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سُورَةُ التِّينِ

95. अत-तीन

(मक्का में उतरी, आयतें 8)

परिचय

नाम

आयत के पहले ही शब्द 'अत-तीन' (इंजीर) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

क़तादा (रह०) कहते हैं कि यह सूरा मदनी है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से दो कथन उल्लिखित हैं। एक यह कि यह मक्की है और दूसरा यह कि मदनी है, लेकिन अधिकतर विद्वान इसे मक्की ही क़रार देते हैं और इसके मक्की होने की खुली निशानी यह है कि इसमें मक्का नगर के लिए 'हाज़ल ब-ल-दिल अमीन' (अमनवाले शहर) के शब्द प्रयुक्त हुए हैं। स्पष्ट है कि अगर यह मदीना में उतरी होती तो मक्का के लिए यह शहर' कहना सही नहीं हो सकता था। इसके अतिरिक्त सूरा की वार्ताओं पर विचार करने से महसूस होता है कि यह मक्का के भी आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

इसका विषय है इनाम और सज़ा की पुष्टि। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले महान नबियों के नियुक्ति-स्थलों की क़सम खाकर कहा गया है कि अल्लाह ने इंसान को बेहतरीन बनावट पर पैदा किया है। यद्यपि इस वास्तविकता को दूसरे स्थानों पर क़ुरआन मजीद में विभिन्न तरीक़ों से बयान किया गया है। जैसे, कहीं कहा गया कि इंसान को अल्लाह ने धरती पर अपना ख़लीफ़ा (प्रतिनिधि) बनाया और फ़रिश्तों को उसके आगे सज्दा करने का आदेश दिया (सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-30-34; सूरा-6 अल-अनआम, आयत-162; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत-11; सूरा-15 अल-हिज्र, आयत-28-29; सूरा-27 अन-नम्ल, आयत-62; सूरा-38 सॉद, आयत-71-73) । कहीं कहा गया कि इंसान उस ईश्वरीय अमानत का वाहक हुआ है, जिसे उठाने की शक्ति ज़मीन, आसमान और पहाड़ों में भी न थी (सूरा-33 अहज़ाब, आयत-72)। कहीं कहा कि हमने आदम की सन्तान को आदर प्रदान किया और अपनी बहुत-सी रचनाओं पर श्रेष्ठता प्रदान की (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-70)। लेकिन यहाँ मुख्य रूप से नबियों के नियुक्ति-स्थलों की क़सम खाकर यह कहना कि इंसान को सबसे अच्छी बनावट पर पैदा किया गया है, यह अर्थ रखता है कि मानव जाति को इतनी अच्छी बनावट प्रदान की गई कि उसके भीतर नुबूवत (पैग़म्बरी) जैसे उच्चतम पद के भार-वाहक लोग पैदा हुए, जिससे ऊँचा पद अल्लाह की किसी दूसरी रचना को नहीं मिला। इसके बाद यह बताया गया है कि इंसानों में दो तरह के लोग पाए जाते हैं—

एक वे जो इस अति उत्तम बनावट में पैदा होने के बाद बुराई की ओर झुक जाते हैं और गिरते-गिरते नैतिक पतन की उस सीमा को पहुँच जाते हैं, जहाँ उनसे ज़्यादा नीच कोई प्राणी नहीं होता।

दूसरे वे जो ईमान और अच्छे कर्म का रास्ता अपनाकर इस गिरावट से बच जाते हैं और उस उच्च स्थान पर क़ायम रहते हैं जो उनके सर्वोत्तम बनावट पर पैदा होने का अनिवार्य तक़ाज़ा है। अन्त में इस वास्तविकता के आधार पर यह साबित किया गया है कि जब इंसानों में दो अलग-अलग और एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न प्रकार पाए जाते हैं तो फिर कर्मों के फल का कैसे इंकार किया जा सकता है। फलस्वरूप दोनों [प्रकार के इंसानों] का फल एक जैसा हो तो इसका अर्थ यह है कि ईश्वर के यहाँ कोई न्याय नहीं है, हालाँकि मानव-प्रकृति और इंसान की सामान्य बुद्धि यह तक़ाज़ा करती है कि जो व्यक्ति भी शासक हो, वह न्याय करे। फिर यह कैसे सोचा जा सकता है कि अल्लाह, जो सब शासकों से बड़ा शासक है, न्याय नहीं करेगा।

