(7) और जो कुछ वे ईमान लानेवालों के साथ कर रहे थे, उसे देख रहे थे।4
4. गढ़ेवालों से मुराद वे लोग हैं जिन्होंने बड़े-बड़े गढ़ों में आग भड़काकर ईमान लानेवाले लोगों को उनमें फेंका और अपनी आँखों से उनके जलने का तमाशा देखा था। मारे गए का मतलब यह है कि उनपर ख़ुदा की लानत पड़ी और वे अल्लाह के अज़ाब के हक़दार हो गए। और इस बात पर तीन चीज़ों की क़सम खाई गई है। एक, बुर्जोंवाले आसमान की, दूसरे क़ियामत के दिन की जिसका वादा किया गया है। तीसरे, क़ियामत के हौलनाक मंज़रों की और उन सारे जानदारों की जो उन मंज़रों को देखेंगे। यह पहली चीज़ इस बात पर गवाही दे रही है कि जो सब कुछ कर सकनेवाली (सर्वशक्तिमान) हस्ती कायनात के बड़े-बड़े तारों और सय्यारों (ग्रहों) पर हुकूमत कर रही है उसकी पकड़ से यह मामूली (तुच्छ) इनसान कहाँ बचकर जा सकता है। दूसरी चीज़ की क़सम इस वजह से खाई गई है कि दुनिया में उन लोगों ने जो ज़ुल्म करना चाहा कर लिया, मगर वह दिन बहरहाल आनेवाला है जिससे इनसानों को ख़बरदार किया जा चुका है कि उसमें हर मज़लूम की फ़रियाद सुनी जाएगी और हर ज़ालिम की पकड़ होगी। तीसरी चीज़ की क़सम इसलिए खाई गई है कि जिस तरह इन ज़ालिमों ने उन बेबस ईमानवालों के जलने का तमाशा देखा उसी तरह क़ियामत के दिन सारी मख़लूक़ (सृष्टि) देखेगी कि इनकी ख़बर किस तरह ली जाती है।
गढ़ों में आग जलाकर ईमानवालों को उनमें फेंकने के अनगिनत वाक़िआत रिवायतों में बयान हुए हैं जिनसे मालूम होता है कि दुनिया में कई बार इस तरह के ज़ुल्म किए गए हैं।
इनमें से एक वाक़िआ हज़रत सुहैब रूमी (रज़ि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से रिवायत किया है कि एक बादशाह के पास एक जादूगर था। उसने अपने बुढ़ापे में बादशाह से कहा कि कोई लड़का ऐसा मुक़र्रर कर दे जो मुझसे यह जादू सीख ले। बादशाह ने एक लड़के को मुक़र्रर कर दिया। मगर वह लड़का जादूगर के पास आते-जाते एक राहिब से भी (जो शायद ईसा अलैहि० की पैरवी करनेवालों में से था) मिलने लगा और उसकी बातों से मुतास्सिर होकर ईमान ले आया, यहाँ तक कि उसकी तरबियत से साहिबे-करामत (चमत्कारी) हो गया और अन्धों को देखनेवाला और कोढ़ियों को तन्दुरुस्त करने लगा। बादशाह को जब यह मालूम हुआ कि यह लड़का तौहीद (अल्लाह के एक होने) पर ईमान ले आया है तो उसने पहले तो राहिब को क़त्ल किया, फिर उस लड़के को क़त्ल करना चाहा, मगर कोई हथियार और कोई चाल उसपर काम न कर सकी। आख़िरकार लड़के ने कहा कि अगर तू मुझे क़त्ल करना ही चाहता है तो आम लोगों के सामने ‘बिसमि रब्बिल-ग़ुलाम’ (इस लड़के के रब के नाम पर) कहकर मुझे तीर मार, मैं मर जाऊँगा। चुनाँचे बादशाह ने ऐसा ही किया और लड़का मर गया। इसपर लोग पुकार उठे कि हम इस लड़के के रब पर ईमान ले आए। बादशाह के दरबारियों ने उससे कहा यह तो