Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

وَٱلَّيۡلِ إِذَا سَجَىٰ

93. अज़-ज़ुहा

(मक्का में उतरी, आयतें 11)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'वज़-ज़ुहा' (क़सम है रौशन दिन की) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इसका विषय स्पष्ट रूप से बता रहा है कि यह मक्का के बिल्कुल आरम्भिक काल में उतरी है। हदीस के वर्णनों से भी मालूम होता है कि कुछ मुद्दत तक वह्य (प्रकाशना) उतरने का सिलसिला बन्द रहा था, जिससे नबी (सल्ल०) बड़े परेशान हो गए थे और बार-बार आपको यह आशंका हो रही थी कि कहीं मुझसे कोई ऐसी ग़लती तो नहीं हो गई जिसके कारण मेरा रब मुझसे रूठ गया हो और उसने मुझे छोड़ दिया हो। इसपर आपको विश्वास दिलाया गया कि वह्य के उतरने का सिलसिला किसी रोष के कारण नहीं रोका गया था, बल्कि इसमें वही नीति काम कर रही थी जो रौशन दिन के बाद रात का सुकून छा जाने में काम कर रही होती है, अर्थात् वह्य की तेज़ रौशनी अगर आपपर बराबर पड़ती रहती तो आपके स्नायु उसे सह न पाते। इसलिए बीच में अंतराल दिया गया, ताकि आपको शान्ति मिल जाए। यह स्थिति नबी (सल्ल०) पर नुबूवत के आरम्भिक काल में पैदा होती थी, जबकि अभी आपको वह्य के उतरने की तीव्रता सहने की आदत नहीं पड़ी थी। इस कारण बीच-बीच में अंतराल की ज़रूरत पड़ती थी। बाद में जब नबी (सल्ल०) के अन्दर इस बोझ को सहने की शक्ति पैदा हो गई तो लम्बे अंतराल देने की ज़रूरत बाक़ी नहीं रही।

विषय और वार्ता

इसका विषय अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तसल्ली देना है और उद्देश्य उस परेशानी को दूर करना है जो वह्य उतरने का सिलसिला रुक जाने से आपको हो रही थी। सबसे पहले रौशन दिन और रात के सुकून की क़सम खाकर आपको इत्मीनान दिलाया गया है कि आपके रब ने आपको हरगिज़ नहीं छोड़ा है और न वह आपसे रुष्ट हुआ है। इसके बाद आपको शुभ-सूचना दी गई है कि इस्‍लामी दावत के शुरू के समय में जिन भारी कठिनाइयों से आपको वास्ता पड़ रहा है, यह थोड़े दिनों की बात है। आपके लिए हर बाद का दौर पहले दौर से बेहतर होता चला जाएगा और कुछ अधिक देर न गुज़रेगी कि अल्लाह आप पर कृपाओं एवं इनामों की ऐसी वर्षा करेगा जिससे आप प्रसन्न हो जाएँगे। यह क़ुरआन की उन खुली भविष्यवाणियों में से एक है जो बाद में अक्षरशः पूरी हुईं। इसके बाद अल्लाह ने अपने प्यारे दोस्त मुहम्मद (सल्ल०) से कहा है कि तुम्हें यह परेशानी कैसे होने लगी कि हमने तुम्हें छोड़ दिया है और हम तुमसे रुष्ट हो गए हैं। हम तो तुम्हारे जन्म के दिन से बराबर तुमपर कृपा करते चले आ रहे हैं। तुम अनाथ पैदा हुए थे, हमने तुम्हारे पालन-पोषण और निगरानी का उत्तम प्रबन्ध कर दिया। तुम रास्ता नहीं जानते थे, हमने तुम्हें रास्ता बताया। तुम धनहीन थे, हमने तुम्हें धनवान बनाया। ये सारी बातें स्पष्ट रूप से कह रही हैं कि तुम आरम्भ ही से हमारे चहेते हो और हमारी कृपा एवं दया स्थायी रूप से तुम्हारे साथ है। अन्त में अल्लाह ने नबी (सल्ल०) को बताया है कि जो उपकार हमने तुमपर किए हैं उनके उत्तर में अल्लाह के बन्दों के साथ तुम्हारा क्या व्यवहार होना चाहिए और हमारी नेमतों के प्रति आभार तुम्हें किस तरह व्यक्त करना चाहिए।

