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سُورَةُ قٓ

50. क़ाफ़

(मक्‍का में उतरी, आयतें 45 )

परिचय

नाम

आरंभ ही के अक्षर ‘क़ाफ़' से लिया गया है। मतलब यह है कि वह सूरा जिसका आरंभ 'क़ाफ़' अक्षर से होता है।

उतरने का समय

किसी विश्वस्त उल्लेख से यह पता नहीं चलता कि यह ठीक किस काल में उतरी है, मगर विषय-वस्तुओं पर विचार करने से ऐसा महसूस होता है कि इसके उतरने का समय मक्का मुअज़्ज़मा का दूसरा काल-खण्ड है जो नुबूवत (पैग़म्बरी) के तीसरे साल से आरंभ होकर पाँचवें साल तक रहा। इस काल की विशेषताएँ हम सूरा-6 अनआम के प्राक्कथन में बयान कर चुके हैं।

विषय और वार्ता

विश्वस्त उल्लेखों से मालूम होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) प्राय: दोनों ईदों की नमाज़ों में इस सूरा को पढ़ा करते थे। कुछ और उल्लेखों में आया है कि फ़ज्र की नमाज़ में भी आप अधिकतर इसको पढ़ा करते थे। इससे यह बात स्पष्ट है कि नबी (सल्ल०) की दृष्टि में यह एक बड़ी महत्त्वपूर्ण सूरा थी। इसलिए आप अधिक से अधिक लोगों तक बार-बार इसकी वार्ताओं को पहुँचाने की व्यवस्था करते थे। इसके महत्त्व का कारण सूरा को ध्यानपूर्वक पढ़ने से आसानी के साथ समझ में आ जाता है। पूरी सूरा का विषय आख़िरत (परलोक) है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जब मक्का मुअज़्ज़मा में अपनी दावत (पैग़ाम) का आरंभ किया तो लोगों को सबसे ज़्यादा आश्चर्य आप (सल्ल०) की जिस बात पर हुआ, वह यह थी कि मरने के बाद इंसान दोबारा उठाए जाएंँगे और उनको अपने कर्मों का हिसाब देना होगा। लोग कहते थे कि यह तो बिलकुल अनहोनी बात है, आख़िर यह कैसे सम्भव है कि जब हमारा कण-कण धरती में बिख़र चुका हो तो इन बिखरे हुए अंशों को हज़ारों साल बीत जाने के बाद फिर से इकट्ठा करके हमारा यह शरीर नए सिरे से बना दिया जाए और हम ज़िन्दा होकर उठ खड़े हों। इसके उत्तर में अल्लाह की ओर से यह अभिभाषण अवतरित हुआ। इसमें अति संक्षेप में, छोटे-छोटे वाक्यों में एक ओर आख़िरत की संभावना और उसके घटित होने की दलीलें दी गई हैं और दूसरी ओर लोगों को सचेत किया गया है कि तुम भले ही आश्चर्य करो या बुद्धि से परे समझो या झुठलाओ, बहरहाल इससे हक़ीक़त नहीं बदल सकती।

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سُورَةُ قٓ
50. क़ाफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قٓۚ وَٱلۡقُرۡءَانِ ٱلۡمَجِيدِ
(1) क़ाफ़, क़सम है क़ुरआन मजीद1 की!
1. 'मजीद' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में दो मानी के लिए इस्तेमाल होता है। एक, ऊँचे रुतबेवाला, अज़मतवाला (महान), बुज़ुर्ग और इज़्ज़तवाला। दूसरे, मेहरबान, बहुत ज़्यादा देनेवाला, बहुत फ़ायदा पहुँचानेवाला। क़ुरआन के लिए यह लफ़्ज़ इन दोनों मानी में इस्तेमाल किया गया है। क़ुरआन इस लिहाज़ से अज़ीम (महान) है कि दुनिया की कोई किताब उसके मुक़ाबले में नहीं लाई जा सकती। अपनी ज़बान और अदब (साहित्य) के लिहाज़ से भी वह मोजिज़ा (चमत्कार) है और अपनी तालीम और हिकमत के लिहाज़ से भी मोजिज़ा। जिस वक़्त वह उतरा था उस वक़्त भी इनसान उसके जैसा कलाम बनाकर लाने से बेबस थे और आज भी बेबस हैं। इसकी कोई बात कभी किसी ज़माने में ग़लत साबित नहीं की जा सकी है और न की जा सकती है। बातिल (असत्य) न सामने से इसका मुक़ाबला कर सकता है न पीछे से हमला करके इसे हरा सकता है। और इस लिहाज़ से वह करीम (मेहरबान) है कि इनसान जितना ज़्यादा इससे रहनुमाई हासिल करने की कोशिश करे, उतनी ही ज़्यादा वह उसको रहनुमाई देता है और जितनी ज़्यादा उसकी पैरवी करे, उतनी ही ज़्यादा उसे दुनिया और आख़िरत की भलाइयाँ हासिल होती चली जाती हैं। उसके फ़ायदों और मुनाफ़ों की कोई हद नहीं है, जहाँ जाकर इनसान उससे बेनियाज़ (बे-परवाह) हो सकता हो, या जहाँ पहुँचकर वह फ़ायदा पहुँचाना बन्द कर देता हो।
بَلۡ عَجِبُوٓاْ أَن جَآءَهُم مُّنذِرٞ مِّنۡهُمۡ فَقَالَ ٱلۡكَٰفِرُونَ هَٰذَا شَيۡءٌ عَجِيبٌ ۝ 1
(2) बल्कि इन लोगों को ताज्जुब इस बात पर हुआ कि एक ख़बरदार करनेवाला ख़ुद इन ही में से इनके पास आ गया।2 फिर इनकार करनेवाले कहने लगे, “यह तो अजीब बात है,
2. यह जुमला बलाग़त (अपनी बात को उम्दा और असरदार तरीक़े से पेश करने) का बेहतरीन नमूना है जिसमें एक बहुत बड़े मज़मून (विषय) को थोड़े-से अलफ़ाज़ में समो दिया गया है। क़ुरआन की क़सम जिस बात पर खाई गई है उसे बयान नहीं किया गया। उसका ज़िक्र करने के बजाय बीच में एक लतीफ़ ख़ला (सूक्ष्म रिक्त जगह) छोड़कर आगे की बात 'बल्कि' से शुरू कर दी गई है। आदमी ज़रा ग़ौर करे और उस पसमंज़र (पृष्ठभूमि) को भी निगाह में रखे जिसमें यह बात कही गई है तो उसे मालूम हो जाता है कि 'क़सम' और 'बल्कि' के बीच जो ख़ाली जगह छोड़ दी गई है उसका मज़मून क्या है। उसमें अस्ल में क़सम जिस बात पर खाई गई है वह यह है कि “मक्कावालों ने मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी को मानने से किसी सही बुनियाद पर इनकार नहीं किया है, बल्कि इस सरासर ग़लत बुनियाद पर किया है कि उनकी अपनी ही जाति के एक इनसान, और उनकी अपनी ही क़ौम के एक शख़्स का ख़ुदा की तरफ़ से ख़बरदार करनेवाला बनकर आ जाना उनके नज़दीक सख़्त ताज्जुब के क़ाबिल बात है। हालाँकि ताज्जुब के क़ाबिल बात अगर हो सकती थी तो वह यह थी कि ख़ुदा अपने बन्दों की भलाई और बुराई से बे-परवाह होकर उन्हें ख़बरदार करने का कोई इन्तिज़ाम न करता, या इनसानों को ख़बरदार करने के लिए इनसान के बजाय किसी और जानदार को भेजता, या अरबों को ख़बरदार करने के लिए किसी चीनी को भेज देता। इसलिए इनकार की यह बुनियाद तो बिलकुल ग़लत बात है और एक समझदार आदमी यक़ीनन यह मानने पर मजबूर है कि ख़ुदा की तरफ़ से बन्दों को ख़बरदार करने का इन्तिज़ाम ज़रूर होना चाहिए और इसी शक्ल में होना चाहिए कि ख़बरदार करनेवाला ख़ुद उन ही लोगों में से कोई शख़्स हो जिनके बीच वह भेजा गया हो।” अब रह जाता है यह सवाल कि क्या मुहम्मद (सल्ल०) ही वे शख़्स हैं जिन्हें ख़ुदा ने इस काम के लिए भेजा है, तो इसका फ़ैसला करने के लिए किसी और गवाही की ज़रूरत नहीं, यह अज़ीम (महान) और मेहरबान क़ुरआन, जिसे वे पेश कर रहे हैं, इस बात का सुबूत देने के लिए बिलकुल काफ़ी है। इस तशरीह (व्याख्या) से मालूम हो जाता है कि इस आयत में क़ुरआन की क़सम इस बात पर खाई गई है कि मुहम्मद (सल्ल०) सचमुच अल्लाह के रसूल हैं और उनकी पैग़म्बरी पर मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों का हैरत करना ग़लत है। और क़ुरआन के ‘मजीद' होने को इसे दावे के सुबूत में पेश किया गया है।
أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗاۖ ذَٰلِكَ رَجۡعُۢ بَعِيدٞ ۝ 2
(3) क्या जब हम मर जाएँगे और मिट्टी हो जाएँगे (तो दोबारा उठाए जाएँगे)? यह वापसी तो समझ से परे है।"3
3. यह उन लोगों का दूसरा ताज्जुब था। पहला और अस्ल ताज्जुब मरने के बाद की ज़िन्दगी पर न था, बल्कि इसपर था कि उन ही की जाति और क़ौम के एक शख़्स ने उठकर दावा किया था कि मैं ख़ुदा की तरफ़ से तुम्हें ख़बरदार करने के लिए आया हूँ। इसके बाद और ज़्यादा ताज्जुब उन्हें इस बात पर हुआ कि वह शख़्स उन्हें जिस चीज़ से ख़बरदार कर रहा है, यह थी कि तमाम इनसान मरने के बाद नए सिरे से ज़िन्दा किए जाएँगे, और इन सबको इकट्ठा करके अल्लाह की अदालत में पेश किया जाएगा, और वहाँ उनके आमाल का हिसाब करने के बाद इनाम और सज़ा दी जाएगी।
قَدۡ عَلِمۡنَا مَا تَنقُصُ ٱلۡأَرۡضُ مِنۡهُمۡۖ وَعِندَنَا كِتَٰبٌ حَفِيظُۢ ۝ 3
(4) (हालाँकि) ज़मीन उनके जिस्म में से जो कुछ खाती है वह सब हमारे इल्म में है और हमारे पास एक किताब है जिसमें सब कुछ महफ़ूज़ है।4
4. यानी यह बात अगर इन लोगों की अक़्ल में नहीं समाती तो यह इनकी अपनी ही अक़्ल की तंगी है। इससे यह तो लाज़िम नहीं आता कि अल्लाह का इल्म और उसकी क़ुदरत भी तंग हो जाए। ये समझते हैं कि पैदाइश की इबतिदा से क़ियामत तक मरनेवाले अनगिनत इनसानों के जिस्म के हिस्से (अंश) जो ज़मीन में बिखर चुके हैं और आइन्दा बिखरते चले जाएँगे, उनको इकट्ठा करना किसी तरह मुमकिन नहीं है। लेकिन सच्चाई यह है कि उनमें से हर-हर हिस्सा जिस शक्ल में जहाँ भी है, अल्लाह ख़ुद उसको जानता है, और इसके अलावा उसका पूरा रिकार्ड अल्लाह के दफ़्तर में महफ़ूज़ किया जा रहा है, जिससे कोई एक ज़र्रा भी छूटा हुआ नहीं है। जिस वक़्त अल्लाह का हुक्म होगा, उसी वक़्त आनन-फ़ानन उसके फ़रिश्ते इस रिकार्ड को देखकर एक-एक ज़र्रे को निकाल लाएँगे और तमाम इनसानों के वही जिस्म फिर बना देंगे, जिनमें रहकर उन्होंने दुनिया की ज़िन्दगी में काम किया था। यह आयत भी उन आयतों में से है, जिनमें यह बात साफ़ तौर से बताई गई है कि आख़िरत की ज़िन्दगी न सिर्फ़ यह कि वैसी ही जिस्मानी ज़िन्दगी होगी जैसी इस दुनिया में है, बल्कि जिस्म भी हर शख़्स का वही होगा जो इस दुनिया में था। अगर हक़ीक़त यह न होती तो इस्लाम के इनकारियों की बात के जवाब में यह कहना बिलकुल बे-मतलब था कि ज़मीन तुम्हारे जिस्म में से जो कुछ खाती है वह सब हमारे इल्म में है और ज़र्रे-ज़र्रे का रिकार्ड मौजूद है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिया-25)
وَٱلنَّخۡلَ بَاسِقَٰتٖ لَّهَا طَلۡعٞ نَّضِيدٞ ۝ 4
