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سُورَةُ القَلَمِ

68. अल-क़लम

(मक्का में उतरी, आयतें 52)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम 'नून' भी है और 'अल-क़लम' भी। दोनों शब्द सूरा के आरम्भ ही में मौजूद हैं।

उतरने का समय

यह मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल [में उस समय] अवतरित हुई थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का विरोध बड़ी हद तक उग्र रूप धारण कर चुका था।

विषय और वार्ता

इसमें तीन विषय वर्णित हुए हैं : (1) विरोधियों के आक्षेपों का उत्तर, (2) उनको चेतावनी और उपदेश और (3) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को धैर्य और अपनी जगह जमे रहने की नसीहत। वार्ता के आरम्भ में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से कहा गया है कि ये इस्लाम-विरोधी तुम्हें दीवाना कहते हैं, हालाँकि जो किताब तुम प्रस्तुत कर रहे हो और नैतिकता के जिस उच्च पद पर तुम आसीन हो, वह स्वयं इनके इस झूठ के खण्डन के लिए पर्याप्त है। शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब सभी देख लेंगे कि दीवाना कौन था और बुद्धिमान कौन। अत: विरोध का जो तूफ़ान तुम्हारे विरुद्ध उठाया जा रहा है, उसके दबाव में कदापि न आना। फिर जनसामान्य की आँखें खोलने के लिए नाम लिए बिना विरोधियों में से एक प्रमुख व्यक्ति का चरित्र प्रस्तुत किया गया है, [ताकि लोग देख लें कि] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) किस पवित्र नैतिक स्वभाव [के मालिक हैं और] आपके विरोध में मक्का के जो सरदार आगे-आगे हैं उनमें किस चरित्र के लोग सम्मिलित हैं। इसके पश्चात् आयत 17-33 तक एक बाग़वालों की मिसाल पेश की गई है जो अल्लाह से सुख-सामग्री पाकर उसके प्रति अकृतज्ञ रहे और उनमें जो व्यक्ति सबसे अच्छा था, समय पर उसकी नसीहत न मानी। अन्ततः वे उस नेमत (कृपानिधि) से वंचित होकर रह गए। यह मिसाल प्रस्तुत करके मक्कावालों को सावधान किया गया है कि यदि तुम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की [बात न मानोगे तो तुम्हें भी उसी तरह विनाश का सामना करना पड़ेगा।] फिर आयत 34-47 तक निरन्तर इस्लाम-विरोधियों को हितोपदेश दिया गया है, जिसमें कहीं तो सम्बोधन प्रत्यक्षत: उनसे है और कहीं अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को सम्बोधित करते हुए वास्तव में सचेत उनको ही किया गया है। अन्त में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि अल्लाह का फ़ैसला आने तक जिन कठिनाइयों का भी धर्म-प्रसार के मार्ग में सामना करना पड़े उनको धैर्य के साथ सहन करते चले जाएँ और उस अधैर्य से बचें जिसके कारण यूनुस (अलैहि०) आज़माइश में डाले गए थे।

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سُورَةُ القَلَمِ
68. अल-क़लम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
نٓۚ وَٱلۡقَلَمِ وَمَا يَسۡطُرُونَ
(1) नून। क़सम है क़लम की और उस चीज़ की जिसे लिखनेवाले लिख रहे हैं,1
1. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले बड़े आलमि मुजाहिद (रह०) कहते हैं कि क़लम से मुराद वह क़लम है जिससे ज़िक्र, यानी क़ुरआन लिखा जा रहा था। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि वह चीज़ जो लिखी जा रही थी उससे मुराद क़ुरआन मजीद है।
مَآ أَنتَ بِنِعۡمَةِ رَبِّكَ بِمَجۡنُونٖ ۝ 1
(2) तुम अपने रब की मेहरबानी से दीवाने नहीं हो।2
2. यह है वह बात जिसपर क़लम और किताब की क़सम खाई गई है। मतलब यह है कि यह क़ुरआन जो वह्य लिखनेवालों के हाथों से लिखा जा रहा है, अपनी जगह ख़ुद इस्लाम-मुख़ालिफ़ों के इस बुहतान को रद्द करने के लिए काफ़ी है कि अल्लाह की पनाह, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) दीवाने हैं। नबी (सल्ल०) के पैग़म्बरी के दावे से पहले तो मक्कावाले नबी (सल्ल०) को अपनी क़ौम का बेहतरीन आदमी मानते थे और आप (सल्ल०) की ईमानदारी, अमानतदारी और सूझ-बूझ पर भरोसा रखते थे। मगर जब आप (सल्ल०) ने उनके सामने क़ुरआन पेश करना शुरू किया तो वे आप (सल्ल०) को दीवाना ठहराने लगे। इसका मतलब यह था कि क़ुरआन ही उनके नज़दीक वह सबब था जिसकी