---------------------

وَٱلَّيۡلِ إِذَا سَجَىٰ ۝ 1
(2) और रात की, जबकि वह सुकून के साथ छा जाए,2
2. अस्ल में रात के लिए अरबी लफ़्ज़ ‘सजा’ इस्तेमाल हुआ है जिसमें न सिर्फ़ अंधेरा छा जाने ही का, बल्कि ख़ामोशी और सुकून छा जाने का मतलब भी शामिल है। रात की इस ख़ूबी का उस बात से गहरा ताल्लुक़ है जो आगे बयान हो रही है।
مَا وَدَّعَكَ رَبُّكَ وَمَا قَلَىٰ ۝ 2
(3) (ऐ नबी!) तुम्हारे रब ने तुमको हरगिज़ नहीं छोड़ा और न वह नाराज़ हुआ।3
3. रिवायतों से मालूम होता है कि कुछ मुद्दत तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर वह्य का उतरना बन्द रहा था। अलग-अलग रिवायतों में यह मुद्दत अलग-अलग बयान की गई है। इब्ने-जुरैज ने 12 दिन, कल्बी ने 15 दिन, इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने 25 दिन, सुद्दी और मुक़ातिल ने 40 दिन इसकी मुद्दत बयान की है। बहरहाल यह ज़माना इतना लम्बा था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) भी इसपर बहुत उदास हो गए थे और मुख़ालफ़त करनेवाले भी आप (सल्ल०) को ताने देने लगे थे, क्योंकि नबी (सल्ल०) पर जो नई सूरत उतरती थी उसे नबी (सल्ल०) लोगों को सुनाया करते थे, इसलिए जब अच्छी-ख़ासी मुद्दत तक नबी (सल्ल०) ने कोई नई वह्य लोगों को नहीं सुनाई तो मुख़ालफ़त करनेवालों ने समझ लिया कि वह अस्ल रास्ता बन्द हो गया है जहाँ से यह कलाम आता था। जुन्दुब-बिन-अब्दुल्लाह अल-बजली की रिवायत है कि जब जिबरील (अलैहि०) के आने का सिलसिला रुक गया तो मुशरिकों ने कहना शुरू कर दिया कि मुहम्मद को उनके रब ने छोड़ दिया है (हदीस : इब्ने-जरीर, तबरानी, अब्द-बिन-हुमैद, सईद-बिन-मंसूर, इब्ने-मरदुवैह)। दूसरी रिवायतों से मालूम होता है कि अबू-लह्ब की बीवी उम्मे-जमील ने, जो नबी (सल्ल०) की चची होती थी और जिसका घर नबी (सल्ल०) के मकान से मिला हुआ था, आपसे कहा, “ऐसा लगता है कि तुम्हारे शैतान ने तुम्हें छोड़ दिया है।” औफ़ी और इब्ने-जरीर ने इब्ने-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत नक़्ल की है कि कई दिनों तक जब जिबरील (अलैहि०) का आना रुक जाने से नबी (सल्ल०) परेशान हो गए और मुशरिक लोग कहने लगे कि इनका रब इनसे नाराज़ हो गया है और उसने इन्हें छोड़ दिया है। क़तादा और ज़ह्हाक की मुर्सल रिवायतों में भी लगभग यही बात बयान हुई है। इस सूरते-हाल में नबी (सल्ल०) के सख़्त रंजो-ग़म का हाल भी कई रिवायतों में आया है। और ऐसा क्यों न होता जबकि प्यारे रब की तरफ़ से बज़ाहिर बेरुख़ी, कुफ़्र और ईमान के बीच जंग छिड़ जाने के बाद ताक़त के उसी ज़रिए से बज़ाहिर महरूमी जो इस जान को घुला देनेवाली कशमकश के मंझधार में आप (सल्ल०) के लिए एक ही सहारा था, और फिर उसपर यह भी कि दुश्मनों का हँसी उड़ाना, ये सारी चीज़ें मिल-जुलकर ज़रूर ही नबी (सल्ल०) के लिए सख़्त परेशानी का सबब हो