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سُورَةُ لُقۡمَانَ

31. लुक़मान 

(मक्‍का में उतरी, आयतें 34)

परिचय

नाम

इस सूरा के दूसरे रुकूअ (आयत 12 से 19 तक) में वे नसीहतें बयान की गई हैं जो हकीम लुक़मान ने अपने बेटे को की थीं। इसी सम्पर्क से इसका नाम लुक़मान रखा गया है।

उतरने का समय

इसकी विषय वस्तुओं पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि यह उस समय उतरी है जब इस्लामी सन्देश को दबाने और रोकने के लिए दमन और अत्याचार का आरंभ हो चुका था, लेकिन अभी विरोध के तूफ़ान ने पूरी तरह भयानक रूप धारण नहीं किया था। इसकी निशानदेही आयत 14-15 से होती है, जिनमें नए-नए मुसलमान होनेवाले नौजवानों को बताया गया है कि माँ-बाप के हक़ तो बेशक अल्लाह के बाद सबसे बढ़कर हैं, लेकिन अगर वे तुम्हें शिर्क की ओर पलटने पर विवश करें तो उनकी यह बात कदापि न मानना।

विषय और वार्ता

इस सूरा में लोगों को शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का निरर्थक और अनुचित होना और तौहीद (ऐकेश्वरवाद) का सत्य, उचित एवं उपयोगी होना समझाया गया है और उन्हें दावत दी गई है कि बाप-दादा की अंधी पैरवी छोड़ दें। खुले मन से उस शिक्षा पर विचार करें जो मुहम्मद (सल्ल०) जगत् के स्वामी की ओर से पेश कर रहे हैं और खुली आँखों से देखें कि हर ओर जगत् में और स्वयं उनके अपने भीतर कैसी-कैसी खुली निशानियाँ उसके सत्य होने की गवाही दे रही हैं। इस सिलसिले में यह भी बताया गया है कि यह कोई नई आवाज़ नहीं है जो दुनिया में या स्वयं अरब के इलाक़ों में पहली बार उठी हो। पहले भी जो लोग ज्ञान और बुद्धि तथा सूझ-बूझ और विवेक रखते थे, वे यही बातें कहते थे, जो आज मुहम्मद (सल्ल०) कह रहे हैं। तुम्हारे अपने ही देश में लुक़मान नामक हकीम गुज़र चुका है, जिसकी समझ-बूझ और विवेक को [तुम ख़ुद भी मानते हो।] अब देख लो कि वह किस विश्वास और किस नैतिकता की शिक्षा देता था।

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سُورَةُ لُقۡمَانَ
31. लुक़मान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
الٓمٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 1
(2) ये हिकमतवाली किताब की आयतें हैं,1
1. यानी ऐसी किताब की आयतें जो हिकमत से भरी हुई हैं, जिसकी हर बात हिकमत भरी है।
هُدٗى وَرَحۡمَةٗ لِّلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 2
(3) हिदायत और रहमत अच्छे काम करनेवाले लोगों के लिए,2
2. यानी ये आयतें सीधे रास्ते की तरफ़ रहनुमाई करनेवाली हैं और ख़ुदा की तरफ़ से रहमत बनकर आई हैं, मगर इस रहमत और हिदायत से फ़ायदा उठानेवाले सिर्फ़ वही लोग हैं जो अच्छे काम करने का तरीक़ा अपनाते हैं, जो नेक बनना चाहते हैं, जिन्हें भलाई की तलाश है, जिनकी सिफ़त यह है कि बुराइयों पर जब उन्हें ख़बरदार कर दिया जाए तो उनसे रुक जाते हैं, और भलाई की राहें जब उनके सामने खोलकर रख दी जाएँ तो उनपर चलने लगते हैं। रहे बदकार और शरारती लोग, तो वे न इस रहनुमाई से फ़ायदा उठाएँगे, न इस रहमत में से हिस्सा पाएँगे।
ٱلَّذِينَ يُقِيمُونَ ٱلصَّلَوٰةَ وَيُؤۡتُونَ ٱلزَّكَوٰةَ وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ يُوقِنُونَ ۝ 3
(4) जो नमाज़ क़ायम करते हैं और ज़कात देते हैं और आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं।3
3. यह मुराद नहीं है कि जिन लोगों को 'अच्छे काम करनेवाले' कहा गया है उनके अन्दर बस यही तीन ख़ूबियाँ पाई जाती हैं। अस्ल में पहले 'अच्छे काम करनेवाले' का लफ़्ज़ इस्तेमाल करके इस बात की तरफ़ इशारा किया गया कि वे उन तमाम बुराइयों से रुकनेवाले हैं जिनसे यह किताब रोकती है, और उन सारे नेक कामों पर अमल करनेवाले हैं जिनका यह किताब हुक्म देती है। फिर इन 'अच्छे काम करनेवाले’ लोगों की तीन अहम ख़ूबियों का ख़ास तौर पर ज़िक्र किया गया जिसका मक़सद यह ज़ाहिर करना है कि बाक़ी सारी नेकियों का दारोमदार इन्हीं तीन चीज़ों पर है। वे नमाज़ क़ायम करते हैं, जिससे ख़ुदापरस्ती और ख़ुदातरसी उनकी हमेशा की आदत बन जाती है। वे ज़कात देते हैं, जिससे ईसार (त्याग) और क़ुरबानी का जज़्बा उनके अन्दर पुख़्ता होता है, दुनियावी चीज़ों की मुहब्बत दबती है और अल्लाह की ख़ुशनूदी (प्रसन्नता) की तलब उभरती है। और वे आख़िरत पर यक़ीन रखते हैं, जिससे उनके अन्दर ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का एहसास उभरता है, जिसकी बदौलत वे उस जानवर की तरह नहीं रहते जो चराहगाह में छूटा फिर रहा हो, बल्कि उस इनसान की तरह हो जाते हैं जिसे यह समझ हासिल हो कि मैं अपनी मरज़ी का मालिक नहीं हूँ, किसी मालिक का ग़ुलाम हूँ और अपने सारे कामों पर अपने मालिक के सामने मुझे जवाबदेही करनी है। इन तीन ख़ूबियों की वजह से ये 'अच्छे काम करनेवाले लोग उस तरह के नेक लोग नहीं रहते जिनसे इत्तिफ़ाक़ से नेकी का कोई काम हो जाता है और बुराई भी उसी शान से हो सकती है जिस शान से नेकी होती है। इसके बरख़िलाफ़ ये तीनों ख़ूबियाँ जो ऊपर बयान हुई हैं, उनके अन्दर अक़ीदे और अख़लाक़ का एक ऐसा मुस्तक़िल निज़ाम पैदा कर देती हैं जिसके सबब उनसे भलाई का काम होना बाक़ायदा एक ज़ाब्ते के मुताबिक़ होता है और बुराई अगर हो भी जाती है तो सिर्फ़ एक हादिसे (आकस्मिक घटना) के तौर पर होती है। बुराई पर उभारनेवाली कोई गहरी चीज़ें ऐसी नहीं होतीं जो उनके निज़ामे-फ़िक्र और अख़लाक़ के निज़ाम से उभरती हों और उनको अपने मन की ख़ाहिशों से बुराई की राह पर ले जाती हों।
أُوْلَٰٓئِكَ عَلَىٰ هُدٗى مِّن رَّبِّهِمۡۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 4
(5) यही लोग अपने रब की तरफ़ से सीधे रास्ते पर हैं और यही कामयाबी पानेवाले हैं।4
4. जिस ज़माने में ये आयतें उतरी हैं, उस वक़्त मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ यह समझते थे और खुल्लम-खुल्ला कहते भी थे कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनकी इस दावत (पैग़ाम) को क़ुबूल करनेवाले लोग अपनी ज़िन्दगी बरबाद कर रहे हैं। इसलिए पूरे यक़ीन के साथ और पूरे ज़ोर के साथ फ़रमाया गया कि “यही कामयाबी पानेवाले हैं", यानी ये बरबाद होनेवाले नहीं हैं, जैसा कि तुम अपने नाक़िस ख़याल में समझ रहे हो, बल्कि अस्ल में कामयाबी यही लोग पानेवाले हैं और इससे महरूम (वंचित) रहनेवाले वे हैं जिन्होंने इस राह को अपनाने से इनकार किया है। यहाँ क़ुरआन के अस्ल मतलब को समझने में वह शख़्स ग़लती करेगा जो फ़लाह (कामयाबी) को सिर्फ़ इस दुनिया की हद तक, और वह भी सिर्फ़ माद्दी (माल-दौलत की) ख़ुशहाली के मानी में लेगा। क़ुरआन के मुताबिक़ फ़लाह यानी कामयाबी क्या है, इसे जानने के लिए नीचे लिखी आयतों को तफ़हीमुल-क़ुरआन के तशरीह करनेवाले हाशियों के साथ ग़ौर से देखना चाहिए : सूरा-2 बक़रा, आयतें—2 से 5; सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—102, 130, 200; सूरा-5 माइदा, आयतें—35, 90; सूरा-6 अनआम, आयत-21; सूरा-7 आराफ़, आयतें—7, 8, 157; सूरा-9 तौबा, आयत-88; सूरा-10 यूनुस, आयत-17; सूरा-16 नह्ल, आयत-116; सूरा-22 हज, आयत-77; सूरा-23 मोमिनून, आयतें—1, 117; सूरा-24 नूर, आयत-51; सूरा-50 रूम आयत-38।
وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يَشۡتَرِي لَهۡوَ ٱلۡحَدِيثِ لِيُضِلَّ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَيَتَّخِذَهَا هُزُوًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 5
(6) और इनसानों ही में से कोई ऐसा भी है5 जो दिल लुभानेवाली बातें6 ख़रीदकर लाता है, ताकि लोगों को अल्लाह के रास्ते से इल्म के बिना7 भटका दे और इस रास्ते की दावत को मज़ाक़ में उड़ा दे।8 ऐसे लोगों के लिए सख़्त रुसवा (अपमानित) करनेवाला अज़ाब है।9
5. यानी एक तरफ़ तो ख़ुदा की तरफ़ से यह रहमत और हिदायत आई हुई है जिससे कुछ लोग फ़ायदा उठा रहे हैं। दूसरी तरफ़ इन्हीं ख़ुशनसीब इनसानों के साथ-साथ ऐसे बदनसीब लोग भी मौजूद हैं जो अल्लाह की आयतों के मुक़ाबले में यह रवैया अपना रहे हैं।
6. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'लह्वल-हदीस', यानी ऐसी बात जो आदमी को अपने में मशग़ूल (व्यस्त) करके हर दूसरी चीज़ से ग़ाफ़िल और बेपरवाह कर दे। लुग़त (शब्दकोश) के मुताबिक़ तो इन अलफ़ाज़ में कोई मलामत (निन्दा) का पहलू नहीं है। लेकिन इन अलफ़ाज़ का इस्तेमाल बुरी और फ़ुज़ूल और बेहूदा बातों पर ही होता है, मसलन गप्प, ख़ुराफ़ात (बेकार के काम), हँसी-मज़ाक़, दास्तानें, अफ़साने और नॉविल, गाना-बजाना और इसी तरह की दूसरी चीज़ें। लवहल-हदीस 'ख़रीदने' का मतलब यह भी लिया जा सकता है कि वह शख़्स सच बात को छोड़कर झूठ बात को अपनाता है और हिदायत से मुँह मोड़कर उन बातों की तरफ़ जाता है जिनमें उसके लिए न दुनिया में कोई भलाई है, न आख़िरत में। लेकिन ये मजाज़ी (लाक्षणिक) मानी हैं। अस्ल मतलब इस जुमले का यही है कि आदमी अपना माल ख़र्च करके कोई बेहूदा चीज़ ख़रीदे। और बहुत-सी रिवायतें भी इसी तफ़सीर की ताईद (समर्थन) करती हैं। इब्ने-हिशाम ने मुहम्मद-बिन-इसहाक़ की रिवायत नक़्ल की है कि जब नबी (सल्ल०) की दावत मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की सारी कोशिशों के बावजूद फैलती चली जा रही थी तो नज़्र-बिन-हारिस ने क़ुरैश के लोगों से कहा कि जिस तरह तुम इस आदमी का मुक़ाबला कर रहे हो, इससे काम न चलेगा। यह आदमी तुम्हारे बीच बचपन से अधेड़ उम्र को पहुँचा है। आज तक वह अपने अख़लाक़ में तुम्हारा सबसे बेहतर आदमी था। सबसे ज़्यादा सच्चा और सबसे बढ़कर अमानतदार था। अब तुम कहते हो कि वह काहिन है, जादूगर है, शाइर है, मजनून (दीवाना) है। आख़िर इन बातों पर कौन यक़ीन करेगा। क्या लोग जादूगरों को नहीं जानते कि वे किस तरह की झाड़-फूँक करते हैं? क्या लोगों को नहीं मालूम कि काहिन किस तरह की बातें बनाया करते हैं? क्या लोग शेरो-शाइरी से अनजान हैं? क्या लोगों को जुनून (दीवानगी) की कैफ़ियतों की जानकारी नहीं है? इन इलज़ामों में से आख़िर कौन-सा इलज़ाम मुहम्मद (सल्ल०) पर चस्पाँ होता है कि उसका यक़ीन दिलाकर तुम आम लोगों को उसकी तरफ़ जाने से रोक सकोगे। ठहरो, इसका इलाज मैं करता हूँ। इसके बाद वह मक्का से इराक़ गया और वहाँ से अरब के बाहरी देशों के क़िस्से और रुस्तम और इस्फ़न्दयार की दास्तानें लाकर उसने कहानियाँ सुनाने की महफ़िलें सजानी शुरू कर दीं, ताकि लोगों का ध्यान क़ुरआन से हटे और वे इन कहानियों में खो जाएँ (सीरत इब्ने-हिशाम, हिस्सा-1, पे० 320, 321)। यही रिवायत इस आयत के उतरने का सबब बयान करते हुए वाहिदी ने कल्बी और मुक़ातिल से नक़्ल की है। और इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने इसमें इतनी बात और बढ़ाई है कि नज़्र ने इस मक़सद के लिए गानेवाली लौंडियाँ भी ख़रीदी थीं। जिस किसी के बारे में वह सुनता कि नबी (सल्ल०) की बातों