Hindi Islam
Hindi Islam
×

Type to start your search

سُورَةُ مَرۡيَمَ

19. मरयम

(मक्का में उतरी-आयतें 98)

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम आयत “वज़कुर फ़िल किताबि मर-य-म" से लिया गया है।

उतरने का समय

इस सूरा के उतरने का समय हबशा की हिजरत से पहले का है। विश्वसनीय रिवायतों से मालूम होता है कि मुसलमान मुहाजिर जब नज्जाशी के दरबार में बुलाए गए थे, उस समय हजरत जाफ़र (रज़ि०) ने यही सूरा भरे दरबार में तिलावत की (पढ़ी) थी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

यह सूरा उस युग में उतरी थी जब क़ुरैश के सरदार मज़ाक उड़ाने, उपहास करने, लोभ देने, डराने और झूठे आरोपों का प्रचार करके इस्लामी आन्दोलन को दबाने में विफल होकर ज़ुल्मो-सितम, मार-पीट और आर्थिक दबाव के हथियार इस्तेमाल करने लगे थे। हर क़बीले के लोगों ने अपने-अपने क़बीले के नव-मुस्लिमों को तंग किया और तरह-तरह से सताकर उन्हें इस्लाम छोड़ने पर मजबूर करने की कोशिश की। इस सिलसिले में मुख्य रूप से ग़रीब लोग और वे गुलाम और दास जो क़ुरैशवालों के अधीन बनकर रहते थे, बुरी तरह पीसे गए। ये परिस्थितियाँ जब असहनीय हो गईं तो रजब, 45 आमुल-फ़ील (सन् 05 नब्वी) में नबी (सल्ल०) की अनुमति के साथ अधिकतर मुसलमान मक्का से हबशा हिजरत कर गए। पहले ग्यारह मर्दो और चार औरतों ने हबशा की राह ली। क़ुरैश के लोगों ने समुद्र-तट तक उनका पीछा किया, मगर सौभाग्य से शुऐबा के बन्दरगाह पर उनको ठीक समय पर हबशा के लिए नाव मिल गई और वे गिरफ़्तार होने से बच गए। फिर कुछ महीने के अन्दर कुछ लोगों ने हिजरत की, यहाँ तक कि 53 मर्द, 11 औरतें और 7 ग़ैर-क़ुरैशी मुसलमान हबशा में जमा हो गए और मक्का में नबी (सल्ल०) के साथ सिर्फ़ 40 आदमी रह गए थे।

इस हिजरत से मक्का के घर-घर में कोहराम मच गया, क्योंकि क़ुरैश के छोटे और बड़े परिवारों में से कोई ऐसा न था जिसके युवक इन मुहाजिरों में शामिल न हों। इसी लिए कोई घर न था जो इस घटना से प्रभावित न हुआ हो। कुछ लोग इसकी वजह से इस्लाम विरोध में पहले से अधिक कठोर हो गए और कुछ के दिलों पर इसका प्रभाव ऐसा हुआ कि अन्त में वे मुसलमान होकर रहे । चुनांँचे हज़रत उमर (रज़ि०) के इस्लाम-विरोध पर पहली चोट इसी घटना से लगी थी।

इस हिजरत के बाद क़ुरैश के सरदार सिर जोड़कर बैठे और उन्होंने तय किया कि अब्दुल्लाह-बिन-अबी-रबीआ (अबू जह्‍ल के माँ जाए भाई) और अम्र-बिन-आस को बहुत-से बहुमूल्य उपहार के साथ हबशा भेजा जाए और ये लोग किसी न किसी तरह नज्जाशी को इस बात पर तैयार करें कि वह मुहाजिरों को मक्का वापस भेज दे। चुनांँचे क़ुरैश के ये दोनों राजनयिक (दूत) मुसलमानों का पीछा करते हुए हबशा पहुँचे। पहले उन्होंने नज्जाशी के दरबारियों में ख़ूब उपहार बाँटकर [सबको अपने मिशन के समर्थन पर] राज़ी कर लिया, फिर नज्जाशी से मिले और उसको मूल्यवान भेंट देने के बाद उन मुहाजिरों की वापसी का निवेदन किया, जिसका उसके दरबारियों ने भरपूर समर्थन किया । मगर नज्जाशी ने बिगड़कर कहा कि “इस तरह तो मैं उन्हें हवाले नहीं करूँगा। जिन लोगों ने दूसरे देश को छोड़कर मेरे देश पर विश्वास किया और यहाँ शरण लेने के लिए आए, उनसे मैं विश्वासघात नहीं कर सकता। पहले मैं उन्हें बुलाकर जाँच करूँगा कि ये लोग उनके बारे में जो कुछ कहते हैं, उसकी वास्तविकता क्या है।” चुनांँचे नज्जाशी ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथियों को अपने दरबार में बुला भेजा। नज्जाशी का सन्देश पाकर सब मुहाजिर जमा हुए और उन्होंने आपसी मश्‍वरे से एक साथ होकर फ़ैसला किया कि नबी (सल्ल०) ने हमें जो शिक्षा दी है, हम तो वही बिना कुछ घटाए-बढ़ाए सामने रख देंगे, भले ही नज्जाशी हमें रखे या निकाल दे। वे दरबार में पहुँचे तो नज्जाशी के सवाल करने पर हज़रत जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने तत्काल एक भाषण देते हुए अरब की अज्ञानता के हालात, मुहम्मद (सल्ल०) का नबी बनाए जाने, इस्लाम की शिक्षाओं और मुसलमानों पर क़ुरैश के अत्याचारों को खोल-खोलकर बयान किया। नज्जाशी ने यह भाषण सुनकर कहा कि तनिक मुझे वह कलाम (वाणी) सुनाओ जो तुम कहते हो कि अल्लाह की ओर से तुम्हारे नबी पर उतरा है। हज़रत जाफ़र (रज़ि०) ने जवाब में सूरा मरयम का वह आरंभिक भाग सुनाया जो हज़रत यह्‍या और हज़रत ईसा (अलैहि०) से संबंधित है। नज्जाशी उसको सुनता रहा और रोता रहा, यहाँ तक कि उसकी दाढ़ी भीग गई। जब हज़रत जाफ़र (रजि०) ने तिलवात ख़त्म की तो उसने कहा, “निश्चय ही यह कलाम और जो कुछ ईसा लाए थे, दोनों एक ही स्रोत से निकले हैं। अल्लाह की क़सम! मैं तुम्हें उन लोगों के हवाले नहीं करूँगा"।

दूसरे दिन अम्र-बिन-आस ने नजाशी से कहा कि "तनिक इन लोगों को बुलाकर यह तो पूछिए कि मरयम के बेटे ईसा के बारे में उनका अक़ीदा (विश्वास) क्या है? ये लोग उनके बारे में एक बड़ी [भयानक] बात कहते हैं ।” नज्जाशी ने फिर मुहाजिरों को बुला भेजा और जब अम्र-बिन-आस द्वारा किया गया प्रश्न उनके सामने दोहराया तो जाफ़र-बिन-अबी तालिब (रज़ि०) ने उठकर बे-झिझक कहा कि “वे अल्लाह के बन्दे और उसके रसूल हैं और उसकी ओर से एक रूह और एक कलिमा हैं जिसे अल्लाह ने कुँवारी मरयम पर डाला।" नज्जाशी ने सुनकर एक तिनका धरती से उठाया और कहा, “अल्लाह की क़सम ! जो कुछ तुमने कहा ईसा उससे इस तिनके के बराबर भी ज़्यादा नहीं थे।" इसके बाद नज्जाशी ने क़ुरैश के भेजे हुए तमाम उपहार यह कहकर वापस कर दिए कि मैं घूस नहीं लेता और मुहाजिरों से कहा तुम बिल्कुल निश्चिन्त होकर रहो।

विषय और वार्ताएँ

इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखकर जब हम इस सूरा को देखते हैं तो उसमें पहली बात उभरकर हमारे सामने यह आती है कि यद्यपि मुसलमान एक उत्पीड़ित शरणार्थी गिरोह के रूप में अपना वतन छोड़कर दूसरे देश में जा रहे थे, मगर इस दशा में भी अल्लाह ने उनको दीन के मामले में तनिक भर भी लचक दिखाने की शिक्षा न दी, बल्कि चलते वक़्त राह में काम आनेवाले सामान के रूप में यह सूरा उनके साथ की ताकि ईसाइयों के देश में ईसा (अलैहि०) की बिल्कुल सही हैसियत प्रस्तुत करें और उनका अल्लाह का बेटा होने से साफ़ साफ़ इंकार कर दें।

आयत 1 से लेकर 40 तक हज़रत यहया और ईसा का क़िस्सा सुनाने के बाद फिर इससे आगे की आयतों में समय के हालात को देखते हुए हज़रत इबाहीम (अलैहि०) का किस्सा सुनाया गया है, क्योंकि ऐसे ही हालात में वे भी अपने बाप और परिवार और देशवालों के अत्याचारों से तंग आकर वतन से निकल खड़े हुए थे। इससे एक ओर मक्का के विधर्मियों को यह शिक्षा दी गई है कि आज हिजरत करनेवाले मुसलमान इबाहीम (अलैहि०) की पोजीशन में हैं और तुम लोग उन ज़ालिमों की स्थिति में हो जिन्होंने उनको घर से निकाला था। दूसरी ओर मुहाजिरों को यह शुभ-सूचना दी गई है कि जिस तरह इब्राहीम (अलैहि०) वतन से निकलकर नष्ट न हुए, बल्कि और अधिक उच्च पद पर आसीन हो गए, ऐसा ही भला अंजाम तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है।

इसके बाद नबियों का उल्लेख किया गया है, जिसमें यह बताना अभिप्रेत है कि तमाम नबी वही दीन लेकर आए थे जो मुहम्मद (सल्ल०) लाए हैं। मगर नबियों के गुज़र जाने के बाद उनकी उम्मतें बिगड़ती रही है और आज अलग-अलग उम्मतों (समुदायो) में जो गुमराहियाँ पाई जा रही हैं, ये उसी बिगाड़ का फल हैं।

आयत 67 से अन्त तक मक्का के इस्लाम-शत्रुओं की पथभ्रष्टता की कड़ी आलोचना की गई है और कलाम (वाणी) समाप्त करते हुए ईमानवालों को शुभ-सूचना सुनाई गई है कि सत्य के शत्रुओं की सारी कोशिशों के बावजूद अन्तत: तुम लोकप्रिय बनकर रहोगे।

