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سُورَةُ العَلَقِ

अल-अलक़

(मक्का में उतरी, आयतें 19)

परिचय

नाम

दूसरी आयत के शब्द 'अलक़' (ख़ून का लोथड़ा) को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा के दो भाग हैं : पहला भाग शुरू से लेकर पाँचवीं आयत के वाक्य 'जिसे वह न जानता था' पर समाप्त होता है। और दूसरा भाग आयत-6 से शुरू होकर सूरा के अन्त तक चलता है। पहले भाग के बारे में मुस्लिम समुदाय के ज़्यादातर आलिम इस बात से सहमत हैं कि यह सबसे पहली वह्य है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर उतरी। दूसरा भाग बाद में उस समय अवतरित हुआ जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हरम (काबा की मसजिद) में नमाज़ पढ़नी शुरू की और अबू-जहल ने आपको धमकियाँ देकर उससे रोकने की कोशिश की।

वह्य का आरंभ

हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर वह्य का आरंभ सच्चे (और कुछ रिवायतों में है अच्छे) सपनों के रूप में हुआ। आप जो सपना देखते, वह ऐसा होता कि जैसे आप दिन की रौशनी में देख रहे हैं। फिर आप एकान्त प्रिय हो गए और कई-कई दिन-रात हिरा की गुफा में रहकर इबादत (आराधना) करने लगे। हज़रत आइशा (रजि०) ने 'तहन्नुस' का शब्द प्रयोग किया है जिसकी व्याख्या इमाम ज़ोहरी ने तअब्बुद (इबादत करना) से की है। यह किसी तरह की इबादत थी जो आप करते थे, क्योंकि उस समय तक अल्लाह की ओर से आपको इबादत का तरीक़ा नहीं बताया गया था। एक दिन जबकि आप (सल्ल०) हिरा की गुफा में थे, यकायक आपपर वह्य उतरी और फ़रिश्ते ने आकर आपसे कहा, "पढ़ो।" इसके बाद हज़रत आइशा (रज़ि०) स्वयं अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का कथन नक़्ल करती हैं, “मैंने कहा, मैं तो पढ़ा हुआ नहीं हूँ।” इसपर फ़रिश्ते ने मुझे पकड़कर भींचा, यहाँ तक कि मेरी सहन-शक्ति जवाब देने लगी, फिर उसने मुझे छोड़ दिया। [ऐसा तीन बार हुआ।] तीसरी बार जब फ़रिश्ते ने मुझे छोड़ा तो कहा, 'इक़रा बिस्मि रब्बिकल-लज़ी ख़-ल-क़' (पढ़ो अपने रब के नाम के साथ जिसने पैदा किया।) यहाँ तक कि 'मालम यालम' (जिसे वह न जानता था) तक पहुँच गया।" हज़रत आइशा (रजि०) फ़रमाती हैं कि इसके बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) काँपते-लरज़ते हुए वहाँ से पलटे और हज़रत ख़दीजा के पास पहुँचकर कहा, "मुझे ओढ़ाओ, मुझे ओढ़ाओ।" चुनाँचे आपको ओढ़ा दिया गया। जब आपपर से भय की दशा समाप्त हुई तो आपने फ़रमाया, “ऐ ख़दीजा! यह मुझे क्या हो गया है ?" फिर सारा क़िस्सा आपने उनको सुनाया और कहा, “मुझे अपनी जान का डर है।" उन्होंने कहा, "हरगिज़ नहीं, आप ख़ुश हो जाइए, अल्लाह की क़सम, आपको अल्लाह कभी रुसवा न करेगा। आप रिश्तेदारों से अच्छा व्यवहार करते हैं, सच बोलते हैं, (एक रिवायत में इतना और है कि अमानते अदा करते हैं), बे-सहारा लोगों का बोझ उठाते हैं, ग़रीब लोगों के काम कर देते हैं, आथित्य सत्कार करते हैं और भले कामों में मदद करते हैं।" फिर वे नबी (सल्ल०) को साथ लेकर वरक़ा-बिन-नौफ़ल के पास गईं जो उनके चचेरे भाई थे। अज्ञान-काल में ईसाई हो गए थे, अरबी और इबरानी में इंजील लिखते थे, बहुत बूढ़े और अंधे हो गए थे। हज़रत ख़दीजा ने उनसे कहा, "भाईजान! ज़रा अपने भतीजे का क़िस्सा सुनिए।" वरक़ा ने नबी (सल्ल०) से कहा, "भतीजे! तुमको क्या नज़र आया?" अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जो कुछ देखा था, वह बयान किया। वरक़ा ने कहा, "यह वही नामूस (वह्य लानेवाला फ़रिश्ता) है जो अल्लाह ने मूसा के पास भेजा था। काश, मैं आपकी नुबूवत के समय में ताक़तवर जवान होता! काश मैं उस समय जिंदा रहूँ जब आपकी क़ौम आपको निकालेगी!" अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “क्या ये लोग मुझे निकाल देंगे?" वरक़ा ने कहा, "हाँ, कभी ऐसा नहीं हुआ कि कोई आदमी वह चीज़ लेकर आया हो जो आप लाए हैं और उससे दुश्मनी न की गई हो। अगर मैंने आपका समय पाया तो मैं आपकी भरपूर मदद करूँगा।" मगर ज़्यादा समय न बीता था कि वरक़ा का देहान्त हो गया।

