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سُورَةُ المُزَّمِّلِ

73. अल-मुज़्ज़म्मिल

(मक्का में उतरी, आयतें 20)

परिचय

नाम

पहली ही आयत के शब्द 'अल-मुज़्ज़म्मिल' (ओढ़-लपेटकर सोनेवाले) को इस सूरा का नाम दिया गया है। यह केवल नाम है, विषय-वस्तु की दृष्टि से इसका शीर्षक नहीं है।

उतरने का समय

इस सूरा के दो खण्ड हैं (पहला खण्ड आरम्भ से आयत 19 तक और सूरा का शेष भाग दूसरा खण्ड है।) दोनों खण्ड दो अलग-अलग समयों में अवतरित हुए हैं। पहला खण्ड सर्वसम्मति से मक्की है। रहा यह प्रश्न कि यह मक्की जीवन के किस कालखण्ड में अवतरित हुआ है, तो इस खण्ड की वार्ताओं के आन्तरिक साक्ष्य [से मालूम होता है कि पहली बात यह कि यह नबी (सल्ल०) की नुबूवत के प्रारम्भिक काल ही में अवतरित हुआ होगा जबकि अल्लाह की ओर से इस पद के लिए आपको प्रशिक्षित किया जा रहा था। दूसरी बात यह कि उस समय कुरआन मजीद का कम से कम इतना अंश अवतरित हो चुका था कि उसका पाठ करने में अच्छा-खासा समय लग सके। तीसरी बात यह कि [उस समय] अल्लाह के रसूल (सल्ल०) इस्लाम का खुले रूप में प्रचार करना आरम्भ कर चुके थे और मक्का में आपका विरोध ज़ोरों से होने लगा था। दूसरे खण्ड के सम्बन्ध में यद्यपि बहुत-से टीकाकारों ने यह विचार व्यक्त किया है कि वह भी मक्का ही में अवतरित हुआ है, किन्तु कुछ दूसरे टीकाकारों ने उसे मदनी ठहराया है। और इस [के अन्दर ख़ुदा के मार्ग में युद्ध का उल्लेख और ज़कात फ़र्ज़ होने के आदेश की मौजूदगी] से इसी विचार को समर्थन मिलता है।

विषय और वार्ता

पहली 7 आयतों में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को आदेश दिया गया है कि जिस महान कार्य का बोझ आपपर डाला गया है, उसके दायित्वों के निर्वाह के लिए आप अपने आपको तैयार करें और उसका व्यावहारिक रूप यह बताया गया है कि रातों को उठकर आप आधी-आधी रात या उससे कुछ कम-ज़्यादा नमाज़ पढ़ा करें। आयत 8 से 14 तक नबी (सल्ल.) को यह शिक्षा दी गई है कि सबसे कटकर उस प्रभु के हो रहें जो सारे जगत् का मालिक है। अपने सारे मामले उसी को सौंपकर निश्चिन्त हो जाएँ। विरोधी जो बातें आपके विरुद्ध बना रहे हैं उनपर धैर्य से काम लें, उनके मुँह न लगें और उनका मामला ईश्वर पर छोड़ दें कि वही उनसे निबट लेगा। इसके बाद आयत 15 से 19 तक मक्का के उन लोगों को, जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का विरोध कर रहे थे, सावधान किया गया है कि हमने उसी तरह तुम्हारी ओर एक रसूल भेजा है जिस तरह फ़िरऔन की ओर भेजा था। फिर देख लो कि जब फ़िरऔन ने अल्लाह के रसूल की बात न मानी तो उसका क्या परिणाम हुआ। यदि मान लो कि दुनिया में तुमपर कोई यातना नहीं आई तो क़ियामत के दिन तुम कुफ़्र (इनकार) के दण्ड से कैसे बच निकलोगे? ये पहले खण्ड की वार्ताएँ हैं। दूसरे खण्ड में तहज्जुद की नमाज़ (अनिवार्य नमाज़ों के अतिरिक्त रात में पढ़ी जानेवाली नमाज़ जो अनिवार्य तो नहीं है किन्तु ईमानवालों के जीवन में इसका महत्त्व कुछ कम भी नहीं है) के सम्बन्ध में उस आरम्भिक आदेश के सिलसिले में कुछ छूट दे दी गई जो पहले खण्ड के आरम्भ में दिया गया था। अब यह आदेश दिया गया कि जहाँ तक तहज्जुद की नमाज़ का सम्बन्ध है, वह तो जितनी आसानी से पढ़ी जा सके, पढ़ लिया करो, किन्तु मुसलमानों को मौलिक रूप से जिस चीज़ का पूर्ण रूप से आयोजन करना चाहिए वह यह है कि पाँच वक़्तों की अनिवार्य नमाज़ पूरी पाबन्दी के साथ क़ायम रखें, ज़कात (दान) देने के अनिवार्य कर्त्तव्य का ठीक-ठीक पालन करते रहें और अल्लाह के मार्ग में अपना माल शुद्ध हृदयता के साथ ख़र्च करें । अन्त में मुसलमानों को यह शिक्षा दी गई है कि जो भलाई के काम तुम दुनिया में करोगे वे विनष्ट नहीं होंगे, बल्कि अल्लाह के यहाँ तुम्हें उनका बड़ा प्रतिदान प्राप्त होगा।

