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سُورَةُ الفَجۡرِ

89. अल-फ़ज्र

(मक्का में उतरी, आयतें 30)

परिचय

नाम

पहले ही शब्द 'वल-फ़ज्र’ (क़सम है फ़ज्र अर्थात् उषाकाल की) को इसका नाम क़रार दिया गया है।

उतरने का समय

इसकी वार्ताओं से स्पष्ट होता है कि यह उस काल में उतरी थी जब मक्का में इस्लाम स्वीकार करनेवालों के विरुद्ध जुल्म की चक्की चलनी शुरू हो चुकी थी। इसी कारण मक्कावालों को आद और समूद और फ़िरऔन के अंजाम से सचेत किया गया है।

विषय और वार्ता

इसका विषय आखिरत के इनाम और सज़ा को साबित करता है, जिसका मक्कावाले इंकार कर रहे थे। इस उद्देश्य के लिए सबसे पहले फ़ज्र (ऊषाकाल) और दस रातों और युग्‍म और अयुग्म संख्या और विदा होती हुई रात की क़सम खाकर सुननेवालों से सवाल किया गया है कि जिस बात का तुम इंकार कर रहे हो उसके सत्य होने की गवाही देने के लिए क्या ये चीजें काफ़ी नहीं हैं? इसके बाद मानव-इतिहास से प्रमाण प्रस्तुत करते हुए उदाहरण के रूप में आद और समूद और फ़िरऔन के अंजाम को पेश किया गया है कि जब वे सीमा से आगे बढ़ गए तो अल्लाह के अज़ाब का कोड़ा उनपर बरस गया। इससे पता चलता है कि सृष्टि की व्यवस्था कुछ अंधी-बहरी ताक़तें नहीं चला रही हैं, बल्कि एक तत्त्वदर्शी और सर्वज्ञ शासक इसपर शासन कर रहा है, जिसकी तत्त्वदर्शिता और न्याय का यह तक़ाज़ा स्वयं इस दुनिया में और मानव इतिहास के भीतर बराबर नजर आता है कि बुद्धि और नैतिक चेतना देकर जिस जीव को उसने यहाँ उपभोग के अधिकार दिए हैं उसका हिसाब-किताब ले और उसे इनाम या सज़ा दे। इसके बाद मानव समाज की सामान्य नैतिक स्थिति का जायजा लिया गया है और मुख्य रूप से उसके विभिन्न पहलुओं की आलोचना की गई है। एक, लोगों के भौतिकवादी दृष्टिकोण जिसके कारण वह नैतिकता की भलाई और बुराई को नज़रअंदाज़ करके केवल दुनिया की दौलत और सत्ता के पाने और खोने के आदर-अनादर का मापदण्ड क़रार दिए बैठे थे और इस बात को भूल गए थे कि न धन का होना कोई इनाम है, न रोज़ी की तंगी कोई सज़ा, बल्कि अल्लाह इन दोनों हालतों में इंसान की परीक्षा ले रहा है। दूसरे, लोगों का यह रवैया कि जिसका बस चलता है मुर्दे की सारी मीरास समेटकर बैठ जाता है और कमज़ोर हक़दारों को टरका देता है। इस आलोचना का अभिप्राय लोगों को इस बात का पक्षधर बनाना है कि दुनिया की जिंदगी में जिन इंसानों का यह रवैया है, उनसे पूछ-गच्छ आख़िर क्यों न हो। फिर वार्ता को इस बात पर समाप्त किया गया है कि हिसाब-किताब होगा और ज़रूर होगा। उस समय इनाम और सज़ा का इंकारी इंसान हाथ मलता रह जाएगा कि काश, मैंने दुनिया में इस दिन के लिए कोई सामान किया होता! मगर यह पश्चात्ताप उसे अल्लाह की सज़ा से न बचा सकेगा, अलबत्ता जिन इंसानों ने दुनिया में दिल के पूरे इत्मीनान के साथ सत्य को अपना लिया होगा, अल्लाह उनसे राज़ी होगा और वे अल्लाह के प्रदान किए हुए बदले से राजी होंगे। उन्हें दावत दी जाएगी कि वे अपने रब के पसंदीदा बन्दों में शामिल हों और जन्नत में दाख़िल हो जाएँ।

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سُورَةُ الفَجۡرِ
89. अल-फ़ज्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
وَٱلۡفَجۡرِ
(1) क़सम है फ़ज्र (उषाकाल) की,
وَلَيَالٍ عَشۡرٖ ۝ 1
(2) और दस रातों की,
وَٱلشَّفۡعِ وَٱلۡوَتۡرِ ۝ 2
(3) और जुफ़्त (सम) और ताक़ (विषम) की,
وَٱلَّيۡلِ إِذَا يَسۡرِ ۝ 3
