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سُورَةُ النَّبَإِ

78. अन-नबा

(मक्का में उतरी, आयतें 40)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के वाक्यांश 'अनिन-न-ब-इल अज़ीम' के शब्द 'अन-नबा' (ख़बर) को इसका नाम क़रार दिया गया है, और यह सिर्फ़ नाम ही नहीं है, बल्कि इस सूरा के विषयों का शीर्षक भी है, क्योंकि 'नबा' से मुराद क़ियामत और आख़िरत (परलोक) की ख़बर है और इस सूरा में सारी वार्ता इसी पर की गई है।

उतरने का समय

सूरा-75 (क़ियामह) से सूरा-79 (नाज़िआत) तक सबका विषय एक-दूसरे से मिलता-जुलता है और यह सब मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल में उतरी मालूम होती हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय क़ियामत और आख़िरत की पुष्टि और उसको मानने या न मानने के नतीजों से लोगों को सचेत करना है। मक्का मुअज़्ज़मा में जब पहले-पहल अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) ने इस्लाम के प्रचार का आरम्भ किया तो इसकी बुनियाद तीन चीजें थीं : [तौहीद (एकेश्वरवाद), हज़रत मुहम्मद (सल्ल.) की पैग़म्बरी और आख़िरत- इन तीनों चीज़ों में से पहली दो चीजें भी] हालाँकि मक्कावालों को अत्यंत अप्रिय [और अस्वीकार्य थीं, लेकिन फिर भी स्पष्ट कारणों से ये उन] के लिए उतनी ज़्यादा उलझन का कारण न थीं, जितनी तीसरी बात थी। उसको जब उनके सामने पेश किया गया तो उन्होंने सबसे ज़्यादा उसी की हँसी उड़ाई, मगर इस्लाम की राह पर उनको लाने के लिए यह निश्चित रूप से ज़रूरी था कि आख़िरत का अक़ीदा उनके मन में उतारा जाए, क्योंकि इस अक़ीदे को माने बिना यह सम्भव ही न था कि सत्य और असत्य के मामले में उनकी सोच गम्भीर हो सकती। यही कारण है कि मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल की सूरतों में अधिकतर ज़ोर आख़िरत के अक़ीदे को दिलों में बिठाने पर दिया गया है। इस काल की सूरतों में आख़िरत के विषय को बार-बार दोहराए जाने का कारण अच्छी तरह समझ लेने के बाद अब इस सूरा की वार्ताओं पर एक दृष्टि डाल लीजिए।

इसमें सबसे पहले उन चर्चाओं और कानाफूसियों की ओर इशारा किया गया है जो क़ियामत की ख़बर सुनकर मक्का की हर गली, बाज़ार और मक्कावालों की हर सभा में हो रही थीं। इसके बाद इंकार करनेवालों से पूछा गया है कि क्या तुम्हें [ज़मीन से लेकर आसमान तक का प्रकृति का कारख़ाना और उसके अन्दर पाई जानेवाली हिक्मतें (तत्वदर्शिताएँ) और उद्देश्य नज़र नहीं आते? इसकी ये सारी चीज़ें क्या तुम्हें यही बता रही हैं कि जिस सामर्थ्यवान ने इनको पैदा किया है, उसकी सामर्थ्य क़ियामत लाने और आख़िरत बरपा करने में विवश है? और इस पूरे कारख़ाने में जो श्रेष्ठ दर्जे की दत्वदर्शिता और बुद्धिमत्ता स्पष्ट रूप से कार्यरत है, क्या उसे देखते हुए तुम्हारी समझ में यह आता है कि इस कारख़ाने का एक-एक अंश और एक-एक काम तो उद्देश्यपूर्ण है, मगर ख़ुद पूरा कारख़ाना निरुद्देश्य है? आख़िर इससे ज़्यादा बेकार और व्यर्थ बात क्या हो सकती है कि इस कारख़ाने में इंसान को फ़ोरमैन (Foreman) के पद पर बिठाकर उसे यहाँ बड़े व्यापक अधिकार तो दे दिए जाएँ, मगर जब वह अपना काम पूरा करके यहाँ से विदा हो तो उसे यों ही छोड़ दिया जाए- न काम बनाने पर पेंशन और इनाम, न बिगाड़ने पर पूछ-गच्छ और सज़ा? ये तर्क देने के बाद पूरे ज़ोर के साथ कहा गया है कि फ़ैसले का दिन निश्चित रूप से अपने निश्चित समय पर आकर रहेगा। तुम्हारा इंकार इस घटना को पेश आने से नहीं रोक सकता। इसके बाद आयत 21 से 30 तक बताया गया है कि जो लोग हिसाब-किताब की उम्मीद नहीं रखते और जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया है, उनकी एक-एक करतूत गिन-गिनकर हमारे यहाँ लिखी है और उनकी ख़बर लेने के लिए जहन्नम घात लगाए हुए तैयार है। फिर आयत 31 से 36 तक उन लोगों का बेहतरीन बदला बमान हुआ है, जिन्होंने अपने आपको ज़िम्मेदार और उत्तरदायी समझकर दुनिया में अपनी आख़िरत ठीक करने की पहले ही चिंता कर ली है। अन्त में अल्लाह की अदालत का चित्र खींचा गया है कि वहाँ किसी के अड़कर बैठ जाने और अपने लोगों को बख़्शवाकर छोड़ने का क्या सवाल, वहाँ तो कोई बिना इजाज़त ज़बान तक न खोल सकेगा, और इजाज़त भी इस शर्त के साथ मिलेगी कि जिसके पक्ष में सिफ़ारिश की इजाज़त हो, सिर्फ़ उसी के लिए सिफ़ारिश करे और सिफ़ारिश में कोई अनुचित बात न कहे। साथ ही सिफ़ारिश की इजाज़त सिर्फ़ उन लोगों के पक्ष में दी जाएगी जो दुनिया में हक़ के कलिमे के समर्थक रहे हैं और सिर्फ़ गुनाहगार हैं । अल्लाह के बाग़ी और सत्य के इंकारी किसी सिफ़ारिश के अधिकारी न होंगे। फिर वार्ता को इस चेतावनी पर समाप्त किया गया है कि जिस दिन के आने की ख़बर दी जा रही है, उसका आना सत्य है, उसे दूर न समझो, वह क़रीब ही आ लगा है। [जो आज उसके इंकार पर तुला बैठा है कल] वह पछता-पछताकर कहेगा कि काश! मैं दुनिया में पैदा ही न होता। उस वक्त उसका यह एहसास उसी दुनिया के बारे में होगा जिस पर वह आज आसक्त हो रहा है।

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سُورَةُ النَّبَإِ
78. अन-नबा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
عَمَّ يَتَسَآءَلُونَ
(1) ये लोग किस चीज़ के बारे में पूछ-गछ कर रहे हैं?