---------------------

سُورَةُ مَرۡيَمَ
19. मरयम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
كٓهيعٓصٓ
(1) काफ़-हा-या-ऐन-साद,
ذِكۡرُ رَحۡمَتِ رَبِّكَ عَبۡدَهُۥ زَكَرِيَّآ ۝ 1
(2) ज़िक्र है1 उस रहमत का जो तेरे रब ने अपने बन्दे ज़करिय्या2 पर की थी,
1. तक़ाबुल (तुलना) के लिए सूरा-3 आले-इमरान आयत 33 से 41 तक सामने रहे, जिनमें यह क़िस्सा दूसरे अलफ़ाज़ में बयान हो चुका है।
2. ये हज़रत ज़करिय्या जिनका ज़िक्र यहाँ हो रहा है, हज़रत हारून के ख़ानदान से थे। इनकी पोज़ीशन ठीक-ठीक समझने के लिए ज़रूरी है कि बनी-इसराईल के पुरोहितवाद (Priesthood) को अच्छी तरह समझ लिया जाए। फ़िलस्तीन पर क़ब्ज़ा करने के बाद बनी-इसराईल ने देश का इन्तिज़ाम इस तरह किया था कि हज़रत याक़ूब (अलैहि०) की औलाद के 12 क़बीलों में तो सारा देश बाँट दिया गया और तेरहवाँ क़बीला (यानी लावी-बिन-याक़ूब का घराना) मज़हबी कामों के लिए ख़ास कर दिया गया। फिर बनी-लावी में से भी अस्ल वह ख़ानदान जो 'मक़दिस में ख़ुदावन्द के आगे लोबान (धूप) जलाने की ख़िदमत' अंजाम देता था, हज़रत हारून का ख़ानदान था। बाक़ी दूसरे बनी-लावी मक़दिस के अन्दर नहीं जा सकते थे, बल्कि के घर की ख़िदमत के वक़्त सेहनों और कोठरियों में काम करते थे। सब्त (शनिवार) के दिन और त्योहारों के मौक़े पर सोख़्तनी (आगवाली) क़ुरबानियाँ चढ़ाते थे और मक़दिस की निगरानी में बनी-हारून का हाथ बटाते थे। बनी-हारून के चौबीस ख़ानदान थे जो बारी-बारी से मक़दिस की ख़िदमत के लिए हाज़िर होते थे। उन्हीं ख़ानदानों में से एक अबिय्याह (Abijah) का ख़ानदान था जिसके सरदार हज़रत ज़करिय्या थे। अपने ख़ानदान की बारी के दिनों में यही मक़दिस में जाते और ख़ुदावन्द के सामने लोबान (धूप) जलाने की ख़िदमत अंजाम देते। (देखिए—बाइबल; लूक़ा, 1:5-10 ; 1- इतिहास, 24:10)
يَٰزَكَرِيَّآ إِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلَٰمٍ ٱسۡمُهُۥ يَحۡيَىٰ لَمۡ نَجۡعَل لَّهُۥ مِن قَبۡلُ سَمِيّٗا ۝ 2
(7) (जवाब दिया गया) “ऐ ज़करिय्या! हम तुझे एक लड़के की ख़ुशख़बरी देते हैं, जिसका नाम यह्या होगा। हमने इस नाम का कोई आदमी इससे पहले पैदा नहीं किया।”5
5. लूक़ा की इंजील में अलफ़ाज़ ये हैं, “तेरे ख़ानदान में किसी का यह नाम नहीं।” (1:61)
قَالَ رَبِّ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَكَانَتِ ٱمۡرَأَتِي عَاقِرٗا وَقَدۡ بَلَغۡتُ مِنَ ٱلۡكِبَرِ عِتِيّٗا ۝ 3
(8) अर्ज़ किया, “परवरदिगार! भला मेरे यहाँ कैसे बेटा होगा, जबकि मेरी बीवी बाँझ है और मैं बूढ़ा होकर सूख चुका हूँ?”
قَالَ كَذَٰلِكَ قَالَ رَبُّكَ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٞ وَقَدۡ خَلَقۡتُكَ مِن قَبۡلُ وَلَمۡ تَكُ شَيۡـٔٗا ۝ 4
(9) जवाब मिला, “ऐसा ही होगा। तेरा रब फ़रमाता है कि यह तो मेरे लिए एक ज़रा-सी बात है। आख़िर इससे पहले मैं तुझे पैदा कर चुका हूँ जबकि तू कोई चीज़ न था।"6
6. हज़रत ज़करिय्या के इस सवाल और फ़रिश्ते के जवाब को निगाह में रखिए, क्योंकि आगे चलकर हज़रत मरयम के क़िस्से में फिर यही बात आ रही है और इसका जो मतलब यहाँ है, वही वहाँ भी होना चाहिए। हज़रत ज़करिय्या ने कहा कि मैं बूढ़ा हूँ और मेरी बीवी बाँझ है। मेरे यहाँ लड़का कैसे हो सकता है। फ़रिश्ते ने जवाब दिया कि ऐसा ही होगा,” यानी तेरे बुढ़ापे और तेरी बीवी के बाँझ होने के बावजूद तेरे यहाँ लड़का होगा। और फिर उसने ख़ुदा की क़ुदरत का हवाला दिया कि जिस ख़ुदा ने तुझे वुजूद बख़्शा, जबकि तेरा कोई वुजूद ही नहीं था, उसकी क़ुदरत के लिए यह कोई नामुमकिन नहीं है कि तुझ जैसे बूढ़े आदमी से एक ऐसी औरत के यहाँ औलाद पैदा कर दे जो उम्र भर बाँझ रही है।
قَالَ رَبِّ ٱجۡعَل لِّيٓ ءَايَةٗۖ قَالَ ءَايَتُكَ أَلَّا تُكَلِّمَ ٱلنَّاسَ ثَلَٰثَ لَيَالٖ سَوِيّٗا ۝ 5
(10) ज़करिय्या ने कहा, “परवरदिगार! मेरे लिए कोई निशानी तय कर दे।” फ़रमाया, “तेरे लिए निशानी यह है कि तू लगातार तीन दिन लोगों से बात न कर सके।"
فَخَرَجَ عَلَىٰ قَوۡمِهِۦ مِنَ ٱلۡمِحۡرَابِ فَأَوۡحَىٰٓ إِلَيۡهِمۡ أَن سَبِّحُواْ بُكۡرَةٗ وَعَشِيّٗا ۝ 6
(11) चुनाँचे वह मेहराब7 से निकलकर अपनी क़ौम के लोगों के सामने आया और उसने इशारे से उनको हिदायत दी कि सुबह-शाम तसबीह करो।8
7. मेहराब की तशरीह के लिए देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-36 ।
8. इस वाक़िए की जो तफ़सीलात लूक़ा की इंजील में बयान हुई हैं, उन्हें हम यहाँ नक़्ल कर देते हैं, ताकि लोगों के सामने क़ुरआन की रिवायत के साथ मसीही रिवायत भी रहे। बीच में ब्रैकेट की इबारतें हमारी अपनी हैं– “यहूदिया के बादशाह हीरोदेस के ज़माने में (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-9) अबिय्याह (अबिय्याम) के दल में ज़करिय्याह (ज़करिय्या) नाम का एक काहिन (याजक या पुजारी) था और उसकी बीवी हारून की औलाद में से थी और उसका नाम इलीशिबा (Elizabeth) था। और वे दोनों ख़ुदा के सामने सच्चे और ख़ुदावन्द के सब हुक्मों और क़ानूनों पर बेऐब चलनेवाले थे। उनके औलाद न थी, क्योंकि इलीशिबा बाँझ थी और वे दोनों बूढ़े थे। जब वे ख़ुदा के सामने अपने दल की बारी पर कहानत (पूजा) का काम करता था तो एक दिन ऐसा हुआ कि कहानत के दस्तूर के मुताबिक़ उसके नाम का क़ुरआ (फ़ाल) निकला कि ख़ुदावन्द के मक़दिस में जाकर ख़ुशबू (धूप) जलाए। और लोगों की बड़ी भीड़ ख़ुशबू जलाते वक़्त बाहर दुआ कर रही थी। उस वक़्त ख़ुशबू जलाने के दौरान ख़ुदावन्द का फ़रिश्ता दाहिनी तरफ़ खड़ा हुआ ज़करिय्याह को दिखाई दिया। और ज़करिय्याह फ़रिश्ते को देखकर घबराया और उसपर दहशत छा गई। मगर फ़रिश्ते ने उससे कहा, “ऐ ज़करिय्याह! डर मत, क्योंकि तेरी दुआ सुन ली गई (ज़करिय्या की दुआ का ज़िक्र बाइबल में कहीं नहीं है) और तेरे लिए तेरी बीवी इलीशिबा के बेटा होगा। तू उसका नाम यूहन्ना (यानी यह्या) रखना और तुझे ख़ुशी होगी और बहुत से लोग उसकी पैदाइश की वजह से ख़ुश होंगे, क्योंकि वह ख़ुदावन्द के सामने बुज़ुर्ग होगा (सूरा-3 आले-इमरान में इसके लिए लफ़्ज़ ‘सय्यिदन' इस्तेमाल हुआ है)। और हरगिज़ न मय और न कोई और शराब पिएगा ('तक़िय्या' यानी बड़ा परहेज़गार) और अपनी माँ के पेट ही से रूहुल-क़ुद्स से भर जाएगा (व आतैनाहुल-हुक-म सबिय्या-और हमने बचपन में ही उसको हुक्म से नवाज़ा) और बनी-इसराईल में से बहुतेरे को ख़ुदावन्द की तरफ़ फेरेगा। वह एलिय्याह (यानी इल्‌यास अलैहि०) की रूह और ताक़त में उसके आगे-आगे चलेगा कि बाप-दादाओं के दिल बाल-बच्चों की तरफ़ और नाफ़रमानों को सच्चे लोगों की सूझ-बूझ पर चलने की तरफ़ फेरे और ख़ुदावन्द के लिए एक क़ाबिल क़ौम तैयार करे।” "ज़करिय्याह ने फ़रिश्ते से कहा कि मैं इस बात को किस तरह जानूँ? क्योंकि मैं बूढ़ा हूँ और मेरी बीवी भी बूढ़ी है। फ़रिश्ते ने उससे कहा, 'मैं जिबरील हूँ जो ख़ुदा के सामने खड़ा रहता हूँ और इसलिए भेजा गया हूँ कि तुझसे बात करूँ और तुझे इन बातों की ख़ुशख़बरी दूँ। देख, जिस दिन तक ये बातें पूरी न हो लें, उस दिन तक तू मौन रहेगा और बोल न सकेगा; इसलिए कि तूने मेरी बातों का जो अपने वक़्त पर पूरी होगी, यक़ीन न किया।” (यह बयान क़ुरआन से अलग है। क़ुरआन इसे निशानी क़रार देता है और लूक़ा की रिवायत इसे सज़ा कहती है। इसके अलावा क़ुरआन सिर्फ़ तीन दिन की ख़ामोशी का ज़िक्र करता है और लूक़ा कहता है कि उस वक़्त से हज़रत यह्या अलैहि० की पैदाइश तक हज़रत ज़करिय्या अलैहि०, गूँगे रहे।) लोग ज़करिय्या की राह देखते रहे और ताज्जुब करते थे कि इसे मक़दिस में क्यों इतनी देर लगी। जब वह बाहर आया तो उनसे बोल न सका, वे जान गए कि उसने मंदिर में कोई दर्शन पाया है। और वह उनसे इशारे करता था और गूँगा ही रहा।” (बाइबल, लूका,1:5-22)
يَٰيَحۡيَىٰ خُذِ ٱلۡكِتَٰبَ بِقُوَّةٖۖ وَءَاتَيۡنَٰهُ ٱلۡحُكۡمَ صَبِيّٗا ۝ 7
(12) “ऐ यह्या! अल्लाह की किताब को मज़बूती से थाम ले।"9 हमने उसे बचपन ही में 'हुक्म' 10 से नवाज़ा,
9. बीच में यह तफ़सील छोड़ दी गई है कि अल्लाह के इस हुक्म के मुताबिक़ हज़रत यह्या (अलैहि०) पैदा हुए और जवानी की उम्र को पहुँचे। अब यह बताया जा रहा है कि जब वे जवान हुए ता क्या काम उनसे लिया गया। यहाँ सिर्फ़ एक जुमले में उस मिशन को बयान कर दिया गया है जो नुबूवत के मंसब पर मुक़र्रर करते वक़्त उनके सिपुर्द किया गया था। यानी वे तौरात पर मज़बूती के साथ क़ायम हों और बनी-इसराईल को उसपर क़ायम करने की कोशिश करें।
10. 'हुक्म' यानी फ़ैसला करने की क़ुव्वत, इज्तिहाद (नए मसाइल का हल निकालने) की सलाहियत, दीन की समझ, मामलों में सही राय क़ायम करने की सलाहियत और अल्लाह की तरफ़ से मामलों में फ़ैसला देने का इख़्तियार।
وَحَنَانٗا مِّن لَّدُنَّا وَزَكَوٰةٗۖ وَكَانَ تَقِيّٗا ۝ 8
(13) और अपनी तरफ़ से नर्म-दिली11 और पाकीज़गी दी, और वह बड़ा परहेज़गार
11. अस्ल अरबी इबारत में लफ़्ज़ 'हनान' इस्तेमाल हुआ है जो क़रीब-क़रीब ममता का हम मानी (समानार्थक) है। यानी एक माँ को इन्तिहाई दरजे की ममता अपनी औलाद से होती है जिसकी वजह से वह बच्चे को तकलीफ़ पर तड़प उठती है, वह मुहब्बत हज़रत यह्या (अलैहि०) के दिल में अल्लाह के बन्दों के लिए पैदा की गई थी।
وَبَرَّۢا بِوَٰلِدَيۡهِ وَلَمۡ يَكُن جَبَّارًا عَصِيّٗا ۝ 9
(14) और अपने माँ-बाप का हक़ पहचाननेवाला था। वह सरकश न था और न नाफ़रमान।
وَسَلَٰمٌ عَلَيۡهِ يَوۡمَ وُلِدَ وَيَوۡمَ يَمُوتُ وَيَوۡمَ يُبۡعَثُ حَيّٗا ۝ 10
(15) सलाम उसपर जिस दिन कि वह पैदा हुआ और जिस दिन वह मरे और जिस दिन वह ज़िन्दा करके उठाया जाए।12