(4) और रात की जबकि वह रुख़सत हो रही हो।
أَلَمۡ تَرَ كَيۡفَ فَعَلَ رَبُّكَ بِعَادٍ ۝ 4
(6) तुमने2 देखा नहीं कि तुम्हारे रब ने क्या बरताव किया
2. इनाम और सज़ा पर रात-दिन के निज़ाम (बन्दोबस्त) से दलील देने के बाद अब उसके यक़ीनी हक़ीक़त होने पर इनसानी इतिहास से दलील दी जा रही है। इतिहास की कुछ नामवर क़ौमों के रवैये और उनके अंजाम के ज़िक्र का मक़सद यह बताना है कि यह कायनात किसी अन्धे-बहरे क़ुदरती क़ानून पर नहीं चल रही है, बल्कि एक हिकमतवाला ख़ुदा इसको चला रहा है और उस ख़ुदा की ख़ुदाई में सिर्फ़ एक वही क़ानून काम नहीं कर रहा है जिसे तुम क़ुदरती क़ानून समझते हो, बल्कि एक अख़लाक़ी क़ानून भी काम कर रहा है जिसका लाज़िमी तक़ाज़ा अमल का नतीजा और इनाम और सज़ा है। इस क़ानून के काम करने की निशानियाँ ख़ुद इस दुनिया में भी बार-बार ज़ाहिर होती रही हैं, जो अक़्ल रखनेवालों को यह बताती हैं कि कायनात की सल्तनत का मिज़ाज क्या है। यहाँ जिन क़ौमों ने भी आख़िरत से बेफ़िक्र और ख़ुदा के इनाम और सज़ा से निडर होकर अपनी ज़िन्दगी का निज़ाम चलाया, वह आख़िरकार फ़साद और बिगाड़ फैलानेवाली बनकर रहीं, और जो क़ौम भी इस रास्ते पर चली उसपर कायनात के रब ने आख़िरकार अज़ाब का कोड़ा बरसा दिया। इनसानी इतिहास का यह लगातार तजरिबा दो बातों की साफ़ गवाही दे रहा है। एक यह कि आख़िरत का इनकार हर क़ौम को बिगाड़ने और आख़िरकार तबाही के गर्त (गढ़े) में ढकेलने का सबब हुआ है इसलिए आख़िरत सचमुच एक हक़ीक़त है, जिससे टकराने का नतीजा वही होता है जो हर हक़ीक़त से टकराने का हुआ करता है। दूसरी यह कि आमाल (कर्मों) का बदला किसी वक़्त भी पूरी तरह सामने आनेवाली बात है, क्योंकि बिगाड़ की आख़िरी हद पर पहुँचकर अज़ाब का कोड़ा जिन लोगों पर बरसा उनसे पहले सदियों तक बहुत-से लोग उस बिगाड़ के बीज बोकर दुनिया से विदा हो चुके थे और उनपर कोई अज़ाब न आया था। ख़ुदा के इनसाफ़ का तक़ाज़ा यह है कि किसी वक़्त उन सबसे भी पूछ-गछ हो और वे भी अपने किए की सज़ा पाएँ। (क़ुरआन मजीद में आख़िरत पर यह तारीख़ी (ऐतिहासिक) और अख़लाक़ी दलील जगह-जगह दी गई है और हमने हर जगह उसकी तशरीह की है। मिसाल के तौर पर नीचे लिखी जगहें देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़ हाशिए—5, 6; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-12; सूरा-11 हूद, हाशिए—57, 105, 115; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-9; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—66, 86; सूरा-30 रूम, हाशिया-88; सूरा-34 सबा, हाशिया-25; सूरा-38 सॉद, हाशिए—29, 30; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-80; सूरा-44 दुख़ान, हाशिए—33, 34; सूरा-45 जासिया, हाशिए—27, 28; सूरा-50 क़ाफ़, हाशिया-17; सूरा-51 ज़ारियात, हाशिया-21)।
3. ‘आदे-इरम’ से मुराद वह पुरानी आद क़ौम है जिसे क़ुरआन मजीद और अरब के इतिहास में ‘आदे-ऊला’ का नाम दिया गया है। सूरा-53 नज्म में फ़रमाया गया है, “और यह कि उसने पुरानी क़ौम आद (आदे-ऊला) को हलाक किया,” (आयत-50) यानी उस आद क़ौम को जिसकी तरफ़ पैग़म्बर हूद (अलैहि०) भेजे गए थे और जिसपर अज़ाब आया था। उसके मुक़ाबले में अरब का इतिहास इस क़ौम के उन लोगों को, जो अज़ाब से बचकर बाद में फले-फूले थे, ‘आदे-उख़रा’ के नाम से याद करता है। पुरानी क़ौम आद को आदे-इरम इसलिए कहा जाता है कि ये लोग सामी नस्ल की उस शाखा से ताल्लुक़ रखते