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سُورَةُ التَّحۡرِيمِ

66. अत-तहरीम

(मदीना में उतरी, आयतें 12)

परिचय

नाम

पहली आयत के शब्द 'लिमा तुहर्रिमु' (क्यों उस चीज़ को हराम करते हो) से उद्धृत है। इस शीर्षक का अभिप्राय यह है कि यह वह सूरा है जिसमें तहरीम' (किसी चीज़ को अवैध ठहराने) को घटना का उल्लेख हुआ है। इसमें अवैध ठहराने की जिस घटना का उल्लेख किया गया है, उसके सम्बन्ध में हदीसों के उल्लेखों में दो महिलाओं की चर्चा की गई है जो उस समय नबी (सल्ल०) की पत्नियों में से थीं। एक हज़रत सफ़ीया (रज़ि०), दूसरी हज़रत मारिया क़िब्तिया (रज़ि०), [और ये दोनों ही नबी (सल्ल०) के घर में सन् 7 हिजरी में आई हैं। इस] से यह बात लगभग निश्चित हो जाती है कि इस सूरा का अवतरण सन् 7 हिजरी या 8 हिजरी के दौरान में किसी समय हुआ था।

विषय और वार्ता

इस सूरा में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पवित्र पत्नियों  के सम्बन्ध में कुछ घटनाओं की ओर संकेत करते हुए कुछ गम्भीर समस्याओं पर प्रकाश डाला गया है : एक यह कि हलाल तथा हराम और वैध तथा अवैध की सीमाएँ निर्धारित करने के अधिकार निश्चित रूप से सर्वोच्च अल्लाह के हाथ में हैं और आम लोग तो अलग रहे, पैग़म्बर को भी अपने तौर पर अल्लाह की जाइज़ ठहराई हुई किसी चीज़ को हराम कर लेने का अधिकार नहीं है। दूसरे यह कि मानव-समाज में नबी (सल्ल०) का स्थान बहुत ही गंभीर स्थान है। एक साधारण बात भी जो किसी दूसरे मनुष्य के जीवन में घटित हो तो कुछ अधिक महत्त्व नहीं रखती, लेकिन नबी के जीवन में घटित हो तो उसकी हैसियत क़ानून की हो जाती है। इसलिए अल्लाह की ओर से नबियों के जीवन पर ऐसी कड़ी निगरानी रखी गई है कि उनका कोई छोटे से छोटा क़दम उठाना भी ईश्वरीय इच्छा से हटा हुआ न हो, ताकि इस्लामी क़ानून और उसके सिद्धान्त अपने बिलकुल वास्तविक रूप में अल्लाह के बन्दों तक पहुँच जाएँ। तीसरी बात यह है कि तनिक-सी बात पर जब नबी (सल्ल०) को टोक दिया गया और न केवल उसका सुधार किया गया, बल्कि उसे रिकार्ड पर भी लाया गया, तो यह चीज़ निश्चय ही हमारे दिल में यह इत्मीनान पैदा कर देती है कि नबी (सल्ल०) के पवित्र जीवन में जो कर्म और जो नियम-सम्बन्धी आदेश और निर्देश भी अब हमें मिलते हैं और जिनपर अल्लाह की ओर से कोई पकड़ या संशोधन रिकार्ड पर मौजूद नहीं है, वे सर्वथा विशुद्ध और ठीक हैं और पूर्ण रूप से अल्लाह की इच्छा के अनुकूल हैं। चौथी बात [यह कि अल्लाह ने न केवल यह कि नबी (सल्ल०) को एक साधारण-सी बात पर टोक दिया और ईमानवालों की माताओं को (अर्थात् नबी सल्ल० की पत्नियों को) उनकी कुछ ग़लतियों पर] कड़ाई के साथ सचेत किया, बल्कि [इस पकड़ और चेतावनी को अपनी किताब (क़ुरआन) में सदैव के लिए अंकित भी कर दिया। इसमें निहित उद्देश्य इसके सिवा और क्या हो सकता है कि अल्लाह इस तरह ईमानवालों को अपने महापुरुषों के आदर-सम्मान की वास्तविक मर्यादाओं एवं सीमाओं से परिचित कराना चाहता है। नबी, नबी है, ख़ुदा नहीं है कि उससे कोई भूल-चूक न हो। नबी इसलिए आदरणीय नहीं हैं कि उनसे भूल-चूक होना असम्भव है, बल्कि वे आदरणीय इसलिए हैं कि वे ईश्वरीय इच्छा के पूर्ण प्रतिनिधि हैं और उनकी छोटी-सी भूल को भी अल्लाह ने सुधारे बिना नहीं छोड़ा है। इसी तरह आदरणीय सहाबा हों या नबी (सल्ल०) की पाक पत्नियाँ, ये सब मनुष्य थे, फ़रिश्ते या परामानव न थे। उनसे भूल-चूक हो सकती थी। उनको जो उच्च पद प्राप्त हुआ, इसलिए हुआ कि अल्लाह के मार्गदर्शन और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के प्रशिक्षण ने उनको मानवता का उत्तम आदर्श बना दिया था। उनका जो कुछ भी सम्मान है, इसी कारण है, न कि इस परिकल्पना के आधार पर कि वे कुछ ऐसी हस्तियाँ थीं जो ग़लतियों से बिलकुल पाक थीं। इसी कारण नबी (सल्ल०) के शुभकाल में सहाबा या आपकी पाक पत्नियों से होने के कारण जब भी कोई भूल-चूक हुई उसपर टोका गया। उनकी कुछ ग़लतियों का सुधार नबी (सल्ल०) ने किया जिसका उल्लेख हदीसों में बहुत-से स्थानों पर हुआ है और कुछ ग़लतियों का उल्लेख क़ुरआन मजीद में करके अल्लाह ने स्वयं उनको सुधारा, ताकि मुसलमान कभी महापुरुषों के आदर की कोई अतिशयोक्तिपूर्ण धारणा न बना लें। पाँचवीं बात यह है कि अल्लाह का दीन (धर्म) बिलकुल बेलाग है, उसमें हर व्यक्ति के लिए केवल वही कुछ है जिसका वह अपने ईमान और कर्मों की दृष्टि से पात्र है। इस मामले में विशेष रूप से नबी (सल्ल०) की पाक पत्नियों के सामने तीन प्रकार की स्त्रियों को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया गया है। एक उदाहरण हज़रत नूह (अलैहि०) और हज़रत लूत (अलैहि०) की विधर्मी पत्नियों का है। [जिन के लिए] नबियों की पत्नियाँ होना कुछ काम न आया। दूसरी मिसाल फ़िरऔन की पत्नी की है। चूँकि वे ईमान ले आईं, इसलिए फ़िरऔन जैसे सबसे बड़े विधर्मी की पत्नी होना भी उनके लिए किसी हानि का कारण न बन सका। तीसरा उदाहरण हज़रत मरयम (अलैहि०) का है, जिन्हें महान पद इसलिए मिला कि अल्लाह ने जिस कठिन परीक्षा में उन्हें डालने का निर्णय किया था, उसके लिए वे नतमस्तक हो गईं। इन बातों के अतिरिक्त एक और महत्त्वपूर्ण तथ्य जो इस सूरा की आयत 3 से हमें मालूम होता है वह यह है कि सर्वोच्च अल्लाह की ओर से नबी (सल्ल०) को केवल वही ज्ञान प्रदान नहीं किया जाता था जो क़ुरआन में अंकित हुआ है, बल्कि आप (सल्ल०) को प्रकाशना के द्वारा दूसरी बातों का ज्ञान भी प्रदान किया जाता था जो क़ुरआन में अंकित नहीं किया गया है।

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سُورَةُ التَّحۡرِيمِ
66. अत-तहरीम
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ لِمَ تُحَرِّمُ مَآ أَحَلَّ ٱللَّهُ لَكَۖ تَبۡتَغِي مَرۡضَاتَ أَزۡوَٰجِكَۚ وَٱللَّهُ غَفُورٞ رَّحِيمٞ
(1) ऐ नबी! तुम क्यों उस चीज़ को हराम करते हो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल की है?1 (क्या इसलिए कि) तुम अपनी बीवियों की ख़ुशी चाहते हो?2—अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।3
1. यह अस्ल में सवाल करना नहीं है, बल्कि नापसन्दीदगी ज़ाहिर करना है। यानी मक़सद नबी (सल्ल०) से यह पूछना नहीं है कि आपने यह काम क्यों किया है, बल्कि आप (सल्ल०) को इस बात पर ख़बरदार करना है कि अल्लाह की बनाई हुई चीज़ को अपने ऊपर हराम कर लेने का जो काम आपसे हुआ है वह अल्लाह तआला को नापसन्द है। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर होती है कि अल्लाह ने जिस चीज़ को हलाल किया है उसे हराम करने का इख़्तियार किसी को भी नहीं है, यहाँ तक कि ख़ुद नबी (सल्ल०) भी यह इख़्तियार नहीं रखते। अगरचे नबी (सल्ल०) ने उस चीज़ को न अक़ीदे के तौर पर हराम समझा था और न उसे शरई तौर पर हराम ठहराया था, बल्कि सिर्फ़ अपने आपपर उसके इस्तेमाल को हराम कर लिया था, लेकिन चूँकि आप (सल्ल०) की हैसियत एक आम आदमी की नहीं, बल्कि अल्लाह के रसूल की थी, और आप (सल्ल०) के किसी चीज़ को अपने ऊपर हराम कर लेने से यह ख़तरा पैदा हो सकता था कि उम्मत भी उस चीज़ को हराम या कम-से-कम मकरूह (नापसन्दीदा) समझने लगे, या उम्मत के लोग यह समझने लगें कि अल्लाह की हलाल की हुई चीज़ को अपने ऊपर हराम कर लेने में कोई हरज नहीं है, इसलिए अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) के इस अमल पर पकड़ की और आप (सल्ल०) को इस ‘तहरीम’ (हराम करने के अमल) से रुकने का हुक्म दिया।
2. इससे मालूम हुआ कि नबी (सल्ल०) ने ‘तहरीम’ का यह अमल ख़ुद अपनी किसी ख़ाहिश की वजह से नहीं किया था, बल्कि आप (सल्ल०) की बीवियों ने यह चाहा था कि आप (सल्ल०) ऐसा करें और आप (सल्ल०) ने सिर्फ़ उनको ख़ुश करने के लिए एक हलाल चीज़ अपने ऊपर हलाल कर ली थी। यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि अल्लाह तआला ने ‘तहरीम’ के इस अमल पर टोकने के साथ उसकी इस वजह का ज़िक्र ख़ास तौर पर क्यों किया? ज़ाहिर है कि अगर बात का मक़सद सिर्फ़ हलाल चीज़ को हराम करने से रोक देना होता तो यह मक़सद पहले जुमले से पूरा हो जाता था और इसकी ज़रूरत न थी कि जिस वजह से आप (सल्ल०) ने यह काम किया था उसको भी बयान किया जाता। उसको ख़ास तौर पर बयान करने से साफ़ मालूम होता है कि मक़सद सिर्फ़ नबी (सल्ल०) ही को हलाल को हराम करने पर टोकना नहीं था, बल्कि साथ-साथ आप (सल्ल०) की पाक बीवियों (रज़ि०) को भी इस बात पर ख़बरदार करना था कि उन्होंने नबी की बीवी होने की हैसियत से अपनी नाज़ुक ज़िम्मेदारियों का एहसास न किया और नबी (सल्ल०) से एक ऐसा काम करा दिया जिससे एक हलाल चीज़ के हराम हो जाने का ख़तरा पैदा हो सकता था। हालाँकि क़ुरआन में यह नहीं बताया गया है कि वह चीज़ क्या थी जिसे नबी (सल्ल०) ने अपने ऊपर हराम किया था, लेकिन हदीस के आलिमों और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवालों ने इस सिलसिले में दो अलग-अलग वाक़िआत का ज़िक्र किया है जो इस आयत के उतरने का सबब बने। एक वाक़िआ हज़रत मारिया क़िबतिया (रज़ि०) का है और दूसरा वाक़िआ यह कि आप (सल्ल०) ने शहद इस्तेमाल न करने का अहद कर लिया था। हज़रत मारिया (रज़ि०) का क़िस्सा यह है कि सुलह हुदैबिया से निमटने के बाद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने जो ख़त आस-पास के बादशाहों को भेजे थे उनमें से एक स्कन्दरिया के रोमी बतरीक़ (Patriarch) के नाम भी था जिसे अरब मुक़ौक़िस कहते थे। हज़रत हातिब-बिन-अबी-बल्तआ (रज़ि०) यह ख़त लेकर जब उसके पास पहुँचे तो उसने इस्लाम तो क़ुबूल न किया, मगर उनके साथ अच्छी तरह पेश आया और जवाब में लिखा कि “मुझे यह मालूम हुआ है कि एक नबी आना अभी बाक़ी है, लेकिन मेरा ख़याल यह है कि वह शाम (सीरिया) में निकलेगा। फिर भी मैं आपके एलची के साथ एहतिराम से पेश आया हूँ और आपकी ख़िदमत में दो लड़कियाँ भेज रहा हूँ जो क़िबतियों में बड़ा मर्तबा रखती हैं।” (इब्ने-सअ्द)। उन लड़कियों में से एक सीरीन थीं और दूसरी मारिया (ईसाई हज़रत मरयम को मारिया Mary कहते हैं)। मिस्र से वापसी पर रास्ते में हज़रत हातिब (रज़ि०) ने दोनों के सामने इस्लाम पेश किया और वह ईमान ले आईं। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुईं तो आप (सल्ल०) ने सीरीन को हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) की मिलकियत में दे दिया और हज़रत मारिया (रज़ि०) को अपने हरम में दाख़िल कर लिया। ज़िलहिज्जा 8 हिजरी में इन्हीं के पेट से नबी (सल्ल०) के बेटे इबराहीम पैदा हुए (अल-इस्तीआब, अल-इसाबा)। यह बहुत ख़ूबसूरत औरत थीं। हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने अल-इसाबा में उनके बारे में हज़रत आइशा (रज़ि०) का यह क़ौल नक़्ल किया है कि “मुझे किसी औरत का आना इतना ज़्यादा नागवार न हुआ जितना मारिया का आना हुआ था, क्योंकि वह बहुत हसीन और ख़ूबसूरत थीं और नबी (सल्ल०) को बहुत पसन्द आई थीं।” इनके बारे में कई तरीक़ों से जो क़िस्सा हदीसों में नक़्ल हुआ वह मुख़्तसर तौर पर यह है कि एक दिन अल्लाह के रसूल (सल्ल०) हज़रत हफ़सा (रज़ि०) के मकान में तशरीफ़ ले गए और वह घर पर मौजूद न थीं। उस वक़्त हज़रत मारिया (रज़ि०) आप (सल्ल०) के पास वहाँ आ गईं और तन्हाई में आप (सल्ल०) के साथ रहीं। हज़रत हफ़सा (रज़ि०) को यह बात नागवार हुई और उन्होंने नबी (सल्ल०) से इसकी सख़्त शिकायत की। इसपर नबी (सल्ल०) ने उनको राज़ी करने के लिए उनसे यह अहद कर लिया कि आइन्दा मारिया (रज़ि०) से मियाँ-बीवी जैसा कोई ताल्लुक़ न रखेंगे। कुछ रिवायतों में यह है कि आप (सल्ल०) ने मारिया (रज़ि०) को अपने ऊपर हराम कर लिया, और कुछ में बयान किया गया है कि आप (सल्ल०) ने इसपर क़सम भी खाई थी। ये रिवायतें ज़्यादातर ताबिईन से मुर्सलन नक़्ल हुई हैं, लेकिन इनमें से कुछ हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से भी रिवायत हुई हैं। उनके कई तरीक़ों से बयान होने को देखते हुए हाफ़िज़ इब्ने-हजर ने फ़तहुल-बारी में यह ख़याल ज़ाहिर किया है कि इस क़िस्से की कोई-न-कोई अस्ल ज़रूर है। मगर सिहाह सित्तह (हदीस की छः सबसे ज़्यादा भरोसेमन्द किताबों) में से किसी में भी यह क़िस्सा नक़्ल नहीं किया गया है। नसई में हज़रत अनस (रज़ि०) से सिर्फ़ इतनी बात बयान हुई है कि “नबी (सल्ल०) की एक लौंडी थी जिससे आप फ़ायदा उठाते थे। फिर हज़रत हफ़सा (रज़ि०) और हज़रत आइशा (रज़ि०) आप (सल्ल०) के पीछे पड़ गईं यहाँ तक कि आप (सल्ल०) ने उसे अपने ऊपर हराम कर लिया। इसपर यह आयत उतरी कि “ऐ नबी! तुम क्यों उस चीज़ को हराम करते हो जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल किया है।” दूसरा वाक़िआ बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, नसई और हदीस की कई दूसरी किताबों में ख़ुद हज़रत आइशा (रज़ि०) से जिस तरह नक़्ल हुआ है उसका ख़ुलासा यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) आम तौर से हर रोज़ अस्र के बाद तमाम बीवियों के यहाँ मिलने के लिए जाते थे। एक मौक़े पर ऐसा हुआ कि आप (सल्ल०) हज़रत ज़ैनब-बिन्ते-जह्श (रज़ि०) के यहाँ जाकर ज़्यादा देर तक बैठने लगे, क्योंकि उनके यहाँ कहीं से शहद आया हुआ था, और नबी (सल्ल०) को मीठा बहुत पसन्द था, इसलिए आप (सल्ल०) उनके यहाँ शहद का शरबत पिया करते थे। हज़रत आइशा (रज़ि०) का बयान है कि मुझको इसपर रश्क हुआ और मैंने हज़रत हफ़सा (रज़ि०), हज़रत सौदा (रज़ि०) और हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) से मिलकर यह तय किया कि हममें से जिसके पास भी आप (सल्ल०) आएँ वह आप (सल्ल०) से यह कहे कि आप (सल्ल०) के मुँह से मग़ाफ़ीर की गन्ध आती है। ‘मग़ाफ़ीर’ एक तरह का फूल होता है जिसमें कुछ बिसाँध होती है और अगर शहद की मक्खी उससे शहद हासिल करे तो उसके अन्दर भी उस बिसाँध का असर आ जाता है। यह बात सबको मालूम थी कि नबी (सल्ल०) बहुत नफ़ासत (सफ़ाई) पसन्द हैं और आप (सल्ल०) को इससे सख़्त नफ़रत है कि आप (सल्ल०) के अन्दर किसी तरह की बदबू पाई जाए। इसलिए आप (सल्ल०) को हज़रत ज़ैनब (रज़ि०) के यहाँ ठहरने से रोकने के लिए यह तदबीर की गई और यह काम कर गई। जब कई बीवियों ने नबी (सल्ल०) से कहा कि आपके मुँह से मग़ाफ़ीर की बू आती है तो आप (सल्ल०) ने अहद कर लिया कि अब यह शहद इस्तेमाल नहीं करेंगे। एक रिवायत में आप (सल्ल०) के अलफ़ाज़ ये हैं, ‘फ़-लन अऊ-द लहू व-क़द ह-लफ़्तु’ यानी “अब मैं इसे हरगिज़ न पियूँगा, मैंने क़सम खा ली है।” दूसरी रिवायत में सिर्फ़ ‘फ़-लन अऊ-द लहू’ (अब मैं इसे हरगिज़ न पियूँगा) के अलफ़ाज़ हैं, ‘व-क़द ह-लफ़्तु’ (मैंने क़सम खा ली है) का ज़िक्र नहीं है। और इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से जो रिवायत इब्नुल-मुंज़िर, इब्ने-अबी-हातिम, तबरानी और इब्ने-मरदुवैह ने नक़्ल की है उसमें यह अलफ़ाज़ हैं कि ‘वल्लाहि ला अश्‍रबुहू’ यानी “अल्लाह की क़सम, मैं उसे न पियूँगा।” बुज़ुर्ग आलिमों ने इन दोनों क़िस्सों में से इसी दूसरे क़िस्से को सही ठहराया है और पहले क़िस्से को भरोसे के लायक़ नहीं कहा है। इमाम नसई कहते हैं कि “शहद के मामले में हज़रत आइशा (रज़ि०) की हदीस बहुत सही है, और हज़रत मारिया (रज़ि०) को हराम कर लेने का क़िस्सा किसी उम्दा तरीक़े से नक़्ल नहीं हुआ है।” क़ाज़ी इयाज़ कहते हैं कि “सही यह है कि यह आयत मारिया (रज़ि०) के मामले में नहीं, बल्कि शहद के मामले में उतरी है।” क़ाज़ी अबू-बक्र इब्नुल-अरबी भी शहद ही के क़िस्से को सही क़रार देते हैं, और यही राय इमाम नववी और हाफ़िज़ बद्रुद्दीन ऐनी (रह०) की है। इब्ने-हुमाम फ़तहुल-क़दीर में कहते हैं कि “शहद के हराम करने का क़िस्सा बुख़ारी और मुस्लिम में ख़ुद हज़रत आइशा (रज़ि०) से रिवायत हुआ है जिनके साथ यह मामला पेश आया था, इसलिए यही ज़्यादा भरोसे के लायक़ है।” हाफ़िज़ इब्ने-कसीर कहते हैं, “सही बात यह है कि यह आयत शहद को अपने ऊपर हराम कर लेने के बारे में उतरी है।”
3. यानी बीवियों की ख़ुशी की ख़ातिर एक हलाल चीज़ को हराम कर लेने का जो काम नबी (सल्ल०) से हो गया है यह अगरचे आपके इतने ज़्यादा अहम ज़िम्मेदारीवाले मंसब के लिहाज़ से मुनासिब न था, लेकिन यह कोई गुनाह भी न था कि इसपर पकड़ की जाए। इसलिए अल्लाह तआला ने सिर्फ़ टोककर उसका सुधार कर देने पर बस किया और आप (सल्ल०) की इस ग़लती को माफ़ कर दिया।
قَدۡ فَرَضَ ٱللَّهُ لَكُمۡ تَحِلَّةَ أَيۡمَٰنِكُمۡۚ وَٱللَّهُ مَوۡلَىٰكُمۡۖ وَهُوَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 1
(2) अल्लाह ने तुम लोगों के लिए अपनी क़समों की पाबन्दी से निकलने का तरीक़ा मुक़र्रर कर दिया है।4 अल्लाह तुम्हारा मौला (सरपरस्त) है, और वही सब कुछ जाननेवाला और हिकमतवाला है।5
