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سُورَةُ الأَحۡقَافِ

46. अल-अहक़ाफ़

(मक्का में उतरी, आयतें 35)

परिचय

नाम    

आयत 21 के वाक्यांश 'इज़ अन-ज़-र क़ौमहू बिल अहक़ाफ़ि' (जबकि उसने अहक़ाफ़ में अपनी क़ौम को सावधान किया था) से लिया गया है।

उतरने का समय

एक ऐतिहासिक घटना के अनुसार जिसका उल्लेख आयत 29 से 32 में हुआ है कि यह सूरा सन् 10 नबवी के अन्त में या सन् 11 नबवी के आरंभ में उतरी।

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

सन् 10 नबवी नबी (सल्लल्लाहु अलैहि व सल्लम) के पवित्र जीवन में अत्यन्त कठिनाई का वर्ष था। तीन वर्ष से क़ुरैश के सभी क़बीलों ने मिलकर बनी-हाशिम और मुसलमानों का पूर्ण सामाजिक बहिष्कार कर रखा था और नबी (सल्ल०) अपने घराने और अपने साथियों के साथ अबू-तालिब की घाटी में घिरकर रह गए थे। क़ुरैश के लोगों ने हर ओर से इस मुहल्ले की नाकाबन्दी कर रखी थी, जिससे गुज़रकर किसी प्रकार की रसद अन्दर न पहुँच सकती थी। लगातार तीन वर्ष के इस सामाजिक बहिष्कार ने मुसलमानों और बनी-हाशिम की कमर तोड़कर रख दी थी और उनपर ऐसे-ऐसे कठिन समय बीत गए थे, जिनमें अकसर घास और पत्ते खाने की नौबत आ जाती थी। किसी तरह यह घेराव इस वर्ष टूटा ही था कि नबी (सल्ल०) के चचा अबू-तालिब का, जो दस साल से आप के लिए ढाल बने हुए थे, देहान्त हो गया और इस घटना को घटित हुए मुश्किल से एक महीना हुआ था कि आप (सल्ल०) की जीवन संगिनी हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) का भी देहान्त हो गया, जो नुबूवत के आरम्भ से लेकर उस समय तक आप (सल्ल०) के लिए शान्ति और सांत्वना का कारण बनी रही थीं। इन लगातार आघातों और कष्टों के कारण से नबी (सल्ल०) इस साल को 'आमुल हुज़्न' (रंज और दुख का साल) कहा करते थे। हज़रत ख़दीजा (रज़ि०) और अबू-तालिब के इन्तिक़ाल के बाद मक्का के इस्लाम-विरोधी नबी (सल्ल०) के मुक़ाबले में और अधिक दुस्साहसी हो गए। पहले से अधिक आप (सल्ल०) को तंग करने लगे, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) का घर से बाहर निकलना भी कठिन हो गया। आख़िरकार आप (सल्ल०) इस इरादे से ताइफ़ गए कि बनी-सक़ीफ़ को इस्लाम की ओर बुलाएँ और अगर वे इस्लाम स्वीकार न करें तो उन्हें कम से कम इस बात पर तैयार करें कि वे आप (सल्ल०) को अपने यहाँ चैन से बैठकर काम करने का मौक़ा दे दें। मगर [वहाँ के बड़े लोगों ने] न सिर्फ़ यह कि आप (सल्ल०) की कोई बात न मानी, बल्कि आप (सल्ल०) को नोटिस दे दिया कि उनके शहर से निकल जाएँ। विवश होकर आप (सल्ल०) को ताइफ़ छोड़ देना पड़ा। जब आप (सल्ल०) वहाँ से निकलने लगे तो सक़ीफ़  के सरदारों ने अपने यहाँ के लफँगों को आप (सल्ल०) के पीछे लगा दिया। वे रास्ते के दोनों और आप (सल्ल०) पर व्यंग्‍य करते, गालियाँ देते और पत्थर मारते चले गए, यहाँ तक कि आप (सल्ल०) घावों से चूर हो गए और आप (सल्ल०) की जूतियाँ ख़ून से भर गई। इसी हालत में आप (सल्ल०) ताइफ़ से बाहर एक बाग़ की दीवार की छाया में बैठ गए और अपने रब से [दुआ करने में लग गए।] टूटा दिल लेकर और दुखी होकर पलटे। जब आप क़र्नुल-मनाज़िल के क़रीब पहुँचे तो ऐसा महसूस हुआ कि आसमान पर एक बादल-सा छाया हुआ है। नज़र उठाकर देखा तो जिबरील (फ़रिश्ते) सामने थे। उन्होंने पुकारकर कहा, "आपकी क़ौम ने जो कुछ आपको उत्तर दिया है, अल्लाह ने उसे सुन लिया। अब यह पहाड़ों का प्रबंधक फ़रिश्ता अल्लाह ने भेजा है, आप जो आदेश देना चाहें, इसे दे सकते हैं।" फिर पहाड़ों के फ़रिश्ते ने आप (सल्ल०) को सलाम करके निवेदन किया, "आप कहें तो दोनों ओर से पहाड़ इन लोग पर उलट दूँ।" आप (सल्ल०) ने उत्तर दिया, "नहीं, बल्कि मैं आशा रखता हूँ कि अल्लाह उनकी नस्ल से ऐसे लोगों पैदा करेगा जो एक अल्लाह की, जिसका कोई साझीदार नहीं, बन्दगी करेंगे।" (हदीस : बुख़ारी)

इसके बाद आप (सल्ल०) कुछ दिन नख़ला नामक जगह पर जाकर ठहर गए। इन्हीं दिनों में एक रात को आप (सल्ल०) नमाज़ में क़ुरआन मजीद पढ़ रहे थे कि जिन्नों के एक गिरोह का उधर से गुज़र हुआ। उन्होंने क़ुरआन सुना, ईमान लाए, वापस जाकर अपनी क़ौम में इस्लाम का प्रचार शुरू कर दिया और अल्लाह ने अपने नबी (सल्ल०) को यह ख़ुशख़बरी सुनाई कि इंसान चाहे आपकी दावत से भाग रहे हों, मगर बहुत-से जिन्न उसके आसक्त हो गए हैं और वे उसे अपनी जाति में फैला रहे हैं।

विषय और वार्ता

सूरा का विषय इस्लाम-विरोधियों को उनकी गुमराहियों के नतीजों से सचेत करना है जिनमें वे न केवल पड़े हुए थे, बल्कि बड़ी हठधर्मी और गर्व व अहंकार के साथ उनपर जमे हुए थे। उनकी दृष्टि में दुनिया की हैसियत केवल एक निरुद्देश्य खिलौने की थी और उसके अन्दर अपने आपको वे अनुत्तरदायी प्राणी समझ रहे थे। तौहीद की दावत (एकेश्वरवाद का बुलावा) उनके विचार में असत्य था। वे क़ुरआन के बारे में यह मानने को तैयार न थे कि यह जगत्-स्वामी की वाणी है। उनकी दृष्टि में इस्लाम के सत्य न होने का एक बड़ा प्रमाण यह था कि सिर्फ़ कुछ नौवजवान, कुछ ग़रीब लोग और कुछ ग़ुलाम ही उसपर ईमान लाए हैं। वे क़ियामत और मरने के बाद की ज़िंदगी और प्रतिदान और दण्ड की बातों को मनगढ़ंत कहानी समझते थे। इस सूरा में संक्षेप में इन्हीं गुमराहियों में से एक-एक का तर्कयुक्त खंडन किया गया है और इस्लाम विरोधियों को सचेत किया गया है कि तुम अगर क़ुरआन की दावत को रद्द कर दोगे, तो ख़ुद अपना ही अंजाम ख़राब करोगे।

 (व्याख्या के लिए देखिए : सूरा-39, अज़-ज़ुमर, टिप्पणी-1; सूरा-45, अल-जासिया, टिप्पणी-1; सूरा-32, अस-सजदा, टिप्पणी-1)

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سُورَةُ الأَحۡقَافِ
46. अल-अहक़ाफ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा-मीम।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 1
(2) इस किताब का उतरना अल्लाह ज़बरदस्त और हिकमतवाले की तरफ़ से है।1
1. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-39 ज़ुमर, हाशिया-1 और सूरा-45 जासिया, हाशिया-1। इसके साथ सूरा-32 सजदा, हाशिया-1 भी निगाह में रहे तो इस तमहीद (भूमिका) की रूह समझने में आसानी होगी।