से मुतास्सिर हो रहा है, उसके साथ अपनी एक लौंडी लगा देता और उससे कहता कि इसे ख़ूब खिला-पिला और गाना सुना ताकि तेरे साथ मशग़ूल (व्यस्त) होकर इसका दिल उधर से हट जाए। यह क़रीब-क़रीब वही चाल थी जिससे क़ौमों के बड़े मुजरिम हर ज़माने में काम लेते रहे हैं। वे आम लोगों को खेल-तमाशों और नाच-गानों (के कल्चर) में डुबो देने की कोशिश करते हैं, ताकि उन्हें ज़िन्दगी के संजीदा मामलों की तरफ़ ध्यान देने का होश ही न रहे और इस मस्ती के आलम में उनको सिरे से यह महसूस ही न होने पाए कि उन्हें किस तबाही की तरफ़ धकेला जा रहा है। लह्वल-हदीस का यही मतलब बहुत-से सहाबा और ताबिईन से नक़्ल हुआ है। अब्दुल्लाह- बिन-मसऊद (रज़ि०) से पूछा गया कि इस आयत में 'लह्वल-हदीस' से क्या मुराद है? उन्होंने तीन बार ज़ोर देकर कहा, “अल्लाह की क़सम, इससे मुराद गाना है।” (हदीस : इब्ने जरीर, इब्ने-अबी-शैबा, हाकिम, बैहक़ी)। इसी से मिलते-जुलते बोल हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह, मुजाहिद, इकरिमा, सईद-बिन-जुबैर, हसन बसरी और मकहूल (रह०) से रिवायत हुए हैं। इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम और तिरमिज़ी ने हज़रत अबू-उमामा बाहिली (रज़ि०) की यह रिवायत नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “गानेवाली औरतों का बेचना और ख़रीदना और उनकी तिजारत करना हलाल नहीं है और न उनकी क़ीमत लेना हलाल है।” एक दूसरी रिवायत में आख़िरी जुमले के अलफ़ाज़ ये हैं, “उनकी क़ीमत खाना हराम है।” एक और रिवायत इन्हीं अबू-उमामा (रज़ि०) से इन अलफ़ाज़ में नक़्ल हुई है कि “लौडियों को गाने-बजाने की तालीम देना और उनको ख़रीदना-बेचना हलाल नहीं है, और उनकी क़ीमत हराम है।” इन तीनों हदीसों में यह भी साफ़ बयान किया गया है कि आयत 'मंय-यश्तरी लह्वल-हदीस' (जो दिल लुभानेवाली बातें ख़रीदकर लाता है) इन्हीं के बारे में उतरी है। काज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी (रह०) 'अहकामुल-क़ुरआन' में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन- मुबारक (रह०) और इमाम मालिक (रह०) के हवाले से हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत नक़्ल करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो कोई गानेवाली लौंडी की महफ़िल में बैठकर गाना सुनेगा, क़ियामत के दिन उसके कान में पिघला हुआ सीसा डाला जाएगा।” (इस सिलसिले में यह बात भी जान लेनी चाहिए कि उस ज़माने में गाने-बजाने का कल्चर पूरी तरह, बल्कि पूरा-का-पूरा लौडियों की बदौलत ज़िन्दा था। आज़ाद औरतें उस वक़्त तक आर्टिस्ट (कलाकार) न बनी थीं। इसी लिए नबी (सल्ल०) ने गानेवालियों के लिए बेचने और ख़रीदने का ज़िक्र किया और उनकी फ़ीस के लिए क़ीमत का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया और गानेवाली औरत के लिए 'क़ैना' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जो अरबी ज़बान में लौंडी के लिए बोला जाता है)।
7. 'इल्म के बिना' का ताल्लुक़ 'ख़रीदता है' के साथ भी हो सकता है और ‘भटका दे' के साथ भी। अगर इसका ताल्लुक़ पहले जुमले से माना जाए तो मतलब यह होगा कि वह जाहिल और नादान आदमी दिल को लुभानेवाली इस चीज़ को ख़रीदता है और कुछ नहीं जानता कि कैसी क़ीमती चीज़ को छोड़कर वह किस तबाह कर देनेवाली चीज़ को ख़रीद रहा है। एक तरफ़ हिकमत और हिदायत से भरपूर अल्लाह की आयतें हैं जो मुफ़्त उसे मिल रही हैं, मगर वह उनसे मुँह मोड़ रहा है। दूसरी तरफ़ ये बेहूदा चीज़ें हैं जो फ़िक्र (सोच) और अख़लाक़ को तबाह-बरबाद कर देनेवाली हैं और वह अपना माल ख़र्च करके उन्हें हासिल कर रहा है। और अगर उसे दूसरे जुमले से जोड़कर देखा जाए तो इसका मतलब यह होगा कि वह इल्म के बिना लोगों की रहनुमाई करने उठा है, उसे यह समझ ही नहीं है कि ख़ुदा के बन्दों को ख़ुदा की राह से भटकाने की कोशिश करके वह कितना बड़ा ज़ुल्म व गुनाह अपनी गर्दन पर ले रहा है।
8. यानी यह आदमी लोगों क़िस्से-कहानियों और गाने-बजाने में लगाकर अल्लाह की आयतों का मुँह चिढ़ाना चाहता है। इसकी कोशिश यह है कि क़ुरआन की इस दावत को हँसी-ठट्ठों में उड़ा दिया जाए। यह ख़ुदा के दीन से लड़ने के लिए कुछ इस तरह की जंग का नक़्शा जमाना चाहता है कि इधर पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल०) अल्लाह की आयतें सुनाने निकलें, उधर कहीं किसी सुन्दर और सुरीली आवाज़ों में गानेवाली का मुजरा हो रहा हो, कहीं कोई तेज़ जवान कहानी सुनाने का माहिर ईरान-तूरान की कहानियाँ सुना रहा हो, और लोग इन तहज़ीबी (कल्चरल) सरगर्मियों में डूबकर इस मूड ही में न रहें कि ख़ुदा और आख़िरत और अख़लाक़ की बातें उन्हें सुनाई जा सकें।
9. यह सज़ा उनके जुर्म के मुताबिक़ है। वे ख़ुदा के दीन और उसकी आयतों और उसके रसूल को रुसवा करना चाहते हैं। ख़ुदा इसके बदले उनको सख़्त रुसवा करनेवाला अज़ाब देगा।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِ ءَايَٰتُنَا وَلَّىٰ مُسۡتَكۡبِرٗا كَأَن لَّمۡ يَسۡمَعۡهَا كَأَنَّ فِيٓ أُذُنَيۡهِ وَقۡرٗاۖ فَبَشِّرۡهُ بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ۝ 6
(7) उसे जब हमारी आयतें सुनाई जाती हैं तो वह बड़े घमण्ड के साथ इस तरह मुँह फेर लेता है मानो कि उसने इन्हें सुना ही नहीं, मानो कि उसके कान बहरे हैं। अच्छा, ख़ुशख़बरी सुना दो उसे एक दर्दनाक अज़ाब की।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ لَهُمۡ جَنَّٰتُ ٱلنَّعِيمِ ۝ 7
(8) अलबत्ता जो लोग ईमान ले आएँ और भले काम करें, उनके लिए नेमत भरी जन्नतें हैं10
10. यह नहीं कहा कि उनके लिए जन्नत की नेमतें हैं, बल्कि कहा यह कि उनके लिए नेमत भरी जन्नतें हैं। अगर पहली बात कही जाती तो इसका मतलब यह होता कि वे उन नेमतों के मज़े तो ज़रूर लेंगे, मगर वे जन्नतें उनकी अपनी न होंगी। इसके बजाय जब यह कहा गया कि “उनके लिए नेमत भरी जन्नतें हैं, तो इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर होता है कि पूरी-पूरी जन्नतें उनके हवाले कर दी जाएँगी और वे उनकी नेमतों से इस तरह फ़ायदा उठाएँगे, जिस तरह एक मालिक अपनी चीज़ से फ़ायदा उठाता है, न कि उस तरह जैसे किसी को मालिकाना हक़ दिए बिना सिर्फ़ एक चीज़ से फ़ायदा उठाने का मौक़ा दे दिया जाए।
خَٰلِدِينَ فِيهَاۖ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٗاۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 8
(9) जिनमें वे हमेशा रहेंगे। यह अल्लाह का पक्का वादा है, और वह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।11
11. यानी कोई चीज़ ख़ुदा को अपना वादा पूरा करने से रोक नहीं सकती, और वह जो कुछ करता है ठीक-ठीक हिकमत और इनसाफ़ के तक़ाज़ों के मुताबिक़ करता है। “यह अल्लाह का पक्का वादा है” कहने के बाद अल्लाह तआला की इन दो सिफ़तों को बयान करने का मक़सद यह बताना है कि अल्लाह तआला न तो ख़ुद से अपने वादे की ख़िलाफ़वर्ज़ी करता है और न इस कायनात में कोई ताक़त ऐसी है जो उसका वादा पूरा होने में रुकावट हो सकती हो, इसलिए इस बात का कोई ख़तरा नहीं हो सकता कि ईमान और नेक अमल के इनाम में जो कुछ अल्लाह ने देने का वादा किया है, वह किसी को न मिले। फिर यह कि अल्लाह की तरफ़ से इस इनाम का एलान सरासर उसकी हिकमत और उसके इनसाफ़ पर मबनी (आधारित) है। उसके यहाँ कोई ग़लत-बशी नहीं है कि हक़दार को महरूम रखा जाए और जो हक़दार न हो उसे नवाज़ दिया जाए। ईमान रखनेवाले और नेक अमल करनेवाले लोग हक़ीक़त में इस इनाम के हक़दार हैं और अल्लाह यह इनाम उन्हीं को देगा।
خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ بِغَيۡرِ عَمَدٖ تَرَوۡنَهَاۖ وَأَلۡقَىٰ فِي ٱلۡأَرۡضِ رَوَٰسِيَ أَن تَمِيدَ بِكُمۡ وَبَثَّ فِيهَا مِن كُلِّ دَآبَّةٖۚ وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ زَوۡجٖ كَرِيمٍ ۝ 9
(10) उसने12 आसमानों को पैदा किया बिना सुतूनों (स्तंभों) के जो तुमको दिखाई दें।13 उसने ज़मीन में पहाड़ जमा दिए ताकि वे तुम्हें लेकर लुढ़क न जाए14 उसने हर तरह के जानवर ज़मीन में फैला दिए और आसमान से पानी बरसाया और ज़मीन में तरह-तरह की अच्छी चीज़ें उगा दीं।
12. ऊपर के शुरुआती जुमलों के बाद अब अस्ल मक़सद, यानी शिर्क को रद्द करने और तौहीद के पैग़ाम पर बात शुरू होती है।
13. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'बिग़ैरि अ-म-दिन् तरौनहा'। इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि “तुम ख़ुद देख रहे हो कि वे बिना सुतूनों (स्तंभों) के टिके हुए हैं।” दूसरा मतलब यह कि “वे ऐसे सुतूनों पर टिके हुए हैं जो तुमको दिखाई नहीं देते।” इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और मुजाहिद ने दूसरा मतलब लिया है, और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले बहुत-से दूसरे आलिम पहला मतलब लेते हैं। मौजूदा साइंसी इल्म की रौशनी में अगर इसका मतलब बयान किया जाए तो यह कहा जा सकता है कि आसमानों की पूरी दुनिया में ये अनगिनत अज़ीमुश्शान तारे और सय्यारे अपनी-अपनी जगह और मदार (कक्षा) में दिखाई न देनेवाले सहारों से क़ायम किए गए हैं। कोई तार नहीं हैं जिन्होंने उनको एक-दूसरे से बाँध रखा हो। कोई सलाख़ें नहीं हैं जो उनको एक-दूसरे पर गिर जाने से रोक रही हों। सिर्फ़ जज़्बे-कशिश (गुरुत्वाकर्षण) का क़ानून है जो इस निज़ाम को थामे हुए है। यह मतलब हमारे आज के इल्म के लिहाज़ से है। हो सकता है कि कल हमारी जानकारी में कुछ और इज़ाफ़ा हो और इससे ज़्यादा लगता हुआ कोई दूसरा मतलब इस हक़ीक़त का निकाला जा सके।
14. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-12।
هَٰذَا خَلۡقُ ٱللَّهِ فَأَرُونِي مَاذَا خَلَقَ ٱلَّذِينَ مِن دُونِهِۦۚ بَلِ ٱلظَّٰلِمُونَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 10
(11) यह तो हैं अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ें, अब ज़रा मुझे दिखाओ, इन दूसरों ने क्या पैदा किया है?15— अस्ल बात यह है कि ये ज़ालिम लोग खुली गुमराही में पड़े हुए हैं।16
15. यानी उन हस्तियों ने जिनको तुम अपना माबूद बनाए बैठे हो, जिन्हें तुम अपनी क़िस्मतों के बनाने और बिगाड़नेवाला समझ रहे हो, जिनकी बन्दगी बजा लाने पर तुम इतना अड़े हुए हो।
