(10) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब मोमिन औरतें हिजरत करके तुम्हारे पास आएँ तो (उनके मोमिन होने की) जाँच-पड़ताल कर लो, और उनके ईमान की हक़ीक़त अल्लाह ही बेहतर जानता है। फिर जब तुम्हें मालूम हो जाए कि वे मोमिन हैं तो उन्हें ग़ैर-मुस्लिमों (इस्लाम को न माननेवालों) की तरफ़ वापस न करो।14 न वे ग़ैर-मुस्लिमों के लिए हलाल हैं और न ग़ैर-मुस्लिम उनके लिए हलाल। उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहरों ने जो मह्र उनको दिए थे वे उन्हें फेर दो। और उनसे निकाह कर लेने में तुमपर कोई गुनाह नहीं जबकि तुम उनके मह्र उनको अदा कर दो।15 और तुम ख़ुद भी ग़ैर-मुस्लिम औरतों को अपने निकाह में न रोके रहो। जो मह्र तुमने अपनी ग़ैर-मुस्लिम बीवियों को दिए थे वे तुम वापस माँग लो और जो मह्र ग़ैर-मुस्लिमों ने अपनी मुसलमान बीवियों को दिए थे उन्हें वे वापस माँग लें।16 यह अल्लाह का हुक्म है, वह तुम्हारे बीच फ़ैसला करता है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।
14. इस हुक्म का पसमंज़र (पृष्ठभूमि) यह है कि हुदैबिया के समझौते के बाद शुरू-शुरू में तो मुसलमान मर्द मक्का से भाग-भागकर मदीना आते रहे और उन्हें समझौते की शर्तों के मुताबिक़ वापस किया जाता रहा। फिर मुसलमान औरतों के आने का सिलसिला शुरू हो गया और सबसे पहले उक़बा-बिन-अबी-मुऐत की बेटी उम्मे-कुलसूम हिजरत करके मदीना पहुँचीं। इस्लाम-दुश्मनों ने समझौते का हवाला देकर उनकी वापसी की भी माँग की और उम्मे-कुलसूम के दो भाई वलीद-बिन-उक़बा और उमारा-बिन-उक़बा उन्हें वापस ले जाने के लिए मदीना पहुँच गए। उस वक़्त यह सवाल पैदा हुआ कि क्या हुदैबिया के समझौते की शर्तें औरतों पर भी लागू होती हैं? अल्लाह तआला ने इसी सवाल का यहाँ जवाब दिया है कि अगर वे मुसलमान हों और यह इत्मीनान कर लिया जाए कि सचमुच वे ईमान ही की ख़ातिर हिजरत करके आई हैं, कोई और चीज़ उन्हें नहीं लाई है, तो उन्हें वापस न किया जाए। इस जगह पर हदीसों को मानी के लिहाज़ से बयान करने से एक बड़ी पेचीदगी पैदा हो गई है जिसे हल करना ज़रूरी है। हुदैबिया के समझौते की शर्तों के बारे में हदीसों में हमें जो रिवायतें मिलती हैं उनमें ज़्यादातर हदीसों में मतलब बयान किया गया है। ऊपर बयान की गई शर्त के बारे में उनमें से किसी रिवायत के अलफ़ाज़ ये हैं, “तुममें से जो शख़्स हमारे पास आएगा उसे हम वापस न करेंगे और हममें से जो तुम्हारे पास जाएगा उसे तुम वापस कर दोगे।” किसी में ये अलफ़ाज़ हैं, “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पास उनके साथियों में से जो शख़्स अपने सरपरस्त की इजाज़त के बिना आएगा उसे वे वापस कर देंगे।” और किसी में है, "क़ुरैश में से जो शख़्स मुहम्मद (सल्ल०) के पास अपने सरपरस्त की इजाज़त के बिना जाएगा उसे वे क़ुरैश को वापस कर देंगे।” इन रिवायतों के बयान का अन्दाज़ ख़ुद बता रहा है कि इनमें समझौते की इस शर्त को उन अलफ़ाज़ में नक़्ल नहीं किया गया है जो अस्ल समझौते में लिखे गए थे, बल्कि रिवायत करनेवालों ने उनका मतलब ख़ुद अपने अलफ़ाज़ में बयान कर दिया है। लेकिन चूँकि इस तरह की बहुत-सी रिवायतें हैं, इसलिए आम तौर पर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले और हदीस के आलिमों ने इससे यही समझा कि समझौता आम था जिसमें औरत-मर्द सब दाख़िल थे और औरतों को भी इसके मुताबिक़ वापस होना चाहिए था।
इसके बाद जब उनके सामने अल्लाह तआला का यह हुक्म आया कि मोमिन औरतें वापस न की जाएँ तो इन लोगों ने इसका मतलब यह बयान किया कि अल्लाह तआला ने इस आयत में मोमिन औरतों की हद तक समझौता तोड़ देने का फ़ैसला दे दिया। मगर यह कोई मामूली बात नहीं है, जिसको इस आसानी के साथ क़ुबूल कर लिया जाए। अगर समझौता सचमुच किसी को ख़ास किए बिना मर्द-औरत सबके लिए आम था तो आख़िर यह कैसे जाइज़ हो सकता था कि एक फ़रीक़ (पक्ष) उसमें एक तरफ़ा तबदीली कर दे या उसके किसी हिस्से को अपने तौर पर बदल डाले? और अगर मान लीजिए ऐसा किया भी गया था तो यह कैसी अजीब बात है कि क़ुरैश के लोगों ने इसपर कोई हंगामा नहीं किया! क़ुरैशवाले तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों की एक-एक बात पर पकड़ करने के लिए तुले बैठे थे। उन्हें अगर यह बात हाथ आ जाती कि आप (सल्ल०) समझौते की शर्तों की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर गुज़रे हैं तो वे ज़मीन और आसमान सर पर उठा लेते। लेकिन हमें किसी रिवायत में इसका निशान तक नहीं मिलता कि उन्होंने क़ुरआन के इस फ़ैसले पर ज़र्रा बराबर भी एतिराज़ किया हो। यह ऐसा सवाल था जिसपर ग़ौर किया जाता तो समझौते के अस्ल अलफ़ाज़ की खोज लगाकर इस पेचीदगी का हल तलाश किया जाता, मगर बहुत-से लोगों ने तो इसकी तरफ़ ध्यान न दिया, और कुछ लोग (मसलन क़ाज़ी अबू-बक्र-बिन-अरबी) ने ध्यान दिया भी तो उन्होंने क़ुरैश के एतिराज़ न करने की यह वजह बयान करने तक में झिझक न की कि अल्लाह तआला ने मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर इस मामले में क़ुरैश की ज़बान बन्द कर दी थी। ताज्जुब है कि यह वजह बयान करने पर इन लोगों का दिल कैसे मुत्मइन हुआ!
