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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن

55. अर-रहमान

(मक्का में उतरी, आयतें 78)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द को इस सूरा का नाम दिया गया है। इसका अर्थ यह है कि यह वह सूरा है जो शब्द ‘अर-रहमान' (कृपाशील) से आरम्भ होती है। यह नाम इस सूरा की विषय-वस्तु से भी गहरा सम्बन्ध रखता है, बयोंकि इसमें शुरू से आख़िर तक अल्लाह की दयालुता के गुणसूचक प्रतीकों और परिणामों का उल्लेख किया गया है।

उतरने का समय

विद्वान टीकाकार आम तौर से इस सूरा को मक्की कहते हैं। यद्यपि कुछ उल्लेखों में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), इक्रिमा (रज़ि०) और क़तादा (रज़ि०) से यह कथन उद्धृत है कि यह सूरा मदनी है, लेकिन एक तो इन्हीं महानुभावों से कुछ दूसरे उल्लेखों में इसके विपरीत भी उदधृत है। दूसरे इसकी विषय-वस्तु मदनी सूरतों की अपेक्षा मक्की सूरतों से अधिक मिलती-जुलती है, बल्कि अपनी विषय वस्तु की दृष्टि से यह मक्का के भी आरम्भिक काल की मालूम होती है। और साथ ही कई विश्वसनीय उल्लेखों से इसका प्रमाण मिलता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा में ही हिजरत से कई साल पहले उतरी थी।

विषय और वार्ता

क़ुरआन मजीद की एकमात्र यही सूरा है जिसमें इंसान के साथ, ज़मीन के दूसरे स्वतन्त्र प्राणी, जिन्नों को भी सीधे तौर पर सम्बोधित किया गया है। यद्यपि क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर ऐसे विवरण मौजूद हैं जिनसे मालूम होता है कि इंसानों की तरह जिन्न भी एक स्वतन्त्र और उत्तरदायी प्राणी हैं और उनमें भी इंसानों ही की तरह काफ़िर (इंकारी) और मोमिन (ईमानवाले) और आज्ञाकारी तथा अवज्ञाकारी पाए जाते हैं और उनमें भी ऐसे गिरोह मौजूद हैं जो नबियों और आसमानी किताबों (ईश्वरीय ग्रन्थों) पर ईमान लाए हैं, लेकिन यह सूरा निश्चित रूप से इस बात को स्पष्ट करती है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरआन की दावत (आह्‍वान) जिन्नों और इंसानों दोनों के लिए है और नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी केवल ईसानों तक ही सीमित नहीं है। सूरा के आरम्भ में तो सम्बोधन इंसानों से ही है, क्योंकि ज़मीन में खिलाफ़त (आधिपत्य) उन्हीं को प्राप्त है, अल्लाह के रसूल उन्हीं में से आए हैं और अल्लाह की किताबें उन्हीं की भाषाओं में उतारी गई हैं। लेकिन आगे चलकर आयत 13 से इंसान और जिन्न दोनों को समान रूप से सम्बोधित किया गया है और एक ही दावत (आमंत्रण) दोनों के सामने पेश की गई है। सूरा की वार्ताएँ छोटे-छोटे वाक्यों में एक विशेष क्रम से पेश हुई हैं।

आयत 1 से 4 तक यह विषय वर्णन किया गया है कि इस क़ुरआन की शिक्षा अल्लाह की ओर से है और यह ठीक उसकी रहमत (दयालुता) का तक़ाज़ा है कि वह इस शिक्षा से तमाम इंसानों के मार्गदर्शन का प्रबंध करे। आयत 5-6 में बताया गया है कि जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था अल्लाह के शासन के अन्तर्गत चल रही है और जमीन एवं आसमान की हर चीज़ उसके आदेश के अधीन है। आयत 7 से 9 में एक दूसरा महत्त्वपूर्ण तथ्य यह बताया गया है कि अल्लाह ने जगत् की सम्पूर्ण व्यवस्था एवं प्रणाली को ठीक-ठीक सन्तुलन के साथ न्याय पर क़ायम किया है और इस व्यवस्था की प्रकृति यह चाहती है कि इसमें रहनेवाले अपने अधिकार की सीमाओं में भी न्याय ही पर क़ायम रहें और सन्तुलन न बिगाड़ें। आयत 10 से 25 तक अल्लाह की सामर्थ्य के चमत्कार और कौशल को बयान करने के साथ-साथ उसकी उन नेमतों की ओर इशारे किए गए हैं जिनसे इंसान और जिन्न लाभ उठा रहे हैं। आयत 26 से 30 तक इंसान और जिन्न दोनों को यह हक़ीक़त याद दिलाई गई है कि इस जगत् में एक अल्लाह के सिवा कोई अक्षय और अमर नहीं है, और छोटे से बड़े तक कोई अस्तित्त्ववान ऐसा नहीं जो अपने अस्तित्त्व और अस्तित्त्वगत आवश्यकताओं के लिए अल्लाह का मुहताज न हो। आयत 31 से 36 तक इन दोनों गिरोहों को सचेत किया गया है कि शीघ्र ही वह समय आनेवाला है जब तुमसे कड़ी पूछ-गच्छ की जाएगी। इस पूछ-गछ से बचकर तुम कहीं नहीं जा सकते। आयत 37-38 में बताया गया है कि यह कड़ी पूछ-गच्छ क़ियामत के दिन होनेवाली है। आयत 39 से 45 तक अपराधी इंसानों और जिन्नों का अंजाम बताया गया है और आयत 46 से सूरा के अन्त तक विस्तारपूर्वक उन इनामों का उल्लेख हुआ है जो आख़िरत में नेक इंसानों और जिन्नों को प्रदान किए जाएंगे।

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سُورَةُ الرَّحۡمَٰن
55. अर-रहमान
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
ٱلرَّحۡمَٰنُ
(1) रहमान ने
عَلَّمَ ٱلۡقُرۡءَانَ ۝ 1
(2) इस क़ुरआन की तालीम दी है।1
1. यानी इस क़ुरआन की तालीम किसी इनसान के अपने मन से गढ़ी हुई नहीं है, बल्कि इसका सिखानेवाला ख़ुद रहमान (मेहरबान) ख़ुदा है। इस जगह यह बात बयान करने की ज़रूरत नहीं थी कि अल्लाह ने क़ुरआन की यह तालीम (शिक्षा) किसको दी है, क्योंकि लोग उसको मुहम्मद (सल्ल०) की ज़बान से सुन रहे थे, इसलिए हालात के तक़ाज़ों से कलाम का यह मक़सद आप-से-आप ज़ाहिर हो रहा था कि यह तालीम मुहम्मद (सल्ल०) को दी गई है। शुरुआत इस जुमले से करने का पहला मक़सद तो यही बताना है कि नबी (सल्ल०) ख़ुद इसके लिखनेवाले नहीं हैं, बल्कि इस तालीम का देनेवाला अल्लाह तआला है। इसके अलावा दूसरा एक मक़सद और भी है जिसकी तरफ़ लफ़्ज़ रहमान इशारा कर रहा है। अगर बात सिर्फ़ इतनी ही कहनी होती कि यह तालीम अल्लाह की तरफ़ से है, नबी की अपने मन से गढ़ी हुई नहीं है, तो अल्लाह का ज़ाती नाम छोड़कर उसका सिफ़ाती (गुणवाचक) नाम इस्तेमाल करने की ज़रूरत न थी, और सिफ़ाती नाम ही इस्तेमाल करना होता तो सिर्फ़ इस बात को कहने के लिए अल्लाह के नामों में से कोई नाम भी लिया जा सकता था। लेकिन जब यह कहने के बजाय कि 'अल्लाह ने, या ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) ने, या रज़्ज़ाक़ (रोज़ी देनेवाले) ने यह तालीम दी है' कहा यह गया कि इस क़ुरआन की तालीम रहमान ने दी है, तो इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह बात निकल आई कि बन्दों की हिदायत के लिए क़ुरआन मजीद का उतारा जाना सरासर अल्लाह की रहमत है। वह चूँकि अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) पर बेइन्तिहा मेहरबान है, इसलिए उसने यह गवारा न किया कि तुम्हें अंधेरे में भटकता छोड़ दे, और उसकी रहमत ने इस बात का तक़ाज़ा किया कि यह क़ुरआन भेजकर तुम्हें वह इल्म दे जिसपर दुनिया में तुम्हारी सच्चाई और आख़िरत में तुम्हारी कामयाबी का दारोमदार है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ ۝ 2
(3) उसी ने इनसान को पैदा किया2
2. दूसरे लफ़्ज़ों में, चूँकि अल्लाह तआला इनसान का पैदा करनेवाला है, और पैदा करनेवाले ही की यह ज़िम्मेदारी है कि अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) की रहनुमाई करे और उसे वह रास्ता बताए जिससे वह अपने वुजूद का मक़सद पूरा कर सके, इसलिए अल्लाह तआला की तरफ़ से क़ुरआन की इस तालीम का उतरना सिर्फ़ उसके रहमान होने ही का तक़ाज़ा नहीं है, बल्कि उसके ख़ालिक़ (पैदा करनेवाला) होने का भी लाज़िमी और फ़ितरी तक़ाज़ा है। ख़ालिक़ अपनी मख़लूक़ की रहनुमाई न करेगा तो और कौन करेगा? और ख़ालिक़ ही रहनुमाई न करे तो और कौन कर सकता है? और ख़ालिक़ के लिए इससे बड़ा ऐब और क्या हो सकता है कि जिस चीज़ को वह वुजूद में लाए, उसे अपने वुजूद का मक़सद पूरा करने का तरीक़ा न सिखाए? तो हक़ीक़त में अल्लाह तआला की तरफ़ से इनसान की तालीम का इन्तिज़ाम होना अजीब बात नहीं है, बल्कि यह इन्तिज़ाम अगर उसकी तरफ़ से न होता तो ताज्जुब के क़ाबिल होता। पूरी कायनात में जो चीज़ भी उसने पैदा की है उसको सिर्फ़ पैदा करके नहीं छोड़ है दिया है, बल्कि उसको वह बहुत ही मुनासिब बनावट दी है जिससे वह फ़ितरत के निज़ाम में अपने हिस्से का काम करने के क़ाबिल हो सके, और उस काम को अंजाम देने का तरीक़ा उसे सिखाया है। ख़ुद इनसान के अपने जिस्म का एक-एक रोंगटा और एक-एक ख़लिय्या (कोशिका Cell) वह काम सीखकर पैदा हुआ है जो उसे इनसानी जिस्म में अंजाम देना है। फिर आख़िर इनसान बजाय ख़ुद अपने ख़ालिक़ की तालीम और रहनुमाई से बेनियाज़ (निस्पृह) या महरूम कैसे हो सकता था? क़ुरआन मजीद में इस बात को अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग तरीक़ों से समझाया गया है। सूरा-92 लैल (आयत-12) में फ़रमाया, “रहनुमाई करना हमारी ज़िम्मेदारी है।” सूरा-16 नह्ल (आयत-9) में कहा गया, “यह अल्लाह के ज़िम्मे है कि सीधा रास्ता बताए और टेढ़े रास्ते बहुत-से हैं।” सूरा-20 ता-हा (आयतें—47 से 50) में ज़िक्र आता है कि जब फ़िरऔन ने हज़रत मूसा (अलैहि०) की ज़बान से पैग़म्बरी का पैग़ाम सुनकर हैरत से पूछा कि आख़िर वह तुम्हारा रब कौन-सा है जो मेरे पास पैग़म्बर भेजता है, तो हज़रत मूसा (अलैहि०) ने जवाब दिया, “हमारा रब वह है जिसने हर चीज़ को उसकी ख़ास बनावट दी और फिर उसकी रहनुमाई की।” यानी वह तरीक़ा सिखाया जिससे वह वुजूद के निज़ाम में अपने हिस्से का काम कर सके। यही वह दलील है जिससे एक ग़ैर-मुतास्सिब (निष्पक्ष) ज़ेहन इस बात पर मुत्मइन हो जाता है कि इनसान की तालीम के लिए अल्लाह तआला की तरफ़ से पैग़म्बरों और किताबों का आना बिलकुल फ़ितरत का तक़ाज़ा है।
عَلَّمَهُ ٱلۡبَيَانَ ۝ 3
(4) और उसे बोलना सिखाया।3
3. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘बयान' इस्तेमाल हुआ है। इसका एक मतलब तो मन की बात को ज़ाहिर करना है, यानी बोलना और अपना मक़सद और अपनी बात को बयान करना। और दूसरा मतलब है फ़र्क़ और इमतियाज़ (अन्तर) को वाज़ेह करना, जिससे मुराद इस जगह अच्छे-बुरे और भलाई-बुराई का फ़र्क़ है। इन दोनों मतलबों के लिहाज़ से यह छोटा-सा जुमला ऊपर की दलील को मुकम्मल कर देता है। बोलना वह ख़ास और नुमायाँ ख़ूबी है जो इनसान को जानवरों और ज़मीन के दूसरे जानदारों से अलग करती है। यह सिर्फ़ बोलने की ताक़त ही नहीं है, बल्कि इसके पीछे अक़्ल, समझ, सूझ-बूझ, तमीज़ और इरादा और दूसरी ज़ेहनी क़ुव्वतें काम कर रही होती हैं, जिनके बिना इनसान की बोलने की ताक़त काम नहीं कर सकती। इसलिए बोलना अस्ल में इनसान के समझदार और इख़्तियार रखनेवाली मख़लूक़ होने की खुली निशानी है। और यह ख़ास ख़ूबी जब अल्लाह तआला ने इनसान को दी है तो ज़ाहिर है कि इसके लिए तालीम देने का तरीक़ा भी वह नहीं हो सकता जो बेसमझ और बेइख़्तियार मखलूक़ की रहनुमाई के लिए मुनासिब है। इसी तरह इनसान की एक दूसरी ख़ास ख़ूबी यह है कि अल्लाह तआला ने उसके अन्दर एक अख़लाक़ी हिस (नैतिक चेतना Moral Sense) रख दी है जिसकी वजह से वह फ़ितरी तौर पर नेकी और बदी, हक़ और नाहक़, ज़ुल्म और इनसाफ़, सही और ग़लत के बीच फ़र्क़ करता है, और यह ख़ूबी और एहसास इन्तिहाई गुमराही की हालत में भी उसके अन्दर से नहीं निकलता। इन दोनों ख़ास ख़ूबियों का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि इनसान की समझ-बूझ और इख़्तियार वाली ज़िन्दगी के लिए तालीम का तरीक़ा उस पैदाइशी तालीम के तरीक़े से अलग हो जिसके तहत मछली को तैरना और परिन्दे को उड़ना, और ख़ुद इनसानी जिस्म के अन्दर पलक को झपकना, आँख को देखना, कान को सुनना, और मेदे (आमाशय) को हज़म करना सिखाया गया है। इनसान ख़ुद अपनी ज़िन्दगी के इस मैदान में उस्ताद और किताब व मदरसे और तबलीग़ व नसीहत और तहरीर व तक़रीर और बहस व दलील देने जैसे ज़रिओं ही को तालीम का ज़रिआ मानता है और पैदाइशी इल्म और समझ को काफ़ी नहीं समझता। फिर यह बात आख़िर क्यों अजीब हो कि इनसान को पैदा करनेवाले पर उसकी रहनुमाई की जो ज़िम्मेदारी आती है उसे अदा करने के लिए उसने रसूल और किताब को तालीम का ज़रिआ बनाया है? जैसी मख़लूक़ वैसी ही उसकी तालीम। यह सरासर एक अक़्ल में आनेवाली बात है। 'बयान' जिस मख़लूक़ को सिखाया गया हो उसके लिए 'क़ुरआन' ही तालीम का ज़रिआ हो सकता है, न कि कोई ऐसा ज़रिआ जो उन मख़लूक़ात (जानदारों) के लिए मुनासिब है जिन्हें बयान नहीं सिखाया गया है।
ٱلشَّمۡسُ وَٱلۡقَمَرُ بِحُسۡبَانٖ ۝ 4
(5) सूरज और चाँद एक हिसाब के पाबन्द हैं4
4. यानी एक ज़बरदस्त क़ानून और एक अटल ज़ाबिता (नियम) है जिससे ये अज़ीमुश्शान सय्यारे (ग्रह) बंधे हुए हैं। इनसान वक़्त और दिन और तारीख़ों और फ़सलों और मौसमों का हिसाब इसी वजह से कर रहा है कि सूरज के डूबने और निकलने और अलग-अलग मंज़िलों से उसके गुज़रने का जो क़ायदा मुक़र्रर कर दिया गया है उसमें कोई तबदीली पैदा नहीं होती। ज़मीन पर बेहद और बेहिसाब मख़लूक़ ज़िन्दा ही इस वजह से है कि सूरज और चाँद को ठीक-ठीक हिसाब करके ज़मीन से एक ख़ास दूरी पर रखा गया है और इस दूरी में कमी और ज़्यादती सही नाप-तौल से एक ख़ास तरतीब के साथ होती है। वरना ज़मीन से उनकी दूरी किसी हिसाब के बिना बढ़ या घट जाए तो यहाँ किसी का जीना ही मुमकिन न रहे। इसी तरह ज़मीन के आसपास चाँद और सूरज के बीच हरकात (गति) में ऐसा मुकम्मल तनासुब (पूर्ण सन्तुलन) क़ायम किया गया है कि चाँद एक कायनाती जंतरी बनकर रह गया है जो पूरी बाक़ायदगी के साथ हर रात सारी दुनिया को चाँद की तारीख़ बता देती है।
وَٱلنَّجۡمُ وَٱلشَّجَرُ يَسۡجُدَانِ ۝ 5
(6) और तारे5 और पेड़ सब सजदा कर रहे हैं।6
5. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'अन-नज्म' इस्तेमाल हुआ है जिसका जाना-पहचाना और ज़ाहिरी मतलब तारा है। लेकिन अरबी ज़बान में यह लफ़्ज़ ऐसे पौधों और बेल-बूटों के लिए भी बोला जाता है जिनका तना नहीं होता, मसलन तरकारियाँ, ख़रबूज़े, तरबूज़ वग़ैरा। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के दरमियान इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि यहाँ यह लफ़्ज़ किस मानी में इस्तेमाल हुआ है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), सईद-बिन-जुबैर (रह०), सुद्दी (रह०) और सुफ़ियान सौरी (रह०) इसको बे-तनेवाले पेड़-पौधों के मानी में लेते हैं, क्योंकि इसके बाद लफ़्ज़ 'अश-शजर' (पेड़) इस्तेमाल किया गया है और उसके साथ यही मतलब ज़्यादा मेल खाता है। इसके बरख़िलाफ़ मुजाहिद, क़तादा और हसन बसरी (रह०) कहते हैं कि 'नज्म' से मुराद यहाँ भी ज़मीन के बूटे नहीं, बल्कि आसमान के तारे ही हैं, क्योंकि यही उसका जाना-पहचाना मतलब है, इस लफ़्ज़ को सुनकर सबसे पहले आदमी का ज़ेहन इसी मानी की तरफ़ जाता है, और सूरज और चाँद के बाद तारों का ज़िक्र बिलकुल फ़ितरी मेल के साथ किया गया है। क़ुरआन की तफ़सीर और तर्जमा करनेवाले ज़्यादातर आलिमों ने अगरचे पहले मानी को तरजीह दी है, और उसको भी ग़लत नहीं कहा जा सकता, लेकिन हमारे नज़दीक हाफ़िज़ इब्ने-कसीर की यह राय सही है कि ज़बान और मज़मून दोनों के लिहाज़ से दूसरा मतलब ज़्यादा सही नज़र आता है। क़ुरआन मजीद में एक दूसरी जगह पर भी 'नुजूम' और 'शजर' के सजदा करने का ज़िक्र आया है और वहाँ नुजूम को तारों के सिवा और किसी मानी में नहीं लिया जा सकता। आयत के अलफ़ाज़ ये हैं, 'अलम त-र अन्नल्ला-ह यस्जुदु लहू मन फ़िस्समावाति व मन् फ़िल-अर्ज़ि वश्शम्सु वल-क़-मरु वन-नुजूमु वल-जिबालु वश्श-जरु वद-दवाब्बु व कसीरुम-मिनन-नासि......' (सूरा-22 हज, आयत-18) यानी “क्या तुम देखते नहीं हो कि अल्लाह के आगे सजदे में हैं वे सब जो आसमानों में हैं और जो ज़मीन में हैं, सूरज और चाँद और तारे और पहाड़ और पेड़ और जानवर और बहुत-से इनसान...।” यहाँ नुजूम का ज़िक्र शम्स (सूरज) और क़मर (चाँद) के साथ है और शजर का ज़िक्र पहाड़ों और जानवरों के साथ, और फ़रमाया गया है कि ये सब अल्लाह के आगे सजदा कर रहे हैं।
6. यानी आसमान के तारे और ज़मीन के पेड़, सब अल्लाह के फ़रमाँबरदार और उसके क़ानून के पाबन्द हैं, जो ज़ाबिता उनके लिए बना दिया गया है उससे बाल बराबर भी हट नहीं सकते। इन दोनों आयतों में जो कुछ बयान किया गया है उसका मक़सद यह बताना है कि कायनात का सारा निज़ाम अल्लाह का बनाया हुआ है और उसी की फ़रमाँबरदारी में चल रहा है। ज़मीन से लेकर आसमानों तक न कोई ख़ुदमुख़्तार है, न किसी और की ख़ुदाई इस जहान में चल रही है, न ख़ुदा की ख़ुदाई में किसी का कोई दख़ल है और न किसी का यह मक़ाम है कि उसे माबूद (उपास्य) बनाया जाए। सब बन्दे और ग़ुलाम हैं, मालिक अकेला एक क़ुदरतवाला रब है। इसलिए तौहीद (एकेश्वरवाद) ही हक़ है जिसकी तालीम यह क़ुरआन दे रहा है। इसको छोड़कर जो शख़्स भी ख़ुदा के साथ दूसरों को साझी बना रहा है या उसका इनकार और उसकी नाफ़रमानी कर रहा है, वह अस्ल में कायनात के पूरे निज़ाम से जंग कर रहा है।
وَٱلسَّمَآءَ رَفَعَهَا وَوَضَعَ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 6
(7) आसमान को उसने बुलन्द किया और मीज़ान क़ायम कर दी।7
7. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले लगभग तमाम आलिमों ने यहाँ मीज़ान (तराज़ू) से मुराद अद्ल (इनसाफ़) लिया है, और मीज़ान क़ायम करने का मतलब यह बयान किया है कि अल्लाह तआला ने कायनात के इस पूरे निज़ाम को इनसाफ़ पर क़ायम किया है। यह बेहद और बेहिसाब तारे और सय्यारे (ग्रह) जो फ़ज़ा (वायुमण्डल) में घूम रहे हैं, ये अज़ीमुश्शान क़ुव्वतें जो इस कायनात में काम कर रही हैं और ये अनगिनत जानदार और बेजान चीज़ें जो इस दुनिया में पाई जाती हैं, इन सबके बीच अगर कमाल दरजे का अद्ल (इनसाफ़) और तवाज़ुन (सन्तुलन) न क़ायम किया गया होता तो दुनिया का यह कारख़ाना एक पल के लिए भी न चल सकता था। ख़ुद इस ज़मीन पर करोड़ों साल से हवा और पानी और ख़ुश्की (थल) में जो मख़लूक़ात (जानदार) मौजूद हैं उन ही को देख लीजिए। उनकी ज़िन्दगी इसी लिए तो बरक़रार है कि उनकी ज़िन्दगी के असबाब (साधनों) में पूरा-पूरा अद्ल और तावाज़ुन (सन्तुलन) पाया जाता है वरना इन असबाब (साधनों) में ज़र्रा बराबर भी बे-एतिदाली (असन्तुलन) पैदा हो जाए, तो यहाँ ज़िन्दगी का नाम व निशान तक बाक़ी न रहे।
أَلَّا تَطۡغَوۡاْ فِي ٱلۡمِيزَانِ ۝ 7
(8) इसका तक़ाज़ा यह है कि तुम मीज़ान में ख़लल न डालो,
وَأَقِيمُواْ ٱلۡوَزۡنَ بِٱلۡقِسۡطِ وَلَا تُخۡسِرُواْ ٱلۡمِيزَانَ ۝ 8
(9) इनसाफ़ के साथ ठीक-ठीक तौलो और तराज़ू में डंडी न मारो।8
8. यानी चूँकि तुम एक मुतवाज़िन (सन्तुलित) कायनात में रहते हो जिसका सारा निज़ाम इनसाफ़ पर क़ायम किया गया है, इसलिए तुम्हें भी इनसाफ़ पर क़ायम होना चाहिए। जिस दायरे में तुम्हें इख़्तियार दिया गया है उसमें अगर तुम बेइनसाफ़ी करोगे, और जिन हक़दारों के हक़ तुम्हारे हाथ में दिए गए हैं, अगर तुम उनके हक़ मारोगे तो यह कायनात की फ़ितरत से तुम्हारी बग़ावत होगी। इस कायनात की फ़ितरत ज़ुल्म और बेइनसाफ़ी और हक़ मारी को क़ुबूल नहीं करती। यहाँ एक बड़ा ज़ुल्म तो एक तरफ़, तराज़ू में डंडी मारकर अगर कोई शख़्स ख़रीदार के हिस्से की एक तोला-भर चीज़ भी मार लेता है तो कायनात के मीज़ान में ख़लल पैदा कर देता है— यह क़ुरआन की तालीम का दूसरा अहम हिस्सा है जो इन तीन आयतों में बयान किया गया है। पहली तालीम है तौहीद, और दूसरी तालीम है अद्ल यानी इनसाफ़। इस तरह छोटे-छोटे कुछ जुमलों में लोगों को बता दिया गया है कि इनसान की रहनुमाई के लिए मेहरबान ख़ुदा ने जो क़ुरआन भेजा है वह क्या तालीम लेकर आया है।
وَٱلۡأَرۡضَ وَضَعَهَا لِلۡأَنَامِ ۝ 9
(10) ज़मीन9 को उसने सब मख़लूक़ात (सृष्टि) के लिए बनाया।10
9. अब यहाँ से आयत-25 तक अल्लाह तआला की उन नेमतों और उसके उन एहसानों और उसकी क़ुदरत के उन करश्मिों का ज़िक्र किया जा रहा है जिनसे इनसान और जिन्न दोनों फ़ायदा उठा रहे हैं और जिनका फ़ितरी और अख़लाक़ी तक़ाज़ा यह है कि वे कुफ़्र (इनकार) और ईमान का इख़्तियार रखने के बावजूद ख़ुद अपनी मरज़ी से दिल की आमादगी के साथ अपने रब की बन्दगी और फ़रमाँबरदारी का रास्ता इख़्तियार करें।
