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سُورَةُ القِيَامَةِ

75. अल-क़ियामह

(मक्का में उतरी, आयतें 56)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-क़ियामह' को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है और यह केवल नाम ही नहीं है, बल्कि विषय-वस्तु की दृष्टि से इस सूरा का शीर्षक भी है, क्योंकि इसमें क़ियामत ही पर वार्ता की गई है।

उतरने का समय

इसके विषय में एक अन्दरूनी गवाही ऐसी मौजूद है जिससे मालूम होता है कि यह बिल्कुल आरंभिक समय की उतरी सूरतों में से है। आयत 15 के बाद अचानक वार्ता-क्रम तोड़कर अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) [को वह्य ग्रहण करने के बारे में कुछ आदेश दिए गए हैं। आयत 16 से लेकर आयत 19 तक का] यह संविष्ट वाक्य अपने संदर्भ और प्रसंग की दृष्टि से भी और रिवायतों के अनुसार भी इस कारण वार्ता के दौरान आया है कि जिस समय हज़रत जिबरील (अलैहि०) यह सूरा नबी (सल्ल०) को सुना रहे थे, उस समय आप इस आशंका से कि कहीं बाद में भूल न जाएँ, उसके शब्द अपनी मुबारक ज़बान से दोहराते जा रहे थे। इससे मालूम होता है कि यह घटना उस समय की है जब प्यारे नबी (सल्ल०) को वह्य के उतरने का नया-नया अनुभव हो रहा था और अभी आप (सल्ल०) को वह्य ग्रहण करने की आदत अच्छी तरह नहीं पड़ी थी। क़ुरआन मजीद में इसके दो उदाहरण और भी मिलते हैं। एक सूरा-20 ता-हा (आयत 114) में, दूसरा सूरा-87 अल-आला (आयत 6) में। बाद में जब नबी (सल्ल०) को वह्य ग्रहण करने का अच्छी तरह अभ्यास हो गया तो इस तरह के आदेश देने की कोई आवश्यकता बाक़ी नहीं रही। इसी लिए क़ुरआन में इन तीन जगहों के सिवा इसका कोई और उदाहरण नहीं मिलता।

विषय और वार्ता

यहाँ से क़ुरआन के अन्त तक जो सूरतें पाई जाती हैं, उनमें से अधिकतर अपनी विषय-वस्तु और वर्णन-शैली से उस समय की उतरी हुई मालूम होती हैं जब सूरा-74 अल-मुद्दस्सिर की शुरू की आयतों के बाद क़ुरआन के उतरने का सिलसिला बारिश की तरह आरंभ हो गया था। इस सूरा में आख़िरत के इंकारियों को सम्बोधित करके उनके एक-एक सन्देह और एक-एक आपत्ति का उत्तर दिया गया है। बड़ी मज़बूत दलीलों के साथ क़ियामत और आख़िरत की संभावना, उसके घटित होने और उसके अनिवार्यतः घटित होने का प्रमाण दिया गया है और यह भी साफ़-साफ़ बता दिया गया है कि जो लोग भी आखिरत का इंकार करते हैं, उनके इंकार का मूल कारण यह नहीं है कि उनकी बुद्धि उसे असंभव समझती है, बल्कि उसका मूल प्रेरक यह है कि उनकी मनोकामनाएँ उसे मानना नहीं चाहतीं। इसके साथ लोगों को सचेत कर दिया गया है कि जिस वक़्त के आने का तुम इंकार कर रहे हो, वह आकर रहेगा, तुम्हारा सब किया-धरा तुम्हारे सामने लाकर रख दिया जाएगा और वास्तव में तो अपना कर्मपत्र देखने से भी पहले तुममें से हर आदमी को स्वयं मालूम होगा कि वह दुनिया में क्या करके आया है।

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سُورَةُ القِيَامَةِ
45. अल-क़ियामह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
لَآ أُقۡسِمُ بِيَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ
(1) नहीं1, मैं क़सम खाता हूँ क़ियामत के दिन की,
1. बात की शुरुआत ‘नहीं’ से करना ख़ुद-ब-ख़ुद इस बात की दलील है कि पहले से कोई बात चल रही थी, जिसके रद्द में यह सूरा उतरी है और आगे का मज़मून आप-ही ज़ाहिर कर देता है कि वह बात क़ियामत और आख़िरत की ज़िन्दगी के बारे में थी, जिसका मक्कावाले इनकार कर रहे थे, बल्कि साथ-साथ मज़ाक़ भी उड़ा रहे थे। इस अन्दाज़े-बयान को इस मिसाल से अच्छी तरह समझा जा सकता है कि अगर आप सिर्फ़ रसूल की सच्चाई का इक़रार करना चाहते हों तो आप कहेंगे कि “ख़ुदा की क़सम रसूल हक़ पर है।” लेकिन अगर कुछ लोग रसूल की सच्चाई का इनकार कर रहे हों तो आप जवाब में अपनी बात यूँ शुरू करेंगे कि “नहीं, ख़ुदा की क़सम रसूल हक़ पर है।” इसका मतलब यह होगा कि जो कुछ तुम कह रहे हो वह सही नहीं है, मैं क़सम खाकर कहता हूँ कि अस्ल बात यह है।
وَلَآ أُقۡسِمُ بِٱلنَّفۡسِ ٱللَّوَّامَةِ ۝ 1
(2) और नहीं, मैं क़सम खाता हूँ मलामत (निन्दा) करनेवाले नफ़्स (मन)2 की।
2. क़ुरआन मजीद में इनसानी नफ़्स (मन) के तीन क़िस्मों का ज़िक्र किया गया है। एक वह नफ़्स (मन) जो इनसान को बुराइयों पर उकसाता है। उसका नाम ‘नफ़्से-अम्मारा’ है। दूसरा वह नफ़्स जो ग़लत काम करने या ग़लत सोचने या बुरी नीयत रखने पर शर्मिन्दा होता है और इनसान को उसपर मलामत करता है। उसका नाम ‘नफ़्से-लव्वामा’ है और इसी को हम आजकल की ज़बान में ‘ज़मीर’ (अन्तरात्मा) कहते हैं। तीसरा वह नफ़्स (मन) जो सही राह पर चलने और ग़लत राह छोड़ देने में इत्मीनान महसूस करता है। उसका नाम ‘नफ़्से-मुत्मइन्नह्’ है। इस जगह पर अल्लाह तआला ने क़ियामत के दिन और मलामत करनेवाले नफ़्स की क़सम जिस बात पर खाई है उसे बयान नहीं किया है, क्योंकि बाद का जुमला ख़ुद इस बात पर दलील है। क़सम इस बात पर खाई गई है कि अल्लाह तआला इनसान को मरने के बाद दोबारा ज़रूर पैदा करेगा और वह ऐसा करने की पूरी क़ुदरत रखता है। अब यह सवाल पैदा होता है कि इस बात पर इन दो चीज़ों की क़सम क्यों खाई गई है? जहाँ तक क़ियामत के दिन का ताल्लुक़ है, उसकी क़सम खाने की वजह यह है कि उसका आना यक़ीनी है। पूरी कायनात का निज़ाम इस बात पर गवाही दे रहा है कि यह निज़ाम न हमेशा से है, न हमेशा रहनेवाला है। यह निज़ाम जिस तरह का है उससे ख़ुद पता चलता है कि यह न हमेशा से था और न हमेशा बाक़ी रह सकता है। इनसान की अक़्ल पहले भी इस बेबुनियाद गुमान के लिए कोई मज़बूत दलील न पाती थी कि यह हर आन (पल) बदलनेवाली दुनिया कभी पुरानी और अनमिट भी हो सकती है, लेकिन जितना-जितना इस दुनिया के बारे में इनसान का इल्म बढ़ता जाता है उतनी ही ज़्यादा यह बात ख़ुद इनसान के नज़दीक भी यक़ीनी होती चली जाती है कि इस हर आन बदलनेवाली दुनिया की एक शुरुआत है, जिससे पहले यह न थी, और लाज़िमन इसकी एक इन्तिहा भी है, जिसके बाद यह न रहेगी। इस वजह से अल्लाह तआला ने क़ियामत के आने पर ख़ुद क़ियामत ही की क़सम खाई है, और यह ऐसी ही क़सम है जैसे हम किसी शक्की इनसान को जो अपने मौजूद होने ही में शक कर रहा हो, उससे कहें कि तुम्हारी जान की क़सम तुम मौजूद हो, यानी तुम्हारा वुजूद ख़ुद तुम्हारे मौजूद होने पर गवाह है। लेकिन क़ियामत के दिन की क़सम सिर्फ़ इस बात की दलील है कि एक दिन कायनात का यह निज़ाम टूट-फूटकर ख़त्म हो जाएगा। रही यह बात कि उसके बाद फिर इनसान दोबारा उठाया जाएगा और उसको अपने आमाल (कर्मों) का हिसाब देना होगा और वह अपने किए का अच्छा या बुरा नतीजा देखेगा, तो इसके लिए दूसरी क़सम ‘नफ़्से-लव्वामा’ (बुराई पर टोकनेवाला मन) की खाई गई है। कोई इनसान दुनिया में ऐसा मौजूद नहीं है जो अपने अन्दर ज़मीर (अन्तरात्मा) नाम की एक चीज़ न रखता हो। इस ज़मीर में ज़रूर ही भलाई और बुराई का एक एहसास पाया जाता है, और चाहे इनसान कितना ही बिगड़ा हुआ हो, उसका ज़मीर उसे कोई बुराई करने और कोई भलाई न करने पर ज़रूर टोकता है, यह अलग बात है कि उसने भलाई और बुराई का जो पैमाना बना रखा हो वह अपनी जगह ख़ुद सही हो या ग़लत। यह इस बात की साफ़ दलील है कि इनसान निरा हैवान नहीं, बल्कि एक अख़लाक़ी वुजूद है, उसके अन्दर फ़ितरी तौर पर भलाई और बुराई में फ़र्क़ करने