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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ

60. अल-मुम्तहिना

(मदीना में उतरी, आयतें 13)

परिचय

नाम

इस सूरा की आयत 10 में आदेश दिया गया है कि ‘जो औरतें हिजरत करके आएँ और मुसलमान होने का दावा करें उनकी परीक्षा ली जाए।’ इसी संदर्भ में इसका नाम 'अल-मुस्तहिना' रखा गया है। इसका उच्चारण मुम्तहना भी किया जाता है और मुम्तहिना भी। पहले उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "वह औरत जिसकी परीक्षा ली जाए" और दूसरे उच्चारण के अनुसार अर्थ है, "परीक्षा लेनेवाली सूरा।"

उतरने का समय

इसमें दो ऐसे मामलों पर वार्ता की गई है जिनका समय ऐतिहासिक रूप से मालूम है। पहला मामला हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तअह (रज़ि०) का है और दूसरा मामला उन मुसलमान औरतों का है जो हुदैबिया के समझौते के बाद मक्का से हिजरत करके मदीना आने लगी थीं। इन दो मामलों के उल्लेख से [जिनका विस्तृत विवरण आगे आ रहा है] यह बात बिलकुल निश्चित हो जाती है कि यह सूरा हुदैबिया के समझौते और मक्का-विजय के मध्य उतरी है।

विषय और वार्ता

इस सूरा के तीन भाग हैं : पहला भाग सूरा के आरंभ से आयत 9 तक चलता है और सूरा के अन्त पर आयत 13 भी इसी से ताल्लुक रखती है। इसमें हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ (रज़ि०) के इस कर्म पर कड़ी पकड़ की गई है कि उन्होंने केवल अपने परिवार के लोगों को बचाने के लिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के एक अति महत्त्वपूर्ण युद्ध-सम्बन्धी रहस्य से शत्रुओं को अवगत कराने की कोशिश की थी, जिसे अगर समय रहते विफल नहीं कर दिया गया होता तो मक्का-विजय के अवसर पर बड़ा ख़ून-ख़राबा होता और वे तमाम फ़ायदे भी हासिल न हो सकते जो मक्का पर शान्तिमय ढंग से विजय प्राप्त करने के रूप में प्राप्त हो सकते थे। [हज़रत हातिब (रज़ि०) की] इस भयानक ग़लती पर सचेत करते हुए अल्लाह ने तमाम ईमानवालों को यह शिक्षा दी है कि किसी ईमानवाले को किसी हाल में और किसी उद्देश्य के लिए भी इस्लाम के दुश्मन के साथ प्रेम और मित्रता का सम्बन्ध न रखना चाहिए और कोई ऐसा काम न करना चाहिए जो कुफ़्र और इस्लाम के संघर्ष में शत्रुओं के लिए लाभप्रद हो। अलबत्ता जो काफ़िर इस्लाम और मुसलमानों के विरुद्ध व्यावहारिक रूप से शत्रुता और पीड़ा पहुँचाने का काम न कर रहे हों, उनके साथ सद्व्यवहार की नीति अपनाने में कोई दोष नहीं है। दूसरा भाग आयत 10-11 पर आधारित है। इसमें एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक समस्या का समाधान किया गया है जो उस समय बड़ी पेचीदगी पैदा कर रही थी। मक्का में बहुत-सी मुसलमान औरतें ऐसी थीं, जिनके पति अधर्मी थे और वे किसी न किसी प्रकार हिजरत करके मदीना पहुँच जाती थीं। इसी तरह मदीना में बहुत-से मुसलमान मर्द ऐसे थे जिनकी पत्‍नियाँ अधर्मी थीं और वे मक्का ही में रह गई थीं। उनके बारे में यह प्रश्न पैदा होता था कि उनके बीच दाम्पत्य सम्बन्ध बाक़ी है या नहीं। अल्लाह ने इसका हमेशा के लिए यह निर्णय कर दिया कि मुसलमान औरत के लिए अधर्मी पति हलाल (वैध) नहीं है और मुसलमान मर्द के लिए यह वैध नहीं कि वह मुशरिक (बहुदाववादी) पत्‍नी के साथ दाम्पत्य सम्बन्ध बनाए रखे। तीसरा भाग आयत 12 पर आधारित है, जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हिदायत की गई है कि जो औरतें इस्लाम अपना लें, उनसे आप बड़ी-बड़ी बुराइयों से बचने का और भलाई के तमाम तरीक़ों के अनुसरण का [वचन लें।]

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سُورَةُ المُمۡتَحنَةِ
60. अल-मुम्तहिना
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمۡ أَوۡلِيَآءَ تُلۡقُونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَقَدۡ كَفَرُواْ بِمَا جَآءَكُم مِّنَ ٱلۡحَقِّ يُخۡرِجُونَ ٱلرَّسُولَ وَإِيَّاكُمۡ أَن تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ رَبِّكُمۡ إِن كُنتُمۡ خَرَجۡتُمۡ جِهَٰدٗا فِي سَبِيلِي وَٱبۡتِغَآءَ مَرۡضَاتِيۚ تُسِرُّونَ إِلَيۡهِم بِٱلۡمَوَدَّةِ وَأَنَا۠ أَعۡلَمُ بِمَآ أَخۡفَيۡتُمۡ وَمَآ أَعۡلَنتُمۡۚ وَمَن يَفۡعَلۡهُ مِنكُمۡ فَقَدۡ ضَلَّ سَوَآءَ ٱلسَّبِيلِ
(1) ऐ1 लोगो जो ईमान लाए हो! अगर तुम मेरी राह में जिहाद करने के लिए और मेरी ख़ुशी चाहने की ख़ातिर (वतन छोड़कर घरों से) निकले हो तो मेरे और अपने दुश्मनों को दोस्त न बनाओ। तुम उनके साथ दोस्ती की बुनियाद डालते हो, हालाँकि जो हक़ तुम्हारे पास आया है उसको मानने से वे इनकार कर चुके हैं, और उनका रवैया यह है कि रसूल को और ख़ुद तुमको सिर्फ़ इस क़ुसूर पर वतन से निकालते हैं कि तुम अपने रब, अल्लाह पर ईमान लाए हो। तुम छिपाकर उनको दोस्ताना पैग़ाम भेजते हो, हालाँकि जो कुछ तुम छिपाकर करते हो और जो खुल्लम-खुल्ला करते हो, हर चीज़ को मैं ख़ूब जानता हूँ। जो शख़्स भी तुममें से ऐसा करे वह यक़ीनन सीधी राह से भटक गया।
1. मुनासिब मालूम होता है कि शुरू ही में उस वाक़िए की तफ़सीलात बयान कर दी जाएँ जिसके बारे में ये आयतें उतरी हैं, ताकि आगे की बात समझने में आसानी हो। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिम इस बात पर एक राय हैं और इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद, क़तादा, उरवा-बिन-ज़ुबैर (रह०) वग़ैरा सभी लोगों की रिवायत भी यही है कि इन आयतों का उतरना उस वक़्त हुआ था जब मक्का के मुशरिक लोगों के नाम हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ का ख़त पकड़ा गया था। क़िस्सा यह है कि जब क़ुरैश के लोगों ने हुदैबिया में किया गया समझौता तोड़ दिया तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मक्का पर चढ़ाई की तैयारियाँ शुरू कर दीं, मगर कुछ ख़ास सहाबा के सिवा किसी को यह न बताया कि आप (सल्ल०) किस मुहिम पर जाना चाहते हैं इत्तिफ़ाक से उसी ज़माने में मक्का से एक औरत आई जो पहले बनी-अब्दुल-मुत्तलिब की लौंडी थी और फिर आज़ाद होकर गाने-बजाने का काम करती थी। उसने आकर नबी (सल्ल) से अपनी तंगदस्ती की शिकायत की और कुछ माली मदद माँगी। आप (सल्ल०) ने बनी अब्दुल-मुत्तलिब और बनी-मुत्तलिब से अपील करके उसकी ज़रूरत पूरी कर दी। जब वह मक्का जाने लगी तो हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ उससे मिले और उसको चुपके से एक ख़त क़ुरैश के कुछ सरदारों के नाम दिया और दस दीनार दिए, ताकि वह राज़ न खोले और छिपाकर यह ख़त उन लोगों तक पहुँचा दे। अभी वह मदीना से रवाना ही हुई थी कि अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को इसकी ख़बर दे दी। आप (सल्ल०) ने फ़ौरन हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) और हज़रत मिक़दाद-बिन-असवद (रज़ि०) को उसके पीछे भेजा और हुक्म दिया कि तेज़ी से जाओ। रौज़ा-ए-ख़ाख़ नाम की जगह पर (मदीना से मक्का की तरफ़ 12 मोल की दूरी पर) तुमको एक औरत मिलेगी जिसके पास मुशरिकों के नाम हातिब का एक ख़त है। जिस तरह भी हो उससे वह ख़त हासिल करो। अगर वह दे दे तो उसे छोड़ देना। न दे तो उसे क़त्ल कर देना। ये लोग जब उस जगह पहुँचे तो औरत वहाँ मौज़ूद थी। उन्होंने उससे ख़त माँगा। उसने कहा, “मेरे पास कोई ख़त नहीं है।” उन्होंने तलाशी ली। मगर कोई ख़त न मिला। आख़िर उन्होंने कहा, “ख़त हमारे हवाले कर दो वरना हम बेलिबास करके तेरी तलाशी लेंगे।” जब उसने देखा कि बचने की कोई सूरत नहीं है तो अपनी चोटी में से वह ख़त निकालकर उन्हें दे दिया और ये उसे नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में ले आए। ख़त खोलकर पढ़ा गया तो उसमें क़ुरैश के लोगों को यह ख़बर दी गई थी कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) तुमपर चढ़ाई की तैयारी कर रहे हैं। (अलग-अलग रिवायतों में ख़त के अलफ़ाज़ अलग-अलग नक़्ल हुए हैं, मगर मतलब सबका यही है।) नबी (सल्ल०) ने हज़रत हातिब से पूछा, यह क्या हरकत है?” उन्होंने अर्ज़ किया, “आप मेरे मामले में जल्दी न करें। मैंने जो कुछ किया है इस वजह से नहीं किया है कि मैं इस्लाम का इनकारी हो गया या उससे फिर गया हूँ और इस्लाम के बाद अब कुफ़्र को पसन्द करने लगा हूँ। अस्ल बात यह है कि मेरे क़रीबी रिश्तेदार मक्का में रहते हैं। मैं क़ुरैश के क़बीले का आदमी नहीं हूँ, बल्कि कुछ क़ुरैशियों की सरपरस्ती में वहाँ आबाद हुआ हूँ। मुहाजिरों में से दूसरे जिन लोगों के बाल-बच्चे मक्का में हैं उनको तो उनका क़बीला बचा लेगा। मगर मेरा कोई क़बीला वहाँ नहीं है, जो मेरे बाल-बच्चों को बचानेवाला हो। इसलिए मैंने यह ख़त इस ख़याल से भेजा था कि क़ुरैशवालों पर मेरा एक एहसान रहे जिसका लिहाज़ करके वे मेरे बाल-बच्चों को न छेड़ें।” (हज़रत हातिब के बेटे अब्दुर्रहमान की रिवायत यह है कि उस वक़्त हज़रत हातिब के बच्चे और भाई मक्का में थे, और ख़ुद हज़रत हातिब की एक रिवायत से मालूम होता है कि उनकी माँ भी वहीं थीं)। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हातिब की यह बात सुनकर वहाँ मौज़ूद लोगों से फ़रमाया, "हातिब ने तुमसे सच्ची बात कही है,” यानी इनकी इस हरकत की अस्ल वजह यही थी, इस्लाम से फिर जाना और कुफ़्र की तरफ़दारी का जज़बा इस हरकत का सबब न था। हज़रत उमर (रज़ि०) ने उठकर अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल! मुझे इजाज़त दीजिए कि मैं इस मुनाफ़िक़ की गरदन मार दूँ, इसने अल्लाह और उसके रसूल और मुसलमानों से धोखा किया है।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इस शख़्स ने बद्र की जंग में हिस्सा लिया है। तुम्हें क्या ख़बर, हो सकता है कि अल्लाह तआला ने बद्रवालों को देखकर कह दिया हो कि तुम चाहे कुछ भी करो, मैंने तुमको माफ़ किया।” (इस आख़िरी जुमले के अलफ़ाज़ अलग-अलग रिवायतों में अलग-अलग हैं। किसी में है, “मैंने तुम्हारी मग़ाफ़िरत कर दी, किसी में है, “मैं तुम्हें बरश देनेवाला हूँ,” और किसी में है, “मैं तुम्हें बख़्श दूँगा") यह बात सुनकर हज़रत उमर (रज़ि०) रो दिए और उन्होंने कहा, “अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ही सबसे ज़्यादा जानते हैं।” यह उन बहुत-सी रिवायतों का ख़ुलासा है जो कई भरोसेमन्द सनदों से बुख़ारी, मुस्लिम, अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इब्ने-जरीर तबरी, इब्ने-हिशाम, इब्ने-हिब्बान और इब्ने-अबी-हातिम ने नक़्ल की हैं। इनमें सबसे ज़्यादा भरोसेमन्द रिवायत वह है जो ख़ुद हज़रत अली (रज़ि०) की ज़बान से उनके कातिब (सेक्रेटरी) उबैदुल्लाह-बिन-अबी-राफ़े ने सुनी और उनसे हज़रत अली (रज़ि०) के पोते हसन-बिन-मुहम्मद-बिन-हनफ़िया ने सुनकर बाद के रावियों तक पहुँचाई। उनमें से किसी रिवायत में भी यह बयान नहीं किया गया है कि हज़रत हातिब की हरकत का यह सबब सुनकर उनको माफ़ कर दिया गया। लेकिन किसी ज़रिए से भी यह नहीं मालूम होता कि उन्हें कोई सज़ा दी गई। इसी लिए मुस्लिम आलिमों ने यही समझा है कि हज़रत हातिब का उज़्र क़ुबूल करके उन्हें छोड़ दिया गया।
إِن يَثۡقَفُوكُمۡ يَكُونُواْ لَكُمۡ أَعۡدَآءٗ وَيَبۡسُطُوٓاْ إِلَيۡكُمۡ أَيۡدِيَهُمۡ وَأَلۡسِنَتَهُم بِٱلسُّوٓءِ وَوَدُّواْ لَوۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 1
(2) उनका रवैया तो यह है कि अगर तुमपर क़ाबू पा जाएँ तो तुम्हारे साथ दुश्मनी करें और हाथ और ज़बान से तुम्हें तकलीफ़ पहुँचाएँ। वे तो यह चाहते हैं कि तुम किसी तरह इनकार करनेवाले हो जाओ।2
2. यहाँ तक जो कुछ कहा गया है और आगे इसी सिलसिले में जो कुछ आ रहा है, अगरचे उसके उतरने का मौक़ा हज़रत हातिब ही का वाकिआ था, लेकिन अल्लाह तआला ने अकेले उन ही के मुक़दमे पर बात करने के बजाय तमाम ईमानवालों को हमेशा-हमेशा के लिए यह नसीहत दी है कि कुफ़्र और इस्लाम का जहाँ मुक़ाबला हो, और जहाँ कुछ लोग ईमानवालों से उनके मुसलमान होने की वजह से दुश्मनी कर रहे हों, वहाँ किसी शख़्स का किसी मक़सद और किसी मस्लहत से भी कोई ऐसा काम करना जिससे इस्लाम (के हित) को नुक़सान पहुँचता हो और कुफ़्र और इस्लाम-दुश्मनों का फ़ायदा होता हो, ईमान के ख़िलाफ़ हरकत है। कोई शख़्स चाहे इस्लाम को नुक़सान पहुँचाने के जज़बे से बिलकुल ख़ाली हो और बदनीयती से नहीं, बल्कि सिर्फ़ अपनी किसी बहुत ज़्यादा ज़ाती मस्लहत (हित) की ख़ातिर ही यह काम करे, फिर भी यह काम किसी मोमिन के करने का नहीं है, और जिसने भी यह काम किया वह सीधी राह से भटक गया।
لَن تَنفَعَكُمۡ أَرۡحَامُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡۚ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ يَفۡصِلُ بَيۡنَكُمۡۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 2
(3) क़ियामत के दिन न तुम्हारी रिश्तेदारियाँ किसी काम आएँगी, न तुम्हारी औलाद।3 उस दिन अल्लाह तुम्हारे बीच जुदाई डाल देगा,4 और वही तुम्हारे आमाल का देखनेवाला है।5
3. यह इशारा है हज़रत हातिब की तरफ़। उन्होंने अपनी माँ, अपने भाई और अपनी औलाद को जंग के मौक़े पर दुश्मनों की तकलीफ़ों से बचाने के लिए यह काम किया था। इसपर कहा जा रहा है कि तुमने जिनकी ख़ातिर इतना बड़ा क़ुसूर कर डाला वे क़ियामत के दिन तुम्हें बचाने के लिए नहीं आएँगे। किसी की यह हिम्मत नहीं होगी कि ख़ुदा की अदालत में आगे बढ़कर यह कहे कि हमारे बाप या हमारे बेटे या हमारे भाई ने हमारी ख़ातिर यह गुनाह किया था, इसलिए उसके बदले की सज़ा हमें दे दी जाए। उस वक़्त हर एक को अपनी ही पड़ी। होगी, अपने आमाल ही के ख़मियाज़े से बचने का सवाल हर शख़्स के लिए मुसीबत बन रहा होगा, कहाँ यह कि कोई किसी दूसरे के हिस्से का ख़मियाज़ा (सज़ा) भी अपने ऊपर लेने के लिए तैयार हो। यही बात है जो क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ज़्यादा साफ़ अलफ़ाज़ में कही गई है। एक जगह कहा गया, “उस दिन मुजरिम यह चाहेगा कि अपनी औलाद, अपनी बीवी, अपने भाई, अपनी हिमायत करनेवाले ख़ानदान और दुनिया भर के लोगों को भी अगर फ़िदये में देकर अज़ाब से छूट सकता हो तो उन्हें भेंट चढ़ा दे और ख़ुद छूट जाए,” (सूरा-70 मआरिज, आयतें—11 से 14)। दूसरी जगह फ़रमाया, “उस दिन आदमी अपने भाई, अपनी माँ, अपने बाप, अपनी बीवी और अपनी औलाद से भागेगा। हर एक अपने ही हाल में ऐसा गिरफ़्तार होगा जिसमें उसे किसी का होश न होगा।” (सूरा-80 अ-ब-स, आयतें—34 से 37)
4. यानी दुनिया के तमाम रिश्ते, ताल्लुक़ात और राबिते वहाँ तोड़ दिए जाएँगे। जत्थों और पार्टियों और ख़ानदानों की शक्ल में लोगों से पूछ-गछ न होगी, बल्कि एक-एक शख़्स अपनी निजी हैसियत में पेश होगा और हर एक को अपना ही हिसाब देना पड़ेगा। इसलिए दुनिया में किसी शख़्स को भी किसी क़रीबी रिश्ते या दोस्ती या जत्थेबन्दी की ख़ातिर कोई नाजाइज़ काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि अपने किए की सज़ा उसको ख़ुद ही भुगतनी होगी, उसकी निजी ज़िम्मेदारी में कोई दूसरा शरीक न होगा।
5. हज़रत हातिब (रज़ि०) के इस मुक़दमे से जिसकी तफ़सील ऊपर हमने नक़्ल की है, और इन तक आयतों से जो इस वाक़िए के बारे में उतरी हैं, नीचे लिखे नतीजे निकलते हैं— (1) इस बात से हटकर कि करनेवाले ने किस नीयत से किया, अपनी जगह यह हरकत साफ़ तौर से एक जासूसी की हरकत थी, और जासूसी भी बड़े नाज़ुक मौक़े पर सख़्त ख़तरनाक क़िस्म की थी कि हमले से पहले बेख़बर दुश्मन को ख़बरदार किया गया था। फिर मामला शक का भी न था, बल्कि मुलज़िम के अपने हाथ का लिखा हुआ ख़त पकड़ लिया गया था, जिसके बाद किसी सुबूत की ज़रूरत न थी। हालात भी अम्न के ज़माने के नहीं, जंग के ज़माने के थे। मगर इसके बावजूद नबी (सल्ल०) ने हज़रत हातिब (रज़ि०) को सफ़ाई का मौक़ा दिए बिना क़ैद नहीं कर दिया। और सफ़ाई का मौक़ा भी उनको बन्द कमरे में नहीं, बल्कि खुली अदालत में सबके सामने दिया। इससे साफ़ प्रकार मालूम होता है कि इस्लाम में ऐसे क़ायदे-क़ानून की कोई गुंजाइश नहीं है जिनके मुताबिक़ किसी हालत में हाकिमों (अधिकारियों) को यह हक़ पहुँचता हो कि किसी शख़्स को सिर्फ़ अपने इल्म या शक की बुनियाद पर क़ैद कर दें। और बन्द कमरे में खुफ़िया तरीक़े से मुक़दमा चलाने का तरीक़ा भी इस्लाम में नहीं है। (2) हज़रत हातिब (रज़ि०) न सिर्फ़ मुहाजिरों में से थे, बल्कि बद्र की जंग में हिस्सा लेनेवालों में शामिल थे, जिन्हें सहाबा के अन्दर भी एक ख़ास मक़ाम हासिल था। मगर इसके बावजूद उनसे इतना बड़ा जुर्म हो गया, और इसपर अल्लाह ने क़ुरआन में इस सख़्ती के साथ पकड़ की जिसे ऊपर की आयतों में देखा जा सकता है। हदीसों में भी उनका क़िस्सा पूरी तफ़सील के साथ नक़्ल किया गया है और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से भी शायद ही कोई हो जिसने इसका ज़िक्र न किया हो। यह बात उन कि बहुत-सी गवाहियों में से है जिनसे साबित होता है कि सहाबा ग़लतियों से पाक नहीं थे उनसे भी इनसानी कमज़ोरियों की वजह से ग़लतियाँ हो सकती थीं और अमली तौर से हुईं, और उनके एहतिराम की जो तालीम अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने दी है कम-से-कम उसका तक़ाज़ा हरगिज़ यह नहीं है कि उनमें से किसी से अगर कोई ग़लत काम हुआ हो तो उसका ज़िक्र न किया जाए। वरना ज़ाहिर है कि अगर इसका तक़ाज़ा का यह होता तो न अल्लाह तआला अपनी किताब में उनका ज़िक्र करता और न सहाबा किराम (रज़ि०) और ताबिईन और मुहद्दिसीन (हदीसों के आलिम) और क़ुरआन की की तफ़सीर लिखनेवाले आलिम अपनी रिवायतों में उनकी तफ़सीलात बयान करते। (3) हज़रत हातिब (रज़ि०) के मुकदमे में हज़रत उमर (रज़ि०) ने जिस राय का इज़हार किया का वह उनकी हरकत की ज़ाहिरी सूरत के लिहाज़ से था। उनकी दलील यह थी कि यह हरकत ऐसी है जो साफ़ तौर से अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों के साथ धोखे के दायरे में आती है, इसलिए हातिब मुनाफ़िक़ और क़त्ल कर दिए जाने के लायक़ हैं। लेकिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनके इस नज़रिए को रद्द कर दिया और नज़रिया यह बताया कि सिर्फ़ अमल की ज़ाहिरी शक्ल पर ही इस्लामी शरीअत का अस्ल फ़ैसला नहीं कर देना चाहिए, बल्कि यह भी देखना चाहिए कि जिस शख़्स से वह हरकत हो रही है उसकी पिछली ज़िन्दगी और पूरा किरदार क्या गवाही देता है और हालात किस बात की दलील देते हैं। उस हरकत की शक्ल जो उनसे हुई बेशक जासूसी की है। मगर क्या इस्लाम और मुसलमानों के साथ यह हरकत करनेवाले का आजतक का रवैया यही बता रहा है कि यह शख़्स यह काम अल्लाह और रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों के साथ धोखेबाज़ी की नीयत से कर सकता था? वह उन लोगों में से है जिन्होंने ईमान की ख़ातिर हिजरत की। क्या सच्चे जज़बे के बिना वह इतनी बड़ी क़ुरबानी कर सकता था? जो उसने बद्र की जंग जैसे नाज़ुक मौक़े पर, जबकि दुश्मनों की तीन गुनी और बहुत ज़्यादा हथियारबन्द ताक़त से मुक़ाबला करना था, ईमान की ख़ातिर अपनी जान लड़ाई। क्या ऐसे आदमी के सच्चे दिल होने में शक हो सकता है? या उसके बारे में यह समझा जा सकता है कि उसके दिल में क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों की तरफ़ कोई हल्का-सा झुकाव भी मौजूद है? वह अपनी इस हरकत की साफ़ वजह यह बता रहा है कि मक्का में उसके बाल-बच्चों को ख़ानदान और क़बीले की वह हिफ़ाज़त हासिल नहीं है जो दूसरे मुहाजिरों को हासिल है, इसलिए उसने उनको जंग के मौक़े पर इस्लाम-दुश्मनों की तरफ़ से पहुँचनेवाली तकलीफ़ों से बचाने की ख़ातिर यह काम किया है। सच्चाइयाँ इसकी ताईद करती हैं कि सचमुच मक्का में उसका कोई क़बीला नहीं है और यह भी मालूम है कि सचमुच उसके बाल-बच्चे वहाँ मौज़ूद हैं। इसलिए कोई वजह नहीं कि उसके इस बयान को झूठा समझा जाए और यह राय क़ायम की जाए कि उसकी इस हरकत की अस्ल वजह यह न थी, बल्कि धोखा देने ही का इरादा उसके अन्दर पाया जाता था। बेशक एक सच्चे मुसलमान के लिए नेक-नीयती से भी यह हरकत जाइज़ नहीं है कि वह सिर्फ़ अपने निज़ी फ़ायदे की ख़ातिर दुश्मनों को मुसलमानों के जंगी मंसूबों की ख़बर पहुँचाए, लेकिन सच्चे मुसलमान की ग़लती और मुनाफ़िक़ की ग़द्दारी में बड़ा फ़र्क़ है। सिर्फ़ हरकत की सूरत और क़िस्म की बुनियाद पर दोनों की एक ही सज़ा नहीं हो सकती। यह था इस मुक़द्दमे में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का फ़ैसला, और अल्लाह तआला ने सूरा-60 मुम्तहिना की इन आयतों में इसकी ताईद की। ऊपर की तीनों आयतों को ग़ौर से पढ़िए तो साफ़ महसूस होगा कि इनमें हज़रत हातिब पर ग़ुस्से का इज़हार तो ज़रूर किया गया, मगर यह ग़ुस्सा उस तरह का है जो एक मोमिन के लिए होता है न कि वह जो एक मुनाफ़िक़ के लिए हुआ करता है। इसके अलावा उनके लिए कोई माली (आर्थिक) या जिस्मानी सज़ा नहीं सुनाई गई है, बल्कि खुल्लम-खुल्ला सख़्त डाँट-फिटकार करके छोड़ दिया गया है, जिसका मतलब यह है कि मुस्लिम समाज में एक गुनहगार मोमिन की इज़्ज़त को बट्टा लग जाना और उसके भरोसे पर दाग़ लग जाना भी उसके लिए एक बड़ी सज़ा है। (4) बद्र की जंग में शामिल होनेवाले सहाबा (रज़ि०) की बड़ाई के बारे में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का यह फ़रमान कि “तुम्हें क्या ख़बर, हो सकता है कि अल्लाह तआला ने बद्रवालों को देखकर कह दिया हो कि तुम चाहे कुछ भी करो, मैंने तुम्हें माफ़ कर दिया,” इसका मतलब यह न था कि बद्री सहाबियों को सात ख़ून माफ़ हैं, और उन्हें खुली छुट्टी है कि दुनिया में जो गुनाह और जो जुर्म भी करना चाहें करते रहें, मग़फ़िरत की उनको पेशगी ज़मानत हासिल है। यह मतलब न नबी (सल्ल०) का था, न सहाबा ने कभी इस बात का यह मतलब लिया, न किसी बद्री सहाबी ने यह ख़ुशख़बरी सुनकर अपने-आपको हर गुनाह करने के लिए आज़ाद समझा और न इस्लामी शरीअत में इसकी बुनियाद पर ऐसा कोई क़ायदा बनाया गया कि बद्री सहाबी से अगर कोई जुर्म हो तो उसे कोई सज़ा न दी जाए। अस्ल में जिस मौक़ा-महल में यह बात कही गई थी उसपर और ख़ुद उन अलफ़ाज़ पर जो आप (सल्ल०) ने इस्तेमाल किए हैं, अगर ग़ौर किया जाए तो इस बात का साफ़ मतलब यह समझ में आता है कि बद्रवालों ने अल्लाह और उसके दीन के लिए सच्चे दिल और सरफ़रोशी और जाँबाज़ी का इतना बड़ा कारनामा अंजाम दिया है जिसके बाद अगर अल्लाह तआला ने उनके अगले-पिछले सब गुनाह माफ़ कर दिए हों तो यह भी इस ख़िदमत और अल्लाह की मेहरबानी को देखते हुए कुछ नामुमकिन नहीं है, लिहाज़ा एक बद्री सहाबी पर ख़ियानत (धोखाधड़ी) और मुनाफ़क़त का शक न करो, और अपने जुर्म का जो सबब वह ख़ुद बयान कर रहा है उसे क़ुबूल कर लो। (5) क़ुरआन मजीद और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के फ़रमान से यह बात भी साफ़ हो जाती कि है कि किसी मुसलमान का इस्लाम-दुश्मनों के लिए जासूसी कर बैठना अपने-आपमें ख़ुद यह फ़ैसला कर देने के लिए काफ़ी नहीं है कि वह इस्लाम से फिर गया है, या ईमान से निकल गया है, या मुनाफ़िक़ है। ऐसा फ़ैसला करने के लिए अगर कुछ दूसरी निशानियाँ और सुबूत मौज़ूद हों तो बात अलग है, वरना अपनी जगह यह हरकत सिर्फ़ एक जुर्म है, कुफ़्र नहीं है। (6) क़ुरआन मजीद की इन आयतों से यह बात भी साफ़ हो जाती है कि मुसलमान के लिए इस्लाम-दुश्मनों की जासूसी करना किसी हाल में भी जाइज़ नहीं है, चाहे उसकी या उसके बहुत क़रीबी रिश्तेदारों की जान-माल को कैसा ही ख़तरा लगा हुआ हो। (7) हज़रत उमर (रज़ि०) ने जब हज़रत हातिब को जासूसी के जुर्म में क़त्ल करने की इजाज़त माँगी तो नबी (सल्ल०) ने जवाब में यह नहीं फ़रमाया कि इस जुर्म की सज़ा क़त्ल नहीं है, बल्कि इजाज़त देने से इनकार इस वजह से किया कि हातिब का बद्री होना उनके सच्चे होने का खुला सुबूत है और उनका यह बयान सही है कि उन्होंने दुश्मनों की भलाई के लिए नहीं, बल्कि अपने बाल-बच्चों को जान जाने के ख़तरे से बचाने के लिए यह काम किया था। इससे फ़क़ीहों के एक गरोह ने यह दलील निकाली है कि मुसलमान जासूस के लिए आम क़ानून यही है कि उसे क़त्ल किया जाए, सिवाय यह कि बहुत वज़नदार वजहें उसे कमतर सज़ा देने या सिर्फ़ मलामत करके छोड़ देने के लिए मौज़ूद हों। मगर फ़क़ीहों के दरमियान इस मसले में इख़्तिलाफ़ है। इमाम शाफ़िई (रह०) और कुछ दूसरे फ़क़ीहों का मसलक यह है कि मुसलमान जासूस को सज़ा दी जाएगी, मगर उसका क़त्ल जाइज़ नहीं है। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम औज़ाई (रह०) कहते हैं कि उसे जिस्मानी सज़ा और लम्बी क़ैद की सज़ा दी जाएगी। इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि उसे क़त्ल किया जाएगा। लेकिन मालिकी आलिमों की राएँ इस मसले में अलग-अलग हैं। अशहब कहते हैं कि इमाम (हाकिम) को इस मामले में बहुत-से इख़्तियार हासिल हैं, जुर्म और मुजरिम के हालात को देखते हुए वह अपनी तहक़ीक़ से कोई सज़ा दे सकता है। एक कौल (राय) इमाम मालिक (रह०) और इब्नुल-क़ासिम का भी यही है। इब्नुल-माजिशून और अब्दुल-मलिक-बिन-हबीब कहते हैं कि अगर मुजरिम ने जासूसी की आदत ही बना ली हो तो उसे क़त्ल किया जाए। इब्ने-वहब कहते हैं कि जासूस की सज़ा तो क़त्ल ही है, मगर वह इस हरकत से तौबा कर ले तो उसे माफ किया जा सकता है। सहनून कहते हैं कि उसकी तौबा सही है या सिर्फ़ धोखा, इसका पता आख़िर कैसे चल सकता है? इसलिए उसे क़त्ल ही किया जाना चाहिए। इब्नुल-क़ासिम का भी एक क़ौल इसकी ताईद में है। और असबग़ कहते हैं कि दुश्मन के जासूस की सज़ा क़त्ल है, मगर मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम जासूस को क़त्ल के बजाय सज़ा दी जाए, सिवाय यह कि वह मुसलमानों के मुक़ाबले में दुश्मनों की खुली-खुली कि मदद कर रहा हो। (अहकामुल-क़ुरआन, लिइब्निल-अरबी; उम्दतुल-कारी; फ़त्हुल-बारी) (8) बयान की गई हदीस से इस बात का जाइज़ होना भी साबित होता है कि जुर्म की छान-बीन के लिए अगर जरूरत पड़े तो मुलज़िम मर्द ही नहीं, औरत के कपड़े भी उतारे जा सकते हैं। हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) और हज़रत मिक़दाद (रज़ि०) ने अगरचे उस औरत को बेलिबास नहीं किया था, लेकिन उन्होंने उसे धमकी दी थी कि वह ख़त उनके हवाले न करेगी तो वे उसे बेलिबास करके उसकी तलाशी लेंगे। ज़ाहिर है अगर यह काम जाइज़ न होता तो ये तीन बड़े सहाबी इसकी धमकी नहीं दे सकते थे। और अन्दाज़ा यह कहता है कि उन्होंने ज़रूर वापस जाकर नबी (सल्ल०) को अपनी मुहिम की रूदाद सुनाई होगी। नबी (सल्ल०) ने अगर उसपर नापसन्दीदगी का इज़हार किया होता तो वह ज़रूर नक़्ल होता। इसी लिए फ़क़ीहों ने इसके जाइज़ होने का फ़तवा दिया है। (उम्दतुल-क़ारी)
قَدۡ كَانَتۡ لَكُمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَٱلَّذِينَ مَعَهُۥٓ إِذۡ قَالُواْ لِقَوۡمِهِمۡ إِنَّا بُرَءَٰٓؤُاْ مِنكُمۡ وَمِمَّا تَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ كَفَرۡنَا بِكُمۡ وَبَدَا بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمُ ٱلۡعَدَٰوَةُ وَٱلۡبَغۡضَآءُ أَبَدًا حَتَّىٰ تُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَحۡدَهُۥٓ إِلَّا قَوۡلَ إِبۡرَٰهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسۡتَغۡفِرَنَّ لَكَ وَمَآ أَمۡلِكُ لَكَ مِنَ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖۖ رَّبَّنَا عَلَيۡكَ تَوَكَّلۡنَا وَإِلَيۡكَ أَنَبۡنَا وَإِلَيۡكَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 3
(4) तुम लोगों के लिए इबराहीम और उसके साथियों में एक अच्छा नमूना है कि उन्होंने अपनी क़ौम से साफ़ कह दिया, “हम तुमसे और तुम्हारे इन माबूदों से, जिनको तुम अल्लाह को छोड़कर पूजते हो, बिलकुल बेज़ार हैं, हमने तुमसे कुफ़्र किया6 और हमारे और तुम्हारे बीच हमेशा के लिए दुश्मनी हो गई और बैर पड़ गया जब तक तुम एक ख़ुदा पर ईमान न लाओ।” मगर इबराहीम का अपने बाप से यह कहना (इससे अलग है) कि “मैं आपके लिए माफ़ी की दरख़ास्त ज़रूर करूँगा, और अल्लाह से आपके लिए कुछ हासिल कर लेना मेरे बस में नहीं है।7 (और इबराहीम और इबराहीम के साथियों की दुआ यह थी कि) “ऐ हमारे रब! तेरे ही ऊपर हमने भरोसा किया और तेरी ही तरफ़ हमने रुजू कर लिया और तेरे ही सामने हमें पलटना है।
6. यानी हम तुम्हारे इनकारी हैं, न तुम्हें हक़ पर मानते हैं न तुम्हारे दीन को। अल्लाह पर ईमान का लाज़िमी तक़ाज़ा ताग़ूत (अल्लाह से सरकशी करनेवाले) से कुफ़्र (इनकार करना) है। “तो जो शख़्स ताग़ूत से कुफ़्र (इनकार) करे और अल्लाह पर ईमान ले आए उसने हक़ीक़त में मज़बूत सहारा थाम लिया जो टूटनेवाला नहीं है।” (सूरा-2 बक़रा, आयत-256)
7. दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह है कि तुम्हारे लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की यह बात तो पैरवी करने लायक़ है कि उन्होंने कुफ़्र और शिर्क करनेवाली अपनी क़ौम से साफ़-साफ़ बेज़ारी (विरक्ति) और ताल्लुक़ तोड़ने का एलान कर दिया, मगर उनकी यह बात पैरवी के क़ाबिल नहीं है कि उन्होंने अपने मुशरिक बाप के लिए मग़फ़िरत की दुआ करने का वादा किया और अमली तौर से उसके हक़ में दुआ की। इसलिए ख़ुदा के इनकारियों के साथ मुहब्बत और हमदर्दी का इतना ताल्लुक़ भी ईमानवालों को न रखना चाहिए। सूरा-9 तौबा (आयत-113) में अल्लाह तआला साफ़-साफ़ फ़रमाता है, “नबी का यह काम नहीं है और न उन लोगों को यह ज़ेब (शोभा) देता है जो ईमान लाए हैं कि मुशरिकों के लिए मग़फ़िरत की दुआ करें, चाहे वे उनके क़रीबी रिश्तेदार ही क्यों न हों।” इसलिए कोई मुसलमान इस दलील से अपने ग़ैर-मुस्लिम रिश्तेदारों के हक़ में मग़फ़िरत की दुआ करने का हक़ नहीं रखता कि यह काम हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने किया था। रहा यह सवाल कि ख़ुद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने यह काम कैसे किया? और क्या वे उसपर क़ायम भी रहे? इसका जवाब क़ुरआन मजीद में हमको पूरी तफ़सील के साथ मिलता है। उनके बाप ने जब उनको घर से निकाल दिया तो चलते वक़्त उन्होंने कहा था, “आपको सलाम है! मैं अपने रब से आपके लिए मग़फ़िरत की दुआ करूँगा,” (सूरा-19 मरयम, आयत-147)। इसी वादे की बुनियाद पर उन्होंने दो बार उसके हक़ में दुआ की। एक दुआ का ज़िक्र सूरा-14 इबराहीम (आयत-41) में है, “ऐ हमारे परवरदिगार! मुझे और मेरे माँ-बाप को और सब मोमिनों को उस दिन माफ़ कर दीजियो जब हिसाब लिया जाना है।” और दूसरी दुआ सूरा-26 शुअरा (आयतें—86, 87) में है, “मेरे बाप को माफ़ कर दे कि वह गुमराहों में से था और मुझे उस दिन रुसवा न कर जब सब लोग ज़िन्दा करके उठाए जाएँगे।” लेकिन बाद में जब उनको यह एहसास हो गया कि अपने जिस बाप की मग़फ़िरत के लिए वे दुआ कर रहे हैं, वह तो अल्लाह का दुश्मन था, तो वे उससे अलग हो गए और उसके साथ हमदर्दी और मुहब्बत का यह ताल्लुक़ भी तोड़ लिया-और इबराहीम का अपने बाप के लिए माफ़िरत को दुआ करना इसके सिवा किसी वजह से न था कि एक वादा था जो उसने अपने बाप से कर लिया था। फिर जब उसपर यह बात खुल गई कि वह अल्लाह का दुश्मन था तो उसने उससे बेज़ारी का इज़हार कर दिया। हक़ीक़त यह है कि इबराहीम एक नर्मदिल और नर्म मिज़ाज़ आदमी था।” (सूरा-9 तौबा, आयत-114) इन आयतों पर ग़ौर करने से यह उसूली हक़ीक़त मालूम हो जाती है कि नबियों का सिर्फ़ वही अमल पैरवी के क़ाबिल है जिसपर वे आख़िर वक़्त तक क़ायम रहे हों। रहे उनके वे काम जिनको उन्होंने बाद में ख़ुद छोड़ दिया हो, या जिनपर अल्लाह तआला ने उन्हें क़ायम न रहने दिया हो, या जिनकी मनाही अल्लाह की शरीअत में आ चुकी हो, वह पैरवी के क़ाबिल नहीं हैं और कोई शख़्स इस दलील से उनके ऐसे कामों की पैरवी नहीं कर सकता कि यह फ़ुलाँ नबी का अमल है। यहाँ एक और सवाल भी पैदा होता है जो आदमी के ज़ेहन में खटक पैदा कर सकता है। इस आयत में अल्लाह तआला ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के जिस क़ौल (कथन) को पैरवी के क़ाबिल नमूना होने से अलग क़रार दिया है उसके दो हिस्से हैं। एक हिस्सा यह है कि उन्होंने अपने बाप से कहा, “मैं आपके लिए माफ़िरत की दुआ करूँगा।” और दूसरा हिस्सा यह कि “मेरे बस में कुछ नहीं है कि अल्लाह से आपको माफ़ी दिलवा दूँ।” इनमें से पहली बात का पैरवी के क़ाबिल नमूना न होना तो समझ में आता है। मगर दूसरी बात में क्या ख़राबी है कि उसे भी पैरवी के क़ाबिल नमूना होने से अलग कर दिया गया? हालाँकि वह अपने-आपमें हक़ बात है। इसका जवाब यह है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का यह कहना अलग की हुई बात में इसलिए दाख़िल हुआ है कि जब कोई शख़्स किसी से एक काम का वादा करने के बाद यह कहता है कि इससे ज़्यादा तेरे लिए कुछ करना मेरे बस में नहीं है तो उससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि अगर इससे ज़्यादा कुछ करना उसके बस में होता तो वह शख़्स उसकी ख़ातिर वह भी करता। यह बात उस आदमी के साथ उस शख़्स के हमदर्दी-भरे ताल्लुक़ को और भी ज़्यादा शिद्दत के साथ ज़ाहिर करती है। इसी वजह से हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का यह दूसरा कौल भी पैरवी करने से अलग किए जाने का हक़दार था, अगरचे उसका यह मज़मून अपनी जगह सही था कि अल्लाह से किसी की मग़ाफ़िरत करवा देना एक नबी तक के बस से बाहर है। अल्लामा आलूसी ने भी रूहुल-मआनी में इस सवाल का यही जवाब दिया है।
رَبَّنَا لَا تَجۡعَلۡنَا فِتۡنَةٗ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ وَٱغۡفِرۡ لَنَا رَبَّنَآۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 4
(5) ऐ हमारे रब! हमें इनकार करनेवालों के लिए फ़ितना (आज़माइश) न बना दे।8 और ऐ हमारे रब! हमारे क़ुसूरों को माफ़ कर दे, बेशक तू ही ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।
8. इनकार करनेवालों के लिए ईमानवालों का फ़ितना बनने की कई सूरतें हैं जिनसे हर मोमिन को ख़ुदा की पनाह माँगनी चाहिए। मिसाल के तौर पर इसकी एक सूरत यह हो सकती है कि इनकार करनेवाले उनपर ग़ालिब आ जाएँ और अपने ग़लबे को इस बात की दलील क़रार दें कि हम हक़ पर हैं और ईमानवाले ग़लती पर, वरना कैसे हो सकता था कि इन लोगों को ख़ुदा की रज़ामन्दी हासिल होती और फिर भी हमें इनपर ग़लबा हासिल होता। दूसरी सूरत यह हो सकती है कि ईमानवालों पर इनकार करनेवालों का ज़ुल्म व सितम उनकी बरदाश्त की हद से बढ़ जाए और आख़िरकार वे उनसे दबकर अपने दीन और अख़लाक़ का सौदा करने पर उतर आएँ। यह चीज़ दुनिया भर में मोमिनों की जग हँसाई का सबब होगी और इनकार करनेवालों को इससे दीन और दीनवालों को नीचा दिखाने का मौक़ा मिलेगा। तीसरी सूरत यह हो सकती है कि सच्चे दीन (इस्लाम) की नुमाइन्दगी के बुलन्द मक़ाम पर होने के बावजूद ईमानवाले अख़लाक़ में उस तरह दूसरों से बढ़कर न रहें जो इस मक़ाम की शान के मुताबिक़ है, और दुनिया को उनकी सीरत और किरदार में भी वही ख़राबियाँ नज़र आ जाएँ जो जाहिलियत के समाज में आम तौर पर फैली हुई हों। इससे इनकार करनेवालों को यह कहने का मौक़ा मिलेगा कि इस दीन में आख़िर वह कौन-सी ख़ूबी है जो इसे हमारे कुफ़्र (इनकार) से बेहतर बनाती हो? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-83)
لَقَدۡ كَانَ لَكُمۡ فِيهِمۡ أُسۡوَةٌ حَسَنَةٞ لِّمَن كَانَ يَرۡجُواْ ٱللَّهَ وَٱلۡيَوۡمَ ٱلۡأٓخِرَۚ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ ٱلۡغَنِيُّ ٱلۡحَمِيدُ ۝ 5
(6) इन ही लोगों के रवैये में तुम्हारे लिए और हर उस शख़्स के लिए अच्छा नमूना है जो अल्लाह और आख़िरत के दिन का उम्मीदवार हो।9 इससे कोई मुँह फेर ले तो अल्लाह बेनियाज़ और अपने-आपमें तारीफ़ के क़ाबिल है।10
9. यानी जो इस बात की उम्मीद रखता हो कि एक दिन अल्लाह के सामने हाज़िर होना है, और इस चीज़ का उम्मीदवार हो कि अल्लाह उसे अपनी मेहरबानी से नवाज़े और आख़िरत के दिन उसे कामयाबी नसीब हो।
10. यानी अल्लाह को ऐसे ईमान लानेवालों की कोई ज़रूरत नहीं है जो उसके दीन को मानने का दावा भी करें और फिर उसके दुश्मनों से दोस्ती भी रखें। वह बेनियाज़ है। उसकी ख़ुदाई इसकी मुहताज नहीं है कि ये लोग उसे ख़ुदा मानें। और वह अपने-आपमें ख़ुद तारीफ़ के क़ाबिल है, उसका तारीफ़ के क़ाबिल होना इस बात पर टिका नहीं है कि ये उसकी हम्द (तारीफ़) करें। ये अगर ईमान लाते हैं तो अल्लाह के किसी फ़ायदे के लिए नहीं, अपने फ़ायदे के लिए लाते हैं। और इन्हें ईमान का कोई फ़ायदा हासिल नहीं हो सकता जब तक कि ये हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और उनके साथियों की तरह अल्लाह के दुश्मनों से मुहब्बत और दोस्ती के रिश्ते तोड़ न लें।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا جَآءَكُمُ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ مُهَٰجِرَٰتٖ فَٱمۡتَحِنُوهُنَّۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِإِيمَٰنِهِنَّۖ فَإِنۡ عَلِمۡتُمُوهُنَّ مُؤۡمِنَٰتٖ فَلَا تَرۡجِعُوهُنَّ إِلَى ٱلۡكُفَّارِۖ لَا هُنَّ حِلّٞ لَّهُمۡ وَلَا هُمۡ يَحِلُّونَ لَهُنَّۖ وَءَاتُوهُم مَّآ أَنفَقُواْۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيۡكُمۡ أَن تَنكِحُوهُنَّ إِذَآ ءَاتَيۡتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّۚ وَلَا تُمۡسِكُواْ بِعِصَمِ ٱلۡكَوَافِرِ وَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقۡتُمۡ وَلۡيَسۡـَٔلُواْ مَآ أَنفَقُواْۚ ذَٰلِكُمۡ حُكۡمُ ٱللَّهِ يَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡۖ وَٱللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٞ ۝ 6
(10) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब मोमिन औरतें हिजरत करके तुम्हारे पास आएँ तो (उनके मोमिन होने की) जाँच-पड़ताल कर लो, और उनके ईमान की हक़ीक़त अल्लाह ही बेहतर जानता है। फिर जब तुम्हें मालूम हो जाए कि वे मोमिन हैं तो उन्हें ग़ैर-मुस्लिमों (इस्लाम को न माननेवालों) की तरफ़ वापस न करो।14 न वे ग़ैर-मुस्लिमों के लिए हलाल हैं और न ग़ैर-मुस्लिम उनके लिए हलाल। उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहरों ने जो मह्‍र उनको दिए थे वे उन्हें फेर दो। और उनसे निकाह कर लेने में तुमपर कोई गुनाह नहीं जबकि तुम उनके मह्‍र उनको अदा कर दो।15 और तुम ख़ुद भी ग़ैर-मुस्लिम औरतों को अपने निकाह में न रोके रहो। जो मह्‍र तुमने अपनी ग़ैर-मुस्लिम बीवियों को दिए थे वे तुम वापस माँग लो और जो मह्‍र ग़ैर-मुस्लिमों ने अपनी मुसलमान बीवियों को दिए थे उन्हें वे वापस माँग लें।16 यह अल्लाह का हुक्म है, वह तुम्हारे बीच फ़ैसला करता है और अल्लाह सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।
14. इस हुक्म का पसमंज़र (पृष्ठभूमि) यह है कि हुदैबिया के समझौते के बाद शुरू-शुरू में तो मुसलमान मर्द मक्का से भाग-भागकर मदीना आते रहे और उन्हें समझौते की शर्तों के मुताबिक़ वापस किया जाता रहा। फिर मुसलमान औरतों के आने का सिलसिला शुरू हो गया और सबसे पहले उक़बा-बिन-अबी-मुऐत की बेटी उम्मे-कुलसूम हिजरत करके मदीना पहुँचीं। इस्लाम-दुश्मनों ने समझौते का हवाला देकर उनकी वापसी की भी माँग की और उम्मे-कुलसूम के दो भाई वलीद-बिन-उक़बा और उमारा-बिन-उक़बा उन्हें वापस ले जाने के लिए मदीना पहुँच गए। उस वक़्त यह सवाल पैदा हुआ कि क्या हुदैबिया के समझौते की शर्तें औरतों पर भी लागू होती हैं? अल्लाह तआला ने इसी सवाल का यहाँ जवाब दिया है कि अगर वे मुसलमान हों और यह इत्मीनान कर लिया जाए कि सचमुच वे ईमान ही की ख़ातिर हिजरत करके आई हैं, कोई और चीज़ उन्हें नहीं लाई है, तो उन्हें वापस न किया जाए। इस जगह पर हदीसों को मानी के लिहाज़ से बयान करने से एक बड़ी पेचीदगी पैदा हो गई है जिसे हल करना ज़रूरी है। हुदैबिया के समझौते की शर्तों के बारे में हदीसों में हमें जो रिवायतें मिलती हैं उनमें ज़्यादातर हदीसों में मतलब बयान किया गया है। ऊपर बयान की गई शर्त के बारे में उनमें से किसी रिवायत के अलफ़ाज़ ये हैं, “तुममें से जो शख़्स हमारे पास आएगा उसे हम वापस न करेंगे और हममें से जो तुम्हारे पास जाएगा उसे तुम वापस कर दोगे।” किसी में ये अलफ़ाज़ हैं, “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पास उनके साथियों में से जो शख़्स अपने सरपरस्त की इजाज़त के बिना आएगा उसे वे वापस कर देंगे।” और किसी में है, "क़ुरैश में से जो शख़्स मुहम्मद (सल्ल०) के पास अपने सरपरस्त की इजाज़त के बिना जाएगा उसे वे क़ुरैश को वापस कर देंगे।” इन रिवायतों के बयान का अन्दाज़ ख़ुद बता रहा है कि इनमें समझौते की इस शर्त को उन अलफ़ाज़ में नक़्ल नहीं किया गया है जो अस्ल समझौते में लिखे गए थे, बल्कि रिवायत करनेवालों ने उनका मतलब ख़ुद अपने अलफ़ाज़ में बयान कर दिया है। लेकिन चूँकि इस तरह की बहुत-सी रिवायतें हैं, इसलिए आम तौर पर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले और हदीस के आलिमों ने इससे यही समझा कि समझौता आम था जिसमें औरत-मर्द सब दाख़िल थे और औरतों को भी इसके मुताबिक़ वापस होना चाहिए था। इसके बाद जब उनके सामने अल्लाह तआला का यह हुक्म आया कि मोमिन औरतें वापस न की जाएँ तो इन लोगों ने इसका मतलब यह बयान किया कि अल्लाह तआला ने इस आयत में मोमिन औरतों की हद तक समझौता तोड़ देने का फ़ैसला दे दिया। मगर यह कोई मामूली बात नहीं है, जिसको इस आसानी के साथ क़ुबूल कर लिया जाए। अगर समझौता सचमुच किसी को ख़ास किए बिना मर्द-औरत सबके लिए आम था तो आख़िर यह कैसे जाइज़ हो सकता था कि एक फ़रीक़ (पक्ष) उसमें एक तरफ़ा तबदीली कर दे या उसके किसी हिस्से को अपने तौर पर बदल डाले? और अगर मान लीजिए ऐसा किया भी गया था तो यह कैसी अजीब बात है कि क़ुरैश के लोगों ने इसपर कोई हंगामा नहीं किया! क़ुरैशवाले तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और मुसलमानों की एक-एक बात पर पकड़ करने के लिए तुले बैठे थे। उन्हें अगर यह बात हाथ आ जाती कि आप (सल्ल०) समझौते की शर्तों की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर गुज़रे हैं तो वे ज़मीन और आसमान सर पर उठा लेते। लेकिन हमें किसी रिवायत में इसका निशान तक नहीं मिलता कि उन्होंने क़ुरआन के इस फ़ैसले पर ज़र्रा बराबर भी एतिराज़ किया हो। यह ऐसा सवाल था जिसपर ग़ौर किया जाता तो समझौते के अस्ल अलफ़ाज़ की खोज लगाकर इस पेचीदगी का हल तलाश किया जाता, मगर बहुत-से लोगों ने तो इसकी तरफ़ ध्यान न दिया, और कुछ लोग (मसलन क़ाज़ी अबू-बक्र-बिन-अरबी) ने ध्यान दिया भी तो उन्होंने क़ुरैश के एतिराज़ न करने की यह वजह बयान करने तक में झिझक न की कि अल्लाह तआला ने मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर इस मामले में क़ुरैश की ज़बान बन्द कर दी थी। ताज्जुब है कि यह वजह बयान करने पर इन लोगों का दिल कैसे मुत्मइन हुआ! अस्ल बात यह है कि समझौते की यह शर्त मुसलमानों की तरफ़ से नहीं, बल्कि क़ुरैश के ग़ैर-मुस्लिमों की तरफ़ से थी, और उनकी तरफ़ से उनके नुमाइन्दे सुहैल-बिन-अम्र ने जो अलफ़ाज़ समझौते में लिखवाए थे वे ये थे, “तुम्हारे पास हममें से कोई मर्द भी आए, अगरचे वह तुम्हारे दीन ही पर हो, तुम उसे हमारी तरफ़ वापस करोगे।” समझौते के ये अलफ़ाज़ बुख़ारी, किताबुश-शुरूत, बाबुश-शुरूति फ़िल-जिहादि वल-मुसालहति में मज़बूत सनद के साथ नक़्ल हुए हैं। हो सकता है कि सुहैल ने मूल अरबी में आए हुए ‘रजुल' (मर्द) का लफ़्ज़ शख़्स के मानी में इस्तेमाल किया हो, लेकिन यह उसकी ज़ेहनी मुराद होगी समझौते में जो लफ़्ज़ लिखा गया, वह ‘रजुल' ही था जो अरबी ज़बान में मर्द के लिए बोला जाता है। इसी वजह से जब उम्मे-कुलसूम-बिन्ते-उक़बा की वापसी की माँग लेकर उनके भाई अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो (इमाम ज़ुहरी की रिवायत के मुताबिक़) अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनको वापस करने से यह कहकर इनकार किया कि “शर्त मर्दों के बारे में थी न कि औरतों के बारे में,” (अहकामुल-क़ुरआन, लिइब्निल-अरबी; तफ़सीरे-कबीर, इमाम राज़ी) उस वक़्त तक ख़ुद क़ुरैश के लोग भी इस ग़लतफ़हमी में थे कि समझौता हर तरह के मुहाजिरों पर लागू होता है, चाहे वे मर्द हों या औरतें। मगर जब अल्लाह के नबी (सल्ल०) ने उनको समझौते के इन अलफ़ाज़ की तरफ़ ध्यान दिलाया तो वे हैरान रह गए और उन्हें मजबूर होकर इस फ़ैसले को मानना पड़ा। समझौते की इस शर्त के लिहाज़ से मुसलमानों को हक़ था कि जो औरत भी मक्का छोड़कर मदीना आती, चाहे वह किसी ग़रज़ से आती, उसे वापस करने से इनकार कर देते। लेकिन इस्लाम को सिर्फ़ मोमिन औरतों की हिफ़ाज़त से दिलचस्पी थी, हर तरह की भागनेवाली औरतों के लिए मदीना तय्यिबा को पनाहगाह बनाना मक़सद न था। इसलिए अल्लाह तआला ने हुक्म दिया कि जो औरतें हिजरत करके आएँ और अपने मोमिन होने का इज़हार करें, उनसे पूछ-गछ करके अपना इत्मीनान कर लो कि वे सचमुच ईमान लेकर आई हैं, और जब इसका इत्मीनान हो जाए तो उनको वापस न करो। चुनाँचे अल्लाह के इस हुक्म पर अमल करने के लिए जो क़ायदा बनाया गया वह यह था कि जो औरतें हिजरत करके आती थीं उनसे पूछा जाता था कि क्या वे अल्लाह की तौहीद (अल्लाह के एक होने) और मुहम्मद (सल्ल०) की रिसालत पर ईमान रखती हैं, और सिर्फ़ अल्लाह और उसके रसूल की ख़ातिर निकलकर आई हैं? कहीं ऐसा तो नहीं है कि वे शौहर से बिगड़कर घर से निकल खड़ी हुई हों? या हमारे यहाँ के किसी मर्द की मुहब्बत उनको ले आई हो? या कोई और दुनियावी मक़सद उनके इस अमल का सबब बना हो? इन सवालों का मुत्मइन करनेवाला जवाब जो औरतें दे देती थीं सिर्फ़ उनको रोक लिया जाता था, बाक़ी सबको वापस कर दिया जाता था। (इब्ने-जरीर, इब्ने-अब्बास, क़तादा, मुजाहिद, इकरिमा, इब्ने-ज़ैद के हवाले से) इस आयत में गवाही के क़ानून का भी एक उसूली क़ायदा बयान कर दिया गया है और उसकी और ज़्यादा तशरीह काम के उस तरीक़े से हो गई है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इसपर अमल करने के लिए मुक़र्रर किया था। आयत में तीन बातें कही गई हैं। एक यह कि हिजरत करनेवाली जो औरतें अपने-आपको मोमिन होने की हैसियत से पेश करें उनके ईमान की जाँच करो। दूसरी यह कि उनके ईमान की हक़ीक़त को तो सिर्फ़ अल्लाह तआला ही जानता है, तुम्हारे पास यह जानने का कोई ज़रिआ नहीं है कि वे हक़ीक़त में ईमान लाई हैं। तीसरी यह कि जाँच पड़ताल से जब तुम्हें मालूम हो जाए कि वे मोमिन हैं तो उन्हें वापस न करो। फिर इस हुक्म के मुताबिक़ उन औरतों के ईमान की जाँच करने के लिए जो तरीक़ा नबी (सल्ल०) ने मुक़र्रर किया था वह यह था कि उन औरतों के हलफ़िया (शपथ लेकर दिए गए) बयान पर भरोसा किया जाए और ज़रूरी जिरह (पूछ-गछ) करके यह इत्मीनान कर लिया जाए कि उनकी हिजरत का सबब ईमान के सिवा कुछ और नहीं है। इससे एक तो यह क़ायदा मालूम हुआ कि मामलों का फ़ैसला करने के लिए अदालत को हक़ीक़त की जानकारी हासिल होना ज़रूरी नहीं है, बल्कि सिर्फ़ वह जानकारी काफ़ी है जो गवाहियों से हासिल होती है। दूसरी बात यह मालूम हुई कि हम एक शख़्स के हलफ़िया बयान पर एतिमाद करेंगे जब तक कि कोई साफ़ अलामत उसके झूठे होने की दलील न दे रही हो। तीसरी बात यह मालूम हुई कि आदमी अपने अक़ीदे और ईमान के बारे में ख़ुद जो ख़बर दे रहा हो हम उसे क़ुबूल करेंगे और इस बात की खोज में न पड़ेंगे कि सचमुच उसका वही अक़ीदा है जो वह बयान कर रहा है, सिवाय इसके कि कोई साफ़ अलामत हमारे सामने ऐसी ज़ाहिर हो जाए, जो उसके बयान को ग़लत साबित कर रही हो। और चौथी बात यह कि एक शख़्स के जिन निजी हालात को दूसरा कोई नहीं जान सकता उनमें उसी के बयान पर भरोसा किया जाएगा, मसलन तलाक़ और इद्दत के मामलों में औरत की माहवारी और उसके पाक होने के बारे में उसका अपना बयान ही भरोसेमन्द होगा, चाहे वह झूठ बोले या सच। इन ही क़ायदों के मुताबिक़ इल्मे-हदीस में भी उन रिवायतों को क़ुबूल किया जाएगा जिनके बयान करनेवालों का ज़ाहिर हाल उनके सच्चे होने की गवाही दे रहा हो, सिवाय इसके कि कुछ दूसरी अलामतें ऐसी मौज़ूद हों जो किसी रिवायत के क़ुबूल करने में रुकावट हों।
15. मतलब यह है कि उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहरों को उनके जो मह्‍र वापस किए जाएँगे वही इन औरतों के मह्‍र न माने जाएँगे, बल्कि अब जो मुसलमान भी उनमें से किसी औरत से निकाह करना चाहे वह उसका मह्‍र अदा करे और उससे निकाह कर ले।
16. इन आयतों में चार बड़े अहम हुक्म बयान किए गए हैं, जिनका ताल्लुक़ इस्लाम के ख़ानदानी क़ानून से भी है और बैनल-अक़वामी (अन्तर्राष्ट्रीय) क़ानून से भी— एक यह कि जो औरत मुसलमान हो जाए वह अपने ग़ैर-मुस्लिम शौहर के लिए हलाल नहीं रहती और न ग़ैर-मुस्लिम शौहर उसके लिए हलाल रहता है। दूसरा यह कि जो शादी-शुदा औरत मुसलमान होकर दारुल-कुफ़्र (ग़ैर-इस्लामी राज्य) से दारुल-इस्लाम (इस्लामी राज्य) में हिजरत करके आए उसका निकाह आप-से-आप टूट जाता है। और जो मुसलमान भी चाहे उसका मह्‍र देकर उससे निकाह कर सकता है। तीसरा यह कि जो मर्द मुसलमान हो जाए उसके लिए यह जाइज़ नहीं है कि उसकी बीवी अगर ग़ैर-मुस्लिम रहे तो वह उसे अपने निकाह में रोके रखे। चौथा यह कि अगर दारुल-कुफ़्र और दारुल-इस्लाम के दरमियान समझौते के ताल्लुक़ात मौज़ूद हों तो इस्लामी हुकूमत को दारुल-कुफ़्र की हुकूमत से यह मामला तय करने की कोशिश करनी चाहिए कि ग़ैर-मुस्लिमों की जो शादी-शुदा औरतें मुसलमान होकर दारुल-इस्लाम में हिजरत कर आई हों उनके मह्‍र मुसलमानों की तरफ़ से वापस दे दिए जाएँ, और मुसलमानों के निकाह में रहनेवाली ग़ैर-मुस्लिम औरतें जो दारुल-कुफ़्र में रह गई हों उनके मह्‍र ग़ैर-मुस्लिम मर्दों की तरफ़ से वापस मिल जाएँ। इन हुक्मों का तारीख़़ी फसमंज़र (एतिहासिक पृष्ठभूमि) यह है कि इस्लाम के शुरू में बहुत-से मर्द ऐसे थे जिन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया, मगर उनकी बीवियाँ मुसलमान न हुईं। और बहुत-सी औरतें ऐसी थीं जो मुसलमान हो गईं, मगर उनके शौहरों ने इस्लाम क़ुबूल न किया। ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की एक बेटी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के शौहर अबुल-आस ग़ैर-मुस्लिम थे और कई साल तक ग़ैर-मुस्लिम रहे। शुरुआती दौर में ऐसा कोई हुक्म नहीं दिया गया था कि मुसलमान औरत के लिए उसका ग़ैर-मुस्लिम शौहर और मुसलमान मर्द के लिए उसकी ग़ैर-मुस्लिम बीवी हलाल नहीं है। इसलिए उनके दरमियान मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ात बरक़रार रहे। हिजरत के बाद भी कई साल तक यह सूरते-हाल रही कि बहुत-सी औरतें मुसलमान होकर हिजरत कर आईं और उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहर दारुल-कुफ़्र में रहे। और बहुत-से मुसलमान मर्द हिजरत करके आ गए और उनकी ग़ैर-मुस्लिम बीवियाँ दारुल-कुफ़्र में रह गई। मगर इसके बावजूद उनके दरमियान मियाँ-बीवी का रिश्ता बना रहा। इससे ख़ास तौर पर औरतों के लिए बड़ी पेचीदगी पैदा हो रही थी, क्योंकि मर्द तो दूसरे निकाह भी कर सकते थे, मगर औरतों के लिए यह मुमकिन न था कि जब तक पहले शौहरों से उनका निकाह ख़त्म न हो जाए वे किसी और शख़्स से निकाह कर सकें। हुदैबिया के समझौते के बाद जब ये आयतें उतरीं तो इन्होंने मुसलमानों और ग़ैर-मुस्लिमों के दरमियान पिछले शादी-शुदा रिश्तों को ख़त्म कर दिया और आगे के लिए उनके बारे में एक पक्का और साफ़ क़ानून बना दिया। इस्लाम के फ़क़ीहों ने इस क़ानून को चार बड़े-बड़े उनवानों (शीर्षकों) के तहत जमा किया है— (i) वह हालत जिसमें मियाँ-बीवी दारुल-इस्लाम में हों और उनमें से एक मुसलमान हो जाए और दूसरा ग़ैर-मुस्लिम रहे। (ii) वह हालत जिसमें मियाँ-बीवी दारुल-कुफ़्र में हों और उनमें से एक मुसलमान हो जाए और दूसरा ग़ैर-मुस्लिम रहे। (iii) वह हालत जिसमें मियाँ-बीवी में से कोई एक मुसलमान होकर दारुल-इस्लाम में हिजरत करके आ जाए और दूसरा दारुल-कुफ़्र में ग़ैर-मुस्लिम रहे। (iv) वह हालत जिसमें मुस्लिम मियाँ-बीवी में से कोई एक मुर्तद हो जाए यानी इस्लाम छोड़कर ग़ैर-मुस्लिम हो जाए। नीचे हम इन चारों हालतों के बारे में फ़क़ीहों की राएँ अलग-अलग बयान करते हैं— (1) पहली सूरत में अगर इस्लाम शौहर ने क़ुबूल किया हो और उसकी बीवी ईसाई या यहूदी हो और वह अपने दीन पर क़ायम रहे तो दोनों के दरमियान निकाह बाक़ी रहेगा, क्योंकि कि मुसलमान मर्द के लिए अहले-किताब बीवी जाइज़ है। इस बात पर तमाम फ़क़ीहों के दरमियान एक राय पाई जाती है। और अगर इस्लाम क़ुबूल करनेवाले मर्द की बीवी अहले-किताब में से न हो और वह अपने दीन पर क़ायम रहे, तो हनफ़ी आलिम उसके बारे में कहते हैं कि औरत के सामने इस्लाम पेश किया जाएगा, क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, न क़ुबूल करे तो उनके दरमियान अलगाव कर दिया जाएगा। इस सूरत में अगर मियाँ-बीवी सोहबत कर चुके हों तो औरत मह्‍र की हक़दार होगी, और सोहबत न हुई हो तो उसको मह्‍र पाने का हक़ न होगा, क्योंकि ताल्लुक़ का टूटना उसके इनकार की वजह से हुआ है, (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर)। इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद (रह०) कहते हैं कि अगर मियाँ-बीवी ने सोहबत न की हो तो मर्द के इस्लाम क़ुबूल करते ही औरत उसके निकाह से बाहर हो जाएगी, और अगर सोहबत हो चुकी हो तो औरत तीन बार माहवारी आने तक उसके निकाह में रहेगी, इस दौरान में वह ख़ुद अपनी मरज़ी से इस्लाम क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना तीसरी बार माहवारी के दिन गुज़रते ही आप-से-आप निकाह ख़त्म हो जाएगा। इमाम शाफ़िई (रह०) यह भी कहते हैं कि ज़िम्मियों (ग़ैर-मुस्लिमों) को उनके मज़हब से छेड़छाड़ न करने की जो ज़मानत हमारी तरफ़ से दी गई है उसकी बुनियाद पर यह दुरुस्त नहीं है कि औरत के सामने इस्लाम पेश किया जाए। लेकिन हक़ीक़त में यह एक कमज़ोर बात है, क्योंकि एक ग़ैर-मुस्लिम औरत के मज़हब से छेड़छाड़ तो उस सूरत में होगी जबकि उसको इस्लाम क़ुबूल करने पर मजबूर किया जाए। उससे सिर्फ़ यह कहना कोई छेड़छाड़ नहीं है कि तू इस्लाम क़ुबूल कर ले तो अपने शौहर के साथ रह सकेगी, वरना तुझे इससे अलग कर दिया जाएगा। हज़रत अली (रज़ि०) के ज़माने में इसकी मिसाल पेश भी आ चुकी है। इराक़ के एक मजूसी ज़मींदार ने इस्लाम क़ुबूल किया और उसकी बीवी ग़ैर-मुस्लिम रही। हज़रत अली (रज़ि०) ने उसके सामने इस्लाम पेश किया। और जब उसने इनकार कर दिया तब उन्होंने उन दोनों के दरमियान जुदाई करा दी, (अल-मबसूत)। इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि अगर मियाँ-बीवी ने सोहबत न की हो तो मर्द के इस्लाम लाते ही उसकी ग़ैर-मुस्लिम बीवी उससे फ़ौरन जुदा हो जाएगी और अगर सोहबत हो चुकी हो तो औरत के सामने इस्लाम पेश किया जाएगा और उसके इनकार की सूरत में जुदाई हो जाएगी। (अल-मुग़नी लिइब्नि-क़ुदामा) और अगर इस्लाम औरत ने क़ुबूल किया हो और मर्द ग़ैर-मुस्लिम रहे, चाहे वह अहले-किताब में से हो या अहले-किताब में से न हो, तो हनफ़ी आलिम कहते हैं कि दोनों सोहबत कर चुके हों या सोहबत न की हो, हर हाल में शौहर के सामने इस्लाम पेश किया जाएगा, क़ुबूल कर ले तो औरत उसके निकाह में रहेगी, इनकार कर दे तो क़ाज़ी दोनों में जुदाई करा देगा। इस दौरान में जब तक मर्द इस्लाम से इनकार न करे, औरत उसकी बीवी तो रहेगी, मगर उसे सोहबत का हक़ न होगा। शौहर के इनकार करने पर जुदाई बाइन तलाक़ के तौर पर होगी (यानी उसके बाद शौहर को रुजू का हक़ न होगा)। अगर उससे पहले सोहबत न की हो तो औरत आधा मह्‍र पाने की हक़दार होगी, और अगर सोहबत हो चुकी हो तो औरत पूरा मह्‍र भी पाएगी और इद्दत का ख़र्च भी, (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर)। इमाम शाफ़िई (रह०) के नज़दीक सोहबत न होने की हालत में औरत के इस्लाम क़ुबूल करते ही निकाह टूट जाएगा, और सोहबत होने की हालत में इद्दत ख़त्म होने तक औरत उस मर्द के निकाह में रहेगी। इस मुद्दत के अन्दर वह इस्लाम क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना इद्दत गुज़रते ही जुदाई हो जाएगी। लेकिन मर्द के मामले में भी इमाम शाफ़िई (रह०) ने वही राय ज़ाहिर की है जो औरत के बारे में ऊपर नक़्ल हुई कि उसके सामने इस्लाम पेश करना जाइज़ नहीं है, और यह राय बहुत कमज़ोर है। हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में कई वाक़िआत ऐसे पेश आए हैं कि औरत ने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और मर्द से इस्लाम लाने के लिए कहा गया और जब उसने इनकार कर दिया तो दोनों के दरमियान जुदाई करा दी गई। मिसाल के तौर पर बनी-तग़लिब के एक ईसाई की बीवी का मामला उनके सामने पेश हुआ। उन्होंने मर्द से कहा, “या तो तू इस्लाम क़ुबूल कर ले, वरना मैं तुम दोनों के दरमियान जुदाई कर दूँगा।” उसने इनकार किया और उन्होंने जुदाई का फ़ैसला कर दिया। बहजुल-मलिक की एक नव-मुस्लिम जमींदारनी का मुक़द्दमा उनके पास भेजा गया। उसके मामले में भी उन्होंने हुक्म दिया कि उसके शौहर के सामने इस्लाम पेश किया जाए, अगर वह क़ुबूल कर ले तो बेहतर, वरना दोनों में जुदाई करा दी जाए। ये वाक़िआत सहाबा किराम (रज़ि०) के सामने पेश आए थे और किसी का इख़्तिलाफ़ नहीं हुआ है, (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, अल-मबसूत, फ़तहुल-क़दीर)। इमाम मालिक (रह०) की राय इस मामले में यह है कि अगर सोहबत से पहले औरत मुसलमान हो जाए तो शौहर के सामने इस्लाम पेश किया जाए, वह क़ुबूल कर ले तो बेहतर वरना फ़ौरन जुदाई करा दी जाए। और अगर सोहबत हो चुकी हो और उसके बाद औरत इस्लाम लाई हो तो इद्दत का ज़माना ख़त्म होने तक इन्तिज़ार किया जाए, इस मुद्दत में शौहर इस्लाम क़ुबूल कर ले तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना इद्दत गुज़रते ही जुदाई हो जाएगी। इमाम अहमद (रह०) का एक क़ौल (राय) इमाम शाफ़िई (रह०) की ताईद में है, और दूसरा क़ौल यह है कि मियाँ-बीवी के दीन (धर्म) का अलग-अलग हो जाना बहरहाल फ़ौरन जुदाई का सबब है, चाहे सोहबत हुई हो या न हुई हो। (अल-मुग़नी) (2) दारुल-कुफ़्र में अगर औरत मुसलमान हो जाए और मर्द ग़ैर-मुस्लिम रहे, या मर्द मुसलमान हो जाए और उसकी बीवी (जो ईसाई या यहूदी न हो, बल्कि अहले-किताब से अलग किसी और मज़हब की हो) अपने मज़हब पर क़ायम रहे, तो हनफ़ी आलिमों के नज़दीक चाहे उन्होंने सोहबत की हो या न की हो, जुदाई न होगी जब तक औरत को तीन बार माहवारी न हो जाए, या अगर उसे माहवारी न आती हो तो इस सूरत में तीन महीने न गुज़र जाएँ। इस दौरान में अगर दूसरा फ़रीक़ (पक्ष) भी मुसलमान हो जाए तो निकाह बाक़ी रहेगा, वरना यह मुद्दत गुज़रते ही जुदाई हो जाएगी। इमाम शाफ़िई (रह०) इस मामले में भी सोहबत होने और न होने में फ़र्क़ करते हैं। उनकी राय यह है कि अगर सोहबत न हुई हो तो मियाँ-बीवी के बीच दीन के अलग-अलग होते ही जुदाई हो जाएगी, और अगर सोहबत हो जाने के बाद दीन अलग-अलग हुआ तो इद्दत की मुद्दत ख़त्म होने तक उनका निकाह बाक़ी रहेगा। इस दौरान में अगर दूसरा फ़रीक़ (पक्ष) इस्लाम क़ुबूल न करे तो इद्दत ख़त्म होने के साथ ही निकाह भी ख़त्म हो जाएगा। (अल-मबसूत, फ़तहुल-क़दीर, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) (3) जिस सूरत में मियाँ-बीवी के दरमियान दीन के अलग-अलग होने के साथ 'दार' (मुल्क) भी अलग-अलग हो जाए, यानी उनमें से कोई एक दारुल-कुफ़्र में ग़ैर-मुस्लिम रहे और दूसरा दारुल-इस्लाम की तरफ़ हिजरत कर जाए, उसके बारे में हनफ़ी आलिम कहते हैं कि दोनों के दरमियान निकाह का ताल्लुक़ आप-से-आप ख़त्म हो जाएगा। अगर हिजरत करनेवाली औरत हो तो उसे फ़ौरन दूसरा निकाह कर लेने का हक़ हासिल है, उसपर कोई इद्दत नहीं है, अलबत्ता सोहबत करने के लिए उसके (नए) शौहर को एक बार माहवारी आ जाने तक इन्तिज़ार करना होगा, ताकि इसका पता चल सके कि औरत के पेट में पिछले शौहर का हम्ल (गर्भ) तो नहीं है। और अगर वह हामिला (गर्भवती) हो तब भी निकाह हो सकता है, मगर दोनों को सोहबत करने के लिए बच्चा पैदा होने तक इन्तिज़ार करना होगा। इमाम अबू-यूसुफ़ और इमाम मुहम्मद (रह०) ने इस मसले में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) से सिर्फ़ इतना इख़्तिलाफ़ किया है कि उनके नज़दीक औरत पर इद्दत लाज़िम है, और अगर वह हामिला (गर्भवती) हो तो बच्चा पैदा होने से पहले उसका निकाह नहीं हो सकता, (अल-मबसूत, हिदाया, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास)। इमाम शाफ़िई (रह०), इमाम अहमद (रह०) और इमाम मालिक (रह०) कहते हैं कि 'दार' (मुल्क) के अलग-अलग होने का इस मामले में कोई दख़ल नहीं है, बल्कि अस्ल चीज़ सिर्फ़ दीन का अलग-अलग होना है। यह फ़र्क़ अगर मियाँ-बीवी के बीच पैदा हो जाए तो हुक्म वही हैं जो दारुल-इस्लाम में मियाँ-बीवी के दरमियान यह फ़र्क़ पैदा होने के हैं, (अल-मुग़नी)। इमाम शाफ़िई (रह०) अपनी ऊपर बयान की गई राय के साथ-साथ हिजरत करके आनेवाली मुसलमान औरत के मामले में यह राय भी ज़ाहिर करते हैं कि अगर वह अपने ग़ैर-मुस्लिम शौहर से लड़कर उसके शौहर होने के हक़ को ख़त्म करने के इरादे से आई हो तो 'दार' (मुल्क) के फ़र्क़ की बुनियाद पर नहीं, बल्कि उसके इस इरादे की बुनियाद पर फ़ौरन जुदाई हो जाएगी। (अल-मबसूत, हिदाया) लेकिन क़ुरआन मजीद की इस आयत पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि इस मामले में सबसे ज़्यादा सही राय वही है जो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने ज़ाहिर की है। अल्लाह तआला ने यह आयत हिजरत करके आनेवाली मोमिन औरतों ही के बारे में उतारी है, और उन ही के हक़ में यह फ़रमाया है कि वे अपने उन ग़ैर-मुस्लिम शौहरों के लिए हलाल नहीं रहीं जिन्हें वे दारुल-कुफ़्र में छोड़ आई हैं, और दारुल-इस्लाम के मुसलमानों को इजाज़त दी है कि वे उनके मह्‍र अदा करके उनसे निकाह कर लें। दूसरी तरफ़ मुहाजिर मुसलमानों को मुख़ातब करके यह फ़रमाया है कि अपनी उन ग़ैर-मुस्लिम बीवियों को अपने निकाह में न रोके रखो जो दारुल-कुफ़्र में रह गई हैं और ग़ैर-मुस्लिमों से अपने वे मह्‍र वापस माँग लो जो तुमने उन औरतों को दिए थे। ज़ाहिर है कि यह सिर्फ़ दीन के अलग-अलग होने ही के हुक्म नहीं हैं, बल्कि इन हुक्मों को जिस चीज़ ने यह ख़ास शक्ल दी है वह 'दार' (मुल्क) का अलग-अलग होना है। अगर हिजरत की बुनियाद पर मुसलमान औरतों के निकाह उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहरों से टूट न गए होते तो मुसलमानों को उनसे निकाह की इजाज़त कैसे दी जा सकती थी, और वह भी इस तरह कि इस इजाज़त में इद्दत की तरफ़ कोई इशारा तक नहीं है। इसी तरह अगर 'तुम ग़ैर-मुस्लिम औरतों को अपने निकाह में न रोके रखो' का हुक्म आ जाने के बाद भी मुसलमान मुहाजिरों की ग़ैर-मुस्लिम बीवियाँ उनके निकाह में बाक़ी रह गई होती तो साथ-साथ यह हुक्म भी दिया जाता कि उन्हें तलाक़ दे दो। मगर यहाँ उसकी तरफ़ भी कोई इशारा नहीं। बेशक यह सही है कि इस आयत के उतरने के बाद हज़रत उमर (रज़ि०) और हज़रत तलहा (रज़ि०) और कुछ दूसरे मुहाजिरों ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी थी, मगर यह इस बात का सुबूत नहीं है कि उनके लिए ऐसा करना ज़रूरी था, और उन बीवियों के साथ शादी के ताल्लुक़ के टूटने का दारोमदार उनके तलाक़ देने पर था, और अगर वे तलाक़ न देते तो वे बीवियाँ उनके निकाह में बाक़ी रह जातीं। इसके जवाब में नबी (सल्ल०) के दौर के तीन वाक़िआत की मिसालें पेश की जाती हैं जिनको इस बात का सुबूत क़रार दिया जाता है कि इन आयतों के उतरने के बाद भी नबी (सल्ल०) ने 'दार' के अलग-अलग हो जाने के बावजूद मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम मियाँ-बीवी के दरमियान निकाह का ताल्लुक़ बाक़ी रखा। पहला वाक़िआ यह है कि मक्का की फ़तह से ज़रा पहले अबू-सुफ़ियान मर्रूज़-ज़हरान (मौज़ूदा फ़ातिमा की घाटी) के मक़ाम पर इस्लाम के लश्कर में आए और यहाँ उन्होंने इस्लाम क़ुबूल कर लिया और उनकी बीवी हिन्द मक्का में ग़ैर-मुस्लिम रहीं। फिर मक्का की फ़तह के बाद हिन्द ने इस्लाम क़ुबूल किया और नबी (सल्ल०) ने दोबारा निकाह कराए बिना ही उनको पिछले निकाह पर बाक़ी रखा। दूसरा वाक़िआ यह है कि मक्का की फ़तह के बाद अबू-जह्ल के बेटे इकरिमा और हकीम-बिन-हिज़ाम मक्का से फ़रार हो गए और उनके पीछे दोनों की बीवियाँ मुसलमान हो गईं। फिर उन्होंने नबी (सल्ल०) से अपने शौहरों के लिए पनाह ले ली और जाकर उनको ले आईं। दोनों आदमियों ने हाज़िर होकर इस्लाम क़ुबूल कर लिया और नबी (सल्ल०) ने उनके भी पिछले निकाहों को बाक़ी रखा। तीसरा वाक़िआ नबी (सल्ल०) की अपनी बेटी हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) का है जो हिजरत करके मदीना आ गई थीं और उनके शौहर अबुल-आस ग़ैर-मुस्लिम होने की हालत में मक्का ही में ठहरे रह गए थे। उनके बारे में मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी और इब्ने-माजा में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत यह है कि वे सन् 8 हिजरी में मदीना आकर मुसलमान हुए और नबी (सल्ल०) ने दोबारा निकाह के बिना ही पिछले निकाह पर बेटी को उनकी बीवी की हैसियत से रहने दिया। लेकिन इनमें से पहले दो वाक़िए तो अस्ल में हक़ीक़त में 'दार' (देश या मुल्क) के अलग-अलग होने की तारीफ़ (परिभाषा) ही में नहीं आते, क्योंकि 'दार' का फ़र्क़ इस चीज़ का नाम नहीं है कि एक शख़्स थोड़े वक़्त के लिए एक दार (मुल्क) से दूसरे दार (मुल्क) की तरफ़ चला गया या फ़रार हो गया, बल्कि यह फ़र्क़ सिर्फ़ इस सूरत में होता है जब कोई आदमी एक दार से निकलकर दूसरे दार में आबाद हो जाए और उसके और उसकी बीवी के दरमियान मौजूदा ज़माने की इसतिलाह (शब्दावली) के मुताबिक़ 'क़ौमियत' (Nationality) का फ़र्क़ हो जाए। रहा हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) का मामला तो उसके बारे में दो रिवायतें हैं। एक रिवायत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की है जिसका हवाला ऊपर दिया गया है, और दूसरी रिवायत हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस की है जिसको इमाम अहमद, तिरमिज़ी और इब्ने-माजा ने नक़्ल किया है। इस दूसरी रिवायत में बयान किया गया है कि नबी (सल्ल०) ने बेटी को नए निकाह और नए मह्‍र के साथ फिर अबुल-आस ही को बीवी की हैसियत से सौंप दिया। रिवायतों के इस फ़र्क़ की सूरत में एक तो यह मिसाल उन लोगों के लिए बिलकुल भी दलील नहीं रहती जो दार (मुल्क) के अलग-अलग होने के क़ानूनी असर का इनकार करते हैं। दूसरे, अगर वे इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ही की रिवायत के सही होने पर जोर दें तो यह उनके मसलक के ख़िलाफ़ पड़ती है। क्योंकि उनके मसलक के मुताबिक़ तो जिन मियाँ-बीवी के दरमियान दीन का फ़र्क़ पैदा हो गया हो और वे आपस में सोहबत कर चुके हों, उनका निकाह औरत को सिर्फ़ तीन बार माहवारी आने तक बाक़ी रहता है, इस दौरान में दूसरा फ़रीक़ इस्लाम क़ुबूल कर ले तो शादी का रिश्ता क़ायम रहता है, वरना तीसरी बार माहवारी आते ही निकाह आप-से-आप ख़त्म हो जाता है। लेकिन हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के जिस वाक़िए से वे दलील लेते हैं उसमें मियाँ बीवी के दरमियान दीन का फ़र्क़ पैदा हुए कई साल गुज़र चुके थे, हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) की हिजरत के छह साल बाद अबुल-आस ईमान लाए थे, और उनके ईमान लाने से कम-से-कम दो साल पहले क़ुरआन में वह हुक्म उतर चुका था जिसके मुताबिक़ मुसलमान औरत मुशरिकों (ग़ैर-मुस्लिमों) पर हराम कर दी गई थी। (4) चौथा मसला इरतिदाद (इस्लाम से फिर जाने) का है। इसकी एक सूरत यह है कि मियाँ-बीवी एक-साथ मुरतद हो जाएँ (इस्लाम से फिर जाएँ), और दूसरी सूरत यह है कि उनमें से कोई एक मुरतद हो और दूसरा मुसलमान रहे। अगर मियाँ-बीवी एक साथ मुरतद हो जाएँ तो शाफ़िई और हंबली आलिम कहते हैं कि सोहबत से पहले ऐसा हो तो फ़ौरन, और सोहबत के बाद हो तो इद्दत की मुद्दत ख़त्म होते ही दोनों का वह निकाह ख़त्म हो जाएगा जो मुसलमान रहने की हालत में हुआ था। इसके बरख़िलाफ़ हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि अगरचे क़ियास (अन्दाज़ा) यही कहता है कि उनका निकाह ख़त्म हो जाए, लेकिन हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) के ज़माने में इरतिदाद का जो फ़ितना पैदा हुआ था, उसमें हज़ारों आदमी इस्लाम से फिर गए, फिर मुसलमान हो गए, और सहाबा किराम (रज़ि०) ने किसी को भी फिर से निकाह का हुक्म नहीं दिया, इसलिए हम सहाबा (रज़ि०) के एक राय होकर किए गए फ़ैसले को क़ुबूल करते हुए क़ियास के ख़िलाफ़ यह बात मानते हैं कि मियाँ-बीवी के एक साथ इस्लाम से निकल जाने की सूरत में उनके निकाह नहीं टूटते। (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, अल-फ़िक़्हु अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ) अगर शौहर इस्लाम से फिर जाए और औरत मुसलमान रहे तो हनफ़ी और मालिकी आलिमों के नज़दीक फ़ौरन निकाह टूट जाएगा, चाहे उनके दरमियान पहले सोहबत हो चुकी हो या न हुई हो। लेकिन शाफ़िई और हंबली आलिम इसमें सोहबत से पहले और सोहबत के बाद की हालत के दरमियान फ़र्क़ करते हैं। अगर सोहबत से पहले ऐसा हुआ हो तो फ़ौरन निकाह ख़त्म हो जाएगा, और सोहबत के बाद हुआ हो तो इद्दत के ज़माने तक बाक़ी रहेगा, इस दौरान में वह शख़्स मुसलमान हो जाए तो मियाँ-बीवी का रिश्ता बरक़रार रहेगा, वरना इद्दत ख़त्म होते ही उसके इरतिदाद (इस्लाम से फिर जाने) के वक़्त से निकाह टूटा हुआ समझा जाएगा, यानी औरत को फिर कोई नई इद्दत गुज़ारनी न होगी। चारों फ़क़ीह इसपर एक राय हैं कि सोहबत से पहले यह मामला पेश आया हो तो औरत को आधा मह्‍र और सोहबत के बाद पेश आया हो तो पूरा महर पाने का हक़ होगा। और अगर औरत इस्लाम से फिर गई हो तो हनफ़ी आलिमों का पुराना फ़तवा यह था कि इस सूरत में भी निकाह फ़ौरन ख़त्म हो जाएगा, लेकिन बाद के दौर में बल्ख़ और समरक़न्द के आलिमों ने यह फ़तवा दिया कि औरत के मुरतद होने से फ़ौरन जुदाई नहीं होती, और इससे उनका मक़सद इस बात की रोक-थाम करना था कि शौहरों से पीछा छुड़ाने के लिए औरतें कहीं इरतिदाद (इस्लाम छोड़ने) का रास्ता न अपनाने लगें। मालिकी आलिमों का फ़तवा भी इससे मिलता-जुलता है। वे कहते हैं कि अगर अलामतें यह बता रही हों कि औरत ने सिर्फ़ शौहर से अलग होने के लिए बहाने के तौर पर इरतिदाद का रास्ता अपनाया है तो जुदाई न होगी। शाफ़िई और हंबली फ़क़ीह कहते हैं कि औरत के इस्लाम से फिर जाने की सूरत में भी क़ानून वही है जो मर्द के इस्लाम से फिर जाने की सूरत में है, यानी सोहबत से पहले मुरतद हो तो फ़ौरन निकाह टूट जाएगा, और सोहबत के बाद हो तो इद्दत का ज़माना गुज़रने तक निकाह बाक़ी रहेगा, इस दौरान में वह मुसलमान हो जाए तो मियाँ-बीवी का रिश्ता बना रहेगा, वरना इद्दत गुज़रते ही इस्लाम से फिरने के वक़्त से निकाह टूटा हुआ माना जाएगा। मह्‍र के बारे में इस बात पर सब आलिम एक राय हैं कि सोहबत से पहले अगर औरत मुरतद हुई है तो उसे कोई मह्‍र न मिलेगा, और अगर सोहबत के बाद उसने इस्लाम को छोड़ा हो तो वह पूरा मह्‍र पाएगी। (अल-मबसूत, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, अल-मुग़नी, अल-फ़िक़्हु अलल-मज़ाहिबिल-अर्बआ)
وَإِن فَاتَكُمۡ شَيۡءٞ مِّنۡ أَزۡوَٰجِكُمۡ إِلَى ٱلۡكُفَّارِ فَعَاقَبۡتُمۡ فَـَٔاتُواْ ٱلَّذِينَ ذَهَبَتۡ أَزۡوَٰجُهُم مِّثۡلَ مَآ أَنفَقُواْۚ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ أَنتُم بِهِۦ مُؤۡمِنُونَ ۝ 7
(11) और अगर तुम्हारी ग़ैर-मुस्लिम बीवियों के मह्‍रों में से कुछ तुम्हें ग़ैर-मुस्लिमों से वापस न मिले और फिर तुम्हारी नौबत आए तो जिन लोगों की बीवियाँ उधर रह गई हैं उनको उतनी रक़म अदा कर दो जो उनके दिए हुए मह्‍रों के बराबर हो।17 और उस ख़ुदा से डरते रहो जिसपर तुम ईमान लाए हो।
17. इस मामले की दो सूरतें थीं और यह आयत दोनों सूरतों पर चस्पाँ होती है— एक सूरत यह थी कि जिन ग़ैर-मुस्लिमों से मुसलमानों के समझौते के ताल्लुक़ात थे उनसे मुसलमानों ने यह मामला तय करना चाहा कि जो औरतें हिजरत करके हमारी तरफ़ आ गई हैं उनके मह्‍र हम वापस कर देंगे, और हमारे आदमियों की जो ग़ैर-मुस्लिम बीवियाँ उधर रह गई हैं उनके मह्‍र तुम वापस कर दो। लेकिन उन्होंने इस बात को क़ुबूल न किया। चुनाँचे इमाम ज़ुहरी (रह०) बयान करते हैं कि अल्लाह तआला के हुक्म की पैरवी करते हुए मुसलमान उन औरतों के मह्‍र वापस देने के लिए तैयार हो गए जो मुशरिकों के पास मक्का में रह गई थीं, मगर मुशरिकों ने उन औरतों के मह्‍र वापस देने से इनकार कर दिया जो मुसलमानों के पास हिजरत करके आ गई थीं। इसपर अल्लाह तआला ने हुक्म दिया कि मुहाजिर औरतों के जो मह्‍र तुम्हें मुशरिकों को वापस करने हैं वे उनको भेजने के बजाय मदीना ही में जमा कर लिए जाएँ और जिन लोगों को मुशरिकों से अपने दिए हुए मह्‍र वापस लेने हैं उनमें से हर एक को इतनी रकम दे दी जाए जो उसे ग़ैर-मुस्लिमों से वुसूल होनी चाहिए थी। दूसरी सूरत यह थी कि जिन ग़ैर-मुस्लिमों से मुसलमानों के समझौते के ताल्लुक़ात न थे उनके इलाक़ों से भी कई आदमी इस्लाम क़ुबूल करके दारुल-इस्लाम में आ गए थे और उनकी ग़ैर-मुस्लिम बीवियाँ वहाँ रह गई थीं। इसी तरह कुछ औरतें भी मुसलमान होकर हिजरत कर आई थीं और उनके ग़ैर-मुस्लिम शौहर वहाँ रह गए थे। उनके बारे में यह फ़ैसला कर दिया कि दारुल-इस्लाम ही में अदले का बदला चुका दिया जाए। जब ग़ैर-मुस्लिमों से कोई मह्‍र वापस नहीं मिलना है तो उन्हें भी कोई मह्‍र वापस न किया जाए। इसके बजाय जो औरत इधर आ गई है उसके बदले का मह्‍र उस शख़्स को अदा कर दिया जाए जिसकी बीवी उधर रह गई है। लेकिन अगर इस तरह हिसाब बराबर न हो सके, और जिन मुसलमानों की बीवियाँ उधर रह गई हैं उनके वुसूल किए जाने लायक़ मह्‍र हिजरत करके आनेवाली मुसलमान औरतों के महरों से ज़्यादा हों, तो हुक्म दिया गया कि उस माले-ग़नीमत में से बाक़ी रक़में अदा कर दी जाएँ जो इस्लाम-दुश्मनों से लड़ाई में मुसलमानों के हाथ आए हों। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि जिस शख़्स के हिस्से का मह्‍र वुसूल होना बाक़ी रह जाता था, नबी (सल्ल०) यह हुक्म देते थे कि उसके नुक़सान की भरपाई माले-ग़नीमत से कर दी जाए, (इब्ने-जरीर)। इसी राय को अता, मुजाहिद, ज़ुहरी, मसरूक़, इबराहीम नख़ई, क़तादा, मुक़ातिल और ज़ह्हाक ने अपनाया है। ये सब लोग कहते हैं कि जिन लोगों के मह्‍र ग़ैर-मुस्लिमों की तरफ़ रह गए हों उनका बदला ग़ैर-मुस्लिमों से हाथ आए हुए कुल माले-ग़नीमत में से अदा किया जाए, यानी ग़नीमत के मालों के बँटवारे से पहले उन लोगों के मारे गए मह्‍र उनको दे दिए जाएँ और उसके बाद बँटवारा हो जिसमें वे लोग भी दूसरे सब जंग में हिस्सा लेनेवालों के साथ बराबर हिस्सा पाएँ। कुछ फ़क़ीह यह भी कहते हैं कि सिर्फ़ ग़नीमत के माल ही नहीं, फ़य के भी ऐसे लोगों के नुक़सान की भरपाई की जा सकती है। लेकिन आलिमों के एक बड़े गरोह ने इस राय को क़ुबूल नहीं किया है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُؤۡمِنَٰتُ يُبَايِعۡنَكَ عَلَىٰٓ أَن لَّا يُشۡرِكۡنَ بِٱللَّهِ شَيۡـٔٗا وَلَا يَسۡرِقۡنَ وَلَا يَزۡنِينَ وَلَا يَقۡتُلۡنَ أَوۡلَٰدَهُنَّ وَلَا يَأۡتِينَ بِبُهۡتَٰنٖ يَفۡتَرِينَهُۥ بَيۡنَ أَيۡدِيهِنَّ وَأَرۡجُلِهِنَّ وَلَا يَعۡصِينَكَ فِي مَعۡرُوفٖ فَبَايِعۡهُنَّ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُنَّ ٱللَّهَۚ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 8
