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إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ

  1. यूसुफ़

(मक्‍का में उतरी-आयतें 111)

परिचय

उतरने का समय और कारण

इस सूरा के विषय से स्पष्ट होता है कि यह भी मक्का निवास के अन्तिम समय में उतरी होगी, जबकि क़ुरैश के लोग इस समस्या पर विचार कर रहे थे कि नबी (सल्ल०) को क़त्ल कर दें या देश निकाला दे दें या क़ैद कर दें। उस समय मक्का के कुछ विधर्मियों ने (शायद यहूदियों के संकेत पर) नबी (सल्ल०) की परीक्षा लेने के लिए आपसे प्रश्न किया कि बनी-इसराईल के मिस्र जाने का क्या कारण हुआ? अल्लाह ने केवल यही नहीं किया कि तुरन्त उसी समय यूसुफ़ (अलैहि०) का यह पूरा क़िस्सा आपकी ज़ुबान पर जारी कर दिया, बल्कि यह भी किया कि इस क़िस्से को क़ुरैश के उस व्यवहार पर चस्पाँ भी कर दिया जो वे यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों की तरह प्यारे नबी (सल्ल०) के साथ कर रहे थे।

उतरने के उद्देश्य

इस तरह यह क़िस्सा दो महत्त्वपूर्ण उद्देश्यों के लिए उतारा गया था-

एक यह कि मुहम्मद (सल्ल०) के नबी होने का प्रमाण और वह भी विरोधियों का अपना मुँह माँगा प्रमाण जुटाया जाए।

दूसरे यह कि कुरैश के सरदारों को यह बताया जाए कि आज तुम अपने भाई के साथ वही कुछ कर रहे हो जो यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने उनके साथ किया था, मगर जिस तरह वे अल्लाह की इच्छा से लड़ने में सफल न हुए और अन्तत: उसी भाई के क़दमों में आ रहे जिसको उन्होंने कभी बड़ी निर्दयता के साथ कुएंँ में फेंका था, उसी तरह तुम्हारी कोशिशें भी अल्लाह की तदबीरों के मुकाबले में सफल न हो सकेंगी और एक दिन तुम्हें भी अपने इसी भाई से दया एवं कृपा की भीख मांँगनी पड़ेगी जिसे आज तुम मिटा देने पर तुले हुए हो।

सच तो यह है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के क़िस्से को मुहम्मद (सल्ल०) और क़ुरैश के मामले पर चस्पाँ करके क़ुरआन मजीद ने मानो एक खुली भविष्यवाणी कर दी थी जिसे आगे दस साल की घटनाओं ने एक-एक करके सही सिद्ध करके दिखा दिया।

वार्ताएँ एवं समस्याएँ

ये दो पहलू तो इस सूरा में उद्देश्य की हैसियत रखते हैं। इनके अतिरिक्त क़ुरआन मजीद इस पूरे किस्से में यह बात भी स्पष्ट करके दिखाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०), हज़रत इसहाक़ (अलैहि०), हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की दावत भी वही थी जो आज मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं।

फिर वह एक ओर हज़रत याक़ूब (अलैहि०) और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के चरित्र और दूसरी ओर यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों, व्यापारियों के काफ़िले, मिस्र के शासक, उसकी बीवी, मिस्र की बेगमों और मिस्र के अधिकारियों के चरित्र एक दूसरे के मुक़ाबले में रख देता है [ताकि लोग देख लें कि] अल्लाह की बन्दगी और आख़िरत के हिसाब के विश्वास से [पैदा होनेवाले चरित्र कैसे होते हैंऔर दुनियापरस्ती और ईश्वर और परलोक के प्रति बेपरवाही के साँचों में ढलकर तैयार [होनेवाले चरित्रों का क्या हाल हुआ करता है ?] फिर इस क़िस्से से क़ुरआने-हकीम एक और गहरी सच्चाई भी इंसान के मन में बिठाता है, और वह यह है कि अल्लाह जिसे उठाना चाहता है, सारी दुनिया मिलकर भी उसे नहीं गिरा सकती, बल्कि दुनिया जिस उपाय को उसके गिराने का बड़ा कारगर और निश्चित उपाय समझकर अपनाती है, अल्लाह उसी उपाय में से उसके उठने की शक्लें निकाल देता है।

ऐतिहासिक और भौगोलिक परिस्थितियाँ

इस क़िस्से को समझने के लिए आवश्यक है कि संक्षेप में उसके बारे में कुछ ऐतिहासिक और भौगोलिक जानकारियाँ भी पाठकों के सामने रहें।

बाइबल के वर्णन के अनुसार हज़रत याकूब (अलैहि०) के बारह बेटे चार पत्नियों से थे। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और उनके छोटे भाई बिन-यमीन एक पत्नी से और शेष दस दूसरी पलियों से । फ़िलस्तीन में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का निवास स्थान हिबरून की घाटी में था। इसके अलावा उनकी कुछ ज़मीन सेकिम (वर्तमान नाबुलुस) में भी थी। बाइबल के विद्वानों की खोज अगर सही मान ली जाए तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की पैदाइश 1906 ई०पू० के लगभग ज़माने में हुई। सपना देखने और फिर कुएँ में फेंके जाने [की घटना उनकी सत्तरह वर्ष की उम्र में घटी]। जिस कुएँ में वे फेंके गए वह बाइबल और तलमूद की रिवायतों के अनुसार सेकिम के उत्तर में दूतन (वर्तमान दुसान) के क़रीब स्थित था और जिस क़ाफ़िले ने उन्हें कुएँ से निकाला वह जलआद (पूर्वी जार्डन) से आ रहा था और मिस्र की ओर जा रहा था। -मिस्र पर उस समय पन्द्रहवें वंश का शासन था जो मिस्री इतिहास में चरवाहे बादशाहों (Hyksos Kings) के नाम से याद किया जाता है। ये लोग अरबी नस्ल के थे और फ़िलस्तीन और शाम (Syria) से मिस्र (Egypt) जाकर दो हज़ार वर्ष ई०पू० के लगभग ज़माने में मिस्री राज्य पर क़ाबिज़ हो गए थे। यही कारण हुआ कि इनके शासन में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उन्नति-पथ पर आगे बढ़ने का मौक़ा मिला और फिर बनी-इसराईल वहाँ हाथों-हाथ लिए गए, क्योंकि वे उन विदेशी शासकों के वंश के थे। पन्द्रहवीं सदी ई०पू० के अन्त तक ये लोग मिस्र पर आधिक्य जमाए रहे और उनके ज़माने में देश की सम्पूर्ण सत्ता व्यावहारिक रूप में बनी-इसराईल के हाथ में रही। उसी दौर की ओर सूरा-5 (माइदा) आयत 20 में इशारा किया गया है कि “जब उसने तुममें नबी पैदा किए और तुम्हें शासक बनाया।” इसके बाद हिक्सूस सत्ता का तख़्ता उलटकर एक अति क्रूर क़िब्ती नस्ल का परिवार सत्ता में आ गया और उसने बनी-इसराईल पर उन अत्याचारों का सिलसिला शुरू किया जिनका उल्लेख हज़रत मूसा (अलैहि०) के क़िस्से में हुआ है। इन चरवाहे बादशाहों ने मिस्री देवताओं को स्वीकार नहीं किया था। यही कारण है कि क़ुरआन मजीद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के समकालीन बादशाह को फ़िरऔन' के नाम से याद नहीं करता, क्योंकि फ़िरऔन मिस्र का धार्मिक पारिभाषिक शब्द था, और ये लोग मिस्री धर्म के माननेवाले न थे।-

हजरत यूसुफ़ (अलैहि०) 30 साल की उम्र में देश के शासक हुए और 90 साल तक बिना किसी को साझी बनाए पूरे मिस्र पर शासन करते रहे। अपने शासन के नवें या दसवें साल उन्होंने हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अपने पूरे परिवार के साथ फ़िलस्तीन से मिस्र बुला लिया और उस क्षेत्र में आबाद किया जो दिमयात और क़ाहिरा के बीच स्थित है। बाइबल में इस क्षेत्र का नाम जुशन या गोशन बताया गया है। हज़रत मूसा (अलैहि०) के समय तक ये लोग उसी क्षेत्र में आबाद रहे। बाइबल का बयान है कि हज़रत यूसुफ (अलैहि०) का देहावसान एक सौ दस साल की उम्र में हुआ और देहावसान के समय बनी-इसराईल को वसीयत की कि जब तुम इस देश से निकलो तो मेरी हड्डियाँ अपने साथ लेकर जाना।

