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سُورَةُ الطُّورِ

52. अत-तूर

(मक्का में उतरी, आयतें 49)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द ‘वत-तूर' (क़सम है तूर की) से लिया गया है। यहाँ 'तूर’ शब्‍द एक पर्वत विशेष के लिए आया है जिसपर हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बरी दी गई थी।

उतरने का समय

विषय-वस्तुओं के आन्तरिक प्रमाणों से अनुमान होता है कि यह भी मक्का मुअज्‍़ज़मा के उसी कालखण्ड में उतरी है जिसमें सूरा-51 अज़-ज़ारियात उतरी थी।

विषय और वार्ता

आयत 1 से लेकर आयत 28 तक का विषय आख़िरत (परलोक) है। सूरा-51 अज़-ज़ारियाल में इसकी सम्भावना, अनिवार्यता और इसके घटित होने के प्रमाण दिए जा चुके हैं, इसलिए यहाँ इनको दोहराया नहीं गया है, अलबत्ता आख़िरत की गवाही देनेवाले कुछ तथ्यों और लक्षणों की क़सम खाकर पूरे जोर के साथ कहा गया है कि वह निश्चय ही घटित होकर रहेगी। फिर यह बताया गया कि जब वह सामने आ पड़ेगी तो उसके झुठलानेवालों का परिणाम क्या होगा और इसे मानकर ईशपरायणता (तक़वा) की नीति अपनानेवाले किस प्रकार अल्लाह के अनुग्रह और उसकी कृपाओं से सम्मानित होंगे। इसके बाद आयत 29 से सूरा के अन्त तक में क़ुरैश के सरदारों की उस नीति की आलोचना की गई है जो वे अल्लाह के रसूल (सल्ल.)के आह्वान के मुक़ाबले में अपनाए हुए थे। वे आपको कभी काहिन (ज्योतिषी), कभी मजनून (उन्मादग्रस्त) और कभी कवि घोषित करते थे। वे आपपर इलज़ाम लगाते थे कि यह क़ुरआन आप स्वयं गढ़-गढ़कर ख़ुदा के नाम से पेश कर रहे हैं। वे बार-बार व्यंग्य करते थे कि ख़ुदा की पैग़म्बरी के लिए मिले भी तो बस यही साहब मिले। वे आपके आहवान और प्रचार-प्रसार पर अत्यन्त अप्रसन्नता और खिन्नता व्यक्त करते थे। वे आपस में बैठ-बैठकर सोचते थे कि आपके विरुद्ध क्या चाल ऐसी चली जाए जिससे आपकी यह दावत (आहवान) समाप्त हो जाए। अल्लाह ने उनकी इसी नीति की आलोचना करते हुए निरन्तर एक के बाद एक कुछ प्रश्न किए हैं जिनमें से हर प्रश्न या तो उनके किसी आक्षेप का उत्तर है या उनकी किसी अज्ञानता की समीक्षा। फिर कहा है कि इन हठधर्म लोगों को आपकी पैग़म्बरी स्वीकार करने के लिए कोई चमत्कार दिखाना बिलकुल व्यर्थ है। आयत 28 के बाद कुछ आयतों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यह आदेश दिया गया है कि इन विरोधियों और शत्रुओं के आरोपों और आक्षेपों की परवाह किए बिना अपने आह्वान और लोगों को सचेत करने का काम निरन्तर जारी रखें, और अन्त में भी आपको ताकीद की गई कि धैर्य के साथ इन रुकावटों का मुक़ाबला किए चले जाएँ, यहाँ तक कि अल्लाह का फ़ैसला आ जाए। इसके साथ आपको तसल्ली दी गई है कि आपके रब (प्रभु-पालनहार) ने आपको सत्य के शत्रुओं के मुक़ाबले में खड़ा करके अपने हाल पर छोड़ नहीं दिया है, बल्कि वह निरन्तर आपकी देख-रेख कर रहा है। जब तक उसके फ़ैसले की घड़ी आए, आप सब कुछ सहन करते रहें और अपने प्रभु की स्तुति और उसके महिमा-गान से वह शक्ति प्राप्त करते रहें जो ऐसी परिस्थितियों में अल्लाह का काम करने के लिए अपेक्षित होती है।

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سُورَةُ الطُّورِ
52. अत-तूर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلطُّورِ
(1) क़सम है तूर की,1
1.'तूर' का अस्ली मतलब पहाड़ है। और 'अत-तूर' से मुराद वह ख़ास पहाड़ है जिसपर अल्लाह तआला ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बरी दी थी।
وَكِتَٰبٖ مَّسۡطُورٖ ۝ 1
(2) और एक ऐसी खुली किताब की
فِي رَقّٖ مَّنشُورٖ ۝ 2
(3) जो पतली खाल में लिखी हुई है,2
2. पुराने ज़माने में जिन किताबों और लेखों को लम्बे ज़माने तक महफ़ूज़ रखना होता था उन्हें काग़ज़ के बजाय हिरन की खाल पर लिखा जाता था। यह खाल ख़ास तौर पर लिखने ही के लिए पतली झिल्ली की शक्ल में तैयार की जाती थी और इसतिलाह (परिभाषा) में इसे 'रक़्क़' कहा जाता था। अहले-किताब आम तौर पर तौरात, ज़बूर, इंजील और पैग़म्बरों के सहीफ़ों को इसी 'रक़्क़' पर लिखा करते थे, ताकि लम्बी मुद्दत तक महफ़ूज़ रह सकें। यहाँ खुली किताब से मुराद पाक किताबों का यही मजमूआ (संग्रह) है जो अहले-किताब के यहाँ मौजूद था। उसे ‘खुली किताब' इसलिए कहा गया है कि वह नायाब (दुर्लभ) न था, पढ़ा जाता था, आसानी से मालूम किया जा सकता था कि उसमें क्या लिखा है।
وَٱلۡبَيۡتِ ٱلۡمَعۡمُورِ ۝ 3
(4) और आबाद घर की,3
3. 'आबाद घर' से मुराद हज़रत हसन बसरी (रह०) के नज़दीक बैतुल्लाह, यानी काबा है जो कभी हज और उमरा और तवाफ़ और ज़ियारत करनेवालों से ख़ाली नहीं रहता। और हज़रत अली (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इकरिमा, मुजाहिद, क़तादा, ज़ह्हाक, इब्ने-ज़ैद और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले दूसरे आलिम इससे मुराद वह आबाद घर लेते हैं, जिसका ज़िक्र मेराज के सिलसिले में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है, जिसकी दीवार से आप (सल्ल०) ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को टेक लगाए देखा था। मुजाहिद, क़तादा और इब्ने-ज़ैद (रह०) कहते हैं कि जिस तरह ख़ाना-ए-काबा ज़मीनवालों के लिए ख़ुदा के माननेवालों का मर्कज़ और बार-बार लौटने का ठिकाना है, उसी तरह हर आसमान में उसके रहनेवालों के लिए ऐसा ही एक काबा है जो अल्लाह तआला की इबादत करनेवालों के लिए ऐसा ही मर्कज़ी (केन्द्रीय) मक़ाम रखता है। इन ही में से एक काबा वह था जिसकी दीवार से टेक लगाए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) मेराज में नबी (सल्ल०) को नज़र आए थे, और उससे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का ताल्लुक़ फ़ितरी था क्योंकि उन्होंने ही ज़मीन वाला काबा तामीर किया है। इस तशरीह को निगाह में रखा जाए तो यह दूसरी तफ़सीर हज़रत हसन बसरी (रह०) की तफ़सीर के ख़िलाफ़ नहीं पड़ती, बल्कि दोनों को मिलाकर हम यूँ समझ सकते हैं कि यहाँ क़सम सिर्फ़ ज़मीन ही के काबा की नहीं खाई गई है, बल्कि इसमें उन तमाम काबों की क़सम भी शामिल है जो सारी कायनात में मौजूद हैं।
وَٱلسَّقۡفِ ٱلۡمَرۡفُوعِ ۝ 4
(5) और ऊँची छत की,4
4. ऊँची छत से मुराद आसमान है जो ज़मीन पर एक गुम्बद की तरह छाया हुआ नज़र आता है। और यहाँ यह लफ़्ज़ पूरी ऊपरी दुनिया के लिए इस्तेमाल हुआ है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-50 क़ाफ़, हाशिया-7)
وَٱلۡبَحۡرِ ٱلۡمَسۡجُورِ ۝ 5
(6) और लहरें मारते समुद्र की!5
5. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अल-बहरिल-मसजूर' इस्तेमाल हुआ है। इसके कई मतलब बयान किए गए हैं। तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इसको 'आग से भरे हुए' के मानी में लिया है। कुछ इसको फ़ारिग़ और ख़ाली के मानी में लेते हैं जिसका पानी ज़मीन में उतरकर ग़ायब हो गया हो। कुछ इसे क़ैद किए हुए के मानी में लेते हैं और इसका मतलब यह बयान करते हैं कि समुद्र को रोककर रखा गया है, ताकि उसका पानी ज़मीन में उतरकर ग़ायब भी न हो जाए और ख़ुश्की पर छा भी न जाए कि ज़मीन के सब रहनेवाले उसमें डूब जाएँ। कुछ इसको मिले-जुले के मानी में लेते हैं, जिसके अन्दर मीठा और खारा, गर्म और ठंडा हर तरह का पानी आकर मिल जाता है। और कुछ इसको भरे हुए और लहरें मारते हुए के मानी में लेते हैं। इनमें से पहले दो मानी तो मौक़ा-महल से कोई तालमेल नहीं रखते। समुद्र की ये दोनों कैफ़ियतें कि उसकी तह फटकर उसका पानी ज़मीन के अन्दर उतर जाए और वह आग से भर जाए, क़ियामत के वक़्त ज़ाहिर होंगी, जैसा कि सूरा-81 तकवीर, आयत-6 और सूरा-82 इनफ़ितार, आयत-3 में बयान हुआ है। यह आइन्दा सामने आनेवाली कैफ़ियतें इस वक़्त मौजूद नहीं हैं कि उनकी क़सम खाकर आज के लोगों को आख़िरत के आने का यक़ीन दिलाया जाए। इसलिए इन दो मानी को हटाकर यहाँ 'अल-बहरिल-मसजूर' को क़ैद किए हुए, मिले-जुले और भरे और लहरें मारते हुए के मानी ही में लिया जा सकता है।
إِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ لَوَٰقِعٞ ۝ 6
(7) कि तेरे रब का अज़ाब ज़रूर आनेवाला है,
مَّا لَهُۥ مِن دَافِعٖ ۝ 7
(8) जिसे कोई टालनेवाला नहीं।6
6. यह है वह हक़ीक़त जिसपर इन पाँच चीज़ों की क़सम खाई गई है। रब के अज़ाब से मुराद आख़िरत है। चूँकि यहाँ बात उसपर ईमान लानेवालों से नहीं, बल्कि उसका इनकार करनेवालों से कही जा रही है, और उनके लिए उसका आना अज़ाब ही है, इसलिए उसको क़ियामत या आख़िरत या बदले का दिन कहने के बजाय 'रब का अज़ाब' कहा गया है। अब ग़ौर कीजिए कि उसके आने पर वे पाँच चीज़ें किस तरह दलील देती हैं जिनकी क़सम खाई गई है। तूर वह जगह है जहाँ एक दबी और पिसी हुई क़ौम को उठाने और एक हावी और ज़ालिम क़ौम को गिराने का फ़ैसला किया गया, और यह फ़ैसला फ़ितरी क़ानून (भौतिक नियमों, Physical Laws) की बुनियाद पर नहीं, बल्कि अख़लाक़ी क़ानून (Moral Law) और बदले के क़ानून (Law of Retribution) की बुनियाद पर था। इसलिए आख़िरत के हक़ में तारीख़ी सुबूतों के तौर पर तूर को बतौर एक अलामत के पेश किया गया है। मुराद यह है कि बनी-इसराईल जैसी एक बेबस क़ौम का उठाया जाना और फ़िरऔन जैसे एक ज़बरदस्त बादशाह का अपने लश्करों समेत डुबो दिया जाना, जिसका फ़ैसला एक सुनसान रात में तूर पहाड़ पर किया गया था, इनसानी तारीख़ में इस बात की एक बहुत ही नुमायाँ मिसाल है कि कायनात की सल्तनत का मिज़ाज किस तरह इनसान जैसे एक अक़्ल और इख़्तियार रखनेवाले जानदार के मामले में अख़लाक़ी पूछ-गछ और आमाल के बदले का तक़ाज़ा करता है, और इस तक़ाज़े को पूरा करने के लिए एक ऐसा हिसाब का दिन ज़रूरी है जिसमें सारे ही इनसानों को इकट्ठा करके उनसे हिसाब लिया जाए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, हाशिया-21) पाक आसमानी किताबों के मजमूए (संग्रह) की क़सम इस वजह से खाई गई है कि सारे जहान के रब की तरफ़ से दुनिया में जितने भी पैग़म्बर आए और जो किताबें भी वे लाए, उन सबने हर ज़माने में वही एक ख़बर दी है जो मुहम्मद (सल्ल०) दे रहे हैं, यानी यह कि तमाम अगले-पिछले इनसानों को एक दिन नए सिरे से ज़िन्दा होकर अपने ख़ुदा के सामने हाज़िर होना है और अपने आमाल के मुताबिक़ इनाम पाना या सज़ा पानी है। कोई आसमानी किताब कभी ऐसी नहीं आई है जो इस ख़बर से ख़ाली हो, या जिसने इनसान को उलटी यह ख़बर दी हो कि ज़िन्दगी जो कुछ भी है बस यही दुनिया की ज़िन्दगी है, और इनसान बस मरकर मिट्टी हो जानेवाला है जिसके बाद न कोई हिसाब है, न किताब। 