वही कुछ हो गया जिससे आप बचना चाहते थे। लोग आपके दीन को छोड़कर इस लड़के के दीन को मान गए। बादशाह यह हालत देखकर ग़ुस्से में भर गया। उसने सड़कों के किनारे गढ़े खुदवाए, उनमें आग भरवाई, और जिस-जिसने ईमान से फिरना क़ुबूल न किया उसको आग में फिंकवा दिया। (हदीस : अहमद, मुस्लिम, नसई, तिरमिज़ी, इब्ने-जरीर, अब्दुर्रज़्ज़ाक़, इब्ने-अबी-शैबा, तबरानी, अब्द-बिन-हुमैद)।
दूसरा वाक़िआ हज़रत अली (रज़ि०) से रिवायत है। वह फ़रमाते हैं कि ईरान के एक बादशाह ने शराब पीकर अपनी बहन से ज़िना (व्यभिचार) का गुनाह किया और दोनों के दरमियान नाजाइज़ ताल्लुक़ात क़ायम हो गए। बात खुली तो बादशाह ने लोगों में एलान कराया कि ख़ुदा ने बहन से निकाह हलाल कर दिया है। लोगों ने इसे क़ुबूल न किया तो उसने तरह-तरह की सज़ाएँ देकर आम लोगों को यह बात मानने पर मजबूर किया, यहाँ तक कि वह आग से भरे हुए गढ़ों में हर उस शख़्स को फिंकवाता चला गया जिसने उसे मानने से इनकार किया। हज़रत अली (रज़ि०) का बयान है कि उसी वक़्त से मजूसियों (अग्नि पूजकों) में मुहर्रमात (हराम ठहराई हुई औरतों) से शादी का तरीक़ा रिवाज पाया है। (इब्ने-जरीर)
तीसरा वाक़िआ इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने शायद इसराईली रिवायतों से नक़्ल किया है कि बाबिल वालों ने बनी-इसराईल को मूसा (अलैहि०) के दीन से फिर जाने पर मजबूर किया था, यहाँ तक कि उन्होंने आग से भरे हुए गढ़ों में उन लोगों को फेंक दिया जो इससे इनकार करते थे (इब्ने-जरीर, अब्द बिन-हुमैद)।
सबसे मशहूर वाक़िआ नजरान का है जिसे इब्ने-हिशाम, तबरी, इब्ने-ख़लदून और मुअजमुल-बुलदान के लेखक वग़ैरा इस्लामी इतिहासकारों ने बयान किया है। इसका ख़ुलासा यह है कि हिमयर (यमन) का बादशाह तुबान असद अबू-करिब एक बार यसरिब गया, जहाँ यहूदियों से मुतास्सिर होकर उसने यहूदियों का दीन क़ुबूल कर लिया और बनी-क़ुरैज़ा के दो यहूदी आलिमों को अपने साथ यमन ले गया। वहाँ उसने बड़े पैमाने पर यहूदियत को फैलाया। उसका बेटा ज़ूनुवास उसका जानशीन हुआ और उसने नजरान पर, जो दक्षिणी अरब में ईसाइयों का गढ़ था, हमला किया, ताकि वहाँ से ईसाइयत का ख़ातिमा कर दे और उसके निवासियों को यहूदियत अपनाने पर मजबूर करे। (इब्ने-हिशाम कहता है कि ये लोग हज़रत ईसा के अस्ल दीन पर क़ायम थे।) नजरान पहुँचकर उसने लोगों को यहूदियत क़ुबूल करने की दावत दी मगर उन्होंने इनकार किया। इसपर उसने बहुत-से लोगों को आग से भरे हुए गढ़ों में फेंककर जलवा दिया और बहुतों को क़त्ल कर दिया, यहाँ तक कि कुल मिलाकर 20 हज़ार आदमी मारे गए। नजरान के लोगों में से एक आदमी दौस ज़ू सअ्लबान भाग निकला और एक रिवायत के मुताबिक़ उसने रोम के क़ैसर (बादशाह) के पास जाकर, और दूसरी रिवायत के मुताबिक़ हबश के बादशाह नज्जाशी के यहाँ जाकर इस ज़ुल्म की शिकायत की। पहली रिवायत के मुताबिक़ क़ैसर ने हबश के बादशाह को लिखा, और दूसरी रिवायत के मुताबिक़ नज्जाशी ने क़ैसर से समुद्री बेड़ा देने की दरख़ास्त की। बहरहाल आख़िरकार हबश की 70 हज़ार फ़ौज ने अरयात नाम के एक जनरल की अगुवाई में यमन पर हमला कर दिया, ज़ूनुवास मारा गया, यहूदी हुकूमत का ख़ातिमा हो गया, और यमन हबश की ईसाई सल्तनत का एक हिस्सा बन गया।