مَا خَلَقۡنَا ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَمَا بَيۡنَهُمَآ إِلَّا بِٱلۡحَقِّ وَأَجَلٖ مُّسَمّٗىۚ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَمَّآ أُنذِرُواْ مُعۡرِضُونَ ۝ 2
(3) हमने ज़मीन और आसमानों को और उन सारी चीज़ों को, जो उनके बीच हैं, हक़ के साथ और एक ख़ास मुद्दत तक के लिए पैदा किया है।2 मगर ये इनकार करनेवाले लोग उस हक़ीक़त से मुँह मोड़े हुए हैं जिससे इनको ख़बरदार किया गया है।3
2. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-46; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-11; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-23; सूरा-15 हिज्र, हाशिया-47; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-6; सूरा-21 अम्बिया, हाशिए—15 से 17; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-102; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिए—75, 76; सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-51; सूरा-44 दुख़ान; सूरा-45, जासिया, हाशिया-281।
3. यानी वाक़ई हक़ीक़त तो यह है कि कायनात का यह निज़ाम एक बेमक़सद खिलौना नहीं, बल्कि एक बामक़सद हिकमत से भरा निज़ाम है जिसमें लाज़िमन अच्छे और बुरे और ज़ालिम और मज़लूम का फ़ैसला इनसाफ़ के साथ होना है और कायनात का मौजूदा निज़ाम हमेशा रहनेवाला नहीं है, बल्कि उसकी एक ख़ास उम्र मुक़र्रर है, जिसके ख़त्म होने पर उसे लाज़िमन दरहम-बरहम (अस्त-व्यस्त) हो जाना है और ख़ुदा की अदालत के लिए भी एक वक़्त तयशुदा है जिसके आने पर वह ज़रूर क़ायम होनी है, लेकिन जिन लोगों ने ख़ुदा के रसूल और उसकी किताब को मानने से इनकार कर दिया है, वे इन सच्चाइयों से मुँह मोड़े हुए हैं। उन्हें इस बात की कुछ फ़िक्र नहीं है कि एक वक़्त ऐसा आनेवाला है जब उन्हें अपने आमाल का जवाब देना होगा। वे समझते हैं कि इन हक़ीक़तों से ख़बरदार करके अल्लाह के रसूल ने उनके साथ कोई बुराई की है, हालाँकि यह उनके साथ बहुत बड़ी भलाई है कि उसने हिसाब लेने और पूछ-गछ करने का वक़्त आने से पहले उनको न सिर्फ़ यह बता दिया कि वह वक़्त आनेवाला है, बल्कि यह भी साथ-साथ बता दिया कि उस वक़्त उनसे किन मामलों की पूछ-गछ होगी, ताकि वे उसके लिए तैयारी कर सकें। आगे की बात समझने के लिए यह बात सामने रहनी चाहिए कि इनसान की सबसे बड़ी बुनियादी ग़लती वह है जो वह ख़ुदा के साथ अपना अक़ीदा तय करने में करता है। इस मामले को हलका समझकर किसी गहराई और संजीदगी से सोचे और जाँच-पड़ताल किए बिना एक सरसरी या सुना-सुनाया अक़ीदा बना लेना ऐसी बड़ी बेवक़ूफ़ी है, जो दुनिया की ज़िन्दगी में इनसान के पूरे रवैये को और हमेशा के लिए उसके अंजाम को ख़राब करके रख देती है। लेकिन जिस वजह से आदमी इस ख़तरनाक लापरवाही में मुब्तला हो जाता है, वह यह है कि वह अपने आपको ग़ैर-जिम्मेदार और ग़ैर-जवाबदेह समझ लेता है और इस ग़लतफ़हमी में पड़ जाता है कि ख़ुदा के बारे में जो अक़ीदा भी मैं अपना लूँ उससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ता, क्योंकि या तो मरने के बाद सिरे से कोई ज़िन्दगी नहीं है, जिसमें मुझे किसी पूछ-गछ का सामना करना पड़े, या अगर ऐसी कोई ज़िन्दगी हो और वहाँ पूछ-गछ भी हो तो जिन हस्तियों का दामन मैंने थाम रखा है, वे मुझे बुरे अंजाम से बचा लेंगी। यही ज़िम्मेदारी के एहसास का न होना आदमी को मज़हबी अक़ीदे के चुनाव में ग़ैर-संजीदा बना देता है और इसी वजह से वह बड़ी बेफ़िक्री के साथ नास्तिकता से लेकर शिर्क की इन्तिहाई नामुनासिब सूरतों तक तरह-तरह के ग़लत अक़ीदे ख़ुद गढ़ता है या दूसरों के गढ़े हुए अक़ीदे क़ुबूल कर लेता है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُم مَّا تَدۡعُونَ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُواْ مِنَ ٱلۡأَرۡضِ أَمۡ لَهُمۡ شِرۡكٞ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِۖ ٱئۡتُونِي بِكِتَٰبٖ مِّن قَبۡلِ هَٰذَآ أَوۡ أَثَٰرَةٖ مِّنۡ عِلۡمٍ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 3
(4) ऐ नबी! इनसे कहो, “कभी तुमने आँखें खोलकर देखा भी कि वे हस्तियाँ हैं क्या जिन्हें तुम अल्लाह को छोड़कर पुकारते हो? ज़रा मुझे दिखाओ तो सही कि ज़मीन में इन्होंने क्या पैदा किया है, या आसमानों के पैदा करने और उसका इन्तिज़ाम करने में इनका क्या हिस्सा है? इससे पहले आई हुई कोई किताब या इल्म का कोई बचा हुआ हिस्सा (इन अक़ीदों के सुबूत में) तुम्हारे पास हो तो वही ले आओ, अगर तुम सच्चे हो।4
4. चूँकि सुननेवाले एक मुशरिक (अनेकेश्वरवादी) क़ौम के लोग हैं, इसलिए उनको बताया जा रहा है कि ज़िम्मेदारी का एहसास न होने की वजह से वे किस तरह बेसोचे-समझे एक निहायत ग़लत और नामुनासिब अक़ीदे से चिमटे हुए हैं। वे अल्लाह को कायनात का पैदा करनेवाला मानने के साथ बहुत-सी दूसरी हस्तियों को माबूद (उपास्य) बनाए हुए थे, उनसे दुआएँ माँगते थे, उनको अपनी ज़रूरतें पूरी करनेवाला और मुश्किलें हल करनेवाला समझते थे। उनके आगे माथे रगड़ते और भेंटें-चढ़ावे चढ़ाते थे और यह समझते थे कि हमारी क़िस्मतें बनाने और बिगाड़ने का इख़्तियार उन्हीं को हासिल है। उन्हीं हस्तियों के बारे में उनसे पूछा जा रहा है कि उन्हें आख़िर किस बुनियाद पर तुमने अपना माबूद मान रखा है? ज़ाहिर बात है कि अल्लाह के साथ किसी को इबादत के हक़ में हिस्सेदार ठहराने के लिए दो ही बुनियादें हो सकती हैं। या तो आदमी को ख़ुद किसी इल्मी ज़रिए से यह मालूम हो कि ज़मीन और आसमान के बनाने में सचमुच उसका भी कोई हिस्सा है। या अल्लाह ने ख़ुद यह कहा हो कि फ़ुलाँ साहब भी ख़ुदाई के काम में मेरे शरीक हैं। अब अगर कोई मुशरिक न यह दावा कर सकता हो कि उसे अपने माबूदों के ख़ुदा के साझी होने का सीधे तौर पर इल्म हासिल है और न अल्लाह की तरफ़ से आई हुई किसी किताब में यह दिखा सके कि ख़ुदा ने ख़ुद किसी को अपना साझी ठहराया है तो लाज़िमन उसका अक़ीदा बिलकुल बेबुनियाद ही होगा। इस आयत में 'पहले आई हुई किताब' से मुराद कोई ऐसी किताब है जो क़ुरआन से