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إِنَّآ أَنزَلۡنَٰهُ قُرۡءَٰنًا عَرَبِيّٗا لَّعَلَّكُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 1
(2) हमने इसे उतारा है क़ुरआन1 बनाकर अरबी ज़बान में, ताकि तुम (अरबवाले) इसको अच्छी तरह समझ सको2।
1. 'क़ुरआन' मसदर (शब्द-उद्गम) है- ‘क़-र-अ, यक़-र-उ' से। इसके अस्ल मानी हैं 'पढ़ना'। मसदर को किसी चीज़ के लिए जब नाम के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है तो इससे यह मतलब निकलता है कि उस चीज़ के अन्दर वह मानी मुकम्मल तौर पर पाया जाता है। जैसे जब किसी शख़्स को हम बहादुर कहने के बजाय बहादुरी कहें तो इसका मतलब यह होगा कि उसके अन्दर बहादुरी इतनी ज़्यादा पाई जाती है मानो वह और बहादुरी एक ही चीज़ हैं। लिहाज़ा इस किताब का नाम क़ुरआन (पढ़ना) रखने का मतलब यह हुआ कि यह आम और ख़ास सबके पढ़ने के लिए है और बहुत ज़्यादा पढ़ी जानेवाली चीज़ है।
2. इसका मतलब यह नहीं है कि यह किताब ख़ासतौर से सिर्फ़ अरबवालों ही के लिए उतारी गई है, बल्कि इस जुमले का अस्ल मक़सद यह कहना है कि “ऐ अरबवालो, तुम्हें ये बातें किसी यूनानी या ईरानी ज़बान में तो नहीं सुनाई जा रही हैं, तुम्हारी अपनी ज़बान में हैं, इसलिए तुम न तो यह बहाना कर सकते हो कि ये बातें तो हमारी समझ ही में नहीं आतीं, और न यही मुमकिन है कि इस किताब में ग़ैर-मामूली और हैरान कर देनेवाले जो पहलू हैं, जो इसके अल्लाह का कलाम होने की गवाही देते हैं, वे तुम्हारी निगाहों से छिपे रह जाएँ।" कुछ लोग क़ुरआन मजीद में इस तरह के जुमले देखकर एतिराज़ करते हैं कि यह किताब तो अरबवालों के लिए है, दूसरों के लिए उतारी ही नहीं गई है, फिर इसे तमाम इनसानों के लिए हिदायत (मार्गदर्शन) कैसे कहा जा सकता है। लेकिन यह सिर्फ़ एक सरसरी-सा एतिराज़ है, जो हक़ीक़त को समझने की कोशिश किए बिना जड़ दिया जाता है। इनसानों की आम हिदायत के लिए जो चीज़ भी पेश की जाएगी वह बहरहाल इनसानी ज़बानों में से किसी एक ज़बान ही में पेश की जाएगी, और उसके पेश करनेवाले की कोशिश यही होगी कि पहले वह उस क़ौम को अपनी तालीम से पूरी तरह मुतास्सिर करे जिसकी ज़बान में वह उसे पेश कर रहा है, फिर वही क़ौम दूसरी क़ौमों तक उस तालीम के पहुँचने का ज़रिआ बने। यही एक फ़ितरी तरीक़ा है किसी दावत और तहरीक के पूरी दुनिया में फैलने का।
نَحۡنُ نَقُصُّ عَلَيۡكَ أَحۡسَنَ ٱلۡقَصَصِ بِمَآ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ وَإِن كُنتَ مِن قَبۡلِهِۦ لَمِنَ ٱلۡغَٰفِلِينَ ۝ 2
(3) ऐ नबी! हम इस क़ुरआन को तुम्हारी तरफ़ वह्य करके बेहतरीन अन्दाज़ में वाक़िआत और हक़ीक़तें तुमसे बयान करते हैं, वरना इससे पहले तो (इन चीज़ों से) तुम बिलकुल ही बेख़बर थे।3
3. सूरा के परिचय में हम बयान कर चुके हैं कि मक्का के इस्लाम-दुश्मनों में से कुछ लोगों ने नबी (सल्ल०) का इम्तिहान लेने के लिए, बल्कि अपने नज़दीक आप (सल्ल०) का भरम खोलने के लिए, शायद यहूदियों के इशारे पर, आप (सल्ल०) के सामने अचानक यह सवाल किया था कि बनी-इसराईल के मिस्र पहुँचने की क्या वजह बनी? इसी वजह से उनके जवाब में बनी-इसराईल की तारीख़ का यह बाब (अध्याय) पेश करने से पहले तमहीद (भूमिका) के रूप में यह बात कही गई है कि ऐ मुहम्मद, तुम इन वाक़िआत से बेख़बर थे, दर अस्ल यह हम हैं जो वह्य के ज़रिए से तुम्हें इनकी ख़बर दे रहे हैं। बज़ाहिर इस जुमले में ख़िताब (सम्बोधन) नबी (सल्ल०) से है, लेकिन अस्ल में बात उन मुख़ालिफ़ों से कही जा रही है, जिनको यक़ीन न था कि आप (सल्ल०) को वह्य के ज़रिए से इल्म हासिल होता है।
إِذۡ قَالَ يُوسُفُ لِأَبِيهِ يَٰٓأَبَتِ إِنِّي رَأَيۡتُ أَحَدَ عَشَرَ كَوۡكَبٗا وَٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَ رَأَيۡتُهُمۡ لِي سَٰجِدِينَ ۝ 3
(4) यह उस वक़्त की बात है जब यूसुफ़ ने अपने बाप से कहा, “अब्बाजान! मैंने ख़ाब देखा है कि ग्यारह सितारे हैं और सूरज और चाँद हैं और मुझे सजदा कर रहे हैं।”
قَالَ يَٰبُنَيَّ لَا تَقۡصُصۡ رُءۡيَاكَ عَلَىٰٓ إِخۡوَتِكَ فَيَكِيدُواْ لَكَ كَيۡدًاۖ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ لِلۡإِنسَٰنِ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 4
(5) जवाब में उसके बाप ने कहा, “बेटा! अपना यह ख़ाब अपने भाइयों को न सुनाना, वरना वे तुझे तकलीफ़ पहुँचाने पर उतारू हो जाएँगे4। सच तो यह है कि शैतान आदमी का खुला दुश्मन है।
4. इससे मुराद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के वे दस भाई हैं जो दूसरी माँओं से थे। हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को मालूम था कि ये सौतेले भाई यूसुफ़ से जलन रखते हैं और अख़लाक़ के लिहाज़ से भी ऐसे नेक नहीं हैं कि अपना मतलब निकालने के लिए कोई बुरी कार्रवाई करने में उन्हें कोई झिझक हो, इसलिए उन्होंने अपने नेक बेटे को ख़बरदार कर दिया कि उनसे होशियार रहना। ख़ाब का साफ़ मतलब यह था कि सूरज से मुराद हज़रत याक़ूब (अलैहि०), चाँद से मुराद उनकी बीवी (हज़रत यूसुफ़ की सौतेली माँ) और ग्यारह सितारों से मुराद ग्यारह भाई हैं।
وَكَذَٰلِكَ يَجۡتَبِيكَ رَبُّكَ وَيُعَلِّمُكَ مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِ وَيُتِمُّ نِعۡمَتَهُۥ عَلَيۡكَ وَعَلَىٰٓ ءَالِ يَعۡقُوبَ كَمَآ أَتَمَّهَا عَلَىٰٓ أَبَوَيۡكَ مِن قَبۡلُ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَۚ إِنَّ رَبَّكَ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 5
(6) और ऐसा ही होगा (जैसा तूने ख़ाब में देखा है कि) तेरा रब तुझे (अपने काम के लिए) चुन लेगा5 और तुझे बातों की तह तक पहुँचना सिखाएगा6 और तेरे ऊपर और आले-याक़ूब (याक़ूब के ख़ानदान) पर अपनी नेमत उसी तरह पूरी करेगा जिस तरह इससे पहले वह तेरे बुज़ुर्गों, इबराहीम और इसहाक़, पर कर चुका है। यक़ीनन तेरा रब सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।7
5. यानी नुबूवत देगा (अपना पैग़म्बर बनाएगा) ।
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज तावीलुल-अहादीस इस्तेमाल हुआ है जिस का मतलब सिर्फ़ ख़ाब की ताबीर (स्वप्नफल) का इल्म नहीं है जैसा कि समझा गया है, बल्कि इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला तुझे मामले की गहरी समझ और हक़ीक़त तक पहुँचने की तालीम देगा और वह सूझ-बूझ तुझको देगा जिससे तू हर मामले की गहराई में उतरने और उसकी तह को पा लेने के क़ाबिल हो जाएगा।
7. बाइबल और तलमूद का बयान क़ुरआन के इस बयान से अलग है। उनका बयान यह है कि हज़रत याक़ूब (अलैहि०) ने ख़ाब सुनकर बेटे को ख़ूब डाँटा और कहा, अच्छा अब तू यह ख़ाब देखने लगा है कि मैं और तेरी माँ और तेरे सब भाई तुझे सजदा करेंगे। लेकिन ज़रा ग़ौर करने से आसानी से यह बात समझ में आ सकती है कि हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की पैग़म्बराना सीरत से क़ुरआन का बयान ज़्यादा मेल खाता है, न कि बाइबल और तलमूद का। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने ख़ाब बयान किया था, कोई अपनी तमन्ना और ख़ाहिश नहीं बयान की थी। ख़ाब अगर सच्चा था, और ज़ाहिर है कि हज़रत याक़ूब (अलैहि०) ने उसका जो मतलब निकाला वह सच्चा ख़ाब ही समझकर निकाला था, तो इसके साफ़ मानी ये थे कि यह यूसुफ़ (अलैहि०) की ख़ाहिश नहीं थी, बल्कि अल्लाह की लिखी हुई तक़दीर का फ़ैसला था कि एक वक़्त उनको यह बुलन्दी हासिल हो। फिर क्या एक पैग़म्बर तो दूर, एक समझदार आदमी का भी यह काम हो सकता है कि ऐसी बात पर बुरा माने और ख़ाब देखनेवाले को उलटी डाँट पिलाए? और क्या कोई शरीफ़ बाप ऐसा भी हो सकता है जो अपने ही बेटे को आनेवाले दिनों में मिलनेवाली तरक़्क़ी और बुलन्दी की ख़ुशख़बरी सुनकर ख़ुश होने के बजाय उलटा जल-भुन जाए?
۞لَّقَدۡ كَانَ فِي يُوسُفَ وَإِخۡوَتِهِۦٓ ءَايَٰتٞ لِّلسَّآئِلِينَ ۝ 6
(7) हक़ीक़त यह है कि यूसुफ़ और उसके भाइयों के क़िस्से में इन पूछनेवालों के लिए बड़ी निशानियाँ हैं।
إِذۡ قَالُواْ لَيُوسُفُ وَأَخُوهُ أَحَبُّ إِلَىٰٓ أَبِينَا مِنَّا وَنَحۡنُ عُصۡبَةٌ إِنَّ أَبَانَا لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 7
(8) यह क़िस्सा यूँ शुरू होता है कि उसके भाइयों ने आपस में कहा, “यह यूसुफ़ और उसका भाई8 दोनों हमारे बाप को हम सबसे ज़्यादा प्यारे हैं,हालाँकि हम एक पूरा जत्था हैं। सच्ची बात यह है कि हमारे बाप बिलकुल ही बहक गए हैं।9
8. इससे मुराद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के सगे भाई बिनयमीन हैं जो उनसे कई साल छोटे थे। उनके जन्म के वक़्त उनकी माँ का इन्तिकाल हो गया था। यही वजह थी कि हज़रत याक़ूब (अलैहि०) इन दोनों बिन माँ के बच्चों का ज़्यादा ख़याल रखते थे। इसके अलावा इस मुहब्बत की वजह यह भी थी कि उनकी सारी औलाद में सिर्फ़ एक हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ही ऐसे थे जिनके अन्दर उनको हिदायत और नेकी के मुबारक आसार नज़र आते थे। ऊपर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का ख़ाब सुनकर उन्होंने जो कुछ कहा उससे साफ़ ज़ाहिर होता है कि वे अपने इस बेटे की ग़ैर-मामूली सलाहियतों को अच्छी तरह जानते थे। दूसरी तरफ़ उन दस बड़े बेटों की ज़िन्दगी का जो हाल था उसका अन्दाज़ा भी आगे के वाक़िआत से हो जाता है। फिर कैसे उम्मीद की जा सकती है कि एक नेक इनसान ऐसी औलाद से ख़ुश रह सके। लेकिन अजीब बात है कि बाइबल में यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों के हसद और जलन की एक ऐसी वजह बयान की गई है जिससे उलटा इलज़ाम हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) पर लगता है। बाइबल का बयान है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) भाइयों की चुग़लियाँ बाप से किया करते थे, इस वजह से भाई उनसे नाराज़ थे।
9. इस जुमले की रूह (अस्ल मतलब) समझने के लिए देहाती क़बायली ज़िन्दगी के हालात को ध्यान में रखना चाहिए। जहाँ कोई रियासत मौजूद न होती और आज़ाद क़बीले एक-दूसरे के बराबर में आबाद होते हैं, वहाँ एक शख़्स की क़ुव्वत का सारा दरोमदार इसपर होता है कि उसके अपने बेटे, पोते, भाई, भतीजे बहुत-से हों जो वक़्त आने पर उसकी जान-माल और आबरू और इज़्ज़त की हिफ़ाज़त के लिए उसका साथ दे सकें। ऐसे हालात में औरतों और बच्चों के मुक़ाबले में फ़ितरी तौर पर आदमी को वे जवान बेटे ज़्यादा प्यारे होते हैं जो दुश्मनों के मुक़ाबले में काम आ सकते हों। इसी वजह से उन भाइयों ने कहा कि हमारे बाप बुढ़ापे में सठिया गए हैं। हम जवान बेटों का जत्था, जो बुरे वक़्त पर उनके काम आ सकता है, उनको इतना प्यारा नहीं है जितने ये छोटे-छोटे बच्चे जो उनके किसी काम नहीं आ सकते, बल्कि उलटे ख़ुद ही हिफ़ाज़त के मुहताज हैं।
ٱقۡتُلُواْ يُوسُفَ أَوِ ٱطۡرَحُوهُ أَرۡضٗا يَخۡلُ لَكُمۡ وَجۡهُ أَبِيكُمۡ وَتَكُونُواْ مِنۢ بَعۡدِهِۦ قَوۡمٗا صَٰلِحِينَ ۝ 8
(9) चलो युसूफ़ को क़त्ल कर दो या उसे कहीं फेंक दो, ताकि तुम्हारे बाप का ध्यान सिर्फ़ तुम्हारी ही तरफ़ हो जाए। यह काम कर लेने के बाद फिर नेक बन रहना10
10. यह जुमला उन लोगों के मन की हालत को अच्छी तरह बयान करता है जो अपने आपको अपने मन की ख़ाहिशों के हवाले कर देने के साथ ईमान और नेकी से भी रिश्ता जोड़े रखते हैं। ऐसे लोगों का तरीक़ा यह होता है कि जब कभी मन उनसे किसी बुरे काम को करने को कहता है तो वे ईमान के तक़ाज़ों को परे रखकर पहले मन की माँग को पूरा करने पर तुल जाते हैं और जब मन अन्दर से चुटकियाँ लेता है तो उसे यह कहकर तसल्ली देने की कोशिश करते हैं कि ज़रा सब्र कर, यह ज़रूरी गुनाह, जिससे हमारा काम अटका हुआ है, कर गुज़रने दे, फिर अल्लाह ने चाहा तो हम तौबा करके वैसे ही नेक बन जाएँगे, जैसा तू हमें देखना चाहता है।
قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ لَا تَقۡتُلُواْ يُوسُفَ وَأَلۡقُوهُ فِي غَيَٰبَتِ ٱلۡجُبِّ يَلۡتَقِطۡهُ بَعۡضُ ٱلسَّيَّارَةِ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 9
(10) इसपर उनमें से एक बोला, “यूसुफ़ को क़त्ल न करो। अगर कुछ करना ही है तो उसे किसी अंधे कुएँ में डाल दो, कोई आता-जाता क़ाफ़िला उसे निकाल ले जाएगा।”
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مَا لَكَ لَا تَأۡمَ۬نَّا عَلَىٰ يُوسُفَ وَإِنَّا لَهُۥ لَنَٰصِحُونَ ۝ 10
(11) यह बात तय हो जाने पर उन्होंने जाकर अपने बाप से कहा, “अब्बाजान! क्या बात है कि आप यूसुफ़ के मामले में हमपर भरोसा नहीं करते, हालाँकि हम उसके सच्चे ख़ैरख़ाह हैं? कल उसे हमारे साथ भेज दीजिए, कुछ चर-चुग लेगा 10अ
10अ. उर्दू-हिन्दी मुहावरे में बच्चा अगर जंगल में चल-फिरकर कुछ फल तोड़ता और खाता फिरे तो उसके लिए प्यार भरे अंदाज़ में ये अलफ़ाज बोले जाते हैं।
أَرۡسِلۡهُ مَعَنَا غَدٗا يَرۡتَعۡ وَيَلۡعَبۡ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 11
(12) और खेल-कूद से भी दिल बहलाएगा। हम उसकी हिफ़ाज़त को मौजूद हैं।11
11. यह बयान भी बाइबल और तलमूद के बयान से अलग है। उनकी रिवायत यह है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के भाई अपने मवेशी चराने के लिए सिक्किम की तरफ़ गए हुए थे और उनके पीछे ख़ुद हज़रत याक़ूब (अलैहि०) ने उनकी तलाश में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को भेजा था। मगर यह बात समझ से परे है कि हज़रत याक़ूब (अलैहि०) ने यूसुफ़ (अलैहि०) के साथ उनकी हसद और जलन का हाल जानने के बावजूद उन्हें आप अपने हाथों मौत मुँह में भेजा हो। इसलिए क़ुरआन का बयान ही ज़्यादा मुनासिबे-हाल मालूम होता है।
قَالَ إِنِّي لَيَحۡزُنُنِيٓ أَن تَذۡهَبُواْ بِهِۦ وَأَخَافُ أَن يَأۡكُلَهُ ٱلذِّئۡبُ وَأَنتُمۡ عَنۡهُ غَٰفِلُونَ ۝ 12
(13) बाप ने कहा, “तुम्हारा इसे ले जाना मेरे लिए दुख की बात होती है और मुझे डर है कि कहीं उसे भेड़िया न फाड़ खाए, जबकि तुम उससे ग़ाफ़िल हो।”
قَالُواْ لَئِنۡ أَكَلَهُ ٱلذِّئۡبُ وَنَحۡنُ عُصۡبَةٌ إِنَّآ إِذٗا لَّخَٰسِرُونَ ۝ 13
(14) उन्होंने जवाब दिया, “अगर हमारे होते उसे भेड़िए ने खा लिया, जबकि हम एक जत्था हैं, तब तो हम बड़े ही निकम्मे होंगे।”
فَلَمَّا ذَهَبُواْ بِهِۦ وَأَجۡمَعُوٓاْ أَن يَجۡعَلُوهُ فِي غَيَٰبَتِ ٱلۡجُبِّۚ وَأَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡهِ لَتُنَبِّئَنَّهُم بِأَمۡرِهِمۡ هَٰذَا وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 14
(15) इस तरह अपनी बात पर ज़ोर देकर जब उसे ले गए और उन्होंने तय कर लिया कि उसे एक अन्धे कुएँ में छोड़ दें, तो हमने यूसुफ़ को वह्य की कि “एक वक़्त आएगा जब तू उन लोगों को उनकी यह हरकत जताएगा, ये अपने अमल के नतीजों से बेख़बर हैं।"12
12. अस्ल अरबी में “वहुम ला यशउरून” के अलफ़ाज कुछ ऐसे अन्दाज़ से आए हैं कि उनसे तीन मतलब निकलते हैं, और तीनों ही समझ में आते हैं। एक यह कि हम यूसुफ़ को यह तसल्ली दे रहे थे और उसके भाइयों को कुछ पता न था कि उसपर वह्य की जा रही है। दूसरे यह कि तू ऐसे हालात में उनकी यह हरकत उन्हें जताएगा जहाँ तेरे होने के बारे में उन्होंने सोचा तक न होगा। तीसरे यह कि आज ये बेसमझे-बूझे एक हरकत कर रहे हैं और नहीं जानते कि आगे इसके नतीजे क्या निकलनेवाले हैं। बाइबल और तलमूद इस ज़िक्र से ख़ाली हैं कि उस वक़्त अल्लाह तआला की तरफ़ से यूसुफ़ (अलैहि०) को कोई तसल्ली भी दी गई थी। इसके बजाय तलमूद में जो रिवायत बयान हुई वह यह है कि जब यूसुफ़ (अलैहि०) कुएँ में डाले गए तो वे बहुत बिलबिलाए और ख़ूब चिल्ला-चिल्लाकर उन्होंने भाइयों से फ़रियाद की। क़ुरआन का बयान पढ़िए तो महसूस होगा कि एक ऐसे नौजवान का बयान हो रहा है जो आगे चलकर इनसानी इतिहास की बड़ी हस्तियों में जाना जानेवाला है। तलमूद को पढ़िए तो कुछ ऐसा नशा सामने आएगा कि रेगिस्तान में कुछ बद्दू (देहाती) एक लड़के को कुएँ में फेंक रहे हैं और वह वही कुछ कर रहा है जो हर लड़का ऐसे मौक़े पर करेगा।
وَجَآءُوٓ أَبَاهُمۡ عِشَآءٗ يَبۡكُونَ ۝ 15
(16) शाम को वे रोते-पीटते अपने बाप के पास आए
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَآ إِنَّا ذَهَبۡنَا نَسۡتَبِقُ وَتَرَكۡنَا يُوسُفَ عِندَ مَتَٰعِنَا فَأَكَلَهُ ٱلذِّئۡبُۖ وَمَآ أَنتَ بِمُؤۡمِنٖ لَّنَا وَلَوۡ كُنَّا صَٰدِقِينَ ۝ 16
(17) और कहा, “अब्बाजान! हम दौड़ का मुक़ाबला करने में गए थे और यूसुफ़ को हमने अपने सामान के पास छोड़ दिया था कि इतने में भेड़िया आकर उसे खा गया। आप हमारी बात का यक़ीन न करेंगे, चाहे हम सच्चे ही हों।”
وَجَآءُو عَلَىٰ قَمِيصِهِۦ بِدَمٖ كَذِبٖۚ قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٞۖ وَٱللَّهُ ٱلۡمُسۡتَعَانُ عَلَىٰ مَا تَصِفُونَ ۝ 17
(18) और वे यूसुफ़ की कमीज़ पर झूठ-मूठ का ख़ून लगाकर ले आए थे। यह सुनकर उनके बाप ने कहा, “बल्कि तुम्हारे जी ने तुम्हारे लिए एक बड़े काम को आसान बना दिया। अच्छा, सब्र करूँगा और ख़ूब अच्छी तरह सब्र करूँगा13, जो बात तुम बना रहे हो, उसपर अल्लाह ही से मदद माँगी जा सकती है।14
13. अस्ल अरबी में “सबरुन जमीलुन” के अलफ़ाज़ हैं जिनका लफ़्ज़ी तर्जमा “अच्छा सब्र” हो सकता है। इससे मुराद ऐसा सब्र है जिसमें शिकायत न हो, फ़रियाद न हो, चीख़-पुकार न हो, ठण्डे दिल से उस मुसीबत को बरदाश्त किया जाए जो एक कुशादा-दिल इनसान पर आ पड़ी हो।
14. हज़रत याक़ूब (अलैहि०) ने इस बात पर जो असर लिया, यहाँ बाइबल और तलमूद उसका नक़्शा भी कुछ ऐसा खींचती हैं जो किसी मामूली बाप पर पड़नेवाले असर से कुछ भी अलग नहीं है। बाइबल का बयान यह है कि “तब याक़ूब ने अपने कपड़े फाड़ लिए और टाट अपनी कमर से लपेटा और बहुत दिनों तक अपने बेटे के लिए मातम करता रहा।”और तलमूद का बयान है कि “याक़ूब बेटे की क़मीज़ पहचानते ही औंधे मुँह ज़मीन पर गिर पड़ा और देर तक बग़ैर किसी हरकत के बेसुध पड़ा रहा, फिर उठकर बड़े ज़ोर से चीखा कि हाँ, यह मेरे बेटे ही की कमीज़ है और वह सालों तक यूसुफ़ का मातम करता रहा।” देखें, बाइबल (उत्पत्ति 37:34) इस नक़्शे में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) वही कुछ करते नज़र आते हैं जो हर बाप ऐसे मौक़े पर करेगा। लेकिन क़ुरआन जो नक़्शा पेश कर रहा है उससे हमारे सामने एक ऐसे ग़ैर-मामूली इनसान की तस्वीर आती है जो ऊँचे दरजे की बरदाश्त रखनेवाला और संजीदा है। इतने बड़े दुख और ग़म की ख़बर सुनकर भी अपने दिमाग़ का सन्तुलन नहीं खोता, अपनी सूझ-बूझ और समझदारी से मामले की ठीक-ठीक हालत को भाँप जाता है कि यह एक बनावटी बात है जो इन हसद और जलन रखनेवाले बेटों ने बनाकर पेश की है, और फिर बड़ा हौसला और बड़ा दिल रखनेवाले इनसानों की तरह सब्र करता है और ख़ुदा पर भरोसा करता है।
وَجَآءَتۡ سَيَّارَةٞ فَأَرۡسَلُواْ وَارِدَهُمۡ فَأَدۡلَىٰ دَلۡوَهُۥۖ قَالَ يَٰبُشۡرَىٰ هَٰذَا غُلَٰمٞۚ وَأَسَرُّوهُ بِضَٰعَةٗۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 18
(19) उधर एक क़ाफ़िला आया और उसने अपने सक़्क़े (पानी भरनेवाले) को पानी लाने के लिए भेजा। सक़्क़े ने जो कुएँ में डोल डाला तो (यूसुफ़ को देखकर) पुकार उठा, “मुबारक हो, यहाँ तो एक लड़का है।” उन लोगों ने उसको तिजारत का माल समझकर छिपा लिया, हालाँकि जो कुछ वे कर रहे थे, ख़ुदा उसकी ख़बर रखता था
وَشَرَوۡهُ بِثَمَنِۭ بَخۡسٖ دَرَٰهِمَ مَعۡدُودَةٖ وَكَانُواْ فِيهِ مِنَ ٱلزَّٰهِدِينَ ۝ 19
(20) आख़िकार उन्होंने थोड़ी-सी कीमत पर कुछ दिरहमों के बदले उसे बेच डाला15 और वे उसकी क़ीमत के मामले में कुछ ज़्यादा की उम्मीद न रखते थे।
15. इस मामले की सादा सूरत यह मालूम होती है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के भाई हज़रत यूसुफ (अलैहि०) को कुएँ में फेंककर चले गए थे। बाद में क़ाफ़िलेवालों ने आकर उनको वहाँ से निकाला और मिस्र ले जाकर बेच दिया। मगर बाइबल का बयान है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने बाद में इसमाईलियों के एक क़ाफ़िले को देखा और चाहा कि यूसुफ़ को कुएँ से निकालकर उनके हाथ बेच दें। लेकिन इससे पहले ही मदयन के सौदागर उन्हें कुएँ से निकाल चुके थे, इन सौदागरों ने हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को (चाँदी के) बीस रुपये में इसमाईलियों के हाथ बेच डाला। फिर आगे चलकर बाइबल के लेखक यह भूल जाते हैं कि ऊपर वे इसमाईलियों के हाथ हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को बिकवा चुके हैं, चुनाँचे वे इसमाईलियों के वजाए फिर मदयन ही के सौदागरों से मिस्र में उन्हें दोबारा बिकवाते हैं। देखें— किताब उत्पत्ति 37-25 से 28 और 36) इसके बरख़िलाफ़ तलमूद का बयान है कि मदयन के सौदागरों ने यूसुफ को कुएँ से निकालकर अपना ग़ुलाम बना लिया। फिर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उनके क़ब्ज़े में देखकर उनसे झगड़ा किया, आख़िरकार उन्होंने 20 दिरहम देकर यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों को राज़ी किया। फिर उन्होंने 20 ही दिरहम में यूसुफ (अलैहि०) को इसमाईलियों के हाथ बेच दिया और इसमाईलियों ने मिस्र ले जाकर उन्हें बेच दिया। यहीं से मुसलमानों में यह रिवायत मशहूर हुई है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उनके भाइयों ने बेचा था, लेकिन यह बात अच्छी तरह मालूम रहनी चाहिए कि क़ुरआन इस रिवायत की ताईद नहीं करता।
وَقَالَ ٱلَّذِي ٱشۡتَرَىٰهُ مِن مِّصۡرَ لِٱمۡرَأَتِهِۦٓ أَكۡرِمِي مَثۡوَىٰهُ عَسَىٰٓ أَن يَنفَعَنَآ أَوۡ نَتَّخِذَهُۥ وَلَدٗاۚ وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلِنُعَلِّمَهُۥ مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ وَٱللَّهُ غَالِبٌ عَلَىٰٓ أَمۡرِهِۦ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 20
(21) मिस्र के जिस आदमी ने उसे ख़रीदा16 उसने अपनी बीवी17 से कहा, “इसको अच्छी तरह रखना, नामुमकिन नहीं कि यह हमारे लिए फ़ायदेमन्द साबित हो या हम इसे बेटा बना लें।”18 इस तरह हमने यूसुफ़ के लिए उस सरज़मीन में क़दम जमाने की सूरत निकाली और उसे मामलों के समझने की तालीम देने का इन्तिज़ाम किया।19 अल्लाह अपना काम करके रहता है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
16. बाइबल में इस शख़्स का नाम फ़ौतीफ़ार लिखा है। क़ुरआन मजीद आगे चलकर उसे अज़ीज़ के लक़ब से याद करता है, और फिर एक-दूसरे मौक़े पर यही लक़ब (अज़ीज़) हज़रत यूसुफ (अलैहि०) के लिए भी इस्तेमाल करता है। इससे मालूम होता है कि यह शख़्स मिस्र में कोई बहुत बड़ा ओहदेदार या मंसबवाला था, क्योंकि अज़ीज़ के मानी ऐसे इक़तिदार (सत्ता) वाले शख़्स के हैं जिससे टक्कर न ली जा सकती हो। बाइबल और तलमूद का बयान है कि वह शाही बॉडीगार्डों का अफ़सर था, और इब्ने-जरीर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास से रिवायत करते हैं कि वह शाही ख़ज़ाने का अफ़सर था।
17. तलमूद में उस औरत का नाम ज़लीख़ा (Zelicha) लिखा है और यहीं से यह नाम (“ज़ुलैख़ा” के उच्चारण के साथ) मुसलमानों की रिवायत में मशहूर हुआ, मगर यह जो हमारे यहाँ आमतौर पर समझा जाता है कि बाद में उस औरत से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का निकाह हुआ, इसकी कोई अस्ल नहीं है, न क़ुरआन में और न इसराईली तारीख़ (इतिहास) में। हक़ीक़त यह है कि एक नबी के बुलन्द मर्तबे से यह बात बहुत कमतर है कि वह किसी ऐसी औरत से निकाह करे जिसकी बदचलनी का उसे ख़ुद तजरिबा हो चुका हो। क़ुरआन मजीद में हमें यह उसूल बताया गया कि, “बुरी औरतें बुरे मर्दो के लिए हैं और बुरे मर्द बुरी औरतों के लिए, और पाक औरतें पाक मर्दो के लिए हैं और पाक मर्द पाक औरतों के लिए।”(सूरा-24 नूर, आयत-26)
18. तलमूद का बयान है कि उस वक़्त हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की उम्र 18 साल थी और फ़ौतीफ़ार उनकी शानदार शख़्सियत को देखकर ही समझ गया था कि यह लड़का ग़ुलाम नहीं है, बल्कि किसी बड़े शरीफ़ ख़ानदान से ताल्लुक़ रखता है जिसे हालात की गर्दिश यहाँ खींच लाई है। चुनाँचे जब वह उन्हें ख़रीद रहा था उसी वक़्त उसने सौदागरों से कह दिया था कि यह ग़ुलाम तो नहीं मालूम होता, मुझे शक होता है कि शायद तुम इसे कहीं से चुरा लाए हो। इसी लिए फ़ौतीफ़ार ने उनसे ग़ुलामों का-सा बरताव नहीं किया, बल्कि उन्हें अपने घर और अपनी पूरी जायदाद का कर्ता-धर्ता बना दिया! बाइबल का बयान है कि “उसने अपना सब कुछ यूसुफ़ के हाथ में छोड़ दिया और सिवाए रोटी के जिसे वह खा लेता था, उसे अपनी किसी चीज़ का होश न था।” (उत्पत्ति, 39:6)