'बैते-मामूर' (आबाद घर) की क़सम इसलिए खाई गई है कि ख़ास तौर पर अरब के लोगों के लिए उस ज़माने में ख़ाना-ए-काबा की इमारत एक ऐसी खुली निशानी थी जो अल्लाह के पैग़म्बरों की सच्चाई पर और इस हक़ीक़त पर कि अल्लाह तआला की आला दरजे की हिकमत और ज़बरदस्त क़ुव्वत उनके पीछे है, साफ़ गवाही दे रही थी। इन आयतों के उतरने से ढाई हज़ार साल पहले बंजर और सुनसान पहाड़ों में एक आदमी किसी लाव-लश्कर और सरो-सामान के बिना आता है और अपनी एक बीवी और एक दूध पीते बच्चे को बिलकुल बे-सहारा छोड़कर चला जाता है। फिर कुछ मुद्दत बाद वही आदमी आकर इस सुनसान जगह पर अल्लाह तआला की इबादत के लिए एक घर बनाता है और पुकार देता है कि “लोगो! आओ और इस घर का हज किया करो।” इस तामीर और इस पुकार को यह हैरत-अंगेज़ मक़ुबूलियत (लोकप्रियता) हासिल होती है कि वही घर तमाम अरबवालों का मर्कज़ (केन्द्र) बन जाता है, उस पुकार पर अरब के हर कोने से लोग 'लब्बैक! लब्बैक!' (मैं हाज़िर हूँ!) कहते हुए खिंचे चले आते हैं, ढाई हज़ार साल तक यह घर ऐसा अम्न का घर बना रहता है कि इसके आसपास सारे देश में ख़ून-ख़राबे का बाज़ार गर्म होता है, मगर इसकी हदों में आकर किसी को किसी पर हाथ उठाने की हिम्मत नहीं होती, और इसी घर की बदौलत अरब को हर साल चार महीने ऐसे अम्न के मिल जाते हैं जिनमें क़ाफ़िले इत्मीनान से सफ़र करते हैं, तिजारत चमकती है और बाज़ार लगते हैं। फिर उस घर का यह दबदबा था कि इस पूरी मुद्दत में कोई बड़े-से-बड़ा ज़ालिम भी उसकी तरफ़ आँख उठाकर न देख सका, और जिसने यह हिम्मत की वह अल्लाह के ग़ज़ब का ऐसा शिकार हुआ कि सबक़ बनकर रह गया। यह करिश्मा इन आयतों के उतरने से सिर्फ़ 45 ही साल पहले लोग अपनी आँखों से देख चुके थे और उसके देखनेवाले बहुत-से आदमी उस वक़्त मक्का में ज़िन्दा मौजूद थे जब ये आयतें मक्कावालों को सुनाई जा रही थीं। इससे बढ़कर क्या चीज़ इस बात की दलील हो सकती थी कि ख़ुदा के पैग़म्बर हवाई बातें नहीं किया करते। उनकी आँखें वह कुछ देखती हैं जो दूसरों को नज़र नहीं आता। उनकी ज़बान पर वे हक़ीक़तें जारी हो जाती हैं जिन तक दूसरों की अक़्ल नहीं पहुँच सकती। वे ज़ाहिर में ऐसे काम करते हैं जिनको एक वक़्त के लोग देखें तो दीवानगी समझें और सदियों बाद के लोग उन ही को देखकर उनकी गहरी सूझ-बूझ पर दंग रह जाएँ। इस शान के लोग जब एक ज़बान होकर हर ज़माने में यह ख़बर देते रहे हैं कि क़ियामत आएगी और दोबारा उठाया और इकट्ठा किया जाएगा तो इसे दीवानों का बड़बड़ाना समझना ख़ुद दीवानगी है। ऊँची छत (आसमान) और लहरें मारते हुए समुद्र की क़सम इसलिए खाई गई है कि ये दोनों चीज़ें अल्लाह की हिकमत और उसकी क़ुदरत पर दलील देती हैं और इसी हिकमत और क़ुदरत से आख़िरत का इमकान भी साबित होता है और उसका आना और ज़रूरी होना भी। आसमान की दलील देने पर हम इससे पहले सूरा-50 क़ाफ़, हाशिया-7 में बात कर चुके हैं। रहा समुद्र, तो जो कोई भी इनकार का पहले से फ़ैसला किए बिना उसको ग़ौर से देखेगा उसका दिल यह गवाही देगा कि ज़मीन पर पानी के इतने बड़े भण्डार का जुटा दिया जाना अपनी जगह ख़ुद एक ऐसी कारीगरी है जो किसी इत्तिफ़ाक़ी हादिसे का नतीजा नहीं हो सकती। फिर उसके साथ इतनी अनगिनत हिकमतें जुड़ी हैं कि इत्तिफ़ाक़ से ऐसा हिकमत-भरा निज़ाम क़ायम हो जाना मुमकिन नहीं है। इसमें बेहद और बेहिसाब जानवर पैदा किए गए हैं जिनमें से हर जाति का जिस्मानी निज़ाम ठीक उस गहराई के लिए मुनासिब बनाया गया है जिसके अन्दर उसे रहना है। उसके पानी को नमकीन बना दिया गया है, ताकि रोज़ाना करोड़ों जानवर जो उसमें मरते हैं उनकी लाशें सड़ न जाएँ। इसके पानी को एक ख़ास हद पर इस तरह रोक रखा गया है कि न तो वह ज़मीन की दरारों से गुज़रकर उसके पेट में उतर जाता है और न सूखी जगह पर चढ़कर उसे डुबो देता है, बल्कि लाखों-करोड़ों साल से वह उसी हद पर रुका हुआ है। पानी के इसी बड़े (विशाल) भण्डार के मौजूद और बने रहने से ज़मीन के सूखे हिस्सों पर बारिश का इन्तिज़ाम होता है, जिसमें सूरज की गर्मी और हवाओं की गर्दिश इसके साथ पूरी बाक़ायदगी के साथ तआवुन (सहयोग) करती है। इसी के ग़ैर-आबाद न होने और तरह-तरह के जानदार इसमें पैदा होने से यह फ़ायदा हासिल हुआ है कि इनसान इससे अपना खाना और अपनी ज़रूरत की बहुत-सी चीज़ें बड़ी तादाद में हासिल कर रहा है। इसी के एक हद पर रुके रहने से वे बर्रे-आज़म (महाद्वीप) और जज़ीरे (द्वीप) क़ायम हैं जिनपर इनसान बस रहा है। और इसी के कुछ अटल क़ायदों की पाबन्दी करने से यह मुमकिन हुआ है कि इनसान इसमें जहाज़ चला सके। एक हिकमतवाले की हिकमत और एक सब कुछ कर सकनेवाले (सर्वशक्तिमान) की ज़बरदस्त क़ुदरत के बिना इस इन्तिज़ाम के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता और न यह सोचा जा सकता है कि इनसान और ज़मीन के दूसरे जानदारों के फ़ायदों से समुद्र के इस इन्तिज़ाम का यह गहरा ताल्लुक़ बस अलल-टप ही क़ायम हो गया है। अब अगर सचमुच यह इस बात का पक्का सुबूत है कि एक हिकमतवाले और सब कुछ करने की क़ुदरत रखनेवाले ख़ुदा ने इनसान को ज़मीन पर आबाद करने के लिए दूसरे अनगिनत इन्तिज़ामों के साथ यह खारा समुद्र भी इस शान का पैदा किया है तो वह शख़्स सख़्त बेवक़ूफ़ होगा जो उस हिकमतवाले से इस नादानी की उम्मीद रखे कि वह इस समुद्र से इनसान की खेतियों को पानी देने और उसके ज़रिए से इनसान को रोज़ी देने का इन्तिज़ाम तो कर देगा, मगर उससे कभी यह न पूछेगा कि तूने मेरा दिया हुआ खाना खाकर उसका हक़ कैसे अदा किया, और वह इस समुद्र के सीने पर अपने जहाज़ दौड़ाने की क़ुदरत तो इनसान को दे देगा, मगर उससे कभी यह न पूछेगा कि ये जहाज़ तूने हक़ और सच्चाई के साथ दौड़ाए थे, या इनके ज़रिए से दुनिया में डाके मारता फिरता था। इसी तरह यह सोचना और ख़याल करना भी एक बहुत बड़ी बेवक़ूफ़ी है कि जिस सब कुछ कर सकनेवाले की क़ुदरत का एक छोटा-सा करिश्मा इस अज़ीमुश्शान समुद्र का पैदा किया जाना है, जिसने फ़िज़ा (वातावरण) में घूमनेवाले इस लटके हुए गोले पर पानी के इतने बड़े भण्डार को थाम रखा है, जिसने नमक की इतनी बड़ी मिक़दार इसमें घोल दी है, जिसने तरह-तरह के अनगिनत जानदार इसमें पैदा किए हैं और उन सबको रोज़ी पहुँचाने का इन्तिज़ाम उसी के अन्दर कर दिया है, जो हर साल अरबों टन पानी इसमें से उठाकर हवा के काँधों पर ले जाता और करोड़ों मील के सूखे इलाक़ों पर उसे बड़ी बाक़ायदगी से बरसाता रहता है, वह इनसान को एक बार पैदा कर देने के बाद ऐसा मजबूर हो जाता है कि फिर उसे पैदा करना चाहे भी तो नहीं कर सकता।
يَوۡمَ تَمُورُ ٱلسَّمَآءُ مَوۡرٗا ۝ 8
(9) वह उस दिन आएगा जब आसमान बुरी तरह डगमगाएगा'7
7. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'तमूरुस-समाउ मौरा'। 'मौर' अरबी ज़बान में घूमने, औंटने, फड़कने, झूम-झूमकर चलने, चक्कर खाने और बार-बार आगे-पीछे हरकत करने के लिए बोला जाता है। क़ियामत के दिन आसमान की जो हालत होगी उसे इन अलफ़ाज़ में बयान करके यह तसव्वुर दिलाया गया है कि उस दिन ऊपरी दुनिया का सारा निज़ाम उलट-पलट हो जाएगा और देखनेवाला जब आसमान की तरफ़ देखेगा तो यूँ महसूस होगा कि वह जमा-जमाया नक़्शा जो हमेशा एक ही शान से नज़र आता था, बिगड़ चुका है और हर तरफ़ एक बेचैनी फैली हुई है।
وَتَسِيرُ ٱلۡجِبَالُ سَيۡرٗا ۝ 9
(10) और पहाड़ उड़े-उड़े फिरेंगे।8
8. दूसरे अलफ़ाज़ में ज़मीन की वह पकड़ जिसने पहाड़ों को जमा रखा है, ढीली पड़ जाएगी और वे अपनी जड़ों से उखड़कर फ़ज़ा में इस तरह उड़ने लगेंगे जैसे बादल उड़े फिरते हैं।
فَوَيۡلٞ يَوۡمَئِذٖ لِّلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 10
(11) तबाही है उस दिन उन झुठलानेवालों के लिए
ٱلَّذِينَ هُمۡ فِي خَوۡضٖ يَلۡعَبُونَ ۝ 11
(12) जो आज खेल के तौर पर अपनी हुज्जत-बाज़ियों (बातें बनाने) में लगे हुए हैं।9
9. मतलब यह है कि नबी से क़ियामत और आख़िरत और जन्नत-जहन्नम की ख़बरें सुनकर उनके सिलसिले में मज़ाक़ कर रहे हैं और संजीदगी के साथ उनपर ग़ौर करने के बजाय सिर्फ़ तफ़रीह के तौर पर उनपर बातें छाँट रहे हैं। आख़िरकार पर इनकी बहसों का मक़सद हक़ीक़त को समझने की कोशिश नहीं है, बल्कि एक खेल है जिससे ये दिल बहलाते हैं और इन्हें कुछ होश नहीं है कि सचमुच ये किस अंजाम की तरफ़ चले जा रहे हैं।
يَوۡمَ يُدَعُّونَ إِلَىٰ نَارِ جَهَنَّمَ دَعًّا ۝ 12
(13) जिस दिन उन्हें धक्के मार-मारकर जहन्नम की तरफ़ ले चला जाएगा,
هَٰذِهِ ٱلنَّارُ ٱلَّتِي كُنتُم بِهَا تُكَذِّبُونَ ۝ 13
(14) उस वक़्त उनसे कहा जाएगा कि 'यह वही आग है जिसे तुम झुठलाया करते थे,
أَفَسِحۡرٌ هَٰذَآ أَمۡ أَنتُمۡ لَا تُبۡصِرُونَ ۝ 14
(15) अब बताओ यह जादू है या तुम्हें सूझ नहीं रहा है?10
10. यानी दुनिया में जब रसूल तुम्हें इस जहन्नम के अज़ाब से डराते थे तो तुम कहते थे कि यह सिर्फ़ अलफ़ाज़ की जादूगरी है, जिससे हमें बेवक़ूफ़ बनाया जा रहा है। अब बोलो, यह जहन्नम जो तुम्हारे सामने है यह उसी जादू का करिश्मा है या अब भी तुम्हें न सूझा कि वाक़ई उसी जहन्नम से तुम्हारा पाला पड़ गया है जिसकी ख़बर तुम्हें दी जा रही थी?
