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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ

  1. आले इमरान

मदीना में उतरी आयते 200

परिचय

नाम

इस सूरा में एक स्थान पर 'आले इमरान' (इमरान के घरवालों) का उल्लेख हुआ है। उसी को पहचान के रूप में इसका यह नाम रख दिया गया है।

उतरने का समय और विषय

इसमें चार व्याख्यान हैं:

पहला व्याख्यान सूरा के आरंभ से आयत 32 तक है और वह शायद बद्र की लड़ाई के बाद क़रीबी समय ही में उतरा है। दूसरा व्याख्यान आयत 33, “अल्लाह ने आदम और और इबराहीम की संतान और इमरान की संतान को तमाम दुनियावालों पर प्राथमिकता देकर (अपनी रिसालत के लिए) चुन लिया था" से शुरू होता है और आयत 63 पर ख़त्म होता है। यह सन् 09 हिजरी में नजरान प्रतिनिधिमंडल के आगमन के अवसर पर उतरा। तीसरा व्याख्यान आयत 64 से आरंभ होता है और आयत 120 तक चलता है और इसका समय पहले व्याख्यान के समय से मिला हुआ लगता है। चौथा व्याख्यान आयत 121 से आरंभ होकर सूरा के अंत तक चलता है। यह उहुद की लड़ाई के बाद उतरा है।

सम्बोधन और वार्ताएँ

इन विभिन्न व्याख्यानों को मिलाकर जो चीज़ क्रमागत विषय बनाती है, वह उद्देश्य, अभिप्राय और केन्द्रीय विषय की एकरूपता है। सूरा का सम्बोधन मुख्य रूप से दो गिरोहों की ओर है : एक अहले-किताब (यहूदी और ईसाई), दूसरे वे लोग जो मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) पर ईमान लाए थे।

पहले गिरोह को उसी ढंग से और आगे की बात पहुँचाई गई है, जिसका सिलसिला सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू किया गया था। दूसरे गिरोह को, जो अब सर्वोत्तम गिरोह होने की हैसियत से सत्य का ध्वजावाहक और दुनिया के सुधार का ज़िम्मेदार बनाया जा चुका है, उसी सिलसिले में कुछ और आदेश दिए गए हैं जो सूरा-2 (अल-बक़रा) में शुरू हुआ था। उन्हें पिछले समुदायों के धार्मिक और नैतिक पतन का शिक्षाप्रद दृश्य दिखाकर सचेत किया गया है कि उनके पद-चिह्नों पर चलने से बचें। उन्हें बताया गया है कि एक सुधारक जमाअत होने की हैसियत से वे किस तरह काम करें।

उतरने का कारण

इस सूरा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि यह है : (1) सूरा-2 (अल-बकरा) में इस सत्य-धर्म पर ईमान लानेवालों को जिन आज़माइशों, मुसीबतों और कठिनाइयों से समय से पहले सचेत कर दिया गया था, वे पूरी तीव्रता के साथ सामने आ चुकी थीं। बद्र की लड़ाई में यद्यपि ईमानवालो को विजय मिली थी, लेकिन यह लड़ाई मानो भिड़ों के छत्ते में पत्थर मारने जैसी थी [चुनांचे इसके बाद हर ओर तूफ़ान के लक्षण दिखाई देने लगे और मुसलमान नित्य- भय और अनवरत अशांति से दोचार हो गए] (2) हिजरत के बाद नबी (सल्ल.) ने मदीना के आस-पास के यहूदी कबीलों के साथ जो समझौते किए थे, उन लोगों ने उन समझौतों का कुछ भी सम्मान न किया। [और बराबर उनका उल्लंघन करने लगे।] अन्तत: जब उनकी शरारतें और वादाख़िलाफ़ियाँ असह्य हो गई तो नबी (सल्ल.) ने बद्र के कुछ महीने बाद बनी-क़ैनुकाअ पर, जो इन यहूदी क़बीलों में सबसे अधिक उद्दण्ड थे, हमला कर दिया और उन्हें मदीना के आस-पास से निकाल बाहर किया, लेकिन इससे दूसरे यहूदी क़बीलों की दुश्मनी की आग और अधिक भड़क उठी। उन्होंने मदीना के मुनाफ़िक़ मुसलमानों और हिजाज़ के मुशरिक क़बीलों के साथ साँठ-गांठ करके इस्लाम और मुसलमानों के लिए हर ओर संकट ही संकट पैदा कर दिए। (3) बद्र की पराजय के बाद कुरैश के दिलों में अपने आप ही प्रतिशोध की आग भड़क रही थी कि उसपर यहूदियों ने और तेल छिड़क दिया। परिणाम यह हुआ कि एक ही साल बाद मक्का से तीन हज़ार की भारी सेना मदीना पर हमलावर हो गई और उहुद के दामन में वह लड़ाई हुई जो उहुद की लड़ाई के नाम से मशहूर है। (4) उहुद की लड़ाई में मुसलमानों की जो पराजय हुई, उसमें यद्यपि मुनाफ़िक़ों की चालों की एक बड़ी भूमिका थी, लेकिन उसके साथ मुसलमानों की अपनी कमज़ोरियों की भूमिका भी कुछ कम न थी, इसलिए यह ज़रूरत पेश आई कि लड़ाई के बाद उस लड़ाई की पूरी दास्तान की एक विस्तृत समीक्षा की जाए और इसमें इस्लामी दृष्टिकोण से जो कमज़ोरियाँ मुसलमानों के भीतर पाई गई थीं, उनमें से एक-एक की निशानदेही करके उसके सुधार के बारे में आदेश दिए जाएँ। इस संबंध में यह बात दृष्टि में रखने योग्य है कि इस लड़ाई पर क़ुरआन की समीक्षा उन सभी समीक्षाओं से कितनी भिन्न है जो दुनिया के सेनानायक अपनी लड़ाइयों के बाद किया करते हैं।

 