12. [यह्या (अलैहि०) का नाम इंजीलों यानी बाइबल में John (अंग्रेज़ी में) और यूहन्ना (हिन्दी में) प्रयुक्त हुआ है। पाठक इसका ध्यान रखें] हज़रत यह्या (अलैहि०) के जो हालात इंजीलों (यानी बाइबल) में बिखरे हुए हैं, उन्हें इकट्ठा करके हम यहाँ उनकी पाक ज़िन्दगी का एक नक़्शा पेश करते हैं जिससे सूरा-3 आले-इमरान और उन इशारों की वज़ाहत (स्पष्टीकरण) हो जाएगी जो इस सूरा मरयम में मुख़्तसर तौर पर किए गए हैं। लूक़ा के बयान के मुताबिक़ हज़रत यह्या (अलैहि०), हज़रत ईसा (अलैहि०) से 6 महीने बड़े थे। उनकी माँ और हज़रत ईसा (अलैहि०) की माँ आपस में क़रीबी रिश्तेदार थीं। लगभग 30 साल की उम्र में वे अमली तौर पर पैग़म्बर बनाए गए और यूहन्ना की रिवायत के मुताबिक़ उन्होंने पूर्वी उर्दुन के इलाक़े में अल्लाह की तरफ़ बुलाने का काम शुरू किया। वे कहते थे— “मैं जंगल में एक पुकारनेवाले का लफ़्ज़ (शब्द) हूँ कि तुम ख़ुदावन्द की राह को सीधा करो।” (यूहन्ना, 1:23) मरक़ुस का बयान है कि वे लोगों से गुनाहों की तौबा कराते थे और तौबा करनेवालों को बपतिस्मा देते यानी तौबा के बाद ग़ुस्ल (स्नान) कराते थे, ताकि रूह और जिस्म दोनों पाक हो जाएँ। यहूदिया और यरूशलेम के बहुत-से लोग उनको मानने लगे थे और उनके पास जाकर बपतिस्मा लेते थे (मरक़ुस, 1:1-5)। इसी बुनियाद पर उनका नाम यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाला (John The Baptist) मशहूर हो गया था। आम तौर पर बनी-इसराईल उनकी पैग़म्बरी को मान चुके थे (मत्ती, 21:26)। मसीह (अलहि०) का कहना था कि “जो औरतों से पैदा हुए हैं। उनमें यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले से बड़ा कोई नहीं हुआ।” (मत्ती, 11:11) वे ऊँट के बालों की पोशाक पहने और चमड़े का पटका कमर से बाँधे रहते थे और उनका खाना टिड्डियाँ और जंगली शहद था। (मत्ती, 3:1) इस जोगियाना ज़िन्दगी के साथ वे आवाज़ लगाते फिरते थे कि “तौबा करो, क्योंकि आसमान की बादशाही क़रीब आ गई है।” (मत्ती, 3:2) यानी मसीह (अलैहि०) की पैग़म्बरी की दावत की शुरुआत होनेवाली है। इसी बुनियाद पर उनको आम तौर पर हज़रत मसीह का 'अरहास' (पुष्टि करनेवाला) कहा जाता है और यही बात उनके बारे में क़ुरआन में कही गई है कि “अल्लाह की तरफ़ से एक फ़रमान की तस्दीक़ करनेवाला।” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-39) वे लोगों को रोज़े और नमाज़ की नसीहत करते थे (मत्ती, 9:14 ; लूक़ा, 5:33, 11:1) वे लोगों से कहते थे कि “जिसके पास दो कुर्ते हों वह उसको जिसके पास न हो, बाँट दे। और जिसके पास खाना हो वह भी ऐसा ही करे।” टैक्स वुसूल करनेवालों ने पूछा कि “उस्ताद, हम क्या करें?” तो उन्होंने फ़रमाया, “जो तुम्हारे लिए तय है उससे ज़्यादा न लेना।” सिपाहियों ने पूछा, “हमारे लिए क्या हिदायत है?” कहा, “न किसी पर ज़ुल्म करना और न किसी पर झूठा इलज़ाम लगाना और अपनी तन्‌ख़ाह पर सन्तोष करना।” (लूक़ा, 3:10-14)। बनी-इसराईल के बिगड़े हुए उलमा (विद्वान) फ़रीसी और सदूक़ी उनके पास बपतिस्मा लेने आए तो डाँटकर कहा, “ऐ साँप के बच्चो! तुमको किसने जता दिया कि आनेवाले ग़ज़ब (प्रकोप) से भागो? …..अपने दिलों में यह न सोचो कि अब्राहम हमारा बाप है ........ अब पेड़ों की जड़ों पर कुल्हाड़ा रखा हुआ है तो जो पेड़ अच्छा फल नहीं लाता वह काटा और आग में डाला जाता है।” (मत्ती, 3:7-10) उनके दौर का यहूदी बादशाह, हेरोदेस अन्तिपास जिसके राज्य में वे हक़ की दावत की ख़िदमत अंजाम देते थे, सर से पाँव तक रोमी (रूमी) तहज़ीब में डूबा हुआ था और उसकी वजह से सारे देश में बुराइयाँ और ख़राबियाँ फैल रही थीं। उसने ख़ुद अपने भाई फ़िलिप्पुस की बीवी हेरोदियास (Herodias) को अपनी पत्नी बना लिया था। हज़रत यह्या (अलैहि०) ने इसपर हेरोदेस (Herod) को मलामत की और उसकी बुरी हरकतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। इस जुर्म में हीरोदेस (Herod) ने उनको गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया। लेकिन वह उनको एक मुक़द्दस (पुण्य) और सच्चा आदमी समझकर उनका एहतिराम भी करता था और पब्लिक में उनके ग़ैर-मामूली असर से डरता भी था। लेकिन हेरोदियास यह समझती थी कि यूहन्ना (यानी यह्या अलैहि०) जो अख़लाक़ी रूह क़ौम में फूँक रहे हैं, वह लोगों की निगाह में उन जैसी औरतों को रुसवा किए दे रही है। इसलिए वह उनकी जान के पीछे पड़ गई। आख़िरकार हेरोदेस की सालगिरह के जश्न में उसने वह मौक़ा पा लिया जिसकी ताक में वह थी। जश्न के दरबार में उसकी बेटी ख़ूब नाची जिसपर ख़ुश होकर हेरोदेस ने कहा, “माँग क्या माँगती है।” बेटी ने अपनी बदकार माँ से पूछा, “क्या मागूँ?” माँ ने कहा, “यह्या का सर माँग ले।” चुनाँचे उसने हेरोदेस के सामने हाथ बाँधकर अर्ज़ किया कि “मुझे यूहन्ना बपतिस्मा देनेवाले का सर एक थाल में रखवाकर अभी माँगवा दीजिए।” हीरोद यह सुनकर बहुत दुखी हुआ, मगर प्रेमिका की बेटी की माँग को कैसे रद्द कर सकता था। उसने फ़ौरन जेल से यूहन्ना (यानी हज़रत यह्या अलैहि०) का सर कटवाकर मँगवाया और एक थाल में रखवाकर नाचनेवाली को पेश कर दिया। (मत्ती, 14:3-12:, मरकुस, 6 :17-28; लूक़ा, 3:19-20)
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مَرۡيَمَ إِذِ ٱنتَبَذَتۡ مِنۡ أَهۡلِهَا مَكَانٗا شَرۡقِيّٗا ۝ 11
(16) और ऐ नबी! इस किताब में मरयम का हाल बयान करो,13 जबकि वह अपने लोगो से अलग होकर पूरब की तरफ़ कोने में बैठी थी
13. क़ुरआन में हज़रत मरयम का हाल कई जगहों पर बयान हुआ है। देखिए— तफ़हीमुल- क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—42, 55; सूरा-4 निसा, हाशिए—190, 191।
فَٱتَّخَذَتۡ مِن دُونِهِمۡ حِجَابٗا فَأَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡهَا رُوحَنَا فَتَمَثَّلَ لَهَا بَشَرٗا سَوِيّٗا ۝ 12
(17) और परदा डालकर उनसे छिप बैठी थी।14 इस हालत में हमने उसके पास अपनी रूह (यानी फ़रिश्ते) को भेजा और वह उसके सामने एक पूरे इनसान की शक्ल में ज़ाहिर हो गया।
14. सूरा- 3 आले-इमरान में यह बताया जा चुका है कि हज़रत मरयम की माँ ने अपनी मानी हुई नज़्र (मन्नत) के मुताबिक़ उनको बैतुल-मक़दिस में इबादत के लिए बिठा दिया था और हज़रत ज़करिय्या ने उनकी हिफ़ाज़त और सरपरस्ती अपने ज़िम्मे ले ली थी। वहाँ यह ज़िक्र भी गुज़र चुका है कि हज़रत मरयम बैतुल-मक़दिस की एक मेहराब में यकसूई के साथ बैठ गई थीं। अब यहाँ यह बताया जा रहा है कि वह मेहराब जिसमें हज़रत मरयम इबादत के लिए बैठी थीं, बैतुल-मक़दिस के पूर्वी हिस्से में थी और उन्होंने इबादत के लिए बैठनेवालों के आम तरीक़े के मुताबिक़ एक परदा लटकाकर अपने आपको देखनेवालों की निगाहों से महफ़ूज़ कर लिया था। जिन लोगों ने सिर्फ़ बाइबल से ताल-मेल के लिए ‘मकानन शरक़ीया' (पूर्वी जगह) से मुराद नासरत (Nazreth) लिया है उन्होंने ग़लती की है, क्योंकि नासरत यरूशलेम के उत्तर में है, न कि पूरब में।
قَالَتۡ إِنِّيٓ أَعُوذُ بِٱلرَّحۡمَٰنِ مِنكَ إِن كُنتَ تَقِيّٗا ۝ 13
(18) मरयम यकायक बोल उठी कि “अगर तू अल्लाह से डरनेवाला कोई आदमी है तो मैं तुझसे रहमान की पनाह माँगती हूँ।”
قَالَ إِنَّمَآ أَنَا۠ رَسُولُ رَبِّكِ لِأَهَبَ لَكِ غُلَٰمٗا زَكِيّٗا ۝ 14
(19) उसने कहा, “मैं तो तेरे रब का भेजा हुआ हूँ और इसलिए भेजा गया हूँ कि तुझे एक पाकीज़ा लड़का दूँ।”
قَالَتۡ أَنَّىٰ يَكُونُ لِي غُلَٰمٞ وَلَمۡ يَمۡسَسۡنِي بَشَرٞ وَلَمۡ أَكُ بَغِيّٗا ۝ 15
(20) मरयम ने कहा, ” मेरे यहाँ कैसे लड़का होगा जबकि मुझे किसी इनसान ने छुआ तक नहीं है और मैं कोई बदकार औरत नहीं हूँ।''
قَالَ كَذَٰلِكِ قَالَ رَبُّكِ هُوَ عَلَيَّ هَيِّنٞۖ وَلِنَجۡعَلَهُۥٓ ءَايَةٗ لِّلنَّاسِ وَرَحۡمَةٗ مِّنَّاۚ وَكَانَ أَمۡرٗا مَّقۡضِيّٗا ۝ 16
(21) फ़रिश्ते ने कहा, “ऐसा ही होगा, तेरा रब फ़रमाता है कि ऐसा करना मेरे लिए बहुत आसान है, और हम यह इसलिए करेंगे कि उस लड़के को लोगों के लिए एक निशानी15 बनाएँ और अपनी तरफ़ से एक रहमत, और यह काम होकर रहना है।”
15. जैसा कि हम हाशिया-6 में इशारा कर आए हैं, हज़रत मरयम के हैरत ज़ाहिर करने पर फरिश्ते का यह कहना कि “ऐसा ही होगा” हरगिज़ इस मानी में नहीं हो सकता कि कोई आदमी तुझको छुएगा और उससे तेरे यहाँ लड़का पैदा होगा, बल्कि इसका साफ़ मतलब यह है कि तेरे यहाँ लड़का होगा बावजूद इसके कि तुझे किसी मर्द ने नहीं छुआ है। ऊपर इन्हीं अलफ़ाज़ में हज़रत ज़करिय्या ने भी हैरत ज़ाहिर की है और वहाँ भी फ़रिश्ते ने वही जवाब दिया है। ज़ाहिर है कि जो मतलब इस जवाब का वहाँ है, वही यहाँ भी है। इसी तरह सूरा-51 ज़ारियात, आयतें—28-30 में जब फ़रिश्ता हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को बेटे की ख़ुशख़बरी देता है और हज़रत सारा कहती हैं कि मुझ बूढ़ी-बाँझ के यहाँ बेटा कैसे होगा? तो फ़रिश्ता उनको जवाब देता है। कि 'कज़ालि-क' (ऐसा ही होगा)। ज़ाहिर है कि इससे मुराद बुढ़ापे और बाँझपन के बावजूद उनके यहाँ औलाद का होना है। इसके अलावा अगर 'कज़ालि-क' का मतलब यह ले लिया जाए कि कोई मर्द तुझे छुएगा और तेरे यहाँ उसी तरह लड़का होगा जैसे दुनिया भर की औरतों के यहाँ हुआ करता है तो फिर बाद के दोनों जुमले बिलकुल बेमतलब हो जाते हैं। इस सूरत में यह कहने की क्या ज़रूरत रह जाती है कि तेरा रब कहता है कि ऐसा करना मेरे लिए बहुत आसान है, और यह कि हम इस लड़के को एक निशानी बनाना चाहते हैं। निशानी का लफ़्ज़ यहाँ साफ़ तौर से मोजिज़े (चमत्कार) के मानी में इस्तेमाल हुआ है, और इसी मानी की यह जुमला दलील भी है कि “ऐसा करना मेरे लिए बहुत आसान है।” लिहाज़ा यह कहने का मतलब सिवाय इसके और कुछ नहीं है कि हम इस लड़के के वुजूद ही को एक मोजिज़े की हैसियत से बनी-इसराईल के सामने पेश करना चाहते हैं। बाद की तफ़सीलात इस बात को ख़ुद वाज़ेह कर रही हैं कि हज़रत ईसा (अलैहि०) के वुजूद को किस तरह मोजिज़ा बनाकर पेश किया गया।
۞فَحَمَلَتۡهُ فَٱنتَبَذَتۡ بِهِۦ مَكَانٗا قَصِيّٗا ۝ 17
(22) मरयम को उस बच्चे का हमल (गर्भ) रह गया और वह उस हमल को लिए हुए एक दूर की जगह पर चली गई।16
16. दूर के मक़ाम से मुराद ‘बैते-लहुम’ है। हज़रत मरयम का अपने एतिकाफ़ (एकान्तवास) से निकलकर वहाँ जाना एक फ़ितरी बात थी। बनी-इसराईल के सबसे मुक़द्दस घराने बनी-हारून की लड़की, और फिर वह जो बैतुल-मक़दिस में ख़ुदा की इबादत के लिए यकसू होकर बैठी थी, यकायक हामिला (गर्भवती) हो गई। इस हालत में अगर वे अपने एतिकाफ़ की जगह पर बैठी रहतीं और उनका गर्भ लोगों पर ज़ाहिर हो जाता तो ख़ानदानवाले ही नहीं, क़ौम के दूसरे लोग भी उनका जीना मुश्किल कर देते। इसलिए बेचारी इस सख़्त आज़माइश में पड़ने के बाद ख़ामोशी के साथ अपने एतिकाफ़ की जगह छोड़कर निकल खड़ी हुई, ताकि जब तक अल्लाह की मरज़ी पूरी हो, क़ौम की लानत-मलामत और आम बदनामी से तो बची रहें। यह वाक़िआ अपनी जगह ख़ुद इस बात की बहुत बड़ी दलील है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) बाप के बिना पैदा हुए थे। अगर वे शादीशुदा होतीं और शौहर ही से उनके यहाँ बच्चा पैदा हो रहा होता तो कोई वजह न थी कि मायके और ससुराल, सबको छोड़-छाड़कर वह बच्चे को जन्म देने के लिए अकेली एक दूर की जगह पर चली जातीं।