इस्लामी इतिहासकारों के बयानों की न सिर्फ़ तसदीक़ (पुष्टि) दूसरे ऐतिहासिक ज़रिओं से होती है, बल्कि उनसे बहुत-सी तफ़सीलात का भी पता चलता है। यमन पर सबसे पहले ईसाई हबशियों का क़ब्ज़ा 340 ई० में हुआ था और 378 ई० तक जारी रहा था। उस ज़माने में ईसाई मिशनरी यमन में दाख़िल होने शुरू हुए। उसी के क़रीब दौर में एक परहेज़गार, मुजाहिद और चमत्कारी ईसाई सय्याह (पर्यटक) फ़ेमियून (Faymiyun) नाम का नजरान पहुँचा और उसने वहाँ के लोगों को बुतपरस्ती की बुराई समझाई और उसकी तबलीग़ से नजरान के लोग ईसाई हो गए। उन लोगों का निज़ाम तीन सरदार चलाते थे। एक सय्यिद, जो क़बीलों के शैख़ों की तरह बड़ा सरदार और बाहरी मामलों, समझौतों और फ़ौजों की अगुवाई का ज़िम्मेदार था। दूसरा आक़िब, जो अन्दरूनी मामलों का निगराँ था। और तीसरा उसक़ुफ़ (बिशप) जो मज़हबी पेशवा होता था। दक्षिणी अरब में नजरान को बड़ी अहमियत हासिल थी। यह एक बड़ा तिजारती और सनअती (औद्योगिक) केन्द्र था। टसर, चमड़े और हथियारों के कारख़ाने यहाँ चल रहे थे। मशहूर ‘हुल्लए-यमानी’ (जुब्बा) भी यहीं तैयार होता था। इसी सबब मज़हबी वजहों ही से नहीं, बल्कि सियासी (राजनीतिक) और मआशी (आर्थिक) वजहों से भी ज़ूनुवास ने इस अहम जगह पर हमला किया। नजरान के सय्यिद हारिसा को जिसे सुरयानी इतिहासकार Arethas लिखते हैं, क़त्ल किया, उसकी बीवी रूमा के सामने उसकी दो बेटियों को मार डाला और उसे उनका ख़ून पीने पर मजबूर किया, फिर उसे भी क़त्ल कर दिया। बिशप पॉल (Paul) की हड्डियाँ क़ब्र से निकालकर जला दीं और आग से भरे हुए गढ़ों में औरत, मर्द, बच्चे, बूढ़े, पादरी, राहिब सबको फिंकवा दिया। कुल मिलाकर 20 से 40 हज़ार तक क़त्ल किए जानेवालों की तादाद बयान की जाती है। यह वाक़िआ अक्तूबर 523 ई० में पेश आया था। आख़िरकार 525 ई० में हबशियों ने यमन पर हमला करके ज़ूनुवास और हिमयरी हुकूमत का ख़ातिमा कर दिया। इसकी तसदीक़ हिस्ने-ग़ुराब के कत्बे (शिलालेख) से होती है, जो यमन में मौजूदा ज़माने के आसारे-क़दीमा (पुरातत्त्व विभाग) के खोजियों को मिला है।
