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سُورَةُ الإِسۡرَاءِ

17. बनी-इसराईल

(मक्का में उतरी-आयतें 111)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 4 के वाक्य “व क़ज़ैना इला बनी इसराई-ल फ़िल-किताब” से लिया गया है। यह नाम भी अधिकतर क़ुरआनी सूरतों की तरह केवल निशानी के रूप में रखा गया है।

उतरने का समय

पहली ही आयत इस बात की निशानदेही कर देती है कि यह सूरा मेराज के मौक़े पर अर्थात् मक्की दौर के अन्तिम काल में उतरी थी। मेराज की घटना हदीस और सीरत (नबी सल्ल० को जीवन-चर्या) की अधिकतर रिवायतों के अनुसार हिजरत से एक साल पहले घटित हुई थी।

पृष्ठभूमि

उस समय नबी (सल्ल०) को तौहीद (एकेश्वरवाद) की आवाज़ बुलन्द करते हुए 12 साल बीत चुके थे। विरोधियों की डाली तमाम रुकावटों के बावजूद आपकी आवाज़ अरब के कोने-कोने में पहुँच गई थी। अब वह समय क़रीब आ गया था जब आप (सल्ल०) को मक्का से मदीना की ओर चले जाने और बिखरे मुसलमानों को समेटकर इस्लामी सिद्धातों पर एक राज्य स्थापित कर देने का अवसर मिलनेवाला था - इन हालात में मेराज पेश आई और वापसी पर यह सन्देश नबी (सल्ल०) ने दुनिया को सुनाया।

विषय और वार्ताएँ

इस सूरा में चेतावनी, समझाना-बुझाना और शिक्षा, तीनों को एक संतुलित शैली में इकट्ठा कर दिया गया है।

चेतावनी मक्का के विधर्मियों को दी गई है कि बनी-इसराईल और दूसरी कौमों के अंजाम से सबक़ लो और इस दावत को स्वीकार कर लो, वरना मिटा दिए जाओगे। साथ ही बनी-इसराईल को भी जिन्हें हिजरत के बाद बहुत जल्द वह्य द्वारा सम्बोधित किया जानेवाला था, यह चेतावनी दी गई है कि पहले जो सज़ाएँ तुम्हें मिल चुकी हैं उनसे शिक्षा लो और अब जो अवसर मुहम्मद (सल्ल०) के पैग़म्बर बनाए जाने से तुम्हें मिल रहा है उससे फ़ायदा उठाओ। यह अन्तिम अवसर भी अगर तुमने खो दिया तो दर्दनाक अंजाम से दो-चार होगे।

समझाने-बुझाने के अंदाज़ में बड़े दिलनशीं तरीक़े से बताया गया है कि इंसान के सौभाग्य एवं दुर्भाग्य और सफलता एवं विफलता की निर्भरता वास्तव में किन चीज़ों पर है। तौहीद, आख़िरत, नुबूवत और क़ुरआन के सत्य पर होने के प्रमाण दिए गए हैं, उन सन्देहों को दूर किया गया है जो इन बुनियादी सच्चाइयों के बारे में मक्का के इस्लाम-विरोधियों की ओर से पेश किए जाते थे।

शिक्षा के पहलू में नैतिकता एवं सभ्यता के वे बड़े-बड़े उसूल बयान किए गए हैं जिनपर जीवन की व्यवस्था को स्थापित करना हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की दावत (अह्वान) के समक्ष था। यह मानो इस्लामी घोषणा-पत्र था जो इस्लामी राज्य की स्थापना से एक साल पहले अरबवालों के सामने प्रस्तुत किया गया था।

इन सब बातों के साथ नबी (सल्ल०) को निरदेश दिया गया है कि कठिनाइयों के इस तूफ़ान में दृढ़ता के साथ अपनी नीति पर जमे रहें और कुफ़्र (अथर्म) के साथ समझौते का ख़याल तक न लाएँ। साथ ही मुसलमानों को बताया गया है कि पूरे धैर्य और शान्ति के साथ परिस्थितियों का मुक़ाबला करते रहें और प्रचार तथा सुधार के काम में अपनी भावनाओं पर क़ाबू रखें। इस सिलसिले में आत्म-सुधार और उसे शुद्ध बनाने के लिए उनको नमाज़ का नुस्ख़ा बताया गया है। रिवायतों से मालूम होता है कि यह पहला मौक़ा है जब पाँच वक़्त की नमाज़ समय की पाबंदी के साथ मुसलमानों पर फ़र्ज़ की गई।

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سُورَةُ الإِسۡرَاءِ
17. बनी-इसराईल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
سُبۡحَٰنَ ٱلَّذِيٓ أَسۡرَىٰ بِعَبۡدِهِۦ لَيۡلٗا مِّنَ ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡحَرَامِ إِلَى ٱلۡمَسۡجِدِ ٱلۡأَقۡصَا ٱلَّذِي بَٰرَكۡنَا حَوۡلَهُۥ لِنُرِيَهُۥ مِنۡ ءَايَٰتِنَآۚ إِنَّهُۥ هُوَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡبَصِيرُ
(1) पाक है वह जो ले गया एक रात अपने बन्दे को मस्जिदे-हराम (मोहतरम काबा) से दूर की उस मस्जिद तक जिसके माहौल को उसने बरकत दी है, ताकि उसे अपनी कुछ निशानियाँ दिखाए।1 हक़ीक़त में वही है सब कुछ सुनने और देखनेवाला।
1. यह वही वाक़िआ है जो इस्तिलाह में 'मेराज' और 'इसरा' के नाम से मशहूर है। ज़्यादातर और भरोसेमन्द रिवायतों के मुताबिक़ यह वाक़िआ हिजरत से एक साल पहले पेश आया। हदीस और सीरत की किताबों में इस वाक़िए की तफ़सीलें बहुत-से सहाबा (रज़ि०) से रिवायत हुई हैं, जिनकी तादाद 25 तक पहुँचती है। उनमें सबसे ज़्यादा तफ़सीली रिवायतें हज़रत अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), हज़रत मालिक-बिन-सअसअः (रज़ि०), हज़रत अबू-ज़र-ग़िफ़ारी (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत हुई हैं। इनके अलावा हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबू-सईद ख़ुदरी (रज़ि०), हज़रत हुजैफ़ा-बिन-यमान (रज़ि०), हज़रत आइशा (रज़ि०) और कई दूसरे सहाबियों ने भी इसके कुछ हिस्से बयान किए हैं। क़ुरआन मजीद यहाँ सिर्फ़ मस्जिदे-हराम (यानी काबा) से मस्जिदे-अक़्सा (यानी बैतुल-मक़दिस) तक नबी (सल्ल०) के जाने का ज़िक्र करता है, और इस सफ़र का मक़सद यह बताता है कि अल्लाह तआला अपने बन्दे को अपनी कुछ निशानियाँ दिखाना चाहता था। इससे ज़्यादा कोई तफ़सील क़ुरआन में नहीं बताई गई। हदीस में जो तफ़सीलात आई हैं उनका ख़ुलासा यह है कि रात के वक़्त फ़रिश्ते जिबरील (अलैहि०) आप (सल्ल०) को उठाकर मस्जिदे-हराम से मस्जिदे-अक़सा तक बुराक़ पर ले गए। वहाँ आप (सल्ल०) ने नबियों (अलैहि०) के साथ नमाज़ अदा की। फिर वे आप (सल्ल०) को ऊपरी दुनिया की तरफ़ ले चले और वहाँ मुख़्तलिफ़ आसमानी तबकों में अलग-अलग जलीलुल-क़द्र (महान) पैग़म्बरों से आपकी मुलाक़ात हुई आख़िरकार आप (सल्ल०) इन्तिहाई बुलन्दियों पर पहुँचकर अपने रब के सामने हाज़िर हुए और इस हाज़िरी के मौक़े पर दूसरी अहम हिदायतों के अलावा आप (सल्ल०) को पाँच वक़्तों की नमाज़ के फ़र्ज़ किए जाने का हुक्म हुआ। इसके बाद आप बैतुल-मक़दिस की तरफ़ पलटे और वहाँ से मस्जिदे-हराम वापस तशरीफ़ लाए। इस सिलसिले में बहुत-सी रिवायतों से मालूम होता है कि आप (सल्ल०) को जन्नत और दोज़ख भी दिखाई गई। साथ ही भरोसेमन्द रिवायतें भी यह बताती हैं कि दूसरे दिन जब आप (सल्ल०) ने इस वाक़िए का लोगों से ज़िक्र किया तो मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने इसका बहुत मज़ाक़ उड़ाया और मुसलमानों में से भी कुछ के ईमान डगमगा गए। हदीस की ये तफ़सीलात क़ुरआन के ख़िलाफ़ नहीं हैं, बल्कि उसके बयान को और ज़्यादा तफ़सील से बयान किया है, और ज़ाहिर है कि बढ़ी हुई तफ़सील को क़ुरआन के ख़िलाफ़ कहकर रद्द नहीं किया जा सकता। फिर भी अगर कोई शख़्स उन तफ़सीलात के किसी हिस्से को न माने जो हदीस में आई हैं तो उसे काफ़िर नहीं कहा जा सकता, अलबत्ता जो वाक़िआ क़ुरआन बयान कर रहा है उसका इनकार करना कुफ़्र कहलाएगा। इस सफ़र की कैफ़ियत क्या थी? यह ख़ाब की हालत में पेश आया था या जागने की हालत में? और क्या नबी (सल्ल०) जिस्मानी तौर पर ख़ुद तशरीफ़ ले गए थे या अपनी जगह बैठे-बैठे महज़ रूहानी तौर पर ही आप (सल्ल०) को यह सब दिखाया गया? इन सवालों के जवाब क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ ख़ुद दे रहे हैं। “सुब्हानल्लज़ी असरा....” (पाक है वह जो ले गया..) से बयान शुरू करना ख़ुद बता रहा है कि यह कोई बहुत बड़ा ग़ैर-मामूली वाक़िआ था जो अल्लाह तआला की ग़ैर-महदूद (असीम) क़ुदरत से ज़ाहिर हुआ। ज़ाहिर है कि ख़ाब में किसी शख़्स का इस तरह की चीज़ें देख लेना या रूहानी तौर पर देखना यह अहमियत नहीं रखता कि उसे बयान करने के लिए इस तमहीद (भूमिका) की ज़रूरत हो कि तमाम कमज़ोरियों और ख़राबियों से पाक है वह ज़ात जिसने अपने बन्दे को यह ख़ाब दिखाया या रूहानी तौर पर ये कुछ दिखाया। फिर ये अलफ़ाज़ भी कि “एक रात अपने बन्दे को ले गया” जिस्मानी सफ़र की साफ़ दलील हैं। ख़ाब के सफ़र, या रूहानी सफ़र के लिए ये अलफ़ाज़ किसी तरह मुनासिब नहीं हो सकते। लिहाज़ा हमारे लिए यह माने बिना कोई चारा नहीं कि यह सिर्फ़ एक रूहानी तजरिबा न था, बल्कि एक जिस्मानी सफ़र और आँखों देखा नज़ारा था, जो अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को कराया। अब अगर एक रात में हवाई जहाज़ के बिना मक्का से बैतुल-मक़दिस जाना और आना अल्लाह की क़ुदरत से मुमकिन था, तो आख़िर उन दूसरी तफ़सीलात ही को नामुमकिन कहकर क्यों रद्द कर दिया जाए, जो हदीस में बयान हुई हैं? मुमकिन और नामुमकिन की बहस तो सिर्फ़ उस सूरत में पैदा होती है, जबकि किसी जानदार के अपने इख़्तियार से किसी काम करने के मामले पर बात हो रही हो। लेकिन जब ज़िक्र यह हो कि ख़ुदा ने फ़ुलाँ काम किया, तो फिर इमकान का सवाल वही शख़्स उठा सकता है जिसे ख़ुदा के क़ादिरे-मुतलक़ (सर्वशक्तिमान) होने का यक़ीन न हो। इसके अलावा जो दूसरी तफ़सीलात हदीस में आई हैं उनपर हदीस को न माननेवालों की तरफ़ से कई एतिराज़ात किए जाते हैं, मगर उनमें से सिर्फ़ दो ही एतिराज़ ऐसे हैं जो कुछ वज़न रखते हैं। एक यह कि इससे अल्लाह तआला का किसी ख़ास जगह पर रहना जरूरी हो जाता है, वरना उसके सामने बन्दे की पेशी के लिए क्या ज़रूरत थी कि उसे सफ़र करा के एक ख़ास जगह तक क्यों ले जाया जाता? दूसरा यह कि नबी (सल्ल०) को दोज़ख़ और जन्नत का मुशाहदा और कुछ लोगों के अज़ाब में घिरे होने का मुआयना कैसे करा दिया गया, जबकि अभी बन्दों के मुक़द्दमों का फ़ैसला ही नहीं हुआ है? यह क्या कि इनाम व सज़ा का फ़ैसला तो होना है क़ियामत के बाद और कुछ लोगों को सज़ा दे डाली गई अभी से? लेकिन अस्ल में ये दोनों एतिराज़ भी कम समझदारी का नतीजा हैं। पहला एतिराज़ इसलिए ग़लत है कि ख़ालिक़ (पैदा करनेवाला) अपनी ज़ात में तो बेशक हर तरह की पाबन्दी से आज़ाद है, मगर मख़लूक़ (पैदा किए हुओं) के साथ मामला करने में वह अपनी किसी कमज़ोरी की बुनियाद पर नहीं, बल्कि मख़लूक़ की कमज़ोरियों की वजह से महदूद ज़रिए इख़्तियार करता है। मिसाल के तौर पर जब वह मख़लूक़ से बात करता है तो बात का वह महदूद तरीक़ा इस्तेमाल करता है जिसे एक इनसान सुन और समझ सके, हालाँकि उसका कलाम अपनी जगह ख़ुद एक ऐसी शान रखता है जो किसी भी तरह की पाबन्दी से आज़ाद है। इसी तरह जब वह अपने बन्दे को अपनी सल्तनत की अज़ीमुश्शान निशानियाँ दिखाना चाहता है तो उसे ले जाता है और जहाँ जो चीज़ दिखानी होती है उसी जगह दिखाता है, क्योंकि वह सारी कायनात को एक ही वक़्त में उस तरह नहीं देख सकता जिस तरह ख़ुदा देखता है। ख़ुदा को किसी चीज़ को देखने के लिए कहीं जाने की ज़रूरत नहीं होती, मगर बन्दे को होती है। यही मामला ख़ालिक़ के सामने हाज़िर होने का भी है कि ख़ालिक़ अपने आपमें ख़ुद किसी जगह पर ठहरा हुआ नहीं है, मगर बन्दा उसकी मुलाक़ात के लिए एक जगह का मुहताज है जहाँ उसके लिए अल्लाह के जलवों को मरकूज़ (केन्द्रित) किया जाए। वरना उस हस्ती से जो किसी भी तरह की पाबन्दियों से आज़ाद है उस बन्दे के लिए मुलाक़ात मुमकिन नहीं है जो पाबन्दियों में जकड़ा हुआ है। रहा दूसरा एतिराज़ तो वह इसलिए ग़लत है कि मेराज के मौक़े पर बहुत-सी हक़ीक़तें नबी (सल्ल०) को दिखाई गई थीं, उनमें कुछ हक़ीक़तों को मिसाल के तौर पर दिखाया गया था। मसलन एक फ़ितना फैलानेवाली बात की यह मिसाल कि एक ज़रा-से सुराख़ में से एक मोटा-सा बैल निकला और फिर उसमें वापस न जा सका। या बदकारों (व्यभिचारियों) की यह मिसाल कि उनके पास ताज़ा और बेहतरीन गोश्त मौजूद है, मगर वे उसे छोड़कर सड़ा हुआ गोश्त खा रहे हैं। इसी तरह बुरे आमाल की जो सज़ाएँ आप (सल्ल०) को दिखाई गईं वे भी मिसाल के रंग में आख़िरत की दुनिया में मिलनेवाली सज़ाएँ थीं जो पहले ही दिखाई गई थीं। अस्ल बात जो मेराज के सिलसिले में समझ लेनी चाहिए वह यह है कि पैग़म्बरों (अलैहि०) में से हर एक को अल्लाह तआला ने उनके ओहदे के हिसाब से आसमानों और ज़मीन की चीज़ें दिखाई हैं और माद्दी (भौतिक) परदों को बीच से हटाकर आँखों से वे हक़ीक़तें दिखाई हैं। जिनपर बिन देखे ईमान लाने की दावत देने पर वे मुक़र्रर किए गए थे, ताकि उनका मक़ाम एक फ़लसफ़ी (दार्शनिक) के मक़ाम से बिलकुल अलग हो जाए। फ़लसफ़ी जो कुछ भी कहता है अनुमान और अटकल से कहता है, वह ख़ुद अगर अपनी हैसियत जानता हो तो कभी अपनी किसी राय की सच्चाई पर गवाही न देगा। मगर पैग़म्बर जो कुछ कहते हैं वे सीधे तौर पर इल्म और देखने की बुनियाद पर कहते हैं और वे दुनियावालों के सामने यह गवाही दे सकते हैं कि हम इन बातों को जानते हैं और ये हमारी आँखों देखी हक़ीक़तें हैं।
وَءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلۡنَٰهُ هُدٗى لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَلَّا تَتَّخِذُواْ مِن دُونِي وَكِيلٗا ۝ 1
(2) हमने इससे पहले मूसा को किताब दी थी और उसे बनी-इसराईल के लिए हिदायत का ज़रिया बनाया था2, इस ताकीद के साथ कि मेरे सिवा किसी को अपना वकील न बनाना।3
2. मेराज का ज़िक्र सिर्फ़ एक जुमले में करके यकायक बनी-इसराईल का यह ज़िक्र जो शुरू कर दिया गया है, सरसरी निगाह में ये आदमी को कुछ बेजोड़-सा महसूस होता है। मगर सूरा के मक़सद को अच्छी तरह समझ लिया जाए तो उसका जोड़ आसानी से समझ में आ जाता है। सूरा का अस्ल मक़सद मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को ख़बरदार करना है। शुरू में मेराज का ज़िक्र सिर्फ़ इसलिए किया गया है कि सामनेवालों को आगाह कर दिया जाए कि ये बातें तुमसे वह शख़्स कर रहा है जो अभी-अभी अल्लाह तआला की अज़ीमुश्शान निशानियाँ देखकर आ रहा है। इसके बाद अब बनी-इसराईल के इतिहास से सबक़ याद दिलाया जाता है कि अल्लाह की तरफ़ से किताब पानेवाले जब अल्लाह के मुक़ाबले में सर उठाते हैं तो देखो फिर उनको कैसी दर्दनाक सज़ा दी जाती है।
3. वकील, यानी जिसपर एतिमाद और भरोसे का दारोमदार हो, जिसपर पूरा भरोसा किया जाए, जिसके सिपुर्द अपने मामले कर दिए जाएँ, जिसकी तरफ़ हिदायत और मदद पाने के लिए रुजू किया जाए।
ذُرِّيَّةَ مَنۡ حَمَلۡنَا مَعَ نُوحٍۚ إِنَّهُۥ كَانَ عَبۡدٗا شَكُورٗا ۝ 2
(3) तुम उन लोगों की औलाद हो जिन्हें हमने नूह के साथ नाव पर सवार किया था4, और नूह एक शुक्रगुज़ार बन्दा था।
4. यानी नूह और उनके साथियों की औलाद होने की हैसियत से तुम्हारी शान है कि तुम सिर्फ़ एक अल्लाह ही को अपना वकील बनाओ, क्योंकि जिनकी तुम औलाद हो वह अल्लाह ही को वकील बनाने की बदौलत तूफ़ान की तबाही से बचे थे।
وَقَضَيۡنَآ إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ لَتُفۡسِدُنَّ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَّتَيۡنِ وَلَتَعۡلُنَّ عُلُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 3
(4) फिर हमने अपनी किताब5 में बनी-इसराईल को इस बात पर भी ख़बरदार कर दिया था कि तुम दो बार ज़मीन में बड़े बिगाड़ पैदा करोगे और बड़ी सरकशी दिखाओगे6 ।
5. किताब से मुराद यहाँ तौरात नहीं है, बल्कि आसमानी सहीफ़ों (किताबों) का मजमूआ (संग्रह) है जिसके लिए क़ुरआन में इस्तिलाह (परिभाषा) के तौर पर लफ़्ज 'अल-किताब' कई जगह इस्तेमाल हुआ है।
6. बाइबल की पाक किताबों के मजमूए में ये चेतावनियाँ अलग-अलग जगहों पर मिलती हैं। पहले फ़साद और उसके बुरे नतीजों पर बनी-इसराईल को ज़बूर, यशायाह, यिर्मयाह और यहेज़केल में ख़बरदार किया गया है, और दूसरे बिगाड़ और उसकी सख़्त सज़ा की पेशनगोई हज़रत मसीह ने की है जो मत्ती और लूक़ा की इंजीलों में मौजूद है। नीचे हम उन किताबों की वे इबारतें नक़्ल करते हैं जिनमें ये बातें बयान की गई हैं, ताकि क़ुरआन के इस बयान की पूरी सच्चाई सामने आ जाए। पहले बिगाड़ पर सबसे पहले हज़रत दाऊद (अलैहि०) ने ख़बरदार किया था, जिसके अलफ़ाज़ ये हैं— "जिन लोगों के विषय में यहोवा ने उन्हें आज्ञा दी थी उनका उन्होंने सत्यानाश न किया, बल्कि उन्हीं जातियों से हिलमिल गए और उनके व्यवहारों को सीख लिया, और उनकी मूर्तियों की पूजा करने लगे और वे उनके लिए फन्दा बन गईं। उन्होंने अपने बेटे-बेटियों को पिशाचों (शैतानों के लिए बलिदान (क़ुरबान) किया, और अपने निर्दोष (मासूम) बेटे-बेटियों का ख़ून बहाया..... तब यहोवा का क्रोध अपनी प्रजा पर भड़का और उसको अपने निज भाग (अपने आप) से घृणा आई। तब उसने उनको अन्य जातियों के वश में कर दिया और उनके बैरियों ने उनपर प्रभुता की (उन पर ग़ालिब हुए)।” (बाइबल, भजन संहिता 106/34-41) इस इबारत में उन वाक़िआत को जो बाद में होनेवाले थे, इस तरह बयान किया गया है मानो वे हो चुके हैं। ये आसमानी किताबों का बयान करने का अपना ख़ास अंदाज़ है। फिर जब यह बड़ा बिगाड़ हो गया तो उसके नतीजे में आनेवाली तबाही की ख़बर यशायाह नबी अपने सहीफ़े में इस तरह देते हैं— “हाय यह जाति (क़ौम) पाप से कैसी भरी है! यह समाज अधर्म से कैसा लदा हुआ है! इस वंश के लोग कैसे कुकर्मी हैं, ये बाल-बच्चे कैसे बिगड़े हुए हैं। उन्होंने यहोवा (परमेश्वर) को छोड़ दिया, उन्होंने इस्राएल (इसराईल) के पवित्र (मुक़द्दस) होने को तुच्छ (हक़ीर) जाना! वे पराए बनकर दूर हो गए हैं। तुम बलवा कर-करके क्यों अधिक मार खाना चाहते हो?” (बाइबल, यशायाह, 4-5) “जो नगरी सती-साध्वी (नेक) थी वह कैसे व्यभिचारिण हो गई! वह न्याय से भरी थी और उसमें धर्म पाया जाता था, लेकिन अब उसमें हत्यारे ही पाए जाते हैं।— तेरे हाकिम (सरदार) हठीले और चोरों से मिले हैं। वे सबके सब घूस खानेवाले और भेंट (तोहफ़े) के लालची हैं। वे अनाथ (यतीम) का न्याय नहीं करते और न विधवा (बेवा) का मुक़द्दमा अपने पास आने दे हैं। इस कारण प्रभु सेनाओं के यहोवा, इस्राएल के शक्तिमान की यह वाणी (कलाम) है: 'सुनो, मैं अपने शत्रुओं को दूर करके शान्ति पाऊँगा और अपने बैरियों से पलटा (इंतिक़ाम) लूँगा।” (बाइबल, यशायाह 1/21-24) "वे पूर्व देश के व्यवहार पर तन-मन से चलते हैं और पलिश्तियों (फ़िलिस्तियों) के समान टोना करते हैं, और परदेशियों के साथ हाथ मिलाते हैं।...... उनका देश मूर्तियों से भरा है, वे अपने हाथों की बनाई हुई वस्तुओं को जिन्हें उन्होंने अपनी उँगलियों से सँवारा है, दण्डवत् (सजदा) करते हैं।”(बाइबल, यशायाह, 2/6-8) "क्योंकि सिय्योन (यरूशलेम) की स्त्रियाँ घमण्ड करतीं और सर ऊँचे किए आँखें मटकाती और घुँघरुओं को छमछमाती हुई ठुमुक-ठुमुक चलती हैं। इसलिए प्रभु यहोवा उनके सर को गंजा करेगा और उनके तन को उघरवाएगा।....... तेरे पुरुष (मद) तलवार से, और शूरवीर (बहादुर) युद्ध में मारे जाएँगे। और उसके फाटक ठण्डी साँस भरेंगे और विलाप करेंगे और वह भूमि पर अकेली बैठी रहेंगी।” (बाइबल, यशायाह 3/16-26) “सुन, प्रभु उनपर उस प्रबल और गहरे महानद को अर्थात् अश्शूर के राजा को उसके सारे प्रताप के साथ चढ़ा लाएगा, और वह उनके सब नालों को भर देगा, और सारे तटों से छलककर बहेगा।” (बाइबल, यशायह, 8/7) “वे बलवा करनेवाले लोग और झूठ बोलनेवाले लड़के हैं, जो यहोवा (ख़ुदा) की शिक्षा को सुनना नहीं चाहते। वे दर्शियों से कहते है : दर्शी मत बनो, और नबियों से कहते हैं, हमारे लिए सच्ची नुबूवत मत करो, हमसे चिकनी-चुपड़ी बातें बोलो, धोखा देनेवाली नुबूवत करो। मार्ग से मुड़ो, पथ से हटो, और इस्राएल के पवित्र को हमारे सामने से दूर करो। इस कारण इस्राएल का पवित्र यों कहता है, तुम लोग जो मेरे इस वचन को निकम्मा जानते और अंधेर और कुटिलता पर भरोसा करके उन्हीं पर टेक लगाते हो; इस कारण यह अधर्म तुम्हारे लिए ऊँची दीवार का टूटा हुआ भाग होगा जो फटकर गिरने पर हो, और वह अचानक पलभर में टूटकर गिर पड़ेगा, और कुम्हार के बर्तन के समान फूटकर ऐसा चकनाचूर होगा कि उसके टुकड़ों का एक ठीकरा भी न मिलेगा जिससे अँगीठी में से आग ली जाए या हौद में से जल निकाला जाए।" (बाइबल, यशायाह 30/9-14) फिर जब सैलाब के बन्द बिलकुल टूटने को थे तो यिर्मयाह नबी की आवाज़ बुलन्द हुई और उन्होंने कहा— “यहोवा (ख़ुदा) यों कहता है कि तुम्हारे पुरखाओं (पुरखों) ने मुझमें कौन-सी ऐसी कुटिलता पाई कि मुझसे दूर हट गए और निकम्मी वस्तुओं के पीछे होकर स्वयं निकम्मे हो गए? ....... मैं तुमको इस उपजाऊ देश में ले आया कि उसका फल और उपज खाओ, परन्तु मेरे इस देश में आकर तुमने इसे अशुद्ध (नापाक) किया, और मेरे इस निज भाग (विरासत) को घृणित कर दिया है।..... बहुत समय पहले मैंने तेरा जूआ तोड़ डाला और तेरे बंधन खोल दिए लेकिन तूने कहा, 'मैं सेवा न करूँगी। और सब ऊँचे-ऊँचे टीलों पर और सब हरे पेड़ों के नीचे तू व्यभिचारिण (बदकार) का-सा काम करती रही (अर्थात हर ताक़त के आगे झुकी और हर बुत को सजदा किया) ....... जैसे चोर पकड़े जाने पर लज्जित होता है उसी तरह इस्राएल (इसराईल) का घराना राजाओं, हाकिमों, याजकों और भविष्यद्वक़्ताओं (काहिनों) समेत लज्जित होगा। वे काठ (लकड़ी) से कहते हैं कि तू मेरा बाप है, और पत्थर से कहते हैं कि तूने मुझे जन्म दिया है। इस प्रकार उन्होंने मेरी ओर मुँह नहीं पीठ ही फेरी है, लेकिन विपत्ति (मुसीबत) के वक़्त वे कहते हैं कि उठकर हमें बचा। लेकिन जो देवता तूने बना लिए हैं वे कहाँ रहे? अगर वे तेरी मुसीबत के वक़्त तुझको बचा सकते हैं तो अभी उठें, क्योंकि हे यहूदा तेरे नगरों के बराबर तेरे देवता भी बहुत-से हैं।” (बाइबल, यिर्मयाह, 2/5-28) “यहोवा ख़ुदावन्द ने मुझसे यह भी कहा, 'क्या तूने देखा कि भटकनेवाली इस्राएल (क़ौम) ने क्या किया है? उसने सब ऊँचे पहाड़ों पर और सब हरे पेड़ों के नीचे जा-जाकर व्यभिचार (यानी बुतपरस्ती) किया है ........ और उसकी विश्वासघाती बहिन यहूदा (यानी यरूशलेम के यहूदी राज्य) ने यह (हाल) देखा। फिर मैंने देखा, जब मैंने भटकनेवाली इस्राएल को उसके व्यभिचार (अर्थात् शिर्क) करने के कारण त्यागकर उसे त्यागपत्र दे दिया (यानी अपनी रहमत से महरूम कर दिया) तो भी उसकी विश्वासघाती बहिन यहूदा (क़ौम) न डरी, बल्कि जाकर वह भी व्यभिचारिण बन गई। उसके निर्लज्ज-व्यभिचारिणी होने के कारण देश भी अशुद्ध (नापाक) हो गया। उसने पत्थर और काठ के साथ भी व्यभिचारण (यानी बुतपरस्ती) किया,” (बाइबल, यिर्मयाह 3/6-9) "यरूशलेम की सड़कों में इधर-उधर दौड़कर देखो! उसके चौकों में ढूँढ़ो, अगर कोई ऐसा (आदमी) मिल सके जो न्याय से काम करे और सच्चाई का खोजी हो; तो मैं उसका पाप क्षमा करूँगा ।...... मैं कैसे तेरा पाप माफ़ करूँ, तेरे लड़कों ने मुझको छोड़कर उनकी क़सम खाई है। जो परमेश्वर नहीं हैं। जब मैंने उनका पेट भर दिया तब उन्होंने व्यभिचार किया और वेश्याओं के घरों में भीड़ की भीड़ जाते थे। वे खिलाए-पिलाए बे-लगाम घोड़ों की तरह हो गए, वे अपने-अपने पड़ोसी की स्त्री पर हिनहिनाने लगे। क्या मैं ऐसे कामों का उन्हें दण्ड न दूँ? यहोवा की यह वाणी है, क्या मैं ऐसी जाति से अपना बदला न लूँ?” (बाइबल, यिर्मयाह 5/1-9) “ऐ इस्राएल (इसराईल) के घराने! देख, मैं तुम्हारे ख़िलाफ़ दूर से ऐसी जाति को चढ़ा लाऊँगा जो सामर्थी (ताक़तवर) और प्राचीन है, उसकी भाषा तुम न समझोगे, और न यह जानोगे कि वे लोग क्या कह रहे हैं। उनका तरकस खुली क़ब्र है और वे सब-के-सब शूरवीर हैं। तुम्हारे पके खेत और भोजन-वस्तुएँ तेरे बेटे-बेटियों के खाने के लिए हैं उन्हें वे खा जाएँगे। वे तुम्हारी भेड़-बकरियों और गाय-बैलों को खा डालेंगे; वे तुम्हारे अंगूरों और अंजीरों को खा जाएँगे। और जिन गढ़वाले नगरों पर तुम भरोसा रखते हो उन्हें वे तलवार के बल से नष्ट कर देंगे। (बाइबल, यिर्मयाह 5/15-17) "इन लोगों की लाशें आकाश के परिन्दों और ज़मीन के दरिन्दों का भोजन होंगी और उनको भगानेवाला कोई न रहेगा। उस समय मैं ऐसा करूँगा कि यहूदा के नगरों में और यरूशलेम की सड़कों में न तो हर्ष और आनन्द का शब्द सुनाई पड़ेगा और न दूल्हे और न दुल्हिन का; क्योंकि देश उजाड़ ही उजाड़ (वीरान) हो जाएगा।” (बाइबल, यिर्मयाह 7/33-34) "इनको मेरे सामने से निकाल दो कि वे निकल जाएँ! यदि वे तुझसे पूछे कि हम कहाँ निकल जाएँ? तो उनसे कहना कि यहोवा (ख़ुदावन्द) यों कहता है: जो मरनेवाले हैं वे मरने को चले। जाएँ, जो तलवार से मरनेवाले हैं वे तलवार से मरने को, जो अकाल से मरनेवाले हैं वे अकाल से मरने को और जो बन्दी बननेवाले हैं वे बँधुआई में चले जाएँ। (बाइबल, यिर्मयाह 15/1-2) फिर ठीक वक़्त पर यहेज़क़ेल नबी उठे और उन्होंने यरूशलेम को संबोधित करके कहा— "ऐ नगर, तू अपने बीच में हत्या करता है जिससे तेरा वक़्त आ जाए और अपनी ही हानि करने और अशुद्ध होने के लिए मूरतें बनाता है...... देख, इस्राएल (इसराईल) के प्रधान लोग अपने-अपने बल के अनुसार हत्या करनेवाले हुए हैं। तुझमें माता-पिता तुच्छ जाने गए हैं; तेरे बीच परदेशी पर अंधेर किया गया; और अनाथ और विधवा तुझमें पीसी गई हैं। तूने मेरी पाक चीज़ों को तुच्छ जाना और मेरे विश्रामदिनों को नापाक किया है। तुझमें लुच्चे लोग हत्या करने को तत्पर हुए और तेरे लोगों ने पहाड़ों पर भोजन किया है; तेरे बीच महापाप किया गया है। तुझमें पिता की देह उघारी गई, तुझमें ऋतुमती स्त्री से ही सम्भोग किया गया है। किसी ने तुझमें पड़ोसी की बीवी के साथ घिनौना काम किया और किसी ने अपनी बहू को बिगाड़कर महापाप किया है; और किसी ने अपनी बहिन, अपने बाप की बेटी को भ्रष्ट किया है। तुझमें हत्या करने के लिए उन्होंने घूस ली है; तूने ब्याज और सूद लिया और अपने पड़ोसियों को पीस-पीसकर अन्याय से लाभ उठाया और मुझको तूने भूला दिया है........ जिन दिनों मैं तेरा न्याय करूँगा, क्या उनमें तेरा हृदय दृढ़ और तेरे हाथ स्थिर रह सकेंगे?........ मैं तेरे लोगों को जाति-जाति में तितर-बितर करूँगा और देश-देश में छितरा दूँगा, और तेरी नापाकी को तुझमें से नष्ट करूँगा। तू जाति-जाति के देखते हुए अपनी ही नज़र में अपवित्र ठहरेगी; तब तू जान लेगा कि मैं यहोवा (पूज्य-प्रभु) हूँ।” (यहेज़क़ेल 22/3-16) ये थीं वे तम्बीहात (चेतावनियाँ) जो बनी-इसाईल को पहले बड़े बिगाड़ के मौक़े पर की गईं। फिर दूसरे बड़े बिगाड़ और उसके भयानक नतीजों पर हज़रत मसीह (अलैहि०) ने उनको ख़बरदार किया। मत्ती, अध्याय 23 में मसीह (अलैहि०) का एक तफ़सीली ख़ुत्बा दर्ज है जिसमें वे अपनी क़ौम की ज़बरदस्त अख़लाक़ी गिरावट की आलोचना करने के बाद फ़रमाते हैं— "ऐ यरूशलेम! ऐ यरूशलेम! तू भविष्यद्वक़्ताओं (नबियों) को मार डालता है और जो तेरे पास भेजे गए उनपर पथराव करता है। कितनी ही बार मैंने चाहा कि जैसे मुर्ग़ी अपने बच्चों को अपने पंखों के नीचे इकट्ठा करती है, वैसे ही मैं भी तेरे बालकों को इकट्ठा कर लूँ, परन्तु तुमने न चाहा। देखो, तुम्हारा घर तुम्हारे लिए उजाड़ छोड़ा जाता है।” (मत्ती-23/37-38) “मैं तुमसे सच कहता हूँ, यहाँ पत्थर पर पत्थर भी न छूटेगा जो ढाया न जाएगा।”(बाइबल, मत्ती 24/2) फिर जब रूमी हुकूमत के कर्मचारी हज़रत मसीह (अलैहि०) को सूली पर चढ़ाने के लिए ले जा रहे थे और लोगों की एक भीड़ जिसमें औरतें भी थीं, रोती-पीटती उनके पीछे जा रही थीं, हज़रत मसीह (अलैहि०) ने उनकी तरफ़ मुड़कर कहा: "ऐ यरूशलेम की बेटियो! मेरे लिए मत रोओ; बल्कि अपने और अपने बच्चों के लिए रोओ। क्योंकि देखो, वे दिन आते हैं जिनमें लोग कहेंगे कि धन्य हैं वे जो बाँझ हैं और वे गर्भ जो न जने और वे स्तन जिन्होंने दूध न पिलाया। उस वक़्त वे पहाड़ों से कहने लगे कि हम पर गिरो और टीलों से कि हमें ढाँप लो।” (बाइबल, लूक़ा 23/28-30)
فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ أُولَىٰهُمَا بَعَثۡنَا عَلَيۡكُمۡ عِبَادٗا لَّنَآ أُوْلِي بَأۡسٖ شَدِيدٖ فَجَاسُواْ خِلَٰلَ ٱلدِّيَارِۚ وَكَانَ وَعۡدٗا مَّفۡعُولٗا ۝ 4
(5) आख़िरकार जब उनमें से पहली सरकशी का मौक़ा पेश आया, तो ऐ बनी-इसराईल, हमने तुम्हारे मुक़ाबले पर अपने ऐसे बन्दे उठाए जो बहुत ही ज़ोरआवर थे और वे तुम्हारे देश में घुसकर हर तरफ़ फैल गए। यह एक वादा था जिसे पूरा होकर ही रहना था।7
7. इससे मुराद वह हौलनाक तबाही है जो आशूरियों और बाबिलवालों के हाथों बनी-इसराईल पर आई। इसका तारीख़ी पसमंज़र समझने के लिए सिर्फ़ वे इक़्तिबासात (उद्धरण) काफ़ी नहीं हैं जो ऊपर हम नबियों की किताबों से नक़्ल कर चुके हैं, बल्कि एक मुख़्तसर तारीख़़ी बयान भी ज़रूरी है ताकि एक जानकारी चाहनेवाले के सामने वे तमाम सबब आ जाएँ जिनकी वजह से अल्लाह तआला ने एक किताब रखनेवाली क़ौम को क़ौमों की इमामत के मंसब से गिराकर एक हारी हुई, ग़ुलाम और बहुत ही पिछड़ी हुई क़ौम बनाकर रख दिया। हज़रत मूसा (अलैहि०) के इन्तिकाल के बाद जब बनी-इसराईल फ़िलस्तीन में दाख़िल हुए तो यहाँ अलग-अलग क़ौमें आबाद थीं। हित्ती, अम्मौरी, कनआनी, फ़िरिज़्ज़ी, हवी, यबूसी, फ़िलिस्ती वग़ैरा। इन क़ौमों में बहुत बुरे क़िस्म का शिर्क पाया जाता था। इनके सबसे बड़े माबूद का नाम 'एल' था जिसे ये देवताओं का बाप कहते थे और उसकी मिसाल आमतौर से सांड से दी जाती थी। उसकी बीवी का नाम 'अशीरा' था और उससे देवताओं और देवियों की एक पूरी नस्ल चली थी जिनकी तादाद 70 तक पहुँचती थी। उसकी औलाद में सबसे ज़्यादा ज़बरदस्त 'बअल' था जिसको बारिश और पैदावार का देवता और ज़मीन व आसमान का मालिक समझा जाता था। उत्तरी इलाक़ों में उसकी बीवी 'उनास' कहलाती थी और फ़िलस्तीन में 'इस्तारात'। ये दोनों औरतें इश्क़ और नस्ल बढ़ाने की देवियाँ थीं। इनके अलावा कोई देवता मौत का मालिक था, किसी देवी के क़ब्ज़े में सेहत थी, किसी देवता को महामारी और अकाल लाने के इख़्तियार दिए गए थे, और यूँ सारी ख़ुदाई बहुत-से माबूदों में बँट गई थी। उन देवताओं और देवियों की तरफ़ ऐसी-ऐसी बुरी सिफ़ात और काम जोड़े जाते थे कि अख़लाक़ी हैसियत से इन्तिहाई बदकिरदार इनसान भी उनके साथ अपना ताल्लुक़ जोड़ना पसन्द न करे। अब यह ज़ाहिर है कि जो लोग ऐसी कमीनी हस्तियों को ख़ुदा बनाएँ और उनकी इबादत करें वे अख़लाक़ की इंतिहाई घटिया गिरावटों में गिरने से कैसे बच सकते हैं, यही वजह है कि उनके जो हालात आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) की खुदाइयों से मिले हैं वे इन्तिहाई गिरावट की गवाही देते हैं। उनके यहाँ बच्चों की क़ुरबानी का आम रिवाज था। उनकी इबादतगाहें बदकारी के अड्डे बने हुए थे। औरतों को देवदासियाँ बनाकर इबादतगाहों में रखना और उनसे बदकारियाँ करना इबादत के कामों में दाख़िल था और इसी तरह की और बहुत-सी बद-अख़लाक़ियों उनमें फैली हुई थीं। तौरात में हज़रत मूसा के ज़रिए से बनी-इसराईल को जो हिदायतें दी गई थीं, उनमें साफ़-साफ़ कह दिया गया था कि तुम उन क़ौमों को हलाक करके उनके क़ब्ज़े से फ़िलस्तीन की सर-ज़मीन छीन लेना और उनके साथ रहने-बसने और उनकी अख़लाक़ी व एतिक़ादी ख़राबियों में मुब्तला होने से परहेज़ करना। लेकिन बनी-इसराईल जब फ़िलस्तीन में दाख़िल हुए तो वे इस हिदायत को भूल गए। उन्होंने मिल-जुलकर और मुत्तहिद होकर अपनी कोई हुकूमत क़ायम नहीं की। वे क़बाइली असबियत (पक्षपात) में मुब्तला थे। उनके हर क़बीले ने इस बात को पसन्द किया कि जीते हुए इलाक़े का एक हिस्सा लेकर अलग हो जाए। इस आपसी फूट की वजह से उनका कोई क़बीला भी इतना ताक़तवर न हो सका कि अपने इलाक़े को मुशरिकों से पूरी तरह पाक कर देता। आख़िकार उन्हें यह गवारा करना पड़ा कि मुशरिक उनके साथ रहें-बसें और इतना ही नहीं, बल्कि उनके जीते हुए इलाक़ों में जगह-जगह उन मुशरिक क़ौमों की छोटी-छोटी शहरी रियासतें भी मौजूद रहीं, जिनको बनी-इसराईल अपने तहत न कर सके। इसी बात की शिकायत ज़बूर की उस इबारत में की गई है जिसे हमने हाशिया नंबर-6 के शुरू में नक़्ल किया है। इसका पहला ख़मियाज़ा तो बनी-इसराईल को यह भुगतना पड़ा कि उन क़ौमों के ज़रिए से उनके अन्दर शिर्क घुस आया और इसके साथ धीरे-धीरे दूसरी अख़लाक़ी गन्दगियाँ भी राह पाने लगीं। चुनाँचे इसकी शिकायत बाइबल की किताब 'न्यायियों’ में यूँ की गई है: “इस्राएली (बनी-इसराईल) वह करने लगे जो यहोवा (ख़ुदावन्द) की नज़र में बुरा है और बाल नामक देवताओं की उपासना करने लगे; वे अपने पूर्वजों के परमेश्वर यहोवा को, जो उन्हें मिस्र देश से निकाल लाया था, त्यागकर पराए देवताओं अर्थात् आसपास के लोगों के देवताओं की उपासना करने लगे और उन्हें दण्डवत् किया; और यहोवा को ग़ुस्सा दिलाया। वे यहोवा को त्यागकर बाल देवताओं और अशतोरेत देवियों की पूजा करने लगे। इसलिए यहोवा इस्राएलियों पर भड़क उठा।” (2/11-14) इसके बाद दूसरा ख़मियाज़ा उन्हें यह भुगतना पड़ा कि जिन क़ौमों की शहरी रियासतें उन्होंने छोड़ दी थीं उन्होंने और फ़िलिस्तियों ने, जिनका पूरा इलाक़ा बनी-इसराईल के मातहत होने से रह गया था, बनी-इसराईल के ख़िलाफ़ एक मुत्तहिदा महाज़ (संयुक्त मोर्चा) क़ायम किया और लगातार हमले करके फ़िलस्तीन के बड़े हिस्से से उनको बेदखल कर दिया, यहाँ तक कि उनसे ख़ुदावन्द के अह्द (वचन) का सन्दूक़ (ताबूते-सकीना) तक छीन लिया। आख़िकार बनी-इसराईल को एक बादशाह के तहत अपनी एक मुत्तहिदा सल्तनत (संयुक्त राज्य) क़ायम करने की ज़रूरत महसूस हुई, और उनकी दरख़ास्त पर हज़रत शमूएल नबी ने 1020 ईसा पूर्व में तालूत को उनका बादशाह बनाया। (इसकी तफ़सील सूरा-2 बक़रा, आयत-246-248 और आयत-268-270 में गुज़र चुकी है। इस मुत्तहिदा (संयुक्त) हुकूमत के तीन बादशाह हुए। तालूत (1020 से 1001 ई०पू०), हज़रत दाऊद (अलैहि०) (1004 से 965 ई०पू०) और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) (965 से 926 ई० पू०) इन बादशाहों ने उस काम को पूरा किया जिसे बनी-इसराईल ने हज़रत मूसा के बाद अधूरा छोड़ दिया था। सिर्फ़ पूर्वी तट पर फ़िनीकियों की और दक्षिणी तट पर फ़िलिस्तियों की हुकूमतें बाक़ी रह गईं जिन्हें जीता न जा सका और सिर्फ़ उनसे टैक्स लेने पर बस किया गया। हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बाद बनी-इसराईल पर दुनिया-परस्ती का फिर सख़्त ग़लबा हुआ और उन्होंने आपस में लड़कर अपनी दो अलग सल्तनतें क़ायम कर लीं। उत्तरी फ़िलस्तीन और पूर्वी जॉर्डन में इसराईली हुकूमत, जिसकी राजधानी सामिरिय्या क़रार पाई। और दक्षिणी फ़िलस्तीन और अदूम के इलाक़े में यहूदी हुकूमत जिसकी राजधानी यरूश्लम रही। इन दोनों सल्तनतों में सख़्त दुश्मनी और कशमकश पहले दिन से शुरू हो गई और आख़िर तक रही। इनमें से इसराईली हुकूमत के हुक्मराँ और बाशिन्दे पड़ोसी क़ौमों के शिर्कवाले अक़ीदों और अख़लाक़ी बिगाड़ से सबसे पहले और सबसे ज़्यादा मुतासिर हुए और यह हालत अपनी इन्तिहा को उस वक़्त पहुँच गई, जब इस हुकूमत के हाकिम ‘अहाब' ने सीदोन की मुशरिक शहज़ादी, जिसका नाम ईज़ेबेल या जेज़ेबेल (Jezebel) था, से शादी कर ली। उस वक़्त हुकूमत की ताक़त और ज़रिओं से शिर्क और बद-अख़लाक़ियाँ सैलाब की तरह इसराईलियों में फैलनी शुरू हुईं। हज़रत इलियास (एलिय्याह) और हज़रत अल-यसअ (अलैहि०) ने इस सैलाब को रोकने की बहुत कोशिश की मगर यह क़ौम जिस गिरावट की तरफ़ जा रही थी उससे न रुकी। आख़िकार अल्लाह का ग़ज़ब अशूरियों की शक्ल में इसराईल हुकूमत की तरफ़ मुड़ा और 9वीं शताब्दी ईसा पूर्व से फ़िलस्तीन पर अशूरी फ़ातिहीन (विजेताओं) के लगातार हमले शुरू हो गए। इस दौर में आमोस नबी (787 से 747 ई० पू०) और फिर होशे नबी (747 से 735 ई० पू०) ने उठकर इसराईलियों को एक के बाद एक बराबर ख़बरदार किया, मगर जिस ग़फ़लत के नशे में वे चूर थे वह ख़बरदार करने के तीखेपन से और ज़्यादा तेज़ हो गया। यहाँ तक कि आमोस नबी को इसराईल के बादशाह ने देश से निकल जाने और सामरिया की सल्तनत की हदों में अपनी नुबूवत बन्द कर देने का नोटिस दे दिया। इसके बाद कुछ ज़्यादा मुद्दत न गुज़री का अज़ाब इसराईली सल्तनत और उसके बाशिन्दों पर टूट पड़ा। सन् 721 ई०पू० में अश्र के कट्टर हुक्मराँ शल्मनेसेर ने सामरिया (शोमरोन) को जीतकर इसराईली सल्तनत का ख़ातिमा कर दिया। हज़ारों इसराईली क़त्ल किए गए। 27 हज़ार से ज़्यादा असरदार इसराईलियों को देश से निकालकर अशूरी सल्तनत के पूर्वी ज़िलों में तितर-बितर कर दिया गया और दूसरे इलाक़ों से लाकर ग़ैर-क़ौमों को इसराईल के इलाक़े में बसाया गया जिनके बीच रह-बसकर बचे-खुचे इसराईली लोग भी अपनी क़ौमी तहज़ीब (संस्कृति) से दिन-पर-दिन ज़्यादा बेगाने होते चले गए। बनी-इसराईल की दूसरी हुकूमत जो यहूदिया के नाम से दक्षिणी फ़िलस्तीन में क़ायम हुई वह भी हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के बाद बहुत जल्दी शिर्क और बद-अख़लाक़ी में मुब्तला हो गई, मगर अक़ीदे और अख़लाक़ी हैसियत से उसकी गिरावट की रफ़्तार इसराईली सल्तनत के मुक़ाबले में धीमी थी, इसलिए उसको मुहलत भी कुछ ज़्यादा दी गई। अगरचे इसराईली सल्तनत की तरह इसपर भी अशूरियों ने एक के बाद एक हमले किए। उसके शहरों को तबाह किया, उसकी राजधानी का घेराव किया, लेकिन यह हुकूमत अशूरियों के हाथों ख़त्म न हो सकी, बल्कि सिर्फ़ मातहत बनकर रह गई। फिर जब हज़रत यशायाह और हज़रत यिर्मयाह की लगातार कोशिशों के बावजूद यहूदिया के लोग बुतपरस्ती और बद-अख़लाक़ियों से न रुके तो 598 ईसा पूर्व में बाबिल के बादशाह बख़्त नसर ने यरूशलम सहित पूरे यहूदिया राज्य को अपने तहत कर लिया और यहूदिया का बादशाह उसके पास क़ैदी बनकर रहा। यहूदियों की बद-आमालियों का सिलसिला इसपर भी ख़त्म न हुआ और हज़रत यिर्मयाह के समझाने के बावजूद वे अपने आमाल (कम) ठीक करने के बजाय बाबिल के ख़िलाफ़ बग़ावत करके अपनी क़िस्मत बदलने की कोशिश करने लगे। आख़िर 587 ईसा पूर्व में बख़्त नसर ने एक सख़्त हमला करके यहूदिया के तमाम बड़े-छोटे शहरों की ईंट से ईंट बजा दी, यरूशलम और हैकले-सुलैमानी को इस तरह तबाह किया कि उसकी एक दीवार भी अपनी जगह खड़ी न रही, यहूदियों की बहुत बड़ी तादाद को उनके इलाक़े से निकालकर देश-देश में बिखेर दिया और जो यहूदी अपने इलाक़े में रह गए वे भी पड़ोसी क़ौमों के हाथों बुरी तरह रुसवा और दबे-कुचले होकर रहे। यह था वह पहला बिगाड़ जिससे बनी-इसराईल को ख़बरदार किया गया था, और यह थी वह पहली सज़ा जो उसके बदले में उनको दी गई थी।
ثُمَّ رَدَدۡنَا لَكُمُ ٱلۡكَرَّةَ عَلَيۡهِمۡ وَأَمۡدَدۡنَٰكُم بِأَمۡوَٰلٖ وَبَنِينَ وَجَعَلۡنَٰكُمۡ أَكۡثَرَ نَفِيرًا ۝ 5
(6) इसके बाद हमने तुम्हें उनपर ग़लबे का मौक़ा दे दिया और तुम्हें माल और औलाद से मदद दी और तुम्हारी तादाद पहले से बढ़ा दी।8
8. यह इशारा है उस मुहलत की तरफ़ जो यहूदियों (यानी यहूदियावालों) को बाबिल की क़ैद से रिहाई के बाद दी गई। जहाँ तक सामरिया और इसराईल के लोगों का ताल्लुक़ है, वह तो अख़लाक़ी और अक़ीदे की पस्तियों में गिरने के बाद फिर न उठे, मगर यहूदिया के निवासियों में कुछ लोग ऐसे मौजूद थे जो भलाई पर क़ायम और भलाई की दावत देनेवाले थे। उसने उन लोगों में भी सुधार का काम जारी रखा जो यहूदिया में बचे-खुचे रह गए थे और उन लोगों को भी तौबा करने और पलटने पर उभारा जो बाबिल और दूसरे इलाक़ों में वतन से निकाल दिए गए थे। आख़िरकार अल्लाह की रहमत उनकी मददगार हुई। बाबिल की हुकूमत का ख़ातिमा हुआ। 539 ईसा पूर्व में ईरानी फ़ातेह (विजेता) साइरस (Cyrus) ने बाबिल को फ़तह किया और उसके दूसरे ही साल उसने हुक्म जारी कर दिया कि बनी-इसराईल को अपने वतन वापस जाने और वहाँ दोबारा आबाद होने की आम इजाज़त है। चुनाँचे इसके बाद यहूदियों के क़ाफ़िले-पर-क़ाफ़िले यहूदिया की तरफ़ जाने शुरू हो गए, जिनका सिलसिला मुद्दतों जारी रहा। साइरस ने यहूदियों को हैकल सुलैमानी दोबारा बनाने की इजाज़त भी दी, मगर एक अर्से तक पड़ोसी क़ौमें जो इस इलाक़े में आबाद हो गई थीं, रुकावटें खड़ी करती रहीं। आख़िर दारयूस (दारा) अव्वल ने 522 ईसा पूर्व यहूदिया के आख़िरी बादशाह के पोते ज़रू बाबिल को यहूदिया का गवर्नर मुक़र्रर किया और उसने हाग्ग़ै (हज्जी) नबी ज़कर्याह नबी और काहिनों के सरदार येशू की निगरानी में मुक़द्दस हैकल को नए सिरे से तामीर किया। फिर 458 ईसा पूर्व में देश से निकाल दिए गए एक गरोह के साथ हज़रत उज़ैर (एज़ा) यहूदिया पहुँचे और ईरान के बादशाह अर्तक्षत्र (Artaxerxes) ने एक फ़रमान के मुताबिक़ उनको इजाज़त दी : "हे एज़ा! तेरे परमेश्वर से मिली हुई बुद्धि के अनुसार जो तुझमें है, न्यायियों और विचार करनेवालों को नियुक्त कर जो महानद (दरिया) के पार रहनेवाले उन सब लोगों में जो तेरे परमेश्वर की व्यवस्था (शरीअत) जानते हों न्याय किया करें, और जो-जो उन्हें न जानते हों, उनको तुम सिखाया करो। जो कोई तेरे परमेश्वर की व्यवस्था (शरीअत) और राजा की व्यवस्था न माने उसको फुर्ती से दण्ड दिया जाए, चाहे प्राणदण्ड, चाहे देश निकाला, चाहे माल ज़ब्त किया जाना, चाहे क़ैद करना।” (बाइबल, एजा 7/25-26) इस फ़रमान से फ़ायदा उठाकर हज़रत उज़ैर (अलैहि०) ने मूसा (अलैहि०) के दीन को दोबारा ज़िन्दा करने का बहुत बड़ा काम अंजाम दिया। उन्होंने यहूदी क़ौम के तमाम भले और सुधारवादी लोगों को हर तरफ़ से जमा करके एक मज़बूत निज़ाम क़ायम किया। बाइबल की पाँच किताबों को, जिनमें तौरात थी, तरतीब देकर शाया (प्रकाशित) किया, यहूदियों की दीनी तालीम (धार्मिक शिक्षा) का इन्तिज़ाम किया, शरीअत के क़ानूनों को लागू करके अक़ीदे और अख़लाक़ की उन बुराइयों को दूर करना शुरू किया जो बनी-इसराईल के अन्दर ग़ैर-क़ौमों के असर से घुस आई थीं, उन तमाम मुशरिक औरतों को तलाक़ दिलवाई जिनसे यहूदियों ने ब्याह कर रखे थे। और बनी-इसराईल से नए सिरे से ख़ुदा की बन्दगी और उसके दस्तूर की पैरवी का अह्द (वचन) लिया। 445 ईसा पूर्व में नहेम्याह की रहनुमाई और सरदारी में एक और जलावतन (निष्कासित) गरोह यहूदिया वापस आया और ईरान के बादशाह ने नहेम्याह को यरूशलेम का हाकिम मुक़र्रर करके इस बात की इजाज़त दी कि वह उसके नगर को घेरनेवाली दीवार खड़ी करे। इस तरह डेढ़ सौ साल बाद बैतुल-मक़दिस फिर से आबाद हुआ और यहूदी मज़हब व तहज़ीब का मर्कज़ बन गया। मगर उत्तरी फ़िलस्तीन और सामरिया के इसराईलियों ने हज़रत उज़ैर की उन बातों से कोई फ़ायदा न उठाया जो उन्होंने सुधार और दीन को दोबारा ज़िन्दा करने के सिलसिले में अंजाम दी थीं, बल्कि बैतुल-मक़दिस के मुक़ाबले में अपना एक मज़हबी मर्कज़ जरज़ीम पहाड़ पर तामीर करके उसको अहले-किताब का क़िब्ला बनाने की कोशिश की। इस तरह यहूदियों और सामरिय्यों के बीच दूरी और ज़्यादा बढ़ गई। ईरानी सल्तनत के ज़वाल (पतन) और सिकन्दर आज़म की फ़ुतूहात (विजयों) और फिर यूनानियों की तरक़्क़ी से यहूदियों को कुछ मुद्दत के लिए एक सख़्त धक्का लगा। सिकन्दर की मौत के बाद उसकी सल्तनत जिन तीन राज्यों में बँटी थी, उनमें से शाम (सीरिया) का इलाक़ा उस सलूक़ी (Seleucid) सल्तनत के हिस्से में आया जिसकी राजधानी अन्ताकिया थी और उसके हुक्मराँ अंट्यूकस सालिस (तृतीय) ने 198 ईसा पूर्व में फ़िलस्तीन पर क़ब्ज़ा कर लिया। ये यूनानी विजेता जो मज़हबी तौर पर मुशरिक और अख़लाक़ी तौर से हर पाबन्दी से आज़ाद रहना पसन्द करते थे, यहूदी मज़हब व तहज़ीब को सख़्त नागवार महसूस करते थे। उन्होंने उसके मुक़ाबले में सियासी और मआशी (आर्थिक) दबाव से यूनानी तहज़ीब को बढ़ावा देना शुरू किया और ख़ुद यहूदियों में से अच्छे-ख़ासे लोग उनके हथियार बन गए। इस बाहरी दख़लअंदाज़ी ने यहूदी क़ौम में फूट डाल दी। एक गरोह ने यूनानी लिबास, यूनानी ज़बान, यूनानी रहन-सहन और यूनानी खेलों को अपना लिया और दूसरा गरोह अपनी तहज़ीब पर सख़्ती के साथ क़ायम रहा। 175 ईसा पूर्व में अंट्यूकस चहारुम (चतुर्थ) (जिसका लक़ब एनपी फ़ानीस यानी ख़ुदा का मज़हर था) जब तख़्त पर बैठा तो उसने पूरी जाबिराना (दमनकारी) ताक़त से काम लेकर यहूदी मज़हब व तहज़ीब को जड़ से उखाड़ फेंकना चाहा। उसने बैतुल-मक़दिस के हैकल में ज़बरदस्ती बुत रखवाए और यहूदियों को मजबूर किया कि उनको सजदा करें। उसने क़ुरबानगाह पर क़ुरबानी बन्द कराई, उसने यहूदियों को शिर्कवाली क़ुरबानगाहों पर क़ुरबानियाँ करने का हुक्म दिया। उसने उन सब लोगों के लिए मौत की सज़ा तय की जो अपने घरों में तौरात का नुस्ख़ा रखें, या सब्त के हुक्मों पर अमल करें या अपने बच्चों के ख़तने कराएँ। लेकिन यहूदी इस ज़ुल्म और ज़्यादती के आगे झुके नहीं और उनके अन्दर एक ज़बरदस्त तहरीक (आन्दोलन) उठी जो तारीख़ में मुक्काबी बग़ावत के नाम से मशहूर है। हालाँकि इस कशमकश में यूनान से मुतास्सिर यहूदियों की सारी हमदर्दियाँ यूनानियों के साथ थीं, और उन्होंने अमली तौर पर मुक्काबी बग़ावत को कुचलने में अन्ताकिया के ज़ालिमों का पूरा साथ दिया, लेकिन आम यहूदियों में हज़रत उज़ैर की फूँकी हुई दीनदारी की रूह का इतना ज़बरदस्त असर था कि वे सब मुक्काबियों के साथ हो गए और आख़िकार उन्होंने यूनानियों को निकालकर अपनी एक आज़ाद दीनी रियासत क़ायम कर ली, जो 67 ईसा पूर्व तक क़ायम रही। इस रियासत की हदें फैलकर धीरे-धीरे उस पूरे इलाक़े पर हावी हो गईं। जो कभी यहूदिया और इसराईल की रियासतों के मातहत थे, बल्कि फ़िलिस्तिया का भी एक बड़ा हिस्सा उसके क़ब्ज़े में आ गया, जो हज़रत दाऊद और सुलैमान (अलैहि०) के ज़माने में भी क़ब्ज़े में न आया था। इन्हीं वाक़िआत की तरफ़ क़ुरआन मजीद की यह आयत-6 इशारा करती है।
إِنۡ أَحۡسَنتُمۡ أَحۡسَنتُمۡ لِأَنفُسِكُمۡۖ وَإِنۡ أَسَأۡتُمۡ فَلَهَاۚ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ لِيَسُـُٔواْ وُجُوهَكُمۡ وَلِيَدۡخُلُواْ ٱلۡمَسۡجِدَ كَمَا دَخَلُوهُ أَوَّلَ مَرَّةٖ وَلِيُتَبِّرُواْ مَا عَلَوۡاْ تَتۡبِيرًا ۝ 6
(7) देखो, तुमने भलाई की तो वह तुम्हारे अपने ही लिए भलाई थी, और बुराई की तो वह तुम्हारे अपने ख़ुद के लिए बुराई साबित हुई। फिर जब दूसरे वादे का वक़्त आया तो हमने दूसरे दुश्मनों को तुमपर मुसल्लत किया, ताकि वे तुम्हारे चेहरे बिगाड़ दें और मस्जिद (बैतुल-मक़दिस) में उसी तरह घुस जाएँ जिस तरह पहले दुश्मन घुसे थे और जिस चीज़ पर उनका हाथ पड़े उसे तबाह करके रख दें9-
9. इस दूसरे बिगाड़ और उसकी सज़ा का तारीख़ी पसमंज़र यह है: मुक्काबियों की तहरीक जिस अख़लाक़ी व दीनी रूह के साथ उठी थी वह धीरे-धीरे मिटती चली गई और उसकी जगह ख़ालिस दुनिया-परस्ती और बेरूह ज़ाहिरदारी और दिखावे ने ले ली। आख़िकार उनके बीच फूट पड़ गई और उन्होंने ख़ुद (रूमी) विजेता पोम्पी को फ़िलस्तीन आने की दावत दी। चुनाँचे पोम्पी 63 ईसा पूर्व में इस देश की तरफ़ मुड़ा और उसने बैतुल-मक़दिस पर क़ब्ज़ा करके यहूदियों की आज़ादी का ख़ातिमा कर दिया। लेकिन रोमी विजेताओं की यह मुस्तक़िल पॉलिसी थी कि वे जीते हुए इलाक़ों पर सीधे तौर पर अपनी हुकूमत क़ायम करने के बजाय मक़ामी हुक्मरानों के ज़रिए से अपना काम निकलवाना ज़्यादा पसन्द करते थे। इसलिए उन्होंने फ़िलस्तीन में अपने मातहत एक देसी रियासत क़ायम कर दी जो आख़िर में 40 ईसा पूर्व में एक होशियार यहूदी जिसका नाम हेरोदेस (Herod) था के क़ब्ज़े में आई। यह शख़्स हेरोदेस महान (Herod the Great) के नाम से मशहूर है। उसकी हुकूमत पूरे फ़िलस्तीन और पूर्वी जार्डन पर 40 से 4 ईसा पूर्व तक रही। उसने एक तरफ़ मज़हबी पेशवाओं की सरपरस्ती करके यहूदियों को ख़ुश रखा, और दूसरी तरफ़ रोमी तहज़ीब को बढ़ावा देकर और रोमी हुकूमत की तरफ़दारी का ज़्यादा-से-ज़्यादा मुज़ाहरा करके क़ैसर (बादशाह) की भी ख़ुशनूदी हासिल की। उस ज़माने में यहूदियों की दीनी व अख़लाक़ी हालत गिरते-गिरते गिरावट की आख़िरी हद को पहुँच चुकी थी। हेरोदेस के बाद उसकी रियासत तीन हिस्सों में बँट गई। उसका एक बेटा अरख़िलाऊस (Archelaus), सामरिया (Samaria), यहूदिया (Judah) और उत्तरी इदूमिया (Northern Edom) का हुक्मराँ हुआ। मगर 6 ईसा पूर्व में क़ैसर औगुस्तुस (Caesar Augustus) ने उसको हटाकर उसकी पूरी रियासत अपने गवर्नर के मातहत कर दी और 41 ई० तक यही इन्तिज़ाम क़ायम रहा। यही ज़माना था जब हज़रत मसीह (अलैहि०) बनी-इसराईल के सुधार के लिए उठे और यहूदियों के तमाम मज़हबी पेशवाओं ने मिलकर उनकी मुख़ालफ़त की और रूमी गवर्नर पुन्तियुस पिलातुस (Pontius Pilate) से उनको मौत की सज़ा दिलवाने की कोशिश की। हेरोदेस का दूसरा बेटा हेरोदेस अन्तिपास (Herod Antipas) उत्तरी फ़िलस्तीन (Northern Palestine) के इलाक़े गलील और पूर्वी जॉर्डन का मालिक हुआ और यही वह शख़्स है जिसने एक नर्तकी की फ़रमाइश पर हज़रत यह्या (अलैहि०) का सर काटकर उसको भेंट किया। उसका तीसरा बेटा फ़िलिप्पुस, हर्मोन पर्वत से यरमूक नदी तक के इलाक़े का मालिक हुआ और यह अपने बाप और भाइयों से भी बढ़कर रूमी व यूनानी तहज़ीब में डूबा हुआ था। उसके इलाक़े में किसी भली बात के फलने-फूलने की इतनी गुंजाइश भी न थी, जितनी फ़िलस्तीन के दूसरे इलाक़ों में थी। सन् 41 ई0 में हेरोदेस महान के पोते हेरोदेस अग्रिप्पा (प्रथम) को रोमियों ने उन तमाम इलाक़ों का हुक्मराँ बना दिया जिनपर हेरोदेस महान अपने ज़माने में हुक्मराँ था। उस शख़्स ने इक़तिदार में आने के बाद मसीह (अलैहि०) की पैरवी करनेवालों पर ज़ुल्मों की इन्तिहा कर दी और अपना पूरा ज़ोर ख़ुदा-तरसी और अख़लाक़ के सुधारने की इस तहरीक (आन्दोलन) को कुचलने में लगा डाला, जो हवारियों की रहनुमाई में चल रही थी। उस दौर में आम यहूदियों और उनके मज़हबी पेशवाओं की जो हालत थी उसका सही अन्दाज़ा करने के लिए उन तनक़ीदों (आलोचनाओं) को देखना चाहिए जो मसीह (अलैहि०) ने अपने ख़ुतबों में उनपर की हैं। ये सब ख़ुतबे चारों इंजीलों में मौजूद हैं। फिर इसका अन्दाज़ा करने के लिए यह बात काफ़ी है कि उस क़ौम की आँखों के सामने यह्या (अलैहि०) जैसे पाकीज़ा इनसान का सर क़लम किया गया, मगर एक आवाज़ भी उस बड़े ज़ुल्म के ख़िलाफ़ न उठी। और पूरी क़ौम के मज़हबी पेशवाओं ने मसीह (अलैहि०) के लिए मौत की सज़ा की माँग की, मगर थोड़े-से इनसानों के सिवा कोई न था जो इस बदक़िस्मती पर मातम करता। हद यह है कि जब पुन्तियुस पिलातुस ने इन मुसीबत के मारे लोगों से पूछा कि आज तुम्हारी ईद का दिन है और क़ायदे के मुताबिक़ मैं सज़ा-ए-मौत के हक़दार मुजरिमों में से एक को छोड़ देने का अधिकार रखता हूँ, बताओ यीशु (ईसामसीह) को छोड़ूँ या बरअब्बा डाकू को? तो उनकी पूरी भीड़ ने एक आवाज़ में कहा कि बरअब्बा को छोड़ दे। लूक़ा 23/13-25 यह मानो अल्लाह तआला की तरफ़ से आख़िरी हुज्जत थी, जो उस क़ौम पर क़ायम की गई। इसपर थोड़ा ज़माना ही गुज़रा था कि यहूदियों और रूमियों के बीच सख़्त कशमकश शुरू हो गई और 64 और 66 ई० के बीच यहूदियों ने खुली बग़ावत कर दी। हेरोदेस अग्रिप्पा द्वितीय (Herod Agrippa-II) और रूमी हुकूमत का मुख़्तार (Procurator) फ़्लोरिस, दोनों इस बग़ावत को खत्म करने में नाकाम हुए। आख़िकार रूमी सल्तनत ने एक सख़्त फ़ौजी कार्रवाई से उस बग़ावत को कुचल डाला और 70 ई० में टाइटस (Titus) ने तलवार के बल पर यरूशलेम को जीत लिया। इस मौक़े पर क़त्ले आम में 133000 लोग मारे गए, 67000 लोग गिरफ़्तार करके ग़ुलाम बनाए गए, हज़ारों आदमी पकड़-पकड़कर मिस्र के खदानों (खानों) में काम करने के लिए भेज दिए गए, हज़ारों आदमियों को पकड़कर अलग-अलग शहरों में भेजा गया, ताकि रंगभूमि व अखाड़ों (Amphitheatres) और महा-रंगशालाओं (Colliseums) में उनको जंगली जानवरों से फड़वाने या तलवार-बाज़ी के खेल का निशाना बनने के लिए इस्तेमाल किया जाए। तमाम लम्बे क़द की और ख़ूबसूरत लड़कियाँ फ़ातेहीन (विजेताओं) के लिए चुन ली गईं, और यरूशलम के शहर और हैकल को गिराकर मिट्टी में मिला दिया गया। उसके बाद फ़िलस्तीन से यहूदी असर और इक़तिदार ऐसा मिटा कि दो हज़ार साल तक उसको फिर सर उठाने का मौक़ा न मिला, और यरूशलम का हैकल मुक़द्दस फिर कभी न बन सका। बाद में बादशाह हैड्रियान (Hadrian) ने इस शहर को दोबारा आबाद किया, मगर अब उसका नाम एलिया था और उसमें लम्बी मुद्दत तक यहूदियों को दाख़िल होने की इजाज़त न थी। यह थी वह सज़ा जो बनी-इसराईल को दूसरे बड़े बिगाड़ के बदले में मिली।
عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يَرۡحَمَكُمۡۚ وَإِنۡ عُدتُّمۡ عُدۡنَاۚ وَجَعَلۡنَا جَهَنَّمَ لِلۡكَٰفِرِينَ حَصِيرًا ۝ 7
(8) हो सकता है कि अब तुम्हारा रब तुमपर रहम करे, लेकिन अगर तुमने फिर अपने पुराने रवैये को दोहराया तो हम भी फिर अपनी सज़ा को दोहराएँगे, और नेमत का इनकार करनेवाले लोगों के लिए हमने जहन्नम को क़ैदख़ाना बना रखा है।10
10. इससे यह शक न होना चाहिए कि यह पूरी तक़रीर बनी-इसराईल को सुनाई जा रही है। सामने तो मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ ही हैं, मगर चूँकि उनको ख़बरदार करने के लिए यहाँ बनी-इसराईल के इतिहास की कुछ इब्रतनाक गवाहियाँ पेश की गई थीं, इसलिए ऊपर से चली आ रही से हटकर यह जुमला बनी-इसराईल को मुख़ातब करके कह दिया गया ताकि उन इस्लाही (सुधारवादी) तक़रीरों के लिए तमहीद (भूमिका) का काम दे, जिनकी नौबत एक ही साल बाद मदीना में आनेवाली थी।
إِنَّ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانَ يَهۡدِي لِلَّتِي هِيَ أَقۡوَمُ وَيُبَشِّرُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ٱلَّذِينَ يَعۡمَلُونَ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أَنَّ لَهُمۡ أَجۡرٗا كَبِيرٗا ۝ 8
(9) हक़ीक़त यह है कि यह क़ुरआन वह राह दिखाता है जो बिलकुल सीधी है। जो लोग इसे मानकर भले काम करने लगें, उन्हें यह ख़ुशख़बरी देता है कि उनके लिए बड़ा अज्र है,
وَأَنَّ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ أَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 9
(10) और जो लोग आख़िरत को न मानें, उन्हें यह ख़बर देता है कि उनके लिए हमने दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है।11
11. कहने का मतलब यह है कि जो शख़्स या गरोह या क़ौम इस क़ुरआन के ख़बरदार करने और समझाने-बुझाने से सीधे रास्ते पर न आए, उसे फिर उस सज़ा के लिए तैयार रहना चाहिए, जो बनी-इसराईल ने भुगती है।
وَيَدۡعُ ٱلۡإِنسَٰنُ بِٱلشَّرِّ دُعَآءَهُۥ بِٱلۡخَيۡرِۖ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ عَجُولٗا ۝ 10
(11) इनसान बुराई उस तरह माँगता है जिस तरह भलाई माँगनी चाहिए। इनसान बड़ा ही जल्दबाज़ वाक़े हुआ है।12
12. यह जवाब है मक्का के इस्लाम दुश्मानों की उन बेवक़ूफ़ी भरी बातों का जो वे बार-बार नबी (सल्ल०) से कहते थे कि बस ले आओ वह अज़ाब जिससे तुम हमें डराया करते हो। ऊपर के बयान के बाद फ़ौरन ही यह बात कहने का मक़सद इस बात पर ख़बरदार करना है कि बेवक़ूफ़ो! भलाई माँगने के बजाय अज़ाब माँगते हो? तुम्हें कुछ अन्दाज़ा भी है कि ख़ुदा का अज़ाब जब किसी क़ौम पर आता है तो उसकी क्या गत बनती है? इसके साथ इस जुमले में इशारे के तौर पर मुसलमानों के लिए भी तंबीह (चेतावनी) थी जो इस्लाम-दुश्मनों के ज़ुल्मो-सितम और उनकी हठधर्मियों से तंग आकर कभी-कभी उनपर अज़ाब आने की दुआ करने लगते थे, हालाँकि अभी उन्हीं इस्लाम दुश्मनों में बहुत-से वे लोग मौजूद थे। जो आगे चलकर ईमान लानेवाले और दुनिया भर में इस्लाम का झण्डा बुलन्द करनेवाले थे। इसपर अल्लाह तआला फ़रमाता है कि इनसान बड़ा बे-सब्र (उतावला) वाक़े हुआ है, हर वह चीज़ माँग बैठता है जिसकी वक़्त पर ज़रूरत महसूस होती है, हालाँकि बाद में उसे ख़ुद तजरिबे से मालूम हो जाता है कि अगर उस वक़्त उसकी दुआ क़ुबूल कर ली जाती, तो वह उसके लिए अच्छा न होता।
وَجَعَلۡنَا ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَ ءَايَتَيۡنِۖ فَمَحَوۡنَآ ءَايَةَ ٱلَّيۡلِ وَجَعَلۡنَآ ءَايَةَ ٱلنَّهَارِ مُبۡصِرَةٗ لِّتَبۡتَغُواْ فَضۡلٗا مِّن رَّبِّكُمۡ وَلِتَعۡلَمُواْ عَدَدَ ٱلسِّنِينَ وَٱلۡحِسَابَۚ وَكُلَّ شَيۡءٖ فَصَّلۡنَٰهُ تَفۡصِيلٗا ۝ 11
(12) देखो, हमने रात और दिन को दो निशानियाँ बनाया है। रात की निशानी को हमने बेनूर बनाया और दिन की निशानी को रौशन कर दिया, ताकि तुम अपने रब की मेहरबानी तलाश कर सको और महीने और साल का हिसाब मालूम कर सको। इसी तरह हमने हर चीज़ को अलग-अलग छाँटकर रखा है।13
13. मतलब यह है कि रंगा-रंगी देखकर यकसानी और यकरंगी के लिए बेचैन न हो। इस दुनिया का तो सारा कारख़ाना ही इख़्तिलाफ़ (भिन्नता), फ़र्क़ और रंगा-रंगी की बदौलत चल रहा है। मिसाल के तौर पर तुम्हारे सामने सबसे ज़्यादा नुमायाँ निशानियाँ यह रात और दिन हैं जो रोज़ तुमपर तारी होते रहते हैं। देखो कि इनकी रंगा-रंगी में कितनी अज़ीमुश्शान मस्लहतें मौजूद हैं। अगर तुमपर हमेशा एक ही हालत छाई रहती तो क्या किसी भी चीज़ का वुजूद बाक़ी रह सकता था? तो जिस तरह तुम देख रहे हो कि कायनात में फ़र्क़ और भिन्नता के साथ अनगिनत मस्लहतें जुड़ी हैं, इसी तरह इनसानी मिज़ाजों और ख़यालों और रुझानों में भी जो फ़र्क़ पाया जाता है, उसमें बड़ी मस्लहतें हैं। भलाई इसमें नहीं है कि अल्लाह तआला फ़ितरत से परे अपने दख़ल से उसको मिटाकर सब इनसानों को ज़बरदस्ती नेक और ईमानवाला बना दे, या हक़ के इनकारियों और अल्लाह के नाफ़रमानों को हलाक करके दुनिया में सिर्फ़ ईमानवालों और फ़रमाँबरदारों ही को बाक़ी रखा करे। इसकी ख़ाहिश करना तो उतना ही ग़लत है जितना यह ख़ाहिश करना कि सिर्फ़ दिन-ही-दिन रहा करे, रात का अंधेरा सिरे से कभी छाया ही न करे। अलबत्ता भलाई जिस चीज़ में है वह यह है कि हिदायत की रौशनी जिन लोगों के पास है, वे उसे लेकर गुमराही का अंधकार दूर करने के लिए लगातार कोशिश करते रहें, और जब रात की तरह कोई अंधरे का दौर आए तो वे सूरज की तरह उसका पीछा करें, यहाँ तक कि दिन का उजाला ज़ाहिर हो जाए।
وَكُلَّ إِنسَٰنٍ أَلۡزَمۡنَٰهُ طَٰٓئِرَهُۥ فِي عُنُقِهِۦۖ وَنُخۡرِجُ لَهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ كِتَٰبٗا يَلۡقَىٰهُ مَنشُورًا ۝ 12
(13) इनसान का शगुन हमने उसके अपने गले में लटका रखा है14 और क़ियामत के दिन हम एक नविश्ता (लिखित लेख) उसके लिए निकालेंगे, जिसे वह खुली किताब की तरह पाएगा-
14. यानी हर इनसान की ख़ुशनसीबी-बदनसीबी और उसके अंजाम की भलाई और बुराई के सबब और वजहें ख़ुद उसके अपने वुजूद ही में मौजूद हैं। अपने औसाफ़, अपनी सीरत व किरादार (चरित्र व आचरण) और भले-बुरे का फ़र्क़ करने, फ़ैसला, गुणों और चुनाव की क़ुव्वत के इस्तेमाल से वह ख़ुद अपने आपको ख़ुशनसीबी का हक़दार भी बनाता है और बद नसीबी का हक़दार भी। नादान लोग अपनी क़िस्मत के शगुन बाहर लेते फिरते हैं और हमेशा बाहरी वजहों ही को अपनी बदनसीबी का ज़िम्मेदार ठहराते हैं। मगर हक़ीक़त यह है कि उनकी भलाई-बुराई का परवाना उनके अपने गले का हार है। वे अपने गिरेबान में मुँह डालें तो देख लें कि जिस चीज़ ने उनको बिगाड़ और तबाही के रास्ते पर डाला और आख़िकार नुक़सान उठानेवाला बनाकर छोड़ा वे उनकी अपनी ही बुरी सिफ़ात और बुरे फ़ैसले थे, न यह कि बाहर से आकर कोई चीज़ ज़बरदस्ती उनपर सवार हो गई थी।
ٱقۡرَأۡ كِتَٰبَكَ كَفَىٰ بِنَفۡسِكَ ٱلۡيَوۡمَ عَلَيۡكَ حَسِيبٗا ۝ 13
(14) पढ़ अपना आमालनामा (कर्म-पत्र), आज अपना हिसाब लगाने के लिए तू ख़ुद ही काफ़ी है।
مَّنِ ٱهۡتَدَىٰ فَإِنَّمَا يَهۡتَدِي لِنَفۡسِهِۦۖ وَمَن ضَلَّ فَإِنَّمَا يَضِلُّ عَلَيۡهَاۚ وَلَا تَزِرُ وَازِرَةٞ وِزۡرَ أُخۡرَىٰۗ وَمَا كُنَّا مُعَذِّبِينَ حَتَّىٰ نَبۡعَثَ رَسُولٗا ۝ 14
(15) जो कोई सीधा रास्ता अपनाए, उसका सीधे रास्ते पर चलना उसके अपने लिए ही फ़ायदेमन्द है, और जो गुमराह हो उसकी गुमराही का वबाल उसी पर है।15 कोई बोझ उठानेवाला दूसरे का बोझ न उठाएगा।16 और हम अज़ाब देनेवाले नहीं हैं, जब तक कि (लोगों को हक़ और बातिल का फ़र्क़ समझाने के लिए) एक पैग़म्बर न भेज दें।17
15. यानी सीधा रास्ता अपनाकर कोई शख़्स ख़ुदा पर, या रसूल पर, या सुधार की कोशिश करनेवालों पर कोई एहसान नहीं करता, बल्कि ख़ुद अपना ही भला करता है। और इसी तरह गुमराही अपनाकर या उसपर जमे रहकर वह किसी का कुछ नहीं बिगाड़ता, अपना ही नुक़सान करता है। ख़ुदा और रसूल और हक़ की तरफ़ बुलानेवाले इनसान को ग़लत रास्तों से बचाने और सही राह दिखाने की जो कोशिश करते हैं वे अपनी किसी गरज़ के लिए नहीं, बल्कि इनसान के भले के लिए करते हैं। एक अक़्लमन्द आदमी का काम यह है कि जब दलील से उसके सामने हक़ का हक़ होना और बातिल का बातिल होना साफ़ बयान कर दिया जाए तो वह तास्सुबात (दुराग्रहों) और अपने ही फ़ायदों की बन्दगी को छोड़कर सीधी तरह बातिल (असत्य) पर चलने से रुक जाए और हक़ (सत्य) को अपना ले। तास्सुब या मतलब-परस्ती से काम लेगा तो वह आप ही अपना बुरा चाहनेवाला होगा।
16. यह एक बहुत ही अहम उसूली हक़ीक़त है जिसे क़ुरआन मजीद में जगह-जगह ज़ेहन में बिठाने की कोशिश की गई है, क्योंकि उसे समझे बिना इनसान का रवैया कभी दुरुस्त नहीं हो सकता। इस जुमले का मतलब यह कि हर इनसान अपनी एक मुस्तक़िल (स्थायी) अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी रखता है और अपनी शख़्सी हैसियत में अल्लाह तआला के सामने जवाबदेह है। इस ज़ाती ज़िम्मेदारी में कोई दूसरा शख़्स उसके साथ शरीक नहीं है। दुनिया में चाहे कितने ही आदमी, कितनी ही क़ौमें और कितनी ही नस्लें और पीढ़ियाँ एक काम या काम के एक तरीक़े में शरीक हों, बहरहाल ख़ुदा की आख़िरी अदालत में उस मिल-जुलकर किए गए काम का जाइज़ा लेकर एक-एक इनसान की जाती ज़िम्मेदारी पहचानकर उसे अलग कर लिया जाएगा और उसको जो कुछ भी इनाम या सज़ा मिलेगी, उस अमल की मिलेगी जिसका वह ख़ुद अपनी निजी हैसियत में ज़िम्मेदार साबित होगा। इस इनसाफ़ के तराज़ू में न यह मुमकिन होगा कि दूसरों के किए का वबाल उसपर डाल दिया जाए, और न यही मुमकिन होगा कि उसके करतूतों के गुनाह का बोझ किसी और पर पड़ जाए। इसलिए एक अक़्लमन्द आदमी को यह न देखना चाहिए कि दूसरे क्या कर रहे हैं, बल्कि उसे हर वक़्त इस बात पर निगाह रखनी चाहिए कि वह ख़ुद क्या कर रहा है, अगर उसे अपनी निजी ज़िम्मेदारी का सही एहसास हो तो दूसरे चाहे कुछ कर रहे हों, वह बहरहाल उसी रवैये पर जमा रहेगा जिसकी जवाबदेही ख़ुदा के सामने वह कामयाबी के साथ कर सकता हो।
17. यह एक और उसूली हक़ीक़त है जिसे क़ुरआन बार-बार अलग-अलग तरीक़ों से इनसान के गजेहन में बिठाने की कोशिश करता है। इसकी तशरीह यह है कि अल्लाह तआला के अदालती निज़ाम में पैग़म्बर एक बुनियादी अहमियत रखता है। पैग़म्बर और उसका लाया हुआ पैग़ाम ही बन्दों पर ख़ुदा की हुज्जत (दलील) है। यह हुज्जत क़ायम न हो तो बन्दों को अज़ाब देना इनसाफ़ के ख़िलाफ़ होगा, क्योंकि इस सूरत में वे यह बहाना पेश कर सकेंगे कि हमें आगाह किया ही न गया था फिर अब हमपर यह गिरफ़्त कैसी, मगर जब यह हुज्जत क़ायम हो जाए तो उसके बाद इनसाफ़ का तक़ाज़ा यही है कि उन लोगों को सज़ा दी जाए जिन्होंने ख़ुदा के भेजे हुए पैग़ाम से मुँह मोड़ा हो, या उसे पाकर फिर उससे मुँह फेरा हो। बेवक़ूफ़ लोग इस तरह की आयतें पढ़कर इस सवाल पर ग़ौर करने लगते हैं कि जिन लोगों के पास किसी नबी का पैग़ाम नहीं पहुँचा उनकी पोज़ीशन क्या होगी। हालाँकि एक अक़्लमन्द आदमी को ग़ौर इस बात पर करना चाहिए कि तेरे पास तो पैग़ाम पहुँच चुका है। अब तेरी अपनी पोज़ीशन क्या है। रहे वे दूसरे लोग तो यह अल्लाह ही बेहतर जानता है कि किसके पास, कब, किस तरह और किस हद तक उसका पैग़ाम पहुँचा और उसने उसके मामले में क्या रवैया अपनाया और क्यों अपनाया। ग़ैब की बातें जाननेवाले (अल्लाह) के सिवा कोई भी यह नहीं जान सकता कि किसपर अल्लाह की हुज्जत पूरी हुई है और किसपर नहीं हुई।
وَإِذَآ أَرَدۡنَآ أَن نُّهۡلِكَ قَرۡيَةً أَمَرۡنَا مُتۡرَفِيهَا فَفَسَقُواْ فِيهَا فَحَقَّ عَلَيۡهَا ٱلۡقَوۡلُ فَدَمَّرۡنَٰهَا تَدۡمِيرٗا ۝ 15
(16) जब हम किसी बस्ती को हलाक करने का इरादा करते हैं तो उसके ख़ुशहाल लोगों को हुक्म देते हैं और वे उसमें नाफ़रमानियाँ करने लगते हैं, तब अज़ाब का फ़ैसला उस आबादी पर चस्पाँ हो जाता है और हम उसे बरबाद करके रख देते हैं।18
18. इस आयत में हुक्म से मुराद क़ुदरत का हुक्म और फ़ितरत का क़ानून है। यानी क़ुदरती तौर पर हमेशा ऐसा ही होता है कि जब किसी क़ौम की शामत आनेवाली होती है तो उसके ख़ुशहाल लोग नाफ़रमान हो जाते हैं। हलाक करने के इरादे का मतलब यह नहीं है कि अल्लाह तआला यूँ ही बेक़ुसूर किसी बस्ती को हलाक करने का इरादा कर लेता है, बल्कि इसका मतलब यह है कि जब कोई इनसानी आबादी बुराई के रास्ते पर चल पड़ती है और अल्लाह फ़ैसला कर लेता है कि उसे तबाह करना है तो यह फ़ैसला इस तरीक़े से सामने आता है। अस्ल में जिस हक़ीक़त पर इस आयत में ख़बरदार किया गया है वह यह है कि एक समाज को आख़िकार जो चीज़ तबाह करती है वह उसके खाते-पीते, ख़ुशहाल लोगों और ऊँचे तबक़ों (वर्गों) का बिगाड़ है। जब किसी क़ौम की शामत आने को होती है तो उसके दौलतमन्द और इक़तिदारवाले लोग नाफ़रमानियों और गुनाहों पर उतर आते हैं, ज़ुल्मो-सितम और बदकारियाँ और शरारतें करने लगते हैं और आख़िरकार यही फ़ितना पूरी क़ौम को ले डूबता है। इसलिए जो समाज आप अपना दुश्मन न हो उसे फ़िक्र रखनी चाहिए कि उसके यहाँ हुकूमत की बागडोर और मआशी दौलत की कुंजियाँ उन लोगों के हाथों में न हों जो तंग-दिल और बदअख़लाक़ हों।
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا مِنَ ٱلۡقُرُونِ مِنۢ بَعۡدِ نُوحٖۗ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ بِذُنُوبِ عِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 16
(17) देख लो, कितनी ही नस्लें हैं जो नूह के बाद हमारे हुक्म से तबाह हुईं। तेरा रब अपने बन्दों के गुनाहों से पूरी तरह बाख़बर है और सब कुछ देख रहा है।
مَّن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡعَاجِلَةَ عَجَّلۡنَا لَهُۥ فِيهَا مَا نَشَآءُ لِمَن نُّرِيدُ ثُمَّ جَعَلۡنَا لَهُۥ جَهَنَّمَ يَصۡلَىٰهَا مَذۡمُومٗا مَّدۡحُورٗا ۝ 17
(18) जो कोई (इस दुनिया में) जल्दी हासिल होनेवाले फ़ायदों19 की ख़ाहिश रखता हो, उसे हम यहीं दे देते हैं जो कुछ भी जिसे देना चाहें, फिर उसकी क़िस्मत में जहन्नम लिख देते हैं जिसे वह तापेगा फिटकारा हुआ और रहमत से महरूम होकर।20
19. अस्ल अरबी में 'आजिला' लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब है जल्दी मिलनेवाली चीज़। और इस्तिलाही (पारिभाषिक) तौर पर क़ुरआन मजीद इस लफ़्ज़ को दुनिया के लिए इस्तेमाल करता है, जिसके फ़ायदे और नतीजे इसी ज़िन्दगी में हासिल हो जाते हैं। इसके मुक़ाबले की इस्तिलाह 'आख़िरत' है, जिसके फ़ायदों और नतीजों को मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी तक टाल दिया गया है।
20. मतलब यह है कि जो शख़्स आख़िरत को नहीं मानता, या आख़िरत तक सब्र करने के लिए तैयार नहीं है और अपनी कोशिशों का मक़सद सिर्फ़ दुनिया और उसकी कामयाबियों और ख़ुशहालियों ही को बनाता है, उसे जो कुछ भी मिलेगा बस दुनिया में मिल जाएगा। आख़िरत में वह कुछ नहीं पा सकता। और बात सिर्फ़ यहीं तक न रहेगी कि उसे कोई ख़ुशहाली आख़िरत में नसीब न होगी, बल्कि इसके अलावा दुनिया-परस्ती और आख़िरत की जवाबदेही व ज़िम्मेदारी से बेपरवाही उसके रवैये को बुनियादी तौर पर ऐसा ग़लत करके रख देगी कि आख़िरत में वह उलटा जहन्नम का हक़दार होगा।
وَمَنۡ أَرَادَ ٱلۡأٓخِرَةَ وَسَعَىٰ لَهَا سَعۡيَهَا وَهُوَ مُؤۡمِنٞ فَأُوْلَٰٓئِكَ كَانَ سَعۡيُهُم مَّشۡكُورٗا ۝ 18
(19) और जो आख़िरत की ख़ाहिश रखता हो और उसके लिए कोशिश करे जैसी कि उसके लिए कोशिश करनी चाहिए, और हो वह ईमानवाला, तो ऐसे हर आदमी की कोशिश की क़द्र की जाएगी21।
21. यानी उसके काम की क़द्र की जाएगी और जितनी और जैसी कोशिश भी उसने आख़िरत की कामयाबी के लिए की होगी, उसका फल वह ज़रूर पाएगा।
كُلّٗا نُّمِدُّ هَٰٓؤُلَآءِ وَهَٰٓؤُلَآءِ مِنۡ عَطَآءِ رَبِّكَۚ وَمَا كَانَ عَطَآءُ رَبِّكَ مَحۡظُورًا ۝ 19
(20) इनको भी और उनको भी, दोनों फ़रीक़ों को हम (दुनिया में) ज़िन्दगी का सामान दिए जा रहे हैं, यह तेरे रब की देन है, और तेरे रब की देन को रोकनेवाला कोई नहीं है।22
22. यानी दुनिया में रोज़ी और ज़िन्दगी का सामान दुनिया-परस्तों को भी मिल रहा है और आख़िरत के तलबगारों को भी। दिया हुआ अल्लाह ही का है, किसी और का नहीं है। न दुनिया-परस्तों में यह ताक़त है कि आख़िरत के तलबगारों को रोज़ी से महरूम कर दें, और न आख़िरत के तलबगार ही यह क़ुदरत रखते हैं कि दुनिया-परस्तों तक अल्लाह की नेमत न पहुँचने दें।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ فَضَّلۡنَا بَعۡضَهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖۚ وَلَلۡأٓخِرَةُ أَكۡبَرُ دَرَجَٰتٖ وَأَكۡبَرُ تَفۡضِيلٗا ۝ 20
(21) मगर देख लो, दुनिया ही में हमने एक गरोह को दूसरे पर कैसी फ़ज़ीलत (प्रतिष्ठा) दे रखी है और आख़िरत में उसके दरजे और भी ज़्यादा होंगे, और उसकी बड़ाई और भी ज़्यादा बढ़-चढ़कर होगी।23
23. यानी दुनिया ही में यह फ़र्क़ नुमायाँ हो जाता है कि आख़िरत के तलबगार दुनिया-परस्त लोगों पर बड़ाई रखते हैं। यह बड़ाई इस एतिबार से नहीं है कि इनके खाने और लिबास और मकान और सवारियाँ और रहन-सहन व तहज़ीब के ठाठ उनसे कुछ बढ़कर हैं, बल्कि इस एतिबार से है कि ये जो कुछ भी पाते हैं सच्चाई, ईमानदारी और अमानतदारी के साथ पाते हैं, और वह जो कुछ पा रहे हैं ज़ुल्म से, बेईमानियों से, और तरह-तरह की हरामख़ोरियों से पा रहे हैं। फिर आख़िरत के तलबगारों को जो कुछ मिलता है वह एतिदाल (सन्तुलन) के साथ ख़र्च होता है, उसमें से हक़दारों के हक़ अदा होते हैं, उसमें से माँगनेवाले और महरूम का हिस्सा भी निकलता हो जाता है है, और उसमें से ख़ुदा की ख़ुशनूदी के लिए दूसरे भले कामों पर भी माल ख़र्च किया जाता है। इसके बरख़िलाफ़ दुनिया-परस्तों को जो कुछ मिलता है वह ज़्यादा तर अय्याशियों और हरामकारियों और तरह-तरह के बिगाड़ पैदा करने और फ़ितना फैलानेवाले कामों में पानी की तरह बहाया जाता है। इसी तरह तमाम हैसियतों से आख़िरत के तलबगारों की ज़िन्दगी ख़ुदातरसी और अख़लाक़ की पाकीज़गी का ऐसा नमूना होती है जो पेवन्द लगे हुए कपड़ों और घास-फूस की झोंपड़ियों में भी इतना ज़्यादा रौशन नज़र आता है कि दुनिया-परस्त की ज़िन्दगी उसके मुक़ाबले में हर खुली आँखवाले को अंधेरी नज़र आती है। यही वजह है कि बड़े-बड़े ज़ालिम बादशाहों और दौलतमन्द अमीरों के लिए भी उनके जैसे दूसरे इनसानों के दिलों में कोई सच्ची इज़्ज़त और मुहब्बत और अक़ीदत कभी पैदा न हुई और इसके बरख़िलाफ़ भूखे रहनेवाले, टाट और चटाई पर सोनेवाले की बड़ाई को ख़ुद दुनिया-परस्त लोग भी मानने पर मजबूर हो गए। ये खुली-खुली अलामतें इस हक़ीक़त की तरफ़ साफ़ इशारा कर रही हैं कि आख़िरत की हमेशा रहनेवाली कामयाबियाँ इन दोनों गरोहों में से किसके हिस्से में आनेवाली हैं।
لَّا تَجۡعَلۡ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتَقۡعُدَ مَذۡمُومٗا مَّخۡذُولٗا ۝ 21
(22) तू अल्लाह के साथ कोई दूसरा माबूद न बना24 वरना मलामत किया हुआ और बेसहारा होकर बैठा रह जाएगा।
24. दूसरा तर्जमा इस जुमले का यह भी हो सकता है कि अल्लाह के साथ कोई और ख़ुदा न गढ़ ले या और कोई ख़ुदा न क़रार दे ले।
۞وَقَضَىٰ رَبُّكَ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّآ إِيَّاهُ وَبِٱلۡوَٰلِدَيۡنِ إِحۡسَٰنًاۚ إِمَّا يَبۡلُغَنَّ عِندَكَ ٱلۡكِبَرَ أَحَدُهُمَآ أَوۡ كِلَاهُمَا فَلَا تَقُل لَّهُمَآ أُفّٖ وَلَا تَنۡهَرۡهُمَا وَقُل لَّهُمَا قَوۡلٗا كَرِيمٗا ۝ 22
(23) तेरे रब ने फ़ैसला कर दिया25 है कि तुम लोग किसी की इबादत न करो, मगर सिर्फ़ उसकी।26 माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करो। अगर तुम्हारे पास इनमें से कोई एक या दोनों, बूढ़े होकर रहें तो उन्हें उफ़ तक न कहो, न उन्हें झिड़ककर जवाब दो, बल्कि उनसे एहतिराम के साथ बात करो,
25. यहाँ वे बड़े-बड़े बुनियादी उसूल पेश किए जा रहे हैं जिनपर इस्लाम पूरी इनसानी ज़िन्दगी के निज़ाम की इमारत क़ायम करना चाहता है। यह मानो नबी (सल्ल०) की दावत का मंशूर (घोषणापत्र) है जिसे मक्की दौर के ख़ातिमे और आनेवाले मदनी दौर की शुरुआत में पेश किया या, ताकि दुनियाभर को मालूम हो जाए कि इस नए इस्लामी समाज और रियासत की बुनियाद किन फ़िक्री, अख़लाक़ी (नैतिक), समाजी, मआशी (आर्थिक) और क़ानूनी उसूलों पर रखी जाएगी। इस मौक़े पर सूरा-6 अनआम की आयत 152-155 और उनके हाशियों पर भी एक निगाह डाल लेना फ़ायदेमन्द होगा।
26. इसका मतलब सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि अल्लाह के सिवा किसी की परस्तिश और पूजा न करो, बल्कि यह भी है कि बन्दगी और ग़ुलामी और बिना आना-कानी किए फ़रमाँबरदारी भी सिर्फ़ उसी की करो, उसी के हुक्म को हुक्म और उसी के क़ानून को क़ानून मानो और उसके सिवा किसी को इक़तिदारे आला (संप्रभुत्व) तसलीम न करो। यह सिर्फ़ एक मज़हबी अक़ीदा, और सिर्फ़ निजी रवैये के लिए एक हिदायत ही नहीं है, बल्कि उस पूरी अख़लाक़ी, समाजी और सियासी निज़ाम की बुनियाद भी है जो मदीना तय्यिबा पहुँचकर नबी (सल्ल०) ने अमली तौर पर क़ायम किया। इसकी इमारत इसी नज़रिए पर उठाई गई थी कि अल्लाह तआला ही दुनिया का मालिक और बादशाह है, और उसी की शरीअत मुल्क का क़ानून है।
وَٱخۡفِضۡ لَهُمَا جَنَاحَ ٱلذُّلِّ مِنَ ٱلرَّحۡمَةِ وَقُل رَّبِّ ٱرۡحَمۡهُمَا كَمَا رَبَّيَانِي صَغِيرٗا ۝ 23
(24) और नरमी और रहम के साथ उनके सामने झुककर रहो और दुआ किया करो कि “पालनहार! इनपर रहम कर जिस तरह इन्होंने रहमत और मुहब्बत के साथ मुझे बचपन में पाला था।”
رَّبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَا فِي نُفُوسِكُمۡۚ إِن تَكُونُواْ صَٰلِحِينَ فَإِنَّهُۥ كَانَ لِلۡأَوَّٰبِينَ غَفُورٗا ۝ 24
(25) तुम्हारा रब ख़ूब जानता है कि तुम्हारे दिलों में क्या है। अगर तुम नेक बनकर रहो तो वह ऐसे सब लोगों के लिए माफ़ करनेवाला है
وَءَاتِ ذَا ٱلۡقُرۡبَىٰ حَقَّهُۥ وَٱلۡمِسۡكِينَ وَٱبۡنَ ٱلسَّبِيلِ وَلَا تُبَذِّرۡ تَبۡذِيرًا ۝ 25
(26) जो अपनी ग़लती पर ख़बरदार होकर बन्दगी के रवैये की तरफ़ पलट आएँ।27 नातेदार को उसका हक़ दो और मुहताज और मुसाफ़िर को उसका हक़। फ़ुज़ूलख़र्ची न करो।
27. इस आयत में यह बताया गया है कि अल्लाह के बाद इनसानों में सबसे बढ़कर हक़ माँ-बाप का है। औलाद को माँ-बाप का फ़रमाँबरदार, ख़िदमत गुज़ार और उनका अदब करनेवाला होना चाहिए। समाज का इज्तिमाई अख़लाक़ ऐसा होना चाहिए जो औलाद को माँ-बाप से बेपरवाह बनानेवाला न हो, बल्कि उनका एहसानमन्द और उनके एहतिराम का पाबन्द बनाए, और बुढ़ापे में उसी तरह उनकी ख़िदमत करना सिखाए जिस तरह बचपन में वे उसकी परवरिश कर चुके हैं। और नाज़-नख़रे उठा चुके हैं। यह आयत भी सिर्फ़ एक अख़लाक़ी सिफ़ारिश नहीं है, बल्कि इसी की बुनियाद पर बाद में माँ-बाप के वे शरई हक़ और अधिकार मुक़र्रर किए गए जिनकी तफ़सीलात हमको हदीस और फ़िक़्ह में मिलती हैं। इसके अलावा इस्लामी समाज की ज़ेहनी व अख़लाक़ी तरबियत में और मुसलामनों के तहज़ीबी आदाब (सांस्कृतिक शिष्टाचार) में माँ-बाप का एहतिराम करने, उनका कहा मानने और उनके हक़ों की निगरानी को एक अहम हिस्से की हैसियत से शामिल किया गया। इन चीज़ों ने हमेशा-हमेशा के लिए यह उसूल तय कर दिया कि इस्लामी हुकूमत अपने क़ानूनों, इन्तिज़ामी हुक्मों और तालीमी पॉलिसी के ज़रिए से ख़ानदान के इदारे को मज़बूत और महफ़ूज़ करने की कोशिश करेगी न कि उसे कमज़ोर बनाने की।
إِنَّ ٱلۡمُبَذِّرِينَ كَانُوٓاْ إِخۡوَٰنَ ٱلشَّيَٰطِينِۖ وَكَانَ ٱلشَّيۡطَٰنُ لِرَبِّهِۦ كَفُورٗا ۝ 26
(27) फ़ुज़ूलख़र्च लोग शैतान के भाई हैं और शैतान अपने रब का नाशुक्रा है।
وَإِمَّا تُعۡرِضَنَّ عَنۡهُمُ ٱبۡتِغَآءَ رَحۡمَةٖ مِّن رَّبِّكَ تَرۡجُوهَا فَقُل لَّهُمۡ قَوۡلٗا مَّيۡسُورٗا ۝ 27
(28) अगर उनसे (यानी ज़रूरतमन्द नातेदारों, मुहताजों और मुसाफ़िरों से) तुम्हें कतराना हो, इस वजह से कि अभी तुम अल्लाह की उस रहमत को जिसके तुम उम्मीदवार हो तलाश कर रहे हो, तो उन्हें नर्म जवाब दे28
28. इन तीन दफ़ाओं (धाराओं) का मंशा यह है कि आदमी अपनी कमाई और अपनी दौलत को सिर्फ़ अपने लिए ही ख़ास न रखे, बल्कि अपनी ज़रूरतें एतिदाल (सन्तुलन) के साथ पूरी करने के बाद अपने रिश्तेदारों, अपने पड़ोसियों और दूसरे ज़रूरतमन्द लोगों के हक़ भी अदा करे। समाजी ज़िन्दगी में मदद, हमदर्दी, हक़ पहचानने और हक़ पहुँचाने की रूह बाक़ी और काम करती रहे। हर रिश्तेदार दूसरे रिश्तेदार का मददगार, और हर हैसियतवाला इनसान अपने पास के ज़रूरतमन्द इनसान का मददगार हो। एक मुसाफ़िर जिस बस्ती में भी जाए अपने आपको ख़ातिरदारी करनेवाले लोगों के दरमियान पाए। समाज में हक़ का तसव्वुर (धारणा) इतना आम हो कि हर शख़्स उन सब इनसानों के हक़ अपने आपपर और अपने माल पर महसूस करे जिनके बीच वह रहता हो। उनकी ख़िदमत करे तो यह समझते हुए करे कि उनका हक़ अदा कर रहा है, न यह कि एहसान का बोझ उनपर लाद रहा है। अगर किसी की ख़िदमत नहीं कर सकता तो उससे माफ़ी माँगे और ख़ुदा से उसका मेहरबानी तलब करे, ताकि वह अल्लाह के बन्दों की ख़िदमत करने के क़ाबिल हो। इस्लामी मंशूर (घोषणापत्र) की ये दफ़ाएँ भी सिर्फ़ इनफ़िरादी (व्यक्तिगत) अख़लाक़ की तालीम ही न थीं, बल्कि आगे चलकर मदीना तय्यिबा के समाज और रियासत में इन्हीं की बुनियाद पर वाजिब सदनों और नफ़्ल (अपनी मरज़ी से दिए जानेवाले) सदक़ों के हुक्म दिए गए, वसीयत और विरासत और वक़्फ़ के तरीक़े मुक़र्रर किए गए, यतीमों के हक़ों की हिफ़ाज़त का इन्तिज़ाम किया गया, हर बस्ती पर मुसाफ़िर का यह हक़ क़ायम किया गया कि कम-से-कम तीन दिन तक उसकी ख़ातिरदारी की जाए और फिर उसके साथ-साथ समाज का अख़लाक़ी निज़ाम अमली तौर पर ऐसा बनाया गया कि पूरे समाजी माहौल में फैय्याज़ी (दानशीलता), हमदर्दी और मदद की रूह काम करने लगी, यहाँ तक कि लोग आप-ही-आप क़ानूनी हक़ों के अलावा उन अख़लाक़ी हक़ों को भी समझने और अदा करने लगे जिन्हें न क़ानून के ज़ोर से माँगा जा सकता है न दिलवाया जा सकता है।
وَلَا تَجۡعَلۡ يَدَكَ مَغۡلُولَةً إِلَىٰ عُنُقِكَ وَلَا تَبۡسُطۡهَا كُلَّ ٱلۡبَسۡطِ فَتَقۡعُدَ مَلُومٗا مَّحۡسُورًا ۝ 28
(29) न तो अपना हाथ गरदन से बाँध रखो और न उसे बिलकुल ही खुला छोड़ दो कि मलामत किए हुए और बेबस-मजबूर बनकर रह जाओ।29
29. 'हाथ बाँधना' से मुराद है कंजूसी करना, और उसे खुला छोड़ देने से मुराद है फ़ुज़ूलख़र्ची। दफ़ा 4 के साथ दफ़ा 6 के इस जुमले को मिलाकर पढ़ने से मंशा साफ़ यह मालूम होता है कि लोगों में इतना एतिदाल (सन्तुलन) होना चाहिए कि वे न कंजूस बनकर दौलत की गर्दिश को रोकें और न फ़ुज़ूलख़र्च बनकर अपनी माली ताक़त को बरबाद करें। इसके बरख़िलाफ़ उनके अन्दर बीच का रास्ता इख़्तियार करने का ऐसा सही एहसास मौजूद होना चाहिए कि वे जाइज़ ख़र्च से भी न रुके रहें और नामुनासिब ख़र्च की खराबियों में मुब्तला भी न हों। घमण्ड और दिखावे के ख़र्च, अय्याशी और गुनाह के कामों में किए जानेवाले ख़र्च, और तमाम ऐसे ख़र्च जो इनसान की हक़ीक़ी ज़रूरतों और फ़ायदेमन्द कामों में ख़र्च होने के बजाय दौलत को ग़लत रास्तों में बहा दें, अस्ल में ख़ुदा की नेमत की नाशुक्री है। जो लोग इस तरह अपनी दौलत को ख़र्च करते हैं, वे शैतान के भाई हैं। ये दफ़ाएँ भी सिर्फ़ अख़लाक़ी तालीम और इनफ़िरादी हिदायतों तक महदूद नहीं हैं, बल्कि साफ़ इशारा इस बात की तरफ़ कर रही हैं कि एक अच्छे समाज को अख़लाक़ी तरबियत, समाजी दबाव और क़ानूनी पाबन्दियों के ज़रिए से माल के बेजा ख़र्च की रोकथाम करनी चाहिए। चुनाँचे आगे चलकर मदीना तय्यिबा की रियासत में इन दोनों दफ़ाओं के मक़सद को कई अमली तरीक़ों से ज़ाहिर किया गया। एक तरफ़ फ़ुज़ूलख़र्ची और अय्याशी की बहुत-सी सूरतों को क़ानून के ज़रिए हराम किया गया। दूसरी तरफ़ क़ानूनी तदबीरों के ज़रिए से माल के ग़लत ख़र्च की रोकथाम की गई। तीसरी तरफ़ समाज-सुधार के ज़रिए से उन बहुत-सी रस्मों को ख़त्म किया गया जिनमें फ़ुज़ूलख़र्चियाँ की जाती थीं, फिर हुकूमत को ये अधिकार दिए गए कि फ़ुज़ूलख़र्ची की नुमायाँ सूरतों को अपने इन्तिज़ामी हुक्मों के ज़रिए से रोक दे। इसी तरह ज़कात व सदक़ों के हुक्मों से कंजूसी का ज़ोर भी तोड़ा गया और इस बात के इमकान बाक़ी न रहने दिए गए कि लोग माल-दौलत को जमाकर के दौलत की गर्दिश को रोक दें। इन तदबीरों के अलावा समाज में एक ऐसी आम राय पैदा की गई जो फ़य्याज़ी और फ़ुज़ूलख़र्ची का फ़र्क़ ठीक-ठीक जानती थी और कंजूसी और एतिदाल में ख़ूब फ़र्क़ करती थी। इस आम राय ने कंजूसों को रुसवा किया। एतिदाल और बीच का रास्ता इख़्तियार करनेवालों को इज़्ज़तदार बनाया। फ़ुज़ूलख़र्चों की मलामत (निन्दा) की और फ़य्याज़ (दानशील) लोगों को पूरी सोसाइटी का सबसे महकता और खिला हुआ फूल क़रार दिया। उस वक़्त की ज़ेहनी व अख़लाक़ी तरबियत का यह असर आज तक मुस्लिम समाज में मौजूद है कि मुसलमान जहाँ भी हैं कंजूसों और दौलत जमा करके रखनेवालों को बुरी निगाह से देखते हैं, और फ़य्याज़ इनसान आज भी उनकी निगाह में इज्ज़त और एहतिराम के क़ाबिल है।
إِنَّ رَبَّكَ يَبۡسُطُ ٱلرِّزۡقَ لِمَن يَشَآءُ وَيَقۡدِرُۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 29
(30) तेरा रब जिसके लिए चाहता है रोज़ी कुशादा करता है और जिसके लिए चाहता है, तंग कर देता है। वह अपने बन्दों के हाल की ख़बर रखता है और उन्हें देख रहा है।30
30. यानी अल्लाह तआला ने अपने बन्दों के दरमियान रिज़्क़ देने में कम-ज़्यादा का जो फ़र्क़ रखा है इनसान उसकी मस्लहतें और उसमें छिपी हिकमतों को नहीं समझ सकता, इसलिए रोज़ी बाँटने के फ़ितरी निज़ाम में इनसान को अपनी बनावटी तदबीरों से दख़लअन्दाज़ न होना चाहिए। फ़ितरी ग़ैर-बराबरी को बनावटी बराबरी में तबदील करना, या इस ग़ैर-बराबरी को फ़ितरत की हदों से बढ़ाकर बेइनसाफ़ी की हद तक पहुँचा देना, दोनों ही समान रूप से ग़लत हैं। एक सही मआशी निज़ाम वही है जो ख़ुदा के मुक़र्रर किए हुए रिज़्क़ बाँटने के तरीक़े से ज़्यादा क़रीब हो। इस जुमले में फ़ितरत के क़ानून के जिस क़ायदे की तरफ़ रहनुमाई की गई थी उसकी वजह से मदीना के इस्लाही (सुधारवादी) प्रोग्राम में यह ख़याल सिरे से कोई जगह न पा सका कि रिज़्क़ (रोज़ी) और रोज़ी पाने के वसाइल (संसाधनों) में फ़र्क़ और एक-दूसरे से बढ़कर होना अपनी जगह ख़ुद कोई बुराई है जिसे मिटाना और एक ऐसी सोसाइटी पैदा करना जिसमें सिरे से तबक़े ही मौजूद न हों किसी दरजे में भी मतलूब हो। इसके बरख़िलाफ़ मदीना तय्यिबा में इनसानी समाज अच्छी और भली बुनियादों पर क़ायम करने के लिए जो राहे-अमल अपनाई गई वह यह थी कि अल्लाह की फ़ितरत ने इनसानों के बीच जो फ़र्क़ रखे हैं उनको अस्ल फ़ितरी हालत पर बाक़ी रखा जाए और ऊपर की दी हुई हिदायतों के मुताबिक़ सोसाइटी के अख़लाक़़, तरीक़ों और अमल के क़ानूनों का इस तरह सुधार कर दिया जाए कि रोज़ी का फ़र्क़ किसी ज़ुल्म व बेइनसाफ़ी का सबब बनने के बजाय उन अनगिनत अख़लाक़ी, रूहानी और समाजी फ़ायदों और बरकतों का ज़रिआ बन जाए जिनकी ख़ातिर ही दर अस्ल कायनात के पैदा करनेवाले ने अपने बन्दों के दरमियान यह फ़र्क़ रखा है।
وَلَا تَقۡتُلُوٓاْ أَوۡلَٰدَكُمۡ خَشۡيَةَ إِمۡلَٰقٖۖ نَّحۡنُ نَرۡزُقُهُمۡ وَإِيَّاكُمۡۚ إِنَّ قَتۡلَهُمۡ كَانَ خِطۡـٔٗا كَبِيرٗا ۝ 30
(31) अपनी औलाद को गरीबी के डर से क़त्ल न करो। हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी। हक़ीकत में उनका क़त्ल एक बड़ी ख़ता है।31
31. यह आयत उन मआशी (आर्थिक) बुनियादों को बिलकुल ढा देती है जिनपर पुराने ज़माने से आज तक अलग-अलग दौर में बर्थ-कंट्रोल की तहरीक उठती रही है। ग़रीबी का डर पुराने ज़माने में बच्चों का क़त्ल और भ्रूण-हत्या पर उभारनेवाली और आमादा करनेवाली चीज़ हुआ करता था, और आज वह एक तीसरी तदबीर, यानी गर्भ ठहरने से रोकने की तरफ़ दुनिया को ढकेल रहा है। लेकिन इस्लामी मंशूर (घोषणापत्र) की यह दफ़ा इनसान को हिदायत करती है कि वे खानेवालों को घटाने की ख़तरनाक कोशिश छोड़कर उन बनानेवाली कोशिशों में अपनी क़ुव्वतें और क़ाबिलियतें लगाए जिनसे अल्लाह के बनाए हुए फ़ितरी क़ानून के मुताबिक़ रिज़्क़ में बढ़ोतरी हुआ करती है। इस दफ़ा के मुताबिक़ यह बात इनसान की बड़ी ग़लतियों में से एक है कि वह बार-बार रोज़गार के ज़रिओं की तंगी के डर से नस्ल बढ़ाने का सिलसिला रोक देने पर आमादा हो जाता है। यह इनसान को ख़बरदार करती है कि रिज़्क़ पहुँचाने का इन्तिज़ाम तेरे हाथ में नहीं है, बल्कि उस ख़ुदा के हाथ में है जिसने तुझे ज़मीन में बसाया है। जिस तरह वह पहले आनेवालों को रोज़ी देता रहा है, बाद के आनेवालों को भी देगा। इतिहास का तजरिबा भी यही बताता है कि दुनिया के अलग-अलग देशों में खानेवाली आबादी जितनी बढ़ती गई है, उतने ही, बल्कि बहुत बार उससे बहुत ज़्यादा माली और मआशी ज़रिए बढ़ते चल गए हैं, लिहाज़ा ख़ुदा के पैदा करने के इन्तिज़ामों में इनसान की ग़लत दखलअंदज़ियाँ बेवक़ूफ़ी के सिवा कुछ नहीं हैं। यह इसी तालीम का नतीजा है कि क़ुरआन उतरने के दौर से लेकर आज तक किसी दौर में भी मुसलमानों के अन्दर नस्ल ख़त्म करने का कोई आम रुझान पैदा नहीं होने पाया।
وَلَا تَقۡرَبُواْ ٱلزِّنَىٰٓۖ إِنَّهُۥ كَانَ فَٰحِشَةٗ وَسَآءَ سَبِيلٗا ۝ 31
(32) ज़िना (व्यभिचार) के क़रीब न फटको। वह बहुत बुरा काम है और बड़ा ही बुरा रास्ता।32
32. “ज़िना (व्यभिचार) के क़रीब न फटको” यह हुक्म एक-एक शख़्स के लिए भी है और पूरे समाज के लिए भी। अलग-अलग शख़्सों के लिए इस हुक्म का मतलब यह है कि वे सिर्फ़ ज़िना (व्यभिचार) ही से बचने पर बस न करें, बल्कि ज़िना की तरफ़ बढ़नेवाली और उन निशुरुआती हरकतों से भे दूर रहें जो इस रास्ते की तरफ़ ले जाती हैं। रहा समाज, तो इस हुक्म के मुताबिक़ उसका फ़र्ज़ यह है कि वह समाजी ज़िन्दगी में ज़िना, ज़िना पर उभारनेवाली हरकतों, और ज़िना के असबाब पर रोक लगाए, और इस मक़सद के लिए क़ानून से, तालीम और तरबियत से, इज्तिमाई माहौल के सुधार से, समाजी ज़िन्दगी के मुनासिब गठन से, और दूसरी तमाम असरदार तदबीरों से काम ले। यह दफ़ा आख़िकार इस्लामी निज़ामे-ज़िन्दगी के एक बड़े बाब (अध्याय) की बुनियाद बनी। इसके मंशा के मुताबिक़ ज़िना और ज़िना के झूठे इलज़ाम को फ़ौजदारी जुर्म ठहराया गया, पर्द के हुक्म जारी किए गए, बेहयाई और बेशर्मी के फैलाने को सख़्ती के साथ रोक दिया गया, शराब और संगीत और नाच और तस्वीरों पर (जो ज़िना से सबसे क़रीबी रिश्ता रखते हैं) बन्दिशें लगाई गईं और शादी-ब्याह का एक ऐसा क़ानून बनाया गया जिससे निकाह (शादी) आसान हो गया और ज़िना के समाजी असबाब की जड़ कट गई।
وَلَا تَقۡتُلُواْ ٱلنَّفۡسَ ٱلَّتِي حَرَّمَ ٱللَّهُ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَمَن قُتِلَ مَظۡلُومٗا فَقَدۡ جَعَلۡنَا لِوَلِيِّهِۦ سُلۡطَٰنٗا فَلَا يُسۡرِف فِّي ٱلۡقَتۡلِۖ إِنَّهُۥ كَانَ مَنصُورٗا ۝ 32
(33) किसी जान को क़त्ल न करो जिसे अल्लाह ने हराम किया है33, मगर हक़ के साथ।34 और जो शख़्स मज़लूम की हैसियत से क़त्ल किया गया हो उसके वली (सरपरस्त) को हमने क़िसास की माँग का हक़ दिया है35, तो चाहिए कि वह क़त्ल में हद से न बढ़े36, उसकी मदद की जाएगी।37
33. किसी जान के क़त्ल से मुराद सिर्फ़ दूसरे इनसान का क़त्ल ही नहीं है, बल्कि ख़ुद अपने आपको क़त्ल करना भी है। इसलिए कि जान, जिसको अल्लाह ने एहतिराम के क़ाबिल ठहराया है, उसकी तारीफ़ (परिभाषा) में दूसरी जानों की तरह इनसान की अपनी जान भी दाख़िल है। लिहाज़ा जितना बड़ा जुर्म और गुनाह इनसान का क़त्ल है, उतना ही बड़ा जुर्म और गुनाह ख़ुदकुशी (आत्महत्या) भी है। आदमी की बड़ी ग़लतफ़हमियों में से एक यह है कि वह अपने आपको अपनी जान का मालिक, और अपनी इस मिल्कियत को अपने अधिकार से ख़ुद तबाह कर देने का अधिकारी समझता है। हालाँकि यह जान अल्लाह की मिल्कियत है, और हम इसको तबाह करना तो दूर, इसके किसी ग़लत इस्तेमाल के अधिकारी भी नहीं हैं। दुनिया की इस इम्तिहानगाह में अल्लाह तआला जिस तरह भी हमारा इम्तिहान ले, इसी तरह हमें आख़िर वक़्त तक इम्तिहान देते रहना चाहिए, चाहे इम्तिहान के हालात अच्छे हों या बुरे। अल्लाह के दिए हुए वक़्त को जान-बूझकर ख़त्म करके इम्तिहानगाह से भाग निकलने की कोशिश अपने आप में ख़ुद ग़लत है, उसपर कहाँ यह कि यह फ़रार भी एक ऐसे बड़े जुर्म के ज़रिए से किया जाए, जिसे अल्लाह ने साफ़ अलफ़ाज़ में हराम ठहराया है। इसका दूसरा मतलब यह है कि आदमी दुनिया की छोटी-छोटी तकलीफ़ों और ज़िल्लतों और रुसवाइयों से बचकर बहुत बड़ी और हमेशा रहनेवाली तकलीफ़ और रुसवाई की तरफ़ भागता है।
34. बाद में इस्लामी क़ानून ने ‘हक़ के मुताबिक़ क़त्ल' को सिर्फ़ पाँच हालतों में महदूद कर दिया: एक जान-बूझकर क़त्ल करने के मुजरिम से क़िसास (ख़ून का बदला), दूसरी सच्चे दीन के रास्ते में रुकावटें खड़ी करनेवालों से जंग, तीसरी इस्लामी निज़ामे-हुकूमत को उलटने की कोशिश करनेवालों को सज़ा। चौथी शादीशुदा मर्द या औरत को ज़िना करने की सज़ा। पाँचवीं हक़ से फिर जाने की सज़ा। सिर्फ़ यही पाँच हालतें हैं जिनमें इनसानी जान का एहतिराम ख़त्म हो जाता है और उसे क़त्ल करना जाइज़ हो जाता है।
35. अस्ल अलफ़ाज हैं “उसके वली को हमने सुल्तान अता किया है।” सुल्तान से मुराद यहाँ 'हुज्जत' (दलील) है जिसकी बुनियाद पर वह क़िसास की माँग कर सकता है। इससे इस्लामी क़ानून का यह उसूल निकलता है कि क़त्ल के मुक़द्दमें में अस्ल मुद्दई हुकूमत नहीं, बल्कि मरनेवाले के वारिस हैं, और वे क़ातिल को माफ़ करने और क़िसास के बजाय ख़ूँबहा (क़त्ल का माली जुर्माना) लेने पर राज़ी हो सकते हैं।
36. क़त्ल में हद से गुज़रने की कई शक्लें हो सकती हैं और वे सब मना हैं। मसलन इन्तिक़ाम के जोश में मुजरिम के अलावा दूसरों को क़त्ल करना, या मुजरिम को तकलीफ़ दे-देकर मारना, या मार देने के बाद उसकी लाश पर ग़ुस्सा निकालना, या ख़ूँबहा (क़त्ल का माली जुर्माना) लेने के बाद फिर उसे क़त्ल करना वग़ैरा।
37.चूँकि उस वक़्त तक इस्लामी हुकूमत क़ायम न हुई थी, इसलिए इस बात को नहीं खोला गया कि उसकी मदद कौन करेगा। बाद में जब इस्लामी हुकूमत क़ायम हो गई तो यह तय कर दिया गया कि उसकी मदद करना उसके क़बीले या उसके साथियों का काम नहीं, बल्कि इस्लामी हुकूमत और उसके अदालती निज़ाम का काम है। कोई शख़्स या गरोह अपने आप क़त्ल का इन्तिक़ाम लेने का अधिकार नहीं रखता, बल्कि यह ज़िम्मेदारी इस्लामी हुकूमत की है कि इनसाफ़ पाने के लिए उससे मद, माँगी जाए।
وَلَا تَقۡرَبُواْ مَالَ ٱلۡيَتِيمِ إِلَّا بِٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُ حَتَّىٰ يَبۡلُغَ أَشُدَّهُۥۚ وَأَوۡفُواْ بِٱلۡعَهۡدِۖ إِنَّ ٱلۡعَهۡدَ كَانَ مَسۡـُٔولٗا ۝ 33
(34) यतीम के माल के पास न फटको मगर अच्छे तरीक़े से, यहाँ तक कि वह अपनी जवानी को पहुँच जाए।38 अह्द (वचन) की पाबन्दी करो। बेशक अह्द के बारे में तुमको जवाबदेही करनी होगी।39
38. यह भी सिर्फ़ एक अख़लाक़ी हिदायत न थी, बल्कि आगे चलकर जब इस्लामी हुकूमत क़ायम हुई तो यतीमों के हक़ों की हिफ़ाज़त के लिए इन्तिज़ामी और क़ानूनी, दोनों तरह की तदबीरें अपनाई गईं, जिनकी तफ़सील हमको हदीस और फ़िक़्ह की किताबों में मिलती है। फिर इसी से यह बड़ा उसूल लिया गया कि इस्लामी रियासत अपने उन तमाम शहरियों के मफ़ाद (हितों) की हिफ़ाज़त करनेवाली है जो अपने मफ़ाद की ख़ुद हिफ़ाज़त करने के क़ाबिल न हों। नबी (सल्ल०) का इरशाद, “मैं हर उस शख़्स का सरपरस्त हूँ जिसका कोई सरपरस्त न हो” इसी तरफ़ इशारा करता है, और यह इस्लामी क़ानून के एक बड़े बाब (अध्याय) की बुनियाद है।
39. यह भी सिर्फ़ इनफ़िरादी (वैयक्तिक) अख़लाक़ियात ही की एक दफ़ा न थी, बल्कि इस्लामी हुकूमत क़ायम हुई तो इसी को पूरी क़ौम की देश और विदेश पॉलिसी की बुनियाद ठहराया गया।
وَأَوۡفُواْ ٱلۡكَيۡلَ إِذَا كِلۡتُمۡ وَزِنُواْ بِٱلۡقِسۡطَاسِ ٱلۡمُسۡتَقِيمِۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ وَأَحۡسَنُ تَأۡوِيلٗا ۝ 34
(35) पैमाने से दो तो पूरा भरकर दो और तौलो तो ठीक तराज़ू से तौलो।40 यह अच्छा तरीक़ा है और नतीजे के एतिबार से भी यही अच्छा है41
40. यह हिदायत भी सिर्फ़ लोगों के आपसी मामलों तक महदूद न रही, बल्कि इस्लामी हुकूमत के क़ायम होने के बाद यह बात हुकूमत की ज़िम्मेदारियों में शामिल की गई कि वह मण्डियों और बाज़ारों में नाप-तौल की निगरानी करे और कम तौलने और डण्डी मारने को ताक़त के बल पर बन्द कर दे। फिर इसी से यह बड़ा उसूल लिया गया कि तिजारत और माली लेन-देन में हर तरह की बेईमानियों और हक़ मारने के रास्तों को रोकना हुकूमत की ज़िम्मेदारियों में से है।
41. यानी दुनिया में भी और आख़िरत में भी। दुनिया में उसका अंजाम इस लिए बेहतर है कि इससे आपसी एतिमाद क़ायम होता है, बेचनेवाला और ख़रीदनेवाला दोनों एक-दूसरे पर भरोसा करते हैं, और यह चीज़ आख़िकार तिजारत के फैलाव और आम ख़ुशहाली का सबब साबित होती है। रही आख़िरत तो वहाँ अंजाम की भलाई का सारा दारोमदार ही ईमान और परहेज़गारी पर है।
وَلَا تَقۡفُ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۚ إِنَّ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡبَصَرَ وَٱلۡفُؤَادَ كُلُّ أُوْلَٰٓئِكَ كَانَ عَنۡهُ مَسۡـُٔولٗا ۝ 35
(36) किसी ऐसी चीज़ के पीछे न लगो जिसका तुम्हें इल्म न हो। यक़ीनन आँख, कान और दिल सभी की पूछ-गछ होनी है।42
42. इस दफ़ा का मंशा यह है कि लोग अपनी इनफ़िरादी (वैयक्तिक) और समाजी ज़िन्दगी में वहम व गुमान के बजाय “इल्म” (ज्ञान) की पैरवी करें। इस्लामी समाज में इस मंशा को अख़लाक़ में, क़ानून में, सियासत और मुल्क के इन्तिज़ाम में, उलूम-फ़ुनून (कला-विज्ञान) और तालीम के निज़ाम में, यानी ज़िन्दगी के हर हिस्से में बड़े पैमाने पर बयान किया गया और उन अनगिनत ख़राबियों से सोच व अमल को महफ़ूज़ कर दिया गया, जो इल्म के बजाय गुमान की पैरवी करने से इनसानी ज़िन्दगी में ज़ाहिर होती हैं। अख़लाक़ में हिदायत की गई कि बदगुमानी से बचो और किसी शख़्स या गरोह पर बिना जाँच पड़ताल किए कोई इलज़ाम न लगाओ। क़ानून में यह मुस्तक़िल उसूल तय कर दिया गया कि सिर्फ़ शक पर किसी के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई न की जाए। जुर्मों की तफ़तीश में यह क़ायदा मुक़र्रर किया गया कि गुमान पर किसी को पकड़ना और मार-पीट करना या हवालात में दे देना बिलकुल नाजाइज़ है। ग़ैर-क़ौमों के साथ बरताव में यह पॉलिसी तय कर दी गई कि सच्चाई का पता लगाए बिना किसी के ख़िलाफ़ कोई क़दम न उठाया जाए और न ही शक की बुनियाद पर अफ़वाहें फैलाई जाएँ। तालीम के निज़ाम में भी उन नामनिहाद (तथाकथित) इल्मों (ज्ञानों) को नापसन्द किया गया, जिनका दारोमदार गुमान और अटकलों और लम्बे-लम्बे अन्दाज़ों पर है। और सबसे बढ़कर यह कि अक़ीदों में अंधविश्वास की जड़ काट दी गई और ईमान लानेवालों को यह सिखाया गया कि सिर्फ़ उस चीज़ को मानें, जो ख़ुदा और रसूल के दिए हुए इल्म के मुताबिक़ साबित हो।
وَلَا تَمۡشِ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَرَحًاۖ إِنَّكَ لَن تَخۡرِقَ ٱلۡأَرۡضَ وَلَن تَبۡلُغَ ٱلۡجِبَالَ طُولٗا ۝ 36
(37) ज़मीन में अकड़कर न चलो, तुम न ज़मीन को फाड़ सकते हो, न पहाड़ों की ऊँचाई को पहुँच सकते हो।43
43. मतलब यह है कि ज़ालिमों और घमण्डियों के तरीक़ों से बचो। यह हिदायत भी इनफ़िरादी रवैये और क़ौमी रवैये दोनों पर समान रूप से हावी है और यह इसी हिदायत का नतीजा था। कि मदीना तय्यिबा में जो हुकूमत इस मंशूर (घोषणापत्र) पर क़ायम हुई उसके हुक्मरानों, गवर्नरों और सिपहसालारों की ज़िन्दगी में ज़ालिमानापन और घमण्ड का हल्का-सा असर तक नहीं पाया जाता था। यहाँ तक कि ठीक जंग की हालत में भी कभी उनकी ज़बान से घमण्ड व ग़ुरूर की कोई बात न निकली। उनके उठने-बैठने, चाल-ढाल, लिबास, मकान, सवारी और आम बरताव में नर्मी और लचक, बल्कि फ़क़ीरी व दर्वेशी की शान पाई जाती थी, और जब वे फ़ातेह (विजेता) की हैसियत से किसी शहर में दाख़िल होते थे, उस वक़्त भी अकड़ और घमण्ड से अपना रोब बिठाने की कोशिश न करते थे।
كُلُّ ذَٰلِكَ كَانَ سَيِّئُهُۥ عِندَ رَبِّكَ مَكۡرُوهٗا ۝ 37
(38) इन मामलों में से हर एक का बुरा पहलू तेरे रब के नज़दीक नापंसदीदा है।44
44. यानी इनमें से जो चीज़ भी मना है उसका करना अल्लाह को नापसन्द है। या दूसरे अलफ़ाज़ में, जिस हुक्म की भी नाफ़रमानी की जाए, वह नापसन्दीदा है।
ذَٰلِكَ مِمَّآ أَوۡحَىٰٓ إِلَيۡكَ رَبُّكَ مِنَ ٱلۡحِكۡمَةِۗ وَلَا تَجۡعَلۡ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَ فَتُلۡقَىٰ فِي جَهَنَّمَ مَلُومٗا مَّدۡحُورًا ۝ 38
(39) ये वे हिकमत की बातें हैं जो तेरे रब ने तुझपर वह्य की हैं। और देख! अल्लाह के साथ कोई दूसरा माबूद न बना बैठ, वरना तू जहन्नम में डाल दिया जाएगा मलामत किया हुआ और हर भलाई से महरूम होकर।45
45. बज़ाहिर तो बात नबी (सल्ल०) से की जा रही है, मगर ऐसे मौक़ों पर अल्लाह तआला अपन नबी को मुख़ातब करके जो बात फ़रमाया करता है उसका अस्ल मुख़ातब हर इनसान हुआ करता है।
أَفَأَصۡفَىٰكُمۡ رَبُّكُم بِٱلۡبَنِينَ وَٱتَّخَذَ مِنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنَٰثًاۚ إِنَّكُمۡ لَتَقُولُونَ قَوۡلًا عَظِيمٗا ۝ 39
(40) कैसी अजीब बात है कि तुम्हारे रब ने तुम्हें तो बेटे दिए और ख़ुद अपने लिए फ़रिश्तों को बेटियाँ बना लिया?46 बड़ी झूठी बात है जो तुम लोग ज़बानों से निकालते हो।
46. तशरीह के लिए देखें— सूरा-16 नह्ल, आयतें—57 से 59, साथ ही उसके हाशिए।
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لِيَذَّكَّرُواْ وَمَا يَزِيدُهُمۡ إِلَّا نُفُورٗا ۝ 40
(41) हमने इस क़ुरआन में तरह-तरह से लोगों को समझाया कि होश में आएँ, मगर वे हक़ (सत्य) से और ज़्यादा दूर ही भागे जा रहे हैं।