अस्ल बात यह है कि समझौते की यह शर्त मुसलमानों की तरफ़ से नहीं, बल्कि क़ुरैश के ग़ैर-मुस्लिमों की तरफ़ से थी, और उनकी तरफ़ से उनके नुमाइन्दे सुहैल-बिन-अम्र ने जो अलफ़ाज़ समझौते में लिखवाए थे वे ये थे, “तुम्हारे पास हममें से कोई मर्द भी आए, अगरचे वह तुम्हारे दीन ही पर हो, तुम उसे हमारी तरफ़ वापस करोगे।” समझौते के ये अलफ़ाज़ बुख़ारी, किताबुश-शुरूत, बाबुश-शुरूति फ़िल-जिहादि वल-मुसालहति में मज़बूत सनद के साथ नक़्ल हुए हैं। हो सकता है कि सुहैल ने मूल अरबी में आए हुए ‘रजुल' (मर्द) का लफ़्ज़ शख़्स के मानी में इस्तेमाल किया हो, लेकिन यह उसकी ज़ेहनी मुराद होगी समझौते में जो लफ़्ज़ लिखा गया, वह ‘रजुल' ही था जो अरबी ज़बान में मर्द के लिए बोला जाता है। इसी वजह से जब उम्मे-कुलसूम-बिन्ते-उक़बा की वापसी की माँग लेकर उनके भाई अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो (इमाम ज़ुहरी की रिवायत के मुताबिक़) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको वापस करने से यह कहकर इनकार किया कि “शर्त मर्दों के बारे में थी न कि औरतों के बारे में,” (अहकामुल-क़ुरआन, लिइब्निल-अरबी; तफ़सीरे-कबीर, इमाम राज़ी) उस वक़्त तक ख़ुद क़ुरैश के लोग भी इस ग़लतफ़हमी में थे कि समझौता हर तरह के मुहाजिरों पर लागू होता है, चाहे वे मर्द हों या औरतें। मगर जब अल्लाह के नबी (सल्ल०) ने उनको समझौते के इन अलफ़ाज़ की तरफ़ ध्यान दिलाया तो वे हैरान रह गए और उन्हें मजबूर होकर इस फ़ैसले को मानना पड़ा।
समझौते की इस शर्त के लिहाज़ से मुसलमानों को हक़ था कि जो औरत भी मक्का छोड़कर मदीना आती, चाहे वह किसी ग़रज़ से आती, उसे वापस करने से इनकार कर देते। लेकिन इस्लाम को सिर्फ़ मोमिन औरतों की हिफ़ाज़त से दिलचस्पी थी, हर तरह की भागनेवाली औरतों के लिए मदीना तय्यिबा को पनाहगाह बनाना मक़सद न था। इसलिए अल्लाह तआला ने हुक्म दिया कि जो औरतें हिजरत करके आएँ और अपने मोमिन होने का इज़हार करें, उनसे पूछ-गछ करके अपना इत्मीनान कर लो कि वे सचमुच ईमान लेकर आई हैं, और जब इसका इत्मीनान हो जाए तो उनको वापस न करो। चुनाँचे अल्लाह के इस हुक्म पर अमल करने के लिए जो क़ायदा बनाया गया वह यह था कि जो औरतें हिजरत करके आती थीं उनसे पूछा जाता था कि क्या वे अल्लाह की तौहीद (अल्लाह के एक होने) और मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत पर ईमान रखती हैं, और सिर्फ़ अल्लाह और उसके रसूल की ख़ातिर निकलकर आई हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि वे शौहर से बिगड़कर घर से निकल खड़ी हुई हों? या हमारे यहाँ के किसी मर्द की मुहब्बत उनको ले आई हो? या कोई और दुनियावी मक़सद उनके इस अमल का सबब बना हो? इन सवालों का मुत्मइन करनेवाला जवाब जो औरतें दे देती थीं सिर्फ़ उनको रोक लिया जाता था, बाक़ी सबको वापस कर दिया जाता था। (इब्ने-जरीर, इब्ने-अब्बास, क़तादा, मुजाहिद, इकरिमा, इब्ने-ज़ैद के हवाले से)
इस आयत में गवाही के क़ानून का भी एक उसूली क़ायदा बयान कर दिया गया है और उसकी और ज़्यादा तशरीह काम के उस तरीक़े से हो गई है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इसपर अमल करने के लिए मुक़र्रर किया था। आयत में तीन बातें कही गई हैं। एक यह कि हिजरत करनेवाली जो औरतें अपने-आपको मोमिन होने की हैसियत से पेश करें उनके ईमान की जाँच करो। दूसरी यह कि उनके ईमान की हक़ीक़त को तो सिर्फ़ अल्लाह तआला ही जानता है, तुम्हारे पास यह जानने का कोई ज़रिआ नहीं है कि वे हक़ीक़त में ईमान लाई हैं। तीसरी यह कि जाँच पड़ताल से जब तुम्हें मालूम हो जाए कि वे मोमिन हैं तो उन्हें वापस न करो। फिर इस हुक्म के मुताबिक़ उन औरतों के ईमान की जाँच करने के लिए जो तरीक़ा नबी (सल्ल०) ने मुक़र्रर किया था वह यह था कि उन औरतों के हलफ़िया (शपथ लेकर दिए गए) बयान पर भरोसा किया जाए और ज़रूरी जिरह (पूछ-गछ) करके यह इत्मीनान कर लिया जाए कि उनकी हिजरत का सबब ईमान के सिवा कुछ और नहीं है। इससे एक तो यह क़ायदा मालूम हुआ कि मामलों का फ़ैसला करने के लिए अदालत को हक़ीक़त की जानकारी