19. हज़रत यूसुफ़ की तरबियत उस वक़्त तक रेगिस्तान में बनजारों और चरवाहों के माहौल में हुई थी। कनआन और उत्तरी अरब के इलाक़े में उस वक़्त न कोई मुनज़्ज़म रियासत थी और न तहज़ीब व तमद्दुन (सभ्यता और संस्कृति) ने कोई बड़ी तरक़्क़ी की थी। कुछ आज़ाद क़बीले थे जो वक़्त-वक़्त पर हिजरत करते (बाहर जाते) रहते थे, और कुछ क़बीलों ने मुख़्तलिफ़ इलाक़ों में मुस्तक़िल तौर पर रिहाइश इख़्तियार करके छोटी-छोटी रियासतें भी बना ली थीं। इन लोगों का हाल मिस्र के बराबर में क़रीब-क़रीब वही था जो पाकिस्तान की उत्तर-पश्चिमी सरहद पर आज़ाद इलाक़े के पठान क़बीलों का है। यहाँ हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को जो तालीम व तरबियत मिली थी उसमें बद्दुओंवाली ज़िन्दगी की ख़ूबियाँ और इबराहीमी ख़ानदान की ख़ुदा-परस्ती व दीनदारी की बातें तो ज़रूर शामिल थीं, मगर अल्लाह तआला उस वक़्त के सबसे ज़्यादा तरक़्क़ी-याफ़्ता और तहज़ीब-याफ़्ता देश, यानी मिस्र में उनसे जो काम लेना चाहता था, और उसके लिए जिस जानकारी, जिस तजरिबे और जिस गहरी सूझ-बूझ की ज़रूरत थी उसके फलने-फूलने का कोई मौक़ा बद्दुओंवाली (देहाती) ज़िन्दगी में न था। इसलिए अल्लाह ने अपनी मुकम्मल क़ुदरत से यह इन्तिज़ाम किया कि उन्हें मिस्र देश के एक बड़े ओहदेदार के यहाँ पहुँचा दिया और उसने उनकी ग़ैर-मामूली सलाहियतों को देखकर उन्हें अपना घर और अपनी जागीर सौंप दी। इस तरह यह मौक़ा पैदा हो गया कि उनकी वे तमाम क़ाबिलियतें पूरी तरह फूल-फल सकें जो अब तक अमल में नहीं आई थीं और उन्हें एक छोटी जागीर के इन्तिज़ाम से वह तजरिबा हासिल हो जाए जो आनेवाले दिनों में एक बड़ी हुकूमत का इन्तिज़ाम चलाने के लिए चाहिए था। इसी बात की तरफ़ इस आयत में इशारा किया गया है।
وَلَمَّا بَلَغَ أَشُدَّهُۥٓ ءَاتَيۡنَٰهُ حُكۡمٗا وَعِلۡمٗاۚ وَكَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 21
(22) और जब वह अपनी पूरी जवानी को पहुँचा तो हमने उसे फ़ैसला करने की क़ुव्वत और इल्म दिया20, इस तरह हम नेक लोगों को बदला देते हैं।
20. क़ुरआन की ज़बान में इन अलफ़ाज़ से मुराद आमतौर से “नुबूवत देना होता है। हुक्म के मानी फ़ैसला करने की सलाहियत के भी हैं और इक़ितदार और हुकूमत के भी। तो अल्लाह का तरफ़ से किसी बन्दे को हुक्म दिए जाने का मतलब यह हुआ कि अल्लाह तआला ने उस इनसानी ज़िन्दगी के मामलों में फ़ैसला करने की सलाहियत भी दी और इख़्तियार भी दिए। रहा इल्म तो इससे मुराद वह ख़ास इल्मे-हक़ीक़त (सत्यज्ञान) है जो पैग़म्बरों को वह्य के ज़रिए से सीधे तौर पर दिया जाता है।
وَرَٰوَدَتۡهُ ٱلَّتِي هُوَ فِي بَيۡتِهَا عَن نَّفۡسِهِۦ وَغَلَّقَتِ ٱلۡأَبۡوَٰبَ وَقَالَتۡ هَيۡتَ لَكَۚ قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ رَبِّيٓ أَحۡسَنَ مَثۡوَايَۖ إِنَّهُۥ لَا يُفۡلِحُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 22
(23) जिस औरत के घर में वह था, वह उसपर डोरे डालने लगी और एक दिन दरवाज़े बन्द करके बोली, “आ जा।” यूसुफ़ ने कहा, “ख़ुदा की पनाह! मेरे रब ने तो मुझे अच्छी इज़्ज़त और मक़ाम दिया (और मैं यह काम करूँ!) । ऐसे ज़ालिम कभी कामयाबी नहीं पाया करते।"21
21. आमतौर पर क़ुरआन का तर्जमा और तफ़सीर लिखनेवालों ने यह समझा है कि यहाँ मेरे रब का लफ़्ज़ हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने उस शख़्स के लिए इस्तेमाल किया है जिसके यहाँ वे उस वक़्त काम कर रहे थे और उनके इस जवाब का मतलब यह था कि मेरे मालिक ने तो मुझे इतनी अच्छी तरह रखा है, फिर मैं यह नमक-हरामी कैसे कर सकता हूँ कि उसकी बीवी से बदकारी करूँ। लेकिन मुझे इस तर्जमे और तफ़सीर से सख़्त इख़्तिलाफ़ है। अगरचे अरबी ज़बान के पहलू से यह मतलब लेने की भी गुंजाइश है, क्योंकि अरबी में लफ़्ज़ “रब” मालिक के मानी में इस्तेमाल होता है, लेकिन यह बात एक नबी की शान से बहुत गिरी हुई है कि वह एक गुनाह से रुक जाने में अल्लाह तआला के बजाय किसी बन्दे का लिहाज़ करे और क़ुरआन में इसकी कोई मिसाल भी मौजूद नहीं है कि किसी नबी ने ख़ुदा के सिवा किसी और को अपना रब कहा हो। आगे चलकर आयत 41, 42, और 50 में हम देखते हैं कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) अपने और मिस्रवासियों के इस नज़रिये का यह फ़र्क़ बार-बार वाज़ेह करते हैं कि उनका तो अल्लाह है और मिस्रियों ने बन्दों को अपना रब बना रखा है। फिर जब आयत के अलफ़ाज़ में यह मतलब लेने की भी गुंजाइश मौजूद है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने रब्बी (मेरा रब) अल्लाह को कहा हो, तो क्या वजह है कि हम एक ऐसे मानी को लें जिसमें साफ़तौर पर बुराई का पहलू निकलता है।
وَلَقَدۡ هَمَّتۡ بِهِۦۖ وَهَمَّ بِهَا لَوۡلَآ أَن رَّءَا بُرۡهَٰنَ رَبِّهِۦۚ كَذَٰلِكَ لِنَصۡرِفَ عَنۡهُ ٱلسُّوٓءَ وَٱلۡفَحۡشَآءَۚ إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 23
(24) वह उसकी तरफ़ बढ़ी और यूसुफ़ भी उसकी तरफ़ बढ़ता अगर अपने रब की बुरहान (दलील) न देख लेता।22 ऐसा हुआ, ताकि हम उससे बुराई और बेशर्मी को दूर कर दें।23 हक़ीक़त में वह हमारे चुने हुए बन्दों में से था।
22. 'बुरहान' के मानी हैं दलील और हुज्जत के। रब की बुरहान से मुराद ख़ुदा की सुझाई हुई वह दलील है जिसकी वजह से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के दिल ने उनके मन को इस बात के क़ुबूल करने पर राज़ी किया कि इस औरत की मौज-मस्तीवाली दावत को क़ुबूल करना तेरे लिए मुनासिब नहीं है। और वह दलील थी क्या? इसे पिछले जुमले में बयान किया जा चुका है, यानी यह कि, “मेरे रब ने तो मुझे यह मक़ाम दिया और मैं ऐसा बुरा काम करूँ? ऐसे ज़ालिमों को कभी कामयाबी हासिल नहीं हुआ करती।” यही हक़ की वह दलील थी जिसने हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उस नई जवानी की हालत में ऐसे नाज़ुक मौक़े पर गुनाह से रोके रखा। फिर यह जो फ़रमाया कि “यूसुफ़ भी उसकी तरफ़ बढ़ता अगर अपने रब की बुरहान न देख लेता” तो इससे नबियों की पाकदामनी की हक़ीक़त पर भी पूरी रौशनी पड़ जाती है। नबी के मासूम होने के मानी ये नहीं हैं कि उससे गुनाह करने और उसके फ़ैसले और ग़लती करने की ताक़त और सकत छीन ली गई है यहाँ तक कि गुनाह करना उसके लिए मुमकिन ही नहीं रहा है, बल्कि इसके मानी ये हैं कि नबी अगरचे गुनाह करने की क़ुदरत रखता है, लेकिन इनसान होने की तमाम सिफ़ात रखने के बावजूद, और तमाम इनसानी जज़्बातो-एहसासात और ख़ाहिशें रखते हुए भी वह ऐसा नेकदिल और ख़ुदा से डरनेवाला होता है कि जान-बूझकर कभी गुनाह का इरादा नहीं करता। वह अपने अन्दर अपने रब की ऐसी-ऐसी हुज्जतें और दलीलें रखता है जिनके मुक़ाबले में मन की ख़ाहिश कभी कामयाब नहीं होने पाती और अगर अनजाने में उससे कोई भूल-चूक हो जाती है तो अल्लाह तआला फ़ौरन वाज़ेह तौर पर वह्य के ज़रिए से उसकी इस्लाह (सुधार) कर देता है, क्योंकि उसकी ग़लती अकेले एक शख़्स की ग़लती नहीं है, एक पूरी उम्मत की ग़लती है, वह सीधे रास्ते से बाल बराबर हट जाए तो दुनिया गुमराही में मीलों दूर निकल जाए।
23. इस बात के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उसका रब की दलील को देखना और गुनाह से बच जाना हमारी मेहरबानी व हिदायत से हुआ; क्योंकि हम अपने इस चुने हुए बन्दे से बुराई और बेशर्मी को दूर करना चाहते थे। दूसरा मतलब यह भी लिया जा सकता है और यह ज़्यादा गहरा मतलब है कि यूसुफ़ (अलैहि०) को यह मामला जो पेश आया तो यह भी अस्ल में उनकी तरबियत के सिलसिले में एक ज़रूरी मरहला था। उनको बुराई और बेशर्मी से पाक करने और उनकी मन की पाकीज़गी को उसके इन्तिहाई ऊँचे दरजे पर पहुँचाने के लिए अल्लाह की मस्लहत में यह ज़रूरी था कि उनके सामने गुनाह का एक ऐसा नाज़ुक मौक़ा पेश आए और उस आज़माइश के वक़्त वह अपने इरादे की पूरी ताक़त परेहज़गारी व तक़वा के पलड़े में डालकर अपने मन के बुरे मैलानों को हमेशा के लिए पूरी तरह हरा दें। ख़ास तौर से तरबियत के उस ख़ास तरीक़े को अपनाने की मस्लहत और अहमियत उस अख़लाक़ी माहौल को निगाह में रखने से आसानी से समझ में आ सकती है जो उस वक़्त की मिस्री सोसाइटी में पाया जाता था। आगे रुकू 4 (आयतें 30 से 35) में इस माहौल की जो एक ज़रा-सी झलक दिखाई गई है उससे अन्दाज़ा होता है कि उस वक़्त के ‘मुहज़्ज़ब (सभ्य) मिस्र’ में आम तौर से और उसके ऊँचे तबक़े में ख़ास तौर से सिनफ़ी आज़ादी (यौन स्वच्छन्दता) क़रीब-क़रीब इसी पैमाने पर थी जिसपर हम अपने ज़माने के मग़रिब वालों और मग़रिब-ज़दा तबक़ों को ‘फ़ाइज़’ (आसीन) पा रहे हैं। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को ऐसे बिगड़े हुए लोगों में रहकर काम करना था, और काम भी एक मामूली आदमी की हैसियत से नहीं बल्कि मुल्क के हुक्मराँ की हैसियत से करना था। अब यह ज़ाहिर है कि जो औरतें एक ख़ूबसूरत ग़ुलाम के आगे बिछी जा रही थीं, वे एक जवान और ख़ूबसूरत हुक्मराँ को फाँसने के लिए क्या न कर गुज़रतीं। इसी की पेशबन्दी अल्लाह तआला ने इस तरह की कि एक तरफ़ तो शुरू ही में इस आज़माइश से गुज़ारकर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को पुख़्ता कर दिया, और दूसरी तरफ़ मिस्री औरतों को भी उनसे मायूस करके उनके सारे फ़ित्नों का दरवाज़ा बन्द कर दिया।
وَٱسۡتَبَقَا ٱلۡبَابَ وَقَدَّتۡ قَمِيصَهُۥ مِن دُبُرٖ وَأَلۡفَيَا سَيِّدَهَا لَدَا ٱلۡبَابِۚ قَالَتۡ مَا جَزَآءُ مَنۡ أَرَادَ بِأَهۡلِكَ سُوٓءًا إِلَّآ أَن يُسۡجَنَ أَوۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 24
(25) आख़िरकार यूसुफ़ और वह आगे-पीछे दरवाज़े की तरफ़ भागे और उसने पीछे से यूसुफ़ की क़मीज़ (खींचकर) फाड़ दी। दरवाज़े पर दोनों ने उसके शौहर को मौजूद पाया। उसे देखते ही औरत कहने लगी, “क्या सज़ा है उस आदमी की जो तेरी घरवाली पर नीयत ख़राब करे?” “इसके सिवा और क्या सज़ा हो सकती है कि वह क़ैद किया जाए या उसे सख़्त अज़ाब दिया जाए?”
قَالَ هِيَ رَٰوَدَتۡنِي عَن نَّفۡسِيۚ وَشَهِدَ شَاهِدٞ مِّنۡ أَهۡلِهَآ إِن كَانَ قَمِيصُهُۥ قُدَّ مِن قُبُلٖ فَصَدَقَتۡ وَهُوَ مِنَ ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 25
(26) यूसुफ़ ने कहा, “यही मुझे फाँसने की कोशिश कर रही थी।” उस औरत के अपने कुंबेवालों में से एक आदमी ने (हालात का अन्दाज़ा करके) गवाही पेश की24 कि “अगर यूसुफ़ की क़मीज़ आगे से फटी हो तो औरत सच्ची है और यह झूठा है,
24. इससे यह समझ में आता है कि मामला इस तरह का था कि घर के मालिक के साथ ख़ुद उस औरत के भाई-बन्दों में से भी कोई शख़्स आ रहा होगा और उसने यह झगड़ा सुनकर कहा होगा कि जब ये दोनों एक-दूसरे पर इलज़ाम लगाते हैं और मौत का गवाह कोई नहीं है तो सूरते-हाल की गवाही से इस मामले की असलियत का यूँ पता लगाया जा सकता है। कुछ रिवायतों में बयान किया गया है कि यह गवाही देनेवाला एक दूध पीता बच्चा था जो वहाँ पालने में लेटा हुआ था और ख़ुदा ने उसे बोलने की सलाहियत देकर उससे यह गवाही दिलवाई। लेकिन यह रिवायत न तो सही सनद से साबित है और न इस मामले में बिना वजह मोजिज़े से मदद लेने की कोई ज़रूरत ही महसूस होती है। उस गवाह ने सूरतेहाल की जिस गवाही की तरफ़ ध्यान दिलाया है, वह सरासर एक अक़्ल में आनेवाली गवाही है और उसको देखने से एक ही नज़र में मालूम हो जाता है कि यह शख़्स समझदार और तजरिबेकार आदमी था, मामले की सूरत सामने आते ही उसकी तह को पहुँच गया। नामुमकिन नहीं कि वह कोई जज या मजिस्ट्रेट हो। (क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों के यहाँ दूध पीते बच्चे की गवाही का क़िस्सा अस्ल में यहूदी रिवायतों से आया है। देखें— तलमूद के इक़्तिबास, लेखक पॉल इसहाक़ हरशीन, लन्दन 1880 ई०, पृष्ठ-256)
وَإِن كَانَ قَمِيصُهُۥ قُدَّ مِن دُبُرٖ فَكَذَبَتۡ وَهُوَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 26
(27) और अगर उसकी क़मीज़ पीछे से फटी हो तो औरत झूठी है और यह सच्चा।"25
25. मतलब यह है कि अगर यूसुफ़ की क़मीज़ सामने से फटी हो तो यह इस बात की साफ़ अलामत है कि पहल यूसुफ़ की तरफ़ से हुई थी और औरत अपने आपको बचाने के लिए कशमकश कर रही थी। लेकिन अगर यूसुफ़ की कमीज़ पीछे से फटी है तो इससे साफ़ साबित होता है कि औरत उसके पीछे पड़ी हुई थी और यूसुफ़ उससे बचकर निकल जाना चाहता था। इसके अलावा क़रीने की एक और गवाही भी उस गवाही में छिपी हुई थी, वह यह कि उस गवाह ने ध्यान सिर्फ़ यूसुफ़ (अलैहि०) की क़मीज़ की तरफ़ दिलाया। इससे साफ़ ज़ाहिर हो गया कि औरत के जिस्म या उसके लिबास पर ज़ोर-ज़बरदस्ती की कोई अलामत सिरे से पाई ही न जाती थी, हालाँकि अगर यह मुक़द्दमा बलात्कार की कोशिश का होता तो औरत पर इसकी खुली निशानियाँ पाई जातीं।
فَلَمَّا رَءَا قَمِيصَهُۥ قُدَّ مِن دُبُرٖ قَالَ إِنَّهُۥ مِن كَيۡدِكُنَّۖ إِنَّ كَيۡدَكُنَّ عَظِيمٞ ۝ 27
(28) जब शौहर ने देखा कि यूसुफ़ की क़मीज़ पीछे से फटी है तो उसने कहा, “यह तुम औरतों की चालाकियाँ हैं, वाक़ई बड़े ग़ज़ब की होती हैं तुम्हारी चालें।
يُوسُفُ أَعۡرِضۡ عَنۡ هَٰذَاۚ وَٱسۡتَغۡفِرِي لِذَنۢبِكِۖ إِنَّكِ كُنتِ مِنَ ٱلۡخَاطِـِٔينَ ۝ 28
(29) यूसुफ़! इस मामले को जाने दे (यानी दरगुज़र कर दे) । और ऐ औरत! तू अपने क़ुसूर की माफ़ी माँग, तू ही अस्ल में ख़ताकार थी।"25अ
25(अ). बाइबल में इस निरसे को जिस भौंडे तरीक़े से बवान किया गया है वह देखिए— "तब उस औरत ने उसका लिबास पकड़कर कहा कि मेरे साथ हमबिस्तर हो। वह अपना लिबास उसके हाथ में छोड़कर भागा और बाहर निकल गया। जब उसने देखा कि वह अपना लिबास उसके हाथ में छोड़कर भाग गया तो उसने अपने घर के आदमियों के बुलाकर उनसे कहा कि देखो वह एक इब्री को हमारा तिरस्कार करने के लिए हमारे पास ले आया है। यह मुझसे हमबिस्तर होने को अन्दर घुस आया और मैं ऊँची आवाज़ से चिल्लाने लगी। जब उसने देखा कि में ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रही हूँ तो अपना लिबास मेरे पास छोड़कर भागा और बाहर निकल गया। और वह उसका लिबास उसके मालिक के घर लौटने तक अपने पास रखे रही। जब उसके मालिक ने अपनी बीवी की वे बातें जो उसने उससे कहीं सुन लीं कि तेरे ग़ुलाम ने मुझसे ऐसा-ऐसा किया तो उसका ग़ुस्सा भड़का और यूसुफ़ के मालिक ने उसको लेकर क़ैदख़ाने में जहाँ बादशाह के क़ैदी बन्द थे डाल दिया। (उत्पत्ति, 39:12 से 20) इस अजीबो-ग़रीब रिवायत का ख़ुलासा यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के जिस्म पर लिबास कुछ इस तरह का था कि इधर ज़ुलैख़ा ने उसपर हाथ डाला और उधर वह पूरा लिबास ख़ुद-ब-ख़ुद उतरकर उसके हाथ में आ गया! फिर मज़े की बात यह कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) वह लिबास उसके पास छोड़कर यूँ ही नंगे भाग निकले और उनका लिबास (यानी उनके क़ुसूर का पक्का सुबूत) उस औरत के पास ही रह गया। इसके बाद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के मुजरिम होने में आख़िर कौन शक कर सकता था? यह तो है बाइबल की रिवायत। रही तलमूद, तो उसका बयान है कि फ़ौतीफ़ार ने जब अपनी बीवी से यह शिकायत सुनी तो उसने यूसुफ़ (अलैहि०) को ख़ूब पिटवाया, फिर उनके ख़िलाफ़ अदालत में अपील की और अदालत के अधिकारियों ने हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की क़मीज़ का जाइज़ा लेकर फ़ैसला किया कि क़ुसूर औरत का है, क्योंकि क़मीज़ पीछे से फटी है, न कि आगे से। लेकिन यह बात हर अक़्लमन्द आदमी थोड़े-से सोच-विचार से आसानी से समझ सकता है कि क़ुरआन की रिवायत तलमूद की रिवायत से ज़्यादा समझ में आनेवाली है। आख़िर किस तरह यह मान लिया जाए कि ऐसा बड़ा एक रुतबेवाला आदमी अपनी बीवी पर अपने ग़ुलाम की ज़ोर-ज़बरदस्त का मामला ख़ुद अदालत में ले गया होगा। यह एक सबसे ज़्यादा नुमायाँ मिसाल है क़ुरआन और इसराईली रिवायतों के फ़र्क़ की जिससे मग़रिबी मुस्तशरिक़ीन (इस्लाम का नकारात्मक अध्ययन करनेवाले पश्चिमी विद्वानों) के इस इलज़ाम का बकवास होना ज़ाहिर हो जाता है कि मुहम्मद (सल्ल०) ने ये क़िस्से बनी-इसराईल से नक़्ल कर लिए हैं। सच यह है कि क़ुरआन ने तो उनका सुधार किया है और अस्ल वाक़िआत दुनिया को बताए हैं।
۞وَقَالَ نِسۡوَةٞ فِي ٱلۡمَدِينَةِ ٱمۡرَأَتُ ٱلۡعَزِيزِ تُرَٰوِدُ فَتَىٰهَا عَن نَّفۡسِهِۦۖ قَدۡ شَغَفَهَا حُبًّاۖ إِنَّا لَنَرَىٰهَا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 29
(30) शहर की औरतें आपस में चर्चा करने लगीं कि “अज़ीज़ की बीवी25ब अपने नौजवान ग़ुलाम के पीछे पड़ी हुई है। मुहब्बत ने उसको बेक़ाबू कर रखा है। हमारे नज़दीक तो वह खुली ग़लती कर रही है।”
25ब. यहाँ अज़ीज़ लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। अज़ीज़ उस शख़्स का नाम न था, बल्कि मिस्र के किसी बड़े असरदार और ताक़तवर शख़्स के लिए इस्तिलाह के तौर पर लक़ब (उपाधि) का इस्तेमाल होता था।
فَلَمَّا سَمِعَتۡ بِمَكۡرِهِنَّ أَرۡسَلَتۡ إِلَيۡهِنَّ وَأَعۡتَدَتۡ لَهُنَّ مُتَّكَـٔٗا وَءَاتَتۡ كُلَّ وَٰحِدَةٖ مِّنۡهُنَّ سِكِّينٗا وَقَالَتِ ٱخۡرُجۡ عَلَيۡهِنَّۖ فَلَمَّا رَأَيۡنَهُۥٓ أَكۡبَرۡنَهُۥ وَقَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّ وَقُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا هَٰذَا بَشَرًا إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا مَلَكٞ كَرِيمٞ ۝ 30
(31) उसने जो उनकी ये मक्कारी भरी बातें सुनीं तो उनको बुलावा भेज दिया और उनके लिए तकिएदार मजलिस सजाई26 और मेहमानी में हर एक के आगे एक-एक छुरी रख दी। (फिर ठीक उस वक़्त जबकि वे फल काट-काटकर खा रही थीं) उसने यूसुफ़ को इशारा किया कि उनके सामने निकल आ। जब उन औरतों की नज़र उसपर पड़ी तो वे दंग रह गईं और अपने हाथ काट बैठीं और बेसाख़्ता पुकार उठीं, “अल्लाह की पनाह! यह आदमी इनसान नहीं है, यह तो कोई बुज़ुर्ग फ़रिश्ता है।”
26. यानी ऐसी मजलिस जिसमें मेहमानों के लिए तकिए लगे हुए थे। मिस्र के आसारे-क़दीमा (पुरातत्व अवशेषों) से भी इसकी तसदीक़ होती है कि उनकी मजलिसों में तकियों का इस्तेमाल बहुत होता था। बाइबल में इस ख़ातिरदारी का कोई ज़िक्र नहीं है, अलबत्ता तलमूद में यह वाक़िआ बयान किया गया है, मगर वह क़ुरआन से बहुत अलग है। क़ुरआन के बयान में जो ज़िन्दगी, जो रूह, जो फ़ितरीपन और अख़लाक़़ियत पाई जाती है उससे तलमूद का बयान बिलकुल ख़ाली है।
قَالَتۡ فَذَٰلِكُنَّ ٱلَّذِي لُمۡتُنَّنِي فِيهِۖ وَلَقَدۡ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ فَٱسۡتَعۡصَمَۖ وَلَئِن لَّمۡ يَفۡعَلۡ مَآ ءَامُرُهُۥ لَيُسۡجَنَنَّ وَلَيَكُونٗا مِّنَ ٱلصَّٰغِرِينَ ۝ 31
(32) अज़ीज़ की बीवी ने कहा, “देख लिया! यह है वह आदमी जिसके मामले में तुम मुझपर बातें बनाती थीं। बेशक मैंने इसे रिझाने की कोशिश की थी, मगर यह बच निकला। अगर यह मेरा कहना न मानेगा तो क़ैद किया जाएगा और बहुत बेइज़्ज़त व रुसवा होगा।"27
27. इससे अन्दाज़ा होता है कि उस वक़्त मिस्र के ऊँचे तबक़ों की अख़लाक़ी हालत क्या थी। ज़ाहिर है कि अज़ीज़ की बीवी ने जिन औरतों को बुलाया होगा वे अमीरों, रईसों और बड़े ओहदेदारों के घर की बेगमें ही होंगी। उन ऊँचे रुतबे की औरतों के सामने वह अपने महबूब नौजवान को पेश करती है और उसकी ख़ूबसूरत जवानी दिखाकर उनसे यह बात मनवाने की कोशिश करती है कि ऐसे ख़ूबसूरत नौजवान पर मैं मर न मिटती तो आख़िर और क्या करती फिर ये बड़े घरों की बहू-बेटियाँ ख़ुद भी अपने अमल से मानो इस बात की तसदीक़ करती हैं। कि वाक़ई उनमें से हर एक ऐसे हालात में वही कुछ करती जो अज़ीज़ की बेगम ने किया। फिर शरीफ़ औरतों की इस भरी मजलिस में इज़्ज़तदार मेज़बान को खुल्लम-खुल्ला अपने इस इरादे को ज़ाहिर करते हुए कोई शर्म महसूस नहीं होती कि अगर उसका ख़ूबसूरत ग़ुलाम उसके दिल की ख़ाहिश का खिलौना बनने पर राज़ी न हुआ तो वह उसे जेल भिजवा देगी। यह सब कुछ इस बात का पता देता है कि यूरोप और अमेरिका और उनकी नक़्ल करनेवाले पूर्वी लोग आज औरतों की जिस आज़ादी और बेशर्मी को बीसवीं शताब्दी की तरक़्क़ियों का करिश्मा समझ रहे हैं वह कोई नई चीज़ नहीं है, बहुत पुरानी चीज़ है। दक़ियानूस से सैकड़ों साल पहले मिस्र में यह इसी शान के साथ पाई जाती थी, जैसी आज इस रौशन ज़माने में पाई जा रही है।
قَالَ رَبِّ ٱلسِّجۡنُ أَحَبُّ إِلَيَّ مِمَّا يَدۡعُونَنِيٓ إِلَيۡهِۖ وَإِلَّا تَصۡرِفۡ عَنِّي كَيۡدَهُنَّ أَصۡبُ إِلَيۡهِنَّ وَأَكُن مِّنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 32
(33) यूसुफ़ ने कहा, “ऐ मेरे रब! क़ैद मुझे मंज़ूर है, इसके मुक़ाबले में कि मैं वह काम करूँ जो ये लोग मुझसे चाहते हैं और अगर तूने इनकी चालों को मुझसे दफ़ा न किया तो मैं इनके जाल में फँस जाऊँगा और जाहिलों में शामिल हो रहूँगा।"28
28. ये आयतें हमारे सामने उन हालात का एक अजीब नक़्शा पेश करती हैं जिनमें उस वक़्त हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) मुब्तला थे। उन्नीस-बीस साल का एक ख़ूबसूरत नौजवान है जो बद्दुओंवाली ज़िन्दगी से बेहतरीन तन्दुरुस्ती और भरी जवानी लिए हुए आया है। ग़रीबी, जलावतनी (वतन से बाहर होने) और जबरी ग़ुलामी के मरहलों से गुज़रने के बाद क़िस्मत उसे दुनिया की सबसे बड़ी तरक़्क़ीयाफ़्ता हुकूमत की राजधानी में एक बड़े रईस के यहाँ ले आई है। यहाँ पहले तो ख़ुद उस घर की बेगम ही उसके पीछे पड़ जाती है जिससे उसका दिन-रात का आमना-सामना है। फिर उसकी ख़ूबसूरती की चर्चा पूरे शहर में फैल जाती है और शहर भर के दौलतमन्द घरानों की औरतें उसपर मर मिटती हैं। अब एक तरफ़ वह है और दूसरी तरफ़ सैकड़ों ख़ूबसूरत जाल हैं जो हर वक़्त, हर जगह उसे फाँसने के लिए फैले हुए हैं। हर तरह की तदबीरें उसके जज़्बात को भड़काने और उसकी पारसाई को तोड़ने के लिए की जा रही हैं। जिधर जाता है यही देखता है कि गुनाह अपनी सारी ख़ुशनुमाइयों और दिलफ़रेबियों के साथ दरवाज़ा खोले उसके इन्तिज़ार में खड़ा है। कोई तो गुनाह के मौक़े ख़ुद ढूँढ़ता है, मगर यहाँ मौक़े उसको ख़ुद ढूँढ़ रहे हैं और इस ताक में लगे हुए हैं कि जिस वक़्त भी उसका दिल बुराई की तरफ़ ज़रा-सा भी झुके, वे फ़ौरन अपने आपको उसके सामने पेश कर दें। रात-दिन के चौबीस घण्टे वह इस ख़तरे में गुज़ार रहा है कि कभी एक पल के लिए भी उसके इरादे के बन्धन में कुछ ढील आ जाए तो वह गुनाह के उन अनगिनत दरवाज़ों में से किसी में दाख़िल हो सकता है, जो उसके इन्तिज़ार में खुले हुए हैं। इस हालत में यह ख़ुदा-परस्त नौजवान जिस कामयाबी के साथ इन शैतानी बहकावों का मुक़ाबला करता है, वह अपने आप में ख़ुद कुछ कम तारीफ़ के क़ाबिल नहीं है। मगर अपने मन पर क़ाबू रखने के इस हैरतनाक कमाल पर मन और सोच की पाकीज़गी का और ज़्यादा कमाल यह है कि इसपर भी उसके दिल में कभी यह घमण्ड भरा ख़याल नहीं आता कि वाह रे मैं, कैसा मज़बूत है मेरा किरदार कि ऐसी-ऐसी ख़ूबसूरत और जवान औरतें मुझपर फ़िदा हैं और फिर भी मेरे क़दम नहीं फिसलते। इसके बजाय वह अपनी इनसानी कमज़ोरियों का ख़याल करके काँप उठता है और बहुत ही गिड़गिड़ाकर ख़ुदा से मदद की दुआ करता है कि ऐ रब, मैं एक कमज़ोर इनसान हूँ, मेरा इतना बल-बूता कहाँ कि इन बेपनाह शैतानी बहकावों का मुक़ाबला कर सकूँ, तू मुझे सहारा दे और मुझे बचा, डरता हूँ कि कहीं मेरे क़दम फिसल न जाएँ। हक़ीक़त में यह हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की अख़लाक़ी तरबियत का सबसे अहम और सबसे नाज़ुक मरहला था। ईमानदारी, अमानतदारी, पाकदामनी, हक़ को पहचानने, हक़ पर चलने, ख़ुद पर क़ाबू रखने और मन को क़ाबू में रखने की ग़ैर-मामूली ख़ूबियाँ जो अब तक उनके अन्दर छिपी हुई थीं और जिनसे वे ख़ुद भी बेख़बर थे, वे सब की सब इस कड़ी आज़माइश के दौर में उभर आईं, पूरे ज़ोर के साथ काम करने लगीं और उन्हें ख़ुद भी मालूम हो गया कि उनके अन्दर कौन-कौन-सी क़ुव्वतें पाई जाती हैं और वे उनसे क्या काम ले सकते हैं।
فَٱسۡتَجَابَ لَهُۥ رَبُّهُۥ فَصَرَفَ عَنۡهُ كَيۡدَهُنَّۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 33
(34) उसके रब ने उसकी दुआ क़ुबूल की और उन औरतों की चालें उससे दूर कर दीं।29 बेशक वही है जो सबकी सुनता और सब कुछ जानता है।
29. दूर करना इस मानी में है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के नेक किरदार को ऐसी मज़बूती दे दी गई जिसके मुक़ाबले में उन औरतों की सारी तदबीरें नाकाम होकर रह गईं। साथ ही इस मानी में भी है कि अल्लाह की मशीयत (मरज़ी) ने जेल का दरवाज़ा उनके लिए खुलवा दिया।
ثُمَّ بَدَا لَهُم مِّنۢ بَعۡدِ مَا رَأَوُاْ ٱلۡأٓيَٰتِ لَيَسۡجُنُنَّهُۥ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 34
(35) फिर उन लोगों को यह सूझी कि एक मुद्दत के लिए उसे क़ैद कर दें, हालाँकि वह (उसकी पाकदामनी और ख़ुद अपनी औरतों के बुरे तौर-तरीक़ों की) खुली निशानियाँ देख चुके थे।30
