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سُورَةُ الصَّافَّاتِ

37. अस-साफ़्फ़ात

(मक्का में उतरी, आयतें 182)

 

परिचय

 

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अस-साफ़्फात' (क़तार दर क़तार सफ़ (पंक्ति) बाँधनेवाले) से लिया गया है।

उतरने का समय

विषयों और शैली से पता चलता है कि यह सूरा शायद मक्की काल के मध्य में, बल्कि शायद इस मध्यकाल के भी अन्तिम समय में उतरी है। [जब विरोध पूर्णत: उग्र रूप धारण कर चुका था]।

विषय और वार्ता

उस समय नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की तौहीद और आख़िरत की दावत का जवाब जिस तरह उपहास और हँसी-मज़ाक़ के साथ दिया जा रहा था और आपकी रिसालत के दावे को मानने से जिस तेज़ी के साथ इनकार किया जा रहा था, उसपर मक्का के काफ़िरों (इस्लाम-विरोधियों) को बड़े ज़ोरदार तरीक़े से सचेत किया गया है और अन्त में उन्हें साफ़-साफ़ ख़बरदार कर दिया गया है कि बहुत जल्द यही पैग़म्बर, जिसका तुम मज़ाक़ उड़ा रहे हो, तुम्हारे देखते-देखते तुमपर ग़ालिब आ जाएगा और तुम अल्लाह की फ़ौज को स्वयं अपने घर के आंगन में उतरा हुआ पाओगे (आयत 171-179)। यह नोटिस उस ज़माने में दिया गया था जब नबी (सल्ल०) की सफलता के चिह्न दूर-दूर तक कहीं नज़र न आते थे, बल्कि देखनेवाले तो यह समझ रहे थे कि यह आन्दोलन मक्का की घाटियों ही में दफ़न होकर रह जाएगा। लेकिन 15-16 साल से अधिक समय न बीता था कि मक्का की जीत के मौक़े पर ठीक वही कुछ पेश आ गया जिससे इनकारियों को सचेत किया गया था। चेतावनी के साथ-साथ अल्लाह ने इस सूरा में सत्य को अच्छी तरह समझाने और उसपर उभारने का हक़ भी पूरी तरह अदा कर दिया है। तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत के अक़ीदे की सत्यता पर संक्षेप में दिल में उतर जानेवाले तर्क दिए गए हैं। बहुदेववादियों की धारणाओं की आलोचना करके बताया गया है कि वे कैसी-कैसी बेकार बातों पर ईमान लाए बैठे हैं, इन गुमराहियों के बुरे नतीजों से आगाह किया है और यह भी बताया है कि ईमान और भले कामों के नतीजे कितने शानदार हैं। फिर [इसी सिलसिले में पिछले इतिहास की मिसालें दी हैं ] इस उद्देश्य से जो ऐतिहासिक वृत्‍तांतों का इस सूरा में वर्णन किया गया है, इनमें सबसे अधिक शिक्षाप्रद हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पवित्र जीवन की यह महत्वपूर्ण घटना है कि वह अल्लाह का एक इशारा पाते ही अपने इकलौते बेटे को क़ुरबान करने पर तैयार हो गए थे। इसमें केवल कुरैश के उन इस्लाम विरोधियों ही के लिए सबक़ नहीं था जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के साथ अपने पारिवारिक संबंध पर गर्व किया करते फिरते थे, बल्कि उन मुसलमानों के लिए भी सबक़ था जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए थे। यह घटना सुनाकर उन्हें बता दिया गया कि इस्लाम की वास्तविकता और उसकी मूल आत्मा क्या है। सूरा की आख़िरी आयतें सिर्फ़ काफ़िरों (विधर्मियों) के लिए चेतावनी ही न थीं, बल्कि उन ईमानवालों के लिए विजयी और प्रभावी होने की शुभ-सूचना भी थीं, जो नबी (सल्ल०) के समर्थन और सहायता में अत्यंत हतोत्साहित कर देनेवाले हालात का मुक़ाबला कर रहे थे।

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سُورَةُ الصَّافَّاتِ
37. अस-साफ़्फ़ात
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلصَّٰٓفَّٰتِ صَفّٗا
(1) क़तार-दर-क़तार सफ़्फ़ (पंक्ति) बाँधनेवालों की क़सम,
فَٱلزَّٰجِرَٰتِ زَجۡرٗا ۝ 1
(2) फिर उनकी क़सम जो डाँटने-फिटकारनेवाले हैं,
فَٱلتَّٰلِيَٰتِ ذِكۡرًا ۝ 2
(3) फिर उनकी क़सम जो नसीहत की बात सुनानेवाले हैं,1
1. क़ुरआन मजीद की तफ़सीर लिखनेवाले ज़्यादा तर आलिम इस बात पर एकराय हैं कि इन तीनों गरोहों से मुराद फ़रिश्तों के गरोह हैं और यही तफ़सीर हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा, मसरूक़, सईद-बिन-जुबैर, इकरिमा, मुजाहिद, सुद्दी, इब्ने-ज़ैद और रबीअ-बिन-अनस (अल्लाह उनपर अपनी रहमत फ़रमाए) से रिवायत है। तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इसकी दूसरी तफ़सीरें भी की हैं, मगर मौक़ा-महल (प्रसंग और सन्दर्भ) से यही तफ़सीर ज़्यादा मेल खाती नज़र आती है। इसमें “क़तार-दर-क़तार सफ़ (पंक्ति) बाँधने” का इशारा इस तरफ़ है कि तमाम फ़रिश्ते जो कायनात के निज़ाम (व्यवस्था) को चला रहे हैं, अल्लाह के बन्दे और ग़ुलाम हैं, उसकी फ़रमाँबरदारी और बन्दगी में क़तार बनाए खड़े हैं और उसके हुक्मों पर अमल करने के लिए हर वक़्त तैयार हैं। इस बात को आगे चलकर फिर आयत-165 में दोहराया गया है जिसमें फ़रिश्ते ख़ुद अपने बारे में कहते हैं, “और हम क़तार में (ख़िदमतगार के तौर पर) खड़े रहनेवाले हैं।" 'डाँटने और फटकारने' से मुराद तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों की राय में यह है कि कुछ फ़रिश्ते हैं जो बादलों को हाँकते और बारिश का इन्तिज़ाम करते हैं। अगरचे यह मतलब भी. ग़लत नहीं है, लेकिन आगे जो बात कही गई है, उससे जो मतलब ज़्यादा मेल खाता है वह यह है कि इन्हीं फ़रिश्तों में से एक गरोह वह भी है, जो नाफ़रमानों और मुजरिमों को फटकारता है और उसकी यह फटकार सिर्फ़ लफ़्ज़ी ही नहीं होती, बल्कि इनसानों पर वे क़ुदरती हादिसों (आपदाओं) और उन ऐतिहासिक आफ़तों की शक्ल में बरसती है। 'नसीहत की बात सुनाने’ से मुराद यह है कि इन्हीं फ़रिश्तों में वे भी हैं जो हक़ बात की तरफ़ ध्यान दिलाने के लिए नसीहत और याददिहानी करने का काम करते हैं, दुनिया के हादिसों की शक्ल में भी जिनसे सबक़ हासिल करनेवाले सबक़ हासिल करते हैं और उन तालीमात की सूरत में भी जो उनके ज़रिए से पैग़म्बरों पर उतरती हैं और उन इलहामों (अल्लाह की तरफ़ से दिल में डाली गई बातों) की सूरत में भी जो उनके वास्ते से नेक इनसानों पर होते हैं।
إِنَّ إِلَٰهَكُمۡ لَوَٰحِدٞ ۝ 3
(4) तुम्हारा हक़ीक़ी माबूद (पूज्य) बस एक ही है।2
2. यह वह हक़ीक़त है जिसपर ऊपर बताई गई सिफ़ात रखनेवाले फ़रिश्तों की क़सम खाई गई है। मानो दूसरे अलफ़ाज़ में यह कहा गया है कि कायनात का यह पूरा निज़ाम जो अल्लाह की बन्दगी में चल रहा है और इस कायनात की वे सारी निशानियाँ जो अल्लाह की बन्दगी से मुँह मोड़ने के बुरे नतीजे इनसानों के सामने लाती हैं और इस कायनात के अन्दर यह इन्तिज़ाम कि दुनिया की शुरुआत से आज तक एक-के-बाद एक ही हक़ीक़त की याददिहानी अलग-अलग तरीक़ों से कराई जा रही है, ये सब चीज़ें इस बात पर गवाह हैं कि इनसानों का 'इलाह' (माबूद और पूज्य) सिर्फ़ एक ही है। 'इलाह' के लफ़्ज़ के दो मतलब हैं। एक वह माबूद (पूज्य) जिसकी अमली तौर पर फ़रमाँबरदारी और इबादत की जा रही हो। दूसरा वह माबूद जो हक़ीक़त में इसका हक़दार हो कि उसकी बन्दगी और इबादत की जाए। यहाँ 'इलाह' का लफ़्ज़ दूसरे मानी में इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि पहले मानी में तो इनसानों ने दूसरे बहुत-से इलाह बना रखे हैं। इसी लिए हमने 'इलाह' का तर्जमा 'हक़ीक़ी माबूद' किया है।
رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا وَرَبُّ ٱلۡمَشَٰرِقِ ۝ 4
(5) वह जो ज़मीन और आसमानों का और तमाम उन चीज़ों का मालिक है जो ज़मीन और आसमान में हैं और सारे पूरबों3 का मालिक।4
3. सूरज हमेशा एक ही जगह (Point) से नहीं निकलता, बल्कि हर दिन एक नए ज़ाविए (कोण) से निकलता है। साथ ही सारी ज़मीन पर वह एक ही वक़्त में नहीं निकलता, बल्कि ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों पर अलग-अलग वक़्तों में वह निकलता है। इन वजहों से 'मशरिक़' (पूरब) की जगह 'मशारिक़' (पूरबों) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है और इसके साथ 'मग़ारिब' (पश्चिमों) का ज़िक्र नहीं किया गया, क्योंकि 'मशारिक़' का लफ़्ज़ ख़ुद ही 'मग़ारिब' की दलील देता है। अलबत्ता एक जगह 'रब्बुल-मशारिक़ वल-मग़ारिब' के अलफ़ाज़ भी आए हैं। (क़ुरआन सूरा-70 मआरिज़, आयत-40)
4. इन आयतों में जो हक़ीक़त ज़ेहन में बिठाई गई है, वह यह है कि कायनात का मालिक और बादशाह ही इनसानों का अस्ल माबूद (पूज्य) है और वही हक़ीक़त में माबूद हो सकता है और उसी को माबूद होना चाहिए। यह बात सरासर अक़्ल के ख़िलाफ़ है कि रब (यानी मालिक, हाकिम और पालने-पोसनेवाला) कोई हो और इलाह (इबादत का हक़दार) कोई और हो जाए। इबादत की बुनियादी वजह ही यह है कि आदमी का फ़ायदा-नुक़सान, उसकी ख़ाहिशों और ज़रूरतों का पूरा होना, उसकी क़िस्मत का बनना-बिगड़ना, बल्कि ख़ुद उसका वुजूद और बाक़ी रहना ही जिसके इख़्तियार में है, उसकी बड़ाई तसलीम करना और उसके आगे झुकना बिलकुल आदमी की फ़ितरत का तक़ाज़ा है। इस वजह को आदमी समझ ले तो ख़ुद-ब-ख़ुद उसकी समझ में यह बात आ जाती है कि इख़्तियारातवाले (ख़ुदा) की इबादत न करना और बेबस और मजबूर की इबादत करना, दोनों बिलकुल अक़्ल और फ़ितरत के ख़िलाफ़ हैं। इबादत का हक़ पहुँचता ही उसको है जो इक़तिदार (सत्ता) रखता है। रहीं कमज़ोर और बेबस हस्तियाँ तो वे न इसकी हक़दार हैं कि उनकी इबादत की जाए, और न उनकी इबादत करने और उनसे दुआएँ माँगने का कुछ हासिल है, क्योंकि हमारी किसी दरख़ास्त पर कार्रवाई करना सिरे से उनके इख़्तियार में है ही नहीं। उनके आगे बेबसी और नियाज़मन्दी (विनम्रता) के साथ झुकना और उनसे दुआएँ माँगना बिलकुल वैसा ही बेवक़ूफ़ी भरा काम है, जैसे कोई शख़्स किसी हाकिम के सामने जाए और उसके सामने दरख़ास्त पेश करने के बजाय जो दूसरे माँगनेवाले वहाँ दरख़ास्तें लिए खड़े हों उन्हीं में से किसी के सामने हाथ जोड़कर खड़ा हो जाए।
إِنَّا زَيَّنَّا ٱلسَّمَآءَ ٱلدُّنۡيَا بِزِينَةٍ ٱلۡكَوَاكِبِ ۝ 5
(6) हमने दुनिया के आसमान5 को तारों की ज़ीनत से सजाया है
5. दुनिया के आसमान से मुराद क़रीब का आसमान है, जिसको हम बिना किसी दूरबीन की मदद के नंगी आँखों से देखते हैं। इससे आगे जो दुनियाएँ अलग-अलग ताक़तों की दूरबीनों से नज़र आती हैं और जिन दुनियाओं तक अभी हमारे देखने के आलात (यंत्रों) की पहुँच नहीं हुई वे सब दूर के आसमान हैं। इस सिलसिले में यह बात भी ध्यान में रहे कि अस्ल अरबी में आया लफ़्ज़ 'समा' किसी तयशुदा चीज़ का नाम नहीं है, बल्कि बहुत पुराने ज़माने से आज तक इनसान आम तौर पर यह लफ़्ज़ और उसके जैसे मतलबवाले अलफ़ाज़ ऊपरी दुनिया के लिए इस्तेमाल करता चला आ रहा है।
وَحِفۡظٗا مِّن كُلِّ شَيۡطَٰنٖ مَّارِدٖ ۝ 6
(7) और हर सरकश शैतान से उसको महफ़ूज़ कर दिया है।6
6. यानी ऊपरी दुनिया सिर्फ़ ख़ाली जगह ही नहीं है कि जिसका जी चाहे इसमें घुस जाए, बल्कि उसका बन्धन ऐसा मज़बूत है और उसके अलग-अलग हिस्से ऐसी मज़बूत सरहदों से घेर दिए। गए हैं कि किसी सरकश शैतान का उन हदों से गुज़र जाना मुमकिन नहीं है। कायनात के हर तारे और हर सय्यारे (ग्रह) का अपना एक दायरा (कक्ष, Sphere) है जिसके अन्दर से किसी का निकलना भी बहुत मुश्किल है और जिसमें बाहर से किसी का दाख़िल होना भी आसान नहीं है। ज़ाहिरी आँख से कोई देखे तो सिर्फ़ ख़ाली जगह के सिवा कुछ नज़र नहीं आता। लेकिन हक़ीक़त में इस ख़ाली जगह के अन्दर अनगिनत हिस्से ऐसी मज़बूत सरहदों से महफ़ूज़ किए गए हैं जिनके मुक़ाबले में फ़ौलाद की दीवारों की कोई हक़ीक़त नहीं है। इसका कुछ अन्दाज़ा उन तरह-तरह की मुश्किलों से किया जा सकता है जो ज़मीन के रहनेवाले इनसान को अपने सबसे क़रीब के पड़ोसी, चाँद तक पहुँचने में पेश आ रही हैं। ऐसी ही मुश्किलें ज़मीन के दूसरे जानदारों, यानी जिन्नों के लिए भी ऊपरी दुनिया की तरफ़ जाने में रुकावट हैं।
لَّا يَسَّمَّعُونَ إِلَى ٱلۡمَلَإِ ٱلۡأَعۡلَىٰ وَيُقۡذَفُونَ مِن كُلِّ جَانِبٖ ۝ 7
(8) ये शैतान ‘मलए-आला' (ऊपरी लोक के बाइज़्ज़त फ़रिश्तों) की बातें नहीं सुन सकते, हर तरफ़ से मारे और हाँके जाते हैं
دُحُورٗاۖ وَلَهُمۡ عَذَابٞ وَاصِبٌ ۝ 8
(9) और उनके लिए लगातार अज़ाब है।
إِلَّا مَنۡ خَطِفَ ٱلۡخَطۡفَةَ فَأَتۡبَعَهُۥ شِهَابٞ ثَاقِبٞ ۝ 9
(10) अलबत्ता अगर कोई उनमें से कुछ ले उड़े तो एक तेज़ शोला उसका पीछा करता है।7
7. इस बात को समझने के लिए यह बात निगाह में रहनी चाहिए कि उस वक़्त अरब में कहानत (ज्योतिष) की बड़ी चर्चा थी। जगह-जगह काहिन (ज्योतिषी) बैठे पेशीनगोइयाँ (भविष्यवाणियाँ) कर रहे थे, ग़ैब (परोक्ष) की ख़बरें दे रहे थे, खोई हुई चीज़ों के पते बता रहे थे और लोग अपने अगले-पिछले हाल पूछने के लिए उनके पास जा रहे थे। इन काहिनों का दावा यह था कि जिन्न और शैतान उनके क़ब्ज़े में हैं और वे उन्हें हर तरह की ख़बरें ला-लाकर देते हैं। इस माहौल में जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) नबी बनाए गए और आप (सल्ल०) ने क़ुरआन मजीद की आयतें सुनानी शुरू कीं जिनमें पिछले इतिहास और आगे पेश आनेवाले हालात की ख़बरें दी गई थीं और साथ-साथ आप (सल्ल०) ने यह भी बताया कि एक फ़रिश्ता ये आयतें मेरे पास लाता है, तो आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त करनेवालों ने फ़ौरन आप (सल्ल०) के ऊपर काहिन होने की फबती कस दी और लोगों से कहना शुरू कर दिया कि इनका ताल्लुक़ भी दूसरे काहिनों की तरह किसी शैतान से है जो ऊपरी दुनिया से कुछ सुन-गुन लेकर इनके पास आ जाता है और यह उसे अल्लाह की वह्य (प्रकाशना) बनाकर पेश कर देते हैं। इस इलज़ाम के जवाब में अल्लाह तआला यह हक़ीक़त बता रहा है कि शैतानों की तो पहुँच ही ऊपरी दुनिया तक नहीं हो सकती। वे इसकी ताक़त ही नहीं रखते कि मला-ए-आला (यानी फ़रिश्तों के गरोह) की बातें सुन सकें और लाकर किसी को ख़बरें दे सकें और अगर इत्तिफ़ाक़ से कोई ज़रा-सी भनक किसी शैतान के कान में पड़ जाती है तो इससे पहले कि वह उसे लेकर नीचे आए, एक तेज़ शोला उसका पीछा करता है। दूसरे अलफ़ाज़ में इसका मतलब यह है कि फ़रिश्तों के ज़रिए से कायनात का जो अज़ीमुश्शान निज़ाम चल रहा है वह शैतानों की घुसपैठ से पूरी तरह महफ़ूज़ है। उसमें दख़ल देना तो एक तरफ़, उसकी जानकारी हासिल करना भी उनके बस में नहीं है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन; सूरा-15 हिज्र, हाशिए—8 से 12)
فَٱسۡتَفۡتِهِمۡ أَهُمۡ أَشَدُّ خَلۡقًا أَم مَّنۡ خَلَقۡنَآۚ إِنَّا خَلَقۡنَٰهُم مِّن طِينٖ لَّازِبِۭ ۝ 10
(11) अब इनसे पूछो, इनकी पैदाइश ज़्यादा मुश्किल है या उन चीज़ों की जो हमने पैदा कर रखी हैं?8 इनको तो हमने लेसदार गारे से पैदा किया है।9
8. यह मक्का के इस्लाम-दुश्मनों के उस शुब्हे (सन्देह) का जवाब है जो वे आख़िरत के बारे में पेश करते थे। उनका ख़याल यह था कि आख़िरत मुमकिन नहीं है, क्योंकि मरे हुए इनसानों का दोबारा पैदा होना मुश्किल है, इसके जवाब में आख़िरत के इमकान की दलीलें पेश करते हुए अल्लाह तआला सबसे पहले उनके सामने यह सवाल रखता है कि अगर तुम्हारे नज़दीक मरे हुए इनसानों को दोबारा पैदा करना बड़ा सख़्त काम है जिसकी क़ुदरत तुम्हारे ख़याल में हमको हासिल नहीं है तो बताओ कि यह ज़मीन और आसमान और ये अनगिनत चीज़ें जो आसमानों और ज़मीन में हैं, उनका पैदा करना कोई आसान काम है? आख़िर तुम्हारी अक़्ल कहाँ मारी गई है कि जिस ख़ुदा के लिए यह अज़ीम (विशाल) कायनात पैदा करना मुश्किल न था और जो ख़ुद तुमको एक बार पैदा कर चुका है, उसके बारे में तुम यह समझते हो कि तुम्हें दोबारा पैदा करना उसके बस में नहीं है।
9. यानी यह इनसान कोई बड़ी चीज़ तो नहीं है। मिट्टी से बनाया गया है और फिर इसी मिट्टी से बनाया जा सकता है। लेसदार गारे से इनसान की पैदाइश का मतलब यह भी है कि पहले इनसान की पैदाइश मिट्टी से हुई थी और फिर आगे इनसानी नस्ल उसी पहले इनसान के नुतफ़े (वीर्य) से वुजूद में आई और यह भी है कि हर इनासन लेसदार गारे से बना है। इसलिए कि इनसान के वुजूद का सारा माद्दा ज़मीन ही से हासिल होता है। जिस नुतफ़े (वीर्य) से वह पैदा हुआ है वह ग़िज़ा (भोजन) से बनता है और हम्ल (गर्भ) ठहरने के वक़्त से मरते दम तक उसकी पूरी हस्ती जिन चीज़ों से बनती है, वे सब भी ग़िज़ा ही से मिलती हैं। यह ग़िज़ा चाहे जानवरों से हासिल हुई हो या पेड़-पौधों से, आख़िरकार यह मिट्टी ही से हासिल होती है जो पानी के साथ मिलकर इस क़ाबिल होती है कि इनसान की ख़ुराक (भोजन) के लिए अनाज और तरकारियाँ और फल निकाले और उन जानवरों को परवरिश करे जिनका दूध और गोश्त इनसान खाता है। इसलिए दलील की बुनियाद यह है कि यह मिट्टी अगर ज़िन्दगी क़ुबूल करने के लायक़ न थी तो तुम आज कैसे ज़िन्दा मौजूद हो? और अगर इसमें ज़िन्दगी पैदा किए जाने का आज इमकान है, जैसा कि तुम्हारा मौजूद होना ख़ुद इस इमकान को साफ़ तौर पर साबित कर रहा है, तो कल दोबारा इसी मिट्टी से तुम्हारी पैदाइश क्यों मुमकिन न होगी?
