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سُورَةُ الجِنِّ

72. अल-जिन्न

(मक्का में उतरी, आयतें 28)

परिचय

नाम

'अल-जिन्न' सूरा का नाम भी है और विषय-वस्तु की दृष्टि से इसका शीर्षक भी, क्योंकि इसमें जिन्नों के द्वारा क़ुरआन सुनकर जाने और अपनी जाति में इस्लाम के प्रचार करने की घटना का सविस्तार वर्णन किया गया है।

उतरने का समय

बुख़ारी और मुस्लिम में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रजि०) से उल्लिखित है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) अपने कुछ सहाबा (साथियों) के साथ उकाज़ के बाज़ार जा रहे थे। रास्ते में नख़ला के स्थान पर आप (सल्ल०) ने फ़ज्र (प्रातः) की नमाज़ पढ़ाई। उस समय जिन्नों का एक गरोह उधर से गुज़र रहा था। क़ुरआन-पाठ की आवाज़ सुनकर वह ठहर गया और ध्यानपूर्वक क़ुरआन सुनता रहा। इसी घटना का उल्लेख इस सूरा में किया गया है। अधिकतर टीकाकारों ने इस उल्लेख के आधार पर यह समझा है कि यह नबी (सल्ल०) के ताइफ़ की यात्रा की प्रसिद्ध घटना है। किन्तु यह अनुमान कई कारणों से सही नहीं है। ताइफ़ की उस यात्रा में जिन्नों के द्वारा क़ुरआन सुनने की जो घटना घटी थी उसका क़िस्सा सूरा-46 अहक़ाफ़, आयत 29 से 32 में बयान किया गया है। उन आयतों पर एक दृष्टि डालने से ही मालूम हो जाता है कि उस अवसर पर जो जिन्न क़ुरआन मजीद सुनकर ईमान लाए थे, वे पहले से ही हज़रत मूसा (अलैहि०) और पूर्व की आसमानी किताबों पर ईमान रखते थे। इसके विपरीत इस सूरा की आयत 2-7 से प्रत्यक्षतः स्पष्ट होता है कि इस अवसर पर क़ुरआन सुननेवाले जिन्न बहुदेववादियों और परलोक एवं ईशदूतत्व (पैग़म्बरी) का इनकार करनेवालों में से थे। इसलिए सही बात यह है कि सूरा-46 (अहक़ाफ़) और सूरा-72 (जिन्न) में एक ही घटना का उल्लेख नहीं किया गया है, बल्कि ये दो अलग-अलग घटनाएँ हैं। सूरा-46 (अहक़ाफ़) में जिस घटना का उल्लेख किया गया है वह सन् 10 नबवी की ताइफ़ की यात्रा में घटित हुई थी और इस सूरा की आयतों 8-10 पर विचार करने से महसूस होता है कि यह [दूसरी घटना] नुबूवत के आरम्भिक कालखण्ड की ही हो सकती है।

जिन्न की असलियत

जहाँ तक क़ुरआन का [सम्बन्ध है, उस] में एक जगह नहीं, अधिकतर स्थानों पर जिन्न और मनुष्य का उल्लेख इस हैसियत से किया गया है कि ये दो विभिन्न प्रकार के सृष्ट जीव (मख़लूक़) हैं। उदाहरणार्थ देखिए, सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 38; सूरा-11 हूद, आयत 119; सूरा-41 हा-मीम अस-सजदा, आयत 25 और 29; सूरा-46 अल-अहक़ाफ़, आयत 17; सूरा-51 अज़-ज़ारियात, आयत 56: सूरा-114 अन-नास, आयत 6 और पूरी सूरा-55 रहमान; सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 12 और सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 26-27 में साफ़-साफ़ बताया गया है कि की इंसान की सृष्टि जिस तत्त्व से हुई है वह मिट्टी है और जिन्नों की सृष्टि जिस तत्त्व से हुई है वह है अग्नि। सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 27 में स्पष्ट किया गया है कि जिन्न मनुष्य से पहले पैदा किए गए थे। सूरा-7 अल-आराफ़, आयत 27 में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि जिन्न मनुष्यों को देखते हैं, किन्तु मनुष्य उनको नहीं देखते। सूरा-15 अल-हिज्र, आयत 16-17; सूरा-37 अस-साफ़्फ़ात, आयत 6-10 और सूरा-67 अल-मुल्क, आयत 5 में बताया गया है कि जिन्न यद्यपि उपरिलोक की ओर उड्डयन (परवाज़) कर सकते हैं, किन्तु एक सीमा से आगे नहीं जा सकते। सूरा-2 अल-बक़रा, आयत 50 से मालूम होता है कि धरती की ख़िलाफ़त (शासनाधिकार) अल्लाह ने मनुष्य को प्रदान की है और मनुष्य जिन्नों से श्रेष्ठ प्राणी है। क़ुरआन यह भी बताता है कि जिन्न मनुष्य की तरह स्वतंत्र अधिकार प्राप्त सृष्ट जीव (मख़लूक़) है और जिन्नों को आज्ञापालन और अवज्ञा तथा कुफ़्र (ईश्वर का इनकार) और ईमान का वैसा ही अधिकार दिया गया है, जैसा मनुष्य को दिया गया है। [क़ुरआन मजीद में इसी तरह की और भी बहुत-सी बातें जिन्नों के विषय में बयान की गई हैं। उनके इन सभी बयानों] से यह बात बिलकुल स्पष्ट हो जाती है कि जिन्न का अपना एक स्थायी बाह्य अस्तित्व होता है और वे मनुष्य से अलग एक दूसरी ही जाति के अदृश्य सृष्ट प्राणी हैं।