16. यानी जब ये लोग अल्लाह के सिवा इस कायनात (जगत्) में किसी दूसरे की कोई निशानदेही नहीं कर सकते कि उसने कोई चीज़ पैदा की है, और ज़ाहिर है कि नहीं कर सकते, तो इनका कुछ भी पैदा न कर सकनेवाली हस्तियों को ख़ुदाई में शरीक ठहराना और उनके आगे सर झुकाना और उनसे दुआएँ माँगना और ज़रूरतें पूरी करने के लिए कहना, सिवाय इसके कि खुली बेअक़्ली है और कोई दूसरी वजह उनके इस बेवक़ूफ़ी भरे काम की नहीं बताई जा सकती। जब तक कोई शख़्स बिलकुल ही बहक न गया हो उससे इतनी बड़ी बेवक़ूफ़ी नहीं हो सकती कि आपके सामने वह ख़ुद अपने माबूदों के कुछ पैदा करने के क़ाबिल न होने और सिर्फ़ अल्लाह ही के ख़ालिक़ (स्रष्टा) होने का इक़रार करे और फिर भी उन्हें माबूद मानने पर अड़ा रहे। किसी के भेजे में ज़र्रा बराबर भी अक़्ल हो तो वह यक़ीनन यह सोचेगा कि जो किसी चीज़ को पैदा नहीं कर सकता, और जिसका ज़मीन और आसमान की किसी चीज़ के पैदा करने में नाम को भी कोई हिस्सा नहीं है, वह आख़िर क्यों हमारा माबूद हो? क्यों हम उसके आगे सजदे करें या उसके पैरों और आस्ताने को चूमते फिरें? क्या ताक़त उसके पास है कि वह हमारी फ़रियाद सुने और ज़रूरत पूरी कर सके? मान लो कि वह हमारी दुआओं को सुनता भी हो तो उनके जवाब में वह ख़ुद क्या कार्रवाई कर सकता है, जबकि वह कुछ बनाने का इख़्तियार रखता ही नहीं? बिगड़ी तो वही बनाएगा जो कुछ बना सकता हो, न कि वह जो कुछ भी न बना सकता हो।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا لُقۡمَٰنَ ٱلۡحِكۡمَةَ أَنِ ٱشۡكُرۡ لِلَّهِۚ وَمَن يَشۡكُرۡ فَإِنَّمَا يَشۡكُرُ لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ حَمِيدٞ ۝ 11
(12) हमने17 लुक़मान को हिकमत (तत्त्वदर्शिता) अता की थी कि अल्लाह का शुक्रगुज़ार हो।18 जो कोई शुक्र करे उसका शुक्र उसके अपने ही लिए फ़ायदेमन्द है। और जो कुफ़्र करे तो हक़ीक़त में अल्लाह बेनियाज़ (निस्पृह) और आप-से-आप तारीफ़ के क़ाबिल (महमूद) है।19
17. शिर्क (बहुदेववाद) को रद्द करने में एक ज़बरदस्त अक़्ली दलील पेश करने के बाद अब अरब के लोगों को यह बताया जा रहा है कि यह अक़्ल में आनेवाली बात आज कोई पहली बार तुम्हारे सामने पेश नहीं की जा रही है, बल्कि पहले भी अक़्लमन्द और समझदार लोग यही बात कहते रहे हैं और तुम्हारा अपना मशहूर हकीम लुक़मान अब से बहुत पहले यही कुछ कह गया है। इसलिए तुम मुहम्मद (सल्ल०) की इस दावत (पैग़ाम) के जवाब में यह नहीं कह सकते कि अगर शिर्क कोई नामुनासिब और अक़्ल के ख़िलाफ़ अक़ीदा है तो पहले किसी को यह बात क्यों न सूझी। लुक़मान की शख़्सियत अरब में एक हकीम और अक़्लमन्द की हैसियत से बहुत मशहूर थी। जाहिलियत के ज़माने के शाइर (कवि) लोग मसलन इम्र-उल-क़ैस, लबीद, आशा, तरफ़ा वग़ैरा के कलाम में उनका ज़िक्र किया गया है। अरबवालों में कुछ पढ़े-लिखे लोगों के पास लुक़मान के सहीफ़े के नाम से उनकी हिकमत भरी बातों का एक मजमूआ (संग्रह) भी मौजूद था। चुनाँचे रिवायतों में आया है कि हिजरत से तीन साल पहले मदीना का सबसे पहला शख़्स जो नबी (सल्ल०) से मुतास्सिर हुआ, वह सुवैद-बिन-सामित था। वह हज के लिए मक्का गया। वहाँ नबी (सल्ल०) अपने तरीक़े के मुताबिक़ अलग-अलग इलाक़ों से आए हुए हाजियों के ठिकानों पर जा-जाकर इस्लाम का पैग़ाम पहुँचा रहे थे। इस सिलसिले में सुवैद ने जब नबी (सल्ल०) की तक़रीर सुनी तो उसने आप (सल्ल०) से कहा कि आप जो बातें पेश कर रहे हैं, ऐसी ही एक चीज़ मेरे पास भी है। आप (सल्ल०) ने पूछा, “वह क्या है?” उसने कहा, “लुक़मान की किताब।” फिर आप (सल्ल०) की फ़रमाइश पर उसने उस किताब का कुछ हिस्सा आप (सल्ल०) को सुनाया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह बहुत अच्छा कलाम है, मगर मेरे पास एक और कलाम इससे भी बेहतर है।” इसके बाद आप (सल्ल०) ने उसे क़ुरआन सुनाया और उसने इस बात को माना कि यह बेशक लुक़मान की किताब से बेहतर है (सीरत इब्ने-हिशाम, हिस्सा-2, पृ. 67 से 69, उसदुल-ग़ाबा, हिस्सा-2, पृ. 378)। इतिहासकारों का बयान है कि यह आदमी (सुवैद-बिन-सामित) मदीना में अपनी क़ाबिलियत, बहादुरी, शेरो-शाइरी और ख़ानदानी शराफ़त की वजह से 'कामिल' (मुकम्मल) के लकब से पुकारा जाता था। लेकिन नबी (सल्ल०) से मुलाकात के बाद जब वह मदीना वापस हुआ तो कुछ मुद्दत के बाद बुआस की जंग हुई और यह उसमें मारा गया। उसके क़बीले के लोगों का आम ख़याल यह था कि नबी (सल्ल०) से मुलाकात के बाद वह मुसलमान हो गया था। ऐतिहासिक पहलू से लुक़मान की शख़्सियत के बारे में बड़े इख़्तिलाफ़ (मतभेद) हैं। जाहिलियत की अंधेरी सदियों में कोई लिखा हुआ या तरतीब-शुदा इतिहास मौजूद नहीं था। जानकारियों का दारोमदार एक-दूसरे से सुनी हुई उन रिवायतों पर था जो सैंकड़ों सालों से चली आ रही थीं। उन रिवायतों के मुताबिक़ कुछ लोग लुक़मान को आद क़ौम का एक आदमी और यमन का एक बादशाह बताते थे। मौलाना सय्यिद सुलैमान नदवी (रह०) ने इन्हीं रिवायतों पर भरोसा करके अपनी किताब 'अर्ज़ुल-क़ुरआन' में यह राय ज़ाहिर की है कि आद क़ौम पर ख़ुदा का अज़ाब आने के बाद इस क़ौम के जो ईमानवाले हज़रत हूद (अलैहि०) के साथ बच गए थे, लुक़मान उन्हीं की नस्ल से था, और यमन में उस क़ौम ने जो हुकुमत क़ायम की थी, यह उसके बादशाहों में से एक था। लेकिन दूसरी रिवायतें जो कुछ बड़े सहाबा (रज़ि०) और ताबिईन (रह०) से बयान हुई हैं, इसके बिलकुल ख़िलाफ़ हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि लुक़मान एक हबशी ग़ुलाम थे। यही बात हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), मुजाहिद, इकरिमा, और ख़ालिदुर-रबई (रह०) ने कही है। हज़रत जाबिर-बिन-अब्दुल्लाह अनसारी का बयान है कि लुक़मान नूबा के रहनेवाले थे। सईद-बिन-मुसय्यब का कहना है कि वे मिस्र के काले रंग के लोगों में से थे। ये तीनों लगभग एक-दूसरे से मिलते-जुलते हैं, क्योंकि अरब के लोग काले रंग के लोगों को उस ज़माने में आम तौर से हबशी कहा करते थे, और नूबा उस इलाक़े का नाम है जो मिस्र के दक्षिण और सूडान के उत्तर में मौजूद है। इसलिए तीनों बातों में एक शख़्स को मिस्री, नूबी और हबशी क़रार देना सिर्फ़ लफ़्ज़ी इख़्तिलाफ़ है, मानी में कोई फ़र्क़ नहीं है। फिर 'रौज़ुल-उनुफ़' में सुहैली और ‘मुरूजुज़्ज़हब' में मसऊदी के बयानात से इस सवाल पर भी रौशनी पड़ती है कि इस सूडानी ग़ुलाम की बातें अरब में कैसे फैलीं। इन दोनों का बयान है कि यह आदमी असलन तो नूबी था, लेकिन रहनेवाला मदयन और ऐला (मौजूदा अ-क़बा) के इलाक़े का था। इसी वजह से इसकी ज़बान अरबी थी और इसकी हिकमत और सूझ-बूझ की अरब में चर्चा हुई। इसके अलावा सुहैली ने यह भी साफ़ बयान किया है कि हकीम लुक़मान और लुक़मान-बिन-आद दो अलग-अलग आदमी हैं। उनको एक शख़्सियत ठहराना सही नहीं है। (रौज़ुल-उनुफ़, हिस्सा-1, पे० 266; मसऊदी, हिस्सा-1 प.57) यहाँ इस बात को वाज़ेह कर देना भी ज़रूरी है कि मुस्तशरिक़ (प्राच्यविद्) देरेनबोर्ग (Derenbourg) ने पैरिस की लाइब्रेरी का एक अरबी मख़तूता (आलेख) जो लुक़मान हकीम की कहानियों (Fables De Loqman Le Suge) के नाम से छापा है, वह हक़ीक़त में एक गढ़ी हुई चीज़ है, जिसका लुक़मान की किताब से दूर का भी ताल्लुक़ नहीं है। ये कहानियाँ तेरहवीं सदी ईसवी में किसी आदमी ने जमा की थीं। इसकी अरबी बहुत नाक़िस (कमज़ोर) है और इसे पढ़ने से साफ़ महसूस होता है कि यह अस्ल में किसी और ज़बान की किताब का तर्जमा है जिसे तर्जमा करनेवाले ने अपनी तरफ़ से लुक़मान हकीम से जोड़ दिया है। मुस्तशरिक़ीन (प्राच्यविद्) इस तरह की चीज़ें निकाल-निकालकर जिस मक़सद के लिए सामने लाते हैं, यह इसके सिवा कुछ नहीं है कि किसी तरह क़ुरआन के बयान किए हुए किस्सों को इतिहास के ख़िलाफ़ कहानियाँ साबित करके भरोसा न करने लायक़ ठहरा दिया जाए। जो शख़्स भी 'इंसाइक्लोपेडिया ऑफ़ इस्लाम' में 'लुक़मान' पर बी. हेलर (B. Heller) का लेख पढ़ेगा, उससे लोगों की नीयत का हाल छिपा न रहेगा।
18. यानी अल्लाह की दी हुई इस हिकमत और सूझ-बूझ और गहरी नज़र और अक़्लमन्दी का सबसे पहला तक़ाज़ा यह था कि इनसान अपने रब के मुक़ाबले में शुक्रगुज़ारी और एहसानमन्दी का रवैया अपनाए, न कि नाशुक्री और नमक-हरामी का। और उसका यह शुक्र सिर्फ़ ज़बानी जमा ख़र्च ही न हो, बल्कि सोचने, कहने और करने, तीनों सूरतों में हो। वह अपने दिलो-दिमाग़ की गहराइयों में इस बात का यक़ीन और शुऊर भी रखता हो कि मुझे जो कुछ मिला हुआ है, ख़ुदा का दिया हुआ है। उसकी ज़बान अपने ख़ुदा की मेहरबानियों और एहसानों को हमेशा मानती भी रहे। और वह अमली तौर पर भी ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी करके, उसकी नाफ़रमानी से बचकर, उसकी ख़ुशी चाहने के लिए दौड़-धूप करके, उसके दिए हुए इनामों को उसके बन्दों तक पहुँचाकर, और उसके ख़िलाफ़ बग़ावत करनेवालों से कश्मकश करके यह साबित कर दे कि वह सचमुच अपने ख़ुदा का एहसानमन्द है।
19. यानी जो शख़्स कुफ़्र (नाशुक्री) करता है, उसका कुफ़्र उसके अपने लिए नुक़सानदेह है, अल्लाह तआला का उससे कोई नुक़सान नहीं होता। वह बेनियाज़ है, किसी के शुक्र का मुहताज नहीं है। किसी का शुक्र उसकी ख़ुदाई में कोई इज़ाफ़ा नहीं कर देता, न किसी की नाशुक्री उस हक़ीक़त को बदल सकती है कि बन्दों को जो नेमत भी नसीब है, उसी की दी हुई है। वह तो आप-से-आप तारीफ़ के क़ाबिल है, चाहे कोई उसकी तारीफ़ करे या न करे। कायनात का ज़र्रा-ज़र्रा उसके कमाल और जमाल की गवाही दे रहा है और इस बात की गवाही दे रहा है कि वही हस्ती पैदा करनेवाली और रोज़ी देनेवाली है। और पैदा की हुई हर चीज़ अपने ज़बाने-हाल से उसकी तारीफ़ कर रही है।
وَإِذۡ قَالَ لُقۡمَٰنُ لِٱبۡنِهِۦ وَهُوَ يَعِظُهُۥ يَٰبُنَيَّ لَا تُشۡرِكۡ بِٱللَّهِۖ إِنَّ ٱلشِّرۡكَ لَظُلۡمٌ عَظِيمٞ ۝ 12
(13) याद करो जब लुक़मान अपने बेटे को नसीहत कर रहा था तो उसने कहा, “बेटा, ख़ुदा के साथ किसी को साझी न ठहराना,20 सच तो यह है कि शिर्क (बहुदेववाद) बहुत बड़ा ज़ुल्म है।21
20. लुक़मान की हिकमत-भरी बातों में से इस ख़ास नसीहत को दो मुनासिब वजहों से यहाँ नक़्ल किया गया है। एक यह कि उन्होंने यह नसीहत अपने बेटे को की थी, और ज़ाहिर बात है कि आदमी दुनिया में सबसे बढ़कर अगर किसी के हक़ में मुख़लिस (निष्ठावान) हो सकता है तो वह उसकी अपनी औलाद ही है। एक आदमी दूसरों को धोखा दे सकता है, उनसे धोखे-भरी बातें कर सकता है, लेकिन अपनी औलाद को तो एक बुरे-से-बुरा आदमी भी धोखा देने की कोशिश कभी नहीं कर सकता। इसलिए लुक़मान का अपने बेटे को यह नसीहत करना इस बात की खुली दलील है कि उनके नज़दीक शिर्क सचमुच एक सबसे बुरा काम था और इसी वजह से उन्होंने सबसे पहले जिस चीज़ की अपने बेटे को नसीहत की, वह यह थी कि इस गुमराही से बचे। दूसरी बात जो इस क़िस्से से मेल खाती है, यह है कि मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों में से बहुत-से माँ-बाप उस वक़्त अपनी औलाद को शिर्क (अनेकेश्वरवाद) के दीन पर क़ायम रहने और मुहम्मद (सल्ल०) की तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत (पैग़ाम) से मुँह मोड़ लेने पर मजबूर कर रहे थे, जैसा कि आगे की आयतें बता रही हैं। इसलिए उन नादानों को सुनाया जा रहा है कि तुम्हारी सरज़मीन के मशहूर हकीम ने तो अपनी औलाद की भलाई का हक़ इस तरह अदा किया था कि उसे शिर्क से बचने की नसीहत की। अब तुम जो अपनी औलाद को उसी शिर्क पर मजबूर कर रहे हो तो यह उनके हक़ में बुरा है या भला?
