(4) और तुम्हारी ख़ातिर तुम्हारे ज़िक्र की आवाज़ को बुलन्द कर दिया।3
3. यह बात उस ज़माने में कही गई थी जब कोई शख़्स यह सोच भी न सकता था कि जिस अकेले आदमी के साथ गिनती के कुछ आदमी हैं और वह भी सिर्फ़ मक्का शहर तक महदूद हैं उसका ज़िक्र दुनिया भर में कैसे बुलन्द होगा और कैसी नामवरी उसको हासिल होगी। लेकिन अल्लाह तआला ने इन हालात में अपने रसूल (सल्ल०) को यह ख़ुशख़बरी सुनाई और फिर अजीब तरीक़े से उसको पूरा किया। सबसे पहले आप (सल्ल०) के ज़िक्र को बुलन्द करने का काम उसने ख़ुद आप (सल्ल०) के दुश्मनों से लिया। मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने आप (सल्ल०) को नीचा दिखाने के लिए जो तरीक़े अपनाए थे उनमें से एक यह था कि हज के मौक़े पर जब तमाम अरब से लोग खिंच-खिंचकर उनके शहर में आते थे, उस ज़माने में इस्लाम-दुश्मनों के नुमाइंदे हाजियों के एक-एक डेरे पर जाते और लोगों को ख़बरदार करते कि यहाँ एक ख़तरनाक आदमी मुहम्मद (सल्ल०) नाम का है जो लोगों पर ऐसा जादू करता है कि बाप-बेटे, भाई-भाई और शौहर-बीवी में जुदाई पड़ जाती है, इसलिए ज़रा उससे बचकर रहना। यही बातें वे उन सब लोगों से भी कहते थे जो हज के सिवा दूसरे दिनों में ज़ियारत या किसी कारोबार के सिलसिले में मक्का आते थे। इस तरह अगरचे वे नबी (सल्ल०) को बदनाम कर रहे थे, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि अरब के कोने-कोने में आप (सल्ल०) का नाम पहुँच गया और मक्का के गुमनामी के कोने से निकालकर ख़ुद दुश्मनों ने आप (सल्ल०) की पहचान पूरे देश के क़बीलों में करा दी। इसके बाद यह बिलकुल फ़ितरी बात थी कि लोग यह मालूम करें कि वह आदमी है कौन? क्या कहता है? कैसा आदमी है? उसके ‘जादू’ के असर में आनेवाले कौन लोग हैं और उनपर उसके ‘जादू’ का आख़िर असर क्या पड़ा है? मक्का के इस्लाम-दुश्मनों का प्रापेगण्डा जितना-जितना बढ़ता चला गया लोगों में यह जानने की कोशिश भी बढ़ती चली गई। फिर जब इस जानने की कोशिश के नतीजे में लोगों को आप (सल्ल०) के अख़लाक़ और आप (सल्ल०) की सीरत और किरदार का हाल मालूम हुआ, जब लोगों ने क़ुरआन सुना और उन्हें पता चला कि वे तालीमात क्या हैं जो आप (सल्ल०) पेश कर रहे हैं, और जब देखनेवालों ने यह देखा कि जिस चीज़ को जादू कहा जा रहा है उसके असर में आनेवालों की ज़िन्दगियाँ अरब के आम लोगों की ज़िन्दगियों से कितनी ज़्यादा अलग हो गई हैं, तो वही बदनामी नेकनामी से बदलनी शुरू हो गई, यहाँ तक कि हिजरत का ज़माना आने तक नौबत यह पहुँच गई कि दूर और नज़दीक के अरब क़बीलों में शायद ही कोई क़बीला ऐसा रह गया हो जिसमें किसी-न-किसी शख़्स या ख़ानदान ने इस्लाम न क़ुबूल कर लिया हो, और जिसमें कुछ-न-कुछ लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से और आप (सल्ल०) के पैग़ाम से हमदर्दी और दिलचस्पी रखनेवाले पैदा न हो गए हों। यह नबी (सल्ल०) के ज़िक्र के बुलन्द होने का पहला मरहला था। इसके बाद हिजरत से दूसरे मरहले की शुरुआत हुई, जिसमें एक तरफ़ मुनाफ़िक़, यहूदी, और तमाम अरब के बड़े मुशरिक लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को