(112) और हमने उसे इसहाक़ की ख़ुशख़बरी दी,”67 एक नबी नेक लोगों में से।
67. यहाँ पहुँचकर यह सवाल हमारे सामने आता है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) अपने जिन साहबज़ादे को क़ुरबान करने के लिए तैयार हुए थे और जिन्होंने अपने आपको ख़ुद इस क़ुरबानी के लिए पेश कर दिया था, वह कौन थे। सबसे पहले इस सवाल का जवाब हमारे सामने बाइबल की तरफ़ से आता है और वह यह है—
"ख़ुदा ने अब्राहम (इबराहीम) से यह कहकर उसकी परीक्षा की कि ऐ अब्राहम.......तू अपने बेटे को यानी अपने इकलौते बेटे इसहाक़ को जिससे तू प्यार करता है साथ लेकर मोरिय्याह के देश में चला जा और वहाँ उसको एक पहाड़ के ऊपर जो मैं तुझे बताऊँगा होमबलि करके चढ़ा।" (उत्पत्ति, 22:1-2)
इस बयान में एक तरफ़ तो यह कहा जा रहा है कि अल्लाह तआला ने हज़रत इसहाक़ की क़ुरबानी माँगी थी और दूसरी तरफ़ यह भी कहा जा रहा है कि वह इकलौते थे। हालाँकि ख़ुद बाइबल ही के दूसरे बयानों से पक्के तौर पर यह साबित होता है कि हज़रत इसहाक़ इकलौते न थे। इसके लिए ज़रा बाइबल ही के नीचे लिखे बयानों को देखिए—
“और अब्राहम (इबराहीम) की बीवी सारै के कोई औलाद न थी। उसकी एक मिस्री लौंडी थी जिसका नाम हाजिरा था और सारै ने अब्राहम से कहा, देख यहोवा (यानी अल्लाह) ने तो मेरी कोख बन्द कर रखी है, इसिलए मैं तुझसे विनती करती हूँ कि मेरी लौंडी के पास जा, शायद उससे मेरा घर आबाद हो जाए और अब्राहम ने सारै की बात मान ली। अब्राहम को कनान देश में रहते हुए दस साल बीत चुके थे, तब उसकी बीवी सारै ने अपनी मिस्री लौंडी हाजिरा को लेकर अपने पति अब्राहम को दिया कि वह उसकी बीवी बने और वह हाजिरा के पास गया और वह हामिला (गर्भवती) हुई।” (उत्पत्ति, 16:1-4)
"ख़ुदावन्द के फ़रिश्ते ने उससे कहा कि तू हामिला (गर्भवती) है और तेरे बेटा पैदा होगा। उसका नाम इश्माएल (इसमाईल) रखना।" (16:11)
“जब हाजिरा ने अब्राहम के द्वारा इश्माएल को जन्म दिया, उस वक़्त अब्राहम छियासी साल का था।” (16:16)
“और ख़ुदा ने अब्राहम से कहा कि सारै जो तेरी बीवी है ...... उससे भी तुझे एक बेटा दूँगा तू उसका नाम इज़हाक़ रखना...... जो अगले साल इसी तयशुदा वक़्त पर सारा (सारै) से पैदा होगा। ....... तब अब्राहम ने अपने बेटे इसमाईल को और ...... घर के सब मर्दों को लिया और उसी दिन ख़ुदा के हुक्म के मुताबिक़ उनका ख़तना किया। जब अब्राहम का ख़तना हुआ तब वह निन्यानवे साल का था और जब उसके बेटे इसमाईल का ख़तना हुआ तो 13 साल का था।” (उत्पत्ति, 17:15-25)
“और जब अब्राहम का बेटा इसहाक़ उससे पैदा हुआ तब अब्राहम सौ साल का था।" (उत्पत्ति, 21:5)
इससे बाइबल के बयानों का आपस में एक-दूसरे से टकराना साफ़ तौर से खुल जाता है। ज़ाहिर है कि 14 साल तक अकेले हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ही हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बेटे थे। अब अगर क़ुरबानी इकलौते बेटे की माँगी गई थी तो वह हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की नहीं, बल्कि हज़रत इसमाईल (अलैहि०) की थी, क्योंकि वही इकलौते थे और अगर इसहाक़ (अलैहि०) की क़ुरबानी माँगी गई थी तो फिर यह कहना ग़लत है कि इकलौते बेटे की क़ुरबानी माँगी गई थी।