रही होंगी और आप (सल्ल०) को बार-बार यह शक-शुब्हा गुज़रता होगा कि कहीं मुझसे कोई ऐसा क़ुसूर तो नहीं हो गया है कि मेरा रब मुझसे नाराज़ हो गया हो और उसने मुझे हक़ और बातिल (सत्य-असत्य) की इस लड़ाई में अकेला छोड़ दिया हो। इसी कैफ़ियत में यह सूरा नबी (सल्ल०) को तसल्ली देने के लिए उतरी। इसमें दिन की रौशनी और रात के सुकून की क़सम खाकर नबी (सल्ल०) से फ़रमाया गया कि तुम्हारे रब ने न तुम्हें छोड़ दिया है और न तुमसे नाराज़ हुआ है। इस बात पर इन दोनों चीज़ों की क़सम जिस वजह से खाई गई है वह यह है कि जिस तरह दिन का रौशन होना और रात का अंधेरा और सुकून लिए हुए छा जाना कुछ इस वजह से नहीं होता कि अल्लाह तआला दिन के वक़्त लोगों से ख़ुश और रात के वक़्त उनसे नाराज़ हो जाता है, बल्कि ये दोनों हालतें एक बड़ी हिकमत और मस्लहत के तहत आती हैं, उसी तरह तुमपर कभी वह्य भेजना और कभी उसको रोक लेना भी हिकमत और मस्लहत की बुनियाद पर है, इसका कोई ताल्लुक़ इस बात से नहीं है कि जब अल्लाह तुमसे ख़ुश हो तो वह्य भेजे और जब वह वह्य न भेजे तो इसका मतलब यह हो कि वह तुमसे नाराज़ है और उसने तुम्हें छोड़ दिया है। इसके अलावा दूसरी वजह इस क़सम की यह है कि जिस तरह दिन की रौशनी अगर लगातार आदमी पर छाई रहे तो वह उसे थका दे, इसलिए एक ख़ास वक़्त तक दिन के रौशन रहने के बाद रात का आना ज़रूरी है, ताकि उसमें इनसान को सुकून मिले, उसी तरह वह्य की रौशनी अगर तुमपर लगातार पड़ती रहे तो तुम्हारे आसाब (स्नायु) उसको बरदाश्त न कर सकेंगे, इसलिए वक़्त-वक़्त पर ‘फ़तरह’ (वह्य उतरने का सिलसिला रुक जाने) का एक ज़माना भी अल्लाह तआला ने मस्लहत की बुनियाद पर रखा है, ताकि वह्य के आने से जो बोझ तुमपर पड़ता है उसके असरात ख़त्म हो जाएँ और तुम्हें सुकून हासिल हो जाए। मानो वह्य के सूरज का निकलना रौशन दिन की तरह है और ‘फ़तरह’ का ज़माना रात के सुकून की तरह।
وَلَلۡأٓخِرَةُ خَيۡرٞ لَّكَ مِنَ ٱلۡأُولَىٰ ۝ 3
(4) और यक़ीनन तुम्हारे लिए बाद का दौर पहले दौर से बेहतर है,4
4. यह ख़ुशख़बरी अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को ऐसी हालत में दी थी जबकि कुछ मुट्ठी भर आदमी आपके साथ थे, सारी क़ौम आप (सल्ल०) की मुख़ालिफ़ थी, बज़ाहिर कामयाबी के आसार दूर-दूर कहीं दिखाई न देते थे। इस्लाम की शमा मक्का ही में टिमटिमा रही थी और उसे बुझा देने के लिए हर तरफ़ तूफ़ान उठ रहे थे। उस वक़्त अल्लाह तआला ने अपने नबी (सल्ल०) से फ़रमाया कि शुरुआती दौर की मुश्किलों से आप ज़रा परेशान न हों। हर बाद का दौर पहले दौर से आपके लिए बेहतर साबित होगा। आप की क़ुव्वत, आपकी इज़्ज़त, शानो-शौकत और आपकी क़द्र और अहमियत बराबर बढ़ती चली जाएगी और आपकी पहुँच और असर फैलता चला जाएगा। फिर यह वादा सिर्फ़ दुनिया ही तक सीमित नहीं है, इसमें यह वादा भी शामिल है कि आख़िरत में जो रुत्बा आपको मिलेगा वह उस रुत्बे से भी कई दर्जे बढ़कर होगा जो दुनिया में आपको हासिल होगा। तबरानी ने ‘औसत’ में और बैहक़ी ने ‘दलाइल’ में इब्ने-अब्बास (रजि०) की रिवायत नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मेरे सामने वे तमाम कामयाबियाँ पेश की गईं जो मेरे बाद मेरी उम्मत को हासिल होनेवाली हैं। इसपर मुझे बड़ी ख़ुशी हुई। तब अल्लाह तआला ने यह बात नाज़िल फ़रमाई कि आख़िरत तुम्हारे लिए दुनिया से भी बेहतर है।”
