलीफ़ें दी गईं और उन्होंने सब्र किया।" (हदीस : मुसनद अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद)
إِذۡ جَآءُوكُم مِّن فَوۡقِكُمۡ وَمِنۡ أَسۡفَلَ مِنكُمۡ وَإِذۡ زَاغَتِ ٱلۡأَبۡصَٰرُ وَبَلَغَتِ ٱلۡقُلُوبُ ٱلۡحَنَاجِرَ وَتَظُنُّونَ بِٱللَّهِ ٱلظُّنُونَا۠ ۝ 66
(10) जब वह ऊपर से और नीचे से तुमपर चढ़ आए।20 जब डर के मारे आँखें पथरा गईं, कलेजे मुँह को आ गए और तुम लोग अल्लाह के बारे में तरह-तरह के गुमान करने लगे।
20. इसका एक मतलब तो यह हो सकता है कि हर तरफ़ से चढ़ आए और दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि नज्द और ख़ैबर से चढ़कर आनेवाले ऊपर से आए और मक्का की तरफ़ से आनेवाले नीचे से आए।
هُنَالِكَ ٱبۡتُلِيَ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَزُلۡزِلُواْ زِلۡزَالٗا شَدِيدٗا ۝ 67
(11) उस वक़्त ईमान लानेवाले ख़ूब आज़माए गए और बुरी तरह हिला मारे गए।21
21. ईमान लानेवालों से मुराद यहाँ वे सब लोग हैं जिन्होंने मुहम्मद (सल्ल०) को अल्लाह का रसूल मानकर अपने आपको नबी (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों में शामिल किया था, जिनमें सच्चे ईमानवाले भी शामिल थे और मुनाफ़िक़ भी। इस पैराग्राफ़ में अल्लाह तआला ने मुसलमानों के गरोह का मजमूई तौर से ज़िक्र किया है। इसके बाद के तीन पैराग्राफ़ों में मुनाफ़िक़ों के रवैये पर तबसिरा (समीक्षा) किया गया है। फिर आख़िर के दो पैराग्राफ़ अल्लाह के (सल्ल०) और सच्चे ईमानवालों के बारे में हैं।
وَإِذۡ يَقُولُ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ وَٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِم مَّرَضٞ مَّا وَعَدَنَا ٱللَّهُ وَرَسُولُهُۥٓ إِلَّا غُرُورٗا ۝ 68
(12) याद करो वह वक़्त जब मुनाफ़िक़ और वे सब लोग जिनके दिलों में रोग था, साफ़-साफ़ कह रहे थे कि अल्लाह और उसके रसूल ने जो वादे हमसे किए थे22 वे धोखे के सिवा कुछ न थे।
22. यानी इस बात के वादे कि ईमानवालों को अल्लाह की मदद और हिमायत हासिल होगी और आख़िरकार ग़लबा (प्रभुत्व) इन्हीं को दिया जाएगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَقُولُواْ قَوۡلٗا سَدِيدٗا ۝ 69
(70) ऐ ईमान लानेवालो, अल्लाह से डरो और ठीक बात किया करो।
يُصۡلِحۡ لَكُمۡ أَعۡمَٰلَكُمۡ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡۗ وَمَن يُطِعِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَقَدۡ فَازَ فَوۡزًا عَظِيمًا ۝ 70
(71) अल्लाह तुम्हारे आमाल दुरुस्त कर देगा और तुम्हारे क़ुसूरों को अनदेखा कर देगा। जो आदमी अल्लाह और उसके रसूल का कहा माने उसने बड़ी कामयाबी हासिल की।
إِنَّا عَرَضۡنَا ٱلۡأَمَانَةَ عَلَى ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱلۡجِبَالِ فَأَبَيۡنَ أَن يَحۡمِلۡنَهَا وَأَشۡفَقۡنَ مِنۡهَا وَحَمَلَهَا ٱلۡإِنسَٰنُۖ إِنَّهُۥ كَانَ ظَلُومٗا جَهُولٗا ۝ 71
(72) हमने इस अमानत को आसमानों और ज़मीन और पहाड़ों के सामने पेश किया तो वे उसे उठाने के लिए तैयार न हुए और उससे डर गए, मगर इनसान ने उसे उठा लिया, बेशक वह बड़ा ज़ालिम और जाहिल है।120
