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سُورَةُ يسٓ

36. या-सीन

(मक्का में उतरी, आयतें 83)

 

परिचय

नाम

शुरू ही के दोनों अक्षरों को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

वर्णन-शैली पर विचार करने से महसूस होता है कि इस सूरा के उतरने का समय या तो मक्का के मध्यकाल का अंतिम समय है, या फिर यह [नबी (सल्ल.) के] मक्का निवासकाल के अन्तिम समय की सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

वार्ता का उद्देश्य क़ुरैश के इस्लाम-विरोधियों को मुहम्मद (सल्ल०) की नुबूवत पर ईमान न लाने और अत्याचार और उपहास से उसका मुक़ाबला करने के अंजाम से डराना है। इसमें डरावे का पहलू बढ़ा हुआ और स्पष्ट है, किन्तु बार-बार डराने के साथ दलीलों से समझाया भी गया है। दलीलें तीन बातों की दी गई हैं-

तौहीद (एकेश्वरवाद) पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों और सामान्य बुद्धि से, आख़िरत पर जगत् में पाई जानेवाली निशानियों, सामान्य बुद्धि और स्वयं इंसान के अपने अस्तित्व से, और मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी की सत्यता पर इस बात से कि आप संदेश पहुँचाने में यह सारी मशक्कत केवल नि:स्वार्थ भाव से सहन कर रहे थे, और इस बात से कि जिन बातों की ओर आप लोगों को बुला रहे थे, वे सर्वथा उचित थीं। इन दलीलों के बल पर डाँट-फटकार, निन्दा और चेतावनी की वार्ताएँ बड़े ज़ोरदार तरीक़े से बार-बार प्रस्तुत हुई हैं, ताकि दिलों के ताले टूटें और जिनके भीतर सत्य स्वीकार करने की थोड़ी-सी क्षमता भी हो, वे प्रभावित हुए बिना न रह सकें। इमाम अहमद, अबू-दाऊद, नसाई, इब्ने-माजा और तबरानी (रह०) आदि ने माक़िल-बिन-यसार (रजि०) से रिवायत किया है कि नबी (सल्ल.) ने फ़रमाया है कि यह सूरा क़ुरआन का दिल है। यह उसी तरह की मिसाल है जिस तरह सूरा फ़ातिहा को 'उम्मुल-क़ुरआन' फ़रमाया गया है। फ़ातिहा को उम्मुल-क़ुरआन क़रार देने की वजह यह है कि उसमें क़ुरआन मजीद की सम्पूर्ण शिक्षा का सार आ गया है। सूरा या-सीन को कुरआन का धड़कता हुआ दिल इसलिए फ़रमाया गया है कि यह क़ुरआन की दावत को बड़े ज़ोरदार तरीक़े से पेश करती है, जिससे ठहराव टूटता और रूह में हरकत पैदा होती है। इन्हीं हज़रत माक़िल-बिन-यसार (रज़ि०) से इमाम अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा (रह०) ने यह रिवायत भी नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अपने मरनेवालों पर सूरा या-सीन पढ़ा करो।" इसका कारण यह है कि मरते समय मुसलमान के मन में न सिर्फ़ यह कि तमाम इस्लामी अक़ीदे ताज़ा हो जाएँ, बल्कि मुख्य रूप से उसके सामने आख़िरत का पूरा चित्र भी आ जाए और वह जान ले कि दुनिया की ज़िन्दगी से गुज़रकर अब आगे किन मंज़िलों से उसको वास्ता पेश आनेवाला है। इस निहितार्थ को पूरा करने के लिए उचित यह मालूम होता है कि अरबी न जाननेवाले आदमी को सूरा या-सीन सुनाने के साथ उसका अनुवाद भी सुना दिया जाए, ताकि याद दिलाने का हक़ पूरी तरह अदा हो जाए।

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سُورَةُ يسٓ
36. या-सीन
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يسٓ
(1) या-सीन1
1. इब्ने-अब्बास (रज़ि०), इकरिमा, ज़ह्हाक, हसन बसरी और सुफ़ियान-बिन-उयैना (रह०) का कहना है कि इसका मतलब है “ऐ इनसान” या “ऐ आदमी” और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इसे “या सय्यिद” की मुख़्तसर शक्ल भी बताया है। इस मतलब के मुताबिक़ ये अलफ़ाज़ नबी (सल्ल०) से कहे गए हैं।
وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 1
(2) क़सम है हिकमतवाले क़ुरआन की
إِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 2
(3) कि तुम यक़ीनन रसूलों में से हो,2
2. इस तरह बात की शुरुआत करने की वजह यह नहीं है कि अल्लाह की पनाह नबी (सल्ल०) को अपने नबी होने में कोई शक था और आप (सल्ल०) को यक़ीन दिलाने के लिए अल्लाह तआला को यह बात कहने की ज़रूरत पड़ी, बल्कि इसकी वजह यह है कि उस वक़्त क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ लोग पूरी शिद्दत के साथ नबी (सल्ल०) को ख़ुदा का पैग़म्बर मानने से इनकार कर रहे थे, इसलिए अल्लाह तआला ने किसी तमहीद (भूमिका) के बिना तक़रीर की शुरुआत ही इस जुमले से की कि “तुम यक़ीनन रसूलों में से हो,” यानी वे लोग सख़्त ग़लती कर रहे हैं जो तुम्हारे नबी होने का इनकार करते हैं। फिर इस बात पर क़ुरआन की क़सम खाई गई है और क़ुरआन की सिफ़त में लफ़्ज़ 'हकीम' इस्तेमाल किया गया है। इसका मतलब यह है कि तुम्हारे नबी होने का खुला हुआ सुबूत यह क़ुरआन है जो सरासर हिकमत (गहरी समझ की बातों) से भरा हुआ है। यह चीज़ ख़ुद गवाही दे रही है कि जो कोई ऐसा हिकमत भरा कलाम पेश कर रहा है, वह यक़ीनन ख़ुदा का रसूल है। कोई इनसान ऐसा कलाम गढ़ ही नहीं सकता और मुहम्मद (सल्ल०) को जो लोग जानते हैं, वे हरगिज़ इस ग़लतफ़हमी में नहीं पड़ सकते कि यह कलाम आप (सल्ल०) ख़ुद गढ़-गढ़कर ला रहे हैं, या किसी दूसरे इनसान से सीख-सीखकर सुना रहे हैं। (इस बात की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिए—20, 21, 22, 44, 45; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—101 से 105; सूरा-24 नूर परिचय; सूरा-26 शुअरा, हाशिया-1; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-93; सूरा-28 क़सस, हाशिए—62, 63, 64, 102 से 109; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—88 से 91; सूरा-30 रूम, तारीख़ी पसमंज़र, हाशिए—1 से 3।
عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 3
(4) सीधे रास्ते पर हो,
تَنزِيلَ ٱلۡعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ ۝ 4
(5) (और यह क़ुरआन) ग़ालिब और रहम करनेवाली हस्ती का उतारा हुआ है3
3. यहाँ क़ुरआन के उतारनेवाले की दो ख़ूबियाँ बयान की गई हैं। एक यह कि वह ग़ालिब और ज़बरदस्त है। दूसरी यह कि वह रहीम (रहम करनेवाला) है। पहली ख़ूबी बयान करने का मक़सद इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है कि यह क़ुरआन किसी बे-ज़ोर नसीहत करनेवाले की नसीहत नहीं है, जिसे तुम अनदेखा कर दो तो तुम्हारा कुछ न बिगड़े, बल्कि यह कायनात के उस मालिक का फ़रमान है जो सबपर ग़ालिब है, जिसके फ़ैसलों को लागू होने से कोई ताक़त रोक नहीं सकती और जिसकी पकड़ से बच जाने की क़ुदरत किसी को हासिल नहीं है और दूसरी ख़ूबी बयान करने का मक़सद यह एहसास दिलाना है कि यह सरासर उसकी मेहरबानी है कि उसने तुम्हारी हिदायत और रहनुमाई के लिए अपना रसूल भेजा और यह अज़ीम (महान) किताब उतारी, ताकि तुम गुमराहियों से बचकर उस सीधे रास्ते पर चल सको जिससे तुम्हें दुनिया और आख़िरत की कामयाबियाँ हासिल हों।
لِتُنذِرَ قَوۡمٗا مَّآ أُنذِرَ ءَابَآؤُهُمۡ فَهُمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 5
(6) ताकि तुम ख़बरदार करो एक ऐसी क़ौम को जिसके बाप-दादा ख़बरदार न किए गए थे और इस वजह से वे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।4
4. इस आयत के दो तर्जमे हो सकते हैं। एक वह जो ऊपर दिया गया है। दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “तुम डराओ एक क़ौम के लोगों को उसी बात से जिससे उनके बाप-दादा डराए गए थे, क्योंकि वे ग़फ़लत में पड़े हुए हैं।” पहला मतलब अगर लिया जाए तो बाप-दादा से मुराद क़रीब के ज़माने के बाप-दादा होंगे, क्योंकि दूर के ज़माने में तो अरब की कि धरती पर कई पैग़म्बर आ चुके थे और दूसरा मतलब लेने की सूरत में मुराद यह होगी कि पुराने ज़माने में जो पैग़ाम नबियों के ज़रिए से इस क़ौम के बाप-दादा के पास आया था, फिर उसको अब फिर नया करो, क्योंकि ये लोग उसे भुला बैठे हैं। इस लिहाज़ से दोनों तर्जमों में हक़ीक़त में कोई टकराव नहीं है और मतलब के लिहाज़ से दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। इस मक़ाम पर यह शक पैदा होता है कि इस क़ौम के बुज़ुर्गों पर जो ज़माना ऐसा गुज़रा था कर जिसमें कोई ख़बरदार करनेवाला उनके पास नहीं आया, उस ज़माने में अपनी गुमराही के वे किस तरह ज़िम्मेदार हो सकते थे? इसका जवाब यह है कि अल्लाह तआला जब कोई नबी दुनिया में भेजता है तो उसकी तालीम और हिदायत के असरात दूर-दूर तक फैलते हैं और एक नस्ल से दूसरी नस्ल तक चलते रहते हैं। ये असरात जब तक बाक़ी रहें और नबी की पैरवी करनेवालों में जब तक ऐसे लोग उठते रहें जो हिदायत का दीप जलाए रखनेवाले हों, उस वक़्त तक ज़माने को हिदायत से ख़ाली नहीं कहा जा सकता और जब उस नबी की तालीम के असरात बिलकुल ही मिट जाएँ या वह पूरी तरह बिगड़ जाए, तो दूसरे नबी का भेजा जाना ज़रूरी हो जाता है। नबी (सल्ल०) के रसूल बनाए जाने से पहले अरब में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) और हज़रत शुऐब (अलैहि०) और हज़रत मूसा (अलैहि०) व ईसा (अलैहि०) की तालीम के असरात हर तरफ़ फैले हुए थे और वक़्त-वक़्त पर ऐसे लोग उस क़ौम में उठते रहे थे, या बाहर से आते रहे थे जो उन असरात को ताज़ा करते रहते थे। जब ये असरात मिटने के क़रीब हो गए और अस्ल तालीम में भी फेर-बदल हो गया तो अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को भेज दिया और ऐसा इन्तिज़ाम किया कि आप (सल्ल०) की हिदायत के असरात न मिट सकते हैं और न बिगाड़े जा सकते हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-82 सजदा, हाशिया-5)।
لَقَدۡ حَقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَىٰٓ أَكۡثَرِهِمۡ فَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 6
(7) इनमें से अकसर लोग अज़ाब के फ़ैसले के हक़दार हो चुकें हैं, इसी लिए वे ईमान नहीं लाते।”5
5. यह उन लोगों का ज़िक्र है जो नबी (सल्ल०) की दावत के मुक़ाबले में ज़िद और हठधर्मी से काम ले रहे थे और जिन्होंने तय कर लिया था कि आप (सल्ल०) की बात बहरहाल मानकर नहीं देनी है। उनके बारे में फ़रमाया गया है कि “ये लोग अज़ाब के फ़ैसले के हक़दार हो चुके हैं, इसलिए ये ईमान नहीं लाते।” इसका मतलब यह है कि जो लोग नसीहत पर कान नहीं धरते और ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बरों के ज़रिए से तमाम दलीलें दी जा चुकने पर भी इनकार और सच से दुश्मनी का रवैया ही अपनाए चले जाते हैं, उनपर ख़ुद उनके अपने आमाल का बुरा अंजाम डाल दिया जाता है और फिर उन्हें ईमान लाने का मौक़ा नहीं मिलता। इसी बात को आगे चलकर इस जुमले में खोल दिया गया है कि “तुम तो उसी शख़्स को ख़बरदार कर सकते हो जो नसीहत की पैरवी करे और बेदेखे रहमान ख़ुदा से डरे।"
وَسَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ ءَأَنذَرۡتَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تُنذِرۡهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 7
(10) उनके लिए बराबर है, तुम उन्हें ख़बरदार करो या न करो, ये न मानेंगे।8
8. इसका यह मतलब नहीं है कि इस हालत में तबलीग़ करना और दावत देना बेकार है, बल्कि इसका मतलब यह है कि तुम्हारी आम तबलीग़ हर तरह के इनसानों तक पहुँचती है। उनमें से कुछ लोग वे हैं जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ है और कुछ दूसरे लोग वे हैं जिनका ज़िक्र आगे की आयत में आ रहा है। पहली क़िस्म के लोगों से जब वास्ता पड़े और तुम देख लो कि वे इनकार और घमण्ड और दुश्मनी और मुख़ालफ़त पर जमे हुए हैं तो उनके पीछे न पड़ो। मगर उनके इस रवैये से दुखी और मायूस होकर अपना काम छोड़ भी न बैठो, क्योंकि तुम्हें नहीं मालूम कि इनसानों की इसी भीड़ के दरमियान वे ख़ुदा के बन्दे कहाँ हैं जो नसीहत क़ुबूल करनेवाले और ख़ुदा से डरकर सीधे रास्ते पर आ जानेवाले हैं। तुम्हारी तबलीग़ और दावत की का अस्ल मक़सद इसी दूसरी तरह के इनसानों को तलाश करना और उन्हें छाँट-छाँटकर निकाल लेना है। हठधर्मों को छोड़ते जाओ और इस क़ीमती दौलत को समेटते चले जाओ।
إِنَّمَا تُنذِرُ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلذِّكۡرَ وَخَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِۖ فَبَشِّرۡهُ بِمَغۡفِرَةٖ وَأَجۡرٖ كَرِيمٍ ۝ 8
(11) तुम तो उसी शख़्स को ख़बरदार कर सकते हो जो नसीहत की पैरवी करे और बेदेखे रहमान ख़ुदा से डरे। उसे माफ़ी और बाइज़्ज़त बदले की ख़ुशख़बरी दे दो।
إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ وَنَكۡتُبُ مَا قَدَّمُواْ وَءَاثَٰرَهُمۡۚ وَكُلَّ شَيۡءٍ أَحۡصَيۡنَٰهُ فِيٓ إِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 9
(12) हम यक़ीनन एक दिन मुर्दो को ज़िन्दा करनेवाले हैं। जो कुछ काम उन्होंने किए हैं, वे सब हम लिखते जा रहे हैं, और जो कुछ निशान उन्होंने पीछे छोड़े हैं, वे भी हम लिख रहे हैं।9 हर चीज़ को हमने एक खुली किताब में लिख रखा है।
9. इससे मालूम हुआ कि इनसान के आमालनामे (कर्मपत्र) में तीन तरह की बातें पाई जाती हैं। एक यह कि हर शख़्स जो कुछ भी अच्छा या बुरा अमल करता है, वह अल्लाह तआला के रजिस्टर में लिख लिया जाता है। दूसरी, अपने आस-पास की चीज़ों और ख़ुद अपने जिस्म के अंगों (हिस्सों) पर जो निशान (Impressions) भी इनसान डालता है वे सब-के-सब छप जाते हैं और ये सारे निशान एक वक़्त इस तरह उभर आएँगे कि उसकी अपनी आवाज़ सुनी जाएगी, उसके अपने ख़यालात और नीयतों और इरादों की पूरी दास्तान उसके ज़ेहन की तख़्ती पर लिखी नज़र आएगी और उसके एक-एक अच्छे और बुरे काम और उसकी तमाम हरकतों और कामों की तस्वीरें सामने आ जाएँगी। तीसरी, अपने मरने के बाद अपनी आनेवाली नस्ल अपने समाज पर और पूरी इनसानियत पर अपने अच्छे-बुरे आमाल के जो असरात वह छोड़ गया है, वे जिस वक़्त तक और जहाँ-जहाँ तक काम करते रहेंगे, वे सब उसके हिसाब में लिखे जाते रहेंगे। अपनी औलाद को जो भी अच्छी या बुरी तरबियत उसने दी है, अपने समाज में जो भलाइयाँ या बुराइयाँ भी उसने फैलाई हैं और इनसानियत के हक़ में जो फूल या काँटे भी वह बो गया है, उन सबका पूरा रिकॉर्ड उस वक़्त तक तैयार किया जाता रहेगा जब तक उसकी लगाई हुई यह फ़स्ल दुनिया में अपने अच्छे या बुरे फल लाती रहेगी।
وَٱضۡرِبۡ لَهُم مَّثَلًا أَصۡحَٰبَ ٱلۡقَرۡيَةِ إِذۡ جَآءَهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 10
(13) इन्हें मिसाल के तौर पर उस बस्तीवालों का क़िस्सा सुनाओ जबकि उसमें रसूल आए थे।10
10. पुराने ज़माने के क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिम आम तौर पर इस तरफ़ गए हैं कि इस बस्ती से मुराद शाम (सीरिया) का शहर अन्ताकिया है और जिन रसूलों का ज़िक्र यहाँ किया गया है, उन्हें हज़रत ईसा (अलैहि०) ने तबलीग़ और दावत के लिए भेजा था। इस सिलसिले में क़िस्से की जो तफ़सीलात बयान की गई हैं, उनमें से एक बात यह भी है कि उस ज़माने में अन्तीख़श उस इलाक़े का बादशाह था। लेकिन यह सारा क़िस्सा इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा, इकरिमा, कअबे-अहबार और वहब-बिन-मुनब्बिह (रह०) वग़ैरा बुज़ुर्गों ने ईसाइयों की ग़ैर-मुस्तनद रिवायतों से लिया है और तारीख़ी (ऐतिहासिक) तौर से बिलकुल बेबुनियाद है। अन्ताकिया में सुलूक़ी ख़ानदान (Seleacid Dynasty) के 13 बादशाह अन्तियोकस (Antiochus) के नाम से गुज़रे हैं और इस नाम के आख़िरी बादशाह की हुकूमत, बल्कि ख़ुद उस ख़ानदान की हुकूमत भी 65 ई० पू० में ख़त्म हो गई थी। हज़रत ईसा (अलैहि०) के ज़माने में अन्ताकिया समेत सीरिया और फ़िलस्तीन का पूरा इलाक़ा रोमियों (रूमियों) के मातहत था। फिर ईसाइयों की किसी भरोसेमन्द रिवायत से इस बात का कोई सुबूत नहीं मिलता कि ख़ुद हज़रत ईसा (अलैहि०) ने अपने हवारियों (साथियों) में से किसी को तबलीग़ और दावत के लिए अन्ताकिया भेजा हो। इसके बरख़िलाफ़ बाइबल की किताब 'प्ररितों के काम' से मालूम होता है कि सूली के वाक़िए के कुछ साल बाद ईसाई तबलीग़ करनेवाले (धर्म-प्रचारक) पहली बार वहाँ पहुँचे थे। अब यह ज़ाहिर है कि जिन लोगों को न अल्लाह ने रसूल बनाकर भेजा हो, न अल्लाह के रसूल ने मुक़र्रर किया हो, वे अगर अपने तौर पर ख़ुद तबलीग़ के लिए निकले हों तो किसी मानी में भी वे अल्लाह के रसूल ठहराए नहीं जा सकते। इसके अलावा बाइबल के बयान के मुताबिक़ अन्ताकिया पहला शहर है जहाँ बहुत बड़ी तादाद में ग़ैर-इसराईलियों ने ईसाइयत को क़ुबूल किया और मसीही कलीसा को ग़ैर-मामूली कामयाबी मिली। हालाँकि क़ुरआन जिस बस्ती का ज़िक्र यहाँ कर रहा है, वह कोई ऐसी बस्ती थी जिसने रसूलों की दावत को रद्द कर दिया और आख़िरकार अल्लाह के अज़ाब की शिकार हुई। इतिहास में इस बात का भी कोई सुबूत नहीं मिलता कि अन्ताकिया पर ऐसी कोई तबाही आई हो जिसे पैग़म्बर के इनकार की वजह से अज़ाब ठहराया जा सकता हो। इन वजहों से यह बात क़ुबूल नहीं की जा सकती है कि इस बस्ती से मुराद अन्ताकिया है। बस्ती कौन-सी थी, यह न क़ुरआन में बताया गया है, न किसी सही हदीस में, बल्कि यह बात भी किसी भरोसेमन्द ज़रिए से मालूम नहीं होती कि ये रसूल कौन थे और किस ज़माने भेजे गए थे। क़ुरआन मजीद जिस ग़रज़ के लिए यह किस्सा यहाँ बयान कर रहा है, उसे समझने के लिए बस्ती का नाम और रसूलों के नाम मालूम होने की कोई ज़रूरत नहीं है। क़िस्से के बयान करने का मक़सद क़ुरैश के लोगों को यह बताना है कि तुम हठधर्मी, तास्सुब (दुराग्रह) और हक़ के इनकार के उसी रवैये पर चल रहे हो जिसपर उस बस्ती के लोग चले थे और उसी अंजाम से दोचार होने की तैयारी कर रहे हो जिससे वे दोचार हुए।
إِذۡ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهِمُ ٱثۡنَيۡنِ فَكَذَّبُوهُمَا فَعَزَّزۡنَا بِثَالِثٖ فَقَالُوٓاْ إِنَّآ إِلَيۡكُم مُّرۡسَلُونَ ۝ 11
(14) हमने उनकी तरफ़ दो रसूल भेजे और उन्होंने दोनों को झुठला दिया। फिर हमने तीसरा मदद के लिए भेजा और उन सबने कहा, “हम तुम्हारी तरफ़ रसूल की हैसियत से भेजे गए हैं।”
قَالُواْ مَآ أَنتُمۡ إِلَّا بَشَرٞ مِّثۡلُنَا وَمَآ أَنزَلَ ٱلرَّحۡمَٰنُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا تَكۡذِبُونَ ۝ 12
(15) बस्तीवालों ने कहा, “तुम कुछ नहीं हो, मगर हम जैसे कुछ इनसान,11 और रहमान ख़ुदा ने हरगिज़ कोई चीज़ नहीं उतारी है,12 तुम सिर्फ़ झूठ बोलते हो।"
11. दूसरे अलफ़ाज़ में उनका कहना यह था कि तुम चूँकि इनसान हो, इसलिए ख़ुदा के भेजे हुए रसूल नहीं हो सकते। यही ख़याल मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों का भी था। वे कहते थे कि मुहम्मद (सल्ल०) रसूल नहीं हैं, क्योंकि वे इनसान हैं— “वे कहते हैं कि यह कैसा रसूल है जो खाना खाता है और बाज़ारों में चलता-फिरता है।" (क़ुरआन, सूरा-25 फुरकान, आयत-7) "और ये ज़ालिम लोग आपस में सरगोशियाँ करते हैं कि यह आदमी (यानी मुहम्मद सल्ल०) तुम जैसे एक इनसान के सिवा आख़िर और क्या है, फिर क्या तुम आँखों देखते इस जादू के शिकार हो जाओगे?” (क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, आयत-3) क़ुरआन मजीद मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों के इस जाहिलाना ख़याल को ग़लत बताते हुए कहता है कि यह कोई नई जहालत नहीं है जो आज पहली बार इन लोगों से ज़ाहिर हो रही हो, बल्कि बहुत पुराने ज़माने से तमाम जाहिल लोग इसी ग़लतफ़हमी में मुब्तला रहे हैं कि जो इनसान है, वह रसूल (पैग़म्बर) नहीं हो सकता और जो रसूल है, वह इनसान नहीं हो सकता। नूह (अलैहि०) की क़ौम के सरदारों ने जब हज़रत नूह (अलैहि०) की पैग़म्बरी का इनकार किया था तो यही कहा था— “यह आदमी इसके सिवा कुछ नहीं है कि एक इनसान है तुम्हीं जैसा और चाहता है कि तुमपर अपनी बड़ाई जमाए। हालाँकि अगर अल्लाह चाहता तो फ़रिश्ते उतारता। हमने तो यह बात कभी अपने बाप-दादा से नहीं सुनी (कि इनसान रसूल बनकर आए)।" (क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, आयत-24) आद की क़ौम ने यही बात हज़रत हूद (अलैहि०) के बारे में कही थी— “यह शख़्स कुछ नहीं है मगर एक इनसान तुम्हीं जैसा। खाता है वही कुछ जो तुम खाते हो और पीता है वही कुछ जो तुम पीते हो। अब अगर तुमने अपने ही जैसे एक इनसान की फ़रमाँबरदारी कर ली तो तुम बड़े घाटे में रहे।” (क़ुरआन, सूरा-23 मोमिनून, आयतें—33, 34) समूद की क़ौम ने हज़रत सॉलेह (अलैहि०) के बारे में भी यही कहा था— "क्या हम अपने में से एक इनसान की पैरवी अपना लें।” (क़ुरआन, सूरा-54 क़मर, आयत-24) और यही मामला क़रीब-क़रीब तमाम नबियों के साथ पेश आया कि इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने कहा, “तुम कुछ नहीं हो, मगर हम जैसे एक इनसान।” और पैग़म्बरों ने उनको जवाब दिया कि “सचमुच हम तुम्हारी तरह इनसान के सिवा कुछ नहीं हैं, मगर अल्लाह अपने बन्दों में से जिसपर चाहता है मेहरबानी करता है।” (क़ुरआन; सूरा-14 इबराहीम, आयतें—10, 11) इसके बाद क़ुरआन मजीद कहता है कि यही जाहिलोंवाला ख़याल हर ज़माने में लोगों को हिदायत क़ुबूल करने से रोकता रहा है और इसी वजह से क़ौमों की शामत आई है— "क्या इन्हें उन लोगों की ख़बर नहीं पहुँची जिन्होंने इससे पहले कुफ़्र (हक़ का इनकार) किया था और फिर अपने किए का मज़ा चख लिया और आगे उनके लिए दर्दनाक अज़ाब है? यह सब कुछ इसलिए हुआ कि उनके पास उनके रसूल खुली-खुली दलीलें लेकर आते रहे, मगर उन्होंने कहा, “क्या अब इनसान हमारी रहनुमाई करेंगे? इसी वजह से उन्होंने कुफ़्र (हक़ का इनकार) किया और मुँह फेर गए।” (क़ुरआन, सूरा-64 तग़ाबुन, आयत-6) "लोगों के पास जब हिदायत आई तो कोई चीज़ उन्हें ईमान से रोकनेवाली इसके सिवा न थी कि उन्होंने कहा, क्या अल्लाह ने इनसान को रसूल बनाकर भेज दिया?” (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-94) फिर क़ुरआन मजीद पूरी तरह साफ़-साफ़ कहता है कि अल्लाह ने हमेशा इनसानों ही को रसूल बनाकर भेजा है और इनसान की हिदायत के लिए इनसान ही रसूल हो सकता है, न कि कोई फ़रिश्ता या इनसानी ख़ासियत से बढ़कर कोई हस्ती— "हमने तुमसे पहले इनसानों ही को रसूल बनाकर भेजा है, जिनपर हम वह्य करते थे। अगर तुम नहीं जानते तो इल्म रखनेवालों से पूछ लो और हमने उनको ऐसे जिस्म नहीं बनाया था वे खाना न खाएँ और न वे हमेशा जीनेवाले थे।” (क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, आयतें—7, 8) "हमने तुमसे पहले जो रसूल भी भेजे थे वे सब खाना खाते थे और बाज़ारों में चलते-फिरते थे।” (क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-20) “ऐ नबी, इनसे कहो कि अगर ज़मीन में फ़रिश्ते इत्मीनान से चल-फिर रहे होते तो हम उनपर फ़रिश्ते ही रसूल बनाकर उतारते।” (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-95)
12. यह एक और जहालत है जिसमें मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ भी मुब्तला थे, आज के नामनिहाद (तथाकथित) सिर्फ़ अक़्ल (बुद्धि) की बुनियाद पर चीज़ों को माननेवाले लोग भी मुब्तला हैं और पुराने ज़माने से लेकर हर ज़माने के वह्य और पैग़म्बरी का इनकार करनेवाले इसमें मुब्तला रहे हैं। इन सब लोगों का हमेशा से यह ख़याल रहा है कि अल्लाह तआला सिरे से इनसानी हिदायत के लिए कोई वह्य नहीं उतारता। उसको सिर्फ़ ऊपरी दुनिया के मामलों से दिलचस्पी है। इनसानों का मामला उसने ख़ुद इनसानों ही पर छोड़ रखा है।
قَالُواْ رَبُّنَا يَعۡلَمُ إِنَّآ إِلَيۡكُمۡ لَمُرۡسَلُونَ ۝ 13
(16) रसूलों ने कहा, “हमारा रब जानता है कि हम ज़रूर तुम्हारी तरफ़ रसूल बनाकर भेजे गए हैं,
وَمَا عَلَيۡنَآ إِلَّا ٱلۡبَلَٰغُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 14
(17) और हमपर साफ़-साफ़ पैग़ाम पहुँचा देने के सिवा कोई ज़िम्मेदारी नहीं है।"13
13. यानी हमारा काम इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि जो पैग़ाम तुम तक पहुँचाने के लिए सारे जहान के रब अल्लाह ने हमारे सिपुर्द किया है, वह तुम्हें पहुँचा दें। इसके बाद तुम्हें अधिकार है कि मानो या न मानो। यह ज़िम्मेदारी हमपर नहीं डाली गई है कि तुम्हें ज़बरदस्ती मनवाकर ही छोड़ें और अगर तुम न मानोगे तो तुम्हारे कुफ़्र (इनकार) में हम नहीं पकड़े जाएँगे, बल्कि अपने इस जुर्म की जवाबदेही तुमको ख़ुद ही करनी पड़ेगी।
قَالُوٓاْ إِنَّا تَطَيَّرۡنَا بِكُمۡۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهُواْ لَنَرۡجُمَنَّكُمۡ وَلَيَمَسَّنَّكُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 15
(18) बस्तीवाले कहने लगे, “हम तो तुम्हें अपने लिए नुहूसत (अशुभ और अपशकुन)14 समझते हैं। अगर तुम न माने तो हम तुमको पथराव करके मार डालेंगे और हमसे तुम बड़ी दर्दनाक सज़ा पाओगे।"
