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ٱتَّخَذُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ جُنَّةٗ فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ

63. अल-मुनाफ़िक़ून

(मदीना में उतरी, आयतें 11)

परिचय

नाम

पहली आयत के वाक्यांश "इज़ा जा-अ कल-मुनाफ़िकून" अर्थात् "ऐ नबी, जब ये 'मुनाफ़िक़' तुम्हारे पास आते हैं" से लिया गया है। यह इस सूरा का नाम भी है और इसके विषय का शीर्षक भी, क्योंकि इसमें मुनाफ़िकों (कपटाचारियों) ही की नीति की समीक्षा की गई है।

उतरने का समय

यह सूरा बनी अल-मुस्तलिक़ के अभियान [जो सन् 06 हि० में घटित हुआ था] से अल्लाह के रसूल (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) की वापसी पर या तो यात्रा के बीच में उतरी है या नबी (सल्ल०) के मदीना तय्यिबा पहुँचने के बाद तुरन्त ही उतरी है।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

जिस विशेष घटना के बारे में यह सूरा उतरी है, उसका उल्लेख करने से पहले यह ज़रूरी है कि मदीना के मुनाफ़िक़ों के इतिहास पर एक दृष्टि डाल ली जाए, क्योंकि जो घटना उस समय घटित हुई थी, वह मात्र आकस्मिक घटना न थी, बल्कि उसके पीछे एक पूरा घटना-क्रम था जो अन्तत: इस परिणाम तक पहुँची। मदीना तय्यिबा में अल्लाह के रसूल (सल्ल.) के आने से पहले औस और ख़ज़रज के क़बीले आपस के घरेलू युद्धों से थककर [ख़ज़रज क़बीले के सरदार अब्दुल्लाह-बिन-उबई-बिन-सलूल के नेतृत्व और श्रेष्ठता पर लगभग सहमत हो चुके थे] और इस बात की तैयारियाँ कर रहे थे कि उसको अपना बादशाह बनाकर विधिवत रूप से उसकी ताजपोशी का उत्सव मनाएँ, यहाँ तक कि इसके लिए ताज भी बना लिया गया था। ऐसी स्थिति में इस्लाम की चर्चा मदीना पहुंँची और उन दोनों क़बीलों के प्रभावशाली व्यक्ति मुसलमान होने शुरू हो गए। जब नबी (सल्ल०) मदीना पहुंँचे तो अंसार के हर घराने में इस्लाम इतना फैल चुका था कि अब्दुल्लाह बिन उबई बेबस हो गया और उसको अपनी सरदारी बचाने का इसके सिवा कोई उपाय दिखाई न दिया कि वह स्वयं भी मुसलमान हो जाए। हालाँकि उसको इस बात का बड़ा दुख था कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उसकी बादशाही छीन ली है। कई वर्षों तक उसका यह कपटपूर्ण ईमान और अपनी सत्ता छिन जाने का यह दुख तरह-तरह के रंग दिखाता रहा। बद्र की लड़ाई के बाद जब बनू-क़ैनुक़ाअ के यहूदियों के स्पष्टतः प्रतिज्ञा-भंग करने और बिना किसी उत्तेजना के सरकशी करने पर जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने उनपर चढ़ाई की तो यह व्यक्ति उनकी मदद के लिए उठ खड़ा हुआ। (इब्‍ने-हिशाम, भाग-3, पृ० 51-52)

उहुद के युद्ध के अवसर पर इस व्यक्ति ने खुला विद्रोह किया और ठीक समय पर अपने तीन सौ साथियों को लेकर लड़ाई के मैदान से उलटा वापस आ गया। जिस नाज़ुक घड़ी में उसने यह हरकत की थी, उसकी गंभीरता का अन्दाज़ा इस बात से किया जा सकता है कि क़ुरैश के लोग तीन हज़ार की सेना लेकर मदीना पर चढ़ आए थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उनके मुक़ाबले में केवल एक हज़ार आदमी साथ लेकर प्रतिरक्षा के लिए निकले थे। इन एक हज़ार में से भी यह मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) तीन सौ आदमी तोड़ लाया और नबी (सल्ल०) को सिर्फ़ सात सौ के जत्थे के साथ तीन हज़ार शत्रुओं का मुक़ाबला करना पड़ा। फिर 4 हि० में बनी नज़ीर के अभियान का अवसर आया और इस अवसर पर इस व्यक्ति ने और इसके साथियों ने और भी अधिक खुलकर इस्लाम के विरुद्ध इस्लाम के दुश्मनों की मदद की। [यह थी वह पृष्ठभूमि जिसके साथ वह और उसके मुनाफ़िक़ साथी बनू-मुस्तलिक़ के अभियान में शरीक हुए थे। इस अवसर पर उन्होंने एक साथ दो ऐसे बड़े उपद्रव खड़े कर दिए जो मुसलमानों की एकता को बिल्कुल टुकड़े-टुकड़े कर सकते थे, किन्तु पवित्र क़ुरआन की शिक्षा और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की संगति से ईमानवालों को जो उत्कृष्ट प्रशिक्षण प्राप्त था उसके कारण वे दोनों उपद्रव ठीक समय पर समाप्त हो गए और ये मुनाफ़िक़ स्वयं अपमानित होकर रह गए।