थे जो इरम-बिन-साम-बिन-नूह (अलैहि०) से चली थी। इसी शाखा से निकली कुछ दूसरी शाखाएँ इतिहास में मशहूर हैं, जिनमें से एक समूद हैं, जिनका ज़िक्र क़ुरआन में आया है और दूसरी आरामी (Aramaeans) हैं जो शुरू में शाम (सीरिया) के उत्तरी इलाक़ों में आबाद थे और जिनकी ज़बान आरामी (Aramaic) सामी ज़बानों में बड़ा अहम मक़ाम रखती है। आद के लिए ‘ज़ातुल-इमाद’ (ऊँचे स्तंभोंवाले) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं कि वे बड़ी-बड़ी बुलन्द इमारतें बनाते थे और दुनिया में ऊँचे सुतूनों (स्तंभों) पर इमारतें खड़ी करने का तरीक़ा सबसे पहले उन्हीं ने शुरू किया था। क़ुरआन मजीद में दूसरी जगह उनकी इस ख़ासियत का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि हज़रत हूद (अलैहि०) ने उनसे कहा, “यह तुम्हारा क्या हाल है कि हर ऊँची जगह पर बेकार और बेफ़ायदा एक यादगार इमारत बना डालते हो और बड़े-बड़े महल बनाते हो, मानो तुम्हें हमेशा यहाँ रहना है।” (सूरा-26 शुअरा, आयतें—128, 129)।
إِرَمَ ذَاتِ ٱلۡعِمَادِ ۝ 5
(7) ऊँचे सुतूनोंवाले (स्तंभोंवाले) आदे-इरम3 के साथ,
ٱلَّتِي لَمۡ يُخۡلَقۡ مِثۡلُهَا فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 6
(8) जिनके जैसी कोई क़ौम दुनिया के देशों में पैदा नहीं की गई थी?4
4. यानी वे अपने ज़माने की एक बेमिसाल क़ौम थे, अपनी क़ुव्वत और शानो-शौकत के एतिबार से कोई क़ौम उस वक़्त दुनिया में उनकी टक्कर की न थी। क़ुरआन में दूसरी जगहों पर उनके बारे में फ़रमाया गया है, “तुमको जिस्मानी बनावट में ख़ूब मज़बूत (हृष्ट-पुष्ट) किया।” (सूरा-7 आराफ़, आयत-69)। “रहे आद, तो उन्होंने ज़मीन में किसी हक़ के बिना अपनी बड़ाई का घमण्ड किया और कहने लगे, कौन है हमसे ज़्यादा ज़ोर रखनेवाला?” (सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-15)। “और तुमने जब किसी पर हाथ डाला जब्बार (दमनकारी) बनकर डाला।” (सूरा-26 शुअरा, आयत-130)।
وَثَمُودَ ٱلَّذِينَ جَابُواْ ٱلصَّخۡرَ بِٱلۡوَادِ ۝ 7
(9) और समूद के साथ जिन्होंने वादी में चट्टानें तराशी थीं?5
5. वादी (घाटी) से मुराद ‘वादियुल-क़ुरा’ है, जहाँ इस क़ौम ने पहाड़ों को तराश-तराशकर उनके अन्दर इमारतें बनाई थीं और शायद इतिहास में वह पहली क़ौम है जिसने चट्टानों के अन्दर इस तरह की इमारतें बनाने का सिलसिला शुरू किया था। (तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—57, 59; सूरा-15 हिज्र, हाशिया-45; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—95, 99)।
وَفِرۡعَوۡنَ ذِي ٱلۡأَوۡتَادِ ۝ 8
(10) और मेख़ोंवाले (खूँटियोंवाले) फ़िरऔन6 के साथ?
6. फ़िरऔन के लिए ‘ज़ुल-औताद’ (मेख़ोंवाला) के अलफ़ाज़ इससे पहले सूरा-38 सॉद, आयत-12 में भी इस्तेमाल हुए हैं। इसके कई मतलब हो सकते हैं। मुमकिन है कि उसकी फ़ौजों को मेख़ों (खूँटियों) से मिसाल दी गई हो और मेख़ोंवाला कहने का मतलब फ़ौजोंवाला हो, क्योंकि उन्हीं की बदौलत उसकी हुकूमत इस तरह जमी हुई थी जैसे ख़ेमा (शिविर) खूँटियों के ज़रिए से मज़बूती के साथ क़ायम होता है। यह भी मुमकिन है कि इससे मुराद फ़ौजों की ज़्यादती हो और मतलब यह हो कि उसके लश्कर जहाँ भी जाकर ठहरते थे वहाँ हर तरफ़ उनके ख़ेमों की खूँटिया-ही-खूँटियाँ ठुकी नज़र आती थीं। यह भी हो सकता है कि इससे मुराद वे खूँटियाँ हों जिनसे ठोककर वह लोगों को अज़ाब देता था। और यह भी मुमकिन है कि मिस्र के अहराम (पिरामिड) को मेख़ों से मिसाल दी गई हो, क्योंकि वह फ़िरऔनों की शानो-शौकत की वे निशानियाँ हैं जो सदियों से ज़मीन पर जमी खड़ी हैं।