10. अस्ल अलफ़ाज़ हैं : ज़मीन को 'अनाम' के लिए 'वज़अ' किया। 'वज़अ' करने से मुराद है तरतीब देना, बनाना, तैयार करना, रखना, जमा देना। और 'अनाम' अरबी ज़बान में ख़ल्क़ (सृष्टि) के लिए इस्तेमाल होता है जिसमें इनसान और दूसरे सब जानदार शामिल हैं। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं, “अनाम में हर वह चीज़ शामिल है जिसके अन्दर रूह है।" मुजाहिद (रह०) इसका मतलब बयान करते हैं, 'ख़लायक़' (तमाम जानदार चीज़ें)। क़तादा, इब्ने-ज़ैद और शअबी (रह०) कहते हैं कि सब जानदार अनाम हैं। हसन बसरी कहते हैं कि इनसान और जिन्न दोनों इसके मतलब के तहत आते हैं। यही मतलब अरबी ज़बान के तमाम माहिरों ने बयान किया है। इससे मालूम हुआ है कि जो लोग इस आयत से ज़मीन को हुकूमत की मिलकियत बनाने का हुक्म निकालते हैं वे एक फ़ुज़ूल बात कहते हैं। यह बाहर के नज़रिए लाकर क़ुरआन में ज़बरदस्ती ठूँसने की एक भद्दी कोशिश है, जिसका साथ न आयत के अलफ़ाज़ देते हैं, न मौक़ा-महल। अनाम सिर्फ़ इनसानी समाज को नहीं कहते, बल्कि ज़मीन की दूसरी मख़लूक़ात (जानदार चीज़ें) भी इसमें शामिल हैं। और ज़मीन का या अनाम के लिए बनाने का मतलब यह नहीं है कि वह सबकी मिली-जुली मिलकियत हो। और इबारत का मौक़ा-महल भी यह नहीं बता रहा है कि बात का मक़सद इस जगह कोई मआशी (आर्थिक) ज़ाबिता बयान करना है। यहाँ तो मक़सद अस्ल में यह बताना है कि अल्लाह तआला ने इस ज़मीन को इस तरह बनाया और तैयार कर दिया कि यह तरह-तरह की ज़िन्दा मख़लूक़ात के लिए रहने-बसने और ज़िन्दगी गुज़ारने के क़ाबिल हो गई। यह आप-से-आप ऐसी नहीं हो गई है। ख़ालिक़ के बनाने से ऐसी बनी है। उसने अपनी हिकमत से इसको ऐसी जगह रखा और ऐसे हालात उसमें पैदा किए जिनसे यहाँ तरह-तरह के जानदारों का रहना मुमकिन हुआ। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73, 74; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—29 से 32; सूरा-10 मोमिन, हाशिए—90, 91; सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—11 से 13; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिए—7 से 10; सूरा-45 जासिया, हाशिया-7)
فِيهَا فَٰكِهَةٞ وَٱلنَّخۡلُ ذَاتُ ٱلۡأَكۡمَامِ ۝ 10
(11) उसमें हर तरह के बहुत-से मज़ेदार फल हैं। खजूर के पेड़ हैं जिनके फल ग़िलाफ़ों में लिपटे हुए हैं।
وَٱلۡحَبُّ ذُو ٱلۡعَصۡفِ وَٱلرَّيۡحَانُ ۝ 11
(12) तरह-तरह के अनाज हैं जिनमें भूसा भी होता है और दाना भी।11
11. यानी आदमियों के लिए दाना और जानवरों के लिए चारा।
رَبُّ ٱلۡمَشۡرِقَيۡنِ وَرَبُّ ٱلۡمَغۡرِبَيۡنِ ۝ 12
(17) दोनों पूरब और दोनों पश्चिम, सबका मालिक और परवरदिगार वही है।17
17. दो पूरबों और दो पश्चिमों से मुराद जाड़े के छोटे-से-छोटे दिन और गर्मी के बड़े-से-बड़े दिन के पूरब और पश्चिम भी हो सकते हैं, और ज़मीन के दोनों आधे गोलों के पूरब और पश्चिम भी। जाड़े के सबसे छोटे दिन में सूरज एक बहुत छोटा ज़ाविया (कोण) बनाकर निकलता और डूबता है, और इसके बरख़िलाफ़ गर्मी के सबसे बड़े दिन में वह इन्तिहाई बड़ा ज़ाविया (कोण) बनाते हुए निकलता और डूबता है। इन दोनों के बीच हर दिन उसके निकलने की जगह और डूबने की जगह अलग-अलग होती रहती है जिसके लिए एक दूसरी जगह क़ुरआन में “पूरबों और पश्चिमों का रब” (सूरा-70 मआरिज, आयत-40) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। इसी तरह ज़मीन के एक आधे गोले में जिस वक़्त सूरज निकलता है उसी वक़्त दूसरे आधे गोले में वह डूबता है। यूँ भी ज़मीन के दो पूरब और दो पश्चिम बन जाते हैं। अल्लाह तआला को इन दोनों पूरबों और पश्चिमों का रब कहने के कई मतलब हैं। एक यह कि उसी के हुक्म से सूरज के निकलने और डूबने और साल के दौरान में उनके लगातार बदलते रहने का यह निज़ाम क़ायम है। दूसरा यह कि ज़मीन और सूरज का मालिक और बादशाह वही है, वरना इन दोनों के रब अलग-अलग होते तो ज़मीन पर सूरज के निकलने और डूबने का यह बाक़ायदा निज़ाम कैसे क़ायम हो सकता था और लगातार कैसे क़ायम रह सकता था? तीसरा यह कि इन दोनों पूरबों और दोनों पश्चिमों का मालिक और परवरदिगार वही है, उनके दरमियान रहनेवाली मख़लूक़ात (सृष्टि) उसी की मिलकियत है, वही उनको पाल रहा है, और इसी परवरिश के लिए उसने ज़मीन पर सूरज के डूबने और निकलने का यह हिकमत-भरा निज़ाम क़ायम किया है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 13
(18) तो ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों18 को झुठलाओगे?
18. यहाँ भी अगरचे मौक़ा-महल के लिहाज़ से 'आला' का मतलब 'क़ुदरत' ज़्यादा नुमायौँ महसूस होता है, मगर साथ ही 'नेमत' और 'बेहतरीन सिफ़तों' का पहलू भी इसमें मौजूद है। यह बड़ी नेमत है कि अल्लाह तआला ने सूरज के निकलने और डूबने का यह क़ायदा मुक़र्रर किया, क्योंकि इसकी बदौलत फ़सलों और मौसमों की वे तबदीलियाँ बाक़ायदगी से सामने आती हैं जिनसे इनसान और जानवर और पेड़-पौधे सबके अनगिनत फ़ायदे जुड़े हैं। इसी तरह यह अल्लाह तआला की रहमत और रुबूबियत (पालनहारिता) और हिकमत ही तो है कि उसने जिन जानदारों को ज़मीन पर पैदा किया था उनकी ज़रूरतों को ध्यान में रखकर अपनी क़ुदरत से ये इन्तिज़ाम कर दिए।
مَرَجَ ٱلۡبَحۡرَيۡنِ يَلۡتَقِيَانِ ۝ 14
(19) दो समुद्रों को उसने छोड़ दिया कि आपस में मिल जाएँ,
بَيۡنَهُمَا بَرۡزَخٞ لَّا يَبۡغِيَانِ ۝ 15
(20) फिर भी उनके बीच एक परदा पड़ा है जिसको वे पार नहीं करते।19
19. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-68।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 16
(21) तो ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन करिश्मों को झुठलाओगे?
يَخۡرُجُ مِنۡهُمَا ٱللُّؤۡلُؤُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 17
(22) इन समुद्रों से मोती और मूँगे20 निकलते हैं।21
20. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'मरजान' इस्तेमाल हुआ है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा (रह०), इब्ने-ज़ैद (रह०) और ज़ह्हाक (रह०) का कहना है कि इससे मुराद छोटे मोती हैं। और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) कहते हैं कि यह लफ़्ज़ अरबी में मूँगों के लिए इस्तेमाल होता है।
21. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'यख़रुजु मिन्हुमा' (इन दोनों समुद्रों से निकलते हैं)। एतिराज़ करनेवाले इसपर एतिराज़ करते हैं कि मोती और मूँगे तो सिर्फ़ खारे पानी से निकलते हैं, फिर यह कैसे कहा गया कि मीठे और खारे दोनों पानियों से ये चीज़ें निकलती हैं? इसका जवाब यह है कि समुद्रों में मीठा और खारा दोनों तरह का पानी जमा हो जाता है, इसलिए चाहे यह कहा जाए कि दोनों के मजमूए (मिश्रण) से ये चीज़ें निकलती हैं, या यह कहा जाए कि वे दोनों पानियों से निकलती हैं, बात एक ही रहती है। और कुछ हैरानी की बात नहीं कि आगे और खोजों से यह साबित हो कि इन चीज़ों की पैदाइश समुद्र में उस जगह होती है जहाँ उसकी तह से मीठे पानी के चश्मे फूटते हैं, और उनकी पैदाइश और परवरिश में दोनों तरह के पानियों के मिलने का कुछ दख़ल है। बहरैन में जहाँ पुराने ज़माने से मोती निकाले जा रहे हैं, वहाँ तो यह बात साबित है कि खाड़ी की तह में मीठे पानी के चश्मे मौजूद हैं।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 18
(13) तो ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब की किन-किन नेमतों12 को झुठलाओगे?13
12. अस्ल में अरबी लफ़्ज़ 'आला' इस्तेमाल हुआ है जिसे आगे की आयतों में बार-बार दोहराया गया है और हमने अलग-अलग जगहों पर इसका मतलब अलग-अलग अलफ़ाज़ में अदा किया है। इसलिए शुरू ही में यह समझ लेना चाहिए कि यह लफ़्ज़ अपने अन्दर कितने ज़्यादा मानी रखता है और इसमें क्या-क्या मतलब शामिल हैं। 'आला' का मतलब अरबी जाननेवालों और तफ़सीर लिखनेवालों ने आम तौर से 'नेमतें' बयान किया है। तमाम तर्जमा करनेवालों ने भी यही इस का तर्जमा किया है। और यही मतलब इब्ने-अब्बास (रज़ि०), क़तादा और हसन बसरी (रह०) से नक़्ल हुआ है। सबसे बड़ी दलील इस मतलब के सही होने की यह है कि ख़ुद नबी (सल्ल०) ने जिन्नों की कही हुई इस बात को नक़्ल किया है कि वे इस आयत को सुनकर बार-बार 'ला बिशैइम-मिन-निअमति रब्बिना नुकज़्ज़िबु' यानी “ऐ हमारे रब! हम तेरी किसी भी नेमत को नहीं झुठलाते” कहते थे। इसलिए मौजूदा ज़माने के तहक़ीक़ (शोध) करनेवालों की इस राय से हमें इत्तिफ़ाक़ (सहमति) नहीं है कि 'आला' नेमतों के मानी में सिरे से इस्तेमाल ही नहीं होता। दूसरे मानी इस लफ़्ज़ के क़ुदरत और क़ुदरत के अजूबों या क़ुदरत के कमालात के हैं। इब्ने-जरीर तबरी (रह०) ने इब्ने-ज़ैद की राय नक़्ल की है कि 'फ़बि अययि आलाइ रब्बिकुमा' का मतलब है 'फ़बि अय्यि क़ुद-रतिल्लाहि' (अल्लाह की कौन-कौन-सी क़ुदरत को)। इब्ने-जरीर (रह०) ने ख़ुद भी आयत-37, 38 की तफ़सीर में 'आला' को क़ुदरत के मानी में लिया है। इमाम राज़ी ने भी आयत-14, 15, 16 की तफ़सीर में लिखा है, “यह आयतें नेमत के बयान के लिए नहीं, बल्कि क़ुदरत के बयान के लिए हैं।” और आयत-22, 28 की तफ़सीर में वे फ़रमाते हैं, “यह अल्लाह तआला की क़ुदरत के अजूबों के बयान में है, न कि नेमतों के बयान में।" इसका तीसरा मतलब है ख़ूबियाँ, तारीफ़ के क़ाबिल सिफ़तें और कमालात और फ़ज़ीलतें (श्रेष्ठताएँ)। इस मतलब को अरबी ज़बान के माहिरों और क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने बयान नहीं किया है, मगर अरब शाइरी में यह लफ़्ज़ इस मानी में बहुत ज़्यादा इस्तेमाल हुआ है। नाबिग़ा कहता है— “वे बादशाह और शहज़ादे हैं। उनको लोगों पर अपनी ख़ूबियाँ (आला) और नेमतों में फ़ज़ीलत हासिल है।" मु-हलहिल अपने भाई कुलैब के मरसिए (शोकगीत) में कहता है— "हज़्म और अज़्म उसकी ख़ूबियों में से थे। लोगो! मैं उसकी सारी ख़ूबियाँ (आला) नहीं गिन रहा हूँ।”