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سُورَةُ التَّكۡوِيرِ

81. अत-तकवीर

(मक्का में उतरी, आयतें 29)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'कुव्विरत' से लिया गया है। ‘कुव्विरत' वास्तव में ‘तकवीर’ से बना भूतकालिक अकर्मकवाच्य है जिसका अर्थ है 'लपेटी गई'। इस नाम से तात्पर्य यह है कि वह सूरा जिसमें लपेटने का उल्लेख हुआ है।

उतरने का समय

विषय और वर्णनशैली से साफ़ महसूस होता है कि यह मक्का के आरम्भिक काल में अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

इसके दो विषय हैं - एक आख़िरत, दूसरे रिसालत (पैग़म्बरी)। पहली 6 आयतों में क़ियामत के पहले चरण का उल्लेख किया गया है, फिर सात आयतों में दूसरे चरण का उल्लेख है। आख़िरत का यह सारा चित्र खींचने के बाद यह कहकर इंसान को सोचने के लिए छोड़ दिया गया है कि उस समय हर व्यक्ति को अपने आप ही मालूम हो जाएगा कि वह क्या लेकर आया है। इसके बाद रिसालत का विषय लिया गया है। इसमें मक्कावालों से कहा गया है कि मुहम्मद (सल्ल०) जो कुछ तुम्हारे सामने प्रस्तुत कर रहे हैं, वह न किसी दीवाने की बड़ है, न किसी शैतान का डाला हुआ वसवसा (बुरा विचार) है, बल्कि अल्लाह के भेजे हुए एक महान, प्रतिष्ठित और अमानतदार सन्देशवाहक का बयान है जिसे मुहम्मद (सल्ल०) ने खुले आसमान के उच्च क्षितिज पर दिन की रौशनी में अपनी आँखों से देखा है। इस शिक्षा से विमुखता दिखाकर आख़िर तुम किधर चले जा रहे हो?

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سُورَةُ التَّكۡوِيرِ
81. अत-तकवीर
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِذَا ٱلشَّمۡسُ كُوِّرَتۡ
(1) जब सूरज लपेट दिया जाएगा1,
1. सूरज के बिना रौशनी का कर दिए जाने के लिए यह एक बेहतरीन मिसाल है। अरबी में ‘तकवीर’ का मतलब लपेटना है। सिर पर पगड़ी बाँधने के लिए ‘तकवीरुल-अमामा’ के अलफ़ाज़ बोले जाते हैं, क्योंकि पगड़ी फैली हुई होती है और फिर सिर के आस-पास उसे लपेटा जाता है। इसी के हिसाब से उस रौशनी को जो सूरज से निकलकर सारे निज़ामे-शमसी (सौर-मण्डल) में फैलती है उसकी मिसाल अमामा से दी गई है और बताया गया है कि क़ियामत के दिन यह फैली हुई पगड़ी सूरज पर लपेट दी जाएगी, यानी उसकी रौशनी का फैलना बन्द हो जाएगा।
وَإِذَا ٱلنُّجُومُ ٱنكَدَرَتۡ ۝ 1
(2) और जब तारे बिखर जाएँगे2,
2. यानी वह बन्धन, जिसने तारों को अपने-अपने मदार (कक्ष) और जगह पर बाँध रखा है, खुल जाएगा और सब तारे और सय्यारे (ग्रह) कायनात में बिखर जाएँगे। इसके अलावा अपनी चमक खोने की वजह से वे सिर्फ़ बिखरेंगे ही नहीं, बल्कि माँद भी पड़ जाएँगे।
وَإِذَا ٱلۡجِبَالُ سُيِّرَتۡ ۝ 2
(3) और जब पहाड़ चलाए जाएँगे3,
3. दूसरे लफ़्ज़ों में ज़मीन की वह कशिश (गुरुत्वाकर्षण) भी ख़त्म हो जाएगी जिसकी वजह से पहाड़ भारी हैं और जमे हुए हैं। तो जब वह बाक़ी न रहेगी तो सारे पहाड़ अपनी जगह से उखड़ जाएँगे और बेवज़्‌न होकर ज़मीन पर इस तरह चलने लगेंगे जैसे फ़िज़ा में बादल चलते हैं।