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سُورَةُ التِّينِ
95. अत-तीन
بِّسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلتِّينِ وَٱلزَّيۡتُونِ
(1) क़सम है इंजीर और ज़ैतून की1,
1. इसकी तफ़सीर में क़ुरआन के आलिमों के बीच बहुत इख़्तिलाफ़ हुआ है। हसन बसरी, इक्रिमा, अता-बिन-अबी-रबाह, जाबिर-बिन-ज़ैद, मुजाहिद और इबराहीम नख़ई (रह०) कहते हैं कि अंजीर से मुराद यही अंजीर है जिसे लोग खाते हैं और ज़ैतून भी यही ज़ैतून है जिससे तेल निकाला जाता है। इब्ने-अबी हातिम और हाकिम ने एक राय हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से भी इसकी ताईद में नक़्ल की है। और जिन आलिमों ने इस तफ़सीर को क़ुबूल किया है उन्होंने अंजीर और ज़ैतून की ख़ासियतें और फ़ायदे बयान करके यह राय ज़ाहिर की है कि अल्लाह तआला ने इन्हीं ख़ूबियों की वजह से इन दोनों फलों की क़सम खाई है। इसमें शक नहीं कि एक आम अरबी जाननेवाला तीन और ज़ैतून के अलफ़ाज़ सुनकर वही मतलब लेगा जो अरबी ज़बान में जाने जाते हैं। लेकिन दो वजहें ऐसी हैं जो यह मतलब लेने में रुकावट हैं। एक यह कि आगे तूरे-सीना और मक्का शहर की क़सम खाई गई है, और दो फलों के साथ दो जगहों की क़सम खाने में कोई जोड़ नज़र नहीं आता। दूसरे इन चार चीज़ों की क़सम खाकर आगे जो बात बयान की गई है उसपर तूरे-सीना और मक्का शहर तो दलील बनते हैं, लेकिन ये दो फल उसपर दलील नहीं बनते। अल्लाह तआला ने क़ुरआन मजीद में जहाँ भी किसी चीज़ की क़सम खाई है, उसकी बड़ाई या उसके फ़ायदों की बुनियाद पर नहीं खाई, बल्कि हर क़सम उस बात पर दलील बनती है जो क़सम खाने के बाद बयान की गई है। इसलिए इन दोनों फलों की ख़ासियतों को क़सम की वजह नहीं ठहराया जा सकता। कुछ दूसरे तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने तीन और ज़ैतून से मुराद कुछ जगहें ली हैं। कअ्बे-अहबार, क़तादा और इब्ने-ज़ैद कहते हैं कि तीन से मुराद दमिश्क़ है और ज़ैतून से मुराद बैतुल-मक़दिस। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का एक क़ौल (कथन) इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम और इब्ने-मरदुवैह ने यह नक़्ल किया है कि तीन से मुराद हज़रत नूह (अलैहि०) की वह मस्जिद है जो उन्होंने जूदी पहाड़ पर बनाई थी और ज़ैतून से मुराद बैतुल-मक़दिस है। लेकिन ‘वत-तीनि वज़-ज़ैतूनि’ के अलफ़ाज़ सुनकर ये मतलब एक आम अरब के ज़ेहन में भी नहीं आ सकते थे और न यह बात उन अरबवालों में आम थी, जो यह आयत सुन रहे थे, कि तीन और ज़ैतून इन जगहों के नाम हैं। अलबत्ता यह तरीक़ा अरबवालों में राइज (प्रचलित) था कि जो फल किसी इलाक़े में बहुतायत से पैदा होता हो उस इलाक़े को वह कभी-कभी उस फल का नाम दे देते थे। इस मुहावरे के लिहाज़ से ‘तीन’ और ‘ज़ैतून’ के अलफ़ाज़ का मतलब अंजीर और ज़ैतून की