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بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
3. आले-इमरान
سُورَةُ آلِ عِمۡرَانَ
3. आले-इमरान
الٓمٓ
(1) अलिफ़-लाम-मीम,
ٱللَّهُ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡحَيُّ ٱلۡقَيُّومُ ۝ 1
(2) अल्लाह, वह ज़िन्दा-ए-जावेद (हमेशा रहनेवाली) हस्ती जो कायनात के निज़ाम को संभाले हुए है, हक़ीक़त में उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है।1
1. इसका मतलब समझने के लिए देखिए सूरा-2, (अल-बक़रा) हाशिया-278।
نَزَّلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ بِٱلۡحَقِّ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ وَأَنزَلَ ٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ ۝ 2
(3,4) (ऐ नबी!) उसने तुमपर यह किताब उतारी, जो हक़ लेकर आई है और उन किताबों की तसदीक (पुष्टि) कर रही है जो पहले से आई हुई थीं। इससे पहले वह इनसानों की हिदायत और रहनुमाई के लिए तौरात और इंजील उतार चुका है,2 और उसने वह कसौटी उतारी है (जो हक़ और बातिल का फ़र्क़ दिखानेवाली है)। अब जो लोग अल्लाह के आदेशों का क़ुबूल करने से इनकार करें, उनको यक़ीनन सख़्त सज़ा मिलेगी। अल्लाह बेपनाह ताक़त का मालिक है और बुराई का बदला देनेवाला है।
2. आमतौर से लोग तौरात से मुराद बाइबल के पुराने नियम (old Testament) की शुरू की पाँच किताबें और इंजील से मुराद नए नियम (New Testament) की चार मशहूर किताबें ले लेते हैं। इस वजह से यह उलझन पेश आती है कि क्या हक़ीक़त में ये किताबें अल्लाह का कलाम हैं? और क्या हक़ीक़त में क़ुरआन उन सब बातों की तसदीक़ (पुष्टि) करता है जो उनमें लिखी हुई हैं? लेकिन अस्ल हक़ीक़त यह है कि तौरात बाइबल के पुराने नियम की पहली पाँच किताबों का नाम नहीं है, बल्कि वह उनके अन्दर दर्ज है और इंजील नए नियम की चार किताबों का नाम नहीं है, बल्कि वह उनके अन्दर पाई जाती हैं। अस्ल में तौरात से मुराद वे अहकाम (आदेश एवं निर्देश) हैं जो हज़रत मूसा (अलैहि०) को पैग़म्बर बनाकर भेजे जाने से लेकर उनके इन्तिक़ाल तक तक़रीबन चालीस साल के दौरान में उनपर नाज़िल हुए। उनमें से दस अहकाम तो वे थे जो अल्लाह ने पत्थर की तख़्तियों पर खोदकर उन्हें दिए थे, बाक़ी बचे अहकाम को हज़रत मूसा (अलैहि०) ने लिखवाकर उसकी 12 नक़्लें बनी-इसराईल के 12 क़बीलों को दे दी थीं और एक नक़्ल बनी-लावी (लावी के वंशज) के सिपुर्द की थी, ताकि वे उसकी हिफ़ाज़त करें। इसी किताब का नाम 'तौरात' था। यह एक मुकम्मल किताब की हैसियत से बैतुल-मक़दिस की पहली तबाही के वक़्त तक महफ़ूज़ थी। इसकी एक कॉपी जो बनी-लावी के सिपुर्द की गई थी, पत्थर की तख़्तियों के साथ, अह्द के सन्दूक़ में रख दी गई थी और बनी-इसराईल उसको तौरात ही के नाम से जानते थे। लेकिन उससे उनकी लापरवाही इस हद तक पहुँच गई थी कि यहूदिया के बादशाह यूसिआ के दौर में, जब हैकले-सुलैमानी की मरम्मत हुई तो इत्तिफ़ाक़ से सरदार काहिन (यानी हैकल के सज्जादानशीन और क़ौम के सबसे बड़े मज़हबी पेशवा) ख़िलक़ियाह को एक जगह तौरात रखी हुई मिल गई और उसने एक अजूबे की तरह उसे शाही मुंशी (राजमन्त्री) को दिया और शाही मुंशी ने उसे ले जाकर बादशाह के सामने इस तरह पेश किया, जैसे उसपर एक अजीब राज़ (रहस्य) खुल गया है। (देखिए—बाइबल, 2 राजा 22:8-13) । यही वजह है कि जब बख़्त नस्सर ने यरुशलम जीता और हैकल समेत शहर की ईंट से ईंट बजा दी तो बनी-इसराईल ने तौरात के वे अस्ल नुस्ख़े, जो उनके यहाँ भुला दिए गए थे और बहुत ही थोड़ी तादाद में थे, हमेशा के लिए गुम कर दिए। फिर जब अज़रा काहिन (उज़ैर) के ज़माने में बनी-इसराईल के बचे-खुचे लोग बाबिल की क़ैद से वापस यरुशलम आए और दोबारा बैतुल-मक़दिस तामीर किया गया तो अज़रा ने अपनी क़ौम के कुछ दूसरे बुज़ुर्गों की मदद से बनी-इसराईल का पूरा इतिहास लिखा, जो इस वक़्त बाइबल की पहली सतरह किताबों पर मुश्तमिल (आधारित) है। इस इतिहास के चार बाब, यानी निर्गमन, लैव्यव्यवस्था, गिनती और व्यवस्थाविवरण हज़रत मूसा (अलैहि०) की सीरत (जीवनी) पर मुश्तमिल हैं और इस सीरत ही में नाज़िल होने की तारीख़़ की तरतीब के मुताबिक़ तौरात की वे आयतें भी मौक़े के लिहाज़ से दर्ज कर दी गई हैं जो अज़रा और उनके मददगार बुज़ुर्गों को मिल सकीं। तो हक़ीक़त में अब तौरात उन बिखरे हुए हिस्सों का नाम है जो मूसा (अलहि०) की सीरत के अन्दर पाए जाते हैं। हम इन्हें सिर्फ़ इस अलामत से पहचान सकते हैं कि इस तारीख़ी बयान के दौरान में जहाँ कहीं मूसा (अलैहि०) की सीरत का लिखनेवाला कहता है कि ख़ुदा ने मूसा से यह कहा या मूसा ने कहा कि 'ख़ुदावन्द तुम्हारा ख़ुदा यह कहता है' वहाँ से तौरात का एक हिस्सा शुरू होता है और जहाँ फिर से सीरत की तक़रीर शुरू हो जाती है वहाँ वह हिस्सा ख़त्म हो जाता है। बीच में जहाँ कहीं कोई चीज़ बाइबल के लिखनेवाले ने तशरीह (व्याख्या) के तौर पर बढ़ा दी है, वहाँ एक आम आदमी के लिए यह फ़र्क़ करना सख़्त मुश्किल है कि क्या यह अस्ल तौरात का हिस्सा है या उसकी शरह (व्याख्या) और तशरीह। फिर भी जो लोग आसमानी किताबों में गहरी निगाह रखते हैं वे एक हद तक सही तौर पर यह मालूम कर सकते हैं कि इन हिस्सों में कहाँ-कहाँ तफ़सीर और मतलब वाज़ेह करते हुए अपनी तरफ़ से बहुत-सी बातें बढ़ा दी गई हैं। क़ुरआन इन्हीं बिखरे हुए हिस्सों को ‘तौरात' कहता है और इन्हीं की वह तसदीक़ (पुष्टि) करता है, और सच तो यह है कि इन हिस्सों को जमा करके जब क़ुरआन से मिलाकर इनको देखा जाता है तो, सिवाए इसके कि कहीं-कहीं पर छोटी-छोटी बातों में इख़्तिलाफ़ है, उसूली बातों में दोनों किताबों के दरमियान बाल बराबर भी फ़र्क़ नहीं पाया जाता। देखनेवाला कोई शख़्स आज भी साफ़ तौर पर महसूस कर सकता है कि ये दोनों तालीमात एक ही जगह से आई हुई हैं। इसी तरह इंजील अस्ल में नाम है उन इल्हामी ख़ुतबों और बातों का जो मसीह (अलैहि०) ने अपनी ज़िन्दगी के आख़िरी ढाई-तीन सालों में नबी की हैसियत से कही थीं। वे पाक कलिमात आपकी ज़िन्दगी में लिखे और मुरत्तब किए गए थे या नहीं, इस सिलसिले में मालूमात का अब हमारे पास कोई ज़रिआ नहीं है। मुमकिन है कि कुछ लोगों ने उन्हें नोट कर लिया हो और मुमकिन है कि सुननेवाले कुछ शागिर्दो ने उनको ज़बानी याद कर रखा हो। बहरहाल एक मुद्दत के बाद जब मसीह (अलैहि०) की सीरत पर बहुत-सी किताबें लिखी गईं तो उनमें तारीख़़ी बयान के साथ-साथ जगह-जगह वे ख़ुतबे और बातें भी मौक़े के लिहाज़ से दर्ज कर दी गईं जो इन किताबों के लिखनेवालों तक ज़बानी रिवायतों और लिखी हुई याद्दाश्तों के ज़रिए से पहुँची थीं। आज मत्ती, मरक़ुस, लूक़ा और यूहन्ना की जिन किताबों को 'इंजील' कहा जाता है, अस्ल में इंजील वे नहीं हैं, बल्कि इंजील हज़रत ईसा के वे कथन हैं जो उनके अन्दर दर्ज हैं। हमारे पास इनको पहचानने और सीरत (जीवनी) के लिखनेवालों के अपने कलाम से उनको अलग करने का इसके सिवा कोई ज़रिआ नहीं है कि जहाँ सीरत का लिखनेवाला यह कहता है कि मसीह ने यह कहा या लोगों को यह तालीम दी सिर्फ़ वही मक़ाम अस्ल इंजील के हिस्से हैं। क़ुरआन इन्हीं सब हिस्से के मजमूए को 'इंजील' कहता है और इन्हीं की वह तस्दीक़ करता है। आज कोई शख़्स जगह-जगह बिखरे हुए इन हिस्सों को तरतीब देकर क़ुरआन से उनको मिलाकर देखे तो वह दोनों में बहुत ही कम फ़र्क़ पाएगा, और जो थोड़ा-बहुत फ़र्क़ महसूस होगा तो उसको भी तास्सुब के बग़ैर ग़ौर-फ़िक़्र के बाद बहुत ही आसानी से दूर किया जा सकता है
مِن قَبۡلُ هُدٗى لِّلنَّاسِ وَأَنزَلَ ٱلۡفُرۡقَانَۗ إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ لَهُمۡ عَذَابٞ شَدِيدٞۗ وَٱللَّهُ عَزِيزٞ ذُو ٱنتِقَامٍ ۝ 3
إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَخۡفَىٰ عَلَيۡهِ شَيۡءٞ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَا فِي ٱلسَّمَآءِ ۝ 4
(5) ज़मीन और आसमान की कोई चीज़ अल्लाह से छिपी नहीं।3
3. यानी वह कायनात की तमाम हक़ीक़तों का जाननेवाला है, इसलिए जो किताब उसने उतारी हो वह सरासर हक़ ही होनी चाहिए, बल्कि ख़ालिस हक़ सिर्फ़ उसी किताब में इनसान को मिल सकता है जो उस सब कुछ जाननेवाले और समझ-बूझ रखनेवाली हस्ती की तरफ़ से नाज़िल हो।
هُوَ ٱلَّذِي يُصَوِّرُكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡحَامِ كَيۡفَ يَشَآءُۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 5
(6) वही तो है जो तुम्हारी माँओं के पेट में तुम्हारी शक्लें, जैसी चाहता है, बनाता है।4 उस ज़बरदस्त हिकमतवाले के सिवा कोई और ख़ुदा नहीं है।
4. इसमें दो अहम हक़ीक़तों की तरफ़ इशारा है। एक यह कि तुम्हारी फ़ितरत को जैसा वह जानता है, न कोई दूसरा जान सकता है, न तुम ख़ुद जान सकते हो। इसलिए उसकी रहनुमाई पर भरोसा किए बिना तुम्हारे लिए कोई चारा नहीं है। दूसरे यह कि जिसने तुम्हारे हम्ल (गर्भ) ठहरने से लेकर बाद के मरहलों तक हर मौक़े पर तुम्हारी छोटी से छोटी ज़रूरतों तक को पूरा करने का ध्यान रखा, किस तरह मुमकिन था कि वह दुनिया की ज़िन्दगी में तुम्हारी हिदायत और रहनुमाई का इन्तिज़ाम न करता, हालाँकि तुम सबसे बढ़कर अगर किसी चीज़ के मुहताज हो तो वह यही है।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنزَلَ عَلَيۡكَ ٱلۡكِتَٰبَ مِنۡهُ ءَايَٰتٞ مُّحۡكَمَٰتٌ هُنَّ أُمُّ ٱلۡكِتَٰبِ وَأُخَرُ مُتَشَٰبِهَٰتٞۖ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ فِي قُلُوبِهِمۡ زَيۡغٞ فَيَتَّبِعُونَ مَا تَشَٰبَهَ مِنۡهُ ٱبۡتِغَآءَ ٱلۡفِتۡنَةِ وَٱبۡتِغَآءَ تَأۡوِيلِهِۦۖ وَمَا يَعۡلَمُ تَأۡوِيلَهُۥٓ إِلَّا ٱللَّهُۗ وَٱلرَّٰسِخُونَ فِي ٱلۡعِلۡمِ يَقُولُونَ ءَامَنَّا بِهِۦ كُلّٞ مِّنۡ عِندِ رَبِّنَاۗ وَمَا يَذَّكَّرُ إِلَّآ أُوْلُواْ ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 6
(7) वही ख़ुदा है, जिसने यह किताब तुमपर उतारी है। इस किताब में दो तरह की आयतें हैं, एक मुहकमात5, जो किताब की अस्ल बुनियाद हैं और दूसरी मुतशाबिहात6। जिन लोगों के दिलों में टेढ़ है, वे फ़ितने की तलाश में हमेशा मुतशाबिहात ही के पीछे पड़े रहते हैं और उनका (मनमाना) मतलब निकालने की कोशिश किया करते हैं, हालाँकि उनका सही मतलब अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग इल्म में पुख़्ता हैं, वे कहते हैं कि “हमारा उनपर ईमान है, ये सब हमारे रब ही की तरफ़ से हैं7।” और सच यह है कि किसी चीज़ से सही सबक़ सिर्फ़ सूझ-बूझवाले लोग ही हासिल करते हैं।
5. 'मुहकम' पक्की और पुख़्ता चीज़ को कहते हैं। 'मुहकम आयतों' से मुराद वे आयतें हैं जिनकी ज़बान (भाषा) बिल्कुल साफ़ है, जिनका मतलब तय करने में किसी शक या शुब्हा की गुंजाइश नहीं है, जिनके लफ़्ज़, मानी और मफ़हूम को साफ़ तौर पर वाज़ेह (स्पष्ट) करते हैं, जिनसे अपनी मरज़ी के मुताबिक़ ग़लत मतलब निकालने का मौक़ा मुश्किल ही से किसी को मिल सकता है। ये आयतें “किताब की अस्ल बुनियाद हैं।” यानी क़ुरआन जिस मक़सद के लिए उतरा है उस मक़सद को यही आयतें पूरा करती हैं। इन्हीं में इस्लाम की तरफ़ दुनिया को दावत दी गई है, इन्हीं में इबरत और नसीहत की बातें कही गई हैं, इन्हीं में गुमराहियों की तरदीद (खण्डन) की गई है और सीधे रास्ते को वाज़ेह किया गया है। इन्हीं में दीन के बुनियादी उसूल बयान किए गए हैं। इन्हीं में अकीदों, इबादतों, अख़लाक़, फ़राइज़ (अनिवार्य कर्मों) और भलाइयों को करने और बुराइयों से रुकने के अहकाम दिए गए हैं। इसलिए जो शख़्स हक़ को अपनाना चाहता हो और यह जानने के लिए क़ुरआन की तरफ़ पलटना चाहता हो कि वह किस रास्ते पर चले और किस रास्ते पर न चले, उसको अपनी इस प्यास को बुझाने के लिए इन्हीं मुहकम आयतों ही की तरफ़ रुजू करना होगा और फ़ितरी तौर पर उसकी सारी तवज्जोह इन्हीं आयतों पर मरकूज़ (केन्द्रित) होगी, और ज़्यादा तर उन्हीं से फ़ायदा उठाने में वह लगा होगा।
6. ‘मुतशाबिहात' यानी वे आयतें जिनके मानी और मतलब निकालने में ग़लती या शक की गुंजाइश है। यह ज़ाहिर है कि इनसान के लिए ज़िन्दगी का कोई रास्ता तय नहीं किया जा सकता, जब तक कायनात की हक़ीक़त, इसकी शुरुआत और अंजाम और इसमें इनसान की हैसियत और ऐसी ही दूसरी बुनियादी हक़ीक़तों के बारे में कम-से-कम ज़रूरी मालूमात इनसान को न दी जाएँ। और यह भी ज़ाहिर है कि जो चीज़ें इनसान के शुऊर (चेतना) से परे हैं, जो इनसानी इल्म की पकड़ में न कभी आई हैं और न आ सकती हैं, जिनको उसने न कभी देखा, न छुआ और न चखा है, उनके लिए इनसानी ज़बान में न ऐसे अलफ़ाज़ मिल सकते हैं जो उन्हीं के लिए बनाए गए हों और न बयान करने के ऐसे अन्दाज़ मिल सकते हैं जिनसे हर सुननेवाले के ज़ेहन में उनकी सही तस्वीर खिंच जाए। यक़ीनी तौर पर यह ज़रूरी है कि इस तरह की बातों को बयान करने के लिए ऐसे अलफ़ाज़ और बयान करने के ऐसे अन्दाज़ इस्तेमाल किए जाएँ जो अस्ल हक़ीक़त से ज़्यादा से ज़्यादा मिलती-जुलती महसूस चीज़ों के लिए इनसानी ज़बान में पाए जाते हैं। इसलिए इनसान के शुऊर से परे की इन हक़ीक़तों के बयान में क़ुरआन के अन्दर ऐसी ही ज़बान इस्तेमाल की गई है। और मुतशाबिहात से मुराद वे आयतें हैं जिनमें यह ज़बान इस्तेमाल हुई है। लेकिन इस ज़बान का ज़्यादा-से-ज़्यादा फ़ायदा बस इतना ही हो सकता है कि आदमी को हक़ीक़त के क़रीब तक पहुँचा दे या उसका एक धुंधला-सा तसव्वुर पैदा कर दे। ऐसी आयतों के मतलब या मानी को तय करने की जितनी ज़्यादा कोशिश की जाएगी, उतना ही ज़्यादा शक व शुब्हाे में इनसान पड़ेगा, यहाँ तक कि वह सच्चाई से क़रीबतर होने के बजाय और ज़्यादा दूर होता चला जाएगा। इसलिए जो लोग हक़ को जानना और उसपर चलना चाहते हैं और बेकार की बातों में दिलचस्पी नहीं रखते, वे तो मुतशाबिह आयतों से हक़ीक़त के उस धुंधले तसव्वुर पर बस (सन्तोष) कर लेते हैं, जो काम चलाने के लिए काफ़ी है और अपनी सारी तवज्जोह मुहकम आयतों पर लगा देते हैं। मगर जो लोग बेकार की बातों में दिलचस्पी रखनेवाले या फ़ितना पैदा करनेवाले होते हैं, उनका तमामतर काम मुतशाबिह आयतों पर बहस और तबसिरा व सवाल-जवाब करना होता है।
7. यहाँ किसी को यह शक न हो कि जब वे लोग मुतशाबिह आयतों का सही मतलब जानते ही नहीं तो उनपर ईमान कैसे ले आए। हक़ीक़त यह है कि एक समझदार आदमी को क़ुरआन के अल्लाह का कलाम होने का यक़ीन मुह्कम आयतों के देखने और समझने से ही हासिल होता है, न कि मुतशाबिह आयतों की तावीलों और उनका मतलब समझ लेने से। और जब मुहकम आयतों में ग़ौर-फ़िक्र करने से उसको यह इतमीनान हासिल हो जाता है कि यह किताब सचमुच अल्लाह ही की किताब है, तो फिर मुतशाबिह आयतें उसके दिल में कोई शक या बेचैनी पैदा नहीं करतीं। जहाँ तक उनका सीधा-सादा मतलब उसकी समझ में आ जाता है, उसको वह लेता है और जहाँ कुछ मुश्किल या पेचीदगी सामने आती है, वहाँ खोज लगाने और बाल के खाल निकालने के बजाय वह अल्लाह के कलाम पर मुजमल ईमान लाकर (यानी उसका तफ़सील में जाए बग़ैर उसको तस्लीम करके) अपनी तवज्जोह काम की बातों की तरफ़ फेर देता है।
رَبَّنَا لَا تُزِغۡ قُلُوبَنَا بَعۡدَ إِذۡ هَدَيۡتَنَا وَهَبۡ لَنَا مِن لَّدُنكَ رَحۡمَةًۚ إِنَّكَ أَنتَ ٱلۡوَهَّابُ ۝ 7
(8) वे अल्लाह से दुआ करते रहते हैं कि “पालनहार जब तू हमें सीधे रास्ते पर लगा चुका है तो फिर कहीं हमारे दिलों में टेढ़ न पैदा कर देना। हमें अपने ख़ज़ान-ए-फ़ैज़ (कृपा-भंडार) से रहमत अता कर कि तू ही अस्ल दाता है।
رَبَّنَآ إِنَّكَ جَامِعُ ٱلنَّاسِ لِيَوۡمٖ لَّا رَيۡبَ فِيهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 8
(9) पालनहार! तू यक़ीनन सब लोगों को एक दिन जमा करनेवाला है, जिसके आने में कोई शक नहीं। तू हरगिज़ अपने वादे से टलनेवाला नहीं है।”
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن تُغۡنِيَ عَنۡهُمۡ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمۡ وَقُودُ ٱلنَّارِ ۝ 9
(10) जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) का रवैया अपनाया है8, उन्हें अल्लाह के मुक़ाबले में न उनका माल कुछ काम देगा, न औलाद। वे दोज़ख़ का इंधन बनकर रहेगे।
8. इस बात को तफ़सील से जानने के लिए देखिए सूरा-2, (बक़रा), हाशिया-161
كَدَأۡبِ ءَالِ فِرۡعَوۡنَ وَٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ كَذَّبُواْ بِـَٔايَٰتِنَا فَأَخَذَهُمُ ٱللَّهُ بِذُنُوبِهِمۡۗ وَٱللَّهُ شَدِيدُ ٱلۡعِقَابِ ۝ 10
(11) उनका अंजाम वैसा ही होगा जैसा कि फ़िरऔन के साथियों और उनसे पहले के नाफ़रमानों का हो चुका है कि उन्होंने अल्लाह की आयतों को झुठलाया। नतीजा यह हुआ कि अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उन्हें पकड़ लिया; और सच यह है कि अल्लाह सख़्त सज़ा देनेवाला है।
قُل لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ سَتُغۡلَبُونَ وَتُحۡشَرُونَ إِلَىٰ جَهَنَّمَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 11
(12) तो ऐ नबी! जिन लोगों ने तुम्हारे पैग़ाम को क़ुबूल करने से इनकार कर दिया है, उनसे कह दो कि क़रीब है वह वक़्त जब तुम मग़लूब (परास्त) और महकूम हो जाओगे और जहन्नम की तरफ़ हाँके जाओगे, और जहन्नम बड़ा ही बुरा ठिकाना है।
قَدۡ كَانَ لَكُمۡ ءَايَةٞ فِي فِئَتَيۡنِ ٱلۡتَقَتَاۖ فِئَةٞ تُقَٰتِلُ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَأُخۡرَىٰ كَافِرَةٞ يَرَوۡنَهُم مِّثۡلَيۡهِمۡ رَأۡيَ ٱلۡعَيۡنِۚ وَٱللَّهُ يُؤَيِّدُ بِنَصۡرِهِۦ مَن يَشَآءُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَعِبۡرَةٗ لِّأُوْلِي ٱلۡأَبۡصَٰرِ ۝ 12
(13) तुम्हारे लिए उन दो गरोहों में इबरत की एक (शिक्षाप्रद) निशानी थी, जिन्होंने (बद्र में) एक-दूसरे से जंग की। एक गरोह अल्लाह की राह में लड़ रहा था और दूसरा गरोह (हक़ का) इनकारी था। देखनेवाले सर की आँखों से देख रहे थे कि (हक़ का) इनकारी गरोह ईमानवाले गरोह से दो गुना है।9 मगर (नतीजे ने साबित कर दिया कि) अल्लाह अपनी फ़तह और नुसरत (सहायता) से जिसको चाहता है, मदद देता है। आँखें खुली रखनेवालों के लिए इसमें बड़ा सबक छिपा हुआ है।10
9. हालाँकि हक़ीक़त में फ़र्क़ तो तीन गुना था, लेकिन सरसरी निगाह से देखनेवाला भी यह महसूस किए बिना तो नहीं रह सकता था कि दुश्मनों का लश्कर मुसलमानों से दोगुना है।
10. बद्र की लड़ाई का वाक़िआ उस वक़्त करीबी ज़माने में ही पेश आ चुका था। इसलिए उसके वाज़ेह वाक़िआत और नतीजों की तरफ़ इशारा करके लोगों को इबरत दिलाई गई है। इस लड़ाई में तीन बातें बहुत ही सबक़-आमोज़ (शिक्षाप्रद) थीं— एक यह कि मुसलमान और इस्लाम-दुश्मन जिस शान से एक-दूसरे के मुक़ाबले में आए थे, उससे दोनों का अख़लाक़ी फ़र्क़ साफ़ ज़ाहिर हो रहा था। एक तरफ़ इस्लाम-दुश्मनों के लश्कर में शराबों के दौर चल रहे थे, नाचने और गानेवाली लौंडियाँ साथ आई थीं और ख़ूब मौज-मस्ती की जा रही थी। दूसरी तरफ़ मुसलमानों के लश्कर में परहेज़गारी थी, अल्लाह का डर था, इन्तिहा दरजे का अख़लाक़ी कंट्रोल था, नमाज़ें थीं और रोज़े थे। बात-बात पर ख़ुदा का नाम था और ख़ुदा ही के आगे दुआएँ और गुज़ारिशें (प्रार्थनाएँ) की जा रही थीं। दोनों फ़ौजों को देखकर हर आदमी आसानी से जान सकता था कि दोनों में से कौन अल्लाह की राह में लड़ रहा है। दूसरी यह कि मुसलमान अपनी कम तादाद और जंगी सामानों की कमी के बावजूद दुश्मनों की भारी तादाद और बेहतर हथियार रखनेवाली फ़ौज के मुक़ाबले में जिस तरह कामयाब हुए, उससे साफ़ मालूम हो गया था कि उनको अल्लाह की मदद हासिल थी। तीसरी यह कि अल्लाह की ग़ालिब ताक़त से बेपरवाह होकर जो लोग अपने सरो-सामान और अपने हामियों की भारी तादाद पर फूले हुए थे, उनके लिए यह वाक़िआ एक धमकी थी कि अल्लाह किस तरह कुछ मुफ़लिस, बेहाल, परदेसी मुहाजिरों और मदीना के किसानों के एक मुट्ठी भर गरोह के ज़रिए से क़ुरैश जैसे क़बीले को शिकस्त दिलवा सकता है, जो तमाम अरब का सरताज था।
زُيِّنَ لِلنَّاسِ حُبُّ ٱلشَّهَوَٰتِ مِنَ ٱلنِّسَآءِ وَٱلۡبَنِينَ وَٱلۡقَنَٰطِيرِ ٱلۡمُقَنطَرَةِ مِنَ ٱلذَّهَبِ وَٱلۡفِضَّةِ وَٱلۡخَيۡلِ ٱلۡمُسَوَّمَةِ وَٱلۡأَنۡعَٰمِ وَٱلۡحَرۡثِۗ ذَٰلِكَ مَتَٰعُ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَاۖ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلۡمَـَٔابِ ۝ 13
(14) लोगों के लिए मनपसन्द चीज़ें-औरतें, औलाद, सोने-चाँदी के ढेर, चुने हुए घोड़े, मवेशी और खेती की ज़मीनें-बड़ी सुहावनी बना दी गई हैं, मगर ये सब दुनिया के दिनों की ज़िन्दगी के सामान हैं। हक़ीक़त में जो बेहतर ठिकाना है, वह तो अल्लाह पास है।
۞قُلۡ أَؤُنَبِّئُكُم بِخَيۡرٖ مِّن ذَٰلِكُمۡۖ لِلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ عِندَ رَبِّهِمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا وَأَزۡوَٰجٞ مُّطَهَّرَةٞ وَرِضۡوَٰنٞ مِّنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 14
(15) कहो : मैं तुम्हें बताऊँ कि इनसे ज़्यादा अच्छी चीज़ क्या है? जो लोग और परहेज़गारी का रवैया अपनाएँ उनके लिए उनके रब के पास बाग़ हैं, जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। वहाँ उन्हें हमेशगी की ज़िन्दगी हासिल होगी, पाकीज़ा बीवियाँ उनकी रफ़ीक़ (साथी) होंगी11 और अल्लाह की ख़ुशनूदी (प्रसन्नता) उन्हें हासिल होगी। अल्लाह अपने बन्दों के रवैये पर गहरी नज़र रखता है।12
11. इस को समझने के लिए देखिए सूरा-2 (बक़रा) हाशिया-27।
12. यानी अल्लाह ग़लत तरीक़े से देनेवाला नहीं है और न सरसरी और ऊपरी तौर पर फ़ैसला करनेवाला है। वह बन्दों के अमल और कामों को और उनकी नीयतों और इरादों को ख़ूब जानता है। उसे अच्छी तरह मालूम है कि बन्दों में से कौन उसके इनाम का हक़दार है और कौन नहीं।
ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ رَبَّنَآ إِنَّنَآ ءَامَنَّا فَٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 15
(16) ये वे लोग हैं जो कहते हैं कि “मालिक! हम ईमान लाए, हमारी ख़ताओं को माफ़ कर और हमें दोज़ख़ की आग से बचा ले।”
ٱلصَّٰبِرِينَ وَٱلصَّٰدِقِينَ وَٱلۡقَٰنِتِينَ وَٱلۡمُنفِقِينَ وَٱلۡمُسۡتَغۡفِرِينَ بِٱلۡأَسۡحَارِ ۝ 16
(17) ये लोग सब्र करनेवाले हैं13, सच्चे हैं, फ़रमाँबरदार और फ़ैयाज़ (दानी) हैं और रात की आख़िरी घड़ियों में अल्लाह से मग़फ़िरत की दुआएँ माँगा करते हैं।
13. यानी हक़ की राह पर पूरी इस्तिक़ामत (दृढ़ता) दिखानेवाले हैं। किसी नुक़सान या मुसीबत से हिम्मत नहीं हारते, किसी नाकामी से दिल शिकस्ता (निराश) नहीं होते, किसी लालच से फिसल नहीं जाते और ऐसी हालत में भी हक़ (सत्य) का दामन मज़बूती के साथ थामे रहते हैं, जबकि बज़ाहिर उसकी कामयाबी का कोई इमकान नज़र न आता हो। (देखिए; सूरा-2 (अल-बक़रा), हाशिया-60)
شَهِدَ ٱللَّهُ أَنَّهُۥ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَأُوْلُواْ ٱلۡعِلۡمِ قَآئِمَۢا بِٱلۡقِسۡطِۚ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 17
(18) अल्लाह ने ख़ुद इस बात की गवाही दी है कि उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है।14 और फ़रिश्ते और सब इल्म रखनेवाले भी सच्चाई और इनसाफ़ के साथ इसपर गवाह हैं।15 कि उस ज़बरदस्त हिकमतवाले के सिवा हक़ीक़त में कोई ख़ुदा नहीं है।
14. यानी अल्लाह जो कायनात की तमाम हक़ीक़तों का सीधे तौर पर इल्म रखता है, जो तमाम मौजूद चीज़ों को बेहिजाब देख रहा है, जिसकी निगाह से ज़मीन और आसमान की कोई चीज़ छिपी नहीं, यह उसकी गवाही है — और उससे बढ़कर भरोसेमन्द चश्मदीद गवाही और किसकी होगी — कि पूरे आलमे-वुजूद (अस्तित्व जगत्) में उसकी अपनी ज़ात के सिवा कोई ऐसी हस्ती नहीं है, जो ख़ुदाई की सिफ़ात (गुण) रखती हो, ख़ुदाई के इक़तिदार की मालिक हो, और ख़ुदाई के इख़्तियारों की हक़दार हो।
15. अल्लाह के बाद सबसे ज़्यादा भरोसेमन्द गवाही फ़रिश्तों की है, क्योंकि वे कायनात की सल्तनत के इन्तिज़ामी कारिन्दे हैं और वे सीधे तौर पर अपने ख़ुद के इल्म की बुनियाद पर गवाही दे रहे हैं कि इस सल्तनत में अल्लाह के सिवा किसी का हुक्म नहीं चलता और उसके सिवा कोई हस्ती ऐसी नहीं है जिसकी तरफ़ ज़मीन और आसमान के इन्तिज़ामी मामलों में वे रुजू करते हों। इसके बाद मख़लूक़ में से जिन लोगों को भी हक़ीक़तों (तथ्यों) का थोड़ा या बहुत इल्म हासिल हुआ है, उन सबकी शुरू से लेकर आज तक यह मुत्तफ़क़ा (सर्वसम्मत) गवाही रही है कि एक ही ख़ुदा इस पूरी कायनात का मालिक और हाकिम है।
إِنَّ ٱلدِّينَ عِندَ ٱللَّهِ ٱلۡإِسۡلَٰمُۗ وَمَا ٱخۡتَلَفَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۗ وَمَن يَكۡفُرۡ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 18
(19) अल्लाह के नज़दीक दीन सिर्फ़ इस्लाम16 है। इस दीन से हटकर जो बहुत-से तरीक़े उन लोगों ने अपनाए, जिन्हें किताब दी गई थी, उनके इस रवैये की कोई वजह इसके सिवा न थी कि उन्होंने इल्म आ जाने के बाद आपस में एक-दूसरे पर ज़ुल्म करने के लिए ऐसा किया17 उससे हिसाब लेते कुछ देर नहीं लगती।
16. यानी अल्लाह के नज़दीक इनसान के लिए सिर्फ़ एक ही निज़ामे-ज़िन्दगी और ज़िन्दगी गुज़ारने का एक ही तरीक़ा सही और ठीक है। और वह यह है कि इनसान अल्लाह को अपना मालिक व माबूद (उपास्य) माने और उसकी बन्दगी व ग़ुलामी में अपने आपको बिलकुल सिपुर्द कर दे और उसकी बन्दगी करने का तरीक़ा ख़ुद से न गढ़े, बल्कि उसने अपने पैग़म्बरों के ज़रिए से जो हिदायत और रहनुमाई भेजी है, बिना कुछ घटाए-चढ़ाए सिर्फ़ उसी की पैरवी करे। सोचने और अमल करने के इसी तरीक़े का नाम 'इस्लाम' है। और यह बात बिलकुल ठीक और हक़ है कि कायनात का ख़ालिक़ व मालिक अपनी मख़लूक़ और रिआया के लिए इस इस्लाम के सिवा किसी दूसरे तरीक़े को जाइज़ न माने। आदमी अपनी वेवक़ूफ़ी और नासमझी से अपने आपको कुफ़्र (ख़ुदा का इनकार) से लेकर शिर्क व बुतपरस्ती तक हर नज़रिए और हर मसलक (पंथ) की पैरवी का जाइज़ हक़दार समझ सकता है, मगर कायनात के बादशाह (अल्लाह) की निगाह में तो यह खुली बग़ावत है।
17. मतलब यह है कि अल्लाह की तरफ़ से जो पैग़म्बर भी दुनिया के किसी कोने और किसी ज़माने में आया है उसका दीन (धर्म) इस्लाम ही था और जो किताब भी दुनिया की किसी ज़बान और किसी क़ौम में उतरी है, उसने इस्लाम ही की तालीम (शिक्षा) दी है। इस अस्ल दीन (धर्म) को बिगाड़कर और इसमें कमी-बेशी करके जो बहुत-से दीन इनसानों में राइज किए गए, उनके पैदा होने का सबब इसके सिवा कुछ न था कि लोगों ने अपनी जाइज़ हद से बढ़कर हुक़ूक़, फ़ायदे और अपने लिए ख़ास दरजे हासिल करने चाहे और अपनी ख़ाहिशों के मुताबिक़ अस्ल दीन के अक़ीदों, उसूलों और हुकमों में फेर-बदल कर डाला।
فَإِنۡ حَآجُّوكَ فَقُلۡ أَسۡلَمۡتُ وَجۡهِيَ لِلَّهِ وَمَنِ ٱتَّبَعَنِۗ وَقُل لِّلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡأُمِّيِّـۧنَ ءَأَسۡلَمۡتُمۡۚ فَإِنۡ أَسۡلَمُواْ فَقَدِ ٱهۡتَدَواْۖ وَّإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّمَا عَلَيۡكَ ٱلۡبَلَٰغُۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 19
(20) (ऐ नबी!) अब अगर ये लोग तुमसे झगड़ा करें तो इनसे कहो, “मैंने और मेरी पैरवी करनेवालों ने तो अल्लाह के आगे अपने आपको डाल दिया है।” फिर किताबवालों से और उन लोगों से, जिनके पास कोई किताब नहीं है, दोनों से पूछो, “क्या तुमने भी उसकी फ़रमाँबरदारी और बन्दगी क़ुबूल अगर की?” 18 अगर की तो वे सीधा रास्ता पा गए और अगर उससे मुँह मोड़ा तो तुमपर सिर्फ़ पैग़ाम पहुँचा देने की ज़िम्मेदारी थी। आगे अल्लाह ख़ुद अपने बन्दों के मामलों को देखनेवाला है।
18. दूसरे लफ़्ज़ों में, इस बात को इस तरह समझिए कि “मैं और मेरी पैरवी करनेवाले तो इस ठेठ इस्लाम के क़ायल हो चुके हैं जो ख़ुदा का अस्ल दीन (धर्म) है। अब तुम बताओ कि क्या तुम अपने और अपने बाप-दादाओं की गढ़ी हुई बातों को छोड़कर इस अस्ली और हक़ीक़ी दीन की तरफ़ आते हो?”
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَيَقۡتُلُونَ ٱلَّذِينَ يَأۡمُرُونَ بِٱلۡقِسۡطِ مِنَ ٱلنَّاسِ فَبَشِّرۡهُم بِعَذَابٍ أَلِيمٍ ۝ 20
(21) जो लोग अल्लाह के अहकाम (आदेशों) और हिदायतों को मानने से इनकार करते हैं और उसके पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल करते हैं और ऐसे लोगों की जान लेने के पीछे पड़ जाते हैं जो ख़ुदा के बन्दों में से इनसाफ़ और सच्चाई का हुक्म देने के लिए उठे, उनको दर्दनाक सज़ा की ख़ुशख़बरी सुना दो।19
19. यह तंज़िया (व्यंग्यपूर्ण) अन्दाज़े-बयान है। मतलब यह है कि अपनी जिन करतूतों पर वे आज बहुत ख़ुश हैं और समझ रहे हैं कि हम बहुत अच्छा काम कर रहे हैं तो उन्हें बता दो कि तुम्हारे इन कामों का अंजाम यह है।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ حَبِطَتۡ أَعۡمَٰلُهُمۡ فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 21
(22) ये वे लोग हैं जिनके आमाल (कर्म) दुनिया और आख़िरत दोनों में बर्बाद हो गए20, और उनका मददगार कोई नहीं है।21
20. यानी उन्होंने अपनी क़ुव्वतें और कोशिशें ऐसे रास्ते में लगाई हैं जिसका नतीजा दुनिया में भी ख़राब है और आख़िरत में भी ख़राब है।
21. यानी कोई ताक़त ऐसी नहीं है जो उनकी इस ग़लत कोशिश और अमल को अच्छा फल देनेवाला बना सके या कम-से-कम बुरे अंजाम ही से बचा सके। जिन-जिन ताक़तों पर वे भरोसा रखते हैं कि वे दुनिया में या आख़िरत में या दोनों जगह उनके काम आएँगी; तो उनमें से हक़ीक़त में कोई भी ताक़त उनकी मदद न कर सकेगी।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ أُوتُواْ نَصِيبٗا مِّنَ ٱلۡكِتَٰبِ يُدۡعَوۡنَ إِلَىٰ كِتَٰبِ ٱللَّهِ لِيَحۡكُمَ بَيۡنَهُمۡ ثُمَّ يَتَوَلَّىٰ فَرِيقٞ مِّنۡهُمۡ وَهُم مُّعۡرِضُونَ ۝ 22
(23) तुमने देखा नहीं कि जिन लोगों को किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा मिला है, उनका हाल क्या है? उन्हें जब अल्लाह की किताब की तरफ़ बुलाया जाता है ताकि वह उनके बीच फ़ैसला करें22, तो उनमें से एक गरोह उससे पहलू बचाता है और उस फ़ैसले की तरफ़ आने से मुँह फेर जाता है।