وَإِذَا ٱلۡعِشَارُ عُطِّلَتۡ ۝ 3
(4) और जब दस महीने की गाभिन ऊँटनियाँ अपने हाल पर छोड़ दी जाएँगी,4
4. अरबों को क़ियामत की सख़्ती का तसव्वुर (कल्पना) दिलाने के लिए यह बेहतरीन अन्दाज़े-बयान था। मौजूदा ज़माने के ट्रक और बसें चलने से पहले अरब के लोगों के लिए उस ऊँटनी से ज़्यादा क़ीमती माल और कोई न था जो बच्चा जनने के क़रीब हो। इस हालत में उसकी बहुत ज़्यादा हिफ़ाज़त और देखभाल की जाती थी, ताकि वह खो न जाए, कोई उसे चुरा न ले, या और किसी तरह वह बरबाद न हो जाए। ऐसी ऊँटनियों से लोगों का बेपरवाह हो जाना मानो यह मतलब रखता है कि उस वक़्त कुछ ऐसी सख़्त मुसीबत लोगों पर पड़ेगी कि उन्हें अपने इस सबसे ज़्यादा प्यारे माल की हिफ़ाज़त का भी होश न रहेगा।
وَإِذَا ٱلۡوُحُوشُ حُشِرَتۡ ۝ 4
(5) और जब जंगली जानवर समेटकर इकट्ठे कर दिए जाएँगे,5
5. दुनिया में जब कोई आम मुसीबत का मौक़ा आता है तो हर तरह के जानवर भागकर एक जगह इकट्ठे हो जाते हैं। उस वक़्त न साँप डसता है, न शेर फाड़ता है।
وَإِذَا ٱلۡبِحَارُ سُجِّرَتۡ ۝ 5
(6) और जब समुद्र भड़का दिए जाएँगे6
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘सुज्जिरत’ इस्तेमाल किया गया है जो ‘तसजीर’ से बना है। ‘तसजीर’ अरबी ज़बान में तन्दूर के अन्दर आग दहकाने के लिए बोला जाता है। ज़ाहिर में यह बात अजीब मालूम होती है कि क़ियामत के दिन समुद्रों में आग भड़क उठेगी। लेकिन अगर पानी की हक़ीक़त लोगों की निगाह में हो तो इसमें कोई चीज़ भी ताज्जुब के क़ाबिल महसूस न होगी। यह सरासर अल्लाह तआला का मोजिज़ा (चमत्कार) है कि उसने ऑक्सीजन और हाइड्रोजन, दो ऐसी गैसों को आपस में मिलाया जिनमें से एक आग भड़कानेवाली और दूसरी भड़क उठनेवाली है, और इन दोनों के मेल (मिश्रण) से पानी जैसी चीज़ पैदा की जो आग बुझानेवाली है। अल्लाह की क़ुदरत का एक इशारा इस बात के लिए बिलकुल काफ़ी है कि वह पानी के इस मेल (मिश्रण) को बदल डाले और ये दोनों गैसें एक दूसरे से अलग होकर भड़कने और भड़काने में लग जाएँ जो इनकी अस्ल बुनियादी ख़ासियत है।
وَإِذَا ٱلنُّفُوسُ زُوِّجَتۡ ۝ 6
(7) और जब7 जानें (जिस्मों से) जोड़ दी जाएँगी,8
7. यहाँ से क़ियामत के दूसरे मरहले का ज़िक्र शुरू होता है।
8. यानी इनसान नए सिरे से उसी तरह ज़िन्दा किए जाएँगे जिस तरह वे दुनिया में मरने से पहले जिस्म और रूह के साथ ज़िन्दा थे।
وَإِذَا ٱلۡمَوۡءُۥدَةُ سُئِلَتۡ ۝ 7
(8) और जब ज़िन्दा गाड़ी हुई लड़की से पूछा जाएगा
بِأَيِّ ذَنۢبٖ قُتِلَتۡ ۝ 8
(9) कि वह किस क़ुसूर में मारी गई?9
