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سُورَةُ قُرَيۡشٍ

106. अल-क़ुरैश

(मक्का में उतरी—आयतें 4)

परिचय

नाम

इस सूरा की पहली ही आयत के शब्द 'क़ुरैश' को इस सूरा का नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

क़ुरआन के ज़्यादातर टीकाकार इस सूरा के मक्की होने पर सहमत हैं, और इसके मक्की होने की खुली गवाही स्वयं इस सूरा के शब्द 'रब-ब हाज़ल-बैति' (इस घर के रब) में मौजूद है। अगर यह मदीना में उतरी होती तो ख़ाना-ए-काबा के लिए 'इस घर' के शब्द कैसे सही हो सकते थे, बल्कि इसके विषय का सूरा-105 अल-फ़ील के विषय से इतना गहरा ताल्लुक़ है कि शायद इसका अवतरण उसके तुरन्त बाद ही हुआ होगा।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

इस सूरा को ठीक-ठीक समझने के लिए ज़रूरी है कि उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को दृष्टि में रखा जाए जिससे इसके विषय और सूरा फ़ील के विषय का गहरा ताल्लुक़ है। क़ुरैश का क़बीला नबी (सल्लo) के परदादा क़ुसई-बिन-किलाब के समय तक हिजाज़ में बिखरा हुआ था। सबसे पहले क़ुसई ने उसको मक्का में जमा किया और बैतुल्लाह (काबा) का प्रबंध इस क़बीले के हाथ में आ गया। इसी वजह से क़ुसई को 'मुजम्मेअ' (जमा करनेवाला) की उपाधि दी गई। क़ुसई के बाद उनके बेटे अब्दे-मुनाफ़ और अब्दुद्दार के बीच मक्का राज्य के पद बाँट दिए गए। अब्दे-मुनाफ़ के चार बेटे थे- हाशिम, अब्दे-शम्स, मुत्तलिब और नौफ़ल। इनमें से हाशिम, अब्दुल-मुत्तलिब के बाप, अल्लाह के रसूल (सल्लo) के परदादा, के मन में सबसे पहले यह विचार आया कि उस अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार में हिस्सा लिया जाए जो अरब के रास्ते से पूर्वी देशों और शाम (सीरिया) और मिस्र के बीच होता था और साथ ही अरबों की ज़रूरत का सामान भी ख़रीदकर लाया जाए, ताकि रास्ते में पड़नेवाले क़बीले उनसे माल खरीदें और मक्का की मंडी में देश के भीतरी भाग के व्यापारी ख़रीदारी के लिए आने लगें। दूसरे अरबी क़ाफ़िलों के मुक़ाबले में क़ुरैश को यह सुविधा प्राप्त थी कि रास्ते के तमाम क़बीले बैतुल्लाह (काबा) के सेवक होने की हैसियत से उनका सम्मान करते थे। उन्हें इस बात का कोई ख़तरा न था कि रास्ते में कहीं उनके क़ाफ़िलों पर डाका मारा जाएगा। रास्ते के क़बीले उनसे वह भारी कर