विषय और वार्ता

इस सूरा में पहली आयत से लेकर आयत 15 तक यह बताया गया है कि जिन्न के गरोह पर क़ुरआन मजीद सुनकर क्या प्रभाव पड़ा और फिर वापस जाकर अपनी जाति के दूसरे जिन्नों से क्या-क्या बातें कहीं। इस सिलसिले में अल्लाह ने उनकी सारी बातचीत उद्धृत नहीं की है, बल्कि केवल उन ख़ास-ख़ास बातों को उद्धृत किया है जो उल्लेखनीय थीं। इसके बाद आयत 16 से 18 तक लोगों को हितोपदेश दिया गया है कि वे बहुदेववाद को त्याग दें और सीधे मार्ग पर दृढ़ता के साथ चलें तो उनपर नेमतों की वर्षा होगी, अन्यथा अल्लाह की भेजी हुई नसीहत से मुँह मोड़ने का परिणाम यह होगा कि उन्हें कठोर यातना का सामना करना पड़ेगा। फिर आयत 19 से 23 तक मक्का के इस्लाम-विरोधियों की इस बात पर निन्दा की गई है कि जब अल्लाह का रसूल अल्लाह की ओर आमंत्रित करने के लिए आवाज़ बुलन्द करता है तो वे उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार हो जाते हैं। फिर आयत 24 से 25 में इस्लाम-विरोधियों को चेतावनी दी गई है कि आज वे रसूल को असहाय देखकर उसे दबा लेने की चेष्टा कर रहे हैं, किन्तु एक समय आएगा जब उन्हें मालूम हो जाएगा कि वास्तव में असहाय कौन है।

अन्त में लोगों को बताया गया है कि परोक्ष का ज्ञाता केवल अल्लाह है। रसूल (सल्ल०) को केवल वह ज्ञान प्राप्त होता है जो अल्लाह उसे देना चाहता है।

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سُورَةُ الجِنِّ
72. अल-जिन्न
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قُلۡ أُوحِيَ إِلَيَّ أَنَّهُ ٱسۡتَمَعَ نَفَرٞ مِّنَ ٱلۡجِنِّ فَقَالُوٓاْ إِنَّا سَمِعۡنَا قُرۡءَانًا عَجَبٗا
(1) ऐ नबी, कहो, मेरी तरफ़ वह्य भेजी गई है कि जिन्नों के एक गरोह ने ग़ौर से सुना1 फिर (जाकर अपनी क़ौम के लोगों से) कहा— “हमने एक बड़ा ही अजीब क़ुरआन सुना है2
1. इससे मालूम होता है कि जिन्न उस वक़्त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को नज़र नहीं आ रहे थे और आप (सल्ल०) को मालूम न था कि वे क़ुरआन सुन रहे हैं, बल्कि बाद में वह्य के ज़रिए से अल्लाह तआला ने आप (सल्ल०) को इस वाक़िए की ख़बर दी। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) भी इस क़िस्से को बयान करते हुए साफ़ कहते हैं कि “अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जिन्नों के सामने क़ुरआन नहीं पढ़ा था, न आप (सल्ल०) ने उनको देखा था।” (हदीस : मुस्लिम, तिरमिज़ी, मुसनदे-अहमद, इब्ने-जरीर)।
2. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘क़ुरआनन अ-जबा’। क़ुरआन का मतलब है ‘पढ़ी जानेवाली चीज़’ और यह लफ़्ज़ शायद जिन्नों ने इसी मानी में इस्तेमाल किया होगा क्योंकि वे पहली बार इस कलाम से मुतआरिफ़ (परिचित) हुए थे और शायद उस वक़्त उनको यह मालूम न होगा कि जो चीज़ वे सुन रहे हैं उसका नाम क़ुरआन ही है। ‘अजब’ का लफ़्ज़ ज़्यादती को ज़ाहिर करता है और यह लफ़्ज़ अरबी ज़बान में बहुत ज़्यादा हैरत-अंगेज़ चीज़ के लिए बोला जाता है। इसलिए जिन्नों के कहने का मतलब यह है कि हम एक ऐसा कलाम सुनकर आए हैं जो अपनी ज़बान और अपनी बातों के एतिबार से बेमिसाल है। इससे यह भी मालूम हुआ कि जिन्न न सिर्फ़ यह कि इनसानों की बातें सुनते हैं, बल्कि उनकी ज़बान अच्छी तरह समझते भी हैं। अगरचे यह जरूरी नहीं है कि तमाम जिन्न तमाम इनसानी ज़बानें जानते हों। मुमकिन है कि उनमें से जो गरोह ज़मीन के जिस इलाक़े में रहते हों उसी इलाक़े के लोगों की ज़बान से वे वाक़िफ़ हों। लेकिन क़ुरआन के इस बयान से बहरहाल यह ज़ाहिर होता है कि वे जिन्न जिन्होंने उस वक़्त क़ुरआन सुना था वे अरबी ज़बान इतनी अच्छी तरह जानते थे कि उन्होंने इस कलाम के बेमिसाल अन्दाज़े-बयान को भी महसूस किया और उसके आला दर्जे के मज़ामीन को भी अच्छी तरह समझ लिया।
يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلرُّشۡدِ فَـَٔامَنَّا بِهِۦۖ وَلَن نُّشۡرِكَ بِرَبِّنَآ أَحَدٗا ۝ 1
(2) जो सीधे रास्ते की तरफ़ रहनुमाई करता है, इसलिए हम उसपर ईमान ले आए हैं और अब हम हरगिज़ अपने रब के साथ किसी को शरीक नहीं करेंगे।”3
3. इससे कई बातें मालूम हुईं। एक यह कि जिन्न अल्लाह तआला के वुजूद और उसके रब होने का इनकार करनेवाले नहीं हैं। दूसरी यह कि उनमें भी मुशरिक पाए जाते हैं, जो मुशरिक इनसानों की तरह अल्लाह के साथ दूसरों को ख़ुदाई में शरीक ठहराते हैं, चुनाँचे जिन्नों की यह क़ौम जिसके लोग क़ुरआन सुनकर गए थे, मुशरिक ही थी। तीसरी यह कि नुबूवत और आसमानी किताबों के उतरने का सिलसिला जिन्नों के यहाँ जारी नहीं हुआ है, बल्कि उनमें से जो जिन्न भी ईमान लाते हैं वे इनसानों में आनेवाले नबियों और उनकी लाई हुई किताबों पर ही ईमान लाते हैं। यही बात सूरा-46 अहक़ाफ़, आयतें—29 से 31 से भी मालूम होती है जिनमें बताया गया है कि वे जिन्न जिन्होंने उस वक़्त क़ुरआन सुना था, हज़रत मूसा (अलैहि०) की पैरवी करनेवालों में से थे और उन्होंने क़ुरआन सुनने के बाद अपनी क़ौम को दावत दी थी कि अब जो कलाम ख़ुदा की तरफ़ से पिछली आसमानी किताबों की तसदीक़ (पुष्टि) करता हुआ आया है उसपर ईमान लाओ। सूरा-55 रहमान भी इसी बात की दलील देती है, क्योंकि उसका पूरा मज़मून (विषय-वस्तु) ही यह ज़ाहिर करता है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दावत इनसान और जिन्न दोनों के लिए है।
وَأَنَّهُۥ تَعَٰلَىٰ جَدُّ رَبِّنَا مَا ٱتَّخَذَ صَٰحِبَةٗ وَلَا وَلَدٗا ۝ 2
(3) और यह कि “हमारे रब की शान बहुत आला और बुलन्द है, उसने किसी को बीवी या बेटा नहीं बनाया है।”4
4. इससे दो बातें मालूम हुईं। एक यह कि ये जिन्न या तो ईसाई जिन्नों में से थे, या इनका कोई और मज़हब था, जिसमें अल्लाह तआला को बीवी-बच्चोंवाला समझा जाता था। दूसरे यह कि उस वक़्त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) नमाज़ में क़ुरआन मजीद का कोई ऐसा हिस्सा पढ़ रहे थे जिसे सुनकर उनको अपने अक़ीदे की ग़लती मालूम हो गई और उन्होंने यह जान लिया कि अल्लाह तआला की बुलन्द और आला हस्ती की तरफ़ बीवी-बच्चों का ताल्लुक़ जोड़ना सख़्त जहालत और गुस्ताख़ी है।
وَأَنَّهُۥ كَانَ يَقُولُ سَفِيهُنَا عَلَى ٱللَّهِ شَطَطٗا ۝ 3
(4) और यह कि “हमारे नादान लोग5 अल्लाह के बारे में हक़ के ख़िलाफ़ बहुत बातें कहते रहे हैं।”
5. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘सफ़ीहुना’ इस्तेमाल किया गया है, जो एक शख़्स के लिए भी बोला जा सकता है और एक गरोह के लिए भी। अगर इसे एक नादान शख़्स के मानी में लिया जाए तो मुराद इबलीस होगा। और अगर एक गरोह के मानी में लिया जाए तो मतलब यह होगा कि जिन्नों में बहुत-से बेवक़ूफ़ और बेअक़्ल लोग ऐसी बातें कहते थे।
وَأَنَّا ظَنَنَّآ أَن لَّن تَقُولَ ٱلۡإِنسُ وَٱلۡجِنُّ عَلَى ٱللَّهِ كَذِبٗا ۝ 4
(5) और यह कि “हमने समझा था कि इनसान और जिन्न कभी ख़ुदा के बारे में झूठ नहीं बोल सकते।”6
6. यानी उनकी ग़लत बातों से हमारे गुमराह होने की वजह यह थी कि हम कभी यह सोच भी नहीं सकते थे कि इनसान या जिन्न अल्लाह के बारे में झूठ गढ़ने की जुरअत भी कर सकते हैं, लेकिन अब यह क़ुरआन सुनकर हमें मालूम हो गया कि सचमुच वे झूठे थे।
وَأَنَّهُۥ كَانَ رِجَالٞ مِّنَ ٱلۡإِنسِ يَعُوذُونَ بِرِجَالٖ مِّنَ ٱلۡجِنِّ فَزَادُوهُمۡ رَهَقٗا ۝ 5
(6) और यह कि “इनसानों में से कुछ लोग जिन्नों में से कुछ लोगों की पनाह माँगा करते थे, इस तरह उन्होंने जिन्नों का घमण्ड और ज़्यादा बढ़ा दिया।”7
7. इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि जाहिलियत के ज़माने में जब अरब किसी सुनसान घाटी में रात गुज़ारते थे तो पुकारकर कहते, “हम इस घाटी के मालिक जिन्न की पनाह माँगते हैं।” जाहिलियत के दौर की दूसरी रिवायतों में भी इस बात का बहुत ज़िक्र मिलता है। मसलन अगर किसी जगह पानी और चारा ख़त्म हो जाता तो बंजारे देहाती अपना एक आदमी कोई दूसरी जगह तलाश करने के लिए भेजते जहाँ पानी और चारा मिल सकता हो, फिर उसकी निशानदेही पर जब ये लोग नई जगह पहुँचते तो वहाँ उतरने से पहले पुकार-पुकारकर कहते कि “हम इस घाटी के रब की पनाह माँगते हैं, ताकि यहाँ हम हर आफ़त से महफ़ूज़ रहें।” उन लोगों का अक़ीदा यह था कि हर सुनसान जगह किसी-न-किसी जिन्न के क़ब्ज़े में है और उसकी पनाह माँगे बिना वहाँ कोई ठहर जाए तो वह जिन्न या तो ख़ुद सताता है या दूसरे जिन्नों को सताने देता है। इसी बात की तरफ़ यह ईमान लानेवाले जिन्न इशारा कर रहे हैं। उनका मतलब यह है कि जब ज़मीन के ख़लीफ़ा इनसान ने उलटा हमसे डरना शुरू कर दिया और ख़ुदा को छोड़कर वह हमसे पनाह माँगने लगा तो हमारी क़ौम के लोगों का दिमाग़ और ज़्यादा ख़राब हो गया, उनका ग़ुरूर और घमण्ड और कुफ़्र (इनकार) और ज़ुल्म और ज़्यादा बढ़ गया, और वे गुमराही में ज़्यादा दिलेर हो गए।
وَأَنَّهُمۡ ظَنُّواْ كَمَا ظَنَنتُمۡ أَن لَّن يَبۡعَثَ ٱللَّهُ أَحَدٗا ۝ 6
(7) और यह कि “इनसानों ने भी वही गुमान किया जैसा तुम्हारा गुमान था कि अल्लाह किसी को रसूल बनाकर न भेजेगा।”8
8. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘अल्लंय-यब-असल्लाहु अ-हदा’। इस जुमले के दो मतलब हो सकते हैं। एक वह जो हमने तर्जमे में अपनाया है। दूसरा यह कि “अल्लाह किसी को मरने के बाद दोबारा न उठाएगा।” चूँकि अलफ़ाज़ में कई मतलब समाए हुए हैं, इसलिए उनका यह मतलब भी लिया जा सकता है कि इनसानों की तरह जिन्नों में भी रिसालत (पैग़म्बरी) और आख़िरत दोनों का इनकार पाया जाता था। लेकिन आगे के मज़मून को देखते हुए पहला मतलब ही ज़्यादा सही है, क्योंकि उसमें ये ईमान लानेवाले जिन्न अपनी क़ौम के लोगों को बताते हैं कि तुम्हारा यह ख़याल ग़लत निकला कि अल्लाह किसी रसूल को भेजनेवाला नहीं है, आसमानों के दरवाज़े हमपर इसी वजह से बन्द किए गए हैं कि अल्लाह ने एक रसूल भेज दिया है।
وَأَنَّا لَمَسۡنَا ٱلسَّمَآءَ فَوَجَدۡنَٰهَا مُلِئَتۡ حَرَسٗا شَدِيدٗا وَشُهُبٗا ۝ 7
(8) और यह कि “हमने आसमान को टटोला तो देखा कि वह पहरेदारों से पटा पड़ा है और शिहाबों (उल्काओं) की बारिश हो रही है।”
وَأَنَّا كُنَّا نَقۡعُدُ مِنۡهَا مَقَٰعِدَ لِلسَّمۡعِۖ فَمَن يَسۡتَمِعِ ٱلۡأٓنَ يَجِدۡ لَهُۥ شِهَابٗا رَّصَدٗا ۝ 8
(9) और यह कि “पहले हम सुनगुन लेने के लिए आसमान में बैठने की जगह पा लेते थे, मगर अब जो चोरी-छिपे सुनने की कोशिश करता है वह अपने लिए घात में एक शिहाबे-साक़िब (उल्का) लगा हुआ पाता है।”9
9. यह है वह वजह जिसकी बुनियाद पर ये जिन्न इस तलाश में निकले थे कि आख़िर ज़मीन पर ऐसा क्या मामला पेश आया है या आनेवाला है जिसकी ख़बरों को महफ़ूज़ रखने के लिए इतने सख़्त इन्तिज़ाम किए गए हैं कि अब हम ऊपरी दुनिया में सुनगुन लेने का कोई मौक़ा नहीं पाते और जिधर भी जाते हैं मार भगाए जाते हैं।
وَأَنَّا لَا نَدۡرِيٓ أَشَرٌّ أُرِيدَ بِمَن فِي ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ أَرَادَ بِهِمۡ رَبُّهُمۡ رَشَدٗا ۝ 9
(10) और यह कि “हमारी समझ में न आता था कि क्या ज़मीनवालों के साथ कोई बुरा मामला करने का इरादा किया गया है या उनका रब उन्हें सीधी राह दिखाना चाहता है।”10
