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سُورَةُ الشَّرۡحِ

 94. अलम-नशरह

(मक्का में उतरी, आयतें 8)

परिचय

नाम

सूरा की पहली आयत के वाक्य 'अलम नशरह' (क्या हमने खोल नहीं दिया) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इसका विषय सूरा-93 अज़-ज़ुहा से इतना मिलता-जुलता है कि ये दोनों सूरतें क़रीब-क़रीब एक ही समय और एक ही जैसी परिस्थितियों में उतरी मालूम होती हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रजि०) कहते हैं कि यह मक्का में सूरा-93 'अज़-जुहा' के बाद उतरी है।

विषय और वार्ता

इसका उद्देश्य और आशय भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तसल्ली देना है। इस्लामी दावत आरम्भ करते ही अचानक आपको [जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा, उन] का कोई अनुमान आपको नुबूवत से पहले की ज़िंदगी में न था। इस्लाम का प्रचार आपने क्या आरम्भ किया कि देखते-देखते वही समाज आपका शत्रु हो गया, जिसमें आप पहले बड़े आदर की दृष्टि से देखे जाते थे। यद्यपि धीरे-धीरे आपको इन परिस्थितियों का मुक़ाबला करने की आदत पड़ गई, लेकिन आरम्भिक समय आपके लिए बड़ा ही हृदय-विदारक था। इस आधार पर आपको तसल्ली देने के लिए पहले सूरा-93 अज़-जुहा उतारी गई और फिर यह सूरा उतरी। इसमें अल्लाह ने सबसे पहले आपको बताया है कि हमने आपको तीन बहुत बड़ी नेमतें दी हैं जिनकी उपस्थिति में कोई कारण नहीं कि आप दुखी एवं निराश हों।

एक, 'शरहे-सद्र' (हक़ के लिए सीने के खुल जाने और हक़ पर दिल मुत्मइन हो जाने) की नेमत। दूसरी, यह नेमत कि आपके ऊपर से हमने वह भारी बोझ उतार दिया, जो नुबूवत से पहले आपकी कमर तोड़े डाल रहा था। तीसरे, यह नेमत की आपकी शुभ चर्चा हर तरफ़ खूब-ख़ूब होने लगी। इसके बाद सृष्टि के रब ने अपने बन्दे और रसूल (सल्ल०) को यह तसल्ली दी है कि कठिनाइयों का यह दौर, जिससे आपको वास्ता पड़ रहा है, कोई बहुत लम्बा दौर नहीं है, बल्कि इस तंगी के साथ ही साथ खुशहाली का दौर भी लगा चला आ रहा है। यह वही बात है जो सूरा-93 अज-जुहा (की चौथी और पाँचवीं आयतों में कही गई थी]। अन्त में नबी (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि आरम्भिक समय की इन कठिनाइयों का मुक़ाबला करने की शक्ति आपके भीतर एक ही चीज़ से पैदा होगी और वह यह है कि जब आप अपने कार्यों से फ़ारिग हों तो इबादत की मेहनत और मशक़्क़त में लग जाएँ और हर चीज़ से बेपरवाह होकर सिर्फ़ अपने रब से लौ लगाएँ।

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سُورَةُ الشَّرۡحِ
94. अलम नशरह
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
أَلَمۡ نَشۡرَحۡ لَكَ صَدۡرَكَ
(1) (ऐ नबी!) क्या हमने तुम्हारा सीना तुम्हारे लिए खोल नहीं दिया?1
1. इस सवाल से बात का शुरू करना, और फिर बाद का मज़मून यह ज़ाहिर करता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उस ज़माने में उन सख़्त मुश्किलों पर सख़्त परेशान थे जो इस्लाम के पैग़ाम को पहुँचाने का काम शुरू करने के बाद शुरुआती दौर में आप (सल्ल०) को पेश आ रही थीं। इन हालात में अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को मुख़ातब करके तसल्ली देते हुए फ़रमाया कि ऐ नबी, क्या हमने ये और ये मेहरबानियाँ तुमपर नहीं की हैं? फिर इन शुरुआती मुश्किलों पर तुम परेशान क्यों होते हो? सीना खोलने का लफ़्ज़ क़ुरआन मजीद में जिन मौक़ों पर आया है उनपर निगाह डालने से मालूम होता कि इसके दो मतलब हैं— (1) सूरा-6 अनआम, आयत-125 में फ़रमाया— “तो जिस शख़्स को अल्लाह तआला हिदायत देने का इरादा करता है उसका सीना इस्लाम के लिए खोल देता है।” और सूरा-39 ज़ुमर, आयत-22 में फ़रमाया— “तो क्या वह शख़्स जिसका सीना अल्लाह ने इस्लाम के लिए खोल दिया हो फिर वह अपने रब की तरफ़ से एक रौशनी पर चल रहा हो.....।” इन दोनों जगहों पर ‘शरहे-सद्र’ से मुराद हर तरह की ज़ेहनी उलझन और हिचकिचाहट से पाक होकर इस बात पर पूरी तरह मुत्मइन हो जाना है कि इस्लाम का रास्ता ही सही रास्ता है और वही अक़ीदे, अख़लाक़, तहज़ीब और सामाजिक ज़िन्दगी के उसूल, और वही हुक्म और हिदायतें बिलकुल सही हैं जो इस्लाम ने इनसान को दिए हैं। (2) सूरा-26 शुअरा, आयत-12, 13 में ज़िक्र आया है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) को जब अल्लाह तआला अपनी पैग़म्बरी का बड़ा और अहम मंसब देकर फ़िरऔन और उसकी बहुत बड़ी सल्तनत से जा टकराने का हुक्म दे रहा था तो उन्होंने अर्ज़ किया, “मेरे रब, मैं डरता हूँ कि वे लोग मुझे झुठला देंगे और मेरा सीना तंग हो रहा है।” और सूरा-20 ता-हा, आयतें—25, 26, में बयान किया गया है कि इसी मौक़े पर हज़रत मूसा (अलैहि०) ने अल्लाह तआला से दुआ माँगी कि “मेरे रब, मेरा सीना खोल दे और मेरा काम मेरे लिए आसान कर दे।” यहाँ सीने की तंगी से मुराद यह है कि पैग़म्बरी जैसे बड़े और अहम काम की ज़िम्मेदारी संभालने और बिलकुल अकेले ख़ुदा की नाफ़रमानी की एक ज़ालिम और क़ाहिर (दमनकारी) ताक़त से टक्कर लेने की आदमी को हिम्मत न पड़ रही हो। और शरहे-सद्र से मुराद यह है कि आदमी का हौसला बुलन्द हो जाए, किसी बड़ी-से-बड़ी मुहिम पर जाने और किसी सख़्त-से-सख़्त काम को पूरा करने में भी उसे झिझक न हो, और पैग़म्बरी की इतनी बड़ी और इन्तिहाई अहम ज़िम्मेदारियाँ संभालने की उसमें हिम्मत पैदा हो जाए। ग़ौर किया जाए तो महसूस होता है कि इस आयत में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का सीना खोल देने से ये दोनों मतलब मुराद हैं। पहले मतलब के लिहाज़ से इसका मतलब यह है कि पैग़म्बरी मिलने से पहले अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अरब के मुशरिकों, ईसाइयों, यहूदियों, मजूसियों, सबके मज़हब को ग़लत समझते थे, और उस एक इलाह की इबादत के रवैये पर भी मुत्मइन न थे जो अरब के कुछ तौहीद के माननेवालों में पाई जाती थी, क्योंकि यह एक ऐसा अक़ीदा था जो ग़ैर-वाज़ेह था और जिसमें सीधे और सही रास्ते की कोई तफ़सील न मिलती थी। (इसकी तशरीह हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-32 सजदा, हाशिया-5 में कर चुके हैं), लेकिन आप (सल्ल०) को चूँकि ख़ुद यह मालूम न था कि सही रास्ता क्या है, इसलिए आप (सल्ल०) सख़्त ज़ेहनी उलझन में मुब्तला थे। पैग़म्बरी देकर अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) की इस उलझन को दूर कर दिया और वह सीधी राह खोलकर आप (सल्ल०) के सामने रख दी जिससे आप (सल्ल०) को दिल का पूरा इत्मीनान हासिल हो गया। दूसरे मतलब के लिहाज़ से इसका मतलब यह है कि