हासिल होना ज़रूरी नहीं है, बल्कि सिर्फ़ वह जानकारी काफ़ी है जो गवाहियों से हासिल होती है। दूसरी बात यह मालूम हुई कि हम एक शख़्स के हलफ़िया बयान पर एतिमाद करेंगे जब तक कि कोई साफ़ अलामत उसके झूठे होने की दलील न दे रही हो। तीसरी बात यह मालूम हुई कि आदमी अपने अक़ीदे और ईमान के बारे में ख़ुद जो ख़बर दे रहा हो हम उसे क़ुबूल करेंगे और इस बात की खोज में न पड़ेंगे कि सचमुच उसका वही अक़ीदा है जो वह बयान कर रहा है, सिवाय इसके कि कोई साफ़ अलामत हमारे सामने ऐसी ज़ाहिर हो जाए, जो उसके बयान को ग़लत साबित कर रही हो। और चौथी बात यह कि एक शख़्स के जिन निजी हालात को दूसरा कोई नहीं जान सकता उनमें उसी के बयान पर भरोसा किया जाएगा, मसलन तलाक़ और इद्दत के मामलों में औरत की माहवारी और उसके पाक होने के बारे में उसका अपना बयान ही भरोसेमन्द होगा, चाहे वह झूठ बोले या सच। इन ही क़ायदों के मुताबिक़ इल्मे-हदीस में भी उन रिवायतों को क़ुबूल किया जाएगा जिनके बयान करनेवालों का ज़ाहिर हाल उनके सच्चे होने की गवाही दे रहा हो, सिवाय इसके कि कुछ दूसरी अलामतें ऐसी मौज़ूद हों जो किसी रिवायत के क़ुबूल करने में रुकावट हों।
15. मतलब यह है कि उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहरों को उनके जो मह्र वापस किए जाएँगे वही इन औरतों के मह्र न माने जाएँगे, बल्कि अब जो मुसलमान भी उनमें से किसी औरत से निकाह करना चाहे वह उसका मह्र अदा करे और उससे निकाह कर ले।
16. इन आयतों में चार बड़े अहम हुक्म बयान किए गए हैं, जिनका ताल्लुक़ इस्लाम के ख़ानदानी क़ानून से भी है और बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) क़ानून से भी—
एक यह कि जो औरत मुसलमान हो जाए वह अपने ग़ैर-मुस्लिम शौहर के लिए हलाल नहीं रहती और न ग़ैर-मुस्लिम शौहर उसके लिए हलाल रहता है।
दूसरा यह कि जो शादी-शुदा औरत मुसलमान होकर दारुल-कुफ़्र (ग़ैर-इस्लामी राज्य) से दारुल-इस्लाम (इस्लामी राज्य) में हिजरत करके आए उसका निकाह आप-से-आप टूट जाता है। और जो मुसलमान भी चाहे उसका मह्र देकर उससे निकाह कर सकता है।
तीसरा यह कि जो मर्द मुसलमान हो जाए उसके लिए यह जाइज़ नहीं है कि उसकी बीवी अगर ग़ैर-मुस्लिम रहे तो वह उसे अपने निकाह में रोके रखे।
चौथा यह कि अगर दारुल-कुफ़्र और दारुल-इस्लाम के दरमियान समझौते के ताल्लुक़ात मौज़ूद हों तो इस्लामी हुकूमत को दारुल-कुफ़्र की हुकूमत से यह मामला तय करने की कोशिश करनी चाहिए कि ग़ैर-मुस्लिमों की जो शादी-शुदा औरतें मुसलमान होकर दारुल-इस्लाम में हिजरत कर आई हों उनके मह्र मुसलमानों की तरफ़ से वापस दे दिए जाएँ, और मुसलमानों के निकाह में रहनेवाली ग़ैर-मुस्लिम औरतें जो दारुल-कुफ़्र में रह गई हों उनके मह्र ग़ैर-मुस्लिम मर्दों की तरफ़ से वापस मिल जाएँ।
इन हुक्मों का तारीख़़ी फसमंज़र (एतिहासिक पृष्ठभूमि) यह है कि इस्लाम के शुरू में बहुत-से मर्द ऐसे थे जिन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया, मगर उनकी बीवियाँ मुसलमान न हुईं। और बहुत-सी औरतें ऐसी थीं जो मुसलमान हो गईं, मगर उनके शौहरों ने इस्लाम क़ुबूल न किया। ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की एक बेटी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के शौहर अबुल-आस ग़ैर-मुस्लिम थे और कई साल तक ग़ैर-मुस्लिम रहे। शुरुआती दौर में ऐसा कोई हुक्म नहीं दिया गया था कि मुसलमान औरत के लिए उसका ग़ैर-मुस्लिम शौहर और मुसलमान मर्द के लिए उसकी ग़ैर-मुस्लिम बीवी हलाल नहीं है। इसलिए उनके दरमियान मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ात बरक़रार रहे। हिजरत के बाद भी कई साल तक यह सूरते-हाल रही कि बहुत-सी औरतें मुसलमान होकर हिजरत कर आईं और उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहर दारुल-कुफ़्र में रहे। और बहुत-से मुसलमान मर्द हिजरत करके आ गए और उनकी ग़ैर-मुस्लिम बीवियाँ दारुल-कुफ़्र में रह गई। मगर इसके बावजूद उनके दरमियान मियाँ-बीवी का रिश्ता बना रहा। इससे ख़ास तौर पर औरतों के लिए बड़ी पेचीदगी पैदा हो रही थी, क्योंकि मर्द तो दूसरे निकाह भी कर सकते थे, मगर औरतों के लिए यह मुमकिन न था कि जब तक पहले शौहरों से उनका निकाह ख़त्म न हो जाए वे किसी और शख़्स से निकाह कर सकें। हुदैबिया के समझौते के बाद जब ये आयतें उतरीं तो इन्होंने मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों के दरमियान पिछले शादी-शुदा रिश्तों को ख़त्म कर दिया और आगे के लिए उनके बारे में एक पक्का और साफ़ क़ानून बना दिया। इस्लाम के फ़क़ीहों ने इस क़ानून को चार बड़े-बड़े उनवानों (शीर्षकों) के तहत जमा किया है—