قُل لَّوۡ كَانَ مَعَهُۥٓ ءَالِهَةٞ كَمَا يَقُولُونَ إِذٗا لَّٱبۡتَغَوۡاْ إِلَىٰ ذِي ٱلۡعَرۡشِ سَبِيلٗا ۝ 41
(42) ऐ नबी! इनसे कहो कि अगर अल्लाह के साथ दूसरे ख़ुदा भी होते, जैसा कि ये लोग कहते हैं, तो अर्श (सिंहासन) के मालिक के मक़ाम पर पहुँचने की ज़रूर कोशिश करते।47
47. यानी वे ख़ुद अर्श का मालिक बनने की कोशिश करते। इसलिए कि कुछ हस्तियों का ख़ुदाई में शरीक होना दो हाल से ख़ाली नहीं हो सकता। या तो वे सब अपनी-अपनी जगह मुस्तक़िल ख़ुदा हों या उनमें से एक अस्ल ख़ुदा हो और बाक़ी उसके बन्दे हों जिन्हें उसने कुछ ख़ुदाई अधिकार दे रखे हों। पहली सूरत में यह किसी तरह मुमकिन न था कि ये सब आज़ाद और पूरा अधिकार रखनेवाले ख़ुदा हमेशा हर मामले में, एक-दूसरे के इरादे में ताल-मेल करके इस अथाह कायनात के इन्तिज़ाम को इतने मुकम्मल तालमेल, यकसानियत (समानता), और तनासुब व तवाज़ुन (अनुपात व सन्तुलन) के साथ चला सकते। ज़रूरी था कि उनके मंसूबों और इरादों में क़दम-क़दम पर टकराव होता और हर एक अपनी ख़ुदाई दूसरे ख़ुदाओं की मदद के बिना चलती न देखकर यह कोशिश करता कि वह अकेला सारी कायनात का मालिक बन जाए। रही दूसरी सूरत, तो बन्दे का हौसला ख़ुदाई अधिकार तो दूर, ख़ुदाई के ज़रा-से इमकान और शाइबे (लेशमात्र) को सहन नहीं कर सकता। अगर कहीं किसी जानदार को ज़रा-सी ख़ुदाई भी दे दी जाती तो वह फट पड़ता, कुछ पलों के लिए भी बन्दा बनकर रहने पर राज़ी न होता और फ़ौरन ही पूरी दुनिया का ख़ुदा बन जाने की फ़िक्र शुरू कर देता। जिस कायनात में गेहूँ का एक दाना और घास का एक तिनका भी उस वक़्त तक पैदा न होता हो, जब तक कि ज़मीन व आसमान की सारी क़ुव्वतें मिलकर उसके लिए काम न करें, उसके बारे में सिर्फ़ एक इन्तिहा दरजे का जाहिल और कम अक़्ल आदमी ही यह सोच सकता है कि उसका इन्तिज़ाम एक से ज़्यादा पूरा या आधा अधिकार रखनेवाले ख़ुदा चला रहे होंगे। वरना जिसने कुछ भी इस निज़ाम के मिज़ाज तबीअत को समझने की कोशिश की हो, वह तो इस नतीजे पर पहुँचे बिना नहीं रह सकता कि यहाँ ख़ुदाई बिलकुल एक ही की है और उसके साथ किसी दरजे में भी किसी और के शरीक होने का बिलकुल इमकान नहीं है।
سُبۡحَٰنَهُۥ وَتَعَٰلَىٰ عَمَّا يَقُولُونَ عُلُوّٗا كَبِيرٗا ۝ 42
(43) पाक है वह और बहुत बुलन्द है उन बातों से जो ये लोग कह रहे हैं।
تُسَبِّحُ لَهُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ ٱلسَّبۡعُ وَٱلۡأَرۡضُ وَمَن فِيهِنَّۚ وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا يُسَبِّحُ بِحَمۡدِهِۦ وَلَٰكِن لَّا تَفۡقَهُونَ تَسۡبِيحَهُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ حَلِيمًا غَفُورٗا ۝ 43
(44) उसकी पाकी तो सातों आसमान और ज़मीन और वे सारी चीज़ें बयान कर रही हैं जो आसमानों और ज़मीन में हैं।48 कोई चीज़ ऐसी नहीं जो उसकी हम्द (प्रशंसा) के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) न कर रही हो।49 मगर तुम उनकी तसबीह समझते नहीं हो। हक़ीक़त यह है कि वह बड़ा ही बुर्दबार (सहनशील) और माफ़ करनेवाला है।50
48. यानी सारी कायनात और उसकी हर चीज़ अपने पूरे वुजूद से इस हक़ीकत पर गवाही दे रही है कि जिसने उसको पैदा किया है और जो उसकी परवरदिगारी और निगहबानी कर रहा है, उसकी हस्ती हर ऐब और कमज़ोरी से पाक है, और वह इससे बिलकुल पाक है कि ख़ुदाई में कोई उसका शरीक और हिस्सेदार हो।
49. हम्द के साथ तसबीह करने का मतलब यह है कि हर चीज़ न सिर्फ़ यह कि अपने पैदा करनेवाले और रब का ऐबों और ख़राबियों और कमज़ोरियों से पाक (मुक्त) होना ज़ाहिर कर रही है, बल्कि इसके साथ वह उसका तमाम ख़ूबियोंवाला और तमाम तारीफ़ों का हक़दार होना भी बयान करती है। एक-एक चीज़ अपने पूरे वुजूद से यह बता रही है कि इसका बनानेवाला और इन्तिज़ाम संभालनेवाला वह है जिसपर सारी ख़ूबियाँ और सारे कमालात ख़त्म हो गए हैं और हम्द (तारीफ़) अगर है तो उसी के लिए है।
50. यानी यह उसकी सहन, बरदाश्त और माफ़ कर देने की शान है कि तुम उसके सामने गुस्ताख़ियों पर गुस्ताख़ियाँ किए जाते हो, और उसपर तरह-तरह के झूठे इलज़ाम लगाते हो और फिर भी वह अनदेखा किए चला जाता है। न रिज़्क़ बन्द करता है, न अपनी नेमतों से महरूम करता है और न हर गुस्ताख़ पर फ़ौरन बिजली गिरा देता है। फिर यह भी उसकी सहन करने और उसके माफ़ करने ही का एक करिश्मा है कि वह लोगों को भी और क़ौमों को भी समझने और संभलने के लिए काफ़ी मुहलत देता है, नबियों और सुधार का काम करनेवालों और दीन की तबलीग़ करनेवालों को उनको समझाने-बुझाने और उनकी रहनुमाई के लिए बार-बार उठाता है और जो भी अपनी ग़लती को महसूस करके सीधा रास्ता अपना ले उसकी पिछली ग़लतियों को माफ़ कर देता है।
وَإِذَا قَرَأۡتَ ٱلۡقُرۡءَانَ جَعَلۡنَا بَيۡنَكَ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ بِٱلۡأٓخِرَةِ حِجَابٗا مَّسۡتُورٗا ۝ 44
(45) जब तुम क़ुरआन पढ़ते हो तो हम तुम्हारे और आख़िरत पर ईमान न लानेवालों के बीच एक परदा डाल देते हैं,
وَجَعَلۡنَا عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ أَكِنَّةً أَن يَفۡقَهُوهُ وَفِيٓ ءَاذَانِهِمۡ وَقۡرٗاۚ وَإِذَا ذَكَرۡتَ رَبَّكَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِ وَحۡدَهُۥ وَلَّوۡاْ عَلَىٰٓ أَدۡبَٰرِهِمۡ نُفُورٗا ۝ 45
(46) और उनके दिलों पर ऐसा गिलाफ़ चढ़ा देते हैं कि वे कुछ नहीं समझते और उनके कानों में बोझ पैदा कर देते हैं।51 और जब तुम क़ुरआन में अपने एक ही रब का ज़िक्र करते हो तो वे नफ़रत से मुँह मोड़ लेते हैं।52
51. यानी आख़िरत पर ईमान न लाने का यह क़ुदरती नतीजा है कि आदमी के दिल पर ताले लग जाएँ और उसके कान उस दावत के लिए बन्द हो जाएँ जो क़ुरआन पेश करता है। ज़ाहिर है कि क़ुरआन की तो दावत ही इस बुनियाद पर है कि दुनियावी ज़िन्दगी के ज़ाहिरी पहलू से धोखा न खाओ। यहाँ अगर कोई हिसाब लेनेवाला और तलब करनेवाला नज़र नहीं आता तो यह न समझो कि तुम किसी के सामने ज़िम्मेदार और जवाबदेह हो ही नहीं। यहाँ अगर शिर्क, दुनिया-परस्ती, कुफ़्र , तौहीद सब ही नज़रिये आज़ादी से अपनाए जा सकते हैं, और दुनियावी लिहाज़ से कोई ख़ास फ़र्क़ पड़ता नज़र नहीं आता तो यह न समझो कि उनके कोई अलग-अलग नतीजे हैं ही नहीं जो सामने आनेवाले हैं। यहाँ अगर गुनाह और नाफ़रमानी और परहेज़गारी और फ़रमाँबरदारी, हर तरह के रवैये अपनाए जा सकते हैं और अमली तौर पर उनमें से किसी रवैये का कोई एक लाज़िमी नतीजा सामने नहीं आता तो यह न समझो कि कोई अटल अख़लाक़ी क़ानून सिरे से है ही नहीं। दर अस्ल हिसाब माँगा जाना और जवाब दिया जाना सब कुछ है, मगर वह मरने के बाद दूसरी ज़िन्दगी में होगा। तौहीद (एकेश्वरवाद) का नज़रिया सच और बाक़ी सब नज़रिए झूठ हैं, मगर उनके अस्ली और पूरे नतीजे मौत के बाद की ज़िन्दगी में ज़ाहिर होंगे और वहीं वह हक़ीक़त खुलेगी जो इस ज़ाहिरी पर्दे के पीछे छिपी हुई है। एक अटल अख़लाक़ी क़ानून ज़रूर है जिसके लिहाज़ से नाफ़रमानी नुक़सानदेह और फ़रमाँबरदारी फ़ायदेमन्द है, मगर इस क़ानून के मुताबिक़ आख़िरी और अटल फ़ैसले भी बाद की ज़िन्दगी ही में होंगे। इसलिए तुम दुनिया की इस कुछ दिनों की ज़िन्दगी पर फ़िदा न हो और उसके शक से भरे नतीजों पर भरोसा न करो, बल्कि उस जवाबदेही पर निगाह रखो जो तुम्हें आख़िकार अपने ख़ुदा के सामने करनी होगी, और वह सही एतिक़ादी और अख़लाक़ी रवैया अपनाओ जो तुम्हें आख़िरत के इम्तिहान में कामयाब करे। यह है क़ुरआन की दावत। अब यह बिलकुल एक नफ़्सियाती (मनोवैज्ञानिक) हक़ीक़त है कि जो शख़्स सिरे से आख़िरत ही को मानने के लिए तैयार नहीं है और जिसका सारा भरोसा इसी दुनिया की दिखाई देने और महसूस होनेवाली चीज़ों पर और यहीं के तजरिबों पर है, वह कभी क़ुरआन की इस दावत को ध्यान देने के क़ाबिल नहीं समझ सकता। उसके कान के पर्दे से तो यह आवाज़ टकरा-टकरा कर हमेशा उचटती ही रहेगी, कभी दिल तक पहुँचने का रास्ता न पाएगी। इसी नफ़्सियाती हक़ीक़त को अल्लाह तआला इन अलफ़ाज़ में बयान करता है कि जो आख़िरत को नहीं मानता, हम उसके दिल और उसके कान क़ुरआन की दावत के लिए बन्द कर देते हैं। यानी यह हमारा फ़ितरी क़ानून है जो उसपर यूँ लागू होता है। ध्यान रहे कि यह मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों की अपनी कही हुई बात थी जिसे अल्लाह तआला ने उनपर उलट दिया है। सूरा-14 हा-मीम-सजदा, आयत-5, में उनकी यह बात नक्त की गई है कि “वे कहते हैं कि ऐ मुहम्मद, तू जिस चीज़ की तरफ़ हमें बुलाता है उसके लिए हमारे दिल बन्द हैं और हमारे कान बहरे हैं और हमारे और तेरे बीच परदा रुकावट बन गया है। तो तू अपना काम कर, हम अपना काम किए जा रहे हैं।”यहाँ उनकी इसी बात को दोहराकर अल्लाह तआला यह बता रहा है कि यह कैफ़ियत जिसे तुम अपनी ख़ूबी समझकर बयान कर रहे हो, यह अस्ल में एक फिटकार है जो तुम्हारे आख़िरत के इनकार की बदौलत ठीक फ़ितरत के क़ानून के मुताबिक़ तुमपर पड़ी है।
52. यानी उन्हें यह बात सख़्त नागवार होती है कि तुम बस अल्लाह ही को रब ठहराते हो, उनके बनाए हुए दूसरे रबों का कोई ज़िक्र नहीं करते। उनको यह रवैया ज़रा भी पसन्द नहीं आता कि आदमी बस अल्लाह-ही-अल्लाह की रट लगाए चला जाए। न बुज़ुर्गो की करामतों का कोई ज़िक्र, न आस्तानों से मिलनेवाले फ़ायदों को मानना, न उन शख़्सियतों की ख़िदमत में कोई नज़राना जिनपर उनके ख़याल में, अल्लाह ने अपनी ख़ुदाई के अधिकार बाँट रखे हैं। वे कहते हैं कि यह अजीब शख़्स है जिसके नज़दीक ग़ैब का इल्म है तो अल्लाह को, क़ुदरत है तो अल्लाह की, अधिकार हैं तो बस एक अल्लाह ही के। आख़िर ये हमारे आस्तानोंवाले भी कोई चीज़ हैं या नहीं जिनके यहाँ से हमें औलाद मिलती है, बीमारों की बीमारी दूर होती है, कारोबार चमकते हैं और मुँह माँगी मुरादें पूरी होती हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-39 अज़-ज़ुमर, आयत-15, हाशिया-64)
نَّحۡنُ أَعۡلَمُ بِمَا يَسۡتَمِعُونَ بِهِۦٓ إِذۡ يَسۡتَمِعُونَ إِلَيۡكَ وَإِذۡ هُمۡ نَجۡوَىٰٓ إِذۡ يَقُولُ ٱلظَّٰلِمُونَ إِن تَتَّبِعُونَ إِلَّا رَجُلٗا مَّسۡحُورًا ۝ 46
(47) हमें मालूम है कि जब वे कान लगाकर तुम्हारी बात सुनते हैं तो अस्ल क्या सुनते हैं, और जब बैठकर आपस में कानाफूसियाँ करते हैं तो क्या कहते हैं। ये ज़ालिम आपस में कहते हैं कि यह तो एक जादू का मारा आदमी है जिसके पीछे तुम लोग जा रहे हो।53
53. यह इशारा है उन बातों की तरफ़ जो मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के सरदार आपस में किया करते थे। उनका हाल यह था कि छिप-छिपकर क़ुरआन सुनते और फिर आपस में मशवरे करते थे कि इसका तोड़ क्या होना चाहिए। बहुत बार तो उन्हें अपने ही आदमियों में से किसी पर शक भी हो जाता था कि शायद यह शख़्स क़ुरआन सुनकर कुछ मुतास्सिर हो गया है। इसलिए वे सब मिलकर उसको समझाते थे कि अजी, यह किसके फेर में आ रहे हो, यह शख़्स तो जादू लगा का मारा है, यानी किसी दुश्मन ने इसपर जादू कर दिया है, इसलिए बहकी-बहकी बातें करने लगा है।
ٱنظُرۡ كَيۡفَ ضَرَبُواْ لَكَ ٱلۡأَمۡثَالَ فَضَلُّواْ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ سَبِيلٗا ۝ 47
(48) देखो, कैसी बातें हैं जो ये लोग तुमपर छाँटते हैं ये भटक गए हैं, इन्हें रास्ता नहीं मिलता54
54. यानी ये तुम्हारे बारे में कोई एक राय ज़ाहिर नहीं करते, बल्कि अलग-अलग वक़्तों में बिलकुल अलग-अलग और एक-दूसरे से टकराती हुई बातें कहते हैं। कभी कहते हैं तुम ख़ुद जादूगर हो, कभी कहते हैं तुमपर किसी ने जादू कर दिया है। कभी कहते हैं तुम शाइर हो। कभी कहते हैं तुम दीवाने हो। उनकी ये आपस में टकराती हुई बातें ख़ुद इस बात का सुबूत हैं कि हक़ीक़त इनको मालूम नहीं है, वरना ज़ाहिर है कि वे आए दिन एक नई बात छाँटने के बजाय कोई एक ही क़तई राय ज़ाहिर करते। साथ ही इससे यह भी मालूम होता है कि वे ख़ुद अपनी किसी बात पर भी मुत्मइन नहीं हैं। एक इलज़ाम रखते हैं। फिर आप ही महसूस करते हैं कि यह फ़िट नहीं होता। इसके बाद दूसरा इलज़ाम लगाते हैं। और उसे भी लगता हुआ न पाकर एक तीसरा इलज़ाम गढ़ लेते हैं। इस तरह उनका हर नया इलज़ाम उनके पहले इलज़ाम को ग़लत साबित कर देता है, और इससे पता चल जाता है कि सच्चाई से उनका कोई नाता नहीं है, सिर्फ़ दुश्मनी की वजह से एक-से-एक बढ़कर झूठ गढ़े जा रहे हैं।
وَقَالُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا وَرُفَٰتًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ خَلۡقٗا جَدِيدٗا ۝ 48
(49) वे कहते हैं, “जब हम सिर्फ़ हड्डियाँ और मिट्टी होकर रह जाएँगे तो क्या हम नए सिरे से पैदा करके उठाए जाएँगे?”
۞قُلۡ كُونُواْ حِجَارَةً أَوۡ حَدِيدًا ۝ 49
(50) इनसे कहो, “तुम पत्थर या लोहा भी हो जाओ,
أَوۡ خَلۡقٗا مِّمَّا يَكۡبُرُ فِي صُدُورِكُمۡۚ فَسَيَقُولُونَ مَن يُعِيدُنَاۖ قُلِ ٱلَّذِي فَطَرَكُمۡ أَوَّلَ مَرَّةٖۚ فَسَيُنۡغِضُونَ إِلَيۡكَ رُءُوسَهُمۡ وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هُوَۖ قُلۡ عَسَىٰٓ أَن يَكُونَ قَرِيبٗا ۝ 50
(51) या इससे भी ज़्यादा सख़्त कोई चीज़ जो तुम्हारे मन में ज़िन्दगी पाने से बहुत दूर हो” (फिर भी तुम उठकर रहोगे) । वे ज़रूर पूछेगे, “कौन है वह जो हमें फिर ज़िन्दगी की तरफ़ पलटाकर लाएगा?” जवाब में कहो, “वही जिसने पहली बार तुमको पैदा किया” वे सर हिला-हिलाकर पूछेंगे"55, “अच्छा, तो यह होगा कब?” तुम कहो, “क्या अजब वह वक़्त क़रीब ही आ लगा हो।
55. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'इनग़ाज़' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है सर को ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर की तरफ़ हिलाना, जिस तरह हैरत के इज़हार के लिए, या मज़ाक़ उड़ाने के लिए आदमी करता है।
يَوۡمَ يَدۡعُوكُمۡ فَتَسۡتَجِيبُونَ بِحَمۡدِهِۦ وَتَظُنُّونَ إِن لَّبِثۡتُمۡ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 51
(52) जिस दिन वह तुम्हें पुकारेगा तो तुम उसकी हम्द (तारीफ़) करते हुए उसकी पुकार के जवाब में निकल आओगे और तुम्हारा गुमान उस वक़्त यह होगा कि हम बस योड़ी देर ही इस हालत में पड़े रहे हैं।”56
56. यानी दुनिया में मरने के वक़्त से लेकर क़ियामत में उठने के वक़्त तक की मुद्दत तुमको कुछ घंटो से ज़्यादा महसूस न होगी। तुम उस वक़्त यह समझोगे कि हम ज़रा देर सोए पड़े थे कि और वह जो कहा कि तुम अल्लाह की हम्द (तारीफ़ करते हुए उठ खड़े होंगे, तो यह एक बड़ी हक़ीक़त की तरफ़ एक हल्का-सा इशारा है। इसका मतलब यह है कि ईभानवाले और इनकार करनेवाले हर एक की ज़बान पर उस वक़त अल्लाह की हम्द (बड़ाई होगी। मोमिन की ज़बान पर इसलिए कि पहली ज़िन्दगी में उसका एतिक़ाद और यक़ीन और उसका वज़ीफ़ा यही था। और काफ़िर की ज़बान पर इसलिए कि उसकी फ़ितरत में यह चीज़ डाल दी गई थी, मगर अपनी बेवक़ूफ़ी से वह उसपर परदा डाले हुए था। अब नए सिरे से ज़िन्दगी पाते वक़्त सारे बनावटी परदे हट जाएँगे और अस्ल फ़ितरत की गवाही बिला इरादा उसकी ज़बान पर जारी हो जाएगी।
وَقُل لِّعِبَادِي يَقُولُواْ ٱلَّتِي هِيَ أَحۡسَنُۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ يَنزَغُ بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ كَانَ لِلۡإِنسَٰنِ عَدُوّٗا مُّبِينٗا ۝ 52
(53) और ऐ नबी! मेरे बन्दों57 से कह दो कि ज़बान से वह बात निकाला करें जो देहतरीन हो।58अस्ल में यह शैतान है जो इनसानों के बीच बिगाड़ डलवाने की कोशिश करता है। हक़ीक़त यह है कि शैतान इनसान का खुला दुश्मन है।59
57. यानी ईमानवालो से।
58. यानी कुफ़्र करनेवालों और शिर्क करनेवालों में और अपने दीन (धर्म) की मुख़ालफ़त करनेवालों से बातचीत और बहस करने में तेज़-तेज़ न बोलें और बात को हक़ीक़त से बहुत बढ़ा-चढ़ाकर पेश न करें। मुख़ालफ़त करनेवाले चाहे कैसी ही नागवार बातें करें, मुसलमानों को बहरहाल न तो कोई बात हक़ के ख़िलाफ़ ज़बान से निकालनी चाहिए और न ग़ुस्से में आपे से बाहर होकर बेहूदगी का जवाब बेहूदगी से देना चाहिए। उन्हें ठण्डे दिल से वही बात करनी चाहिए जो जँची-तुली हो, हक़ हो और उनकी दावत के वक़ार के मुताबिक़ हो।
59. यानी जब कभी तुम्हें मुख़ालिफ़ों की बात का जवाब देते वक़्त ग़ुस्से की आग अपने-अन्दर भड़कती महसूस हो, और तबीअत बेइख़्तियार जोश में आती नजर आए, तो फ़ौरन समझ लो कि यह शैतान है जो तुम्हें उकसा रहा है ताकि दीन की दावत का काम ख़राब हो। उसकी कोशिश यह है कि तुम भी अपने मुख़ालिफ़ों की तरह सुधार का काम छोड़कर उस झगड़े-फ़साद में लग जाओ जिसमें वह तमाम इनसानों को लगाए रखना चाहता है।
رَّبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِكُمۡۖ إِن يَشَأۡ يَرۡحَمۡكُمۡ أَوۡ إِن يَشَأۡ يُعَذِّبۡكُمۡۚ وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ عَلَيۡهِمۡ وَكِيلٗا ۝ 53
(54) तुम्हारा रब तुम्हारे हाल को ख़ूब जानता है, वह चाहे तो तुमपर रहम करे और चाहे तो तुम्हें अज़ाब दे दे।60 और ऐ नबी! हमने तुमको लोगों पर हवालेदार बनाकर नहीं भेजा है।61
60. यानी ईमानवालों की ज़बान पर कभी ऐसे दावे न आने चाहिएँ कि हम जन्नती हैं और फ़ुलाँ शख़्स या गरोह दोज़ख़ी है। इस चीज़ का फ़ैसला अल्लाह के इख़्तियार में है। वही सब इनसानों की ज़ाहिरी व अन्दरूनी हालत और उनके हाल (वर्तमान) और मुस्तक़बिल (भविष्य) को जानता है। उसी को यह फ़ैसला करना है कि किसपर रहमत करे किसे अज़ाब दे। इनसान उसूली हैसियत से यह तो ज़रूर कह सकता है कि अल्लाह की किताब के मुताबिक़ किस तरह के इनसान रहमत के हक़दार हैं और किस तरह के इनसान अज़ाब के हक़दार। मगर किसी इनसान को यह कहने का हक़ नहीं है कि फ़ुलाँ शख़्स को अज़ाब दिया जाएगा और फ़ुलाँ शख़्स माफ़ कर दिया जाएगा। शायद यह नसीहत इस वजह से की गई है कि कभी-कभी इस्लाम-दुश्मनों की ज़्यादतियों से तंग आकर मुसलमानों की ज़बान से ऐसे जुमले निकल जाते होंगे कि तुम लोग दोज़ख़ में जाओगे, या तुमको ख़ुदा अज़ाब देगा।
61. यानी नबी का काम दावत देना है। लोगों की क़िस्मतें उसके हाथ में नहीं दे दी गई हैं कि वह किसी के लिए रहमत और किसी के लिए अज़ाब का फ़ैसला करता फिरे। इसका यह मतलब नहीं है कि ख़ुद नबी (सल्ल०) से इस तरह की कोई ग़लती हुई थी जिसकी बुनियाद पर अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को ख़बरदार किया, बल्कि अस्ल में इसका मक़सद मुसलमानों को ख़बरदार करना है। उनको बताया जा रहा है कि जब नबी तक का यह मंसब नहीं है तो तुम जन्नत और दोज़ख़ के ठेकदार कहाँ बने जा रहे हो।
وَرَبُّكَ أَعۡلَمُ بِمَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَلَقَدۡ فَضَّلۡنَا بَعۡضَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ عَلَىٰ بَعۡضٖۖ وَءَاتَيۡنَا دَاوُۥدَ زَبُورٗا ۝ 54
(55) तेरा रब ज़मीन और आसमानों के रहनेवालों को ज़्यादा जानता है। हमने कुछ पैग़म्बरों को कुछ से बढ़कर रुतबे दिए62 और हमने ही दाऊद को ज़बूर दी थी।63
62. यह जुमला अस्ल में मक्का के इस्लाम-दुश्मनों से कहा गया है, हालाँकि बज़ाहिर बात नबी (सल्ल०) से कही जा रही है। जैसा कि अपने ज़माने के (समकालीन) लोगों का आमतौर से क़ायदा होता है, नबी (सल्ल०) के ज़माने के और उनकी अपनी क़ौम के लोगों को आप (सल्ल०) के अन्दर कोई ख़ूबी और बड़ाई दिखाई न देती थी। वे आप (सल्ल०) को अपनी बस्ती का एक मामूली इनसान समझते थे, और जिन मशहूर शख़्सियतों को गुज़रे हुए कुछ सदियाँ गुज़र चुकी थीं, उनके बारे में यह समझते थे कि अज़मत (महानता) तो बस उनपर ख़त्म हो गई है। इसलिए आप (सल्ल०) की ज़बान से नुबूवत का दावा सुनकर वे एतिराज़ किया करते थे कि यह शख़्स शेखी बघारता है, अपने आपको न जाने क्या समझ बैठा है, भला कहाँ यह और कहाँ अगले वक़्तों के वे बड़े-बड़े पैग़म्बर जिनकी बुज़ुर्गी का सिक्का एक दुनिया मान रही है। इसका मुख़्तसर जवाब अल्लाह तआला ने यह दिया है कि ज़मीन और आसमान की सारी चीज़ें हमारी निगाह में हैं। तुम नहीं जानते कि कौन क्या है और किसका क्या मर्तबा है। अपनी मेहरबानी के हम ख़ुद मालिक हैं और पहले भी एक-से-एक बढ़कर बुलन्द रुतबेवाले नबी पैदा कर चुके हैं।
63. यहाँ ख़ास तौर पर दाऊद (अलैहि०) को ज़बूर दिए जाने का ज़िक्र शायद इस वजह से किया गया है कि दाऊद (अलैहि०) बादशाह थे, और बादशाह आम तौर से ख़ुदा से ज़्यादा दूर हुआ करते हैं। नबी (सल्ल०) के ज़माने के लोग जिस वजह से आप (सल्ल०) की पैग़म्बरी और इस बात को मानने से इनकार करते थे कि आप (सल्ल०) अल्लाहवाले हैं, वह उनके अपने बयान के मुताबिक़ यह थी कि आप (सल्ल०) आम इनसानों की तरह बीवी-बच्चे रखते थे, खाते-पीते थे, बाज़ारों में चल-फिरकर ख़रीद-फ़रोख़्त करते थे, और वे सारे ही काम करते थे जो कोई दुनियादार आदमी अपनी इनसानी ज़रूरतों के लिए किया करता है। मक्का के इस्लाम-दुश्मनों का कहना यह था कि तुम तो एक दुनियादार आदमी हो, तुम्हारा ख़ुदा से क्या ताल्लुक़? पहुँचे हुए लोग तो वे होते हैं जिन्हें अपने तन-बदन का होश भी नहीं होता, बस एक कोने में बैठे अल्लाह की याद में गुम रहते हैं। वे कहाँ और घर के आटे-दाल की फ़िक्र कहाँ! इसपर कहा जा रहा है कि एक पूरी बादशाहत के इन्तिज़ाम से बढ़कर दुनियादारी और क्या होगी। मगर इसके बावजूद दाऊद को पैग़म्बरी और किताब दी गई।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱلَّذِينَ زَعَمۡتُم مِّن دُونِهِۦ فَلَا يَمۡلِكُونَ كَشۡفَ ٱلضُّرِّ عَنكُمۡ وَلَا تَحۡوِيلًا ۝ 55
(56) इनसे कहो, पुकार देखो उन माबूदों को जिनको तुम अल्लाह के सिवा (अपना कारसाज़) समझते हो, वह किसी तकलीफ़ को तुमसे न हटा सकते हैं, न बदल सकते हैं।64
64. इससे साफ़ मालूम होता है कि अल्लाह के सिवा किसी दूसरे को सजदा करना ही शिर्क नहीं है, बल्कि ख़ुदा के सिवा किसी दूसरी हस्ती से दुआ माँगना या उसको मदद के लिए पुकारना भी शिर्क है। दुआ और मदद माँगना, अपनी हक़ीक़त के एतिबार से इबादत ही हैं और अल्लाह को छोड़कर दूसरों से दरख़ास्त करनेवाला वैसा ही मुजरिम है जैसा एक बुतपरस्त मुजरिम है। साथ ही इससे यह भी मालूम हुआ कि अल्लाह के सिवा किसी को भी कुछ इख़्तियार हासिल नहीं है। न कोई दूसरा किसी मुसीबत को टाल सकता है, न किसी बुरी हालत को अच्छी हालत से बदल सकता है। इस तरह का अक़ीदा ख़ुदा के सिवा जिस हस्ती के बारे में भी रखा जाए, बहरहाल एक शिर्क भरा अक़ीदा है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ يَدۡعُونَ يَبۡتَغُونَ إِلَىٰ رَبِّهِمُ ٱلۡوَسِيلَةَ أَيُّهُمۡ أَقۡرَبُ وَيَرۡجُونَ رَحۡمَتَهُۥ وَيَخَافُونَ عَذَابَهُۥٓۚ إِنَّ عَذَابَ رَبِّكَ كَانَ مَحۡذُورٗا ۝ 56
(57) जिनको ये लोग पुकारते हैं, वे तो ख़ुद अपने रब के हुजूर पहुँच हासिल करने का ज़रिआ तलाश कर रहे हैं कि कौन उससे ज़्यादा क़रीब हो जाए और वे उसकी रहमत के उम्मीदवार और उसके अज़ाब से डरे हुए हैं।65 हक़ीक़त यह है कि तेरे रब का अज़ाब है ही डरने के लायक़।
65. ये अलफ़ाज़ ख़ुद गवाही दे रहे हैं कि मुशरिकों के जिन माबूदों और फ़रियाद के सुननेवालों का यहाँ ज़िक्र किया जा रहा है उनसे मुराद पत्थर के बुत नहीं हैं, बल्कि या तो फ़रिश्ते हैं या गुज़रे हुए ज़माने के बुज़ुर्ग इनसान। मतलब साफ़-साफ़ यह है कि पैग़म्बर हो या वली या फ़रिश्ते, किसी की भी यह ताक़त नहीं है कि तुम्हारी दुआएँ सुने और तुम्हारी मदद को पहुँचे। तुम ज़रूरतें पूरी करने के लिए उनको वसीला बना रहे हो, और उनका हाल यह है कि वे ख़ुद अल्लाह की रहमत के उम्मीदवार और उसके अज़ाब से डरते हैं, और उससे ज़्यादा-से-ज़्यादा क़रीब होने के वसीले ढूँढ़ रहे हैं।
وَإِن مِّن قَرۡيَةٍ إِلَّا نَحۡنُ مُهۡلِكُوهَا قَبۡلَ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ أَوۡ مُعَذِّبُوهَا عَذَابٗا شَدِيدٗاۚ كَانَ ذَٰلِكَ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَسۡطُورٗا ۝ 57
(58) और कोई बस्ती ऐसी नहीं जिसे हम क़ियामत से पहले हलाक न करें या सख़्त अज़ाब न दें66, यह ख़ुदा की किताब में लिखा हुआ है।
66. यानी हमेशा की ज़िन्दगी किसी को भी हासिल नहीं है। हर बस्ती को या तो क़ुदरती मौत मरना है, या ख़ुदा के अज़ाब से तबाह होना है। तुम कहाँ इस ग़लतफ़हमी में पड़ गए कि हमारी ये बस्तियाँ हमेशा खड़ी रहेंगी?
