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سُورَةُ الحِجۡرِ

  1. अल-हिज्र

(मक्का में उतरी-आयतें 99)

परिचय

नाम

आयत नम्बर 80 में हिज्र शब्द आया है, उसी को इस सूरा का नाम दे दिया गया है।

उतरने का समय

विषय और वर्णन-शैली से साफ़ पता चलता है कि इस सूरा के उतरने का समय सूरा-14 (इबराहीम) के समय से मिला हुआ है। इसकी पृष्ठभूमि में दो चीज़े बिल्कुल स्पष्ट दिखाई देती हैं। एक यह कि नबी (सल्ल०) को सन्देश पहुँचाते हुए एक समय बीत चुका है और सम्बोधित क़ौम को निरन्तर हठधर्मी, उपहास, अवरोध और अत्याचार अपनी सीमा पार कर चुका है, जिसके बाद अब समझाने-बुझाने का अवसर कम और चेतावनी और धमकी का अवसर अधिक है। दूसरे यह कि अपनी क़ौम के इंकार, हठधर्मी और अवरोध के पहाड़ तोड़ते-तोड़ते नबी (सल्ल०) थके जा रहे हैं और दिल टूटने की दशा बार-बार आप पर छा रही है, जिसे देखकर अल्लाह आपको तसल्ली दे रहा है और आपकी हिम्मत बंधा रहा है।

वार्ताएँ और केन्द्रीय विषय

यही दो विषय इस सूरा में वर्णित हुए हैं। एक यह कि चेतावनी उन लोगों को दी गई जो नबी (सल्ल०) की दावत का इंकार कर रहे थे और आपका उपहास करते और आपके काम में तरह-तरह की रुकावटें पैदा करते थे और दूसरा यह कि नबी (सल्ल०) को तसल्ली और प्रोत्साहन दिया गया है। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि यह सूरा समझाने और उपदेश देने से ख़ाली है। क़ुरआन में कहीं भी अल्लाह ने केवल चेतावनी या मात्र डॉट-फटकार से काम नहीं लिया है, कड़ी से कड़ी धमकियों और निन्दाओं के बीच भी वह समझाने-बुझाने और उपदेश देने में कमी नहीं करता। अत: इस सूरा में भी एक ओर तौहीद (एकेश्वरवाद) के प्रमाणों की ओर संक्षिप्त संकेत किए गए हैं और दूसरी ओर आदम और इबलोस का क़िस्सा सुनाकर नसीहत की गई है ।

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سُورَةُ الحِجۡرِ
15. अल-हिज्र
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है
الٓرۚ تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱلۡكِتَٰبِ وَقُرۡءَانٖ مُّبِينٖ
(1) अलिफ़-लाम-रा। ये आयते हैं अल्लाह की किताब और वाज़ेह क़ुरआन की।1
1. यह इस सूरा के बारे में बतानेवाली मुख़्तसर तमहीद है जिसके बाद फ़ौरन ही अस्ल मौज़ू (विषय) पर तक़रीर शुरू हो जाती है। अस्ल अरबी में क़ुरआन के लिए 'मुबीन' लफ़्ज़ सिफ़त के तौर पर इस्तेमाल हुआ है। इसका मतलब यह है कि ये आयतें उस क़ुरआन की हैं जो अपना मक़सद साफ़-साफ़ ज़ाहिर करता है।
رُّبَمَا يَوَدُّ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لَوۡ كَانُواْ مُسۡلِمِينَ ۝ 1
(2) नामुमकिन नहीं कि एक वक़्त वह आ जाए जब वही लोग जिन्होंने आज (इस्लाम की दावत को क़ुबूल करने से) इनकार कर दिया है, पछता-पछताकर कहेंगे कि काश! हमने फ़रमाँबरदारी के साथ सर झुका दिया होता।
ذَرۡهُمۡ يَأۡكُلُواْ وَيَتَمَتَّعُواْ وَيُلۡهِهِمُ ٱلۡأَمَلُۖ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 2
(3) छोड़ो इन्हें खाएँ-पिएँ, मज़े करें और भुलावे में डाले रखे इनको झूठी उम्मीद। बहुत जल्द इन्हें मालूम हो जाएगा।
وَمَآ أَهۡلَكۡنَا مِن قَرۡيَةٍ إِلَّا وَلَهَا كِتَابٞ مَّعۡلُومٞ ۝ 3
(4) हमने इससे पहले जिस बस्ती को भी तबाह किया है, उसके लिए अमल की एक ख़ास मुहलत लिखी जा चुकी थी। 2
2. मतलब यह है कि कुफ़्र (इनकार) करते ही फ़ौरन तो हमने कभी किसी क़ौम को भी नहीं पकड़ लिया है, फिर ये नादान लोग क्यों इस ग़लतफ़हमी में पड़े हैं कि नबी के साथ झुठलाने और उसका मज़ाक़ उड़ाने का जो रवैया इन्होंने अपना रखा है उसपर चूँकि अभी तक इन्हें सज़ा नहीं दी गई, इसलिए यह नबी सिरे से नबी ही नहीं है। हमारा क़ायदा यह है कि हम हर क़ौम के लिए पहले से तय कर लेते हैं कि उसको सुनने, समझने और संभलने के लिए इतनी मुहलत दी जाएगी, और इस हद तक उसकी शरारतों और बुराइयों के बावजूद पूरे सब्र और बर्दाश्त के साथ उसे अपनी मनमानी करने का मौक़ा दिया जाता रहेगा। यह मुहलत जब तक बाक़ी रहती है, और हमारी तय की हुई हद जिस वक़्त तक आ नहीं जाती, हम ढील देते रहते हैं। (अमल की मुहलत की तशरीह के लिए देखें— सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-18)
مَّا تَسۡبِقُ مِنۡ أُمَّةٍ أَجَلَهَا وَمَا يَسۡتَـٔۡخِرُونَ ۝ 4
(5) कोई क़ौम न अपने तय किए गए वक़्त से पहले हलाक हो सकती है, न उसके बाद छूट सकती है।
وَقَالُواْ يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِي نُزِّلَ عَلَيۡهِ ٱلذِّكۡرُ إِنَّكَ لَمَجۡنُونٞ ۝ 5
(6) ये लोग कहते हैं, “ऐ वह शख़्स जिसपर ज़िक्र3 उतरा है4, तू यक़ीनन दीवाना है।
3. 'ज़िक्र' का लफ़्ज़ क़ुरआन में इस्तिलाही तौर पर अल्लाह के कलाम के लिए इस्तेमाल हुआ है जो सरासर नसीहत बनकर आता है। पहले जितनी किताबें पैग़म्बरों पर उतरी थीं वे सब भी 'ज़िक्र' थीं और यह क़ुरआन भी 'ज़िक्र' है। ज़िक्र के अस्ल मानी हैं 'याद दिलाना', 'होशियार करना' और 'नसीहत करना'।
4. यह जुमला वे लोग हँसी-मज़ाक़ के तौर पर कहते थे। वे तो इस बात को मानते ही नहीं थे कि यह ज़िक्र नबी (सल्ल०) पर उतरा है, न इस बात को मान लेने के बाद वे आपको दीवाना कह सकते थे। अस्ल में उनके कहने का मतलब यह था कि “ऐ वह शख़्स जिसका दावा यह है कि मुझपर ज़िक्र उतरा है।” यह उसी तरह की बात है जैसी फ़िरऔन ने हज़रत मूसा की दावत (पैग़ाम) सुनने के बाद अपने दरबारियों से कही थी कि “यह पैग़म्बर साहब जो तुम लोगों की तरफ़ भेजे गए हैं, इनका दिमाग़ दुरुस्त नहीं है।"
لَّوۡمَا تَأۡتِينَا بِٱلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 6
(7) अगर तू सच्चा है तो हमारे सामने फ़रिश्तों को ले क्यों नहीं आता?"
مَا نُنَزِّلُ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةَ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَمَا كَانُوٓاْ إِذٗا مُّنظَرِينَ ۝ 7
(8) फ़रिश्तों को यूँ ही नहीं उतार दिया करते। वे जब उतरते हैं तो हक़ (सत्य) के साथ उतरते हैं, और फिर लोगों को मुहलत नहीं दी जाती।5
5. यानी फ़रिश्ते सिर्फ़ तमाशा दिखाने के लिए नहीं उतारे जाते कि जब किसी क़ौम ने कहा 'बुलाओ फ़रिश्तों को' और वे फ़ौरन हाज़िर हुए, न फ़रिश्ते इस ग़रज़ के लिए कभी भेजे जाते हैं कि वे आकर लोगों के सामने हक़ीक़त को बेनक़ाब करें और ग़ैब (परोक्ष) के परदे को फाड़कर वह कुछ दिखा दें जिसपर ईमान लाने की दावत पैग़म्बरों (अलैहि०) ने दी है। फ़रिश्तों को भेजने का वक़्त तो वह आख़िरी वक़्त होता है जब किसी क़ौम का फ़ैसला चुका देने का इरादा कर लिया जाता है। उस वक़्त बस फ़ैसला चुकाया जाता है, यह नहीं कहा जाता कि अब ईमान लाओ तो छोड़े देते हैं। ईमान लाने की जितनी मुहलत भी है उसी वक़्त तक है जब तक हक़ीक़त बेनक़ाब नहीं हो जाती। उसके बेनक़ाब हो जाने के बाद ईमान लाने का क्या सवाल। "हक़ के साथ उतरते हैं” का मतलब “हक़ लेकर उतरना” है। यानी वे इसलिए आते हैं कि बातिल (असत्य) को मिटाकर हक़ को उसकी जगह क़ायम कर दें। या दूसरे अलफ़ाज़ में यूँ समझिए कि वे अल्लाह तआला का फ़ैसला लेकर आते हैं और उसे लागू करके छोड़ते हैं।
إِنَّا نَحۡنُ نَزَّلۡنَا ٱلذِّكۡرَ وَإِنَّا لَهُۥ لَحَٰفِظُونَ ۝ 8
(9) रहा यह ज़िक्र तो इसको हमने उतारा है और हम ख़ुद इसके निगहबान हैं।6
6. यानी यह 'ज़िक्र' जिसके लानेवाले को तुम 'दीवाना' कह रहे हो, यह हमारा उतारा हुआ है, उसने ख़ुद नहीं गढ़ा है। इसलिए यह गाली उसको नहीं, हमें दी गई है। और यह ख़याल तुम अपने दिल से निकाल दो कि तुम इस 'ज़िक्र' का कुछ बिगाड़ सकोगे। यह सीधे-तौर पर हमारी हिफ़ाज़त में है। न तुम्हारे मिटाए मिट सकेगा, न तुम्हारे दवाए दब सकेगा, न तुम्हारे तानों और एतिराज़ों से इसकी क़द्र घट सकेगी, न तुम्हारे रोके उसकी दावत रुक सकेगी, न इसमें फेर-बदल करने का कभी किसी को मौक़ा मिल सकेगा।
وَلَقَدۡ أَرۡسَلۡنَا مِن قَبۡلِكَ فِي شِيَعِ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 9
(10) ऐ नबी! हम तुमसे पहले बहुत-सी गुज़री हुई क़ौमों में रसूल भेज चुके हैं।
وَمَا يَأۡتِيهِم مِّن رَّسُولٍ إِلَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 10
(11) कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनके पास कोई रसूल आया हो और उन्होंने उसका मज़ाक़ न उड़ाया हो।
كَذَٰلِكَ نَسۡلُكُهُۥ فِي قُلُوبِ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 11
(12) मुजरिमों के दिलों में तो हम इस 'ज़िक्र' को इसी तरह (छड़ की तरह) गुज़ारते हैं।