فَأَجَآءَهَا ٱلۡمَخَاضُ إِلَىٰ جِذۡعِ ٱلنَّخۡلَةِ قَالَتۡ يَٰلَيۡتَنِي مِتُّ قَبۡلَ هَٰذَا وَكُنتُ نَسۡيٗا مَّنسِيّٗا ۝ 18
(23) फिर ज़चगी (प्रसव) की तकलीफ़ ने उसे एक खजूर के पेड़ के नीचे पहुँचा दिया। वह कहने लगी, “काश! मैं इससे पहले ही मर जाती और मेरा नामो-निशान न रहता।"17
17. इन अलफ़ाज़ से उस परेशानी का अन्दाज़ा किया जा सकता है जिसमें हज़रत मरयम उस वक़्त गिरफ़्तार थीं। मौक़े की नज़ाकत सामने रहे तो हर शख़्स समझ सकता है कि उनकी ज़बान से ये अलफ़ाज़ ज़चगी की तकलीफ़ (प्रसव-पीड़ा) की वजह से नहीं निकले थे, बल्कि यह चिन्ता उनको खाए जा रही थी कि अल्लाह तआला ने जिस ख़तरनाक आज़माइश में उन्हें डाला है, उससे किस तरह ख़ैरियत के साथ निकल आएँ। हमल (गर्भ) को तो अब तक किसी-न-किसी तरह छिपा लिया, अब इस बच्चे को कहाँ ले जाएँ। बाद का यह जुमला कि फ़रिश्ते ने उनसे कहा, “ग़म न कर!” इस बात को वाज़ेह कर रहा है कि हज़रत मरयम ने ये अलफ़ाज़ क्यों कहे थे। शादीशुदा लड़की के यहाँ जब पहला बच्चा पैदा हो रहा हो तो वह चाहे तकलीफ़ से कितनी ही तड़पे उसे रंजो-ग़म कभी नहीं सताता।
فَنَادَىٰهَا مِن تَحۡتِهَآ أَلَّا تَحۡزَنِي قَدۡ جَعَلَ رَبُّكِ تَحۡتَكِ سَرِيّٗا ۝ 19
( 24) फ़रिश्ते ने पाइंती से उसको पुकारकर कहा, “ग़म न कर। तेरे रब ने तेरे नीचे एक चश्मा जारी कर दिया है।
وَهُزِّيٓ إِلَيۡكِ بِجِذۡعِ ٱلنَّخۡلَةِ تُسَٰقِطۡ عَلَيۡكِ رُطَبٗا جَنِيّٗا ۝ 20
(25) और ज़रा इस पेड़ के तने को हिला, तेरे ऊपर तरो-ताज़ा खजूरे टपक पड़ेंगी।
فَكُلِي وَٱشۡرَبِي وَقَرِّي عَيۡنٗاۖ فَإِمَّا تَرَيِنَّ مِنَ ٱلۡبَشَرِ أَحَدٗا فَقُولِيٓ إِنِّي نَذَرۡتُ لِلرَّحۡمَٰنِ صَوۡمٗا فَلَنۡ أُكَلِّمَ ٱلۡيَوۡمَ إِنسِيّٗا ۝ 21
(26) तो तू खा और पी और अपनी आँखें ठंडी कर। फिर अगर कोई आदमी तुझे नज़र आए तो उससे कह दे कि मैंने रहमान के लिए रोज़े की नज़्र मानी है, इसलिए आज मैं किसी से न बोलूँगी।,18
18. मतलब यह है कि बच्चे के मामले में तुझे कुछ बोलने की ज़रूरत नहीं। इसकी पैदाइश पर जो कोई भी एतिराज़ करेगा, उसका जवाब अब हमारे ज़िम्मे है (यह बात वाज़ेह रहे कि बनी-इसराईल में चुप का रोज़ा या मौनव्रत रखने का रिवाज था)। ये अलफ़ाज़ भी साफ़ बता रहे हैं कि हज़रत मरयम को अस्ल परेशानी क्या थी। इसके अलावा यह बात भी ग़ौर करने के क़ाबिल है कि शादीशुदा लड़की के यहाँ पहलौंटी का बच्चा अगर दुनिया के आम तरीक़े पर पैदा हो तो आख़िर उसे चुप का रोज़ा रखने की क्या ज़रूरत पड़ सकती है?
فَأَتَتۡ بِهِۦ قَوۡمَهَا تَحۡمِلُهُۥۖ قَالُواْ يَٰمَرۡيَمُ لَقَدۡ جِئۡتِ شَيۡـٔٗا فَرِيّٗا ۝ 22
(27) फिर वह उस बच्चे को लिए हुए अपनी क़ौम में आई। लोग कहने लगे, “ऐ मरयम! यह तो तूने बड़ा पाप कर डाला।
يَٰٓأُخۡتَ هَٰرُونَ مَا كَانَ أَبُوكِ ٱمۡرَأَ سَوۡءٖ وَمَا كَانَتۡ أُمُّكِ بَغِيّٗا ۝ 23
(28) ऐ हारून की बहन!19 न तेरा बाप कोई बुरा आदमी था और न तेरी माँ ही कोई बदकार औरत थी।"19अ
19. इन अलफ़ाज़ के दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उन्हें ज़ाहिरी मानी में लिया जाए और यह समझा जाए कि हज़रत मरयम का कोई भाई हारून नाम का हो। दूसरा यह कि अरबी मुहावरे के मुताबिक़ 'उख़ति-हारून' का मतलब 'हारून के ख़ानदान की लड़की' लिए जाएँ क्योंकि अरबी ज़बान में बयान का यह ढंग आम है। मिसाल के तौर पर क़बीला मुज़र के आदमी को ‘या अख़ा मुज़र' (ऐ मुज़र के भाई) और हमदान क़बीले के आदमी को 'या अख़ा हमदान' (ऐ हमदान के भाई) कहकर पुकारते हैं। अगर पहला मतलब लेते हैं तो इस मतलब के लेने के हक़ में दलील यह है कि कुछ रिवायतों में ख़ुद नबी (सल्ल०) से यही मतलब नक़्ल किया गया है। और दूसरे मतलब की ताईद में दलील यह है कि सूरतेहाल का तक़ाज़ा यह है कि यह मतलब लिया जाए; क्योंकि इस वाक़िए से क़ौम में जो बेचनी पैदा हो गई थी, उसकी वजह बज़ाहिर यह नहीं मालूम होती कि हारून नाम के एक गुमनाम शख़्स की कुँवारी बहन गोद में बच्चा लिए हुए आई थी, बल्कि जिस चीज़ ने लोगों की एक भीड़ हज़रत मरयम के आसपास इकट्ठी कर दी थी वह यही हो सकती थी कि बनी-इसराईल के निहायत पाकीज़ा घराने हारून के ख़ानदान की एक लड़की इस हालत में पाई गई। हालाँकि एक मरफ़ूअ हदीस (वह हदीस जिसके बयान करनेवालों का सिलसिला नबी सल्ल० तक पहुँचे) की मौजूदगी कोई दूसरा मतलब उसूली तौर पर ध्यान देने के लायक़ नहीं हो सकता। लेकिन हदीस की किताबों-मुस्लिम, नसई और तिरमिज़ी वग़ैरा में यह हदीस जिन अलफ़ाज़ में नक़्ल हुई है, उससे यह मतलब नहीं निकलता कि इन अलफ़ाज़ का मतलब लाज़िमी तौर पर ‘हारून की बहन' ही है। मुग़ीरह-बिन-शोबा (रज़ि०) की रिवायत में जो कुछ बयान हुआ है वह यह है कि नजरान के ईसाइयों ने हज़रत मुग़ीरह (रज़ि०) के सामने यह एतिराज़ पेश किया कि क़ुरआन में हज़रत मरयम को हारून की बहन कहा गया है, हालाँकि हज़रत हारून उनसे सैकड़ों साल पहले गुज़र चुके थे। हज़रत मुग़ीरह उनके एतिराज़ का जवाब न दे सके और उन्होंने आकर नबी (सल्ल०) के सामने यह माजरा बयान किया। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया कि “तुमने यह जवाब क्यों न दे दिया कि बनी-इसराईल अपने नाम नबियों और नेक बुज़ुर्गों के नाम पर रखते थे?” आप (सल्ल०) के इस फ़रमान से सिर्फ़ यह बात निकलती है कि जवाब न दे पाने के बजाय यह जवाब देकर एतिराज़ दूर किया जा सकता था।
19 (अ). जो लोग हज़रत ईसा (अलैहि०) के मोजिज़े (चमत्कार) के तौर पर पैदा होने को नहीं मानते, वे आख़िर इस बात की क्या मुनासिब वजह बयान कर सकते हैं कि हज़रत मरयम के बच्चा लिए हुए आने पर क़ौम क्यों चढ़कर आई और उनपर तानों और मलामत की यह बौछाड़ उसने क्यों की?
فَأَشَارَتۡ إِلَيۡهِۖ قَالُواْ كَيۡفَ نُكَلِّمُ مَن كَانَ فِي ٱلۡمَهۡدِ صَبِيّٗا ۝ 24
(29) मरयम ने बच्चे की तरफ़ इशारा कर दिया। लोगों ने कहा, “हम इससे क्या बात करें जो पालने में पड़ा हुआ एक बच्चा है?"20
20. क़ुरआन के मानी में फेर-बदल करनेवालों ने इस आयत का यह मतलब लिया है कि “हम उससे क्या बात करें जो कल का बच्चा है।” यानी उनके नज़दीक यह बातचीत हज़रत ईसा (अलैहि०) की जवानी के ज़माने में हुई और बनी-इसराईल के बड़े-बूढ़ों ने कहा कि भला इस लड़के से क्या बात करें जो कल हमारे सामने पालने में पड़ा हुआ था। मगर जो शख़्स मौक़ा व महल (सन्दर्भ) पर कुछ भी ग़ौर करेगा, वह महसूस कर लेगा कि यह सिर्फ़ एक बेकार की बात है जो मोजिज़े से बचने के लिए बनाई गई है। और कुछ नहीं तो ज़ालिमों ने यही सोचा होता कि जिस बात पर एतिराज़ करने के लिए वे लोग आए थे, वह तो बच्चे की पैदाइश के वक़्त पेश आई थी, न कि उसके जवान होने के वक़्त। इसके अलावा सूरा-3 आले-इमरान की आयत-46, और सूरा-5 माइदा की आयत-110 दोनों इस बात को पूरी तरह खोलकर बयान करती हैं कि हज़रत ईसा (अलैहि०) ने यह बात जवानी में नहीं, बल्कि पालने में एक नवजात बच्चे की हैसियत ही से की थी। पहली आयत में फ़रिश्ता हज़रत मरयम को बेटे की ख़ुशख़बरी देते हुए कहता है कि वह लोगों से पालने में भी बात करेगा और जवान होकर भी। दूसरी आयत में अल्लाह तआला ख़ुद हज़रत ईसा (अलैहि०) से फ़रमाता है कि तू लोगों से पालने में भी बात करता था और जवानी में भी।
قَالَ إِنِّي عَبۡدُ ٱللَّهِ ءَاتَىٰنِيَ ٱلۡكِتَٰبَ وَجَعَلَنِي نَبِيّٗا ۝ 25
(30) बच्चा बोल उठा, “मैं अल्लाह का बन्दा हूँ। उसने मुझे किताब दी और नबी बनाया
وَجَعَلَنِي مُبَارَكًا أَيۡنَ مَا كُنتُ وَأَوۡصَٰنِي بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱلزَّكَوٰةِ مَا دُمۡتُ حَيّٗا ۝ 26
(31) और बरकतवाला किया जहाँ भी रहूँ। और नमाज़ और ज़कात की पाबन्दी का हुक्म दिया जब तक मैं ज़िन्दा रहूँ
وَبَرَّۢا بِوَٰلِدَتِي وَلَمۡ يَجۡعَلۡنِي جَبَّارٗا شَقِيّٗا ۝ 27
(32) और अपनी माँ का हक़ अदा करनेवाला बनाया, और मुझको सरकश और संगदिल नहीं बनाया।
وَٱلسَّلَٰمُ عَلَيَّ يَوۡمَ وُلِدتُّ وَيَوۡمَ أَمُوتُ وَيَوۡمَ أُبۡعَثُ حَيّٗا ۝ 28
(33) सलाम है मुझपर जबकि मैं पैदा हुआ और जबकि मैं मरूँ और जबकि मैं ज़िन्दा करके उठाया जाऊँ।"21
21. यह है वह ‘निशानी' जो हज़रत ईसा (अलैहि०) की ज़ात (वुजूद) में बनी-इसराईल के सामने पेश की गई। अल्लाह तआला बनी-इसराईल को उनकी लगातार बदकिरदारियों पर इबरतनाक सज़ा देने से पहले उनपर हुज्जत पूरी करना चाहता था। इसके लिए उसने यह तदबीर की कि बनी-हारून की एक ऐसी परहेज़गार और इबादतगुज़ार लड़की को जो बैतुल-मक़दिस में एकसू होकर हज़रत ज़करिय्या (अलैहि०) की निगरानी और तरबियत में बैठी थी, कुँवारेपन की हालत में हामिला (गर्भवती) कर दिया, ताकि जब वह बच्चा लिए हुए आए तो सारी क़ौम में बेचैनी फैल जाए और लोगों का ध्यान एकाएक उसपर जम जाए। फिर इस तदबीर के नतीजे में जब एक भीड़ हज़रत मरयम पर टूट पड़ी तो अल्लाह तआला ने उस नवजात बच्चे से बात कराई, ताकि जब यही बच्चा बड़ा होकर पैग़म्बर के मंसब पर बिठाया जाए तो क़ौम में हज़ारों आदमी इस बात की गवाही देनेवाले मौजूद रहें कि उसकी शख़्सियत में वे अल्लाह तआला का एक हैरतअंगेज़ मोजिज़ा (चमत्कार) देख चुके हैं। इस बात पर भी जब यह क़ौम उसकी पैग़म्बरी का इनकार करे और उसकी पैरवी क़ुबूल करने के बजाय उसे मुजरिम बनाकर सूली पर चढ़ाने की कोशिश करे तो फिर उसको ऐसी इबरतनाक सज़ा दी जाए जो दुनिया में किसी क़ौम को नहीं दी गई। (और ज़्यादा तफ़सील जानने के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—44, 53; सूरा-4 निसा, हाशिए—212, 213; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—88 से 90; सूरा मोमिनून, हाशिया-43)
ذَٰلِكَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَۖ قَوۡلَ ٱلۡحَقِّ ٱلَّذِي فِيهِ يَمۡتَرُونَ ۝ 29