وَمَا مَنَعَنَآ أَن نُّرۡسِلَ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّآ أَن كَذَّبَ بِهَا ٱلۡأَوَّلُونَۚ وَءَاتَيۡنَا ثَمُودَ ٱلنَّاقَةَ مُبۡصِرَةٗ فَظَلَمُواْ بِهَاۚ وَمَا نُرۡسِلُ بِٱلۡأٓيَٰتِ إِلَّا تَخۡوِيفٗا ۝ 58
(59) हमको निशानियाँ67 भेजने से नहीं रोका, मगर इस बात ने कि इनसे पहले के लोग उनको झुठला चुके हैं। (चुनाँचे देख लो) समूद को हमने अलानिया ऊँटनी लाकर दी और उन्होंने उसपर ज़ुल्म किया।68 हम निशानियाँ इसी लिए तो भेजते हैं कि लोग उन्हें देखकर डरें।69
67. यानी महसूस होनेवाले मोजिज़े (चमत्कार) जो पैग़म्बरी की दलील की हैसियत से पेश किए जाएँ, जिनकी माँग क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ बार-बार नबी (सल्ल०) से किया करते थे।
68. मतलब यह है कि ऐसा मोजिज़ा देख लेने के बाद जब लोग उसको झुठलाते हैं, तो फिर हर हाल में उनपर अज़ाब आना ज़रूरी हो जाता है, और फिर ऐसी क़ौम को तबाह किए बिना नहीं। छोड़ा जाता। पिछला इतिहास इस बात का गवाह है कि बहुत-सी क़ौमों ने साफ़-साफ़ मोजिज़े देख लेने के बाद भी उनको झुठलाया और फिर तबाह कर दी गईं। अब यह सरासर अल्लाह की रहमत है कि वह ऐसा कोई मोजिज़ा नहीं भेज रहा है, इसका मतलब यह है कि वह तुम्हें समझने और संभलने के लिए मुहलत दे रहा है। मगर तुम ऐसे बेवक़ूफ़ लोग हो कि मोजिज़े की माँग कर-करके समूद के जैसा अंजाम देखना चाहते हो।
69.यानी मोजिज़ा दिखाने का मक़सद तमाशा दिखाना तो कमी नहीं रहा है। इसका मक़सद तो हमेशा यही रहा है कि लोग उन्हें देखकर ख़बरदार हो जाएँ, उन्हें मालूम हो जाए कि नबी के पीछे पूरी क़ुदरत रखनेवाले (अल्लाह) की बेपनाह ताक़त है, और वे जान लें कि उसकी नाफ़रमानी का अंजाम क्या हो सकता है।
وَإِذۡ قُلۡنَا لَكَ إِنَّ رَبَّكَ أَحَاطَ بِٱلنَّاسِۚ وَمَا جَعَلۡنَا ٱلرُّءۡيَا ٱلَّتِيٓ أَرَيۡنَٰكَ إِلَّا فِتۡنَةٗ لِّلنَّاسِ وَٱلشَّجَرَةَ ٱلۡمَلۡعُونَةَ فِي ٱلۡقُرۡءَانِۚ وَنُخَوِّفُهُمۡ فَمَا يَزِيدُهُمۡ إِلَّا طُغۡيَٰنٗا كَبِيرٗا ۝ 59
(60) याद करो ऐ नबी! हमने तुमसे कह दिया था कि तेरे रब ने इन लोगों को घेर रखा है।70 और यह जो कुछ अभी हमने तुम्हें दिखाया71, इसको और उस पेड़ को जिसपर क़ुरआन में लानत की गई है72, हमने इन लोगों के लिए बस एक फ़ितना बनाकर रख दिया।73 हम इन्हें ख़बरदार-पर-ख़बरदार किए जा रहे हैं, मगर हर बार ख़बरदार करना इनकी सरकशी ही में बढ़ोतरी किए जाता है।
70. यानी तुम्हारी पैग़म्बराना दावत के इब्तिदाई दौर में ही, जबकि क़ुरैश के इन काफ़िरों ने तुम्हारी मुख़ालफ़त व मुज़ाहमत (प्रतिरोध) शुरू की थी, हमने साफ़-साफ़ यह एलान कर दिया था कि हमने इन लोगों को घेरे में ले रखा है, ये एड़ी चोटी का ज़ोर लगाकर देख लें, ये किसी तरह तेरी दावत का रास्ता न रोक सकेंगे, और यह काम जो तूने अपने हाथ में लिया है, उनकी हर मुज़ाहमत के बावजूद होकर रहेगा। अब अगर इन लोगों को मोजिज़ा देखकर ही ख़बरदार होना है, तो इन्हें यह मोजिज़ा दिखाया जा चुका कि जो इब्तिदा में कह दिया गया था, वह पूरा होकर रहा, इनकी कोई मुख़ालफ़त भी इस्लाम की दावत को फैलने से न रोक सकी, और ये तेरा बाल तक बाँका न कर सके। इनके पास आँखें हों तो यह इस हक़ीक़त को देखकर ख़ुद समझ सकते हैं कि नबी की इस दावत (सन्देश) के पीछे अल्लाह का हाथ काम कर रहा है। यह बात कि अल्लाह ने मुख़ालिफ़ों को घेरे में ले रखा है, और नबी की दावत अल्लाह की हिफ़ाज़त में है, मक्के के इब्तिदाई दौर की सूरतों में कई जगह कही गई है। मसलन सूरा-85 बुरूज में फ़रमाया—“मगर ये काफ़िर झुठलाने में लगे हुए हैं, और अल्लाह ने उनको हर तरफ़ से घेरे में ले रखा है।”(आयत-19)
71. इशारा है मेराज की तरफ़। इसके लिए यहाँ लफ़्ज़ 'रुअया' जो इस्तेमाल हुआ है यह 'ख़ाब' (सपने) के मानी में नहीं है, बल्कि आँखों देखने के मानी में है। ज़ाहिर है कि अगर वह सिर्फ़ ख़ाब होता और नबी (सल्ल०) ने उसे ख़ाब ही की हैसियत से इस्लाम-दुश्मनों के सामने बयान किया होता तो कोई वजह न थी कि वह उनके लिए फ़ितना बन जाता। ख़ाब एक से एक अजीब देखा जाता है, और लोगों से बयान भी किया जाता है, मगर वह किसी के लिए भी ऐसे अचंभे की चीज़ नहीं होता कि लोग उसकी वजह से ख़ाब देखनेवाले का मज़ाक़ उड़ाएँ और उसपर झूठे दावे या जुनून का इलज़ाम लगाने लगें।
72. यानी ज़क़्क़ूम, जिसके बारे में क़ुरआन में ख़बर दी गई है कि वह दोज़ख़ की तह में पैदा होगा और दोज़ख़ियों को उसे खाना पड़ेगा। उसपर लानत करने से मुराद उसका अल्लाह की रहमत से दूर होना है। यानी वह अल्लाह की रहमत का निशान नहीं है कि उसे अपनी मेहरबानी की वजह से अल्लाह ने लोगों के खाने के लिए पैदा किया हो, बल्कि वह अल्लाह की लानत का निशान है जिसे लानत किए गए लोगों के लिए उसने पैदा किया है, ताकि वे भूख से तड़पकर उसपर मुँह मारें और ज़्यादा तकलीफ़ उठाएँ। सूरा-44 दुख़ान (आयतें—43, 46) में इस पेड़ की जो तशरीह की गई है वह यही है कि दोज़ख़ी जब उसको खाएँगे तो वह उनके पेट में ऐसी आग लगाएगा जैसे उनके पेट में पानी खौल रहा हो।
73. यानी हमने इनकी भलाई के लिए तुमको मेराज के ज़रिए बहुत-सी हक़ीक़तें दिखाईं, ताकि तुम जैसे सच्चे व अमानतदार इनसान के ज़रिए से इन लोगों को सही-सही बातें मालूम हों और यह ख़बरदार होकर सीधे रास्ते पर आ जाएँ, मगर इन लोगों ने उलटा उसपर तुम्हारा मज़ाक़ उड़ाया। हमने तुम्हारे ज़रिए से इनको ख़बरदार किया कि यहाँ की हरामख़ोरियाँ आख़िकार तुम्हें ज़क़्क़ूम के निवाले खिलवाकर रहेंगी, मगर इन्होंने उसपर एक ठहाका लगाया और कहने लगे, जरा इस शख़्स को देखो, एक तरफ़ कहता है कि दोज़ख़ में बहुत आग भड़क रही होगी, और दूसरी तरफ़ ख़बर देता है कि वहाँ पेड़ उगेंगे!
وَٱسۡتَفۡزِزۡ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتَ مِنۡهُم بِصَوۡتِكَ وَأَجۡلِبۡ عَلَيۡهِم بِخَيۡلِكَ وَرَجِلِكَ وَشَارِكۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡوَٰلِ وَٱلۡأَوۡلَٰدِ وَعِدۡهُمۡۚ وَمَا يَعِدُهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ إِلَّا غُرُورًا ۝ 60
(64) तू जिस-जिस को अपनी दावत से फिसला सकता है, फिसला ले76, उनपर अपने सवार और पयादे चढ़ा ला77 माल और औलाद में उनके साथ साझा लगा78, और उनको वादों के जाल में फाँस79 और शैतान के वादे एक धोखे के सिवा और कुछ भी नहीं—
76. अस्ल अरबी लफ़्ज़ 'इस्तिफ़ज़ाज़' इस्तेमाल हुआ है, जिस के मानी इस्तिख़फ़ाफ़, यानी किसी को हल्का और कमज़ोर पाकर उसे बहा ले जाना या उसके क़दम फिसला देना है।
77. इस जुमले में शैतान को उस डाकू जैसा बताया गया है जो किसी बस्ती पर अपने सवार और प्यादे चढ़ा लाए और उनको इशारा करता जाए कि इधर लूटो, उधर छापा मारो, और वहाँ तबाही मचाओ। शैतान के सवारों और प्यादों से मुराद वे सब जिन्न और इनसान हैं जो अनगिनत अलग-अलग शक्लों और हैसियतों में इबलीस के मिशनों में लगे हैं।
78. यह एक ऐसा जुमला है जो अपने अन्दर गहरे मानी रखता है जिसमें शैतान और उसकी पैरवी करनेवालों के आपसी ताल्लुक़ की पूरी तस्वीर खींच दी गई है। जो शख़्स माल कमाने और उसको ख़र्च करने में शैतान के इशारों पर चलता है, उसके साथ मानो शैतान मुफ़्त का साझेदार बना हुआ है। मेहनत में उसका कोई हिस्सा नहीं, जुर्म और गुनाह और ग़लत कामों के बुरे नतीजों में वह हिस्सेदार नहीं, मगर उसके इशारों पर यह बेवक़ूफ़ इस तरह चल रहा है जैसे इसके करोबार में वह बराबर का हिस्सेदार, बल्कि बड़ा हिस्सेदार है। इसी तरह औलाद तो आदमी की अपनी होती है, और उसे पालने-पोसने में सारे पापड़ आदमी ख़ुद बेलता है, मगर शैतान के इशारों पर वह उस औलाद को गुमराही और बदअख़लाक़ी की तरबियत इस तरह देता है, मानो उस औलाद का अकेला वही बाप नहीं है, बल्कि शैतान भी बाप होने में उसका शरीक है।
79. यानी उनको ग़लत उम्मीदें दिला। उनको झूठी उम्मीदों के चक्कर में डाल। उनको सब्ज़ बाग़ दिखा।
إِنَّ عِبَادِي لَيۡسَ لَكَ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٞۚ وَكَفَىٰ بِرَبِّكَ وَكِيلٗا ۝ 61
(65) यक़ीनन मेरे बन्दों पर तुझे कोई ज़ोर हासिल न होगा80 और भरोसे के लिए तेरा रब काफ़ी है।81
80. इसके दो मतलब हैं, और दोनों अपनी-अपनी जगह सही हैं। एक यह कि मेरे बन्दों, यानी इनसानों पर तुझे यह ज़ोर हासिल न होगा कि तू उन्हें ज़बरदस्ती अपनी राह पर खींच ले जाए। तुझे सिर्फ़ बहकाने और फुसलाने और ग़लत मश्वरे देने और झूठे वादे करने का अधिकर दिया जाता है, मगर तेरी बात को क़ुबूल करना या न करना इन बन्दों का अपना काम होगा। तेरा ऐसा क़ब्ज़ा उनपर न होगा कि वे तेरी राह पर जाना चाहें या न चाहें, तू हर हाल में हाथ पकड़कर उनको घसीट ले जाए। दूसरा मतलब यह है कि मेरे ख़ास बन्दों, यानी नेक लोगों पर तेरा बस न चलेगा। कमज़ोर और इरादे के कमज़ोर लोग तो ज़रूर तेरे वादों से धोखा खाएँगे, मगर जो लोग मेरी बन्दगी पर मज़बूती से जमे हों, वे तेरे क़ाबू में न आ सकेंगे।
81. यानी जो लोग अल्लाह पर भरोसा करें, और जिनका भरोसा उसी की रहनुमाई और तौफ़ीक़ और मदद पर हो, उनका भरोसा हरगिज़ ग़लत साबित न होगा। उन्हें किसी और सहारे की ज़रूरत न होगी, अल्लाह उनकी हिदायत के लिए भी काफ़ी होगा और उनके सहारे और मदद के लिए भी। अलबत्ता जिनका भरोसा अपनी ताक़त पर हो, या अल्लाह के सिवा किसी और पर हो, वे इस आज़माइश से सही-सलामत न गुज़र सकेंगे।
رَّبُّكُمُ ٱلَّذِي يُزۡجِي لَكُمُ ٱلۡفُلۡكَ فِي ٱلۡبَحۡرِ لِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِكُمۡ رَحِيمٗا ۝ 62
(66) तुम्हारा हक़ीक़ी रब तो वह है जो समुद्र में तुम्हारी नाव चलाता है82, ताकि तुम उसका फ़ज़्ल (रोज़ी) तलाश करो।83 हक़ीक़त यह है कि वह तुम्हारे हाल पर बहुत ही मेहरबान है।
82. ऊपर से जो बात चली आ रही है उससे इसका ताल्लुक़ समझने के लिए इस रुकू के शुरुआती मज़मून पर फिर एक निगाह डाल ली जाए। इसमें यह बताया गया है कि इबलीस पहले दिन से इनसान के पीछे पड़ा हुआ है, ताकि उसको आरज़ुओं और तमन्नाओं और झूठे वादों के जाल में फाँसकर सीधे रास्ते से हटा ले जाए और यह साबित कर दे कि वह उस बुज़ुर्गी का हक़दार नहीं है, जो उसे ख़ुदा ने दी है। इस ख़तरे से ऊपर कोई चीज़ इनसान को बचा सकती है तो वह सिर्फ़ यह है कि इनसान अपने रब की बन्दगी पर जमा रहे और हिदायत व मदद के लिए उसी की तरफ़ मुड़े और उसी पर पूरा भरोसा करे। इसके सिवा दूसरी जो राह इनसान अपनाएगा, शैतान के फंदों से न बच सकेगा। इस तक़रीर से यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद निकल आई कि जो लोग तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत को रद्द कर रहे हैं और शिर्क पर अड़े जाते हैं वे अस्ल में अपनी तबाही के पीछे पड़े हैं। इसी हिसाब से यहाँ तौहीद को सही और शिर्क को ग़लत साबित किया जा रहा है।
83. यानी उन मआशी (आर्थिक) और समाजी और इल्मी और ज़ेहनी फ़ायदों को हासिल करने की कोशिश करो जो समुद्री सफ़र से हासिल होते हैं।
وَإِذَا مَسَّكُمُ ٱلضُّرُّ فِي ٱلۡبَحۡرِ ضَلَّ مَن تَدۡعُونَ إِلَّآ إِيَّاهُۖ فَلَمَّا نَجَّىٰكُمۡ إِلَى ٱلۡبَرِّ أَعۡرَضۡتُمۡۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ كَفُورًا ۝ 63
(67) जब समुद्र में तुमपर मुसीबत आती है तो उस एक के सिवा दूसरे जिन-जिन को तुम पुकारा करते हो, वे सब गुम हो जाते हैं।84 मगर जब वह तुमको बचाकर ख़ुश्की (ज़मीन) पर पहुँचा देता है तो तुम उससे मुँह मोड़ जाते हो। इनसान हक़ीक़त में बड़ा नाशुक्रा है।
84. यानी यह इस बात की दलील है कि तुम्हारी असली फ़ितरत एक ख़ुदा के सिवा किसी रब को नहीं जानती, और तुम्हारे अपने दिल की गहराइयों में यह एहसास मौजूद है कि फ़ायदे और नुक़सान के असली अधिकारों का मालिक बस वही एक है। वरना आख़िर इसकी वजह क्या है कि जो अस्ल वक़्त सहारा और मदद देने का है उस वक़्त तुमको एक ख़ुदा के सिवा कोई दूसरा मददगार नहीं सूझता? (ज़्यादा तफ़सील के लिए देखें— सूरा-10 यूनुस, हाशिया-31)
أَفَأَمِنتُمۡ أَن يَخۡسِفَ بِكُمۡ جَانِبَ ٱلۡبَرِّ أَوۡ يُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ حَاصِبٗا ثُمَّ لَا تَجِدُواْ لَكُمۡ وَكِيلًا ۝ 64
(68) अच्छा, तो क्या तुम इस बात से बिलकुल निडर हो कि अल्लाह कभी ख़ुश्की पर ही तुमको ज़मीन में धँसा दे या तुमपर पथराव करनेवाली आँधी भेज दे और तुम उससे बचानेवाला कोई मददगार न पाओ?
أَمۡ أَمِنتُمۡ أَن يُعِيدَكُمۡ فِيهِ تَارَةً أُخۡرَىٰ فَيُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ قَاصِفٗا مِّنَ ٱلرِّيحِ فَيُغۡرِقَكُم بِمَا كَفَرۡتُمۡ ثُمَّ لَا تَجِدُواْ لَكُمۡ عَلَيۡنَا بِهِۦ تَبِيعٗا ۝ 65
(69) और क्या तुम्हें इसका कोई अन्देशा नहीं कि अल्लाह फिर किसी वक़्त समुद्र में तुमको ले जाए और तुम्हारी नाशुक्री के बदले तुमपर तेज़ तूफ़ानी हवा भेजकर तुम्हें डुबो दे और तुमको ऐसा कोई न मिले जो उससे तुम्हारे इस अंजाम की पूछ-गछ कर सके?—
۞وَلَقَدۡ كَرَّمۡنَا بَنِيٓ ءَادَمَ وَحَمَلۡنَٰهُمۡ فِي ٱلۡبَرِّ وَٱلۡبَحۡرِ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَفَضَّلۡنَٰهُمۡ عَلَىٰ كَثِيرٖ مِّمَّنۡ خَلَقۡنَا تَفۡضِيلٗا ۝ 66
(70) यह तो हमारी मेहरबानी है कि हमने बनी-आदम (आदम की औलाद) को बुज़ुर्गी दी और उन्हें ख़ुश्की व तरी में सवारियाँ दीं और उनको पाकीज़ा चीज़ों से रोज़ी दी और अपने बहुत-से पैदा किए हुओं पर नुमायाँ बड़ाई दी।85
85. यानी यह एक बिलकुल खुली हुई हक़ीक़त है कि इनसानों को ज़मीन और उसकी चीज़ों पर इक़तिदार (सत्ता) किसी जिन्न या फ़रिश्ते या सय्यारे (ग्रह) ने नहीं दिया है, न किसी वली या नबी ने अपनी जाति को यह इक़तिदार दिलवाया है। यक़ीनन यह अल्लाह ही की बशिश और उसकी मेहरबानी है। फिर इससे बढ़कर बेवक़ूफ़ी और जहालत क्या हो सकती है कि इनसान इस रुतबे पर पहुँचकर अल्लाह के बजाय उनके आगे झुके जिन्हें ख़ुद ख़ुदा ने पैदा किया है।
يَوۡمَ نَدۡعُواْ كُلَّ أُنَاسِۭ بِإِمَٰمِهِمۡۖ فَمَنۡ أُوتِيَ كِتَٰبَهُۥ بِيَمِينِهِۦ فَأُوْلَٰٓئِكَ يَقۡرَءُونَ كِتَٰبَهُمۡ وَلَا يُظۡلَمُونَ فَتِيلٗا ۝ 67
(71) फिर ख़याल करो उस दिन का जबकि हम हर इनसानी गरोह को उसके पेशवा (रहनुमा) के साथ बुलाएँगे। उस वक़्त जिन लोगों को उनका आमालनामा (कर्म-पत्र) सीधे हाथ में दिया गया, वे अपना कारनामा पढ़ेंगे86 और उनपर ज़र्रा भर भी ज़ुल्म न होगा।
86. यह बात क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बयान की गई है कि क़ियामत के दिन नेक लोगों को उनका आमालनामा (कर्मपत्र) सीधे हाथ में दिया जाएगा और वे ख़ुशी-ख़ुशी उसे देखेंगे, बल्कि दूसरों को भी दिखाएँगे। रहे बुरे काम करनेवाले लोग, तो उनके काले करतूतों का लेखा-जोखा उनको बाएँ हाथ में दिया जाएगा और वे उसे लेते ही पीठ-पीछे छिपाने की कोशिश करेंगे। (देखें— सूरा-69 हाक़्क़ा, आयत-19 से 28 और सूरा-84 इनशिक़ाक़, आयत-7 से 13)
وَمَن كَانَ فِي هَٰذِهِۦٓ أَعۡمَىٰ فَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ أَعۡمَىٰ وَأَضَلُّ سَبِيلٗا ۝ 68
(72) और जो इस दुनिया में अंधा बनकर रहा, वह आख़िरत में भी अंधा ही रहेगा, बल्कि रास्ता पाने में अंधे से भी ज़्यादा नाकाम।
وَإِن كَادُواْ لَيَفۡتِنُونَكَ عَنِ ٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ لِتَفۡتَرِيَ عَلَيۡنَا غَيۡرَهُۥۖ وَإِذٗا لَّٱتَّخَذُوكَ خَلِيلٗا ۝ 69
(73) ऐ नबी! इन लोगों ने इस कोशिश में कोई कमी उठा नहीं रखी कि तुम्हें फ़ितने में डालकर उस वह्य से फेर दें जो हमने तुम्हारी तरफ़ भेजी है, ताकि तुम हमारे नाम पर अपनी तरफ़ से कोई बात गढ़ो।87 अगर तुम ऐसा करते तो वे ज़रूर तुम्हें अपना दोस्त बना लेते,
87. यह उन हालात की तरफ़ इशारा है जो पिछले दस बारह साल से नबी (सल्ल०) को मक्का में पेश आ रहे थे। मक्का के इस्लाम-दुश्मन इस बात पर तुले थे कि जिस तरह भी हो आप (सल्ल०) को तौहीद की इस दावत से हटा दें जिसे आप पेश कर रहे थे और किसी-न-किसी तरह आप (सल्ल०) को मजबूर कर दें कि आप (सल्ल०) उनके शिर्क और जहिलियत की रस्मों से कुछ-न-कुछ समझौता कर लें। इस ग़रज़ के लिए उन्होंने आप (सल्ल०) को फ़ितने में डालने की हर कोशिश की। फ़रेब भी दिए, लालच भी दिलाए, धमकियाँ भी दीं, झूठे प्रोपेगंडे का तूफ़ान भी उठाया, ज़ुल्मो-सितम भी किया, माली दबाव भी डाला, समाजी बायकॉट (बहिष्कार) भी किया, और वह सब कुछ कर डाला जो किसी इनसान के मज़बूत इरादे को तोड़ देने के लिए किया जा सकता था।
وَلَوۡلَآ أَن ثَبَّتۡنَٰكَ لَقَدۡ كِدتَّ تَرۡكَنُ إِلَيۡهِمۡ شَيۡـٔٗا قَلِيلًا ۝ 70
(74) और नामुमकिन न था कि अगर हम तुम्हें मज़बूत न रखते तो तुम उनकी तरफ़ कुछ-न-कुछ झुक जाते।
إِذٗا لَّأَذَقۡنَٰكَ ضِعۡفَ ٱلۡحَيَوٰةِ وَضِعۡفَ ٱلۡمَمَاتِ ثُمَّ لَا تَجِدُ لَكَ عَلَيۡنَا نَصِيرٗا ۝ 71
(75) लेकिन अगर तुम ऐसा करते तो हम तुम्हें दुनिया में भी दोहरे अज़ाब का मज़ा चखाते और आख़िरत में भी दोहरे अज़ाब का, फिर हमारे मुक़ाबले में तुम कोई मददगार न पाते।88
88. अल्लाह तआला इस सारी रूदाद पर तबसिरा (समीक्षा) करते हुए दो बातें फ़रमाता है। एक यह कि तुम हक़ (सत्य) को हक़ जान लेने के बाद बातिल (असत्य) से कोई समझौता कर लेते तो यह बिगड़ी हुई क़ौम तो ज़रूर तुमसे ख़ुश हो जाती, मगर ख़ुदा का ग़ज़ब (प्रकोप) तुमपर भड़क उठता और तुम्हें दुनिया व आख़िरत, दोनों में दोहरी सज़ा दी जाती। दूसरी यह कि इनसान चाहे वह पैग़म्बर ही क्यों न हो, ख़ुद अपने बलबूते पर बातिल के इन तूफ़ानों का मुक़ाबला नहीं कर सकता जब तक कि अल्लाह की मदद और उसकी मेहरबानी शामिल न हो। यह सरासर अल्लाह का दिया हुआ सब्र व जमाव था जिसकी बदौलत नबी (सल्ल०) हक़ और सच्चाई के मक़ाम पर पहाड़ की तरह जमे रहे और कोई आँधी-तूफ़ान आप (सल्ल०) को बाल बराबर भी अपनी जगह से न हटा सका।
وَإِن كَادُواْ لَيَسۡتَفِزُّونَكَ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ لِيُخۡرِجُوكَ مِنۡهَاۖ وَإِذٗا لَّا يَلۡبَثُونَ خِلَٰفَكَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 72
(76) और ये लोग इस बात पर भी तुले रहे हैं कि तुम्हारे क़दम इस सरज़मीन से उखाड़ दें और तुम्हें यहाँ से निकाल बाहर करें, लेकिन अगर ये ऐसा करेंगे तो बाद ये ख़ुद ज़्यादा देर न ठहर सकेंगे।89
89. यह साफ़ भविष्यवाणी है जो उस वक़्त तो सिर्फ़ एक धमकी नज़र आती थी, मगर दस-ग्यारह साल के अन्दर ही पूरी तरह सच्ची साबित हुई। इस सूरा के उतरने पर एक ही साल गुज़रा था कि मक्का के इस्लाम-दुश्मनों ने नबी (सल्ल०) को वतन से निकल जाने पर मजबूर कर दिया और इसपर आठ साल से ज़्यादा न गुज़रे थे कि आप (सल्ल०) फ़ातेह (विजेता) की हैसियत से मक्का मुअज़्ज़मा में दाख़िल हुए। और फिर दो साल के अन्दर-अन्दर अरब ज़मीन मुशरिकों के वुजूद से पाक कर दी गई। फिर जो भी इस देश में रहा मुसलमान बनकर रहा, मुशरिक बनकर वहाँ न ठहर सका।
سُنَّةَ مَن قَدۡ أَرۡسَلۡنَا قَبۡلَكَ مِن رُّسُلِنَاۖ وَلَا تَجِدُ لِسُنَّتِنَا تَحۡوِيلًا ۝ 73
(77) यह काम करने का हमारा मुस्तक़िल (स्थायी) तरीक़ा है जो उन सब रसूलों के मामले में हमने बरता है जिन्हें तुमसे पहले हमने भेजा था90, और हमारे काम के तरीक़े में तुम कोई बदलाव न पाओगे।
90. यानी सारे नबियों के साथ अल्लाह का यही मामला रहा है कि जिस क़ौम ने उनको क़त्ल किया या देश से बाहर निकाला, फिर वह ज़्यादा देर तक अपनी जगह न ठहर सकी। फिर या तो ख़ुदा के अज़ाब ने उसे मिटा दिया या किसी दुश्मन क़ौम को उसपर सवार कर दिया गया, या ख़ुद उस नबी की पैरवी करनेवालों से उसको शिकस्त दे दी गई।
أَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ لِدُلُوكِ ٱلشَّمۡسِ إِلَىٰ غَسَقِ ٱلَّيۡلِ وَقُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِۖ إِنَّ قُرۡءَانَ ٱلۡفَجۡرِ كَانَ مَشۡهُودٗا ۝ 74
(78) नमाज़ क़ायम करो91, सूरज के ढलने92 से लेकर रात के अंधेरे93 तक और फ़र्ज़ के क़ुरआन को ज़रूरी ठहराओ94, क्योंकि फ़ज़्र का क़ुरआन मशहूद (जिसपर गवाही दी गई हो) होता है।95
91. मुश्किलों और मुसीबतों के इस तूफ़ान का ज़िक्र करने के बाद फ़ौरन ही नमाज़ क़ायम करने का हुक्म देकर अल्लाह तआला ने यह हल्का-सा इशारा किया है कि वह जमाव जो इन हालात में एक मोमिन को चाहिए है, नमाज़ क़ायम करने से हासिल होता है।
92. अस्ल अरबी में 'दुलूकुश-शम्स' इस्तेमाल हुआ है जिसका तर्जमा हमने ‘सूरज का ढलना' किया है। अगर्चे कुछ सहाबा और ताबिईन ने 'दुलूक' से मुराद 'डूबना' भी लिया है, लेकिन ज़्यादातर लोगों की राय यही है कि इससे मुराद सूरज का आधे दिन (दोपहर) से ढल जाना है। हज़रत उमर, इब्ने-उमर, अनस-बिन-मालिक (रज़ि०), अबू-बरज़ा असलमी, हसन बसरी, शाबी, अता, मुजाहिद और एक रिवायत के मुताबिक़ इब्ने-अब्बास भी इसी को मानते हैं। इमाम मुहम्मद बाक़र और इमाम जाफ़र सादिक़ से भी यही बात बयान की गई है, बल्कि कुछ हदीसों में ख़ुद नबी (सल्ल०) से भी 'दुलूकुश-शम्स' की यही तशरीह नक़्ल हुई है, अगर्चे उनकी सनद कुछ ज़्यादा मज़बूत नहीं है।
93. अस्ल अरबी में ‘ग़सक़ुल-लैल' इस्तेमाल हुआ है। कुछ के नज़दीक इसका मतलब ‘रात का पूरी तरह अंधेरी हो जाना' है और कुछ इससे आधी रात मुराद लेते हैं। अगर पहली बात मानी जाए तो इससे इशा के शुरू का वक़्त मुराद होगा, और अगर दूसरी बात सही मानी जाए तो फिर यह इशारा इशा के आख़िर वक़्त की तरफ़ है।
94. 'फ़ज्र' का लुग़वी मानी (शाब्दिक अर्थ) है 'पौ फटना'। यानी वह वक़्त जब पहले-पहले सुबह की सफ़ेदी रात के अंधेरे को फाड़कर ज़ाहिर होती है। फ़ज्र के क़ुरआन से मुराद फ़ज्र की नमाज़ है। क़ुरआन मजीद में नमाज़ के लिए कहीं तो 'सलात' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है और कहीं उसके अलग-अलग हिस्सों में से किसी हिस्से का नाम लेकर पूरी नमाज़ मुराद ली गई है मसलन तसबीह, हम्द, ज़िक्र, नियाम, रुकू, सजदे वग़ैरा। इसी तरह यहाँ फ़ज्र के वक़्त क़ुरआन पढ़ने का मतलब सिर्फ़ क़ुरआन पढ़ना नहीं, बल्कि नमाज़ में क़ुरआन पढ़ना है। इस तरीक़े से क़ुरआन मजीद ने एक इशारा यह कर दिया है कि नमाज़ में क्या-क्या चीज़ें होनी चाहिएँ। और इन्हीं इशारों की रहनुमाई में नबी (सल्ल०) ने नमाज़ की वह शक्ल मुक़र्रर फ़रमाई है जो मुसलमानों में राइज है।