इनमें से एक उपद्रव तो वह था जिसका उल्लेख सूरा-24 नूर में गुज़र चुका है और दूसरा उपद्रव यह है जिसका इस सूरा में उल्लेख किया गया है। इस घटना का [संक्षिप्त विवरण यह है कि] बनू-मुस्तलिक़ को पराजित करने के बाद अभी इस्लामी सेना उस बस्ती में ठहरी हुई थी जो मुरैसीअ नामक कुएँ पर आबाद थी कि अचानक पानी पर दो व्यक्तियों का झगड़ा हो गया। उनमें से एक का नाम जहजाह-बिन-मसऊद ग़िफ़ारी था जो हज़रत उमर (रज़ि०) के सेवक थे और उनका घोड़ा संभालने का काम करते थे और दूसरे व्यक्ति सिनान-बिन-दबर अल-जुहनी थे जिनका क़बीला खज़रज के एक क़बीले का प्रतिज्ञाबद्ध मित्र था। मौखिक कटुवचन से आगे बढ़कर नौबत हाथापाई तक पहुँची और जहजाह ने सिनान के एक लात मार दी, जिसे अपनी पुरानी यमनी परम्पराओं की वजह से अंसार अपना बड़ा अपमान समझते थे। इसपर सिनान ने अंसार को मदद के लिए पुकारा और जहजाह ने मुहाजिरों को आवाज़ दी। इब्‍ने-उबई ने इस झगड़े की खबर सुनते ही औस और खज़रज के लोगों को भड़काना और चीख़ना शुरू कर दिया कि दौड़ो और अपने मित्र क़बीले की मदद करो। उधर से कुछ मुहाजिर भी निकल आए। क़रीब था कि बात बढ़ जाती और उसी जगह अंसार और मुहाजिर आपस में लड़ पड़ते, जहाँ अभी-अभी वे मिलकर एक दुश्मन क़बीले से लड़े थे और उसे परास्त करके अभी उसी के क्षेत्र में ठहरे हुए थे। लेकिन यह शोर सुनकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) निकल आए और आपने फ़रमाया, "यह अज्ञानकाल की पुकार कैसी? तुम लोग कहाँ और यह अज्ञान की पुकार कहाँ? इसे छोड़ दो यह बड़ी गन्दी चीज़ है।'' इसपर दोनों ओर के भले लोगों ने आगे बढ़कर मामला ख़त्म करा दिया और सिनान ने जहजाह को माफ़ करके समझौता कर लिया। इसके बाद हर वह व्यक्ति जिसके मन में निफ़ाक़ (कपट) था, अब्दुल्लाह-बिन-उबई के पास पहुँचा और इन लोगों ने जमा होकर उससे कहा कि "अब तक तो तुमसे आशाएँ थी और तुम प्रतिरक्षा कर रहे थे, मगर अब मालूम होता है कि तुम हमारे मुक़ाबले में इन कंगलों के सहायक बन गए हो।" इब्‍ने-उबई पहले ही खौल रहा था, इन बातों से वह और भी अधिक भड़क उठा। कहने लगा, "यह सब कुछ तुम्हारा ही किया-धरा है, तुमने इन लोगों को अपने देश में जगह दी, इनपर अपने माल बाँटे, यहाँ तक कि अब ये फल-फूलकर स्वयं हमारे ही प्रतिद्वन्द्वी बन गए। हमारी और इन कुरैश के कंगलों (या मुहम्मद के साथियों) की दशा पर यह कहावत चरितार्थ होती है कि अपने कुत्ते को खिला-पिलाकर मोटा कर ताकि तुझी को फाड़ खाए। तुम लोग इनसे हाथ रोक लो तो ये चलते-फिरते नज़र आएँ। ख़ुदा की क़सम! मदीना वापस पहुँचकर हममें से जो प्रतिष्ठित है, वह हीन को निकाल देगा।" [नबी (सल्ल०) को जब इस बात का ज्ञान हुआ तो] आपने तुरन्त ही कूच का आदेश दे दिया, हालाँकि नबी (सल्ल०) के सामान्य नियम के अनुसार वह कूच का समय न था। लगातार तीस घंटे चलते रहे, यहाँ तक कि लोग थककर चूर हो गए। फिर आपने एक जगह पड़ाव किया और थके हुए लोग धरती पर कमर टिकाते ही सो गए। यह आपने इसलिए किया कि जो मुरैसीअ के कुएँ पर घटित हुआ था, उसका प्रभाव लोगों