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سُورَةُ هُودٍ

  1. हूद

(मक्‍का में उतरी-आयतें 123)

परिचय

नाम

आयत 50 में पैग़म्बर हज़रत हूद का उल्लेख हुआ है; उसी को लक्षण के तौर पर इस सूरा का नाम दे दिया है।

उतरने का समय

इस सूरा के विषय पर विचार करने से ऐसा लगता है कि यह उसी काल में उतरी होगी जिसमें सूरा यूनुस उतरी थी। असंभव नहीं कि यह उसके साथ ही आगे-पीछे उतरी हो, क्योंकि भाषण का विषय वही है, मगर डरावे और चेतावनी की शैली उससे अधिक तीव्र है। हदीस में आता है कि हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से अर्ज़ किया, “मैं देखता हूँ कि आप बूढ़े होते जा रहे हैं। इसकी क्या वजह है?" उत्तर में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मुझको हूद और उस जैसी विषयवाली सूरतों ने बूढ़ा कर दिया है।” इससे अन्दाज़ा होता है कि नबी (सल्ल०) के लिए वह समय कैसा कठोर होगा, जबकि एक ओर क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मन अपने तमाम हथियारों से सत्य की उस दावत को कुचल देने की कोशिश कर रहे थे और दूसरी ओर अल्लाह की ओर से ये बार-बार चेतावनियाँ आ रही थीं। इन परिस्थितियों में आपको हर समय यह आशंका घुलाए देती होगी कि कहीं अल्लाह की दी हुई मोहलत समाप्त न हो जाए और वह अन्तिम घड़ी न आ जाए, जबकि अल्लाह किसी क़ौम को अज़ाब में पकड़ लेने का निर्णय कर देता है। वास्तविकता तो यह है कि इस सूरा को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जैसे एक बाढ़ का बाँध टूटने को है और उस भुलावे में पड़ी हुई आबादी को, जो इस बाढ़ की शिकार होनेवाली है, अन्तिम चेतावनी दी जा रही है।

विषय और वार्ताएँ

भाषण का विषय, जैसा कि अभी वर्णित किया जा चुका था, वही है जो सूरा यूनुस का था, अर्थात् दावत (इस्लाम की ओर आमंत्रण), समझाना-बुझाना और चेतावनी । लेकिन अन्तर यह है कि सूरा यूनुस के मुक़ाबले में यहाँ दावत संक्षेप में है। समझाने-बुझाने में तर्कों का ज़ोर कम है और उपदेश अधिक है और चेतावनी सविस्तार और ज़ोरदार है।

दावत यह है कि पैग़म्बर की बात मानो, शिर्क को छोड़ दो, सबकी बन्दगी छोड़कर अल्लाह के बन्दे बनो और अपनी दुनिया की ज़िन्दगी की सारी व्यवस्था आख़िरत की जवाबदेही के एहसास पर स्थापित करो।

समझाना यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी के प्रत्यक्ष पहलू पर भरोसा करके जिन क़ौमों ने अल्लाह के रसूलों की दावत को ठुकराया है, वे इससे पहले बहुत बुरा अंजाम देख चुकी हैं। अब क्या ज़रूरी है कि तुम भी उसी राह पर चलो, जिसे इतिहास के लगातार अनुभव निश्चित रूप से विनाश का रास्ता सिद्ध कर चुके हैं।

चेतावनी यह है कि अज़ाब के आने में जो देर हो रही है, यह वास्तव में एक मोहलत है जो अल्लाह अपनी कृपा से तुम्हें दे रहा है। इस मोहलत के अन्दर अगर तुम न संभले तो वह अज़ाब आएगा जो किसी के टाले न टल सकेगा और ईमानवालों की मुट्ठी-भर जमाअत को छोड़कर तुम्हारी सारी क़ौम का नामो-निशान मिटा देगा।

इस विषय को स्पष्ट करने के लिए सीधे सम्बोधन की अपेक्षा नूह की क़ौम, आद, समूद, लूत की क़ौम, मयदन के लोग और फ़िरऔन की क़ौम के क़िस्सों से अधिक काम लिया गया है। इन क़िस्सों में मुख्य रूप से जो बात स्पष्ट की गई है, वह यह है कि अल्लाह जब फ़ैसला चुकाने पर आता है, तो फिर बिलकुल बे-लाग तरीक़े से निर्णय करता है। इसमें किसी के साथ तनिक भर भी रिआयत नहीं होती। उस समय यह नहीं देखा जाता कि कौन किसका बेटा और किसका रिश्तेदार है। अल्लाह की दयालुता सिर्फ़ उसके हिस्से में आती है जो सीधे रास्ते पर आ गया हो, वरना अल्लाह के प्रकोप से न किसी पैग़म्बर का बेटा बचता है और न किसी पैग़म्बर की बीवी। यही नहीं, बल्कि जब ईमान और कुफ़्र (अधर्म) का दो टूक फ़ैसला हो रहा हो तो दीन का स्वभाव यह चाहता है कि स्वयं मोमिन भी बाप और बेटे और पति और पत्नी के रिश्तों को भूल जाए और अल्लाह के न्याय की तलवार की तरह बिलकुल बे-लाग होकर सत्य के एक रिश्ते के सिवा हर दूसरे रिश्ते को काट फेंके। ऐसे अवसर पर ख़ून और वंश की रिश्तेदारियों का थोड़ा-सा भी ध्यान कर जाना इस्लाम की आत्मा के विपरीत है। यही वह शिक्षा थी जिसका पूरा-पूरा प्रदर्शन तीन-चार साल बाद मक्का के मुहाजिर मुसलमानों ने बद्र की लड़ाई में करके दिखाया।

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سُورَةُ هُودٍ
11. हूद.
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो निहायत मेहरबान और रहम करनेवाला है
الٓرۚ كِتَٰبٌ أُحۡكِمَتۡ ءَايَٰتُهُۥ ثُمَّ فُصِّلَتۡ مِن لَّدُنۡ حَكِيمٍ خَبِيرٍ
(1) अलिफ़-लाम-रा। फ़रमान है1, जिसकी आयतें पुख़्ता और तफ़सील से बयान हुई हैं2, एक हिकमतवाली और ख़बर रखनेवाली हस्ती की तरफ़ से,
1. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'किताब' इस्तेमाल हुआ है। 'किताब' का तर्जमा यहाँ अन्दाज़े-बयान को देखते हुए 'फ़रमान' किया गया है। अरबी ज़बान में यह लफ़्ज़ किताब और लिखी हुई चीज़ ही के मानी में नहीं आता, बल्कि हुक्म और शाही फ़रमान के मानी में भी आता है और ख़ुद क़ुरआन में कई जगहों पर यह लफ़्ज़ इसी मानी में इस्तेमाल हुआ है।
2. यानी इस फ़रमान में जो बातें बयान की गई हैं वे पक्की और अटल हैं। ख़ूब नपी-तुली हैं। निरी लफ़्फ़ाज़ी (शब्दजाल) नहीं हैं। तक़रीर की जादूगरी और ख़याल की शायरी नहीं है। ठीक-ठीक हक़ीकत बयान की गई है और इसका एक लफ़्ज़ भी ऐसा नहीं जो हक़ीक़त से कम या ज़्यादा हो। फिर ये आयतें तफ़सीली भी हैं, इनमें एक-एक बात खोल-खोलकर साफ़ तरीक़े से बयान की गई है। बयान उलझा हुआ, गुंजलक और ग़ैर-वाज़ेह नहीं है। हर बात को अलग-अलग, साफ़-साफ़ समझाकर बताया गया है।
أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۚ إِنَّنِي لَكُم مِّنۡهُ نَذِيرٞ وَبَشِيرٞ ۝ 1
(2) कि तुम बन्दगी न करो, मगर सिर्फ़ अल्लाह की। मैं उसकी तरफ़ से तुमको ख़बरदार करनेवाला भी हूँ और ख़ुशख़बरी देनेवाला भी।
وَأَنِ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِ يُمَتِّعۡكُم مَّتَٰعًا حَسَنًا إِلَىٰٓ أَجَلٖ مُّسَمّٗى وَيُؤۡتِ كُلَّ ذِي فَضۡلٖ فَضۡلَهُۥۖ وَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٖ كَبِيرٍ ۝ 2
(3) और यह कि तुम अपने रब से माफ़ी चाहो और उसकी तरफ़ पलट आओ, तो वह एक ख़ास मुद्दत तक तुमको अच्छा सामाने-ज़िन्दगी देगा3 और हर साहिबे-फ़ज़्ल (श्रेष्ठ) को उसका फ़ज़्ल (श्रेष्ठता) अता करेगा।4 लेकिन अगर तुम मुँह फेरते हो तो मैं तुम्हारे हक़ में एक हौलनाक दिन के अज़ाब से डरता हूँ।
3. यानी दुनिया में तुम्हारे ठहरने के लिए जो वक़्त मुक़र्रर है उस वक़्त तक वह तुमको बुरी तरह नहीं, बल्कि अच्छी तरह रखेगा। उसकी नेमतें तुम पर बरसेंगी। उसकी बरकतों से मालामाल होगे। ख़ुशहाल और मालदार रहोगे। ज़िन्दगी में अम्न और चैन हासिल होगा। रुसवाई और बेइज़्ज़ती के साथ नहीं, बल्कि इज़्ज़त और एहतिराम के साथ जियोगे। यही मज़मून दूसरे मौक़े पर इस तरह बयान हुआ है कि, “जो शख़्स भी ईमान के साथ नेक अमल करेगा, चाहे वह मर्द हो, या औरत, हम उसको पाकीज़ा ज़िन्दगी बसर कराएँगे।” (क़ुरआन; सूरा-16 नह्ल, आयत-97) इसका मक़सद लोगों की उस आम ग़लतफ़हमी को दूर करना है जो शैतान ने हर नासमझ दुनिया-परस्त आदमी के कान में फूँक रखी है कि ख़ुदातरसी, सच्चाई और ज़िम्मेदारी के एहसास का तरीक़ा अपनाने से आदमी की आख़िरत बनती हो तो बनती हो, मगर दुनिया ज़रूर बिगड़ जाती है। और यह कि ऐसे लोगों के लिए दुनिया में भूख-प्यास की तकलीफ़ सहने और तंगहाल रहने के सिवा कोई ज़िन्दगी नहीं है। अल्लाह तआला इस ख़याल को ग़लत बताते हुए फ़रमाता है कि इस सीधे और सही रास्ते पर चलने से तुम्हारी सिर्फ़ आख़िरत ही नहीं, बल्कि दुनिया भी बनेगी। आख़िरत की तरह इस दुनिया की हक़ीक़ी इज़्ज़त व कामयाबी भी ऐसे ही लोगों के लिए है जो सच्ची ख़ुदा-परस्ती के साथ नेकियों भरी ज़िन्दगी गुज़ारें, जिनके अख़लाक़ पाकीज़ा हों, जिनके मामलात दुरुस्त हों, जिनपर हर मामले में भरोसा किया जा सके, जिनसे हर शख़्स भलाई की उम्मीद रखता हो, जिनसे किसी इनसान को या किसी क़ौम को बुराई का अन्देशा न हो। इसके अलावा अस्ल अरबी में इस्तेमाल हुए ‘मताउन हसनुन’ (अच्छा सामाने-ज़िन्दगी) के अलफ़ाज़ में एक और पहलू भी है जो निगाह से ओझल न रह जाना चाहिए। दुनिया का सामाने-ज़िन्दगी क़ुरआन मजीद के मुताबिक़ दो क़िस्म का है। एक वह सरो-सामान है जो ख़ुदा से फिरे हुए लोगों को फ़ितने में डालने के लिए दिया जाता है और जिससे धोखा खाकर ऐसे लोग अपने आपको दुनिया-परस्ती और ख़ुदा को भूल जाने में और ज़्यादा गुम कर देते हैं। यह माल बज़ाहिर तो नेमत है, मगर अस्ल में ख़ुदा की फिटकार और उसके अज़ाब की शुरुआत है। क़ुरआन मजीद इसको ‘मताउन गुरूर’ (धोखे का सामान) के अलफ़ाज़ से याद करता है। दूसरा वह सरो-सामान है जिससे इनसान ख़ुशहाल और ताक़तवर होकर अपने ख़ुदा का और ज़्यादा शुक्रगुज़ार बनता है, ख़ुदा और उसके बन्दों के और ख़ुद अपने नफ़्स के हक़ों को ज़्यादा अच्छी तरह अदा करता है, ख़ुदा के दिए हुए वसाइल (संसाधनों) से ताक़त पाकर दुनिया में भलाई और बेहतरी की तरक़्क़ी और बुराई और बिगाड़ को पूरी तरह खत्म करने के लिए ज़्यादा असरदार कोशिश करने लगता है। यह क़ुरआन की ज़बान में ‘मताउन हसनुन’ है, यानी ऐसा अच्छा सामाने-ज़िन्दगी जो सिर्फ़ दुनिया के ऐश ही पर खत्म नहीं हो जाता, बल्कि नतीजे में आख़िरत के ऐश का भी ज़रिआ बनता है।
4. यानी जो शख़्स अख़लाक़ व आमाल में जितना भी आगे बढ़ेगा अल्लाह उसको उतना ही बड़ा दरजा देगा। अल्लाह के यहाँ किसी की ख़ूबी पर पानी नहीं फेरा जाता। उसके यहाँ जिस तरह बुराई की क़द्र नहीं है उसी तरह भलाई की नाक़द्री भी नहीं है। उसकी सल्तनत का दस्तूर यह नहीं है कि क़ाबिल लोगों के तो पैर में बेड़ियाँ डाल दी जाएँ और नालायक़ों को इनाम में सोने के मेडल दिए जाएँ। वहाँ तो जो शख़्स भी अपनी सीरत व किरादार से अपने आपको जिस इज़्ज़त और इनाम का हक़दार साबित कर देगा वह इज़्ज़त और इनाम उसको ज़रूर दिया जाएगा।
إِلَى ٱللَّهِ مَرۡجِعُكُمۡۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 3
(4) तुम सबको अल्लाह की तरफ़ पलटना है और वह सब कुछ कर सकता है।
أَلَآ إِنَّهُمۡ يَثۡنُونَ صُدُورَهُمۡ لِيَسۡتَخۡفُواْ مِنۡهُۚ أَلَا حِينَ يَسۡتَغۡشُونَ ثِيَابَهُمۡ يَعۡلَمُ مَا يُسِرُّونَ وَمَا يُعۡلِنُونَۚ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 4
(5) देखो, ये लोग अपने सीनों को मोड़ते हैं ताकि उससे छिप जाएँ।5 ख़बरदार! जब ये कपड़ों से अपने आपको ढाँपते हैं, अल्लाह इनके छिपे को भी जानता है और खुले को भी। वह तो उन भेदों को भी जानता है जो सीनों में हैं।
5. मक्का में जब नबी (सल्ल०) की दावत और पैग़ाम की चर्चा हुई तो बहुत-से लोग वहाँ ऐसे थे जो मुख़ालफ़त में तो बहुत ज़्यादा सरगर्म न थे, मगर आप (सल्ल०) की दावत से सख़्त बेज़ार थे। उन लोगों का रवैया यह था कि आप से कतराते थे, आप (सल्ल०) की किसी बात को सुनने के लिए तैयार न थे, कहीं आप (सल्ल०) को बैठे देखते तो उलटे पाँव फिर जाते, दूर से आप (सल्ल०) को आते देख लेते तो रुख़ बदल देते या कपड़े की ओट में मुहँ छिपा लेते, ताकि आमना-सामना न हो जाए और आप (सल्ल०) उन्हें मुख़ातब करके कुछ अपनी बातें न कहने लगें। इसी क़िस्म के लोगों की तरफ़ यहाँ इशारा किया है कि ये लोग सच्चाई का सामना करने से घबराते हैं और शुतुर्मुर्ग की तरह मुँह छिपाकर समझते हैं कि वह हक़ीक़त ही ग़ायब हो गई है जिससे उन्होंने मुँह छिपाया है। हालाँकि हक़ीक़त अपनी जगह मौजूद है और वह यह भी देख रही है कि बेवक़ूफ़ उससे बचने के लिए मुँह छिपाए बैठे हैं।
۞وَمَا مِن دَآبَّةٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِ رِزۡقُهَا وَيَعۡلَمُ مُسۡتَقَرَّهَا وَمُسۡتَوۡدَعَهَاۚ كُلّٞ فِي كِتَٰبٖ مُّبِينٖ ۝ 5
(6) ज़मीन में चलनेवाला कोई जानदार ऐसा नहीं है जिसकी रोज़ी अल्लाह के जिम्मे न हो और जिसके बारे में वह न तो जानता हो कि कहाँ वह रहता है और कहाँ वह सौंपा जाता है6, सब कुछ एक साफ़ दफ्तर में दर्ज है।
6. यानी जिस ख़ुदा के इल्म का हाल यह है कि एक-एक चिड़िया का घोंसला और एक-एक कीड़े का बिल उसको मालूम है और वह उसी की जगह पर उसको सामाने-ज़िन्दगी पहुँचा रहा है, और जिसको हर वक़्त इसकी ख़बर है कि कौन-सा जानदार कहाँ रहता है और कहाँ उसकी मौत होती है, उसके बारे में अगर तुम यह समझते हो कि इस तरह मुँह छिपा-छिपाकर या कानों में उँगलियाँ ठूँसकर या आँखों पर पर्दा डालकर तुम उसकी पकड़ से बच जाओगे तो बिलकुल नादान हो। हक़ की तरफ़ बुलानेवाले से तुमने मुँह छिपा भी लिया तो आख़िर इससे क्या मिलनेवाला है? क्या ख़ुदा से भी तुम छिप गए? क्या ख़ुदा यह नहीं देख रहा है कि एक शख़्स तुम्हें हक़ बात से बाख़बर करने में लगा हुआ है और तुम यह कोशिश कर रहे हो कि किसी तरह उसकी कोई बात तुम्हारे कान में न पड़ने पाए।
وَهُوَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٖ وَكَانَ عَرۡشُهُۥ عَلَى ٱلۡمَآءِ لِيَبۡلُوَكُمۡ أَيُّكُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗاۗ وَلَئِن قُلۡتَ إِنَّكُم مَّبۡعُوثُونَ مِنۢ بَعۡدِ ٱلۡمَوۡتِ لَيَقُولَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 6
(7) और वही है जिसने आसमानों और ज़मीन को छः दिनों में पैदा किया — जबकि इससे पहले उसका अर्श (सिंहासन) पानी पर था7 — ताकि तुमको आज़माकर देखे कि तुममें कौन बेहतर अमल करनेवाला है।8 अब अगर ऐ नबी! तुम कहते हो कि लोगो! मरने के बाद तुम दोबारा उठाए जाओगे तो हक़ के इनकारी फ़ौरन बोल उठते हैं कि यह तो खुली जादूगरी है9।
7. ऊपर से चली आ रही बात से हटकर दरमियान में यह बात शायद लोगों के इस सवाल के जवाब में कही गई है कि आसमान और ज़मीन अगर पहले न थे और बाद में पैदा किए गए तो पहले क्या था? इस सवाल को यहाँ नक़्ल किए बिना उसका जवाब इस मुख़्तसर से जुमले में दे दिया गया है कि पहले पानी था। हम नहीं कह सकते कि इस पानी से मुराद क्या है। यही पानी जिसे हम इस नाम से जानते हैं? या यह लफ़्ज़ सिर्फ़ अलामत के तौर पर माद्दे (भौतिक तत्त्व) की उस तरल (Fluid) हालत के लिए इस्तेमाल किया गया है जो मौजूदा सूरत में ढाले जाने से पहले थी? रहा यह कहना कि ख़ुदा का अर्श पहले पानी पर था, तो उसका मतलब हमारी समझ में यह आता है कि ख़ुदा की सल्तनत पानी पर थी।
8. इस बात को कहने का मतलब यह है कि अल्लाह तआला ने ज़मीन और आसमान को इसलिए पैदा किया कि उसका मक़सद तुमको (यानी इनसान को) पैदा करना था, और तुम्हें इसलिए पैदा किया कि तुमपर अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी का बोझ डाला जाए, तुमको ख़िलाफ़त (उत्तराधिकार) के इख़्तियार दिए जाएँ और फिर देखा जाए कि तुममें से कौन इन इख़्तियारात को और इस अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी के बोझ को किस तरह संभालता है। अगर इस पैदा करने का यह मक़सद न होता, अगर इख़्तियारात देने के बावजूद किसी इम्तिहान का, किसी हिसाब लेने और पूछ-गछ का और किसी इनाम और सज़ा का कोई सवाल न होता, और अगर इनसान को अख़लाक़ी ज़िम्मेदारी रखते हुए भी यूँ ही बेनतीजा मरकर मिट्टी हो जाना ही होता, तो फिर पैदा करने का, यह सारा काम बिलकुल एक बेमक़सद खेल था और इन सबको वुजूद में लाने की हैसियत एक बेकार काम के सिवा कुछ न थी।
9. यानी इन लोगों की नादानी का यह हाल है कि कायनात को एक खिलंडरे का घरौंदा और अपने आपको उसके जी बहलाने का खिलौना समझे बैठे हैं और इस बेवक़ूफ़ी के ख़याल में इतने मगन हैं कि जब तुम उन्हें ज़िन्दगी के इस कारखाने का संजीदा मक़सद, और ख़ुद उनके वुजूद का सही मक़सद समझाते हो तो क़हक़हा लगाते हैं और तुमपर फब्ती कसते हैं कि यह शख़्स तो जादू की-सी बातें करता है।
وَلَئِنۡ أَخَّرۡنَا عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابَ إِلَىٰٓ أُمَّةٖ مَّعۡدُودَةٖ لَّيَقُولُنَّ مَا يَحۡبِسُهُۥٓۗ أَلَا يَوۡمَ يَأۡتِيهِمۡ لَيۡسَ مَصۡرُوفًا عَنۡهُمۡ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 7
(8) और अगर हम एक ख़ास मुद्दत तक उनकी सज़ा को टालते हैं तो वे कहने लगते हैं कि आख़िर किस चीज़ ने उसे रोक रखा है? सुनो, जिस दिन उस सज़ा का वक़्त आ गया तो वह किसी के फेरे न फिर सकेगा, और वही चीज़ उनको आ घेरेगी जिसका वे मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِنَّا رَحۡمَةٗ ثُمَّ نَزَعۡنَٰهَا مِنۡهُ إِنَّهُۥ لَيَـُٔوسٞ كَفُورٞ ۝ 8
(9) अगर कभी हम इनसान को अपनी रहमत से नवाज़ने के बाद फिर उससे महरूम कर देते हैं तो वह मायूस होता है और नाशुक्री करने लगता है।
وَلَئِنۡ أَذَقۡنَٰهُ نَعۡمَآءَ بَعۡدَ ضَرَّآءَ مَسَّتۡهُ لَيَقُولَنَّ ذَهَبَ ٱلسَّيِّـَٔاتُ عَنِّيٓۚ إِنَّهُۥ لَفَرِحٞ فَخُورٌ ۝ 9
(10) और अगर उस मुसीबत के बाद जो उसपर आई थी, हम उसे नेमत का मज़ा चखाते हैं तो कहता है कि मेरे तो सारे दिलद्दर पार हो गए, फिर वह फूला नहीं समाता और अकड़ने लगता है।10
10. यह इनसान के छिछोरेपन, तंगनज़री और छोटी सोच का हाल है जिसको ज़िन्दगी में हर वक़्त देखा जा सकता है और जिसको आमतौर पर लोग अपने नफ़्स (मन) का हिसाब लेकर ख़ुद अपने अन्दर भी महसूस कर सकते हैं। आज ख़ुशहाल और ताक़तवर हैं तो अकड़ रहे हैं और फ़ख़्र कर रहे हैं। सावन के अन्धे की तरह हर तरफ़ हरा-ही-हरा नज़र आ रहा है और ख़याल तक नहीं आता कि कभी इस बहार पर पतझड़ भी आ सकता है। कल किसी मुसीबत के फेर में आ गए तो बिलबिला उठे, हसरत और नाउम्मीदी की तस्वीर बनकर रह गए, और बहुत तिलमिलाए तो ख़ुदा को गालियाँ देकर और उसकी ख़ुदाई पर ताने मारकर ग़म ग़लत करने लगे। फिर जब बुरा वक़्त गुज़र गया और भले दिन आए तो वही अकड़, वही डींगें और नेमत के नशे में वही सरमस्तियाँ फिर शुरू हो गईं। इनसान की इस गिरी हुई सिफ़त (गुण) का यहाँ क्यों ज़िक्र हो रहा है? इसका मक़सद एक बहुत ही लतीफ़ (सूक्ष्म और अच्छे) अन्दाज़ में लोगों को इस बात पर ख़बरदार करना है कि आज इत्मीनान के माहौल में जब हमारा पैग़म्बर तुम्हें ख़बरदार करता है कि ख़ुदा की नाफ़रमानियाँ करते रहोगे तो तुमपर अज़ाब आएगा, और तुम उसकी यह बात सुनकर एक ज़ोर का ठट्ठा मारते हो और कहते हो कि, “दीवाने, देखता नहीं कि हमपर नेमतों की बारिश हो रही है, हर तरफ़ हमारी बड़ाई के फुरेरे उड़ रहे हैं, इस वक़्त तुझे दिन-दहाड़े यह डरावना ख़ाब कैसे नज़र आ गया कि कोई अज़ाब हमपर टूट पड़नेवाला है", तो दरअस्ल पैग़म्बर की नसीहत के जवाब में तुम्हारा यह ठट्ठा इसी नीच सिफ़त का एक बहुत ही गिरा हुआ मुज़ाहरा है। ख़ुदा तो तुम्हारी गुमराहियों और बदकारियों के बावजूद सिर्फ़ अपने रहमो-करम से तुम्हारी सज़ा में देर कर रहा है, ताकि तुम किसी तरह संभल जाओ। मगर तुम इस मुहलत के ज़माने में यह सोच रहे हो कि हमारी ख़ुशहाली कैसी पायेदार बुनियादों पर क़ायम है और हमारा यह चमन कैसा सदाबहार है कि इसपर पतझड़ आने का कोई ख़तरा ही नहीं।
إِلَّا ٱلَّذِينَ صَبَرُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 10
(11) इस ऐब से पाक अगर कोई हैं तो बस वे लोग जो सब्र करनेवाले11,अच्छे काम करनेवाले हैं। और वही हैं जिनके लिए माफ़ी भी है और बड़ा बदला भी।12
11. यहाँ सब्र के एक और मतलब पर रौशनी पड़ती है, सब्र की सिफ़त उस छिछोरेपन के बरख़िलाफ़ है जिसका ज़िक्र ऊपर किया गया है। सब्र करनेवाला वह शख़्स है जो ज़माने के बदलते हुए हालात में अपने दिमाग़ के तवाज़ुन (सन्तुलन) को बनाए रखे। वक़्त की हर गर्दिश से असर लेकर अपने मिज़ाज का रंग बदलता न चला जाए, बल्कि एक दुरुस्त और सही रवैये पर हर हाल में क़ायम रहे। अगर कभी हालात ठीक हों, और वह दौलतमन्दी, इक़तिदार और नामवरी के आसमानों पर चढ़ा चला जा रहा हो तो बड़ाई के नशे में मस्त होकर बहकने न लगे और अगर किसी दूसरे वक़्त मुसीबतों और मुश्किलों की चक्की उसे पीसे डाल रही हो तो इनसानियत के अपने जौहर को उसमें बरबाद न कर दे। ख़ुदा की तरफ़ से आज़माइश चाहे नेमत की सूरत में आए या मुसीबत की सूरत में, दोनों हालतों में उसकी बरदाश्त और सहन करने की सिफ़त अपने हाल पर क़ायम रहे और उसकी समाई का बर्तन किसी चीज़ की भी छोटी या बड़ी मिक़दार से छलक न पड़े।
12. यानी अल्लाह ऐसे लोगों के क़ुसूर माफ़ भी करता है और उनकी भलाइयों पर बदला भी देता है।