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سُورَةُ المُزَّمِّلِ
73. अल-मुज्जम्मिल
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلۡمُزَّمِّلُ
(1) ऐ ओढ़-लपेटकर सोनेवाले,1
1. इन अलफ़ाज़ के साथ नबी (सल्ल०) को मुख़ातब करने और फिर यह हुक्म देने से कि आप उठें और रातों को इबादत के लिए खड़े रहा करें, यह ज़ाहिर होता है कि उस वक़्त या तो आप सो चुके थे या सोने के लिए चादर ओढ़कर लेट गए थे। इस मौक़े पर आप (सल्ल०) को ऐ नबी, या ऐ रसूल, कहकर मुख़ातब करने के बजाय “ऐ ओढ़-लपेटकर सोनेवाले” कहकर पुकारने में इस बात का हलका-सा इशारा पाया जाता है कि अब वह दौर बीत गया जब आप आराम से पाँव फैलाकर सोते थे। अब आपपर एक बड़े और अहम काम का बोझ डाल दिया गया है, जिसके तक़ाज़े कुछ और हैं।
قُمِ ٱلَّيۡلَ إِلَّا قَلِيلٗا ۝ 1
(2) रात को नमाज़ में खड़े रहा करो, मगर कम2,
2. इसके दो मतलब हो सकते हैं। एक यह कि रात में नमाज़ में खड़े रहकर गुज़ारो और उसका कम हिस्सा सोने में बिताओ। दूसरा यह कि पूरी रात नमाज़ में गुज़ार देने की माँग तुमसे नहीं है, बल्कि आराम भी करो और रात का एक छोटा-सा हिस्सा इबादत में भी लगाओ। लेकिन आगे की बात से पहला मतलब ही ज़्यादा मेल खाता है और इसी की ताईद सूरा-76 दह्‍र की आयत-26 से भी होती है, जिसमें कहा गया है, “रात को अल्लाह के आगे सजदा करो और रात का बड़ा हिस्सा उसकी तसबीह करते हुए गुज़ारो।”
نِّصۡفَهُۥٓ أَوِ ٱنقُصۡ مِنۡهُ قَلِيلًا ۝ 2
(3) आधी रात या उससे कुछ कम कर लो,
أَوۡ زِدۡ عَلَيۡهِ وَرَتِّلِ ٱلۡقُرۡءَانَ تَرۡتِيلًا ۝ 3
(4) या उससे कुछ ज़्यादा बढ़ा दो,3 और क़ुरआन को ख़ूब ठहर-ठहरकर पढ़ो।4
3. यह वक़्त की उस मुद्दत की तशरीह है जिसे इबादत में गुज़ारने का हुक्म दिया गया था। इसमें आप (सल्ल०) को इख़्तियार दिया गया कि चाहे आधी रात नमाज़ में बिताएँ, या उससे कुछ कम कर दें, या उससे कुछ ज़्यादा। लेकिन अन्दाज़े-बयान से मालूम होता है कि ज़्यादा सही बात आधी रात है, क्योंकि उसी को पैमाना बताकर कमी-बेशी का इख़्तियार दिया गया है।
4. यानी तेज़-तेज़ जल्दी-जल्दी न पढ़ो, बल्कि धीरे-धीरे एक-एक लफ़्ज़ ज़बान से अदा करो और एक-एक आयत पर ठहरो, ताकि ज़ेहन पूरी तरह अल्लाह के कलाम के मतलब और मक़सद को समझे और उसमें बयान की गई बातों से मुतास्सिर हो। कहीं अल्लाह की हस्ती और उसकी ख़ूबियों का ज़िक्र है तो उसकी अज़मत (महानता) और उसका रोब दिल पर छा जाए। कहीं उसकी रहमत का बयान है तो दिल शुक्र के जज़बात से भर जाए। कहीं उसके ग़ज़ब (प्रकोप) और उसके अज़ाब का ज़िक्र है तो दिल पर उसका डर छा जाए। कहीं किसी चीज़ का हुक्म दिया गया है या किसी चीज़ से मना किया गया है तो समझा जाए कि किस चीज़ का हुक्म दिया गया है और किस चीज़ से मना किया गया है। मतलब यह कि पढ़ना महज़ क़ुरआन के अलफ़ाज़ को ज़बान से अदा कर देने के लिए नहीं, बल्कि सोच-विचार और ग़ौर-फ़िक्र के साथ होना चाहिए। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की क़िरअत (क़ुरआन पढ़ने) का तरीक़ा हज़रत हसन (रज़ि०) से पूछा गया तो उन्होंने कहा कि आप (सल्ल०) अलफ़ाज़ को खींच-खींचकर पढ़ते थे। मिसाल के तौर पर उन्होंने ‘बिसमिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’ पढ़कर बताया कि आप (सल्ल०), अल्लाह, रहमान और रहीम को मद्द के साथ ‘आ’ की आवाज़ को खींचकर पढ़ा करते थे (हदीस : बुख़ारी)। हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) से यही सवाल किया गया तो उन्होंने बताया कि नबी (सल्ल०) एक-एक आयत को अलग-अलग पढ़ते और हर आयत पर ठहरते जाते थे, मसलन ‘अल-हम्दुलिल्लाहि रब्बिल-आलमीन’ पढ़कर रुक जाते फिर ‘अर-रहमानिर्रहीम’ पर ठहरते और उसके बाद रुककर ‘मालिकि यौमिद्दीन’ कहते (हदीस : मुसनदे-अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी)। दूसरी एक रिवायत में हज़रत