لَا يُؤۡمِنُونَ بِهِۦ وَقَدۡ خَلَتۡ سُنَّةُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 12
(13) वे इसपर ईमान नहीं लाया करते।7 पुराने ज़माने से उस ढंग के लोगों का यही तरीक़ा चला आ रहा है।
7. अल अरबी में 'नस्लुकुहू' और 'ला युअमिनू-न बिही' अलफ़ाज इस्तेमाल हुए हैं। आम तौर पर क़ुरआन का तर्जमा और तफ़सीर लिखनेवालों ने ‘नस्लुकुहू' में हू' की ज़मीर (सर्वनाम) मज़ाक़ उड़ाने से और ‘ला युअमिनू-न बिही' की ज़मीर ज़िक्र से जोड़ी है और मतलब यह बयान किया है कि “हम इसी तरह इस मज़ाक़ उड़ाने को मुजरिमों के दिलों में दाख़िल करते हैं और वे इस ज़िक्र पर ईमान नहीं लाते,” अगरचे अरबी क़ायदे के लिहाज़ से इसमें कोई हरज नहीं है, लेकिन हमारे नज़दीक व्याकरण के एतिबार से भी ज़्यादा सही यह है कि दोनों ज़मीरें (सर्वनाम) ज़िक्र से जोड़ी जाएँ।
وَلَوۡ فَتَحۡنَا عَلَيۡهِم بَابٗا مِّنَ ٱلسَّمَآءِ فَظَلُّواْ فِيهِ يَعۡرُجُونَ ۝ 13
(14) अगर हम उनपर आसमान का कोई दरवाज़ा खोल देते और वे दिन-दहाड़े उसमें चढ़ने भी लगते,
لَقَالُوٓاْ إِنَّمَا سُكِّرَتۡ أَبۡصَٰرُنَا بَلۡ نَحۡنُ قَوۡمٞ مَّسۡحُورُونَ ۝ 14
(15) तब भी वे यही कहते की हमारी आँखो को धोखा हो रहा है, बल्कि हमपर जादू कर दिया गया है।
وَلَقَدۡ جَعَلۡنَا فِي ٱلسَّمَآءِ بُرُوجٗا وَزَيَّنَّٰهَا لِلنَّٰظِرِينَ ۝ 15
(16) हमारी कारीगरी है कि आसमान में हमने बहुत-से मज़बूत क़िले8 बनाए, उनको देखनेवालों के लिए सजाया9
8. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'बुरूज' इस्तेमाल हुआ है जो 'बुर्ज’ की जमा (बहुवचन) है। 'बुर्ज' अरबी ज़बान में क़िले, महल और मज़बूत इमारत को कहते हैं। क़दीम इल्मे हय्यत (खगोल विज्ञान) में 'बुर्ज' का लफ़्ज़ इस्तिलाही तौर पर उन बारह मंज़िलों के लिए इस्तेमाल होता था जिनपर सूरज की धुरी को बाँटा गया था। इस वजह से कुछ तफ़सीर लिखनेवालों ने यह समझा कि क़ुरआन का इशारा उन्हीं बुरूज की तरफ़ है। कुछ दूसरे मुफ़स्सिरों ने इससे मुराद सय्यारे (ग्रह) लिए हैं। लेकिन बाद के मज़मून पर ग़ौर करने से लगता है कि शायद इससे मुराद ऊपरी दुनिया के वे इलाक़े हैं जिनमें से हर इलाक़े को बहुत मज़बूत सरहदों ने दूसरे इलाक़े से अलग कर रखा है। अगरचे फैली हुई फ़ज़ा में न दिखाई देनेवाली ये सरहदें खिंची हुई हैं, लेकिन इनको पार करके किसी चीज़ का एक इलाक़े से दूसरे इलाक़े में चले जाना बहुत मुश्किल काम है। इस मतलब के लिहाज़ से हम 'बुरूज' को महफ़ूज़ इलाक़ों (Fortified Spheres) के मानी में लेना ज़्यादा सही समझते हैं।
9. यानी हर इलाक़े में कोई न कोई चमकता ग्रह या तारा रख दिया और इस तरह सारा जहान जगमगा उठा। दूसरे अलफ़ाज़ में हमने इस बेहिसाब फैली हुई कायनात को एक भयानक ढंडार बनाकर नहीं रख दिया, बल्कि एक ऐसी ख़ूबसूरत और हसीन दुनिया बनाई जिसमें हर तरफ़ निगाहों को लुभानेवाले जलवे फैले हुए हैं। इस कारीगरी में सिर्फ़ एक सबसे बड़े कारीगर की कारीगरी और सबसे बड़े हकीम की हिकमत ही नज़र नहीं आती है, बल्कि एक इन्तिहाई आला दरजे का पाकीज़ा ज़ौक़ रखनेवाले आर्टिस्ट का आर्ट भी नुमायाँ है। यही बात एक दूसरी जगह यूँ कही गई है, “वह ख़ुदा कि जिसने हर चीज़ जो बनाई, ख़ूब ही बनाई।”
وَحَفِظۡنَٰهَا مِن كُلِّ شَيۡطَٰنٖ رَّجِيمٍ ۝ 16
(17) और हर मरदूद (फिटकारे हुए) शैतान से उनको महफ़ूज़ कर दिया।10
10. यानी जिस तरह ज़मीन के दूसरे जानदार ज़मीन के इलाक़े में क़ैद हैं उसी तरह जिन्न शैतान भी इसी इलाक़े में क़ैद हैं, ऊपरी दुनिया तक उनकी पहुँच नहीं है। इसका मक़सद अस्ल में उन लोगों की उस आम ग़लतफ़हमी को दूर करना है जिसमें पहले भी आम लोग मुब्तला थे और आज भी हैं। वे समझते हैं कि शैतान और उसकी औलाद के लिए सारी कायनात खुली पड़ी है, जहाँ तक वे चाहें उड़ान भर सकते हैं। क़ुरआन इसके जवाब में बताता है कि शैतान एक ख़ास हद से आगे नहीं जा सकते, उन्हें हर जगह उड़ान भरने और पहुँचने की ताक़त हरगिज़ नहीं दी गई है।
إِلَّا مَنِ ٱسۡتَرَقَ ٱلسَّمۡعَ فَأَتۡبَعَهُۥ شِهَابٞ مُّبِينٞ ۝ 17
(18) कोई शैतान इनमें राह नहीं पा सकता, सिवाय इसके कि कुछ सुन-गुन ले ले।11 और जब वह सुन-गुन लेने की कोशिश करता है तो एक रौशन शोला उसका पीछा करता है।12
11. यानी वे शैतान जो अपने साथियों को ग़ैब (परोक्ष) की ख़बरें लाकर देने की कोशिश करते हैं, जिनकी मदद से बहुत-से काहिन, जोगी, आमिल और फ़क़ीर-नुमा बहरूपिये ग़ैब की बातें जानने का ढोंग रचाया करते हैं, उनके पास हक़ीक़त में ग़ैब की बातें जानने के ज़रिए बिलकुल नहीं हैं। वे कुछ सुनगुन लेने की कोशिश ज़रूर करते हैं, क्योंकि उनकी बनावट इनसानों के मुक़ाबले में फ़रिश्तों की बनावट से कुछ ज़्यादा क़रीब है, लेकिन हक़ीक़त में उनके पल्ले कुछ पड़ता नहीं है।
12. अस्ल अरबी आयत में 'शिहाबुम-मुबीन' लफ़्ज़ का इस्तेमाल हुआ है जिसके मानी हैं 'रौशन शोला,' दूसरी जगह क़ुरआन मजीद में इसके लिए 'शिहाबे-साक़िब' लफ़्ज़ का इस्तेमाल हुआ है, यानी 'अंधेरे को छेदनेवाला शोला’। इससे मुराद ज़रूरी नहीं कि वह टूटनेवाला तारा ही हो जिसे हमारी ज़बान में 'शिहाबे-साक़िब' (उलका पिंड) कहा जाता है। मुमकिन है कि ये दूसरी तरह की किरणें हों, जैसे कायनाती किरणें (Cosmic Rays) या उनसे भी ज़्यादा तेज़ किसी और क़िस्म की जो अभी हमारी जानकारी में न आई हों। और यह भी हो सकता है कि यही शिहाबे-साक़िब मुराद हों जिन्हें कभी-कभी हमारी आँखें ज़मीन की तरफ़ गिरते हुए देखती हैं। मौजूदा दौर के जाइज़े से यह मालूम हुआ है कि दूरबीन से दिखाई देनेवाले शिहाबे-साक़िब जो इस फैली हुई फ़ज़ा से ज़मीन की तरफ़ आते दिखाई देते हैं, उनकी तादाद का औसत 10 खरब रोज़ाना है, जिनमें से दो करोड़ के लगभग हर रोज़ ज़मीन के ऊपरी इलाक़े में दाख़िल होते हैं। और मुश्किल से एक ज़मीन की सतह पहुँचता है। उनकी रफ़्तार ऊपरी फ़ज़ा में लगभग 26 मील प्रति सेकेण्ड होती है और कई बार 50 मील प्रति सेकेण्ड तक देखी गई है। कई बार ऐसा भी हुआ है कि नंगी आँखों ने भी टूटनेवाले तारों की ग़ैर-मामूली बारिश देखी हैं। चुनाँचे यह चीज़ रिकॉर्ड पर मौजूद है कि 13 नवम्बर 1833 ई० को उत्तरी अमेरिका के पूर्वी इलाक़े में सिर्फ़ एक जगह पर आधी रात से लेकर सुबह तक दो लाख शिहाबे-साक़िब गिरते हुए देखे गए। (इंसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका, 1946 ई०, भाग-15, पृष्ठ-337-339)। हो सकता है कि यही बारिश ऊपरी दुनिया की तरफ़ शैतानों की उड़ान में रुकावट बनती हो, क्योंकि ज़मीन की ऊपरी हदों से गुज़रकर फैली हुई फ़ज़ा में 10 खरब रोज़ाना के औसत से टूटनेवाले तारों की बरसात उनके लिए उस फ़ज़ा को पार करना बिलकुल नामुमकिन बना देती होगी। इससे कुछ उन ‘महफ़ूज़ क़िलों' की बनावट का अन्दाज़ा भी हो सकता है जिनका ज़िक्र ऊपर हुआ है। बज़ाहिर फ़ज़ा बिलकुल साफ़-सुथरी है, जिसमें कहीं कोई दीवार या छत बनी दिखाई नहीं देती, लेकिन अल्लाह तआला ने इसी फ़ज़ा में कई इलाक़ों को कुछ ऐसी नज़र न आनेवाली दीवारों से घेर रखा है जो एक इलाक़े को दूसरे इलाक़ों की आफ़तों से महफ़ूज़ रखती हैं। यह इन्हीं दीवारों की बरकत है कि जो शिहाबे-साक़िब दस खरब रोज़ाना के औसत से ज़मीन की तरफ़ गिरते हैं वे सब जलकर भस्म हो जाते हैं और मुश्किल से एक ज़मीन की सतह तक पहुँच सकता है। दुनिया में शिहाबी पत्थरों (Meteorites) के जो नमूने पाए जाते हैं और दुनिया के अजाइब घरों में मौजूद हैं, उनमें सबसे बड़ा 645 पौंड का एक पत्थर है जो गिरकर 11 फ़ुट ज़मीन में घुस गया था। इसके अलावा एक जगह पर 36.5 टन का लोहे का एक टुकड़ा पाया गया है जिसके वहाँ मौजूद होने की कोई वजह वैज्ञानिक इसके सिवा बयान नहीं कर सके हैं कि यह भी आसमान से गिरा हुआ है। अन्दाज़ा कीजिए कि अगर ज़मीन की ऊपरी सीमाओं को मज़बूत दीवारों से सुरक्षित न कर दिया गया होता तो इन टूटनेवाले तारों की बारिश ज़मीन का क्या हाल कर देती, यही दीवारें हैं जिनके लिए क़ुरआन मजीद ने 'बुरूज' (सुरक्षित क़िलों) का लफ़्ज इस्तेमाल किया है।
وَٱلۡأَرۡضَ مَدَدۡنَٰهَا وَأَلۡقَيۡنَا فِيهَا رَوَٰسِيَ وَأَنۢبَتۡنَا فِيهَا مِن كُلِّ شَيۡءٖ مَّوۡزُونٖ ۝ 18
(19) हमने ज़मीन को फैलाया, उसमें पहाड़ जमाए, उसमें हर तरह की वनस्पति ठीक-ठीक नपी-तुली मिक़दार के साथ उगाई,13
13. इससे अल्लाह तआला की क़ुदरत व हिकमत के एक और अहम निशान की तरफ़ ध्यान दिलाया गया है। पेड़-पौधों की हर क़िस्म में नस्ल चलाने की इतनी ज़बरदस्त ताक़त है कि अगर उसके सिर्फ़ एक पौधे ही की नस्ल को ज़मीन में बढ़ने का मौक़ा मिल जाता तो कुछ साल के अन्दर ज़मीन पर बस वही वह नज़र आती, किसी दूसरी क़िस्म के पेड़-पौधों के लिए कोई जगह न रहती। मगर यह एक हिकमतवाले और क़ादिरे-मुतलक़ (सर्व-शक्तिमान) की सोची-समझी स्कीम है, जिसके मुताबिक़ अनगिनत प्रकार के पेड़-पौधे इस ज़मीन पर उग रहे हैं।