के मन से मिट जाए [लेकिन] धीरे-धीरे यह बात तमाम अंसार में फैल गई और उनमें इब्‍ने-उबई के विरुद्ध अत्यन्त रोष उत्पन्न हो गया। लोगों ने इब्‍ने-उबई से कहा कि जाकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से माफ़ी माँगो। मगर उसने बिगड़कर उत्तर दिया, "तुमने कहा कि उनपर ईमान लाओ, मैं ईमान ले आया; तुमने कहा कि अपने माल की ज़कात दो, मैंने ज़कात भी दे दी। अब बस यही कसर रह गई है कि मैं मुहम्मद को सजदा करूँ।" इन बातों से उसके विरुद्ध अंसारी मुसलमानों का क्रोध और अधिक बढ़ गया और हर ओर से उसपर फिटकार पड़ने लगी। जब यह क़ाफ़िला मदीना तय्यिबा में दाखिल होने लगा तो अब्दुल्लाह-बिन-उबई के बेटे जिनका नाम भी अब्दुल्लाह ही था, तलवार खींचकर बाप के आगे खड़े हो गए और बोले, "आपने कहा था कि मदीना वापस पहुँचकर प्रतिष्ठित हीन को निकाल देगा। अब आपको मालूम हो जाएगा कि इज़्ज़त (प्रतिष्ठा) आप की है या अल्लाह और उसके रसूल की। ख़ुदा की क़सम ! आप मदीना में दाखिल नहीं हो सकते जब तक अल्लाह के रसूल (सल्ल.) आपको अनुमति न दें।" इसपर इब्‍ने-उबई, चीख उठा, "खज़रज के लोगो! तनिक देखो, मेरा बेटा ही मुझे मदीना में दाख़िल होने से रोक रहा है। लोगों ने यह ख़बर नबी (सल्ल.) तक पहुँचाई और आपने फ़रमाया “अब्दुल्लाह से कहो कि अपने बाप को घर आने दे।" अब्दुल्लाह (रज़ि०) ने कहा, "उनका हुक्म है तो अब आप दाख़िल हो सकते हैं।"

ये थीं वे परिस्थितियाँ जिनमें यह सूरा, प्रबल सम्भावना यह है कि नबी (सल्ल०) के मदीना पहुँचने के बाद, उतरी।

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ٱتَّخَذُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ جُنَّةٗ فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِۚ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 1
(2) इन्होंने अपनी क़समों को ढाल बना रखा है2 और इस तरह ये अल्लाह के रास्ते से ख़ुद रुकते और दुनिया को रोकते हैं।3 कैसी हरकतें हैं जो ये लोग कर रहे हैं!
2. यानी अपने मुसलमान और मोमिन होने का यक़ीन दिलाने के लिए जो कसमें वे खाते हैं, उनसे वे ढाल का काम लेते हैं, ताकि मुसलमानों के ग़ुस्से से बचे रहें और उनके साथ मुसलमान वह बरताव न कर सकें जो खुले-खुले दुश्मनों से किया जाता है। इन क़समों से मुराद वे क़समें भी हो सकती हैं जो वे आम तौर पर अपने ईमान का यक़ीन दिलाने के लिए खाया करते थे, और वे क़समें भी हो सकती हैं जो अपनी किसी मुनाफ़क़त (कपट) भरी हरकत के पकड़े जाने पर वे खाते थे, ताकि मुसलमानों को यह यक़ीन दिलाएँ कि वह हरकत उन्होंने मुनाफ़क़त की वजह से नहीं की थी, और वे क़समें भी हो सकती हैं जो अब्दुल्लाह-बिन-उबई ने हज़रत ज़ैद-बिन-अरक़म (रज़ि०) की दी हुई ख़बर को झुठलाने के लिए खाई थीं। इन सब इमकानों के साथ एक इमकान यह भी है कि अल्लाह तआला ने उनकी इस बात को क़सम क़रार दिया हो कि “हम गवाही देते हैं कि आप अल्लाह के रसूल हैं।” इस आख़िरी इमकान की बुनियाद पर फ़क़ीहों के दरमियान यह बहस पैदा हुई है कि कोई शख़्स 'मैं गवाही देता हूँ' के अलफ़ाज़ कहकर कोई बात बयान करे तो क्या उसे क़सम या हलफ़ (oath) क़रार दिया जाएगा या नहीं। इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और उनके साथी (इमाम जुफ़र के सिवा) और इमाम सुफ़ियान सौरी और इमाम औज़ाई (रह०) इसे हलफ़ (शरीअत की ज़बान में ‘यमीन') क़रार देते हैं। इमाम जुफ़र कहते हैं कि यह हलफ़ नहीं है। इमाम मालिक (रह०) से दो रायें रिवायत हुई हैं। एक यह कि वह पूरी तरह हलफ़ है, और दूसरी राय यह है कि अगर उसने ‘गवाही