ٱصۡلَوۡهَا فَٱصۡبِرُوٓاْ أَوۡ لَا تَصۡبِرُواْ سَوَآءٌ عَلَيۡكُمۡۖ إِنَّمَا تُجۡزَوۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 15
(16) जाओ अब झुलसो इसके अन्दर, तुम चाहे सब्र करो या न करो, तुम्हारे लिए बराबर है, तुम्हें वैसा ही बदला दिया जा रहा है जैसे तुम अमल कर रहे थे।
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَنَعِيمٖ ۝ 16
(17) मुत्तक़ी (परहेज़गार) लोग11 वहाँ बाग़ों और नेमतों में होंगे,
11. यानी वे लोग जिन्होंने पैग़म्बरों की दी हुई ख़बर पर ईमान लाकर दुनिया ही में अपना बचाव कर लिया और उन ख़यालात और आमाल (कर्मों) से परहेज़ किया जिनसे इनसान जहन्नम का हक़दार बनता है।
فَٰكِهِينَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ وَوَقَىٰهُمۡ رَبُّهُمۡ عَذَابَ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 17
(18) मज़े ले रहे होंगे उन चीज़ों से जो उनका रब उन्हें देगा, और उनका रब उन्हें जहन्नम के अज़ाब से बचा लेगा।12
12. किसी शख़्स के जन्नत में दाख़िल होने का ज़िक्र कर देने के बाद फिर जहन्नम से उसके बचाए जाने का ज़िक्र करने की बज़ाहिर कोई जरूरत नहीं रहती। मगर क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ये दोनों बातें अलग-अलग इसलिए बयान की गई हैं कि आदमी का जहन्नम से बच जाना अपनी जगह ख़ुद एक बहुत बड़ी नेमत है। और यह कहना कि “अल्लाह ने उनको जहन्नम के अज़ाब से बचा लिया” अस्ल में इशारा है इस हक़ीक़त की तरफ़ कि आदमी का जहन्नम से बच जाना अल्लाह की मेहरबानी और करम ही से मुमकिन है, वरना इनसानी कमज़ोरियाँ हर शख़्स के अमल में ऐसी-ऐसी ख़राबियाँ पैदा कर देती हैं कि अगर अल्लाह अपनी फ़ैयाज़ी और मेहरबानी से उनको नज़रअन्दाज़ न करे, और सख़्त पूछ-गछ पर उतर आए तो कोई भी पकड़ से नहीं छूट सकता। इसी लिए जन्नत में दाख़िल होना अल्लाह की जितनी बड़ी नेमत है उससे कुछ कम नेमत यह नहीं है कि आदमी जहन्नम से बचा लिया जाए।
كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ هَنِيٓـَٔۢا بِمَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 18
(19) (उनसे कहा जाएगाः) खाओ और पियो मज़े से13 अपने उन आमाल (कर्मों) के बदले में जो तुम करते रहे हो।
13. यहाँ 'मज़े से' का लफ़्ज़ अपने अन्दर बड़ा मानी रखता है। जन्नत में इनसान को जो कुछ मिलेगा किसी परेशानी और मेहनत के बिना मिलेगा। उसके ख़त्म हो जाने या उसके अन्दर कमी हो जाने का कोई अन्देशा न होगा। उसके लिए इनसान को कुछ ख़र्च करना नहीं पड़ेगा। वह ठीक उसकी ख़ाहिश और उसके दिल की पसन्द के मुताबिक़ होगा। जितना चाहेगा और जब चाहेगा हाज़िर कर दिया जाएगा। मेहमान के तौर पर वह वहाँ न रहेगा कि कुछ माँगते हुए शरमाए, बल्कि सब कुछ उसके अपने पिछले आमाल (कर्मों) का बदला और उसकी अपनी पिछली कमाई का फल होगा। उसके खाने और पीने से किसी बीमारी का ख़तरा भी न होगा। वह भूख मिटाने और ज़िन्दा रहने के लिए नहीं, बल्कि सिर्फ़ लज़्ज़त हासिल करने के लिए होगा और आदमी जितनी लज़्ज़त भी उससे उठाना चाहे, उठा सकेगा बिना इसके कि उससे कोई बद-हज़मी हो। और वह खाना किसी तरह की गन्दगी पैदा करनेवाला भी न होगा। इसलिए दुनिया में 'मज़े से' खाने-पीने का जो मतलब है, जन्नत में मज़े से खाने-पीने का मतलब उससे कहीं ज़्यादा बढ़-चढ़कर और आला दरजे का है।
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ سُرُرٖ مَّصۡفُوفَةٖۖ وَزَوَّجۡنَٰهُم بِحُورٍ عِينٖ ۝ 19
(20) वे आमने-सामने बिछे हुए तख़्तों पर तकिए लगाए बैठे होंगे और हम ख़ूबसूरत आँखोंवाली हूरें (परम रूपवती औरतें) उनसे ब्याह देंगे।14
14. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—26, 29; सूरा-44 दुख़ान, हाशिया-42।
وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَٱتَّبَعَتۡهُمۡ ذُرِّيَّتُهُم بِإِيمَٰنٍ أَلۡحَقۡنَا بِهِمۡ ذُرِّيَّتَهُمۡ وَمَآ أَلَتۡنَٰهُم مِّنۡ عَمَلِهِم مِّن شَيۡءٖۚ كُلُّ ٱمۡرِيِٕۭ بِمَا كَسَبَ رَهِينٞ ۝ 20
(21) जो लोग ईमान लाए हैं और उनकी औलाद ने भी ईमान के किसी दरजे में उनकी पैरवी की है, उनकी उस औलाद को भी हम (जन्नत में) उनके साथ मिला देंगे और उनके अमल में कोई घाटा उनको न देंगे।15 हर शख़्स अपनी कमाई के बदले में रहन है।16
15. यह बात इससे पहले सूरा-13 रअद, आयत-23 और सूरा-40 मोमिन, आयत-8 में गुज़र चुकी है, मगर यहाँ उन दोनों जगहों से भी ज़्यादा एक बड़ी ख़ुशख़बरी सुनाई गई है। सूरा-13 रअद की आयत में सिर्फ़ इतनी बात कही गई थी कि जन्नवालों के बाप-दादा और उनकी औलाद और उनकी बीवियों में से जो-जो लोग भी नेक होंगे वे सब उनके साथ जन्नत में दाख़िल होंगे। और सूरा-40 मोमिन में कहा गया था कि फ़रिश्ते ईमानवालों के लिए अल्लाह तआला से दुआ करते हैं कि उनकी औलाद और बीवियों और बुज़ुर्गों में से जो नेक हों, उन्हें भी जन्नत में उनसे मिला दे। यहाँ उन दोनों आयतों से आगे जो बात कही गई है, वह यह है कि अगर औलाद ईमान के किसी-न-किसी दरजे में भी अपने बुज़ुर्गों की पैरवी करती रही हो, तो चाहे अपने अमल के लिहाज़ से वह उस मर्तबे की हक़दार न हो जो बुज़ुर्गों को उनके बेहतर ईमान और अमल की वजह से हासिल होगा, फिर भी यह औलाद अपने बुज़ुर्गों के साथ मिला दी जाएगी। और यह मिलाना उस तरह का न होगा जैसे वक़्त-वक़्त पर कोई किसी से जाकर मुलाक़ात कर लिया करे, बल्कि इसके लिए अस्ल अरबी में ‘अलहक़नाबिहिम' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं, जिनका मतलब यह है कि वे जन्नत में उनके साथ ही रखे जाएँगे। इसपर यह इत्मीनान और दिलाया गया है कि औलाद से मिलाने के लिए बुज़ुर्गों का दरजा घटाकर उन्हें नीचे नहीं उतारा जाएगा, बल्कि बुज़ुर्गों से मिलाने के लिए औलाद का दरजा बढ़ाकर उन्हें ऊपर पहुँचा दिया जाएगा। इस जगह पर यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि यह बात उस बालिग़ औलाद के बारे में है जिसने समझदारी की उम्र को पहुँचकर अपने इख़्तियार और इरादे से ईमान लाने का फ़ैसला किया हो और जो अपनी मरज़ी से अपने नेक बुज़ुर्गों के रास्ते पर चली हो। रही एक मोमिन की वह औलाद जो बालिग़ होने से पहले ही मर गई हो तो उसके मामले में कुफ़्र व ईमान और फ़रमाँबरदारी व नाफ़रमानी का सिरे से कोई सवाल ही पैदा नहीं होता। उसे तो वैसे ही जन्नत में जाना है और उसके बुज़ुर्गों की आँखें ठण्डी करने के लिए उन ही के साथ रखा जाना है।
16. यहाँ 'रहन' की मिसाल बहुत-से मतलब रखती है। एक शख़्स अगर किसी से कुछ क़र्ज़ ले और क़र्ज़ देनेवाला अपना हक़ अदा करने के लिए ज़मानत के तौर पर उसकी कोई चीज़ अपने पास रहन (गिरवी) रख ले तो जब तक वह क़र्ज़ अदा न कर दे उस वक़्त तक रहन रखी हुई चीज़ नहीं छुड़ा सकता, और अगर तयशुदा मुद्दत गुज़र जाने पर भी वह रहन न छुड़ाए तो रहन रखी हुई चीज़ जन्नत हो जाती है। इनसान और ख़ुदा के बीच जो मामला हुआ है उसकी यहाँ इसी तरह के मामले से मिसाल दी गई है। ख़ुदा ने इनसान को जो सरो-सामान, जो ताक़तें और सलाहियतें और जो इख़्तियारात दुनिया में दिए हैं वे मानो एक क़र्ज़ है जो मालिक ने अपने बन्दे को दिया है, और इस क़र्ज़ की ज़मानत के तौर पर बन्दे ने अपना मन (नफ़्स) ख़ुदा के पास रहन रखा है। बन्दा इस सरो-सामान और इन क़ुव्वतों और अधिकारों को सही तरीक़े से इस्तेमाल करके अगर वे नेकियाँ कमाए जिनसे यह क़र्ज़ अदा हो सकता हो तो वह रहन रखी हुई चीज़, यानी अपने मन या नफ़्स को छुड़ा लेगा, वरना उसे ज़ब्त कर लिया जाएगा। पिछली आयत के ठीक बाद यह बात इसलिए कही गई है कि नेक ईमानवाले चाहे अपने-आपमें कितने ही बड़े मर्तबे के लोग हों, उनकी औलाद का रहन छुड़ाना इसके बिना नहीं हो सकता कि वह ख़ुद अपनी कमाई से अपने नफ़्स को छुड़ाए। बाप-दादा की कमाई औलाद को नहीं छुड़ा सकती। अलबत्ता औलाद अगर किसी दरजे के भी ईमान और नेक लोगों की पैरवी से अपने-आपको छुड़ा ले जाए तो फिर यह अल्लाह की मेहरबानी और उसका करम है कि जन्नत में वह उसके नीचे के मर्तबों से उठाकर ऊँचे दों में बाप-दादा के साथ ले जाकर मिला दे। बाप-दादा की नेकियों का यह फ़ायदा तो औलाद को मिल सकता है, लेकिन अगर वह अपनी कमाई से अपने-आपको जहन्नम का हक़दार बना ले तो फिर यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि बाप-दादा की ख़ातिर उसे जन्नत में पहुँचा दिया जाए। इसके साथ यह बात भी इस आयत से निकलती है कि कम दरजे की नेक औलाद का बड़े दरजे के नेक बुज़ुर्गों से ले जाकर मिला दिया जाना अस्ल में उस औलाद की कमाई का नतीजा नहीं है, बल्कि उन बाप-दादा की कमाई का नतीजा है। वे अपने अमल से इस मेहरबानी के हक़दार होंगे कि उनके दिल ख़ुश करने के लिए उनकी औलाद को उनसे मिलाया जाए। इसी वजह से अल्लाह उनके दरजे घटाकर उन्हें औलाद के पास नहीं ले जाएगा, बल्कि औलाद के दरजे बढ़ाकर उनके पास ले जाएगा, ताकि उनपर ख़ुदा की नेमतों के पूरे होने में यह कमी बाक़ी न रह जाए कि अपनी औलाद से दूरी उनके लिए तकलीफ़ का सबब हो।
وَأَمۡدَدۡنَٰهُم بِفَٰكِهَةٖ وَلَحۡمٖ مِّمَّا يَشۡتَهُونَ ۝ 21
(22) हम उनको हर तरह के फल और गोश्त,17 जिस चीज़ को भी उनका जी चाहेगा, ख़ूब दिए चले जाएँगे।
17. इस आयत में जन्नतवालों को हर तरह का गोश्त दिए जाने का ज़िक्र है, और सूरा-56 वाक़िआ, आयत-21 में कहा गया है कि परिन्दों के गोश्त से उनकी ख़ातिरदारी की जाएगी। यह गोश्त किस तरह का होगा, हमें ठीक-ठीक मालूम नहीं है। मगर जिस तरह क़ुरआन के कुछ वाज़ेह बयानों और कुछ हदीसों में जन्नत के दूध के बारे में बताया गया है कि वह जानवरों के थनों से निकला हुआ न होगा, और जन्नत के शहद के बारे में बताया गया है कि वह मक्खियों का बनाया हुआ न होगा, और जन्नत की शराब के बारे में बताया गया है कि वह फलों को सड़ाकर निकाली न गई होगी, बल्कि अल्लाह की क़ुदरत से ये चीज़ें चश्मों (स्रोतों) से निकलेंगी और नहरों में बहेंगी, इससे यह अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि जन्नत का गोश्त भी जानवरों को ज़बह करके हासिल किया हुआ न होगा, बल्कि यह भी क़ुदरती तौर पर पैदा होगा। जो ख़ुदा ज़मीन के माद्दों (तत्त्वों) से सीधे तौर पर दूध और शहद और शराब पैदा कर सकता है उसकी क़ुदरत के लिए यह बात नामुमकिन नहीं कि इन ही माद्दों से हर तरह का इन्तिहाई मज़ेदार गोश्त पैदा कर दे जो जानवरों के गोश्त से भी अपनी लज़्ज़त में बढ़ा हुआ हो। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-25; सूरा-47 मुहम्मद, हाशिए—21 से 23)