عَنِ ٱلنَّبَإِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 1
(2) क्या उस बड़ी ख़बर के बारे में
ٱلَّذِي هُمۡ فِيهِ مُخۡتَلِفُونَ ۝ 2
(3) जिसके बारे में ये तरह-तरह की बातें करने में लगे हुए हैं?1
1. बड़ी ख़बर से मुराद क़ियामत और आख़िरत की ख़बर है जिसको मक्कावाले आँखें फाड़-फाड़कर सुनते थे, फिर हर महफ़िल में उसपर तरह-तरह की कानाफूसियाँ होती थीं। पूछ-गछ से मुराद यही कानाफूसियाँ हैं। लोग जब एक-दूसरे से मिलते थे तो कहते थे कि भाई, कभी पहले भी तुमने सुना है कि मरकर कोई दोबारा ज़िन्दा होगा? क्या यह मानने के क़ाबिल बात है कि गल-सड़कर जो हड्डियाँ चूर-चूर हो चुकी हैं उनमें नए सिरे से जान पड़ेगी? क्या अक़्ल में यह बात समाती है कि अगली-पिछली सारी नस्लें उठकर एक जगह इकट्ठी होंगी? क्या यह मुमकिन है कि ये बड़े-बड़े जमे हुए पहाड़ हवा में रूई के गालों की तरह उड़ने लगेंगे? क्या यह हो सकता है कि चाँद, सूरज और तारे सब बुझकर रह जाएँ और दुनिया का यह सारा जमा-जमाया निज़ाम उलट-पुलट हो जाए? यह साहब जो कल तक अच्छे-भले समझदार आदमी थे आज इन्हें यह क्या हो गया है कि हमें ऐसी अजीब अनहोनी ख़बरें सुना रहे हैं! यह जन्नत और यह जहन्नम आख़िर पहले कहाँ थीं जिनका ज़िक्र हमने कभी इनकी ज़बान से न सुना था? अब यह एकदम कहाँ से निकल आई हैं कि इन्होंने उनके अजीब-ग़रीब नक़्शे हमारे सामने खींचने शुरू कर दिए हैं? ‘हुम फ़ीहि मुख़्तलिफ़ून’ का एक मतलब तो यह है कि “वे उसके बारे में अलग-अलग तरह की कानाफूसियाँ कर रहे हैं।” दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि दुनिया के अंजाम के बारे में ये लोग ख़ुद भी कोई एक ऐसा अक़ीदा नहीं रखते जिसपर सब एक राय हों, बल्कि “उनके बीच उसके बारे में अलग-अलग ख़यालात पाए जाते हैं।” उनमें से कोई ईसाइयों के ख़यालात से मुतास्सिर था और मरने के बाद की ज़िन्दगी को मानता था मगर यह समझता था कि वह दूसरी ज़िन्दगी जिस्मानी नहीं, बल्कि रूहानी होगी। कोई आख़िरत का पूरी तरह इनकार न करता था, मगर उसे शक था कि वह हो सकती है या नहीं, चुनाँचे क़ुरआन मजीद ही में इस ख़याल के लोगों की कही हुई यह बात नक़्ल की गई है कि “हम तो बस एक गुमान-सा रखते हैं, यक़ीन हमको नहीं है।” (सूरा-45 जासिया, आयत-32)। और कोई बिलकुल साफ़-साफ़ कहता था कि “जो कुछ भी है बस हमारी यही दुनिया की ज़िन्दगी है और हम हरगिज़ मरने के बाद दोबारा न उठाए जाएँगे।” (सूरा-6 अनआम, अयात-29)। फिर कुछ लोग उनमें से नास्तिक थे और कहते थे कि “ज़िन्दगी बस यही हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है, यहीं हम मरते और जीते हैं और दिनों के आने-जाने के सिवा कोई चीज़ नहीं जो हमें हलाक करती हो।” (सूरा-45 जासिया, आयत-24)। और कुछ दूसरे लोग नास्तिक तो न थे, मगर दूसरी ज़िन्दगी को नामुमकिन ठहराते थे, यानी उनके नज़दीक यह ख़ुदा की क़ुदरत से बाहर की बात थी कि वह मरे हुए इनसानों को फिर से ज़िन्दा कर सके। उनका कहना था, “कौन इन हड्डियों को ज़िन्दा करेगा, जबकि ये सड़-गल चुकी हों?” (सूरा-36 या-सीन, आयत-78)। ये उनकी अलग-अलग बातें ख़ुद ही इस बात का सुबूत थीं कि उनके पास इस मसले में कोई इल्म न था, बल्कि वे सिर्फ़ गुमान और अटकलों के तीर-तुक्के चला रहे थे, वरना इल्म होता तो सब कोई एक बात कहते। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, हाशिया-6)।
كَلَّا سَيَعۡلَمُونَ ۝ 3
(4) हरगिज़ नहीं2, बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा।
2. यानी आख़िरत के बारे में जो बातें ये लोग बना रहे हैं सब ग़लत हैं। जो कुछ इन्होंने समझ रखा है वह हरगिज़ सही नहीं है।
ثُمَّ كَلَّا سَيَعۡلَمُونَ ۝ 4
(5) हाँ, हरगिज़ नहीं, बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा।3