(i) वह हालत जिसमें मियाँ-बीवी दारुल-इस्लाम में हों और उनमें से एक मुसलमान हो जाए और दूसरा ग़ैर-मुस्लिम रहे।
(ii) वह हालत जिसमें मियाँ-बीवी दारुल-कुफ़्र में हों और उनमें से एक मुसलमान हो जाए और दूसरा ग़ैर-मुस्लिम रहे।
(iii) वह हालत जिसमें मियाँ-बीवी में से कोई एक मुसलमान होकर दारुल-इस्लाम में हिजरत करके आ जाए और दूसरा दारुल-कुफ़्र में ग़ैर-मुस्लिम रहे।
(iv) वह हालत जिसमें मुस्लिम मियाँ-बीवी में से कोई एक मुर्तद हो जाए यानी इस्लाम छोड़कर ग़ैर-मुस्लिम हो जाए।
नीचे हम इन चारों हालतों के बारे में फ़क़ीहों की राएँ अलग-अलग बयान करते हैं—
(1) पहली सूरत में अगर इस्लाम शौहर ने क़ुबूल किया हो और उसकी बीवी ईसाई या यहूदी हो और वह अपने दीन पर क़ायम रहे तो दोनों के दरमियान निकाह बाक़ी रहेगा, क्योंकि कि मुसलमान मर्द के लिए अहले-किताब बीवी जाइज़ है। इस बात पर तमाम फ़क़ीहों के दरमियान एक राय पाई जाती है।
और अगर इस्लाम क़ुबूल करनेवाले मर्द की बीवी अहले-किताब में से न हो और वह अपने दीन पर क़ायम रहे, तो हनफ़ी आलिम उसके बारे में कहते हैं कि औरत के सामने इस्लाम पेश किया जाएगा, क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, न क़ुबूल करे तो उनके दरमियान अलगाव कर दिया जाएगा। इस सूरत में अगर मियाँ-बीवी सोहबत कर चुके हों तो औरत मह्र की हक़दार होगी, और सोहबत न हुई हो तो उसको मह्र पाने का हक़ न होगा, क्योंकि ताल्लुक़ का टूटना उसके इनकार की वजह से हुआ है, (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर)। इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद (रह०) कहते हैं कि अगर मियाँ-बीवी ने सोहबत न की हो तो मर्द के इस्लाम क़ुबूल करते ही औरत उसके निकाह से बाहर हो जाएगी, और अगर सोहबत हो चुकी हो तो औरत तीन बार माहवारी आने तक उसके निकाह में रहेगी, इस दौरान में वह ख़ुद अपनी मरज़ी से इस्लाम क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना तीसरी बार माहवारी के दिन गुज़रते ही आप-से-आप निकाह ख़त्म हो जाएगा। इमाम शाफ़िई (रह०) यह भी कहते हैं कि ज़िम्मियों (ग़ैर-मुस्लिमों) को उनके मज़हब से छेड़छाड़ न करने की जो ज़मानत हमारी तरफ़ से दी गई है उसकी बुनियाद पर यह दुरुस्त नहीं है कि औरत के सामने इस्लाम पेश किया जाए। लेकिन हक़ीक़त में यह एक कमज़ोर बात है, क्योंकि एक ग़ैर-मुस्लिम औरत के मज़हब से छेड़छाड़ तो उस सूरत में होगी जबकि उसको इस्लाम क़ुबूल करने पर मजबूर किया जाए। उससे सिर्फ़ यह कहना कोई छेड़छाड़ नहीं है कि तू इस्लाम क़ुबूल कर ले तो अपने शौहर के साथ रह सकेगी, वरना तुझे इससे अलग कर दिया जाएगा। हज़रत अली (रज़ि०) के ज़माने में इसकी मिसाल पेश भी आ चुकी है। इराक़ के एक मजूसी ज़मींदार ने इस्लाम क़ुबूल किया और उसकी बीवी ग़ैर-मुस्लिम रही। हज़रत अली (रज़ि०) ने उसके सामने इस्लाम पेश किया। और जब उसने इनकार कर दिया तब उन्होंने उन दोनों के दरमियान जुदाई करा दी, (अल-मबसूत)। इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि अगर मियाँ-बीवी ने सोहबत न की हो तो मर्द के इस्लाम लाते ही उसकी ग़ैर-मुस्लिम बीवी उससे फ़ौरन जुदा हो जाएगी और अगर सोहबत हो चुकी हो तो औरत के सामने इस्लाम पेश किया जाएगा और उसके इनकार की सूरत में जुदाई हो जाएगी। (अल-मुग़नी लिइब्नि-क़ुदामा)