पैदावार का इलाक़ा हो सकता है, और वह शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन का इलाक़ा है, क्योंकि उस ज़माने के अरबवालों में यही इलाक़ा अंजीर और ज़ैतून की पैदावार के लिए मशहूर था। इब्ने-तैमिया (रह०), इब्नुल-कय्यिम (रह०), ज़मख़शरी (रह०) और आलूसी (रह०) ने इसी तफ़सीर को अपनाया है। और इब्ने-जरीर ने भी अगरचे पहले क़ौल को अहमियत दी है, मगर इसके साथ यह बात मानी है कि ‘तीन’ और ‘ज़ैतून’ से मुराद इन फलों की पैदावार का इलाक़ा भी हो सकता है। हाफ़िज़ इब्ने-कसीर ने भी इस तफ़सीर को मानने लायक़ समझा है।
وَطُورِ سِينِينَ ۝ 1
(2) और तूरे-सीना2
2. अस्ल अरबी में ‘तूरि सीनीन’ कहा गया है। ‘सीनीन’ जज़ीरा नुमा (प्रायद्वीप) ‘सीना’ का दूसरा नाम है। इसको ‘सैना’ या ‘सीना’ भी कहते हैं और ‘सीनीन’ भी। ख़ुद क़ुरआन में एक जगह ‘तूरि-सैना’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। अब चूँकि वह इलाक़ा जिसमें तूर पहाड़ है सीना ही के नाम से मशहूर है, इसलिए हमने तर्जमे में इसका यही मशहूर नाम लिखा है।
وَهَٰذَا ٱلۡبَلَدِ ٱلۡأَمِينِ ۝ 2
(3) और इस अम्नवाले शहर (मक्का) की,
لَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ فِيٓ أَحۡسَنِ تَقۡوِيمٖ ۝ 3
(4) हमने इनसान को बेहतरीन बनावट पर पैदा किया,3
3. यह है वह बात जिसपर अंजीर और ज़ैतून के इलाक़े यानी शाम और फ़िलस्तीन और तूर पहाड़ और मक्का के अम्नवाले शहर की क़सम खाई गई है। इनसान के बेहतरीन बनावट पर पैदा किए जाने का मतलब यह है कि उसको वह आला दर्जे का जिस्म दिया गया है जो किसी दूसरी मख़लूक़ (सृष्टि) को नहीं दिया गया, और उसे सोच-समझ, इल्म और अक़्ल की वे ऊँचे दर्जे की क़ाबिलियतें दी गई हैं जो किसी दूसरी मख़लूक़ को नहीं दी गईं। फिर चूँकि इनसानों की इस बड़ाई (श्रेष्ठता) और ख़ूबी का सबसे ज़्यादा बुलन्द नमूना पैग़म्बर (अलैहि०) हैं और किसी मख़लूक़ के लिए इससे ऊँचा कोई मर्तबा नहीं हो सकता कि अल्लाह तआला उसे नुबूवत (पैग़म्बरी) का मंसब देने के लिए चुने, इसलिए इनसान के बेहतरीन बनावट पर होने की गवाही में उन जगहों की क़सम खाई गई है जो ख़ुदा के पैग़म्बरों से ताल्लुक़ रखते हैं। शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन का इलाक़ा वह इलाक़ा है जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) से लेकर हज़रत ईसा (अलैहि०) तक बहुत-से पैग़म्बर भेजे गए। तूर पहाड़ वह मक़ाम है जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बरी दी गई। रहा मक्का तो उसकी बुनियाद ही हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) के हाथों पड़ी, उन्हीं की बदौलत वह अरब का सबसे पाक और क़ाबिले-एहतिराम मर्कज़ी (केन्द्रीय) शहर बना, हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ही ने यह दुआ माँगी थी कि “ऐ मेरे रब! इसको एक अम्नवाला शहर बना।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-126)। और इसी दुआ की यह बरकत थी कि अरब में हर तरफ़ फैली हुई बदअम्नी के बीच सिर्फ़ यही एक शहर ढाई हज़ार साल से अम्न का घर बना हुआ था। इसलिए बात का मक़सद यह है कि हमने इनसानों को ऐसी बेहतरीन बनावट पर बनाया कि उसमें नुबूवत जैसे बड़े मंसब की ज़िम्मेदारी सँभालनेवाले इनसान पैदा हुए।