यह क़िस्सा स्वतः अपने मुँह से बोल रहा है कि फ़रिश्ते के आने से एक क्षण पहले तक भी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मन में यह बात न थी कि आप नबी बनाए जानेवाले हैं। इस चीज़ की तलब रखना या इसकी आशा करना तो दूर की बात, आपकी कल्पना में भी यह बात न थी कि ऐसा कोई मामला आपके साथ होगा। वह्य का उतरना और फ़रिश्ते का इस तरह सामने आना आपके लिए अचानक एक घटना थी, जिसका पहला प्रभाव आपपर वही हुआ जो एक बेख़बर व्यक्ति पर इतनी बड़ी एक घटना के घटित होने से स्वाभाविक रूप से हो सकता है। यही कारण है कि जब आप इस्लाम की दावत लेकर उठे तो मक्का के लोगों ने आपपर हर तरह की आपत्ति की, मगर उनमें कोई यह कहनेवाला न था कि हमें तो पहले ही यह ख़तरा था कि आप कोई दावा करनेवाले हैं, क्योंकि आप एक समय से नबी बनने की तैयारियाँ कर रहे थे।

इस क़िस्से से एक बात यह भी मालूम होती है कि नुबूवत से पहले आपकी ज़िन्दगी कितनी पवित्र थी और आपका चरित्र कितना श्रेष्ठ था। हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) ने अपने लम्बे दाम्पत्य जीवन में आपको इतना उत्तम श्रेणी का व्यक्ति पाया था कि जब नबी (सल्ल.) ने उनको हिरा की गुफा में पेश आनेवाली घटना सुनाई तो बे-झिझक उन्होंने मान लिया कि वास्तव में अल्लाह का फ़रिश्ता ही आपके पास वह्य लेकर आया था। इसी तरह वरक़ा-बिन-नौफ़ल ने भी जब यह घटना सुनी तो इसे कोई वस्वसा नहीं समझा, बल्कि सुनते ही कह दिया कि यह वही नामूस (फ़रिश्ता) है जो मूसा (अलैहि०) के पास आया था। इसका मतलब यह है कि उनके नज़दीक भी आप इतने उच्च श्रेणी के व्यक्ति थे कि आपका नुबूवत-पद पर आसीन होना कोई आश्चर्य की बात न थी।

दूसरे भाग के उतरने की वजह

इस सूरा का दूसरा भाग उस समय उतरा जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने हरम (काबा) में इस्लामी तरीक़े पर नमाज़ पढ़नी शुरू की और अबू-जहल ने आपको डरा-धमकाकर इससे रोकना चाहा। चुनाँचे इस सिलसिले में कई हदीसें हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अबू हुरैरा (रज़ि०) से रिवायत की गई हैं जिनमें अबू-जहल की इन अशिष्टताओं का उल्लेख किया गया है। हज़रत अबू-हुरैरा (रजि०) का बयान है कि अबू-जहल ने क़ुरैश के लोगों से पूछा, "क्या मुहम्मद तुम्हारे सामने धरती पर अपना मुँह टिकाते हैं?" लोगों ने कहा, "हाँ!" उसने कहा, "लात और उज्जा की क़सम! अगर मैंने उनको इस तरह नमाज़ पढ़ते हुए देख लिया तो उनकी गरदन पर पाँव रख दूँगा और उनका मुँह ज़मीन से रगड़ दूँगा।" फिर ऐसा हुआ कि नबी (सल्ल०) को नमाज़ पढ़ते हुए देखकर वह आगे बढ़ा कि आपकी गरदन पर पाँव रखे, मगर यकायक लोगों ने देखा कि वह पीछे हट रहा है और अपना मुँह किसी चीज़ से बचाने की कोशिश कर रहा है। उससे पूछा गया, "यह तुझे क्या हो गया?" उसने कहा, "मेरे और उनके बीच आग की एक खाई और एक भयानक चीज़ थी और कुछ पंख थे।" अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, "अगर वह मेरे करीब आता तो फ़रिश्ते उसके चीथड़े उड़ा देते।" (अहमद, मुस्लिम, नसाई)