(10) और फ़स्ल के अनाज और ऊँचे-ऊँचे खजूर के पेड़ पैदा कर दिए, जिनपर फलों से लदे हुए गुच्छे ऊपर-तले लगते हैं।
رِّزۡقٗا لِّلۡعِبَادِۖ وَأَحۡيَيۡنَا بِهِۦ بَلۡدَةٗ مَّيۡتٗاۚ كَذَٰلِكَ ٱلۡخُرُوجُ ۝ 5
(11) यह इन्तिज़ाम है बन्दों को रोज़ी देने का। इस पानी से हम एक मुर्दा ज़मीन को ज़िन्दगी देते हैं।10 (मरे हुए इनसानों का ज़मीन से) निकलना भी इसी तरह होगा।11
10. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73, 74, 81; सूरा-50 रूम, हाशिए—25, 33, 35; सूरा-86 या-सीन, हाशिया-29
11. दलील यह दी जा रही है कि जिस ख़ुदा ने ज़मीन के इस गोले को जानदारों के रहने के लिए मुनासिब जगह बनाया, और जिसने ज़मीन की बेजान मिट्टी को आसमान के बेजान पानी के साथ मिलाकर इतनी आला दरजे की नबाती (पेड़-पौधोंवाली) ज़िन्दगी पैदा कर दी, जिसे तुम अपने बाग़ों और खेतों की शक्ल में लहलहाते देख रहे हो, और जिसने इन पेड़-पौधों को इनसान और जानवर सबके लिए रोज़ी का ज़रिआ बना दिया, उसके बारे में तुम्हारा यह गुमान कि वह तुम्हें मरने के बाद दोबारा पैदा नहीं कर सकता, सरासर बेअक़्ली का गुमान है। तुम अपनी आँखों से आए दिन देखते हो कि एक इलाक़ा बिलकुल सूखा और बेजान पड़ा हुआ है। बारिश का एक छींटा पड़ते ही उसके अन्दर से एकाएक ज़िन्दगी के चश्मे (स्रोत) फूट निकलते हैं, मुद्दतों की मरी हुई जड़ें एक़दम जी उठती हैं, और तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े ज़मीन की तहों से निकलकर उछल-कूद शुरू कर देते हैं। यह इस बात का खुला हुआ सुबूत है कि मौत के बाद दोबारा ज़िन्दगी नामुमकिन नहीं है। अपनी आँखों से देखी इस खुली हक़ीक़त को जब तुम नहीं झुठला सकते तो इस बात को कैसे झुठलाते हो कि जब ख़ुदा चाहेगा तुम ख़ुद भी उसी तरह ज़मीन से निकल आओगे जिस तरह पेड़-पौधों की कोंपलें निकल आती हैं! इस सिलसिले में यह बात बयान करने के क़ाबिल है कि अरब की सरज़मीन में बहुत-से इलाक़े ऐसे हैं जहाँ कभी-कभी पाँच-पाँच साल तक बारिश नहीं होती, बल्कि कभी-कभी इससे भी ज़्यादा मुद्दत गुज़र जाती है और आसमान से एक बूँद तक नहीं टपकती। इतने लम्बे ज़माने (समय) तक तपते हुए रेगिस्तानों में घास की जड़ों और कीड़े-मकोड़ों के ज़िन्दा रहने के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता। इसके बावजूद जब वहाँ किसी वक़्त थोड़ी-सी बारिश भी हो जाती है तो घास निकल आती है और कीड़े-मकोड़े जी उठते हैं। इसलिए अरब के लोग इस दलील को उन लोगों के मुक़ाबले में ज़्यादा अच्छी तरह समझ सकते हैं जिन्हें इतने लम्बे वक़्त तक सूखे का तजरिबा नहीं होता।
كَذَّبَتۡ قَبۡلَهُمۡ قَوۡمُ نُوحٖ وَأَصۡحَٰبُ ٱلرَّسِّ وَثَمُودُ ۝ 6
(12) इनसे पहले नूह की क़ौम, और अर्-रस्सवाले,12 और समूद,
12. इससे पहले सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-38, में 'असहाबुर-रस्स' (अर-रस्सवाले लोगों) का ज़िक्र गुज़र चुका है, और दूसरी बार अब यहाँ उनका ज़िक्र हो रहा है। मगर दोनों जगह ख़ुदा के भेजे हए पैग़म्बरों को झुठलानेवाली क़ौमों के सिलसिले में सिर्फ़ उनका नाम ही लिया गया है, कोई तफ़सील उनके क़िस्से की बयान नहीं की गई है। अरब की रिवायतों में 'अर-रस्स' के नाम से दो जगहें जानी जाती हैं। एक नज्द, दूसरी शिमाली (उत्तरी) हिजाज़ में। इनमें नज्द का 'अर-रस्स' ज़्यादा मशहूर है और जाहिलियत की शाइरी में ज़्यादातर उसी का ज़िक्र मिलता है। अब यह तय करना मुश्किल है कि 'अर-रस्सवाले' इन दोनों में से किस जगह के रहनेवाले थे। उनके क़िस्से की भी कोई भरोसेमन्द तफ़सील किसी रिवायत में नहीं मिलती। ज़्यादा-से-ज़्यादा बस इतनी बात सही तौर पर कही जा सकती है कि यह कोई ऐसी क़ौम थी जिसने अपने पैग़म्बर को कुएँ में फेंक दिया था। लेकिन क़ुरआन मजीद में जिस तरह उनकी तरफ़ सिर्फ़ इशारा करके छोड़ दिया गया है उससे यह ख़याल होता है कि क़ुरआन के उतरने के ज़माने में अरब के लोग आम तौर से उस क़ौम और उसके क़िस्से से वाक़िफ़ थे और बाद में ये रिवायतें इतिहास में महफ़ूज़ न रह सकीं।
وَعَادٞ وَفِرۡعَوۡنُ وَإِخۡوَٰنُ لُوطٖ ۝ 7
(13) और आद, और फ़िरऔन,13 और लूत के भाई
13. 'फ़िरऔन की क़ौम' के बजाय सिर्फ़ फ़िरऔन का नाम लिया गया है, क्योंकि वह अपनी क़ौम पर इस तरह हावी (मुसल्लत) था कि उसके मुक़ाबले में क़ौम को कोई आज़ाद राय और हिम्मत बाक़ी नहीं रही थी। जिस गुमराही की तरफ़ वह जाता था, क़ौम उसके पीछे घिसटती चली जाती थी। इस वजह से पूरी क़ौम की गुमराही का ज़िम्मेदार अकेला उस शख़्स को ठहराया गया। जहाँ क़ौम के लिए राय और अमल की आज़ादी मौजूद हो वहाँ अपने अमल का बोझ वह ख़ुद उठाती है। और जहाँ एक आदमी की हुकूमत ने क़ौम को बेबस कर रखा हो, वहाँ वही एक आदमी पूरी क़ौम के गुनाहों का बोझ अपने सर ले लेता है। इसका यह मतलब नहीं है कि एक अकेले आदमी पर यह बोझ लद जाने के बाद क़ौम इस ज़िम्मेदारी से बरी हो जाती है। नहीं, क़ौम पर इस सूरत में इस अख़लाक़ी कमज़ोरी की ज़िम्मेदारी होती है कि उसने क्यों अपने ऊपर एक आदमी को इस तरह हावी होने दिया। इसी चीज़ की तरफ़ सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, आयत-54 में इशारा किया गया है कि “फ़िरऔन ने अपनी क़ौम को हलका समझा और उन्होंने उसकी फ़रमाँबरदारी की, हक़ीक़त में वे थे ही फ़ासिक (नाफ़रमान) लोग।” (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-50)
وَأَصۡحَٰبُ ٱلۡأَيۡكَةِ وَقَوۡمُ تُبَّعٖۚ كُلّٞ كَذَّبَ ٱلرُّسُلَ فَحَقَّ وَعِيدِ ۝ 8
(14) और ऐकावाले, और तुब्बअ की क़ौम14 के लोग भी झुठला चुके हैं।15 हर एक ने रसूलों को झुठलाया'16 और आख़िरकार मेरी धमकी उनपर चस्पाँ हो गई।17
14. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-31 सबा, हाशिया-37; सूरा-44 दुख़ान, हाशिया-221
15. यानी इन सबने अपने रसूलों (पैग़म्बरों) की रिसालत (पैग़म्बरी) को भी झुठलाया और उनकी दी हुई इस ख़बर को भी झुठलाया कि तुम मरने के बाद फिर उठाए जाओगे।
16. अगरचे हर क़ौम ने सिर्फ़ उस रसूल को झुठलाया जो उसके पास भेजा गया था, मगर चूँकि वह उस ख़बर को झुठला रही थी जो तमाम रसूल एक राय से पेश करते रहे हैं, इसलिए एक रसूल को झुठलाना हक़ीक़त में तमाम रसूलों को झुठला देना था। इसके अलावा इन क़ौमों में से हर एक ने सिर्फ़ अपने यहाँ आनेवाले रसूल ही की रिसालत का इनकार न किया था, बल्कि वे सिरे से यही बात मानने के लिए तैयार न थीं कि इनसानों की हिदायत के लिए कोई इनसान अल्लाह तआला की तरफ़ से मुक़र्रर होकर आ सकता है, इसलिए वे रिसालत (पैग़म्बरी) ही का इनकार करती थीं और उनमें से किसी का जुर्म भी सिर्फ़ एक रसूल को झुठलाने तक सीमित न था।
17. यह आख़िरत के हक़ में ऐतिहासिक दलील है। इससे पहले की 6 आयतों में आख़िरत के इमकान की दलीलें दी गई थीं, और अब इन आयतों में अरब और उसके आसपास की क़ौमों के ऐतिहासिक अंजाम को इस बात की दलील के तौर पर पेश किया गया है कि आख़िरत का जो अक़ीदा तमाम पैग़म्बर पेश करते रहे हैं वही हक़ीक़त के ठीक मुताबिक़ है, क्योंकि इसका इनकार जिस क़ौम ने भी किया वह सख़्त अख़लाक़ी बिगाड़ में पड़कर रही और आख़िरकार ख़ुदा के अज़ाब ने आकर उसके वुजूद से दुनिया को पाक किया। आख़िरत के इनकार और अख़लाक़ के बिगाड़ का यह लाज़िम होना, जो इतिहास के दौरान में लगातार नज़र आ रहा है, इस बात का खुला सुबूत है कि इनसान सचमुच इस दुनिया में ग़ैर-ज़िम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह बनाकर नहीं छोड़ दिया गया है, बल्कि उसे लाज़िमन अपने अमल की मुहलत ख़त्म होने के बाद अपने आमाल का हिसाब देना है। इसी लिए तो जब कभी वह अपने-आपको ग़ैर-ज़िम्मेदार समझकर दुनिया में काम करता है, उसकी पूरी ज़िन्दगी तबाही के रास्ते पर चल पड़ती है। किसी काम से अगर लगातार ग़लत नतीजे निकलते चले जाएँ तो यह इस बात की खुली निशानी है कि वह काम हक़ीक़त से टकरा रहा है।
أَفَعَيِينَا بِٱلۡخَلۡقِ ٱلۡأَوَّلِۚ بَلۡ هُمۡ فِي لَبۡسٖ مِّنۡ خَلۡقٖ جَدِيدٖ ۝ 9
(15) क्या पहली बार के पैदा करने से हम बेबस थे? मगर एक नई पैदाइश की तरफ़ से ये लोग शक में पड़े हुए हैं।18
18. यह आख़िरत के हक़ में अक़्ली दलील दी गई है। जो शख़्स ख़ुदा का इनकार न करता हो और बेवक़ूफ़ी की इस हद को न पहुँच गया हो कि इस मुनज़्ज़म (संगठित) कायनात और इसके अन्दर इनसान की पैदाइश को सिर्फ़ एक इत्तिफ़ाक़ी हादिसा ठहराने लगे, उसके लिए यह माने बिना चारा नहीं है कि ख़ुदा ही ने हमें और इस पूरी कायनात को पैदा किया है। अब यह सच्चाई कि हम इस दुनिया में ज़िन्दा मौजूद हैं और ज़मीन और आसमान का यह सारा कारख़ाना हमारी आँखों के सामने चल रहा है, ख़ुद ही इस बात का खुला हुआ सुबूत है कि ख़ुदा हमें और इस कायनात को पैदा करने से बेबस न था। इसके बाद अगर कोई शख़्स यह कहता है कि क़ियामत लाने के बाद वही ख़ुदा एक दूसरा निज़ामे-आलम (जगत्-व्यवस्था) न बना सकेगा, और मौत के बाद वह हमें दोबारा पैदा न कर सकेगा, तो वह सिर्फ़ एक अक़्ल के ख़िलाफ़ बात कहता है। ख़ुदा बेबस होता तो पहले ही पैदा न कर सकता। जब वह पहले पैदा कर चुका है और इसी पैदाइश की बदौलत हम ख़ुद वुजूद में आए बैठे हैं, तो यह मान लेने के लिए आख़िर क्या मुनासिब बुनियाद हो सकती है कि अपनी ही बनाई हुई चीज़ को तोड़कर फिर बना देने से वह बेबस हो जाएगा?