ٱلَّذِينَ طَغَوۡاْ فِي ٱلۡبِلَٰدِ ۝ 9
(11) ये वे लोग थे जिन्होंने दुनिया के देशों में बड़ी सरकशी की थी
فَأَكۡثَرُواْ فِيهَا ٱلۡفَسَادَ ۝ 10
(12) और उनमें बहुत बिगाड़ फैलाया था।
فَصَبَّ عَلَيۡهِمۡ رَبُّكَ سَوۡطَ عَذَابٍ ۝ 11
(13) आख़िरकार तुम्हारे रब ने उनपर अज़ाब का कोड़ा बरसा दिया।
إِنَّ رَبَّكَ لَبِٱلۡمِرۡصَادِ ۝ 12
(14) हक़ीक़त यह है कि तुम्हारा रब घात लगाए हुए है।7
7. ज़ालिमों और बिगाड़ फैलानेवालों की हरकतों पर निगाह रखने के लिए घात लगाए हुए होने के अलफ़ाज़ मिसाल के तौर पर इस्तेमाल किए गए हैं। घात उस जगह को कहते हैं जहाँ कोई शख़्स किसी के इन्तिज़ार में इस ग़रज़ से छिपा बैठा होता है कि जब वह निशाने पर आए उसी वक़्त उसपर हमला कर दे। वह जिसके इन्तिज़ार में बैठा होता है उसे कुछ पता नहीं होता कि उसकी ख़बर लेने के लिए कौन कहाँ छिपा हुआ है। अंजाम से ग़ाफ़िल, बेफ़िक्री के साथ वह उस जगह से गुज़रता है और अचानक शिकार हो जाता है। यही सूरते-हाल अल्लाह तआला के मुक़ाबले में उन ज़ालिमों की है जो दुनिया में बिगाड़ का तूफ़ान बरपा किए रखते हैं। उन्हें इसका कोई एहसास नहीं होता कि ख़ुदा भी कोई है जो उनकी हरकतों को देख रहा है। वे पूरी तरह निडर होकर दिन-पर-दिन ज़्यादा-से-ज़्यादा शरारतें करते चले जाते हैं। यहाँ तक कि जब वह हद आ जाती है जिससे आगे अल्लाह तआला उन्हें बढ़ने नहीं देना चाहता, उसी वक़्त उनपर अचानक उसके अज़ाब का कोड़ा बरस जाता है।
فَأَمَّا ٱلۡإِنسَٰنُ إِذَا مَا ٱبۡتَلَىٰهُ رَبُّهُۥ فَأَكۡرَمَهُۥ وَنَعَّمَهُۥ فَيَقُولُ رَبِّيٓ أَكۡرَمَنِ ۝ 13
(15) मगर8 इनसान का हाल यह है कि उसका रब जब उसको आज़माइश में डालता है और उसे इज़्ज़त और नेमत देता है तो वह कहता है कि मेरे रब ने मुझे इज़्ज़तदार बना दिया।
8. अब लोगों की आम अख़लाक़ी हालत पर तनक़ीद (आलोचना) करके यह बताया जा रहा है कि दुनिया की ज़िन्दगी में यह रवैया जिन इनसानों ने अपना रखा है, आख़िर क्या वजह है कि उनसे कभी पूछ-गछ न हो, और इस बात को अक़्ल और अख़लाक़ का तक़ाज़ा कैसे माना जा सकता है कि ये सब कुछ करके जब इनसान दुनिया से चला जाए तो उसे किसी इनाम और सज़ा का सामना न करना पड़े।
وَأَمَّآ إِذَا مَا ٱبۡتَلَىٰهُ فَقَدَرَ عَلَيۡهِ رِزۡقَهُۥ فَيَقُولُ رَبِّيٓ أَهَٰنَنِ ۝ 14
(16) और जब वह उसको आज़माइश में डालता है और उसकी रोज़ी उसपर तंग कर देता है तो वह कहता है कि मेरे रब ने मुझे रुसवा कर दिया।9
9. यानी यह है ज़िन्दगी के सिलसिले में इनसान का माद्दा-परस्ताना (भौतिकवादी) नज़रिया। इसी दुनिया के माल-दौलत और शानो-शौकत और इक़तिदार को वह सब कुछ समझता है। यह चीज़ मिले तो फूल जाता है और कहता है कि ख़ुदा ने मुझे इज़्ज़तदार बना दिया, और यह न मिले तो कहता है कि ख़ुदा ने मुझे रुसवा कर दिया। मानो इज़्ज़त और रुसवाई का पैमाना उसके नज़दीक माल-दौलत और शानो-शौकत व इक़तिदार का मिलना या न मिलना है। हालाँकि अस्ल हक़ीक़त जिसे वह नहीं समझता यह है कि अल्लाह ने जिसको दुनिया में जो कुछ भी दिया है आज़माइश के लिए दिया है। दौलत और ताक़त दी है तो इम्तिहान के लिए दी है कि वह उसे पाकर शुक्रगुज़ार बनता है या नाशुक्री करता है। ग़रीब और तंगहाल बनाया है तो इसमें भी उसका इम्तिहान है कि सब्र और क़नाअत (सन्तोष) के साथ अल्लाह की मर्ज़ी पर राज़ी रहता है और जाइज़ हदों के अन्दर रहते हुए अपनी मुश्किलों का मुक़ाबला करता है, या अख़लाक़ और ईमानदारी की हर हद को फाँद जाने पर आमादा हो जाता है और अपने ख़ुदा को कोसने लगता है।