وَلَسَوۡفَ يُعۡطِيكَ رَبُّكَ فَتَرۡضَىٰٓ ۝ 4
(5) और बहुत जल्द तुम्हारा रब तुमको इतना देगा कि तुम ख़ुश हो जाओगे।5
5. यानी अगरचे देने में कुछ देर तो लगेगी, लेकिन वह वक़्त दूर नहीं है जब तुमपर तुम्हारे रब की देन और बख़शिश की वह बारिश होगी कि तुम ख़ुश हो जाओगे। यह वादा नबी (सल्ल०) की ज़िन्दगी ही में इस तरह पूरा हुआ कि सारा अरब देश दक्षिण के समुद्र के साहिलों (तटों) से लेकर उत्तर में रूमी (रोमी) सल्तनत की सीरियाई और फ़ारस सल्तनत की इराक़ी सरहदों तक, और पूरब में फ़ारस की खाड़ी से लेकर पश्चिम में लाल सागर तक आपके मातहत हो गया, अरब की तारीख़ में पहली बार यह सरज़मीन एक क़ानून और ज़ाब्ते के ताबे (अधीन) हो गई, जो ताक़त भी इससे टकराई वह चूर-चूर हो कर रह गई, कलिमा ‘ला इला-ह इल्लल्लाहु मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह’ (अल्लाह के सिवा कोई इबादत के लायक़ नहीं और मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं) से पूरा देश गूँज उठा जिसमें अरब के मुशरिक लोग और अहले-किताब अपने झूठे कलिमे बुलन्द रखने के लिए आख़िरी दम तक एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा चुके थे, लोगों के सिर्फ़ सिर ही फ़रमाँबरदारी में नहीं झुक गए, बल्कि उनके दिल भी झुक गए और अक़ीदों, अख़लाक़ और आमाल में एक बड़ा इनक़िलाब बरपा हो गया। पूरी इनसानी तारीख़ में इसकी मिसाल नहीं मिलती कि एक जाहिलियत में डूबी हुई क़ौम सिर्फ़ 23 साल के अन्दर इतनी बदल गई हो। इसके बाद नबी (सल्ल०) की बरपा की हुई तहरीक (आन्दोलन) इस ताक़त के साथ उठी कि एशिया, अफ़्रीक़ा और यूरोप के एक बड़े हिस्से पर वह छा गई और दुनिया के कोने-कोने में उसके असरात फैल गए। यह कुछ तो अल्लाह तआला ने अपने रसूल को दुनिया में दिया, और आख़िरत में जो कुछ देगा उसकी बड़ाई का कोई तसव्वुर भी नहीं कर सकता। (इसके अलावा देखो सूरा-20 ता-हा, हाशिया-112)
أَلَمۡ يَجِدۡكَ يَتِيمٗا فَـَٔاوَىٰ ۝ 5
(6) क्या उसने तुमको यतीम नहीं पाया और फिर ठिकाना दिया?6
6. यानी तुम्हें छोड़ देने और तुमसे नाराज़ हो जाने का क्या सवाल, हम तो उस वक़्त से तुमपर मेहरबान हैं जब तुम यतीम पैदा हुए थे। नबी (सल्ल०) अभी माँ के पेट ही में छः महीने के थे जब आपके बाप का इन्तिक़ाल हो गया। इसलिए आप (सल्ल०) दुनिया में यतीम ही की हैसियत से तशरीफ़ लाए। मगर अल्लाह तआला ने एक दिन भी आप (सल्ल०) को बेसहारा न छोड़ा। छः साल की उम्र तक आपकी प्यारी माँ आप (सल्ल०) की परवरिश करती रहीं। उनकी मुहब्बत से महरूम हुए तो 8 साल की उम्र तक आपके दादा ने आपको इस तरह पाला-पोसा कि उनको न सिर्फ़ आपसे ग़ैर-मामूली मुहब्बत थी, बल्कि उनको आप (सल्ल०) पर फ़ख़्र भी था और वह लोगों से कहा करते थे कि मेरा यह बेटा एक दिन दुनिया में बड़ा नाम पैदा करेगा। उनका भी इन्तिक़ाल हो गया तो आपके सगे चचा अबू-तालिब ने आपकी ज़िम्मेदारी अपने ज़िम्मे ले ली और आपके साथ ऐसी मुहब्बत का बरताव किया कि कोई बाप भी इससे ज़्यादा नहीं कर सकता, यहाँ तक कि नुबूवत के बाद जब सारी क़ौम आपकी दुश्मन हो गई थी उस वक़्त दस साल तक वही आप की हिमायत में ढाल बने रहे।