और अगर इस्लाम औरत ने क़ुबूल किया हो और मर्द ग़ैर-मुस्लिम रहे, चाहे वह अहले-किताब में से हो या अहले-किताब में से न हो, तो हनफ़ी आलिम कहते हैं कि दोनों सोहबत कर चुके हों या सोहबत न की हो, हर हाल में शौहर के सामने इस्लाम पेश किया जाएगा, क़ुबूल कर ले तो औरत उसके निकाह में रहेगी, इनकार कर दे तो क़ाज़ी दोनों में जुदाई करा देगा। इस दौरान में जब तक मर्द इस्लाम से इनकार न करे, औरत उसकी बीवी तो रहेगी, मगर उसे सोहबत का हक़ न होगा। शौहर के इनकार करने पर जुदाई बाइन तलाक़ के तौर पर होगी (यानी उसके बाद शौहर को रुजू का हक़ न होगा)। अगर उससे पहले सोहबत न की हो तो औरत आधा मह्र पाने की हक़दार होगी, और अगर सोहबत हो चुकी हो तो औरत पूरा मह्र भी पाएगी और इद्दत का ख़र्च भी, (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर)। इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक सोहबत न होने की हालत में औरत के इस्लाम क़ुबूल करते ही निकाह टूट जाएगा, और सोहबत होने की हालत में इद्दत ख़त्म होने तक औरत उस मर्द के निकाह में रहेगी। इस मुद्दत के अन्दर वह इस्लाम क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना इद्दत गुज़रते ही जुदाई हो जाएगी। लेकिन मर्द के मामले में भी इमाम शाफ़िई (रह०) ने वही राय ज़ाहिर की है जो औरत के बारे में ऊपर नक़्ल हुई कि उसके सामने इस्लाम पेश करना जाइज़ नहीं है, और यह राय बहुत कमज़ोर है। हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में कई वाक़िआत ऐसे पेश आए हैं कि औरत ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और मर्द से इस्लाम लाने के लिए कहा गया और जब उसने इनकार कर दिया तो दोनों के दरमियान जुदाई करा दी गई। मिसाल के तौर पर बनी-तग़लिब के एक ईसाई की बीवी का मामला उनके सामने पेश हुआ। उन्होंने मर्द से कहा, “या तो तू इस्लाम क़ुबूल कर ले, वरना मैं तुम दोनों के दरमियान जुदाई कर दूँगा।” उसने इनकार किया और उन्होंने जुदाई का फ़ैसला कर दिया। बहजुल-मलिक की एक नव-मुस्लिम जमींदारनी का मुक़द्दमा उनके पास भेजा गया। उसके मामले में भी उन्होंने हुक्म दिया कि उसके शौहर के सामने इस्लाम पेश किया जाए, अगर वह क़ुबूल कर ले तो बेहतर, वरना दोनों में जुदाई करा दी जाए। ये वाक़िआत सहाबा किराम (रज़ि०) के सामने पेश आए थे और किसी का इख़्तिलाफ़ नहीं हुआ है, (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, अल-मबसूत, फ़तहुल-क़दीर)। इमाम मालिक (रह०) की राय इस मामले में यह है कि अगर सोहबत से पहले औरत मुसलमान हो जाए तो शौहर के सामने इस्लाम पेश किया जाए, वह क़ुबूल कर ले तो बेहतर वरना फ़ौरन जुदाई करा दी जाए। और अगर सोहबत हो चुकी हो और उसके बाद औरत इस्लाम लाई हो तो इद्दत का ज़माना ख़त्म होने तक इन्तिज़ार किया जाए, इस मुद्दत में शौहर इस्लाम क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना इद्दत गुज़रते ही जुदाई हो जाएगी। इमाम अहमद (रह०) का एक क़ौल (राय) इमाम शाफ़िई (रह०) की ताईद में है, और दूसरा क़ौल यह है कि मियाँ-बीवी के दीन (धर्म) का अलग-अलग हो जाना बहरहाल फ़ौरन जुदाई का सबब है, चाहे सोहबत हुई हो या न हुई हो। (अल-मुग़नी)
(2) दारुल-कुफ़्र में अगर औरत मुसलमान हो जाए और मर्द ग़ैर-मुस्लिम रहे, या मर्द मुसलमान हो जाए और उसकी बीवी (जो ईसाई या यहूदी न हो, बल्कि अहले-किताब से अलग किसी और मज़हब की हो) अपने मज़हब पर क़ायम रहे, तो हनफ़ी आलिमों के नज़दीक चाहे उन्होंने सोहबत की हो या न की हो, जुदाई न होगी जब तक औरत को तीन बार माहवारी न हो जाए, या अगर उसे माहवारी न आती हो तो इस सूरत में तीन महीने न गुज़र जाएँ। इस दौरान में अगर दूसरा फ़रीक़ (पक्ष) भी मुसलमान हो जाए तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना यह मुद्दत गुज़रते ही जुदाई हो जाएगी। इमाम शाफ़िई (रह०) इस मामले में भी सोहबत होने और न होने में फ़र्क़ करते हैं। उनकी राय यह है कि अगर सोहबत न हुई हो तो मियाँ-बीवी के बीच दीन के अलग-अलग होते ही जुदाई हो जाएगी, और अगर सोहबत हो जाने के बाद दीन अलग-अलग हुआ तो इद्दत की मुद्दत ख़त्म होने तक उनका निकाह बाक़ी रहेगा। इस दौरान में अगर दूसरा फ़रीक़ (पक्ष) इस्लाम क़ुबूल न करे तो इद्दत ख़त्म होने के साथ ही निकाह भी ख़त्म हो जाएगा। (अल-मबसूत, फ़तहुल-क़दीर, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)