का एहसास पाया जाता है, वह ख़ुद अपने-आपको अपने अच्छे और बुरे कामों का ज़िम्मेदार समझता है, और जो बुराई उसने दूसरे के साथ की हो उसपर अगर वह अपने ज़मीर की मलामतों को दबाकर ख़ुश भी हो ले, तो इसके बरख़िलाफ़ सूरत में जबकि यही बुराई किसी दूसरे ने उसके साथ की हो, उसका दिल अन्दर से यह तक़ाज़ा करता है कि इस ज़्यादती का मुजरिम ज़रूर सज़ा का हक़दार होना चाहिए। अब अगर इनसान के वुजूद में इस तरह के एक ‘नफ़्से-लव्वामा’ की मौजूदगी एक अटल हक़ीक़त है, तो फिर इस हक़ीक़त का भी इनकार नहीं किया जा सकता कि यही नफ़्से-लव्वामा मौत के बाद की ज़िन्दगी की एक ऐसी गवाही है जो ख़ुद इनसान की फ़ितरत (स्वभाव) में मौजूद है। क्योंकि फ़ितरत का यह तक़ाज़ा कि अपने जिन अच्छे और बुरे आमाल का इनसान ज़िम्मेदार है उनका इनाम या उनकी सज़ा उसको ज़रूर मिलनी चाहिए, मौत के बाद की ज़िन्दगी के सिवा किसी दूसरी हालत में पूरा नहीं हो सकता। कोई अक़्लमन्द आदमी इससे इनकार नहीं कर सकता कि मरने के बाद अगर आदमी बिलकुल मिट जाए तो उसकी बहुत-सी भलाइयाँ ऐसी हैं जिनके इनाम से वह ज़रूर महरूम रह जाएगा, और उसकी बहुत-सी बुराइयाँ ऐसी हैं जिनकी इंसाफ़ के मुताबिक़ सज़ा पाने से वह ज़रूर बच निकलेगा। इसलिए जब तक आदमी इस बेहूदा बात को न मान ले कि अक़्ल रखनेवाला इनसान एक ग़लत और बेढंगे निज़ामे-कायनात में पैदा हो गया है, और अख़लाक़ी एहसासात (संवेदनाएँ) रखनेवाला इनासन एक ऐसी दुनिया में जन्म ले बैठा है जो बुनियादी तौर पर अपने पूरे निज़ाम में अख़लाक़ का कोई वुजूद ही नहीं रखती, उस वक़्त तक वह मौत के बाद की ज़िन्दगी का इनकार नहीं कर सकता। इसी तरह तनासुख़ (आवागमन या अपने अच्छे-बुरे कामों के मुताबिक़ इसी दुनिया में फिर जन्म लेने) का फ़लसफ़ा (दर्शन) भी फ़ितरत की इस माँग का जवाब नहीं है। क्योंकि अगर इनसान अपने अख़लाक़ी आमाल की सज़ा या इनाम पाने के लिए फिर इसी दुनिया में जन्म लेता चला जाए तो हर जन्म में वह फिर कुछ और अख़लाक़ी काम करता चला जाएगा जो नए सिरे से इनाम और सज़ा का तक़ाज़ा करेंगे, और इस कभी ख़त्म न होनेवाले सिलसिले में बजाय इसके कि उसका हिसाब कभी चुक सके, उलटा उसका हिसाब बढ़ता ही चला जाएगा। इसलिए फ़ितरत का यह तक़ाज़ा सिर्फ़ इसी सूरत में पूरा होता है कि इस दुनिया में इनसान की सिर्फ़ एक ज़िन्दगी हो, और फिर तमाम इनसानों का ख़ातिमा हो जाने के बाद एक दूसरी ज़िन्दगी हो जिसमें इनसान के आमाल का ठीक-ठीक हिसाब करके उसे पूरा इनाम या सज़ा दे दी जाए (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-30)।
أَيَحۡسَبُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَلَّن نَّجۡمَعَ عِظَامَهُۥ ۝ 2
(3) क्या इनसान यह समझ रहा है कि हम उसकी हड्डियों को इकट्ठा न कर सकेंगे?3
3. ऊपर की दो दलीलें, जो क़सम की शक्ल में बयान की गई हैं, सिर्फ़ दो बातें साबित करती हैं। एक यह कि दुनिया का ख़ातिमा (यानी क़ियामत का पहला मरहला) एक यक़ीनी बात है। दूसरी यह कि मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी ज़रूरी है, क्योंकि उसके बिना इनसान के एक अख़लाक़ी वुजूद होने के अक़ली और फ़ितरी तक़ाज़े पूरे नहीं हो सकते, और यह बात ज़रूर होनेवाली है, क्योंकि इनसान के अन्दर ज़मीर की मौजूदगी इसपर गवाही दे रही है। अब यह तीसरी दलील यह साबित करने के लिए पेश की गई है कि मौत के बाद ज़िन्दगी मुमकिन है। मक्का में जो लोग इसका इनकार करते थे वे बार-बार यह कहते थे आख़िर यह कैसे हो सकता है कि जिन लोगों को मरे हुए सैकड़ों-हज़ारों साल बीत चुके हों, जिनके जिस्म का ज़र्रा-ज़र्रा मिट्टी में मिल चुका हो, जिनकी हड्डियाँ तक गलकर न जाने ज़मीन में कहाँ-कहाँ बिखर चुकी हों, जिनमें से कोई जल मरा हो, कोई दरिन्दों के पेट में जा चुका हो, कोई समुद्र में डूबकर मछलियों का खाना बन चुका हो, उन सबके जिस्मों के हिस्से फिर से इकट्ठे हो जाएँ और हर इनसान फिर वही शख़्स बनकर खड़ा हो जो दस बीस हज़ार साल पहले कभी वह था? इसका बिलकुल सही और ज़ोरदार जवाब अल्लाह तआला ने इस छोटे-से सवाल की शक्ल में दिया है कि “क्या इनसान यह समझ रहा है कि हम उसकी हड्डियों को कभी इकट्ठा न कर सकेंगे?” यानी अगर तुमसे यह कहा गया होता कि तुम्हारे जिस्म के ये बिखरे हुए हिस्से किसी वक़्त आप-से-आप इकट्ठे हो जाएँगे और तुम आप-से-आप इसी जिस्म के साथ जी उठोगे, तो बेशक तुम्हारा इसको नामुमकिन समझना सही होता। मगर तुमसे तो कहा यह गया है कि यह काम ख़ुद नहीं होगा, बल्कि अल्लाह तआला ऐसा करेगा। अब क्या तुम सचमुच यह समझ रहे हो कि कायनात का पैदा करनेवाला, जिसे तुम ख़ुद भी पैदा करनेवाला मानते हो, यह काम नहीं कर सकता? यह ऐसा सवाल था जिसके जवाब में कोई शख़्स जो ख़ुदा को कायनात का बनानेवाला मानता हो, न उस वक़्त यह कह सकता था और न आज कह सकता है कि ख़ुदा भी यह काम करना चाहे तो नहीं कर सकता। और अगर कोई बेवक़ूफ़ ऐसी बात कहे तो उससे पूछा जा सकता है कि तुम आज जिस जिस्म में इस वक़्त मौजूद हो उसके अनगिनत हिस्सों को हवा, पानी और मिट्टी और न जाने कहाँ-कहाँ से इकट्ठा करके उसी अल्लाह ने कैसे यह जिस्म बना दिया जिसके बारे में तुम यह कह रहे हो कि वह फिर इन हिस्सों (अंगों) को इकट्ठा नहीं कर सकता?
بَلَىٰ قَٰدِرِينَ عَلَىٰٓ أَن نُّسَوِّيَ بَنَانَهُۥ ۝ 3
(4) क्यों नहीं? हम तो उसकी उँगलियों की पोर-पोर तक ठीक बना देने की क़ुदरत (सामर्थ्य) रखते हैं।4
4. यानी बड़ी-बड़ी हड्डियों को इकट्ठा करके तुम्हारा ढाँचा फिर से खड़ा करना तो दूर रहा, हम तो ऐसा भी कर सकते हैं कि तुम्हारे जिस्म के सबसे ज़्यादा नाज़ुक अंगों यहाँ तक कि तुम्हारी उँगलियों की पोरों तक को फिर वैसा ही बना दें जैसी वे पहले थीं।
بَلۡ يُرِيدُ ٱلۡإِنسَٰنُ لِيَفۡجُرَ أَمَامَهُۥ ۝ 4
(5) मगर इनसान चाहता यह है कि आगे भी बुरे काम करता रहे।5
5. इस छोटे-से जुमले में आख़िरत का इनकार करनेवालों के अस्ल रोग की साफ़-साफ़ जाँच-पड़ताल कर दी गई है। इन लोगों को जो चीज़ आख़िरत के इनकार पर आमादा करती है वह अस्ल में यह नहीं है कि सचमुच वे क़ियामत और आख़िरत को नामुमकिन समझते हैं, बल्कि उनके इस इनकार की अस्ल वजह यह है कि आख़िरत को मानने से ज़रूर ही उनपर कुछ अख़लाक़ी पाबन्दियाँ आ पड़ती हैं, और उन्हें ये पाबन्दियाँ नागवार हैं। वे चाहते हैं कि जिस तरह वे अब तक ज़मीन में बेनथे बैल की तरह फिरते रहे हैं उसी तरह आगे भी फिरते रहें। जो ज़ुल्म, जो बेईमानियाँ, जो ख़ुदा की खुली-छिपी नाफ़रमानियाँ, जो बुरे काम वे अब तक करते रहे हैं, आगे भी उनको इसकी खुली छूट मिली रहे, और यह ख़याल कभी उनको ये नाजाइज़ आज़ादियाँ बरतने से न रोकने पाए कि एक दिन उन्हें अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर अपने इन आमाल (कर्मों) की जवाबदेही करनी पड़ेगी। इसलिए अस्ल में उनकी अक़्ल उन्हें आख़िरत पर ईमान लाने से नहीं रोक रही है, बल्कि उनके मन की ख़ाहिशें इसमें रुकावट हैं।
يَسۡـَٔلُ أَيَّانَ يَوۡمُ ٱلۡقِيَٰمَةِ ۝ 5
(6) पूछता है, “आख़िर कब आना है वह क़ियामत का दिन?“6
6. यह सवाल पूछने के तौर पर नहीं, बल्कि इनकार और मज़ाक़ उड़ाने के तौर पर था। यानी वे यह पूछना नहीं चाहते थे कि क़ियामत किस दिन आएगी, बल्कि मज़ाक़ के तौर पर कहते थे कि जनाब! जिस दिन की आप ख़बर दे रहे हैं आख़िर वह आते-आते रह कहाँ गया है?