21. ज़ुल्म का अस्ल मतलब है— किसी का हक़ मारना और इनसाफ़ के ख़िलाफ़ काम करना। शिर्क इस वजह से बहुत बड़ा ज़ुल्म है कि आदमी उन हस्तियों को अपने पैदा करनेवाले और रोज़ी और नेमतें देनेवाले के बराबर ला खड़ा करता है जिनका न उसके पैदा करने में कोई हिस्सा, न उसको रोज़ी देने में कोई दख़ल, और न उन नेमतों के देने में कोई साझेदारी जिनसे आदमी इस दुनिया में फ़ायदा उठा रहा है। यह ऐसी बेइनसाफ़ी है जिससे बढ़कर किसी बेइनसाफ़ी के बारे में सोचा तक नहीं जा सकता। फिर आदमी पर उसके पैदा करनेवाले का यह हक़ है कि वह सिर्फ़ उसी की बन्दगी और इबादत करे, मगर वह दूसरों की बन्दगी कर के उसका हक़ मारता है। फिर दूसरों की इस बन्दगी के सिलसिले में आदमी जो अमल भी करता है, उसमें वह अपने ज़ेहन और जिस्म से लेकर ज़मीन और आसमान तक की बहुत-सी चीज़ों को इस्तेमाल करता है, हालाँकि ये सारी चीज़ें एक अल्लाह की, जिसका कोई साझी नहीं, पैदा की हुई हैं और उनमें से किसी चीज़ को भी अल्लाह के सिवा किसी दूसरे की बन्दगी में इस्तेमाल करने का उसे हक़ नहीं है। फिर आदमी पर ख़ुद उसके अपने-आपका यह हक़ है कि वह इसे रुसवाई और अज़ाब में मुब्तला न करे। मगर वह पैदा करनेवाले को छोड़कर पैदा की गई चीज़ों की बन्दगी करके अपने आपको रुसवा भी करता है और अज़ाब का हक़दार भी बनाता है। इस तरह मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) की पूरी ज़िन्दगी एक हर तरह का और हर वक़्त का ज़ुल्म बन जाती है, जिसकी कोई साँस भी ज़ुल्म से ख़ाली नहीं होती।
وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ بِوَٰلِدَيۡهِ حَمَلَتۡهُ أُمُّهُۥ وَهۡنًا عَلَىٰ وَهۡنٖ وَفِصَٰلُهُۥ فِي عَامَيۡنِ أَنِ ٱشۡكُرۡ لِي وَلِوَٰلِدَيۡكَ إِلَيَّ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 13
(14) और22 यह हक़ीक़त है कि हमने इनसान को अपने माँ-बाप का हक़ पहचानने की ख़ुद ताकीद की है। उसकी माँ ने कमज़ोरी-पर-कमज़ोरी उठाकर उसे अपने पेट में रखा और दो साल उसका दूध छूटने में लगे।23 (इसी लिए हमने उसे नसीहत की कि) मेरा शुक्र कर और अपने माँ-बाप का शुक्र अदा कर, मेरी हो तरफ़ तुझे पलटना है।
22. यहाँ (और यह हक़ीक़त है) पैराग्राफ़ के आख़िर (तुम कैसे काम करते रहे हो) तक की पूरी इबारत ऊपर से चली आ रही बात से हटकर एक बीच में आ जानेवाली बात है जो अल्लाह तआला ने अपनी तरफ़ से लुक़मान की बात की और ज़्यादा तशरीह के लिए कही है।
23. इन अलफ़ाज़ से इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम अहमद (रह०), इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) और इमाम मुहम्मद (रह०) ने यह नतीजा निकाला है कि बच्चे को दूध पिलाने की मुद्दत दो साल है। इस मुद्दत के अन्दर अगर किसी बच्चे ने किसी औरत का दूध पिया हो तब तो दूध पीने से रिश्ते का हराम होना साबित होगा, वरना बाद के किसी दूध पिलाने का कोई लिहाज़ न किया जाएगा। इमाम मालिक (रह०) से भी एक रिवायत इसी बात के हक़ में है। लेकिन इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने और ज़्यादा एहतियात की ख़ातिर ढाई साल की मुद्दत तय की है, और इसके साथ ही इमाम साहब यह भी फ़रमाते हैं कि अगर दो साल या इससे कम मुद्दत में बच्चे का दूध छुड़ा दिया गया हो और अपने खाने के लिए बच्चा दूध का मुहताज न रहा हो तो उसके बाद किसी औरत का दूध पी लेने से रिश्ते का हराम होना साबित न होगा। अलबत्ता अगर बच्चे की अस्ल ग़िज़ा दूध ही हो तो दूसरी ग़िज़ा थोड़ी बहुत खाने के बावजूद उस ज़माने में दूध पीने से रिश्ता हराम हो जाएगा। इसलिए कि आयत का मंशा यह नहीं है कि बच्चे को लाज़िमन दो साल दूध पिलाया जाए। सूरा-2 बक़रा में कहा गया है— “माएँ बच्चे को पूरे दो साल दूध पिलाएँ, उस शख़्स के लिए जो दूध पिलाने की मुद्दत पूरी कराना चाहता हो।” (आयत-233)। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने इन अलफ़ाज़ से यह नतीजा निकाला है और आलिमों ने उनकी इस बात की ताईद की है कि हम्ल (गर्भ) की कम-से-कम मुद्दत छः माह है, इसलिए कि क़ुरआन में एक दूसरी जगह कहा गया है, “उसका पेट में रहना और उसका दूध छूटना 30 महीनों में हुआ।” (सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत-15)। यह एक अहम क़ानूनी नुक्ता (Point) है जो जाइज़ और नाजाइज़ पैदाइश की बहुत-सी बहसों का फ़ैसला कर देता है।
وَإِن جَٰهَدَاكَ عَلَىٰٓ أَن تُشۡرِكَ بِي مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٞ فَلَا تُطِعۡهُمَاۖ وَصَاحِبۡهُمَا فِي ٱلدُّنۡيَا مَعۡرُوفٗاۖ وَٱتَّبِعۡ سَبِيلَ مَنۡ أَنَابَ إِلَيَّۚ ثُمَّ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأُنَبِّئُكُم بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 14
(15) लेकिन अगर वे तुझपर दबाव डालें कि मेरे साथ तू किसी ऐसे को साझी ठहराए जिसे तू नहीं जानता24 तो उनकी बात हरगिज़ न मान। दुनिया में उनके साथ अच्छा बरताव करता रह, मगर पैरवी उस शख़्स के रास्ते की कर जिसने मेरी तरफ़ रूजू किया है। फिर तुम सबको पलटना मेरी ही तरफ़ है,25 उस वक़्त मैं तुम्हें बता दूँगा कि तुम किस तरह के काम करते रहे हो।26
24. यानी जो तेरे इल्म में मेरा साझी नहीं है।
25. यानी औलाद और माँ-बाप सबको।
26. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-29 अनकबूत, हाशिए—11, 12।
يَٰبُنَيَّ إِنَّهَآ إِن تَكُ مِثۡقَالَ حَبَّةٖ مِّنۡ خَرۡدَلٖ فَتَكُن فِي صَخۡرَةٍ أَوۡ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ أَوۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَأۡتِ بِهَا ٱللَّهُۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَطِيفٌ خَبِيرٞ ۝ 15
(16) (और लुक़मान27 ने कहा था कि) “बेटा कोई चीज़ राई के दाने के बराबर भी हो, और किसी चट्टान में या आसमानों या ज़मीन में कहीं छिपी हुई हो, अल्लाह उसे निकाल लाएगा।28 वह बारीक-से-बारीक चीज़ देख लेनेवाला (सूक्ष्मदशी) और ख़बर रखनेवाला है।
27. लुक़मान की दूसरी नसीहतों का ज़िक्र यहाँ यह बताने के लिए किया जा रहा है कि अक़ीदों की तरह अख़लाक़ के बारे में भी जो तालीमात नबी (सल्ल०) पेश कर रहे है, वे भी अरब में कोई अनोखी बातें नहीं है।
28. यानी अल्लाह के इल्म से और उसकी पकड़ से कोई चीज़ बच नहीं सकती। चट्टान के अन्दर एक दाना तुम्हारे लिए छिपा हुआ हो सकता है, मगर उसके लिए बिलकुल ज़ाहिर है। आसमानों में कोई ज़र्रा तुमसे बहुत ही दूर हो सकता है, मगर अल्लाह के लिए वह बहुत क़रीब है। ज़मीन की तहों में पड़ी हुई कोई चीज़ तुम्हारे लिए सख़्त अंधेरे में है, मगर उसके लिए बिलकुल रौशनी में है। इसलिए तुम कहीं किसी हाल में भी नेकी या बदी का कोई काम ऐसा नहीं कर सकते जो अल्लाह से छिपा रह जाए। वह न सिर्फ़ यह कि उसे जानता है, बल्कि जब हिसाब लेने का वक़्त आएगा तो वह तुम्हारी एक-एक हरकत का रिकार्ड सामने लाकर रख देगा।
يَٰبُنَيَّ أَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ وَأۡمُرۡ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَٱنۡهَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَآ أَصَابَكَۖ إِنَّ ذَٰلِكَ مِنۡ عَزۡمِ ٱلۡأُمُورِ ۝ 16
(17) बेटा, नमाज़ क़ायम कर, नेकी का हुक्म दे, बुराई से मना कर, और जो मुसीबत भी पड़े, उसपर सब्र कर।29 ये वे बातें हैं जिनकी बड़ी ताकीद की गई है।30
29. इसमें एक बारीक और छिपा हुआ इशारा इस बात की तरफ़ है कि जो शख़्स भी नेकी का हुक्म देने और बुराई से रोकने का काम करेगा, उसपर मुसीबतों का आना ज़रूरी है। दुनिया लाज़िमन ऐसे आदमी के पीछे हाथ धोकर पड़ जाती है और उसे हर तरह की तकलीफ़ों का सामना होकर रहता है।
30. दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि यह बड़े हौसले का काम है। दुनियावालों के सुधार के लिए उठना और उसकी मुश्किलों को बरदाश्त करना कम-हिम्मत लोगों के बस की बात नहीं है। यह उन कामों में से है जिनके लिए बड़ा दिल-गुर्दा चाहिए।
وَلَا تُصَعِّرۡ خَدَّكَ لِلنَّاسِ وَلَا تَمۡشِ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَحًاۖ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ كُلَّ مُخۡتَالٖ فَخُورٖ ۝ 17
(18) और लोगों से मुँह फेरकर बात न कर,31 न ज़मीन में अकड़कर चल, अल्लाह किसी घमण्डी और डींग मारनेवाले शख़्स को पसन्द नहीं करता।32
31. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं— “ला तुसअ-इर ख़द-द-क लिन्नास।” 'सअर' अरबी ज़बान में एक बीमारी को कहते हैं जो ऊँट की गर्दन में होती है और उसकी वजह से ऊँट अपना मुँह हर वक़्त एक ही तरफ़ फेरे रखता है। इससे मुहावरा निकला, 'फ़ुलानुन सअअ-र ख़द-द-हु' यानी “फ़ुलाँ शख़्स ने ऊँट की तरह अपना मुँह फेर लिया।” यानी घमण्ड के साथ पेश आया और मुँह फेरकर बात की। इसी के बारे में क़बीला तग़लब का एक शाइर अम्र-बिन-हुय्य कहता है— "हम ऐसे थे कि जब कभी किसी ज़ालिम ने हमसे मुँह फेरकर बात की तो हमने उसकी टेढ़ ऐसी निकाली कि वह सीधा हो गया।"
32. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'मुख़ताल' और 'फ़ख़ूर'। 'मुख़ताल' का मतलब है वह शख़्स जो अपनी समझ में अपने आपको बड़ी चीज़ समझता हो। और 'फ़ख़ूर' उसको कहते हैं जो अपनी बड़ाई का दूसरों पर इज़हार करे। आदमी की चाल में अकड़ और इतराहट और घमण्ड का अन्दाज़ लाज़िमन उसी वक़्त पैदा होता है जब उसके दिमाग़ में घमण्ड की हवा भर जाती है और वह चाहता है कि दूसरों को अपनी बड़ाई महसूस कराए।