10. इससे मालूम हुआ कि ऊपरी दुनिया में इस तरह के ग़ैर-मामूली इन्तिज़ाम दो ही हालतों में किए जाते थे। एक यह कि अल्लाह तआला ने ज़मीनवालों पर कोई अज़ाब उतारने का फ़ैसला किया हो और अल्लाह की मंशा यह हो कि इसके उतरने से पहले जिन्न उसकी भनक पाकर अपने दोस्त इनसानों को ख़बरदार न कर दें। दूसरे यह कि अल्लाह ने ज़मीन पर किसी रसूल को भेजा हो और हिफ़ाज़त के इन इन्तिज़ामों का मक़सद यह हो कि रसूल की तरफ़ जो पैग़ाम भेजे जा रहे हैं उनमें न तो शैतान किसी तरह की दख़ल अन्दाज़ी कर सकें और न वक़्त से पहले यह मालूम कर सकें कि पैग़म्बर को क्या हिदायतें दी जा रही हैं। इसलिए जिन्नों के कहने का मतलब यह है कि जब हमने आसमान में ये चौकी-पहरे देखे और शिहाबों की इस बारिश को देखा तो हमें यह मालूम करने की फ़िक्र हुई कि इन दोनों मामलों में से कौन-सा मामला हुआ है। क्या अल्लाह तआला ने ज़मीन में किसी क़ौम पर अज़ाब भेज दिया है? या कहीं कोई रसूल भेजा गया है? इसी तलाश में हम निकले थे कि हमने वह हैरत-अंगेज़ कलाम सुना जो सीधे रास्ते की तरफ़ रहनुमाई करता है और हमें मालूम हो गया कि अल्लाह ने अज़ाब नहीं उतारा है, बल्कि लोगों को सीधा रास्ता दिखाने के लिए एक रसूल भेज दिया है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिए—8 से 12; सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-7; सूरा-67 मुल्क, हाशिया-11)
وَأَنَّا مِنَّا ٱلصَّٰلِحُونَ وَمِنَّا دُونَ ذَٰلِكَۖ كُنَّا طَرَآئِقَ قِدَدٗا ۝ 10
(11) और यह कि “हममें से कुछ लोग नेक हैं और कुछ इससे कमतर हैं, हम अलग-अलग तरीक़ों में बंटे हुए हैं।”11
11. यानी अख़लाक़ी हैसियत से भी हममें अच्छे और बुरे दोनों तरह के जिन्न पाए जाते हैं, और अक़ीदों में भी हमारा कोई एक मज़हब नहीं है, बल्कि हम अलग-अलग गरोहों में बंटे हुए हैं। यह बात कहकर ईमान लानेवाले जिन्न अपनी क़ौम के जिन्नों को यह समझाना चाहते हैं कि हम सीधा रास्ता मालूम करने के यक़ीनन मुहताज हैं, इससे हम बेपरवाह नहीं हो सकते।
وَأَنَّا ظَنَنَّآ أَن لَّن نُّعۡجِزَ ٱللَّهَ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَن نُّعۡجِزَهُۥ هَرَبٗا ۝ 11
(12) और यह कि “हम समझते थे कि न ज़मीन में हम अल्लाह को बेबस कर सकते हैं और न भागकर उसे हरा सकते हैं।”12
12. मतलब यह है कि हमारे इसी ख़याल ने हमें नजात की राह दिखा दी। हम चूँकि अल्लाह से निडर न थे और हमें यक़ीन था कि अगर हमने उसकी नाफ़रमानी की तो उसकी पकड़ से किसी तरह बच न सकेंगे, इसलिए जब हमने वह कलाम सुना जो अल्लाह की तरफ़ से सीधा रास्ता बताने आया था तो हम यह जुरअत न कर सके कि हक़ मालूम हो जाने के बाद भी उन्हीं अक़ीदों पर जमे रहते जो हमारे नादान लोगों ने हममें फैला रखे थे।
وَأَنَّا لَمَّا سَمِعۡنَا ٱلۡهُدَىٰٓ ءَامَنَّا بِهِۦۖ فَمَن يُؤۡمِنۢ بِرَبِّهِۦ فَلَا يَخَافُ بَخۡسٗا وَلَا رَهَقٗا ۝ 12
(13) और यह कि “हमने जब हिदायत की तालीम सुनी तो हम उसपर ईमान ले आए। अब जो कोई भी अपने रब पर ईमान ले आएगा उसे किसी हक़ मारे जाने या ज़ुल्म का डर न होगा।”13
13. हक़ मारे जाने से मुराद यह है कि अपनी नेकी (भलाई) पर वह जितने इनाम का हक़दार हो उससे कम दिया जाए। और ज़ुल्म यह है कि उसे नेकी (भलाई) का कोई इनाम न दिया जाए और जो क़ुसूर उससे हो जाएँ उनकी ज़्यादा सज़ा दे डाली जाए। या बिना क़ुसूर ही किसी को अज़ाब दे दिया जाए। किसी ईमान लानेवाले के लिए अल्लाह तआला के यहाँ इस तरह की किसी बेइनसाफ़ी का कोई डर नहीं है।
وَأَنَّا مِنَّا ٱلۡمُسۡلِمُونَ وَمِنَّا ٱلۡقَٰسِطُونَۖ فَمَنۡ أَسۡلَمَ فَأُوْلَٰٓئِكَ تَحَرَّوۡاْ رَشَدٗا ۝ 13
(14) और यह कि “हममें से कुछ मुस्लिम (अल्लाह के फ़रमाँबरदार) हैं और कुछ हक़ से मुँह मोड़े हुए। तो जिन्होंने इस्लाम (फ़रमाँबरदारी का रास्ता) अपना लिया उन्होंने नजात की राह ढूँढ़ ली,
وَأَمَّا ٱلۡقَٰسِطُونَ فَكَانُواْ لِجَهَنَّمَ حَطَبٗا ۝ 14
(15) और जो हक़ से मुँह मोड़े हुए हैं वे जहन्नम का ईंधन बननेवाले हैं।”14