فَإِذَا بَرِقَ ٱلۡبَصَرُ ۝ 6
(7) फिर जब दीदे पथरा जाएँगे7
7. अस्ल अरबी में ‘बरिक़ल-ब-सरु’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, जिनका लुग़वी मानी (शब्दिक अर्थ) बिजली की चमक से आँखों का चैंधिया जाना है। लेकिन अरबी मुहावरे में ये अलफ़ाज़ इसी मानी के लिए ख़ास नहीं हैं, बल्कि डर जाने, हैरत या किसी अचानक हादिसे से दोचार हो जाने की सूरत में अगर आदमी हक्का-बक्का रह जाए और उसकी निगाह उस परेशान कर देनेवाले मंज़र की तरफ़ जमकर रह जाए जो उसको नज़र आ रहा हो तो उसके लिए भी ये अलफ़ाज़ बोले जाते हैं। इसी बात को क़ुरआन मजीद में एक दूसरी जगह यूँ बयान किया गया है, “अल्लाह तो इन्हें टाल रहा है उस दिन के लिए जब आँखें फटी की फटी रह जाएँगी।” (सूरा-14 इबराहीम, आयत-42)
وَخَسَفَ ٱلۡقَمَرُ ۝ 7
(8) और चाँद बेनूर (प्रकाशहीन) हो जाएगा
وَجُمِعَ ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ ۝ 8
(9) और चाँद-सूरज मिलाकर एक कर दिए जाएँगे8,
8. यह क़ियामत के पहले मरहले में कायनात के निज़ाम के टूट-फूटकर ख़त्म हो जाने की कैफ़ियत का एक छोटा-सा बयान है। चाँद के बुझ जाने और चाँद-सूरज के मिलकर एक हो जाने का मतलब यह भी हो सकता है कि सिर्फ़ चाँद ही की रौशनी ख़त्म न होगी जो सूरज से मिल रही है, बल्कि ख़ुद सूरज भी बे-रौशनी हो जाएगा और बे-रौशनी के हो जाने में दोनों एक जैसे हो जाएँगे। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि ज़मीन यकायक उलटी चल पड़ेगी और उस दिन चाँद और सूरज दोनों एक साथ पश्चिम से निकलेंगे। और एक तीसरा मतलब यह भी लिया जा सकता है कि चाँद एकदम ज़मीन की गरिफ़्त से छूटकर निकल जाएगा और सूरज में जा पड़ेगा। मुमकिन है कि इसका कोई और मतलब भी हो जिसको आज हम नहीं समझ सकते।
يَقُولُ ٱلۡإِنسَٰنُ يَوۡمَئِذٍ أَيۡنَ ٱلۡمَفَرُّ ۝ 9
(10) उस समय यही इंसान कहेगा, “कहाँ भागकर जाऊँ?”
كَلَّا لَا وَزَرَ ۝ 10
(11) हरगिज़ नहीं, वहाँ कोई पनाह लेने की जगह न होगी,
إِلَىٰ رَبِّكَ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡمُسۡتَقَرُّ ۝ 11
(12) उस दिन तेरे रब ही के सामने जाकर ठहरना होगा।
يُنَبَّؤُاْ ٱلۡإِنسَٰنُ يَوۡمَئِذِۭ بِمَا قَدَّمَ وَأَخَّرَ ۝ 12
(13) उस दिन इंसान को उसका सब अगला-पिछला किया-कराया बता दिया जाएगा9।
9. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘बिमा क़द-द-म वअख़-ख़र’। यह जुमला अपने अन्दर बहुत-से मानी रखता है इसलिए इसके कई मतलब हो सकते हैं और शायद वे सब ही मुराद हैं। एक मतलब इसका यह है कि आदमी को उस दिन यह भी बता दिया जाएगा कि अपनी दुनिया की ज़िन्दगी में मरने से पहले क्या भलाई या बुराई कमाकर उसने अपनी आख़िरत के लिए आगे भेजी थी और यह हिसाब भी उसके सामने रख दिया जाएगा कि अपने अच्छे या बुरे आमाल के क्या असरात वह अपने पीछे दुनिया में छोड़ आया था, जो उसके बाद एक लम्बी मुद्दत तक आनेवाली नस्लों में चलते रहे। दूसरा मतलब यह है कि उसे वह सब कुछ बता दिया जाएगा जो उसे करना चाहिए था, मगर उसने नहीं किया और जो कुछ न करना चाहिए था, मगर उसने कर डाला। तीसरा मतलब यह है कि जो कुछ उसने पहले किया और जो कुछ बाद में किया उसका पूरा हिसाब तारीख़ के साथ उसके सामने रख दिया जाएगा। चौथा मतलब यह है कि जो भलाई या बुराई उसने की वह भी बता दी जाएगी और जिस भलाई या बुराई के करने से वह रुका रहा उससे भी उसे आगाह कर दिया जाएगा।
بَلِ ٱلۡإِنسَٰنُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦ بَصِيرَةٞ ۝ 13
(14) बल्कि इनसान ख़ुद ही अपने-आपको ख़ूब जानता है
وَلَوۡ أَلۡقَىٰ مَعَاذِيرَهُۥ ۝ 14
(15) चाहे वह कितने ही बहाने पेश करे10
10. यानी आदमी का आमालनामा उसके सामने रखने की ग़रज़ हक़ीक़त में यह नहीं होगी कि मुजरिम को उसका जुर्म बताया जाए, बल्कि ऐसा करना तो इस वजह से ज़रूरी होगा कि इनसाफ़ के तक़ाज़े अदालत के सामने जुर्म का सुबूत पेश किए बिना पूरे नहीं होते। वरना हर इनसान ख़ूब जानता है कि वह ख़ुद क्या है। अपने-आपको जानने के लिए वह इसका मुहताज नहीं होता कि कोई दूसरा उसे बताए कि वह क्या है। एक झूठा दुनिया-भर को धोखा दे सकता है, लेकिन उसे ख़ुद तो मालूम होता है कि वह झूठ बोल रहा है। एक चोर लाख बहाने अपनी चोरी छिपाने के लिए अपना सकता है, मगर उसके अपने मन से तो यह बात छिपी नहीं होती कि वह चोर है। एक गुमराह आदमी हज़ार दलीलें पेश करके लोगों को यह यक़ीन दिला सकता है कि वह जिस कुफ़्र या नास्तिकता या शिर्क को मानता है वह हक़ीक़त में उसे पूरी ईमानदारी से मानता है, लेकिन उसका अपना ज़मीर तो इससे अनजान नहीं होता कि इन अक़ीदों पर वह क्यों जमा हुआ है और इनकी ग़लती समझने और मानने से अस्ल में क्या चीज़ उसे रोक रही है। एक ज़ालिम, एक बेईमान, एक बुरे किरदारवाला, एक हरामख़ोर, अपने बुरे कामों के लिए तरह-तरह के बहाने पेश करके ख़ुद अपने ज़मीर तक का मुँह बन्द करने की कोशिश करता है, ताकि वह उसे मलामत करने से बाज़ आ जाए और यह मान ले कि सचमुच कुछ मजबूरियाँ, कुछ मस्लहतें, कुछ ज़रूरतें ऐसी हैं जिनकी वजह से वह यह सब कुछ कर रहा है, लेकिन इसके बावुजूद उसको यह इल्म तो बहरहाल होता ही है कि उसने किसपर क्या ज़ुल्म किया है, किसका हक़ मारा है, किसकी इज़्ज़त ख़राब की है, किसको धोखा दिया है, और किन नाजाइज़ तरीक़ों से क्या कुछ हासिल किया है। इसलिए आख़िरत की अदालत में पेश होते वक़्त हर हक़ का इनकारी, हर मुनाफ़िक़ (कपटाचारी), हर ख़ुदा का खुला-छिपा नाफ़रमान और मुजरिम ख़ुद जानता होगा कि वह क्या करके आया है और किस हैसियत में आज अपने ख़ुदा के सामने खड़ा है।
لَا تُحَرِّكۡ بِهِۦ لِسَانَكَ لِتَعۡجَلَ بِهِۦٓ ۝ 15
(16) ऐ नबी,11 इस वह्य को जल्दी-जल्दी याद करने के लिए अपनी ज़बान को हरकत न दो,
11. यहाँ से लेकर “फिर इसका मतलब समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है” तक की पूरी इबारत बीच में आ गई एक बात है जो तक़रीर के सिलसिले को बीच में तोड़कर नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करके कही गई है। जैसा कि हम परिचय में बयान कर आए हैं, नुबूवत के शुरुआती दौर में, जबकि नबी (सल्ल०) को वह्य अपना लेने की आदत और मश्क़ (अभ्यास) पूरी तरह नहीं हुई थी, आप (सल्ल०) पर जब वह्य उतरती थी तो आपको यह अन्देशा लग जाता था कि जिबरील (अलैहि०) जो अल्लाह का कलाम सुना रहे हैं वह आप (सल्ल०) को ठीक-ठीक याद रह सकेगा या नहीं, इसलिए आप (सल्ल०) वह्य सुनने के साथ-साथ उसे याद करने की कोशिश करने लगते थे। ऐसी ही सूरत उस वक़्त पेश आई जब हज़रत जिबरील (अलैहि०) सूरा क़ियामह की ये आयतें आप (सल्ल०) को सुना रहे थे। चुनाँचे बात के सिलसिले को तोड़कर आप (सल्ल०) को हिदायत की गई कि आप (सल्ल०) वह्य के अलफ़ाज़ याद करने की कोशिश न करें, बल्कि ग़ौर से सुनते रहें, उसे याद करा देना और बाद में ठीक-ठीक आपसे पढ़वा देना ख़ुदा के ज़िम्मे है, आप मुत्मइन रहें