पहले अल्लाह की तरफ़ से भेजी गई हो और इल्म के 'बचे हुए हिस्से' से मुराद पुराने ज़माने के नबियों और नेक बुज़ुर्गों की तालीमात का कोई ऐसा हिस्सा है जो बाद की नस्लों को किसी भरोसे के क़ाबिल ज़रिए से पहुँचा हो। इन दोनों ज़रिओं से जो कुछ भी इनसान को मिला है, उसमें कहीं शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का निशान तक मौजूद नहीं है। तमाम आसमानी किताबें इत्तिफ़ाक़ से वही तौहीद (ख़ुदा के एक अकेले होने का अक़ीदा) पेश करती हैं जिसकी तरफ़ क़ुरआन दावत दे रहा है और सबसे पहले इल्म की जितनी निशानियाँ भी बची-खुची मौजूद हैं, उनमें भी कहीं इस बात की गवाही नहीं मिलती कि किसी नबी या वली या नेक आदमी ने कभी लोगों को एक ख़ुदा के सिवा किसी और की बन्दगी और इबादत करने की तालीम दी हो, बल्कि अगर किताब से मुराद अल्लाह की किताब और इल्म के 'बचे हुए हिस्से' से मुराद पैग़म्बरों और नेक बुज़ुर्गों का छोड़ा हुआ इल्म न लिया जाए, तो दुनिया की किसी इल्मी किताब और दीनी या दुनियावी इल्मों के किसी माहिर की खोज में भी आज तक इस बात की निशानदेही नहीं की गई है कि ज़मीन और आसमान की फ़ुलाँ चीज़ को ख़ुदा के सिवा फ़ुलाँ बुज़ुर्ग या देवता ने पैदा किया है, या इनसान जिन नेमतों से इस कायनात में फ़ायदा उठा रहा है, उनमें से फ़ुलाँ नेमत ख़ुदा के बजाय फ़ुलाँ माबूद की पैदा की हुई है।
وَمَنۡ أَضَلُّ مِمَّن يَدۡعُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ مَن لَّا يَسۡتَجِيبُ لَهُۥٓ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ وَهُمۡ عَن دُعَآئِهِمۡ غَٰفِلُونَ ۝ 4
(5) आख़िर उस शख़्स से ज़्यादा बहका हुआ इनसान और कौन होगा जो अल्लाह को छोड़कर उनको पुकारे जो क़ियामत तक उसे जवाब नहीं दे सकते,5 बल्कि इससे भी बेख़बर हैं कि पुकारनेवाले उनको पुकार रहे हैं,6
5. जवाब देने से मुराद जवाबी कार्रवाई करना है, न कि अलफ़ाज़ में आवाज़ के साथ जवाब देना या तहरीर (लेख) की शक्ल में लिखकर भेज देना। मतलब यह है कि कोई शख़्स अगर इन माबूदों (उपास्यों) से फ़रियाद या अपील करे, या उनसे कोई दुआ माँगे, तो चूँकि उनके हाथ में कोई ताक़त और कोई अधिकार नहीं है, इसलिए वह इसकी दरख़ास्त पर कोई कार्रवाई 'ना' या 'हाँ' की शक्ल में नहीं कर सकते। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-39 जुमर, हाशिया-33) क़ियामत तक जवाब न दे सकने का मतलब यह है कि जब तक यह दुनिया बाक़ी है, उस वक़्त तक तो मामला सिर्फ़ इसी हद पर रहेगा कि इनकी दुआओं का कोई जवाब उनकी तरफ़ से न मिलेगा, लेकिन जब क़ियामत आ जाएगी तो इससे आगे बढ़कर मामला यह पेश आएगा कि वे माबूद अपने इन इबादत करनेवालों के उलटे दुश्मन होंगे, जैसा कि आगे की आयत में आ रहा है।