فَلَعَلَّكَ تَارِكُۢ بَعۡضَ مَا يُوحَىٰٓ إِلَيۡكَ وَضَآئِقُۢ بِهِۦ صَدۡرُكَ أَن يَقُولُواْ لَوۡلَآ أُنزِلَ عَلَيۡهِ كَنزٌ أَوۡ جَآءَ مَعَهُۥ مَلَكٌۚ إِنَّمَآ أَنتَ نَذِيرٞۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ وَكِيلٌ ۝ 11
(12) तो ऐ पैग़म्बर! कहीं ऐसा न हो कि तुम उन चीज़ों में से किसी चीज़ को (बयान करने से) छोड़ दो जो तुम्हारी तरफ़ वह्य की जा रही हैं और इस बात पर दिल तंग हो कि वे कहेंगे, “इस शख़्स पर कोई ख़ज़ाना क्यों न उतारा गया?” या यह कि “इसके साथ कोई फ़रिश्ता क्यों न आया?” तुम तो सिर्फ़ ख़बरदार करनेवाले हो, आगे हर चीज़ का हवालेदार अल्लाह है।13
13. इस बात का मतलब समझने के लिए उन हालात को सामने रखना चाहिए जिनमें यह कहा गया है कि मक्का एक ऐसे क़बीले का मर्कज़ है जो तमाम अरब पर अपने मज़हबी इक़तिदार, अपनी दौलत और तिजारत और अपने सियासी दबदबे की वजह से छाया हुआ है। ठीक इस हालत में जबकि ये लोग अपने इन्तिहाई, उरूज (उत्थान) पर हैं उस बस्ती का एक आदमी उठता है और अलानिया कहता है कि जिस मज़हब के तुम पेशवा हो वह सरासर गुमराही है, जिस सामाजिक निज़ाम के तुम सरदार हो वह अपनी जड़ तक गला और सड़ा हुआ निज़ाम है, ख़ुदा का अज़ाब तुम पर टूट पड़ने के लिए तुला खड़ा है और तुम्हारे लिए इससे बचने की कोई सूरत इसके सिवा नहीं है कि उस सच्चे मज़हब और बेहतरीन निज़ाम को क़ुबूल कर लो जो मैं ख़ुदा की तरफ़ से तुम्हारे सामने पेश कर रहा हूँ। उस शख़्स के साथ उसकी पाक सीरत (पवित्र आचरण) और उसकी सही और मुनासिब बातों के सिवा कोई ऐसी ग़ैर-मामूली चीज़ नहीं है जिससे आम लोग उसे अल्लाह की तरफ़ से भेजा हुआ समझें और आसपास के हालात में भी मज़हब व अख़लाक़ और समाज की गहरी बुनियादी ख़राबियों के सिवा कोई ऐसी नज़र आनेवाली अलामत नहीं है जो अज़ाब उतरने की निशानदेही करती हो, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ तमाम नुमायाँ अलामतें यही ज़ाहिर कर रही हैं कि इन लोगों पर ख़ुदा की (और उनके अक़ीदे के मुताबिक़) देवताओं की बड़ी मेहरबानी है और जो कुछ वे कर रहे हैं ठीक ही कर रहे हैं। ऐसे हालात में यह बात कहने का नतीजा यह होता है, और इसके सिवा कुछ हो भी नहीं सकता, कि कुछ बहुत ही सही दिमाग़ रखनेवाले और हक़ीक़त तक पहुँचनेवाले लोगों के सिवा बस्ती के सब लोग उसके पीछे पड़ जाते हैं। कोई ज़ुल्मो-सितम से उसको दबाना चाहता है, कोई झूठे इल्ज़ामात और ओछे एतिराज़ात से उसकी हवा उखाड़ने की कोशिश करता है। कोर्ड तास्सुब भरी बेरुख़ी से उसकी हिम्मत तोड़ता है और कोई मज़ाक़ उड़ाकर, आवाज़ें और फब्तियाँ कसकर और ठट्टे लगाकर उसकी बातों को हवा में उड़ा देना चाहता है। यह इस्तिक़बाल (स्वागत) जो कई साल तक उस शख़्स की दावत का होता रहता है, जैसा कुछ दिल तोड़नेवाला और मायूस करनेवाला हो सकता है, ज़ाहिर है। बस यही सूरतेहाल है जिसमें अल्लाह तआला अपने पैग़म्बर की हिम्मत बंधाने के लिए नसीहत करता है कि अच्छे हालात में फूल जाना और बुरे हालात में मायूस हो जाना छिछोरे लोगों का काम है। हमारी निगाह में क़ीमती इनसान वह है जो नेक हो और नेकी के रास्ते पर सब्र और मज़बूती और हिम्मत के साथ चलनेवाला हो। इसलिए जिस तास्सुब से, जिस बेरुख़ी से, जिस मज़ाक़ और ठट्ठे से और जिन जहालत भरे एतिराज़ों से तुम्हारा मुक़ाबला किया जा रहा है उनकी वजह से तुम्हारे क़दम ज़रा भी डगमगाने न पाएँ। जो सच्चाई तुमको वह्य के ज़रिए बताई गई है, उसके इज़हार व एलान में और उसकी तरफ़ दावत देने में तुम्हें बिलकुल भी कोई झिझक न हो। तुम्हारे दिल में कभी यह ख़याल तक न आए कि फ़ुलाँ बात कैसे कहूँ जबकि लोग सुनते ही उसका मज़ाक़ उड़ाने लगते हैं, और फ़ुलाँ हक़ीक़त का इज़हार कैसे करूँ जबकि कोई उसे सुनने तक को तैयार नहीं है। कोई माने या न माने, तुम जिसे हक़ (सच) पाते हो बग़ैर कमी-बेशी के और निडर होकर बयान किए जाओ ,आगे सब मामले अल्लाह के हवाले हैं।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ فَأۡتُواْ بِعَشۡرِ سُوَرٖ مِّثۡلِهِۦ مُفۡتَرَيَٰتٖ وَٱدۡعُواْ مَنِ ٱسۡتَطَعۡتُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 12
(13) क्या ये कहते हैं कि पैग़म्बर ने यह किताब ख़ुद गढ़ ली है? कहो, “अच्छा,यह बात है तो इस जैसी गढ़ी हुई दस सूरतें तुम बना लाओ और अल्लाह के सिवा और जो-जो (तुम्हारे माबूद) हैं उनको मदद के लिए बुला सकते हो तो बुला लो अगर तुम (उन्हें माबूद समझने में) सच्चे हो।
فَإِلَّمۡ يَسۡتَجِيبُواْ لَكُمۡ فَٱعۡلَمُوٓاْ أَنَّمَآ أُنزِلَ بِعِلۡمِ ٱللَّهِ وَأَن لَّآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَۖ فَهَلۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 13
(14) अब अगर वह (तुम्हारे माबूद) तुम्हारी मदद को नहीं पहुँचते, तो जान लो कि यह अल्लाह के इल्म से उतरी है और यह कि अल्लाह के सिवा कोई हक़ीक़ी माबूद नहीं है। फिर क्या तुम (इस सच्ची बात के आगे) फ़रमाँबरदारी के साथ सर झुकाते हो?"14
14. यहाँ एक ही दलील से क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने का सुबूत भी दिया गया है और तौहीद का सुबूत भी। दलील में जो कुछ कहा गया है उसका ख़ुलासा यह है— (1) अगर तुम्हारे नज़दीक यह इनसानी कलाम है तो इनसान को ऐसे कलाम पर क़ुदरत (सामर्थ्य) होनी चाहिए, लिहाज़ा तुम्हारा यह दावा कि मैंने इसे ख़ुद गढ़ लिया है सिर्फ़ उसी सूरत में सही हो सकता है कि तुम ऐसी एक किताब लिखकर दिखाओ। लेकिन अगर बार-बार चुनौती देने पर भी तुम सब मिलकर ऐसी मिसाल पेश नहीं कर सकते तो मेरा यह दावा सही है कि मैं इस किताब का लिखनेवाला नहीं हूँ, बल्कि यह अल्लाह के इल्म से उतरी है। (2) फिर जबकि इस किताब में तुम्हारे माबूदों की भी खुल्लम-खुल्ला मुख़ालफ़त की गई है और साफ़-साफ़ कहा गया है कि इनकी इबादत छोड़ दो; क्योंकि ख़ुदा होने में इनका कोई हिस्सा नहीं है, तो ज़रूर है कि तुम्हारे माबूदों को भी (अगर सचमुच उनमें कोई ताक़त है) मेरे दावे को झूठा साबित करने और इस किताब के जैसी दूसरी किताब पेश करने में तुम्हारी मदद करनी चाहिए। लेकिन अगर वे इस फ़ैसले की घड़ी में भी तुम्हारी मदद नहीं करते और तुम्हारे अन्दर कोई ऐसी ताक़त नहीं फूँकते कि तुम इस किताब का बदल तैयार कर सको, तो इससे साफ़ साबित हो जाता है कि तुमने बिना वजह इनको माबूद बना रखा है, वरना हक़ीक़त में इनके अन्दर कोई क़ुदरत और ख़ुदाई सिफ़त (गुण) का हल्का-सा अंश तक नहीं है जिस की बुनियाद पर वे माबूद होने के हक़दार हों। इस आयत से एक बात यह भी मालूम होती है कि यह सूरा नाज़िल होने की तरतीब के एतिबार से सूरा-10 यूनुस से पहले की है, यहाँ दस सूरतें बनाकर लाने का चैलेंज दिया गया है और जब वे उसका जवाब न दे सके तो फिर सूरा यूनुस में कहा गया कि अच्छा एक ही सूरा इसकी तरह की बना लाओ। (सूरा-10 यूनुस, आयत-38, हाशिया-16)
مَن كَانَ يُرِيدُ ٱلۡحَيَوٰةَ ٱلدُّنۡيَا وَزِينَتَهَا نُوَفِّ إِلَيۡهِمۡ أَعۡمَٰلَهُمۡ فِيهَا وَهُمۡ فِيهَا لَا يُبۡخَسُونَ ۝ 14
(15) जो लोग बस इसी दुनिया की ज़िन्दगी और उसकी लुभावनी चीज़ों की तलब रखते हैं15, उनके किए-धरे का सारा फल हम यहीं उनको दे देते हैं और इसमें उनके साथ कोई कमी नहीं की जाती।
15. बात के इस सिलसिले में यह बात इस मुनासबत (अनुकूलता) से कही गई है कि क़ुरआन की दावत को जिस क़िस्म के लोग उस ज़माने में रद्द कर रहे थे और आज भी रद्द कर रहे हैं वे ज़्यादातर वही थे और हैं जिनके दिलो-दिमाग़ पर दुनिया-परस्ती छाई हुई है। ख़ुदा के पैग़ाम को रद्द करने के लिए जो दलील बाज़ियाँ वे करते हैं वे सब तो बाद की चीज़ें हैं। पहली चीज़ जो इस इनकार की अस्ल वजह है वह उनके मन का यह फ़ैसला है कि दुनिया और उसके माद्दी (भौतिक) फ़ायदों से बढ़कर कोई चीज़ क़ाबिले-कद्र नहीं है, और यह कि इन फ़ायदों से मालामाल होने के लिए उनको पूरी आज़ादी हासिल रहनी चाहिए।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ لَيۡسَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ إِلَّا ٱلنَّارُۖ وَحَبِطَ مَا صَنَعُواْ فِيهَا وَبَٰطِلٞ مَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 15
(16) मगर आख़िरत में ऐसे लोगों के लिए आग के सिवा कुछ नहीं है।16 (वहाँ मालूम हो जाएगा कि) जो कुछ उन्होंने दुनिया में बनाया, वह सब मिट्टी में मिल गया और अब उनका सारा किया-धरा सिर्फ़ बातिल है।
16. यानी जिसके सामने सिर्फ़ दुनिया और उसका फ़ायदा हो, वह अपनी दुनिया बनाने की जैसी जो कोशिश यहाँ करेगा वैसा ही उसका फल उसे यहाँ मिल जाएगा। लेकिन जबकि आख़िरत उसके सामने नहीं है और उसके लिए उसने कोई कोशिश भी नहीं की है तो कोई वजह नहीं कि दुनिया हासिल करने की उसकी कोशिशों के कामयाब होने का सिलसिला आख़िरत तक चले। वहाँ फल पाने का इमकान तो सिर्फ़ उसी सूरत में हो सकता है जबकि दुनिया में आदमी की कोशिश उन कामों के लिए हो जो आख़िरत में भी फ़ायदा पहुँचानेवाली हों। मिसाल के तौर पर अगर एक शख़्स चाहता है कि एक शानदार मकान उसे रहने के लिए मिले और वह उसके लिए उन तदबीरों को अमल में लाता है जिनसे यहाँ मकान बना करते हैं तो ज़रूर एक आलीशान महल बनकर तैयार हो जाएगा और उसकी कोई ईंट भी सिर्फ़ इस वजह से जमने से इनकार न करेगी कि हक़ का एक इनकारी उसे जमाने की कोशिश कर रहा है। लेकिन उस शख़्स को अपना यह महल और उसका सारा सरो-सामान मौत की आख़िरी हिचकी के साथ ही इस दुनिया में छोड़ देना पड़ेगा और उसकी कोई चीज़ भी वह अपने साथ दूसरी दुनिया में न ले जा सकेगा। अगर उसने आख़िरत में महल बनाने के लिए कुछ नहीं किया है तो कोई मुनासिब वजह नहीं कि उसका यह महल वहाँ उसके साथ जाए। वहाँ कोई महल वह पा सकता है तो सिर्फ़ इस सूरत में पा सकता है, जबकि दुनिया में उसकी कोशिश उन कामों में हो जिनसे अल्लाह के क़ानून के मुताबिक़ आख़िरत का महल बना करता है। अब सवाल किया जा सकता है कि इस दलील का तक़ाज़ा तो सिर्फ़ इतना है कि वहाँ उसे कोई महल न मिले। मगर यह क्या बात है कि महल की जगह वहाँ उसे आग मिलेगी? इसका जवाब यह है (और यह क़ुरआन ही का जवाब है जो अलग-अलग मौक़ों पर उसने दिया है) कि जो शख़्स आख़िरत को नज़र-अन्दाज़ करके सिर्फ़ दुनिया के लिए काम करता है वह लाज़िमी और फ़ितरी तौर पर ऐसे तरीक़ों से काम करता है जिनसे आख़िरत में महल की जगह आग का अलाव तैयार होता है। (देखिए—सूरा-10 यूनुस, हाशिया-12)
أَفَمَن كَانَ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّهِۦ وَيَتۡلُوهُ شَاهِدٞ مِّنۡهُ وَمِن قَبۡلِهِۦ كِتَٰبُ مُوسَىٰٓ إِمَامٗا وَرَحۡمَةًۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُؤۡمِنُونَ بِهِۦۚ وَمَن يَكۡفُرۡ بِهِۦ مِنَ ٱلۡأَحۡزَابِ فَٱلنَّارُ مَوۡعِدُهُۥۚ فَلَا تَكُ فِي مِرۡيَةٖ مِّنۡهُۚ إِنَّهُ ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 16
(17) फिर भला वह शख़्स जो अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ गवाही रखता था17 इसके बाद एक गवाह भी पालनहार की तरफ़ से (इस गवाही की ताईद में) आ गया18 और पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत के तौर पर आई हुई भी मौजूद थी, (क्या वह भी दुनियापरस्तों की तरह इससे इनकार कर सकता है?) ऐसे लोग तो उसपर ईमान ही लाएँगे19 और इनसानी गरोहों में से जो कोई उसका इनकार करे तो उसके लिए जिस जगह का वादा है, वह दोज़ख़ है। इसलिए ऐ पैग़म्बर! तुम इस चीज़ की तरफ़ से किसी शक में न पड़ना, यह हक़ है तुम्हारे रब की तरफ़ से, मगर ज़्यादातर लोग नहीं मानते।
17. यानी जिसको ख़ुद अपने वुजूद में और ज़मीन और आसमानों की बनावट में और कायनात के निज़ाम (व्यवस्था) में इस बात की खुली गवाही मिल रही थी कि इस दुनिया का ख़ालिक़ (पैदा करनेवाला), मालिक, परवरदिगार और हाकिम सिर्फ़ एक ख़ुदा है, और फिर इन्हीं गवाहियों और सुबूतों को देखकर जिसका दिल यह गवाही भी पहले ही से दे रहा था कि इस ज़िन्दगी के बाद कोई और ज़िन्दगी ज़रूर होनी चाहिए जिसमें इनसान अपने ख़ुदा को अपने आमाल का हिसाब दे और अपने किए का इनाम और सज़ा पाए।
18. यानी क़ुरआन, जिसने आकर उस फ़ितरी व अक़्ली गवाही को दुरुस्त ठहराया और उसे कि सचमुच हक़ीक़त वही है जिसका निशान बाहरी दुनिया और अपने अन्दर की निशानियों में तूने पाया है।
19. ऊपर से जो बात चली आ रही है उसके लिहाज़ से इस आयत का मतलब यह है कि जो लोग दुनिया की ज़िन्दगी के ज़ाहिरी पहलू पर और उसकी अच्छी और ख़ुशनुमा चीज़ों पर फ़िदा हैं उनके लिए तो क़ुरआन की दावत को रद्द कर देना आसान है। मगर वह शख़्स जो अपने वुजूद में और कायनात के निज़ाम में पहले से तौहीद व आख़िरत की खुली गवाही पा रहा था, फिर क़ुरआन ने आकर ठीक वही बात कही जिसकी गवाही वह पहले से अपने अन्दर भी पा रहा था और बाहर भी, और फिर उसकी और ज़्यादा ताईद (पुष्टि) क़ुरआन से पहले आई हुई आसमानी किताब में भी उसे मिल गई, आख़िर किस तरह इतनी ज़बरदस्त गवाहियों की तरफ़ से आँखें बन्द करके इन इनकार करनेवालों का हम-ख़याल हो सकता है? इस बात से यह साफ़ मालूम होता है कि नबी (सल्ल०) क़ुरआन उतरने से पहले ग़ैब (परोक्ष) पर ईमान लाने की मंज़िल से गुज़र चुके थे। जिस तरह सूरा-6 अनआम में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बारे में बताया गया है कि वे नबी होने से पहले कायनात की निशानियाँ देखकर तौहीद का इल्म हासिल कर चुके थे, इसी तरह यह आयत साफ़ बता रही है कि नबी (सल्ल०) ने भी ग़ौरो-फ़िक्र से इस हक़ीक़त को पा लिया था और इसके बाद क़ुरआन ने आकर न सिर्फ़ उसे दुरुस्त ठहराया, बल्कि आप (सल्ल०) को सीधे तौर पर हक़ीक़त का इल्म भी दे दिया।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ يُعۡرَضُونَ عَلَىٰ رَبِّهِمۡ وَيَقُولُ ٱلۡأَشۡهَٰدُ هَٰٓؤُلَآءِ ٱلَّذِينَ كَذَبُواْ عَلَىٰ رَبِّهِمۡۚ أَلَا لَعۡنَةُ ٱللَّهِ عَلَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 17
(18) और उस आदमी से बढ़कर ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठ गढ़े?20 ऐसे लोग अपने रब के सामने पेश होंगे और गवाह गवाही देंगे कि ये हैं वे लोग जिन्होंने अपने रब पर झूठ गढ़ा था। सुनो ख़ुदा की लानत है ज़ालिमों पर21
20. यानी यह कहे कि अल्लाह के साथ ख़ुदाई और बन्दगी कराने का हक़ रखने में दूसरे भी शरीक हैं। या यह कहे कि ख़ुदा को अपने बन्दों की हिदायत व गुमराही से कोई दिलचस्पी नहीं है और उसने कोई किताब और कोई नबी हमारी हिदायत के लिए नहीं भेजा है, बल्कि हमें आज़ाद छोड़ दिया है कि जो ढंग चाहें अपनी ज़िन्दगी के लिए अपना लें। या यह कहे कि ख़ुदा ने हमें यूँ ही खेल के तौर पर पैदा किया और यूँ ही हमको ख़त्म कर देगा, कोई जवाबदेही हमें उसके सामने नहीं करनी है और कोई इनाम और सज़ा नहीं होनी है।
21. यह आख़िरत की दुनिया का बयान है कि वहाँ यह एलान होगा।
ٱلَّذِينَ يَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ وَيَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَهُم بِٱلۡأٓخِرَةِ هُمۡ كَٰفِرُونَ ۝ 18
(19) — उन ज़ालिमों पर22 जो ख़ुदा के रास्ते से लोगों को रोकते हैं, उसके रास्ते को टेढ़ा करना चाहते हैं23 और आख़िरत का इनकार करते हैं।
22. ऊपर से चली आ रही बात से हटकर यह बात कही गई है कि जिन ज़ालिमों पर वहाँ ख़ुदा की लानत का एलान होगा वे वही लोग होंगे जो आज दुनिया में ये हरकतें कर रहे हैं।
23. यानी वे इस सीधी राह को जो उनके सामने पेश की जा रही है पसन्द नहीं करते और चाहते हैं कि यह राह कुछ उनके मन की ख़ाहिशों और उनके जाहिलाना तास्सुबों और उनके अंधविश्वासों और ख़याली उड़ानों के मुताबिक़ टेढ़ी हो जाए तो वे इसे क़ुबूल करें।
أُوْلَٰٓئِكَ لَمۡ يَكُونُواْ مُعۡجِزِينَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَمَا كَانَ لَهُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِنۡ أَوۡلِيَآءَۘ يُضَٰعَفُ لَهُمُ ٱلۡعَذَابُۚ مَا كَانُواْ يَسۡتَطِيعُونَ ٱلسَّمۡعَ وَمَا كَانُواْ يُبۡصِرُونَ ۝ 19
(20)— वे ज़मीन में24 अल्लाह को बेबस करनेवाले न थे और न अल्लाह के मुक़ाबले में कोई उनका हिमायती था। उन्हें अब दोहरा अज़ाब दिया जाएगा।25 वे न किसी की सुन ही सकते थे और न ख़ुद ही उन्हें कुछ सूझता था।
24. यह फिर आख़िरत की दुनिया का बयान है।
25. एक अज़ाब ख़ुद गुमराह होने का, दूसरा अज़ाब दूसरों को गुमराह करने और बाद की नस्लों के लिए गुमराही की विरासत छोड़ जाने का। (देखें— सूरा-7 आराफ़, हाशिया-30)
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ خَسِرُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ وَضَلَّ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 20
(21) ये वे लोग हैं जिन्होंने अपने आपको ख़ुद घाटे में डाला और वह सब कुछ इनसे खोया गया जो इन्होंने गढ़ रखा था।26
26. यानी वे सब पुराने नज़रिए हवा हो गए जो उन्होंने ख़ुदा और कायनात और अपने वुजूद के बारे में गढ़ रखे थे, और वे सब भरोसे भी झूठे साबित हुए जो उन्होंने अपने माबूदों और सिफ़ारिशियों और सरपरस्तों पर कर रखे थे, और वे गुमान भी ग़लत निकले जो उन्होंने मौत के बाद की ज़िन्दगी के बारे में लगा रखे थे।
لَا جَرَمَ أَنَّهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ هُمُ ٱلۡأَخۡسَرُونَ ۝ 21
(22) लाज़िमी है कि वही आख़िरत में सबसे बढ़कर घाटे में रहें।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ وَأَخۡبَتُوٓاْ إِلَىٰ رَبِّهِمۡ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 22
(23) रहे वे लोग जो ईमान लाए और जिन्होंने अच्छे काम किए और अपने रब ही के होकर रहे, तो यक़ीनन वे जन्नती लोग हैं और जन्नत में वे हमेशा रहेंगे।27
27. यहाँ आख़िरत की दुनिया का बयान ख़त्म हुआ।
وَلَآ أَقُولُ لَكُمۡ عِندِي خَزَآئِنُ ٱللَّهِ وَلَآ أَعۡلَمُ ٱلۡغَيۡبَ وَلَآ أَقُولُ إِنِّي مَلَكٞ وَلَآ أَقُولُ لِلَّذِينَ تَزۡدَرِيٓ أَعۡيُنُكُمۡ لَن يُؤۡتِيَهُمُ ٱللَّهُ خَيۡرًاۖ ٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا فِيٓ أَنفُسِهِمۡ إِنِّيٓ إِذٗا لَّمِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 23
(31) और मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं, न यह कहता हूँ कि मैं ग़ैब का इल्म रखता हूँ, न यह मेरा दावा है कि मैं फ़रिश्ता हूँ।37 और यह भी मैं नहीं कह सकता कि जिन लोगों को तुम्हारी आँखें हिक़ारत (उपेक्षा) से देखती हैं, उन्हें अल्लाह ने कोई भलाई नहीं दी। उनके मन का हाल अल्लाह ही बेहतर जानता है, अगर मैं ऐसा कहूँ तो ज़ालिम हूँगा।"
37. यह इस बात का जवाब है जो मुख़ालफ़त करनेवालों ने कही थी कि हमें तो तुम बस अपने ही जैसे एक इनसान नज़र आते हो। इसपर हज़रत नूह (अलैहि०) फ़रमाते हैं कि वाक़ई मैं एक इनसान ही हूँ, मैंने इनसान के सिवा कुछ और होने का दावा कब किया था कि तुम मुझपर यह एतिराज़ करते हो। मेरा दावा जो कुछ है वह तो सिर्फ़ यह है कि ख़ुदा ने मुझे इल्म व अमल का सीधा रास्ता दिखाया है। इसकी आज़माइश तुम जिस तरह चाहो, कर लो। मगर इस दावे की आज़माइश का आख़िर यह कौन-सा तरीक़ा है कि कभी तुम मुझसे ग़ैब की ख़बरें पूछते हो, और कभी ऐसी-ऐसी अनोखी माँगें करते हो कि मानो ख़ुदा के ख़ज़ानों की सारी कुंजियाँ मेरे पास हैं, और कभी इस बात पर एतिराज़ करते हो कि मैं इनसानों की तरह खाता-पीता हूँ और चलता-फिरता हूँ, मानो मैंने फ़रिश्ता होने का दावा किया था। जिस आदमी ने अक़ीदे, अख़लाक़ और रहन-सहन में सही रहनुमाई का दावा किया है उससे इन चीज़ों के बारे में जो चाहो पूछ लो, मगर तुम अजीब लोग हो जो उससे पूछते हो कि फ़ुलाँ शख़्स की भैंस कटड़ा जनेगी या पड़िया। मानो इनसानी ज़िन्दगी के लिए अख़लाक़ और रहन-सहन के सही उसूल बताने का ताल्लुक़ इस बात से भी है कि भैंस के पेट में क्या है? (देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-31, 32)
قَالُواْ يَٰنُوحُ قَدۡ جَٰدَلۡتَنَا فَأَكۡثَرۡتَ جِدَٰلَنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 24
(32) आख़िरकार उन लोगों ने कहा कि, “ऐ नूह! तुमने हमसे झगड़ा किया और बहुत कर लिया, अब तो बस वह अज़ाब ले आओ जिसकी तुम हमें धमकी देते हो, अगर सच्चे हो।”
قَالَ إِنَّمَا يَأۡتِيكُم بِهِ ٱللَّهُ إِن شَآءَ وَمَآ أَنتُم بِمُعۡجِزِينَ ۝ 25