कि इस कलाम का एक लफ़्ज़ भी आप न भूलेंगे न कभी उसे अदा करने में ग़लती कर सकेंगे। यह हिदायत देने के बाद फिर अस्ल तक़रीर का सिलसिला “हरगिज़ नहीं, अस्ल बात यह है” से शुरू हो जाता है। जो लोग इस पसमंज़र (पृष्ठभूमि) को नहीं जानते वे इस जगह पर इन जुमलों को देखकर यह महसूस करते हैं कि तक़रीर के इस सिलसिले में यह बिलकुल बेजोड़ है। लेकिन इस पसमंज़र को समझ लेने के बाद बात में कोई बेतरतीबी महसूस नहीं होती। इसकी मिसाल ऐसी है जैसे एक उस्ताद दर्स (लेक्चर) देते-देते यकायक यह देखे कि स्टूडेंट किसी और तरफ़ ध्यान लगाए है और वह दर्स का सिलसिला तोड़कर स्टूडेंट से कहे कि ध्यान से मेरी बात सुनो और उसके बाद फिर अपनी बात शुरू कर दे। यह लेक्चर अगर ज्यों-का-त्यों नक़्ल कर के छाप दिया जाए तो जो लोग इस वाक़िए को न जानते होंगे वे तक़रीर के इस सिलसिले में इस जुमले को बेजोड़ महसूस करेंगे। लेकिन जो शख़्स उस अस्ल वाक़िए से वाक़िफ़ होगा जिसकी वजह से यह जुमला बीच में आया है वह मुत्मइन हो जाएगा कि दर्स हक़ीक़त में ज्यों-का-त्यों नक़्ल किया गया है, उसे नक़्ल करने में कोई कमी-बेशी नहीं हुई है। ऊपर इन आयतों के बीच ये जुमले अलग से आ गई बात के तौर पर आने की जो वजह हमने बयान की है वह सिर्फ़ अन्दाज़े से नहीं कही गई है, बल्कि भरोसेमन्द रिवायतों में इसकी यही वजह बयान हुई है। मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-जरीर, तबरानी, बैहक़ी और हदीस के दूसरे आलिमों ने कई भरोसेमन्द सनदों से हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की यह रिवायत नक़्ल की है कि जब नबी (सल्ल०) पर क़ुरआन उतरता था तो आप (सल्ल०) इस डर से कि कहीं कोई चीज़ भूल न जाएँ, जिबरील (अलैहि०) के साथ वह्य के अलफ़ाज़ दोहराने लगते थे। इसपर फ़रमाया गया कि “इस (वह्य) को जल्दी-जल्दी याद करने के लिए अपनी ज़बान को हरकत मत दो .....। “यही बात शअ्बी, इब्ने-ज़ैद, ज़ह्हाक, हसन बसरी, क़तादा, मुजाहिद और क़ुरआन के दूसरे बड़े आलिमों ने लिखी है।
إِنَّ عَلَيۡنَا جَمۡعَهُۥ وَقُرۡءَانَهُۥ ۝ 16
(17) इसको याद करा देना और पढ़वा देना हमारे ज़िम्मे है,
فَإِذَا قَرَأۡنَٰهُ فَٱتَّبِعۡ قُرۡءَانَهُۥ ۝ 17
(18) इसलिए जब हम इसे पढ़ रहे हों12 उस वक़्त तुम इसके पढ़े जाने को ग़ौर से सुनते रहो,
12. अगरचे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को जिबरील (अलैहि०) क़ुरआन पढ़कर सुनाते थे, लेकिन चूँकि वे अपनी तरफ़ से नहीं, बल्कि अल्लाह तआला की तरफ़ से पढ़ते थे, इसलिए अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि “जब हम इसे पढ़ रहे हों।”
ثُمَّ إِنَّ عَلَيۡنَا بَيَانَهُۥ ۝ 18
(19) फिर इसका मतलब समझा देना भी हमारे ही ज़िम्मे है13—
13. इससे गुमान होता है, और क़ुरआन के कुछ बड़े आलिमों ने भी इस गुमान का इज़हार किया है कि शायद शुरुआती ज़माने में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) वह्य के उतरने के दौरान ही में क़ुरआन की किसी आयत या किसी लफ़्ज़ या किसी हुक्म का मतलब भी जिबरील (अलैहि०) से पूछ लेते थे, इसलिए नबी (सल्ल०) को न सिर्फ़ यह हिदायत की गई कि जब वह्य उतर रही हो उस वक़्त आप ख़ामोशी से उसको सुनें, और न सिर्फ़ यह इत्मीनान दिलाया गया कि उसका लफ़्ज़-लफ़्ज़ ठीक-ठीक आपकी याददाश्त में महफ़ूज़ कर दिया जाएगा और क़ुरआन को आप ठीक उसी तरह पढ़ सकेंगे जिस तरह वह उतरा है, बल्कि साथ-साथ यह वादा भी किया गया कि अल्लाह तआला के हर हुक्म और हर फ़रमान की मंशा और मक़सद भी पूरी तरह आपको समझा दिया जाए। यह एक बड़ी अहम आयत है, जिससे कुछ ऐसी उसूली बातें साबित होती हैं, जिन्हें अगर आदमी अच्छी तरह समझ ले तो उन गुमराहियों से बच सकता है जो पहले भी कुछ लोग फैलाते रहे हैं और आज भी फैला रहे हैं। सबसे पहले तो इससे यह साबित होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर सिर्फ़ वही वह्य नहीं उतरती थी जो क़ुरआन में दर्ज है, बल्कि उसके अलावा भी वह्य के ज़रीए से आप (सल्ल०) को ऐसा इल्म दिया जाता था जो क़ुरआन में दर्ज नहीं है। इसलिए कि क़ुरआन के हुक्मों, उसमें बयान हुई बातों, उसके अलफ़ाज़ और उसकी ख़ास इस्तिलाहों (शब्दावलियों) का मतलब और मक़सद नबी (सल्ल०) को समझाया जाता था। वह अगर क़ुरआन ही में दर्ज होता तो यह कहने की कोई ज़रूरत न थी कि इसका मतलब समझा देना या इसकी तशरीह कर देना भी हमारे ही ज़िम्मे है, क्योंकि वह तो फिर क़ुरआन ही में मिल जाता। लिहाज़ा यह मानना पड़ेगा कि क़ुरआन के मतलबों को समझाने और उसकी तशरीह का काम जो अल्लाह तआला की तरफ़ से किया जाते थे वह बहरहाल क़ुरआन के अलफ़ाज़ से अलग था। यह ‘वह्य-ए-ख़फ़ी’ (छिपी हुई वह्य) का एक और सुबूत है जो हमें क़ुरआन से मिलता है (क़ुरआन मजीद से इसके और ज़्यादा सुबूत हमने अपनी किताब ‘सुन्नत की आईनी हैसियत’ में पेज 94, 95 और 118 से 125 में पेश कर दिए हैं)। दूसरे, क़ुरआन का मतलब और मक़सद और उसके हुक्मों की यह तशरीह जो अल्लाह तआला की तरफ़ से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को बताई गई थी आख़िर इसी लिए तो बताई गई थी कि आप अपनी बातों और अपने अमल से उसके मुताबिक़ लोगों को क़ुरआन समझाएँ और उसके हुक्मों पर अमल करना सिखाएँ। अगर यह उसका मक़सद न था और यह तशरीह आपको सिर्फ़ इसलिए बताई गई थी कि आप (सल्ल०) अपने-आपकी हद तक इस इल्म को महदूद रखें तो यह एक बेकार काम था, क्योंकि पैग़म्बरी की ज़िम्मेदारियों के अदा करने में इससे कोई मदद नहीं मिल सकती थी। इसलिए सिर्फ़ एक बेवकू़फ़ आदमी ही यह कह सकता है कि तशरीह का यह इल्म सिरे से कोई शरई हैसियत न रखता था। अल्लाह तआला ने ख़ुद सूरा-16 नह्ल, आयत-44, में फ़रमाया है, “और ऐ नबी, यह ज़िक्र हमने तुमपर इसलिए उतारा है ताकि तुम लोगों के सामने उस तालीम को खोलकर साफ़-साफ़ बयान करते जाओ जो उनके लिए उतारी गई है।” (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-नह्ल, हाशिया-40।) और क़ुरआन में चार जगह अल्लाह तआला ने साफ़ तौर से कहा है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का काम सिर्फ़ अल्लाह की किताब की आयतें सुना देना ही न था, बल्कि इस किताब की तालीम देना भी था। (सूरा-2 बक़रा, आयतें—129, 151; सूरा-3 आले-इमरान, आयत-164; सूरा-62 जुमुआ, आयत-2। इन सब आयतों की तशरीह हम “सुन्नत की आईनी हैसियत” में पेज 74 से 77 तक तफ़सील के साथ कर चुके हैं।) इसके बाद कोई ऐसा आदमी जो क़ुरआन को मानता हो इस बात को मानने से कैसे इनकार कर सकता है कि क़ुरआन की सही और तसदीक़ की हुई, बल्कि हक़ीक़त में सरकारी तशरीह सिर्फ़ वह है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी ज़बान और अमल से कर दी है, क्योंकि वह आपकी निजी तशरीह नहीं है, बल्कि ख़ुद क़ुरआन के उतारनेवाले अल्लाह की बताई हुई तशरीह है। उसको छोड़कर या उससे हटकर जो शख़्स भी क़ुरआन की किसी आयत या उसके किसी लफ़्ज़ का कोई मनमाना मतलब बयान करता है, वह ऐसी जसारत (दुस्साहस) करता है जिसको कोई ईमानवाला आदमी नहीं कर सकता। तीसरे, क़ुरआन को सरसरी तौर पर भी अगर किसी शख़्स ने पढ़ा हो तो वह यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि इसमें बहुत-सी बातें ऐसी हैं जिन्हें एक अरबी जाननेवाला आदमी सिर्फ़ क़ुरआन के अलफ़ाज़ पढ़कर यह नहीं जान सकता कि उनका हक़ीक़ी मतलब क्या है और उनमें जो हुक्म बयान किया गया है उसपर कैसे अमल किया जाए। मिसाल के तौर पर लफ़्ज़ ‘सलात’ (नमाज़) ही को लीजिए। क़ुरआन मजीद में ईमान के बाद अगर किसी अमल पर सबसे ज़्यादा ज़ोर दिया गया है तो वह ‘सलात’ है। लेकिन सिर्फ़ अरबी लुग़त की मदद से कोई शख़्स उसका मतलब तक तय नहीं कर सकता। क़ुरआन में उसका ज़िक्र बार-बार देखकर ज़्यादा-से-ज़्यादा जो कुछ वह समझ सकता है वह यह है कि अरबी ज़बान के इस लफ़्ज़ को किसी ख़ास मानी में इस्तेमाल किया गया है, और इससे मुराद शायद कोई ख़ास काम है जिसे करने की ईमानवालों से माँग की जा रही है। लेकिन सिर्फ़ क़ुरआन को पढ़कर कोई अरबी जाननेवाला यह तय नहीं कर सकता कि वह ख़ास काम क्या है और किस तरह उसे किया जाए। सवाल यह है कि अगर क़ुरआन के भेजनेवाले ने अपनी तरफ़ से एक मुअल्लिम (शिक्षक) को मुक़र्रर करके अपने इस ख़ास लफ़्ज़ का मतलब उसे ठीक-ठीक न बताया होता और सलात के हुक्म पर अमल करने का तरीक़ा पूरी तरह साफ़-साफ़ उसे न सिखा दिया होता, तो क्या सिर्फ़ क़ुरआन को पढ़कर दुनिया में कोई दो मुसलमान भी ऐसे हो सकते थे जो ‘सलात’ के हुक्म पर अमल करने की किसी एक शक्ल पर एकराय हो जाते? आज डेढ़ हज़ार साल से मुसलमान नस्ल-दर-नस्ल एक ही तरह जो नमाज़ पढ़ते चले आ रहे हैं, और दुनिया के हर कोने में करोड़ों मुसलमान जिस तरह नमाज़ के हुक्म पर एक जैसा अमल कर रहे हैं, उसकी वजह यही तो है कि अल्लाह तआला ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर सिर्फ़ क़ुरआन के अलफ़ाज़ ही वह्य नहीं किए थे, बल्कि उन अलफ़ाज़ का मतलब भी आप (सल्ल०) को पूरी तरह समझा दिया था, और इसी मतलब की तालीम आप (सल्ल०) उन सब लोगों को देते चले गए जिन्होंने क़ुरआन को अल्लाह की किताब और आप (सल्ल०) को अल्लाह का रसूल मान लिया। चौथे, क़ुरआन के अलफ़ाज़ की जो तशरीह अल्लाह ने अपने रसूल (सल्ल०) को बताई और रसूल (सल्ल०) ने अपनी ज़बान और अमल से उसकी जो तालीम उम्मत (पैरवी करनेवालों) को दी, उसको जानने का ज़रिआ हमारे पास हदीस और सुन्नत के सिवा और कोई नहीं है। हदीस से मुराद वे रिवायतें हैं जो नबी (सल्ल०) की कही हुई बातों और किए हुए कामों के बारे में सनद (प्रमाण) के साथ अगलों से पिछलों तक पहुँचीं। और सुन्नत से मुराद वह तरीक़ा है जो नबी (सल्ल०) की ज़बानी और अमली तालीम से मुस्लिम समाज की इन्‌फ़िरादी और इजतिमाई ज़िन्दगी में रिवाज पाया, जिसकी तफ़सीलात भरोसेमन्द रिवायतों से भी बाद की नस्लों को अगली नस्लों से मिली, और बाद की नस्लों ने अगली नस्लों में इसपर अमल होते भी देखा। इल्म के इस ज़रिए को क़ुबूल करने से जो शख़्स इनकार करता है वह मानो यह कहता है कि अल्लाह तआला ने ‘सुम-म इन-न अलै-ना बयानहू’ (फिर हमारे ज़िम्मे है उसे बयान करना) कहकर क़ुरआन का मतलब अपने रसूल को समझा देने की जो ज़िम्मेदारी ली थी उसे पूरा करने में, अल्लाह की पनाह, वह नाकाम हो गया, क्योंकि यह ज़िम्मेदारी सिर्फ़ रसूल को निजी हैसियत से मतलब समझाने के लिए नहीं ली गई थी, बल्कि इसलिए ली गई थी कि रसूल (सल्ल०) के ज़रिए से उम्मत को अल्लाह की किताब का मतलब समझाया जाए, और इस बात का इनकार करते ही कि हदीस और सुन्नत हमारे लिए क़ानून का दर्जा नहीं रखते आप-से-आप यह लाज़िम हो जाता है कि अल्लाह तआला इस ज़िम्मेदारी को पूरा नहीं कर सका है। हम इसके लिए अल्लाह की पनाह माँगते हैं। इसके जवाब में जो शख़्स यह कहता है कि बहुत-से लोगों ने हदीसें गढ़ भी तो ली थीं, उससे हम कहेंगे कि हदीसों का गढ़ा जाना ख़ुद इस बात का सबसे बड़ा सुबूत है कि शरू में पूरी उम्मत अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की फ़रमाई हुई बातों और किए हुए कामों को क़ानून का दर्जा देती थी, वरना आख़िर गुमराही फैलानेवालों को झूठी हदीसें गढ़ने की ज़रूरत ही क्यों पेश आई? जालसाज़ लोग वही सिक्के तो जाली बनाते हैं जिनका बाज़ार में चलन हो। जिन नोटों की बाज़ार में कोई क़ीमत न हो उन्हें कौन बेवक़ूफ़ जाली तौर पर छापेगा? फिर ऐसी बात कहनेवालों को शायद यह मालूम नहीं है कि इस उम्मत ने पहले दिन से इस बात का इन्तिज़ाम किया था कि जिस पाक हस्ती (सल्ल०) की बातें और काम क़ानून का दर्जा रखते हैं उसकी तरफ़ कोई ग़लत बात जोड़ी न जा सके, और जितना-जितना ग़लत बातों के उस हस्ती से जोड़े जाने का ख़तरा बढ़ता गया उतना ही इस उम्मत का भला चाहनेवाले इस बात का ज़्यादा-से-ज़्यादा एहतिमाम करते चले गए कि सही को ग़लत से अलग किया जाए। सही और ग़लत रिवायतों के पहचानने का यह इल्म एक बड़ा अहम और अज़ीमुश्शान इल्म है जो मुसलमानों के सिवा दुनिया की किसी क़ौम ने आज तक ईजाद नहीं किया है। सख़्त बदनसीब हैं वे लोग जो इस इल्म को हासिल किए बिना इस्लाम के मग़रिबी अंधे मुख़ालिफ़ों के बहकावे में आकर हदीस और सुन्नत को भरोसा न करने के क़ाबिल ठहराते हैं और नहीं जानते कि अपने इस जहालत भरी हरकत (दुस्साहस) से वे इस्लाम को कितना बड़ा नुक़सान पहुँचा रहे हैं।
كَلَّا بَلۡ تُحِبُّونَ ٱلۡعَاجِلَةَ ۝ 19
(20) हरगिज़ नहीं,14 अस्ल बात यह है कि तुम लोग जल्दी हासिल होनेवाली चीज़ (यानी दुनिया) से मुहब्बत रखते हो
14. यहाँ से बात का सिलसिला फिर उसी बात से जुड़ जाता है जो बीच में अलग से आ गए जुमले से पहले चला आ रहा था। हरगिज़ नहीं का मतलब यह है कि तुम्हारे आख़िरत के इनकार की अस्ल वजह यह नहीं है कि तुम कायनात के पैदा करनेवाले को क़ियामत बरपा करने और मौत के बाद दोबारा ज़िन्दा कर देने से मजबूर समझते हो, बल्कि अस्ल वजह यह है।
وَتَذَرُونَ ٱلۡأٓخِرَةَ ۝ 20
(21) और आख़िरत को छोड़ देते हो।15
