(12) हमने17 लुक़मान को हिकमत (तत्त्वदर्शिता) अता की थी कि अल्लाह का शुक्रगुज़ार हो।18 जो कोई शुक्र करे उसका शुक्र उसके अपने ही लिए फ़ायदेमन्द है। और जो कुफ़्र करे तो हक़ीक़त में अल्लाह बेनियाज़ (निस्पृह) और आप-से-आप तारीफ़ के क़ाबिल (महमूद) है।19
17. शिर्क (बहुदेववाद) को रद्द करने में एक ज़बरदस्त अक़्ली दलील पेश करने के बाद अब अरब के लोगों को यह बताया जा रहा है कि यह अक़्ल में आनेवाली बात आज कोई पहली बार तुम्हारे सामने पेश नहीं की जा रही है, बल्कि पहले भी अक़्लमन्द और समझदार लोग यही बात कहते रहे हैं और तुम्हारा अपना मशहूर हकीम लुक़मान अब से बहुत पहले यही कुछ कह गया है। इसलिए तुम मुहम्मद (सल्ल०) की इस दावत (पैग़ाम) के जवाब में यह नहीं कह सकते कि अगर शिर्क कोई नामुनासिब और अक़्ल के ख़िलाफ़ अक़ीदा है तो पहले किसी को यह बात क्यों न सूझी।
लुक़मान की शख़्सियत अरब में एक हकीम और अक़्लमन्द की हैसियत से बहुत मशहूर थी। जाहिलियत के ज़माने के शाइर (कवि) लोग मसलन इम्र-उल-क़ैस, लबीद, आशा, तरफ़ा वग़ैरा के कलाम में उनका ज़िक्र किया गया है। अरबवालों में कुछ पढ़े-लिखे लोगों के पास लुक़मान के सहीफ़े के नाम से उनकी हिकमत भरी बातों का एक मजमूआ (संग्रह) भी मौजूद था। चुनाँचे रिवायतों में आया है कि हिजरत से तीन साल पहले मदीना का सबसे पहला शख़्स जो नबी (सल्ल०) से मुतास्सिर हुआ, वह सुवैद-बिन-सामित था। वह हज के लिए मक्का गया। वहाँ नबी (सल्ल०) अपने तरीक़े के मुताबिक़ अलग-अलग इलाक़ों से आए हुए हाजियों के ठिकानों पर जा-जाकर इस्लाम का पैग़ाम पहुँचा रहे थे। इस सिलसिले में सुवैद ने जब नबी (सल्ल०) की तक़रीर सुनी तो उसने आप (सल्ल०) से कहा कि आप जो बातें पेश कर रहे हैं, ऐसी ही एक चीज़ मेरे पास भी है। आप (सल्ल०) ने पूछा, “वह क्या है?” उसने कहा, “लुक़मान की किताब।” फिर आप (सल्ल०) की फ़रमाइश पर उसने उस किताब का कुछ हिस्सा आप (सल्ल०) को सुनाया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह बहुत अच्छा कलाम है, मगर मेरे पास एक और कलाम इससे भी बेहतर है।” इसके बाद आप (सल्ल०) ने उसे क़ुरआन सुनाया और उसने इस बात को माना कि यह बेशक लुक़मान की किताब से बेहतर है (सीरत इब्ने-हिशाम, हिस्सा-2, पृ. 67 से 69, उसदुल-ग़ाबा, हिस्सा-2, पृ. 378)। इतिहासकारों का बयान है कि यह आदमी (सुवैद-बिन-सामित) मदीना में अपनी क़ाबिलियत, बहादुरी, शेरो-शाइरी और ख़ानदानी शराफ़त की वजह से 'कामिल' (मुकम्मल) के लकब से पुकारा जाता था। लेकिन नबी (सल्ल०) से मुलाकात के बाद जब वह मदीना वापस हुआ तो कुछ मुद्दत के बाद बुआस की जंग हुई और यह उसमें मारा गया। उसके क़बीले के लोगों का आम ख़याल यह था कि नबी (सल्ल०) से मुलाकात के बाद वह मुसलमान हो गया था।
ऐतिहासिक पहलू से लुक़मान की शख़्सियत के बारे में बड़े इख़्तिलाफ़ (मतभेद) हैं। जाहिलियत की अंधेरी सदियों में कोई लिखा हुआ या तरतीब-शुदा इतिहास मौजूद नहीं था। जानकारियों का दारोमदार एक-दूसरे से सुनी हुई उन रिवायतों पर था जो सैंकड़ों सालों से चली आ रही थीं। उन रिवायतों के मुताबिक़ कुछ लोग लुक़मान को आद क़ौम का एक आदमी और यमन का एक बादशाह बताते थे। मौलाना सय्यिद सुलैमान नदवी (रह०) ने इन्हीं रिवायतों पर भरोसा करके अपनी किताब 'अर्ज़ुल-क़ुरआन' में यह राय ज़ाहिर की है कि आद क़ौम पर ख़ुदा का अज़ाब आने के बाद इस क़ौम के जो ईमानवाले हज़रत हूद (अलैहि०) के साथ बच गए थे, लुक़मान उन्हीं की नस्ल से था, और यमन में उस क़ौम ने जो हुकुमत क़ायम की थी, यह उसके बादशाहों में से एक था। लेकिन दूसरी रिवायतें जो कुछ बड़े सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन (रह०) से बयान हुई हैं, इसके बिलकुल ख़िलाफ़ हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि लुक़मान एक हबशी ग़ुलाम थे। यही बात हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), मुजाहिद, इकरिमा, और ख़ालिदुर-रबई (रह०) ने कही है। हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह अनसारी का बयान है कि लुक़मान नूबा के रहनेवाले थे। सईद-बिन-मुसय्यब का कहना है कि वे मिस्र के काले रंग के लोगों में से थे। ये तीनों लगभग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, क्योंकि अरब के लोग काले रंग के लोगों को उस ज़माने में आम तौर से हबशी कहा करते थे, और नूबा उस इलाक़े का नाम है जो मिस्र के दक्षिण और सूडान के उत्तर में मौजूद है। इसलिए तीनों बातों में एक शख़्स को मिस्री, नूबी और हबशी क़रार देना सिर्फ़ लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ है, मानी में कोई फ़र्क़ नहीं है। फिर 'रौज़ुल-उनुफ़' में सुहैली और ‘मुरूजुज़्ज़हब' में मसऊदी के बयानात से इस सवाल पर भी रौशनी पड़ती है कि इस सूडानी ग़ुलाम की बातें अरब में कैसे फैलीं। इन दोनों का बयान है कि यह आदमी असलन तो नूबी था, लेकिन रहनेवाला मदयन और ऐला (मौजूदा अ-क़बा) के इलाक़े का था। इसी वजह से इसकी ज़बान अरबी थी और इसकी हिकमत और सूझ-बूझ की अरब में चर्चा हुई। इसके अलावा सुहैली ने यह भी साफ़ बयान किया है कि हकीम लुक़मान और लुक़मान-बिन-आद दो अलग-अलग आदमी हैं। उनको एक शख़्सियत ठहराना सही नहीं है। (रौज़ुल-उनुफ़, हिस्सा-1, पे० 266; मसऊदी, हिस्सा-1 प.57)
यहाँ इस बात को वाज़ेह कर देना भी ज़रूरी है कि मुस्तशरिक़ (प्राच्यविद्) देरेनबोर्ग (Derenbourg) ने पैरिस की लाइब्रेरी का एक अरबी मख़तूता (आलेख) जो लुक़मान हकीम की कहानियों (Fables De Loqman Le Suge) के नाम से छापा है, वह हक़ीक़त में एक गढ़ी हुई चीज़ है, जिसका लुक़मान की किताब से दूर का भी ताल्लुक़ नहीं है। ये कहानियाँ तेरहवीं सदी ईसवी में किसी आदमी ने जमा की थीं। इसकी अरबी बहुत नाक़िस (कमज़ोर) है और इसे पढ़ने से साफ़ महसूस होता है कि यह अस्ल में किसी और ज़बान की किताब का तर्जमा है जिसे तर्जमा करनेवाले ने अपनी तरफ़ से लुक़मान हकीम से जोड़ दिया है। मुस्तशरिक़ीन (प्राच्यविद्) इस तरह की चीज़ें निकाल-निकालकर जिस मक़सद के लिए सामने लाते हैं, यह इसके सिवा कुछ नहीं है कि किसी तरह क़ुरआन के बयान किए हुए किस्सों को इतिहास के ख़िलाफ़ कहानियाँ साबित करके भरोसा न करने लायक़ ठहरा दिया जाए। जो शख़्स भी 'इंसाइक्लोपेडिया ऑफ़ इस्लाम' में 'लुक़मान' पर बी. हेलर (B. Heller) का लेख पढ़ेगा, उससे लोगों की नीयत का हाल छिपा न रहेगा।
18. यानी अल्लाह की दी हुई इस हिकमत और सूझ-बूझ और गहरी नज़र और अक़्लमन्दी का सबसे पहला तक़ाज़ा यह था कि इनसान अपने रब के मुक़ाबले में शुक्रगुज़ारी और एहसानमन्दी का रवैया अपनाए, न कि नाशुक्री और नमक-हरामी का। और उसका यह शुक्र सिर्फ़ ज़बानी जमा ख़र्च ही न हो, बल्कि सोचने, कहने और करने, तीनों सूरतों में हो। वह अपने दिलो-दिमाग़ की गहराइयों में इस बात का यक़ीन और शुऊर भी रखता हो कि मुझे जो कुछ मिला हुआ है, ख़ुदा का दिया हुआ है। उसकी ज़बान अपने ख़ुदा की मेहरबानियों और एहसानों को हमेशा मानती भी रहे। और वह अमली तौर पर भी ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी करके, उसकी नाफ़रमानी से बचकर, उसकी ख़ुशी चाहने के लिए दौड़-धूप करके, उसके दिए हुए इनामों को उसके बन्दों तक पहुँचाकर, और उसके ख़िलाफ़ बग़ावत करनेवालों से कश्मकश करके यह साबित कर दे कि वह सचमुच अपने ख़ुदा का एहसानमन्द है।
19. यानी जो शख़्स कुफ़्र (नाशुक्री) करता है, उसका कुफ़्र उसके अपने लिए नुक़सानदेह है, अल्लाह तआला का उससे कोई नुक़सान नहीं होता। वह बेनियाज़ है, किसी के शुक्र का मुहताज नहीं है। किसी का शुक्र उसकी ख़ुदाई में कोई इज़ाफ़ा नहीं कर देता, न किसी की नाशुक्री उस हक़ीक़त को बदल सकती है कि बन्दों को जो नेमत भी नसीब है, उसी की दी हुई है। वह तो आप-से-आप तारीफ़ के क़ाबिल है, चाहे कोई उसकी तारीफ़ करे या न करे। कायनात का ज़र्रा-ज़र्रा उसके कमाल और जमाल की गवाही दे रहा है और इस बात की गवाही दे रहा है कि वही हस्ती पैदा करनेवाली और रोज़ी देनेवाली है। और पैदा की हुई हर चीज़ अपने ज़बाने-हाल से उसकी तारीफ़ कर रही है।