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हदीस लेक्चर 5: इल्मे-इस्नाद और इल्मे-रिजाल

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी [ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

उम्मुल मोमिनीन: हज़रत आइशा सिद्दीक़ा (रज़ियल्लाहु अन्हा)

माइल ख़ैराबादी हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) इस्लाम के सबसे पहले ख़लीफ़ा हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) की छोटी बेटी थीं। इस्लामी इतिहास में जिस तरह हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ियल्लाहु अन्हु) सबसे ज़्यादा मशहूर हैं उसी तरह हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) मुसलमान औरतों में सबसे ज़्यादा नुमायाँ हैं, और हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) का यह परिचय भी कितना शानदार है कि वे अल्लाह के आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) की प्यारी बीवी थीं और यह कि अल्लाह तआला ने नबी (सल्ललाहु अलैहि वसल्लम) की बीवियों को उम्महातुल मोमिनीन (मुसलमानों की माएँ) कहा है। इस इरशाद के मुताबिक़ हज़रत आइशा (रज़ियल्लाहु अन्हा) उम्मुल मोमिनीन (मुसलमानों की माँ) हैं।

हदीस लेक्चर 4: इल्मे-रिवायत और हदीस के प्रकार

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी [ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

हमारे रसूले-पाक (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

तालिब हाशिमी मेरे दिल में भी बहुत दिनों से ख़ाहिश थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक ऐसी सीरत (जीवनी) लिखूँ— मेरे दिल में भी बहुत दिनों से ख़ाहिश थी कि नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की एक ऐसी सीरत (जीवनी) लिखूँ— 1. जो मुख़्तसर हो लेकिन उसमें कोई ज़रूरी बात न छूटे। 2. जिसमें जंचे-तुले हालात और आख़िरी हद तक सच्चे वाक़िआत दर्ज हों। 3. जिसकी ज़बान इतनी आसान और सुलझी हुई हो कि उसको छोटी उम्र के लड़के-लड़कियाँ और कम पढ़े-लिखे लोग भी आसानी से समझ सकें। 4. जो स्कूलों और मदरसों के कोर्स में शामिल की जा सके। 5. जिसकी रौशनी में माँ-बाप और उस्ताद (शिक्षक) अपने बच्चों और शागिर्दों को नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की पाक ज़िन्दगी के वाक़िआत को आसानी से याद करा सकें। 6. जिसमें नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के बेहतरीन अख़लाक़ के अलग-अलग पहलुओं को दिल में उतर जानेवाले तरीक़े से ज़िक्र किया गया हो।

क्या पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी ज़रूरी नहीं?

मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी यह किताब अस्ल में मौलाना सैयद अबुल-आला मौदूदी (1903-1979 ई.) के दो लेखों (इत्तिबाअ् व इताअते-रसूल' और 'रिसालत और उसके अह्काम) का हिन्दी तर्जमा है। ये लेख मौलाना के लेखों के उर्दू संग्रह तफ़हीमात, हिस्सा-1 में प्रकाशित हुए हैं। ये लेख उन्होंने सन् 1934 और 1935 ई. में उर्दू पत्रिका 'तर्जुमानुल-क़ुरआन' में कुछ लोगों के सवाल के जवाब में लिखे थे। सवाल पैग़म्बर की फ़रमाँबरदारी करने के बारे में था। मौलाना मौदूदी (रहमतुल्लाहि अलैह) ने बड़े ही प्रभावकारी ढंग से दलीलों के साथ उनका जवाब दिया। आज भी इस तरह के सवाल बहुत से लोगों के दिमाग़ों में आते हैं या दूसरे लोगों के ज़रिए पैदा किए जाते हैं और लोग उन सवालों की ज़ाहिरी शक्ल को देखकर मुतास्सिर हो जाते हैं कि अगर कोई आदमी ख़ुदा को एक मानता है और कुछ अच्छे काम भी करता है तो क्या उसके लिए पैग़म्बर पर ईमान लाना और उसकी फ़रमाँबरदारी ज़रूरी है? और अगर ज़रूरी है तो क्यों? इसलिए ज़रूरत महसूस की गई कि ऐसे क़ीमती लेखों का हिन्दी में तर्जमा प्रकाशित किया जाए।

प्यारे नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) कैसे थे?

इरफ़ान ख़लीली नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के गुलदस्ते का हर फूल बेमिसाल, हर एक की ख़ुशबू मेरे दिल के दामन को अपनी ओर खींच रही थी। मैं अजीब कशमकश में पड़ा हुआ था। न छोड़ते बनता था, न पकड़ते। मेरे अल्लाह ने मेरी मदद की। ज़ेहन में एक ख़याल उभरा— "क्यों न नबी (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) की ज़िन्दगी के उन वाक़िआत को जमा कर दूँ जो हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी से सीधा ताल्लुक़ रखते हों।" इस किताब के पढ़नेवालों से गुज़ारिश है कि इसे ग़ौर से पढ़ें और इस की बातों को अपनी ज़िन्दगियों में समोने की कोशिश करें।

आख़िरी नबी हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

हमूदा अब्दुल आती अल्लाह तीन प्रकार से इन्सानों को संबोधित करता है:- 1.अन्तः प्रेरणा द्वारा जो अल्लाह धार्मिक व्यक्तियों के मन या मस्तिष्क में सुझाव या विचार के रूप में डाल देता है। 2.किसी पर्दे के पीछे से दृश्य या दर्शन के रूप में जब योग्यतम व्यक्ति नींद या आलमेजज़्ब (आत्मविस्मृति) में हो, और- 3. ईश्वरीय संदेशवाहक हज़रत जिब्रील द्वारा प्रत्यक्ष ईश्वरीय संदेश के साथ, जिन्हें ईश्वर के चुने दूत तक पहुँचाने के लिए अवतरित किया जाता है। (क़ुरआन 42 : 51) यह आख़िरी रूप उच्च कोटि का है और इसी रूप में क़ुरआन हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) पर अवतरित हुआ। यह सीमित है केवल ईश-दूतों तक, जिनमें हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) अन्तिम हैं और ईश दूतत्व की अन्तिम कड़ी हैं।