9. इस आयत के अन्दाज़े-बयान में ऐसा सख़्त ग़ुस्सा पाया जाता है जिससे ज़्यादा सख़्त ग़ुस्से के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। बेटी को ज़िन्दा गाड़नेवाले माँ-बाप अल्लाह तआला की निगाह में ऐसे नफ़रत के क़ाबिल होंगे कि उनको मुख़ातब करके यह न पूछा जाएगा कि तुमने इस मासूम को क्यों क़त्ल किया, बल्कि उनसे निगाह फेरकर मासूम बच्ची से पूछा जाएगा कि तू बेचारी आख़िर किस क़ुसूर में मारी गई, और वह अपनी दास्तान सुनाएगी कि ज़ालिम माँ-बाप ने उसके साथ क्या ज़ुल्म किया और किस तरह से उसे ज़िन्दा दफ़्न कर दिया। इसके अलावा इस छोटी-सी आयत में दो बहुत बड़े मज़मून (विषय) समेट दिए गए हैं जो लफ़्ज़ों में बयान किए बिना ख़ुद-ब-ख़ुद उसके मौक़ा-महल से ज़ाहिर होते हैं। एक यह कि इसमें अरबवालों को यह एहसास दिलाया गया है कि जाहिलियत ने उनको अख़लाक़ी गिरावट की किस इन्तिहा पर पहुँचा दिया है कि वे अपनी ही औलाद को अपने हाथों ज़िन्दा ज़मीन में गाड़ देते हैं, फिर भी उन्हें ज़िद है कि अपनी इसी जाहिलियत पर क़ायम रहेंगे और उस इस्लाह (सुधार) को क़बूल न करेंगे जो मुहम्मद (सल्ल०) उनके बिगड़े हुए समाज में करना चाहते हैं। दूसरे यह कि इसमें आख़िरत के ज़रूरी होने की एक खुली दलील पेश की गई है। जिस लड़की को ज़िन्दा दफ़्न किया कर दिया गया, आख़िर उसके साथ कहीं तो इनसाफ़ होना चाहिए, और जिन ज़ालिमों ने यह ज़ुल्म किया, आख़िर कभी तो वह वक़्त आना चाहिए जब उनसे इस बेदर्दी से किए गए ज़ुल्म की पूछ-गछ की जाए। दफ़्न होनेवाली लड़की की फ़रियाद दुनिया में तो कोई सुननेवाला न था। जाहिलियत के समाज में इस हरकत को बिलकुल जाइज़ कर रखा गया था। न माँ-बाप को इसपर कोई शर्म आती थी, न ख़ानदान में कोई उनको मलामत करनेवाला था। न समाज में कोई इसपर पकड़ करने वाला था। बहरहाल ख़ुदा तो इस इतने बड़े जुर्म की सज़ा दिए बग़ैर न छोड़ेगा। अरब में लड़कियों को ज़िन्दा दफ़्न करने का यह बेरहमी भरा तरीक़ा पुराने ज़माने में अलग-अलग वजहों से रिवाज पा गया था। एक, मआशी (आर्थिक) तंगहाली जिसकी वजह से लोग चाहते थे कि खानेवाले कम हों और औलाद को पालने-पोसने का बोझ उनपर न पड़े। बेटों को तो इस उम्मीद पर पाल लिया जाता था कि बाद में वे रोज़ी-रोटी हासिल करने में हाथ बँटाएँगे, मगर बेटियों को इसलिए जान से मार दिया जाता था कि उन्हें जवान होने तक पालना पड़ेगा और फिर उन्हें ब्याह देना होगा। दूसरे, आम बदअम्नी जिसकी वजह से बेटों को इसलिए पाला जाता था कि जिसके जितने ज़्यादा बेटे होंगे उसके उतने ही हिमायती और मददगार होंगे, मगर बेटियों को इसलिए हलाक कर दिया जाता था कि क़बीलों की लड़ाइयों में उलटी उनकी हिफ़ाज़त करनी पड़ती थी और बचाव में वे किसी काम न आ सकती थीं। तीसरे आम बदअम्नी का एक पहलू यह भी था कि दुश्मन क़बीले जब एक-दूसरे पर अचानक छापे मारते थे तो जो लड़कियाँ भी उनके हाथ लगती थीं उन्हें ले जाकर वे या तो लौंडियाँ (दासियाँ) बनाकर रखते थे या कहीं बेच डालते थे। इन वजहों से अरब में यह तरीक़ा चल पड़ा था कि कभी तो बच्चे के जन्म लेने के वक़्त ही औरत के आगे एक गढ़ा खोदकर रखा जाता था कि अगर लड़की पैदा हो तो उसी वक़्त उसे गढ़े में फेंककर मिट्टी डाल दी जाए। और कभी अगर माँ इसपर राज़ी न होती या उसके ख़ानदानवाले इसमें रुकावट बनते तो बाप