6. यानी उन तक इन पुकारनेवालों की पुकार सिरे से पहुँचती ही नहीं। न वे ख़ुद अपने कानों से उसको सुनते हैं, न किसी ज़रिए से उन तक यह ख़बर पहुँचती है कि दुनिया में कोई उन्हें पुकार रहा है। अल्लाह के इस फ़रमान को तफ़सील से यूँ समझिए कि दुनिया भर के मुशरिक लोग ख़ुदा के सिवा जिन हस्तियों से दुआएँ माँगते रहे हैं, वे तीन तरह की हैं : (i) बे-रूह और बेअक़्ल जानदार। (ii) वे बुज़ुर्ग इनसान जो गुज़र चुके हैं। (iii) वे गुमराह इनसान जो ख़ुद बिगड़े हुए थे और दूसरों को बिगाड़कर दुनिया से विदा हुए। पहली क़िस्म के माबूदों (उपास्यों) का तो अपने इबादत करनेवालों की दुआओं से बेख़बर रहना ज़ाहिर ही है। रहे दूसरी तरह के माबूद, जो अल्लाह के क़रीबी इनसान थे, तो इनके बेख़बर रहने की दो वजहें हैं, एक यह कि वे अल्लाह के यहाँ उस आलम में हैं जहाँ इनसानी आवाज़ें सीधे उन तक नहीं पहुँचतीं। दूसरी यह कि अल्लाह और उसके फ़रिश्ते भी उन तक यह ख़बर नहीं पहुँचाते कि जिन लोगों को आप सारी उम्र अल्लाह से दुआएँ माँगना सिखाते रहे थे, वे अब उलटी आपसे दुआएँ माँग रहे हैं, इसलिए कि इस ख़बर से बढ़कर उनको सदमा पहुँचानेवाली कोई चीज़ नहीं हो सकती और अल्लाह अपने नेक बन्दों की रूहों को तकलीफ़ देना हरगिज़ पसन्द नहीं करता। इसके बाद तीसरी क़िस्म के माबूदों के मामले पर ग़ौर कीजिए तो मालूम होगा कि उनके बेख़बर रहने की भी दो वजहें हैं, एक यह कि वे मुलज़िमों की हैसियत से अल्लाह के यहाँ हवालात में बन्द हैं, जहाँ दुनिया की कोई आवाज़ उन्हें नहीं पहुँचती। दूसरी यह कि अल्लाह तआला और उसके फ़रिश्ते भी उन्हें यह नहीं पहुँचाते कि तुम्हारा मिशन दुनिया में ख़ूब कामयाब हो रहा है और लोग तुम्हारे पीछे तुम्हें माबूद बनाए बैठे हैं, इसलिए कि ये ख़बरें उनके लिए ख़ुशी का सबब होंगी और अल्लाह उन ज़ालिमों को हरगिज़ ख़ुश नहीं करना चाहता। इस सिलसिले में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि अल्लाह तआला अपने नेक बन्दों को दुनियावालों के सलाम और उनकी रहमत की दुआ पहुँचा देता है, क्योंकि ये चीज़ें उनके लिए ख़ुशी की वजह हैं और इसी तरह वे मुजरिमों को दुनियावालों की लानत और फटकार और बुरा-भला कहे जाने की ख़बर दे देता है, जैसे बद्र की जंग में मारे जानेवाले दुश्मनों को एक हदीस के मुताबिक़ नबी (सल्ल०) की मलामत सुनवा दी गई, क्योंकि यह उनके लिए तकलीफ़ की वजह है। लेकिन कोई ऐसी बात जो नेक लोगों के लिए तकलीफ़ की वजह हो, या मुजरिमों के लिए ख़ुशी की वजह हो वह उन तक नहीं पहुँचाई जाती। इस तशरीह से मरने के बाद सुनने की हक़ीक़त ब-ख़ूबी मालूम हो जाती है।
وَإِذَا حُشِرَ ٱلنَّاسُ كَانُواْ لَهُمۡ أَعۡدَآءٗ وَكَانُواْ بِعِبَادَتِهِمۡ كَٰفِرِينَ ۝ 5
(6) और जब तमाम इनसान इकट्ठे किए जाएँगे, उस वक़्त वे अपने पुकारनेवालों के दुश्मन और उनकी इबादत का इनकार करनेवाले होंगे।7
7. यानी वे साफ़-साफ़ कह देंगे कि न हमने उनसे कभी यह कहा था कि तुम हमारी इबादत करना और न हमें यह पता कि ये लोग हमारी इबादत करते थे। अपनी इस गुमराही के ये ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। इसका ख़मियाज़ा इन्हीं को भुगतना चाहिए। हमारा इस गुनाह में कोई हिस्सा नहीं है।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ قَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلۡحَقِّ لَمَّا جَآءَهُمۡ هَٰذَا سِحۡرٞ مُّبِينٌ ۝ 6