जीवनी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम

मुहम्मद इनायतुल्लाह सुब्हानी इस किताब के अध्ययन से अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के जीवन की प्रमुख झलकियाँ आपके सामने आएंगी और इस किताब को पढ़नेवाला ऐसा महसूस करेगा, जैसे वह ख़ुद उस दौर से गुज़र रहा है, जिस दौर से पैग़म्बरे इस्लाम गुज़रे हैं। सलामती और रहमत हो उस पाक नबी पर जिसने मानवता को दुनिया में रहने का सही ढंग और ख़ुदा तक पहुँचने का सच्चा मार्ग दिखाया। मुबारकबाद हो उन लोगों को जो स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के मार्ग पर चलें और दुनिया को इस मार्ग पर चलने की दावत दें।

हदीस लेक्चर 3: हदीस और सुन्नत - शरीअत के मूलस्रोत के रूप में

डॉ. महमूद अहमद ग़ाज़ी [ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

जगत्-गुरु (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

अबू-ख़ालिद जगत-गुरु (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) दरअस्ल 'हादी-ए-आज़म (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)' (उर्दू) का नया हिन्दी तर्जमा है। 'हादी-ए-आज़म' किताब जनाब अबू-ख़ालिद साहब (एम॰ ए॰) ने ख़ास तौर पर बच्चों के लिए लिखी थी, जो बहुत ज़्यादा पसंद की गई और बहुत-से स्कूलों और मदरसों में यह किताब पढ़ाई जा रही है।

हदीस लेक्चर 2: इल्मे-हदीस - आवश्यकता एवं महत्व

[ये ख़ुतबात (अभिभाषण) जिनकी संख्या 12 है, इस में इल्मे-हदीस (हदीस-ज्ञान) के विभिन्न पहुलुओं पर चर्चा की गई है । इसमें इल्मे-हदीस के फ़न्नी मबाहिस (कला पक्ष) पर भी चर्चा है । इलमे-हदीस के इतिहास पर भी चर्चा है और मुहद्दिसीन (हदीस के ज्ञाताओं) ने हदीसों को इकट्ठा करने, जुटाने और उनका अध्ययन तथा व्याख्या करने में जो सेवाकार्य किया है, उनका भी संक्षेप में आकलन किया गया है।]

हम ऐसी बनें!

अच्छी बात क़बूल करने का एक ज़रिया यह भी है कि चाहे ज़बान से कुछ न कहा जाए, क़लम से कुछ न लिखा जाए, लेकिन अच्छी बातों और अच्छे अख़लाक़ का नमूना सामने आ जाए, साथ ही इनसानियत की चलती-फिरती तस्वीरों में वह समा जाए तो यह नमूना बहुत असरदार होता है। कुछ महान महिलाओं (सहाबियात) के जीवन से उच्च नैतिकता के चंद उदाहरण पढिए इस किताब में

इस्लाम का नैतिक दृष्टिकोण

मानव मात्र के बहुत बड़े अंग ने अपने वे समस्त नैतिक अवगुण उगलकर सर्वसाधारण के सम्मुख रख दिये हैं जिन्हें वह युगों से भीतर ही भीतर पाल रहा था। अब हम इन गन्दगियों को जीवन के धरातल पर प्रत्यक्ष देख रहे हैं जिनकी खोज के लिये पहले कुछ न कुछ गहराई तक उतरने की आवश्यकता थी। अब केवल कोई जन्मांध ही इस भ्रम में पड़ा रह सकता है कि "बीमार का हाल अच्छा है", और केवल वही लोग चिकित्सा की ओर से असावधान रह सकते हैं जो पशुओं के समान नैतिक अनुभूति से सर्वथा वंचित हैं या जिनकी नैतिक अनुभूति नष्ट हो चुकी है।

इस्लाम और सामाजिक न्याय

प्रत्येक मानवीय व्यवस्था कुछ समय तक चलने के बाद खोटी साबित हो जाती है और इनसान इससे मुँह फेरकर एक दूसरे मूर्खतापूर्ण प्रयोग की ओर क़दम बढ़ाने लगता है। वास्तविक न्याय केवल उसी व्यवस्था के अन्तर्गत हो सकता है जिस व्यवस्था को एक ऐसी हस्ती ने बनाया हो जो छिपे-खुले का पूर्ण ज्ञान रखती हो, हर प्रकार की त्रुटियों से पाक हो और महिमावान भी हो।

इस्लाम और अज्ञान

इन्सान इस संसार में अपने आपको मौजद पाता है। उसका एक शरीर है, जिसमें अनेक शक्तियां और ताक़तें हैं। उसके सामने ज़मीन और आसमान का एक अत्यन्त विशाल संसार है, जिसमें लातादाद और असीम चीज़ें हैं और वह अपने अन्दर उन चीज़ों से काम लेने की ताक़त भी पाता है। उसके चारों ओर अनेक मनुष्य, पशु-पक्षी, पेड़-पौधे और पहाड़-पत्थर हैं। और इन सब से उसकी ज़िन्दगी जुड़ी हुई है। अब क्या आपकी समझ में यह बात आती है कि यह उनके साथ कोई व्यवहार संबंध स्थापित कर सकता है, जब तक कि पहले स्वयं अपने विषय में उन तमाम चीज़ों के बारे में और उनके साथ अपने संबंध के बारे में कोई राय क़ायम न कर ले।?

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