وَجَعَلۡنَا لَكُمۡ فِيهَا مَعَٰيِشَ وَمَن لَّسۡتُمۡ لَهُۥ بِرَٰزِقِينَ ۝ 19
(20) और उसमें रोज़ी के असबाब जुटाए, तुम्हारे लिए भी और उन बहुत-से जानदारों के लिए भी जिनको रोज़ी देनेवाले तुम नहीं हो।
وَإِن مِّن شَيۡءٍ إِلَّا عِندَنَا خَزَآئِنُهُۥ وَمَا نُنَزِّلُهُۥٓ إِلَّا بِقَدَرٖ مَّعۡلُومٖ ۝ 20
(21) कोई चीज़ ऐसी नहीं जिसके ख़ज़ाने हमारे पास न हों, और जिस चीज़ को भी हम उतारते हैं, एक तय की हुई मिक़दार में उतारते हैं।14
14. यहाँ इस हक़ीक़त पर ख़बरदार किया गया कि यह मामला सिर्फ़ पेड़-पौधों के साथ ख़ास नहीं है, बल्कि तमाम चीज़ों के मामले में आम है। हवा, पानी, रौशनी, गर्मी, सर्दी, जमी हुई चीज़ें, पेड़-पौधों, जानवरों, गरज़ हर चीज़, हर क़िस्म, हर जिंस और हर क़ुव्वत व ताक़त के लिए एक हद मुक़र्रर है जिसपर वह ठहरी हुई है और एक मिक़दार (पैमाना) मुक़र्रर है जिससे न वह घटती है, न बढ़ती है। इसी मिक़दार मुक़र्रर करने और कमाल दरजे की हिकमत भरी मिक़दार मुक़र्रर करने ही का यह करिश्मा है कि ज़मीन से लेकर आसमानों तक कायनात के पूरे निज़ाम में यह तवाज़ुन (संतुलन) और यह तनासुब दिखाई दे रहा है। अगर यह कायनात एक इत्तिफ़ाक़ी हादिसा होती या बहुत-से ख़ुदाओं की कारीगरी व कारगुज़ारी का नतीजा होती तो किस तरह मुमकिन था कि अनगिनत अलग-अलग तरह की चीज़ों और क़ुव्वतों के दरमियान ऐसा मुकम्मल तवाज़ुन और तनासुब क़ायम होता और लगातार क़ायम रह सकता?
وَأَرۡسَلۡنَا ٱلرِّيَٰحَ لَوَٰقِحَ فَأَنزَلۡنَا مِنَ ٱلسَّمَآءِ مَآءٗ فَأَسۡقَيۡنَٰكُمُوهُ وَمَآ أَنتُمۡ لَهُۥ بِخَٰزِنِينَ ۝ 21
(22) फलदायक हवाओं को हम ही भेजते हैं, फिर आसमान से पानी बरसाते हैं, और उस पानी से तुम्हें सैराब करते हैं। इस दौलत के ख़ज़ानेदार तुम नहीं हो।
وَإِنَّا لَنَحۡنُ نُحۡيِۦ وَنُمِيتُ وَنَحۡنُ ٱلۡوَٰرِثُونَ ۝ 22
(23) ज़िन्दगी और मौत हम देते हैं और हम ही सबके वारिस होनेवाले हैं।15
15. यानी तुम्हारे बाद हम ही बाक़ी रहनेवाले हैं। तुम्हें जो कुछ भी मिला हुआ है सिर्फ़ थोड़े दिनों के इस्तेमाल के लिए मिला हुआ है। आख़िरकार हमारी दी हुई हर चीज़ को यूँही छोड़कर तुम ख़ाली हाथ विदा हो जाओगे और यह सब चीज़ें ज्यों की त्यों हमारे ख़ज़ाने में रह जाएँगी।
وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَقۡدِمِينَ مِنكُمۡ وَلَقَدۡ عَلِمۡنَا ٱلۡمُسۡتَـٔۡخِرِينَ ۝ 23
(24) पहले जो लोग तुममें से हो गुज़रे हैं, उनको भी हमने देख रखा है और बाद के आनेवाले भी हमारी निगाह में हैं।
وَإِنَّ رَبَّكَ هُوَ يَحۡشُرُهُمۡۚ إِنَّهُۥ حَكِيمٌ عَلِيمٞ ۝ 24
(25) यक़ीनन तुम्हारा रब इन सबको इकट्ठा करेगा, वह हिकमतवाला भी है और सब कुछ जाननेवाला भी।16
16. यानी उसकी हिकमत यह माँग करती है कि वह सबको इकट्ठा करे और उसका इल्म सबपर इस तरह हावी है कि कोई जानदार उससे छूट नहीं सकता, बल्कि किसी अगले-पिछले इनसान की मिट्टी का कोई कण भी उससे गुम नहीं हो सकता। इसलिए जो शख़्स आख़िरत की ज़िन्दगी को नामुमकिन समझता है वह ख़ुदा की हिकमत की सिफ़त से अनजान है और जो शख़्स हैरत से पूछता है कि “जब मरने के बाद हमारी धूल का कण-कण बिखर जाएगा तो हम कैसे दोबारा पैदा किए जाएँगे?” वह ख़ुदा के इल्म की सिफ़त को नहीं जानता।
وَلَقَدۡ خَلَقۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 25
(26) हमने इनसान को सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से बनाया।17
17. यहाँ क़ुरआन इस बात को साफ़-साफ़ बयान करता है कि इनसान हैवानी हालतों से तरक़्क़ी करता हुआ इनसानियत की हदों में नहीं आया है, जैसा कि नए दौर के डार्विनवाद से मुतास्सिर क़ुरआन की तफ़सीर करनेवाले साबित करने की कोशिश कर रहे हैं, बल्कि उसकी पैदाइश की शुरुआत सीधे तौर पर ज़मीनी माद्दों (तत्वों) से हुई है जिनकी कैफ़ियत को अल्लाह तआता ने 'सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे' के अलफ़ाज़ में बयान किया है। ‘हमा’ अरबी ज़बान में ऐसी स्याह कीचड़ को कहते हैं जिसके अन्दर बू पैदा हो चुकी हो, या दूसरे लफ़्ज़ों में ख़मीर उठ आया हो। 'मस्नून' के दो मानी हैं। एक मतलब है ऐसी सड़ी हुई मिट्टी जिसमें सड़ने की वजह से चिकनाई पैदा हो गई हो दूसरा मतलब है 'क़ालब' (शक्ल) में ढली हुई जिसको एक ख़ास शक्ल दे दी गई हो। 'सलसाल' उस सूखे गारे को कहते हैं जो सूख जाने के बाद बजने लगे। ये अलफ़ाज़ साफ़ ज़ाहिर करते हैं कि ख़मीर उठी हुई मिट्टी का एक पुतला बनाया गया था जो बनने के बाद सूखा और फिर उसके अन्दर रूह फूँकी गई।
وَٱلۡجَآنَّ خَلَقۡنَٰهُ مِن قَبۡلُ مِن نَّارِ ٱلسَّمُومِ ۝ 26
(27) और उससे पहले जिन्नों को हम आग की लपट से पैदा कर चुके थे।18
18. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ 'समूम' इस्तेमाल हुआ है। ‘समूम' गर्म हवा को कहते हैं, और नार (आग) को समूम से जोड़ देने की हालत में उसका मतलब आग के बजाय तेज़ हरारत (गर्मी) के हो जाता है। इससे उन आयतों की तशरीह हो जाती है जिनमें क़ुरआन मजीद में यह कहा गया है कि जिन्न आग से पैदा किए गए हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-55 अर-रहमान, हाशिए—14 से 16))
وَإِذۡ قَالَ رَبُّكَ لِلۡمَلَٰٓئِكَةِ إِنِّي خَٰلِقُۢ بَشَرٗا مِّن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 27
(28) फिर याद करो उस मौक़े को जब तुम्हारे रब ने फ़रिश्तो से कहा कि '' में सड़ी हुई मिटटी के सूखे गारे से एक बशर (इनसान) पैदा कर रहा हूँ।
فَإِذَا سَوَّيۡتُهُۥ وَنَفَخۡتُ فِيهِ مِن رُّوحِي فَقَعُواْ لَهُۥ سَٰجِدِينَ ۝ 28
(29) जब मैं उसे पूरा बना चुकूँ और उसमें अपनी रूह से कुछ फूँक दूँ19 तो तुम सब उसके आगे सजदे में गिर जाना।”
19. इससे मालूम हुआ कि इनसान के अन्दर जो रूह फूँकी गई है वह अस्ल में अल्लाह की सिफ़ात का एक अक्स (प्रतिछाया) या प्रति (प्रतिबिम्ब) है। ज़िन्दगी, इल्म, क़ुदरत (क्षमता), इरादा, अधिकार और दूसरी जितनी सिफ़ात इनसान में पाई जाती हैं, जिनके मजमूए (संग्रह) ही का नाम रूह है, यह अस्ल में अल्लाह तआला ही की सिफ़ात का एक हल्का-सा परतौ (प्रतिबिम्ब) है जो इस मिट्टी से बने जिस्म पर डाला गया है, और इसी अक्स की वजह से इनसान ज़मीन पर ख़ुदा का ख़लीफ़ा और फ़रिश्तों सहित ज़मीन पर मौजूद तमाम चीज़ों का मसजूद (जिसे सजदा किया जाए) क़रार पाया है। यूँ तो हर वह सिफ़त जो जानदारों में पाई जाती है, वह अल्लाह ही की किसी न किसी सिफ़त से पैदा हुई है। जैसा कि हदीस में आया है कि “अल्लाह तआला ने रहमत को सौ हिस्सों में बाँटा, फिर उनमें से 99 हिस्से अपने पास रखे और सिर्फ़ एक हिस्सा ज़मीन में उतारा। यह उसी एक हिस्से की बरकत है जिसकी वजह से जानदार आपस में एक-दूसरे पर रहम करते हैं। यहाँ तक कि अगर एक जानवर अपने बच्चे पर से अपना खुर उठाता है ताकि उसे नुक़सान न पहुँच जाए, तो यह भी अस्ल में उसी रहमत के हिस्से का असर है।” (बुख़ारी, मुस्लिम) मगर जो चीज़ इनसान को दूसरे जानदारों पर फ़ज़ीलत (बड़ाई) देती है वह यह है कि जिस जामे-तरीक़े के साथ अल्लाह के गुणों का अक्स उसपर डाला गया है उसे किसी दूसरे जानदार पर नहीं डाला गया। इससे कोई दूसरी मख़लूक़ सरफ़राज़ नहीं की गई है। यह एक ऐसी बारीक बात है जिसके समझने में ज़रा-सी ग़लती भी आदमी कर जाए तो इस ग़लत-फ़हमी में पड़ सकता है कि अल्लाह की सिफ़ात में से एक हिस्सा पाना ख़ुदाई का कोई हिस्सा पा-लेने के राबर है। हालाँकि ख़ुदाई इससे बहुत ही परे है कि कोई जानदार उसका जरा-सा हिस्सा भी पा सके।
فَسَجَدَ ٱلۡمَلَٰٓئِكَةُ كُلُّهُمۡ أَجۡمَعُونَ ۝ 29
(30) चुनाँचे तमाम फ़रिश्तों ने सजदा किया,
إِلَّآ إِبۡلِيسَ أَبَىٰٓ أَن يَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 30
(31) सिवाय इबलीस के कि उसने सजदा करनेवालों का साथ देने से इनकार कर दिया।20
20. तक़ाबुल (तुलना) के लिए सूरा-2 बक़रा, आयत-30; सूरा-4 निसा, आयत-116 और सूरा-7 आराफ़, आयत-11 सामने रहें। इसके साथ ही हमारे उन हाशियों पर भी एक निगाह डाल ली जाए जो उन जगहों पर लिखे गए हैं।
قَالَ يَٰٓإِبۡلِيسُ مَا لَكَ أَلَّا تَكُونَ مَعَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 31
(32) रब ने पूछा, “ऐ इबलीस! तुझे क्या हुआ कि तूने सजदा करनेवालों का साथ न दिया?”