दिल न चाहते हुए भी उसे कुछ मुद्दत तक पालता और फिर किसी वक़्त रेगिस्तान में ले जाकर ज़िन्दा दफ़्न कर देता। इस मामले में जो संगदिली बरती जाती थी उसका क़िस्सा एक आदमी ने ख़ुद नबी (सल्ल०) से एक बार बयान किया। सुनने-दारमी के पहले ही बाब में यह हदीस दर्ज है कि एक आदमी ने नबी (सल्ल०) से अपने जाहिलियत के दौर का यह वाक़िआ बयान किया कि मेरी एक बेटी थी, जो मुझसे बहुत घुली-मिली हुई थी। जब मैं उसको पुकारता तो दौड़ी-दौड़ी मेरे पास आती थी। एक दिन मैंने उसको बुलाया और अपने साथ लेकर चल पड़ा। रास्ते में एक कुआँ आया। मैंने उसका हाथ पकड़कर उसे कुएँ में धक्का दे दिया। आख़िरी आवाज़ जो उसकी मेरे कानों में आई वह थी ‘हाय अब्बा, हाय अब्बा।’ यह सुनकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) रो दिए और आप (सल्ल०) के आँसू बहने लगे। वहाँ मौजूद लोगों में से एक ने कहा, ऐ आदमी, तूने नबी (सल्ल०) को दुखी कर दिया। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसे मत रोको, जिस चीज़ का इसे सख़्त एहसास है उसके बारे में इसे सवाल करने दो।” फिर आप (सल्ल०) ने उससे फ़रमाया कि अपना क़िस्सा फिर बयान कर। उसने दोबारा उसे बयान किया और आप (सल्ल०) सुनकर इस क़द्र रोए कि आपकी दाढ़ी आँसुओं से तर हो गई। इसके बाद आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि जाहिलियत में जो कुछ हो गया अल्लाह ने उसे माफ़ कर दिया, अब नए सिरे से अपनी ज़िन्दगी की शुरुआत कर। यह समझना सही नहीं है कि अरबवाले इस इन्तिहाई ग़ैर-इनसानी हरकत के बुरे होने का सिरे से कोई एहसास ही न रखते थे। ज़ाहिर बात है कि कोई समाज चाहे कितना ही बिगड़ चुका हो, वह ऐसी ज़ुल्म-भरी हरकतों की बुराई के एहसास से बिलकुल ख़ाली नहीं हो सकता। इसी वजह से क़ुरआन मजीद में इस बुरी हरकत पर कोई लम्बी-चैड़ी तक़रीर नहीं की गई है, बल्कि रोंगटे खड़े कर देनेवाले अलफ़ाज़ में सिर्फ़ इतनी बात कहकर छोड़ दिया गया है कि एक वक़्त आएगा जब ज़िन्दा गाड़ी हुई लड़की से पूछा जाएगा कि तू किस क़ुसूर में मारी गई। अरब के इतिहास से भी मालूम होता है कि बहुत-से लोगों को जाहिलियत के ज़माने में इस रस्म के बुरे होने का एहसास था। तबरानी की रिवायत है कि फ़रज़दक़ शाइर के दादा सअसआ-बिन-नाजिया अल-मुजाशिई ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल, मैंने जाहिलियत के ज़माने में कुछ अच्छे काम भी किए हैं, जिनमें से एक यह है कि मैंने 360 लड़कियों को ज़िन्दा दफ़्न होने से बचाया और हर एक की जान बचाने के लिए दो-दो ऊँट फ़िद्ये में दिए। क्या मुझे इसपर अज्र (अच्छा बदला) मिलेगा?