وَٱقۡصِدۡ فِي مَشۡيِكَ وَٱغۡضُضۡ مِن صَوۡتِكَۚ إِنَّ أَنكَرَ ٱلۡأَصۡوَٰتِ لَصَوۡتُ ٱلۡحَمِيرِ ۝ 18
(19) अपनी चाल में एतिदाल (सन्तुलन) बनाए रख33 और अपनी आवाज़ ज़रा धीमी रख, सब आवाज़ों ज़्यादा बुरी आवाज़ गधों की आवाज़ होती है।"34
33. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इसका मतलब यह लिया है कि “तेज़ भी न चल और धीरे भी न चल, बल्कि बीच का तरीक़ा अपना।” लेकिन मौक़े के लिहाज़ से साफ़ मालूम होता है कि यहाँ चाल की तेज़ी और धीमेपन पर बात नहीं हो रही है। धीमी चाल चलना या तेज़ चलना अपने अन्दर कोई अख़लाक़ी ख़ूबी या ख़राबी नहीं रखता और न इसके लिए कोई क़ायदा मुक़रर्र किया जा सकता है। आदमी को जल्दी का कोई काम हो तो तेज़ क्यों न चले। और अगर वह सिर्फ़ दिल बहलाने के लिए चल रहा हो तो आख़िर आहिस्ता चलने में क्या बुराई है। बीच की चाल का अगर कोई पैमाना हो भी तो हर हालत में हर आदमी के लिए उसे एक बुनियादी उसूल कैसे बनाया जा सकता है? अस्ल में जो चीज़ यहाँ बताई जा रही है वह तो नफ़्स (मन) की उस कैफ़ियत का सुधार है जिसके असर से चाल में अकड़ और मिसकीनी ज़ाहिर होती है। बड़ाई का घमण्ड अन्दर मौजूद हो तो वह लाज़िमन एक ख़ास ढंग की चाल में ढलकर ज़ाहिर होता है, जिसे देखकर न सिर्फ़ यह मालूम हो जाता है कि आदमी किसी घमण्ड में मुब्तला है, बल्कि चाल की शान यह तक बता देती है कि किस घमण्ड में मुब्तला है। दौलत, हुकूमत, ख़ूबसूरती, इल्म, ताक़त और ऐसी ही दूसरी जितनी चीज़ें भी इनसान के अन्दर घमण्ड पैदा करती हैं, इनमें से हर एक का घमण्ड उसकी चाल का एक ख़ास अन्दाज़ पैदा कर देता है। इसके बरख़िलाफ़ चाल में मिसकीनी का ज़ाहिर होना भी किसी-न-किसी नापसन्दीदा अन्दरूनी कैफ़ियत के असर से होता है। कभी इनसान के मन का छिपा हुजा घमण्ड एक दिखावटी तवाज़ो (विनम्रता) और दिखावे की दरवेशी और अल्लाहवाला होने का रूप अपनाता है और यह चीज़ उसकी चाल में नुमायाँ नज़र आती है। और कभी इनसान सचमुच दुनिया और उसके हालात से हारकर और अपनी निगाह में आप हक़ीर होकर मरियल चाल चलने लगता है। लुक़मान की नसीहत का मंशा यह है कि अपने नफ़्स की इन कैफ़ियतों को दूर करो और एक सीधे-साधे समझदार और शरीफ़ आदमी की-सी चाल चलो, जिसमें न कोई ऐंठ और अकड़ हो, न मरियलपन और न बनावटी और दिखावटी परहेज़गारी और इनकिसार (विनम्रता)। सहाबा किराम (रज़ि०) का मिज़ाज और पसन्द इस मामले में जैसी कुछ थी, उसका अन्दाज़ा इससे किया जा सकता है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक बार एक आदमी को सर झुकाए हुए चलते देखा तो पुकारकर कहा, “सिर उठाकर चल, इस्लाम मरीज़ नहीं है।” एक और आदमी को उन्होंने मरियल चाल चलते देखा तो फ़रमाया, “ज़ालिम, हमारे दीन को क्यों मारे डालता है।” इन दोनों वाक़िआत से मालूम हुआ कि हज़रत उमर (रज़ि०) के नज़दीक दीनदारी का मंशा हरगिज़ यह नहीं था कि आदमी बीमारों की तरह फूँक-फूँककर क़दम रखे और ख़ाह-मख़ाह मिसकीन बना चला जाए। किसी मुसलमान को ऐसी चाल चलते देखकर उन्हें ख़तरा होता था कि यह चाल दूसरों के सामने इस्लाम की ग़लत नुमाइन्दगी करेगी और ख़ुद मुसलमानों के अन्दर मायूसी पैदा कर देगी। ऐसा ही एक वाक़िआ एक बार हज़रत आइशा (रज़ि०) को पेश आया। उन्होंने देखा कि एक साहब बहुत ढीले-ढाले से बने हुए चल रहे हैं। पूछा, “इन्हें क्या हो गया?” बताया गया कि यह 'क़ुर्रा' में से हैं (यानी क़ुरआन पढ़ने-पढ़ानेवाले और तालीम और इबादत में लगे रहनेवाले)। इसपर हज़रत आइशा (रज़ि०) ने फ़रमाया, “उमर सय्यिदुल-क़ुर्रा (क़ारियों के सरदार) थे, मगर उनका यह हाल था कि जब चलते तो ज़ोर से चलते, जब बोलते तो क़ुव्वत के साथ बोलते और जब (किसी ग़लतकार को) पीटते तो ख़ूब पीटते थे।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-13; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-79)
34. इसका मंशा यह नहीं है कि आदमी हमेशा धीरे बोले और कभी ज़ोर से बात न करे, बल्कि गधे की आवाज़ से मिसाल देकर यह बयान किया गया है कि इसका मक़सद किस तरह के लहजे और किस तरह की आवाज़ में बात करने से रोकना है। लहजे और आवाज़ की एक पस्ती और बुलन्दी और सख़्ती और नरमी तो वह होती है जो फ़ितरी और हक़ीक़ी ज़रूरतों के लिहाज़ से हो। मसलन क़रीब के आदमी या कम आदमियों से आप बात करें तो आहिस्ता बोलेंगे। दूर के आदमी से बोलना हो या बहुत-से लोगों से बात करनी हो तो यक़ीनन ज़ोर से बोलना होगा। ऐसा ही फ़र्क़ लहजों में भी मौक़े और हालात के मुताबिक़ लाज़िमन होता है। तारीफ़ का लहजा मज़म्मत (बुरा-भला कहने) के लहजे से और रज़ामन्दी ज़ाहिर करने का लहजा नाराज़ी के लहजे से अलग होना ही चाहिए। यह चीज़ किसी दरजे में भी एतिराज़ के काबिल नहीं है, न लुक़मान की नसीहत का मतलब यह है कि आदमी इस फ़र्क़ को मिटाकर बस हमेशा एक ही तरह नर्म आवाज़ और धीमे लहजे में बात किया करे। एतिराज़ के क़ाबिल जो चीज़ है वह घमण्ड ज़ाहिर करने और धौंस जमाने और दूसरे को रुसवा करने और अपने रोब में लेने के लिए गला फाड़ना और गधे की-सी आवाज़ में बोलना है।
أَلَمۡ تَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ سَخَّرَ لَكُم مَّا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ وَأَسۡبَغَ عَلَيۡكُمۡ نِعَمَهُۥ ظَٰهِرَةٗ وَبَاطِنَةٗۗ وَمِنَ ٱلنَّاسِ مَن يُجَٰدِلُ فِي ٱللَّهِ بِغَيۡرِ عِلۡمٖ وَلَا هُدٗى وَلَا كِتَٰبٖ مُّنِيرٖ ۝ 19
(20) क्या तुम लोग नहीं देखते कि अल्लाह ने ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़ें तुम्हारी ख़िदमत में पाबंद कर रखी है35 और अपनी खुली और छिपी नेमतें36 तुमपर पूरी कर दी हैं? इसपर हाल यह है कि इनसानों में से कुछ लोग हैं जो अल्लाह के बारे में झगड़ते हैं37 बिना इसके कि उनके पास कोई इल्म (ज्ञान) हो, या हिदायत, या कोई रौशनी दिखानेवाली किताब।38
35. किसी चीज़ को किसी की ख़िदमत के लिए पाबन्द कर देने की दो शक्लें हो सकती हैं। एक यह कि वह चीज़ उसके तहत कर दी जाए और उसे इख़्तियार दे दिया जाए कि जिस तरह चाहे उसे ख़र्च करे और जिस तरह चाहे उसे इस्तेमाल करे। दूसरी यह कि उस चीज़ को ऐसे ज़ाब्ते का पाबन्द कर दिया जाए, जिसकी बदौलत वह उस शख़्स के लिए फ़ायदेमन्द हो जाए और उसके फ़ायदों (हितों) की ख़िदमत करती रहे। ज़मीन और आसमान की तमाम चीज़ों को अल्लाह तआला ने इनसान के लिए एक ही मानी में पाबन्द नहीं कर दिया है, बल्कि कुछ चीज़ें पहले मानी में पाबन्द की गई हैं और कुछ दूसरे मानी में। मसलन हवा, पानी, मिट्टी, आग, पेड़-पौधे, ज़मीन के अन्दर पाई जानेवाली चीज़ें, मवेशी वग़ैरा अनगिनत चीज़ें पहले मानी में हमारे लिए पाबन्द हैं, और चाँद, सूरज, वग़ैरा दूसरे मानी में।
36. खुली नेमतों से मुराद वे नेमतें हैं जो आदमी को किसी-न-किसी तरह महसूस होती हैं, या जो उसे मालूम हैं। और छिपी हुई नेमतों से वे नेमतें मुराद हैं जिन्हें आदमी न जानता है, न महसूस करता है। हद से ज़्यादा और बेहिसाब चीज़ें हैं जो इनसान के अपने जिस्म में और उसके बाहर दुनिया में उसके फ़ायदों के लिए काम कर रही हैं, मगर इनसान को उनका पता तक नहीं है कि उसके पैदा करनेवाले ने उसकी हिफ़ाज़त के लिए, उसको रोज़ी पहुँचाने के लिए, उसको पालने-पोसने के लिए, और उसकी कामयाबी के लिए क्या-क्या सरो-सामान जुटा रखा है। साइंस के अलग-अलग शोबों में इनसान खोज (Research) के जितने क़दम आगे बढ़ाता जा रहा है, उसके सामने ख़ुदा की बहुत-सी वे नेमतें बेनक़ाब होती जा रही हैं जो पहले उससे बिलकुल छिपी थीं, और आज तक जिन नेमतों पर से परदा उठा है, वह उन नेमतों के मुक़ाबले में हक़ीक़त में किसी गिनती में भी नहीं हैं जिनपर से अब तक परदा नहीं उठा है।
37. यानी उस तरह के मामलों में झगड़े और बहसें करते हैं कि मसलन अल्लाह है भी या नहीं? अकेला वही एक ख़ुदा है या दूसरे ख़ुदा भी हैं? उसकी सिफ़तें क्या हैं और कैसी हैं? अपनी पैदा की हुई चीज़ों और लोगों से उसका ताल्लुक़ किस तरह का है? वग़ैरा।
38. यानी न तो उनके पास जानने का कोई ऐसा ज़रिआ है जिससे उन्होंने सीधे तौर पर ख़ुद हक़ीक़त को देखा या तजरिबा कर लिया हो, न किसी ऐसे रहनुमा की रहनुमाई उन्हें हासिल है जिसने हक़ीक़त को देखकर उन्हें बताया हो, और न कोई अल्लाह की किताब उनके पास है जिसपर ये अपने अक़ीदे की बुनियाद रखते हों।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّبِعُواْ مَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ قَالُواْ بَلۡ نَتَّبِعُ مَا وَجَدۡنَا عَلَيۡهِ ءَابَآءَنَآۚ أَوَلَوۡ كَانَ ٱلشَّيۡطَٰنُ يَدۡعُوهُمۡ إِلَىٰ عَذَابِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 20
(21) और जब उनसे कहा जाता है कि पैरवी करो, उस चीज़ की जो अल्लाह ने उतारी है तो कहते हैं कि हम तो उस चीज़ की पैरवी करेंगे जिसपर हमने अपने बाप-दादा को पाया है। क्या ये उन्हीं की पैरवी करेंगे, चाहे शैतान उनको भड़कती हुई आग ही की तरफ़ क्यों न बुलाता रहा हो?39
39. यानी हर शख़्स और हर ख़ानदान और हर क़ौम के बाप-दादा का हक़ पर होना कुछ ज़रूरी नहीं है। सिर्फ़ यह बात कि यह तरीक़ा बाप-दादा के वक़्तों से चला आ रहा है, हरगिज़ इस बात की दलील नहीं है कि यह हक़ भी है। कोई अक़्लमन्द आदमी यह नादानी की हरकत नहीं कर सकता कि अगर उसके बाप-दादा गुमराह रहे हों तो वह भी आँखें बन्द करके उन्हीं के रास्ते पर चले जाए और कभी यह पता लगाने की ज़रूरत महसूस न करे कि यह रास्ता जा किधर रहा है।