14. इससे उन लोगों का मतलब यह था कि तुम हमारे लिए मनहूस (अशुभ) हो, तुमने आकर हमारे माबूदों (उपास्यों) के ख़िलाफ़ जो बातें करनी शुरू की हैं, उनकी वजह से देवता हमसे नाराज़ हो गए हैं और अब जो आफ़त भी हमपर आ रही है वह तुम्हारी बदौलत ही आ रही है। ठीक यही बातें अरब के इस्लाम-मुख़ालिफ़ और मुनाफ़िक़ लोग नबी (सल्ल०) के बारे में कहा करते थे, “अगर इन्हें कोई तकलीफ़ पहुँचती है तो कहते हैं कि यह तुम्हारी वजह से है तो है।” (क़ुरआन, सूरा-4 निसा, आयत-78) इसी लिए क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर उन लोगों को बताया गया है कि ऐसी ही जहालत भरी बातें पुराने ज़माने के लोग भी अपने नबियों के बारे में कहते रहे हैं। समूद की क़ौम अपने नबी से कहती थी, “हमने तुमको और तुम्हारे साथियों को मनहूस पाया है।” (क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, आयत-47) और यही रवैया फ़िरऔन की क़ौम का भी था कि “जब उनपर अच्छी हालत आती तो कहते कि ये हमारी ख़ुशनसीबी है और अगर कोई मुसीबत उनपर आ पड़ती है तो उसे मूसा और उनके साथियों की नुहूसत ठहराते।” (क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, आयत-130)
قَالُواْ طَٰٓئِرُكُم مَّعَكُمۡ أَئِن ذُكِّرۡتُمۚ بَلۡ أَنتُمۡ قَوۡمٞ مُّسۡرِفُونَ ۝ 16
(19) रसूलों ने जवाब दिया, “तुम्हारी नुहूसत तो तुम्हारे अपने साथ लगी हुई है।15 क्या ये बातें तुम इसलिए करते हो कि तुम्हें नसीहत की गई? अस्ल बात यह है कि तुम हद से गुज़रे हुए लोग हो।"16
15. यानी कोई किसी के लिए मनहूस नहीं है। हर किसी का तक़दीरनामा (भाग्यलेख) उसकी अपनी ही गर्दन में लटका हुआ है। बुराई देखता है तो अपने नसीब की देखता है और भलाई देखता है तो वह भी उसके अपने ही नसीब की होती है। “हर इनसान की भलाई-बुराई का परवाना हमने उसकी गर्दन में लटका दिया है।” (क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-13)
16. यानी अस्ल में तुम भलाई से भागना चाहते हो और हिदायत के बजाय गुमराही तुम्हें पसन्द है, इसलिए हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) का फ़ैसला दलील से करने के बजाय अंधविश्वासों और बकवासों के सहारे ये बहानेबाज़ियाँ कर रहे हो।
وَجَآءَ مِنۡ أَقۡصَا ٱلۡمَدِينَةِ رَجُلٞ يَسۡعَىٰ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱتَّبِعُواْ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 17
(20) इतने में शहर के दूर-दराज़ कोने से एक आदमी दौड़ता हुआ आया और बोला, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो, रसूलों की पैरवी अपना लो।
ٱتَّبِعُواْ مَن لَّا يَسۡـَٔلُكُمۡ أَجۡرٗا وَهُم مُّهۡتَدُونَ ۝ 18
(21) पैरवी करो उन लोगों की जो तुमसे कोई बदला नहीं चाहते और ठीक रास्ते पर हैं।17
17. इस एक जुमले में ख़ुदा के उस बन्दे ने नुबूवत (पैग़म्बरी) की सच्चाई की सारी दलीलें समेटकर रख दीं। एक नबी की सच्चाई दो ही बातों से जाँची जा सकती है। एक यह कि वह क्या कहता और क्या करता है। दूसरी, उसका बेग़रज़ (निस्स्वार्थ) होना। उस आदमी के दलील देने का मंशा यह था कि अव्वल तो ये लोग सरासर सही और मुनासिब बात कह रहे हैं और इनका अपना किरदार बिलकुल बेदाग़ है। दूसरा कोई आदमी इस बात की निशानदेही नहीं कर सकता कि इस दीन (धर्म) की दावत ये अपने किसी निजी फ़ायदे की ख़ातिर दे रहे हैं। इसके बाद कोई वजह नज़र नहीं आती कि इनकी बात क्यों न मानी जाए। उस आदमी की इस तरह दलील नक़्ल करके क़ुरआन मजीद ने लोगों के सामने एक पैमाना रख दिया कि नबी की नुबूवत (पैग़म्बरी) को परखना हो तो इस कसौटी पर परखकर देख लो। मुहम्मद (सल्ल०) की बात और उनका अमल बता रहा है कि वे सही रास्ते पर हैं और फिर उनकी जिद्दो-जुह्द के पीछे किसी निजी फ़ायदे का भी नामो-निशान तक नहीं है। फिर कोई समझदार इनसान उनकी बात को रद्द आख़िर किस बुनियाद पर करेगा।
وَمَالِيَ لَآ أَعۡبُدُ ٱلَّذِي فَطَرَنِي وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 19
(22) आख़िर क्यों न मैं उस हस्ती की बन्दगी करूँ जिसने मुझे पैदा किया जिसकी तरफ़ तुम सबको पलटकर जाना है?18
18. इस जुमले के दो हिस्से हैं। पहला हिस्सा दलील देने का आला (उच्च) नमूना है और दूसरे हिस्से में तबलीग़ और दावत की हिकमत का कमाल दिखाया गया है। पहले हिस्से में वह कहता है कि पैदा करनेवाले की बन्दगी करना तो सरासर अक़्ल और फ़ितरत (प्रकृति) का तक़ाज़ा है। बे-अक़्ली की बात अगर कोई है तो वह यह कि आदमी उनकी बन्दगी करे जिन्होंने उसे पैदा नहीं किया है, बे-अक़्ली की बात यह नहीं है कि वह उसका बन्दा बनकर रहे जिसने उसे पैदा किया है। दूसरे हिस्से में वह अपनी क़ौम के लोगों को यह एहसास दिलाता है कि मरना आख़िर तुमको भी है और उसी ख़ुदा की तरफ़ जाना है जिसकी बन्दगी अपनाने पर तुम्हें एतिराज़ है। अब तुम ख़ुद सोच लो कि उससे मुँह मोड़कर तुम किस भलाई की उम्मीद कर सकते हो।
ءَأَتَّخِذُ مِن دُونِهِۦٓ ءَالِهَةً إِن يُرِدۡنِ ٱلرَّحۡمَٰنُ بِضُرّٖ لَّا تُغۡنِ عَنِّي شَفَٰعَتُهُمۡ شَيۡـٔٗا وَلَا يُنقِذُونِ ۝ 20
(23) क्या मैं उसे छोड़कर दूसरे माबूद बना लूँ? हालाँकि अगर रहमान ख़ुदा मुझे कोई नुक़सान पहुँचाना चाहे तो न उनकी सिफ़ारिश मेरे किसी काम आ सकती है और न वे मुझे छुड़ा ही सकते हैं।"19
19. यानी न वे ख़ुदा के ऐसे चहेते हैं कि मैं खुला जुर्म करूँ और वह सिर्फ़ उनकी सिफ़ारिश पर मुझे माफ़ कर दे और न उनके अन्दर इतना ज़ोर है कि ख़ुदा मुझे सज़ा देना चाहे और वे अपने बल-बूते पर मुझे छुड़ा ले जाएँ।
إِنِّيٓ إِذٗا لَّفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 21
(24) अगर मैं एसा करूँ20 तो मैं खुली गुमराही में पड़ जाऊँगा।
20. यानी यह जानते हुए भी अगर मैं उनको माबूद (पूज्य) बनाऊँ।
إِنِّيٓ ءَامَنتُ بِرَبِّكُمۡ فَٱسۡمَعُونِ ۝ 22
(25) मैं तो तुम्हारे रब पर ईमान ले आया,21 तुम भी मेरी बात मान लो।"
21. इस जुमले में फिर तबलीग़ और दावत की हिकमत का एक बारीक नुक्ता (Point) छिपा हुआ है। यह कहकर उस आदमी ने उन लोगों को यह एहसास दिलाया कि जिस रब पर मैं ईमान लाया हूँ, वह सिर्फ़ मेरा ही रब नहीं है, बल्कि तुम्हारा रब भी है। उसपर ईमान लाकर मैंने ग़लती नहीं की है, बल्कि उसपर ईमान न लाकर तुम ही ग़लती कर रहे हो।
قِيلَ ٱدۡخُلِ ٱلۡجَنَّةَۖ قَالَ يَٰلَيۡتَ قَوۡمِي يَعۡلَمُونَ ۝ 23
(26) (आख़िरकार उन लोगों ने उसे क़त्ल कर दिया और) उस आदमी से कह दिया गया कि “दाख़िल हो जा जन्नत में ।"22 उसने कहा, “काश, मेरी क़ौम को मालूम होता
22. यानी शहीद होते ही उस आदमी को जन्नत की ख़ुशख़बरी दे दी गई। ज्यों ही वह मौत के दरवाज़े से गुज़रकर दूसरी दुनिया में पहुँचा, फ़रिश्ते उसके इस्तिक़बाल (स्वागत) को मौजूद थे और उन्होंने उसे ख़ुशख़बरी दे दी कि आलीशान जन्नत उसके इन्तिज़ार में है। इस जुमले का मतलब बयान करने में क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के बीच में रायें अलग-अलग हैं। क़तादा (रह०) कहते हैं कि “अल्लाह ने उसी वक़्त उसे जन्नत में दाख़िल कर दिया और वह वहाँ ज़िन्दा है, रोज़ी पा रहा है।” और मुजाहिद (रह०) कहते हैं कि “यह बात फ़रिश्तों ने उससे ख़ुशख़बरी के तौर पर कही और इसका मतलब यह है कि क़ियामत के बाद जब तमाम ईमानवाले जन्नत में दाख़िल होंगे तो वह भी उनके साथ दाख़िल होगा।” (इब्ने-जरीर)
بِمَا غَفَرَ لِي رَبِّي وَجَعَلَنِي مِنَ ٱلۡمُكۡرَمِينَ ۝ 24
(27) कि मेरे रब ने किस चीज़ के ज़रिए से मेरी मग़फ़िरत कर दी और मुझे बाइज़्ज़त लोगों में दाख़िल किया।"23
23. यह उस ईमानवाले मर्द की अख़लाक़ी बुलन्दी का एक नमूना है। जिन लोगों ने उसे अभी-अभी क़त्ल किया था, उनके ख़िलाफ़ कोई ग़ुस्सा और बदले का जज़्बा उसके दिल में न था कि वह अल्लाह से उनके लिए बद्दुआ करता। इसके बजाय वह अब भी उनका भला चाह रहा था। मरने के बाद उसके दिल में अगर कोई तमन्ना पैदा हुई थी तो वह बस यह थी कि काश! मेरी क़ौम मेरे इस बेहतर अंजाम को जान ले और मेरी ज़िन्दगी से नहीं तो मेरी मौत ही से सबक़ लेकर सीधी राह अपना ले। वह शरीफ़ इनसान अपने क़ातिलों के लिए भी जहन्नम न चाहता था, बल्कि यह चाहता था कि वे ईमान लाकर जन्नत के हक़दार बनें। इसी की तारीफ़ करते हुए नबी (सल्ल०) ने कहा भी है कि “उस आदमी ने जीते जी भी अपनी क़ौम का भला चाहा और मरकर भी।" इस वाक़िए को बयान करके अल्लाह तआला ने मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को इशारों में इस हक़ीक़त से आगाह किया है कि मुहम्मद (सल्ल०) और उनके साथी ईमानवाले भी उसी तरह तुम्हारे सच्चे खैरख़ाह हैं जिस तरह वह ईमानवाला मर्द अपनी क़ौम का भला चाहनेवाला था। ये लोग तुम्हारी तरफ़ से तमाम तकलीफें पहुँचाए जाने के बावजूद तुम्हारे ख़िलाफ़ कोई निजी दुश्मनी और बदले का कोई जज़्बा नहीं रखते। इनकी दुश्मनी तुमसे नहीं, बल्कि तुम्हारी गुमराही से है। ये तुमसे सिर्फ़ इसलिए लड़ रहे हैं कि तुम सीधे रास्ते पर आ जाओ। इसके सिवा उनका और कोई मक़सद नहीं है। यह आयत भी उन आयतों में से है जिनसे बरज़ख़ की ज़िन्दगी का साफ़ सुबूत मिलता है। इससे मालूम होता है कि मरने के बाद से क़ियामत तक का ज़माना ख़ालिस अदम (शून्यता) और पूरी तरह मिट जाने का ज़माना नहीं है, जैसा कि कुछ कम इल्म लोग गुमान करते हैं, बल्कि इस ज़माने में जिस्म के बिना रूह ज़िन्दा रहती है, बात करती और बात सुनती है, जज़बात और एहसास रखती है, ख़ुशी और ग़म महसूस करती है और दुनियावालों के साथ भी उसकी दिलचस्पियाँ बाक़ी रहती हैं। अगर यह न होता तो मरने के बाद इस ईमानवाले मर्द को जन्नत की ख़ुशख़बरी कैसे दी जाती और वह अपनी क़ौम के लिए यह तमन्ना कैसे करता कि काश वह उसके बेहतर अंजाम को जान ले।
۞وَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنۢ بَعۡدِهِۦ مِن جُندٖ مِّنَ ٱلسَّمَآءِ وَمَا كُنَّا مُنزِلِينَ ۝ 25
(28) उसके बाद उसकी क़ौम पर हमने आसमान से कोई लश्कर उतारा। हमें लश्कर भेजने की कोई ज़रूरत न थी।
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ خَٰمِدُونَ ۝ 26
(29) बस एक धमाका हुआ यकायक वे सब बुझकर रह गए।24
24. इन अलफ़ाज़ में एक हल्का-सा तंज़ (व्यंग्य) है। अपनी ताक़त पर उनका घमण्ड और सच्चे दीन के ख़िलाफ़ उनका जोश-ख़रोश मानो एक भड़कता हुआ शोला था, जिसके बारे में अपने गुमान में वे ये समझ रहे थे कि ये उन तीनों पैग़म्बर और उनपर ईमान लानेवालों को भस्म कर डालेगा। लेकिन उस शोले की ताक़त इससे ज़्यादा कुछ न निकली कि ख़ुदा के अज़ाब की एक ही चोट ने उसको ठण्डा करके रख दिया।
يَٰحَسۡرَةً عَلَى ٱلۡعِبَادِۚ مَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 27
(30) अफ़सोस बन्दों के हाल पर! जो रसूल भी उनके पास आया, उसका वे मज़ाक़ ही उड़ाते रहे।
أَلَمۡ يَرَوۡاْ كَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّنَ ٱلۡقُرُونِ أَنَّهُمۡ إِلَيۡهِمۡ لَا يَرۡجِعُونَ ۝ 28
(31) क्या उन्होंने देखा नहीं कि उनसे पहले कितनी ही क़ौमों को हम हलाक कर चुके हैं और उसके बाद वे फिर कभी उनकी तरफ़ पलटकर न आए।25
25. यानी ऐसे मिटे कि उनका कहीं नामो-निशान तक बाक़ी न रहा। जो गिरा फिर न उठा। दुनिया में आज कोई उनका नाम लेवा तक नहीं है। उनकी तहज़ीब और उनके समाज ही का नहीं, उनकी नस्लों का भी ख़ातिमा हो गया।
وَإِن كُلّٞ لَّمَّا جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 29
(32) उन सबको एक दिन हमारे सामने हाज़िर किया जाना है।
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلۡأَرۡضُ ٱلۡمَيۡتَةُ أَحۡيَيۡنَٰهَا وَأَخۡرَجۡنَا مِنۡهَا حَبّٗا فَمِنۡهُ يَأۡكُلُونَ ۝ 30
(33) इन लोगों26 के लिए बेजान ज़मीन एक निशानी है।27 हमने उसको ज़िन्दगी दी और उससे अनाज निकाला जिसे ये खाते हैं।
26. पिछले दो रुकूओं (आयत-1 से 32) में मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के इनकार करने, झुठलाने और हक़ की मुख़ालफ़त के उस रवैये पर मलामत की गई थी जो उन्होंने नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में अपना रखा था। अब तक़रीर का रुख़ उस बुनियादी निज़ाअ (विवाद) की तरफ़ फिरता है जो उनके और नबी (सल्ल०) के बीच कशमकश की अस्ल वजह थी, यानी तौहीद और आख़िरत का अक़ीदा, जिसे नबी (सल्ल०) पेश कर रहे थे और ग़ैर-मुस्लिम मानने से इनकार कर रहे थे। इस सिलसिले में एक के बाद एक कुछ दलीलें देकर लोगों को सोचने और ग़ौर करने की दावत दी जा रही है कि देखो, कायनात की ये निशानियाँ जो खुल्लम-खुल्ला तुम्हारी आँखों के सामने मौजूद हैं, क्या उस हक़ीक़त की साफ़-साफ़ निशानदेही नहीं करतीं जिसे ये नबी तुम्हारे सामने पेश कर रहा है?
