(20) ऐ नबी,18 तुम्हारा रब जानता है कि तुम कभी दो तिहाई रात के क़रीब और कभी आधी रात और कभी एक तिहाई रात इबादत में खड़े रहते हो,19 और तुम्हारे साथियों में से भी एक गरोह यह अमल करता है।20
अल्लाह ही रात और दिन के वक़्तों का हिसाब रखता है, उसे मालूम है कि तुम लोग वक़्तों का ठीक हिसाब नहीं कर सकते, इसलिए उसने तुमपर मेहरबानी की, अब जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ सकते हो पढ़ लिया करो।21 उसे मालूम है कि तुममें कुछ बीमार होंगे, कुछ दूसरे लोग अल्लाह की मेहरबानी (रोज़ी) की तलाश में सफ़र करते हैं,22 और कुछ और लोग अल्लाह की राह में जंग करते हैं।23
तो जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ा जा सके पढ़ लिया करो, नमाज़ क़ायम करो, ज़कात दो,24 और अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ देते रहो।25 जो कुछ भलाई तुम अपने लिए आगे भेजोगे उसे अल्लाह के यहाँ मौजूद पाओगे, वही ज़्यादा बेहतर है और उसका अज्र (इनाम) बहुत बड़ा है।26 अल्लाह से माफ़ी माँगते रहो, बेशक अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
18. यह आयत जिसके अन्दर तहज्जुद की नमाज़ के हुक्म में कमी की गई है, इसके बारे में रिवायतें अलग-अलग हैं। हज़रत आइशा (रज़ि०) से मुसनदे-अहमद, मुस्लिम और अबू-दाऊद में यह रिवायत नक़्ल हुई है कि पहले हुक्म के बाद यह दूसरा हुक्म एक साल के बाद उतरा और रात का क़ियाम (नमाज़) फ़र्ज़ से नफ़्ल कर दिया गया। दूसरी रिवायत हज़रत आइशा (रज़ि०) ही से इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम ने यह नक़्ल की है कि यह हुक्म पहले हुक्म के आठ महीने बाद आया था, और एक तीसरी रिवायत जो इब्ने-अबी-हातिम ने इन्हीं से नक़्ल की है उसमें सोलह महीने बयान किए गए हैं। अबू-दाऊद, इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम ने हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) से एक साल की मुद्दत नक़्ल की है। लेकिन हज़रत सईद-बिन-जुबैर (रज़ि०) का बयान है कि इसका उतरना दस साल बाद हुआ है (इब्ने-जरीर और इब्ने-अबी-हातिम)। हमारे नज़दीक यही क़ौल (बात) ज़्यादा सही है, इसलिए कि पहले रुकू का मज़मून साफ बता रहा है कि वह मक्का में उतरा है और वहाँ भी उसका उतरना शुरू के दौर में हुआ है, जबकि नबी (सल्ल०) की पैग़म्बरी की शुरुआत होने पर ज़्यादा-से-ज़्यादा चार साल गुज़रे होंगे। इसके बरख़िलाफ़ यह दूसरा रुकू अपने अन्दर बयान की गई बातों की साफ़ गवाही के मुताबिक़ मदीना में उतरा हुआ मालूम होता है, जब इस्लाम-दुश्मनों से जंग का सिलसिला शुरू हो चुका था और ज़कात के फ़र्ज़ होने का हुक्म भी आ चुका था। इस वजह से इन दोनों रुकूओं के उतरने के ज़माने में कम-से-कम दस साल का फ़ासला ही होना चाहिए।
19. अगरचे शुरुआती हुक्म आधी रात या उससे कुछ कम-ज़्यादा खड़े रहने का था, लेकिन चूँकि नमाज़ में मह्व (लीन) होने में वक़्त का अन्दाज़ा न रहता था, और घड़ियाँ भी मौजूद न थीं कि वक़्त ठीक-ठीक मालूम हो सकें, इसलिए कभी दो तिहाई रात तक इबादत में गुज़र जाती थी और कभी यह मुद्दत घटकर एक तिहाई रह जाती थी।
20. शुरुआती हुक्म में सिर्फ़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही को मुख़ातब किया गया था, और आप (सल्ल०) ही को रात में (नमाज़ में) खड़े रहने की हिदायत की गई थी, लेकिन मुसलमानों में उस वक़्त नबी (सल्ल०) की पैरवी करने और नेकियाँ कमाने का जो ग़ैर-मामूली जज़्बा पाया जाता था उसकी वजह से अकसर सहाबा किराम (रज़ि०) भी इस नमाज़ का एहतिमाम करते थे।
21. चूँकि नमाज़ लम्बी ज़्यादातर लम्बी क़िरअत ही से होती है, इसलिए कहा कि तहज्जुद की नमाज़ में जितना क़ुरआन आसानी से पढ़ सको पढ़ लिया करो, इससे नमाज़ की लम्बाई में आप-से-आप कमी हो जाएगी। इस बात के अलफ़ाज़ अगरचे हुक्म के हैं, लेकिन इसपर सभी आलिम एक राय हैं कि तहज्जुद की नमाज़ फ़र्ज़ नहीं नफ़्ल है। हदीस में भी साफ़ तौर से बयान किया गया है कि एक शख़्स के पूछने पर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया कि तुमपर दिन-रात में पाँच वक़्त नमाज़ें फ़र्ज़ हैं। उसने पूछा, “क्या इसके सिवा भी कोई चीज़ मुझपर लाज़िम है?” जवाब में आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “नहीं, सिवाय यह कि तुम अपनी ख़ुशी से कुछ पढ़ो।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम)।