इसके बाद हम इस्लामी रिवायतों को देखते हैं और उनमें सख़्त इख़्तिलाफ़ (मतभेद) पाया जाता है। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों ने सहाबा और ताबिईन की जो रिवायतें नक़्ल की हैं उनमें एक गरोह का क़ौल (कथन) यह बयान किया गया है कि वे साहबजादे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) थे और इस गरोह में नीचे लिखे बुज़ुर्गों के नाम मिलते हैं—
हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्बास-बिन-अब्दुल-मुत्तलिब (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), क़तादा, इकरिमा, हसन बसरी, सईद-बिन-जुबैर, मुजाहिद, शअबी, मसरूक़, मकहूल, ज़ुहरी, अता, मुक़ातिल, सुद्दी, कअबे-अहबार, ज़ैद-बिन-असलम (रह०) वग़ैरा।
दूसरा गरोह कहता है कि वे हज़रत इसमाईल (अलैहि०) थे और इस गरोह में नीचे लिखे बुज़ुर्गों के नाम नज़र आते हैं—
हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०), हज़रत मुआविया (रज़ि०), इकरिमा, मुजाहिद, यूसुफ़-बिन-मेहरान, हसन बसरी, मुहम्मद-बिन-कअब अल-क़ुर्जी, शअबी, सईद-बिन- मुसय्यब, जह्हाक, मुहम्मद-बिन-अली-बिन-हुसैन (मुहम्मदुल-बाक़र), रबीअ-बिन-अनस, अहमद- बिन-हंबल (रह०) वग़ैरा।
इन दोनों फ़ेहरिस्तों को एक-दूसरे से मिलाकर देखा जाए तो कई नाम दोनों फ़ेहरिस्तों में नज़र आएँगे। यानी एक ही बुज़ुर्ग से दो अलग-अलग रायें नक़्ल हुई हैं। मसलन हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से इकरिमा यह क़ौल नक़्ल करते हैं कि वे साहबज़ादे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) थे। मगर इन्हीं से अता-बिन-अबी-रबाह यह बात नक़्ल करते हैं कि “यहूदियों का दावा है कि वे इसहाक़ (अलैहि०) थे, मगर यहूदी झूठ कहते हैं।” इसी तरह हज़रत हसन बसरी से एक रिवायत यह है कि वे इस बात को मानते थे कि इबराहीम (अलैहि०) को ख़ाब (सपने) में हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था। मगर अम्र-बिन-उबैद कहते हैं कि हसन बसरी (रह०) को इस बात में कोई शक नहीं था कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के जिस बेटे को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था, वह इसमाईल (अलैहि०) थे।
रिवायतों के इस तरह अलग-अलग होने का नतीजा यह हुआ कि इस्लामी आलिमों में से कुछ पक्के यक़ीन के साथ हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के हक़ में राय देते हैं, मसलन इब्ने-जरीर और क़ाज़ी इयाज़। कुछ पूरे यक़ीन से कहते हैं कि ज़ब्ह किए जाने का हुक्म हज़रत इसमाईल (अलैहि०) के बारे में था, मसलन इब्ने-कसीर। कुछ फ़ैसला नहीं कर पाए कि ज़ब्ह करने का हुक्म किसके बारे में था, मसलन जलालुद्दीन सुयूती। लेकिन अगर तहक़ीक़ की नज़र से देखा जाए तो यह बात हर शक-शुब्हे से परे नज़र आती है कि हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ही को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था। इसकी दलीलें इस तरह हैं—