(33) नूह ने जवाब दिया, “वह तो अल्लाह ही लाएगा अगर चाहेगा, और तुम इतना बलबूता नहीं रखते कि उसे रोक दो।
وَلَا يَنفَعُكُمۡ نُصۡحِيٓ إِنۡ أَرَدتُّ أَنۡ أَنصَحَ لَكُمۡ إِن كَانَ ٱللَّهُ يُرِيدُ أَن يُغۡوِيَكُمۡۚ هُوَ رَبُّكُمۡ وَإِلَيۡهِ تُرۡجَعُونَ ۝ 26
(34) अब अगर मैं तुम्हारा कुछ भला करना भी चाहूँ तो मेरा भला चाहना तुम्हें कोई फ़ायदा नहीं दे सकता, जबकि अल्लाह ही ने तुम्हें भटका देने का इरादा कर लिया हो।38 वही तुम्हारा रब है और उसी की तरफ़ तुम्हें पलटना है।"
38. यानी अगर अल्लाह ने तुम्हारी हठधर्मी, बुराई से मुहब्बत और भलाई से नफ़रत देखकर यह फ़ैसला कर लिया है कि तुम्हें सीधे रास्ते पर चलने का मुबारक मौक़ा न दे और जिन राहों में तुम ख़ुद भटकना चाहते हो उन्हीं में तुमको भटका दे तो अब तुम्हारी भलाई के लिए मेरी कोई कोशिश कामयाब नहीं हो सकती।
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ إِنِ ٱفۡتَرَيۡتُهُۥ فَعَلَيَّ إِجۡرَامِي وَأَنَا۠ بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُجۡرِمُونَ ۝ 27
(35) ऐ नबी! क्या ये लोग कहते हैं कि इस आदमी ने यह सब कुछ ख़ुद गढ़ लिया है? इनसे कहो, “अगर मैंने यह ख़ुद गढ़ा है तो मुझपर अपने जुर्म की ज़िम्मेदारी है, और जो जुर्म तुम कर रहे हो उसकी ज़िम्मेदारी से मैं बरी हूँ।“39
39. बात के अन्दाज़ से ऐसा महसूस होता है कि नबी (सल्ल०) की ज़बान से हज़रत नूह (अलैहि०) का यह क़िस्सा सुनते हुए मुख़ालफ़त करनेवालों ने एतिराज़ किया होगा कि मुहम्मद (सल्ल०) ये क़िस्से बना-बनाकर इसलिए पेश करता है कि उन्हें हमपर चस्पाँ करे। जो चोटें वह हमपर सीधे-सीधे नहीं करना चाहता उनके लिए एक क़िस्सा गढ़ता है और इस तरह ‘दूसरों के क़िस्सों’ के बहाने हमपर चोट करता है। इसलिए बात के सिलसिले को तोड़कर उनके एतिराज़ का जवाब इस जुमले में दिया गया। सच्चाई यह है कि घटिया क़िस्म के लोगों का ज़ेहन हमेशा बात के बुरे पहलू की तरफ़ जाया करता है और अच्छाई से उन्हें कोई दिलचस्पी नहीं होती कि बात के अच्छे पहलू पर उनकी नज़र जा सके। एक शख़्स ने अगर कोई हिकमत और समझदारी की बात कही है या वह तुम्हें कोई फ़ायदेमन्द सबक़ दे रहा है या तुम्हारी किसी ग़लती पर तुमको ख़बरदार कर रहा है तो उससे फ़ायदा उठाओ और अपनी इस्लाह करो। मगर घटिया आदमी हमेशा इसमें बुराई का कोई ऐसा पहलू तलाश करेगा जिससे हिकमत और नसीहत पर पानी फेर दे और न सिर्फ़ ख़ुद अपनी बुराई पर क़ायम रहे, बल्कि बतानेवाले के ज़िम्मे भी उलटी कुछ बुराई लगा दे। अच्छी-से-अच्छी नसीहत भी बेकार की जा सकती है अगर सुननेवाला उसे ख़ैरख़ाही के बजाय 'चोट' के मानी में ले ले और उसका ज़ेहन अपनी ग़लती जानने और महसूस करने के बजाय बुरा मानने की तरफ़ चल पड़े। फिर इस क़िस्म के लोग हमेशा अपनी सोच की बुनियाद एक बुनियादी बदगुमानी पर रखते हैं। जिस बात के सचमुच हक़ीक़त होने और एक बनावटी दास्तान होने का एक जैसा इमकान हो, मगर वह ठीक-ठीक तुम्हारे हाल पर चस्पाँ हो रही हो और उसमें तुम्हारी किसी ग़लती की निशानदेही होती हो, तो तुम एक अक़्लमन्द आदमी होगे अगर उसे एक सच्ची हक़ीक़त समझकर उसके सीख देनेवाले पहलू से फ़ायदा उठाओगे, और सिर्फ़ एक बदगुमान और टेढ़ी नज़र के आदमी होगे अगर किसी सुबूत के बग़ैर यह इलज़ाम लगा दोगे कि कहनेवाले सिर्फ़ हमपर चस्पाँ करने के लिए यह क़िस्सा गढ़ लिया है। इस वजह से यह फ़रमाया गया कि अगर यह दास्तान मैंने गढ़ी है तो अपने जुर्म का मैं जिम्मेदार हूँ, लेकिन जिस जुर्म को तुम कर रहे हो वह तो अपनी जगह क़ायम है और उसकी ज़िम्मेदारी में तुम ही पकड़े जाओगे? न कि मैं।
وَأُوحِيَ إِلَىٰ نُوحٍ أَنَّهُۥ لَن يُؤۡمِنَ مِن قَوۡمِكَ إِلَّا مَن قَدۡ ءَامَنَ فَلَا تَبۡتَئِسۡ بِمَا كَانُواْ يَفۡعَلُونَ ۝ 28
(36) नूह पर वह्य की गई कि तुम्हारी क़ौम में से जो लोग ईमान ला चुके, बस वे ला चुके, अब कोई माननेवाला नहीं है। उनके करतूतों पर गम खाना छोड़ो
وَٱصۡنَعِ ٱلۡفُلۡكَ بِأَعۡيُنِنَا وَوَحۡيِنَا وَلَا تُخَٰطِبۡنِي فِي ٱلَّذِينَ ظَلَمُوٓاْ إِنَّهُم مُّغۡرَقُونَ ۝ 29
(37) और हमारी निगरानी में हमारी वह्य के मुताबिक़ एक नाव बनानी शुरू कर दो, और देखो जिन लोगों ने ज़ुल्म किया है, उनके लिए मुझसे कोई सिफ़ारिश न करना। ये सारे के सारे अब डूबनेवाले हैं।40
40. इससे मालूम हुआ कि जब नबी का पैग़ाम किसी क़ौम को पहुँच जाए तो उसे सिर्फ़ उस वक़्त तक मुहलत मिलती है जब तक उसमें कुछ भले आदमियों के निकल आने का इमकान बाक़ी हो। मगर जब उसके अच्छे हिस्से सब निकल चुकते हैं और वह सिर्फ़ ख़राब लोगों का गरोह ही रह जाती है तो अल्लाह उस क़ौम को फिर कोई मुहलत नहीं देता और उसकी रहमत का तक़ाज़ा यही होता है कि सड़े हुए फलों के इस टोकरे को दूर फेंक दिया जाए, ताकि वह अच्छे फलों को भी ख़राब न कर दे। फिर उसपर रहम खाना सारी दुनिया के साथ और आनेवाली इनसानी नस्लों के साथ बेरहमी है।
وَيَصۡنَعُ ٱلۡفُلۡكَ وَكُلَّمَا مَرَّ عَلَيۡهِ مَلَأٞ مِّن قَوۡمِهِۦ سَخِرُواْ مِنۡهُۚ قَالَ إِن تَسۡخَرُواْ مِنَّا فَإِنَّا نَسۡخَرُ مِنكُمۡ كَمَا تَسۡخَرُونَ ۝ 30
(38) नूह नाव बना रहा था और उसकी क़ौम के सरदारों में से जो कोई उसके पास से गुज़रता था, वह उसका मज़ाक़ उड़ाता था। उसने कहा, “अगर तुम हमपर हँसते हो तो हम भी तुमपर हँस रहे हैं।
فَسَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَيَحِلُّ عَلَيۡهِ عَذَابٞ مُّقِيمٌ ۝ 31
(39) बहुत जल्द तुम्हें ख़ुद मालूम हो जाएगा कि किसपर वह अज़ाब आता है जो उसे रुसवा कर देगा और किसपर वह बला टूट पड़ती है जो टाले न टलेगी।"41
41. यह एक अजीब मामला है, जिसपर ग़ौर करने से मालूम होता है कि इनसान दुनिया के ज़ाहिर से किस क़द्र धोखा खाता है। जब नूह (अलैहि०) दरिया बहुत दूर सूखी जगह पर अपना जहाज़ बना रहे होंगे, तो हक़ीक़त में लोगों को यह एक बहुत ही मज़ाक़िया काम लगता होगा और वे हँस-हँसकर कहते होंगे कि बड़े मियाँ की दीवानगी आख़िर को यहाँ तक पहुँची कि अब आप सूखी जगह पर जहाज़ चलाएँगे। उस वक़्त किसी के ख़ाब और ख़याल में भी यह बात न आ सकती होगी कि कुछ दिनों बाद यहाँ सचमुच जहाज़ चलेगा। वह इस काम को हज़रत नूह (अलैहि०) के दिमाग़ की ख़राबी का एक खुला सुबूत ठहराते होंगे और एक-एक से कहते होंगे कि अगर पहले तुम्हें इस शख़्स के पागलपन में कुछ शक था तो लो अब अपनी आँखों से देख लो कि यह क्या हरकत कर रहा है। लेकिन जो शख़्स हक़ीक़त का इल्म रखता था और जिसे मालूम था कि कल यहाँ जहाज़ की क्या ज़रूरत पड़नेवाली है, उसे उन लोगों की जहालत और बेख़बरी पर और फिर उनके बेवक़ूफ़ी भरे इत्मीनान पर उलटी हँसी आती होगी और वह कहता होगा कि कितने नादान हैं ये लोग कि शामत इनके सर पर तुली खड़ी है, मैं इन्हें ख़बरदार कर चुका हूँ कि वह बस आने ही वाली है और इनकी आँखों के सामने उससे बचने की तैयारी भी कर रहा हूँ, मगर ये इत्मीनान से बैठे हैं और उलटा मुझे दीवाना समझ रहे हैं। इस मामले को अगर फैलाकर देखा जाए तो मालूम होगा कि दुनिया के ज़ाहिर और महसूस पहलू के लिहाज़ से अक़्लमन्दी और बेवक़ूफ़ी का जो पैमाना क़ायम किया जाता है वह उस पैमाने से कितना ज़्यादा अलग होता है जो हक़ीक़त के इल्म के लिहाज़ से क़रार पाता है। ज़ाहिरी चीज़ों ही को देखनेवाला आदमी जिस चीज़ को इन्तिहाई अक़्लमन्दी समझता है वह हक़ीक़त को पहचाननेवाले आदमी की निगाह में इन्तिहाई बेवक़ूफ़ी होती है, और ज़ाहिर को देखनेवाले के नज़दीक़ जो चीज़ बिलकुल बेकार, सरासर दीवानगी और बिलकुल मज़ाक़़िया बात होती है, हक़ीक़त को पहचाननेवाले के लिए वही सबसे ज़्यादा अक़्लमन्दी, इन्तिहाई संजीदगी और ठीक अक़्ल के तक़ाज़े के मुताबिक़ होती है।
حَتَّىٰٓ إِذَا جَآءَ أَمۡرُنَا وَفَارَ ٱلتَّنُّورُ قُلۡنَا ٱحۡمِلۡ فِيهَا مِن كُلّٖ زَوۡجَيۡنِ ٱثۡنَيۡنِ وَأَهۡلَكَ إِلَّا مَن سَبَقَ عَلَيۡهِ ٱلۡقَوۡلُ وَمَنۡ ءَامَنَۚ وَمَآ ءَامَنَ مَعَهُۥٓ إِلَّا قَلِيلٞ ۝ 32
(40) यहाँ तक कि जब हमारा हुक्म आ गया और वह तन्नूर उबल पड़ा42 तो हमने कहा, “हर क़िस्म के जानवरों का एक-एक जोड़ा नाव में रख लो, अपने घरवालों को भी— सिवाए उन लोगों के जिनकी निशानदेही पहले की जा चुकी है43— इसमें सवार करा दो और उन लोगों को भी बिठा लो जो ईमान लाए हैं।44 और थोड़े ही लोग थे जो नूह के साथ ईमान लाए थे।
42. इसके बारे में क़ुरआन की तफ़सीर करनेवाले आलिमों ने अलग-अलग बातें कही हैं। मगर हमारे नज़दीक सही वही है जो क़ुरआन के साफ़ अलफ़ाज़ से समझ में आता है कि तूफ़ान की शुरुआत एक ख़ास तन्दूर से हुई जिसके नीचे से पानी की धार फूट पड़ी, फिर एक तरफ़ आसमान से मूसलाधार बारिश शुरू हो गई और दूसरी तरफ़ ज़मीन में जगह-जगह से पानी के चश्मे फूटने लगे। यहाँ सिर्फ़ तन्दूर के उबल पड़ने का ज़िक्र है और आगे चलकर बारिश की तरफ़ भी इशारा है। मगर सूरा-54 कमर में इसकी तफ़सील दी गई है कि “हमने आसमान के दरवाज़े खोल दिए जिनसे लगातार बारिश बरसने लगी और ज़मीन को फाड़ दिया गया कि हर तरफ़ चश्मे फूट निकले और ये दोनों तरह के पानी उस काम को पूरा करने के लिए मिल गए जो मुक़द्दर कर दिया गया था।” साथ ही लफ़्ज़ 'तन्नूर' पर अलिफ़ लाम दाख़िल करके “अत-तन्नूर” (अल-तन्नूर) कहने से यह ज़ाहिर होता है कि अल्लाह तआला ने एक ख़ास तन्दूर (तन्नूर) को इस काम की शुरुआत के लिए तय कर दिया जो इशारा पाते ही ठीक अपने वक़्त पर उबल पड़ा और बाद में तूफ़ानवाले तन्दूर की हैसियत से जाना जाने लगा। सूरा-23 मोमिनून, आयत-27 में साफ़ बताया गया है कि इस तन्दूर को पहले से नामज़द कर दिया गया था।
43. यानी तुम्हारे घर के जिन लोगों के बारे में पहले बताया जा चुका है कि वे हक़ के इनकारी हैं और अल्लाह तआला की रहमत के हक़दार नहीं हैं, इन्हें कश्ती में न बिठाओ। शायद ये दो ही लोग थे। एक हज़रत नूह (अलैहि०) का बेटा जिसके डूब जाने का ज़िक्र अभी आनेवाला है। दूसरी हज़रत नूह (अलैहि०) की बीवी जिसका ज़िक्र सूरा-66 तहरीम में आया है। हो सकता है ख़ानदान के दूसरे लोग भी हों, मगर क़ुरआन में उनका ज़िक्र नहीं है।
44. इससे उन तारीख़दानों (इतिहासकारों) और हसब-नसब (वंशावली) के जानकारों के नज़रिए का ग़लत होना साबित होता है जो तमाम इनसानी नस्लों का सिलसिला हज़रत नूह (अलैहि०) के तीन बेटों तक पहुँचाते हैं। दरअस्ल इसराइली रिवायतों ने यह ग़लतफ़हमी फैला दी है कि इस तूफ़ान से हज़रत नूह और उनके तीन बेटों और उनकी बीवियों के सिवा कोई न बचा था (देखें— बाइबल, उत्पत्ति, 6:18, 7:7, 9:1, 9:19)। लेकिन क़ुरआन कई जगहों पर इसको साफ़-साफ़ बयान करता है कि हज़रत नूह के ख़ानदान के सिवा उनकी क़ौम की एक अच्छी-ख़ासी तादाद को भी, अगरचे वह थोड़ी थी, अल्लाह ने तूफ़ान से बचा लिया था। साथ ही क़ुरआन बाद की इनसानी नस्लों को सिर्फ़ नूह (अलैहि०) की औलाद नहीं, बल्कि उन सब लोगों की औलाद क़रार देता है जिन्हें अल्लाह तआला ने उनके साथ कश्ती में बिठाया था, “उनकी औलाद जिन्हें हमने के साथ सवार किया था।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-3) और “आदम की और उन लोगों की औलाद में से जिन्हें हमने नूह के साथ सवार किया था।” (सूरा-19 मरयम, आयत-58)
۞وَقَالَ ٱرۡكَبُواْ فِيهَا بِسۡمِ ٱللَّهِ مَجۡرٜىٰهَا وَمُرۡسَىٰهَآۚ إِنَّ رَبِّي لَغَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 33
(41) नूह ने कहा, “सवार हो जाओ इसमें, अल्लाह ही के नाम से है इसका चलना भी और इसका ठहरना भी। मेरा रब बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।"45
45. यह है ईमानवाले की अस्ली शान। वह आलमे-अस्बाब (कारण जगत्) में सारी तदबीरें फ़ितरत के क़ानून के मुताबिक़ इसी तरह अपनाता है जिस तरह दुनियावाले करते हैं, मगर उसका भरोसा उन तदबीरों पर नहीं, बल्कि अल्लाह पर होता है और वह ख़ूब समझता है कि उसकी कोई तदबीर न तो ठीक शुरू हो सकती है, न ठीक चल सकती है और न आख़िरी मंज़िल तक पहुँच सकती है जब तक अल्लाह की मेहरबानी और उसका रहम व करम शामिल न हो।
وَهِيَ تَجۡرِي بِهِمۡ فِي مَوۡجٖ كَٱلۡجِبَالِ وَنَادَىٰ نُوحٌ ٱبۡنَهُۥ وَكَانَ فِي مَعۡزِلٖ يَٰبُنَيَّ ٱرۡكَب مَّعَنَا وَلَا تَكُن مَّعَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 34
(42) नाव इन लोगों को लिए चली जा रही थी और एक-एक लहर पहाड़ की तरह उठ रही थी। नूह का बेटा दूर फ़ासले पर था। नूह ने पुकारकर कहा, “बेटा! हमारे साथ सवार हो जा, इनकार करनेवालों के साथ न रह।”
قَالَ سَـَٔاوِيٓ إِلَىٰ جَبَلٖ يَعۡصِمُنِي مِنَ ٱلۡمَآءِۚ قَالَ لَا عَاصِمَ ٱلۡيَوۡمَ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِ إِلَّا مَن رَّحِمَۚ وَحَالَ بَيۡنَهُمَا ٱلۡمَوۡجُ فَكَانَ مِنَ ٱلۡمُغۡرَقِينَ ۝ 35
(43) उसने पलटकर जवाब दिया, “मैं अभी एक पहाड़ पर चढ़ा जाता हूँ जो मुझे पानी से बचा लेगा।” नूह ने कहा, “आज कोई चीज़ अल्लाह के हुक्म से बचानेवाली नहीं है, सिवाए इसके कि अल्लाह ही किसी पर रहम करे।” इतने में एक लहर दोनों के बीच ओट बन गई और वह भी डूबनेवालों में शामिल हो गया।
وَقِيلَ يَٰٓأَرۡضُ ٱبۡلَعِي مَآءَكِ وَيَٰسَمَآءُ أَقۡلِعِي وَغِيضَ ٱلۡمَآءُ وَقُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ وَٱسۡتَوَتۡ عَلَى ٱلۡجُودِيِّۖ وَقِيلَ بُعۡدٗا لِّلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 36
(44) हुक्म हुआ, “ऐ ज़मीन! अपना सारा पानी निगल जा और ऐ आसमान! रुक जा।” चुनाँचे पानी ज़मीन में बैठ गया, फ़ैसला चुका दिया गया, नाव जूदी पर टिक गई46, और कह दिया गया कि दूर हुई ज़ालिमों की क़ौम!
46. जूदी पहाड़ कुर्दिस्तान के इलाक़े में इब्ने-उमर नाम के जज़ीरे के उत्तर-पूर्व की तरफ़ है। बाइबल में इस कश्ती के ठहरने की जगह अरारात बताई गई है जो आरमीनिया के एक पहाड़ का नाम भी है और पहाड़ों के एक सिलसिले का नाम भी। पहाड़ों के सिलसिले के मानी में जिसको अरारात कहते हैं वह आरमीनिया की ऊँचाई से शुरू होकर दक्षिण में कुर्दिस्तान तक चलता है। और जूदी पहाड़ इसी सिलसिले का एक पहाड़ है जो आज भी जूदी ही के नाम से मशहूर है। क़दीम तारीख़ (प्राचीन इतिहास) में कश्ती के ठहरने की यही जगह बताई गई है। चुनाँचे ईसा (अलैहि०) से ढाई सौ साल पहले बाबिल के एक मज़हबी पेशवा बेरासुस (Berasus) ने पुरानी कलदानी रिवायतों की बिना पर अपने देश का जो इतिहास लिखा है उसमें वह नूह की कश्ती के ठहरने की जगह जूदी ही बताता है। अरस्तू (Aristotle) का शार्गिद अबीडेनुस (Abydenus) भी अपने इतिहास में उसकी तसदीक़ करता है। साथ ही वह अपने ज़माने का हाल बयान करता है कि इराक़ में बहुत-से लोगों के पास उस कश्ती के टुकड़े महफ़ूज़ हैं जिन्हें वे घोल-घोलकर बीमार लोगों को पिलाते हैं। यह तूफ़ान जिसका ज़िक्र किया गया है, पूरी दुनिया में आनेवाला तूफ़ान था या उस ख़ास इलाक़े में आया था जहाँ हज़रत नूह (अलैहि०) की क़ौम आबाद थी? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका फ़ैसला आज तक नहीं हुआ। इसराईली रिवायतों की बुनियाद पर आम ख़याल यही है कि वह तूफ़ान पूरी ज़मीन पर आया था (उत्पति, 7:18 से 24), मगर क़ुरआन में यह बात कही नहीं कही गई है। क़ुरआन के इशारों से यह ज़रूर मालूम होता है कि बाद की इनसानी नस्ल उन्हीं लोगों की औलाद से हैं जो नूह (अलैहि०) के ज़माने में आनेवाले तूफ़ान से बचा लिए गए। थे, लेकिन इससे यह लाज़िम नहीं होता कि यह तूफ़ान पूरी ज़मीन पर आया हो, क्योंकि यह बात इस तरह भी सही हो सकती है कि उस वक़्त तक इनसानों की आबादी उसी इलाक़े तक महदूद रही हो जहाँ तूफान आया था, और तूफ़ान के बाद जो नस्लें पैदा हुई हों वे धीरे-धीरे पूरी दुनिया में फैल गई हों। इस ख़याल की ताईद दो चीज़ों से होती है। एक यह कि दजला और फ़ुरात की सरज़मीन में तो एक ज़बरदस्त तूफ़ान का सुबूत तरीख़ी इबारतों से, आसारे-क़दीमा (प्राचीन अवशेषों) से और भौगोलिक आँकड़ों से मिलता है, लेकिन ज़मीन के सारे हिस्सों में ऐसा कोई सुबूत नहीं मिलता जिससे पूरी दुनिया में आनेवाले किसी तूफ़ान का यक़ीन किया जा सके। दूसरे यह कि ज़मीन की ज़्यादातर क़ौमों में एक बड़े तूफ़ान की रिवायतें पुराने ज़माने से मशहूर हैं, यहाँ तक कि आस्ट्रेलिया, अमेरिका और न्यूगिनी जैसे दूर-दराज़ इलाक़ों की पुरानी रिवायतों में भी इसका ज़िक्र मिलता है। इससे यह नतीजा निकाला जा सकता है कि किसी वक़्त इन सब क़ौमों के बाप-दादा एक ही इलाक़े में आबाद होंगे, जहाँ यह तूफ़ान आया था और फिर जब उनकी नस्लें ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों में फैली तो ये रिवायतें उनके साथ गईं। (देखें— सूरा-7 आराफ़, हाशिया-17)
وَنَادَىٰ نُوحٞ رَّبَّهُۥ فَقَالَ رَبِّ إِنَّ ٱبۡنِي مِنۡ أَهۡلِي وَإِنَّ وَعۡدَكَ ٱلۡحَقُّ وَأَنتَ أَحۡكَمُ ٱلۡحَٰكِمِينَ ۝ 37
(45) नूह ने अपने रब को पुकारा। कहा, “ऐ रब! मेरा बेटा मेरे घरवालों में से है और तेरा वादा सच्चा है47 और तू सब हाकिमों से बड़ा और बेहतर हाकिम है।"48
47. यानी तूने वादा किया था कि मेरे घरवालों को इस तबाही से बचा लेगा, तो मेरा बेटा भी मेरे घरवालों ही में से है, लिहाज़ा उसे भी बचा ले।
48. यानी तेरा फ़ैसला आख़िरी फ़ैसला है जिसकी कोई अपील नहीं। और तू जो फ़ैसला भी करता है ख़ालिस इल्म और पूरे इनसाफ़ के साथ करता है।
قَالَ يَٰنُوحُ إِنَّهُۥ لَيۡسَ مِنۡ أَهۡلِكَۖ إِنَّهُۥ عَمَلٌ غَيۡرُ صَٰلِحٖۖ فَلَا تَسۡـَٔلۡنِ مَا لَيۡسَ لَكَ بِهِۦ عِلۡمٌۖ إِنِّيٓ أَعِظُكَ أَن تَكُونَ مِنَ ٱلۡجَٰهِلِينَ ۝ 38
(46) जवाब में कहा गया, “ऐ नूह। वह तेरे घरवालों में से नहीं है, वह तो एक बिगड़ा हुआ काम है49, इसलिए तू इस बात की मुझसे दरख़ास्त न कर जिसकी हक़ीक़त तू नहीं जानता। मैं तुझे नसीहत करता हूँ कि अपने आपको जाहिलों की तरह न बना ले।50
49. यह ऐसा ही है जैसे एक शख़्स के जिस्म का कोई हिस्सा सड़ गया हो और डॉक्टर ने उसको काट फेंकने का फ़ैसला किया हो। अब वह रोगी डॉक्टर से कहता है कि यह तो मेरे जिस्म का एक हिस्सा है, इसे क्यों काटते हो? और डॉक्टर उसके जवाब में कहता है कि यह तुम्हारे जिस्म का हिस्सा नहीं है, क्योंकि यह सड़ चुका है। इस जवाब का मतलब यह न होगा कि सचमुच वह सड़ा हुआ हिस्सा जिस्म से कोई ताल्लुक़ नहीं रखता, बल्कि इसका मतलब दरअस्ल यह होगा कि तुम्हारे जिस्म के लिए जिन अंगों (हिस्सों) की ज़रूरत है वे तन्दुरुस्त और काम करनेवाले अंग हैं, न कि सड़े हुए अंग जो ख़ुद भी किसी काम के न हों और बाक़ी जिस्म को भी ख़राब कर देनेवाले हों। लिहाज़ा जो अंग बिगड़ चुका है वह अब उस मक़सद के लिहाज़ से तुम्हारे जिस्म का एक हिस्सा नहीं रहा जिसके लिए अंगों से जिस्म का ताल्लुक़ ज़रूरी होता है। बिलकुल इसी तरह एक नेक बाप से यह कहना कि यह बेटा तुम्हारे घरवालों में से नहीं है; क्योंकि अख़लाक़ और अमल के लिहाज़ से बिगड़ चुका है, यह मानी नहीं रखता कि उसके बेटा होने का इनकार किया जा रहा है, बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ यह है कि यह बिगड़ा हुआ इनसान तुम्हारे नेक ख़ानदान का मेम्बर नहीं है। वह तुम्हारे नसबी ख़ानदान का एक मेम्बर हो तो हुआ करे, मगर तुम्हारे अख़लाक़ी ख़ानदान से उसका कोई रिश्ता नहीं। और आज जो फ़ैसला किया जा रहा है वह नस्ली या क़ौमी झगड़े का नहीं है कि एक नस्लवाले बचाए जाएँ और दूसरी नस्लवाले तबाह कर दिए जाएँ, बल्कि यह कुफ़्र और ईमान के झगड़े का फ़ैसला है। जिसमें सिर्फ़ नेक लोग बचाए जाएँगे और बिगड़े हुए लोग मिटा दिए जाएँगे। बेटे को ‘बिगड़ा हुआ काम’ कहकर एक और अहम हक़ीक़त की तरफ़ भी ध्यान दिलाया गया है। ज़ाहिर को देखनेवाला आदमी औलाद को सिर्फ़ इसलिए पाल-पोसकर बड़ा करता है और उससे प्यार करता है कि वह उसके ख़ून से या उसके पेट से पैदा हुई है, इसका लिहाज़ किए बग़ैर कि वह नेक हो या नेक न हो। लेकिन ईमानवाले की निगाह तो हक़ीक़त पर होनी चाहिए। उसे तो औलाद को इस नज़र से देखना चाहिए कि ये कुछ इनसान हैं जिनको अल्लाह तआला ने फ़ितरी तरीक़े से मेरे सिपुर्द किया है, ताकि उनको पाल-पोसकर और तरबियत देकर उस मक़सद के लिए तैयार करूँ जिसके लिए अल्लाह ने दुनिया में इनसान को पैदा किया है। अब अगर उसकी तमाम कोशिशों और मेहनतों के बावजूद कोई शख़्स जो उसके घर पैदा हुआ था, उस मक़सद के लिए तैयार न हो सका और अपने उस रब ही का वफ़ादार ख़ादिम न बना जिसने उसको ईमानवाले बाप के हवाले किया था, तो उस बाप को यह समझना चाहिए कि उसकी सारी मेहनत और कोशिश बेकार हो गई। फिर कोई वजह नहीं कि ऐसी औलाद से उसे कोई दिली लगाव हो। फिर जब यह मामला औलाद जैसी सबसे प्यारी चीज़ के साथ है तो दूसरे रिश्तेदारों के बारे में ईमानवाले का नज़रिया जो कुछ हो सकता है वह ज़ाहिर है। ईमान एक ऐसी सिफ़त है जिसका ताल्लुक़ आदमी की सोच और उसके अख़लाक़ से है। ईमानवाला इसी सिफ़त के लिहाज़ से ईमानवाला कहलाता है। दूसरे इनसानों के साथ ईमानवाला होने की हैसियत से उसका कोई रिश्ता सिवाए अख़लाक़ी और ईमानी रिश्ते के नहीं है। हाड़-माँस का जिस्म रखनेवाले उसके रिश्तेदार अगर इस सिफ़त में उसके साथ शरीक हैं तो यक़ीनन वे उसके रिश्तेदार हैं, लेकिन अगर वे इस सिफ़त से ख़ाली हैं तो मोमिन सिर्फ़ गोश्त और खाल की हद तक उनसे ताल्लुक़ रखेगा, उसका दिली और रूही ताल्लुक़ उनसे नहीं हो सकता और अगर ईमान व कुफ़्र की कशमकश में वे ईमानवाले के मुक़ाबले में आएँ तो उसके लिए वे और अजनबी हक़ के इनकारी बराबर होंगे।