ثُمَّ رَدَدۡنَٰهُ أَسۡفَلَ سَٰفِلِينَ ۝ 4
(5) फिर उसे उलटा फेरकर सब नीचों से नीच कर दिया,4
4. क़ुरआन के आलिमों ने आम तौर पर इसके दो मतलब बयान किए हैं। एक यह कि हमने उसे सबसे निचले दर्जे की उम्र, यानी बुढ़ापे की ऐसी हालत की तरफ़ फेर दिया जिसमें वह कुछ सोचन-समझने और काम करने के क़ाबिल न रहा। दूसरे यह कि हमने उसे जहन्नम के सबसे नीचे दर्जे की तरफ़ फेर दिया। लेकिन ये दोनों मतलब बात के उस मक़सद के लिए दलील नहीं बन सकते जिसे साबित करने के लिए यह सूरा उतरी है। सूरा का मक़सद इनाम और सज़ा के सही होने पर दलील देना है। इसपर न यह बात दलील बनती है कि इनसानों में से कुछ लोग बुढ़ापे की इन्तिहाई कमज़ोर हालत को पहुँचा दिए जाते हैं, और न यही बात दलील बनती है कि इनसानों का एक गरोह जहन्नम में डाला जाएगा। पहली बात इसलिए इनाम और सज़ा की दलील नहीं बन सकती कि बुढ़ापे की हालत अच्छे और बुरे, दोनों तरह के लोगों पर आती है, और किसी का इस हालत को पहुँचना कोई सज़ा नहीं है जो उसे उसके आमाल (कर्मों) पर दी जाती हो। रही दूसरी बात, तो वह आख़िरत में पेश आनेवाला मामला है। उसे उन लोगों के सामने दलील के तौर पर कैसे पेश किया जा सकता है जिन्हें आख़िरत ही के इनाम और सज़ा को मनवाने के लिए ये सारी दलीलें दी जा रही हैं? इसलिए हमारे नज़दीक आयत का सही मतलब यह है कि बेहतरीन बनावट पर पैदा किए जाने के बाद जब इनसान अपने जिस्म और ज़ेहन की ताक़तों को बुराई के रास्ते में इस्तेमाल करता है तो अल्लाह तआला उसे बुराई ही की तौफ़ीक़ देता है और गिराते-गिराते उसे गिरावट की उस हद तक पहुँचा देता है कि कोई मख़लूक़ गिरावट में उस हद को पहुँची हई नहीं होती। यह एक ऐसी हक़ीक़त है जो इनसानी समाज के अन्दर बहुत ज़्यादा देखने में आती है। हिर्स, लालच, ख़ुदग़रज़ी, शहवत (वासना) की भूख, नशाबाज़ी, कमीनापन, ग़ुस्से में आपे से बाहर हो जाना और ऐसी ही दूसरी आदतों में जो लोग मुब्तला हो जाते हैं वे अख़लाक़ी हैसियत से सचमुच सब नीचों-से-नीच होकर रह जाते हैं। मिसाल के तौर पर सिर्फ़ इसी एक बात को लीजिए कि एक क़ौम जब दूसरी क़ौम की दुश्मनी में अन्धी हो जाती है तो किस तरह दरिन्दगी में तमाम दरिन्दों को मात कर देती है। दरिन्दा तो सिर्फ़ अपने खाने के लिए किसी जानवर का शिकार करता है, जानवरों का क़त्ले-आम नहीं करता। मगर इनसान ख़ुद अपने ही जैसे इनसानों का क़त्ले-आम करता हैं, दरिन्दा सिर्फ़ अपने पंजों और दाँतों से काम लेता है, लेकिन यह सबसे अच्छी बनावट पर पैदा होनेवाला इनसान अपनी अक़्ल से काम लेकर तोप, बन्दूक़, टैंक, हवाई जहाज़, एटम बम, हाइड्रोजन बम और दूसरे अनगिनत हथियार ईजाद करता है, ताकि कुछ पलों ही में पूरी-पूरी बस्तियों को तबाह करके रख दे। दरिन्दा सिर्फ़ ज़ख़्मी करता या जान से मार डालता है। मगर इनसान अपने ही जैसे इनसानों को तकलीफ़ देने के ऐसे-ऐसे दर्दनाक तरीक़े निकालता है जिनका ख़याल भी कभी किसी दरिन्दे के दिमाग़ में नहीं आ सकता। फिर यह अपनी दुश्मनी और इन्तिक़ाम की आग ठण्डी करने के लिए कमीनेपन की इस हद को पहुँचता है कि औरतों के नंगे जुलूस निकालता