(1) ऊपर क़ुरआन मजीद में अल्लाह तआला का यह फ़रमान गुज़र चुका है कि अपने वतन से हिजरत करते वक़्त हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने एक नेक बेटे के लिए दुआ की थी और उसके जवाब में अल्लाह तआला ने उनको एक हलीम (सहनशील) बेटे की ख़ुशख़बरी दी। बात का मौक़ा साफ़ बता रहा है कि यह दुआ उस वक़्त की गई थी जब इबराहीम (अलैहि०) बेऔलाद थे और ख़ुशख़बरी जिस लड़के की दी गई वह उनका पहलौंटा बच्चा था। फिर यह भी क़ुरआन ही के बयान के सिलसिले से ज़ाहिर होता है कि वही बच्चा जब बाप के साथ दौड़ने-चलने के क़ाबिल हुआ तो उसे ज़ब्ह करने का इशारा किया गया। अब यह बात यक़ीनी तौर पर साबित है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के पहलौटे बच्चे हज़रत इसमाईल (अलैहि०) थे, न कि हज़रत इसहाक़ (अलैहि०)। ख़ुद क़ुरआन मजीद में बेटों की तरतीब (क्रम) इस तरह बयान हुई है, “तारीफ़ है उस अल्लाह के लिए जिसने मुझे बुढ़ापे में इसमाईल और इसहाक़ दिए।" (सूरा-14 इबराहीम, आयत-39)।
(2) क़ुरआन मजीद में जहाँ हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की ख़ुशख़बरी दी गई है, वहाँ उनके लिए 'ग़ुलामे-अलीम' (इल्मवाले लड़के) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। “और उन्होंने उसे एक इल्मवाले लड़के की ख़ुशख़बरी दी।” (सूरा-51 ज़ारियात, आयत-28) “डरो नहीं, हम तुम्हें एक इल्मवाले लड़के की ख़ुशख़बरी देते हैं।” (सूरा-15 हिज्र, आयत-53) मगर यहाँ जिस लड़के की ख़ुशख़बरी दी गई है, उसके 'ग़ुलामिन-हलीम' (सहनशील लड़के) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि दो बेटों की दो नुमायाँ सिफ़ात अलग-अलग थीं और ज़ब्ह का हुक्म 'ग़ुलामे-अलीम' के लिए नहीं, बल्कि 'ग़ुलामे-हलीम' के लिए था।
(3) क़ुरआन मजीद में हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की पैदाइश की ख़ुशख़बरी देते हुए साथ-ही-साथ यह ख़ुशख़बरी भी दे दी गई थी कि उनके यहाँ याक़ूब (अलैहि०) जैसा बेटा पैदा होगा, "फिर हमने उस (औरत) को इसहाक़ और फिर इसहाक़ के बाद याक़ूब की ख़ुशख़बरी दी।” (सूरा-11 हूद, आयत-71)। अब ज़ाहिर है कि जिस लड़के की पैदाइश की ख़बर देने के साथ ही यह ख़बर भी दी जा चुकी हो कि उसके यहाँ एक लायक़ बेटा पैदा होगा, उसके बारे में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को यह ख़ाब (सपना) दिखाया जाता कि वे उसे ज़ब्ह कर रहे हैं, तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) इससे यह कभी न समझ सकते थे कि इस बेटे को क़ुरबान कर देने का इशारा किया जा रहा है। अल्लामा इब्ने-जरीर (रह०) इस दलील का यह जवाब देते हैं कि मुमकिन है यह ख़ाब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उस वक़्त दिखाया गया हो जब हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के यहाँ हज़रत याक़ूब (अलैहि०) पैदा हो चुके हों। लेकिन हक़ीक़त में यह उस दलील का बहुत ही बोदा जवाब है। क़ुरआन मजीद के अलफ़ाज़ ये हैं कि “जब वह लड़का बाप के साथ दौड़ने-चलने के क़ाबिल हो गया” तब यह ख़ाब (सपना) दिखाया गया था। इन अलफ़ाज़ को जो कोई भी ख़ाली ज़ेहन होकर पढ़ेगा, उसके सामने आठ-दस साल के बच्चे की तस्वीर आएगी। कोई शख़्स भी यह नहीं सोच सकता कि जवान और औलादवाले बेटे के लिए ये अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए होंगे।