भी वुसूल न कर सकते थे जो दूसरे क़ाफ़िलों से लिया जाता था। हाशिम ने इन्हीं तमाम पहलुओं को देखकर व्यापार की स्कीम बनाई और अपनी इस स्कीम में अपने बाक़ी तीनों भाइयों को शामिल किया। शाम के ग़स्सानी बादशाह से हाशिम ने, हबश के बादशाह से अब्दे-शम्स ने, यमनी सरदारों से मुत्तलिब ने और इराक़ तथा फ़ारस के शासकों से नौफ़ल ने व्यापारिक रिआयतें प्राप्त कीं। इस तरह इन लोगों का व्यवसाय बड़ी तेज़ी से तरक़्क़ी करता चला गया। इसी वजह से ये चारों भाई ‘मुत्तजरीन’ (तिजारत पेशा, व्यापारी) के नाम से प्रसिद्ध हो गए और जो सम्पर्क उन्होंने आस-पास के क़बीलों और राज्यों से बनाए थे, उनके आधार पर उनको 'असहाबुल-ईलाफ़' भी कहा जाता था जिसका शाब्दिक अर्थ है 'मुहब्बत पैदा करनेवाले'। इस कारोबार की वजह से क़ुरैश के लोगों को शाम, मिस्र, इराक़, ईरान, यमन और हबश के देशों से ताल्लुक़ात के वे अवसर प्राप्त हुए, और विभिन्न देशों की संस्कृति और सभ्यता से सीधे-सीधे सम्पर्क होने की वजह से उसके सोचने-समझने का मानदंड इतना ऊँचा हो गया कि अरब का कोई दूसरा क़बीला उनकी टक्कर का न रहा। धन दौलत की दृष्टि से भी वे अरब में सबसे ऊपर हो गए और मक्का अरब प्रायद्वीप का सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण व्यावसायिक केंद्र बन गया। इन अन्तर्राष्ट्रीय सम्पर्कों का एक बड़ा लाभ यह भी हुआ कि इराक़ से ये लोग वह लिपि लेकर आए जो क़ुरआन मजीद लिखने में इस्तेमाल हुई। अरब के किसी दूसरे क़बीले में इतने पढ़े-लिखे लोग न थे जितने क़ुरैश में थे। इन्हीं कारणों से नबी (सल्लo) ने फ़रमाया था कि- "क़ुरैश लोगों के लीडर हैं" (मुस्नदे-अहमद, अम्र-बिन-आस की रिवायतें)। क़ुरैश इसी तरह प्रगति पर प्रगति करते जा रहे थे कि मक्का पर अबरहा की चढ़ाई की घटना घटी। अगर उस समय अबरहा इस पाक शहर को जीतने और काबा को ढा देने में सफल हो जाता तो अरब में क़ुरैश ही की नहीं, स्वयं काबा की धाक भी समाप्त हो जाती, लेकिन जब अल्लाह ने अपनी शक्ति का यह चमत्कार दिखाया कि परिंदों की फ़ौज ने कंकड़ियाँ मार-मारकर अबरहा की लाई हुई 60 हज़ार हबशी फ़ौज को नष्ट-विनष्ट कर दिया तो काबा के 'बैतुल्लाह' (अल्लाह का घर) होने पर तमाम अरबवालों का ईमान पहले से कहीं अधिक मज़बूत हो गया और उसके साथ क़ुरैश की धाक भी देश भर में पहले से अधिक क़ायम हो गई।