उम्मे-सलमा (रज़ि०) बयान करती हैं कि नबी (सल्ल०) एक-एक लफ़्ज़ साफ़ तौर पर पढ़ा करते थे (हदीस : तिरमिज़ी, नसई)। हज़रत हुज़ैफ़ा-बिन-यमान कहते हैं कि एक बार मैं रात की नमाज़ में नबी (सल्ल०) के साथ खड़ा हो गया तो आप (सल्ल०) की क़िरअत का यह अन्दाज़ देखा कि जहाँ तसबीह (अल्लाह के महिमागान करने) का मौक़ा आता वहाँ आप (सल्ल०) तसबीह करते, जहाँ दुआ का मौक़ा आता वहाँ दुआ माँगते, जहाँ अल्लाह की पनाह माँगने का मौक़ा आता वहाँ पनाह माँगते (हदीस : मुस्लिम, नसई)। हज़रत अबू-ज़र (रज़ि०) का बयान है कि एक बार रात की नमाज़ में जब नबी (सल्ल०) इस जगह पर पहुँचे, “अगर तू इन्हें अज़ाब दे तो वे तेरे बन्दे हैं, और अगर तू इनको माफ़ कर दे तो तू ज़बरदस्त और हिकमतवाला है” तो इसी को दोहराते रहे यहाँ तक कि सुबह हो गई (हदीस : मुसनदे-अहमद, बुख़ारी)।
إِنَّا سَنُلۡقِي عَلَيۡكَ قَوۡلٗا ثَقِيلًا ۝ 4
(5) हम तुमपर एक भारी कलाम उतारनेवाले हैं।5
5. मतलब यह है कि तुमको रात की नमाज़ का यह हुक्म इसलिए दिया जा रहा है कि एक भारी कलाम हम तुमपर उतार रहे हैं जिसका बार उठाने के लिए तुममें उसको सहन करने की ताक़त पैदा होनी ज़रूरी है, और यह ताक़त तुम्हें इसी तरह हासिल हो सकती है कि रातों को अपना आराम छोड़कर नमाज़ के लिए उठो और आधी-आधी रात या कुछ कम-ज़्यादा इबादत में गुज़ारा करो। क़ुरआन को भारी कलाम इस वजह से कहा गया है कि उसके हुक्मों पर अमल करना, उसकी तालीम का नमूना बनकर दिखाना, उसकी दावत को लेकर सारी दुनिया के मुक़ाबले में उठना, और उसके मुताबिक़ अक़ीदों और ख़यालात, अख़लाक़ और आदाब (शिष्टाचार) और तहज़ीब और तमद्दुन (सभ्यता एवं संस्कृति) के पूरे निज़ाम में इन्‍क़िलाब बरपा कर देना एक ऐसा काम है जिससे बढ़कर किसी भारी काम के बारे में सोचा नहीं जा सकता। और इस वजह से भी इसको भारी कलाम कहा गया है कि इसके उतरने को बरदाश्त करना बड़ा मुश्किल काम था। हज़रत ज़ैद-बिन-साबित (रज़ि०) कहते हैं कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर वह्य इस हालत में उतरी कि आप (सल्ल०) अपनी रान मेरी रान पर रखे हुए बैठे थे। मेरी रान पर उस वक़्त ऐसा बोझ पड़ा कि मालूम होता था अब टूट जाएगी। हज़रत आइशा (रज़ि०) फ़रमाती हैं कि मैंने सख़्त सर्दी के ज़माने में नबी (सल्ल०) पर वह्य उतरते देखी है, आपके माथे से उस वक़्त पसीना टपकने लगता था (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मालिक, तिरमिज़ी, नसई)। एक रिवायत में हज़रत आइशा (रज़ि०) का बयान है कि जब कभी आप (सल्ल०) पर इस हालत में वह्य उतरती कि आप (सल्ल०) ऊँटनी पर बैठे हों तो ऊँटनी अपना सीना ज़मीन पर टिका देती थी और उस वक़्त तक हरकत न कर सकती थी जब तक वह्य के उतरने का सिलसिला ख़त्म न हो जाता (हदीस : मुसनदे-अहमद, हाकिम, इब्ने-जरीर)।
إِنَّ نَاشِئَةَ ٱلَّيۡلِ هِيَ أَشَدُّ وَطۡـٔٗا وَأَقۡوَمُ قِيلًا ۝ 5
(6) हक़ीक़त में रात का उठना6 नफ़्स (मन) पर क़ाबू पाने के लिए बहुत असरदार7 और क़ुरआन ठीक पढ़ने के लिए ज़्यादा मुनासिब है।8
6. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘नाशि-अतल्लैल’ इस्तेमाल किया गया है जिसके बारे में क़ुरआन के आलिमों और अरबी ज़बान के जानकारों की चार अलग-अलग रायें हैं। एक राय यह है कि ‘नाशि-अ’ से मुराद वह शख़्स है जो रात को उठे। दूसरी राय यह है कि इससे मुराद रात के वक़्त हैं। तीसरी राय यह है कि इसका मतलब है रात को उठना। और चौथी राय यह है कि यह लफ़्ज़ सिर्फ़ रात को उठने पर नहीं, बल्कि सोकर उठने पर चस्पाँ होता है। हज़रत आइशा (रज़ि०) और मुजाहिद (रह०) ने इसी चौथी राय को अपनाया है।
7. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘अशद-दु वतअन’ इस्तेमाल हुआ है, जिसके मानी इतने फैले हुए हैं कि किसी एक जुमले में उसे अदा नहीं किया जा सकता। इसका एक मतलब यह है कि रात को इबादत के लिए उठना और देर तक खड़े रहना चूँकि तबीअत (इनसानी मिज़ाज) के ख़िलाफ़ है और मन उस वक़्त आराम चाहता है, इसलिए यह काम एक ऐसा मुजाहदा (सख़्त मेहनत) है जो नफ़्स (मन) को दबाने और उसपर क़ाबू पाने की बड़ा ज़बरदस्त असर रखता है। इस तरीक़े से जो शख़्स अपने आपपर क़ाबू पाले और अपने जिस्म और ज़ेहन पर हावी होकर अपनी इस ताक़त को ख़ुदा की राह में इस्तेमाल करने के क़ाबिल हो जाए वह ज़्यादा मज़बूती के साथ सच्चे दीन की दावत को दुनिया में ग़ालिब करने के लिए काम कर सकता है। दूसरा मतलब यह है कि यह दिल और ज़बान के बीच तालमेल पैदा करने का बड़ा असरदार ज़रिआ है, क्योंकि रात के इन वक़्तों में बन्दे और अल्लाह के बीच कोई दूसरा रुकावट नहीं बनता और इस हालत में आदमी जो कुछ ज़बान से कहता है वह उसके दिल की आवाज़ होती है। तीसरा मतलब यह है कि यह आदमी की बाहरी और अन्दरूनी हालत में ताल-मेल पैदा करने का बड़ा असरदार ज़रिआ है, क्योंकि रात की तन्हाई में जो शख़्स अपना आराम छोड़कर इबादत के लिए उठेगा वह ज़रूर ख़ुलूस (निष्ठा) ही की बुनियाद पर ऐसा करेगा, उसमें दिखावे का सिरे से कोई मौक़ा ही नहीं है। चौथा मतलब यह है कि यह इबादत चूँकि दिन की इबादत के मुक़ाबले आदमी पर ज़्यादा भारी होती है इसलिए इसकी पाबन्दी करने से आदमी में बड़ी साबित क़दमी (जमाव) पैदा होती है, वह ख़ुदा की राह में ज़्यादा मज़बूती के साथ चल सकता है और इस राह की मुश्किलों को ज़्यादा जमाव के साथ बरदाश्त कर सकता है।
8. अस्ल अरबी में ‘अक़वमु क़ीला’ कहा गया है, जिसका लुग़वी (शाब्दिक) मानी है “बात को ज़्यादा सीधा और दुरुस्त बनाता है।” लेकिन मक़सद यह है कि उस वक़्त इनसान क़ुरआन को ज़्यादा सुकून और इत्मीनान और ध्यान के साथ समझकर पढ़ सकता है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) इसका मतलब यह बयान करते हैं कि “वह इसके लिए ज़्यादा मुनासिब है कि आदमी क़ुरआन में ग़ौर-फ़िक्र करे।” (हदीस : अबू-दाऊद)।
إِنَّ لَكَ فِي ٱلنَّهَارِ سَبۡحٗا طَوِيلٗا ۝ 6
(7) दिन में तो तुम्हारे लिए बहुत मसरूफ़ियतें हैं।
وَٱذۡكُرِ ٱسۡمَ رَبِّكَ وَتَبَتَّلۡ إِلَيۡهِ تَبۡتِيلٗا ۝ 7
(8) अपने रब के नाम का ज़िक्र किया करो9 और सबसे कटकर उसी के हो रहो।
9. दिन के वक़्तों की मसरूफ़ियतों (व्यस्तताओं) का ज़िक्र करने के बाद यह कहना कि “अपने रब के नाम का ज़िक्र किया करो” ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब ज़ाहिर करता है कि दुनिया में हर तरह के काम करते हुए भी अपने रब की याद से कभी ग़ाफ़िल न हो और किसी-न-किसी शक्ल में उसका ज़िक्र करते रहो। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-63)
رَّبُّ ٱلۡمَشۡرِقِ وَٱلۡمَغۡرِبِ لَآ إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ فَٱتَّخِذۡهُ وَكِيلٗا ۝ 8
(9) वह पूरब और पश्चिम का मालिक है, उसके सिवा कोई ख़ुदा नहीं है, इसलिए उसी को अपना वकील बना लो।10
10. ‘वकील’ उस शख़्स को कहते हैं जिसपर भरोसा करके कोई शख़्स अपना मामला उसके सिपुर्द कर दे। क़रीब-क़रीब इसी मानी में हम उर्दू (और हिन्दी) ज़बान में वकील का लफ़्ज़ उस शख़्स के लिए इस्तेमाल करते हैं जिसके हवाले अपना मुक़द्दमा करके एक आदमी मुत्मइन हो जाता है कि उसकी तरफ़ से वह अच्छी तरह मुक़द्दमा लड़ेगा और उसे ख़ुद अपना मुक़द्दमा लड़ने की ज़रूरत न रहेगी। इसलिए आयत का मतलब यह है इस दीन की दावत पेश करने पर तुम्हारे ख़िलाफ़ मुख़ालफ़तों का जो तूफ़ान उठ खड़ा हुआ है और जो मुश्किलें तुम्हें पेश आ रही उनपर कोई परेशानी तुमको न होनी चाहिए। तुम्हारा रब वह है जो पूरब और पश्चिम, यानी सारी कायनात का मालिक है, जिसके सिवा ख़ुदाई (प्रभुत्व) के इख़्तियार किसी के हाथ में नहीं हैं। तुम अपना मामला उसके हवाले कर दो और मुत्मइन हो जाओ कि अब तुम्हारा मुक़द्दमा वह लड़ेगा, तुम्हारे मुख़ालिफ़ों से वह निबटेगा और तुम्हारे सारे काम वह बनाएगा।
