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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

76. अद-दह्‍र

(मक्का में उतरी, आयतें 31)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम 'अद-दह्‍र' (काल) भी है और 'अल-इंसान' (इंसान) भी। दोनों नाम पहली ही आयत के शब्दों 'हल अता अलल-इंसानि' और 'हीनुम-मिनद्दहरि' से उदधृत हैं।

उतरने का समय

अधिकतर टीकाकार इसे मक्की बताते हैं। लेकिन कुछ दूसरे टीकाकारों ने पूरी सूरा को मदनी कहा है और कुछ लोगों का कथन यह है कि यह सूरा है तो मक्की, किन्तु आयतें 8-10 मदीने में उतरी हैं। जहाँ तक इस सूरा की विषय-वस्तुओं और वर्णन-शैली का संबंध है, वह मदनी सूरतों की विषय-वस्तुओं और वर्णन-शैली से बहुत भिन्न है, बल्कि इसपर विचार करने से साफ़ महसूस होता है कि यह न सिर्फ़ मक्की है, बल्कि मक्का मुअज़्ज़मा के भी उस ज़माने में उतरी है जो सूरा-74 मुद्दस्सिर की आरंभिक सात आयतों के बाद शुरू हुआ था।

विषय और वार्ता

इस सूरा का विषय इंसान को दुनिया में उसकी वास्तविक हैसियत से अवगत कराना है और यह बताना है कि अगर वह अपनी इस हैसियत को ठीक-ठीक समझकर शुक्र (कृतज्ञता) की नीति अपनाए तो उसका अंजाम क्या होगा और कुफ़्र (इंकार) की राह पर चले तो किस अंजाम से वह दोचार होगा। इसमें सबसे पहले इंसान को याद दिलाया गया है कि एक समय ऐसा था जब वह कुछ न था, फिर एक मिश्रित वीर्य से उसका तुच्छ-सा प्रारम्भ किया गया जो आगे चलकर इस धरती पर 'सर्वश्रेष्ठ प्राणी' बना। इसके बाद इंसान को सावधान किया गया है कि हम [तुझे] दुनिया में रखकर तेरी परीक्षा लेना चाहते हैं, इसलिए दूसरी मख़लूक (सृष्ट-जीवों) के विपरीत तुझे समझ-बूझ रखनेवाला बनाया गया और तेरे सामने शुक्र और कुफ़्र के दोनों रास्ते खोलकर रख दिए गए। ताकि यहाँ काम करने का जो समय तुझे दिया गया है उसमें तू दिखा दे कि इस परीक्षा से तू शुक्रगुज़ार बन्दा बनकर निकला है या नाशुक्रा बन्दा बनकर। फिर सिर्फ़ एक आयत में दो-टूक तरीक़े से बता दिया गया है कि जो लोग इस परीक्षा से नाशुक्रे (काफ़िर) बनकर निकलेंगे उन्हें आख़िरत में क्या अंजाम देखना होगा। इसके बाद आयत 5 से 22 तक लगातार उन इनामों का विवरण दिया गया है जिन्हें वे लोग अपने रब के यहाँ पाएँगे जिन्होंने यहाँ बन्दगी का हक़ अदा किया है। इन आयतों में सिर्फ़ उनके उत्तम प्रतिदानों को बताना ही काफ़ी नहीं समझा गया है, बल्कि संक्षेप में यह भी बताया गया है कि उनके वे क्या कर्म हैं जिनके कारण वे इस प्रतिदान के अधिकारी होंगे। इसके बाद आयत 23 से सूरा के अन्त तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को सम्बोधित करके तीन बातें कही गई हैं। एक यह कि वास्तव में यह हम ही हैं जो इस क़ुरआन को थोड़ा-थोड़ा करके तुमपर उतार रहे हैं और इसका उद्देश्य नबी (सल्ल०) को नहीं, बल्कि काफ़िरों (इनकारियों) को सावधान करना है कि यह क़ुरआन मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुद अपने दिल से नहीं गढ़ रहे हैं, बल्कि इसके उतारनेवाले 'हम हैं' और हमारी तत्त्वदर्शिता ही इसका तक़ाज़ा करती है कि इसे एक साथ नहीं, बल्कि थोड़ा-थोड़ा करके उतारें।

दूसरी बात यह है कि सब्र के साथ अपना सन्देश पहुँचाने का दायित्व पूरा करते चले जाओ और कभी उन दुष्कर्मी और सत्य के इंकारी लोगों में से किसी के दबाव में न आओ। तीसरी बात यह कि रात-दिन अल्लाह को याद करो, नमाज़ पढ़ो और रातें अल्लाह की इबादत में गुज़ारो। क्योंकि यही वह चीज़ है जिससे कुफ़्र (अधर्म) के अतिक्रमण के मुक़ाबले में अल्लाह की ओर बुलानेवालों को स्थिरता प्राप्त होती है। फिर एक वाक्य में इस्लाम-विरोधियों की ग़लत नीति का मूल कारण बयान किया गया है कि वे आख़िरत को भूलकर दुनिया पर मोहित हो गए हैं और दूसरे वाक्य में उनको सचेत किया गया है कि तुम ख़ुद नहीं बन गए हो, हमने तुम्हें बनाया है और यह बात हर समय हमारे सामर्थ्य में है कि जो कुछ हम तुम्हारे साथ करना चाहें, कर सकते हैं । अन्त में वार्ता इसपर समाप्त की गई है कि यह एक उपदेश की बात है, अब जिसका जी चाहे इसे ग्रहण करके अपने रब का रास्ता अपना ले। मगर दुनिया में इंसान की चाहत पूरी नहीं हो सकती जब तक अल्लाह न चाहे और अल्लाह की चाहत अंधा-धुंध नहीं है। वह जो कुछ भी चाहता है, अपने ज्ञान और अपनी तत्त्वदर्शिता के आधार पर चाहता है। इस ज्ञान और तत्त्वदर्शिता के आधार पर जिसे वह अपनी दयालुता का हक़दार समझता है उसे अपनी दयालुता में दाख़िल कर लेता है और जिसे वह ज़ालिम पाता है उसके लिए दर्दनाक अज़ाब की व्यवस्था उसने कर रखी है।

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
76. अद-दहर
هَلۡ أَتَىٰ عَلَى ٱلۡإِنسَٰنِ حِينٞ مِّنَ ٱلدَّهۡرِ لَمۡ يَكُن شَيۡـٔٗا مَّذۡكُورًا
(1) क्या इनसान पर लगातार गुज़रनेवाले ज़माने का एक वक़्त ऐसा भी गुज़रा है जब वह कोई क़ाबिले-ज़िक्र (उल्लेखनीय) चीज़ न था?1
1. पहला जुमला है ‘हल अता अलल-इनसानि’। क़ुरआन के ज़्यादातर आलिमों और तर्जमा करनवालों ने यहाँ ‘हल’ (क्या) को ‘क़द’ (यक़ीनन) के मानी में लिया है और वे इसका मतलब यह लेते हैं कि इसमें कोई शक नहीं है कि इनसान पर ऐसा एक वक़्त आया है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि लफ़्ज़ ‘हल’ अरबी ज़बान में ‘क्या’ के मानी ही में इस्तेमाल होता है, और इससे मक़सद हर हाल में सवाल ही नहीं होता, बल्कि अलग-अलग मौक़ों पर यह बज़ाहिर सवालिया लफ़्ज़ अलग-अलग मानी में बोला जाता है। मसलन कभी तो हम यह मालूम करना चाहते हैं कि फ़ुलाँ वाक़िआ पेश आया है या नहीं और किसी से पूछते हैं “क्या यह वाक़िआ हुआ है?” कभी हमारा मक़सद सवाल करना नहीं होता, बल्कि किसी बात का इनकार करना होता है और यह इनकार हम इस अन्दाज़ में करते हैं कि “क्या यह काम कोई और भी कर सकता है?” कभी हम एक शख़्स से किसी बात का इक़रार कराना चाहते हैं और इस ग़रज़ के लिए उससे पूछते हैं कि “क्या मैंने तुम्हारी रक़म अदा कर दी?” और कभी हमारा मक़सद सिर्फ़ इक़रार कराना ही नहीं होता, बल्कि सवाल हम इस मक़सद से करते हैं कि सामनेवाले के ज़ेहन को एक और बात सोचने पर मजबूर कर दें जो लाज़िमन उसके इक़रार से नतीजे के तौर पर पैदा होती है। मसलन हम किसी से पूछते हैं, “क्या मैंने तुम्हारे साथ कोई बुराई की है?” इससे मक़सद सिर्फ़ यही नहीं होता कि वह इस बात का इक़रार करे कि आपने उसके साथ कोई बुराई नहीं की है, बल्कि उसे यह सोचने पर मजबूर करना भी मक़सद होता है कि जिसने मेरे साथ कोई बुराई नहीं की है उसके साथ मैं बुराई करने में कहाँ तक सही हूँ। ऊपर बयान की गई आयत में सवालिया जुमला अस्ल में इसी आख़िरी मानी में कहा गया है। इसका मक़सद इनसान से सिर्फ़ यही इक़रार कराना नहीं है कि सचमुच उसपर एक ऐसा वक़्त गुज़रा है, बल्कि उसे यह सोचने पर मजबूर करना भी है कि जिस ख़ुदा ने उसकी पैदाइश की शुरुआत ऐसी मामूली हालत से करके उसे पूरा इनसान बना खड़ा किया वह आख़िर उसे दोबारा पैदा क्यों न कर सकेगा? दूसरा जुमला है ‘हीनुम-मिनद-दहरि’। ‘दह्‍र’ से मुराद वह लगातार गुज़रनेवाला ज़माना है जिसकी न शुरुआत इनसान को मालूम है न इन्तिहा (अन्त), और ‘हीन’ से मुराद वह ख़ास वक़्त है जो इस लगातार गुज़रनेवाले ज़माने के अन्दर कभी पेश आया हो। कहने का मतलब यह है कि इस लगातार गुज़रनेवाले ज़माने के अन्दर एक लम्बी मुद्दत तो ऐसी गुज़री है जब सिरे से कोई इनसान ही मौजूद न था। फिर उसमें एक वक़्त ऐसा आया जब इनसान नाम की एक जाति की शुरुआत की गई। और इसी ज़माने के अन्दर हर शख़्स पर एक ऐसा वक़्त आया है जब उसे ग़ैर-मौजूद से वुजूद में लाने की शुरुआत की गई। तीसरा जुमला है ‘लम यकुन शैअम-मज़कूरा’, यानी उस वक़्त वह कोई ज़िक्र के क़ाबिल चीज़ न था। उसका एक हिस्सा बाप के नुत्फ़े (वीर्य) में एक ख़ुर्दबीनी (सूक्ष्मदर्शी) कीड़े (शुक्राणु) की शक्ल में और दूसरा हिस्सा माँ के नुत्फ़े में एक ख़ुर्दबीनी (सूक्ष्मदर्शी) अण्डे (अण्डाणु) की शक्ल में मौजूद था। लम्बी मुद्दत तक तो इनसान यह भी नहीं जानता था कि अस्ल में वह इस कीड़े और अण्डे के मिलने से वुजूद में आता है। अब ताक़तवर ख़ुर्दबीनों (सूक्ष्मदर्शी यंत्रों) से इन दोनों को देख तो लिया गया है, लेकिन अब भी कोई शख़्स यह नहीं कह सकता कि कितना इनसान बाप के इस कीड़े में और कितना माँ के इस अण्डे में मौजूद होता है। फिर हम्ल (गर्भ) ठहरने के वक़्त इन दोनों के मिलने से जो शुरुआती ख़लिय्या (भ्रूण, Cell) वुजूद में आता है वह एक ऐसा बारीक ज़र्रा होता है कि बहुत ताक़तवर ख़ुर्दबीन (सूक्ष्मदर्शी यंत्र) ही से नज़र आ सकता है और उसे देखकर भी पहली नज़र में कोई यह नहीं कह सकता कि यह कोई इनसान बन रहा है, न यह कह सकता है कि इस मामूली-सी शुरुआत से फल-फूलकर कोई इनसान अगर बनेगा भी तो वह किस क़द-काठी, किस शक्ल-सूरत, किस क़ाबिलियत और शख़सियत का इनसान होगा। यही मतलब है इस बात का कि उस वक़्त वह कोई क़ाबिले-ज़िक्र (उल्लेखनीय) चीज़ न था, अगरचे इनसान होने की हैसियत से उसके वुजूद की शुरुआत हो गई थी।