बुनियाद पर उन्होंने आप (सल्ल०) पर दीवानगी का झूठा इलज़ाम लगाया। इसलिए कहा गया कि क़ुरआन ही इस झूठे इलज़ाम को रद्द करने के लिए काफ़ी सुबूत है। यह ज़बान और बयान के लिहाज़ से आला दर्जे का कलाम, जिसमें ऐसी आला दर्जे की बातें और तालीमात (शिक्षाएँ) हैं, इसका पेश करना तो इस बात की दलील है कि मुहम्मद (सल्ल०) पर अल्लाह की ख़ास मेहरबानी हुई है, कहाँ यह कि उसे इस बात की दलील बनाया जाए कि आप (सल्ल०), अल्लाह की पनाह, दीवाने हो गए हैं। इस जगह यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि यहाँ बात तो बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से की जा रही है लेकिन अस्ल मक़सद इस्लाम-दुश्मनों को उनकी तुहमत (इल्ज़ाम) का जवाब देना है। लिहाज़ा किसी शख़्स को यह शक न हो कि यह आयत नबी (सल्ल०) को यह इत्मीनान दिलाने के लिए उतरी है कि आप (सल्ल०) दीवाने नहीं हैं। ज़ाहिर है कि नबी (सल्ल०) को अपने बारे में तो ऐसा कोई शक न था कि उसे दूर करने के लिए आप (सल्ल०) को यह इत्मीनान दिलाने की ज़रूरत होती। मक़सद इस्लाम-दुश्मनों से यह कहना है कि तुम जिस क़ुरआन की वजह से उसके पेश करनेवाले को दीवाना कह रहे हो वही तुम्हारे इस इलज़ाम के झूठे होने की दलील है (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-52 तूर, हाशिया-22)।
وَإِنَّ لَكَ لَأَجۡرًا غَيۡرَ مَمۡنُونٖ ۝ 2
(3) और यक़ीनन तुम्हारे लिए ऐसा बदला है जिसका सिलसिला कभी ख़त्म होनेवाला नहीं।3
3. यानी आप (सल्ल०) के लिए इस बात पर बेहिसाब और कभी ख़त्म न होनेवाला इनाम है कि आप ख़ुदा के बन्दों की हिदायत के लिए जो कोशिशें कर रहे हैं उनके जवाब में आपको ऐसी-ऐसी तकलीफ़देह बातें सुननी पड़ रही हैं और फिर भी आप अपनी इस ज़िम्मेदारी को पूरा किए चले जा रहे हैं।
وَإِنَّكَ لَعَلَىٰ خُلُقٍ عَظِيمٖ ۝ 3
(4) और बेशक तुम अख़लाक़ के बड़े मर्तबे पर हो।4
4. इस जगह पर यह जुमला दो मतलब दे रहा है। एक यह कि आप अख़लाक़ के बहुत बुलन्द दर्जे पर हैं इसी वजह से आप लोगों की हिदायत के काम में ये तकलीफ़ें बरदाश्त कर रहे हैं, वरना एक कमज़ोर अख़लाक़ का इनसान यह काम नहीं कर सकता था। दूसरा यह कि क़ुरआन के अलावा आपके बुलन्द अख़लाक़ भी इस बात का खुला सुबूत हैं कि इस्लाम के इनकारी आप (सल्ल०) पर दीवानगी की जो तुहमत रख रहे हैं वह सरासर झूठी है, क्योंकि अख़लाक़ की बुलन्दी और दीवानगी, दोनों एक जगह इकट्ठी नहीं हो सकतीं। दीवाना वह शख़्स होता है जिसका दिमाग़ी तवाज़ुन (मानसिक सन्तुलन) बिगड़ा हुआ हो और जिसके मिज़ाज में एतिदाल (सन्तुलन) बाक़ी न रहा हो। इसके बरख़िलाफ़ आदमी के बुलन्द अख़लाक़ इस बात की गवाही देते हैं कि वह बहुत ही सही दिमाग़ का और सुलझे हुए मिज़ाज का है और उसका ज़ेहन और मिज़ाज बहुत ज़्यादा मुतवाज़िन (सन्तुलित) है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के अख़लाक़ जैसे कुछ थे, मक्कावाले उनसे अनजान न थे। इसलिए उनकी तरफ़ सिर्फ़ इशारा कर देना ही इस बात के लिए काफ़ी था कि मक्का का हर समझदार आदमी यह सोचने पर मजबूर हो जाए कि वे लोग कितने ज़्यादा बेशर्म हैं जो ऐसे बुलन्द अख़लाक़ आदमी को दीवाना कह रहे हैं। उनकी यह बेहूदगी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लिए नहीं, बल्कि ख़ुद उनके लिए नुक़सानदेह थी कि मुख़ालफ़त के जोश में पागल होकर वे आप (सल्ल०) के बारे में ऐसी बात कह रहे थे जिसे कोई समझ-बूझ रखनेवाला आदमी सोचने के लायक़ न मान सकता था। यही मामला इल्म और खोज के उन दावेदारों का भी है जो इस ज़माने में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर मिर्गी और दीवानापन की तुहमत रख रहे हैं। क़ुरआन मजीद दुनिया में हर जगह मिल सकता है, और नबी (सल्ल०) की सीरत भी अपनी तमाम तफ़सीलात के साथ लिखी हुई मौजूद है। हर शख़्स ख़ुद देख सकता है कि जो लोग इस बेमिसाल किताब के पेश करनेवाले और ऐसे बुलन्द अख़लाक़ रखनेवाले इनसान को दिमाग़ी मरीज़ क़रार देते हैं वे दुश्मनी के अन्धे जज़्बे में गिरफ़्तार होकर कैसी बेहूदा बात कह रहे हैं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के अख़लाक़ की बेहतरीन तारीफ़ उनकी बीवी हज़रत आइशा (रज़ि०) ने अपने इस क़ौल में कही है कि ‘का-न ख़ुल्क़ुहुल-क़ुरआन’ यानी “क़ुरआन आप (सल्ल०) का अख़लाक़ था।