وَٱصۡبِرۡ عَلَىٰ مَا يَقُولُونَ وَٱهۡجُرۡهُمۡ هَجۡرٗا جَمِيلٗا ۝ 9
(10) और जो बातें लोग बना रहे हैं उनपर सब्र करो और शराफ़त के साथ उनसे अलग हो जाओ।11
11. अलग हो जाओ का मतलब यह नहीं है उनसे ताल्लुक़ तोड़कर अपनी तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) बन्द कर दो, बल्कि इसका मतलब यह है कि उनके मुँह न लगो, उनकी बेहूदगियों को बिलकुल नज़र-अन्दाज़ कर दो, और उनकी किसी बदतमीज़ी का जवाब न दो। फिर यह नज़र-अन्दाज़ करना भी दुख, ग़ुस्से और झुंझलाहट के साथ न हो, बल्कि उस तरह का बचाव हो जिस तरह एक शरीफ़ आदमी किसी बाज़ारी आदमी की गाली सुनकर उसे नज़र-अन्दाज़ कर देता है और दिल पर मैल तक नहीं आने देता। इससे यह ग़लतफ़हमी न होनी चाहिए कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का रवैया कुछ इससे अलग था, इसलिए अल्लाह तआला ने नबी (सल्ल०) को यह हिदायत की। अस्ल में तो आप (सल्ल०) पहले ही से इसी तरीक़े पर अमल कर रहे थे, लेकिन क़ुरआन में यह हिदायत इसलिए दी गई कि इस्लाम-दुश्मनों को बता दिया जाए कि तुम जो हरकतें कर रहे हो उनका जवाब न देने की वजह कमज़ोरी नहीं है, बल्कि अल्लाह ने ऐसी बातों के जवाब में अपने रसूल को यही शराफ़त भरा तरीक़ा अपनाने की तालीम दी है।
وَذَرۡنِي وَٱلۡمُكَذِّبِينَ أُوْلِي ٱلنَّعۡمَةِ وَمَهِّلۡهُمۡ قَلِيلًا ۝ 10
(11) इन झुठलानेवाले ख़ुशहाल लोगों से निपटने का काम तुम मुझपर छोड़ दो12 और इन्हें ज़रा कुछ देर इसी हालत पर रहने दो।
12. इन अलफ़ाज़ में साफ़ इशारा इस बात की तरफ़ है कि मक्का में अस्ल में जो लोग अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को झुठला रहे थे और तरह-तरह के धोखे देकर और तास्सुबों (पक्षपातों) को उभारकर आम लोगों को आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त पर तैयार कर रहे थे वे क़ौम के खाते-पीते, पेट भरे, ख़ुशहाल लोग थे, क्योंकि उन्हीं के फ़ायदों पर इस्लाम के इस इस्लाह यानी सुधार करनेवाले पैग़ाम की चोट पड़ रही थी। क़ुरआन हमें बताता है कि यह मामला सिर्फ़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही के साथ ख़ास न था, बल्कि हमेशा यही गरोह सुधार का रास्ता रोकने के लिए भारी पत्थर बनकर खड़ा होता रहा है। मिसाल के तौर पर देखिए— सूरा-7 आराफ़, आयतें—60, 66, 75, 88; सूरा-23 मोमिनून, आयत-33; सूरा-34 सबा, आयतें—34, 35; सूरा-43 जुख़रुफ़, आयत-23।
إِنَّ لَدَيۡنَآ أَنكَالٗا وَجَحِيمٗا ۝ 11
(12) हमारे पास (उनके लिए) भारी बेड़ियाँ हैं13 और भड़कती हुई आग,
13. जहन्नम में भारी बेड़ियाँ मुजरिमों के पाँवों में इसलिए नहीं डाली जाएँगी कि वे भाग न सकें, बल्कि इसलिए डाली जाएँगी कि वे उठ न सकें। ये भागने से रोकने के लिए नहीं, बल्कि अज़ाब के लिए होंगी।
وَطَعَامٗا ذَا غُصَّةٖ وَعَذَابًا أَلِيمٗا ۝ 12
(13) और हलक़ में फँसनेवाला खाना और दर्दनाक अज़ाब।
يَوۡمَ تَرۡجُفُ ٱلۡأَرۡضُ وَٱلۡجِبَالُ وَكَانَتِ ٱلۡجِبَالُ كَثِيبٗا مَّهِيلًا ۝ 13
(14) यह उस दिन होगा जब ज़मीन और पहाड़ काँप उठेंगे और पहाड़ों का हाल ऐसा हो जाएगा मानो रेत के ढेर हैं जो बिखरे जा रहे हैं।14
14. चूँकि उस वक़्त पहाड़ों के हिस्सों को बाँधे रखनेवाली कशिश (गुरुत्वाकर्षण) ख़त्म हो जाएगी, इसलिए पहले तो वे बारीक भुरभुरी रेत के टीले बन जाएँगे, फिर जो ज़लज़ला ज़मीन को हिला रहा होगा उसकी वजह से यह रेत बिखर जाएगी और सारी ज़मीन एक चटियल मैदान बन जाएगी। इसी आख़िरी कैफ़ियत को सूरा-20 ता-हा, आयतें—105 से 107 में इस तरह बयान किया गया है कि “लोग तुमसे पूछते हैं कि इन पहाड़ों का क्या बनेगा। कहो, मेरा रब इनको धूल बनाकर उड़ा देगा और ज़मीन को ऐसा समतल और चटियल मैदान बना देगा कि उसमें तुम कोई बल और सलवट न देखोगे।”