إِنَّا خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن نُّطۡفَةٍ أَمۡشَاجٖ نَّبۡتَلِيهِ فَجَعَلۡنَٰهُ سَمِيعَۢا بَصِيرًا ۝ 1
(2) हमने इनसान को एक मिले-जुले नुत्फ़े (वीर्य) से पैदा किया,2 ताकि उसका इम्तिहान लें3 और इस मक़सद के लिए हमने उसे सुनने और देखनेवाला बनाया।4
2. ‘एक मिले-जुले नुतफ़े’ से मुराद यह है कि इनसान की पैदाइश मर्द और औरत के दो अलग-अलग नुत्फ़ों (वीर्यों) से नहीं हुई है, बल्कि दोनों नुत्फ़े मिलकर जब एक हो गए तब उसके मिले-जुले नुतफ़े से इनसान पैदा हुआ।
3. यह है दुनिया में इनसान की और इनसान के लिए दुनिया की अस्ल हैसियत। वह पेड़ों और जानवरों की तरह नहीं है कि उसकी पैदाइश का मक़सद यहीं पूरा हो जाए और फ़ितरत के क़ानून के मुताबिक़ एक मुद्दत तक अपने हिस्से का काम करके वह यहीं मरकर मिट जाए। फिर यह कि यह दुनिया उसके लिए न अज़ाब (यातना) का घर है, जैसा कि राहिब और संन्यासी समझते हैं, न बदले की दुनिया है जैसा कि तनासुख़ (आवागमन, पुनर्जन्म) के माननेवाले समझते हैं, न चरागाह और तफ़रीह की जगह है, जैसा कि माद्दा-परस्त (भौतिकवादी) समझते हैं और न मैदाने-जंग, जैसा कि डारविन और मार्क्स के पैरोकार समझते हैं, बल्कि अस्ल में यह उसके लिए एक इम्तिहानगाह (परीक्षा-स्थल) है। वह जिस चीज़ को उम्र समझता है हक़ीक़त में वह इम्तिहान का वक़्त है जो उसे यहाँ दिया गया है। दुनिया में जो क़ुव्वतें और सलाहियतें (प्रतिभाएँ) भी उसको दी गई हैं, जिन चीज़ों को भी इस्तेमाल करने के उसको मौक़े दिए गए हैं, जिन हैसियतों में भी वह यहाँ काम कर रहा है, और जो ताल्लुक़ात भी उसके और दूसरे इनसानों के दरमियान हैं, वे सब अस्ल में इम्तिहान के अनगिनत परचे हैं, और ज़िन्दगी की आख़िरी साँस तक इस इम्तिहान का सिलसिला जारी है। नतीजा इसका दुनिया में नहीं निकलना है, बल्कि आख़िरत में उसके तमाम परचों को जाँचकर यह फ़ैसला होना है कि वह कामयाब हुआ है या नाकाम। और उसकी कामयाबी और नाकामी का सारा दारेमदार इसपर है कि उसने अपने-आपको क्या समझते हुए यहाँ काम किया, और किस तरह इम्तिहान के वे परचे किए जो उसे यहाँ दिए गए थे। अगर उसने अपने-आपको बेख़ुदा या बहुत से ख़ुदाओं का बन्दा समझा, और सारे परचे यह समझते हुए किए कि आख़िरत में उसे अपने पैदा करनेवाले के सामने कोई जवाबदेही नहीं करनी है, तो उसकी ज़िन्दगी का सारा किया-धरा ग़लत हो गया। और अगर उसने अपने-आपको एक ख़ुदा का बन्दा समझकर उस तरीक़े पर काम किया जो ख़ुदा की मर्ज़ी के मुताबिक़ हो और आख़िरत की जवाबदेही को सामने रखा तो वह इम्तिहान में कामयाब हो गया। (यह बात क़ुरआन मजीद में इतनी ज़्यादा बार और इतनी तफ़सीलात के साथ बयान की गई है कि उन सब जगहों का हवाला देना यहाँ मुश्किल है। जो लोग इसे पूरी तरह समझना चाहते हों वे तफ़हीमुल क़ुरआन के हर हिस्से के आख़िर में इंडेक्स के अन्दर लफ़्ज़ ‘आज़माइश’ निकालकर वे तमाम जगहें देख लें जहाँ क़ुरआन में अलग-अलग पहलुओं से इसको बयान किया गया है। क़ुरआन के सिवा दुनिया की कोई किताब ऐसी नहीं है जिसमें यह हक़ीक़त इतने साफ़ तौर से बयान की गई हो)।
4. अस्ल में फ़रमाया गया है “हमने उसे ‘समीअ’ (सुननेवाला) और ‘बसीर’ (देखनेवाला) बनाया।” इसका मतलब सही तौर पर ‘समझ-बूझ रखनेवाला बनाया’ से अदा होता है, लेकिन हमने तर्जमे की रिआयत से ‘समीअ’ का मतलब ‘सुननेवाला’ और ‘बसीर’ का मतलब ‘देखनेवाला’ किया है। अगरचे अरबी ज़बान के इन अलफ़ाज़ का लफ़्ज़ी तर्जमा यही है, मगर हर अरबी जाननेवाला जानता है कि जानवरों के लिए ‘समीअ’ और ‘बसीर’ के अलफ़ाज़ कभी इस्तेमाल नहीं होते, हालाँकि वह भी सुनने और देखनेवाले होते हैं। इसलिए सुनने और देखने से मुराद यहाँ सुनने और देखने की वे क़ुव्वतें नहीं हैं जो जानवरों को भी दी गई हैं, बल्कि इससे मुराद वे ज़रिए हैं जिनसे इनसान इल्म हासिल करता और फिर उससे नतीजे निकालता है। इसके अलावा सुनने और देखने की क़ुव्वतें इनसान के इल्म के ज़रिओं में चूँकि सबसे ज़्यादा अहम हैं इसलिए मुख़्तसर तौर पर सिर्फ़ उन्हीं का ज़िक्र किया गया है, वरना अस्ल मुराद इनसान को वे तमाम क़ुव्वतें देना है जिनके ज़रिए से वह मालूमात हासिल करता है। फिर इनसान को जो क़ुव्वतें दी गई हैं वे अपनी क़िस्म में उन क़ुव्वतों से बिलकुल अलग हैं जो जानवरों को दी गई हैं, क्योंकि उसकी महसूस करने की हर क़ुव्वत के पीछे एक सोचनेवाला दिमाग़ मौजूद होता है जो महसूस करनेवाली क़ुव्वत के ज़रिए से आनेवाली मालूमात को इकट्ठा करके और उनको तरतीब देकर उनसे नतीजे निकालता है, राय क़ायम करता है, और फिर कुछ फ़ैसलों पर पहुँचता है जिनपर उसकी ज़िन्दगी का रवैया टिका होता है। इसलिए यह कहने के बाद कि इनसान को पैदा करके हम उसका इम्तिहान लेना चाहते थे यह कहना कि इसी ग़रज़ के लिए हमने उसे सुनने और देखनेवाला बनाया, अस्ल में यह मानी रखता है कि अल्लाह तआला ने उसे इल्म और अक़्ल की ताक़तें दीं, ताकि वह इम्तिहान देने के क़ाबिल हो सके। ज़ाहिर है कि अगर कहने का मतलब यह न हो और सुनने और देखनेवाला बनाने का मतलब सिर्फ़ सुनने और देखने की क़ुव्वतें रखनेवाला ही हो तो एक अन्धा और बहरा आदमी तो फिर इम्तिहान से अलग हो जाता है, हालाँकि जब तक कोई इल्म और अक़्ल से बिलकुल महरूम न हो, इम्तिहान से उसके अलग होने का कोई सवाल पैदा नहीं होता।
إِنَّا هَدَيۡنَٰهُ ٱلسَّبِيلَ إِمَّا شَاكِرٗا وَإِمَّا كَفُورًا ۝ 2
(3) हमने उसे रास्ता दिखा दिया, चाहे शुक्र करनेवाला बने या कुफ़्र (नाशुक्री) करनेवाला।5
5. यानी हमने उसे सिर्फ़ इल्म और अक़्ल की क़ुव्वतें देकर ही नहीं छोड़ दिया, बल्कि साथ-साथ उसकी रहनुमाई भी की ताकि उसे मालूम हो जाए कि शुक्र का रास्ता कौन-सा है और नाशुक्री का रास्ता कौन-सा, और इसके बाद जो रास्ता भी वह अपनाए उसका ज़िम्मेदार वह ख़ुद हो। सूरा-90 बलद में इसी बात को इन अलफ़ाज़ में बयान किया गया है, “व हदैनाहुन-नजदैन” यानी “और हमने उसे दोनों रास्ते (यानी भलाई और बुराई के रास्ते) नुमायाँ करके बता दिए।” और सूरा-91 शम्स में यही बात इस तरह बयान की गई है, “और क़सम है (इनसान के) नफ़्स की और उस हस्ती की जिसने उसे (तमाम ज़ाहिरी और अन्दरूनी क़ुव्वतों के साथ) बनाया, फिर उसकी नाफ़रमानी और उसकी परहेज़गारी दोनों उसके दिल में डाल दीं।” इन तमाम साफ़ बयानों को निगाह में रखकर देखा जाए और साथ-साथ क़ुरआन मजीद के उन तफ़सीली बयानों को भी निगाह में रखा जाए, जिन में बताया गया है कि अल्लाह तआला ने इनसान की हिदायत के लिए दुनिया में क्या-क्या इन्तिज़ाम किए हैं, तो मालूम हो जाता है कि इस आयत में ‘रास्ता दिखाने’ से मुराद रहनुमाई की कोई एक ही शक्ल नहीं है, बल्कि बहुत-से तरीक़े हैं जिनकी कोई हद और इन्तिहा नहीं है। मिसाल के तौर पर— (1) हर इनसान को इल्म और अक़्ल की सलाहियतें देने के साथ एक अख़लाक़ी एहसास भी दे दिया गया है, जिसकी बदौलत वह फ़ितरी तौर पर भलाई और बुराई में फ़र्क़ करता है, कुछ कामों और सिफ़ात (गुणों) को बुरा जानता है, अगरचे वह ख़ुद उनमें मुब्तला हो और कुछ कामों और सिफ़ात को अच्छा जानता है, अगरचे वह ख़ुद उनसे बच रहा हो। यहाँ तक कि जिन लोगों ने अपनी ग़रज़ों और ख़ाहिशों की ख़ातिर ऐसे फ़लसफ़े (दर्शन) गढ़ लिए हैं जिनकी बुनियाद पर बहुत-सी बुराइयों को उन्होंने अपने लिए हलाल (जाइज़) कर लिया है, उनका हाल भी यह है कि वही बुराइयाँ अगर कोई दूसरा उनके साथ करे तो वे उसपर चीख़ उठते हैं और उस वक़्त मालूम हो जाता है कि अपने झूठे फ़लसफ़ों के बावजूद हक़ीक़त में वे उनको बुरा ही