۞وَمَن يُسۡلِمۡ وَجۡهَهُۥٓ إِلَى ٱللَّهِ وَهُوَ مُحۡسِنٞ فَقَدِ ٱسۡتَمۡسَكَ بِٱلۡعُرۡوَةِ ٱلۡوُثۡقَىٰۗ وَإِلَى ٱللَّهِ عَٰقِبَةُ ٱلۡأُمُورِ ۝ 21
(22) जो शख़्स अपने आपको अल्लाह के हवाले कर दे40 और अमली तौर पर वह नेक हो41 उसने हक़ीक़त में एक भरोसे के क़ाबिल सहारा थाम लिया,42 और सारे मामलों का आख़िरी फ़ैसला अल्लाह ही के हाथ है।
40. यानी पूरी तरह अपने आपको अल्लाह की बन्दगी में दे दे। अपनी कोई चीज़ उसकी बन्दगी से अलग करके न रखे। अपने सारे मामले उसके सिपुर्द कर दे और उसी की दी हुई हिदायतों को अपनी पूरी ज़िन्दगी का क़ानून बनाए।
41. यानी ऐसा न हो कि ज़बान से तो वह हवालगी और सिपुर्दगी का एलान कर दे, मगर अमली तौर पर वह रवैया न अपनाए जो ख़ुदा के एक फ़रमाँबरदार बन्दे का होना चाहिए।
42. यानी न उसको इस बात का कोई ख़तरा है कि उसे ग़लत रहनुमाई मिलेगी, न इस बात का कोई अन्देशा कि ख़ुदा की बन्दगी करके उसका अंजाम ख़राब होगा।
وَمَن كَفَرَ فَلَا يَحۡزُنكَ كُفۡرُهُۥٓۚ إِلَيۡنَا مَرۡجِعُهُمۡ فَنُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُوٓاْۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 22
(23) अब जो कुफ़्र (इनकार) करता है, उसका कुफ़्र तुम्हें ग़म में मुब्तला न करे43, उन्हें पलटकर आना तो हमारी ही तरफ़ है। फिर हम उन्हें बता देंगे कि वे क्या कुछ करके आए हैं। यक़ीनन अल्लाह सीनों के छिपे हुए राज़ तक जानता है।
43. बात नबी (सल्ल०) से की जा रही है। मतलब यह है कि ऐ नबी, जो शख़्स तुम्हारी बात मानने से इनकार करता है, वह अपने नज़दीक तो यह समझता है कि उसने इस्लाम को रद्द करके और कुफ़्र पर अड़े रहकर तुम्हें नुक़सान पहुँचाया है, लेकिन अस्ल में उसने नुक़सान अपने आपको पहुँचाया है। उसने तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ा, अपना ही बिगाड़ा है। अगर वह नहीं मानता तो तुम्हें परवाह करने की कोई ज़रूरत नहीं।
نُمَتِّعُهُمۡ قَلِيلٗا ثُمَّ نَضۡطَرُّهُمۡ إِلَىٰ عَذَابٍ غَلِيظٖ ۝ 23
(24) हम थोड़ी मुद्दत उन्हें दुनिया में मज़े करने का मौक़ा दे रहे हैं, फिर उनको बेबस करके एक सख़्त अज़ाब की तरफ़ खींच ले जाएँगे।
وَلَئِن سَأَلۡتَهُم مَّنۡ خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ لَيَقُولُنَّ ٱللَّهُۚ قُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِۚ بَلۡ أَكۡثَرُهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 24
(25) अगर तुम इनसे पूछो कि ज़मीन और आसमानों को किसने पैदा किया है, तो ये ज़रूर कहेंगे कि अल्लाह ने। कहो “अलहम्दुलिल्लाह!"44 (तमाम तारीफें अल्लाह के लिए हैं।) मगर इनमें से अकसर लोग जानते नहीं हैं।45
44. यानी शुक्र है कि तुम इतनी बात तो जानते और मानते हो। लेकिन जब हक़ीक़त यह है तो फिर शुक्र और तारीफ़ सारी-की-सारी सिर्फ़ अल्लाह ही के लिए होनी चाहिए। दूसरी कोई हस्ती शुक्र और तारीफ़ की हक़दार कैसे हो सकती है जबकि कायनात (सृष्टि) के बनाने में उसका कोई हिस्सा ही नहीं है।
45. यानी अकसर लोग यह नहीं जानते कि अल्लाह को कायनात (जगत्) का बनानेवाला मानने के लाज़िमी नतीजे और तक़ाज़े क्या हैं, और कौन-सी बातें उसके उलट पड़ती हैं। जब एक आदमी यह मानता है कि ज़मीन और आसमानों का पैदा करनेवाला सिर्फ़ अल्लाह है तो लाज़िमी तौर से उसको यह भी मानना चाहिए कि इलाह और रब भी सिर्फ़ अल्लाह ही है, इबादत, फ़रमाँबरदारी और बन्दगी का हक़दार भी अकेला वही है, तसबीह (महिमागान) और तारीफ़ (गुणगान) भी उसके सिवा किसी दूसरे की नहीं की जा सकती, दुआएँ भी उसके सिवा किसी और से नहीं माँगी जा सकतीं, और अपने पैदा किए लोगों के लिए क़ानून देनेवाला और हुक्म देनेवाला भी उसके सिवा कोई नहीं हो सकता। पैदा करनेवाला एक हो और माबूद (उपास्य) दूसरा, यह अक़्ल के बिलकुल ख़िलाफ़ है, सरासर आपस में टकरानेवाली बात है जिसको सिर्फ़ वही शख़्स मान सकता है जो जहालत में पड़ा हुआ हो। इसी तरह एक हस्ती को पैदा करनेवाला मानना और फिर दूसरी हस्तियों में से किसी को ज़रूरतें पूरी करनेवाला और मुश्किलें हल करनेवाला ठहराना, किसी के आगे आजिज़ी (विनम्रता) से सर झुकाना, और किसी को बाइख़्तियार हाकिम और पूरी तरह फ़रमाँबरदारी के लायक़ मानना, ये सब भी आपस में एक-दूसरे से टकरानेवाली बातें हैं, जिन्हें कोई इल्म रखनेवाला इनसान क़ुबूल नहीं कर सकता।
لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ إِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 25
(26) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ है अल्लाह ही का है,46 बेशक अल्लाह बेनियाज़ और आप-से-आप तारीफ़ के काबिल है।47
46. यानी हक़ीक़त सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि ज़मीन और आसमानों का पैदा करनेवाला तआला है, बल्कि हक़ीक़त में वही इन सब चीज़ों का मालिक भी है जो ज़मीन और आसमानों में पाई जाती हैं। अल्लाह ने अपनी यह कायनात बनाकर यूँ ही नहीं छोड़ दी है कि जो चाहे इसका, या इसके किसी हिस्से का मालिक बन बैठे। अपनी पैदा की हुई चीज़ों का वह ख़ुद ही मालिक है और हर चीज़ जो इस कायनात में मौजूद है वह उसकी मिलकियत है। यहाँ उसके सिवा किसी की भी यह हैसियत नहीं है कि उसे ख़ुदाई जैसे इख़्तियार (अधिकार) मिल जाएँ।
47. इसकी तशरीह हाशिया (टिप्पणी)-19 में गुज़र चुकी है।
وَلَوۡ أَنَّمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ مِن شَجَرَةٍ أَقۡلَٰمٞ وَٱلۡبَحۡرُ يَمُدُّهُۥ مِنۢ بَعۡدِهِۦ سَبۡعَةُ أَبۡحُرٖ مَّا نَفِدَتۡ كَلِمَٰتُ ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَزِيزٌ حَكِيمٞ ۝ 26
(27) ज़मीन में जितने पेड़ हैं, अगर वे सब-के-सब क़लम बन जाएँ और समुद्र (दवात बन जाए) जिसे सात और समुद्र स्याही जुटाएँ, तब भी अल्लाह की बातें (लिखने से) ख़त्म न होंगी।48 बेशक अल्लाह ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।
48. अल्लाह की बातों से मुराद हैं उसके तख़लीक़ी (रचना-सम्बन्धी) काम और उसकी क़ुदरत और हिकमत के करिश्मे। यह बात इससे ज़रा अलग अलफ़ाज़ में सूरा-18 कह्फ़, आयत-109 में भी कही गई है। ज़ाहिर में एक आदमी यह गुमान करेगा कि शायद यह बात बढ़ा-चढ़ाकर कही गई है। लेकिन अगर आदमी थोड़ा-सा ग़ौर करे तो उसे महसूस होगा कि हक़ीक़त में इसमें ज़रा-सी बात भी बढ़ाकर नहीं कही गई है। जितने क़लम इस ज़मीन के पेड़ों से बन सकते हैं, जितनी रोशनाई ज़मीन के मौजूदा समुद्र और वैसे ही और भी सात समुद्र जुटा सकते हैं, उनसे अल्लाह की क़ुदरत और हिकमत और उसको पैदा करने के सारे करिश्मे तो एक तरफ़, शायद दुनिया में मौजूद चीज़ों की लिस्ट (सूची) भी नहीं लिखी जा सकती। अकेले इस ज़मीन पर जितनी चीज़ें पाई जाती हैं उन्हीं की गिनती करना मुश्किल है, कहाँ यह कि इस अथाह कायनात (अनन्त सृष्टि) की सारी चीज़ें लिखी जा सकें। इस बयान का मक़सद अस्ल में यह एहसास दिलाना है कि जो ख़ुदा इतनी बड़ी कायनात को वुजूद में लाया है और शुरू से आख़िर तक उसका सारा इन्तिज़ाम चला रहा है, उसकी ख़ुदाई में उन छोटी-छोटी हस्तियों की हैसियत ही क्या है जिन्हें तुम माबूद (उपास्य) बनाए बैठे हो। इस अज़ीमुश्शान सल्तनत के चलाने में हिस्सेदार होना तो एक तरफ़, इसके किसी छोटे-से-छोटे हिस्से की पूरी जानकारी और सिर्फ़ जानकारी तक किसी इनसान के बस की चीज़ नहीं है। फिर भला यह कैसे ख़याल किया जा सकता है कि अल्लाह की पैदा की हुई चीज़ों में से किसी को यहाँ ख़ुदाई अधिकारों का कोई मामूली-सा हिस्सा भी मिल सके जिसकी बुनियाद पर वह दुआएँ सुन सकता और क़िस्मतें बना और बिगाड़ सकता हो।
مَّا خَلۡقُكُمۡ وَلَا بَعۡثُكُمۡ إِلَّا كَنَفۡسٖ وَٰحِدَةٍۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٌ ۝ 27
(28) तुम सारे इनसानों को पैदा करना और फिर दोबारा जिला उठाना तो (उसके लिए) बस ऐसा है जैसे एक जानदार को (पैदा करना और जिला उठाना)। हक़ीक़त यह है कि अल्लाह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।49
49. यानी वह एक ही वक़्त में सारी कायनात की आवाज़ें अलग-अलग सुन रहा है और कोई आवाज़ उसके सुनने की ताक़त को इस तरह मशग़ूल (व्यस्त) नहीं करती कि उसे सुनते हुए वह दूसरी चीज़ें न सुन सके। इसी तरह वह एक ही वक़्त में सारी कायनात को उसकी एक-एक चीज़ और एक-एक वाक़िए की तफ़सील के साथ देख रहा है और किसी चीज़ के देखने में उसके देखने की ताक़त इस तरह मशग़ूल नहीं होती कि उसे देखते हुए वह दूसरी चीज़ें न देख सके। ठीक ऐसा ही मामला इनसानों के पैदा करने और दोबारा वुजूद (अस्तित्व) में लाने का भी है। शुरू से आज तक जितने आदमी भी पैदा हुए हैं और आइन्दा क़ियामत तक होंगे, उन सबको वह एक पल में फिर पैदा कर सकता है। उसकी पैदा करने की क़ुदरत (क्षमता) एक इनसान को बनाने में इस तरह मशग़ूल नहीं होती कि उसी वक़्त वह दूसरे इनसान न पैदा कर सके। उसके लिए एक इनसान का बनाना और खरबों इनसानों का बना देना बराबर है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَيُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِ وَسَخَّرَ ٱلشَّمۡسَ وَٱلۡقَمَرَۖ كُلّٞ يَجۡرِيٓ إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى وَأَنَّ ٱللَّهَ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 28
(29) क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में? उसने सूरज और चाँद को पाबन्द बना रखा है।50 सब एक मुक़र्रर वक़्त तक चले जा रहे हैं।51 और (क्या तुम नहीं जानते कि) जो कुछ भी तुम करते हो अल्लाह उससे बाख़बर है?
