(34) अगर ये अपनी इस बात में सच्चे हैं तो इसी शान का एक कलाम बना लाएँ।27
27. यानी बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि यह मुहम्मद (सल्ल०) का कलाम नहीं है, बल्कि हक़ीक़त यह है कि यह सिरे से इनसानी कलाम ही नहीं है और यह बात इनसान की क़ुदरत से बाहर है कि ऐसा कलाम गढ़ सके। अगर तुम इसे इनसानी कलाम कहते हो तो इस पैमाने का कोई कलाम लाकर दिखाओ, जिसे किसी इनसान ने गढ़ा हो। यह चैलेंज न सिर्फ़ क़ुरैश को, बल्कि तमाम दुनिया के इनकार करनेवालों को सबसे पहले इस आयत में दिया गया था। इसके बाद तीन बार मक्का में और फिर आख़िरी बार मदीना में इसे दोहराया गया, (देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयत-23; सूरा-10 यूनुस, आयत-38; सूरा-11 हूद, आयत-13; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-88)। मगर कोई इसका जवाब देने की न उस वक़्त हिम्मत कर सका न उसके बाद से आज तक किसी की यह हिम्मत हुई कि क़ुरआन के मुक़ाबले में इनसान की लिखी हुई किसी चीज़ को ले आए। कुछ लोग इस चैलेंज की हक़ीक़त को न समझने की वजह से यह कहते हैं कि एक क़ुरआन ही क्या, किसी शख़्स के स्टाइल में भी दूसरा कोई शख़्स नस्र या नज़्म (गद्य या पद्य) नहीं लिख सकता। हूमर, रूमी, शेक्सपियर, गोयटे, ग़ालिब, टैगोर, इक़बाल, सब ही इस लिहाज़ से बेमिसाल हैं कि उनकी नक़्ल उतारकर उन ही जैसा कलाम बना लाना किसी के बस में नहीं है। क़ुरआन के चैलेंज का यह जवाब देनेवाले अस्ल में इस ग़लतफ़हमी में हैं कि 'फ़लयातू बि-हदीसिम-मिसलिही' (इसी शान का एक कलाम बना लाएँ) का मतलब क़ुरआन के स्टाइल में उस जैसी कोई किताब लिख देना है। हालाँकि इससे मुराद स्टाइल में एक जैसा होना नहीं है, बल्कि मुराद यह है कि इस दरजे और इस शान और इस मर्तबे की कोई किताब ले आओ जो सिर्फ़ अरबी ही में नहीं, दुनिया की किसी ज़बान में उन ख़ासियतों के लिहाज़ से क़ुरआन के बराबर क़रार पा सके जिनकी बुनियाद पर क़ुरआन एक मोजिज़ा (चमत्कार) है। मोटे तौर पर कुछ बड़ी-बड़ी ख़ासियतें नीचे लिखी जा रही हैं जिनकी बुनियाद पर क़ुरआन पहले भी मोजिज़ा (चमत्कार) था और आज भी मोजिज़ा है।
(1) जिस ज़बान में क़ुरआन मजीद उतरा है उसके अदब (साहित्य) का वह सबसे ऊँचा और सबसे मुकम्मल नमूना है। पूरी किताब में एक लफ़्ज़ और एक जुमला भी मेयार (स्तर) से गिरा हुआ नहीं है। जिस मज़मून को भी अदा किया गया है सबसे सटीक अलफ़ाज़ और सबसे मुनासिब अन्दाज़े-बयान में अदा किया गया है। एक ही मज़मून बार-बार बयान हुआ है और हर बार बयान करने का अन्दाज़ नया है, जिससे तकरार (दोहराने) की बदनुमाई कहीं पैदा नहीं होती। शुरू से लेकर आख़िर तक सारी किताब में अलफ़ाज़ इस तरह फ़िट हैं कि जैसे नगीने तराश-तराशकर जड़े गए हों। कलाम इतना असरदार है कि कोई ज़बान का इल्म रखनेवाला उसे सुनकर सर धुने बिना नहीं रह सकता, यहाँ तक कि इनकार और मुख़ालफ़त करनेवाले की रूह भी झूमने लगती है। 