समझते हैं। इसी तरह नेक आमाल और सिफ़ात (गुणों) को चाहे किसी ने जहालत और बेवक़ूफ़ी और पुराने ज़माने की बात ही ठहरा रखा हो, लेकिन जब किसी इनसान से ख़ुद उसको किसी भले सुलूक का फ़ायदा पहुँचता है तो उसकी फ़ितरत उसे क़द्र के क़ाबिल समझने पर मजबूर हो जाती है। (2) हर इनसान के अन्दर अल्लाह तआला ने ज़मीर (अन्तरात्मा, नफ़्से-लव्वामा) नाम की एक चीज़ रख दी है जो उसे हर उस मौक़े पर टोकती है जब वह कोई बुराई करनेवाला हो या कर रहा हो या कर चुका हो। इस ज़मीर (अन्तरात्मा) को चाहे इनसान कितनी ही थपकियाँ देकर सुला दे, और उसको बेहिस (संवेदनहीन) बनाने की चाहे कितनी ही कोशिशें कर ले, लेकिन वह उसे बिलकुल मिटा देने की क़ुदरत नहीं रखता। वह दुनिया में ढीठ बनकर अपने-आपको बिलकुल बे-ज़मीर (अन्तरात्मा विहीन) साबित कर सकता है, वह दलीलें देकर दुनिया को धोखा देने की भी हर कोशिश कर सकता है, वह अपने मन को भी धोखा देने के लिए अपने कामों के लिए अनगिनत बहाने तराश सकता है, मगर इसके बावजूद अल्लाह ने उसकी फ़ितरत में जो हिसाब लेनेवाला बिठा रखा है वह इतना जानदार है कि किसी बुरे इनसान से यह बात छिपी नहीं रहती कि वह हक़ीक़त में क्या है। यही बात है जो सूरा-75 क़ियामह में कही गई है कि “इनसान ख़ुद अपने-आपको ख़ूब जानता है चाहे वह कितने ही बहाने पेश करे।” (आयत-15)। (3) इनसान के अपने वुजूद में और उसके आस-पास ज़मीन से लेकर आसमान तक सारी कायनात में हर तरफ़ ऐसी अनगिनत निशानियाँ फैली हुई हैं जो ख़बर दे रही हैं कि यह सब कुछ किसी ख़ुदा के बिना नहीं हो सकता, न बहुत-से ख़ुदा इस कायनात के निज़ाम को बनानेवाले और चलानेवाले हो सकते हैं। इसी तरह बाहरी दुनिया और इनसान के अन्दर की दुनिया की यही निशानियाँ क़ियामत और आख़िरत की भी साफ़ दलील दे रही हैं। इनसान अगर इनसे आँखें बन्द कर ले, या अपनी अक़्ल से काम लेकर इनपर ग़ौर न करे, या जिन हक़ीक़तों की निशानदेही ये कर रही हैं उनको मानने से जी चुराए तो यह उसका अपना क़ुसूर है। अल्लाह तआला ने अपनी तरफ़ से तो हक़ीक़त की ख़बर देनेवाली निशानियाँ उसके सामने रख देने में कोई कसर नहीं उठा रखी है। (4) इनसान की अपनी ज़िन्दगी में, उसके अपने ज़माने की दुनिया में और उससे पहले गुज़रे हुए इतिहास के तजरिबों में अनगिनत वाक़िआत ऐसे पेश आते हैं और आते रहे हैं जो यह साबित करते हैं कि एक सबसे बढ़कर हुकूमत उसपर और सारी कायनात (सृष्टि) पर हुकूमत कर रही है, जिसके आगे वह बिलकुल बेबस है, जिसकी मर्ज़ी हर चीज़ पर हावी है, और जिसकी मदद का वह मुहताज है। यह तजरिबे और आँखों देखी हक़ीक़तें सिर्फ़ बाहरी तौर पर ही इस हक़ीक़त की ख़बर देनेवाली नहीं हैं, बल्कि इनसान की अपनी फ़ितरत में भी उस सबसे बढ़कर हुकूमत के वुजूद की गवाही मौजूद है जिसकी वजह से बड़े-से-बड़ा नास्तिक भी बुरा वक़्त आने पर ख़ुदा के आगे दुआ के लिए हाथ फैला देता है, और सख़्त-से-सख़्त मुशरिक भी सारे झूठे ख़ुदाओं को छोड़कर एक ख़ुदा को पुकारने लगता है। (5) इनसान की अक़्ल और उसकी फ़ितरत यक़ीनी तौर पर उसपर यह हुक्म लगाती है कि जुर्म की सज़ा और उम्दा ख़िदमतों का बदला मिलना ज़रूरी है। इसी वजह से तो दुनिया के हर समाज में अदालत का निज़ाम किसी-न-किसी सूरत में क़ायम किया जाता है और जिन ख़िदमतों को तारीफ़ के क़ाबिल समझा जाता है उनका बदला देने की भी कोई-न-कोई शक्ल अपनाई जाती है। यह इस बात का खुला सुबूत है कि अख़लाक़ और बदले के क़ानून के बीच एक ऐसा लाज़िमी ताल्लुक़ है जिससे इनकार करना इनसान के लिए मुमकिन नहीं है। अब अगर यह सभी मानते हैं कि इस दुनिया में अनगिनत जुर्म ऐसे हैं जिनकी पूरी सज़ा तो बहुत दूर की बात, सिरे से कोई सज़ा ही नहीं दी जा सकती, और अनगिनत ख़िदमतें भी ऐसी हैं जिनका पूरा बदला तो क्या, कोई बदला भी ख़िदमत करनेवाले को नहीं मिल सकता, तो आख़िरत को मानने के सिवा कोई चारा नहीं है, सिवाय यह कि कोई बेवक़ूफ़ यह मान ले, या कोई हठधर्म यह राय क़ायम करने पर अड़ जाए कि इनसाफ़ का तसव्वुर रखनेवाला इनसान एक ऐसी दुनिया में पैदा हो गया है जो अपनी जगह ख़ुद इनसाफ़ के तसव्वुर से ख़ाली है। और फिर इस सवाल का जवाब उसके ज़िम्मे रह जाता है कि ऐसी दुनिया में पैदा होनेवाले इनसान के अन्दर यह इनसाफ़ का ख़याल आख़िर आ कहाँ से गया? (6) रहनुमाई के इन तमाम ज़रिओं की मदद के लिए अल्लाह तआला ने इनसान की साफ़-साफ़ और खुली रहनुमाई के लिए दुनिया में नबी भेजे और किताबें उतारीं, जिनमें साफ़-साफ़ बता दिया गया कि शुक्र की राह कौन-सी है और नाशुक्री की राह कौन-सी और इन दोनों राहों पर चलने के नतीजे क्या हैं। नबियों और किताबों की लाई हुई ये तालीमात, अनगिनत महसूस और ग़ैर-महसूस तरीक़ों से इतने बड़े पैमाने पर सारी दुनिया में फैली हैं कि कोई इनसानी आबादी भी ख़ुदा के तसव्वुर, आख़िरत के तसव्वुर, भलाई और बुराई के फ़र्क़ और उनके पेश किए हुए अख़लाक़ी उसूलों और क़ानूनी हुक्मों से अनजान नहीं रह गई है, चाहे उसे यह मालूम हो या न हो कि यह इल्म उसे नबियों और किताबों की लाई हुई तालीमात ही से हासिल हुआ है। आज जो लोग नबियों और किताबों का इनकार करनेवाले हैं, या उनसे बिलकुल अनजान हैं, वे भी उन बहुत-सी चीज़ों की पैरवी कर रहे हैं जो अस्ल में उन्हीं की तालीमात से छन-छनकर उन तक पहुँची हैं और वे नहीं जानते कि यह चीज़ें अस्ल में कहाँ से निकली हैं।
إِنَّآ أَعۡتَدۡنَا لِلۡكَٰفِرِينَ سَلَٰسِلَاْ وَأَغۡلَٰلٗا وَسَعِيرًا ۝ 3
(4) कुफ़्र (इनकार) करनेवालों के लिए हमने ज़ंजीरें और तौक़ और भड़कती हुई आग जुटा रखी है।
إِنَّ ٱلۡأَبۡرَارَ يَشۡرَبُونَ مِن كَأۡسٖ كَانَ مِزَاجُهَا كَافُورًا ۝ 4
(5) नेक लोग6 (जन्नत में) ऐसे जाम पिएँगे जिनमें काफ़ूर का पानी मिला हुआ होगा,
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘अबरार’ इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद वे लोग हैं जिन्होंने अपने रब की फ़रमाँबरदारी का हक़ अदा किया हो, उसकी डाली हुई ज़िम्मेदारियाँ पूरी की हों, और उसके मना किए हुए कामों से बचे हों।
عَيۡنٗا يَشۡرَبُ بِهَا عِبَادُ ٱللَّهِ يُفَجِّرُونَهَا تَفۡجِيرٗا ۝ 5
(6) यह एक बहता चश्मा (स्रोत) होगा7 जिसके पानी के साथ अल्लाह के बन्दे8 शराब पिएँगे और जहाँ चाहेंगे आसानी से उसकी शाखाएँ निकाल लेंगे।9
7. यानी वह काफ़ूर मिला हुआ पानी न होगा, बल्कि ऐसा क़ुदरती चश्मा (स्रोत) होगा जिसके पानी की सफ़ाई और ठण्डक और ख़ुशबू काफ़ूर से मिलती-जुलती होगी।
8. इबादुल्लाह (अल्लाह के बन्दे) या इबादुर्रहमान (रहमान के बन्दे) के अलफ़ाज़ अगरचे ज़बान के एतिबार से तमाम इनसानों के लिए इस्तेमाल हो सकते हैं, क्योंकि सब ही ख़ुदा के बन्दे हैं, लेकिन क़ुरआन में जहाँ भी ये अलफ़ाज़ आए हैं उनसे नेक बन्दे ही मुराद हैं। मानो कि बुरे लोग जिन्होंने अपने-आपको बन्दगी से अलग कर रखा हो, इस क़ाबिल नहीं हैं कि उनको अल्लाह तआला अपने नाम की तरफ़ जोड़ते हुए ‘इबादुल्लाह’ या ‘इबादुर्रहमान’ के इज़्ज़तवाले ख़िताब से नवाज़े।
9. मतलब यह नहीं है कि वहाँ वे कुदाल-फावड़े लेकर नालियाँ खोदेंगे और इस तरह उस चश्मे (स्रोत) का पानी जहाँ ले जाना चाहेंगे ले जाएँगे, बल्कि उनका एक हुक्म और इशारा इसके लिए काफ़ी होगा कि जन्नत में जहाँ वे चाहें उसी जगह वह चश्मा फूट निकले। आसानी से निकाल लेने के अलफ़ाज़ इसी मतलब की तरफ़ इशारा करते हैं।
يُوفُونَ بِٱلنَّذۡرِ وَيَخَافُونَ يَوۡمٗا كَانَ شَرُّهُۥ مُسۡتَطِيرٗا ۝ 6
(7) ये वे लोग होंगे जो (दुनिया में) नज़्र (मन्नत) पूरी करते हैं,10 और उस दिन से डरते हैं जिसकी आफ़त हर तरफ़ फैली हुई होगी,