50. इस बात को देखकर कोई शख़्स यह गुमान न करे कि हज़रत नूह (अलैहि०) के अन्दर ईमान की रूह की कमी थी, या उनके ईमान में जाहिलियत का कोई असर पाया जाता था। अस्ल बात यह है कि पैग़म्बर भी इनसान ही होते हैं, और कोई इनसान भी इतनी क़ुदरतवाला नहीं हो सकता कि हर वक़्त उस सबसे बुलंद मेयारे-कमाल पर क़ायम रहे जो एक ईमानवाले के लिए मुक़र्रर किया गया है। कई बार किसी नाजुक नफ़सियाती मौक़े पर नबी जैसे ऊँचे दरजे के इनसान पर भी थोड़ी देर के लिए उसकी इनसानी कमज़ोरी का असर हो जाता है। लेकिन ज्यों ही उसे यह एहसास होता है, या अल्लाह तआला की तरफ़ से एहसास करा दिया जाता है कि उसका क़दम उस मेयार से नीचे जा रहा है, जो उसके लिए तय किया गया, वह फ़ौरन तौबा करता है और अपनी ग़लती को सुधार लेने में उसे एक लम्हे की भी देर नहीं होती। हज़रत नूह (अलैहि०) की अख़लाक़ी बुलन्दी का इससे बड़ा सुबूत और क्या हो सकता है कि अभी जान-जवान बेटा आँखों के सामने डूबा है और उस मंज़र से कलेजा मुँह को आ रहा है, लेकिन जब अल्लाह तआला उन्हें ख़बरदार करता है कि जिस बेटे ने हक़ (सत्य) को छोड़कर बातिल (असत्य) का साथ दिया उसको सिर्फ़ इसलिए अपना समझना कि ये तुम्हारे ख़ून से पैदा हुआ है, सिर्फ़ एक जाहिलियत का जज़्बा है, तो वे फ़ौरन अपने दिल के ज़ख़्म से बेपरवाह होकर उस अंदाज़ में सोचने लगते हैं जो इस्लाम चाहता है।
قَالَ رَبِّ إِنِّيٓ أَعُوذُ بِكَ أَنۡ أَسۡـَٔلَكَ مَا لَيۡسَ لِي بِهِۦ عِلۡمٞۖ وَإِلَّا تَغۡفِرۡ لِي وَتَرۡحَمۡنِيٓ أَكُن مِّنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 39
(47) नूह ने फ़ौरन कहा, “ऐ मेरे रब! मैं तेरी पनाह माँगता हूँ इससे कि वह चीज़ तुझसे जिसका मुझे इल्म नहीं।50अ अगर तूने मुझे माफ़ न किया और रहम न किया तो मैं बरबाद हो जाऊँगा।"51
50.अ यानी ऐसी दरख़ास्त करूँ जिसके सही होने का मुझे इल्म नहीं है।
51. नूह (अलैहि०) के बेटे का यह क़िस्सा बयान करके अल्लाह तआला ने बहुत ही असरदार अंदाज़ में यह बताया है कि उसका इनसाफ़ कितना बेलाग (निष्पक्ष) और उसका फ़ैसला कैसा दो टूक होता है। मक्का के मुशरिक लोग यह समझते थे कि हम चाहे कैसे ही काम करें, मगर हमपर ख़ुदा का ग़ज़ब नहीं आ सकता; क्योंकि हम हज़रत इबराहीम की औलाद और फ़ुलाँ-फ़ुलाँ देवियों और देवताओं से नाता रखते हैं। यहूदियों और ईसाइयों के भी ऐसे ही कुछ गुमान थे और हैं। और बहुत-से बिगड़े हुए मुसलमान भी इस तरह के झूठे भरोसों पर तकिया किए हुए कि हम फ़ुलाँ हज़रत की औलाद और फ़ुलाँ हज़रत का दामन थामे हुए हैं, उनकी सिफ़ारिश हमको ख़ुदा के इनसाफ़ से बचा लेगी, लेकिन यहाँ यह मंज़र दिखाया गया है कि एक निहायत बुलन्द मर्तबेवाला पैग़म्बर अपनी आँखों के सामने अपने जिगर के टुकड़े (बेटे) को डूबते हुए देखता है और तड़पकर बेटे की माफ़ी के लिए दरख़ास्त करता है, लेकिन अल्लाह के दरबार से उलटी उसपर डाँट पड़ जाती है और बाप की पैग़म्बरी भी एक बद-अमल बेटे को अज़ाब से नहीं बचा सकती।
قِيلَ يَٰنُوحُ ٱهۡبِطۡ بِسَلَٰمٖ مِّنَّا وَبَرَكَٰتٍ عَلَيۡكَ وَعَلَىٰٓ أُمَمٖ مِّمَّن مَّعَكَۚ وَأُمَمٞ سَنُمَتِّعُهُمۡ ثُمَّ يَمَسُّهُم مِّنَّا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 40
(48) हुक्म हुआ, “ऐ नूह! उतर जा52, हमारी तरफ़ से सलामती और बरकतें हैं तुझपर और उन गरोहों पर जो तेरे साथ हैं, और कुछ गरोह ऐसे भी हैं जिनकों हम कुछ मुद्दत तक ज़िन्दगी का सामान बख्रशेंगे फिर उन्हें हमारी तरफ़ से दर्दनाक अज़ाब पहुँचेगा।
52. यानी उस पहाड़ से जिसपर कश्ती ठहरी थी।
تِلۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهَآ إِلَيۡكَۖ مَا كُنتَ تَعۡلَمُهَآ أَنتَ وَلَا قَوۡمُكَ مِن قَبۡلِ هَٰذَاۖ فَٱصۡبِرۡۖ إِنَّ ٱلۡعَٰقِبَةَ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 41
(49) ऐ नबी! ये ग़ैब की ख़बरें हैं जो हम तुम्हारी तरफ़ वह्य कर रहे हैं। इससे पहले न तुम उनको जानते थे और न तुम्हारी क़ौम। तो सब्र करो, आख़िरी अंजाम परहेज़गारों ही के हक़ में है।53
53. यानी जिस तरह नूह (अलैहि०) और उनके साथियों ही का आख़िरकार बोल-बाला हुआ, उसी तरह तुम्हारा और तुम्हारे साथियों का भी होगा। ख़ुदा का क़ानून यही है कि शुरू में हक़ के दुश्मन चाहे कितने ही कामयाब हों, मगर आख़िरी कामयाबी सिर्फ़ उन लोगों का हिस्सा होती है जो ख़ुदा से डरकर सोच और अमल की ग़लत राहों से बचते हुए सही मक़सद के लिए काम करते हैं। लिहाज़ा इस वक़्त जो मुसीबतें और कठिनाइयाँ तुमपर गुज़र रही हैं, जिन मुशकिलों का तुम्हें सामना करना पड़ रहा है और तुम्हारी दावत को दबाने में तुम्हारे मुख़ालिफ़ों को बज़ाहिर जो कामयाबी होती नज़र आ रही है उससे मायूस न हो, बल्कि हिम्मत और सब्र के साथ अपना काम किए चले जाओ।
وَإِلَىٰ عَادٍ أَخَاهُمۡ هُودٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥٓۖ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا مُفۡتَرُونَ ۝ 42
(50) और आद की तरफ़ हमने उनके भाई हूद को भेजा।54 उसने कहा, “ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! अल्लाह की बन्दगी करो। तुम्हारा कोई ख़ुदा उसके सिवा नहीं है। तुमने सिर्फ़ झूठ गढ़ रखे हैं।55
54. सूरा-7 आराफ़, रुकू-5 (आयत-40 से 47) के हाशिए सामने रहें।
55. यानी वे तमाम दूसरे माबूद जिनकी तुम बन्दगी और इबादत कर रहे हो, जो हक़ीक़त में किसी तरह की भी ख़ुदाई सिफ़त (गुण) और ताक़तें नहीं रखते, बन्दगी और इबादत का कोई हक़ उनको हासिल नहीं है। तुमने ख़ाह-मख़ाह उनको माबूद बना रखा है और बेवजह उनसे ज़रूरत पूरी होने की आस लगाए बैठे हो।
يَٰقَوۡمِ لَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ أَجۡرًاۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱلَّذِي فَطَرَنِيٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 43
(51) ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! इस काम पर मैं तुमसे कोई बदला नहीं चाहता, मेरा बदला तो उसके ज़िम्मे है जिसने मुझे पैदा किया है, क्या तुम अक़्ल से ज़रा काम नहीं लेते?56
56. यह जुमला अपने अन्दर बड़ी गहराई रखता है जिसमें एक बड़ी दलील समेट दी गई है। इसका मतलब यह है कि मेरी बात को जिस तरह सरसरी तौर पर तुम नज़रअन्दाज़ कर रहे हो और इसपर संजीदगी से ग़ौर नहीं करते, यह इस बात की दलील है कि तुम लोग अक़्ल से काम नहीं लेते। वरना अगर तुम अक़्ल से काम लेनेवाले होते तो ज़रूर सोचते कि जो शख़्स अपनी किसी निजी ग़रज़ और फ़ायदे के बग़ैर दावत और तबलीग़ और याददिहानी और नसीहत की ये सब मुश्किलें झेल रहा है, जिसकी इस भाग-दौड़ में तुम किसी निजी या ख़ानदानी फ़ायदे का निशान तक नहीं पा सकते, वह ज़रूर अपने पास यक़ीन और भरोसे की कोई ऐसी बुनियाद और ज़मीर (अन्तरात्मा) के इत्मीनान की कोई ऐसी वजह रखता है जिसकी वजह से उसने अपना ऐशो-आराम छोड़कर, अपनी दुनिया बनाने की फ़िक्र से बेपरवाह होकर, अपने आपको इस जोखिम में डाला है कि सदियों के जमे और रचे हुए अक़ीदों, रस्मों और ज़िन्दगी के रंग-ढंग के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाए और उसकी बदौलत दुनिया भर की दुश्मनी मोल ले ले। ऐसे शख़्स की बात कम-से-कम इतनी बेवज़न तो नहीं हो सकती कि बिना सोचे-समझे उसे यूँ ही टाल दिया जाए और उसपर संजीदा सोच-विचार की ज़रा-सी तकलीफ़ भी ज़ेहन को न दी जाए।
وَيَٰقَوۡمِ ٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِ يُرۡسِلِ ٱلسَّمَآءَ عَلَيۡكُم مِّدۡرَارٗا وَيَزِدۡكُمۡ قُوَّةً إِلَىٰ قُوَّتِكُمۡ وَلَا تَتَوَلَّوۡاْ مُجۡرِمِينَ ۝ 44
(52) और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अपने रब से माफ़ी चाहो, फिर उसकी तरफ़ पलटो, वह तुमपर आसमान के दहाने खोल देगा और तुम्हारी मौजूदा क़ुव्वत पर और क़ुव्वत बढ़ाएगा।57 मुजरिमों की तरह मुँह न फेरो।
57. यह वही बात है जो पहले रुकू (आयत-1 से 8) में मुहम्मद (सल्ल०) से कहलवाई गई थी कि “अपने रब से माफ़ी माँगो और उसकी तरफ़ पलट आओ तो वह तुमको अच्छा सामाने-ज़िन्दगी देगा।” इससे मालूम हुआ कि आख़िरत ही में नहीं, इस दुनिया में भी क़ौमों की क़िस्मतों का उतार-चढ़ाव अख़लाक़ी बुनियादों ही पर होता है। अल्लाह तआला इस दुनिया पर जो हुकूमत कर रहा है उसका दारोमदार अख़लाक़ी उसूलों पर है, न कि उन फ़ितरी उसूलों पर जो अख़लाक़ी भलाई-बुराई के फ़र्क़ से ख़ाली हों। यह बात कई जगहों पर क़ुरआन में कही गई है कि जब एक क़ौम के पास नबी के ज़रिए से ख़ुदा का पैग़ाम पहुँचता है तो उसकी क़िस्मत उस पैग़ाम के साथ जुड़ जाती है। अगर वह उसे क़ुबूल कर लेती है तो अल्लाह तआला उसपर अपनी नेमतों और बरकतों के दरवाज़े खोल देता है। अगर रद्द कर देती है तो उसे तबाह कर डाला जाता है। यह मानो एक दफ़ा (धारा) है उस अख़लाक़ी क़ानून की जिसपर अल्लाह तआला इनसान के साथ मामला कर रहा है। इसी तरह इस क़ानून की एक दफ़ा यह भी है कि जो क़ौम दुनिया की ख़ुशहाली से धोखा खाकर ज़ुल्म और गुनाह की राहों पर चल निकलती है। उसका अंजाम बरबादी है। लेकिन ठीक उस वक़्त जबकि वह अपने उस बुरे अंजाम की तरफ़ अन्धाधुन्ध चली जा रही हो, अगर वह अपनी ग़लती को महसूस कर ले और नाफ़रमानी छोड़कर ख़ुदा की बन्दगी की तरफ़ पलट आए तो उसकी क़िस्मत बदल जाती है, उसके अमल की मुद्दत में बढ़ोतरी कर दी जाती है और आनेवाले वक़्त में उसके लिए अज़ाब के बजाय इनाम, तरक़्क़ी और कामयाबी का फ़ैसला लिख दिया जाता है।
قَالُواْ يَٰهُودُ مَا جِئۡتَنَا بِبَيِّنَةٖ وَمَا نَحۡنُ بِتَارِكِيٓ ءَالِهَتِنَا عَن قَوۡلِكَ وَمَا نَحۡنُ لَكَ بِمُؤۡمِنِينَ ۝ 45
(53) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ हूद! तू हमारे पास कोई खुली गवाही लेकर नहीं आया है58, और तेरे कहने से हम अपने माबूदों को नहीं छोड़ सकते, और तुझपर हम ईमान लानेवाले नहीं हैं।
58. यानी ऐसी कोई खुली अलामत या ऐसी कोई साफ़ दलील जिससे हम बिना किसी शक-शुब्हे के मालूम कर लें कि अल्लाह ने तुझे भेजा है और जो बात तू पेश कर रहा है वह सच है।
إِن نَّقُولُ إِلَّا ٱعۡتَرَىٰكَ بَعۡضُ ءَالِهَتِنَا بِسُوٓءٖۗ قَالَ إِنِّيٓ أُشۡهِدُ ٱللَّهَ وَٱشۡهَدُوٓاْ أَنِّي بَرِيٓءٞ مِّمَّا تُشۡرِكُونَ ۝ 46
(54) हम तो यह समझते हैं कि तेरे ऊपर हमारे माबूदों में से किसी की मार पड़ गई है।"59 हूद ने कहा, “मैं अल्लाह की गवाही पेश करता हूँ60 और तुम गवाह रहो कि यह जो अल्लाह के सिवा दूसरों को तुमने (ख़ुदाई में) साझीदार बना रखा है, उससे मैं बेज़ार61
59. यानी तूने किसी देवी या देवता या किसी हज़रत के आस्ताने पर कुछ गुस्ताख़ी की होगी, उसी का ख़मियाज़ा है जो तू भुगत रहा है कि बहकी-बहकी बातें करने लगा है और वही बस्तियाँ जिनमें कल तू इज़्ज़त के साथ रहता था आज वहाँ गालियों और पत्थरों से तेरी ख़ातिर हो रही है।
60.यानी तुम कहते हो कि मैं कोई गवाही लेकर नहीं आया, हालाँकि छोटी-छोटी गवाहियाँ पेश करने के बजाय में तो सबसे बड़ी गवाही उस ख़ुदा की पेश कर रहा हूँ जो अपनी सारी ख़ुदाई के साथ कायनात के हर गोशे और हर जलवे में इस बात की गवाही दे रहा है कि जो हक़ीक़तें मैंने तुमसे बयान की हैं वे पूरे तौर पर हक़ हैं, उनमें रत्ती भर झूठ नहीं, और जो तसव्वुर और ख़याल तुमने क़ायम कर रखे हैं वे बिलकुल झूठे हैं, सच्चाई उनमें ज़र्रा बराबर भी नहीं।
61. यह उनकी इस बात का जवाब है कि तेरे कहने से हम अपने माबूदों को छोड़ने पर तैयार नहीं हैं। कहा, मेरा भी यह फ़ैसला सुन रखो कि तुम्हारे इन माबूदों से मैं बिलकुल बेज़ार हूँ।
مِن دُونِهِۦۖ فَكِيدُونِي جَمِيعٗا ثُمَّ لَا تُنظِرُونِ ۝ 47
(55) तुम सब-के-सब मिलकर मेरे ख़िलाफ़ अपनी करनी में कसर न उठा रखो और मुझे ज़रा मुहलत न दो62,
62. यह उनके उस जुमले का जवाब है कि हमारे माबूदों की तुझपर मार पड़ी है। (देखें— सूरा-10 यूनुस, आयत-71)
إِنِّي تَوَكَّلۡتُ عَلَى ٱللَّهِ رَبِّي وَرَبِّكُمۚ مَّا مِن دَآبَّةٍ إِلَّا هُوَ ءَاخِذُۢ بِنَاصِيَتِهَآۚ إِنَّ رَبِّي عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 48
(56) मेरा भरोसा अल्लाह पर है जो मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी। कोई जानदार ऐसा नहीं जिसकी चोटी उसके हाथ में न हो। बेशक मेरा रब सीधी राह पर है।63
63. यानी वह जो कुछ करता है, सही करता है। उसका हर काम सीधा है। उसके यहाँ अंधेर नगरी नहीं है, बल्कि वह सरासर सच्चाई और इनसाफ़ के साथ ख़ुदाई कर रहा है। यह किसी तरह मुमकिन नहीं है कि तुम गुमराह और बदकार हो और फिर (आख़िरत में) कामयाब रहो, और मैं सच्चाई-पसन्द और नेकी करनेवाला हूँ और फिर टोटे में रहूँ।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقَدۡ أَبۡلَغۡتُكُم مَّآ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦٓ إِلَيۡكُمۡۚ وَيَسۡتَخۡلِفُ رَبِّي قَوۡمًا غَيۡرَكُمۡ وَلَا تَضُرُّونَهُۥ شَيۡـًٔاۚ إِنَّ رَبِّي عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٍ حَفِيظٞ ۝ 49
(57) अगर तुम मुँह फेरते हो तो फेर लो, जो पैग़ाम देकर मैं तुम्हारे पास भेजा गया था वह मैं तुमको पहुँचा चुका हूँ। अब मेरा रब तुम्हारी जगह दूसरी क़ौम को उठाएगा और तुम उसका कुछ न बिगाड़ सकोगे।64 यक़ीनन मेरा रब हर चीज़ पर निगराँ है।"
64. यह उनकी इस बात का जवाब है कि हम तुझपर ईमान लानेवाले नहीं हैं।
وَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا هُودٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَنَجَّيۡنَٰهُم مِّنۡ عَذَابٍ غَلِيظٖ ۝ 50
(58) फिर जब हमारा हुक्म आ गया तो हमने अपनी रहमत से हूद को और उन लोगों को, जो उसके साथ ईमान लाए थे, नजात दे दी और एक सख़्त अज़ाब से उन्हें बचा लिया।
وَتِلۡكَ عَادٞۖ جَحَدُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ وَعَصَوۡاْ رُسُلَهُۥ وَٱتَّبَعُوٓاْ أَمۡرَ كُلِّ جَبَّارٍ عَنِيدٖ ۝ 51
(59) ये हैं आद! अपने रब की आयतों से इन्होंने इनकार किया, उसके रसूलों की बात न मानी65 और हर जब्बार (दमनकारी) हक़ के दुश्मन के पीछे चलते रहे।
65. अगरचे उनके पास एक ही रसूल आया था, मगर जिस चीज़ की तरफ़ उसने दावत दी थी वह वही एक दावत थी जो हमेशा हर ज़माने और हर क़ौम में ख़ुदा के रसूल पेश करते रहे हैं। इसी लिए एक रसूल की बात न मानने को सारे रसूलों की नाफ़रमानी बताया गया।
وَأُتۡبِعُواْ فِي هَٰذِهِ ٱلدُّنۡيَا لَعۡنَةٗ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ أَلَآ إِنَّ عَادٗا كَفَرُواْ رَبَّهُمۡۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّعَادٖ قَوۡمِ هُودٖ ۝ 52
(60) आख़िरकार इस दुनिया में भी इनपर फिटकार पड़ी और क़ियामत के दिन भी। सुनो! आद ने अपने रब का इनकार किया। सुनो! दूर फेंक दिए गए आद, हूद की क़ौम के लोग।
۞وَإِلَىٰ ثَمُودَ أَخَاهُمۡ صَٰلِحٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ هُوَ أَنشَأَكُم مِّنَ ٱلۡأَرۡضِ وَٱسۡتَعۡمَرَكُمۡ فِيهَا فَٱسۡتَغۡفِرُوهُ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِۚ إِنَّ رَبِّي قَرِيبٞ مُّجِيبٞ ۝ 53
(61) और समूद की तरफ़ हमने उनके भाई सॉलेह को भेजा।66 उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो। उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। वही है जिसने तुमको ज़मीन से पैदा किया है और यहाँ तुमको बसाया है67, इसलिए तुम उससे माफ़ी चाहो68 और उसकी तरफ़ पलट आओ, यक़ीनन मेरा रब क़रीब है और वह दुआओं का जवाब देनेवाला है।69
66. सूरा-7 आराफ़, रुकू 10 (आयत- 73-84) के हाशिए सामने रहें।
67. यह दलील है उस दावे की जो पहले जुमले में किया गया था कि अल्लाह के सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा और कोई हक़ीक़ी माबूद नहीं है। शिर्क करनेवाले ख़ुद भी इस बात को मानते थे कि उनका पैदा करनेवाला अल्लाह ही है। इसी तसलीमशुदा हक़ीक़त पर दलील की बुनियाद क़ायम करके हज़रत सॉलेह (अलैहि०) उनको समझाते हैं कि जब वह अल्लाह ही है जिसने ज़मीन के बेजान माद्दों (तत्त्वों) को जोड़कर तुमको यह इनसानी वुजूद दिया, और वह भी अल्लाह ही है जिसने ज़मीन में तुमको आबाद किया, तो फिर अल्लाह के सिवा ख़ुदाई और किसकी हो सकती है और किसी दूसरे को यह हक़ कैसे हासिल हो सकता है कि तुम उसकी बन्दगी और इबादत करो।
68. यानी अब तक जो तुम दूसरों की बन्दगी और इबादत करते रहे हो, इस जुर्म की अपने रब से माफ़ी माँगो।
69. यह मुशरिकों की एक बहुत बड़ी ग़लतफ़हमी का रद्द है जो आमतौर से उन सबमें पाई जाती है और उन अहम वजहों में से एक है जिन्होंने हर ज़माने में इनसान को शिर्क में मुब्तला किया है। ये लोग अल्लाह को अपने राजाओं, महाराजाओं और बादशाहों जैसा ही समझते हैं, जो अवाम से दूर अपने महलों में ऐश-आराम किया करते हैं, जिनके दरबार तक आम लोगों में से किसी की पहुँच नहीं हो सकती, जिनकी ख़िदमत में कोई दरख़ास्त पहुँचानी हो तो दरबार में पहुँच रखनेवाले लोगों में से किसी का दामन थामना पड़ता है और फिर अगर ख़ुशक़िस्मती से किसी की दरख़ास्त उनकी ख़िदमत में पहुँच भी जाती है तो उनका ख़ुदाई का घमण्ड यह गवारा नहीं करता कि ख़ुद उसका जवाब दें, बल्कि जवाब देने का काम उनके क़रीबी लोगों ही में से किसी के सिपुर्द किया जाता है। इस ग़लत गुमान की वजह से ये लोग ऐसा समझते हैं और होशियार लोगों ने उनको ऐसा समझाने की कोशिश भी की है कि सारे जहाँ के ख़ुदा का मुक़द्दस आस्ताना आम इनसानों की पहुँच से बहुत ही दूर है। उसके दरबार तक भला किसी आम इनसान की पहुँच कैसे हो सकती है। वहाँ तक दुआओं का पहुँचना और फिर उनका जवाब मिलना तो किसी तरह मुमकिन ही नहीं हो सकता, जब तक कि पाक रूहों का वसीला (ज़रिआ) न ढूँढ़ा जाए और उन मज़हबी ओहदेदारों की ख़िदमतें न हासिल की जाएँ जो ऊपर तक नज़्रें, मन्नतें और अर्ज़ियाँ पहुँचाने के ढब जानते हैं। यही वह ग़लतफ़हमी है जिसने बन्दे और ख़ुदा के बीच में बहुत-से छोटे-बड़े माबूदों और सिफ़ारिशियों की एक बड़ी भीड़ खड़ी कर दी और इसके साथ पुरोहितवाद (Priesthood) का वह निज़ाम पैदा किया जिसके ज़रिए के बग़ैर जाहिली मज़हबों की पैरवी करनेवाले जन्म से लेकर मौत तक अपनी कोई मज़हबी रस्म भी अदा नहीं कर सकते। हज़रत सॉलेह (अलैहि०) जाहिलियत के इस पूरे तिलिस्म को सिर्फ़ दो लफ़्जों से तोड़ फेंकते हैं। एक यह कि अल्लाह क़रीब है। दूसरे यह कि वह मुजीब (दुआ का जवाब देनेवाला) है। यानी तुम्हारा यह ख़याल भी ग़लत है कि वह तुमसे दूर है और यह भी ग़लत है कि तुम सीधे तौर पर उसको पुकारकर अपनी दुआओं का जवाब नहीं पा सकते। वह अगरचे बहुत बुलन्द और बरतर है मगर इसके बावजूद वह तुमसे बहुत क़रीब है। तुममें से एक-एक शख़्स उसको अपने पास ही पा सकता है, उससे सरगोशी कर सकता है। तन्हाई और महफ़िल दोनों में अलानिया तौर पर भी और राज़दाराना तौर पर भी अपनी अरज़ियाँ ख़ुद उसके सामने पेश कर सकता है। और फिर वह सीधे तौर पर अपने हर बन्दे की दुआओं का जवाब ख़ुद देता है, तो जब कायनात के बादशाह का दरबारे-आम हर वक़्त हर शख़्स के लिए खुला है और हर शख़्स के क़रीब ही मौजूद है तो यह तुम किस बेवक़ूफ़ी में पड़े हो कि उसके लिए वास्ते और वसीले ढूढ़ते फिरते हो। (साथ ही देखें— सूरा-2 बक़रा, हाशिया-188)