22. यानी उनसे कहा जाता है कि ख़ुदा की किताब को आख़िरी सनद मान लो, उसके फ़ैसले के आगे सर झुका दो और जो कुछ उसके मुताबिक़ हक़ साबित हो उसे हक़ और जो उसके मुताबिक़ बातिल (ग़लत) साबित हो उसे बातिल तसलीम कर लो। यहाँ यह बात वाज़ेह रहे कि इस जगह पर ख़ुदा की किताब से मुराद तौरात व इंजील हैं और “किताब के इल्म में से कुछ हिस्सा पानेवालों” से मुराद यहूदी और ईसाइयों के आलिम (विद्वान) लोग हैं।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لَن تَمَسَّنَا ٱلنَّارُ إِلَّآ أَيَّامٗا مَّعۡدُودَٰتٖۖ وَغَرَّهُمۡ فِي دِينِهِم مَّا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 23
(24) उनका यह रवैया इस वजह से है कि वे कहते “दोज़ख़ की आग तो हमें छुएगी भी नहीं और अगर दोज़ख़ की सज़ा हमें मिलेगी भी तो बस कुछ दिन23।” उनके अपने मनगढ़त अक़ीदों ने उनको अपने दीन (धर्म) के मामले में बड़ी ग़लतफ़हमियों में डाल रखा है।
23. यानी ये लोग अपने आपको ख़ुदा का चहेता समझ बैठे हैं। ये इस ग़लत ख़याल में पड़े हुए हैं कि हम चाहे कुछ भी करें, हर हाल में जन्नत हमारी है। हम ईमानवाले हैं हम फ़ुलाँ की औलाद और फ़ुलाँ की उम्मत और फ़ुलाँ के मुरीद हैं और हम फ़ुलाँ के दामन को पकड़े हुए हैं, भला जहन्नम की क्या मजाल है कि हमें छू जाए। और मान लीजिए अगर हम जहन्नम में डाले भी गए तो बस कुछ दिन वहाँ रखे जाएँगे ताकि गुनाहों की जो गन्दगी लग गई है वह साफ़ हो जाए, फिर सीधे जन्नत में पहुँचा दिए जाएँगे। इसी तरह के ख़यालों ने उनको इतना निडर और बेबाक बना दिया है कि वे सख़्त जुर्म कर बैठते हैं, बुरे-से-बुरे गुनाह करते हैं, खुल्लम-खुल्ला हक़ से फिर जाते हैं और ज़रा भी ख़ुदा का डर उनके दिल में नहीं आता।
فَكَيۡفَ إِذَا جَمَعۡنَٰهُمۡ لِيَوۡمٖ لَّا رَيۡبَ فِيهِ وَوُفِّيَتۡ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 24
(25) मगर क्या बनेगी उनपर जब हम उन्हें उस दिन इकट्ठा करेंगे जिसका आना यक़ीनी है? उस दिन हर शख़्स को उसकी कमाई का बदला पूरा-पूरा दे दिया जाएगा और किसी पर ज़ुल्म न होगा।
قُلِ ٱللَّهُمَّ مَٰلِكَ ٱلۡمُلۡكِ تُؤۡتِي ٱلۡمُلۡكَ مَن تَشَآءُ وَتَنزِعُ ٱلۡمُلۡكَ مِمَّن تَشَآءُ وَتُعِزُّ مَن تَشَآءُ وَتُذِلُّ مَن تَشَآءُۖ بِيَدِكَ ٱلۡخَيۡرُۖ إِنَّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 25
(26) कहो, “ऐ अल्लाह! मुल्क के मालिक! तू जिसे चाहे हुकूमत दे और जिसे जिससे चाहे छीन ले। जिसे चाहे इज़्ज़त दे और जिसको चाहे रुसवा कर दे, भलाई तेरे इख़्तियार में है। बेशक तुझे हर चीज़ पर क़ुदरत हासिल है।
۞إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰٓ ءَادَمَ وَنُوحٗا وَءَالَ إِبۡرَٰهِيمَ وَءَالَ عِمۡرَٰنَ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 26
(33) अल्लाह29 ने आदम और नूह और इबराहीम की औलाद और इमरान30 की औलाद को तमाम दुनियावालों पर तरजीह देकर (अपनी रिसालत के लिए) चुन लिया था।
29. यहाँ से दूसरी तक़रीर शुरू होती है। इसके उतरने का ज़माना सन् 09 हिo है, जबकि नजरान की ईसाई जमहूरी हुकूमत का वफ़्द नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ था। नजरान का इलाक़ा हिजाज़ और यमन के बीच है। उस वक़्त उस इलाक़े में 73 बस्तियाँ शामिल थीं और कहा जाता है कि एक लाख बीस हज़ार लड़ने के क़ाबिल मर्द उनमें से निकल सकते थे। आबादी पूरी-की-पूरी ईसाई थी और तीन सरदारों की सरदारी में थी। एक 'आक़िब' कहलाता था जिसकी हैसियत क़ौम के अमीर (सरदार) की थी। दूसरा 'सैयद' कहलाता था जो उनके समाजी और सियासी मामलों की निगरानी करता था और तीसरा 'उस्क़ुफ़’(बिशप) था जिसके ज़िम्मे मज़हबी रहनुमाई करना था। जब नबी (सल्ल०) ने मक्का पर फ़तह हासिल की और तमाम अरबवालों को यक़ीन हो गया कि देश का मुस्तक़बिल (भविष्य) अब अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) के हाथ में है तो अरब की मुख़्तलिफ़ जगहों से आप (सल्ल०) के पास वफ़्द (प्रतिनिधिमंडल) आने शुरू हो गए। इसी सिलसिले में नजरान के तीनों सरदार भी 60 आदमियों का एक वफ़्द लेकर मदीना पहुँचे। जंग के लिए बहरहाल वे तैयार न थे। अब सवाल सिर्फ़ यह था कि क्या वे इस्लाम क़ुबूल करते हैं या ज़िम्मी बनकर रहना चाहते हैं। इस मौक़े पर अल्लाह ने नबी (सल्ल०) पर यह ख़ुतबा (तक़रीर) उतारा। ताकि इसके ज़रिए से नजरान के वफ़्द को इस्लाम की तरफ़ बुलाया जाए।
30. इमरान हज़रत मूसा और हारून के वालिद का नाम था, जिसे बाइबल [निर्गमन 10, 6:10] में 'अमराम' लिखा गया है।
ذُرِّيَّةَۢ بَعۡضُهَا مِنۢ بَعۡضٖۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 27
(34) ये एक सिलसिले के लोग थे जो एक-दूसरे की नस्ल से पैदा हुए थे। अल्लाह सब कुछ सुनता और जानता है।¬31
31. मसीहियों (ईसाइयों) की गुमराही की सारी वजह यह है कि वे मसीह को बन्दा और रसूल मानने के बजाय अल्लाह का बेटा और उलूहियत (ईश्वरत्व) में उसका शरीक क़रार देते हैं। अगर उनकी यह बुनियादी ग़लती दूर हो जाए तो सही और ख़ालिस इस्लाम की तरफ़ उनका पलट आना बहुत आसान हो जाए। इसी लिए इस ख़ुतबे (तक़रीर) की शुरुआत इस तरह की गई है कि आदम, नूह, इबराहीम की औलाद और इमरान पैग़म्बर इनसान थे, एक की नस्ल से दूसरा पैदा होता चला आया, उनमें से कोई भी ख़ुदा न था, उनकी ख़ुसूसियत बस यह थी कि ख़ुदा ने अपने दीन की तबलीग़ (प्रचार) और दुनिया के सुधार के लिए उनको चुन लिया था।
إِذۡ قَالَتِ ٱمۡرَأَتُ عِمۡرَٰنَ رَبِّ إِنِّي نَذَرۡتُ لَكَ مَا فِي بَطۡنِي مُحَرَّرٗا فَتَقَبَّلۡ مِنِّيٓۖ إِنَّكَ أَنتَ ٱلسَّمِيعُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 28
(35) (वह उस वक़्त सुन रहा था) जब इमरान की औरत32 कह रही थी कि “मेरे पालनहार! मैं इस बच्चे को, जो मेरे पेट में है, तेरी नज़्र (भेट) करती हूँ, वह तेरे ही काम के लिए वक़्फ़ होगा। मेरी इस नज़्र को क़ुबूल कर ले, तु सुनने और जाननेवाला है33।”
32. अगर इमरान की औरत से मुराद 'इमरान की बीवी' ली जाए तो इसका मतलब यह होगा कि ये वे इमरान नहीं हैं जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ है, बल्कि ये हज़रत मरयम के बाप थे, जिनका नाम शायद इमरान होगा [ मसीही रिवायतों में हज़रत मरयम के बाप का नाम युआख़ीम (Ioachim) लिखा है] और अगर इमरान की औरत से मुराद आले-इमरान की औरत ली जाए, तो इसका मतलब यह होगा कि हज़रत मरयम की माँ इस क़बीले से ताल्लुक़ रखती थीं। लेकिन हमारे पास यह जानने का कोई ऐसा ज़रिआ मौजूद नहीं है जिससे हम यक़ीनी तौर पर इन दोनों मानों में से किसी एक को तरजीह (प्राथमिकता) दे सकें, क्योंकि इतिहास में इसका कोई ज़िक्र नहीं है कि हज़रत मरयम के बाप कौन थे और उनकी माँ किस क़बीले की थीं। अलबत्ता अगर यह रिवायत सही मान ली जाए कि हज़रत यह्या की माँ और हज़रत मरयम की माँ आपस में रिश्ते की बहनें थीं, तो फिर 'इमरान की औरत' के मानी 'इमरान क़बीले की औरत' ही सही होंगे, क्योंकि लूक़ा की इंजील में हमें यह बात मिलती है कि हज़रत यह्या की माँ हज़रत हारून की औलाद से थीं। (लूक़ा, 1:5)
33. यानी तू अपने बन्दों की दुआएँ सुनता है और उनकी नीयतों का हाल जानता है।
فَلَمَّا وَضَعَتۡهَا قَالَتۡ رَبِّ إِنِّي وَضَعۡتُهَآ أُنثَىٰ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا وَضَعَتۡ وَلَيۡسَ ٱلذَّكَرُ كَٱلۡأُنثَىٰۖ وَإِنِّي سَمَّيۡتُهَا مَرۡيَمَ وَإِنِّيٓ أُعِيذُهَا بِكَ وَذُرِّيَّتَهَا مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ ٱلرَّجِيمِ ۝ 29
(36) फिर जब वह बच्ची उसके यहाँ पैदा हुई तो उसने कहा, “मालिक! मेरे यहाँ तो लड़की पैदा हो गई है— हालाँकि जो कुछ उसने जना था, अल्लाह को उसकी ख़बर थी— और लड़का लड़की की तरह नहीं होता।34 ख़ैर, मैंने इसका नाम मरयम रख दिया है और मैं इसे और इसकी आगे की नस्ल को धुतकारे हुए शैतान के फ़ितने से तेरी पनाह में देती हूँ।”
34. यानी लड़का उन बहुत-सी फ़ितरी (स्वाभाविक) कमज़ोरियों और समाजी पाबन्दियों से आज़ाद होता है जो लड़की के साथ लगी हुई होती हैं, इसलिए अगर लड़का होता तो वह मक़सद ज़्यादा अच्छी तरह हासिल हो सकता था जिसके लिए मैं अपने बच्चे को तेरी राह में नज़्र (भेंट) करना चाहती थी।
فَتَقَبَّلَهَا رَبُّهَا بِقَبُولٍ حَسَنٖ وَأَنۢبَتَهَا نَبَاتًا حَسَنٗا وَكَفَّلَهَا زَكَرِيَّاۖ كُلَّمَا دَخَلَ عَلَيۡهَا زَكَرِيَّا ٱلۡمِحۡرَابَ وَجَدَ عِندَهَا رِزۡقٗاۖ قَالَ يَٰمَرۡيَمُ أَنَّىٰ لَكِ هَٰذَاۖ قَالَتۡ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ إِنَّ ٱللَّهَ يَرۡزُقُ مَن يَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٍ ۝ 30
(37 ) आख़िरकार उसके रब ने उस लड़की को ख़ुशी के साथ क़ुबूल कर लिया, उसे बड़ी अच्छी लड़की बनाकर उठाया और ज़करिय्या को उसका सरपरस्त बना दिया। ज़करिय्या35 जब कभी उसके पास मेहराब36 में जाता तो उसके पास कुछ-न-कुछ खाने-पीने का सामान पाता। पूछता, “मरयम! यह तेरे पास कहाँ से आया?” वह जवाब देती, “अल्लाह के पास से आया है। अल्लाह जिसे चाहता है, बेहिसाब रोज़ी देता है।”
35. अब उस वक़्त का ज़िक्र शुरू होता है जब हज़रत मरयम सिने-रुश्द (सूझ-बूझ की उम्र) को पहुँच गईं और बैतुल-मक़दिस की इबादतगाह (हैकल) में दाख़िल कर दी गईं और वे अल्लाह के ज़िक्र में रात-दिन मशगूल रहने लगीं। हज़रत ज़करिय्या, जिनकी देखभाल में वे दी गई थीं, शायद रिश्ते में उनके ख़ालू (मौसा) थे और हैकल के मुजाविरों में से थे। ये वे ज़करिय्या नबी नहीं हैं जिनके क़त्ल का ज़िक्र बाइबल के पुराने नियम (old Testament) में हुआ है।
هُنَالِكَ دَعَا زَكَرِيَّا رَبَّهُۥۖ قَالَ رَبِّ هَبۡ لِي مِن لَّدُنكَ ذُرِّيَّةٗ طَيِّبَةًۖ إِنَّكَ سَمِيعُ ٱلدُّعَآءِ ۝ 31
(38) यह हाल देखकर ज़करिय्या ने अपने रब को पुकारा, “पालनहार! अपनी क़ुदरत से मुझे नेक औलाद दे। तू ही दुआ सुननेवाला है।"37
37. हज़रत ज़करिय्या उस वक़्त तक बे-औलाद थे। उस नौजवान नेक लड़की को देखकर फ़ितरी तौर से उनके दिल में यह तमन्ना पैदा हुई कि काश, अल्लाह उन्हें भी ऐसी ही नेक औलाद दे! और यह देखकर कि अल्लाह किस तरह अपनी क़ुदरत से इस गोशानशीन (एकान्तवासी) लड़की को रोज़ी पहुँचा रहा है, उन्हें यह उम्मीद हुई कि अल्लाह चाहे तो इस बुढ़ापे में भी उनको औलाद दे सकता है।
فَنَادَتۡهُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ وَهُوَ قَآئِمٞ يُصَلِّي فِي ٱلۡمِحۡرَابِ أَنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكَ بِيَحۡيَىٰ مُصَدِّقَۢا بِكَلِمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَسَيِّدٗا وَحَصُورٗا وَنَبِيّٗا مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 32
(39) जवाब में फ़रिश्तों ने आवाज़ दी, जबकि वह मेहराब में खड़ा नमाज़ पढ़ रहा था, कि “अल्लाह तुझे यह्या38 की ख़ुशख़बरी देता है। वह अल्लाह की तरफ़ से एक फ़रमान39 की तस्दीक़ (पुष्टि) करनेवाला बनकर आएगा। उसमें सरदारी और बुज़ुर्गी की शान होगी, कमाल दरजे का ज़ाबित (अत्यन्त संयमी) होगा, नबी बनाया जाएगा और अच्छों में उसकी गिनती होगी।”
38. बाइबल में इनका नाम 'यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला' (John The Baptist ) लिखा है। इनके हालात के लिए देखिए मत्ती, अध्याय 3 , 11 , 14 ; मरक़ुस, अध्याय 1 और 6 लूक़ा, अध्याय 1 और 3।
39. अल्लाह के 'फ़रमान' से मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) हैं। चूँकि उनकी पैदाइश अल्लाह के एक ग़ैर-मामूली फ़रमान से चमत्कार के रूप में हुई थी, इसलिए उनको क़ुरआन मजीद में 'कलिमतुम-मिनल्लाह' यानी अल्लाह का फ़रमान कहा गया है।
قَالَ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَقَدۡ بَلَغَنِيَ ٱلۡكِبَرُ وَٱمۡرَأَتِي عَاقِرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكَ ٱللَّهُ يَفۡعَلُ مَا يَشَآءُ ۝ 33
(40) ज़करिय्या ने कहा, “पालनहार! भला मेरे यहाँ लड़का कहाँ से होगा? मैं तो बहुत बूढ़ा हो चुका हूँ। और मेरी बीवी बाँझ है।” जवाब मिला, “ऐसा ही होगा,40 अल्लाह जो चाहता है, करता है।”
40. यानी तेरे बुढ़ापे और तेरी बीवी के बाँझपन के बावजूद अल्लाह तुझे बेटा देगा।
قَالَ رَبِّ ٱجۡعَل لِّيٓ ءَايَةٗۖ قَالَ ءَايَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ ٱلنَّاسَ ثَلَٰثَةَ أَيَّامٍ إِلَّا رَمۡزٗاۗ وَٱذۡكُر رَّبَّكَ كَثِيرٗا وَسَبِّحۡ بِٱلۡعَشِيِّ وَٱلۡإِبۡكَٰرِ ۝ 34
(41) कहा, “ मालिक! फिर कोई निशानी मेरे लिए मुक़र्रर कर दे।41” कहा, ” निशानी यह है कि तुम तीन दिन तक लोगों से इशारे के सिवा कोई बातचीत न करोगे (या न कर सकोगे)। इस बीच अपने रब को बहुत याद करना और सुबह व शाम उसकी बड़ाई और तस्बीह (महिमागान) करते रहना।"42
41. यानी ऐसी अलामत बता दे कि जब एक बूढ़े खूसट और एक बूढ़ी बाँझ के यहाँ लड़के की पैदाइश जैसा अजीब ग़ैर-मामूली वाकिआ पेश आनेवाला हो तो उसकी ख़बर मुझे पहले से हो जाए।
42. इस तक़रीर का अस्ल मक़सद ईसाइयों पर उनके इस अक़ीदे की ग़लती वाज़ेह करना है कि वे मसीह (अलैहि०) को ख़ुदा का बेटा और इलाह (उपास्य) समझते हैं। शुरू में हज़रत यह्या (अलैहि०) का ज़िक्र इस वजह से किया गया है कि जिस तरह मसीह (अलैहि०) की पैदाइश मोजिज़ाना (चामत्कारिक) तरीक़े से हुई थी उसी तरह उनसे छः ही महीने पहले उसी ख़ानदान में हज़रत यह्या की पैदाइश भी एक दूसरी तरह के चमत्कार से हो चुकी थी। इससे अल्लाह तआला ईसाइयों को यह समझाना चाहता है कि अगर यह्या को उनकी मोजिज़ाना (चामत्कारिक) पैदाइश ने इलाह (उपास्य) नहीं बनाया तो मसीह सिर्फ़ अपनी ग़ैर-मामूली पैदाइश के बल पर इलाह या ख़ुदा कैसे हो सकते हैं।
وَإِذۡ قَالَتِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَٰمَرۡيَمُ إِنَّ ٱللَّهَ ٱصۡطَفَىٰكِ وَطَهَّرَكِ وَٱصۡطَفَىٰكِ عَلَىٰ نِسَآءِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 35
(42) फिर वह वक़्त आया जब मरयम से फ़रिश्तों ने आकर कहा, “ऐ मरयम! अल्लाह ने तुझे चुना और पाकीज़गी अता की और तमाम दुनिया की औरतों पर तुझको तरजीह देकर अपनी ख़िदमत के लिए चुन लिया।
يَٰمَرۡيَمُ ٱقۡنُتِي لِرَبِّكِ وَٱسۡجُدِي وَٱرۡكَعِي مَعَ ٱلرَّٰكِعِينَ ۝ 36
(43) ऐ मरयम! अपने रब के हुक्मों की पाबन्द बनकर रह, उसके आगे सर को झुका और जो बन्दे उसके सामने झुकनेवाले हैं, उनके साथ तू भी झुक जा।”
ذَٰلِكَ مِنۡ أَنۢبَآءِ ٱلۡغَيۡبِ نُوحِيهِ إِلَيۡكَۚ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يُلۡقُونَ أَقۡلَٰمَهُمۡ أَيُّهُمۡ يَكۡفُلُ مَرۡيَمَ وَمَا كُنتَ لَدَيۡهِمۡ إِذۡ يَخۡتَصِمُونَ ۝ 37
(44) ऐ नबी! ये ग़ैब (परोक्ष) की ख़बरें हैं जो हम तुमको वह्य के ज़रिए से बता रहे हैं, वरना तुम उस वक़्त वहाँ मौजूद न थे जब हैकल के ख़ादिम यह फ़ैसला करने के लिए कि मरयम का सरपरस्त कौन हो, अपने-अपने क़लम फेंक रहे थे43, और न तुम उस वक़्त हाज़िर थे जब उनके बीच झगड़ा खड़ा हो गया था।
43. यानी पर्ची डाल रहे थे। यह पर्ची डालने की ज़रूरत इसलिए पेश आई थी कि हज़रत मरयम (अलैहि0) की माँ ने उनको अल्लाह के काम के लिए हैकल की नज़्र (भेट) कर दिया था और वे चूँकि लड़की थीं, इसलिए यह एक नाजुक मसला बन गया था कि हैकल के मुजाविरों में से किसकी सरपरस्ती में वे रहें।
إِذۡ قَالَتِ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ يَٰمَرۡيَمُ إِنَّ ٱللَّهَ يُبَشِّرُكِ بِكَلِمَةٖ مِّنۡهُ ٱسۡمُهُ ٱلۡمَسِيحُ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ وَجِيهٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمِنَ ٱلۡمُقَرَّبِينَ ۝ 38
(45) और जब फ़रिश्तों ने कहा, “ऐ मरयम! अल्लाह तुझे अपने एक फ़रमान की ख़ुशख़बरी देता है। उसका नाम मसीह, मरयम का बेटा ईसा होगा, दुनिया और आख़िरत में इज़्ज़तदार होगा, अल्लाह के क़रीबी बन्दों में गिना जाएगा,
وَيُكَلِّمُ ٱلنَّاسَ فِي ٱلۡمَهۡدِ وَكَهۡلٗا وَمِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 39
(46) लोगों से पालने में भी बात करेगा और बड़ी उम्र को पहुँचकर भी और वह एक नेक और भला इनसान होगा।”
قَالَتۡ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي وَلَدٞ وَلَمۡ يَمۡسَسۡنِي بَشَرٞۖ قَالَ كَذَٰلِكِ ٱللَّهُ يَخۡلُقُ مَا يَشَآءُۚ إِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 40
(47) यह सुनकर मरयम बोली, “पालनहार! मेरे यहाँ बच्चा कहाँ से होगा? मुझे तो किसी मर्द ने हाथ तक नहीं लगाया।” जवाब मिला, “ऐसा ही होगा,44 अल्लाह जो चाहता है, पैदा करता है। वह जब किसी काम के करने का फ़ैसला फ़रमाता है, तो बस कहता है कि हो जा, और वह हो जाता है।”
44. यानी बावजूद इसके कि किसी मर्द ने तुझे हाथ नहीं लगाया, तेरे यहाँ बच्चा पैदा होगा। यही लफ़्ज़ ‘क-ज़ालि-क' (ऐसा ही होगा) हज़रत ज़करिय्या के जवाब में भी कहा गया था। इसके जो मानी वहाँ हैं, वहीं यहाँ भी होने चाहिएँ। साथ ही बाद का जुमला, बल्कि पिछला और अगला सारा बयान इसी मानी की ताईद करता है कि हज़रत मरयम को बिना किसी जिस्मानी ताल्लुक़ के बच्चा पैदा होने की ख़ुशख़बरी दी गई थी और हक़ीक़त में इसी सूरत से हज़रत ईसा की पैदाइश हुई। वरना अगर बात यही थी कि हज़रत मरयम के यहाँ उसी जाने-पहचाने फ़ितरी तरीक़े से बच्चा पैदा होनेवाला था जिस तरह दुनिया में औरतों के यहाँ हुआ करता है और अगर हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश हक़ीक़त में उसी तरह हुई होती तो यह सारा बयान बिलकुल बेमतलब और बेमानी ठहरता है जो इस सूरा की आयत 35 से आयत 63 तक चला जा रहा है, और वे सारे बयान भी बेमानी ठहरते हैं जो मसीह (अलैहि०) की पैदाइश के सिलसिले में क़ुरआन की दूसरी जगहों पर हमें मिलते हैं। ईसाइयों ने हज़रत ईसा को ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा इसी वजह से समझा था कि उनकी पैदाइश ग़ैर-फ़ितरी तौर पर बग़ैर बाप के हुई थी और यहूदियों ने हज़रत मरयम पर इल्ज़ाम भी इसी वजह से लगाया था कि सबके सामने यह वाक़िआ पेश आया था कि एक लड़की ग़ैर-शादी-शुदा थी और उसके यहाँ बच्चा पैदा हुआ। अगर सिरे से यह वाक़िआ पेश ही न आया होता तब इन दोनों गरोहों की बातों को झुठलाने के लिए बस इतना कह देना बिलकुल काफ़ी होता कि तुम लोग ग़लत कहते हो, वह लड़की शादी-शुदा थी। फ़ुलाँ आदमी इसका शौहर था और उसी के नुतफ़े (वीर्य) से ईसा पैदा हुए थे। यह मुख़्तसर-सी दोटूक बात कहने के बजाय आख़िर इतनी लम्बी तमहीद (भूमिका) बाँधनें, पेंच-दर-पेंच बातें करने और साफ़-साफ़ फ़ुलाँ का बेटा मसीह कहने के बजाय मरियम का बेटा मसीह कहने की आख़िर क्या ज़रूरत थी जिससे बात सुलझने के बजाय और उलझ जाए। जो लोग क़ुरआन को अल्लाह का कलाम मानते हैं और फिर मसीह (अलैहि०) के सिलसिले में यह भी साबित करने की कोशिश करते हैं कि उनकी पैदाइश मामूल के मुताबिक़ बाप और माँ के मिलन से हुई थी, वे अस्ल में साबित यह करते हैं कि अल्लाह दिल की बात ज़ाहिर करने और मक़सद को बयान करने की उतनी ताक़त भी नहीं रखता जितनी ख़ुद ये लोग रखते हैं। (अल्लाह की पनाह)
وَيُعَلِّمُهُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَٱلتَّوۡرَىٰةَ وَٱلۡإِنجِيلَ ۝ 41
(48) (फ़रिश्तों ने फिर अपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा) “और अल्लाह उसे किताब और हिकमत की तालीम (शिक्षा) देगा, तौरात और इंजील का इल्म सिखाएगा
وَرَسُولًا إِلَىٰ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ أَنِّي قَدۡ جِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ أَنِّيٓ أَخۡلُقُ لَكُم مِّنَ ٱلطِّينِ كَهَيۡـَٔةِ ٱلطَّيۡرِ فَأَنفُخُ فِيهِ فَيَكُونُ طَيۡرَۢا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُبۡرِئُ ٱلۡأَكۡمَهَ وَٱلۡأَبۡرَصَ وَأُحۡيِ ٱلۡمَوۡتَىٰ بِإِذۡنِ ٱللَّهِۖ وَأُنَبِّئُكُم بِمَا تَأۡكُلُونَ وَمَا تَدَّخِرُونَ فِي بُيُوتِكُمۡۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لَّكُمۡ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 42
(49) और बनी-इसराईल की तरफ़ अपना रसूल मुक़र्रर करेगा।” (और जब वह रसूल की हैसियत से बनी-इसराईल के पास आया तो उसने कहा,) “मैं तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे पास निशानी लेकर आया हूँ। मैं तुम्हारे सामने मिट्टी से परिन्दे की शक्ल का एक मुजस्समा (आकृति) बनाता हूँ और उसमें फूँक मारता हूँ, वह अल्लाह के हुक्म से परिन्दा बन जाता है। मैं अल्लाह के हुक्म से जन्मजात अन्धे और कोढ़ी को अच्छा करता हूँ और मुर्दे को ज़िन्दा करता हूँ। मैं तुम्हें बताता हूँ कि तुम क्या खाते हो और क्या अपने घरों में जमा करके रखते हो। इसमें तुम्हारे लिए काफ़ी निशानी है अगर तुम ईमान लानेवाले हो।45
45. यानी ये निशानियाँ तुमको इस बात का भरोसा दिलाने के लिए काफ़ी हैं कि में उस ख़ुदा का भेजा हुआ हूँ जो कायनात (सृष्टि) का पैदा करनेवाला और ताक़त रखनेवाला हाकिम है। बस शर्त यह है कि तुम हक़ को मानने के लिए तैयार हो जाओ और हठधर्म न बनो।
وَمُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيَّ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَلِأُحِلَّ لَكُم بَعۡضَ ٱلَّذِي حُرِّمَ عَلَيۡكُمۡۚ وَجِئۡتُكُم بِـَٔايَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَأَطِيعُونِ ۝ 43
(50) और मैं उस तालीम (शिक्षा) और हिदायत की तस्दीक़ (पुष्टि) करनेवाला बनकर आया हूँ जो तौरात में से इस वक़्त मेरे ज़माने में मौजूद है,46 और इसलिए आया हूँ कि तुम्हारे लिए कुछ उन चीज़ों को हलाल कर दूँ जो तुमपर हराम कर दी गई हैं।47 देखो, मैं तुम्हारे रब की तरफ़ से तुम्हारे पास निशानी लेकर आया हूँ, इसलिए अल्लाह से डरो और मेरा कहना मानो।
46. यानी मुझे अल्लाह की तरफ़ से भेजे जाने का यह एक और सुबूत है। अगर मैं उसकी तरफ़ से भेजा हुआ न होता, बल्कि झूठा दावेदार होता, तो ख़ुद एक अलग मज़हब की नींव डालता और अपने इन कमालात के ज़ोर पर तुम्हें पिछले दीन से हटाकर अपने गढ़े हुए दीन की तरफ़ लाने की कोशिश करता, लेकिन मैं तो उसी अस्ल दीन को मानता हूँ और उसी तालीम को सही क़रार दे रहा हूँ जो ख़ुदा की तरफ़ से उसके पैग़म्बर मुझसे पहले लाए थे। यह बात कि मसीह (अलैहि०) वही दीन लेकर आए थे जो मूसा (अलैहि०) और दूसरे नबियों ने पेश किया था, आज की मौजूद इंजीलों (यानी बाइबल) में साफ़ तौर से हमें मिलती है। मिसाल के तौर पर मत्ती की रिवायत के मुताबिक़ पहाड़ी के उपदेश में मसीह (अलैहि०) साफ़ कहते हैं– “यह न समझो कि में तौरात धर्म-व्यवस्था या नबियों की किताबों को मंसूख़ (निरस्त) करने आया हूँ। मंसूख़ करने नहीं, बल्कि पूरा करने आया हूँ।” (मत्ती, 5.17) एक यहूदी आलिम ने हज़रत मसीह (अलैहि०) से पूछा कि दीन के अहकाम (आदेशों) में सबसे पहला हुक्म कौन-सा है? जवाब में उन्होंने कहा– “तू अपने ख़ुदा (प्रभु-परमेश्वर) से अपने सारे दिल और अपनी सारी जान और अपनी सारी अक़्ल के साथ मुहब्बत कर। बड़ा और पहला हुक्म यही है। और दूसरा इसके जैसा हुक्म यह भी है कि अपने पड़ोसी से अपने बराबर मुहब्बत कर। इन ही दो हुक्मों पर तौरात और नबियों की शिक्षाओं की बुनियाद है।”(मत्ती, 22 : 37-10) फिर मसीह अपने शागिर्दो से कहते हैं– “फ़क़ीह (धर्मशास्त्री) और फ़रीसी मूसा की गद्दी पर बैठे हैं। इसलिए वे तुमसे जो कुछ कहें, वह करना और मानना, मगर उनके जैसे काम न करना, क्योंकि वे कहते तो हैं मगर करते नहीं।”(मत्ती, 23 : 2-3)
47. यानी तुम्हारे जाहिलों के अन्धविश्वास, तुम्हारे फ़क़ीहों (धर्म-विधिज्ञों) का क़ानून के सिलसिले में बाल की खाल निकालना, तुम्हारे रहबानियत-पसन्द लोगों की सख़्तियाँ और ग़ैर-मुस्लिम क़ौमों के ग़ालिब होने और छा जाने की वजह से तुम्हारे यहाँ ख़ुदा की अस्ल शरीअत में जिन पाबन्दियों को बढ़ा लिया गया है, मैं उनको ख़त्म करूँगा और तुम्हारे लिए वही चीज़ें हलाल और वही हराम करार दूँगा जिन्हें अल्लाह ने हलाल या हराम किया है।
إِنَّ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 44
(51) अल्लाह मेरा रब भी और तुम्हारा रब भी, इसलिए तुम उसी की बन्दगी इख़्तियार करो, यही सीधा रास्ता है।48
48. इससे मालूम हुआ कि तमाम नबियों की तरह हज़रत ईसा (अलैहि०) के पैग़ाम को भी यही तीन बुनियादी बातें थीं– एक यह कि इक़तिदारे-आला (सम्प्रभुत्त्व) जिसके मुक़ाबले में बन्दगी या फ़रमाँबरदारी का रवैया इख़्तियार किया जाता है और जिसकी इताअत पर अख़लाक़ और सामाजिकता (सभ्यता) का पूरा निज़ाम क़ायम होता है, सिर्फ़ अल्लाह के लिए ख़ास माना जाए; दूसरी यह कि उस मुक़्तदिरे-आला (सम्प्रभु) के नुमाइन्दे की हैसियत से नबी के हुक्म पर चला जाए, तीसरी यह कि इनसानी ज़िन्दगी को हलाल व हराम और जाइज़-नाजाइज़ (वैध-अवैध) की पाबन्दियों से जकड़नेवाला क़ानून व ज़ाब्ता सिर्फ़ अल्लाह का हो, दूसरों के लागू किए हुए क़ानून रद्द कर दिए जाएँ। इसलिए हक़ीक़त में हज़रत ईसा (अलैहि०), हज़रत मूसा (अलैहि०), हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) और दूसरे नबियों के मिशन में बाल बराबर भी फ़र्क़ नहीं है। जिन लोगों ने अलग-अलग पैग़म्बरों के अलग-अलग मिशन बताए हैं और उनके बीच मक़सद और नौईयत के लिहाज़ से फ़र्क़ किया है, उन्होंने सख़्त ग़लती की है। मुल्क के मालिक की तरफ़ से उसकी रिआया की तरफ़ जो शख़्स भी मुक़र्रर किया जाएगा, उसके आने का मक़सद इसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकता कि वह रिआया को नाफ़रमानी और मनमानी से रोके और शिर्क से यानी इस बात से कि वे इक़तिदारे-आला और (सम्प्रभुत्व) में किसी हैसियत से दूसरों को मुल्क के मालिक के साथ शरीक ठहराएँ और अपनी वफ़ादारियों और इबादत-गुज़ारियों को उनमें बाँट दें, मना करे और अस्ल मालिक की ख़ालिस बन्दगी व इताअत और इबादत व वफ़ादारी की तरफ़ बुलाए। अफ़सोस है कि मौजूदा इंजीलों में मसीह (अलैहि०) के मिशन को इस वज़ाहत और तफ़सील के साथ नहीं बयान किया गया, जिस तरह ऊपर क़ुरआन में पेश किया गया है। फिर भी बिखरे इशारों की शक्ल में वे तीनों बुनियादी बातें हमें इनके अन्दर मिलती हैं जो ऊपर बयान हुई हैं। मिसाल के तौर पर यह बात कि मसीह सिर्फ़ अल्लाह की बन्दगी के क़ायल थे, उनके इस बयान से साफ ज़ाहिर होती है— “तू अपने प्रभु-परमेश्वर को प्रणाम (यानी सजदा) कर और सिर्फ़ उसी की इबादत कर।”(बाइबल, मत्ती, 4:10) और सिर्फ़ यही नहीं कि वे इसके क़ायल थे, बल्कि उनकी सारी कोशिशों का मक़सद यह था कि ज़मीन पर अल्लाह के शरई हुक्मों का उसी तरह पालन हो जिस तरह आसमान पर उसके तकवीनी क़ानूनों (नैसर्गिक नियमों) का पालन हो रहा है— “तेरी बादशाही आए। तेरी मरज़ी जैसी आसमान पर पूरी होती है वैसी ज़मीन पर भी हो।”(बाइबल, मत्ती, 6 :10) फिर यह बात कि मसीह (अलैहि०) अपने आपको नबी और आसमानी बादशाहत के नुमाइन्दे की हैसियत से पेश करते थे और इसी हैसियत से लोगों को अपनी इताअत की तरफ़ बुलाते थे, उनके बहुत-से अक़वाल (कथनों) से मालूम होती है। उन्होंने जब अपने वतन नासरा से अपने पैग़ाम की शुरुआत की तो उनके अपने ही भाई-बन्धु और शहर के लोग उनकी मुख़ालफ़त के लिए खड़े हो गए। इसपर मत्ती, मरक़ुस और लूक़ा तीनों ने ही यह रिवायत की है कि उन्होंने फ़रमाया– “नबी अपने वतन में मक़ुबूल (लोकप्रिय) नहीं होता।”(लूक़ा, 4:24) और जब यरुशलम में उनके क़त्ल की साज़िशें होने लगीं और लोगों ने उनको मश्वरा दिया कि आप कहीं और चले जाएँ, तो उन्होंने जवाब दिया, “मुमकिन नहीं कि नबी यरुशलम से बाहर हलाक हो।”(लूक़ा, 13:33) आख़िरी बार जब वे यरुशलम में दाख़िल हो रहे थे तो उनके शागिर्द ने ऊँची आवाज़ से कहना शुरू किया— “मुबारक है वह बादशाह, जो प्रभु के नाम से आता है।”(लूक़ा,19:38) इसपर यहूदी उलमा नाराज़ हुए और उन्होंने हज़रत मसीह से कहा कि आप अपने शागिर्दों को चुप करें। इसपर उन्होंने कहा— “अगर ये चुप रहेंगे तो पत्थर पुकार उठेंगे।” (लूक़ा,19:40) एक और मौक़े पर उन्होंने कहा— “ऐ मेहनत करनेवालो और बोझ से दबे हुए लोगो! सब मेरे पास आओ, मैं तुमको आराम दूँगा। मेरा जुआ अपने ऊपर उठा लो। ... क्योंकि मेरा जुआ सहज है और मेरा बोझ हल्का है।”(मत्ती, 11:28-30) फिर यह बात कि मसीह (अलैहि०) इनसान के बनाए हुए क़ानूनों के बजाय अल्लाह के क़ानून का पालन कराना चाहते थे, मत्ती और मरक़ुस की उस रिवायत से साफ़ तौर पर वाज़ेह होती है। जिसका ख़ुलासा यह है कि यहूदी उलमा ने ईसा (अलैहि०) से पूछा कि आपके शागिर्द बुज़ुर्गों की रिवायतों और परम्पराओं पर क्यों नहीं चलते और बिना हाथ धोए खाना खाते हैं। इसपर हज़रत मसीह (अलैहि०) ने उनसे कहा— “तुम रियाकारों (पाखंडियों) की हालत वही है जिस पर यसायाह नबी की ज़बान से यह ताना (व्यंग्य) दिया गया है कि 'यह उम्मत ज़बान से तो मेरी इज़्ज़त करती है मगर उनके दिल मुझसे दूर हैं, क्योंकि ये इनसानी अहकाम की तालीम (शिक्षा) देते हैं। तुम लोग ख़ुदा के को तो टाल देते हो और अपने गढ़े हुए क़ानूनों को बरकरार रखते हो। अल्लाह ने तौरात में हुक्म दिया था कि माँ-बाप की इज़्ज़त करो और जो कोई माँ-बाप को बुरा कहे वह जान से मारा जाए, मगर तुम कहते हो कि अगर कोई शख़्स अपनी माँ या बाप से यह कह दे कि मेरी जो ख़िदमतें तुम्हारे काम आ सकती थीं उन्हें मैं ख़ुदा की नज़्र कर चुका हूँ, उसके लिए तो बिलकुल जाइज़ है कि वह माँ या बाप की कोई ख़िदमत न करे। (मत्ती 15:2-9, मरक़ुस 7:5-13)
۞فَلَمَّآ أَحَسَّ عِيسَىٰ مِنۡهُمُ ٱلۡكُفۡرَ قَالَ مَنۡ أَنصَارِيٓ إِلَى ٱللَّهِۖ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ نَحۡنُ أَنصَارُ ٱللَّهِ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَٱشۡهَدۡ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ ۝ 45
(52) जब ईसा ने महसूस किया कि बनी-इसराईल कुफ़्र और इनकार पर आमादा है तो उसने कहा, “कौन अल्लाह की राह में मेरा मददगार होता है?” हवारियों49 ने जवाब दिया, “हम अल्लाह के मददगार है50, हम अल्लाह पर ईमान लाए, गवाह रहो कि हम मुस्लिम (अल्लाह के फ़रमाँबरदार) हैं।
49. हवारी लफ़्ज़ के करीब-करीब वही मानी हैं जो अरबी में 'अनसार' (मददगार) लफ़्ज़ के हैं। बाइबल में आम तौर से हवारियों के बजाय 'शागिर्दो' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है और कुछ जगहों पर उन्हें रसूल भी कहा गया है, मगर रसूल इस मानी में कि मसीह (अलैहि०) उनको तबलीग़ (प्रचार) के लिए भेजते थे, न कि इस मानी में कि ख़ुदा ने उनको रसूल मुक़र्रर किया था।