4. मतलब यह है कि ‘कफ़्फ़ारा’ देकर (प्रायश्चित-प्रक्रिया पूरी करना) क़समों की पाबन्दी से निकलने का जो तरीक़ा अल्लाह तआला ने सूरा-5 माइदा, आयत-89 में मुक़र्रर कर दिया है उसके मुताबिक़ अमल करके आप उस अहद (क़सम) को तोड़ दें जो आपने एक हलाल चीज़ को अपने ऊपर हराम करने के लिए किया है। यहाँ एक अहम फ़िक़्ही सवाल पैदा होता है, और वह यह है कि क्या यह हुक्म उस सूरत में है जबकि आदमी ने क़सम खाकर हलाल को हराम कर लिया हो, या अपनी जगह ख़ुद ‘तहरीम’ (किसी चीज़ को हराम करना) ही क़सम के बराबर है, चाहे क़सम के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हों या न किए गए हों? इस सिलसिले में फ़क़ीहों के बीच इख़्तिलाफ़ है। एक गरोह कहता है कि सिर्फ़ ‘तहरीम’ क़सम नहीं है। अगर आदमी ने किसी चीज़ को, चाहे वह बीवी हो या कोई दूसरी हलाल चीज़, क़सम खाए बिना अपने ऊपर हराम कर लिया हो तो यह एक बेमतलब बात है जिससे कोई कफ़्फ़ारा लाज़िम नहीं हो जाता, बल्कि आदमी कफ़्फ़ारे के बिना ही वह चीज़ इस्तेमाल कर सकता है जिसे उसने हराम किया है। यह राय मसरूक़, शअ्बी, रबीआ और अबू-सलमा (रह०) की है और इसी को इब्ने-जरीर और तमाम ज़ाहिरियों ने अपनाया है। उनके नज़दीक तहरीम सिर्फ़ उस सूरत में क़सम है जबकि किसी चीज़ को अपने ऊपर हराम करते हुए क़सम के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए जाएँ। इस सिलसिले में उनकी दलील यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने चूँकि हलाल चीज़ को अपने लिए हराम करने के साथ क़सम भी खाई थी, जैसा कि कई रिवायतों में बयान हुआ है, इसलिए अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) से फ़रमाया कि हमने क़समों की पाबन्दी से निकलने का जो तरीक़ा मुक़र्रर कर दिया है उसपर आप अमल करें। दूसरा गरोह कहता है कि क़सम के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए बिना किसी चीज़ को हराम कर लेना अपने आपमें क़सम तो नहीं है, मगर बीवी का मामला इससे अलग है। दूसरी चीज़ों, मसलन किसी कपड़े या खाने को आदमी ने अपने ऊपर हराम कर लिया हो तो यह बेकार बात है, कोई कफ़्फ़ारा दिए बिना आदमी उसको इस्तेमाल कर सकता है। लेकिन अगर बीवी या लौंडी के लिए उसने कहा हो कि उससे हमबिस्तरी मेरे ऊपर हराम है, तो वह हराम न होगी, मगर उसके पास जाने से पहले ‘कफ़्फ़ारए-यमीन’ (इख़्तियार में लेने का कफ़्फ़ारा) लाज़िम होगा। यह राय शाफ़िई आलिमों की है (मुग़निल-मुहताज)। और इसी से मिलती- जुलती राय मालिकी मसलक माननेवालों की भी है (अहकामुल-क़ुरआन लि-इबनिल-अरबी)। तीसरा गरोह कहता है कि तहरीम अपनी जगह ख़ुद क़सम है, चाहे क़सम के अलफ़ाज़ इस्तेमाल न किए गए हों। यह राय हज़रत अबू-बक्र सिद्दीक़ (रज़ि०), हज़रत आइशा (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०), हज़रत ज़ैद-बिन- साबित (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की है। अगरचे इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से एक दूसरी राय बुख़ारी में यह नक़्ल हुई है कि “अगर आदमी ने अपनी बीवी को हराम कर लिया हो तो यह कुछ नहीं है।” मगर इसका मतलब यह बताया गया है कि उनके नज़दीक यह तलाक़ नहीं है, बल्कि क़सम है और इसपर कफ़्फ़ारा है, क्योंकि बुख़ारी, मुस्लिम और इब्ने-माजा में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) का यह क़ौल नक़्ल हुआ है कि हराम ठहरा देने की सूरत में कफ़्फ़ारा है, और नसई में रिवायत है कि इब्ने-अब्बास (रज़ि०) से जब यह मसला पूछा गया तो उन्होंने कहा, “वह तेरे ऊपर हराम तो नहीं है, मगर तुझपर कफ़्फ़ारा लाज़िम है,” और इब्ने-जरीर की रिवायत में इब्ने-अब्बास (रज़ि०) के अलफ़ाज़ ये है, “अगर लोगों ने अपने ऊपर किसी चीज़ को हराम किया हो जिसे अल्लाह ने हलाल किया है तो उनपर लाज़िम है कि अपनी क़समों का कफ़्फ़ारा अदा करें।” यही राय हसन बसरी, अता, ताऊस, सुलैमान-बिन-यसार, इब्ने-जुबैर और क़तादा (रह०) की है, और इसी राय को हनफ़ी आलिमों ने अपनाया है। इमाम अबू-बक्र जस्सास (रह०) कहते हैं कि “आयत ‘लि-म तुहर्रिमु मा अहल्लल्लाहु ल-क’ (तुम उसे क्यों हराम करते हो जिसे अल्लाह ने तुम्हारे लिए हलाल किया है) के ज़ाहिर अलफ़ाज़ इस बात पर दलील नहीं देते कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने तहरीम के साथ-साथ क़सम भी खाई थी, इसलिए यह मानना पड़ेगा कि तहरीम ही क़सम है, क्योंकि इसके बाद अल्लाह तआला ने इसी तहरीम के मामले में क़सम का कफ़्फ़ारा वाजिब किया।” आगे चलकर फिर कहते हैं, “हमारे असहाब (यानी हनफ़ी आलिमों) ने तहरीम को उस सूरत में क़सम क़रार दिया है जबकि उसके साथ तलाक़ की नीयत न हो। अगर किसी शख़्स ने बीवी को हराम कहा तो मानो उसने यह कहा कि ख़ुदा की क़सम मैं तेरे क़रीब नहीं आऊँगा, इसलिए वह ‘ईला’ का करनेवाला हुआ। और अगर उसने किसी खाने-पीने की चीज़ वग़ैरा को अपने लिए हराम कर लिया तो मानो उसने यह कहा कि ख़ुदा की क़सम मैं वह चीज़ इस्तेमाल न करूँगा। क्योंकि अल्लाह तआला ने पहले यह फ़़रमाया कि आप उस चीज़ को क्यों हराम करते हैं जिसे अल्लाह ने आपके लिए हलाल किया है, और फिर फ़रमाया कि अल्लाह ने तुम लोगों के लिए क़समों की पाबन्दी से निकलने का तरीक़ा मुक़र्रर कर दिया है। इस तरह अल्लाह तआला ने तहरीम को क़सम ठहराया और तहरीम का लफ़्ज़ अपने मतलब और शरई हुक्म में क़सम के बराबर हो गया।” इस मक़ाम पर आम लोगों के फ़ायदे के लिए यह बता देना भी मुनासिब मालूम होता है कि बीवी को अपने ऊपर हराम करने, और बीवी के सिवा दूसरी चीज़ों को हराम कर लेने के मामले में फ़क़ीहों के नज़दीक शरई हुक्म क्या है। हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि अगर तलाक़ की नीयत के बिना किसी शख़्स ने बीवी को अपने लिए हराम किया हो, या क़सम खाई हो कि उससे हमबिस्तरी न करेगा, तो यह ‘ईला’ है और इस सूरत में हमबिस्तरी करने से पहले उसे क़सम का कफ़्फ़ारा देना होगा। लेकिन अगर उसने तलाक़ की नीयत से यह कहा हो कि तू मेरे ऊपर हराम है तो मालूम किया जाएगा कि उसकी नीयत क्या थी। अगर तीन तलाक़ की नीयत थी तो तीन तलाक़ पड़ जाएँगी और अगर उससे कम की नीयत थी, चाहे एक की नीयत हो या दो की, तो दोनों सूरतों में एक ही तलाक़ पड़ेगी। और अगर कोई यह कहे कि जो कुछ मेरे लिए हलाल था वह हराम हो गया, तो यह बात बीवी पर उस वक़्त तक चस्पाँ न होगी जब तक उसने बीवी को हराम करने की नीयत से ये अलफ़ाज़ न कहे हों। बीवी के सिवा दूसरी किसी चीज़ को हराम करने की सूरत में आदमी उस वक़्त तक वह चीज़ इस्तेमाल नहीं कर सकता जब तक क़सम का कफ़्फ़ारा अदा न कर दे। (बदाइउस-सनाइ, हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास) शाफ़िई मसलक के आलिम कहते हैं कि बीवी को अगर तलाक़ या ‘ज़िहार’ की नीयत से हराम किया जाए तो जिस चीज़ की नीयत की होगी वह लागू हो जाएगी। रजई तलाक़ (वह तलाक़ जिसमें शौहर को दोबारा ताल्लुक़ क़ायम करने का इख़्तियार रहता है) की नीयत हो तो रजई, बाइन तलाक़ (जिसमें दोबारा मिलन का इख़्तियार नहीं रहता) हो तो बाइन, और ज़िहार की नीयत हो तो ज़िहार। और अगर किसी ने तलाक़ और ज़िहार दोनों की नीयत से तहरीम के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए हों तो उससे कहा जाएगा कि दोनों में से किसी एक चीज़ को अपनाए। क्योंकि तलाक़ और ज़िहार, दोनों एक ही वक़्त में साबित नहीं हो सकते। तलाक़ से निकाह टूट जाता है, और ज़िहार की सूरत में वह बाक़ी रहता है। और अगर किसी नीयत के बिना बस बीवी को हराम क़रार दिया गया हो तो वह हराम न होगी, मगर क़सम का कफ़्फ़ारा देना होगा। और अगर बीवी के सिवा किसी और चीज़ को हराम ठहराया हो तो यह बेकार बात है, उसपर कोई कफ़्फ़ारा नहीं है। (मुग़निल-मुहताज) मालिकी मसलक के आलिम कहते हैं कि बीवी के सिवा दूसरी किसी चीज़ को आदमी अपने ऊपर हराम करे तो न वह हराम होती है और न उसे इस्तेमाल करने से पहले कोई कफ़्फ़ारा देना होता है। लकिन अगर बीवी को कह दे कि तू हराम है, या मेरे लिए हराम है, या मैं तेरे लिए हराम हूँ, तो चाहे उस बीवी से यह बात कहे जिससे हमबिस्तरी हो चुकी हो या उससे जिससे हमबिस्तरी न हुई हो, हर सूरत में ये तीन तलाक़ें हैं, सिवाय यह कि उसने तीन से कम की नीयत की हो। असबग़ (रह०) का कहना है कि अगर कोई यूँ कहे कि जो कुछ मुझपर हलाल था वह हराम है तो जब तक वह बीवी को इससे अलग न करे, उससे बीवी को भी हराम ठहराना लाज़िम आएगा। अल-मुदव्वना में जिस बीवी से हमबिस्तरी हो चुकी है और जिससे हमबिस्तरी नहीं हुई है, दानों में फ़र्क़ किया गया है। जिस बीवी से हमबिस्तरी हो चुकी है उस बीवी को हराम कह देने से तीन ही तलाक़ें पड़ेंगी, चाहे नीयत कुछ भी हो, लेकिन उस बीवी के मामले में जिससे हमबिस्तरी नहीं हुई हो अगर नीयत कम की हो तो जितनी तलाक़ों की नीयत की गई है उतनी ही पड़ेंगी, और किसी ख़ास तादाद की नीयत न हो तो फिर ये तीन तलाक़ें होंगी (हाशिया अद-दुसूक़ी)। क़ाज़ी इब्नुल-अरबी (रह०) ने अहकामुल-क़ुरआन में इस मसले के बारे में इमाम मालिक (रह०) के तीन क़ौल नक़्ल किए हैं। एक यह कि बीवी की तहरीम एक बाइन तलाक़ है। दूसरा यह कि ये तीन तलाक़ें हैं। तीसरा यह कि हमबिस्तरी की जा चुकी बीवी के मामले में तो यह बहरहाल तीन तलाक़ें हैं, अलबत्ता बिना हमबिस्तरीवाली बीवी के मामले में एक की नीयत हो तो एक ही तलाक़ पड़ेगी। फिर कहते हैं कि “सही यह है कि बीवी की तरहीम एक ही तलाक़ है क्योंकि अगर आदमी हराम कहने के बजाय तलाक़ का लफ़्ज़ इस्तेमाल करे और किसी तादाद को बयान न करे तो एक ही तलाक़ पड़ेगी।” इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) से इस मसले में तीन अलग-अलग क़ौल नक़्ल हुए हैं। एक यह कि बीवी को हराम ठहराना, या हलाल को पूरी तरह अपने लिए हराम ठहराना ज़िहार है, चाहे ज़िहार की नीयत हो या न हो। दूसरा यह कि यह तलाक़ का साफ़ इशारा है और इससे तीन तलाक़ें पड़ जाती हैं, चाहे नीयत एक ही की हो। और तीसरा क़ौल यह है कि यह क़सम है, सिवाय यह कि आदमी ने तलाक़ या ज़िहार में किसी की नीयत की हो, और इस सूरत में जो नीयत भी की गई हो वही वाक़े (घटित) होगी। इनमें से पहला क़ौल ही हंबली मसलक में सबसे ज़्यादा मशहूर है। (अल-इनसाफ़)