قَالُواْ يَٰصَٰلِحُ قَدۡ كُنتَ فِينَا مَرۡجُوّٗا قَبۡلَ هَٰذَآۖ أَتَنۡهَىٰنَآ أَن نَّعۡبُدَ مَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَا وَإِنَّنَا لَفِي شَكّٖ مِّمَّا تَدۡعُونَآ إِلَيۡهِ مُرِيبٖ ۝ 54
(62) उन्होंने कहा, “ऐ सॉलेह! इससे पहले तू हमारे बीच ऐसा शख़्स था जिससे बड़ी उम्मीदें की जा रही थीं।70 क्या तू हमें उन माबूदों की इबादत से रोकना चाहता है जिनकी इबादत हमारे बाप-दादा करते थे।71 तू जिस तरीक़े की तरफ़ हमें बुला रहा है उसके बारे में हमको बड़ा शक है, जिसने हमें उलझन में डाल रखा है।72
70. यानी तुम्हारी होशमन्दी, ज़ेहन की तेज़ी, सूझ-बूझ, सलीक़ा, संजीदगी और भारी-भरकम शख्सियत को देखकर हम ये उम्मीद लगाए बैठे थे कि बड़े आदमी बनोगे। अपनी दुनिया भी ख़ूब बनाओगे और हमें भी दूसरी क़ौमों और क़बीलों के मुक़ाबले में तुम्हारे सोच-विचार और ग़ौरी-फ़िक्र से फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिलेगा। मगर तुमने यह तौहीद और आख़िरत का नया राग छेड़कर तो हमारी सारी उम्मीदों पर पानी फेर दिया। याद रहे कि ऐसे ही कुछ ख़यालात मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में भी आप (सल्ल०) की क़ौम के लोगों में पाए जाते थे। वे भी नुवूवत से पहले आप (सल्ल०) की बेहतरीन क़ाबिलियतों को तस्लीम करते थे और अपने तौर पर यह समझते थे कि यह शख़्स एक बहुत बड़ा व्यापारी बनेगा और उसकी तेज़ दिमाग़ी से हमको भी बहुत कुछ फ़ायदा पहुँचेगा। मगर जब उनकी उम्मीदों के ख़िलाफ़ आप (सल्ल०) ने तौहीद व आख़िरत और बुलन्द और अच्छे अख़्लाक़ की दावत देनी शुरू की तो वे आप (सल्ल०) से न सिर्फ़ मायूस बल्कि बेज़ार हो गए और कहने लगे कि अच्छा-ख़ासा काम का आदमी था, ख़ुदा जाने इसे क्या जुनून सवार हो गया कि अपनी ज़िन्दगी भी बरबाद की और हमारी उम्मीदों को भी मिट्टी में मिला दिया।
71. यह मानो दलील है इस बात की कि ये माबूद हमारी इबादत के हक़दार हैं और इनकी पूजा किसलिए होती रहनी चाहिए। यहाँ जाहिलियत और इस्लाम के दलील देने के तरीक़े का फ़र्क़ बिलकुल साफ़ नज़र आता है। हज़रत सॉलेह (अलैहि०) ने कहा था कि अल्लाह के सिवा कोई हक़ीक़ी माबूद नहीं है। और इसपर दलील यह दी थी कि अल्लाह ही ने तुमको पैदा किया और ज़मीन में आबाद किया है। इसके जवाब में उनकी मुशरिक क़ौम कहती है कि हमारे ये माबूद भी इबादत के हक़दार हैं और इनकी इबादत छोड़ी नहीं जा सकती; क्योंकि बाप-दादा के वक़्ता से इनकी इबादत होती चली आ रही है। यानी मक्खी पर मक्खी सिर्फ़ इसलिए मारी जाती रहनी चाहिए कि शुरू में किसी बेवक़ूफ़ ने इस जगह मक्खी मार दी थी, और अब इस जगह पर मक्खी मारते रहने के लिए इसके सिवा किसी मुनासिब और माक़ूल वजह की ज़रूरत ही नहीं है कि यहाँ मुद्दतों से मक्खी मारी जा रही है।
72. यह शक और यह बेचैनी किस मामले में थी? इसको यहाँ साफ़ तौर से नहीं बताया गया है। इसकी वजह यह है कि बेचैनी में तो सब पड़ गए थे, मगर हर एक की बेचैनी अलग तरह की थी। वह हक़ की दावत की ख़ासियतों में से है कि जब वह उठती है तो लोगों के दिल का चैन ख़त्म हो जाता है और एक आम बेचैनी पैदा हो जाती है। अगरचे हर एक के एहसासात दूसरे से अलग होते हैं, मगर इस बेचैनी में सबको कुछ-न-कुछ हिस्सा ज़रूर मिलकर रहता है। इससे पहले जिस इत्मीनान के साथ लोग अपनी गुमराहियों में डूबे रहते थे और कभी यह सोचने की ज़रूरत महसूस ही न करते थे कि हम क्या कर रहे हैं, वह इत्मीनान इस दावत के उठने के बाद बाक़ी नहीं रहता और नहीं रह सकता। जाहिलियत के निज़ाम की कमज़ोरियों पर हक़ की दावत देनेवाले की बेरहम तनक़ीद (आलोचना) हक़ को दुरुस्त साबित करने के लिए उसकी ज़ोरदार और दिल में उतर जानेवाली दलीलें फिर उसके बुलंद अख़लाक़, उसका इरादा, उसका बरदाश्त करना, उसके मन की शराफ़त, उसका बिलकुल खरा और हक़-परस्ती वाला रवैया और उसकी वह ज़बरदस्त, हिकमत भरी शान जिसका सिक्का बड़े-से-बड़े हठधर्म मुख़ालिफ़ के दिल पर भी बैठ जाता है, फिर वक़्त के समाज में से सबसे अच्छे लोगों का उसका असर क़ुबूल करते चले जाना और उनकी जिन्दगियों में हक़ की दावत के असर से ग़ैर-मामूली इंक़िलाब आ जाना, ये सारी चीज़ें मिल-जुलकर उन सब लोगों के दिलों को बेचैन कर डालती हैं जो हक़ आ जाने के बाद भी पुरानी जाहिलियत का बोलबाला रखना चाहते हैं।
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَءَاتَىٰنِي مِنۡهُ رَحۡمَةٗ فَمَن يَنصُرُنِي مِنَ ٱللَّهِ إِنۡ عَصَيۡتُهُۥۖ فَمَا تَزِيدُونَنِي غَيۡرَ تَخۡسِيرٖ ۝ 55
(63) सॉलेह ने कहा, “ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! तुमने कुछ इस बात पर भी ग़ौर किया कि अगर मैं अपने रब की तरफ़ से एक साफ़ गवाही रखता था, और फिर उसने अपनी रहमत से भी मुझको नवाज़ दिया तो इसके बाद अल्लाह की पकड़ से मुझे कौन बचाएगा अगर मैं उसकी नाफ़रमानी करूँ? तुम मेरे किस काम आ सकते हो सिवाए इसके कि मुझे और ज़्यादा घाटे में डाल दो।73”
73. यानी अगर मैं अपनी गहरी समझ-बूझ के ख़िलाफ़ और उस इल्म के ख़िलाफ़ जो अल्लाह ने मुझे दिया है, सिर्फ़ तुमको ख़ुश करने के लिए गुमराही का तरीक़ा अपना लूँ तो यही नहीं कि ख़ुदा की पकड़ से तुम मुझको बचा न सकोगे, बल्कि तुम्हारी वजह से मेरा जुर्म और ज़्यादा बढ़ जाएगा और अल्लाह तआला मुझे इस बात की और ज़्यादा सज़ा देगा कि मैंने तुमको सीधा रास्ता बताने के बजाय तुम्हें जान-बूझकर उलटा और गुमराह किया।
وَيَٰقَوۡمِ هَٰذِهِۦ نَاقَةُ ٱللَّهِ لَكُمۡ ءَايَةٗۖ فَذَرُوهَا تَأۡكُلۡ فِيٓ أَرۡضِ ٱللَّهِۖ وَلَا تَمَسُّوهَا بِسُوٓءٖ فَيَأۡخُذَكُمۡ عَذَابٞ قَرِيبٞ ۝ 56
(64) और ऐ मेरी क़ौम के लोगो! देखो यह अल्लाह की ऊँटनी तुम्हारे लिए एक निशानी है। इसे ख़ुदा की ज़मीन में चरने के लिए आज़ाद छोड़ दो। इसे ज़रा भी न छेड़ना, वरना कुछ ज़्यादा देर न गुज़रेगी कि तुमपर ख़ुदा का अज़ाब आ जाएगा।"
فَعَقَرُوهَا فَقَالَ تَمَتَّعُواْ فِي دَارِكُمۡ ثَلَٰثَةَ أَيَّامٖۖ ذَٰلِكَ وَعۡدٌ غَيۡرُ مَكۡذُوبٖ ۝ 57
(65) मगर उन्होंने ऊँटनी को मार डाला। इसपर सॉलेह ने उनको ख़बरदार कर दिया कि बस अब तीन दिन अपने घरों में और रह-बस लो। यह ऐसी मुद्दत है जो झूठी न साबित होगी।"
فَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا صَٰلِحٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَمِنۡ خِزۡيِ يَوۡمِئِذٍۚ إِنَّ رَبَّكَ هُوَ ٱلۡقَوِيُّ ٱلۡعَزِيزُ ۝ 58
(66) आख़िकार जब हमारे फ़ैसले का वक़्त आ गया तो हमने अपनी रहमत से सॉलेह और उन लोगों को, जो उसके साथ ईमान लाए थे, बचा लिया और उस दिन की रुसवाई से उनको महफ़ूज़ रखा।74 बेशक तेरा रब ही हक़ीक़त में ताक़तवर और ज़बरदस्त है।
74. जज़ीरानुमा (प्रायद्वीप) ‘सीना’ में जो रिवायतें मशहूर हैं उनसे मालूम होता है कि जब समूद पर अज़ाब आया तो हज़रत सॉलेह (अलैहि०) हिजरत करके वहाँ से चले गए थे। चुनाँचे हज़रत मूसा (अलहि०) वाले पहाड़ के करीब ही एक पहाड़ी का नाम ‘नबी सॉलेह’ है और कहा जाता है कि यही जगह उनके क़ियाम (ठहरने) की जगह थी।
وَأَخَذَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلصَّيۡحَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دِيَٰرِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 59
(67) रहे वे लोग जिन्होंने ज़ुल्म किया था, तो एक सख़्त धमाके ने उनको घर लिया और वे अपनी बस्तियों में इस तरह बेहिस व हरकत पड़े-के-पड़े रह गए
كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَآۗ أَلَآ إِنَّ ثَمُودَاْ كَفَرُواْ رَبَّهُمۡۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّثَمُودَ ۝ 60
(68) कि मानो वे यहाँ कभी बसे ही न थे। सुनो, समूद ने अपने रब से कुफ़्र किया। सुनो! दूर फेंक दिए गए समूद।
وَلَقَدۡ جَآءَتۡ رُسُلُنَآ إِبۡرَٰهِيمَ بِٱلۡبُشۡرَىٰ قَالُواْ سَلَٰمٗاۖ قَالَ سَلَٰمٞۖ فَمَا لَبِثَ أَن جَآءَ بِعِجۡلٍ حَنِيذٖ ۝ 61
(69) और देखो, इबराहीम के पास हमारे फ़रिश्ते ख़ुशख़बरी लिए हुए पहुँचे। कहा, तुमपर सलाम हो। इबराहीम ने जवाब दिया, तुमपर भी सलाम हो। फिर कुछ देर न गुज़री कि इबराहीम एक भुना हुआ बछड़ा (उनकी मेहमानी के लिए) ले आया75
75. इससे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पास इनसानी शक्ल में पहुँचे थे और शुरू में उन्होंने अपने बारे में नहीं बताया था, इसलिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने समझा कि ये कोई अजनबी मेहमान हैं और उनके आते ही फ़ौरन उनकी ख़ातिरदारी का इन्तिज़ाम किया।
فَلَمَّا رَءَآ أَيۡدِيَهُمۡ لَا تَصِلُ إِلَيۡهِ نَكِرَهُمۡ وَأَوۡجَسَ مِنۡهُمۡ خِيفَةٗۚ قَالُواْ لَا تَخَفۡ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمِ لُوطٖ ۝ 62
(70) मगर जब देखा कि उनके हाथ खाने पर नहीं बढ़ते75अ, तो वह उनके बारे में शक में पड़ गया और दिल में उनसे डर महसूस करने लगा।76 उन्होंने कहा, “डरो नहीं, हम तो लूत की क़ौम की तरफ़ भेजे गए हैं।77
75.अ. इससे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को मालूम हुआ कि ये फ़रिश्ते हैं।
76. क़ुरआन के कुछ आलिमों के नज़दीक यह डर इस वजह से था कि जब उन अजनबी नए आनेवालों ने खाने की तरफ़ हाथ नहीं बढ़ाया, तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उनकी नीयत पर शक होने लगा और वे इस ख़याल से फ़िक्रमन्द हो गए कि कहीं ये किसी दुश्मनी के इरादे से तो नहीं आए हैं। क्योंकि अरब में जब कोई शख़्स किसी की ख़ातिरदारी क़ुबूल करने से इनकार करता तो उससे यह समझा जाता था कि वह मेहमान की हैसियत से नहीं आया है, बल्कि क़त्ल व ग़ारत की नीयत से आया है। लेकिन बाद की आयत इस तफ़सीर की ताईद नहीं करती।
77. बात के इस अन्दाज़ से साफ़ ज़ाहिर होता है कि खाने की तरफ़ उनके हाथ न बढ़ने से ही हज़रत इबराहीम (अलैहि०) भाँप गए थे कि ये फ़रिश्ते हैं, और चूँकि फ़रिश्तों का खुल्लम-खुल्ला इनसानी शक्ल में आना ग़ैर-मामूली हालात ही में हुआ करता है, इसलिए हज़रत इबराहीम को डर जिस बात पर हुआ वह अस्ल में यही थी कि कहीं उनके घरवालों से या उनकी बस्ती के लोगों से या ख़ुद उनसे कोई ऐसा कुसूर तो नहीं हो गया है जिसपर गिरफ़्त के लिए फ़रिश्ते इस सूरत में भेजे गए हैं। अगर बात वह होती जो क़ुरआन के कुछ आलिमों (टीकाकारों) ने समझी तो फ़रिश्ते यूँ कहते कि “डरो नहीं, हम तुम्हारे रब के भेजे हुए फ़रिश्ते हैं।” लेकिन जब उन्होंने आपका डर दूर करने के लिए कहा कि “हम तो लूत की क़ौम की तरफ़ भेजे गए हैं,” तो इससे मालूम हुआ कि उनका फ़रिश्ता होना तो हज़रत इब्राहीम जान गए थे, अलबत्ता परेशानी इस बात की थी कि ये लोग इस फ़ित्ने और आज़माइश की शक्ल में जो तशरीफ़ लाए हैं तो आख़िर वह बदनसीब कौन है जिसकी शामत आनेवाली है।
وَٱمۡرَأَتُهُۥ قَآئِمَةٞ فَضَحِكَتۡ فَبَشَّرۡنَٰهَا بِإِسۡحَٰقَ وَمِن وَرَآءِ إِسۡحَٰقَ يَعۡقُوبَ ۝ 63
(71) इबराहीम की बीवी भी खड़ी हुई थी। वह यह सुनकर हँस दी।78 फिर हमने उसको इसहाक़ की और इसहाक़ के बाद याक़ूब की ख़ुशख़बरी दी।79
78. इससे मालूम हुआ कि फ़रिश्तों के इनसानी शक्ल में आने की ख़बर सुनते ही सारा घर परेशान हो गया था और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की बीवी भी घबराई हुई बाहर निकल आई थीं। फिर जब उन्होंने यह सुन लिया कि उनके घर पर या उनकी बस्ती पर कोई आफ़त आनेवाली नहीं है तब कहीं उनकी जान में जान आई और वह ख़ुश हो गई।
79. फ़रिश्तों ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बजाय हज़रत सारा को यह ख़ुशख़बरी इसलिए सुनाई कि इससे पहले हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के यहाँ तो उनकी दूसरी बीवी हज़रत हाजरा से हज़रत इसमाईल (अलैहि०) पैदा हो चुके थे, मगर हज़रत सारा उस वक़्त तक बे-औलाद थीं और इस वजह से दिल उन्हीं का ज़्यादा दुखी था। उनके इस ग़म को दूर करने के लिए फ़रिश्तों ने उन्हें सिर्फ़ यही ख़ुशख़बरी नहीं सुनाई कि तुम्हारे यहाँ इसहाक़ (अलैहि०) जैसा बड़े मर्तबेवाला बेटा पैदा होगा, बल्कि यह भी बताया कि इस बेटे के बाद पोता भी याक़ूब (अलैहि०) जैसा आलीशान पैग़म्बर होगा।
قَالَتۡ يَٰوَيۡلَتَىٰٓ ءَأَلِدُ وَأَنَا۠ عَجُوزٞ وَهَٰذَا بَعۡلِي شَيۡخًاۖ إِنَّ هَٰذَا لَشَيۡءٌ عَجِيبٞ ۝ 64
(72) वह बोली, “हाय मेरी कमबख़्ती!80 क्या अब मेरे यहाँ औलाद होगी? जबकि मैं बुढ़िया फूस हो गई और यह मेरे मियाँ भी बूढ़े हो चुके?81 यह तो बड़ी अजीब बात है।”
80. इसका मतलब यह नहीं है कि हज़रत सारा सचमुच इसपर ख़ुश होने के बजाय उलटी इसको कमनसीबी समझती थीं, बल्कि दरअस्ल यह इस तरह के अलफ़ाज़ में से है जो औरतें आम तौर से ताज्जुब के मौक़ों पर बोला करती हैं और जिनसे लफ़्ज़ी मानी मुराद नहीं होते, बल्कि उनका मक़सद सिर्फ़ हैरत का इज़हार होता है।
81. बाइबल से मालूम होता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की उम्र उस वक़्त 100 साल और हज़रत सारा की उम्र 90 साल की थी।
۞مَثَلُ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ كَٱلۡأَعۡمَىٰ وَٱلۡأَصَمِّ وَٱلۡبَصِيرِ وَٱلسَّمِيعِۚ هَلۡ يَسۡتَوِيَانِ مَثَلًاۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 65
(24) इन दोनों फ़रीक़ों (पक्षों) की मिसाल ऐसी है जैसे एक आदमी तो हो अंधा, बहरा और दूसरा हो देखने और सुननेवाला, क्या ये दोनों बराबर हो सकते हैं?28 क्या तुम (इस मिसाल से) कोई सबक़ नहीं लेते?
28. यानी क्या इन दोनों का रवैया और आख़िरकार दोनों का अंजाम एक जैसा हो सकता है? ज़ाहिर है कि जो शख़्स न ख़ुद रास्ता देखता है और न किसी ऐसे शख़्स की बात ही सुनता है। जो उसे रास्ता बता रहा हो, वह ज़रूर कहीं ठोकर खाएगा और कहीं किसी बड़े हादिसे से दो-चार होगा। इसके बरख़िलाफ़ जो शख़्स ख़ुद भी रास्ता देख रहा हो और किसी सही रास्ता जाननेवाले की हिदायतों से भी फ़ायदा उठाता हो वह ज़रूर अपनी मंज़िल पर सलामती के साथ पहुँच जाएगा। बस यही फ़र्क़ उन लोगों के बीच भी है जिनमें से एक अपनी आँखों से भी कायनात में हक़ीक़त की निशानियों को देखता है और ख़ुदा के भेजे हुए रहनुमाओं की बात भी सुनता है, और दूसरा न दिल की आँखें खुली रखता है कि ख़ुदा की निशानियाँ उसे नज़र आएँ और न पैग़म्बरों की बात ही सुनकर देता है, किस तरह मुमकिन है कि ज़िन्दगी में इन दोनों का रवैया एक जैसा हो? और फिर क्या वजह है कि आख़िरकार उनके अंजाम में फ़र्क़ न हो?
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا نُوحًا إِلَىٰ قَوۡمِهِۦٓ إِنِّي لَكُمۡ نَذِيرٞ مُّبِينٌ ۝ 66
(25) (और ऐसे ही हालात थे जब) हमने नूह को उसकी क़ौम की तरफ़ भेजा था।29 (उसने कहा, “मैं तुम लोगों को साफ़-साफ़ खबरदार करता हूँ
29. मुनासिब होगा कि इस मौक़े पर सूरा-7 आराफ़, आयत-58 से 64 तक के हाशिए सामने रखे जाएँ।
أَن لَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَۖ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ أَلِيمٖ ۝ 67
(26) कि अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो, वरना मुझे डर है कि तुमपर एक दिन दर्दनाक अज़ाब आएगा।“30
30. यह वही बात है जो इस सूरा के शुरू में मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से अदा हुई है।
فَقَالَ ٱلۡمَلَأُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن قَوۡمِهِۦ مَا نَرَىٰكَ إِلَّا بَشَرٗا مِّثۡلَنَا وَمَا نَرَىٰكَ ٱتَّبَعَكَ إِلَّا ٱلَّذِينَ هُمۡ أَرَاذِلُنَا بَادِيَ ٱلرَّأۡيِ وَمَا نَرَىٰ لَكُمۡ عَلَيۡنَا مِن فَضۡلِۭ بَلۡ نَظُنُّكُمۡ كَٰذِبِينَ ۝ 68
(27) जवाब में उसकी क़ौम के सरदार, जिन्होंने उसकी बात मानने से इनकार किया था, बोले, “हमारी नज़र में तो तुम इसके सिवा कुछ नहीं हो कि बस एक इनसान हो हम जैसे31 और हम देख रहे हैं कि हमारी क़ौम में से बस उन लोगों ने, जो हमारे यहाँ गिरे-पड़े थे, बेसोचे-समझे तुम्हारी पैरवी अपना ली है32 और हम कोई चीज़ भी ऐसी नहीं पाते जिसमें तुम लोग हमसे कुछ बढ़े हुए हो33, बल्कि हम तो तुम्हें झूठा समझते हैं।”
31. यह वही जहालत भरा एतिराज़ है जो मक्का के लोग मुहम्मद (सल्ल०) के मुक़ाबले में पेश करते थे कि जो शख़्स हमारी ही तरह का एक मामूली इनसान है, खाता-पीता है, चलता-फिरता है, सोता और जागता है, बाल-बच्चे रखता है, आख़िर हम कैसे मान लें कि वह ख़ुदा की तरफ़ से पैग़म्बर बनाकर भेजा गया है। (देखें— सूरा-36 यासीन, हाशिया-11)
32. यह भी वही बात है जो मक्का के बड़े लोग और ऊँचे तबक़ेवाले मुहम्मद (सल्ल०) के बारे में कहते थे कि इनके साथ है कौन? या तो कुछ सिरफिरे लड़के हैं, जिन्हें दुनिया का कुछ तजरिबा नहीं, या कुछ ग़ुलाम और निचले तबके के लोग हैं जो अक़्ल से कोरे और कमज़ोर अक़ीदेवाले होते हैं। (देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-34 से 37; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-78)
33. यानी यह जो तुम कहते हो कि हमपर ख़ुदा की मेहरबानी है और उसकी रहमत है और वे लोग ख़ुदा के ग़ज़ब में मुब्तला हैं जिन्होंने हमारा रास्ता नहीं अपनाया है, तो इसकी कोई अलामत हमें नज़र नहीं आती। मेहरबानी अगर है तो हमपर है कि धन-दौलत और नौकर-चाकर रखते हैं और एक दुनिया हमारी सरदारी मान रही है। तुम टुटपुंजिए लोग आख़िर किस चीज़ में हमसे बढ़े हुए हो कि तुम्हें ख़ुदा का चहेता समझा जाए।
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَءَاتَىٰنِي رَحۡمَةٗ مِّنۡ عِندِهِۦ فَعُمِّيَتۡ عَلَيۡكُمۡ أَنُلۡزِمُكُمُوهَا وَأَنتُمۡ لَهَا كَٰرِهُونَ ۝ 69
(28) उसने कहा, “ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! ज़रा सोचो तो सही कि अगर मैं अपने रब की तरफ़ से एक खुली गवाही पर क़ायम था और फिर उसने मुझको अपनी ख़ास रहमत से भी नवाज़ दिया34, मगर वह तुमको नज़र न आई, तो आख़िर हमारे पास क्या ज़रिआ है कि तुम मानना न चाहो और हम ज़बरदस्ती उसको तुम्हारे सर थोप दें?
34. यह वही बात है जो अभी पिछले रुकू (आयत-7 से 24) में मुहम्मद (सल्ल०) से कहलवाई जा चुकी है कि पहले मैं ख़ुद बाहरी दुनिया में और अपने अन्दर ख़ुदा की निशानियाँ देखकर तौहीद की हक़ीक़त तक पहुँच चुका था, फिर ख़ुदा ने अपनी रहमत (यानी वह्य) से मुझे नवाज़ा और उन हक़ीक़तों का सीधा इल्म मुझे दे दिया जिनपर मेरा दिल पहले से गवाही दे रहा था। इससे यह भी मालूम हुआ कि तमाम पैग़म्बर नुबूवत से पहले अपने ग़ौर व फ़िक्र से ग़ैब पर ईमान हासिल कर चुके होते थे, फिर अल्लाह तआला उनको नुबूवत का मनसब देते वक़्त उनको छिपी हक़ीक़तें आँखों से दिखाकर उनके ईमान को और पक्का कर देता था।
وَيَٰقَوۡمِ لَآ أَسۡـَٔلُكُمۡ عَلَيۡهِ مَالًاۖ إِنۡ أَجۡرِيَ إِلَّا عَلَى ٱللَّهِۚ وَمَآ أَنَا۠ بِطَارِدِ ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْۚ إِنَّهُم مُّلَٰقُواْ رَبِّهِمۡ وَلَٰكِنِّيٓ أَرَىٰكُمۡ قَوۡمٗا تَجۡهَلُونَ ۝ 70
(29) और ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! मैं इस काम पर तुमसे कोई माल नहीं माँगता35, मेरा बदला तो अल्लाह के ज़िम्मे है और मैं उन लोगों को धक्के देने से भी रहा जिन्होंने मेरी बात मानी है, वे आप ही अपने रब के पास जानेवाले हैं36, मगर मैं देखता हूँ कि तुम लोग नासमझी दिखा रहे हो।
35. यानी मैं एक बेग़रज़ (निस्स्वार्थ) नसीहत करनेवाला हूँ। अपने किसी फ़ायदे के लिए नहीं, बल्कि तुम्हारे ही भले के लिए ये सारी मुश्किलें और तकलीफ़ें बरदाश्त कर रहा हूँ। तुम किसी ऐसे निजी फ़ायदे की निशानदेही नहीं कर सकते जो इस हक़ बात की दावत देने में और उसके लिए जानतोड़ मेहनतें करने और मुसीबतें झेलने में मेरे सामने हों। (देखें— सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-70; सूरा-36 यासीन, हाशिया-17; सूरा-42 शूरा, हाशिया-41)
36. यानी उनकी क़द्रो-क़ीमत जो कुछ भी है वह उनके रब को मालूम है और उसी के सामने जाकर बह खुलेगी। अगर ये क़ीमती हीरे हैं तो मेरे और तुम्हारे फेंक देने से पत्थर न हो जाएँगे, और अगर ये बेक़ीमत पत्थर हैं तो उनके मालिक को इख़्तियार है कि उन्हें जहाँ चाहे फेंके। देखें— सूरा-6 अनआम, आयत-52; सूरा-18 कह्फ़, आयत-28)
وَيَٰقَوۡمِ مَن يَنصُرُنِي مِنَ ٱللَّهِ إِن طَرَدتُّهُمۡۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 71
(30) और ऐ क़ौम! अगर मैं इन लोगों को धुतकार दूँ तो ख़ुदा की पकड़ से कौन मुझे बचाने आएगा? तुम लोगों की समझ में क्या इतनी बात भी नहीं आती?