إِنَّآ أَرۡسَلۡنَآ إِلَيۡكُمۡ رَسُولٗا شَٰهِدًا عَلَيۡكُمۡ كَمَآ أَرۡسَلۡنَآ إِلَىٰ فِرۡعَوۡنَ رَسُولٗا ۝ 14
(15) तुम लोगों15 के पास हमने उसी तरह एक रसूल तुमपर गवाह बनाकर भेजा है16 जिस तरह हमने फ़िरऔन की तरफ़ एक रसूल भेजा था।
15. अब मक्का के उन लोगों को मुख़ातब किया जा रहा है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को झुठला रहे थे और आप (सल्ल०) की मुख़ालफ़त में सरगर्म थे।
16. अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को लोगों पर गवाह बनाकर भेजने का मतलब यह भी है कि आप (सल्ल०) दुनिया में उनके सामने अपनी बातों और अमल से हक़ (सच) की गवाही दें, और यह भी कि आख़िरत में जब अल्लाह तआला की अदालत बरपा होगी उस वक़्त आप (सल्ल०) यह गवाही दें कि मैंने इन लोगों के सामने हक़ पेश कर दिया था। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-144; सूरा-4 निसा, हशिया-64; सूरा-16 नह्ल, आयतें—84, 89; सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-82; सूरा-48 फ़त्ह, हाशिया-14)
فَعَصَىٰ فِرۡعَوۡنُ ٱلرَّسُولَ فَأَخَذۡنَٰهُ أَخۡذٗا وَبِيلٗا ۝ 15
(16) (फिर देख लो कि जब) फ़िरऔन ने उस रसूल की बात न मानी तो हमने उसको बड़ी सख़्ती के साथ पकड़ लिया।
فَكَيۡفَ تَتَّقُونَ إِن كَفَرۡتُمۡ يَوۡمٗا يَجۡعَلُ ٱلۡوِلۡدَٰنَ شِيبًا ۝ 16
(17) अगर तुम मानने से इनकार करोगे तो उस दिन कैसे बच जाओगे जो बच्चों को बूढ़ा कर देगा17
17. यानी पहली बात तो यह कि तुम्हें डरना चाहिए कि अगर हमारे भेजे हुए रसूल की बात तुमने न मानी तो वह बुरा अंजाम तुम्हें दुनिया ही में देखना होगा जो फ़िरऔन इससे पहले इसी जुर्म के नतीजे में देख चुका है। लेकिन अगर मान लो कि दुनिया में तुमपर कोई अज़ाब न भी भेजा गया तो क़ियामत के दिन के अज़ाब से कैसे बच निकलोगे?
ٱلسَّمَآءُ مُنفَطِرُۢ بِهِۦۚ كَانَ وَعۡدُهُۥ مَفۡعُولًا ۝ 17
(18) और जिसकी सख़्ती से आसमान फटा जा रहा होगा? अल्लाह का वादा तो पूरा होकर ही रहना है।
إِنَّ هَٰذِهِۦ تَذۡكِرَةٞۖ فَمَن شَآءَ ٱتَّخَذَ إِلَىٰ رَبِّهِۦ سَبِيلًا ۝ 18
(19) यह एक नसीहत है, अब जिसका जी चाहे अपने रब की तरफ़ जाने का रास्ता अपना ले।
۞إِنَّ رَبَّكَ يَعۡلَمُ أَنَّكَ تَقُومُ أَدۡنَىٰ مِن ثُلُثَيِ ٱلَّيۡلِ وَنِصۡفَهُۥ وَثُلُثَهُۥ وَطَآئِفَةٞ مِّنَ ٱلَّذِينَ مَعَكَۚ وَٱللَّهُ يُقَدِّرُ ٱلَّيۡلَ وَٱلنَّهَارَۚ عَلِمَ أَن لَّن تُحۡصُوهُ فَتَابَ عَلَيۡكُمۡۖ فَٱقۡرَءُواْ مَا تَيَسَّرَ مِنَ ٱلۡقُرۡءَانِۚ عَلِمَ أَن سَيَكُونُ مِنكُم مَّرۡضَىٰ وَءَاخَرُونَ يَضۡرِبُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ يَبۡتَغُونَ مِن فَضۡلِ ٱللَّهِ وَءَاخَرُونَ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِۖ فَٱقۡرَءُواْ مَا تَيَسَّرَ مِنۡهُۚ وَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَقۡرِضُواْ ٱللَّهَ قَرۡضًا حَسَنٗاۚ وَمَا تُقَدِّمُواْ لِأَنفُسِكُم مِّنۡ خَيۡرٖ تَجِدُوهُ عِندَ ٱللَّهِ هُوَ خَيۡرٗا وَأَعۡظَمَ أَجۡرٗاۚ وَٱسۡتَغۡفِرُواْ ٱللَّهَۖ إِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمُۢ ۝ 19
(20) ऐ नबी,18 तुम्हारा रब जानता है कि तुम कभी दो तिहाई रात के क़रीब और कभी आधी रात और कभी एक तिहाई रात इबादत में खड़े रहते हो,19 और तुम्हारे साथियों में से भी एक गरोह यह अमल करता है।20 अल्लाह ही रात और दिन के वक़्तों का हिसाब रखता है, उसे मालूम है कि तुम लोग वक़्तों का ठीक हिसाब नहीं कर सकते, इसलिए उसने तुमपर मेहरबानी की, अब जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ सकते हो पढ़ लिया करो।21 उसे मालूम है कि तुममें कुछ बीमार होंगे, कुछ दूसरे लोग अल्लाह की मेहरबानी (रोज़ी) की तलाश में सफ़र करते हैं,22 और कुछ और लोग अल्लाह की राह में जंग करते हैं।23 तो जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ा जा सके पढ़ लिया करो, नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो,24 और अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ देते रहो।25 जो कुछ भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे उसे अल्लाह के यहाँ मौजूद पाओगे, वही ज़्यादा बेहतर है और उसका अज्र (इनाम) बहुत बड़ा है।26 अल्लाह से माफ़ी माँगते रहो, बेशक अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