14. सवाल किया जा सकता है कि क़ुरआन के मुताबिक़ जिन्न तो ख़ुद आग से बने हैं, फिर जहन्नम की आग से उनको क्या तकलीफ़ हो सकती है? इसका जवाब यह है कि क़ुरआन के मुताबिक़ तो आदमी भी मिट्टी से बना है, फिर अगर उसे मिट्टी का ढेला खींच मारा जाए तो उसे चोट क्यों लगती है? हक़ीक़त यह है कि इनसान का पूरा जिस्म अगरचे ज़मीन के माद्दों (तत्त्वों) से बना है, मगर जब उनसे हाड़-माँस का ज़िन्दा इनसान वुजूद में आ जाता है तो वह उन माद्दों से बिलकुल अलग चीज़ बन जाता है और इन्हीं माद्दों से बनी हुई दूसरी चीज़ें उसके लिए तकलीफ़ पहुँचने का ज़रिआ बन जाती हैं। ठीक इसी तरह जिन्न भी अगरचे अपनी बनावट के एतिबार से आग से बने जानदार हैं, लेकिन आग से जब एक ज़िन्दा और एहसास रखनेवाला जानदार वुजूद में आ जाता है तो वही आग उसके लिए तकलीफ़ का सबब बन जाती है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-55 रहमान, हाशिया-15)
وَأَلَّوِ ٱسۡتَقَٰمُواْ عَلَى ٱلطَّرِيقَةِ لَأَسۡقَيۡنَٰهُم مَّآءً غَدَقٗا ۝ 15
(16) और15 (ऐ नबी! कहो, मुझपर यह वह्य भी की गई है कि) लोग अगर सीधे रास्ते पर मज़बूती के साथ चलते तो हम उन्हें ख़ूब सैराब (सिंचित) करते,16
15. ऊपर जिन्नों की बात ख़त्म हो गई। अब यहाँ से अल्लाह तआला के अपने फ़रमान शुरू होते हैं।
16. यह वही बात है जो सूरा-71 नूह में कही गई है कि अल्लाह से माफ़ी माँगो तो वह तुमपर आसमान से ख़ूब बारिशें बरसाएगा (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-71 नूह, हाशिया-12)। पानी की बहुतायत को नेमतों की बहुतायत के लिए इशारे के तौर पर इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि पानी ही पर आबादी का दारोमदार है। पानी न हो तो सिरे से कोई बस्ती बस ही नहीं सकती, न इनसान की बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकती हैं, और न इनसान के कल-कारख़ाने चल सकते हैं।
لِّنَفۡتِنَهُمۡ فِيهِۚ وَمَن يُعۡرِضۡ عَن ذِكۡرِ رَبِّهِۦ يَسۡلُكۡهُ عَذَابٗا صَعَدٗا ۝ 16
(17) ताकि इस नेमत से उनकी आज़माइश करें।17 और जो अपने रब के ज़िक्र से मुँह मोड़ेगा18 उसका रब उसे सख़्त अज़ाब में मुब्तला कर देगा।
17. यानी यह देखें कि वे नेमत पाकर भी शुक्रगुज़ार रहते हैं या नहीं, और हमारी दी हुई नेमत का सही इस्तेमाल करते हैं या ग़लत।
18. ज़िक्र से मुँह मोड़ने का मतलब यह भी है कि आदमी अल्लाह की भेजी हुई नसीहत को क़ुबूल न करे, और यह भी कि वह अल्लाह का ज़िक्र सुनना ही गवारा न करे, और यह भी कि वह अल्लाह की इबादत से मुँह मोड़े।
وَأَنَّ ٱلۡمَسَٰجِدَ لِلَّهِ فَلَا تَدۡعُواْ مَعَ ٱللَّهِ أَحَدٗا ۝ 17
(18) और यह कि मस्जिदें अल्लाह के लिए हैं, लिहाज़ा उनमें अल्लाह के साथ किसी और को न पुकारो।19
19. क़ुरआन के आलिमों ने आम तौर से ‘मसाजिद’ को इबादतगाहों के मानी में लिया है और इस मानी के लिहाज़ से आयत का मतलब यह है कि इबादतगाहों में अल्लाह के साथ किसी और की इबादत न की जाए। हज़रत हसन बसरी कहते हैं कि ज़मीन पूरी-की-पूरी इबादतगाह है और आयत का मंशा यह है कि ख़ुदा की ज़मीन पर कहीं भी शिर्क न किया जाए। उनकी दलील नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान है कि “मेरे लिए पूरी ज़मीन इबादत की जगह और पाकी हासिल करने का ज़रिआ बनाई गई है।” हज़रत सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) ने ‘मसाजिद’ से मुराद जिस्म के वे हिस्से लिए हैं जिनपर आदमी सजदा करता है, यानी हाथ, घुटने, क़दम और पेशानी (माथा)। इस तफ़सीर के मुताबिक़ आयत का मतलब यह है कि ये हिस्से अल्लाह के बनाए हुए हैं। इनपर अल्लाह के सिवा किसी और के लिए सजदा न किया जाए।
وَأَنَّهُۥ لَمَّا قَامَ عَبۡدُ ٱللَّهِ يَدۡعُوهُ كَادُواْ يَكُونُونَ عَلَيۡهِ لِبَدٗا ۝ 18
(19) और यह कि जब अल्लाह का बन्दा20 उसको पुकारने के लिए खड़ा हुआ तो लोग उसपर टूट पड़ने के लिए तैयार हो गए।
20. अल्लाह के बन्दे से मुराद यहाँ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हैं।
قُلۡ إِنَّمَآ أَدۡعُواْ رَبِّي وَلَآ أُشۡرِكُ بِهِۦٓ أَحَدٗا ۝ 19