50. दीने-इस्लाम की इक़ामत (स्थापना) में हिस्सा लेने को क़ुरआन मजीद में अकसर जगहों पर 'अल्लाह की मदद करना' कहा गया है। ज़रूरत है कि इस बात को खोल कर वाज़ेह किया जाए। ज़िन्दगी के जिस दायरे में अल्लाह ने इनसान को इरादे व इख़्तियार की आज़ादी दी है, उसमें वह इनसान को इनकार करने या ईमान लाने, बग़ावत करने या इताअत (अज्ञा-पालन) करने में से किसी एक राह को अपनाने पर अपनी ख़ुदाई ताक़त से मजबूर नहीं करता। इसके बजाय वह दलील और नसीहत से इनसान को इस बात का क़ायल करना चाहता है कि इनकार व नाफ़रमानी और बग़ावत की आज़ादी रखने के बावजूद उसके लिए हक़ यही है और उसकी कामयाबी व नजात का रास्ता भी यही है कि अपने पैदा करनेवाले की बन्दगी व इताअत इख़्तियार करे। इस तरह समझाने-बुझाने और नसीहत के ज़रिए से बन्दों को सीधे रास्ते पर लाने की तदबीर करना, यह अस्ल में अल्लाह का काम है, और जो बन्दे इस काम में अल्लाह का साथ दें, उनको अल्लाह अपना दोस्त और मददगार क़रार देता है, और यह वह बुलन्द से मक़ाम है जिसपर किसी बन्दे की पहुँच हो सकती है। नमाज़, रोज़ा और हर तरह की इबादतों में तो इनसान सिर्फ़ बन्दा और ग़ुलाम होता है, मगर दीन की तबलीग़ और प्रचार तथा दीन को क़ायम करने की कोशिशों में बन्दे को ख़ुदा का साथ और उसकी मददगारी का शर्फ़ (सौभाग्य) हासिल होता है जो इस दुनिया में रूहानी इर्तिक़ा यानी आध्यात्मिक विकास का सबसे ऊँचा दरजा है।
رَبَّنَآ ءَامَنَّا بِمَآ أَنزَلۡتَ وَٱتَّبَعۡنَا ٱلرَّسُولَ فَٱكۡتُبۡنَا مَعَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 46
(53) मालिक! जो फ़रमान तूने उतारा है, हमने उसे मान लिया और रसूल की पैरवी क़ुबूल की। हमारा नाम गवाही देनेवालों में लिख ले।”
وَمَكَرُواْ وَمَكَرَ ٱللَّهُۖ وَٱللَّهُ خَيۡرُ ٱلۡمَٰكِرِينَ ۝ 47
(54) फिर बनी-इसराईल (मसीह के ख़िलाफ़) ख़ुफ़िया तदबीरें करने लगे। जवाब में अल्लाह ने भी खुफ़िया तदबीर की, और ऐसी तदबीरों में अल्लाह सबसे बढ़कर है।
إِذۡ قَالَ ٱللَّهُ يَٰعِيسَىٰٓ إِنِّي مُتَوَفِّيكَ وَرَافِعُكَ إِلَيَّ وَمُطَهِّرُكَ مِنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَجَاعِلُ ٱلَّذِينَ ٱتَّبَعُوكَ فَوۡقَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ ثُمَّ إِلَيَّ مَرۡجِعُكُمۡ فَأَحۡكُمُ بَيۡنَكُمۡ فِيمَا كُنتُمۡ فِيهِ تَخۡتَلِفُونَ ۝ 48
(55) (वह अल्लाह की खुफ़िया तदबीर ही थी) जब उसने कहा कि “ऐ ईसा! अब मै तुझे वापस ले लूँगा51 और तुझको अपनी तरफ़ उठा लूँगा, और जिन्होंने तेरा इनकार किया है। उनसे (यानी उनकी संगति से और उनके गन्दे माहौल में उनके साथ रहने से) तुझे पाक कर दूँगा और तेरी पैरवी करनेवालों को क़ियामत तक उन लोगों पर हावी रखूँगा जिन्होंने तेरा इनकार किया है।52 फिर तुम सबको आख़िरकार मेरे पास आना है, उस वक़्त में उन बातों का फ़ैसला कर दूँगा जिनमें तुम्हारे बीच इख़्तिलाफ़ हुआ है।
51. अरबी में लफ़्ज़ 'मु-त-वफ़्फ़ी-क' इस्तेमाल हुआ है। यह लफ़्ज़ ‘तवफ़्फ़ी’ से बना है। ‘तवफ़्फ़ी’ के अस्ल मानी लेना और वुसूलना है। ‘जान निकालना' तो इस लफ़्ज़ का मजाज़ी (लाक्षणिक) इस्तेमाल है, न कि अस्ल मानी। यहाँ यह लफ़्ज़ अंग्रेजी लफ़्ज़ To Recall के मानी में इस्तेमाल हुआ है। यानी किसी ओहदेदार को उसके पद और काम से वापस बुला लेना। चूँकि बनी-इसराईल सदियों से बराबर नाफ़रमानी करते चले आ रहे थे, बार-बार ख़बरदार करने और समझाने-बुझाने के बावजूद उनकी क़ौमी रविश (सामूहिक नीति) बिगड़ती ही चली जा रही थी। एक के बाद एक कई नबियों को क़त्ल कर चुके थे और हर उस नेक बन्दे के ख़ून के प्यासे हो जाते थे जो नेकी और सच्चाई की तरफ़ उन्हें बुलाता था। इसलिए अल्लाह ने उनपर हुज्जत पूरी करने और उन्हें एक आख़िरी मौक़ा देने के लिए हज़रत ईसा और हज़रत यह्या (अलैहि०) जैसे दो अज़ीम पैग़म्बरों को एक ही वक़्त में भेजा, जिनके साथ अल्लाह की तरफ़ से भेजे जाने के सुबूत में ऐसी खुली-खुली निशानियाँ थीं कि उनसे इनकार सिर्फ़ वही लोग कर सकते थे जो हक़ और सच्चाई से इन्तिहाई दरजे की दुश्मनी रखते हों और हक़ के मुक़ाबले में जिनका दुस्साहस और बेबाकी हद को पहुँच चुकी हो, मगर बनी-इसराईल ने इस आख़िरी मौक़े को भी हाथ से खो दिया और सिर्फ़ इतना ही न किया कि इन दोनों पैग़म्बरों के पैग़ाम को ठुकरा दिया, बल्कि इनके एक सरदार ने अलानिया हज़रत यह्या (अलैहि०) जैसे अज़ीम इनसान का सर एक नाचनेवाली की फ़रमाइश पर उड़वा दिया और उनके उलमा व फ़ुक़हा (विद्वान और धर्मशास्त्रियों) ने साज़िश करके हज़रत ईसा को रूमी सल्तनत से मौत की सज़ा दिलवाने की कोशिश की। इसके बाद बनी-इसराईल को समझाने-बुझाने पर और ज़्यादा वक़्त और ताक़त लगाना बिलकुल बेकार था। इसलिए अल्लाह ने अपने पैग़म्बर को वापस बुला लिया और क़ियामत तक के लिए बनी-इसराईल पर अपमान और रुसवाई की ज़िन्दगी का फ़ैसला लिख दिया। यहाँ यह बात और समझ लेनी चाहिए कि क़ुरआन का यह पूरा बयान अस्ल में ईसाइयों के इस अक़ीदे को कि ईसा ख़ुदा हैं रद्द करने और उसको सुधारने के लिए है। ईसाइयों में इस झूठे अक़ीदे के पैदा होने के सबसे अहम सबब तीन थे– 1. हज़रत मसीह का मोजिज़ाती (चामत्कारिक) तरीक़े पर पैदा होना; 2. उनके खुले तौर पर महसूस होनेवाले मोजिज़े (चमत्कार); 3. उनका आसमान की तरफ़ उठाया जाना, जिसका ज़िक्र साफ़ अल्फ़ाज़ में उनकी किताबों में पाया जाता है। क़ुरआन ने पहली बात को सही ठहराते हुए कहा कि मसीह का बिना बाप के पैदा होना सिर्फ़ अल्लाह की क़ुदरत का करिश्मा था। अल्लाह जिसको जिस तरह चाहता है, पैदा करता है। पैदाइश का यह ग़ैर-मामूली तरीक़ा हरगिज़ इस बात की दलील नहीं है कि मसीह ख़ुदा था या ख़ुदाई में कुछ भी हिस्सा रखता था। दूसरी बात की भी क़ुरआन ने तस्दीक़ की और ख़ुद मसीह के मोजिज़े (चमत्कार) एक-एक करके गिनाए, मगर बता दिया कि ये सारे काम उसने अल्लाह की इजाज़त से किए थे, अपने इख़्तियार से कुछ भी नहीं किया। इसलिए इनमें से भी कोई बात ऐसी नहीं है जिससे तुम्हें यह नतीजा निकालने में कुछ भी हक़ पर कहा जा सके कि मसीह का ख़ुदाई में कोई हिस्सा था। अब तीसरी बात के बारे में अगर ईसाइयों का कहना सिरे से बिलकुल ही ग़लत होता तब तो उनके इस अक़ीदे को कि ईसा मसीह ख़ुदा हैं, रद्द करने के लिए ज़रूरी था कि साफ़-साफ़ कह दिया जाता कि जिसे तुम ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा बना रहे हो, वह मर कर मिट्टी में मिल चुका है, और ज़्यादा इत्मीनान चाहते हो तो फ़ुलाँ जगह जाकर उसकी क़ब्र देख लो, लेकिन ऐसा करने के बजाय क़ुरआन सिर्फ़ यही नहीं कि उनकी मौत को वाज़ेह तौर पर बयान नहीं करता और सिर्फ़ यही नहीं कि ऐसे लफ़्ज़ इस्तेमाल करता है जो ज़िन्दा उठाए जाने का कम-से-कम मतलब तो रखते ही हैं, बल्कि ईसाइयों को उलटा यह और बता देता है कि मसीह सिरे से सूली पर चढ़ाए ही नहीं गए, यानी वह जिसने आख़िरी वक़्त में ‘ऐली ऐली लिमा शबक़तानी' कहा था और जिसकी सूली के तख़्ते पर चढ़ी हुई हालत की तस्वीर तुम लिए फिरते हो, वह मसीह न था, मसीह को तो इससे पहले ही अल्लाह ने उठा लिया था। इसके बाद जो लोग क़ुरआन की आयतों से मसीह की मौत का मतलब निकालने की कोशिश करते हैं, वे अस्ल में यह साबित करते हैं कि अल्लाह को साफ़-सुलझे अल्फ़ाज़ में अपना मतलब बयान करने तक का सलीक़ा नहीं। इस तरह की सोच से हम अल्लाह की पनाह चाहते हैं।
52. इनकार करनेवालों से मुराद यहूदी हैं जिनको हज़रत ईसा ने ईमान लाने की दावत दी और उन्होंने उसे ठुकरा दिया। इसके बरख़िलाफ़ पैरवी करनेवालों से मुराद अगर सही पैरवी करनेवाले हो तो वे सिर्फ़ मुसलमान हैं, और अगर इससे मुराद हज़रत ईसा (अलैहि०) के तमाम माननेवाले हों तो इनमें ईसाई और मुसलमान दोनों शामिल हैं।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فَأُعَذِّبُهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدٗا فِي ٱلدُّنۡيَا وَٱلۡأٓخِرَةِ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 49
(56) जिन लोगों के कुफ़्र और इनकार का रवैया अपनाया है, उन्हें दुनिया और आख़िरत दोनों में सख़्त सज़ा दूँगा और वे कोई मददगार न पाएँगे,
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَيُوَفِّيهِمۡ أُجُورَهُمۡۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 50
(57) और जिन्होंने ईमान और नेक अमली का रवैया अपनाया है उन्हें उनके बदले पूरे-पूरे दे दिए जाएँगे, और (ख़ूब जान लो कि) ज़ालिमों से अल्लाह हरगिज़ मुहब्बत नहीं करता।”
ذَٰلِكَ نَتۡلُوهُ عَلَيۡكَ مِنَ ٱلۡأٓيَٰتِ وَٱلذِّكۡرِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 51
(58) ऐ नबी! ये आयतें और हिकमत (तत्त्वज्ञान) से भरे हुए बयान जो हम तुम्हें हैं सुना रहे हैं।
إِنَّ مَثَلَ عِيسَىٰ عِندَ ٱللَّهِ كَمَثَلِ ءَادَمَۖ خَلَقَهُۥ مِن تُرَابٖ ثُمَّ قَالَ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 52
(59) अल्लाह के नज़दीक ईसा की मिसाल आदम जैसी है कि अल्लाह ने उसे मिट्टी से पैदा किया और हुक्म दिया कि हो जा और वह हो गया।53
53. यानी अगर सिर्फ़ मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर पैदाइश ही किसी को ख़ुदा या ख़ुदा का बेटा बनाने के लिए काफ़ी दलील है, तब तो फिर तुम्हें (यानी ईसाइयों को) आदम के बारे में सबसे पहले ऐसा अक़ीदा इख़्तियार करना चाहिए था, क्योंकि मसीह तो सिर्फ़ बिना-बाप ही के पैदा हुए थे, मगर आदम माँ और बाप दोनों के बिना पैदा हुए।
ٱلۡحَقُّ مِن رَّبِّكَ فَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡمُمۡتَرِينَ ۝ 53
(60) यह अस्ल हक़ीकत है जो तुम्हारे रब की तरफ़ से बताई जा रही है, और तुम उन लोगों में शामिल न हो जो इसमें शक करते हैं।54
54. यहाँ तक के बयान में जो बुनियादी बातें ईसाइयों के सामने पेश की गई हैं, वे इस तरह हैं— पहली बात, जो उनके ज़ेहन में बिठाने की कोशिश की गई है, वह यह है कि मसीह को ख़ुदा बनाए जाने का अक़ीदा तुम्हारे अन्दर जिन वज़हों से पैदा हुआ है उनमें से कोई भी वजह ऐसे अक़ीदे के लिए सही नहीं है। एक इनसान था जिसको अल्लाह ने अपनी मस्लहतों के तहत मुनासिब समझा कि उसको ग़ैर-मामूली तरीक़े से पैदा करे और उसे से मोजिज़े (चमत्कार) अता करे जो नुबूवत की खुली अलामत हों और हक़ का इनकार करनेवालों को उसे सूली पर न चढ़ाने दे, बल्कि उसको अपने पास उठा ले। मालिक को इख़्तियार है, अपने जिस बन्दे को जिस तरह चाहे इस्तेमाल करे। सिर्फ़ इस ग़ैर-मामूली बर्ताव को देखकर यह नतीजा निकालना कैसे सही हो सकता है कि वह ख़ुद मालिक था, या मालिक का बेटा था, या मिल्कियत में उसका शरीक था। दूसरी अहम बात जो उनको समझाई गई है वह यह है कि मसीह जिस चीज़ की तरफ़ बुलाने आए थे, वह वही चीज़ है जिसकी तरफ़ मुहम्मद (सल्ल०) बुला रहे हैं। दोनों के मिशन में बाल बराबर भी फ़र्क़ नहीं है। तीसरी बुनियादी बात इस बयान में यह है कि मसीह के बाद उनके हवारियों का मज़हब भी वही इस्लाम था जो क़ुरआन पेश कर रहा है। हालाँकि बाद की ईसाइयत न उस तालीम (शिक्षा) पर क़ायम रही जो मसीह (अलैहि०) ने दी थी और न उस मज़हब पर चलनेवाली रही जिसपर मसीह के हवारी चलते थे।
فَمَنۡ حَآجَّكَ فِيهِ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَكَ مِنَ ٱلۡعِلۡمِ فَقُلۡ تَعَالَوۡاْ نَدۡعُ أَبۡنَآءَنَا وَأَبۡنَآءَكُمۡ وَنِسَآءَنَا وَنِسَآءَكُمۡ وَأَنفُسَنَا وَأَنفُسَكُمۡ ثُمَّ نَبۡتَهِلۡ فَنَجۡعَل لَّعۡنَتَ ٱللَّهِ عَلَى ٱلۡكَٰذِبِينَ ۝ 54
(61) यह इल्म आ जाने के बाद अब जो कोई इस मामले में तुमसे झगड़ा करे तो ऐ नबी! उससे कहो कि “आओ, हम और तुम ख़ुद भी आ जाएँ और अपने-अपने बाल-बच्चों को भी ले आएँ और ख़ुदा से दुआ करें कि जो झूठा हो उसपर ख़ुदा की लानत55 हो।"
55. फ़ैसले की यह सूरत पेश करने का मक़सद दरअस्ल यह साबित करना था कि नजरान का वफ़्द (प्रतिनिधिमंडल) जान-बूझकर हठधर्मी कर रहा है। ऊपर जो बातें बयान की गई हैं, उनमें से किसी का जवाब भी उन लोगों के पास न था। ईसाई मज़हब के मुख़्तलिफ़ अक़ीदों में से किसी के हक़ में भी वे ख़ुद अपनी मुक़द्दस किताबों की ऐसी सनद (प्रमाण) न पाते थे, जिसकी बुनियाद पर पूरे यक़ीन के साथ यह दावा कर सकते कि उनका अक़ीदा सच्चाई के मुताबिक़ है और हक़ इसके ख़िलाफ़ बिलकुल नहीं है। फिर नबी (सल्ल०) की सीरत (आचरण), आपकी तालीम (शिक्षा) और आपके कारनामों को देखकर बड़ी तादाद में वफ़्द के लोग अपने दिलों में आपकी नुबूवत के क़ायल भी हो गए थे या कम-से-कम अपने इनकार में डगमगा गए थे। इसलिए जब उनसे कहा गया कि अच्छा अगर तुम्हें अपने अक़ीदे के बारे में पूरा यक़ीन है कि वह हक़ के मुताबिक़ है तो आओ, हमारे मुक़ाबले में दुआ करो कि जो झूठा हो उसपर अल्लाह की लानत हो, तो इनमें से कोई इस मुक़ाबले के लिए तैयार न हुआ। इस तरह यह बात पूरे अरब के सामने खुल गई कि नजरानी मसीही धर्म के पेशवा और पादरी, जिनके तक़द्दुस (पावनता) का सिक्का दूर-दूर तक चल रहा है, अस्ल में वे ऐसे अक़ीदों की पैरवी कर रहे है जिनकी सच्चाई पर ख़ुद उन्हें पूरा भरोसा नहीं है।
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡقَصَصُ ٱلۡحَقُّۚ وَمَا مِنۡ إِلَٰهٍ إِلَّا ٱللَّهُۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 55
(62) ये बिल्कुल सही वाक़िआत हैं, और सच तो यह है कि अल्लाह के सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, और वह अल्लाह ही की हस्ती है जिसकी ताक़त सबसे बढ़कर है। और जिसकी हिकमत कायनात के निज़ाम में काम कर रही है।
فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُفۡسِدِينَ ۝ 56
(63) तो अगर ये लोग (इस शर्त पर मुक़ाबले में आने से) मुँह मोड़ें तो (उनका फ़सादी होना साफ़ खुल जाएगा) और अल्लाह तो फ़सादियों के हाल को जानता ही है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ تَعَالَوۡاْ إِلَىٰ كَلِمَةٖ سَوَآءِۭ بَيۡنَنَا وَبَيۡنَكُمۡ أَلَّا نَعۡبُدَ إِلَّا ٱللَّهَ وَلَا نُشۡرِكَ بِهِۦ شَيۡـٔٗا وَلَا يَتَّخِذَ بَعۡضُنَا بَعۡضًا أَرۡبَابٗا مِّن دُونِ ٱللَّهِۚ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَقُولُواْ ٱشۡهَدُواْ بِأَنَّا مُسۡلِمُونَ ۝ 57
(64) (ऐ नबी!) कहो,56 “ऐ किताबवालो! आओ एक ऐसी बात की तरफ़ जो हमारे और तुम्हारे बीच यकसाँ (समान) है57, यह कि हम अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करें, उसके साथ किसी को साझी न ठहराए और हममें से कोई अल्लाह के सिवा किसी को अपना रब न बना ले।” — इस पैग़ाम को क़ुबूल करने से अगर वे मुँह मोड़े तो साफ़ कह दो कि गवाह रहो, हम तो मुस्लिम (सिर्फ़ अल्लाह की बन्दगी और इताअत करनेवाले) हैं।”
56. यहाँ से एक तीसरा बयान शुरू होता है जिसके मज़मून (विषय) पर ग़ौर करने से अन्दाज़ा होता है कि यह बद्र और उहुद की लड़ाइयों के बीच के ज़माने का है। लेकिन इन तीनों बयानों के बीच मतलब और मानी की ऐसी क़रीबी मुनासबत पाई जाती है कि शुरू सूरा से लेकर यहाँ तक, किसी जगह बात का सिलसिला टूटता नज़र नहीं आता। इसी वजह से क़ुरआन की तफ़सीर बयान करनेवाले उलमा को गुमान हुआ कि ये बाद की आयतें भी नजरान के वफ़्द वाले बयान ही के सिलसिले की हैं, मगर यहाँ से जो बयान शुरू हो रहा है उसका अन्दाज़ साफ़ बता रहा है कि ये बातें यहूदियों से कही जा रही हैं।
57. यानी एक ऐसे अक़ीदे (धारणा) पर हमसे इत्तिफ़ाक़ (सहमति) कर लो जिसपर हम भी ईमान लाए हैं और जिसके सही होने से तुम भी इनकार नहीं कर सकते। तुम्हारे अपने नबियों से यही अक़ीदा नक़्ल किया गया है। तुम्हारी अपनी मुक़द्दस किताबों में इसकी तालीम मौजूद है।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تُحَآجُّونَ فِيٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَمَآ أُنزِلَتِ ٱلتَّوۡرَىٰةُ وَٱلۡإِنجِيلُ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِهِۦٓۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 58
(65) ऐ किताबवालो! तुम इबराहीम के बारे में हमसे क्यों झगड़ा करते हो? तौरात और इंजील तो इबराहीम के बाद ही उतरी हैं। फिर क्या तुम इतनी बात भी नहीं समझते?58
58. यानी तुम्हारा यह यहूदी मत और यह ईसाई मत बहरहाल तौरात और इंजील के उतरने के बाद पैदा हुए हैं, और इबराहीम (अलैहि०) इन दोनों के उतरने से बहुत पहले गुज़र चुके थे। अब एक मामूली अक़्ल का आदमी भी यह बात आसानी के साथ समझ सकता है कि इबराहीम (अलैहि०) जिस मज़हब पर थे वह बहरहाल यहूदी मत या ईसाई मत तो न था। फिर अगर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) सीधे रास्ते पर थे और उन्हें नजात (मुक्ति) हासिल हुई थी तो ज़रूरी हो जाता है कि आदमी का सीधे रास्ते पर होने और नजात पाने का दारोमदार यहूदी मत और ईसाई मत की पैरवी पर नहीं है। (देखें सूरा-2 बक़रा, हाशिया नं-135 और 141)
هَٰٓأَنتُمۡ هَٰٓؤُلَآءِ حَٰجَجۡتُمۡ فِيمَا لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞ فَلِمَ تُحَآجُّونَ فِيمَا لَيۡسَ لَكُم بِهِۦ عِلۡمٞۚ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ وَأَنتُمۡ لَا تَعۡلَمُونَ ۝ 59
(66) — तुम लोग जिन चीज़ों का इल्म रखते हो उनमें तो ख़ूब बहसें कर चुके, अब उन मामलों में क्यों बहस करने चले हो जिनका तुम्हारे पास कुछ भी इल्म नहीं। अल्लाह जानता है, तुम नहीं जानते।
مَا كَانَ إِبۡرَٰهِيمُ يَهُودِيّٗا وَلَا نَصۡرَانِيّٗا وَلَٰكِن كَانَ حَنِيفٗا مُّسۡلِمٗا وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 60
(67) इबराहीम न यहूदी था, न ईसाई, बल्कि वह तो एक मुस्लिमे-यकसू (एकाग्रचित्त आज्ञापालक)59 था और वह हरगिज़ शिर्क करनेवालों में से न था।
59. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘हनीफ़’ इस्तेमाल हुआ है जिससे मुराद ऐसा शख़्स है जो हर तरफ़ से रुख़ फेरकर एक ख़ास रास्ते पर चले। इसी मतलब को हमने ‘मुस्लिमे-यकसू’ से अदा किया है।
إِنَّ أَوۡلَى ٱلنَّاسِ بِإِبۡرَٰهِيمَ لَلَّذِينَ ٱتَّبَعُوهُ وَهَٰذَا ٱلنَّبِيُّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْۗ وَٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 61
(68) इबराहीम से ताल्लुक़ रखने का सबसे ज़्यादा हक़ अगर किसी को पहुँचता है तो उन लोगों को पहुँचता है जिन्होंने उसकी पैरवी की, और अब यह नबी और इसके माननेवाले इस ताल्लुक़ के ज़्यादा हक़दार है। अल्लाह सिर्फ़ उन्हीं का हिमायती और मददगार है जो ईमान रखते हों।
وَدَّت طَّآئِفَةٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَوۡ يُضِلُّونَكُمۡ وَمَا يُضِلُّونَ إِلَّآ أَنفُسَهُمۡ وَمَا يَشۡعُرُونَ ۝ 62
(69) ( ऐ ईमान लानेवालो!) किताबवालों में से एक गरोह चाहता है कि किसी तरह तुम्हें सीधे रास्ते से हटा दे, हालाँकि सच तो यह है कि वे अपने सिवा किसी को गुमराही में नहीं डाल रहे हैं, मगर उन्हें इसका शुऊर नहीं है।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَأَنتُمۡ تَشۡهَدُونَ ۝ 63
(70) ऐ किताबवालो! क्यों अल्लाह की आयतों का इनकार करते हो, हालाँकि तुम ख़ुद उनको देख रहे हो?60
60. दूसरा तर्जमा इस जुमले का यह भी हो सकता है कि 'तुम ख़ुद गवाही देते हो’। दोनों हालतों में अस्ल मतलब में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। अस्ल में नबी (सल्ल०) की पाकीज़ा ज़िन्दगी और सहाबा किराम (रज़ि०) की ज़िन्दगियों पर आपकी तालीम व तरबियत के हैरत-अंगेज़ असरात और वे ऊँचे दरजे की बातें जो क़ुरआन में बयान हो रही थीं, ये सारी चीज़ें अल्लाह की ऐसी रौशन निशानियाँ थीं कि जो शख़्स नबियों के हालात और आसमानी किताबों के अन्दाज़ से वाक़िफ़ हो, उसके लिए इन निशानियों को देखकर नबी (सल्ल०) की नुबूवत में शक करना बहुत ही मुश्किल था। चुनाँचे यह एक हक़ीक़त है कि बहुत-से किताबवाले (ख़ास तौर से उनके आलिम) यह जान चुके थे कि मुहम्मद (सल्ल०) वही नबी हैं जिनके आने का वादा पिछले नबियों ने किया था, यहाँ तक कि कभी-कभी हक़ की ज़बरदस्त ताक़त से मजबूर होकर उनकी ज़बानें नबी (सल्ल०) की इस बात को मान लेती थीं कि मुहम्मद (सल्ल०) सच्चे नबी हैं, और आप (सल्ल०) की पेश की हुई तालीम (शिक्षा) हक़ है। इसी वजह से क़ुरआन बार-बार उनकी यह ग़लती उनको बताता है कि अल्लाह की जिन आयतों (निशानियों) को तुम आँखों से देख रहे हो, जिनके हक़ होने पर तुम ख़ुद गवाही देते हो, उनको तुम जान-बूझकर अपने मन की शरारत से झुठला रहे हो।
يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَلۡبِسُونَ ٱلۡحَقَّ بِٱلۡبَٰطِلِ وَتَكۡتُمُونَ ٱلۡحَقَّ وَأَنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 64
(71) ऐ किताबवालो! क्यों हक़ को बातिल का रंग चढ़ाकर संदिग्ध बनाते हो? क्यों जानते-बूझते हक़ (सत्य) को छिपाते हो?
وَقَالَت طَّآئِفَةٞ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ ءَامِنُواْ بِٱلَّذِيٓ أُنزِلَ عَلَى ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَجۡهَ ٱلنَّهَارِ وَٱكۡفُرُوٓاْ ءَاخِرَهُۥ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 65
(72) किताबवालों में से एक गरोह कहता है कि इस नबी के माननेवालों पर जो कुछ उतरा है, उसपर सुबह को ईमान लाओ और शाम को उससे इनकार कर दो, शायद इस तरकीब से ये लोग अपने ईमान से फिर जाएँ।61
61. यह उन चालों में से एक चाल थी जो मदीना के आस-पास रहनेवाले यहूदियों के लीडर और मज़हबी पेशवा इस्लाम के पैग़ाम को कमज़ोर करने के लिए चलते रहते थे। उन्होंने मुसलमानों को बददिल करने और नबी (सल्ल०) से आम लोगों को बदगुमान करने के लिए खुफ़िया तौर पर आदमियों को तैयार करके भेजना शुरू किया, ताकि पहले सब लोगों के सामने इस्लाम क़ुबूल करें, फिर उससे फिर जाएँ, और इसके बाद जगह-जगह लोगों में यह बात फैलाते फिरें कि हमने इस्लाम में और मुसलमानों में और उनके पैग़म्बर में ये और ये ख़राबियाँ देखी हैं; तभी तो हम उनसे अलग हो गए।
وَلَا تُؤۡمِنُوٓاْ إِلَّا لِمَن تَبِعَ دِينَكُمۡ قُلۡ إِنَّ ٱلۡهُدَىٰ هُدَى ٱللَّهِ أَن يُؤۡتَىٰٓ أَحَدٞ مِّثۡلَ مَآ أُوتِيتُمۡ أَوۡ يُحَآجُّوكُمۡ عِندَ رَبِّكُمۡۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡفَضۡلَ بِيَدِ ٱللَّهِ يُؤۡتِيهِ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ وَٰسِعٌ عَلِيمٞ ۝ 66
(73) यह भी ये लोग आपस में कहते हैं कि अपने मज़हबवाले के सिवा किसी की बात न मानो। ऐ नबी! इनसे कह दो कि “अस्ल में हिदायत तो अल्लाह की हिदायत है और यह उसी की देन है कि किसी को वही कुछ दे दिया जाए जो कभी तुमको दिया गया था, या यह कि दूसरों को तुम्हारे रब के सामने पेश करने के लिए तुम्हारे ख़िलाफ़ ठोस हुज्जत मिल जाए।” ऐ नबी! इनसे कहो कि “इज़्ज़त और बड़ाई तो अल्लाह के इख़्तियार में है, जिसे चाहे दे, वह वसीउन्-नज़र (व्यापक दृष्टिवाला) है62 और सब कुछ जानता है।63
62. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'वासिअ' इस्तेमाल हुआ है जो आम तौर से क़ुरआन में तीन मौक़ों पर आया करता है। एक वह मौक़ा जहाँ इनसानों के किसी गरोह की तंग ख़याली (संकीर्ण विचार) और तंग-नज़री (संकीर्ण दृष्टि) का ज़िक्र आता है और उसे इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करने की ज़रूरत पेश आती है कि अल्लाह तुम्हारी तरह तंग-नज़र नहीं है। दूसरा वह मौक़ा जहाँ किसी की कंजूसी, ओछेपन, तंगदिली (संकीर्ण हृदयता) और कायरता पर मलामत करते हुए यह बताना होता है कि अल्लाह खुले हाथोंवाला है, तुम्हारी तरह कंजूस नहीं है। तीसरा वह मौक़ा जहाँ लोग अपनी तंग (संकीर्ण) सोच की वजह से अल्लाह से भी इस तरह की बात जोड़ देते हैं जिससे पता चले कि वह भी तंग और सीमित सोचवाला है। ऐसे लोगों को ऐसे मौक़े पर यह बताना होता है कि अल्लाह ग़ैर-महदूद (असीम) है। (देखिए सूरा-2, बक़रा, हाशिया नं॰ 116)
63. यानी अल्लाह को मालूम है कि कौन बड़ाई और इज़्ज़त का हक़दार है।
يَخۡتَصُّ بِرَحۡمَتِهِۦ مَن يَشَآءُۗ وَٱللَّهُ ذُو ٱلۡفَضۡلِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 67
(74) अपनी रहमत (दयालुता) के लिए जिसको चाहता है ख़ास कर लेता है और उसका फ़ज़्ल बहुत बड़ा है।”
۞وَمِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ مَنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِقِنطَارٖ يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ وَمِنۡهُم مَّنۡ إِن تَأۡمَنۡهُ بِدِينَارٖ لَّا يُؤَدِّهِۦٓ إِلَيۡكَ إِلَّا مَا دُمۡتَ عَلَيۡهِ قَآئِمٗاۗ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ قَالُواْ لَيۡسَ عَلَيۡنَا فِي ٱلۡأُمِّيِّـۧنَ سَبِيلٞ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 68
(75) किताबवालों में कोई तो ऐसा है कि अगर तुम उसपर भरोसा करते हुए माल और दौलत का एक ढेर भी दे दो तो वह तुम्हारा माल तुम्हें लौटा देगा, और किसी का हाल यह है कि अगर तुम एक दीनार के मामले में भी उसपर भरोसा करो तो वह अदा न करेगा, यह और बात है कि तुम उसके सर पर सवार हो जाओ। उनकी इस अख़लाक़ी हालत की वजह यह है कि वे कहते हैं, “उम्मियों (ग़ैर-यहूदियों) के मामले में हमारी कोई पकड़ नहीं है"।64 और यह बात वे सिर्फ़ झूठ गढ़कर अल्लाह से जोड़ देते हैं, हालाँकि उन्हें मालूम है कि अल्लाह ने ऐसी कोई बात नहीं कही है।
64. यह सिर्फ़ आम यहूदियों ही का जाहिलाना ख़याल न था, बल्कि उनके यहाँ की मज़हबी तालीम भी यही कुछ थी और उनके बड़े-बड़े मज़हबी पेशवाओं के फ़िक़ही अहकाम (धार्मिक नियम) ऐसे ही थे। बाइबल क़र्ज़ और सूद (ब्याज) से मुताल्लिक़ अहकाम में इसराईली और ग़ैर-इसराईली के बीच साफ़ फ़र्क़ करती है (देखें व्यवस्थाविवरण 15:1-3, 23:20)। तलमूद में कहा गया है कि अगर किसी इसराईली का बैल किसी ग़ैर-इसराईली के बैल को घायल कर दे तो उसपर कोई जुर्माना नहीं, मगर ग़ैर-इसराईली का बैल अगर इसराईली के बैल को घायल कर दे तो उसपर जुर्माना है। अगर किसी आदमी को किसी जगह कोई गिरी-पड़ी चीज़ मिले तो उसे देखना चाहिए कि आस-पास में आबादी किन लोगों की है। अगर इसराइलियों की हो तो उसे एलान करना चाहिए और ग़ैर-इसराईली की हो तो उसे बिना-एलान वह चीज़ रख लेनी चाहिए। रिब्बी शमूएल कहता है कि अगर इसराईली और ग़ैर-इसराईली का मुक़द्दमा क़ाज़ी (जज) के पास आए तो क़ाज़ी अगर इसराईली क़ानून के मुताबिक़ अपने मज़हबी इसराईली भाई को जितवा सकता हो तो उसके मुताबिक़ जितवाए और कहे कि यह हमारा क़ानून है, और अगर ग़ैर-इसराईलियों के क़ानून के तहत जितवा सकता हो तो उसके तहत जितवाए और कहे कि यह तुम्हारा क़ानून है, और अगर दोनों क़ानून साथ न देते हों तो फिर जिस चाल से भी वह इसराईली को कामयाब कर सकता हो, करे। रिब्बी शमूएल कहता है कि ग़ैर-इसराईली की हर ग़लती से फ़ायदा उठाना चाहिए। (तालमूदिक मस्सलेनी, पॉल-आइज़िक हरशों, लन्दन 1880 ई० पृ॰ 37, 210, 221)
بَلَىٰۚ مَنۡ أَوۡفَىٰ بِعَهۡدِهِۦ وَٱتَّقَىٰ فَإِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 69
(76) आख़िर क्यों उनसे पूछताछ नहीं होगी? जो भी अपने अह्द (वचन) को पूरा करेगा और बुराई से बचकर रहेगा वह अल्लाह का महबूब बनेगा, क्योंकि परहेज़गार लोग अल्लाह को पसन्द हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَشۡتَرُونَ بِعَهۡدِ ٱللَّهِ وَأَيۡمَٰنِهِمۡ ثَمَنٗا قَلِيلًا أُوْلَٰٓئِكَ لَا خَلَٰقَ لَهُمۡ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ وَلَا يُكَلِّمُهُمُ ٱللَّهُ وَلَا يَنظُرُ إِلَيۡهِمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَلَا يُزَكِّيهِمۡ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 70
(77) रहे वे लोग जो अल्लाह के अह्द और अपनी क़समों को थोड़ी क़ीमत पर बेच हैं, तो उनके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा नहीं, अल्लाह क़ियामत के दिन न उनसे बात करेगा, न उनकी तरफ़ देखेगा और न उन्हें पाक करेगा,65 बल्कि उनके लिए तो बड़ी दर्दनाक सज़ा है।
65. वजह यह है कि ये लोग ऐसे-ऐसे सख़्त अख़लाक़ी जुर्म करने के बाद भी अपनी जगह यह समझते हैं कि क़ियामत के दिन बस यही लोग अल्लाह के क़रीबी बन्दे होंगे। इन्हीं पर अल्लाह मेहरबानी करेगा और जो थोड़ा-बहुत गुनाहों का मैल दुनिया में उनको लग गया है, वह भी बुज़ुर्गों की वजह से उनपर से धो डाला जाएगा, हक़ीक़त में वहाँ उनके साथ इसके बिलकुल उलटा मामला होगा।
وَإِنَّ مِنۡهُمۡ لَفَرِيقٗا يَلۡوُۥنَ أَلۡسِنَتَهُم بِٱلۡكِتَٰبِ لِتَحۡسَبُوهُ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَمَا هُوَ مِنَ ٱلۡكِتَٰبِ وَيَقُولُونَ هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَمَا هُوَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِۖ وَيَقُولُونَ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 71
(78) उनमें कुछ लोग ऐसे हैं जो किताब पढ़ते हुए इस तरह ज़बान का उलट-फेर करते हैं कि तुम समझो, जो कुछ वे पढ़ रहे हैं वह किताब ही की इबारत है, हालाँकि वह किताब की इबारत नहीं होती।66 वे कहते हैं कि यह जो कुछ हम पढ़ रहे हैं, यह ख़ुदा की तरफ़ से है, हालाँकि वह ख़ुदा की तरफ़ से नहीं होता। वे जान-बूझकर झूठ बात को अल्लाह से जोड़ देते हैं।
66. इसका मतलब हालाँकि यह भी हो सकता है कि वे अल्लाह की किताब के मानी में रद्दोबदल करते हैं या अल्फ़ाज़ का उलट-फेर करके कुछ-का-कुछ मतलब निकाल लेते हैं, लेकिन इसका अस्ल मतलब यह है कि वे किताब को पढ़ते हुए किसी ख़ास लफ़्ज़ या जुमले को जो उनके फ़ायदे और भलाई का हो या उनके ख़ुद के गढ़े हुए नज़रियों और अक़ीदों के ख़िलाफ़ पड़ता हो, ज़बान को हिलाकर, कुछ का कुछ बना देते हैं। इसकी मिसालें क़ुरआन को मानेवाले अहले-किताब में भी पाई जाती हैं। मिसाल के तौर पर कुछ लोग जो नबी के बशर यानी इनसान होने के इनकारी हैं, वे क़ुरआन की इस आयत— “क़ुल इन्नमा अना ब-श-रुम्-मिस्लुकुम” में ‘इन्नमा' को 'इन-न मा' पढ़ते हैं और इसका तर्जमा इस तरह करते हैं कि “ऐ नबी! कह दो कि बेशक, नहीं हूँ मैं इनसान तुम जैसा।”
مَا كَانَ لِبَشَرٍ أَن يُؤۡتِيَهُ ٱللَّهُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَ ثُمَّ يَقُولَ لِلنَّاسِ كُونُواْ عِبَادٗا لِّي مِن دُونِ ٱللَّهِ وَلَٰكِن كُونُواْ رَبَّٰنِيِّـۧنَ بِمَا كُنتُمۡ تُعَلِّمُونَ ٱلۡكِتَٰبَ وَبِمَا كُنتُمۡ تَدۡرُسُونَ ۝ 72
(79) किसी इनसान का यह काम नहीं है कि अल्लाह तो उसको किताब और पैग़म्बरी दे और वह लोगों से कहे कि अल्लाह के बजाय तुम मेरे बन्दे बन जाओ। वह तो यही कहेगा कि सच्चे रब्बानी67 बनो, जैसा कि उस किताब की तालीम का तक़ाज़ा है, जिसे तुम पढ़ते और पढ़ाते हो।