27. यानी इस बात की निशानी कि तौहीद (एकेश्वरवाद) ही हक़ है और शिर्क (अनेकेश्वरवाद) सरासर बे-बुनियाद है।
وَجَعَلۡنَا فِيهَا جَنَّٰتٖ مِّن نَّخِيلٖ وَأَعۡنَٰبٖ وَفَجَّرۡنَا فِيهَا مِنَ ٱلۡعُيُونِ ۝ 31
(34) हमने उसमें खजूरों और अंगूरों के बाग़ पैदा किए और उसके अन्दर से चश्मे (जल-स्रोत) फोड़ निकाले,
لِيَأۡكُلُواْ مِن ثَمَرِهِۦ وَمَا عَمِلَتۡهُ أَيۡدِيهِمۡۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 32
(35) ताकि ये उसके फल खाएँ। यह सब कुछ इनके अपने हाथों का पैदा किया हुआ नहीं है।28 फिर क्या ये शुक्र अदा नहीं करते?29
28. इस जुमले का दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है, “ताकि ये खाएँ उसके फल और वे चीज़ें जो उनके अपने हाथ बनाते हैं,” यानी खाने-पीने की वे चीज़ें जो क़ुदरती पैदावार से ये लोग ख़ुद तैयार करते हैं, मसलन रोटी, सालन, मुरब्बे, अचार, चटनियाँ और अनगिनत दूसरी चीज़ें।
29. इन छोटे-छोटे जुमलों में ज़मीन की पैदावार को दलील के तौर पर पेश किया गया है। आदमी रात-दिन इस ज़मीन की पैदावार खा रहा है और अपने नज़दीक उसे एक मामूली बात समझता है। लेकिन अगर वह ग़फ़लत का परदा हटाकर गहरी निगाह से देखे तो उसे मालूम हो कि मिट्टी के इस फ़र्श से लहलहाती खेतियों और हरे-भरे बाग़ों का उगना और उसके अन्दर चश्मों (जल-स्रोतों) और नहरों का बहना कोई खेल नहीं है जो आप-से-आप हुए जा रहा हो, बल्कि इसके पीछे एक बड़ी हिकमतवाली और क़ुदरतवाली और पालनहार हस्ती काम कर रही है। ज़मीन की हक़ीक़त पर ग़ौर कीजिए, जिन माद्दों से यह बनी है उनके अन्दर अपने तौर पर किसी उगने और फलने-फूलने की ताक़त नहीं है। ये सब माद्दे अलग-अलग भी और हर तरह जुड़ने और मिलने के बाद और मिलने के बाद भी बिलकुल बढ़ने के लायक़ नहीं हैं और इस इस वजह से उनके अन्दर ज़िन्दगी नाम को भी नहीं पाई जाती। अब सवाल यह है कि इस बेजान ज़मीन के अंदर से पौधों का पैदा होना आख़िर कैसे मुमकिन हुआ? इसकी जाँच आप करेंगे तो मालूम होगा कि कुछ बड़े-बड़े असबाब (साधन) हैं जो अगर पहले जुटा न दिए गए होते तो ये ज़िन्दगी सिरे से वुजूद में न आ सकती थी— एक, ज़मीन के ख़ास हिस्सों में इसकी ऊपरी सतह पर बहुत-से ऐसे माद्दों की तह चढ़ाई गई जो पेड़-पौधों का खाना बनने के लिए मुनासिब हो सकते थे और इस तह (सतह) को नर्म रखा गया ताकि पेड़-पौधों की जड़ें इसमें फैलकर अपना खाना चूस सकें। दूसरा, ज़मीन पर अलग-अलग तरीक़ों से पानी के पहुँचाने का इन्तिज़ाम किया गया, ताकि गिज़ाई और ख़ुराकी माद्दे उसमें मिलकर इस क़ाबिल हो जाएँ कि पेड़-पौधों की जड़ें उनको जज़्ब कर सकें। तीसरा, ऊपर की फ़ज़ा (वायुमण्डल) में हवा पैदा की गई जो आसमानी आफ़तों से ज़मीन की हिफ़ाज़त करती है, जो बारिश लाने का ज़रिआ बनती है और अपने अन्दर वे ग़ैसें भी रखती का है जो पेड़-पौधों की ज़िन्दगी और उनके फलने-फूलने के लिए दरकार हैं। चौथा, सूरज और ज़मीन का ताल्लुक़ इस तरह क़ायम किया गया कि पेड़-पौधों को मुनासिब गरमी (तापमान) और मुनासिब मौसम मिल सकें। ये चार बड़े-बड़े असबाब (जो अपने आपमें ख़ुद अनगिनत असबाब या साधनों का मजमूआ हैं) जब पैदा कर दिए गए तब पेड़-पौधों का वुजूद में आना मुमकिन हुआ। फिर ये साज़गार और मुनासिब हालात जुटाने के बाद पेड़-पौधे पैदा किए गए और उनमें से हर एक का बीज ऐसा बनाया गया कि जब उसे मुनासिब ज़मीन, पानी, हवा और मौसम मयस्सर आए तो उसके अन्दर पेड़-पौधों की ज़िन्दगी की हरकत शुरू हो जाए। इसके अलावा इसी बीज में यह इन्तिज़ाम भी कर दिया गया कि हर जाति के बीज से लाज़िमी तौर पर उसी जाति का बूटा अपनी तमाम नौई (जातिगत) और विरासती ख़ासियतों के साथ पैदा हो और इससे भी आगे बढ़कर और कारीगरी यह की गई कि पेड़-पौधों की दस-बीस या सौ-पचास नहीं, बल्कि अनगिनत क़िस्में पैदा की गईं और उनको इस तरह बनाया गया कि वे उन अनगिनत तरह के जानदारों और इनसान की ग़िज़ा और ख़ुराक, दवा, लिबास और अनगिनत दूसरी ज़रूरतों को पूरा कर सकें जिन्हें पेड़-पौधों के बाद ज़मीन पर वुजूद में लाया जानेवाला था। इस हैरत में डालनेवाले इन्तिज़ाम पर जो कोई भी ग़ौर करेगा, वह अगर हठधर्मी और तास्सुब (दुराग्रह) में नहीं पड़ा है तो उसका दिल गवाही देगा कि यह सब कुछ आप-से-आप नहीं हो सकता। इसमें साफ़ तौर पर एक हिकमत से भरी स्कीम काम कर रही है जिसके तहत ज़मीन, पानी, हवा और मौसम की मुनासबतें (अनुकूलताएँ) पेड़-पौधों के साथ और पेड़-पौधों की की मुनासबतें जानवरों और इनसानों की ज़रूरतों के साथ इन्तिहाई नज़ाकतों और बारीकियों को ध्यान में रखते हुए क़ायम की गई हैं। कोई होशवाला इनसान यह सोच नहीं सकता कि ऐसी मुनासबतें जिनमें हर ज़रूरत और पहलू का लिहाज़ किया गया हो, सिर्फ़ अचानक होनेवाले हादिसे के तौर पर क़ायम हो सकती हैं। फिर यही इन्तिज़ाम इस बात की भी दलील है कि यह बहुत-से ख़ुदाओं का कारनामा नहीं हो सकता। यह तो एक ही ऐसे ख़ुदा का इन्तिज़ाम है और हो सकता है जो ज़मीन, हवा, पानी, सूरज, पेड़-पौधों, जानवरों और इनसानों, सबका पैदा करनेवाला और पालनहार है। इनमें से हर एक के ख़ुदा अलग-अलग होते तो आख़िर कैसे सोचा जा सकता है कि एक ऐसी मुनासबतें रखनेवाली, जिसके अन्दर बेशुमार और हर तरह के फ़ायदे मौजूद हों, गहरी हिकमतों से भरपूर स्कीम बन जाती और लाखों-करोड़ों साल तक बाक़ायदगी के साथ चलती रहती। तौहीद (एकेश्वरवाद) के हक़ में यह दलील पेश करने के बाद अल्लाह तआला फ़रमाता है, “अ-फ़ला यशकुरून?” यानी क्या ये लोग ऐसे एहसान भूल जानेवाले और नमक-हराम हैं कि जिस ख़ुदा ने यह सब कुछ सरो-सामान इनकी ज़िन्दगी के लिए जुटाया है, उसके ये शुक्रगुज़ार नहीं होते और उसकी नेमतें खा-खाकर दूसरों के शुक्रिए अदा करते हैं? उसके आगे नहीं झुकते और उन झूठे माबूदों के सामने माथा टेकते हैं जिन्होंने एक तिनका भी इनके लिए पैदा नहीं किया है?
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡأَزۡوَٰجَ كُلَّهَا مِمَّا تُنۢبِتُ ٱلۡأَرۡضُ وَمِنۡ أَنفُسِهِمۡ وَمِمَّا لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 33
(36) पाक है वह हस्ती30 जिसने तमाम तरह के जोड़े पैदा किए, चाहे वे ज़मीन के पेड़-पौधों (वनस्पतियों) में से हों या ख़ुद इनकी अपनी जाति (यानी मानव-जाति) में से या उन चीज़ों में से जिनको ये जानते तक नहीं हैं।31
30. यानी हर ख़राबी और ऐब से पाक, हर ग़लती और कमज़ोरी से पाक और इस बात से पाक कि कोई उसका शरीक और साझेदार हो। मुशरिकों के अक़ीदों को ग़लत ठहराते हुए आम तौर से क़ुरआन मजीद में ये अलफ़ाज़ इसलिए इस्तेमाल किए जाते हैं कि शिर्क (बहुदेववाद) का हर अक़ीदा अपनी हक़ीक़त में अल्लाह तआला पर किसी-न-किसी ख़राबी और किसी-न-किसी कमज़ोरी और ऐब का इलज़ाम है। अल्लाह के लिए साझेदार ठहराने का मतलब ही यह है कि ऐसी बात कहनेवाला अस्ल में यह समझता है कि या तो अल्लाह तआला अकेला अपनी ख़ुदाई (प्रभुत्त्व) का काम चलाने के क़ाबिल नहीं है, या वह मजबूर है कि अपनी ख़ुदाई में किसी दूसरे को साझेदार बनाए, या कुछ दूसरी हस्तियाँ आप-से-आप ऐसी ताक़तवर हैं कि वे ख़ुदाई के निज़ाम (व्यवस्था) में दखल दे रही हैं और ख़ुदा उनकी दख़ल-अन्दाज़ी बरदाश्त कर रहा है, या, अल्लाह की पनाह, वह इनसानी बादशाहों की-सी कमज़ोरियाँ रखता है जिनकी बुनियाद पर वज़ीरों, दरबारियों, मुँह चढ़े क़रीबी लोगों और चहेते शहज़ादों और शहज़ादियों का लश्कर-का-लश्कर उसे घेरे हुए है और ख़ुदाई के बहुत-से अधिकार उनके बीच बँटकर रह गए हैं। अल्लाह तआला के बारे में ये जहालत भरे ख़यालात अगर ज़ेहनों में मौजूद न होते तो सिरे से शिर्क का ख़याल पैदा ही न हो सकता था। इसी लिए क़ुरआन मजीद में जगह-जगह यह बात कही गई है कि अल्लाह तआला उन तमाम ऐबों और कमियों और कमज़ोरियों से पाक और दूर है जो शिर्क करनेवाले उसकी तरफ़ जोड़ते हैं।
31. यह तौहीद (एकेश्वरवाद) के हक़ में एक और दलील है और यहाँ फिर बिलकुल सामने की सच्चाइयों ही में से कुछ को लेकर बताया जा रहा है, कि रात-दिन जिन चीज़ों को तुम देखते हो और यूँ ही सोच-विचार किए बिना गुज़र जाते हो, उन्हीं के अन्दर हक़ीक़त का सुराग़ देनेवाली निशानियाँ मौजूद हैं, औरत और मर्द का जोड़ तो ख़ुद इनसान की अपनी पैदाइश का सबब है। जानवरों की नस्लें भी नर-मादा के जोड़े से चल रही हैं। पेड़-पौधों के बारे में भी इनसान जानता है कि उनमें जोड़ों का उसूल काम कर रहा है, यहाँ तक कि बेजान माद्दों तक में अलग-अलग चीज़ें जब एक-दूसरे से जोड़ खाती हैं, तब कहीं उनसे तरह-तरह की ऐसी चीज़ें वुजूद में आती हैं जो अपने अन्दर बहुत-सी चीज़ें रखती हैं। ख़ुद माद्दे की बुनियादी तरकीब मनफ़ी और मुसबत (नकारात्मक और सकारात्मक) बरक़ी तवानाई (विद्युत ऊर्जा) के मिलने से हुई है। जोड़ों का यह निज़ाम, जिसकी बदौलत यह सारी कायनात वुजूद में आई है, हिकमत और कारीगरी की ऐसी बारीकियाँ और पेचीदगियाँ रखता है और इसके अन्दर हर जोड़े के बीच ऐसी मुनासबतें (अनुकूलताएँ) पाई जाती हैं कि बेलाग अक़्ल रखनेवाला कोई आदमी न तो इस चीज़ को एक इत्तिफ़ाक़ी हादिसा कह सकता है और न यह मान सकता है कि अलग-अलग ख़ुदाओं ने इन अनगिनत जोड़ों को पैदा करके उनके बीच इस हिकमत के साथ जोड़ लगाए होंगे। जोड़ों का एक-दूसरे के लिए जोड़ होना और उनके जोड़ मिलने से नई चीज़ों का पैदा होना ख़ुद पैदा करनेवाले के एक होने की खुली और साफ़ दलील है।
وَءَايَةٞ لَّهُمُ ٱلَّيۡلُ نَسۡلَخُ مِنۡهُ ٱلنَّهَارَ فَإِذَا هُم مُّظۡلِمُونَ ۝ 34
(37) इनके लिए एक और निशानी रात है, हम उसके ऊपर से दिन हटा देते हैं तो इनपर अंधेरा छा जाता है।32