1400 (चौदह सौ) साल गुज़रने के बाद भी आज तक यह किताब अपनी ज़बान के अदब का सबसे आला नमूना है, जिसके बराबर तो दरकिनार, जिसके क़रीब भी अरबी ज़बान की कोई किताब अपनी अदबी (साहित्यिक) क़द्रो-क़ीमत में नहीं पहुँचती। यही नहीं, बल्कि यह किताब अरबी ज़बान को इस तरह पकड़कर बैठ गई है कि 14 सदियाँ गुज़र जाने पर भी इस ज़बान की ख़ुशबयानी (सुभाषिता) का मेयार वही है जो इस किताब ने क़ायम कर दिया था, हालाँकि इतनी मुद्दत में ज़बानें बदलकर कुछ-से-कुछ हो जाती हैं। दुनिया की कोई ज़बान ऐसी नहीं जो इतनी लम्बी मुद्दत तक लिखावट, इबारत, मुहावरे, ज़बान के क़ायदे (व्याकरण) और अलफ़ाज़ के इस्तेमाल में एक ही शान पर बाक़ी रह गई हो, लेकिन यह सिर्फ़ क़ुरआन की ताक़त है जिसने अरबी ज़बान को अपने मक़ाम से हिलने न दिया। उसका एक लफ़्ज़ भी आज तक ऐसा नहीं है जिसका इस्तेमाल ख़त्म हो गया हो। उसका हर मुहावरा आज तक अरबी अदब (साहित्य) में इस्तेमाल हो रहा है। उसका अदब (साहित्य) आज भी अरबी का मेयारी अदब है, और तक़रीर और लिखावट में आज भी बेहतरीन ज़बान वही मानी जाती है जो चौदह सौ साल पहले क़ुरआन की थी। क्या दुनिया की किसी ज़बान में कोई इनसानी तसनीफ़ (रचना) इस शान की है?
(2) यह दुनिया की एक अकेली किताब है जिसने इनसानों के ख़यालात, अख़लाक़़, तहज़ीब (संस्कृति) और जीने के ढंग पर इतना फैलाव, इतनी गहराई और इतने पहलुओं के साथ असर डाला है कि दुनिया में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। पहले उसकी तासीर (असर) ने एक क़ौम को बदला और फिर उस क़ौम ने उठकर दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से को बदल डाला। कोई दूसरी किताब ऐसी नहीं है जो इस क़दर इनक़िलाब लानेवाली साबित हुई हो। यह किताब सिर्फ़ काग़ज़ के पन्नों पर लिखी नहीं रह गई है, बल्कि अमल की दुनिया में इसके एक-एक लफ़्ज़ ने ख़यालात बनाए और एक बाक़ायदा तहज़ीब बनाई है, चौदह सौ साल से इसके इन असरात का सिलसिला जारी है, और दिन-पर-दिन इसके ये असरात फैलते चले जा रहे हैं।
(3) जिस मौज़ू (विषय) से यह किताब बहस करती है वह एक बहुत ही फैला हुआ मौज़ू है, जिसका दायरा शुरू से लेकर आख़िर तक पूरी कायनात पर हावी है। वह कायनात की हक़ीक़त और उसकी शुरुआत व अंजाम और उसके निज़ाम व क़ानून पर बात करती है। वह बताती है कि इस कायनात का पैदा करनेवाला और इन्तिज़ाम करनेवाला और चलानेवाला कौन है, क्या उसकी सिफ़ात हैं, क्या उसके अधिकार हैं, और वह अस्ल हक़ीक़त क्या है जिसपर उसने दुनिया का यह पूरा निज़ाम क़ायम किया है। वह इस दुनिया में इनसान की हैसियत और उसका मक़ाम ठीक-ठीक तय करके बताती है कि यह उसका फ़ितरी मक़ाम और यह उसकी पैदाइशी हैसियत है, जिसे बदल देने पर वह क़ुदरत