देता हूँ' के अलफ़ाज़ कहते वक़्त नीयत यह की हो कि “ख़ुदा की कसम! मैं गवाही देता हूँ,” या “ख़ुदा को गवाह करके मैं गवाही देता हूँ!” तो इस सूरत में यह हलफ़िया बयान होगा, वरना नहीं। इमाम शाफ़िई (रह०) कहते हैं कि अगर कहनेवाला ये अलफ़ाज़ भी कहे कि “मैं ख़ुदा को गवाह करके गवाही देता हूँ!” तब भी उसका यह बयान हलफ़िया बयान न होगा, सिवाय यह कि ये अलफ़ाज़ उसने हलफ़ उठाने की नीयत से कहे हों। (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास, अहकामुल-क़ुरआन लिइब्निल अरबी)
3. अरबी जुमले ‘सद्‍दू अन सबीलिल्लाह' का मतलब यह भी है कि वे अल्लाह के रास्ते से ख़ुद रुकते हैं, और यह भी है कि वे इस रास्ते से दूसरों को रोकते हैं। इसी लिए हमने तर्जमे में दोनों मतलब दर्ज कर दिए हैं। पहले मानी के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि अपनी इन क़समों के ज़रिए से मुसलमानों के अन्दर अपनी जगह महफ़ूज़ कर लेने के बाद वे अपने लिए ईमान के तक़ाज़े पूरे न करने और ख़ुदा और रसूल की फ़रमाबरदारी से बचने की आसानियाँ पैदा कर लेते हैं। दूसरे मानी के लिहाज़ से मतलब यह होगा कि अपनी इन झूठी क़समों की आड़ में वे शिकार खेलते हैं, मुसलमान बनकर मुसलमानों की जमाअत में अन्दर से दरारें डालते हैं, मुसलमानों के राज़ों (रहस्यों) से वाक़िफ़ होकर दुश्मनों को उनकी ख़बरें पहुँचाते हैं, इस्लाम से ग़ैर-मुस्लिमों को बदगुमान करने और सीधे-सादे मुसलमानों के दिलों में शक और वस्वसे डालने के लिए ऐसे-ऐसे हथकण्डे इस्तेमाल करते हैं जो सिर्फ़ एक मुसलमान बना हुआ मुनाफ़िक़ ही इस्तेमाल कर सकता है, खुला-खुला इस्लाम-दुश्मन उनसे काम नहीं ले सकता।
ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمۡ ءَامَنُواْ ثُمَّ كَفَرُواْ فَطُبِعَ عَلَىٰ قُلُوبِهِمۡ فَهُمۡ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 2
(3) ये सब कुछ इस वजह से है कि इन लोगों ने ईमान लाकर फिर कुफ़्र (इनकार) किया इसलिए इनके दिलों पर मुहर लगा दी गई, अब ये कुछ नहीं समझते।4
4. इस आयत में ईमान लाने से मुराद ईमान का इक़रार करके मुसलमानों में शामिल होना है। और कुफ़्र करने से मुराद दिल से ईमान न लाना और उसी कुफ़्र (इनकार) पर क़ायम रहना है जिसपर वे अपने ज़ाहिरी ईमान के इक़रार से पहले क़ायम थे। बात का मक़सद यह है कि जब उन्होंने ख़ूब सोच-समझकर सीधे-सीधे ईमान या साफ़-साफ़ इनकार का तरीक़ा अपनाने के बजाय यह मुनाफ़क़त-भरा रवैया अपनाने का फ़ैसला किया तो अल्लाह तआला की तरफ़ से उनके दिलों पर मुहर लगा दी गई और उनसे यह तौफ़ीक़ छीन ली गई कि वे एक सच्चे और बेलाग और शरीफ़ इनसान का-सा रवैया अपनाएँ। अब उनकी समझ-बूझ की सलाहियत (क्षमता) ख़त्म हो चुकी है। उनमें अख़लाक़ी एहसास ख़त्म हो चुका है। उन्हें इस राह पर चलते हुए कभी यह एहसास तक नहीं होता कि यह रात-दिन का झूठ और यह हर वक़्त का छल-फ़रेब और यह कहने और करने का हमेशा का फ़र्क़, कैसी नीच हालत है जिसमें उन्होंने अपने-आपको मुब्तला कर लिया है! यह आयत उन बहुत-सी आयतों में से है जिनमें अल्लाह की तरफ़ से किसी के दिल पर मुहर लगाने का मतलब बिलकुल साफ़ तरीक़े से बयान कर दिया गया है। इन मुनाफ़िक़ों की यह हालत इस वजह से नहीं हुई कि अल्लाह ने उनके दिलों पर मुहर लगा दी थी, इसलिए ईमान उनके अन्दर उतर ही न सका और वे मजबूर होकर मुनाफ़िक बनकर रह गए, बल्कि उसने उनके दिलों पर यह मुहर उस वक़्त लगाई जब उन्होंने ईमान का इज़हार करने के बावजूद कुफ़्र पर क़ायम रहने का फ़ैसला कर लिया। तब उनसे सच्चे ईमान और उससे पैदा होनेवाले अख़लाक़ी रवैये की तौफ़ीक़ (सौभाग्य) छीन ली गई और उस मुनाफ़क़त (कपट) और मुनाफ़क़त-भरे रवैये ही की तौफ़ीक़ उन्हें दे दी गई जिसे उन्होंने ख़ुद अपने लिए पसन्द किया था।