फ़ज़ाला-बिन-ज़ैद अल-अदवानी ग़रीबी की बुराइयाँ बयान करते हुए कहता है कि ग़रीब अच्छा काम भी करे तो बुरा बनता है और— "मालदार कंजूस के कमालात (आला) की तारीफ़ की जाती है।" अजदअ हमदानी अपने घोड़े कुमैत की तारीफ़ में कहता है— "मुझे कुमैत की उम्दा सिफ़तें (आला) पसन्द हैं। अगर कोई शख़्स किसी घोड़े को बेचता है तो बेचे, हमारा घोड़ा बिकनेवाला नहीं है।" हमासा का एक शाइर, जिसका नाम अबू-तम्माम ने नहीं लिया है, अपने प्यारे वलीद-बिन-अदहम की हुकूमत का मरसिया कहता है— "जब भी कोई शख़्स किसी मरनेवाले की ख़ूबियाँ (आला) बयान करे तो ख़ुदा न करे कि वलीद-बिन-अदहम इस मौक़े पर भुला दिया जाए।" “उसपर अच्छे हालात आते तो फूलता न था और किसी पर एहसान करता तो जताता न था।" तरफ़ा एक आदमी की तारीफ़ में कहता है— "वह मुकम्मल और जवाँमर्दी की ख़ूबियाँ (आला) रखनेवाला है। शरीफ़ है, सरदारों का सरदार, दरियादिल।" इन गवाहियों और मिसालों को निगाह में रखकर हमने लफ़्ज़ 'आला' को उसके वसीअ (व्यापक) मानी में लिया है और हर जगह मौक़ा-महल के हिसाब से उसका जो मतलब ज़्यादा मुनासिब नज़र आया है वही तर्जमे में दर्ज कर दिया है। लेकिन कुछ जगहों पर एक ही जगह 'आला' के कई मतलब हो सकते हैं, और तर्जमे की मजबूरियों से हमको उसका एक ही मतलब लेना पड़ा है, क्योंकि उर्दू (और हिन्दी) ज़बान में कोई लफ़्ज़ ऐसा नहीं है कि वह उन सारे मतलबों को एक साथ अदा कर सके। मसलन इस आयत में ज़मीन की पैदाइश और उसमें मख़लूक़ात (जीवों) को रोज़ी पहुँचाने के बेहतरीन इन्तिज़ामों का ज़िक्र करने के बाद फ़रमाया गया है कि तुम अपने रब के किन-किन 'आला' को झुठलाओगे। इस मौक़े पर 'आला' सिर्फ़ नेमतों के मानी ही में नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला की क़ुदरत के कमालात और उसको तारीफ़ और शुक्र के क़ाबिल सिफ़तों के मानी में भी है। यह उसकी क़ुदरत का कमाल है कि उसने ज़मीन के इस गोले को इस अजीब तरीक़े से बनाया कि उसमें अनगिनत तरह के जानदार रहते हैं और तरह-तरह के फल और अनाज इसके अन्दर पैदा होते हैं। और यह उसकी तारीफ़ और शुक्र के क़ाबिल सिफ़तें ही हैं कि उसने इन जानदारों को पैदा करने के साथ-साथ यहाँ उनकी परवरिश और रोज़ी पहुँचाने का भी इन्तिज़ाम किया, और इन्तिज़ाम भी इस शान का कि उनकी ख़ुराक में सिर्फ़ ग़िज़ाइयत (पौष्टिकता) ही नहीं है, बल्कि ज़बान के ज़ायक़े का ख़याल रखा गया है और इस बात भी कि आँखों को भाए। इस सिलसिले में अल्लाह तआला की कारीगरी के सिर्फ़ एक कमाल की तरफ़ नमूने के तौर पर इशारा किया गया है कि खजूर के पेड़ों में फल किस तरह ग़िलाफ़ों में लपेटकर पैदा किया जाता है। इस एक मिसाल को निगाह में रखकर ज़रा देखिए कि केले, अनार, संतरे, नारियल और दूसरे फलों के पैकिंग में आर्ट के कैसे-कैसे कमालात दिखाए गए हैं, और यह तरह-तरह के अनाज और दालें और दाने, जो हम बेफ़िक्री के साथ पका-पकाकर खाते हैं, उनमें से हर एक को कैसी-कैसी उमदा बालियों और ग़िलाफ़ों की शक्ल में पैक करके और नाज़ुक झिल्लियों में लपेटकर पैदा किया जाता है।
13. झुठलाने से मुराद वे तरह-तरह के रवैये हैं जो अल्लाह तआला की नेमतों और उसकी क़ुदरत के करिश्मों और उसकी तारीफ़ के क़ाबिल सिफ़तों के मामले में लोग अपनाते हैं, मसलन— कुछ लोग सिरे से यही नहीं मानते कि इन सारी चीज़ों का पैदा करनेवाला अल्लाह तआला है। उनका ख़याल है कि यह सब कुछ सिर्फ़ माद्दे (पदार्थ) के इत्तिफ़ाक़ी जोश और उबाल का नतीजा है, या एक हादिसा है जिसमें किसी हिकमत और कारीगरी का कोई दख़ल नहीं। यह खुला-खुला अल्लाह को झुठलाना है। कुछ दूसरे लोग यह तो मानते हैं कि इन चीज़ों का पैदा करनेवाला अल्लाह ही है, मगर उसके साथ दूसरों को ख़ुदाई में शरीक ठहराते हैं, उसकी नेमतों का शुक्रिया दूसरों को अदा करते हैं, और उसकी रोज़ी खाकर दूसरों के गुण गाते हैं। यह ख़ुदा को झुठलाने की एक और शक्ल है। एक आदमी जब मान ले कि आपने उसपर फ़ुलाँ एहसान किया है, और फिर उसी वक़्त आपके सामने किसी ऐसे शख़्स का शुक्रिया अदा करने लगे जिसने हक़ीक़त में उसपर वह एहसान नहीं किया है, तो आप ख़ुद कह देंगे कि उसने बदतरीन एहसान-फ़रामोशी का जुर्म किया है, क्योंकि उसकी यह हरकत इस बात का खुला सुबूत है कि वह आपको नहीं, बल्कि उस शख़्स को अपने पर एहसान करनेवाला मान रहा है जिसका वह शुक्रिया अदा कर रहा है। कुछ और लोग हैं जो सारी चीज़ों का पैदा करनेवाला और तमाम नेमतों का देनेवाला अल्लाह तआला ही को मानते हैं, मगर इस बात को नहीं मानते कि उन्हें अपने पैदा करनेवाले और परवरदिगार के हुक्मों को मानना चाहिए और उसकी हिदायत की पैरवी करनी चाहिए। यह एहसान-फ़रामोशी और नेमतों के इनकार की एक और सूरत है, क्योंकि जो शख़्स यह हरकत करता है वह नेमत को मानने के बावजूद नेमत देनेवाले के हक़ को झुठलाता है। कुछ और लोग ज़बान से न नेमत का इनकार करते हैं, न नेमत देनेवाले के हक़ को झुठलाते हैं, मगर अमली तौर पर उनकी ज़िन्दगी और एक इनकारी और झुठलानेवाले की ज़िन्दगी में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं होता। यह झुठलाना ज़बान से नहीं, बल्कि अमल से झुठलाना है।
خَلَقَ ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ كَٱلۡفَخَّارِ ۝ 19
(14) इनसान को उसने ठीकरी जैसे सूखे-सड़े हुए गारे से बनाया14
14. इनसान की पैदाइश के शुरुआती मरहले जो क़ुरआन मजीद में बयान किए गए हैं उनकी सिलसिलेवार तरतीब अलग-अलग जगहों के बयानों को जमा करने से यह मालूम होती है— (i) तुराब, यानी मिट्टी या धूल। (ii) तीन, यानी गारा जो मिट्टी में पानी मिलाकर बनाया जाता है। (iii) तीने लाज़िब, लेसदार गारा, यानी वह गारा जिसके अन्दर काफ़ी देर तक पड़े रहने की वजह से लेस पैदा हो जाए। (iv) ह-मइम-मसनून, वह गारा है जिसके अन्दर बू पैदा हो जाए। (v) सलसालिम-मिन ह-मइम-मसनूनिन कल- फ़ख़्ख़ार, यानी वह सड़ा हुआ गारा जो सूखने के बाद पक्की हुई मिट्टी के ठीकरे जैसा हो जाए। (vi) बशर, जो मिट्टी की इस आख़िरी सूरत से बनाया गया, जिसमें अल्लाह तआला ने अपनी ख़ास रूह फूँकी, जिसको फ़रिश्तों से सजदा कराया गया, और जिसकी जाति से उसका जोड़ा पैदा किया गया। (vii) 'फिर आगे उसकी नस्ल एक हक़ीर (तुच्छ) पानी जैसे सत से चलाई गई, जिसके लिए दूसरी जगहों पर 'नुतफ़ा' (वीर्य) का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है। इन मरहलों के लिए क़ुरआन मजीद की नीचे लिखी आयतों को तरतीब से देखिए— “और इसी तरह उसने आदम को मिट्टी से पैदा किया,” (सूरा-3 आले-इमरान, आयत-59)। “उसने इनसान की इबतिदा गारे से की,” (सूरा-32 सजदा, आयत-7)। “बेशक हमने उन्हें लेसदार गारे से पैदा किया,” (सूरा-37 साफ़्फ़ात, आयत-11)। चौथा और पाँचवाँ मरहला इसी आयत की तफ़सीर में बयान हो चुका है। और इसके बाद के मरहले इन आयतों में बयान किए गए हैं— "मैं मिट्टी से एक बशर (इनसान) बनानेवाला हूँ, फिर जब मैं उसे पूरी तरह बना दूँ और उसमें अपनी रूह फूँक दूँ तो तुम उसके आगे सजदे में गिर जाना,” (सूरा-38 सॉद, आयतें—71, 72)। “उसने तुम्हें एक जान से पैदा किया और उससे उसका जोड़ा बनाया और उससे बहुत-से मर्द-औरत फैला दिए,” (सूरा-4 निसा, आयत-1)। “फिर आगे उसकी नस्ल एक हक़ीर (तुच्छ) पानी से चलाई गई,” (सूरा-32 सजदा, आयत-8)। “हमने तुमको मिट्टी से पैदा किया है, फिर नुतफ़े (वीर्य की बूँद) से।” (सूरा-22 हज, आयत-5)
وَخَلَقَ ٱلۡجَآنَّ مِن مَّارِجٖ مِّن نَّارٖ ۝ 20
(15) और जिन्न को आग की लपट से पैदा किया।15
15. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'मिम-मारिजिम-मिन्नार' । 'नार' से मुराद एक ख़ास तरह की आग है, न कि वह आग जो लकड़ी या कोयला जलाने से पैदा होती है। और 'मारिज' का मतलब है ख़ालिस शोला जिसमें धुआँ न हो। इस बात का मतलब यह है कि जिस तरह पहला इनसान मिट्टी से बनाया गया, फिर पैदाइश के अलग-अलग मरहलों से गुज़रते हुए उसकी मिट्टी की लुग्दी ने गोश्त और खालवाले ज़िन्दा इनसान की शक्ल इख़्तियार की और आगे उसकी नस्ल नुतफ़े से चली, उसी तरह पहला जिन्न ख़ालिस आग के शोले, या आग की लपट से पैदा किया गया, और बाद में उसकी औलाद से जिन्नों की नस्ल पैदा हुई, उस पहले जिन्न की हैसियत जिन्नों के मामले में वही है जो आदम (अलैहि०) की हैसियत इनसानों के मामले में है। ज़िन्दा इनसान बन जाने के बाद हज़रत आदम (अलैहि०) और उनकी नस्ल से पैदा होनेवाले इनसानी जिस्म का उस मिट्टी से कोई जोड़ बाक़ी न रहा जिससे इनको पैदा किया गया था। अगरचे अब भी हमारा जिस्म पूरा-का-पूरा ज़मीन ही की चीज़ों से बना है, लेकिन इन चीज़ों ने गोश्त-पोस्त और ख़ून की शक्ल अपना ली है और जान पड़ने के बाद वह मिट्टी के ढेर के मुक़ाबले एक बिलकुल ही अलग चीज़ बन गया है। ऐसा ही मामला जिन्नों का भी है। उनका वुजूद भी अस्ल में आग से पैदा हुआ एक वुजूद ही है, लेकिन जिस तरह हम सिर्फ़ मिट्टी के ढेर नहीं हैं, उसी तरह वे भी सिर्फ़ आग का शोला नहीं हैं। इस आयत से दो बातें मालूम हुई : एक यह कि जिन्न सिर्फ़ रूह नहीं हैं, बल्कि एक ख़ास तरह के माद्दी जिस्म ही हैं, मगर चूँकि वे ख़ालिस आग के अजज़ा (अंशों) से बने हैं इसलिए वे मिट्टी के अजज़ा (अंशों) से बने इनसानों को नज़र नहीं आते। इसी चीज़ की तरफ़ यह आयत इशारा करती है कि “शैतान और उसका क़बीला तुमको ऐसी जगह से देख रहा है जहाँ तुम उसको नहीं देखते,” (सूरा-7 आराफ़, आयत-27)। इसी तरह जिन्नों का बहुत तेज़ रफ़्तार से चलना, उनका बड़ी आसानी से अलग-अलग शक्लें अपना लेना, और उन जगहों पर ग़ैर-महसूस तरीक़े से घुस जाना जहाँ मिट्टी के अजज़ा (अंशों) से बनी हुई चीज़ें नहीं घुस सकतीं, या घुसती हैं तो उनका घुसना महसूस हो जाता है, ये सब मामले भी इसी वजह से मुमकिन और समझ में आनेवाले हैं कि वे अस्ल में आग से पैदा होनेवाले जानदार हैं। दूसरी बात इससे यह मालूम हुई कि जिन्न न सिर्फ़ यह कि इनसान से बिलकुल अलग तरह के जानदार हैं, बल्कि उनकी पैदाइश का माद्दा (तत्त्व) ही इनसान, जानवरों, पेड़-पौधों और बेजान चीज़ों से बिलकुल अलग है। यह आयत साफ़ अलफ़ाज़ में उन लोगों के ख़याल की ग़लती साबित कर रही है जो जिन्नों को इनसानों ही की एक क़िस्म क़रार देते हैं। वे इसका मनमाना मतलब यह बयान करते हैं कि मिट्टी से इनसान को और आग से जिन्न को पैदा करने का मतलब अस्ल में दो तरह के लोगों की मिज़ाजी कैफ़ियत का फ़र्क़ बयान करना है। एक क़िस्म के इनसान नर्म मिज़ाज के होते हैं और वही सही मानी में इनसान हैं, और दूसरी क़िस्म के इनसान आतिश के परकाले और शोला (भड़कीले) मिज़ाज होते हैं जिन्हें आदमी के बजाय शैतान कहना ज़्यादा सही होता है। लेकिन यह क़ुरआन की तफ़सीर नहीं, बल्कि उसमें फेर-बदल करना है। ऊपर हाशिया-14 में हमने तफ़सील के साथ यह दिखाया है कि क़ुरआन मजीद मिट्टी से इनसान के पैदा किए जाने का मतलब कितने साफ़ अलफ़ाज़ में ख़ुद बयान करता है। क्या इन सारी तफ़सीलात को पढ़कर कोई समझदार आदमी यह मतलब ले सकता है कि इन सारी बातों का मक़सद सिर्फ़ अच्छे इनसानों के नर्म मिज़ाज होने की तारीफ़ बयान करना है? फिर आख़िर यह बात किसी सही अक़्लवाले आदमी के ज़ेहन में कैसे आ सकती है कि इनसान की पैदाइश सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से करने, और जिन्न की पैदाइश ख़ालिस आग के शोले से करने का मतलब एक ही इनसानी नस्ल के दो अलग-अलग मिज़ाजवाले लोगों या गरोहों की अलग-अलग अख़लाक़ी ख़ासियतों का फ़र्क़ है? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-51 ज़ारियात, हाशिया-53)
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 21
(16) तो ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन अजूबों16 को झुठलाओगे?