95. फ़ज्र के क़ुरआन के मशहूद होने का मतलब यह है कि ख़ुदा के फ़रिश्ते उसके गवाह बनते हैं, जैसा कि हदीसों में साफ़-साफ़ बयान हुआ है। अगरचे फ़रिश्ते हर नमाज़ और हर नेकी के गवाह हैं, लेकिन जब ख़ास तौर पर फ़ज्र की नमाज़ की क़िरअत (क़ुरआन पढ़ने) पर उनकी गवाही का ज़िक्र किया गया है तो इसका साफ़ मतलब यह है कि उसे एक ख़ास अहमियत हासिल है। इसी वजह से नबी (सल्ल०) ने फ़ज्र की नमाज़ में लम्बी क़िरअत करने का तरीक़ा अपनाया और इसी की पैरवी सहाबा किराम ने की और बाद के इमामों ने इसे मुस्तहब (पसंदीदा) क़रार दिया। इस आयत में मुख़्तसर तौर से यह बताया गया है कि पाँच वक़्तों की नमाज़ जो मेराज के मौक़े पर फ़र्ज़ की गई थी, उसके वक़्तों को किस तरह मुक़र्रर किया जाए। हुक्म हुआ कि एक नमाज़ तो सूरज निकलने से पहले पढ़ ली जाए, और बाक़ी चार नमाज़ें सूरज ढलने के बाद से रात के अंधेरे तक पढ़ी जाएँ। फिर इस हुक्म की तशरीह के लिए जिबरील (अलैहि०) भेजे गए, जिन्होंने नमाज़ के ठीक-ठीक वक़्तों की तालीम नबी (सल्ल०) को दी। चुनाँचे अबू-दाऊद और तिरमिज़ी में इब्ने-अब्बास की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “जिबरील ने दो बार मुझको बैतुल्लाह (काबा) के क़रीब नमाज़ पढ़ाई। पहले दिन ज़ुह्‍र की नमाज़ ऐसे वक़्त पढ़ाई जबकि सूरज अभी ढला ही था और साया एक जूते के फ़ीते से ज़्यादा लम्बा न था, फिर अम्न की नमाज़ ऐसे वक़्त पढ़ाई जबकि हर चीज़ का साया उसके अपने क़द के बराबर था, फिर मग़रिब की नमाज़ ठीक उस वक़्त पढ़ाई जबकि रोज़ेदार रोज़ा खोलता है, फिर इशा की नमाज़ शाम की लाली ग़ायब होते ही पढ़ा दी और फ़ज्र की नमाज़ उस वक़्त पढ़ाई जब रोज़ेदार पर खाना-पीना हराम हो जाता है। दूसरे दिन उन्होंने मुझे जुहू की नमाज़ उस वक़्त पढ़ाई जबकि हर चीज़ का साया उसके क़द के बराबर था, और अम्र की नमाज़ उस वक़्त जबकि हर चीज़ का साया उसके क़द से दो गुना हो गया, और मग़रिब की नमाज़ उस वक़्त जबकि रोज़ेदार रोज़ा खोलता है और इशा की नमाज़ एक तिहाई रात गुज़र जाने पर, और फ़ज्र की नमाज़ अच्छी तरह रौशनी फैल जाने पर। फिर जिबरील ने पलटकर मुझसे कहा कि ऐ मुहम्मद, यही वक़्त नबियों के नमाज़ पढ़ने के हैं, और नमाज़ों के सही वक़्त इन दोनों वक़्तों के दरमियान हैं।” (यानी पहले दिन हर वक़्त की शुरुआत और दूसरे दिन हर वक़्त की इन्तिहा बताई गई। हर वक़्त की नमाज़ इन दोनों के दरमियान होनी चाहिए।) क़ुरआन मजीद में ख़ुद भी नमाज़ के इन पाँचों वक़्तों की तरफ़ मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर इशारे किए गए हैं। चुनाँचे सूरा-11 हूद में फ़रमाया— “नमाज़ क़ायम कर दिन के दोनों किनारों पर (यानी फ़ज्र और मग़रिब) और कुछ रात गुज़रने पर (यानी इशा)।” (आयत-114) सूरा ता-हा में इरशाद हुआ— “और अपने रब की हम्द के साथ उसकी तसबीह (महिमागान) कर सूरज निकलने से पहले (फ़ज्र) और सूरज डूबने से पहले (अस्र) और रात के वक़्तों में फिर तसबीह कर (इशा) और दिन के सिरों पर (यानी सुबह, ज़ुह्‍र और मग़रिब)।” (आयत-130) फिर सूरा-30 रूम में कहा गया— "तो अल्लाह की तसबीह करो, जबकि तुम शाम करते हो (मग़रिब) और जब सुबह करते हो (फ़ज्र)। उसी के लिए हम्द है आसमानों में और ज़मीन में। और उसकी तसबीह करो दिन के आख़िरी हिस्से में (अस्र) और जबकि तुम दोपहर करते हो (ज़ुह्‍र)।” (आयतें—17, 18) नमाज़ के वक़्तों का यह निज़ाम मुक़र्रर करने में जिन मस्लहतों का लिहाज़ रखा गया है उनमें से एक अहम मस्लहत यह भी है कि सूरज की पूजा करनेवालों की पूजा के वक़्तों से बचा जाए। सूरज हर ज़माने में मुशरिकों का सबसे बड़ा, या बहुत बड़ा माबूद रहा है, और उसके निकलने और डूबने के वक़्त ख़ास तौर पर उनकी पूजा के वक़्त रहे हैं, इसलिए इन वक़्तों में नमाज़ पढ़ना हराम कर दिया गया। इसके अलावा सूरज की पूजा ज़्यादातर उसके ऊपर उठने के वक़्तों में की जाती रही है, इसलिए इस्लाम में हुक्म दिया गया कि तुम दिन की नमाज़ें सूरज ढलने के बाद पढ़नी शुरू करो और सुबह की नमाज़ सूरज निकलने से पहले पढ़ लिया करो। इस मस्लहत को नबी (सल्ल०) ने ख़ुद कई हदीसों में बयान किया है। चुनाँचे एक हदीस में अम्र-बिन-अ-ब-सा रिवायत करते हैं कि मैंने नबी (सल्ल०) से नमाज़ के वक़्तों के बारे में पूछा तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया— "सुबह की नमाज़ पढ़ो और जब सूरज निकलने लगे तो नमाज़ से रुक जाओ, यहाँ तक कि सूरज ऊँचा हो जाए, क्योंकि सूरज जब निकलता है तो शैतान के सींगों के दरमियान निकलता है और उस वक़्त ग़ैर-मुस्लिम उसको सजदा करते हैं।” फिर आप (सल्ल०) ने अस्र की नमाज़ का ज़िक्र करने के बाद फ़रमाया— "फिर नमाज़ से रुक जाओ यहाँ तक कि सूरज डूब जाए, क्योंकि सूरज शैतान के सींगों के दरमियान डूबता है और उस वक़्त ग़ैर-मुस्लिम उसको सजदा करते हैं।”(हदीस : मुस्लिम)। इस हदीस में सूरज का शैतान के सींगों के दरमियान निकलना और डूबना मिसाल के लिए बयान किया गया है। इसका मक़सद यह तसव्वुर दिलाना है कि शैतान सूरज के निकलने और डूबने के वक़्तों को लोगों के लिए एक बड़ा फ़ितना बना देता है। मानो जब लोग उसको निकलते और डूबते देखकर सजदा करते हैं तो ऐसा लगता है कि शैतान उसे अपने सर पर लिए आया है और सर ही पर लिए जा रहा है। इस मिसाल की गाँठ नबी (सल्ल०) ने ख़ुद अपने इस जुमले में खोल दी है कि “उस वक़्त ग़ैर-मुस्लिम उसको सजदा करते हैं।"
وَمِنَ ٱلَّيۡلِ فَتَهَجَّدۡ بِهِۦ نَافِلَةٗ لَّكَ عَسَىٰٓ أَن يَبۡعَثَكَ رَبُّكَ مَقَامٗا مَّحۡمُودٗا ۝ 75
(79) और रात को 'तहज्जुद' पढ़ो96, यह तुम्हारे लिए नफ़्ल है,97 नामुमकिन नहीं कि तुम्हारा रब तुम्हें मक़ामे-महमूद98 'तारीफ़ के काबिल मकाम पर पहुँचा दे।
96. 'तहज्जुद' का मतलब है नींद तोड़कर उठना। इसलिए रात के वक़्त तहज्जुद करने का मतलब यह है कि रात का एक हिस्सा सोने के बाद फिर उठकर नमाज़ पढ़ी जाए।
97. 'नफ़्ल' का मतलब है 'फ़र्ज़ के अलावा। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह इशारा निकल आया कि वे नमाज़ फ़र्ज़ के अलावा है। पाँच नमाजें जिनके वक़्तों का निज़ाम पहली आयत में बयान किया गया था, फ़र्ज़ हैं, और छठी नमाज़ फ़र्ज़ के अलावा है।
98. यानी दुनिया और आख़िरत में तुमको ऐसे मर्तबे पर पहुँचा दे जहाँ तुम सबके पसन्दीदा होकर रहो, हर तरफ़ से तुमपर तारीफ़ों की बारिश हो, और तुम्हारी हस्ती एक तारीफ़ के क़ाबिल हस्ती बनकर रहे। आज तुम्हारे मुख़ालिफ़ लोग तुम्हें गालियाँ दे रहे और बुरा-भला कह रहे हैं और देश भर में तुमको बदनाम करने के लिए उन्होंने झूठे इलज़ामों का एक तूफ़ान खड़ा कर रखा है, मगर वह वक़्त दूर नहीं है जबकि दुनिया तुम्हारी तारीफ़ों से गूँज उठेगी और आख़िरत में भी तुम सारी दुनिया के पसन्दीदा बनकर रहोगे। क़ियामत के दिन नबी (सल्ल०) का 'शफ़ाअत' के मक़ाम पर खड़ा होना भी इसी पसन्दीदा मर्तबे का एक हिस्सा है।
وَقُل رَّبِّ أَدۡخِلۡنِي مُدۡخَلَ صِدۡقٖ وَأَخۡرِجۡنِي مُخۡرَجَ صِدۡقٖ وَٱجۡعَل لِّي مِن لَّدُنكَ سُلۡطَٰنٗا نَّصِيرٗا ۝ 76
(80) और दुआ करो कि परवरदिगार! मुझको जहाँ भी तू ले जा, सच्चाई के साथ ले जा और जहाँ से भी निकाल, सच्चाई के साथ निकाल99, और अपनी तरफ़ से एक इक़तिदार को मेरा मददगार बना दे।100
99. इस दुआ की तलक़ीन से साफ़ मालूम होता है कि हिजरत का वक़्त अब बिलकुल क़रीब आ लगा था। इसलिए फ़रमाया कि तुम्हारी दुआ यह होनी चाहिए कि सच्चाई का दामन किसी हाल में तुमसे न छूटे, जहाँ से भी निकलो सच्चाई की ख़ातिर निकलो और जहाँ भी जाओ सच्चाई के साथ जाओ।
100. यानी या तो मुझे ख़ुद इक़तिदार (सत्ता) दे, या किसी हुकूमत को मेरा मददगार बना दे, ताकि उसकी ताक़त से मैं दुनिया के इस बिगाड़ को ठीक कर सकूँ, बेहयाई और गुनाहों के इस सैलाब को रोक सकूँ, और तेरे इनसाफ़ से भरे क़ानून को लागू कर सकूँ। यही मतलब है इस आयत का जो हसन बसरी और क़तादा ने बयान किया है, और इसी को इब्ने-जरीर और इब्ने-कसीर जैसे बड़े तफ़सीर लिखनेवालों ने अपनाया है और इसी की ताईद नबी (सल्ल०) की यह हदीस करती है कि “अल्लाह तआला हुकूमत की ताक़त से उन चीज़ों की रोक-थाम कर देता है जिनकी रोक-थाम क़ुरआन से नहीं करता।” इससे मालूम हुआ कि इस्लाम दुनिया में जो सुधार चाहता है वह सिर्फ़ नसीहतों से नहीं हो सकता, बल्कि उसको अमल में लाने के लिए सियासी ताक़त भी दरकार है। फिर जबकि यह दुआ अल्लाह तआला ने अपने नबी को ख़ुद सिखाई है तो इससे यह भी साबित हुआ कि दीन क़ायम करने और शरीअत लागू करने और अल्लाह की मुक़र्रर की हुई सज़ाएँ जारी करने के लिए हुकूमत चाहना और उसको पाने की कोशिश करना न सिर्फ़ जाइज़, बल्कि ज़रूरी और तारीफ़ के क़ाबिल है और वे लोग ग़लती पर हैं जो इसे दुनिया-परस्ती या दुनियातलबी कहते हैं। दुनिया-परस्ती अगर है तो यह कि कोई शख़्स अपने लिए हुकूमत का तलबगार हो। रहा ख़ुदा के दीन के लिए हुकूमत का तलबगार होना तो यह दुनिया-परस्ती नहीं, बल्कि बिलकुल ख़ुदापरस्ती ही का तक़ाज़ा है। अगर जिहाद के लिए तलवार का तलबगार होना गुनाह नहीं है तो शरीअत के हुक्मों को जारी करने के लिए सियासी ताक़त का तलबगार होना आख़िर कैसे गुनाह हो जाएगा?
وَقُلۡ جَآءَ ٱلۡحَقُّ وَزَهَقَ ٱلۡبَٰطِلُۚ إِنَّ ٱلۡبَٰطِلَ كَانَ زَهُوقٗا ۝ 77
(81) और एलान कर दो कि “हक़ आ गया और बातिल मिट गया, बातिल तो मिटने ही वाला है।101
101. यह एलान उस वक़्त किया गया था जबकि मुसलमानों की एक बड़ी तादाद मक्का छोड़कर हब्शा में पनाह लिए हुए थी, और बाक़ी मुसलमान सख़्त बेसहारा और मज़लूमों की-सी हालत में मक्का और उसके आसपास में ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे और ख़ुद नबी (सल्ल०) की जान हर वक़्त ख़तरे में थी। उस वक़्त बाज़ाहिर बातिल (असत्य) ही का ज़ोर था और हक़ (सत्य) के छा जाने के आसार दूर-दूर तक नज़र न आते थे। मगर इसी हालत में नबी (सल्ल०) को हुक्म दे दिया गया कि तुम साफ़-साफ़ इन बातिलपरस्तों को सुना दो कि हक़ आ गया और बातिल मिट गया। ऐसे वक़्त में यह अजीब एलान लोगों को महज़ ज़बान का फाग महसूस हुआ और उन्होंने उसे ठहाकों में उड़ा दिया। मगर इसपर नौ बरस ही गुज़रे थे कि नबी (सल्ल०) इसी शहर मक्का में फ़ातेह (विजेता) की हैसियत से दाख़िल हुए और आप (सल्ल०) ने काबा में जाकर उस बातिल को मिटा दिया जो 360 बुतों की शक्ल में वहाँ सजा रखा था। बुख़ारी में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) का बयान है कि मक्का की फ़तह के दिन नबी (सल्ल०) काबा शिर्क बुतों पर चोट मारते जा रहे थे और आप (सल्ल०) की ज़बान पर ये अलफ़ाज़ जारी थे कि “हक़ आ गया और बातिल मिट गया। यक़ीनन बातिल तो मिटने ही वाला था। हक़ आ गया और अब बातिल के लिए कुछ नहीं हो सकता।”
وَنُنَزِّلُ مِنَ ٱلۡقُرۡءَانِ مَا هُوَ شِفَآءٞ وَرَحۡمَةٞ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ وَلَا يَزِيدُ ٱلظَّٰلِمِينَ إِلَّا خَسَارٗا ۝ 78
(82) हम इस क़ुरआन के उतरने के सिलसिले में वह कुछ उतार रहे हैं जो माननेवालों के लिए तो शिफ़ा और रहमत है, मगर ज़ालिमों के लिए घाटे के सिवा और किसी चीज़ में बढ़ोतरी नहीं करता।102
102. यानी जो लोग इस क़ुरआन को अपना रहनुमा और अपने लिए क़ानून की किताब मान लें उनके लिए तो यह ख़ुदा की रहमत और उनके तमाम ज़ेहनी, नफ़्सानी, अख़लाक़ी और समाजी रोगों का इलाज है। मगर जो ज़ालिम इसे रद्द करके और इसकी रहनुमाई से मुँह मोड़कर अपने ऊपर आप ज़ुल्म करें उनको यह क़ुरआन उस हालत पर भी नहीं रहने देता जिसपर वे उसके उतरने से या उसके जानने से पहले थे, बल्कि यह उन्हें उलटा इससे ज़्यादा घाटे में डाल देता है। इसकी वजह यह है कि जब तक क़ुरआन न आया था, या जब तक वे उससे वाक़िफ़ न हुए थे, उनका घाटा सिर्फ़ जहालत का घाटा था। मगर जब क़ुरआन उनके सामने आ गया और उसने हक़ और बातिल का फ़र्क़ खोलकर रख दिया तो उनपर ख़ुदा की हुज्जत पूरी हो गई। अब अगर वे उसे रद्द करके गुमराही पर अड़े रहते हैं तो इसका मतलब यह है कि वे जाहिल नहीं, बल्कि ज़ालिम और बातिल-परस्त और हक़ से भागनेवाले हैं। अब उनकी हैसियत वह है जो ज़हर और तिरयाक़ (ज़हर के असर को ख़त्म करनेवाली दवा), दोनों को देखकर ज़हर चुननेवाले की होती है। अब अपनी गुमराही के वे पूरे ज़िम्मेदार, और हर गुनाह जो इसके बाद वे करें उसकी पूरी सज़ा के हक़दार हैं। यह घाटा जहालत का नहीं, बल्कि शरारत का घाटा है जिसे जहालत के घाटे से बढ़कर ही होना चाहिए। यही बात है जो नबी (सल्ल०) ने एक बहुत छोटे लेकिन मानी से भरपूर जुमले में बयान की है कि “क़ुरआन या तो तेरे लिए हुज्जत है या फिर तेरे ख़िलाफ़ हुज्जत।"
وَإِذَآ أَنۡعَمۡنَا عَلَى ٱلۡإِنسَٰنِ أَعۡرَضَ وَنَـَٔا بِجَانِبِهِۦ وَإِذَا مَسَّهُ ٱلشَّرُّ كَانَ يَـُٔوسٗا ۝ 79
(83) इनसान का हाल यह है कि जब हम उसे नेमत देते हैं तो वह ऐंठता और पीठ मोड़ लेता है, और जब ज़रा मुसीबत का सामना होता है तो मायूस होने लगता है।
قُلۡ كُلّٞ يَعۡمَلُ عَلَىٰ شَاكِلَتِهِۦ فَرَبُّكُمۡ أَعۡلَمُ بِمَنۡ هُوَ أَهۡدَىٰ سَبِيلٗا ۝ 80
(84) ऐ नबी! उन लोगों से कह दो कि “हर एक अपने तरीक़े पर चल रहा है, अब यह तुम्हारा रब ही बेहतर जानता है कि सीधी राह पर कौन है।"
وَيَسۡـَٔلُونَكَ عَنِ ٱلرُّوحِۖ قُلِ ٱلرُّوحُ مِنۡ أَمۡرِ رَبِّي وَمَآ أُوتِيتُم مِّنَ ٱلۡعِلۡمِ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 81
(85) ये लोग तुमसे रूह के बारे में पूछते हैं। कहो, “यह रूह मेरे रब के हुक्म से आती है, मगर तुम लोगों ने इल्म (ज्ञान) का थोड़ा हिस्सा ही पाया है।103
103. आम तौर पर यह समझा जाता है कि यहाँ रूह से मुराद जान है, यानी लोगों ने नबी (सल्ल०) से ज़िन्दगी की रूह के बारे में पूछा था कि उसकी हक़ीक़त क्या है, और इसका जवाब यह दिया गया कि वह अल्लाह के हुक्म से आती है। लेकिन हमें यह मतलब लेने में बड़ी झिझक है, इसलिए कि यह मतलब सिर्फ़ उसी सूरत में लिया जा सकता है, जबकि मौक़ा और महल नज़रअन्दाज़ कर दिया जाए और बात का जो सिलसिला चल रहा है उससे इसे बिलकुल अलग करके इस आयत को एक अलग जुमले की हैसियत से ले लिया जाए। वरना अगर चली आ रही बात के सिलसिले में रखकर देखा जाए तो रूह को जान के मानी में लेने से जुमले में सख़्त बेताल्लुक़ी महसूस होती है और इस बात की कोई सही वजह समझ में नहीं आती कि जहाँ पहले तीन आयतों में क़ुरआन को बीमारियाँ दूर करने का नुस्ख़ा बताया गया है और क़ुरआन का इनकार करनेवालों को ज़ालिम और नेमतों के नाशुक्रे ठहराया गया है, और जहाँ बाद की आयतों में फिर क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने पर दलील दी गई है, वहाँ आख़िर किस ताल्लुक़ से यह बात आ कि जानदारों में जान ख़ुदा के हुक्म से आती है? इबारत के सिलसिले को निगाह में रखकर देखा जाए तो साफ़ महसूस होता है कि यहाँ रूह से मुराद “वह्य” या वह्य लानेवाला फ़रिश्ता ही हो सकता है। मुशरिकों का सवाल अस्ल में यह था कि यह क़ुरआन तुम कहाँ से लाते हो? इस पर अल्लाह तआला फ़रमाता है कि ऐ नबी! तुमसे ये लोग रूह के बारे में मालूम करते हैं, यानी यह पूछते हैं कि क़ुरआन कहाँ से आती है, या क़ुरआन के आने का ज़रिआ क्या है? इन्हें बता दो कि यह रूह मेरे रब के हुक्म से आती है, मगर तुम लोगों ने इल्म से इतना कम हिस्सा पाया है कि तुम इनसान के बताए हुए कलाम (वाणी) और रब की वह्य के ज़रिए उतरनेवाले कलाम का फ़र्क़ नहीं समझते और इस कलाम पर यह शक करते हो कि इसे कोई इनसान गढ़ रहा है। यह तफ़सीर न सिर्फ़ इस लिहाज़ से ज़्यादा सही मालूम होती है कि इस जुमले से पहले और बाद की तक़रीर का ताल्लुक़ इसी तफ़सीर का तक़ाज़ा करता है, बल्कि ख़ुद क़ुरआन मजीद में भी दूसरी जगहों पर यह मज़मून लगभग इन्हीं अलफ़ाज़ में बयान किया गया है। चुनाँचे सूरा-40 मोमिन, आयत-15 में कहा गया है, “वह अपने हुक्म से अपने जिस बन्दे पर चाहता है रूह उतारता है, ताकि वह लोगों के इकटठे होने के दिन से आगाह कर दे।” और सूरा-42 शूरा, आयत-52 में फ़रमाया, “और इसी तरह हमने तेरी तरफ़ एक रूह अपने हुक्म से भेजी। तू न जानता था किताब क्या होती है और ईमान क्या है।" पिछले बुज़ुर्गों में से इब्ने-अब्बास, क़तादा और हसन बसरी (रह०) ने भी यही तफ़सीर अपनाई है। इब्ने-जरीर ने इस बात को क़तादा के हवाले से इब्ने-अब्बास से जोड़ा है, मगर यह अजीब बात लिखी है कि इब्ने-अब्बास इस ख़याल को छिपाकर बयान करते थे। और रूहुल-मआनी के लेखक, हसन बसरी और क़तादा का यह क़ौल (बात) नक़्ल करते हैं कि “रूह से मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं और सवाल अस्ल में यह था कि वे कैसे उतरते हैं और किस तरह नबी (सल्ल०) के दिल में वह्य डाली जाती है।”
وَلَئِن شِئۡنَا لَنَذۡهَبَنَّ بِٱلَّذِيٓ أَوۡحَيۡنَآ إِلَيۡكَ ثُمَّ لَا تَجِدُ لَكَ بِهِۦ عَلَيۡنَا وَكِيلًا ۝ 82
(86) और ऐ नबी! हम चाहें तो वह सब कुछ तुमसे छीन लें जो हमने वह्य के ज़रिए से तुमको दिया है, फिर तुम हमारे मुक़ाबले में कोई हिमायती न पाओगे जो उसे वापस दिला सके।
إِلَّا رَحۡمَةٗ مِّن رَّبِّكَۚ إِنَّ فَضۡلَهُۥ كَانَ عَلَيۡكَ كَبِيرٗا ۝ 83
(87) यह तो जो कुछ तुम्हें मिला है, तुम्हारे रब की रहमत से मिला है, हक़ीक़त यह है कि उसकी मेहरबानी तुमपर बहुत बड़ी है।104
104. बात बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से कही गई है, मगर मक़सद दरअस्ल इस्लाम मुख़ालिफ़ों को सुनाना है, जो क़ुरआन को नबी (सल्ल०) का अपना गढ़ा हुआ या किसी इनसान का छिपकर सिखाया हुआ कलाम कहते थे। उनसे कहा जा रहा है कि यह कलाम पैग़म्बर ने नहीं गढ़ा, बल्कि हमने दिया है और हम इसे छीन लें तो न पैग़म्बर की यह ताक़त है कि वह ऐसा कलाम तैयार करके ला सके और न कोई दूसरी ताक़त ऐसी है जो उसको ऐसी मोजिज़ाना (चामत्कारिक) किताब पेश करने के क़ाबिल बना सके।
قُل لَّئِنِ ٱجۡتَمَعَتِ ٱلۡإِنسُ وَٱلۡجِنُّ عَلَىٰٓ أَن يَأۡتُواْ بِمِثۡلِ هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ لَا يَأۡتُونَ بِمِثۡلِهِۦ وَلَوۡ كَانَ بَعۡضُهُمۡ لِبَعۡضٖ ظَهِيرٗا ۝ 84
(88) कह दो कि अगर इनसान और जिन्न, सब-के-सब मिलकर इस क़ुरआन जैसी कोई चीज़ लाने की कोशिश करें तो न ला सकेंगे, चाहे वे सब एक-दूसरे के मददगार ही क्यों न हों।105
105. यह चैलेंज इससे पहले क़ुरआन मजीद में तीन जगहों पर गुज़र चुका है। सूरा-2 बक़रा, आयतें—23-24; सूरा-10 यूनुस, आयत-38 और सूरा-11 हूद, आयत-13। आगे सूरा-52 तूर, आयतें—33-34 में भी यही बात आ रही है। इन सब जगहों पर यह बात इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के इस इलज़ाम के जवाब में कही गई है कि मुहम्मद (सल्ल०) ने ख़ुद यह क़ुरआन गढ़ लिया है और यूँ ही उसे ख़ुदा का कलाम बनाकर पेश कर रहे हैं। इसके अलावा सूरा-10 यूनुस, आयत-16 में इसी इलज़ाम को ग़लत बताते हुए यह भी कहा गया कि “ऐ नबी! उनसे कहो कि अगर अल्लाह ने यह न चाहा होता कि मैं यह क़ुरआन तुम्हें सुनाऊँ तो मैं हरगिज़ न सुना सकता था, बल्कि अल्लाह तुम्हें इसकी ख़बर तक न देता। आख़िर मैं तुम्हारे बीच एक उम्र बिता चुका हूँ, क्या तुम इतना भी नहीं समझते?" इन आयतों में क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने पर जो दलील दी गई है उसमें दर अस्ल तीन दलीलें हैं— एक यह कि यह क़ुरआन अपनी ज़बान, अन्दाज़े-बयान, दलील देने के अन्दाज़, बहसों, तालीमों और ग़ैब की ख़बरों के लिहाज़ से एक मोजिज़ा (चमत्कार) है जिसकी मिसाल लाना इनसान के बस से बाहर है। तुम कहते हो कि इसे एक इनसान ने गढ़ लिया है, मगर हम कहते हैं कि तमाम दुनिया के इनसान मिलकर भी इस शान की किताब तैयार नहीं कर सकते, बल्कि अगर वे जिन्न जिन्हें मुशरिकों ने अपना माबूद बना रखा है, और जिनके माबूद होने पर यह किताब खुल्लम-खुल्ला चोट कर रही है, क़ुरआन का इनकार करनेवालों की मदद पर इकट्ठे हो जाएँ तो वे भी उनको इस क़ाबिल नहीं बना सकते कि क़ुरआन के मेयार की किताब तैयार करके इस चुनौती को रद्द कर सकें। दूसरी यह कि मुहम्मद (सल्ल०) कहीं बाहर से अचानक तुम्हारे दरमियान नहीं आ गए हैं, बल्कि इस क़ुरआन के उतरने से पहले भी 10 साल तुम्हारे बीच रह चुके हैं। क्या नुबूवत (पैग़म्बरी) के दावे से एक दिन पहले भी कभी तुमने उनकी ज़बान से इस तरह का कलाम, और इन मसलों और मज़मूनों पर शामिल कलाम सुना था? अगर नहीं सुना था और यक़ीनन नहीं सुना था तो क्या यह बात तुम्हारी समझ में आती है कि किसी शख़्स की ज़बान, ख़यालात, मालूमात और सोचने और बयान करने के अन्दाज़ में अचानक ऐसी तबदीली पैदा हो सकती है? तीसरी यह कि मुहम्मद (सल्ल०) तुम्हें क़ुरआन सुनाकर कहीं गायब नहीं हो जाते, बल्कि तुम्हारे बीच ही रहते-सहते हैं। तुम उनकी ज़बान से क़ुरआन भी सुनते हो और दूसरी बातें और तक़रीरें भी सुना करते हो। क़ुरआन के कलाम और मुहम्मद (सल्ल०) की अपनी बातचीत में ज़बान और अन्दाज़ का इतना नुमायाँ फ़र्क़ है कि किसी एक इनसान के दो इतने ज़्यादा अलग-अलग स्टाइल कभी हो नहीं सकते। यह फ़र्क़ सिर्फ़ उसी ज़माने में वाज़ेह नहीं था जबकि नबी (सल्ल०) अपने देश के लोगों में रहते-सहते थे, बल्कि आज भी हदीस की किताबों में आप (सल्ल०) के सैकड़ों क़ौल (कथन) और ख़ुतबे (अभिभाषण) मौजूद हैं। उनकी ज़बान और अन्दाज़ क़ुरआन की ज़बान और अन्दाज़ से इतने ज़्यादा अलग हैं कि अरबी ज़बान और अदब (साहित्य) की बारीकियों की समझ रखनेवाला अगर जाइज़ा ले तो वह यह कहने की जुर्अत नहीं कर सकता कि ये दानों एक ही शख़्स के कलाम हो सकते हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-10 यूनुस, हाशिया-21; सूरा-52 तूर, हाशिया-22 से 27)
وَلَقَدۡ صَرَّفۡنَا لِلنَّاسِ فِي هَٰذَا ٱلۡقُرۡءَانِ مِن كُلِّ مَثَلٖ فَأَبَىٰٓ أَكۡثَرُ ٱلنَّاسِ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 85
(89) हमने इस क़ुरआन में लोगों को तरह-तरह से समझाया, मगर ज़्यादातर लोग इनकार ही पर जमे रहे
وَقَالُواْ لَن نُّؤۡمِنَ لَكَ حَتَّىٰ تَفۡجُرَ لَنَا مِنَ ٱلۡأَرۡضِ يَنۢبُوعًا ۝ 86
(90) और उन्होंने कहा, “हम तेरी बात न मानेंगे, जब तक कि तू हमारे लिए ज़मीन को फाड़कर एक चश्मा न जारी कर दे
أَوۡ تَكُونَ لَكَ جَنَّةٞ مِّن نَّخِيلٖ وَعِنَبٖ فَتُفَجِّرَ ٱلۡأَنۡهَٰرَ خِلَٰلَهَا تَفۡجِيرًا ۝ 87
(91) या तेरे लिए खजूरों और अंगूरों का एक बाग़ पैदा हो और तू उसमें नहरें बहा दे
أَوۡ تُسۡقِطَ ٱلسَّمَآءَ كَمَا زَعَمۡتَ عَلَيۡنَا كِسَفًا أَوۡ تَأۡتِيَ بِٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ قَبِيلًا ۝ 88
(92) या तू आसमान को टुकड़े-टुकड़े करके हमारे ऊपर गिरा दे, जैसा कि तेरा दावा है। या अल्लाह और फ़रिश्तों को रू-ब-रू हमारे सामने ले आए
أَوۡ يَكُونَ لَكَ بَيۡتٞ مِّن زُخۡرُفٍ أَوۡ تَرۡقَىٰ فِي ٱلسَّمَآءِ وَلَن نُّؤۡمِنَ لِرُقِيِّكَ حَتَّىٰ تُنَزِّلَ عَلَيۡنَا كِتَٰبٗا نَّقۡرَؤُهُۥۗ قُلۡ سُبۡحَانَ رَبِّي هَلۡ كُنتُ إِلَّا بَشَرٗا رَّسُولٗا ۝ 89
(93) या तेरे लिए सोने का एक घर बन जाए, या तू आसमान पर चढ़ जाए और तेरे चढ़ने का भी हम यक़ीन न करेंगे, जब तक कि तू हमारे ऊपर एक ऐसी तहरीर (लेख) न उतार लाए जिसे हम पढ़ें।” — ऐ नबी! इनसे कहो, “पाक है मेरा परवरदिगार, क्या मैं एक पैग़ाम लानेवाले इनसान के सिवा और भी कुछ हूँ?106
106. मोजिज़ों (चमत्कारों) की माँग का एक जवाब इससे पहले आयत-59 'वमा म-न-अना अन-नुरसि-ल बिल-आयाति' “और हमको निशानियाँ भेजने से नहीं रोका” में गुज़र चुका है। अब यहाँ इसी माँग का दूसरा जवाब दिया गया है। इस मुख़्तसर से जवाब में जो बेहतरीन अन्दाज़ इख़्तियार किया गया है वह तारीफ़ से परे है। मुख़ालिफ़ों की माँग यह थी कि अगर तुम पैग़म्बर हो तो अभी ज़मीन की तरफ़ एक इशारा करो और यकायक एक पानी का चश्मा फूट पड़े, या फ़ौरन एक लहलहाता बाग़ पैदा हो जाए और उसमें नहरें जारी हो जाएँ। आसमान की तरफ़ इशारा करो और तुम्हारे झुठलानेवालों पर आसमान टुकड़े-टकड़े होकर गिर जाए। एक फूँक मारो और पलक झपकते में सोने का एक महल बनकर तैयार हो जाए। एक आवाज़ दो और हमारे सामने ख़ुदा और उसके फ़रिश्ते फ़ौरन आ खड़े हों और वे गवाही दें कि हम ही ने मुहम्मद (सल्ल०) को पैग़म्बर बनाकर भेजा है। हमारी आँखों के सामने आसमान पर चढ़ जाओ और अल्लाह मियाँ से एक ख़त हमारे नाम लिखवा लाओ, जिसे हम हाथ से छुएँ और आँखों से पढ़ें। इन लम्बी-चौड़ी माँगों का बस यह जवाब देकर छोड़ दिया गया कि इनसे कहो, पाक है मेरा परवरदिगार! क्या मैं एक पैग़ाम लानेवाले इनसान के सिवा और भी कुछ हूँ?” यानी बेवक़ूफ़ो! क्या मैंने ख़ुदा होने का दावा किया था कि तुम ये माँगें मुझसे करने लगे? मैंने तुमसे कब कहा था कि मैं सब कुछ कर सकता हूँ? मैंने कब कहा था कि ज़मीन व आसमान पर मेरी हुकूमत चल रही है? मेरा दावा तो पहले दिन से यही था कि मैं ख़ुदा की तरफ़ से पैग़ाम लानेवाला एक इनसान हूँ। तुम्हें जाँचना है तो मेरे पैग़ाम को जाँचो। ईमान लाना है तो इस पैग़ाम के सच्चे और अक़्ल के मुताबिक़ होने को देखकर ईमान लाओ। इनकार करना है तो इस पैग़ाम में कोई ख़राबी निकालकर दिखाओ। मेरी सच्चाई का इत्मीनान करना है तो एक इनसान होने की हैसियत से मेरी ज़िन्दगी को, मेरे अख़लाक़ को, मेरे काम को देखो। यह सब कुछ छोड़कर तुम मुझसे यह क्या माँग करने लगे कि ज़मीन फाड़ो और आसमान गिराओ? आख़िर पैग़म्बरी का इन कामों से क्या ताल्लुक़ है?