كَلَّاۖ بَل لَّا تُكۡرِمُونَ ٱلۡيَتِيمَ ۝ 15
(17) हरगिज़ नहीं,10 बल्कि तुम यतीम से इज़्ज़त का सुलूक नहीं करते,11
10. यानी यह इज़्ज़त और रुसवाई का पैमाना हरगिज़ नहीं है। तुम सख़्त ग़लतफ़हमी में मुब्तला हो कि अख़लाक़ की भलाई और बुराई के बजाय तुमने इसे इज़्ज़त व रुसवाई का पैमाना रखा है।
11. यानी जब तक उसका बाप ज़िन्दा रहता है, उसके साथ तुम्हारा बरताव कुछ और होता है और जब उसका बाप मर जाता है तो पड़ोसी और दूर के रिश्तेदार तो एक तरफ़, चचा और मामूँ और बड़े भाई तक उससे आँखें फेर लेते हैं।
وَلَا تَحَٰٓضُّونَ عَلَىٰ طَعَامِ ٱلۡمِسۡكِينِ ۝ 16
(18) और मुहताज को खाना खिलाने पर एक-दूसरे को नहीं उकसाते,12
12. यानी तुम्हारे समाज में ग़रीबों को खाना खिलाने की कोई चर्चा नहीं है। न कोई ख़ुद किसी भूखे को खाना खिलाने पर तैयार होता है, न लोगों में यह जज़्बा पाया जाता है कि भूखों की भूख मिटाने के लिए कोई फ़िक्र करे और एक-दूसरे को उसका इन्तिज़ाम करने पर उकसाएँ।
وَتَأۡكُلُونَ ٱلتُّرَاثَ أَكۡلٗا لَّمّٗا ۝ 17
(19) और विरासत का सारा माल समेटकर खा जाते हो,13
13. अरब में औरतों और बच्चों को तो विरासत से वैसे ही महरूम (वंचित) रखा जाता था और लोगों का नज़रिया इस मामले में यह था कि विरासत का हक़ सिर्फ़ उन मर्दों को पहुँचता है जो लड़ने और ख़ानदान की हिफ़ाज़त करने के क़ाबिल हों। इसके अलावा मरनेवाले के वारिसों में जो ज़्यादा ताक़तवर और असर रखनेवाला होता वह बिना झिझक सारी विरासत समेट लेता था और उन सब लोगों का हिस्सा मार खाता था जो अपना हिस्सा हासिल करने का बल-बूता न रखते हों। हक़ और फ़र्ज़ की कोई अहमियत उनकी निगाह में न थी कि ईमानदारी के साथ अपना फ़र्ज़ समझकर हक़दार को उसका हक़ दें चाहे वह उसे हासिल करने की ताक़त रखता हो या न रखता हो।
وَتُحِبُّونَ ٱلۡمَالَ حُبّٗا جَمّٗا ۝ 18
(20) और माल की मुहब्बत में बुरी तरह गिरफ़्तार हो।14
14. यानी जाइज़-नाजाइज़ और हलाल-हराम (वैध-अवैध) की तुम्हें कोई फ़िक्र नहीं। जिस तरीक़े से भी माल हासिल किया जा सकता हो उसे हासिल करने में तुम्हें कोई झिझक नहीं होती। और चाहे कितना ही माल मिल जाए तुम्हारी हवस और लालच की आग कभी नहीं बुझती।
كَلَّآۖ إِذَا دُكَّتِ ٱلۡأَرۡضُ دَكّٗا دَكّٗا ۝ 19
(21) हरगिज़ नहीं,15 जब ज़मीन लगातार कूट-कूटकर चूरा-चूरा बना दी जाएगी,
15. यानी तुम्हारा यह ख़याल ग़लत है कि तुम दुनिया में जीते जी यह सब कुछ करते रहो और इसकी पूछ-गछ का वक़्त कभी न आए। जिस इनाम और सज़ा का इनकार करके तुमने ज़िन्दगी का यह रवैया अपना रखा है वह कोई अन्होनी और ख़याली बात नहीं है, बल्कि वह सामने आनी है और उस वक़्त आनी है जिसका ज़िक्र आगे आ रहा है।
وَجَآءَ رَبُّكَ وَٱلۡمَلَكُ صَفّٗا صَفّٗا ۝ 20
(22) और तुम्हारा रब अपना जलवा दिखाएगा16 इस हाल में कि फ़रिश्ते क़तार-दर-क़तार खड़े होंगे,
16. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘जा-अ रब्बु-क’ जिनका लफ़्ज़ी तर्जमा है “तेरा रब आएगा।” लेकिन ज़ाहिर है कि अल्लाह तआला के लिए एक जगह से दूसरी जगह जाने का कोई सवाल पैदा नहीं होता, इसलिए यक़ीनन इसको एक मिसाल का अन्दाज़ ही समझना होगा, जिसका मक़सद यह एहसास दिलाना है कि उस वक़्त अल्लाह तआला के इक़तिदार और उसकी बादशाही और उसके ज़ोर की निशानियाँ उस तरह ज़ाहिर होंगी जैसे दुनिया में किसी बादशाह के तमाम लश्करों और दरबारियों के आने से वह रोब नहीं छाता जो बादशाह के ख़ुद दरबार में आने से छा जाता है।