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ وَنَعۡلَمُ مَا تُوَسۡوِسُ بِهِۦ نَفۡسُهُۥۖ وَنَحۡنُ أَقۡرَبُ إِلَيۡهِ مِنۡ حَبۡلِ ٱلۡوَرِيدِ ۝ 10
(16) हमने19 इनसान को पैदा किया है और उसके दिल में उभरनेवाले वस्वसों (वहमों) तक को हम जानते हैं। हम उसकी गर्दन की रग से भी ज़्यादा उससे क़रीब हैं,20
19. आख़िरत की दलीलें बयान करने के बाद अब यह कहा जा रहा है कि तुम चाहे, तो उस आख़िरत को मानो या उसका इनकार करो, बहरहाल उसको आना है और यह एक ऐसी हक़ीक़त है जो तुम्हारे इनकार के बावजूद पेश आकर रहेगी। पैग़म्बरों की पहले से दी गई तंबीह (चेतावनी) को मानकर उस वक़्त के लिए पहले से तैयारी कर लोगे तो अपना भला करोगे, न मानोगे तो ख़ुद ही अपनी शामत बुलाओगे। तुम्हारे न मानने से आख़िरत आते-आते रुक नहीं जाएगी और ख़ुदा का इनसाफ़ का क़ानून बे-असर न हो जाएगा।
20. यानी हमारी क़ुदरत और हमारे इल्म ने इनसान को अन्दर और बाहर से इस तरह घेर रखा है। कि उसके गर्दन की रग भी उससे उतनी क़रीब नहीं है जितना हमारा इल्म और हमारी क़ुदरत उससे क़रीब है। उसकी बात सुनने के लिए हमें कहीं से चलकर नहीं आना पड़ता, उसके दिल में आनेवाले ख़यालात तक को हम सीधे तौर पर जानते हैं। इसी तरह अगर उसे पकड़ना होगा तो हम कहीं से आकर उसको नहीं पकड़ेंगे, वह जहाँ भी है हर वक़्त हमारी पकड़ में है, जब चाहेंगे उसे धर लेंगे।
إِذۡ يَتَلَقَّى ٱلۡمُتَلَقِّيَانِ عَنِ ٱلۡيَمِينِ وَعَنِ ٱلشِّمَالِ قَعِيدٞ ۝ 11
(17) (और हमारी इस सीधी जानकारी के अलावा) दो लिखनेवाले उसके दाएँ और बाएँ बैठे हर चीज़ लिख रहे हैं।
مَّا يَلۡفِظُ مِن قَوۡلٍ إِلَّا لَدَيۡهِ رَقِيبٌ عَتِيدٞ ۝ 12
(18) कोई लफ़्ज़ उसकी ज़बान से नहीं निकलता, जिसे महफ़ूज़ करने के लिए एक हाज़िर रहनेवाला निगराँ मौजूद न हो।21
21. यानी एक तरफ़ तो हम ख़ुद अपने तौर पर इनसान की हरकतों (गतिविधियों) और कामों और उसके ख़यालात को जानते हैं, दूसरी तरफ़ हर इनसान पर दो फ़रिश्ते मुक़र्रर हैं जो उसकी एक-एक बात को नोट कर रहे हैं और उसकी कोई कथनी और करनी उनके रिकार्ड से नहीं छूटती। इसका मतलब यह है कि जिस वक़्त अल्लाह तआला की अदालत में इनसान की पेशी होगी उस वक़्त अल्लाह को ख़ुद भी मालूम होगा कि कौन क्या करके आया है, और उसपर गवाही देने के लिए दो गवाह भी मौजूद होंगे जो उसके आमाल का दस्तावेज़ी सुबूत लाकर सामने रख देंगे। यह दस्तावेज़ी सुबूत किस तरह का होगा, इसका ठीक-ठीक तसव्वुर करना तो हमारे लिए मुश्किल है। मगर जो सच्चाइयाँ आज हमारे सामने आ रही हैं उन्हें देखकर यह बात बिलकुल यक़ीनी मालूम होती है कि जिस माहौल में इनसान रहता और काम करता है उसमें हर तरफ़ उसकी आवाज़ों, उसकी तस्वीरों और उसकी हरकतों के निशान ज़र्रे-ज़र्रे पर दर्ज हो रहे हैं और उनमें से हर चीज़ को ठीक उन्हीं शक्लों और आवाज़ों में दोबारा इस तरह पेश किया जा सकता है कि अस्ल और नक़्ल में ज़र्रा बराबर फ़र्क़ न हो। इनसान यह काम बहुत ही महदूद पैमाने पर आलात व मशीनों (यन्त्रों) की मदद से कर रहा है। लेकिन ख़ुदा के फ़रिश्ते न इन आलात के मुहताज हैं न इन बन्दिशों में बँधे। इनसान का अपना जिस्म और उसके आसपास की हर चीज़ उनकी टेप और उनकी फ़िल्म है जिसपर वे हर आवाज़ और हर तस्वीर को उसकी छोटी-से-छोटी तफ़सीलात के साथ ज्यों-की-त्यों रिकार्ड कर सकते हैं और क़ियामत के दिन आदमी को उसके अपने कानों से उसकी अपनी आवाज़ में उसकी वे बातें सुनवा सकते हैं जो वह दुनिया में करता था, और उसकी अपनी आँखों से उसके अपने तमाम करतूतों की चलती-फिरती तस्वीरें दिखा सकते हैं, जिनके सही होने से इनकार करना उसके लिए मुमकिन न रहे। इस जगह पर यह बात भी अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि अल्लाह तआला आख़िरत की अदालत में किसी शख़्स को सिर्फ़ अपने निजी इल्म की बुनियाद पर सज़ा न दे देगा, बल्कि इनसाफ़ की तमाम शर्तें पूरी करके उसको सज़ा देगा। इसी लिए दुनिया में हर शख़्स की कथनी और करनी का मुकम्मल रिकार्ड तैयार कराया जा रहा है, ताकि उसकी कारगुज़ारियों का पूरा सुबूत नाक़ाबिले-इनकार गवाहियों से सामने आ जाए।
وَجَآءَتۡ سَكۡرَةُ ٱلۡمَوۡتِ بِٱلۡحَقِّۖ ذَٰلِكَ مَا كُنتَ مِنۡهُ تَحِيدُ ۝ 13
(19) फिर देखो, वह मौत की बेहोशी हक़ (सत्य) लेकर आ पहुँची,22 यह वही चीज़ है जिससे तू भागता था।23
22. हक़ लेकर आ पहुँचने से मुराद यह है कि मौत की बेहोशी वह शुरुआत है जहाँ से वह हक़ीक़त खुलनी शुरू हो जाती है जिसपर दुनिया की ज़िन्दगी में परदा पड़ा हुआ था। इस मक़ाम से आदमी वह दूसरी दुनिया साफ़ देखने लगता है जिसकी ख़बर नबियों (अलैहि०) ने दी थी। यहाँ आदमी को यह भी मालूम हो जाता है कि आख़िरत बिलकुल सच है, और यह हक़ीक़त भी उसको मालूम हो जाती है कि ज़िन्दगी के इस दूसरे मरहले में वह ख़ुशनसीब की हैसियत से दाख़िल हो रहा है या बदनसीब की हैसियत से।
23. यानी यह वही हक़ीक़त है जिसको मानने से तू कन्नी काटता था। तू चाहता था कि दुनिया में बे-नथे बैल की तरह छुटा फिरे और मरने के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी न हो, जिसमें तुझे अपने आमाल का ख़मियाज़ा भुगतना पड़े। इसी लिए आख़िरत के ख़याल से तू दूर भागता था और किसी तरह यह मानने के लिए तैयार न था कि कभी यह दुनिया भी बरपा होनी है। अब देख ले, यह वही दूसरी दुनिया तेरे सामने आ रही है।
وَنُفِخَ فِي ٱلصُّورِۚ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلۡوَعِيدِ ۝ 14
(20) और फिर सूर (नरसिंघा) फूँका गया,24 यह है वह दिन जिससे तुझे डराया जाता था।
24. इससे मुराद वह सूर फूँका जाना है जिसके साथ ही तमाम मरे हुए लोग दोबारा जिस्मानी ज़िन्दगी पाकर उठ खड़े होंगे। तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-47; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-57; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-78; सूरा-22 हज, हाशिया-1; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—46, 47; सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-79।
وَجَآءَتۡ كُلُّ نَفۡسٖ مَّعَهَا سَآئِقٞ وَشَهِيدٞ ۝ 15
(21) हर शख़्स इस हाल में आ गया कि उसके साथ एक हाँककर लानेवाला है और एक गवाही देनेवाला।25
25. बहुत मुमकिन है कि इससे मुराद वही दो फ़रिश्ते हों जो दुनिया में उस शख़्स की कथनी और करनी का रिकार्ड तैयार करने के लिए मुक़र्रर रहे थे। क़ियामत के दिन जब सूर की आवाज़ बुलन्द होते ही हर इनसान अपनी क़ब्र से उठेगा तो फ़ौरन वे दोनों फ़रिश्ते आकर उसे अपने चार्ज में ले लेंगे। एक उसे ख़ुदा की अदालत की तरफ़ हाँकता हुआ ले चलेगा और दूसरा उसका आमाल-नामा (कर्म-पत्र) साथ लिए हुए होगा।
لَّقَدۡ كُنتَ فِي غَفۡلَةٖ مِّنۡ هَٰذَا فَكَشَفۡنَا عَنكَ غِطَآءَكَ فَبَصَرُكَ ٱلۡيَوۡمَ حَدِيدٞ ۝ 16
(22) इस चीज़ की तरफ़ से तू ग़फ़लत में था, हमने वह परदा हटा दिया जो तेरे आगे पड़ा हुआ था और आज तेरी निगाह ख़ूब तेज़ है।26
26. यानी अब तो तुझे ख़ूब नज़र आ रहा है कि वह सब कुछ यहाँ मौजूद है जिसकी ख़बर ख़ुदा के नबी तुझे देते थे।
وَقَالَ قَرِينُهُۥ هَٰذَا مَا لَدَيَّ عَتِيدٌ ۝ 17
(23) उसके साथी ने कहा, “यह जो मेरी सिपुर्दगी में था, हाज़िर है।"27
27. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इसका मतलब यह बयान किया है कि 'साथी' से मुराद वह फ़रिश्ता है जिसे आयत-21 में 'गवाही देनेवाला' कहा गया है। वह कहेगा कि यह इस शख़्स का आमाल-नामा मेरे पास तैयार है। कुछ दूसरे आलिम कहते हैं कि 'साथी' से मुराद वह शैतान है जो दुनिया में उस शख़्स के साथ लगा हुआ था। वह कहेगा कि यह शख़्स जिसको मैंने अपने क़ाबू में करके जहन्नम के लिए तैयार किया था अब आपकी ख़िदमत में हाज़िर है। मगर मौक़ा-महल से ज़्यादा मेल खानेवाली तफ़सीर वह है जो क़तादा और इब्ने-ज़ैद (रह०) से नक़्ल हुई है। वे कहते हैं कि साथी से मुराद हाँककर लानेवाला फ़रिश्ता है और वही अल्लाह की अदालत में पहुँचकर कहेगा कि यह शख़्स जो मेरी सिपुर्दगी में था, सरकार की पेशी में हाज़िर है।
أَلۡقِيَا فِي جَهَنَّمَ كُلَّ كَفَّارٍ عَنِيدٖ ۝ 18
(24) हुक्म दिया गया, “फेंक दो जहन्नम28 में हर सख़्त ज़िद्दी (हक़ के) इनकारी29 को जो हक़ से दुश्मनी रखता था,
28. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'अलक़िया फ़ी जहन-न-म' यानी “फेंक दो जहन्नम में तुम दोनों।" बात का सिलसिला ख़ुद बता रहा है कि यह हुक्म उन दोनों फ़रिश्तों को दिया जाएगा जिन्होंने क़ब्र से उठते ही मुजरिम को गिरफ़्तार किया था और लाकर अदालत में हाज़िर कर दिया था।
29. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'कफ़्फ़ार' इस्तेमाल हुआ है जिसके दो मतलब हैं: एक, सख़्त नाशुक्रा। दूसरा, हक़ का बहुत ज़्यादा इनकार करनेवाला।
مَّنَّاعٖ لِّلۡخَيۡرِ مُعۡتَدٖ مُّرِيبٍ ۝ 19
(25) भलाई को रोकनेवाला30 और हद से गुज़र जानेवाला था,31 शक में पड़ा हुआ था32
30. अस्ल अरबी में 'ख़ैर' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है। 'ख़ैर' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में माल के लिए भी इस्तेमाल होता है और भलाई के लिए भी। पहले मानी के लिहाज़ से मतलब यह है कि वह अपने माल में से किसी का हक़ अदा न करता था, न ख़ुदा का, न बन्दों का। दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि वह भलाई के रास्ते से ख़ुद ही रुक जाने पर बस न करता था, बल्कि दूसरों को भी इससे रोकता था। दुनिया में भलाई के लिए रुकावट बना हुआ था। अपनी सारी क़ुव्वतें इस काम में लगा रहा था कि नेकी और भलाई किसी तरह फैलने न पाएँ।
31. यानी अपने हर काम में अख़लाक़ की हदें तोड़ देनेवाला था। अपने फ़ायदों और अपने मक़ासिद और ख़ाहिशों की ख़ातिर सब कुछ कर गुज़रने के लिए तैयार था। हराम तरीक़ों से माल समेटता और हराम रास्तों में ख़र्च करता था। लोगों के हक़ मारता था। न उसकी ज़बान किसी हद की पाबन्द थी, न उसके हाथ किसी ज़ुल्म व ज़्यादती से रुकते थे। भलाई के रास्ते में सिर्फ़ रुकावटें डालने ही पर बस न करता था, बल्कि इससे आगे बढ़कर भलाई अपनानेवालों को सताता था और भलाई के लिए काम करनेवालों पर सितम ढाता था।
32. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मुरीब' इस्तेमाल हुआ है, जिसके दो मतलब हैं: एक, शक करनेवाला दूसरा, शक में डालनेवाला। और दोनों ही मतलब यहाँ मुराद हैं। मतलब यह है कि वह ख़ुद शक में पड़ा हुआ था और दूसरों के दिलों में शक डालता था। उसे अल्लाह और आख़िरत और फ़रिश्ते और पैग़म्बरी और वह्य, यानी दीन की सभी सच्चाइयों में शक था। हक़ की जो बात भी पैग़म्बरों की तरफ़ से पेश की जाती थी, उसके ख़याल में वह यक़ीन करने के क़ाबिल न थी। और यही बीमारी वह अल्लाह के दूसरे बन्दों को लगाता फिरता था। जिस शख़्स से भी उसको वास्ता पड़ता उसके दिल में वह कोई-न-कोई शक और कोई-न-कोई वस्वसा (वहम) डाल देता।
ٱلَّذِي جَعَلَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَأَلۡقِيَاهُ فِي ٱلۡعَذَابِ ٱلشَّدِيدِ ۝ 20
(26) और अल्लाह के साथ किसी दूसरे को ख़ुदा बनाए बैठा था। डाल दो उसे सख़्त अज़ाब में।"33
33. इन आयतों में अल्लाह तआला ने वे ख़राबियाँ गिनकर बता दी हैं, जो इनसान को जहन्नम का हक़दार बनानेवाली हैं : (1) हक़ का इनकार, (2) ख़ुदा की नाशुक्री, (3) हक़ और हक़ परस्तों से दुश्मनी, (1) भलाई के रास्ते में रुकावट बनना, (5) अपने माल से ख़ुदा और बन्दों के हक़ अदा न करना, (6) अपने मामलों में हदें पार कर जाना, (7) लोगों पर ज़ुल्म और ज़्यादतियाँ करना, (8) दीन की सच्चाइयों पर शक करना, (9) दूसरों के दिलों में शक व शुब्हे डालना और (10) अल्लाह के साथ किसी दूसरे को ख़ुदाई में शरीक ठहराना।
۞قَالَ قَرِينُهُۥ رَبَّنَا مَآ أَطۡغَيۡتُهُۥ وَلَٰكِن كَانَ فِي ضَلَٰلِۭ بَعِيدٖ ۝ 21
(27) उसके साथी ने कहा, “ऐ हमारे रब! मैंने इसको सरकश नहीं बनाया, बल्कि यह ख़ुद ही परले दरजे की गुमराही में पड़ा हुआ था।34
34. यहाँ बात का मौक़ा-महल ख़ुद बता रहा है कि 'साथी' से मुराद वह शैतान है जो दुनिया में उस शख़्स के साथ लगा हुआ था। और यह बात भी अन्दाज़े-बयान ही से ज़ाहिर होती है कि वह शख़्स और उसका शैतान, दोनों ख़ुदा की अदालत में एक-दूसरे से झगड़ रहे हैं। वह कहता है कि हुजूर! यह ज़ालिम मेरे पीछे पड़ा हुआ था और इसी ने आख़िरकार मुझे गुमराह करके छोड़ा, इसलिए सज़ा इसको मिलनी चाहिए। और शैतान जवाब में कहता है कि सरकार! मेरा इसपर कोई ज़ोर तो नहीं था कि यह सरकश न बनना चाहता हो और मैंने ज़बरदस्ती इसको सरकश बना दिया हो। यह कमबख़्त तो ख़ुद नेकी और भलाई से नफ़रत करता था और बुराई पर फ़िदा था। इसी लिए पैग़म्बरों की कोई बात इसे पसन्द न आई और मेरी लुभावनी बातों पर यह फिसलता चला गया।
قَالَ لَا تَخۡتَصِمُواْ لَدَيَّ وَقَدۡ قَدَّمۡتُ إِلَيۡكُم بِٱلۡوَعِيدِ ۝ 22
(28) जवाब में कहा गया, “मेरे सामने झगड़ा न करो, मैं तुमको पहले ही बुरे अंजाम से ख़बरदार कर चुका था।35
35. यानी तुम दोनों ही को मैंने ख़बरदार कर दिया था कि तुममें से जो बहकाएगा वह क्या सज़ा पाएगा और जो बहकेगा उसे क्या ख़मियाज़ा भुगतना पड़ेगा। मेरी इस तंबीह (चेतावनी) के बावजूद जब तुम दोनों अपने-अपने हिस्से का जुर्म करने से न माने तो अब झगड़ा करने से हासिल क्या है! बहकनेवाले को बहक ने की और बहकानेवाले को बहकाने की सज़ा तो अब ज़रूर मिलनी ही है।
مَا يُبَدَّلُ ٱلۡقَوۡلُ لَدَيَّ وَمَآ أَنَا۠ بِظَلَّٰمٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 23
(29) मेरे यहाँ बात पलटी नहीं जाती36 और मैं अपने बन्दों पर ज़ुल्म तोड़नेवाला नहीं हूँ।"37
36. यानी फ़ैसले बदलने का दस्तूर मेरे यहाँ नहीं है। तुमको जहन्नम में फेंक देने का जो हुक्म मैं दे चुका हूँ वह अब वापस नहीं लिया जा सकता। और न उस क़ानून ही को बदला जा सकता है जिसका एलान मैंने दुनिया में कर दिया था कि गुमराह करने और गुमराह होने की क्या सज़ा आख़िरत में दी जाएगी।
37. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़ल्लाम' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है बहुत बड़ा ज़ालिम। इसका यह मतलब नहीं है कि मैं अपने बन्दों के लिए ज़ालिम तो हूँ, मगर बहुत बड़ा ज़ालिम नहीं हूँ। बल्कि इसका मतलब यह है कि अगर मैं पैदा करनेवाला और पालनेवाला रब होकर अपने ही परवरिश किए हुओं पर ज़ुल्म करूँ तो बहुत बड़ा ज़ालिम ठहरूँगा। इसलिए मैं सिरे से कोई ज़ुल्म भी अपने बन्दों पर नहीं करता। यह सज़ा जो मैं तुमको दे रहा हूँ यह ठीक- ठीक वही सज़ा है जिसका हक़दार तुमने अपने-आपको ख़ुद बनाया है। तुम्हारे हक़ से रत्ती-भर भी ज़्यादा सज़ा तुम्हें नहीं दी जा रही है। मेरी अदालत बेलाग इनसाफ़ की अदालत है। यहाँ कोई शख़्स कोई ऐसी सज़ा नहीं पा सकता जिसका वह हक़ीक़त में हक़दार न हो और जिसके लिए उसका हक़दार होना बिलकुल यक़ीनी गवाहियों से साबित न कर दिया गया हो।
يَوۡمَ نَقُولُ لِجَهَنَّمَ هَلِ ٱمۡتَلَأۡتِ وَتَقُولُ هَلۡ مِن مَّزِيدٖ ۝ 24
(30) वह दिन जबकि हम जहन्नम से पूछेगे, “क्या तू भर गई?” और वह कहेगी, “क्या और कुछ है?"38
38. इसके दो मतलब हो सकते हैं : एक यह कि “मेरे अन्दर अब और ज़्यादा आदमियों की गुंजाइश नहीं है।” दूसरा यह कि “और जितने मुजरिम भी हैं उन्हें ले आइए।” पहला मतलब लिया जाए तो इस बात से तसव्वुर यह सामने आता है कि मुजरिमों को जहन्नम में इस तरह ठूँस-ठूँसकर भर दिया गया है कि उसमें एक सूई की भी गुंजाइश नहीं रही, यहाँ तक कि जब उससे पूछा गया कि क्या तू भर गई तो वह घबराकर चीख़ उठी कि क्या अभी और आदमी भी आने बाक़ी हैं? दूसरा मतलब लिया जाए तो यह तसव्वुर ज़ेहन में पैदा होता है कि जहन्नम का ग़ुस्सा इस वक़्त मुजरिमों पर कुछ इस बुरी तरह भड़का हुआ है कि वह 'क्या कुछ और भी हैं?' की माँग किए जाती है और चाहती है कि आज कोई मुजरिम उससे छूटने न पाए। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि जहन्नम से अल्लाह तआला के इस तरह से पूछने और उसके जवाब देने की बात किस तरह की है? क्या यह सिर्फ़ मजाज़ी (सांकेतिक) बात है? या सचमुच जहन्नम कोई जानदार और बोलनेवाली चीज़ है जिसे मुख़ातब किया जा सकता हो और वह बात का जवाब दे सकती हो? इस मामले में हक़ीक़त में कोई बात यक़ीनी तौर पर नहीं कही जा सकती। हो सकता है कि यह मजाज़ी (सांकेतिक) बात हो और सिर्फ़ सूरते-हाल का नक़्शा खींचने के लिए जहन्नम की कैफ़ियत को सवाल और जवाब की शक्ल में बयान किया गया हो, जैसे कोई शख़्स यूँ कहे कि मैंने मोटर से पूछा, “तू चलती क्यों नहीं?” उसने जवाब दिया, “मेरे अन्दर पेट्रोल नहीं है।” लेकिन यह भी बिलकुल मुमकिन है कि यह बात हक़ीक़त हो। इसलिए कि दुनिया की जो चीज़ें हमारे लिए जामिद (जड़) और सामित (ख़ामोश) हैं, उनके बारे में हमारा यह गुमान करना दुरुस्त नहीं हो सकता कि वे ज़रूर अल्लाह के लिए भी वैसी ही जामिद और सामित होंगी। पैदा करनेवाला अपनी पैदा की हुई चीज़ों से बात कर सकता है और उसकी पैदा की हुई हर चीज़ उसकी बात का जवाब दे सकती है, चाहे हमारे लिए उसकी ज़बान समझना कितना ही मुश्किल हो।