وَوَجَدَكَ ضَآلّٗا فَهَدَىٰ ۝ 6
(7) और तुम्हें राह से अनजान पाया और फिर सही रास्ता दिखाया।7
7. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘ज़ाल्लन’ इस्तेमाल हुआ है जो ‘ज़लालत’ से निकला है। अरबी ज़बान में यह लफ़्ज़ कई मानी में इस्तेमाल होता है। इसका एक मतलब गुमराही है। दूसरा मतलब यह है कि कोई आदमी रास्ता न जानता हो और एक जगह हैरान खड़ा हो कि अलग-अलग रास्ते जो सामने हैं इनमें से किधर जाऊँ। एक और मतलब है ‘खोया हुआ’, चुनाँचे अरबी मुहावरे में कहते हैं, ‘ज़ल्लल-माउ फ़िल-लबनि’ (पानी दूध में गुम हो गया)। उस पेड़ को भी अरबी में ‘ज़ाल्लह’ कहते हैं जो रेगिस्तान में अकेला खड़ा हो और आस-पास कोई दूसरा पेड़ न हो। बरबाद होने के लिए भी ‘ज़लाल’ का लफ़्ज़ बोला जाता है। मसलन कोई चीज़ साज़गार (अनुकूल) हालात न पाकर बरदाद हो रही हो। ग़फ़लत के लिए भी ‘ज़लाल’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल होता है, चुनाँचे ख़ुद क़ुरआन मजीद में सूरा-20 ता-हा, आयत-92 में इसकी मिसाल मौजूद है कि ‘ला यज़िल्लु रब्बी वला यन्-स’ (मेरा रब न ग़ाफ़िल होता है न भूलता है)। इन अलग-अलग मतलबों में से पहला मतलब यहाँ चस्पाँ नहीं होता, क्योंकि बचपन से पहले नुबूवत तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के जो हालात इतिहास में मौजूद हैं, उनमें कहीं इस बात का हल्का-सा इशारा तक नहीं पाया जाता कि आप (सल्ल०) कभी बुतपरस्ती, शिर्क या नास्तिकता में पड़े हों, या जाहिलियत के जो आमाल, रस्में और तौर-तरीक़े आप (सल्ल०) की क़ौम में पाए जाते थे उनमें से किसी में आप पड़े हों। इसलिए लाज़िमन ‘व-व-ज-द-क ज़ाल्लन’ का यह मतलब तो नहीं हो सकता कि अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को अक़ीदे या अमल के लिहाज़ से गुमराह पाया था। अलबत्ता बाक़ी मतलब किसी-न-किसी तौर पर यहाँ मुराद हो सकते हैं, बल्कि हो सकता है कि एक-एक एतिबार से सब मुराद हों। नुबूवत से पहले नबी (सल्ल०) अल्लाह की हस्ती और उसको एक मानते तो ज़रूर थे, और आपकी ज़िन्दगी गुनाहों से पाक और अख़लाक़ी ख़ूबियों से मालामाल थी, लेकिन आप (सल्ल०) को सच्चे दीन और उसके उसूल और हुक्मों का इल्म न था, जैसा कि क़ुरआन में फ़रमाया गया है, “तुम जानते न थे कि किताब क्या होती है और न ईमान की तुम्हें कोई ख़बर थी।” (सूरा-42 शूरा, आयत 52)। यह मतलब भी इस आयत का हो सकता है कि नबी (सल्ल०) एक जाहिल समाज में गुम होकर रह गए थे और एक मार्गदर्शक और रास्ता बतानेवाला होने की हैसियत से आप (सल्ल०) की शख़सियत नुबूवत से पहले नुमायाँ नहीं हो रही थी। यह मतलब