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इस्लाम की गोद में

यह एक यहूदी नवजवान का वृत्तांत है, जो शांति की तलाश में था। अपने धर्म में उसे शांति नहीं मिली तो उसने कई धर्मों का अध्ययन किया, लेकिन कोई उसकी व्याकुलता दूर न कर सका। इली दौरान उसे कई मुस्लिम देशों का दौरा करने का अवसर प्राप्त हुआ। वहां सबसे पहले उसे मुस्लिम कल्चर ने आकर्षित किया। मुसलमानों से मिलकर उसे एक तरह के संतोष का अनुभ होता। फिर उसने इस्लाम का अध्ययन किया तो उसे मानव स्वभाव के अनुकूल पाया। उसने बिना विलम्ब किए इस्लाम स्वीकार कर लिया।[-संपादक]

शान्ति-मार्ग

यह जानेमाने विद्वान और महान समाज सुधारक मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी का एक भाषण है, जिसे एक लेख का रूप दे दिया गया है। यह भाषण कपूरथला में आजादी से पहले हिन्दुओं, सिखों और मुसलमानों की एक सम्मिलित सभा में दिया गया था। इस में ईश्वर के अस्तित्व को तार्किक ढंग से समझाया गया है।

क़ुव्वत का अस्ल राज़

मनुष्य की असली ताकत वह है जो उसे भीतर से मजबूत करती है और यह ताकत ईमान से आती है। जब मनुष्य ईश्वर से जुड़ जाता है, तो दुनिया का डर उसके दिल से निकल जाता है, वह दुनिया से निसपृह हो जाता है। मौत का डर इंसान को कायर बना देता है। अल्लाह पर पूरा भरोसा रखने वाले इंसान के दिल से मौत का डर निकल जाता है। तब उसका व्यक्तित्व रोबदार हो जाता है।जीवन की सुख-सुविधाएं मनुष्य को अंदर से खोखला कर देती हैं। इस लेख में एक छोटी सी घटना के संदर्भ में यही कहा गया है। [-संपादक]

इस्लाम के पैग़म्बर, हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम)

इस्लाम के पैग़म्बर, हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) को सही अर्थों में विश्व-नेता कहा जा सकता है, इसलिए कि आपने किसी विशेष जाति, वंश या वर्ग की भलाई के लिए नहीं, बल्कि सारे संसार के मनुष्यों की भलाई के लिए काम किया। आप की दृष्टि में सब जातियां और सब मनुष्य समान हैं, आप सबके समान शुभ चिंतक हें। आप ने ऐसे सिद्धांत पेश किए हैं जो सारे संसार के मनुष्यों का पथ-प्रदर्शन करते हैं और उनमें मानव-जीवन की सारी समस्याओं का समाधान है। आपका पथ-प्रदर्शन किसी विशेष काल के लिए नहीं, बल्कि हर काल और हर स्थिति में समान रूप से लाभदायक और समान रूप से शुद्ध और समान रूप से अनुकरणीय है। । हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने केवल सिद्धांत ही पेश नहीं किये, बल्कि उन सिद्धांतों को जीवन में कार्यान्वित करके भी दिखा दिया और उनके आधार पर एक जीता-जागता समाज भी बना दिया। यही कारण है कि जो लोग इस्लाम के अनुयायी नहीं हैं वे भी निष्पक्ष होकर अध्ययन करें तो यही महसूस करते हैं कि यह किसी राष्ट्रवादी या देश-प्रेमी का जीवन नहीं है, बल्कि एक मानव-प्रेमी और विश्वव्यापी दृष्टिकोण रखने वाले मनुष्य का जीवन है। प्रस्तुत है हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के बारे में प्रोफ़ेसर के. एस. रामाकृष्णा राव के विचार। [-संपादक]