“इमाम अहमद, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई, इब्ने-माजा, दारमी और इब्ने-जरीर (रह०) ने थोड़े-से लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ उनका यह क़ौल (बात) कई सनदों से नक़्ल किया है। इसका मतलब यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने दुनिया के सामने सिर्फ़ क़ुरआन की तालीम (शिक्षा) ही पेश नहीं की थी, बल्कि ख़ुद उसका मुकम्मल नमूना बनकर दिखाया था। जिस चीज़ का क़ुरआन में हुक्म दिया गया आप (सल्ल०) ने ख़ुद सबसे बढ़कर उसपर अमल किया, जिस चीज़ से उसमें रोका गया आप (सल्ल०) ने ख़ुद सबसे ज़्यादा उससे परहेज़ किया। जिन अख़लाक़ी ख़ूबियों को उसमें आला दर्जे की ख़ूबियाँ कहा गया, सबसे बढ़कर वे आप (सल्ल०) में पाई जाती थीं, और जिन ख़ासियतों को उसमें नापसन्दीदा ठहराया गया सबसे ज़्यादा आप (सल्ल०) उनसे पाक थे। एक और रिवायत में हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने कभी किसी ख़ादिम को नहीं मारा, कभी किसी औरत पर हाथ न उठाया, अल्लाह की राह में जिहाद के सिवा कभी आप (सल्ल०) ने अपने हाथ से किसी को नहीं मारा, अपनी ज़ात के लिए कभी किसी ऐसी तकलीफ़ का बदला नहीं लिया जो आप (सल्ल०) को पहुँचाई गई हो सिवाय यह कि अल्लाह के क़ानून को तोड़ा गया हो और आप (सल्ल०) ने अल्लाह की ख़ातिर उसका बदला लिया हो और आप (सल्ल०) का तरीक़ा यह था कि जब दो कामों में से एक को आप (सल्ल०) को चुनना होता तो आप ज़्यादा आसान काम को पसन्द करते थे, सिवाय यह कि वह गुनाह हो, और अगर कोई काम गुनाह होता तो आप सबसे ज़्यादा उससे दूर रहते थे।” (हदीस : मुसनदे-अहमद)। हज़रत अनस (रज़ि०) कहते हैं कि “मैंने दस साल अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत की है। आप (सल्ल०) ने कभी मेरी किसी बात पर उफ़ तक न की, कभी मेरे किसी काम पर यह न फ़रमाया कि तूने यह क्यों किया, और कभी किसी काम के न करने पर यह नहीं फ़रमाया कि तूने यह क्यों न किया।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)।
فَسَتُبۡصِرُ وَيُبۡصِرُونَ ۝ 4
(5) बहुत जल्द तुम भी देख लोगे और वे भी देख लेंगे
بِأَييِّكُمُ ٱلۡمَفۡتُونُ ۝ 5
(6) कि तुममें से कौन जुनून में मुब्तला है।
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَن ضَلَّ عَن سَبِيلِهِۦ وَهُوَ أَعۡلَمُ بِٱلۡمُهۡتَدِينَ ۝ 6
(7) तुम्हारा रब उन लोगों को भी ख़ूब जानता है जो उसकी राह से भटके हुए हैं, और वही उनको भी अच्छी तरह जानता है जो सीधे रास्ते पर हैं।
فَلَا تُطِعِ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 7
(8) इसलिए तुम इन झुठलानेवालों के दबाव में हरगिज़ न आओ।
وَدُّواْ لَوۡ تُدۡهِنُ فَيُدۡهِنُونَ ۝ 8
(9) ये तो चाहते हैं कि कुछ तुम झुको तो ये भी झुकें।5
5. यानी तुम इस्लाम की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) में कुछ ढीले पड़ जाओ तो ये भी तुम्हारी मुख़ालफ़त में कुछ नर्मी अपना लें, या तुम इनकी गुमराहियों को छूट देकर अपने दीन में कुछ फेर-बदल करने पर आमादा हो जाओ तो ये तुम्हारे साथ समझौता कर लें।
وَلَا تُطِعۡ كُلَّ حَلَّافٖ مَّهِينٍ ۝ 9
(10) हरगिज़ न दबो किसी ऐसे शख़्स से जो बहुत क़समें खानेवाला घटिया आदमी है,6
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘महीन’ इस्तेमाल हुआ है जो नीच और घटिया आदमी के लिए बोला जाता है। हक़ीक़त में यह बहुत क़समें खानेवाले आदमी की लाज़िमी ख़ासियत है। वह बात-बात पर इसलिए क़सम खाता है कि उसे ख़ुद यह एहसास होता है कि लोग उसे झूठा समझते हैं और उसकी बात पर उस वक़्त तक यक़ीन नहीं करेंगे जब तक वह क़सम न खाए। इस वजह से वह अपनी निगाह में ख़ुद भी रुसवा होता है और समाज में भी उसकी कोई क़द्रो-क़ीमत नहीं होती।
هَمَّازٖ مَّشَّآءِۭ بِنَمِيمٖ ۝ 10
(11) ताने देता है, चुग़लियाँ खाता-फिरता है,
مَّنَّاعٖ لِّلۡخَيۡرِ مُعۡتَدٍ أَثِيمٍ ۝ 11
(12) भलाई से रोकता है,7 ज़ुल्म व ज़्यादती में हद से गुज़र जानेवाला है, सख़्त बद-आमाल है,