وَأُزۡلِفَتِ ٱلۡجَنَّةُ لِلۡمُتَّقِينَ غَيۡرَ بَعِيدٍ ۝ 25
(31) और जन्नत परहेज़गारों के क़रीब ले आई जाएगी, कुछ भी दूर न होगी।39
39. यानी ज्यों ही किसी शख़्स के बारे में अल्लाह तआला की अदालत से यह फ़ैसला होगा कि वह परहेज़गार और जन्नत का हक़दार है, फ़ौरन वह जन्नत को अपने सामने मौजूद पाएगा। वहाँ तक पहुँचने के लिए उसे कोई सफ़र की दूरी तय नहीं करनी पड़ेगी कि पाँव से चलकर या किसी सवारी में बैठकर सफ़र करता हुआ वहाँ जाए और फ़ैसले के वक़्त और जन्नत में दाख़िल होने के बीच कोई वक़्फ़ा (अन्तराल) हो, बल्कि इधर फ़ैसला हुआ और उधर परहेज़गार जन्नत में दाख़िल हो गया। मानो वह जन्नत में पहुँचाया नहीं गया है, बल्कि ख़ुद जन्नत ही उठाकर उसके पास ले आई गई है। इससे कुछ अन्दाज़ा किया जा सकता है कि आख़िरत की दुनिया में वक़्त और दूरी के तसव्वुरात हमारी इस दुनिया के तसव्वुरात से कितने अलग होंगे। जल्दी व देर और दूरी व नज़दीकी के वे सारे मतलब वहाँ बे-मानी होंगे जिनसे हम इस दुनिया में वाक़िफ़ हैं।
هَٰذَا مَا تُوعَدُونَ لِكُلِّ أَوَّابٍ حَفِيظٖ ۝ 26
(32) कहा जाएगा, “यह है वह चीज़ जिसका तुमसे वादा किया जाता था, हर उस शख़्स के लिए जो बहुत रुजू करनेवाला40 और बड़ी देख-भाल करनेवाला था,41
40. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अव्वाब' इस्तेमाल हुआ है जो बहुत-से मतलब अपने अन्दर समेटे हुए है। इससे मुराद ऐसा शख़्स है जिसने नाफ़रमानी और अपने मन की ख़ाहिशों का रास्ता छोड़कर फ़रमाँबरदारी और अल्लाह को राज़ी करनेवाला रास्ता अपना लिया हो, जो हर उस चीज़ को छोड़ दे जो अल्लाह को नापसन्द है और हर उस चीज़ को अपना ले जो अल्लाह को पसन्द है, जो बन्दगी के रास्ते से ज़रा क़दम हटते ही घबरा उठे और तौबा करके बन्दगी की राह पर पलट आए, जो बहुत ज़्यादा अल्लाह को याद करनेवाला और अपने तमाम मामलों में उसकी तरफ़ पलटनेवाला हो।
41. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'हफ़ीज़' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है 'हिफ़ाज़त करनेवाला।' इससे मुराद ऐसा शख़्स है जो अल्लाह की हदों और उसके फ़र्ज़ों और उसके हराम ठहराए कामों और उसकी सिपुर्द की हुई अमानतों की हिफ़ाज़त करे, जो उन हक़ों की देख-भाल करे जो अल्लाह की तरफ़ से उसपर आते हैं, जो उस अह्द और वादे की हिफ़ाज़त करे जो ईमान लाकर उसने अपने रब से किया है, जो अपने वक़्तों और अपनी क़ुव्वतों और मेहनतों और कोशिशों की हिफ़ाज़त करे कि उनमें से कोई चीज़ ग़लत कामों में बरबाद न हो, जो तौबा करके उसकी हिफ़ाज़त करे और उसे फिर टूटने न दे, जो हर वक़्त अपना जाइज़ा लेकर देखता रहे कि कहीं मैं अपनी कथनी और करनी में अपने रब की नाफ़रमानी तो नहीं कर रहा हूँ।
مَّنۡ خَشِيَ ٱلرَّحۡمَٰنَ بِٱلۡغَيۡبِ وَجَآءَ بِقَلۡبٖ مُّنِيبٍ ۝ 27
(33) जो बे-देखे रहमान (मेहरबान ख़ुदा) से डरता था,42 और जो फ़िदा हो जानेवाला दिल लिए हुए आया है।43
42. यानी बावजूद इसके कि रहमान (मेहरबान ख़ुदा) उसको कहीं नज़र न आता था, और अपने हवास (इन्द्रियों) से किसी तरह भी उसको महसूस न कर सकता था, फिर भी वह उसकी नाफ़रमानी करते हुए डरता था। उसके दिल पर दूसरी महसूस होनेवाली ताक़तों और साफ़ नज़र आनेवाली ज़ोरावर हस्तियों के डर के मुक़ाबले में उस अनदेखे रहमान का डर ज़्यादा हावी था। और यह जानते हुए भी कि वह रहमान है, उसकी रहमत के भरोसे पर वह गुनाहगार नहीं बना, बल्कि हमेशा उसकी नाराज़ी से डरता ही रहा। इस तरह यह आयत मोमिन की दो अहम और बुनियादी ख़ूबियों की तरफ़ इशारा करती है। एक यह कि वह महसूस न होने और नज़र न आने के बावजूद ख़ुदा से डरता है। दूसरी यह कि वह अल्लाह के रहम करने की सिफ़त से अच्छी तरह वाक़िफ़ होने के बावजूद गुनाहों पर निडर नहीं होता। यही दो ख़ूबियाँ उसे अल्लाह के यहाँ क़द्र का हक़ दार बनाती हैं। इसके अलावा इसमें एक और छिपा हुआ पहलू भी है जिसे इमाम राज़ी (रह०) ने बयान किया है। वह यह कि अरबी ज़बान में डर के लिए 'ख़ौफ़' और 'ख़शीयत', दो लफ़्ज़ इस्तेमाल होते हैं, जिनके मतलब में एक बारीक फ़र्क़ है। 'ख़ौफ़' का लफ़्ज़ आम तौर से उस डर के लिए इस्तेमाल होता है जो किसी की ताक़त के मुक़ाबले में अपनी कमज़ोरी के एहसास की वजह से आदमी के दिल में पैदा हो। और 'ख़शीयत' उस डर के लिए बोलते हैं जो किसी की बड़ाई (महानता) के ख़याल से आदमी के दिल पर छा जाए। यहाँ 'ख़ौफ़' के बजाय 'ख़शीयत' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है जिससे यह बताना मक़सद है कि मोमिन के दिल में अल्लाह का डर सिर्फ़ उसकी सज़ा के ख़ौफ़ ही से नहीं होता, बल्कि उससे भी बढ़कर अल्लाह की बड़ाई और बुज़ुर्गी का एहसास उसपर हर वक़्त एक डर छाए रखता है।
43. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'क़लबिम-मुनीब' लेकर आया है। 'मुनीब' 'इनाबत' से है जिसका मतलब एक तरफ़ मुँह करना और बार-बार उसी की तरफ़ पलटना है। जैसे क़ुतुबनुमा (दिशासूचक-यन्त्र, Compass) की सूई हमेशा उत्तर ही की तरफ़ रुख़ किए रहती है और आप चाहे कितना ही हिलाएँ-डुलाएँ, वह घूम-फिरकर फिर उत्तर ही की दिशा में आ जाती है। इसी तरह 'क़लबिम-मुनीब' से मुराद ऐसा दिल है जो हर तरफ़ से मुँह फेरकर एक अल्लाह की तरफ़ मुड़ गया और फिर ज़िन्दगी-भर जो हालात भी उसपर गुज़रे उनमें वह बार-बार उसी की तरफ़ पलटता रहा। इसी मतलब को हमने 'फ़िदा हो जानेवाला दिल' के अलफ़ाज़ से अदा किया है। इससे मालूम हुआ कि अल्लाह के यहाँ अस्ली क़द्र उस शख़्स की है जो सिर्फ़ ज़बान से नहीं बल्कि पूरे ख़ुलूस (निष्ठा) के साथ सच्चे दिल से उसी का होकर रह जाए।
ٱدۡخُلُوهَا بِسَلَٰمٖۖ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلۡخُلُودِ ۝ 28
(34) दाख़िल हो जाओ जन्नत में सलामती के साथ44 वह दिन हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी का दिन होगा।
44. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं: 'उदख़ुलूहा बि-सलाम' । 'सलाम' को अगर सलामती के मानी में लिया जाए तो इसका मतलब यह है कि हर क़िस्म के दुख व ग़म और फ़िक्र व आफ़तों से महफ़ूज़ होकर उस जन्नत में दाख़िल हो जाओ। और अगर इसे 'सलाम' ही के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि आओ इस जन्नत में अल्लाह और उसके फ़रिश्तों की तरफ़ से तुमको सलाम है। इन आयतों में अल्लाह तआला ने वे सिफ़ात (गुण) बता दी हैं जिनकी बुनियाद पर कोई शख़्स जन्नत का हक़ दार होता है, और वे हैं (1) तक़वा (परहेज़गारी), (2) अल्लाह की तरफ़ पलटना, (3) अल्लाह से अपने ताल्लुक़ की हिफ़ाज़त, (4) अल्लाह को देखे बिना और उसके रहम करने की सिफ़ात पर यक़ीन रखने के बावजूद उससे डरना और (5) क़लबे-मुनीब लिए हुए अल्लाह के यहाँ पहुँचना, यानी मरते दम तक (अल्लाह की तरफ़) रुजू होने (तौबा करने) के रवैये पर क़ायम रहना।
لَهُم مَّا يَشَآءُونَ فِيهَا وَلَدَيۡنَا مَزِيدٞ ۝ 29
(35) वहाँ उनके लिए वह सब कुछ होगा जो वे चाहेंगे, और हमारे पास इससे ज़्यादा भी बहुत कुछ उनके लिए है।45
45. यानी जो कुछ वे चाहेंगे वह तो उनको मिलेगा ही, मगर उसपर और भी हम उन्हें वह कुछ देंगे जिसका कोई ख़याल तक उनके ज़ेहन में नहीं आया है कि वे उसके हासिल करने की ख़ाहिश करें।
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّن قَرۡنٍ هُمۡ أَشَدُّ مِنۡهُم بَطۡشٗا فَنَقَّبُواْ فِي ٱلۡبِلَٰدِ هَلۡ مِن مَّحِيصٍ ۝ 30
(36) हम उनसे पहले बहुत-सी क़ौमों को हलाक कर चुके हैं जो उनसे बहुत ज़्यादा ताक़तवर थीं और दुनिया के देशों को उन्होंने छान मारा था।46 फिर क्या वे कोई पनाह की जगह पा सके?47
46. यानी सिर्फ़ अपने देश ही में वे ज़ोरावर न थीं, बल्कि दुनिया के दूसरे देशों में भी वे जा घुसी थीं और उनकी तबाहकारियों का सिलसिला इस ज़मीन पर दूर-दूर तक पहुँचा हुआ था।
47. यानी जब ख़ुदा की तरफ़ से उनकी पकड़ का वक़्त आया तो क्या उनकी वह ताक़त उनको बचा सकी? और क्या दुनिया में फिर कहीं उनको पनाह मिल सकी? अब आख़िर तुम किस भरोसे पर यह उम्मीद रखते हो कि ख़ुदा के मुक़ाबले में बग़ावत करके तुम्हें कहीं पनाह मिल जाएगी?