(3) जिस सूरत में मियाँ-बीवी के दरमियान दीन के अलग-अलग होने के साथ 'दार' (मुल्क) भी अलग-अलग हो जाए, यानी उनमें से कोई एक दारुल-कुफ़्र में ग़ैर-मुस्लिम रहे और दूसरा दारुल-इस्लाम की तरफ़ हिजरत कर जाए, उसके बारे में हनफ़ी आलिम कहते हैं कि दोनों के दरमियान निकाह का ताल्लुक़ आप-से-आप ख़त्म हो जाएगा। अगर हिजरत करनेवाली औरत हो तो उसे फ़ौरन दूसरा निकाह कर लेने का हक़ हासिल है, उसपर कोई इद्दत नहीं है, अलबत्ता सोहबत करने के लिए उसके (नए) शौहर को एक बार माहवारी आ जाने तक इन्तिज़ार करना होगा, ताकि इसका पता चल सके कि औरत के पेट में पिछले शौहर का हम्ल (गर्भ) तो नहीं है। और अगर वह हामिला (गर्भवती) हो तब भी निकाह हो सकता है, मगर दोनों को सोहबत करने के लिए बच्चा पैदा होने तक इन्तिज़ार करना होगा। इमाम अबू-यूसुफ़ और इमाम मुहम्मद (रह०) ने इस मसले में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) से सिर्फ़ इतना इख़्तिलाफ़ किया है कि उनके नज़दीक औरत पर इद्दत लाज़िम है, और अगर वह हामिला (गर्भवती) हो तो बच्चा पैदा होने से पहले उसका निकाह नहीं हो सकता, (अल-मबसूत, हिदाया, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)। इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम अहमद (रह०) और इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि 'दार' (मुल्क) के अलग-अलग होने का इस मामले में कोई दख़ल नहीं है, बल्कि अस्ल चीज़ सिर्फ़ दीन का अलग-अलग होना है। यह फ़र्क़ अगर मियाँ-बीवी के बीच पैदा हो जाए तो हुक्म वही हैं जो दारुल-इस्लाम में मियाँ-बीवी के दरमियान यह फ़र्क़ पैदा होने के हैं, (अल-मुग़नी)।
इमाम शाफ़िई (रह०) अपनी ऊपर बयान की गई राय के साथ-साथ हिजरत करके आनेवाली मुसलमान औरत के मामले में यह राय भी ज़ाहिर करते हैं कि अगर वह अपने ग़ैर-मुस्लिम शौहर से लड़कर उसके शौहर होने के हक़ को ख़त्म करने के इरादे से आई हो तो 'दार' (मुल्क) के फ़र्क़ की बुनियाद पर नहीं, बल्कि उसके इस इरादे की बुनियाद पर फ़ौरन जुदाई हो जाएगी। (अल-मबसूत, हिदाया)
लेकिन क़ुरआन मजीद की इस आयत पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि इस मामले में सबसे ज़्यादा सही राय वही है जो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने ज़ाहिर की है। अल्लाह तआला ने यह आयत हिजरत करके आनेवाली मोमिन औरतों ही के बारे में उतारी है, और उन ही के हक़ में यह फ़रमाया है कि वे अपने उन ग़ैर-मुस्लिम शौहरों के लिए हलाल नहीं रहीं जिन्हें वे दारुल-कुफ़्र में छोड़ आई हैं, और दारुल-इस्लाम के मुसलमानों को इजाज़त दी है कि वे उनके मह्र अदा करके उनसे निकाह कर लें। दूसरी तरफ़ मुहाजिर मुसलमानों को मुख़ातब करके यह फ़रमाया है कि अपनी उन ग़ैर-मुस्लिम बीवियों को अपने निकाह में न रोके रखो जो दारुल-कुफ़्र में रह गई हैं और ग़ैर-मुस्लिमों से अपने वे मह्र वापस माँग लो जो तुमने उन औरतों को दिए थे। ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ दीन के अलग-अलग होने ही के हुक्म नहीं हैं, बल्कि इन हुक्मों को जिस चीज़ ने यह ख़ास शक्ल दी है वह 'दार' (मुल्क) का अलग-अलग होना है। अगर हिजरत की बुनियाद पर मुसलमान औरतों के निकाह उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहरों से टूट न गए होते तो मुसलमानों को उनसे निकाह की इजाज़त कैसे दी जा सकती थी, और वह भी इस तरह कि इस इजाज़त में इद्दत की तरफ़ कोई इशारा तक नहीं है। इसी तरह अगर 'तुम ग़ैर-मुस्लिम औरतों को अपने निकाह में न रोके रखो' का हुक्म आ जाने के बाद भी मुसलमान मुहाजिरों की ग़ैर-मुस्लिम बीवियाँ उनके निकाह में बाक़ी रह गई होती तो साथ-साथ यह हुक्म भी दिया जाता कि उन्हें तलाक़ दे दो। मगर यहाँ उसकी तरफ़ भी कोई इशारा नहीं। बेशक यह सही है कि इस आयत के उतरने के बाद हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत तलहा (रज़ि०) और कुछ दूसरे मुहाजिरों ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी थी, मगर यह इस बात का सुबूत नहीं है कि उनके लिए ऐसा करना ज़रूरी था, और उन बीवियों के साथ शादी के ताल्लुक़ के टूटने का दारोमदार उनके तलाक़ देने पर था, और अगर वे तलाक़ न देते तो वे बीवियाँ उनके निकाह में बाक़ी रह जातीं।