पैग़म्बरी देने के साथ अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को वह हौसला, वह हिम्मत, वह इरादे की मज़बूती और वह दिल की कुशादगी दे दी जो इस बड़े मंसब की ज़िम्मेदारियाँ सम्भालने के लिए दरकार थी। आप (सल्ल०) के पास इतना सारा इल्म आ गया जो आप (सल्ल०) के सिवा किसी इनसान के ज़ेहन में समा न सकता था। आप (सल्ल०) को वह हिकमत नसीब हो गई जो बड़े-से-बड़े बिगाड़ को दूर करने और सँवार देने की क़ाबिलियत रखती थी। आप (सल्ल०) इस क़ाबिल हो गए कि जाहिलियत में डूबे और जहालत के एतिबार से इन्तिहाई अक्खड़ समाज में किसी सरो-सामान और ज़ाहिरी तौर पर किसी मददगार ताक़त की मदद के बिना इस्लाम के अलमबरदार बनकर खड़े हो जाएँ, मुख़ालफ़त और दुश्मनी के किसी बड़े-से-बड़े तूफ़ान का मुक़ाबला करने से न हिचकिचाएँ, इस राह में जो तकलीफ़ें और मुसीबतें भी पेश आएँ उनको सब्र के साथ बरदाश्त कर लें, और कोई ताक़त आपको अपनी जगह से न हटा सके। यह शरहे-सद्र की बहुत क़ीमती दौलत जब अल्लाह ने आप (सल्ल०) को दे दी है तो आप (सल्ल०) उन मुश्किलों पर उदास क्यों होते हैं जो काम के शुरू में इस मरहले में पेश आ रही हैं। क़ुरआन के कुछ आलिमों ने शरहे-सद्र (सीना खुल जाने) को शक़्क़े-सद्र (सीना चाक किए जाने) के मानी में लिया है और इस आयत को शक़्क़े-सद्र के उस मोजिज़े (चमत्कार) का सुबूत क़रार दिया है जो हदीसों की रिवायतों में बयान हुआ है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि इस मोजिज़े के सुबूत का दारो-मदार हदीसों की रिवायतों ही पर है। क़ुरआन से इसको साबित करने की कोशिश सही नहीं है। अरबी ज़बान के लिहाज़ से शरहे-सद्र को किसी तरह भी शक़्क़े-सद्र के मानी में नहीं लिया जा सकता। अल्लामा आलूसी रूहुल-मआनी में फ़रमाते हैं कि “तहक़ीक़ करनेवालों (शोधकर्ताओं) के नज़दीक इस आयत में ‘शरह’ को शक़्क़े-सद्र (सीना फटने) के मतलब में लेना एक कमज़ोर बात है।”
وَوَضَعۡنَا عَنكَ وِزۡرَكَ ۝ 1
(2) और तुमपर से वह भारी बोझ उतार दिया
ٱلَّذِيٓ أَنقَضَ ظَهۡرَكَ ۝ 2
(3) जो तुम्हारी कमर तोड़े डाल रहा था।2
2. क़ुरआन के आलिमों में से कुछ ने इसका मतलब यह लिया है कि नुबूवत (पैग़म्बरी) से पहले जाहिलियत के दिनों में नबी (सल्ल०) से कुछ क़ुसूर ऐसे हो गए थे जिनकी फ़िक्र आप (सल्ल०) को सख़्त परेशान कर रही थी और यह आयत उतारकर अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को मुत्मइन कर दिया कि आप (सल्ल०) के वे क़ुसूर हमने माफ़ कर दिए। लेकिन हमारे नज़दीक यह मतलब लेना सख़्त ग़लती है। पहले तो अरबी लफ़्ज़ ‘विज़्र’ का मतलब लाज़िमी तौर पर गुनाह ही नहीं है, बल्कि यह लफ़्ज़ भारी बोझ के लिए भी बोला जाता है। इसलिए कोई वजह नहीं कि इसको ख़ाह-मख़ाह बुरे मानी में लिया जाए। दूसरे नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी से पहले की ज़िन्दगी भी इतनी ज़्यादा पाकीज़ा थी कि क़ुरआन में मुख़ालिफ़ों के सामने उसको एक चैलेंज के तौर पर पेश किया गया था। चुनाँचे नबी (सल्ल०) से मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों को मुख़ातब करके यह कहलवाया गया कि “मैं इस क़ुरआन को पेश करने से पहले तुम्हारे बीच एक उम्र गुज़ार चुका हूँ।” (सूरा-10 यूनुस, आयत-16)। और नबी (सल्ल०) इस किरदार