इब्ने-अब्बास (रजि०) की एक और रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) मक़ामे-इबराहीम (हरम में एक ख़ास जगह) पर नमाज़ पढ़ रहे थे। अबू-जहल उधर से गुज़रा तो उसने कहा, "ऐ मुहम्मद! क्या मैंने तुमको इससे मना नहीं किया था?" और उसने आप (सल्ल०) को धमकियाँ देनी शुरू की। जवाब में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसको सख्ती के साथ झिड़क दिया। इसपर उसने कहा, "ऐ मुहम्मद! तुम किस बल पर मुझे डराते हो? अल्लाह की कसम! इस घाटी में मेरे समर्थक सबसे अधिक हैं।" (अहमद, तिर्मिज़ी, नसाई)

इन्हीं घटनाओं पर इस सूरा का वह भाग उतरा जो "कल्ला इन्नल इनसा-न ल-यतग़ा" (हरगिज़ नहीं, इनसान सरकशी से काम लेता है) से आरंभ होता है। स्वाभाविक रूप से इस भाग को क़ुरआन में इसी जगह रखा जाना चाहिए था, जहाँ कि इस सूरा में रखा गया है, क्योंकि पहली वह्य उतरने के बाद इस्लाम का सबसे पहला प्रदर्शन नबी (सल्ल०) ने नमाज़ ही से आरंभ किया था, और कुफ़्फ़ार (विधर्मियों) से आपके टकराव का आरंभ भी इसी घटना से हुआ था।