وَمَا مَنَعَ ٱلنَّاسَ أَن يُؤۡمِنُوٓاْ إِذۡ جَآءَهُمُ ٱلۡهُدَىٰٓ إِلَّآ أَن قَالُوٓاْ أَبَعَثَ ٱللَّهُ بَشَرٗا رَّسُولٗا ۝ 90
(94) लोगों के सामने जब कभी हिदायत आई तो उसपर ईमान लाने से उनको किसी चीज़ ने नहीं रोका मगर उनकी इसी बात ने कि “क्या अल्लाह ने इनसान को पैग़म्बर बनाकर भेज दिया?"107
107. यानी हर ज़माने के जाहिल लोग इसी ग़लतफ़हमी में मुब्तला रहे हैं कि इनसान कभी पैग़म्बर नहीं हो सकता। इसी लिए जब कोई रसूल आया तो उन्होंने यह देखकर कि खाता है, पीता है, बीवी-बच्चे रखता है, हाड़-माँस का बना हुआ है, फ़ैसला कर दिया कि पैग़म्बर नहीं है, क्योंकि इनसान है। और जब वह गुज़र गया तो एक मुद्दत के बाद उसके अक़ीदतमन्दों में ऐसे लोग पैदा होने शुरू हो गए जो कहने लगे कि वह इनसान नहीं था, क्योंकि पैग़म्बर था। चुनाँचे किसी ने उसको ख़ुदा बनाया, किसी ने उसे ख़ुदा का बेटा कहा, और किसी ने कहा कि ख़ुदा उसमें समा गया था। मतलब यह कि इनसान होना और पैग़म्बर होना ये दोनों बातें एक वुजूद में जमा होना जाहिलों के लिए हमेशा एक पहेली ही बना रहा। (और ज़्यादा तशरीह के लिए। देखें— सूरा-36 या-सीन, हाशिया-11)
قُل لَّوۡ كَانَ فِي ٱلۡأَرۡضِ مَلَٰٓئِكَةٞ يَمۡشُونَ مُطۡمَئِنِّينَ لَنَزَّلۡنَا عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلسَّمَآءِ مَلَكٗا رَّسُولٗا ۝ 91
(95) इनसे कहो, “अगर ज़मीन में फ़रिश्ते इत्मीनान से चल-फिर रहे होते तो हम ज़रूर आसमान से किसी फ़रिश्ते ही को उनके लिए पैग़म्बर बनाकर भेजते।"108
108. यानी पैग़म्बर का काम सिर्फ़ इतना ही नहीं है कि आकर पैग़ाम सुना दिया करे, बल्कि उसका काम यह भी है कि उस पैग़ाम के मुताबिक़ इनसानी ज़िन्दगी को सुधारे। उसे इनसानी हालात पर उस पैग़ाम के उसूलों को चस्पाँ करना होता है। उसे ख़ुद अपनी ज़िन्दगी में उन उसूलों को अमली जामा पहनाकर दिखाना होता है। उसे उन अनगिनत अलग-अलग इनसानों के ज़ेहन की गुत्थियाँ सुलझानी पड़ती हैं जो उसका पैग़ाम सुनने और समझने की कोशिश करते हैं। उसे माननेवालों को एकजुट करना और उनकी तरबियत करनी होती है, ताकि उस पैग़ाम की तालीमात के मुताबिक़ एक समाज वुजूद में आए। उसे इनकार और मुख़ालफ़त करनेवालों और रुकावट डालनेवालों के मुक़ाबले में जिद्दो-जुह्द करनी होती है ताकि बिगाड़ की तरफ़दारी करनेवाली ताक़तों को नीचा दिखाया जाए, और वह सुधार अमल में आ सके जिसके लिए ख़ुदा ने अपना पैग़म्बर भेजा है। ये सारे काम जबकि इनसानों ही में करने के हैं तो इनके लिए इनसान नहीं तो और कौन भेजा जाता? फ़रिश्ता तो ज़्यादा-से-ज़्यादा बस यही करता कि आता और पैग़ाम पहुँचाकर चला जाता। इनसानों में इनसान की तरह रहकर इनसान के जैसे काम करना और फिर इनसानी ज़िन्दगी में अल्लाह की मरज़ी के मुताबिक़ सुधार करके दिखा देना किसी फ़रिश्ते का काम न था। इसके लिए तो इनसान ही मुनासिब हो सकता था।
قُلۡ كَفَىٰ بِٱللَّهِ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۚ إِنَّهُۥ كَانَ بِعِبَادِهِۦ خَبِيرَۢا بَصِيرٗا ۝ 92
(96) ऐ नबी! इनसे कह दो कि मेरे और तुम्हारे बीच बस एक अल्लाह की गवाही काफ़ी है। वह अपने बन्दों के हाल की ख़बर रखता है और सब कुछ देख रहा है।109
109. यानी जिस-जिस तरह से मैं तुम्हें समझा रहा हूँ और तुम्हारी हालत के सुधार के लिए कोशिश कर रहा हूँ उसे भी अल्लाह जानता है और जो-जो कुछ तुम मेरी मुख़ालफ़त में कर रहे हो उसको भी अल्लाह देख रहा है। फ़ैसला आख़िरकार उसी को करना है इसलिए बस उसी का जानना और देखना काफ़ी है।
وَمَن يَهۡدِ ٱللَّهُ فَهُوَ ٱلۡمُهۡتَدِۖ وَمَن يُضۡلِلۡ فَلَن تَجِدَ لَهُمۡ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِهِۦۖ وَنَحۡشُرُهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ عَلَىٰ وُجُوهِهِمۡ عُمۡيٗا وَبُكۡمٗا وَصُمّٗاۖ مَّأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ كُلَّمَا خَبَتۡ زِدۡنَٰهُمۡ سَعِيرٗا ۝ 93
(97) जिसको अल्लाह रास्ता दिखाए वही रास्ता पानेवाला है, और जिसे वह गुमराही में डाल दे, तो उसके सिवा ऐसे लोगों के लिए तू कोई और मददगार नहीं पा सकता।110 उन लोगों को हम क़ियामत के दिन औंधे मुँह खींच लाएँगे, अंधे, गूँगे और बहरे111 उनका ठिकाना जहन्नम है। जब कभी उसकी आग धीमी होने लगेगी, हम उसे और भड़का देंगे।
110. यानी जिसकी गुमराही-पसन्दी और हक़ के ख़िलाफ़ हठधर्मी की वजह से अल्लाह ने उसपर हिदायत के दरवाज़े बन्द कर दिए हों और जिसे अल्लाह ही ने उन गुमराहियों की तरफ़ धकेल दिया हो जिनकी तरफ़ वह जाना चाहता था, अब और कौन है जो उसको सीधे रास्ते पर ला सके? जिस शख़्स ने सच्चाई से मुँह मोड़कर झूठ पर मुत्मइन होना चाहा, और जिसकी इस बुराई को देखकर अल्लाह ने भी उसके लिए वे साधन जुटा दिए जिनसे सच्चाई के ख़िलाफ़ उसकी नफ़रत में और झूठ पर उसके इत्मीनान में और ज़्यादा बढ़ोतरी होती चली जाए, उसे आख़िर दुनिया की कौन-सी ताक़त झूठ से फेरकर सच्चाई पर मुत्मइन कर सकती है? अल्लाह का यह क़ायदा नहीं कि जो ख़ुद भटकना चाहे उसे ज़बरदस्ती हिदायत दे, और किसी दूसरी हस्ती में यह ताक़त नहीं कि लोगों के दिलों को बदल दे।
111. यानी जैसे वे दुनिया में बनकर रहे कि न हक़ (सत्य) देखते थे, न हक़ सुनते थे और न हक़ बोलते थे, वैसे ही वे क़ियामत में उठाए जाएँगे।
ذَٰلِكَ جَزَآؤُهُم بِأَنَّهُمۡ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِنَا وَقَالُوٓاْ أَءِذَا كُنَّا عِظَٰمٗا وَرُفَٰتًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ خَلۡقٗا جَدِيدًا ۝ 94
(98) यह बदला है उनकी उस हरकत का कि उन्होंने हमारी आयतों का इनकार किया और कहा, “क्या जब हम सिर्फ़ हड्डियाँ और मिट्टी होकर रह जाएँगे तो नए सिरे से हमको पैदा करके उठा खड़ा किया जाएगा?”
۞أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ قَادِرٌ عَلَىٰٓ أَن يَخۡلُقَ مِثۡلَهُمۡ وَجَعَلَ لَهُمۡ أَجَلٗا لَّا رَيۡبَ فِيهِ فَأَبَى ٱلظَّٰلِمُونَ إِلَّا كُفُورٗا ۝ 95
(99) क्या उनको यह न सूझा कि जिस ख़ुदा ने ज़मीन और आसमानों को पैदा किया है, वह इन जैसों को पैदा करने की ज़रूर क़ुदरत रखता है? उसने इनके हश्र के लिए एक वक़्त मुक़र्रर कर रखा है जिसका आना तय है, मगर ज़ालिम इसपर अड़े हुए हैं कि वे इसका इनकार ही करेंगे।
قُل لَّوۡ أَنتُمۡ تَمۡلِكُونَ خَزَآئِنَ رَحۡمَةِ رَبِّيٓ إِذٗا لَّأَمۡسَكۡتُمۡ خَشۡيَةَ ٱلۡإِنفَاقِۚ وَكَانَ ٱلۡإِنسَٰنُ قَتُورٗا ۝ 96
(100) ऐ नबी! इनसे कहो, “अगर कहीं मेरे रब की रहमत के ख़ज़ाने तुम्हारे क़ब्ज़े में होते तो तुम ख़र्च हो जाने के डर से ज़रूर उनको रोक रखते।” हक़ीक़त में इनसान बड़ा तंगदिल है।112
112. यह इशारा उसी मज़मून की तरफ़ है जो इससे पहले आयत-55 “और तेरा रब ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसे ज़्यादा जानता है” में गुज़र चुका है। मक्का के मुशरिक लोग जिन नफ़सियाती (मनोवैज्ञानिक) वजहों से नबी (सल्ल०) की नुबूवत का इनकार करते थे उनमें से एक अहम वजह यह थी कि इस तरह उन्हें आप (सल्ल०) की बड़ाई और ऊँचे रुतबे को मानना पड़ता था, और अपने ज़माने के किसी आदमी और अपने बराबर के शख़्स की बड़ाई मानने के लिए इनसान मुश्किल ही से तैयार हुआ करता है। इसी पर कहा जा रहा है कि जिन लोगों की कंजूसी का हाल यह है कि किसी के हक़ीक़ी मर्तबे का इक़रार व एतिराफ़ करते हुए भी उनका दिल दुखता है, उन्हें अगर कहीं ख़ुदा ने अपनी रहमत के ख़ज़ानों की कुंजियाँ हवाले कर दी होतीं तो वे किसी को फूटी कौड़ी भी न देते।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَىٰ تِسۡعَ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۖ فَسۡـَٔلۡ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِذۡ جَآءَهُمۡ فَقَالَ لَهُۥ فِرۡعَوۡنُ إِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰمُوسَىٰ مَسۡحُورٗا ۝ 97
(101) हमने मूसा को नौ निशानियाँ दी थीं, जो साफ़ तौर से दिखाई दे रही थीं।113 अब यह तुम ख़ुद बनी-इसराईल से पूछ लो कि जब मूसा उनके यहाँ आए तो फ़िरऔन ने यही कहा था न कि “ऐ मूसा! मैं समझता हूँ कि तू ज़रूर एक जादू का मारा आदमी है।"114
113. ध्यान रहे की यह फिर मक्का को मुख़ालिफ़ों को मोजिज़ों की माँगों का जवाब दिया गया है, और यह तीसरा जवाब है। इस्लाम के न माननेवाले कहते थे कि हम तुमपर ईमान न लाएँगे जब तक तुम यह और यह काम करके न दिखाओ। जवाब में उनसे कहा जा रहा है कि तुमसे पहले फ़िरऔन को ऐसे ही साफ़ मोजिज़े, एक-दो नहीं, एक के बाद एक नौ दिखाए गए थे, फिर तुम्हें मालूम है कि जो न मानना चाहता था उसने उन्हें देखकर क्या कहा? और यह भी ख़बर है कि जब उसने मोजिज़े देखकर भी नबी को झुठलाया तो अंजाम क्या हुआ? वे नौ निशानियाँ जिनका यहाँ ज़िक्र किया गया है, इससे पहले सूरा-7 आराफ़ में गुज़र चुकी हैं। यानी असा (लाठी), जो अजगर बन जाता था, यदे-बैज़ा (सफ़ेद हाथ) जो बग़ल से निकालते ही सूरज की तरह चमकने लगता था, जादूगरों के जादू को सबके सामने हरा देना, एक एलान के मुताबिक़ सारे देश में अकाल पड़ जाना, और फिर एक के बाद एक तूफ़ान, टिड्डी दल, सुरसुरियों, मेंढकों और ख़ून की बलाओं का टूट पड़ना।
114. यह वही ख़िताब है जो मक्का के मुशरिक लोग नबी (सल्ल०) को दिया करते थे। इसी सूरा की आयत 47 में उनकी कही हुई यह बात गुज़र चुकी है कि “तुम तो एक जादू के मारे आदमी के पीछे चले जा रहे हो।” अब उनको बताया जा रहा हैं कि ठीक यही ख़िताब फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) को दिया था। इस जगह इसी सिलसिले की एक बात और भी है जिसकी तरफ़ हम इशारा कर देना ज़रूरी समझते हैं। मौजूदा दौर में हदीस को न माननेवालों ने हदीसों पर जो एतिराज़ किए हैं उनमें से एक एतिराज़ यह है कि हदीस के मुताबिक़ एक बार नबी (सल्ल०) पर जादू का असर हो गया था, हालाँकि क़ुरआन के मुताबिक़ इस्लाम को न माननेवालों का नबी (सल्ल०) पर यह झूठा इलज़ाम था कि आप (सल्ल०) एक जादू के मारे आदमी हैं। हदीस के न माननेवाले कहते हैं कि इस तरह हदीस के रावियों (बयान करनेवालों) ने क़ुरआन को झुठलाया और मक्का के इस्लाम-दुश्मनों की बात को सही ठहराया है। लेकिन यहाँ देखिए की ठीक इसी तरह क़ुरआन के मुताबिक़ हज़रत मूसा (अलैहि ) पर भी फ़िरऔन का यह झूठा इलज़ाम था कि आप एक जादू के मारे आदमी हैं और फिर क़ुरआन ख़ुद ही सूरा-20 ताहा में कहता है कि “जब जादूगरों ने अपने अंक्षर फेंके तो यकायक उनके जादू से मूसा को यह महसूस होने लगा कि उनकी लाठियाँ और रस्सियाँ दौड़ रही हैं, तो मूसा अपने दिल में डर-सा गया।” क्या ये अलफ़ाज़ साफ़ तौर पर दलील नहीं दे रहे है कि हज़रत मूसा उस वक़्त जादू से मुतास्सिर हो गए थे? और क्या उसके बारे में भी हदीस के इनकार करनेवाले यह कहने के लिए तैयार हैं कि यहाँ क़ुरआन ने ख़ुद अपने को झुठलाया और फ़िरऔन के झूठे बयान को सही ठहराया है? दरअस्ल इस तरह के एतिराज़ उठानेवालों को यह मालूम नहीं है कि मक्का के इस्लाम-दुश्मन और फ़िरऔन किस मानी में नबी (सल्ल०) और हज़रत मूसा को “जादू का मारा” कहते थे। उनका मतलब यह था कि किसी दुश्मन ने जादू करके उनको दीवाना बना दिया है और इसी दीवानगी के असर से ये नुबूवत (पैग़म्बरी) का दावा करते और एक निराला पैग़ाम सुनाते हैं। क़ुरआन उनके इसी इलज़ाम को झूठा ठहराता है। रहा वक़्ती तौर पर किसी शख़्स के जिस्म या जिस्म के किसी हिस्से का जादू से मुतास्सिर हो जाना तो यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे किसी शख़्स को पत्थर मारने से चोट लग जाए। इस चीज़ का न इस्लाम-दुश्मनों ने इलज़ाम लगाया था, न क़ुरआन ने इसको ग़लत कहा, और न इस तरह के किसी वक़्ती असर से नबी (सल्ल०) के मंसब पर कोई आँच आती है। नबी पर अगर ज़हर का असर हो सकता था, नबी अगर जख़्मी हो सकता था, तो उसपर जादू का असर भी हो सकता था। इससे नुबूवत के मंसब पर आँच आने की क्या वजह हो सकती है। नुबूबत के मंसब में अगर अड़चन हो सकती है तो यह बात कि नबी की अक़्ली व ज़ेहनी क़ुव्वतें जादू के असर में आ जाएँ, यहाँ तक कि उसका काम और बात सब जादू ही के असर में होने लगे। हक़ की मुख़ालफ़त करनेवाले हज़रत मूसा (अलैहि०) और नबी (सल्ल०) पर यही इलज़ाम लगाते थे और इसी को क़ुरआन ने ग़लत बताया है।
قَالَ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَآ أَنزَلَ هَٰٓؤُلَآءِ إِلَّا رَبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ بَصَآئِرَ وَإِنِّي لَأَظُنُّكَ يَٰفِرۡعَوۡنُ مَثۡبُورٗا ۝ 98
(102) मूसा ने उसके जवाब में कहा, “तू ख़ूब जानता है कि ये सूझबूझ बढ़ाने वाली निशानियाँ ज़मीन और आसमानों के रब के सिवा किसी ने नहीं उतारी हैं115, और मेरा ख़याल यह है कि ऐ फ़िरऔन! तू ज़रूर शामत का मारा हुआ एक आदमी है।"116
115. यह बात हज़रत मूसा (अलैहि०) ने इसलिए कही कि किसी देश में अकाल पड़ जाना, या लाखों मील ज़मीन पर फैले हुए इलाक़े में मेंढकों का एक बला की तरह निकलना, या पूरे देश के अनाज के गोदामों में घुन लग जाना, और ऐसी ही दूसरी आम मुसीबतें किसी जादूगर के जादू, या किसी इनसानी ताक़त के करतब से नहीं आ सकतीं। फिर जबकि हर बला के आने से पहले हज़रत मूसा (अलैहि०) फ़िरऔन को नोटिस दे देते थे कि अगर तूने अपनी हठधर्मी न छोड़ी तो यह बला तेरी सल्तनत पर मुसल्लत की जाएगी, और ठीक उनके बयान के मुताबिक़ वही बला पूरी सल्तनत पर टूट पड़ती थी, तो इस सूरत में सिर्फ़ एक दीवाना या एक बहुत ही हठधर्म आदमी ही यह कह सकता था कि इन बलाओं का टूट पड़ना ज़मीन व आसमानों के रब के सिवा किसी और की कारिस्तानी का नतीजा है।
116. यानी मैं तो जादू का मारा नहीं हूँ मगर तू ज़रूर शामत का मारा है। तेरा इन ख़ुदाई निशानियों को एक-के-बाद एक देखने के बाद भी अपनी ज़िद पर क़ायम रहना साफ़ बता रहा है कि तेरी शामत आ गई है।
وَقُلۡنَا مِنۢ بَعۡدِهِۦ لِبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱسۡكُنُواْ ٱلۡأَرۡضَ فَإِذَا جَآءَ وَعۡدُ ٱلۡأٓخِرَةِ جِئۡنَا بِكُمۡ لَفِيفٗا ۝ 99
(104) और इसके बाद बनी-इसराईल से कहा कि अब तुम ज़मीन में बसो117, फिर जब आख़िरत के वादे का वक़्त आ पहुँचेगा तो हम तुम सबको एक साथ ला हाज़िर करेंगे।
117. यह है अस्ल मक़सद इस क़िस्से को बयान करने का। मक्का के मुशरिक लोग इस फ़िक्र में थे कि मुसलमानों को और नबी (सल्ल०) को अरब की धरती से मिटा दें। इसपर उन्हें यह सुनाया जा रहा है कि यही कुछ फ़िरऔन ने मूसा (अलैहि०) और बनी-इसराईल के साथ करना चाहा था। मगर हुआ यह फ़िरऔन और उसके साथी मिटा दिए गए और ज़मीन पर मूसा (अलैहि०) और उनकी पैरवी करनेवाले ही बसाए गए। अब अगर इसी रास्ते पर तुम चलोगे तो तुम्हारा अंजाम इससे कुछ भी अलग न होगा।
وَبِٱلۡحَقِّ أَنزَلۡنَٰهُ وَبِٱلۡحَقِّ نَزَلَۗ وَمَآ أَرۡسَلۡنَٰكَ إِلَّا مُبَشِّرٗا وَنَذِيرٗا ۝ 100
(105) इस क़ुरआन को हमने हक़ के साथ उतारा है और हक़ ही के साथ यह उतरा है, और ऐ नबी! तुम्हें हमने इसके सिवा और किसी काम के लिए नहीं भेजा कि (जो मान ले उसे) ख़ुशख़बरी दे दो और (जो न माने उसे) ख़बरदार कर दो।118
118. यानी तुम्हारे ज़िम्मे यह काम नहीं किया गया है कि जो लोग क़ुरआन की तालीमात को जाँचकर हक़ (सत्य) और बातिल (असत्य) का फ़ैसला करने के लिए तैयार नहीं हैं, उनको तुम पानी के चश्मे निकालकर और बाग़ उगाकर और आसमान फ़ाड़कर किसी-न-किसी तरह ईमानवाला बनाने की कोशिश करो, बल्कि तुम्हारा काम सिर्फ़ यह है कि लोगों के सामने हक़ बात पेश कर दो और फिर उन्हें साफ़-साफ़ बता दो कि जो इसे मानेगा वह अपना ही भला करेगा और जो न मानेगा वह बुरा अंजाम देखेगा।
وَقُرۡءَانٗا فَرَقۡنَٰهُ لِتَقۡرَأَهُۥ عَلَى ٱلنَّاسِ عَلَىٰ مُكۡثٖ وَنَزَّلۡنَٰهُ تَنزِيلٗا ۝ 101
(106) और इस क़ुरआन को हमने थोड़ा-थोड़ा करके उतारा है, ताकि तुम ठहर-ठहरकर इसे लोगों को सुनाओ, और इसे हमने (मौके-मौक़े से) तरतीब के साथ उतारा है।119
119. यह मुख़ालफ़त करनेवालों के इस शक का जवाब है कि अल्लाह मियाँ को पैग़ाम भेजना था तो पूरा पैग़ाम एक ही वक़्त में क्यों न भेज दिया? यह आख़िर ठहर-ठहरकर थोड़ा-थोड़ा पैग़ाम क्यों भेजा जा रहा है? क्या ख़ुदा को भी इनसानों की तरह सोच-सोचकर बात करने की ज़रूरत पड़ती है? इस शक का तफ़सीली जवाब सूरा-16 नह्ल, आयतें—101, 102 में गुज़र चुका है और वहाँ हम इसकी तशरीह भी कर चुके हैं, इसलिए यहाँ उसको दोहराने की ज़रूरत नहीं है।
قُلۡ ءَامِنُواْ بِهِۦٓ أَوۡ لَا تُؤۡمِنُوٓاْۚ إِنَّ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ مِن قَبۡلِهِۦٓ إِذَا يُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ يَخِرُّونَۤ لِلۡأَذۡقَانِۤ سُجَّدٗاۤ ۝ 102
(107) ऐ नबी! इन लोगों से कह दो कि तुम इसे मानो या न मानो, जिन लोगों इससे पहले इल्म दिया गया है120 उन्हें जब यह सुनाया जाता है तो वे मुँह के बल सजदे में गिर जाते हैं
120. यानी वे अहले-किताब जो आसमानी किताबों की तालीमात को जानते हैं और उनके अन्दाज़े-कलाम (भाषा-शैली) को पहचानते हैं।
وَيَقُولُونَ سُبۡحَٰنَ رَبِّنَآ إِن كَانَ وَعۡدُ رَبِّنَا لَمَفۡعُولٗا ۝ 103
(108) और पुकार उठते हैं, “पाक है हमारा रब! उसका वादा तो पूरा होना ही था।"121
121. यानी क़ुरआन को सुनकर वे फ़ौरन समझ जाते हैं कि जिस नबी के आने का वादा पिछले नबियों के सहीफ़ों (ग्रन्थों) में किया गया था वह आ गया है।
وَيَخِرُّونَ لِلۡأَذۡقَانِ يَبۡكُونَ وَيَزِيدُهُمۡ خُشُوعٗا۩ ۝ 104
(109) और वे मुँह के बल रोते हुए गिर जाते हैं और उसे सुनकर उनका ख़ुशूअ (विनम्रता) और बढ़ जाता है।122
122. अच्छे और नेक अहले-किताब के इस रवैये का ज़िक्र क़ुरआन में कई जगहों पर किया गया है। मसलन सूरा-3 आले-इमरान, आयतें—113 से 115, 199 और सूरा-5 माइदा, आयतें—82 से 85।
قُلِ ٱدۡعُواْ ٱللَّهَ أَوِ ٱدۡعُواْ ٱلرَّحۡمَٰنَۖ أَيّٗا مَّا تَدۡعُواْ فَلَهُ ٱلۡأَسۡمَآءُ ٱلۡحُسۡنَىٰۚ وَلَا تَجۡهَرۡ بِصَلَاتِكَ وَلَا تُخَافِتۡ بِهَا وَٱبۡتَغِ بَيۡنَ ذَٰلِكَ سَبِيلٗا ۝ 105
(110) ऐ नबी! इनसे कहो, “अल्लाह कहकर पुकारो या रहमान कहकर, जिस नाम से भी पुकारो उसके लिए सब अच्छे ही नाम हैं।"123 और अपनी नमाज़ न ज़्यादा ऊँची आवाज़ से पढ़ो और न ज़्यादा धीमी आवाज़ से, इन दोनों के बीच औसत दरजे का लहजा (स्वर) अपनाओ।124
123. यह जवाब है मुशरिकों के इस एतिराज़ का कि ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) के लिए “अल्लाह” का नाम तो हमने सुना था, मगर यह “रहमान” का नाम तुमने कहाँ से निकाला? उनके यहाँ चूँकि अल्लाह तआला के लिए यह नाम राइज न था, इसलिए वे इसपर नाक-भौं चढ़ाते थे।
124. इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का बयान है कि मक्का में जब नबी (सल्ल०) या दूसरे सहाबा नमाज़ पढ़ते वक़्त बुलन्द आवाज़ से क़ुरआन पढ़ते थे तो इस्लाम-दुश्मन शोर मचाने लगते और कई बार गालियों की बौछार शुरू कर देते थे। इसपर हुक्म हुआ कि न तो इतने ज़ोर से पढ़ो कि इस्लाम को न माननेवाले सुनकर हँगामा करें और न इतने ज़्यादा धीमे पढ़ो कि तुम्हारे अपने साथी भी न सुन सकें। यह हुक्म सिर्फ़ उन्हीं हालात के लिए था। मदीना में जब हालात बदल गए तो यह हुक्म बाक़ी न रहा। अलबत्ता जब कभी मुसलमानों को मक्का के जैसे हालात का सामना करना पड़े, उन्हें इसी हिदायत के मुताबिक़ अमल करना चाहिए।
وَقُلِ ٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ ٱلَّذِي لَمۡ يَتَّخِذۡ وَلَدٗا وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ شَرِيكٞ فِي ٱلۡمُلۡكِ وَلَمۡ يَكُن لَّهُۥ وَلِيّٞ مِّنَ ٱلذُّلِّۖ وَكَبِّرۡهُ تَكۡبِيرَۢا ۝ 106
(111) और कहो, तारीफ़ है उस अल्लाह के लिए जिसने न किसी को बेटा बनाया, न कोई बादशाही में उसका शरीक है और न वह बेबस है कि कोई उसका सहारा हो।125 और उसकी बड़ाई बयान करो, सबसे ऊँचे दरजे की बड़ाई।"
125. इस जुमले में एक लतीफ़ (सूक्ष्म) तंज़ है उन मुशरिकों के अक़ीदों पर जो अलग-अलग देवताओं और बुज़ुर्ग इनसानों के बारे में यह समझते हैं कि अल्लाह मियाँ ने अपनी ख़ुदाई के अलग-अलग शोबे या अपनी सल्तनत के मुख़्तलिफ़ इलाक़े उनके इन्तिज़ाम में दे रखे हैं। इस बेकार के अक़ीदे का साफ़ मतलब यह है कि अल्लाह तआला ख़ुद अपनी ख़ुदाई का बोझ नहीं संभाल सकता इसलिए वह अपने मददगार तलाश कर रहा है। इसी वजह से कहा गया कि अल्लाह बेबस नहीं है कि उसे कुछ डिप्टियों और मददगारों की ज़रूरत हो।
وَإِذۡ قُلۡنَا لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ ٱسۡجُدُواْ لِأٓدَمَ فَسَجَدُوٓاْ إِلَّآ إِبۡلِيسَ قَالَ ءَأَسۡجُدُ لِمَنۡ خَلَقۡتَ طِينٗا ۝ 107
(61) और याद करो जबकि हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो, तो सबने सजदा किया, मगर इबलीस ने न किया।74 उसने कहा, “क्या मैं उसको सजदा करूँ जिसे तूने मिट्टी से बनाया है?”
74. तक़ाबुल (तुलना) के लिए देखें— सूरा-2 बक़रा, आयतें—30 से 39; सूरा-4 निसा, आयतें—117 से 121; सूरा-7 आराफ़, आयतें—11 से 25; सूरा-15 हिज्र आयतें—26 से 42 और सूरा-14 इबराहीम, आयत-22। बात के इस सिलसिले में यह क़िस्सा अस्ल में यह बात ज़ेहन में बिठाने के लिए बयान किया जा रहा है कि अल्लाह के मुक़ाबले में इन काफ़िरों का यह घमंड, अकड़ और तंबीहात से उनकी यह लापरवाही और भटकाव पर उनका यह अड़े रहना ठीक-ठीक उस शैतान की पैरवी है जो शुरू से इनसान का दुश्मन है, और इस रविश को अपनाकर दर हक़ीक़त ये लोग इस जाल में फँस रहे हैं जिसमें आदम की औलाद को फाँसकर तबाह कर देने के लिए शैतान ने तारीख़ (इतिहास) के शुरू में चैलेंज किया था।
قَالَ أَرَءَيۡتَكَ هَٰذَا ٱلَّذِي كَرَّمۡتَ عَلَيَّ لَئِنۡ أَخَّرۡتَنِ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَأَحۡتَنِكَنَّ ذُرِّيَّتَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 108
(62) फिर वह बोला, “देख तो सही, क्या यह इस क़ाबिल था कि तूने इसे मुझपर फ़ज़ीलत (बड़ाई) दी? अगर तू मुझे क़ियामत के दिन तक मुहलत दे तो मैं इसकी पूरी नस्ल की जड़ उखाड़ डालूँ,75 बस थोड़े ही लोग मुझसे बच सकेंगे।”
75. “जड़ से उखाड़ डालूँ” यानी उनके क़दम सलामती की राह से उखाड़ फेंकूँ। अरबी में लफ़्ज़ 'इहतिनाक' इस्तेमाल हुआ है जिसके अस्ल मानी किसी चीज़ को जड़ से उखाड़ देने के हैं। चूँकि इनसान का अस्ल मक़ाम अल्लाह की ख़िलाफ़त (प्रतिनिधित्व) है, जिसका तक़ाज़ा फ़रमाबरदारी में जमे रहना है, इसलिए इस मक़ाम से उसका हट जाना बिलकुल ऐसा है जैसे किसी पेड़ का जड़ से उखाड़ फेंका जाना।
قَالَ ٱذۡهَبۡ فَمَن تَبِعَكَ مِنۡهُمۡ فَإِنَّ جَهَنَّمَ جَزَآؤُكُمۡ جَزَآءٗ مَّوۡفُورٗا ۝ 109
(63) अल्लाह ने फ़रमाया, “अच्छा तो जा, इनमें से जो भी तेरी पैरवी करें, तुझ समेत उन सबके लिए जहन्न्म ही भरपूर बदला है।
فَأَرَادَ أَن يَسۡتَفِزَّهُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ فَأَغۡرَقۡنَٰهُ وَمَن مَّعَهُۥ جَمِيعٗا ۝ 110
(103) आख़िरकार फ़िरऔन ने इरादा किया कि मूसा और बनी-इसराईल को ज़मीन से उखाड़ फेंके, मगर हमने उसको और उसके साथियों को इकट्ठा डुबो दिया