10. नज़्र (मन्नत) पूरी करने का एक मतलब यह है कि जो कुछ आदमी पर वाजिब किया गया हो उसे वह पूरा करे। दूसरा मतलब यह है जो कुछ आदमी ने ख़ुद अपने ऊपर वाजिब कर लिया हो, या दूसरे अलफ़ाज़ में जिस काम के करने का उसने अहद किया हो, उसे वह पूरा करे। तीसरा मतलब यह है कि जो कुछ आदमी पर वाजिब हो, चाहे वह उसपर वाजिब किया गया हो या उसने ख़ुद अपने ऊपर वाजिब कर लिया हो, उसे वह पूरा करे। इन तीनों मतलबों में से ज़्यादा आम मतलब दूसरा है और आम तौर पर लफ़्ज़ ‘नज़्र’ से वही मुराद लिया जाता है। बहरहाल यहाँ उन लोगों की तारीफ़ या तो इस लिहाज़ से की गई है कि वह अल्लाह तआला की तरफ़ से किए गए वाजिब कामों को पूरा करते हैं, या इस लिहाज़ से की गई है कि वे ऐसे नेक लोग हैं कि जो ख़ैर और भलाई के काम अल्लाह ने उनपर वाजिब नहीं किए हैं उनको भी अंजाम देने का जब वे अल्लाह से अहद कर लेते हैं तो उसे पूरा करते हैं, कहाँ कि उन कामों को करने में किसी तरह की कोताही करें जो अल्लाह ने उनपर वाजिब कर दिए हैं। जहाँ तक नज़्र (मन्नत) के हुक्मों का ताल्लुक़ है, उनको मुख़्तसर तौर से हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-310 में बयान कर चुके हैं। लेकिन मुनासिब मालूम होता है कि यहाँ उनको ज़रा तफ़सील के साथ बयान कर दिया जाए, ताकि लोग नज़्र (मन्नत) के मामले में जो ग़लतियाँ करते हैं या जो ग़लतफ़हमियाँ पाई जाती हैं, उनसे बच सकें और नज़्र के सही क़ायदों से वाक़िफ़ हो जाएँ। (1) फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के आलिमों) ने नज़्र (मन्नत) की चार क़िस्में बयान की हैं। एक यह कि एक आदमी अल्लाह से यह अहद करे कि वह उसकी ख़ुशनूदी की ख़ातिर फ़ुलाँ नेक काम करेगा। दूसरे यह कि वह इस बात की नज़्र (मन्नत) माने कि अगर अल्लाह ने मेरी फ़ुलाँ ज़रूरत पूरी कर दी तो मैं शुक्र के तौर पर फ़ुलाँ नेक काम करूँगा। इन दोनों क़िस्म की नज़्रों (मन्नतों) को फ़क़ीहों की ज़बान में ‘नज़्रे-तबर्रुर’ (नेकी की नज़्र) कहते हैं और इसपर वे सब एक राय हैं कि इसे पूरा करना वाजिब है। तीसरे यह कि आदमी कोई नाजाइज़ काम करने या कोई वाजिब काम न करने का अहद कर ले। चौथे यह कि आदमी कोई मुबाह (जाइज़) काम करने को अपने ऊपर लाज़िम कर ले, या कोई मुस्तहब्ब (पसन्दीदा) काम न करने का या किसी ऐसे काम करने का अहद कर ले जो वाजिब तो न हो, मगर उसका करना बेहतर हो। इन दोनों क़िस्मों की नज़्रों को फ़क़ीहों की ज़बान में ‘नज़्रे-लिजाज’ (जहालत, झगड़ालूपन और ज़िद की नज़्र) कहते हैं। इनमें से तीसरी क़िस्म के बारे में सभी आलिम एक राय हैं कि वह होती ही नहीं। और चौथी क़िस्म के बारे में फ़क़ीहों की रायें अलग-अलग हैं। कुछ फ़क़ीह कहते हैं कि उसे पूरा करना चाहिए। कुछ कहते हैं कि क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा अदा कर देना चाहिए। और कुछ कहते हैं कि आदमी को इख़्तियार है, चाहे नज़्र पूरी कर दे, या कफ़्फ़ारा अदा कर दे। शाफ़िई और मालिकी मसलक के आलिमों के नज़दीक यह नज़्र भी सिरे से होती ही नहीं है। और हनफ़ियों के नज़दीक दोनों क़िस्मों की नज़्रों पर कफ़्फ़ारा लाज़िम आता है। (उम्दतुल-क़ारी)। (2) कई हदीसों से मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) ने ऐसी नज़्र (मन्नत) मानने से मना किया है जो यह समझते हुए मानी जाए कि उससे तक़दीर बदल जाएगी, या जिसमें कोई नेक काम अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए बतौर शुक्र करने के बजाय आदमी अल्लाह तआला को बदले के तौर पर यह पेशकश करे कि आप मेरा फ़ुलाँ काम कर दें तो मैं आपके लिए फ़ुलाँ नेक काम कर दूँगा। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) एक बार नज़्र मानने से मना करने लगे और फ़रमाने लगे कि वह किसी होनेवाली चीज़ को फेर नहीं सकती, अलबत्ता उसके ज़रिए से कुछ माल कंजूस से निकलवा लिया जाता है।” (हदीस : मुस्लिम, अबू-दाऊद)। हदीस के आख़िरी जुमले का मतलब यह है कि कंजूस यूँ तो अल्लाह की राह में माल निकालनेवाला न था, नज़्र के ज़रिए से इस लालच में वह कुछ ख़ैरात कर देता है कि शायद यह बदला क़ुबूल करके अल्लाह तआला उसके लिए तक़दीर बदल दे। दूसरी रिवायत हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) से यह है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नज़्र न कोई काम पहले करा सकती है, न किसी होते काम में देर करा सकती है। अलबत्ता उसके ज़रिए से कुछ माल कंजूस के हाथ से निकलवा लिया जाता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। एक और रिवायत में वह कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने नज़्र (मन्नत) मानने से मना किया और फ़रमाया, “उससे कोई काम बनता नहीं, अलबत्ता उसके ज़रिए से कुछ माल कंजूस से निकलवा लिया जाता है।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) लगभग इसी मज़मून की कई रिवायतें मुस्लिम ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से नक़्ल की हैं और एक रिवायत बुख़ारी और मुस्लिम दोनों ने नक़्ल की है, जिसमें वे बयान करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हक़ीक़त में नज़्र आदम के बेटे को कोई ऐसी चीज़ नहीं दिलवा सकती जो अल्लाह ने उसके लिए मुक़द्दर न की हो, लेकिन नज़्र होती तक़दीर के मुताबिक़ ही है कि इसके ज़रिए से अल्लाह की क़ुदरत वह चीज़ कंजूस के पास से निकाल लाती है जिसे वह किसी और तरह निकालनेवाला न था।” इसी मज़मून पर और ज़्यादा रौशनी हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस की रिवायत से पड़ती है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अस्ल नज़्र तो वह है जिसका मक़सद अल्लाह की ख़ुशनूदी हो।” (हदीस : तहावी)। (3) नज़्र (मन्नत) के मामले में एक और क़ायदा अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह बयान किया है कि सिर्फ़ वह नज़्र पूरी करनी चाहिए जो अल्लाह की फ़रमाँबरदारी में हो। अल्लाह की नाफ़रमानी करने की नज़्र हरगिज़ पूरी न करनी चाहिए। इसी तरह ऐसी चीज़ में कोई नज़्र नहीं है जिसका आदमी मालिक न हो, या ऐसे काम में कोई नज़्र नहीं है जो इनसान के बस में न हो। हज़रत आइशा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिसने यह नज़्र मानी कि अल्लाह की फ़रमाँबरदारी करेगा तो उसे उसकी फ़रमाँबरदारी करनी चाहिए और जिसने यह नज़्र मानी हो कि अल्लाह की नाफ़रमानी करेगा तो उसे नाफ़रमानी नहीं करनी चाहिए।” (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-माजा, तहावी)। साबित-बिन-ज़ह्हाक कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह की नाफ़रमानी में किसी नज़्र के पूरा करने का कोई सवाल पैदा नहीं होता, न किसी ऐसी चीज़ में जो आदमी की मिलकियत में न हो।” (हदीस : अबू-दाऊद)। मुस्लिम ने इसी मज़मून की रिवायत हज़रत इमरान-बिन-हुसैन से नक़्ल की है और अबू-दाऊद में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस की रिवायत इससे ज़्यादा तफ़सीली है जिसमें वह नबी (सल्ल०) की यह हिदायत नक़्ल करते हैं कि “कोई नज़्र और कोई क़सम किसी ऐसे काम में नहीं है जो आदमी के बस में न हो, या अल्लाह की नाफ़रमानी में हो, या रिश्ता तोड़ने के लिए हो।” (4) जिस काम में अपनी जगह ख़ुद कोई नेकी नहीं है और आदमी ने ख़ाह-मख़ाह किसी बेकार काम, या बरदाश्त से बाहर (असहनीय) मेहनत, या सिर्फ़ अपने नफ़्स को तकलीफ़ देने को नेकी समझकर अपने ऊपर लाज़िम कर लिया हो, उसकी नज़्र पूरी नहीं करनी चाहिए। इस मामले में नबी (सल्ल०) की हिदायतें बिलकुल साफ़ हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक बार नबी (रज़ि०) ख़ुत्बा दे रहे थे कि आप (सल्ल०) ने देखा कि एक साहब धूप में खड़े हैं। आप (सल्ल०) ने पूछा यह कौन हैं और कैसे खड़े हैं? बताया गया कि ये अबू-इसराईल हैं, इन्होंने नज़्र मानी है कि खड़े रहेंगे, बैठेंगे नहीं, न छाँव में रहेंगे, न किसी से बात करेंगे, और रोज़ा रखेंगे। इसपर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इनसे कहो, बात करें, छाँव में आएँ, बैठें, अलबत्ता अपना रोज़ा पूरा करें।” (हदीस : बुख़ारी, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा, मुवत्ता)। हज़रत उक़बा-बिन-आमिर जुहनी कहत हैं कि मेरी बहन ने नंगे पाँव पैदल हज करने की नज़्र मानी और यह नज़्र भी मानी कि इस सफ़र में सिर पर कपड़ा भी न डालेंगी। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “उससे कहो कि सवारी पर जाए और सिर ढाँके।” (हदीस : अबू-दाऊद। मुस्लिम ने इस मज़मून की कई रिवायतें नक़्ल की हैं जिनमें कुछ लफ़्ज़ी फ़र्क़ है।) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने उक़बा-बिन-आमिर की बहन का यह वाक़िआ बयान करते हुए नबी (सल्ल०) के जो अलफ़ाज़ नक़्ल किए हैं वे ये हैं, “अल्लाह को उसकी इस नज़्र की कोई ज़रूरत नहीं है। उससे कहो कि सवारी पर जाए।” (हदीस : अबू-दाऊद)। एक और रिवायत में हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि एक शख़्स ने अर्ज़ किया, “मेरी बहन ने पैदल हज करने की नज़्र मानी है।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तेरी बहन के मुश्किल में पड़ने की अल्लाह को कोई ज़रूरत नहीं पड़ी है। उसे सवारी पर हज करना चाहिए।” (अबू-दाऊद)। हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने (शायद हज के सफ़र में) देखा कि एक बड़े मियाँ को उनके दो बेटे संभाले लिए चल रहे हैं। आपने पूछा, “यह क्या मामला है?” अर्ज़ किया गया, “इन्होंने पैदल चलने की नज़्र मानी है।” इसपर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह तआला इससे बेपरवाह है कि यह शख़्स अपने-आपको तकलीफ़ में डाले।” फिर आपने उसे हुक्म दिया कि सवार हो। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद। मुस्लिम में इसी मज़मून की हदीस अबू-हुरैरा (रज़ि०) से भी नक़्ल हुई है।) (5) अगर किसी नज़्र को पूरा करना अमली तौर पर मुमकिन न हो तो उसे किसी दूसरी सूरत में पूरा किया जा सकता है। हज़रत जाबिर बिन-अब्दुल्लाह (रज़ि०) कहते हैं कि फ़त्‌ह मक्का के दिन एक आदमी ने उठकर अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल, मैंने नज़्र मानी थी कि अगर अल्लाह ने मक्का आपके हाथ पर फ़त्‌ह कर दिया तो मैं बैतुल-मक़दिस में दो रकअत नमाज़ पढ़ूँगा।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यहीं पढ़ लो।” उसने फिर पूछा। आप (सल्ल०) ने फिर वही जवाब दिया। उसने फिर पूछा। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा, तो तेरी मर्ज़ी।” दूसरी एक रिवायत में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़़रमाया, “क़सम है उस ज़ात की जिसने मुहम्मद को हक़ के साथ भेजा है, अगर तू यहीं नमाज़ पढ़ ले तो बैतुल-मक़दिस में नमाज़ पढ़ने के बदले यह तेरे लिए काफ़ी होगी।” (हदीस : अबू-दाऊद)। (6) अगर किसी ने अपना सारा माल अल्लाह की राह में दे देने की नज़्र मान ली हो तो उसके बारे में आलिमों की रायें अलग-अलग हैं। इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि उसे एक तिहाई माल दे देना चाहिए और मालिकी मसलक के आलिमों में से सहनून का कहना है कि उसे इतना माल दे देना चाहिए जिसे देने के बाद वह तकलीफ़ में न पड़ जाए। इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि अगर ये नज़्र ‘तबर्रुर’ (यानी सिर्फ़ अल्लाह की ख़ुशी हासिल करने के लिए) की हो तो उसे सारा माल दे देना चाहिए, और अगर यह नज़्र ‘लिजाज’ (किसी ख़ास काम के हो जाने की शर्त पर हो) हो तो उसे इख़्तियार है कि नज़्र पूरी करे या क़सम का कफ़्फ़ारा अदा कर दे। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) कहते हैं कि उसे अपना वह सब माल दे देना चाहिए जिसमें ज़कात फ़र्ज़ होती हो, लेकिन जिस माल में ज़कात नहीं है, मसलन मकान या ऐसी ही दूसरी मिलकियतें, वह इस नज़्र के दायरे में नहीं आएँगी। हनफ़ी मसलक के आलिमों में इमाम ज़ुफ़र का कहना है कि अपने बाल-बच्चों के लिए दो महीने का ख़र्च रखकर बाक़ी सब सदक़ा कर दे। (उम्दतुल-क़ारी, शाह वलियुल्लाह साहब की शरहे-मुवत्ता)। हदीस में इस मसले के बारे में जो रिवायतें आई हैं वे ये हैं— हज़रत कअ्ब-बिन-मालिक (रज़ि०) कहते हैं कि तबूक की जंग के मौक़े पर पीछे रह जाने की वजह से जो सज़ा मुझे मिली थी जब उसकी माफ़ी मिल गई तो मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि “मेरी तौबा में यह बात भी शामिल थी कि मैं अपने सारे माल से ख़ुद को अलग करके उसे अल्लाह और रसूल की राह में सदक़ा कर दूँगा।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, ऐसा न करो।” मैंने पूछा, “आधा माल?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं।” मैंने पूछा, “फिर एक तिहाई?” आप (सल्ल०) ने कहा, “हाँ।” (अबू-दाऊद)। दूसरी रिवायत में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम अपना कुछ माल अपने लिए रोक रखो तो यह तुम्हारे लिए ज़्यादा बेहतर है।” (हदीस : बुख़ारी)। इमाम ज़ुहरी कहते हैं कि मुझे यह ख़बर पहुँची है कि हज़रत अबू-लुबाबा (रज़ि०) ने (जिनको इसी तबूक की जंग के मामले में सज़ा हुई थी) नबी (सल्ल०) से कहा, “मैं अल्लाह और रसूल की राह में सदक़े के तौर पर अपना सारा माल छोड़ रहा हूँ।” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “तुम्हारे लिए उसमें से सिर्फ़ एक तिहाई दे देना काफ़ी है।” (हदीस : मुवत्ता)। (7) इस्लाम क़ुबूल करने से पहले अगर किसी शख़्स ने किसी नेक काम की नज़्र (मन्नत) मानी हो तो क्या इस्लाम क़ुबूल करने के बाद उसे पूरा किया जाए? नबी (सल्ल०) का हुक्म इस बारे में यह है कि उसे पूरा किया जाए। बुख़ारी, अबू-दाऊद और तहावी में हज़रत उमर (रज़ि०) के बारे में रिवायत है कि उन्होंने जाहिलियत के ज़माने में नज़्र मानी थी कि एक रात (और एक रिवायत के मुताबिक़ एक दिन) मस्जिदे-हराम (काबा) में एतिकाफ़ करेंगे। इस्लाम लाने के बाद उन्होंने नबी (सल्ल०) से इस बारे में पूछा तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अपनी नज़्र पूरी करो।” कुछ आलिमों ने नबी (सल्ल०) की इस हिदायत का यह मतलब लिया है कि ऐसा करना वाजिब है, और कुछ ने यह मतलब लिया है कि ऐसा करना मुस्तहब (पसन्दीदा) है। (8) मरनेवाले के ज़िम्मे अगर कोई नज़्र (मन्नत) रह गई हो तो उसे पूरा करना वारिसों पर वाजिब है या नहीं? इस मसले में आलिमों की रायें अलग-अलग हैं। इमाम अहमद, इसहाक़-बिन-राहवया, अबू-सौर और ज़ाहिरिया कहते हैं के मरनेवाले के ज़िम्मे अगर रोज़े या नमाज़ की नज़्र रह गई हो तो वारिसों पर उसका अदा करना वाजिब है। हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि नज़्र अगर बदनी इबादत (नामज़ या रोज़ा) की हो तो वारिसों पर उसका पूरा करना वाजिब नहीं है, और अगर नज़्र माली इबादत की हो और मरनेवाले ने अपने वारिसों को उसे पूरा करने की वसीयत न की हो तो उसे भी पूरा करना वाजिब नहीं है, अलबत्ता अगर उसने वसीयत की हो तो उसके तरके (छोड़े हुए माल) में से एक तिहाई की हद तक नज़्र पूरी करनी वाजिब होगी। मालिकी मसलक के आलिमों की राय भी इसी से मिलती-जुलती है। और शाफ़िई मसलक के आलिम कहते हैं कि नज़्र अगर बदनी इबादत की हो, या माली इबादत की हो और मरनेवाले ने कोई माल न छोड़ा हो, तो उसे पूरा करना वारिसों पर वाजिब नहीं है। और अगर मरनेवाले ने माल छोड़ा हो तो वारिसों पर माली इबादत की नज़्र पूरी करना वाजिब है, चाहे उसने वसीयत की हो या न की हो। (शरहे-मुस्लिम लिन-नववी, बज़लुल-मजहूद शरहे-अबी-दाऊद)। हदीस में इस मसले के बारे में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि हज़रत सअ्द-बिन-उबादा (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा कि “मेरी माँ का इन्तिक़ाल हो गया है और उनके ज़िम्मे एक नज़्र थी जो उन्होंने पूरी नहीं की थी।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम उसकी तरफ़ से नज़्र पूरी कर दो।” (हदीस : अबू-दाऊद, मुस्लिम)। दूसरी रिवायत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से यह है कि एक औरत ने समुद्री सफ़र किया और नज़्र मानी कि अगर मैं ज़िन्दा-सलामत वापस घर पहुँच गई तो एक महीने के रोज़े रखूँगी। वापस आने के बाद उसका इन्तिक़ाल हो गया और वह मर गई। उसकी बहन या बेटी ने आकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से मसला पूछा और आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “उसकी तरफ़ से तू रोज़े रख ले।” (हदीस : अबू-दाऊद)। ऐसी ही एक रिवायत अबू-दाऊद ने हज़रत बुरैदा (रज़ि०) से नक़्ल की है कि एक औरत ने नबी (सल्ल०) से इसी तरह का मसाला पूछा और आप (सल्ल०) ने उसे वही जवाब दिया जो ऊपर बयान हुआ है। इन रिवायतों में चूँकि यह बात साफ़ नहीं है कि नबी (सल्ल०) की ये हिदायतें वाजिब होने के मानी में थीं या पसन्दीदा होने के मानी में, और हज़रत सअ्द-बिन-उबादा (रज़ि०) की माँ की नज़्र के मामले में यह साफ़ नहीं है कि वह माली इबादत के बारे में थी या बदनी इबादत के बारे में, इसी वजह से फ़क़ीहों के बीच इस मसले में रायें अलग-अलग हैं। (9) ग़लत और नाजाइज़ क़िस्म की नज़्र (मन्नत) के मामले में यह बात तो साफ़ है कि उसे पूरा नहीं करना चाहिए। अलबत्ता इस मामले में रायें अलग-अलग है कि उसपर कफ़्फ़ारा ज़रूरी है या नहीं। इस मसले में चूँकि रिवायतें अलग-अलग हैं इसलिए फ़क़ीहों की रायें भी अलग-अलग हैं। एक तरह की रिवायतों में आया है कि नबी (सल्ल०) ने ऐसी सूरत में कफ़्फ़ारा का हुक्म दिया है। मसलन, हज़रत आइशा (रज़ि०) की यह रिवायत कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “गुनाह के कामों में कोई नज़्र नहीं है और उसका कफ़्फ़ारा क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा है।” (हदीस : अबू-दाऊद)। उक़बा-बिन-आमिर जुहनी की बहन के मामले में (जिसका ज़िक्र ऊपर नं० 4 गुज़र चुका है) नबी (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि वह अपनी नज़्र तोड़ दें और तीन दिन के रोज़े रखें। (हदीस : मुस्लिम, अबू-दाऊद)। एक औरत के मामले में भी जिसने पैदल हज की नज़्र मानी थी, नबी (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि वह सवारी पर हज के लिए जाए और क़सम का कफ़्फ़ारा अदा कर दे (हदीस : अबू-दाऊद)। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिसने एक नज़्र मान ली और इस बात को तय न किया कि किस बात की नज़्र मानी है वह क़सम का कफ़्फ़ारा दे। और जिसने गुनाह की नज़्र मानी वह क़़सम का कफ़्फ़ारा दे। और जिसने ऐसी नज़्र मानी जिसे वह पूरा न कर सकता हो वह क़सम का कफ़्फ़ारा दे। और जिसने ऐसी नज़्र मानी जिसे वह पूरा कर सकता हो वह उसे पूरा करे।” (हदीस : अबू-दाऊद)। दूसरी तरफ़ वे हदीसें हैं जिनसे मालूम होता है कि ऐसी सूरत में कफ़्फ़ारा नहीं है। ऊपर नम्बर 4 में जिन साहब का ज़िक्र आया है कि उन्होंने धूप में खड़े रहने और किसी से बात न करने की नज़्र मानी थी, उनका क़िस्सा नक़्ल करके इमाम मालिक (रह०) ने मुवत्ता में लिखा है कि मुझे किसी ज़रिए से भी यह मालूम नहीं हुआ कि नबी (सल्ल०) ने उनको नज़्र तोड़ने का हुक्म देने के साथ यह भी हुक्म दिया हो कि वह कफ़्फ़ारा अदा करें। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिसने किसी बात की क़सम खाई हो और बाद में वह देखे कि इससे बेहतर बात दूसरी है तो वह उसे छोड़ दे और वह काम करे जो बेहतर हो और उसे छोड़ देना ही उसका कफ़्फ़ारा है।” (हदीस : अबू-दाऊद। बैहक़ी कहते हैं कि यह हदीस और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की यह रिवायत कि “जो काम बेहतर है वह करे और यही उसका कफ़्फ़ारा है।” साबित नहीं है)। इमाम नबवी इन हदीसों पर बहस करते हुए शरहे-मुस्लिम में लिखते हैं कि इमाम मालिक (रह०), इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०), दाऊद ज़ाहिरी और ज़्यादातर आलिम कहते हैं कि गुनाह की नज़्र बातिल है और उसे पूरा न करने पर कफ़्फ़ारा लाज़िम नहीं आता। और इमाम अहमद (रह०) कहते हैं कि कफ़्फ़ारा लाज़िम आता है।
وَيُطۡعِمُونَ ٱلطَّعَامَ عَلَىٰ حُبِّهِۦ مِسۡكِينٗا وَيَتِيمٗا وَأَسِيرًا ۝ 7
(8) और अल्लाह की मुहब्बत11 में मिसकीन और यतीम और क़ैदी12 को खाना खिलाते हैं13
11. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘अला हुब्बिही’। क़ुरआन के ज़्यादातर आलिमों ने हुब्बिही की ज़मीर (सर्वनाम) का ताल्लुक़ खाने से बताया है, और वे इसका मतलब यह बयान करते हैं कि वे खाने के पसन्दीदा और दिलपसन्द होने और ख़ुद उसके ज़रूरतमन्द होने के बावजूद दूसरों को खिला देते हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और मुजाहिद कहते हैं कि इसका मतलब है, “ग़रीबों को खाना खिलाने के शौक़ में वे ऐसा करते हैं।” और हज़रत फ़ुज़ैल-बिन-अय्याज़ और अबू-सुलैमान अद-दारानी कहते हैं कि अल्लाह तआला की मुहब्बत में वे यह काम करते हैं। हमारे नज़दीक बाद का यह जुमला कि ‘हम तो अल्लाह की ख़ुशनूदी की ख़ातिर तुम्हें खिला रहे हैं’ इसी मतलब की ताईद करता है।
12. पुराने ज़माने में दस्तूर यह था कि क़ैदियों को हथकड़ी और बेड़ियाँ लगाकर रोज़ाना बाहर निकाला जाता था और वे सड़कों या मुहल्लों में भीख माँगकर पेट भरते थे। बाद में इस्लामी हुकूमत ने यह तरीक़ा बन्द किया (किताबुल-ख़िराज, इमाम अबू-यूसुफ़, पे० 150, एडीशन 1382 हि०)। इस आयत में क़ैदी से मुराद हर वह शख़्स है जो क़ैद में हो, चाहे वह ग़ैर-मुस्लिम हो या मुसलमान, चाहे जंगी क़ैदी हो या किसी जुर्म में क़ैद किया गया हो, चाहे उसे क़ैद की हालत में खाना दिया जाता हो या भीख मँगवाई जाती हो, हर हालत में एक बेबस आदमी को जो अपनी रोज़ी के लिए ख़ुद कोई कोशिश न कर सकता हो, खाना खिलाना एक बड़ी नेकी और भलाई का काम है।
13. हालाँकि किसी ग़रीब को खाना खिलाना अपनी जगह ख़ुद भी एक बड़ी नेकी है, लेकिन किसी ज़रूरतमन्द की दूसरी ज़रूरतें पूरी करना भी वैसा ही नेक काम है जैसा भूखे को खाना-खिलाना। मसलन कोई कपड़े का मुहताज है, या कोई बीमार है और इलाज का मुहताज है, या कोई क़र्जदार है और क़र्ज़ देनेवाला उसे परेशान कर रहा है तो उसकी मदद करना खाना-खिलाने से कम दर्जे की नेकी नहीं है। इसलिए इस आयत में नेकी की एक ख़ास सूरत को उसकी अहमियत के लिहाज़ से मिसाल के तौर पर पेश किया गया है, वरना अस्ल मक़सद ज़रूरतमन्दों की मदद करना है।
إِنَّمَا نُطۡعِمُكُمۡ لِوَجۡهِ ٱللَّهِ لَا نُرِيدُ مِنكُمۡ جَزَآءٗ وَلَا شُكُورًا ۝ 8
(9) (और उनसे कहते हैं कि) “हम तुम्हें सिर्फ़ अल्लाह की ख़ातिर खिला रहे हैं, हम तुमसे न कोई बदला चाहते हैं न शुक्रिया,14
14. ज़रूरी नहीं है कि ग़रीब को खाना खिलाते हुए ज़बान ही से यह बात कही जाए। दिल में भी यह बात कही जा सकती है और अल्लाह के यहाँ इसकी भी वही हैसियत है जो ज़बान से कहने की है। लेकिन ज़बान से यह बात कहने का ज़िक्र इसलिए किया गया है कि जिसकी मदद की जाए उसको यह इत्मीनान दिला दिया जाए कि हम उससे किसी तरह का शुक्रिया या बदला नहीं चाहते, ताकि वह बेफ़िक्र होकर खाए।
إِنَّا نَخَافُ مِن رَّبِّنَا يَوۡمًا عَبُوسٗا قَمۡطَرِيرٗا ۝ 9
(10) हमें तो अपने रब से उस दिन के अज़ाब का डर लगा हुआ है जो सख़्त मुसीबत का बहुत ही लम्बा दिन होगा।”
فَوَقَىٰهُمُ ٱللَّهُ شَرَّ ذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمِ وَلَقَّىٰهُمۡ نَضۡرَةٗ وَسُرُورٗا ۝ 10
(11) तो अल्लाह तआला उन्हें उस दिन की बुराई से बचा लेगा और उन्हें ताज़गी और ख़ुशी देगा15
15. यानी चेहरों की ताज़गी और दिल का सुरूर (सुकून, इतमीनान)। दूसरे अलफ़ाज़ में क़ियामत के दिन की सारी सख़्तियाँ और हौलनाकियाँ सिर्फ़ ख़ुदा के नाफ़रमानों और मुजरिमों के लिए होंगी, नेक लोग उस दिन हर तकलीफ़ से महफ़ूज़ और बहुत ख़ुश होंगे। यही बात सूरा-21 अम्बिया में बयान की गई है कि “वह इन्तिहाई घबराहट का वक़्त उनको ज़रा परेशान न करेगा और फ़रिश्ते बढ़कर उनको हाथों-हाथ लेंगे कि यह तुम्हारा वही दिन है जिसका तुमसे वादा किया जाता था।” (आयत-103)। और इसी को साफ़ तौर से सूरा-27 नम्ल में बयान किया गया है कि “जो शख़्स भलाई लेकर आएगा उसे उससे ज़्यादा बेहतर बदला मिलेगा, और ऐसे लोग उस दिन के हौल से महफ़ूज़ रहेंगे।” (आयत-89)।
وَجَزَىٰهُم بِمَا صَبَرُواْ جَنَّةٗ وَحَرِيرٗا ۝ 11
(12) और उनके सब्र के बदले में16 उन्हें जन्नत और रेशमी लिबास देगा।
16. यहाँ सब्र जिन बड़े मानी में इस्तेमाल हुआ है वह अपने अन्दर बहुत-से मतलब रखता, बल्कि हक़ीक़त में नेक ईमानवालों की पूरी दुनियावी ज़िन्दगी ही को सब्र की ज़िन्दगी क़रार दिया गया है। होश संभालने या ईमान लाने के बाद से मरते दम तक किसी शख़्स का अपनी नाजाइज़ ख़ाहिशों को दबाना, अल्लाह की बाँधी हुई हदों की पाबन्दी करना, अल्लाह के डाले हुए फ़र्ज़ों को पूरा करना, अल्लाह की ख़ुशनूदी के लिए अपना वक़्त, अपना माल, अपनी मेहनतें, अपनी क़ुव्वतें और क़ाबिलियतें, यहाँ तक कि ज़रूरत पड़ने पर अपनी जान तक क़ुरबान कर देना, हर उस लालच और फ़ायदों को ठुकरा देना जो अल्लाह की राह से हटाने के लिए सामने आए, हर उस ख़तरे और तकलीफ़ को बरदाश्त कर लेना जो सीधे रास्ते पर चलने में पेश आए, हर उस फ़ायदे और लज़्ज़त को छोड़ देना जो हराम तरीक़ों से हासिल हो, हर उस नुक़सान और दुख और तकलीफ़ को सह जाना जो हक़परस्ती की वजह से पहुँचे, और यह सब कुछ अल्लाह तआला के इस वादे पर एतिमाद करते हुए करना कि इस नेक रवैये के फल इस दुनिया में नहीं, बल्कि मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में मिलेंगे, एक ऐसा रवैया है जो ईमानवाले की पूरी ज़िन्दगी को सब्र की ज़िन्दगी बना देता है। यह हर वक़्त का सब्र है, हमेशा का सब्र है, हर मामले में किया जानेवाला सब्र है और उम्र भर का सब्र है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-60; सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—13, 107, 131; सूरा-6 अनआम, हाशिया-23; सूरा-8 अनफ़ाल, हाशिए—37, 47; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-9; सूरा-11 हूद, हाशिया-11; सूरा-13 रअ्द, हाशिया-39; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-98; सूरा-19 मरयम, हाशिया-40; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-94; सूरा-28 क़सस, हाशिए—75, 100; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-97; सूरा-31 लुक़मान, हाशिए—29, 56; सूरा-32 सजदा, हाशिया-37; सूरा-30 अहज़ाब, हाशिया-58; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-32; सूरा-41 हा-मीम-सजदा, हाशिया-38; सूरा-42 शूरा, हाशिया-53)