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سُورَةُ العَلَقِ
96. अल-अलक़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱقۡرَأۡ بِٱسۡمِ رَبِّكَ ٱلَّذِي خَلَقَ
(1) पढ़ो1 (ऐ नबी!) अपने रब के नाम के साथ2 जिसने पैदा किया3,
1. जैसा कि हमने परिचय में बयान किया है, फ़रिश्ते ने जब नबी (सल्ल०) से कहा कि पढ़ो, तो नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया कि मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ। इससे मालूम होता है कि फ़रिश्ते ने वह्य के ये अलफ़ाज़ लिखी हुई शक्ल में आप (सल्ल०) के सामने पेश किए थे और उन्हें पढ़ने के लिए कहा था। क्योंकि अगर फ़रिश्ते की बात का मतलब यह होता कि जैसे मैं बोलता जाऊँ आप उसी तरह पढ़ते जाएँ, तो नबी (सल्ल०) को यह कहने की कोई ज़रूरत न होती कि मैं पढ़ा हुआ नहीं हूँ।
2. यानी अपने रब का नाम लेकर पढ़ो, या दूसरे अलफ़ाज़ में बिसमिल्लाह कहो और पढ़ो। इससे यह बात मालूम हुई कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) इस वह्य के आने से पहले ही सिर्फ़ अल्लाह तआला को अपना रब जानते और मानते थे। इसी लिए यह कहने की कोई ज़रूरत पेश न आई कि आपका रब कौन है, बल्कि यह कहा गया कि अपने रब का नाम लेकर पढ़ो।
3. आम अलफ़ाज़ में ‘पैदा किया’ कहा गया है, यह नहीं कहा गया कि किसको पैदा किया। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि उस रब का नाम लेकर पढ़ो जो पैदा करनेवाला है, जिसने सारी कायनात को और कायनात की हर चीज़ को पैदा किया है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِنۡ عَلَقٍ ۝ 1
(2) जमे हुए ख़ून के एक लोथड़े से इनसान को बनाया।4
4. कायनात की आम पैदाइश का ज़िक्र करने के बाद ख़ास तौर पर इनसान का ज़िक्र किया कि अल्लाह तआला ने किस मामूली-सी हालत से उसकी पैदाइश की इबतिदा करके उसे पूरा इनसान बनाया। ‘अलक़’ जमा (बहुवचन) है ‘अ-ल-क़ह’ का, जिसका मतलब है जमा हुआ ख़ून। यह वह शुरुआती हालत है जो बच्चा ठहरने के बाद पहले कुछ दिनों में ज़ाहिर होती है, फिर वह गोश्त की शक्ल ले लेती है और उसके बाद दर्जा-ब-दर्जा उसमें इनसानी सूरत बनने का सिलसिला शुरू होता है। (तफ़सील के लिए देखिए, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-22 हज, आयत-5, हाशिए—5 से 7)।
ٱقۡرَأۡ وَرَبُّكَ ٱلۡأَكۡرَمُ ۝ 2
(3) पढ़ो, और तुम्हारा रब बड़ा करीम (मेहरबान) है
ٱلَّذِي عَلَّمَ بِٱلۡقَلَمِ ۝ 3
(4) जिसने क़लम के ज़रिए से इल्म सिखाया,5
5. यानी यह उसकी बड़ी मेहरबानी है कि इस बेहद मामूली हालत से शुरू करके उसने इनसान को इल्मवाला बनाया जो जानदारों की सबसे बड़ी ख़ूबी है, और सिर्फ़ इल्मवाला ही नहीं बनाया, बल्कि उसको क़लम के इस्तेमाल से लिखने का हुनर सिखाया जो बड़े पैमाने पर इल्म को फैलाने, तरक़्क़ी देने और एक नस्ल से दूसरी नस्ल तक पहुँचाकर उसे बाक़ी रखने और उसकी हिफ़ाज़त का ज़रिआ बना। अगर वह क़लम और लिखने के हुनर का यह इल्म इनसान के दिल में न डालता तो इनसान की इल्मी क़ाबिलियत ठिठुरकर रह जाती और उसे तरक़्क़ी मिलने, फैलने और एक नस्ल के इल्म को दूसरी नस्ल तक पहुँचने और आगे और भी तरक़्क़ी करते चले जाने का मौक़ा ही न मिलता।
عَلَّمَ ٱلۡإِنسَٰنَ مَا لَمۡ يَعۡلَمۡ ۝ 4
(5) इनसान को वह इल्म दिया जिसे वह न जानता था।6
