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سُورَةُ الفِيلِ

105. अल-फ़ील

(मक्का में उतरी—आयतें 5)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'असहाबिल-फ़ील' से लिया गया है।

उतरने का समय

इस बात पर सभी टीकाकार सहमत हैं कि यह सूरा मक्की है और इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को अगर दृष्टि में रखकर देखा जाए तो महसूस होता है कि यह मक्का के आरंभिक काल में उतरी होगी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इससे पहले टीका सूरा-85 अल-बुरूज, टिप्पणी-4 में हम बयान कर चुके हैं कि नजरान में यमन के यहूदी शासक ज़ू-नुवास ने हज़रत ईसा के माननेवालों पर जो अत्याचार किया था उसका बदला लेने के लिए हबश के ईसाई राज्य ने यमन पर हमला करके हिमयरी शासन का अन्त कर दिया था और 525 ई० में उस पूरे क्षेत्र पर हबशी शासन स्थापित हो गया था। यह सारी कार्रवाई वास्तव में क़ुस्तनतीनिया के रोमी साम्राज्य और हबश की सत्ता की परस्पर सहायता से हुई थी। यह सब कुछ सिर्फ़ धार्मिक भावना से नहीं हुआ था, बल्कि इसके पीछे आर्थिक और राजनैतिक स्वार्थ भी काम कर रहे थे, बल्कि शायद वही इसका मूल प्रेरक थे और ईसाई उत्पीड़ितों के ख़ून का बदला एक बहाने से अधिक कुछ न था। रोमी साम्राज्य ने जब से मिस्र एवं शाम (सीरिया) पर क़ब्ज़ा किया था, उसी वक़्त से उसका यह प्रयत्न था कि पूर्वी अफ़्रीक़ा, भारत, इंडोनेशिया आदि देशों और रोमी अधिकृत क्षेत्रों के बीच जिस व्यापार पर अरब सदियों से क़ब्जा किए चले आ रहे थे, उसे अरबों के क़ब्ज़े से निकालकर वे स्वयं अपने क़ब्ज़े में ले लें। इस उद्देश्य के लिए सन् 24 या 25 ई०पू० में क़ैसर आगस्टस ने एक बड़ी सेना रोमी जनरल ऐलियस गालोस (Aelius Gallus) के नेतृत्व में अरब के पश्चिमी तट पर उतार दी थी, ताकि वे उस समुद्री रास्ते पर क़ब्ज़ा कर लें जो दक्षिणी अरब से शाम की ओर जाता था। लेकिन अरब की कठोर भौगोलिक परिस्थितियों ने इस अभियान को असफल कर दिया। इसके बाद रोमी अपना सामरिक बेड़ा लाल सागर में ले आए और उन्होंने अरबों के उस व्यापार को समाप्त कर दिया जो वे समुद्र के रास्ते करते थे, और केवल थलमार्ग उनके लिए बाक़ी रह गया। इसी थलमार्ग को क़ब्ज़े में लेने के लिए उन्होंने हबश के ईसाई शासन से गठजोड़ किया और समुद्री बेड़े से उसकी सहायता करके उसको यमन पर क़ब्ज़ा दिला दिया [जहाँ हबश के बादशाह की ओर से अबरहा नामक एक आदमी वायसराय (उत्तराधिकारी) नियुक्त हुआ।] यमन में पूरी तरह अपना प्रभुत्व जमा लेने के बाद अबरहा ने उस उद्देश्य के लिए काम शुरू कर दिया जो इस अभियान के आरंभ से रोमी साम्राज्य और उसके मित्र हबशी ईसाइयों के सामने था। अबरहा ने इस उद्देश्य के लिए यमन की राजधानी सनआ में एक भव्य गिरजाघर बनवाया जिसका उल्लेख अरब इतिहासकारों ने अल-क़लीस या अल-क़ुलैस या अल-क़ुलय्यस के नाम से किया है। (यह यूनानी शब्द Ekklesia का अरबी रूप है और उर्दू का शब्द कलीसा यानी चर्च भी इसी