नहीं रखता। वह बताती है कि इस मक़ाम और इस हैसियत के लिहाज़ से इनसान के लिए सोचने और अमल करने का सही रास्ता क्या है जो हक़ीक़त से पूरी तरह मेल खाता है और ग़लत रास्ते क्या हैं जो हक़ीक़त से टकराते हैं। सही रास्ते के सही होने और ग़लत रास्तों के ग़लत होने पर वह ज़मीन और आसमान की एक-एक चीज़ से, कायनात के निज़ाम के एक-एक पहलू से, इनसान के अपने मन और उसके वुजूद से और इनसान के अपने इतिहास से अनगिनत दलीलें पेश करती है। इसके साथ वह यह भी बताती है कि इनसान ग़लत रास्तों पर कैसे और किन वजहों से पड़ता रहा है, और सही रास्ता जो हमेशा से एक ही था और एक ही रहेगा, किस ज़रिए से उसको मालूम हो सकता है और किस तरह हर ज़माने में उसको बताया जाता रहा है। वह सही रास्ते की तरफ़ सिर्फ़ निशानदेही करके नहीं रह जाती, बल्कि उस रास्ते पर चलने के लिए ज़िन्दगी के एक पूरे निज़ाम का नक़्शा पेश करती है, जिसमें अक़ीदों, अख़लाक़, ही मन को पाक करने, इबादतों, समाजी मामलों, तहज़ीब, रहन-सहन, माली मामलों, सियासत, अदालत, क़ानून, ग़रज़ इनसानी ज़िन्दगी के हर पहलू के बारे में एक ऐसा ज़ाब्ता बयान कर दिया गया है जो एक-दूसरे से मज़बूत ताल्लुक़ रखता हो। इसके अलावा वह पूरी तफ़सील के साथ बताती है कि इस सही रास्ते की पैरवी करने और उन ग़लत रास्तों पर चलने के क्या नतीजे इस दुनिया में हैं और क्या नतीजे दुनिया का मौजूदा निज़ाम ख़त्म होने के बाद एक दूसरी दुनिया में ज़ाहिर होनेवाले हैं। वह इस दुनिया के ख़त्म होने और दूसरी दुनिया के क़ायम होने की बहुत तफ़सीली कैफ़ियत बयान करती है, इस तबदीली के तमाम मरहले एक-एक करके बताती है, दूसरी दुनिया का पूरा नक़्शा निगाहों के सामने खींच देती है, और फिर बहुत साफ़-साफ़ बयान करती है कि वहाँ इनसान कैसे एक दूसरी ज़िन्दगी पाएगा, किस तरह उसकी दुनियावी ज़िन्दगी के आमाल का हिसाब लिया जाएगा, किन बातों की उससे पूछ-गछ होगी, कैसी क़ाबिले-इनकार सूरत में उसका पूरा आमाल-नामा उसके सामने रख दिया जाएगा, और कैसी ज़बरदस्त गवाहियाँ उसके सुबूत में पेश की जाएँगी, इनाम और सज़ा पानेवाले क्यों इनाम और सज़ा पाएँगे, इनाम पानेवालों को कैसे इनाम मिलेंगे और सज़ा पानेवाले काम किस-किस शक्ल में अपने आमाल के नतीजे भुगतेंगे। इस बड़े और फैले हुए मज़मून पर कलाम इस किताब में किया गया है वह इस हैसियत से नहीं है कि इसका लिखनेवाला कुछ छोटी-बड़ी बातें जोड़कर कुछ अन्दाज़ों की एक इमारत बना रहा है, बल्कि इस हैसियत से है कि इसका लिखनेवाला हक़ीक़त का सीधे तौर से इल्म रखता है, उसकी निगाह शुरू से आख़िर तक सब कुछ देख रही है, तमाम हक़ीक़तें उसपर ज़ाहिर हैं, कायनात पूरी-की-पूरी उसके सामने एक खुली किताब की तरह है, इनसानों की शुरुआत से उसके ख़त्म होने तक ही नहीं, बल्कि ख़ातिमे के बाद उसकी दूसरी ज़िन्दगी तक भी वह उसको एक