16. यहाँ मौक़ा-महल के हिसाब से ‘आला' का मतलब 'क़ुदरत के अजूबे' ज़्यादा मुनासिब है, लेकिन इसमें नेमत का पहलू भी मौजूद है। मिट्टी से इनसान जैसे, और आग के शोले से जिन्न जैसे हैरत-अंगेज़ जानदारों को वुजूद में ले आना जिस तरह ख़ुदा की क़ुदरत का एक अजीब करिश्मा है, उसी तरह इन दोनों जानदारों के लिए यह बात एक बड़ी नेमत भी है कि अल्लाह तआला ने इनको न सिर्फ़ वुजूद दिया, बल्कि हर एक की बनावट ऐसी रखी और हर एक के अन्दर ऐसी क़ुव्वतें और सलाहियतें (प्रतिभाएँ) रख दीं जिनसे ये दुनिया में बड़े-बड़े काम करने के क़ाबिल हो गए। अगरचे जिन्नों के बारे में हमारे पास ज़्यादा मालूमात नहीं हैं, मगर इनसान तो हमारे सामने मौजूद है। उसको इनसानी दिमाग़ देने के साथ मछली या परिन्दे या बन्दर का जिस्म दे दिया जाता तो क्या उस जिस्म के साथ वह इस दिमाग़ की सलाहियतों से कोई काम ले सकता था? फिर क्या यह अल्लाह की बड़ी नेमत नहीं है कि जो क़ुव्वतें उसने इनसान के दिमाग़ को दी थीं उनसे काम लेने के लिए बहुत ही मुनासिब जिस्म भी दिया? ये हाथ, ये पाँव, ये आँखें, ये कान, यह ज़बान और यह सीधा और दुरुस्त क़द एक तरफ़, और ये अक़्ल व समझ, ये सोचने और ग़ौर करने, ये ईजाद करने और दलील देने की क़ुव्वतें, और ये कारीगरी की सलाहियतें दूसरी तरफ़, इन दोनों को एक-दूसरे के मुक़ाबले में रखकर देखिए तो महसूस होगा कि बनानेवाले ने इनके बीच इन्तिहाई दरजे का ताल-मेल रखा है जो अगर न होता तो दुनिया में इनसान का वुजूद बे-मतलब होकर रह जाता। फिर यही चीज़ अल्लाह तआला की बेहतरीन सिफ़तों की भी दलील है। आख़िर इल्म, हिकमत, रहमत और कमाल दरजे की पैदा करने की क़ुव्वत के बिना इस शान के इनसान और जिन्न कैसे पैदा हो सकते थे? इत्तिफ़ाक़ी हादिसों और ख़ुद-ब-ख़ुद काम करनेवाले अन्धे-बहरे फ़ितरत के क़ानून पैदाइश से मुताल्लिक़ ये मोजिज़े (चमत्कार) कैसे दिखा सकते हैं?
كُلُّ مَنۡ عَلَيۡهَا فَانٖ ۝ 22
(26) हर चीज़25 जो इस ज़मीन पर है मिट जानेवाली है,
25. यहाँ से आयत-30 तक जिन्नों और इनसानों को दो हक़ीक़तों से आगाह किया गया है— एक यह कि न तुम ख़ुद हमेशा रहनेवाले हो और न वह सरो-सामान हमेशा रहनेवाला है जिससे तुम दुनिया में फ़ायदा उठा रहे हो। न मिटनेवाली और कभी न ख़त्म होनेवाली हस्ती तो सिर्फ़ उस ख़ुदा की हस्ती है जिसकी बड़ाई यह कायनात गवाही दे रही है और जिसकी मेहरबानी से तुमको ये कुछ नेमतें मिली हैं। अब अगर तुममें से कोई शख़्स 'बस हम ही सब कुछ हैं, दूसरा कोई नहीं है' के घमण्ड में मुब्तला होता है तो यह सिर्फ़ उसकी तंगदिली है। अपने इख़्तियार के ज़रा-से दायरे में कोई बेवक़ूफ़ बड़ाई के डंके बजा ले, या कुछ बन्दे जो उसके हत्थे चढ़ें, उनका ख़ुदा बन बैठे, तो यह धोखे की टट्टी कितनी देर खड़ी रह सकती है। कायनात की कुशादगियों में जिस ज़मीन की हैसियत एक मटर के दाने के बराबर भी नहीं है, उसके एक कोने में दस-बीस या पचास-साठ साल जो ख़ुदाई और बड़ाई चले और फ़िर गुज़रे दिनों का क़िस्सा बनकर रह जाए, वह आख़िर क्या ख़ुदाई और क्या बड़ाई है जिसपर कोई फूले! दूसरी अहम हक़ीक़त, जिसपर इन दोनों जानदारों को ख़बरदार किया गया है, यह है कि अल्लाह तआला के सिवा दूसरी जिन हस्तियों को भी तुम माबूद और मुश्किलें हल करनेवाले और ज़रूरतें पूरी करनेवाले बनाते हो, चाहे वे फ़रिश्ते हों या पैग़म्बर और वली, या चाँद और सूरज, या और किसी तरह की मख़लूक़ (सृष्टि), उनमें से कोई तुम्हारी किसी ज़रूरत को पूरा नहीं कर सकता। वे बेचारे तो ख़ुद अपनी हाजतों और ज़रूरतों के लिए अल्लाह के मुहताज हैं। उनके हाथ तो ख़ुद उसके आगे फैले हुए हैं। वे ख़ुद अपनी मुश्किल भी अपने बल-बूते पर दूर नहीं कर सकते तो तुम्हारी मुश्किल क्या दूर करेंगे! ज़मीन से आसमानों तक इस बेइन्तिहा फैली हुई कायनात में जो कुछ हो रहा है, अकेले एक ख़ुदा के हुक्म से हो रहा है। कारफ़रमाई (क्रियाशीलता) में किसी का कोई दख़ल नहीं है कि वह किसी मामले में किसी बन्दे की क़िस्मत पर असर डाल सके।
وَيَبۡقَىٰ وَجۡهُ رَبِّكَ ذُو ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 23
(27) और सिर्फ़ तेरे रब की जलालवाली (प्रतापवान) और मेहरबान हस्ती ही बाक़ी रहनेवाली है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 24
(28) तो ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब के किन-किन कमालात को झुठलाओगे?26
26. यहाँ मौक़ा-महल ख़ुद बता रहा है कि 'आला' का लफ़्ज़ कमालात के मानी में इस्तेमाल हुआ है। मिट जानेवाली मख़लूक़ में से जो कोई भी बड़ाई के घमण्ड में मुब्तला होता है और अपनी झूठी ख़ुदाई को हमेशा रहनेवाली समझकर ऐंठता और अकड़ता है वह अगर ज़बान से नहीं तो अपने अमल से ज़रूर सारे जहान के रब की अज़मत (महानता) और जलाल (प्रताप) को झुठलाता है। उसका घमण्ड अपनी जगह ख़ुद अल्लाह की बड़ाई को झुठलाना है। जो दावा भी वह किसी कमाल का अपनी ज़बान से करता है या जिसका दावा अपने मन में रखता है, वह अस्ल कमालवाले (ख़ुदा) के मक़ाम और मंसब का इनकार है।
يَسۡـَٔلُهُۥ مَن فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ كُلَّ يَوۡمٍ هُوَ فِي شَأۡنٖ ۝ 25
(29) ज़मीन और आसमानों में जो भी हैं, सब अपनी ज़रूरतें उसी से माँग रहे हैं। हर पल वह नई शान में है।27
27. यानी हर वक़्त दुनिया के इस कारख़ाने में उसकी कारफ़रमाई का एक न ख़त्म होनेवाला सिलसिला जारी है। किसी को मार रहा है और किसी को जिला रहा है। किसी को उठा रहा है और किसी को गिरा रहा है। किसी को शिफ़ा (रोग-मक्ति) दे रहा है और किसी को बीमारी में मुब्तला कर रहा है। किसी डूबते को बचा रहा है और किसी तैरते हुए को डुबो रहा है। अनगिनत जानदारों को तरह-तरह से रोज़ी दे रहा है। बेहद और बेहिसाब चीज़ें नई-से-नई डिज़ाइन और शक्ल और ख़ूबियों के साथ पैदा कर रहा है। उसकी दुनिया कभी एक हाल पर नहीं रहती। हर पल उसके हालात बदलते रहते हैं और उसका पैदा करनेवाला हर बार उसे एक नई सूरत से तरतीब देता है जो पिछली तमाम सूरतों से अलग होती है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 26
(30) तो ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब की किन-किन तारीफ़ के क़ाबिल ख़ूबियों को झुठलाओगे?28
28. यहाँ 'आला' का मतलब 'सिफ़तें' (ख़ूबियाँ) ही ज़्यादा मुनासिब नज़र आता है। हर शख़्स जो किसी तरह का शिर्क करता है, अस्ल में वह अल्लाह तआला की किसी-न-किसी सिफ़त को झुठलाता है। किसी का यह कहना कि फ़ुलाँ हज़रत ने मेरी बीमारी दूर कर दी, अस्ल में यह मतलब रखता है कि अल्लाह बीमारी दूर करनेवाला नहीं है, बल्कि वे साहब बीमारी दूर करनेवाले हैं। किसी का यह कहना कि फ़ुलाँ बुज़ुर्ग की मेहरबानी से मुझे रोज़गार मिल गया, हक़ीक़त में यह कहना है कि रोज़ी देनेवाला अल्लाह नहीं है, बल्कि वे बुज़ुर्ग रोज़ी देनेवाले हैं। किसी का यह कहना कि फ़ुलाँ आस्ताने से मेरी मुराद पूरी हो गई, मानो अस्ल में यह कहना है कि दुनिया में हुक्म अल्लाह का नहीं बल्कि उस आस्ताने का चल रहा है। ग़रज़ हर शिर्कवाला अक़ीदा और शिर्कवाली बात का जाइज़ा लिया जाए तो आख़िरी नतीजा अल्लाह की सिफ़ात के इनकार पर ही ख़त्म होता है। शिर्क का मतलब ही यह है कि आदमी दूसरों को सब कुछ सुननेवाला और देखनेवाला, ग़ैब का इल्म रखनेवाला, सब कुछ करने की ताक़त रखनेवाला, पूरी क़ुदरत और इस्तेमाल का हक़ रखनेवाला और अल्लाह की दूसरी सिफ़ात उनमें तसलीम कर रहा है और इस बात का इनकार कर रहा है कि अकेला अल्लाह ही इन सिफ़ात (गुणों) का मालिक है।
سَنَفۡرُغُ لَكُمۡ أَيُّهَ ٱلثَّقَلَانِ ۝ 27
(31) ऐ ज़मीन के बोझो!29 बहुत जल्द हम तुमसे पूछ-गछ करने के लिए फ़ारिग हुए जाते हैं,30
29. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'स-क़लान' इस्तेमाल हुआ है, जिसका माद्दा (धातु) 'सिक़्ल' है। 'सिक़्ल' का मतलब बोझ है, और 'स-क़ल' उस बोझ को कहते हैं जो सवारी पर लदा हुआ हो। ‘स-क़लैन' का लफ़्ज़ी तर्जमा होगा 'दो लदे हुए बोझ'। इस जगह यह लफ़्ज़ जिन्नों और इनसानों के लिए इस्तेमाल किया गया है, क्योंकि ये दोनों ज़मीन पर लदे हुए हैं, और चूँकि ऊपर से बात उन इनसानों और जिन्नों से होती चली आ रही है जो अपने रब की फ़रमाँबरदारी और बन्दगी से मुँह मोड़े हुए हैं, और आगे भी आयत-45 तक उन ही से बात कही जा रही है, इसलिए उनको 'ऐ ज़मीन के बोझो!' कहकर मुख़ातब किया गया है, मानो पैदा करनेवाला अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) के इन दोनों नालायक़ गरोहों से फ़रमा रहा है कि ऐ वे लोगो जो मेरी ज़मीन पर बोझ बने हुए हो! जल्द ही मैं तुम्हारी ख़बर लेने के लिए फ़ारिग़ हुआ जाता हूँ।