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَذِكۡرَىٰ لِمَن كَانَ لَهُۥ قَلۡبٌ أَوۡ أَلۡقَى ٱلسَّمۡعَ وَهُوَ شَهِيدٞ ۝ 31
(37) इस (इतिहास) में नसीहत का सबक़ है हर उस शख़्स के लिए जो दिल रखता हो, या ध्यान से बात को सुने।48
48. दूसरे अलफ़ाज़ में जो या तो ख़ुद अपनी ख़ुद की इतनी अक़्ल रखता हो कि सही बात सोचे, या नहीं तो ग़फ़लत और तास्सुब (पक्षपात) से इतना पाक हो कि जब कोई दूसरा शख़्स उसे हक़ीक़त समझाए तो वह खुले कानों से उसकी बात सुने। यह न हो कि समझानेवाले की आवाज़ कान के परदे पर से गुज़र रही है और सुननेवाले का दिमाग़ किसी और तरफ़ लगा है।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَا فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ وَمَا مَسَّنَا مِن لُّغُوبٖ ۝ 32
(38) हमने ज़मीन और आसमानों को और उनके बीच की सारी चीज़ों को छह दिनों में पैदा कर दिया।49 और हमें कोई थकान महसूस न हुई।
49. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—11 से 15।
فَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ قَبۡلَ طُلُوعِ ٱلشَّمۡسِ وَقَبۡلَ ٱلۡغُرُوبِ ۝ 33
(39) तो ऐ नबी! जो बातें ये लोग बनाते हैं उनपर सब्र करो,50 और अपने रब की हम्द (तारीफ़) के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) करते रहो, सूरज निकलने और सूरज डूबने से पहले,
50. यानी सच्ची बात यह है कि यह पूरी कायनात हमने छह दिन में बना डाली है और इसको बनाकर हम थक नहीं गए हैं कि उसको दोबारा बनाना हमारे बस में न रहा हो। अब अगर ये नादान लोग तुमसे मरने के बाद की ज़िन्दगी की ख़बर सुनकर तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाते हैं और तुम्हें दीवाना क़रार देते हैं तो इसपर सब्र करो। ठण्डे दिल से इनकी हर बेहूदा बात को सुनो और जिस हक़ीक़त के बयान करने पर तुम मुक़र्रर किए गए हो उसे बयान करते चले जाओ। इस आयत में एक हलका-सा तंज़ (व्यंग्य) यहूदियों और ईसाइयों पर भी है जिनकी बाइबल में यह कहानी गढ़ी गई है कि ख़ुदा ने छह दिनों में ज़मीन-आसमान को बनाया और सातवें दिन आराम किया, (उत्पत्ति, 2:2)। अगरचे अब मसीही पादरी इस बात से शरमाने लगे हैं और उन्होंने पाक किताब के उर्दू तर्जमे में ‘आराम किया' को 'फ़ारिग़ हुआ' (निवृत हुआ) से बदल दिया है। मगर किंग जेम्स की भरोसेमन्द अंग्रेज़ी बाइबल में And He rested on the seventh day के अलफ़ाज़ साफ़ मौजूद हैं। और यही अलफ़ाज़ उस तर्जमे में भी पाए जाते हैं जो 1951 ई० में यहूदियों ने फ़्लाडेलफ़िया से छापा है। अरबी तर्जमे में भी 'फ़स्तरा-ह फ़िल-यौमिस-साबिइ' (फिर उसने सातवें दिन आराम किया) के अलफ़ाज़ हैं।
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَسَبِّحۡهُ وَأَدۡبَٰرَ ٱلسُّجُودِ ۝ 34
(40) और रात के वक़्त फिर उसकी तसबीह करो और सजदे करने से निबट जाने के बाद भी।51
51. यह है वह ज़रिआ जिससे आदमी को यह ताक़त हासिल होती है कि हक़ की दावत की राह में उसे चाहे कैसे ही दिल तोड़नेवाले और दुखी करनेवाले हालात का सामना करना पड़े, और उसकी कोशिशों का चाहे कोई फल भी हासिल होता नज़र न आए, फिर भी वह पूरे मज़बूत इरादे के साथ ज़िन्दगी-भर हक़ का बोल-बाला करने और दुनिया को भलाई की तरफ़ बुलाने की काशिश जारी रखे। रब की हम्द और उसकी तसबीह (महिमागान) से मुराद यहाँ नमाज़ है और जिस मक़ाम पर भी क़ुरआन में हम्द और तसबीह को ख़ास वक़्तों के साथ ख़ास कर दिया गया है वहाँ इससे मुराद नमाज़ ही होती है। ‘सूरज निकलने से पहले’ फ़ज्र की नमाज़ है। 'सूरज डूबने से पहले’ दो नमाज़ें हैं, एक ज़ुह्‌र, दूसरी अस्र। ‘रात के वक़्त' मग़रिब और इशा की नमाजें हैं और तीसरी तहज्जुद भी रात की तसबीह में शामिल है, (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिए—91 से 97; सूरा-20 ता-हा, हाशिया-111; सूरा-30 रूम, हाशिए—23, 24)। रही वह तसबीह जो 'सजदों से फ़ारिग़ होने के बाद’ करने की हिदायत की गई है, तो उससे मुराद नमाज़ के बाद का ‘ज़िक्र' भी हो सकता है और फ़र्ज़ के बाद 'नफ़्ल' अदा करना भी। हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत हसन-बिन-अली (रज़ि०), हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०), हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०), शअबी, मुजाहिद, इकरिमा, हसन बसरी, क़तादा, इबराहीम नख़ई, और औज़ाई (रह०) इससे मुराद मग़रिब की नमाज़ के बाद की दो रकअतें लेते हैं। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) और एक रिवायत के मुताबिक़ हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का भी यह ख़याल है कि इससे मुराद नमाज़ के बाद का ज़िक्र है। और इब्ने-ज़ैद कहते हैं कि इस हुक्म का मक़सद यह है कि फ़र्ज़ों के बाद भी नवाफ़िल (नफ़्ल नमाज़ें) अदा किए जाएँ। बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक बार ग़रीब मुहाजिरों ने हाज़िर होकर अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! मालदार लोग तो बड़े दरजे लूट ले गए।" नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या हुआ?” उन्होंने कहा, “वे भी नमाज़ें पढ़ते हैं जैसे हम पढ़ते हैं और रोज़े रखते हैं जैसे हम रखते हैं, मगर वे सदक़ा करते हैं और हम नहीं कर सकते, वे ग़ुलाम आज़ाद करते हैं और हम नहीं कर सकते।” अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "क्या मैं तुम्हें ऐसी चीज़ बताऊँ जिसे अगर तुम करो तो तुम दूसरे लोगों से बाज़ी ले जाओगे सिवाय उनके जो वही अमल करें जो तुम करोगे? वह अमल यह है कि तुम हर नमाज़ के बाद 33-33 बार 'सुब्हानल्लाह' (अल्लाह पाक है), 'अल-हमदुलिल्लाह' (शुक्र व तारीफ़ अल्लाह के लिए है), और 'अल्लाहु अकबर' (अल्लाह ही बड़ा है) कहा करो।” कुछ मुद्दत के बाद उन लोगों ने कहा कि हमारे मालदार भाइयों ने यह बात सुन ली है और वे भी यही अमल करने लगे हैं। इसपर आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह अल्लाह की मेहरबानी है, वह जिसपर चाहता है करता है।” एक रिवायत में इन कलिमात की तादाद 33-33 के बजाय 10-10 भी नक़्ल हुई है। हज़रत ज़ैद-बिन-साबित की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हमको हिदायत फ़रमाई थी कि हम हर नमाज़ के बाद 33-33 बार 'सुब्हानल्लाह' और 'अल-हमदुलिल्लाह' कहा करें और 34 बार 'अल्लाहु अकबर' कहें। बाद में एक अनसारी ने पूछा कि मैंने ख़ाब में देखा है कि कोई कहता है अगर तुम 25-25 बार ये तीन कलिमे कहो और फिर 25 बार 'ला इला-ह इल्लल्लाह' (अल्लाह के सिवा कोई बन्दगी के लायक़ नहीं) कहो तो यह ज़्यादा बेहतर होगा। नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अच्छा इसी तरह किया करो।" (हदीस : अहमद, नसई, दारमी) हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०) कहते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) नमाज़ अदा करके जब पलटते थे तो मैंने आप (सल्ल०) को ये अलफ़ाज़ कहते सुना है, 'सुब्हा-न रबि-क रब्बिल-इज़्ज़ति अम्मा यसिफ़ून व सलामुन अलल-मुर्सलीन वलहम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन।' “पाक है तेरा रब इज़्ज़त का मालिक, उन सभी बातों से जो ये (इस्लाम-मुख़ालिफ़) बना रहे हैं! और सलाम है पैग़म्बरों पर, और सारी तारीफ़ अल्लाह सारे जहानों के रब ही के लिए है!" (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) इसके अलावा भी नमाज़ के बाद के कई तरह के 'ज़िक्र' अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से बयान हुए हैं। जो लोग क़ुरआन मजीद की इस हिदायत पर अमल करना चाहें वे मिशकात, बाबुज़-ज़िक्र बादस-सलात में से कोई ज़िक जो उनके दिल को सबसे ज़्यादा अच्छा लगे, छाँटकर याद कर लें और उसकी पाबन्दी करें। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के अपने बताए हुए ज़िक्र से बेहतर और कौन-सा ज़िक्र हो सकता है! मगर यह ख़याल रखें कि ज़िक्र से अस्ल मक़सद कुछ ख़ास अलफ़ाज़ को ज़बान से अदा कर देना नहीं है, बल्कि उन मतलबों को ज़ेहन में ताज़ा और जमाए रखना है जो इन अलफ़ाज़ में बयान किए गए हैं। इसलिए जो ज़िक्र भी किया जाए उसके मतलब को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए और फिर मतलबों का ध्यान रखते हुए ज़िक्र करना चाहिए।