7. अस्ल अरबी में ‘मन्नाइन लिल-ख़ैर’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। ‘ख़ैर’ अरबी ज़बान में माल को भी कहते हैं और भलाई को भी। अगर इसको माल के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि वह बहुत कंजूस आदमी है, किसी को फूटी कौड़ी देने को भी राज़ी नहीं। और अगर ख़ैर को नेकी और भलाई के मतलब में लिया जाए तो इसका मतलब यह भी हो सकता है कि वह हर नेक काम में रुकावट डालता है, और यह भी कि वह इस्लाम से लोगों को रोकने में बहुत सरगर्म है।
عُتُلِّۭ بَعۡدَ ذَٰلِكَ زَنِيمٍ ۝ 12
(13) ज़ालिम है,8 और इन सब ख़राबियों के साथ बद-अस्ल है,9
8. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘उतुल’ इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में ऐसे शख़्स के लिए बोला जाता है जो ख़ूब हट्टा-कट्टा और बहुत खाने-पीनेवाला हो, और इसके साथ बहुत ही बुरे अख़लाक़वाला, झगड़ालू और संगदिल हो।
9. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़नीम’ इस्तेमाल हुआ है। अरबों में यह लफ़्ज़ उस नाजाइज़ बच्चे के लिए बोला जाता है जो अस्ल में एक ख़ानदान का फ़र्द (सदस्य) न हो, मगर उसमें शामिल हो गया हो। सईद-बिन-जुबैर और शअ्बी कहते हैं कि यह लफ़्ज़ उस शख़्स के लिए भी बोला जाता है जो लोगों में अपनी शरारतों की वजह से जाना जाता हो। इन आयतों में जिस आदमी की ये ख़ासियतें बयान की गई हैं उसके बारे में क़ुरआन के आलिमों की रायें अलग-अलग हैं। किसी ने कहा है कि यह आदमी वलीद-बिन-मुग़ीरा था। किसी ने असवद-बिन-अब्दे-यग़ूस का नाम लिया है। किसी ने अख़नस-बिन-शुरैक़ बताया है। और कुछ लोगों ने कुछ दूसरे लोगों की निशनदेही की है। लेकिन क़ुरआन मजीद में नाम लिए बिना सिर्फ़ उसकी ख़ासियतें बयान कर दी गई हैं, इससे मालूम होता है कि मक्का में वह अपनी ख़ासियतों के लिए इतना मशहूर था कि उसका नाम लेने की ज़रूरत न थी। उसके ये गुण सुनते ही हर शख़्स समझ सकता था कि इशारा किसकी तरफ़ है।
أَن كَانَ ذَا مَالٖ وَبَنِينَ ۝ 13
(14) इस वजह से कि वह बहुत माल और औलाद रखता है।10
10. इस जुमले का ताल्लुक़ ऊपर के बात के सिलसिले से भी हो सकता है और बाद के जुमले से भी। पहली सूरत में मतलब यह होगा कि ऐसे आदमी की धौंस इस वजह से क़ुबूल न करो कि वह बहुत माल और औलाद रखता है। दूसरी सूरत में मतलब यह होगा कि बहुत माल-औलादवाला होने की वजह से वह घमण्डी हो गया है, जब हमारी आयतें उसको सुनाई जाती हैं तो कहता है कि ये अगले वक़्तों की कहानियाँ हैं।
إِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِ ءَايَٰتُنَا قَالَ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 14
(15) जब हमारी आयतें उसको सुनाई जाती हैं तो कहता है, “ये तो अगले वक़्तों की कहानियाँ हैं।
سَنَسِمُهُۥ عَلَى ٱلۡخُرۡطُومِ ۝ 15
(16) बहुत जल्द हम उसकी सूंड पर दाग़ लगाएँगे।11
11. चूँकि वह अपने-आपको बड़ी नाकवाला समझता था इसलिए उसकी नाक को सूँड कहा गया है। और नाक पर दाग़ लगाने से मुराद बेइज़्ज़त और रुसवा करना है। यानी हम दुनिया और आख़िरत में उसको ऐसा बेइकज़्ज़त और रुसवा करेंगे कि कभी यह शर्मिन्दगी उसका पीछा न छोड़ेगी।
إِنَّا بَلَوۡنَٰهُمۡ كَمَا بَلَوۡنَآ أَصۡحَٰبَ ٱلۡجَنَّةِ إِذۡ أَقۡسَمُواْ لَيَصۡرِمُنَّهَا مُصۡبِحِينَ ۝ 16
(17) हमने इन (मक्कावालों) को उसी तरह आज़माइश में डाला है जिस तरह एक बाग़ के मालिकों को आज़माइश में डाला था,12 जब उन्होंने क़सम खाई कि सुबह-सवेरे ज़रूर अपने बाग़ के फल तोड़ेंगे
12. इस जगह पर सूरा-18 कह्फ़ रुकू-5 (आयतें—32 से 44) भी सामने रहे जिसमें इसी तरह सीख देने के लिए दो बाग़वालों की मिसाल पेश की गई है।
وَلَا يَسۡتَثۡنُونَ ۝ 17
(18) और वे ऐसा न होने की कोई गुंजाइश नहीं रख रहे थे।13
13. यानी इन्हें अपनी क़ुदरत और अपने इख़्तियार पर ऐसा भरोसा था कि क़सम खाकर बेझिझक कह दिया कि हम ज़रूर कल अपने बाग़ के फल तोड़ेंगे और यह कहने की कोई ज़रूरत वे महसूस नहीं करते थे कि अगर अल्लाह ने चाहा तो हम यह काम करेंगे।
فَطَافَ عَلَيۡهَا طَآئِفٞ مِّن رَّبِّكَ وَهُمۡ نَآئِمُونَ ۝ 18
(19) रात को वे सोए पड़े थे कि तुम्हारे रब की तरफ़ से एक बला उस बाग़ पर फिर गई
فَأَصۡبَحَتۡ كَٱلصَّرِيمِ ۝ 19
(20) और उसका ऐसा हाल हो गया जैसे कटी हुई फ़सल हो।