यूनानी शब्द से लिया गया है।) मुहम्मद-बिन-इसहाक़ की रिवायत है कि इस काम को पूरा करने के बाद उसने हबश के बादशाह को लिखा कि मैं अरबों का हज काबा से इस कलीसा की ओर मोड़े बिना न रहूँगा। इब्ने-कसीर ने लिखा है कि उसने यमन में खुल्लम-खुल्ला अपने इस इरादे को ज़ाहिर किया और इसकी घोषणा करा दी। उसकी इस हरकत का उद्देश्य हमारे निकट यह था कि अरबों को ग़ुस्सा दिलाए, ताकि वे कोई ऐसी कार्रवाई करें जिससे उसको मक्का पर हमला करने और काबा को ढा देने का बहाना मिल जाए।

मुहम्मद-बिन-इस्हाक़ का बयान है कि उसके इस एलान से क्रुद्ध होकर एक अरब ने किसी तरह चर्च में घुसकर उसमें पाख़ाना-पेशाब कर दिया और मुक़ातिल-बिन-सुलैमान की रिवायत है कि क़ुरैश के कुछ नौजवानों ने जाकर उस कलीसा में आग लगा दी थी। इनमें से कोई घटना भी अगर घटी हो तो आश्चर्य की कोई बात नहीं है, लेकिन यह भी कुछ असंभव नहीं है कि अबरहा ने स्वयं अपने किसी आदमी के द्वारा गुप्त रूप से ऐसी कोई ग़लत हरकत कराई हो, ताकि उसे मक्का पर चढ़ाई करने का बहाना मिल जाए और इस तरह वह क़ुरैश को नष्ट और तमाम अरबों को भयभीत करके अपने दोनों उद्देश्य प्राप्त कर ले। बहरहाल दोनों स्थितियों में से जो स्थिति भी हो, जब अबरहा के पास यह रिपोर्ट पहुँची कि काबा में आस्था रखनेवालों ने उसके चर्च का यह अपमान किया है तो उसने क़सम खाई कि मैं उस समय तक चैन न लूँगा जब तक काबा को ढा न दूँ। इसके बाद वह 570 ई० या 571 ई० में 60 हज़ार सेना और 13 हाथी और (कुछ रिवायतों के अनुसार 9 हाथी) लेकर मक्का की ओर रवाना हुआ। रास्ते में पहले यमन के एक सरदार ज़ू-नफ़र ने अरबों की एक सेना जमा करके उसमें बाधा पैदा की, मगर वह हार कर गिरफ़्तार हो गया। फिर ख़सअम के क्षेत्र में अरब के एक सरदार नुफ़ैल-बिन-हबीब ख़सअमी अपने क़बीले को लेकर मुक़ाबले पर आया, मगर वह भी हार कर गिरफ़्तार कर लिया गया और उसने अपनी जान बचाने के बदले दुश्मन का मार्गदर्शन करना स्वीकार कर लिया। ताइफ़ के क़रीब पहुँचा तो बनी-सक़ीफ़ ने भी [अपने भीतर मुक़ाबले की शक्ति न पाकर उससे] कहा कि हम मक्का का रास्ता बताने के लिए मार्गदर्शन का प्रबंध कर देते हैं। अबरहा ने यह बात मान ली और बनी-सक़ीफ़ ने अब रिग़ाल नामक एक आदमी को उसके साथ कर दिया। जब मक्का तीन कोस रह गया तो अल-मुग़म्मस [या अल मुग़म्मिस] नामक जगह पर पहुँचकर अबू-रिग़ाल मर गया और अरब मुद्दतों तक उसकी क़ब्र पर पत्थर बरसाते रहे।

मुहम्मद-बिन-इस्हाक़ की रिवायत है कि अल-मुग़म्मिस से अबरहा ने अपनी सेना की अगली टुकड़ी को आगे बढ़ाया और वह अहले-तिहामा और क़ुरैश के बहुत-से मवेशी लूट ले गया जिनमें अल्लाह के रसूल (सल्ल॰) के दादा अब्दुल-मुत्तलिब के भी दो सौ ऊँट थे। इसके बाद उसने अपने एक दूत को मक्का भेजा और उसके ज़रिए से मक्कावालों के लिए यह संदेश दिया कि मैं तुमसे लड़ने नहीं आया हूँ, बल्कि इस घर (काबा) को ढाने आया हूँ। अगर तुम न लड़ो तो मैं तुम्हारी जान और माल से कुछ छेड़-छाड़ न करूँगा। साथ ही उसने अपने दूत को आदेश दिया कि अगर मक्कावाले बात करना चाहें तो उनके सरदार को मेरे पास ले आना। मक्का के सबसे बड़े सरदार उस समय अब्दुल-मुत्तलिब थे। दूत ने उनसे मिलकर अबरहा का संदेश पहुँचाया। उन्होंने कहा कि हममें अबरहा से लड़ने की ताक़त नहीं है। यह अल्लाह का घर है, वह चाहेगा तो अपने घर को बचा लेगा। दूत ने कहा कि आप मेरे साथ अबरहा के पास चलें। वे इस पर तैयार हो गए और उसके साथ चले गए। वे इस क़द्र दबदबेवाले और रौबदार आदमी थे कि उनको देखकर अबरहा अत्यन्त प्रभावित हुआ और अपने सिंहासन पर से उतरकर उनके पास आकर बैठ गया। फिर पूछा कि आप क्या चाहते हैं? उन्होंने कहा कि मेरे जो ऊँट पकड़ लिए गए हैं, वे मुझे वापस दे दिए जाएँ। अबरहा ने कहा कि आपको देखकर तो मैं अति प्रभावित हुआ था, पर आपकी इस बात ने आपको मेरी नज़र से गिरा दिया कि आप अपने ऊँटों की माँग कर रहे हैं और यह घर जो आपके और आपके बाप-दादा के दीन (धर्म) का केन्द्र है, इसके बारे में कुछ नहीं कहते। उन्होंने कहा, मैं तो केवल अपने ऊँटों का मालिक हूँ और उन्हीं के बारे में आपसे निवेदन कर रहा हूँ। रहा यह घर, तो इसका एक रब है, वह इसकी रक्षा स्वयं करेगा। अबरहा ने उत्तर दिया, वह इसको मुझसे न बचा सकेगा। अब्दुल-मुत्तलिब ने कहा, आप जानें और वह जाने। यह कहकर वह अबरहा के पास से उठ आए और उसने उनके ऊँट वापस कर दिए।

इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत इससे अलग है। उसमें ऊँटों की माँग का कोई उल्लेख नहीं है। [ इस रिवायत के अनुसार] अब्दुल-मुत्तलिव स्वयं उसके पास गए और उससे कहा, आपको यहाँ तक आने की ज़रूरत क्या थी? आपको अगर कोई चीज़ चाहिए थी तो हमें कहला भेजते, हम स्वयं लेकर आपके पास हाज़िर हो जाते। उसने कहा कि मैंने सुना है कि यह घर अम्न (शान्ति) का घर है, मैं इसका अम्न ख़त्म करने आया हूँ। अब्दुल-मुत्तलिब ने कहा, यह अल्लाह का घर है, आज तक उसने किसी को इस पर प्रभावी नहीं होने दिया। अबरहा ने उत्तर दिया, हम इसे ढाए बिना न पलटेंगे। अब्दुल-मुत्तलिब ने कहा, आप जो कुछ चाहें हमसे ले लें और वापस चले जाएँ। मगर अबरहा ने इंकार कर दिया और अब्दुल-मुत्तलिब को पीछे छोड़कर अपनी सेना को आगे बढ़ने का आदेश दिया।

दोनों रिवायतों के इस मतभेद को अगर हम अपनी जगह रहने दें और किसी को किसी पर प्राथमिकता न दें, तो इनमें से जो स्थिति भी पैदा हुई हो, बहरहाल यह बात बिल्कुल स्पष्ट है कि मक्का और उसके आस-पास के क़बीले इतनी बड़ी सेना से लड़कर काबा को बचाने की शक्ति न रखते थे, इसलिए यह बिल्कुल समझ में आनेवाली बात है कि क़ुरैश ने उससे मुक़ाबला करने की कोई कोशिश न की। क़ुरैश के लोग तो अहज़ाब के मौक़े पर मुशरिक और यहूदी क़बीलों को साथ मिलाकर अधिक से अधिक दस-बारह हज़ार की सेना जुटा सकते थे, वे साठ हज़ार की सेना का कैसे मुक़ाबला कर सकते थे।