(4) अल्लाह तआला सारा क़िस्सा बयान करने के बाद आख़िर में फ़रमाता है कि “हमने उसे इसहाक़ की ख़ुशख़बरी दी, एक नबी नेक लोगों में से।” इससे साफ़ मालूम होता है कि यह वही बेटा नहीं है जिसे ज़ब्ह करने का इशारा किया गया था। बल्कि पहले किसी और बेटे की ख़ुशख़बरी दी गई। फिर जब वह बाप के साथ दौड़ने-चलने के क़ाबिल हुआ तो उसे ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ। फिर जब हज़रत इबराहीम (अलैहि०) इस इम्तिहान में कामयाब हो गए तब उनको एक और बेटे इसहाक़ (अलैहि०) के पैदा होने की ख़ुशख़बरी दी गई। वाक़िआत की यह तरतीब यक़ीनी तौर पर फ़ैसला कर देती है कि जिन साहबजादे को ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था वे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) न थे, बल्कि वे उनसे कई साल पहले पैदा हो चुके थे। अल्लामा इब्ने-जरीर (रह०) इस खुली दलील को यह कहकर रद्द कर देते हैं कि पहले सिर्फ़ हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के पैदा होने की ख़ुशख़बरी दी गई थी। फिर जब वे ख़ुदा की ख़ुशनूदी पर क़ुरबान होने के लिए तैयार हो गए तो इसका इनाम इस शक्ल में दिया गया कि उनके नबी होने की ख़ुशख़बरी दी गई। लेकिन यह उनके पहले जवाब से भी ज़्यादा कमज़ोर जवाब है। अगर सचमुच बात यही होती तो अल्लाह तआला यूँ न फ़रमाता कि “हमने उसको इसहाक़ की ख़ुशख़बरी दी, एक नबी नेक लोगों में से।” बल्कि यूँ फ़रमाता कि हमने उसको यह ख़ुशख़बरी दी कि तुम्हारा यही लड़का एक नबी होगा नेक लोगों में से।
(5) भरोसेमन्द रिवायतों से यह बात साबित है कि हज़रत इसमाईल (अलैहि०) के फ़िदये (बदले) में जो मेंढा ज़ब्ह किया गया था, उसके सींग काबा में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-ज़ुबैर (रज़ि०) के ज़माने तक महफ़ूज़ थे। बाद में जब हज्जाज-बिन-यूसुफ़ ने हरम में इब्ने-ज़ुबैर का घेराव किया और काबा को ढा दिया तो वे सींग भी बरबाद हो गए। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और आमिर शअबी दोनों इस बात की गवाही देते हैं कि उन्होंने ख़ुद काबा में ये सींग देखे हैं। (इब्ने-कसीर) यह इस बात का सुबूत है कि क़ुरबानी का यह वाक़िआ शाम (सीरिया) में नहीं, बल्कि मक्का में पेश आया था और हज़रत इसमाईल (अलैहि०) के साथ पेश आया था, इसी लिए तो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और इसमाईल (अलैहि०) के बनाए हुए काबा में उसकी यादगार महफ़ूज़ रखी गई थी।
(6) यह बात सदियों से अरब की रिवायतों में महफ़ूज़ थी कि क़ुरबानी का यह वाक़िआ मिना में पेश आया था और यह सिर्फ़ रिवायत ही न थी, बल्कि उस वक़्त से नबी (सल्ल०) के ज़माने तक हज के कामों में यह काम भी बराबर शामिल चला आ रहा था। कि मिना की उसी जगह में जाकर लोग उसी जगह पर, जहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने कुरबानी की थी, जानवर क़ुरबान किया करते थे। फिर जब आप (सल्ल०) नबी बनाए गए तो आप (सल्ल०) ने भी इसी तरीक़े को जारी रखा, यहाँ तक कि आज तक हज के मौक़े पर 10 ज़िल-हिज्जा को मिना में क़ुरबानियाँ की जाती हैं। साढ़े चार हज़ार साल का यह लगातार अमल इस बात का पक्का सुबूत है कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की इस क़ुरबानी के वारिस बनी-इसमाईल हुए हैं, न कि बनी-इसहाक़। हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की नस्ल में ऐसी कोई रस्म कभी जारी नहीं रही है जिसमें सारी क़ौम एक ही कम वक़्त में क़ुरबानी करती हो और उसे हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की क़ुरबानी की यादगार कहती हो।