فَتَنَادَوۡاْ مُصۡبِحِينَ ۝ 20
(21) सुबह उन लोगों ने एक-दूसरे को पुकारा
أَنِ ٱغۡدُواْ عَلَىٰ حَرۡثِكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰرِمِينَ ۝ 21
(22) कि अगर फल तोड़ने हैं तो सवेरे-सवेरे अपनी खेती14 की तरफ़ निकल चलो।
14. खेती का लफ़्ज़ शायद इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि बाग़ के बीच खेत भी थे।
فَٱنطَلَقُواْ وَهُمۡ يَتَخَٰفَتُونَ ۝ 22
(23) चुनाँचे वे चल पड़े और आपस में चुपके-चुपके कहते जाते थे
أَن لَّا يَدۡخُلَنَّهَا ٱلۡيَوۡمَ عَلَيۡكُم مِّسۡكِينٞ ۝ 23
(24) कि आज कोई मिसकीन तुम्हारे पास बाग़ में न आने पाए।
وَغَدَوۡاْ عَلَىٰ حَرۡدٖ قَٰدِرِينَ ۝ 24
(25) वे कुछ न देने का फ़ैसला किए हुए सुबह-सवेरे जल्दी-जल्दी15 इस तरह वहाँ गए जैसे कि वे (फल तोड़ने की) क़ुदरत रखते हैं।
15. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘अला हर्दिन’। ‘हर्द’ अरबी ज़बान में रोकने और न देने के लिए भी बोला जाता है, जान-बूझकर किए हुए और तयशुदा फ़ैसले के लिए भी इस्तेमाल होता है, और जल्दी के मानी में भी इस्तेमाल होता है। इसी लिए हमने तर्जमे में तीनों मानी की गुंजाइश रखी है।
فَلَمَّا رَأَوۡهَا قَالُوٓاْ إِنَّا لَضَآلُّونَ ۝ 25
(26) मगर जब बाग़ को देखा तो कहने लगे, “हम रास्ता भूल गए हैं, —
بَلۡ نَحۡنُ مَحۡرُومُونَ ۝ 26
(27) नहीं, बल्कि हम महरूम (वंचित) रह गए।”16
16. यानी पहले तो उन्हें बाग़ देखकर यक़ीन न आया कि यह उन्हीं का बाग़ है और कहने लगे कि शायद हम रास्ता भूलकर किसी और जगह निकल आए हैं, फिर जब ग़ौर किया और मालूम हुआ कि यह उनका अपना बाग़ ही है तो चीख़ उठे कि हमारी क़िस्मत फूट गई।
قَالَ أَوۡسَطُهُمۡ أَلَمۡ أَقُل لَّكُمۡ لَوۡلَا تُسَبِّحُونَ ۝ 27
(28) उनमें जो सबसे बेहतर आदमी था उसने कहा, “मैंने तुमसे कहा न था कि तुम तसबीह क्यों नहीं करते?”17
17. इसका मतलब यह है कि जब वे क़सम खाकर कह रहे थे कि कल हम अपने बाग़ के फल ज़रूर तोड़ेंगे उस वक़्त इस शख़्स ने उनको ख़बरदार किया था कि तुम अल्लाह को भूल गए, इनशा-अल्लाह (अगर अल्लाह ने चाहा) क्यों नहीं कहते? मगर उन्होंने उसकी परवाह न की। फिर जब वे मिसकीनों को कुछ न देने का फ़ैसला कर रहे थे उस वक़्त भी उसने उन्हें नसीहत की कि अल्लाह को याद करो और इस बुरी नीयत से बाज़ आ जाओ। मगर वे अपनी बात पर जमे रहे।
قَالُواْ سُبۡحَٰنَ رَبِّنَآ إِنَّا كُنَّا ظَٰلِمِينَ ۝ 28
(29) वे पुकार उठे, “पाक है हमारा रब, सचमुच हम गुनहगार थे।”
فَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَلَٰوَمُونَ ۝ 29
(30) फिर उनमें से हर एक दूसरे को बुरा-भला कहने लगा।18
18. यानी हर एक ने दूसरे को इलज़ाम देना शुरू किया कि उसके बहकाने से हम अल्लाह को भूल गए और बदनीयती में मुब्तला हुए।
قَالُواْ يَٰوَيۡلَنَآ إِنَّا كُنَّا طَٰغِينَ ۝ 30
(31) आख़िरकार उन्होंने कहा, “अफ़सोस हमारे हाल पर, बेशक हम सरकश हो गए थे!
عَسَىٰ رَبُّنَآ أَن يُبۡدِلَنَا خَيۡرٗا مِّنۡهَآ إِنَّآ إِلَىٰ رَبِّنَا رَٰغِبُونَ ۝ 31
(32) नामुमकिन नहीं कि हमारा रब हमें बदले में इससे बेहतर बाग़ दे दे, हम अपने रब की तरफ़ पलटते हैं।”
كَذَٰلِكَ ٱلۡعَذَابُۖ وَلَعَذَابُ ٱلۡأٓخِرَةِ أَكۡبَرُۚ لَوۡ كَانُواْ يَعۡلَمُونَ ۝ 32
(33) ऐसा होता है अज़ाब, और आख़िरत का अज़ाब इससे भी बड़ा है, काश ये लोग इसको जानते!
إِنَّ لِلۡمُتَّقِينَ عِندَ رَبِّهِمۡ جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 33
(34) यक़ीनन19 ख़ुदा से डरनेवाले लोगों के लिए उनके रब के यहाँ नेमत भरी जन्नतें हैं।
19. मक्का के बड़े-बड़े सरदार मुसलमानों से कहते थे कि हमको ये नेमतें जो दुनिया में मिल रही हैं, ये ख़ुदा के यहाँ हमारे पसन्दीदा होने की अलामत हैं, और तुम जिस बदहाली में मुब्तला हो यह इस बात की दलील है कि तुम ख़ुदा के ग़ज़ब में घिरे हो। इसलिए अगर कोई आख़िरत हुई भी, जैसा कि तुम कहते हो, तो हम वहाँ भी मज़े करेंगे और अज़ाब तुमपर होगा न कि हमपर। इसका जवाब इन आयतों में दिया गया है।
أَفَنَجۡعَلُ ٱلۡمُسۡلِمِينَ كَٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 34
(35) क्या हम फ़रमाँबरदारों का हाल मुजरिमों का-सा कर दें?
مَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ ۝ 35
(36) तुम लोगों को क्या हो गया है, तुम कैसे हुक्म लगाते हो?20
20. यानी यह बात अक़्ल के ख़िलाफ़ है कि ख़ुदा फ़रमाँबरदार और मुजरिम में फ़र्क़ न करे। तुम्हारी समझ में आख़िर कैसे यह बात आती है कि कायनात का पैदा करनेवाला कोई अन्धा राजा है जो यह नहीं देखेगा कि किन लोगों ने दुनिया में उसके हुक्मों की पैरवी की और बुरे कामों से परहेज़ किया, और कौन लोग थे जो उससे निडर होकर हर तरह के गुनाह और जुर्म और ज़ुल्म व सितम करते रहे? तुमने ईमान लानेवालों की तंगहाली और अपनी ख़ुशहाली तो देख ली, मगर अपने और उनके अख़लाक़ और आमाल का फ़र्क़ नहीं देखा और बेझिझक हुक्म लगा दिया कि ख़ुदा के यहाँ इन फ़रमाँबरदारों के साथ तो मुजरिमों का-सा बरताव किया जाएगा, और तुम जैसे मुजरिमों को जन्नत दे दी जाएगी।
أَمۡ لَكُمۡ كِتَٰبٞ فِيهِ تَدۡرُسُونَ ۝ 36
(37) क्या तुम्हारे पास कोई किताब21 है जिसमें तुम यह पढ़ते हो
21. यानी अल्लाह तआला की भेजी हुई किताब।
إِنَّ لَكُمۡ فِيهِ لَمَا تَخَيَّرُونَ ۝ 37
(38) कि तुम्हारे लिए ज़रूर वहाँ वही कुछ है जो तुम अपने लिए पसन्द करते हो?
أَمۡ لَكُمۡ أَيۡمَٰنٌ عَلَيۡنَا بَٰلِغَةٌ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ إِنَّ لَكُمۡ لَمَا تَحۡكُمُونَ ۝ 38
(39) या फिर क्या तुम्हारे लिए क़ियामत के दिन तक हमपर कुछ वादे (प्रण एवं प्रतिज्ञाएँ) साबित हैं कि तुम्हें वही कुछ मिलेगा जिसका तुम हुक्म लगाओ?
سَلۡهُمۡ أَيُّهُم بِذَٰلِكَ زَعِيمٌ ۝ 39
(40) इनसे पूछो, तुममें कौन इसका ज़मानती है?22
22. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़ईम’ इस्तेमाल हुआ है। अरब की बोली में ‘ज़ईम’ उस आदमी को कहते हैं जो ज़िम्मेदारी उठानेवाला, या ज़मानत देनेवाला, या किसी क़ौम की तरफ़ से बोलनेवाला हो। मतलब यह है कि तुममें से कौन आगे बढ़कर यह दावा करता है कि उसने अल्लाह से तुम्हारे लिए ऐसा कोई वादा (वचन) ले रखा है।
أَمۡ لَهُمۡ شُرَكَآءُ فَلۡيَأۡتُواْ بِشُرَكَآئِهِمۡ إِن كَانُواْ صَٰدِقِينَ ۝ 40
(41) या फिर इनके ठहराए हुए कुछ शरीक हैं (जिन्होंने इसका ज़िम्मा लिया हो)? यह बात है तो लाएँ अपने शरीकों को अगर ये सच्चे हैं।23
23. यानी तुम अपने हक़ में जो हुक्म लगा रहे हो उसके लिए सिरे से कोई बुनियाद नहीं है। यह अक़्ल के भी ख़िलाफ़ है। ख़ुदा की किसी किताब में भी तुम यह लिखा हुआ नहीं दिखा सकते। तुममें से कोई यह दावा भी नहीं कर सकता कि उसने ख़ुदा से ऐसा कोई वादा ले लिया है। और जिनको तुमने माबूद (पूज्य) बना रखा है उनमें से भी किसी से तुम यह गवाही नहीं दिलवा सकते कि ख़ुदा के यहाँ तुम्हें जन्नत दिलवाने का वह ज़िम्मा लेता है। फिर यह ग़लतफ़हमी आख़िर तुम्हें कहाँ से हो गई?