بَلۡ عَجِبۡتَ وَيَسۡخَرُونَ ۝ 11
(12) तुम (अल्लाह की क़ुदरत के करिश्मों पर) हैरान हो और ये उसका मज़ाक़ उड़ा रहे हैं।
وَإِذَا ذُكِّرُواْ لَا يَذۡكُرُونَ ۝ 12
(13) समझाया जाता है तो समझकर नहीं देते।
وَإِذَا رَأَوۡاْ ءَايَةٗ يَسۡتَسۡخِرُونَ ۝ 13
(14) कोई निशानी देखते हैं तो उसे ठहाकों में उड़ाते हैं।
وَقَالُوٓاْ إِنۡ هَٰذَآ إِلَّا سِحۡرٞ مُّبِينٌ ۝ 14
(15) और कहते हैं, “यह तो खुला जादू है,10
10. यानी जादू की दुनिया की बातें हैं। कोई जादू की दुनिया है जिसका यह आदमी ज़िक्र कर रहा है, जिसमें मुर्दे उठेंगे, अदालत होगी, जन्नत बसाई जाएगी और जहन्नम के अज़ाब होंगे। या फिर यह मतलब भी हो सकता है कि यह आदमी दिलजलों की-सी बातें कर रहा है, इसकी ये बातें ही इस बात का खुला सुबूत हैं कि किसी ने उसपर जादू कर दिया है जिसकी वजह से भला-चंगा आदमी ये बातें करने लगा।
أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَبۡعُوثُونَ ۝ 15
(16) भला कहीं ऐसा हो सकता है कि जब हम मर चुके हों और मिट्टी बन जाएँ और हड्डियों के पंजर रह जाएँ, उस वक़्त हम फिर ज़िन्दा करके उठा खड़े किए जाएँ?
أَوَءَابَآؤُنَا ٱلۡأَوَّلُونَ ۝ 16
(17) और क्या हमारे अगले वक़्तों के बाप-दादा भी उठाए जाएँगे?”
قُلۡ نَعَمۡ وَأَنتُمۡ دَٰخِرُونَ ۝ 17
(18) इनसे कहो: हाँ, और तुम (ख़ुदा के मुक़ाबले में) बेबस हो।11
11. यानी अल्लाह जो कुछ भी तुम्हें बनाना चाहे बना सकता है। जब उसने चाहा उसके एक इशारे या पर तुम वुजूद में आ गए। जब वह चाहेगा उसके एक इशारे पर तुम मर जाओगे और फिर जिस वक़्त भी वह चाहेगा, उसका एक इशारा तुम्हें उठा खड़ा करेगा।
فَإِنَّمَا هِيَ زَجۡرَةٞ وَٰحِدَةٞ فَإِذَا هُمۡ يَنظُرُونَ ۝ 18
(19) “बस एक ही झिड़की होगी और यकायक ये अपनी आँखों से (वह सब कुछ जिसकी ख़बर दी जा रही है) देख रहे होंगे।12
12. यानी जब यह बात होने का वक़्त आएगा तो दुनिया को दोबारा पैदा कर देना कोई बड़ा लम्बा-चौड़ा काम न होगा। बस एक ही झिड़की सोतों को जगा उठाने के लिए काफ़ी होगी। 'झिड़की' का लफ़्ज़ यहाँ बहुत मानीदार है। इससे मौत के बाद उठने का कुछ ऐसा नक़्शा निगाहों के सामने आता है कि दुनिया की शुरुआत से क़ियामत तक जो इनसान मरे थे, वे मानो सोते पड़े हैं, यकायक कोई डाँटकर कहता है, 'उठ जाओ' और बस देखते-देखते वे सब उठ खड़े होते हैं।
وَقَالُواْ يَٰوَيۡلَنَا هَٰذَا يَوۡمُ ٱلدِّينِ ۝ 19
(20) उस वक़्त ये कहेंगे, “हाय हमारी कमबख़्ती, यह तो बदले का दिन है।"
هَٰذَا يَوۡمُ ٱلۡفَصۡلِ ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تُكَذِّبُونَ ۝ 20
(21) यह वही फ़ैसले का दिन है जिसे तुम झुठलाया करते थे।"13
13. हो सकता है कि यह बात उनसे ईमानवाले कहें, हो सकता है कि यह फ़रिश्तों का कहना हो, हो सकता है कि हश्र के मैदान का सारा माहौल उस वक़्त अपनी हालत की ज़बान से यह कह रहा हो और यह भी हो सकता है कि यह ख़ुद उन्हीं लोगों का दूसरा रद्देअमल (प्रतिक्रिया) हो। यानी अपने दिलों में वे अपने आप ही को मुख़ातब करके कहें कि दुनिया में सारी उम्र तुम यह समझते रहे कि कोई फ़ैसले का दिन नहीं आना है, अब आ गई तुम्हारी शामत, जिस दिन को झुठलाते थे वही सामने आ गया।
۞ٱحۡشُرُواْ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ وَأَزۡوَٰجَهُمۡ وَمَا كَانُواْ يَعۡبُدُونَ ۝ 21
(22) (हुक्म होगा) “घेर लाओ सब ज़ालिमों"14 और उनके साथियों"15
14. ज़ालिम से मुराद सिर्फ़ वही लोग नहीं हैं जिन्होंने दूसरों पर ज़ुल्म किया हो, बल्कि क़ुरआन की ज़बान में हर वह शख़्स ज़ालिम है जिसने अल्लाह तआला के मुक़ाबले में बग़ावत और सरकशी और नाफ़रमानी का रास्ता अपनाया हो।
15. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अज़वाज' इस्तेमाल किया गया है जिससे मुराद उनकी वे बीवियाँ भी हो सकती हैं जो इस बग़ावत में उनकी साथी थीं और वे सब लोग भी हो सकते हैं जो उन्हीं की तरह बाग़ी, सरकश और नाफ़रमान थे। इसके अलावा इसका यह मतलब भी हो सकता है कि एक-एक क़िस्म के मुजरिम अलग-अलग जत्थों की शक्ल में जमा किए जाएँगे।
مِن دُونِ ٱللَّهِ فَٱهۡدُوهُمۡ إِلَىٰ صِرَٰطِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 22
(23) और उन माबूदों को जिनकी वे ख़ुदा को छोड़कर बन्दगी किया करते थे,16 फिर उनको जहन्नम का रास्ता दिखाओ।
16. इस जगह माबूदों (उपास्यों) से मुराद दो तरह के माबूद हैं। एक, वे इनसान और शैतान जिनकी अपनी ख़ाहिश और कोशिश यह थी कि लोग ख़ुदा को छोड़कर उनकी बन्दगी करें दूसरे, वे बुत, पेड़ और पत्थर वग़ैरा जिनकी पूजा दुनिया में की जाती रही है। उनमें से पहली क़िस्म के माबूद तो ख़ुद मुजरिमों में शामिल होंगे और उन्हें सज़ा के तौर पर जहन्नम का रास्ता दिखाया जाएगा और दूसरी तरह के माबूद अपने परस्तारों (भक्तों) के साथ इसलिए जहन्नम में डाले जाएँगे कि वे उन्हें देखकर हर वक़्त शर्मिन्दगी महसूस करें और अपनी बेवक़ूफ़ियों का मातम करते रहें। इनके अलावा एक तीसरी क़िस्म के माबूद वे भी हैं जिन्हें दुनिया में पूजा तो गया है, मगर ख़ुद उनकी अपनी मरज़ी यह न थी कि उनकी पूजा की जाए, बल्कि इसके बरख़िलाफ़ वे हमेशा इनसानों को अल्लाह के अलावा दूसरों की इबादत से मना करते रहे, मसलन फ़रिश्ते, नबी और नेक बुज़ुर्ग लोग। इस तरह के माबूद ज़ाहिर है कि उन माबूदों में शामिल न होंगे जिन्हें अपने परस्तारों (भक्तों) के साथ जहन्नम की तरफ़ धकेला जाएगा।
وَقِفُوهُمۡۖ إِنَّهُم مَّسۡـُٔولُونَ ۝ 23
(24) और ज़रा इन्हें ठहराओ, इनसे कुछ पूछना है।
مَا لَكُمۡ لَا تَنَاصَرُونَ ۝ 24
(25) क्या हो गया तुम्हें, अब क्यों एक-दूसरे की मदद नहीं करते?
بَلۡ هُمُ ٱلۡيَوۡمَ مُسۡتَسۡلِمُونَ ۝ 25
(26) अरे, आज तो ये अपने आपको (और एक-दूसरे को) हवाले किए दे रहे हैं!17
17. पहला जुमला मुजरिमों को मुख़ातब करके कहा जाएगा और दूसरा जुमला उन आम हाज़िर लोगों की तरफ़ मुँह करके कहा जाएगा जो उस वक़्त जहन्नम की तरफ़ मुजरिमों के जाने का मंज़र देख रहे होंगे। यह जुमला ख़ुद बता रहा है कि उस वक़्त हालत क्या होगी। बड़े-बड़े हेकड़ मुजरिमों के कस-बल निकल चुके होंगे और किसी मुख़ालफ़त के बिना वे कान दबाए जहन्नम की तरफ़ जा रहे होंगे। इस दुनिया के नामनिहाद (तथाकथित) बाइज़्ज़त और बड़े लोगों को कोई बचाने के लिए आगे न बढ़ेगा। कहीं कोई दुनिया को फ़तह करनेवाला और डिक्टेटर बेहद रुसवाई के साथ चला जा रहा होगा और उसकी भारी फ़ौज ख़ुद उसे सज़ा के तौर पर पेश कर देगी। कहीं मज़हब और रूहानियत का ढोंग रचाए लोग जहन्नम में दाख़िल हो रहे होंगे और उनके पैरोकारों में से किसी को यह फ़िक्र न होगी कि उनके इन पेशवाओं की तौहीन और रुसवाई न होने पाए। कहीं कोई लीडर साहब किसी बेबसी की हालत में जहन्नम की तरफ़ चले जा रहे होंगे और दुनिया में जो लोग उनकी बड़ाई के झण्डे उठाए फिरते थे, वे सब वहाँ उनकी तरफ़ से निगाहें फेर लेंगे। हद यह है कि जो आशिक़ दुनिया में अपने माशूक़ पर जान छिड़कते थे उन्हें भी उसके बुरे हाल की कोई परवाह न होगी। इस हालत का नक़्शा खींचकर अल्लाह तआला अस्ल में यह बात ज़ेहन में बिठाना चाहता है कि दुनिया में इनसान और इनसान के जिन ताल्लुक़ात की बुनियाद अपने रब से बग़ावत पर है, वे किस तरह आख़िरत में टूटकर रह जाएँगे और यहाँ जो लोग 'हमारे सामने किसी की कोई हैसियत नहीं' के घमण्ड में पड़े हैं, वहाँ उनका घमण्ड किस तरह मिट्टी में मिल जाएगा।
وَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 26
(27) उसके बाद ये एक-दूसरे की तरफ़ मुड़ेंगे और आपस में तकरार शुरू कर देंगे।
قَالُوٓاْ إِنَّكُمۡ كُنتُمۡ تَأۡتُونَنَا عَنِ ٱلۡيَمِينِ ۝ 27
(28) (पैरवी करनेवाले अपने पेशवाओं से) कहेंगे, “तुम हमारे पास सीधे रुख़ से आते थे।"18
18. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'कुन्तुम तातू-नना अनिल-यमीन' (तुम हमारे पास यमीन की राह से आते थे)। 'यमीन' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में कई मानी में बोला जाता है। अगर इसको क़ुव्वत और ताक़त के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि हम कमज़ोर थे और तुम हमपर हावी थे, इसलिए तुम अपने ज़ोर से हमको गुमराही की तरफ़ खींच ले गए। अगर इसको ख़ैर और भलाई के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि तुमने भला चाहनेवाला बनकर हमें धोखा दिया। तुम हमें यक़ीन दिलाते रहे कि जिस राह पर तुम हमें चला रहे हो यही हक़ और भलाई की राह है। इसलिए हम तुम्हारे धोखे में आ गए और अगर इसे क़सम के मानी में लिया जाए तो इसका मतलब यह होगा कि तुमने क़समें खा-खाकर हमें एक इत्मीनान दिलाया था कि हक़ वही है जो तुम पेश कर रहे हो।
قَالُواْ بَل لَّمۡ تَكُونُواْ مُؤۡمِنِينَ ۝ 28
(29) वे जवाब देंगे, “नहीं, बल्कि तुम ख़ुद ईमान लानेवाले न थे,
وَمَا كَانَ لَنَا عَلَيۡكُم مِّن سُلۡطَٰنِۭۖ بَلۡ كُنتُمۡ قَوۡمٗا طَٰغِينَ ۝ 29
(30) हमारा तुमपर कोई ज़ोर न था, तुम ख़ुद ही सरकश लोग थे।
فَحَقَّ عَلَيۡنَا قَوۡلُ رَبِّنَآۖ إِنَّا لَذَآئِقُونَ ۝ 30
(31) आख़िरकार हम अपने रब के उस फ़रमान के हक़दार हो गए कि हम अज़ाब का मज़ा चखनेवाले हैं।
فَأَغۡوَيۡنَٰكُمۡ إِنَّا كُنَّا غَٰوِينَ ۝ 31
(32) इसलिए हमने तुमको बहकाया, हम ख़ुद बहके हुए थे।"19
19. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-34 सबा, हाशिए—51 से 53।
فَإِنَّهُمۡ يَوۡمَئِذٖ فِي ٱلۡعَذَابِ مُشۡتَرِكُونَ ۝ 32
(33) इस तरह वे सब उस दिन अज़ाब में हिस्सेदार होंगे।20
20. यानी पैरवी करनेवाले भी और पेशवा भी, गुमराह करनेवाले भी और गुमराह ही अज़ाब में शरीक होंगे। न पैरोकारों का यह बहाना सुना जाएगा कि वे ख़ुद गुमराह नहीं हुए थे, बल्कि उन्हें गुमराह किया गया था और न पेशवाओं के इस बहाने को क़ुबूल किया जाएगा कि गुमराह होनेवाले ख़ुद ही सीधे रास्ते के तलबगार न थे।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَفۡعَلُ بِٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 33
(34) हम मुजरिमों के साथ यही कुछ किया करते हैं।
إِنَّهُمۡ كَانُوٓاْ إِذَا قِيلَ لَهُمۡ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا ٱللَّهُ يَسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 34
(35) ये वे लोग थे कि जब इनसे कहा जाता, “अल्लाह के सिवा कोई हक़ीक़ी माबूद नहीं है।” तो ये घमण्ड में आ जाते थे
وَيَقُولُونَ أَئِنَّا لَتَارِكُوٓاْ ءَالِهَتِنَا لِشَاعِرٖ مَّجۡنُونِۭ ۝ 35
(36) और कहते थे, “क्या हम एक दीवाने शाइर की ख़ातिर अपने माबूदों को छोड़ दें?”