(20) ऐ नबी! कहो कि “मैं तो अपने रब को पुकारता हूँ और उसके साथ किसी को शरीक नहीं करता।”21
21. यानी ख़ुदा को पुकारना तो कोई क़ाबिले-एतिराज़ काम नहीं है, जिसपर लोगों को इतना गु़स्सा आए, अलबत्ता बुरी बात अगर है तो यह कि कोई शख़्स ख़ुदा के साथ किसी और को ख़ुदाई में शरीक ठहराए, और यह काम मैं नहीं करता, बल्कि वे लोग करते हैं जो ख़ुदा का नाम सुनकर मुझपर टूटे पड़ रहे हैं।
قُلۡ إِنِّي لَآ أَمۡلِكُ لَكُمۡ ضَرّٗا وَلَا رَشَدٗا ۝ 20
(21) कहो, “मैं तुम लोगों के लिए न किसी नुक़सान का इख़्तियार रखता हूँ न किसी भलाई का।”
قُلۡ إِنِّي لَن يُجِيرَنِي مِنَ ٱللَّهِ أَحَدٞ وَلَنۡ أَجِدَ مِن دُونِهِۦ مُلۡتَحَدًا ۝ 21
(22) कहो, “मुझे अल्लाह की पकड़ से कोई नहीं बचा सकता और न मैं उसके दामन के सिवा कोई पनाह की जगह पा सकता हूँ।
إِلَّا بَلَٰغٗا مِّنَ ٱللَّهِ وَرِسَٰلَٰتِهِۦۚ وَمَن يَعۡصِ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ فَإِنَّ لَهُۥ نَارَ جَهَنَّمَ خَٰلِدِينَ فِيهَآ أَبَدًا ۝ 22
(23) मेरा काम इसके सिवा कुछ नहीं है कि अल्लाह की बात और उसके पैग़ामों को पहुँचा दूँ।22 अब जो भी अल्लाह और उसके रसूल की बात न मानेगा उसके लिए जहन्नम की आग है और ऐसे लोग उसमें हमेशा रहेंगे।”23
22. यानी मेरा यह दावा हरगिज़ नहीं है कि ख़ुदा की ख़ुदाई में मेरा कोई दख़ल है, या लोगों की क़िस्मतें बनाने और बिगाड़ने का मुझे कोई इख़्तियार हासिल है। मैं तो सिर्फ़ एक रसूल हूँ और जो काम मेरे सिपुर्द किया गया है वह इससे ज़्यादा कुछ नहीं है कि अल्लाह तआला के पैग़ाम तुम्हें पहुँचा दूँ। बाक़ी रहे ख़ुदाई के इख़्तियार, तो वे सारे-के-सारे अल्लाह ही के हाथ में हैं। किसी दूसरे को फ़ायदा या नुक़सान पहुँचाना तो दूर रहा, मुझे तो ख़ुद अपने फ़ायदे-नुक़सान का इख़्तियार भी हासिल नहीं। अल्लाह की नाफ़रमानी करूँ तो उसकी पकड़ से बचकर कहीं पनाह नहीं ले सकता, और अल्लाह के दामन के सिवा कोई पनाहगाह मेरे लिए नहीं है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-42 शूरा, हाशिया-7)
23. इसका यह मतलब नहीं है कि हर गुनाह और नाफ़रमानी की सज़ा हमेशा जहन्नम में रहना है, बल्कि बात के जिस सिलसिले में यह बात कही गई है उसके लिहाज़ से आयत का मतलब यह है कि अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से तौहीद (एकेश्वरवाद) की जो दावत दी गई है उसको जो शख़्स न माने और शिर्क से बाज़ न आए उसके लिए हमेशा जहन्नम में रहने की सज़ा है।
عَٰلِمُ ٱلۡغَيۡبِ فَلَا يُظۡهِرُ عَلَىٰ غَيۡبِهِۦٓ أَحَدًا ۝ 23
(26) वह ग़ैब (परोक्ष) का जाननेवाला है, अपने ग़ैब की ख़बर किसी को नहीं देता,26
26. यानी ग़ैब (परोक्ष) की पूरी जानकारी अल्लाह तआला के लिए ख़ास है, और यह ग़ैब की पूरी जानकारी वह किसी को भी नहीं देता।
إِلَّا مَنِ ٱرۡتَضَىٰ مِن رَّسُولٖ فَإِنَّهُۥ يَسۡلُكُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦ رَصَدٗا ۝ 24
(27) सिवाय उस रसूल के जिसे उसने (ग़ैब का कोई इल्म देने के लिए) पसन्द कर लिया हो,27 तो उसके आगे और पीछे वह हिफ़ाज़त करनेवाले लगा देता है।28
27. यानी रसूल अपने आपमें ग़ैब का जानकार नहीं होता, बल्कि अल्लाह तआला जब उसको रिसालत का फ़र्ज़ पूरा करने के लिए चुनता है तो ग़ैब की हक़ीक़तों में से जिन चीज़ों की जानकारी वह चाहता है उसे दे देता है।
28. हिफ़ाज़त करनेवालों से मुराद फ़रिश्ते हैं। मतलब यह है कि जब अल्लाह तआला वह्य के ज़रिए से ग़ैब की हक़ीक़तों का इल्म रसूल के पास भेजता है तो इसकी निगहबानी करने के लिए हर तरफ़ फ़रिश्ते लगा देता है, ताकि वह इल्म बहुत महफ़ूज़ तरीक़े से रसूल तक पहुँच जाए और उसमें किसी तरह की मिलावट न होने पाए। यह वही बात है जो ऊपर आयतें—8, 9 में बयान हुई है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को नबी बनाकर भेजे जाने के बाद जिन्नों ने अपने लिए ऊपरी दुनिया तक पहुँचने के तमाम दरवाज़े बन्द पाए और उन्होंने देखा कि सख़्त चौकी-पहरे लग गए है, जिनकी वजह से कहीं ज़रा-सी सुनगुन लेने का मौक़ा भी उनको नहीं मिलता।