يَتَنَٰزَعُونَ فِيهَا كَأۡسٗا لَّا لَغۡوٞ فِيهَا وَلَا تَأۡثِيمٞ ۝ 22
(23) वहाँ वे एक-दूसरे से शराब के जाम लपक-लपककर ले रहे होंगे जिसमें न बकवास होगी, न बदकिरदारी।18
18. यानी वह शराब नशा पैदा करनेवाली न होगी कि उसे पीकर वे बदमस्त हों और बेहूदा बकवास करने लगें, या गाली-गलौज और धौल-चप्पे पर उतर आएँ, या उस तरह की गन्दी हरकतें करने लगें जैसी दुनिया की शराब पीनेवाले करते हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-27)
۞وَيَطُوفُ عَلَيۡهِمۡ غِلۡمَانٞ لَّهُمۡ كَأَنَّهُمۡ لُؤۡلُؤٞ مَّكۡنُونٞ ۝ 23
(24) और उनकी ख़िदमत में वे लड़के दौड़ते फिर रहे होंगे जो उन ही के लिए ख़ास होंगे,19 ऐसे ख़ूबसूरत जैसे छिपाकर रखे हुए मोती।
19. यह बात ग़ौर करने के क़ाबिल है कि अरबी लफ़्ज 'ग़िलमानुहुम' (उनके लड़के) नहीं कहा, बल्कि 'ग़िलमानुल-लहुम' (उनके लिए लड़के) कहा है। अगर 'गिलमानुहुम' कहा जाता तो इससे यह गुमान हो सकता था कि दुनिया में उनके जो ख़ादिम थे वही जन्नत में भी उनके ख़ादिम बना दिए जाएँगे, हालाँकि दुनिया का जो शख़्स भी जन्नत में जाएगा अपने हक़दार होने की बुनियाद पर जाएगा और कोई वजह नहीं कि जन्नत में पहुँचकर वह अपने उसी मालिक का ख़ादिम बना दिया जाए जिसकी ख़िदमत वह दुनिया में करता रहा था, बल्कि यह भी हो सकता है कि कोई ख़ादिम अपने अमल की वजह से अपने मालिक के मुक़ाबले में ज़्यादा ऊँचा दरजा जन्नत में पाए। इसलिए 'ग़िलमानुल-लहुम' कहकर इस गुमान की गुंजाइश बाक़ी नहीं रहने दी गई। यह लफ़्ज़ इस बात को साफ़ तौर पर बयान कर देता है कि ये वे लड़के होंगे जो जन्नत में उनकी ख़िदमत के लिए ख़ास कर दिए जाएँगे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-26)
وَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 24
(25) ये लोग आपस में एक-दूसरे से (दुनिया में गुज़रे हुए) हालात पूछेंगे।
قَالُوٓاْ إِنَّا كُنَّا قَبۡلُ فِيٓ أَهۡلِنَا مُشۡفِقِينَ ۝ 25
(26) ये कहेंगे कि हम पहले अपने घरवालों में डरते थे,20
20. यानी हम वहाँ ऐश में पड़कर और अपनी दुनिया में मग्न होकर ग़फ़लत की ज़िन्दगी नहीं गुज़ार रहे थे, बल्कि हर वक़्त हमें यह धड़का लगा रहता था कि कहीं हमसे कोई ऐसा काम न हो जाए जिसपर ख़ुदा के यहाँ हमारी पकड़ हो। यहाँ ख़ास तौर पर अपने घरवालों के बीच डरते हुए ज़िन्दगी गुज़ारने का ज़िक्र इसलिए किया गया है कि आदमी सबसे ज़्यादा जिस वजह से गुनाहों में मुब्तला होता है वह अपने बाल-बच्चों को ऐश कराने और उनकी दुनिया बनाने की फ़िक्र है। इसी के लिए वह हराम कमाता है, दूसरों के हक़ों पर डाके डालता है और तरह-तरह की नाजाइज़ तदबीरें करता है। इसी वजह से जन्नतवाले आपस में कहेंगे कि ख़ास तौर पर जिस चीज़ ने हमें अंजाम की ख़राबी से बचाया वह यह थी कि अपने बाल-बच्चों में ज़िन्दगी गुज़ारते हुए हमें उनको ऐश कराने और उनका मुस्तक़बिल शानदार बनाने की इतनी फ़िक्र न थी जितनी इस बात की थी कि हम उनकी ख़ातिर वे तरीक़े न अपना बैठें जिनसे हमारी आख़िरत बरबाद हो जाए, और अपनी औलाद को भी ऐसे रास्ते पर न डाल जाएँ जो उनको अल्लाह के अज़ाब का हक़दार बना दे।
فَمَنَّ ٱللَّهُ عَلَيۡنَا وَوَقَىٰنَا عَذَابَ ٱلسَّمُومِ ۝ 26
(27) आख़िरकार अल्लाह ने हमपर मेहरबानी की और हमें झुलसा देनेवाली हवा21 के अज़ाब से बचा लिया।
21. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘समूम' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब सख़्त गर्म हवा है। इससे मुराद लू की वे लपटें हैं जो जहन्नम से उठ रही होंगी।
إِنَّا كُنَّا مِن قَبۡلُ نَدۡعُوهُۖ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلۡبَرُّ ٱلرَّحِيمُ ۝ 27
(28) हम पिछली ज़िन्दगी में उसी से दुआएँ माँगते थे, वह वाक़ई बड़ा ही एहसान करनेवाला और रहम करनेवाला है।
فَذَكِّرۡ فَمَآ أَنتَ بِنِعۡمَتِ رَبِّكَ بِكَاهِنٖ وَلَا مَجۡنُونٍ ۝ 28
(29) तो ऐ नबी! तुम नसीहत किए जाओ, अपने रब की मेहरबानी से न तुम काहिन हो और न मजनून (दीवाने)।22
22. ऊपर आख़िरकार की तस्वीर पेश करने के बाद अब तक़रीर (बात) का रुख़ मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों की उन हठधर्मियों की तरफ़ फिर रहा है जिससे वे अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दावत का मुक़ाबला कर रहे थे। यहाँ बात बज़ाहिर तो नबी (सल्ल०) से कही जा रही है, मगर अस्ल में आप (सल्ल०) के ज़रिए से ये बातें मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों को सुनाना मक़सद है। उनके सामने जब आप (सल्ल०) क़ियामत, और दोबारा ज़िन्दा करके उठाए जाने, फिर इकट्ठा किए जाने, और हिसाब-किताब, और इनाम व सज़ा, और जन्नत व जहन्नम की बातें करते थे, और इन बातों के सिलसिले में क़ुरआन मजीद की आयतें इस दावे के साथ उनको सुनाते थे कि ये ख़बरें अल्लाह की तरफ़ से मेरे पास आई हैं और यह अल्लाह का कलाम है जो मुझपर वह्य के ज़रिए से उतरा है, तो उनके सरदार और मज़हबी पेशवा और आवारा क़िस्म के लोग आप (सल्ल०) की इन बातों पर संजीदगी के साथ न ख़ुद ग़ौर करते थे, न यह चाहते थे कि आम लोग इनकी तरफ़ ध्यान दें। इसलिए वे आप (सल्ल०) के ऊपर कभी यह फब्ती कसते थे कि आप (सल्ल०) काहिन हैं, और कभी यह कि आप (सल्ल०) मजनून (दीवाने) हैं, और कभी यह कि आप (सल्ल०) शाइर हैं, और कभी यह कि आप (सल्ल०) ख़ुद अपने दिल से ये निराली बातें गढ़ते हैं और सिर्फ़ अपना रंग ज़माने के लिए इन्हें ख़ुदा की उतारी हुई वह्य कह्क़ के बतौर पेश करते हैं। उनका ख़याल यह था कि इस तरह के जुमले कसकर वे लोगों को आप (सल्ल०) की तरफ़ से बदगुमान कर देंगे और आप (सल्ल०) की सारी बातें हवा में उड़ जाएँगी। इसपर कहा जा रहा है कि ऐ नबी ! सचमुच हक़ीक़त तो वही कुछ है जो सूरा के शुरू से यहाँ तक बयान की गई है। अब अगर ये लोग इन बातों पर तुम्हें काहिन और मजनून कहते हैं तो परवाह न करो और ख़ुदा के बन्दों को ग़फ़लत से चौंकाने और हक़ीक़त से ख़बरदार करने का काम करते चले जाओ, क्योंकि ख़ुदा की मेहरबानी से न तुम काहिन हो न मजनून। 'काहिन' अरबी ज़बान में ज्योतिषी, रौब की बातें बतानेवाले और सयाने के मानी में बोला जाता था। जाहिलियत के ज़माने में यह एक बाक़ायदा पेशा था। काहिनों का दावा था, और उनके बारे में अंधविश्वासी लोग भी यह समझते थे कि वे सितारों को पहचाननेवाले (नुजूमी) हैं, या रूहों और शैतानों और जिन्नों से उनका ख़ास ताल्लुक़ है, जिसकी बदौलत वे ग़ैब की ख़बरें मालूम कर सकते हैं। कोई चीज़ खो जाए तो वे बता सकते हैं कि वह कहाँ पड़ी हुई है। किसी के यहाँ चोरी हो जाए तो वे बता सकते हैं कि चोर कौन है। कोई अपनी क़िस्मत पूछे तो वे बता सकते हैं कि उसकी क़िस्मत में क्या लिखा है। इन ही कामों के लिए लोग उनके पास जाते थे और वे कुछ भेंट-चढ़ावे लेकर उन्हें ग़ैब की बातें बताया करते थे। वे ख़ुद भी कभी-कभी बस्तियों में आवाज़ लगाते फिरते थे, ताकि लोग उनकी तरफ़ आएँ। उनका एक ख़ास हुलिया होता था जिससे वे अलग पहचाने जाते थे। उनकी ज़बान भी आम बोल-चाल से अलग होती थी। वे तुकबन्दीवाले जुमले ख़ास लहजे में ज़रा सुर (तरन्नुम) के साथ बोलते थे और आम तौर से ऐसे गोल-मोल जुमले इस्तेमाल करते थे जिनसे हर शख़्स अपने मतलब की बात निकाल ले। क़ुरैश के सरदारों ने आम लोगों को धोखा देने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर काहिन होने का इलज़ाम सिर्फ़ इस वजह से लगा दिया कि आप (सल्ल०) उन हक़ीक़तों की ख़बर दे रहे थे जो लोगों की निगाहों से छिपी हुई हैं, और आप (सल्ल०) का दावा यह था कि अल्लाह की तरफ़ से एक फ़रिश्ता आकर आप (सल्ल०) पर वह्य उतारता है, और अल्लाह का जो कलाम आप (सल्ल०) पेश कर रहे थे, वह भी शाइरी की तरह था, लेकिन अरब में कोई शख़्स भी उनके इस इलज़ाम से धोखा न खा सकता था। इसलिए कि काहिनों के पेशे और उनके हुलिए और उनकी ज़बान और उनके कारोबार से कोई भी अनजान न था। सब जानते थे कि वे क्या काम करते हैं, किस मक़सद के लिए लोग उनके पास जाते हैं, क्या बातें वे उनको बताते हैं, उनके तुकबन्दीवाले जुमले कैसे होते हैं और उनमें क्या बातें होती हैं। फिर सबसे बड़ी बात यह है कि किसी काहिन का सिरे से यह काम ही नहीं हो सकता था कि क़ौम में जिन अक़ीदों का रिवाज हो उनके ख़िलाफ़ एक अक़ीदा लेकर उठता और रात-दिन उसकी तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) में अपनी जान खपाता और उसी की ख़ातिर सारी क़ौम की दुश्मनी मोल लेता। इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ काहिन होने का यह इलज़ाम नाम के लिए भी कोई जोड़ न रखता था कि यह फब्ती आप (सल्ल०) पर चस्पाँ हो सकती और अरब का कोई कमअक़्ल-से-कमअक़्ल आदमी भी इससे धोखा खा जाता। इसी तरह आप (सल्ल०) पर जुनून (दीवानगी) का इलज़ाम भी मक्का के ग़ैर-मुस्लिम सिर्फ़ अपने दिल की तसल्ली के लिए लगाते थे, जैसे मौजूदा ज़माने के कुछ बेशर्म पश्चिमी लेखक इस्लाम के ख़िलाफ़ अपने सीनों की आग ठण्डी करने के लिए ये दावे करते हैं कि अल्लाह की पनाह! नबी (सल्ल०) पर मिरगी (Epilepsy) के दौरे पड़ते थे और इन ही दौरों की हालत में जो कुछ आप (सल्ल०) की ज़बान से निकलता था उसे लोग वह्य समझते थे। ऐसे बेहूदा इलज़ामों को किसी समझदार आदमी ने न उस ज़माने में ध्यान देने के क़ाबिल समझा था, न आज कोई शख़्स क़ुरआन को पढ़कर और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की रहबरी और रहनुमाई के हैरत-अंगेज कारनामे देखकर यह मान सकता है कि यह सब कुछ मिरगी के दौरों का करिश्मा है।
أَمۡ يَقُولُونَ شَاعِرٞ نَّتَرَبَّصُ بِهِۦ رَيۡبَ ٱلۡمَنُونِ ۝ 29
(30) क्या ये लोग कहते हैं कि यह शख़्स शाइर है जिसके लिए हम वक़्त के बदलने का इन्तिज़ार कर रहे हैं?23
23. यानी हम इन्तिज़ार कर रहे हैं कि इस शख़्स पर कोई आफ़त आए और किसी तरह इससे जो हमारा पीछा छूटे। शायद उनका ख़याल यह था कि मुहम्मद (सल्ल०) चूँकि हमारे माबूदों (उपास्यों) की मुख़ालफ़त और उनकी करामात का इनकार करते हैं, इसलिए या तो, अल्लाह की पनाह! इनपर हमारे किसी माबूद की मार पड़ेगी, या कोई मनचला इनकी ये बातें सुनकर आपे से बाहर हो जाएगा और इन्हें क़त्ल कर देगा।
قُلۡ تَرَبَّصُواْ فَإِنِّي مَعَكُم مِّنَ ٱلۡمُتَرَبِّصِينَ ۝ 30
(31) इनसे कहो, अच्छा इन्तिज़ार करो, मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार करता हूँ।24