30. इसका यह मतलब नहीं कि इस वक़्त अल्लाह तआला ऐसा मशग़ूल (व्यस्त) है कि उसे इन नाफ़रमानों से पूछ-गछ करने की फुरसत नहीं मिलती, बल्कि इसका मतलब अस्ल में यह है कि अल्लाह तआला ने एक ख़ास वक़्त-नामा (समय-सारिणी) मुक़र्रर कर रखा है, जिसके मुताबिक़ पहले वह एक तयशुदा मुद्दत तक इस दुनिया में इनसानों और जिन्नों की नस्लों-पर-नस्लें पैदा करता रहेगा और उन्हें दुनिया की इस इम्तिहानगाह (परीक्षास्थल) में लाकर काम करने का मौक़ा देगा। फिर एक ख़ास वक़्त में इम्तिहान का यह सिलसिला अचानक बन्द कर दिया जाएगा और तमाम जिन्न और इनसान जो उस वक़्त मौजूद होंगे एक साथ हलाक कर दिए जाएँगे। फिर एक और घड़ी इनसानी नस्ल और जिन्नों की नस्ल, दोनों से पूछ-गछ करने के लिए उसके यहाँ मुक़र्रर है, जब उनके सबसे पहले और सबसे बादवालों को नए सिरे से ज़िन्दा करके एक साथ जमा किया जाएग इस वक़्त-नामे के लिहाज़ से कहा गया है कि अभी हम पहले दौर का काम कर रहे हैं और दूसरे दौर का वक़्त अभी नहीं आया है, कहाँ यह कि तीसरे दौर का काम इस वक़्त शुरू कर दिया जाए। मगर तुम घबराओ नहीं, बहुत जल्द वह वक़्त आने ही वाला है जब हम तुम्हारी ख़बर लेने के लिए फ़ारिग़ हो जाएँगे। यह फ़ुरसत न होना इस मानी में नहीं है कि अल्लाह तआला को एक काम ने ऐसा मशग़ूल कर रखा है कि दूसरे काम की फ़ुरसत वह नहीं पा रहा है, बल्कि यह इस तरह की बात है। जैसे एक शख़्स ने अलग-अलग कामों के लिए एक टाइम-टेबल बना रखा हो और उसके मुताबिक़ जिस काम का वक़्त अभी नहीं आया है उसके बारे में वह कहे कि मैं अभी उसके लिए फ़ारिग़ नहीं हूँ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 28
(32) (फिर देख लेंगे कि) तुम अपने रब के किन-किन एहसानों को झुठलाते हो।31
31. यहाँ ‘आला' को क़ुदरतों के मानी में भी लिया जा सकता है। बात के सिलसिले को निगाह में रखा जाए तो ये दोनों मानी एक-एक लिहाज़ से मुनासिब नज़र आते हैं। एक मानी लिए जाएँ तो मतलब यह होगा कि आज तुम हमारी नेमतों की नाशुक्रियाँ कर रहे हो और कुफ़्र, शिर्क, नास्तिकता, अल्लाह की खुली-छिपी नाफ़रमानी के अलग-अलग रवैये अपनाकर तरह-तरह की नमक हरामियाँ किए चले जाते हो, मगर कल जब पूछ-गछ का वक़्त आएगा उस वक़्त हम देखेंगे कि हमारी किस-किस नेमत को तुम इत्तिफ़ाक़ी हादिसा, या अपनी क़ाबिलियत का फल, या किसी देवी-देवता या बुज़ुर्ग हस्ती की मेहरबानी का करिश्मा साबित करते हो। दूसरे मानी लिए जाएँ तो मतलब यह होगा कि आज तुम क़ियामत और दोबारा उठाए जाने और हिसाब-किताब और जन्नत-जहन्नम का मज़ाक़ उड़ाते हो और अपने नज़दीक इस ग़लतफ़हमी में मुब्तला हो कि ऐसा होना मुमकिन ही नहीं है। मगर जब हम पूछ-गछ के लिए तुमको घेर लाएँगे और वह सब कुछ तुम्हारे सामने आ जाएगा जिसका आज तुम इनकार कर रहे हो, तो उस वक़्त हम देखेंगे कि हमारी किस-किस क़ुदरत को तुम झुठलाते हो!
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 29
(23) तो ऐ जिन्न और इनसान, तुम अपने रब की क़ुदरत के किन-किन कमालात को झुठलाओगे?22
22. यहाँ भी अगरचे 'आला' में क़ुदरत का पहलू नुमायाँ है, लेकिन नेमत और बेहतरीन ख़ूबियों का पहलू भी छिपा नहीं है। यह ख़ुदा की नेमत है कि समुद्र से ये क़ीमती चीज़ें बरामद होती हैं, और यह उसके रब (परवरदिगार) होने की शान है कि जिस जानदार को उसने ख़ूबसूरती से दिलचस्पी और बनने-संवरने का शौक़ दिया था, उसकी दिलचस्पी और शौक़ को पूरा करने के लिए तरह-तरह की हसीन चीज़ें उसने अपनी दुनिया में पैदा कर दीं।
وَلَهُ ٱلۡجَوَارِ ٱلۡمُنشَـَٔاتُ فِي ٱلۡبَحۡرِ كَٱلۡأَعۡلَٰمِ ۝ 30
(24) और ये जहाज़ उसी के हैं23 जो समुद्र में पहाड़ों की तरह ऊँचे उठे हुए हैं।
23. यानी उसी की क़ुदरत से बने हैं। उसी ने इंसान को यह सलाहियत दी कि समुंदरों को पार करने के लिए जहाज़ बनाए। उसी ने ज़मीन पर वह सामान पैदा किया जिससे जहाज़ बन सकते हैं। और उसी ने पानी को उन क़ायदों का पाबन्द किया जिनकी बदौलत ग़ज़बनाक समुद्रों के सीनों पर पहाड़ जैसे जहाज़ों का चलना मुमकिन हुआ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 31
(25) तो ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब के किन-किन एहसानों को झुठलाओगे?24
24. यहाँ 'आला' में नेमत और एहसान का पहलू नुमायाँ है, मगर ऊपर की तशरीह से यह बात साफ़ हो जाती है कि क़ुदरत और बेहतरीन ख़ूबियों का पहलू भी इसमें मौजूद है।
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يُسۡـَٔلُ عَن ذَنۢبِهِۦٓ إِنسٞ وَلَا جَآنّٞ ۝ 32
(39) उस दिन किसी इनसान और किसी जिन्न से उसका गुनाह पूछने की ज़रूरत न होगी,36
36. इसकी तशरीह आगे का यह जुमला कर रहा है कि “मुजरिम वहाँ अपने चेहरों से पहचान लिए जाएँगे।” मतलब यह है कि उस अज़ीमुश्शान भीड़ में जहाँ शुरू से आख़िर तक के तमाम इनसान और जिन्न इकट्ठे होंगे, यह पूछते फिरने की ज़रूरत न होगी कि कौन-कौन लोग मुजरिम हैं। न किसी इनसान या जिन्न से यह पूछने की ज़रूरत पड़ेगी कि वह मुजरिम है या नहीं। मुजरिमों के उतरे हुए चेहरे और उनकी डरी हुई आँखें और उनकी घबराई हुई सूरतें और उनके छूटते हुए पसीने ख़ुद ही यह राज़ खोल देने के लिए काफ़ी होंगे कि वे मुजरिम हैं। पुलिस के घेरे में अगर एक ऐसी भीड़ आ जाए जिसमें बेगुनाह और मुजरिम, दोनों तरह के लोग हों, तो बेगुनाहों के चेहरे का इत्मीनान और मुजरिमों के चेहरों की घबराहट और बेचैनी एक नज़र में बता देती है कि इस भीड़ में मुजरिम कौन है और बेगुनाह कौन। दुनिया में यह उसूल बहुत बार इसलिए ग़लत साबित होता है कि दुनिया की पुलिस के बेलाग इनसाफ़-पसन्द होने पर लोगों को भरोसा नहीं होता, बल्कि बार-बार उसके हाथों मुजरिमों के मुक़ाबले में शरीफ़ लोग ज़्यादा परेशान होते हैं, इसलिए यहाँ यह मुमकिन है कि पुलिस के घेरे में आकर शरीफ़ लोग मुजरिमों से भी ज़्यादा डर जाएँ। मगर आख़िरत में, जहाँ हर शरीफ़ आदमी को अल्लाह तआला के इनसाफ़ पर पूरा भरोसा होगा, यह घबराहट सिर्फ़ उन ही लोगों पर छाएगी जिनके ज़मीर (अन्तरात्माएँ) ख़ुद अपने मुजरिम होने से आगाह होंगे और जिन्हें हश्र के मैदान में पहुँचते ही यक़ीन हो जाएगा कि अब उनकी वह शामत आ गई है जिसे नामुमकिन समझकर या जिसके बारे में शक-शुब्हे में पड़कर वे दुनिया में जुर्म करते रहे थे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 33
(40) फिर (देख लिया जाएगा कि) तुम दोनों गरोह अपने रब के किन-किन एहसानों का इनकार करते हो।37
37. जुर्म की हक़ीकी बुनियाद क़ुरआन की निगाह में यह है कि बन्दा जो अपने रब की नेमतों से फ़ायदा उठा रहा है, अपने नज़दीक यह समझ बैठे कि ये नेमतें किसी की दी हुई नहीं हैं, बल्कि आप-से-आप उसे मिल गई हैं, या यह कि ये नेमतें ख़ुदा की दी हुई नहीं, बल्कि उसकी अपनी क़ाबिलियत या ख़ुशनसीबी का फल हैं, या यह कि ये हैं तो ख़ुदा की दी हुईं, मगर उस ख़ुदा का अपने बन्दे पर कोई हक़ नहीं है, या यह कि ख़ुदा ने ख़ुद ये मेहरबानियाँ उसपर नहीं की हैं, बल्कि ये किसी दूसरी हस्ती ने उससे करवा दी हैं। यही वे ग़लत तसव्वुरात (धारणाएँ) हैं जिनकी वजह से आदमी ख़ुदा से बे-परवाह और उसकी फ़रमाँबरदारी और बन्दगी से आज़ाद होकर दुनिया में ये हरकतें करता है जिनसे ख़ुदा ने मना किया है और वे काम नहीं करता जिनका उसने हुक्म दिया है। इस लिहाज़ से हर जुर्म और हर गुनाह अपनी हक़ीक़त के एतिबार से अल्लाह तआला के एहसानों को झुठलाना है, फिर चाहे कोई शख़्स ज़बान से उनका इनकार करता हो या इक़रार। मगर जो शख़्स सचमुच उन एहसानों को झुठलाने का इरादा नहीं रखता, बल्कि उसके ज़ेहन की गहराइयों में उनका इक़रार मौजूद होता है, वह भूले से किसी इनसानी कमज़ोरी से कोई क़ुसूर कर बैठे तो उसपर अल्लाह से माफ़ी माँगता है और उससे बचने की कोशिश करता है, यह चीज़ उसे झुठलानेवालों में शामिल होने से बचा लेती है। इसके सिवा बाक़ी तमाम मुजरिम हक़ीक़त में अल्लाह की नेमतों के झुठलानेवाले और उसके एहसानों के इनकारी हैं। इसी लिए फ़रमाया कि जब तुम लोग मुजरिम की हैसियत से गिरफ़्तार हो जाओगे उस वक़्त हम देखेंगे कि तुम हमारे किस-किस एहसान का इनकार करते हो। सूरा-102 तकासुर में यही बात इस तरह कही गई है कि “उस दिन ज़रूर तुमसे उन नेमतों के बारे में पूछ-गछ की जाएगी जो तुम्हें दी गई थीं।” यानी पूछा जाएगा कि ये नेमतें हमने तुम्हें दी थीं या नहीं? और इन्हें पाकर तुमने अपने मुहसिन (एहसान करनेवाले) के साथ क्या रवैया अपनाया? और उसकी नेमतों को किस तरह इस्तेमाल किया?
يُعۡرَفُ ٱلۡمُجۡرِمُونَ بِسِيمَٰهُمۡ فَيُؤۡخَذُ بِٱلنَّوَٰصِي وَٱلۡأَقۡدَامِ ۝ 34
(41) मुजरिम वहाँ अपने चेहरों से पहचान लिए जाएँगे और उन्हें माथे के बाल और पाँव पकड़-पकड़कर घसीटा जाएगा।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 35
(42) उस वक़्त तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को झुठलाओगे?
هَٰذِهِۦ جَهَنَّمُ ٱلَّتِي يُكَذِّبُ بِهَا ٱلۡمُجۡرِمُونَ ۝ 36
(43) (उस वक़्त कहा जाएगा :) यह वही जहन्नम है जिसको मुजरिम झूठ ठहराया करते थे।
يَطُوفُونَ بَيۡنَهَا وَبَيۡنَ حَمِيمٍ ءَانٖ ۝ 37
(44) उसी जहन्नम और खौलते हुए पानी के बीच वे चक्कर लगाते रहेंगे।38
38.यानी जहन्नम में बार-बार प्यास के मारे उनका बुरा हाल होगा, भाग-भागकर पानी के चश्मों (स्रोतों) की तरफ़ जाएँगे, मगर वहाँ खौलता हुआ पानी मिलेगा, जिसके पीने से कोई प्यास न बुझेगी। इस तरह जहन्नम और उन चश्मों के बीच चक्कर लगाने ही में उनकी उमरें बीत जाएँगी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 38
(45) फिर अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को तुम झुठलाओगे?39
39. यानी क्या उस वक़्त भी तुम इसका इनकार कर सकोगे कि ख़ुदा क़ियामत ला सकता है, तुम्हें मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी दे सकता है, तुमसे पूछ-गछ भी कर सकता है, और यह जहन्नम भी बना सकता है जिसमें आज तुम सज़ा पा रहे हो?