مُّتَّكِـِٔينَ فِيهَا عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِۖ لَا يَرَوۡنَ فِيهَا شَمۡسٗا وَلَا زَمۡهَرِيرٗا ۝ 12
(13) वहाँ वे ऊँची मसनदों पर तकिए लगाए बैठे होंगे। न उन्हें धूप की गर्मी सताएगी न जाड़े की ठण्ड।
وَدَانِيَةً عَلَيۡهِمۡ ظِلَٰلُهَا وَذُلِّلَتۡ قُطُوفُهَا تَذۡلِيلٗا ۝ 13
(14) जन्नत की छाँव उनपर झुकी हुई छाया कर रही होगी, और उसके फल हर वक़्त उनके बस में होंगे (कि जिस तरह चाहें उन्हें तोड़ लें)।
وَيُطَافُ عَلَيۡهِم بِـَٔانِيَةٖ مِّن فِضَّةٖ وَأَكۡوَابٖ كَانَتۡ قَوَارِيرَا۠ ۝ 14
(15) उनके आगे चाँदी के बरतन17 और शीशे के प्याले फिराए जा रहे होंगे,
17. सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-71 में कहा गया है कि उनके आगे सोने के बरतन फिराए जा रहे होंगे। इससे मालूम हुआ कि कभी वहाँ सोने के बरतन इस्तेमाल होंगे और कभी चाँदी के।
18. यानी वह होगी तो चाँदी, मगर शीशे की तरह शफ़्फ़ाफ़ (पारदर्शी) होगी। चाँदी की यह क़िस्म इस दुनिया में नहीं पाई जाती। यह सिर्फ़ जन्नत की ख़ुसूसियत होगी कि वहाँ शीशे जैसी साफ़-शफ़्फ़ाफ़ चाँदी के बरतन जन्नतियों के दस्तरख़ान पर पेश किए जाएँगे।
قَوَارِيرَاْ مِن فِضَّةٖ قَدَّرُوهَا تَقۡدِيرٗا ۝ 15
(16) शीशे भी वे जो चाँदी की क़िस्म के होंगे,18 और उनको (जन्नत के ख़ादिमों ने) ठीक नाप के मुताबिक़ भरा होगा।19
19. यानी हर शख़्स के लिए उसकी ख़ाहिश के ठीक नाप के मुताबिक़ प्याले भर-भरकर दिए जाएँगे। न वे उसकी ख़ाहिश से कम होंगे न ज़्यादा। दूसरे अलफ़ाज़ में जन्नतवालों के ख़िदमतगार इतने होशियार और तमीज़दार (सलीक़ेमन्द) होंगे कि वे जिसकी ख़िदमत में शराब के जाम पेश करेंगे उसके बारे में उनको पूरा अन्दाज़ा होगा कि वह कितनी शराब पीना चाहता है। (जन्नत की शराब की ख़ासियतों के बारे में देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात; आयतें—45 से 47, हाशिए—24 से 27; सूरा-47 मुहम्मद, आयत-15, हाशिया-22; सूरा-52 तूर, आयत-23, हाशिया-18; सूरा-56 वाक़िआ; आयत-19, हाशिया-10)
وَيُسۡقَوۡنَ فِيهَا كَأۡسٗا كَانَ مِزَاجُهَا زَنجَبِيلًا ۝ 16
(17) उनको वहाँ ऐसी शराब के जाम पिलाए जाएँगे जिसमें सोंठ मिली हुई होगी,
عَيۡنٗا فِيهَا تُسَمَّىٰ سَلۡسَبِيلٗا ۝ 17
(18) यह जन्नत का एक चश्मा (स्रोत) होगा जिसे ‘सल्सबील’ कहा जाता है।20
20. अरब के लोग चूँकि शराब के साथ सोंठ मिले हुए पानी की मिलावट को पसन्द करते थे, इसलिए कहा गया कि वहाँ उनको वह शराब पिलाई जाएगी जिसमें सोंठ की मिलावट होगी। लेकिन इस मिलावट की सूरत यह न होगी कि उसके अन्दर सोंठ मिलाकर पानी डाला जाएगा, बल्कि यह एक क़ुदरती चश्मा (स्रोत) होगा जिसमें सोंठ की ख़ुशबू तो होगी, मगर उसकी तल्ख़ी न होगी, इसलिए उसका नाम ‘सल्सबील’ होगा। सल्सबील से मुराद ऐसा पानी है जो मीठा, हलका और मज़ेदार होने की वजह से गले से आसानी से उतर जाए। क़ुरआन के ज़्यादातर आलिमों का ख़याल यह है कि यहाँ सलसबील का लफ़्ज़ उस चश्मा (स्रोत) के लिए सिफ़त (गुण) के तौर पर इस्तेमाल हुआ है न कि नाम के तौर पर।
۞وَيَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ وِلۡدَٰنٞ مُّخَلَّدُونَ إِذَا رَأَيۡتَهُمۡ حَسِبۡتَهُمۡ لُؤۡلُؤٗا مَّنثُورٗا ۝ 18
(19) उनकी ख़िदमत के लिए ऐसे लड़के दौड़ते फिर रहे होंगे जो हमेशा लड़के ही रहेंगे। तुम उन्हें देखो तो समझो कि मोती हैं जो बिखेर दिए गए हैं।21
21. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-26; सूरा-52 तूर, हाश्यिा-19; सूरा-56 वाक़िआ, हाशिया-9।
وَإِذَا رَأَيۡتَ ثَمَّ رَأَيۡتَ نَعِيمٗا وَمُلۡكٗا كَبِيرًا ۝ 19
(20) वहाँ जिधर भी तुम निगाह डालोगे नेमतें-ही-नेमतें और एक बड़ी सल्तनत का सरो-सामान तुम्हें नज़र आएगा।22
22. यानी दुनिया में चाहे कोई शख़्स गुमनाम फ़क़ीर ही क्यों न रहा हो, जब वह अपने अच्छे और बेहतरीन आमाल (कर्मों) की वजह से जन्नत में जाएगा तो वहाँ इस शान से रहेगा मानो वह एक अज़ीमुश्शान सल्तनत का मालिक है।
عَٰلِيَهُمۡ ثِيَابُ سُندُسٍ خُضۡرٞ وَإِسۡتَبۡرَقٞۖ وَحُلُّوٓاْ أَسَاوِرَ مِن فِضَّةٖ وَسَقَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ شَرَابٗا طَهُورًا ۝ 20
(21) उनके ऊपर बारीक रेशम के हरे लिबास और अतलस और दीबा के कपड़े होंगे,23 उनको चाँदी के कंगन पहनाए जाएँगे,24 और उनका रब उनको बहुत ही पाकीज़ा शराब पिलाएगा।25
23. यही बात सूरा-18 कह्फ़, आयत-31 में गुज़र चुकी है कि “वे (यानी जन्नतवाले) बारीक रेशम और अतलस और दीबा के हरे कपड़े पहनेंगे, ऊँची मसनदों पर तकिए लगाकर बैठेंगे।” इस वजह से क़ुरआन के उन आलिमों की राय सही नहीं मालूम होती जिन्होंने यह ख़याल ज़ाहिर किया है कि इससे मुराद वे कपड़े हैं जो उनकी मसनदों या मसहरियों के ऊपर लटके हुए होंगे, या यह उन लड़कों का लिबास होगा जो उनकी ख़िदमत में दौड़े फिर रहे होंगे।
24. सूरा-18 कह्फ़ आयत-31 में कहा गया है, “वे वहाँ सोने के कंगनों से सजाए जाएँगे।” यही बात सूरा-22 हज, आयत-23 और सूरा-35 फ़ातिर, आयत-33 में भी कही गई है। इन सब आयतों को मिलाकर देखा जाए तो तीन सूरतें मुमकिन महसूस होती हैं। एक यह कि कभी वे चाहेंगे तो सोने के कंगन पहनेंगे और कभी चाहेंगे तो चाँदी के कंगन पहन लेंगे। दोनों चीज़ें उनकी ख़ाहिश के मुताबिक़ मौजूद होंगी। दूसरे यह कि सोने और चाँदी के कंगन वे एक ही वक़्त में पहनेंगे, क्योंकि दोनों को मिला देने से ख़ूबसूरती बढ़ जाती है। तीसरे यह कि जिसका जी चाहेगा सोने के कंगन पहनेगा और जो चाहेगा चाँदी के कंगन इस्तेमाल करेगा। रहा यह सवाल कि ज़ेवर तो औरतें पहनती हैं, मर्दों को ज़ेवर पहनाने का क्या मौक़ा है? इसका जवाब यह है कि पुराने ज़माने में बादशाहों और रईसों का तरीक़ा यह था कि वे हाथों और गले और सिर के ताजों में तरह-तरह के ज़ेवरात इस्तेमाल करते थे, बल्कि हमारे ज़माने में ब्रिटेन के राजाओं और नवाबों तक में इस दस्तूर का चलन रहा है। सूरा-43 ज़ुख़रुफ़ में बयान हुआ है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) जब अपने सादा लिबास में बस एक लाठी लिए हुए फ़िरऔन के दरबार में पहुँचे और उससे कहा कि मैं सारे जहान के रब अल्लाह का भेजा हुआ पैग़म्बर हूँ तो उसने अपने दरबारियों से कहा कि यह अच्छा सफ़ीर (राजनयिक) है जो इस हालत में मेरे सामने आया है, “अगर यह ज़मीन और आसमान के बादशाह की तरफ़ से भेजा गया होता तो क्यों न इसपर सोने के कंगन उतारे गए? या फ़रिश्तों का कोई लश्कर ही इसकी अरदली में आता।” (आयत-53)
25. पहले दो शराबों का ज़िक्र गुज़र चुका है। एक वह जिसमें काफ़ूर के चश्मे (स्रोत) का पानी मिला हुआ होगा। दूसरी वह जिसमें सोंठ का पानी मिला होगा। इन दोनों शराबों के बाद अब फिर एक शराब का ज़िक्र करना और यह कहना कि उनका रब उन्हें बहुत ही पाकीज़ा शराब पिलाएगा, यह मानी रखता है कि यह कोई और बेहतरीन क़िस्म की शराब होगी जो अल्लाह तआला की तरफ़ से ख़ास मेहरबानी के तौर पर उन्हें पिलाई जाएगी।
إِنَّ هَٰذَا كَانَ لَكُمۡ جَزَآءٗ وَكَانَ سَعۡيُكُم مَّشۡكُورًا ۝ 21
(22) यह है तुम्हारा इनाम और तुम्हारी कारगुज़ारी क़ाबिले-क़द्र ठहरी है।26
26. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘का-न सअ्युकुम-मशकूरा’। यानी ‘तुम्हारी सई (कोशिश) मशकूर हुई’। सई से मुराद ज़िन्दगी का वह पूरा कारनामा है जो बन्दे ने अंजाम दिया। जिन कामों में उसने अपनी मेहनतें और जिन मक़सदों के लिए उसने अपनी कोशिशें लगाईं उन सबको उसकी ‘सई’ कहा गया है और उसके मशकूर होने का मतलब यह है कि अल्लाह तआला के यहाँ वह क़द्र के क़ाबिल ठहरी। शुक्रिया जब बन्दे की तरफ़ से ख़ुदा के लिए हो तो उससे मुराद उसकी नेमतों पर एहसानमन्दी होती है, और जब ख़ुदा की तरफ़ से बन्दे के लिए हो तो उसका मतलब यह होता है कि अल्लाह तआला ने उसके कामों की क़द्र की। मालिक की यह बहुत बड़ी मेहरबानी है कि बन्दा जब उसकी मर्ज़ी के मुताबिक़ अपना फ़र्ज़ निभाए तो वह उसका शुक्रिया अदा करे।
إِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا عَلَيۡكَ ٱلۡقُرۡءَانَ تَنزِيلٗا ۝ 22
(23) ऐ नबी, हमने ही तुमपर यह क़ुरआन थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है,27
27. यहाँ बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही गई है, लेकिन अस्ल में बात का रुख़ इस्लाम-मुख़ालिफ़ लोगों की तरफ़ है। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ कहते थे कि मुहम्मद यह क़ुरआन ख़ुद सोच-सोचकर बना रहे हैं, वरना अल्लाह तआला की तरफ़ से कोई फ़रमान आता तो इकट्ठा एक ही बार में आ जाता। क़ुरआन मजीद में कुछ जगहों पर उनका यह एतिराज़ नक़्ल करके उसका जवाब दिया गया है। (मिसाल के तौर पर देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिए—102, 104, 105, 106; सूरा-17, बनी-इसराईल, हाशिया-119) और यहाँ उसे नक़्ल किए बिना अल्लाह तआला ने पूरे ज़ोर के साथ फ़रमाया है कि इसके उतारनेवाले हम हैं, यानी मुहम्मद (सल्ल०) इसके लिखनेवाले नहीं हैं, और हम ही इसको थोड़ा-थोड़ा करके उतार रहे हैं, यानी यह हमारी हिकमत का तक़ाज़ा है कि अपना पैग़ाम एक ही वक़्त में एक किताब की शक्ल में उतार न दें, बल्कि उसे थोड़ा-थोड़ा करके भेजें।
فَٱصۡبِرۡ لِحُكۡمِ رَبِّكَ وَلَا تُطِعۡ مِنۡهُمۡ ءَاثِمًا أَوۡ كَفُورٗا ۝ 23
(24) इसलिए तुम अपने रब के हुक्म पर सब्र करो,28 और इनमें से किसी बुरे काम करनेवाले या हक़ का इनकार करनेवाले की बात न मानो।29
28. यानी तुम्हारे रब ने जिस अहम और बड़े काम पर तुम्हें लगाया है उसकी सख़्तियों और मुश्किलों पर सब्र करो, जो कुछ भी तुमपर गुज़र जाए उसे हौसले के साथ बरदाश्त करते चले जाओ और अपने पाँव लड़खड़ाने न दो।
29. यानी उनमें से किसी से दबकर सच्चे दीन की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) से बाज़ न आओ, और किसी बदकार (दुराचारी) की ख़ातिर दीन की अख़लाक़ी तालीमात में, या किसी हक़ के इनकारी की ख़ातिर दीन के अक़ीदों में ज़र्रा बराबर भी तबदीली करने के लिए तैयार न हो। जो कुछ हराम और नाजाइज़ है उसे खुल्लम-खुल्ला हराम और नाजाइज़ कहो, चाहे कोई बदकार कितना ही ज़ोर लगाए कि तुम उसकी बुराई करने में ज़रा-सी नर्मी ही बरत लो। और जो अक़ीदे ग़लत हैं उन्हें खुल्लम-खुल्ला ग़लत और जो सही हैं उन्हें खुल्लम-खुल्ला सही कहो, चाहे इस्लाम-मुख़ालिफ़ तुम्हारा मुँह बन्द करने, या इस मामले में कुछ नर्मी बरतने के लिए तुमपर कितना ही दबाव डालें।
وَٱذۡكُرِ ٱسۡمَ رَبِّكَ بُكۡرَةٗ وَأَصِيلٗا ۝ 24
(25) अपने रब का नाम सुबह-शाम याद करो,
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَٱسۡجُدۡ لَهُۥ وَسَبِّحۡهُ لَيۡلٗا طَوِيلًا ۝ 25
(26) रात को भी उसके सामने सजदा करो, और रात के लम्बे वक़्तों में उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो।30
30. क़ुरआन का क़ायदा यह है कि जहाँ भी इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के मुक़ाबले में सब्र और जमाव की ताकीद की गई है वहाँ उसके ठीक बाद अल्लाह के ज़िक्र और नमाज़ का हुक्म दिया गया है, जिससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर होती है कि सच्चे दीन (इस्लाम) की राह में हक़ के दुश्मनों की मुख़ालफ़तों और रुकावटों का मुक़ाबला करने के लिए जिस ताक़त की ज़रूरत है वह इसी चीज़ से हासिल होती है। सुबह-शाम अल्लाह का ज़िक्र करने से मुराद हमेशा अल्लाह को याद करना भी हो सकता है, मगर जब अल्लाह की याद का हुक्म वक़्तों को तय कर देने के साथ दिया जाए तो फिर इससे मुराद नमाज़ होती है। इस आयत में सबसे पहले कहा, ‘वज़ कुरिस-म रब्बि-क बुक-रतंव-व-असीला’ (अपने रब का नाम सुबह-शाम याद करो)। ‘बुक्रह’ अरबी ज़बान में सुबह को कहते हैं। और ‘असील’ का लफ़्ज़ सूरज ढलने के वक़्त से सूरज डूबने तक के लिए इस्तेमाल किया जाता है जिसमें ज़ुह्‍र और अस्र के वक़्त आ जाते हैं। फिर फ़रमाया, “वमिनल-लैलि फ़स्जुद लहू’ (और रात को भी उसको सजदा करो)। रात का वक़्त सूरज डूबने के बाद शुरू हो जाता है, इसलिए रात को सजदा करने के हुक्म में मग़रिब और इशा, दोनों वक़्तों की नमाज़ें शामिल हो जाती हैं। इसके बाद यह कहना कि रात के लम्बे वक़्तों में उसकी तसबीह करते रहो, तहज्जुद की नमाज़ की तरफ़ साफ़ इशारा करता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—92 से 97; सूरा-73 मुज़्ज़म्मिल, हाशिया-2)। इससे यह भी मालूम हुआ कि नमाज़ के यही वक़्त शुरू से इस्लाम में थे, अलबत्ता वक़्तों और रकअतों के तय होने के साथ पाँच वक़्तों की नमाज़ के फ़र्ज़ होने का हुक्म मेराज के मौक़े पर दिया गया।
إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ يُحِبُّونَ ٱلۡعَاجِلَةَ وَيَذَرُونَ وَرَآءَهُمۡ يَوۡمٗا ثَقِيلٗا ۝ 26
(27) ये लोग तो जल्दी हासिल होनेवाली चीज़ (दुनिया) से मुहब्बत रखते हैं और आगे जो भारी दिन आनेवाला है उसे नज़र-अन्दाज़ कर देते हैं।31
31. यानी ये क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन जिस वजह से अख़लाक़ और अक़ीदों की गुमराहियों पर अड़े हैं, और जिस वजह से नबी (सल्ल०) की हक़ की दावत के लिए इनके कान बहरे हो गए हैं, वह अस्ल में इनकी दुनिया-परस्ती और आख़िरत से बेफ़िक्री और बेपरवाही है। इसलिए एक सच्चे ख़ुदापरस्त इनसान का रास्ता इनके रास्ते से इतना अलग है कि दोनों के बीच किसी समझौते का सिरे से कोई सवाल ही पैदा नहीं होता।
نَّحۡنُ خَلَقۡنَٰهُمۡ وَشَدَدۡنَآ أَسۡرَهُمۡۖ وَإِذَا شِئۡنَا بَدَّلۡنَآ أَمۡثَٰلَهُمۡ تَبۡدِيلًا ۝ 27
(28) हमने ही इनको पैदा किया है और इनके जोड़-बन्द मज़बूत किए हैं, और हम जब चाहें इनकी शक्लों को बदलकर रख दें।32
32. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘इज़ा शिअ्ना बद्दलना अमसालहुम तबदीला’। इस जुमले के कई मतलब हो सकते हैं। एक यह कि हम जब चाहें इन्हें हलाक करके इन्हीं की जाति के दूसरे लोग इनकी जगह ला सकते हैं जो अपने किरदार में इनसे अलग हों। दूसरे यह कि हम जब चाहें इनकी शक्लें तबदील कर सकते हैं, यानी जिस तरह हम किसी को तन्दुरुस्त और ठीक-ठीक आज़ा (अंगोंवाला) बना सकते हैं उसी तरह हम यह भी कर सकते हैं कि किसी को मफ़लूज (अपंग) कर दें, किसी को लक़वा मार जाए, और कोई किसी बीमारी या हादिसे का शिकार होकर अपाहिज हो जाए। तीसरे यह कि हम जब चाहें मौत के बाद इनको दोबारा किसी और शक्ल में पैदा कर सकते हैं।
إِنَّ هَٰذِهِۦ تَذۡكِرَةٞۖ فَمَن شَآءَ ٱتَّخَذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ سَبِيلٗا ۝ 28
(29) यह एक नसीहत है, अब जिसका जी चाहे अपने रब की तरफ़ जाने का रास्ता इख़्तियार ले।
وَمَا تَشَآءُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمٗا ۝ 29
(30) और तुम्हारे चाहने से कुछ नहीं होता जब तक अल्लाह न चाहे।33 यक़ीनन अल्लाह बड़ा जाननेवाला और हिकमतवाला है।
33. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-74 मुद्दस्सिर, हाशिया-41 (इसके अलावा देखिए— ज़मीमा (परिशिष्ट) नं० 1)
يُدۡخِلُ مَن يَشَآءُ فِي رَحۡمَتِهِۦۚ وَٱلظَّٰلِمِينَ أَعَدَّ لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمَۢا ۝ 30
(31) अपनी रहमत में जिसको चाहता है दाख़िल करता है, और ज़ालिमों के लिए उसने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।34
34. इसकी तशरीह हम इसी सूरा के परिचय में कर चुके हैं। (इसके अलावा देखिए— ज़मीमा (परिशिष्ट) नं० 2)
سُورَةُ الإِنسَانِ
76. अद-दहर