ये ऐसी दलीलें हैं जिनको देखने के बाद यह बात ताज्जुब के क़ाबिल नज़र आती है कि ख़ुद मुसलमानों में यह ख़याल आख़िर फैल कैसे गया कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को हुक्म दिया गया था कि वे हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) को ज़ब्ह करें। यहूदियों ने अगर हज़रत इसमाईल (अलैहि०) को इस एहतिराम से महरूम करके अपने दादा हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) की तरफ़ इसे जोड़न की कोशिश की तो यह एक समझ में आनेवाली बात है। लेकिन आख़िर मुसलमानों के एक बड़े गरोह ने उनकी इस धाँधली को कैसे क़ुबूल कर लिया? इस सवाल का बहुत इत्मीनान-बख़्श जवाब अल्लामा इब्ने-कसीर ने अपनी तफ़सीर में दिया है। वे कहते है— “हक़ीक़त तो अल्लाह ही जानता है, मगर बज़ाहिर यही मालूम होता है कि अस्ल में ये सारी बातें (जो हज़रत इसहाक़ के ज़ब्ह किए जाने के हक़ में हैं) कअब-अहबार से रिवायत हैं। यह साहब जब हज़रत उमर (रज़ि०) के ज़माने में मुसलमान हुए तो कभी-कभी यह यहूदियों और ईसाइयों की पुरानी किताबों में लिखी बातें उनको सुनाया करते थे और हज़रत उमर (रज़ि०) उन्हें सुन लिया करते थे। इस वजह से दूसरे लोग भी उनकी बातें सुनने लगे और सब सही-ग़लत जो वे बयान कर दिया करते थे, उन्हें रिवायत करने लगे। हालाँकि इस उम्मत (समुदाय) को उनकी जानकारी के इस ज़ख़ीरे (भंडार) में से किसी चीज़ की भी ज़रूरत न थी।"
इस सवाल पर और ज़्यादा रौशनी मुहम्मद-बिन-कअब क़ुर्ज़ी (रह०) की एक रिवायत से पड़ती है। वे बयान करते हैं कि एक बार मेरी मौजूदगी में हज़रत उमर-बिन-अब्दुल-अज़ीज़ (रह०) के यहाँ यह सवाल छिड़ा कि ज़ब्ह किए जाने का हुक्म हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के बारे में था या हज़रत इसमाईल के बारे में। उस वक़्त एक ऐसे साहब भी मजलिस में मौजूद थे जो पहले यहूदी आलिमों में से थे और बाद में सच्चे दिल से मुसलमान हो चुके थे। उन्होंने कहा, “अमीरुल-मोमिनीन, अल्लाह की क़सम, वे इसमाईल (अलैहि०) ही थे और यहूदी इस बात को जानते हैं, मगर वे अरबों से जलन की वजह से यह दावा करते हैं कि ज़ब्ह का हुक्म हज़रत इसहाक़ के बारे में था।” (इब्ने-जरीर) इन दोनों बातों को मिलाकर देखा जाए तो मालूम हो जाता है कि अस्ल में यह यहूदी प्रोपेगण्डे का असर था जो मुसलमानों में फैल गया और मुसलमान चूँकि इल्मी मामलात में हमेशा तास्सुब से पाक रहे हैं, इसलिए उनमें से बहुत-से लोगों ने यहूदियों के उन बयानों को, जो वे पुरानी किताबों के हवाले से तारीख़ी रिवायतों के भेस में पेश करते थे, सिर्फ़ एक इल्मी हक़ीक़त समझकर क़ुबूल कर लिया और यह महसूस तक न किया कि इसमें इल्म के बजाय तास्सुब काम कर रहा है।