50. यानी रात और दिन का पाबन्दी और बाक़ायदगी के साथ आना ख़ुद यह ज़ाहिर कर रहा है कि सूरज और चाँद पूरी तरह एक ज़ाब्ते (नियम) में कसे हुए हैं। सूरज और चाँद का ज़िक्र यहाँ सिर्फ़ इसलिए किया गया है कि ये दोनों आसमानी दुनिया की वे सबसे ज़्यादा नुमायाँ चीज़ें हैं जिनको इनसान पुराने ज़माने से माबूद (उपास्य) बनाता चला आ रहा है और आज भी बहुत-से इनसान उन्हें देवता मान रहे हैं। वरना हक़ीक़त में ज़मीन समेत कायनात के तमाम तारों ओर सय्यारों (ग्रहों) को अल्लाह तआला ने एक अटल ज़ाब्ते में कस रखा है जिससे वे बाल बराबर भी हट नहीं सकते।
51. यानी हर चीज़ की उम्र की जो मुद्दत तय कर दी गई है, उसी वक़्त तक वह चल रही है। सूरज हो या चाँद, या कायनात (सृष्टि) का कोई और तारा या सय्यारा (ग्रह), इनमें से कोई चीज़ भी न हमेशा से है और न हमेशा रहेगी। हर एक की शुरुआत का एक वक़्त है जिससे पहले वह मौज़ूद न थी, और एक वक़्त ख़त्म होने का है जिसके बाद वह मौजूद न रहेगी। इस ज़िक्र का मक़सद यह जताना है कि ऐसी मिट जानेवाली और बेबस चीज़ें आख़िर माबूद कैसे हो सकती हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡحَقُّ وَأَنَّ مَا يَدۡعُونَ مِن دُونِهِ ٱلۡبَٰطِلُ وَأَنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡعَلِيُّ ٱلۡكَبِيرُ ۝ 29
(30) यह सब कुछ इस वजह से है कि अल्लाह ही हक़ है52 और उसे छोड़कर जिन दूसरी चीज़ों को ये लोग पुकारते हैं, वे सब झूठ (असत्य) है53 और (इस वजह से कि) अल्लाह ही बुज़ुर्ग (उच्च) और बरतर (महान) है।54
52. यानी सब कुछ करने का अस्ल अधिकार वही रखता है, पैदा करने और इन्तिज़ाम करने का अस्ल मालिक वही है।
53. यानी वे सब तुम्हारी सोच (कल्पनाओं) से गढ़े हुए ख़ुदा हैं। तुमने मान लिया है कि फ़ुलाँ साहब ख़ुदाई में कोई दख़ल रखते हैं और फ़ुलाँ साहब मुश्किलें हल करने और ज़रूरतें पूरी करने का अधिकार रखते हैं। हालाँकि सच्ची बात यह है कि उनमें से कोई साहब भी कुछ नहीं बना सकते।
54. यानी हर चीज़ से ऊपर और बुलन्द जिसके सामने सब पस्त हैं, और हर चीज़ से बड़ा जिसके सामने सब छोटे हैं।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱلۡفُلۡكَ تَجۡرِي فِي ٱلۡبَحۡرِ بِنِعۡمَتِ ٱللَّهِ لِيُرِيَكُم مِّنۡ ءَايَٰتِهِۦٓۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّكُلِّ صَبَّارٖ شَكُورٖ ۝ 30
(31) क्या तुम देखते नहीं हो कि नाव समुद्र में अल्लाह की मेहरबानी से चलती है, ताकि वह तुम्हें अपनी कुछ निशानियाँ दिखाए?55 हक़ीक़त में इसमें बहुत-सी निशानियाँ हैं हर उस शख़्स के लिए जो सब्र और शुक्र करनेवाला हो।56
55. यानी ऐसी निशानियाँ जिनसे यह पता चलता है कि इख़्तियारात (अधिकार) बिलकुल अल्लाह तआला के हाथ में हैं। इनसान चाहे कैसे मज़बूत और समुद्री सफ़र के लिए मुनासिब जहाज़ बना ले और जहाज़ चलाने के फ़न (कला) और उससे ताल्लुक़ रखनेवाली जानकारियों और तजरिबों में कितना ही कमाल हासिल कर ले, लकिन समुद्र में जिन भयानक ताक़तों से उसको वास्ता पड़ता है, उनके मुक़ाबले में वह अकेले अपनी तदबीरों के बल-बूते पर सही-सलामत सफ़र नहीं कर सकता जब तक कि अल्लाह की मेहरबानी उसके साथ न हो। उसकी मेहरबानी की निगाह फिरते ही आदमी को मालूम हो जाता है कि उसके वसाइल (संसाधन) के ज़रिए और हुनरमन्दी के कमाल कितने पानी में हैं। इसी तरह आदमी अम्न और इत्मीनान की हालत में चाहे कैसा ही पक्का नास्तिक या कट्टर मुशरिक हो, लेकिन समुद्र के तूफ़ान में जब उसकी नाव डूबने और डोलने लगती है, उस वक़्त नास्तिक को भी मालूम हो जाता है कि ख़ुदा है, और मुशरिक भी जान लेता है कि ख़ुदा बस एक ही है।
56. यानी जिन लोगों में ये दो ख़ूबियाँ पाई जाती हैं, वे जब इन निशानियों से हक़ीक़त को पहचान जाते हैं तो हमेशा के लिए तौहीद (एकेश्वरवाद) का सबक़ हासिल करके उसपर मजबूती के साथ जम जाते हैं। पहली ख़ूबी यह कि वे सब्बार (बहुत ज़्यादा सब्र करनेवाले) हों, उनका मिज़ाज पल-पल रंग बदलनेवाला न हो, बल्कि उसमें ठहराव और जमाव हो। गवारा और नागवार, सख़्त और नर्म, अच्छे और बुरे, तमाम हालात में एक सही और बेहतर अक़ीदे पर क़ायम रहें। यह कमज़ोरी उनमें न हो कि बुरा वक़्त आया तो ख़ुदा के सामने गिड़गिड़ाने लगे और अच्छा वक़्त आते ही सब कुछ भूल गए, या इसके बरख़िलाफ़ अच्छे हालात में अल्लाह की इबादत करते रहे और मुसीबतों की एक चोट पड़ते ही ख़ुदा को गालियाँ देनी शुरू कर दें। दूसरी ख़ूबी यह है कि वे शकूर (बहुत ज़्यादा शुक्र करनेवाले) हों। नमक हराम और एहसान फ़रामोश न हों, बल्कि नेमत की क़द्र पहचानते हों और नेमत देनेवाले के लिए एक मुस्तक़िल (स्थायी) शुक्र का जज़्बा अपने दिल में बिठाए रखें।
وَإِذَا غَشِيَهُم مَّوۡجٞ كَٱلظُّلَلِ دَعَوُاْ ٱللَّهَ مُخۡلِصِينَ لَهُ ٱلدِّينَ فَلَمَّا نَجَّىٰهُمۡ إِلَى ٱلۡبَرِّ فَمِنۡهُم مُّقۡتَصِدٞۚ وَمَا يَجۡحَدُ بِـَٔايَٰتِنَآ إِلَّا كُلُّ خَتَّارٖ كَفُورٖ ۝ 31
(32) और जब (समुद्र में) इन लोगों पर एक लहर सायबानों की तरह छा जाती है तो ये अल्लाह को पुकारते हैं अपने दीन को बिलकुल उसी के लिए ख़ालिस करके, फिर जब वह बचाकर इन्हें ख़ुशकी तक पहुँचा देता है तो इनमें से कोई इक़तिसाद बरतता है,57 और हमारी निशानियों का इनकार नहीं करता मगर हर वह शख़्स जो ग़द्दार और नाशुक्रा है।58
57. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मुक़्तसिद' इस्तेमाल हुआ है जो 'इक़्तिसाद' से बना है। इसके कई मतलब हो सकते हैं। 'इक़्तिसाद' को अगर सच बोलने के मानी में लिया जाए तो इसका मतलब यह होगा कि उनमें से कम ही ऐसे निकलते हैं, जो वक़्त गुज़र जाने के बाद भी उस तौहीद (एकेश्वरवाद) पर जमे रहते हैं जिसका इक़रार उन्होंने तूफ़ान में घिरकर किया था और यह सबक़ हमेशा के लिए उनको सीधे-सच्चे रास्ते पर चलनेवाला बना देता है। और अगर 'इक़्तिसाद' का मतलब 'बीच का रास्ता' लिया जाए तो इसका एक मतलब यह होगा कि उनमें से कुछ लोग अपने शिर्क (बहुदेववाद) और नास्तिकता के अक़ीदे में उस शिद्दत पर क़ायम नहीं रहते जिसपर इस तजरिबे से पहले थे, और दूसरा मतलब यह होगा वह वक़्त गुज़र जाने के बाद उनमें से कुछ लोगों के अन्दर इख़लास (निष्ठा) की वह कैफ़ियत ठण्डी पड़ जाती है जो उस वक़्त पैदा हुई थी। ज़्यादा इमकान यह है कि अल्लाह तआला ने यहाँ यह कई मतलबोंवाला जुमला एक ही वक़्त में इन तीनों कैफ़ियतों की तरफ़ इशारा करने के लिए इस्तेमाल किया हो। मक़सद शायद यह बताना है कि समुद्री तूफ़ान के वक़्त तो सबका दिमाग़ दुरुस्त हो जाता है और शिर्क और नास्तिकता को छोड़कर सब-के-सब एक ख़ुदा को मदद के लिए पुकारना शुरू कर देते हैं। लेकिन सही-सलामत किनारे पर पहुँच जाने के बाद एक थोड़ी-सी तादाद ही ऐसी निकलती है जिसने इस तजरिबे से कोई पायेदार सबक़ लिया हो। फिर यह थोड़ी-सी तादाद भी तीन तरह के गरोहों में बँट जाती है— एक वह जो हमेशा के लिए सीधा हो गया। दूसरा वह जिसका कुफ़्र कुछ बीच के रास्ते पर आ गया। तीसरा वह जिसके अन्दर उस हंगामी इख़लास (निष्ठा) में से कुछ-न-कुछ बाक़ी रह गया।
58. ये दो सिफ़ात (गुण) उन दो सिफ़तों के मुक़ाबले में हैं जिनका ज़िक्र इससे पहले की आयत में किया गया था। ग़द्दार वह आदमी है जो बहुत वेवफ़ा हो और अपने क़ौल-क़रार का कोई ध्यान न रखे। और नाशुका वह है जिसपर चाहे कितनी ही नेमतों की बारिश कर दी जाए वह एहसान मानकर न दे और जिसने उसपर एहसान किया है, उसके मुक़ाबले में सरकशी से पेश आए। ये सिफ़ात जिन लोगों में पाई जाती हैं, वे ख़तरे का वक़्त टल जाने के बाद बेझिझक अपने कुफ़्र, अपनी नास्तिकता और अपने शिर्क की तरफ़ पलट जाते हैं। वे यह नहीं मानते कि उन्होंने तूफ़ान की हालत में ख़ुदा के होने और एक ही ख़ुदा के होने की कुछ निशानियाँ बाहरी दुनिया में और ख़ुद अपने अन्दर भी पाई थीं और उनका ख़ुदा को पुकारना इसी हक़ीक़त को पा लेने का नतीजा था। उनमें से जो नास्तिक हैं, वे अपने इस काम की वजह यह बयान करते हैं कि वह तो एक कमज़ोरी थी जो मजबूरी की हालत में हमसे हो गई, वरना सच तो यह है कि ख़ुदा-वुदा कोई न था जिसने हमें तूफ़ान से बचाया हो, हम तो फ़ुलाँ-फुलाँ असबाब व ज़राए (साधनों-संसाधनों) से बच निकलने में कामयाब हो गए। रहे मुशरिक लोग तो वे आम तौर पर यह कहते हैं कि फ़ुलाँ-फ़ुलाँ बुज़ुर्गों, या देवी-देवताओं का साया हमारे सर पर था जिसकी वजह से हम बच गए, चुनाँचे किनारे पर पहुँचते ही वे अपने झूठे माबूदों के शुक्रिए अदा करने शुरू कर देते हैं और उन्हीं के आस्तानों पर चढ़ावे चढ़ाने लगते हैं। यह ख़याल तक उन्हें नहीं आता कि जब सारी उम्मीदों के सहारे टूट गए थे, उस वक़्त एक अल्लाह के सिवा, जिसका कोई साझी नहीं, कोई न था जिसका दामन उन्होंने थामा हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّاسُ ٱتَّقُواْ رَبَّكُمۡ وَٱخۡشَوۡاْ يَوۡمٗا لَّا يَجۡزِي وَالِدٌ عَن وَلَدِهِۦ وَلَا مَوۡلُودٌ هُوَ جَازٍ عَن وَالِدِهِۦ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞۖ فَلَا تَغُرَّنَّكُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَا وَلَا يَغُرَّنَّكُم بِٱللَّهِ ٱلۡغَرُورُ ۝ 32