के इनसान भी न थे कि लोगों से छिपकर आप (सल्ल०) ने कोई गुनाह किया हो। अल्लाह की पनाह! अगर ऐसा होता तो अल्लाह तआला तो उससे अनजान न हो सकता था कि जो आदमी कोई छिपा हुआ दाग़ अपने दामन पर लिए हुए होता उससे लोगों के सामने खुल्लम-खुल्ला वह बात कहलवाता जो सूरा-10 यूनुस की ऊपर बयान की गई आयत में उसने कहलवाई है। इसलिए हक़ीक़त में इस आयत में ‘विज़्र’ का सही मतलब भारी बोझ है और उससे मुराद रंजो-ग़म और फ़िक्र और परेशानी का वह बोझ है जो अपनी क़ौम की जहालत और जाहिलियत को देख-देखकर आप (सल्ल०) की हस्सास (संवेदनशील) तबीअत पर पड़ रहा था। आप (सल्ल०) के सामने बुत पूजे जा रहे थे। शिर्क (अनेकेश्वरवाद) और शिर्कवाली रस्मों और अंधविश्वासों का बाज़ार गर्म था। अख़लाक़ की गन्दगी और बेहयाई हर तरफ़ फैली हुई थी। समाज में ज़ुल्म और मामलों में बिगाड़ आम था। ज़ोर रखनेवालों की ज़्यादतियों से कमज़ोर लोग पिस रहे थे। लड़कियाँ ज़िन्दा दफ़्न की जा रही थीं। क़बीलों-पर-क़बीले छापे मार रहे थे और कभी-कभी सौ-सौ साल तक इन्तिक़ामी लड़ाइयों का सिलसिला चलता रहता था। किसी की जान, माल और इज़्ज़त महफ़ूज़ न थी, जब तक कि उसके पीछे कोई मज़बूत जत्था न हो। यह हालत देखकर आप (सल्ल०) कुढ़ते थे, मगर इस बिगाड़ को दूर करने की कोई सूरत आप (सल्ल०) को नज़र न आती थी। यही फ़िक्र आप (सल्ल०) की कमर तोड़े डाल रही थी, जिसका भारी बोझ अल्लाह तआला ने हिदायत का रास्ता दिखाकर आप (सल्ल०) के ऊपर से उतार दिया और पैग़म्बर के मंसब पर मुक़र्रर होते ही आप (सल्ल०) को मालूम हो गया कि तौहीद और आख़िरत और रिसालत पर ईमान ही वह अस्ल चाबी है जिससे इनसानी ज़िन्दगी के हर बिगाड़ का ताला खोला जा सकता है और ज़िन्दगी के हर पहलू में सुधार का रास्ता साफ़ किया जा सकता है। अल्लाह तआला की इस रहनुमाई ने आप (सल्ल०) के ज़ेहन का सारा बोझ हलका कर दिया और आप (सल्ल०) पूरी तरह मुत्मइन हो गए कि इस ज़रिए से आप (सल्ल०) न सिर्फ़ अरब, बल्कि दुनिया के सारे इनसानों को उन ख़राबियों से निकाल सकते हैं जिनमें उस वक़्त अरब से बाहर की भी सारी दुनिया मुब्तला थी।
وَإِلَىٰ رَبِّكَ فَٱرۡغَب ۝ 3
(8) और अपने रब ही से लौ लगाओ।5
5. फ़ारिग़ होने से मुराद अपने मशग़लों (कामों) से फ़ारिग़ होना है, चाहे वह दावत और तबलीग़ के मशग़ले और काम हों या इस्लाम क़ुबूल करनेवालों की तालीम और तर्बियत के मशग़ले और काम, या अपने घर-बार और दुनियावी कामों के मशग़ले। हुक्म का मंशा यह है कि जब कोई और मशग़ूलियत न रहे तो अपना ख़ाली वक़्त इबादत के काम और मेहनत में लगाओ और हर तरफ़ से ध्यान हटाकर सिर्फ़ अपने रब की तरफ़ ध्यान लगा दो।
وَرَفَعۡنَا لَكَ ذِكۡرَكَ ۝ 4
(4) और तुम्हारी ख़ातिर तुम्हारे ज़िक्र की आवाज़ को बुलन्द कर दिया।3
3. यह बात उस ज़माने में कही गई थी जब कोई शख़्स यह सोच भी न सकता था कि जिस अकेले आदमी के साथ गिनती के कुछ आदमी हैं और वह भी सिर्फ़ मक्का शहर तक महदूद हैं उसका ज़िक्र दुनिया भर में कैसे बुलन्द होगा और कैसी नामवरी उसको हासिल होगी। लेकिन अल्लाह तआला ने इन हालात में अपने रसूल (सल्ल०) को यह ख़ुशख़बरी सुनाई और फिर अजीब तरीक़े से उसको पूरा किया। सबसे पहले आप (सल्ल०) के ज़िक्र को बुलन्द करने का काम उसने ख़ुद आप (सल्ल०) के दुश्मनों से