120. बात ख़त्म करते हुए अल्लाह तआला इनसान को यह एहसास दिलाना चाहता है कि दुनिया में उसकी हक़ीक़ी हैसियत क्या है और इस हैसियत में होते हुए अगर वह दुनिया की ज़िन्दगी को सिर्फ़ एक खेल समझकर बेफ़िक्री के साथ ग़लत रवैया अपनाता है तो किस तरह अपने हाथों ख़ुद अपना मुस्तक़बिल (भविष्य) ख़राब करता है। इस जगह 'अमानत' से मुराद वही 'ख़िलाफ़त' है जो क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ इनसान को ज़मीन में दी गई है। अल्लाह तआला ने इनसान को फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी की जो आज़ादी दी है और उस आज़ादी को इस्तेमाल करने के लिए उसे अपनी बनाई हुई अनगिनत चीज़ों को इस्तेमाल करने के अधिकार दिए हैं, उनका लाज़िमी नतीजा यह है कि इनसान ख़ुद अपनी मरज़ी से किए गए कामों का ज़िम्मेदार ठहरे और अपने सही रवैये पर इनाम का और ग़लत रवैये पर सज़ा का हक़दार बने। ये अधिकार चूँकि इनसान ने ख़ुद हासिल नहीं किए हैं, बल्कि अल्लाह ने उसे दिए हैं और उनके सही और ग़लत इस्तेमाल पर वह अल्लाह के सामने जवाबदेह है, इसलिए क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर उनको 'ख़िलाफ़त' कहा गया है और यहाँ उन्हीं के लिए 'अमानत' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। यह अमानत कितनी अहम और भारी है, इसका एहसास कराने के लिए अल्लाह तआला ने बताया है कि आसमान और ज़मीन अपनी सारी बड़ाई के बावजूद और पहाड़ अपनी ज़बरदस्त लम्बाई-चौड़ाई और मज़बूती के बावजूद उसके उठाने की ताक़त और हिम्मत न रखते थे, मगर कमज़ोर बुनियादवाले इनसान ने अपनी ज़रा-सी जान पर यह भारी बोझ उठा लिया है। ज़मीन और आसमान के सामने अमानत के इस बोझ का पेश किया जाना और उनका इसे उठाने से इनकार करना और डर जाना हो सकता है हक़ीक़त में ऐसा ही हुआ हो और यह भी हो सकता है कि यह बात अलामती ज़बान में या सिर्फ़ समझाने के लिए कही गई हो। अल्लाह तआला का अपनी बनाई हुई चीज़ों के साथ जो ताल्लुक़ है, उसे हम न जान सकते हैं, न समझ सकते हैं। ज़मीन, सूरज, चाँद और पहाड़ जिस तरह हमारे लिए गूँगे, बहरे और बेजान हैं, ज़रूरी नहीं है कि अल्लाह के लिए भी वे ऐसे ही हों। अल्लाह अपनी हर मख़लूक़ (बनाई हुई चीज़) से बात कर सकता है और वह उसको जवाब दे सकती है। इसकी कैफ़ियत का समझाना हमारी अक़्ल और समझ से परे है। इसलिए यह बिलकुल मुमकिन है कि सचमुच अल्लाह ने उनके सामने यह भारी बोझ पेश किया हो और वे उसे देखकर काँप उठे हों और उन्होंने अपने मालिक और पैदा करनेवाले से यह अर्ज़ किया हो कि हम तो सरकार के बेबस ग़ुलाम ही बनकर रहने में अपनी ख़ैर (भलाई) पाते हैं, हमारी यह हिम्मत नहीं है कि नाफ़रमानी की आज़ादी लेकर उसका हक़ अदा कर सकें और हक़ अदा न करने की सूरत में आपकी सज़ा बरदाश्त कर सकें। इसी तरह यह भी बिलकुल मुमकिन है कि हमारी मौजूदा ज़िन्दगी से पहले पूरी इनसानियत को अल्लाह तआला ने किसी और तरह का वुजूद देकर अपने सामने हाज़िर किया हो और उसने ये अधिकार संभालने पर ख़ुद रज़ामन्दी ज़ाहिर की हो। इस बात को नामुमकिन ठहराने के लिए हमारे पास कोई दलील नहीं है। इसको नामुमकिन ठहराने का फ़ैसला तो वही शख़्स कर सकता है जो अपने ज़ेहन और सोच की ताक़त और सकत का ग़लत अन्दाज़ा लगा बैठा हो। अलबत्ता यह बात भी उतनी ही मुमकिन है कि अल्लाह तआला ने यह बात सिर्फ़ मिसाल के अन्दाज़ में कही हो और मामले की ग़ैर-मामूली अहमियत का एहसास कराने के लिए इस तरह का नक़्शा पेश