मुहम्मद-बिन-इस्हाक़ बयान करते हैं कि अबरहा की सेना के पड़ाव से वापस आकर अब्दुल-मुत्तलिब ने क़ुरैशवालों से कहा कि अपने बाल-बच्चों को लेकर पहाड़ों में चले जाएँ, ताकि उनका क़त्ले आम न हो। फिर वह और क़ुरैश के कुछ सरदार हरम में हाज़िर हुए और काबा के दरवाज़े का कुंडा पकड़कर उन्होंने अल्लाह से दुआएँ माँगी कि वह अपने घर और उसके सेवकों की रक्षा करे। उस वक्त ख़ाना-ए-काबा में 360 बुत मौजूद थे, मगर ये लोग उस नाज़ुक घड़ी में उन सबको भूल गए और उन्होंने सिर्फ़ अल्लाह के आगे मदद के लिए हाथ फैलाया। उनकी जो प्रार्थनाएँ इतिहास में नक़ल की गई हैं, उनमें एक अल्लाह के सिवा किसी दूसरे का नाम तक नहीं पाया जाता। इब्ने-हिशाम ने 'सीरत' में अब्दुल-मुत्तलिब की बहुत सी दुआएँ नक़्ल की हैं। दुआएँ माँगकर अब्दुल-मुत्तलिब और उनके साथी भी पहाड़ों में चले गए और दूसरे दिन अबरहा मक्का में दाखिल होने के लिए आगे बढ़ा, मगर उसका विशेष हाथी 'महमूद', जो आगे-आगे था, यकायक बैठ गया। उसको बहुत फरसे मारे गए, अंकुश लगाए गए, यहाँ तक कि उसे घायल कर दिया गया, मगर वह न हिला। उसे दक्षिण, उत्तर, पूरब की ओर मोड़कर चलाने की कोशिश की जाती तो वह दौड़ने लगता, मगर मक्का की ओर मोड़ा जाता तो वह तुरन्त बैठ जाता और किसी तरह आगे बढ़ने के लिए तैयार न होता। इतने में परिंदों के झुंड-के-झुंड अपनी चोंचों और पंजों में कंकड़ियाँ लिए हुए आए और उन्होंने इस सेना पर उन कंकड़ियों की वर्षा कर दी। जिसपर भी ये कंकड़ गिरते, उसका शरीर गलना शुरू हो जाता।

मुहम्मद-बिन-इस्हाक़ और इकरिमा की रिवायत है कि यह चेचक का रोग था। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि जिसपर कोई कंकड़ी गिरती, उसे ज़ोरदार खुजली हो जाती और खुजाते ही खाल फटती और गोश्त झड़ना शुरू हो जाता। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की दूसरी रिवायत है कि गोश्त और खून पानी की तरह बहने लगता और हड्डियाँ निकल आती थीं। स्वयं अबरहा के साथ भी यही हुआ। उसका शरीर टुकड़े-टुकड़े होकर गिर रहा था और जहाँ से कोई टुकड़ा गिरता, वहाँ से पीप (पीव) और लहू बहने लगता। अफ़रा-तफ़री में इन लोगों ने यमन की तरफ़ भागना शुरू किया। नुफ़ैल-बिन-हबीब ख़स्अमी को, जिसे ये लोग मार्गदर्शक बनाकर ख़स्अम शहर से पकड़ लाए थे, खोज करके उन्होंने कहा कि वापसी का रास्ता बताए, मगर उसने साफ़ इंकार कर दिया और कहा- 'अब भागने की जगह कहाँ है, जबकि अल्लाह पीछा कर रहा है और नकटा (अबरहा) परास्त है, विजयी नहीं है।'

इस भगदड़ में जगह-जगह ये लोग गिर-गिरकर मरते रहे। अता-बिन-यसार की रिवायत है कि सबके सब उसी वक़्त हलाक नहीं हो गए, बल्कि कुछ तो वहीं हलाक हुए और कुछ भागते हुए रास्ते भर गिरते चले गए। अबरहा भी ख़स्अम पहुँचकर मरा, यह घटना मुज़दलिफ़ा और मिना के दर्मियान मुहस्सब घाटी के क़रीब मुहस्सिर नामक जगह पर घटित हुई थी। यह इतनी बड़ी घटना थी जो कि पूरे अरब में प्रसिद्ध हो गई और इसपर बहुत से कवियों ने काव्य लिखे। इन काव्यों में यह बात अति स्पष्ट है कि सबने इसे अल्लाह की शक्ति का चमत्कार बताया और कहीं सांकेतिक रूप में भी यह