32. रात-दिन का आना-जाना भी उन्ही बिलकुल सामने की सच्चाइयों में से है जिन्हें इनसान सिर्फ़ इस वजह से कि वे मामूलन (नियमित रूप से) दुनिया में पेश आ रही हैं, किसी ध्यान देने का हक़दार नहीं समझता। हालाँकि अगर वह इस बात पर ग़ौर करे कि दिन कैसे गुज़रता है और रात किस तरह आती है और दिन के जाने और रात के आने में क्या हिकमतें काम कर रही हैं तो उसे ख़ुद महसूस हो जाए कि यह एक क़ुदरत और हिकमतवाले रब के वुजूद और उसके एक होने की खुली दलील है। दिन कभी नहीं जा सकता और रात कभी नहीं आ सकती जब तक ज़मीन के सामने से सूरज न हटे। दिन के हटने और रात के आने में जो इन्तिहाई बाक़ायदगी पाई जाती है, वह इसके बिना मुमकिन न थी कि सूरज और ज़मीन को एक ही अटल ज़ाब्ते ने जकड़ रखा हो। फिर इस रात-दिन के आने-जाने का जो गहरा ताल्लुक़ ज़मीन पर पाई जानेवाली चीज़ों के साथ पाया जाता है, वह इस बात की साफ़ दलील देता है कि किसी ने यह निज़ाम इन्तिहाई दरजे की अक़्लमन्दी के साथ जान-बूझकर क़ायम किया है। ज़मीन पर इनसान और जानवरों और पेड़-पौधों का वुजूद, बल्कि यहाँ पानी और हवा और अलग-अलग मादनियात (खनिज पदार्थों) का वुजूद भी अस्ल में नतीजा है, इस बात का कि ज़मीन को सूरज से एक ख़ास दूरी पर रखा गया है और फिर यह इन्तिज़ाम किया गया है कि ज़मीन के अलग-अलग हिस्से एक सिलसिले (निरन्तरता) के साथ मुक़र्रर वक़्तों के बाद सूरज के सामने आते और उसके सामने से हटते रहें। अगर ज़मीन की दूरी सूरज से बहुत कम या बहुत ज़्यादा होती, या उसके एक हिस्से पर हमेशा रात रहती और दूसरे हिस्से पर हमेशा दिन रहता, या रात-दिन का उलट-फेर बहुत तेज़ या बहुत धीमा होता, या बेक़ायदगी के साथ अचानक कभी दिन निकल आता और कभी रात छा जाती, तो इन तमाम सूरतों में धरती के इस गोले पर कोई ज़िन्दगी मुमकिन न होती, बल्कि बेजान माद्दों की शक्ल और बनावट भी मौजूदा शक्ल से बहुत अलग होती। दिल की आँखें अगर बन्द न हों तो आदमी इस निज़ाम के अन्दर एक ऐसे ख़ुदा की कारीगरी साफ़ देख सकता है जिसने इस ज़मीन पर इस ख़ास तरह की चीज़ों को वुजूद में लाने का इरादा किया और ठीक-ठीक उसकी ज़रूरतों के मुताबिक़ ज़मीन और सूरज के बीच ये तालमेल क़ायम किए। ख़ुदा का वुजूद और उसका एक होना अगर किसी के नज़दीक अक़्ल से परे है तो वह ख़ुद ही सोचकर बताए कि इस कारीगरी को बहुत-से ख़ुदाओं की तरफ़ जोड़ना, या यह समझना कि किसी अंधे-बहरे फ़ितरत के क़ानून के तहत यह सब कुछ आप-ही-आप हो गया है, किस क़द्र अक़्ल से दूर होना चाहिए। किसी सुबूत के बिना सिर्फ़ अन्दाज़े और गुमान की बुनियाद पर जो आदमी दूसरी सरासर अक़्ल के ख़िलाफ़ वजहें मान सकता है, वह जब यह कहता है कि कायनात में नज़्म (अनुशासन) और हिकमत और मक़सद का पाया जाना ख़ुदा के होने का काफ़ी सुबूत नहीं है तो हमारे लिए यह मानना मुश्किल हो जाता है कि सचमुच यह आदमी किसी नज़रिए या अक़ीदे को क़ुबूल करने के लिए किसी दरजे में भी, काफ़ी या नाकाफ़ी, अक़्ली सुबूत की ज़रूरत महसूस करता है।
وَٱلشَّمۡسُ تَجۡرِي لِمُسۡتَقَرّٖ لَّهَاۚ ذَٰلِكَ تَقۡدِيرُ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡعَلِيمِ ۝ 35
(38) और सूरज, वह अपने ठिकाने की तरफ़ चला जा रहा है।33 यह ज़बरदस्त अलीम (सब कुछ जाननेवाली) हस्ती का बाँधा हुआ हिसाब है।
33. ठिकाने से मुराद वह जगह भी हो सकती है जहाँ जाकर सूरज को आख़िरकार ठहर जाना है और वह वक़्त भी हो सकता है जब वह ठहर जाएगा। इस आयत का सही मतलब इनसान उसी वक़्त तय कर सकता है जबकि उसे कायनात की हक़ीक़तों की ठीक-ठीक जानकारी हासिल हो जाए। लेकिन इनसानी इल्म का हाल यह है कि वह हर ज़माने में बदलता रहा है। और आज जो कुछ उसे बज़ाहिर मालूम है, उसके बदल जाने का हर वक़्त इमकान है। सूरज के बारे में पुराने ज़माने के लोग आँखों देखे तजरिबे की बुनियाद पर यह यक़ीन रखते थे कि वह ज़मीन के आस-पास चक्कर लगा रहा है। फिर और ज़्यादा खोजबीन के बाद यह नज़रिया क़ायम किया गया कि वह अपनी जगह ठहरा हुआ है और निज़ामे-शम्सी (सौरमण्डल) के सय्यारे (ग्रह) उसके आस-पास घूम रहे हैं। लेकिन यह नज़रिया भी मुस्तक़िल साबित न हुआ। बाद की खोजबीन से पता चला कि न सिर्फ़ सूरज, बल्कि तमाम ये तारे जिनको अचल (Fixed Stars) कहा जाता है, एक रुख़ पर चले जा रहे हैं। इन अचल तारों की रफ़्तार का अन्दाज़ा 10 से लेकर 100 मील फ़ी सेकेण्ड तक किया गया है और सूरज के बारे में मौजूदा ज़माने के माहिरीने-फ़लकियात (खगोलशास्त्री) कहते हैं कि वह अपने पूरे निज़ामे-शम्सी (सौरमण्डल) को लिए हुए 20 किलोमीटर (लगभग 12 मील) प्रति सेकेण्ड की गति से चल रहा है (देखिए— इंसाइक्लोपेडिया ब्रिटानिका, लफ़्ज़ Star और Sun)।
وَٱلۡقَمَرَ قَدَّرۡنَٰهُ مَنَازِلَ حَتَّىٰ عَادَ كَٱلۡعُرۡجُونِ ٱلۡقَدِيمِ ۝ 36
(39) और चाँद, उसके लिए हमने मंज़िलें मुक़र्रर कर दी हैं, यहाँ तक कि उनसे गुज़रता हुआ वह फिर खजूर की सूखी टहनी के जैसा रह जाता है।34
34. यानी महीने के दौरान में चाँद की गरदिश हर दिन बदलती रहती है। एक दिन वह हिलाल की (पहली का चाँद) बनकर निकलता है। फिर दिन-पर-दिन बढ़ता चला जाता है, यहाँ तक कि 14 वीं रात को पूरा चाँद बन जाता है। इसके बाद दिन-पर-दिन घटता चला जाता है, यहाँ तक कि आख़िरकार फिर अपनी शुरुआती पहली तारीख़वाले चाँद की शक्ल पर वापस पहुँच जाता है। यह चक्कर लाखों साल से पूरी बाक़ायदगी के साथ चल रहा है और चाँद की इन मुक़र्रर मंज़िलों (चरणों) में कभी फ़र्क़ नहीं आता। इसी वजह से इनसान हिसाब लगाकर हमेशा यह मालूम कर सकता है कि किस दिन चाँद किस मंज़िल (चरण) में होगा। अगर उसकी हरकत किसी ज़ाब्ते की पाबन्द न होती तो यह हिसाब लगाना मुमकिन न होता।
لَا ٱلشَّمۡسُ يَنۢبَغِي لَهَآ أَن تُدۡرِكَ ٱلۡقَمَرَ وَلَا ٱلَّيۡلُ سَابِقُ ٱلنَّهَارِۚ وَكُلّٞ فِي فَلَكٖ يَسۡبَحُونَ ۝ 37
(40) न सूरज के बस में यह है कि वह चाँद को जा पकड़े35 और न रात दिन से आगे बढ़ सकती है।36 सब एक-एक फ़लक (कक्ष) में तैर रहे हैं।37
35. इस जुमले के दो मतलब लिए जा सकते हैं और दोनों सही हैं। एक यह कि सूरज में यह ताक़त नहीं है कि चाँद को पकड़कर अपनी तरफ़ खींच ले, या ख़ुद उसके दायरे में दाख़िल होकर उससे जा टकराए। दूसरा यह कि जो वक़्त चाँद के निकलने और ज़ाहिर होने के लिए तय कर दिए गए हैं, उनमें सूरज कभी नहीं आ सकता। यह मुमकिन नहीं है कि रात को चाँद चमक रहा हो और अचानक सूरज आसमान पर आ जाए।
36. यानी ऐसा भी कभी नहीं होता कि दिन की मुक़र्रर मुद्दत ख़त्म होने से पहले रात आ जाए और जो वक़्त दिन की रौशनी के लिए मुक़र्रर है, उनमें वह अपने अंधेरे लिए हुए यकायक आ मौजूद हो।
37. 'फ़लक' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में सय्यारों के मदार (ग्रहों के कक्ष, Orbit) के लिए इस्तेमाल होता है और इसका मतलब 'समा' (आसमान) के मतलब से अलग है। यह कहना कि “सब एक फ़लक में तैर रहे हैं” चार हक़ीक़तों की निशानदेही करता है। एक यह कि न सिर्फ़ सूरज और चाँद, बल्कि तमाम तारे और सय्यारे और आसमान की दूसरी चीज़ें हरकत कर रही हैं। दूसरी यह कि उनमें से हर एक का फ़लक (कक्ष), यानी हर एक की हरकत का रास्ता या दायरा अलग है। तीसरी यह कि ये 'फ़लक' तारों को लिए हुए गरदिश नहीं कर रहे हैं, बल्कि तारे इन फ़लकों में घूम रहे हैं और चौथी यह कि 'फ़लकों' में तारों की हरकत इस तरह हो रही है जैसे किसी बहनेवाले माद्दे (तरल पदार्थ) में कोई चीज़ तैर रही हो। इन आयतों का अस्ल मक़सद इल्मे-हैयत (खगोलशास्त्र) की हक़ीक़त बयान करना नहीं है, बल्कि मक़सद इनसान को यह समझाना है कि अगर वह आँखें खोलकर देखे और अक़्ल से काम ले तो ज़मीन से लेकर आसमान तक जिधर भी वह निगाह डालेगा, उसके सामने ख़ुदा की हस्ती और उसके एक होने की बेहद और बेहिसाब दलीलें आएँगी और कहीं कोई एक दलील भी नास्तिकता और शिर्क के सुबूत में न मिलेगी। हमारी यह ज़मीन जिस निज़ामे-शम्सी (सौरमण्डल) में शामिल है, उसकी बड़ाई (विशालता) का यह हाल है कि उसका मर्कज़ (केन्द्र), सूरज ज़मीन से 3 लाख गुना बड़ा है और उसके सबसे दूर के सय्यारे (ग्रह) वरुण (Neptune) की दूरी सूरज से कम-से-कम 2 अरब 79 करोड़ 30 लाख मील है, बल्कि अगर प्लूटो (Pluto) को सबसे दूर का सय्यारा माना जाए तो वह सूरज से 4 अरब 60 करोड़ मील दूर तक पहुँच जाता है। इस अज़मत (विशालता) के बावजूद यह निज़ामे-शमसी (सौरमण्डल) एक बहुत बड़ी कहकशाँ (आकाश-गंगा) का सिर्फ़ एक छोटा-सा हिस्सा है, जिस कहकशाँ (आकाश-गंगा, Galaxy) में हमारा यह निज़ामे-शमसी (सौरमण्डल) शामिल है, उसमें लगभग 3 हज़ार मिलियन (3 अरब) सूरज पाए जाते हैं और उसका सबसे क़रीब का सूरज हमारी ज़मीन से इतना ज़्यादा दूर है कि उसकी रौशनी यहाँ तक पहुँचने में चार साल लगते हैं। फिर यह कहकशाँ (आकाश-गंगा) भी पूरी कायनात नहीं है, बल्कि अब तक के आँखों देखे तजरिबों की बुनियाद पर अन्दाज़ा किया गया है कि ये लगभग 20 लाख लोलबी सहाबियों (Spiral nebulae) में से एक है और उनमें से सबसे क़रीब के सहाबिये की दूरी हमसे इतनी ज़्यादा है कि उसकी रौशनी दस लाख साल में हमारी ज़मीन तक पहुँचती है। रहे वे सबसे दूर के तारे-सय्यारे जो हमारी मौजूदा मशीनों से नज़र आते हैं, उनकी रौशनी तो ज़मीन तक पहुँचने में दस करोड़ साल लग जाते हैं। इसपर भी यह नहीं कहा जा सकता कि इनसान ने सारी कायनात देख ली है। यह ख़ुदा की ख़ुदाई का बहुत थोड़ा-सा हिस्सा है जो अब तक इनसान के देखने में आया है। आगे नहीं कहा जा सकता कि खोजबीन के और ज़्यादा वसाइल (साधन) हासिल होने पर यह बात हमारे सामने आएगी कि यह कायनात और कहाँ-कहाँ तक फैली हुई है। तमाम मालूमात जो इस वक़्त तक कायनात के बारे में हासिल हुई हैं, उनसे साबित होता है कि यह पूरी दुनिया इसी माद्दे से बनी हुई है जिससे हमारी यह छोटी-सी धरती की दुनिया बनी है और इसके अन्दर वहीं एक क़ानून काम कर रहा है जो हमारी ज़मीन की दुनिया में काम कर रहा है, वरना यह किसी तरह मुमकिन न था कि हम इस ज़मीन पर बैठे हुए इतनी दूर-दराज़ दुनियाओं को देख पाते और उनके फ़ासले नापते और उनकी हरकतों (गतियों) का हिसाब लगाते। क्या यह इस बात का खुला सुबूत नहीं है कि यह सारी कायनात एक ही ख़ुदा की बनाई हुई और एक ही बादशाह की सल्तनत है? फिर जो नज़्म (अनुशासन), जो हिकमत, जो कारीगरी और जो मुनासबत (अनुकूलता) इन लाखों कहकशानों (आकाश-गंगाओं) और उनके अन्दर घूमनेवाले अरबों तारों और सय्यारों (ग्रहों) में पाई जाती है, उसको देखकर क्या कोई अक़्ल रखनेवाला आदमी यह सोच सकता है कि यह सब कुछ आप-से-आप हो गया है? इस नज़्म (अनुशासन) के पीछे कोई नाज़िम (प्रबन्धक), इस हिकमत के पीछे कोई हकीम (तत्त्वदर्शी), इस कारीगरी के पीछे कोई कारीगर और इस मुनासबत (अनुकूलता) के पीछे कोई स्कीम बनानेवाला नहीं है?