(34) यह है मरयम का बेटा ईसा और यह है उसके बारे में वह सच्ची बात जिसमें लोग शक कर रहे हैं।
مَا كَانَ لِلَّهِ أَن يَتَّخِذَ مِن وَلَدٖۖ سُبۡحَٰنَهُۥٓۚ إِذَا قَضَىٰٓ أَمۡرٗا فَإِنَّمَا يَقُولُ لَهُۥ كُن فَيَكُونُ ۝ 30
(35) अल्लाह का यह काम नहीं है कि वह किसी को बेटा बनाए। वह पाक ज़ात है। वह जब किसी बात का फ़ैसला करता है तो कहता है कि 'हो जा,' बस वह हो जाती है।22
22. यहाँ तक जो बात ईसाइयों के सामने वाज़ेह की गई है, वह यह है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) के बारे में अल्लाह का बेटा होने का जो अक़ीदा उन्होंने अपना रखा है, वह ग़लत और बेबुनियाद है। जिस तरह एक मोजिज़े से हज़रत यह्या की पैदाइश ने उनको ख़ुदा का बेटा नहीं बना दिया, उसी तरह एक-दूसरे मोजिज़े से हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश भी कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसकी बुनियाद पर उन्हें ख़ुदा का बेटा बना लिया जाए। ईसाइयों की अपनी रिवायतों में भी यह बात मौजूद है कि हज़रत यह्या (अलैहि०) और हज़रत ईसा (अलैहि०) दोनों एक तरह के मोजिज़े से पैदा हुए थे। चुनाँचे लूक़ा की इंजीत में क़ुरआन ही की तरह इन दोनों मोजिज़ों का ज़िक्र एक सिलसिला-ए-बयान में किया गया है। लेकिन यह ईसाइयों की इन्तिहापसन्दी और चीज़ों को उनकी हद से बढ़ाना है कि वह एक मोजिज़े से पैदा होनेवाले को अल्लाह का बन्दा कहते हैं और दूसरे मोजिज़े से पैदा होनेवाले को अल्लाह का बेटा बना बैठे हैं।
وَإِنَّ ٱللَّهَ رَبِّي وَرَبُّكُمۡ فَٱعۡبُدُوهُۚ هَٰذَا صِرَٰطٞ مُّسۡتَقِيمٞ ۝ 31
(36) (और ईसा ने कहा था कि) “अल्लाह मेरा रब भी है और तुम्हारा रब भी तो तुम उसकी बन्दगी करो। यही सीधी राह है।23
23. यहाँ ईसाइयों को बताया गया है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) की दावत (पैग़ाम) भी वही थी जो तमाम दूसरे नबी लेकर आए थे। उन्होंने इसके सिवा कुछ नहीं सिखाया था कि सिर्फ़ एक अल्लाह की बन्दगी की जाए। अब यह जो तुमने उनको बन्दे के बजाय ख़ुदा बना लिया है और उन्हें इबादत में अल्लाह के साथ शरीक कर रहे हो, यह तुम्हारी अपनी खोज है। तुम्हारे पेशवा की यह तालीम हरगिज़ नहीं थी। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-68; सूरा-5 माइदा, हाशिए—100, 101, 130; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिए—57, 58)
فَٱخۡتَلَفَ ٱلۡأَحۡزَابُ مِنۢ بَيۡنِهِمۡۖ فَوَيۡلٞ لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ مِن مَّشۡهَدِ يَوۡمٍ عَظِيمٍ ۝ 32
(37) मगर फिर अलग-अलग गरोह24 आपस में इख़्तिलाफ़ करने लगे। सो जिन लोगों ने कुफ़्र (इनकार) किया, उनके लिए वह वक़्त बड़ी तबाही का होगा जबकि वे एक बड़ा दिन देखेंगे।
24. यानी ईसाइयों के गरोह।
أَسۡمِعۡ بِهِمۡ وَأَبۡصِرۡ يَوۡمَ يَأۡتُونَنَا لَٰكِنِ ٱلظَّٰلِمُونَ ٱلۡيَوۡمَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 33
(38) जब वे हमारे सामने हाज़िर होंगे, उस दिन तो उनके कान भी ख़ूब सुन रहे होंगे और उनकी आखें भी ख़ूब देखती होंगी, मगर आज ये ज़ालिम खुली गुमराही में पड़े हुए हैं।
وَأَنذِرۡهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡحَسۡرَةِ إِذۡ قُضِيَ ٱلۡأَمۡرُ وَهُمۡ فِي غَفۡلَةٖ وَهُمۡ لَا يُؤۡمِنُونَ ۝ 34
(39) ऐ नबी! इस हालत में जबकि ये लोग ग़ाफ़िल हैं और ईमान नहीं ला रहे हैं, इन्हें उस दिन से डरा दो। जबकि फ़ैसला कर दिया जाएगा और पछतावे के सिवा कोई चारा न होगा।
إِنَّا نَحۡنُ نَرِثُ ٱلۡأَرۡضَ وَمَنۡ عَلَيۡهَا وَإِلَيۡنَا يُرۡجَعُونَ ۝ 35
(40) आख़िरकार हम ही ज़मीन और उसकी सारी चीज़ों के वारिस होंगे और सब हमारी तरफ़ ही पलटाए जाएँगे।25
25. यहाँ वह तक़रीर ख़त्म होती है जो ईसाइयों को सुनाने के लिए नाज़िल की गई थी। इस तक़रीर की बड़ाई और अहमियत का सही अन्दाज़ा उसी वक़्त हो सकता है जबकि आदमी उसको पढ़ते वक़्त वह तारीख़ी पसमंज़र (ऐतिहासिक पृष्ठभूमि) निगाह में रखे जो हमने इस सूरा के परिचय में बयान किया है। यह तक़रीर उस मौक़े पर उतरी थी, जबकि मक्का के सताए गए मुसलमान एक ईसाई हुकूमत में पनाह लेने के लिए जा रहे थे, और इस मक़सद से उतारी गई थी कि जब वहाँ मसीह (अलैहि०) के बारे में इस्लामी अक़ीदों का सवाल छिड़े तो यह 'सरकारी बयान' ईसाइयों को सुना दिया जाए। इससे बढ़कर और क्या सुबूत इस बात का हो सकता है कि इस्लाम ने मुसलमानों को किसी हाल में भी हक़ और सच्चाई के मामले में नरमी बरतना नहीं सिखाया है। फिर वे सच्चे मुसलमान जो हबश की तरफ़ हिजरत कर गए थे, उनकी ईमानी क़ुव्वत भी हैरतअंगेज़ है कि उन्होंने ठीक शाही दरबार में ऐसे नाज़ुक मौक़े पर उठकर यह तक़रीर सुना दी, जबकि नज्जाशी के तमाम दरबारी रिश्वत खाकर उन्हें उनके दुश्मनों के सिपुर्द कर देने पर तुल गए थे। उस वक़्त इस बात का पूरा ख़तरा था कि ईसाइयत के बुनियादी अक़ीदों पर इस्लाम का यह बेलाग तबसिरा (टिप्पणी) सुनकर नज्जाशी भी बिगड़ जाएगा और उन मज़लूम मुसलमानों को क़ुरैश के ज़ालिमों के हवाले कर देगा। मगर इसके बावजूद उन्होंने सच बात कहने में ज़र्रा बराबर झिझक न दिखाई।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ إِبۡرَٰهِيمَۚ إِنَّهُۥ كَانَ صِدِّيقٗا نَّبِيًّا ۝ 36
(41) और इस किताब में इबराहीम का क़िस्सा बयान करो।26 बेशक वह एक सच्चा इनसान और एक नबी था।
26. यहाँ से बात का रुख़ मक्कावालों की तरफ़ फिर रहा है जिन्होंने अपने नौजवान बेटों, भाइयों और दूसरे रिश्तेदारों को उसी तरह ख़ुदा-परस्ती के जुर्म में घर छोड़ने पर मजबूर कर दिया था जिस तरह हज़रत इबराहीम (अलैहि०) को उनके बाप और भाई-बन्धुओं ने देश से निकाल दिया था। इस मक़सद के लिए दूसरे नबियों को छोड़कर ख़ास तौर पर हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के क़िस्से को इसलिए चुना गया है कि क़ुरैश के लोग उनको अपना पेशवा मानते थे और उन्हीं की औलाद होने पर अरब में अपना फ़ख़्र जताया करते थे।
إِذۡ قَالَ لِأَبِيهِ يَٰٓأَبَتِ لِمَ تَعۡبُدُ مَا لَا يَسۡمَعُ وَلَا يُبۡصِرُ وَلَا يُغۡنِي عَنكَ شَيۡـٔٗا ۝ 37
(42) (इन्हें ज़रा उस मौक़े की याद दिलाओ) जबकि उसने अपने बाप से कहा कि “अब्बा जान! आप क्यों उन चीज़ों की इबादत करते हैं जो न सुनती हैं, न देखती हैं और न आपका कोई काम बना सकती हैं?
يَٰٓأَبَتِ إِنِّي قَدۡ جَآءَنِي مِنَ ٱلۡعِلۡمِ مَا لَمۡ يَأۡتِكَ فَٱتَّبِعۡنِيٓ أَهۡدِكَ صِرَٰطٗا سَوِيّٗا ۝ 38
(43) अब्बा जान! मेरे पास एक ऐसा इल्म आया है जो आपके पास नहीं आया। आप मेरे पीछे चलें, मैं आपको सीधा रास्ता बताऊँगा।
يَٰٓأَبَتِ لَا تَعۡبُدِ ٱلشَّيۡطَٰنَۖ إِنَّ ٱلشَّيۡطَٰنَ كَانَ لِلرَّحۡمَٰنِ عَصِيّٗا ۝ 39
(44) अब्बा जान! आप शैतान की बन्दगी न करें,27 शैतान तो रहमान का नाफ़रमान है।
27. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं 'ला तअबुदिश्शैतान' यानी 'शैतान की इबादत न करें!' हालाँकि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के बाप और क़ौम के दूसरे लोग इबादत बुतों की करते थे, लेकिन चूँकि पैरवी वे शैतान की कर रहे थे इसलिए हज़रत इबराहीम (अलैहि०) ने उनकी इस शैतान की पैरवी को भी शैतान की इबादत क़रार दिया। इससे मालूम हुआ कि इबादत सिर्फ़ पूजा और परस्तिश ही का नाम नहीं, बल्कि पैरवी का भी नाम है। साथ ही, इससे यह भी मालूम होता है कि अगर कोई शख़्स किसी पर लानत भेजते हुए भी उसकी बन्दगी करे तो वह उसकी इबादत का मुजरिम है; क्योंकि शैतान बहरहाल किसी ज़माने में भी लोगों का 'माबूद' (आम मानी में) नहीं रहा है, बल्कि उसके नाम पर हर ज़माने में लोग लानत ही भेजते रहे हैं। (ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-18 कहफ़, हाशिया 49, 50)
يَٰٓأَبَتِ إِنِّيٓ أَخَافُ أَن يَمَسَّكَ عَذَابٞ مِّنَ ٱلرَّحۡمَٰنِ فَتَكُونَ لِلشَّيۡطَٰنِ وَلِيّٗا ۝ 40
(45) अब्बा जान! मुझे डर है कि कहीं आप रहमान के अज़ाब में मुब्तला न हो जाएँ और शैतान के साथी बनकर रहें।”
قَالَ أَرَاغِبٌ أَنتَ عَنۡ ءَالِهَتِي يَٰٓإِبۡرَٰهِيمُۖ لَئِن لَّمۡ تَنتَهِ لَأَرۡجُمَنَّكَۖ وَٱهۡجُرۡنِي مَلِيّٗا ۝ 41
(46) बाप ने कहा, “इबराहीम! क्या तू मेरे माबूदों से फिर गया है? अगर तू बाज़ न आया तो मैं तुझे संगसार (पत्थरों से मार-मारकर हलाक) कर दूँगा। बस तू हमेशा के लिए मुझसे अलग हो जा।”
قَالَ سَلَٰمٌ عَلَيۡكَۖ سَأَسۡتَغۡفِرُ لَكَ رَبِّيٓۖ إِنَّهُۥ كَانَ بِي حَفِيّٗا ۝ 42
(47) इबराहीम ने कहा, “सलाम है आपको, मैं अपने रब से दुआ करूँगा कि आपको माफ़ कर दे।27अ मेरा रब मुझपर बड़ा ही मेहरबान है।
27 (अ). तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, हाशिया-112।
وَأَعۡتَزِلُكُمۡ وَمَا تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَأَدۡعُواْ رَبِّي عَسَىٰٓ أَلَّآ أَكُونَ بِدُعَآءِ رَبِّي شَقِيّٗا ۝ 43
(48) मैं आप लोगों को भी छोड़ता हूँ और उन हस्तियों को भी जिन्हें आप लोग अल्लाह को छोड़कर पुकारा करते हैं। मैं तो अपने रब ही को पुकारूँगा। उम्मीद है कि मैं अपने रब को पुकारकर नामुराद न रहूँगा।”
فَلَمَّا ٱعۡتَزَلَهُمۡ وَمَا يَعۡبُدُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ وَهَبۡنَا لَهُۥٓ إِسۡحَٰقَ وَيَعۡقُوبَۖ وَكُلّٗا جَعَلۡنَا نَبِيّٗا ۝ 44
(49) फिर जब वह उन लोगों से और अल्लाह के अलावा उनके माबूदों से अलग हो गया तो हमने उसको इसहाक़ और याक़ूब जैसी औलाद दी और हर एक को नबी बनाया
وَوَهَبۡنَا لَهُم مِّن رَّحۡمَتِنَا وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ لِسَانَ صِدۡقٍ عَلِيّٗا ۝ 45
(50) और उनको अपनी रहमत से नवाज़ा और उनको सच्ची नामवरी दी।28
28. यह सिर्फ़ तसल्ली है उन मुहाजिरों के लिए जो घरों से निकलने पर मजबूर हुए थे। उनको बताया जा रहा है कि जिस तरह इबराहीम (अलैहि०) अपने ख़ानदान से कटकर बरबाद न हुए, बल्कि उलटे सरबुलन्द और कामयाब होकर रहे, उसी तरह तुम भी बरबाद न होगे; बल्कि वह इज़्ज़त पाओगे जिसके बारे में जाहिलियत (अज्ञानता) में पड़े हुए क़ुरैश के इस्लाम-मुख़ालिफ़ सोच भी नहीं सकते।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ مُوسَىٰٓۚ إِنَّهُۥ كَانَ مُخۡلَصٗا وَكَانَ رَسُولٗا نَّبِيّٗا ۝ 46