3. यानी वह वक़्त दूर नहीं है जब वही चीज़ हक़ीक़त बनकर इनके सामने आ जाएगी जिसके बारे में ये बेकार की कानाफूसियाँ कर रहे हैं। उस वक़्त इन्हें पता चल जाएगा कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जो ख़बर इनको दी थी वही सही थी और गुमान और अटकलों से जो बातें ये बना रहे थे उनकी कोई हक़ीक़त न थी।
أَلَمۡ نَجۡعَلِ ٱلۡأَرۡضَ مِهَٰدٗا ۝ 5
(6) क्या ऐसा नहीं है कि हमने ज़मीन को बिछौना बनाया4
4. ज़मीन को इनसान के लिए फ़र्श, यानी एक सुकून से भरी ठहरने की जगह बनाने में क़ुदरत और हिकमत के जो कमाल काम कर रहे हैं उनपर इससे पहले तफ़हीमुल-क़ुरआन में कई जगहों पर तफ़सीली रौशनी डाली जा चुकी है। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी जगहें देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73, 74, 81; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-29; सूरा-40 मोमिन, हाशिए—90, 91; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-7; सूरा-45 जासिया, हाशिया-7; सूरा-50 क़ाफ़, हाशिया-18।
وَٱلۡجِبَالَ أَوۡتَادٗا ۝ 6
(7) और पहाड़ों को मेख़ों (खूटों) की तरह गाड़ दिया5,
5. ज़मीन पर पहाड़ पैदा करने की हिकमतों के बारे में देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-12; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-74; सूरा-77 मुर्सलात, हाशिया-15।
وَخَلَقۡنَٰكُمۡ أَزۡوَٰجٗا ۝ 7
(8) और तुम्हें (मर्दों और औरतों के) जोड़ों की शक्ल में पैदा किया,6
6. इनसान को मर्दों और औरतों के जोड़ों की शक्ल में पैदा करना अपने अन्दर जो बड़ी हिकमतें रखता है उनकी तफ़सील जानने के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-69; सूरा-30 रूम, हाशिए—28 से 30; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-31; सूरा-42 शूरा, हाशिया-77, सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-12; सूरा-75 क़ियामा, हाशिया-25।
وَجَعَلۡنَا نَوۡمَكُمۡ سُبَاتٗا ۝ 8
(9) और तुम्हारी नींद को सुकून का सबब बनाया,7
7. इनसान को दुनिया में काम करने के क़ाबिल बनाने के लिए अल्लाह तआला ने जिस हिकमत के साथ उसकी फ़ितरत में नींद की ऐसी तलब रख दी है जो हर कुछ घण्टों की मेहनत के बाद उसे कुछ घण्टे सोने पर मजबूर कर देती है। इसकी तशरीह हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-30 रूम, हाशिया-33 में कर चुके हैं।
وَجَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ لِبَاسٗا ۝ 9
(10) और रात को लिबास
وَجَعَلۡنَا ٱلنَّهَارَ مَعَاشٗا ۝ 10
(11) और दिन को रोज़ी का वक़्त बनाया,8
8. यानी रात को इस ग़रज़ के लिए अंधेरी बना दिया कि उसमें तुम रौशनी से बचकर ज़्यादा आसानी के साथ नींद का सुकून हासिल कर सको, और दिन को इस मक़सद से रौशन बनाया कि उसमें तुम ज़्यादा आसानी के साथ अपनी रोज़ी के लिए काम कर सको। ज़मीन पर बाक़ायदगी के साथ लगातार रात और दिन का उलट-फेर करते रहने के अनगिनत फ़ायदों में से सिर्फ़ इस एक फ़ायदे की तरफ़ की इशारा यह बताने के लिए किया गया है कि यह सब कुछ बेमक़सद, या इत्तिफ़ाक़ से नहीं हो रहा है, बल्कि इसके पीछे एक बड़ी हिकमत काम कर रही है, जिसका सीधे तौर पर तुम्हारे अपने फ़ायदे से गहरा ताल्लुक़ है। तुम्हारे वुजूद की बनावट अपने सुकून और राहत के लिए जिस अंधेरे की तलबगार थी वह रात को, और अपनी रोज़ी-रोटी के लिए जिस रौशनी की तलबगार थी वह दिन को दी गई है। तुम्हारी ज़रूरतों के ठीक मुताबिक़ यह इन्तिज़ाम ख़ुद इस बात की गवाही दे रहा है कि यह किसी हिकमतवाले की हिकमत के बिना नहीं हुआ है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए दखिए, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-65; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-32; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-85, सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-5)।
وَبَنَيۡنَا فَوۡقَكُمۡ سَبۡعٗا شِدَادٗا ۝ 11