وَءَايَةٞ لَّهُمۡ أَنَّا حَمَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُمۡ فِي ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 38
(41) इनके लिए यह भी एक निशानी है कि हमने इनकी नस्ल को भरी हुई नाव में सवार कर दिया38
38. भरी हुई नाव से मुराद है हज़रत नूह (अलैहि०) की नाव और इनसानी नस्ल को उसपर सवार कर देने का मतलब यह है कि उस नाव में बज़ाहिर तो हज़रत नूह (अलैहि०) के कुछ साथी ही बैठे हुए थे, मगर हक़ीक़त में क़ियामत तक पैदा होनेवाले तमाम इनसान उसपर सवार थे। क्योंकि नूह (अलैहि०) के दौर में आनेवाले तूफ़ान में उनके सिवा बाक़ी तमाम इनसानों को डुबो दिया गया था और बाद की इनसानी नस्ल सिर्फ़ उन्हीं नाववालों से चली।
وَخَلَقۡنَا لَهُم مِّن مِّثۡلِهِۦ مَا يَرۡكَبُونَ ۝ 39
(42) और फिर इनके लिए वैसी ही नावें और पैदा कीं जिनपर ये सवार होते हैं।39
39. इससे यह इशारा निकलता है कि इतिहास में पहली नाव जो बनी वह हज़रत नूह (अलैहि०) की नाव थी। उससे पहले इनसान को नदियों और समुद्रों को पार करने का कोई तरीक़ा मालूम न था। इस तरीक़े की तालीम सबसे पहले अल्लाह तआला ने हज़रत नूह (अलैहि०) को दी और जब उनकी बनाई हुई नाव पर सवार होकर अल्लाह के कुछ बन्दे तूफ़ान से बच निकले तो आगे उनकी नस्ल ने समुद्री सफ़र के लिए नावें बनाने का सिलसिला शुरू कर दिया।
وَإِن نَّشَأۡ نُغۡرِقۡهُمۡ فَلَا صَرِيخَ لَهُمۡ وَلَا هُمۡ يُنقَذُونَ ۝ 40
(43) हम चाहें तो इनको डुबो दें, कोई इनकी फ़रियाद सुननेवाला न हो और किसी तरह ये न बचाए जा सकें।
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّنَّا وَمَتَٰعًا إِلَىٰ حِينٖ ۝ 41
(44) बस हमारी रहमत ही है जो इन्हें पार लगाती और एक ख़ास वक़्त तक ज़िन्दगी से फ़ायदा उठाने का मौक़ा देती है।40
40. पिछली निशानियों का ज़िक्र तौहीद (एकेश्वरवाद) की दलीलों की हैसियत से किया गया था। और इस निशानी का ज़िक्र यह एहसास दिलाने के लिए किया गया है कि इनसान को फ़ितरत की ताक़तों पर इस्तेमाल के जो अधिकार हासिल हैं, वे अल्लाह के दिए हुए हैं, उसके अपने हासिल किए हुए नहीं हैं और इन ताक़तों पर इस्तेमाल के जो तरीक़े उसने खोजे हैं, वे भी अल्लाह की रहनुमाई से उसकी जानकारी में आए हैं, उसके अपने मालूम किए हुए नहीं हैं। इनसान का अपना बल-बूता यह न था कि अपने बल पर वह इन बड़ी ताक़तों को अपनी ख़िदमत में लगाता और न उसमें यह सलाहियत थी कि ख़ुद फ़ितरत की छिपी बातों का पता चला लेता और इन क़ुव्वतों से काम लेने के तरीक़े जान सकता। फिर जिन क़ुव्वतों पर भी अल्लाह ने उसको इक़तिदार दिया है, उनपर उसका काबू उसी वक़्त तक चलता है जब तक अल्लाह की मरज़ी यह होती है कि वह उसकी ख़िदमत में लगी रहें। वरना जब अल्लाह की मरज़ी कुछ और होती है तो वही ताक़तें जो इनसान की ख़िदमत में लगी होती हैं, अचानक उसपर पलट पड़ती हैं और आदमी अपने आपको उनके सामने बिलकुल बेबस पाता है। इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करने के लिए अल्लाह तआला ने समुद्री सफ़र के मामले को सिर्फ़ नमूने के तौर पर पेश किया है। सारे ही इनसान तूफ़ान में ख़त्म हो जाते अगर अल्लाह तआला नाव बनाने का तरीक़ा हज़रत नूह (अलैहि०) को न सुझा देता और उनपर ईमान लानेवाले लोग उसमें सवार न हो जाते। फिर इनसानों के लिए पूरी ज़मीन पर फैलना इसी वजह से मुमकिन हुआ कि अल्लाह से नाव बनाने के उसूलों की जानकारी पाकर लोग नदियों और समुद्रों को पार करने के लायक़ हो गए। मगर उस इबतिदा (शुरुआत) से चलकर आज के बड़े-बड़े जहाज़ों के बनने तक इनसान ने जितनी कुछ तरक़्क़ी की है और जहाज़ चलाने की कला में जितनी कुछ भी महारत हासिल की है, उसके बावजूद वह यह दावा नहीं कर सकता कि नदी और समुद्र, सब उसके क़ाबू में आ गए हैं और उनपर उसे पूरा कंट्रोल (नियंत्रण) हासिल हो गया है। आज भी ख़ुदा का पानी ख़ुदा ही की क़ुदरत के क़ब्ज़े में है और जब वह चाहता है, इनसान को उसके जहाज़ों के साथ उसमें डुबो देता है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمُ ٱتَّقُواْ مَا بَيۡنَ أَيۡدِيكُمۡ وَمَا خَلۡفَكُمۡ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 42
(45) इन लोगों से जब कहा जाता है कि बचो उस अंजाम से जो तुम्हारे आगे आ रहा है और तुम्हारे पीछे गुज़र चुका है,41 शायद कि तुमपर रहम किया जाए (तो ये सुनी-अनसुनी कर जाते हैं) ।
41. यानी जो तुमसे पहले की क़ौमें देख चुकी हैं।
وَمَا تَأۡتِيهِم مِّنۡ ءَايَةٖ مِّنۡ ءَايَٰتِ رَبِّهِمۡ إِلَّا كَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 43
(46) इनके सामने इनके रब की आयतों में से जो आयत भी आती है, ये उसकी तरफ़ ध्यान नहीं देते।42
42. आयतों से मुराद अल्लाह की किताब की आयतें भी हैं, जिनके ज़रिए से इनसानों को नसीहत की जाती है और वे आयतें भी मुराद हैं जो कायनात की निशानियों और ख़ुद इनसान के वुजूद और उसके इतिहास में मौजूद हैं जो इनसान को सबक़ देती हैं, शर्त यह है कि वह सबक़ हासिल करने के लिए तैयार हो।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ أَنفِقُواْ مِمَّا رَزَقَكُمُ ٱللَّهُ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَنُطۡعِمُ مَن لَّوۡ يَشَآءُ ٱللَّهُ أَطۡعَمَهُۥٓ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 44
(47) और जब इनसे कहा जाता है कि अल्लाह ने जो रोज़ी तुम्हें दी है, उसमें से कुछ अल्लाह की राह में भी ख़र्च करो तो ये लोग, जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) किया है, ईमान लानेवालों को जवाब देते हैं, “क्या हम उनको खिलाएँ जिन्हें अगर अल्लाह चाहता तो ख़ुद खिला देता? तुम तो बिलकुल ही बहक गए हो।"43
43. इसका मक़सद यह बताना है कि कुफ़्र (हक़ के इनकार) ने सिर्फ़ उनकी अक़्ल ही अन्धी नहीं की है, बल्कि उनके अख़लाक़ी शुऊर को भी मुर्दा कर दिया है। वे न अल्लाह के बारे में सही सोच से काम लेते हैं, न दुनियावालों के साथ सही रवैया अपनाते हैं। उनके पास हर नसीहत का उलटा जवाब है। हर गुमराही और बदअख़लाक़ी के लिए एक औंधा फ़लसफ़ा (दर्शन) है। हर भलाई से बचने के लिए एक गढ़ा-गढ़ाया बहाना मौजूद है।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 45
(48) ये लोग44 कहते हैं कि “क़ियामत की धमकी आख़िर कब पूरी होगी? बताओ अगर तुम सच्चे हो।"45
44. तौहीद (ख़ुदा एक है, इस अक़ीदे) के बाद दूसरा मामला जिसपर नबी (सल्ल०) और ग़ैर-मुस्लिमों के बीच झगड़ा चल रहा था, वह आख़िरत का मामला था। उसके बारे में अक़्ली दलीलें तो आगे चलकर बात पूरी होने पर दी गई हैं। मगर दलीलें देने से पहले यहाँ उस मामले को लेकर आख़िरत के हाल का एक इबरतनाक नक़्शा उनके सामने खींचा गया है, ताकि उन्हें यह मालूम हो कि जिस चीज़ का वे इनकार कर रहे हैं, वह उनके इनकार से टलनेवाली नहीं है, बल्कि ज़रूर एक दिन इन हालात से उन्हें दोचार होना है।
45. इस सवाल का मतलब यह न था कि वे लोग सचमुच क़ियामत के आने की तारीख़ मालूम करना चाहते थे और अगर मसलन उनको यह बता दिया जाता कि वह फ़ुलाँ सन् में फ़ुलाँ महीने की फ़ुलाँ तारीख़ को आएगी तो उनका शक दूर हो जाता और वे उसे मान लेते। अस्ल में इस तरह के सवाल वे सिर्फ़ कजबहसी (कुतर्कों) के लिए चैलेंज के अन्दाज़ में करते थे और उनका मक़सद यह कहना था कि कोई क़ियामत-वियामत नहीं आनी है। तुम ख़ाह-मख़ाह हमें उसके डरावे देते हो। इसी वजह से उनके जवाब में यह नहीं कहा गया कि क़ियामत फ़ुलाँ दिन आएगी, बल्कि उन्हें यह बताया गया है कि वह आएगी और इस शान से आएगी।
مَا يَنظُرُونَ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ تَأۡخُذُهُمۡ وَهُمۡ يَخِصِّمُونَ ۝ 46
(49) अस्ल में ये जिस चीज़ की राह तक रहे हैं, वह बस धमाका है जो यकायक इन्हें ठीक उस हालत में धर लेगा जब ये (अपने दुनियावी मामलों में) झगड़ रहे होंगे
فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ تَوۡصِيَةٗ وَلَآ إِلَىٰٓ أَهۡلِهِمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 47
(50) और उस वक़्त ये वसीयत तक न कर सकेंगे, न अपने घरों को पलट सकेंगे।46
46. यानी ऐसा नहीं होगा कि क़ियामत धीरे-धीरे आ रही है और लोग देख रहे हैं कि वह आ रही है, बल्कि वह इस तरह आएगी कि लोग पूरे इत्मीनान के साथ अपनी दुनिया के कारोबार चला रहे हैं और उनके ज़ेहन के किसी कोने में भी यह ख़याल मौजूद नहीं है कि दुनिया के ख़त्म होने की घड़ी आ पहुँची है। इस हालत में अचानक एक ज़ोर का कड़ाका होगा और जो जहाँ था, वहीं धरा-का-धरा रह जाएगा। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) नबी (सल्ल०) से रिवायत करते हैं कि लोग रास्तों पर चल रहे होंगे, बाज़ारों में ख़रीद-फ़रोख़्त कर रहे होंगे, अपनी महफ़िलों में बैठे बातचीत कर रहे होंगे। ऐसे में यकायक सूर (नरसिंघा) फूँका जाएगा। कोई कपड़ा ख़रीद रहा होगा तो हाथ से कपड़ा रखने की नौबत न आएगी कि ख़त्म हो जाएगा। कोई अपने जानवरों को पानी पिलाने के लिए हौज़ भरेगा और अभी पिलाने न पाएगा कि क़ियामत आ जाएगी। कोई खाना-खाने बैठेगा और निवाला उठाकर मुँह तक ले जाने की भी उसे मुहलत न मिलेगी।
۞أَلَمۡ أَعۡهَدۡ إِلَيۡكُمۡ يَٰبَنِيٓ ءَادَمَ أَن لَّا تَعۡبُدُواْ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّهُۥ لَكُمۡ عَدُوّٞ مُّبِينٞ ۝ 48
(60) आदम के बच्चो, क्या मैंने तुमको हिदायत न की थी कि शैतान की बन्दगी न करो, वह तुम्हारा खुला दुश्मन है।
وَأَنِ ٱعۡبُدُونِيۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 49
(61) और मेरी ही बन्दगी करो, यह सीधा रास्ता है?53
53. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ इबादत इस्तेमाल हुआ है। यहाँ फिर अल्लाह ने ‘इबादत' को फ़रमाँबरदारी और बन्दगी के मानी में इस्तेमाल किया है। हम इससे पहले तफ़हीमुल-क़ुरआन में कई जगहों पर इस बात की तशरीह कर चुके हैं (देखिए; सूरा-2 बक़रा, हाशिया-170; सूरा-4 निसा, हाशिया-145; सूरा-6 अनआम, हाशिया-8; सूरा-9 तौबा, हाशिया-31; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-32; सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-50; सूरा-19 मरयम, हाशिया-27; सूरा-28 क़सस, हाशिया-86; सूरा-34 सबा, हाशिया-63)। इस सिलसिले में वह बेहतरीन बहस भी ध्यान देने लायक़ है जो इस आयत की तशरीह करते हुए इमाम राज़ी (रह०) ने अपनी तफ़सीर कबीर में की है। वे लिखते हैं, “‘शैतान की बन्दगी न करो' का मतलब है, उसके हुक्म पर न चलो। इसकी दलील यह है कि उसको सिर्फ़ सजदा करना ही मना नहीं, बल्कि उसकी फ़रमाँबरदारी करना और उसका हुक्म मानना भी मना है। लिहाज़ा फ़रमाँबरदारी इबादत है।” इसके बाद इमाम साहब यह सवाल उठाते हैं कि अगर हुक्म मानने का मतलब इबादत है तो क्या आयत, “हुक्म मानो अल्लाह का और हुक्म मानो रसूल का और तुममें से जो हाकिम हैं उनका” में हमको रसूल और हाकिमों की इबादत का हुक्म दिया गया है? फिर इस सवाल का जवाब वे यह देते हैं कि “उनकी फ़रमाँबरदारी जबकि अल्लाह के हुक्म से हो तो वह अल्लाह ही की इबादत और उसी की फ़रमाँबरदारी होगी। क्या देखते नहीं हो कि फ़रिश्तों ने अल्लाह के हुक्म से आदम को सजदा किया और यह अल्लाह के सिवा किसी की इबादत न थी। हाकिमों का हुक्म मानना उनकी इबादत सिर्फ़ उस सूरत में होगा जबकि ऐसे मामलों में उनका हुक्म माना जाए जिनमें अल्लाह ने उनकी बात मानने की इजाज़त नहीं दी है।” फिर फ़रमाते हैं, “अगर कोई आदमी तुम्हारे सामने आए और तुम्हें किसी चीज़ का हुक्म दे तो देखो कि उसका यह हुक्म अल्लाह के हुक्म के मुताबिक़ है या नहीं। मुताबिक़ न हो तो शैतान उस आदमी के साथ है, अगर इस हालत में तुमने उसकी बात मानी तो तुमने उसकी और उसके शैतान की इबादत की। इसी तरह अगर तुम्हारा मन तुम्हें किसी काम के करने पर उकसाए तो देखो कि शरीअत के मुताबिक़ वह काम करने की इजाज़त है या नहीं। इजाज़त न हो तो तुम्हारा मन ख़ुद शैतान है या शैतान उसके साथ है। अगर तुमने उसकी पैरवी की तो तुम उसकी इबादत के मुजरिम हुए।” आगे चलकर वे फिर फ़रमाते हैं, “मगर शैतान की इबादत के दरजे अलग-अलग हैं। कभी ऐसा होता है कि आदमी एक काम करता है और उसके जिस्मानी हिस्सों के साथ उसकी ज़बान भी उसका साथ देती है और दिल भी उसमें शरीक होता है और कभी ऐसा होता है कि जिस्म के हिस्सों से तो आदमी एक काम करता है, मगर दिल और ज़बान इस काम में शरीक नहीं होते। कुछ लोग एक गुनाह इस हाल में करते हैं कि दिल उनका उसपर राज़ी नहीं होता और ज़बान उनकी अल्लाह से माफ़ी माँग रही होती है और वे मानते हैं कि हम यह बुरा काम कर रहे हैं। यह सिर्फ़ जिस्म के ज़ाहिरी हिस्सों से शैतान की इबादत है। कुछ और लोग ऐसे होते हैं जो ठण्डे दिल से जुर्म करते हैं और ज़बान से भी अपनी इस हरकत पर ख़ुशी और इत्मीनान का इज़हार करते हैं ....... यह अन्दर और बाहर दोनों में शैतान के बन्दे हैं।” (तफ़सीर कबीर, हिस्सा-7, पे० 103, 104)।
وَلَقَدۡ أَضَلَّ مِنكُمۡ جِبِلّٗا كَثِيرًاۖ أَفَلَمۡ تَكُونُواْ تَعۡقِلُونَ ۝ 50
(62) मगर इसके बावजूद उसने तुममें से एक बड़े गरोह को गुमराह कर दिया।54 क्या तुम अक़्ल नहीं रखते थे?