आदाबे ज़िन्दगी

ज़िन्दगी से भरपूर फ़ायदा उठाना, मज़ा लेना और असल कामयाब ज़िन्दगी गुज़ारना यक़ीनी तौर पर आपका हक़ है, लेकिन उसी वक़्त जब आप ज़िन्दगी का सलीक़ा जानते हों, कामयाब ज़िन्दगी के उसूल और आदाब की जानकारी रखते हों और न सिर्फ़ जानकारी रखते हों, बल्कि अमली तौर पर आप उन उसूलों और आदाब से अपनी ज़िन्दगी को सँवारने और बनाने की बराबर कोशिशें कर रहे हों। अदब व सलीक़ा, सफ़ाई-सुथराई, पाकी और पाकीज़गी, अच्छे अख़लाक़, नेक अमल, हमदर्दी, भाईचारा, नर्मी, मिठास, त्याग, क़ुरबानी, बेग़र्ज़ी, ख़ुलूस, मुस्तैदी, फ़र्ज़ निभाने का एहसास, ख़ुदा से डरना, परहेज़गारी, हिम्मत, बहादुरी वग़ैरह ये इस्लामी ज़िन्दगी की ऐसी सुन्दर पहचान हैं, जिनकी वजह से मोमिन की बनी-सँवरी ज़िन्दगी में वह ग़ैर मामूली कशिश और अथाह आकर्षण पैदा हो जाता है कि न सिर्फ़ मुसलमान, बल्कि इस्लाम को न समझनेवाले ख़ुदा के दूसरे बन्दे भी बेइख़तियार उसकी ओर खिंचने लगते हैं और आम ज़ेहन यह सोचने पर मजबूर होते हैं कि इनसानियत से भरी हुई जो तहज़ीब ज़िन्दगी को निखारने, सँवारने और ग़ैर मामूली आकर्षण पैदा करने के लिए इनसानियत को यह क़ीमती उसूल व आदाब देती है, वह यक़ीनन हवा और रोशनी की तरह सारे इनसानों की आम मीरास है और बेशक इस क़ाबिल है कि पूरी इनसानियत उसको क़बूल करके उसकी बुनियादों पर अपने निजी और सामूहिक जीवन का सफल निर्माण करे, ताकि दुनिया की ज़िन्दगी भी सुख-शान्ति से गुज़रे और दुनिया के बाद की ज़िन्दगी में भी वह सब कुछ मिले, जो एक कामयाब ज़िन्दगी के लिए ज़रूरी है।

तौहीद (एकेश्वरवाद) की वास्तविकता

प्रस्तुत पुस्तक, ‘एकेश्वरवाद की वास्तविकता’ लेखक की पिछली पुस्तक 'शिर्क की हक़ीक़त' (बहुदेववाद की वास्तविकता) की पूरक है। पहली किताब में शिर्क की हक़ीक़त को इतने विस्तार से बयान किया गया है कि तौहीद की हक़ीक़त (एकेश्वरवाद की वास्तविकता) उसमें स्वयं निखर कर सामने आ गई है। वस्तुएँ अपनी प्रतिकूल वस्तुओं से स्पष्ट होती हैं, अब तौहीद की व्याख्या के लिए किसी अलग पुस्तक की कोई ख़ास ज़रूरत तो नहीं थी, लेकिन एकेश्वरवाद के प्रमाणों को विस्तीरपूर्क अलग से समझाने के लिए यह पुस्तक तैयार की गई है। इसमें क़ुरआन मजीद की मदद से एकेश्वरवाद के बौद्धिक प्रमाणों का उल्लेख किया गया है साथ ही क़ुरआन मजीद में आए प्रमाणों को स्पष्ट करने की कोशिश की गई है, ताकि दीने इस्लाम के बुनियादी विषयों को अच्छी तरह समझा जा सके।

फ़िलिस्तीनी संघर्ष ने इसराईल के घिनौने चेहरे को बेनक़ाब कर दिया

सय्यद सआदतुल्लाह हुसैनी (अमीरे जमाअत इस्लामी हिन्द) यह फ़िलिस्तीनी संधर्ष ही है जिसने नई पश्चिमी सत्ता के चेहरे से मानवाधिकार, स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र का लुभावना और सुन्दर मुखौटा उतार फेंका है और अंदर से उसी वंशवादी, क्रूर और ख़ूँख़ार दानव को नंगा करके दुनिया के सामने ला खड़ा किया है जो सोलहवीं सदी से बीसवीं सदी तक इस दुनिया को अपने ख़ूनी पंजों से लहू-लुहान करता रहा, लाखों इन्सानों को ग़ुलाम बनाकर बेचता रहा और जिसने सारी दुनिया पर क़ब्ज़ा करके संसाधनों की लूट मचा रखी थी। फ़िलिस्तीनी संधर्ष ने दुनिया पर स्पष्ट कर दिया है कि नई पश्चिमी सत्ता नैतिक संवेदनशीलता से ख़ाली एक पाश्विक अस्तित्व है जिसका कोई मज़बूत सांस्कृतिक आधार नहीं है। स्वतंत्रता और लोकतंत्र के ऊंचे दावों के शोर में दबा हुआ उस के दिल का यह चोर फ़िलिस्तीनी संधर्ष ने पकड़ कर दुनिया के सामने पेश कर दिया है कि इस सत्ता के लिए एशियाई और अफ़्रीक़ी जनता आज भी उस की प्रजा और ग़ुलाम है और उनकी ज़मीनों और संसाधनों को वह अपना ऐसा स्वामित्व समझता है कि उसे वह जैसे चाहे इस्तेमाल कर सकता है। मौलाना अली मियां नदवी ने वर्षों पहले सचेत किया था:

इसराईली राज्य अपनी आख़िरी सांसें ले रहा है

आरी शाबित एक यहूदी स्कॉलर और राजनीतिक समीक्षक ऐसा लगता है कि हमारा सामना इतिहास के सबसे ज़्यादा भड़के हुए लोगों से पड़ गया है और अब फ़िलिस्तीनियों की ज़मीन पर उनका ही हक़ माने बिना कोई चारा नहीं है। मेरा ख़याल है कि हम बंद गली में दाख़िल हो चुके हैं और अब इसराईलियों के लिए फ़िलिस्तीन की ज़मीन पर क़ब्ज़े को बनाए रखना, बाहर से आए यहूदियों को बसाना और अम्न बहाल करना मुम्किन नहीं रहा। इसी तरह ज़ायोनिज़्म में नयापन लाने का आंदोलन, लोकतंत्र का बचाव और राज्य में आबादी का फैलाव भी अब और नहीं चल पाएंगे। इन हालात में इस मुल्क में रहने का कोई मज़ा बाक़ी नहीं रहा और इसी तरह “डेली हारेट्ज़’’ में लिखना भी बदमज़ा हो गया है और “डेली हारेट्ज़’’ के पढ़ने में भी अब कोई आकर्षण बचा नहीं रहा। अब हमें वही करना पड़ेगा जो दो वर्ष पहले “रोगील अलफ़ार’’ ने किया था और वह यह देश छोड़कर बाहर चले गये थे ।

वर्तमान स्थिति की समीक्षा

हसीब असग़र 7 अक्टूबर, 2023 को ग़ज़्ज़ा से इसराईल पर हुए ऐतिहासिक हमलों ने इसराईली सेना की प्रतिष्ठा और उसकी ख़ुफ़िया क्षमताओं को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसा झटका दिया है, जिसकी भरपाई शायद दशकों तक नहीं हो सकेगी। इसराईल का आतंक, उसकी परमाणु शक्ति, उसकी ख़ुफ़िया एजेंसी मोसाद की क्षमताएं और उसकी निरोधक क्षमता सब शून्य हो गई है। जिन टैंकों के बारे में मीडिया हथियार कंपनियों का दलाल बनकर यह दावा करता रहा है, कि इन्हें किसी भी तरह नुक़सान नहीं पहुंचाया जा सकता, उसे फ़िलिस्तीनी मुजाहिद इस तरह भस्म कर देते हैं मानो वह बच्चे का कोई खिलौना हो। इस स्थिति ने इसराईली बलों में हड़कंप मचा कर रख दी है।

यहूदियों की योजना

बैतुल-मक़दिस और फ़िलिस्तीन के संबंध में आपको यह मालूम होना चाहिए कि ईसा से लगभग तेरह सौ वर्ष पूर्व इस्राइलियों ने इस क्षेत्र में प्रवेश किया था और दो शताब्दियों के निरंतर संघर्ष के बाद अंततः उस पर कब्ज़ा कर लिया। वे इस भूमि के मूल निवासी नहीं थे। प्राचीन निवासी अन्य लोग थे जिनकी जनजातियों और क़ौमों के नाम बाइबिल में ही विस्तार से वर्णित हैं, और बाइबिल से ही हमें पता चलता है कि इस्राइलियों ने इन लोगों का नरसंहार करके उस भूमि पर उसी प्रकार क़ब्ज़ा कर लिया जिस तरह फिरंगियों ने रेड-इंडियन को नष्ट करके अमेरिका पर क़ब्ज़ा कर लिया। उनका दावा था कि ईश्वर ने यह देश उन्हें विरासत में दे दिया है। इसलिए, उन्हें इसके मूल निवासियों को विस्थापित करके, बल्कि उनकी नस्ल को खत्म करके उस पर कब्ज़ा करने का अधिकार है।