15. यह आख़िरत के इनकार की दूसरी वजह है। पहली वजह आयत-5 में बयान की गई थी कि इनसान चूँकि मनमानी करने की खुली छूट चाहता है और उन अख़लाक़ी पाबन्दियों से बचना चाहता है जो आख़िरत को मानने से लाज़िमी तौर से उसपर लागू होती हैं, इसलिए अस्ल में मन की ख़ाहिशें उसे आख़िरत के इनकार पर उभारती हैं और फिर वह अक़ली दलीलें बघारता है, ताकि अपने इस इनकार को सही साबित करे। अब दूसरी वजह यह बयान की जा रही है कि आख़िरत का इनकार करनेवाले चूँकि तंगनज़र (संकुचित दृष्टि) हैं और दूर-अन्देश नहीं हैं इसलिए उनकी निगाह में सारी अहमियत उन्हीं नतीजों की है जो इसी दुनिया में ज़ाहिर होते हैं और उन नतीजों को वे कोई अहमियत नहीं देते जो आख़िरत में ज़ाहिर होनेवाले हैं। वे समझते हैं कि जो फ़ायदा या लज़्ज़त या ख़ुशी यहाँ हासिल हो जाए उसी की चाह में सारी मेहनतें और कोशिशें खपा देनी चाहिएँ, क्योंकि उसे पा लिया तो मानो सब कुछ पा लिया, चाहे आख़िरत में इसका अंजाम कितना ही बुरा हो। इसी तरह उनका ख़याल यह है कि जो नुक़सान या तकलीफ़ या रंज और दुख यहाँ पहुँच जाए वही अस्ल में बचने के क़ाबिल चीज़ है, इससे परे कि उसको बरदाश्त कर लेने का कितना ही बड़ा इनाम आख़िरत में मिल सकता हो। वे नक़द सौदा चाहते हैं। आख़िरत जैसी दूर की चीज़ के लिए वे न आज के किसी फ़ायदे को छोड़ सकते हैं, न किसी नुक़सान को गवारा कर सकते हैं। सोचने के इस ढंग के साथ जब वे आख़िरत के मसले पर अक़ली बहसें करते हैं तो अस्ल में वे ख़ालिस अक़्ल-परस्ती नहीं होती, बल्कि उसके पीछे सोचने का यह ढंग काम कर रहा होता है जिसकी वजह से उनका फ़ैसला बहरहाल यही होता है कि आख़िरत को नहीं मानना है, चाहे अन्दरे से उनका ज़मीर पुकार-पुकारकर कह रहा हो कि आख़िरत के हो सकने, होने और ज़रूर होने की जो दलीलें क़ुरआन में दी गई हैं वे बिलकुल अक़्ल के मुताबिक़ हैं और उसके ख़िलाफ़ जो दलीलें वे दे रहे हैं वे बिलकुल बोदी हैं।
وُجُوهٞ يَوۡمَئِذٖ نَّاضِرَةٌ ۝ 21
(22) उस दिन कुछ चेहरे तरो-ताज़ा होंगे,16
16. यानी ख़ुशी से दमक रहे होंगे, क्योंकि जिस आख़िरत पर वे ईमान लाए थे वह ठीक उनके यक़ीन के मुताबिक़ सामने मौजूद होगी, और जिस आख़िरत पर ईमान लाकर उन्होंने दुनिया के नाजाइज़ फ़ायदे छोड़े और जाइज़ नुक़सान बरदाश्त किए थे उसको सचमुच अपनी आँखों के सामने बरपा होते देखकर उन्हें यह इत्मीनान हासिल हो जाएगा कि उन्होंने अपनी ज़िन्दगी के रवैये के बारे में बिलकुल सही फ़ैसला किया था, अब वह वक़्त आ गया है जब वे उसका बेहतरीन अंजाम देखेंगे।
إِلَىٰ رَبِّهَا نَاظِرَةٞ ۝ 22
(23) अपने रब की तरफ़ देख रहे होंगे।17
17. क़ुरआन के आलिमों में से कुछ ने इसे मजाज़ी (सांकेतिक) मानी में लिया है। वे कहते हैं कि किसी की तरफ़ देखने के अलफ़ाज़ मुहावरे के तौर पर उससे उम्मीदें बाँधने, उसके फ़ैसले का इन्तिज़ार करने, उसकी मेहरबानी का उम्मीदवार होने के मानी में बोले जाते हैं, यहाँ तक कि एक अन्धा भी यह कहता है कि मेरी निगाहें तो फ़ुलाँ शख़्स की तरफ़ लगी हुई हैं कि वह मेरे लिए क्या करता है। लेकिन बहुत-सी हदीसों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से इसकी जो तफ़सीर नक़्ल हुई है वह यह है कि आख़िरत में अल्लाह के इज़्ज़तदार बन्दों को अपने रब का दीदार नसीब होगा। बुख़ारी की रिवायत कि “तुम अपने रब को खुल्लम-खुल्ला देखोगे।” मुस्लिम और तिरमिज़ी में हज़रत सुहैब (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब जन्नती लोग जन्नत में दाख़िल हो जाएँगे तो अल्लाह तआला उनसे पूछेगा कि क्या तुम चाहते हो कि मैं तुम्हें और कुछ दूँ? वे कहेंगे : क्या आपने हमारे चेहरे रौशन नहीं कर दिए? क्या आपने हमें जन्नत में दाख़िल नहीं कर दिया और जहन्नम से बचा नहीं लिया? इसपर अल्लाह तआला परदा हटा देगा और उन लोगों को जो कुछ इनाम मिले थे उनमें से कोई इनाम भी उन्हें इससे ज़्यादा प्यारा न होगा कि वे अपने रब का दीदार करें, और यही वह अलग से दिया जानेवाला इनाम है जिसके बारे में क़ुरआन में फ़रमाया गया है कि “जिन लोगों ने नेक अमल किया उनके लिए अच्छा बदला है और उसपर और भी कुछ।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-26)। बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत है कि लोगों ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या हम क़ियामत के दिन अपने रब को देखेंगे?” अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या तुम्हें सूरज और चाँद को देखने में कोई मुश्किल होती है जबकि बीच में बादल भी न हो?” लोगों ने कहा, “नहीं!” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसी तरह तुम अपने रब को देखोगे।” इसी मज़मून से मिलती-जुलती एक रिवायत बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत जरीर-बिन-अब्दुल्लाह से रिवायत हुई है। मुसनदे-अहमद, तिरमिज़ी, दारे-क़ुतनी, इब्ने-जरीर, इब्नुल-मुंज़िर, तबरानी, बैहक़ी, इब्ने-अबी-शैबा और कुछ दूसरे हदीस के आलिमों ने थोड़े-थोड़े लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत नक़्ल की है, जिसका मज़मून यह है कि जन्नतवालों में कम-से-कम दर्जे का जो आदमी होगा वह अपनी सल्तनत को दो हज़ार साल के सफ़र तक फैला हुआ देखेगा, और उनमें सबसे ज़्यादा बड़ा दर्जा रखनेवाले लोग हर दिन दो बार अपने रब को देखेंगे। फिर नबी (सल्ल०) ने यह आयत पढ़ी कि “उस दिन कुछ चेहरे तरो-ताज़ा होंगे, अपने रब की तरफ़ देख रहे होंगे।” इब्ने-माजा में हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह उनकी तरफ़ देखेगा और वे अल्लाह की तरफ़ देखेंगे, फिर जब तक अल्लाह उनसे परदा न कर लेगा उस वक़्त तक वे जन्नत की किसी नेमत की तरफ़ ध्यान न देंगे और उसी की तरफ़ देखते रहेंगे। ये और दूसरी बहुत-सी रिवायतें हैं जिनकी वजह से अहले-सुन्नत लगभग इस बात पर एक राय होकर आयत का यही मतलब लेते हैं कि आख़िरत में जन्नतवाले अल्लाह तआला के दीदार करेंगे। और इसकी ताईद क़ुरआन मजीद की इस आयत से भी होती है कि “हरगिज़ नहीं, वे (यानी खुले नाफ़रमान) उस दिन अपने रब के दीदार से महरूम होंगे।” (सूरा-83 मुतफ़्फ़िफ़ीन, आयत-15)। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि यह महरूमी फ़ाजिरों (अल्लाह के नाफ़रमानों) के लिए होगी न कि नेक लोगों के लिए। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि आख़िर इनसान अल्लाह को देख कैसे सकता है? देखने के लिए तो लाज़िम है कि कोई चीज़ किसी ख़ास सम्त (दिशा), जगह, शक्ल और रंग में सामने मौजूद हो, रौशनी की किरणें उससे निकलकर इनसान की आँख पर पड़ें और आँख से दिमाग़ के देखने के मरकज़ (केन्द्र) तक उसकी तस्वीर पहुँचे। क्या अल्लाह तआला की हस्ती के बारे में इस तरह दीदार के क़ाबिल होने का तसव्वुर भी किया जा सकता है कि इनसान उसको देख सके? लेकिन यह सवाल अस्ल में एक बड़ी ग़लतफ़हमी की वजह से है। इसमें दो चीज़ों के दरमियान फ़र्क़ नहीं किया गया है। एक चीज़ है देखने की हक़ीक़त और दूसरी चीज़ है देखने का अमल होने की वह ख़ास सूरत जिससे हम इस दुनिया में वाक़िफ़ हैं। देखने की हक़ीक़त यह है कि देखनेवाले में देखने की सिफ़त मौजूद हो, वह अन्धा न हो, और देखी जानेवाली चीज़ उसपर ज़ाहिर हो, उससे छिपी हुई न हो। लेकिन दुनिया में हमको जिस चीज़ का तजरिबा होता और जो देखने में आती है वह सिर्फ़ देखने की वह ख़ास शक्ल है जिससे कोई इनसान या जानवर अमली तौर पर किसी चीज़ को देखा करता है, और इसके लिए हर हाल में ज़रूरी है कि देखनेवाले के जिस्म में आँख नाम की चीज़ मौजूद हो, उस चीज़ में देखने की ताक़त पाई जाती हो, उसके सामने एक ऐसी महदूद शक्ल की रंगदार चीज़ हाज़िर हो जिससे रौशनी की किरणें निकलकर आँखों पर पड़ें, और आँखों में उसकी शक्ल समा सके। अब अगर कोई शख़्स यह समझता है कि देखने