فَلَمَّا ذَهَبَ عَنۡ إِبۡرَٰهِيمَ ٱلرَّوۡعُ وَجَآءَتۡهُ ٱلۡبُشۡرَىٰ يُجَٰدِلُنَا فِي قَوۡمِ لُوطٍ ۝ 72
(74) फिर जब इबराहीम की घबराहट दूर हो गई और (औलाद की ख़ुशख़बरी से) उसका दिल ख़ुश हो गया, तो उसने लूत की क़ौम के मामले में हमसे झगड़ा शुरू किया।83
83. 'झगड़े’ का लफ़्ज़ इस मौक़े पर उस इन्तिहाई मुहब्बत और नाज़-नख़रे के ताल्लुक़ को ज़ाहिर करता है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने ख़ुदा के साथ रखते थे। इस लफ़्ज़ से यह तस्वीर आँखों के सामने फिर जाती है कि बन्दे और ख़ुदा के दरमियान बड़ी देर तक बहस व तकरार जारी रहती है। बन्दा ज़िद कर रहा है कि किसी तरह लूत (अलैहि०) की क़ौम पर से अज़ाब टाल दिया जाए। ख़ुदा जवाब में कह रहा है कि यह क़ौम अब ख़ैर (भलाई) से बिलकुल ख़ाली हो चुकी है और उसके जुर्म इस हद से गुज़र चुके हैं कि उसके साथ कोई रिआयत की जा सके। मगर बन्दा है कि फिर यही कहे जाता है कि “परवरदिगार, अगर कुछ थोड़ी-सी भलाई भी उसमें बाक़ी हो तो उसे और ज़रा मुहलत दे दे, शायद कि वह भलाई फल ले आए।” बाइबल में इस झगड़े की कुछ तफ़सील भी बयान हुई है, लेकिन क़ुरआन का मुख़्तसर बयान अपने अन्दर उससे ज़्यादा मानी रखता है। (देखें— किताब उत्पत्ति, 18:23 से 32)
إِنَّ إِبۡرَٰهِيمَ لَحَلِيمٌ أَوَّٰهٞ مُّنِيبٞ ۝ 73
(75) हक़ीक़त में इबराहीम बहुत बरदाश्त करनेवाला और नर्म दिल आदमी था और हर हाल में हमारी तरफ़ रुजू करता था।
يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ أَعۡرِضۡ عَنۡ هَٰذَآۖ إِنَّهُۥ قَدۡ جَآءَ أَمۡرُ رَبِّكَۖ وَإِنَّهُمۡ ءَاتِيهِمۡ عَذَابٌ غَيۡرُ مَرۡدُودٖ ۝ 74
(76) (आख़िरकार हमारे फ़रिश्तों ने उससे कहा,) “ऐ इबराहीम! इससे बाज़ आ जाओ, तुम्हारे रब का हुक्म हो चुका है और अब उन लोगों पर वह अज़ाब आकर रहेगा जो किसी के फेरे नहीं फिर सकता।84
84. इस सिलसिलए-बयान में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का यह वाक़िआ, ख़ासतौर से लूत (अलैहि०) की क़ौम के क़िस्से की शुरुआत करते हुए बज़ाहिर कुछ बेजोड़-सा महसूस होता है। मगर हक़ीक़त में यह उस मक़सद के लिहाज़ से बिलकुल मौक़े के मुताबिक़ है जिसके लिए पिछली तारीख़ के ये वाक़िआत यहाँ बयान किए जा रहे हैं। इसकी मुनासबत समझने के लिए नीचे बयान की गई बातों को ध्यान में रखिए— (1) यह बात क़ुरैश के लोगों से कही जा रही है जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की औलाद होने की वजह ही से तमाम अरब के पीरज़ादे, काबा के मुजाविर और मज़हबी व अख़लाक़ी और सियासी और समाजी पेशवाई के मालिक बने हुए हैं और इस घमण्ड में पड़े हुए हैं कि हमपर ख़ुदा का गज़ब कैसे नाज़िल हो सकता है, जबकि हम ख़ुदा के उस प्यारे बन्दे की औलाद हैं। और वह ख़ुदा के दरबार में हमारी सिफ़ारिश करने के लिए मौजूद है। इस ग़लत ख़याल को तोड़ने के लिए पहले तो उन्हें यह मंज़र दिखाया गया कि हज़रत नूह (अलैहि०) जैसा बड़ा मर्तबेवाला पैग़म्बर अपनी आँखों के सामने अपने जिगर के टुकड़े (बेटे) को डूबते देख रहा है। और तड़पकर ख़ुदा से दुआ करता है कि उसके बेटे को बचा लिया जाए, मगर सिर्फ़ यही नहीं कि उसकी सिफ़ारिश बेटे के कुछ काम नहीं आती, बल्कि इस सिफ़ारिश पर बाप को उलटी डाँट सुननी पड़ती है। उसके बाद अब यह दूसरा मंज़र ख़ुद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का दिखाया जाता है कि एक तरफ़ तो उनपर बेइन्तिहा इनायतें हैं और बहुत प्यार के अन्दाज़ में उनका ज़िक्र हो रहा है, मगर दूसरी तरफ़ जब वही ख़ुदा के प्यारे दोस्त इबराहीम (अलैहि०) इनसाफ़ के मामले में दख़ल देते हैं तो उनकी ज़िद और मिन्नत-समाजत के बावजूद अल्लाह तआला मुजरिम क़ौम के मामले में उनकी सिफ़ारिश को रद्द कर देता है। (2) इस तक़रीर का मक़सद यह बात भी क़ुरैश के ज़ेहन में बिठाना है कि अल्लाह तआला का यह क़ानून कि अच्छे कामों का अच्छा बदला मिलेगा और बुरे कामों का बुरा जिससे लोग बिलकुल निडर और मुत्मइन बैठे हुए थे, किस तरह इतिहास के दौरान में लगातार और बाक़ायदगी के साथ ज़ाहिर होता रहा है और ख़ुद उनके आसपास उसकी कैसी खुली-खुली निशानियाँ मौजूद हैं। एक तरफ़ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) हैं जो हक़ और सच्चाईक की ख़ातिर घर से बेघर होकर एक अजनबी देश में ठहरे हुए हैं और बज़ाहिर कोई ताक़त उनके पास नहीं है, मगर अल्लाह तआला उनके अच्छे कामों का यह फल उनको देता है कि बाँझ बीवी के पेट से बुढ़ापे में इसहाक़ (अलैहि०) पैदा होते हैं, फिर उनके यहाँ याक़ूब (अलैहि०) का जन्म होता है, और उनसे बनी-इसराईल की वह शानदार नस्ल चलती है जिसकी बड़ाई के डंके सदियों तक उसी फ़िलस्तीन और सीरिया में बजते रहे जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) एक बेघर मुहाजिर की हैसियत से आकर आबाद हुए थे। दूसरी तरफ़ लूत (अलैहि०) की क़ौम है जो इसी सरज़मीन के एक हिस्से में अपनी ख़ुशहाली पर मगन और अपनी बदकारियों में मस्त है। दूर-दूर तक कहीं भी उसको अपने बुरे आमाल के बुरे अंजाम भोगने के आसार नज़र नहीं आ रहे हैं और लूत (अलैहि०) की नसीहतों को वह चुटकियों में उड़ा रही है। मगर जिस तारीख़ को इबराहीम (अलैहि०) की नस्ल से एक बड़ी बुलन्द मर्तबेवाली क़ौम के उठाए जाने का फ़ैसला किया जाता है, ठीक वही तारीख़ है जब इस बदकार क़ौम को दुनिया से बिलकुल मिटा देने का हुक्म लागू होता है और वह ऐसे इबरतनाक तरीक़े से मिटा दी जाती है कि आज उसकी बस्तियों का निशान कहीं ढूँढ़े नहीं मिलता।
وَجَآءَهُۥ قَوۡمُهُۥ يُهۡرَعُونَ إِلَيۡهِ وَمِن قَبۡلُ كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِي هُنَّ أَطۡهَرُ لَكُمۡۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ فِي ضَيۡفِيٓۖ أَلَيۡسَ مِنكُمۡ رَجُلٞ رَّشِيدٞ ۝ 75
(78) (उन मेहमानों का आना था कि उसकी क़ौम के लोग बेइख़्तियार होकर उसके घर की तरफ़ दौड़ पड़े। पहले से वे ऐसी ही बदकारियों के आदी थे। लूत ने उनसे कहा, “भाइयो! ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं, ये तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़ा हैं87, कुछ अल्लाह से डरो और मेरे मेहमानों के मामले में मुझे रुसवा न करो। क्या तुममें कोई भला आदमी नहीं?”
87. हो सकता है कि हज़रत लूत (अलैहि०) का इशारा क़ौम की लड़कियों की तरफ़ हो; क्योंकि नबी अपनी क़ौम के लिए बाप जैसा ही होता है और क़ौम की लड़कियाँ उसकी निगाह में अपनी बेटियों की तरह होती हैं और यह भी हो सकता है कि उनका इशारा ख़ुद अपनी बेटियों की तरफ़ हो। बहरहाल दोनों सूरतों में यह गुमान करने की कोई वजह नहीं है कि हज़रत लूत (अलैहि०) ने उनसे ज़िना (व्यभिचार) करने के लिए कहा होगा। “यह तुम्हारे लिए ज़्यादा पाकीज़ा हैं” का जुमला ऐसा ग़लत मतलब लेने की कोई गुंजाइश नहीं छोड़ता। हज़रत लूत (अलैहि०) का मंशा साफ़ तौर पर यह था कि अपनी ज़िंसी ख़ाहिश को उस फ़ितरी और जाइज़ तरीक़े से पूरा करो जो अल्लाह ने तय कर दिया है और उसके लिए औरतों की कमी नहीं है।
قَالُواْ لَقَدۡ عَلِمۡتَ مَا لَنَا فِي بَنَاتِكَ مِنۡ حَقّٖ وَإِنَّكَ لَتَعۡلَمُ مَا نُرِيدُ ۝ 76
(79) उन्होंने जवाब दिया, “तुझे तो मालूम ही है कि तेरी बेटियों में हमारा कोई हिस्सा नहीं है।88 और तू यह भी जानता है कि हम चाहते क्या हैं।”
88. यह जुमला उन लोगों के नफ़्स (मनोवृत्ति) की पूरी तस्वीर खींच देता है कि वे नीचता और गन्दगी में कितने ज़्यादा डूब गए थे। बात सिर्फ़ इस हद तक ही नहीं रही थी कि वे फ़ितरत और पाकीज़गी की राह से हटकर एक गन्दी और फ़ितरत के ख़िलाफ़ राह पर चल पड़े थे, बल्कि नौबत यहाँ तक पहुँच गई थी कि उनका सारा लगाव और सारी दिलयस्पी अब इसी गन्दी राह ही में थी। उनके मन में अब तलब उस गन्दगी ही की रह गई थी और वे फ़ितरत और पाकीज़गी की राह के बारे में यह कहने में कोई शर्म महसूस न करते थे कि यह रास्ता तो हमारे लिए बना ही नहीं है। यह अख़लाक़ की गिरावट और मन के बिगाड़ की आख़िरी मंज़िल है जिससे नीचे गिरने का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता। उस शख़्स का मामला तो बहुत हल्का है जो सिर्फ़ नफ़्स की कमज़ोरी की वजह से हराम काम में पड़ जाता है, मगर हलाल को चाहने के क़ाबिल और हराम को बचने के क़ाबिल चीज़ समझता हो। ऐसा शख़्स कभी सुधर भी सकता है, और न सुधरे तब भी ज़्यादा-से-ज़्यादा यही कहा जा सकता है कि वह एक बिगड़ा हुआ इनसान है। मगर जब किसी शख़्स को सारा लगाव सिर्फ़ हराम ही से हो और वह समझे कि हलाल उसके लिए है ही नहीं तो उसकी गिनती इनसानों में नहीं की जा सकती। वह दरअस्ल एक गन्दा कीड़ा है जो गन्दगी ही में परवरिश पाता है और पाक चीज़ों से उसके मिज़ाज को कोई मेल नहीं होता। ऐसे कीड़े अगर किसी सफ़ाई-पसन्द इनसान के घर में पैदा हो जाएँ तो वह पहली फ़ुरसत में फ़िनाइल डालकर उनके वुजूद से अपने घर को पाक कर देता है। फिर भला ख़ुदा अपनी ज़मीन पर उन गन्दे कीड़ों के इकट्ठा होने को कब तक गवारा कर सकता था।
قَالَ لَوۡ أَنَّ لِي بِكُمۡ قُوَّةً أَوۡ ءَاوِيٓ إِلَىٰ رُكۡنٖ شَدِيدٖ ۝ 77
(80) लूत ने कहा, “काश, मेरे पास इतनी ताक़त होती कि तुम्हें सीधा कर देता, या कोई मज़बूत सहारा ही होता कि उसकी पनाह लेता।”
قَالُواْ يَٰلُوطُ إِنَّا رُسُلُ رَبِّكَ لَن يَصِلُوٓاْ إِلَيۡكَۖ فَأَسۡرِ بِأَهۡلِكَ بِقِطۡعٖ مِّنَ ٱلَّيۡلِ وَلَا يَلۡتَفِتۡ مِنكُمۡ أَحَدٌ إِلَّا ٱمۡرَأَتَكَۖ إِنَّهُۥ مُصِيبُهَا مَآ أَصَابَهُمۡۚ إِنَّ مَوۡعِدَهُمُ ٱلصُّبۡحُۚ أَلَيۡسَ ٱلصُّبۡحُ بِقَرِيبٖ ۝ 78
(81) तब फ़रिश्तों ने उससे कहा, “ऐ लूत! हम तेरे रब के भेजे हुए फ़रिश्ते हैं। ये लोग तेरा कुछ न बिगाड़ सकेंगे। बस, तू कुछ रात रहे अपने घरवालों को लेकर निकल जा। और देखो, तुममें से कोई शख़्स पीछे पलटकर न देखें89 मगर तेरी बीवी (साथ नहीं जाएगी) क्योंकि इसपर भी वही कुछ गुज़रनेवाला है जो इन लोगों पर गुज़रना है।90 इनकी तबाही के लिए सुबह का वक़्त तय है — सुबह होते अब देर ही कितनी है।"
89. मतलब यह है कि अब तुम लोगों को बस यह फ़िक्र होनी चाहिए कि किसी तरह जल्दी-से-जल्दी इस इलाक़े से निकल जाओ। कहीं ऐसा न हो कि पीछे शोर और धमाकों की आवाज़ सुनकर रास्ते में ठहर जाओ और जो इलाक़ा अज़ाब के लिए चुना जा चुका है उसमें अज़ाब का वक़्त आ जाने के बाद भी तुममें से कोई रुका रह जाए।
90. यह तीसरा इबरतनाक वाक़िआ है जो इस सूरा में लोगों को यह सबक़ देने के लिए यहाँ बयान किया गया है कि तुमको किसी बुज़ुर्ग की रिश्तेदारी और किसी बुज़ुर्ग की सिफ़ारिश अपने गुनाहों की सज़ा से नहीं बचा सकती।
فَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا جَعَلۡنَا عَٰلِيَهَا سَافِلَهَا وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهَا حِجَارَةٗ مِّن سِجِّيلٖ مَّنضُودٖ ۝ 79
(82) फिर जब हमारे फ़ैसले का वक़्त आ पहुँचा तो हमने उस बस्ती को तलपट कर दिया और उसपर पकी हुई मिट्टी के पत्थर ताबड़-तोड़ बरसाए91,
91. शायद यह अज़ाब एक सख़्त ज़लज़ले और ज्वालामुखी के फटने की शक्ल में आया था। ज़लज़ले ने उनकी बस्तियों को तलपट किया और ज्वालामुखी के फटने से उनके ऊपर ज़ोर का पथराव हुआ, पकी हुई मिट्टी के पत्थरों से मुराद शायद वह पथरीली मिट्टी हे जो ज्वालामुखी इलाक़े में ज़मीन के नीचे गर्मी और लावे के असर से पत्थर की शक्ल ले लेती है, आज तक 'बहरे-लूत' के दक्षिण और पूर्व के इलाक़े में इस ज्वालामुखी फटने के आसार हर तरफ़ नज़र आते हैं।
مُّسَوَّمَةً عِندَ رَبِّكَۖ وَمَا هِيَ مِنَ ٱلظَّٰلِمِينَ بِبَعِيدٖ ۝ 80
(83) जिनमें से हर पत्थर तेरे रब के यहाँ निशानज़दा था।92 और ज़ालिमों से यह सज़ा कुछ दूर नहीं है।83
92. यानी हर-हर पत्थर ख़ुदा की तरफ़ से नामज़द किया हुआ था कि उसे तबाहकारी का क्या काम करना है और किस पत्थर को किस मुजरिम पर पड़ना है।
93. यानी आज जो लोग ज़ुल्म के इस रास्ते पर चल रहे हैं वे भी इस अज़ाब को अपने से दूर न समझें। अज़ाब अगर लूत (अलैहि०) की क़ौम पर आ सकता था तो इनपर भी आ सकता है। ख़ुदा को न लूत की क़ौम बेबस कर सकी थी, न ये कर सकते हैं।
۞وَإِلَىٰ مَدۡيَنَ أَخَاهُمۡ شُعَيۡبٗاۚ قَالَ يَٰقَوۡمِ ٱعۡبُدُواْ ٱللَّهَ مَا لَكُم مِّنۡ إِلَٰهٍ غَيۡرُهُۥۖ وَلَا تَنقُصُواْ ٱلۡمِكۡيَالَ وَٱلۡمِيزَانَۖ إِنِّيٓ أَرَىٰكُم بِخَيۡرٖ وَإِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٖ مُّحِيطٖ ۝ 81
(84) और मदयनवालों की तरफ़ हमने उनके भाई शुऐब को भेजा।94 उसने कहा, “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! अल्लाह की बन्दगी करो, उसके सिवा तुम्हारा कोई ख़ुदा नहीं है। और नाप-तौल में कमी न किया करो। आज मैं तुमको अच्छे हाल में देख रहा हूँ, मगर मुझे डर है कि कल तुमपर ऐसा दिन आएगा जिसका अज़ाब सबको घेर लेगा।
94. सूरा-7 आराफ़, रुकू-11 (आयत- 85 से 91) के हाशिए सामने रहें।
وَيَٰقَوۡمِ أَوۡفُواْ ٱلۡمِكۡيَالَ وَٱلۡمِيزَانَ بِٱلۡقِسۡطِۖ وَلَا تَبۡخَسُواْ ٱلنَّاسَ أَشۡيَآءَهُمۡ وَلَا تَعۡثَوۡاْ فِي ٱلۡأَرۡضِ مُفۡسِدِينَ ۝ 82
(85) और ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! ठीक-ठीक इनसाफ़ के साथ पूरा नापो और तौलो और लोगों को उनकी चीज़ों में घाटा न दिया करो और ज़मीन में फ़साद न फैलाते फिरो।
بَقِيَّتُ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَۚ وَمَآ أَنَا۠ عَلَيۡكُم بِحَفِيظٖ ۝ 83
(86) अल्लाह की दी हुई बचत तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम ईमानवाले हो। और बहरहाल मैं तुम्हारे ऊपर कोई निगराँ नहीं हूँ।"95
95. यानी मेरा कोई ज़ोर तुमपर नहीं है। मैं तो बस एक नसीहत करनेवाला हूँ और तुम्हारी भलाई चाहता हूँ। ज़्यादा-से-ज़्यादा इतना ही कर सकता हूँ कि तुम्हें समझा दूँ। आगे तुम्हें इख़्तियार है, चाहे मानो, चाहे न मानो। सवाल मेरी पूछ-गछ से डरने या न डरने का नहीं है, अस्ल चीज़ ख़ुदा की पूछ-गछ है जिसका अगर तुम्हें कुछ डर हो तो अपनी इन हरकतों को बन्द कर दो।
قَالُواْ يَٰشُعَيۡبُ أَصَلَوٰتُكَ تَأۡمُرُكَ أَن نَّتۡرُكَ مَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُنَآ أَوۡ أَن نَّفۡعَلَ فِيٓ أَمۡوَٰلِنَا مَا نَشَٰٓؤُاْۖ إِنَّكَ لَأَنتَ ٱلۡحَلِيمُ ٱلرَّشِيدُ ۝ 84
(87) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ शुऐब! क्या तेरी नमाज़ तुझे यह सिखाती है96 कि हम इन सारे माबूदों को छोड़ दें जिनकी इबादत हमारे बाप-दादा करते थे? या यह कि हमें अपने माल को अपनी मरज़ी के मुताबिक़ इस्तेमाल करने का इख़्तियार न हो?97 बस तू ही तो एक कुशादादिल और सच्चा आदमी रह गया है!"