नहीं कहा कि इसमें उन बुतों का भी कुछ हाथ था जो काबा में पूजे जाते थे। यही नहीं, बल्कि हज़रत उम्मे-हानी और हज़रत ज़ुबैर-बिन-अव्वाम की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, क़ुरैश ने दस साल (और कुछ रिवायतों के अनुसार सात साल तक एक अल्लाह) के सिवा किसी की इबादत नहीं की। जिस साल यह घटना घटी, अरबवाले उसे 'आमुल-फ़ील' (हाथियों का साल) कहते हैं और उसी साल प्यारे नबी (सल्ल०) पैदा हुए। हदीस के ज्ञाता और इतिहासकार लगभग इस बात पर सहमत हैं कि अस्हाबुल-फ़ील की घटना मुहर्रम के महीने में घटी थी और नबी (सल्ल०) की पैदाइश रबीउल-अव्वल के महीने में हुई। ज़्यादातर लोगों का कहना है कि आपका जन्म अस्हाबुल-फ़ील (हाथीवालों) की घटना के पचास दिन बाद हुआ।

वार्ता का उद्देश्य

जो ऐतिहासिक विवरण ऊपर दिए गए हैं उनको दृष्टि में रखकर सूरा फ़ील पर विचार किया जाए तो यह बात अच्छी तरह समझ में आ जाती है कि इस सूरा में इतने संक्षिप्त शब्दों में सिर्फ़ हाथीवालों पर अल्लाह के अज़ाब का उल्लेख कर देने को क्यों पर्याप्त समझा गया है। घटना कुछ पुरानी न थी। मक्का का बच्चा-बच्चा उसको जानता था। अरब के लोग सामान्य रूप से उसे जानते थे। तमाम अरब इस बात के क़ायल थे कि इस हमले से काबा की रक्षा किसी देवी या देवता ने नहीं, बल्कि अल्लाह ने की थी। अल्लाह ही से क़ुरैश के सरदारों ने सहायता के लिए दुआएँ माँगी थीं और कुछ साल तक क़ुरैश के लोग इस घटना से इतने प्रभावित रहे थे कि उन्होंने अल्लाह के सिवा किसी और की इबादत न की थी। इसलिए सूरा फ़ील में इन विस्तृत तथ्यों के उल्लेख की कोई ज़रूरत न थी, बल्कि इस घटना को केवल याद दिलाना पर्याप्त था, ताकि क़ुरैश के लोग मुख्य रूप से और अरब के लोग सामान्य रूप से अपने दिलों में इस बात पर विचार करें कि मुहम्मद (सल्ल०) जिस चीज़ की ओर बुला रहे हैं, वह आख़िर इसके सिवा और क्या है कि तमाम उपास्यों को छोड़कर सिर्फ़ एक अल्लाह की इबादत की जाए। साथ ही वे यह भी सोच लें कि अगर इस सत्य के आह्वान को दबाने के लिए उन्होंने ज़ोर-ज़बरदस्ती से काम लिया तो जिस अल्लाह ने हाथीवालों को नष्ट-विनष्ट किया था, उसी के ग़ज़ब में वे भी गिरफ़्तार होंगे।

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سُورَةُ الفِيلِ
105. अल-फ़ील
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
أَلَمۡ تَرَ كَيۡفَ فَعَلَ رَبُّكَ بِأَصۡحَٰبِ ٱلۡفِيلِ
(1) तुमने देखा नहीं1 कि तुम्हारे रब ने हाथीवालों के साथ क्या किया?2
1. बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही जा रही है, मगर अस्ल में बात न सिर्फ़ क़ुरैश को, बल्कि अरब के आम लोगों को सुनाई जा रही है जो इस सारे क़िस्से से अच्छी तरह वाक़िफ़ थे। क़ुरआन मजीद में बहुत-सी जगहों पर ‘अलम त-र’ (क्या तुमने नहीं देखा) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं और उनका मक़सद नबी (सल्ल०) को नहीं, बल्कि आम लोगों को सुनाना है (मिसाल के तौर पर नीचे लिखी