54. यानी अगर तुम अक़्ल से महरूम रखे गए होते और फिर अपने रब को छोड़कर अपने दुश्मन की बन्दगी करते तो तुम्हारे लिए बहाने की कोई गुंजाइश थी। लेकिन तुम्हारे पास तो ख़ुदा की दी हुई अक़्ल मौजूद थी जिससे तुम अपनी दुनिया के सारे काम चला रहे थे और तुम्हें ख़ुदा ने पैग़म्बरों के ज़रिए से ख़बरदार भी कर दिया था। इसपर भी जब तुम अपने दुश्मन के धोखे में आए और वह तुम्हें गुमराह करने में कामयाब हो गया तो अपनी इस बेवक़ूफ़ी की ज़िम्मेदारी से तुम किसी तरह बरी नहीं हो सकते।
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي كُنتُمۡ تُوعَدُونَ ۝ 51
(63) यह वही जहन्नम है जिससे तुमको डराया जाता रहा था।
ٱصۡلَوۡهَا ٱلۡيَوۡمَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 52
(64) जो कुफ़्र (इनकार व नाफ़रमानी) तुम दुनिया में करते रहे हो, उसके बदले में अब इसका ईंधन बनो।
ٱلۡيَوۡمَ نَخۡتِمُ عَلَىٰٓ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَتُكَلِّمُنَآ أَيۡدِيهِمۡ وَتَشۡهَدُ أَرۡجُلُهُم بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 53
(65) आज हम इनके मुँह बन्द किए देते हैं, इनके हाथ हमसे बोलेंगे और इनके पाँव गवाही देंगे कि ये दुनिया में क्या कमाई करते रहे हैं।55
55. यह हुक्म उन हेकड़ मुजरिमों के मामले में दिया जाएगा जो अपने जुर्मों को क़ुबूल करने से इनकार करेंगे, गवाहियों को भी झुठला देंगे और आमालनामे के सही होने को भी न मानेंगे। तब अल्लाह तआला हुक्म देगा कि अच्छा, अपनी बकवास बन्द करो और देखो कि तुम्हारे अपने जिस्म के अंग (हिस्से) और हिस्से तुम्हारे करतूतों की क्या रूदाद सुनाते हैं। इस सिलसिले में यहाँ सिर्फ़ हाथों और पाँवों की गवाही का ज़िक्र किया गया है, मगर दूसरी जगहों पर बताया गया है कि उनकी आँखें, उनके कान, उनकी ज़बानें और उनके जिस्म की खालें भी पूरी दास्तान सुना देंगी कि वे उनसे क्या काम लेते रहे हैं, “जिस दिन उनकी ज़बानें और उनके हाथ और उनके पाँव उनके ख़िलाफ़ गवाही देंगे, जो कुछ वे करते रहे हैं।” (क़ुरआन, सूरा-24 नूर, आयत-24) और “यहाँ तक जब वे उसके पास पहुँच जाएँगे तो उनके कान और उनकी आँखें और उनकी खालें उनके ख़िलाफ़ उन बातों कर गवाही देंगी, जो कुछ वे करते रहे होंगे।” (क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम-सजदा, आयत-20)। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि एक तरफ़ तो अल्लाह तआला फ़रमाता है कि हम उनके मुँह बन्द कर देंगे और दूसरी तरफ़ सूरा-24 नूर की आयत में फ़रमाता है कि उनकी ज़बानें गवाही देंगी, ये दोनों बातें एक-दूसरे से मेल कैसे खाएँगी? इसका जवाब यह है कि मुँह बन्द कर देने से मुराद उनका बात करने का अधिकार छीन लेना है, यानी उसके बाद वे अपनी ज़बान से अपनी मरज़ी के मुताबिक़ बात न कर सकेंगे और ज़बानों की गवाही से मुराद यह है कि उनकी ज़बानें ख़ुद यह दास्तान सुनाना शुरू कर देंगी कि हमसे इन ज़ालिमों ने क्या काम लिया था, कैसे-कैसे कुफ़्र बके थे, क्या-क्या झूठ बोले थे, क्या-क्या फ़ितने बरपा किए थे और किस-किस मौक़े पर उन्होंने हमारे ज़रिए से क्या बातें की थीं।
وَلَوۡ نَشَآءُ لَطَمَسۡنَا عَلَىٰٓ أَعۡيُنِهِمۡ فَٱسۡتَبَقُواْ ٱلصِّرَٰطَ فَأَنَّىٰ يُبۡصِرُونَ ۝ 54
(66) हम चाहें तो इनकी आँखें मूँद दें, फिर ये रास्ते की तरफ़ लपककर देखें, कहाँ से इन्हें रास्ता सुझाई देगा?
وَلَوۡ نَشَآءُ لَمَسَخۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ مَكَانَتِهِمۡ فَمَا ٱسۡتَطَٰعُواْ مُضِيّٗا وَلَا يَرۡجِعُونَ ۝ 55
(67) हम चाहें तो इन्हें इनकी जगह ही पर इस तरह बिगाड़ (विकृत) कर के रख दें कि ये न आगे चल सकें, न पीछे पलट सकें।56
56. क़ियामत का नक़्शा खींचने के बाद अब उन्हें बताया जा रहा है कि ये क़ियामत तो ख़ैर तुम्हें दूर की चीज़ नज़र आती है, मगर ज़रा होश में आकर देखो कि ख़ुद इस दुनिया में जिसकी ज़िन्दगी पर तुम फूले हुए हो, तुम किस तरह अल्लाह की क़ुदरत के हाथ में बेबस हो। ये आँखें जिनकी रौशनी की बदौलत तुम अपनी दुनिया के सारे काम चला रहे हो, अल्लाह के एक इशारे से अंधी हो सकती हैं। ये टाँगें जिनके बल पर तुम यह सारी दौड़-धूप दिखा रहे हो, अल्लाह के एक हुक्म से इनपर अचानक फ़ालिज (पक्षाघात) गिर सकता है। जब तक अल्लाह की दी हुई ये ताक़तें काम करती रहती हैं, तुम अपनी ख़ुदी के घमण्ड में मदहोश रहते हो, मगर जब उनमें से कोई एक ताक़त भी जवाब दे जाती है तो तुम्हें मालूम हो जाता है कि तुम्हारी हैसियत क्या है।
وَمَن نُّعَمِّرۡهُ نُنَكِّسۡهُ فِي ٱلۡخَلۡقِۚ أَفَلَا يَعۡقِلُونَ ۝ 56
(68) जिस किसी को हम लम्बी उम्र देते हैं, उसकी बनावट को हम उलट ही देते हैं,57 क्या (ये हालात देखकर) इन्हें अक़्ल नहीं आती?
57. बनावट उलट देने से मुराद यह है कि अल्लाह तआला बुढ़ापे में आदमी की हालत बच्चों की-सी कर देता है। उसी तरह वह चलने-फिरने से मजबूर होता है। उसी तरह दूसरे उसे उठाते-बिठाते और सहारा देकर चलाते हैं। उसी तरह दूसरे उसे खिलाते-पिलाते हैं। उसी तरह वह अपने कपड़ों में और अपने बिस्तर पर पेशाब-पाख़ाना करने लगता है। उसी तरह वह नासमझी की बातें करता है, जिसपर लोग हँसते हैं। ग़रज़ जिस कमज़ोरी की हालत से उसने दुनिया में अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत की थी, ज़िन्दगी के आख़िरी दौर में वह उसी हालत को पहुँच जाता है।
وَمَا عَلَّمۡنَٰهُ ٱلشِّعۡرَ وَمَا يَنۢبَغِي لَهُۥٓۚ إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ وَقُرۡءَانٞ مُّبِينٞ ۝ 57
(69) हमने इस (नबी) को शेअर नहीं सिखाया है और न शाइरी इसको ज़ेब (शोभा) ही देती है।58 यह तो एक नसीहत है और साफ़ पढ़ी जानेवाली किताब,
58. यह इस बात का जवाब है कि हक़ के इनकारी तौहीद और आख़िरत और मरने के बाद की ज़िन्दगी और जन्नत-जहन्नम के बारे में नबी (सल्ल०) की बातों को सिर्फ़ शाइरी बताकर अपने नज़दीक बेवज़न ठहराने की कोशिश करते थे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, हाशिया-142)
لِّيُنذِرَ مَن كَانَ حَيّٗا وَيَحِقَّ ٱلۡقَوۡلُ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 58
(70) ताकि वह हर उस शख़्स को ख़बरदार कर दे जो ज़िन्दा हो59 और हक़ का इनकार करनेवालों के ख़िलाफ़ दलील क़ायम हो जाए।
59. ज़िन्दा से मुराद सोचने और समझनेवाला इनसान है जिसकी हालत पत्थर की-सी न हो कि आप उसके सामने चाहे कितने ही मुनासिब ढंग से हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) का फ़र्क़ बयान करें और कितनी ही दर्दमन्दी के साथ उसको नसीहत करें, वह न कुछ सुने, न समझे और न अपनी जगह से सरके।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّا خَلَقۡنَا لَهُم مِّمَّا عَمِلَتۡ أَيۡدِينَآ أَنۡعَٰمٗا فَهُمۡ لَهَا مَٰلِكُونَ ۝ 59
(71) क्या ये लोग देखते नहीं हैं कि हमने अपने हाथों की बनाई हुई चीज़ों60 में से इनके लिए मवेशी पैदा किए और अब ये उनके मालिक हैं।
60. 'हाथों' का लफ़्ज़ अल्लाह तआला के लिए अलामती तौर पर इस्तेमाल हुआ है। इसका मतलब यह नहीं है कि अल्लाह की पनाह, वह पाक हस्ती जिस्म रखती है और इनसानों की तरह हाथ-पाँव से काम करती है, बल्कि इसका मक़सद यह एहसास दिलाना है कि इन चीज़ों को अल्लाह तआला ने ख़ुद बनाया है, उनके बनाने में किसी दूसरे का ज़र्रा बराबर दख़ल नहीं है।
وَذَلَّلۡنَٰهَا لَهُمۡ فَمِنۡهَا رَكُوبُهُمۡ وَمِنۡهَا يَأۡكُلُونَ ۝ 60
(72) हमने उन्हें इस तरह इनके बस में कर दिया है कि उनमें से किसी पर ये सवार होते हैं, किसी का गोश्त खाते हैं
وَلَهُمۡ فِيهَا مَنَٰفِعُ وَمَشَارِبُۚ أَفَلَا يَشۡكُرُونَ ۝ 61
(73) और उनके अन्दर इनके लिए तरह-तरह के फ़ायदे और पीने की चीज़ें हैं। फिर क्या ये शुक्रगुज़ार नहीं होते?61
61. नेमत को नेमत देनेवाले के सिवा किसी और की देन समझना, उसपर किसी और का एहसानमन्द होना और नेमत देनेवाले के सिवा किसी और से नेमत पाने की उम्मीद रखना या नेमत तलब करना, यह सब नेमत की नाशुक्री है। इसी तरह यह भी नेमत की नाशुक्री है कि आदमी नेमत देनेवाले की दी हुई नेमत को उसकी मरज़ी के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करे। लिहाज़ा एक मुशरिक और हक़ का इनकारी और मुनाफ़िक़ और अल्लाह का नाफ़रमान इनसान सिर्फ़ ज़बान से शुक्र के अलफ़ाज़ अदा करके ख़ुदा का शुक्रगुज़ार बन्दा नहीं कहला सकता। मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ इस बात का इनकार न करते थे कि इन जानवरों को ख़ुदा ने पैदा किया है। उनमें से कोई भी यह नहीं कहता था कि उनके पैदा करने में दूसरे माबूदों (उपास्यों) का कोई दख़ल है। मगर यह सब कुछ मानने के बावजूद जब वे ख़ुदा की दी हुई नेमतों पर अपने माबूदों के शुक्रिए अदा करते और उनके आगे भेंटें और चढ़ावे चढ़ाते और उनसे और ज़्यादा नेमतों की दुआएँ माँगते और उनके लिए क़ुरबानियाँ करते थे तो ख़ुदा के लिए उनका ज़बानी शुक्र बिलकुल बेमतलब हो जाता था। इसी वजह से अल्लाह तआला उनको नाशुक्रा और एहसान को भुला देनेवाला ठहरा रहा है।
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لَّعَلَّهُمۡ يُنصَرُونَ ۝ 62
(74) यह सब कुछ होते हुए इन्होंने अल्लाह के सिवा दूसरे ख़ुदा बना लिए हैं और ये उम्मीद रखते हैं कि इनकी मदद की जाएगी।
لَا يَسۡتَطِيعُونَ نَصۡرَهُمۡ وَهُمۡ لَهُمۡ جُندٞ مُّحۡضَرُونَ ۝ 63
(75) वे इनकी कोई मदद नहीं कर सकते, बल्कि ये लोग उलटे उनके लिए हाज़िर रहनेवाली फ़ौज बने हुए हैं।62
62. यानी वे झूठे माबूद बेचारे ख़ुद अपने को बाक़ी रखने और अपनी हिफ़ाज़त और अपनी ज़रूरतों के लिए इन इबादत करनेवालों के मुहताज हैं। इनके लश्कर न हों तो उन बेचारों की ख़ुदाई (प्रभुत्व) एक दिन न चले। ये उनके हर वक़्त हाज़िर रहनेवाले ग़ुलाम बने उनके आस्ताने बना और सजा रहे हैं। ये उनके लिए प्रोपेगण्डे करते फिरते हैं। ये दुनियावालों को उनका भक्त बनाते हैं। ये उनकी तरफ़दारी में लड़ते-झगड़ते हैं। तब कहीं जाकर उनकी ख़ुदाई चलती है, वरना उनका कोई पूछनेवाला भी न हो। वे अस्ली ख़ुदा नहीं हैं कि कोई उसको माने या न माने, वह अपने बल पर आप सारी कायनात पर हुकूमत कर रहा है।
فَلَا يَحۡزُنكَ قَوۡلُهُمۡۘ إِنَّا نَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَ ۝ 64
(76) अच्छा, जो बातें ये बना रहे हैं, वे तुम्हें दुखी न करें। इनकी छिपी और खुली सब बातों को हम जानते हैं।63
63. यह बात नबी (सल्ल०) से कही जा रही है और खुली और छिपी बातों का इशारा इस तरफ़ है कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के वे बड़े-बड़े सरदार जो नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ झूठ के कि तूफ़ान उठा रहे थे, वे अपने दिलों में जानते और अपनी निजी महफ़िलों में मानते थे कि नबी (सल्ल०) पर जो इलज़ाम वे लगा रहे हैं, वे सरासर बेबुनियाद हैं। वे लोगों को आप (सल्ल०) के ख़िलाफ़ बदगुमान करने के लिए आप (सल्ल०) को शाइर, काहिन, जादूगर, दीवाना और न जाने क्या-क्या कहते थे, मगर ख़ुद उनके ज़मीर (अन्तरात्माएँ) इस बात को मानते थे और की आपस में वे एक-दूसरे के सामने इक़रार करते थे कि ये सब झूठी बातें हैं जो सिर्फ़ आप (सल्ल०) की दावत को नीचा दिखाने के लिए वे गढ़ रहे हैं। इसी लिए अल्लाह तआला अपने नबी से फ़रमाता है कि इन लोगों की बेहूदा बातों पर दुखी न हो। सच्चाई का मुक़ाबला झूठ जिसे करनेवाले आख़िरकार इस दुनिया में भी नाकाम होंगे और आख़िरत में भी अपना बुरा अंजाम देख लेंगे।
أَوَلَمۡ يَرَ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن نُّطۡفَةٖ فَإِذَا هُوَ خَصِيمٞ مُّبِينٞ ۝ 65
(77) क्या64 इनसान देखता नहीं है कि हमने उसे नुतफ़े (वीर्य) से पैदा किया और फिर वह खुला झगड़ालू बनकर खड़ा हो गया?"65
64. अब हक़ के इनकारियों के उस सवाल का दलील के साथ जवाब दिया जा रहा है जो आयत-48 में नक़्ल किया गया था। उनका यह सवाल कि “क़ियामत की धमकी कब पूरी होगी” कुछ इस ग़रज़ के लिए न था कि वे क़ियामत के आने की तारीख़ मालूम करना चाहते नाथे, बल्कि इस वजह से था कि वे मरने के बाद इनसानों के दोबारा उठाए जाने को नामुमकिन, बल्कि अक़्ल से परे समझते थे। इसी लिए उनके सवाल के जवाब में आख़िरत के इमकान की दलीलें दी जा रही हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा और सईद-बिन-जुबैर की रिवायतों से मालूम होता है कि इस मौक़े पर मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के सरदारों में से एक आदमी क़ब्रिस्तान से किसी मुर्दे की एक सड़ी-गली हड्डी लिए हुए आया और उसने नबी (सल्ल०) के सामने उसे तोड़कर और उसके बिखरे टुकड़े हवा में उड़ाकर आप (सल्ल०) से कहा, “ऐ मुहम्मद! तुम कहते हो कि मुर्दे फिर ज़िन्दा करके उठाए जाएँगे। बताओ, इन सड़ी-गली हड्डियों को कौन ज़िन्दा करेगा?” इसका जवाब फ़ौरन इन आयतों की सूरत में दिया गया।
65. यानी वह नुतफ़ा (वीर्य) जिसमें सिर्फ़ एक शुरुआती जरसूमा-ए-हयात (जीवाणु) के सिवा कुछ न था, उसको तरक़्क़ी देकर हमने इस हद तक पहुँचाया कि वह न सिर्फ़ जानवरों की तरह चलने-फिरने और खाने-पीने लगा, बल्कि उससे आगे बढ़कर उसमें अक़्ल और समझ, बहस-इसतिदलाल (वाद-विवाद और तर्क-वितर्क) और तक़रीर करने की वे क़ाबिलियतें पैदा हो गईं जो किसी हैवान को नसीब नहीं हैं, यहाँ तक कि अब वह अपने पैदा करनेवाले (ख़ुदा) के भी मुँह आने लगा है।
وَضَرَبَ لَنَا مَثَلٗا وَنَسِيَ خَلۡقَهُۥۖ قَالَ مَن يُحۡيِ ٱلۡعِظَٰمَ وَهِيَ رَمِيمٞ ۝ 66
(78) अब वह हमपर मिसालें चस्पाँ करता है66 और अपनी पैदाइश को भूल जाता है।67 कहता है कि “कौन इन हड्डियों को ज़िन्दा करेगा जबकि ये सड़-गल चुकी हो?"