لِّيَعۡلَمَ أَن قَدۡ أَبۡلَغُواْ رِسَٰلَٰتِ رَبِّهِمۡ وَأَحَاطَ بِمَا لَدَيۡهِمۡ وَأَحۡصَىٰ كُلَّ شَيۡءٍ عَدَدَۢا ۝ 25
(28) ताकि वह जान ले कि उन्होंने अपने रब के पैग़ाम पहुँचा दिए,29 और वह उनके पूरे माहौल को हर तरफ़ से घेरे हुए है और एक-एक चीज़ को उसने गिन रखा है।”30
29. इसके तीन मतलब हो सकते हैं। एक यह कि रसूल यह जान ले कि फ़रिश्तों ने उसको अल्लाह तआला के पैग़ाम ठीक-ठीक पहुँचा दिए हैं। दूसरे यह कि अल्लाह तआला यह जान ले कि फ़रिश्तों ने अपने रब के पैग़ाम उसके रसूल तक सही-सही पहुँचा दिए हैं। तीसरे यह कि अल्लाह तआला यह जान ले कि रसूलों ने उसके बन्दों तक अपने रब के पैग़ाम ठीक-ठीक पहुँचा दिए। आयत के अलफ़ाज़ इन तीनों मतलबों पर हावी हैं और नामुमकिन नहीं कि तीनों ही मुराद हों। इसके अलावा यह आयत दो और बातों पर भी दलील देती है। पहली बात यह कि रसूल को ग़ैब (परोक्ष) का वह इल्म दिया जाता है जो पैग़म्बरी का फ़र्ज़ अदा करने के लिए उसको देना ज़रूरी होता है। दूसरी बात यह कि जो फ़रिश्ते निगहबानी के लिए मुक़र्रर किए जाते हैं वे सिर्फ़ इसी बात की निगहबानी नहीं करते कि रसूल तक वह्य महफ़ूज़ तरीक़े से पहुँच जाए, बल्कि इस बात की भी निगहबानी करते हैं कि रसूल अपने रब के पैग़ाम उसके बन्दों तक बिना कमी-बेशी के पहुँचा दे।
30. यानी रसूल पर भी और फ़रिश्तों पर भी अल्लाह तआला की क़ुदरत इस तरह हावी है कि अगर बाल बराबर भी वे उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ हरकत करें तो फ़ौरन पकड़ में आ जाएँ। और जो पैग़ाम अल्लाह तआला भेजता है उनका हर्फ़-हर्फ़ गिना हुआ है, रसूलों और फ़रिश्तों की यह मजाल नहीं है कि उनमें एक हर्फ़ भी कम या ज़्यादा कर सकें।
حَتَّىٰٓ إِذَا رَأَوۡاْ مَا يُوعَدُونَ فَسَيَعۡلَمُونَ مَنۡ أَضۡعَفُ نَاصِرٗا وَأَقَلُّ عَدَدٗا ۝ 26
(24) (यह लोग अपने इस रवैये से बाज़ न आएँगे) यहाँ तक कि जब उस चीज़ को देख लेंगे जिसका इनसे वादा किया जा रहा है तो इन्हें मालूम हो जाएगा कि किसके मददगार कमज़ोर हैं और किसका जत्था तादाद में कम है।24
24. इस आयत का पसमंज़र (पृष्ठभूमि) यह है कि उस ज़माने में क़ुरैश के जो लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की अल्लाह की तरफ़ दावत को सुनते ही आप (सल्ल०) पर टूट पड़ते थे वे इस घमंड में मुब्तला थे कि उनका जत्था बड़ा ज़बरदस्त है और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के साथ कुछ मट्ठी-भर आदमी हैं इसलिए वे आसानी के साथ आपको दबा लेंगे। इसपर कहा जा रहा है कि आज ये लोग अल्लाह के रसूल को अकेला और बेसहारा और अपने आपको बड़ी तादाद में देखकर हक़ की आवाज़ को दबाने के लिए बड़े दिलेर हो रहे हैं, मगर जब वह बुरा वक़्त आ जाएगा जिससे इनको डराया जा रहा है तो इनको पता चल जाएगा कि बेसहारा हक़ीक़त में कौन है।
قُلۡ إِنۡ أَدۡرِيٓ أَقَرِيبٞ مَّا تُوعَدُونَ أَمۡ يَجۡعَلُ لَهُۥ رَبِّيٓ أَمَدًا ۝ 27
(25) कहो, “मैं नहीं जानता कि जिस चीज़ का वादा तुमसे किया जा रहा है वह क़रीब है या मेरा रब उसके लिए कोई लम्बी मुद्दत मुक़र्रर करता है।25
25. अन्दाज़े-बयान से महसूस होता है कि यह एक सवाल का जवाब है जो सवाल नक़्ल किए बिना दिया गया है। शायद ऊपर की बात सुनकर मुख़ालफ़त करनेवालों ने तंज़ (व्यंग्य) और मज़ाक़ के तौर पर सवाल किया होगा कि वह वक़्त जिसका डरावा आप दे रहे हैं आख़िर कब आएगा? इसके जवाब में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को हुक्म दिया गया कि इन लोगों से कहो, उस वक़्त का आना यक़ीनी है, मगर उसके आने की तारीख़ मुझे नहीं बताई गई। यह बात अल्लाह तआला ही को मालूम है कि क्या वह जल्दी आनेवाला है या उसके लिए एक लम्बी मुद्दत मुक़र्रर की गई है।