30. इस तरह हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का क़ैद में डाला जाना हक़ीक़त में उनकी अख़लाक़ी जीत थी और साथ ही इस बात का एलान भी था कि मिस्र के अमीर (सरदार) और हाकिम अख़लाक़ी तौर से पूरी तरह हार चुके हैं। अब हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) कोई अनजान और गुमनाम आदमी न रहे थे। सारे देश में और कम-से-कम राजधानी में तो आम और ख़ास सब उनको जान चुके थे। जिस शख़्स की दिल-फ़रेब शख़्सियत पर एक-दो नहीं, ज़्यादातर बड़े घरानों की औरतें फ़िदा हों, और जिसकी आज़माइश में डालनेवाली ख़ूबसूरती से अपने घर बिगड़ते देखकर मिस्र के हाकिमों ने अपनी ख़ैरियत इसी में देखी हो कि उसे क़ैद कर दें, ज़ाहिर है कि ऐसा शख़्स छिपा नहीं रह सकता था। यक़ीनन घर-घर उसकी चर्चा फैल गई होगी, आमतौर पर लोग यह बात भी जान गए होंगे कि यह शख़्स कैसे बुलन्द, मज़बूत और पाकीज़ा अख़लाक़ का इनसान है, और यह भी जान गए होंगे कि इस शख़्स को जेल अपने किसी जुर्म पर नहीं भेजा गया है, बल्कि इसलिए भेजा गया है कि मिस्र के बड़े लोग अपनी औरतों को क़ाबू में रखने के बजाय इस बेगुनाह को जेल भेज देना ज़्यादा आसान पाते थे। इससे यह भी मालूम हुआ कि किसी शख़्स को इनसाफ़ की शर्तों के मुताबिक़ अदालत में मुजरिम साबित किए बिना, बस यूँही पकड़कर जेल भेज देना, बेईमान हाकिमों का पुराना तरीक़ा है। मामले में भी आज की शैतानी ताक़तें चार हज़ार साल पहले के ज़ालिमों से कुछ बहुत ज़्यादा अलग नहीं हैं। फ़र्क़ अगर है तो बस यह है कि वे 'लोकतन्त्र' का नाम नहीं लेते थे, और ये अपने इन करतूतों के साथ यह नाम भी लेते हैं। वे क़ानून के बिना अपनी ग़ैर-क़ानूनी हरकतें किया करते थे, और ये हर नामुनासिब ज़ुल्म और ज़्यादती के लिए पहले एक 'क़ानून' बना लेते हैं। वे साफ़-साफ़ अपने फ़ायदे के लिए लोगों पर हाथ डालते थे और ये जिसपर हाथ डालते हैं उसके बारे में दुनिया को यक़ीन दिलाने की कोशिश करते हैं कि उससे इनको नहीं, बल्कि देश और क़ौम को खतरा था, यानी वे सिर्फ़ ज़ालिम थे। ये इसके साथ झूठे और बेशर्म भी हैं।
وَدَخَلَ مَعَهُ ٱلسِّجۡنَ فَتَيَانِۖ قَالَ أَحَدُهُمَآ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَعۡصِرُ خَمۡرٗاۖ وَقَالَ ٱلۡأٓخَرُ إِنِّيٓ أَرَىٰنِيٓ أَحۡمِلُ فَوۡقَ رَأۡسِي خُبۡزٗا تَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِنۡهُۖ نَبِّئۡنَا بِتَأۡوِيلِهِۦٓۖ إِنَّا نَرَىٰكَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 35
(36) जेल में31 दो ग़ुलाम और भी उसके साथ दाख़िल हुए।32 एक ने उससे कहा, “मैंने ख़ाब देखा है कि मैं शराब निचोड़ रहा हूँ।” दूसरे ने कहा, “मैंने देखा कि मेरे सर पर रोटियाँ रखी हैं और परिन्दे उनको खा रहे हैं।” दोनों ने कहा, “हमें इसकी ताबीर (स्वप्न फल) बताइए। हम देखते हैं कि आप एक नेक आदमी हैं"।33
31. ज़्यादा इमकान है कि जब हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) क़ैद किए गए, उस वक़्त उनकी उम्र 20-21 साल से ज़्यादा न होगी। तलमूद में बयान किया गया है कि जेल से छूटकर जब वे मिस्र के हाकिम बने तो उनकी उम्र 20 साल थी, और क़ुरआन कहता है कि वे क़ैदख़ाने में 'बिज़-अ सिनीन' यानी कई साल रहे। 'बिज़अ' लफ़्ज़ अरबी ज़बान में दस तक की गिनती के लिए इस्तेमाल होता है।
32. ये दो ग़ुलाम जो क़ैदख़ाने में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के साथ दाख़िल हुए थे उनके बारे में बाइबल की रिवायत है कि उनमें से एक मिस्र के बादशाह के साक़ियों (शराब पिलानेवालों) का सरदार था और दूसरा शाही नानबाइयों (रोटी पकानेवालों) का अफ़सर। तलमूद का बयान है। कि इन दोनों को मिस्र के बादशाह ने इस ग़लती पर जेल भेजा था कि एक दावत के मौक़े पर कुछ किरकिराहट पाई गई थी और शराब के एक गिलास में मक्खी निकल आई थी।
33. इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि क़ैदख़ाने में हज़रत यूसुफ़ किस निगाह से देखे जाते थे। ऊपर जिन वाक़िआत का ज़िक्र गुज़र चुका है उनको सामने रखने से यह बात हैरत के क़ाबिल नहीं रहती कि इन दो क़ैदियों ने आख़िर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ही से आकर अपने ख़ाब का मतलब क्यों पूछा और उनसे अक़ीदत के साथ यह क्यों कहा कि “हम देखते हैं कि आप एक नेक आदमी हैं।” जेल के अन्दर और बाहर सब लोग जानते थे कि यह शख़्स कोई मुजरिम नहीं है, बल्कि एक निहायत नेक-दिल आदमी है, सख़्त-से-सख़्त आज़माइशों में अपनी परहेज़गारी का सुबूत दे चुका है, आज पूरे देश में इससे ज़्यादा नेक इनसान कोई नहीं है, यहाँ तक कि देश के मज़हबी पेशवाओं में भी इसकी मिसाल नहीं मिलती। यही वजह थी कि न सिर्फ़ कैदी उनको अक़ीदत (श्रद्धा) की निगाह से देखते थे, बल्कि क़ैदख़ाने के अधिकारी और कारिंदे तक भी उनको मानने लगे थे। चुनाँचे बाइबल में है कि क़ैदख़ाने के दारोगा ने सब क़ैदियों को जो क़ैद में थे यूसुफ़ के हाथ में सौंपा और जो कुछ वे करते उसी के आदेश से करते थे, और क़ैदख़ाने का दारोग़ा सब कामों की तरफ़ से जो उसके हाथ में थे, बेफ़िक्र था।” (उत्पत्ति, 39: 22, 23)
قَالَ لَا يَأۡتِيكُمَا طَعَامٞ تُرۡزَقَانِهِۦٓ إِلَّا نَبَّأۡتُكُمَا بِتَأۡوِيلِهِۦ قَبۡلَ أَن يَأۡتِيَكُمَاۚ ذَٰلِكُمَا مِمَّا عَلَّمَنِي رَبِّيٓۚ إِنِّي تَرَكۡتُ مِلَّةَ قَوۡمٖ لَّا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 36
(37) यूसुफ़ ने कहा, “यहाँ जो खाना तुम्हें मिला करता है उसके आने से पहले मैं तुम्हें इन ख़ाबों की ताबीर बता दूँगा। यह उन इल्मों में से है जो मेरे रब ने मुझे दिए हैं। सच तो यह है कि मैंने उन लोगों का तरीक़ा छोड़कर जो अल्लाह पर ईमान नहीं लाते और आख़िरत का इनकार करते हैं,
وَٱتَّبَعۡتُ مِلَّةَ ءَابَآءِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۚ مَا كَانَ لَنَآ أَن نُّشۡرِكَ بِٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۚ ذَٰلِكَ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ عَلَيۡنَا وَعَلَى ٱلنَّاسِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَشۡكُرُونَ ۝ 37
(38) अपने बुज़ुर्गों, इबराहीम, इसहाक़ और याक़ूब का तरीक़ा अपनाया है। हमारा यह काम नहीं है कि अल्लाह के साथ किसी को शरीक ठहराएँ। हक़ीक़त में यह अल्लाह की मेहरबानी है हमपर और तमाम इनसानों पर (कि उसने अपने सिवा किसी का बन्दा हमें नहीं बनाया), मगर ज़्यादातर लोग शुक्र नहीं करते।
يَٰصَٰحِبَيِ ٱلسِّجۡنِ ءَأَرۡبَابٞ مُّتَفَرِّقُونَ خَيۡرٌ أَمِ ٱللَّهُ ٱلۡوَٰحِدُ ٱلۡقَهَّارُ ۝ 38
(39) ऐ जेल के साथियो! तुम ख़ुद ही सोचो कि बहुत-से अलग-अलग रब बेहतर हैं या वह एक अल्लाह, जो सबपर ग़ालिब है?
مَا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِهِۦٓ إِلَّآ أَسۡمَآءٗ سَمَّيۡتُمُوهَآ أَنتُمۡ وَءَابَآؤُكُم مَّآ أَنزَلَ ٱللَّهُ بِهَا مِن سُلۡطَٰنٍۚ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِ أَمَرَ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّآ إِيَّاهُۚ ذَٰلِكَ ٱلدِّينُ ٱلۡقَيِّمُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 39
(40) उसको छोड़कर तुम जिनकी बन्दगी कर रहे हो, वे इसके सिवा कुछ नहीं हैं कि बस कुछ नाम हैं जो तुमने और तुम्हारे बाप-दादा ने रख लिए हैं, अल्लाह ने उनके लिए कोई सनद नहीं उतारी। हुकूमत और इक़तिदार अल्लाह के सिवा किसी के लिए नहीं है। उसका हुक्म है कि ख़ुद उसके सिवा तुम किसी की बन्दगी न करो। ज़िन्दगी का यही ठेठ सीधा तरीक़ा है, मगर ज़्यादातर लोग जानते नहीं हैं।
يَٰصَٰحِبَيِ ٱلسِّجۡنِ أَمَّآ أَحَدُكُمَا فَيَسۡقِي رَبَّهُۥ خَمۡرٗاۖ وَأَمَّا ٱلۡأٓخَرُ فَيُصۡلَبُ فَتَأۡكُلُ ٱلطَّيۡرُ مِن رَّأۡسِهِۦۚ قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ ٱلَّذِي فِيهِ تَسۡتَفۡتِيَانِ ۝ 40
(41) ऐ जेल के साथियो! तुम्हारे ख़ाब की ताबीर यह है कि तुममें से एक तो अपने रब (मिस्र के हाकिम) को शराब पिलाएगा, रहा दूसरा तो उसे सूली पर चढ़ाया जाएगा और परिन्दे उसका सर नोच-नोचकर खाएँगे। फ़ैसला हो गया उस बात का जो तुम पूछ रहे थे।“34
34. यह तक़रीर जो इस पूरे क़िस्से की जान है और ख़ुद क़ुरआन में भी तौहीद (एकेश्वरवाद) की बेहतरीन तक़रीरों में से है, बाइबल और तलमूद में कहीं इसकी तरफ़ हल्का-सा इशारा तक नहीं है। वे हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को सिर्फ़ एक अक़्लमन्द और परहेज़गार आदमी की हैसियत से पेश करती हैं। मगर क़ुरआन सिर्फ़ यही नहीं कि उनकी सीरत (जीवन-चरित्र) के इन पहलुओं को भी बाइबल और तलमूद के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा रौशन करके पेश करता है, बल्कि इसके अलावा वह हमको यह भी बताता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) पैग़म्बर की हैसियत से अपना एक मिशन रखते थे और उसकी दावत व तबलीग़ का काम उन्होंने क़ैदख़ाने ही में शुरू कर दिया था। यह तक़रीर ऐसी नहीं है कि इसपर से यूँही सरसरी तौर से गुज़र जाइए। इसके कई पहलू ऐसे हैं जिनपर ध्यान देने और ग़ौरो-फ़िक्र करने की ज़रूरत है— (1) यह पहला मौक़ा है जबकि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) हमको दीने-हक़ (सत्य-धर्म) की तबलीग़ (प्रचार) करते नज़र आते हैं। इससे पहले उनकी ज़िन्दगी के जो पहलू क़ुरआन ने पेश किए हैं उनमें सिर्फ़ उनके बुलन्द अख़लाक़ की मुख़्तलिफ़ ख़ासियतें मुख़्तलिफ़ मरहलों में उभरती रही हैं, मगर इस बात का कोई निशान वहाँ नहीं पाया जाता कि उन्होंने किसी को दीन की दावत दी हो। इससे साबित होता है कि पहले मरहले सिर्फ़ तैयारी और तरबियत के थे। पैग़म्बरी का काम अमली तौर पर इस क़ैदख़ाने के मरहले में उनके सिपुर्द किया गया है और नबी की हैसियत से यह उनकी पहली दावती तक़रीर है। (2) यह भी पहला ही मौक़ा है कि उन्होंने लोगों के सामने अपनी असलियत ज़ाहिर की। इससे हम देखते हैं कि वे बेहद सब्र और शुक्र के साथ हर उस हालत को क़ुबूल करते रहे जो उनको पेश आई। जब काफ़िलेवालों ने उनको पकड़कर ग़ुलाम बनाया, जब वे मिस्र लाए गए, जब उन्हें मिस्र के बड़े अफ़सर के हाथ बेच दिया गया, जब उन्हें जेल भेजा गया, उनमें से किसी मौक़े पर भी उन्होंने यह नहीं बताया कि मैं इबराहीम (अलैहि०) और इसहाक़ (अलैहि०) का पोता और याक़ूब (अलैहि०) का बेटा हूँ। उनके बाप-दादा कोई गुमनाम लोग न थे। क़ाफ़िलेवाले चाहे मदयनवाले हों या इसमाईली, दोनों उनके ख़ानदान से क़रीबी ताल्लुक़ रखनेवाले ही थे। मिसवाले भी कम-से-कम हज़रत इब्राहीम से तो अनजान न थे। (बल्कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जिस अन्दाज़ से उनका और हज़रत याक़ूब और इसहाक़ का ज़िक्र कर रहे हैं उससे अन्दाज़ा होता है कि तीनों बुज़ुर्गों की शोहरत मिल में पहुँची हुई थी) लेकिन हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने कभी बाप-दादा का नाम लेकर अपने आपको उन हालात से निकालने की कोशिश न की जिनमें वे पिछले चार-पाँच साल दौरान में मुब्तला होते रहे। शायद वे ख़ुद भी अच्छी तरह समझ रहे थे कि अल्लाह तआला जो कुछ उन्हें बनाना चाहता है उसके लिए उनका इन हालात से गुज़रना ही जरूरी है। मगर अब उन्होंने सिर्फ़ अपनी दावत व तबलीग़ की ख़ातिर इस हक़ीक़त से परदा उठाया कि मैं कोई नया और निराला दीन पेश नहीं कर रहा हूँ, बल्कि मेरा ताल्लुक़ तौहीद की तरफ़ बुलानेवाली उस आलमगीर तहरीक से है जिसके पेशवा इबराहीम, इसहाक़ और याक़ूब (अलैहि०) हैं। ऐसा करना इसलिए ज़रूरी था कि हक़ (सत्य) की तरफ़ बुलानेवाला कभी इस दावे के साथ नहीं उठा करता कि वह एक नई बात पेश कर रहा है जो इससे पहले किसी को न सूझी थी, बल्कि पहले क़दम ही पर यह बात खोल देता है कि मैं उस हमेशा से चली आ रही हक़ीक़त की तरफ़ बुला रहा हूँ जो हमेशा से हक़ की तरफ़ बुलानेवाले सभी लोग पेश करते रहे हैं। (3) फिर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने जिस तरह अपनी तबलीग़ के लिए मौक़ा निकाला उसमें हमको तबलीग़ की हिकमत का एक अहम सबक़ मिलता है। दो आदमी अपना ख़ाब बयान करते हैं और उनसे अपनी अक़ीदत का इज़हार करते हुए उस ख़ाब का मतलब पूछते हैं। जवाब में वे फ़रमाते हैं कि ख़ाब का मतलब तो मैं तुम्हें ज़रूर बताऊँगा, मगर पहले यह सुन लो कि यह इल्म मुझे कहाँ से मिला है जिसकी बिना पर मैं तुम्हें मतलब बताता हूँ। इस तरह उनकी बात में से अपनी बात कहने का मौक़ा निकालकर वे उनके सामने अपना दीन पेश करना शुरू कर देते हैं। इससे यह सबक़ मिलता है कि सचमुच किसी के दिल में अगर हक़ (सत्य) के पहुँचाने की धुन समाई हुई हो और वह हिकमत भी रखता हो तो कैसी ख़ूबसूरती के साथ वह बातचीत का रुख़ अपनी दावत की तरफ़ फेर सकता है, जिसे दावत धुन लगी हुई नहीं होती, उसके सामने तो मौक़े-पर-मौक़े आते हैं और वह कभी महसूस नहीं करता कि यह मौक़ा है अपनी बात कहने का। मगर वह जिसे धुन लगी हुई होती है वह मौक़े की ताक में लगा रहता है और उसे पाते ही अपना काम शुरू कर देता है। अलबत्ता बहुत फ़र्क़ है हिकमतवाले के मौक़ा पहचानने में और उस नादान तबलीग़ करनेवाले की भौंडी तबलीग़ में जो मौक़ा-महल का लिहाज़ किए बिना लोगों के कानों में ज़बरदस्ती अपनी दावत ठूँसने की कोशिश करता है और फिर लीचड़पन और झगड़ालूपन से उन्हें उलटा दूर करके छोड़ता है। (4) इससे यह भी मालूम किया जा सकता है कि लोगों के सामने दीन की दावत पेश करने का सही ढंग क्या है। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) छूटते ही दीन के तफ़सीली उसूल और क़ायदे पेश करने शुरू नहीं कर देते, बल्कि उनके सामने दीन के उस शुरुआती नुक्ते को पेश करते हैं जहाँ से अहले-हक़ (सत्यावादियों) का रास्ता अहले-बातिल (असत्यवादियों) के रास्ते से अलग होता है। यानी तौहीद और शिर्क का फ़र्क। फिर इस फ़र्क़ को वे ऐसे मुनासिब तरीक़े से वाज़ेह करते हैं कि आम अम्ल रखनेवाला कोई शख़्स उसे महसूस किए बिना नहीं रह सकता। ख़ासतौर से जो लोग उस वक़्त उनके सामने थे उनके दिलो-दिमाग़ में तो तीर की तरह यह बात उतर गई होगी, क्योंकि वे नौकरी पेशा ग़ुलाम थे और अपनी दिल की गहराइयों में इस बात को अच्छी तरह महसूस कर सकते थे कि एक मालिक का ग़ुलाम होना बेहतर है या बहुत-से मालिकों का, और सारे जहान के मालिक की बन्दगी बेहतर है या बन्दों की बन्दगी। फिर वे यह भी नहीं कहते कि अपना दीन छोड़ दो और मेरे दीन में आ जाओ, बल्कि एक अजीब अन्दाज़ में उनसे कहते हैं कि देखो, अल्लाह की यह कितनी बड़ी मेहरबानी है कि उसने अपने सिवा हमको किसी का बन्दा नहीं बनाया, मगर लोग उसका शुक्र अदा नहीं करते और ख़ाह-मख़ाह ख़ुद गढ़-गढ़कर अपने रब बनाते और उनकी बन्दगी करते हैं। फिर वे अपने मुख़ालिफ़ों के दीन का जाइज़ा भी लेते हैं, मगर निहायत मुनासिब तरीक़े से जिसमें दिल दुखाने की ज़रा-सी बात भी नहीं पाई जाती। बस इतना कहने पर बस करते हैं कि ये माबूद जिनमें से किसी को तुम अन्नदाता, किसी को नेमत का ख़ुदा, किसी को ज़मीन का मालिक और किसी को दौलत का रब या सेहत व रोग पर अधिकार रखनेवाला कहते हो, ये सब ख़ाली-ख़ूली नाम ही हैं, इन नामों के पीछ कोई हक़ीक़ी अन्नदाताई और ख़ुदावन्दी और मालिकियत व रबूबियत मौजूद नहीं है। अस्ल मालिक अल्लाह तआला है जिसे तुम भी कायनात (सृष्टि) का बनानेवाला और रब मानते हो और उसने इनमें से किसी के लिए भी ख़ुदा होने और माबूद होने की कोई सनद नहीं उतारी है। उसने तो हुकूमत करने के सारे हक़ और इख़्तियार अपने ही लिए ख़ास कर रखे हैं और उसका हुक्म है कि तुम उसके सिवा किसी की बन्दगी न करो। (5) इससे यह भी अन्दाज़ा किया जा सकता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने जेल की ज़िन्दगी के ये आठ-दस साल किस तरह बिताए होंगे। लोग समझते हैं कि क़ुरआन में चूँकि उनकी एक ही नसीहत का ज़िक्र है, इसलिए उन्होंने सिर्फ़ एक ही बार दीन की दावत देने के लिए ज़बान खोली थी। मगर पहली बात तो एक पैग़म्बर के बारे में यह गुमान करना ही सख़्त बदगुमानी है कि वह अपने अस्ल काम से ग़ाफ़िल होगा। फिर जिस शख़्स की तबलीग़ी धुन का यह हाल था कि दो आदमी ख़ाब का मतलब पूछते हैं और वह इस मौक़े से फ़ायदा उठाकर दीन की तबलीग़ शुरू कर देता है, उसके बारे में यह कैसे सोचा जा सकता है कि उसने जेल के ये कुछ साल चुप रहकर ही गुज़ार दिए होंगे।
وَقَالَ لِلَّذِي ظَنَّ أَنَّهُۥ نَاجٖ مِّنۡهُمَا ٱذۡكُرۡنِي عِندَ رَبِّكَ فَأَنسَىٰهُ ٱلشَّيۡطَٰنُ ذِكۡرَ رَبِّهِۦ فَلَبِثَ فِي ٱلسِّجۡنِ بِضۡعَ سِنِينَ ۝ 41
(42) फिर उनमें से जिसके बारे में ख़याल था कि वह रिहा हो जाएगा, उससे यूसुफ़ ने कहा कि “अपने रब (मिस्र के हाकिम) से मेरा ज़िक्र करना।” मगर शैतान ने उसे ऐसा ग़फ़लत में डाला कि वह अपने रब (मिस्र के हाकिम) से उसका ज़िक्र करना भूल गया और यूसुफ़ कई साल जेल में पड़ा रहा।"35
35. इस मक़ाम की तफ़सीर कुछ तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने यह की है कि “शैतान ने हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को अपने रब (यानी अल्लाह तआला) की याद से ग़ाफ़िल कर दिया और उन्होंने एक बन्दे से चाहा कि वह अपने रब (यानी मिस्र के हाकिम) से उनका ज़िक्र करके उनकी रिहाई की कोशिश करे, इसलिए अल्लाह तआला ने उनको यह सज़ा दी कि वे कई साल तक जेल में पड़े रहे। हक़ीक़त में यह तफ़सीर बिलकुल ग़लत है। सही यही है, जैसा कि अल्लामा इब्ने-कसीर और शुरू के इस्लामी आलिमों में से मुजाहिद और मुहम्मद-बिन-इसहाक़ वग़ैरा ने कहा है, “शैतान ने उसे भुलावे में डाल दिया उसके रब से ज़िक्र करने से” में जिस शख़्स का ज़िक्र है उससे मुराद वह शख़्स है जिसके बारे में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का ख़याल था कि वह रिहाई पानेवाला है, और इस आयत का मानी यह है कि “शैतान ने उसे अपने मालिक से हज़रत यूसुफ़ का ज़िक्र करना भुला दिया।” इस सिलसिले में एक हदीस भी पेश की जाती है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “अगर यूसुफ़ (अलैहि०) ने वह बात न कही होती जो उन्होंने कही तो वे जेल में कई साल न पड़े रहते।” लेकिन अल्लामा इब्ने-कसीर कहते हैं कि, “यह हदीस जितने तरीक़ों से रिवायत की गई है वे सब ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं। कुछ तरीक़ों से यह 'मरफ़ूअन' रिवायत की गई है और उनमें सुफ़ियान-बिन-वकीअ और इबराहीम-बिन-यज़ीद रावी हैं जो दोनों भरोसे के लायक नहीं हैं और कुछ तरीक़ों से 'मुर्सलन' रिवायत हुई है और ऐसे मामलों में 'मुरसल' रिवायतों का एतिबार नहीं किया जा सकता।” इसके अलावा 'दिरायत' (तार्किकता) के लिहाज़ से भी यह बात समझ में आनेवाली नहीं है कि एक मज़लूम शख़्स का अपनी रिहाई के लिए दुनियावी तदबीर करना ख़ुदा से भुलावे और उसपर भरोसे की कमी की दलील ठहरा दिया गया होगा।
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ إِنِّيٓ أَرَىٰ سَبۡعَ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعَ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖۖ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمَلَأُ أَفۡتُونِي فِي رُءۡيَٰيَ إِن كُنتُمۡ لِلرُّءۡيَا تَعۡبُرُونَ ۝ 42
(43) एक दिन36 बादशाह ने कहा, “मैंने ख़ाब में देखा है कि सात मोटी गायें हैं। जिनको सात दुबली गायें खा रही हैं और अनाज की सात बालें हरी हैं और दूसरी सात सूखी। ऐ दरवारवालो! मुझे इस ख़ाब की ताबीर (स्वप्न फल) बताओ, अगर तुम ख़ाबों का मतलब समझते हो।”37
36. बीच में जेल में गुज़ारे कई सालों का हाल छोड़कर अब बयान का सिरा उस जगह से जोड़ा जाता है जहाँ से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की दुनियावी तरक़्क़ी शुरू हुई।
37. बाइबल और तलमूद का बयान है कि इन ख़ाबों से बादशाह बहुत परेशान हो गया था और उसने आम एलान के ज़रिए से अपने देश के तमाम समझ-बूझ रखनेवाले लोगों, काहिनों, मज़हबी पेशवाओं और जादूगरों को इकट्ठा करके उन सबके सामने यह सवाल पेश किया था।
قَالُوٓاْ أَضۡغَٰثُ أَحۡلَٰمٖۖ وَمَا نَحۡنُ بِتَأۡوِيلِ ٱلۡأَحۡلَٰمِ بِعَٰلِمِينَ ۝ 43
(44) लोगों ने कहा, “यह तो परेशान ख़ाबों की बातें हैं और हम इस तरह के ख़ाबों का मतलब नहीं जानते।"
وَقَالَ ٱلَّذِي نَجَا مِنۡهُمَا وَٱدَّكَرَ بَعۡدَ أُمَّةٍ أَنَا۠ أُنَبِّئُكُم بِتَأۡوِيلِهِۦ فَأَرۡسِلُونِ ۝ 44
(45) उन दो क़ैदियों में से जो शख़्स बच गया था, और उसे एक लम्बी मुद्दत बाद अब बात याद आई, उसने कहा, “मैं आप लोगों को इसका मतलब बताता हूँ, मुझे ज़रा (क़ैदख़ाने में यूसुफ़ के पास) भेज दीजिए।"38
38. क़ुरआन ने यहाँ बहुत ही मुख़्तसर बात कही है। बाइबल और तलमूद से इसकी तफ़सील यह मालूम होती है (और गुमान भी कहता है कि ज़रूर ऐसा हुआ होगा) कि सरदार साक़ी ने यूसुफ़ (अलैहि०) के हालात बादशाह से बयान किए, और जेल में उसके ख़ाब और उसके साथी के ख़ाब की जैसी सही ताबीर उन्होंने दी थी उसका ज़िक्र भी किया और कहा कि मैं उनसे उसका मतलब पूछकर आता हूँ, मुझे जेल में उनसे मिलने की इजाज़त दी जाए।
يُوسُفُ أَيُّهَا ٱلصِّدِّيقُ أَفۡتِنَا فِي سَبۡعِ بَقَرَٰتٖ سِمَانٖ يَأۡكُلُهُنَّ سَبۡعٌ عِجَافٞ وَسَبۡعِ سُنۢبُلَٰتٍ خُضۡرٖ وَأُخَرَ يَابِسَٰتٖ لَّعَلِّيٓ أَرۡجِعُ إِلَى ٱلنَّاسِ لَعَلَّهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 45
(46) उसने जाकर कहा, “यूसुफ़, ऐ सरापा सच्चाई39, मुझे इस ख़ाब का मतलब बता कि सात मोटी गायें हैं जिनको सात दुबली गायें खा रही हैं और सात बालें हरी हैं और सात सूखी, शायद कि मैं उन लोगों के पास वापस जाऊँ और शायद कि वे जान लें।"40
39. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सिद्दीक़' इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में सच्चाई और ईमानदारी के बहुत ऊँचे दरजे के लिए इस्तेमाल होता है। इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि जेल में रहने के दौरान में उस शख़्स ने यूसुफ़ (अलैहि०) के पाक-साफ़ किरदार से कैसा गहरा असर लिया था और यह असर एक लम्बी मुद्दत गुज़र जाने के बाद भी कितना गहरा था। (लफ़्ज़ 'सिद्दीक़' की और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-4 निसा, हाशिया-99)
40. यानी हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की क़द्र और उनका ऊँचा मक़ाम जान लें और उनको एहसास हो कि किस दरजे के आदमी को उन्होंने कहाँ बन्द कर रखा है और उस तरह मुझे अपने इस वादे को पूरा करने का मौक़ा मिल जाए जो मैंने उनसे क़ैद के ज़माने में किया था।
قَالَ تَزۡرَعُونَ سَبۡعَ سِنِينَ دَأَبٗا فَمَا حَصَدتُّمۡ فَذَرُوهُ فِي سُنۢبُلِهِۦٓ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّا تَأۡكُلُونَ ۝ 46
(47) यूसुफ़ ने कहा, “सात साल तक लगातार तुम लोग खेती-बाड़ी करते रहोगे। इस दौरान में जो फ़सलें तुम काटो उनमें से बस थोड़-सा हिस्सा, जो तुम्हारे खाने के काम आए, निकालो और बाक़ी को उसकी बालों ही में रहने दो।
ثُمَّ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ سَبۡعٞ شِدَادٞ يَأۡكُلۡنَ مَا قَدَّمۡتُمۡ لَهُنَّ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّا تُحۡصِنُونَ ۝ 47
(48) फिर सात साल बड़े सख़्त आएँगे। उस ज़माने में वह सब अनाज खा लिया जाएगा जो तुम उस वक़्त के लिए जमा करोगे। अगर कुछ बचेगा तो बस वही जो तुमने बचाकर रखा हो।
ثُمَّ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ عَامٞ فِيهِ يُغَاثُ ٱلنَّاسُ وَفِيهِ يَعۡصِرُونَ ۝ 48
(49) इसके बाद फिर एक साल ऐसा आएगा जिसमें रहमत की बारिश से लोगों की फ़रियाद को सुन लिया जाएगा और वे रस निचोड़ेंगे।41
41. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'यसिरून' इस्तेमाल हुआ है जिसके लफ़्ज़ी मानी ‘निचोड़ने’ के हैं। इससे मुराद यहाँ हरियाली और ख़ुशहाली की वह हालत बयान करना है जो अकाल के बाद रहमत की बारिश और नील दरिया के चढ़ाव से पैदा होनेवाली थी। जब ज़मीन सैराब (सिंचित) है तो तेल देनेवाले बीज और रस देनेवाले फल और मेवे ख़ूब पैदा होते हैं, और मवेशी भी चारा अच्छा मिलने की वजह के ख़ूब दूध देने लगते हैं। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने इस ताबीर (स्वप्नफल) में सिर्फ़ बादशाह के सपने का मतलब बताने ही पर बस नहीं किया, बल्कि साध-साथ यह भी बता दिया कि ख़ुशहाली के शुरू के सात सालों में आनेवाले अकाल के लिए पहले से क्या तदबीर की जाए और अनाज को महफ़ूज़ रखने क्या बन्दोबस्त किया जाए। फिर इसके अलावा हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने अकाल के बाद अच्छे दिन आने की ख़ुशख़बरी भी दे दी जिसका ज़िक्र बादशाह के ख़ाब में न था।
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ ٱئۡتُونِي بِهِۦۖ فَلَمَّا جَآءَهُ ٱلرَّسُولُ قَالَ ٱرۡجِعۡ إِلَىٰ رَبِّكَ فَسۡـَٔلۡهُ مَا بَالُ ٱلنِّسۡوَةِ ٱلَّٰتِي قَطَّعۡنَ أَيۡدِيَهُنَّۚ إِنَّ رَبِّي بِكَيۡدِهِنَّ عَلِيمٞ ۝ 49
(50) बादशाह ने कहा, उसे मेरे पास लाओ। मगर जब बादशाह का भेजा हुआ शख़्स यूसुफ़ के पास पहुँचा तो उसने कहा42, “अपने रब के पास वापस जा और उससे पूछ कि उन औरतों का क्या मामला है, जिन्होंने अपने हाथ काट लिए थे? मेरा रब तो उनकी मक्कारी को जानता ही है।"43