आयतें देखिए, सूरा-14 इबराहीम, आयत-19; सूरा-22 हज, आयत-18; सूरा-24 नूर, आयत-43; सूरा-31 लुक़मान, आयतें—29 से 31; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-27; सूरा-39 ज़ुमर, आयत-21)। फिर देखने का लफ़्ज़ इस जगह पर इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि मक्का और उसके आस-पास और अरब के एक बड़े इलाक़े में मक्का से यमन तक ऐसे बहुत-से लोग उस वक़्त ज़िन्दा मौजूद थे जिन्होंने अपनी आँखों से हाथीवालों की तबाही का वाक़िआ देखा था, क्योंकि इस वाक़िए को गुज़रे हुए चालीस पैंतालीस साल से ज़्यादा ज़माना नहीं हुआ था, और सारा अरब ही उसकी ऐसी लगातार ख़बरें देखनेवालों से सुन चुका था कि यह वाक़िआ लोगों के लिए आँखों देखे वाक़िए की तरह यक़ीनी था।
2. यहाँ अल्लाह तआला ने कोई तफ़सील इस बात की बयान नहीं की कि ये हाथीवाले कौन थे, कहाँ से आए थे और किस ग़रज़ के लिए आए थे। क्योंकि ये बातें सबको मालूम थीं।
أَلَمۡ يَجۡعَلۡ كَيۡدَهُمۡ فِي تَضۡلِيلٖ ۝ 1
(2) क्या उसने उनकी तदबीर3 को अकारथ नहीं कर दिया?4
3. अस्ल में लफ़्ज़ ‘कैद’ इस्तेमाल किया गया है, जो किसी शख़्स को नुक़सान पहुँचाने के लिए छिपी हुई तदबीर के मानी में बोला जाता है। सवाल यह है कि यहाँ छिपी हुई क्या चीज़ थी? साठ हज़ार का लश्कर कई हाथी लिए हुए खुल्लम-खुल्ला यमन से मक्का आया था, और उसने यह बात छिपाकर नहीं रखी थी कि वह काबा को ढाने आया है। इसलिए यह तदबीर तो छिपी हुई न थी। अलबत्ता जो बात छिपी हुई थी वह हब्शियों का यह मक़सद था कि वे काबा को ढाकर, क़ुरैश को कुचलकर, और तमाम अरबवालों को अपने डराकर तिजारत का वह रास्ता अरबों से छीन लेना चाहते थे जो दक्षिणी अरब से शाम (सीरिया) और मिस्र की तरफ़ जाता था। इस मक़सद को उन्होंने छिपा रखा था और ज़ाहिर यह किया था कि उनके कलीसा की जो बेइज़्ज़ती अरबों ने की है उसका बदला वे उनकी इबादतगाह ढाकर लेना चाहते हैं।
4. अस्ल अलफ़ाज़ हैं ‘फ़ी तज़्लील’। यानी उनकी तदबीर को उसने “गुमराही में डाल दिया।” लेकिन मुहावरे में किसी तदबीर को गुमराह करने का मतलब उसे बरबाद कर देना और उसे अपना मक़सद हासिल करने में नाकाम कर देना है, जैसे हम उर्दू (या हिन्दी) ज़बान में कहते हैं कि फ़ुलाँ शख़्स का दाँव चल न सका, या उसका कोई तीर निशाने पर न बैठा। क़ुरआन मजीद में एक जगह फ़रमाया गया है— “मगर काफ़िरों की चाल अकारथ ही गई।” (सूरा-40 मोमिन, आयत-25)। और दूसरी जगह कहा गया— “और यह कि अल्लाह धोखा देनेवालों की चाल को कामयाबी की राह पर नहीं लगाता।” (सूरा-12 यूसुफ़, आयत-52)। अरबवाले अम्रउल-क़ैस को ‘अल-मलिकुज़-ज़लील’ यानी “बरबाद करनेवाला बादशाह” कहते थे, क्योंकि उसने अपने बाप से पाई हुई बादशाही को खो दिया था।
وَأَرۡسَلَ عَلَيۡهِمۡ طَيۡرًا أَبَابِيلَ ۝ 2
(3) और उनपर परिन्दों के झुण्ड के झुण्ड भेज दिए5