की हक़ीक़त उसी ख़ास सूरत में अमल में आ सकती है जिससे हम इस दुनिया में वाक़िफ़ हैं तो यह ख़ुद उसके अपने दिमाग़ की तंगी है, वरना हक़ीक़त में ख़ुदा की ख़ुदाई में देखने की ऐसी अनगिनत सूरतें मुमकिन हैं, जिनके बारे में हम सोच भी नहीं सकते। इस मसले में जो शख़्स उलझता है वह ख़ुद बताए कि उसका ख़ुदा देख सकता है या नहीं? अगर वह देख सकता है और अपनी सारी कायनात और उसकी एक-एक चीज़ को देख रहा है तो क्या वह इसी तरह आँख नाम के एक हिस्से (अंग) से देख रहा है जिससे दुनिया में इनसान और जानवर देख रहे हैं, और उससे देखने का अमल उसी तरीक़े से हो रहा है जिस तरह हमसे होता है? ज़ाहिर है कि इसका जवाब ‘नहीं’ में है, और जब इसका जवाब ‘नहीं’ में है तो आख़िर किसी अक़्ल और समझ रखनेवाले इनसान को यह समझने में क्यों मुश्किल पेश आती है कि आख़िरत में जन्नतवालों को अल्लाह तआला का दीदार उस ख़ास शक्ल में नहीं होगा जिसमें इनसान दुनिया में किसी चीज़ को देखता है, बल्कि वहाँ देखने की हक़ीक़त कुछ और होगी, जिसको हम यहाँ समझ नहीं सकते? सच तो यह है कि आख़िरत के मामलों को ठीक-ठीक समझ लेना हमारे लिए उससे ज़्यादा मुश्किल है जितना एक दो साल के बच्चे के लिए यह समझना मुश्किल है कि शादीशुदा ज़िन्दगी क्या होती है, हालाँकि जवान होकर उसे ख़ुद उसका सामना करना है।
وَوُجُوهٞ يَوۡمَئِذِۭ بَاسِرَةٞ ۝ 23
(24) और कुछ चेहरे उदास होंगे
تَظُنُّ أَن يُفۡعَلَ بِهَا فَاقِرَةٞ ۝ 24
(25) और समझ रहे होंगे कि उनके साथ कमर तोड़ बर्ताव होनेवाला है।
كَلَّآ إِذَا بَلَغَتِ ٱلتَّرَاقِيَ ۝ 25
(26) हरगिज़ नहीं,18 जब जान हलक़ तक पहुँच जाएगी,
18. इस “हरगिज़ नहीं” का ताल्लुक़ बात के उसी सिलसिले से है जो ऊपर चला आ रहा है, यानी तुम्हारा यह ख़याल ग़लत है कि तुम्हें मरकर मिट जाना है और अपने रब के सामने वापस जाना नहीं है।
وَقِيلَ مَنۡۜ رَاقٖ ۝ 26
(27) और कहा जाएगा कि है कोई झाड़-फूँक करनेवाला19,
19. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘राक़’ इस्तेमाल हुआ है जो अरबी लफ़्ज़ ‘रुक़िया’ से भी लिया हुआ हो सकता है जिसका मतलब तावीज़-गण्डे और झाड़-फूँक है, और ‘रक़ी’ से भी, जिसका मतलब चढ़ना है। अगर पहला मानी लिया जाए तो मतलब यह होगा कि आख़िर वक़्त में जब बीमार की देखभाल करनेवाले हर दवा-इलाज से मायूस हो जाएँगे तो कहेंगे कि अरे किसी झाड़-फूँक करनेवाले ही को तलाश करो जो इसकी जान बचा ले। और अगर दूसरा मानी लिया जाए तो मतलब यह होगा कि उस वक़्त फ़रिश्ते कहेंगे कि इस रूह को किसे लेकर जाना है? अज़ाब के फ़रिश्तों को या रहमत के फ़रिश्तों को? दूसरे अलफ़ाज़ में उसी वक़्त यह फ़ैसला हो जाएगा कि यह मरनेवाला किस हैसियत में आख़िरत की दुनिया की तरफ़ जा रहा है। नेक और भला इनसान होगा तो रहमत के फ़रिश्ते उसे ले जाएँगे, और बुरा इनसान होगा तो रहमत के फ़रिश्ते उसके क़रीब भी न फटकेंगे और अज़ाब के फ़रिश्ते उसे गिरफ़्तार करके ले जाएँगे।
وَظَنَّ أَنَّهُ ٱلۡفِرَاقُ ۝ 27
(28) और आदमी समझ लेगा कि यह दुनिया से जुदाई का वक़्त है,
وَٱلۡتَفَّتِ ٱلسَّاقُ بِٱلسَّاقِ ۝ 28
(29) और पिंडली से पिंडली जुड़ जाएगी,20
20. क़ुरआन के आलिमों में से कुछ ने लफ़्ज़ ‘साक़’ (पिण्डली) को आम लुग़वी मानी (शब्दकोशीय अर्थ) में लिया है और उसके लिहाज़ से मुराद यह है कि मरने के वक़्त जब टाँगें सूखकर एक दूसरी से जुड़ जाएँगी। और कुछ ने अरबी मुहावरे के मुताबिक़ इसे शिद्दत और सख़्ती और मुसीबत के मानी में लिया है, यानी उस वक़्त दो मुसीबतें एक साथ जमा हो जाएँगी, एक दुनिया और उसकी हर चीज़ से जुदा हो जाने की मुसीबत और दूसरी आख़िरत की दुनिया में एक मुजरिम की हैसियत से गिरफ़्तार होकर जाने की मुसीबत, जिससे हक़ के हर इनकारी, मुनाफ़िक़ और अल्लाह की हर खुली और छिपी नाफ़रमानी करनेवाले को सामना करना होगा।
إِلَىٰ رَبِّكَ يَوۡمَئِذٍ ٱلۡمَسَاقُ ۝ 29
(30) वह दिन होगा तेरे रब की ओर रवाना होने का।
فَلَا صَدَّقَ وَلَا صَلَّىٰ ۝ 30
(31) मगर उसने न सच माना और न नमाज़ पढ़ी,
وَلَٰكِن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰ ۝ 31
(32) बल्कि झुठलाया और पलट गया,
ثُمَّ ذَهَبَ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِۦ يَتَمَطَّىٰٓ ۝ 32
(33) फिर अकड़ता हुआ अपने घरवालों की तरफ़ चल दिया।21
21. मतलब यह है कि जो शख़्स आख़िरत को मानने के लिए तैयार न था, उसने वह सब कुछ सुना जो ऊपर की आयतों में बयान किया गया है, मगर फिर भी वह अपने इनकार ही पर अड़ा रहा और ये आयतें सुनने के बाद अकड़ता हुआ अपने घर की तरफ़ चल दिया। मुजाहिद, क़तादा और इब्ने-ज़ैद कहते हैं कि यह आदमी अबू-जह्ल था। आयत के अलफ़ाज़ से भी यही ज़ाहिर होता है कि वह कोई एक आदमी था जिसने सूरा-75 क़ियामह की ऊपर बयान की गई आयतें सुनने के बाद यह रवैया अपनाया। इस आयत के ये अलफ़ाज़ कि “उसने न सच माना और न नमाज़ पढ़ी” ख़ास तौर पर ध्यान देने लायक़ हैं। इनसे साफ़ मालूम होता है कि अल्लाह और उसके रसूल और उसकी किताब की सच्चाई मानने का सबसे पहला और लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि आदमी नमाज़ पढ़े। अल्लाह की शरीअत के दूसरे हुक्मों पर अमल करने की नौबत तो बाद ही में आती है, लेकिन ईमान के इक़रार के बाद कुछ ज़्यादा मुद्दत नहीं गुज़रती कि नमाज़ का वक़्त आ जाता है और उसी वक़्त यह मालूम होता है कि आदमी ने ज़बान से जिस चीज़ के मानने का इक़रार किया है वह सचमुच उसके दिल की आवाज़ है या सिर्फ़ एक हवा है जो उसने कुछ अलफ़ाज़ की शक्ल में मुँह से निकाल दी है।
أَوۡلَىٰ لَكَ فَأَوۡلَىٰ ۝ 33
(34) यह रवैया तेरे ही लिए सही है और तुझी को ज़ेब (शोभा) देता है।
22. क़ुरआन के आलिमों ने ‘औला ल-क’ के कई मतलब बयान किए हैं। धिक्कार है तुझपर। हलाकत है तेरे लिए। ख़राबी, या तबाही, या कमबख़्ती है तेरे लिए। लेकिन हमारे नज़दीक मौक़ा-महल के लिहाज़ से इसका सबसे सही मतलब वह है जो हाफ़िज़ इब्ने-कसीर ने अपनी तफ़सीर में बयान किया है कि “जब तू अपने पैदा करनेवाले से कुफ़्र (इनकार) करने की जुरअत कर चुका है तो फिर तुझ जैसे आदमी को यही चाल ज़ेब (शोभा) देती है जो तू चल रहा है।” यह उसी तरह की तंज़ (व्यंग्य) भरी बात है जैसे क़ुरआन मजीद में एक और जगह कहा गया है कि जहन्नम में अज़ाब देते हुए मुजरिम इनसान से कहा जाएगा कि “ले चख इसका मज़ा, बड़ा ज़बरदस्त इज़्ज़तदार आदमी है तू।” (सूरा-44 दुख़ान, आयत-49)
ثُمَّ أَوۡلَىٰ لَكَ فَأَوۡلَىٰٓ ۝ 34
(35) हाँ, यह रवैया तेरे ही लिए सही है और तुझी को ज़ेब देता है।22
أَيَحۡسَبُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَن يُتۡرَكَ سُدًى ۝ 35
(36) क्या23 इनसान ने यह समझ रखा है कि वह यूँ ही बेकार में छोड़ दिया जाएगा?24
23. अब बात को ख़त्म करते हुए उसी बात को दोहराया जा रहा है जिससे बात की शुरुआत की गई थी, यानी ज़िन्दगी के बाद मौत ज़रूरी भी है और मुमकिन भी।