وَلِمَنۡ خَافَ مَقَامَ رَبِّهِۦ جَنَّتَانِ ۝ 39
(46) और हर उस शख़्स के लिए, जो अपने रब के सामने पेश होने का डर रखता हो,40 दो बाग़ हैं।41
40. यानी जिसने दुनिया में ख़ुदा से डरते हुए ज़िन्दगी गुज़ारी हो, जिसे हमेशा यह एहसास रहा हो कि मैं दुनिया में एक ग़ैर-ज़िम्मेदार बे-नकेल ऊँट बनाकर नहीं छोड़ दिया गया हूँ, बल्कि एक दिन मुझे अपने रब के सामने खड़ा होना और अपने आमाल का हिसाब देना है। यह अक़ीदा जिस शख़्स का हो वह ज़रूर मन की ख़ाहिशों की बन्दगी से बचेगा। अन्धाधुंध हर रास्ते पर न चल खड़ा होगा। और बातिल (सत्य-असत्य), ज़ुल्म और इनसाफ़, पाक-नापाक और हलाल-हराम में फ़र्क़ करेगा। और जान-बूझकर ख़ुदा के हुक्मों की पैरवी से मुँह न मोड़ेगा। यही उस इनाम की अस्ल वजह है जो आगे बयान की जा रही है।
41. जन्नत का अस्ल मतलब है बाग़। क़ुरआन मजीद में कहीं तो उस पूरी दुनिया को जिसमें नेक लोग रखे जाएँगे जन्नत कहा गया है, मानो वह पूरा-का-पूरा एक बाग़ है। और कहीं यह कहा गया है कि उनके लिए जन्नतें हैं जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। इसका मतलब यह है कि उस बड़े बाग़ में बेशुमार बाग़ होंगे। और यहाँ साफ़ तौर से बताया गया है कि हर नेक शख़्स को उस बड़ी जन्नत में दो-दो जन्नतें दी जाएँगी जो उसी के लिए ख़ास होंगी, जिनमें उसके अपने महल होंगे, जिनमें वह अपने ताल्लुक़वालों और ख़ादिमों के साथ शाही ठाठ के साथ रहेगा, जिनमें उसके लिए वह कुछ सरो-सामान मौजूद होगा जिसका ज़िक्र आगे आ रहा है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 40
(47) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?42
42. यहाँ से आख़िर तक ‘आला' का लफ़्ज़ नेमतों के मानी में भी इस्तेमाल हुआ है और क़ुदरतों के मानी में भी। और एक पहलू इसमें बेहतरीन ख़ूबियों का भी है। अगर पहले मानी लिए जाएँ तो इस बयान के सिलसिले में इस जुमले को बार-बार दोहराने का मतलब यह होगा कि तुम झुठलाना चाहते हो तो झुठलाते रहो, ख़ुदा से डरनेवाले लोगों को तो उनके रब की तरफ़ से ये नेमतें ज़रूर मिलकर रहेंगी। दूसरे मानी लिए जाएँ तो इसका मतलब यह होगा कि तुम्हारे नज़दीक अल्लाह का जन्नत बनाने पर क़ुदरत रखना और उसमें ये नेमतें अपने नेक बन्दों को देना नामुमकिन है तो होता रहे, अल्लाह यक़ीनन इसकी क़ुदरत (सामर्थ्य) रखता है और वह यह काम करके रहेगा। तीसरे मानी के लिहाज़ से इसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला को तुम भलाई और बुराई में फ़र्क़ करने के नाक़ाबिल समझते हो। तुम्हारे नज़दीक वह इतनी बड़ी दुनिया तो बना बैठा है, मगर उसमें चाहे कोई ज़ुल्म करे या इनसाफ़, हक़ के लिए काम करे या बातिल (झूठ) के लिए, बुराई फैलाए या भलाई उसे इसकी कोई परवाह नहीं। वह न ज़ालिम को सज़ा देनेवाला है, न मज़लूम (पीड़ित) की फ़रियाद सुननेवाला। न भलाई की क़द्र करनेवाला है, न बुराई से नफ़रत। फिर वह तुम्हारे ख़याल में मजबूर भी है। ज़मीन और आसमान तो वह बना लेता है, मगर ज़ालिमों की सज़ा के लिए जहन्नम और हक़ की पैरवी करनेवालों को इनाम देने के लिए जन्नत बना देने की वह क़ुदरत नहीं रखता। उसकी बेहतरीन सिफ़तों को आज तुम चाहे कितना झुठला लो, कल जब वह ज़ालिमों को जहन्नम में झोंक देगा और हक़-परस्तों को जन्नत में ये कुछ नेमतें देगा, क्या उस वक़्त भी तुम उसकी इन बेहतरीन सिफ़तों को झुठला सकोगे?
ذَوَاتَآ أَفۡنَانٖ ۝ 41
(48) हरी-भरी डालियों से भरपूर।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 42
(49) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا عَيۡنَانِ تَجۡرِيَانِ ۝ 43
(50) दोनों बाग़ों में दो चश्मे (जल-स्रोत) जारी।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 44
(51) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا مِن كُلِّ فَٰكِهَةٖ زَوۡجَانِ ۝ 45
(52) दोनों बाग़ों में हर फल की दो क़िस्में।43
43. इसका एक मतलब यह हो सकता है कि दोनों बाग़ों के फलों की शान निराली होगी। एक बाग़ में जाएगा तो एक शान के फल उसकी डालियों में लदे हुए होंगे। दूसरे बाग़ में जाएगा तो उसके फलों की शान कुछ और ही होगी। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि इनमें से हर बाग़ में एक तरह के फल जाने-पहचाने होंगे जिन्हें वह दुनिया में भी जानता था, चाहे मज़े में वे दुनिया के फलों से कितने ही बढ़कर हों, और दूसरी क़िस्म के फल ऐसे होंगे जो दुनिया में कभी उसके ख़ाब और ख़याल में भी न आए थे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 46
(53) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ فُرُشِۭ بَطَآئِنُهَا مِنۡ إِسۡتَبۡرَقٖۚ وَجَنَى ٱلۡجَنَّتَيۡنِ دَانٖ ۝ 47
(54) जन्नती लोग ऐसे बिछौनों पर तकिए लगा के बैठेंगे जिनके असतर दबीज़ (गाढ़े) रेशम के होंगे,44 और बाग़ों की डालियाँ फलों से झुकी पड़ रही होंगी।
44. यानी जब उनके असतर इस शान के होंगे तो अन्दाज़ा कर लो कि अबरे (ऊपरी हिस्से) किस शान के होंगे।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 48
(55) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِنَّ قَٰصِرَٰتُ ٱلطَّرۡفِ لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 49
(56) इन नेमतों के बीच शर्मीली निगाहोंवालियाँ होंगी45 जिन्हें इन जन्नतियों से पहले किसी इनसान या जिन्न ने छुआ न होगा46
45. यह औरत की अस्ल ख़ूबी है कि वह बेशर्म और बेबाक न हो, बल्कि नज़र में हया और शर्म रखती हो। इसी लिए अल्लाह तआला ने जन्नत की नेमतों के बीच औरतों का ज़िक्र करते हुए सबसे पहले उनके हुस्न और जमाल की नहीं, बल्कि उनके हयादार होने और पाकबाज़ी की तारीफ़ की है। ख़ूबसूरत औरतें तो मर्दों और औरतों के मिले-जुले कलबों और फ़िल्मी स्टूडियो में भी जमा हो जाती हैं, और ख़ूबसूरती के मुक़ाबलों में तो छाँट-छाँटकर एक-से-एक हसीन औरत लाई जाती है, मगर सिर्फ़ एक गन्दे ज़ौक़ और मिज़ाजवाला और बदकिरदार आदमी ही उनसे दिलचस्पी ले सकता है। किसी शरीफ़ आदमी को वह हुस्न अपनी तरफ़ नहीं खींच सकता जो हर बद-नज़र को देखने की दावत दे और हर किसी की बाँहों में समाने के लिए तैयार हो।
46. इसका मतलब यह है कि दुनिया की ज़िन्दगी में चाहे कोई औरत कुँआरी मर गई हो या किसी की बीवी रह चुकी हो, जवान मरी हो या बूढ़ी होकर दुनिया से विदा हुई हो, आख़िरत में जब ये सब नेक औरतें जन्नत में दाख़िल होंगी तो जवान और कुँआरी बना दी जाएँगी, और वहाँ उनमें से जिस औरत को भी किसी नेक मर्द की बीवी बनाया जाएगा वह जन्नत में अपने उस शौहर से पहले किसी के इख़्तियार में आई हुई न होगी। इस आयत से एक बात यह भी मालूम हुई कि जन्नत में नेक इनसानों की तरह नेक जिन्न भी दाख़िल होंगे, और वहाँ जिस तरह इनसान मर्दों के लिए इनसान औरतें होंगी उसी तरह जिन्न मर्दों के लिए जिन्न औरतें भी होंगी। दोनों के साथ के लिए उन ही की जाति के जोड़े होंगे। ऐसा न होगा कि उनका जोड़ किसी दूसरी जाति के जानदार से लगा दिया जाए जिससे वे फ़ितरी तौर पर घुल-मिल नहीं सकते। आयत के ये अलफ़ाज़ कि “उनसे पहले किसी इनसान या जिन्न ने उनको न छुआ होगा,” इस मानी में नहीं हैं कि वहाँ औरतें सिर्फ़ इनसान होंगी और उनको उनके शौहरों से पहले किसी इनसान या जिन्न ने न छुआ होगा, बल्कि इनका अस्ल मतलब यह है कि वहाँ जिन्न और इनसान, दोनों जातियों की औरतें होंगी, सब शर्म रखनेवाली और अछूती होंगी, न किसी जिन्न औरत को उसके जन्नती शौहर से पहले किसी जिन्न मर्द ने हाथ लगाया होगा और न किसी इनसान औरत को उसके जन्नती शौहर से पहले किसी इनसान मर्द ने हाथ लगाया होगा।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 50
(57) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
كَأَنَّهُنَّ ٱلۡيَاقُوتُ وَٱلۡمَرۡجَانُ ۝ 51
(58) ऐसी ख़ूबसूरत जैसे हीरे और मोती।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 52
(59) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
هَلۡ جَزَآءُ ٱلۡإِحۡسَٰنِ إِلَّا ٱلۡإِحۡسَٰنُ ۝ 53
(60) नेकी का बदला नेकी के सिवा और क्या हो सकता है!47
47. यानी आख़िर यह कैसे मुमकिन है कि जो लोग अल्लाह तआला की ख़ातिर दुनिया में उम्र-भर अपने मन पर पाबन्दियाँ लगाए रहे हों, हराम से बचते और हलाल को काफ़ी समझते रहे हों, फ़र्ज़ को फ़र्ज़ जानकर अपने फ़र्ज़ निभाते रहे हों, हक़ को हक़ मानकर तमाम हक़दारों के हक़ अदा करते रहे हों, और बुराई के मुक़ाबले में हर तरह की तक़लीफ़ें और मुश्किलें बरदाश्त करके भलाई की तरफ़दारी करते रहे हों, अल्लाह उनकी ये सारी क़ुरबानियाँ बरबाद कर दे और उन्हें कभी इनका इनाम न दे?
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 54
(61) फिर ऐ जिन्न और इनसान! अपने रब की किन-किन बेहतरीन सिफ़तों (ख़ूबियों) का तुम इनकार करोगे?48
48. ज़ाहिर बात है कि जो शख़्स जन्नत और उसके अच्छे बदले और इनाम का इनकार करता है वह अस्ल में अल्लाह तआला की बहुत-सी बेहतरीन सिफ़तों का इनकार करता है। वह अगर ख़ुदा को मानता भी है तो उसके बारे में बहुत बुरी राय रखता है। उसके नज़दीक वह एक चौपट राजा है जिसकी अन्धेर नगरी में नेकी करना मानो उसे दरिया में डाल देना है। वह या तो उसे अन्धा और बहरा समझता है जिसे कुछ ख़बर ही नहीं कि उसकी ख़ुदाई में कौन उसकी ख़ुशनूदी हासिल करने की ख़ातिर जान, माल, नफ़्स (मन) और मेहनतों की क़ुरबानियाँ दे रहा है या उसके नज़दीक वह बेहिस (संवेदनहीन) और क़द्र व क़ीमत को न पहचाननेवाला है जिसे भले-बुरे की कुछ तमीज़ नहीं। या फिर उसके ग़लत ख़याल में वह बेबस और कमज़ोर है जिसकी निगाह में नेकी की क़द्र चाहे कितनी ही हो, मगर उसका इनाम देना उसके बस ही में नहीं है। इसी लिए फ़रमाया कि जब आख़िरत में नेकी का नेक बदला तुम्हारी आँखों के सामने दे दिया जाएगा, क्या उस वक़्त भी तुम अपने रब की बेहतरीन सिफ़तों का इनकार कर सकोगे?