۞وَإِذَا رَأَيۡتَهُمۡ تُعۡجِبُكَ أَجۡسَامُهُمۡۖ وَإِن يَقُولُواْ تَسۡمَعۡ لِقَوۡلِهِمۡۖ كَأَنَّهُمۡ خُشُبٞ مُّسَنَّدَةٞۖ يَحۡسَبُونَ كُلَّ صَيۡحَةٍ عَلَيۡهِمۡۚ هُمُ ٱلۡعَدُوُّ فَٱحۡذَرۡهُمۡۚ قَٰتَلَهُمُ ٱللَّهُۖ أَنَّىٰ يُؤۡفَكُونَ ۝ 3
(4) इन्हें देखो तो इनके डील-डौल तुम्हें बड़े शानदार नज़र आएँ। बोलें तो तुम उनकी बातें सुनते रह जाओ।5 मगर अस्ल में ये मानो लकड़ी के कुन्दे हैं जो दीवार के साथ चुनकर रख दिए गए हों।6 हर ज़ोर की आवाज़ को ये अपने ख़िलाफ़ समझते हैं।7 ये पक्के दुश्मन हैं,8 इनसे बचकर रहो,9 अल्लाह की मार इनपर!10 ये किधर उलटे फिराए जा रहे हैं!11
5. हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) बयान करते हैं कि अब्दुल्लाह-बिन-उबई बड़े डील-डौल का, तन्दुरुस्त, ख़ूबसूरत और बातूनी आदमी था। और यही शान उसके बहुत-से साथियों की थी। ये सब मदीना के रईस लोग थे। जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मजलिस में आते तो दीवारों से तकिए लगाकर बैठते और बड़ी लच्छेदार बातें करते। उनके हुलिए और चेहरे को देखकर और उनकी बातें सुनकर कोई यह गुमान तक न कर सकता था कि बस्ती के ये इज़्ज़तदार लोग अपने किरदार के लिहाज़ से इतने गिरे हुए होंगे।
6. यानी यह जो दीवारों के साथ तकिए लगाकर बैठते हैं, ये इनसान नहीं हैं, बल्कि लकड़ी के कुन्दे हैं। उनकी मिसाल लकड़ी से देकर यह बताया गया कि ये अख़लाक़ की रूह से ख़ाली हैं जो इनसानियत का अस्ल जौहर है। फिर उनकी मिसाल दीवार से लगे हुए कुन्दों से देकर यह भी बता दिया गया कि ये बिलकुल नाकारा हैं। क्योंकि लकड़ी भी अगर कोई फ़ायदा देती है तो उस वक़्त कि जब वह किसी छत में, या किसी दरवाज़े में, या किसी फ़र्नीचर में लगकर इस्तेमाल हो रही हो। दीवार से लगाकर कुन्दे की शक्ल में जो लकड़ी रख दी गई हो वह कोई भी फ़ायदा नहीं देती।
7. इस छोटे-से जुमले में उनके मुजरिम ज़मीर (अन्तरात्मा) की तस्वीर खींच दी गई है। चूँकि वे अपने दिलों में ख़ूब जानते थे कि वे ईमान के ज़ाहिरी परदे की आड़ में मुनाफ़क़त (कपट नीति) का क्या खेल खेल रहे हैं, इसलिए उन्हें हर वक़्त धड़का लगा रहता था कि कब उनके जुर्मों का राज़ खुल जाए, या उनकी हरकतों पर ईमानवालों के सब्र का पैमाना भर जाए और उनकी ख़बर ले डाली जाए। बस्ती में किसी तरफ़ से भी कोई ज़ोर की आवाज़ आती या कहीं शोर उठता था तो वे सहम जाते और यह ख़याल करते थे कि आ गई हमारी शामत।
8. दूसरे अलफ़ाज़ में खुले दुश्मनों के मुक़ाबले में ये छिपे हुए दुश्मन ज़्यादा ख़तरनाक हैं।
9. यानी उनके ज़ाहिर से धोखा न खाओ। हर वक़्त ख़याल रखो कि ये किसी वक़्त भी दगा दे सकते हैं।
10. यह बदुआ नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला की तरफ़ से उनके बारे में इस फ़ैसले का एलान है कि वे उसकी मार के हक़दार हो चुके हैं, उनपर उसकी मार पड़कर रहेगी। यह भी हो सकता है कि ये अलफ़ाज़ अल्लाह तआला ने लफ़्जी मानी में इस्तेमाल न किए हों, बल्कि अरबी मुहावरे के मुताबिक़ लानत और फिटकार और बुरा-भला कहने के लिए इस्तेमाल किए हों, जैसे उर्दू (और हिन्दी) में हम किसी की बुराई बयान करते हुए कहते हैं, सत्यानास उसका! कैसा ख़बीस (दुष्ट) आदमी है! इस लफ़्ज़ 'सत्यानास' से मक़सद उसकी बुराई की शिद्दत ज़ाहिर करना होता है न कि उसके हक़ में बद्दुआ करना।