किया गया हो मानो एक तरफ़ ज़मीन और आसमान और हिमालय जैसे पहाड़ खड़े हैं और दूसरी तरफ़ 5-6 फ़िट का आदमी खड़ा हुआ है। अल्लाह तआला पूछता है— "मैं अपनी पैदा की हुई तमाम चीज़ों में से किसी एक को यह ताक़त देना चाहता हूँ कि वह मेरी ख़ुदाई में रहते हुए ख़ुद अपनी मरज़ी और पसन्द से मेरी बालातरी (सर्वोच्च होने) का इक़रार और मेरे हुक्मों पर अमल करना चाहे तो करे, वरना वह मेरा इनकार भी कर सकेगा और मेरे ख़िलाफ़ बग़ावत का झण्डा भी लेकर उठ सकेगा। यह आज़ादी देकर में उससे इस तरह छिप जाऊँगा कि मानो मैं कहीं माजूद नहीं हूँ और इस आज़ादी को अमल में लाने के लिए मैं उसको बहुत ज़्यादा अधिकार दूँगा, बड़ी सलाहियतें दूँगा और अपनी बनाई अनगिनत चीज़ों पर उसको बालादस्ती (प्रभुत्त्व) दूँगा, ताकि वह कायनात में जो हंगामा भी बरपा करना चाहे, कर सके। इसके बाद मैं एक ख़ास वक़्त पर उसका हिसाब लूँगा। जिसने मेरी दी हुई आज़ादी को ग़लत इस्तेमाल किया होगा, उसे वह सज़ा दूँगा जो मैंने कभी अपनी बनाई हुई किसी चीज़ को नहीं दी है और जिसने नाफ़रमानी के सारे मौक़े पाकर भी मेरी फ़रमाँबरदारी ही इख़्तियार की होगी, उसे वह बुलन्द मर्तबे दूँगा जो मेरी किसी मख़लूक़ को नसीब नहीं हुए हैं। अब बताओ, तुममें से कौन इस इम्तिहानगाह में उतरने को तैयार है?" यह तक़रीर सुनकर पहले तो सारी कायनात में सन्नाटा छा जाता है। फिर एक-से-एक बढ़कर लम्बी-चौड़ी मख़लूक़ घुटने टेककर विनती करती चली जाती है कि उसे इस कड़े इम्तिहान से माफ़ रखा जाए। आख़िरकार यह हड्डियों का ढाँचा उठता है और कहता है कि ऐ मेरे रब, मैं यह इम्तिहान देने के लिए तैयार हूँ। इस इम्तिहान को पास करके तेरी सल्तनत का सबसे ऊँचा ओहदा (पद) मिल जाने की जो उम्मीद है, उसकी बुनियाद पर मैं उन सब ख़तरों को बरदाश्त कर जाऊँगा जो इस आज़ादी व ख़ुद मुख़्तारी में छिपे हैं। यह नक़्शा तसव्वुर में अपनी आँखों के सामने लाकर ही आदमी अच्छी तरह अन्दाज़ा कर सकता है कि वह कायनात में किस नाज़ुक मक़ाम पर खड़ा हुआ है। अब जो शख़्स इस इम्तिहानगाह में बेफ़िक्रा बनकर रहता है और कोई एहसास नहीं रखता कि वह कितनी बड़ी ज़िम्मेदारी का बोझ उठाए हुए है और दुनिया की ज़िन्दगी में अपने लिए कोई रवैया चुनते वक़्त जो फ़ैसले वह करता है, उनके सही या ग़लत होने से क्या नतीजे निकलनेवाले हैं, इसी को अल्लाह तआला इस आयत में 'ज़लूम' (बहुत बड़ा ज़ालिम) और 'जहूल' (बहुत बड़ा जाहिल) ठहरा रहा है। वह 'जहूल' है, क्योंकि उस बेवक़ूफ़ ने अपने आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार समझ लिया है और वह 'ज़लूम' है, क्योंकि वह अपनी तबाही का सामान ख़ुद कर रहा है और अपने साथ न मालूम कितने और लोगों को ले डूबना चाहता है।
لِّيُعَذِّبَ ٱللَّهُ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱلۡمُنَٰفِقَٰتِ وَٱلۡمُشۡرِكِينَ وَٱلۡمُشۡرِكَٰتِ وَيَتُوبَ ٱللَّهُ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ وَٱلۡمُؤۡمِنَٰتِۗ وَكَانَ ٱللَّهُ غَفُورٗا رَّحِيمَۢا ۝ 72
(73) इस अमानत के बोझ को उठाने का लाज़िमी नतीजा यह है कि अल्लाह मुनाफ़िक़ मर्दों और औरतों और मुशरिक मदों और औरतों को सज़ा दे और ईमानवाले मर्दों और औरतों की तौबा क़ुबूल करे, अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।