وَٱسۡتَمِعۡ يَوۡمَ يُنَادِ ٱلۡمُنَادِ مِن مَّكَانٖ قَرِيبٖ ۝ 35
(41) और सुनो, जिस दिन पुकारनेवाला (हर शख़्स के) क़रीब ही से पुकारेगा,52
52. यानी जो शख़्स जहाँ मरा पड़ा होगा, या जहाँ भी दुनिया में उसकी मौत हुई थी, वहीं ख़ुदा की तरफ़ से पुकारनेवाले की आवाज़ उसको पहुँचेगी कि उठो और चलो अपने रब की तरफ़ अपना हिसाब देने के लिए। यह आवाज़ कुछ इस तरह की होगी कि धरती के चप्पे-चप्पे पर जो शख़्स भी ज़िन्दा होकर उठेगा वह महसूस करेगा कि पुकारनेवाले ने कहीं क़रीब ही से उसको पुकारा है। एक ही वक़्त में ज़मीन के पूरे गोले पर हर जगह यह आवाज़ यकसाँ सुनाई देगी। इससे भी कुछ अन्दाज़ा हो सकता है कि आख़िरत की दुनिया में वक़्त और दूरी के पैमाने हमारी मौजूदा दुनिया के मुक़ाबले में कितने बदले हुए होंगे और कैसी क़ुव्वतें किस तरह के क़ानूनों के मुताबिक़ वहाँ काम कर रही होंगी।
يَوۡمَ يَسۡمَعُونَ ٱلصَّيۡحَةَ بِٱلۡحَقِّۚ ذَٰلِكَ يَوۡمُ ٱلۡخُرُوجِ ۝ 36
(42) जिस दिन सब लोग हश्र की आवाज़ (क़ियामत के कोलाहल) को ठीक-ठीक सुन रहे होंगे,53 वह ज़मीन से मुर्दो के निकलने का दिन होगा।
53. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'यस-मऊनस-सै-ह-त बिल-हक़्क़'। इसके दो मानी हो सकते हैं: एक यह कि सब लोग हक़ बात की पुकार को सुन रहे होंगे। दूसरे यह कि हक़ की आवाज़ को ठीक-ठीक सुन रहे होंगे। पहले मानी के लिहाज़ से मतलब यह है कि लोग उसी हक़ की बात की पुकार को अपने कानों से सुन रहे होंगे जिसे दुनिया में वे मानने के लिए तैयार न थे, जिससे इनकार करने पर वे अड़े थे और जिसकी ख़बर देनेवाले पैग़म्बरों का वे मज़ाक़ उड़ाया करते थे। दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह है कि वे यक़ीनी तौर पर हश्र की यह आवाज़ सुनेंगे, उन्हें ख़ुद मालूम हो जाएगा कि यह कोई वहम नहीं है, बल्कि सचमुच यह हश्र ही की आवाज़ है, कोई शक उन्हें इस बात में न रहेगा कि जिस हश्र की उन्हें ख़बर दी गई थी वह आ गया है और यह उसी की पुकार बुलन्द हो रही है।
إِنَّا نَحۡنُ نُحۡيِۦ وَنُمِيتُ وَإِلَيۡنَا ٱلۡمَصِيرُ ۝ 37
(43) हम ही ज़िन्दगी देते हैं और हम ही मौते देते हैं, और हमारी तरफ़ ही उस दिन सबको पलटना है,
يَوۡمَ تَشَقَّقُ ٱلۡأَرۡضُ عَنۡهُمۡ سِرَاعٗاۚ ذَٰلِكَ حَشۡرٌ عَلَيۡنَا يَسِيرٞ ۝ 38
(44) जब ज़मीन फटेगी और लोग उसके अन्दर से निकलकर तेज़-तेज़ भागे जा रहे होंगे। यह हर (इकट्ठा करना) हमारे लिए बहुत आसान है।54
54. यह जवाब है इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की उस बात का जो आयत-3 में नक़्ल की गई है। वे कहते थे कि भला यह कैसे हो सकता है कि जब हम मरकर मिट्टी हो चुके होंगे उस वक़्त हमें फिर से ज़िन्दा करके उठा खड़ा किया जाएगा, यह वापसी तो समझ से परे और नामुमकिन बात है। उनकी इसी बात के जवाब में फ़रमाया गया है कि यह हश्र, यानी सब अगले-पिछले इनसानों को एक साथ ज़िन्दा करके इकट्ठा कर लेना ख़ुदा के लिए बिलकुल आसान है। उसके लिए यह मालूम करना कुछ मुश्किल नहीं है कि किस शख़्स की मिट्टी कहाँ पड़ी है। उसे यह जानने में भी कोई दिक़्क़त नहीं पेश आएगी कि उन बिखरे हुए ज़र्रों में से ज़ैद के ज़रें कौन-से हैं और बक्र के ज़र्रे कौन-से। उन सबको अलग-अलग समेटकर एक-एक आदमी का जिस्म फिर से बना देना, और उस जिस्म में उसी शख़सियत को नए सिरे से पैदा कर देना जो पहले उसमें रह चुकी थी, ख़ुदा के लिए कोई बड़ा मेहनतवाला काम नहीं है, बल्कि उसके एक इशारे से यह सब कुछ आनन-फ़ानन हो सकता है। वे तमाम इनसान जो आदम (अलैहि०) के वक़्त से क़ियामत तक दुनिया में पैदा हुए हैं उसके एक हुक्म पर बड़ी आसानी से इकट्ठे हो सकते हैं। तुम्हारा छोटा-सा दिमाग़ इसे नामुमकिन समझता हो तो समझा करे कायनात के पैदा करनेवाले (ख़ुदा) की क़ुदरत के लिए यह नामुमकिन नहीं है।
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَقُولُونَۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡهِم بِجَبَّارٖۖ فَذَكِّرۡ بِٱلۡقُرۡءَانِ مَن يَخَافُ وَعِيدِ ۝ 39
(45) ऐ नबी! जो बातें ये लोग बना रहे हैं उन्हें हम ख़ूब जानते हैं,55 और तुम्हारा काम इनसे ज़बरदस्ती बात मनवाना नहीं है। बस तुम इस क़ुरआन के ज़रिए से हर उस शख़्स को नसीहत कर दो जो मेरी तंबीह (चेतावनी) से डरे।56
55. इस जुमले में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लिए तसल्ली भी है और इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के लिए धमकी भी। नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करके फ़रमाया जा रहा है कि तुमपर जो बातें ये लोग बना रहे हैं उनकी बिलकुल परवाह न करो, हम सब कुछ सुन रहे हैं और इनसे निबटना हमारा काम है। मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को ख़बरदार किया जा रहा है कि हमारे नबी पर जो फब्तियाँ तुम कस रहे हो वे तुम्हें बहुत महँगी पड़ेंगी। हम ख़ुद एक-एक बात सुन रहे हैं और उसका ख़मियाज़ा तुम्हें भुगतना पड़ेगा।
56. इसका यह मतलब नहीं है कि नबी (सल्ल०) ज़बरदस्ती लोगों से अपनी बात मनवाना चाहते थे और अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को इससे रोक दिया। बल्कि अस्ल में यह बात नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करके इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को सुनाई जा रही है। मानो उनसे यह कहा जा रहा है कि हमारा नबी तुमपर ज़ोर-ज़बरदस्ती करनेवाला बनाकर तो नहीं भेजा गया है। उसका काम ज़बरदस्ती तुम्हें ईमानवाला बनाना नहीं है कि तुम न मानना चाहो और वह ज़बरदस्ती तुमसे मनवाए। उसकी ज़िम्मेदारी तो बस इतनी है कि जो ख़बरदार करने से होश में आ जाए उसे क़ुरआन सुनाकर हक़ीक़त समझा दे। अब अगर तुम नहीं मानते तो नबी तुमसे नहीं निबटेगा, बल्कि हम (ख़ुदा) तुमसे निबटेंगे।
بَلۡ كَذَّبُواْ بِٱلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ فَهُمۡ فِيٓ أَمۡرٖ مَّرِيجٍ ۝ 40
(5) बल्कि इन लोगों ने तो, जिस वक़्त हक़ इनके पास आया, उसी वक़्त उसे साफ़ झुठला दिया। इसी वजह से अब ये उलझन में पड़े हुए हैं।5
5. इस छोटे-से जुमले में भी एक बहुत बड़ा मज़मून बयान किया गया है। इसका मतलब यह है कि इन लोगों ने सिर्फ़ ताज्जुब करने और अक़्ल से परे ठहराने पर ही बस न किया, बल्कि जिस वक़्त मुहम्मद (सल्ल०) ने अपनी हक़ की दावत पेश की, उसी वक़्त बिना झिझक उसे निरा झूठ क़रार दे दिया। इसका नतीजा लाज़िमी तौर से यह होना था और यही हुआ कि इन्हें इस दावत और इसके पेश करनेवाले रसूल के मामले में किसी एक बात पर क़रार नहीं है। कभी उसको शाइर कहते हैं तो कभी काहिन और कभी दीवाना। कभी कहते हैं कि यह जादूगर है और कभी कहते हैं कि किसी ने इसपर जादू कर दिया है। कभी कहते हैं कि यह अपनी बड़ाई क़ायम करने के लिए ख़ुद यह चीज़ बना लाया है, और कभी यह इलज़ाम तराशते हैं कि इसके पीछे कुछ दूसरे लोग हैं जो यह कलाम (बातें) गढ़-गढ़कर इसे देते हैं। ये एक-दूसरे से टकराती हुई अलग-अलग बातें ख़ुद ज़ाहिर करती हैं कि ये लोग अपनी राय में बिलकुल उलझकर रह गए हैं। इस उलझन में ये हरगिज़ न पड़ते अगर जल्दबाज़ी करके नबी को पहले ही क़दम पर झुठला न देते और बिना सोचे-समझे पहले से एक फ़ैसला सुना देने से पहले संजीदगी के साथ ग़ौर करते कि यह दावत कौन पेश कर रहा है, क्या बात कह रहा है और इसके लिए दलील क्या दे रहा है? ज़ाहिर है कि वह शख़्स इनके लिए अज्रनबी न था। कहीं से अचानक इनके दरमियान न आ खड़ा हुआ था। इनकी अपनी ही क़ौम का आदमी था। इनका अपना देखा-भाला आदमी था। ये उसकी सीरत और किरदार और उसकी क़ाबिलियत से अनजान न थे। ऐसे आदमी की तरफ़ से जब एक बात पेश की गई थी तो चाहे उसे फ़ौरन क़ुबूल न किया जाता, मगर वह इसकी हक़दार भी तो न थी कि सुनते ही उसे रद्द कर दिया जाता। फिर वह बात बिना दलील के भी न थी। वह उसके लिए दलीलें पेश कर रहा था। चाहिए था कि उसकी दलीलें खुले कानों से सुनी जातीं और तास्सुब (पक्षपात) के बिना उनको जाँचकर देखा जाता कि वे कहाँ तक सही हैं। लेकिन यह रवैया अपनाने के बजाय जब इन लोगों ने ज़िद में आकर शुरू ही में उसे झुठला दिया तो इसका नतीजा यह हुआ कि एक हक़ीक़त तक पहुँचने का दरवाज़ा तो इन्होंने अपने लिए ख़ुद बन्द कर लिया और हर तरफ़ भटकते फिरने के बहुत-से रास्ते खोल लिए। अब ये अपनी शुरुआती ग़लती को निभाने के लिए दस अलग-अलग तरह की बातें तो बना सकते हैं, मगर इस एक बात को सोचने के लिए भी तैयार नहीं हैं कि नबी सच्चा भी हो सकता है और उसकी पेश की हुई बात हक़ीक़त भी हो सकती है।