بَلۡ جَآءَ بِٱلۡحَقِّ وَصَدَّقَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 36
(37) हालाँकि वह हक़ लेकर आया था और उसने रसूलों की तसदीक़ (पुष्टि) की थी।21
21. रसूलों और पैग़म्बरों की तसदीक़ (पुष्टि) के तीन मतलब हैं और तीनों ही यहाँ मुराद भी हैं। एक यह कि उसने किसी पिछले रसूल की मुख़ालफ़त न की थी कि उस रसूल के माननेवालों के लिए उसके ख़िलाफ़ तास्सुब (दुराग्रह) की कोई मुनासिब वजह होती, बल्कि वे ख़ुदा के तमाम पिछले रसूलों की तसदीक़ करता था। दूसरा यह कि वह कोई नई और निराली बात नहीं लाया था, बल्कि वही बात पेश करता था जो शुरू से ख़ुदा के तमाम रसूल पेश करते चले आ रहे थे। तीसरा यह कि उसपर वे तमाम ख़बरें सही साबित होती थीं जो पिछले रसूलों ने उसके बारे में दी थीं।
يُطَافُ عَلَيۡهِم بِكَأۡسٖ مِّن مَّعِينِۭ ۝ 37
(45) शराब24 के चश्मों (स्रोतों)25 से प्याले भर-भरकर उनके दरमियान फिराए जाएँगे।26
24. अस्ल में यहाँ शराब का ज़िक्र साफ़ तौर पर नहीं किया गया है, बल्कि सिर्फ़ 'कास' (जाम) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। लेकिन अरबी ज़बान में 'कास' का लफ़्ज़ बोलकर हमेशा शराब ही मुराद ली जाती है। जिस प्याले में शराब के बजाय दूध या पानी हो, या जिस प्याले में कुछ न हो, उसे कास नहीं कहते। कास का लफ़्ज़ सिर्फ़ उसी वक़्त बोला जाता है जब उसमें शराब हो।
25. यानी वह शराब उस तरह की न होगी जो दुनिया में फलों और अनाजों को सड़ाकर उनसे निचोड़ी जाती है, बल्कि वह क़ुदरती तौर पर चश्मों (स्रोतों) से निकलेगी और नहरों की शक्ल में बहेगी। सूरा-17 मुहम्मद में इसी बात को साफ़ तौर से बयान किया गया है, “और शराब की नहरें जो पीनेवालों के लिए लज़्ज़त होंगी।" (आयत-15)
26. यहाँ यह नहीं बताया गया है शराब के ये साग़र (जाम) लेकर जन्नतवालों के बीच कौन घूमेगा। इसकी तफ़सील दूसरी जगहों पर की गई है, “और उनकी ख़िदमत के लिए घूमते फिरेंगे उनके ख़िदमतगार लड़के, ऐसे ख़ूबसूरत जैसे सीप में छिपे हुए मोती।” (सूरा-52 तूर, आयत24)। “और उनकी ख़िदमत के लिए घूमते फिरेंगे ऐसे लड़के जो हमेशा लड़के ही रहनेवाले हैं। तुम उन्हें देखो तो समझो कि मोती बिखेर दिए गए हैं।” (सूरा-76 दहर, आयत-19)। फिर इसकी और ज़्यादा तफ़सील हज़रत अनस (रज़ि०) और हज़रत समुरा-बिन-जुन्दुब (रज़ि०) की उन रिवायतों में मिलती है जो उन्होंने नबी (सल्ल०) से नक़्ल की हैं। उनमें बताया गया है कि “मुशरिकों के बच्चे जन्नतवालों के ख़िदमतगार होंगे।” (हदीस : अबू-दाऊद और तयालिसी, तबरानी, बज़्ज़ार)। ये रिवायतें अगरचे सनद के एतिबार से कमज़ोर हैं, लेकिन कई दूसरी हदीसों से मालूम होता है कि जो बच्चे बालिग़ होने की उम्र को नहीं पहुँचे हैं, वे जन्नत में जाएँगे। फिर यह भी हदीसों से मालूम होता है कि जिन बच्चों के माँ-बाप जन्नती होंगे वे अपने माँ-बाप के साथ रहेंगे, ताकि उनकी आँखें ठण्डी हों। इसके बाद सिर्फ़ वही बच्चे रह जाते हैं जिनके माँ-बाप जन्नती न होंगे, तो उनके बारे में यह बात मुनासिब मालूम होती है कि वे जन्नतवालों के ख़िदमतगार (सेवक) बना दिए जाएँ। (इसके बारे में तफ़सीली जानकारी के लिए देखिए— फ़तहुल-बारी और उमदतुल-क़ारी, किताबुल-जनाइज़, बाबु मा क़ी-ल फ़ी औलादिल-मुशरिकीन; रसाइलो-मसाइल, हिस्सा-3, पे० 177-187)।
بَيۡضَآءَ لَذَّةٖ لِّلشَّٰرِبِينَ ۝ 38
(46) चमकती हुई शराब, जो पीनेवालों के लिए लज्ज़त होगी।
لَا فِيهَا غَوۡلٞ وَلَا هُمۡ عَنۡهَا يُنزَفُونَ ۝ 39
(47) न उनके जिस्म को इससे कोई नुक़सान पहुँचेगा और न उनकी अक़्ल इससे ख़राब होगी।27
27. यानी वह शराब उन दोनों तरह की ख़राबियों से ख़ाली होगी जो दुनिया की शराब में होती हैं। दुनिया की शराब में एक तरह की ख़राबी यह होती है कि आदमी के क़रीब आते ही पहले तो उसकी बदबू और सड़ाँध नाक में पहुँचती है। फिर उसका मज़ा आदमी के मुँह को ख़राब करता है। फिर हलक़ से उतरते ही वह पेट पकड़ लेती है। फिर दिमाग़ को चढ़ती है और सर भारी होता है। फिर वह जिगर पर असर डालती है और आदमी की सेहत पर उसके बुरे असरात पड़ते हैं। फिर जब उसका नशा उतरता है तो आदमी ख़ुमार में मुब्तला हो जाता है। ये सब जिस्मानी नुक़सान हैं। दूसरी क़िस्म की ख़राबी यह होती है कि उसे पीकर आदमी बहकता है, अनाप-शनाप बकता है और लड़ाई-झगड़ा करता है। यह शराब के अक़्ली नुक़सान हैं। दुनिया में इनसान सिर्फ़ सुरूर की ख़ातिर शराब के ये सारे नुक़सान बरदाश्त करता है। अल्लाह तआला फ़रमाता है कि जन्नत की शराब में सुरूर तो पूरी तरह होगा (पीनेवालों के लिए लज़्ज़त होगी), लेकिन इन दोनों तरह की ख़राबियों में से कोई ख़राबी भी उसमें न होगी।
وَعِندَهُمۡ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ عِينٞ ۝ 40
(48) और उनके पास निगाहें बचाने वाली,28 ख़ूबसूरत आँखोंवाली औरतें होंगी,29
28. यानी अपने शौहर के सिवा किसी और की तरफ़ निगाह न करनेवाली।
29. नामुमकिन नहीं है कि ये वे लड़कियाँ हों जो दुनिया में बालिग़ होने से पहले ही मर गई हों और जिनके माँ-बाप जन्नत में जाने के हक़दार न हुए हों। यह बात इस अन्दाज़े की बुनियाद पर कही जा सकती है कि जिस तरह ऐसे लड़के जन्नतवालों की ख़िदमत पर लगाए जाएँगे और वे हमेशा लड़के ही रहेंगे, उसी तरह ऐसी लड़कियाँ भी जन्नतवालों के लिए हूरें बना दी जाएँगी और वे हमेशा नई उम्र की लड़कियाँ ही रहेंगी। अल्लाह ही बेहतर जानता है।
كَأَنَّهُنَّ بَيۡضٞ مَّكۡنُونٞ ۝ 41
(49) ऐसी नाज़ुक जैसे अण्डे के छिलके के नीचे छिपी हुई झिल्ली।30
30. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, 'क-अन-नहुन-न बैज़ुम-मकनून' (मानो वे छिपे हुए या महफ़ूज़ रखे हुए अण्डे हैं)। इन अलफ़ाज़ के अलग-अलग मतलब तफ़सीर लिखनेवालों ने बयान किए हैं। मगर सही तफ़सीर वही है जो हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) ने नबी (सल्ल०) से नक़्ल की है। वे फ़रमाती हैं कि मैंने इस आयत का मतलब नबी (सल्ल०) से पूछा तो आप (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “उनकी नर्मी और नज़ाकत (कोमलता) उस झिल्ली जैसी होगी जो अण्डे के छिलके और उसके गूदे के बीच होती है। (इब्ने-जरीर)
فَأَقۡبَلَ بَعۡضُهُمۡ عَلَىٰ بَعۡضٖ يَتَسَآءَلُونَ ۝ 42
(50) फिर वे एक-दूसरे की तरफ़ रुख़ करके हालात पूछेगे।
قَالَ قَآئِلٞ مِّنۡهُمۡ إِنِّي كَانَ لِي قَرِينٞ ۝ 43
(51) उनमें से एक कहेगा, “दुनिया में मेरा एक साथी था
يَقُولُ أَءِنَّكَ لَمِنَ ٱلۡمُصَدِّقِينَ ۝ 44
(52) जो मुझसे कहा करता था, क्या तुम भी तसदीक़ (पुष्टि) करनेवालों में से हो?31
31. यानी तुम भी ऐसे कमज़ोर अक़ीदे के निकले कि अक़्ल से परे इस बात को मान बैठे कि मरने के बाद फिर ज़िन्दा किया जाएगा।
أَءِذَا مِتۡنَا وَكُنَّا تُرَابٗا وَعِظَٰمًا أَءِنَّا لَمَدِينُونَ ۝ 45
(53) क्या सचमुच जब हम मर चुके होंगे और मिट्टी हो जाएँगे और हड्डियों का पंजर बनकर रह जाएँगे तो हमें इनाम और सज़ा दी जाएगी?
قَالَ هَلۡ أَنتُم مُّطَّلِعُونَ ۝ 46
(54) अब क्या आप लोग देखना चाहते हैं कि वह साहब अब कहाँ हैं?”
فَٱطَّلَعَ فَرَءَاهُ فِي سَوَآءِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 47
(55) यह कहकर ज्यों ही वह झुकेगा तो जहन्नम की गहराई में उसको देख लेगा
قَالَ تَٱللَّهِ إِن كِدتَّ لَتُرۡدِينِ ۝ 48
(56) और उसको ख़िताब (सम्बोधित) करके कहेगा, “ख़ुदा की क़सम! तू तो मुझे तबाह ही कर देनेवाला था।
وَلَوۡلَا نِعۡمَةُ رَبِّي لَكُنتُ مِنَ ٱلۡمُحۡضَرِينَ ۝ 49
(57) मेरे रब की मेहरबानी मेरे साथ न होती तो आज मैं भी उन लोगों में से होता जो पकड़े हुए आए हैं।32
32. इससे अन्दाज़ा होता है कि आख़िरत में इनसान की सुनने, देखने और बोलने की ताक़त किस पैमाने की होगी। जन्नत में बैठा हुआ एक आदमी जब चाहता है किसी टेलीविज़न के या उस तरह की किसी दूसरी मशीन के बिना बस यूँ ही झुककर एक ऐसे आदमी को देख लेता है जो उससे न जाने कितने हज़ार मील की दूरी पर जहन्नम के अज़ाब में मुब्तला है। फिर यही नहीं कि वे दोनों एक-दूसरे को देखते हैं, बल्कि उनके बीच किसी टेलीफ़ोन या रेडियो के वास्ते के बिना सीधी बात भी होती है। वे इतनी दूरी से बात करते हैं और एक-दूसरे की बात सुनते हैं।
أَفَمَا نَحۡنُ بِمَيِّتِينَ ۝ 50
(58) अच्छा, तो क्या अब हम मरनेवाले नहीं हैं?
إِلَّا مَوۡتَتَنَا ٱلۡأُولَىٰ وَمَا نَحۡنُ بِمُعَذَّبِينَ ۝ 51
(59) मौत जो हमें आनी थी, वह बस पहले आ चुकी? अब हमें कोई अजाब नहीं होना?"33
33. बयान का अन्दाज़ साफ़ बता रहा है कि अपने उस जहन्नमी यार से बात करते-करते यकायक यह जन्नती आदमी अपने आपसे बात करने लगता है और ये तीन जुमले उसकी ज़बान से इस तरह अदा होते हैं जैसे कोई शख़्स अपने आपको हर उम्मीद और हर अन्दाज़े से बेहतर हालत में पाकर इन्तिहाई हैरत और ताज्जुब और इन्तिहाई ख़ुशी के साथ आप-ही-आप बोल रहा हो। इस तरह की बात में कोई ख़ास शख़्स मुख़ातब नहीं होता और न इस बात में जो सवाल आदमी करता है, उनसे हक़ीक़त में कोई बात किसी से पूछना मक़सद होता है, बल्कि इसमें आदमी के अपने ही एहसासात (अनुभूतियों) का इज़हार उसकी ज़बान से होने लगता है। वह जन्नती शख़्स उस जहन्नमी आदमी से बात करते-करते यकायक यह महसूस करता है कि मेरी ख़ुशक़िस्मती मुझे कहाँ ले आई है। अब न मौत है, न अज़ाब है। सारी तकलीफ़ों का ख़ातिमा हो चुका है और मुझे हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी मिल चुकी है। इसी एहसास की वजह से वह ख़ुद-ब-ख़ुद बोल उठता है कि क्या अब हम इस रुतबे को पहुँच गए हैं?
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 52
(60) यक़ीनन यही अज़ीमुश्शान कामयाबी है।
لِمِثۡلِ هَٰذَا فَلۡيَعۡمَلِ ٱلۡعَٰمِلُونَ ۝ 53
(61) ऐसी ही कामयाबी के लिए अमल करनेवालों को अमल करना चाहिए।
أَذَٰلِكَ خَيۡرٞ نُّزُلًا أَمۡ شَجَرَةُ ٱلزَّقُّومِ ۝ 54
(62) बोलो, यह ख़ातिरदारी अच्छी है या ज़क्कूम34 का पेड़?
34. ज़क़्क़ूम एक तरह के पेड़ का नाम है जो तिहामा के इलाक़े में होता है। मज़ा इसका कड़वा होता है, बू नागवार होती है तोड़ने पर इसमें से दूध का-सा रस निकलता है जो अगर जिस्म पर लग जाए तो सूजन हो जाती है। शायद यह वही चीज़ है जिसे हमारे देश में थूहर कहते हैं।
إِنَّا جَعَلۡنَٰهَا فِتۡنَةٗ لِّلظَّٰلِمِينَ ۝ 55
(63) हमने उस पेड़ को ज़ालिमों के लिए फ़ितना बना दिया है।35
35. यानी हक़ का इनकार करनेवाले यह बात सुनकर क़ुरआन और नबी (सल्ल०) का मज़ाक़ उड़ाने का एक नया मौक़ा पा लेते हैं। वे इसपर ठहाका मारकर कहते हैं, “लो अब नई सुनो, जहन्नम की दहकती हुई आग में पेड़ उगेगा।"
إِنَّهَا شَجَرَةٞ تَخۡرُجُ فِيٓ أَصۡلِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 56
(64) वह एक पेड़ है जो जहन्नम की तह से निकलता है।
طَلۡعُهَا كَأَنَّهُۥ رُءُوسُ ٱلشَّيَٰطِينِ ۝ 57
(65) उसके शिगूफ़े (गाभे) ऐसे हैं जैसे शैतानों के सिर।36
36. किसी को यह ग़लतफ़हमी न हो कि शैतान का सर किसने देखा है जो ज़क़्क़ूम के शिगूफ़ों की उससे मिसाल दी गई। अस्ल में यह ख़याली क़िस्म की मिसाल है और आम तौर पर हर ज़बान में इससे काम लिया जाता है। मसलन हम एक औरत की बेहद ख़ूबसूरती का तसव्वुर दिलाने के लिए कहते हैं कि वह परी है और बहुत बदसूरती बयान करने के लिए कहते हैं, वह चुड़ैल है या भुतनी है। किसी शख़्स की नूरानी शक्ल की तारीफ़ में कहा जाता है, वह फ़रिश्ते जैसा है और कोई बहुत ही भयानक हुलिए में सामने आए तो देखनेवाले कहते हैं कि वह शैतान बना चला आ रहा है।
فَإِنَّهُمۡ لَأٓكِلُونَ مِنۡهَا فَمَالِـُٔونَ مِنۡهَا ٱلۡبُطُونَ ۝ 58
(66) जहन्नम के लोग उसे खाएँगे और उसी से पेट भरेंगे,
ثُمَّ إِنَّ لَهُمۡ عَلَيۡهَا لَشَوۡبٗا مِّنۡ حَمِيمٖ ۝ 59
(67) फिर उसपर पीने के लिए उनको खौलता हुआ पानी मिलेगा।
ثُمَّ إِنَّ مَرۡجِعَهُمۡ لَإِلَى ٱلۡجَحِيمِ ۝ 60
(68) और इसके बाद उनकी वापसी उसी जहन्नम की आग की तरफ़ होगी37
37. इससे मालूम होता है कि जहन्नमवाले जब भूख-प्यास से बेताब होने लगेंगे तो उन्हें उस जगह की तरफ़ हाँक दिया जाएगा, जहाँ ज़क़्क़ूम के पेड़ और खौलते हुए पानी के चश्मे (स्रोत) होंगे। फिर जब वे वहाँ से खा-पी चुकेंगे तो उन्हें जहन्नम की तरफ़ वापस लाया जाएगा।
إِنَّهُمۡ أَلۡفَوۡاْ ءَابَآءَهُمۡ ضَآلِّينَ ۝ 61
(69) ये वे लोग हैं। जिन्होंने अपने बाप- दादा को गुमराह पाया
فَهُمۡ عَلَىٰٓ ءَاثَٰرِهِمۡ يُهۡرَعُونَ ۝ 62
(70) और उन्हीं के नक़्शे-क़दम पर दौड़ चले38
38. यानी उन्होंने ख़ुद अपनी अक़्ल से काम लेकर कभी न सोचा कि बाप-दादा से जो तरीक़ा चला आ रहा है, वह सही भी है या नहीं। बस आँखें बन्द करके उसी डगर पर हो लिए जिसपर दूसरों को चलते देखा।
وَلَقَدۡ ضَلَّ قَبۡلَهُمۡ أَكۡثَرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 63
(71) हालाँकि इनसे पहले बहुत-से लोग गुमराह हो चुके थे
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا فِيهِم مُّنذِرِينَ ۝ 64
(72) और उनमें हमने ख़बरदार करनेवाले रसूल भेजे थे।
فَٱنظُرۡ كَيۡفَ كَانَ عَٰقِبَةُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 65
(73) अब देख लो कि उन ख़बरदार किए जानेवालों का क्या अंजाम हुआ।
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 66
(74) इस बुरे अंजाम से बस अल्लाह के वही बन्दे बचे हैं जिन्हें उसने अपने लिए ख़ास कर लिया है।
وَلَقَدۡ نَادَىٰنَا نُوحٞ فَلَنِعۡمَ ٱلۡمُجِيبُونَ ۝ 67
(75) हमको39 (इससे पहले) नूह ने पुकारा था,40 तो देखो कि हम कैसे अच्छे जवाब देनेवाले थे।
39. इस बात का ताल्लुक़ आयतों—72, 73, 74 से है। उनपर ग़ौर करने से समझ में आता है कि ये क़िस्से यहाँ किस मक़सद से सुनाए जा रहे हैं।
40. इससे मुराद वह फ़रियाद है जो हज़रत नूह (अलैहि०) ने एक लम्बी मुद्दत तक अपनी क़ौम को दीन की दावत देने के बाद आख़िरकार मायूस होकर अल्लाह तआला से की थी। इस फ़रियाद के अलफ़ाज़ सूरा-51 क़मर में इस तरह आए हैं, “उसने अपने रब को पुकारा कि मैं हार गया हूँ, अब तू मेरी मदद को पहुँच।" (आयत-10)
وَنَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥ مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 68
(76) हमने उसको और उसके घरवालों को बहुत बड़ी तकलीफ़ से बचा लिया,41
41. यानी उस सख़्त तकलीफ़ से जो एक बदकिरदार और ज़ालिम क़ौम की लगातार मुख़ालफ़त से उनको पहुँच रही थी। उसमें एक हलका-सा इशारा इस बात की तरफ़ भी है कि जिस तरह नूह (अलैहि०) और उनके साथियों को उस बड़ी तकलीफ़ से बचाया गया, उसी तरह आख़िरकार हम मुहम्मद (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों को भी इस बड़ी तकलीफ़ से बचा लेंगे जिसमें मक्कावालों ने उनको मुब्तला कर रखा है।
وَجَعَلۡنَا ذُرِّيَّتَهُۥ هُمُ ٱلۡبَاقِينَ ۝ 69
(77) और उसी की नस्ल को बाक़ी रखा,42
42. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि जो लोग हज़रत नूह (अलैहि०) की मुख़ालफ़त कर रहे थे, उनकी नस्ल दुनिया से मिटा दी गई और हज़रत नूह (अलैहि०) ही की नस्ल बाक़ी रखी गई। दूसरा यह कि तमाम इनसानी नस्ल ख़त्म कर दी गई और आगे सिर्फ़ हज़रत नूह (अलैहि०) ही की औलाद से दुनिया आबाद की गई। आम तौर पर तफ़सीर लिखनेवालों ने इसी दूसरे मतलब को लिया है, मगर क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ इस मानी में साफ़ (स्पष्ट) नहीं हैं और हक़ीक़त अल्लाह के सिवा कोई नहीं जानता।
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 70
(78) और बाद की नस्लों में उसकी तारीफ़ और नेकनामी छोड़ दी।
سَلَٰمٌ عَلَىٰ نُوحٖ فِي ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 71
(79) सलाम है नूह पर तमाम दुनियावालों में।43
43. यानी आज दुनिया में हज़रत नूह (अलैहि०) की बुराई करनेवाला कोई नहीं है। नूह (अलैहि०) के ज़माने के तूफ़ान के बाद से आज तक हज़ारों साल से दुनिया उनका ज़िक्र भलाई के साथ ही कर रही है।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 72
(80) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला दिया करते हैं।
إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 73
(81) हक़ीक़त में वह हमारे ईमानवाले बन्दों में से था।
ثُمَّ أَغۡرَقۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 74
(82) फिर दूसरे गरोह को हमने डुबो दिया।
۞وَإِنَّ مِن شِيعَتِهِۦ لَإِبۡرَٰهِيمَ ۝ 75
(83) और नूह ही के तरीक़े पर चलनेवाला इबराहीम था।
إِذۡ جَآءَ رَبَّهُۥ بِقَلۡبٖ سَلِيمٍ ۝ 76
(84) जब वह अपने रब के सामने क़ल्बे-सलीम (सही-सलामत दिल)44 लेकर आया।
44. रब के सामने आने से मुराद उसकी तरफ़ रुजू करना और सबसे मुँह मोड़कर उसी का रुख़ करना है और 'क़ल्बे-सलीम' का मतलब है 'सही सलामत दिल'। यानी ऐसा दिल जो अक़ीदों और अख़लाक़ की तमाम ख़राबियों से पाक हो, जिसमें कुफ़्र, शिर्क और शक-शुब्हों का निशान तक न हो, जिसमें नाफ़रमानी और सरकशी का कोई जज़्बा न पाया जाता हो, जिसमें कोई एँच-पेंच और उलझाव न हो, जो हर तरह के बुरे रुझानों और नापाक ख़ाहिशों से बिलकुल साफ़ हो, जिसके अन्दर किसी के लिए कपट और जलन या बुरा चाहने का जज़्बा न पाया जाता हो, जिसकी नीयत में कोई खोट न हो।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ وَقَوۡمِهِۦ مَاذَا تَعۡبُدُونَ ۝ 77
(85) जब उसने अपने बाप और अपनी क़ौम से कहा,45 “ये क्या चीज़ें हैं जिनकी तुम इबादत कर रहे हो?
45. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के इस क़िस्से की और ज़्यादा तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—50 से 55; सूरा-19 मरयम, हाशिए—26, 27; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—51 से 66; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—50 से 64; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—25 से 48।
أَئِفۡكًا ءَالِهَةٗ دُونَ ٱللَّهِ تُرِيدُونَ ۝ 78
(86) क्या अल्लाह को छोड़कर झूठ गढ़े हुए माबूद (पूज्य) चाहते हो?
فَمَا ظَنُّكُم بِرَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 79
(87) आख़िर अल्लाह, सारे जहान के रब के बारे में तुम्हारा क्या गुमान है?"46
46. यानी अल्लाह तआला को आख़िर तुमने क्या समझ रखा है। क्या तुम्हारा ख़याल यह है कि ये लकड़ी-पत्थर के माबूद उसकी जिंस और जाति के हो सकते हैं? या उसकी सिफ़ात और उसके अधिकारों में शरीक हो सकते हैं? और क्या तुम इस ग़लतफ़हमी में पड़े हो कि उसके साथ इतनी बड़ी गुस्ताख़ी करके तुम उसकी पकड़ से बचे रह जाओगे?
فَنَظَرَ نَظۡرَةٗ فِي ٱلنُّجُومِ ۝ 80
(88) फिर47उसने तारों पर एक निगाह डाली48
47. अब एक ख़ास वाक़िए का ज़िक्र किया जा रहा है जिसकी तफ़सीलात सूरा-21 अम्बिया, (आयतें—31 से 73) और सूरा-29 अन्‌कबूत, (आयतें—16 से 27) में गुज़र चुकी है।
48. इब्ने-अबी-हातिम (रह०) ने मशहूर ताबिई क़ुरआन के आलिम क़तादा की कही हुई यह बात नक़्ल की है कि अरबवाले ‘न-ज़-र फ़िन-नुजूम' (उसने तारों पर निगाह डाली) के अलफ़ाज़ मुहावरे के तौर पर इस मानी में बोला करते हैं कि उस शख़्स ने ग़ौर किया, या वह आदमी सोचने लगा। अल्लामा इब्ने-कसीर (रह०) ने इसी क़ौल (कथन) को तरजीह दी है और वैसे भी यह बात अकसर देखने में आती है कि जब किसी शख़्स के सामने कोई ग़ौरतलब मामला आता है तो वह आसमान की तरफ़, या ऊपर की तरफ़ कुछ देर देखता रहता है, फिर सोचकर जवाब देता है।
فَقَالَ إِنِّي سَقِيمٞ ۝ 81
(89) और कहा, “मेरी तबीअत ख़राब है।"49
49. यह उन तीन बातों में से एक है जिनके बारे में कहा जाता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने अपनी ज़िन्दगी में ये तीन झूठ बोले थे। हालाँकि इस बात को झूठ या हक़ीक़त के ख़िलाफ़ कहने के लिए पहले किसी ज़रिए से यह मालूम होना चाहिए कि उस वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को किसी क़िस्म की कोई तकलीफ़ न थी और उन्होंने सिर्फ़ बहाने के तौर पर यह बात बना दी थी। अगर इसका कोई सुबूत नहीं है तो बेवजह इसे झूठ आख़िर किस बुनियाद पर ठहरा दिया जाए। इस मसले पर तफ़सीली बात हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-60 में कर चुके हैं और ज़्यादा तफ़सील रसाइलो-मसाइल, हिस्सा-2, पे० 35 से 39 में बयान की गई है।
فَتَوَلَّوۡاْ عَنۡهُ مُدۡبِرِينَ ۝ 82
(90) चुनाँचे वे लोग उसे छोड़कर चले गए।50
50. यह जुमला ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर कर रहा है कि सूरतेहाल अस्ल में क्या थी। मालूम होता है कि क़ौम के लोग अपने किसी मेले में जा रहे होंगे। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के ख़ानदानवालों ने उनसे भी साथ चलने को कहा होगा। उन्होंने यह कहकर मजबूरी ज़ाहिर कर दी होगी कि “मेरी तबीअत ख़राब है, मैं नहीं चल सकता।” अब अगर यह बात बिलकुल ही हक़ीक़त के ख़िलाफ़ होती तो ज़रूर घर के लोग उनसे कहते कि “अच्छे-ख़ासे भले-चंगे हो, बिला वजह बहाना बना रहे हो।” लेकिन वे उस मजबूरी को क़ुबूल करके उन्हें पीछे छोड़कर चले गए तो इससे ख़ुद ही यह बात ज़ाहिर होती है कि ज़रूर उस वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को नज़ला, खाँसी, या कोई और ऐसी ही नज़र आनेवाली तकलीफ़ होगी जिसकी वजह से घरवाले उन्हें छोड़ जाने पर राज़ी हो गए।
فَرَاغَ إِلَىٰٓ ءَالِهَتِهِمۡ فَقَالَ أَلَا تَأۡكُلُونَ ۝ 83
(91) उनके पीछे वह चुपके से उनके माबूदों के मन्दिर में घुस गया और बोला, “आप लोग खाते क्यों नहीं हैं?"51
51. इससे साफ़ मालूम होता है कि मन्दिर में बुतों के सामने तरह-तरह की खाने की चीज़ें रखी हुई होंगी।
مَا لَكُمۡ لَا تَنطِقُونَ ۝ 84
(92) क्या हो गया, आप लोग बोलते भी नहीं?”
فَرَاغَ عَلَيۡهِمۡ ضَرۡبَۢا بِٱلۡيَمِينِ ۝ 85
(93) उसके बाद वह उनपर पिल पड़ा और सीधे हाथ से ख़ूब चोटें लगाईं।
فَأَقۡبَلُوٓاْ إِلَيۡهِ يَزِفُّونَ ۝ 86
(94) (वापस आकर) वे लोग भागे-भागे उसके पास आए।52
52. यहाँ क़िस्सा मुख़्तसर करके बयान किया गया है। सूरा-21 अम्बिया में इसकी जो तफ़सील दी गई है, वह यह है कि जब उन्होंने आकर अपने मन्दिर में देखा कि सारे बुत टूटे पड़े हैं तो पूछ-गछ शुरू की। कुछ लोगों ने बताया कि इबराहीम नाम का एक नौजवान बुतपरस्ती के ख़िलाफ़ ऐसी-ऐसी बातें करता रहा है। इसपर भीड़ ने कहा कि पकड़ लाओ उसे। चुनाँचे एक गरोह दौड़ता हुआ उनके पास पहुँचा और उन्हें भीड़ के सामने ले आया।
قَالَ أَتَعۡبُدُونَ مَا تَنۡحِتُونَ ۝ 87
(95) उसने कहा, “क्या तुम अपनी ही तराशी हुई चीज़ों को पूजते हो?
وَٱللَّهُ خَلَقَكُمۡ وَمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 88
(96) हालाँकि अल्लाह ही ने तुमको भी पैदा किया है और उन चीज़ों को भी जिन्हें तुम बनाते हो।”
قَالُواْ ٱبۡنُواْ لَهُۥ بُنۡيَٰنٗا فَأَلۡقُوهُ فِي ٱلۡجَحِيمِ ۝ 89
(97) उन्होंने आपस में कहा, “इसके लिए एक अलाव तैयार करो और इसे दहकती हुई आग के ढेर में फेंक दो।”
فَأَرَادُواْ بِهِۦ كَيۡدٗا فَجَعَلۡنَٰهُمُ ٱلۡأَسۡفَلِينَ ۝ 90
(98) उन्होंने उसके ख़िलाफ़ एक कार्रवाई करनी चाही थी, मगर हमने उन्हीं को नीचा दिखा दिया।53
53. सूरा-21 अम्बिया, आयत-69 में अलफ़ाज़ ये हैं, “हमने कहा, ऐ, आग ठण्डी हो जा और सलामती बन जा इबराहीम के लिए।” और सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-24 में कहा गया है, “फिर अल्लाह ने उसको आग से बचा लिया।” इससे यह साबित होता है कि उन लोगों ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को आग में फेंक दिया था और फिर अल्लाह तआला ने उन्हें सही-सलामत निकाल दिया। आयत के ये अलफ़ाज़ कि “उन्होंने उसके ख़िलाफ़ एक कार्रवाई करनी चाही थी, मगर हमने उन्हें नीचा दिखा दिया।” इस मानी में नहीं लिए जा सकते कि उन्होंने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को आग में फेंकना चाहा था, मगर न फेंक सके, बल्कि ऊपर बयान हुई आयतों के साथ मिलाकर देखने से इनका साफ़ मतलब यही मालूम होता है कि वे आग में फेंककर उन्हें हलाक कर देना चाहते थे, मगर न कर सके और उनके मोजिज़ाना (चामत्कारिक) तरीक़े से बच जाने का नतीजा यह हुआ कि इबराहीम (अलैहि०) की बड़ाई साबित हो गई और मुशरिकों को अल्लाह ने नीचा दिखा दिया। इस वाक़िए को बयान करने का अस्ल मक़सद क़ुरैश के लोगों को इस बात पर ख़बरदार करना है कि जिन इबराहीम (अलैहि०) की औलाद होने पर तुम फ़ख़्र (गर्व) करते हो, उनका तरीक़ा वह न था जो तुमने अपना रखा है, बल्कि वह था जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं। अब अगर तुम उनको नीचा दिखाने के लिए, वे चालें चलोगे जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ौम ने उनके साथ चली थीं तो आख़िरकार नीचा तुम्हीं देखोगे, मुहम्मद (सल्ल०) को नीचा तुम नहीं दिखा सकते।
وَقَالَ إِنِّي ذَاهِبٌ إِلَىٰ رَبِّي سَيَهۡدِينِ ۝ 91
(99) इबराहीम ने कहा,54 “मैं अपने रब की तरफ़ जाता हूँ,55 वही मेरी रहनुमाई करेगा।
54. यानी आग से सही-सलामत निकल आने के बाद जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने देश से निकल जाने का फ़ैसला किया तो चलते वक़्त ये अलफ़ाज़ कहे।
55. इसका मतलब यह है कि मैं अल्लाह की ख़ातिर निकल रहा हूँ, क्योंकि उसी का हो जाने की वजह से मेरी क़ौम मेरी दुश्मन हो गई है, वरना कोई दुनियावी झगड़ा मेरे और उसके बीच न था कि उसकी वजह से मुझे अपना वतन छोड़ना पड़ रहा हो और यह कि मेरा दुनिया में कोई ठिकाना नहीं है, जिसकी तरफ़ जाऊँ। बस तक़दीर के सहारे अल्लाह पर भरोसा करके निकल रहा हूँ। जिधर वह ले जाएगा, उसी तरफ़ चला जाऊँगा।
رَبِّ هَبۡ لِي مِنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 92
(100) ऐ परवरदिगार, मुझे एक बेटा दे जो नेक लोगों में से हो।”56
56. इस दुआ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात मालूम होती है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) उस वक़्त बेऔलाद थे। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगहों पर जो हालात बयान किए गए हैं, उनसे मालूम होता है कि वे सिर्फ़ एक बीवी और एक भतीजे (हज़रत लूत अलैहि०) को लेकर देश से निकले थे। उस वक़्त फ़ितरी तौर पर उनके दिल में यह ख़ाहिश पैदा हुई कि अल्लाह कोई नेक औलाद दे जो इस परदेस की हालत में उनका दुख हल्का करे।
فَبَشَّرۡنَٰهُ بِغُلَٰمٍ حَلِيمٖ ۝ 93
(101) (इस दुआ के जवाब में) हमने उसे एक हलीम (सहनशील) लड़के की ख़ुशख़बरी दी।”57
57. इससे यह न समझ लिया जाए कि दुआ करते ही यह ख़ुशख़बरी दे दी गई। क़ुरआन मजीद ही में एक दूसरी जगह पर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का यह बोल नक़्ल किया गया है कि “शुक्र है उस ख़ुदा का जिसने मुझे बुढ़ापे में इसमाईल और इसहाक़ दिए।” (सूरा-14 इबराहीम, आयत-39)। इससे साबित होता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की दुआ और इस ख़ुशख़बरी के बीच कई सालों का फ़ासला था। बाइबल का बयान है कि हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की पैदाइश के वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की उम्र 86 साल की थी (उत्पत्ति 16:16) और हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की पैदाइश के वक़्त सौ साल की। (उत्पत्ति, 21:5)
فَلَمَّا بَلَغَ مَعَهُ ٱلسَّعۡيَ قَالَ يَٰبُنَيَّ إِنِّيٓ أَرَىٰ فِي ٱلۡمَنَامِ أَنِّيٓ أَذۡبَحُكَ فَٱنظُرۡ مَاذَا تَرَىٰۚ قَالَ يَٰٓأَبَتِ ٱفۡعَلۡ مَا تُؤۡمَرُۖ سَتَجِدُنِيٓ إِن شَآءَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلصَّٰبِرِينَ ۝ 94
(102) वह लड़का जब उसके साथ दौड़-धूप करने की उम्र को पहुँच गया तो (एक दिन) इबराहीम ने उससे कहा, “बेटा! मैं ख़ाब (सपने) में देखता हूँ कि मैं तुझे ज़ब्ह कर रहा हूँ,58 अब तू बता, तेरा क्या ख़याल है?"59 उसने कहा, “अब्बाजान, जो कुछ आपको हुक्म दिया जा रहा है60 उसे कर डालिए। आप अल्लाह ने चाहा तो मुझे सब्र करनेवालों में से पाएँगे।”
58. यह बात ध्यान में रहे कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने ख़ाब (सपने) में यह नहीं देखा था कि उन्होंने बेटे को ज़ब्ह कर दिया है, बल्कि यह देखा था कि वह उसे ज़ब्ह कर रहे हैं। अगरचे उस वक़्त वह सपने का मतलब यही समझे थे कि वह बेटे को ज़ब्ह कर दें। इसी वजह से वह ठण्डे दिल से बेटा क़ुरबान कर देने के लिए बिलकुल तैयार हो गए थे। मगर सपना दिखाने में जिस बारीक नुक्ते का अल्लाह तआला ने ध्यान रखा था, उसे आगे की आयत-105 में उसने ख़ुद खोल दिया है।
59. बेटे से यह बात पूछने का मक़सद यह न था कि तू राज़ी हो तो ख़ुदा के हुक्म पर अमल करूँ वरना न करूँ, बल्कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अस्ल में यह देखना चाहते थे कि जिस नेक औलाद की उन्होंने दुआ माँगी थी, वह सचमुच कितनी नेक है। अगर वह ख़ुद भी अल्लाह की ख़ुशनूदी पर जान देने को तैयार है तो इसका मतलब यह है कि दुआ पूरे तौर पर क़ुबूल हुई है और बेटा सिर्फ़ जिस्मानी हैसियत ही से उनकी औलाद नहीं है, बल्कि अख़लाक़ी और रूहानी हैसियत से भी उनका सपूत है।
60. ये अलफ़ाज़ साफ़ बता रहे हैं कि पैग़म्बर बाप के ख़ाब (सपने) को बेटे ने सिर्फ़ सपना नहीं, बल्कि ख़ुदा का हुक्म समझा था। अब अगर यह सचमुच हुक्म न होता तो ज़रूरी था कि अल्लाह तआला साफ़-साफ़ या इशारे में इस बात को बयान कर देता कि इबराहीम (अलैहि०) के बेटे ने ग़लती से उसको हुक्म समझ लिया। लेकिन पूरा मौक़ा-महल ऐसे किसी इशारे से ख़ाली है। इसी बुनियाद पर इस्लाम में यह अक़ीदा पाया जाता है कि नबियों (अलैहि०) का सपना सिर्फ़ सपना नहीं होता, बल्कि वह भी वह्य की क़िस्मों में से एक क़िस्म है। ज़ाहिर है कि जिस बात से एक इतना बड़ा क़ायदा (सिद्धान्त) ख़ुदा की शरीअत में शामिल हो सकता हो, उसकी बुनियाद अगर हक़ीक़त पर न होती, बल्कि सिर्फ़ एक ग़लतफ़हमी पर होती तो मुमकिन न था कि अल्लाह तआला उसको रद्द न फ़रमाता। क़ुरआन को अल्लाह का कलाम माननेवाले के लिए यह मानना नामुमकिन है कि अल्लाह तआला से ऐसी भूल-चूक भी हो सकती है।
فَلَمَّآ أَسۡلَمَا وَتَلَّهُۥ لِلۡجَبِينِ ۝ 95
(103) आख़िरकार जब उन दोनों ने अपने आपको हवाले कर दिया और इबराहीम ने बेटे को माथे के बल गिरा दिया,61
61. यानी हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने ज़ब्ह करने के लिए बेटे को चित नहीं लिटाया, बल्कि औंधे मुँह लिटाया, ताकि ज़ब्ह करते वक़्त बेटे का चेहरा देखकर कहीं मुहब्बत और प्यार हाथ में कपकपी न पैदा कर दे। इसलिए वे चाहते थे कि नीचे की तरफ़ से हाथ डालकर छुरी चलाएँ।
وَنَٰدَيۡنَٰهُ أَن يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُ ۝ 96
(104) और हमने आवाज़ दी62 कि “ऐ इबराहीम,
62. अरबी क़ायदा (व्याकरण) जाननेवालों का एक गरोह कहता है कि यहाँ 'और' 'तो' के मानी में है, यानी जुमला यूँ है कि “जब उन दोनों ने अपने आपको हवाले कर दिया और इबराहीम ने बेटे को माथे के बल गिरा दिया तो हमने आवाज़ दी।” लेकिन एक दूसरा गरोह कहता है कि यहाँ लफ़्ज़ 'जब' का जवाब छिपा हुआ है और उसको सुननेवाले के ज़ेहन पर छोड़ दिया गया है, क्योंकि बात इतनी बड़ी थी कि उसे अलफ़ाज़ में बयान करने के बजाय तसव्वुर ही के लिए छोड़ देना ज़्यादा मुनासिब था। जब अल्लाह तआला ने देखा होगा कि बूढ़ा बाप अपने अरमानों से माँगे हुए बेटे को सिर्फ़ हमारी ख़ुशनूदी पर क़ुरबान कर देने के लिए तैयार हो गया है और बेटा भी गले पर छुरी चलवाने के लिए राज़ी है, तो यह मंज़र देखकर अल्लाह की रहमत के दरिया ने कैसा कुछ जोश मारा होगा और मालिक को उन बाप-बेटों पर कैसा कुछ प्यार आया होगा, इसका बस तसव्वुर ही किया जा सकता है। अलफ़ाज़ में उसकी कैफ़ियत जितनी कुछ भी बयान की जाएगी, वह उसको अदा नहीं करेगी, बल्कि उसकी अस्ली शान से कुछ घटकर ही होगी।
قَدۡ صَدَّقۡتَ ٱلرُّءۡيَآۚ إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 97
105) तूने ख़ाब (सपना) सच कर दिखाया।63 हम नेकी करनवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।64
63. यानी हमने तुम्हें यह तो नहीं दिखाया था कि तुमने बेटे को ज़ब्ह कर दिया है और उसकी जान निकल गई है, बल्कि यह दिखाया था कि तुम ज़ब्ह कर रहे हो। तो वह ख़ाब (सपना) तुमने पूरा कर दिखाया। अब हमें तुम्हारे बच्चे की जान नहीं लेनी है। अस्ल मक़सद जो कुछ था वह तुम्हारी इस आमादगी और तैयारी से हासिल हो गया है।
64. यानी जो लोग एहसान का रवैया अपनाते हैं, उनके ऊपर आज़माइशें हम इसलिए नहीं डाला करते कि उन्हें ख़ाह-मख़ाह तकलीफ़ों में डालें और दुख-दर्द में मुब्तला करें, बल्कि ये कि आज़माइशें उनकी ख़ूबियों को उभारने के लिए और उन्हें बड़े मर्तबे देने के लिए उनपर डाली जाती हैं और फिर आज़माइश की ख़ातिर जिस मुश्किल में हम उन्हें डालते हैं, उससे सही-सलामत उनको निकलवा भी देते हैं। चुनाँचे देखो, बेटे की क़ुरबानी के लिए तुम्हारी रज़ामन्दी और तैयारी ही बस इसके लिए काफ़ी हो गई कि तुम्हें वह मर्तबा दिया जाए जो हमारी ख़ुशनूदी पर सचमुच बेटा क़ुरबान कर देनेवाले को मिल सकता था। इस तरह हमने तुम्हारे बच्चे की जान भी बचा दी और तुम्हें यह बुलन्द मर्तबा भी दे दिया।
إِنَّ هَٰذَا لَهُوَ ٱلۡبَلَٰٓؤُاْ ٱلۡمُبِينُ ۝ 98
(106) यक़ीनन यह एक खुली आज़माइश थी।"65
65. यानी तुम्हारे हाथ से तुम्हारे बच्चे को ज़ब्ह करा देना मक़सद न था, बल्कि अस्ल मक़सद तुम्हारा इम्तिहान लेना था कि तुम हमारे मुक़ाबले में दुनिया की किसी चीज़ को ज़्यादा प्यारा तो नहीं रखते।
وَفَدَيۡنَٰهُ بِذِبۡحٍ عَظِيمٖ ۝ 99
(107) और हमने एक बड़ी क़ुरबानी फ़िदये में देकर उस बच्चे को छुड़ा लिया।66