भी हो सकता है कि जाहिलियत के रेगिस्तान में आप (सल्ल०) एक अकेले पेड़ की हैसियत से खड़े थे जिसमें फल लाने और एक पूरा बाग़-का-बाग़ पैदा कर देने की सलाहियत (क्षमता) थी, मगर नुबूवत से पहले यह सलाहियत काम नहीं आ रही थी। यह मुराद भी हो सकती है कि अल्लाह तआला ने जो ग़ैर-मामूली क़ुव्वतें आप (सल्ल०) को दी थीं वे जाहिलियत के ख़राब माहौल में बरबाद हो रही थीं। ज़लाल को ग़फ़लत के मानी में भी लिया जा सकता है, यानी आप उन हक़ीक़तों और इल्मों से ग़ाफ़िल थे जिनसे नुबूवत के बाद अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को आगाह किया। यह बात ख़ुद क़ुरआन में भी एक जगह कही गई है— “और अगरचे तुम इससे पहले इन बातों से ग़ाफ़िल थे।” (सूरा-12 यूसुफ़, आयत-3)
وَوَجَدَكَ عَآئِلٗا فَأَغۡنَىٰ ۝ 7
(8) और तुम्हें तंगहाल पाया और फिर मालदार कर दिया।8
8. नबी (सल्ल०) के लिए उनके वालिद ने विरासत में सिर्फ़ एक ऊँटनी और एक लौंडी छोड़ी थी। इस तरह आप (सल्ल०) की ज़िन्दगी की शुरुआत ग़रीबी की हालत में हुई थी। फिर एक वक़्त ऐसा आया कि क़ुरैश की सबसे मालदार औरत हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ने पहले तिजारत में आपको अपने साथ शरीक किया, इसके बाद उन्होंने आप (सल्ल०) से शादी कर ली और उनके तमाम तिजारती कारोबार को आपने संभाल लिया। इस तरह आप न सिर्फ़ यह कि मालदार हो गए, बल्कि आपकी मालदारी इस तरह की न थी कि सिर्फ़ बीवी के माल पर आपका दारोमदार हो। उनकी तिजारत को तरक़्क़ी देने में आपकी अपनी मेहनत और क़ाबिलियत का बड़ा हिस्सा था।
فَأَمَّا ٱلۡيَتِيمَ فَلَا تَقۡهَرۡ ۝ 8
(9) लिहाज़ा यतीम पर सख़्ती न करो9,
9. यानी तुम चूँकि ख़ुद यतीम रह चुके हो, और अल्लाह ने तुमपर यह मेहरबानी की कि यतीमी की हालत में बेहतरीन तरीक़े से तुम्हारी मदद की, इसलिए उसका शुक्राना यह है कि तुम्हारे हाथ से कभी किसी यतीम पर ज़ुल्म और ज़्यादती न होने पाए।
وَأَمَّا ٱلسَّآئِلَ فَلَا تَنۡهَرۡ ۝ 9
(10) और माँगनेवाले को न झिड़को10,
10. इसके दो मतलब हैं। अगर ‘साइल’ (माँगनेवाले) को मदद माँगनेवाले ज़रूरतमन्द के मानी में लिया जाए तो इसका मतलब यह है कि उसकी मदद कर सकते हो तो कर दो, न कर सकते हो तो नरमी के साथ मना कर दो, मगर बहरहाल उसे झिड़को नहीं। इस मतलब के लिहाज़ से यह हिदायत अल्लाह तआला के इस एहसान के जवाब में है कि “तुम तंगहाल थे फिर उसने तुम्हें मालदार कर दिया।” और अगर ‘साइल’ को पूछनेवाले, यानी दीन का कोई मसला या हुक्म पूछनेवाले के मानी में लिया जाए तो इसका मतलब यह है कि ऐसा शख़्स चाहे कैसा ही जाहिल और उजड्ड हो, और बज़ाहिर चाहे कितने ही ग़लत तरीक़े से सवाल करे या अपने ज़ेहन की उलझन पेश करे, बहरहाल नरमी के साथ उसे जवाब दो और इल्म का घमण्ड रखनेवाले बदमिज़ाज लोगों की तरह उसे झिड़ककर दूर न भगा दो। इस मतलब के लिहाज़ से यह फ़रमाना अल्लाह तआला के इस एहसान के जवाब में है कि “तुम राह से अनजान थे फिर उसने तुम्हें सीधा रास्ता दिखाया।” हज़रत अबू-दरदा (रज़ि०), हसन बसरी (रह०), सुफ़ियान सौरी (रह०) और कुछ दूसरे बुज़ुर्गों ने इसी दूसरे मतलब को ज़्यादा तरजीह (प्राथमिकता) दी है, क्योंकि बात की तरतीब के हिसाब से यह हुक्म ‘व-व-ज-द-क ज़ाल्लन फ़-हदा’ (और तुम्हें राह से अनजान पाया और फिर सही रास्ता दिखाया) के जवाब में आता है।