قَالَ لَمۡ أَكُن لِّأَسۡجُدَ لِبَشَرٍ خَلَقۡتَهُۥ مِن صَلۡصَٰلٖ مِّنۡ حَمَإٖ مَّسۡنُونٖ ۝ 32
(33) उसने कहा, “मेरा यह काम नहीं है कि मैं इस इनसान को सजदा करूँ जिसे तूने सड़ी हुई मिट्टी के सूखे गारे से पैदा किया है।”
قَالَ فَٱخۡرُجۡ مِنۡهَا فَإِنَّكَ رَجِيمٞ ۝ 33
(34) रब ने फ़रमाया, “अच्छा, तू निकल जा यहाँ से; क्योंकि तू मरदूद (फिटकारा हुआ) है,
وَإِنَّ عَلَيۡكَ ٱللَّعۡنَةَ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلدِّينِ ۝ 34
(35) और अब बदले के दिन तक तुझपर फिटकार है।”21
21. यानी क़ियामत तक तू फिटकारा हुआ ही रहेगा, इसके बाद जब बदले का दिन क़ायम होगा तो फिर तुझे तेरी नाफ़रमानियों की सज़ा दी जाएगी।
قَالَ رَبِّ فَأَنظِرۡنِيٓ إِلَىٰ يَوۡمِ يُبۡعَثُونَ ۝ 35
(36) उसने कहा, “मेरे रब! यह बात है तो फिर मुझे उस दिन तक के लिए मुहलत दे, जबकि सब इनसान दोबारा उठाए जाएँगे।”
قَالَ فَإِنَّكَ مِنَ ٱلۡمُنظَرِينَ ۝ 36
(37) फ़रमाया, “अच्छा, तुझे मुहलत है
إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡوَقۡتِ ٱلۡمَعۡلُومِ ۝ 37
(38) उस दिन तक जिसका वक़्त हमें मालूम है।”
قَالَ رَبِّ بِمَآ أَغۡوَيۡتَنِي لَأُزَيِّنَنَّ لَهُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَأُغۡوِيَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 38
(39) वह बोला, “मेरे रब! जैसा तूने मुझे बहकाया उसी तरह अब मैं ज़मीन में इनके लिए दिलफ़रेबियाँ पैदा करके इन सबको बहका दूँगा22, सिवाय तेरे बन्दों के जिन्हें तूने इनमें से खालिस कर लिया हो।”
22. यानी जिस तरह तूने इस मामूली और कमतर मखलूक को सजदा करने का हुक्म देकर मुझे मजबूर कर दिया कि तेरा हुक्म न मानूँ, उसी तरह अब मैं इन इनसानों के लिए दुनिया को ऐसा लुभावना बना दूँगा कि ये सब उससे धोखा खाकर तेरे नाफ़रमान बन जाएँगे। दूसरे अलफ़ाज़ में इब्लीस का मतलब यह था कि मैं ज़मीन की ज़िन्दगी और उसकी लज्ज़तों और उसके थोड़े दिनों के फ़ायदों को इनसान के लिए ऐसा ख़ुशनुमा बना दूँगा कि वे ख़िलाफ़त और उसकी ज़िम्मेदारियों और आख़िरत की पूछ-गछ को भूल जाएँगे और ख़ुद तुझे भी या तो भुला देंगे या तुझे याद रखने के बावजूद तेरे हुक्मों के ख़िलाफ़ चलेंगे।
إِلَّا عِبَادَكَ مِنۡهُمُ ٱلۡمُخۡلَصِينَ ۝ 39
(40) सिवाय तेरे बन्दों के जिन्हें तूने इनमें से ख़ालिस कर लिया हो।”
قَالَ هَٰذَا صِرَٰطٌ عَلَيَّ مُسۡتَقِيمٌ ۝ 40
(41) फ़रमाया, “यह रास्ता है जो सीधा मुझ तक पहुँचता है।23
23. अस्ल अरबी में 'हाज़ा सिरातुन अलय-य मुस्तक़ीम' के अल्फ़ाज़ आए हैं। इनके दो मतलब हो सकते हैं। एक मतलब वह है जो हमने तर्जमे में बयान किया है और दूसरा मतलब यह है कि ''यह ठीक है, में भी इसका पाबंद रहूँगा।''
إِنَّ عِبَادِي لَيۡسَ لَكَ عَلَيۡهِمۡ سُلۡطَٰنٌ إِلَّا مَنِ ٱتَّبَعَكَ مِنَ ٱلۡغَاوِينَ ۝ 41
(42) बेशक, मेरे जो सच्चे बन्दे हैं उनपर तेरा बस न चलेगा। तेरा बस तो सिर्फ़ उन बहके हुए लोगों ही पर चलेगा जो तेरी पैरवी करें24
24. इस जुमले के भी दो मतलब हो सकते हैं। एक वह जो तर्जमे में अपनाया गया है। और दूसरा मतलब यह कि मेरे बन्दों (यानी आम इनसानों) पर तुझे कोई ताक़त हासिल न होगी कि तू उन्हें ज़बरदस्ती नाफ़रमान बना दे, अलबत्ता जो ख़ुद ही बहके हुए हों और आप ही तेरी पैरवी करना चाहें उन्हें तेरी राह पर जाने के लिए छोड़ दिया जाएगा, उन्हें हम ज़बरदस्ती इससे रोके रखने की कोशिश न करेंगे। पहले मतलब के लिहाज़ से बात का ख़ुलासा यह होगा कि बन्दगी का तरीक़ा अल्लाह तक पहुँचने का सीधा रास्ता है, जो लोग इस रास्ते को अपनाएँगे उनपर शैतान का बस न चलेगा, उन्हें अल्लाह अपने लिए ख़ालिस कर लेगा और शैतान ख़ुद भी इसे मानता है कि वे उसके फंदे में न फँसेंगे। अलबत्ता जो लोग ख़ुद बन्दगी से मुँह मोड़कर अपनी कामयाबी और ख़ुशनसीबी की राह गुम कर देंगे वे इब्लीस के हत्थे चढ़ जाएँगे और फिर जिधर-जिधर वह उन्हें धोखा देकर ले जाना चाहेगा, वे उसके पीछे भटकते और दूर से दूर निकलते चले जाएँगे। दूसरे मतलब के लिहाज़ से इस बयान का ख़ुलासा यह होगा कि शैतान ने इनसानों को बहकाने के लिए अपना तरीक़ा यह बयान किया कि वह ज़मीन की ज़िन्दगी को उनके लिए ख़ुशनुमा बनाकर उन्हें ख़ुदा से ग़ाफ़िल और बन्दगी की राह से मोड़ेगा। अल्लाह तअला ने उसकी यह बात मानते हुए फ़रमाया कि यह शर्त मैंने मानी, और इसको और ज़्यादा वाज़ेह करते हुए यह बात भी साफ़ कर दी कि तुझे सिर्फ़ धोखा देने का अधिकार दिया जा रहा है, यह अधिकार नहीं दिया जा रहा कि तू हाथ पकड़कर उन्हें ज़बरदस्ती अपनी राह पर खींच ले जाए। शैतान ने अपने नोटिस से उन बन्दों को अलग रखा जिन्हें अल्लाह अपने लिए ख़ालिस कर ले। ग़लतफ़हमी पैदा हो रही थी कि शायद अल्लाह तआला बिना किसी मुनासिब वजह के यूँही जिसको चाहेगा ख़ालिस कर लेगा और वह शैतान की पहुँच से बच जाएगा। अल्लाह तआला ने यह कहकर बात साफ़ कर दी कि जो ख़ुद बहका हुआ होगा वही तेरी पैरवी करेगा। दूसरे अलफ़ाज़ में जो बहका हुआ न होगा वह तेरी पैरवी न करेगा और वही हमारा वह ख़ास बन्दा होगा जिसे हम ख़ास अपना कर लेंगे।
25. इस जगह यह क़िस्सा जिस ग़रज़ के लिए बयान किया गया है उसे समझने के लिए ज़रूरी है कि मौक़ा-महल (सन्दर्भ) को साफ़ तौर पर ज़ेहन में रखा जाए। पहले और दूसरे रुकू (आयत-25 तक) के मज़मून पर ग़ौर करने से यह बात साफ़ समझ में आ जाती है कि बयान के इस सिलसिले में आदम व इबलीस का यह क़िस्सा बयान करने का मक़सद इस्लाम दुश्मनों को इस हक़ीक़त पर ख़बरदार करना है कि तुम अपने पैदाइशी दुश्मन, शैतान के फंदे में फँस गए हो और उस पस्ती (पतन) में गिरे चले जा रहे हो जिसमें वह अपनी हसद और जलन की वजह से तुम्हें गिराना चाहता है। इसके बरख़िलाफ़ यह नबी तुम्हें उस फंदे से निकालकर उस बुलन्दी की तरफ़ ले जाने की कोशिश कर रहा है जो अस्ल में इनसान होने की हैसियत से तुम्हारा फ़ितरी मक़ाम है। लेकिन तुम अजीब बेवक़ूफ़ लोग हो कि अपने दुश्मन को दोस्त और अपने ख़ैर-ख़ाह को दुश्मन समझ रहे हो। इसके साथ यह हक़ीक़त भी इसी क़िस्से से उनपर वाज़ेह की गई है कि तुम्हारे लिए नजात का रास्ता सिर्फ़ एक है, और वह अल्लाह की बन्दगी है। इस रास्ते को छोड़कर तुम जिस राह पर भी जाओगे वह शैतान की राह है जो सीधी जहन्नम की तरफ़ जाती है। तीसरी बात जो इस क़िस्से के ज़रिए से उनको समझाई गई है, यह है कि अपनी इस ग़लती के ज़िम्मेदार तुम ख़ुद हो। शैतान का कोई काम इससे ज़्यादा नहीं है कि वह दुनियावी ज़िन्दगी की ज़ाहिरी बातों से तुमको धोखा देकर तुम्हें बन्दगी की राह से फेरने की कोशिश करता है। इससे धोखा खाना तुम्हारा अपना काम है जिसकी कोई ज़िम्मेदारी तुम्हारे अपने सिवा किसी और पर नहीं है। (इसकी और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें; सूरा-14 इबराहीम, आयत-22 और हाशिया-31)