5. यानी अल्लाह तुम्हारा आक़ा (सरपरस्त) और तुम्हारे मामलों की देखभाल करनेवाला है। वह ज़्यादा बेहतर जानता है कि तुम्हारी भलाई किस चीज़ में है और जो हुक्म उसने दिए हैं सरासर हिकमत की बुनियाद पर दिए हैं। पहली बात कहने का मतलब यह है कि तुम ख़ुदमुख़्तार नहीं हो, बल्कि अल्लाह के बन्दे हो और वह तुम्हारा आक़ा है, इसलिए उसके मुक़र्रर किए हुए तरीक़ों में रद्दो-बदल करने का इख़्तियार तुममें से किसी को हासिल नहीं है। तुम्हारे लिए हक़ यही है कि अपने मामले उसके हवाले करके बस उसकी इताअत (फ़रमाँबरदारी) करते रहो। दूसरी बात कहने से यह हक़ीक़त ज़ेहन में बिठाई गई है कि अल्लाह ने जो तरीक़े और क़ानून मुक़र्रर किए हैं उन सबकी बुनियाद इल्म और हिकमत पर है। जिस चीज़ को हलाल किया है इल्म और हिकमत की बुनियाद पर हलाल किया है और जिसे हराम ठहराया है उसे भी इल्म और हिकमत की बुनियाद पर हराम ठहराया है। यह कोई अलल-टप्प काम नहीं है कि जिसे चाहा हलाल कर दिया और जिसे चाहा हराम ठहरा दिया। लिहाज़ा जो लोग अल्लाह पर ईमान रखते हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि जाननेवाले और हिकमतवाले हम नहीं हैं, बल्कि अल्लाह है और हमारी भलाई इसी में है कि हम उसके दिए हुए हुक्मों की पैरवी करें।
وَإِذۡ أَسَرَّ ٱلنَّبِيُّ إِلَىٰ بَعۡضِ أَزۡوَٰجِهِۦ حَدِيثٗا فَلَمَّا نَبَّأَتۡ بِهِۦ وَأَظۡهَرَهُ ٱللَّهُ عَلَيۡهِ عَرَّفَ بَعۡضَهُۥ وَأَعۡرَضَ عَنۢ بَعۡضٖۖ فَلَمَّا نَبَّأَهَا بِهِۦ قَالَتۡ مَنۡ أَنۢبَأَكَ هَٰذَاۖ قَالَ نَبَّأَنِيَ ٱلۡعَلِيمُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 2
(3) (और यह मामला भी ध्यान देने के क़ाबिल है कि) नबी ने एक बात अपनी एक बीवी से राज़ में कही थी। फिर जब उस बीवी ने (किसी और पर) वह राज़ ज़ाहिर कर दिया, और अल्लाह ने नबी को इस (राज़ खोले जाने) की ख़बर दे दी, तो नबी ने उसपर किसी हद तक (उस बीवी को) ख़बरदार किया और किसी हद तक उसे अनदेखा कर दिया। फिर जब नबी ने उसे (राज़ खोले जाने की) यह बात बताई तो उसने पूछा, “आपको इसकी ख़बर किसने दी?” नबी ने कहा, “मुझे उसने ख़बर दी है जो सब कुछ जानता और ख़ूब बाख़बर है।”6
6. अलग-अलग रिवायतों में अलग-अलग बातों के बारे में यह बयान किया गया है कि फ़ुलाँ बात थी जो नबी (सल्ल०) ने अपनी एक बीवी से राज़ में कही थी और उन बीवी ने एक दूसरी बीवी से इसका ज़िक्र कर दिया। लेकिन हमारे नज़दीक पहले तो उसकी खोज लगाना सही नहीं है, क्योंकि राज़ खोलने पर ही तो अल्लाह तआला यहाँ एक बीवी को टोक रहा है, फिर हमारे लिए कैसे सही हो सकता है कि हम उसकी टटोल करें और उसे खोलने की फ़िक्र में लग जाएँ। दूसरे, जिस मक़सद के लिए यह आयत उतरी है उसके लिहाज़ से यह सवाल सिरे से कोई अहमियत नहीं रखता कि वह राज़ की बात थी क्या। बात के मक़सद से इसका कोई ताल्लुक़ होता तो अल्लाह तआला इसे ख़ुद बयान कर देता। अस्ल ग़रज़ जिसके लिए इस मामले को क़ुरआन मजीद में बयान किया गया है, नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों में से एक को इस ग़लती पर टोकना है कि उनके बड़े मर्तबेवाल शौहर ने जो बात राज़ में उनसे कही थी उसे उन्होंने राज़ न रखा और उसको ज़ाहिर कर दिया। यह सिर्फ़ एक निजी मामला होता, जैसा कि दुनिया के आम मियाँ-बीवी के दरमियान हुआ करता है, तो इसकी कोई ज़रूरत न थी कि अल्लाह तआला सीधे-सीधे वह्य के ज़रिए से नबी (सल्ल०) को इसकी ख़बर देता और फिर सिर्फ़ ख़बर देने पर ही बस न करता, बल्कि उसे अपनी उस किताब में भी दर्ज कर देता जिसे हमेशा-हमेशा के लिए सारी दुनिया को पढ़ना है। लेकिन इसे यह अहमियत जिस वजह से दी गई वह यह थी कि वे बीवी किसी मामूली शौहर की बीवी न थीं, बल्कि उस अज़ीम हस्ती की बीवी थीं जिसे अल्लाह तआला ने इन्तिहाई अहम ज़िम्मेदारी के मंसब पर मुक़र्रर किया था, जिसे हर वक़्त इस्लाम-दुश्मनों और मुशरिकों और मुनाफ़िक़ों के साथ एक लगातार कश्मकश से सामना था, जिसकी रहनुमाई में कुफ़्र की जगह इस्लाम का निज़ाम बरपा करने के लिए एक ज़बरदस्त जिद्दो-जह्द हो रही थी। ऐसी हस्ती के घर में अनगिनत ऐसी बातें हो सकती थीं जो अगर राज़ न रहतीं और वक़्त से पहले ज़ाहिर हो जातीं तो उस बड़े और अहम काम को नुक़सान पहुँच सकता था जो वह हस्ती अंजाम दे रही थी। इसलिए जब उस घर की एक औरत से पहली बार यह ग़लती हुई कि उसने एक ऐसी बात को जो राज़ में उससे कही गई थी किसी और पर ज़ाहिर कर दिया (अगरचे वह कोई ग़ैर न था, बल्कि अपने ही घर का एक शख़्स था) तो उसपर फ़ौरन टोक दिया गया, और छिपकर नहीं, बल्कि क़ुरआन मजीद में खुल्लम-खुल्ला टोका गया, ताकि न सिर्फ़ पाक बीवियों को, बल्कि मुस्लिम समाज के तमाम ज़िम्मेदार लोगों की बीवियों को राज़ों की हिफ़ाज़त की तरबियत दी जाए। आयत में इस सवाल को बिलकुल नज़र-अन्दाज़ कर दिया गया है कि जिस राज़ की बात को खोल दिया गया था वह कोई ख़ास अहमियत रखती थी या नहीं, और उसके खुल जाने से किसी नुक़सान का ख़तरा था या नहीं। पकड़ अपनी जगह ख़ुद इस बात पर की गई है कि राज़ की बात को दूसरे से बयान कर दिया गया। इसलिए कि किसी ज़िम्मेदार हस्ती के घरवालों में अगर यह कमज़ोरी मौजूद हो कि वह राज़ों की हिफ़ाज़त में ढील बरतें तो आज एक ग़ैर-अहम राज़ खुल गया है, कल कोई अहम राज़ खुल सकता है। जिस शख़्स का मंसब समाज में जितना ज़्यादा ज़िम्मेदारी भरा होगा उतने ही ज़्यादा अहम और नाज़ुक मामले उसके घरवालों के इल्म में आएँगे। उनके ज़रिए से राज़ की बातें दूसरों तक पहुँच जाएँ तो किसी वक़्त भी यह कमज़ोरी किसी बड़े ख़तरे का सबब बन सकती है।
إِن تَتُوبَآ إِلَى ٱللَّهِ فَقَدۡ صَغَتۡ قُلُوبُكُمَاۖ وَإِن تَظَٰهَرَا عَلَيۡهِ فَإِنَّ ٱللَّهَ هُوَ مَوۡلَىٰهُ وَجِبۡرِيلُ وَصَٰلِحُ ٱلۡمُؤۡمِنِينَۖ وَٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ بَعۡدَ ذَٰلِكَ ظَهِيرٌ ۝ 3
(4) अगर तुम दोनों अल्लाह से तौबा करती हो (तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है) क्योंकि तुम्हारे दिल सीधी राह से हट गए हैं,7 और अगर नबी के मुक़ाबले में तुमने आपस में जत्थाबन्दी की8 तो जान रखो कि अल्लाह उसका सरपरस्त है और उसके बाद जिबरील और तमाम नेक ईमानवाले और सब फ़रिश्ते उसके साथी और मददगार हैं।9
7. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘फ़क़द सग़त क़ुलूबुकुमा’। ‘सग़्व’ अरबी ज़बान में मुड़ जाने और टेढ़ा हो जाने के मानी में बोला जाता है। शाह वलीयुल्लाह साहब (रह०) ने इस जुमले का तर्जमा किया है, ‘हर आईना कज शुदा अस्त दिले-शुमा’ यानी “तुम्हारे दिल का हर आईना टेढ़ा हो गया है।” और शाह रफ़ीउद्दीन साहब (रह०) का तर्जमा है, “कज (टेढ़े) हो गए हैं दिल तुम्हारे।” हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत सुफ़ियान सौरी (रह०) और हज़रत जह्हाक (रह०) ने इसका मतलब बयान किया है, “तुम्हारे दिल सीधी राह से हट गए हैं।” इमाम राज़ी (रह०) इसका मतलब बयान करते हुए कहते हैं, “हक़ से हट गए हैं, और हक़ से मुराद अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का हक़ है।” और अल्लामा आलूसी (रह०) इसका मतलब यह बताते हैं, “तुमपर वाजिब तो यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) जो कुछ पसन्द करें उसे पसन्द करने में और जो कुछ आप नापसन्द करें उसे नापसन्द करने में आप (सल्ल०) का साथ दो। मगर तुम्हारे दिल इस मामले में आप (सल्ल०) का साथ देने से हटकर आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त की तरफ़ मुड़ गए हैं।”
8. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘व इन् त-ज़ा ह-रा अलैहि’। ‘तज़ाहुर’ का मतलब है किसी के मुक़ाबले में आपस में मदद करना या किसी के ख़िलाफ़ एका करना। शाह वलीयुल्लाह साहब (रह०) ने इस जुमले का तर्जमा किया है, “अगर बाहम मुत्तफ़िक़ शुवेद बर रंजानीदने-पैग़म्बर।” (अगर पैग़म्बर को दुख पहुँचाने पर तुम दोनों ने आपस में इत्तिफ़ाक़ कर लिया है) शाह अब्दुल-क़ादिर साहब का तर्जमा है, “अगर तुम दोनों चढ़ाई करोगी उसपर।” मौलाना अशरफ़ अली साहब (रह०) का तर्जमा है, “और अगर इसी तरह पैग़म्बर के मुक़ाबले में तुम दोनों कार्रवाइयाँ करती रहीं।” और मौलाना शब्बीर अहमद उसमानी साहब ने इसका मतलब बयान करते हुए लिखा है, “अगर तुम दोनों इसी तरह की कार्रवाइयाँ और मुज़ाहरे करती रहीं।” आयत में साफ़ तौर से दो औरतों से बात कही गई है, और मौक़ा-महल से मालूम होता है कि ये औरतें नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों में से हैं, क्योंकि इस सूरा की पहली आयत से पाँचवीं आयत तक लगातार नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों के मामलों पर ही बात हो रही है। इस हद तक तो बात ख़ुद क़ुरआन मजीद के अन्दाज़े-बयान से ज़ाहिर हो रही है। अब रहा यह सवाल कि ये दोनों बीवियाँ कौन थीं, और वह मामला क्या था जिसपर यह डाँट पड़ी है, इसकी तफ़सील हमें हदीस में मिलती है। मुसनदे-अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम, तिरमिज़ी