يَوۡمَ يُكۡشَفُ عَن سَاقٖ وَيُدۡعَوۡنَ إِلَى ٱلسُّجُودِ فَلَا يَسۡتَطِيعُونَ ۝ 41
(42) जिस दिन सख़्त वक़्त आ पड़ेगा24 और लोगों को सजदा करने के लिए बुलाया जाएगा तो ये लोग सजदा न कर सकेंगे,
24. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘यौ-म युक-शफ़ु अन् साक़’ यानी “जिस दिन पिंडली खोली जाएगी।” सहाबा और ताबिईन में से कुछ लोग कहते हैं कि ये अलफ़ाज़ मुहावरे के तौर पर इस्तेमाल हुए हैं। अरबी मुहावरे के मुताबिक़ सख़्त वक़्त आ पड़ने को ‘कश्फ़े-साक़’ से बयान किया जाता है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) ने भी उसका यही मतलब बयान किया है और सुबूत में अरब के कलाम (साहित्य) से दलील ली गई है। एक और क़ौल जो इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और रबीअ-बिन-अनस (रज़ि०) से नक़्ल हुआ है, उसमें ‘कश्फ़े-साक़’ से मुराद हक़ीक़तों पर से परदा उठाना लिया गया है। इस मतलब के मुताबिक़ मानी ये होंगे कि जिस दिन तमाम हक़ीक़तें बेनक़ाब हो जाएँगी और लोगों के आमाल खुलकर सामने आ जाएँगे।
خَٰشِعَةً أَبۡصَٰرُهُمۡ تَرۡهَقُهُمۡ ذِلَّةٞۖ وَقَدۡ كَانُواْ يُدۡعَوۡنَ إِلَى ٱلسُّجُودِ وَهُمۡ سَٰلِمُونَ ۝ 42
(43) इनकी निगाहें नीची होंगी, ज़िल्लत (रुसवाई) इनपर छा रही होगी। ये जब ठीक-ठाक थे उस वक़्त इन्हें सजदे के लिए बुलाया जाता था (और ये इनकार करते थे)25।
25. इसका मतलब यह है कि क़ियामत के दिन खुल्लम-खुल्ला इस बात को दिखा दिया जाएगा कि दुनिया में कौन अल्लाह तआला की इबादत करनेवाला था और कौन उससे मुँह मोड़े हुए था। इस ग़रज़ के लिए लोगों को बुलाया जाएगा कि वे अल्लाह तआला के सामने सजदा करें। जो लोग दुनिया में इबादतगुज़ार थे वे सजदे में गिर जाएँगे। और जिन लोगों ने दुनिया में अल्लाह के आगे उसकी बन्दगी में सिर झुकाने से इनकार कर दिया था उनकी कमर तख़्ता हो जाएगी। उनके लिए यह मुमकिन न होगा कि वहाँ इबादतगुज़ार होने का झूठा मुज़ाहरा कर सकें। इसलिए वे रुसवाई, शर्मिन्दगी और पछतावे के साथ खड़े-के-खड़े रह जाएँगे।
أَمۡ تَسۡـَٔلُهُمۡ أَجۡرٗا فَهُم مِّن مَّغۡرَمٖ مُّثۡقَلُونَ ۝ 43
(46) क्या तुम इनसे कोई बदला माँग रहे हो कि ये उस चट्टी के बोझ तले दबे जा रहे हों?29
29. सवाल बज़ाहिर नबी (सल्ल०) से किया जा रहा है, मगर अस्ल में उन लोगों को सुनाया जा रहा है जो आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त में हद से गुज़रे जा रहे थे। उनसे पूछा जा रहा है कि क्या हमारा रसूल तुमसे कुछ माँग रहा है कि तुम उसपर इतना बिगड़ रहे हो? तुम ख़ुद जानते हो कि वह एक बेग़रज़ (निस्स्वार्थ) आदमी है और जो कुछ तुम्हारे सामने पेश कर रहा है सिर्फ़ इसलिए कर रहा है कि उसके नज़दीक इसी में तुम्हारी भलाई है। तुम नहीं मानना चाहते तो न मानो, मगर इस तबलीग़ पर आख़िर इतने आगबबूला क्यों हुए जा रहे हो? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-52 तूर, हाशिया-31)
أَمۡ عِندَهُمُ ٱلۡغَيۡبُ فَهُمۡ يَكۡتُبُونَ ۝ 44
(47) क्या इनके पास ग़ैब (परोक्ष) की जानकारी है जिसे ये लिख रहे हों?30
30. यह दूसरा सवाल भी बज़ाहिर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से है मगर अस्ल में आप (सल्ल०) के मुख़ालफ़त करनेवालों से यह सवाल किया गया है। मतलब यह है कि क्या तुम लोगों ने ग़ैब (परोक्ष) के परदे के पीछे झाँककर देख लिया है कि यह पैग़म्बर सचमुच अल्लाह का भेजा हुआ पैग़म्बर नहीं है और जो हक़ीक़तें यह तुमसे बयान कर रहा है वे भी ग़लत हैं, इसलिए तुम इसको झुठलाने में इतनी सख़्ती दिखा रहे हो? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमलु-क़ुरआन, सूरा-52 तूर, हाशिया-32)
فَٱصۡبِرۡ لِحُكۡمِ رَبِّكَ وَلَا تَكُن كَصَاحِبِ ٱلۡحُوتِ إِذۡ نَادَىٰ وَهُوَ مَكۡظُومٞ ۝ 45
(48) इसलिए अपने रब का फ़ैसला लागू होने तक सब्र करो31 और मछलीवाले (यूनुस अलैहि०) की तरह न हो जाओ,32 जब उसने पुकारा और वह ग़म से भरा हुआ था।33
31. यानी वह वक़्त अभी दूर है जब अल्लाह तआला तुम्हारी जीत और मदद और तुम्हारे इन मुख़ालिफ़ों की हार का फ़ैसला कर देगा। उस वक़्त के आने तक जो तकलीफ़ें और मुसीबतें भी इस दीन की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) में पेश आएँ उन्हें सब्र के साथ बरदाश्त करते चले जाओ।