वार्ता का उद्देश्य

नबी (सल्लo) के समय में ये हालात चूँकि सभी को मालूम थे, इसलिए उनके उल्लेख की ज़रूरत न थी। यही कारण है कि इस सूरा के चार छोटे-छोटे वाक्यों में क़ुरैश से सिर्फ़ इतनी बात कहने ही को पर्याप्त समझा गया कि जब तुम स्वयं इस घर (काबा) को बुतों का नहीं, बल्कि अल्लाह का घर मानते हो और जब तुम्हें अच्छी तरह मालूम है कि वह अल्लाह ही है जिसने तुम्हें इस घर के कारण यह शांति दी, तुम्हारे कारोबार को यह बढ़ोत्तरी दी और तुम्हें उपवास और भुखमरी से बचाकर यह ख़ुशहाली दी, तो तुम्हें उसी की बंदगी करनी चाहिए।

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سُورَةُ قُرَيۡشٍ
106. अल क़ुरैश
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के से जो बड़ा कृपाशील और अत्यन्त दयावान है।
لِإِيلَٰفِ قُرَيۡشٍ
(1) चूँकि क़ुरैश हिलमिल गए1
1. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘लिईलाफ़ि क़ुरैशिन’। ‘ईलाफ़’ ‘अल्फ़’ से है जिसका मतलब आदी होना, हिले-मिले होना, फटने के बाद मिल जाना और किसी चीज़ की आदत अपना लेना है। उर्दू ज़बान में ‘उलफ़त’ और ‘मालूफ़’ के अलफ़ाज़ भी इसी से लिए गए हैं। ईलाफ़ से पहले जो लाम आया है उसके बारे में अरबी ज़बान के कुछ माहिरों ने यह राय ज़ाहिर की है कि यह अरबी मुहावरे के मुताबिक़ ताज्जुब के मानी में है। मसलन अरब कहते हैं कि ‘लिज़ैदिंव-वमा स-नअ्ना बिही’ यानी ‘ज़रा इस ज़ैद को देखो कि हमने इसके साथ कैसा अच्छा सुलूक किया और इसने हमारे साथ क्या किया।’ इसी लिए ‘लिईलाफ़ि क़ुरैशिन’ का मतलब यह है कि क़ुरैश का रवैया बड़ा ही ताज्जुब के क़ाबिल है कि अल्लाह ही की मेहरबानी की बदौलत वे बिखर जाने के बाद इकट्ठे हुए और उन तिजारती सफ़रों के आदी हो गए जो उनकी ख़ुशहाली का ज़रिआ बने हुए हैं, और वे अल्लाह ही की बन्दगी से मुँह मोड़ रहे हैं। यह राय अख़फ़श, किसाई और फ़र्रा की है, और इस राय को इब्ने-जरीर ने तरजीह देते हुए लिखा है कि अरब जब इस्लाम के बाद किसी बात का ज़िक्र करते हैं तो वही बात यह ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी समझी जाती है कि उसके होते जो शख़्स कोई रवैया अपना रहा है वह क़ाबिले-ताज्जुब है। इसके बरख़िलाफ़ ख़लील-बिन-अहमद, सीबवैह और ज़मख़शरी कहते हैं कि यह ‘लाम’ वजह बताने के लिए है और इसका ताल्लुक़ आगे के जुमले ‘फ़लयअ्बुदू रब-ब हाज़ल-बैति’ से है। मतलब इसका यह है कि यूँ तो क़ुरैश पर अल्लाह की नेमतों की कोई गिनती नहीं, लेकिन अगर किसी और नेमत की वजह से नहीं तो इसी एक नेमत की वजह से वे अल्लाह की बन्दगी करें कि उसकी मेहरबानी से वे इन तिजारती सफ़रों के आदी हुए, क्योंकि यह अपने आपमें उनपर उसका बहुत बड़ा एहसान है।
فَلۡيَعۡبُدُواْ رَبَّ هَٰذَا ٱلۡبَيۡتِ ۝ 1
(3) इसलिए उन्हें चाहिए कि इस घर के रब की इबादत करें3,