इसके जवाब में नबी (सल्ल०) के दौर के तीन वाक़िआत की मिसालें पेश की जाती हैं जिनको इस बात का सुबूत क़रार दिया जाता है कि इन आयतों के उतरने के बाद भी नबी (सल्ल०) ने 'दार' के अलग-अलग हो जाने के बावजूद मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम मियाँ-बीवी के दरमियान निकाह का ताल्लुक़ बाक़ी रखा। पहला वाक़िआ यह है कि मक्का की फ़तह से ज़रा पहले अबू-सुफ़ियान मर्रूज़-ज़हरान (मौज़ूदा फ़ातिमा की घाटी) के मक़ाम पर इस्लाम के लश्कर में आए और यहाँ उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और उनकी बीवी हिन्द मक्का में ग़ैर-मुस्लिम रहीं। फिर मक्का की फ़तह के बाद हिन्द ने इस्लाम क़ुबूल किया और नबी (सल्ल०) ने दोबारा निकाह कराए बिना ही उनको पिछले निकाह पर बाक़ी रखा। दूसरा वाक़िआ यह है कि मक्का की फ़तह के बाद अबू-जह्ल के बेटे इकरिमा और हकीम-बिन-हिज़ाम मक्का से फ़रार हो गए और उनके पीछे दोनों की बीवियाँ मुसलमान हो गईं। फिर उन्होंने नबी (सल्ल०) से अपने शौहरों के लिए पनाह ले ली और जाकर उनको ले आईं। दोनों आदमियों ने हाज़िर होकर इस्लाम क़ुबूल कर लिया और नबी (सल्ल०) ने उनके भी पिछले निकाहों को बाक़ी रखा। तीसरा वाक़िआ नबी (सल्ल०) की अपनी बेटी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) का है जो हिजरत करके मदीना आ गई थीं और उनके शौहर अबुल-आस ग़ैर-मुस्लिम होने की हालत में मक्का ही में ठहरे रह गए थे। उनके बारे में मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और इब्ने-माजा में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत यह है कि वे सन् 8 हिजरी में मदीना आकर मुसलमान हुए और नबी (सल्ल०) ने दोबारा निकाह के बिना ही पिछले निकाह पर बेटी को उनकी बीवी की हैसियत से रहने दिया। लेकिन इनमें से पहले दो वाक़िए तो अस्ल में हक़ीक़त में 'दार' (देश या मुल्क) के अलग-अलग होने की तारीफ़ (परिभाषा) ही में नहीं आते, क्योंकि 'दार' का फ़र्क़ इस चीज़ का नाम नहीं है कि एक शख़्स थोड़े वक़्त के लिए एक दार (मुल्क) से दूसरे दार (मुल्क) की तरफ़ चला गया या फ़रार हो गया, बल्कि यह फ़र्क़ सिर्फ़ इस सूरत में होता है जब कोई आदमी एक दार से निकलकर दूसरे दार में आबाद हो जाए और उसके और उसकी बीवी के दरमियान मौजूदा ज़माने की इसतिलाह (शब्दावली) के मुताबिक़ 'क़ौमियत' (Nationality) का फ़र्क़ हो जाए। रहा हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) का मामला तो उसके बारे में दो रिवायतें हैं। एक रिवायत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की है जिसका हवाला ऊपर दिया गया है, और दूसरी रिवायत हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस की है जिसको इमाम अहमद, तिरमिज़ी और इब्ने-माजा ने नक़्ल किया है। इस दूसरी रिवायत में बयान किया गया है कि नबी (सल्ल०) ने बेटी को नए निकाह और नए मह्र के साथ फिर अबुल-आस ही को बीवी की हैसियत से सौंप दिया। रिवायतों के इस फ़र्क़ की सूरत में एक तो यह मिसाल उन लोगों के लिए बिलकुल भी दलील नहीं रहती जो दार (मुल्क) के अलग-अलग होने के क़ानूनी असर का इनकार करते हैं। दूसरे, अगर वे इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ही की रिवायत के सही होने पर जोर दें तो यह उनके मसलक के ख़िलाफ़ पड़ती है। क्योंकि उनके मसलक के मुताबिक़ तो जिन मियाँ-बीवी के दरमियान दीन का फ़र्क़ पैदा हो गया हो और वे आपस में सोहबत कर चुके हों, उनका निकाह औरत को सिर्फ़ तीन बार माहवारी आने तक बाक़ी रहता है, इस दौरान में दूसरा फ़रीक़ इस्लाम क़ुबूल कर ले तो शादी का रिश्ता क़ायम रहता है, वरना तीसरी बार माहवारी आते ही निकाह आप-से-आप ख़त्म हो जाता है। लेकिन हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के जिस वाक़िए से वे दलील लेते हैं उसमें मियाँ बीवी के दरमियान दीन का फ़र्क़ पैदा हुए कई साल गुज़र चुके थे, हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) की हिजरत के छह साल बाद अबुल-आस ईमान लाए थे, और उनके ईमान लाने से कम-से-कम दो साल पहले क़ुरआन में वह हुक्म उतर चुका था जिसके मुताबिक़ मुसलमान औरत मुशरिकों (ग़ैर-मुस्लिमों) पर हराम कर दी गई थी।