5. अस्ल में ‘तैरन अबाबील’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। उर्दू ज़बान में चूँकि अबाबील एक ख़ास तरह के परिन्दे को कहते हैं इसलिए हमारे यहाँ लोग आम तौर पर यह समझते हैं कि अबरहा की फ़ौज पर अबाबीलें भेजी गई थीं। लेकिन अरबी ज़बान में ‘अबाबील’ का मतलब है बहुत-से अलग-अलग गिरोह जो लगातार अलग-अलग दिशाओं से आएँ, चाहे वे आदमियों के हों या जानवरों के। इक्रिमा और क़तादा कहते हैं कि ये झुण्ड के झुण्ड परिन्दे लाल सागर की तरफ़ से आए थे। सईद-बिन-जुबैर और इकरिमा कहते हैं कि इस तरह के परिन्दे न पहले कभी देखे गए थे न बाद में देखे गए। ये न नज्द के परिन्दे थे, न हिजाज़ के, और न तिहामा यानी हिजाज़ और लाल सागर के बीच समुद्र तट के इलाक़े से। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि इनकी चोंचें परिन्दों जैसी थीं और पंजे कुत्ते जैसे। इकरिमा का बयान है कि उनके सिर शिकारी परिन्दों के सिरों जैसे थे। और लगभग सब रिवायत करनेवाले इस बात पर एकराय हैं कि हर परिन्दे की चोंच में एक-एक कंकड़ था और पंजों में दो-दो कंकड़। मक्का के कुछ लोगों के पास ये कंकड़ एक मुद्दत तक महफ़ूज़ रहे। चुनाँचे अबू-नुऐम ने नौफ़ल बिन-अबी-मुआविया का बयान नक़्ल किया है कि मैंने वे कंकड़ देखे हैं जो हाथीवालों पर फेंके गए थे। वे मटर के दाने के बराबर कालापन लिए हुए लाल रंग के थे। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत अबू-नुऐम ने यह नक़्ल की है कि वे चिलग़ोज़े के बराबर थे और इब्ने-मरदुवैह की रिवायत में है कि बकरी की मेंगनी के बराबर। ज़ाहिर है कि सारे कंकड़ एक ही जैसे न होंगे। उनमें कुछ न कुछ फ़र्क़ ज़रूर होगा।
تَرۡمِيهِم بِحِجَارَةٖ مِّن سِجِّيلٖ ۝ 3
(4) जो उनपर पक्की हुई मिट्टी के पत्थर फेंक रहे थे,6
6. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘बिहिजा-र-तिम-मिन्‌सिज्जील’, यानी “सिज्जील की क़िस्म के पत्थर”। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि यह लफ़्ज़ अस्ल में फ़ारसी के अलफ़ाज़ ‘संग’ (पत्थर) और ‘गिल’ (मिट्टी) की अरबी शक्ल है और इससे मुराद वह पत्थर है जो मिट्टी के गारे से बना हो और पककर सख़्त हो गया हो। क़ुरआन मजीद से भी यह बात सही साबित होती है। सूरा-11 हूद, आयत-82 और सूरा-15 हिज्र, आयत-74 में कहा गया है कि लूत (अलैहि०) की क़ौम पर सिज्जील की तरह के पत्थर बरसाए गए थे, और उन्हीं पत्थरों के बारे में सूरा-51 ज़ारियात, आयत-33 में फ़रमाया गया है कि वे ‘हिजा-र-तिम-मिन् तीन’ यानी मिट्टी के गारे से बने हुए पत्थर थे। मौलाना हमीदुद्दीन फ़राही (रह०), जिन्होंने इस ज़माने में क़ुरआन मजीद की आयतों के मानी और मतलबों की तहक़ीक़ (खोज) पर बड़ा क़ीमती काम किया है, इस आयत में ‘तरमीहिम’ का कर्ता यानी पत्थर फेंकनेवाले मक्कावालों और दूसरे अरबवालों को ठहराते हैं जिनसे कहा गया है ‘अलम त-र’ (क्या तुमने नहीं देखा), और परिन्दों के बारे में फ़रमाते हैं कि वे कंकड़ नहीं फेंक रहे थे बल्कि इसलिए आए थे कि असहाबुल-फ़ील (हाथीवालों) की लाशों को खाएँ। इस मतलब के लिए जो दलीलें उन्होंने दी हैं उनका