(12) और तुम्हारे ऊपर सात मज़बूत आसमान क़ायम किए,9
9. मज़बूत का लफ़्ज़ इस मानी में इस्तेमाल किया गया है कि उनकी सरहदें इतनी पक्की हैं कि उनमें ज़र्रा बराबर तब्दीली नहीं होने पाती और उन सरहदों (सीमाओं) को पार करके ऊपरी दुनिया के अनगिनत तारों और सय्यारों (ग्रहों) में से कोई न एक-दूसरे से टकराता है न तुम्हारी ज़मीन पर आ गिरता है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-34; सूरा-13 रअ्द, हाशिया-2; सूरा-15 हिज्र, हाशिए—8, 12; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-15; सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-13; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-37; सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—5, 6; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-90; सूरा-50 क़ाफ़, हाशिए—7, 8)।
وَجَعَلۡنَا سِرَاجٗا وَهَّاجٗا ۝ 12
(13) और एक निहायत रौशन और गर्म चराग़ पैदा किया,10
10. मुराद है सूरज। अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘वह्हाज’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब बहुत गर्म भी है और बहुत रौशन भी, इसलिए तर्जमे में हमने दोनों मतलब लिख दिए हैं। इस छोटे-से जुमले में अल्लाह की क़ुदरत और हिकमत के जिस अज़ीमुश्शान निशान की तरफ़ इशारा किया गया है उसका क़ुत्र (व्यास) ज़मीन के क़ुत्र (व्यास) से 109 गुना और उसका हज्म (आकार) ज़मीन के हज्म (आकार) से 3 लाख 33 हज़ार गुना ज़्यादा बड़ा है। उसका दर्जा-ए-हरारत (तापमान) एक करोड़ चालीस लाख डिग्री सेंटीग्रेड है। ज़मीन से 9 करोड़ 30 लाख मील दूर होने के बावजूद उसकी रौशनी का यह हाल है कि इनसान अगर नंगी आँख से उसकी तरफ़ नज़र जमाने की कोशिश करे तो अपनी आँखों की रौशनी खो बैठे, और उसकी गर्मी का हाल यह है कि ज़मीन के कुछ हिस्सों में उसकी तपिश की वजह से तापमान 140 डिग्री फ़ाह्‌रिन हाइट (Fahrenheit) तक पहुँच जाता है। यह अल्लाह ही की हिकमत है कि उसने ज़मीन को उससे ठीक ऐसे फ़ासले पर रखा है कि न उससे बहुत क़रीब होने की वजह से यह बेइन्तिहा गर्म है और न बहुत दूर होने की वजह से बेइन्तिहा ठण्डी, इसी वजह से यहाँ इनसान, जानवर और पेड़-पौधों की ज़िन्दगी मुमकिन हुई है। उसी से ताक़त के बेहिसाब ख़ज़ाने निकलकर ज़मीन पर पहुँच रहे हैं जो हमारे लिए जीने की वजह बने हुए हैं। उसी से हमारी फ़स्लें पक रही हैं और हर जानदार को खाना (भोजन) मिल रहा है। उसी की गर्मी समुद्रों के पानी को गर्म करके वे भापें उठाती है जो हवाओं के ज़रिए से ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों पर फैलती और बारिश की शक्ल में बरसती हैं। इस सूरज में अल्लाह ने ऐसी ज़बरदस्त भट्टी सुलगा रखी है जो अरबों साल से रौशनी, गर्मी और अलग-अलग तरह की किरनें सारे निज़ामे-शमसी (सौरमण्डल) में फेंके चली जा रही है।
وَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلۡمُعۡصِرَٰتِ مَآءٗ ثَجَّاجٗا ۝ 13
(14) और बादलों से लगातार बारिश बरसाई
لِّنُخۡرِجَ بِهِۦ حَبّٗا وَنَبَاتٗا ۝ 14
(15) ताकि उसके ज़रिए से अनाज और सब्ज़ी
11. ज़मीन पर बारिश के इन्तिज़ाम और पेड़-पौधों के उगने में अल्लाह तआला की क़ुदरत और हिकमत के जो-जो हैरतअंगेज़ कमाल काम कर रहे हैं उनपर तफ़सील के साथ तफ़हीमुल-क़ुरआन की नीचे लिखी जगहों पर रौशनी डाली गई है— सूरा-16 नह्ल, हाशिया-53 अ; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-17, सूरा-26 शुअरा, हाशिया-5; सूरा-30 रूम, हाशिया-35; सूरा-35 फ़ातिर, हाशिया-19; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-29; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-20; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिए—10, 11; सूरा-56 वाक़िआ, हाशिए—28 से 30। इन आयतों में एक के बाद एक बहुत-सी निशानियों और गवाहियों को पेश करके क़ियामत और आख़िरत