24. इसके दो मतलब हो सकते हैं : एक यह कि मैं भी देखता हूँ कि तुम्हारी ये आरज़ू पूरी होती है या नहीं। दूसरा यह कि मैं भी इन्तिज़ार में हूँ कि शामत मेरी आती है या तुम्हारी।
أَمۡ تَأۡمُرُهُمۡ أَحۡلَٰمُهُم بِهَٰذَآۚ أَمۡ هُمۡ قَوۡمٞ طَاغُونَ ۝ 31
(32) क्या इनकी अक़्लें इन्हें ऐसी ही बातें करने के लिए कहती हैं? या हक़ीक़त में ये दुश्मनी में हद से गुज़रे हुए लोग हैं?25
25. इन दोनों जुमलों में मुख़ालफ़त करनेवालों के सारे प्रोपेगण्डे की हवा निकालकर उन्हें बिलकुल बेनक़ाब कर दिया गया है। दलील का ख़ुलासा यह है कि ये क़ुरैश के सरदार और बड़े लोग बहुत अक़्लमन्द बने फिरते हैं, मगर क्या इनकी अक़्ल यही कहती है कि जो शख़्स शाइर नहीं उसे शाइर कहो, जिसे सारी क़ौम एक अक़्लमन्द आदमी की हैसियत से जानती है उसे मजनून और जिस शख़्स का काहिन होने से कोई दूर-दूर का ताल्लुक़ भी नहीं है उसे ख़ाह-मख़ाह काहिन ठहराओ। फिर अगर अक़्ल ही की बुनियाद पर ये लोग हुक्म लगाते तो कोई एक बात कहते। बहुत-सी बाहम टकरानेवाली अलग-अलग बातें तो एक साथ नहीं कह सकते थे। एक शख़्स आख़िर एक ही वक़्त में शाइर, मजनून और काहिन कैसे हो सकता है! वह मजनून है तो न काहिन हो सकता है न शाइर। काहिन है तो शाइर नहीं हो सकता और शाइर है तो काहिन नहीं हो सकता, क्योंकि शेअर की ज़बान और उसके बहस के मौज़ू अलग होते हैं और काहिन की ज़बान और उसकी बातें अलग। एक ही कलाम को एक साथ शेअर भी कहना और काहिन की बात भी ठहरा देना किसी ऐसे आदमी का काम नहीं हो सकता जो शेअर और काहिन की बात का फ़र्क़ जानता हो। इसलिए यह बिलकुल खुली हुई बात है कि मुहम्मद (सल्ल०) की मुख़ालफ़त में ये आपस में टकरानेवाली अलग-अलग बातें अक़्ल से नहीं, बल्कि सरासर ज़िद और हठधर्मी से की जा रही हैं, और क़ौम के ये बड़े-बड़े सरदार दुश्मनी के जोश में अन्धे होकर सिर्फ़ बेसिर-पैर के इलज़ाम लगा रहे हैं, जिन्हें कोई गंभीर इनसान ध्यान देने के क़ाबिल नहीं समझ सकता। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-104; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-3; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—53, 54; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—130, 131, 140, 142 से 144)
أَمۡ يَقُولُونَ تَقَوَّلَهُۥۚ بَل لَّا يُؤۡمِنُونَ ۝ 32
(33) क्या ये कहते हैं कि इस शख़्स ने यह क़ुरआन ख़ुद गढ़ लिया है? अस्ल बात यह है कि ये ईमान नहीं लाना चाहते।26
26. दूसरे अलफ़ाज़ में इस बात का मतलब यह है कि क़ुरैश के जो लोग क़ुरआन को मुहम्मद या (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ कलाम कहते हैं ख़ुद उनका दिल यह जानता है कि यह आप (सल्ल०) का कलाम नहीं हो सकता, और दूसरे वे लोग भी जिनकी ज़बान अरबी है, न सिर्फ़ यह कि इसे सुनकर साफ़ महसूस कर लेते हैं कि यह इनसानी कलाम से बहुत ऊँची और बुलन्द चीज़ है, बल्कि उनमें से जो शख़्स भी मुहम्मद (सल्ल०) को जानता है वह कभी यह गुमान नहीं कर सकता कि यह सचमुच आप (सल्ल०) ही का कलाम है। इसलिए साफ़ और सीधी बात यह है कि क़ुरआन को आप (सल्ल०) की रचना बतानेवाले अस्ल में ईमान नहीं लाना चाहते इसलिए वे तरह-तरह के झूठे बहाने गढ़ रहे हैं जिनमें से एक बहाना यह भी है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-21; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-12; सूरा-28 क़सस, हाशिया-64; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—88, 89, सूरा-32 सजदा, हाशिए—1 से 4; सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिया-54; सूरा-46 अहक़ाफ़, हाशिए—8 से 10)
فَلۡيَأۡتُواْ بِحَدِيثٖ مِّثۡلِهِۦٓ إِن كَانُواْ صَٰدِقِينَ ۝ 33
(34) अगर ये अपनी इस बात में सच्चे हैं तो इसी शान का एक कलाम बना लाएँ।27
27. यानी बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि यह मुहम्मद (सल्ल०) का कलाम नहीं है, बल्कि हक़ीक़त यह है कि यह सिरे से इनसानी कलाम ही नहीं है और यह बात इनसान की क़ुदरत से बाहर है कि ऐसा कलाम गढ़ सके। अगर तुम इसे इनसानी कलाम कहते हो तो इस पैमाने का कोई कलाम लाकर दिखाओ, जिसे किसी इनसान ने गढ़ा हो। यह चैलेंज न सिर्फ़ क़ुरैश को, बल्कि तमाम दुनिया के इनकार करनेवालों को सबसे पहले इस आयत में दिया गया था। इसके बाद तीन बार मक्का में और फिर आख़िरी बार मदीना में इसे दोहराया गया, (देखिए— सूरा-2 बक़रा, आयत-23; सूरा-10 यूनुस, आयत-38; सूरा-11 हूद, आयत-13; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-88)। मगर कोई इसका जवाब देने की न उस वक़्त हिम्मत कर सका न उसके बाद से आज तक किसी की यह हिम्मत हुई कि क़ुरआन के मुक़ाबले में इनसान की लिखी हुई किसी चीज़ को ले आए। कुछ लोग इस चैलेंज की हक़ीक़त को न समझने की वजह से यह कहते हैं कि एक क़ुरआन ही क्या, किसी शख़्स के स्टाइल में भी दूसरा कोई शख़्स नस्र या नज़्म (गद्य या पद्य) नहीं लिख सकता। हूमर, रूमी, शेक्सपियर, गोयटे, ग़ालिब, टैगोर, इक़बाल, सब ही इस लिहाज़ से बेमिसाल हैं कि उनकी नक़्ल उतारकर उन ही जैसा कलाम बना लाना किसी के बस में नहीं है। क़ुरआन के चैलेंज का यह जवाब देनेवाले अस्ल में इस ग़लतफ़हमी में हैं कि 'फ़लयातू बि-हदीसिम-मिसलिही' (इसी शान का एक कलाम बना लाएँ) का मतलब क़ुरआन के स्टाइल में उस जैसी कोई किताब लिख देना है। हालाँकि इससे मुराद स्टाइल में एक जैसा होना नहीं है, बल्कि मुराद यह है कि इस दरजे और इस शान और इस मर्तबे की कोई किताब ले आओ जो सिर्फ़ अरबी ही में नहीं, दुनिया की किसी ज़बान में उन ख़ासियतों के लिहाज़ से क़ुरआन के बराबर क़रार पा सके जिनकी बुनियाद पर क़ुरआन एक मोजिज़ा (चमत्कार) है। मोटे तौर पर कुछ बड़ी-बड़ी ख़ासियतें नीचे लिखी जा रही हैं जिनकी बुनियाद पर क़ुरआन पहले भी मोजिज़ा (चमत्कार) था और आज भी मोजिज़ा है। (1) जिस ज़बान में क़ुरआन मजीद उतरा है उसके अदब (साहित्य) का वह सबसे ऊँचा और सबसे मुकम्मल नमूना है। पूरी किताब में एक लफ़्ज़ और एक जुमला भी मेयार (स्तर) से गिरा हुआ नहीं है। जिस मज़मून को भी अदा किया गया है सबसे सटीक अलफ़ाज़ और सबसे मुनासिब अन्दाज़े-बयान में अदा किया गया है। एक ही मज़मून बार-बार बयान हुआ है और हर बार बयान करने का अन्दाज़ नया है, जिससे तकरार (दोहराने) की बदनुमाई कहीं पैदा नहीं होती। शुरू से लेकर आख़िर तक सारी किताब में अलफ़ाज़ इस तरह फ़िट हैं कि जैसे नगीने तराश-तराशकर जड़े गए हों। कलाम इतना असरदार है कि कोई ज़बान का इल्म रखनेवाला उसे सुनकर सर धुने बिना नहीं रह सकता, यहाँ तक कि इनकार और मुख़ालफ़त करनेवाले की रूह भी झूमने लगती है। 1400 (चौदह सौ) साल गुज़रने के बाद भी आज तक यह किताब अपनी ज़बान के अदब का सबसे आला नमूना है, जिसके बराबर तो दरकिनार, जिसके क़रीब भी अरबी ज़बान की कोई किताब अपनी अदबी (साहित्यिक) क़द्रो-क़ीमत में नहीं पहुँचती। यही नहीं, बल्कि यह किताब अरबी ज़बान को इस तरह पकड़कर बैठ गई है कि 14 सदियाँ गुज़र जाने पर भी इस ज़बान की ख़ुशबयानी (सुभाषिता) का मेयार वही है जो इस किताब ने क़ायम कर दिया था, हालाँकि इतनी मुद्दत में ज़बानें बदलकर कुछ-से-कुछ हो जाती हैं। दुनिया की कोई ज़बान ऐसी नहीं जो इतनी लम्बी मुद्दत तक लिखावट, इबारत, मुहावरे, ज़बान के क़ायदे (व्याकरण) और अलफ़ाज़ के इस्तेमाल में एक ही शान पर बाक़ी रह गई हो, लेकिन यह सिर्फ़ क़ुरआन की ताक़त है जिसने अरबी ज़बान को अपने मक़ाम से हिलने न दिया। उसका एक लफ़्ज़ भी आज तक ऐसा नहीं है जिसका इस्तेमाल ख़त्म हो गया हो। उसका हर मुहावरा आज तक अरबी अदब (साहित्य) में इस्तेमाल हो रहा है। उसका अदब (साहित्य) आज भी अरबी का मेयारी अदब है, और तक़रीर और लिखावट में आज भी बेहतरीन ज़बान वही मानी जाती है जो चौदह सौ साल पहले क़ुरआन की थी। क्या दुनिया की किसी ज़बान में कोई इनसानी तसनीफ़ (रचना) इस शान की है? (2) यह दुनिया की एक अकेली किताब है जिसने इनसानों के ख़यालात, अख़लाक़़, तहज़ीब (संस्कृति) और जीने के ढंग पर इतना फैलाव, इतनी गहराई और इतने पहलुओं के साथ असर डाला है कि दुनिया में इसकी कोई मिसाल नहीं मिलती। पहले उसकी तासीर (असर) ने एक क़ौम को बदला और फिर उस क़ौम ने उठकर दुनिया के एक बहुत बड़े हिस्से को बदल डाला। कोई दूसरी किताब ऐसी नहीं है जो इस क़दर इनक़िलाब लानेवाली साबित हुई हो। यह किताब सिर्फ़ काग़ज़ के पन्नों पर लिखी नहीं रह गई है, बल्कि अमल की दुनिया में इसके एक-एक लफ़्ज़ ने ख़यालात बनाए और एक बाक़ायदा तहज़ीब बनाई है, चौदह सौ साल से इसके इन असरात का सिलसिला जारी है, और दिन-पर-दिन इसके ये असरात फैलते चले जा रहे हैं। (3) जिस मौज़ू (विषय) से यह किताब बहस करती है वह एक बहुत ही फैला हुआ मौज़ू है, जिसका दायरा शुरू से लेकर आख़िर तक पूरी कायनात पर हावी है। वह कायनात की हक़ीक़त और उसकी शुरुआत व अंजाम और उसके निज़ाम व क़ानून पर बात करती है। वह बताती है कि इस कायनात का पैदा करनेवाला और इन्तिज़ाम करनेवाला और चलानेवाला कौन है, क्या उसकी सिफ़ात हैं, क्या उसके अधिकार हैं, और वह अस्ल हक़ीक़त क्या है जिसपर उसने दुनिया का यह पूरा निज़ाम क़ायम किया है। वह इस दुनिया में इनसान की हैसियत और उसका मक़ाम ठीक-ठीक तय करके बताती है कि यह उसका फ़ितरी मक़ाम और यह उसकी पैदाइशी हैसियत है, जिसे बदल देने पर वह क़ुदरत नहीं रखता। वह बताती है कि इस मक़ाम और इस हैसियत के लिहाज़ से इनसान के लिए सोचने और अमल करने का सही रास्ता क्या है जो हक़ीक़त से पूरी तरह मेल खाता है और ग़लत रास्ते क्या हैं जो हक़ीक़त से टकराते हैं। सही रास्ते के सही होने और ग़लत रास्तों के ग़लत होने पर वह ज़मीन और आसमान की एक-एक चीज़ से, कायनात के निज़ाम के एक-एक पहलू से, इनसान के अपने मन और उसके वुजूद से और इनसान के अपने इतिहास से अनगिनत दलीलें पेश करती है। इसके साथ वह यह भी बताती है कि इनसान ग़लत रास्तों पर कैसे और किन वजहों से पड़ता रहा है, और सही रास्ता जो हमेशा से एक ही था और एक ही रहेगा, किस ज़रिए से उसको मालूम हो सकता है और किस तरह हर ज़माने में उसको बताया जाता रहा है। वह सही रास्ते की तरफ़ सिर्फ़ निशानदेही करके नहीं रह जाती, बल्कि उस रास्ते पर चलने के लिए ज़िन्दगी के एक पूरे निज़ाम का नक़्शा पेश करती है, जिसमें अक़ीदों, अख़लाक़, ही मन को पाक करने, इबादतों, समाजी मामलों, तहज़ीब, रहन-सहन, माली मामलों, सियासत, अदालत, क़ानून, ग़रज़ इनसानी ज़िन्दगी के हर पहलू के बारे में एक ऐसा ज़ाब्ता