وَإِنَّ جَهَنَّمَ لَمَوۡعِدُهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 42
(43) और उन सबके लिए जहन्नम की धमकी है।“25
لَهَا سَبۡعَةُ أَبۡوَٰبٖ لِّكُلِّ بَابٖ مِّنۡهُمۡ جُزۡءٞ مَّقۡسُومٌ ۝ 43
(44) यह जहन्नम (जिससे इबलीस की पैरवी करनेवालों को डराया गया है) इसके सात दरवाज़े हैं। हर दरवाज़े के लिए उनमें से एक हिस्सा ख़ास कर दिया गया है।26
26. जहन्नम के ये दरवाज़े उन गुमराहियों और गुनाहों के लिहाज़ से हैं जिनपर चलकर आदमी अपने लिए दोज़ख़ की राह खोलता है। जैसे कोई नास्तिकता के रास्ते से दोज़ख़ की तरफ़ जाता है, कोई शिर्क के रास्ते से, कोई निफ़ाक़ (कपटाचार) के रास्ते से, कोई नफ़्स-परस्ती (मनमानी करने) और बदकारियों और बुराइयों के रास्ते से, कोई ज़ुल्मो-सितम और लोगों को सताने के रास्ते से, कोई गुमराही को फैलाने और बेदीनी क़ायम करने के रास्ते से और कोई बेहयाई और बुराई फैलाने के रास्ते से।
إِنَّ ٱلۡمُتَّقِينَ فِي جَنَّٰتٖ وَعُيُونٍ ۝ 44
(45) इसके बरख़िलाफ़ मुत्तक़ी (परहेज़गार) लोग27 बाग़ों और चश्मों में होंगे
27. यानी वे लोग जो शैतान की पैरवी से बचे रहे हों और जिन्होंने अल्लाह से डरते हुए उसका बन्दा बनकर ज़िन्दगी गुज़ारी हो।
ٱدۡخُلُوهَا بِسَلَٰمٍ ءَامِنِينَ ۝ 45
(46) और उनसे कहा जाएगा कि दाख़िल हो जाओ इनमें सलामती के साथ, बिना किसी डर और ख़तरे के।
وَنَزَعۡنَا مَا فِي صُدُورِهِم مِّنۡ غِلٍّ إِخۡوَٰنًا عَلَىٰ سُرُرٖ مُّتَقَٰبِلِينَ ۝ 46
(47) उनके दिलों में जो थोड़ी-बहुत खोट-कपट होगी, उसे हम निकाल देंगे।28 वे आपस में भाई-भाई बनकर आमने-सामने तख़्तों पर बैठेंगे।
28. यानी नेक लोगों के दरमियान आपस की ग़लतफ़हमियों की बुनियाद पर दुनिया में अगर कुछ मनमुटाव पैदा हो गया होगा तो जन्नत में दाख़िल होने के वक़्त उसे दूर कर दिया जाएगा और उनके दिल एक-दूसरे की तरफ़ से बिलकुल साफ़ कर दिए जाएँगे। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-7, आराफ़, हाशिया-32)
لَا يَمَسُّهُمۡ فِيهَا نَصَبٞ وَمَا هُم مِّنۡهَا بِمُخۡرَجِينَ ۝ 47
(48) उन्हें न वहाँ किसी मशक़्क़त से पाला पड़ेगा और न वे वहाँ से निकाले जाएँगे।29
29. इसकी तशरीह उस हदीस से होती है जिसमें नबी (सल्ल०) ने ख़बर दी है कि “जन्नतवालों से कह दिया जाएगा कि अब तुम हमेशा तन्दुरुस्त रहोगे, कभी बीमार न पड़ोगे और अब तुम हमेशा ज़िन्दा रहोगे, कभी मौत तुमको न आएगी और अब तुम हमेशा जवान रहोगे, कभी बुढ़ापा तुमपर न आएगा और अब तुम हमेशा वहीं रहोगे, कभी कूच करने की तुम्हें ज़रूरत न होगी।” इसकी और ज़्यादा तशरीह उन आयतों व हदीसों से होती है जिनमें बताया गया है कि जन्नत में इनसान को अपनी रोज़ी और अपनी ज़रूरतें पूरी करने के लिए कोई मेहनत न करनी पड़ेगी, सब उसे बिना मेहनत व कोशिश मिलेगा।
۞نَبِّئۡ عِبَادِيٓ أَنِّيٓ أَنَا ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 48
(49) ऐ नबी! मेरे बन्दों को ख़बर दे दो कि मैं बहुत माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला हूँ,
وَأَنَّ عَذَابِي هُوَ ٱلۡعَذَابُ ٱلۡأَلِيمُ ۝ 49
(50) मगर इसके साथ मेरा अज़ाब भी बड़ा दर्दनाक अज़ाब है।
وَنَبِّئۡهُمۡ عَن ضَيۡفِ إِبۡرَٰهِيمَ ۝ 50
(51) और इन्हें ज़रा इबराहीम के मेहमानों का क़िस्सा सुनाओ।30
30. यहाँ हज़रत इबराहीम (अलैहि०) और उनके बाद फ़ौरन ही लूत (अलैहि०) की क़ौम का क़िस्सा जिस मक़सद के लिए सुनाया जा रहा है उसको समझने के लिए इस सूरा की शुरू की आयतों को निगाह में रखना ज़रूरी है। आयत नं. 7-8 में मक्का के इस्लाम दुश्मनों की यह बात नक़्ल की गई है कि वे नबी (सल्ल०) से कहते थे कि “अगर तुम सच्चे नबी हो तो हमारे सामने फ़रिशतों को ले क्यों नहीं आते?” इसका मुख़्तसर जवाब वहाँ सिर्फ़ इस क़द्र देकर छोड़ दिया गया था कि “फ़रिश्तों को हम यूँ ही नहीं उतार दिया करते, उन्हें तो हम जब भेजते हैं हक़ के साथ ही भेजते हैं।” अब उसका तफ़सील से जवाब यहाँ इन दोनों क़िस्सों के अन्दाज़ में दिया जा रहा है। यहाँ उन्हें बताया जा रहा कि एक 'हक़' तो वह है जिसे लेकर फ़रिश्ते इबराहीम (अलैहि०) के पास आए थे, और दूसरा हक़ वह है जिसे लेकर वे लूत (अलैहि०) की क़ौम के पास पहुँचे थे। अब तुम ख़ुद देख लो कि तुम्हारे पास इनमें से कौन-सा हक़ लेकर फ़रिश्ते आ सकते हैं। इबराहीमवाले हक़ के लायक़ तो ज़ाहिर है कि तुम नहीं हो। अब क्या उस हक़ के साथ फ़रिश्तों को बुलवाना चाहते हो जिसे लेकर वे लूत (अलैहि०) की क़ौम में उतरे थे?
إِذۡ دَخَلُواْ عَلَيۡهِ فَقَالُواْ سَلَٰمٗا قَالَ إِنَّا مِنكُمۡ وَجِلُونَ ۝ 51
(52) जब वे उसके यहाँ आए और कहा, “सलाम हो तुमपर” तो उसने कहा, “हमें तुमसे डर लगता है।"31
31. तुलना के लिए देखें— सूरा-11 हूद, आयत-69 से 83, हाशियों सहित।
قَالُواْ لَا تَوۡجَلۡ إِنَّا نُبَشِّرُكَ بِغُلَٰمٍ عَلِيمٖ ۝ 52
(53) उन्होंने जवाब दिया, “डरो नहीं, हम तुम्हें एक बड़े सयाने लड़के की ख़ुशख़बरी देते हैं।"32
32. यानी हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) के पैदा होने की ख़ुशख़बरी, जैसा कि सूरा-11 हूद में वाज़ेह तौर पर बयान हुआ है।
قَالَ أَبَشَّرۡتُمُونِي عَلَىٰٓ أَن مَّسَّنِيَ ٱلۡكِبَرُ فَبِمَ تُبَشِّرُونَ ۝ 53
(54) इबराहीम ने कहा, “क्या तुम इस बुढ़ापे में मुझे औलाद की ख़ुशख़बरी देते हो? ज़रा सोचो तो सही कि यह कैसी ख़ुशख़बरी तुम मुझे दे रहे हो?”