है, एक-एक औरत को दस-दस बीस-बीस आदमी अपनी हवस का शिकार बनाते हैं, बापों और भाइयों और शौहरों के सामने उनके घर की औरतों की इज़्ज़त लूटते हैं, बच्चों को उनके माँ-बाप के सामने क़त्ल करते हैं, माओं को अपने बच्चों का ख़ून पीने पर मजबूर करते हैं, इनसानों को ज़िन्दा जलाते और ज़िन्दा दफ़्न करते हैं। दुनिया में जंगली-से-जंगली जानवरों की भी कोई क़िस्म (जाति) ऐसी नहीं है जो इनसान के इस जंगलीपन का किसी दर्जे में भी मुक़ाबला कर सकती हो। यही हाल दूसरी बुरी ख़ासियतों का भी है कि उनमें से जिसकी तरफ़ भी इनसान रुख़ करता है, अपने आपको मख़लूक़ (सृष्टि) में सबसे नीच साबित कर देता है। यहाँ तक कि मज़हब, जो इनसान के लिए सबसे ज़्यादा पाक और क़ाबिले-क़द्र चीज़ है, उसको भी वह इतना गिरा देता है कि पेड़ों, जानवरों और पत्थरों को पूजते-पूजते नीचता की हद को पहुँचकर मर्द और औरत के जिंसी हिस्सों (यौनांगों) तक को पूज डालता है, और देवताओं की ख़ुशनूदी के लिए इबादतगाहों में देवदासियाँ रखता है, जिनसे ज़िना (व्यभिचार) सवाब (पुण्य) का काम समझकर किया जाता है। जिन हस्तियों को वह देवता और माबूद (उपास्य) का दर्जा देता है उनकी तरफ़ उसकी देवमाला में ऐसी-ऐसी गन्दी कहानियाँ जुड़ी होती हैं जो नीच-से-नीच इनसान के लिए भी शर्म की बात हैं।
إِلَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَلَهُمۡ أَجۡرٌ غَيۡرُ مَمۡنُونٖ ۝ 5
(6) सिवाय उन लोगों के जो ईमान लाए और नेक अमल करते रहे कि उनके लिए कभी ख़त्म न होनेवाला अज्र (इनाम) है।5
5. क़ुरआन के जिन आलिमों ने ‘अस्फ़-ल साफ़िलीन’ से मुराद बुढ़ापे की वह हालत ली है जिसमें इनसान अपने होश-हवास खो बैठता है, वे इस आयत का मतलब यह बयान करते हैं कि “मगर जिन लोगों ने अपनी जवानी और तन्दुरुस्ती की हालत में ईमान लाकर नेक आमाल किए हों उनके लिए बुढ़ापे की इस हालत में भी वही नेकियाँ लिखी जाएँगी और उन्हीं के मुताबिक़ वे बदला पाएँगे। उनके बदले में इस वजह से कोई कमी न की जाएगी कि उम्र के इस दौर में उनसे वे नेकियाँ न हो सकीं।” और क़ुरआन के जो आलिम ‘अस्फ़-ल साफ़िलीन’ की तरफ़ फेरे जाने का मतलब जहन्नम के सबसे निचले दर्जे में फेंक दिया जाना लेते हैं, उनके नज़दीक इस आयत का मतलब यह है कि “ईमान लाकर नेक अमल करनेवाले लोग इससे अलग हैं, वे इस दर्जे की तरफ़ नहीं फेरे जाएँगे, बल्कि उनको वह इनाम मिलेगा जिसका सिलसिला कभी न टूटेगा।” लेकिन ये दोनों मतलब उस दलील से मेल नहीं खाते जो इनाम और सज़ा के सच होने पर इस सूरत में दी गई है। हमारे नज़दीक आयत का सही मतलब यह है कि जिस तरह इनसानी समाज में यह आम तौर से देखी जानेवाली बात है कि अख़लाक़ी गिरावट में गिरनेवाले लोग गिरते-गिरते सब नीचों से नीच हो जाते हैं, उसी तरह यह भी हर ज़माने में आम तौर से देखा गया है कि जो लोग ख़ुदा, आख़िरत और पैग़म्बर पर ईमान लाए और जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी अच्छे कामों के साँचे में ढाल ली, वे इस गढ़े में गिरने से बच गए और उसी बेहतरीन बनावट पर क़ायम रहे जिसपर अल्लाह ने इनसान को पैदा किया था, इसलिए वे ‘अजरुन ग़ैरु मम्नून’ के हक़दार हैं, यानी ऐसे इनाम के जो न उनके हक़ से कम दिया जाएगा, और न उसका सिलसिला कभी टूटेगा।
