55. अर-रहमान
(मक्का में उतरी, आयतें 78)
परिचय
नाम
पहले ही शब्द को इस सूरा का नाम दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जो शब्द ‘अर-रहमान' (कृपाशील) से आरम्भ होती है। यह नाम इस सूरा की विषय-वस्तु से भी गहरा सम्बन्ध रखता है, बयोंकि इसमें शुरू से आख़िर तक अल्लाह की दयालुता के गुणसूचक प्रतीकों और परिणामों का उल्लेख किया गया है।
उतरने का समय
विद्वान टीकाकार आम तौर से इस सूरा को मक्की कहते हैं। यद्यपि कुछ उल्लेखों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), इक्रिमा (रज़ि०) और क़तादा (रज़ि०) से यह कथन उद्धृत है कि यह सूरा मदनी है, लेकिन एक तो इन्हीं महानुभावों से कुछ दूसरे उल्लेखों में इसके विपरीत भी उदधृत है। दूसरे इसकी विषय-वस्तु मदनी सूरतों की अपेक्षा मक्की सूरतों से अधिक मिलती-जुलती है, बल्कि अपनी विषय वस्तु की दृष्टि से यह मक्का के भी आरम्भिक काल की मालूम होती है। और साथ ही कई विश्वसनीय उल्लेखों से इसका प्रमाण मिलता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा में ही हिजरत से कई साल पहले उतरी थी।
विषय और वार्ता
क़ुरआन मजीद की एकमात्र यही सूरा है जिसमें इंसान के साथ, ज़मीन के दूसरे स्वतन्त्र प्राणी, जिन्नों को भी सीधे तौर पर सम्बोधित किया गया है। यद्यपि क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ऐसे विवरण मौजूद हैं जिनसे मालूम होता है कि इंसानों की तरह जिन्न भी एक स्वतन्त्र और उत्तरदायी प्राणी हैं और उनमें भी इंसानों ही की तरह काफ़िर (इंकारी) और मोमिन (ईमानवाले) और आज्ञाकारी तथा अवज्ञाकारी पाए जाते हैं और उनमें भी ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो नबियों और आसमानी किताबों (ईश्वरीय ग्रन्थों) पर ईमान लाए हैं, लेकिन यह सूरा निश्चित रूप से इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरआन की दावत (आह्वान) जिन्नों और इंसानों दोनों के लिए है और नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी केवल ईसानों तक ही सीमित नहीं है। सूरा के आरम्भ में तो सम्बोधन इंसानों से ही है, क्योंकि ज़मीन में खिलाफ़त (आधिपत्य) उन्हीं को प्राप्त है, अल्लाह के रसूल उन्हीं में से आए हैं और अल्लाह की किताबें उन्हीं की भाषाओं में उतारी गई हैं। लेकिन आगे चलकर आयत 13 से इंसान और जिन्न दोनों को समान रूप से सम्बोधित किया गया है और एक ही दावत (आमंत्रण) दोनों के सामने पेश की गई है। सूरा की वार्ताएँ छोटे-छोटे वाक्यों में एक विशेष क्रम से पेश हुई हैं।
आयत 1 से 4 तक यह विषय वर्णन किया गया है कि इस क़ुरआन की शिक्षा अल्लाह की ओर से है और यह ठीक उसकी रहमत (दयालुता) का तक़ाज़ा है कि वह इस शिक्षा से तमाम इंसानों के मार्गदर्शन का प्रबंध करे। आयत 5-6 में बताया गया है कि जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था अल्लाह के शासन के अन्तर्गत चल रही है और जमीन एवं आसमान की हर चीज़ उसके आदेश के अधीन है। आयत 7 से 9 में एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बताया गया है कि अल्लाह ने जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं प्रणाली को ठीक-ठीक सन्तुलन के साथ न्याय पर क़ायम किया है और इस व्यवस्था की प्रकृति यह चाहती है कि इसमें रहनेवाले अपने अधिकार की सीमाओं में भी न्याय ही पर क़ायम रहें और सन्तुलन न बिगाड़ें। आयत 10 से 25 तक अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कार और कौशल को बयान करने के साथ-साथ उसकी उन नेमतों की ओर इशारे किए गए हैं जिनसे इंसान और जिन्न लाभ उठा रहे हैं। आयत 26 से 30 तक इंसान और जिन्न दोनों को यह हक़ीक़त याद दिलाई गई है कि इस जगत् में एक अल्लाह के सिवा कोई अक्षय और अमर नहीं है, और छोटे से बड़े तक कोई अस्तित्त्ववान ऐसा नहीं जो अपने अस्तित्त्व और अस्तित्त्वगत आवश्यकताओं के लिए अल्लाह का मुहताज न हो। आयत 31 से 36 तक इन दोनों गिरोहों को सचेत किया गया है कि शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब तुमसे कड़ी पूछ-गच्छ की जाएगी। इस पूछ-गछ से बचकर तुम कहीं नहीं जा सकते। आयत 37-38 में बताया गया है कि यह कड़ी पूछ-गच्छ क़ियामत के दिन होनेवाली है। आयत 39 से 45 तक अपराधी इंसानों और जिन्नों का अंजाम बताया गया है और आयत 46 से सूरा के अन्त तक विस्तारपूर्वक उन इनामों का उल्लेख हुआ है जो आख़िरत में नेक इंसानों और जिन्नों को प्रदान किए जाएंगे।
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