(12) ऐ नबी! जब तुम्हारे पास मोमिन औरतें बैअत करने के लिए आएँ18 और इस बात का वादा करें कि वे अल्लाह के साथ किसी चीज़ को शरीक न करेंगी, चोरी न करेंगी,19 ज़िना (बदकारी) न करेंगी, अपनी औलाद को क़त्ल न करेंगी,20 अपने हाथ-पाँव के आगे कोई बुहतान गढ़कर न लाएँगी,21 और किसी भले हुक्म में तुम्हारी नाफ़रमानी न करेंगी,22 तो उनसे बैअत ले लो23 और उनके हक़ में अल्लाह से माफ़ी की दुआ करो, यक़ीनन अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
18. जैसा कि हम पहले बयान कर चुके हैं, यह आयत मक्का की फ़तह से कुछ पहले उतरी थी। इसके बाद जब मक्का फ़तह हुआ तो क़ुरैश के लोग भारी तादाद में नबी (सल्ल०) से बैअत करने के लिए हाज़िर होने लगे। आप (सल्ल०) ने मर्दों से सफ़ा नाम के पहाड़ पर ख़ुद बैअत (फ़रमाँबरदारी का वादा) ली और हज़रत उमर (रज़ि०) को अपनी तरफ़ से मुक़र्रर किया कि वे औरतों से बैअत लें और उन बातों का इक़रार कराएँ जो इस आयत में बयान हुई हैं, (इब्ने-जरीर, इब्ने-अब्बास की रिवायत; इब्ने-अबी-हातिम क़तादा की रिवायत)। फिर मदीना वापस तशरीफ़ ले जाकर आप (सल्ल०) ने एक मकान में अनसार की औरतों को जमा करने का हुक्म दिया और हज़रत उमर (रज़ि०) को उनसे बैअत लेने के लिए भेजा, (इब्ने-जरीर, इब्ने-मरदुवैह, बज़्ज़ार, इब्ने-हिब्बान, उम्मे-अतिय्या अनसारिया की रिवायत)। ईद के दिन भी मर्दों के दरमियान ख़ुतबा देने के बाद आप (सल्ल०) औरतों की तरफ़ गए और वहाँ अपने ख़ुतबे के बीच में आप (सल्ल०) ने यह आयत पढ़कर इन बातों का वादा लिया जो इस आयत में बयान हुई हैं, (हदीस : बुख़ारी) । इन मौक़ों के अलावा भी अलग-अलग वक़्तों में औरतें एक-एक करके भी और इकट्ठी होकर भी आप (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर होकर बैअत करती रहीं, जिनका ज़िक्र कई हदीसों में आया है।
19. मक्का में जब औरतों से बैअत ली जा रही थी उस वक़्त हज़रत अबू-सुफ़ियान की बीवी हिन्द-बिन्ते-उतबा ने इस हुक्म की तशरीह मालूम करते हुए नबी (सल्ल०) से पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! अबू-सुफ़ियान ज़रा कंजूस आदमी हैं, क्या मेरे ऊपर इसमें कोई गुनाह है कि मैं अपनी और अपने बच्चों की ज़रूरतों के लिए उनसे पूछे बिना उनके माल में से कुछ ले लिया करूँ?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, मगर बस 'मारूफ़' की हद तक।” यानी बस उतना माल ले लो जो सचमुच जाइज़ ज़रूरतों के लिए काफ़ी हो। (अहकामुल-क़ुरआन, लिइब्निल-अरबी)
20. इसमें हम्ल गिराना (गर्भपात) भी शामिल है, चाहे वह जाइज़ हम्ल का गिरना हो या नाजाइज़ हम्ल का।
21. इससे दो क़िस्म के बुहतान (तोहमत, आरोप) मुराद हैं : एक यह कि कोई औरत दूसरी औरतों पर ग़ैर-मर्दों से ताल्लुक़ात रखने की तुहमत लगाए और इस तरह के क़िस्से लोगों में फैलाए, क्योंकि औरतों में ख़ास तौर पर इन बातों की चर्चा करने की बीमारी पाई जाती है। दूसरा यह कि एक औरत बच्चा तो किसी का पैदा करे और शौहर को यक़ीन दिलाए कि यह तेरा ही है। अबू-दाऊद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि उन्होंने नबी (सल्ल०) को यह फ़रमाते सुना है कि “जो औरत किसी ख़ानदान में कोई ऐसा बच्चा घुसा लाए जो उस (ख़ानदान) का नहीं है उसका अल्लाह से कोई ताल्लुक़ नहीं, और अल्लाह उसे कभी जन्नत में दाख़िल न करेगा।"
22. इस छोटे-से जुमले में दो बड़े अहम क़ानूनी नुक्ते बयान किए गए हैं— पहला नुक्ता यह है कि नबी (सल्ल०) की फ़रमाँबरदारी पर भी 'मारूफ़ (भलाई की बात) में फ़रमाँबरदारी' की शर्त लगाई गई है, हालाँकि नबी (सल्ल०) के बारे में इस बात के किसी मामूली से शक की गुंजाइश भी न थी कि आप (सल्ल०) कभी किसी ‘मुनकर' (ग़लत बात या गुनाह के काम) का हुक्म भी दे सकते हैं। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात साफ़ हो गई कि दुनिया में किसी शख़्स की फ़रमाँबरदारी अल्लाह के क़ानून की हदों से बाहर जाकर नहीं की हो सकती, क्योंकि जब ख़ुदा के रसूल (सल्ल०) तक की फ़रमाँबरदारी ‘मारूफ़' की शर्त के साथ जुड़ी है तो फिर किसी दूसरे का यह मक़ाम कहाँ हो सकता है कि उसे बिना किसी शर्त के फ़रमाँबरदारी करवाने का हक़ पहुँचे और उसके किसी ऐसे हुक्म या क़ानून या ज़ाबिते और रस्म की पैरवी की जाए जो ख़ुदा के क़ानून के ख़िलाफ़ हो। इस क़ायदे को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने इन अलफ़ाज़ में बयान किया है, “अल्लाह की नाफ़रमानी में कोई इताअत (फ़रमाँबरदारी) नहीं, इताअत सिर्फ़ मारूफ़ (भले कामों) में है,” (हदीस : मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई)। यही बात बड़े आलिमों ने इस आयत से निकाली है। हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-ज़ैद-(बिन-असलम (रह०) कहते हैं— “अल्लाह तआला ने यह नहीं फ़रमाया कि वे तुम्हारी नाफ़रमानी न करें, बल्कि फ़रमाया यह है कि वे मारूफ़ (भले कामों) में तुम्हारी नाफ़रमानी न करें। फिर जब अल्लाह तआला ने नबी तक की फ़रमाँबरदारी को इस शर्त से जोड़ दिया है तो किसी और शख़्स के लिए यह कैसे जाइज़ हो सकता है कि मारूफ़ के सिवा किसी मामले में उसकी फ़रमाँबरदारी की जाए।" (इब्ने-जरीर) इमाम अबू-बक्र जस्सास (रह०) लिखते हैं— "अल्लाह को मालूम था कि उसका नबी कभी मारूफ़ (भलाई) के सिवा किसी चीज़ का हुक्म नहीं देता, फिर भी उसने अपने नबी की नाफ़रमानी से मना करते हुए मारूफ़ की शर्त लगा दी, ताकि कोई शख़्स कभी इस बात की गुंजाइश न निकाल सके कि ऐसी हालत में भी बादशाहों (हाकिमों) का हुक्म माना जाए जबकि उनका हुक्म अल्लाह की फ़रमाँबरदारी में न हो। नबी (सल्ल०) का फ़रमान है कि 'जो शख़्स ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) की नाफ़रमानी में किसी मख़लूक़ की फ़रमाँबरदारी करे, अल्लाह तआला उसपर उसी मख़लूक़ को मुसल्लत (हावी) कर देता है।” (अहकामुल-क़ुरआन) अल्लामा आलूसी (रह०) फ़रमाते हैं— "यह हुक्म उन जाहिलों के ख़याल को ग़लत साबित कर देता है जो समझते हैं कि हाकिमों का हुक्म मानना हर हाल में लाज़िम है। अल्लाह तआला ने तो रसूल के हुक्म मानने पर भी मारूफ़ (भलाई) की क़ैद लगा दी है, हालाँकि रसूल कभी मारूफ़ के सिवा कोई हुक्म नहीं देता। इसका मक़सद लोगों को ख़बरदार करना है कि पैदा करनेवाले (ख़ुदा) की नाफ़रमानी में किसी की फ़रमाँबरदारी जाइज़ नहीं है।” (रूहुल-मआनी) लिहाज़ा हक़ीक़त में यह हुक्म इस्लाम में क़ानून की हुक्मरानी (Rule of law) की बुनियाद है। उसूली बात यह है कि हर काम जो इस्लामी क़ानून के ख़िलाफ़ हो, जुर्म है और कोई शख़्स यह हक़ नहीं रखता कि ऐसे किसी काम का किसी को हुक्म दे। जो शख़्स भी क़ानून के ख़िलाफ़ हुक्म देता है वह ख़ुद मुजरिम है, और जो शख़्स उस हुक्म पर अमल करता है वह भी मुजरिम है। कोई मातहत इस बहाने की बुनियाद पर सज़ा से नहीं बच सकता कि उससे ऊपर के अफ़सर ने उसे एक ऐसे काम का हुक्म दिया था जो क़ानून में जुर्म है। दूसरी बात जो दस्तूरी हैसियत से बड़ी अहमियत रखती है यह है कि इस आयत में पाँच बातों से रुकने का हुक्म देने के बाद करने का हुक्म सिर्फ़ एक ही दिया गया है और वह यह कि तमाम नेक कामों में नबी (सल्ल०) के हुक्मों की पैरवी की जाएगी। जहाँ तक बुराइयों का ताल्लुक़ है, वे बड़ी-बड़ी बुराइयाँ गिना दी गईं जिनमें जाहिलियत के ज़माने की औरतें मुब्तला थीं और उनसे दूर रहने का वादा ले लिया गया, मगर जहाँ तक भलाइयों का ताल्लुक़ है उनकी कोई फ़ेहरिस्त देकर वादा नहीं लिया गया कि तुम फ़ुलाँ-फ़ुलाँ आमाल करोगी, बल्कि सिर्फ़ यह वादा लिया गया कि जिस नेक काम का भी नबी (सल्ल०) हुक्म देंगे उसकी पैरवीतुम्हें करनी होगी। अब यह ज़ाहिर है कि अगर वे नेक काम सिर्फ़ वही हों जिनका हुक्म अल्लाह तआला ने क़ुरआन मजीद में दिया है तो वादा इन अलफ़ाज़ में लिया जाना चाहिए था कि 'तुम अल्लाह की नाफ़रमानी न करोगी' या यह कि 'तुम क़ुरआन के हुक्मों की नाफ़रमानी न करोगी। लेकिन जब वादा इन अलफ़ाज़ में लिया गया कि जिस नेक काम का हुक्म भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) देंगे तुम उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी न करोगी,' तो इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि समाज के सुधार के लिए नबी (सल्ल०) को बहुत (ज़्यादा इख़्तियार दिए गए हैं और आप (सल्ल०) के तमाम हुक्मों का मानना वाजिब और ज़रूरी है चाहे वे क़ुरआन में मौज़ूद हों या न हों। इसी दस्तूरी इख़्तियार की बुनियाद पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने बैअत लेते हुए उन बहुत-सी बुराइयों के छोड़ने का वादा लिया जो उस वक़्त अरब समाज की औरतों में फैली हुई थीं और कई ऐसे हुक्म दिए जो क़ुरआन में बयान नहीं किए गए हैं। इसके लिए नीचे लिखी हदीसें देखिए— इब्ने-अब्बास (रज़ि०), उम्मे-सलमा (रज़ि०) और उम्मे अतिय्या अनसारिया (रज़ि०) वग़ैरा की रिवायतें हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने औरतों से बैअत लेते वक़्त यह वादा लिया कि वे मरनेवालों पर नौहा (विलाप) न करेंगी। यह रिवायतें बुख़ारी, मुस्लिम, नसई और इब्ने-जरीर ने नक़्ल की है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की एक रिवायत में यह तफ़सील है कि नबी (सल्ल०) ने हज़रत उमर (रज़ि०) को औरतों से बैअत लेने के लिए मुक़र्रर किया और हुक्म दिया कि उनको नौहा करने से मना करें, क्योंकि जाहिलियत के ज़माने में औरतें मरनेवालों पर नौहा करते हुए कपड़े फाड़ती थीं, मुँह नोचती थीं, बाल काटती थीं और सख़्त वावैला मचाती थीं। (इब्ने-जरीर) ज़ैद-बिन-असलम (रह०) रिवायत करते हैं कि नबी (सल्ल०) ने बैअत लेते वक़्त औरतों को इससे मना किया कि वे मरनेवालों पर नौहा करते हुए अपने मुँह नोचें और गिरेबान फाड़ें और वावैला करें और शेर गा-गाकर बैन करें, (इब्ने-जरीर)। ऐसा ही मतलब रखनेवाली एक रिवायत इब्ने-अबी-हातिम और इब्ने-जरीर ने एक ऐसी औरत से रिवायत की है जो बैअत करनेवालियों में शामिल थीं। क़तादा (रह०) और हसन बसरी (रह०) कहते हैं कि जो वादे नबी (सल्ल०) ने बैअत लेते वक़्त औरतों से लिए थे उनमें से एक यह भी था कि वे ग़ैर-महरम (पराए) मर्दों से बात न करेंगी। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत में इसको वाज़ेह किया गया है कि पराए मर्दों से तन्हाई में बात न करेंगी। क़तादा (रह०) ने और ज़्यादा वज़ाहत यह की है कि नबी (सल्ल०) का यह हुक्म सुनकर हज़रत अब्दुर्रहमान-बिन-औफ़ (रज़ि०) ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! कभी ऐसा होता है कि हम घर पर नहीं होते और हमारे यहाँ कोई साहब मिलने आ जाते हैं।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मेरी मुराद यह नहीं है। यानी औरत का किसी आनेवाले से इतनी बात कह देना मना नहीं है कि घर का मालिक घर में मौज़ूद नहीं है।” (ये रिवायतें इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम ने नक़्ल की हैं।) हज़रत फ़ातिमा (रज़ि०) की ख़ाला उमैमा-बिन्ते-रुक़ैक़ा (रज़ि०) से हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) ने यह रिवायत नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने उनसे यह वादा लिया कि नौहा न करना और जाहिलियत के जैसे बनाव-सिंगार करके अपनी नुमाइश न करना। (मुसनद अहमद, इब्ने-जरीर) नबी (सल्ल०) की एक ख़ाला सलमा-बिन्ते-क़ैस कहती हैं कि मैं अनसार की कुछ औरतों के साथ बैअत के लिए हाज़िर हुई तो आप (सल्ल०) ने क़ुरआन की इस आयत के मुताबिक़ हमसे वादा लिया, फिर फ़रमाया, “अपने शौहरों से धोखेबाज़ी न करना।” जब हम वापस होने लगीं तो एक औरत ने मुझसे कहा कि जाकर नबी (सल्ल०) से पूछो कि शौहरों से धोखेबाज़ी करने का क्या मतलब है? मैंने जाकर पूछा तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “यह कि तू उसका माल ले और दूसरों पर लुटाए।” (मुसनद अहमद) उम्मे-अतिय्या (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि नबी (सल्ल०) ने बैअत लेने के बाद हमें हुक्म दिया कि हम दोनों ईदों (ईदुल-फ़ित्र और ईदुल-अज़हा) की जमाअत में हाज़िर हुआ करेंगी अलबत्ता जुमा हमपर फ़र्ज़ नहीं है, और जनाज़ों के साथ जाने से हमें मना कर दिया। (इब्ने-जरीर) जो लोग नबी (सल्ल०) के इस दस्तूरी इख़्तियार को आप (सल्ल०) की पैग़म्बरी हैसियत के बजाय अमीर (मुखिया) होने की हैसियत से मुताल्लिक़ ठहराते हैं और कहते हैं कि आप (सल्ल०) चूँकि अपने वक़्त के हुक्मराँ भी थे इसलिए अपनी इस हैसियत में आप (सल्ल०) ने जो हुक्म दिए उनकी पैरवी करना सिर्फ़ आप (सल्ल०) के ज़माने तक ही वाजिब था, वे बड़ी जहालत की बात कहते हैं। ऊपर की लाइनों में हमने नबी (सल्ल०) के जो हुक्म नक़्ल किए हैं उनपर एक निगाह डाल लीजिए। इनमें औरतों के सुधार के लिए जो हिदायतें आप (सल्ल०) ने दी हैं वे अगर सिर्फ़ वक़्त के हाकिम होने की हैसियत से होतीं तो हमेशा-हमेशा के लिए पूरी दुनिया के मुस्लिम समाज की औरतों में ये सुधार कैसे रिवाज पा सकते थे? आख़िर दुनिया का वह कौन-सा हाकिम है जिसको यह मर्तबा हासिल हो कि एक बार उसकी ज़बान से एक हुक्म निकला हो और सारी ज़मीन पर जहाँ-जहाँ मुसलमान आबाद हैं वहाँ के मुस्लिम समाज में हमेशा के लिए वह सुधार का तरीक़ा रिवाज पा जाए जिसका हुक्म उसने दिया है? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-59 हश्र, हाशिया-15)