96. यह दरअस्ल एक ताना भरा जुमला है जिसकी रूह आज भी आप हर उस सोसाइटी में मौजूद पाएँगे जो ख़ुदा से ग़ाफ़िल और उसकी नाफ़रमानी और बुरे कामों में डूबी हुई हो। चूँकि नमाज़ दीनदारी का ज़ाहिर करनेवाला सबसे पहला और सबसे नुमायाँ अमल है, और दीनदारी को ख़ुदा के नाफ़रमान और बुराइयों में पड़े हुए लोग एक ख़तरनाक, बल्कि सबसे ज़्यादा ख़तरनाक रोग समझते हैं, इसलिए नमाज़ ऐसे लोगों की सोसाइटी में इबादत के बजाय रोग की अलामत समझी जाती है। किसी शख़्स को अपने दरमियान नमाज़ पढ़ते देखकर उन्हें फ़ौरन यह एहसास हो जाता है कि इस शख़्स पर 'दीनदारी के रोग' का हमला हो गया है। फिर ये लोग दीनदारी की इस ख़ासियत को भी जानते हैं कि यह चीज़ जिस शख़्स के अन्दर पैदा हो जाती है वह सिर्फ़ ख़ुद अपने कामों को सुधारने पर बस नहीं करता, बल्कि दूसरों को भी दुरुस्त करने की कोशिश करता है, और बेदीनी और बदअख़लाक़ी की ख़राबी बताए बग़ैर उससे रहा नहीं जाता, इसलिए नमाज़ पर उनकी बेचैनी सिर्फ़ इसी हैसियत से नहीं होती कि उनके एक भाई पर दीनदारी का दौरा पड़ गया है, बल्कि इसके साथ ही उन्हें यह खटका भी लग जाता है कि अब जल्द ही अख़लाक़ और ईमानदारी की नसीहत शुरू होनेवाली है और समाजी ज़िन्दगी के हर पहलू में कीड़े निकालने का एक लम्बा सिलसिला छिड़नेवाला है। यही वजह है कि ऐसी सोसाइटी में नमाज़ सबसे बढ़कर लान-तान का शिकार बनती है और अगर कहीं नमाज़ी आदमी ठीक-ठीक उन्हीं अन्देशों के मुताबिक़, जो उसकी नमाज़ से पहले ही पैदा हो चुके थे, बुराइयों पर रोक-टोक और भलाइयों की नसीहत भी शुरू कर दे तब तो नमाज़ इस तरह कोसी जाती है कि मानो यह सारी बला उसी की लाई हुई है।
97. यह बात इस्लाम के मुक़ाबले में जाहिलियत के नज़रिए को पूरी तरह बयान कर रही है। इस्लाम का नज़रिया यह है कि अल्लाह की बन्दगी के सिवा जो तरीक़ा भी है, ग़लत है और उसकी पैरवी न करनी चाहिए, क्योंकि दूसरे किसी तरीक़े के लिए अक़्ल, इल्म और आसमानी किताबों में कोई दलील नहीं है और यह कि अल्लाह की बन्दगी सिर्फ़ एक महदूद मज़हबी दायरे ही में नहीं होनी चाहिए, बल्कि रहन-सहन, समाज, कारोबार, सियासत ग़रज़ ज़िन्दगी के तमाम मैदानों में होनी चाहिए। इसलिए कि दुनिया में इनसान के पास जो कुछ भी है, अल्लाह ही का है और इनसान किसी चीज़ को भी अल्लाह की मरज़ी से आज़ाद होकर पूरे अधिकार के साथ इस्तेमाल करने का हक़ नहीं रखता। इसके मुक़ाबले में जाहिलियत का नज़रिया यह है कि बाप-दादा से जो भी तरीक़ा चला आ रहा हो इनसान को उसी की पैरवी करनी चाहिए और उसकी पैरवी के लिए इस दलील के सिवा किसी और दलील की ज़रूरत नहीं है कि वह बाप-दादा का तरीक़ा है। साथ ही यह कि दीन और धर्म का ताल्लुक़ सिर्फ़ पूजा-पाठ से है, रहे हमारी ज़िन्दगी के आम दुनियावी मामले, तो उनमें हमको पूरी आज़ादी होनी चाहिए कि जिस तरह चाहें काम करें। इससे यह भी अन्दाज़ा किया जा सकता है कि ज़िन्दगी को मज़हबी और दायरों अलग-अलग बाँटने का ख़याल आज कोई नया ख़याल नहीं है, बल्कि आज से तीन-साढ़े तीन हज़ार साल पहले हज़रत शुऐब (अलैहि०) की क़ौम को भी इस बँटवारे पर वैसा ही इसरार था। जैसा आज मग़रिबवालों और उनके पूर्वी शागिर्दो को है। यह हक़ीक़त में कोई नई ‘रौशनी' नहीं है जो इनसान को आज 'ज़ेहनी तरक्क़ी' की बदौलत मिल गई हो, बल्कि यह वही पुरानी अंधेरी सोच है जो हज़ारों साल पहले की जाहिलियत में भी उसी शान से पाई जाती थी और इसके ख़िलाफ़ इस्लाम की कशमकश भी आज की नहीं है, बहुत पुरानी है।
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كُنتُ عَلَىٰ بَيِّنَةٖ مِّن رَّبِّي وَرَزَقَنِي مِنۡهُ رِزۡقًا حَسَنٗاۚ وَمَآ أُرِيدُ أَنۡ أُخَالِفَكُمۡ إِلَىٰ مَآ أَنۡهَىٰكُمۡ عَنۡهُۚ إِنۡ أُرِيدُ إِلَّا ٱلۡإِصۡلَٰحَ مَا ٱسۡتَطَعۡتُۚ وَمَا تَوۡفِيقِيٓ إِلَّا بِٱللَّهِۚ عَلَيۡهِ تَوَكَّلۡتُ وَإِلَيۡهِ أُنِيبُ ۝ 85
(88) शुऐब ने कहा, “भाइयो! तुम ख़ुद ही सोचो कि अगर मैं अपने रब की तरफ़ से एक खुली गवाही पर था और फिर उसने मुझे अपने यहाँ से अच्छी रोज़ी भी दी98 (तो इसके बाद मैं तुम्हारी गुमराहियों और हरामख़ोरियों में तुम्हारा साथी कैसे हो सकता हूँ?) और मैं हरगिज़ नहीं चाहता कि जिन बातों से मैं तुम्हें रोकता हूँ, उन्हें ख़ुद करूँ99 मैं तो सुधार करना चाहता हूँ जहाँ तक भी मेरा बस चले। और यह जो कुछ चाहता हूँ उसका सारा दारोमदार अल्लाह की तौफ़ीक़ पर है। उसी पर मैंने भरोसा किया और हर मामले में उसी की तरफ़ मैं रुजू करता हूँ।
98. 'रिस्क' का लफ़्ज़ यहाँ दोहरे मानी दे रहा है। इसका एक मतलब तो वह सच्चा और सही इल्म है जो अल्लाह तआला की तरफ़ से दिया गया हो। और दूसरे मानी वही हैं जो आमतौर से इस लफ़्ज़ से समझे जाते हैं, यानी वे ज़रिए जो ज़िन्दगी गुज़ारने के लिए अल्लाह तआला अपने बन्दों को देता है। पहले मानी के लिहाज़ से यह आयत उसी मज़मून को अदा कर रही है जो इस सूरा में मुहम्मद (सल्ल०), नूह (अलैहि०) और सॉलेह (अलैहि०) की ज़बान से अदा होता चला आया है कि नुबूवत से पहले भी मैं अपने रब की तरफ़ से हक़ की खुली-खुली गवाही अपने नफ़्स में और कायनात की निशानियों में पा रहा था, और उसके बाद मेरे रब ने सीधे तौर पर ख़ुद ही हक़ का इल्म भी मुझे दे दिया। अब मेरे लिए किस तरह मुमकिन है कि जान-बूझकर उन गुमराहियों और बदअख़लाक़ियों में तुम्हारा साथ दूँ जिनमें तुम पड़े हो। और दूसरे मानी के लिहाज़ से यह आयत उस ताने का जवाब है जो उन लोगों ने हज़रत शुऐब को दिया था कि “बस तुम ही तो एक कुशादा-दिल और सच्चाई-पसन्द आदमी रह गए हो।” इस तेज़ और तीखे हमले का यह ठण्डा जवाब दिया गया है कि भाइयो, अगर मेरे रब ने मुझे हक़ को पहचाननेवाली समझ भी दी हो और हलाल रिज़्क़ भी दिया हो तो आख़िर तुम्हारे तानों से यह मेहरबानी, नामेहरबानी कैसे हो जाएगी। आख़िर मेरे लिए यह कैसे जाइज़ हो सकता है कि जब ख़ुदा ने मुझपर यह मेहरबानी की है तो मैं तुम्हारी गुमराहियों और हरामख़ोरियों को हक़ और हलाल कहकर उसकी नाशुक्री करूँ।
99, यानी मेरी सच्चाई का तुम इस बात से अन्दाज़ा कर सकते हो कि जो कुछ दूसरों से कहता हूँ उसी पर ख़ुद अमल करता हूँ। अगर मैं तुमको ग़ैर-ख़ुदाओं के आस्तानों से रोकता और ख़ुद किसी आस्ताने का मुजाविर बन बैठा होता तो बेशक तुम यह कह सकते थे कि अपनी पीरी चमकाने के लिए दूसरी दुकानों की साख बिगाड़ना चाहता है। अगर मैं तुमको हराम के माल खाने से मना करता और ख़ुद अपने कारोबार में बेईमानियाँ कर रहा होता तो ज़रूर तुम यह शक कर सकते थे कि मैं अपनी साख जमाने के लिए ईमानदारी का ढोल पीट रहा हूँ। लेकिन तुम देखते हो कि मैं ख़ुद उन बुराइयों से बचता हूँ जिनसे तुमको मना करता हूँ। मेरी अपनी ज़िन्दगी उन धब्बों से पाक है जिनसे तुम्हें पाक देखना चाहता हूँ। मैंने अपने लिए भी उसी तरीक़े को पसन्द किया है जिसकी तुम्हें दावत दे रहा हूँ। यह चीज़ इस बात की गवाही के लिए काफ़ी है कि मैं अपनी इस दावत में सच्चा हूँ।
وَيَٰقَوۡمِ لَا يَجۡرِمَنَّكُمۡ شِقَاقِيٓ أَن يُصِيبَكُم مِّثۡلُ مَآ أَصَابَ قَوۡمَ نُوحٍ أَوۡ قَوۡمَ هُودٍ أَوۡ قَوۡمَ صَٰلِحٖۚ وَمَا قَوۡمُ لُوطٖ مِّنكُم بِبَعِيدٖ ۝ 86
(89) और ऐ मेरे क़ौमी भाइयो! मेरे ख़िलाफ़ तुम्हारी हठधर्मी कहीं यह नौबत न पहुँचा दे कि आख़िरकार तुमपर भी वही अज़ाब आकर रहे जो नूह या हूद या सॉलेह की क़ौम पर आया था। और लूत की क़ौम तो तुमसे कुछ ज़्यादा दूर भी नहीं है।100
100. यानी लूत (अलैहि०) की क़ौम का वाक़िआ तो अभी ताज़ा ही है और तुम्हारे क़रीब ही के इलाक़े में पेश आ चुका है। ज़्यादा इमकान यह है कि उस वक़्त लूत (अलैहि०) की क़ौम की तबाही पर 6-7 सौ साल से ज़्यादा न बीते थे। और जुग़राफ़ियाई हैसियत (भौगोलिक दृष्टि) से भी शुऐब (अलैहि०) की क़ौम का मुल्क उस इलाक़े से बिलकुल मिला हुआ था, जहाँ लूत (अलैहि०) की क़ौम रहती थी।
وَٱسۡتَغۡفِرُواْ رَبَّكُمۡ ثُمَّ تُوبُوٓاْ إِلَيۡهِۚ إِنَّ رَبِّي رَحِيمٞ وَدُودٞ ۝ 87
(90) देखो, अपने रब से माफ़ी माँगो और उसकी तरफ़ पलट आओ। बेशक मेरा रब रहम करनेवाला है और अपनी मखलूक़ (सृष्टि) से मुहब्बत रखता है।"101
101. यानी अल्लाह तआला पत्थर-दिल और बेरहम नहीं है। उसको अपने पैदा किए हुए लोगों से कोई दुश्मनी नहीं है कि बिना वजह सज़ा देने ही को उसका जी चाहे और अपने बन्दों को मार-मारकर ही वह ख़ुश हो। तुम लोग अपनी सरकशियों में जब हद से गुज़र जाते हो और किसी तरह बिगाड़ फैलाने से नहीं मानते तब वह न चाहते हुए तुम्हें सज़ा देता है। वरना उसका हाल तो यह है कि तुम चाहे कितने ही क़ुसूर कर चुके हो, जब भी अपने किए हुए पर शर्मिन्दा होकर उसकी तरफ़ पलटोगे उसकी रहमत के दामन को अपने लिए कुशादा पाओगे, क्योंकि अपने पैदा किए हुए लोगों से वह बहुत मुहब्बत रखता है। इस बात को नबी (सल्ल०) ने दो बहुत ही बेहतरीन मिसालों से बयान किया है। एक मिसाल तो आप (सल्ल०) ने यह दी है कि अगर तुममें से किसी शख़्स का ऊँट एक सूखे रेगिस्तान में खो गया हो और उसके खाने-पीने का सामान भी उसी ऊँट पर हो और वह शख़्स उसको ढूँढ़-ढूँढ़कर मायूस हो चुका हो यहाँ तक कि ज़िन्दगी से बेआस होकर एक पेड़ के नीचे लेट गया हो, और ठीक इस हालत में अचानक वह देखे कि उसका ऊँट सामने खड़ा है, तो उस वक़्त जैसी कुछ ख़ुशी उसको होगी, उससे बहुत ज़्यादा ख़ुशी अल्लाह को अपने भटके हुए बन्दे के पलट आने से होती है। दूसरी मिसाल इससे भी ज़्यादा असरदार है। हज़रत उमर (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक बार नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में कुछ जंगी कैदी गिरफ़्तार होकर आए। उनमें एक औरत भी थी जिसका दूध पीता बच्चा छूट गया था और वह ममता की मारी ऐसी बेचैन थी कि जिस बच्चे को पा लेती उसे छाती से चिमटाकर दूध पिलाने लगती थी। नबी (सल्ल०) ने उसका हाल देखकर हम लोगों से पूछा, “क्या तुम लोग यह उम्मीद कर सकते हो कि यह माँ अपने बच्चे को ख़ुद अपने हाथों आग में फेंक देगी?” हमने कहा, “हरगिज़ नहीं, ख़ुद फेंकना तो दूर, वह अपने आप गिरता हो तो यह अपनी हद तक तो उसे बचाने में कोई कसर उठा न रखेगी।” अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अल्लाह का रहम अपने बन्दों पर इससे बहुत ज़्यादा है जो यह औरत अपने बच्चे के लिए रखती है।" और वैसे भी ग़ौर करने से यह बात अच्छी तरह समझ में आ सकती है। वह अल्लाह तआला ही तो है जिसने बच्चों की परवरिश के लिए माँ-बाप के दिल में मुहब्बत पैदा की है। वरना हक़ीक़त यह है कि अगर ख़ुदा इस मुहब्बत को पैदा न करता तो माँ और बाप से बढ़कर बच्चों का कोई दुश्मन न होता क्योंकि, सबसे बढ़कर वे उन्हीं के लिए तकलीफ़देह होते हैं। अब हर शख़्स ख़ुद समझ सकता है कि जो ख़ुदा माँ और बाप की मुहब्बत और प्यार का पैदा करनेवाला है, ख़ुद उसके अन्दर अपने पैदा किए हुओं के लिए कैसी कुछ मुहब्बत मौजूद होगी।
قَالُواْ يَٰشُعَيۡبُ مَا نَفۡقَهُ كَثِيرٗا مِّمَّا تَقُولُ وَإِنَّا لَنَرَىٰكَ فِينَا ضَعِيفٗاۖ وَلَوۡلَا رَهۡطُكَ لَرَجَمۡنَٰكَۖ وَمَآ أَنتَ عَلَيۡنَا بِعَزِيزٖ ۝ 88
(91) उन्होंने जवाब दिया, “ऐ शुऐब! तेरी बहुत-सी बातें तो हमारी समझ ही में नहीं आतीं102 और हम देखते हैं कि तू हमारे बीच एक कमज़ोर आदमी है, तेरी बिरादरी न होती तो हम कभी का पथराव करके तुझे मार डालते, तेरा बलबूता तो इतना नहीं है कि हमपर भारी हो103
102. यह समझ में न आना कुछ इस वजह से न था कि हज़रत शुऐब (अलैहि०) किसी दूसरी ज़बान में बात करते थे, या उनकी बातें बहुत मुश्किल और पेचीदा होती थीं। बातें तो सब साफ़ और सीधी ही थीं और उसी ज़बान में की जाती थीं जो ये लोग बोलते थे, लेकिन उनके ज़ेहन का साँचा इतना टेढ़ा हो चुका था कि हज़रत शुऐब (अलैहि०) की सीधी बातें किसी तरह उसमें न उतर सकती थीं। क़ायदे की बात है कि जो लोग तास्सुब और अपने मन की ख़ाहिश की बन्दगी में सख़्ती के साथ पड़े होते हैं और सोचने के किसी ख़ास ढंग पर जम चुके होते हैं, वे अव्वल तो कोई ऐसी बात सुन ही नहीं सकते जो उनके ख़यालात से अलग हो, और अगर सुन भी लें तो उनकी समझ में नहीं आता कि ये किस दुनिया की बातें की जा रही हैं।
103. यह बात पेशे-नज़र रहे कि ठीक यही सूरतेहाल इन आयतों के उतरने के वक़्त मक्का में पेश आई थी। उस वक़्त क़ुरैश के लोग भी इसी तरह मुहम्मद (सल्ल०) के ख़ून के प्यासे हो रहे थे और चाहते थे कि आपकी ज़िन्दगी का ख़ातिमा कर दें। लेकिन सिर्फ़ इस वजह से आप पर हाथ डालते हुए डरते थे कि बनी-हाशिम आपकी पुश्त पर थे। लिहाज़ा हज़रत शुऐबऔर उनकी क़ौम का यह क़िस्सा ठीक-ठीक क़ुरैश और मुहम्मद (सल्ल०) के मामले पर चस्पाँ करते हुए बयान किया जा रहा है, और आगे हज़रत शुऐब का जो इन्तिहाई सबक़ आमोज़ जवाब नक़्ल किया गया है उसके अन्दर यह मानी छिपे हैं कि “ऐ क़ुरैश के लोगो, तुमको भी मुहम्मद (सल्ल०) की तरफ़ से यही जवाब है।”
قَالَ يَٰقَوۡمِ أَرَهۡطِيٓ أَعَزُّ عَلَيۡكُم مِّنَ ٱللَّهِ وَٱتَّخَذۡتُمُوهُ وَرَآءَكُمۡ ظِهۡرِيًّاۖ إِنَّ رَبِّي بِمَا تَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 89
(92) शुऐब ने कहा, “भाइयो! क्या मेरी बिरादरी तुमपर अल्लाह से ज़्यादा भारी है कि तुमने (बिरादरी का तो डर रखा और) अल्लाह को बिलकुल पीठ पीछे डाल दिया? जान रखो कि जो कुछ तुम कर रहे हो, वह अल्लाह की पकड़ से बाहर नहीं है।
وَيَٰقَوۡمِ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنِّي عَٰمِلٞۖ سَوۡفَ تَعۡلَمُونَ مَن يَأۡتِيهِ عَذَابٞ يُخۡزِيهِ وَمَنۡ هُوَ كَٰذِبٞۖ وَٱرۡتَقِبُوٓاْ إِنِّي مَعَكُمۡ رَقِيبٞ ۝ 90
(93) ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम अपने तरीक़े पर काम किए जाओ और मैं अपने तरीक़े पर करता रहूँगा, जल्दी ही तुम्हें मालूम हो जाएगा कि किसपर रुसवाई का अज़ाब आता है और कौन झूठा है। तुम भी इन्तिज़ार करो और मैं भी तुम्हारे साथ इन्तिज़ार कर रहा हूँ।
وَلَمَّا جَآءَ أَمۡرُنَا نَجَّيۡنَا شُعَيۡبٗا وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥ بِرَحۡمَةٖ مِّنَّا وَأَخَذَتِ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ ٱلصَّيۡحَةُ فَأَصۡبَحُواْ فِي دِيَٰرِهِمۡ جَٰثِمِينَ ۝ 91
(94) आख़िरकार जब हमारे फ़ैसले का वक़्त आ गया तो हमने अपनी रहमत से शुऐब और उसके साथी ईमानवालों को बचा लिया और जिन लोगों ने ज़ुल्म किया था, उनको एक सख़्त धमाके ने ऐसा पकड़ा कि वे अपनी बस्तियों में बेहिसो-हरकत पड़े-के-पड़े रह गए,
كَأَن لَّمۡ يَغۡنَوۡاْ فِيهَآۗ أَلَا بُعۡدٗا لِّمَدۡيَنَ كَمَا بَعِدَتۡ ثَمُودُ ۝ 92
(95) मानो वे कभी वहाँ रहे-बसे ही न थे। सुनो! मदयनवाले भी दूर फेंक दिए गए जिस तरह समूद फेंके गए थे।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مُوسَىٰ بِـَٔايَٰتِنَا وَسُلۡطَٰنٖ مُّبِينٍ ۝ 93
(96) और मूसा को हमने अपनी निशानियों और (पैग़म्बर बनाए जाने की) खुली-खुली सनद के साथ
إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ وَمَلَإِيْهِۦ فَٱتَّبَعُوٓاْ أَمۡرَ فِرۡعَوۡنَۖ وَمَآ أَمۡرُ فِرۡعَوۡنَ بِرَشِيدٖ ۝ 94
(97) फ़िरऔन और उसके दरबारियों की तरफ़ भेजा, मगर उन्होंने फ़िरऔन के हुक्म की पैरवी की, हालाँकि फ़िरऔन का हुक्म सच्चाई पर न था।
يَقۡدُمُ قَوۡمَهُۥ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَأَوۡرَدَهُمُ ٱلنَّارَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡوِرۡدُ ٱلۡمَوۡرُودُ ۝ 95
(98) क़ियामत के दिन वह अपनी क़ौम के आगे-आगे होगा और अपनी पेशवाई में उन्हें दोज़ख़ की तरफ़ ले जाएगा।104 कैसी बुरी आने की जगह है यह जिसपर कोई पहुँचे!
104. इस आयत से और क़ुरआन मजीद के कुछ दूसरे बयानों से मालूम होता है कि जो लोग दुनिया में किसी क़ौम या जमाअत के रहनुमा होते हैं वही क़ियामत के दिन भी उसके रहनुमा होंगे। अगर वे दुनिया में नेकी और सच्चाई और हक़ की तरफ़ रहनुमाई करते हैं तो जिन लोगों ने यहाँ उनकी पैरवी की है वे क़ियामत के दिन भी उन्हीं के झण्डे तले जमा होंगे और उनकी पेशवाई में जन्नत की तरफ़ जाएँगे, और अगर वे दुनिया में किसी गुमराही, किसी बदअख़लाक़ी (अनैतिकता) या किसी ऐसी राह की तरफ़ लोगों को बुलाते हैं जो सच्चे दीन की राह नहीं है, तो जो लोग यहाँ उनके पीछे चल रहे हैं वे वहाँ भी उनके पीछे होंगे और उन्हीं की पेशवाई में जहन्नम की तरफ़ जाएँगे। यही बात नबी (सल्ल०) के इस फ़रमान में पाई जाती है, “क़ियामत के दिन जाहिलियत की शायरी का झण्डा इमरुउल-क़ैस के हाथ में होगा और अरब जाहिलियत के तमाम शाइर (कवि) उसी की पेशवाई में दोज़ख़ की तरफ़ जाएँगे।” अब यह मंज़र हर शख़्स का अपना तसव्वुर और ख़याल उसकी आँखों के सामने खींच सकता है कि ये दोनों तरह के जुलूस किस शान से अपनी तय हो चुकी मंज़िल की तरफ़ जाएँगे। ज़ाहिर है कि जिन लीडरों ने दुनिया में लोगों को गुमराह किया और सच के ख़िलाफ़ राहों पर चलाया है, उनकी पैरवी करनेवाले जब अपनी आँखों से देख लेंगे कि ये ज़ालिम हमको किस भयानक अंजाम की तरफ़ खींच लाए हैं, तो वे अपनी सारी मुसीबतों का ज़िम्मेदार उन्हीं को समझेंगे और उनका जुलूस इस शान के साथ दोज़ख़ की राह पर बढ़ रहा होगा कि आगे-आगे वे होंगे और पीछे-पीछे उनकी पैरवी करनेवालों का हुजूम उनको गालियाँ देता हुआ और उनपर लानतों की बौछार करता हुआ जा रहा होगा। इसके बरख़िलाफ़ जिन लोगों की रहनुमाई ने लोगों को नेमत भरी जन्नतों का हक़दार बनाया होगा उनकी पैरवी करनेवाले अपना यह भला अंजाम देखकर अपने लीडरों को दुआएँ देते हुए और उनपर तारीफ़ों के फूल बरसाते हुए चलेंगे।
وَأُتۡبِعُواْ فِي هَٰذِهِۦ لَعۡنَةٗ وَيَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ بِئۡسَ ٱلرِّفۡدُ ٱلۡمَرۡفُودُ ۝ 96
(99) और उन लोगों पर दुनिया में भी लानत पड़ी और क़ियामत के दिन भी पड़ेगी। कैसा बुरा बदला है यह जो किसी को मिले!
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡقُرَىٰ نَقُصُّهُۥ عَلَيۡكَۖ مِنۡهَا قَآئِمٞ وَحَصِيدٞ ۝ 97
(100) यह कुछ बस्तियों की ख़बरें हैं जो हम तुम्हें सुना रहे हैं। इनमें से कुछ अब भी खड़ी हैं और कुछ की फ़सल कट चुकी है।
وَمَا ظَلَمۡنَٰهُمۡ وَلَٰكِن ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡۖ فَمَآ أَغۡنَتۡ عَنۡهُمۡ ءَالِهَتُهُمُ ٱلَّتِي يَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ مِن شَيۡءٖ لَّمَّا جَآءَ أَمۡرُ رَبِّكَۖ وَمَا زَادُوهُمۡ غَيۡرَ تَتۡبِيبٖ ۝ 98
(101) हमने उनपर ज़ुल्म नहीं किया, उन्होंने आप ही अपने ऊपर सितम ढाया और जब अल्लाह का हुक्म आ गया तो उनके वे माबूद, जिन्हें वे अल्लाह को छोड़कर पुकारा करते थे, उनके कुछ काम न आ सके और उन्होंने हलाकत और बरबादी के सिवा उन्हें कुछ फ़ायदा न पहुँचाया।
وَكَذَٰلِكَ أَخۡذُ رَبِّكَ إِذَآ أَخَذَ ٱلۡقُرَىٰ وَهِيَ ظَٰلِمَةٌۚ إِنَّ أَخۡذَهُۥٓ أَلِيمٞ شَدِيدٌ ۝ 99
(102) और तेरा रब जब किसी ज़ालिम बस्ती को पकड़ता है तो फिर उसकी पकड़ ऐसी ही हुआ करती है, सच तो यह है कि उसकी पकड़ बड़ी सख़्त और दर्दनाक होती है।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّمَنۡ خَافَ عَذَابَ ٱلۡأٓخِرَةِۚ ذَٰلِكَ يَوۡمٞ مَّجۡمُوعٞ لَّهُ ٱلنَّاسُ وَذَٰلِكَ يَوۡمٞ مَّشۡهُودٞ ۝ 100
(103) हक़ीक़त यह है कि उसमें एक निशानी है हर उस शख़्स के लिए जो आख़िरत के अज़ाब का डर रखे।105 वह एक दिन होगा जिसमें सब लोग जमा होंगे और फिर जो कुछ भी उस दिन होगा सबकी आँखों के सामने होगा।
105. यानी तारीख़ के इन वाक़िआत में एक ऐसी निशानी है जिसपर अगर इनसान ग़ौर करे तो उसे यक़ीन आ जाएगा कि आख़िरत का अज़ाब ज़रूर सामने आनेवाला है और उसके बारे में पैग़म्बरों की दी हुई ख़बर सच्ची है। साथ ही इसी निशानी से वह यह भी मालूम कर सकता है कि आख़िरत का अज़ाब कैसा सख़्त होगा और यह इल्म उसके दिल में ख़ुदा का डर पैदा करके उसे सीधा कर देगा। अब रही यह बात कि तारीख़ में वह क्या चीज़ है जो आख़िरत और उसके अज़ाब की अलामत कही जा सकती है, तो हर वह शख़्स उसे आसानी के साथ समझ सकता है जो तारीख़ को सिर्फ़ वाक़िआत का मजमूआ ही न समझता हो, बल्कि उन वाक़िआत के असबाब और वजहों पर भी कुछ ग़ौर करता हो और उनसे नतीजे भी निकालने का आदी हो। हज़ारों साल की इनसानी तारीख़ में क़ौमों और जमाअतों का उठना और गिरना जिस तरह लगातार और ज़ाबिते के साथ सामने आता रहा है, और फिर इस गिरने और उठने में जिस तरह खुले तौर पर कुछ अख़लाक़ी वजहें काम करती रही हैं, और गिरनेवाली क़ौमें जैसी-जैसी इबरतनाक सूरतों से गिरी हैं, ये सब कुछ इस हक़ीक़त की तरफ़ खुला इशारा है कि इनसान इस कायनात में एक ऐसी हुकूमत का ग़ुलाम है जो सिर्फ़ अंधे फ़ितरी क़ानूनों पर हुकूमत नहीं कर रही है, बल्कि अपना एक सही और मुनासिब अख़लाक़ी क़ानून रखती है जिसके मुताबिक़ वह अख़लाक़ की एक ख़ास हद से ऊपर रहनेवालों को जज़ा (इनाम) देती है, इससे नीचे उतरनेवालों को कुछ मुद्दत तक ढील देती रहती है, और जब वे उससे बहुत ज़्यादा नीचे चले जाते हैं तो फिर उन्हें गिराकर ऐसा फेंकती है कि वे एक दास्ताने-इबरत ही बनकर रह जाते हैं। इन वाक़िआत का हमेशा एक तरतीब (क्रम) के साथ पेश आते रहना इस बात में शक करने की ज़रा भी गुंजाइश नहीं छोड़ता की आमाल का अच्छा और बुरा बदला इस दुनिया का एक अटल क़ानून है। फिर जो अज़ाब अलग-अलग क़ौमों पर आए हैं उनपर और ज़्यादा ग़ौर करने से यह अन्दाज़ा भी होता है कि इनसाफ़ के मुताबिक़ आमाल के अच्छे और बुरे बदले के क़ानून के जो अख़लाक़ी तक़ाज़े हैं वे एक हद तक तो उन अज़ाबों से ज़रूर पूरे हुए हैं मगर बड़ी हद तक अभी अधूरे हैं; क्योंकि दुनिया में जो अज़ाब आया उसने सिर्फ़ उस नस्ल को पकड़ा जो अज़ाब के वक़्त मौजूद थी। रहीं वे नस्लें जो शरारतों के बीज बोकर और ज़ुल्म और बुरे कामों की फ़सलें तैयार करके कटाई से पहले ही दुनिया से विदा हो चुकी थीं और जिनके करतूतों का ख़मियाज़ा बाद की नस्लों को भुगतना पड़ा वे तो जैसे बदले के क़ानून के अमल से साफ़ ही बच निकली हैं। अब अगर हम तारीख़ के मुताले से सल्तनते-कायनात (सृष्टि-व्यवस्था) के मिज़ाज को ठीक-ठीक समझ चुके हैं तो हमारा यह मुताला ही इस बात की गवाही देने के लिए काफ़ी है कि अक़्ल और इनसाफ़ के मुताबिक़ आमाल के बदले के क़ानून के जो अख़लाक़ी तक़ाज़े हैं वे अभी अधूरे हैं, उनको पूरा करने के लिए यह इनसाफ़ करनेवाली सल्तनत यक़ीनी तौर पर फिर एक दूसरी दुनिया क़ायम करेगी और वहाँ तमाम ज़ालिमों को उनके करतूतों का पूरा-पूरा बदला दिया जाएगा और वह बदला दुनिया के इन अज़ाबों से भी ज़्यादा सख़्त होगा। (देखें— सूरा-7 आराफ़, हाशिया-30; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-10)