فَمَا يُكَذِّبُكَ بَعۡدُ بِٱلدِّينِ ۝ 6
(7) तो (ऐ नबी) इसके बाद कौन इनाम और सज़ा के मामले में तुमको झुठला सकता है?6
6. दूसरा तर्जमा इस आयत का यह भी हो सकता है कि “तो (ऐ इनसान!) इसके बाद क्या चीज़ तुझे इनाम और सज़ा को झुठलाने पर उभारती है।” दोनों सूरतों में मंशा और मक़सद एक ही रहता है। यानी जब यह बात खुल्लम-खुल्ला इनसानी समाज में नज़र आती है कि बेहतरीन बनावट पर पैदा किए हुए इनसानों में से एक गरोह अख़लाक़ी गिरावट में गिरते-गिरते सब नीचों से नीच हो जाता है और दूसरा गरोह ईमान और नेक अमल इख़्तियार करके इस गिरावट से बचा रहता है और उसी हालत पर क़ायम रहता है जो बेहतरीन बनावट पर इनसान के पैदा किए जाने का तक़ाज़ा थी, तो इसके बाद इनाम और सज़ा को कैसे झुठलाया जा सकता है? क्या अक़्ल यह कहती है कि दोनों तरह के इनसानों का अंजाम एक जैसा हो? क्या इनसाफ़ यही चाहता है कि न ‘अस्फ़-ल साफ़िलीन’ (सब नीचों-से-नीच) में गिरनेवालों को कोई सज़ा दी जाए और न उससे बचकर पाकीज़ा ज़िन्दगी गुज़ारनेवालों को कोई इनाम? यही बात दूसरी जगहों पर क़ुरआन में इस तरह कही गई है कि “क्या हम फ़रमाँबरदारों को मुजरिमों की तरह कर दें? तुम्हें क्या हो गया है, तुम कैसे हुक्म लगाते हो?” (सूरा-68 क़लम, आयतें—35, 36)। “क्या बुरे काम करनेवालों ने यह समझ रखा है कि हम उन्हें उन लोगों की तरह कर देंगे जो ईमान लाए और जिन्होंने नेक अमल किए? दोनों की ज़िन्दगी और मौत एक जैसी हो? बहुत बुरे हुक्म हैं जो ये लोग लगाते हैं।” (सूरा-45 जासिया, आयत-21)।
أَلَيۡسَ ٱللَّهُ بِأَحۡكَمِ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 7
(8) क्या अल्लाह सब हाकिमों से बड़ा हाकिम नहीं है?7
7. यानी जब दुनिया के छोटे-छोटे हाकिमों से भी तुम यह चाहते हो और यही उम्मीद रखते हो कि वे इनसाफ़ करें, मुजरिमों को सज़ा दें और अच्छे काम करनेवालों को बदला और इनाम दें, तो ख़ुदा के बारे में तुम्हारा क्या ख़याल है? क्या वह सब हाकिमों से बड़ा हाकिम नहीं है? अगर तुम उसको सबसे बड़ा हाकिम मानते हो तो क्या उसके बारे में तुम्हारा यह ख़याल है कि वह कोई इनसाफ़ न करेगा? क्या उससे तुम यह उम्मीद रखते हो कि वह बुरे और भले को एक जैसा कर देगा? क्या उसकी दुनिया में बुरे-से-बुरे काम करनेवाले और बेहतरीन काम करनेवाले, दोनों मरकर मिट्टी हो जाएँगे और किसी को न बुरे कामों की सज़ा मिलेगी, न अच्छे कामों का इनाम? इमाम अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद, इब्नुल-मुंज़िर, बैहक़ी, हाकिम और इब्ने-मरदुवैह ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से यह रिवायत नक़्ल की है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जब तुममें से कोई सूरा ‘वत्तीने वज़्ज़ैतून’ पढ़े और ‘अलैसल्लाहु बिअह्-कमिल-हाकिमीन’ (क्या अल्लाह सब हाकिमों से बड़ा हाकिम नहीं है) पर पहुँचे तो कहे ‘बला व अना अला जा़लि-क मिनश-शाहिदीन’ (हाँ, और मैं इसपर गवाही देनेवालों में से हूँ)।” कुछ रिवायतों में आया है कि नबी (सल्ल०) जब यह आयत पढ़ते तो फ़रमाते, ‘सुब्हान-क फ़-बला’ (पाक है तू, तो फिर क्यों नहीं)।