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “हाँ! तेरे लिए अच्छा बदला है, और वह यह है कि अल्लाह ने तुझे इस्लाम की नेमत दी।” हक़ीक़त में यह इस्लाम की बरकतों में से एक बड़ी बरकत है कि उसने न सिर्फ़ यह कि अरब से इस इन्तिहाई बेरहमी-भरी रस्म का ख़ातिमा किया, बल्कि उलटा इस ख़याल को मिटाया कि बेटी की पैदाइश कोई हादिसा और मुसीबत है, जिसे दिल न चाहते हुए भी बरदाश्त किया जाए। इसके बरख़िलाफ़ इस्लाम ने यह तालीम दी कि बेटियों की परवरिश करना, उन्हें अच्छी तालीम और तर्बियत देना और उन्हें इस क़ाबिल बनाना कि वे एक अच्छी घरवाली बन सकें, बहुत बड़ा नेकी और भलाई का काम है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इस मामले में लड़कियों के बारे में लोगों की आम सोच को जिस तरह बदला है इसका अन्दाज़ा आप (सल्ल०) के उन बहुत-से फ़रमानों से हो सकता है जो हदीसों में नक़्ल हुए हैं। मिसाल के तौर पर हम यहाँ आप (सल्ल०) के कुछ फ़रमानों को नक़्ल करते हैं— “जो कोई इन लड़कियों की पैदाइश से आज़माइश में डाला जाए और फिर वह इनसे बेहतर सुलूक करे तो यह उसके लिए जहन्नम की आग से बचाव का ज़रिआ बनेंगी।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। “जिसने दो लड़कियों को परवरिश किया यहाँ तक कि वे बालिग़ हो गईं तो क़ियामत के दिन मेरे साथ वह इस तरह आएगा,” यह फ़रमाकर नबी (सल्ल०) ने अपनी उँगलियों को जोड़कर बताया। (हदीस : मुस्लिम)। “जिस शख़्स ने तीन बेटियों, या बहनों की परवरिश की, उनको अच्छा अदब (शिष्टाचार) सिखाया और उनसे मुहब्बत और नर्मी का बरताव किया, यहाँ तक कि वे उसकी मदद की मुहताज न रहीं तो अल्लाह उसके लिए जन्नत वाजिब (ज़रूरी) कर देगा।” एक आदमी ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल, और दो?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “और दो भी।” हदीस को रिवायत करनेवाले इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि अगर लोग उस वक़्त एक के बारे में पूछते तो नबी (सल्ल०) उसके बारे में भी यही फ़रमाते। (हदीस : शरहुस्सुन्नह्) “जिसके यहाँ लड़की हो और वह उसे ज़िन्दा दफ़्न न करे, न दबाकर रखे, न बेटे को उसपर तरजीह (प्राथमिकता) दे, अल्लाह उसे जन्नत में दाख़िल करेगा।” (हदीस : अबू-दाऊद) “जिसके यहाँ तीन बेटियाँ हों और वह उनपर सब्र करे और अपनी हैसियत के मुताबिक़ उनको अच्छे कपड़े पहनाए वह उसके लिए जहन्नम की आग से बचाव का ज़रिआ बनेंगी।” (हदीस : बुख़ारी फ़िल-अदबुल-मुफ़रद, इब्ने-माजा) “जिस मुसलमान के यहाँ दो बेटियाँ हों और वह उनको अच्छी तरह रखे वे उसे जन्नत में पहुँचाएँगी।” (हदीस : बुख़ारी अदबुल-मुफ़रद) नबी (सल्ल०) ने सुराक़ा-बिन-जुअशम से फ़रमाया, “मैं तुम्हें बताऊँ कि सबसे बड़ा सदक़ा (या फ़रमाया कि बड़े सदक़ों में से एक) क्या है?” उन्होंने कहा, “ज़रूर बताइए ऐ अल्लाह के रसूल।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तेरी वह बेटी जो (तलाक़ पाकर या बेवा होकर) तेरी तरफ़ पलट आए और तेरे सिवा कोई उसके लिए कमानेवाला न हो।” (हदीस : इब्ने-माजा, बुख़ारी फ़िल-अदबुल-मुफ़रद) यही वह तालीम है जिसने लड़कियों के बारे में लोगों का नज़रिया सिर्फ़ अरब ही में नहीं, बल्कि दुनिया की उन तमाम क़ौमों में बदल दिया जो इस्लाम की नेमत से फ़ायदा उठाती चली गईं।