66. 'बड़ी क़ुरबानी' से मुराद जैसा कि बाइबल और इस्लामी रिवायतों में बयान हुआ है, एक मेंढा है जो उस वक़्त अल्लाह तआला के फ़रिश्ते ने हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के सामने पेश किया, ताकि बेटे के बदले उसको ज़ब्ह कर दें। उसके लिए बड़ी क़ुरबानी का लफ़्ज इसलिए इस्तेमाल किया गया है कि वह इबराहीम (अलैहि०) जैसे वफ़ादार बन्दे के लिए, इबराहीम के बेटे जैसे सब्रवाले और जाँनिसार लड़के का फ़िद्या था और उसे अल्लाह तआला ने एक बेमिसाल क़ुरबानी की नीयत पूरी करने का वसीला बना था। इसके अलावा उसे 'बड़ी क़ुरबानी' ठहराने की एक बड़ी वजह यह भी है कि क़ियामत तक के लिए अल्लाह तआला ने यह सुन्नत (तरीक़ा) जारी कर दी कि उसी तारीख़ को तमाम ईमानवाले दुनिया भर में जानवर क़ुरबान करें और वफ़ादारी और जाँनिसारी के इस शानदार वाक़िए की याद ताज़ा करते रहें।
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 100
(108) और उसकी तारीफ़ और नेकनामी हमेशा के लिए बाद की नस्लों में छोड़ दी।
سَلَٰمٌ عَلَىٰٓ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 101
(109) सलाम है इबराहीम पर।
كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 102
(110) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।
إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 103
(111) यक़ीनन वह हमारे मोमिन बन्दों में से था।
وَبَشَّرۡنَٰهُ بِإِسۡحَٰقَ نَبِيّٗا مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 104
(112) और हमने उसे इसहाक़ की ख़ुशख़बरी दी,”67 एक नबी नेक लोगों में से।
67. यहाँ पहुँचकर यह सवाल हमारे सामने आता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने जिन साहबज़ादे को क़ुरबान करने के लिए तैयार हुए थे और जिन्होंने अपने आपको ख़ुद इस क़ुरबानी के लिए पेश कर दिया था, वह कौन थे। सबसे पहले इस सवाल का जवाब हमारे सामने बाइबल की तरफ़ से आता है और वह यह है— "ख़ुदा ने अब्राहम (इबराहीम) से यह कहकर उसकी परीक्षा की कि ऐ अब्राहम.......तू अपने बेटे को यानी अपने इकलौते बेटे इसहाक़ को जिससे तू प्यार करता है साथ लेकर मोरिय्याह के देश में चला जा और वहाँ उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊँगा होमबलि करके चढ़ा।" (उत्पत्ति, 22:1-2) इस बयान में एक तरफ़ तो यह कहा जा रहा है कि अल्लाह तआला ने हज़रत इसहाक़ की क़ुरबानी माँगी थी और दूसरी तरफ़ यह भी कहा जा रहा है कि वह इकलौते थे। हालाँकि ख़ुद बाइबल ही के दूसरे बयानों से पक्के तौर पर यह साबित होता है कि हज़रत इसहाक़ इकलौते न थे। इसके लिए ज़रा बाइबल ही के नीचे लिखे बयानों को देखिए— “और अब्राहम (इबराहीम) की बीवी सारै के कोई औलाद न थी। उसकी एक मिस्री लौंडी थी जिसका नाम हाजिरा था और सारै ने अब्राहम से कहा, देख यहोवा (यानी अल्लाह) ने तो मेरी कोख बन्द कर रखी है, इसिलए मैं तुझसे विनती करती हूँ कि मेरी लौंडी के पास जा, शायद उससे मेरा घर आबाद हो जाए और अब्राहम ने सारै की बात मान ली। अब्राहम को कनान देश में रहते हुए दस साल बीत चुके थे, तब उसकी बीवी सारै ने अपनी मिस्री लौंडी हाजिरा को लेकर अपने पति अब्राहम को दिया कि वह उसकी बीवी बने और वह हाजिरा के पास गया और वह हामिला (गर्भवती) हुई।” (उत्पत्ति, 16:1-4) "ख़ुदावन्द के फ़रिश्ते ने उससे कहा कि तू हामिला (गर्भवती) है और तेरे बेटा पैदा होगा। उसका नाम इश्माएल (इसमाईल) रखना।" (16:11) “जब हाजिरा ने अब्राहम के द्वारा इश्माएल को जन्म दिया, उस वक़्त अब्राहम छियासी साल का था।” (16:16) “और ख़ुदा ने अब्राहम से कहा कि सारै जो तेरी बीवी है ...... उससे भी तुझे एक बेटा दूँगा तू उसका नाम इज़हाक़ रखना...... जो अगले साल इसी तयशुदा वक़्त पर सारा (सारै) से पैदा होगा। ....... तब अब्राहम ने अपने बेटे इसमाईल को और ...... घर के सब मर्दों को लिया और उसी दिन ख़ुदा के हुक्म के मुताबिक़ उनका ख़तना किया। जब अब्राहम का ख़तना हुआ तब वह निन्यानवे साल का था और जब उसके बेटे इसमाईल का ख़तना हुआ तो 13 साल का था।” (उत्पत्ति, 17:15-25) “और जब अब्राहम का बेटा इसहाक़ उससे पैदा हुआ तब अब्राहम सौ साल का था।" (उत्पत्ति, 21:5) इससे बाइबल के बयानों का आपस में एक-दूसरे से टकराना साफ़ तौर से खुल जाता है। ज़ाहिर है कि 14 साल तक अकेले हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ही हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बेटे थे। अब अगर क़ुरबानी इकलौते बेटे की माँगी गई थी तो वह हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की नहीं, बल्कि हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की थी, क्योंकि वही इकलौते थे और अगर इसहाक़ (अलैहि०) की क़ुरबानी माँगी गई थी तो फिर यह कहना ग़लत है कि इकलौते बेटे की क़ुरबानी माँगी गई थी। इसके बाद हम इस्लामी रिवायतों को देखते हैं और उनमें सख़्त इख़्तिलाफ़ (मतभेद) पाया जाता है। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों ने सहाबा और ताबिईन की जो रिवायतें नक़्ल की हैं उनमें एक गरोह का क़ौल (कथन) यह बयान किया गया है कि वे साहबजादे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) थे और इस गरोह में नीचे लिखे बुज़ुर्गों के नाम मिलते हैं— हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्बास-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), क़तादा, इकरिमा, हसन बसरी, सईद-बिन-जुबैर, मुजाहिद, शअबी, मसरूक़, मकहूल, ज़ुहरी, अता, मुक़ातिल, सुद्दी, कअबे-अहबार, ज़ैद-बिन-असलम (रह०) वग़ैरा। दूसरा गरोह कहता है कि वे हज़रत इसमाईल (अलैहि०) थे और इस गरोह में नीचे लिखे बुज़ुर्गों के नाम नज़र आते हैं— हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), हज़रत मुआविया (रज़ि०), इकरिमा, मुजाहिद, यूसुफ़-बिन-मेहरान, हसन बसरी, मुहम्मद-बिन-कअब अल-क़ुर्जी, शअबी, सईद-बिन- मुसय्यब, जह्हाक, मुहम्मद-बिन-अली-बिन-हुसैन (मुहम्मदुल-बाक़र), रबीअ-बिन-अनस, अहमद- बिन-हंबल (रह०) वग़ैरा। इन दोनों फ़ेहरिस्तों को एक-दूसरे से मिलाकर देखा जाए तो कई नाम दोनों फ़ेहरिस्तों में नज़र आएँगे। यानी एक ही बुज़ुर्ग से दो अलग-अलग रायें नक़्ल हुई हैं। मसलन हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से इकरिमा यह क़ौल नक़्ल करते हैं कि वे साहबज़ादे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) थे। मगर इन्हीं से अता-बिन-अबी-रबाह यह बात नक़्ल करते हैं कि “यहूदियों का दावा है कि वे इसहाक़ (अलैहि०) थे, मगर यहूदी झूठ कहते हैं।” इसी तरह हज़रत हसन बसरी से एक रिवायत यह है कि वे इस बात को मानते थे कि इबराहीम (अलैहि०) को ख़ाब (सपने) में हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था। मगर अम्र-बिन-उबैद कहते हैं कि हसन बसरी (रह०) को इस बात में कोई शक नहीं था कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के जिस बेटे को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था, वह इसमाईल (अलैहि०) थे। रिवायतों के इस तरह अलग-अलग होने का नतीजा यह हुआ कि इस्लामी आलिमों में से कुछ पक्के यक़ीन के साथ हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के हक़ में राय देते हैं, मसलन इब्ने-जरीर और क़ाज़ी इयाज़। कुछ पूरे यक़ीन से कहते हैं कि ज़ब्ह किए जाने का हुक्म हज़रत इसमाईल (अलैहि०) के बारे में था, मसलन इब्ने-कसीर। कुछ फ़ैसला नहीं कर पाए कि ज़ब्ह करने का हुक्म किसके बारे में था, मसलन जलालुद्दीन सुयूती। लेकिन अगर तहक़ीक़ की नज़र से देखा जाए तो यह बात हर शक-शुब्हे से परे नज़र आती है कि हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ही को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था। इसकी दलीलें इस तरह हैं— (1) ऊपर क़ुरआन मजीद में अल्लाह तआला का यह फ़रमान गुज़र चुका है कि अपने वतन से हिजरत करते वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने एक नेक बेटे के लिए दुआ की थी और उसके जवाब में अल्लाह तआला ने उनको एक हलीम (सहनशील) बेटे की ख़ुशख़बरी दी। बात का मौक़ा साफ़ बता रहा है कि यह दुआ उस वक़्त की गई थी जब इबराहीम (अलैहि०) बेऔलाद थे और ख़ुशख़बरी जिस लड़के की दी गई वह उनका पहलौंटा बच्चा था। फिर यह भी क़ुरआन ही के बयान के सिलसिले से ज़ाहिर होता है कि वही बच्चा जब बाप के साथ दौड़ने-चलने के क़ाबिल हुआ तो उसे ज़ब्ह करने का इशारा किया गया। अब यह बात यक़ीनी तौर पर साबित है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पहलौटे बच्चे हज़रत इसमाईल (अलैहि०) थे, न कि हज़रत इसहाक़ (अलैहि०)। ख़ुद क़ुरआन मजीद में बेटों की तरतीब (क्रम) इस तरह बयान हुई है, “तारीफ़ है उस अल्लाह के लिए जिसने मुझे बुढ़ापे में इसमाईल और इसहाक़ दिए।" (सूरा-14 इबराहीम, आयत-39)। (2) क़ुरआन मजीद में जहाँ हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की ख़ुशख़बरी दी गई है, वहाँ उनके लिए 'ग़ुलामे-अलीम' (इल्मवाले लड़के) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। “और उन्होंने उसे एक इल्मवाले लड़के की ख़ुशख़बरी दी।” (सूरा-51 ज़ारियात, आयत-28) “डरो नहीं, हम तुम्हें एक इल्मवाले लड़के की ख़ुशख़बरी देते हैं।” (सूरा-15 हिज्र, आयत-53) मगर यहाँ जिस लड़के की ख़ुशख़बरी दी गई है, उसके 'ग़ुलामिन-हलीम' (सहनशील लड़के) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि दो बेटों की दो नुमायाँ सिफ़ात अलग-अलग थीं और ज़ब्ह का हुक्म 'ग़ुलामे-अलीम' के लिए नहीं, बल्कि 'ग़ुलामे-हलीम' के लिए था। (3) क़ुरआन मजीद में हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की पैदाइश की ख़ुशख़बरी देते हुए साथ-ही-साथ यह ख़ुशख़बरी भी दे दी गई थी कि उनके यहाँ याक़ूब (अलैहि०) जैसा बेटा पैदा होगा, "फिर हमने उस (औरत) को इसहाक़ और फिर इसहाक़ के बाद याक़ूब की ख़ुशख़बरी दी।” (सूरा-11 हूद, आयत-71)। अब ज़ाहिर है कि जिस लड़के की पैदाइश की ख़बर देने के साथ ही यह ख़बर भी दी जा चुकी हो कि उसके यहाँ एक लायक़ बेटा पैदा होगा, उसके बारे में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को यह ख़ाब (सपना) दिखाया जाता कि वे उसे ज़ब्ह कर रहे हैं, तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) इससे यह कभी न समझ सकते थे कि इस बेटे को क़ुरबान कर देने का इशारा किया जा रहा है। अल्लामा इब्ने-जरीर (रह०) इस दलील का यह जवाब देते हैं कि मुमकिन है यह ख़ाब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उस वक़्त दिखाया गया हो जब हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के यहाँ हज़रत याक़ूब (अलैहि०) पैदा हो चुके हों। लेकिन हक़ीक़त में यह उस दलील का बहुत ही बोदा जवाब है। क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ ये हैं कि “जब वह लड़का बाप के साथ दौड़ने-चलने के क़ाबिल हो गया” तब यह ख़ाब (सपना) दिखाया गया था। इन अलफ़ाज़ को जो कोई भी ख़ाली ज़ेहन होकर पढ़ेगा, उसके सामने आठ-दस साल के बच्चे की तस्वीर आएगी। कोई शख़्स भी यह नहीं सोच सकता कि जवान और औलादवाले बेटे के लिए ये अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए होंगे। (4) अल्लाह तआला सारा क़िस्सा बयान करने के बाद आख़िर में फ़रमाता है कि “हमने उसे इसहाक़ की ख़ुशख़बरी दी, एक नबी नेक लोगों में से।” इससे साफ़ मालूम होता है कि यह वही बेटा नहीं है जिसे ज़ब्ह करने का इशारा किया गया था। बल्कि पहले किसी और बेटे की ख़ुशख़बरी दी गई। फिर जब वह बाप के साथ दौड़ने-चलने के क़ाबिल हुआ तो उसे ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ। फिर जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) इस इम्तिहान में कामयाब हो गए तब उनको एक और बेटे इसहाक़ (अलैहि०) के पैदा होने की ख़ुशख़बरी दी गई। वाक़िआत की यह तरतीब यक़ीनी तौर पर फ़ैसला कर देती है कि जिन साहबजादे को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था वे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) न थे, बल्कि वे उनसे कई साल पहले पैदा हो चुके थे। अल्लामा इब्ने-जरीर (रह०) इस खुली दलील को यह कहकर रद्द कर देते हैं कि पहले सिर्फ़ हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के पैदा होने की ख़ुशख़बरी दी गई थी। फिर जब वे ख़ुदा की ख़ुशनूदी पर क़ुरबान होने के लिए तैयार हो गए तो इसका इनाम इस शक्ल में दिया गया कि उनके नबी होने की ख़ुशख़बरी दी गई। लेकिन यह उनके पहले जवाब से भी ज़्यादा कमज़ोर जवाब है। अगर सचमुच बात यही होती तो अल्लाह तआला यूँ न फ़रमाता कि “हमने उसको इसहाक़ की ख़ुशख़बरी दी, एक नबी नेक लोगों में से।” बल्कि यूँ फ़रमाता कि हमने उसको यह ख़ुशख़बरी दी कि तुम्हारा यही लड़का एक नबी होगा नेक लोगों में से। (5) भरोसेमन्द रिवायतों से यह बात साबित है कि हज़रत इसमाईल (अलैहि०) के फ़िदये (बदले) में जो मेंढा ज़ब्ह किया गया था, उसके सींग काबा में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) के ज़माने तक महफ़ूज़ थे। बाद में जब हज्जाज-बिन-यूसुफ़ ने हरम में इब्ने-ज़ुबैर का घेराव किया और काबा को ढा दिया तो वे सींग भी बरबाद हो गए। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और आमिर शअबी दोनों इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने ख़ुद काबा में ये सींग देखे हैं। (इब्ने-कसीर) यह इस बात का सुबूत है कि क़ुरबानी का यह वाक़िआ शाम (सीरिया) में नहीं, बल्कि मक्का में पेश आया था और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) के साथ पेश आया था, इसी लिए तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) के बनाए हुए काबा में उसकी यादगार महफ़ूज़ रखी गई थी। (6) यह बात सदियों से अरब की रिवायतों में महफ़ूज़ थी कि क़ुरबानी का यह वाक़िआ मिना में पेश आया था और यह सिर्फ़ रिवायत ही न थी, बल्कि उस वक़्त से नबी (सल्ल०) के ज़माने तक हज के कामों में यह काम भी बराबर शामिल चला आ रहा था। कि मिना की उसी जगह में जाकर लोग उसी जगह पर, जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने कुरबानी की थी, जानवर क़ुरबान किया करते थे। फिर जब आप (सल्ल०) नबी बनाए गए तो आप (सल्ल०) ने भी इसी तरीक़े को जारी रखा, यहाँ तक कि आज तक हज के मौक़े पर 10 ज़िल-हिज्जा को मिना में क़ुरबानियाँ की जाती हैं। साढ़े चार हज़ार साल का यह लगातार अमल इस बात का पक्का सुबूत है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की इस क़ुरबानी के वारिस बनी-इसमाईल हुए हैं, न कि बनी-इसहाक़। हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की नस्ल में ऐसी कोई रस्म कभी जारी नहीं रही है जिसमें सारी क़ौम एक ही कम वक़्त में क़ुरबानी करती हो और उसे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ुरबानी की यादगार कहती हो। ये ऐसी दलीलें हैं जिनको देखने के बाद यह बात ताज्जुब के क़ाबिल नज़र आती है कि ख़ुद मुसलमानों में यह ख़याल आख़िर फैल कैसे गया कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को हुक्म दिया गया था कि वे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) को ज़ब्ह करें। यहूदियों ने अगर हज़रत इसमाईल (अलैहि०) को इस एहतिराम से महरूम करके अपने दादा हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की तरफ़ इसे जोड़न की कोशिश की तो यह एक समझ में आनेवाली बात है। लेकिन आख़िर मुसलमानों के एक बड़े गरोह ने उनकी इस धाँधली को कैसे क़ुबूल कर लिया? इस सवाल का बहुत इत्मीनान-बख़्श जवाब अल्लामा इब्ने-कसीर ने अपनी तफ़सीर में दिया है। वे कहते है— “हक़ीक़त तो अल्लाह ही जानता है, मगर बज़ाहिर यही मालूम होता है कि अस्ल में ये सारी बातें (जो हज़रत इसहाक़ के ज़ब्ह किए जाने के हक़ में हैं) कअब-अहबार से रिवायत हैं। यह साहब जब हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में मुसलमान हुए तो कभी-कभी यह यहूदियों और ईसाइयों की पुरानी किताबों में लिखी बातें उनको सुनाया करते थे और हज़रत उमर (रज़ि०) उन्हें सुन लिया करते थे। इस वजह से दूसरे लोग भी उनकी बातें सुनने लगे और सब सही-ग़लत जो वे बयान कर दिया करते थे, उन्हें रिवायत करने लगे। हालाँकि इस उम्मत (समुदाय) को उनकी जानकारी के इस ज़ख़ीरे (भंडार) में से किसी चीज़ की भी ज़रूरत न थी।" इस सवाल पर और ज़्यादा रौशनी मुहम्मद-बिन-कअब क़ुर्ज़ी (रह०) की एक रिवायत से पड़ती है। वे बयान करते हैं कि एक बार मेरी मौजूदगी में हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) के यहाँ यह सवाल छिड़ा कि ज़ब्ह किए जाने का हुक्म हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के बारे में था या हज़रत इसमाईल के बारे में। उस वक़्त एक ऐसे साहब भी मजलिस में मौजूद थे जो पहले यहूदी आलिमों में से थे और बाद में सच्चे दिल से मुसलमान हो चुके थे। उन्होंने कहा, “अमीरुल-मोमिनीन, अल्लाह की क़सम, वे इसमाईल (अलैहि०) ही थे और यहूदी इस बात को जानते हैं, मगर वे अरबों से जलन की वजह से यह दावा करते हैं कि ज़ब्ह का हुक्म हज़रत इसहाक़ के बारे में था।” (इब्ने-जरीर) इन दोनों बातों को मिलाकर देखा जाए तो मालूम हो जाता है कि अस्ल में यह यहूदी प्रोपेगण्डे का असर था जो मुसलमानों में फैल गया और मुसलमान चूँकि इल्मी मामलात में हमेशा तास्सुब से पाक रहे हैं, इसलिए उनमें से बहुत-से लोगों ने यहूदियों के उन बयानों को, जो वे पुरानी किताबों के हवाले से तारीख़ी रिवायतों के भेस में पेश करते थे, सिर्फ़ एक इल्मी हक़ीक़त समझकर क़ुबूल कर लिया और यह महसूस तक न किया कि इसमें इल्म के बजाय तास्सुब काम कर रहा है।