وَجِاْيٓءَ يَوۡمَئِذِۭ بِجَهَنَّمَۚ يَوۡمَئِذٖ يَتَذَكَّرُ ٱلۡإِنسَٰنُ وَأَنَّىٰ لَهُ ٱلذِّكۡرَىٰ ۝ 21
(23) और जहन्नम उस दिन सामने ले आई जाएगी, उस दिन इनसान को समझ आएगी और उस वक़्त उसके समझने का क्या फ़ायदा?17
17. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं ‘यौमइज़िंय-य-तज़क्करुल-इनसानु व अन्ना लहुज़-ज़िकरा’। इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि उस दिन इनसान याद करेगा कि वह दुनिया में क्या कुछ करके आया है और उसपर शर्मिन्दा होगा, मगर उस वक़्त याद करने और शर्मिन्दा होने का क्या फ़ायदा। दूसरा मतलब यह है कि उस दिन इनसान को होश आएगा, उसे नसीहत हासिल होगी, उसकी समझ में यह बात आएगी कि जो कुछ उसे ख़ुदा के पैग़म्बरों ने बताया था वही सही था और उनकी बात न मानकर उसने बेवक़ूफ़ी की, मगर उस वक़्त होश में आने और नसीहत पकड़ने और अपनी ग़लती को समझने का क्या फ़ायदा।
يَقُولُ يَٰلَيۡتَنِي قَدَّمۡتُ لِحَيَاتِي ۝ 22
(24) वह कहेगा कि काश मैंने अपनी इस ज़िन्दगी के लिए कुछ पहले से सामान किया होता!
فَيَوۡمَئِذٖ لَّا يُعَذِّبُ عَذَابَهُۥٓ أَحَدٞ ۝ 23
(25) फिर उस दिन अल्लाह जो अज़ाब देगा वैसा अज़ाब देनेवाला कोई नहीं,
وَلَا يُوثِقُ وَثَاقَهُۥٓ أَحَدٞ ۝ 24
(26) और अल्लाह जैसा बाँधेगा वैसा बाँधनेवाला कोई नहीं।
يَٰٓأَيَّتُهَا ٱلنَّفۡسُ ٱلۡمُطۡمَئِنَّةُ ۝ 25
(27) (दूसरी ओर कहा जाएगा) ऐ नफ़्से-मुत्मइन (सन्तुष्ट आत्मा)!18
18. ‘नफ़्से-मुत्मइन’ (सन्तुष्ट आत्मा) से मुराद वह इनसान है जिसने किसी शक-शुब्हे के बिना पूरे इत्मीनान और ठण्डे दिल के साथ अकेले अल्लाह को, जिसका कोई शरीक नहीं, अपना रब और नबियों के लाए हुए सच्चे दीन को अपना दीन बनाया, जो अक़ीदा और जो हुक्म भी अल्लाह और उसके रसूल से मिला उसे सरासर हक़ माना, जिस चीज़ से भी अल्लाह के दीन ने मना किया उससे अनचाहे मन से नहीं, बल्कि इस यक़ीन के साथ रुक गया कि सचमुच वह बुरी चीज़ है, जिस क़ुरबानी की भी हक़-परस्ती की राह में ज़रूरत पड़ी बेखटके उसे पेश कर दिया, जिन मुश्किलों और तकलीफ़ों और मुसीबतों का भी इस राह में सामना हुआ, उन्हें दिल के पूरे सुकून के साथ बरदाश्त किया, और दूसरे रास्तों पर चलनेवालों को दुनिया में जो फ़ायदे और मज़े हासिल होते नज़र आ रहे थे उनसे महरूम रह जाने पर उसे कोई हसरत न हुई, बल्कि वह इस बात पर पूरी तरह मुत्मइन रहा कि सच्चे दीन की पैरवी ने उसे इन गन्दगियों से बचाए रखा है। इसी कैफ़ियत को दूसरी जगह क़ुरआन में ‘शरहे-सद्र’ कहा गया है। (सूरा-6 अनआम, आयत-125)।
ٱرۡجِعِيٓ إِلَىٰ رَبِّكِ رَاضِيَةٗ مَّرۡضِيَّةٗ ۝ 26
(28) चल अपने रब की तरफ़19 इस हाल में कि तू (अपने बेहतर अंजाम से) ख़ुश (और अपने रब के नज़दीक) पसन्दीदा है।
19. यह बात उससे मौत के वक़्त भी कही जाएगी, क़ियामत के दिन जब वह दोबारा उठकर हश्र के मैदान की तरफ़ चलेगा उस वक़्त भी कही जाएगी, और जब अल्लाह की अदालत में पेशी का मौक़ा आएगा उस वक़्त भी कही जाएगी। हर मरहले पर उसे इत्मीनान दिलाया जाएगा कि वह अल्लाह की रहमत की तरफ़ जा रहा है।
فَٱدۡخُلِي فِي عِبَٰدِي ۝ 27