(7) इन लोगों को जब हमारी साफ़-साफ़ आयतें सुनाई जाती हैं और हक़ इनके सामने आ जाता है तो ये इनकार करनेवाले लोग उसके बारे में कहते हैं कि यह तो खुला जादू है।"8
8. इसका मतलब यह है कि जब क़ुरआन की आयतें मक्का के ग़ैर-मुस्लिमों के सामने पढ़ी जाती थीं तो वे साफ़ यह महसूस करते थे कि इस कलाम की शान इनसानी कलाम से कई गुना बुलन्द है। उनके किसी शाइर, किसी तक़रीर करनेवाले और किसी बड़े-से-बड़े अदीब (साहित्यकार) के कलाम को भी क़ुरआन की बेमिसाल बेहतरीन ज़बान और अन्दाज़, उसकी तक़रीर का असर डालनेवाला अन्दाज़, उसके बुलन्द मज़ामीन (विषय) और दिलों में उतर जानेवाले अन्दाज़े-बयान से कोई मेल नहीं था और सबसे बड़ी बात यह है कि ख़ुद नबी (सल्ल०) के अपने कलाम की शान भी वह न थी जो ख़ुदा की तरफ़ से आप (सल्ल०) पर उतरनेवाले कलाम की नज़र आती थी। जो लोग बचपन से आप (सल्ल०) को देखते चले आ रहे थे, वे ख़ूब जानते थे कि आप (सल्ल०) की ज़बान और क़ुरआन की ज़बान में कितना बड़ा फ़र्क़ है और उनके लिए यह मान लेना मुमकिन न था कि एक आदमी जो चालीस-पचास साल से रात-दिन उनके बीच रहता है, वह यकायक किसी वक़्त बैठकर ऐसा कलाम गढ़ लेता है जिसकी ज़बान में उसकी अपनी जानी-पहचानी ज़बान से बिलकुल कोई मेल नहीं पाया जाता। यह चीज़ उनके सामने हक़ को बिलकुल बेनक़ाब करके ले आती थी। मगर वे चूँकि अपने कुफ़्र (इनकार) पर अड़े रहने का फ़ैसला कर चुके थे, इसलिए इस साफ़ और खुली निशानी को देखकर सीधी तरह इस कलाम को (ख़ुदा की तरफ़ से आई हुई) वह्य का कलाम मान लेने के बजाय यह बात बनाते थे कि यह कोई जादू का करिश्मा है। (एक और पहलू जिसके लिहाज़ से वे क़ुरआन को जादू ठहराते थे, उसकी तशरीह हम इससे पहले कर चुके हैं। देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-21 अम्बिया, हाशिया-5; सूरा-38 सॉद, हाशिया-8)
أَمۡ يَقُولُونَ ٱفۡتَرَىٰهُۖ قُلۡ إِنِ ٱفۡتَرَيۡتُهُۥ فَلَا تَمۡلِكُونَ لِي مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۖ هُوَ أَعۡلَمُ بِمَا تُفِيضُونَ فِيهِۚ كَفَىٰ بِهِۦ شَهِيدَۢا بَيۡنِي وَبَيۡنَكُمۡۖ وَهُوَ ٱلۡغَفُورُ ٱلرَّحِيمُ ۝ 7
(8) क्या उनका कहना यह है कि रसूल ने इसे ख़ुद गढ़ लिया है?9 इनसे कहो, “अगर मैंने इसे ख़ुद गढ़ लिया है तो तुम मुझे ख़ुदा की पकड़ से कुछ भी न बचा सकोगे, जो बातें तुम बनाते हो अल्लाह उनको ख़ूब जानता है। मेरे और तुम्हारे बीच वही गवाही देने के लिए काफ़ी हैं,10 और वह बड़ा माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।"11
9. इस सवालिया अन्दाज़े-बयान में सख़्त हैरत का अन्दाज़ पाया जाता है। मतलब यह है कि क्या ये लोग इतने बेशर्म हैं कि मुहम्मद (सल्ल०) पर क़ुरआन ख़ुद गढ़ लाने का इलज़ाम रखते हैं? हालाँकि इन्हें ख़ूब मालूम है कि यह उनका गढ़ा हुआ कलाम नहीं हो सकता और उनका इसे जादू कहना ख़ुद इस बात का साफ़ एतिराफ़ है कि यह एक ग़ैर-मामूली कलाम है, जिसका किसी इनसान का बनाया हुआ होना उनके अपने नज़दीक भी मुमकिन नहीं है।