وَبَٰرَكۡنَا عَلَيۡهِ وَعَلَىٰٓ إِسۡحَٰقَۚ وَمِن ذُرِّيَّتِهِمَا مُحۡسِنٞ وَظَالِمٞ لِّنَفۡسِهِۦ مُبِينٞ ۝ 105
(113) और उसे और इसहाक़ को बरकत दी। अब उन दोनों की नस्ल (औलाद) में से कोई बेहतरीन काम करनेवाला है और कोई अपने आपपर खुला ज़ुल्म करनेवाला है।68
68. यह जुमला उस पूरे मक़सद पर रौशनी डालता है जिसके लिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ुरबानी का यह क़िस्सा यहाँ बयान किया गया है। हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के दो बेटों की नस्ल से दो बहुत बड़ी क़ौमें पैदा हुईं। एक बनी-इसराईल, जिनके घर से दुनिया के दो बड़े मज़हब (यहूदियत और ईसाइयत) निकले और उन्होंने ज़मीन के बहुत बड़े हिस्से को अपने दायरे में कर लिया। दूसरी बनी-इसमाईल जो क़ुरआन के उतरने के वक़्त तमाम अरबवालों के लीडर और पेशवा थे और उस वक़्त मक्का के क़ुरैश क़बीले को उनमें सबसे ज़्यादा अहम मक़ाम हासिल था। इबराहीम (अलैहि०) की नस्ल की इन दो शाखाओं को जो कुछ भी तरक़्की मिली, वह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और उनके इन दो ऊँचे मर्तबेवाले बेटों के साथ जुड़े होने की बदौलत मिली, वरना दुनिया में न जाने ऐसे-ऐसे कितने ख़ानदान पैदा हुए हैं और गुमनामी के गोशों में जा पड़े हैं। अब अल्लाह तआला इस ख़ानदान के इतिहास का सबसे ज़्यादा सुनहरा कारनामा सुनाने के बाद इन दोनों गरोहों को यह एहसास दिलाता है कि तुम्हें दुनिया में यह जो कुछ शरफ़ (श्रेय) मिला है, वह ख़ुदापरस्ती और इख़लास (निष्ठा) और ख़ुदा के सामने अपने को हवाले करने की उन शानदार रिवायतों की वजह से मिला है जो तुम्हारे बाप-दादा इबराहीम, इसमाईल और इसहाक़ (अलैहि०) ने क़ायम की थीं। वह उन्हें बताता है कि हमने उनको जो बरकत दी और उनपर अपनी मेहरबानी और करम की जो बारिशें बरसाईं यह कोई अंधी बाँट न थी कि बस यूँ ही एक आदमी और उसके दो लड़कों को छाँटकर नवाज़ दिया गया हो, बल्कि उन्होंने अपने हक़ीक़ी मालिक (ख़ुदा) के साथ अपनी वफ़ादारी के कुछ सुबूत दिए, थे और उनकी बुनियाद पर वे इन मेहरबानियों के हक़दार बने थे। अब तुम लोग सिर्फ़ इस फ़ख़्र की बुनियाद पर कि तुम उनकी औलाद हो, इन मेहरबानियों के हक़दार नहीं हो सकते। हम तो यह देखेंगे कि तुममें से एहसान करनेवाला कौन है और ज़ालिम कौन। फिर जो जैसा होगा, उसके साथ वैसा ही सुलूक करेंगे।
وَلَقَدۡ مَنَنَّا عَلَىٰ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 106
(114) और हमने मूसा और हारून पर एहसान किया,
وَنَجَّيۡنَٰهُمَا وَقَوۡمَهُمَا مِنَ ٱلۡكَرۡبِ ٱلۡعَظِيمِ ۝ 107
(115) उनको और उनकी क़ौम को बड़ी तकलीफ़ से नजात दी,”69
69. यानी इस सख़्त मुसीबत से जिसमें वे फ़िरऔन और उसकी क़ौम के हाथों मुब्तला थे।
وَنَصَرۡنَٰهُمۡ فَكَانُواْ هُمُ ٱلۡغَٰلِبِينَ ۝ 108
(116) उन्हें मदद पहुँचाई जिसकी वजह से वही ग़ालिब (प्रभावी) रहे।
وَءَاتَيۡنَٰهُمَا ٱلۡكِتَٰبَ ٱلۡمُسۡتَبِينَ ۝ 109
(117) उनको निहायत वाज़ेह (स्पष्ट) किताब दी,
وَهَدَيۡنَٰهُمَا ٱلصِّرَٰطَ ٱلۡمُسۡتَقِيمَ ۝ 110
(118) उन्हें सीधी राह दिखाई
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِمَا فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 111
(119) और बाद की नस्लों में उनका ज़िक्रे-ख़ैर (शुभ चर्चा) बाक़ी रखा।
سَلَٰمٌ عَلَىٰ مُوسَىٰ وَهَٰرُونَ ۝ 112
(120) सलाम है मूसा और हारून पर।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 113
(121) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।
إِنَّهُمَا مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 114
(122) हक़ीक़त में वे हमारे ईमानवाले बन्दों में से थे।
وَإِنَّ إِلۡيَاسَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 115
(123) और इल्‌यास भी यक़ीनन रसूलों में से था।70
70. हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) बनी-इसराईल के नबियों में से थे। उनका ज़िक्र क़ुरआन मजीद में सिर्फ़ दो ही जगहों पर आया है। एक यह जगह और दूसरी सूरा-6 अनआम, आयत-85। मौजूदा ज़माने के तहक़ीक़ करनेवाले (शोधकर्ता) उनका ज़माना 875 और 850 ई०पू० के बीच बताते हैं। वह जिलआद के रहनेवाले थे (पुराने ज़माने में जिलआद उस इलाक़े को कहते थे जिसमें आजकल उर्दुन के उत्तरी ज़िले शमिल हैं और जो यरमूक नदी के दक्षिण में है)। बाइबल में उनका ज़िक्र एलियाह तिशवी (Elijah the Tishbite) के नाम से किया गया है। उनके मुख़्तसर हालात इस तरह हैं— हज़रत सुलैमान (अलैहि०) के इन्तिक़ाल के बाद उनके बेटे रहुबआम (Rehoboam) की नालायक़ी के सबब बनी-इसराईल की हुकूमत के दो टुकड़े हो गए थे। एक हिस्सा जो बैतुल-मक़दिस और जुनूबी (दक्षिणी) फ़िलस्तीन पर मुश्तमिल (आधारित) या, आले-दाऊद के क़ब्ज़े में रहा और दूसरा हिस्सा जिसमें शिमाली (उत्तरी) फ़िलस्तीन था, उसमें एक मुस्तक़िल सल्तनत इसराईल के नाम से क़ायम हो गई और बाद में सामिरिया उसकी राजधानी बना। अगरचे हालात दोनों ही सल्तनतों के ख़राब थे, लेकिन इसराईल की सल्तनत शुरू ही से ऐसे सख़्त बिगाड़ की राह पर चल पड़ी थी जिसकी बदौलत उसमें शिर्क और बुतपरस्ती, ज़ुल्मो-सितम और गुनाहों और ख़ुदा की खुली नाफ़रमानी का ज़ोर बढ़ता चला गया, यहाँ तक कि जब इसराईल के बादशाह अख़ी-अब (Ahab) ने सैदा (मौजूदा लेबनान) के बादशाह की लड़की एज़बिल (Jezbel) से शादी कर ली तो यह फ़साद अपनी इन्तिहा को पहुँच गया। इस मुशरिक शहज़ादी के असर में आकर अख़ी-अब ख़ुद भी मुशरिक हो गया। उसने सामिरिया में बअल का मन्दिर और बूचड़खाना बनाया, एक ख़ुदा की इबादत के बजाय बअल की पूजा को रिवाज देने की भरपूर कोशिश की और इसराईल के शहरों में खुल्लम-खुल्ला बअल के नाम पर क़ुरबानियाँ की जाने लगीं। यही ज़माना था जब हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) यकायक सामने आए और उन्होंने जिलआद से आकर अख़ी-अब को नोटिस दिया कि तेरे गुनाहों की पादाश में अब इसराईल के देश पर बारिश की एक बूँद भी न बरसेगी, यहाँ तक कि ओस तक न पड़ेगी। ख़ुदा के नबी की कही हुई यह बात हर्फ़-ब-हर्फ़ सही साबित हुई और साढ़े तीन साल तक बारिश बिलकुल बन्द रही। आख़िरकार अख़ी-अब के होश कुछ ठिकाने आए और उसने हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) को तलाश कराकर बुलवाया। उन्होंने बारिश के लिए दुआ करने से पहले यह जरूरी समझा कि इसराईल के वासियों को सारे जहान के रब अल्लाह और बअल का फ़र्क़ अच्छी तरह बता दें। इस ग़रज़ के लिए उन्होंने हुक्म दिया कि एक आम भीड़ में बअल के पुजारी भी आकर अपने माबूद के नाम पर क़ुरबानी करें और मैं भी सारे जहानों के रब अल्लाह के नाम पर क़ुरबानी करूँगा। दोनों में से जिसकी क़ुरबानी भी इनसान के हाथों से आग लगाए बिना ग़ैबी (परोक्ष) आग से भस्म हो जाए उसके माबूद की सच्चाई साबित हो जाएगी। अख़ी-अब ने यह बात क़ुबूल कर ली। चुनाँचे कर्मिल (Carmel) पहाड़ पर बअल के साढ़े आठ सौ पुजारी इकट्ठे हुए और इसराईलियों की आम भीड़ में उनका और हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) का मुक़ाबला हुआ। इस मुक़ाबले में बअल के पुजारियों ने शिकस्त खाई और हज़रत इल्‌यास ने सबके सामने यह साबित कर दिया कि बअल एक झूठा ख़ुदा है। अस्ल ख़ुदा वही एक अकेला ख़ुदा है जिसके नबी की हैसियत से वे मुक़र्रर होकर आए हैं। इसके बाद हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) ने उसी भीड़ में बअल के पुजारियों को क़त्ल करा दिया और फिर बारिश के लिए दुआ की जो फ़ौरन क़ुबूल हुई, यहाँ तक कि पूरा देश इसराईल सैराब (तृप्त) हो गया। लेकिन इन मोजिज़ों (चमत्कारों) को देखकर भी जोरू का ग़ुलाम अख़ी-अब अपनी बुतपरस्ती के शिकंजे से न निकला। उसकी बीवी एज़बिल हज़रत इल्‌यास की दुश्मन हो गई और उसने क़सम खा ली कि जिस तरह बअल के पुजारी क़त्ल किए गए हैं उसी तरह इल्‌यास (अलैहि०) भी क़त्ल किए जाएँगे। इन हालात में हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) को देश छोड़ना पड़ा और कुछ साल तक वे सीना नाम के पहाड़ के दामन में पनाह लिए रहे। इस मौक़े पर उन्होंने अल्लाह तआला से जो फ़रियाद की थी, उसे बाइबल इन अलफ़ाज़ में नक़्ल करती है— “इस्राएलियों (यानी बनी-इसराईल) ने तेरे अह्द (वचन) को छोड़ दिया और तेरे बूचड़खानों को ढाया और तेरे नबियों को तलवार से क़त्ल किया और मैं ही एक अकेला बचा हुआ हूँ, वे मेरी भी जान लेना चाहते हैं।" (राजा, भाग-1, 19:10) उसी ज़माने में बैतुल-मक़दिस की यहूदी हुकूमत के हाकिम यहोराम (Jeoram) ने इसराईल के बादशाह अहाब की बेटी से शादी कर ली और उस मुशरिक शहज़ादी के असर से वही तमाम ख़राबियाँ जो इसराईल में फैली हुई थीं, यहूदिया की हुकूमत में भी फैलने लगीं। हज़रत इल्‌यास ने यहाँ भी पैग़म्बरी का फ़र्ज़ अदा किया और यहोराम को एक ख़त लिखा जिसके ये अलफ़ाज़ बाइबल में नक़्ल हुए हैं— "ख़ुदावन्द तेरे बाप दाऊद का ख़ुदा यूँ कहता है : इसलिए कि तू न अपने बाप यहोशापात की राहों पर और न यहूदा के बादशाह आसा की राहों पर चला, बल्कि इसराईल के बादशाहों की राह पर चला है और यहूदा और यूरोशलम के बाशिन्दों को बदकार बनाया जैसा कि अहाब के ख़ानदान ने किया था और अपने बाप के घराने में से अपने भाइयों को जो तुझसे अच्छे थे क़त्ल भी किया, इसलिए देख ख़ुदावन्द तेरे लोगों को और तेरे बेटों और तेरी औरतों को और तेरे सारे माल को बड़ी आफ़तों से मारेगा और तू अंतड़ियों के रोग से बहुत बीमार हो जाएगा, यहाँ तक कि तेरी अंतड़ियाँ इस रोग के सबब से दिन-पर-दिन निकलती जाएँगी।" (इतिहास, भाग-2, 21:12-15) इस ख़त में हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) ने जो कुछ फ़रमाया था वह पूरा हुआ। पहले यहोराम की हुकूमत बाहरी हमलावरों की लूट-मार से तबाह हुई और उसकी बीवियों तक को दुश्मन पकड़ ले गए, फिर वह ख़ुद अंतड़ियों के रोग से मर गया। कुछ साल के बाद हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) फिर इसराईल तशरीफ़ ले गए और उन्होंने अख़ी-अब को और उसके बाद उसके बेटे अख़ज़ियाह को सीधे रास्ते पर लाने की लगातार कोशिश की, मगर जो बुराई सामिरिया के शाही ख़ानदान में घर कर चुकी थी, वह किसी तरह न निकली। आख़िरकार हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) की बददुआ से अख़ी-अब का घराना ख़त्म हो गया और इसके बाद अल्लाह तआला ने अपने नबी को दुनिया से उठा लिया। इन वाक़िआत की तफ़सील के लिए बाइबल के नीचे लिखे अध्याय देखिए : राजाओं का वृत्तान्त, भाग-1, अध्याय 17, 18, 19, 21, भाग-2, अध्याय 1, 2; इतिहास, भाग-2, अध्याय 21।
إِذۡ قَالَ لِقَوۡمِهِۦٓ أَلَا تَتَّقُونَ ۝ 116
(124) याद करो जब उसने अपनी क़ौम से कहा था कि “तुम लोग डरते नहीं हो?
أَتَدۡعُونَ بَعۡلٗا وَتَذَرُونَ أَحۡسَنَ ٱلۡخَٰلِقِينَ ۝ 117
(125) क्या तुम 'बअल"71 पुकारते हो और सबसे अच्छे पैदा करनेवाले को छोड़ देते हो,
71. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'बअल' इस्तेमाल हुआ है। 'बअल' के मानी होते हैं आक़ा, सरदार और मालिक। शौहर के लिए भी यह लफ़्ज़ बोला जाता था और कई जगहों पर ख़ुद क़ुरआन मजीद में इस्तेमाल हुआ है, मसलन सूरा-2 बक़रा, आयत-228; सूरा-4 निसा, आयत-127; सूरा-11 हूद, आयत-72 और सूरा-24 नूर, आयत-31 में। लेकिन पुराने ज़माने की सामी नस्ल की क़ौमें इस लफ़्ज़ को 'इलाह' या 'शौहर' के मानी में इस्तेमाल करती थीं और उन्होंने एक ख़ास देवता को बअल का नाम दे रखा था। ख़ास तौर से लेबनान की फ़नीक़ी क़ौम (Phoenicians) का सबसे बड़ा नर देवता बअल था और उसकी बीवी अशतोरेत (Ashtoreth) उनकी सबसे बड़ी देवी थी। तहक़ीक़ करनेवालों (शोधकर्ताओं) के बीच इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि क्या बअल से मुराद सूरज है या मुश्तरी (वृहस्पति) और अशतोरेत से मुराद चाँद है या ज़ोहरा (शुक्र) सय्यारा (ग्रह)। बहरहाल यह बात ऐतिहासिक तौर पर साबित है कि बाबिल से लेकर मिस्र तक पूरे मशरिक़े-औसत (मध्य-पूर्व) में बअल-परस्ती फैली हुई थी और ख़ास तौर से शाम और फ़िलस्तीन की मुशरिक क़ौमें बुरी तरह इसमें मुब्तला थीं। बनी-इसराईल जब मिस्र से निकलने के बाद फ़िलस्तीन और शरक़े-उर्दुन (पूर्वी उर्दुन) में आ-आकर आबाद हुए और तौरात की सख़्त पाबन्दियों की ख़िलाफ़वर्ज़ी करके उन्होंने इन मुशरिक क़ौमों के साथ शादी-ब्याह और समाजी ताल्लुक़ात क़ायम करने शुरू कर दिए, तो उनके अन्दर भी यह रोग फैलने लगा। बाइबल का बयान है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के पहले ख़लीफ़ा हज़रत यूशअ-बिन-नून (हिन्दी बाइबल में यूशअ का नाम यहोशा और अंग्रेज़ी बाइबल में Jeshua आया है) की मौत के बाद ही बनी-इसराईल में ये अख़लाक़ी और दीनी गिरावट आनी शुरू हो गई थी— "और बनी-इसराईल ने ख़ुदा के आगे बुराई की और बअल नामक देवताओं की पूजा करने लगे........और वे ख़ुदावन्द को छोड़कर बअल देवताओं और अशतोरेत देवियों की पूजा करने लगे।" (न्यायियों, 2:11-13) “सो बनी-इसराईल कनआनियों और हित्तियों और अमूरियों और फ़िरिज़्ज़ियों और हविय्यों और यबूसियों के बीच बस गए और उनकी बेटियों से आप निकाह करने और अपनी बेटियाँ उनके बेटों को देने और उनके देवताओं की पूजा करने लगे।” (न्यायियों, 3:3-6) उस ज़माने में बअल-परस्ती इसराईलियों में इस क़द्र घुस चुकी थी कि बाइबल के बयान के मुताबिक़ उनकी एक बस्ती में खुल्लम-खुल्ला बअल का बूचड़खाना बना हुआ था, जिसपर क़ुरबानियाँ की जाती थीं। एक ख़ुदापरस्त इसराईली इस हालत को बरदाश्त न कर सका और उसने रात के वक़्त चुपके से यह बूचड़खाना तोड़ दिया। दूसरे दिन एक बड़ी भीड़ इकट्ठी हो गई और वे लोग उस आदमी के क़त्ल की माँग करने लगे जिसने शिर्क के इस अड्डे को तोड़ा था (न्यायियों, 6:25-32)। इस सूरते-हाल को आख़िरकार हज़रत शमूएल, तालूत, दाऊद (अलैहि०) और सुलैमान (अलैहि०) ने ख़त्म किया और न सिर्फ़ बनी-इसराईल को सुधारा, बल्कि अपनी सल्तनत में आम तौर से शिर्क और बुत-परस्ती को दबा दिया। लेकिन सुलैमान (अलैहि०) के इन्तिक़ाल के बाद यह फ़ितना फिर उभरा और ख़ास तौर पर उत्तरी फ़िलस्तीन की इस्राइली सल्तनत बअल-परस्ती के सैलाब में बह गई।
وَإِنَّ لُوطٗا لَّمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 118
(133) और लूत भी उन्हीं लोगों में से था जो रसूल बनाकर भेजे गए हैं।
إِذۡ نَجَّيۡنَٰهُ وَأَهۡلَهُۥٓ أَجۡمَعِينَ ۝ 119
(134) याद करो जब हमने उसको और उसके सब घरवालों को नजात दी,
إِلَّا عَجُوزٗا فِي ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 120
(135) सिवाय एक बुढ़िया के जो पीछे रह जानेवालों में से थी।75
75. इससे मुराद हज़रत लूत (अलैहि०) की बीवी है जो हिजरत का हुक्म आने पर अपने शौहर के साथ न गई, बल्कि अपनी क़ौम के साथ रही और अज़ाब का शिकार हुई।
ثُمَّ دَمَّرۡنَا ٱلۡأٓخَرِينَ ۝ 121
(136) फिर बाक़ी सबको तहस-नहस कर दिया।
وَإِنَّكُمۡ لَتَمُرُّونَ عَلَيۡهِم مُّصۡبِحِينَ ۝ 122
(137) आज तुम रात-दिन उनकी उजड़ी आबादियों पर से गुज़रते हो।76
76. इशारा है इस बात की तरफ़ कि क़ुरैश के ताजिर (व्यापारी) शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन की तरफ़ जाते हुए रात-दिन उस इलाक़े से गुज़रते थे जहाँ लूत (अलैहि०) की क़ौम की तबाह हो चुकी बस्तियाँ बसी थीं।
وَبِٱلَّيۡلِۚ أَفَلَا تَعۡقِلُونَ ۝ 123
(138) क्या तुमको अक़्ल नहीं आती?