के इनकार करनेवालों को यह बताया गया है कि अगर तुम आँखें खोलकर ज़मीन और पहाड़ों और ख़ुद अपनी पैदाइश और अपने सोने-जागने और रात-दिन के इस इन्तिज़ाम को देखो, कायनात के बंधे हुए निज़ाम (व्यवस्था) और आसमान के चमकते हुए सूरज को देखो, बादलों से बरसनेवाली बारिश और उससे पैदा होनेवाले पेड़-पौधों को देखो, तो तुम्हें दो बातें उनमें नुमायाँ नज़र आएँगी। एक यह कि यह सब कुछ एक ज़बरदस्त क़ुदरत के बिना न वुजूद में आ सकता है, न इस बाक़ायदगी (नियमितता) के साथ जारी रह सकता है। दूसरी यह कि इनमें से हर चीज़ के अन्दर एक ज़बरदस्त हिकमत काम कर रही है और कोई काम भी बेमक़सद नहीं हो रहा है। अब यह बात सिर्फ़ एक नादान ही कह सकता है कि जो क़ुदरत इन सारी चीज़ों को वुजूद में लाने की क़ुदरत रखती है वह इन्हें मिटा देने और दोबारा किसी और सूरत में पैदा कर देने की क़ुदरत नहीं रखती। और यह बात भी सिर्फ़ एक बेअक़्ल ही कह सकता है कि जिस हिकमतवाली (गहरी सूझ-बूझ रखनेवाली) हस्ती ने इस कायनात में कोई काम भी बेमक़सद नहीं किया है उसने अपनी दुनिया में इनसान को समझ-बूझ, भलाई-बुराई की पहचान, फ़रमाँबरदारी और नाफ़रमानी की आज़ादी, और अपनी पैदा की हुई अनगिनत चीज़ों के इस्तेमाल के इख़्तियार बेमक़सद ही दे डाले हैं, इनसान उसकी दी हुई इन चीज़ों को अच्छी तरह इस्तेमाल करे या बुरी तरह, दोनों सूरतों में उसका कोई नतीजा नहीं निकलता, कोई भलाइयाँ करते-करते मर जाए तो भी मिट्टी में मिलकर ख़त्म हो जाएगा और बुराइयाँ करते-करते मर जाए तो भी मिट्टी में मिलकर ख़त्म हो जाएगा, न भले को उसकी भलाई का कोई बदला मिलेगा, न बुरे से उसकी बुराई पर कोई पूछ-गछ होगी। मरने के बाद की ज़िन्दगी और क़ियामत और आख़िरत पर यही दलीलें हैं जो जगह-जगह क़ुरआन मजीद में बयान की गई हैं। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी जगहें देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-13 रअ्द, हाशिया-7; सूरा-22 हज, हाशिया-9; सूरा-30 रूम, हाशिया-6; सूरा-34 सबा, हाशिए—10, 12; सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—8, 9।
وَجَنَّٰتٍ أَلۡفَافًا ۝ 15
(16) और घने बाग़ उगाएँ?11
إِنَّ يَوۡمَ ٱلۡفَصۡلِ كَانَ مِيقَٰتٗا ۝ 16
(17) बेशक फ़ैसले का दिन एक मुक़र्रर वक़्त है।
يَوۡمَ يُنفَخُ فِي ٱلصُّورِ فَتَأۡتُونَ أَفۡوَاجٗا ۝ 17
(18) जिस दिन सूर (नरसिंघा) में फूँक मार दी जाएगी, तुम झुण्ड-के-झुण्ड निकल आओगे।12
12. इससे मुराद वह आख़िरी सूर फूँका जाना है जिसकी आवाज़ फैलते ही तमाम मरे हुए इनसान यकायक जी उठेंगे, और तुमसे मुराद सिर्फ़ वही लोग नहीं हैं जो उस वक़्त सामने थे, बल्कि वे तमाम इनसान हैं जो पैदाइश की शुरुआत से क़ियामत तक पैदा हुए हों (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-57; सूरा-22 हज, हाशिया-1; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—46, 47; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-79)।
وَفُتِحَتِ ٱلسَّمَآءُ فَكَانَتۡ أَبۡوَٰبٗا ۝ 18
(19) और आसमान खोल दिया जाएगा यहाँ तक कि वह दरवाज़े-ही-दरवाज़े बनकर रह जाएगा,
وَسُيِّرَتِ ٱلۡجِبَالُ فَكَانَتۡ سَرَابًا ۝ 19
(20) और पहाड़ चलाए जाएँगे यहाँ तक कि वे सराब (मरीचिका, रेगिस्तान में पानी का धोखा) हो जाएँगे।13
13. इस जगह पर यह बात ज़ेहन में रहनी चाहिए कि यहाँ भी क़ुरआन की दूसरी बहुत-सी जगहों की तरह क़ियामत के अलग-अलग मरहलों का ज़िक्र एक साथ किया गया है। पहली आयत में उस कैफ़ियत का ज़िक्र है जो आख़िरी सूर फूँके जाने के वक़्त पेश आएगी, और बाद की दो आयतों में वह हालत बयान की गई है जो दूसरा सूर फूँके जाने के मौक़े पर ज़ाहिर होगी। इसको हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-69 हाक़्क़ा, हाशिया-10 में बयान कर चुके हैं। “आसमान खोल दिया जाएगा।” से मुराद यह है कि ऊपरी दुनिया में कोई बन्दिश और रुकावट बाक़ी न