3. इस घर से मुराद काबा है और अल्लाह के इस फ़रमान का मतलब यह है कि क़ुरैश को यह नेमत इसी घर की बदौलत हासिल हुई है, और वे ख़ुद मानते हैं कि वे 360 बुत उसके रब नहीं हैं, जिनकी ये पूजा कर रहे हैं, बल्कि सिर्फ़ अल्लाह ही इसका रब है। उसी ने उनको असहाबे-फ़ील (हाथीवालों) के हमले से बचाया। उसी से उन्होंने अबरहा की फ़ौज के मुक़ाबले में मदद की दुआ की थी। उसके घर की पनाह में आने से पहले जब वे अरब में बिखरे हुए थे तो उनकी कोई हैसियत न थी। अरब के आम क़बीलों की तरह वे भी एक नस्ल के बिखरे हुए गरोह थे। मगर जब मक्का में वे इस घर के आस-पास इकट्ठा हुए और इसकी ख़िदमत अंजाम देने लगे तो सारे अरब में इज़्ज़त और एहतिराम के क़ाबिल हो गए, और हर तरफ़ उनके तिजारती क़ाफ़िले बिना किसी डर और ख़तरे के आने-जाने लगे। इसलिए उन्हें जो कुछ भी नसीब हुआ है इस घर के रब की बदौलत नसीब हुआ है, इसलिए उसी की इनको इबादत करनी चाहिए।
ٱلَّذِيٓ أَطۡعَمَهُم مِّن جُوعٖ وَءَامَنَهُم مِّنۡ خَوۡفِۭ ۝ 2
(4) जिसने उन्हें भूख से बचाकर खाने को दिया4 और डर से बचाकर अम्न दिया।5
4. यह इशारा है इस तरफ़ कि मक्का में आने से पहले जब क़ुरैश अरब में बिखरे हुए थे तो भूखों मर रहे थे। यहाँ आने के बाद उनके लिए रोज़ी के दरवाज़े खुलते चले गए और उनके हक़ में हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की वह दुआ लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ पूरी हुई— “ऐ परवरदिगार, मैंने अपनी औलाद के एक हिस्से को तेरे मुहतरम घर के पास एक बिना पानी और बिना हरियाली की घाटी में ला बसाया है, ताकि ये नमाज़ क़ायम करें, इसलिए तू लोगों के दिलों को इनका शौक़ रखनेवाला बना और इन्हें खाने को फल दे।” (सूरा-14 इबराहीम, आयत-37)
5. यानी जिस डर से अरब की सरज़मीन में कोई महफ़ूज़ नहीं है उससे ये महफ़ूज़ हैं। अरब का हाल उस दौर में यह था कि पूरे देश में कोई बस्ती ऐसी न थी जिसके लोग रातों को चैन से सो सकते हों, क्योंकि हर वक़्त उनको यह खटका लगा रहता था कि न जाने कब कोई लूटमार करनेवाला गरोह अचानक उसपर छापा मार दे। कोई आदमी ऐसा न था जो अपने क़बीले की हदों से बाहर क़दम रखने की हिम्मत कर सके, क्योंकि इक्का-दुक्का आदमी का ज़िन्दा बचकर वापस आ जाना, या गिरफ़्तार होकर ग़ुलाम बन जाने से बचा रहना मानो मुश्किल बात थी। कोई क़ाफ़िला ऐसा न था जो इत्मीनान से सफ़र कर सके, क्योंकि रास्ते में जगह-जगह उसपर डाका पड़ने का ख़तरा था, और रास्ते-भर के असर रखनेवाले क़बीलों के सरदारों को रिश्वतें देकर तिजारती क़ाफ़िले ख़ैरियत से गुज़र सकते थे। लेकिन क़ुरैश मक्का में बिलकुल महफ़ूज़ थे, उन्हें किसी दुश्मन के हमले का ख़तरा न था। उनके छोटे और बड़े हर तरह के क़ाफ़िले मुल्क के हर हिस्से में आते-जाते थे, कोई यह मालूम हो जाने के बाद कि क़ाफ़िला हरम (काबा) के ख़ादिमों का है, उन्हें छेड़ने की जुरअत न कर सकता था। हद यह है कि अकेला क़ुरैशी भी अगर कहीं से गुज़र रहा हो और कोई उससे छेड़-छाड़ करे तो सिर्फ़ लफ़्ज़ ‘हरमी’ (मैं काबा से ताल्लुक़ रखनेवाला हूँ) या ‘अना मिन हरमिल्लाह’ (मैं काबा का रहनेवाला हूँ) कह देना काफ़ी हो जाता था, यह सुनते ही उठे हुए हाथ रुक जाते थे।
إِۦلَٰفِهِمۡ رِحۡلَةَ ٱلشِّتَآءِ وَٱلصَّيۡفِ ۝ 3
(2) (यानी) जाड़े और गर्मी के सफ़रों से हिलमिल गए,2
2. गर्मी और जाड़े के सफ़रों से मुराद यह है कि गर्मी के ज़माने में क़ुरैश के तिजारती सफ़र शाम (सीरिया) और फ़िलस्तीन की तरफ़ होते थे, क्योंकि वे ठण्डे इलाक़े हैं, और जाड़े के ज़माने में वे दक्षिणी अरब की तरफ़ होते थे, क्योंकि वे गर्म इलाक़े हैं।