11. यह नहीं बताया गया कि उनको ईमान से निफ़ाक़ (कपटाचार) की तरफ़ उलटा फिरानेवाला कौन है। इसको साफ़ बयान न करने से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि उनको इस औंधी चाल पर उभारनेवाली कोई एक चीज़ नहीं है, बल्कि बहुत-सी उकसानेवाली चीज़ें इसमें काम कर रही हैं। शैतान है, बुरे दोस्त हैं, उनके अपने मन की ख़ाहिशें हैं। किसी की बीवी इसपर उकसानेवाली है। किसी के बच्चे इसपर उभार रहे हैं। किसी की बिरादरी के बुरे लोग इसपर उकसा रहे हैं। किसी को जलन और दुश्मनी और घमण्ड ने इस राह पर हाँक दिया है।
وَإِذَا قِيلَ لَهُمۡ تَعَالَوۡاْ يَسۡتَغۡفِرۡ لَكُمۡ رَسُولُ ٱللَّهِ لَوَّوۡاْ رُءُوسَهُمۡ وَرَأَيۡتَهُمۡ يَصُدُّونَ وَهُم مُّسۡتَكۡبِرُونَ ۝ 4
(5) और जब इनसे कहा जाता है कि आओ ताकि अल्लाह का रसूल तुम्हारे लिए मग़फ़िरत (माफ़ी) की दुआ करे, तो सर झटकते हैं और तुम देखते हो कि वे बड़े घमण्ड के साथ आने से रुकते हैं।12
12. यानी सिर्फ़ इसी पर बस नहीं करते कि रसूल (सल्ल०) के पास माफ़ी माँगने के लिए न आएँ, बल्कि यह बात सुनकर घमण्ड और अकड़ के साथ सर को झटका देते हैं और रसूल (सल्ल०) के पास आने और माफ़ी माँगने को अपनी तौहीन समझकर अपनी जगह जमे बैठे रहते हैं। यह उनके मोमिन न होने की खुली निशानी है।
سَوَآءٌ عَلَيۡهِمۡ أَسۡتَغۡفَرۡتَ لَهُمۡ أَمۡ لَمۡ تَسۡتَغۡفِرۡ لَهُمۡ لَن يَغۡفِرَ ٱللَّهُ لَهُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 5
(6) ऐ नबी! तुम चाहे इनके लिए मग़फ़िरत की दुआ करो या न करो, इनके लिए बराबर है, अल्लाह हरगिज़ इन्हें माफ़ न करेगा,13 अल्लाह फ़ासिक़ (नाफ़रमान) लोगों को हरगिज़ हिदायत नहीं देता।14
13. यह बात सूरा-9 तौबा में (जो सूरा-63 मुनाफ़िक़ून के तीन साल बाद उतरी है) और ज़्यादा ताकीद के साथ कही गई। उसमें अल्लाह तआला ने रसूल (सल्ल०) को मुख़ातब करके मुनाफ़िक़ों के बारे में फ़रमाया, “तुम चाहे उनके लिए माफ़ी चाहो या न चाहो, अगर तुम सत्तर बार भी उनके लिए माफ़ी की दुआ करोगे तो अल्लाह उनको हरगिज़ माफ़ न करेगा। यह इसलिए कि इन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से कुफ़्र किया है, और अल्लाह नाफ़रमान लोगों को हिदायत नहीं दिया करता,” (सूरा-9 तौबा, आयत-80)। आगे चलकर फिर फ़रमाया, “अगर उनमें से कोई मर जाए तो उसके जनाज़े की नमाज़ कभी न पढ़ना और न उसकी क़ब्र पर खड़े होना। इन लोगों ने अल्लाह और उसके रसूल से कुफ़्र किया है और ये नाफ़रमान होने की हालत में मरे हैं।" (सूरा-9 तौबा, आयत-84)
14. इस आयत में दो बातें बयान की गई हैं : एक यह कि मग़फ़िरत की दुआ सिर्फ़ हिदायत पाए हुए लोगों ही के लिए फ़ायदेमन्द हो सकती है। जो शख़्स हिदायत से फिर गया हो और जिसने फ़रमाँबरदारी के बजाय नाफ़रमानी का रास्ता अपना लिया हो, उसके लिए कोई आम आदमी तो दूर रहा, ख़ुद अल्लाह तआला का रसूल भी मग़फ़िरत की दुआ करे तो उसे माफ़ नहीं किया जा सकता। दूसरी यह कि ऐसे लोगों को हिदायत देना अल्लाह का तरीक़ा नहीं है जो उसकी हिदायत के तलबगार न हों। अगर एक बन्दा ख़ुद अल्लाह तआला की हिदायत से मुँह मोड़ रहा हो, बल्कि हिदायत की तरफ़ उसे बुलाया जाए तो सर झटककर घमण्ड के साथ इस दावत को रद्द कर दे तो अल्लाह को क्या ज़रूरत पड़ी है कि उसके पीछे-पीछे अपनी हिदायत लिए फिरे और ख़ुशामद करके उसे सीधी राह पर लाए।
هُمُ ٱلَّذِينَ يَقُولُونَ لَا تُنفِقُواْ عَلَىٰ مَنۡ عِندَ رَسُولِ ٱللَّهِ حَتَّىٰ يَنفَضُّواْۗ وَلِلَّهِ خَزَآئِنُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ وَلَٰكِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَا يَفۡقَهُونَ ۝ 6