(4) चौथा मसला इरतिदाद (इस्लाम से फिर जाने) का है। इसकी एक सूरत यह है कि मियाँ-बीवी एक-साथ मुरतद हो जाएँ (इस्लाम से फिर जाएँ), और दूसरी सूरत यह है कि उनमें से कोई एक मुरतद हो और दूसरा मुसलमान रहे।
अगर मियाँ-बीवी एक साथ मुरतद हो जाएँ तो शाफ़िई और हंबली आलिम कहते हैं कि सोहबत से पहले ऐसा हो तो फ़ौरन, और सोहबत के बाद हो तो इद्दत की मुद्दत ख़त्म होते ही दोनों का वह निकाह ख़त्म हो जाएगा जो मुसलमान रहने की हालत में हुआ था। इसके बरख़िलाफ़ हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि अगरचे क़ियास (अन्दाज़ा) यही कहता है कि उनका निकाह ख़त्म हो जाए, लेकिन हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के ज़माने में इरतिदाद का जो फ़ितना पैदा हुआ था, उसमें हज़ारों आदमी इस्लाम से फिर गए, फिर मुसलमान हो गए, और सहाबा किराम (रज़ि०) ने किसी को भी फिर से निकाह का हुक्म नहीं दिया, इसलिए हम सहाबा (रज़ि०) के एक राय होकर किए गए फ़ैसले को क़ुबूल करते हुए क़ियास के ख़िलाफ़ यह बात मानते हैं कि मियाँ-बीवी के एक साथ इस्लाम से निकल जाने की सूरत में उनके निकाह नहीं टूटते। (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, अल-फ़िक़्हु अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ)
अगर शौहर इस्लाम से फिर जाए और औरत मुसलमान रहे तो हनफ़ी और मालिकी आलिमों के नज़दीक फ़ौरन निकाह टूट जाएगा, चाहे उनके दरमियान पहले सोहबत हो चुकी हो या न हुई हो। लेकिन शाफ़िई और हंबली आलिम इसमें सोहबत से पहले और सोहबत के बाद की हालत के दरमियान फ़र्क़ करते हैं। अगर सोहबत से पहले ऐसा हुआ हो तो फ़ौरन निकाह ख़त्म हो जाएगा, और सोहबत के बाद हुआ हो तो इद्दत के ज़माने तक बाक़ी रहेगा, इस दौरान में वह शख़्स मुसलमान हो जाए तो मियाँ-बीवी का रिश्ता बरक़रार रहेगा, वरना इद्दत ख़त्म होते ही उसके इरतिदाद (इस्लाम से फिर जाने) के वक़्त से निकाह टूटा हुआ समझा जाएगा, यानी औरत को फिर कोई नई इद्दत गुज़ारनी न होगी। चारों फ़क़ीह इसपर एक राय हैं कि सोहबत से पहले यह मामला पेश आया हो तो औरत को आधा मह्र और सोहबत के बाद पेश आया हो तो पूरा महर पाने का हक़ होगा।
और अगर औरत इस्लाम से फिर गई हो तो हनफ़ी आलिमों का पुराना फ़तवा यह था कि इस सूरत में भी निकाह फ़ौरन ख़त्म हो जाएगा, लेकिन बाद के दौर में बल्ख़ और समरक़न्द के आलिमों ने यह फ़तवा दिया कि औरत के मुरतद होने से फ़ौरन जुदाई नहीं होती, और इससे उनका मक़सद इस बात की रोक-थाम करना था कि शौहरों से पीछा छुड़ाने के लिए औरतें कहीं इरतिदाद (इस्लाम छोड़ने) का रास्ता न अपनाने लगें।
मालिकी आलिमों का फ़तवा भी इससे मिलता-जुलता है। वे कहते हैं कि अगर अलामतें यह बता रही हों कि औरत ने सिर्फ़ शौहर से अलग होने के लिए बहाने के तौर पर इरतिदाद का रास्ता अपनाया है तो जुदाई न होगी। शाफ़िई और हंबली फ़क़ीह कहते हैं कि औरत के इस्लाम से फिर जाने की सूरत में भी क़ानून वही है जो मर्द के इस्लाम से फिर जाने की सूरत में है, यानी सोहबत से पहले मुरतद हो तो फ़ौरन निकाह टूट जाएगा, और सोहबत के बाद हो तो इद्दत का ज़माना गुज़रने तक निकाह बाक़ी रहेगा, इस दौरान में वह मुसलमान हो जाए तो मियाँ-बीवी का रिश्ता बना रहेगा, वरना इद्दत गुज़रते ही इस्लाम से फिरने के वक़्त से निकाह टूटा हुआ माना जाएगा। मह्र के बारे में इस बात पर सब आलिम एक राय हैं कि सोहबत से पहले अगर औरत मुरतद हुई है तो उसे कोई मह्र न मिलेगा, और अगर सोहबत के बाद उसने इस्लाम को छोड़ा हो तो वह पूरा मह्र पाएगी। (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, अल-मुग़नी, अल-फ़िक़्हु अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ)