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سُورَةُ الحَاقَّةِ

69. अल-हाक़्क़ा

(मक्का में उतरी, आयतें 52)

परिचय

नाम

सूरा के पहले शब्द 'अल-हाक़्क़ा' (होकर रहनेवाली) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

 

उतरने का समय

इस सूरा की वार्ताओं से मालूम होता है कि यह [मक्का के आरम्भिक काल में उस समय] अवतरित हुई थी जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के प्रति विरोध ने अभी अधिक उग्र रूप धारण नहीं किया था।

विषय और वार्ता

आयत 1 से 37 तक परलोक का उल्लेख है और आगे सूरा के अंत तक क़ुरआन के अल्लाह की ओर से अवतरित होने और मुहम्मद (सल्ल०) के सच्चे रसूल होने का उल्लेख किया गया है। सूरा के पहले भाग का प्रारम्भ इस बात से हुआ है कि क़ियामत का आना और आख़िरत (परलोक) का घटित होना एक ऐसा तथ्य है जो अवश्य ही सामने आकर रहेगा। फिर आयत 4 से 12 तक यह बताया गया है कि पूर्व समय में जिन जातियों ने भी परलोक का इनकार किया है, वे अन्ततः ईश्वरीय यातना की भागी होकर रहीं। इसके बाद आयत 17 तक प्रलय (क़ियामत) का चित्रण किया गया है कि वह किस प्रकार घटित होगी। फिर आयत 18 से 37 तक यह बताया गया है कि उस दिन समस्त मनुष्य अपने प्रभु के न्यायालय में उपस्थित होंगे, जहाँ उनका कोई भेद छिपा न रह जाएगा। हरेक का कर्मपत्र उसके हाथ में दे दिया जाएगा। [सुकर्मी] अपना हिसाब दोषरहित देखकर प्रसन्न हो जाएँगे और उनके हिस्से में जन्नत (स्वर्ग) का शाश्वत सुख एवं आनन्द आएगा। इसके विपरीत जिन लोगों ने न ख़ुदा के अधिकार को माना और न उसके बन्दों का हक़ अदा किया, उन्हें ख़ुदा की पकड़ से बचानेवाला कोई न होगा और वे जहन्नम (नरक) की यातना में ग्रस्त हो जाएँगे। सूरा के दूसरे भाग (आयत 38 से सूरा के अन्त तक) में मक्का के इस्लाम-विरोधियों को सम्बोधित करते हुए कहा गया है कि तुम इस क़ुरआन को कवि और काहिन (भविष्यवक्ता) की वाणी कहते हो, हालाँकि यह अल्लाह की अवतरित की हुई वाणी है, जो एक प्रतिष्ठित सन्देशवाहक (रसूल) के मुख से उच्चारित हो रही है। रसूल (सन्देशवाहक) को इस वाणी में अपनी ओर से एक भी शब्द घटाने या बढ़ाने का अधिकार नहीं। यदि वह इसमें अपनी मनगढ़न्त कोई चीज़ सम्मिलित कर दे तो हम उसकी गर्दन की रग (या हृदय-नाड़ी) काट दें।

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سُورَةُ الحَاقَّةِ
69. अल-हाक़्क़ा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلۡحَآقَّةُ
(1) होकर रहनेवाली!1
1. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘अल-हाक़्क़ा’ इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब है वह वाक़िआ जिसको लाज़िमी तौर पर पेश आकर रहना है, जिसका आना बरहक़ है, जिसके आने में किसी शक की गुंजाइश नहीं। क़ियामत के लिए यह लफ़्ज़ इस्तेमाल करना और फिर बात की शुरुआत ही इससे करना ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर करता है कि यह बात उन लोगों से कही जा रही है जो उसके आने को झुठला रहे थे। उनको मुख़ातब करके कहा जा रहा है कि जिस चीज़ को तुम झुठला रहे हो वह होकर रहनी है, तुम्हारे इनकार से उसका आना रुक नहीं जाएगा।
مَا ٱلۡحَآقَّةُ ۝ 1
(2) क्या है वह होकर रहनेवाली?
وَمَآ أَدۡرَىٰكَ مَا ٱلۡحَآقَّةُ ۝ 2
(3) और तुम क्या जानो कि वह क्या है होकर रहनेवाली?2
2. एक के बाद एक, ये दो सवाल सुननेवालों को चैंकाने के लिए किए गए हैं, ताकि वे बात की अहमियत को समझें और पूरे ध्यान के साथ आगे की बात सुनें।
كَذَّبَتۡ ثَمُودُ وَعَادُۢ بِٱلۡقَارِعَةِ ۝ 3
(4) समूद3 और आद ने उस अचानक टूट पड़नेवाली आफ़त4 को झुठलाया।
3. मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ चूँकि क़ियामत को झुठला रहे थे और उसके आने की ख़बर को मज़ाक़ समझते थे, इसलिए पहले उनको ख़बरदार किया गया कि वह तो होकर रहनी है, तुम चाहे मानो या न मानो, बहरहाल वह आकर रहेगी। इसके बाद अब उनको बताया जा रहा है कि यह मामला सिर्फ़ इतना सादा-सा मामला नहीं है कि कोई शख़्स एक पेश आनेवाले वाक़िए की ख़बर को मानता है या नहीं, बल्कि इसका बहुत ही गहरा ताल्लुक़ क़ौमों के अख़लाक़ और फिर उनके मुस्तक़बिल (भविष्य) से है। तुमसे पहले गुज़री हुई क़ौमों का इतिहास गवाह है कि जिस क़ौम ने भी आख़िरत का इनकार करके इसी दुनिया की ज़िन्दगी को अस्ल ज़िन्दगी समझा और इस बात को झुठला दिया कि इनसान को आख़िरकार ख़ुदा की अदालत में अपना हिसाब देना होगा, वह सख़्त अख़लाक़ी बिगाड़ में मुब्तला हुई, यहाँ तक कि ख़ुदा के अज़ाब ने आकर दुनिया को उसके वुजूद से पाक कर दिया।
4. अस्ल अरबी लफ़्ज़ ‘अल-क़ारिआ’ है। ‘क़रअ’ अरबी ज़बान में ठोकने, कूटने, खड़खड़ा देने और एक चीज़ को दूसरी चीज़ पर मार देने के लिए बोला जाता है। क़ियामत के लिए यह दूसरा लफ़्ज़ उसकी हौलनाकी का तसव्वुर (कल्पना) कराने के लिए इस्तेमाल किया गया है।
فَأَمَّا ثَمُودُ فَأُهۡلِكُواْ بِٱلطَّاغِيَةِ ۝ 4
(5) तो समूद एक सख़्त हादिसे5 से हलाक किए गए।
5. सूरा-7 आराफ़, आयत-78 में इसको ‘अर-रजफ़ा’ (ज़बरदस्त ज़लज़ला) कहा गया है। सूरा-11 हूद, आयत-67 में इसके लिए ‘अस-सैहा’ (ज़ोर के धमाके) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। सूरा-41 हा-मीम-सजदा, आयत-17 में फ़रमाया गया है कि उनको ‘साइक़तुल-अज़ाब’ (अज़ाब के कड़के) ने आ लिया। और यहाँ उसी अज़ाब को ‘अत-ताग़िया (हद से ज़्यादा सख़्त हादिसा) कहा गया है। यह एक ही वाक़िए की अलग-अलग कैफ़ियतों का बयान है।
وَأَمَّا عَادٞ فَأُهۡلِكُواْ بِرِيحٖ صَرۡصَرٍ عَاتِيَةٖ ۝ 5
(6) और आद एक बड़ी तेज़ तूफ़ानी आँधी से तबाह किए गए।
سَخَّرَهَا عَلَيۡهِمۡ سَبۡعَ لَيَالٖ وَثَمَٰنِيَةَ أَيَّامٍ حُسُومٗاۖ فَتَرَى ٱلۡقَوۡمَ فِيهَا صَرۡعَىٰ كَأَنَّهُمۡ أَعۡجَازُ نَخۡلٍ خَاوِيَةٖ ۝ 6
(7) अल्लाह तआला ने उसको लगातार सात रात और आठ दिन उनपर लगाए रखा। (तुम वहाँ होते तो) देखते कि वे वहाँ इस तरह पसरे पड़े हैं जैसे वे खजूर के बोसीदा (भुरभुरे) तने हों।
فَهَلۡ تَرَىٰ لَهُم مِّنۢ بَاقِيَةٖ ۝ 7
(8) अब क्या उनमें से कोई तुम्हें बाक़ी बचा नज़र आता है?
وَجَآءَ فِرۡعَوۡنُ وَمَن قَبۡلَهُۥ وَٱلۡمُؤۡتَفِكَٰتُ بِٱلۡخَاطِئَةِ ۝ 8
(9) और इसी बड़ी ग़लती का जुर्म फ़िरऔन और उससे पहले के लोगों ने और तलपट हो जानेवाली बस्तियों6 ने किया।
6. मुराद हैं क़ौमे-लूत की बस्तियाँ जिनके बारे में सूरा-11 हूद, आयत-82 और सूरा-15 हिज्र, आयत-74 में कहा गया है कि हमने उनको तलपट करके रख दिया।
فَعَصَوۡاْ رَسُولَ رَبِّهِمۡ فَأَخَذَهُمۡ أَخۡذَةٗ رَّابِيَةً ۝ 9
(10) उन सबने अपने रब के रसूल की बात न मानी तो उसने उनको बड़ी सख़्ती के साथ पकड़ा।
إِنَّا لَمَّا طَغَا ٱلۡمَآءُ حَمَلۡنَٰكُمۡ فِي ٱلۡجَارِيَةِ ۝ 10
(11) जब पानी का तूफ़ान सिर से गुज़र गया7 तो हमने तुमको कश्ती में सवार कर दिया था,8
7. इशारा है नूह (अलैहि०) के ज़माने में आए हुए तूफ़ान की तरफ़ जिसमें एक पूरी क़ौम इसी बड़े क़ुसूर की वजह से डुबो दी गई और सिर्फ़ वे लोग बचा लिए गए जिन्होंने अल्लाह के रसूल की बात मान ली थी।
8. हालाँकि नाव में सवार वे लोग किए गए थे जो हज़ारों साल पहले गुज़र चुके थे, लेकिन चूँकि बाद की पूरी इनसानी नस्ल उन्हीं लोगों की औलाद है जो उस वक़्त तूफ़ान से बचा लिए गए थे, इसलिए फ़रमाया कि हमने तुमको नाव में सवार करा दिया। मतलब यह है कि तुम आज दुनिया में इसी लिए मौजूद हो कि अल्लाह तआला ने उस तूफ़ान में सिर्फ़ हक़ का इनकार करनेवालों को डुबोया था और ईमान लानेवालों को बचा लिया था।
لِنَجۡعَلَهَا لَكُمۡ تَذۡكِرَةٗ وَتَعِيَهَآ أُذُنٞ وَٰعِيَةٞ ۝ 11
(12) ताकि इस वाक़िए को तुम्हारे लिए एक सबक़-आमोज़ (शिक्षाप्रद) यादगार बना दें और याद रखनेवाले कान उसकी याद महफ़ूज़ रखें।9
9. यानी वे कान नहीं जो सुनी अनसुनी कर दें और जिनके परदे पर से आवाज़ उचटकर गुज़र जाए, बल्कि वे कान जो सुनें और बात को दिल तक उतार दें। यहाँ बज़ाहिर कान का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है, मगर मुराद हैं सुननेवाले लोग जो इस वाक़िए (घटना) को सुनकर उसे याद रखें, इससे सीख लें और इस बात को कभी न भूलें कि आख़िरत के इनकार और ख़ुदा के रसूल को झुठलाने का अंजाम कैसा भयानक होता है।
فَإِذَا نُفِخَ فِي ٱلصُّورِ نَفۡخَةٞ وَٰحِدَةٞ ۝ 12
(13) फिर10 जब एक बार सूर (नरसिंघा) में फूँक मार दी जाएगी
10. आगे आनेवाली आयतों को पढ़ते हुए यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि क़ुरआन मजीद में कहीं तो क़ियामत के तीन मरहले अलग-अलग बयान किए गए हैं जो एक के बाद एक अलग-अलग वक़्तों में पेश आएँगे, और कहीं सबको समेटकर पहले मरहले से आख़िरी मरहले तक के वाक़िआत को इकट्ठा बयान कर दिया गया है। मिसाल के तौर पर सूरा-27 नम्ल, आयत-87 में पहले सूर फूँके जाने का ज़िक्र किया गया है, जब तमाम दुनिया के इनसान एक साथ एक हौलनाक आवाज़ से घबरा उठेंगे। उस वक़्त कायनात के निज़ाम के उलट-पलट होने की कैफ़ियतें उनकी आँखों के सामने पेश आएँगी जो सूरा-22 हज, आयतें—1-2; सूरा-36 या-सीन, आयतें—49, 50 और सूरा-81 तकवीर, आयतें—1 से 6, में बयान हुई हैं। सूरा-39 ज़ुमर, आयतें—67 से 70, में दूसरी और तीसरी बार सूर फूँके जाने के बारे में बताया गया है कि एक बार फूँके जाने पर सब लोग मरकर गिर जाएँगे और उसके बाद जब फिर सूर फूँका जाएगा तो सब जी उठेंगे और ख़ुदा की अदालत में पेश हो जाएँगे। सूरा-20 ता-हा, आयतें—102 से 112; सूरा-21 अम्बिया, आयतें—101 से 103; सूरा-36 या-सीन, आयतें—51 से 53 और सूरा-50 क़ाफ़, आयतें—20 से 22 में सिर्फ़ तीसरा सूर फूँके जाने का ज़िक्र है (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-20 ता-हा, हाशिया-78; सूरा-22 हज, हाशिया-1; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—46, 47)। लेकिन यहाँ और बहुत-सी दूसरी जगहों पर क़ुरआन में पहला सूर फूँके जाने से लेकर जन्नत और जहन्नम में लोगों के दाख़िल होने तक क़ियामत के तमाम वाक़िआत को एक ही सिलसिले में बयान कर दिया गया है।
وَحُمِلَتِ ٱلۡأَرۡضُ وَٱلۡجِبَالُ فَدُكَّتَا دَكَّةٗ وَٰحِدَةٗ ۝ 13
(14) और ज़मीन और पहाड़ों को उठाकर एक ही चोट में चूरा-चूरा कर दिया जाएगा,
فَيَوۡمَئِذٖ وَقَعَتِ ٱلۡوَاقِعَةُ ۝ 14
(15) उस दिन वह होनेवाला वाक़िआ पेश आ जाएगा।
وَٱنشَقَّتِ ٱلسَّمَآءُ فَهِيَ يَوۡمَئِذٖ وَاهِيَةٞ ۝ 15
(16) उस दिन आसमान फटेगा और उसकी पकड़ ढीली पड़ जाएगी।
وَٱلۡمَلَكُ عَلَىٰٓ أَرۡجَآئِهَاۚ وَيَحۡمِلُ عَرۡشَ رَبِّكَ فَوۡقَهُمۡ يَوۡمَئِذٖ ثَمَٰنِيَةٞ ۝ 16
(17) फ़रिश्ते उसके आस-पास होंगे और आठ फ़रिश्ते उस दिन तेरे रब का अर्श अपने ऊपर उठाए हुए होंगे।11
11. यह आयत मुतशाबिहात (अस्पष्ट तथ्यों) में से है, जिसका मतलब तय करना मुश्किल है। हम न यह जान सकते हैं कि अर्श क्या चीज़ है और न यही समझ सकते हैं कि क़ियामत के दिन आठ फ़रिश्तों के उसको उठाने की कैफ़ियत क्या होगी। मगर यह बात बहरहाल सोची नहीं जा सकती कि अल्लाह तआला अर्श पर बैठा हुआ होगा और आठ फ़रिश्ते उसको अर्श समेत उठाए हुए होंगे। आयत में भी यह नहीं कहा गया है कि उस वक़्त अल्लाह तआला अर्श पर बैठा हुआ होगा। अल्लाह तआला के वुजूद का जो तसव्वुर (परिकल्पना) हमको क़ुरआन मजीद में दिया गया है वह भी यह सोचने में रुकावट है कि वह जिस्म और सम्त (दिशा) और जगह से पाक हस्ती किसी जगह बैठी (विराजमान) हो और कोई मख़लूक़ उसे उठाए। इसलिए खोज-कुरेद करके इसका मतलब तय करने की कोशिश करना अपने आपको गुमराही के ख़तरे में मुब्तला करना है। अलबत्ता यह बात समझ लेनी चाहिए कि क़ुरआन मजीद में अल्लाह तआला की हुकूमत और उसके मामलों का तसव्वुर दिलाने के लिए लोगों के सामने वही नक़्शा पेश किया गया है जो दुनिया में बादशाही का नक़्शा होता है, और इसके लिए वही अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं जो इनसानी ज़बानों में हुकूमत और उससे मुताल्लिक़ कामों और मामलों के लिए इस्तेमाल होते हैं, क्योंकि इनसानी ज़ेहन इसी नक़्शे और इन्हीं लफ़्ज़ों की मदद से किसी हद तक कायनात की बादशाही के मामलों को समझ सकता है। यह सब कुछ इसलिए है कि अस्ल हक़ीक़त को इनसानी समझ-बूझ से ज़्यादा-से-ज़्यादा क़रीब कर दिया जाए, उसको बिलकुल लफ़्ज़ी मानी में ले लेना ठीक नहीं है।
يَوۡمَئِذٖ تُعۡرَضُونَ لَا تَخۡفَىٰ مِنكُمۡ خَافِيَةٞ ۝ 17
(18) वह दिन होगा जब तुम लोग पेश किए जाओगे, तुम्हारा कोई राज़ भी छिपा न रह जाएगा।
فَأَمَّا مَنۡ أُوتِيَ كِتَٰبَهُۥ بِيَمِينِهِۦ فَيَقُولُ هَآؤُمُ ٱقۡرَءُواْ كِتَٰبِيَهۡ ۝ 18
(19) उस वक़्त जिसका आमाल-नामा उसके सीधे हाथ में दिया जाएगा12 वह कहेगा, “लो देखो, पढ़ो मेरा आमाल-नामा,13
12. सीधे हाथ में आमाल-नामे का दिया जाना ही ज़ाहिर कर देगा कि उसका हिसाब साफ़ है और वह अल्लाह तआला की अदालत में मुजरिम की हैसियत से नहीं, बल्कि नेक इनसान की हैसियत से पेश हो रहा है। ज़्यादा इमकान यह है कि आमाल-नामों के बाँटे जाने के वक़्त नेक इनसान ख़ुद सीधा हाथ बढ़ाकर अपना आमाल-नामा ले लेगा, क्योंकि मौत के वक़्त से हश्र के मैदान में हाज़िरी तक उसके साथ जो मामला पेश आया होगा उसकी वजह से उसको पहले ही यह इत्मीनान हासिल हो चुका होगा कि मैं यहाँ इनाम पाने के लिए पेश हो रहा हूँ न कि सज़ा पाने के लिए। क़ुरआन मजीद में यह बात जगह-जगह बड़े साफ़ अलफ़ाज़ में बताई गई है कि मौत के वक़्त ही से यह बात इनसान पर खुल जाती है कि वह ख़ुशक़िस्मत आदमी की हैसियत से दूसरी दुनिया में जा रहा है या बदनसीब आदमी की हैसियत से। फिर मौत से क़ियामत तक नेक इनसान के साथ मेहमान का-सा सुलूक होता है और बुरे इनसान के साथ हवालात के मुजरिम जैसा। इसके बाद जब क़ियामत के दिन दूसरी ज़िन्दगी की शुरुआत होती है उसी वक़्त से नेक और भले लोगों की हालत और कैफ़ियत कुछ और होती और ख़ुदा के इनकारियों और मुनाफ़िक़ों और मुजरिमों की हालत और कैफ़ियत कुछ और। (तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-8 अनफ़ाल, आयत-50; सूरा-16 नह्ल, आयतें—28, 32, हाशिया-26; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-97; हिस्सा-3, सूरा-20 ता-हा, आयतें—102, 103, 124 से 126, हाशिए—79, 80, 107; सूरा-21 अम्बिया, आयत-103, हाशिया-98; सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-24, हाशिया-38; सूरा-27 नम्ल, आयत-89, हाशिया-109; सूरा-34 सबा, आयत-51, हाशिया-72; सूरा-36 या-सीन, आयतें—26, 27, हाशिए—22, 23; सूरा-40 मोमिन, आयतें—45, 46, हाशिया-63; सूरा-47 मुहम्मद, आयत-27, हाशिया-37; सूरा-50 क़ाफ़, आयतें—19 से 23, हाशिए—22, 23, 25)।
13. यानी आमाल-नामा मिलते ही वह ख़ुश हो जाएगा और अपने साथियों को दिखाएगा। सूरा-84 इनशिक़ाक़, आयत-9 में बयान हुआ है कि “वह ख़ुश-ख़ुश अपने लोगों की तरफ़ पलटेगा।”
إِنِّي ظَنَنتُ أَنِّي مُلَٰقٍ حِسَابِيَهۡ ۝ 19
(20) मैं समझता था कि मुझे ज़रूर अपना हिसाब मिलनेवाला है।”14
14. यानी वह अपनी ख़ुशक़िस्मती की वजह यह बताएगा कि वह दुनिया में आख़िरत को भूला हुआ न था, बल्कि यह समझते हुए ज़िन्दगी गुज़ारता रहा कि एक दिन उसे ख़ुदा के सामने हाज़िर होना और अपना हिसाब देना है।
فَهُوَ فِي عِيشَةٖ رَّاضِيَةٖ ۝ 20
(21) फिर वह दिलपसन्द ऐश में होगा,
فِي جَنَّةٍ عَالِيَةٖ ۝ 21
(22) आला दर्जे की जन्नत में,
قُطُوفُهَا دَانِيَةٞ ۝ 22
(23) जिसके फलों के गुच्छे झुके पड़ रहे होंगे।
كُلُواْ وَٱشۡرَبُواْ هَنِيٓـَٔۢا بِمَآ أَسۡلَفۡتُمۡ فِي ٱلۡأَيَّامِ ٱلۡخَالِيَةِ ۝ 23
(24) (ऐसे लोगों से कहा जाएगा) मज़े से खाओ और पियो अपने उन आमाल के बदले जो तुमने गुज़रे हुए दिनों में किए हैं।
وَأَمَّا مَنۡ أُوتِيَ كِتَٰبَهُۥ بِشِمَالِهِۦ فَيَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي لَمۡ أُوتَ كِتَٰبِيَهۡ ۝ 24
(25) और जिसका आमाल-नामा उसके बाएँ हाथ में दिया जाएगा15 वह कहेगा, “काश मेरा आमाल-नामा मुझे न दिया गया होता16
15. सूरा-84 इन्शिक़ाक़ में कहा गया, “और जिसका आमाल-नामा उसकी पीठ के पीछे दिया जाएगा।” शायद इसकी शक्ल यह होगी कि मुजरिम को चूँकि पहले ही से अपने मुजरिम होने का इल्म होगा और वह जानता होगा कि इस आमाल-नामे में उसका क्या कच्चा चिट्ठा दर्ज है, इसलिए वह बहुत ही बददिली के साथ अपना बायाँ हाथ बढ़ाकर उसे लेगा और फ़ौरन पीठ के पीछे छिपा लेगा, ताकि कोई देखने न पाए।
16. यानी मुझे यह आमाल-नामा देकर हश्र के मैदान में खुल्लम-खुल्ला सबके सामने ज़लील और रुसवा न किया जाता और जो सज़ा भी देनी थी दे डाली जाती।
وَلَمۡ أَدۡرِ مَا حِسَابِيَهۡ ۝ 25
(26) और मैं न जानता कि मेरा हिसाब क्या है!17
17. यानी मुझे न बताया जाता कि मैं दुनिया में क्या कुछ करके आया हूँ। दूसरा मतलब इस आयत का यह भी हो सकता है कि मैंने कभी यह न जाना था कि हिसाब क्या बला होती है, मुझे कभी यह ख़याल तक न आया था कि एक दिन मुझे अपना हिसाब भी देना होगा और मेरा सब किया-कराया मेरे सामने रख दिया जाएगा।
يَٰلَيۡتَهَا كَانَتِ ٱلۡقَاضِيَةَ ۝ 26
(27) काश मेरी वही मौत (जो दुनिया में आई थी) फ़ैसला चुका डालनेवाली होती!18
18. यानी दुनिया में मरने के बाद मैं हमेशा के लिए मिट गया होता और कोई दूसरी ज़िन्दगी न होती।
مَآ أَغۡنَىٰ عَنِّي مَالِيَهۡۜ ۝ 27
(28) आज मेरा माल मेरे कुछ काम न आया।
هَلَكَ عَنِّي سُلۡطَٰنِيَهۡ ۝ 28
(29) मेरा सारा इक़तिदार (प्रभुत्व) ख़त्म हो गया।”19
19. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘ह-ल-क अन्नी सुलतानियह्’। ‘सुलतान’ का लफ़्ज़ दलील और हुज्जत (तर्क) के लिए भी इस्तेमाल होता है और हुकूमत (सत्ता) के लिए भी। अगर उसे दलील और हुज्जत के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि जो दलील-बाज़ियाँ मैं किया करता था वे यहाँ नहीं चल सकतीं, मेरे पास अपनी सफ़ाई में पेश करने के लिए अब कोई दलील नहीं रही। और हुकूमत के मानी में लिया जाए तो मुराद यह होगी कि दुनिया में जिस ताक़त के बल-बूते पर मैं अकड़ता था वह यहाँ ख़त्म हो चुकी है। अब यहाँ कोई मेरा लश्कर नहीं, कोई मेरा हुक्म माननेवाला नहीं, मैं एक बेबस और लाचार बन्दे की हैसियत से खड़ा हूँ जो अपने बचाव के लिए कुछ नहीं कर सकता।
خُذُوهُ فَغُلُّوهُ ۝ 29
(30) (हुक्म होगा) पकड़ो इसे और इसकी गर्दन में तौक़ डाल दो,
ثُمَّ ٱلۡجَحِيمَ صَلُّوهُ ۝ 30
(31) फिर इसे जहन्नम में झोंक दो,
ثُمَّ فِي سِلۡسِلَةٖ ذَرۡعُهَا سَبۡعُونَ ذِرَاعٗا فَٱسۡلُكُوهُ ۝ 31
(32) फिर इसको सत्तर हाथ लम्बी ज़ंजीर में जकड़ दो।
إِنَّهُۥ كَانَ لَا يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 32
(33) यह न बुज़ुर्ग और बरतर अल्लाह पर ईमान लाता था
وَلَا يَحُضُّ عَلَىٰ طَعَامِ ٱلۡمِسۡكِينِ ۝ 33
(34) और न मिसकीन को खाना खिलाने पर उभारता था।20
20. यानी ख़ुद किसी ग़रीब को खाना खिलाना तो दूर रहा, किसी से यह कहना भी पसन्द न करता था कि ख़ुदा के भूखे बन्दों को रोटी दे दो।
فَلَيۡسَ لَهُ ٱلۡيَوۡمَ هَٰهُنَا حَمِيمٞ ۝ 34
(35) लिहाज़ा आज न यहाँ इसका कोई हमदर्द दोस्त है
وَلَا طَعَامٌ إِلَّا مِنۡ غِسۡلِينٖ ۝ 35
(36) और न ज़ख़्मों के धोवन के सिवा इसके लिए कोई खाना,
لَّا يَأۡكُلُهُۥٓ إِلَّا ٱلۡخَٰطِـُٔونَ ۝ 36
(37) जिसे क़ुसूरवारों के सिवा कोई नहीं खाता।
فَلَآ أُقۡسِمُ بِمَا تُبۡصِرُونَ ۝ 37
(38) तो नहीं,21 मैं क़सम खाता हूँ उन चीज़ों की भी जो तुम देखते हो
21. यानी तुम लोगों ने जो कुछ समझ रखा है बात वह नहीं है।
وَمَا لَا تُبۡصِرُونَ ۝ 38
(39) और उनकी भी जिन्हें तुम नहीं देखते।
إِنَّهُۥ لَقَوۡلُ رَسُولٖ كَرِيمٖ ۝ 39
(40) यह एक इज़्ज़तवाले रसूल का क़ौल है,22
22. यहाँ ‘रसूले-करीम’ (इज़्ज़तवाले रसूल) से मुराद मुहम्मद (सल्ल०) हैं और सूरा-81 तकवीर, आयत-19 में इससे मुराद जिबरील (अलैहि०) हैं। इसकी दलील यह है कि यहाँ क़ुरआन को ‘रसूले-करीम’ का क़ौल (कथन) कहने के बाद कहा गया है कि यह किसी शाइर या काहिन (ज्योतिषी) का क़ौल नहीं है, और ज़ाहिर है कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ जिबरील (अलैहि०) को नहीं, बल्कि मुहम्मद (सल्ल०) को शाइर और काहिन कहते थे। इसके बरख़िलाफ़ सूरा-81 तकवीर में क़ुरआन को ‘रसूले-करीम’ का क़ौल कहने के बाद कहा गया है कि वह रसूल बड़ी क़ुव्वतवाला है, अर्शवाले के यहाँ बुलन्द मर्तबा रखता है, वहाँ उसकी बात मानी जाती है, वह अमानतदार है और मुहम्मद (सल्ल०) ने उसको रौशन उफ़ुक़ (क्षितिज) पर देखा है। क़रीब-क़रीब यही बात सूरा-53 नज्म, आयतें—5 से 10 में जिबरील (अलैहि०) के बारे में बयान की गई है। यहाँ सवाल यह पैदा होता है कि क़ुरआन को मुहम्मद (सल्ल०) और जिबरील (अलैहि०) का क़ौल (कथन) किस मानी में कहा गया है? इसका जवाब यह है कि लोग उसको नबी (सल्ल०) की ज़बान से और नबी (सल्ल०) उसे जिबरील (अलैहि०) की ज़बान से सुन रहे थे, इसलिए एक पहलू से यह नबी (सल्ल०) का क़ौल था और दूसरे पहलू से जिबरील (अलैहि०) का क़ौल, लेकिन आगे चलकर यह बात साफ़ बयान कर दी गई है कि अस्ल में यह सारे जहानों के रब का उतारा हुआ है जो मुहम्मद (सल्ल०) के सामने जिबरील (अलैहि०) की ज़बान से, और लोगों के सामने मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से अदा हो रहा है। ख़ुद रसूल का लफ़्ज़ भी इस हक़ीक़त पर दलील दे रहा है कि यह इन दोनों का अपना कलाम नहीं है, बल्कि पैग़ाम पहुँचानेवाले होने की हैसियत से उन्होंने इसको पैग़ाम भेजनेवाले की तरफ़ से पेश किया है।
وَمَا هُوَ بِقَوۡلِ شَاعِرٖۚ قَلِيلٗا مَّا تُؤۡمِنُونَ ۝ 40
(41) किसी शाइर का क़ौल नहीं है, तुम लोग कम ही ईमान लाते हो।23
23. “कम ही ईमान लाते हो” का एक मतलब अरबी मुहावरे के मुताबिक़ यह हो सकता है कि तुम ईमान नहीं लाते। और दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि क़ुरआन को सुनकर किसी वक़्त तुम्हारा दिल ख़ुद पुकार उठता है कि यह इनसानी कलाम नहीं हो सकता, मगर फिर तुम अपनी ज़िद पर अड़ जाते हो और इसपर ईमान लाने से इनकार कर देते हो।
وَلَا بِقَوۡلِ كَاهِنٖۚ قَلِيلٗا مَّا تَذَكَّرُونَ ۝ 41
(42) और न यह किसी काहिन का क़ौल है, तुम लोग कम ही ग़ौर करते हो।
تَنزِيلٞ مِّن رَّبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 42
(43) यह रब्बुल-आलमीन की तरफ़ से उतरा है।24
24. कहने का मतलब यह है कि जो कुछ तुम्हें नज़र आता है और जो कुछ तुमको नज़र नहीं आता, उस सबकी क़सम मैं इस बात पर खाता हूँ कि यह क़ुरआन किसी शाइर या काहिन का कलाम नहीं है, बल्कि सारे जहानों के रब का उतारा हुआ है जो एक ऐसे रसूल की ज़बान से अदा हो रहा है जो करीम (बहुत इज़्ज़तवाला और शरीफ़) है। अब देखिए कि यह क़सम किस मानी में खाई गई है। जो कुछ लोगों को नज़र आ रहा था वह यह था— (i) इस कलाम को एक ऐसा शख़्स पेश कर रहा था जिसका शरीफ़ मिज़ाज होना मक्का के समाज में किसी से छिपा हुआ न था। सब जानते थे कि अख़लाक़ी हैसियत से यह उनकी क़ौम का बेहतरीन आदमी है। ऐसे शख़्स से यह उम्मीद नहीं की जा सकती थी कि वह इतना बड़ा झूठ लेकर उठ खड़ा होगा कि ख़ुदा पर बुहतान बाँधे और अपने दिल से एक बात गढ़कर उसे सारे जहान के ख़ुदा की तरफ़ जोड़ दे। (ii) वे यह भी साफ़ देख रहे थे कि इस कलाम को पेश करने में अपना कोई निजी फ़ायदा उस शख़्स के सामने नहीं है, बल्कि यह काम करके तो उसने अपने फ़ायदे को क़ुरबान कर दिया है। अपनी तिजारत को बरबाद किया। अपने ऐशो-आराम को छोड़ दिया। जिस समाज में उसे सिर आँखों पर बिठाया जाता था, उसी में गालियाँ खाने लगा। और न सिर्फ़ ख़ुद, बल्कि अपने बाल-बच्चों तक को हर तरह की मुसीबतों में मुब्तला कर लिया। निजी फ़ायदे का ख़ाहिशमन्द इन काँटों में अपने आपको क्यों घसीटता? (iii) उनकी आँखें यह भी देख रही थीं कि उन्हीं के समाज में से जो लोग उस शख़्स पर ईमान ला रहे थे उनकी ज़िन्दगी में एकदम एक इन्क़िलाब बरपा हो जाता था। किसी शाइर या काहिन की बात में यह असर आख़िर कब देखा गया है कि वह लोगों में ऐसी ज़बरदस्त अख़लाक़ी तबदीली पैदा कर दे और उसके माननेवाले उसकी ख़ातिर हर तरह की मुसीबतें और दुख बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाएँ? (iv) उनसे यह बात भी छिपी हुई न थी कि शेअर की ज़बान क्या होती है और काहिनों का कलाम कैसा होता है। एक हठधर्म आदमी के सिवा कौन यह कह सकता था कि क़ुरआन की ज़बान शाइरी या कहानत की ज़बान है (इसपर तफ़सीली बहस हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-7; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—142 से 145 और सूरा-52 तूर, हाशिया-22 में कर चुके हैं)। (v) यह बात भी उनकी निगाहों के सामने थी कि पूरे अरब में कोई शख़्स ऐसा ज़बान का माहिर न था जिसका कलाम क़ुरआन के मुक़ाबले में लाया जा सकता हो। उसके बराबर तो दूर, उसके क़रीब तक किसी की ज़बान की महारत नहीं पहुँचती थी। (vi) उनसे यह बात भी छिपी न थी कि ख़ुद मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान भी अपनी अदबी शान (साहित्यिक उत्कर्ष) के लिहाज़ से क़ुरआन की अदबी शान से बहुत अलग थी। कोई अरबी बोलनेवाला नबी (सल्ल०) की अपनी तक़रीर और क़ुरआन को सुनकर यह नहीं कह सकता था कि ये दोनों एक ही शख़्स के कलाम हैं। (vii) क़ुरआन में जो बातें और जानकारियाँ दी जा रही थीं, नुबूवत के दावे से एक दिन पहले तक भी मक्का के लोगों ने कभी वे बातें मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से न सुनी थीं, और वे यह भी जानते थे कि इन जानकारियों को हासिल करने का कोई ज़रिआ आप (सल्ल०) के पास नहीं है। इसी वजह से आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त करनेवाले अगर ये इलज़ाम लगाते भी थे कि आप (सल्ल०) कहीं से ख़ुफ़िया तरीक़े पर यह जानकारियाँ हासिल करते हैं तो मक्का में कोई शख़्स उनको मानने के लिए तैयार न होता था (इसकी तशरीह हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिया-107 और सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-12 में कर चुके हैं)। (viii) ज़मीन से लेकर आसमान तक इस अज़ीमुश्शान कायनात के निज़ाम को भी वे अपनी आँखों से चलता हुआ देख रहे थे, जिसमें एक ज़बरदस्त हिकमत से भरा क़ानून और एक हर मामले में पाया जानेवाला नज़्म और ज़ब्त (अनुशासन) काम करता नज़र आ रहा था। उसके अन्दर कहीं उस शिर्क और आख़िरत के इनकार के लिए कोई गवाही नहीं पाई जाती थी जिसे अरबवाले मानते थे, बल्कि हर तरफ़ तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत ही की सच्चाई के सुबूत मिलते थे जिसे क़ुरआन पेश कर रहा था। यह सब कुछ तो वे देख रहे थे। और जो कुछ वे नहीं देख रहे थे वह यह था कि सचमुच अल्लाह तआला ही इस कायनात का पैदा करनेवाला, मालिक और हाकिम है, कायनात में सब उसके बन्दे-ही-बन्दे हैं, ख़ुदा उसके सिवा कोई नहीं है, क़ियामत ज़रूर बरपा होनेवाली है, मुहम्मद (सल्ल०) को सचमुच अल्लाह तआला ही ने अपना रसूल मुक़र्रर किया है, और उनपर अल्लाह ही की तरफ़ से यह क़ुरआन उतर रहा है। इन दोनों तरह की हक़ीक़तों की क़सम खाकर वह बात कही गई है जो ऊपर की आयतों में बयान हुई है।
وَلَوۡ تَقَوَّلَ عَلَيۡنَا بَعۡضَ ٱلۡأَقَاوِيلِ ۝ 43
(44) और अगर इस (नबी) ने ख़ुद गढ़कर कोई बात हमारी तरफ़ जोड़ी होती
لَأَخَذۡنَا مِنۡهُ بِٱلۡيَمِينِ ۝ 44
(45) तो हम इसका दाहिना हाथ पकड़ लेते
ثُمَّ لَقَطَعۡنَا مِنۡهُ ٱلۡوَتِينَ ۝ 45
(46) और इसकी गर्दन की नस काट डालते,
فَمَا مِنكُم مِّنۡ أَحَدٍ عَنۡهُ حَٰجِزِينَ ۝ 46
(47) फिर तुममें से कोई (हमें) इस काम से रोकनेवाला न होता।25
25. अस्ल मक़सद यह बताना है कि नबी को अपनी तरफ़ से वह्य में कोई कमी-ज़्यादती करने का इख़्तियार नहीं है, और अगर वह ऐसा करे तो हम उसको सख़्त सज़ा दें। मगर इस बात को ऐसे अन्दाज़ से बयान किया गया है जिससे आँखों के सामने यह तस्वीर खिँच जाती है कि एक बादशाह का मुक़र्रर किया हुआ अफ़सर उसके नाम से कोई जालसाज़ी करे तो बादशाह उसका हाथ पकड़कर उसका सिर काट दे। कुछ लोगों ने इस आयत से यह ग़लत दलील ली है कि जो शख़्स भी नुबूवत (पैग़म्बरी) का दावा करे, उसकी दिल की नस, या गर्दन की नस अगर अल्लाह तआला की तरफ़ से फ़ौरन न काट डाली जाए तो यह उसके नबी होने का सुबूत है। हालाँकि इस आयत में जो बात कही गई है वह सच्चे नबी के बारे में है, नुबूवत के झूठे दावेदारों के बारे में नहीं है। झूठे दावेदार तो नुबूवत ही नहीं ख़ुदाई तक के दावे करते हैं और ज़मीन पर मुद्दतों दनदनाते फिरते हैं। यह उनकी सच्चाई का कोई सुबूत नहीं है। इस मसले पर तफ़सीली बहस हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-23 में कर चुके हैं।
وَإِنَّهُۥ لَتَذۡكِرَةٞ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 47
(48) हक़ीक़त में यह परहेज़गार लोगों के लिए एक नसीहत है।26
26. यानी क़ुरआन उन लोगों के लिए नसीहत है जो ग़लत रवैये और उसके बुरे नतीजों से बचना चाहते हैं (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-3)।
وَإِنَّا لَنَعۡلَمُ أَنَّ مِنكُم مُّكَذِّبِينَ ۝ 48
(49) और हम जानते हैं कि तुममें से कुछ लोग झुठलानेवाले हैं।
وَإِنَّهُۥ لَحَسۡرَةٌ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 49
(50) हक़ के ऐसे इनकारियों के लिए यक़ीनन यह पछतावे का सबब है।27
27. यानी आख़िरकार उन्हें इस बात पर पछताना पड़ेगा कि उन्होंने क्यों इस क़ुरआन को झुठलाया।
وَإِنَّهُۥ لَحَقُّ ٱلۡيَقِينِ ۝ 50
(51) और यह बिलकुल यक़ीनी हक़ है।
فَسَبِّحۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 51
(52) तो ऐ नबी, अपने अज़मतवाले रब के नाम की तसबीह (महिमागान) करो।