قَالُواْ بَشَّرۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ فَلَا تَكُن مِّنَ ٱلۡقَٰنِطِينَ ۝ 54
(55) उन्होंने जवाब दिया, “हम तुम्हें सच्ची ख़ुशख़बरी दे रहे हैं, तुम मायूस न हो।"
قَالَ وَمَن يَقۡنَطُ مِن رَّحۡمَةِ رَبِّهِۦٓ إِلَّا ٱلضَّآلُّونَ ۝ 55
(56) इबराहीम ने कहा, “अपने रब की रहमत से मायूस तो गुमराह लोग ही हुआ करते हैं।”
قَالَ فَمَا خَطۡبُكُمۡ أَيُّهَا ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 56
(57) फिर इबराहीम ने पूछा, “ऐ अल्लाह के भेजे हुए लोगो! वह मुहिम क्या है जिसपर आप लोग तशरीफ़ लाए हैं?"33
33. हज़रत इबराहीम (अलैहि०) के इस सवाल से साफ़ ज़ाहिर होता है कि फ़रिश्तों का इनसानी शक्ल में आना हमेशा ग़ैर-मामूली हालात ही में हुआ करता है और कोई बड़ी मुहिम ही होती है जिसपर वे भेजे जाते हैं।
لَعَمۡرُكَ إِنَّهُمۡ لَفِي سَكۡرَتِهِمۡ يَعۡمَهُونَ ۝ 57
(72) तेरी जान की क़सम ऐ नबी! उस वक़्त उनपर एक नशा-सा चढ़ा हुआ था जिसमें वे आपे से बाहर हुए जाते थे।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُشۡرِقِينَ ۝ 58
(73) आख़िरकार पौ फटते ही उनको एक ज़बरदस्त धमाके ने आ लिया
فَجَعَلۡنَا عَٰلِيَهَا سَافِلَهَا وَأَمۡطَرۡنَا عَلَيۡهِمۡ حِجَارَةٗ مِّن سِجِّيلٍ ۝ 59
(74) और हमने उस बस्ती को तलपट करके रख दिया और उनपर पकी हुई मिट्टी के पत्थरों की बारिश बरसा दी।41
41. ये पकी हुई मिट्टी के पत्थर हो सकते हैं कि शिहाबे-साक़िब की तरह के हों, और यह भी सकता है कि ज्वालामुखी फटने (Volcanic eruption) की वजह से ज़मीन से निकलकर उड़े हों और फिर उनपर बारिश की तरह बरस गए हों और यह भी हो सकता हैं कि एक तेज़ आँधी ने यह पथराव किया हो।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡمُتَوَسِّمِينَ ۝ 60
(75) इस वाक़िए में बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सूझ-बूझवाले हैं।
وَإِنَّهَا لَبِسَبِيلٖ مُّقِيمٍ ۝ 61
(76) और वह इलाक़ा (जहाँ यह वाक़िआ पेश आया था) आम रास्ते पर वाक़े स्थित है।42
42. यानी हिजाज़ से शाम (सीरिया) और इराक़ से मिस्र जाते हुए यह तबाह हो चुका इलाक़ा रास्ते में पड़ता है और आमतौर से क़ाफ़िलों के लोग तबाही की उन निशानियों को देखते हैं जो इस पूरे इलाक़े में आज तक नुमायाँ है। यह इलाक़ा बहरे-लूत (मृतसागर) (Dead Sea) के पूर्व और दक्षिण में पाया जाता है और ख़ास तौर से इसके दक्षिणी हिस्से के बारे में भूगोल के जानकारों का बयान है कि यहाँ इतनी ज़्यादा वीरानी पाई जाती है जिसकी मिसाल ज़मीन पर कहीं और नहीं देखी गई।
إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَةٗ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 62
(77) उसमें सबक़ लेने का सामान है उन लोगों के लिए जो ईमानवाले हैं।
وَإِن كَانَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡأَيۡكَةِ لَظَٰلِمِينَ ۝ 63
(78) और ऐकावाले43 ज़ालिम थे,
43. यानी हज़रत शुऐब (अलैहि०) की क़ौम के लोग। इस क़ौम का नाम बनी-मदयान था। मदयन उनके केन्द्रीय नगर को भी कहते थे और उनके पूरे इलाक़े को भी। रहा ऐका, तो यह तबूक का पुराना नाम था। इस लफ़्ज़ के मानी 'घना जंगल' के हैं। आजकल ऐका एक पहाड़ी नाले का नाम है जो 'जबलुल्लौज़' नामी पहाड़ से 'अफ़ल' नामी वादी में आकर गिरता है। (तशरीह के लिए देखें— सूरा-26 अश-शुअरा, हाशिया-115)
44. मदयन और ऐकावालों का इलाक़ा भी हिजाज़ से फ़िलस्तीन व शाम (सीरिया) जाते हुए रास्ते में पड़ता है।
فَٱنتَقَمۡنَا مِنۡهُمۡ وَإِنَّهُمَا لَبِإِمَامٖ مُّبِينٖ ۝ 64
(79) तो देख लो कि हमने भी उनसे इन्तिक़ाम लिया है, और इन दोनों क़ौमों के उजड़े हुए इलाक़े खुले रास्ते पर वाक़े हैं।44
وَلَقَدۡ كَذَّبَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡحِجۡرِ ٱلۡمُرۡسَلِينَ ۝ 65
(80) हिज्र45 के लोग भी रसूलों को झुठला चुके हैं।
45. यह समूद की क़ौम का केन्द्रीय नगर था। इसके खण्डहर मदीना के उत्तर-पश्चिम में मौजूदा 'अल-उला' नामी शहर से कुछ मील के फ़ासले पर हैं। मदीना से तबूक जाते हुए यह मक़ाम आम रास्ते पर मिलता है और क़ाफ़िले इस घाटी में से होकर गुज़रते हैं, मगर नबी (सल्ल०) की हिदायत के मुताबिक़ कोई यहाँ ठहरता नहीं है। आठवीं सदी हिजरी में इब्ने-बतूता हज को जाते हुए यहाँ पहुँचा था। वह लिखता है कि “यहाँ लाल रंग के पहाड़ों में समूद की क़ौम की इमारतें मौजूद हैं जो उन्होंने चट्टानों को तराश-तराशकर उनके अन्दर बनाई थीं। उनके बेल-बूटे इस वक़्त तक ऐसे ताज़ा हैं जैसे आज बनाए गए हों। उन मकानों में अब भी सड़ी-गली इनसानी हड्डियाँ पड़ी हुई मिलती हैं।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-7 आराफ़, हाशिया-57)
وَءَاتَيۡنَٰهُمۡ ءَايَٰتِنَا فَكَانُواْ عَنۡهَا مُعۡرِضِينَ ۝ 66
(81) हमने अपनी आयतें उनके पास भेजीं, अपनी निशानियाँ उनको दिखाईं, मगर वे सबको नज़र-अंदाज़ ही करते रहे।
وَكَانُواْ يَنۡحِتُونَ مِنَ ٱلۡجِبَالِ بُيُوتًا ءَامِنِينَ ۝ 67
(82) वे पहाड़ काट-काटकर मकान बनाते थे और अपनी जगह बिलकुल बेख़ौफ़ और मुत्मइन थे।
فَأَخَذَتۡهُمُ ٱلصَّيۡحَةُ مُصۡبِحِينَ ۝ 68
(83) आख़िरकार एक ज़बरदस्त धमाके ने उनको सुबह होते आ लिया
فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُم مَّا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 69
(84) और उनकी कमाई उनके कुछ काम न आई।46
46. यानी उनके वे पत्थर के घर जो उन्होंने पहाड़ों को तराश-तराशकर उनके अन्दर बनाए थे उनकी कुछ भी हिफ़ाज़त न कर सके।
وَمَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّۗ وَإِنَّ ٱلسَّاعَةَ لَأٓتِيَةٞۖ فَٱصۡفَحِ ٱلصَّفۡحَ ٱلۡجَمِيلَ ۝ 70
(85) हमने ज़मीन और आसमानों को और उनकी सब मौजूद चीज़ों को हक़ के सिवा किसी और बुनियाद पर पैदा नहीं किया है,47 और फ़ैसले की घड़ी यक़ीनन आनेवाली है। तो ऐ नबी! तुम (इन लोगों की बदतमीज़ियों पर) शरीफ़ों की तरह माफ़ी से काम लो।
47. यह बात नबी (सल्ल०) को सुकून व तसल्ली देने के लिए कही जा रही है। मतलब यह है कि इस वक़्त बज़ाहिर बातिल (असत्य) का जो ग़लबा तुम देख रहे हो और हक़ के रास्ते में जिन मुश्किलों और मुसीबतों का तुम्हें सामना करना पड़ रहा है, उससे घबराओ नहीं। यह एक थोड़े दिनों तक रहनेवाली कैफ़ियत है, लगातार और हमेशा रहनेवाली हालत नहीं है। इसलिए कि ज़मीन व आसमान का यह पूरा निज़ाम हक़ पर बना है, न कि बातिल पर। कायनात की फ़ितरत हक़ के साथ मेल खाती है, न कि बातिल के साथ। लिहाज़ा यहाँ अगर क़ायम और बाक़ी रहनेवाला है तो वह हक़ है, न कि बातिल। और ज़्यादा तशरीह के लिए देखें— सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—25, 26 और 35 से 39)
إِنَّ رَبَّكَ هُوَ ٱلۡخَلَّٰقُ ٱلۡعَلِيمُ ۝ 71
(86) यक़ीनन तुम्हारा रब सबका पैदा करनेवाला है और सब कुछ जानता है।48
48. यानी पैदा करनेवाला होने की हैसियत से वह अपने पैदा किए हुओं पर पूरा ग़लबा और क़ब्ज़ा रखता है, किसी जानदार की यह ताक़त नहीं है कि उसकी पकड़ से बच सके और इसके साथ वह पूरी तरह बाख़बर भी है, जो कुछ इन लोगों के सुधार के लिए तुम कर रहे हो उसे भी वह जानता है और जिन हथकंडों से ये तुम्हारे सुधार की कोशिश को नाकाम करने की कोशिश कर रहे हैं उनको भी वह जानता है। लिहाज़ा तुम्हें घबराने और बेसब्र होने की कोई ज़रूरत नहीं। मुत्मइन रहो कि वक़्त आने पर ठीक-ठीक इनसाफ़ के मुताबिक़ फ़ैसला चुका दिया जाएगा।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَٰكَ سَبۡعٗا مِّنَ ٱلۡمَثَانِي وَٱلۡقُرۡءَانَ ٱلۡعَظِيمَ ۝ 72
(87) हमने तुमको सात ऐसी आयतें दे रखी हैं जो बार-बार दोहराई जाने के लायक़ हैं,49 और तुम्हें अज़ीम क़ुरआन दिया है।50
49. यानी सूरा-1 फ़ातिहा की आयतें। अगरचे कुछ लोगों ने इससे मुराद वे सात बड़ी-बड़ी सूरतें भी ली हैं जिनमें दो-दो सौ आयतें हैं, यानी सूरा-2 बक़रा; सूरा-3 आले-इमरान; सूरा-4 निसा; सूरा-5 माइदा; सूरा-6 अनआम; सूरा-7 आराफ़ और सूरा-10 यूनुस या सूरा-8 अनफ़ाल व सूरा-9 तौबा। लेकिन गुज़रे हुए बड़े आलिमों में से ज़्यादा तर इसपर एक राय हैं कि इससे सूरा फ़ातिहा ही मुराद है, बल्कि इमाम बुख़ारी ने दो मर्फ़ू रिवायतें भी इस बात के सुबूत में पेश की हैं कि ख़ुद नबी (सल्ल०) ने 'सबअम-मिनल-मसानी' (बार-बार दोहराई जानेवाली सात आयतों) से मुराद सूरा फ़ातिहा बताई है।