67. यहूदियों के यहाँ जो उलमा मज़हबी ओहदेदार होते थे और जिनका काम मज़हबी मामलों में लोगों की रहनुमाई करना और इबादतों को क़ायम करना और दीनी अहकाम को लागू करना होता था, उनके लिए लफ़्ज़ 'रब्बानी' इस्तेमाल किया जाता था, जैसा कि ख़ुद क़ुरआन में कहा गया है, “इनके रब्बानी और इनके उलमा इनको गुनाह की बातें करने और हराम के माल खाने से क्यों नहीं रोकते थे” (5:44) । इसी तरह ईसाइयों के यहाँ लफ़्ज़ डिवाइन (Divine) का मतलब भी वही है जो 'रब्बानी' शब्द का है।
وَلَا يَأۡمُرَكُمۡ أَن تَتَّخِذُواْ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ وَٱلنَّبِيِّـۧنَ أَرۡبَابًاۚ أَيَأۡمُرُكُم بِٱلۡكُفۡرِ بَعۡدَ إِذۡ أَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 73
(80) वह तुमसे हरगिज़ यह न कहेगा कि फ़रिश्तों को या पैग़म्बरों को अपना रब बना लो। क्या यह मुमकिन है कि एक नबी तुम्हें कुफ़्र (नाफ़रमानी) का हुक्म दे, जबकि तुम 'मुस्लिम' (ख़ुदा के फ़रमाँबरदार) हो?68
68. यह उन तमाम ग़लत बातों की एक जामे तरदीद (व्यापक खंडन) है जो दुनिया की बहुत-सी क़ौमों ने अल्लाह की तरफ़ से आए हुए पैग़म्बरों से जोड़कर अपनी मज़हबी किताबों में शामिल कर दी हैं और जिनके मुताबिक़ कोई पैग़म्बर या फ़रिश्ता किसी न किसी तरह 'ख़ुदा ' और माबूद (उपास्य) बना लिया जाता है। इन आयतों में यह आम क़ायदा और उसूल बताया गया है। कि ऐसी कोई तालीम, जो अल्लाह के सिवा किसी और की बन्दगी और इबादत सिखाती हो। और किसी बन्दे को बन्दगी की हद से बढ़ाकर 'ख़ुदा के मक़ाम’ तक ले जाती हो, हरगिज़ किसी पैग़म्बर की दी हुई तालीम नहीं हो सकती। जहाँ किसी मज़हबी किताब में यह चीज़ नज़र आए, समझ लो कि यह गुमराह करनेवाले लोगों की तहरीफ़ात (फेर-बदल) हैं।
وَإِذۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ لَمَآ ءَاتَيۡتُكُم مِّن كِتَٰبٖ وَحِكۡمَةٖ ثُمَّ جَآءَكُمۡ رَسُولٞ مُّصَدِّقٞ لِّمَا مَعَكُمۡ لَتُؤۡمِنُنَّ بِهِۦ وَلَتَنصُرُنَّهُۥۚ قَالَ ءَأَقۡرَرۡتُمۡ وَأَخَذۡتُمۡ عَلَىٰ ذَٰلِكُمۡ إِصۡرِيۖ قَالُوٓاْ أَقۡرَرۡنَاۚ قَالَ فَٱشۡهَدُواْ وَأَنَا۠ مَعَكُم مِّنَ ٱلشَّٰهِدِينَ ۝ 74
(81) याद करो, अल्लाह ने पैग़म्बरों से अह्द (वचन) लिया था कि “आज हमने किताब और हिकमत और समझ-बूझ दी है, कल अगर कोई दूसरा रसूल तुम्हारे पास तालीम की तसदीक़ (पुष्टि) करता हुआ आए, जो पहले से तुम्हारे पास मौजूद है, तुमको उसपर ईमान लाना होगा और उसकी मदद करनी होगी।69 यह बात कहकर पूछा, “ क्या तुम इसका इक़रार करते हो और इसपर मेरी तरफ़ से अह्द की भारी ज़िम्मेदारी उठाते हो? ” उन्होंने कहा, “ हाँ, हम इक़रार करते हैं।” अल्लाह ने फ़रमाया, “अच्छा तो गवाह रहो और में भी तुम्हारे साथ गवाह हूँ।
69. मतलब यह है कि हर पैग़म्बर से इस बात का वादा लिया जाता रहा है — और जो वादा पैग़म्बर से लिया गया हो वह लाज़िमी तौर पर उसकी पैरवी करनेवालों पर भी आप-से-आप लागू हो जाता है — कि जो नबी हमारी तरफ़ से उस दीन (धर्म) को लोगों तक पहुँचाने और उसे क़ायम करने के लिए भेजा जाए, जिसको पहुँचाने और क़ायम करने के काम पर तुम्हें मुक़र्रर किया गया है, उसका तुम्हें साथ देना होगा। उसके साथ तास्सुब (पक्षपात) न बरतना, अपने आपको दीन का ठेकेदार न समझना, हक़ की मुख़ालफ़त (विरोध) न करना, बल्कि जहाँ जो शख़्स भी हमारी तरफ़ से हक़ का झंडा ऊँचा करने के लिए उठाया जाए, उसके झंडे तले जमा हो जाना। यहाँ इतनी बात और समझ लेनी चाहिए कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) से पहले हर नबी से यही वादा लिया जाता रहा है और इसी बुनियाद पर हर नबी ने अपनी उम्मत (लोगों) को बाद के आनेवाले नबी की ख़बर दी है और उसका साथ देने का हुक्म दिया है। लेकिन न क़ुरआन में और न हदीस में, कहीं भी इस बात का पता नहीं चलता कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) से ऐसा कोई वादा लिया गया हो या आपने अपनी उम्मत को किसी बाद के आनेवाले नबी की ख़बर कर उसपर ईमान लाने का हुक्म दिया हो, बल्कि क़ुरआन में साफ़ तौर पर बताया गया है कि नयी (सल्ल०) 'खातमुन्नबीयीन' (आख़िरी नबी) हैं और बहुत-सी हदीसों में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है कि “मेरे बाद कोई नबी आनेवाला नहीं है।”
فَمَن تَوَلَّىٰ بَعۡدَ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 75
(82) इसके बाद जो अपने अह्द से फिर जाए वही फ़ासिक़ (नाफ़रमान) है।"70
70. यह बात कहने का मक़सद किताबवालों को ख़बरदार करना है कि तुम अल्लाह के अह्द (वचन) को तोड़ रहे हो, मुहम्मद (सल्ल०) का इनकार और उनकी मुख़ालफ़त करके उस वादे को तोड़ रहे हो जो तुम्हारे नबियों से लिया गया था, इसलिए अब तुम नाफ़रमान हो चुके हो, यानी अल्लाह की फ़रमाँबरदारी से निकल गए हो।
أَفَغَيۡرَ دِينِ ٱللَّهِ يَبۡغُونَ وَلَهُۥٓ أَسۡلَمَ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ طَوۡعٗا وَكَرۡهٗا وَإِلَيۡهِ يُرۡجَعُونَ ۝ 76
(83) अब क्या ये लोग अल्लाह की फ़रमाँबरदारी का तरीक़ा (यानी अल्लाह का दीन) छोड़कर कोई और तरीक़ा चाहते हैं? हालाँकि आसमानों और ज़मीन की सारी चीज़ें चाहे-अनचाहे अल्लाह ही की फ़रमाँबरदार (मुस्लिम) हैं।71 और उसी की तरफ़ सबको पलटना है।
71. यानी पूरी कायनात और कायनात की हर चीज़ का दीन (धर्म) तो यही इस्लाम यानी अल्लाह की फ़रमाँबरदारी और उसकी बन्दगी है। अब तुम इस कायनात के अन्दर रहते हुए इस्लाम को छोड़कर ज़िन्दगी गुजारने का और कौन-सा तरीक़ा तलाश कर रहे हो?
قُلۡ ءَامَنَّا بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ عَلَيۡنَا وَمَآ أُنزِلَ عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡمَٰعِيلَ وَإِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَ وَٱلۡأَسۡبَاطِ وَمَآ أُوتِيَ مُوسَىٰ وَعِيسَىٰ وَٱلنَّبِيُّونَ مِن رَّبِّهِمۡ لَا نُفَرِّقُ بَيۡنَ أَحَدٖ مِّنۡهُمۡ وَنَحۡنُ لَهُۥ مُسۡلِمُونَ ۝ 77
(84) ऐ नबी! कहो कि, “हम अल्लाह को मानते हैं, उस तालीम को मानते हैं जो हमपर उतारी गई है, उन तालीमात को भी मानते हैं जो इबराहीम, इसमाईल, इसहाक़, याक़ूब और याक़ूब की औलाद पर उतरी थीं और उन हिदायतों पर भी ईमान रखते हैं जो मूसा और ईसा और दूसरे पैग़म्बरों को उनके रब की तरफ़ से दी गईं। हम उनके के बीच फ़र्क़ नहीं करते72, और हम अल्लाह के फ़रमाँबरदार (मुस्लिम) हैं।”
72. यानी हमारा तरीक़ा यह नहीं है कि हम किसी नबी को मानें और किसी को न मानें, किसी को झूठा कहें और किसी को सच्चा। हम भेदभाव और जाहिलाना तास्सुब (पक्षपात) से पाक हैं। दुनिया में जो भी अल्लाह का बन्दा जहाँ कहीं भी अल्लाह की तरफ़ से हक़ लेकर आया है, हम उसके हक़ पर होने की गवाही देते हैं।
وَمَن يَبۡتَغِ غَيۡرَ ٱلۡإِسۡلَٰمِ دِينٗا فَلَن يُقۡبَلَ مِنۡهُ وَهُوَ فِي ٱلۡأٓخِرَةِ مِنَ ٱلۡخَٰسِرِينَ ۝ 78
(85) इस फ़रमाँबरदारी (इस्लाम) के सिवा जो शख़्स कोई और तरीक़ा अपनाना चाहे उसका वह तरीक़ा हरगिज़ क़ुबूल न किया जाएगा और आख़िरत में वह नाकाम और नामुराद रहेगा।
كَيۡفَ يَهۡدِي ٱللَّهُ قَوۡمٗا كَفَرُواْ بَعۡدَ إِيمَٰنِهِمۡ وَشَهِدُوٓاْ أَنَّ ٱلرَّسُولَ حَقّٞ وَجَآءَهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 79
(86) कैसे हो सकता है कि अल्लाह उन लोगों को हिदायत दे जिन्होंने ईमान की नेमत पा लेने के बाद फिर कुफ़्र (इनकार) इख़्तियार किया, हालाँकि वे ख़ुद इस बात पर गवाही दे चुके हैं कि यह रसूल हक़ पर है और उनके पास रौशन निशानियाँ भी आ चुकी हैं।73 अल्लाह ज़ालिमों को तो हिदायत नहीं दिया करता।
73. यहाँ फिर उसी बात को दोहराया गया है जो इससे पहले बार-बार बयान की जा चुकी है कि नबी (सल्ल०) के ज़माने में अरब के यहूदी उलमा जान चुके थे और उनकी ज़बानों तक से इस बात की गवाही मिल चुकी थी कि मुहम्मद (सल्ल०) सच्चे नबी हैं और जो तालीम आप लाए हैं, वह वही तालीम है जो पिछले नबी लाते रहे हैं। इसके बाद इन यहूदी उलमा ने जो कुछ किया वह सिर्फ़ तास्सुब (पक्षपात), ज़िद और हक़ से दुश्मनी की उस पुरानी आदत का नतीजा था जिसके वे सदियों से मुजरिम चले आ रहे थे।
أُوْلَٰٓئِكَ جَزَآؤُهُمۡ أَنَّ عَلَيۡهِمۡ لَعۡنَةَ ٱللَّهِ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ وَٱلنَّاسِ أَجۡمَعِينَ ۝ 80
(87) उनके ज़ुल्म का सही बदला यही है कि उनपर अल्लाह और फ़रिश्तों और तमाम इनसानों की फिटकार है,
خَٰلِدِينَ فِيهَا لَا يُخَفَّفُ عَنۡهُمُ ٱلۡعَذَابُ وَلَا هُمۡ يُنظَرُونَ ۝ 81
(88) इसी हालत में वे हमेशा रहेंगे, न उनकी सज़ा में कमी होगी और न उन्हें मुहलत जाएगी।
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُواْ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ وَأَصۡلَحُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 82
(89) अलबत्ता, वे लोग बच जाएँगे जो इसके बाद तौबा करके अपने रवैये सुधार कर लें, अल्लाह बख़्शनेवाला और रहम करनेवाला है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بَعۡدَ إِيمَٰنِهِمۡ ثُمَّ ٱزۡدَادُواْ كُفۡرٗا لَّن تُقۡبَلَ تَوۡبَتُهُمۡ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلضَّآلُّونَ ۝ 83
(90) मगर जिन लोगों नें ईमान लाने के बाद कुफ़्र (इनकार) इख़्तियार किया, फिर अपने कुफ़्र में बढ़ते चले गए,74 उनकी तौबा भी क़ुबूल न होगी, ऐसे लोग तो पक्के गुमराह हैं।
74. यानी सिर्फ़ इनकार ही पर बस न किया, बल्कि अमली तौर पर मुख़ालफ़त की और रुकावटें भी खड़ी कीं। लोगों को ख़ुदा के रास्ते से रोकने की कोशिश में एड़ी-चोटी तक का ज़ोर लगाया, लोगों के अन्दर शक और शुब्हााात पैदा किए और बदगुमानियाँ फैलाईं, दिलों में वसवसे डाले और बुरी-से-बुरी साज़िशें रचीं और शरारतें कीं, ताकि नबी का मिशन किसी तरह कामयाब न होने पाए।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَمَاتُواْ وَهُمۡ كُفَّارٞ فَلَن يُقۡبَلَ مِنۡ أَحَدِهِم مِّلۡءُ ٱلۡأَرۡضِ ذَهَبٗا وَلَوِ ٱفۡتَدَىٰ بِهِۦٓۗ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ وَمَا لَهُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 84
(91) यक़ीन रखो, जिन लोगों ने कुफ़्र इख़्तियार किया और कुफ़्र ही की हालत में जान दी, उनमें से कोई अगर अपने आपको सज़ा से बचाने के लिए धरती भरकर भी सोना बदले में दे तो उसे क़ुबूल न किया जाएगा। ऐसे लोगों के लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है, और वे अपना कोई मददगार न पाएँगे।
لَن تَنَالُواْ ٱلۡبِرَّ حَتَّىٰ تُنفِقُواْ مِمَّا تُحِبُّونَۚ وَمَا تُنفِقُواْ مِن شَيۡءٖ فَإِنَّ ٱللَّهَ بِهِۦ عَلِيمٞ ۝ 85
(92) तुम नेकी को नहीं पहुँच सकते जब तक कि अपनी वे चीज़ें (ख़ुदा की राह में) ख़र्च न करो जिन्हें तुम अज़ीज़ (प्रिय) रखते हो,75 और जो कुछ तुम ख़र्च करोगे अल्लाह उससे बेख़बर न होगा।
75. इसका मक़सद उनकी उस ग़लतफ़हमी को दूर करना है जो वे 'नेकी’ के बारे में रखते थे। उनके दिमाग़ों में नेकी का ऊँचे से ऊँचा तसव्वुर बस यह था कि सदियों की विरासत से “शरीअत की पाबन्दी” की जो एक ख़ास ज़ाहिरी शक्ल उनके यहाँ बन गई थी, उसका पूरा चर्बा आदमी अपनी ज़िन्दगी में उतार ले। और उनके उलमा की क़ानून में बाल की खाल निकालने की आदत से जो एक लम्बा-चौड़ा फ़िक़ही (मज़हबी) निज़ाम बन गया था उसके मुताबिक़ रात-दिन ज़िन्दगी के छोटे-छोटे, ज़िम्नी व फ़ुरूई (गौण एवं अप्रधान) मामलों की नाप-तौल आदमी करता रहे। शरीअत की पाबन्दी की ऊपरी सतह के नीचे आम तौर से यहूदियों के बड़े-बड़े 'दीनदार' लोग तंगदिली, लोभ-लालच, कंजूसी, हक़ को छिपाने और उसे बेचने जैसे ऐबों को छिपाए हुए थे और आम लोग उनको नेक समझते थे। इसी ग़लतफ़हमी को दूर करने के लिए उन्हें बताया जा रहा है कि 'नेक इनसान' होने का मक़ाम उन चीज़ों से ऊपर है जिनको तुमने भलाई और नेकी की कसौटी समझ रखा है। नेकी की अस्ल रूह ख़ुदा की मुहब्बत है, ऐसी मुहब्बत कि अल्लाह को राज़ी करने के मुक़ाबले में दुनिया की कोई चीज़ ज़्यादा महबूब न हो। जिस चीज़ की मुहब्बत भी इनसान के दिल पर इतनी छा जाए कि वह उसे अल्लाह की मुहब्बत पर क़ुर्बान न कर सकता हो, बस वह उसका बुत और माबूद (पूज्य प्रभू) है और जब तक उस बुत को आदमी तोड़ न दे, नेकी के दरवाज़े उसपर बन्द हैं। इस रूह से ख़ाली होने के बाद ज़ाहिरी शरीअत की पाबन्दी व दीनदारी की हैसियत सिर्फ़ उस चमकदार रंग-रोग़न की-सी है जो घुन खाई हुई लकड़ी पर फेर दिया गया हो। इनसान ऐसे रंग-रोग़नों से धोखा खा सकते हैं, मगर अल्लाह नहीं खा सकता।
۞كُلُّ ٱلطَّعَامِ كَانَ حِلّٗا لِّبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِلَّا مَا حَرَّمَ إِسۡرَٰٓءِيلُ عَلَىٰ نَفۡسِهِۦ مِن قَبۡلِ أَن تُنَزَّلَ ٱلتَّوۡرَىٰةُۚ قُلۡ فَأۡتُواْ بِٱلتَّوۡرَىٰةِ فَٱتۡلُوهَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 86
(93) खाने की ये सारी चीज़ें (जो मुहम्मद की शरीअत में हलाल हैं) बनी- इसराईल के लिए भी हलाल थीं,76 अलबत्ता कुछ चीज़ें ऐसी थीं जिन्हें तौरात के उतारे जाने से पहले77 इसराईल (याक़ूब) ने ख़ुद अपने लिए हराम कर लिया था। उनसे कहो, अगर तुम (अपने एतिराज़ में) सच्चे हो तो लाओ तौरात और पेश करो उसकी कोई इबारत (अनुलेख)
76. क़ुरआन और मुहम्मद (सल्ल०) की तालीमात पर जब यहूदियों के उलमा कोई उसूली एतिराज़ न कर सके (क्योंकि दीन की बुनियाद जिन बातों पर है उनमें पिछले नबियों की तालीम और हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की तालीम में बाल बराबर भी फ़र्क़ न था) तो उन्होंने फ़िक़ही (कर्मकांड से सम्बन्धित) एतिराज़ शुरू किए। इस सिलसिले में उनका पहला एतिराज़ यह था कि आपने खाने-पीने की कुछ ऐसी चीज़ों को हलाल कर दिया है जो पिछले नबियों के ज़माने से हराम चली आ रही हैं। इसी एतिराज़ का जवाब यहाँ दिया जा रहा है। [इसी तरह एक एतिराज़ उनका यह भी था कि बैतुल-मक़दिस को छोड़कर ख़ाना-काबा को क़िबला (उपासना-दिशा) क्यों बनाया गया। बाद की आयतें इसी एतिराज़ के जवाब में हैं।]
77. 'इसराईल' से मुराद अगर बनी-इसराईल लिए जाएँ तो मतलब यह होगा कि तौरात के उतरने से पहले कुछ चीज़ें बनी-इसराईल ने सिर्फ़ रस्मी तौर पर हराम ठहरा ली थीं। और अगर इसराईल से मुराद हज़रत याक़ूब (अलैहि०) लिए जाएँ तो इसका मतलब यह होगा कि याक़ूब (अलैहि०) ने अपनी किसी बीमारी या तबीअत को पसन्द न आने की वजह से कुछ चीज़ों को खाने से परहेज़ किया था और उनकी औलाद ने बाद में उन चीज़ों को अल्लाह की तरफ़ से मना किया हुआ समझ लिया। यही बाद की बात ज़्यादा मशहूर है और आगे आनेवाली आयत से यह बात साफ़ ज़ाहिर होती है कि ऊँट और ख़रगोश वग़ैरा के हराम किए जाने का जो हुक्म बाइबल में लिखा है वह अस्ल तौरात का हुक्म नहीं है, बल्कि यहूदी उलमा ने बाद में इसे किताब में दाख़िल कर दिया है। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए सूरा-6, अनआम, हाशिया नं॰ 122)
فَمَنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ مِنۢ بَعۡدِ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلظَّٰلِمُونَ ۝ 87
(94 ) इसके बाद भी जो लोग अपनी झूठी गढ़ी हुई बाते अल्लाह से जोड़ते रहे, वही अस्ल में ज़ालिम हैं।
قُلۡ صَدَقَ ٱللَّهُۗ فَٱتَّبِعُواْ مِلَّةَ إِبۡرَٰهِيمَ حَنِيفٗاۖ وَمَا كَانَ مِنَ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 88
(95) कहो, अल्लाह ने जो कुछ कहा है, सच कहा है। तुमको यकसू होकर इबराहीम के तरीक़े की पैरवी करनी चाहिए, और इबराहीम शिर्क करनेवालों में से न था।78
78. मतलब यह है कि इन छोटी-छोटी फ़िक़ही (धर्मशास्त्रीय) बातों में कहाँ जा फँसे हो। दीन की जड़ (मूल) तो एक अल्लाह की बन्दगी है, जिसे तुमने छोड़ दिया और शिर्क की गन्दगियों में फँस गए। अब फ़िक़ही और क़ानूनी मसलों में बहस करते हो, हालाँकि ये वे मसले हैं जो इबराहीम (अलैहि०) के अस्ल रास्ते से हट जाने के बाद गिरावट की लम्बी सदियों में तुम्हारे उलमा के बाल की खाल निकालने के रवैए से पैदा हुए हैं।
إِنَّ أَوَّلَ بَيۡتٖ وُضِعَ لِلنَّاسِ لَلَّذِي بِبَكَّةَ مُبَارَكٗا وَهُدٗى لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 89
(96) बेशक सबसे पहली इबादतगाह, जो इनसानों के लिए बनाई गई, वह वही है जो मक्का में है। उसको भलाई और बरकत दी गई थी और तमाम जहानवालों के लिए हिदायत का मर्कज़ (केन्द्र) बनाया गया था।79
79. यहूदियों का दूसरा एतिराज़ यह था कि तुमने बैतुल-मक़दिस को छोड़कर काबा को क़िबला क्यों बनाया, हालाँकि पिछले नबियों का क़िबला बैतुल-मक़्दिस ही था। इसका जवाब सूरा-2 अल-बक़रा, आयत-142 में दिया जा चुका है। लेकिन यहूदी इसके बाद भी अपने एतिराज़ पर अड़े रहे। इसलिए यहाँ फिर इसका जवाब दिया गया है। बैतुल-मक़दिस के बारे में ख़ुद बाइबल में मौजूद है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के साढ़े चार सौ साल बाद हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ने उसकी तामीर (निर्माण) की (1-राजा, 6:1)। और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) ही के ज़माने में वह एक ख़ुदा को माननेवालों का क़िबला क़रार दिया गया (1-राजा, 8:29,30)। इसके बरख़िलाफ़ अरब की लगभग सभी किताबें और रिवायतें इस बात पर सहमत हैं कि काबा को हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने तामीर किया और वह हज़रत मूसा (अलैहि०) से आठ-नौ सौ साल पहले गुज़रे हैं। इसलिए काबा का पहले होना एक ऐसी हक़ीक़त है जिसमें किसी एतिराज़ की गुजाइश नहीं।
فِيهِ ءَايَٰتُۢ بَيِّنَٰتٞ مَّقَامُ إِبۡرَٰهِيمَۖ وَمَن دَخَلَهُۥ كَانَ ءَامِنٗاۗ وَلِلَّهِ عَلَى ٱلنَّاسِ حِجُّ ٱلۡبَيۡتِ مَنِ ٱسۡتَطَاعَ إِلَيۡهِ سَبِيلٗاۚ وَمَن كَفَرَ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَنِيٌّ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 90
(97) उसमें खुली हुई निशानियाँ हैं,80 इबराहीम की इबादत की जगह है, और उसका हाल यह है कि जो उसमें दाख़िल हुआ महफ़ूज़ (सुरक्षित) हो गया।81 लोगों पर अल्लाह का यह हक़ है कि जो उस घर तक पहुँचने की ताक़त रखता हो, वह उसका हज करे, और जो कोई इस हुक्म की पैरवी से इनकार करे तो उसे मालूम हो जाना चाहिए कि अल्लाह तमाम दुनियावालों से बेनियाज़ है।
80. यानी उस घर में ऐसी खुली निशानियाँ पाई जाती हैं जिनसे साबित होता है कि वह अल्लाह के यहाँ क़ुबूल हो चुका है और उसे अल्लाह ने अपने घर की हैसियत से पसन्द कर लिया है। यह काबा पहले तो वीरान और चटियल मैदान में बनाया गया और फिर अल्लाह ने इसके आस-पास रहनेवाले लोगों को रोज़ी (आजीविका) पहुँचाने का बेहतरीन इन्तिज़ाम कर दिया। ढाई हज़ार साल तक जाहिलियत की वजह से सारा अरब देश घोर बेअमनी (अशान्ति) की हालत में पड़ा रहा, लेकिन इस फ़साद से भरी ज़मीन पर काबा और काबा के आस-पास का ही एक इलाक़ा ऐसा था जिसमें अमन क़ायम रहा, बल्कि इसी काबा की यह बरकत थी कि साल भर में चार महीने के लिए पूरे मुल्क को इसकी वजह से अमन नसीब हो जाता था। फिर अभी आधी सदी पहले ही सब देख चुके थे कि अबरहा ने जब काबा को ढाने के लिए मक्का पर हमला किया तो उसकी फ़ौज किस तरह अल्लाह के ग़ुस्से और अज़ाब की शिकार हुई। इस वाक़िए को उस वक़्त अरब का बच्चा-बच्चा जानता था और इसके चश्मदीद गवाह इन आयतों के उतरने के वक़्त मौजूद थे।
81. जाहिलियत (इस्लाम से पहले) के अंधेरे दौर में भी उस घर का यह एहतिराम था कि ख़ून के प्यासे दुश्मन एक-दूसरे को वहाँ देखते थे, लेकिन उनमें एक-दूसरे पर हाथ डालने की हिम्मत न होती थी।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَٱللَّهُ شَهِيدٌ عَلَىٰ مَا تَعۡمَلُونَ ۝ 91
(98) कहो, ऐ किताबवालो! तुम क्यों अल्लाह की बातें मानने से इनकार करते हो? जो हरकतें तुम कर रहे हो, अल्लाह सब कुछ देख रहा है।
قُلۡ يَٰٓأَهۡلَ ٱلۡكِتَٰبِ لِمَ تَصُدُّونَ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ مَنۡ ءَامَنَ تَبۡغُونَهَا عِوَجٗا وَأَنتُمۡ شُهَدَآءُۗ وَمَا ٱللَّهُ بِغَٰفِلٍ عَمَّا تَعۡمَلُونَ ۝ 92
(99) कहो, ऐ किताबवालो! यह तुम्हारा क्या रवैया है कि जो अल्लाह की बात मानता है उसे भी तुम अल्लाह के रास्ते से रोकते हो और चाहते हो कि वह टेढ़ी राह चले, हालाँकि तुम ख़ुद (उसके सीधे रास्ते पर होने पर) गवाह हो। तुम्हारी हरकतों से अल्लाह बेख़बर नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تُطِيعُواْ فَرِيقٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ يَرُدُّوكُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 93
(100) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अगर तुमने इन किताबवालों में से एक गरोह की बात मानी तो ये तुम्हें ईमान से फिर कुफ़्र (इनकार) की तरफ़ फेर ले जाएँगे।
وَكَيۡفَ تَكۡفُرُونَ وَأَنتُمۡ تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ وَفِيكُمۡ رَسُولُهُۥۗ وَمَن يَعۡتَصِم بِٱللَّهِ فَقَدۡ هُدِيَ إِلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 94
(101) तुम्हारे लिए कुफ़्र की ओर जाने का अब क्या मौक़ा बाक़ी है, जबकि तुमको अल्लाह की आयतें सुनाई जा रही हैं और तुम्हारे बीच में उसका रसूल मौजूद है? जो अल्लाह का दामन मज़बूती के साथ थामेगा, वह ज़रूर सीधा रास्ता पा लेगा।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱتَّقُواْ ٱللَّهَ حَقَّ تُقَاتِهِۦ وَلَا تَمُوتُنَّ إِلَّا وَأَنتُم مُّسۡلِمُونَ ۝ 95
(102) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह से डरो जैसा कि उससे डरने का हक़ है। तुमको मौत न आए मगर इस हाल में कि तुम मुस्लिम (फ़रमाँबरदार) हो।82
82. यानी मरते दम तक अल्लाह की फ़रमाँबरदारी और वफ़ादारी पर क़ायम रहो।
وَٱعۡتَصِمُواْ بِحَبۡلِ ٱللَّهِ جَمِيعٗا وَلَا تَفَرَّقُواْۚ وَٱذۡكُرُواْ نِعۡمَتَ ٱللَّهِ عَلَيۡكُمۡ إِذۡ كُنتُمۡ أَعۡدَآءٗ فَأَلَّفَ بَيۡنَ قُلُوبِكُمۡ فَأَصۡبَحۡتُم بِنِعۡمَتِهِۦٓ إِخۡوَٰنٗا وَكُنتُمۡ عَلَىٰ شَفَا حُفۡرَةٖ مِّنَ ٱلنَّارِ فَأَنقَذَكُم مِّنۡهَاۗ كَذَٰلِكَ يُبَيِّنُ ٱللَّهُ لَكُمۡ ءَايَٰتِهِۦ لَعَلَّكُمۡ تَهۡتَدُونَ ۝ 96
(103) सब मिलकर अल्लाह की रस्सी83 को मज़बूत पकड़ लो और तफ़रिक़े (फूट) में न पड़ो। अल्लाह के उस एहसान को याद रखो जो उसने तुमपर किया है। एक-दूसरे के दुश्मन थे, उसने तुम्हारे दिल जोड़ दिए और उसकी मेहरबानी और फ़्ज़्ल से तुम भाई-भाई बन गए। तुम आग से भरे हुए एक गढ़े के किनारे खड़े थे, अल्लाह ने तुमको उससे बचा लिया।84 इस तरह अल्लाह अपनी निशानियाँ तुम्हारे सामने रौशन करता उतरी हैं, शायद कि इन निशानियों से तुम्हें अपनी कामयाबी का सीधा रास्ता नज़र आ जाए।85
83. अल्लाह की रस्सी से मुराद उसका दीन (धर्म) है और दीन को रस्सी इसलिए कहा गया है कि यही वह रिश्ता है जो एक तरफ़ ईमानवालों का ताल्लुक़ अल्लाह से क़ायम करता है और दूसरी तरफ़ तमाम ईमान लानेवालों को आपस में मिलाकर एक जमाअत बनाता है। इस रस्सी को 'मज़बूत पकड़ने' का मतलब यह है कि मुसलमानों की निगाह में अस्ल अहमियत ‘दीन' की है। इसी से उनको दिलचस्पी हो, इसी को क़ायम करने की वे कोशिशें करते रहें और इसी की ख़िदमत के लिए आपस में मदद (सहयोग) करते रहें। जहाँ दीन की अस्ल और बुनियादी तालीम (शिक्षाओं) और उसकी इक़ामत (स्थापना) के नस्बुलऐन (लक्ष्य) से मुसलमान हटे और उनकी तवज्जोह (ध्यान) और दिलचस्पियाँ छोटी-छोटी और बेकार की बातों की तरफ़ फिरीं, फिर लाज़िमी तौर पर नतीजा यह होगा कि उनमें आपस में उसी तरह की फूट और इख़्तिलाफ़ पैदा हो जाएगा जिस तरह उनसे पहले के नबियों की उम्मतों में हुआ और वे ज़िन्दगी के अस्ल मक़सद को भुलाकर दुनिया और आख़िरत की रुसवाई में पड़कर रहे।
84. यह इशारा है उस हालत की तरफ़ जिसमें इस्लाम से पहले अरब के लोग पड़े हुए थे। क़बीलों की आपसी रंजिशें और दुश्मनियाँ, बात-बात पर उनकी लड़ाइयाँ और रात-दिन के ख़ून-खराबों की वजह से क़रीब था कि पूरी अरब-क़ौम तबाह और बरबाद हो जाती। इस आग में जल-मरने से अगर किसी चीज़ ने उन्हें बचाया तो वह यही इस्लाम की नेमत थी। ये आयतें जिस वक़्त उतरीं उससे तीन-चार साल पहले ही मदीना के लोग मुसलमान हुए थे और इस्लाम की इस जीती-जागती नेमत को सब देख रहे थे कि औस और ख़ज़रज के वे क़बीले, जो सालहा-साल से एक-दूसरे के ख़ून के प्यासे थे, वे आपस में घुल-मिलकर एक हो चुके थे और इन दोनों क़बीलों के लोग मक्का से आनेवाले मुहाजिरों के साथ क़ुरबानी और मुहब्बत का ऐसा बेमिसाल बर्ताव कर रहे थे जो एक ख़ानदान के लोग भी आपस में नहीं करते।
85. यानी अगर तुम आँखें रखते हो तो इन निशानियों को देखकर ख़ुद अन्दाज़ा कर सकते हो कि क्या तुम्हारी क़ामयाबी इस दीन को मज़बूती से थामने में है या इसे छोड़कर फिर उसी हालत की तरफ़ पलट जाने में जिसमें तुम पहले से पड़े हुए थे? क्या तुम्हारा अस्ल भलाई चाहनेवाला अल्लाह और उसका रसूल है या वे यहूदी और मुशरिक और मुनाफ़िक़ लोग जो तुमको पिछली हालत की तरफ़ पलटा ले जाने की कोशिश कर रहे हैं?
وَلۡتَكُن مِّنكُمۡ أُمَّةٞ يَدۡعُونَ إِلَى ٱلۡخَيۡرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 97
(104) तुममें कुछ लोग तो ऐसे ज़रूर ही रहने चाहिएँ जो नेकी की तरफ़ बुलाएँ, भलाई का हुक्म दें और बुराइयों से रोकते रहें। जो लोग यह काम करेंगे, वही कामयाब होंगे।
وَلَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ تَفَرَّقُواْ وَٱخۡتَلَفُواْ مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡبَيِّنَٰتُۚ وَأُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٞ ۝ 98
(105) कहीं तुम उन लोगों की तरह न हो जाना जो फ़िरक़ों और गरोहों में बँट गए और खुली-खुली साफ़ हिदायतें पाने के बाद फिर इख़्तिलाफ़ात (विभेदों) में पड़ गए।86 जिन्होंने यह रवैया अपनाया वे उस दिन सख़्त सज़ा पाएँगे,
86. यह इशारा उन उम्मतों की तरफ़ है जिन्होंने ख़ुदा के पैग़म्बरों से दीने-हक़ की साफ़ और सीधी तालीमात पाईं, मगर कुछ मुद्दत गुज़र जाने के बाद दीन की बुनियाद को छोड़ दिया और ग़ैर-मुताल्लिक़ ज़िम्नी और फ़ुरूई (गौण एवं अप्रधान) मसाइल की बुनियाद पर अलग-अलग फ़िरक़े बनाने शुरू कर दिए, फिर फ़ुज़ूल और बेमतलब बातों पर झगड़ने में ऐसे मशग़ूल हुए कि न उन्हें उस काम का होश रहा जो अल्लाह ने उनके सिपुर्द किया था और न अक़ीदे और अख़लाक़ के उन बुनियादी उसूलों से कोई दिलचस्पी रही जिनपर हक़ीक़त में इनसान की कामयाबी और ख़ुशक़िस्मती का दोरोमदार है।
يَوۡمَ تَبۡيَضُّ وُجُوهٞ وَتَسۡوَدُّ وُجُوهٞۚ فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱسۡوَدَّتۡ وُجُوهُهُمۡ أَكَفَرۡتُم بَعۡدَ إِيمَٰنِكُمۡ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 99
(106) जबकि कुछ लोग क़ामयाब होंगे और कुछ लोगों का मुँह काला होगा। जिनका मुँह काला होगा (उनसे कहा जाएगा कि) ईमान की नेमत पाने के बाद भी तुमने कुफ़्र (नाशुक्री) का रवैया अपनाया? अच्छा, तो अब नेमत के इस कुफ़्र के बदले में अज़ाब का मज़ा चखो।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ ٱبۡيَضَّتۡ وُجُوهُهُمۡ فَفِي رَحۡمَةِ ٱللَّهِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 100
(107) रहे वे लोग जिनके चेहरे रौशन होंगे, तो उनको अल्लाह की रहमत की छाया में जगह मिलेगी और हमेशा वे इसी हालत में रहेंगे।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۗ وَمَا ٱللَّهُ يُرِيدُ ظُلۡمٗا لِّلۡعَٰلَمِينَ ۝ 101
(108) ये अल्लाह की बातें हैं जो हम तुम्हें ठीक-ठीक सुना रहे हैं, क्योंकि अल्लाह दुनियावालों पर ज़ुल्म करने का कोई इरादा नहीं रखता।87
87. यानी चूँकि अल्लाह दुनियावालों पर ज़ुल्म करना नहीं चाहता, इसलिए वह उनको सीधा रास्ता भी बता रहा है और इस बात से भी उन्हें वक़्त से पहले आगाह किए देता है कि आख़िरकार वह किन बातों पर उनसे पूछताछ करनेवाला है। इसके बाद भी जो लोग टेढ़ी राह अपनाएँ और अपने ग़लत कामों से बाज़ न आएँ, तो वे अपने ऊपर ख़ुद ज़ुल्म करेंगे।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ وَإِلَى ٱللَّهِ تُرۡجَعُ ٱلۡأُمُورُ ۝ 102
(109 ) ज़मीन और आसमानों की सारी चीज़ों का मालिक अल्लाह है और सारे मामले अल्लाह ही के सामने पेश होते हैं।
كُنتُمۡ خَيۡرَ أُمَّةٍ أُخۡرِجَتۡ لِلنَّاسِ تَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَتَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِۗ وَلَوۡ ءَامَنَ أَهۡلُ ٱلۡكِتَٰبِ لَكَانَ خَيۡرٗا لَّهُمۚ مِّنۡهُمُ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ وَأَكۡثَرُهُمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 103
(110) अब दुनिया में वह बेहतरीन गरोह तुम हो जिसे इनसानों की रहनुमाई और सुधार के लिए मैदान में लाया गया है।88 तुम नेकी का हुक्म देते हो, बुराई से रोकते हो और अल्लाह पर इमान रखते हो। ये किताबवाले89 ईमान लाते तो इन्हीं के हक़ में अच्छा था। हालाँकि इनमें कुछ लोग ईमानवाले भी पाए जाते है, मगर इनके ज़्यादातर लोग नाफ़रमान है।
88. यह वही मज़मून (विषय) है जो सूरा-2, अल-बक़रा के 17 वें रुकू [आयत-142 से 147] में बयान हो चुका है। अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को बताया जा रहा है कि दुनिया की इमामत (नेतृत्व) और रहनुमाई के जिस पद से बनी-इसराईल क़ाबलियत खो देने की वजह से हटाए जा चुके हैं, उसपर अब तुमको बिठाया गया है। इसलिए कि किरदार और अख़लाक़ के लिहाज से अब तुम दुनिया में सबसे बेहतर इनसानी गरोह बन गए हो और तुममें वह सिफ़ात (गुण) पैदा हो गई हैं जो इमामते-अदलिया (न्याय पर आधारित नेतृत्व) के लिए ज़रूरी हैं, नेकी को क़ायम करने, बुराई को मिटाने का ज़ज्बा और अमल और एक अल्लाह जिसका कोई शरीक नहीं, को अक़ीदे के तौर पर और अमली तौर पर अपना इलाह (पूज्य प्रभु) और रब तसलीम करना। इसलिए अब यह काम तुम्हारे सिपुर्द किया गया है और तुम्हारे लिए जरूरी है कि अपनी ज़िम्मेदारियों को समझो और उन ग़लतियों से बचो जो तुमसे पहले के लोग कर चुके हैं। (देखिए सूरा-2, अल-बक़रा, हाशिया, 123 और 144)
89. यहाँ किताबवालों से मुराद बनी-इसराईल हैं।
لَن يَضُرُّوكُمۡ إِلَّآ أَذٗىۖ وَإِن يُقَٰتِلُوكُمۡ يُوَلُّوكُمُ ٱلۡأَدۡبَارَ ثُمَّ لَا يُنصَرُونَ ۝ 104