6. यानी इनसान अस्ल में बिलकुल बेइल्म था। उसे जो कुछ भी इल्म हासिल हुआ अल्लाह के देने से हासिल हुआ। अल्लाह ही ने जिस मरहले पर इनसान के लिए इल्म के जो दरवाज़े खोलने चाहे वे उसपर खुलते चले गए। यही बात है जो आयतुल-कुर्सी में इस तरह कही गई है कि “और लोग उसके इल्म में से किसी चीज़ पर हावी नहीं हो सकते सिवाय उसके जो वह ख़ुद चाहे।” (क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-255)। जिन-जिन चीज़ों को भी इनसान अपनी इल्मी खोज समझता है, हक़ीक़त में वे पहले उसके इल्म में न थीं, अल्लाह तआला ही ने जब चाहा, उनका इल्म उसे दिया, बिना इसके कि इनसान यह महसूस करता कि यह इल्म अल्लाह उसे दे रहा है। यहाँ तक वे आयतें हैं जो सबसे पहले अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर उतारी गईं। जैसा कि हज़रत आइशा (रज़ि०) की हदीस से मालूम होता है, यह पहला तजरिबा इतना सख़्त था कि नबी (सल्ल०) इससे ज़्यादा सह न सकते थे। इसलिए उस वक़्त सिर्फ़ यह बताने पर बस किया गया कि वह रब जिसको आप पहले से जानते और मानते हैं, आपसे सीधे तौर पर बात कर रहा है, उसकी तरफ़ से आपपर वह्य का सिलसिला शुरू हो गया है, और आपको उसने अपना नबी बना लिया है। इसके एक मुद्दत बाद सूरा-74 मुद्दस्सिर की शुरुआती आयतें उतरीं, जिनमें आपको बताया गया कि नुबूवत दिए जाने के बाद अब आपको काम क्या करना है। (तशरीह के लिए देखिए, तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-74 मुद्दस्सिर, परिचय)।
كَلَّآ إِنَّ ٱلۡإِنسَٰنَ لَيَطۡغَىٰٓ ۝ 5
(6) हरगिज़ नहीं,7 इनसान सरकशी करता है
7. यानी ऐसा हरगिज़ न होना चाहिए कि जिस मेरहबान ख़ुदा ने इनसान पर इतनी बड़ी मेहरबानी की है उसके मुक़ाबले में वह जहालत बरतकर वह रवैया अपनाए जो आगे बयान हो रहा है।
أَن رَّءَاهُ ٱسۡتَغۡنَىٰٓ ۝ 6
(7) इस वजह से कि वह अपने आपको बेनियाज़ देखता है8
8. यानी यह देखकर कि माल, दौलत, इज़्ज़त और रुत्बा और जो कुछ भी दुनिया में वह चाहता था वह उसे हासिल हो गया है, शुक्र करने के बजाय वह सरकशी पर उतर आता है और बन्दगी की हद से बाहर निकल जाता है।
إِنَّ إِلَىٰ رَبِّكَ ٱلرُّجۡعَىٰٓ ۝ 7
(8) (हालाँकि) पलटना यक़ीनन तेरे रब ही की तरफ़ है।9
9. यानी चाहे कुछ भी उसने दुनिया में हासिल कर लिया हो जिसके बल पर वह गुस्ताख़ी और सरकशी कर रहा है, आख़िरकार उसे जाना तो अपने रब ही के पास है। फिर उसे मालूम हो जाएगा कि इस रवैये का अंजाम क्या होता है।
أَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي يَنۡهَىٰ ۝ 8
(9) तुमने देखा उस शख़्स को
10. बन्दे से मुराद ख़ुद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं। इस तरीक़े से नबी (सल्ल०) का ज़िक्र क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर किया गया है। मसलन, “पाक है वह जो ले गया अपने बन्दे को एक रात मस्जिदे-हराम से मस्जिदे-अक़्सा की तरफ़।” (सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-1)। “तारीफ़ है उस ख़ुदा के लिए जिसने अपने बन्दे पर किताब उतारी।” (सूरा-18 कह्फ़, आयत-1)। “और यह कि जब अल्लाह का बन्दा उसको पुकारने के लिए खड़ा हुआ तो लोग उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार हो गए।” (सूरा-72 जिन्न, आयत-19)। इससे मालूम होता है कि यह एक ख़ास मुहब्बत का अन्दाज़ है जिससे अल्लाह तआला अपनी किताब में अपने रसूल मुहम्मद (सल्ल०) का ज़िक्र करता है। इसके अलावा इससे यह भी मालूम होता है कि अल्लाह तआला ने नुबूवत के मंसब पर मुक़र्रर करने के बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को नमाज़ पढ़ने का तरीक़ा सिखा दिया था। उस तरीक़े का ज़िक्र क़ुरआन मजीद में कहीं नहीं है कि ऐ नबी, तुम इस तरह नमाज़ पढ़ा करो। लिहाज़ा यह इस बात का एक और सुबूत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर सिर्फ़ वही वह्य नहीं उतरती थी जो क़ुरआन में लिखी है, बल्कि इसके अलावा भी वह्य के ज़रिए से आप (सल्ल०) को ऐसी बातों की तालीम दी जाती थी जो क़ुरआन में लिखी हुई नहीं हैं।
عَبۡدًا إِذَا صَلَّىٰٓ ۝ 9