(51) और ज़िक्र करो इस किताब में मूसा का। वह एक चुना हुआ29 इनसान था और रसूल-नबी30 था।
29. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मुख़लस' इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब है 'ख़ालिस किया हुआ'। मतलब यह है कि हज़रत मूसा (अलैहि०) एक ऐसे शख़्स थे जिनको अल्लाह तआला ने ख़ालिस अपना कर लिया था।
30. ‘रसूल' का मतलब है 'भेजा हुआ'। इस मतलब के लिहाज़ से अरबी ज़बान में पैग़ाम ले जानेवाले, एलची और सफ़ीर (दूत) के लिए यह लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है। और क़ुरआन में यह लफ़्ज़ या तो फ़रिश्तों के लिए इस्तेमाल हुआ है जो अल्लाह तआला की तरफ़ से किसी ख़ास काम पर भेजे जाते हैं, या फिर उन इनसानों को यह नाम दिया गया है जिन्हें अल्लाह तआला ने लोगों की तरफ़ अपना पैग़ाम (सन्देश) पहुँचाने के लिए मुक़र्रर किया। 'नबी' का मतलब क्या है, इस बारे में अहले-लुग़त (कोशकार) की अलग-अलग राय है। कुछ इसको 'नबा' लफ़्ज़ से बना हुआ बताते हैं, जिसका मतलब 'ख़बर' है और इस अस्ल के लिहाज़ से 'नबी' का मतलब है 'ख़बर देनेवाला'। कुछ के नज़दीक यह 'नुबू' से बना है जिसका मतलब है ऊँचाई और बुलन्दी। और इस मानी के लिहाज़ से नबी का मतलब है 'ऊँचे मर्तबेवाला' और 'बड़े ओहदेवाला'। अज़हरी ने किसाई से एक तीसरी बात भी नक़्ल की है और वह यह है कि यह लफ़्ज़ दरअस्ल 'नबई' है जिसका मतलब रास्ता है। और नबियों को नबी इसलिए कहा गया है कि वे अल्लाह की तरफ़ जाने का रास्ता हैं। लिहाज़ा किसी शख़्स को ‘रसूल-नबी' कहने का मतलब या तो 'ऊँचे दरजे का पैग़म्बर' है, या 'अल्लाह की तरफ़ से ख़बरें देनेवाला पैग़म्बर', या फिर 'वह पैग़म्बर जो अल्लाह का रास्ता बतानेवाला है।' क़ुरआन मजीद में ये दोनों अलफ़ाज़ आम तौर से एक जैसे मानी में इस्तेमाल हुए हैं। चुनाँचे हम देखते हैं कि एक ही शख़्स को कहीं सिर्फ़ रसूल कहा गया है और कहीं सिर्फ़ नबी और कहीं रसूल और नबी एक साथ। लेकिन कुछ जगहों पर रसूल और नबी के अलफ़ाज़ इस तरह भी इस्तेमाल हुए हैं जिससे ज़ाहिर होता है कि इन दोनों में रुतबे या काम की कैफ़ियत के लिहाज़ से कोई इस्तिलाही (पारिभाषिक) फ़र्क़ है। मसलन सूरा-22 हज्ज, आयत-52 में फ़रमाया, “हमने नहीं भेजा तुमसे पहले कोई रसूल और न नबी मगर ........” ये अलफ़ाज़ साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि रसूल और नबी दो अलग-अलग इस्तिलाहें (पारिभाषिक शब्द) हैं जिनके बीच मानी और मतलब का कोई फ़र्क़ ज़रूर है। इसी बुनियाद पर क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों में यह बहस चल पड़ी है कि यह फ़र्क़ किस तरह का है। लेकिन हक़ीक़त यह है कि मज़बूत दलीलों के साथ कोई भी रसूल और नबी की अलग-अलग हैसियतें तय नहीं कर सका है। ज़्यादा से ज़्यादा जो बात यक़ीन के साथ कही जा सकती है वह यह है कि ‘रसूल' का लफ़्ज़ ‘नबी' के मुक़ाबले में ख़ास है। यानी हर रसूल नबी भी होता है, मगर हर नबी रसूल नहीं होता, या दूसरे अलफ़ाज़ में नबियों में से रसूल का लफ़्ज़ उन अज़ीमुश्शान हस्तियों के लिए बोला गया है जिनको आम नबियों के मुक़ाबले में ज़्यादा अहम मंसब सिपुर्द किया गया था। इसी की ताईद उस हदीस से भी होती है जो इमाम अहमद ने हज़रत अबू-उमामा से और हाकिम ने अबू-ज़र (रज़ि०) से नक़्ल की है कि नबी (सल्ल०) से रसूलों की तादाद पूछी गई तो आप (सल्ल०) ने 313 या 315 बताई और नबियों की तादाद पूछी गई तो आप (सल्ल०) ने एक लाख चौबीस हज़ार बताई। हालाँकि इस हदीस की सनदें ज़ईफ़ (कमज़ोर) हैं, मगर कई सनदों से एक बात का नक़्ल होना उसकी कमज़ोरी को बड़ी हद तक दूर कर देता है।
وَنَٰدَيۡنَٰهُ مِن جَانِبِ ٱلطُّورِ ٱلۡأَيۡمَنِ وَقَرَّبۡنَٰهُ نَجِيّٗا ۝ 47
(52) हमने उसको तूर की दाहिनी तरफ़ से पुकारा31 और राज़ की बातों से उसे अपने क़रीब किया।32
31. तूर पहाड़ के दाहिनी तरफ़ से मुराद उसका पूर्वी किनारा है। चूँकि हज़रत मूसा (अलैहि०) मदयन से मिल जाते हुए उस रास्ते से गुज़र रहे थे जो तूर पहाड़ के दक्षिण से जाता है, और दक्षिण की तरफ़ से अगर कोई शख़्स तूर को देखे तो उसके दाईं तरफ़ पूरब और बाईं तरफ़ पश्चिम होगा। इसलिए हज़रत मूसा (अलैहि०) के ताल्लुक़ से तूर के पूर्वी छोर को 'दाहिनी तरफ़' कहा गया। वरना ज़ाहिर है कि अपने आपमें ख़ुद पहाड़ का कोई दाहिना या बायाँ रुख़ नहीं होता।
32. तशरीह के लिए देखें,तफहीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिया-206।
وَوَهَبۡنَا لَهُۥ مِن رَّحۡمَتِنَآ أَخَاهُ هَٰرُونَ نَبِيّٗا ۝ 48
(53) और अपनी मेहरबानी से उसके भाई हारून को नबी बनाकर उसे (मददगार के तौर पर) दिया।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ إِسۡمَٰعِيلَۚ إِنَّهُۥ كَانَ صَادِقَ ٱلۡوَعۡدِ وَكَانَ رَسُولٗا نَّبِيّٗا ۝ 49
(54) और इस किताब में इसमाईल का ज़िक्र करो। वह वादे का सच्चा था और रसूल-नबी था।
وَكَانَ يَأۡمُرُ أَهۡلَهُۥ بِٱلصَّلَوٰةِ وَٱلزَّكَوٰةِ وَكَانَ عِندَ رَبِّهِۦ مَرۡضِيّٗا ۝ 50
(55) वह अपने घरवालों को नमाज़ और ज़कात का हुक्म देता था और अपने रब के नज़दीक एक पसन्दीदा इनसान था।
وَٱذۡكُرۡ فِي ٱلۡكِتَٰبِ إِدۡرِيسَۚ إِنَّهُۥ كَانَ صِدِّيقٗا نَّبِيّٗا ۝ 51
(56) और इस किताब में इदरीस का33 ज़िक्र करो। वह एक सच्चा इनसान और एक नबी था,
33. हज़रत इदरीस (अलहि०) के बारे में अलग-अलग ख़याल है। कुछ के नज़दीक वे बनी-इसराईल में से कोई नबी थे, मगर ज़्यादातर लोगों की राय यह है कि वे हज़रत नूह (अलैहि०) से भी पहले गुज़रे हैं। नबी (सल्ल०) से कोई सहीह हदीस हमें ऐसी नहीं मिली जिससे उनकी शख़्सियत के मुताल्लिक़ सही जानकारी हासिल करने में कोई मदद मिलती हो। अलबत्ता क़ुरआन का एक इशारा इस ख़याल की ताईद करता है कि वे हज़रत नूह (अलैहि०) से पहले के हैं, क्योंकि बादवाली आयत में यह कहा गया है कि ये पैग़म्बर (जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ है) आदम (अलैहि०) की औलाद, नूह (अलैहि०) की औलाद, इबराहीम (अलैहि०) की औलाद और इसराईल की औलाद से हैं। अब यह ज़ाहिर है कि हज़रत यह्या (अलैहि०), ईसा (अलैहि०) और मूसा (अलैहि०) तो बनी-इसराईल में से हैं, हज़रत इसमाईल (अलैहि०) हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) और हज़रत याक़ूब (अलैहि०) इबराहीम (अलैहि०) की औलाद से हैं और हज़रत इबराहीम (अलैहि०) हज़रत नूह (अलैहि०) की औलाद से। इसके बाद सिर्फ़ हज़रत इदरीस (अलैहि०) ही रह जाते हैं। जिनके बारे में यह समझा जा सकता है कि वे हज़रत आदम (अलैहि०) की औलाद से हैं। तफ़सीर लिखनेवालों का आम ख़याल यह है कि बाइबल में जिन बुज़ुर्ग का नाम हनोक (Enoch) बताया गया है, वही हज़रत इदरीस (अलैहि०) हैं। उनके बारे में बाइबल का बयान वह है— "और हनोक 65 वर्ष का था जब उससे मतूशेलह पैदा हुआ और मतूशेलह की पैदाइश के बाद हनोक 300 साल तक ख़ुदा के साथ-साथ चलता रहा .... इस प्रकार हनोक की कुल आयु 365 वर्ष हुई। हनोक परमेश्वर के साथ-साथ चलता था; फिर वह गायब हो गया, क्योंकि ख़ुदा ने उसे उठा लिया। (उत्पत्ति, 5:21-24) तलमूद की इसराईली रिवायतों में उनके हालात ज़्यादा तफ़सील के साथ बताए गए हैं। उनका ख़ुलासा यह है कि हज़रत नूह (अलैहि०) से पहले जब आदम की औलाद में बिगाड़ की शुरुआत हुई तो ख़ुदा के फ़रिश्ते ने हनोक को जो लोगों से अलग-थलग ज़ाहिदाना (संन्यास की) ज़िन्दगी गुज़ारते थे, पुकारा कि “ऐ हनोक, उठो! तन्हाई से निकलो और ज़मीन के वासियों में चल-फिरकर उनको वह रास्ता बताओ जिसपर उनको चलना चाहिए और वे तरीक़े बताओ जिनपर उन्हें अमल करना चाहिए।” यह हुक्म पाकर वे निकले और उन्होंने जगह-जगह लोगों को इकट्ठा करके नसीहतें कीं और इनसानी नस्ल ने उनकी फ़रमाँबरदारी क़ुबूल करके अल्लाह की बन्दगी अपना ली। हनोक 353 साल तक लोगों पर हुकूमत करते रहे। उनकी हुकूमत इनसाफ़ और हक़परस्ती की हुकूमत थी। उनके दौर में ज़मीन पर ख़ुदा की रहमतें बरसती रहीं। (The Talmud Selections, pp. 18-21)
وَرَفَعۡنَٰهُ مَكَانًا عَلِيًّا ۝ 52
(57) और उसे हमने बुलन्द मक़ाम पर उठाया था।34
34. इसका सीधा-सादा मतलब तो यह है कि अल्लाह तआला ने हज़रत इदरीस को बुलन्द मर्तबा दिया था, लेकिन इसराईली रिवायतों से यह बात हमारे यहाँ भी आकर मशहूर हो गई कि अल्लाह तआला ने हज़रत इदरीस (अलैहि०) को आसमान पर उठा लिया। बाइबल में तो सिर्फ़ इतना ही है कि वे ग़ायब हो गए; क्योंकि 'ख़ुदा ने उनको उठा लिया,’ मगर तलमूद में इसका एक लम्बा क़िस्सा बयान हुआ है जो इस तरह ख़त्म होता है कि “हनोक एक बगोले में आग के रथ और घोड़ों समेत आसमान पर चढ़ गए।”
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ أَنۡعَمَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مِّنَ ٱلنَّبِيِّـۧنَ مِن ذُرِّيَّةِ ءَادَمَ وَمِمَّنۡ حَمَلۡنَا مَعَ نُوحٖ وَمِن ذُرِّيَّةِ إِبۡرَٰهِيمَ وَإِسۡرَٰٓءِيلَ وَمِمَّنۡ هَدَيۡنَا وَٱجۡتَبَيۡنَآۚ إِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُ ٱلرَّحۡمَٰنِ خَرُّواْۤ سُجَّدٗاۤ وَبُكِيّٗا۩ ۝ 53
(58) ये वे पैग़म्बर हैं जिनपर अल्लाह ने इनाम फ़रमाया आदम की औलाद में से, और उन लोगों की नस्ल से जिन्हें हमने नूह के साथ नाव पर सवार किया था, और इबराहीम की नस्ल से और इसराईल की नस्ल से। और ये उन लोगों में से थे जिनको हमने सीधा रास्ता दिखाया और जिन्हें चुन लिया। उनका हाल यह था कि जब रहमान की आयतें उनको सुनाई जातीं तो रोते हुए सजदे में गिर जाते थे।
لَّا يَسۡمَعُونَ فِيهَا لَغۡوًا إِلَّا سَلَٰمٗاۖ وَلَهُمۡ رِزۡقُهُمۡ فِيهَا بُكۡرَةٗ وَعَشِيّٗا ۝ 54
(62) वहाँ वे कोई बेहूदा बात न सुनेंगे जो कुछ भी सुनेंगे ठीक ही सुनेंगे,38 और उनकी रोज़ी उन्हें बराबर सुबह-शाम मिलती रहेगी।
38. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'सलाम' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है ऐब और ख़राबी से महफ़ूज़। जन्नत में जो नेमतें इनसान को हासिल होंगी, उनमें से एक बड़ी नेमत यह होगी कि वहाँ कोई बेहूदा और फ़ुज़ूल और गन्दी बात सुनने में न आएगी। वहाँ का पूरा समाज एक सुथरा और संजीदा और पाकीज़ा समाज होगा, जिसका हर शख़्स भली तबीअत का होगा। वहाँ के रहनेवालों को ग़ीबतों (परोक्ष-निन्दा), गालियों, गन्दे गानों और दूसरी बुरी आवाज़ों के सुनने से पूरी नजात मिल जाएगी। वहाँ आदमी जो कुछ भी सुनेगा, भली, मुनासिब और सही बातें ही सुनेगा। इस नेमत की क़द्र वही शख़्स समझ सकता है जो इस दुनिया में वाक़ई एक पाकीज़ा और सुथरा जौक़ (रुचि) रखता हो, क्योंकि वही यह महसूस कर सकता है कि इनसान के लिए एक ऐसी गन्दी सोसाइटी में रहना कितनी बड़ी मुसीबत है, जहाँ किसी वक़्त भी उसके कान झूठ, ग़ीबत, फ़ितना-फसाद, शरारत, गन्दगी और शहवानियत की (वासनात्मक) बातों से बचे हुए न हों।
تِلۡكَ ٱلۡجَنَّةُ ٱلَّتِي نُورِثُ مِنۡ عِبَادِنَا مَن كَانَ تَقِيّٗا ۝ 55
(63) यह है वह जन्नत जिसका वारिस हम अपने बन्दों में से उसको बनाएँगे जो परहेज़गार रहा है।
وَمَا نَتَنَزَّلُ إِلَّا بِأَمۡرِ رَبِّكَۖ لَهُۥ مَا بَيۡنَ أَيۡدِينَا وَمَا خَلۡفَنَا وَمَا بَيۡنَ ذَٰلِكَۚ وَمَا كَانَ رَبُّكَ نَسِيّٗا ۝ 56
(64) ऐ नबी!39 हम तुम्हारे रब के हुक्म के बिना नहीं उतरा करते। जो कुछ हमारे आगे है और जो कुछ पीछे है और जो कुछ उसके बीच है, हर चीज़ का मालिक वही है, और तुम्हारा रब भूलनेवाला नहीं है।
39. यह पैराग्राफ़ दरमियान में कही गई एक ज़रूरी बात है जो ऊपर से चली आ रही बात को ख़त्म करके एक दूसरी बात शुरू करने से पहले कही गई है। बात का अन्दाज़ साफ़ बता रहा है कि यह सूरा बड़ी देर के बाद ऐसे ज़माने में उतरी है जबकि नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के सहाबा (साथी) बड़े बेचैनी भरे हालात से गुज़र रहे हैं। नबी (सल्ल०) को और आप (सल्ल०) के सहाबियों (साथियों) को हर वक़्त वह्य का इन्तिज़ार है, ताकि इससे रहनुमाई भी मिले और तसल्ली भी हासिल हो। ज्यों-ज्यों वह्य आने में देर हो रही है, बेचैनी बढ़ती जाती है। इस हालत में जिबरील (अलैहि०) फ़रिश्तों के झुरमुट में तशरीफ़ लाते हैं। पहले वह फ़रमान सुनाते हैं। जो मौक़े की ज़रूरत के लिहाज़ से फ़ौरन दरकार था। फिर आगे बढ़ने से पहले अल्लाह तआला के इशारे से ये कुछ बातें अपनी तरफ़ से कहते हैं जिनमें इतनी देर तक अपने हाज़िर न होने की वजह भी है, अल्लाह तआला की तरफ़ से तसल्ली भी है और साथ-साथ सब्र और बरदाश्त करने की नसीहत भी। यह सिर्फ़ कलाम (बात) की अन्दरूनी गवाही ही नहीं है, बल्कि कई रिवायतें भी इसकी तसदीक़ (पुष्टि) करती हैं जिन्हें इब्ने-जरीर, इब्ने-कसीर और रूहुल-मआनी के लेखक वग़ैरा ने इस आयत की तफ़सीर में नक़्ल किया है।
رَّبُّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَمَا بَيۡنَهُمَا فَٱعۡبُدۡهُ وَٱصۡطَبِرۡ لِعِبَٰدَتِهِۦۚ هَلۡ تَعۡلَمُ لَهُۥ سَمِيّٗا ۝ 57
(65) वह रब है आसमानों का और ज़मीन का और उन सारी चीज़ों का जो आसमानों और ज़मीन के बीच में हैं तो तुम उसकी बन्दगी करो और उसी की बन्दगी पर जमे रहो।40 क्या है कोई हस्ती तुम्हारी जानकारी में उसके जैसी?41
40. यानी ख़ुदा की बन्दगी के रास्ते पर मज़बूती के साथ चलो और इस राह में जो मुश्किलें और मुसीबतें भी पेश आएँ, उनका सब्र के साथ मुक़ाबला करो। अगर ख़ुदा की तरफ़ से याद किए जाने और मदद और तसल्ली में कभी देर लग जाया करे तो इसपर घबराओ नहीं। एक फ़रमाँबरदार बन्दे की तरह हर हाल में उसकी मरज़ी पर राज़ी रहो और पक्के इरादे के साथ वह ख़िदमत अंजाम दिए चले जाओ जो एक बन्दे और रसूल की हैसियत से तुम्हारे सिपुर्द की गई है।
41. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'समीयुन' इस्तेमाल हुआ है जिसका लफ़्ज़ी मानी 'हमनाम' है। मुराद यह है कि अल्लाह तो इलाह (माबूद) है, क्या कोई दूसरा इलाह भी तुम्हारी जानकारी में है? अगर नहीं है, और तुम जानते हो कि नहीं है तो फिर तुम्हारे लिए इसके सिवा और रास्ता ही कौन-सा है कि उसकी बन्दगी करो और उसके हुक्म के ग़ुलाम बनकर रहो।
وَيَقُولُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَءِذَا مَا مِتُّ لَسَوۡفَ أُخۡرَجُ حَيًّا ۝ 58
(66) इनसान कहता है, “क्या सच में जब मैं मर चुकूँगा तो फिर ज़िन्दा करके निकाल लाया जाऊँगा?
أَوَلَا يَذۡكُرُ ٱلۡإِنسَٰنُ أَنَّا خَلَقۡنَٰهُ مِن قَبۡلُ وَلَمۡ يَكُ شَيۡـٔٗا ۝ 59
(67) क्या इनसान को याद नहीं आता कि हम पहले उसको पैदा कर चुके हैं जबकि वह कुछ भी न था?
فَوَرَبِّكَ لَنَحۡشُرَنَّهُمۡ وَٱلشَّيَٰطِينَ ثُمَّ لَنُحۡضِرَنَّهُمۡ حَوۡلَ جَهَنَّمَ جِثِيّٗا ۝ 60
(68) तेरे रब की क़सम! हम ज़रूर इन सबको और इनके साथ शैतानों को भी42 घेर लाएँगे, फिर जहन्नम के आसपास लाकर उन्हें घुटनों के बल गिरा देंगे।
42. यानी उन शैतानों को जिनके ये चेले बने हुए हैं और जिनके सिखाए-पढ़ाए में आकर उन्होंने यह समझ लिया है कि ज़िन्दगी जो कुछ भी है बस यही दुनिया की ज़िन्दगी है, इसके बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं जहाँ हमें ख़ुदा के सामने हाज़िर होना और अपने कामों का हिसाब देना हो।
ثُمَّ لَنَنزِعَنَّ مِن كُلِّ شِيعَةٍ أَيُّهُمۡ أَشَدُّ عَلَى ٱلرَّحۡمَٰنِ عِتِيّٗا ۝ 61
(69) फिर हर गरोह में से हर उस आदमी को छाँट लेंगे जो रहमान के मुक़ाबले में ज़्यादा सरकश बना हुआ था43
43. यानी हर बग़ावत करनेवाले गरोह का लीडर।
ثُمَّ لَنَحۡنُ أَعۡلَمُ بِٱلَّذِينَ هُمۡ أَوۡلَىٰ بِهَا صِلِيّٗا ۝ 62
(70) फिर यह हम जानते हैं कि उनमें से कौन सबसे बढ़कर जहन्नम में झोंके जाने का हक़दार है।
وَإِن مِّنكُمۡ إِلَّا وَارِدُهَاۚ كَانَ عَلَىٰ رَبِّكَ حَتۡمٗا مَّقۡضِيّٗا ۝ 63
(71) तुममें से कोई ऐसा नहीं है जिसे जहन्नम पर पहुँचना न हो।44 यह तो एक तयशुदा बात है जिसे पूरा करना तेरे रब के ज़िम्मे है।
44. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'वारिद' आया है जिसका मतलब कुछ रिवायतों में दाख़िल होना बताया गया है, मगर उनमें से किसी की सनद भी नबी (सल्ल०) तक भरोसेमन्द ज़रिओं से नहीं पहुँचती। और फिर यह बात क़ुरआन मजीद और उन बहुत-सी सहीह हदीसों के भी ख़िलाफ़ है जिनमें नेक ईमानवालों के दोज़ख़ में जाने का बिलकुल इनकार किया गया है। इसके अलावा अरबी लुग़त (शब्दकोश) में भी 'वुरूद' का मतलब 'दाख़िल होना' नहीं है। इसलिए इसका सही मतलब यही है कि जहन्नम पर गुज़र तो सबका होगा, मगर जैसा कि बादवाली आयत बता रही है कि परहेज़गार लोग उससे बचा लिए जाएँगे और ज़ालिम उसमें झोंक दिए जाएँगे।
ثُمَّ نُنَجِّي ٱلَّذِينَ ٱتَّقَواْ وَّنَذَرُ ٱلظَّٰلِمِينَ فِيهَا جِثِيّٗا ۝ 64
(72) फिर हम उन लोगों को बचा लेंगे जो (दुनिया में) परहेज़गार थे और ज़ालिमों को उसी में गिरा हुआ छोड़ देंगे।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ أَيُّ ٱلۡفَرِيقَيۡنِ خَيۡرٞ مَّقَامٗا وَأَحۡسَنُ نَدِيّٗا ۝ 65
(73) इन लोगों को जब हमारी खुली-खुली आयतें सुनाई जाती हैं तो इनकार करनेवाले ईमान लानेवालों से कहते हैं, “बताओ, हम दोनों गरोहों में से कौन बेहतर हालत में है और किसकी मजलिसें ज़्यादा शानदार हैं?"45
45. यानी उनकी दलील यह थी कि देख लो, दुनिया में कौन अल्लाह की मेहरबानी और उसकी नेमतों से नवाज़ा जा रहा है? किसके घर ज़्यादा शानदार हैं? किसकी ज़िन्दगी का मेयार ज़्यादा ऊँचा है? किसकी महफ़िलें ज़्यादा ठाठ से जमती हैं? अगर यह सब कुछ हमें मिला हुआ है और तुम्हें नहीं मिला है तो ख़ुद सोच लो कि आख़िर यह कैसे मुमकिन था कि हम ग़लत रास्ते पर होते और यूँ ही मज़े उड़ाते और तुम हक़ पर होते और इस तरह बदहाल और परेशान रहते। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-18 कह्फ, हाशिए—37, 38)
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّن قَرۡنٍ هُمۡ أَحۡسَنُ أَثَٰثٗا وَرِءۡيٗا ۝ 66
(74) हालाँकि इनसे पहले हम कितनी ही ऐसी क़ौमों को हलाक कर चुके हैं जो इनसे ज़्यादा सरो-सामान रखती थीं और ज़ाहिरी शानो-शौकत में इनसे बढ़ी हुई थीं।
قُلۡ مَن كَانَ فِي ٱلضَّلَٰلَةِ فَلۡيَمۡدُدۡ لَهُ ٱلرَّحۡمَٰنُ مَدًّاۚ حَتَّىٰٓ إِذَا رَأَوۡاْ مَا يُوعَدُونَ إِمَّا ٱلۡعَذَابَ وَإِمَّا ٱلسَّاعَةَ فَسَيَعۡلَمُونَ مَنۡ هُوَ شَرّٞ مَّكَانٗا وَأَضۡعَفُ جُندٗا ۝ 67
(75) इनसे कहो, “जो आदमी गुमराही में पड़ा होता है उसे रहमान ढील दिया करता है, यहाँ तक कि जब ऐसे लोग वह चीज़ देख लेते हैं जिसका उनसे वादा किया गया है— चाहे वह अल्लाह का अज़ाब हो या क़ियामत की घड़ी— तब उन्हें मालूम हो जाता है कि किसका हाल ख़राब है और किसका जत्था कमज़ोर।”
وَيَزِيدُ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ٱهۡتَدَوۡاْ هُدٗىۗ وَٱلۡبَٰقِيَٰتُ ٱلصَّٰلِحَٰتُ خَيۡرٌ عِندَ رَبِّكَ ثَوَابٗا وَخَيۡرٞ مَّرَدًّا ۝ 68
(76) इसके बरख़िलाफ़ जो लोग सीधा रास्ता अपनाते हैं, अल्लाह उनको सीधा रास्ता चलने के सिलसिले में तरक़्क़ी देता है,46 और बाक़ी रह जानेवाली नेकियाँ ही तेरे रब के नज़दीक बदले और अंजाम के एतिबार से बेहतर हैं।
46. यानी हर आज़माइश के मौक़े पर अल्लाह तआला उनको सही फ़ैसले करने और सही रास्ता अपनाने की तौफीक़ (हौसला) देता है, उनको बुराइयों और ग़लतियों से बचाता है और उसकी हिदायत और रहनुमाई से वे बराबर सीधे रास्ते पर बढ़ते चले जाते हैं।
أَفَرَءَيۡتَ ٱلَّذِي كَفَرَ بِـَٔايَٰتِنَا وَقَالَ لَأُوتَيَنَّ مَالٗا وَوَلَدًا ۝ 69
(77) फिर तूने देखा उस आदमी को जो हमारी आयतों को मानने से इनकार करता है और कहता है कि मैं तो माल और औलाद से नवाज़ा ही जाता रहूँगा?47
47. यानी वह कहता है कि तुम मुझे चाहे कितना ही गुमराह और बदकार कहते रहो और अल्लाह के अज़ाब के डरावे दिया करो, मैं तो आज भी तुमसे ज़्यादा ख़ुशहाल हूँ और आगे भी मुझपर नेमतों की बारिश होती रहेगी। मेरी दौलत देखो, मेरी शानो-शौकत और दबदबा देखो, मेरे नामवर बेटों को देखो, मेरी ज़िन्दगी में आख़िर तुम्हें कहाँ ये आसार नज़र आते हैं कि मुझपर ख़ुदा का ग़ज़ब (प्रकोप) हो रहा है?—यह मक्का में किसी एक शख़्स के ख़यालात न थे, बल्कि मक्का के इस्लाम-मुख़ालिफ़ों का हर चौधरी और सरदार इसी जुनून में गिरफ़्तार था।
أَطَّلَعَ ٱلۡغَيۡبَ أَمِ ٱتَّخَذَ عِندَ ٱلرَّحۡمَٰنِ عَهۡدٗا ۝ 70
(78) क्या उसे ग़ैब (परोक्ष) का पता चल गया है या उसने रहमान से कोई वादा ले रखा है?