(111) ये तुम्हारा कुछ बिगाड़ नहीं सकते, ज़्यादा-से-ज़्यादा बस कुछ सता सकते हैं। अगर ये तुमसे लड़ेंगे तो मुक़ाबले में पीठ दिखाएँगे, फिर ऐसे बेबस होंगे कि कहीं से इनको मदद न मिलेगी।
ضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلذِّلَّةُ أَيۡنَ مَا ثُقِفُوٓاْ إِلَّا بِحَبۡلٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَحَبۡلٖ مِّنَ ٱلنَّاسِ وَبَآءُو بِغَضَبٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَضُرِبَتۡ عَلَيۡهِمُ ٱلۡمَسۡكَنَةُۚ ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ كَانُواْ يَكۡفُرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَيَقۡتُلُونَ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖۚ ذَٰلِكَ بِمَا عَصَواْ وَّكَانُواْ يَعۡتَدُونَ ۝ 105
(112) ये जहाँ भी पाए गए इनपर ज़िल्लत की मार ही पड़ी। कहीं अल्लाह के ज़िम्मे या इनसानों के ज़िम्मे में पनाह मिल गई तो यह और बात है।90 ये अल्लाह के ग़ज़ब में घिर चुके हैं, इनपर मुहताजी और मग़लूबी (पराजय) मुसल्लत कर दी गई है और यह सब कुछ सिर्फ़ इस वजह से हुआ है कि ये अल्लाह की आयतों से इनकार करते रहे और इन्होंने पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल किया। यह इनकी नाफ़रमानियों और ज़्यादतियों का अंजाम है।
90. यानी दुनिया में अगर कहीं उनको थोड़ा-बहुत अमन-चैन नसीब भी हुआ है तो वह उनके अपने बलबूते पर क़ायम किया हुआ नहीं है, बल्कि दूसरों की हिमायत और मेहरबानी का नतीजा है। कहीं किसी मुस्लिम हुकूमत ने उनको अल्लाह के नाम पर अमान दे दी और कहीं किसी ग़ैर-मुस्लिम हुकूमत ने अपने तौर पर उन्हें अपनी हिमायत (शरण) में ले लिया। इसी तरह कभी-कभी उन्हें दुनिया में कहीं ज़ोर पकड़ने का मौक़ा भी मिल गया है, लेकिन वह भी उनकी बाज़ुओं के बल पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ किसी ताक़तवर पड़ोसी के बल पर।
۞لَيۡسُواْ سَوَآءٗۗ مِّنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ أُمَّةٞ قَآئِمَةٞ يَتۡلُونَ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ ءَانَآءَ ٱلَّيۡلِ وَهُمۡ يَسۡجُدُونَ ۝ 106
(113) मगर सभी किताबवाले बराबर नहीं है। इनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो सीधे रास्ते पर क़ायम हैं, रातों को अल्लाह की आयतें पढ़ते हैं और उसके आगे सजदा करते हैं।
يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ وَيَأۡمُرُونَ بِٱلۡمَعۡرُوفِ وَيَنۡهَوۡنَ عَنِ ٱلۡمُنكَرِ وَيُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡخَيۡرَٰتِۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 107
(114) अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखते हैं, नेकी का हुक्म देते हैं, बुराइयों से रोकते हैं और भलाई के कामों में लगे रहते हैं। ये नेक लोग हैं,
وَمَا يَفۡعَلُواْ مِنۡ خَيۡرٖ فَلَن يُكۡفَرُوهُۗ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 108
(115) और जो नेकी भी ये करेंगे उसकी नाक़द्री नहीं की जाएगी। अल्लाह परहेज़गार लोगों को ख़ूब जानता है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَن تُغۡنِيَ عَنۡهُمۡ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۖ وَأُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 109
(116) रहे वे लोग जिन्होंने इनकार का रवैया अपनाया, तो अल्लाह मुक़ाबले में उनको न उनका माल कुछ काम देगा, और न औलाद वे तो आग में जानेवाले लोग है और आग ही में हमेशा रहेंगे।
مَثَلُ مَا يُنفِقُونَ فِي هَٰذِهِ ٱلۡحَيَوٰةِ ٱلدُّنۡيَا كَمَثَلِ رِيحٖ فِيهَا صِرٌّ أَصَابَتۡ حَرۡثَ قَوۡمٖ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ فَأَهۡلَكَتۡهُۚ وَمَا ظَلَمَهُمُ ٱللَّهُ وَلَٰكِنۡ أَنفُسَهُمۡ يَظۡلِمُونَ ۝ 110
(117) जो कुछ वे अपनी इस दुनिया की ज़िन्दगी में ख़र्च कर रहे है उसकी मिसाल उस हवा जैसी है जिसमें पाला हो और वह उन लोगों की खेती पर चले जिन्होंने अपने ऊपर आप ज़ुल्म किया है और उसे बर्बाद करके रख दे।91 अल्लाह ने उनपर ज़ुल्म नहीं किया, अस्ल में ये ख़ुद अपने ऊपर ज़ुल्म कर रहे हैं।
91. इस मिसाल में खेती से मुराद ज़िन्दगी की वह खेती है जिसकी फ़सल आदमी को आख़िरत में काटनी है। हवा से मुराद भलाई का वह ऊपरी जज़्बा है जिसकी वजह से हक़ का इनकार करनेवाले लोग आम लोगों की भलाई के कामों और ख़ैरात वग़ैरा में दौलत ख़र्च करते हैं। और पाले से मुराद सही ईमान और अल्लाह के क़ानून की पैरवी न करना है जिसकी वजह से उनकी पूरी ज़िन्दगी ग़लत होकर रह गई है। अल्लाह इस मिसाल से यह बताना चाहता है कि हवा खेतियों की परवरिश के लिए फ़ायदेमन्द है, लेकिन अगर उसी हवा में पाला हो तो वह खेती की परवरिश करने के बजाय उसे तबाह कर डालती है। इसी तरह ख़ैरात भी हालाँकि इनसान की आख़िरत की खेती को परवरिश करनेवाली चीज़ है मगर जब उसके अन्दर कुफ़्र (अधर्म) का ज़हर मिला हुआ हो तो यही ख़ैरात फ़ायदेमन्द होने के बजाय उलटी हलाक करनेवाली बन जाती है। ज़ाहिर है कि इनसान का मालिक अल्लाह है और उस माल का मालिक भी अल्लाह ही है जिसको इनसान इस्तेमाल कर रहा है, और यह मुल्क भी अल्लाह ही का है जिसके अन्दर रहकर इनसान काम कर रहा है। अब अगर अल्लाह का यह ग़ुलाम अपने मालिक के सबसे बड़े इक़तिदार (सत्ता और अधिकार) को तसलीम नहीं करता या उसकी बन्दगी के साथ किसी और की नाजाइज़ बन्दगी को भी शरीक करता है और अल्लाह के माल और उसकी सल्तनत का ग़लत इस्तेमाल करते हुए उसके क़ानून और ज़ाब्ते की पाबन्दी नहीं करता, तो उसका इन सब चीज़ों का ग़लत इस्तेमाल ऊपर से नीचे तक जुर्म बन जाता है। अज्र और इनाम मिलना तो दूर की बात वह तो सिर्फ़ इस बात का हक़दार है कि इन तमाम हरकतों के लिए उसपर फ़ौजदारी का मुकद्दमा क़ायम किया जाए। उसकी ख़ैरात (दान) की मिसाल ऐसी है जैसे एक नौकर अपने मालिक की इजाज़त के बिना उसका ख़ज़ाना खोले और जहाँ-जहाँ अपनी समझ से सही समझे ख़र्च कर डाले।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَتَّخِذُواْ بِطَانَةٗ مِّن دُونِكُمۡ لَا يَأۡلُونَكُمۡ خَبَالٗا وَدُّواْ مَا عَنِتُّمۡ قَدۡ بَدَتِ ٱلۡبَغۡضَآءُ مِنۡ أَفۡوَٰهِهِمۡ وَمَا تُخۡفِي صُدُورُهُمۡ أَكۡبَرُۚ قَدۡ بَيَّنَّا لَكُمُ ٱلۡأٓيَٰتِۖ إِن كُنتُمۡ تَعۡقِلُونَ ۝ 111
(118 ) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अपने गरोह के लोगों के सिवा दूसरों को अपना राज़दार न बनाओ। वे तुम्हारी ख़राबी के किसी मौक़े से फ़ायदा उठाने से नहीं चूकते।92 तुम्हें जिस चीज़ से नुक़सान पहुँचे, वही उनको पसन्द है। उनके दिल का बुग़्ज़ (द्वेष) उनके मुँह से निकला पड़ता है, और जो कुछ वे अपने सीनों में छिपाए हुए हैं वह इससे बढ़कर है। हमने तुम्हें साफ़-साफ़ हिदायतें दे दी हैं। अगर तुम अक़्लवाले हो (तो इनसे ताल्लुक़ रखने में सावधानी बरतोगे)।
92. मदीना के चारों तरफ़ जो यहूदी आबाद थे उनके साथ औस और ख़ज़रज क़बीले के लोगों की पुराने ज़माने से दोस्ती चली आ रही थी। निजी तौर पर भी इन क़बीलों के लोग यहूदियों से दोस्ताना ताल्लुक़ रखते थे और क़बीले की हैसियत से भी ये लोग एक-दूसरे के पड़ोसी और दोस्त थे। जब औस और ख़ज़रज के क़बीले मुसलमान हो गए तो इसके बाद भी वे यहूदियों के साथ वही पुराने ताल्लुक़ को निभाते रहे और इनके लोग अपने पिछले यहूदी दोस्तों से उसी मुहब्बत और ख़ुलूस के साथ मिलते रहे। लेकिन यहूदियों को अल्लाह के पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) और आपके मिशन से जो दुश्मनी हो गई थी, उसकी वजह से वे किसी भी ऐसे आदमी के साथ साफ़ दिल से दोस्ताना ताल्लुक़ रखने के लिए तैयार न थे जो इस नई तहरीक (आन्दोलन) में शामिल हो गया हो। उन्होंने अनसार के साथ ज़ाहिर में तो वही ताल्लुक़ रखे जो पहले से चले आ रहे थे, मगर दिल में वे अब उनके सख़्त दुश्मन हो चुके थे और इस दिखावे की दोस्ती से नाजाइज़ फ़ायदा उठाकर हर वक़्त इस कोशिश में लगे रहते थे कि किसी तरह मुसलमानों की जमाअत में अन्दरूनी फ़ितना और फ़साद पैदा कर दें और उनके जमाअती राज़ मालूम करके उनके दुश्मनों तक पहुँचाएँ। अल्लाह तआला यहाँ उनकी इसी मुनाफ़िक़ाना रविश (कपटपूर्ण नीति) से मुसलमानों को ख़बरदार रहने की हिदायत कर रहा है।
هَٰٓأَنتُمۡ أُوْلَآءِ تُحِبُّونَهُمۡ وَلَا يُحِبُّونَكُمۡ وَتُؤۡمِنُونَ بِٱلۡكِتَٰبِ كُلِّهِۦ وَإِذَا لَقُوكُمۡ قَالُوٓاْ ءَامَنَّا وَإِذَا خَلَوۡاْ عَضُّواْ عَلَيۡكُمُ ٱلۡأَنَامِلَ مِنَ ٱلۡغَيۡظِۚ قُلۡ مُوتُواْ بِغَيۡظِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 112
(119) तुम उनसे मुहब्बत रखते हो, मगर वे वह तुमसे मुहब्बत नहीं रखते, हालाँकि तुम सभी आसमानी किताबों को मानते हो।93 जब वे तुमसे मिलते हैं तो कहते हैं कि हमने भी (तुम्हारे रसूल और तुम्हारी किताब को) मान लिया है,मगर जब अलग होते हैं तो तुम्हारे ख़िलाफ़ उनके ग़ुस्से और ग़ज़ब का यह हाल होता है कि अपनी उँगलियाँ चबाने लगते है।—उनसे कह दो कि अपने ग़ुस्से में आप जल मरो, अल्लाह दिलों के छिपे हुए राज़ तक जानता है।
93. यानी यह बड़ी अजीब बात है कि शिकायत बजाय इसके कि तुम्हें उनसे होती, उनको तुमसे है। तुम तो क़ुरआन के साथ तौरात को भी मानते हो, इसलिए उनको तुमसे शिकायत होने की कोई मुनासिब वजह नहीं हो सकती। हाँ, अगर शिकायत हो सकती थी तो तुम्हें उनसे हो सकती थी, क्योंकि वे क़ुरआन को नहीं मानते।
إِن تَمۡسَسۡكُمۡ حَسَنَةٞ تَسُؤۡهُمۡ وَإِن تُصِبۡكُمۡ سَيِّئَةٞ يَفۡرَحُواْ بِهَاۖ وَإِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ لَا يَضُرُّكُمۡ كَيۡدُهُمۡ شَيۡـًٔاۗ إِنَّ ٱللَّهَ بِمَا يَعۡمَلُونَ مُحِيطٞ ۝ 113
(120) — तुम्हारा भला होता है तो इनको बुरा मालूम होता है, और तुमपर कोई मुसीबत आती है तो ये ख़ुश होते हैं, मगर इनकी कोई चाल तुम्हारे ख़िलाफ़ कामयाब नहीं हो सकती, शर्त यह है कि तुम सब्र से काम लो और अल्लाह से डरकर काम करते रहो। जो कुछ ये कर रहे हैं, अल्लाह उसपर हावी है।
وَإِذۡ غَدَوۡتَ مِنۡ أَهۡلِكَ تُبَوِّئُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ مَقَٰعِدَ لِلۡقِتَالِۗ وَٱللَّهُ سَمِيعٌ عَلِيمٌ ۝ 114
(121) (ऐ पैग़म्बर!94 मुसलमानों के सामने उस मौक़े की चर्चा करो) जब तुम सुबह-सवेरे अपने घर से निकले थे और (उहद के मैदान में) मुसलमानों को जंग के लिए जगह-जगह तैनात कर रहे थे। अल्लाह सारी बातें सुनता है और वह बहुत ही ख़बर रखनेवाला है।
94. यहाँ से चौथा ख़ुतबा (तक़रीर) शुरू होता है। यह उहुद की लड़ाई के बाद उतरा और इसमें उहुद की लड़ाई पर तबसिरा (समीक्षा) किया गया है। ऊपर के ख़ुतबे को खत्म करते हुए आख़िर में कहा गया था कि “उनकी कोई चाल तुम्हारे ख़िलाफ़ कामयाब नहीं हो सकती, शर्त यह है कि सब्र से काम लो और अल्लाह से डरकर काम करते रहो।” अब चूँकि उहुद के मैदान में मुसलमानों की हार की अस्ल वजह ही यह बनी कि उनके अन्दर सब्र की भी कमी थी और उनके लोगों से कुछ ऐसी ग़लतियाँ भी हो गई थीं जो ख़ुदातरसी के ख़िलाफ़ थीं। इसलिए यह ख़ुतबा (तक़रीर) जिसमें उन्हें इन कमज़ोरियों पर ख़बरदार किया गया है, ऊपर के फ़िक़रे (वाक्य) के फ़ौरन बाद ही दर्ज किया गया। इस ख़ुतबे के बयान का अन्दाज़ यह है कि उहुद की लड़ाई के सिलसिले में जितने अहम वाक़िए (घटनाएँ) पेश आए थे, उनमें से एक-एक को लेकर उसपर कुछ जँचे-तुले जुमलों में निहायत सबक़आमोज़ तबसिरा किया गया है। इसको समझने के लिए वाक़िआत (घटनाओं) से जुड़े पसमंज़र को निगाहों में रखना जरूरी है। शव्वाल सन् 08 हिजरी के शुरू में क़ुरैश के इस्लाम-दुश्मनों ने लगभग तीन हज़ार की सेना लेकर मदीना पर हमला किया। ज़्यादा तादाद में होने के साथ-साथ उनके पास लड़ाई का सामान भी मुसलमानों के मुक़ाबले में बहुत ज़्यादा था और फिर वे बद्र की लड़ाई की हार का बदला लेने के जोश से भी भरे हुए थे। नबी (सल्ल०) और तजरिबेकार सहाबा (रज़ि०) की राय यह थी कि मदीना में ही में रहकर अपना बचाव किया जाए, मगर कुछ नौजवानों ने — जो शहीद होने के शौक से बेताब थे और जिन्हें बद्र की लड़ाई में शामिल होने का मौक़ा न मिला था — बाहर निकलकर लड़ने की ज़िद की। आख़िरकार उनकी ज़िद पर मजबूर होकर नबी (सल्ल०) ने बाहर निकलने ही का फ़ैसला कर लिया। एक हज़ार आदमी आपके साथ निकले, मगर शौत नामक जगह पर पहुँचकर अब्दुल्लाह-इब्ने-उबई अपने तीन सौ साथियों को लेकर अलग हो गया। ऐन वक़्त पर उसकी इस हरकत से मुसलमानों की सेना में अच्छी-ख़ासी बेचैनी फैल गई, यहाँ तक कि क़बीला बनू-सलमा और बनू-हारिसा के लोग तो ऐसे घबराए कि उन्होंने भी पलट जाने का इरादा कर लिया था, मगर फिर साहसी और हौसलामन्द सहाबियों की कोशिशों से यह बेचैनी हो गई। इन बाक़ी बचे सात सौ आदमियों के साथ नबी (सल्ल०) आगे बढ़े और उहुद की पहाड़ी के दामन में (मदीना से लगभग चार मील की दूरी पर) अपनी फौज़ को सफ़ में इस तरह खड़ा किया कि पहाड़ पीछे था और क़ुरेश का लश्कर सामने। पहलू में सिर्फ़ एक दर्रा ऐसा था जिससे अचानक हमले का ख़तरा हो सकता था। वहाँ आप (सल्ल०) ने अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर की रहनुमाई में पचास तीरन्दाज़ बिठा दिए और उनको ताकीद कर दी कि “किसी को हमारे क़रीब न फटकने देना, और किसी हाल में भी यहाँ से न हटना। अगर तुम देखो कि हमारी बोटियाँ परिन्दे नोचे लिए जाते हैं, तब भी तुम उस जगह से न टलना।” इसके बाद लड़ाई शुरू हुई। शुरू में मुसलमानों का पल्ला भारी रहा, यहाँ तक कि दुश्मन की फ़ौज में बेचैनी फैल गई, लेकिन इस शुरुआती कामयाबी को पूरी तरह जीत में बदलने के बजाय मुसलमान ग़नीमत के माल के लालच में पड़ गए और उन्होंने दुश्मन की फ़ौज को लूटना शुरू कर दिया। उधर जिन तीरन्दाज़ों को नबी (सल्ल०) ने पिछले हिस्से की हिफ़ाज़त के लिए बिठाया था, उन्होंने जो देखा कि दुश्मन भाग निकला और ग़नीमत का माल लूटा जा रह है, तो वे भी अपनी जगह छोड़कर ग़नीमत के माल की तरफ़ लपके। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-जुबैर (रज़ि०) ने उनको नबी (सल्ल०) का ताकीदी हुक्म याद दिलाकर बहुत रोका मगर कुछ ही आदमियों के सिवा वहाँ कोई न रुका। इस मौक़े से ख़ालिद-बिन-वलीद ने, जो उस वक़्त दुश्मन की सेना की एक टुकड़ी के कमाँडर थे, मौक़े का फ़ायदा उठाया और पहाड़ी का चक्कर काटकर पहलू के दर्रे से हमला कर दिया। अब्दुल्लाह-बिन-जुबैर ने, जिनके साथ सिर्फ़ कुछ ही आदमी रह गए थे, इस हमले को रोकना चाहा, लेकिन रोक न सके और यह सैलाब यकायक मुसलमानों पर टूट पड़ा। दूसरी तरफ़ जो दुश्मन भाग गए थे, उन्होंने भी पलटकर हमला कर दिया। इस तरह लड़ाई का पाँसा एकदम पलट गया और मुसलमान उम्मीद के ख़िलाफ़ अचानक ऐसी हालत पैदा हो जाने पर इतना घबराए कि उनकी फ़ौज का एक बड़ा हिस्सा तितर-बितर होकर भाग निकला। फिर भी कुछ सिपाही अभी तक मैदान में डटे हुए थे। इतने में कहीं से यह अफ़वाह उड़ गई कि नबी (सल्ल०) शहीद हो गए। इस ख़बर ने सहाबा के रहे-सहे होश व हवास भी गुम कर दिए और बाक़ी बचे हुए लोग भी हिम्मत हार बैठे। उस समय नबी (सल्ल०) के आस-पास दस-बारह जाँनिसार रह गए थे और आप ख़ुद जख़्मी हो चुके थे। मुकम्मल हार में कोई कसर बाक़ी न थी, लेकिन ठीक उसी वक़्त सहाबा (रज़ि०) को मालूम हो गया कि प्यारे नबी (सल्ल०) ज़िन्दा हैं। चुनाँचे वे हर तरफ़ से सिमटकर फिर आपके पास जमा हो गए और आपको सही-सलामत पहाड़ी की तरफ़ ले गए। इस मौक़े पर की यह घटना एक पहेली है जो हल नहीं हो सकी कि वह क्या चीज़ थी कि जिसने मक्का के दुश्मनों को ख़ुद ही वापस फेर दिया। मुसलमान इतने बिखर चुके ये कि उनका फिर जमा होकर बाक़ायदा जंग करना मुश्किल था। अगर दुश्मन अपनी जीत को अंजाम तक पहुँचाने की कोशिश करते तो उनकी कामयाबी नामुमकिन न थी, लेकिन न जाने किस तरह वे आप-ही-आप मैदान छोड़कर वापस चले गए।
إِذۡ هَمَّت طَّآئِفَتَانِ مِنكُمۡ أَن تَفۡشَلَا وَٱللَّهُ وَلِيُّهُمَاۗ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 115
(122) याद करो जब तुममें से दो गरोह बुज़दिली दिखाने पर आमादा हो गए थे,95 हालाँकि अल्लाह उनकी मदद पर मौजूद था, और ईमानवालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।
95. यह इशारा है बनू-सलमा और बनू-हारिसा क़बीले की तरफ़ जो अब्दुल्लाह-बिन-उबई और उसके साथियों की वापसी के बाद हिम्मत हार बैठे थे।
وَلَقَدۡ نَصَرَكُمُ ٱللَّهُ بِبَدۡرٖ وَأَنتُمۡ أَذِلَّةٞۖ فَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 116
(123) आख़िर इससे पहले बद्र की लड़ाई में अल्लाह तुम्हारी मदद कर चुका था, हालाँकि उस वक़्त तुम बहुत कमज़ोर थे। इसलिए तुमको चाहिए कि अल्लाह की नाशुक्री से बचो, उम्मीद है कि अब तुम शुक्रगुज़ार बनोगे।
إِذۡ تَقُولُ لِلۡمُؤۡمِنِينَ أَلَن يَكۡفِيَكُمۡ أَن يُمِدَّكُمۡ رَبُّكُم بِثَلَٰثَةِ ءَالَٰفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُنزَلِينَ ۝ 117
(124) (ऐ नबी!) याद करो जब तुम ईमानवालों से कह रहे थे, “क्या तुम्हारे लिए यह बात काफ़ी नहीं कि अल्लाह तीन हज़ार फ़रिश्ते उतारकर तुम्हारी मदद करे?” 96
96. मुसलमानों ने जब देखा कि एक तरफ़ दुश्मन तीन हज़ार हैं और हमारे एक हज़ार में से भी तीन सौ अलग हो गए हैं, तो उनके दिल टूटने लगे। उस समय नबी (सल्ल०) ने उनसे यह बात कही थी।
بَلَىٰٓۚ إِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ وَيَأۡتُوكُم مِّن فَوۡرِهِمۡ هَٰذَا يُمۡدِدۡكُمۡ رَبُّكُم بِخَمۡسَةِ ءَالَٰفٖ مِّنَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ مُسَوِّمِينَ ۝ 118
(125) बेशक अगर तुम सब्र से काम लो और अल्लाह से डरते हुए काम करो, तो जिस वक़्त दुश्मन तुम्हारे ऊपर चढ़कर आएँगे, उसी वक़्त तुम्हारा रब (तीन हज़ार नहीं) पाँच हज़ार निशानवाले (ख़ास) फ़रिश्तों से तुम्हारी मदद करेगा।
وَمَا جَعَلَهُ ٱللَّهُ إِلَّا بُشۡرَىٰ لَكُمۡ وَلِتَطۡمَئِنَّ قُلُوبُكُم بِهِۦۗ وَمَا ٱلنَّصۡرُ إِلَّا مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 119
(126) यह बात अल्लाह ने तुम्हें इसलिए बता दी है कि तुम ख़ुश हो जाओ और तुम्हारे दिल मुतमइन हो जाएँ। फ़तह और मदद जो कुछ भी है अल्लाह की तरफ़ से है, जो बड़ी ताक़तवाला और सूझ-बूझवाला है।
لِيَقۡطَعَ طَرَفٗا مِّنَ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَوۡ يَكۡبِتَهُمۡ فَيَنقَلِبُواْ خَآئِبِينَ ۝ 120
(127) (और यह मदद वह तुम्हे इसलिए देगा) ताकि कुफ़्र (इनकार) की राह चलनेवालों का एक बाज़ू काट दे, या उनको ऐसी रुसवाकुन शिकस्त (पराजय) दे कि वे नाकामी के साथ परास्त हो जाएँ।
لَيۡسَ لَكَ مِنَ ٱلۡأَمۡرِ شَيۡءٌ أَوۡ يَتُوبَ عَلَيۡهِمۡ أَوۡ يُعَذِّبَهُمۡ فَإِنَّهُمۡ ظَٰلِمُونَ ۝ 121
(128) (ऐ पैग़म्बर!) फ़ैसले के इख़्तियारों में तुम्हारा कोई हिस्सा नहीं, अल्लाह को इख़्तियार है, चाहे उन्हें माफ़ करे, चाहे सज़ा दे, क्योंकि वे ज़ालिम हैं।
وَلِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۚ يَغۡفِرُ لِمَن يَشَآءُ وَيُعَذِّبُ مَن يَشَآءُۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 122
(129) ज़मीन और आसमानों में जो कुछ है उसका मालिक अल्लाह है, जिसको चाहे माफ़ कर दे और जिसको चाहे सज़ा दे। वह माफ़ करनेवाला और रहमवाला है।97
97. उहुद की लड़ाई में जब नबी (सल्ल०) जख़्मी हुए तो आपके मुँह से दुश्मनों के लिए बद्‍दुआ निकल गई, और आपने फ़रमाया कि “वह क़ौम कैसे कामयाब हो सकती है जो अपने नबी को ज़ख्मी करे।” ये आयतें उसी के जवाब में आई हैं।
هَٰذَا بَيَانٞ لِّلنَّاسِ وَهُدٗى وَمَوۡعِظَةٞ لِّلۡمُتَّقِينَ ۝ 123
(138) यह लोगों के लिए एक साफ़ और खुली तंबीह (चेतावनी) है और जो अल्लाह से डरते हों उनके लिए हिदायत (मार्गदर्शन) और नसीहत।
وَلَا تَهِنُواْ وَلَا تَحۡزَنُواْ وَأَنتُمُ ٱلۡأَعۡلَوۡنَ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 124
(139) हिम्मत न हारो, ग़म न करो, तुम ही ग़ालिब (प्रभावी) रहोगे अगर तुम ईमानवाले हो।
إِن يَمۡسَسۡكُمۡ قَرۡحٞ فَقَدۡ مَسَّ ٱلۡقَوۡمَ قَرۡحٞ مِّثۡلُهُۥۚ وَتِلۡكَ ٱلۡأَيَّامُ نُدَاوِلُهَا بَيۡنَ ٱلنَّاسِ وَلِيَعۡلَمَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَيَتَّخِذَ مِنكُمۡ شُهَدَآءَۗ وَٱللَّهُ لَا يُحِبُّ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 125
(140) इस वक़्त अगर तुम्हें चोट लगी है तो इससे पहले ऐसी ही चोट तुम्हारे दुश्मनों को भी लग चुकी है।100 ये तो ज़माने के उतार-चढ़ाव है जिन्हें हम लोगों के बीच गर्दिश देते रहते है। तुमपर यह वक़्त इसलिए लाया गया कि अल्लाह देखना चाहता था कि तुममें सच्चे ईमानवाले कौन हैं, और उन लोगों को छाँट लेना चाहता था जो हक़ीक़त में (सच्चाई के) गवाह हों101 — क्योंकि ज़ालिम लोग अल्लाह को पसन्द नहीं हैं
100. यह इशारा है बद्र की लड़ाई की तरफ़। और कहने का मतलब यह है कि जब उस चोट को खाकर दुश्मनों ने हिम्मत नहीं हारी तो उहुद की लड़ाई में यह चोट खाकर तुम क्यों हिम्मत हार रहे हो?
101. इस आयत में अस्ल अरबी जुमला 'व यत्तख़ि-ज़ मिन-कुम शुहदा-अ' इस्तेमाल हुआ है। इसका एक मतलब तो यह है कि “तुममें से कुछ 'शहीद' लेना चाहता था,” यानी कुछ लोगों को (अल्लाह) 'शहादत' का बाइज़्ज़त मक़ाम देना चाहता था और दूसरा मतलब यह है कि ईमानवालों और मुनाफ़िक़ों के उस मिले-जुले गरोह में से, जिस शक्ल में तुम इस वक़्त हो, उन लोगों को अलग छाँट लेना चाहता था जो हक़ीक़त में 'शुहदा-अ-अलन्नास' (लोगों पर गवाह) हैं, यानी उस आला मंसब (प्रतिष्ठित पद) के क़ाबिल हैं जिसपर हमने मुस्लिम उम्मत को मुक़र्रर किया है।
وَلِيُمَحِّصَ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَيَمۡحَقَ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 126
(141) और वह इस आज़माइश के ज़रिए से ईमानवालों को अलग छाँटकर हक़ का इनकार करनेवालों (दुश्मनों) को कुचल देना चाहता था।
أَمۡ حَسِبۡتُمۡ أَن تَدۡخُلُواْ ٱلۡجَنَّةَ وَلَمَّا يَعۡلَمِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ جَٰهَدُواْ مِنكُمۡ وَيَعۡلَمَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 127
(142) क्या तुमने यह समझ रखा है कि यूँ ही जन्नत में चले जाओगे, हालाँकि अभी अल्लाह ने यह तो देखा ही नहीं कि तुममें कौन वे लोग हैं जो उसकी राह में जानें लड़ानेवाले और उसके लिए सब्र करनेवाले हैं।
وَلَقَدۡ كُنتُمۡ تَمَنَّوۡنَ ٱلۡمَوۡتَ مِن قَبۡلِ أَن تَلۡقَوۡهُ فَقَدۡ رَأَيۡتُمُوهُ وَأَنتُمۡ تَنظُرُونَ ۝ 128
(143) तुम तो मौत की तमन्नाएँ कर रहे थे। मगर यह उस वक़्त की बात थी जब मौत सामने न आई थी, लो अब वह तुम्हारे सामने आ गई और तुमने उसे आँखों से देख लिया।102
102. इशारा है शहीद होने की तमन्ना रखनेवाले उन लोगों की तरफ़ जिनके इसरार (आग्रह) पर नबी (सल्ल०) ने मदीने से बाहर निकलकर लड़ने का फ़ैसला लिया था।
وَمَا مُحَمَّدٌ إِلَّا رَسُولٞ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِ ٱلرُّسُلُۚ أَفَإِيْن مَّاتَ أَوۡ قُتِلَ ٱنقَلَبۡتُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡۚ وَمَن يَنقَلِبۡ عَلَىٰ عَقِبَيۡهِ فَلَن يَضُرَّ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ وَسَيَجۡزِي ٱللَّهُ ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 129
(144) मुहम्मद इसके सिवा कुछ नहीं कि बस एक रसूल हैं, उनसे पहले और रसूल भी गुज़र चुके हैं। फिर क्या अगर उनका इन्तिक़ाल हो जाए या उनको क़त्ल कर दिया जाए तो तुम लोग उलटे पाँव फिर जाओगे?103 याद रखो! जो उलटा फिरेगा, वह अल्लाह का कुछ नुक़सान नहीं करेगा। हाँ, जो अल्लाह के शुक्रगुजार बन्दे बनकर रहेंगे, उन्हें वह उसका बदला देगा।
103. जब नबी (सल्ल०) के शहीद होने की ख़बर फैली तो ज़्यादा तर सहाबा अपनी हिम्मत हार बैठे। इस हालत में मुनाफ़िक़ों ने (जो मुसलमानों के साथ ही लगे हुए थे) कहना शुरू किया कि चलो अब्दुल्लाह-बिन-उबई के पास चलें, ताकि वह हमारे लिए अबू-सुफ़ियान से पनाह (शरण) ले दे, और कुछ ने यहाँ तक कह डाला कि अगर मुहम्मद अल्लाह के रसूल होते तो क़त्ल कैसे होते? चलो, अब बाप-दादा के दीन की तरफ़ लौट चलें। इन्हीं बातों के जवाब में कहा जा रहा है कि अगर तुम्हारी 'हक़परस्ती' सिर्फ़ मुहम्मद की शख़्सियत (व्यक्तित्व) से जुड़ी हुई है और तुम्हारा इस्लाम ऐसी कमज़ोर बुनियाद रखता है कि मुहम्मद के दुनिया से विदा होते ही तुम उसी कुफ़्र की तरफ़ पलट जाओगे जिससे निकलकर आए थे, तो अल्लाह के दीन को तुम्हारी ज़रूरत नहीं है।
وَمَا كَانَ لِنَفۡسٍ أَن تَمُوتَ إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِ كِتَٰبٗا مُّؤَجَّلٗاۗ وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَا وَمَن يُرِدۡ ثَوَابَ ٱلۡأٓخِرَةِ نُؤۡتِهِۦ مِنۡهَاۚ وَسَنَجۡزِي ٱلشَّٰكِرِينَ ۝ 130
(145) कोई जानदार अल्लाह की इजाज़त के बिना नहीं मर सकता। मौत का वक़्त तो लिखा हुआ है।104 जो शख़्स दुनिया में बदला पाने के इरादे से काम करेगा, उसको हम दुनिया ही में से देंगे और जो आख़िरत के बदले105 के इरादे से काम करेगा, वह आख़िरत का बदला पाएगा, और शुक्र करनेवालों106 को हम उनका बदला ज़रूर देंगे।
104. इससे यह बात मुसलमानों के मन में बिठानी है कि मौत के डर से तुम्हारा भागना बेकार है। कोई आदमी न तो अल्लाह के तय किए हुए वक़्त से पहले मर सकता है और न उसके बाद जी सकता है। इसलिए तुमको फ़िक्र मौत से बचने की नहीं, बल्कि इस बात की होनी चाहिए कि ज़िन्दगी की जो मुहलत भी तुम्हें मिली हुई है, उसमें तुम्हारी कोशिशों और दौड़-धूप का मक़सद क्या है, दुनिया या आख़िरत (लोक या परलोक)?
105.आयत के अस्ल लफ़्ज़ 'सवाब' का यहाँ पर 'बदला' तर्जमा किया गया है। सवाब का मतलब होता है किए गए अमल (कर्म) का नतीजा। दुनिया में बदले से मुराद वे फ़ायदे और लाभ हैं जो इनसान को उसकी कोशिशों और कामों के नतीजे में इसी दुनिया की ज़िन्दगी में हासिल हों, और आख़िरत (परलोक) के बदले से मुराद वे फ़ायदे और लाभ हैं जो उसी काम और कोशिश के नतीजे में आख़िरत की हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी में हासिल होंगे। इस्लाम की निगाह से इनसानी अख़लाक़ के मामले में फ़ैसला करनेवाला सवाल यही है कि ज़िन्दगी के इस मैदान में आदमी जो दौड़-धूप कर रहा है, उसमें वह दुनिया के नतीजों पर निगाह रखता है या आख़िरत के नतीजों पर?
106. 'शुक्र करनेवालों से मुराद वे लोग हैं जो अल्लाह की इस नेमत की क़द्र करते हों कि उसने दीन की सही तालीम देकर उन्हें दुनिया और उसकी महदूद (सीमित) ज़िन्दगी से बहुत ज़्यादा वसीअ (व्यापक) एक असीम और अथाह दुनिया की ख़बर दी और उन्हें इस सच्चाई से वाक़िफ़ कराया कि इनसानी कोशिशों और अमल और उसके काम के नतीजे सिर्फ़ इस दुनिया की कुछ माल की ज़िन्दगी तक महदूद नहीं हैं, बल्कि इस ज़िन्दगी के बाद एक दूसरी दुनिया तक उनका सिलसिला चलता है। यह वुसअते-नज़र (व्यापक दृष्टि) और यह दूर तक देखने की सलाहियत और अंजाम को सामने रखने की ताक़त हासिल हो जाने के बाद जो आदमी अपनी कोशिशों और मेहनतों को इस दुनियावी ज़िन्दगी के शुरुआती मरहले में फलदायी होते न देखे या उनका उलटा नतीजा निकलता देखे, और इसके बावजूद अल्लाह के भरोसे पर वह काम करता चला जाए जिसके बारे में अल्लाह ने उसे यक़ीन दिलाया है कि हर हाल में आख़िरत में उसका नतीजा अच्छा ही निकलेगा, वह शुक्रगुज़ार बन्दा है। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग इसके बाद भी दुनिया-परस्ती और भौतिकवाद की तंग-नज़री में पड़े रहें, जिनका हाल यह हो कि दुनिया में जिन ग़लत कोशिशों के साफ़ तौर पर अच्छे नतीजे निकलते दिखाई दें उनकी तरफ़ वे आख़िरत के बुरे नतीजों की परवाह किए बिना झुक पड़ें और जिन सही कोशिशों के यहाँ फलदायी होने की उम्मीद न हो, या जिन से यहाँ नुक़सान पहुँचने का ख़तरा हो उनमें आख़िरत के भले नतीजे की उम्मीद पर अपना वक़्त, अपना माल और अपनी ताक़तें लगाने के लिए तैयार न हों, वे नाशुके हैं, वह उस इल्म की क़द्र नहीं जानते जो अल्लाह ने उन्हें दिया है।
وَكَأَيِّن مِّن نَّبِيّٖ قَٰتَلَ مَعَهُۥ رِبِّيُّونَ كَثِيرٞ فَمَا وَهَنُواْ لِمَآ أَصَابَهُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ وَمَا ضَعُفُواْ وَمَا ٱسۡتَكَانُواْۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 131
(146) इससे पहले कितने ही नबी ऐसे हुए हैं जिनके साथ मिलकर बहुत-से ख़ुदा परस्तों ने जंग की। अल्लाह की राह में जो मुसीबतें उनपर पड़ीं उनसे उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, उन्होंने कमज़ोरी नहीं दिखाई, वे (बातिल के आगे) झुके नहीं।107 ऐसे ही सब्र करनेवालों को अल्लाह पसन्द करता है।
107. यानी अपनी तादाद की कमी और बे-सरोसामानी और दुश्मनों की भारी तादाद व ताक़त को देखकर उन्होंने झूठ के पुजारियों के आगे हथियार नहीं डाले।
وَمَا كَانَ قَوۡلَهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ رَبَّنَا ٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَإِسۡرَافَنَا فِيٓ أَمۡرِنَا وَثَبِّتۡ أَقۡدَامَنَا وَٱنصُرۡنَا عَلَى ٱلۡقَوۡمِ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 132
(147) उनकी दुआ बस यह थी कि “हमारे रब! हमारी ग़लतियों और कोताहियों को माफ़ कर, हमारे काम में तेरी हदों से जो ज़्यादती हो गई हो उसे माफ़ कर दे, हमारे क़दम जमा दे और काफ़िरों (इनकार करने वालों) के मुक़ाबले में हमारी मदद कर।"
فَـَٔاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ ثَوَابَ ٱلدُّنۡيَا وَحُسۡنَ ثَوَابِ ٱلۡأٓخِرَةِۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 133
(148) आख़िरकार अल्लाह ने उनको इस दुनिया का बदला भी दिया और उससे बेहतर आख़िरत (परलोक) का बदला भी दिया। अल्लाह को ऐसे ही नेक काम करनेवाले लोग पसन्द हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِن تُطِيعُواْ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ يَرُدُّوكُمۡ عَلَىٰٓ أَعۡقَٰبِكُمۡ فَتَنقَلِبُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 134
(149) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अगर तुम उन लोगों के इशारों पर चलोगे जिन्होंने कुफ़्र (इनकार) की राह इख़्तियार की है, तो वे तुमको उलटा फेर ले जाएँगे।108 और तुम नामुराद हो जाओगे।