ही नज़र में देख रहा है, और अटकल और गुमान की बुनियाद पर नहीं, बल्कि इल्म की बुनियाद पर इनसान की रहनुमाई कर रहा है। जिन हक़ीक़तों को इल्म की हैसियत से वह पेश करता है उनमें से कोई एक भी आज तक ग़लत साबित नहीं की जा सकी है। कायनात और इनसान के बारे में जो नज़रिया वह पेश करता है, वह तमाम ज़ाहिर होनेवाली बातों और वाक़िआत की सही वजह बयान करता है और इल्म के हर मैदान में तहक़ीक़ (शोध) की बुनियाद बन सकता है। फ़लसफ़ा और साइंस और समाजी उलूम के तमाम आख़िरी मसलों के जवाब उसके कलाम में मौजूद हैं और उन सबके बीच अक़्ल और दलील के बीच ऐसा रब्त है कि उनपर एक मुकम्मल, एक-दूसरे से जुड़ा हुआ और जामे (व्यापक) फ़िक्री निज़ाम क़ायम होता है। फिर अमली हैसियत से जो रहनुमाई उसने ज़िन्दगी के हर पहलू के बारे में इनसान को दी है वह सिर्फ़ इन्तिहाई मुनासिब और इन्तिहाई पाकीज़ा ही नहीं है, बल्कि चौदह सौ साल से ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में अनगिनत इनसान अमली तौर पर उसकी पैरवी कर रहे हैं, और तजरिबे ने उसको बेहतरीन साबित किया है। क्या इस शान की इनसान की लिखी हुई कोई किताब दुनिया में मौजूद है या कभी मौजूद रही है, जिसे इस किताब के मुक़ाबले में लाया जा सकता हो?
(4) यह किताब पूरी-की-पूरी एक ही वक़्त में लिखकर दुनिया के सामने पेश नहीं कर दी गई थी, बल्कि कुछ इबतिदाई हिदायतों के साथ एक इस्लाही तहरीक (सुधारवादी आन्दोलन) की शुरुआत की गई थी और उसके बाद तेईस (23) साल तक वह तहरीक जिन-जिन मरहलों से गुज़रती रही, उनके हालात और उनकी ज़रूरतों के मुताबिक़ इसके हिस्से उस तहरीक के रहनुमा की ज़बान से कभी लम्बी तक़रीरों और कभी छोटे जुमलों की शक्ल में अदा होते रहे। फिर इस मिशन के पूरे होने पर अलग-अलग वक़्तों में उतरनेवाले ये हिस्से उस पूरी किताब की शक्ल में तरतीब देकर दुनिया के सामने रख दिए गए, जिसे ‘क़ुरआन' का नाम दिया गया है। तहरीक के रहनुमा का बयान है कि ये तक़रीरें और जुमले उसके अपने गढ़े हुए नहीं हैं, बल्कि सारे जहान के रब की तरफ़ से उसपर उतरे हैं। अगर कोई शख़्स उन्हें ख़ुद उस रहनुमा की मनगढ़न्त ठहराता है तो वह दुनिया के पूरे इतिहास से कोई मिसाल ऐसी पेश करे कि किसी इनसान ने कई सालों तक लगातार एक ज़बरदस्त इजतिमाई तहरीक की अपने तौर पर रहनुमाई करते हुए कभी एक नसीहत करनेवाले और अख़लाक़ सिखानेवाले की हैसियत से, कभी एक मज़लूम जमाअत के मुखिया की हैसियत से, कभी एक हुकूमत के हाकिम की हैसियत से, कभी एक बरसरे-जंग कमाँडर (युद्धरत सेनापति) की हैसियत से, कभी एक फ़ातेह (विजेता) की हैसियत से, कभी एक शरीअत और क़ानून बतानेवाले की हैसियत से, ग़रज़ बहुत-से अलग-अलग हालात और वक़्तों में बहुत-सी अलग-अलग हैसियतों से जो अलग-अलग तक़रीरें की हों या बातें कही हों वे इकट्ठी होकर एक मुकम्मल, एक-दूसरे