32. यानी यूनुस (अलैहि०) की तरह बेसब्री से काम न लो जो अपनी बेसब्री की वजह से मछली के पेट में पहुँचा दिए गए थे। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को अल्लाह का फ़ैसला आने तक सब्र की ताकीद करने के बाद फ़ौरन ही यह कहना कि यूनुस (अलैहि०) की तरह न हो जाओ, ख़ुद-ब-ख़ुद इस बात की दलील देता है कि उन्होंने अल्लाह का फ़ैसला आने से पहले बेसब्री से कोई काम किया था, जिसकी वजह से वह सज़ा के हक़दार हो गए थे। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, आयत-98, हाशिया-99; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—87, 88, हाशिए—82 से 85; सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयतें—139 से 148, हाशिए—78 से 85)
33. सूरा-21 अम्बिया में इसकी तफ़सील यह बयान की गई है कि मछली के पेट और समुद्र के अंधेरों में हज़रत यूनुस (अलैहि०) ने पुकारा था, ‘ला इला-ह इल्ला अन्-त सुब्हा-न-क इन्नी कुन्तु मिनज़्ज़ालिमीन’ यानी “कोई ख़ुदा नहीं तेरी पाक हस्ती के सिवा, मैं सचमुच क़ुसूरवार हूँ।” इसपर अल्लाह तआला ने उनकी फ़रियाद सुन ली और उनको दुख से नजात दी। (आयतें—87, 88)
لَّوۡلَآ أَن تَدَٰرَكَهُۥ نِعۡمَةٞ مِّن رَّبِّهِۦ لَنُبِذَ بِٱلۡعَرَآءِ وَهُوَ مَذۡمُومٞ ۝ 46
(49) अगर उसके रब की मेहरबानी उसके साथ न होती तो वह मलामत किया हुआ (निन्दित) होकर चटियल मैदान में फेंक दिया जाता।34
34. इस आयत को सूरा-37 साफ़्फ़ात की आयतें—142 से 146 के साथ मिलाकर देखा जाए जो मालूम होता है कि जिस वक़्त हज़रत यूनुस (अलैहि०) मछली के पेट में डाले गए थे, उस वक़्त तो वे मलामत में मुब्तला थे, लेकिन जब उन्होंने अल्लाह की तसबीह (महिमागान) की और अपने क़ुसूर को मान लिया तो अगरचे वह मछली के पेट से निकालकर बड़ी ख़राब हालत में एक चटियल ज़मीन में फेंके गए, मगर वह उस वक़्त मलामत में मुब्तला न थे, बल्कि अल्लाह तआला ने अपनी रहमत से उस जगह एक बेलदार पेड़ उगा दिया, ताकि उसके पत्ते उनपर साया भी करें और वह उसके फल से भूख और प्यास भी दूर कर सकें।
فَٱجۡتَبَٰهُ رَبُّهُۥ فَجَعَلَهُۥ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 47
(50) आख़िरकार उसके रब ने उसे चुन लिया और उसे नेक बन्दों में शामिल कर दिया।
وَإِن يَكَادُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَيُزۡلِقُونَكَ بِأَبۡصَٰرِهِمۡ لَمَّا سَمِعُواْ ٱلذِّكۡرَ وَيَقُولُونَ إِنَّهُۥ لَمَجۡنُونٞ ۝ 48
(51) जब ये हक़ के इनकारी लोग नसीहत का कलाम (क़ुरआन) सुनते हैं तो तुम्हें ऐसी नज़रों से देखते हैं कि मानो तुम्हारे क़दम उखाड़ देंगे,35 और कहते हैं कि ये ज़रूर दीवाना है,
35. यह ऐसा ही है जैसे हम उर्दू (और हिन्दी) में कहते हैं कि फ़ुलाँ शख़्स ने उसे ऐसी नज़रों से देखा जैसे उसको खा जाएगा। मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के ग़ुस्से के इस जज़्बे की कैफ़ियत सूरा-17 बनी-इसराईल, आयतें—73 से 77 में भी बयान हुई है।
وَمَا هُوَ إِلَّا ذِكۡرٞ لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 49
(52) हालाँकि ये तो सारे जहानवालों के लिए एक नसीहत है।
فَذَرۡنِي وَمَن يُكَذِّبُ بِهَٰذَا ٱلۡحَدِيثِۖ سَنَسۡتَدۡرِجُهُم مِّنۡ حَيۡثُ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 50
(44) इसलिए ऐ नबी! तुम इस कलाम (वाणी) के झुठलानेवालों का मामला मुझपर छोड़ दो।26 हम ऐसे तरीक़े से इनको थोड़ा-थोड़ा करके तबाही की तरफ़ ले जाएँगे कि इनको ख़बर भी न होगी।27
26. यानी इनसे निबटने की फ़िक्र में न पड़ो। इनसे निबटना मेरा काम है।
27. बेख़बरी में किसी को तबाही की तरफ़ ले जाने की सूरत यह है कि एक हक़ के दुश्मन और ज़ालिम को दुनिया में नेमतों से नवाज़ा जाए, सेहत, माल, औलाद और दुनियावी कामयाबियाँ दी जाएँ, जिनसे धोखा खाकर वह समझे कि मैं जो कुछ कर रहा हूँ अच्छा कर रहा हूँ, मेरे अमल में कोई ग़लती नहीं है। इस तरह वह हक़ की दुश्मनी और ज़ुल्म व ज़्यादती में ज़्यादा-से-ज़्यादा डूबता चला जाता है और नहीं समझता कि जो नेमतें उसे मिल रही हैं वे इनाम नहीं हैं, बल्कि हक़ीक़त में यह उसकी हलाकत का सामान है।
وَأُمۡلِي لَهُمۡۚ إِنَّ كَيۡدِي مَتِينٌ ۝ 51
(45) मैं इनकी रस्सी ढीली कर रहा हूँ, मेरी चाल28 बड़ी ज़बरदस्त है।
28. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘कैद’ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब किसी के ख़िलाफ़ ख़ुफ़ि़या तदबीर करना है। यह चीज़ सिर्फ़ उस सूरत में एक बुराई होती है जब यह नाहक़ किसी को नुक़सान पहुँचाने के लिए हो। वरना अपनी जगह ख़ुद इसमें कोई बुराई नहीं है, ख़ास तौर से जब किसी ऐसे शख़्स के खिलाफ़ यह तरीक़ा अपनाया जाए जिसने अपने आपको इसका हक़दार बना लिया हो।