وَإِنَّ يُونُسَ لَمِنَ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 124
(139) और यक़ीनन यूनुस भी रसूलों में से था।77
77. यह तीसरा मौक़ा है जहाँ हज़रत यूनुस (अलैहि०) का ज़िक्र क़ुरआन मजीद में आया है। इससे पहले सूरा-10 यूनुस और सूरा-21 अम्बिया में उनका ज़िक्र गुज़र चुका है और हम उसकी तशरीह कर चुके हैं (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिए—98 से 100; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—82 से 85)।
إِذۡ أَبَقَ إِلَى ٱلۡفُلۡكِ ٱلۡمَشۡحُونِ ۝ 125
(140) याद करो जब वह एक भरी हुई नाव की तरफ़ भाग निकला,78
78. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अ-ब-क़' इस्तेमाल हुआ है जो अरबी ज़बान में सिर्फ़ उस वक़्त बोला जाता है जबकि ग़ुलाम अपने मालिक के यहाँ से भाग जाए। 'इबाक़' का मतलब है ग़ुलाम का अपने मालिक के यहाँ से भाग जाना।” (लिसानुल-अरब)
فَسَاهَمَ فَكَانَ مِنَ ٱلۡمُدۡحَضِينَ ۝ 126
(141) फिर परची डालने में शरीक हुआ और उसमें मात खाई।
فَٱلۡتَقَمَهُ ٱلۡحُوتُ وَهُوَ مُلِيمٞ ۝ 127
(142) आख़िरकार मछली ने उसे निगल लिया और वह मलामत का मारा था79
79. इन जुमलों पर ग़ौर करने से जो अस्ल सूरत समझ में आती है वह यह है— (1) हज़रत यूनुस (अलैहि०) जिस नाव में सवार हुए थे, वह अपनी गुंजाइश से ज़्यादा भरी हुई (overloaded) थी। (2) पर्ची डालने का काम नाव में हुआ और शायद उस वक़्त हुआ जब समुद्री सफ़र के दौरान में यह महसूस हुआ कि बोझ की ज़्यादती के सबब से तमाम मुसाफ़िरों की जान ख़तरे में पड़ गई है। लिहाज़ा पर्ची इस ग़रज़ के लिए डाली गई कि जिसका नाम पर्ची में निकले, उसे पानी में फेंक दिया जाए। (3) पर्ची में हज़रत यूनुस (अलैहि०) ही का नाम निकला, वे समुद्र में फेंक दिए गए और एक मछली ने उनको निगल लिया। (4) इस मुसीबत में हज़रत यूनुस (अलैहि०) इसलिए गिरफ़्तार हुए कि वे अपने मालिक (यानी अल्लाह तआला) की इजाज़त के बिना अपने उस मक़ाम से जहाँ वे मुक़र्रर किए गए थे, भाग गए थे। इस मतलब को लफ़्ज़ 'अ-ब-क़' भी साबित करता है, जिसकी तशरीह ऊपर हाशिया-78 में गुज़र चुकी है और इस मतलब को लफ़्ज़ 'मुलीम' भी साबित करता है। 'मुलीम' ऐसे क़ुसूरवार आदमी को कहते हैं जो अपने क़ुसूर की वजह से आप ही मलामत का हक़दार हो गया हो, चाहे उसे मलामत की जाए या न की जाए। (इब्ने-जरीर)
فَلَوۡلَآ أَنَّهُۥ كَانَ مِنَ ٱلۡمُسَبِّحِينَ ۝ 128
(143) अब अगर वह तसबीह (महिमागान) करनेवालों में से न होता,80
80. इसके दो मतलब हैं और दोनों ही मुराद हैं। एक मतलब यह है कि हज़रत यूनुस (अलैहि०) पहले ही ख़ुदा से ग़ाफ़िल लोगों में से न थे, बल्कि उन लोगों में से थे जो हमेशा अल्लाह की तसबीह (महिमागान) करनेवाले हैं। दूसरा यह कि जब वे मछली के पेट में पहुँचे तो उन्होंने अल्लाह ही की तरफ़ रुजू किया और उसकी तसबीह की। सूरा-21 अम्बिया में कहा गया है, “फिर उन अधियारों में उसने पुकारा, नहीं है कोई ख़ुदा मगर तू, पाक है तेरी ज़ात, बेशक मैं कुसूरवार हूँ।"
لَلَبِثَ فِي بَطۡنِهِۦٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 129
(144) तो क़ियामत के दिन तक उसी मछली के पेट में रहता।81
81. इसका यह मतलब नहीं है कि वह मछली क़ियामत तक ज़िन्दा रहती और हज़रत यूनुस (अलैहि०) क़ियामत तक उसके पेट में ज़िन्दा रहते, बल्कि इसका मतलब यह है कि क़ियामत तक उस मछली का पेट ही हज़रत यूनुस (अलैहि०) की क़ब्र बना रहता। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले मशहूर आलिम क़तादा ने इस आयत का यही मतलब बयान किया है। (इब्ने-जरीर)
۞فَنَبَذۡنَٰهُ بِٱلۡعَرَآءِ وَهُوَ سَقِيمٞ ۝ 130
(145) आख़िरकार हमने उसे बड़ी निढाल हालत में एक चटियल ज़मीन पर फेंक दिया82
81. इसका यह मतलब नहीं है कि वह मछली क़ियामत तक ज़िन्दा रहती और हज़रत यूनुस (अलैहि०) क़ियामत तक उसके पेट में ज़िन्दा रहते, बल्कि इसका मतलब यह है कि क़ियामत तक उस मछली का पेट ही हज़रत यूनुस (अलैहि०) की क़ब्र बना रहता। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले मशहूर आलिम क़तादा ने इस आयत का यही मतलब बयान किया है। (इब्ने-जरीर)
وَأَنۢبَتۡنَا عَلَيۡهِ شَجَرَةٗ مِّن يَقۡطِينٖ ۝ 131
(146) और उसपर एक बेलदार पेड़ उगा दिया।83
83. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, 'श-ज-रतन मिंय-यक़तीन' । यक़तीन अरबी ज़बान में ऐसे पेड़ को कहते हैं जो किसी तने पर खड़ा नहीं होता, बल्कि बेल की शक्ल में फैलता है, जैसे कद्दू, तरबूज़, ककड़ी वग़ैरा। बहरहाल वहाँ कोई ऐसी बेल मोजिज़े के तरीक़े पर पैदा कर दी गई थी कि जिसके पत्ते हज़रत यूनुस (अलैहि०) पर साया भी करें और जिसके फल उनके लिए एक ही वक़्त में खाने का काम भी दें और पानी का काम भी।
وَأَرۡسَلۡنَٰهُ إِلَىٰ مِاْئَةِ أَلۡفٍ أَوۡ يَزِيدُونَ ۝ 132
(147) इसके बाद हमने उसे एक लाख, या उससे ज़्यादा लोगों की तरफ़ भेजा।84
84. 'एक लाख या उससे ज़्यादा’ कहने का मतलब यह नहीं है कि अल्लाह तआला को उनकी तादाद में शक था, बल्कि इसका मतलब यह है कि अगर कोई उनकी बस्ती को देखता तो यही अन्दाज़ा करता कि उस शहर की आबादी एक लाख से ज़्यादा ही होगी, कम न होगी। ज़्यादा इमकान यह है कि यह वही बस्ती थी जिसको छोड़कर हज़रत यूनुस (अलैहि०) भागे थे। उनके जाने के बाद अज़ाब आता देखकर जो ईमान उस बस्ती के लोग ले आए थे, उसकी हैसियत सिर्फ़ तौबा की थी, जिसे क़ुबूल करके अज़ाब उनपर से टाल दिया गया था। अब हज़रत यूनुस (अलैहि०) दोबारा उनकी तरफ़ भेजे गए, ताकि नबी पर ईमान लाकर बाक़ायदा मुसलमान हो जाएँ। इस मज़मून को समझने के लिए सूरा-10 यूनुस, आयत-98 निगाह में रहनी चाहिए।
فَـَٔامَنُواْ فَمَتَّعۡنَٰهُمۡ إِلَىٰ حِينٖ ۝ 133
(148) वे ईमान लाए और हमने एक ख़ास वक़्त तक उन्हें बाक़ी रखा।85
85. हज़रत यूनुस (अलैहि०) के इस क़िस्से के बारे में सूरा-10 यूनुस और सूरा-21 अम्बिया की तफ़सीर में जो कुछ हमने लिखा है, उसपर कुछ लोगों ने एतिराज़ किए हैं, इसलिए मुनासिब मालूम होता है कि यहाँ दूसरे आलिमों के क़ौल (कथन) भी नक़्ल कर दिए जाएँ। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले मशहूर आलिम क़तादा सूरा-10 यूनुस, आयत-98 की तफ़सीर में फ़रमाते हैं, “कोई बस्ती ऐसी नहीं गुज़री है जो कुफ़्र कर चुकी हो और अज़ाब आ जाने के बाद ईमान लाई हो और फिर उसे छोड़ दिया गया हो। इससे सिर्फ़ यूनुस (अलैहि०) की क़ौम अलग है। उन्होंने जब अपने नबी को तलाश किया और न पाया और महसूस किया कि अज़ाब क़रीब आ गया है तो अल्लाह ने उनके दिलों में तौबा डाल दी।" (इब्ने-कसीर, हिस्सा-2, पे० 433) इसी आयत की तफ़सीर में अल्लामा आलूसी लिखते हैं— "इस क़ौम का किस्सा यह है कि यूनुस (अलैहि०) मूसिल के इलाक़े में नैनवा के लोगों की तरफ़ भेजे गए थे। ये ख़ुदा के इनकारी और मुशरिक लोग थे। हज़रत यूनुस (अलैहि०) ने उनको एक अल्लाह पर, जिसका कोई शरीक नहीं, ईमान लाने और बुतों की परस्तिश छोड़ देने की दावत दी। उन्होंने इनकार किया और झुठलाया। हज़रत यूनुस (अलैहि०) ने उनको ख़बर दी कि तीसरे दिन उनपर अज़ाब आ जाएगा और तीसरा दिन आने से पहले आधी रात को वह बस्ती से निकल गए। फिर दिन के वक़्त जब अज़ाब उस क़ौम के सिरों पर पहुँच गया और उन्हें यक़ीन हो गया कि सब मारे जाएँगे तो उन्होंने अपने नबी को तलाश किया, मगर न पाया। आख़िरकार वे सब अपने बाल-बच्चों और जानवरों को लेकर जंगल में निकल आए, और ईमान और तौबा का इज़हार किया ....... फिर अल्लाह ने उनपर रहम किया और उनकी दुआ क़ुबूल कर ली।" (रूहुल-मआनी, हिस्सा-11, पे० 170) सूरा-21 अम्बिया की आयत-87 की तशरीह करते हुए अल्लामा आलूसी (रह०) लिखते हैं, “हज़रत यूनुस (अलैहि०) का अपनी क़ौम से नाराज़ होकर निकल जाना हिजरत का अमल था, मगर उन्हें इसका हुक्म नहीं दिया गया था।” (रूहुल-मआनी, हिस्सा-17, पे० 77) फिर वे हज़रत यूनुस (अलैहि०) की दुआ के जुमले “इन्नी कुन्तु मिनज़-ज़ालिमीन” का मतलब यूँ बयान करते हैं, “यानी मैं क़ुसूरवार था कि नबियों के तरीक़े के ख़िलाफ़, हुक्म आने से पहले, हिजरत करने में जल्दी कर बैठा। यह हज़रत यूनुस (अलैहि०) की तरफ़ से अपने गुनाह का एतिराफ़ और तौबा का इज़हार था, ताकि अल्लाह तआला उनकी इस मुसीबत को दूर कर दे।” (रूहुल-मआनी, हिस्सा-17, पे० 78) मौलाना अशरफ़ अली साहब थानवी (रह०) का हाशिया इस आयत पर यह है— “वह अपनी क़ौम पर जबकि वह ईमान न लाई नाराज़ होकर चल दिए और क़ौम पर से अज़ाब टल जाने के बाद भी ख़ुद वापस न आए और उस सफ़र के लिए हमारे हुक्म का इन्तिज़ार न किया।" (बयानुल-क़ुरआन) इसी आयत पर मौलाना शब्बीर अहमद उसमानी (रह०) हाशिए में फ़रमाते हैं— "क़ौम की हरकतों से नाराज़ होकर ग़ुस्से में भरे हुए शहर से निकल गए, अल्लाह के हुक्म का इन्तिज़ार न किया और वादा कर गए कि तीन दिन के बाद तुमपर अज़ाब आएगा। 'इन्नी कुन्तु मिनज़-ज़ालिमीन', अपनी ग़लती को माना कि बेशक मैंने जल्दी की कि तेरे हुक्म का इन्तिज़ार किए बिना बस्तीवालों को छोड़कर निकल खड़ा हुआ।” सूरा-37 साफ़्फ़ात की ऊपर बयान की गई आयतों की तशरीह में इमाम राज़ी (रह०) लिखते हैं— "हज़रत यूनुस (अलैहि०) का क़ुसूर यह था कि अल्लाह तआला ने उनकी उस क़ौम को जिसने उन्हें झुठलाया था, हलाक करने का वादा किया, यह समझे कि यह अज़ाब ज़रूर ही आनेवाला है, इसलिए उन्होंने सब्र न किया और क़ौम को दावत देने का काम छोड़कर निकल गए, हालाँकि उनपर वाज़िब था कि दावत का काम बराबर जारी रखते, क्योंकि इस बात का इमकान बाक़ी था कि अल्लाह उन लोगों को हलाक न करे।” (तफ़सीर कबीर, हिस्सा-7, पे० 158) अल्लामा आलूसी (रह०) “इज़ अ-ब-क़ इलल-फ़ुल्किल-मशहून” पर लिखते हैं— “अ-ब-क़ का अस्ल मतलब मालिक के यहाँ से ग़ुलाम का भाग जाना है। चूँकि हज़रत यूनुस (अलैहि०) अपने रब की इजाज़त के बिना अपनी क़ौम से भाग निकले थे इसलिए यह लफ़्ज़ उनपर ठीक चस्पाँ हुआ।” फिर आगे चलकर लिखते हैं— "जब तीसरा दिन हुआ तो हज़रत यूनुस (अलैहि०) अल्लाह तआला की इजाज़त के बिना निकल गए। अब जो उनकी क़ौम ने उनको न पाया तो वे अपने बड़े और छोटे और जानवरों, सबको लेकर निकले और अज़ाब का आना उनसे क़रीब था, तो उन्होंने अल्लाह तआला के सामने गिड़गिड़ाकर माफ़ी माँगी और अल्लाह ने उन्हें माफ़ कर दिया।" (रूहुल-मआनी, हिस्सा-23, पे० 130) मौलाना शब्बीर अहमद साहब (रह०) 'वहु-व मुलीम' की तशरीह करते हुए फ़रमाते हैं— “इलज़ाम यही था कि इजतिहादी ग़लती से यानी ख़ुद से यह फ़ैसला करने के लिए कि ये लोग अब सीधे रास्ते पर नहीं आएँगे, अल्लाह के हुक्म का इन्तिज़ार किए बिना बस्ती से निकल पड़े और अज़ाब के दिन को तय कर दिया।” फिर सूरा-68 क़लम की आयत, “फ़सबिर लिहुक्म रब्बि-क वला तकुन कसाहिबिल-हूत” (तो सब्र करो अपने रब के हुक्म के लिए और मछलीवाले की तरह न हो जाओ) पर मौलाना शब्बीर अहमद साहब का हाशिया यह है— “यानी मछली के पेट में जानेवाले पैग़म्बर (हज़रत यूनुस अलैहि०) की तरह झुठलानेवालों के मामले में तंगदिली और घबराहट का इज़हार न कीजिए।" और इसी आयत के जुमले 'व हु-व मकज़ूम' पर हाशिया लिखते हुए मौलाना फ़रमाते हैं— "यानी क़ौम की तरफ़ से ग़ुस्से में भरे हुए थे। झुंझलाकर जल्दी में अज़ाब आने की दुआ, बल्कि पेशीनगोई (भविष्यवाणी) कर बैठे।” क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के इन बयानों से यह बात साफ़ हो जाती है कि तीन क़ुसूर थे जिनकी वजह से हज़रत यूनुस (अलैहि०) को सज़ा मिली। एक यह कि उन्होंने अज़ाब के दिन को ख़ुद ही तय कर दिया, हालाँकि अल्लाह तआला की तरफ़ से ऐसा कोई एलान न हुआ था। दूसरा यह कि वह दिन आने से पहले हिजरत करके देश से निकल गए, हालाँकि नबी को उस वक़्त तक अपनी जगह न छोड़नी चाहिए जब तक अल्लाह तआला का हुक्म न आ जाए। तीसरा यह कि जब उस क़ौम पर से अज़ाब टल गया तो वापस न गए।
فَٱسۡتَفۡتِهِمۡ أَلِرَبِّكَ ٱلۡبَنَاتُ وَلَهُمُ ٱلۡبَنُونَ ۝ 134
(149) फिर ज़रा इन लोगों से पूछो,86 क्या (इनके दिल को यह बात लगती है कि) तुम्हारे रब के लिए तो हों बेटियाँ और इनके लिए हों बेटे!87
86. यहाँ से एक दूसरा मज़मून शुरू होता है। पहला मज़मून आयत-11 से शुरू हुआ था जिसमें मक्का के इस्लाम मुख़ालिफ़ों के सामने यह सवाल रखा गया था, “इनसे पूछो, क्या इनका पैदा करना ज़्यादा मुश्किल है या उन चीज़ों का जो हमने पैदा कर रखी हैं।” अब उन्हीं के सामने यह दूसरा सवाल पेश किया जा रहा है। पहले सवाल का मंशा इस्लाम-मुख़ालिफ़ों को उनकी उस गुमराही पर ख़बरदार करना था कि वे मरने के बाद की ज़िन्दगी और इनाम और सज़ा को नामुमकिन समझते थे और इसपर नबी (सल्ल०) का मज़ाक़ उड़ाते थे। अब यह दूसरा सवाल उनकी इस जहालत पर ख़बरदार करने के लिए पेश किया जा रहा है कि वे अल्लाह तआला की तरफ़ औलाद को जोड़ते थे और अन्दाज़ों के घोड़े दौड़ाकर जिसका चाहते थे अल्लाह से रिश्ता जोड़ देते थे।
87. रिवायतों से मालूम होता है कि अरब में क़ुरैश, जुहैना, बनी-सलिमा, ख़ुज़ाआ, बनी-मुलैह और कुछ दूसरे क़बीलों का अक़ीदा यह था कि फ़रिश्ते अल्लाह तआला की बेटियाँ हैं। क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर उनके इस जहालत भरे अक़ीदे का ज़िक्र किया गया है। मिसाल के तौर पर देखिए; सूरा-4 निसा, आयत-117; सूरा-16 नह्ल, आयतें—57 से 58; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-40; सूरा-13 ज़ुख़रुफ़, आयतें—16 से 19; सूरा-53 नज्म, आयतें—21 से 27।
أَمۡ خَلَقۡنَا ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ إِنَٰثٗا وَهُمۡ شَٰهِدُونَ ۝ 135
(150) क्या सचमुच हमने फ़रिश्तों को औरतें ही बनाया है और ये आँखों-देखी बात कह रहे हैं?