बयान कर दिया गया है जो एक-दूसरे से मज़बूत ताल्लुक़ रखता हो। इसके अलावा वह पूरी तफ़सील के साथ बताती है कि इस सही रास्ते की पैरवी करने और उन ग़लत रास्तों पर चलने के क्या नतीजे इस दुनिया में हैं और क्या नतीजे दुनिया का मौजूदा निज़ाम ख़त्म होने के बाद एक दूसरी दुनिया में ज़ाहिर होनेवाले हैं। वह इस दुनिया के ख़त्म होने और दूसरी दुनिया के क़ायम होने की बहुत तफ़सीली कैफ़ियत बयान करती है, इस तबदीली के तमाम मरहले एक-एक करके बताती है, दूसरी दुनिया का पूरा नक़्शा निगाहों के सामने खींच देती है, और फिर बहुत साफ़-साफ़ बयान करती है कि वहाँ इनसान कैसे एक दूसरी ज़िन्दगी पाएगा, किस तरह उसकी दुनियावी ज़िन्दगी के आमाल का हिसाब लिया जाएगा, किन बातों की उससे पूछ-गछ होगी, कैसी क़ाबिले-इनकार सूरत में उसका पूरा आमाल-नामा उसके सामने रख दिया जाएगा, और कैसी ज़बरदस्त गवाहियाँ उसके सुबूत में पेश की जाएँगी, इनाम और सज़ा पानेवाले क्यों इनाम और सज़ा पाएँगे, इनाम पानेवालों को कैसे इनाम मिलेंगे और सज़ा पानेवाले काम किस-किस शक्ल में अपने आमाल के नतीजे भुगतेंगे। इस बड़े और फैले हुए मज़मून पर कलाम इस किताब में किया गया है वह इस हैसियत से नहीं है कि इसका लिखनेवाला कुछ छोटी-बड़ी बातें जोड़कर कुछ अन्दाज़ों की एक इमारत बना रहा है, बल्कि इस हैसियत से है कि इसका लिखनेवाला हक़ीक़त का सीधे तौर से इल्म रखता है, उसकी निगाह शुरू से आख़िर तक सब कुछ देख रही है, तमाम हक़ीक़तें उसपर ज़ाहिर हैं, कायनात पूरी-की-पूरी उसके सामने एक खुली किताब की तरह है, इनसानों की शुरुआत से उसके ख़त्म होने तक ही नहीं, बल्कि ख़ातिमे के बाद उसकी दूसरी ज़िन्दगी तक भी वह उसको एक ही नज़र में देख रहा है, और अटकल और गुमान की बुनियाद पर नहीं, बल्कि इल्म की बुनियाद पर इनसान की रहनुमाई कर रहा है। जिन हक़ीक़तों को इल्म की हैसियत से वह पेश करता है उनमें से कोई एक भी आज तक ग़लत साबित नहीं की जा सकी है। कायनात और इनसान के बारे में जो नज़रिया वह पेश करता है, वह तमाम ज़ाहिर होनेवाली बातों और वाक़िआत की सही वजह बयान करता है और इल्म के हर मैदान में तहक़ीक़ (शोध) की बुनियाद बन सकता है। फ़लसफ़ा और साइंस और समाजी उलूम के तमाम आख़िरी मसलों के जवाब उसके कलाम में मौजूद हैं और उन सबके बीच अक़्ल और दलील के बीच ऐसा रब्त है कि उनपर एक मुकम्मल, एक-दूसरे से जुड़ा हुआ और जामे (व्यापक) फ़िक्री निज़ाम क़ायम होता है। फिर अमली हैसियत से जो रहनुमाई उसने ज़िन्दगी के हर पहलू के बारे में इनसान को दी है वह सिर्फ़ इन्तिहाई मुनासिब और इन्तिहाई पाकीज़ा ही नहीं है, बल्कि चौदह सौ साल से ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में अनगिनत इनसान अमली तौर पर उसकी पैरवी कर रहे हैं, और तजरिबे ने उसको बेहतरीन साबित किया है। क्या इस शान की इनसान की लिखी हुई कोई किताब दुनिया में मौजूद है या कभी मौजूद रही है, जिसे इस किताब के मुक़ाबले में लाया जा सकता हो? (4) यह किताब पूरी-की-पूरी एक ही वक़्त में लिखकर दुनिया के सामने पेश नहीं कर दी गई थी, बल्कि कुछ इबतिदाई हिदायतों के साथ एक इस्लाही तहरीक (सुधारवादी आन्दोलन) की शुरुआत की गई थी और उसके बाद तेईस (23) साल तक वह तहरीक जिन-जिन मरहलों से गुज़रती रही, उनके हालात और उनकी ज़रूरतों के मुताबिक़ इसके हिस्से उस तहरीक के रहनुमा की ज़बान से कभी लम्बी तक़रीरों और कभी छोटे जुमलों की शक्ल में अदा होते रहे। फिर इस मिशन के पूरे होने पर अलग-अलग वक़्तों में उतरनेवाले ये हिस्से उस पूरी किताब की शक्ल में तरतीब देकर दुनिया के सामने रख दिए गए, जिसे ‘क़ुरआन' का नाम दिया गया है। तहरीक के रहनुमा का बयान है कि ये तक़रीरें और जुमले उसके अपने गढ़े हुए नहीं हैं, बल्कि सारे जहान के रब की तरफ़ से उसपर उतरे हैं। अगर कोई शख़्स उन्हें ख़ुद उस रहनुमा की मनगढ़न्त ठहराता है तो वह दुनिया के पूरे इतिहास से कोई मिसाल ऐसी पेश करे कि किसी इनसान ने कई सालों तक लगातार एक ज़बरदस्त इजतिमाई तहरीक की अपने तौर पर रहनुमाई करते हुए कभी एक नसीहत करनेवाले और अख़लाक़ सिखानेवाले की हैसियत से, कभी एक मज़लूम जमाअत के मुखिया की हैसियत से, कभी एक हुकूमत के हाकिम की हैसियत से, कभी एक बरसरे-जंग कमाँडर (युद्धरत सेनापति) की हैसियत से, कभी एक फ़ातेह (विजेता) की हैसियत से, कभी एक शरीअत और क़ानून बतानेवाले की हैसियत से, ग़रज़ बहुत-से अलग-अलग हालात और वक़्तों में बहुत-सी अलग-अलग हैसियतों से जो अलग-अलग तक़रीरें की हों या बातें कही हों वे इकट्ठी होकर एक मुकम्मल, एक-दूसरे से जुड़ी और फ़िक्र व अमल का ऐसा निज़ाम बना दें जो अपने अन्दर बड़ी कुशादगी (व्यापकता) रखता हो। उनमें कहीं कोई आपसी टकराव न पाया जाए, उनमें शुरू से आख़िर तक एक ही मर्कज़ी ख़याल और सोच व फ़िक्र का सिलसिला काम करता नज़र आए, उसने पहले दिन से अपनी दावत की जो बुनियाद बयान की हो आख़िरी दिन तक उसी बुनियाद पर वह अक़ीदों और आमाल का एक ऐसा हमागीर (व्यापक) निज़ाम बनाता चला जाए जिसका हर हिस्सा दूसरे हिस्से से पूरी तरह मेल खाता हो, और इस मजमूए (संग्रह) को पढ़नेवाला कोई समझदार आदमी यह महसूस किए बिना न रहे कि तहरीक की शुरुआत करते वक़्त उसपर उसके शुरू करनेवाले के सामने आख़िरी मरहले तक का पूरा नक़्शा मौजूद था और ऐसा कभी नहीं हुआ कि बीच के किसी मक़ाम पर उसके ज़ेहन में कोई ऐसा ख़याल आया हो जो पहले उसपर ज़ाहिर न हुआ था या जिसे बाद में उसको बदलना पड़ा। इस शान का कोई इनसान अगर कभी गुज़रा हो जिसने अपने दिमाग़ और ज़ेहन के करामात का यह कमाल दिखाया हो तो उसकी निशानदेही की जाए। (5) जिस रहनुमा की ज़बान पर ये तक़रीरें और जुमले जारी हुए थे वह एकाएक किसी कोने से निकलकर सिर्फ़ इनको सुनाने के लिए नहीं आ जाता था और इन्हें सुनाने के बाद कहीं चला नहीं जाता था। वह इस तहरीक (आन्दोलन) की शुरुआत से पहले भी इनसानी समाज में ज़िन्दगी गुज़ार चुका था और उसके बाद भी वह ज़िन्दगी की आख़िरी घड़ी तक हर वक़्त उसी समाज में रहता था। उसकी बातचीत और तक़रीरों की ज़बान और अन्दाज़े-बयान को लोग बहुत अच्छी तरह जानते थे। हदीसों में उनका एक बड़ा हिस्सा अब भी महफ़ूज़ है, जिसे बाद के अरबी जाननेवाले लोग पढ़कर ख़ुद आसानी से देख सकते हैं कि उस रहनुमा का अपना बातचीत का ढंग क्या था। उसके अपनी ज़बान के लोग उस वक़्त भी साफ़ महसूस करते थे और आज भी अरबी ज़बान के जाननेवाले यह महसूस करते हैं कि इस किताब की ज़बान और इसका स्टाइल उस रहनुमा की ज़बान और उसके स्टाइल से बहुत अलग है, यहाँ तक कि जहाँ उसकी किसी तक़रीर के बीच में इस किताब की कोई इबारत आ जाती है वहाँ दोनों की ज़बान का फ़र्क़ बिलकुल नुमायाँ नज़र आता है। सवाल यह है कि क्या दुनिया में कोई इनसान कभी इस बात पर क़ादिर हुआ है या हो सकता है कि कई सालों तक दो बिलकुल अलग स्टाइलों में बात करने का तकल्लुफ़ (कष्ट) निभाता चला जाए और कभी यह राज़ न खुल सके कि ये दो अलग-अलग स्टाइल अस्ल में एक ही शख़्स के हैं? थोड़े दिनों तक इस तरह के बनावटीपन में कामयाब हो जाना तो मुमकिन है, लेकिन लगातार 23 साल तक ऐसा होना किसी तरह मुमकिन नहीं है कि एक शख़्स जब ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई वह्य के तौर पर बात करे तो उसकी ज़बान और स्टाइल कुछ हो और जब ख़ुद अपनी तरफ़ से बातचीत या तक़रीर करे तो उसकी ज़बान और उसका स्टाइल बिलकुल ही कुछ और हो। (6) वह रहनुमा इस तहरीक (आन्दोलन) की रहनुमाई के दौरान में अलग-अलग हालात से दोचार होता रहा। कभी सालों वह अपने हमवतनों और अपने क़बीलेवालों के मज़ाक़, तौहीन और सख़्त ज़ुल्म व सितम का निशाना बना रहा। कभी उसके साथियों पर इतनी सख़्ती की गई कि वे देश छोड़कर निकल जाने पर मजबूर हो गए। कभी दुश्मनों ने उसके क़त्ल की साजिशें कीं। कभी ख़ुद उसे अपने वतन से हिजरत करनी पड़ी। कभी उसको इन्तिहाई तंगदस्ती और भूख-प्यास से भरी ज़िन्दगी गुज़ारनी पड़ी। कभी उसे लगातार लड़ाइयों से वासिता पेश आया जिनमें हार और जीत, दोनों ही होती रहीं। कभी वह दुश्मनों पर हावी हुआ और वही दुश्मन जिन्होंने उसपर ज़ुल्म किए थे, उसके सामने सिर झुकाए नज़र आए। कभी उसे वह हुकूमत मिली जो कम ही लोगों को मिलती है। इन तमाम हालात में एक इनसान के जज़बात ज़ाहिर है एक जैसे नहीं रह सकते। उस रहनुमा ने इन अलग-अलग मौक़ों पर ख़ुद अपनी ज़ाती (निजी) हैसियत में जब कभी बात की, उसमें उन जज़बात का असर नुमायाँ नज़र आता है जो ऐसे मौक़ों पर इनसान के दिल में पैदा होते हैं। लेकिन ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई वह्य के तौर पर इन अलग-अलग हालात में जो कलाम उसकी ज़बान से सुना गया वह इनसानी जज़बात से बिलकुल ख़ाली है। किसी एक जगह पर भी कोई बड़े-से-बड़ा नक़्क़ाद (आलोचक) उंगली रखकर नहीं बता सकता कि यहाँ इनसानी जज़बात काम करते नज़र आते हैं। (7) जो वसीअ (व्यापक) और जामे (सारगर्भित) इल्म इस किताब में पाया जाता है वह उस ज़माने के अरबवालों और रूम और यूनान और ईरानवाले तो दरकिनार, इस बीसवीं सदी के बड़े जानकारों और इल्म रखनेवालों में से भी किसी के पास नहीं है। आज हालत यह है कि फ़लसफ़ा (दर्शन) और साइंस और समाजी इल्म की किसी एक शाखा के मुताले (अध्ययन) में अपनी उम्र खपा देने के बाद आदमी को पता चलता है कि इल्म के उस शोबे के आख़िरी मसले क्या हैं, और फिर जब वह गहरी निगाह से क़ुरआन को देखता है तो उसे मालूम होता है कि इस किताब में उन मसलों का एक साफ़ जवाब मौजूद है। यह मामला किसी एक इल्म तक महदूद नहीं है, बल्कि उन तमाम इल्म के मामलों में सही है जो कायनात और इनसान से कोई ताल्लुक़ रखते हैं। कैसे माना जा सकता है कि चौदह सौ साल पहले अरब के रेगिस्तान में एक उम्मी को इल्म के हर मामले में इनती गहरी जानकारी हासिल थी और उसने हर बुनियादी मसले पर ग़ौर करके उसका एक साफ़ और यक़ीनी जवाब सोच लिया था? क़ुरआन के मोजिज़े (चमत्कार) होने की अगरचे और भी कई वजहें हैं, लेकिन सिर्फ़ इन कुछ वजहों ही पर अगर आदमी ग़ौर करे तो उसे मालूम हो जाएगा कि क़ुरआन का मोजिज़ा होने का मामला जितना क़ुरआन उतरने के ज़माने में वाज़ेह (स्पष्ट) था उससे कई दरजे ज़्यादा आज वाज़ेह (स्पष्ट) है और अगर अल्लाह ने चाहा तो क़ियामत तक यह और वाज़ेह होता चला जाएगा।
أَمۡ خُلِقُواْ مِنۡ غَيۡرِ شَيۡءٍ أَمۡ هُمُ ٱلۡخَٰلِقُونَ ۝ 34
(35) क्या ये किसी पैदा करनेवाले के बिना ख़ुद पैदा हो गए हैं? या ये ख़ुद अपने पैदा करनेवाले हैं?