से जुड़ी और फ़िक्र व अमल का ऐसा निज़ाम बना दें जो अपने अन्दर बड़ी कुशादगी (व्यापकता) रखता हो। उनमें कहीं कोई आपसी टकराव न पाया जाए, उनमें शुरू से आख़िर तक एक ही मर्कज़ी ख़याल और सोच व फ़िक्र का सिलसिला काम करता नज़र आए, उसने पहले दिन से अपनी दावत की जो बुनियाद बयान की हो आख़िरी दिन तक उसी बुनियाद पर वह अक़ीदों और आमाल का एक ऐसा हमागीर (व्यापक) निज़ाम बनाता चला जाए जिसका हर हिस्सा दूसरे हिस्से से पूरी तरह मेल खाता हो, और इस मजमूए (संग्रह) को पढ़नेवाला कोई समझदार आदमी यह महसूस किए बिना न रहे कि तहरीक की शुरुआत करते वक़्त उसपर उसके शुरू करनेवाले के सामने आख़िरी मरहले तक का पूरा नक़्शा मौजूद था और ऐसा कभी नहीं हुआ कि बीच के किसी मक़ाम पर उसके ज़ेहन में कोई ऐसा ख़याल आया हो जो पहले उसपर ज़ाहिर न हुआ था या जिसे बाद में उसको बदलना पड़ा। इस शान का कोई इनसान अगर कभी गुज़रा हो जिसने अपने दिमाग़ और ज़ेहन के करामात का यह कमाल दिखाया हो तो उसकी निशानदेही की जाए।
(5) जिस रहनुमा की ज़बान पर ये तक़रीरें और जुमले जारी हुए थे वह एकाएक किसी कोने से निकलकर सिर्फ़ इनको सुनाने के लिए नहीं आ जाता था और इन्हें सुनाने के बाद कहीं चला नहीं जाता था। वह इस तहरीक (आन्दोलन) की शुरुआत से पहले भी इनसानी समाज में ज़िन्दगी गुज़ार चुका था और उसके बाद भी वह ज़िन्दगी की आख़िरी घड़ी तक हर वक़्त उसी समाज में रहता था। उसकी बातचीत और तक़रीरों की ज़बान और अन्दाज़े-बयान को लोग बहुत अच्छी तरह जानते थे। हदीसों में उनका एक बड़ा हिस्सा अब भी महफ़ूज़ है, जिसे बाद के अरबी जाननेवाले लोग पढ़कर ख़ुद आसानी से देख सकते हैं कि उस रहनुमा का अपना बातचीत का ढंग क्या था। उसके अपनी ज़बान के लोग उस वक़्त भी साफ़ महसूस करते थे और आज भी अरबी ज़बान के जाननेवाले यह महसूस करते हैं कि इस किताब की ज़बान और इसका स्टाइल उस रहनुमा की ज़बान और उसके स्टाइल से बहुत अलग है, यहाँ तक कि जहाँ उसकी किसी तक़रीर के बीच में इस किताब की कोई इबारत आ जाती है वहाँ दोनों की ज़बान का फ़र्क़ बिलकुल नुमायाँ नज़र आता है। सवाल यह है कि क्या दुनिया में कोई इनसान कभी इस बात पर क़ादिर हुआ है या हो सकता है कि कई सालों तक दो बिलकुल अलग स्टाइलों में बात करने का तकल्लुफ़ (कष्ट) निभाता चला जाए और कभी यह राज़ न खुल सके कि ये दो अलग-अलग स्टाइल अस्ल में एक ही शख़्स के हैं? थोड़े दिनों तक इस तरह के बनावटीपन में कामयाब हो जाना तो मुमकिन है, लेकिन लगातार 23 साल तक ऐसा होना किसी तरह मुमकिन नहीं है कि एक शख़्स जब ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई वह्य के तौर पर बात करे तो उसकी ज़बान और स्टाइल कुछ हो और जब ख़ुद अपनी तरफ़ से बातचीत या तक़रीर करे तो उसकी ज़बान और उसका स्टाइल बिलकुल ही कुछ और हो।