तूफ़ान अल-अक़सा : ऐतिहासिक संदर्भ

डॉ. सलीम ख़ान फ़िलिस्तीन की जनता को इसराईल ने पिछले 75 वर्षों से ग़ुलाम बना रखा है। आज की विकसित दुनिया की नज़र के सामने फ़िलिस्तीनियों के सारे मानवाधिकार एक-एक करके छीन लिए गए और उन्हें लगातार दमन और अत्याचार का निशाना बनाया जा रहा है। फ़िलिस्तीनियों से उनका पूरा देश ख़ाली करा लिया गया है और पूरी आबादी को एक पट्टीनुमा इलाक़े में दीवारों के अंदर क़ैद कर दिया गया है। दुनिया की इस सबसे बड़ी खुली जेल में भी फ़िलिस्तीन के लोग सुरक्षित नहीं हैं। इसराईली सेना जब चाहे उन पर बमबारी करती है और जब चाहे उनके घरों पर बुलडोज़र चला देती है। साधनहीनता की स्थिति में फ़िलिस्तीनी ग़ुलेल और पत्थरों से मिसाइलों और टैंकों का मुक़ाबला करते हैं और विडम्बना यह है कि इसपर भी क्रूर दुनिया उन्हें आतंकवादी कहती है।

इस्लाम में जिहाद: क्या और क्यों?

आधुनिक काल में यूरोप ने अपने राजनीतिक उद्देश्यों के लिए इस्लाम पर जो निराधार आरोप लगाए हैं, उनमें सबसे बड़ा आरोप यह है कि इस्लाम एक रक्तपिपासु धर्म है और अपने अनुयायियों को रक्तपात सिखाता है। इस आरोप में अगर कुछ सच्चाई होती, तो स्वभाविक रूप से यह आरोप उस समय लगाया जाता, जब इस्लाम की पाषाणभेदी तलवार ने इस धरती पर तहलका मचा रखा था, और वास्तव में दुनिया को यह संदेह हो सकता था कि उनकी ये विजयी कार्रवाइयां किसी ख़ूनी शिक्षा का परिणाम हों। लेकिन अजीब बात है कि इस बदनामी का जन्म इस्लाम के विकास के सूरज के डूब जाने के लम्बे समय बाद हुआ। इसके काल्पनिक साँचे में उस समय जान फूँकी गई जब इस्लाम की तलवार तो ज़ंग खा चुकी थी, मगर ख़ुद इस आरोप के लेखक, यूरोप की तलवार निर्दोषों के ख़ून से लाल हो रही थी और उसने दुनिया के कमज़ोर देशों को इस तरह निगलना शुरू कर दिया था, जैसे कोई अजगर छोटे-छोटे जानवरों को डसता और निगलता है।

इस्लामी सभ्यता और उसके मूल एवं सिद्धांत

पश्चिमी लेखकों और उनके प्रभाव से पूर्वी विद्वानों का एक बड़ा समूह भी यह राय रखता है कि इस्लाम की सभ्यता अपनी पूर्ववर्ती सभ्यताओं, विशेष रूप से ग्रीक और रोमन सभ्यताओं से ली गई है, और वह एक अलग सभ्यता केवल इस आधार पर बन गई है कि अरबी मानसिकता ने उस पुरानी सामग्री को नई शैली में ढालकर उसका रूप बदल दिया है। यही वह सिद्धांत है जिसके आधार पर ये लोग इस्लामी सभ्यता के तत्वों को ईरानी, बेबीलोनियाई, सीरियाई, फोनीशियन, मिस्री, ग्रीक और रोमन सभ्यताओं में तलाश करते हैं और फिर अरबी लक्षणों में उस मानसिक कारक का पता लगाते हैं जिसने उन सभ्यताओं से अपने ढब का मसाला लेकर उसे अपने ढंग से तैयार किया। लेकिन यह एक बड़ी ग़लत धारणा है।