छटी सदी ईसवी की कई ईसाई तहरीरों (लेखों) में गढ़ेवालों के इस वाक़िए की तफ़सीलात बयान हुई हैं, जिनमें से कुछ ठीक उसी ज़माने की लिखी हुई हैं जब यह हादिसा हुआ और मौक़े के गवाहों से सुनकर लिखी गई हैं। इनमें से तीन किताबों के लेखक इस वाक़िए के ज़माने के हैं। एक प्रोकोप्यूस, दूसरा कोस्मॉस इंडिकोप्लूस्टिस (Cosmos Indicopleustis) जो नज्जाशी एलेस्बोआन (Elesboan) के हुक्म से उस ज़माने में बतलीमूस की यूनानी किताबों का तर्जमा कर रहा था और हबशा के साहिली (तटीय) शहर अडोलिस (Adolis) में रहता था तीसरा यूहन्नस मलाला (Johannes Malala) जिससे बाद के कई इतिहासकारों ने इस वाक़िए को नक़्ल किया है। इसके बाद यूहन्नस इफ़िसुसी (Johannes Ephesus) वफ़ात (मृत्यु) 585 ई०, ने अपनी कलीसा की तारीख़ में नजरान के ईसाइयों को तकलीफ़ देने के का क़िस्सा इस वाक़िए के वक़्त के रावी उसक़ुफ़ मार-शमऊन (Simeon) के एक ख़त से नक़्ल किया है जो उसने जबला के बुतख़ाने के ज़िम्मेदार (Abbot von Gabula) के नाम लिखा था, और मार-शमऊन ने अपने ख़त में यह वाक़िआ उन यमनवालों के आँखों देखे बयान से रिवायत किया है जो उस मौक़े पर मौजूद थे। वह ख़त 1881 ई० में रोम से और 1890 ई० में मसीहियत के शहीदों के हालात के सिलसिले में छपा है। याक़ूबी बितरीक़ डायोनीस्यूस (Patriarch Dionysius) और ज़करिय्या मुदल्लली (Zacharia of Mitylene) ने अपनी सुरयानी तारीख़ों (इतिहासों) में भी इस वाक़िए को नक़्ल किया है। याक़ूब सरोजी की किताब ‘दरे-बाबे-नसाराए-नजरान’ में भी यह ज़िक्र मौजूद है। अर्रहा (Edessa) के बिशप पौलस (Pulus) ने नजरान के मारे जानेवालों का मर्सिया (दुखद गाथा) लिखा जो अब भी मिलता है। सुरयानी ज़बान की तैयार की हुई किताब ‘अल-हिमयरय्यिन’ का अंग्रेज़ी तर्जमा (Book of the Himyarites) 1924 ई० में लन्दन से छपा है और वह मुसलमान इतिहासकारों के बयान की ताईद (समर्थन) करता है। ब्रिटिश म्यूज़ियम में उस दौर और उससे क़रीबी दौर के कुछ हबशी मख़तूतात (अभिलेख) भी मौजूद हैं जो इस क़िस्से की ताईद करते हैं। फ़िल्बी ने अपने सफ़रनामे (Arabian Highlands) में लिखा है कि नजरान के लोगों में अब तक वह जगह मशहूर है जहाँ गढ़ेवालों का वाक़िआ पेश आया था। उम्मे-ख़रक़ के पास एक जगह चट्टानों में खुदी हुई कुछ तस्वीरें भी पाई जाती हैं। और काबए-नजरान जिस जगह पर था उसको भी आज कल के नजरानवाले जानते हैं।
हबशी ईसाइयों ने नजरान पर क़ब्ज़ा करने के बाद यहाँ काबा की शक्ल की एक इमारत बनाई थी, जिसे वह मक्का के काबा की जगह मर्कज़ी (केन्द्रीय) हैसियत देना चाहते थे। उसके बिशप पगड़ी बाँधते थे और उसको हरम ठहरा दिया गया था। रोमी हुकूमत भी इस काबा के लिए माली मदद भेजती थी। इसी काबए-नजरान के पादरी अपने सय्यिद, आक़िब और बिशप की अगुवाई में मुनाज़रे (मज़हबी बहस) के लिए नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए थे और मुबाहला (एक-दूसरे पर लानत भेजने) का वह मशहूर वाक़िआ पेश आया था जिसका ज़िक्र सूरा आले-इमरान, आयत 61 में किया गया है। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-29 और 55)