وَأَمَّا بِنِعۡمَةِ رَبِّكَ فَحَدِّثۡ ۝ 10
(11) और अपने रब की नेमत का इज़हार (प्रदर्शन) करो।11
11. नेमत का लफ़्ज़ आम है जिससे मुराद वे नेमतें भी हैं जो इस सूरा के उतरने के वक़्त अल्लाह तआला ने अपने रसूल (सल्ल०) को दी थीं, और वे नेमतें भी जो बाद में उसने अपने उन वादों के मुताबिक़ आप (सल्ल०) को दीं जो इस सूरा में उसने किए थे और जिनको उसने इन्तिहाई दर्जे तक पूरा किया। फिर हुक्म यह है कि ऐ नबी, हर नेमत जो अल्लाह ने तुमको दी है उसका ज़िक्र और उसका इज़हार करो। अब यह ज़ाहिर बात है कि नेमतों के ज़िक्र और इज़हार की अलग-अलग शक्लें हो सकती हैं और हर नेमत अपनी क़िस्म के लिहाज़ से इज़हार की एक ख़ास सूरत चाहती है। कुल मिलाकर तमाम नेमतों के इज़हार की शक्ल यह है कि ज़बान से अल्लाह का शुक्र अदा किया जाए और इस बात का इक़रार किया जाए और उसे तसलीम किया जाए कि जो नेमतें भी मुझे हासिल हैं ये सब अल्लाह की मेहरबानी और उसका एहसान हैं, वरना कोई चीज़ भी मेरे किसी निजी कमाल का नतीजा नहीं है। नुबूवत की नेमत का इज़हार इस तरीक़े से हो सकता है कि दावत और तबलीग़ का हक़ अदा किया जाए। क़ुरआन की नेमत के इज़हार की सूरत यह है कि लोगों में ज़्यादा-से-ज़्यादा उसको फैलाया जाए और उसकी तालीमात लोगों के ज़ेहनों में बिठाई जाएँ। हिदायत की नेमत का इज़हार इसी तरह हो सकता है कि अल्लाह के भटके हुए बन्दों को सीधा रास्ता बताया जाए और इस काम की सारी परेशानियों और मुसीबतों को सब्र के साथ बरदाश्त किया जाए। यतीमी में सहारा देने का जो एहसान अल्लाह तआला ने किया है उसका तक़ाज़़ा यही है कि यतीमों के साथ वैसे ही एहसान का सुलूक किया जाए। ग़रीब से मालदार बना देने का जो एहसान अल्लाह ने किया उसका इज़हार यही सूरत चाहता है कि अल्लाह के ज़रूरतमन्द बन्दों की मदद की जाए। ग़रज़ यह एक ऐसी बड़ी हिदायत थी जिसमें कई मतलब छिपे थे, जो अल्लाह तआला ने अपने इनामों और एहसानों को बयान करने के बाद इस छोटे-से जुमले में अपने प्यारे रसूल (सल्ल०) को दी।
سُورَةُ الضُّحَىٰ
93. अज़-ज़ुहा
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلضُّحَىٰ
(1) क़सम है रौशन दिन की1
1. यहाँ अरबी लफ़्ज़ ‘ज़ुहा’ रात के मुक़ाबले में इस्तेमाल हुआ है इसलिए इससे मुराद रौशन दिन है। इसकी मिसाल सूरा-7 आराफ़ की ये आयतें हैं— “क्या बस्तियों के लोग इससे निडर हैं कि उनपर हमारा अज़ाब रात को अचानक आ जाए जबकि वे सो रहे हों? और क्या बस्तियों के लोग इससे निडर हैं कि उनपर हमारा अज़ाब दिन-दहाड़े आ जाए जबकि वे खेल रहे हों?” (आयतें—97, 98)। इन आयतों में भी चूँकि ‘ज़ुहा’ का लफ़्ज़ रात के मुक़ाबले में इस्तेमाल हुआ है इसलिए इससे मुराद चाश्त (दोपहर से पहले) का वक़्त नहीं, बल्कि दिन है।