أَلَآ إِنَّهُم مِّنۡ إِفۡكِهِمۡ لَيَقُولُونَ ۝ 136
(151) ख़ूब सुन रखो, अस्ल में ये लोग अपनी मनगढ़त से यह बात कहते हैं
وَلَدَ ٱللَّهُ وَإِنَّهُمۡ لَكَٰذِبُونَ ۝ 137
(152) कि अल्लाह औलाद रखता है और अस्ल में ये झूठे हैं।
أَصۡطَفَى ٱلۡبَنَاتِ عَلَى ٱلۡبَنِينَ ۝ 138
(153) क्या अल्लाह ने बेटों के बजाय बेटियाँ अपने लिए पसन्द कर लीं?
مَا لَكُمۡ كَيۡفَ تَحۡكُمُونَ ۝ 139
(154) तुम्हें क्या हो गया है, कैसे हुक्म लगा रहे हो?
أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 140
(155) क्या तुम्हें होश नहीं आता?
أَمۡ لَكُمۡ سُلۡطَٰنٞ مُّبِينٞ ۝ 141
(156) या फिर तुम्हारे पास अपनी इन बातों के लिए कोई साफ़ दलील है,
فَأۡتُواْ بِكِتَٰبِكُمۡ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 142
(157) तो लाओ अपनी वह किताब अगर तुम सच्चे हो।88
88. यानी फ़रिश्तों को अल्लाह की बेटियाँ ठहराने के लिए दो ही बुनियादें हो सकती हैं। या तो ऐसी बात मुशाहिदे की बुनियाद पर कही जा सकती है, या फिर इस तरह का दावा करनेवाले के पास अल्लाह की कोई किताब होनी चाहिए, जिसमें अल्लाह तआला ने ख़ुद यह फ़रमाया हो कि फ़रिश्ते मेरी बेटियाँ हैं। अब अगर इस अक़ीदे के माननेवाले न देखने का दावा कर सकते हैं और न अल्लाह की कोई किताब ऐसी रखते हैं जिसमें यह बात कही गई हो, तो इससे बड़ी जहालत और बेवक़ूफ़ी और क्या हो सकती है कि सिर्फ़ हवाई बातों पर एक दीनी अक़ीदा क़ायम कर लिया जाए और सारे जहानों के ख़ुदा की तरफ़ ऐसी बातें जोड़ी जाएँ जो साफ़ तौर पर एक मज़ाक़ हैं।
وَجَعَلُواْ بَيۡنَهُۥ وَبَيۡنَ ٱلۡجِنَّةِ نَسَبٗاۚ وَلَقَدۡ عَلِمَتِ ٱلۡجِنَّةُ إِنَّهُمۡ لَمُحۡضَرُونَ ۝ 143
(158) इन्होंने अल्लाह और फ़रिश्तों89 के बीच नसब (वंश) का रिश्ता बना रखा है,हालाँकि फ़रिश्ते ख़ूब जानते हैं कि ये लोग मुजरिम की हैसियत से पेश होनेवाले हैं।
89. अस्ल में फ़रिश्तों के बजाय 'अल-जिन्नह' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है, लेकिन क़ुरआन के कुछ बड़े आलिमों का ख़याल है कि यहाँ जिन्न का लफ़्ज अपने लुग़वी (शाब्दिक) मानी (छिपे हुए जानदार) के लिहाज़ से फ़रिश्तों के लिए इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि फ़रिश्ते भी अस्ल में छिपी हुई मख़लूक़ ही हैं और बाद का मज़मून इसी बात का तक़ाज़ा करता है कि यहाँ 'अल-जिन्नह' के लफ़्ज़ को फ़रिश्तों के मानी में लिया जाए।
سُبۡحَٰنَ ٱللَّهِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 144
(159) (और वे कहते हैं कि) “अल्लाह उन सिफ़ात (गुणों) से पाक है
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 145
(160) जो उसके ख़ालिस बन्दों के सिवा दूसरे लोग उसकी तरफ़ जोड़ते हैं।
فَإِنَّكُمۡ وَمَا تَعۡبُدُونَ ۝ 146
(161) तो तुम और तुम्हारे ये माबूद
مَآ أَنتُمۡ عَلَيۡهِ بِفَٰتِنِينَ ۝ 147
(161) अल्लाह से किसी को फेर नहीं सकते,
إِلَّا مَنۡ هُوَ صَالِ ٱلۡجَحِيمِ ۝ 148
(163) मगर सिर्फ़ उसको जो जहन्नम की भड़कती हुई आग में झुलसनेवाला हो।90
90. इस आयत का दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है, “तो तुम और तुम्हारी यह इबादत, इसपर तुम किसी को फ़ितने में नहीं डाल सकते, मगर सिर्फ़ उसको जो......” इस दूसरे तर्जमे के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि ऐ गुमराहो, यह जो तुम हमारी पूजा कर रहे हो और हमें अल्लाह सारे जहानों के रब की औलाद ठहरा रहे हो, इससे तुम हमको फ़ितने में नहीं डाल सकते। इससे तो कोई ऐसा बेवक़ूफ़ ही फ़ितने में पड़ सकता है जिसकी शामत सर पर सवार हो। दूसरे अलफ़ाज़ में मानो फ़रिश्ते अपने इन पुजारियों से कह रहे हैं कि “अपनी इन बातों से किसी और को बहकाओ।"
وَمَامِنَّآ إِلَّا لَهُۥ مَقَامٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 149
(164) और हमारा हाल तो यह है कि हममें से हर एक की एक जगह तय है,91
91. यानी अल्लाह की औलाद होना तो दूर रहा, हमारा हाल तो यह है कि हममें से जिसका जो दरजा और मर्तबा मुक़र्रर है, उससे ज़र्रा बराबर आगे बढ़ने तक की मजाल हम नहीं रखते।
وَإِنَّا لَنَحۡنُ ٱلصَّآفُّونَ ۝ 150
(165) और हम क़तार में खड़े रहनेवाले ख़िदमतगार हैं
وَإِنَّا لَنَحۡنُ ٱلۡمُسَبِّحُونَ ۝ 151
(166) और तसबीह (महिमागान) करनेवाले हैं।"
وَإِن كَانُواْ لَيَقُولُونَ ۝ 152
(167) ये लोग पहले तो कहा करते थे कि
لَوۡ أَنَّ عِندَنَا ذِكۡرٗا مِّنَ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 153
(168) काश, हमारे पास वह ज़िक्र' (याददिहानी) होता जो पिछली क़ौमों को मिला था!
لَكُنَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 154
(169) तो हम अल्लाह के चुने हुए बन्दे होते।92
92. यही बात सूरा-35 फ़ातिर, आयत-12 में गुज़र चुकी है।
فَكَفَرُواْ بِهِۦۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 155
(170) मगर (जब वह आ गया) तो इन्होंने उसका इनकार कर दिया। अब जल्द ही इन्हें (इस रवैये का नतीजा) मालूम हो जाएगा।
وَلَقَدۡ سَبَقَتۡ كَلِمَتُنَا لِعِبَادِنَا ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 156
(171) अपने भेजे बन्दों से हम पहले ही वादा कर चुके हैं
إِنَّهُمۡ لَهُمُ ٱلۡمَنصُورُونَ ۝ 157
(172) कि यक़ीनन उनकी मदद की जाएगी
وَإِنَّ جُندَنَا لَهُمُ ٱلۡغَٰلِبُونَ ۝ 158
(173) और हमारा लश्कर ही ग़ालिब (विजयी) होकर रहेगा।93
93. अल्लाह के लशकर से मुराद वे ईमानवाले हैं जो अल्लाह के रसूल की पैरवी करें और उसका साथ दें। साथ ही वे दिखाई न देनेवाली ताक़तें भी इसमें शामिल हैं जिनके ज़रिए से अल्लाह तआला हक़-परस्तों की मदद करता है। इस मदद और ग़लबे का मतलब लाज़िमी तौर से यही नहीं है कि हर ज़माने में अल्लाह के हर नबी और उसकी पैरवी करनेवालों को सियासी ग़लबा (राजनैतिक प्रभुत्व) ही हासिल हो, बल्कि इस ग़लबे की बहुत-सी शक्लें हैं, जिनमें से एक सियासी ग़लबा भी है। जहाँ इस तरह का ग़लबा अल्लाह के नबियों को हासिल नहीं हुआ है, वहाँ भी उनकी अख़लाक़ी बरतरी (श्रेष्ठता) साबित होकर रही है। जिन क़ौमों ने उनकी बात नहीं मानी है और उनकी दी हुई हिदायतों के ख़िलाफ़ रास्ता अपनाया है वे आख़िरकार बरबाद होकर रही हैं। जहालत और गुमराही के जो फ़लसफ़े (दर्शन) भी लोगों ने गढ़े और ज़िन्दगी के जो बिगड़े हुए तौर-तरीक़े भी ज़बरदस्ती राइज किए गए, वे सब कुछ मुद्दत तक ज़ोर दिखाने के बाद आख़िरकार अपनी मौत आप मर गए। मगर जिन हक़ीक़तों को हज़ारों साल से अल्लाह के नबी हक़ीक़त और सच्चाई की हैसियत से पेश करते रहे हैं, वे पहले भी अटल थीं और आज भी अटल हैं। उन्हें अपनी जगह से कोई हिला नहीं सका है।
فَتَوَلَّ عَنۡهُمۡ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 159
(174) तो ऐ नबी! ज़रा कुछ मुद्दत तक इन्हें इनके हाल पर छोड़ दो
وَأَبۡصِرۡهُمۡ فَسَوۡفَ يُبۡصِرُونَ ۝ 160
(175) और देखते रहो, बहुत जल्द ये ख़ुद भी देख लेंगे94
94. यानी कुछ ज़्यादा मुद्दत न गुज़रेगी कि अपनी हार और तुम्हारी जीत को ये लोग ख़ुद अपनी आँखों से देख लेंगे। यह बात जिस तरह कही गई थी, उसी तरह पूरी हुई। इन आयतों के उतरने पर मुश्किल से 14-15 साल गुज़रे थे कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों ने अपनी आँखों से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का फ़ातिहाना (विजेता के रूप में) दाख़िला अपने शहर में देख लिया और फिर कुछ साल बाद इन्हीं लोगों ने यह भी देख लिया कि इस्लाम न सिर्फ़ अरब पर, बल्कि रोम और ईरान की बड़ी-बड़ी सल्तनतों पर भी ग़ालिब आ गया।
أَفَبِعَذَابِنَا يَسۡتَعۡجِلُونَ ۝ 161
(176) क्या ये हमारे अज़ाब के लिए जल्दी मचा रहे हैं?
فَإِذَا نَزَلَ بِسَاحَتِهِمۡ فَسَآءَ صَبَاحُ ٱلۡمُنذَرِينَ ۝ 162
(177) जब वह इनके आँगन में आ उतरेगा तो वह दिन उन लोगों के लिए बहुत बुरा होगा जिन्हें ख़बरदार किया जा चुका है।
وَتَوَلَّ عَنۡهُمۡ حَتَّىٰ حِينٖ ۝ 163
(178) बस ज़रा इन्हें कुछ मुद्दत के लिए छोड़ दो
وَأَبۡصِرۡ فَسَوۡفَ يُبۡصِرُونَ ۝ 164
(179) और देखते रहो, बहुत जल्द ये ख़ुद देख लेंगे।
سُبۡحَٰنَ رَبِّكَ رَبِّ ٱلۡعِزَّةِ عَمَّا يَصِفُونَ ۝ 165
(180) पाक है तेरा रब, इज़्ज़त का मालिक, उन सभी बातों से जो ये लोग बना रहे हैं।
وَسَلَٰمٌ عَلَى ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 166
(181) और सलाम है रसूलों पर
وَٱلۡحَمۡدُ لِلَّهِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 167
(182) और सारी तारीफ़ अल्लाह, सारे जहानों के रब ही के लिए है।
إِنَّكُمۡ لَذَآئِقُواْ ٱلۡعَذَابِ ٱلۡأَلِيمِ ۝ 168
(38) (अब उनसे कहा जाएगा कि) तुम लाज़िमन दर्दनाक सज़ा का मज़ा चखनेवाले हो
وَمَا تُجۡزَوۡنَ إِلَّا مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 169
(39) और तुम्हें जो बदला भी दिया जा रहा है, उन्हीं आमाल का दिया जा रहा है जो तुम करते रहे हो।
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 170
(40) मगर अल्लाह के चुने हुए बन्दे (इस बुरे अंजाम से) बचे रहेंगे।
أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ رِزۡقٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 171
(41) उनके लिए जानी-बूझी रोज़ी है,22
22. यानी ऐसी रोज़ी जिसकी तमाम ख़ूबियाँ बताई जा चुकी हैं, जिसके मिलने का उन्हें यक़ीन है, जिसके बारे में उन्हें यह भी इत्मीनान है कि वह हमेशा मिलती रहेगी, जिसके बारे में यह ख़तरा लगा हुआ नहीं है कि क्या पता, मिले या न मिले।
فَوَٰكِهُ وَهُم مُّكۡرَمُونَ ۝ 172
(42) हर तरह की मज़ेदार चीज़ें23
23. इसमें एक हलका-सा इशारा इस तरफ़ भी है कि जन्नत में खाना ग़िज़ा (भोजन) के तौर पर नहीं, बल्कि लज़्ज़त के लिए होगा। यानी वहाँ खाना इस ग़रज़ के लिए न होगा कि जिस्म के घुल चुके हिस्सों की जगह दूसरे हिस्से भोजन के ज़रिए से जुटाए जाएँ, क्योंकि उस हमेशा रहनेवाली ज़िन्दगी में जिस्म के हिस्से सिरे से घुलेंगे ही नहीं, न आदमी को भूख लगेगी जो इस दुनिया में घुलने के अमल की वजह से लगती है और न जिस्म अपने आपको जिन्दा रखने के लिए खाना माँगेगा। इसी वजह से जन्नत के उन खानों के लिए 'फ़वाकिह' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है जिसके मानी में ग़िज़ाइयत (पौष्टिकता) के बजाय लज़ीज़ (मज़ेदार) होने का पहलू नुमायाँ है।
فِي جَنَّٰتِ ٱلنَّعِيمِ ۝ 173
(43) और नेमत भरी जन्नतें जिनमें वे इज़्ज़त के साथ रखे जाएँगे।
عَلَىٰ سُرُرٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 174
(44) तख़्तों पर आमने-सामने बैठेंगे।
ٱللَّهَ رَبَّكُمۡ وَرَبَّ ءَابَآئِكُمُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 175
(126) उस अल्लाह को जो तुम्हारे और तुम्हारे अगले-पिछले बाप-दादा का रब है?”
فَكَذَّبُوهُ فَإِنَّهُمۡ لَمُحۡضَرُونَ ۝ 176
(127) मगर उन्होंने उसे झुठला दिया, तो अब यक़ीनन वह सज़ा के लिए पेश किए जानेवाले हैं,
إِلَّا عِبَادَ ٱللَّهِ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 177
(128) सिवाय ख़ुदा के उन बन्दों के जिनको ख़ालिस कर लिया गया था।72
72. यानी उस सज़ा से सिर्फ़ वही लोग अलग होंगे जिन्होंने हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) को न झुठलाया और जिनको अल्लाह ने उस क़ौम में से अपनी बन्दगी के लिए छाँट लिया।
وَتَرَكۡنَا عَلَيۡهِ فِي ٱلۡأٓخِرِينَ ۝ 178
(129) और इल्‌यास का ज़िक्रे-खैर (शुभ चर्चा) हमने बाद की नस्लों में बाक़ी रखा73
73. हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) को उनकी ज़िन्दगी में तो बनी-इसराईल ने जैसा कुछ सताया उसकी दास्तान ऊपर गुज़र चुकी है, मगर बाद में वह उनके ऐसे दीवाने हुए कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद कम ही लोगों को उन्होंने उनसे बढ़कर क़ाबिले-एहतिराम माना होगा। उनके यहाँ मशहूर हो गया कि इल्‌यास (अलैहि०) एक बवण्डर में आसमान पर ज़िन्दा उठा लिए गए। हैं (राजा, भाग-2, अध्याय-2) और यह कि वे फिर दुनिया में आएँगे। चुनाँचे बाइबल की किताब मलाकी में लिखा है— "देखो, ख़ुदावन्द के बुज़ुर्ग और हौलनाक दिन के आने से पहले मैं एलियाह नबी को तुम्हारे पास भेजूँगा।” (4:5) हज़रत यह्या (अलैहि०) और ईसा (अलैहि०) की पैग़म्बरी के ज़माने में यहूदी आम तौर से तीन आनेवालों के इन्तिज़ार में थे। एक हज़रत इल्‌यास, दूसरे मसीह, तीसरे 'वह नबी’ (यानी हज़रत मुहम्मद सल्ल०)। जब हज़रत यह्या की नुबूवत शुरू हुई और उन्होंने लोगों को बप्तिस्मा देना शुरू किया तो यहूदियों के मज़हबी पेशवाओं ने उनके पास जाकर पूछा, “क्या तुम मसीह हो?” उन्होंने कहा, “नहीं।” फिर पूछा, “क्या तुम एलियाह हो?” उन्होंने कहा, “नहीं।” फिर पूछा, “क्या तुम ‘वह नबी' हो?” उन्होंने कहा, “नहीं, मैं वह भी नहीं हूँ।” तब उन्होंने कहा, “अगर तुम न मसीह हो, न एलियाह हो, न वह नबी, तो फिर तुम बपतिस्मा क्यों देते हो?” (यूहन्ना, 1:19-26) । फिर कुछ मुद्दत बाद जब हज़रत ईसा (अलैहि०) की शोहरत फैली तो यहूदियों में यह ख़याल फैल गया कि शायद एलियाह नबी आ गए हैं (मर्कुस, 6:14-15)। ख़ुद हज़रत ईसा (अलैहि०) के हवारियों में भी यह ख़याल फैला हुआ था कि एलियाह नबी आनेवाले हैं। मगर हज़रत ईसा (अलैहि०) ने यह कहकर उनकी ग़लतफ़हमी को दूर कर किया कि “एलियाह तो आ चुका और लोगों ने उसे नहीं पहचाना, बल्कि जो चाहा उसके साथ किया।” इससे हवारी ख़ुद जान गए कि अस्ल में आनेवाले हज़रत यह्या थे, न कि आठ सौ वर्ष पहले गुज़रे हुए एलियाह (यानी हज़रत इल्‌यास)।” (मत्ती, 11:14 और 17:10-13)
سَلَٰمٌ عَلَىٰٓ إِلۡ يَاسِينَ ۝ 179
(130) सलाम है इल्‌यास पर।74
74. अस्ल अरबी में अलफ़ाज़ हैं “सलामुन अला इल-यासीन।” इसके बारे में क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिम कहते हैं कि यह हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) का दूसरा नाम है, जिस तरह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) का दूसरा नाम अब्राहाम था और कुछ दूसरे तफ़सीर लिखनेवालों का कहना है कि अरबवालों में इबरानी नाम के अलग-अलग तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) राइज (प्रचलित) थे। मसलन मीकाल और मीकाईल और मीकाईन एक ही फ़रिश्ते को कहा जाता था। ऐसा ही मामला हज़रत इल्‌यास (अलैहि०) के नाम के साथ भी हुआ है। ख़ुद क़ुरआन मजीद में एक ही पहाड़ का नाम 'तूरे-सीना' भी आया है और 'तूरे-सीनीन' भी।
إِنَّا كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 180
(131) हम नेकी करनेवालों को ऐसा ही बदला देते हैं।
إِنَّهُۥ مِنۡ عِبَادِنَا ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 181
(132) सचमुच वह हमारे ईमानवाले बन्दों में से था।