सार यह है कि अब्दुल-मुत्तलिब का अबरहा के पास जाकर काबा के बजाय अपने ऊँटों की माँग करना किसी तरह मानने लायक़ बात नहीं है, और यह बात भी समझ में आनेवाली नहीं है कि क़ुरैश के लोगों और दूसरे अरबों ने, जो हज्ज के लिए आए हुए थे, हमला करनेवाली फ़ौज का कोई मुक़ाबला न किया हो और काबा को उसके रहमो-करम पर छोड़कर वे पहाड़ों में जा छिपे हों। इसलिए हक़ीक़ी सूरतहाल अस्ल में यह है कि अरबों ने अबरहा के लश्कर को पत्थर मारे, और अल्लाह तआला ने पथराव करनेवाली तूफ़ानी हवा भेजकर उस लश्कर का भुरकुस निकाल दिया, फिर परिन्दे उन लोगों की लाशें खाने के लिए भेजे गए। लेकिन जैसा कि हम परिचय में बयान कर चुके हैं, रिवायत सिर्फ़ यही नहीं है कि अब्दुल-मुत्तलिब अपने ऊँटों की माँग करने गए थे, बल्कि यह भी है कि उन्होंने ऊँटों की कोई माँग नहीं की थी और अबरहा को काबा पर हमला करने से रोकने की कोशिश की थी। हम यह भी बता चुके हैं कि तमाम भरोसेमन्द रिवायतों के मुताबिक़ अबरहा का लश्कर मुहर्रम में आया था जबकि हुज्जाज वापस जा चुके थे। और यह भी हमने बता दिया है कि 60 हज़ार के लश्कर का मुक़ाबला करना क़ुरैश और आस-पास के अरब क़बीलों के बस का काम न था, वे तो अहज़ाब की जंग के मौक़े पर बड़ी तैयारियों के बाद अरब के मुशरिकों और यहूदी क़बीलों की जो फ़ौज लाए थे वह दस बारह हज़ार से ज़्यादा न थी, फिर भला वे 60 हज़ार फ़ौज का मुक़ाबला करने की हिम्मत कैसे कर सकते थे। फिर भी अगर इन सारी दलीलों को नज़र अन्दाज़ भी कर दिया जाए और सिर्फ़ सूरा फ़ील की तरतीबे-कलाम (वार्ताक्रम) को देखा जाए तो यह मतलब उसके ख़िलाफ़ जाता है। अगर बात यही होती कि पत्थर अरबों ने मारे, और हाथियोंवाले भुस बनकर रह गए, और उसके बाद परिन्दे उनकी लाशें खाने को आए, तो बात की तरतीब (क्रम) यूँ होती कि ‘तर्मीहिम बिहिजा-र-तिम-मिन् सिज्जीलिन फ़-ज-अ-लहुम कअस्फ़िम-मअकूलिंव-व अर-स-ल अलैहिम तैरन अबाबील’ (तुम उनको पक्की हुई मिट्टी के पत्थर मार रहे थे, फिर अल्लाह ने उनको खाए हुए भुस जैसा कर दिया, और अल्लाह ने उनपर झुण्ड के झुण्ड परिन्दे भेज दिए)। लेकिन यहाँ हम देखते हैं कि पहले अल्लाह तआला ने परिन्दों के झुण्ड भेजने का ज़िक्र किया है, फिर उसके फ़ौरन बाद ‘तर्मीहिम बिहिजा-र-तिम-मिन् सिज्जील’ (जो उनपर पक्की हुई मिट्टी के पत्थर मार रहे थे) फ़रमाया है, और आख़िर में कहा है कि फिर अल्लाह ने उनको खाए हुए भुस जैसा कर दिया।
فَجَعَلَهُمۡ كَعَصۡفٖ مَّأۡكُولِۭ ۝ 4
(5) फिर उनका यह हाल कर दिया जैसे जानवरों का खाया हुआ भूसा।7
7. अस्ल अलफ़ज़ हैं ‘कअस्फ़िम-मअकूल’। ‘अस्फ़’ का लफ़्ज़ सूरा रहमान, आयत 12 में आया है: ‘ज़ुल-अस्फ़ि वर-रैहान’ (और अनाज भूसे और दानेवाला)। इससे मालूम हुआ कि अस्फ़ का मतलब वह छिलका है जो अनाज के दानों पर होता है और जिसे किसान दाने निकालकर फेंक देते हैं, फिर जानवर उसे खाते भी हैं, और कुछ उनके चबाने के दौरान में गिरता भी जाता है, और कुछ उनके पाँवों तले रौंदा भी जाता है।