24. अरबी ज़बान में ‘इबिलुन-सुदा’ उस ऊँट के लिए बोलते हैं जो यूँ ही छुटा फिर रहा हो, जिधर चाहे चरता फिरे, कोई उसकी निगरानी करनेवाला न हो। इसी मानी में हम बेनकेल का ऊँट का लफ़्ज़ बोलते हैं। इसलिए आयत का मतलब यह है कि क्या इनसान ने अपने आपको बेनकेल का ऊँट समझ रखा है कि इसके पैदा करनेवाले ने इसे ज़मीन में ग़ैर-ज़िम्मेदार बनाकर छोड़ दिया हो? कोई फ़र्ज़ इसपर लागू न हो? कोई चीज़ इसके लिए मना न हो? और कोई वक़्त ऐसा आनेवाला न हो जब इससे इसके आमाल की पूछ-गछ की जाए? यही बात एक दूसरी जगह पर क़ुरआन मजीद में इस तरह बयान की गई है कि क़ियामत के दिन अल्लाह तआला हक़ के इनकारियों से कहेगा, “क्या तुमने यह समझ रखा था कि हमने तुम्हें बेकार ही पैदा किया है और तुम्हें कभी हमारी तरफ़ पलटकर नहीं आना है?” (सूरा-23 मामिनून, आयत-115)। इन दोनों जगहों पर मौत के बाद ज़िन्दगी के वाजिब होने की दलील सवाल की शक्ल में पेश की गई है। सवाल का मतलब यह है कि क्या सचमुच तुमने अपने आपको जानवर समझ रखा है? क्या तुम्हें अपने और जानवर में यह खुला फ़र्क़ नज़र नहीं आता कि वह कोई इख़्तियार नहीं रखता और तुम इख़्तियार रखते हो, उसके कामों में अख़लाक़ी अच्छाई और बुराई का सवाल पैदा नहीं होता और तुम्हारे कामों में यह सवाल ज़रूर पैदा होता है? फिर तुमने अपने बारे में यह कैसे समझ लिया कि जिस तरह जानवर ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह है उसी तरह तुम भी हो? जानवर के दोबारा ज़िन्दा करके न उठाए जाने की सही वजह तो समझ में आती है कि उसने सिर्फ़ अपनी फ़ितरत के लगे-बंधे तक़ाज़े पूरे किए हैं, अपनी अक़्ल से काम लेकर कोई फ़लसफ़ा (दर्शन) नहीं गढ़ा, कोई मज़हब ईजाद नहीं किया, किसी को माबूद नहीं बनाया, न ख़ुद किसी का माबूद बना, कोई काम ऐसा नहीं जिसे भला या बुरा कहा जा सकता हो, कोई अच्छी या बुरी सुन्नत (रीति) जारी नहीं की जिसके असर नस्ल-दर-नस्ल चलते रहें और वह उनपर किसी इनाम या सज़ा का हक़दार हो। लिहाज़ा वह अगर मरकर मिट जाए जो यह समझ में आने के क़ाबिल बात है, क्योंकि उसपर अपने किसी अमल की ज़िम्मेदारी लागू ही नहीं होती जिसकी पूछ-गछ के लिए उसे दोबारा ज़िन्दा करके उठाने की कोई ज़रूरत हो। लेकिन तुम मौत के बाद की ज़िन्दगी से कैसे माफ़ किए जा सकते हो जबकि ठीक अपनी मौत के वक़्त तक तुम ऐसे अख़लाक़ी काम करते रहते हो जिनके अच्छे या बुरे होने और उनपर इनाम और सज़ा के वाजिब होने का तुम्हारी अक़्ल ख़ुद हुक्म लगाती है? जिस आदमी ने किसी बेगुनाह को क़त्ल किया और फ़ौरन ही अचानक किसी हादिसे का शिकार हो गया, क्या तुम्हारे नज़दीक इस पूछ-गछ से आज़ाद (Scot free) छूट जाना चाहिए और इस ज़ुल्म का बदला उसे कभी न मिलना चाहिए? जो आदमी दुनिया में किसी ऐसे बिगाड़ का बीज बो गया जिसका ख़मियाज़ा उसके बाद सदियों तक इनसानी नस्लें भुगतती रहें, क्या तुम्हारी अक़्ल सचमुच इस बात पर मुत्मइन है कि उसे भी किसी भुनगे या टिड्डे की तरह मरकर मिट जाना चाहिए और कभी उठकर अपने उन करतूतों की जवाबदेही नहीं करनी चाहिए, जिनकी बदौलत हज़ारों-लाखों इनसानों की ज़िन्दगियाँ ख़राब हुईं? जिस आदमी ने उम्र-भर हक़ और इनसाफ़ और भलाई और सुधार के लिए अपनी जान लड़ाई हो और जीते जी मुसीबतें ही भुगतता रहा हो, क्या तुम्हारे ख़याल में वह भी कीड़े-मकोड़ों ही की क़िस्म का कोई जानदार है जिसे अपने इस अमल का इनाम पाने का कोई हक़ नहीं है?
أَلَمۡ يَكُ نُطۡفَةٗ مِّن مَّنِيّٖ يُمۡنَىٰ ۝ 36
(37) क्या वह एक हक़ीर (तुच्छ) पानी की बूँद न था जो (माँ के पेट में) टपकाया जाता है?
ثُمَّ كَانَ عَلَقَةٗ فَخَلَقَ فَسَوَّىٰ ۝ 37
(38) फिर वह एक लोथड़ा बना, फिर अल्लाह ने उसका जिस्म बनाया और उसके हिस्से (अंग) दुरुस्त किए,
فَجَعَلَ مِنۡهُ ٱلزَّوۡجَيۡنِ ٱلذَّكَرَ وَٱلۡأُنثَىٰٓ ۝ 38
(39) फिर उससे मर्द और औरत की दो क़िस्में बनाईं।
أَلَيۡسَ ذَٰلِكَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يُحۡـِۧيَ ٱلۡمَوۡتَىٰ ۝ 39
(40) क्या वह इसकी क़ुदरत (सामर्थ्य) नहीं रखता कि मरनेवालों को दोबारा ज़िन्दा कर दे?25
25. यह मौत के बाद ज़िन्दगी के इमकान की दलील है। जहाँ तक उन लोगों का ताल्लुक़ है जो यह मानते हैं कि शुरुआती नुत्फ़े (वीर्य की बूँद) से पैदाइश की शुरुआत करके पूरा इनसान बना देने तक का पूरा अमल अल्लाह तआला ही की क़ुदरत और हिकमत का करिश्मा है उनके लिए तो हक़ीक़त में इस दलील का कोई जवाब है ही नहीं, क्योंकि वे चाहे कितनी ही ढिठाई बरतें, उनकी अक़्ल यह मानने से इनकार नहीं कर सकती कि जो ख़ुदा इस तरह इनसान को दुनिया में पैदा करता है वह दोबारा भी इसी इनसान को वुजूद में ला सकता है। रहे वे लोग जो इस साफ़ हिकमत भरे अमल को सिर्फ़ इत्तिफ़ाक़ात (संयोगों) का नतीजा क़रार देते हैं, वे अगर हठधर्मी पर तुले हुए नहीं हैं तो आख़िर वे इस बात की वजह क्या बताएँगे कि पैदाइश के शुरू से आज तक दुनिया के हर हिस्से और हर क़ौम में किस तरह एक ही तरह के पैदाइशी अमल के नतीजे में लड़कों और लड़कियों की पैदाइश लगातार इस तनासुब (अनुपात) से होती चली जा रही है कि कहीं किसी ज़माने में भी ऐसा नहीं हुआ कि किसी इनसानी आबादी में सिर्फ़ लड़के या सिर्फ़ लड़कियाँ ही पैदा होती चली जाएँ और आगे उसकी नस्ल चलने का कोई इमकान बाक़ी न रहे? क्या यह भी इत्तिफ़ाक़ ही से होता चला जा रहा है? इतना बड़ा दावा करने के लिए आदमी को कम-से-कम इतना बेशर्म होना चाहिए कि वह उठकर बेतकल्लुफ़ एक दिन यह दावा कर बैठे कि लन्दन और न्यूयार्क, मास्को और पेकिंग इत्तिफ़ाक़ से आप-से-आप बन गए हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-30 रूम, हाशिए—27 से 30; सूरा-42 शूरा, हाशिया-77) कई रिवायतों से मालूम होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) जब इस आयत को पढ़ते थे तो अल्लाह तआला के इस सवाल के जवाब में कभी ‘बला’ (क्यों नहीं), कभी ‘सुब्हा-नकल्लाहुम-म फ़-बला’ (पाक है तेरी हस्ती, ऐ अल्लाह, क्यों नहीं) और कभी ‘सुब्हान-क फ़-बला’ या ‘सुब्हान-क व-बला’ फ़रमाया करते थे (इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम, अबू-दाऊद)। अबू-दाऊद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब तुम सूरा-95 तीन में आयत ‘अलैसल्लाहु बिअह्कमिल-हाकिमीन’ (क्या अल्लाह सब हाकिमों से बड़ा हाकिम नहीं है?) पढ़ो तो कहो, ‘बला व अना अला ज़ालि-क मिनश्शाहिदीन’ (क्यों नहीं, मैं इसपर गवाही देनेवालों में से हूँ)। और जब सूरा-75 क़ियामह की यह आयत पढ़ो तो कहो ‘बला’। और जब सूरा-77 मुर्सलात की आयत ‘फ़बिअय्यि हदीसिम-बअ्दहू युअ्मिनून’ (इस क़ुरआन के बाद ये लोग और किस बात पर ईमान लाएँगे?) पढ़ो तो कहो ‘आमन्ना बिल्लाह’ (हम अल्लाह पर ईमान लाए)। इसी मज़मून की रिवायतें इमाम अहमद, तिरमिज़ी, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-मरदुवैह, बैहक़ी और हाकिम ने भी नक़्ल की हैं।