أَمۡ خَلَقُواْ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَۚ بَل لَّا يُوقِنُونَ ۝ 35
(36) या ज़मीन और आसमानों को इन्होंने पैदा किया है? अस्ल बात यह है कि ये यक़ीन नहीं रखते।28
28. इससे पहले जो सवालात छेड़े गए थे वे मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को यह एहसास दिलाने के लिए थे कि मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बरी के दावे को झुठलाने के लिए जो बातें वे बना रहे हैं वे कितनी ग़लत और नामुनासिब हैं। अब इस आयत में उनके सामने यह सवाल रखा गया है कि जो दावत मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं आख़िर उसमें वह बात क्या है जिसपर तुम लोग इस क़दर बिगड़ रहे हो? वे यही तो कह रहे हैं कि अल्लाह तुम्हारा पैदा करनेवाला है और उसी की तुमको बन्दगी करनी चाहिए। इसपर तुम्हारे बिगड़ने की आख़िर क्या मुनासिब वजह है? क्या तुम अपने-आप बन गए हो, किसी बनानेवाले ने तुम्हें नहीं बनाया है? या अपने बनानेवाले तुम ख़ुद हो? या यह लम्बी-चौड़ी कायनात (सृष्टि) तुम्हारी बनाई है? अगर इनमें से कोई बात भी सही नहीं है और तुम ख़ुद मानते हो कि तुम्हारा पैदा करनेवाला भी अल्लाह और इस कायनात का पैदा करनेवाला भी वही है, तो उस शख़्स पर तुम्हें ग़ुस्सा क्यों आता है जो तुमसे कहता है कि वही अल्लाह तुम्हारी बन्दगी और परस्तिश का हक़दार है? ग़ुस्से के लायक़ बात यह है या यह कि जो पैदा करनेवाले नहीं हैं उनकी बन्दगी की जाए और जो पैदा करनेवाला है उसकी बन्दगी न की जाए? तुम ज़बान से यह इक़रार तो ज़रूर करते हो कि अल्लाह ही तुम्हारा और कायनात का पैदा करनेवाला है, लेकिन अगर तुम्हें सचमुच इस बात का यक़ीन होता तो उसकी बन्दगी की तरफ़ बुलानेवाले के पीछे इस तरह हाथ धोकर न पड़ जाते। यह ऐसा ज़बरदस्त चुभता हुआ सवाल था कि इसने मुशरिकों के अक़ीदे की चूलें हिला दीं। बुख़ारी व मुस्लिम की रिवायत है कि ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०) बद्र की जंग के बाद क़ुरैश के क़ैदियों की रिहाई पर बातचीत करने के लिए मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों की तरफ़ से मदीना आए। यहाँ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मग़रिब की नमाज़ पढ़ा रहे थे और उसमें सूरा-52 तूर की तिलावत कर रहे थे। उनका अपना बयान यह है कि जब नबी (सल्ल०) इस मक़ाम पर पहुँचे तो मेरा दिल मेरे सीने से उड़ा जाता था। बाद में उनके मुसलमान होने की एक बड़ी वजह यह थी कि उस दिन ये आयतें सुनकर इस्लाम उनके दिल में जड़ पकड़ चुका था।
أَمۡ عِندَهُمۡ خَزَآئِنُ رَبِّكَ أَمۡ هُمُ ٱلۡمُصَۜيۡطِرُونَ ۝ 36
(37) क्या तेरे रब के ख़ज़ाने इनके क़ब्ज़े में हैं? या उनपर इन ही का हुक्म चलता है?29
29. यह मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों के इस एतिराज़ का जवाब है कि आख़िर मुहम्मद-बिन-अब्दुल्लाह (सल्ल०) क्यों पैग़म्बर बनाए गए। इस जवाब का मतलब यह है कि इन लोगों को अल्लाह के बजाय दूसरों की इबादत की गुमराही से निकालने के लिए बहरहाल किसी-न-किसी को तो पैग़म्बर मुक़र्रर किया जाना ही था। अब सवाल यह है कि यह फ़ैसला करना किसका काम है कि ख़ुदा अपना पैग़म्बर किसको बनाए और किसको न बनाए? अगर ये लोग ख़ुदा के बनाए हुए पैग़म्बर को मानने से इनकार करते हैं तो इसका मतलब यह है कि या तो ख़ुदा की ख़ुदाई का मालिक ये अपने-आपको समझ बैठे हैं, या फिर इनका गुमान और ख़याल यह है कि अपनी ख़ुदाई का मालिक तो ख़ुदा ही हो, मगर उसमें हुक्म इनका चले।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ أَجۡرٗا فَهُم مِّن مَّغۡرَمٖ مُّثۡقَلُونَ ۝ 37
(40) क्या तुम इनसे कोई बदला माँगते हो कि ये ज़बरदस्ती पड़ी हुई चट्टी (तावान) के बोझ तले दबे जाते हैं31
31. सवाल का अस्ल रुख़ इस्लाम के न माननेवालों की तरफ़ है। मतलब यह है कि अगर रसूल तुमसे कोई ग़रज़ रखता और अपने किसी निजी फ़ायदे के लिए यह सारी दौड़-धूप कर रहा होता तो उससे तुम्हारे भागने की कम-से-कम एक मुनासिब वजह होती। मगर तुम ख़ुद जानते हो कि वह अपनी इस दावत में बिलकुल बे-ग़रज़ है और सिर्फ़ तुम्हारी भलाई के लिए अपनी जान खपा रहा है। फिर क्या वजह है कि तुम ठण्डे दिल से उसकी बात सुनने तक के लिए राज़ी नहीं हो? इस सवाल में एक हल्का-सा तंज़ (व्यंग्य) भी है। सारी दुनिया के बनावटी पेशवा और मज़हबी आस्तानों के मुजाविरों की तरह अरब में भी मुशरिकों के पेशवा और पण्डित और पुरोहित खुला-खुला मज़हबी कारोबार चला रहे थे। इसपर यह सवाल उनके सामने रख दिया गया कि एक तरफ़ ये मज़हब के ताजिर हैं जो खुल्लम-खुल्ला तुमसे भेंटें और चढ़ावे और हर मज़हबी काम का मेहनताना वुसूल कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ एक शख़्स पूरी बे-ग़रज़ी (निस्स्वार्थ भाव) से बल्कि अपने तिजारती कारोबार को बरबाद करके तुम्हें बहुत ही मुनासिब दलीलों से दीन का सीधा रास्ता दिखाने की कोशिश कर रहा है। अब यह खुली बेअक़्ली नहीं तो और क्या है कि तुम इससे भागते और उनकी तरफ़ दौड़ते हो।
أَمۡ عِندَهُمُ ٱلۡغَيۡبُ فَهُمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 38
(41) क्या इनके पास ग़ैब की हक़ीक़तों का इल्म है कि उसकी बुनियाद पर ये लिख रहे हों?32
32. यानी रसूल तुम्हारे सामने जो हक़ीक़तें पेश कर रहा है उनको झुठलाने के लिए आख़िर तुम्हारे पास वह कौन-सा इल्म है जिसे तुम इस दावे के साथ पेश कर सको कि ज़ाहिरी परदे के पीछे छिपी हुई हक़ीक़तों को तुम सीधे तौर पर जानते हो? क्या सचमुच तुम्हें यह इल्म है कि ख़ुदा एक नहीं है, बल्कि वे सब भी ख़ुदाई सिफ़ात और इख़्तियारात रखते हैं जिन्हें तुमने माबूद (उपास्य) बना रखा है? क्या सचमुच तुमने फ़रिश्तों को देखा है कि वे लड़कियाँ हैं और, अल्लाह की पनाह! ख़ुदा के यहाँ पैदा हुई हैं? क्या वाक़ई तुम यह जानते हो कि कोई वह्य न मुहम्मद (सल्ल०) के पास आई है न ख़ुदा की तरफ़ से किसी बन्दे के पास आ सकती है? क्या सचमुच तुम्हें इस बात का इल्म है कि कोई क़ियामत नहीं आनी है और मरने के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं होगी और कोई आख़िरत की दुनिया क़ायम न होगी, जिसमें इनसान का हिसाब-किताब हो और उसे इनाम और सज़ा दी जाए? अगर इस तरह के किसी इल्म का तुम्हें दावा है तो क्या तुम यह लिखकर देने के लिए तैयार हो कि इन मामलों के बारे में रसूल के बयानों को इस बुनियाद पर झुठला रहे हो कि ग़ैब के परदे के पीछे झाँककर तुमने यह देख लिया है कि हक़ीक़त वह नहीं है जो रसूल बयान कर रहा है? इस जगह पर एक शख़्स यह शुब्हा ज़ाहिर कर सकता है कि इसके जवाब में अगर वे लोग हठधर्मी के साथ यह बात लिखकर दे देते तो क्या यह दलील बे-मतलब न हो जाती? लेकिन यह शुब्हा इसलिए ग़लत है कि हठधर्मी की बुनियाद पर वे लिख भी देते तो जिस समाज में यह चैलेंज खुलेआम पेश किया गया था उसके आम लोग अन्धे तो न थे। हर शख़्स जान लेता कि यह तहरीर सरासर हठधर्मी के साथ दी गई है और हक़ीक़त में रसूल के बयानों को झुठलाने की बुनियाद यह हरगिज़ नहीं है कि किसी को उनके हक़ीक़त के ख़िलाफ़ होने का इल्म हासिल है।
أَمۡ يُرِيدُونَ كَيۡدٗاۖ فَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ هُمُ ٱلۡمَكِيدُونَ ۝ 39
(42) क्या ये कोई चाल चलना चाहते हैं?33 (अगर यह बात है) तो कुफ़्र (हक़ का इनकार) करनेवालों पर इनकी चाल उलटी ही पड़ेगी।34
33. इशारा है उन तदबीरों की तरफ़ जो मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हराने और आप (सल्ल०) को हलाक करने के लिए आपस में बैठ-बैठकर सोचा करते थे।
34. यह क़ुरआन की साफ़ पेशीनगोइयों (भविष्यवाणियों) में से एक है। मक्की दौर के इबतिदाई ज़माने में, जब मुट्ठी-भर बेसरो-सामान मुसलमानों के सिवा बज़ाहिर कोई ताक़त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ न थी, और पूरी क़ौम आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ लड़ रही थी, इस्लाम और कुफ़्र (अधर्म) का मुक़ाबला हर देखनेवाले को इन्तिहाई नाबराबरी का मुक़ाबला नज़र आ रहा था। कोई शख़्स भी उस वक़्त यह अन्दाज़ा न कर सकता था कि कुछ साल के बाद यहाँ कुफ़्र की बिसात बिलकुल उलट जानेवाली है। बल्कि ज़ाहिरी हालत देखनेवाली निगाह तो यह देख रही थी कि क़ुरैश और सारे अरब की मुख़ालफ़त आख़िरकार इस दावत का ख़ातिमा करके छोड़ेगी। मगर इस हालत में पूरी ललकार के साथ इस्लाम-मुख़ालिफ़ों से यह साफ़-साफ़ कह दिया गया कि इस दावत को नीचा दिखाने के लिए जो तदबीरें भी तुम करना चाहो करके देख लो। वे सब उलटी तुम्हारे ही ख़िलाफ़ पड़ेंगी और तुम इसे हरा देने में हरगिज़ कामयाब न हो सकोगे।
أَمۡ لَهُمۡ إِلَٰهٌ غَيۡرُ ٱللَّهِۚ سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يُشۡرِكُونَ ۝ 40
(43) क्या अल्लाह सिवा ये कोई और माबूद रखते हैं? अल्लाह पाक है उस शिर्क से जो ये लोग कर रहे हैं।35
35. यानी अस्ल हक़ीक़त यह है कि जिनको इन्होंने इलाह (उपास्य) बना रखा है वे हक़ीक़त में इलाह नहीं हैं और शिर्क सरासर एक बेबुनियाद चीज़ है। इसलिए जो शख़्स तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत लेकर उठा है उसके साथ सच्चाई की ताक़त है और जो लोग शिर्क की हिमायत कर रहे हैं वे एक बे-हक़ीक़त चीज़ के लिए लड़ रहे हैं। इस लड़ाई में शिर्क आख़िर कैसे जीत जाएगा!?