وَإِذَا ٱلصُّحُفُ نُشِرَتۡ ۝ 9
(10) और जब आमाल-नामे खोले जाएँगे,
وَإِذَا ٱلسَّمَآءُ كُشِطَتۡ ۝ 10
(11) और जब आसमान का परदा हटा दिया जाएगा10,
10. यानी जो कुछ अब निगाहों से छिपा है वह सब ज़ाहिर हो जाएगा। अब तो सिर्फ़ ख़ला (शून्य) दिखाई देता है या फिर बादल, मिट्टी और धूल, चाँद, सूरज और तारे। लेकिन उस वक़्त ख़ुदा की ख़ुदाई अपनी अस्ल हक़ीक़त के साथ सबके सामने बेपरदा हो जाएगी।
وَإِذَا ٱلۡجَحِيمُ سُعِّرَتۡ ۝ 11
(12) और जब जहन्नम दहकाई जाएगी,
وَإِذَا ٱلۡجَنَّةُ أُزۡلِفَتۡ ۝ 12
(13) और जब जन्नत क़रीब ले आई जाएगी11,
11. यानी हश्र के मैदान में जब लोगों के मुक़द्दमों की सुनवाई हो रही होगी उस वक़्त जहन्नम की दहकती हुई आग भी सबको नज़र आ रही होगी और जन्नत भी अपनी सारी नेमतों के साथ सबके सामने मौजूद होगी, ताकि बुरे लोग भी जान लें कि वे किस चीज़ से महरूम (वंचित) होकर कहाँ जानेवाले हैं, और अच्छे लोग भी जान लें कि वे किस चीज़ से बचकर किन नेमतों को पानेवाले हैं।
عَلِمَتۡ نَفۡسٞ مَّآ أَحۡضَرَتۡ ۝ 13
(14) उस वक़्त हर आदमी को मालूम हो जाएगा कि वह क्या लेकर आया है।
فَلَآ أُقۡسِمُ بِٱلۡخُنَّسِ ۝ 14
(15) तो नहीं,12 मैं क़सम खाता हूँ पलटने
12. यानी तुम लोगों का यह गुमान सही नहीं है कि यह जो कुछ क़ुरआन में बयान किया जा रहा है यह किसी दीवाने की बड़ है या कोई शैतानी वसवसा है।
ٱلۡجَوَارِ ٱلۡكُنَّسِ ۝ 15
(16) और छिप जानेवाले तारों की,
وَٱلَّيۡلِ إِذَا عَسۡعَسَ ۝ 16
(17) और रात की जबकि वह विदा हुई
وَٱلصُّبۡحِ إِذَا تَنَفَّسَ ۝ 17
(18) और सुबह की जबकि उसने साँस ली13,
13. यह क़सम जिस बात पर खाई गई है वह आगे की आयतों में बयान की गई है। मतलब इस आयत का यह है कि मुहम्मद (सल्ल०) ने अंधेरे में कोई सपना नहीं देखा है, बल्कि जब तारे छिप गए थे, रात बीत गई थी और सुबह निकल आई थी, उस वक़्त खुले आसमान पर उन्होंने ख़ुदा के फ़रिश्ते को देखा था। इसलिए वे जो कुछ बयान कर रहे हैं, वह उनकी आँखों देखी हक़ीक़त और पूरे होशो-हवास के साथ दिन की रौशनी में पेश आनेवाले तजरिबे पर मबनी (आधारित) है।
إِنَّهُۥ لَقَوۡلُ رَسُولٖ كَرِيمٖ ۝ 18
(19) यह हक़ीक़त में एक बुज़ुर्ग पैग़ाम लानेवाले का क़ौल (कथन)14 है
14. इस जगह पर बुज़ुर्ग पैग़ाम लानेवाले (रसूले-करीम) से मुराद वह्य लानेवाला फ़रिश्ता है, जैसा कि आगे की आयतों से साफ़ मालूम हो रहा है। और क़ुरआन को पैग़ाम लानेवाले के क़ौल (कहने) का मतलब यह नहीं है कि इस फ़रिश्ते का अपना कलाम है, बल्कि ‘क़ौले-रसूल’ के अलफ़ाज़ ख़ुद ही यह ज़ाहिर कर रहे हैं कि यह उस हस्ती का कलाम है जिसने उसे पैग़ाम पहुँचानेवाला बनाकर भेजा है। सूरा-69 हाक़्क़ा, आयत-40 में इसी तरह क़ुरआन को मुहम्मद (सल्ल०) का क़ौल (कथन) कहा गया है और वहाँ भी मुराद यह नहीं है कि यह नबी (सल्ल०) का अपने दिमाग़ से बनाया हुआ है, बल्कि इसे ‘रसूले-करीम’ का क़ौल (बात) कहकर साफ़ बयान कर दिया गया है कि इस चीज़ को नबी (सल्ल०) ख़ुदा के रसूल की हैसियत से पेश कर रहे हैं न कि मुहम्मद-बिन-अब्दुल्लाह की हैसियत से। दोनों जगह क़ौल (बात) को फ़रिश्ते और मुहम्मद (सल्ल०) की तरफ़ इस वजह से जोड़ा गया है कि अल्लाह का पैग़ाम मुहम्मद (सल्ल०) के सामने पैग़ाम लानेवाले फ़रिश्ते की ज़बान से, और लोगों के सामने मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से अदा हो रहा था (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-69 हाक़्क़ा, हाशिया-22)।
ذِي قُوَّةٍ عِندَ ذِي ٱلۡعَرۡشِ مَكِينٖ ۝ 19
(20) जो बड़ी ताक़त रखता है,15 अर्शवाले के यहाँ बुलन्द मर्तबा है,
15. सूरा-53 नज्म की आयतों-4, 5 में इसी को यूँ कहा गया है कि— “यह तो एक वह्य है जो उसपर उतारी जाती है, उसको ज़बरदस्त क़ुव्वतोंवाले ने तालीम दी है।” यह बात हक़ीक़त में मुतशाबिहात (क़ुरआन की वे बातें जिनका मतलब इनसानी अक़्ल से परे है और जिसे सिर्फ़ अल्लाह तआला ही जानता है) में से है कि जिबरील (अलैहि०) की इन ज़बरदस्त क़ुव्वतों और उनकी ‘बड़ी ताक़त’ से क्या मुराद है। बहरहाल इससे इतनी बात ज़रूर मालूम होती है कि फ़रिश्तों में भी वह अपनी ग़ैर-मामूली ताक़तों के एतिबार से अलग जाने जाते हैं। मुस्लिम, किताबुल-ईमान में हज़रत आइशा (रज़ि०) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का यह क़ौल नक़्ल करती हैं कि मैंने दो बार जिबरील को उनकी असली सूरत में देखा है। उनकी अज़ीम (महान) हस्ती ज़मीन और आसमान के बीच सारी फ़िज़ा पर छाई हुई था। बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी और मुसनद अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको इस शान में देखा कि उनके छः सौ (600) पंख थे। इससे कुछ उनकी ज़बरदस्त ताक़त का अन्दाज़ा किया जा सकता है।
مُّطَاعٖ ثَمَّ أَمِينٖ ۝ 20
(21) वहाँ उसका हुक्म माना जाता है,16 वह भरोसे के क़ाबिल है।17
16. यानी वह फ़रिश्तों का अफ़सर है। तमाम फ़रिश्ते उसके हुक्म के तहत काम करते हैं।
17. यानी वह अपनी तरफ़ से कोई बात ख़ुदा की वह्य में मिला देनेवाला नहीं है, बल्कि ऐसा अमानतदार है कि जो कुछ ख़ुदा की तरफ़ से कहा जाता है उसे ज्यों-का-त्यों पहुँचा देता है।
وَمَا صَاحِبُكُم بِمَجۡنُونٖ ۝ 21
(22) और (ऐ मक्कावालो!) तुम्हारा साथी18 मजनून (उन्मादी) नहीं है,
18. साथी से मुराद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं, और आप (सल्ल०) को मक्का के लोगों का साथी कहकर अस्ल में उन्हें इस बात का एहसास दिलाया गया है कि आप (सल्ल०) उनके लिए कोई अजनबी शख़्स नहीं हैं, बल्कि उन्हीं की क़ौम के और उन्हीं के क़बीले के हैं। उन्हीं के बीच आप (सल्ल०) की सारी ज़िन्दगी गुज़री है, और उनके शहर का बच्चा-बच्चा जानता है कि आप कितने अक़्लमन्द और समझदार इनसान हैं। ऐसे शख़्स को जानते-बूझते मजनून (बावला) कहते हुए उन्हें कुछ तो शर्म आनी चाहिए। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-53 नज्म, हाशिए—2, 3)