66. यानी हमें मख़लूक़ात की तरह मजबूर और बेबस समझता है और यह सोचता है कि जिस तरह इनसान किसी मुर्दे को ज़िन्दा नहीं कर सकता, उसी तरह हम भी नहीं कर सकते।
67. यानी यह बात भूल जाता है कि हमने बेजान माद्दे से वह शुरुआती जरसूमा-ए-हयात (जीवाणु) पैदा किया जो उसके पैदा होने का सबब बना और फिर उस जरसूमे को परवरिश करके उसे यहाँ तक बढ़ा लाए कि आज वह हमारे सामने बातें छाँटने के क़ाबिल हुआ है।
قُلۡ يُحۡيِيهَا ٱلَّذِيٓ أَنشَأَهَآ أَوَّلَ مَرَّةٖۖ وَهُوَ بِكُلِّ خَلۡقٍ عَلِيمٌ ۝ 67
(79) इससे कहो, “इन्हें वही ज़िन्दा करेगा जिसने पहले इन्हें पैदा किया था और वह पैदा करने का हर काम जानता है।
ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُم مِّنَ ٱلشَّجَرِ ٱلۡأَخۡضَرِ نَارٗا فَإِذَآ أَنتُم مِّنۡهُ تُوقِدُونَ ۝ 68
(80) वही जिसने तुम्हारे लिए हरे-भरे पेड़ से आग पैदा कर दी और तुम उससे अपने चूल्हे रौशन करते हो।68
68. या तो इसका मतलब यह है कि उसने हरे-भरे पेड़ों में वह आग पकड़नेवाला माद्दा रखा है। जिसकी वजह से तुम लकड़ियों से आग जलाते हो। या फिर यह इशारा है 'मर्ख़' और 'अफ़ार' नाम के उन दो पेड़ों की तरफ़ जिनकी हरी-भरी टहनियों को लेकर अरबवाले एक-दूसरे पर मारते थे तो उनसे आग झड़ने लगती थी। पुराने ज़माने में अरब के देहाती लोग आग जलाने के लिए इसी तरीक़े का इस्तेमाल किया करते थे और हो सकता है कि आज भी करते हों।
أَوَلَيۡسَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۚ بَلَىٰ وَهُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 69
(81) क्या वह जिसने आसमानों और ज़मीन को पैदा किया, इसकी क़ुदरत नहीं रखता कि इन जैसों को पैदा कर सके? क्यों नहीं, जबकि वह माहिर ख़ल्लाक़ (कुशल महास्रष्टा) है।
إِنَّمَآ أَمۡرُهُۥٓ إِذَآ أَرَادَ شَيۡـًٔا أَن يَقُولَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 70
(82) वह तो जब किसी चीज़ का इरादा करता है तो उसका काम बस यह है कि उसे हुक्म दे कि हो जा और वह हो जाती है।
فَسُبۡحَٰنَ ٱلَّذِي بِيَدِهِۦ مَلَكُوتُ كُلِّ شَيۡءٖ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 71
(83) पाक है वह जिसके हाथ में हर चीज़ का मुकम्मल इक़तिदार (सत्ता) है और उसी की तरफ़ तुम पलटाए जानेवाले हो।
إِنَّا جَعَلۡنَا فِيٓ أَعۡنَٰقِهِمۡ أَغۡلَٰلٗا فَهِيَ إِلَى ٱلۡأَذۡقَانِ فَهُم مُّقۡمَحُونَ ۝ 72
(8) हमने उनकी गर्दनों में तौक़ (पट्टे) डाल दिए हैं, जिनसे वे ठुड्डियों तक जकड़े गए हैं, इसलिए वे सर उठाए, खड़े हैं।6
6. इस आयत में 'तौक़' (पट्टे) से मुराद उनकी अपनी हठधर्मी है जो उनके लिए हक़ (सत्य) के क़ुबूल करने में रुकावट बन रही थी। 'ठुड्डियों तक जकड़े जाने' और 'सिर उठाए खड़े होने’ से मुराद गर्दन की अकड़ है, जो घमण्ड और ग़ुरूर का नतीजा होती है। अल्लाह तआला यह फ़रमा रहा है कि हमने उनकी ज़िद और हठधर्मी को उनकी गर्दन का तौक़ बना दिया है और जिस घमण्ड और ग़ुरूर में ये पड़े हैं उसकी वजह से इनकी गर्दनें इस तरह अकड़ गई हैं कि अब चाहे कोई रोशन-से-रौशन हक़ीक़त भी उनके सामने आ जाए, ये उसकी तरफ़ ध्यान तक न देंगे।
وَجَعَلۡنَا مِنۢ بَيۡنِ أَيۡدِيهِمۡ سَدّٗا وَمِنۡ خَلۡفِهِمۡ سَدّٗا فَأَغۡشَيۡنَٰهُمۡ فَهُمۡ لَا يُبۡصِرُونَ ۝ 73
(9) हमने एक दीवार उनके आगे खड़ी कर दी है और एक दीवार उनके पीछे। हमने उन्हें ढाँक दिया है, उन्हें अब कुछ नहीं सूझता।7
7. एक दीवार आगे और एक पीछे खड़ी कर देने से मुराद यह है कि इसी हठधर्मी और घमण्ड का फ़ितरी नतीजा यह हुआ है कि ये लोग न पिछले इतिहास से कोई सबक़ लेते हैं और न मुस्तक़बिल (भविष्य) के नतीजों पर कभी ग़ौर करते हैं। इनके तास्सुबात (दुराग्रहों) ने इनको हर तरफ़ से इस तरह ढाँक लिया है और इनकी ग़लतफ़हमियों ने इनकी आँखों पर ऐसे परदे डाल दिए हैं कि इन्हें वे खुली-खुली सच्चाइयाँ नज़र नहीं आतीं जो हर नेक तबीअत रखनेवाले और बेतास्सुब (पक्षपात रहित) इनसान को नज़र आ रही हैं।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِ فَإِذَا هُم مِّنَ ٱلۡأَجۡدَاثِ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ يَنسِلُونَ ۝ 74
(51) फिर एक सूर फूँका जाएगा और यकायक ये अपने रब के सामने पेश होने के लिए अपनी क़ब्रों से निकल पड़ेंगे।47
47. सूर (नरसिंघा) के बारे में तफ़सीली जानकारी के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-78। पहले सूर और दूसरे सूर के बीच कितना ज़माना होगा, इसके बारे में कोई मालूमात हमें हासिल नहीं हैं। हो सकता है कि यह ज़माना सैकड़ों और हज़ारों साल लम्बा हो। हदीस में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसराफ़ील सूर पर मुँह रखे अर्श की तरफ़ देख रहे हैं और इन्तिज़ार में हैं कि कब फूँक मारने का हुक्म होता है। ये सूर तीन बार फूँका जाएगा। पहला 'नफ़्‌ख़तुल-फ़ज़अ' जो ज़मीन और आसमान के सारे जानदारों को सहमा देगा। दूसरा 'नफ़्‌खतुस-सअक़' जिसे सुनते ही सब मरकर गिर जाएँगे। फिर जब एक अल्लाह के सिवा कोई बाक़ी न रहेगा तो ज़मीन बदलकर जो कुछ-से-कुछ कर दी जाएगी और उसे उकाज़ में बनी चादर की तरह ऐसा सपाट कर दिया जाएगा कि उसमें कोई ज़रा-सी सलवट तक न रहेगी। फिर अल्लाह अपनी कायनात को बस एक झिड़की देगा जिसे सुनते ही हर कोई जिस जगह मरकर गिरा था उसी जगह वह उस बदली हुई ज़मीन पर उठ खड़ा होगा और यही 'नफ़्‌ख़तुल-क़ियाम लिरब्बिल-आलमीन' है। इसी बात की ताईद क़ुरआन मजीद के भी कई फ़रमानों से होती है। मिसाल के तौर पर देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—56, 57; सूरा-20 ता-हा, हाशिए—82, 83।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا مَنۢ بَعَثَنَا مِن مَّرۡقَدِنَاۜۗ هَٰذَا مَا وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَصَدَقَ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 75
(52) घबराकर कहेंगे, “अरे, यह किसने हमें हमारे सोने की जगह से उठा खड़ा किया?48 “यह वही चीज़ है जिसका रहमान ख़ुदा ने वादा किया था और रसूलों की बात सच्ची थी।"49
48. यानी उस वक़्त उन्हें यह एहसास न होगा कि वे मर चुके थे और अब एक लम्बी मुद्दत के बाद दोबारा ज़िन्दा करके उठाए गए हैं, बल्कि वे यह समझ रहे होंगे कि हम सोए पड़े थे, अब यकायक किसी भयानक हादिसे की वजह से हम जाग उठे हैं और भागे जा रहे हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-18; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-78)
49. यहाँ इस बात को नहीं बताया गया है कि यह जवाब देनेवाला कौन होगा। हो सकता है कि कुछ देर बाद ख़ुद उन्हीं लोगों की समझ में मामले की अस्ल हक़ीक़त आ जाए और वे आप ही अपने दिलों में कहें कि हाय हमारी कमबख़्ती, यह तो वही चीज़ है जिसकी ख़बर अल्लाह के रसूल हमें देते थे और हम उसे झुठलाया करते थे। यह भी हो सकता है कि ईमानवाले उनकी ग़लतफ़हमी दूर करें और उनको बताएँ कि यह नींद से जागना नहीं, बल्कि मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी है और यह भी हो सकता है कि यह जवाब क़ियामत का पूरा माहौल उनको दे रहा हो, या फ़रिश्ते उनको सही हक़ीक़त बताएँ।
إِن كَانَتۡ إِلَّا صَيۡحَةٗ وَٰحِدَةٗ فَإِذَا هُمۡ جَمِيعٞ لَّدَيۡنَا مُحۡضَرُونَ ۝ 76
(53) एक ही ज़ोर की आवाज़ होगी और सब-के-सब हमारे सामने हाज़िर कर दिए जाएँगे।
فَٱلۡيَوۡمَ لَا تُظۡلَمُ نَفۡسٞ شَيۡـٔٗا وَلَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 77
(54) आज50 किसी पर ज़र्रा बराबर ज़ुल्म न किया जाएगा और तुम्हें वैसा ही बदला दिया जाएगा, जैसे तुम अमल करते रहे थे
50. यह वह बात है जो अल्लाह तआला हक़ के इनकारियों और मुशरिकों और नाफ़रमानों और मुजरिमों से उस वक़्त कहेगा जब वे उसके सामने हाज़िर किए जाएँगे।
إِنَّ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ ٱلۡيَوۡمَ فِي شُغُلٖ فَٰكِهُونَ ۝ 78
(55) आज जन्नती लोग मज़े करने में लगे हैं,51
51. इस बात को समझने के लिए यह बात ज़ेहन में रहनी चाहिए कि नेक ईमानवाले हश्र के मैदान में रोककर नहीं रखे जाएँगे, बल्कि शुरू ही में उनको बिना हिसाब, या हलका हिसाब लेने के बाद जन्नत में भेज दिया जाएगा, क्योंकि उनका रिकार्ड साफ़ होगा। उन्हें अदालत के दौरान इन्तिज़ार की तकलीफ़ देने की कोई ज़रूरत न होगी। इसलिए अल्लाह तआला हश्र के मैदान में जवाबदेही करनेवाले मुजरिमों को बताएगा कि देखो, जिन नेक और भले लोगों को तुम दुनिया में बेवक़ूफ़ समझकर उनका मज़ाक़ उड़ाते थे, वे अपनी अक़्लमन्दी की बदौलत आज जन्नत के मज़े लूट रहे हैं और तुम जो अपने आपको बड़ा अक़्लमन्द और होशियार समझ रहे थे, यहाँ खड़े अपने जुर्मों की जवाबदेही कर रहे हो।
هُمۡ وَأَزۡوَٰجُهُمۡ فِي ظِلَٰلٍ عَلَى ٱلۡأَرَآئِكِ مُتَّكِـُٔونَ ۝ 79
(56) वे और उनकी बीवियाँ घनी छाँवों में हैं मसनदों पर तकिए लगाए हुए,
لَهُمۡ فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَلَهُم مَّا يَدَّعُونَ ۝ 80
(57) हर तरह की मज़ेदार चीज़ें खाने-पीने को उनके लिए वहाँ मौजूद हैं, जो कुछ वे तलब करें, उनके लिए हाज़िर है।
سَلَٰمٞ قَوۡلٗا مِّن رَّبّٖ رَّحِيمٖ ۝ 81
(58) रहम करनेवाले रब की तरफ़ से उनको सलाम कहा गया है।
وَٱمۡتَٰزُواْ ٱلۡيَوۡمَ أَيُّهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 82
(59) और ऐ मुजरिमो, आज तुम छँटकर अलग हो जाओ।52
52. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि नेक ईमानवालों से अलग हो जाओ, क्योंकि दुनिया में चाहे तुम उनकी क़ौम और उनके कुंबे और बिरादरी के लोग रहे हो, मगर यहाँ अब तुम्हारा उनका कोई रिश्ता बाक़ी नहीं है और दूसरा मतलब यह कि तुम आपस में अलग-अलग हो जाओ। अब तुम्हारा कोई जत्था क़ायम नहीं रह सकता। तुम्हारी सब पार्टियाँ तोड़ दी गईं। तुम्हारे तमाम रिश्ते और ताल्लुक़ात काट दिए गए। तुममें से एक-एक शख़्स को अब अकेले अपनी निज़ी हैसियत में अपने आमाल की जवाबदेही करनी होगी।