كَلَّاۚ سَنَكۡتُبُ مَا يَقُولُ وَنَمُدُّ لَهُۥ مِنَ ٱلۡعَذَابِ مَدّٗا ۝ 71
(79) हरगिज़ नहीं जो कुछ यह बकता है उसे हम लिख लेंगे48 और इसके लिए सज़ा में और ज़्यादा बढ़ोतरी करेंगे।
48. यानी उसके जुर्मों के रिकॉर्ड में उसकी यह घमंड भरी बात भी शामिल कर ली जाएगी और इसका मज़ा भी उसे चखना पड़ेगा।
وَنَرِثُهُۥ مَا يَقُولُ وَيَأۡتِينَا فَرۡدٗا ۝ 72
(80) जिस सरो-सामान और लाव-लश्कर का यह ज़िक्र कर रहा है, वह सब हमारे पास रह जाएगा और यह अकेला हमारे सामने हाज़िर होगा।
وَٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ ءَالِهَةٗ لِّيَكُونُواْ لَهُمۡ عِزّٗا ۝ 73
(81) इन लोगों ने अल्लाह को छोड़कर अपने कुछ ख़ुदा बना रखे हैं, ताकि वे इनके मददगार हों।49
49. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'इज़्ज़न' इस्तेमाल हुआ है, यानी वे उनके लिए इज़्ज़त का सबब हों। मगर इज़्ज़त से मुराद अरबी ज़बान में किसी शख़्स का ऐसा ताक़तवर और ज़बरदस्त होना है कि उसपर कोई हाथ न डाल सके और एक शख़्स का दूसरे शख़्स के लिए इज़्ज़त का सबब बनना यह मानी रखता है कि वह उसकी हिमायत पर हो जिसकी वजह से उसका कोई मुख़ालिफ़ उसकी तरफ़ आँख उठाकर न देख सके।
كَلَّاۚ سَيَكۡفُرُونَ بِعِبَادَتِهِمۡ وَيَكُونُونَ عَلَيۡهِمۡ ضِدًّا ۝ 74
(82) कोई मददगार न होगा। वे सब इनकी इबादत का इनकार करेंगे50 और उलटे इनके मुख़ालिफ़ बन जाएँगे।
50. यानी वे कहेंगे कि न हमने कभी इनसे कहा था कि हमारी इबादत करो, और न हमें यह ख़बर थी कि ये बेवक़ूफ़ लोग हमारी इबादत कर रहे हैं।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّآ أَرۡسَلۡنَا ٱلشَّيَٰطِينَ عَلَى ٱلۡكَٰفِرِينَ تَؤُزُّهُمۡ أَزّٗا ۝ 75
(83) क्या तुम देखते नहीं हो कि हमने हक़ के इन इनकारियों पर शैतानों को छोड़ रखा है जो इन्हें ख़ूब-ख़ूब (हक़ की मुख़ालफ़त पर) उकसा रहे हैं?
فَلَا تَعۡجَلۡ عَلَيۡهِمۡۖ إِنَّمَا نَعُدُّ لَهُمۡ عَدّٗا ۝ 76
(84) अच्छा तो अब इनपर अज़ाब के आने के लिए बेचैन न हो। हम इनके दिन गिन रहे हैं।51
51. मतलब यह है कि इनकी ज़्यादतियों पर तुम बेसब्र न हो। इनकी शामत क़रीब आ लगी है। पैमाना भरने ही वाला है। अल्लाह की दी हुई मुहलत के कुछ दिन बाक़ी हैं, उन्हें पूरा हो लेने दो।
يَوۡمَ نَحۡشُرُ ٱلۡمُتَّقِينَ إِلَى ٱلرَّحۡمَٰنِ وَفۡدٗا ۝ 77
(85) वह दिन आनेवाला है जब परहेज़गार लोगों को हम मेहमानों की तरह रहमान के सामने पेश करेंगे,
وَنَسُوقُ ٱلۡمُجۡرِمِينَ إِلَىٰ جَهَنَّمَ وِرۡدٗا ۝ 78
(86) और मुजरिमों को प्यासे जानवरों की तरह जहन्नम की तरफ़ हाँक ले जाएँगे।
لَّا يَمۡلِكُونَ ٱلشَّفَٰعَةَ إِلَّا مَنِ ٱتَّخَذَ عِندَ ٱلرَّحۡمَٰنِ عَهۡدٗا ۝ 79
(87) उस वक़्त लोग कोई सिफ़ारिश लाने की क़ुदरत (क्षमता) न रखेंगे, सिवाय उसके जिसने रहमान के यहाँ से परवाना हासिल कर लिया हो।52
52. यानी सिफ़ारिश उसी के हक़ में होगी जिसने परवाना हासिल किया हो, और वही सिफ़ारिश कर सकेगा जिसे परवाना मिला हो। आयत के अलफ़ाज़ ऐसे हैं जो दोनों पहलुओं पर यकसाँ रौशनी डालते हैं। यह बात कि सिफ़ारिश सिर्फ़ उसी के हक़ में हो सकेगी जिसने रहमान से परवाना हासिल कर लिया हो, इसका मतलब यह है कि जिसने दुनिया में ईमान लाकर और ख़ुदा से जोड़कर अपने आपको इस बात का हक़दार बना लिया हो कि ख़ुदा उसे माफ़ कर दे और उसपर रहम फ़रमाए। और यह बात कि सिफ़ारिश वही कर सकेगा जिसको परवाना मिला हो, इसका मतलब यह है कि लोगों ने जिन-जिनको अपना शफ़ाअत करनेवाला और सिफ़ारिशी समझ लिया है, उन्हें सिफ़ारिश करने का इख़्तियार न होगा, बल्कि अल्लाह ख़ुद जिसको इजाज़त देगा वही शफ़ाअत या सिफ़ारिश के लिए ज़बान खोल सकेगा।
وَقَالُواْ ٱتَّخَذَ ٱلرَّحۡمَٰنُ وَلَدٗا ۝ 80
(88) वे कहते हैं कि रहमान ने किसी को बेटा बनाया है
لَّقَدۡ جِئۡتُمۡ شَيۡـًٔا إِدّٗا ۝ 81
(89) बड़ी बेहूदा बात है जो तुम लोग गढ़ लाए हो।
تَكَادُ ٱلسَّمَٰوَٰتُ يَتَفَطَّرۡنَ مِنۡهُ وَتَنشَقُّ ٱلۡأَرۡضُ وَتَخِرُّ ٱلۡجِبَالُ هَدًّا ۝ 82
(90) क़रीब है कि आसमान फट पड़ें, ज़मीन फट जाए और पहाड़ गिर जाएँ,
أَن دَعَوۡاْ لِلرَّحۡمَٰنِ وَلَدٗا ۝ 83
(91) इस बात पर कि लोगों ने रहमान के लिए औलाद होने का दावा किया!
وَمَا يَنۢبَغِي لِلرَّحۡمَٰنِ أَن يَتَّخِذَ وَلَدًا ۝ 84
(92) रहमान की यह शान नहीं है कि वह किसी को बेटा बनाए।
إِن كُلُّ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ إِلَّآ ءَاتِي ٱلرَّحۡمَٰنِ عَبۡدٗا ۝ 85
(93) ज़मीन और आसमानों के अन्दर जो भी हैं, सब उसके सामने बन्दों की हैसियत से पेश होनेवाले हैं।
لَّقَدۡ أَحۡصَىٰهُمۡ وَعَدَّهُمۡ عَدّٗا ۝ 86
(94) सबको वह अपने घेरे में लिए हुए है और उसने उनको गिन रखा है।
وَكُلُّهُمۡ ءَاتِيهِ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فَرۡدًا ۝ 87
(95) सब क़ियामत के दिन अकेले-अकेले उसके सामने हाज़िर होंगे।
إِنَّ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَيَجۡعَلُ لَهُمُ ٱلرَّحۡمَٰنُ وُدّٗا ۝ 88
(96) यक़ीनन जो लोग ईमान ले आए हैं और भले काम कर रहे हैं, बहुत जल्द रहमान उनके लिए दिलों में मुहब्बत पैदा कर देगा।53
53. यानी आज मक्का की गलियों में वे बेइज़्ज़त और रुसवा किए जा रहे हैं, मगर यह हालत देर तक रहनेवाली नहीं है। क़रीब है वह वक़्त जबकि अपने अच्छे कामों और अच्छे अख़लाक़ (आचरण) की वजह से वे लोगों के चहेते बनकर रहेंगे। दिल उनकी तरफ़ खिंचेंगे। दुनिया उनके आगे पलकें बिछाएगी। नाफ़रमानी, घमंड, बड़ाई, झूठ और दिखावे के बल पर जो सरदारी और रहनुमाई चलती हो, वह गर्दनों को चाहे झुका ले, दिलों को जीत नहीं सकती। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग सच्चाई, ईमानदारी, इख़लास (निष्ठा) और अच्छे अख़लाक़ के साथ सीधे रास्ते की तरफ़ बुलाएँ, उनसे शुरू-शुरू में चाहे दुनिया कितनी ही कतराए, आख़िरकार वे दिलों को मोह लेते हैं और बेईमान लोगों का झूठ ज़्यादा देर तक उनका रास्ता रोके नहीं रह सकता।
فَإِنَّمَا يَسَّرۡنَٰهُ بِلِسَانِكَ لِتُبَشِّرَ بِهِ ٱلۡمُتَّقِينَ وَتُنذِرَ بِهِۦ قَوۡمٗا لُّدّٗا ۝ 89
(97) तो नबी! इस कलाम को हमने आसान करके तुम्हारी ज़बान में इसी लिए उतारा है कि तुम परहेज़गारों को ख़ुशख़बरी दे दो और हठधर्म लोगों को डरा दो।
وَكَمۡ أَهۡلَكۡنَا قَبۡلَهُم مِّن قَرۡنٍ هَلۡ تُحِسُّ مِنۡهُم مِّنۡ أَحَدٍ أَوۡ تَسۡمَعُ لَهُمۡ رِكۡزَۢا ۝ 90
(98) इनसे पहले हम कितनी ही क़ौमों को हलाक कर चुके हैं, फिर आज कहीं तुम उनका निशान पाते हो या उनकी भनक भी कहीं सुनाई देती है?
إِذۡ نَادَىٰ رَبَّهُۥ نِدَآءً خَفِيّٗا ۝ 91
(3) जबकि उसने अपने रब को चुपके-चुपके पुकारा।
قَالَ رَبِّ إِنِّي وَهَنَ ٱلۡعَظۡمُ مِنِّي وَٱشۡتَعَلَ ٱلرَّأۡسُ شَيۡبٗا وَلَمۡ أَكُنۢ بِدُعَآئِكَ رَبِّ شَقِيّٗا ۝ 92
(4) उसने अर्ज़ किया, तो परवरदिगार। मेरी हड्डियाँ तक घुल गई हैं और सर बुढ़ापे से भड़क उठा है। ऐ परवरदिगार! मैं कभी तुझसे दुआ माँगकर नामुराद नहीं रहा।
وَإِنِّي خِفۡتُ ٱلۡمَوَٰلِيَ مِن وَرَآءِي وَكَانَتِ ٱمۡرَأَتِي عَاقِرٗا فَهَبۡ لِي مِن لَّدُنكَ وَلِيّٗا ۝ 93
(5) मुझे अपने पीछे अपने भाई-बन्दों की बुराइयों का डर है,3 और मेरी बीवी बाँझ है।
3. मतलब यह है कि अबिय्याह के ख़ानदान में मेरे बाद कोई ऐसा नज़र नहीं आता जो दीनी (मज़हबी) और अख़लाक़ी हैसियत से इस मंसब (पद) के क़ाबिल हो जिसे मैं संभाले हुए हूँ। आगे जो नस्ल उठती नज़र आ रही है, उसके लक्षण बिगड़े हुए हैं।
يَرِثُنِي وَيَرِثُ مِنۡ ءَالِ يَعۡقُوبَۖ وَٱجۡعَلۡهُ رَبِّ رَضِيّٗا ۝ 94
(6) तू मुझे अपनी ख़ास मेहरबानी से एक वारिस दे दे जो मेरा वारिस भी हो और आले-याक़ूब की मीरास भी पाए।4 और ऐ परवरदिगार! उसको एक पसन्दीदा इनसान बना।”
4. यानी मुझे सिर्फ़ अपने आप ही का वारिस नहीं चाहिए, बल्कि याक़ूब के घराने की भलाइयों का वारिस चाहिए।
۞فَخَلَفَ مِنۢ بَعۡدِهِمۡ خَلۡفٌ أَضَاعُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَٱتَّبَعُواْ ٱلشَّهَوَٰتِۖ فَسَوۡفَ يَلۡقَوۡنَ غَيًّا ۝ 95
(59) फिर उनके बाद वे बुरे लोग उनके जानशीन (उत्तराधिकारी) हुए जिन्होंने नमाज़ को ज़ाया (बरबाद) किया35 और मन की ख़ाहिशों के पीछे चले, तो क़रीब है।36 कि वे गुमराही के अंजाम से दोचार हों।
35. यानी नमाज़ पढ़नी छोड़ दी, या नमाज़ से ग़फ़लत और बेपरवाही बरतने लगे। यह हर उम्मत (समुदाय) की गिरावट (पतन) का पहला क़दम है। नमाज़ वह सबसे पहला राबिता है जो ईमानवाले का ज़िन्दा और अमली ताल्लुक़ ख़ुदा के साथ रात-दिन जोड़े रखता है और उसे ख़ुदा-परस्ती के मर्कज़ और उसकी धुरी से बिछड़ने नहीं देता। यह बन्धन टूटते ही आदमी ख़ुदा से दूर, और दूर होता चला जाता है, यहाँ तक कि अमली ताल्लुक़ से गुज़रकर उसका ख़याली ताल्लुक़ भी ख़ुदा के साथ बाक़ी नहीं रहता। इसी लिए अल्लाह तआला ने यहाँ यह बात एक बुनियादी क़ायदे के तौर पर बयान की है कि पिछले तमाम नबियों की उम्मतों का बिगाड़ नमाज़ को बरबाद करने से शुरू हुआ है।
36. वह अल्लाह से ताल्लुक़ की कमी और ताल्लुक़ न होने का लाज़िमी नतीजा है। नमाज़ को बरबाद करने से जब दिल ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल रहने लगे तो जैसे-जैसे यह ग़फ़लत बढ़ती गई, मन की ख़ाहिशों की बन्दगी में भी इज़ाफ़ा होता चला गया, यहाँ तक कि उनके अख़लाक़ और मामलों का हर हिस्सा अल्लाह के हुक्मों के बजाय अपने मनमाने तरीक़ों का पाबन्द होकर रहा।
إِلَّا مَن تَابَ وَءَامَنَ وَعَمِلَ صَٰلِحٗا فَأُوْلَٰٓئِكَ يَدۡخُلُونَ ٱلۡجَنَّةَ وَلَا يُظۡلَمُونَ شَيۡـٔٗا ۝ 96
(60) अलबत्ता जो तौबा कर लें और ईमान ले आएँ और अच्छे काम करें, वे जन्नत में दाख़िल होंगे और उनका रत्ती भर भी हक़ न मारा जाएगा।
جَنَّٰتِ عَدۡنٍ ٱلَّتِي وَعَدَ ٱلرَّحۡمَٰنُ عِبَادَهُۥ بِٱلۡغَيۡبِۚ إِنَّهُۥ كَانَ وَعۡدُهُۥ مَأۡتِيّٗا ۝ 97
(61) उनके लिए हमेशा रहनेवाली जन्नतें हैं जिनका रहमान ने अपने बन्दों से दरपरदा (छिपाकर) वादा कर रखा है37 और यक़ीनन यह वादा पूरा होकर रहना है।
37. यानी जिसका वादा रहमान ने इस हालत में किया है कि वे जन्नतें उनकी निगाह से पोशीदा हैं।