(6) वह रहनुमा इस तहरीक (आन्दोलन) की रहनुमाई के दौरान में अलग-अलग हालात से दोचार होता रहा। कभी सालों वह अपने हमवतनों और अपने क़बीलेवालों के मज़ाक़, तौहीन और सख़्त ज़ुल्म व सितम का निशाना बना रहा। कभी उसके साथियों पर इतनी सख़्ती की गई कि वे देश छोड़कर निकल जाने पर मजबूर हो गए। कभी दुश्मनों ने उसके क़त्ल की साजिशें कीं। कभी ख़ुद उसे अपने वतन से हिजरत करनी पड़ी। कभी उसको इन्तिहाई तंगदस्ती और भूख-प्यास से भरी ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ी। कभी उसे लगातार लड़ाइयों से वासिता पेश आया जिनमें हार और जीत, दोनों ही होती रहीं। कभी वह दुश्मनों पर हावी हुआ और वही दुश्मन जिन्होंने उसपर ज़ुल्म किए थे, उसके सामने सिर झुकाए नज़र आए। कभी उसे वह हुकूमत मिली जो कम ही लोगों को मिलती है।
इन तमाम हालात में एक इनसान के जज़बात ज़ाहिर है एक जैसे नहीं रह सकते। उस रहनुमा ने इन अलग-अलग मौक़ों पर ख़ुद अपनी ज़ाती (निजी) हैसियत में जब कभी बात की, उसमें उन जज़बात का असर नुमायाँ नज़र आता है जो ऐसे मौक़ों पर इनसान के दिल में पैदा होते हैं। लेकिन ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई वह्य के तौर पर इन अलग-अलग हालात में जो कलाम उसकी ज़बान से सुना गया वह इनसानी जज़बात से बिलकुल ख़ाली है। किसी एक जगह पर भी कोई बड़े-से-बड़ा नक़्क़ाद (आलोचक) उंगली रखकर नहीं बता सकता कि यहाँ इनसानी जज़बात काम करते नज़र आते हैं।
(7) जो वसीअ (व्यापक) और जामे (सारगर्भित) इल्म इस किताब में पाया जाता है वह उस ज़माने के अरबवालों और रूम और यूनान और ईरानवाले तो दरकिनार, इस बीसवीं सदी के बड़े जानकारों और इल्म रखनेवालों में से भी किसी के पास नहीं है। आज हालत यह है कि फ़लसफ़ा (दर्शन) और साइंस और समाजी इल्म की किसी एक शाखा के मुताले (अध्ययन) में अपनी उम्र खपा देने के बाद आदमी को पता चलता है कि इल्म के उस शोबे के आख़िरी मसले क्या हैं, और फिर जब वह गहरी निगाह से क़ुरआन को देखता है तो उसे मालूम होता है कि इस किताब में उन मसलों का एक साफ़ जवाब मौजूद है। यह मामला किसी एक इल्म तक महदूद नहीं है, बल्कि उन तमाम इल्म के मामलों में सही है जो कायनात और इनसान से कोई ताल्लुक़ रखते हैं। कैसे माना जा सकता है कि चौदह सौ साल पहले अरब के रेगिस्तान में एक उम्मी को इल्म के हर मामले में इनती गहरी जानकारी हासिल थी और उसने हर बुनियादी मसले पर ग़ौर करके उसका एक साफ़ और यक़ीनी जवाब सोच लिया था?
क़ुरआन के मोजिज़े (चमत्कार) होने की अगरचे और भी कई वजहें हैं, लेकिन सिर्फ़ इन कुछ वजहों ही पर अगर आदमी ग़ौर करे तो उसे मालूम हो जाएगा कि क़ुरआन का मोजिज़ा होने का मामला जितना क़ुरआन उतरने के ज़माने में वाज़ेह (स्पष्ट) था उससे कई दरजे ज़्यादा आज वाज़ेह (स्पष्ट) है और अगर अल्लाह ने चाहा तो क़ियामत तक यह और वाज़ेह होता चला जाएगा।