और नसई में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की एक लम्बी रिवायत नक़्ल हुई है, जिसमें कुछ लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ यह क़िस्सा बयान किया गया है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं— “मैं एक मुद्दत से इस फ़िक्र में था कि हज़रत उमर (रज़ि०) से पूछूँ कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की बीवियों में से वह कौन-सी दो बीवियाँ थीं जिन्होंने नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में जत्थाबन्दी कर ली थी और जिनके बारे में अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी है कि : ‘इन् ततूबा इलल्लाहि फ़क़द स-ग़त क़ुलूबुकुमा’ (अगर तुम दोनों अल्लाह से तौबा करती हो तो यह तुम्हारे लिए बेहतर है, क्योंकि तुम्हारे दिल सीधी राह से हट गए हैं)। लेकिन उनके रोब की वजह से मेरी हिम्मत न पड़ती थी। आख़िर एक बार वे हज के लिए तशरीफ़ ले गए और मैं उनके साथ गया। वापसी पर रास्ते में एक जगह उनको वुज़ू कराते हुए मुझे मौक़ा मिल गया और मैंने यह सवाल पूछ लिया। उन्होंने जवाब दिया, “वह आइशा और हफ़सा थीं।” फिर उन्होंने बयान करना शुरू किया कि : “हम क़ुरैश के लोग अपनी औरतों को दबाकर रखने के आदी थे। जब हम मदीना आए तो हमें यहाँ ऐसे लोग मिले जिनपर उनकी बीवियाँ हावी थीं, और यही सबक़ हमारी औरतें भी उनसे सीखने लगीं। एक दिन मैं अपनी बीवी पर नाराज़ हुआ तो क्या देखता हूँ कि वह मुझे पलटकर जवाब दे रही है। (अस्ल अलफ़ाज़ हैं ‘फ़-इज़ा हि-य तुराजिउनी)। मुझे यह बहुत नागवार हुआ कि वह मुझे पलटकर जवाब दे। उसने कहा, आप इस बात पर क्यों बिगड़ते हैं कि मैं आपको पलटकर जवाब दूँ? ख़ुदा की क़सम, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की बीवियाँ नबी (सल्ल०) को मुँह-दर-मुँह जवाब देती हैं (अस्ल लफ़्ज़ है ‘लियुरा जिअ्नहू) और उनमें से कोई नबी (सल्ल०) से दिन-दिन-भर रूठी रहती है (बुख़ारी की रिवायत में है कि नबी सल्ल० उससे दिन भर नाराज़ रहते हैं)। यह सुनकर मैं घर से निकला और हफ़्सा के यहाँ गया (जो हज़रत उमर की बेटी और नबी सल्ल० की बीवी थीं)। मैंने उससे पूछा, ‘क्या तू अल्लाह के रसूल को मुँह-दर-मुँह जवाब देती है?’ उसे कहा, ‘हाँ।’ मैंने पूछा, ‘और क्या तुममें से कोई दिन भर उनसे रूठी रहती है?’ (बुख़ारी की रिवायत में है कि नबी सल्ल० दिन-भर उससे नाराज़ रहते हैं)। उसने कहा, ‘हाँ।’ मैंने कहा, ‘नामुराद हो गई और घाटे में पड़ गई वह औरत जो तुममें से ऐसा करे। क्या तुममें से कोई इस बात से निडर हो गई है कि अपने रसूल के ग़ज़ब की वजह से अल्लाह उसपर ग़ज़बनाक हो जाए और वह हलाकत में पड़ जाए? अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से ज़बान-दराज़ी न कर (यहाँ भी वही अलफ़ाज़ हैं ‘ला तुराजिई) और न उनसे किसी चीज़ की माँग कर, मेरे माल से तेरा जो जी चाहे माँग लिया कर। तू इस बात से किसी धोखे में न पड़ कि तेरी पड़ोसन (मुराद हैं हज़रत आइशा रज़ि०) तुझसे ज़्यादा ख़ूबसूरत और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को ज़्यादा प्यारी है।’ इसके बाद मैं वहाँ से निकलकर उम्मे-सलमा (रज़ि०) के पास पहुँचा जो मेरी रिश्तेदार थीं, और मैंने इस मामले में उनसे बात की। उन्होंने कहा, ‘इब्ने-ख़त्ताब, तुम भी अजीब आदमी हो। हर मामले में तुमने दख़ल दिया यहाँ तक कि अब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और उनकी बीवियों के मामले में भी दख़ल देने चले हो।’ उनकी इस बात ने मेरी हिम्मत तोड़ दी। फिर ऐसा हुआ कि मेरा एक अनसारी पड़ोसी रात के वक़्त मेरे घर आया और उसने मुझे पुकारा। हम दोनों बारी-बारी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मजलिस में हाज़िर होते थे और जो बात किसी की बारी के दिन होती थी वह दूसरे को बता दिया करता था। ज़माना वह था जब हमें ग़स्सान के हमले का ख़तरा लगा हुआ था। उसके पुकारने पर जब मैं निकला तो उसने कहा कि एक बड़ा हादिसा पेश आ गया है। मैंने कहा, ‘क्या ग़स्सानी चढ़ आए हैं?’ उसने कहा, ‘नहीं, इससे भी ज़्यादा बड़ा मामला है। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है।’ मैंने कहा, ‘बरबाद हो गई और नामुराद हो गई हफ़सा, (बुख़ारी के अलफ़ाज़ हैं ‘रग़ि-म अन्फ़ु हफ़सा व आइशा’) मुझे पहले ही अन्देशा था कि यह हानेवाली बात है।” इसके आगे का क़िस्सा हमने छोड़ दिया है जिसमें हज़रत उमर (रज़ि०) ने बताया है कि दूसरे दिन सुबह नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में जाकर उन्होंने किस तरह नबी (सल्ल०) का ग़ुस्सा ठण्डा करने की कोशिश की। इस क़िस्से को हमने मुसनदे-अहमद और बुख़ारी की रिवायतें इकट्ठी करके जमा किया है। इसमें हज़रत उमर (रज़ि०) ने ‘मुराजअत’ का जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किया है उसे लुग़वी मानी (शाब्दिक अर्थ) में नहीं लिया जा सकता, बल्कि मौक़ा-महल ख़ुद बता रहा है कि यह लफ़्ज़ मुँहफट जवाब देने के मानी में इस्तेमाल हुआ है, और हज़रत उमर (रज़ि०) का अपनी बेटी से यह कहना कि ‘ला तुराजिई रसूलल्लाह’ साफ़ तौर पर इस मानी में है कि नबी (सल्ल०) से ज़बान-दराज़ी न किया कर। इस तर्जमे को कुछ लोग ग़लत कहते हैं और उनका एतिराज़ यह है कि ‘मुराजअत’ का तर्जमा पलटकर जवाब देना, या मुँहफट जवाब देना तो सही है, मगर इसका तर्जमा ‘ज़बान-दराज़ी’ सही नहीं है। लेकिन यह एतिराज़ करनेवाले लोग इस बात को नहीं समझते कि अगर कमतर दर्जे का आदमी अपने से बड़े मर्तबे के आदमी को पलटकर जवाब दे, या मुँहफट जवाब दे तो इसी का नाम ज़बान-दराज़ी है। मसलन बाप अगर बेटे को किसी बात पर डाँटे या उसके किसी काम पर नाराज़ी ज़ाहिर करे और बेटा उसपर अदब से ख़ामोश रहने या ग़लती को मानने के बजाय पलटकर जवाब देने पर उतर आए, तो इसको ज़बान-दराज़ी के सिवा और कुछ नहीं कहा जा सकता। फिर जब यह मामला बाप और बेटे के दरमियान नहीं, बल्कि अल्लाह के रसूल और उम्मत के किसी शख़्स के बीच हो तो सिर्फ़ एक बेवक़ूफ़ आदमी ही यह कह सकता है कि इसका नाम ज़बान-दराज़ी नहीं है। कुछ दूसरे लोग हमारे इस तर्जमे को बेअदबी क़रार देते हैं, हालाँकि यह बेअदबी अगर हो सकती थी तो उस सूरत में जबकि हम अपनी तरफ़ से इस तरह के अलफ़ाज़ हज़़रत हफ़सा (रज़ि०) के बारे में इस्तेमाल करने की जुरअत करते। हमने तो हज़रत उमर (रज़ि०) के अलफ़ाज़ का सही मतलब अदा किया है, और ये अलफ़ाज़ उन्होंने अपनी बेटी को उसके क़ुसूर पर डाँटते हुए इस्तेमाल किए हैं। इसे बेअदबी कहने का मतलब यह है कि या तो बाप अपनी बेटी को डाँटते हुए भी अदब से बात करे, या फिर उसकी डाँट का तर्जमा करनेवाला अपनी तरफ़ से उसको बाअदब कलाम बना दे। इस जगह पर सोचने के क़ाबिल बात अस्ल में यह है कि अगर मामला सिर्फ़ ऐसा ही हलका और मामूली-सा था कि नबी (सल्ल०) कभी अपनी बीवियों को कुछ कहते थे और वे पलटकर जवाब दे दिया करती थीं, तो आख़िर इसको इतनी अहमियत क्यों दी गई कि क़ुरआन मजीद में अल्लाह तआला ने सीधे तौर पर ख़ुद इन पाक बीवियों को सख़्ती के साथ ख़बरदार किया? और हज़रत उमर (रज़ि०) ने इस मामले को क्यों इतना सख़्त समझा कि पहले बेटी को डाँटा और फिर नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों में से एक के घर जाकर उनको अल्लाह के ग़ज़ब से डराया? और सबसे ज़्यादा यह कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) क्या आपके ख़याल में ऐसे ही जल्द दुखी हो जानेवाले थे कि ज़रा-ज़रा-सी बातों पर बीवियों से नाराज़ हो जाते थे और क्या, अल्लाह की पनाह, आपके नज़दीक नबी (सल्ल०) की तुनक-मिज़ाजी इस हद तक बढ़ी हुई थी कि ऐसी ही बातों पर नाराज़ होकर आप (सल्ल०) एक बार सब बीवियों से ताल्लुक़ तोड़कर अपने हुजरे में अलग-थलग रहने लगे थे? इन सवालों पर अगर कोई शख़्स ग़ौर करे तो उसे ज़रूर इन आयतों की तफ़सीर में दो ही रास्तों में से एक को अपनाना पड़ेगा। या तो उसे नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों के एहतिराम की इतनी फ़िक्र हो जाए कि वह अल्लाह और उसके रसूल पर हर्फ़ आ जाने की परवाह न करे। या फिर सीधी तरह यह मान ले कि उस ज़माने में इन पाक बीवियों का रवैया सचमुच ऐसा ही क़ाबिले-एतिराज़ हो गया था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का इसपर नाराज़ हो जाना दुरुस्त था और नबी (सल्ल०) से बढ़कर ख़ुद अल्लाह तआला इस बात में सही था कि इन पाक बीवियों को इस रवैये पर सख़्ती से ख़बरदार करे।
9. मतलब यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के मुक़ाबले में जत्थाबन्दी करके तुम अपना ही नुक़सान करोगी, क्योंकि जिसका सरपरस्त और मददगार अल्लाह है और जिबरील और फ़रिश्ते और तमाम नेक ईमानवाले जिसके साथ हैं उसके मुक़ाबले में जत्थाबन्दी करके कोई कामयाब नहीं हो सकता।
عَسَىٰ رَبُّهُۥٓ إِن طَلَّقَكُنَّ أَن يُبۡدِلَهُۥٓ أَزۡوَٰجًا خَيۡرٗا مِّنكُنَّ مُسۡلِمَٰتٖ مُّؤۡمِنَٰتٖ قَٰنِتَٰتٖ تَٰٓئِبَٰتٍ عَٰبِدَٰتٖ سَٰٓئِحَٰتٖ ثَيِّبَٰتٖ وَأَبۡكَارٗا ۝ 4