108. यानी जिस कुफ़्र (अधर्म) की हालत से तुम निकलकर आए हो उसी में ये तुम्हें फिर वापस ले जाएँगे। मुनाफ़िक और यहूदी, उहुद की हार के बाद मुसलमानों में यह अफ़वाह फैलाने की कोशिश कर रहे थे कि मुहम्मद अगर सचमुच नबी होते तो हार क्यों जाते। ये तो एक मामूली आदमी हैं। इनका मामला भी दूसरे आदमियों की तरह है। आज जीत है तो कल हार। ख़ुदा की जिस हिमायत और मदद का उन्होंने तुमको यक़ीन दिला रखा है, वह सिर्फ़ एक ढोंग है।
بَلِ ٱللَّهُ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَهُوَ خَيۡرُ ٱلنَّٰصِرِينَ ۝ 135
(150) ( उनकी बातें ग़लत हैं) हक़ीक़त यह है कि अल्लाह तुम्हारा हामी और मददगार है और वह सबसे अच्छा मदद करनेवाला है।
سَنُلۡقِي فِي قُلُوبِ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱلرُّعۡبَ بِمَآ أَشۡرَكُواْ بِٱللَّهِ مَا لَمۡ يُنَزِّلۡ بِهِۦ سُلۡطَٰنٗاۖ وَمَأۡوَىٰهُمُ ٱلنَّارُۖ وَبِئۡسَ مَثۡوَى ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 136
(151) जल्द ही वह वक़्त आनेवाला है जब हम हक़ का इनकार करनेवालों के दिलों में तुम्हारा रोब बिठा देंगे, इसलिए कि उन्होंने अल्लाह के साथ उनको ख़ुदाई में साझी ठहराया है जिनके साझी होने पर अल्लाह ने कोई सनद नहीं उतारी। उनका आख़िरी ठिकाना जहन्नम है, और बहुत ही बुरी है वह ठहरने की जगह जो उन ज़ालिमों को मिलेगी।
وَلَقَدۡ صَدَقَكُمُ ٱللَّهُ وَعۡدَهُۥٓ إِذۡ تَحُسُّونَهُم بِإِذۡنِهِۦۖ حَتَّىٰٓ إِذَا فَشِلۡتُمۡ وَتَنَٰزَعۡتُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِ وَعَصَيۡتُم مِّنۢ بَعۡدِ مَآ أَرَىٰكُم مَّا تُحِبُّونَۚ مِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلدُّنۡيَا وَمِنكُم مَّن يُرِيدُ ٱلۡأٓخِرَةَۚ ثُمَّ صَرَفَكُمۡ عَنۡهُمۡ لِيَبۡتَلِيَكُمۡۖ وَلَقَدۡ عَفَا عَنكُمۡۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 137
(152) अल्लाह ने (हिमायत और मदद का) जो वादा तुमसे किया था वह तो उसने पूरा कर दिया। शुरू में उसके हुक़्म से तुम ही उनको क़त्ल कर रहे थे, मगर जब तुमने कमज़ोरी दिखाई और अपने काम में आपस में इख़्तिलाफ़ किया, और जैसे ही वह चीज़ अल्लाह ने तुम्हें दिखाई जिसकी मुहब्बत में तुम गिरफ़्तार थे (यानी माले-ग़नीमत) तुम अपने सरदार के हुक्म की ख़िलाफ़वर्ज़ी कर बैठे — इसलिए कि तुममें से कुछ लोग दुनिया की ख़ाहिश रखते थे और कुछ आख़िरत की ख़ाहिश रखते थे से — तब अल्लाह ने काफ़िरों के मुक़ाबले में शिकस्त दी ताकि तुम्हारी आज़माइश करे, और सच तो यह कि अल्लाह ने फिर भी तुम्हें माफ़ ही कर दिया,109 क्योंकि ईमानवालों पर अल्लाह बड़ी नज़रे-इनायत (कृपादृष्टि) रखता है।
109.यानी तुमने ग़लती तो ऐसी की थी कि अगर अल्लाह तुम्हें माफ़ न कर देता तो उस वक़्त तुम्हें उखाड़कर फेंक दिया गया होता। यह अल्लाह का फ़्ज़्ल (कृपा) था और उसकी हिमायत और उसकी मदद थी जिसकी वजह से तुम्हारे दुश्मन तुमपर क़ाबू पा लेने के बाद भी होश गुम कर बैठे और बिला वजह ख़ुद ही हार मान कर चले गए।
۞إِذۡ تُصۡعِدُونَ وَلَا تَلۡوُۥنَ عَلَىٰٓ أَحَدٖ وَٱلرَّسُولُ يَدۡعُوكُمۡ فِيٓ أُخۡرَىٰكُمۡ فَأَثَٰبَكُمۡ غَمَّۢا بِغَمّٖ لِّكَيۡلَا تَحۡزَنُواْ عَلَىٰ مَا فَاتَكُمۡ وَلَا مَآ أَصَٰبَكُمۡۗ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 138
(153) याद करो जब तुम भागे चले जा रहे थे, किसी की तरफ़ पलट कर देखने तक का होश तुम्हें न था, और रसूल तुम्हारे पीछे तुमको पुकार रहा था।110 उस समय तुम्हारे इस रवैये का बदला अल्लाह ने तुम्हें यह दिया कि तुमको रंज-पर-रंज दिए।111 ताकि आगे के लिए तुम्हें यह सबक़ मिले कि जो कुछ तुम्हारे हाथ से जाए या जो मुसीबत तुमपर नाज़िल हो, उसपर दुखी न हो। अल्लाह तुम्हारे सब कामों की ख़बर रखता है।
110. उहुद की लड़ाई में जब मुसलमानों पर अचानक दो तरफ़ से एक ही वक़्त में हमला हुआ और उनकी सफ़ें तितर-बितर हो गईं तो कुछ लोग मदीना की तरफ़ भाग निकले और कुछ उहुद पर चढ़ गए, लेकिन नबी (सल्ल०) एक इंच अपनी जगह से न हटे। दुश्मनों की चारों तरफ़ भीड़ थी। आप (सल्ल०) के पास आपके अपने दस-बारह आदमियों की मुट्ठी भर जमाअत रह गई थी, लेकिन अल्लाह के रसूल इस नाज़ुक मौक़े पर भी पहाड़ की तरह अपनी जगह जमे हुए थे और भागनेवालों को पुकार रहे थे, “इलै-य इबादल्लाह, इलै-य इबादल्लाह” (अल्लाह के बन्दो! मेरी तरफ़ आओ, अल्लाह के बन्दो! मेरी तरफ़ आओ।)
111. रंज (दुख) शिकस्त होने का, रंज इस अफवाह फैलाने का कि नबी (सल्ल०) शहीद हो गए, रंज अपनी भारी तादाद में क़त्ल किए गए लोगों और जख़्मियों का, रंज इस बात का कि अब घरों की भी ख़बर नहीं, तीन हज़ार दुश्मन जिनकी तादाद मदीना की कुल आबादी से भी ज़्यादा है, हारी हुई फ़ौज को रौंदते हुए क़स्बे में आ घुसेंगे और सबको तबाह कर देंगे।
ثُمَّ أَنزَلَ عَلَيۡكُم مِّنۢ بَعۡدِ ٱلۡغَمِّ أَمَنَةٗ نُّعَاسٗا يَغۡشَىٰ طَآئِفَةٗ مِّنكُمۡۖ وَطَآئِفَةٞ قَدۡ أَهَمَّتۡهُمۡ أَنفُسُهُمۡ يَظُنُّونَ بِٱللَّهِ غَيۡرَ ٱلۡحَقِّ ظَنَّ ٱلۡجَٰهِلِيَّةِۖ يَقُولُونَ هَل لَّنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ مِن شَيۡءٖۗ قُلۡ إِنَّ ٱلۡأَمۡرَ كُلَّهُۥ لِلَّهِۗ يُخۡفُونَ فِيٓ أَنفُسِهِم مَّا لَا يُبۡدُونَ لَكَۖ يَقُولُونَ لَوۡ كَانَ لَنَا مِنَ ٱلۡأَمۡرِ شَيۡءٞ مَّا قُتِلۡنَا هَٰهُنَاۗ قُل لَّوۡ كُنتُمۡ فِي بُيُوتِكُمۡ لَبَرَزَ ٱلَّذِينَ كُتِبَ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَتۡلُ إِلَىٰ مَضَاجِعِهِمۡۖ وَلِيَبۡتَلِيَ ٱللَّهُ مَا فِي صُدُورِكُمۡ وَلِيُمَحِّصَ مَا فِي قُلُوبِكُمۡۚ وَٱللَّهُ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 139
(154) इस ग़म के बाद फिर अल्लाह ने तुममें से कुछ लोगों पर ऐसी इतमीनान की-सी हालत पैदा कर दी कि वे ऊँघने लगे।112 मगर एक दूसरा गरोह, जिसके लिए सारी अहमियत बस अपने फ़ायदे की ही थी, अल्लाह के बारे में तरह-तरह के जाहिलाना (अज्ञानतापूर्ण) गुमान करने लगा जो सरासर हक़ के ख़िलाफ़ थे। ये लोग अब कहते हैं, “इस काम के चलाने में हमारा भी कोई हिस्सा है?” उनसे कहो, “(किसी का कोई हिस्सा नहीं) इस काम के सारे इख़्तियार अल्लाह के हाथ में हैं।” अस्ल में ये लोग अपने दिलों में जो बात छिपाए हुए हैं उसे तुमपर ज़ाहिर नहीं करते। उनका अस्ल मक़सद यह है कि “अगर (क़ियादत या नेतृत्व के) इख़्तियार में हमारा कुछ हिस्सा होता तो यहाँ हम न मारे जाते।” इनसे कह दो कि “अगर तुम अपने घरों में भी होते तो जिन लोगों की मौत लिखी हुई थी, वे ख़ुद अपने मारे जाने की जगहों की तरफ़ निकल आते।” और यह मामला जो पेश आया, यह तो इसलिए था कि जो कुछ तुम्हारे सीनों में छिपा हुआ है अल्लाह उसे जाँच ले और जो खोट तुम्हारे दिलों में है उसे छाँट दे। अल्लाह दिलों का हाल ख़ूब जानता है।
112. यह एक अजीब तजरिबा था जो उस वक़्त इस्लामी लश्कर के कुछ लोगों को पेश आया। हज़रत अबू-तलहा (रज़ि०) जो उस लड़ाई में शरीक थे, ख़ुद बयान करते हैं कि इस हालत में हमपर ऊँघ ऐसी छाई जा रही थी कि तलवारें हाथ से छूटी पड़ती थीं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ تَوَلَّوۡاْ مِنكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِ إِنَّمَا ٱسۡتَزَلَّهُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ بِبَعۡضِ مَا كَسَبُواْۖ وَلَقَدۡ عَفَا ٱللَّهُ عَنۡهُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌ حَلِيمٞ ۝ 140
(155) तुममें से जो लोग मुक़ाबले के दिन पीठ फेर गए थे, उनकी इस फिसलन की वजह यह थी कि उनकी कुछ कमज़ोरियों की वजह से शैतान ने उनके क़दम डगमगा दिए थे। अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया, अल्लाह बहुत माफ़ करनेवाला और बुर्दबार (सहनशील) है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَكُونُواْ كَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَقَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ إِذَا ضَرَبُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ أَوۡ كَانُواْ غُزّٗى لَّوۡ كَانُواْ عِندَنَا مَا مَاتُواْ وَمَا قُتِلُواْ لِيَجۡعَلَ ٱللَّهُ ذَٰلِكَ حَسۡرَةٗ فِي قُلُوبِهِمۡۗ وَٱللَّهُ يُحۡيِۦ وَيُمِيتُۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ بَصِيرٞ ۝ 141
(156) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, कुफ़्र (इनकार) करनेवालों जैसी बातें न करो जिनके नाते-रिश्तेदार अगर कभी सफ़र पर जाते हैं या जंग में शरीक होते हैं (और वहाँ किसी हादिसे के शिकार हो जाते हैं) तो वे कहते हैं कि अगर वे हमारे पास होते तो न मारे जाते और न क़त्ल होते। अल्लाह इस तरह की बातों को उनके दिलों में हसरत और पछतावे की वजह बना देता है,113 वरना हक़ीक़त में मारने और जिलानेवाला तो अल्लाह ही है, और तुम्हारी तमाम हरकतों पर वही निगरानी करनेवाला है।
113. यानी इन बातों की बुनियाद हक़ीक़त पर नहीं है। सच तो यह है कि अल्लाह का फ़ैसला किसी के टाले नहीं टल सकता, मगर जो लोग अल्लाह पर ईमान नहीं रखते और सब कामों को अपनी कोशिशों और तदबीरों ही का नतीजा समझते हैं उनके लिए इस तरह के गुमान बस हसरत और तमन्ना के दाग़ बनकर रह जाते हैं और वे हाथ मलते रह जाते हैं कि काश यूँ होता तो यह हो जाता।
وَلَئِن قُتِلۡتُمۡ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَوۡ مُتُّمۡ لَمَغۡفِرَةٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَرَحۡمَةٌ خَيۡرٞ مِّمَّا يَجۡمَعُونَ ۝ 142
(157) अगर तुम अल्लाह की राह में मारे जाओ या मर जाओ तो अल्लाह की जो रहमत और बख़्शिश तुम्हारे हिस्से में आएगी, वह उन सारी चीज़ों से ज़्यादा अच्छी है जिन्हें ये लोग जमा करते है।
وَلَئِن مُّتُّمۡ أَوۡ قُتِلۡتُمۡ لَإِلَى ٱللَّهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 143
(158) और चाहे तुम मरो या मारे जाओ, हर हाल में तुम सबको सिमटकर जाना अल्लाह ही की तरफ़ है।
فَبِمَا رَحۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ لِنتَ لَهُمۡۖ وَلَوۡ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ ٱلۡقَلۡبِ لَٱنفَضُّواْ مِنۡ حَوۡلِكَۖ فَٱعۡفُ عَنۡهُمۡ وَٱسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ وَشَاوِرۡهُمۡ فِي ٱلۡأَمۡرِۖ فَإِذَا عَزَمۡتَ فَتَوَكَّلۡ عَلَى ٱللَّهِۚ إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلۡمُتَوَكِّلِينَ ۝ 144
(159) (ऐ पैग़म्बर!) यह अल्लाह की बड़ी रहमत है कि तुम इन लोगों के लिए बहुत नर्म मिज़ाज हो, वरना अगर कहीं तुम सख़्त और पत्थर दिल होते तो ये सब तुम्हारे आस-पास से छँट जाते। इनकी ग़लतियों को माफ़ कर दो, इनके लिए ‘मग़फ़िरत' (माफ़ी) की दुआ करो और दीन के काम में इनको भी मश्वरे में शरीक रखो, फिर जब तुम किसी राय पर जम जाओ तो अल्लाह पर भरोसा करो, अल्लाह को वे लोग पसन्द हैं जो उसी के भरोसे पर काम करते हैं।
إِن يَنصُرۡكُمُ ٱللَّهُ فَلَا غَالِبَ لَكُمۡۖ وَإِن يَخۡذُلۡكُمۡ فَمَن ذَا ٱلَّذِي يَنصُرُكُم مِّنۢ بَعۡدِهِۦۗ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 145
(160) अल्लाह तुम्हारी मदद पर हो तो कोई ताक़त तुमपर ग़ालिब आनेवाली नहीं और अगर वह तुम्हें छोड़ दे तो उसके बाद कौन है जो तुम्हारी मदद कर सकता हो? इसलिए जो सच्चे ईमानवाले हैं उनको अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।
وَمَا كَانَ لِنَبِيٍّ أَن يَغُلَّۚ وَمَن يَغۡلُلۡ يَأۡتِ بِمَا غَلَّ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ ثُمَّ تُوَفَّىٰ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 146
(161) किसी नबी का यह काम नहीं हो सकता कि वह ख़ियानत कर जाए114 — और जो कोई ख़ियानत करे तो वह अपनी ख़ियानत समेत क़ियामत के दिन हाज़िर हो जाएगा, फिर हर किसी को उसकी कमाई का पूरा-पूरा बदला मिल जाएगा और किसी पर कुछ ज़ुल्म न होगा।
114. जिन तीरन्दाज़ों को नबी (सल्ल०) ने पीछे के दर्रे की तरफ़ हिफ़ाज़त के लिए बिठाया था, उन्होंने जब देखा कि दुश्मन के लश्कर को लूटा जा रहा है तो उनको अन्देशा हुआ कि कहीं ग़नीमत का सारा माल उन्हीं लोगों को न मिल जाए जो उसे लूट रहे हैं और हम बँटवारे के वक़्त महरूम रह जाएँ। इसी वजह से उन्होंने अपनी जगह छोड़ दी थी। लड़ाई ख़त्म होने के बाद जब नबी (सल्ल०) मदीना वापस आए तो आपने उन लोगों को बुलाकर इस नाफ़रमानी की वजह मालूम की। उन्होंने जवाब में कुछ वजहें बताईं जो बहुत कमज़ोर थीं। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “अस्ल बात यह है कि तुमको हमपर इत्मीनान न था, तुमने यह गुमान किया कि हम तुम्हारे साथ ख़ियानत (धोखा) करेंगे और तुमको हिस्सा नहीं देंगे।”इस आयत में इसी मामले की तरफ़ इशारा किया गया है। अल्लाह के फ़रमान का मतलब यह है कि जब तुमारी फ़ौज का कमाँडर ख़ुद अल्लाह का नबी था और सारे मामले उसके हाथ में थे, तो तुम्हारे मन में यह अन्देशा कैसे पैदा हुआ कि नबी के हाथ में तुम्हारा फ़ायदा और भलाई महफ़ूज़ (सुरक्षित) न होगा। क्या अल्लाह के पैग़म्बर से यह उम्मीद रखते हो कि जो माल उसकी निगरानी में हो वह ईमानदारी, दयानतदारी और इनसाफ़ के सिवा किसी और तरीक़े से भी तक़सीम हो सकता है।
أَفَمَنِ ٱتَّبَعَ رِضۡوَٰنَ ٱللَّهِ كَمَنۢ بَآءَ بِسَخَطٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَمَأۡوَىٰهُ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 147
(162) भला यह कैसे हो सकता है कि जो शख़्स हमेशा अल्लाह की मरज़ी पर चलनेवाला हो वह उस शख़्स जैसा काम करे जो अल्लाह के अज़ाब में घिर गया हो और जिसका आख़िरी ठिकाना जहन्नम हो, जो सबसे बुरा ठिकाना है?
هُمۡ دَرَجَٰتٌ عِندَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ بَصِيرُۢ بِمَا يَعۡمَلُونَ ۝ 148
(163) अल्लाह के नज़दीक दोनों तरह के आदमियों में बहुत बड़ा फ़र्क़ है और अल्लाह सबके आमाल (कर्मों) पर नज़र रखता है।
لَقَدۡ مَنَّ ٱللَّهُ عَلَى ٱلۡمُؤۡمِنِينَ إِذۡ بَعَثَ فِيهِمۡ رَسُولٗا مِّنۡ أَنفُسِهِمۡ يَتۡلُواْ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتِهِۦ وَيُزَكِّيهِمۡ وَيُعَلِّمُهُمُ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحِكۡمَةَ وَإِن كَانُواْ مِن قَبۡلُ لَفِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 149
(164) हक़ीक़त में ईमानवालों पर तो अल्लाह ने यह बहुत बड़ा एहसान किया है कि उनके बीच ख़ुद उन्हीं में से एक ऐसा पैग़म्बर उठाया जो उसकी आयतें उन्हें सुनाता है, उनकी ज़िन्दगियों को सँवारता है और उनको किताब और दानाई (गहरी समझ) की तालीम (शिक्षा) देता है हालाँकि इससे पहले यही लोग खुली गुमराहियों में पड़े हुए थे।
أَوَلَمَّآ أَصَٰبَتۡكُم مُّصِيبَةٞ قَدۡ أَصَبۡتُم مِّثۡلَيۡهَا قُلۡتُمۡ أَنَّىٰ هَٰذَاۖ قُلۡ هُوَ مِنۡ عِندِ أَنفُسِكُمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 150
(165) और यह तुम्हारा क्या हाल है कि जब तुमपर मुसीबत आ पड़ी तो तुम कहने लगे, यह कहाँ से आई?115 हालाँकि (बद्र की लड़ाई में) इससे दो गुनी मुसीबत तुम्हारे हाथों (दुश्मनों पर) पड़ चुकी है।116 ऐ नबी! इनसे कहो, यह मुसीबत तुम्हारी अपनी लाई हुई है,117 अल्लाह को हर चीज़ पर क़ुदरत हासिल है।118
115. बड़े-बड़े सहाबा तो हक़ीक़त को समझते थे और किसी ग़लतफहमी में नहीं पड़ सकते थे। मगर आम मुसलमान यह समझ रहे थे कि जब अल्लाह का रसूल (सल्ल०) हमारे बीच मौजूद है और अल्लाह की हिमायत और उसकी मदद हमारे साथ है तो किसी हाल में दुश्मन हम पर जीत हासिल कर ही नहीं सकते। इसलिए जब उहुद में उनकी हार हुई तो उनकी उम्मीदों को बड़ा धक्का लगा और उन्होंने हैरान होकर पूछना शुरू किया कि यह क्या हुआ? हम अल्लाह के दीन के लिए लड़ने गए, उसकी मदद का वादा हमारे साथ था, उसका रसूल ख़ुद लड़ाई के मैदान में मौजूद था और फिर भी हम हार गए? और हारे भी उनसे जो अल्लाह के दीन को मिटाने आए ये? ये आयतें इसी हैरानी को दूर करने के लिए उतरी हैं।
116. उहुद की लड़ाई में मुसलमानों के 70 आदमी शहीद हुए। इसके मुक़ाबले में बद्र की लड़ाई में दुश्मन के 70 आदमी मुसलमानों के हाथों मारे गए थे और 70 आदमी गिरफ़्तार होकर आए थे।
117.यानी यह (परेशानी) तुम्हारी अपनी कमज़ोरियों और ग़लतियों का नतीजा है। तुमने सब्र का दामन हाथ से छोड़ा, कुछ काम तक़वा (ईश-भय और संयम) के ख़िलाफ़ किए, (अपने कमाँडर की ख़िलाफ़वर्ज़ी की, माल के लालच में पड़े, आपस में झगड़े और इख़्तिलाफ़ किए, फिर क्यों पूछते हो कि यह मुसीबत कहाँ से आई?
118. यानी अल्लाह अगर तुम्हें फ़तह दिलाने की ताक़त रखता है तो शिकस्त (पराजय) दिलाने की ताक़त भी रखता है।
وَمَآ أَصَٰبَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡتَقَى ٱلۡجَمۡعَانِ فَبِإِذۡنِ ٱللَّهِ وَلِيَعۡلَمَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 151
(166) जो नुक़सान लड़ाई के दिन तुम्हें पहुँचा वह अल्लाह की इजाज़त से था और इसलिए था कि अल्लाह देख ले कि तुममें से ईमानवाले कौन हैं
وَلِيَعۡلَمَ ٱلَّذِينَ نَافَقُواْۚ وَقِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ قَٰتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَوِ ٱدۡفَعُواْۖ قَالُواْ لَوۡ نَعۡلَمُ قِتَالٗا لَّٱتَّبَعۡنَٰكُمۡۗ هُمۡ لِلۡكُفۡرِ يَوۡمَئِذٍ أَقۡرَبُ مِنۡهُمۡ لِلۡإِيمَٰنِۚ يَقُولُونَ بِأَفۡوَٰهِهِم مَّا لَيۡسَ فِي قُلُوبِهِمۡۚ وَٱللَّهُ أَعۡلَمُ بِمَا يَكۡتُمُونَ ۝ 152
(167) और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) कौन। वे मुनाफ़िक कि जब उनसे कहा गया “आओ, अल्लाह की राह में लड़ो या कम-से-कम (अपने शहर की हिफ़ाज़त ही करो, तो कहने लगे, “अगर हम जानते कि आज लड़ाई होगी तो हम ज़रूर तुम्हारे साथ चलते।"119 यह बात जब वे कह रहे थे उस वक़्त वे ईमान के मुक़ाबले कुफ़्र (इनकार) से ज़्यादा क़रीब थे। वे अपनी ज़बानों से वे बातें कहते हैं जो उनके दिलों में नहीं होती, और जो कुछ वे दिलों में छिपाते हैं अल्लाह उसे ख़ूब जानता है।
119. अब्दुल्लाह-बिन-उबई जब तीन सौ मुनाफ़िक़ों को अपने साथ लेकर रास्ते से पलटने लगा तो कुछ मुसलमानों ने जाकर उसे समझाने की कोशिश की और साथ चलने के लिए तैयार करना चाहा। मगर उसने जवाब दिया कि हमें यक़ीन है कि आज लड़ाई नहीं होगी, इसलिए हम जा रहे हैं। वरना अगर हमें उम्मीद होती कि आज लड़ाई होगी तो हम ज़रूर तुम्हारे साथ चलते।
ٱلَّذِينَ قَالُواْ لِإِخۡوَٰنِهِمۡ وَقَعَدُواْ لَوۡ أَطَاعُونَا مَا قُتِلُواْۗ قُلۡ فَٱدۡرَءُواْ عَنۡ أَنفُسِكُمُ ٱلۡمَوۡتَ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 153
(168) ये वही लोग हैं जो ख़ुद तो बैठे रहे और उनके जो भाई-बन्धु लड़ने गए और मारे गए, उनके बारे में उन्होंने कह दिया कि अगर वे हमारी बात मान लेते तो न मारे जाते। इनसे कहो कि अगर तुम अपनी इस बात में सच्चे हो तो ख़ुद तुम्हारी मौत जब आए तो उसे टालकर दिखा देना।
وَلَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ قُتِلُواْ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ أَمۡوَٰتَۢاۚ بَلۡ أَحۡيَآءٌ عِندَ رَبِّهِمۡ يُرۡزَقُونَ ۝ 154
(169) जो लोग अल्लाह की राह में क़त्ल हुए हैं उन्हें मुर्दा न समझो, वे तो हक़ीक़त में ज़िन्दा हैं,120 अपने रब के पास रोज़ी पा रहे हैं,
120. तशरीह (व्याख्या) के लिए देखिए; सूरा-2 (अल-बक़रा), हाशिया-155, आपकी आसानी के लिए यहाँ लिख दिया गया है।
فَرِحِينَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ وَيَسۡتَبۡشِرُونَ بِٱلَّذِينَ لَمۡ يَلۡحَقُواْ بِهِم مِّنۡ خَلۡفِهِمۡ أَلَّا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 155
(170) जो कुछ अल्लाह ने अपनी मेहरबानी से उन्हें दिया है उसपर बहुत ख़ुशो-ख़ुर्रम (प्रसन्न) हैं,121 और मुत्मइन हैं कि जो ईमानवाले उनके पीछे दुनिया में रह गए हैं और अभी वहाँ नहीं पहुँचे हैं, उनके लिए भी किसी डर और रंज का मौक़ा नहीं है।
121. हदीस की किताब 'मुस्नद अहमद' में नबी (सल्ल०) की एक हदीस है, जिसमें नबी (सल्ल०) ने कहा है कि जो शख़्स नेक अमल लेकर दुनिया से जाता है उसे अल्लाह के यहाँ इतनी ख़ुशियों से भरी और मस्ती भरी ज़िन्दगी मिलती है जिसके बाद वह कभी दुनिया में वापस आने की तमन्ना नहीं करता, मगर शहीद इससे अलग है। वह तमन्ना करता है कि उसे फिर से दुनिया में भेजा जाए और फिर उस मज़े, सुरूर और उस नशे से लुत्फ़ उठाए जो अल्लाह की राह में जान देते वक़्त उसे हासिल हुआ है।
۞يَسۡتَبۡشِرُونَ بِنِعۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَضۡلٖ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَا يُضِيعُ أَجۡرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 156
(171) वे अल्लाह के इनाम और उसकी रहमत पर बहुत ख़ुश हैं और उनको मालूम हो चुका है कि अल्लाह ईमानवालों के अज्र ज़ाया (विनष्ट) नहीं करता।
ٱلَّذِينَ ٱسۡتَجَابُواْ لِلَّهِ وَٱلرَّسُولِ مِنۢ بَعۡدِ مَآ أَصَابَهُمُ ٱلۡقَرۡحُۚ لِلَّذِينَ أَحۡسَنُواْ مِنۡهُمۡ وَٱتَّقَوۡاْ أَجۡرٌ عَظِيمٌ ۝ 157
(172) (ऐसे ईमानवालों के बदले को) जिन्होंने ज़ख़्म खाने के बाद भी अल्लाह और रसूल की पुकार पर लब्बैक़ (मैं हाज़िर हूँ) कहा122 उनमें जो लोग नेक और परहेज़गार हैं, उनके लिए बड़ा बदला है
122. उहुद की जंग से पलटकर जब मक्का के मुशरिक (बहुदेववादी) कई मंज़िल दूर चले गए, तो उन्हें होश आया और उन्होंने आपस में कहा कि यह हमने क्या हरकत की कि मुहम्मद की ताक़त को तोड़ देने का जो सुनहरा मौक़ा मिला था, उसे खोकर चले आए। चुनाँचे एक जगह ठहरकर उन्होंने आपस में मश्वरा किया कि मदीने पर फ़ौरन ही दूसरा हमला कर दिया जाए। लेकिन फिर हिम्मत न पड़ी और मक्का वापस चले गए। उधर नबी (सल्ल०) को भी अन्देशा था कि ये लोग कहीँ फिर न पलट आएँ। इसलिए उहुद की जंग के दूसरे ही दिन आप (सल्ल०) ने मुसलमानों को जमा करके फ़रमाया कि मक्का के पीछे चलना चाहिए। यह अगरचे नाज़ुक मौक़ा था, मगर फिर भी जो सच्चे मोमिन थे, वे जान क़ुरबान करने के लिए आमादा हो गए और नबी (सल्ल०) के साथ हुमराउल-असद तक गए जो मदीना से 8 मील की दूरी पर है। इस आयत का इशारा इन्ही फ़िदाकारों की तरफ़ है।
ٱلَّذِينَ قَالَ لَهُمُ ٱلنَّاسُ إِنَّ ٱلنَّاسَ قَدۡ جَمَعُواْ لَكُمۡ فَٱخۡشَوۡهُمۡ فَزَادَهُمۡ إِيمَٰنٗا وَقَالُواْ حَسۡبُنَا ٱللَّهُ وَنِعۡمَ ٱلۡوَكِيلُ ۝ 158
(173) – जिनसे123 लोगों ने कहा कि “तुम्हारे ख़िलाफ़ बड़ी फ़ौजें जमा हुई हैं, उनसे डरो", तो यह सुनकर उनका ईमान और बढ़ गया और उन्होंने जवाब दिया कि “हमारे लिए अल्लाह काफ़ी है और वही सबसे अच्छा काम बनानेवाला है।”
123.ये कुछ आयतें उहुद की लड़ाई के एक साल बाद उतरी थीं, मगर चूँकि उनका ताल्लुक़ उहुद ही के वाक़िए के सिलसिले से था, इसलिए उनको भी इस तक़रीर में शामिल कर दिया गया।
فَٱنقَلَبُواْ بِنِعۡمَةٖ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَضۡلٖ لَّمۡ يَمۡسَسۡهُمۡ سُوٓءٞ وَٱتَّبَعُواْ رِضۡوَٰنَ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ ذُو فَضۡلٍ عَظِيمٍ ۝ 159
(174) आख़िरकार वे अल्लाह की नेमत और मेहरबानी के साथ पलट आए। उनको किसी तरह की तकलीफ़ भी न पहुँची और अल्लाह की मरज़ी पर चलने का सौभाग्य भी उन्हें हासिल हो गया, अल्लाह बड़ा फ़ज़्ल करनेवाला है।
إِنَّمَا ذَٰلِكُمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ يُخَوِّفُ أَوۡلِيَآءَهُۥ فَلَا تَخَافُوهُمۡ وَخَافُونِ إِن كُنتُم مُّؤۡمِنِينَ ۝ 160
(175) अब तुम्हें मालूम हो गया कि वह हक़ीक़त में शैतान था जो अपने दोस्तों से बेवजह डरा रहा था, इसलिए अब तुम इनसानों से न डरना, मुझसे डरना अगर तुम हक़ीक़त में ईमानवाले हो।124
124. उहुद से वापस होते हुए अबू-सुफ़ियान मुसलमानों को चुनौती दे गया था कि अगले साल बद्र में हमारा-तुम्हारा फिर मुक़ाबला होगा। मगर जब वादे का वक़्त करीब आया तो उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया, क्योंकि उस साल मक्का में अकाल पड़ा था। इसलिए उसने पहलू बचाने के लिए यह तदबीर की कि ख़ुफ़िया तौर पर एक आदमी को मदीना भेजा जिसने वहाँ पहुँचकर मुसलमानों में ये ख़बरें फैलानी शुरू कीं कि इस साल क़ुरैश ने बड़ी ज़बरदस्त तैयारी की है और ऐसी भारी फौज जमा कर रहे हैं जिसका मुक़ाबला पूरे अरब में कोई न कर सकेगा। इससे मक़सद यह था कि मुसलमान डरकर अपनी जगह रह जाएँ और मुक़ाबले पर न आने की ज़िम्मेदारी उन्हीं पर रहे। अबू-सुफ़ियान की इस चाल का यह असर हुआ कि जब हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) ने बद्र की तरफ़ चलने के लिए मुसलमानों से अपील की तो उसका कोई हिम्मत भरा जवाब न मिला। आख़िरकार अल्लाह के रसूल ने तमाम लोगों के सामने एलान कर दिया कि अगर कोई न जाएगा तो में अकेला जाऊँगा। इसपर 1500 फ़िदाकार आपके साथ चलने के लिए तैयार हो गए और आप इन्हीं को लेकर बद्र के मैदान में पहुँच गए। उधर से अबू-सुफ़ियान दो हज़ार की फ़ौज लेकर चला, मगर दो दिन का रास्ता तय करने के बाद उसने अपने साथियों से कहा कि इस साल लड़ना मुनासिब नहीं मालूम होता, अगले साल आएँगे। इसलिए अबू-सुफ़ियान और उसके साथी वापस हो गए। हज़रत मुहम्मद (सल्ल०) आठ दिन तक बद्र नामी जगह पर उसके इन्तिज़ार में ठहरे रहे और इस बीच आपके साथियों ने एक कारोबारी काफ़िले से कारोबार करके ख़ूब माली फ़ायदा उठाया, फिर जब यह ख़बर मिल गई कि दुश्मन वापस चले गए तो आप (सल्ल०) मदीना वापस तशरीफ़ ले आए।
وَلَا يَحۡزُنكَ ٱلَّذِينَ يُسَٰرِعُونَ فِي ٱلۡكُفۡرِۚ إِنَّهُمۡ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۚ يُرِيدُ ٱللَّهُ أَلَّا يَجۡعَلَ لَهُمۡ حَظّٗا فِي ٱلۡأٓخِرَةِۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 161
(176) ( ऐ पैग़म्बर!) जो लोग आज कुफ़्र (इनकार और अधर्म) के रास्ते में बड़ी दौड़-धूप कर रहे हैं उनकी सरगर्मियों से तुम दुखी न हो, ये अल्लाह का कुछ भी न बिगाड़ सकेंगे। अल्लाह का इरादा यह है कि उनके लिए आख़िरत में कोई हिस्सा न रखे। और आख़िरकार उनको सख़्त सज़ा मिलनेवाली है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ٱشۡتَرَوُاْ ٱلۡكُفۡرَ بِٱلۡإِيمَٰنِ لَن يَضُرُّواْ ٱللَّهَ شَيۡـٔٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 162
(177) जो लोग ईमान को छोड़कर कुफ़्र (इनकार) के ख़रीदार बने हैं, वे यक़ीनन अल्लाह का कोई नुक़सान नहीं कर रहे हैं, उनके लिए दर्दनाक अज़ाब तैयार है।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَنَّمَا نُمۡلِي لَهُمۡ خَيۡرٞ لِّأَنفُسِهِمۡۚ إِنَّمَا نُمۡلِي لَهُمۡ لِيَزۡدَادُوٓاْ إِثۡمٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 163
(178) यह ढील जो हम उन्हें दिए जाते हैं उसको ये काफ़िर (अधर्मी) अपने लिए अच्छी न समझें, हम तो उन्हें इसलिए ढील दे रहे हैं कि ये अच्छी तरह गुनाहों का बोझ समेट लें, फिर उनके लिए सख़्त रुसवा करनेवाली सज़ा है।
مَّا كَانَ ٱللَّهُ لِيَذَرَ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ عَلَىٰ مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ حَتَّىٰ يَمِيزَ ٱلۡخَبِيثَ مِنَ ٱلطَّيِّبِۗ وَمَا كَانَ ٱللَّهُ لِيُطۡلِعَكُمۡ عَلَى ٱلۡغَيۡبِ وَلَٰكِنَّ ٱللَّهَ يَجۡتَبِي مِن رُّسُلِهِۦ مَن يَشَآءُۖ فَـَٔامِنُواْ بِٱللَّهِ وَرُسُلِهِۦۚ وَإِن تُؤۡمِنُواْ وَتَتَّقُواْ فَلَكُمۡ أَجۡرٌ عَظِيمٞ ۝ 164
(179) अल्लाह ईमानवालों को इस हालत में हरगिज़ नहीं रहने देगा जिसमें तुम लोग इस वक़्त पाए जाते हो।125 वह पाक लोगों को नापाक लोगों से अलग करके रहेगा। मगर अल्लाह का यह तरीक़ा नहीं है कि तुम लोगों पर ग़ैब (परोक्ष) को ज़ाहिर कर दें।126 ग़ैब की बातें बताने के बारे में तो अल्लाह अपने रसूलों में से जिसको चाहता है चुन लेता है, इसलिए (ग़ैब की बातों के बारे में) अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान विश्वास) रखो। अगर तुम ईमान और परहेज़गारी की रविश पर चलोगे तो तुमको बड़ा बदला मिलेगा।
125. यानी अल्लाह मुसलमानों की जमाअत को इस हालत में देखना पसन्द नहीं करता कि उनके बीच सच्चे ईमानवाले और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) सब ख़लत-मलत रहें।
126.यानी ईमानवाले और मुनाफ़िक़ की पहचान नुमायाँ करने के लिए अल्लाह यह तरीक़ा नहीं अपनाया करता कि ग़ैब (परोक्ष) से मुसलमानों को दिलों का हाल बता दे कि फ़ुलाँ ईमानवाला है और फ़ुलाँ मुनाफ़िक़, बल्कि उसके हुक्म से इम्तिहान के ऐसे मौक़े पेश आएँगे जिनमें तजरिबे से मोमिन और मुनाफ़िक़ की हालत साफ़ हो जाएगी।
وَلَا يَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ يَبۡخَلُونَ بِمَآ ءَاتَىٰهُمُ ٱللَّهُ مِن فَضۡلِهِۦ هُوَ خَيۡرٗا لَّهُمۖ بَلۡ هُوَ شَرّٞ لَّهُمۡۖ سَيُطَوَّقُونَ مَا بَخِلُواْ بِهِۦ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۗ وَلِلَّهِ مِيرَٰثُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 165
(180) जिन लोगों को अल्लाह ने अपने फ़्ज़्ल से नवाज़ा है और फिर वे कंजूसी से काम लेते हैं, वे यह न समझें कि यह कंजूसी उनके लिए अच्छी है। नहीं, यह उनके लिए बहुत ही बुरी है। जो कुछ वे अपनी कंजूसी से जमा कर रहे हैं वही क़ियामत के दिन उनके गले का तौक़ बन जाएगा। ज़मीन और आसमानों की मीरास अल्लाह ही के लिए है,127 और तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसे जानता है।
127. यानी ज़मीन और आसमान की जो चीज़ भी कोई मख़लूक़ (प्राणी) इस्तेमाल कर रही है, वह हक़ीक़त में अल्लाह की मिल्कियत है और उसपर किसी मख़लूक़ का क़ब्ज़ा और इख़्तियार वक़्ती है। हर एक को अपने क़ब्ज़े की चीज़ों से हर हाल में बेदख़ल होना है और आख़िरकार सब कुछ अल्लाह ही के पास रह जानेवाला है। इसलिए अक़्लमन्द है वह जो इस वक़्ती क़ब्ज़े के दौरान में अल्लाह के माल को अल्लाह की राह में दिल खोलकर ख़र्च करता है। और बड़ा बेवक़ूफ है वह जो उसे बचा-बचाकर रखने की कोशिश करता है।
لَّقَدۡ سَمِعَ ٱللَّهُ قَوۡلَ ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ فَقِيرٞ وَنَحۡنُ أَغۡنِيَآءُۘ سَنَكۡتُبُ مَا قَالُواْ وَقَتۡلَهُمُ ٱلۡأَنۢبِيَآءَ بِغَيۡرِ حَقّٖ وَنَقُولُ ذُوقُواْ عَذَابَ ٱلۡحَرِيقِ ۝ 166