وَمِن دُونِهِمَا جَنَّتَانِ ۝ 55
(62) और उन दो बाग़ों के अलावा दो बाग़ और होंगे।49
49. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'मिन दूनिहिमा जन्नतान' (उन दो बाग़ों के अलावा दो बाग़ और होंगे)। 'दून' का लफ़्ज़ अरबी ज़बान में तीन अलग-अलग मतलबों के लिए इस्तेमाल होता है— एक, किसी ऊँची चीज़ के मुक़ाबले में नीचे होना। दूसरा, किसी बरतर (श्रेष्ठ) चीज़ के मुक़ाबले में कमतर होना। तीसरा, किसी चीज़ के सिवा या उसके अलावा होना। इस अलग-अलग मतलबों की वजह से इन अलफ़ाज़ में एक इमकान यह है कि हर जन्नती को पहले के दो बाग़ों के अलावा ये दो बाग़ और दिए जाएँगे। दूसरा इमकान यह है कि ये दो बाग़ ऊपर के दोनों बाग़ों के मुक़ाबले मक़ाम या मर्तबे में कुछ कम होंगे। यानी पहले दो बाग़ या तो बुलन्दी पर होंगे और ये उनसे नीचे होंगे, या पहले दो बाग़ बहुत आला दरजे के होंगे और ये उनके मुक़ाबले में कमतर दरजे के होंगे। अगर पहले इमकान को लिया जाए तो इसका मतलब यह है कि ये दो बाग़ भी उन ही जन्नतियों के लिए हैं जिनका ज़िक्र ऊपर किया गया है। और दूसरे इमकान को लेने की हालत में मतलब यह होगा कि पहले दो बाग़ अल्लाह के क़रीबी लोगों के लिए हैं और ये दो बाग़ दाएँ बाज़ूवालों के लिए हैं। इस दूसरे इमकान को जो चीज़ मजबूत करती है वह यह है कि सूरा-56 वाक़िआ में नेक इनसानों की दो क़िस्में बयान की गई हैं : एक 'साबिक़ीन' (आगे आनेवाले), जिनको 'मुक़र्रबीन' (अल्लाह के क़रीबी) भी कहा गया है, दूसरे दाएँ बाज़ूवाले, जिनको ‘असहाबुल-मै-मनः' का नाम भी दिया गया है। और इन दोनों के लिए दो जन्नतों की ख़ूबियाँ अलग-अलग बयान की गई हैं। इसके अलावा इस इमकान को वह हदीस भी मज़बूत करती है जो हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) से उनके बेटे अबू-बक्र ने रिवायत की है। इसमें वे फ़रमाते हैं कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “दो जन्नतें साबिक़ीन, या मुक़र्रबीन के लिए होंगी जिनके बरतन और सजावट की हर चीज़ सोने की होगी, और दो जन्नतें ताबिईन या असहाबुल-यमीन के लिए होंगी जिनकी हर चीज़ चाँदी की होगी।” (फ़तहुल-बारी, किताबुत-तफ़सीर, तफ़सीर सूरा-55 रहमान)
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 56
(63) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُدۡهَآمَّتَانِ ۝ 57
(64) घने हरे-भरे बाग़।50
50. इन बाग़ों की तारीफ़ में अरबी लफ़्ज़ 'मुदहाम्मतान' इस्तेमाल किया गया है। 'मुदहाम-म' ऐसी घनी हरियाली को कहते हैं, जो बहुत ज़्यादा हरी-भरी होने की वजह से कालेपन की तरफ़ बढ़ गई हो।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 58
(65) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا عَيۡنَانِ نَضَّاخَتَانِ ۝ 59
(66) दोनों बाग़ों में दो चश्मे फ़व्वारों की तरह उबलते हुए।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 60
(67) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِمَا فَٰكِهَةٞ وَنَخۡلٞ وَرُمَّانٞ ۝ 61
(68) उनमें बहुत-से फल और खजूरें और अनार।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 62
(69) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
فِيهِنَّ خَيۡرَٰتٌ حِسَانٞ ۝ 63
(70) इन नेमतों के बीच अच्छी सीरतवाली (चरित्रवाली) और ख़ूबसूरत बीवियाँ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 64
(71) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
حُورٞ مَّقۡصُورَٰتٞ فِي ٱلۡخِيَامِ ۝ 65
(72) ख़ेमों में ठहराई हुई हूरें।51
51. 'हूर' की तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—28, 29 और सूरा-44 दुख़ान, हाशिया-42। ख़ेमों से मुराद शायद उस तरह के ख़ेमे हैं जैसे अमीरों के लिए सैरगाहों में लगाए जाते हैं। ज़्यादा इमकान यह है कि जन्नतवालों की बीवियाँ उनके साथ उनके महलों में रहेंगी और उनकी सैरगाहों में जगह-जगह ख़ेमे लगे होंगे, जिनमें हूरें उनके लिए लुत्फ़ और लज़्ज़त का सामान जुटाएँगी। हमारे इस अन्दाज़े की बुनियाद यह है कि पहले अच्छी सीरतवाली और ख़ूबसूरत बीवियों का ज़िक्र किया जा चुका है। इसके बाद अब हूरों का ज़िक्र अलग से करने का मतलब यह है कि ये उन बीवियों से अलग तरह की औरतें होंगी। इस अन्दाज़े को और ज़्यादा मज़बूती उस हदीस से हासिल होती है जो हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) से रिवायत हुई है। वे फ़रमाती हैं कि मैंने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! दुनिया की औरतें बेहतर हैं या हूरें?” नबी (सल्ल०) ने जवाब दिया, “दुनिया की औरतों को हूरों पर वही बरतरी (श्रेष्ठता) हासिल है जो अबरे को असतर पर होती है।" मैंने पूछा, “किस बुनियाद पर?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसलिए कि इन औरतों ने नमाज़ें पढ़ी हैं, रोज़े रखे हैं और इबादतें की हैं,” (हदीस : तबरानी)। इससे मालूम हुआ कि जन्नतवालों की बीवियाँ तो वे औरतें होंगी जो दुनिया में ईमान लाईं और भले काम करती हुई दुनिया से विदा हुईं। ये अपने ईमान और अच्छे अमल के नतीजे में जन्नत में दाख़िल होंगी और अपने तौर पर ख़ुद जन्नत की हक़ दार होंगी। ये अपनी मरज़ी और पसन्द के मुताबिक़ या तो अपने पहले के शौहरों की बीवियाँ बनेंगी अगर वे भी जन्नती हों, या फिर अल्लाह तआला किसी दूसरे जन्नती से इनको ब्याह देगा, जबकि वे दोनों एक-दूसरे का साथ पसन्द करें। रहीं हूरें, तो वे अपने किसी अच्छे काम के नतीजे में ख़ुद अपने हक़दार होने की वजह से जन्नती नहीं बनेंगी, बल्कि अल्लाह तआला जन्नत की दूसरी नेमतों की तरह उन्हें भी जन्नतवालों के लिए एक नेमत के तौर पर जवान और ख़ूबसूरत औरतों की शक्ल देकर जन्नतियों को दे देगा, ताकि वे इनकी सोहबत (संगति) से मज़े उठाएँ। लेकिन बहरहाल ये जिन्न और परी की तरह की मख़लूक़ न होंगी, क्योंकि इनसान कभी दूसरी क़िस्म के जानदार से घुल-मिल नहीं सकता। इसलिए ज़्यादा इमकान यह है कि ये वे मासूम लड़कियाँ होंगी जो नाबालिग़ी की हालत में मर गईं और उनके माँ-बाप जन्नत के हक़दार न हुए कि वे उनकी औलाद की हैसियत से जन्नत में उनके साथ रखी जाएँ।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 66
(73) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
لَمۡ يَطۡمِثۡهُنَّ إِنسٞ قَبۡلَهُمۡ وَلَا جَآنّٞ ۝ 67
(74) इन जन्नतियों से पहले कभी किसी इनसान या जिन्न ने उनको न छुआ होगा।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 68
(75) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
مُتَّكِـِٔينَ عَلَىٰ رَفۡرَفٍ خُضۡرٖ وَعَبۡقَرِيٍّ حِسَانٖ ۝ 69
(76) वे जन्नती हरी क़ालीनों और बेहतरीन और ग़ैर-मामूली बिछौनों52 पर तकिए लगाकर बैठेंगे।
52. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'अबक़री' इस्तेमाल हुआ है। अरब जाहिलियत की कहानियों में जिन्नों की राजधानी का नाम अबक़र था, जिसे हम उर्दू में परिस्तान (परियों का देस) कहते हैं। उसी के ताल्लुक़ से अरब के लोग हर बेहतरीन और उम्दा चीज़ को अबक़री कहते थे, मानो वह परिस्तान की चीज़ है जिसका मुक़ाबला इस दुनिया की आम चीज़े नहीं कर सकतीं। यहाँ तक कि उनके मुहावरे में ऐसे आदमी को भी अबक़री कहा जाता था जो ग़ैर-मामूली क़ाबिलियतों का मालिक हो, जिससे अजीब व ग़रीब कारनामे हुए हों। अंग्रेज़ी में लफ़्ज़ जीनियस (Genius) भी इसी मानी में बोला जाता है, और वह भी Genii से लिया गया है, जिसका मतलब भी वही है जो जिन्न का है। इसी लिए यहाँ अरबवालों को जन्नत के सरो-सामान की ग़ैर-मामूली ख़ूबसूरती और ख़ूबी का तसव्वुर दिलाने के लिए अबक़री का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 70
(77) अपने रब के किन-किन इनामों को तुम झुठलाओगे?
تَبَٰرَكَ ٱسۡمُ رَبِّكَ ذِي ٱلۡجَلَٰلِ وَٱلۡإِكۡرَامِ ۝ 71
(78) बड़ी बरकतवाला है तेरे जलालवाले और करम करनेवाले रब का नाम!
يَٰمَعۡشَرَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِ إِنِ ٱسۡتَطَعۡتُمۡ أَن تَنفُذُواْ مِنۡ أَقۡطَارِ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ فَٱنفُذُواْۚ لَا تَنفُذُونَ إِلَّا بِسُلۡطَٰنٖ ۝ 72
(33) ऐ जिन्न और इनसानों के गरोह! अगर तुम ज़मीन और आसमानों की सरहदों से निकलकर भाग सकते हो तो भाग देखो। नहीं भाग सकते। इसके लिए बड़ा ज़ोर चाहिए।32
32. ज़मीन और आसमानों से मुराद है कायनात, या दूसरे अलफ़ाज़ में ख़ुदा की ख़ुदाई। आयत का मतलब यह है कि ख़ुदा की पकड़ से बच निकलना तुम्हारे बस में नहीं है। जिस पूछ-गछ की तुम्हें ख़बर दी जा रही है उसका वक़्त आने पर तुम चाहे किसी जगह भी हो, बहरहाल पकड़ लाए जाओगे। उससे बचने के लिए तुम्हें ख़ुदा की ख़ुदाई से भाग निकलना होगा और इसका बल-बूता तुममें नहीं है। अगर ऐसा घमण्ड तुम अपने दिल में रखते हो तो अपना ज़ोर लगाकर देख लो।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 73
(34) अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को तुम झुठलाओगे?
يُرۡسَلُ عَلَيۡكُمَا شُوَاظٞ مِّن نَّارٖ وَنُحَاسٞ فَلَا تَنتَصِرَانِ ۝ 74
(35) (भागने की कोशिश करोगे तो) तुमपर आग का शोला और धुआँ33 छोड़ दिया जाएगा जिसका तुम मुक़ाबला न कर सकोगे।
33. अस्ल अरबी में 'शुवाज़' और 'नुहास' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। 'शुवाज़' उस ख़ालिस शोले को कहते हैं जिसके साथ धुआँ न हो। और 'नुहास' उस ख़ालिस धुएँ को कहते हैं जिसमें शोला न हो। ये दोनों चीज़ें एक-के-बाद-एक इनसानों और जिन्नों पर उस हालत में छोड़ी जाएँगी जबकि वे अल्लाह की पूछ-गछ से बचकर भागने की कोशिश करें।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 75
(36) ऐ जिन्न और इनसान! तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों का इनकार करोगे?
فَإِذَا ٱنشَقَّتِ ٱلسَّمَآءُ فَكَانَتۡ وَرۡدَةٗ كَٱلدِّهَانِ ۝ 76
(37) फिर (क्या बनेगी उस वक़्त) जब आसमान फटेगा और लाल चमड़े की तरह सुर्ख़ हो जाएगा?34
34. यह क़ियामत के दिन का ज़िक्र है। आसमान के फटने से मुराद है आसमानों की बन्दिशों का खुल जाना, सितारों और सय्यारों (ग्रहों) का बिखर जाना, ऊपरी दुनिया के निज़ाम का दरहम-बरहम (अस्त-व्यस्त) हो जाना। और यह जो फ़रमाया कि आसमान उस वक़्त लाल चमड़े की तरह सुर्ख़ हो जाएगा, इसका मतलब यह है कि उस बड़े हंगामे के वक़्त जो शख़्स ज़मीन से आसमान की तरफ़ देखेगा उसे यूँ महसूस होगा कि जैसे सारी ऊपरी दुनिया पर एक आग-सी लगी हुई है।
فَبِأَيِّ ءَالَآءِ رَبِّكُمَا تُكَذِّبَانِ ۝ 77
(38) ऐ जिन्न और इनसान! (उस वक़्त) तुम अपने रब की किन-किन क़ुदरतों को झुठलाओगे?35
35. यानी आज तुम क़ियामत को नामुमकिन क़रार देते हो जिसका मतलब यह है कि तुम्हारे नज़दीक अल्लाह तआला उसके बरपा करने की क़ुदरत नहीं रखता। मगर जब वह बरपा हो जाएगी और अपनी आँखों से तुम वह सब कुछ देख लोगे जिसकी तुम्हें ख़बर दी जा रही है, उस वक़्त तुम अल्लाह की किस-किस क़ुदरत का इनकार करोगे?