इस आयत से एक बात यह भी मालूम हुई कि नमाज़ में जिस तरह रुकू और सजदे करना फ़र्ज़ है उसी तरह क़ुरआन मजीद पढ़ना भी फ़र्ज़ है, क्योंकि अल्लाह तआला ने जिस तरह दूसरी जगहों पर रुकू या सजदों के अलफ़ाज़ इस्तेमाल करके नमाज़ मुराद ली है, उसी तरह यहाँ क़ुरआन की क़िरअत (पढ़ने) का ज़िक्र किया है और मुराद इससे नमाज़ में क़ुरआन पढ़ना है। इस दलील पर अगर कोई शख़्स यह एतिराज़ करे कि जब तहज्जुद की नमाज़ ख़ुद नफ़्ल है तो उसमें क़ुरआन पढ़ना कैसे फ़र्ज़ हो सकता है, तो इसका जवाब यह है कि नफ़्ल नमाज़ भी जब आदमी पढ़े तो उसमें नमाज़ की तमाम शर्तें पूरी करना और उसके अरकान (क्रियाएँ) और फ़र्ज़ अदा करना ज़रूरी होता है। कोई शख़्स यह नहीं कह सकता कि नफ़्ल नमाज़ के लिए कपड़ों का पाक होना, जिस्म का पाक होना, वुज़ू करना और सतर छिपाना वाजिब नहीं है और इसमें खड़े होना, बैठना और रुकू और सजदे करना भी नफ़्ल ही हैं।
22. जाइज़ और हलाल तरीक़ों से रोज़ी कमाने के लिए सफ़र करने को क़ुरआन मजीद में जगह-जगह अल्लाह का फ़ज़्ल (मेहरबानी) तलाश करना कहा गया है।
23. यहाँ अल्लाह तआला ने पाक रोज़ी की तलाश और अल्लाह की राह में जिहाद का ज़िक्र जिस तरह एक साथ किया है और बीमारी की मजबूरी के अलावा इन दोनों कामों को तहज्जुद की नमाज़ से माफ़ी या उसमें कमी का सबब ठहराया है, इससे अन्दाज़ा होता है कि इस्लाम में जाइज़ तरीक़ों से रोज़ी कमाने की कितनी बड़ी अहमियत है। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने फ़रमाया, “जो शख़्स मुसलमानों के किसी शहर में अनाज लेकर आया और उस दिन के भाव पर उसे बेच दिया, उसको अल्लाह की नज़दीकी नसीब होगी।” फिर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने यह आयत पढ़ी (हदीस : इब्ने-मरदुवैह)। हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक बार फ़रमाया, “अल्लाह की राह में जिहाद के बाद अगर किसी हालत में जान देना मुझे सबसे ज़्यादा पसन्द है तो वह यह हालत है कि मैं अल्लाह का फ़ज़्ल (रोज़ी) तलाश करते हुए किसी पहाड़ी दर्रे से गुज़र रहा हूँ और वहाँ मुझको मौत आ जाए।” फिर उन्होंने यही आयत पढ़ी (हदीस : बैहक़ी फ़ी शुअ्बिल-ईमान)।
24. क़ुरआन के आलिम इसपर एक राय हैं कि इससे मुराद पाँच वक़्तों की फ़र्ज़ नमाज़ें और फ़र्ज़ ज़कात अदा करना है।
25. इब्ने-ज़ैद कहते हैं कि इससे मुराद ज़कात के अलावा अपना माल ख़ुदा की राह में ख़र्च करना है, चाहे वह अल्लाह की राह में जिहाद हो, या ख़ुदा के बन्दों की मदद हो, या आम नेकी हो, या दूसरे भलाई के काम। अल्लाह को क़र्ज़ देने और अच्छा क़र्ज़ देने के मतलब की तशरीह हम इससे पहले कई जगहों पर कर चुके हैं। देखिए—तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-267; सूरा-5 माइदा, हाशिया-33; सूरा-57 हदीद, हाशिया-16।
26. मतलब यह है कि तुमने आगे अपनी आख़िरत के लिए जो कुछ भेज दिया वह तुम्हारे लिए उससे ज़्यादा फ़ायदेमन्द है जो तुमने दुनिया ही में रोक रखा और किसी भलाई के काम में अल्लाह की ख़ुशनूदी की ख़ातिर ख़र्च न किया। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की रिवायत है कि एक बार अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने पूछा, “तुममें से कौन है जिसको अपना माल अपने वारिस के माल से ज़्यादा प्यारा है?” लोगों ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल, हममें से कोई भी ऐसा नहीं है जिसे अपना माल अपने वारिस से ज़्यादा प्यारा न हो।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “सोच लो कि तुम क्या कह रहे हो।” लोगों ने अर्ज़ किया, “ऐ अल्लाह के रसूल, हमारा हाल सचमुच यही है।” इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम्हारा अपना माल तो वह है जो तुमने अपनी आख़िरत के लिए आगे भेज दिया। और जो कुछ तुमने रोककर रखा वह तो वारिस का माल है।” (हदीस : बुख़ारी, नसई, मुसनदे-अबू-याला)