وَإِن يَرَوۡاْ كِسۡفٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ سَاقِطٗا يَقُولُواْ سَحَابٞ مَّرۡكُومٞ ۝ 41
(44) ये लोग आसमान के टुकड़े भी गिरते हुए देख लें तो कहेंगे कि “ये बादल हैं जो उमड़े चले आ रहे हैं।"36
36. इस बात का मक़सद एक तरफ़ क़ुरैश के सरदारों की हठधर्मी को बे-नक़ाब करना और दूसरी तरफ़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों को तसल्ली देना है। नबी (सल्ल०) और सहाबा किराम (रज़ि०) के दिल में बार-बार यह ख़ाहिश पैदा होती थी कि इन लोगों को अल्लाह तआला की तरफ़ से कोई मोजिज़ा (चमत्कार) ऐसा दिखा दिया जाए जिससे इनको मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बर की सच्चाई मालूम हो जाए। इसपर फ़रमाया गया है कि ये चाहे कोई मोजिज़ा भी अपनी आँखों से देख लें, बहरहाल ये उसका मनमाना मतलब निकालकर किसी-न-किसी तरह अपने कुफ़्र (इनकार) पर जमे रहने का बहाना ढूँढ़ निकालेंगे, क्योंकि उनके दिल ईमान लाने के लिए तैयार नहीं हैं। क़ुरआन मजीद में कई दूसरी जगहों पर भी उनकी इस हठधर्मी का ज़िक्र किया गया है। मसलन सूरा-6 अनआम, आयत-111 में फ़रमाया, “अगर हम फ़रिश्ते भी इनपर उतार देते और मुर्दे इनसे बातें करते और दुनिया भर की चीज़ों को हम इनकी आँखों के सामने इकट्ठा कर देते तब भी यह माननेवाले न थे।” और सूरा-15 हिज्र, आयत-15 में फ़रमाया, “अगर हम इनपर आसमान का कोई दरवाज़ा भी खोल देते और ये दिन-दहाड़े उसमें चढ़ने भी लगते, फिर भी ये लोग यही कहते कि हमारी आँखें धोखा खा रही हैं, बल्कि हमपर जादू किया गया है।"
فَذَرۡهُمۡ حَتَّىٰ يُلَٰقُواْ يَوۡمَهُمُ ٱلَّذِي فِيهِ يُصۡعَقُونَ ۝ 42
(45) तो ऐ नबी! इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो यहाँ तक कि ये अपने उस दिन को पहुँच जाएँ जिसमें ये मार गिराए जाएँगे,
يَوۡمَ لَا يُغۡنِي عَنۡهُمۡ كَيۡدُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا هُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 43
(46) जिस दिन न इनकी अपनी कोई चाल इनके किसी काम आएगी न कोई इनकी मदद को आएगा।
وَإِنَّ لِلَّذِينَ ظَلَمُواْ عَذَابٗا دُونَ ذَٰلِكَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَهُمۡ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 44
(47) और उस वक़्त के आने से पहले भी ज़ालिमों के लिए एक अज़ाब है, मगर इनमें से अकसर जानते नहीं हैं।37
37. यह उसी बात को दोहराया गया है जो सूरा-32 सजदा, आयत-21 में गुज़र चुकी है कि “उस बड़े अज़ाब से पहले हम इसी दुनिया में किसी-न-किसी छोटे अज़ाब का मज़ा इन्हें चखाते रहेंगे, शायद कि ये अपने बग़ावतवाले रवैये से बाज़ आ जाएँ।” यानी दुनिया में वक़्त-वक़्त पर शख़्सी और क़ौमी मुसीबतें डालकर हम उन्हें यह याद दिलाते रहेंगे कि ऊपर कोई बड़ी ताक़त इनकी क़िस्मतों के फ़ैसले कर रही है और कोई उसके फ़ैसलों को बदलने की ताक़त नहीं रखता। मगर जो लोग जहालत में मुब्तला हैं उन्होंने न पहले कभी इन वाक़िआत से सबक़ लिया है, न आगे कभी लेंगे। वे दुनिया में होनेवाले हादिसों का मतलब नहीं समझते, इसलिए उनका हर वह मतलब निकालते हैं जो हक़ीक़त की समझ से इनको और ज़्यादा दूर ले जानेवाला हो, और किसी ऐसे मतलब की तरफ़ उनका ज़ेहन कभी नहीं जाता जिससे अपनी नास्तिकता या अपने शिर्क की ग़लती उनपर खुल जाए। यही बात है जो एक हदीस में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाई है— “मुनाफ़िक जब बीमार पड़ता है और फिर अच्छा हो जाता है तो उसकी मिसाल उस ऊँट की-सी होती है जिसे उसके मालिकों ने बाँधा तो उसकी समझ में न आया कि क्यों बाँधा है और जब खोल दिया तो वह कुछ न समझा कि क्यों खोल दिया है।” (हदीस : अबू-दाऊद, किताबुल-जनाइज़) (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-45; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-66; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—72, 73)
وَٱصۡبِرۡ لِحُكۡمِ رَبِّكَ فَإِنَّكَ بِأَعۡيُنِنَاۖ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ حِينَ تَقُومُ ۝ 45
(48) ऐ नबी! अपने रब का फ़ैसला आने तक सब्र करो,38 तुम हमारी निगाह में हो।39 तुम जब उठो तो अपने रब की हम्द (शुक्र) के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) करो,40
38. दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि सब्र और जमाव के साथ अपने रब के हुक्म पर अमल करने पर डटे रहो।
39. यानी हम तुम्हारी निगहबानी कर रहे हैं। तुम्हें तुम्हारे हाल पर छोड़ नहीं दिया है।
40. इस बात के कई मतलब हो सकते हैं, और नामुमकिन नहीं कि वे सब ही मुराद हों। एक मतलब यह है कि जब भी तुम किसी मजलिस से उठो तो अल्लाह की हम्द (शुक्र और तारीफ़) और तसबीह (महिमागान) करके उठो। नबी (सल्ल०) ख़ुद भी इसपर अमल करते थे, और आप (सल्ल०) ने मुसलमानों को भी यह हिदायत की थी कि किसी मजलिस से उठते वक़्त अल्लाह की हम्द और तसबीह कर लिया करें, इससे उन तमाम बातों का कफ़्फ़ारा अदा हो जाता है जो इस मजलिस में हुई हों। अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई और हाकिम ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) के ज़रिए से नबी (सल्ल०) की यह हिदायत नक़्ल की है कि जो शख़्स किसी मजलिस में बैठा हो और उसमें ख़ूब नुक्ताचीनियाँ हुई हों, वह अगर उठने से पहले ये अलफ़ाज़ कहे तो अल्लाह उन बातों को माफ़ कर देता है जो वहाँ हुई हों : 'सुब्हा-न-कल्लाहुम-म व बिहमदि-क अशहदु अल्ला-इला-ह इल्ला अन-त, अस्तग़ाफ़िरु-क व अतूबु इलैक।‘ “ऐ अल्लाह! मैं तेरी हम्द के साथ तेरी तसबीह करता हूँ, मैं गवाही देता हूँ कि तेरे सिवा कोई माबूद (उपास्य) नहीं है। मैं तुझसे मग़फ़िरत चाहता हूँ और तेरे सामने तौबा करता हूँ।” दूसरा मतलब इसका यह है कि जब तुम नींद से जागकर अपने बिस्तर से उठो तो अपने रब की तसबीह (महिमागान) के साथ उसकी हम्द करो। इसपर भी नबी (सल्ल०) ख़ुद अमल करते थे और अपने सहाबा (रह०) को आप (सल्ल०) ने यह तालीम दी थी कि नींद से जब जागें तो ये अलफ़ाज़ कहा करें: 'ला इला-ह इल्लल्लाहु वदहू ला शरी-क लहू लहुल-मुल्कु व लहुल-हम्दु व हु-व अला कुल्लि शैइन क़दीर। सुब्हानल्लाहि, वल-हम्दुलिल्लाहि, व ला इला-ह इल्लल्लाहु, वल्लाहु अकबर, व ला हौ-ल व ला क़ुव्व-त इल्ला बिल्लाह।' “अल्लाह के सिवा कोई माबूद नहीं। वह अकेला है, उसका कोई साझी नहीं। उसी का मुल्क है और उसी की तारीफ़ व शुक्र है। वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है। अल्लाह पाक (और महिमावान) है। तारीफ़ और शुक्र अल्लाह की के लिए है। कोई माबूद उसके सिवा नहीं। अल्लाह ही बड़ा है। कोई तदबीर और ताक़त नहीं, मगर अल्लाह के ज़रिए।” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी) तीसरा मतलब इसका यह है कि जब तुम नमाज़ के लिए खड़े हो तो अल्लाह की हम्द व तसबीह से इसकी शुरुआत करो। इसी हुक्म पर अमल करने के बारे में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह हिदायत की है कि नमाज़ की शुरुआत 'तकबीरे-तहरीमा' (अल्लाहु अकबर कहने) के बाद इन अलफ़ाज़ से की जाए : 'सुब्हा-नकल्लाहुम-म व बिहमदि-क व तबा-रकस्मु- क व तआला जदु-क व ला इला-ह ग़ैरुक।‘ “ऐ अल्लाह! तू पाक (और महिमावान) है। शुक्र और तारीफ़ तेरे ही लिए है। तेरा नाम बरकतवाला है। तेरी शान बुलन्द है। तेरे सिवा कोई माबूद (उपास्य) नहीं।” (हदीस : सिलसि-लतुस्सहीहा) चौथा मतलब इसका यह है कि जब तुम अल्लाह की तरफ़ दावत देने के लिए उठो तो अल्लाह की हम्द और तसबीह से इसकी शुरुआत करो। यह भी नबी (सल्ल०) का मुस्तक़िल क़ायदा था कि आप (सल्ल०) हमेशा अपने ख़ुतबों की शुरुआत हम्द और सना से किया करते थे। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिम इब्ने-जरीर (रह०) ने इसका एक और मतलब यह बयान किया है कि जब तुम दोपहर को खाने के बाद आराम करके उठो तो नमाज़ पढ़ो, और इससे मुराद ज़ुह्‌र की नमाज़ है।
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡهُ وَإِدۡبَٰرَ ٱلنُّجُومِ ۝ 46
(49) रात को भी उसकी तसबीह (महिमागान) किया करो41 और सितारे जब पलटते हैं उस वक़्त भी।42
41. इससे मुराद मग़रिब, इशा और तहज्जुद की नमाजें भी हैं और क़ुरआन की तिलावत भी, और अल्लाह का ज़िक्र भी।
42. सितारों के पलटने से मुराद रात के आख़िरी हिस्से में उनका डूब जाना और सुबह की सफ़ेदी के ज़ाहिर होने पर उनकी रौशनी का धीमा पड़ जाना है। यह फ़ज्र की नमाज़ का वक़्त है।
أَمۡ لَهُمۡ سُلَّمٞ يَسۡتَمِعُونَ فِيهِۖ فَلۡيَأۡتِ مُسۡتَمِعُهُم بِسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 47
(38) क्या इनके पास कोई सीढ़ी है जिसपर चढ़कर ये ऊपरी दुनिया की सुन-गुन लेते हैं? इनमें से जिसने सुन-गुन ली हो वह लाए कोई खुली दलील।
أَمۡ لَهُ ٱلۡبَنَٰتُ وَلَكُمُ ٱلۡبَنُونَ ۝ 48
(39) क्या अल्लाह के लिए तो हैं बेटियाँ और तुम लोगों के लिए हैं बेटे?30
30. इन छोटे-छोटे जुमलों में एक बड़ी तफ़सीली दलील को समो दिया गया है। तफ़सील इसकी यह है कि अगर तुम्हें पैग़म्बर की बात मानने से इनकार है तो तुम्हारे पास ख़ुद हक़ीक़त को जानने का आख़िर ज़रिआ क्या है? क्या तुममें से कोई शख़्स ऊपरी दुनिया में पहुँचा है और अल्लाह तआला, या उसके फ़रिश्तों से उसने सीधे तौर पर यह मालूम कर लिया है कि वे अक़ीदे बिलकुल हक़ीक़त के मुताबिक़ हैं जिनपर तुम लोग अपने दीन की बुनियाद रखे हुए हो? यह दावा अगर किसी को है तो वह सामने आए और बताए कि उसे कब और कैसे ऊपरी दुनिया तक पहुँच हासिल हुई है और क्या इल्म वह वहाँ से लेकर आया है? और अगर यह दावा तुम नहीं रखते तो फिर ख़ुद ही ग़ौर करो कि इससे ज़्यादा हँसी के लायक़ अक़ीदा और क्या हो सकता है कि तुम सारे जहान के रब अल्लाह के लिए औलाद ठहराते हो, और औलाद भी लड़कियाँ, जिन्हें तुम ख़ुद अपने लिए शर्म की बात समझते हो? इल्म के बिना इस तरह की खुली जहालतों के अंधेरे में भटक रहे हो, और ख़ुदा की तरफ़ से जो शख़्स इल्म की रौशनी तुम्हारे सामने पेश करता है उसकी जान के दुश्मन हुए जाते हो।