وَمَا نُؤَخِّرُهُۥٓ إِلَّا لِأَجَلٖ مَّعۡدُودٖ ۝ 101
(104) हम उसके लाने में बहुत ज़्यादा देर नहीं कर रहे हैं, बस एक गिनी-चुनी मुद्दत इसके लिए तय है।
يَوۡمَ يَأۡتِ لَا تَكَلَّمُ نَفۡسٌ إِلَّا بِإِذۡنِهِۦۚ فَمِنۡهُمۡ شَقِيّٞ وَسَعِيدٞ ۝ 102
(105) जब वह आएगा तो किसी को बात करने की मजाल न होगी, सिवाए इसके कि ख़ुदा की इजाज़त से कुछ अर्ज़ करे।106 फिर कुछ लोग उस दिन बदनसीब होंगे और कुछ नसीबवाले।
106. यानी ये बेवक़ूफ़ लोग अपनी जगह इस भरोसे में हैं कि फ़ुलाँ हज़रत हमारी सिफ़ारिश करके हमें बचा लेंगे, फ़ुलाँ बुज़ुर्ग अड़कर बैठ जाएँगे और अपने एक-एक शागिर्द को बख़्शवाए बिना न मानेंगे, फ़ुलाँ साहब जो अल्लाह मियाँ के चहेते हैं जन्नत के रास्ते में मचल बैठेंगे और अपने दामन थामनेवालों की बख़्शिश का परवाना लेकर ही टलेंगे। हालाँकि अड़ना और मचलना कैसा, उस जलाल से भरी अदालत में तो किसी बड़े-से-बड़े इनसान और किसी इज़्ज़तदार-से-इज़्ज़तदार फ़रिश्ते को भी कुछ कहने की जुर्अत न होगी और अगर कोई कुछ कह भी सकेगा तो उस वक़्त जबकि सबसे बड़ा बादशाह (अल्लाह) ख़ुद उसे कुछ बोलने की इजाज़त दे दे। तो जो लोग यह समझते हुए ग़ैर-ख़ुदा के आस्तानों पर नज़्रें और नियाज़ें चढ़ा रहे हैं कि ये अल्लाह के यहाँ बहुत पहुँच रखते हैं, और उनकी सिफ़ारिश के भरोसे पर अपने आमालनामे काले किए जा रहे हैं, उनको वहाँ सख़्त मायूसी का सामना करना पड़ेगा।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ شَقُواْ فَفِي ٱلنَّارِ لَهُمۡ فِيهَا زَفِيرٞ وَشَهِيقٌ ۝ 103
(106) जो बदनसीब होंगे वे दोज़ख़ में जाएँगे (जहाँ गर्मी और प्यास की ज़्यादती से) वे हाँफेंगे और फुकारे मारेंगे
خَٰلِدِينَ فِيهَا مَا دَامَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ إِلَّا مَا شَآءَ رَبُّكَۚ إِنَّ رَبَّكَ فَعَّالٞ لِّمَا يُرِيدُ ۝ 104
(107) और इसी हालत में वे हमेशा रहेंगे, जब तक कि ज़मीन व आसमान क़ायम हैं107, सिवाए इसके कि तेरा रब कुछ और चाहे। बेशक तेरा रब पूरा इख़्तियार रखता है कि जो चाहे करे।108
107. इन लफ़्ज़ों से या तो आख़िरत की दुनिया के ज़मीन और आसमान मुराद हैं, या फिर सिर्फ़ मुहावरे के तौर पर उनको हमेशा रहने के मानी में इस्तेमाल किया गया है। बहरहाल मौजूदा ज़मीन और आसमान तो मुराद नहीं हो सकते; क्योंकि क़ुरआन के बयान के मुताबिक़ ये क़ियामत के दिन बदल डाले जाएँगे और यहाँ जिन वाक़िआत का ज़िक्र हो रहा है वे क़ियामत के बाद सामने आनेवाले हैं।
108. यानी कोई और ताक़त तो ऐसी है ही नहीं जो इन लोगों को इस हमेशा रहनेवाले अज़ाब से बचा सके। अलबत्ता अगर अल्लाह तआला ख़ुद ही किसी के अंजाम को बदलना चाहे या किसी को हमेशा रहनेवाला अज़ाब देने के बजाय एक मुद्दत तक अज़ाब देकर माफ़ कर देने का फ़ैसला करे तो उसे ऐसा करने का पूरा इख़्तियार है, क्योंकि अपने क़ानून का बनानेवाला वह ख़ुद ही है, उससे ऊपर कोई क़ानून ऐसा नहीं है जो उसके इख़्तियारात को महदूद करता हो।
۞وَأَمَّا ٱلَّذِينَ سُعِدُواْ فَفِي ٱلۡجَنَّةِ خَٰلِدِينَ فِيهَا مَا دَامَتِ ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ إِلَّا مَا شَآءَ رَبُّكَۖ عَطَآءً غَيۡرَ مَجۡذُوذٖ ۝ 105
(108) रहे वे लोग जो अच्छे नसीबवाले निकलेंगे, तो वे जन्नत में जाएँगे और वहाँ हमेशा रहेंगे जब तक ज़मीन व आसमान क़ायम हैं, सिवाए इसके कि तेरा रब कुछ और चाहे।109 ऐसी बख़्शिश उनको मिलेगी कि जिसका सिलसिला कभी ख़त्म न होगा।
109. यानी उनके जन्नत में ठहरने का दारोमदार भी किसी ऐसे बड़े क़ानून पर नहीं है जिसने अल्लाह को ऐसा करने पर मजबूर कर रखा हो, बल्कि यह सरासर अल्लाह की मेहरबानी होगी कि वह उनको वहाँ रखेगा, अगर वह उनकी क़िस्मत भी बदलना चाहे तो उसे बदलने का पूरा इख़्तियार हासिल है।
فَلَا تَكُ فِي مِرۡيَةٖ مِّمَّا يَعۡبُدُ هَٰٓؤُلَآءِۚ مَا يَعۡبُدُونَ إِلَّا كَمَا يَعۡبُدُ ءَابَآؤُهُم مِّن قَبۡلُۚ وَإِنَّا لَمُوَفُّوهُمۡ نَصِيبَهُمۡ غَيۡرَ مَنقُوصٖ ۝ 106
(109) तो ऐ नबी! तू उन माबूदों की तरफ़ से किसी शक में न रह जिनकी ये लोग इबादत कर रहे हैं। ये तो (बस लकीर के फ़क़ीर बने हुए) उसी तरह पूजा-पाठ किए जा रहे हैं जिस तरह पहले इनके बाप-दादा करते थे110, और हम इनका हिस्सा इन्हें भरपूर देंगे, बिना इसके कि इसमें कुछ काट-कसर हो।
110. इसका मतलब यह नहीं है कि नबी (सल्ल०) सचमुच उन माबूदों की तरफ़ से किसी शक में धे, बल्कि अस्ल में ये बातें नबी (सल्ल०) को ख़िताब करते हुए आम लोगों को सुनाई जा रही हैं। मतलब यह है कि किसी समझदार आदमी को इस शक में न रहना चाहिए कि ये लोग जो इन माबूदों की इबादत करने और उनसे दुआएँ माँगने में लगे हुए हैं, तो आख़िर कुछ तो उन्होंने देखा होगा जिसकी वजह से ये उनसे फ़ायदे की उम्मीदें रखते हैं। हक़ीक़त यह है कि ये इबादत और नज़्रें और नियाज़ें और दुआएँ किसी इल्म, किसी तजरिबे और किसी आँखों देखी सच्चाई की बिना पर नहीं हैं, बल्कि ये सब कुछ निरी अन्धी पैरवी की वजह से हो रहा है। आख़िर यही आस्ताने पिछली क़ौमों के यहाँ भी तो मौजूद थे। और ऐसी ही उनकी करामतें (चमत्कार) भी मशहूर थीं। मगर जब ख़ुदा का अज़ाब आया तो वे तबाह हो गईं और ये आस्ताने यूँ ही उनमें धरे-के-धरे रह गए।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا مُوسَى ٱلۡكِتَٰبَ فَٱخۡتُلِفَ فِيهِۚ وَلَوۡلَا كَلِمَةٞ سَبَقَتۡ مِن رَّبِّكَ لَقُضِيَ بَيۡنَهُمۡۚ وَإِنَّهُمۡ لَفِي شَكّٖ مِّنۡهُ مُرِيبٖ ۝ 107
(110) हम इससे पहले मूसा को भी किताब दे चुके हैं और उसके बारे में भी इख़्तिलाफ़ किया गया था (जिस तरह आज इस किताब के बारे में किया जा रहा है जो तुम्हें दी गई है)।111 अगर तेरे रब की तरफ़ से एक बात पहले ही तय न कर दी गई होती तो इन इख़्तिलाफ़ करनेवालों के बीच कभी का फ़ैसला चुका दिया गया होता।112 यह सच है कि ये लोग उसकी तरफ़ से शक और उलझन में पड़े हुए हैं
111. यानी यह कोई नई बात नहीं है कि आज इस क़ुरआन के बारे में तरह-तरह के लोग तरह-तरह की बातें बना रहे हैं, बल्कि इससे पहले जब मूसा को किताब दी गई थी तो उसके बारे में भी ऐसी ही तरह-तरह की बातें बनाई गई थीं, लिहाज़ा ऐ मुहम्मद, तुम यह देखकर बददिल और मायूस न हो कि ऐसी सीधी-सीधी और साफ़ बातें क़ुरआन में पेश की जा रही हैं और फिर भी लोग इनको क़ुबूल नहीं करते।
112. यह बात भी नबी (सल्ल०) और ईमानवालों को मुत्मइन करने और सब्र दिलाने के लिए कही गई है। मतलब यह है कि तुम इस बात के लिए बेचैन न हो कि जो लोग इस क़ुरआन के बारे में इख़्तिलाफ़ कर रहे हैं उनका फ़ैसला जल्द-से-जल्द चुका दिया जाए। अल्लाह तआला पहले ही यह तय कर चुका है कि फ़ैसला तय किए हुए वक़्त से पहले न किया जाएगा, और यह कि दुनिया के लोग फ़ैसला चाहने में जो जल्दबाज़ी करते हैं, अल्लाह फ़ैसला कर देने में जल्दबाजी न करेगा।
وَإِنَّ كُلّٗا لَّمَّا لَيُوَفِّيَنَّهُمۡ رَبُّكَ أَعۡمَٰلَهُمۡۚ إِنَّهُۥ بِمَا يَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 108
(111) और यह भी सच बात है कि तेरा रब उन्हें उनके कामों का पूरा-पूरा बदला देकर रहेगा, यक़ीनन वह उनकी सब हरकतों की ख़बर रखता है
فَٱسۡتَقِمۡ كَمَآ أُمِرۡتَ وَمَن تَابَ مَعَكَ وَلَا تَطۡغَوۡاْۚ إِنَّهُۥ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 109
(112) तो ऐ नबी ! तुम और तुम्हारे वे साथी, जो (इनकार और बग़ावत से ईमान और फ़रमाँबरदारी की तरफ़) पलट आए हैं, ठीक-ठीक सीधे रास्ते पर क़दम जमाए रहो जैसा कि तुम्हें हुक्म दिया गया है, और बन्दगी की हद पार न करो। जो कुछ तुम कर रहे हो उसपर तुम्हारा रब निगाह रखता है।
وَلَا تَرۡكَنُوٓاْ إِلَى ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ فَتَمَسَّكُمُ ٱلنَّارُ وَمَا لَكُم مِّن دُونِ ٱللَّهِ مِنۡ أَوۡلِيَآءَ ثُمَّ لَا تُنصَرُونَ ۝ 110
(113) इन ज़ालिमों की तरफ़ ज़रा न झुकना, वरना जहन्नम की लपेट में आ जाओगे और तुम्हें कोई ऐसा दोस्त और सरपरस्त न मिलेगा जो ख़ुदा से तुम्हें बचा सके, और कहीं से तुमको मदद न पहुँचेगी।
وَأَقِمِ ٱلصَّلَوٰةَ طَرَفَيِ ٱلنَّهَارِ وَزُلَفٗا مِّنَ ٱلَّيۡلِۚ إِنَّ ٱلۡحَسَنَٰتِ يُذۡهِبۡنَ ٱلسَّيِّـَٔاتِۚ ذَٰلِكَ ذِكۡرَىٰ لِلذَّٰكِرِينَ ۝ 111
(114) और देखो, नमाज़ क़ायम करो दिन के दोनों सिरों पर और कुछ रात गुज़रने पर।113 हक़ीक़त में नेकियाँ बुराइयों को दूर कर देती हैं। यह एक याददिहानी है उन लोगों के लिए जो ख़ुदा को याद रखनेवाले हैं।114
113. 'दिन के दोनों सिरों पर' से मुराद सुबह और मग़रिब (सूरज छिपने का वक़्त) है, और 'कुछ रात गुज़रने पर' से मुराद इशा का वक़्त है। इससे मालूम हुआ कि यह हुक्म उस ज़माने का है जब नमाज़ के लिए अभी पाँच वक़्त तय नहीं किए गए थे। मेराज का वाक़िआ इसके बाद पेश आया जिसमें पाँच वक़्तों की नमाज़ फ़र्ज़ हुई। (तशरीह के लिए देखें— सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-95; सूरा-ताहा 20, हाशिया-111; सूरा-30 रूम, हाशिया-124)
114. यानी जो बुराइयाँ दुनिया में फैली हुई हैं और जो बुराइयाँ तुम्हारे साथ इस दावते-हक़ (सत्य-सन्देश) की दुश्मनी में की जा रही हैं, उन सबको दूर करने का असली तरीक़ा यह है कि तुम ख़ुद ज़्यादा-से-ज़्यादा नेक बनो और अपनी नेकी से इस बुराई को हरा दो, और तुमको नेक बनाने का बेहतरीन ज़रिआ यह नमाज़ है जो ख़ुदा की याद को ताज़ा करती रहेगी और उसकी ताक़त से तुम बुराई के इस मुनज़्ज़म तूफ़ान का न सिर्फ़ मुक़ाबला कर सकोगे, बल्कि उसे दूर करके दुनिया में अमली तौर पर भलाई और सुधार का निज़ाम भी क़ायम कर सकोगे। (तशरीह के लिए देखें— सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-77 से 79)
وَٱصۡبِرۡ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 112
(115) और सब्र कर, अल्लाह नेकी करनेवालों का बदला कभी बरबाद नहीं करता।
فَلَوۡلَا كَانَ مِنَ ٱلۡقُرُونِ مِن قَبۡلِكُمۡ أُوْلُواْ بَقِيَّةٖ يَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡفَسَادِ فِي ٱلۡأَرۡضِ إِلَّا قَلِيلٗا مِّمَّنۡ أَنجَيۡنَا مِنۡهُمۡۗ وَٱتَّبَعَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ مَآ أُتۡرِفُواْ فِيهِ وَكَانُواْ مُجۡرِمِينَ ۝ 113
(116) फिर क्यों न उन क़ौमों में, जो तुमसे पहले गुज़र चुकी हैं, ऐसे भले लोग मौजूद रहे जो लोगों को ज़मीन में फ़साद पैदा करने से रोकते? ऐसे लोग निकले भी तो बहुत कम, जिनको हमने इन क़ौमों में से बचा लिया, वरना ज़ालिम लोग तो उन्हीं मज़ों के पीछे पड़े रहे जिनके सामान उन्हें बहुत ज़्यादा दिए गए थे, और वे मुजरिम बनकर रहे।
وَمَا كَانَ رَبُّكَ لِيُهۡلِكَ ٱلۡقُرَىٰ بِظُلۡمٖ وَأَهۡلُهَا مُصۡلِحُونَ ۝ 114
(117) तेरा रब ऐसा नहीं है कि बस्तियों को बेवजह तबाह कर दे, हालाँकि उनके निवासी इस्लाह करनेवाले हों।115
115. इन आयतों में बहुत ही सबक़आमोज़ तरीक़े से उन क़ौमों की तबाही के अस्ल सबब पर रौशनी डाली गई है जिनका इतिहास पिछली आयतों में बयान हुआ है। इस इतिहास पर तबसिरा (टिप्पणी) करते हुए कहा जाता है कि सिर्फ़ इन्हीं क़ौमों को नहीं, बल्कि पिछली इनसानी इतिहास में जितनी क़ौमें भी तबाह हुई हैं उन सबको जिस चीज़ ने गिराया वह यह थी कि जब अल्लाह तआला ने उन्हें अपनी नेमतें दीं तो वे ख़ुशहाली के नशे में मस्त होकर ज़मीन में बिगाड़ फैलाने लगीं और उनका इज्तिमाई ज़मीर (मिज़ाज) इतना ज़्यादा बिगड़ गया कि या तो उनके अन्दर ऐसे नेक लोग बाक़ी रहे ही नहीं जो उनको बुराइयों से रोकते, या अगर कुछ लोग ऐसे निकले भी तो वे इतने कम थे और उनकी आवाज़ इतनी कमज़ोर थी कि उनके रोकने से बिगाड़ न रुक सका। यही चीज़ है जिसकी बदौलत आख़िरकार ये क़ौमें अल्लाह तआला के ग़ज़ब की हक़दार हुईं, वरना अल्लाह को अपने बन्दों से कोई दुश्मनी नहीं है कि वे तो भले काम कर रहे हों और अल्लाह उनको ख़ाह-मख़ाह अज़ाब में मुब्तला कर दे। यह बात कहने का मक़सद यहाँ तीन बातें ज़ेहन में बिठाना है— एक यह कि हर समाजी निज़ाम में ऐसे नेक लोगों का रहना ज़रूरी है जो भलाई की तरफ़ बुलानेवाले और बुराई से रोकनेवाले हों। इसलिए कि भलाई ही वह चीज़ है जो अस्ल में अल्लाह चाहता है, और लोगों की बुराइयों को अगर अल्लाह बरदाश्त करता भी है तो उस भलाई की ख़ातिर करता है जो उनके अन्दर मौजूद हो, और उसी वक़्त तक करता है जब तक उनके अन्दर भलाई का कुछ इमकान बाक़ी रहे। मगर जब कोई इनसानी गरोह अच्छे लोगों से ख़ाली हो जाए और उसमें सिर्फ़ बुरे लोग ही बाक़ी रह जाएँ, या अच्छे लोग मौजूद हों भी तो काई उनकी सुनकर न दे और पूरी क़ौम-की क़ौम अख़लाक़ी बिगाड़ की राह पर बढ़ती चली जाए, तो फिर ख़ुदा का अज़ाब उसके सर पर इस तरह मंडराने लगता है जैसे पूरे दिनों की हामिला (गर्भवती) कि कुछ नहीं कह सकते कि कब वह बच्चे को जन्म दे दे। दूसरी यह कि जो क़ौम अपने बीच सब कुछ बरदाश्त करती हो, मगर सिर्फ़ उन्हीं कुछ गिने-चुने लोगों को बरदाश्त करने के लिए तैयार न हो जो उसे बुराइयों से रोकते और भलाइयों की तरफ़ बुलाते हों, तो समझ लो कि उसके बुरे दिन क़रीब आ गए हैं। क्योंकि अब वह ख़ुद ही अपनी जान की दुश्मन हो गई है। उसे वे सब चीज़ें तो पसन्द हैं जो उसे तबाह करनेवाली हैं, और सिर्फ़ वही एक चीज़ गवारा नहीं है जो उसे ज़िन्दगी देनेवाली है। तीसरी यह कि एक क़ौम के अज़ाब में घिरने या न घिरने का आख़िरी फ़ैसला जिस चीज़ पर होता है वह यह है कि उसमें भलाई की दावत को क़ुबूल करनेवाले लोग किस हद तक मौजूद हैं। अगर उसके अन्दर ऐसे लोग इतनी तादाद में निकल आएँ जो बिगाड़ को और अच्छे निज़ाम को क़ायम करने के लिए काफ़ी हों तो उसपर आम अज़ाब नहीं भेजा जाता, बल्कि उन अच्छे लोगों को हालात सुधारने का मौक़ा दिया जाता है। लेकिन अगर लगातार कोशिश करने के बावजूद उसमें से इतने आदमी नहीं निकलते जो सुधार के लिए काफ़ी हो सके, और वह क़ौम अपनी गोद से चन्द हीरे फेंक देने के बाद अपने रवैये से साबित कर देती है कि अब उसके पास कोयले-ही-कोयले बाक़ी रह गए हैं, तो फिर कुछ ज़्यादा देर नहीं लगती कि वह भट्टी सुलगा दी जाती है जो उन कोयलों को फूँक कर रख दे। (तशरीह के लिए देखें— सूरा-51 ज़ारियात, हाशिया-34)
وَلَوۡ شَآءَ رَبُّكَ لَجَعَلَ ٱلنَّاسَ أُمَّةٗ وَٰحِدَةٗۖ وَلَا يَزَالُونَ مُخۡتَلِفِينَ ۝ 115
(118) बेशक तेरा रब अगर चाहता तो तमाम इनसानों को एक गिरोह बना सकता था, मगर अब तो वे अलग-अलग तरीक़ों पर ही चलते रहेंगे
إِلَّا مَن رَّحِمَ رَبُّكَۚ وَلِذَٰلِكَ خَلَقَهُمۡۗ وَتَمَّتۡ كَلِمَةُ رَبِّكَ لَأَمۡلَأَنَّ جَهَنَّمَ مِنَ ٱلۡجِنَّةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 116
(119) और बेराह होने से सिर्फ़ वे लोग बचेंगे जिनपर तेरे रब की रहमत है। इसी (चुनने और इख़्तियार की आज़ादी) के लिए ही तो उसने इन्हें पैदा किया था।116, और तेरे रब की वह बात पूरी हो गई जो उसने कही थी कि मैं जहन्नम को जिन्न और इनसान सबसे भर दूँगा।
116. यह उस शक और शुब्हे का जवाब है जो आम तौर से ऐसे मौक़ों पर तक़दीर के नाम से पेश किया जाता है। ऊपर गुज़री हुई क़ौमों की तबाही की जो वजह बयान की गई है उसपर यह एतिराज़ किया जा सकता था कि उनमें अच्छे लोगों का मौजूद न रहना या बहुत कम पाया जाना भी तो आख़िर अल्लाह की इच्छा और मरज़ी ही से था, फिर इसका इलज़ाम उन क़ौमों पर क्यों रखा जाए? क्यों न अल्लाह ने उनके अन्दर बहुत-से अच्छे इनसान पैदा कर दिए? इसके जवाब में यह हक़ीक़त साफ़-साफ़ बयान कर दी गई है कि अल्लाह की मरज़ी इनसान के बारे में यह है ही नहीं कि जानवरों और पेड़-पौधों और ऐसी ही दूसरी मख़लूक़ात की तरह उसको भी क़ुदरती तौर पर एक लगे-बँधे रास्ते का पाबन्द बना दिया जाए जिससे हटकर वह चल ही न सके। अगर वह यही चाहता तो फिर ईमान की दावत देने, पैग़म्बर के भेजे जाने और किताबों के उतारे जाने की ज़रूरत ही क्या थी, सारे इनसान फ़रमाँबरदार और ईमानवाले ही पैदा होते और इनकार और नाफ़रमानी का सिरे से कोई इमकान ही न होता। लेकिन अल्लाह ने इनसान के बारे में जो कुछ चाहा है वह दरअस्ल यह है कि उसको चुनने और अपनाने की आज़ादी दी जाए, उसे अपनी पसन्द के मुताबिक़ अलग-अलग राहों पर चलने की क़ुदरत दी जाए, उसके सामने जन्नत और दोज़ख़ दोनों की राहें खोल दी जाएँ और फिर हर इनसान और हर इनसानी गरोह को मौक़ा दिया जाए कि वह उनमें से जिस राह को भी अपने लिए पसन्द करे उसपर चल सके, ताकि हर एक जो कुछ भी पाए अपनी कोशिश और कमाई के नतीजे में पाए। तो जब वह स्कीम जिसके तहत इनसान पैदा किया गया है चुनने की आज़ादी और अपनी मरज़ी से कुफ़्र व ईमान को अपनाने के उसूल पर बनी है तो यह कैसे हो सकता है कि कोई क़ौम ख़ुद तो बढ़ना चाहे बुराई की राह पर और अल्लाह ज़बरदस्ती उसको भलाई के रास्ते पर मोड़ दे। कोई क़ौम ख़ुद अपनी पसन्द से तो इनसान बनानेवाले ऐसे कारख़ाने बनाए जो एक-से-एक बढ़कर बदकार, ज़ालिम और (अल्लाह के) नाफ़रमान आदमी ढाल-ढालकर निकालें और अल्लाह इस मामले में ख़ुद दख़ल देकर उसको वे पैदाइशी नेक इनसान दे दे जो उसके बिगड़े हुए साँचों को ठीक कर दें। इस तरह की दख़लअन्दाज़ी ख़ुदा के दस्तूर में नहीं है। नेक हों या बुरे, दोनों तरह के इनसान हर क़ौम को ख़ुद ही जुटाने होंगे। जो क़ौम कुल मिलाकर बुराई की राह को पसन्द करेगी, जिसमें से कोई क़ाबिले-लिहाज़ गरोह ऐसा न उठेगा जो नेकी का झण्डा बुलन्द करे, और जिसने अपने समाजी निज़ाम में इस बात की गुंजाइश ही न छोड़ी होगी कि सुधार की कोशिशें उसके अन्दर फल-फूल सकें, ख़ुदा को क्या पड़ी है कि उसको ज़बरदस्ती नेक बनाए। वह तो उसको उसी अंजाम की तरफ़ धकेल देगा जो उसने ख़ुद अपने लिए चुना है। अलबत्ता ख़ुदा की रहमत की हक़दार अगर कोई क़ौम हो सकती है तो सिर्फ़ वह जिसमें बहुत-से लोग ऐसे निकलें जो ख़ुद भलाई की दावत को आगे बढ़कर क़ुबूल करनेवाले हों और जिसने अपने समाजी निज़ाम में यह सलाहियत बानी रहने दी हो कि सुधार की कोशिश करनेवाले इसके अन्दर काम कर सकें। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-6 अनआम, हाशिया-24)
قَالُوٓاْ أَتَعۡجَبِينَ مِنۡ أَمۡرِ ٱللَّهِۖ رَحۡمَتُ ٱللَّهِ وَبَرَكَٰتُهُۥ عَلَيۡكُمۡ أَهۡلَ ٱلۡبَيۡتِۚ إِنَّهُۥ حَمِيدٞ مَّجِيدٞ ۝ 117
(73) फ़रिश्तों ने कहा, “अल्लाह के हुक्म पर ताज्जुब करती हो?82 इबराहीम के घरवालो! तुम लोगों पर तो अल्लाह की रहमत और उसकी बरकतें हैं, और यकीनन अल्लाह बहुत तारीफ़ के क़ाबिल और बड़ी शानवाला है।”
82. मतलब यह है कि अगरचे आम तौर पर इस उम्र में इनसान के यहाँ औलाद नहीं हुआ करती लेकिन अल्लाह की क़ुदरत से ऐसा होना कुछ नामुमकिन भी नहीं है और जबकि यह ख़ुशख़बरी तुमको अल्लाह की तरफ़ से दी जा रही है तो कोई वजह नहीं कि तुम जैसी एक ईमानवाली औरत इसपर ताज्जुब करे।
وَلَمَّا جَآءَتۡ رُسُلُنَا لُوطٗا سِيٓءَ بِهِمۡ وَضَاقَ بِهِمۡ ذَرۡعٗا وَقَالَ هَٰذَا يَوۡمٌ عَصِيبٞ ۝ 118
(77) और जब हमारे फ़रिश्ते लूत के पास पहुँचे85 तो उनके आने से वह बहुत घबराया और दिल तंग हुआ और कहने लगा कि आज बड़ी मुसीबत का दिन है।86
85. सूरा-7 आराफ़, रुकू-10 (आयत-73 से 84) के हाशिए सामने रहें।
86. इस क़िस्से की जो तफ़सीलात क़ुरआन मजीद में बयान हुई हैं उनके अन्दाज़े-बयान से यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि ये फ़रिश्ते ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में हज़रत लूत (अलैहि०) के यहाँ पहुँचे थे और हज़रत लूत (अलैहि०) इस बात से बेख़बर थे कि ये फ़रिश्ते हैं। यही वजह थी कि इन मेहमानों के आने से लूत (अलैहि०) को सख़्त परेशानी और दिलतंगी हुई। वे अपनी क़ौम को जानते थे कि वह कैसी बुरे किरदार की और कितनी बेशर्म हो चुकी है।
وَكُلّٗا نَّقُصُّ عَلَيۡكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلرُّسُلِ مَا نُثَبِّتُ بِهِۦ فُؤَادَكَۚ وَجَآءَكَ فِي هَٰذِهِ ٱلۡحَقُّ وَمَوۡعِظَةٞ وَذِكۡرَىٰ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 119
(120) और ऐ नबी! ये पैग़म्बरों के क़िस्से जो हम तुम्हें सुनाते हैं, वे चीज़ें हैं जिनके ज़रिए से हम तुम्हारे दिल को मज़बूत करते हैं। उनके अन्दर तुमको हक़ीक़त का इल्म मिला और ईमान लानेवालों को नसीहत और बेदारी हासिल हुई।
وَقُل لِّلَّذِينَ لَا يُؤۡمِنُونَ ٱعۡمَلُواْ عَلَىٰ مَكَانَتِكُمۡ إِنَّا عَٰمِلُونَ ۝ 120
(121) रहे वे लोग जो ईमान नहीं लाते, तो उनसे कह दो कि तुम अपने तरीक़े पर काम करते रहो और हम अपने तरीक़े पर किए जाते हैं,
وَٱنتَظِرُوٓاْ إِنَّا مُنتَظِرُونَ ۝ 121
(122) अंजाम का तुम भी इन्तिज़ार करो और हम भी इन्तिज़ार कर रहे हैं।
وَلِلَّهِ غَيۡبُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَإِلَيۡهِ يُرۡجَعُ ٱلۡأَمۡرُ كُلُّهُۥ فَٱعۡبُدۡهُ وَتَوَكَّلۡ عَلَيۡهِۚ وَمَا رَبُّكَ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 122
(123) आसमानों और ज़मीन में जो कुछ छिपा हुआ है सब अल्लाह की क़ुदरत के क़ब्ज़े में है और सारा मामला उसी की तरफ़ रुजू किया जाता है। तो ऐ नबी तू उसकी बन्दगी कर और उसी पर भरोसा रख, जो कुछ तुम लोग कर रहे हो तेरा रब उससे बेख़बर नहीं है।117
117. यानी कुफ़्र व इस्लाम की इस कशमकश के दोनों तरफ़ के लोग जो कुछ कर रहे हैं वह सब अल्लाह की निगाह में है। अल्लाह की सल्तनत कोई 'अंधेर नगरी चौपट राजा' की तरह नहीं है कि इसमें चाहे कुछ भी होता रहे, बेख़बर राजा को उससे कुछ सरोकार न हो। यहाँ हिकमत और नर्मी की वजह से देर तो ज़रूर है, मगर अंधेर नहीं है। जो लोग सुधार की कोशिश कर रहे हैं वे यक़ीन रखें कि उनकी मेहनतें बरबाद न होंगी और वे लोग भी जो बिगाड़ फैलाने और उसे फैलाए रखने में लगे हुए हैं, जो सुधार की कोशिश करनेवालों पर ज़ुल्मो-सितम तोड़ रहे हैं, और जिन्होंने अपना सारा ज़ोर इस कोशिश में लगा रखा है कि सुधार का यह काम किसी तरह चल न सके, उन्हें भी ख़बरदार रहना चाहिए कि उनके ये सारे करतूत अल्लाह के इल्म में हैं और इनकी सज़ा उन्हें ज़रूर भुगतनी पड़ेगी।