पवित्र क़ुरआन की शिक्षा : आधुनिक समय की अपेक्षाएँ (क़ुरआन लेक्चर -12)

एक दृष्टि से पवित्र क़ुरआन के दर्स (प्रवचन) की ज़रूरतें और अपेक्षाएँ हर दौर में समान रही हैं। मुसलमानों के इतिहास का कोई दौर ऐसा नहीं गुज़रा जिसमें उन्हें दर्से-क़ुरआन की ज़रूरत न रही हो, और इसकी अपेक्षाओं और ज़रूरत पर चर्चा न हुई हो। इस्लाम की आरंभिक बारह-तेरह शताब्दियों में कोई शताब्दी ऐसी नहीं गुज़री जब मुसलमानों की शिक्षा-व्यवस्था और उनके प्रशिक्षण-व्यवस्था में पवित्र क़ुरआन को मौलिक और आधारभूत महत्त्व प्राप्त न रहा हो। फिर विभिन्न कालों, विभिन्न ज़मानों और विभिन्न इलाक़ों में मुसलमानों के ज़ेहन में जो सवाल वह्य और नुबूवत (पैग़म्बरी) के बारे में पैदा होते रहे हैं, वे कमो-बेश हर दौर में समान रहे हैं। बल्कि वह्य, नुबूवत (पैग़म्बरी) और मरने के बाद की ज़िन्दगी जैसी मौलिक अवधारणाओं (अक़ीदों) के बारे में नास्तिक जिन सन्देहों एवं आपत्तियों को व्यक्त करते रहे हैं उनकी हक़ीक़त भी हर दौर में कमो-बेश एक जैसी ही रही है। नूह (अलैहिस्सलाम) के ज़माने से लेकर अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के शुभ दौर तक पवित्र क़ुरआन ने विभिन्न लोगों और विभिन्न व्यक्तित्वों का उल्लेख किया है। और उन व्यक्तित्वों के समकालीन लोगों और उनके ज़माने में प्रचलित विचारों और असत्य धारणाओं का खंडन भी किया है। यह ग़लत विचार और असत्य धारणाएँ (अक़ीदे) लगभग एक जैसी ही हैं।

पवित्र क़ुरआन का विषय और महत्त्वपूर्ण वार्त्ताएँ (क़ुरआन लेक्चर - 11)

आज की चर्चा का विषय है पवित्र क़ुरआन का मूल विषय और इसकी महत्त्वपूर्ण वार्त्ताएँ। पवित्र क़ुरआन की महत्त्वपूर्ण वार्त्ताओं पर चर्चा करने के लिए ज़रूरी है कि पहले यह देखा जाए कि पवित्र क़ुरआन का अस्ल और मूल विषय क्या है। यह देखना इसलिए ज़रूरी है कि दुनिया की हर किताब का कोई न कोई विषय होता है, जिससे वह मूल रूप से बहस करती है। शेष बहसों के बारे में इस किताब में चर्चा या तो सन्दर्भगत होती है या केवल उस हद तक उन विषयों पर चर्चा की जाती है जिस हद तक उनका संबंध किताब के मूल विषय से होता है। अतः यह सवाल स्वाभाविक रूप से पैदा होता है कि पवित्र क़ुरआन का मूल विषय क्या है। अगर क़ुरआन के मूल विषय का निर्धारण करने के लिए उसके अन्दर लिखी बातों को देखा जाए तो महसूस होता है कि पवित्र क़ुरआन में दार्शनिकता से भरपूर बहसें भी हैं। तो क्या पवित्र क़ुरआन को दर्शन की किताब कहा जा सकता है? जिन सवालों से दर्शन बहस करता है कि इंसान का आरंभ किया है, यह आरंभ क्यों और कैसे हुआ, आदम और आदमियत (मानवता) की वास्तविकता क्या है, अस्तित्व किसे कहते हैं, अस्तित्व का प्रकट चीज़ों से क्या संबंध है, ये वे चीज़ें हैं जिनके बारे में दर्शन-शास्त्र में सवाल उठाए जाते रहे हैं। पवित्र क़ुरआन के एक सरसरी अध्ययन से अनुमान हो जाता है कि इन सवालों का जवाब पवित्र क़ुरआन ने भी दिया है तो क्या पवित्र क़ुरआन को दर्शन की किताब क़रार दिया जाए?