18. यह आयत जिसके अन्दर तहज्जुद की नमाज़ के हुक्म में कमी की गई है, इसके बारे में रिवायतें अलग-अलग हैं। हज़रत आइशा (रज़ि०) से मुसनदे-अहमद, मुस्लिम और अबू-दाऊद में यह रिवायत नक़्ल हुई है कि पहले हुक्म के बाद यह दूसरा हुक्म एक साल के बाद उतरा और रात का क़ियाम (नमाज़) फ़र्ज़ से नफ़्ल कर दिया गया। दूसरी रिवायत हज़रत आइशा (रज़ि०) ही से इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम ने यह नक़्ल की है कि यह हुक्म पहले हुक्म के आठ महीने बाद आया था, और एक तीसरी रिवायत जो इब्ने-अबी-हातिम ने इन्हीं से नक़्ल की है उसमें सोलह महीने बयान किए गए हैं। अबू-दाऊद, इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से एक साल की मुद्दत नक़्ल की है। लेकिन हज़रत सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) का बयान है कि इसका उतरना दस साल बाद हुआ है (इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम)। हमारे नज़दीक यही क़ौल (बात) ज़्यादा सही है, इसलिए कि पहले रुकू का मज़मून साफ बता रहा है कि वह मक्का में उतरा है और वहाँ भी उसका उतरना शुरू के दौर में हुआ है, जबकि नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी की शुरुआत होने पर ज़्यादा-से-ज़्यादा चार साल गुज़रे होंगे। इसके बरख़िलाफ़ यह दूसरा रुकू अपने अन्दर बयान की गई बातों की साफ़ गवाही के मुताबिक़ मदीना में उतरा हुआ मालूम होता है, जब इस्लाम-दुश्मनों से जंग का सिलसिला शुरू हो चुका था और ज़कात के फ़र्ज़ होने का हुक्म भी आ चुका था। इस वजह से इन दोनों रुकूओं के उतरने के ज़माने में कम-से-कम दस साल का फ़ासला ही होना चाहिए।
19. अगरचे शुरुआती हुक्म आधी रात या उससे कुछ कम-ज़्यादा खड़े रहने का था, लेकिन चूँकि नमाज़ में मह्व (लीन) होने में वक़्त का अन्दाज़ा न रहता था, और घड़ियाँ भी मौजूद न थीं कि वक़्त ठीक-ठीक मालूम हो सकें, इसलिए कभी दो तिहाई रात तक इबादत में गुज़र जाती थी और कभी यह मुद्दत घटकर एक तिहाई रह जाती थी।
20. शुरुआती हुक्म में सिर्फ़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही को मुख़ातब किया गया था, और आप (सल्ल०) ही को रात में (नमाज़ में) खड़े रहने की हिदायत की गई थी, लेकिन मुसलमानों में उस वक़्त नबी (सल्ल०) की पैरवी करने और नेकियाँ कमाने का जो ग़ैर-मामूली जज़्बा पाया जाता था उसकी वजह से अकसर सहाबा किराम (रज़ि०) भी इस नमाज़ का एहतिमाम करते थे।
21. चूँकि नमाज़ लम्बी ज़्यादातर लम्बी क़िरअत ही से होती है, इसलिए कहा कि तहज्जुद की नमाज़ में जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ सको पढ़ लिया करो, इससे नमाज़ की लम्बाई में आप-से-आप कमी हो जाएगी। इस बात के अलफ़ाज़ अगरचे हुक्म के हैं, लेकिन इसपर सभी आलिम एक राय हैं कि तहज्जुद की नमाज़ फ़र्ज़ नहीं नफ़्ल है। हदीस में भी साफ़ तौर से बयान किया गया है कि एक शख़्स के पूछने पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया कि तुमपर दिन-रात में पाँच वक़्त नमाज़ें फ़र्ज़ हैं। उसने पूछा, “क्या इसके सिवा भी कोई चीज़ मुझपर लाज़िम है?” जवाब में आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, सिवाय यह कि तुम अपनी ख़ुशी से कुछ पढ़ो।