42. यहाँ से लेकर बादशाह की मुलाक़ात तक जो कुछ क़ुरआन ने बयान किया है — जो इस क़िस्से का एक बड़ा ही अहम हिस्सा है — इसका कोई ज़िक्र बाइबल और तलमूद में नहीं है। बाइबल का बयान है कि बादशाह के बुलावे पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) फ़ौरन चलने के लिए तैयार हो गए। हजामत बनवाई, कपड़े बदले और दरबार में जा हाज़िर हुए। तलमूद इससे भी ज़्यादा घटिया शक्ल में इस घटना को पेश करती है। उसका बयान यह है कि “बादशाह ने अपने कारिन्दों को हुक्म दिया कि यूसुफ़ को मेरे सामने पेश करो, और यह भी हिदायत कर दी कि देखो ऐसा कोई काम न करना कि लड़का घबरा जाए और सही मतलब न बता सके। चुनाँचे शाही नौकरों ने यूसुफ़ को जेल से निकाला, हजामत बनवाई, कपड़े बदलवाए और दरबार में लाकर पेश कर दिया। बादशाह अपने तख़्त पर बैठा था। वहाँ सोने-चाँदी और हीरे-मोतियों की चमक और दरबार की शान देखकर यूसुफ़ हक्का-बक्का रह गया और उसकी आँखें चौंधियाने लगीं। शाही तख़्त की सात सीढ़ियाँ थीं। क़ायदा यह था कि जब कोई इज़्ज़तदार आदमी बादशाह से कुछ कहना चाहता तो वह 6 सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर जाता और बादशाह से बात करता था और जब मामूली तबक़े का कोई आदमी बादशाह से बात करने के लिए बुलाया जाता तो वह नीचे खड़ा रहता और बादशाह तीसरी सीढ़ी तक उतरकर उससे बात करता। यूसुफ़ इस क़ायदे के मुताबिक़ नीचे खड़ा हुआ और ज़मीन तक झुककर उसने बादशाह को सलामी दी और बादशाह ने तीसरी सीढ़ी तक उतरकर उससे बात की।” इस तस्वीर में बनी-इसराईल ने अपने बुलन्द मर्तबेवाले पैग़म्बरों को जितना गिराकर पेश किया है उसको निगाह में रखिए और फिर देखिए कि क़ुरआन उनके क़ैद से निकलने का वाक़िआ किस शान और किस आन-बान के साथ पेश करता है। अब यह फ़ैसला करना हर नज़र रखनेवाले का काम है कि इन दोनों तस्वीरों में से कौन-सी तस्वीर पैग़म्बरी के मर्तबे से ज़्यादा मेल खाती है। इसके अलावा यह बात भी आम अक़्ल रखनेवाले इनसान को खटकती है कि अगर बादशाह की मुलाक़ात के वक़्त तक हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की हैसियत इतनी ही गिरी हुई थी जितनी तलमूद के बयान से मालूम होती है, तो ख़ाब का मतलब सुनते ही अचानक उनको पूरी हुकूमत का मुकम्मल सर्वेसर्वा कैसे बना दिया गया। एक तहज़ीब और तमद्दुन वाले देश में इतना बड़ा रुतबा तो आदमी को उसी वक़्त मिला करता है जबकि वह अपनी अख़लाक़ी व ज़ेहनी बरतरी का सिक्का लोगों पर बिठा चुका हो। तो अक़्ल के हिसाब से भी बाइबल और तलमूद के मुक़ाबले में क़ुरआन ही का बयान हक़ीक़त के मुताबिक़ मालूम होता है।
43. यानी जहाँ तक मेरे रब का मामला है, उसको तो पहले ही मेरी बेगुनाही का हाल मालूम है। मगर तुम्हारे रब को भी मेरी रिहाई से पहले उस मामले की पूरी तरह जाँच कर लेनी चाहिए जिसकी बुनियाद पर मुझे जेल में डाला गया था, क्योंकि मैं किसी शक और बदगुमानी का दाग़ लिए हुए लोगों के सामने नहीं आना चाहता। मुझे रिहा करना है तो पहले खुलेआम यह साबित होना चाहिए कि मैं बेक़ुसूर था, अस्ल क़ुसूरवार तुम्हारी सल्तनत के अफ़सरान और कारिंदे थे जिन्होंने अपनी बेगमों की बदचलनी का ख़मियाज़ा मेरी पाकदामनी पर डाला। इस मुतालबे को हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जिन अलफ़ाज़ में पेश करते हैं उनसे साफ़ ज़ाहिर होता है कि मिस्र का बादशाह उस पूरे वाक़िए से पहले ही वाक़िफ़ था जो अज़ीज़ की बेगम की दावत के मौक़े पर पेश आया था, बल्कि वह ऐसा मशहूर वाक़िआ था कि उसकी तरफ़ सिर्फ़ एक इशारा ही काफ़ी था। फिर इस मुतालबे में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) मिस्र के अज़ीज़ की बीवी को छोड़कर सिर्फ़ हाथ काटनेवाली औरतों के ज़िक्र पर बस करते हैं। यह इस बात का सुबूत है कि वे दिल के बेहद शरीफ़ इनसान थे। उस औरत ने उनके साथ चाहे कितनी ही बुराई की हो, मगर फिर भी उसके शौहर के उनपर एहसानात थे, इसलिए उन्होंने न चाहा कि उसकी इज़्ज़त पर ख़ुद कोई दाग़ लगाएँ।
قَالَ مَا خَطۡبُكُنَّ إِذۡ رَٰوَدتُّنَّ يُوسُفَ عَن نَّفۡسِهِۦۚ قُلۡنَ حَٰشَ لِلَّهِ مَا عَلِمۡنَا عَلَيۡهِ مِن سُوٓءٖۚ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡـَٰٔنَ حَصۡحَصَ ٱلۡحَقُّ أَنَا۠ رَٰوَدتُّهُۥ عَن نَّفۡسِهِۦ وَإِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 50
(51) इसपर बादशाह ने उन औरतों से मालूम किया44, “तुम्हारा क्या तजरिबा है उस वक़्त का जब तुमने यूसुफ़ को रिझाने की कोशिश की थी?” सबने एक ज़बान होकर कहा, “अल्लाह की पनाह! हमने तो उसमें बुराई की झलक तक न पाई।” अज़ीज़ की बीवी बोल उठी, “अब सच खुल चुका है। वह मैं ही थी जिसने उसको फुसलाने की कोशिश की थी, बेशक वह बिलकुल सच्चा है।"45
44. हो सकता है कि शाही महल में उन तमाम औरतों को इकट्ठा करके यह गवाही ली गई हो, और यह भी हो सकता है कि बादशाह ने भरोसे के किसी ख़ास आदमी को भेजकर हर एक से अलग-अलग मालूम किया हो।
45. अन्दाज़ा किया जा सकता है कि उन गवाहियों ने किस तरह आठ-नौ साल पहले के वाक़िआत को ताज़ा कर दिया होगा, किस तरह हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की शख़्सियत जेल के ज़माने की लम्बी गुमनामी से निकलकर एकाएक फिर उभरकर सामने आ गई होगी, और किस तरह मिस्र के तमाम शरीफ़ और इज्ज़तदार, और दरमियानी तबक़े और आम लोगों तक में उनका अख़लाक़ी वक़ार (नैतिक प्रतिष्ठा) क़ायम हो गया होगा। ऊपर बाइबल और तलमूद के हवाले से यह बात गुज़र चुकी है कि बादशाह ने आम एलान करके तमाम हुकूमत के अक़्लमन्दों, आलिमों और पीरों को इकट्ठा किया था और उनमें से कोई भी उसके ख़ाब का मतलब बता नहीं सका था। उसके बाद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने उसका मतलब बताया। इस वाक़िए की वजह से पहले ही से सारे देश की निगाहें हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) पर जम चुकी होंगी। फिर जब बादशाह के बुलावे पर आपने बाहर निकलने से इनकार किया होगा तो सारे लोग अचंभे में पड़ गए होंगे कि यह अजीब तरह का बुलन्द हौसलेवाला इनसान है जिसको आठ-नौ साल की क़ैद के बाद वक़्त का बादशाह मेहरबान होकर बुला रहा है और फिर भी वह बेताब होकर दौड़ नहीं पड़ता। फिर जब लोगों को मालूम हुआ होगा कि यूसुफ़ ने अपनी रिहाई क़ुबूल करने और उस वक़्त के बादशाह की मुलाकात को आने के लिए क्या शर्त पेश की तो सबकी निगाहें इस तहक़ीक़ात के नतीजे पर लग गई होंगी। और जब लोगों ने उसका नतीजा सुना होगा तो देश का बच्चा-बच्चा वाह-वाह करता रह गया होगा कि किस क़द्र पाक-साफ़ किरदार का है यह इनसान जिसके दिल की पाकीज़गी पर आज वही लोग गवाही दे रहे हैं जिन्होंने मिल-जुलकर कल उसे जेल में डाला था। इस सूरतेहाल पर अगर ग़ौर किया जाए तो अच्छी तरह समझ में आ जाता है कि उस वक़्त हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के बुलन्दी पर पहुँचने के लिए किस तरह हालात बन चुके थे। उसके बाद यह बात कुछ भी ताज्जुब के क़ाबिल नहीं रहती कि हज़रत यूसुफ (अलैहि०) ने बादशाह से मुलाक़ात के मौक़े पर ज़मीन के ख़ज़ाने अपने सिपुर्द करने की माँग कैसे बेधड़क पेश कर दी और बादशाह ने उसे क्यों बेझिझक क़ुबूल कर लिया। अगर बात सिर्फ़ इतनी ही होती कि जेल के एक क़ैदी ने बादशाह के एक ख़ाब की ताबीर बता दी थी तो ज़ाहिर है कि इसपर वह ज़्यादा-से-ज़्यादा किसी इनाम का और आज़ादी पाने का हक़दार हो सकता था। इतनी-सी बात इसके लिए तो काफ़ी नहीं हो सकती थी कि वह बादशाह से कहे, “ज़मीन के ख़ज़ाने मेरे हवाले करो” और बादशाह कह दे, “लीजिए सब कुछ हाज़िर है।"
ذَٰلِكَ لِيَعۡلَمَ أَنِّي لَمۡ أَخُنۡهُ بِٱلۡغَيۡبِ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي كَيۡدَ ٱلۡخَآئِنِينَ ۝ 51
(52) (यूसुफ ने कहा)46 “इससे मेरा मक़सद यह था कि (अज़ीज़) यह जान ले कि मैंने पीठ पीछे उसकी ख़ियानत नहीं की थी और यह कि जो ख़ियानत करते हैं उनकी चालों को अल्लाह कामयाबी की राह पर नहीं लगाता।
46. यह बात शायद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने उस वक़्त कही होगी जब जेल में उनको तहक़ीक़ात के नतीजे की ख़बर दी गई होगी। क़ुरआन की तफ़सीर बयान करनेवाले कुछ आलिम जिनमें इब्ने-तैमिया और इब्ने-कसीर जैसे बड़े आलिम भी शामिल हैं, इस जुमले को हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का नहीं, बल्कि अज़ीज़ की बीवी की बात का एक हिस्सा बताते हैं। उनकी दलील यह है कि यह जुमला अज़ीज़ की औरत की बात से जुड़ा हुआ है और बीच में कोई लफ़्ज़ ऐसा नहीं है जिससे यह समझा जाए कि “वह बिलकुल सच्चा है", पर अज़ीज़ की औरत की बात ख़त्म हो गई और बाद की बात हज़रत यूसुफ़ ने कही। वे कहते हैं कि अगर दो आदमियों की बातें एक-दूसरे से जुड़ी हों और इस बात को वाज़ेह न किया गया हो कि यह बात फुलाँ की है, और यह फ़ुलाँ की, तो इस हालत में लाज़िमन कोई ऐसी अलामत होनी चाहिए जिससे दोनों की बात में फ़र्क़ किया जा सके, और यहाँ ऐसी कोई अलामत मौजूद नहीं है। इसलिए यही मानना पड़ेगा कि “अब सच्चाई खुल चुकी है”से लेकर “बेशक मेरा रब माफ़ करनेवाला और रहम करनेयाला है” तक पूरी बात अज़ीज़ की औरत ही की है। लेकिन मुझे ताज्जुब है कि इब्ने-तैमिया जैसे बारीकियों तक पहुँचनेवाले आदमी तक की निगाह से यह बात कैसे चूक गई कि बात का अन्दाज़ अपने आपमें ख़ुद एक बहुत बड़ी अलामत है जिसके होते किसी और अलामत की ज़रूरत बाक़ी नहीं रहती। पहला जुमला तो बेशक अज़ीज़ की औरत के मुँह पर फबता है, मगर क्या दूसरा जुमला भी उसकी हैसियत के मुताबिक़ नज़र आता है? यहाँ तो बात का अन्दाज़ साफ़ कह रहा है कि उसके कहनेवाले हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) हैं, न कि मिस्र के शाही अफ़सर की बीवी। इस कलाम में जो मन की नेकी, कुशादा दिली नरमी और झुकाव और जो ख़ुदातरसी बोल रही है वह ख़ुद गवाह है कि यह जुमला उस ज़बान से निकला हुआ नहीं हो सकता जिससे ‘है-त ल-क” (जल्दी से आजा) निकला था। जिससे “मा जज़ा-अ मन अरा-द बिअहलि-क सूअन” (क्या सज़ा है उस शख़्स की जो तेरी घरवाली पर नीयत ख़राब करे) निकला था, और जिससे भरी महफ़िल के सामने यह तक निकल सकता था कि “अगर यह मेरा कहना न मानेगा तो क़ैद किया जाएगा।” ऐसा पाकीज़ा जुमला तो वही ज़बान बोल सकती थी जो इससे पहले “ख़ुदा की पनाह, मेरे रब ने तो मुझे अच्छी इज़्ज़त और मक़ाम दिया” कह चुकी थी, जो “ऐ मेरे रब, क़ैद मुझे मंज़ूर है, इसके मुक़ाबले में कि मैं वह काम करूँ जो ये लोग मुझसे चाहते हैं” कह चुकी थी, जो “अगर तूने इनकी चालों को मुझसे दफ़ा न किया तो मैं इनके जाल में फँस जाऊँगा” कह चुकी थी। ऐसी पाकीज़ा बातों को सरापा सच्चाई यूसुफ़ (अलैहि०) के बजाय अज़ीज़ की बीवी की बात मानना उस वक़्त तक मुमकिन नहीं है जब तक कोई अलामत और दलील इस बात पर दलालत न करे कि इस मरहले पर पहुँचकर उसे तौबा और ईमान और अपना सुधार करने की तौफ़ीक़ मिल गई थी, और अफ़सोस है कि ऐसी अलामत और ऐसी कोई दलील मौजूद नहीं है।
۞وَمَآ أُبَرِّئُ نَفۡسِيٓۚ إِنَّ ٱلنَّفۡسَ لَأَمَّارَةُۢ بِٱلسُّوٓءِ إِلَّا مَا رَحِمَ رَبِّيٓۚ إِنَّ رَبِّي غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 52
(53) मैं कुछ अपने नफ़्स (मन) को बरी नहीं कर रहा मन तो बुराई पर उकसाता ही है, सिवाए इसके कि किसी पर मेरे रब की रहमत हो। बेशक मेरा रब बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।"
وَقَالَ ٱلۡمَلِكُ ٱئۡتُونِي بِهِۦٓ أَسۡتَخۡلِصۡهُ لِنَفۡسِيۖ فَلَمَّا كَلَّمَهُۥ قَالَ إِنَّكَ ٱلۡيَوۡمَ لَدَيۡنَا مَكِينٌ أَمِينٞ ۝ 53
(54) बादशाह ने कहा, “उन्हें मेरे पास लाओ, ताकि मैं उनको अपने लिए ख़ास कर लू जब यूसुफ़ ने उससे बात की तो उसने कहा, “अब आप हमारे यहाँ इज़्ज़त और एहतिराम का मक़ाम रखते हैं और आपकी अमानत पर पूरा भरोसा है।"47
47. यह बादशाह की तरफ़ से मानो एक खुला इशारा था कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को हर ज़िम्मेदारी का ओहदा सौंपा जा सकता है।
قَالَ ٱجۡعَلۡنِي عَلَىٰ خَزَآئِنِ ٱلۡأَرۡضِۖ إِنِّي حَفِيظٌ عَلِيمٞ ۝ 54
(55) यूसुफ़ ने कहा, “मुल्क के ख़ज़ाने मेरे सिपुर्द कीजिए, मैं हिफ़ाज़त करनेवाला भी हूँ और इल्म भी रखता हूँ।"47अ
47अ. इससे पहले जो बातें वाज़ेह की जा चुकी हैं उनकी रौशनी में देखा जाए तो साफ़ नज़र आएगा कि यह कोई नौकरी की दरख़ास्त नहीं थी जो किसी रुतबे के तलबगार ने वक़्त के बादशाह का इशारा पाते ही झट से पेश कर दी हो। हक़ीक़त में यह उस इंक़िलाब का दरवाज़ा खोलने के लिए आख़िरी चोट थी जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की अख़लाक़ी ताक़त से पिछले दस-बारह साल के अन्दर पल-बढ़कर सामने आने के लिए तैयार हो चुका था और अब जिस दरवाज़े का खुलना सिर्फ़ एक धक्के का मुहताज था। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) आज़माइशों के लम्बे सिलसिले से गुज़रकर आ रहे थे और ये आज़माइशें किसी गुमनामी के कोने में पेश नहीं आई थीं, बल्कि बादशाह से लेकर आम नागरिकों तक मिस्र का बच्चा-बच्चा उनसे वाक़िफ़ था। इन आज़माइशों में उन्होंने साबित कर दिया था कि वे ईमानदारी, सच्चाई, बरदाश्त, नफ़्स पर क़ाबू, बुलन्द अख़लाक़, अक़्लमंदी, सूझ-बूझ और मामले की समझ रखने में कम-से-कम अपने ज़माने के लोगों के बीच तो अपनी मिसाल नहीं रखते। उनकी शख़्सियत की ये ख़ूबियाँ इस तरह खुल चुकी थीं कि किसी को उनसे इनकार की मजाल न रही थी, ज़बानें उनकी गवाही दे चुकी थीं। दिल उनसे जीते जा चुके थे। ख़ुद बादशाह उनके आगे हथियार डाल चुका था। उनका ‘हफ़ीज़' (हिफ़ाज़त करनेवाला) और ‘अलीम’ (इल्मवाला) होना अब सिर्फ़ एक दावा न था, बल्कि एक साबित हो चुकी हक़ीक़त थी जिसपर सब ईमान ला चुके थे। अब अगर कुछ कमी बाक़ी थी तो वह सिर्फ़ इतनी कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ख़ुद हुकूमत के उन अधिकारों को अपने हाथ में लेने पर रज़ामन्दी ज़ाहिर करें जिनके लिए बादशाह और उसके दरबारी अच्छी तरह जान चुके थे कि उनसे ज़्यादा मुनासिब आदमी और कोई नहीं है। चुनाँचे यही वह कमी थी जो उन्होंने अपने इस जुमले से पूरी कर दी। उनकी ज़हान से इस माँग के निकलते ही बादशाह और उसकी वज़ारत ने जिस तरह उसे ख़ुशी से क़ुबूल कर लिया वह ख़ुद इस बात का सुबूत है कि यह फल इतना पक चुका था कि अब टूटने के लिए एक इशारे ही के इन्तिज़ार में था। (तलमूद का बयान है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को हुकूमत के अधिकार सौंपने का फ़ैसला अकेले बादशाह ही ने नहीं किया था, बल्कि पूरी शाही वज़ारत ने एक होकर इसके हक़ में राय दी थी) ये अधिकार जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने माँगे और जो उनको सौंपे गए किस तरह के थे? “ज़मीन के ख़ज़ाने' के अलफ़ाज़ और आगे चलकर अनाज के बँटवारे का नादान लोग ज़िक्र देखकर अन्दाज़ा लगाते हैं कि शायद यह ख़ज़ाने के अफ़सर, माल के अफ़सर, या अकाल कमिश्नर या मालियात के वज़ीर या ख़ुराक के वज़ीर की तरह का कोई ओहदा होगा, लेकिन क़ुरआन, बाइबल और तलमूद सबकी एक ही गवाही है कि हक़ीक़त में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) मिस्र की हुकूमत के सर्वेसर्वा (रूमी ज़बान में डिक्टेटर) बनाए गए थे और देश का काला-सफ़ेद सब कुछ उनके अधिकार में दे दिया गया था। क़ुरआन कहता है कि जब हज़रत याक़ूब (अलैहि०) मिस्र पहुँचे, उस वक़्त हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) हुकूमत के तख़्त पर बैठे थे (और उसने अपने माँ-बाप को तख़्त पर बिठाया)। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की अपनी ज़बान से निकला हुआ यह जुमला क़ुरआन में नक़्ल हुआ है कि, “ऐ मेरे रब! तूने मुझे बादशाही दी।” प्याले की चोरी के मौक़े पर सरकारी नौकर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के प्याले को बादशाह का प्याला कहते हैं, बादशाह का पैमाना हमको नहीं मिलता, और अल्लाह तआला मिस्र पर उनकी हुकूमत का हाल यह बयान करता है कि मिस्र की पूरी ज़मीन उनकी थी। रही बाइबल तो वह गवाही देती है कि फ़िरऔन ने यूसुफ़ से कहा— “सो तू मेरे घर का सर्वेसर्वा होगा और मेरी सारी प्रजा तेरे हुक्म पर चलेगी, सिर्फ़ तख़्त का मालिक होने की वजह से मैं बड़ा रहूँगा........ हिन्दी बाइबल में नाम सापनत्पानेह लिखा है। देख मैं तुझे सारे मिस्र देश का हाकिम बनाता हूँ..... और तेरे हुक्म के बिना कोई आदमी इस सारे मिस्र देश में अपना हाथ या पाँव न हिलाने पाएगा और फ़िरऔन ने यूसुफ़ (अलैहि०) का नाम “दुनिया को नजात दिलानेवाला रखा।”(उत्पत्ति, 11: 39-45) और तलमूद कहती है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने मिस्र से वापस जाकर अपने बाप से मिस्र के हाकिम (हज़रत यूसुफ़) की तारीफ़ करते हुए बयान किया— "अपने देश के वासियों पर उसकी हुकूमत सबसे ऊपर है। उसके हुक्म पर वे निकलते और उसी के हुक्म पर वे दाख़िल होते हैं। उसकी ज़बान सारे देश पर हुकूमत करती है। किसी मामले में फ़िरऔन की इजाज़त की ज़रूरत नहीं होती।" दूसरा सवाल यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने ये अधिकार किस मक़सद के लिए माँगे थे? उन्होंने अपनी ख़िदमात इसलिए पेश की थीं कि एक ग़ैर-इस्लामी हुकूमती निज़ाम को उसके ग़ैर-इस्लामी उसूलों और क़ानूनों ही पर चलाएँ? या उनके सामने यह था कि हुकूमत की बागडोर अपने हाथ में लेकर देश के समाजी, अख़लाक़ी और सियासी निज़ाम को इस्लाम के मुताबिक़ ढाल दें? इस सवाल का बेहतरीन जवाब वह है जो अल्लामा जमख़शरी ने अपनी तफ़सीर ‘कश्शाफ़’ में दिया है। वे लिखते हैं— "हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने 'मुल्क के ख़ज़ाने मेरे सिपुर्द कीजिए’ जो कहा तो उससे उनका मतलब सिर्फ़ यह था कि उनको अल्लाह तआला के हुक्म जारी करने और हक़ क़ायम करने और इनसाफ़ फैलाने का मौक़ा मिल जाए और वे उस काम को पूरा करने की ताक़त हासिल कर लें जिसके लिए पैग़म्बर भेजे जाते हैं। उन्होंने बादशाही की मुहब्बत और दुनिया के लालच में यह मुतालबा नहीं किया था, बल्कि यह जानते हुए किया था कि कोई दूसरा शख़्स उनके सिवा ऐसा नहीं है जो इस काम को कर सके।" और सच यह है कि यह सवाल दरअस्ल एक सवाल और पैदा करता है जो इससे भी ज़्यादा अहम और बुनियादी सवाल है और वह यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) क्या पैग़म्बर भी थे या नहीं? अगर पैग़म्बर थे तो क्या क़ुरआन में हमको पैग़म्बरी का यही तसव्वुर मिलता है कि इस्लाम की दावत देनेवाला ख़ुद ग़ैर-इस्लामी निज़ाम को ग़ैर-इस्लामी उसूलों पर चलाने के लिए अपनी ख़िदमात पेश करे? बल्कि यह सवाल इसपर भी ख़त्म नहीं होता, इससे भी ज़्यादा नाज़ुक और सख़्त एक-दूसरे सवाल पर जाकर ठहरता है, यानी यह कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) एक सच्चे आदमी भी थे या नहीं? अगर सच्चे थे तो क्या एक सच्चे इनसान का यही काम है कि जेल में तो वह अपनी पैग़म्बरोंवाली दावत का आग़ाज़ इस सवाल से करे कि “बहुत-से रब बेहतर हैं या वह एक अल्लाह जो सबपर ग़ालिब है,” और बार-बार मिस्रवालों पर भी वाज़ेह कर दे कि तुम्हारे इन बहुत-से अलग-अलग ख़ुद गढ़े हुए ख़ुदाओं में से एक यह मिस्र का बादशाह भी है, और साफ़-साफ़ अपने मिशन का बुनियादी अक़ीदा यह बयान करे कि, “हुकूमत का अधिकार एक ख़ुदा के सिवा किसी के लिए नहीं है,” मगर जब अमली आज़माइश का वक़्त आए तो वही शख़्स ख़ुद उस हुकूमत के निज़ाम का ख़ादिम, बल्कि इन्तिज़ाम करनेवाला और हिफ़ाज़त करेनवाला और मददगार तक बन जाए, जो मिस्र के बादशाह की सरपरस्ती में चल रहा था और जिसका बुनियादी नज़रिया था— “हुकूमत के अधिकार ख़ुदा के लिए नहीं, बल्कि बादशाह के लिए हैं।” हक़ीक़त यह है कि इस मक़ाम की तफ़सीर में गिरावट के दौर के मुसलमानों ने कुछ इसी ज़ेहनियत का इज़हार किया है जो कभी यहूदियों की ख़ासियत थी। यह यहूदियों का हाल था कि जब वे ज़ेहनी और अख़लाक़ी गिरावट का शिकार हुए तो पिछली तारीख़ में जिन-जिन बुज़ुर्गों की ज़िन्दगियाँ उनको बुलन्दी पर चढ़ने का सबक़ देती थीं उन सबको वे नीचे गिराकर अपनी सतह पर उतार लाए, ताकि अपने लिए और ज़्यादा नीचे गिरने का बहाना पैदा करें। अफ़सोस कि यही कुछ मुसलमानों ने भी किया। उन्हें ग़ैर-इस्लामी हुकूमतों की चाकरी करनी थी, मगर इस गिरावट में गिरते हुए इस्लाम और उसके अलमबरदारों की बुलन्दी देखकर उन्हें शर्म आई, लिहाज़ा इस शर्म को मिटाने और अपने ज़मीर को राज़ी करने के लिए ये अपने साथ बुलन्द मर्तबेवाले पैग़म्बर को भी कुफ़्र की ख़िदमत की गहराई में ले गिरे, जिसकी ज़िन्दगी दर अस्ल उन्हें यह सबक़ दे रही थी कि अगर किसी देश में एक और सिर्फ़ एक ईमानवाला मर्द भी ख़ालिस इस्लामी अख़लाक़ और ईमानी सूझ-बूझ और हिकमतवाला हो तो वह अकेला अपने अख़लाक़ और अपनी हिकमत के ज़ोर से इस्लामी इंक़िलाब ला सकता है, और यह कि ईमानवाले की अख़लाक़ी ताक़त (बशर्ते कि वह इसका इस्तेमाल जानता हो और उसे इस्तेमाल करने का इरादा भी रखता हो) फ़ौज और हथियार और सरो-सामान के बिना भी देश जीत सकती है और सल्तनतों को अपने बस में कर लेती है।
وَكَذَٰلِكَ مَكَّنَّا لِيُوسُفَ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَتَبَوَّأُ مِنۡهَا حَيۡثُ يَشَآءُۚ نُصِيبُ بِرَحۡمَتِنَا مَن نَّشَآءُۖ وَلَا نُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 55
(56) इस तरह हमने उस धरती पर यूसुफ़ के लिए इक़तिदार (सत्ता) की राह हमवार की। उसे इख़्तियार हासिल था कि उसमें जहाँ चाहे, अपनी जगह बनाए।48 हम अपनी रहमत से जिसको चाहते हैं, नवाज़ते हैं। नेक लोगों का बदला हमारे यहाँ मारा नहीं जाता।
48. यानी अब मिस्र की सारी ज़मीन उसकी थी। उसकी हर जगह को वह अपनी जगह कह सकता था। वहाँ कोई कोना भी ऐसा न रहा था जो उससे रोका जा सकता हो। यह मानो उस मुकम्मल ग़लबे और हर चीज़ पर छाई हुई हुकूमत का बयान है जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को उस देश पर हासिल थी। पुराने तफ़सीर लिखनेवाले भी इस आयत की यही तफ़सीर (व्याख्या) करते हैं। चुनाँचे इब्ने-ज़ैद के हवाले से अल्लामा इब्ने-जरीर तबरी ने अपनी तफ़सीर में उसके मानी ये बयान किए हैं कि “हमने यूसुफ़ को उन सब चीज़ों का मालिक बना दिया जो मिस्र में थीं, दुनिया के उस हिस्से में वह जहाँ जो कुछ चाहता कर सकता था, वह ज़मीन उसके हवाले कर दी गई थी, यहाँ तक कि अगर वह चाहता कि फ़िरऔन को अपने मातहत कर ले और ख़ुद उससे ऊपर हो जाए तो यह भी कर सकता था।” दूसरा क़ौल अल्लामा तबरी ने मुजाहिद का नक़्ल किया है जो तफ़सीर के मशहूर इमामों में से हैं, उनका ख़याल है कि मिस्र के बादशाह ने यूसुफ़ (अलैहि०) के हाथ पर इस्लाम क़ुबूल कर लिया था।
وَلَأَجۡرُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَكَانُواْ يَتَّقُونَ ۝ 56
(57) और आख़िरत का बदला उन लोगों के लिए ज़्यादा बेहतर है जो ईमान ले आए और ख़ुदा से डरते हुए काम करते रहे।49
49. यह ख़बरदार करना है इस बात पर कि कोई शख़्स दुनियावी हुकूमत व इक़तिदार को नेकी व परहेज़गारी का वह असली इनाम और हक़ीक़ी बदला न समझ बैठे जिसकी उसे तमन्ना है, बल्कि ख़बरदार रहे कि बेहतरीन इनाम और वह बदला जिसकी एक ईमानवाले को तलब होनी चाहिए, वह है जो अल्लाह तआला आख़िरत में देगा।
وَجَآءَ إِخۡوَةُ يُوسُفَ فَدَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَعَرَفَهُمۡ وَهُمۡ لَهُۥ مُنكِرُونَ ۝ 57
(58) युसूफ़ के भाई मिस्र आए और उसके यहाँ हाज़िर हुए।50 उसने उन्हें पहचान लिया, मगर वे उससे अनजान थे।51
50. यहाँ फिर सात-आठ साल के वाक़िआत बीच में छोड़कर बयान का सिलसिला उस जगह से जोड़ दिया गया है जहाँ से बनी-इसराईल के मिस्र चले जाने और हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को अपने खोए हुए बेटे का पता मिलने की शुरुआत होती है। बीच में जो वाक़िआत छोड़ दिए गए हैं उनका ख़ुलासा यह है कि मिस्र के बादशाह के ख़ाब का जो पेशगी मतलब यूसुफ़ (अलैहि०) ने बताया था और जिन हालात की हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने पेशगी ख़बर दी थी उसके मुताबिक़ हुकूमत के पहले सात साल मिस्र में बेहद ख़ुशहाली के गुज़रे और उन दिनों में उन्होंने आनेवाले अकाल के लिए पहले से वे तमाम इन्तिज़ाम कर लिए जिनका मशवरा बादशाह के ख़ाब की ताबीर बताते वक़्त वे दे चुके थे। इसके बाद अकाल का दौर शुरू हुआ और यह अकाल सिर्फ़ मिस्र ही में न था, बल्कि आसपास के देश भी इसकी चपेट में आ गए थे। सीरिया, फ़िलस्तीन, पूर्वी जार्डन, उत्तरी अरब, सब जगह सूखा पड़ा था। इन हालात में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की समझदारी से किए गए इन्तिज़ाम की बदौलत सिर्फ़ मिस्र ही वह देश था जहाँ सूखे के बावजूद काफ़ी अनाज जमा था। इसलिए पड़ोसी देशों के लोग मजबूर हुए कि अनाज हासिल करने के लिए मिल जाएँ। यही वह मौक़ा था जब फ़िलस्तीन से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के भाई अनाज ख़रीदने के लिए मिस्र पहुँचे। शायद यूसुफ़ (अलैहि०) ने अनाज के बारे में कुछ ऐसा ज़ाबिता बनाया होगा कि बाहर के देशों में ख़ास इजाज़त-नामों के बिना और ख़ास मिक़दार से ज़्यादा अनाज न जा सकता होगा। इस वजह से जब यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों ने दूसरे देश से आकर अनाज हासिल करना चाहा होगा तो उन्हें इसके लिए ख़ास इजाज़त-नामा हासिल करने की ज़रूरत पड़ी होगी और इस तरह हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के सामने उनकी पेशी की नौबत आई होगी।
51. यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों का उनको न पहचानना कोई नामुमकिन बात नहीं है। जिस वक़्त उन्होंने यूसुफ़ (अलैहि०) को कुएँ में फेंका था, उस वक़्त आप सिर्फ़ सत्रह साल के लड़के थे, और अब उनकी उम्र 38 साल के लगभग थी। इतनी लम्बी मुद्दत आदमी को बहुत कुछ बदल देती है। फिर यह तो वे सोच भी न सकते थे कि जिस भाई को वे कुएँ में फेंक गए थे आज वह मिस्र का सर्वेसर्वा होगा।
وَلَمَّا جَهَّزَهُم بِجَهَازِهِمۡ قَالَ ٱئۡتُونِي بِأَخٖ لَّكُم مِّنۡ أَبِيكُمۡۚ أَلَا تَرَوۡنَ أَنِّيٓ أُوفِي ٱلۡكَيۡلَ وَأَنَا۠ خَيۡرُ ٱلۡمُنزِلِينَ ۝ 58
(59) फिर जब उसने उनका सामान तैयार करवा दिया तो चलते वक़्त उनसे कहा, “अपने सौतेले भाई को मेरे पास लाना। देखते नहीं हो कि मैं किस तरह पैमाना भरकर देता हूँ और कैसी अच्छी मेहमाननवाज़ी करनेवाला हूँ।
فَإِن لَّمۡ تَأۡتُونِي بِهِۦ فَلَا كَيۡلَ لَكُمۡ عِندِي وَلَا تَقۡرَبُونِ ۝ 59
(60) अगर तुम उसे न लाओगे तो मेरे पास तुम्हारे लिए कोई अनाज नहीं है, बल्कि तुम मेरे क़रीब भी न फटकना।"52
52. बात को मुख़्तसर तौर पर बयान करने की वजह से शायद किसी को यह समझने में मुश्किल हो कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) जब अपनी शख़्सियत को उनपर ज़ाहिर न करना चाहते थे तो फिर उनके सौतेले भाई का ज़िक्र कैसे आ गया और उसके लाने पर इतनी ज़िद करने के क्या मानी थे, क्योंकि इस तरह तो राज़ खुला जाता था। लेकिन थोड़ा-सा ग़ौर करने से बात साफ़ समझ में आ जाती है। वहाँ अनाज के लिए कुछ उसूल थे और हर शख़्स एक तयशुदा मिक़दार ही में अनाज ले सकता था। अनाज लेने के लिए ये दस भाई आए थे, मगर वे अपने बाप और अपने ग्यारहवें भाई का हिस्सा भी माँगते होंगे। इसपर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने कहा होगा कि तुम्हारे बाप के ख़ुद न आने के लिए तो यह मजबूरी समझ में आ सकती है कि वे बहुत बूढ़े और नाबीना (नेत्रहीन) हैं, मगर भाई के न आने की क्या मुनासिब वजह हो सकती है? कहीं तुम एक फ़र्ज़ी नाम से ज़्यादा अनाज पाने और फिर नाजाइज़ कारोबार करने की कोशिश तो नहीं कर रहे हो? उन्होंने जवाब में अपने घर के कुछ हालात बयान किए होंगे और बताया होगा कि वह हमारा सौतेला भाई है और कुछ वजहों से हमारे वालिद उसको हमारे साथ भेजने में झिझकते हैं। तब हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने कहा होगा कि ख़ैर इस वक़्त तो हम तुम्हारी ज़बान का एतिबार करके तुमको पूरा अनाज दिए देते हैं, मगर आगे से अगर तुम उसको साथ न लाए तो तुम्हारा एतिबार जाता रहेगा और तुम्हें यहाँ से कोई अनाज न मिल सकेगा। इस हुक्म भरी धमकी के साथ यूसुफ़ (अलैहि०) ने उनको अपने एहसान और अपनी ख़ातिरदारी से भी क़ाबू करने की कोशिश की; क्योंकि दिल अपने छोटे भाई को देखने और घर के हालात मालूम करने के लिए बेताब था। यह मामले की एक सादा-सी शक्ल है जो ज़रा ग़ौर करने से ख़ुद-ब-ख़ुद समझ में आ जाती है। इस सूरत में बाइबल की उस बढ़ा-चढ़ाकर पेश की गई दास्तान पर भरोसा करने की कोई ज़रूरत नहीं रहती जो किताब 'उत्पत्ति' के अध्याय 42-49 में बड़ा रंग चढ़ाकर पेश की गई है।
قَالُواْ سَنُرَٰوِدُ عَنۡهُ أَبَاهُ وَإِنَّا لَفَٰعِلُونَ ۝ 60
(61) उन्होंने कहा, “हम कोशिश करेंगे कि अब्बाजान उसे भेजने पर तैयार हो जाएँ, और हम ऐसा ज़रूर करेंगे।”
وَقَالَ لِفِتۡيَٰنِهِ ٱجۡعَلُواْ بِضَٰعَتَهُمۡ فِي رِحَالِهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَعۡرِفُونَهَآ إِذَا ٱنقَلَبُوٓاْ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 61
(62) यूसुफ़ ने अपने ग़ुलामों को इशारा किया कि “उन लोगों ने अनाज के बदले में जो माल दिया है, वह चुपके से उनके सामान ही में रख दो।” यह यूसुफ़ ने इस उम्मीद पर किया कि घर पहुँचकर वह अपना वापस पाया हुआ माल पहचान जाएँगे (या इस कुशादादिली पर एहसानमन्द होंगे) और ताज्जुब नहीं कि फिर पलटें।
فَلَمَّا رَجَعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَبِيهِمۡ قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مُنِعَ مِنَّا ٱلۡكَيۡلُ فَأَرۡسِلۡ مَعَنَآ أَخَانَا نَكۡتَلۡ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 62
(63) जब वे अपने बाप के पास गए तो कहा, “अब्बाजान! आगे हमको अनाज देने से मना कर दिया गया है, इसलिए आप हमारे भाई को हमारे साथ भेज दीजिए, ताकि हम अनाज लेकर आएँ, और उसकी हिफ़ाज़त के हम ज़िम्मेदार हैं।”
قَالَ هَلۡ ءَامَنُكُمۡ عَلَيۡهِ إِلَّا كَمَآ أَمِنتُكُمۡ عَلَىٰٓ أَخِيهِ مِن قَبۡلُ فَٱللَّهُ خَيۡرٌ حَٰفِظٗاۖ وَهُوَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 63
(64) बाप ने जवाब दिया, “क्या मैं उसके मामले में तुमपर वैसा ही भरोसा करूँ जैसा इससे पहले उसके भाई के मामले में कर चुका हूँ? अल्लाह ही बेहतर हिफ़ाज़त करनेवाला है और वह सबसे बढ़कर रहम करनेवाला है।”
وَلَمَّا فَتَحُواْ مَتَٰعَهُمۡ وَجَدُواْ بِضَٰعَتَهُمۡ رُدَّتۡ إِلَيۡهِمۡۖ قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا مَا نَبۡغِيۖ هَٰذِهِۦ بِضَٰعَتُنَا رُدَّتۡ إِلَيۡنَاۖ وَنَمِيرُ أَهۡلَنَا وَنَحۡفَظُ أَخَانَا وَنَزۡدَادُ كَيۡلَ بَعِيرٖۖ ذَٰلِكَ كَيۡلٞ يَسِيرٞ ۝ 64
(65) फिर जब उन्होंने अपना सामान खोला तो देखा कि उनका माल भी उन्हें वापस कर दिया गया है। यह देखकर वे पुकार उठे, “अब्बाजान! और हमें क्या चाहिए, देखिए! यह हमारा माल भी हमें वापस दे दिया गया है। बस अब हम जाएँगे और अपने घरवालों के लिए रसद ले आएँगे। अपने भाई की हिफ़ाज़त भी करेंगे और एक ऊँट भर और ज़्यादा भी ले आएँगे। इतने अनाज की बढ़ोतरी आसानी के साथ हो जाएगी।”
قَالَ لَنۡ أُرۡسِلَهُۥ مَعَكُمۡ حَتَّىٰ تُؤۡتُونِ مَوۡثِقٗا مِّنَ ٱللَّهِ لَتَأۡتُنَّنِي بِهِۦٓ إِلَّآ أَن يُحَاطَ بِكُمۡۖ فَلَمَّآ ءَاتَوۡهُ مَوۡثِقَهُمۡ قَالَ ٱللَّهُ عَلَىٰ مَا نَقُولُ وَكِيلٞ ۝ 65
(66) उनके बाप ने कहा, “मैं इसको हरगिज़ तुम्हारे साथ न भेजूँगा, जब तक कि तुम अल्लाह के नाम से मुझको पैमान (वचन) न दे दो कि इसे मेरे पास ज़रूर वापस लेकर आओगे, सिवाए इसके कि कहीं तुम घेर ही लिए जाओ।” जब उन्होंने उसको अपने-अपने वचन दे दिए तो उसने कहा, “देखो, हमारी इस बात पर अल्लाह निगहबान है।”
وَقَالَ يَٰبَنِيَّ لَا تَدۡخُلُواْ مِنۢ بَابٖ وَٰحِدٖ وَٱدۡخُلُواْ مِنۡ أَبۡوَٰبٖ مُّتَفَرِّقَةٖۖ وَمَآ أُغۡنِي عَنكُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍۖ إِنِ ٱلۡحُكۡمُ إِلَّا لِلَّهِۖ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُۖ وَعَلَيۡهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُتَوَكِّلُونَ ۝ 66
(67) फिर उसने कहा, “मेरे बच्चो, मिस्र की राजधानी में एक दरवाज़े से दाख़िल न होना, बल्कि अलग-अलग दरवाज़ों से जाना53, मगर मैं अल्लाह की मरज़ी से तुमको नहीं बचा सकता। हुक्म उसके सिवा किसी का भी नहीं चलता। उसी पर मैंने भरोसा किया और जिसको भी भरोसा करना हो, उसी पर करे।”
53. इससे अन्दाज़ा होता है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के बाद उनके भाई को भेजते वक़्त हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के दिल पर क्या कुछ गुज़र रही होगी। अगरचे ख़ुदा पर भरोसा था और सब्र और उसकी मरज़ी पर राज़ी रहने में उनका मक़ाम बहुत ऊँचा था, मगर फिर भी थे तो इनसान ही। तरह-तरह के अन्देशे दिल में आते होंगे और रह-रहकर इस ख़याल से काँप उठते होंगे कि ख़ुदा जाने अब इस लड़के की शक्ल भी देख सकूँगा या नहीं, इसी लिए वे चाहते होंगे कि अपनी हद तक एहतियात में कोई कसर न उठा रखी जाए। यह एहतियाती मश्वरा कि मिस्र की राजधानी में ये सब भाई एक दरवाज़े से न जाएँ, उन सियासी हालात का तसव्वुर करने से साफ़ समझ में आ जाता है जो उस वक़्त पाए जाते थे। ये लोग मिस्री हुकूमत की सरहद पर आज़ाद क़बाइली इलाक़े के रहनेवाले थे। मिस्र के लोग इस इलाक़े के लोगों को उसी शक की निगाह से देखते होंगे जिस निगाह से भारत की ब्रिटिश सरकार आज़ाद सरहदी इलाक़ेवालों को देखती रही है। हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को यह अन्देशा हुआ होगा कि इस सूखे के ज़माने में अगर ये लोग एक जत्था बने हुए वहाँ दाख़िल होंगे तो शायद उनपर शक किया जाए और यह गुमान किया जाए कि ये यहाँ लूट-मार के मक़सद से आए हैं। पिछली आयत में हज़रत याक़ूब (अलैहि०) का यह कहना कि, “सिवाए इसके कि कहीं तुम घेर ही लिए जाओ” इस बात की तरफ़ ख़ुद ही यह इशारा कर रहा है कि यह मश्वरा सियासी वजहों की बिना पर दिया गया था।
وَلَمَّا دَخَلُواْ مِنۡ حَيۡثُ أَمَرَهُمۡ أَبُوهُم مَّا كَانَ يُغۡنِي عَنۡهُم مِّنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٍ إِلَّا حَاجَةٗ فِي نَفۡسِ يَعۡقُوبَ قَضَىٰهَاۚ وَإِنَّهُۥ لَذُو عِلۡمٖ لِّمَا عَلَّمۡنَٰهُ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 67
(68) और हुआ भी यही कि जब वे अपने बाप के हुक्म के मुताबिक़ शहर में (अलग-अलग दरवाज़ों से) दाख़िल हुए तो उसकी यह एहतियाती तदबीर अल्लाह की मरज़ी के मुक़ाबले में कुछ भी काम न आ सकी। हाँ, बस याक़ूब के दिल में जो एक खटक थी उसे दूर करने के लिए उसने अपनी-सी कोशिश कर ली। बेशक वह हमारी दी हुई तालीम का इल्मवाला था, मगर ज़्यादातर लोग मामले की हक़ीक़त को जानते नहीं हैं।54
54. इसका मतलब यह है कि तदबीर और अल्लाह पर भरोसे के बीच यह ठीक-ठीक तवाज़ुन (सन्तुलन) जो तुम हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की ऊपर बयान की गई बातों में पाते हो यह अस्ल में हक़ीक़त के इल्म की उस बरकत का नतीजा था जो अल्लाह तआला की मेहरबानी से उन्हें मिला था। एक तरफ़ वे इस दुनिया के क़ानूनों के मुताबिक़ जहाँ कामों के लिए ज़रिए और असबाब जुटाए जाते हैं, तमाम ऐसी तदबीरें करते हैं जो अक़्ल व फ़िक्र और तजरिबे की बुनियाद पर अपनाई जा सकती थीं। बेटों को उनका पहला जुर्म याद दिलाकर डाँट-फटकार करते हैं, ताकि वे दोबारा वैसा ही जुर्म करने की जुर्अत न करें, उनसे ख़ुदा के नाम पर वादा और अह्द लेते हैं कि सौतेले भाई की हिफ़ाज़त करेंगे, और वक़्त के सियासी हालात को देखते हुए जिस एहतियाती तदबीर की ज़रूरत महसूस होती है उसे भी इस्तेमाल करने का हुक्म देते हैं, ताकि अपनी हद तक कोई बाहरी वजह भी ऐसी न रहने दी जाए जो उन लोगों के घिर जाने की वजह बन जाए। मगर दूसरी तरफ़ हर वक़्त यह बात उनके सामने है और उसका बार-बार इज़हार करते हैं कि कोई इनसानी तदबीर अल्लाह की मरज़ी को लागू होने से नहीं रोक सकती और अस्ल हिफ़ाज़त अल्लाह की हिफ़ाज़त है, और भरोसा अपनी तदबीरों पर नहीं, बल्कि अल्लाह ही की मेहरबानी पर होना चाहिए, यह सही तवाज़ुन (सन्तुलन) अपनी बातों में और अपने कामों में सिर्फ़ वही शख़्स क़ायम कर सकता है जो हक़ीक़त का इल्म रखता हो। जो यह भी जानता हो कि दुनियावी ज़िन्दगी के ज़ाहिरी पहलू में अल्लाह की बनाई हुई फ़ितरत इनसान से किस कोशिश और अमल का तक़ाज़ा करती है, और इससे भी वाक़िफ़ हो कि इस ज़ाहिर के पीछे जो अस्ल हक़ीक़त छिपी है उसकी बिना पर अस्ल काम करनेवाली ताक़त कौन-सी है और उसके होते हुए अपनी कोशिश व अमल पर इनसान का भरोसा कितना बेबुनियाद है। यही वह बात है जिसको अकसर लोग नहीं जानते। उनमें से जिसके ज़ेहन पर ज़ाहिर छाया हुआ होता है वह इस बात से बेपरवाह होकर कि भरोसा ख़ुदा ही पर होना चाहिए तदबीर ही को सब कुछ समझ बैठता है, और जिसके दिल पर बातिल छा जाता है वह तदबीर से बेपरवाह होकर निरे भरोसे ही के बल पर ज़िन्दगी की गाड़ी चलाना चाहता है।
وَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَىٰ يُوسُفَ ءَاوَىٰٓ إِلَيۡهِ أَخَاهُۖ قَالَ إِنِّيٓ أَنَا۠ أَخُوكَ فَلَا تَبۡتَئِسۡ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 68
(69) ये लोग यूसुफ़ के सामने पहुँचे तो उसने अपने भाई को अपने पास अलग बुला लिया और उसे बता दिया कि “मैं तेरा वही भाई हूँ (जो खोया गया था) । अब तू उन बातों का ग़म न कर जो ये लोग करते रहे हैं।"55
55. इस जुमले में वह सारी दास्तान समेट दी गई है जो 21-22 साल के बाद दोनों एक ही माँ से जन्मे भाइयों के मिलने पर पेश आई होगी। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने बताया होगा कि वे किन हालात से गुज़रते हुए इस मर्तबे पर पहुँचे। बिनयामीन ने सुनाया होगा कि उनके पीछे सौतेले भाइयों ने उसके साथ क्या-क्या बुरे सुलूक किए। फिर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने भाई को तसल्ली दी होगी कि अब तुम मेरे पास ही रहोगे, उन ज़ालिमों के पंजे में तुमको दोबारा नहीं जाने दूँगा। हो सकता है कि इसी मौक़े पर दोनों भाइयों में यह भी तय हो गया हो कि बिनयामीन को मिस्र में रोक रखने के लिए क्या तदबीर की जाए जिससे वह परदा पड़ा रहे जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) कुछ मस्लहत के तहत डाले रखना चाहते थे।
فَلَمَّا جَهَّزَهُم بِجَهَازِهِمۡ جَعَلَ ٱلسِّقَايَةَ فِي رَحۡلِ أَخِيهِ ثُمَّ أَذَّنَ مُؤَذِّنٌ أَيَّتُهَا ٱلۡعِيرُ إِنَّكُمۡ لَسَٰرِقُونَ ۝ 69
(70) जब यूसुफ़ इन भाइयों का सामान लदवाने लगा तो उसने अपने भाई के सामान में अपना प्याला रख दिया।56 फिर एक पुकारनेवाले ने पुकारकर कहा, “ऐ क़ाफ़िलेवालो! तुम लोग चोर हो।”57
56. प्याला रखने का काम शायद हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने अपने भाई की रज़ामन्दी से और उसकी जानकारी में किया था जैसा कि इससे पहलेवाली आयत इशारा कर रही है। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) अपने मुद्दतों के विछड़े हुए भाई को उन ज़ालिम सौतेले भाइयों के पंजे से छुड़ाना चाहते होंगे। भाई ख़ुद भी उन ज़ालिमों के साथ वापस न जाना चाहता होगा। मगर खुलेआम यूसुफ़ (अलैहि०) का उसे रोकना और उसका रुक जाना बिना इसके मुमकिन न था कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) अपनी शख़्सियत को ज़ाहिर करते और उसका इज़हार इस मौक़े पर मस्लहत के ख़िलाफ़ था। इसलिए दोनों भाइयों में मश्वरा हुआ होगा कि उसे रोकने की यह तदबीर की जाए। अगरचे थोड़ी देर के लिए इसमें भाई का अपमान था कि उसपर चोरी का धब्बा लगता था, लेकिन बाद में यह धब्बा इस तरह आसानी के साथ धुल सकता था कि दोनों भाई अस्ल मामले को दुनिया पर ज़ाहिर कर दें।
57. इस आयत में और बादवाली आयत में भी कहीं ऐसा कोई इशारा मौजूद नहीं है जिससे यह समझा जा सके कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने अपने नौकरों को इस राज़ में शरीक किया था और उन्हें ख़ुद यह सिखाया था कि क़ाफ़िलेवालों पर झूठा इलज़ाम लगाओ। वाक़िए की सादा सूरत जो समझ में आती है वह यह है कि प्याला ख़ामोशी के साथ रख दिया गया होगा, बाद में जब सरकारी नौकरों ने उसे न पाया होगा तो अन्दाज़ा लगाया होगा कि हो न हो, यह काम इन्ही क़ाफ़िलेवालों में से किसी का है जो यहाँ ठहरे हुए थे।
قَالُواْ وَأَقۡبَلُواْ عَلَيۡهِم مَّاذَا تَفۡقِدُونَ ۝ 70
(71) उन्होंने पलटकर पूछा, “तुम्हारी क्या चीज़ खो गई?"
قَالُواْ نَفۡقِدُ صُوَاعَ ٱلۡمَلِكِ وَلِمَن جَآءَ بِهِۦ حِمۡلُ بَعِيرٖ وَأَنَا۠ بِهِۦ زَعِيمٞ ۝ 71
(72) सरकारी कारिन्दों ने कहा, “बादशाह का पैमाना हमको नहीं मिलता।” (और उनके जमादार ने कहा) “जो आदमी लाकर देगा उसके लिए एक ऊँट के बोझ के बराबर इनाम है, इसका मैं ज़िम्मा लेता हूँ।”
قَالُواْ تَٱللَّهِ لَقَدۡ عَلِمۡتُم مَّا جِئۡنَا لِنُفۡسِدَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كُنَّا سَٰرِقِينَ ۝ 72
(73) उन भाइयों ने कहा, “ख़ुदा की कसम! तुम लोग ख़ूब जानते हो कि हम इस देश में बिगाड़ पैदा करने नहीं आए हैं और हम चोरियाँ करनेवाले लोग नहीं हैं।”
قَالُواْ فَمَا جَزَٰٓؤُهُۥٓ إِن كُنتُمۡ كَٰذِبِينَ ۝ 73
(74) उन्होंने कहा, “अच्छा, अगर तुम्हारी बात झूठी निकली तो चोर की क्या सज़ा है?”
قَالُواْ جَزَٰٓؤُهُۥ مَن وُجِدَ فِي رَحۡلِهِۦ فَهُوَ جَزَٰٓؤُهُۥۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 74
(75) उन्होंने कहा, “उसकी सज़ा? जिसके सामान में से चीज़ निकले, वह आप ही अपनी सज़ा में रख लिया जाए। हमारे यहाँ तो ऐसे ज़ालिमों को सज़ा देने का यही तरीक़ा है।"58
58. ख़याल रहे कि ये भाई इबराहीमी ख़ानदान के लोग थे, लिहाज़ा उन्होंने चोरी के मामले में जो क़ानून बयान किया वह इबराहीमी शरीअत का क़ानून था, यानी यह कि चोर उस शख़्स की ग़ुलामी में दे दिया जाए जिसका माल उसने चुराया हो।
فَبَدَأَ بِأَوۡعِيَتِهِمۡ قَبۡلَ وِعَآءِ أَخِيهِ ثُمَّ ٱسۡتَخۡرَجَهَا مِن وِعَآءِ أَخِيهِۚ كَذَٰلِكَ كِدۡنَا لِيُوسُفَۖ مَا كَانَ لِيَأۡخُذَ أَخَاهُ فِي دِينِ ٱلۡمَلِكِ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ نَرۡفَعُ دَرَجَٰتٖ مَّن نَّشَآءُۗ وَفَوۡقَ كُلِّ ذِي عِلۡمٍ عَلِيمٞ ۝ 75
(76) तब यूसुफ़ ने अपने भाई से पहले उनकी खुरजियों की तलाशी लेनी शुरू की, फिर अपने भाई की ख़ुरजी से गुमशुदा चीज़ बरामद कर ली — इस तरह हमने यूसुफ़ की ताईद (मदद) अपनी तदबीर से की।59 उसका यह काम न था कि बादशाह के दीन (यानी मिस्र के शाही क़ानून) में अपने भाई को पकड़ता सिवाए इसके कि अल्लाह ही ऐसा चाहे।60 हम जिसके दरजे चाहते हैं बुलन्द कर देते हैं, और एक इल्म रखनेवाला ऐसा है जो हर इल्मवाले से बढ़कर है।
59. यहाँ यह बात ध्यान देने के क़ाबिल है कि वाक़िआत के इस पूरे सिलसिले में वह कौन-सी तदबीर है जो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की ताईद में ख़ुदा की तरफ़ से की गई? ज़ाहिर है कि प्याला रखने की तदबीर तो हज़रत यूसूफ़ (अलैहि०) ने ख़ुद की थी। यह भी ज़ाहिर है कि सरकारी नौकरों का चोरी के शक में क़ाफ़िलेवालों को रोकना भी मामूल के मुताबिक़ वह काम था, जो ऐसे मौक़ों पर सब सरकारी नौकर किया करते हैं। फिर वह ख़ास ख़ुदाई तदबीर कौन-सी है? ऊपर की आयतों में तलाश करने से इसके सिवा कोई दूसरी चीज़ ऐसी नहीं मिलती जिसपर इस बात को सही ठहराया जा सकता कि सरकारी नौकरों ने अपने मामूल के ख़िलाफ़ ख़ुद शक घेरे में आए हुए मुलज़िमों से चोर की सज़ा पूछी, और उन्होंने वह सज़ा बताई जो इबराहीमी शरीअत के मुताबिक़ चोर को दी जाती थी। इसके दो फ़ायदे हुए, एक यह कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को इबराहीमी शरीअत पर अमल करने का मौक़ा मिल गया। दूसरा यह कि भाई को हवालात में भेजने के बजाय अब वे उसे अपने पास रख सकते थे।
60. यानी यह बात हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की पैग़म्बरी के रुतबे के मुताबिक़ न थी कि वे अपने एक जाती मामले में मिस्र के बादशाह के क़ानून पर अमल करते। अपने भाई को रोक रखने के लिए उन्होंने ख़ुद जो तदबीर की थी उसमें यह कमी रह गई थी कि भाई को रोका तो जरूर जा सकता था मगर मिस्र के बादशाह के सज़ा के क़ानून से काम लेना पड़ता, और यह उस पैग़म्बर की शान के मुताबिक़ न था जिसने हुकूमत के अधिकार ग़ैर-इस्लामी क़ानूनों की जगह इस्लामी शरीअत लागू करने के लिए अपने हाथ में लिए थे। अगर अल्लाह चाहता तो अपने नबी को इस बदनुमा ग़लती में मुब्तला हो जाने देता, मगर उसने यह गवारा न किया कि यह धब्बा उसके दामन पर रह जाए, इसलिए उसने ख़ुद अपनी तदबीर से यह राह निकाल दी कि इत्तिफ़ाक़ से यूसुफ़ (अलैहि०) के भाइयों से चोर की सज़ा पूछ ली गई और उन्होंने इसके लिए इबराहीमी शरीअत का क़ानून बयान कर दिया। यह चीज़ इस लिहाज़ से बिलकुल मौत के मुताबिक़ थी कि यूसुफ़ (अलैहि०) के भाई मिस्री बाशिन्दे न थे, एक आज़ाद इलाक़े से आए हुए लोग थे, लिहाज़ा अगर वे ख़ुद अपने यहाँ के दस्तूर के मुताबिक़ अपने आदमी को उस शख़्स की ग़ुलामी में देने के लिए तैयार थे जिसका माल उसने चुराया था, तो फिर मिनी सज़ा के क़ानून से इस मामले में मदद लेने की कोई जरूरत ही न थी। यही वह चीज़ है जिसको बाद की दो आयतों में अल्लाह तआला ने अपने एहसान और अपनी इल्मी बरतरी बताया है। एक बन्दे के लिए इससे बढ़कर ऊँचा दरजा और क्या हो सकता है कि अगर वह कभी इनसानी कमज़ोरी की वजह से ख़ुद कोई ग़लती कर रहा हो तो अल्लाह तआला ग़ैब (परोक्ष रूप) से उसको बचाने का इन्तिज़ाम कर दे। ऐसा बुलन्द मर्तबा सिर्फ़ उन्हीं लोगों को मिला करता है जो अपनी कोशिश व अमल से बड़ी-बड़ी आज़माइशों में अपना 'इन्तिहाई नेक होना' साबित कर चुके होते हैं और अगरचे हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) इत्मवाले थे, ख़ुद बहुत समझदारी के साथ काम करते थे, मगर फिर भी इस मौक़े पर उनके इल्म में एक कसर रह गई और उसे उस हस्ती ने पूरा किया जो हर इल्मवाले से बढ़कर है। यहाँ कुछ बातों की वज़ाहत बाक़ी रह गई हैं जिनको हम मुख़्तसर तौर पर बयान करेंगे (1) आम तौर पर इस आयत का तर्जमा यह किया जाता है कि “यूसुफ़ बादशाह के क़ानून के मुताबिक़ अपने भाई को न पकड़ सकता था।” यानी ‘मा का-न लि-या-ख़ु-ज़' का तर्जमा और तफ़सीर करनेवाले उलमा क़ुदरत न होने के मानी में लेते हैं, न कि सही न होने और मुनासिब न होने के मानी में। लेकिन पहली बात तो यह तर्जमा व तफ़सीर अरबी मुहावरे और क़ुरआनी इस्तेमालों दोनों के लिहाज़ से ठीक नहीं है, क्योंकि अरबी में आमतौर पर 'मा का-न लहू' का मतलब और मानी ‘मा यम्बग़ी लहू' (उसे नहीं चाहिए), ‘मा सह-ह लहू' (उसके लिए सही नहीं है) 'मस्तक़ा-म लहू' (उसके लिए ठीक नहीं हैं) वग़ैरा होता है। और क़ुरआन में भी यह ज़्यादातर इसी मानी में आया है। मिसाल के तौर पर ‘मा का-न अंयत्तख़िज़ा मियं वलदिन (अल्लाह का यह काम नहीं कि वह किसी को अपना बेटा बनाए) “मा का-न लना अन्नुशरि-क बिल्लाहि मिन शैइन” (हमारा यह काम नहीं है कि हम अल्लाह के साथ किसी को साझी ठहराएँ), ‘मा कानल्लाहु लियुतलि-अकुम अलल-ग़ैब' (अल्लाह का तरीक़ा यह नहीं है कि तुम लोगों पर परोक्ष (ग़ैब) को प्रकट कर दे) 'मा कानल्लाहु लियुज़ी-अ ईमा-न कुम' (अल्लाह तुम्हारे इस ईमान (आस्था) को हरगिज़ अकारथ न करेगा) फ़मा कानल्लाहु लियज़लि-म हुम' (फिर यह अल्लाह का काम न था कि उनपर ज़ुल्म करता), मा ‘मा कानल्लाहु लिय-ज़-रल मोमिनी-न अला मा अन्तुम अलैहि' (अल्लाह ईमानवालों को इस हालत में हरगिज़ न रहने देगा जिसमें तुम लोग इस समय पाए जाते हो) 'मा का-न लि मुअ मिनिन अँय-यक़तु-ल मुअमिनन' (किसी ईमानवाले का यह काम नहीं है कि दूसरे ईमानवाले को क़त्ल करे), दूसरे अगर इसके वे मानी लिए जाएँ जो तर्जमा और तफ़सीर करनेवाले आमतौर से बयान करते हैं तो बात बिलकुल बेमतलब हो जाती है। बादशाह के क़ानून में चोर को न पकड़ सकने की आख़िर वजह क्या हो सकती है? क्या दुनिया में कभी कोई सल्तनत ऐसी भी रही है जिसका क़ानून चोर को गिरफ़्तार करने की इजाज़त न देता हो? (2) अल्लाह तआला ने शाही क़ानून के लिए “दीनुल-मलिक” का लफ़्ज़ इस्तेमाल करके ख़ुद उस मतलब की तरफ़ इशारा कर दिया है जो “मा का-न लि-याख़ु-ज़” से लिया जाना चाहिए। ज़ाहिर है कि अल्लाह का पैग़म्बर ज़मीन में 'दीनुल्लाह' (अल्लाह का दीन) जारी न करने के लिए भेजा गया था, न कि 'दीनुल-मलिक' (बादशाह का दीन) जारी करने के लिए। अगर हालात की मजबूरी से उसकी हुकूमत में उस वक़्त तक पूरी तरह 'बादशाह के दीन' की जगह 'अल्लाह का दीन' जारी न हो सका था, तब भी कम-से-कम पैग़म्बर का अपना काम तो यह न था कि अपने एक निजी मामले में बादशाह के दीन पर अमल करे। लिहाज़ा हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का बादशाह के दीन के मुताबिक़ अपने भाई को न पकड़ना इस वजह से नहीं था कि बादशाह के दीन में ऐसा करने की गुंजाइश न थी, बल्कि इसकी वजह सिर्फ़ यह थी कि पैग़म्बर होने की हैसियत से अपनी ज़ाती हद तक अल्लाह के दीन पर अमल करना उनका फ़र्ज़ था और बादशाह के दीन की पैरवी उनके लिए बिलकुल नामुनासिब चीज़ थी। (3) देश के क़ानून (Law of the Land) के लिए लफ़्ज़ “दीन” लफ़्ज़ (इस्तेमाल) करके अल्लाह तआला ने इस बात को पूरी तरह वाज़ेह कर दिया है कि दीन के मानी बहुत वसीअ (व्यापक) हैं। इससे उन लोगों के दीन के तसव्वुर की जड़ कट जाती है जो नबियों की दावत को सिर्फ़ आम मज़हबी मानी में एक ख़ुदा की पूजा कराने और सिर्फ़ कुछ मज़हबी रस्मों और अक़ीदों की पाबन्दी करा लेने तक महदूद समझते हैं, और यह ख़याल करते हैं कि इनसानी समाज, सियासत, कारोबार, अदालत, क़ानून और ऐसे ही दूसरे दुनियावी मामलों का कोई ताल्लुक़ दीन से नहीं है, या अगर है भी तो उन मामलों के बारे में दीन की हिदायतें सिर्फ़ इख़्तियारी सिफ़ारिशें हैं जिनपर अगर अमल हो जाए तो अच्छा है वरना इनसानों के अपने बनाए हुए ज़ाबिते और उसूल क़ुबूल कर लेने में भी कोई हरज नहीं। दीन का यह तसव्वुर गुमराह करनेवाला है जिसकी एक मुद्दत से मुसलमानों में चर्चा है, जो बहुत बड़ी हद तक मुसलमानों को ज़िन्दगी के इस्लामी निज़ाम को क़ायम करने की कोशिश से बेपरवाह करने का ज़िम्मेदार न है, जिसकी बदौलत मुसलमान कुफ़्र व जाहिलियत के निज़ामे-ज़िन्दगी पर न सिर्फ़ राजी हुए सिसा बल्कि एक नबी की सुन्नत (तरीक़ा) समझकर उस निज़ाम का हिस्सा बनने और उसको ख़ुद चलाने के लिए भी तैयार हो गए, इस आयत के मुताबिक़ बिलकुल ग़लत साबित होता है। समय यहाँ अल्लाह तआला साफ़ बता रहा है कि जिस तरह नमाज़, रोज़ा और हज दीन है उसी फल की तरह वह क़ानून भी दीन है जिसपर सोसाइटी का निज़ाम और मुल्क का इन्तिज़ाम चलाया जाता