(33) लोगो, बचो अपने रब के ग़ज़ब (प्रकोप) से और डरो उस दिन से जबकि कोई बाप अपने बेटे की तरफ़ से बदला न देगा और न कोई बेटा ही अपने बाप की तरफ़ से कुछ बदला देनेवाला होगा।"59 हक़ीक़त में अल्लाह का वादा60 सच्चा है। इसलिए यह दुनिया की ज़िन्दगी तुम्हें धोखे में न डाले61 और न धोखेबाज़ तुमको अल्लाह के मामले में धोखा देने पाए।62
59. यानी दोस्त, लीडर, पीर और इसी तरह के दूसरे लोग तो फिर भी दूर का ताल्लुक़ रखनेवाले हैं, दुनिया में सबसे क़रीबी ताल्लुक़ अगर कोई है तो वह औलाद और माँ-बाप का है। मगर वहाँ हालत यह होगी कि बेटा पकड़ा गया हो तो बाप आगे बढ़कर यह नहीं कहेगा कि इसके गुनाह में मुझे पकड़ लिया जाए, और बाप की शामत आ रही हो तो बेटे में यह कहने की हिम्मत नहीं होगी कि इसके बदले मुझे जहन्नम में भेज दिया जाए। इस हालत में यह उम्मीद करने की क्या गुंजाइश बाक़ी रह जाती है कि कोई दूसरा शख़्स वहाँ किसी के कुछ काम आएगा। लिहाज़ा नादान है वह आदमी जो दुनिया में दूसरों की ख़ातिर अपनी आख़िरत ख़राब करता है, या किसी के भरोसे पर गुमराही और गुनाह का रास्ता अपनाता है। इस जगह पर आयत-15 का मज़मून (विषय) भी निगाह में रहना चाहिए जिसमें औलाद को नसीहत की गई थी कि दुनियावी ज़िन्दगी के मामलों में माँ-बाप की ख़िदमत करना तो बेशक सही है, मगर दीन (धर्म) और अक़ीदे के मामले में माँ-बाप के कहने पर गुमराही क़ुबूल कर लेना हरगिज़ सही नहीं है।
60. अल्लाह के वादे से मुराद यह वादा है कि क़ियामत आनेवाली है और एक दिन अल्लाह की अदालत क़ायम होकर रहेगी, जिसमें हर एक को अपने कामों (कर्मों) के लिए जवाब देना होगा।
61. दुनिया की ज़िन्दगी सिर्फ़ ज़ाहिरी चीज़ों को देखनेवाले इनसानों को अलग-अलग तरह की ग़लत-फ़हमियों में मुब्तला करती है। कोई यह समझता है कि जीना और मरना जो कुछ है बस इसी दुनिया में है, इसके बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं है, इसलिए जितना कुछ भी तुम्हें करना है बस यहीं कर लो। कोई अपनी दौलत और ताक़त और ख़ुशहाली के नशे में बदमस्त होकर अपनी मौत को भूल जाता है और इस ग़लत-फ़हमी में पड़ जाता है कि उसका ऐश और उसकी हुकूमत कभी ख़त्म न होगी। कोई अख़लाक़ी और रूहानी मक़सदों को भुलाकर सिर्फ़ माद्दी (भौतिक) फ़ायदों (लाभों) और लज़्ज़तों को अस्ल मक़सद समझ लेता है और मेयारे-ज़िन्दगी (जीवन-स्तर) को ऊँचा करने के सिवा किसी दूसरे मक़सद को कोई अहमियत नहीं देता, चाहे नतीजे में उसका मेयारे-आदमियत (आदमी होने का स्तर) कितना ही नीचे गिरता चला जाए। कोई यह समझता है कि दुनियावी ख़ुशहाली ही हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) का अस्ल पैमाना है, हर वह तरीक़ा हक़ है जिसपर चलकर यह नतीजा हासिल हुआ और इसके बरख़िलाफ़ जो कुछ भी है बातिल है। कोई इसी ख़ुशहाली को इस बात की अलामत समझता कि उसे ख़ुदा की ख़ुशनूदी हासिल है और यह उसूल बनाकर बैठ जाता है। कि जिसकी दुनिया ख़ूब बन रही है, चाहे कैसे ही तरीक़ों से बने, वह अल्लाह का प्यारा है, और जिसकी दुनिया ख़राब है, चाहे वह हक़ पसन्दी और सीधे रास्ते पर चलने की वजह ही से ख़राब हो, उसकी आख़िरत भी ख़राब है। ये और ऐसी ही जितनी ग़लत-फ़हमियाँ भी हैं, उन सबको अल्लाह तआला ने इस आयत में ‘दुनिया की ज़िन्दगी का धोखा’ कहा है।
62. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-ग़रूर' (धोखेबाज़) इस्तेमाल हुआ है। अल-ग़रूर से मुराद शैतान भी हो सकता है, कोई इनसान या इनसानों का कोई गरोह भी हो सकता है, इनसान का अपना मन भी हो सकता है और कोई दूसरी चीज़ भी हो सकती है। किसी ख़ास आदमी या ख़ास चीज़ को तय किए बग़ैर इस बहुत-से मानी रखनेवाले लफ़्ज़ को किसी के लिए ख़ास न करने की वजह यह है कि अलग-अलग लोगों के लिए धोखा खाने की बुनियादी वजहें अलग-अलग होती हैं। जिस आदमी ने ख़ास तौर पर जिस ज़रिए से भी वह अस्ल धोखा खाया हो जिसके असर से उसकी ज़िन्दगी का रुख़ सही दिशा से ग़लत दिशा में मुड़ गया, वही उसके लिए 'अल-ग़रूर' (धोखेबाज़) है। "अल्लाह के मामले में धोखा देने” के अलफ़ाज़ भी अपने अन्दर बहुत-से मानी रखते हैं जिनमें अलग-अलग तरह के अनगिनत धोखे आ जाते हैं। किसी को उसका 'धोखेबाज़' यह यक़ीन दिलाता है कि ख़ुदा सिरे से है ही नहीं। किसी को यह समझाता है कि ख़ुदा इस दुनिया को बनाकर अलग जा बैठा है और अब यह दुनिया बन्दों के हवाले है। किसी को इस ग़लत-फ़हमी में डालता है कि ख़ुदा के कुछ प्यारे ऐसे हैं जिनकी नज़दीकी हासिल कर लो तो जो कुछ भी तुम चाहो करते रहो, बख़शिश तुम्हारी यक़ीनी है। किसी को इस धोखे में मुब्तला करता है कि ख़ुदा तो माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है, तुम गुनाह करते चले जाओ, वह माफ़ करता चला जाएगा। किसी को 'जब' का अक़ीदा समझाता है और इस ग़लत-फ़हमी में डाल देता है कि तुम तो मजबूर हो, बुराई करते हो तो ख़ुदा तुमसे कराता है और नेकी से तुम दूर भागते हो तो ख़ुदा ही तुम्हें उसकी तौफ़ीक़ नहीं देता। इस तरह के न जाने कितने धोखे हैं जो इनसान ख़ुदा के बारे में खा रहा है, और अगर जाइज़ा लेकर देखा जाए तो आख़िरकार तमाम गुमराहियों और गुनाहों और जुर्मों की बुनियादी वजह यही निकलती है कि इनसान ने ख़ुदा के बारे में कोई-न-कोई धोखा खाया है तब ही वह अक़ीदे की किसी गुमराही या अख़लाक़ी भटकाव में पड़ा है।
إِنَّ ٱللَّهَ عِندَهُۥ عِلۡمُ ٱلسَّاعَةِ وَيُنَزِّلُ ٱلۡغَيۡثَ وَيَعۡلَمُ مَا فِي ٱلۡأَرۡحَامِۖ وَمَا تَدۡرِي نَفۡسٞ مَّاذَا تَكۡسِبُ غَدٗاۖ وَمَا تَدۡرِي نَفۡسُۢ بِأَيِّ أَرۡضٖ تَمُوتُۚ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمٌ خَبِيرُۢ ۝ 33
(34) उस घड़ी का इल्म अल्लाह ही के पास है, वही बारिश बरसाता है, वही जानता है कि माओं के पेटों में क्या परवरिश पा रहा है, कोई जानदार नहीं जानता कि कल वह क्या कमाई करनेवाला है और न किसी शख़्स को यह ख़बर है कि किस सरज़मीन में उसको मौत आनी है, अल्लाह ही सब कुछ जाननेवाला और ख़बर रखनेवाला है।63
63. यह आयत अस्ल में उस सवाल का जवाब है जो क़ियामत का ज़िक्र और आख़िरत का वादा सुनकर मक्का के ग़ैर-मुस्लिम बार-बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहते थे कि आख़िर वह घड़ी कब आएगी। क़ुरआन मजीद में कहीं उनके इस सवाल को नक़्ल करके इसका जवाब दिया गया है और कहीं नक़्ल किए बिना जवाब दे दिया गया है, क्योंकि जिनसे बात की जा रही थी उनके ज़ेहनों में वह मौजूद था। यह आयत भी उन्हीं आयतों में से है जिनमें सवाल का ज़िक्र किए बिना उसका जवाब दिया गया है। पहला जुमला : “उस घड़ी का इल्म अल्लाह ही के पास है।” यह अस्ल सवाल का जवाब है। इसके बाद के चारों जुमले इसके लिए दलील के तौर पर कहे गए हैं। दलील का ख़ुलासा यह है कि जिन मामलों से इनसान की सबसे क़रीबी दिलचस्पियाँ जुड़ी हैं, इनसान उनके बारे में भी कोई जानकारी नहीं रखता, फिर भला यह जानना उसके लिए कैसे मुमकिन है कि सारी दुनिया के अंजाम का वक़्त कब आएगा। तुम्हारी ख़ुशहाली और बदहाली का बड़ा दारोमदार बारिश पर है। मगर उसका अस्ल ताल्लुक़ बिलकुल अल्लाह के हाथ में है। जब, जहाँ, जितनी चाहता है बरसाता है और जब चाहता है रोक लेता है। तुम बिलकुल नहीं जानते कि कहाँ, किस वक़्त, कितनी बारिश होगी और कौन-सी ज़मीन इससे महरूम रह जाएगी, या किस ज़मीन पर बारिश उलटी नुक़सानदेह हो जाएगी। तुम्हारी अपनी बीवियों के पेट में तुम्हारे अपने नुतफ़े (वीर्य) से हमल (गर्भ) ठहरता है जिससे तुम्हारी नस्ल का मुस्तक़बिल जुड़ा होता है। मगर तुम नहीं जानते कि क्या चीज़ इस पेट में पल रही है और किस शक्ल में किन भलाइयों या बुराइयों को लिए हुए वह सामने आएगी। तुमको यह तक पता नहीं है कि कल तुम्हारे साथ क्या कुछ पेश आना है। एक अचानक हादिसा (आकस्मिक घटना) तुम्हारी तक़दीर बदल सकता है, मगर एक मिनट पहले भी तुमको इसकी ख़बर नहीं होती। तुमको यह भी मालूम नहीं है कि तुम्हारी इस ज़िन्दगी का ख़ातिमा आख़िरकार कहाँ, किस तरह होगा। ये सारी मालूमात अल्लाह ने अपने ही पास रखी हैं और इनमें से किसी का इल्म भी तुमको नहीं दिया। इनमें से एक-एक चीज़ ऐसी है जिसे तुम चाहते हो कि पहले से तुम्हें उसका इल्म हो जाए तो कुछ उसके लिए पहले से इन्तिज़ाम कर सको, लेकिन तुम्हारे लिए इसके सिवा कोई चारा नहीं है कि इन मामलों में अल्लाह ही की तदबीर और उसी के फ़ैसले पर भरोसा करो। इसी तरह दुनिया के ख़त्म होने की घड़ी के बारे में भी अल्लाह के फ़ैसले पर भरोसा करने के सिवा चारा नहीं है। इसका इल्म भी न किसी को दिया गया है, न दिया जा सकता है। यहाँ एक बात और भी अच्छी तरह समझ लेनी ज़रूरी है, और वह यह है कि इस आयत में ग़ैब (परोक्ष) के तहत आनेवाले मामलों की कोई फ़ेहरिस्त (सूची) नहीं दी गई है जिनका इल्म अल्लाह के सिवा किसी को नहीं है। यहाँ तो सिर्फ़ सामने की कुछ चीज़ें मिसाल के तौर पर पेश की गई हैं जिनसे इनसान की निहायत गहरी और क़रीबी दिलचस्पियाँ जुड़ी हैं और इनसान उनसे बेख़बर है। इससे यह नतीजा निकालना ठीक न होगा कि सिर्फ़ यही पाँच ग़ैब के मामले हैं जिनको अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। हालाँकि ग़ैब नाम ही उस चीज़ का है जो अल्लाह के बन्दों से छिपी हो और सिर्फ़ अल्लाह ही को मालूम हो, और सच तो यह है कि इस ग़ैब की कोई हद नहीं है। (इस बारे में तफ़सीली मालूमात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिया-83)