(7) ये वही लोग हैं जो कहते हैं कि रसूल के साथियों पर ख़र्च करना बन्द कर दो, ताकि ये बिखर जाएँ। हालाँकि ज़मीन और आसमानों के ख़ज़ानों का मालिक अल्लाह ही है, मगर ये मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) समझते नहीं हैं।
يَقُولُونَ لَئِن رَّجَعۡنَآ إِلَى ٱلۡمَدِينَةِ لَيُخۡرِجَنَّ ٱلۡأَعَزُّ مِنۡهَا ٱلۡأَذَلَّۚ وَلِلَّهِ ٱلۡعِزَّةُ وَلِرَسُولِهِۦ وَلِلۡمُؤۡمِنِينَ وَلَٰكِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 7
(8) ये कहते हैं कि हम मदीना वापस पहुँच जाएँ तो जो इज़्ज़तवाला है वह गिरे हुए लोगों को वहाँ से निकाल बाहर करेगा।15 हालाँकि इज़्ज़त तो अल्लाह और उसके रसूल और ईमानवालों के लिए है,16 मगर ये मुनाफ़िक़ जानते नहीं हैं।
15. हज़रत ज़ैद-बिन-अरक़म (रज़ि०) कहते हैं कि जब मैंने अब्दुल्लाह-बिन-उबई की कही हुई यह बात नबी (सल्ल०) तक पहुँचाई, और उसने आकर साफ़ इनकार कर दिया और उसपर क़सम खा गया, तो अनसार के बड़े-बूढ़ों ने और ख़ुद मेरे अपने चचा ने मुझे बहुत बुरा-भला कहा, यहाँ तक कि मुझे यह महसूस हुआ कि नबी (सल्ल०) ने भी मुझे झूठा और अब्दुल्लाह-बिन-उबई को सच्चा समझा है। इस चीज़ से मुझे ऐसा दुख हुआ जो उम्र-भर कभी नहीं हुआ और मैं मायूस होकर अपनी जगह बैठ गया। फिर जब ये आयतें उतरीं तो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने मुझे बुलाकर हँसते हुए मेरा कान पकड़ा और फ़रमाया, “लड़के का कान सच्चा था, अल्लाह ने इसकी ख़ुद तसदीक़ (पुष्टि) कर दी।” (इब्ने-जरीर, तिरमिज़ी में भी इससे मिलती-जुलती रिवायत मौज़ूद है)
16. यानी इज़्ज़त अल्लाह के वुजूद की ख़ास सिफ़त है, और रसूल के लिए रिसालत (पैग़म्बरी) की बुनियाद पर है, और ईमानवालों के लिए ईमान की बुनियाद पर है। रहे इनकार करनेवाले, नाफ़रमान और मुनाफ़िक़, तो हक़ीकी इज़्ज़त में सिरे से इनका कोई हिस्सा ही नहीं है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَا تُلۡهِكُمۡ أَمۡوَٰلُكُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُكُمۡ عَن ذِكۡرِ ٱللَّهِۚ وَمَن يَفۡعَلۡ ذَٰلِكَ فَأُوْلَٰٓئِكَ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 8
(9) ऐ लोगो17 जो ईमान लाए हो! तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद न तुमको अल्लाह की याद से ग़ाफ़िल न कर दें।18 जो लोग ऐसा करें वही घाटे में रहनेवाले हैं।
17. अब तमाम उन लोगों को जो इस्लाम के दायरे में दाख़िल हों, फिर चाहे वे सच्चे मोमिन हों सिर्फ़ ज़बान से ईमान का इक़रार करनेवाले, आम ख़िताब करके एक नसीहत की जा रही है। यह बात इससे पहले हम कई बार बयान कर चुके हैं कि क़ुरआन मजीद में 'अल्लज़ी-न आ-मनू के अलफ़ाज़ से कभी तो सच्चे ईमानवालों को मुख़ातब किया जाता है, और कभी ये अलफ़ाज़ मुनाफ़िक़ों से कहे जाते हैं, क्योंकि वे ईमान का ज़बानी इक़रार करनेवाले हुआ करते हैं, और कभी हर तरह के मुसलमान आम तौर पर इससे मुराद होते हैं। बात का मौक़ा-महल यह बता देता है कि कहाँ कौन-सा गरोह इन अलफ़ाज़ का मुख़ातब है।
18. माल और औलाद का ज़िक्र तो ख़ास तौर पर इसलिए किया गया है कि इनसान ज़्यादा तर ही फ़ायदों की ख़ातिर ईमान के तक़ाज़ों से मुँह मोड़कर मुनाफ़क़त, या ईमान की कमज़ोरी, या गुनाह व नाफ़रमानी में मुब्तला होता है, वरना हक़ीक़त में मुराद दुनिया की हर वह चीज़ है जो इनसान को अपने अन्दर इतना मशग़ूल (व्यस्त) कर ले कि वह ख़ुदा की याद से ग़ाफ़िल हो जाए। यह ख़ुदा की याद से ग़फ़लत ही सारी ख़राबियों की अस्ल जड़ है। अगर इनसान को यह याद रहे कि वह आज़ाद नहीं है, बल्कि एक ख़ुदा का बन्दा है, और वह ख़ुदा उसके तमाम आमाल की ख़बर रखता है, और उसके सामने जाकर एक दिन उसे अपने आमाल की जवाबदेही करनी है तो वह कभी किसी गुमराही और बुरे काम में मुब्तला न हो, और इनसानी कमज़ोरी से उसका क़दम अगर किसी वक़्त फिसल भी जाए तो होश आते ही वह फ़ौरन सम्भल जाए।