(5) नामुमकिन नहीं कि अगर नबी तुम सब बीवियों को तलाक़ दे दे तो अल्लाह उसे ऐसी बीवियाँ तुम्हारे बदले में दे दे जो तुमसे बेहतर हों,10 सच्ची मुसलमान, ईमानवाली,11 फ़रमाँबरदार,12 तौबा करनेवाली,13 इबादत करनेवाली,14 और रोज़े रखनेवाली,15 चाहे पहले शादी हो चुकी हो या कुँआरी हों।
10. इससे मालूम हुआ कि क़ुसूर सिर्फ़ हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत हफ़सा (रज़ि०) ही का न था, बल्कि दूसरी पाक बीवियाँ (रज़ि०) भी कुछ-न-कुछ क़ुसूरवार थीं, इसी लिए उन दोनों के बाद इस आयत में बाक़ी सब बीवियों को भी ख़बरदार किया गया। क़ुरआन मजीद में इस बात पर रौशनी नहीं डाली गई कि यह क़ुसूर क्या था, अलबत्ता हदीसों में इसके बारे में कुछ तफ़सीलात आई हैं। उनको हम यहाँ नक़्ल किए देते हैं— बुख़ारी में हज़रत अनस (रज़ि०) की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, “नबी (सल्ल०) की बीवियों ने आपस के रश्क और जलन में मिल-जुलकर नबी (सल्ल०) को तंग कर दिया था। इसपर मैंने उनसे कहा कि “नामुमकिन नहीं कि अगर नबी (सल्ल०) तुमको तलाक़ दे दें तो अल्लाह तुमसे बेहतर बीवियाँ उनको अता फ़रमा दे।” इब्ने-अबी-हातिम ने हज़रत अनस (रज़ि०) के हवाले से हज़रत उमर (रज़ि०) का बयान इन अलफ़ाज़ में नक़्ल किया है, “मुझे ख़बर पहुँची कि नबी (सल्ल०) और आपकी पाक बीवियों (रज़ि०) के बीच कुछ अनबन हो गई है। इसपर मैं उनमें से एक-एक के पास गया और उनसे कहा कि तुम अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तंग करना छोड़ दो वरना अल्लाह तुम्हारे बदले तुमसे बेहतर बीवियाँ नबी (सल्ल०) को अता कर देगा। यहाँ तक कि जब मैं पाक बीवियों में से आख़िरी के पास गया (और बुख़ारी की एक रिवायत के मुताबिक़ यह उम्मे-सलमा थीं) तो उन्होंने मुझे जवाब दिया, ‘ऐ उमर, क्या अल्लाह के रसूल (सल्ल०) औरतों की नसीहत के लिए काफ़ी नहीं हैं कि तुम उन्हें नसीहत करने चले हो?’ इसपर मैं चुप हो गया और इसके बाद अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी।” मुस्लिम में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) की रिवायत है कि हज़रत उमर (रज़ि०) ने उनसे बयान किया कि जब नबी (सल्ल०) अपनी बीवियों से अलग हो गए तो मैं मस्जिदे-नबवी में पहुँचा। देखा कि कुछ लोग फ़िक्रमन्द बैठे हुए कंकड़ियाँ उठा-उठाकर गिरा रहे हैं और आपस में कह रहे हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है। इसके बाद हज़रत उमर (रज़ि०) ने हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत हफ़सा (रज़ि०) के यहाँ अपने जाने और उनको नसीहत करने का ज़िक्र किया, फिर फ़रमाया कि मैं अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और मैंने अर्ज़ किया, “बीवियों के मामले में आप क्यों परेशान होते हैं? अगर आप इनको तलाक़ दे दें तो अल्लाह आपके साथ है, सारे फ़रिश्ते और जिबरील और मीकाईल आपके साथ हैं और मैं और अबू-बक्र और सब ईमानवाले आपके साथ हैं।” मैं अल्लाह का शुक्र अदा करता हूँ कि कम ही ऐसा हुआ है कि मैंने कोई बात कही हो और अल्लाह से यह उम्मीद न रखी हो कि वह मेरी बात को सच कर देगा, चुनाँचे इसके बाद सूरा-66 तहरीम की ये आयतें उतर गईं। फिर मैंने नबी (सल्ल०) से पूछा, “क्या आपने अपनी बीवियों को तलाक़ दे दी है?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं।” इसपर मैंने मस्जिदे-नबवी के दरवाज़े पर खड़े होकर ज़ोरदार आवाज़ से एलान किया कि नबी (सल्ल०) ने अपनी बीवियों को तलाक़ नहीं दी है। बुख़ारी में हज़रत अनस (रज़ि०) से और मुसनदे-अहमद में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) से ये रिवायतें नक़्ल हुई हैं कि नबी (सल्ल०) ने एक महीने तक के लिए अपनी बीवियों से अलग रहने का अहद कर लिया था और अपने बालाख़ाने (ऊपरी कमरे) में बैठ गए थे। 29 दिन गुज़र जाने के बाद जिबरील (अलैहि०) ने आकर कहा कि आपकी क़सम पूरी हो गई है, महीना मुकम्मल हो गया। हाफ़िज़ बद्रुद्दीन ऐनी ने उम्दतुल-क़ारी में हज़रत आइशा (रज़ि०) के हवाले से यह बात नक़्ल की है कि पाक बीवियों की दो पार्टियाँ बन गई थीं। एक में ख़ुद हज़रत आइशा (रज़ि०) और हज़रत हफ़सा (रज़ि०), हज़रत सौदा (रज़ि०) और हज़रत सफ़ीया (रज़ि०) थीं, और दूसरी में हज़रत ज़ैनब (रज़ि०), हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०), और बाक़ी पाक बीवियाँ शामिल थीं। इन तमाम रिवायतों से कुछ अन्दाज़ा हो सकता है कि उस वक़्त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की घरेलू ज़िन्दगी में क्या हालात पैदा हो गए थे जिनकी वजह से यह ज़रूरी हुआ कि अल्लाह तआला बीच में पड़कर पाक बीवियों के रवैये को सुधारे। यह बीवियाँ अगरचे समाज की बेहतरीन औरतें थीं, मगर बहरहाल थीं इनसान ही, और इनसानी तक़ाज़ों से ख़ाली न थीं। कभी उनके लिए लगातार तंगी की ज़िन्दगी गुज़ारना मुश्किल हो जाता था और वे बेसब्र होकर नबी (सल्ल०) से ख़र्च की माँग करने लगतीं, इसपर अल्लाह तआला ने सूरा-33 अहज़ाब की आयतें—28, 29 उतारकर उनको नसीहत की कि अगर तुम्हें दुनिया की ख़ुशहाली दरकार है तो हमारा रसूल तुमको भले तरीक़े से रुख़सत कर देगा, और अगर तुम अल्लाह और उसके रसूल और आख़िरत को चाहती हो तो फिर सब्र और शुक्र के साथ उन तकलीफ़ों को बरदाश्त करो जो रसूल के साथ रहने में मिलें (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-41 और परिचय सूरा-33 अहज़ाब)। फिर कभी औरत की फ़ितरत होने की वजह से उनसे ऐसी बातें हो जाती थीं जो आम तौर से इनसानी ज़िन्दगी में आम चलन के ख़िलाफ़ न थीं, मगर जिस घर में होने की ख़ुशनसीबी अल्लाह ने उनको दी थी, उसकी शान और उसकी बड़ी और अहम ज़िम्मेदारियों से वे मेल न खाती थीं। इन बातों से जब यह अन्देशा पैदा हुआ कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की घरेलू ज़िन्दगी में कहीं कड़वाहट न आ जाए और उसका असर उस बड़े और अहम काम पर न पड़े जो अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) से ले रहा था, तो क़ुरआन मजीद में यह आयत उतारकर उनका सुधार किया गया, ताकि पाक बीवियों के अन्दर अपने उस मक़ाम और मर्तबे की ज़िम्मेदारियों का एहसास पैदा हो जो अल्लाह के आख़िरी रसूल (सल्ल०) की ज़िन्दगी का साथी होने की हैसियत से उनको नसीब हुआ था, और वे अपने आपको आम औरतों की तरह और अपने घर को आम घरों की तरह न समझ बैठें। इस आयत का पहला ही जुमला ऐसा था कि उसको सुनकर पाक बीवियों के दिल काँप उठे होंगे। यह कहने से बढ़कर उनके लिए तंबीह (चेतावनी) और क्या हो सकती थी कि “अगर नबी तुमको तलाक़ दे दे तो नामुमकिन नहीं कि अल्लाह उसको तुम्हारी जगह तुमसे बेहतर बीवियाँ दे दे।” पहले तो नबी (सल्ल०) से तलाक़ मिल जाने का ख़याल ही उनकी बरदाश्त से बाहर था, इसपर यह बात और भी कि तुमसे उम्मुहातुल-मोमिनीन (मुसलमानों की माएँ) होने की ख़ुशनसीबी छिन जाएगी और दूसरी औरतें जो अल्लाह तआला नबी (सल्ल०) के निकाह में लाएगा वे तुमसे बेहतर होंगी। इसके बाद तो यह मुमकिन ही न था कि पाक बीवियों से फिर कभी कोई ऐसी बात होती जिसपर अल्लाह तआला की तरफ़ से पकड़ करने की नौबत आती। यही वजह है कि क़ुरआन मजीद में बस दो ही जगहें हमको ऐसी मिलती हैं जहाँ इन बुज़ुर्ग औरतों को तंबीह (चेतावनी) की गई है। एक सूरा-33 अहज़ाब और दूसरी यह सूरा-66 तहरीम।
11. मुस्लिम और मोमिन के अलफ़ाज़ जब एक साथ लाए जाते हैं तो मुस्लिम का मतलब अमली तौर से अल्लाह के हुक्मों पर अमल करनेवाला होता है और मोमिन से मुराद वह शख़्स होता है जो सच्चे दिल से ईमान लाए। इसलिए बेहतरीन मुसलमान बीवियों की सबसे पहली ख़ासियत यह है कि वे सच्चे दिल से अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) और उसके दीन पर ईमान रखती हों, और अमली तौर पर अपने अख़लाक़, आदतों, ख़सलतों और बरताव में अल्लाह के दीन की पैरवी करनेवाली हों।
12. इसके दो मतलब हैं, और दानों ही यहाँ मुराद हैं। एक, अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) के हुक्म पर चलनेवाली। दूसरा, अपने शौहर की फ़रमाँबरदारी करनेवाली।
13. ‘ताइब’ का लफ़्ज़ जब आदमी की सिफ़त (गुण) के तौर पर आए तो इसका मतलब बस एक ही बार तौबा कर लेनेवाले नहीं होते, बल्कि ऐसे शख़्स होते हैं जो हमेशा अल्लाह से अपने क़ुसूरों की माफ़ी माँगता रहे, जिसका ज़मीर (अन्तरात्मा) ज़िन्दा और बेदार हो, जिसे हर वक़्त अपनी कमज़ोरियों और ग़लतियों का एहसास होता रहे और वह उनपर शर्मिन्दा हो। ऐसे शख़्स में कभी घमण्ड, अकड़ और ख़ुदपसन्दी के जज़्बात पैदा नहीं होते, बल्कि वह फ़ितरी तौर पर नर्म मिज़ाज और बरदाश्त करनेवाला होता है।
14. इबादत-गुज़ार आदमी बहरहाल कभी उस शख़्स की तरह ख़ुदा से ग़ाफ़िल नहीं हो सकता जिस तरह इबादत न करनेवाला इनसान होता है। एक औरत को बेहतरीन बीवी बनाने में इस चीज़ का भी बड़ा दख़ल है। इबादत-गुज़ार होने की वजह से वह अल्लाह की क़ायम की हुई हदों की पाबन्दी करती है, हक़वालों के हक़ पहचानती और अदा करती है, उसका ईमान हर वक़्त ताज़ा और ज़िन्दा रहता है, उससे इस बात की ज़्यादा उम्मीद की जा सकती है कि वह अल्लाह के हुक्मों की पैरवी से मुँह नहीं मोड़ेगी।
15. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘साइहात’ इस्तेमाल हुआ है। कई सहाबा (रज़ि०) और बहुत-से ताबिईन ने इसका मतलब ‘साइमात’ (रोज़ा रखनेवाली औरतें) बयान किया है। रोज़े के लिए ‘सियाहत’ (सैर करने) का लफ़्ज़ जिस मुनासबत से इस्तेमाल किया जाता है वह यह है कि पुराने ज़माने में ‘सियाहत’ ज़्यादातर राहिब (संन्यासी) और दरवेश लोग करते थे, और उनके साथ सफ़र का कोई सामान नहीं होता था। अकसर उनको उस वक़्त तक भूखा रहना पड़ता था जब तक कहीं से कुछ खाने को न मिल जाए। इस वजह से रोज़ा भी एक तरह की दरवेशी ही है कि जब तक इफ़्तार का वक़्त न आए रोज़ेदार भी भूखा रहता है। इब्ने-जरीर ने सूरा-9 तौबा, आयत 12 की तफ़सीर में हज़रत आइशा (रज़ि०) का क़ौल नक़्ल किया है कि “इस उम्मत की सियाहत (यानी दरवेशी) रोज़ा है।” इस जगह पर नेक बीवियों की तारीफ़ में उनकी रोज़ेदारी का ज़िक्र इस मानी में नहीं किया गया है कि वे सिर्फ़ रमज़ान के फ़र्ज़ रोज़े रखती हैं, बल्कि इस मानी में है कि वे फ़र्ज़ के अलावा नफ़्ल रोज़े भी रखा करती हैं। नबी (सल्ल०) की पाक बीवियों को मुख़ातब करके अल्लाह तआला का यह कहना कि अगर नबी (सल्ल०) तुमको तलाक़ दे दें तो अल्लाह तआला तुम्हारे बदले में उनको ऐसी बीवियाँ देगा जिनमें ये और ये ख़ूबियाँ होंगी, इसका मतलब यह नहीं है कि पाक बीवियों में ये ख़ूबियाँ नहीं थीं। बल्कि इसका मतलब यह है कि तुम्हारे जिस ग़लत रवैये की वजह से नबी (सल्ल०) को तकलीफ़ हो रही है उसको छोड़ दो और उसके बजाय अपना सारा ध्यान इस कोशिश में लगाओ कि तुम्हारे अन्दर ये पाकीज़ा ख़ूबियाँ आला दर्जे में पैदा हों।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ قُوٓاْ أَنفُسَكُمۡ وَأَهۡلِيكُمۡ نَارٗا وَقُودُهَا ٱلنَّاسُ وَٱلۡحِجَارَةُ عَلَيۡهَا مَلَٰٓئِكَةٌ غِلَاظٞ شِدَادٞ لَّا يَعۡصُونَ ٱللَّهَ مَآ أَمَرَهُمۡ وَيَفۡعَلُونَ مَا يُؤۡمَرُونَ ۝ 5
(6) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, बचाओ अपने आपको और अपने घरवालों को उस आग से जिसका ईंधन इनसान और पत्थर होंगे,16 जिसपर बहुत ही तेज़ मिज़ाज और सख़्त पकड़ रखनेवाले फ़रिश्ते मुक़र्रर होंगे जो कभी अल्लाह के हुक्म की नाफ़रमानी नहीं करते और जो हुक्म भी उन्हें दिया जाता है उसपर अमल करते हैं।17
16. यह आयत बताती है कि एक शख़्स की ज़िम्मेदारी सिर्फ़ अपनी ज़ात ही को ख़ुदा के अज़ाब से बचाने की कोशिश तक महदूद नहीं है, बल्कि उसका काम यह भी है कि फ़ितरत के निज़ाम ने जिस ख़ानदान के मुखिया होने का बोझ उसपर डाला है उसको भी वह, जहाँ तक उससे हो सके, ऐसी तालीम और तरबियत दे जिससे वे ख़ुदा के पसन्दीदा इनसान बनें, और अगर वे जहन्नम की राह पर जा रहे हों तो जहाँ तक भी उसके बस में हो उनको इससे रोकने की कोशिश करे। उसको सिर्फ़ यही फ़िक्र नहीं होनी चाहिए कि उसके बाल-बच्चे दुनिया में ख़ुशहाल हों, बल्कि इससे भी बढ़कर उसे यह फ़िक्र होनी चाहिए कि वे आख़िरत में जहन्नम का ईंधन न बनें। बुख़ारी में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुममें से हर एक ‘निगराँ’ है और हर एक अपने ‘मातहतों’ के मामले में जवाबदेह है। हुक्मराँ ‘निगराँ’ है और वह अपनी ‘जनता’ के मामले में जवाबदेह है। मर्द अपने घरवालों का ‘निगराँ’ है और वह उनके बारे में जवाबदेह है। और औरत अपने शौहर के घर और बच्चों की ‘निगराँ’ है और वह उनके बारे में जवाबदेह है।” जहन्नम का ईंधन पत्थर होंगे, इससे मुराद शायद पत्थर का कोयला है। इब्ने-मसऊद (रज़ि०), इब्ने-अब्बास (रज़ि०), मुजाहिद (रह०), इमाम मुहम्मद बाक़िर, (रह०) और सुद्दी (रह०) कहते हैं कि ये गन्धक के पत्थर होंगे।
17. यानी उनको जो सज़ा भी किसी मुजरिम पर लागू करने का हुक्म दिया जाएगा उसे ज्यों-का-त्यों लागू करेंगे और ज़रा रहम न खाएँगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَا تَعۡتَذِرُواْ ٱلۡيَوۡمَۖ إِنَّمَا تُجۡزَوۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 6
(7) (उस वक़्त कहा जाएगा कि) ऐ इनकार करनेवालो, आज बहाने पेश न करो, तुम्हें तो वैसा ही बदला दिया जा रहा है जैसे तुम अमल कर रहे थे।18
18. इन दोनों आयतों के बयान का अन्दाज़ अपने अन्दर मुसलमानों के लिए सख़्त तंबीह (चेतावनी) लिए हुए है। पहली आयत में मुसलमानों को मुख़ातब करके कहा गया कि अपने-आपको और अपने घरवालों को इस भयानक अज़ाब से बचाओ। और दूसरी आयत में फ़रमाया गया कि जहन्नम में अज़ाब देते वक़्त हक़ के इनकारियों से यह कहा जाएगा। इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात ज़ाहिर होती है कि मुसलमानों को दुनिया में वह रवैया अपनाने से बचना चाहिए जिसकी बदौलत आख़िरत में उनका अंजाम हक़ के इनकारियों के साथ हो।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ تُوبُوٓاْ إِلَى ٱللَّهِ تَوۡبَةٗ نَّصُوحًا عَسَىٰ رَبُّكُمۡ أَن يُكَفِّرَ عَنكُمۡ سَيِّـَٔاتِكُمۡ وَيُدۡخِلَكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ يَوۡمَ لَا يُخۡزِي ٱللَّهُ ٱلنَّبِيَّ وَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مَعَهُۥۖ نُورُهُمۡ يَسۡعَىٰ بَيۡنَ أَيۡدِيهِمۡ وَبِأَيۡمَٰنِهِمۡ يَقُولُونَ رَبَّنَآ أَتۡمِمۡ لَنَا نُورَنَا وَٱغۡفِرۡ لَنَآۖ إِنَّكَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 7
(8) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो, अल्लाह से तौबा करो, ख़ालिस तौबा,19 नामुमकिन नहीं कि अल्लाह तुम्हारी बुराइयाँ तुमसे दूर कर दे और तुम्हें ऐसी जन्नतों में दाख़िल कर दे जिनके नीचे नहरें बह रही होंगी।20 यह वह दिन होगा जब अल्लाह अपने नबी को और उन लोगों को जो उसके साथ ईमान लाए हैं रुसवा न करेगा।21 उनका नूर उनके आगे-आगे और उनके दाहिनी तरफ़ दौड़ रहा होगा और वे कह रहे होंगे कि ऐ हमारे रब, हमारा नूर हमारे लिए मुकम्मल कर दे और हमको माफ़ कर दे, तू हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।22
19. अस्ल अरबी में ‘तौबतन-नसूहा’ के अलफ़ाज़ इस्तेमाल हुए हैं। ‘नुस्ह’ का मतलब अरबी ज़बान में ख़ुलूस और ख़ैरख़ाही है। ख़ालिस शहद को ‘अस्ले-नासिह’ कहते हैं, जिसको मोम और दूसरी मिलावटों से पाक कर दिया गया हो। फटे हुए कपड़े को सी देने और उधड़े हुए कपड़े की मरम्मत कर देने के लिए ‘नसाहतस-सौब’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया जाता है। इसलिए तौबा को ‘नसूह’ कहने का मतलब लुग़त (शब्दकोश) के एतिबार से या तो यह होगा कि आदमी ऐसी ख़ालिस तौबा करे जिसमें दिखावे और निफ़ाक़ (कपट) का कोई निशान तक न हो। या यह कि आदमी ख़ुद अपने आपके साथ ख़ैरख़ाही करे और गुनाह से तौबा करके अपने आपको बुरे अंजाम से बचा ले। या यह कि गुनाह से उसके दीन में जो दरार पड़ गई है, तौबा के ज़रिए से उसका सुधार कर दे। या यह कि तौबा करके वह अपनी ज़िन्दगी को इतना सँवार ले कि दूसरों के लिए वह नसीहत का सबब हो और उसकी मिसाल को देखकर दूसरे लोग भी उसी की तरह अपना सुधार कर लें। ये तो हैं ‘तौबतन-नसूहा’ के वे मतलब जो उसके लुग़वी (शब्दकोशीय) मानी से ज़ाहिर होते हैं। रहा उसका शरई मतलब तो उसकी तशरीह हमें उस हदीस में मिलती है जो इब्ने-अबी-हातिम ने ज़िर्र-बिन-हुबैश के ज़रिए से नक़्ल की है। वे कहते हैं कि मैंने हज़रत उबई-बिन-कअ्ब (रज़ि०) से ‘तौबए-नसूह’ का मतलब पूछा तो उन्होंने कहा कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से यही सवाल किया था। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इससे मुराद यह है कि जब तुमसे कोई क़ुसूर हो जाए तो अपने गुनाह पर शर्मिन्दा हो, फिर शर्मिन्दगी के साथ उसपर अल्लाह से इसतिग़फ़ार करो और आइन्दा कभी उस काम को न करो।” यही मतलब हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से भी नक़्ल हुआ है, और एक रिवायत में हज़रत उमर (रज़ि०) ने तौबए-नसूह का मतलब यह बयान किया है कि तौबा के बाद आदमी गुनाह को दोबारा करना तो दूर की बात, उसको करने का इरादा तक न करे, (इब्ने-जरीर)। हज़रत अली (रज़ि०) ने एक बार एक बद्दू (देहाती) को जल्दी-जल्दी तौबा और इसतिग़फ़ार के अलफ़ाज़ ज़बान से अदा करते सुना तो फ़रमाया, “यह ‘तौबतुल-कज़्ज़ाबीन’ (महाझूठों की तौबा) है।” उसने पूछा, “फिर सही तौबा क्या है?” कहा, “उसके साथ छः चीज़ें होनी चाहिएँ— (1) जो कुछ हो चुका है उसपर शर्मिन्दा हो। (2) अपने जिन फ़र्ज़ों और ज़िम्मेदारियों से लापरवाही बरती हो उनको अदा कर। (3) जिसका हक़ मारा हो उसको वापस कर। (4) जिसको तकलीफ़ पहुँचाई हो उससे माफ़ी माँग। (5) आगे के लिए पक्का इरादा कर ले कि इस गुनाह को दोबारा न करेगा। और (6) अपने नफ़्स (मन) को अल्लाह की फ़रमाँबरदारी में घुला दे जिस तरह तूने अब तक उसे गुनाह का आदी बनाए रखा है और उसकी फ़रमाँबरदारी का मज़ा चखा जिस तरह अब तक तू उसे गुनाह की मिठास का मज़ा चखाता रहा है।” (कश्शाफ़) तौबा के सिलसिले में कुछ बातें और भी हैं, जिन्हें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। एक यह कि तौबा हक़ीक़त में किसी गुनाह पर इसलिए शर्मिन्दा होना है कि वह अल्लाह की नाफ़रमानी है। वरना किसी गुनाह से इसलिए परहेज़ का अहद कर लेना कि वह मसलन सेहत के लिए नुक़सानदेह है, या किसी बदनामी का, या किसी माली नुक़सान का सबब है, तौबा नहीं कहा जाता। दूसरी यह कि जिस वक़्त आदमी को एहसास हो जाए कि उससे अल्लाह की नाफ़रमानी हुई है, उसी वक़्त उसे तौबा करनी चाहिए और जिस शक्ल में भी मुमकिन हो बिना देर किए उसकी भरपाई कर देनी चाहिए, उसे टालना मुनासिब नहीं है। तीसरी यह कि तौबा करके बार-बार उसे तोड़ते चले जाना और तौबा को खेल बना लेना और उसी गुनाह को बार-बार करना जिससे तौबा की गई हो, तौबा के झूठे होने की दलील है, क्योंकि तौबा की अस्ल रूह गुनाह पर शर्मसार और शर्मिन्दा होना है, और बार-बार तौबा तोड़ना इस बात की अलामत है कि उसके पीछे कोई शर्मसारी या शर्मिन्दगी मौजूद नहीं है। चैथी यह कि जो शख़्स सच्चे दिल से तौबा करके यह पक्का इरादा कर चुका हो कि फिर उस गुनाह को न करेगा, उससे अगर इनसानी कमज़ोरी की वजह से वही गुनाह फिर हो जाए तो पिछला गुनाह ताज़ा न होगा, अलबत्ता उसे बादवाले गुनाह पर फिर तौबा करनी चाहिए और ज़्यादा सख़्ती के साथ पक्का इरादा करना चाहिए कि आगे से वह तौबा तोड़ने का जुर्म न करेगा। पाँचवीं बात यह कि हर बार जब गुनाह याद आए, तौबा को दोहराना लाज़िम नहीं है, लेकिन अगर उसका नफ़्स अपनी पिछली गुनाहवाली ज़िन्दगी की याद से लुत्फ़ ले रहा हो तो बार-बार तौबा करनी चाहिए, यहाँ तक कि गुनाहों की याद उसके लिए लज़्ज़त के बजाय शर्मिन्दगी का सबब बन जाए। इसलिए कि जिस शख़्स ने सचमुच अल्लाह के डर की वजह से गुनाह से तौबा की हो वह इस ख़याल से मज़ा नहीं ले सकता कि वह ख़ुदा की नाफ़रमानी करता रहा है। उससे मज़ा लेना इस बात की अलामत है कि ख़ुदा के डर ने उसके दिल में जड़ नहीं पकड़ी है।
20. आयत के अलफ़ाज़ ध्यान देने के क़ाबिल हैं। यह नहीं फ़रमाया है कि तौबा कर लो तो तुम्हें ज़रूर माफ़ कर दिया जाएगा और ज़रूर ही तुम जन्नत में दाख़िल कर दिए जाओगे, बल्कि यह उम्मीद दिलाई गई है कि अगर तुम सच्चे दिल से तौबा करोगे तो नामुमकिन नहीं कि अल्लाह तुम्हारे साथ यह मामला करे। इसका मतलब यह है कि गुनाहगार की तौबा क़ुबूल कर लेना और उसे सज़ा देने के बजाय जन्नत दे देना अल्लाह पर वाजिब नहीं है, बल्कि यह सरासर उसकी मेहरबानी होगी कि वह माफ़ भी करे और इनाम भी दे। बन्दे को उससे माफ़ी की उम्मीद तो ज़रूर रखनी चाहिए, मगर इस भरोसे पर गुनाह नहीं करना चाहिए कि तौबा से माफ़ी मिल जाएगी।
21. यानी उनके बेहतरीन आमाल का बदला ज़ाया (नष्ट) न करेगा। इनकारियों और मुनाफ़िक़ों को यह कहने का मौक़ा हरगिज़ न देगा कि इन लोगों ने ख़ुदापरस्ती भी की तो उसका क्या बदला पाया। रुसवाई बग़ावत करनेवालों और नाफ़रमानों के हिस्से में आएगी न कि वफ़ादारों और फ़रमाँबरदारों के हिस्से में।
22. इस आयत को सूरा-57 हदीद की आयतें—12, 13 के साथ मिलाकर पढ़ा जाए तो यह बात साफ़ मालूम हो जाती है कि ईमानवालों के आगे-आगे नूर के दौड़ने की यह कैफ़ियत उस वक़्त पेश आएगी जब वे हश्र के मैदान से जन्नत की तरफ़ जा रहे होंगे। वहाँ हर तरफ़ घुप्प अँधेरा होगा जिसमें वे सब लोग ठोकरें खा रहे होंगे जिनके हक़ में जहन्नम का फ़ैसला होगा, और रौशनी सिर्फ़ ईमानवालों के साथ होगी, जिसके सहारे वे अपना रास्ता तय कर रहे होंगे। इस नाज़ुक मौक़े पर अँधेरों में भटकनेवाले लोगों का रोना-चिल्लाना सुन-सुनकर ईमानवालों पर डर की कैफ़ियत छा रही होगी, अपने क़ुसूरों और अपनी कोताहियों का एहसास करके उन्हें अन्देशा हो रहा होगा कि कहीं हमारा नूर भी न छिन जाए और हम इन बदनसीबों की तरह ठोकरें खाते न रह जाएँ, इसलिए वे दुआ करेंगे कि ऐ हमारे रब! हमारे क़ुसूर माफ़ कर दे और हमारे नूर को जन्नत में पहुँचने तक हमारे लिए बाक़ी रख। इब्ने-जरीर ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का क़ौल नक़्ल किया है कि ‘रब्बना अतमिम लना नू-रना’ का मतलब यह है कि “वे अल्लाह तआला से दुआ करेंगे कि उनका नूर उस वक़्त तक बाक़ी रखा जाए और उसे बुझने न दिया जाए जब तक वे पुल-सिरात से ख़ैरियत से न गुज़र जाएँ।” हज़रत हसन बसरी, मुजाहिद और ज़ह्हाक की तफ़सीर भी क़रीब-क़रीब यही है। इब्ने-कसीर (रह०) ने उनका यह क़ौल नक़्ल किया है कि “ईमानवाले जब देखेंगे कि मुनाफ़िक़ नूर से महरूम रह गए हैं तो वे अपने हक़ में अल्लाह से नूर के पूरा होने की दुआ करेंगे।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, हाशिया-17)
يَٰٓأَيُّهَا ٱلنَّبِيُّ جَٰهِدِ ٱلۡكُفَّارَ وَٱلۡمُنَٰفِقِينَ وَٱغۡلُظۡ عَلَيۡهِمۡۚ وَمَأۡوَىٰهُمۡ جَهَنَّمُۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 8
(9) ऐ नबी! इनकार करनेवालो और मुनाफ़िक़ों से जिहाद (संघर्ष) करो और उनके साथ सख़्ती से पेश आओ।23 उनका ठिकाना जहन्नम है, और वह बहुत बुरा ठिकाना है।
23. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, हाशिया-82।
ضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا لِّلَّذِينَ كَفَرُواْ ٱمۡرَأَتَ نُوحٖ وَٱمۡرَأَتَ لُوطٖۖ كَانَتَا تَحۡتَ عَبۡدَيۡنِ مِنۡ عِبَادِنَا صَٰلِحَيۡنِ فَخَانَتَاهُمَا فَلَمۡ يُغۡنِيَا عَنۡهُمَا مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗا وَقِيلَ ٱدۡخُلَا ٱلنَّارَ مَعَ ٱلدَّٰخِلِينَ ۝ 9
(10) अल्लाह इनकार करनेवालों के मामले में नूह और लूत की बीवियों को मिसाल के तौर पर पेश करता है। वे हमारे दो नेक बन्दों के निकाह में थीं, मगर उन्होंने अपने इन शौहरों से ख़ियानत24 की और वे अल्लाह के मुक़ाबले में उनके कुछ भी न काम आ सके। दोनों से कह दिया गया कि जाओ आग में जानेवालों के साथ तुम भी चली जाओ।
24. यह ख़ियानत (धोखा) इस मानी में नहीं है कि उन्होंने बदकारी की थी, बल्कि इस मानी में है कि उन्होंने ईमान की राह में हज़रत नूह (अलैहि०) और हज़रत लूत (अलैहि०) का साथ न दिया, बल्कि उनके मुक़ाबले में इस्लाम के दुश्मनों का साथ देती रहीं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि “किसी नबी की बीवी कभी बदकार नहीं रही है। इन दोनों औरतों की ख़ियानत अस्ल में दीन के मामले में थी। इन्होंने हज़रत नूह (अलैहि०) और हज़रत लूत (अलैहि०) का दीन क़ुबूल नहीं किया। हज़रत नूह (अलैहि०) की बीवी अपनी क़ौम के ज़ालिमों को ईमान लानेवालों की ख़बरें पहुँचाया करती थी। और लूत (अलैहि०) की बीवी अपने शौहर के यहाँ आनेवाले लोगों की ख़बर अपनी क़ौम के बदकार लोगों को दे दिया करती थी।” (इब्ने-जरीर)
وَضَرَبَ ٱللَّهُ مَثَلٗا لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ ٱمۡرَأَتَ فِرۡعَوۡنَ إِذۡ قَالَتۡ رَبِّ ٱبۡنِ لِي عِندَكَ بَيۡتٗا فِي ٱلۡجَنَّةِ وَنَجِّنِي مِن فِرۡعَوۡنَ وَعَمَلِهِۦ وَنَجِّنِي مِنَ ٱلۡقَوۡمِ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 10
(11) और ईमानवालों के मामले में अल्लाह फ़िरऔन की बीवी की मिसाल पेश करता है, जबकि उसने दुआ की, “ऐ मेरे रब! मेरे लिए अपने यहाँ जन्नत में एक घर बना दे और मुझे फ़िरऔन और उसके अमल से बचा ले25 और ज़ालिम क़ौम से मुझको नजात दे।”
25. यानी फ़िरऔन जो बुरे आमाल कर रहा है उनके बुरे अंजाम में मुझे शरीक न कर।
وَمَرۡيَمَ ٱبۡنَتَ عِمۡرَٰنَ ٱلَّتِيٓ أَحۡصَنَتۡ فَرۡجَهَا فَنَفَخۡنَا فِيهِ مِن رُّوحِنَا وَصَدَّقَتۡ بِكَلِمَٰتِ رَبِّهَا وَكُتُبِهِۦ وَكَانَتۡ مِنَ ٱلۡقَٰنِتِينَ ۝ 11
(12) और इमरान की बेटी मरयम26 की मिसाल देता है जिसने अपनी शर्मगाह की हिफ़ाज़त की थी,27 फिर हमने उसके अन्दर अपनी तरफ़ से रूह फूँक दी,28 और उसने अपने रब के फ़रमानों और उसकी किताबों को सच माना और वह फ़रमाँबरादर लोगों में से थी।29
26. हो सकता है कि हज़रत मरयम (अलैहि०) के बाप ही का नाम इमरान हो, या उनको इमरान की बेटी इसलिए कहा गया हो कि वह आले-इमरान से थीं।
27. यह यहूदियों के इस इलज़ाम को रद्द करना है कि उनके पेट से हज़रत ईसा (अलैहि०) की पैदाइश, अल्लाह की पनाह, किसी गुनाह का नतीजा थी। सूरा-4 निसा, आयत-156 में इन ज़ालिमों के इसी इलज़ाम को बड़ा लाँछन कहा गया है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिया-190)
28. यानी बिना इसके कि उनका किसी मर्द से ताल्लुक़ होता, उनके पेट में अपनी तरफ़ से एक जान डाल दी। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-4 निसा, हाशिए—212, 213; सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-89)
29. जिस मक़सद के लिए इन तीन तरह की औरतों को मिसाल में पेश किया गया है उसकी तशरीह हम इस सूरा के परिचय में कर चुके हैं, इसलिए उसको दोहराने की ज़रूरत नहीं है।