(29) शामिल हो जा मेरे (नेक) बन्दों में,
وَٱدۡخُلِي جَنَّتِي ۝ 28
(30) और दाख़िल हो जा मेरी जन्नत में।
هَلۡ فِي ذَٰلِكَ قَسَمٞ لِّذِي حِجۡرٍ ۝ 29
(5) क्या इसमें किसी अक़्ल रखनेवाले के लिए कोई क़सम है?1
1. इन आयतों की तफ़सीर में क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के बीच बहुत इख़्तिलाफ़ हुआ है, यहाँ तक कि ‘जुफ़्त और ताक़’ (सम-विषम) के बारे में तो 36 रायें (क़ौल) मिलती हैं। कुछ रिवायतों में इनकी तफ़सीर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से भी जोड़ी गई है, लेकिन हक़ीक़त यह है कि कोई तफ़सीर नबी (सल्ल०) से साबित नहीं है, वरना मुमकिन न था कि सहाबा और ताबिईन और बाद के तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों में से कोई भी आप (सल्ल०) की तफ़सीर के बाद ख़ुद इन आयतों का मतलब तय करने की जुरअत करता। अन्दाज़े-बयान पर ग़ौर करने से साफ़ महसूस होता है कि पहले से कोई बहस चल रही थी जिसमें अल्लाह के रसूल (सल्ल०) एक बात पेश कर रहे थे और इनकार करनेवाले उसका इनकार कर रहे थे। इसपर नबी (सल्ल०) की बात को सही साबित करते हुए कहा गया कि क़सम है फ़ुलाँ और फ़ुलाँ चीज़ों की। मतलब यह था कि इन चीज़ों की क़सम, जो कुछ मुहम्मद कह रहे हैं वह सच है। फिर बात को इस सवाल पर ख़त्म कर दिया गया कि क्या किसी अक़्लमन्द के लिए इसमें कोई क़सम है? यानी क्या इस हक़ बात पर गवाही देने के लिए इसके बाद किसी और क़सम की ज़रूरत बाक़ी रह जाती है? क्या यह क़सम इसके लिए काफ़ी नहीं है कि एक होशमन्द इनसान उस बात को मान ले जिसे मुहम्मद (सल्ल०) पेश कर रहे हैं? अब सवाल यह है कि वह बहस क्या थी जिसपर इन चार चीज़ों की क़सम खाई गई। इसके लिए हमें उस पूरी बात पर ग़ौर करना होगा जो बाद की आयतों में “तुमने देखा नहीं कि तुम्हारे रब ने आद के साथ क्या किया” से शुरू होकर सूरा के आख़िर तक चलती है। उससे मालूम हो जाता है कि बहस इनाम और सज़ा के बारे में थी, जिसको मानने से मक्कावाले इनकार कर रहे थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) उन्हें लगातार तबलीग़ और नसीहत कर रहे थे कि वे इस सच्चाई को मान लें। इसपर फ़ज्र, और दस रातों और जुफ़्त और ताक़ (सम-विषम), और विदा होती हुई रात की क़सम खाकर कहा गया कि इस बात को मान लेने के लिए क्या ये चार चीज़ें काफ़ी नहीं हैं कि किसी अक़्लमन्द आदमी के सामने और कोई चीज़ पेश करने की ज़रूरत हो? इन क़समों का यह मौक़ा-महल तय हो जाने के बाद लाज़िमी तौर पर हमें इनमें से हर एक के वह मानी लेने होंगे जो बाद के मज़मून को साबित करते हों। सबसे पहले कहा गया, “फ़ज्र की क़सम!” फ़ज्र पौ फटने को कहते हैं, यानी वह वक़्त जब रात के अंधेरे में से दिन की इबतिदाई रौशनी पूरब की तरफ़ एक सफ़ेद धारी की शक्ल में नमूदार होती है। फिर कहा, “दस रातों की क़सम“। बात के सिलसिले को निगाह में रखा जाए तो मालूम होता है कि इससे मुराद महीने की तीस रातों में से हर दस रातें हैं। पहली दस रातें वे जिनमें चाँद एक बारीक नाख़ून की शक्ल से शुरू होकर हर रात को बढ़ता रहता है, यहाँ तक कि आधे से ज़्यादा रौशन हो जाता है। दूसरी दस रातें वे जिनमें रात का बड़ा हिस्सा चाँद से रौशन रहता है। आख़िरी दस रातें वे जिनमें चाँद छोटे-से-छोटा और रात का ज़्यादातर हिस्सा अंधेरे-से-अंधेरा होता चला जाता है, यहाँ तक कि महीने के ख़ातिमे पर पूरी रात अंधेरी हो जाती है। इसके बाद फ़रमाया, “जुफ़्त और ताक़ की क़सम!” जुफ़्त उस अदद (संख्या) को कहते हैं जो दो बराबर के हिस्सों में बँट जाता है, जैसे 2, 4, 6, 8, और ताक़ (विषम) उस अदद को कहते हैं जो दो बराबर हिस्सों में बंट नहीं सकता, जैसे 1, 3, 5, 7। आम हैसियत से देखा जाए तो उससे मुराद कायनात की तमाम चीज़ें हो सकती हैं। क्योंकि हर चीज़ या तो जोड़ा-जोड़ा है या अकेला। लेकिन चूँकि यहाँ बात दिन और रात की हो रही है, इसलिए मज़मून के सिलसिले के जोड़ से जुफ़्त और ताक़ का मतलब दिनों का बदलना है कि महीने की तारीख़ें एक से दो और दो से तीन होती जाती हैं और हर तब्दीली एक नई कैफ़ियत लेकर आती है। आख़िर में फ़रमाया, “रात की क़सम, जबकि वह विदा हो रही हो!” यानी वह अंधेरा जो सूरज की डूबने के बाद से दुनिया पर छाया हुआ था, ख़त्म होने पर आ लगा हो और पौ फटनेवाली हो। अब इन चारों चीज़ों पर एक साथ निगाह डालिए जिनकी क़सम इस बात पर खाई गई है कि मुहम्मद (सल्ल०) इनाम और सज़ा की जो ख़बर दे रहे हैं वह सच है। ये सब चीज़ें इस हक़ीक़त की दलील दे रही हैं कि क़ुदरत रखनेवाला एक रब इस कायनात पर हुकूमत कर रहा है, और वह जो काम भी कर रहा है बेतुका, बे-मक़सद, हिकमत और मस्लहत से ख़ाली होकर नहीं कर रहा है, बल्कि उसके हर काम में साफ़ तौर से एक हिकमत भरी स्कीम काम कर रही है। उसकी दुनिया में तुम यह कभी न देखोगे कि अभी रात है और यकायक सूरज आधे दिन पर आ खड़ा हो। या एक दिन चाँद पहली तारीख़ के चाँद की शक्ल में निकला हो और दूसरे दिन 14 वीं रात का पूरा चाँद नमूदार हो जाए। या रात आई हो तो किसी तरह उसके ख़त्म होने की नौबत ही न आए और वह मुस्तक़िल तौर से ठहरकर रह जाए। या दिनों के आने-जाने का सिरे से कोई बाक़यदा सिलसिला ही न हो कि आदमी तारीख़ों का कोई हिसाब रख सके और यह जान सके कि यह कौन-सा महीना है, उसकी कौन-सी तारीख़ है, किस तारीख़ से उसका कौन-सा काम शुरू और कब ख़त्म होना है, गर्मी के मौसम की तारीख़ें कौन-सी हैं और बरसात या सर्दी के मौसम की तारीख़ें कौन-सी। कायनात की दूसरी अनगिनत चीज़ों को छोड़कर अगर आदमी रात-दिन की इस बाक़ायदगी ही को आँखें खोलकर देखे और कुछ दिमाग़ को सोचने की तकलीफ़ भी दे तो उसे इस बात की गवाही मिलेगी कि यह ज़बरदस्त नज़्म और डिसिप्लिन (अनुशासन) किसी हस्ती का ही क़ायम किया हुआ है जो हर काम पर क़ुदरत रखती है। और इसके क़ायम होने से उस मख़लूक़ (इनसान व जानवर) की अनगिनत मस्लहतें जुड़ी हुई हैं जिसे उसने इस ज़मीन पर पैदा किया है। अब अगर ऐसे हिकमतवाले, अक़्लमन्द, क़ुदरतवाले और ताक़तवर ख़ालिक़ (पैदा करनेवाले) की दुनिया में रहनेवाला कोई शख़्स आख़िरत के इनाम और सज़ा का इनकार करता है तो वह दो बेवक़ूफ़ियों में से किसी एक बेवक़ूफ़ी में यक़ीनन मुब्तला है। या तो वह उसकी क़ुदरत का इनकारी है और यह समझता है कि वह इस कायनात को ऐसे बेमिसाल बन्दोबस्त और इन्तिज़ाम के साथ पैदा कर देने की क़ुदरत तो रखता है, मगर इनसान को दोबारा पैदा करके उसे इनाम और सज़ा देने की क़ुदरत नहीं रखता। या वह उसकी हिकमत और अक़्लमन्दी का इनकार करता है और उसके बारे में यह समझ बैठा है कि उसने दुनिया में इनसान को अक़्ल और इख़्तियार देकर पैदा तो कर दिया मगर वह न तो उससे कभी यह हिसाब लेगा कि उसने अपनी अक़्ल और अपने इख़्तियारात से काम क्या लिया, और न अच्छे काम का इनाम देगा, न बुरे काम की सज़ा। इन दोनों बातों में जिस बात को भी कोई शख़्स मानता है वह परले दर्जे का बेवक़ूफ़ है।