(181) अल्लाह ने उन लोगों की बात सुनी जो कहते हैं कि अल्लाह फ़क़ीर है और हम धनी हैं।128 उनकी ये बातें भी हम लिख लेंगे और इससे पहले जो वे पैग़म्बरों को नाहक़ क़त्ल करते रहे हैं वह भी उनके आमालनामे में दर्ज है। (जब फ़ैसले का वक़्त आएगा, उस वक़्त) हम उनसे कहेंगे कि लो, अब जहन्नम के अज़ाब का मज़ा चखो,
128. यह कहना यहूदियों का था। क़ुरआन मजीद में जब यह आयत (2 : 245) आई 'कि (मन-ज़ल्लज़ी युक़रि-ज़ुल्ला-ह क़र्ज़न हस-ना) यानी कौन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दे' तो उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए यहूदियों ने कहना शुरू किया कि “जी हाँ, अल्लाह मियाँ मुहताज और ग़रीब हो गए हैं, अब वे बन्दों से क़र्ज़ माँग रहे हैं।"
ذَٰلِكَ بِمَا قَدَّمَتۡ أَيۡدِيكُمۡ وَأَنَّ ٱللَّهَ لَيۡسَ بِظَلَّامٖ لِّلۡعَبِيدِ ۝ 167
(182) यह तुम्हारे अपने हाथों की कमाई है, अल्लाह अपने बन्दों के लिए ज़ालिम नहीं है।
ٱلَّذِينَ قَالُوٓاْ إِنَّ ٱللَّهَ عَهِدَ إِلَيۡنَآ أَلَّا نُؤۡمِنَ لِرَسُولٍ حَتَّىٰ يَأۡتِيَنَا بِقُرۡبَانٖ تَأۡكُلُهُ ٱلنَّارُۗ قُلۡ قَدۡ جَآءَكُمۡ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِي بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَبِٱلَّذِي قُلۡتُمۡ فَلِمَ قَتَلۡتُمُوهُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 168
(183) जो लोग कहते हैं कि “अल्लाह ने हमको हिदायत कर दी है कि हम किसी को रसूल तस्लीम न करें, जब तक वह हमारे सामने ऐसी क़ुरबानी न करे जिसे (ग़ैब से आकर) आग खा ले।” उनसे कहो, “तुम्हारे पास मुझसे पहले बहुत-से रसूल आ चुके हैं, जो बहुत-सी रौशन निशानियाँ लाए थे और वह निशानी भी लाए थे जिसका ज़िक्र तुम करते हो, फिर अगर (ईमान लाने के लिए यह शर्त पेश करने में) तुम सच्चे हो तो उन रसूलों को तुमने क्यों क़त्ल किया?”129
128. यह कहना यहूदियों का था। क़ुरआन मजीद में जब यह आयत (2 : 245) आई 'कि (मन-ज़ल्लज़ी युक़रि-ज़ुल्ला-ह क़र्ज़न हस-ना) यानी कौन है जो अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दे' तो उसका मज़ाक़ उड़ाते हुए यहूदियों ने कहना शुरू किया कि “जी हाँ, अल्लाह मियाँ मुहताज और ग़रीब हो गए हैं, अब वे बन्दों से क़र्ज़ माँग रहे हैं।" 129. बाइबल में बहुत-सी जगहों पर यह बात बयान हुई है कि ख़ुदा के यहाँ किसी क़ुरबानी के क़ुबूल किए जाने की पहचान यह थी कि ग़ैब से एक आग निकलकर उसे भस्म कर देती थी (न्यायियों, 6:20, 21 और 13:19, 20) इसके अलावा यह बयान भी बाइबल में आता है कि कुछ मौक़ों पर कोई नबी जलानेवाली क़ुरबानी करता था; और एक ग़ैबी आग आकर उसे खा लेती थी। (लैव्यव्यवस्था 9: 24, इतिहास भाग-2, 1:7)। लेकिन यह किसी जगह भी नहीं लिखा कि इस तरह की क़ुरबानी नुबूवत की कोई लाज़िमी निशानी है या यह कि जिस आदमी को यह मोजिज़ा (चमत्कार) न दिया गया हो वह हरगिज़ नबी नहीं हो सकता। यह सिर्फ़ एक मनगढ़ंत बहाना था यहूदियों ने मुहम्मद (सल्ल०) के नबी होने का इनकार करने के लिए गढ़ लिया था, लेकिन इससे भी बढ़कर उनकी हक़-दुश्मनी का सुबूत यह था कि ख़ुद बनी-इसराईल के नबियों में से कुछ नबी ऐसे गुज़रे हैं जिन्होंने आग की इस क़ुरबानी का मोजिज़ा पेश किया और फिर भी ये जुर्म करने के आदी लोग उनके क़त्ल करने से नहीं रुके। मिसाल के तौर पर बाइबल में हज़रत इलियास (एलिय्याह तिशबी) के बारे में लिखा है कि उन्होंने बअल के पुजारियों को चुनौती दी कि आम लोगों के बीच में एक बैल की क़ुरबानी तुम करो और एक की क़ुरबानी में करता हूँ। जिसकी क़ुरबानी को ग़ैबी (परोक्ष की) आग खा ले वही हक़ पर है। चुनाँचे लोगों की एक भारी भीड़ के सामने यह मुक़ाबला हुआ और ग़ैबी आग ने हज़रत इलियास की क़ुरबानी खाई। लेकिन इसका जो कुछ नतीजा निकला वह यह था कि इसराईल के बादशाह की बअल की पुजारिन रानी हज़रत इलियास (अलैहि०) की दुश्मन हो गई। और वह औरत-परस्त बादशाह अपनी बीवी महारानी के लिए हज़रत इलियास (अलैहि०) को क़त्ल कर देने पर उतारू हुआ और मजबूरन मुल्क से निकलकर हज़रत इलियास (अलैहि०) को सीना प्रायद्वीप के पहाड़ों में पनाह लेनी पड़ी (1-राजा, अध्याय 18, 19) । इसी लिए कहा गया कि हक़ के दुश्मनो! तुम किस मुँह से आग की क़ुरबानी का मोजिज़ा माँगते हो? जिन पैग़म्बरों ने यह मोजिज़ा दिखाया था उन्हीं के क़त्ल से तुम कब बाज़ रहे।
فَإِن كَذَّبُوكَ فَقَدۡ كُذِّبَ رُسُلٞ مِّن قَبۡلِكَ جَآءُو بِٱلۡبَيِّنَٰتِ وَٱلزُّبُرِ وَٱلۡكِتَٰبِ ٱلۡمُنِيرِ ۝ 169
(184) अब ऐ नबी! अगर ये लोग तुम्हें झुठलाते हैं तो बहुत-से रसूल तुमसे पहले झुठलाए जा चुके हैं, जो खुली-खुली निशानियाँ और सहीफ़े (ग्रंथ) और रौशनी देनेवाली किताबें लाए थे।
كُلُّ نَفۡسٖ ذَآئِقَةُ ٱلۡمَوۡتِۗ وَإِنَّمَا تُوَفَّوۡنَ أُجُورَكُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ فَمَن زُحۡزِحَ عَنِ ٱلنَّارِ وَأُدۡخِلَ ٱلۡجَنَّةَ فَقَدۡ فَازَۗ وَمَا ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَآ إِلَّا مَتَٰعُ ٱلۡغُرُورِ ۝ 170
(185) आख़िरकार हर एक को मरना है और तुम सब अपना-अपना पूरा बदला क़ियामत के दिन पानेवाले हो। कामयाब अस्ल में वह है जो वहाँ दोज़ख़ की आग से बच जाए और जन्नत में दाख़िल कर दिया जाए। रही यह दुनिया, तो यह सिर्फ़ एक खुले धोखे की चीज़ है।130
130. यानी इस दुनिया की ज़िन्दगी में जो नतीजे सामने आते हैं उन्हीं को अगर कोई इनसान असली और आख़िरी नतीजा समझ बैठे और उन्हीं पर हक़ और नाहक़ और कामयाबी और नाकामी के फ़ैसले की बुनियाद रखे, तो हक़ीक़त में वह बड़े धोखे में पड़ जाएगा। यहाँ किसी पर नेमतों की बारिश होना इस बात का सुबूत नहीं है कि वही हक़ पर भी है और वही अल्लाह का क़रीबी बन्दा है। और इसी तरह यहाँ किसी का मुसीबतों और मुश्किलों में पड़ना भी यक़ीनी तौर पर यह मानी नहीं रखता कि वह हक़ पर नहीं है और अल्लाह के यहाँ का ठुकराया हुआ है। ज़्यादातर इस शुरू के मरहले के नतीजे उन आख़िरी नतीजों के बरख़िलाफ़ होते हैं जो हमेशा की ज़िन्दगी के मरहले में पेश आनेवाले हैं, और अस्ल एतिबार (भरोसा) उन्हीं नतीजों का है।
تُولِجُ ٱلَّيۡلَ فِي ٱلنَّهَارِ وَتُولِجُ ٱلنَّهَارَ فِي ٱلَّيۡلِۖ وَتُخۡرِجُ ٱلۡحَيَّ مِنَ ٱلۡمَيِّتِ وَتُخۡرِجُ ٱلۡمَيِّتَ مِنَ ٱلۡحَيِّۖ وَتَرۡزُقُ مَن تَشَآءُ بِغَيۡرِ حِسَابٖ ۝ 171
(27) रात को दिन में पिरोता हुआ ले आता है और दिन को रात में। बेजान में से जानदार को निकालता है और जानदार में से बेजान को। और जिसे चाहता है बेहिसाब रोज़ी देता है।24
24. जब इनसान एक तरफ़ हक़ के इनकारियों और नाफ़रमानों की करतूत देखता है और फिर यह देखता है कि वे दुनिया में किस तरह फल-फूल रहे हैं, दूसरी तरफ़ ईमानवालों की फ़रमाँबरदारियाँ देखता है और फिर उनको उस ग़रीबी, मुफ़लिसी और उन मुसीबतों और दुखों का शिकार देखता है जिनमें नबी (सल्ल०) और आपके सहाबा किराम सन् 03 हिo और उसके आस-पास के ज़माने में शिकार थे, तो क़ुदरती तौर पर उसके दिल में एक अजीब हसरत भरा सवाल घूमने लगता है। अल्लाह तआला ने यहाँ इसी सवाल का जवाब दिया है और ऐसे लतीफ़ (सूक्ष्म) अन्दाज़ में दिया है कि इससे ज़्यादा लताफ़त (सूक्ष्मता) का तसव्वुर नहीं किया जा सकता।
لَّا يَتَّخِذِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ٱلۡكَٰفِرِينَ أَوۡلِيَآءَ مِن دُونِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَلَيۡسَ مِنَ ٱللَّهِ فِي شَيۡءٍ إِلَّآ أَن تَتَّقُواْ مِنۡهُمۡ تُقَىٰةٗۗ وَيُحَذِّرُكُمُ ٱللَّهُ نَفۡسَهُۥۗ وَإِلَى ٱللَّهِ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 172
(28) ईमानवाले ईमानवालों को छोड़कर (हक़ का) इनकार करनेवालों को अपना दोस्त और मददगार हरगिज़ न बनाएँ। जो ऐसा करेगा उसका अल्लाह से कोई ताल्लुक़ नहीं। हाँ, यह माफ़ है कि तुम उनके ज़ुल्म से बचने के लिए ऊपरी तौर पर यह रवैया अपना लो25। और अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और तुम्हें उसी की तरफ़ पलटकर जाना है26।
25. यानी अगर कोई ईमानवाला किसी इस्लाम-दुश्मन गरोह के चंगुल में फँस गया हो और उसे उनके ज़ुल्म व सितम का डर हो, तो उसको इजाज़त है कि अपने ईमान को छिपाए रखे और इस्लाम के उन दुश्मनों के साथ ज़ाहिर में इस तरह रहे कि मानो उन्हीं में का एक आदमी है या अगर उसका मुसलमान होना ज़ाहिर हो गया हो तो अपनी जान बचाने के लिए वह दुश्मनों के साथ दोस्ताना रवैये का इज़हार कर सकता है। यहाँ तक कि सख़्त डर की हालत में जो शख़्स बरदाश्त की ताक़त न रखता हो उसको कलिम-ए-कुफ़्र यानी दीन के ख़िलाफ़ बात भी कह जाने की छूट है।
26. यानी कहीं इनसानों का डर तुमपर इतना न छा जाए कि ख़ुदा का डर दिल से निकल जाए। इनसान ज़्यादा-से-ज़्यादा तुम्हारी दुनिया बिगाड़ सकते हैं, मगर अल्लाह तुम्हें हमेशा का अज़ाब दे सकता है। इसलिए अपने बचाव के लिए अगर मजबूरी की हालत में कभी इस्लाम के दुश्मनों के साथ हीले-हवाले और बहानेबाज़ी की बात करनी पड़े, तो वह बस इस हद तक होनी चाहिए कि इस्लाम के मिशन और इस्लामी गरोह के फ़ायदे और किसी मुसलमान की जान-माल को नुक़सान पहुँचाए बिना तुम अपनी जान व माल की हिफ़ाज़त कर लो। लेकिन ख़बरदार! कुफ़्र या इस्लाम-दुश्मनों की कोई ऐसी ख़िदमत तुम्हारे हाथों अंजाम न होने पाए कि जिससे इस्लाम के मुक़ाबले में कुफ़्र को बढ़ावा मिलने और मुसलमानों पर इस्लाम-दुश्मनों के ग़ालिब आ जाने का इमकान हो। ख़ूब समझ लीजिए कि अगर अपने आपको बचाने के लिए तुमने अल्लाह के दीन को या ईमानवालों के गरोह को या किसी एक मुसलमान को भी नुक़सान पहुँचाया या ख़ुदा के बाग़ियों की कोई सच्ची ख़िदमत की तो अल्लाह की पकड़ से हरगिज़ न बच सकोगे। हर हाल में तुमको उसी के पास जाना है।
قُلۡ إِن تُخۡفُواْ مَا فِي صُدُورِكُمۡ أَوۡ تُبۡدُوهُ يَعۡلَمۡهُ ٱللَّهُۗ وَيَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 173
(29) ऐ नबी! लोगों को ख़बरदार कर दो कि तुम्हारे दिलों में जो कुछ है, उसे चाहे तुम छिपाओ या ज़ाहिर करो, अल्लाह हर हाल में उसे जानता है। ज़मीन व आसमान की कोई चीज़ उसके इल्म से बाहर नहीं है, और उसका इक़तिदार (शासन) हर चीज़ पर हावी है।
يَوۡمَ تَجِدُ كُلُّ نَفۡسٖ مَّا عَمِلَتۡ مِنۡ خَيۡرٖ مُّحۡضَرٗا وَمَا عَمِلَتۡ مِن سُوٓءٖ تَوَدُّ لَوۡ أَنَّ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَهُۥٓ أَمَدَۢا بَعِيدٗاۗ وَيُحَذِّرُكُمُ ٱللَّهُ نَفۡسَهُۥۗ وَٱللَّهُ رَءُوفُۢ بِٱلۡعِبَادِ ۝ 174
(30) वह दिन आनेवाला है जब हर नफ़्स (प्राणी) अपने किए का फल मौजूद पाएगा, चाहे उसने भलाई की हो या बुराई। उस दिन आदमी यह तमन्ना करेगा कि काश! अभी यह दिन उससे बहुत दूर होता। अल्लाह तुम्हें अपने आपसे डराता है, और वह अपने बन्दों का ख़ैरख़ाह है।27
27. यानी यह उसकी इन्तहाई ख़ैरख़ाही है कि वह तुम्हें वक़्त से पहले ऐसे आमाल (कर्मों) पर सावधान कर रहा है जो तुम्हारे अंजाम की ख़राबी का सबब बन सकते हैं।
قُلۡ إِن كُنتُمۡ تُحِبُّونَ ٱللَّهَ فَٱتَّبِعُونِي يُحۡبِبۡكُمُ ٱللَّهُ وَيَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ ۝ 175
(31) ऐ नबी! लोगों से कह दो कि “अगर तुम हक़ीक़त में अल्लाह से मुहब्बत रखते हो तो मेरी पैरवी करो, अल्लाह तुमसे मुहब्बत करेगा और तुम्हारी ग़लतियों को माफ़ कर देगा। वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।”
قُلۡ أَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَۖ فَإِن تَوَلَّوۡاْ فَإِنَّ ٱللَّهَ لَا يُحِبُّ ٱلۡكَٰفِرِينَ ۝ 176
(32) उनसे कहो कि अल्लाह और रसूल की फ़रमाँबरदारी अपनाओ", फिर अगर वे तुम्हारी यह बात न मानें तो यक़ीनन यह मुमकिन नहीं है कि अल्लाह ऐसे लोगों से मुहब्बत करे जो उसकी और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी से इनकार करते हों।28
28. यहाँ पहली तक़रीर ख़त्म होती है। इसके मज़मून, ख़ुसूसन जंगे-बद्र की तरफ़ जो इशारा किया गया है, उसके अन्दाज़ पर ग़ौर करने से ज़्यादा अन्दाज़ा यही होता है कि इस तक़रीर के उतरने का ज़माना जंगे-बद्र के बाद जंगे-उहुद से पहले का है, यानी सन् 3 हिजरी। मुहम्मद-बिन-इसहाक़ की रिवायत से आम तौर पर लोगों को यह ग़लत फ़हमी हुई है कि इस सूरा की इब्तिदाई 80 आयतें नजरान के वफ़्द (प्रतिनिधिमंडल) के आने के मौक़े पर सन् 9 हिजरी में उतरी थीं। लेकिन अव्वल तो इस तमहीदी (भूमिका सम्बन्धी) तक़रीर का मज़मून साफ़ बता रहा है कि यह इससे बहुत पहले उतरी होगी, दूसरे मुक़ातिल-बिन-सुलैमान की रिवायत में वज़ाहत की गई है कि नजरान के वफ़्द के आने पर सिर्फ़ वे आयतें उतरी हैं जो हज़रत यह्या (अलैहि०) और हज़रत ईसा (अलैहि०) के बयान पर मुश्तमिल (आधारित) हैं और जिनकी तादाद 30 या उससे कुछ ज़्यादा है।
وَإِذۡ أَخَذَ ٱللَّهُ مِيثَٰقَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ لَتُبَيِّنُنَّهُۥ لِلنَّاسِ وَلَا تَكۡتُمُونَهُۥ فَنَبَذُوهُ وَرَآءَ ظُهُورِهِمۡ وَٱشۡتَرَوۡاْ بِهِۦ ثَمَنٗا قَلِيلٗاۖ فَبِئۡسَ مَا يَشۡتَرُونَ ۝ 177
(187) इन किताबवालों को वह वादा भी याद दिलाओ जो अल्लाह ने उनसे लिया था कि तुम्हें किताब की तालीमात को लोगों में फैलाना होगा, उन्हें छिपाकर रखना नहीं होगा।132 मगर उन्होंने किताब को पीठ पीछे डाल दिया और थोड़ी क़ीमत पर उसे बेच डाला। कितना बुरा कारोबार है जो ये कर रहे हैं!
132. यानी उन्हें यह तो याद रह गया कि कुछ पैग़म्बरों को आग में जलनेवाली क़ुरबानी निशानी के तौर पर दी गई थी, मगर यह याद नहीं रहा कि अल्लाह ने अपनी किताब उनके सिपुर्द करते वक़्त उनसे क्या वादा लिया था और किस बड़ी ख़िदमत की ज़िम्मेदारी उनपर डाली थी। यहाँ जिस वादे का ज़िक्र किया गया है, उसका ज़िक्र जगह-जगह बाइबल में मिलता है, ख़ास तौर से किताब व्यवस्थाविवरण में हज़रत मूसा (अलैहि०) की जो आख़िरी तक़रीर बयान की गई है, उसमें तो वे बार-बार बनी-इसराईल से वादा लेते हैं कि जो अहकाम मैंने तुमको पहुँचाए हैं उन्हें अपने दिल में बिठा लेना, और अपनी अगली नस्लों को सिखाना, घर बैठे और राह चलते और लेटते और उठते, हर वक़्त उनकी चर्चा करना, अपने घर की चौखटों पर और अपने फाटकों पर उनको लिख देना। (6:4-9) फिर अपनी आख़िरी वसीयत में उन्होंने ताकीद की कि फ़िलस्तीन की हद में दाख़िल होने के बाद पहला काम यह करना कि एबाल पहाड़ पर बड़े-बड़े पत्थर लगा कर तौरात के सारे अहकाम को उनपर लिख देना (व्यवस्थाविवरण, 27:2-4) । इसके साथ ही मूसा ने बनी-लावी को तौरात का एक नुस्ख़ा (प्रति) देकर ताकीद की कि हर सातवें साल ईदे-ख़ियाम (तम्बुओं के पर्व) के मौक़े पर क़ौम के मर्दो, औरतों और बच्चों सबको जगह-जगह जमा करके इस पूरी किताब का एक-एक लफ़्ज़ उनको सुनाते रहना (व्यवस्थाविवरण, 31:9-11), लेकिन इसपर भी अल्लाह की किताब से बनी-इसराईल की ग़फ़लत धीरे-धीरे यहाँ तक बढ़ी कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के सात सौ साल बाद हैकले-सुलैमानी के सज्जादा-नशीन और यरुशलम के यहूदी हाकिमों तक को यह मालूम न था कि उनके यहाँ तौरात नामी कोई किताब भी मौजूद है। (2-राजा, 22:8-13)
لَا تَحۡسَبَنَّ ٱلَّذِينَ يَفۡرَحُونَ بِمَآ أَتَواْ وَّيُحِبُّونَ أَن يُحۡمَدُواْ بِمَا لَمۡ يَفۡعَلُواْ فَلَا تَحۡسَبَنَّهُم بِمَفَازَةٖ مِّنَ ٱلۡعَذَابِۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 178
(188) तुम उन लोगों को अज़ाब से महफ़ूज़ (सुरक्षित) न समझो जो अपने करतूतों पर ख़ुश हैं और चाहते हैं कि ऐसे कामों की तारीफ़ उन्हें हासिल हो जो हक़ीक़त में उन्होंने नहीं किए हैं।133 हक़ीक़त में उनके लिए दर्दनाक सज़ा तैयार है।
133. मिसाल के तौर पर वे अपनी तारीफ़ में यह सुनना चाहते हैं कि हज़रत बड़े परहेज़गार हैं, दीनदार और पारसा हैं और दीन की बड़ी ख़िदमत करनेवाले और ख़ुदा के दीन के पक्के हामी हैं, समाज सुधारक और लोगों का तज़किया करनेवाले हैं। हालाँकि ये कुछ भी नहीं हैं। ये अपने लिए यह ढिंढोरा पिटवाना चाहते हैं कि फ़ुलाँ साहब बड़ी क़ुरबानी देनेवाले और दियानतदार (सत्यनिष्ठ) रहनुमा हैं और उन्होंने मिल्लत की बड़ी ख़िदमत की है, हालाँकि मामला बिलकुल इसके उलट है।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۗ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ ۝ 179
(189) ज़मीन और आसमानों का मालिक अल्लाह है, और उसकी क़ुदरत सब पर हावी है।
إِنَّ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ لَأٓيَٰتٖ لِّأُوْلِي ٱلۡأَلۡبَٰبِ ۝ 180
(190) ज़मीन134 और आसमानों की पैदाइश में और रात और दिन बारी-बारी से आने में उन होश रखनेवाले लोगों के लिए बहुत-सी निशानियाँ हैं
134. यह तक़रीर का आख़िरी हिस्सा है। इसका ताल्लुक़ ऊपर की क़रीबी आयतों में नहीं, बल्कि पूरी सूरा में तलाश करना चाहिए। इसको समझने के लिए ख़ास तौर से सूरा के दीबाचे (परिचय) को नज़र में रखना ज़रूरी है।
ٱلَّذِينَ يَذۡكُرُونَ ٱللَّهَ قِيَٰمٗا وَقُعُودٗا وَعَلَىٰ جُنُوبِهِمۡ وَيَتَفَكَّرُونَ فِي خَلۡقِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ رَبَّنَا مَا خَلَقۡتَ هَٰذَا بَٰطِلٗا سُبۡحَٰنَكَ فَقِنَا عَذَابَ ٱلنَّارِ ۝ 181
(191) जो उठते, बैठते और लेटते, हर हाल में अल्लाह को याद करते हैं और ज़मीन और आसमानों की बनावट में ग़ौर-फ़िक्र करते हैं।135 (वे बेइख़्तियार बोल उठते हैं,) “पालनहार! यह सब कुछ तूने फ़ुज़ूल और बेमक़सद नहीं बनाया है, तू पाक है इससे कि बेकार काम करे। इसलिए ऐ रब! हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचा ले।136
135. यानी इन निशानियों से हर आदमी आसानी के साथ सच्चाई तक पहुँच सकता है। बस शर्त यह है कि वह अल्लाह से गाफिल न हो और कायनात (सृष्टि) की निशानियों को जानवरों की तरह न देखे, बल्कि ग़ौर-फ़िक्र के साथ देखे।
136. जब वे कायनात के निज़ाम (सृष्टि-व्यवस्था) को ग़ौर से देखते हैं तो यह हक़ीक़त उनपर खुल जाती है कि यह निजाम पूरे तौर पर हिकमत और सूझ-बूझ पर बना है। और यह बात सरासर हिकमत के ख़िलाफ़ है कि जिस मख़लूक़ में अल्लाह ने अख़लाक़ी हिस्स (नैतिक चेतना) पैदा की हो, जिसे इस्तेमाल करने के इख़्तियार दिए हों, जिसे अक़्ल और समझ दी गई हो, उससे उसके दुनिया की ज़िन्दगी के कामों की पूछ-गछ न हो और उसे नेकी पर इनाम और बुराई पर सज़ा न दी जाए। इस तरह कायनात के निज़ाम पर ग़ौर-फ़िक्र करने से उन्हें आख़िरत का यक़ीन हासिल हो जाता है और वे अल्लाह की सज़ा से पनाह माँगने लगते हैं।
رَبَّنَآ إِنَّكَ مَن تُدۡخِلِ ٱلنَّارَ فَقَدۡ أَخۡزَيۡتَهُۥۖ وَمَا لِلظَّٰلِمِينَ مِنۡ أَنصَارٖ ۝ 182
(192) तूने जिसे दोज़ख़ में डाला, उसे हक़ीक़त में बड़ी ज़िल्लत व रुसवाई में डाल दिया, और फिर ऐसे ज़ालिमों का कोई मददगार न होगा।
رَّبَّنَآ إِنَّنَا سَمِعۡنَا مُنَادِيٗا يُنَادِي لِلۡإِيمَٰنِ أَنۡ ءَامِنُواْ بِرَبِّكُمۡ فَـَٔامَنَّاۚ رَبَّنَا فَٱغۡفِرۡ لَنَا ذُنُوبَنَا وَكَفِّرۡ عَنَّا سَيِّـَٔاتِنَا وَتَوَفَّنَا مَعَ ٱلۡأَبۡرَارِ ۝ 183
(193) मालिक! हमने एक पुकारनेवाले को सुना जो ईमान की तरफ़ बुलाता था और कहता था कि अपने रब को माना। हमने उसके पैग़ाम का क़ुबूल कर लिया,137 तो ऐ हमारे मालिक! जो ग़लतियाँ हमसे हुई हैं उनको माफ़ कर दे, जो बुराइयाँ हममें हैं उन्हें दूर कर दे और हमारा ख़ातिमा (अन्त) नेक लोगों के साथ कर।
137. इसी तरह उनका कायनात पर ग़ौर-फ़िक्र के साथ देखना उनको इस बात पर भी मुत्मइन कर देता है कि पैग़म्बर इस कायनात और इसके शुरू होने और ख़त्म होने के बारे में जो नज़रिया पेश करते हैं और ज़िन्दगी का जो रास्ता बताते हैं, वह सरासर हक़ है।
رَبَّنَا وَءَاتِنَا مَا وَعَدتَّنَا عَلَىٰ رُسُلِكَ وَلَا تُخۡزِنَا يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۖ إِنَّكَ لَا تُخۡلِفُ ٱلۡمِيعَادَ ۝ 184
(194) ऐ हमारे रब! जो वादे तूने अपने रसूलों के ज़रिए से किए हैं उनको हमारे साथ पूरा कर और क़ियामत के दिन हमें रुसवाई में न डाल, बेशक तू अपने वादे के ख़िलाफ़ करनेवाला नहीं है।"138
138. यानी उन्हें इस बात में तो शक नहीं है कि अल्लाह अपने वादों को पूरा करेगा या नहीं। अलबत्ता उलझन है तो इस बात पर कि क्या हम भी उन वादों के हक़दार होंगे या नहीं, इसलिए वे अल्लाह से दुआ माँगते हैं कि हमें उन वादों के मुताबिक़ इनाम पाने का हक़दार बना दे ज़ोर हमारे साथ उन्हें पूरा कर, कहीं ऐसा न हो कि दुनिया में तो हम पैग़म्बरों पर ईमान लाकर काफ़िरों के मज़ाक़ और तानों का निशाना बने ही हैं, क़ियामत में भी इन काफ़िरों के सामने हमारी रुसवाई हो और वे हमपर फब्ती कसें कि ईमान लाकर भी इनका भला न हुआ।
فَٱسۡتَجَابَ لَهُمۡ رَبُّهُمۡ أَنِّي لَآ أُضِيعُ عَمَلَ عَٰمِلٖ مِّنكُم مِّن ذَكَرٍ أَوۡ أُنثَىٰۖ بَعۡضُكُم مِّنۢ بَعۡضٖۖ فَٱلَّذِينَ هَاجَرُواْ وَأُخۡرِجُواْ مِن دِيَٰرِهِمۡ وَأُوذُواْ فِي سَبِيلِي وَقَٰتَلُواْ وَقُتِلُواْ لَأُكَفِّرَنَّ عَنۡهُمۡ سَيِّـَٔاتِهِمۡ وَلَأُدۡخِلَنَّهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ ثَوَابٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۚ وَٱللَّهُ عِندَهُۥ حُسۡنُ ٱلثَّوَابِ ۝ 185
(195) जवाब में उनके रब ने कहा, “मैं तुममें से किसी का अमल अकारथ करनेवाला नहीं हूँ। चाहे मर्द हो या औरत, तुम सब एक-दूसरे के हमजिंस (सहजाति) हो,139 इसलिए जिन लोगों ने मेरे लिए अपने वतन छोड़े और जो मेरी राह में अपने घरों से निकाले गए और सताए गए और मेरे लिए लड़े और मारे गए, उनके सब कुसूर मै माफ़ कर दूँगा और उन्हें ऐसे बाग़ों में दाख़िल करूँगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। यह उनका बदला है अल्लाह के यहाँ, और सबसे अच्छा बदला अल्लाह ही के पास है।"140
139. यानी तुम सब इनसान हो और मेरी निगाह में बराबर हो। मेरे यहाँ यह दस्तूर नहीं है कि औरत और मर्द, मालिक और ग़ुलाम, काले और गोरे, ऊँच और नीच के लिए इनसाफ़ के उसूल और फ़ैसले के पैमाने अलग-अलग हों।
140. रिवायत (उल्लिखित) है कि कुछ ग़ैर-मुस्लिम नबी (सल्ल०) के पास आए और कहा कि मूसा लाठी और यदे-बैज़ा (चमकता हुआ सफ़ेद हाथ) लाए थे। ईसा (अलैहि०) अंधों को आँखवाला और कोढ़ियों को अच्छा करते थे। दूसरे पैग़म्बर भी कुछ-न-कुछ मोजिज़े (चमत्कार) लाए थे। आप बताएँ कि आप क्या लाए हैं? इसपर आप (सल्ल०) ने आयत 90 से यहाँ तक की आयतें पढ़ीं और उनसे कहा, “मैं तो यह लाया हूँ।"
لَا يَغُرَّنَّكَ تَقَلُّبُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 186
(196) ऐ नबी! दुनिया के मुल्कों में अल्लाह के नाफ़रमान लोगों की चलत-फिरत तुम्हें किसी धोखे में न डाले।
مَتَٰعٞ قَلِيلٞ ثُمَّ مَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمِهَادُ ۝ 187
(197) यह सिर्फ़ कुछ दिनों की ज़िन्दगी का थोड़ा-सा मज़ा है, फिर ये सब जहन्नम में जाएँगे, जो बहुत ही बुरा ठिकाना है।
لَٰكِنِ ٱلَّذِينَ ٱتَّقَوۡاْ رَبَّهُمۡ لَهُمۡ جَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَا نُزُلٗا مِّنۡ عِندِ ٱللَّهِۗ وَمَا عِندَ ٱللَّهِ خَيۡرٞ لِّلۡأَبۡرَارِ ۝ 188
(198) इसके बरख़िलाफ़ जो लोग अपने रब से डरते हुए ज़िन्दगी बसर करते हैं, उनके लिए ऐसे बाग़ हैं जिनके नीचे नहरें बहती हैं, उन बाग़ों में वे हमेशा रहेंगे, अल्लाह की तरफ़ से यह मेहमानी का सामान है उनके लिए, और जो कुछ अल्लाह के पास है नेक लोगों के लिए वही सबसे अच्छा है।
وَإِنَّ مِنۡ أَهۡلِ ٱلۡكِتَٰبِ لَمَن يُؤۡمِنُ بِٱللَّهِ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡكُمۡ وَمَآ أُنزِلَ إِلَيۡهِمۡ خَٰشِعِينَ لِلَّهِ لَا يَشۡتَرُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ ثَمَنٗا قَلِيلًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ أَجۡرُهُمۡ عِندَ رَبِّهِمۡۗ إِنَّ ٱللَّهَ سَرِيعُ ٱلۡحِسَابِ ۝ 189
(199) किताबवालों में भी कुछ लोग ऐसे हैं जो अल्लाह को मानते हैं, इस किताब पर ईमान लाते हैं जो तुम्हारी तरफ़ भेजी गई है और उस किताब पर भी ईमान रखते हैं जो इससे पहले ख़ुद उनकी तरफ़ भेजी गई थी। अल्लाह के आगे झुके हुए हैं। और अल्लाह की आयतों को थोड़ी-सी कीमत पर बेच नहीं देते। उनका बदला उनके रब के पास है, और अल्लाह हिसाब चुकाने में देर नहीं लगाता।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱصۡبِرُواْ وَصَابِرُواْ وَرَابِطُواْ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 190
(200) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! सब्र से काम लो, बातिलपरस्तों (असत्यवादियों) के मुक़ाबले में जमे रहो,141 हक़ की ख़िदमत के लिए कमर कसे रहो, और अल्लाह से डरते रहो, उम्मीद है कि कामयाबी पाओगे।
141. अस्ल अरबी मतन में ‘साबिरू' का लफ़्ज़ आया है। इसके दो मानी (मतलब) हैं, एक यह कि कुफ़्र करनेवाले लोग अपने कुफ़्र पर जो मज़बूती दिखा रहे हैं और उसको ऊँचा रखने के लिए जो तकलीफ़ें उठा रहे हैं, तुम उनके मुक़ाबले में उनसे बढ़कर मज़बूती दिखाओ। दूसरे यह कि उनके मुक़ाबले में एक-दूसरे से बढ़कर मज़बूती दिखाओ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تَأۡكُلُواْ ٱلرِّبَوٰٓاْ أَضۡعَٰفٗا مُّضَٰعَفَةٗۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ لَعَلَّكُمۡ تُفۡلِحُونَ ۝ 191
(130) ऐ लोगो, जो ईमान लाए हो! यह बढ़ता और चढ़ता सूद खाना छोड़ दो।98 और अल्लाह से डरो, उम्मीद है कि कामयाब होगे।
98. उहुद की हार की एक बड़ी वजह यह थी कि मुसलमान ठीक कामयाबी के वक़्त माल के लालच का शिकार हो गए और अपने काम को पूरा करने के बजाय ग़नीमत का माल लूटने में लग गए। इसलिए हकीमे-मुत्लक़ (परम तत्वदर्शी अल्लाह) ने इस हालत के सुधार के लिए दौलत की पूजा के दहाने पर बाँध बाँधना ज़रूरी समझा और हुक्म दिया कि सूद और ब्याज खाने से बाज़ आओ, जिसमें आदमी रात-दिन अपने फ़ायदे के बढ़ने और चढ़ने का हिसाब लगाता रहता है और जिसकी वजह से आदमी के अन्दर रुपये का लालच बेहद बढ़ता चला जाता है।
وَٱتَّقُواْ ٱلنَّارَ ٱلَّتِيٓ أُعِدَّتۡ لِلۡكَٰفِرِينَ ۝ 192
(131) उस आग से बचा जो (हक़ के) इनकारियों के लिए जुटाई गई है
وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَٱلرَّسُولَ لَعَلَّكُمۡ تُرۡحَمُونَ ۝ 193
(132) और अल्लाह और रसूल का हुक्म मान लो, उम्मीद है कि तुमपर रहम किया जाएगा।
۞وَسَارِعُوٓاْ إِلَىٰ مَغۡفِرَةٖ مِّن رَّبِّكُمۡ وَجَنَّةٍ عَرۡضُهَا ٱلسَّمَٰوَٰتُ وَٱلۡأَرۡضُ أُعِدَّتۡ لِلۡمُتَّقِينَ ۝ 194
(133) दौड़कर चलो उस राह पर जो तुम्हारे रब की बख़्शिश और उस जन्नत की तरफ़ जाती है जिसका फैलाव ज़मीन और आसमानों जैसा है, और वह अल्लाह से डरनेवाले उन लोगों के लिए तैयार की गई है
ٱلَّذِينَ يُنفِقُونَ فِي ٱلسَّرَّآءِ وَٱلضَّرَّآءِ وَٱلۡكَٰظِمِينَ ٱلۡغَيۡظَ وَٱلۡعَافِينَ عَنِ ٱلنَّاسِۗ وَٱللَّهُ يُحِبُّ ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 195
(134) जो हर हाल में अपने माल ख़र्च करते हैं, चाहे बुरे हाल में हों या अच्छे हाल में; जो ग़ुस्से को पी जाते हैं और दूसरों की ग़लती माफ़ कर देते हैं – ऐसे नेक लोग अल्लाह को बहुत पसन्द है99
99. सूदख़ोरी जिस समाज में मौजूद होती है उसके अन्दर सूदख़ोरी की वजह से दो क़िस्म के अख़लाक़ी मरज़ पैदा हो जाते हैं। सूद लेनेवालों में लोभ-लालच, कंजूसी और ख़ुदग़रज़ी आ जाती है और सूद देनेवालों में नफ़रत, ग़ुस्सा, कीना (द्वेष) और जलन पैदा हो जाती है। उहुद (की लड़ाई) की हार में इन दोनों तरह की बीमारियों का कुछ-न-कुछ हिस्सा शामिल था। अल्लाह मुसलमानों को बताता है कि सूदख़ोरी से दोनों फ़रीक़ (लेनेवाले और देनेवाले) में जो अख़लाक़ी ख़राबी पैदा होती है उसके बिलकुल बरख़िलाफ़ अल्लाह की राह में ख़र्च करने से ये दूसरी क़िस्म की ख़ूबियाँ पैदा हुआ करती हैं, और अल्लाह की बख़्शिश और उसकी जन्नत इसी दूसरे क़िस्म की ख़ूबियों से हासिल हो सकती है, न कि पहली क़िस्म की ख़राबियों से। (और ज़्यादा जानकारी के लिए देखिए सूरा-2, अल-बक़रा, हाशिया नo 320)
وَٱلَّذِينَ إِذَا فَعَلُواْ فَٰحِشَةً أَوۡ ظَلَمُوٓاْ أَنفُسَهُمۡ ذَكَرُواْ ٱللَّهَ فَٱسۡتَغۡفَرُواْ لِذُنُوبِهِمۡ وَمَن يَغۡفِرُ ٱلذُّنُوبَ إِلَّا ٱللَّهُ وَلَمۡ يُصِرُّواْ عَلَىٰ مَا فَعَلُواْ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 196
(135) — क्योंकि और जिनका हाल यह है कि अगर कभी कोई फ़ुहश (अश्लील) काम उनसे हो जाता है या किसी गुनाह में पड़कर वे अपने ऊपर ज़ुल्म कर बैठते हैं तो फ़ौरन उन्हें अल्लाह याद आ जाता है और उससे वे अपने क़ुसूरों की माफ़ी चाहते हैं — क्योंकि अल्लाह के सिवा और कौन है जो गुनाह माफ़ कर सकता हो — और वे जानते-बूझते अपने किए पर कभी नहीं अड़ते।
أُوْلَٰٓئِكَ جَزَآؤُهُم مَّغۡفِرَةٞ مِّن رَّبِّهِمۡ وَجَنَّٰتٞ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ وَنِعۡمَ أَجۡرُ ٱلۡعَٰمِلِينَ ۝ 197
(136) ऐसे लोगों का बदला उनके रब के पास यह है कि वह उनको माफ़ कर देगा और ऐसे बाग़ों में उन्हें दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी और वहाँ वे हमेशा रहेंगे। कैसा अच्छा बदला है अच्छे काम करनेवालों के लिए!
قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِكُمۡ سُنَنٞ فَسِيرُواْ فِي ٱلۡأَرۡضِ فَٱنظُرُواْ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُكَذِّبِينَ ۝ 198
(137) तुमसे पहले बहुत-से दौर गुज़र चुके हैं। ज़मीन में चल-फिरकर देख लो कि उन लोगों का क्या अंजाम हुआ जिन्होंने (अल्लाह के अहकाम और हिदायतों को) झुठलाया।
۞لَتُبۡلَوُنَّ فِيٓ أَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡ وَلَتَسۡمَعُنَّ مِنَ ٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡكِتَٰبَ مِن قَبۡلِكُمۡ وَمِنَ ٱلَّذِينَ أَشۡرَكُوٓاْ أَذٗى كَثِيرٗاۚ وَإِن تَصۡبِرُواْ وَتَتَّقُواْ فَإِنَّ ذَٰلِكَ مِنۡ عَزۡمِ ٱلۡأُمُورِ ۝ 199
(186) मुसलमानो! तुम्हें माल और जान दोनों की आज़माइशों में ज़रूर डाला जाएगा। और तुम किताबवालों और मुशरिकों से बहुत-सी तकलीफ़देह बातें सुनोगे। अगर इन सब हालतों में तुम सब्र और ख़ुदातरसी की रविश पर जमे रहो131 तो यह बड़े हौसले का काम है।
131. यानी उनके तानों और व्यंग्यों, उनके इल्ज़ामों और बेहूदा बातों और उनके झूठे प्रोपेगण्डों के मुक़ाबले में बे-सब्र होकर तुम ऐसी बातों पर न उतर आओ जो सच्चाई और इनसाफ़, वक़ार (स्वाभिमान), तहज़ीब और अच्छे अख़लाक़ के ख़िलाफ़ हों।