50. यह बात भी नबी (सल्ल०) और आपके साथियों की तस्कीन व तसल्ली के लिए कही गई है। वक़्त वह था जब नबी (सल्ल०) और आपके साथी सब के सब बहुत ही तंगहाली में मुब्तला थे। नुबूवत के काम की भारी ज़िम्मेदारियाँ संभालते ही नबी (सल्ल०) की तिजारत लगभग ख़त्म हो चुकी थी और हज़रत ख़दीज़ा (रज़ि०) की पूँजी भी दस-बारह साल के अर्से में ख़र्च हो चुकी थी। मुसलमानों में से कुछ कमसिन नौजवान थे जो घरों से निकाल दिए गए थे, कुछ कारीगर या कारोबारी थे जिनके कारोबार इस वजह से बिलकुल ठप हो गए थे, क्योंकि उनसे किसी तरह का लेन-देन बिल्कुल बंद कर दिया गया था और कुछ बेचारे पहले ही ग़ुलाम या नौकर-चाकर थे जिनकी कोई माली हैसियत न थी। इसके साथ यह बात भी थी कि नबी (सल्ल०) समेत तमाम मुसलमान मक्का और उसके आसपास की बस्तियों में बहुत ही मज़लूमी की ज़िन्दगी गुज़ार रहे थे। हर तरफ़ से ताने सुन रहे थे, हर जगह से रुस्वाई, नफ़रत और मज़ाक़ का निशाना बने हुए थे, और दिली व रूहानी तकलीफ़ों के साथ जिस्मानी तकलीफ़ों से भी कोई बचा हुआ न था। दूसरी तरफ़ क़ुरैश के सरदार दुनिया की नेमतों से मालामाल और हर तरह की ख़ुशहालियों में मगन थे। इन हालात में कहा जा रहा है कि तुम मायूस क्यों होते हो, तुमको तो हमने वह दौलत दी है जिसके मुक़ाबले में दुनिया की सारी नेमतें बेकार है। रश्क के क़ाबिल तुम्हारी यह इल्मी व अख़लाक़ी दौलत है, न कि उन लोगों की दुनियावी दौलत जो तरह-तरह के हराम तरीक़ों से कमा रहे हैं और तरह-तरह के हराम रास्तों में इस कमाई को उड़ा रहे हैं और आख़िरकार बिलकुल कंगाल होकर अपने रब के सामने हाज़िर होनेवाले हैं।
لَا تَمُدَّنَّ عَيۡنَيۡكَ إِلَىٰ مَا مَتَّعۡنَا بِهِۦٓ أَزۡوَٰجٗا مِّنۡهُمۡ وَلَا تَحۡزَنۡ عَلَيۡهِمۡ وَٱخۡفِضۡ جَنَاحَكَ لِلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 73
(88) तुम उस दुनिया के सामान की तरफ़ आँख उठाकर न देखो जो हमने इनमें से अलग-अलग तरह के लोगों को दे रखा है, और न इनके हाल पर अपना दिल कुढ़ाओ।51 इन्हें छोड़कर ईमान लानेवालों की तरफ़ झुको
51. यानी उनके इस हाल पर न कुढ़ो कि अपने खैर-ख़ाह को अपना दुश्मन समझ रहे हैं, अपनी गुमारहियों और अख़लाक़ी ख़राबियों को अपनी ख़ूबियाँ समझे बैठे हैं, ख़ुद उस रास्ते पर जा रहे हैं और अपनी सारी क़ौम को उसपर लिए जा रहे हैं जिसका यक़ीनी अंजाम तबाही है, और जो शख़्स इन्हें सलामती की राह दिखा रहा है उसकी सुधार की कोशिश को नाकाम बनाने के लिए एड़ी-चोटी का सारा ज़ोर लगाए डालते हैं।
وَقُلۡ إِنِّيٓ أَنَا ٱلنَّذِيرُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 74
(89) और (न माननेवालों से) कह दो कि मैं तो साफ़-साफ़ ख़बरदार करनेवाला हूँ।
كَمَآ أَنزَلۡنَا عَلَى ٱلۡمُقۡتَسِمِينَ ۝ 75
(90) यह उसी तरह की तंबीह है जैसी हमने उन फूट डालनेवालों की तरफ़ भेजी थी
ٱلَّذِينَ جَعَلُواْ ٱلۡقُرۡءَانَ عِضِينَ ۝ 76
(91) जिन्होंने अपने क़ुरआन टुकड़े-टुकड़े कर डाला है।52
52. इस गरोह से मुराद यहूदी हैं। उनको ‘मुक़्तसिमीन’ (फूट डालनेवाले) इस अर्थ में कहा गया है कि उन्होंने दीन (धम) को टुकड़े-टुकड़े कर डाला। उसकी कुछ बातों को माना, और कुछ को न माना, और इसमें तरह-तरह की कमी-बेशी करके बीसियों फ़िरके (सम्प्रदाय) बना लिए। उनके ‘क़ुरआन’ से मुराद तौरात है जो उनको उसी तरह दी गई थी जिस तरह उम्मते-मुहम्मदिया को क़ुरआन दिया गया है और इस ‘क़ुरआन’ को टुकड़े-टुकड़े कर डालने से मुराद वही काम है जिसे सूरा-2, अल-बक़रा, आयत-85 में यूँ बयान किया गया है कि “क्या तुम अल्लाह की किताब की कुछ बातों पर ईमान लाते हो और कुछ से इनकार करते हो?” फिर यह जो फ़रमाया कि यह तम्बीह (चेतावनी) जो आज तुमको दी जा रही है यह वैसी ही चेतावनी है जैसी तुमसे पहले यहूदियों को दी जा चुकी है तो इसका मक़सद अस्ल में यहूदियों के हाल से सबक़ देना है। मतलब यह है कि यहूदियों ने ख़ुदा की भेजी हुई चेतावनियों से लापरवाही बरतकर जो अंजाम देखा है वह तुम्हारी आँखों के सामने है। अब सोच लो, क्या तुम भी यही अंजाम देखना चाहते हो?
فَوَرَبِّكَ لَنَسۡـَٔلَنَّهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 77
(92) तो क़सम है तेरे रब की, हम ज़रूर इन सबसे पूछेगे
عَمَّا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 78
(93) कि तुम क्या करते रहे हो?
فَٱصۡدَعۡ بِمَا تُؤۡمَرُ وَأَعۡرِضۡ عَنِ ٱلۡمُشۡرِكِينَ ۝ 79
(94) तो ऐ नबी! जिस चीज़ का तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है, उसे हाँके-पुकार कह दो और शिर्क करनेवालों की ज़रा परवाह न करो।
إِنَّا كَفَيۡنَٰكَ ٱلۡمُسۡتَهۡزِءِينَ ۝ 80
(95) तुम्हारी तरफ़ से हम मज़ाक़ उड़ानेवालों की ख़बर लेने के लिए काफ़ी हैं
ٱلَّذِينَ يَجۡعَلُونَ مَعَ ٱللَّهِ إِلَٰهًا ءَاخَرَۚ فَسَوۡفَ يَعۡلَمُونَ ۝ 81
(96) जो अल्लाह के साथ किसी और को भी ख़ुदा क़रार देते हैं, बहुत जल्द उन्हें मालूम हो जाएगा।
وَلَقَدۡ نَعۡلَمُ أَنَّكَ يَضِيقُ صَدۡرُكَ بِمَا يَقُولُونَ ۝ 82
(97) हमें मालूम है कि जो बातें ये लोग तुमपर बनाते हैं, उनसे तुम्हारे दिल को बड़ी कुढ़न होती है।
فَسَبِّحۡ بِحَمۡدِ رَبِّكَ وَكُن مِّنَ ٱلسَّٰجِدِينَ ۝ 83
(98) (इसका इलाज यह है कि) अपने रब की हम्द (बड़ाई) के साथ उसकी तस्बीह (महिमागान) करो, उसको सजदा करो
وَٱعۡبُدۡ رَبَّكَ حَتَّىٰ يَأۡتِيَكَ ٱلۡيَقِينُ ۝ 84
(99) और उस आख़िरी घड़ी तक अपने रब की बन्दगी करते रहो जिसका आना यक़ीनी है।53
53. यानी हक़ की तबलीग़ (सत्य-प्रचार) और सुधार की दावत देने की कोशिशों में जिन तकलीफ़ों और मुसीबतों का तुमको सामना करना पड़ता है, उनके मुक़ाबले की ताक़त अगर तुम्हें मिल सकती है तो सिर्फ़ नमाज़ और अल्लाह की बन्दगी पर जमे रहने से मिल सकती है। यही चीज़ तुम्हें तसल्ली भी देगी, तुममें सब्र भी पैदा करेगी, तुम्हारा हौसला भी बढ़ाएगी और तुमको इस क़ाबिल भी बना देगी कि दुनिया भर की गालियों और मज़म्मतों और मुख़ालफ़तों के मुक़ाबले में उस काम पर डटे रहो जिसे पूरा करने में तुम्हारे रब की ख़ुशी है।
قَالُوٓاْ إِنَّآ أُرۡسِلۡنَآ إِلَىٰ قَوۡمٖ مُّجۡرِمِينَ ۝ 85
(58) वे बोले, “हम एक मुजरिम क़ौम की तरफ़ भेजे गए हैं।34
34. मुख़्तसर इशारा यह बता रहा है कि लूत (अलैहि०) की क़ौम के जुर्मों का पैमाना उस वक़्त इतना भर चुका था कि हज़रत इबराहीम (अलैहि०) जैसे बाख़बर आदमी के सामने उसका नाम लेने की बिलकुल ज़रूरत न थी, बस “एक मुज़रिम क़ौम” कह देना बिलकुल काफ़ी था।
إِلَّآ ءَالَ لُوطٍ إِنَّا لَمُنَجُّوهُمۡ أَجۡمَعِينَ ۝ 86
(59) सिर्फ़ लूत के घरवाले इससे अलग हैं, उन सबको हम बचा लेंगे,
إِلَّا ٱمۡرَأَتَهُۥ قَدَّرۡنَآ إِنَّهَا لَمِنَ ٱلۡغَٰبِرِينَ ۝ 87
(60) सिवाय उसकी बीवी के जिसके लिए (अल्लाह फ़रमाता है कि) हमने तय कर दिया है कि वह पीछे रह जानेवालों में शामिल रहेगी।"
فَلَمَّا جَآءَ ءَالَ لُوطٍ ٱلۡمُرۡسَلُونَ ۝ 88
(61) फिर जब ये लोग लूत के यहाँ पहुँचे35
35. तक़ाबुल (तुलना) के लिए देखें— सूरा-7 आराफ़, आयत-73 से 84; सूरा-11 हूद, आयत-69 से 83
36. यहाँ बात मुख़्तसर तौर से बयान की गई है। सूरा-11 हूद में इसकी तफ़सील यह दी गई है कि उन लोगों के आने से हज़रत लूत (अलैहि०) बहुत घबराए और बहुत दिल-तंग हुए और उनको देखते ही अपने दिल में कहने लगे कि आज बड़ा सख़्त वक़्त आया है। इस घबराहट की वजह जो क़ुरआन के बयान से इशारे के तौर पर और रिवायतों से साफ़-साफ़ मालूम होती है यह है कि ये फ़रिश्ते बहुत ख़ूबसूरत लड़कों की शक्ल में हज़रत लूत के यहाँ पहुँचे थे और हज़रत लूत (अलैहि०) अपनी क़ौम की बदमाशी से वाक़िफ़ थे, इसलिए आप बहुत परेशान हुए कि आए हुए मेहमानों को वापस भी नहीं किया जा सकता, और उन्हें इन बदमाशों से बचाना भी मुश्किल है।