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)। इस आयत से एक बात यह भी मालूम हुई कि नमाज़ में जिस तरह रुकू और सजदे करना फ़र्ज़ है उसी तरह क़ुरआन मजीद पढ़ना भी फ़र्ज़ है, क्योंकि अल्लाह तआला ने जिस तरह दूसरी जगहों पर रुकू या सजदों के अलफ़ाज़ इस्तेमाल करके नमाज़ मुराद ली है, उसी तरह यहाँ क़ुरआन की क़िरअत (पढ़ने) का ज़िक्र किया है और मुराद इससे नमाज़ में क़ुरआन पढ़ना है। इस दलील पर अगर कोई शख़्स यह एतिराज़ करे कि जब तहज्जुद की नमाज़ ख़ुद नफ़्ल है तो उसमें क़ुरआन पढ़ना कैसे फ़र्ज़ हो सकता है, तो इसका जवाब यह है कि नफ़्ल नमाज़ भी जब आदमी पढ़े तो उसमें नमाज़ की तमाम शर्तें पूरी करना और उसके अरकान (क्रियाएँ) और फ़र्ज़ अदा करना ज़रूरी होता है। कोई शख़्स यह नहीं कह सकता कि नफ़्ल नमाज़ के लिए कपड़ों का पाक होना, जिस्म का पाक होना, वुज़ू करना और सतर छिपाना वाजिब नहीं है और इसमें खड़े होना, बैठना और रुकू और सजदे करना भी नफ़्ल ही हैं।
22. जाइज़ और हलाल तरीक़ों से रोज़ी कमाने के लिए सफ़र करने को क़ुरआन मजीद में जगह-जगह अल्लाह का फ़ज़्ल (मेहरबानी) तलाश करना कहा गया है।
23. यहाँ अल्लाह तआला ने पाक रोज़ी की तलाश और अल्लाह की राह में जिहाद का ज़िक्र जिस तरह एक साथ किया है और बीमारी की मजबूरी के अलावा इन दोनों कामों को तहज्जुद की नमाज़ से माफ़ी या उसमें कमी का सबब ठहराया है, इससे अन्दाज़ा होता है कि इस्लाम में जाइज़ तरीक़ों से रोज़ी कमाने की कितनी बड़ी अहमियत है। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स मुसलमानों के किसी शहर में अनाज लेकर आया और उस दिन के भाव पर उसे बेच दिया, उसको अल्लाह की नज़दीकी नसीब होगी।” फिर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह आयत पढ़ी (हदीस : इब्ने-मरदुवैह)। हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक बार फ़रमाया, “अल्लाह की राह में जिहाद के बाद अगर किसी हालत में जान देना मुझे सबसे ज़्यादा पसन्द है तो वह यह हालत है कि मैं अल्लाह का फ़ज़्ल (रोज़ी) तलाश करते हुए किसी पहाड़ी दर्रे से गुज़र रहा हूँ और वहाँ मुझको मौत आ जाए।” फिर उन्होंने यही आयत पढ़ी (हदीस : बैहक़ी फ़ी शुअ्बिल-ईमान)।
24. क़ुरआन के आलिम इसपर एक राय हैं कि इससे मुराद पाँच वक़्तों की फ़र्ज़ नमाज़ें और फ़र्ज़ ज़कात अदा करना है।
25. इब्ने-ज़ैद कहते हैं कि इससे मुराद ज़कात के अलावा अपना माल ख़ुदा की राह में ख़र्च करना है, चाहे वह अल्लाह की राह में जिहाद हो, या ख़ुदा के बन्दों की मदद हो, या आम नेकी हो, या दूसरे भलाई के काम। अल्लाह को क़र्ज़ देने और अच्छा क़र्ज़ देने के मतलब की तशरीह हम इससे पहले कई जगहों पर कर चुके हैं। देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-267; सूरा-5 माइदा, हाशिया-33; सूरा-57 हदीद, हाशिया-16।
26. मतलब यह है कि तुमने आगे अपनी आख़िरत के लिए जो कुछ भेज दिया वह तुम्हारे लिए उससे ज़्यादा फ़ायदेमन्द है जो तुमने दुनिया ही में रोक रखा और किसी भलाई के काम में अल्लाह की ख़ुशनूदी की ख़ातिर ख़र्च न किया। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पूछा, “तुममें से कौन है जिसको अपना माल अपने वारिस के माल से ज़्यादा प्यारा है?” लोगों ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल, हममें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसे अपना माल अपने वारिस से ज़्यादा प्यारा न हो।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “सोच लो कि तुम क्या कह रहे हो।” लोगों ने अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल, हमारा हाल सचमुच यही है।” इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम्हारा अपना माल तो वह है जो तुमने अपनी आख़िरत के लिए आगे भेज दिया। और जो कुछ तुमने रोककर रखा वह तो वारिस का माल है।” (हदीस : बुख़ारी, नसई, मुसनदे-अबू-याला)