लिया। मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने आप (सल्ल०) को नीचा दिखाने के लिए जो तरीक़े अपनाए थे उनमें से एक यह था कि हज के मौक़े पर जब तमाम अरब से लोग खिंच-खिंचकर उनके शहर में आते थे, उस ज़माने में इस्लाम-दुश्मनों के नुमाइंदे हाजियों के एक-एक डेरे पर जाते और लोगों को ख़बरदार करते कि यहाँ एक ख़तरनाक आदमी मुहम्मद (सल्ल०) नाम का है जो लोगों पर ऐसा जादू करता है कि बाप-बेटे, भाई-भाई और शौहर-बीवी में जुदाई पड़ जाती है, इसलिए ज़रा उससे बचकर रहना। यही बातें वे उन सब लोगों से भी कहते थे जो हज के सिवा दूसरे दिनों में ज़ियारत या किसी कारोबार के सिलसिले में मक्का आते थे। इस तरह अगरचे वे नबी (सल्ल०) को बदनाम कर रहे थे, लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि अरब के कोने-कोने में आप (सल्ल०) का नाम पहुँच गया और मक्का के गुमनामी के कोने से निकालकर ख़ुद दुश्मनों ने आप (सल्ल०) की पहचान पूरे देश के क़बीलों में करा दी। इसके बाद यह बिलकुल फ़ितरी बात थी कि लोग यह मालूम करें कि वह आदमी है कौन? क्या कहता है? कैसा आदमी है? उसके ‘जादू’ के असर में आनेवाले कौन लोग हैं और उनपर उसके ‘जादू’ का आख़िर असर क्या पड़ा है? मक्का के इस्लाम-दुश्मनों का प्रापेगण्डा जितना-जितना बढ़ता चला गया लोगों में यह जानने की कोशिश भी बढ़ती चली गई। फिर जब इस जानने की कोशिश के नतीजे में लोगों को आप (सल्ल०) के अख़लाक़ और आप (सल्ल०) की सीरत और किरदार का हाल मालूम हुआ, जब लोगों ने क़ुरआन सुना और उन्हें पता चला कि वे तालीमात क्या हैं जो आप (सल्ल०) पेश कर रहे हैं, और जब देखनेवालों ने यह देखा कि जिस चीज़ को जादू कहा जा रहा है उसके असर में आनेवालों की ज़िन्दगियाँ अरब के आम लोगों की ज़िन्दगियों से कितनी ज़्यादा अलग हो गई हैं, तो वही बदनामी नेकनामी से बदलनी शुरू हो गई, यहाँ तक कि हिजरत का ज़माना आने तक नौबत यह पहुँच गई कि दूर और नज़दीक के अरब क़बीलों में शायद ही कोई क़बीला ऐसा रह गया हो जिसमें किसी-न-किसी शख़्स या ख़ानदान ने इस्लाम न क़ुबूल कर लिया हो, और जिसमें कुछ-न-कुछ लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से और आप (सल्ल०) के पैग़ाम से हमदर्दी और दिलचस्पी रखनेवाले पैदा न हो गए हों। यह नबी (सल्ल०) के ज़िक्र के बुलन्द होने का पहला मरहला था। इसके बाद हिजरत से दूसरे मरहले की शुरुआत हुई, जिसमें एक तरफ़ मुनाफ़िक़, यहूदी, और तमाम अरब के बड़े मुशरिक लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को बदनाम करने में सरगर्म थे, और दूसरी तरफ़ मदीना तय्यिबा की इस्लामी रियासत (राज्य) ख़ुदापरस्ती और ख़ुदा से डरने, परहेज़गारी, अख़लाक़ की पाकीज़गी, बेहतरीन समाज, इनसाफ़-पसन्दी, इनसानी बराबरी, मालदारों की फ़ैय्याज़ी (दानशीलता), ग़रीबों का ख़याल रखने, अहद और वादे निभाने और मामलात में सच्चाई का वह अमली नमूना पेश कर रहा था जो लोगों के दिलों को जीतता चला जा रहा था। दुश्मनों ने जंग के ज़रिए से नबी (सल्ल०) के इस बढ़ते हुए असर को मिटाने की कोशिश की, मगर आप (सल्ल०) की रहनुमाई में ईमानवालों की जो जमाअत तैयार हुई थी उसने अपने नज़्म (अनुशासन), अपनी बहादुरी, अपनी मौत से निडर होने, और जंग की हालत तक में अख़लाक़ी हदों की पाबन्दी से अपना बेहतर होना इस तरह साबित कर दिया कि सारे अरब ने उनका लोहा मान लिया। 