23. भरोसेमन्द और कई हदीसों से मालूम होता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ज़माने में औरतों से बैअत लेने का तरीक़ा मर्दों की बैअत से अलग था। मर्दों से बैअत लेने का तरीक़ा यह था कि बैअत करनेवाले आप (सल्ल०) के हाथ में हाथ देकर अह्द करते थे। लेकिन औरतों से बैअत लेते हुए आप (सल्ल०) ने कभी किसी औरत का हाथ अपने हाथ में नहीं लिया, बल्कि अलग-अलग दूसरे तरीक़े अपनाए। उसके बारे में जो रिवायतें नक़्ल हुई हैं, वे हम नीचे दर्ज करते हैं— हज़रत आइशा फ़रमाती हैं कि “ख़ुदा की कसम! बैअत में नबी (सल्ल०) का हाथ किसी औरत के हाथ से छुआ तक नहीं है। आप (सल्ल०) औरत से बैअत लेते हुए बस अपनी मुबारक ज़बान से यह फ़रमाया करते थे कि मैंने तुझसे बैअत ली।” (हदीस : बुख़ारी, इब्ने-जरीर) उमैमा-बिन्ते-रुक़ैक़ा का बयान है कि मैं और कुछ औरतें नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और आप (सल्ल०) ने क़ुरआन की इस आयत के मुताबिक़ हमसे अह्द लिया। जब हमने कहा, “हम मारूफ़ (भले कामों) में आपकी नाफ़रमानी न करेंगी,” तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जहाँ तक तुम्हारे बस में हो और तुम्हारे लिए मुमकिन हो।” हमने कहा, “अल्लाह और उसका रसूल हमारे लिए ख़ुद हमसे बढ़कर रहीम हैं।” फिर हमने कहा, “ऐ अल्लाह के रसूल! हाथ बढ़ाइए, ताकि हम आपसे बैअत करें।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैं औरतों से हाथ नहीं मिलाता। बस मैं तुमसे अह्द लूँगा।” चुनाँचे आप (सल्ल०) ने अह्द ले लिया। एक और रिवायत में उनका बयान है कि आप (सल्ल०) ने हममें से किसी औरत से भी हाथ नहीं मिलाया। (हदीस : मुसनद अहमद, तिरमिज़ी, नसई, इब्जे-माजा, इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम) अबू-दाऊद ने मरासील में शअबी की रिवायत नक़्ल की है कि औरतों से बैअत लेते वक़्त एक चादर (नबी सल्ल०) की तरफ़ बढ़ाई गई। आप (सल्ल०) ने बस उसे हाथ में ले लिया और फ़रमाया, औरतों से हाथ नहीं मिलाता।” इसी तरह की बात इब्ने-अबी-हातिम ने शअबी से, अब्दुर्रज़्ज़ाक़ ने इबराहीम नख़ई से और सईद-बिन-मंसूर ने क़ैस-बिन-अबी-हाज़िम से नक़्ल की है। इब्ने-इसहाक़ ने मग़ाज़ी में अबान-बिन-सॉलेह से रिवायत नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) पानी के एक बरतन में हाथ डाल देते थे और फिर उसी बरतन में औरत भी अपना हाथ डाल देती थी। बुख़ारी में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि ईद का ख़ुतबा देने के बाद आप (सल्ल०) मर्दों की सफ़ों को चीरते हुए उस मक़ाम पर तशरीफ़ ले गए जहाँ औरतें बैठी हुई थीं। आप (सल्ल०) ने वहाँ अपनी तक़रीर में क़ुरआन मजीद की यह आयत पढ़ी, फिर औरतों से पूछा, “तुम इसका अह्द करती हो?” भीड़ में से एक औरत ने जवाब दिया, “हाँ, ऐ अल्लाह के रसूल!” एक रिवायत में, जिसे इब्ने-हिब्बान, इब्ने-जरीर और बज़्ज़ार ने नक़्ल किया है, उम्मे-अतिय्या अनसारिया (रज़ि०) का यह बयान मिलता है कि “नबी (सल्ल०) ने घर के बाहर से हाथ बढ़ाया और हमने अन्दर से हाथ बढ़ाए, लेकिन इससे यह लाज़िम नहीं आता कि औरतों ने आपसे हाथ मिलाया भी हो, क्योंकि हज़रत उम्मे-अतिय्या ने हाथ मिलाने की बात साफ़ तौर से बयान नहीं की है। शायद इस मौक़े पर शक्ल यह रही होगी कि अह्द लेते वक़्त आप (सल्ल०) ने बाहर से हाथ बढ़ाया होगा और अन्दर से औरतों ने अपने-अपने हाथ आप (सल्ल०) के हाथ की तरफ़ बढ़ा दिए होंगे, बग़ैर इसके कि उनमें से किसी का हाथ आप (सल्ल०) के हाथ से छुए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَوَلَّوۡاْ قَوۡمًا غَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِمۡ قَدۡ يَئِسُواْ مِنَ ٱلۡأٓخِرَةِ كَمَا يَئِسَ ٱلۡكُفَّارُ مِنۡ أَصۡحَٰبِ ٱلۡقُبُورِ ۝ 9
(13) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! उन लोगों को दोस्त न बनाओ जिनपर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) हुआ है, जो आख़िरत से उसी तरह मायूस हैं जिस तरह क़ब्रों में पड़े हुए हक़ के इनकारी मायूस हैं।24
24. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'क़द यइसू मिनल-आख़ि-रति कमा यइसल-कुफ़्फ़ारु मिन असहाबिल-क़ुबूर'। इसके दो मानी हो सकते हैं : एक यह कि वे आख़िरत की भलाई और उसके सवाब से उसी तरह मायूस हैं जिस तरह मौत के बाद की ज़िन्दगी से इनकार करनेवाले इस बात से मायूस हैं कि उनके जो क़रीबी रिश्तेदार क़ब्रों में जा चुके हैं वे कभी फिर ज़िन्दा करके उठाए जाएँगे। ये मानी हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत हसन बसरी (रह०), क़तादा (रह०) और ज़ह्हाक (रह०) ने बयान किए हैं। दूसरे मानी ये हो सकते हैं कि वे आख़िरत की रहमत और मग़फ़िरत से उसी तरह मायूस हैं जिस तरह क़ब्रों में पड़े हुए अल्लाह के इनकारी हर ख़ैर (भलाई) से मायूस हैं, क्योंकि उन्हें अपने अज़ाब में मुब्तला होने का यक़ीन हो चुका है। ये मानी हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), मुजाहिद (रह०), इकरिमा (रह०), इब्ने-ज़ैद (रह०), कल्बी (रह०) मुक़ातिल (रह०) और मंसूर (रह०) से नक़्ल हुए।
۞عَسَى ٱللَّهُ أَن يَجۡعَلَ بَيۡنَكُمۡ وَبَيۡنَ ٱلَّذِينَ عَادَيۡتُم مِّنۡهُم مَّوَدَّةٗۚ وَٱللَّهُ قَدِيرٞۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 10
(7) नामुमकिन नहीं कि अल्लाह कभी तुम्हारे और उन लोगों के दरमियान मोहबत्त डाल दे जिनसे आज तुमने दुश्मनी मोल ली है।11 अल्लाह बड़ी क़ुदरत रखता है और वह बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
11. ऊपर की आयतों में मुसलमानों को अपने इस्लाम-दुश्मन रिश्तेदारों से ताल्लुक़ तोड़ लेने की जो नसीहत की गई थी उसपर सच्चे ईमानवाले अगरचे बड़े सब्र के साथ अमल कर रहे थे, मगर अल्लाह को मालूम था कि अपने माँ-बाप, भाई-बहनों और बहुत क़रीबी रिश्तेदारों से ताल्लुक़ तोड़ लेना कैसा सख़्त काम है और इससे ईमानवालों के दिलों पर क्या कुछ गुज़र रही है। इसलिए अल्लाह तआला ने उनको तसल्ली दी कि वह वक़्त दूर नहीं है कि जब तुम्हारे के यही रिश्तेदार मुसलमान हो जाएँगे और आज की दुश्मनी कल फिर मुहब्बत में तबदील हो जाएगी। जब यह बात कही गई थी उस वक़्त कोई शख़्स भी यह नहीं समझ सकता था कि यह नतीजा कैसे सामने आएगा। मगर इन आयतों के उतरने के बाद कुछ ही हफ़्ते गुज़रे थे कि मक्का फ़तह हो गया, क़ुरैश के लोग फ़ौज-दर-फ़ौज इस्लाम में दाख़िल होने लगे और मुसलमानों ने अपनी आँखों से देख लिया कि जिस चीज़ की उन्हें उम्मीद दिलाई गई थी वह कैसे पूरी हुई।
لَّا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ لَمۡ يُقَٰتِلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَلَمۡ يُخۡرِجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ أَن تَبَرُّوهُمۡ وَتُقۡسِطُوٓاْ إِلَيۡهِمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُقۡسِطِينَ ۝ 11
(8) अल्लाह तुम्हें इस बात से नहीं रोकता कि तुम उन लोगों के साथ नेकी और इनसाफ़ का बरताव करो जिन्होंने (सच्चे) दीन के मामले में तुमसे जंग नहीं की है और तुम्हें तुम्हारे घरों से नहीं निकाला है। अल्लाह इनसाफ़ करनेवालों को पसन्द करता है।12
12. इस जगह पर एक शख़्स के ज़ेहन में यह शक पैदा हो सकता है कि दुश्मनी न करनेवाले ग़ैर-मुस्लिमों के साथ नेक बरताव तो ख़ैर ठीक है, मगर क्या इनसाफ़ भी सिर्फ़ उन ही के लिए ख़ास है? और क्या दुश्मनी करनेवाले ग़ैर-मुस्लिमों के साथ बेइनसाफ़ी करनी चाहिए? इसका जवाब यह है कि इस मौक़ा-महल में अस्ल में इनसाफ़ एक ख़ास मतलब में इस्तेमाल हुआ है। इसका मतलब यह है कि जो शख़्स तुम्हारे साथ दुश्मनी नहीं बरतता, इनसाफ़ का तक़ाज़ा यह है कि तुम भी उसके साथ दुश्मनी न बरतो। दुश्मन और दुश्मनी न रखनेवाले, दोनों को एक दरजे में रखना और दोनों से एक ही-सा सुलूक करना इनसाफ़ नहीं है। तुम्हें उन लोगों के साथ सख़्त रवैया अपनाने का हक़ है जिन्होंने ईमान लाने की सज़ा में तुमपर ज़ुल्म तोड़े, और तुमको वतन से निकल जाने पर मजबूर किया, और निकालने के बाद भी तुम्हारा पीछा न छोड़ा। मगर जिन लोगों ने इस ज़ुल्म में कोई हिस्सा नहीं लिया, इनसाफ़ यह है कि तुम उनके साथ अच्छा बरताव करो और रिश्तेदारी और बिरादरी के लिहाज़ से उनके जो हक़ तुमपर आते हैं उन्हें अदा करने में कमी न करो।
إِنَّمَا يَنۡهَىٰكُمُ ٱللَّهُ عَنِ ٱلَّذِينَ قَٰتَلُوكُمۡ فِي ٱلدِّينِ وَأَخۡرَجُوكُم مِّن دِيَٰرِكُمۡ وَظَٰهَرُواْ عَلَىٰٓ إِخۡرَاجِكُمۡ أَن تَوَلَّوۡهُمۡۚ وَمَن يَتَوَلَّهُمۡ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 12
(9) वह तुम्हें जिस बात से रोकता है, वह तो यह है कि तुम उन लोगों से दोस्ती करो जिन्होंने तुमसे दीन के मामले में जंग की है और तुम्हें तुम्हारे घरों से निकाला है और तुम्हें निकालने में एक-दूसरे की मदद की है। उनसे जो लोग दोस्ती करें वही ज़ालिम है13
13. पिछली आयतों में इनकार करनेवालों से जिस ताल्लुक़ तोड़ लेने की हिदायत दी गई थी उसके बारे में लोगों को यह ग़लतफ़हमी हो सकती थी कि यह उनके ग़ैर-मुस्लिम होने की वजह से है। इसलिए इन आयतों में यह समझाया गया है कि उसकी अस्ल वजह उनका ग़ैर-मुस्लिम होना नहीं, बल्कि इस्लाम और मुसलमानों के साथ उनकी दुश्मनी और उनका ज़ुल्म-भरा रवैया है। लिहाज़ा मुसलमानों को दुश्मनी करनेवाले ग़ैर-मुस्लिम और दुश्मनी न करनेवाले ग़ैर-मुस्लिम में फ़र्क़ करना चाहिए, और उन ग़ैर-मुस्लिमों के साथ एहसान का बरताव करना चाहिए जिन्होंने कभी उनके साथ कोई बुराई न की हो। इसकी बेहतरीन तशरीह वह वाक़िआ है जो हज़रत असमा-बिन्ते-अबू-बक्र (रज़ि०) और उनकी ग़ैर-मुस्लिम माँ के दरमियान पेश आया था। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) की एक बीवी क़ुतैला-बिन्ते-अब्दुल-उज़्ज़ा ग़ैर-मुस्लिम थीं और हिजरत के बाद मक्का ही में रह गई थीं। हज़रत असमा (रज़ि०) उन ही के पेट से पैदा हुई थीं। हुदैबिया के समझौते के बाद जब मदीना और मक्का के बीच आने-जाने का रास्ता खुल गया तो वे बेटी से मिलने के लिए मदीना आईं और कुछ तोहफ़े भी लाई। हज़रत असमा (रज़ि०) की अपनी रिवायत यह है कि मैंने जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “अपनी माँ से मिल लूँ? और क्या मैं उनसे रिश्तेदारी भी निभा सकती हूँ?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “उससे अच्छा सुलूक करो,” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम)। हज़रत असमा (रज़ि०) के बेटे अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) इस वाक़िए की तफ़सील यह बयान करते हैं कि पहले हज़रत असमा (रज़ि०) ने माँ से मिलने से इनकार कर दिया था। बाद में जब अल्लाह और उसके रसूल की इजाज़त मिल गई तब वे उनसे मिलीं, (हदीस : मुसनद अहमद, इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम)। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह नतीजा निकलता है कि एक मुसलमान के लिए अपने ग़ैर-मुस्लिम माँ-बाप की ख़िदमत करना और अपने ग़ैर-मुस्लिम भाई-बहनों और रिश्तेदारों की मदद करना जाइज़ है, जबकि वे इस्लाम के दुश्मन न हों। और इसी तरह ज़िम्मी (ग़ैर-मुस्लिम) मिसकीनों पर सदक़ों का माल भी ख़र्च किया जा सकता है। (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, रूहुल-मआनी)