है। लिहाज़ा “अल्लाह के नज़दीक दीन सिर्फ़ इस्लाम है” और “जो कोई इस्लाम के सिवा कोई और दीन चाहेगा तो उसे क़ुबूल न किया जाएगा” वग़ैरा आयतों में जिस दीन की पैरवी का मुतालबा किया गया है उससे मुराद सिर्फ़ नमाज़, रोज़ा ही नहीं है बल्कि इस्लाम विकास का इजतिमाई निज़ाम भी है जिससे हटकर किसी दूसरे निज़ाम की पैरवी ख़ुदा के यहाँ हरगिज़ क़ुबूल नहीं हो सकती। (4) सवाल किया जा सकता है कि इससे कम-से-कम यह तो साबित होता है कि उस वक़्त मिस्र की हुकूमत में 'बादशाह का दीन' ही जारी था। अब अगर इस हुकूमत के सबसे बड़े हाकिम हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ही थे, जैसा कि तुम ख़ुद पहले साबित कर चुके हो, तो न इससे लाज़िम आता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०), ख़ुदा के पैग़म्बर, ख़ुद अपने हाथों से देश में 'बादशाह का दीन' जारी कर रहे थे। इसके बाद अगर अपने निजी मामले में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने 'बादशाह के दीन' के बजाय इबराहीमी शरीअत पर अमल किया भी तो कि इससे क्या फ़र्क़ पड़ा? इसका जवाब यह है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) मुक़र्रर तो अल्लाह का दीन जारी करने ही पर थे और यही पैग़म्बर की हैसियत से उनका मिशन और उनकी हुकूमत का मक़सद था, मगर एक देश का निज़ाम अमली तौर पर एक दिन के अन्दर नहीं बदल जाया करता। आज अगर कोई देश पूरी तरह हमारे अधिकार में हो और हम उसमें इस्लामी निज़ाम क़ायम करने की ख़ालिस नीयत ही से उसका इन्तिज़ाम अपने हाथ में लें, तब भी उसका सामाजिक निज़ाम (व्यवस्था), मआशी (आर्थिक) निज़ाम, सियासी निज़ाम न और अदालत और क़ानून के निज़ाम को अमली तौर पर बदलते-बदलते सालों लग जाएँगे और कुछ मुद्दत तक हमको अपने इन्तिज़ाम में भी पहले के क़ानून बरकरार रखने पड़ेंगे। क्या इतिहास इस बात पर गवाह नहीं है कि ख़ुद नबी (सल्ल०) को भी अरब के निज़ामे-ज़िन्दगी में पूरा इस्लामी इंक़िलाब लाने के लिए नौ-दस साल लगे थे? इस दौरान में आख़िरी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी हुकूमत में कुछ साल शराब पी जाती रही, ब्याज लिया और दिया जाता रहा, जाहिलियत का विरासत का क़ानून जारी रहा, निकाह व तलाक़ के पुराने क़ानून बरक़रार रहे, खरीदने-बेचने की बहुत-सी ख़राब सूरतें अमल में आती रहीं और दीवानी और फ़ौजदारी के इस्लामी क़ानून भी पहले दिन ही पूरे तौर पर लागू नहीं हो गए। तो अगर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की हुकूमत में शुरू के आठ-नौ साल तक पहले की पिछली मिस्री बादशाहत के कुछ क़ानून चलते रहे हों तो इसमें ताज्जुब की क्या की बात है और इससे यह दलील कैसे निकल आती है कि ख़ुदा का पैग़म्बर मिस्र में ख़ुदा के दीन को नहीं, बल्कि बादशाह के दीन को जारी करने पर मुक़र्रर था। रही यह बात कि जब देश में बादशाह का दीन जारी था ही तो आख़िर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) को ख़ुद के लिए इसपर अमल करना क्यों उनके रुतबे के मुताबिक़ न था, तो यह सवाल भी नबी (सल्ल०) के तरीक़े पर ग़ौर करने से आसानी से हल हो जाता है। नबी (सल्ल०) की हुकूमत के शुरुआती दौर में जब तक इस्लामी क़ानून जारी न हुए थे, लोग पुराने तरीक़े के मुताबिक़ शराब पीते रहे, मगर क्या नबी (सल्ल०) ने भी पी? लोग ब्याज लेते देते, मगर क्या आप (सल्ल०) ने भी ब्याज का लेन-देन किया? लोग 'मुतआ' (अस्थायी विवाह) करते रहे, दो सगी बहनों को एक साथ अपने निकाह में रखते रहे, मगर क्या नबी (सल्ल०) ने भी ऐसा किया? इससे मालूम होता है इस्लाम की दावत देनेवाले का अमली मजबूरियों की वजह से इस्लामी हुक्मों को एक तरतीब से जारी करना और चीज़ है और इस थोड़े-थोड़े करके हुक्म जारी होनेवाले दौर में जाहिलियत के तरीक़ों पर अमल करना और चीज़। तरतीब के साथ आगे बढ़ने की रुख़सतें दूसरों के लिए हैं। इस्लाम की दावत देनेवाले का अपना यह काम नहीं है कि ख़ुद उन तरीक़ों में से किसी पर अमल करे जिनके मिटाने पर वह मुक़र्रर हुआ है।
۞قَالُوٓاْ إِن يَسۡرِقۡ فَقَدۡ سَرَقَ أَخٞ لَّهُۥ مِن قَبۡلُۚ فَأَسَرَّهَا يُوسُفُ فِي نَفۡسِهِۦ وَلَمۡ يُبۡدِهَا لَهُمۡۚ قَالَ أَنتُمۡ شَرّٞ مَّكَانٗاۖ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا تَصِفُونَ ۝ 76
(77) उन भाइयों ने कहा, “यह चोरी करे तो कुछ हैरत की बात भी नहीं, इससे पहले इसका भाई (यूसुफ़) भी चोरी कर चुका है।”61 यूसुफ़ उनकी यह बात सुनकर पी गया, हक़ीक़त उनपर न खोली, बस (मन ही में) इतना कहकर रह गया कि “बड़े ही बुरे हो तुम लोग, (मेरे सामने ही मुझपर) जो इलज़ाम तुम लगा रहे हो उसकी हक़ीक़त ख़ुदा ख़ूब जानता है।"
61. यह उन्होंने अपनी शर्मिन्दगी मिटाने के लिए कहा। पहले कह चुके थे कि हम लोग चोर नहीं हैं। अब जो देखा कि माल हमारे भाई की ख़ुर्जी (थैले) से बरामद हो गया है, तो फ़ौरन एक झूठी बात बनाकर अपने आपको उस भाई से अलग कर लिया और उसके साथ उसके पहले भाई (यूसुफ़) को भी लपेट लिया। इससे अन्दाज़ा होता है कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के पीछे बिनयामीन के साथ उन भाइयों का क्या सुलूक रहा होगा और किस वजह से उसकी और हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की यह ख़ाहिश होगी कि वह उनके साथ न जाए।
قَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡعَزِيزُ إِنَّ لَهُۥٓ أَبٗا شَيۡخٗا كَبِيرٗا فَخُذۡ أَحَدَنَا مَكَانَهُۥٓۖ إِنَّا نَرَىٰكَ مِنَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 77
(78) उन्होंने कहा, 'ऐ इक़तिदारवाले सरदार (अज़ीज़!)62 इसका बाप बहुत बूढ़ा आदमी है, इसकी जगह आप हममें से किसी को रख लीजिए। हम आपको बड़ा ही नेकदिल इनसान पाते हैं।”
62. यहाँ लफ़्ज़ 'अज़ीज़' हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के लिए जो इस्तेमाल हुआ है सिर्फ़ इसकी वजह से क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने यह समझ लिया कि हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) उसी मनसब पर मुक़र्रर हुए थे, जिसपर इससे पहले ज़ुलैख़ा का शौहर मुक़र्रर था। फिर इसपर और ज़्यादा गुमानों की इमारत खड़ी कर ली गई कि पहलेवाला अज़ीज़ मर गया था, हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) उसकी जगह मुक़र्रर किए गए, ज़ुलैख़ा फिर से मोजिज़े (चमत्कार) के ज़रिए से जवान की गई, और मिस्र के बादशाह ने उससे हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का निकाह कर दिया। हद यह है कि शादी की पहली रात में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) और ज़ुलैख़ा के बीच में जो बातें हुईं वे तक किसी ज़रिए से हमारे मुफ़स्सिरों को पहुँच गईं। हालाँकि ये सब बातें सरासर वहम हैं। लफ़्ज 'अज़ीज़' के बारे में हम पहले कह चुके हैं कि यह मिस्र में किसी ख़ास मनसब (पद) का नाम न था, बल्कि सिर्फ़ 'हाकिम' के मानी में इस्तेमाल किया गया है। शायद मिस्र में बड़े लोगों के लिए उस तरह का कोई लफ़्ज़ इस्तिलाही (पारिभाषिक) तौर पर चलन में था, जैसे हमारे देश में लफ़्ज़ ‘सरकार' बोला जाता है। इसी का तर्जमा क़ुरआन में 'अज़ीज़' किया गया है। रहा ज़ुलैख़ा से हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) का निकाह तो इस अफ़साने की बुनियाद सिर्फ़ यह है कि बाइबल और तलमूद में फ़ौतीफ़रा की बेटी आसनाथ से उनके निकाह की रिवायत बयान की गई है और ज़ुलैख़ा के शौहर का नाम फ़ौतीफ़ार था। ये चीज़ें इसराइली रिवायतों से बयान होती हुई मुफ़स्सिरों तक पहुँचीं और जैसा कि ज़बानी अफ़वाहों का क़ायदा है, फ़ौतीफ़रा आसानी से फ़ौतीफ़ार बन गया, बेटी की जगह बीवी को मिल गई और बीवी तो हर हाल में ज़ुलैख़ा ही थी, लिहाज़ा उससे हज़रत यूसुफ़ का निकाह करने के लिए फ़ौतीफ़ार को मार दिया गया, और इस तरह 'यूसुफ़-ज़ुलैख़ा' की कहानी पूरी हो गई।
قَالَ بَلۡ سَوَّلَتۡ لَكُمۡ أَنفُسُكُمۡ أَمۡرٗاۖ فَصَبۡرٞ جَمِيلٌۖ عَسَى ٱللَّهُ أَن يَأۡتِيَنِي بِهِمۡ جَمِيعًاۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 78
(83) बाप ने यह दास्तान सुनकर कहा, “हक़ीक़त में तुम्हारे नफ़्स (मन) ने तुम्हारे लिए एक और बड़ी बात को आसान बना दिया।64 अच्छा, इसपर भी सब्र करूँगा और बड़ी अच्छी तरह करूँगा। ना-मुमकिन नहीं है कि अल्लाह उन सबको मुझसे ला मिलाए। वह सब कुछ जानता है और उसके सब काम हिकमत से भरे हैं।”
64. यानी तुम्हारे नज़दीक यह मान लेना बहुत आसान है कि मेरा बेटा, जिसके अच्छे किरदार से मैं अच्छी तरह वाक़िफ़ हूँ, एक प्याले की चोरी का जुर्म कर सकता है। पहले तुम्हारे लिए अपने एक भाई को जान-बूझकर गुम कर देना और उसकी क़मीज़ पर झूठा ख़ून लगाकर ले आना बहुत आसान काम हो गया था। अब एक-दूसरे भाई को सचमुच चोर मान लेना और मुझे आकर उसकी ख़बर देना भी वैसा ही आसान हो गया।
وَتَوَلَّىٰ عَنۡهُمۡ وَقَالَ يَٰٓأَسَفَىٰ عَلَىٰ يُوسُفَ وَٱبۡيَضَّتۡ عَيۡنَاهُ مِنَ ٱلۡحُزۡنِ فَهُوَ كَظِيمٞ ۝ 79
(84) फिर वह उनकी तरफ़ से मुँह फेरकर बैठ गया और कहने लगा कि “हाय यूसुफ़!” वह दिल-ही-दिल में ग़म से घुटा जा रहा था और उसकी आँखें सफ़ेद पड़ गई थीं
قَالُواْ تَٱللَّهِ تَفۡتَؤُاْ تَذۡكُرُ يُوسُفَ حَتَّىٰ تَكُونَ حَرَضًا أَوۡ تَكُونَ مِنَ ٱلۡهَٰلِكِينَ ۝ 80
(85) बेटों ने कहा, “अल्लाह की क़सम! आप तो बस यूसुफ़ ही को याद किए जाते हैं। नौबत यह आ गई है कि उसके ग़म में अपने आपको घुला देंगे या अपनी जान हलाक कर डालेंगे।”
قَالَ إِنَّمَآ أَشۡكُواْ بَثِّي وَحُزۡنِيٓ إِلَى ٱللَّهِ وَأَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 81
(86) उसने कहा, “मैं अपनी परेशानी और अपने ग़म की फ़रियाद अल्लाह के सिवा किसी से नहीं करता, और अल्लाह को जैसा मैं जानता हूँ, तुम नहीं जानते।
يَٰبَنِيَّ ٱذۡهَبُواْ فَتَحَسَّسُواْ مِن يُوسُفَ وَأَخِيهِ وَلَا تَاْيۡـَٔسُواْ مِن رَّوۡحِ ٱللَّهِۖ إِنَّهُۥ لَا يَاْيۡـَٔسُ مِن رَّوۡحِ ٱللَّهِ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 82
(87) मेरे बच्चो! जाकर यूसुफ़ और उसके भाई की कुछ टोह लगाओ, अल्लाह की रहमत से मायूस न हो। उसकी रहमत से तो बस काफ़िर ही मायूस हुआ करते हैं।"
فَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَيۡهِ قَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡعَزِيزُ مَسَّنَا وَأَهۡلَنَا ٱلضُّرُّ وَجِئۡنَا بِبِضَٰعَةٖ مُّزۡجَىٰةٖ فَأَوۡفِ لَنَا ٱلۡكَيۡلَ وَتَصَدَّقۡ عَلَيۡنَآۖ إِنَّ ٱللَّهَ يَجۡزِي ٱلۡمُتَصَدِّقِينَ ۝ 83
(88) जब ये लोग मिस्र जाकर यूसुफ़ के सामने हाज़िर हुए तो उन्होंने अर्ज़ किया कि “ऐ इक़तिदारवाले सरदार! हम और हमारे घरवाले बड़ी मुसीबत में मुब्तला हैं और हम कुछ मामूली-सी पूँजी लेकर आए हैं। आप हमें भरपूर अनाज दें और हमें ख़ैरात (दान) दें।65 अल्लाह ख़ैरात देनेवालों को बदला देता है।”
65. यानी हमारी इस गुज़ारिश पर जो कुछ आप देंगे वह मानो आपका सदक़ा होगा। इस अनाज की क़ीमत में जो पूँजी हम दे रहे हैं वह तो बेशक इस क़ाबिल नहीं है कि हमको उतना अनाज दिया जाए, जो हमारी ज़रूरत को काफ़ी हो।
قَالَ هَلۡ عَلِمۡتُم مَّا فَعَلۡتُم بِيُوسُفَ وَأَخِيهِ إِذۡ أَنتُمۡ جَٰهِلُونَ ۝ 84
(89) (यह सुनकर यूसुफ़ से न रहा गया) उसने कहा, “तुम्हें कुछ यह भी मालूम है कि तुमने यूसुफ़ और उसके भाई के साथ क्या किया था, जबकि तुम नादान थे?”
قَالُوٓاْ أَءِنَّكَ لَأَنتَ يُوسُفُۖ قَالَ أَنَا۠ يُوسُفُ وَهَٰذَآ أَخِيۖ قَدۡ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَآۖ إِنَّهُۥ مَن يَتَّقِ وَيَصۡبِرۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 85
(90) वे चौंककर बोले, “अरे! क्या तुम यूसुफ़ हो?” उसने कहा, “हाँ, मैं यूसुफ़ हूँ और यह मेरा भाई है। अल्लाह ने हमपर एहसान किया। हक़ीक़त यह है कि अगर कोई परहेज़गारी और सब्र से काम ले तो अल्लाह के यहाँ ऐसे नेक लोगों का बदला मारा नहीं जाता।”
قَالُواْ تَٱللَّهِ لَقَدۡ ءَاثَرَكَ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا وَإِن كُنَّا لَخَٰطِـِٔينَ ۝ 86
(91) उन्होंने कहा, “अल्लाह की कसम! तुमको अल्लाह ने हमपर बड़ाई दी और हक़ीक़त में हम ख़ाताकर थे।”
قَالَ لَا تَثۡرِيبَ عَلَيۡكُمُ ٱلۡيَوۡمَۖ يَغۡفِرُ ٱللَّهُ لَكُمۡۖ وَهُوَ أَرۡحَمُ ٱلرَّٰحِمِينَ ۝ 87
(92) उसने जवाब दिया, “आज तुमपर कोई पकड़ नहीं। अल्लाह तुम्हें माफ़ करे, वह सबसे बढ़कर रहम करनेवाला है।
ٱذۡهَبُواْ بِقَمِيصِي هَٰذَا فَأَلۡقُوهُ عَلَىٰ وَجۡهِ أَبِي يَأۡتِ بَصِيرٗا وَأۡتُونِي بِأَهۡلِكُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 88
(93) जाओ, मेरी यह क़मीज़ ले जाओ। और मेरे बाप के मुँह पर डाल दो। उनकी (आँखों की) रौशनी पलट आएगी और अपने सब घरवालों को मेरे पास ले आओ।"
وَلَمَّا فَصَلَتِ ٱلۡعِيرُ قَالَ أَبُوهُمۡ إِنِّي لَأَجِدُ رِيحَ يُوسُفَۖ لَوۡلَآ أَن تُفَنِّدُونِ ۝ 89
(94) जब यह क़ाफ़िला (मिस्र से) रवाना हुआ तो उनके बाप ने (कनआन में) कहा, “मैं यूसुफ़ की ख़ुशबू महसूस कर रहा हूँ।66 तुम लोग कहीं यह न कहने लगो कि बुढ़ापे मैं सठिया गया हूँ।
66. इससे नबियों (अलैहि०) की ग़ैर-मामूली क़ुव्वतों का अन्दाज़ा होता है कि अभी क़ाफ़िला हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की क़मीज़ लेकर मिस्र से चला है और उधर सैकड़ों मील की दूरी पर हज़रत याक़ूब (अलैहि०) उसकी महक पा लेते हैं। मगर इसी से यह भी मालूम होता है कि नबियों (अलैहि०) की ये क़ुव्वतें कुछ उनकी ख़ुद की न थीं, बल्कि अल्लाह की मेहरबानी से उनको मिली थीं और अल्लाह जब और जितना चाहता था उन्हें काम करने का मौक़ा देता था। हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) सालों मिस्र में मौजूद रहे और कभी हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को उनकी ख़ुशबू न आई, मगर अब अचानक महसूस करने की ताक़त की तेज़ी का यह हाल हो गया कि अभी उनकी क़मीज़ मिस्र से चली है और वहाँ उनकी महक आनी शुरू हो गई। यहाँ यह ज़िक्र भी दिलचस्पी से ख़ाली न होगा कि एक तरफ़ क़ुरआन हज़रत याक़ूब (अलैहि०) को इस पैग़म्बरी की शान के साथ पेश कर रहा है और दूसरी तरफ़ बनी-इसराईल उनको ऐसे रंग में दिखाते हैं जैसा अरब का हर मामूली बद्दू (देहाती) हो सकता है। बाइबल का बयान है। कि जब बेटों ने आकर ख़बर दी कि “यूसुफ़ अब तक ज़िन्दा है और वही सारे मिस्र देश का हाकिम है तो याक़ूब का दिल धक से रह गया; क्योंकि उसने उनका यक़ीन न किया..... और जब उनके बाप याक़ूब ने वे गाड़ियाँ देख लीं जो यूसुफ़ ने उनको लाने के लिए भेजी थीं तब उसकी जान में जान आई।” (उत्पत्ति, 45:26, 27)
قَالُواْ تَٱللَّهِ إِنَّكَ لَفِي ضَلَٰلِكَ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 90
(95) घर के लोग बोले, “ख़ुदा की कसम! आप अभी तक अपने उसी पुराने 'ख़ब्त' में पड़े हुए हैं।67
67. इससे मालूम होता है कि पूरे ख़ानदान में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) के सिवा कोई अपने बाप की अहमियत व क़द्र न जानता था और हज़रत याक़ूब ख़ुद भी उन लोगों की ज़ेहनी और अख़लाक़ी गिरावट से मायूस थे। घर के चिराग़ की रौशनी बाहर फैल रही थी, मगर ख़ुद घरवाले अंधेरे में थे और उनकी निगाह में वह एक ठीकरे से ज़्यादा कुछ न था। फ़ितरत की इस नाइनसाफ़ी का सामना इतिहास की बहुत-सी शख़्सियतों को करना पड़ा है।
فَلَمَّآ أَن جَآءَ ٱلۡبَشِيرُ أَلۡقَىٰهُ عَلَىٰ وَجۡهِهِۦ فَٱرۡتَدَّ بَصِيرٗاۖ قَالَ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ إِنِّيٓ أَعۡلَمُ مِنَ ٱللَّهِ مَا لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 91
(96) फिर जब ख़ुशख़बरी लानेवाला आया तो उसने यूसुफ़ की क़मीज़ याक़ूब के मुँह डाल दी और यकायक उसकी आँखों की रौशनी लौट आई। तब उसने कहा, “मैं तुमसे कहता न था? मैं अल्लाह की तरफ़ से वह कुछ जानता हूँ जो तुम नहीं जानते।”
قَالُواْ يَٰٓأَبَانَا ٱسۡتَغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَآ إِنَّا كُنَّا خَٰطِـِٔينَ ۝ 92
(97) सब बोल उठे, “अब्बाजान! आप हमारे गुनाहों की बख़्शिश के लिए दुआ करें, सच में हम ख़ताकार थे।”
قَالَ سَوۡفَ أَسۡتَغۡفِرُ لَكُمۡ رَبِّيٓۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 93
(98) उसने कहा, “मैं अपने रब से तुम्हारे लिए माफ़ी की दरख़ास्त करूँगा। वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।"
فَلَمَّا دَخَلُواْ عَلَىٰ يُوسُفَ ءَاوَىٰٓ إِلَيۡهِ أَبَوَيۡهِ وَقَالَ ٱدۡخُلُواْ مِصۡرَ إِن شَآءَ ٱللَّهُ ءَامِنِينَ ۝ 94
(99) फिर जब ये लोग यूसुफ़ के पास पहुँचे68 तो उसने अपने माँ-बाप को अपने साथ बिठा लिया69 और (अपने सब कुंबेवालों से) कहा, “चलो, अब शहर में चलो, अल्लाह ने चाहा तो अम्न-चैन से रहोगे।"
68. बाइबल का बयान है कि ख़ानदान के सारे लोग जो इस मौक़े पर मिस्र गए, 67 थे। इस तादाद में दूसरे घरानों की उन लड़कियों को नहीं गिना गया है जो हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के यहाँ ब्याह कर आई थीं। उस वक़्त हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की उम्र 130 साल थी और इसके बाद वे मिस्र में 17 साल ज़िन्दा रहे। इस मौक़े पर एक जाननेवाले के ज़ेहन में यह सवाल पैदा होता है कि बनी-इसराईल जब मिस्र में दाख़िल हुए तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) समेत उनकी तादाद 68 थी, और जब लगभग 500 साल बाद वे मिस्र से निकले तो वे लाखों की तादाद में थे। बाइबल की रिवायत है कि मिस्र से निकलने के बाद दूसरे साल सीना के रेगिस्तान में हज़रत मूसा (अलैहि०) ने उनकी जो गिनती कराई थी उसमें सिर्फ़ जंग के क़ाबिल मर्दो की तादाद 6,03,550 थी। इसका मतलब यह है कि औरतें, मर्द, बच्चे सब मिलाकर वे कम-से-कम 20 लाख होंगे। क्या किसी हिसाब से 500 सालों में 68 आदमियों की इतनी औलाद हो सकती है? मिस्र की कुल आबादी अगर उस ज़माने में 2 करोड़ मान ली जाए (जो यक़ीनन बहुत बढ़ा-चढ़ाकर लगाया गया अन्दाज़ होगा) तो इसके मानी ये हैं कि सिर्फ़ बनी-इसराईल वहाँ 10 फ़ीसद थे। क्या एक ख़ानदान सिर्फ़ नस्ल के ज़रिए से इतना बढ़ सकता है? इस सवाल पर ग़ौर करने से एक अहम हक़ीक़त सामने आती है। ज़ाहिर बात है कि 500 साल में एक ख़ानदान तो इतना नहीं बढ़ सकता। लेकिन बनी-इसराईल पैग़म्बरों की औलाद थे, उनके लीडर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०), जिनकी बदौलत मिस्र में उनके क़दम जमे, ख़ुद पैग़म्बर थे। उनके बाद 4-5 सदी तक की हुकूमत उन्हीं लोगों के हाथ में रही। इस दौरान में यक़ीनन उन्होंने मिस्र में इस्लाम की ख़ूब तबलीग़ की होगी। मिस्रवालों में से जो-जो लोग इस्लाम लाए होंगे उनका मज़हब ही नहीं, बल्कि उनका रहन-सहन और ज़िन्दगी का पूरा ढंग ग़ैर-मुस्लिम मिस्रवालों से अलग और बनी-इसराईल के जैसा हो गया होगा। मिस्रवालों ने इन सबको उसी तरह अजनबी ठहराया होगा जिस तरह भारत में हिन्दुओं ने भारतीय मुसलमानों को ठहराया, उनके ऊपर इसराईली का लफ़्ज़ उसी तरह चस्पाँ कर दिया गया होगा जिस तरह ग़ैर-अरब मुसलमानों पर ‘मुहम्मडन’ का लफ़्ज़ आज भी चस्पाँ किया जाता है और वे ख़ुद भी दीनी व तहज़ीबी राब्तों और शादी-ब्याह के ताल्लुक़ात की वजह से ग़ैर-मुस्लिम मिस्रियों से अलग और बनी-इसराईल से जुड़कर रह गए होंगे। यही वजह है कि जब मिस्र में क़ौमपरस्ती का तूफ़ान उठा तो ज़ुल्म सिर्फ़ बनी-इसराईल ही पर नहीं हुए, बल्कि मिस्री मुसलमान भी उनके साथ समान रूप से लपेट लिए गए और जब बनी-इसराईल ने देश छोड़ा तो मिस्री मुसलमान भी उनके साथ ही निकले और उन सबकी गिनती इसराईलियों ही में होने लगी। हमारे इस अन्दाज़े की ताईद बाइबल के बहुत-से इशारों से होती है। मिसाल के तौर पर 'निर्गमन' में जहाँ बनी-इसराईल के मिस्र से निकलने का हाल बयान हुआ है, बाइबल का लेखक कहता है कि “उनके साथ एक मिला-जुला समूह भी गया।”(12:38) इसी तरह ‘गिनती' में वह फिर कहता है कि “जो मिली-जुली भीड़ उन लोगों में थी वह तरह-तरह के लालच करने लगी।” (11:4) फिर धीरे-धीरे इन ग़ैर-इसराईली मुसलमानों के लिए 'अजनबी' और 'परदेसी' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल होने लगे। चुनाँचे तौरात में हज़रत मूसा (अलैहि०) को जो हुक्म दिए गए उनमें हमको यह बात साफ़ तौर से मिलती है— “तुम्हारे लिए और उस परदेसी के लिए जो तुममें रहता है नस्ल-दर-नस्ल सदा एक ही संविधान रहेगा। ख़ुदावन्द के आगे परदेसी भी वैसे ही हों जैसे तुम हो। तुम्हारे लिए और परदेसियों के लिए जो तुम्हारे साथ रहते हैं एक ही मज़हब और एक ही क़ानून हो।” (गिनती 15:15, 16) “जो शख़्स बेख़ौफ़ होकर गुनाह करे चाहे वह देसी हो या परदेसी वह ख़ुदावन्द की बेइज़्ज़ती करता है वह शख़्स अपने लोगों में से काट डाला जाएगा।” (गिनती 15:30) "चाहे भाई-भाई का मामला हो या परदेसी का, तुम उनका फ़ैसला इनसाफ़ के साथ करना। (इस्तिस्ना 1:16) अब यह तहक़ीक़ करना मुश्किल है कि अल्लाह की किताब में ग़ैर-इसराईलियों के लिए वह अस्ल लफ़्ज़ क्या इस्तेमाल किया गया था जिसे तर्जमा करनेवालों ने 'परदेसी' बनाकर रख दिया।
69. तलमूद में लिखा है कि जब हज़रत याक़ूब (अलैहि०) के आने की ख़बर राजधानी में पहुँची तो हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) हुकूमत के बड़े-बड़े हैसियत और मनसबवाले लोगों और फ़ौज को लेकर उनके इस्तिक़बाल के लिए निकले और पूरी इज़्ज़त और शान-शौकत के साथ उनको शहर में लाए। वह दिन वहाँ जश्न का दिन था। औरत, मर्द, बच्चे सब इस जुलूस को देखने के लिए इकट्ठे हो गए थे और सारे देश में ख़ुशी की लहर दौड़ गई थी।
وَرَفَعَ أَبَوَيۡهِ عَلَى ٱلۡعَرۡشِ وَخَرُّواْ لَهُۥ سُجَّدٗاۖ وَقَالَ يَٰٓأَبَتِ هَٰذَا تَأۡوِيلُ رُءۡيَٰيَ مِن قَبۡلُ قَدۡ جَعَلَهَا رَبِّي حَقّٗاۖ وَقَدۡ أَحۡسَنَ بِيٓ إِذۡ أَخۡرَجَنِي مِنَ ٱلسِّجۡنِ وَجَآءَ بِكُم مِّنَ ٱلۡبَدۡوِ مِنۢ بَعۡدِ أَن نَّزَغَ ٱلشَّيۡطَٰنُ بَيۡنِي وَبَيۡنَ إِخۡوَتِيٓۚ إِنَّ رَبِّي لَطِيفٞ لِّمَا يَشَآءُۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 95
(100) (शहर में दाख़िल होने के बाद) उसने अपने माँ-बाप को उठाकर अपने पास तख़्त पर बिठाया और सब उसके आगे बेइख़्तियार सजदे में झुक गए।”70 यूसुफ़ ने कहा, “अब्बाजान! यह ताबीर (मतलब) है मेरे उस ख़ाब की जो मैंने पहले देखा था। मेरे रब ने उसे हक़ीक़त बना दिया। उसका एहसान है कि उसने मुझे जेल से निकाला और आप लोगों को सहरा (रेगिस्तान) से लाकर मुझसे मिलाया, हालाँकि शैतान मेरे और मेरे भाइयों के बीच बिगाड़ पैदा कर चुका था। सच तो यह है कि मेरा रब ग़ैर-महसूस तदबीरों से अपनी मरज़ी पूरी करता है। बेशक वह जाननेवाला और हिकमतवाला है।
70. इस लफ़्ज़ 'सजदा' से बहुत-से लोगों को ग़लतफ़हमी हुई है। यहाँ तक कि एक गरोह ने तो इसको दलील बनाकर बादशाहों और पीरों के लिए एहतिराम और इस्तिक़बाल वाले सजदे को जाइज़ कहा है। दूसरे लोगों को इसकी बुराई से बचने के लिए इसकी यह वजह बयान करनी पड़ी कि पहले की शरीअतों में सिर्फ़ इबादत का सजदा अल्लाह के सिवा दूसरों के लिए हराम था, बाक़ी रहा वह सजदा जो इबादत के जज़्बे से ख़ाली हो तो वह ख़ुदा के अलावा दूसरों को भी किया जा सकता था, अलबत्ता मुहम्मदी शरीअत में हर तरह का सजदा अल्लाह के सिवा दूसरों के लिए हराम कर दिया गया। लेकिन सारी ग़लतफ़हमियाँ अस्ल में इस वजह से पैदा हुई हैं कि लफ़्ज़ 'सजदा' को मौजूदा इस्लामी ज़बान का हममानी समझ लिया गया, यानी हाथ, घुटने और माथा ज़मीन पर टिकाना। हालाँकि 'सजदा' के अस्ल मानी सिर्फ़ झुकने के हैं और यहाँ यह लफ़्ज़ इसी मानी में इस्तेमाल हुआ है। पुरानी तहज़ीब में यह आम तरीक़ा था (और आज भी कुछ देशों में इसका रिवाज है) कि किसी का शुक्रिया अदा करने के लिए, या किसी का इस्तिक़बाल करने के लिए, या सिर्फ़ सलाम करने के लिए सीने पर हाथ रखकर किसी हद तक आगे की तरफ़ झुकते थे। इसी झुकाव के लिए अरबी में 'सुजूद' और अंग्रेज़ी में Bow के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए जाते हैं। बाइबल में इसकी बहुत-सी मिसालें हमको मिलती हैं कि पुराने ज़माने में यह तरीक़ा आदाब में शामिल था। चुनाँचे हज़रत इबराहीम के बारे में एक जगह लिखा है कि उन्होंने अपने ख़ेमे (तंबू) की तरफ़ तीन आदमियों को आते देखा तो वे उनके इस्तिक़बाल के लिए दौड़े और ज़मीन तक झुके। अरबी बाइबल में इस मौक़े पर जो अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं वे ये हैं, “फ़लम्मा नज़-र क-ज़ लि-इस्तिक़बालिहिम मिंबाबिल ख़ैमति व स-ज-द इलल-अरज़ि” (तकवीन, 18:23) फिर जिस मौक़े पर यह ज़िक्र आता है कि बनी-हित्त ने हज़रत सारा के दफ़न के लिए क़ब्र की ज़मीन मुफ़्त दी वहाँ उर्दू बाइबल के अलफ़ाज़ ये हैं- “अब्रहाम ने उठकर और बनी-हित्त के आगे, जो उस देश के लोग हैं, आदाब बजा लाकर उनसे यूँ गुफ़्तगू की।” और जब उन लोगों ने क़ब्र की ज़मीन ही नहीं, बल्कि एक पूरा खेत और एक गुफा भेंट में दे दी तब “अब्रहाम उस देश के लोगों के सामने झुका।” मगर अरबी तर्जमे में दोनों मौक़ों पर आदाब बजा लाने और झुकने के लिए “सजदा करने” ही के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए है : “फ़क़ा-म इबराही-मु ब स-ज-द लिशिअबिल-अर्ज़ि लि-बनी-हित्त।” (तकवीन, 33:7) “फ़ स ज-द इबराही-मु इमाम शिअबल-अर्ज़” (23:12) अंग्रेज़ी बाइबल में इन मौक़ों पर जो अलफ़ाज़ आए है। वे ये हैं : Bowed himself toward the ground. Bowed himself to the people of the land and Abraham bowed. इस मज़मून (विषय) की मिसालें बाइबल में बहुत ज़्यादा मिलती हैं और उनसे साफ़ मालूम हो जाता है कि इस सजदे का मतलब वह है ही नहीं जो अब इस्लामी ज़बान के लफ़्ज़ 'सजदा' से समझा जाता है। जिन लोगों ने मामले की इस हक़ीक़त को जाने बिना इसका मतलब बयान करते हुए सरसरी तौर पर यह लिख दिया है कि अगली शरीअतों में अल्लाह के सिवा दूसरों को ताज़ीमी सजदा करना या इस्तिक़बाल और सलाम करने के लिए सजदा करना जाइज़ था, उन्होंने सिर्फ़ एक बेबुनियाद बात कही है। अगर सजदे से मुराद वह चीज़ हो जिसे इस्लामी ज़बान में सजदा कहा जाता है, तो वह ख़ुदा की भेजी हुई किसी शरीअत में कभी अल्लाह के सिवा किसी और के लिए जाइज़ नहीं रहा है। बाइबल में ज़िक्र आता है कि बाबिल की क़ैद के ज़माने में जब अख़्सवीरस बादशाह ने हामान को अपना सबसे बड़ा सरदार बनाया और हुक्म दिया कि सब लोग उसको ताज़ीमी सजदा किया करें तो 'मर्दकी' ने, जो बनी-इसराईल के बुज़ुर्गों में से थे, यह हुक्म मानने से इनकार कर दिया (आस्त्र, 3:1-2) तलमूद में इस वाक़िए का मतलब बयान करते हुए इसकी जो तफ़सील दी है वह पढ़ने के लायक है— "बादशाह के नौकरों ने कहा आख़िर तू क्यों हामान को सजदा करने से इनकार करता है? हम भी आदमी हैं मगर शाही हुक्म का पालन करते हैं। उसने जवाब दिया, तुम लोग नादान हो। क्या एक मिट जानेवाला इनसान, जो कल मिट्टी में मिल जानेवाला है, इस क़ाबिल हो सकता है कि उसकी बड़ाई मानी जाए? क्या मैं उसको सजदा करूँ जो एक औरत के पेट से पैदा हुआ, कल बच्चा था, आज जवान है, कल बूढ़ा होगा और परसों मर जाएगा? नहीं, मैं तो उस हमेशा रहनेवाले ख़ुदा ही के आगे झुकूँगा जो ज़िन्दा और क़ायम रहनेवाला है, वह जो कायनात का पैदा करनेवाला और हाकिम है, मैं तो बस उसी को बड़ा समझूगा और किसी को सजदा नहीं करूँगा।” यह तक़रीर क़ुरआन उतरने से लगभग एक हज़ार साल पहले एक इसराईली मोमिन की ज़बान से अदा हुई है और इसमें इस ख़याल का हल्का-सा निशान नहीं पाया जाता कि अल्लाह के सिवा किसी को किसी मानी में भी 'सजदा' करना जाइज़ है।
۞رَبِّ قَدۡ ءَاتَيۡتَنِي مِنَ ٱلۡمُلۡكِ وَعَلَّمۡتَنِي مِن تَأۡوِيلِ ٱلۡأَحَادِيثِۚ فَاطِرَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ أَنتَ وَلِيِّۦ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِۖ تَوَفَّنِي مُسۡلِمٗا وَأَلۡحِقۡنِي بِٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 96
(101) ऐ मेरे रब! तूने मुझे हुकूमत दी और मुझको बातों की तह तक पहुँचना सिखाया। ज़मीन और आसमान के बनानेवाले, तू ही दुनिया और आख़िरत में मेरा सरपरस्त है। मेरा ख़ातिमा इस्लाम पर कर और आख़िरी अंजाम के तौर पर मुझे नेक लोगों के साथ मिला।71
71. ये कुछ जुमले जो इस मौक़े पर हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की ज़बान से निकले हैं, हमारे सामने एक सच्चे ईमानवाले की सीरत और किरदार का अजीब दिलकश नक़्शा पेश करते हैं। रेगिस्तानी चरवाहों के ख़ानदान का एक आदमी, जिसको ख़ुद उसके भाइयों ने हसद और जलन के मारे मार डालना चाहा था, ज़िन्दगी के उतार-चढ़ाव देखता हुआ आख़िरकार दुनियावी तरक़्क़ी के सबसे बुलंद मक़ाम पर पहुँच गया है। क़हत और सूखे के शिकार उसके ख़ानदानवाले अब उसके मुहताज होकर उसके सामने आए हैं और हसद रखनेवाले उसके भाई भी, जो उसको मार डालना चाहते थे, उसके शाही तख़्त के सामने सर झुकाए खड़े हैं। यह मौक़ा दुनिया के आम दस्तूर के मुताबिक़ अपनी बड़ाई जताने, डींगे मारने, गिले और शिकवे करने, और बुरा-भला कहने और तानों के तीर बरसाने का था। मगर एक सच्चा ख़ुदा-परस्त इनसान इस मौक़े पर कुछ दूसरे ही अख़लाक़ को ज़ाहिर करता है। वह अपनी इस तरक़्क़ी पर घमंड करने के बजाय उस ख़ुदा के एहसान को तस्लीम करता है जिसने उसे यह रुतबा दिया। वह ख़ानदानवालों को उस ज़ुल्म-सितम पर कुछ भी बुरा-भला नहीं कहता जो शुरू की उम्र में उन्होंने उसपर किए थे। इसके बरख़िलाफ़ वह इस बात पर शुक्र अदा करता है कि ख़ुदा ने इतने दिनों की जुदाई के बाद उन लोगों को मुझसे मिलाया। वह हसद रखनेवाले भाइयों के ख़िलाफ़ शिकायत का एक लफ़्ज़ ज़बान से नहीं निकालता। यहाँ तक कि यह भी नहीं कहता कि उन्होंने मेरे साथ बुराई की थी, बल्कि उनकी सफ़ाई ख़ुद ही इस तरह पेश करता है कि शैतान ने मेरे और उनके दरमियान बुराई डाल दी थी। और फिर उस बुराई के भी बुरे पहलू को छोड़कर उसका यह अच्छा पहलू पेश करता है कि ख़ुदा जिस मक़ाम पर मुझे पहुँचाना चाहता था उसके लिए यह अच्छी और ख़ामोश तदबीर उसने की, यानी भाइयों से शैतान ने जो कुछ कराया उसी में अल्लाह की हिकमत के मुताबिक़ मेरे लिए भलाई थी। कुछ अलफ़ाज़ में यह सब कुछ कह जाने के बाद वह बेइख़्तियार अपने ख़ुदा के आगे झुक जाता है, उसका शुक्र अदा करता है कि तूने मुझे बादशाही दी और वे क़ाबिलियतें जिनकी बदौलत में जेल में सड़ने के बजाय आज दुनिया की सबसे बड़ी सल्तनत पर हुकूमत कर रहा हूँ। और आख़िर में ख़ुदा से कुछ माँगता है तो यह कि दुनिया में जब तक ज़िन्दा रहूँ तेरी बन्दगी और ग़ुलामी पर जमा रहूँ और जब इस दुनिया से जाऊँ तो मुझे नेक बन्दों के साथ मिला दिया जाए। कितना बुलन्द और कितना पाकीज़ा है यह सीरत और किरदार का नमूना! हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) की इस क़ीमती तक़रीर ने भी बाइबल और तलमूद में कोई जगह नहीं पाई है। हैरत है कि ये किताबें क़िस्सों की ग़ैर-ज़रूरी तफ़सीलों से तो भरी पड़ी हैं, मगर जो चीज़ें कोई अख़लाक़ी क़द्र-कीमत रखती हैं और जिनसे नबियों की अस्ली तालीम और उनके हक़ीक़ी मिशन और उनकी सीरत और जिन्दगियों के सबक़ आमोज़ पहलुओं पर रौशनी पड़ती है, उनसे इन किताबों का दामन ख़ाली है। यहाँ यह क़िस्सा ख़त्म हो रहा है इसलिए पढ़नेवालों को फिर इस हक़ीक़त से ख़बरदार कर देना ज़रूरी है कि यूसुफ़ (अलैहि०) के क़िस्से के बारे में क़ुरआन की यह रिवायत अपनी जगह एक मुस्तक़िल रिवायत है, बाइबल या तलमूद की नक़्ल नहीं है। तीनों किताबों को सामने रखकर देखने से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि क़िस्से के कई अहम हिस्सों में क़ुरआन की रिवायत इन दोनों से अलग है। कुछ चीज़ें क़ुरआन उनसे ज़्यादा बयान करता है, कुछ उनसे कम, और कुछ में उनकी बातों को रद्द करता है। इसलिए किसी के लिए यह कहने की गुंजाइश नहीं है कि मुहम्मद (सल्ल०) ने जो क़िस्सा सुनाया वह बनी-इसराईल से सुन लिया होगा।
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهِ إِلَيۡكَۖ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ أَجۡمَعُوٓاْ أَمۡرَهُمۡ وَهُمۡ يَمۡكُرُونَ ۝ 97
(102) ऐ नबी! यह क़िस्सा ग़ैब (परोक्ष) की ख़बरों में से है जो हम तुमपर वह्य कर रहे हैं, वरना तुम उस वक़्त मौजूद न थे जब यूसुफ़ के भाइयों ने आपस में एक राय होकर साज़िश की थी।
وَمَآ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ وَلَوۡ حَرَصۡتَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 98
(103) मगर तुम चाहे कितना ही चाहो, इनमें से ज़्यादातर लोग मानकर देनेवाले नहीं हैं।72
72. यानी इन लोगों की हठधर्मी का अजीब हाल है। तुम्हारी नुबूवत और पैग़म्बरी की आज़माइश के लिए बहुत सोच-समझकर और मश्वरे करके जो माँग उन्होंने की थी उसे तुमने भरी महफ़िल में फ़ौरन पूरा कर दिया, अब शायद तुमको यह उम्मीद होगी कि इसके बाद तो उन्हें यह मान लेने में कोई झिझक न रहेगी कि तुम यह क़ुरआन ख़ुद नहीं गढ़ते हो, बल्कि सचमुच तुमपर वह्य आती है, मगर यक़ीन जानो कि यह अब भी न मानेंगे और अपने इनकार पर जमे रहने के लिए कोई दूसरा बहाना ढूँढ़ निकालेंगे, क्योंकि उनके मानने की अस्ल वजह यह नहीं है कि इस बात का इत्मीनान हासिल करने के लिए कि तुम अपनी बात में सच्चे हो ये खुले दिल से कोई मुनासिब दलील चाहते थे और वह अभी तक उन्हें नहीं मिली, बल्कि इसकी वजह सिर्फ़ यह है कि तुम्हारी बात ये मानना चाहते नहीं हैं, इसलिए उनको तलाश दरअस्ल मानने के लिए किसी दलील की नहीं, बल्कि न मानने के लिए किसी बहाने की है। इस बात को कहने का मक़सद नबी (सल्ल०) की किसी ग़लतफ़हमी को दूर करना नहीं है। हालाँकि यह बात बज़ाहिर आप (सल्ल०) ही से कही जा रही है, लेकिन इसका अस्ल मक़सद सामनेवाले गरोह को, जिसके सामने यह तक़रीर की जा रही थी, एक बहुत ही लतीफ़ (सूक्ष्म) और असरदार तरीक़े से उसकी हठधर्मी पर ख़बरदार करना है। उन्होंने अपनी महफ़िल में आप (सल्ल०) को इम्तिहान के लिए बुलाया था और अचानक यह माँग की थी कि अगर तुम नबी हो तो बताओ कि बनी-इसराईल के मिस्र जाने का क़िस्सा क्या है। इसके जवाब में उनको वहीं और उसी वक़्त पूरा क़िस्सा सुना दिया गया, और आख़िर में यह छोटा-सा जुमला कहकर आईना भी उनके सामने रख दिया गया कि हठधर्मो, इसमें अपनी सूरत देख लो, तुम किस मुँह से इम्तिहान लेने बैठे थे? समझदार इनसान अगर इम्तिहान लेते हैं तो इसलिए लेते हैं कि अगर हक़ (सत्य) साबित हो जाए तो उसे मान लें, मगर तुम वे लोग जो अपना मुँह माँगा सुबूत मिल जाने पर भी मानकर नहीं देते।
وَمَا تَسۡـَٔلُهُمۡ عَلَيۡهِ مِنۡ أَجۡرٍۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 99
(104) हालाँकि तुम इस ख़िदमत पर उनसे कोई बदला भी नहीं माँगते हो। यह तो एक नसीहत है, जो दुनियावालों के लिए आम है।73
73. ऊपर ख़बरदार किए जाने के बाद यह दूसरी बार पहले से ज़्यादा ग़ैर-महसूस तरीक़े पर ख़बरदार किया गया है जिसमें मलामत का पहलू कम और समझाने-बुझाने का पहलू ज़्यादा है। बात भी बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है, मगर अस्ल में बात इस्लाम का इनकार करनेवाले गरोह से की जा रही और इसका मक़सद उस गरोह को यह समझाना है कि अल्लाह के बन्दो! ग़ौर करो, तुम्हारी यह हठधर्मी कितनी ज़्यादा नामुनासिब है। अगर पैग़म्बर ने अपने किसी निजी फ़ायदे के लिए दावत व तबलीग़ का यह काम जारी किया होता या उसने अपनी ज़ात के लिए कुछ भी चाहा होता तो बेशक तुम्हारे लिए यह कहने का मौक़ा था कि हम इस मतलबी आदमी की बात क्यों माने। मगर तुम देख रहे हो कि यह शख़्स बग़ैर किसी लालच और बदले के काम कर रहा है, तुम्हारी और दुनिया भर की भलाई के लिए नसीहत कर रहा है। और इसमें उसका अपना कोई फ़ायदा छिपा नहीं है। फिर उसका मुक़ाबला इस हठधर्मी से करने में आख़िर क्या समझदारी है? जो इनसान सबके भले के लिए एक बात बेगरज़ी के साथ पेश करे उससे किसी को ख़ाह-मख़ाह ज़िद क्यों हो? खुले दिल से उसकी बात सुनो, दिल को लगती हो तो मानो, न लगती हो तो न मानो।
وَكَأَيِّن مِّنۡ ءَايَةٖ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ يَمُرُّونَ عَلَيۡهَا وَهُمۡ عَنۡهَا مُعۡرِضُونَ ۝ 100
(105) ज़मीन74 और आसमानों में कितनी ही निशानियाँ हैं जिनपर से ये लोग गुज़रते रहते हैं और ज़रा ध्यान नहीं देते।75
74. ऊपर के ग्यारह रुकूओं (104 आयतों) में हज़रत यूसूफ़ (अलैहि०) का क़िस्सा ख़त्म हो गया। अगर अल्लाह की तरफ़ से उतरनेवाली वह्य का मक़सद सिर्फ़ क़िस्सा सुनाना होता तो इसी जगह तक़रीर ख़त्म हो जानी चाहिए थी। मगर यहाँ तो क़िस्सा किसी मक़सद की ख़ातिर कहा जाता है और इस मक़सद की तबलीग़ के लिए जो मौक़ा भी मिल जाए उससे फ़ायदा उठाने में झिझक नहीं की जाती। अब चूँकि लोगों ने ख़ुद नबी को बुलाया था और क़िस्सा सुनने के लिए कान लगे हुए थे, इसलिए उनके मतलब की बात ख़त्म करते ही कुछ जुमले अपने मतलब के भी कह दिए गए और बहुत ही मुख़्तसर तौर पर इन कुछ जुमलों ही में नसीहत और दावत का सारा मज़मून समेट दिया गया।
75. इससे मक़सद लोगों को उनकी ग़फ़लत पर ख़बरदार करना है। ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ अपने आपमें सिर्फ़ एक चीज़ ही नहीं है, बल्कि एक निशानी भी है जो हक़ीक़त की तरफ़ इशारा कर रही है। जो लोग इन चीज़ों को सिर्फ़ चीज़ होने की हैसियत से देखते हैं वे इनसान का-सा देखना नहीं, बल्कि जानवरों का-सा देखना देखते हैं। पेड़ को पेड़ और पहाड़ को पहाड़ और पानी को पानी तो जानवर भी देखता है, और अपनी-अपनी ज़रूरत के लिहाज़ से हर जानवर इन चीज़ों का इस्तेमाल भी जानता है। मगर जिस मक़सद के लिए इनसान को समझ के साथ सोचनेवाला दिमाग़ भी दिया गया है वे सिर्फ़ इसी हद तक नहीं है कि आदमी इन चीज़ों को देखे और इनका इस्तेमाल मालूम करे, बल्कि अस्ल मक़सद यह है कि आदमी हक़ीक़त की खोज करे और इन निशानियों के ज़रिए से उसका सुराग़ लगाए। इसी मामले में ज़्यादा तर इनसान लापरवाही बरत रहे हैं और यही लापरवाही है जिसने उनको गुमराही में डाल रखा है। अगर दिलों पर ताला न लगा लिया गया होता तो नबियों की बात समझना और उनकी रहनुमाई से फ़ायदा उठाना लोगों के लिए इतना मुश्किल न हो जाता।
وَمَا يُؤۡمِنُ أَكۡثَرُهُم بِٱللَّهِ إِلَّا وَهُم مُّشۡرِكُونَ ۝ 101
(106) इनमें से ज़्यादातर अल्लाह को मानते हैं, मगर इस तरह कि उसके साथ दूसरों को साझीदार ठहराते हैं?76
76. यह फ़ितरी नतीजा है उस लापरवाही का जिसकी तरफ़ ऊपर के जुमले में इशारा किया गया है। जब लोगों ने रास्ते के निशान से आँखें बन्द कीं तो सीधे रास्ते से हट गए और आसपास की झाड़ियों में फँसकर रह गए। इसपर भी कम इनसान ऐसे हैं जो मंज़िल को बिलकुल ही गुम कर चुके हों और जिन्हें इस बात से बिलकुल इनकार हो कि ख़ुदा उनका पैदा करनेवाला और रोज़ी देनेवाला है। ज़्यादातर इनसान जिस गुमराही में पड़े हैं वह ख़ुदा के इनकार की गुमराही नहीं, बल्कि शिर्क की गुमराही है। यानी वे यह नहीं कहते कि ख़ुदा नहीं है, बल्कि इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला हैं कि ख़ुदा का वुजूद और उसकी सिफ़ात, इख़्तियारों और हक़ों में दूसरे भी किसी-न-किसी तरह शरीक हैं। यह ग़लतफ़हमी हरगिज़ न पैदा होती, अगर ज़मीन और आसमानों की उन निशानियों को सबक़ लेनेवाली नज़र से देखा जाता जो हर जगह और हर वक़्त ख़ुदा के एक होने का पता दे रही हैं।
أَفَأَمِنُوٓاْ أَن تَأۡتِيَهُمۡ غَٰشِيَةٞ مِّنۡ عَذَابِ ٱللَّهِ أَوۡ تَأۡتِيَهُمُ ٱلسَّاعَةُ بَغۡتَةٗ وَهُمۡ لَا يَشۡعُرُونَ ۝ 102
(107) “क्या ये मुत्मइन हैं कि अल्लाह के अज़ाब की कोई बला उन्हें दबोच न लेगी या बेख़बरी में क़ियामत की घड़ी अचानक उनपर न आ जाएगी?” 77
77. इसका मक़सद लोगों को चौंकाना है कि ज़िन्दगी की मुहलत को लम्बा समझकर और हाल के अम्न व सुकून को हमेशा रहनेवाला समझकर अंजाम की फ़िक्र को किसी आनेवाले वक़्त पर न टालो। किसी इनसान के पास भी इस बात के लिए कोई ज़मानत नहीं है कि उसकी ज़िन्दगी की मुहलत फ़ुलाँ वक़्त तक यक़ीनन बाक़ी रहेगी। कोई नहीं जानता कि कब अचानक उसकी गिरफ़्तारी हो जाती है और कहाँ से किस हाल में वह पकड़कर बुलाया जाता है। तुम्हारा रात-दिन का तजरिबा है कि मुस्तक़बिल का पर्दा एक लम्हा पहले भी ख़बर नहीं देता कि उसके अन्दर तुम्हारे लिए क्या छिपा हुआ है। इसलिए कुछ फ़िक्र करनी है तो अभी कर लो। ज़िन्दगी के जिस रास्ते पर चले जा रह हो उसमें आगे बढ़ने से पहले ज़रा ठहरकर सोच लो कि क्या यह रास्ता ठीक है? इसके दुरुस्त होने के लिए कोई हक़ीक़ी दलील मौजूद है? इसके सीधा रास्ता होने की कोई दलील कायनात की निशानियों से मिल रही है? इसपर चलने के जो नतीजे तुमसे पहले के लोग देख चुके हैं और जो नतीजे अब तुम्हारे समाज में ज़ाहिर हो रहे हैं वे इसी बात का पता देते हैं कि तुम ठीक जा रहे हो?
قُلۡ هَٰذِهِۦ سَبِيلِيٓ أَدۡعُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِۚ عَلَىٰ بَصِيرَةٍ أَنَا۠ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِيۖ وَسُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ وَمَآ أَنَا۠ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 103
(108) तुम इनसे साफ़ कह दो कि मेरा रास्ता तो यह है, मैं अल्लाह की तरफ़ बुलाता हूँ, मैं ख़ुद भी पूरी रौशनी में अपना रास्ता देख रहा हूँ और मेरे साथी भी, और अल्लाह पाक है78 और शिर्क करनेवालों से मेरा कोई वास्ता नहीं।"
78. यानी उन बातों से पाक जो उससे जोड़ी जा रही हैं। उन कमियों और कमज़ोरियों से पाक जो हर शिर्कवाले अक़ीदे की बिना पर लाज़िमी तौर पर उससे जुड़ जाती हैं। उन ऐबों, ख़ताओं और बुराइयों से पाक जिनका उससे जोड़े जाने का मतलब शिर्क का अक़्ली नतीजा है।
وَمَآ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ إِلَّا رِجَالٗا نُّوحِيٓ إِلَيۡهِم مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡقُرَىٰٓۗ أَفَلَمۡ يَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَيَنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۗ وَلَدَارُ ٱلۡأٓخِرَةِ خَيۡرٞ لِّلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 104
(109) ऐ नबी! तुमसे पहले हमने जो पैग़म्बर भेजे थे वे सब भी इनसान ही थे और उन्हीं बस्तियों के रहनेवालों में से थे, और उन्हीं की तरफ़ हम वह्य भेजते रहे हैं। फिर क्या ये लोग ज़मीन में चले-फिरे नहीं हैं कि उन क़ौमों का अंजाम इन्हें नज़र न आया जो इनसे पहले गुज़र चुकी हैं? यक़ीनन आख़िरत का घर उन लोगों के लिए और ज़्यादा बेहतर है जिन्होंने (पैग़म्बरों की बात मानकर) तक़वा (परहेज़गारी) का रास्ता अपनाया।। क्या अब भी तुम लोग न समझोगे?79 (पहले पैग़म्बरों के साथ भी यही होता रहा है कि वे मुद्दतों नसीहत करते रहे और लोगों ने सुनकर न दिया)
79. यहाँ एक बहुत बड़े मज़मून को दो तीन जुमलों में समेट दिया गया है। इसको अगर किसी तफ़सीली इबारत में बयान किया जाए तो यूँ कहा जा सकता है, “ये लोग तुम्हारी बात की तरफ़ इसलिए ध्यान नहीं देते कि जो शख़्स कल उनके शहर में पैदा हुआ और उन्हीं के दरमियान बच्चे से जवान और जवान से बूढ़ा हुआ उसके बारे में यह कैसे मान लें कि अचानक एक दिन ख़ुदा ने उसे अपना नुमाइन्दा मुक़र्रर कर दिया। लेकिन यह कोई अनोखी बात नहीं है, जिससे आज दुनिया में पहली बार उन्हीं को सामना करना पड़ा हो। इससे पहले भी ख़ुदा अपने नबी भेज चुका है और वे सब भी इनसान ही थे। फिर यह भी कभी नहीं हुआ कि अचानक एक अजनबी शख़्स किसी शहर में निकल आया हो और उसने कहा हो कि मैं पैग़म्बर बनाकर भेजा गया हूँ, बल्कि जो लोग भी इनसानों की इस्लाह के लिए उठाए गए वे सब उनकी अपनी ही बस्तियों के रहनेवाले थे। मसीह, मूसा, इबराहीम, नूह (अलैहिमुस्सलाम) आख़िर कौन थे? अब तुम ख़ुद ही देख लो कि जिन क़ौमों ने इन लोगों की इस्लाह और सुधार की दावत को क़ुबूल न किया और अपने बेबुनियाद ख़यालात और बेलगाम ख़ाहिशों के पीछ चलते रहे उनका अंजाम क्या हुआ। तुम ख़ुद अपने करोबारी सफ़र में आद, समूद, मदयन और क़ौमे-लूत वग़ैरा के तबाह हो चुके इलाक़ों से गुज़रते रहे हो। क्या वहाँ कोई सबक़ तुम्हें नहीं मिला? यह अंजाम जो उन्होंने दुनिया में देखा, यही तो ख़बर दे रहा है कि आख़िरत में वे इससे बुरा अंजाम देखेंगे और यह कि जिन लोगों ने दुनिया में अपना सुधार कर लिया वे सिर्फ़ दुनिया ही में अच्छे न रहे, आख़िरत में उनका अंजाम इससे भी ज़्यादा अच्छा होगा।"
حَتَّىٰٓ إِذَا ٱسۡتَيۡـَٔسَ ٱلرُّسُلُ وَظَنُّوٓاْ أَنَّهُمۡ قَدۡ كُذِبُواْ جَآءَهُمۡ نَصۡرُنَا فَنُجِّيَ مَن نَّشَآءُۖ وَلَا يُرَدُّ بَأۡسُنَا عَنِ ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 105
(110) यहाँ तक कि जब पैग़म्बर लोगों से मायूस हो गए और लोगों ने भी समझ लिया कि उनसे झूठ बोला गया था, तो यकायक हमारी मदद पैग़म्बरों को पहुँच गई। फिर जब ऐसा मौक़ा आ जाता है तो हमारा दस्तूर यह है कि जिसे हम चाहते हैं बचा लेते हैं, और मुजरिमों पर से तो हमारा अज़ाब टाला ही नहीं जा सकता।
لَقَدۡ كَانَ فِي قَصَصِهِمۡ عِبۡرَةٞ لِّأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِۗ مَا كَانَ حَدِيثٗا يُفۡتَرَىٰ وَلَٰكِن تَصۡدِيقَ ٱلَّذِي بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَتَفۡصِيلَ كُلِّ شَيۡءٖ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّقَوۡمٖ يُؤۡمِنُونَ ۝ 106
(111) अगले लोगों के इन किस्सों में अक़्ल और होश रखनेवालों के लिए इबरत है। यह जो कुछ क़ुरआन में बयान किया जा रहा है, ये बनावटी बातें नहीं हैं, बल्कि जो किताबें इससे पहले आई हुई हैं उन्हीं की तसदीक़ (पुष्टि) है और हर चीज़ की तफ़सील80 और ईमान लानेवालों के लिए हिदायत और रहमत।
80. यानी हर उस चीज़ की तफ़सील जो इनसान की हिदायत और रहनुमाई के लिए ज़रूरी है। कुछ लोग “हर चीज़ की तफ़सील” से मुराद ख़ाह-मख़ाह दुनिया भर की चीज़ों की तफ़सील ले लेते हैं और फिर उनको इस परेशानी का सामना करना पड़ता है कि क़ुरआन में जंगलों और दवा-इलाज और हिसाब और दूसरे इल्म और फ़न के बारे में कोई तफ़सील नहीं मिलती।
سُورَةُ يُوسُفَ
12. यूसुफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बड़ा मेहरबान और रहम करनेवाला है।
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُبِينِ
(1) अलिफ़-लाम-रा। ये उस किताब की आयतें हैं जो अपना मक़सद साफ़-साफ़ बयान करती हैं।
قَالَ مَعَاذَ ٱللَّهِ أَن نَّأۡخُذَ إِلَّا مَن وَجَدۡنَا مَتَٰعَنَا عِندَهُۥٓ إِنَّآ إِذٗا لَّظَٰلِمُونَ ۝ 107
(79) यूसुफ़ ने कहा, “अल्लाह की पनाह! दूसरे किसी शख़्स को हम कैसे रख सकते हैं? जिसके पास हमने अपना माल पाया है63 उसको छोड़कर दूसरे को रखेंगे तो हम ज़ालिम होंगे।”
63. एहतियात देखिए कि 'चोर' नहीं कहते, बल्कि सिर्फ़ यह कहते हैं “जिसके पास हमने अपना माल पाया है। इसे शरीअत की ज़बान में ‘तौरिया' कहते हैं, यानी 'हक़ीक़त पर पर्दा डालना' या 'सच बात को छिपाना'। जब किसी मज़लूम को ज़ालिम से बचाने या किसी बड़े ज़ुल्म को दूर करने की कोई सूरत इसके सिवा न हो कि कुछ सच्चाई के ख़िलाफ़ बात कही जाए या हक़ीक़त के ख़िलाफ़ कोई बहाना किया जाए तो ऐसी सूरत में एक परहेज़गार आदमी साफ़ झूठ बोलने से बचते हुए ऐसी बात कहने या ऐसी तदबीर करने की कोशिश करेगा जिससे हक़ीक़त को छिपाकर बुराई को दूर किया जा सके। ऐसा करना शरीअत और अख़लाक़ी पहलू से जाइज़ है, बशर्ते कि सिर्फ़ काम निकालने के लिए ऐसा न किया जाए, बल्कि किसी बड़ी बुराई को दूर करना हो। अब देखिए कि इस सारे मामले में हज़रत यूसुफ़ (अलैहि०) ने किस तरह जाइज़ ‘तौरिया' की शर्ते पूरी की हैं। भाई की रज़ामन्दी से उसके सामान में प्याला रख दिया, मगर नौकरों से यह नहीं कहा कि उसपर चोरी का इलज़ाम लगाओ। फिर जब सरकारी कर्मचारी चोरी के इलज़ाम में उन लोगों को पकड़ लाए तो चुपचाप उठकर उनकी तलाशी ले ली। फिर अब जो इन भाइयों ने कहा कि बिनयामीन की जगह हममें से किसी को रख लीजिए, तो इसके जवाब में भी बस उन्हीं की बात उनपर उलट दी कि तुम्हारा अपना फ़ैसला यह था कि जिसके सामान में से तुम्हारा माल निकले वही रख लिया जाए, सो अब तुम्हारे सामने बिनयामीन के सामान में से हमारा माल निकला है और उसी को हम रखे लेते हैं। दूसरे को उसकी जगह कैसे रख सकते हैं? इस तरह के तौरिया' की मिसालें ख़ुद नबी (सल्ल०) के ग़ज़वात (जंगों) में भी मिलती हैं, और किसी दलील से भी उसको अख़लाक़ी तौर पर ग़लत नहीं कहा जा सकता।
فَلَمَّا ٱسۡتَيۡـَٔسُواْ مِنۡهُ خَلَصُواْ نَجِيّٗاۖ قَالَ كَبِيرُهُمۡ أَلَمۡ تَعۡلَمُوٓاْ أَنَّ أَبَاكُمۡ قَدۡ أَخَذَ عَلَيۡكُم مَّوۡثِقٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَمِن قَبۡلُ مَا فَرَّطتُمۡ فِي يُوسُفَۖ فَلَنۡ أَبۡرَحَ ٱلۡأَرۡضَ حَتَّىٰ يَأۡذَنَ لِيٓ أَبِيٓ أَوۡ يَحۡكُمَ ٱللَّهُ لِيۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 108
(80) जब वे यूसुफ़ से मायूस हो गए तो एक कोने में जाकर आपस में मश्वरा करने लगे। उनमें जो सबसे बड़ा था वह बोला, “तुम जानते नहीं हो कि तुम्हारे बाप तुमसे ख़ुदा के नाम पर क्या वादा ले चुके हैं। और इससे पहले यूसुफ़ के मामले में जो ज़्यादती तुम कर चुके हो वह भी तुमको मालूम है। अब मैं तो यहाँ से हरगिज़ न जाऊँगा, जब तक कि मेरे बाप मुझे इजाज़त न दें, या फिर अल्लाह ही मेरे लिए कोई फ़ैसला कर दे कि वह सबसे अच्छा फ़ैसला करनेवाला है।
ٱرۡجِعُوٓاْ إِلَىٰٓ أَبِيكُمۡ فَقُولُواْ يَٰٓأَبَانَآ إِنَّ ٱبۡنَكَ سَرَقَ وَمَا شَهِدۡنَآ إِلَّا بِمَا عَلِمۡنَا وَمَا كُنَّا لِلۡغَيۡبِ حَٰفِظِينَ ۝ 109
(81) तुम जाकर अपने बाप से कहो कि 'अब्बाजान! आपके बेटे ने चोरी की है। हमने उसे चोरी करते हुए नहीं देखा, जो कुछ हमें मालूम हुआ है बस वही हम बयान कर रहे हैं, और ग़ैब तो हमारी नज़र में था नहीं।
وَسۡـَٔلِ ٱلۡقَرۡيَةَ ٱلَّتِي كُنَّا فِيهَا وَٱلۡعِيرَ ٱلَّتِيٓ أَقۡبَلۡنَا فِيهَاۖ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 110
(82) आप उस बस्ती के लोगों से पूछ लीजिए जहाँ हम थे। उस क़ाफ़िले से मालूम कर लीजिए जिसके साथ हम आए हैं। हम अपने बयान में बिलकुल सच्चे हैं।"