(10) जो एक बन्दे को मना करता है, जबकि वह नमाज़ पढ़ता हो?10
أَرَءَيۡتَ إِن كَانَ عَلَى ٱلۡهُدَىٰٓ ۝ 10
(11) तुम्हारा क्या ख़याल है अगर (वह बन्दा) सीधी राह पर हो
أَوۡ أَمَرَ بِٱلتَّقۡوَىٰٓ ۝ 11
(12) या परहेज़गारी की नसीहत करता हो?
أَرَءَيۡتَ إِن كَذَّبَ وَتَوَلَّىٰٓ ۝ 12
(13) तुम्हारा क्या ख़याल है अगर (यह मना करनेवाला शख़्स हक़ को) झुठलाता और मुँह मोड़ता हो?
أَلَمۡ يَعۡلَم بِأَنَّ ٱللَّهَ يَرَىٰ ۝ 13
(14) क्या वह नहीं जानता कि अल्लाह देख रहा है?11
11. बज़ाहिर ऐसा मालूम होता है कि यहाँ बात हर इनसाफ़ पसन्द शख़्स से कही जा रही है। उससे पूछा जा रहा है कि तुमने देखी उसे आदमी की हरकत जो ख़ुदा की इबादत करने से एक बन्दे को रोकता है? तुम्हारा क्या ख़याल है अगर वह बन्दा सीधी राह पर हो, या लोगों को ख़ुदा से डरने और बुरे कामों से रोकने की कोशिश करता हो, और यह मना करनेवाला हक़ को झुठलाता और उससे मुँह मोड़ता हो, तो उसकी यह हरकत कैसी है? क्या यह आदमी यह रवैया अपना सकता था अगर इसे मालूम होता कि अल्लाह तआला उस बन्दे को भी देख रहा है जो नेकी का काम करता है और इसको भी देख रहा है जो सच को झुठलाने और उससे मुँह फेरने में लगा हुआ है? ज़ालिम के ज़ुल्म और मज़लूम की बेचारगी को अल्लाह तआला का देखना ख़ुद इस बात को लाज़िम कर देता है कि वह ज़ालिम को सज़ा देगा और मज़लूम की फ़रियाद सुनेगा।
كَلَّا لَئِن لَّمۡ يَنتَهِ لَنَسۡفَعَۢا بِٱلنَّاصِيَةِ ۝ 14
(15) हरगिज़ नहीं,12 अगर वह बाज़ न आया तो हम उसकी पेशानी के बाल पकड़कर उसे खींचेंगे,
12. यानी यह आदमी जो धमकी देता है कि अगर मुहम्मद (सल्ल०) नमाज़ पढ़ेंगे तो वह उनकी गरदन को पाँवों से दबा देगा, यह हरगिज़ ऐसा न कर सकेगा।
نَاصِيَةٖ كَٰذِبَةٍ خَاطِئَةٖ ۝ 15
(16) उस पेशानी को जो झूठी और बड़ी मुजरिम है।13
13. पेशानी से मुराद यहाँ पेशानीवाला शख़्स है।
فَلۡيَدۡعُ نَادِيَهُۥ ۝ 16
(17) वह बुला ले अपने तरफ़दारों की टोली को,14
14. जैसा कि हमने परिचय में बयान किया है कि अबू-जह्ल के धमकी देने पर जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसको झिड़क दिया था तो उसने कहा था कि ऐ मुहम्मद, तुम किस बलपर मुझे डराते हो, ख़ुदा की क़सम इस घाटी में मेरे हिमायती सबसे ज़्यादा हैं। इसपर कहा जा रहा है कि यह बुला ले अपने हिमायतियों को।
سَنَدۡعُ ٱلزَّبَانِيَةَ ۝ 17
(18) हम भी अज़ाब के फ़रिश्तों को बुला लेंगे।15
15. अस्ल अरबी में ‘ज़बानिया’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जो क़तादा की तशरीह के मुताबिक़ अरबों की शाइरी में पुलिस के लिए बोला जाता था। और ‘ज़बन’ का अस्ल मानी धक्का देना है। बादशाहों के यहाँ चोबदार (द्वारपाल) भी इसी मक़सद के लिए होते थे कि जिसपर बादशाह नाराज़ हो उसे धक्के देकर निकाल दें। इसलिए अल्लाह तआला के फ़रमान का मतलब यह है कि यह अपने हिमायतियों को बुला ले, हम अपनी पुलिस, यानी अज़ाब के फ़रिश्तों को बुला लेंगे कि वे इसकी और इसके हिमायतियों की ख़बर लें।
كَلَّا لَا تُطِعۡهُ وَٱسۡجُدۡۤ وَٱقۡتَرِب۩ ۝ 18
(19) हरगिज़ नहीं, उसकी बात न मानो और सजदा करो और (अपने रब की) नज़दीकी हासिल करो।16
16. सजदा करने से मुराद नमाज़ है। यानी ऐ नबी! तुम निडर होकर उसी तरह नमाज़ पढ़ते रहो जिस तरह पढ़ते रहे हो, और उसके ज़रिए से अपने रब की नज़दीकी हासिल करो। सहीह मुस्लिम वग़ैरा में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि “बन्दा सबसे ज़्यादा अपने रब से उस वक़्त क़रीब होता है जब वह सजदे में होता है।” और मुस्लिम में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की यह रिवायत भी आई है कि जब अल्लाह के रसूल यह आयत पढ़ते थे तो सजदा-ए-तिलावत अदा करते थे।