قَالَ إِنَّكُمۡ قَوۡمٞ مُّنكَرُونَ ۝ 89
(62) तो उसने कहा, “आप लोग अजनबी मालूम होते हैं।"36
قَالُواْ بَلۡ جِئۡنَٰكَ بِمَا كَانُواْ فِيهِ يَمۡتَرُونَ ۝ 90
(63) उन्होंने जवाब दिया, “नहीं, बल्कि हम वही चीज़ लेकर आए हैं जिसके आने में ये लोग शक कर रहे थे।
وَأَتَيۡنَٰكَ بِٱلۡحَقِّ وَإِنَّا لَصَٰدِقُونَ ۝ 91
(64) हम तुमसे सच कहते हैं कि हम हक़ के साथ तुम्हारे पास आए हैं,
فَأَسۡرِ بِأَهۡلِكَ بِقِطۡعٖ مِّنَ ٱلَّيۡلِ وَٱتَّبِعۡ أَدۡبَٰرَهُمۡ وَلَا يَلۡتَفِتۡ مِنكُمۡ أَحَدٞ وَٱمۡضُواْ حَيۡثُ تُؤۡمَرُونَ ۝ 92
(65) इसलिए अब तुम कुछ रात रहे अपने घरवालों को लेकर निकल जाओ और ख़ुद उनके पीछे-पीछे चलो।37 तुममें से कोई पलटकर न देखे।38
37. यानी इस मक़सद से अपने घरवालों के पीछे चलो कि उनमें से कोई ठहरने न पाए।
38. इसका यह मतलब नहीं है कि पलटकर देखते ही तुम पत्थर के हो जाओगे, जैसा कि बाइबल में बयान हुआ है, बल्कि इसका मतलब यह है कि पीछे की आवाज़ें और शोर-ग़ुल सुनकर तमाशा देखने के लिए न ठहर जाना। यह न तमाशा देखने का वक़्त है और न मुजरिम क़ौम की बरबादी पर आँसू बहाने का। एक पल के लिए भी अगर तुमने अज़ाब पानेवाली क़ौम के इलाक़े में दम ले लिया तो नामुमकिन नहीं कि तुम्हें भी इस बरबादी की बारिश से कुछ नुक़सान पहुँच जाए।
وَقَضَيۡنَآ إِلَيۡهِ ذَٰلِكَ ٱلۡأَمۡرَ أَنَّ دَابِرَ هَٰٓؤُلَآءِ مَقۡطُوعٞ مُّصۡبِحِينَ ۝ 93
(66) बस सीधे चले जाओ जिधर जाने का तुम्हें हुक्म दिया जा रहा है।” और उसे हमने अपना यह फ़ैसला पहुँचा दिया कि सुबह होते-होते इन लोगों की जड़ काट दी जाएगी।
وَجَآءَ أَهۡلُ ٱلۡمَدِينَةِ يَسۡتَبۡشِرُونَ ۝ 94
(67) इतने में शहर के लोग ख़ुशी के मारे बेताब होकर लूत के घर चढ़ आए।39
39. इससे अन्दाज़ा किया जा सकता है कि इस क़ौम की बद-अख़लाक़ी किस हद को पहुँच चुकी थी। बस्ती के एक शख़्स के घर कुछ ख़ूबसूरत मेहमानों का आ जाना इस बात के लिए काफ़ी था कि उसके घर पर लफंगों की एक भीड़ उमड़ आए और खुल्लम-खुल्ला वे उससे माँग करें कि अपने मेहमानों को बदकारी के लिए हमारे हवाले कर दे। उनकी पूरी आबादी में कोई ऐसा शख़्स बाक़ी न रहा था जो इन हरकतों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाता, और न उनकी क़ौम में कोई अख़लाक़ी एहसास बाक़ी रह गया था जिसकी वजह से लोगों को खुल्लम-खुल्ला ये ज़्यादतियाँ करते हुए कोई शर्म महसूस होती। हज़रत लूत (अलैहि०) जैसे पाकीज़ा इनसान और अख़्लाक़ की तालीम देनेवाले के घर पर भी जब बदमाशों का हमला इस बेख़ौफ़ी के साथ हो सकता था तो अन्दाज़ा किया जा सकता है कि आम इनसानों के साथ इन बस्तियों में क्या कुछ हो रहा होगा। तलमूद में इस क़ौम के जो हालात लिखे हैं उनका एक ख़ुलासा हम यहाँ देते हैं जिससे कुछ ज़्यादा तफ़सील के साथ मालूम होगा कि यह क़ौम अख़लाक़ी बिगाड़ की किस इन्तिहा को पहुँच चुकी थी। इसमें लिखा है कि एक बार एक ‘ऐलामी’ (अजनबी) मुसाफ़िर उनके इलाक़े से गुज़र रहा था। रास्ते में शाम हो गई और उसे मजबूर होकर उनके शहर सुदूम में ठहरना पड़ा। उसके साथ उसके सफ़र का सामान था। किसी से उसने मेज़बानी की दरख़ास्त न की। बस एक पेड़ के नीचे उतर गया। मगर सुदूम का एक आदमी ज़िद करके उसे उठाकर अपने घर ले गया। रात उसे अपने घर रखा और सुबह होने से पहले उसका गधा, उसकी काठी और तिजारत के माल सहित उड़ा दिया। उसने शोर मचाया, मगर किसी ने उसकी फ़रियाद न सुनी, बल्कि बस्ती के लोगों ने उसका रहा-सहा माल भी लूटकर उसे निकाल बाहर किया। एक बार हज़रत सारा ने हज़रत लूत (अलैहि०) के घरवालों की ख़ैरियत मालूम करने के लिए अपने ग़ुलाम इलयाज़िर को सुदूम भेजा। इलयाज़िर जब शहर में दाख़िल हुआ तो उसने देखा कि एक सुदूम-वासी एक अजनबी को मार रहा है। इलयाज़िर ने उसे शर्म दिलाई कि तुम मजबूर मुसाफ़िरों से यह सुलूक करते हो। मगर जवाब में सरे-बाज़ार इलयाज़िर का सर फाड़ दिया गया। एक बार एक ग़रीब आदमी कहीं से उनके शहर में आया और किसी ने उसे खाने को कुछ न दिया। वह भूख-प्यास से बेहाल होकर एक जगह गिरा पड़ा था कि हज़रत लूत (अलैहि०) की बेटी ने उसे देख लिया और उसके लिए खाना पहुँचाया। इसपर हज़रत लूत (अलैहि०) और उनकी बेटी को बहुत बुरा-भला कहा गया और उन्हें धमकियाँ दी गईं कि इन हरकतों के साथ तुम लोग हमारी बस्ती में नहीं रह सकते। इस तरह के कई वाक़िआत बयान करने के बाद तलमूद का लेखक लिखता है कि अपनी रोज़ाना की ज़िन्दगी में ये लोग सख़्त ज़ालिम, धोखेबाज़ और बद-मामला थे। कोई मुसाफ़िर उनके इलाक़े से ख़ैरियत से न गुज़र सकता था। कोई ग़रीब उनकी बस्तियों से रोटी का एक टुकड़ा न पा सकता था। बहुत बार ऐसा होता कि बाहर का आदमी उनके इलाक़े में पहुँचकर भूखे रहकर मर जाता और यह उसके कपड़े उतारकर उसकी लाश को नंगा दफ़न कर देते। बाहर के व्यापारी अगर बदक़िस्मती से वहाँ चले जाते तो खुले-आम लूट लिए जाते और उनकी फ़रियाद को ठहाकों में उड़ा दिया जाता। अपनी घाटी को उन्होंने एक बाग बना रखा था, जिसका सिलसिला मीलों तक फैला हुआ था। बाग़ में वे बहुत ही बेशर्मी के साथ खुले-आम बदकारियाँ करते थे और एक लूत (अलैहि०) की ज़बान के सिवा कोई ज़बान उनको टोकनेवाली न थी। क़ुरआन मजीद में इस पूरी दास्तान को समेटकर सिर्फ़ दो जुमलों में बयान कर दिया गया है कि “वे पहले से बहुत बुरे-बुरे काम कर रहे थे” (सूरा-11 हूद, आयत-78) । और “तुम मर्दों से अपनी नफ़्सानी ख़ाहिश पूरी करते हो, मुसाफ़िरों को लूटते हो और अपनी मजलिसों में खुल्लम-खुल्ला बदकारियाँ करते हो।” (सूरा-29 अन्‌कबूत, आयत-29)
قَالَ إِنَّ هَٰٓؤُلَآءِ ضَيۡفِي فَلَا تَفۡضَحُونِ ۝ 95
(68) लूत ने कहा, “भाइयो! ये मेरे मेहमान हैं, मेरी फ़ज़ीहत न करो,
وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ وَلَا تُخۡزُونِ ۝ 96
(69) अल्लाह से डरो, मुझे रुसवा न करो।”
قَالُوٓاْ أَوَلَمۡ نَنۡهَكَ عَنِ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 97
(70) वे बोले, “क्या हम बार-बार तुम्हें मना नहीं कर चुके हैं। कि दुनिया भर के ठेकेदार न बनो?”
قَالَ هَٰٓؤُلَآءِ بَنَاتِيٓ إِن كُنتُمۡ فَٰعِلِينَ ۝ 98
(71) लूत ने आजिज़ होकर कहा, “अगर तुम्हें कुछ करना ही है तो ये मेरी बेटियाँ मौजूद हैं।"40
40. इसकी तशरीह सूरा-11 हूद के हाशिया-87 में बयान की जा चुकी है। यहाँ सिर्फ़ इतना इशारा काफ़ी है कि ये बातें एक शरीफ़ आदमी की ज़बान पर ऐसे वक़्त में आई हैं जबकि वह बिलकुल तंग आ चुका था और बदमाश लोग उसकी सारी चीख़-पुकार से बेपरवाह होकर उसके मेहमानों पर टूटे पड़ रहे थे। इस मौक़े पर एक बात को साफ़ कर देना ज़रूरी है। सूरा-11 हूद में वाक़िआ जिस तरतीब से बयान किया गया है उसमें यह बात साफ़-साफ़ कही गई है कि हज़रत लूत (अलैहि०) को बदमाशों के इस हमले के वक़्त तक यह मालूम न था कि उनके मेहमान हक़ीक़त में फ़रिश्ते हैं। वे उस वक़्त तक यही समझ रहे थे कि ये कुछ मुसाफ़िर लड़के हैं जो उनके यहाँ आकर ठहरे हैं। उन्होंने अपने फ़रिश्ते होने की हक़ीक़त उस वक़्त खोली जब बदमाशों की भीड़ मेहमानों के ठिकाने पर पिल पड़ी और हज़रत लूत (अलैहि०) ने तड़पकर कहा, “काश! मुझे तुम्हारे मुक़ाबले की ताक़त हासिल होती या मेरा कोई सहारा होता जिससे मैं हिमायत हासिल करता।” इसके बाद फ़रिश्तों ने उनसे कहा कि अब तुम अपने घरवालों को लेकर यहाँ से निकल जाओ और हमें इनसे निबटने के लिए छोड़ दो। वाक़िआत की इस तरतीब को निगाह में रखने से पूरा अन्दाज़ा हो सकता है कि हज़रत लूत (अलैहि०) ने ये अलफ़ाज़ किस मुश्किल मौक़े पर तंग आकर कहे थे। इस सूरा में चूँकि वाक़िआत को उनके सामने आने की तरतीब के लिहाज़ से नहीं बयान किया जा रहा है, बल्कि उस ख़ास पहलू को ख़ास तौर पर नुमायाँ करना मक़सद है जिसे ज़ेहन में बिठाने के लिए ही यह क़िस्सा यहाँ नक़्ल किया गया है, इसलिए एक आम पढ़नेवाले को यहाँ यह ग़लतफ़हमी होती है कि फ़रिश्ते शुरू ही में अपने बारे में हज़रत लूत (अलैहि०) को बता चुके थे और अब अपने मेहमानों की आबरू बचाने के लिए उनकी यह सारी चीख़-पुकार सिर्फ़ एक ड्रामाई अंदाज़ की थी।