रहेगी और हर तरफ़ से हर आसमानी मुसीबत इस तरह टूटी पड़ रही होगी कि मालूम होगा मानो उसके आने के लिए सारे दरवाज़े खुले हैं और इसको रोकने के लिए कोई दरवाज़ा भी बन्द नहीं रहा है। पहाड़ों के चलने और सराब (मरीचिका) बनकर रह जाने का मतलब यह है कि देखते-देखते पहाड़ अपनी जगह से उखड़कर उड़ेंगे और फिर चूर-चूर होकर इस तरह फैल जाएँगे कि जहाँ पहले कभी पहाड़ थे वहाँ रेत के बड़े-बड़े मैदानों के सिवा और कुछ न होगा। इसी कैफ़ियत को सूरा-20 ता-हा में यूँ बयान किया गया है— “ये लोग तुमसे पूछते हैं कि आख़िर उस दिन पहाड़ कहाँ चले जाएँगे? इनसे कहो कि मेरा रब इनको धूल बनाकर उड़ा देगा और ज़मीन को ऐसा समतल चटियल मैदान बना देगा कि उसमें तुम कोई बल और सलवट तक न देखोगे।” (आयतें—105 से 107, हाशिया-83)।
إِنَّ جَهَنَّمَ كَانَتۡ مِرۡصَادٗا ۝ 20
(21) हक़ीक़त में जहन्नम एक घात है,14
14. घात उस जगह को कहते हैं जो शिकार को फाँसने के लिए बनाई जाती है, ताकि वह बेख़बरी की हालत में आए और अचानक उसमें फँस जाए। जहन्नम के लिए यह लफ़्ज़ इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि ख़ुदा के बाग़ी उससे बेख़ैफ़ होकर दुनिया में यह समझते हुए उछल-कूद करते फिर रहे हैं कि ख़ुदा की ख़ुदाई (दुनिया) उनके लिए मनमानी करने का एक खुला मैदान है, और यहाँ किसी पकड़ का ख़तरा नहीं है, लेकिन जहन्नम उनके लिए एक ऐसी छिपी हुई घात है जिसमें वे यकायक फँसेंगे और बस फँसकर ही रह जाएँगे।
لِّلطَّٰغِينَ مَـَٔابٗا ۝ 21
(22) सरकशों का ठिकाना,
لَّٰبِثِينَ فِيهَآ أَحۡقَابٗا ۝ 22
(23) जिसमें वे मुद्दतों पड़े रहेंगे।15
15. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ ‘अहक़ाब’ इस्तेमाल किया गया है, जिसका मतलब है एक के बाद एक आनेवाले लम्बे ज़माने, ऐसे लगातार दौर कि एक दौर ख़त्म होते ही दूसरा दौर शुरू हो जाए। इस लफ़्ज़ से कुछ लोगों ने यह दलील निकालने की कोशिश की है कि जन्नत की ज़िन्दगी में तो हमेशगी होगी, मगर जहन्नम में हमेशगी नहीं होगी, क्योंकि ये मुद्दतें चाहे कितनी ही लम्बी हों, बहरहाल जब मुद्दतों का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है तो उससे यही लगता है कि वह बेइन्तिहा न होंगी, बल्कि कभी-न-कभी जाकर ख़त्म हो जाएँगी। लेकिन यह दलील दो वजहों से ग़लत है। एक यह कि अरबी लुग़त (शब्दकोश) के हिसाब से ‘हक़ब’ के लफ़्ज़ ही में यह मतलब शामिल है कि एक हक़ब के पीछे दूसरा हक़ब हो, इसलिए अहक़ाब लाज़िमन ऐसे ज़मानों के लिए बोला जाएगा जो लगातार एक-दूसरे के बाद आते चले जाएँ और कोई दौर भी ऐसा न हो जिसके पीछे दूसरा दौर न आए। दूसरे यह कि किसी मौज़ू (बात) के बारे में क़ुरआन मजीद की किसी आयत से कोई ऐसा मतलब लेना उसूली तौर से ग़लत है जो उसी बात के बारे में क़ुरआन के दूसरे बयानों से टकराता हो। क़ुरआन में 34 जगहों पर जहन्नमवालों के लिए ‘ख़ुलूद’ (हमेशगी) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, तीन जगह सिर्फ़ लफ़्ज़ ‘ख़ुलूद’ ही पर बस नहीं किया गया है, बल्कि उसपर ‘अब्दन’ (हमेशा-हमेशा) का भी इज़ाफ़ा कर दिया गया है, और एक जगह साफ़-साफ़ कहा गया है कि “वे चाहेंगे कि जहन्नम से निकल जाएँ, मगर वे उससे हरगिज़ निकलनेवाले नहीं हैं और उनके लिए क़ायम रहनेवाला अज़ाब है।” (सूरा-5 माइदा, आयत-37)। एक दूसरी जगह फ़रमाया गया है कि “इसी हालत में वे हमेशा रहेंगे जब तक कि ज़मीन और आसमान क़ायम हैं सिवाय यह कि तेरा रब कुछ और चाहे।” और यही बात जन्नतवालों के बारे में कही गई है कि “जन्नत में वे हमेशा रहेंगे जब तक ज़मीन और आसमान क़ायम हैं, सिवाय इसके कि तेरा रब कुछ और चाहे।” (सूरा-11 हूद, आयतें—107, 108)। इन साफ़-साफ़ बयानों के बाद लफ़्ज़ अहक़ाब की बुनियाद पर यह कहने की आख़िर क्या गुंजाइश बाक़ी रह जाती है कि जहन्नम में ख़ुदा के बाग़ियों का क़ियाम हमेशा के लिए नहीं होगा, बल्कि कभी-न-कभी ख़त्म हो जाएगा?
