Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ الكَافِرُونَ

109. अल-काफ़िरून

(मक्का में उतरी—आयतें 6)

परिचय

नाम

पहली ही आयत 'क़ुल या अय्युहल-काफ़िरून' (कह दो कि ऐ इंकार करनेवालो) के शब्द 'अल-काफ़िरून' को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) आदि कहते हैं कि यह सूरा मक्की है। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) कहते हैं कि यह मदनी है। लेकिन आम तौर से सभी टीकाकारों के नज़दीक यह मक्की सूरा है और इसका विषय स्वयं इसके मक्की होने का प्रमाण जुटा रहा है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

मक्का मुअज़्ज़मा में एक दौर ऐसा गुज़रा है जब नबी (सल्ल०) की इस्लामी दावत के विरुद्ध क़ुरैश के बहुदेववादी समाज में विरोध का तूफ़ान तो उठ चुका था, लेकिन अभी क़ुरैश के सरदार इस बात से बिल्कुल निराश नहीं हुए थे कि नबी (सल्ल०) को किसी न किसी तरह समझौते पर तैयार किया जा सकेगा। इसलिए कभी-कभी वे आप (सल्ल०) के पास समझौते के विभिन्न प्रस्ताव ले-लेकर आते रहते थे, ताकि आप उनमें से किसी को मान लें और वह झगड़ा समाप्त हो जाए जो आपके और उनके बीच पैदा हो चुका था। इस सिलसिले की बहुत सी रिवायतें हदीसों में उद्धृत की गई हैं।

[किसी रिवायत में क़ुरैश की इस पेशकश का उल्लेख है कि] "हम आपको इतना माल दिए देते हैं कि आप मक्का के सबसे अधिक धनवान आदमी बन जाएँ। आप जिस औरत को पसन्द करें, उससे आपका विवाह किए देते हैं। हम आपके पीछे चलने के लिए तैयार हैं, आप बस हमारी यह बात मान लें कि हमारे उपास्यों का खण्डन करने से रुक जाएँ।" [किसी में उनका यह प्रस्ताव उल्लिखित है कि] एक साल आप हमारे उपास्यों- लात और उज़्ज़ा की इबादत करें और एक साल हम आपके उपास्य की इबादत करें। इसपर यह सूरा उतरी।

विषय और वार्ता

इस पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर देखा जाए तो मालूम होता है कि यह सूरा धार्मिक उदारता का उपदेश देने के लिए नहीं उतरी थी, [ यानी इसलिए नहीं उतरी थी कि प्रचलित समस्त धर्मों को इस बात का प्रमाणपत्र दे दिया जाए कि वे अपनी-अपनी जगह पर सत्य हैं।] जैसा कि आजकल के कुछ लोग समझते हैं, बल्कि यह सूरा इसलिए उतरी थी कि विधर्मियों के धर्म और उनके पूजा-पाठ और उनके उपास्यों से पूर्ण अलगाव, विमुखता और बे-ताल्लुक़ी का एलान कर दिया जाए और उन्हें बता दिया जाए कि कुफ़्र और दीने-इस्लाम एक-दूसरे से बिल्कुल अलग दीन है। उनके आपस में मिल जाने का सिरे से कोई प्रश्न ही नहीं पैदा होता। यह बात यद्यपि आरंभ में क़ुरैश के विधर्मियों को सम्बोधित करके समझौते के उनके प्रस्ताव के उत्तर में कही गई थी, लेकिन यह उन्हीं तक सीमित नहीं है, बल्कि इसे क़ुरआन में अंकित करके तमाम मुसलमानों को क़ियामत तक के लिए यह शिक्षा दे दी गई है कि कुफ़्र जहाँ जिस शक्ल में भी है उन्हें कथनी और करनी दोनों से अलगाव प्रकट करना चाहिए।

अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दृष्टि में इस सूरा का क्या महत्त्व था, इसका अनुमान नीचे की कुछ हदीसों से किया जा सकता है।

हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि मैंने कितनी ही बार नबी (सल्ल०) को फ़ज्र की नमाज़ से पहले और मग़रिब की नमाज़ के बाद की दो रक्अतों में 'सूरा-काफ़िरून' और 'सूरा इख़्लास' पढ़ते देखा है। हज़रत खब्बाव (रज़ि०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) ने मुझसे फ़रमाया कि जब तुम सोने के लिए अपने बिस्तर पर लेटो तो 'सूरा-काफ़िरून' पढ़ लिया करो, और नबी (सल्ल०) का भी यही तरीक़ा था कि जब आप सोने के लिए लेटते तो यह सूरा पढ़ लिया करते थे। (हदीस बज़्ज़ार, तबरानी, इब्ने मर्दूया)

---------------------

سُورَةُ الكَافِرُونَ
109. अल-काफ़िरून
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قُلۡ يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡكَٰفِرُونَ
(1) कह दो कि ऐ इनकार करनेवालो,1
1. इस आयत में कुछ बातें ख़ास तौर पर ध्यान देने लायक़ हैं— (i) हुक्म हालाँकि नबी (सल्ल०) को दिया गया है कि आप इस्लाम के इनकारियों से यह बात साफ़-साफ़ कह दें, लेकिन आगे का मज़मून यह बता रहा है कि हर ईमानवाले को वही बात इनकार करनेवालों से कह देनी चाहिए जो बाद की आयतों में बयान हुई है, यहाँ तक कि जो शख़्स कुफ़्र से तौबा करके ईमान ले आया हो उसके लिए भी ज़रूरी है कि कुफ़्र के दीन और इसकी इबादतों और माबूदों से इसी तरह अपना अलगाव ज़ाहिर कर दे। इसलिए लफ़्ज़ ‘क़ुल’ (कह दो) के सबसे पहले मुख़ातब तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही हैं, मगर हुक्म नबी (सल्ल०) के लिए ख़ास नहीं है, बल्कि आप (सल्ल०) के ज़रिए से हर ईमानवाले को पहुँचता है। (ii) ‘काफ़िर’ (ईमान न लानेवाला) का लफ़्ज़ कोई गाली नहीं है, जो इस आयत के सुननेवालों को दी गई हो, बल्कि अरबी ज़बान में काफ़िर का मतलब इनकार करनेवाला और न माननेवाला (Unbeliever) के हैं और इसके मुक़ाबले में ‘मोमिन’ का लफ़्ज़ मान लेने और क़ुबूल कर लेनेवाले (Believer) के लिए बोला जाता है। इसलिए अल्लाह के हुक्म से नबी (सल्ल०) का यह फ़रमाना कि ‘ऐ ईमान न लानेवालो’ अस्ल में इस मानी में है कि ‘ऐ वे लोगो जिन्होंने मेरी पैग़म्बरी और मेरी लाई हुई तालीमात को मानने से इनकार कर दिया है।” और इसी तरह एक मोमिन जब यह लफ़्ज़ कहेगा तो उसकी मुराद मुहम्मद (सल्ल०) पर ईमान न लानेवाले होंगे। (iii) ऐ इनकार करनेवालो कहा है, ऐ मुशरिको (शिर्क करनेवालो) नहीं कहा, इसलिए मुख़ातब सिर्फ़ मुशरिकीन ही नहीं हैं, बल्कि वे सब लोग हैं जो मुहम्मद (सल्ल०) को अल्लाह तआला का रसूल और आप (सल्ल०) की लाई हुई तालीम और हिदायत को अल्लाह तआला की तालीम और हिदायत नहीं मानते, चाहे वे यहूदी हों, ईसाई हों, मजूसी हों, या दुनिया भर के ग़ैर-मुस्लिम और मुशरिक और नास्तिक हों। इस ख़िताब को सिर्फ़ क़ुरैश या अरब के मुशरिकों तक महदूद रखने की कोई वजह नहीं है। (iv) इनकार करनेवालों को ऐ ईमान न लानेवालो कहकर मुख़ातब करना बिलकुल ऐसा ही है जैसे हम कुछ लोगों को ऐ दुश्मनो, या ऐ मुख़ालिफ़ो कहकर मुख़ातब करें। इस तरह का ख़िताब अस्ल में सुननेवालों की ज़ात से नहीं होता, बल्कि उनकी दुश्मनी और मुख़ालफ़त की ज़ेहनियत (ख़ासियत) की बुनियाद पर होता है और उसी वक़्त तक के लिए होता है जब तक उनमें यह इनकार बाक़ी है। अगर उनमें से कोई दुश्मनी और मुख़ालफ़त छोड़ दे, या दोस्त और हिमायती बन जाए तो वह इस ख़िताब का मुख़ातब नहीं रहता। बिलकुल इसी तरह जिन लोगों को ‘ऐ इनकार करनेवालो’ कहकर मुख़ातब किया गया है वह भी उनके इनकार की ज़ेहनियत (ख़ासियत) के लिहाज़ से है न कि उनकी निजी हैसियत से। उनमें से जो शख़्स मरते दम तक ईमान न लानेवाला रहे उसके लिए तो यह ख़िताब हमेशा के लिए होगा, लेकिन जो शख़्स ईमान ले आए वह इसका मुख़ातब न रहेगा। (v) क़ुरआन के आलिमों में से बहुत-से बुज़ुर्गों ने यह राय ज़ाहिर की है कि इस सूरा में ‘ऐ ईमान न लानेवालो’ क़ुरैश के सिर्फ़ उन कुछ ख़ास लोगों से कहा गया था जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के पास दीन के मामले में समझौते के तजवीज़ (प्रस्ताव) ले-लेकर आ रहे थे और जिनके बारे में अल्लाह तआला ने अपने रसूल (सल्ल०) को बता दिया था कि ये ईमान लानेवाले नहीं हैं। यह राय उन्होंने दो वजहों से क़ायम की है। एक यह कि आगे ‘ला अअ्बुदु मा तअ्-बुदून’ (जिसकी या जिनकी इबादत तुम करते हो उसकी या उनकी इबादत मैं नहीं करता) कहा गया है, और वे कहते हैं कि यह बात यहूदियों और ईसाइयों पर फ़िट नहीं होती, क्योंकि वे अल्लाह की इबादत करते हैं। दूसरे यह कि आगे यह भी कहा गया है कि ‘वला अन्तुम आबिदू-न माअअ्बुद’ (और न तुम उसकी इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ), और उनकी दलील यह है कि यह बात उन लोगों पर सही साबित नहीं होती जो इस सूरा के उतरने के वक़्त ईमान न लानेवाले थे और बाद में ईमान ले आए। लेकिन ये दोनों दलीलें सही नहीं हैं। जहाँ तक इन आयतों का ताल्लुक़ है इनकी तशरीह तो हम आगे चलकर करेंगे जिससे मालूम हो जाएगा कि इनका वह मतलब नहीं है जो इनसे समझा गया है। यहाँ इस दलील की ग़लती बयान करने के लिए सिर्फ़ इतनी बात कह देना काफ़ी है कि अगर इस सूरा के मुख़ातब सिर्फ़ वही लोग थे तो उनके मर-खप जाने के बाद इस सूरा का पढ़ा जाना जारी रहने की आख़िर क्या वजह है? और इसे हमेशा के लिए क़ुरआन में दर्ज कर देने की क्या ज़रूरत थी कि क़ियामत तक इसे मुसलमान पढ़ते रहें?
لَآ أَعۡبُدُ مَا تَعۡبُدُونَ ۝ 1
(2) मैं उनकी इबादत नहीं करता जिनकी इबादत तुम करते हो,2
2. इसमें वे सब माबूद (उपास्य) शामिल हैं जिनकी इबादत दुनिया भर के काफ़िर और मुशरिक लोग करते रहे हैं और कर रहे हैं, चाहे वे फ़रिश्ते हों, जिन्न हों, पैग़म्बर और वली हों, ज़िन्दा या मुर्दा इनसानों की रूहें हों, या सूरज, चाँद, सितारे, जानवर, पेड़, नदियाँ, बुत और ख़याली देवी-देवता हों। इसपर यह सवाल किया जा सकता है कि अरब के मुशरिक अल्लाह तआला को भी तो माबूद मानते थे और दुनिया के दूसरे मुशरिकों ने भी पुराने ज़माने से लेकर आज तक अल्लाह के माबूद होने का इनकार नहीं किया है। रहे अहले-किताब तो वे अस्ल माबूद तो अल्लाह ही को मानते हैं। फिर इन सब लोगों के तमाम माबूदों की इबादत से, किसी माबूद (उपास्य) को अलग किए बिना, उसके इनकार का एलान कैसे सही हो सकता है, जबकि अल्लाह भी उनमें शामिल है? इसका जवाब यह है कि अल्लाह को माबूदों के गरोह में एक माबूद की हैसियत से शामिल करके अगर दूसरों के साथ उसकी इबादत की जाए तो वह शख़्स जो तौहीद (अल्लाह के अकेला माबूद होने) पर ईमान रखता हो लाज़िमी तौर से इस इबादत से अपने अलग होने का इज़हार करेगा, क्योंकि उसके नज़दीक अल्लाह माबूदों के गरोह में से एक माबूद नहीं, बल्कि वही एक अकेला माबूद है, और इस गरोह की इबादत सिरे से अल्लाह की इबादत ही नहीं है, अगरचे उसमें अल्लाह की इबादत भी शामिल हो। क़ुरआन मजीद में इस बात को साफ़-साफ़ कहा गया है कि अल्लाह की इबादत सिर्फ़ वह है जिसके साथ किसी दूसरे की इबादत का हलका-सा असर तक न हो, और जिसमें इनसान अपनी बन्दगी को बिलकुल अल्लाह ही के लिए ख़ालिस कर दे। “लोगों को इसके सिवा कोई हुक्म नहीं दिया गया कि वे बिलकुल यकसू होकर, अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसकी इबादत करें।” (सूरा-94 बय्यिनह्, आयत-5)। यह बात बहुत-सी जगहों पर क़ुरआन में पूरी तरह साफ़-साफ़ और पूरे ज़ोर के साथ बयान की गई है। मिसाल के तौर पर देखिए, सूरा-4 निसा, आयतें—145, 146; सूरा-7 आराफ़, आयत-29; सूरा-39 ज़ुमर, आयतें—2, 3, 11, 14, 15; सूरा-40 मोमिन, आयतें—14, 64 से 66। यही बात एक हदीसे-क़ुदसी में बयान की गई है जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) फ़रमाते हैं, “अल्लाह तआला का फ़रमान है कि मैं सबसे बढ़कर हर शरीक की शिरकत से बेनियाज़ हूँ। जिस शख़्स ने कोई अमल ऐसा किया जिसमें मेरे साथ किसी और को भी उसने शरीक किया हो उससे मैं बरी हूँ और वह पूरा-का-पूरा अमल उसी के लिए जिसको उसने शरीक किया।” (हदीस : मुस्लिम, मुसनद अहमद, इब्ने-माजा)। इसलिए हक़ीक़त में अल्लाह को दो या तीन या बहुत-से ख़ुदाओं में से एक क़रार देना और उसके साथ दूसरों की बन्दगी और परस्तिश (पूजा) करना ही तो वह अस्ल कुफ़्र (इनकार) है जिससे लाताल्लुक़ी का एलान करना इस सूरा का मक़सद है।
وَلَآ أَنتُمۡ عَٰبِدُونَ مَآ أَعۡبُدُ ۝ 2
(3) और न तुम उसकी इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ।3
3. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘मा अअ्बुदु’। अरबी ज़बान में ‘मा’ का लफ़्ज़ आम तौर से बेजान या बेअक़्ल चीज़ों के लिए इस्तेमाल होता है, और अक़्ल रखनेवाली हस्तियों के लिए ‘मन’ का लफ़्ज़ बोला जाता है। इस वजह से यह सवाल पैदा होता है कि यहाँ ‘मन अअ्बुदु’ कहने के बजाय ‘मा अअ्बुदु’ क्यों कहा गया है? इसके चार जवाब आम तौर पर क़ुरआन के आलिमों ने दिए हैं। एक यह कि यहाँ ‘मा’ ‘मन’ के मानी में है। दूसरे यह कि यहाँ ‘मा’ ‘अल्लज़ी’ (यानी ‘जो’ या ‘जिस’) के मानी में है। तीसरे यह कि दोनों जुमलों में ‘मा’ मसदर (मूल स्रोत) के मानी में है और इसका मतलब यह है कि मैं वह इबादत नहीं करता जो तुम करते हो, यानी शिर्कवाली इबादत, और तुम वह इबादत नहीं करते हो जो मैं करता हूँ, यानी एक ख़ुदा की ख़ालिस इबादत। चौथे यह कि पहले जुमले में चूँकि ‘मा तअ्बुदून’ कहा गया है इसलिए दूसरे जुमले में इस बात की मुनासबत बनाए रखते हुए ‘मा अअ्बुदु’ कहा गया है, लेकिन दोनों जगह सिर्फ़ लफ़्ज़ ही एक तरह के हैं, मतलब एक तरह का नहीं है, और इसकी मिसालें क़ुरआन मजीद में दूसरी जगह भी मिलती हैं। मसलन सूरा-2 बक़रा, आयत-194 में कहा गया है, “जो तुमपर ज़्यादती (ज़ुल्म) करे उसपर तुम वैसी ही ज़्यादती करो जैसी उसने तुमपर की है।” ज़ाहिर है कि ज़्यादती का वैसा ही जवाब जैसी ज़्यादती की गई हो, उसे ज़्यादती नहीं कहा जाता, मगर सिर्फ़ एक जैसी बात के लिए जवाब में ज़्यादती का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। इसी तरह सूरा-9 तौबा, आयत-67 में कहा गया है, “वे अल्लाह को भूल गए तो अल्लाह उनको भूल गया।” हालाँकि अल्लाह भूलता नहीं है और कहने का मतलब यह है कि अल्लाह ने उनको नज़र-अन्दाज़ कर दिया, लेकिन उनकी भूल के जवाब में अल्लाह के लिए ‘भूल’ का लफ़्ज़ सिर्फ़ एक जैसी बात के लिए इस्तेमाल किया गया है। ये चारों मतलब अगरचे एक-एक लिहाज़ से दुरुस्त हैं और अरबी ज़बान में ये सब मतलब लेने की गुंजाइश है, लेकिन इनमें से किसी से भी वह अस्ल मक़सद वाज़ेह (स्पष्ट) नहीं होता जिसके लिए ‘मन अअ्बुदु’ कहने के बजाय ‘मा अअ्बुदु’ कहा गया है। अस्ल में अरबी ज़बान में किसी शख़्स के लिए जब ‘मन’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है तो उसका मक़सद उसके वुजूद के बारे में कुछ कहना या पूछना होता है, और जब ‘मा’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है तो उसका मक़सद उसकी सिफ़त (गुण) के बारे में पूछना या बताना होता है। यह ऐसा ही है जैसे उर्दू (या हिन्दी) ज़बान में जब हम किसी आदमी के बारे में पूछते हैं कि यह साहब कौन हैं? तो मक़सद उस शख़्स की ज़ात के बारे में जानना होता है। मगर जब हम किसी शख़्स के बारे में पूछते हैं कि यह साहब क्या हैं? तो इससे यह मालूम करना मक़सद होता है कि मसलन वह फ़ौज का आदमी है तो फ़ौज में उसका मंसब क्या है? और किसी कालिज या यूनिवर्सिटी से ताल्लुक़ रखता है तो उसमें रीडर है? लेक्चरर है? प्रोफ़ेसर है? किस इल्म और फ़न का उस्ताद (शिक्षक) है? क्या डिगरियाँ रखता है? वग़ैरा। इसलिए अगर इस आयत में यह कहा जाता कि ‘ला अन्तुम आबिदू-न मन अअ्बुदु’ तो इसका मतलब यह होता कि तुम उस हस्ती की इबादत करनेवाले नहीं हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ और इसके जवाब में मुशरिक और इस्लाम का इनकार करनेवाले यह कह सकते थे कि अल्लाह की हस्ती को तो हम मानते हैं और उसकी इबादत भी हम करते हैं। लेकिन जब यह कहा गया कि ‘ला अन्तुम आबिदू-न मा अअ्बुदु’ तो इसका मतलब यह हुआ कि जिन सिफ़ात (गुणों) के माबूद की इबादत में करता हूँ उन सिफ़ात के माबूद की इबादत करनेवाले तुम नहीं हो। और यही वह अस्ल बात है जिसकी वजह से नबी (सल्ल०) का दीन ख़ुदा का इनकार करनेवालों के सिवा तमाम तरह के इनकारियों के दीन से पूरी तरह अलग हो जाता है। क्योंकि नबी (सल्ल०) का ख़ुदा उन सबके ख़ुदा से बिलकुल अलग है। उनमें से किसी का ख़ुदा ऐसा है जिसको छः दिन में दुनिया पैदा करने के बाद सातवें दिन आराम करने की ज़रूरत पेश आई, जो तमाम जहानों का रब नहीं, बल्कि बनी-इसराईल का रब है, जिसका एक नस्ल के लोगों से ऐसा ख़ास रिश्ता है जो दूसरे इनसानों से नहीं है, जो हज़रत याक़ूब (अलैहि०) से कुश्ती लड़ता है और उनको गिरा नहीं सकता, जो उज़ैर नाम का एक बेटा भी रखता है। किसी का ख़ुदा यीशू मसीह नाम के एक इकलौते बेटे का बाप है और वह दूसरों के गुनाहों का कफ़्फ़ारा बनाने के लिए अपने बेटे को सलीब (सूली) पर चढ़वा देता है। किसी का ख़ुदा बीवी-बच्चे रखता है, मगर बेचारे के यहाँ सिर्फ़ बेटियाँ-ही-बेटियों पैदा होती हैं। किसी का ख़ुदा इनसानी शक्ल इख़्तियार करता है और ज़मीन पर इनसानी जिस्म में रहकर इनसानों के-से काम करता है। किसी का ख़ुदा सिर्फ़ एक वाजिबुल-वुजूद (स्वयंभू) है या इल्लतुल-इलल (कार्य-कारण) या इल्लतुल-ऊला (प्रथम या आदि कारण, First Cause) है, कायनात के निज़ाम को एक बार हरकत देकर अलग जा बैठा है, उसके बाद कायनात लगे-बंधे क़ानून के मुताबिक़ ख़ुद चल रही है और इनसान का उससे और उसका इनसान से अब कोई ताल्लुक़ नहीं है। ग़रज़ ख़ुदा को माननेवाले ग़ैर-मुस्लिम भी हक़ीक़त में उस ख़ुदा को नहीं मानते जो सारी कायनात का एक ही पैदा करनेवाला, मालिक, चलानेवाला, इन्तिज़ाम करनेवाला और हाकिम है। जिसने कायनात के निज़ाम (व्यवस्था) को सिर्फ़ बनाया ही नहीं है, बल्कि हर पल वही उसको चला रहा है और उसका हुक्म हर वक़्त यहाँ चल रहा है। जो हर ऐब, कमी (दोष), कमज़ोरी और ग़लती से पाक (मुक्त) है। जो हर तरह की माद्दी सूरत (भौतिक रूप) से पाक है, उस जैसा कोई नहीं है और न ही उसका कोई बराबरी करनेवाला और साझीदार है। जिसकी हस्ती, सिफ़ात (गुणों), इख़्तियारात और माबूद होने के हक़ में कोई उसका शरीक नहीं है। जो इससे बहुत बुलन्द है कि कोई उसकी औलाद हो, या किसी को वह बेटा बनाए, या किसी क़ौम और नस्ल से उसका कोई ख़ास रिश्ता हो। जिसका अपनी मख़लूक़ की एक-एक इकाई के साथ रोज़ी देनेवाला, पालनेवाला, रहमत और देखभाल करनेवाला होने का सीधा ताल्लुक़ है। जो दुआएँ सुननेवाला और उनका जवाब देनेवाला है। जो मौत और ज़िन्दगी, फ़ायदे-नुक़सान और क़िस्मतों के बनाव-बिगाड़ के पूरे इख़्तियारात का अकेला मालिक है। जो अपनी मख़लूक़ को सिर्फ़ पालता ही नहीं है, बल्कि हर एक को उसकी हैसियत और ज़रूरत के मुताबिक़ हिदायत भी देता है। जिसके साथ हमारा ताल्लुक़ सिर्फ़ यही नहीं है कि वह हमारा माबूद है और हम उसकी बन्दगी करते हैं, बल्कि यह भी है कि वह अपने नबियों और अपनी किताबों के ज़रिए से हमें करने और न करनेवाले कामों के हुक्म देता है और हमारा काम उसके हुक्मों पर अमल करना है। जिसके सामने हम अपने आमाल (कर्मों) के लिए जवाबदेह हैं, जो मरने के बाद हमें दोबारा उठानेवाला है और हमारे आमाल का हिसाब करके इनाम और सज़ा देनेवाला है। इन सिफ़ात (गुणों) के माबूद की इबादत मुहम्मद (सल्ल०) और उनकी पैरवी करनेवालों के सिवा दुनिया में कोई भी नहीं कर रहा है। दूसरे अगर ख़ुदा की इबादत कर भी रहे हैं तो अस्ली और हक़ीक़ी ख़ुदा की नहीं, बल्कि उस ख़ुदा की इबादत कर रहे हैं जो उनका अपना गढ़ा हुआ एक ख़याली ख़ुदा है।
وَلَآ أَنَا۠ عَابِدٞ مَّا عَبَدتُّمۡ ۝ 3
(4) और न मैं उनकी इबादत करनेवाला हूँ जिनकी इबादत तुमने की है,
وَلَآ أَنتُمۡ عَٰبِدُونَ مَآ أَعۡبُدُ ۝ 4
(5) और न तुम उसकी इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ।4
4. क़ुरआन के आलिमों में एक गरोह का ख़याल है कि इन दोनों जुमलों में पहले दो जुमलों की बात को दोहराया गया है, और यह इसलिए दोहराया गया है कि उस बात को ज़्यादा ज़ोरदार बना दिया जाए जो पहले दो जुमलों में कही गई थी। लेकिन क़ुरआन के बहुत-से आलिम इसको दोहराने की बात को नहीं मानते, बल्कि वे कहते हैं कि इनमें एक और बात बयान की गई है जो पहले जुमलों में बयान की गई बात से अलग है। हमारे नज़दीक इस हद तक तो उनकी बात सही है कि इन जुमलों को दोहराया नहीं गया है, क्योंकि इनमें सिर्फ़, “और न तुम उसकी इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ” को दोहराया गया है, और यह दोहराना भी उस मानी में नहीं है जिसमें यह जुमला पहले कहा गया था। मगर दोहराने का इनकार करने के बाद क़ुरआन के आलिमों के इस गरोह ने इन दोनों जुमलों के जो मतलब बयान किए हैं वे एक-दूसरे से बहुत अलग हैं। यहाँ इसका मौक़ा नहीं है कि हम उनमें से हर एक के बयान किए हुए मानी को नक़्ल करके उसपर बहस करें, इसलिए लम्बी बात से बचते हुए हम सिर्फ़ वे मतलब बयान करेंगे जो हमारे नज़दीक सही हैं। पहले जुमले में कहा गया है कि “और न मैं उनकी इबादत करनेवाला हूँ जिनकी इबादत तुमने की है।” इसमें जो बात बयान की गई है वह आयत-2 में बयान की गई बात से बिलकुल अलग है, जिसमें कहा गया था कि “मैं उनकी इबादत नहीं करता जिनकी इबादत तुम करते हो।” इन दोनों बातों में दो हैसियतों से बहुत बड़ा फ़र्क़ है। एक यह कि “मैं फ़ुलाँ काम नहीं करता या नहीं करूँगा” कहने में हालाँकि इनकार और ज़ोरदार इनकार है, लेकिन इससे बहुत ज़्यादा ज़ोर यह कहने में है कि मैं फ़ुलाँ काम करनेवाला नहीं हूँ, क्योंकि इसका मतलब यह है कि वह ऐसा बुरा काम है जिसका करना तो दूर, उसका इरादा या ख़याल करना भी मेरे लिए मुमकिन नहीं है। दूसरे यह कि “जिनकी इबादत तुम करते हो” का जुमला सिर्फ़ उन माबूदों के बारे में है जिनकी इबादत ईमान न लानेवाले अब कर रहे हैं। इसके बरख़िलाफ़ “जिनकी इबादत तुमने की है” का जुमला उन सब माबूदों (उपास्यों) पर चस्पाँ होता है जिनकी इबादत कुफ़्फ़ार (ईमान न लानेवाले ग़ैर-मुस्लिम) और उनके बाप-दादा गुज़रे ज़माने में करते रहे हैं। अब यह एक जानी-मानी हक़ीक़त है कि मुशरिकों और कुफ़्फ़ार (ग़ैर-मुस्लिमों) के माबूदों में हमेशा रद्दो-बदल और कमी-बेशी होती रहती है, अलग-अलग ज़मानों में ग़ैर-मुस्लिमों के अलग-अलग गरोह अलग-अलग माबूदों को पूजते रहे हैं, और सारे ग़ैर-मुस्लिमों के माबूद हमेशा और हर जगह एक ही नहीं रहे हैं। इसलिए आयत का मतलब यह है कि मैं तुम्हारे आज के माबूदों ही से नहीं, बल्कि तुम्हारे बाप-दादा के माबूदों से भी लाताल्लुक़ हूँ और मेरा यह काम नहीं है कि ऐसे माबूदों की इबादत का ख़याल तक अपने दिल में लाऊँ। रहा दूसरा जुमला, तो हालाँकि आयत-5 में उसके अलफ़ाज़ वही हैं जो आयत-3 में हैं, लेकिन दोनों जगह उसका मतलब अलग है। आयत-3 में वह इस जुमले के बाद आया है कि “मैं उनकी इबादत नहीं करता जिनकी इबादत तुम करते हो,” इसलिए उसका मतलब यह है कि “और न तुम उन सिफ़ात (गुणों) के अकेले माबूद की इबादत करनेवाले हो जिसकी इबादत मैं करता हूँ।” और आयत-5 में वह इस जुमले के बाद आया है कि “और न मैं उनकी इबादत करनेवाला हूँ जिनकी इबादत तुमने की है,” इसलिए इसका मतलब यह है कि “और न तुम उस अकेले माबूद की इबादत करनेवाले बनते नज़र आते हो जिसकी मैं इबादत करता हूँ,” या दूसरे अलफ़ाज़ में, मेरे लिए यह मुमकिन नहीं है कि जिन-जिनको तुमने और तुम्हारे बुज़ुर्गों ने पूजा है उनका पुजारी बन जाऊँ, और तुमको बहुत-से माबूदों की बन्दगी छोड़कर एक अकेले माबूद की इबादत करने से जो चिढ़ है उसकी वजह से तुमसे यह उम्मीद नहीं है कि अपनी इस ग़लत इबादत को छोड़ दोगे और उसकी इबादत करनेवाले बन जाओगे जिसकी इबादत मैं करता हूँ।
لَكُمۡ دِينُكُمۡ وَلِيَ دِينِ ۝ 5
(6) तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन है और मेरे लिए मेरा दीन।5
5. यानी मेरा दीन (धर्म) अलग है और तुम्हारा दीन अलग। मैं तुम्हारे माबूदों का पुजारी नहीं और तुम मेरे माबूद (उपास्य) के पुजारी नहीं। मैं तुम्हारे माबूदों की बन्दगी नहीं कर सकता और तुम मेरे माबूद की बन्दगी के लिए तैयार नहीं हो। इसलिए मेरा और तुम्हारा रास्ता कभी एक नहीं हो सकता। यह ईमान न लानेवालों को रवादारी (उदारता) का पैग़ाम नहीं है, बल्कि जब तक वे ईमान क़ुबूल नहीं करते हैं उनसे हमेशा के लिए अलगाव, बेज़ारी और बेताल्लुक़ी का एलान है, और इसका मक़सद उनको इस बात से पूरी और आख़िरी तरह मायूस कर देना है कि दीन के मामले में अल्लाह का रसूल और उसपर ईमान लानेवालों का गरोह कभी उनसे कोई समझौता करेगा। लाताल्लुक़ी का यही एलान और बेज़ारी का यही इज़ाहर इस सूरा के बाद उतरनेवाली मक्की सूरतों में लगातार किया गया है। चुनाँचे सूरा-10 यूनुस में कहा गया, “अगर ये तुम्हें झुठलाते हैं तो कह दो कि मेरा अमल मेरे लिए है और तुम्हारा अमल तुम्हारे लिए, जो कुछ मैं करता हूँ उसकी ज़िम्मेदारी से तुम बरी हो और जो कुछ तुम कर रहे हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।” (आयत-41)। फिर आगे चलकर इसी सूरा में फ़रमाया, “ऐ नबी, कह दो कि लोगो, अगर तुम मेरे दीन के बारे में (अभी तक) किसी शक में हो तो (सुन लो कि) अल्लाह के सिवा तुम जिनकी बन्दगी करते हो मैं उनकी बन्दगी नहीं करता, बल्कि सिर्फ़ उस ख़ुदा की बन्दगी करता हूँ जिसके बस में तुम्हारी मौत है।” (आयत-104)। सूरा-26 शुअरा में फ़रमाया, “ऐ नबी, अब अगर ये लोग तुम्हारी बात नहीं मानते तो कह दो कि जो कुछ तुम करते हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।” (आयत-216)। सूरा-34 सबा में फ़रमाया, “उनसे कहो, जो क़ुसूर हमने किया हो उसकी पूछ-गछ तुमसे न होगी और जो कुछ तुम कर रहे हो उसकी कोई जवाब-तलबी हमसे नहीं की जाएगी। कहो, हमारा रब (एक वक़्त) हमें और तुम्हें इकट्ठा करेगा और हमारे बीच ठीक-ठीक फ़ैसला कर देगा।” (आयतें—25, 26)। सूरा-39 ज़ुमर में फ़रमाया, “इनसे कहो : ऐ मेरी क़ौम के लोगो, तुम अपनी जगह काम किए जाओ, मैं अपना काम करता रहूँगा। जल्द ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि किसपर रुसवा करनेवाला अज़ाब आता है और किसे वह सज़ा मिलती है जो टलनेवाली नहीं।” (आयतें—39, 40)। फिर यही सबक़ मदीना तय्यिबा में तमाम मुसलमानों को दिया गया कि “तुम लोगों के लिए इबराहीम और उसके साथियों में एक अच्छा नमूना है कि उन्होंने अपनी क़ौमवालों से साफ़ कह दिया कि हम तुमसे और तुम्हारे उन माबूदों से, जिनको तुम ख़ुदा को छोड़कर पूजते हो, बिलकुल बेज़ार हैं, हमने तुम्हारा इनकार किया और हमारे और तुम्हारे बीच हमेशा के लिए दुश्मनी हो गई और बैर पड़ गया जब तक तुम एक अल्लाह पर ईमान न लाओ।” (सूरा-60 मुम्तहिना, आयत-4)। क़ुरआन मजीद के इन एक के बाद एक साफ़ बयानों से इस शक की गुंजाइश तक नहीं रहती कि ‘लकुम दीनुकुम वलि-य दीन’ (तुम्हारे लिए तुम्हारा दीन और मेरे लिए मेरा दीन) का मतलब यह है कि तुम अपने दीन पर क़ायम रहो और मुझे अपने दीन पर चलने दो। बल्कि यह उसी तरह की बात है जैसी सूरा-39 ज़ुमर में फ़रमाई गई है कि “ऐ नबी, इनसे कहो कि मैं तो अपने दीन को अल्लाह के लिए ख़ालिस करके उसी की बन्दगी करूँगा, तुम उसे छोड़कर जिस-जिसकी बन्दगी करना चाहो करते रहो।” (आयत-14) इस आयत से इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम शाफ़िई (रह०) ने यह दलील ली है कि ईमान न लानेवालों के मज़हब आपस में चाहे कितने ही अलग-अलग हों, लेकिन कुफ़्र (इनकार) की हैसियत से वे सब कुल मिलाकर एक ही मिल्लत (समुदाय) हैं, इसलिए यहूदी ईसाई का और ईसाई यहूदी का, और इसी तरह एक मज़हब का इनकारी दूसरे मज़हब के इनकारी का वारिस हो सकता है अगर उनके बीच ख़ानदान, या शादी या किसी वजह से कोई ऐसा ताल्लुक़ हो जो एक की विरासत दूसरे को पहुँचने का तक़ाज़ा करता हो। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक, इमाम औज़ाई और इमाम अहमद (रह०) कहते हैं कि एक मज़हब की पैरवी करनेवाले दूसरे मज़हब की पैरवी करनेवाले की विरासत नहीं पा सकते। उनकी दलील वह हदीस है जो हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस (रज़ि०) से नक़्ल हुई है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दो अलग-अलग मिल्लतों (समुदाय) के लोग एक-दूसरे के वारिस नहीं हो सकते।” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-माजा, दारे-क़ुतनी)। इससे मिलते-जुलते मज़मून की एक हदीस तिरमिज़ी ने हज़रत जाबिर (रज़ि०) से और इब्ने-हिब्बान ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) से और बज़्ज़ार ने हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से नक़्ल की है। इस मसले पर तफ़सीली बहस करते हुए हनफ़ी मसलक के मशहूर इमाम शम्सुल-अइम्मा सरख़्सी लिखते हैं, “ग़ैर-मुस्लिम आपस में उन सब वजहों की बुनियाद पर भी एक-दूसरे के वारिस हो सकते हैं जिनकी बुनियाद पर मुसलमान आपस में एक-दूसरे के वारिस होते हैं, और और उनके नज़दीक वे कुछ ऐसी शक्लों में भी आपस में एक-दूसरे के वारिस हो सकते हैं जिनमें मुसलमान नहीं होते ....... हक़ीक़त यह है कि अल्लाह ने बस दो ही दीन ठहराए हैं, एक सच्चा दीन, दूसरा झूठा दीन। चुनाँचे फ़रमाया, ‘लकुम दीनुकुम वलि-य दीन’। और उसने लोगों के दो ही गरोह रखे हैं, एक गरोह जन्नती है और वह मोमिन है, और दूसरा गरोह जहन्नमी है और वह कुल मिलाकर वे तमाम लोग जो एक ख़ुदा को नहीं मानते हैं। और उसने दो ही गरोहों को एक दूसरे का मुख़ालिफ़ ठहराया है, चुनाँचे फ़रमाया, “ये दो एक-दूसरे के मुक़ाबिल फ़रीक़ (पक्ष) हैं जिनके बीच अपने रब के मामले में झगड़ा है।” (सूरा-22 हज, आयत-19)। यानी एक फ़रीक़ कुल मिलाकर वे तमाम लोग हैं जो एक ख़ुदा को नहीं मानते और उनका झगड़ा ईमानवालों से है। ..... हम यह नहीं मानते कि वे अपने अक़ीदे के मुताबिक़ आपस में अलग-अलग मिल्लतें (समुदाय) हैं, बल्कि मुसलमानों के मुक़ाबले में वे सब एक ही मिल्लत हैं, क्योंकि मुसलमान मुहम्मद (सल्ल०) को ख़ुदा का पैग़म्बर मानते हैं और क़ुरआन का इक़रार करते हैं और वे उनका इनकार करते हैं। इसी वजह से वे ईमान न लानेवाले ठहराए गए हैं और मुसलमानों के मामले में वे सब एक मिल्लत हैं ...... हदीस ‘ला य-त-वारिसु अहलि मिल्ल्तैन’ (दो मिल्लतों के लोगों के बीच आपस में विरासत नहीं हो सकती) इसी बात की तरफ़ इशारा करती है जिसका हमने ज़िक्र किया है, क्योंकि मिल्लतैन (दो मिल्लतों) की तशरीह अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपने इस फ़रमान से कर दी है कि “मुसलमान ग़ैर-मुस्लिम का वारिस नहीं हो सकता और न ग़ैर-मुस्लिम मुसलमान का वारिस हो सकता है।” (अल-मबसूत, हिस्सा-30, पे० 30 से 32)। इमाम सरख़्सी ने यहाँ जिस हदीस का हवाला दिया है उसे बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, अहमद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा और अबू-दाऊद ने हज़रत उसामा-बिन-ज़ैद (रज़ि०) से रिवायत किया है।