أَفَلَمۡ يَنظُرُوٓاْ إِلَى ٱلسَّمَآءِ فَوۡقَهُمۡ كَيۡفَ بَنَيۡنَٰهَا وَزَيَّنَّٰهَا وَمَا لَهَا مِن فُرُوجٖ ۝ 41
(6) अच्छा,6 तो क्या इन्होंने कभी अपने ऊपर आसमान की तरफ़ नहीं देखा? किस तरह हमने उसे बनाया और सजाया,7 और इसमें कहीं कोई दरार नहीं है।8
6. ऊपर की पाँच आयतों में यह बात वाज़ेह करने के बाद कि मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों की राय और पॉलिसी नामुनासिब है, अब बताया जा रहा है कि आख़िरकार की जो ख़बर मुहम्मद (सल्ल०) ने दी है उसके सही होने की दलीलें क्या हैं। इस जगह यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि इस्लाम को न माननेवाले जिन दो बातों पर ताज्जुब ज़ाहिर कर रहे थे उनमें से एक, यानी मुहम्मद (सल्ल०) की पैग़म्बरी के हक़ पर होने की दो दलीलें शुरू ही में दी जा चुकी हैं। एक यह कि वे तुम्हारे सामने क़ुरआन मजीद पेश कर रहे हैं जो उनके नबी होने का खुला हुआ सुबूत है। दूसरी यह कि वे तुम्हारी अपनी ही जाति और क़ौम और बिरादरी के आदमी हैं। अचानक आसमान से या किसी दूसरी ज़मीन से नहीं आ गए हैं कि तुम्हारे लिए उनकी ज़िन्दगी और सीरत और किरदार को जाँचकर यह पता लगाना मुश्किल हो कि वे भरोसे के क़ाबिल आदमी हैं या नहीं और यह क़ुरआन उनका अपना गढ़ा हुआ कलाम हो भी सकता है या नहीं, इसलिए उनके पैग़म्बर होने के दावे पर तुम्हारा ताज्जुब ग़लत है। यह दलील तफ़सील के साथ पेश करने के बजाय दो छोटे-से इशारों की शक्ल में बयान की गई है, क्योंकि जिस ज़माने में मुहम्मद (सल्ल०) ख़ुद मक्का में खड़े होकर उन लोगों को क़ुरआन सुना रहे थे, जो बचपन से जवानी और अधेड़ उम्र तक आप (सल्ल०) की सारी ज़िन्दगी देखें हुए थे, उस वक़्त इन इशारों की पूरी तफ़सील को माहौल का हर शख़्स ख़ुद ही जानता था। इसलिए उसको छोड़कर अब तफ़सीली दलील दूसरी बात की सच्चाई पर दी जा रही है जिसको वे लोग अजीब और अक़्ल से परे कह रहे थे।
7. यहाँ आसमान से मुराद वह पूरी ऊपरी दुनिया है जिसे इनसान रात-दिन अपने ऊपर छाया हुआ देखता है। जिसमें दिन को सूरज चमकता है और रात को चाँद और अनगिनत तारे रौशन दिखाई देते हैं। जिसे आदमी नंगी आँख ही से देखे तो हैरत में पड़ जाता है, लेकिन अगर दूरबीन लगा ले तो एक ऐसी लम्बी-चौड़ी कायनात उसके सामने आती है जिसकी कोई इन्तिहा नहीं, कहीं से शुरू होकर कहीं ख़त्म होती नज़र नहीं आती। हमारी ज़मीन से लाखों गुना बड़े अज़ीमुश्शान सय्यारे (ग्रह) उसके अन्दर गेंदों की तरह घूम रहे हैं। हमारे सूरज से हज़ारों दरजे (गुना) ज़्यादा रोशन तारे इसमें चमक रहे हैं। हमारा यह पूरा निज़ामे-शम्सी (सौर मण्डल) इसकी सिर्फ़ एक कहकशाँ (आकाशगंगा, Galaxy) के एक कोने में पड़ा हुआ है। अकेले इसी एक कहकशाँ (आकाशगंगा) में हमारे सूरज जैसे कम-से-कम 3 (तीन) अरब दूसरे तारे (जो गर्दिश नहीं करते) मौजूद हैं, ऐसी-ऐसी दस लाख कहकशाँ (आकाशगंगा) हैं, जिन्हें अब तक इनसान देख चुका है। इन लाखों कहकशानों (आकाशगंगाओं) में से हमारी सबसे क़रीबी पड़ोसी कहकशाँ (आकाशगंगा) इतने फ़ासले पर पाई जाती है कि उसकी रौशनी एक लाख छियासी हज़ार मील प्रति सेकेंड की रफ़्तार (गति) से चलकर दस लाख साल में ज़मीन तक पहुँचती है। यह तो कायनात के सिर्फ़ उस हिस्से की कुशादगी का हाल है जो अब तक इनसान की जानकारी और उसके देखने में आई है। ख़ुदा की ख़ुदाई कितनी ज़्यादा कुशादा है, इसका कोई अन्दाज़ा हम नहीं कर सकते। हो सकता है कि इनसान की जानकारी में आई कायनात उस पूरी कायनात के मुक़ाबले में वह ताल्लुक़ भी न रखती हो जो बूंद का समुद्र से है। कायनात के इस अज़ीमुश्शान कारख़ाने को जो ख़ुदा वुजूद में लाया है उसके बारे में ज़मीन पर रेंगनेवाला यह छोटा-सा बोलनेवाला जानदार, जिसका नाम इनसान है, अगर यह हुक्म लगाए कि वह इसे मरने के बाद दोबारा पैदा नहीं कर सकता, तो यह इसकी अपनी ही अक़्ल की तंगी है। कायनात के पैदा करनेवाले की क़ुदरत इससे कैसे तंग हो जाएगी!
8. यानी अपनी इस हैरत-अंगेज़ कुशादगी के बावजूद कायनात का यह शानदार निज़ाम ऐसा लगातार और मज़बूत है और इसकी बन्दिश (पकड़) इतनी चुस्त है कि इसमें किसी जगह कोई दरार या शिगाफ़ नहीं है और इसका सिलसिला कहीं जाकर टूट नहीं जाता। इस चीज़ को एक मिसाल से अच्छी तरह समझा जा सकता है। नए ज़माने के रेडियाई-हैयतदानों (विकिरण के खगोलशास्त्रियों) ने एक कहकशानी (आकाशगंगाओं के) निज़ाम को देखा है जिसे वे Source 3c 295 का नाम देते हैं। उसके बारे में उनका अन्दाज़ा यह है कि इसकी जो किरणें अब हम तक पहुँच रही हैं वे चार अरब साल से भी ज़्यादा मुद्दत पहले उसमें से रवाना हुई होंगी। इस सबसे दूर के फ़ासले से इन किरणों का ज़मीन तक पहुँचना आख़िर कैसे मुमकिन होता, अगर ज़मीन और उस कहकशाँ (आकाशगंगा) के बीच कायनात का सिलसिला किसी जगह से टूटा हुआ होता और उसकी बन्दिश में कहीं दरार पड़ी हुई होती। अल्लाह तआला इस हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करके अस्ल में यह सवाल आदमी के सामने पेश करता है कि मेरी कायनात के इस निज़ाम में जब तुम एक ज़रा-सी दरार की निशानदेही भी नहीं कर सकते तो मेरी क़ुदरत में इस कमज़ोरी का तसव्वुर कहाँ से तुम्हारे दिमाग़ में आ गया कि तुम्हारे इम्तिहान की मुहलत ख़त्म हो जाने के बाद तुमसे हिसाब लेने के लिए मैं (अल्लाह) तुम्हें फिर ज़िन्दा करके अपने सामने हाज़िर करना चाहूँ तो न कर सकूँगा? यह सिर्फ़ आख़िरत के इमकान ही का सुबूत नहीं है, बल्कि तौहीद (एकेश्वरवाद) का सुबूत भी है। चार अरब नूरी साल (प्रकाश-वर्ष, Light Years) की दूरी से इन किरनों का ज़मीन तक पहुँचना, और यहाँ इनसान के बनाए हुए आलात (यन्त्रों) की पकड़ में आना साफ़ तौर से इस बात की दलील है कि उस कहकशाँ (आकाशगंगा) से लेकर ज़मीन तक की पूरी दुनिया लगातार एक ही चीज़ से बनी हुई है, एक ही तरह की ताक़तें इसमें काम कर रही हैं, और किसी फ़र्क़ और इख़्तिलाफ़ के बिना वे सब एक ही तरह के क़ानूनों पर काम कर रही हैं। अगर ऐसा न होता तो ये किरनें न यहाँ तक पहुँच सकती थीं और न उन आलात (यन्त्रों) की पकड़ में आ सकती थीं, जो इनसान ने ज़मीन और उसके माहौल में काम करनेवाले क़ानूनों की समझ हासिल करके बनाए हैं। इससे साबित होता है कि एक ही ख़ुदा इस पूरी कायनात (जगत्) का पैदा करनेवाला, मालिक और हाकिम और इन्तिज़ाम चलानेवाला है।
وَٱلۡأَرۡضَ مَدَدۡنَٰهَا وَأَلۡقَيۡنَا فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ زَوۡجِۭ بَهِيجٖ ۝ 42
(7) और ज़मीन को हमने बिछाया और उसमें पहाड़ जमाए और उसके अन्दर हर तरह के ख़ूबसूरत पेड़-पौधे उगा दिए।9
9. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिए—12, से 14; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73, 74; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-71
تَبۡصِرَةٗ وَذِكۡرَىٰ لِكُلِّ عَبۡدٖ مُّنِيبٖ ۝ 43
(8) ये सारी चीज़ें आँखें खोलनेवाली और सबक़ देनेवाली हैं हर उस बन्दे के लिए जो (हक़ की तरफ़) पलटनेवाला हो।
وَنَزَّلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ مُّبَٰرَكٗا فَأَنۢبَتۡنَا بِهِۦ جَنَّٰتٖ وَحَبَّ ٱلۡحَصِيدِ ۝ 44
(9) और आसमान से हमने बरकतवाला पानी बरसाया, फिर उससे बाग़