10 साल के अन्दर नबी (सल्ल०) का ज़िक्र इस तरह बुलन्द हुआ कि वही मुल्क जिसमें आप (सल्ल०) को बदनाम करने के लिए मुख़ालफ़त करनेवालों ने अपना सारा ज़ोर लगा दिया था, उसका कोना-कोना ‘अश्हदु अन-न मुहम्मदर्रसूलुल्लाह’ (मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं) की आवाज़ से गूँज उठा। फिर तीसरे मरहले की शुरुआत इस्लाम के सच्चे ख़लीफ़ाओं (हाकिमों) के दौर से हुई जब आप (सल्ल०) का मुबारक नाम तमाम दुनिया में बुलन्द होना शुरू हो गया। यह सिलसिला आज तक बढ़ता ही जा रहा है और अल्लाह ने चाहा तो क़ियामत तक बढ़ता चला जाएगा। दुनिया में कोई जगह ऐसी नहीं है जहाँ मुसलमानों की कोई बस्ती मौजूद हो और दिन में पाँच बार अज़ान में ज़ोरदार आवाज़ से मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी का एलान न हो रहा हो, नमाज़ों में नबी (सल्ल०) पर दुरूद न भेजा जा रहा हो, जुमा के ख़ुतबों में आप (सल्ल०) का भलाई व अच्छाई के साथ ज़िक्र न किया जा रहा हो, और साल के बारह महीनों में से कोई दिन और दिन के 24 घण्टों में से कोई वक़्त ऐसा नहीं है जब इस धरती पर किसी-न-किसी जगह नबी (सल्ल०) का मुबारक ज़िक्र न हो रहा हो। यह क़ुरआन की सच्चाई का एक खुला हुआ सुबूत है कि जिस वक़्त पैग़म्बरी के शुरुआती दौर में अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि ‘व-र-फ़अ्ना ल-क ज़िक्रक’ (और हमने तुम्हारा ज़िक्र बुलन्द किया) उस वक़्त कोई शख़्स भी यह अन्दाज़ा न कर सकता था कि यह ज़िक्र का बुलन्द होना इस शान से और इतने बड़े पैमाने पर होगा। हदीस में हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जिबरील मेरे पास आए और मुझसे कहा, मेरा रब और आपका रब पूछता है कि मैंने किस तरह तुम्हारा ज़िक्र बुलन्द किया? मैंने अर्ज़ किया अल्लाह ही बेहतर जानता है। उन्होंने कहा, अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जब मेरा ज़िक्र किया जाएगा तो मेरे साथ तुम्हारा भी ज़िक्र किया जाएगा।” (हदीस : इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम, मुसनद अबू-याला, इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-हिब्बान, इब्ने-मरदुवैह, अबू-नुऐम)। बाद की पूरी तारीख़ (इतिहास) गवाही दे रही है कि यह बात हर्फ़-ब-हर्फ़ पूरी हुई।
فَإِنَّ مَعَ ٱلۡعُسۡرِ يُسۡرًا ۝ 5
(5) तो हक़ीक़त यह है कि तंगी के साथ कुशादगी भी है।
إِنَّ مَعَ ٱلۡعُسۡرِ يُسۡرٗا ۝ 6
(6) बेशक तंगी के साथ कुशादगी भी है।4
4. इस बात को दो बार दोहराया गया है, ताकि नबी (सल्ल०) को पूरी तसल्ली दे दी जाए कि जिन सख़्त हालात से आप इस वक़्त गुज़र रहे हैं ये ज़्यादा देर रहनेवाले नहीं हैं, बल्कि उनके बाद क़रीब ही में अच्छे हालात आनेवाले हैं। बज़ाहिर यह बात बेमेल-सी मालूम होती है कि तंगी के साथ कुशादगी हो, क्योंकि ये दोनों चीज़ें एक वक़्त में जमा नहीं होतीं। लेकिन तंगी के बाद कुशादगी कहने के बजाय तंगी के साथ कुशादगी के अलफ़ाज़ इस मानी में इस्तेमाल किए गए हैं कि कुशादगी का दौर इतना ज़्यादा क़रीब है मानो वह उसके साथ ही चला आ रहा है।
فَإِذَا فَرَغۡتَ فَٱنصَبۡ ۝ 7
(7) लिहाज़ा जब तुम फ़ारिग़ हो तो इबादत की मेहनत में लग जाओ