बदनाम करने में सरगर्म थे, और दूसरी तरफ़ मदीना तय्यिबा की इस्लामी रियासत (राज्य) ख़ुदापरस्ती और ख़ुदा से डरने, परहेज़गारी, अख़लाक़ की पाकीज़गी, बेहतरीन समाज, इनसाफ़-पसन्दी, इनसानी बराबरी, मालदारों की फ़ैय्याज़ी (दानशीलता), ग़रीबों का ख़याल रखने, अहद और वादे निभाने और मामलात में सच्चाई का वह अमली नमूना पेश कर रहा था जो लोगों के दिलों को जीतता चला जा रहा था। दुश्मनों ने जंग के ज़रिए से नबी (सल्ल०) के इस बढ़ते हुए असर को मिटाने की कोशिश की, मगर आप (सल्ल०) की रहनुमाई में ईमानवालों की जो जमाअत तैयार हुई थी उसने अपने नज़्म (अनुशासन), अपनी बहादुरी, अपनी मौत से निडर होने, और जंग की हालत तक में अख़लाक़ी हदों की पाबन्दी से अपना बेहतर होना इस तरह साबित कर दिया कि सारे अरब ने उनका लोहा मान लिया। 10 साल के अन्दर नबी (सल्ल०) का ज़िक्र इस तरह बुलन्द हुआ कि वही मुल्क जिसमें आप (सल्ल०) को बदनाम करने के लिए मुख़ालफ़त करनेवालों ने अपना सारा ज़ोर लगा दिया था, उसका कोना-कोना ‘अश्हदु अन-न मुहम्मदर्रसूलुल्लाह’ (मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं) की आवाज़ से गूँज उठा। फिर तीसरे मरहले की शुरुआत इस्लाम के सच्चे ख़लीफ़ाओं (हाकिमों) के दौर से हुई जब आप (सल्ल०) का मुबारक नाम तमाम दुनिया में बुलन्द होना शुरू हो गया। यह सिलसिला आज तक बढ़ता ही जा रहा है और अल्लाह ने चाहा तो क़ियामत तक बढ़ता चला जाएगा। दुनिया में कोई जगह ऐसी नहीं है जहाँ मुसलमानों की कोई बस्ती मौजूद हो और दिन में पाँच बार अज़ान में ज़ोरदार आवाज़ से मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का एलान न हो रहा हो, नमाज़ों में नबी (सल्ल०) पर दुरूद न भेजा जा रहा हो, जुमा के ख़ुतबों में आप (सल्ल०) का भलाई व अच्छाई के साथ ज़िक्र न किया जा रहा हो, और साल के बारह महीनों में से कोई दिन और दिन के 24 घण्टों में से कोई वक़्त ऐसा नहीं है जब इस धरती पर किसी-न-किसी जगह नबी (सल्ल०) का मुबारक ज़िक्र न हो रहा हो। यह क़ुरआन की सच्चाई का एक खुला हुआ सुबूत है कि जिस वक़्त पैग़म्बरी के शुरुआती दौर में अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि ‘व-र-फ़अ्ना ल-क ज़िक्रक’ (और हमने तुम्हारा ज़िक्र बुलन्द किया) उस वक़्त कोई शख़्स भी यह अन्दाज़ा न कर सकता था कि यह ज़िक्र का बुलन्द होना इस शान से और इतने बड़े पैमाने पर होगा। हदीस में हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिबरील मेरे पास आए और मुझसे कहा, मेरा रब और आपका रब पूछता है कि मैंने किस तरह तुम्हारा ज़िक्र बुलन्द किया? मैंने अर्ज़ किया अल्लाह ही बेहतर जानता है। उन्होंने कहा, अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जब मेरा ज़िक्र किया जाएगा तो मेरे साथ तुम्हारा भी ज़िक्र किया जाएगा।” (हदीस : इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम, मुसनद अबू-याला, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-हिब्बान, इब्ने-मरदुवैह, अबू-नुऐम)। बाद की पूरी तारीख़ (इतिहास) गवाही दे रही है कि यह बात हर्फ़-ब-हर्फ़ पूरी हुई।