لَّا يَذُوقُونَ فِيهَا بَرۡدٗا وَلَا شَرَابًا ۝ 23
(24) उसके अन्दर किसी ठंडक और पीने के क़ाबिल किसी चीज़ का मज़ा वे न चखेंगे,
إِلَّا حَمِيمٗا وَغَسَّاقٗا ۝ 24
(25) कुछ मिलेगा तो बस गर्म पानी और ज़ख़्मों का धोवन,16
16. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ग़स्साक़’ इस्तेमाल हुआ है जिसमें पीप, लहू, कच-लहू, और आँखों और खालों से बहनेवाली वे तमाम चीज़ें आ जाती हैं, जो सख़्त तकलीफ़ की वजह से बह निकलती हों। इसके अलावा यह लफ़्ज़ ऐसी चीज़ के लिए भी बोला जाता है जिसमें सख़्त बदबू और सड़ाँध हो।
جَزَآءٗ وِفَاقًا ۝ 25
(26) (उनके करतूतों का) बदला।
إِنَّهُمۡ كَانُواْ لَا يَرۡجُونَ حِسَابٗا ۝ 26
(27) वे किसी हिसाब की उम्मीद न रखते थे
وَكَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا كِذَّابٗا ۝ 27
(28) और हमारी आयतों को उन्होंने बिलकुल झुठला दिया था17,
17. यह है वह सबब (कारण) जिसकी बुनियाद पर वे जहन्नम के उस भयानक अज़ाब के हक़दार होंगे। एक यह कि दुनिया में वे यह समझते हुए ज़िन्दगी गुज़ारते रहे कि कभी वह वक़्त नहीं आना है जब उन्हें ख़ुदा के सामने हाज़िर होकर अपने आमाल (कर्मों) का हिसाब देना हो। दूसरे यह कि अल्लाह तआला ने अपने नबियों के ज़रिए से उनकी हिदायत के लिए जो आयतें (पैग़ाम) भेजी थीं उन्हें मानने से उन्होंने इनकार कर दिया और उनको झूठ ठहराया।
وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ كِتَٰبٗا ۝ 28
(29) और हाल यह था कि हमने हर चीज़ गिन-गिनकर लिख रखी थी।18
18. यानी उनकी बातों और उनके कामों, उनकी हरकतों, यहाँ तक कि उनकी नीयतों, दिल में पैदा होनेवाले उनके ख़यालात और जिन मक़सदों के लिए वे ये सब कर रहे थे उन तक का मुकम्मल रिकार्ड तैयार करता जा रहा था, जिससे कोई चीज़ छूटी हुई न थी, और वह बेवक़ूफ़ इससे बेख़बर अपनी जगह यह समझे बैठे थे कि वे किसी अंधेर नगरी में जी रहे हैं जहाँ वे अपनी मर्ज़ी और ख़ाहिश से जो कुछ चाहें करते रहें, उसकी पूछ-गछ करनेवाला कोई नहीं है।
فَذُوقُواْ فَلَن نَّزِيدَكُمۡ إِلَّا عَذَابًا ۝ 29
(30) अब चखो मज़ा, हम तुम्हारे लिए अज़ाब के सिवा किसी चीज़ में हरगिज़ इज़ाफ़ा न करेंगे।
إِنَّ لِلۡمُتَّقِينَ مَفَازًا ۝ 30
(31) यक़ीनन डर रखनेवालों (ईशपरायण लोगों)19 के लिए कामयाबी का एक मक़ाम है,
19. यहाँ ‘मुत्तक़ीन’ (डर रखनेवालों) का अरबी लफ़्ज़ उन लोगों के मुक़ाबले में इस्तेमाल किया गया है जो किसी हिसाब की उम्मीद न रखते थे और जिन्होंने अल्लाह की आयतों और तालीमात को झुठलाया था। इसलिए यक़ीनन इस लफ़्ज़ से मुराद वे लोग हैं जिन्होंने अल्लाह की आयतों और तालीमात को माना और दुनिया में यह समझते हुए ज़िन्दगी गुज़ारी कि उन्हें अपने आमाल (कर्मों) का हिसाब देना है।
حَدَآئِقَ وَأَعۡنَٰبٗا ۝ 31
(32) बारा और अंगूर
وَكَوَاعِبَ أَتۡرَابٗا ۝ 32
(33) और नौजवान हमउम्र बीवियाँ (लड़कियाँ)20
20. इसका यह मतलब भी हो सकता है कि वे आपस में हमउम्र होंगी, और यह भी कि वे उन लोगों की हमउम्र होंगी जिनकी वे बीवियाँ बनाई जाएँगी। सूरा-38 सॉद, आयत-52 और सूरा-56 वाक़िआ, आयत-37 में भी यह बात गुज़र चुकी है।
وَكَأۡسٗا دِهَاقٗا ۝ 33
(34) और छलकते हुए जाम।
لَّا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوٗا وَلَا كِذَّٰبٗا ۝ 34
(35) वहाँ कोई बेहूदा और झूठी बात वे न सुनेंगे।21
21. क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर इस बात को जन्नत की बड़ी नेमतों में शुमार किया गया है कि आदमी के कान वहाँ बेहूदा और झूठी और गन्दी बातें सुनने से बचे रहेंगे। वहाँ कोई बकवास और बेकार की गप्पबाज़ी न होगी, कोई किसी से न झूठ बोलेगा न किसी को झुठलाएगा, दुनिया में गाली-गलौच, बुहतान (झूठे इलज़ाम लगाना), झूठ गढ़ना, तुहमत और इलज़ाम तराशने का जो तूफ़ान बरपा है, उसका कोई नामो-निशान वहाँ न होगा। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-19 मरयम, हाशिया-38; सूरा-56 वाक़िआ, हाशिए—13, 14)।
جَزَآءٗ مِّن رَّبِّكَ عَطَآءً حِسَابٗا ۝ 35
(36) बदला और काफ़ी इनाम22 तुम्हारे रब की तरफ़ से,
22. बदला देने के बाद काफ़ी इनाम देने का ज़िक्र यह मतलब रखता है कि उनको सिर्फ़ वही बदला नहीं दिया जाएगा जिसके वे अपने आमाल की वजह से हक़दार होंगे, बल्कि उसपर और ज़्यादा इनाम और काफ़ी इनाम उन्हें दिया जाएगा। इसके बरख़िलाफ़ जहन्नमवालों के बारे में सिर्फ़ इतना कहा गया है कि उन्हें उनके करतूतों का भरपूर बदला दिया जाएगा, यानी न उनके जुर्मों से कम सज़ा दी जाएगी, न उससे ज़्यादा। यह बात क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर साफ़-साफ़ बयान की गई है। मिसाल के तौर पर सूरा-10 यूनुस, आयतें—26, 27; सूरा-27 नम्ल, आयतें—89, 90; सूरा-28 क़सस, आयत-84; सूरा-34 सबा, आयतें—33 से 38; सूरा-40 मोमिन, आयत-40।
رَّبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا ٱلرَّحۡمَٰنِۖ لَا يَمۡلِكُونَ مِنۡهُ خِطَابٗا ۝ 36
(37) उस निहायत मेहरबान ख़ुदा की तरफ़ से जो ज़मीन और आसमानों का और उनके बीच की हर चीज़ का मालिक है, जिसके सामने किसी को बोलने का हौसला नहीं।23
23. यानी हश्र के मैदान में अल्लाह के दरबार के रोब का यह हाल होगा कि ज़मीनवाले हों या आसमानवाले, किसी की भी यह मजाल न होगी कि अपने तौर पर ख़ुद अल्लाह तआला के सामने ज़बान खोल सके, या अदालत के काम में दख़ल दे सके।
يَوۡمَ يَقُومُ ٱلرُّوحُ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ صَفّٗاۖ لَّا يَتَكَلَّمُونَ إِلَّا مَنۡ أَذِنَ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَقَالَ صَوَابٗا ۝ 37
(38) जिस दिन रूह24 और फ़रिश्ते क़तार लगाकर (पंक्तिबद्ध) खड़े होंगे, कोई न बोलेगा सिवाय उसके जिसे रहमान इजाज़त दे और जो ठीक बात कहे।25
24. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से ज़्यादातर का ख़याल यही है कि इससे मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं और उनका जो बुलन्द मर्तबा अल्लाह तआला के यहाँ है उसकी वजह से फ़रिश्तों से अलग उनका ज़िक्र किया गया है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-70 मआरिज, हाशिया-3)।
25. बोलने से मुराद शफ़ाअत (सिफ़ारिश) है, और कहा गया है कि वह सिर्फ़ दो शर्तों के साथ मुमकिन होगी। एक शर्त यह कि जिस शख़्स को जिस गुनाहगार के हक़ में सिफ़ारिश की इजाज़त अल्लाह तआला की तरफ़ से मिलेगी सिर्फ़ वही शख़्स उसी के हक़ में सिफ़ारिश कर सकेगा। दूसरी शर्त यह कि सिफ़ारिश करनेवाला सही और दुरुस्त बात कहे, नामुनासिब और ग़लत तरह की सिफ़ारिश न करे, और जिसके मामले में वह सिफ़ारिश कर रहा हो वह दुनिया में कम-से-कम सच्चे कलिमे (बात) का माननेवाला रहा हो, यानी सिर्फ़ गुनाहगार हो ख़ुदा का इनकारी न हो। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-281; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-5; सूरा-11 हूद, हाशिया-106; सूरा-19 मरयम, हाशिया-52; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—85, 86; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-27; सूरा-34 सबा, हाशिए—40, 41; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-32; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-68, सूरा-53 नज्म, हाशिया-21; सूरा-74 मुद्दस्सिर, हाशिया-36)।
ذَٰلِكَ ٱلۡيَوۡمُ ٱلۡحَقُّۖ فَمَن شَآءَ ٱتَّخَذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ مَـَٔابًا ۝ 38
(39) वह दिन हक़ (यक़ीनी) है, अब जिसका जी चाहे अपने रब की तरफ़ पलटने का रास्ता अपना ले।
إِنَّآ أَنذَرۡنَٰكُمۡ عَذَابٗا قَرِيبٗا يَوۡمَ يَنظُرُ ٱلۡمَرۡءُ مَا قَدَّمَتۡ يَدَاهُ وَيَقُولُ ٱلۡكَافِرُ يَٰلَيۡتَنِي كُنتُ تُرَٰبَۢا ۝ 39
(40) हमने तुम लोगों को उस अज़ाब से डरा दिया है जो क़रीब आ लगा है।26 जिस दिन आदमी वह सब कुछ देख लेगा जो उसके हाथों ने आगे भेजा है, और इनकार करनेवाला पुकार उठेगा कि काश मैं मिट्टी होता!27
26. देखने में तो एक आदमी यह सोच सकता है कि जिन लोगों को सुनाते हुए यह बात कही गई गई थी उनको मरे हुए अब 1400 साल बीत चुके हैं, और अब भी यह नहीं कहा जा सकता कि क़ियामत आगे कितने सौ, या कितने हज़ार, या कितने लाख साल बाद आएगी। फिर यह बात किस मानी में कही गई है कि जिस अज़ाब से डराया गया है वह क़रीब आ लगा है? और सूरा के शुरू में यह कैसे कहा गया है कि बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा? इसका जवाब यह है कि इनसान को वक़्त का एहसास सिर्फ़ उसी वक़्त तक रहता है जब तक वह इस दुनिया में वक़्त और जगह की हदों के अन्दर जिस्मानी तौर पर ज़िन्दगी गुज़ार रहा है। मरने के बाद जब सिर्फ़ रूह (आत्मा) बाक़ी रह जाएगी, वक़्त का एहसास (और शुऊर) बाक़ी न रहेगा, और क़ियामत के दिन जब इनसान दोबारा ज़िन्दा होकर उठेगा उस वक़्त उसे यूँ महसूस होगा कि अभी सोते-सोते उसे किसी ने जगा दिया है। उसको यह एहसास बिलकुल नहीं होगा कि वह हज़ारों साल के बाद दोबारा ज़िन्दा हुआ है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-26; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-56; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-80; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-48)।
27. यानी दुनिया में पैदा ही न होता, या मरकर मिट्टी में मिल जाता और दोबारा ज़िन्दा होकर उठने की नौबत न आती।