وَأَنفِقُواْ مِن مَّا رَزَقۡنَٰكُم مِّن قَبۡلِ أَن يَأۡتِيَ أَحَدَكُمُ ٱلۡمَوۡتُ فَيَقُولَ رَبِّ لَوۡلَآ أَخَّرۡتَنِيٓ إِلَىٰٓ أَجَلٖ قَرِيبٖ فَأَصَّدَّقَ وَأَكُن مِّنَ ٱلصَّٰلِحِينَ ۝ 9
(10) जो रोज़ी हमने तुम्हें दी है उसमें से करो इससे पहले कि तुममें से किसी की मौत का वक़्त आ जाए और उस वक़्त वह कहे कि “ऐ मेरे रब! क्यों न तूने मुझे थोड़ी-सी मुहलत और दे दी कि मैं सदक़ा देता और नेक लोगों में शामिल हो जाता।"
وَلَن يُؤَخِّرَ ٱللَّهُ نَفۡسًا إِذَا جَآءَ أَجَلُهَاۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 10
(11) हालाँकि जब किसी की अमल की मुद्दत पूरी होने का वक़्त आ जाता है तो अल्लाह उसको हरगिज़ और ज़्यादा मुहलत नहीं देता, और जो कुछ तुम करते हो, अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।
سُورَةُ المُنَافِقُونَ
63. अल-मुनाफ़िकून
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
إِذَا جَآءَكَ ٱلۡمُنَٰفِقُونَ قَالُواْ نَشۡهَدُ إِنَّكَ لَرَسُولُ ٱللَّهِۗ وَٱللَّهُ يَعۡلَمُ إِنَّكَ لَرَسُولُهُۥ وَٱللَّهُ يَشۡهَدُ إِنَّ ٱلۡمُنَٰفِقِينَ لَكَٰذِبُونَ
(1) ऐ नबी! जब ये मुनाफ़िक़ तुम्हारे पास आते हैं तो कहते हैं, “हम गवाही देते हैं कि आप यक़ीनन अल्लाह के रसूल हैं।” हाँ, अल्लाह जानता है कि तुम ज़रूर उसके रसूल हो, मगर अल्लाह गवाही देता है कि ये मुनाफ़िक़ बिलकुल झूठे हैं।1
1. यानी जो बात वे ज़बान से कह रहे हैं वह है तो अपने-आपमें ख़ुद सच्ची, लेकिन चूँकि उनका अपना अक़ीदा वह नहीं है जिसे वे ज़बान से ज़ाहिर कर रहे हैं, इसलिए अपनी इस बात में वे झूठे हैं कि वे आप (सल्ल०) के रसूल होने की गवाही देते हैं। इस जगह पर यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि गवाही दो चीज़ों से मिलकर बनी होती है। एक वह अस्ल बात जिसकी गवाही दी जाए। दूसरी उस बात के बारे में गवाही देनेवाले का अपना अक़ीदा। अब अगर बात अपने-आपमें भी सच्ची हो, और गवाही देनेवाले का अक़ीदा भी वही हो जिसको वह ज़बान से बयान कर रहा हो, तो हर लिहाज़ से वह सच्चा होगा। और अगर बात अपनी जगह झूठी हो, लेकिन गवाही देनेवाला उसी के हक़ होने का अक़ीदा रखता हो तो हम एक लिहाज़ से उसे सच्चा कहेंगे, क्योंकि वह अपना अक़ीदा बयान करने में सच्चा है, और एक दूसरे लिहाज़ से उसको झूठा कहेंगे, क्योंकि जिस बात की वह गवाही दे रहा है वह अपने- आपमें ख़ुद ग़लत है। इसके बरख़िलाफ़ अगर बात अपनी जगह सच्ची हो, लेकिन गवाही देनेवाले का अपना अक़ीदा उसके ख़िलाफ़ हो तो हम इस लिहाज़ से उसको सच्चा कहेंगे कि वह सही बात की गवाही दे रहा है, और इस लिहाज़ से उसको झूठा कहेंगे कि उसका अपना अक़ीदा वह नहीं है जिसको वह ज़बान से बयान कर रहा है। मिसाल के तौर पर एक मोमिन अगर इस्लाम को सही कहे तो वह हर लिहाज़ से सच्चा है। लेकिन एक यहूदी अपनी यहूदियत पर क़ायम रहते हुए इस दीन को अगर सही कहे तो बात उसकी सच्ची होगी, मगर गवाही उसकी झूठी क़रार दी जाएगी, क्योंकि वह अपने अक़ीदे के ख़िलाफ़ गवाही दे रहा है। और अगर वह इस दीन को ग़लत कहे तो हम कहेंगे कि बात उसकी झूठी है, मगर गवाही वह अपने अक़ीदे के मुताबिक़ सच्ची दे रहा है।