وَلَقَدۡ رَءَاهُ بِٱلۡأُفُقِ ٱلۡمُبِينِ ۝ 22
(23) उसने उस पैग़ाम लानेवाले को रौशन उफ़ुक़ (क्षितिज) पर देखा है।19
19. सूरा-53 नज्म आयतें—7 से 9 में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की इस आँखों-देखी बात को ज़्यादा तफ़सील के साथ बयान किया गया है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-53 नज्म, हाशिए—7, 8)।
وَمَا هُوَ عَلَى ٱلۡغَيۡبِ بِضَنِينٖ ۝ 23
(24) और वह ग़ैब (के इस इल्म को लोगों तक पहुँचाने) के मामले में कंजूस नहीं है।20
20. यानी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तुमसे कोई बात छिपाकर नहीं रखते। ग़ैब (परोक्ष) की जो हक़ीक़तें भी अल्लाह तआला की तरफ़ से उनपर खोली गई हैं, चाहे वे अल्लाह के वुजूद और उसकी सिफ़ात (गुणों) के बारे में हों, या फ़रिश्तों के बारे में, या मरने के बाद की ज़िन्दगी और क़ियामत और आख़िरत और जन्नत-जहन्नम के बारे में, सब कुछ तुम्हारे समाने बिना घटाए-बढ़ाए बयान कर देते हैं।
وَمَا هُوَ بِقَوۡلِ شَيۡطَٰنٖ رَّجِيمٖ ۝ 24
(25) और यह किसी धुतकारे हुए शैतान की कही हुई बात नहीं है।21
21. यानी तुम्हारा यह ख़याल ग़लत है कि कोई शैतान आकर मुहम्मद (सल्ल०) के कान में ये बातें फूँक देता है। शैतान का आख़िर यह काम कब से हो गया कि वह इनसान को शिर्क और बुतपरस्ती, दुनियापरस्ती और ख़ुदा के इनकार से हटाकर ख़ुदापरस्ती और अल्लाह को एक मानने की तालीम दे। इनसान को बेनकेल का ऊँट बनकर रहने के बजाय ख़ुदा के सामने ज़िम्मेदारी और जवाबदेही का एहसास दिलाए। जहालत-भरी रस्मों और ज़ुल्म और बदअख़लाक़ी और बदकिरदारी से मना करके पाक-साफ़ ज़िन्दगी, इनसाफ़ और परहेज़गारी और बेहतरीन अख़लाक़ की तरफ़ रहनुमाई करे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-26 शुअरा, आयतें—210 से 212 साथ में हाशिए—130 से 133 और आयतें—221 से 223 साथ में हाशिए—140, 141)।
فَأَيۡنَ تَذۡهَبُونَ ۝ 25
(26) फिर तुम लोग किधर चले जा रहे हो ?
إِنۡ هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 26
(27) यह तो सारी दुनियावालों के लिए एक नसीहत है,
لِمَن شَآءَ مِنكُمۡ أَن يَسۡتَقِيمَ ۝ 27
(28) तुममें से हर उस आदमी के लिए जो सीधे रास्ते पर चलना चाहता हो।22
22. दूसरे अलफ़ाज़ में यह नसीहत की बात है तो सारी इनसानियत के लिए, मगर इससे फ़ायदा वही शख़्स उठा सकता है जो ख़ुद सही रास्ते पर चलना चाहता हो। इनसान का हक़ का तलबगार और सच्चाई-पसन्द होना इससे फ़ायदा उठाने के लिए पहली शर्त है।
وَمَا تَشَآءُونَ إِلَّآ أَن يَشَآءَ ٱللَّهُ رَبُّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 28
(29) और तुम्हारे चाहने से कुछ नहीं होता जब तक अल्लाह, सारे जहान का रब, न चाहे।23
23. यह बात इससे पहले सूरा-74 मुद्दस्सिर, आयत-56, और सूरा-76 दह्‍र, आयत-30 में गुज़र चुकी है। तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-74 मुद्दस्सिर, हाशिया-41।