10. चूँकि उनके इलज़ाम का दारोमदार सिर्फ़ बेबुनियाद और सरासर हठधर्मी पर होना बिलकुल ज़ाहिर था, इसलिए उसके रद्द में दलीलें पेश करने की कोई ज़रूरत न थी। सिर्फ़ यह कहने पर बस किया गया कि अगर सचमुच मैंने ख़ुद एक कलाम गढ़कर अल्लाह की तरफ़ जोड़ने संगीन जुर्म किया है, जैसा कि तुम इलज़ाम रखते हो, तो मुझे ख़ुदा की पकड़ से बचाने के लिए तुम न आओगे, लेकिन अगर यह ख़ुदा ही का कलाम है और तुम झूठे इलज़ाम रख-रखकर इसे रद्द कर रहे हो तो अल्लाह तुमसे निमट लेगा। हक़ीक़त अल्लाह से छिपी हुई नहीं है और झूठ-सच का फ़ैसला करने के लिए वह बिलकुल काफ़ी है। सारी दुनिया अगर किसी को झूठा कहे और अल्लाह के इल्म में वह सच्चा हो तो आख्रिरी फ़ैसला यक़ीनन उसी के हक़ में होगा और सारी दुनिया अगर किसी को सच्चा कह दे, मगर अल्लाह के नज़दीक वह झूठा हो, तो आख़िर वह झूठा ही ठहरेगा। इसलिए उलटी-सीधी बातें बनाने के बजाय अपने अंजाम की फ़िक्र करो।
11. इस जगह पर यह जुमला दो मतलब दे रहा है। एक यह कि हक़ीक़त में यह अल्लाह का रहम और उसका माफ़ कर देना ही है जिसकी वजह से वे लोग ज़मीन में साँस ले रहे हैं जिन्हें ख़ुदा के कलाम को गढ़ा हुआ झूठ ठहराने में कोई झिझक नहीं, वरना कोई बेरहम और सख़्त मिज़ाज ख़ुदा इस कायनात का मालिक होता तो ऐसी जुर्रत (दुस्साहस) करनेवालों को एक साँस के बाद दूसरी साँस लेना नसीब न होता। दूसरा मतलब इस जुमले का यह है कि ज़ालिमो, अब भी इस हठधर्मी से बाज़ आ जाओ तो ख़ुदा की रहमत का दरवाज़ा तुम्हारे लिए खुला हुआ है और जो कुछ तुमने अब तक किया है, वह माफ़ हो सकता है।
قُلۡ مَا كُنتُ بِدۡعٗا مِّنَ ٱلرُّسُلِ وَمَآ أَدۡرِي مَا يُفۡعَلُ بِي وَلَا بِكُمۡۖ إِنۡ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰٓ إِلَيَّ وَمَآ أَنَا۠ إِلَّا نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 8
(9) इनसे कहो, “मैं कोई निराला रसूल तो नहीं मैं नहीं जानता कि कल तुम्हारे साथ क्या होना है और मेरे साथ क्या, मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मेरे पास भेजी जाती है और में एक साफ़-साफ़ ख़बरदार करनेवाले के सिवा और कुछ नहीं हूँ।12
12. इस बात का पसमंज़र (पृष्ठभूमि) यह है कि जब नबी (सल्ल०) ने अपने आपको ख़ुदा के रसूल की हैसियत से पेश किया तो मक्का के लोग इसपर तरह-तरह की बातें बनाने लगे। वे कहते थे कि यह कैसा रसूल है जो बाल-बच्चे रखता है, बाज़ारों में चलता-फिरता है, खाता-पीता है और हम जैसे इनसानों की तरह ज़िन्दगी गुज़ारता है। आख़िर इसमें वह निराली बात क्या है जिसमें यह आम इनसानों से अलग हो और हम यह समझें कि ख़ास तौर पर इस आदमी को ख़ुदा ने अपना रसूल बनाया है। फिर वे कहते थे कि अगर इस आदमी को ख़ुदा ने रसूल बनाया होता तो वह इसकी अरदली में कोई फ़रिश्ता भेजता जो एलान करता कि यह ख़ुदा का रसूल है और हर उस आदमी पर अज़ाब का कोड़ा बरसा देता जो उसकी शान में कोई ज़रा-सी गुस्ताख़ी कर बैठता। यह आख़िर कैसे हो सकता है कि ख़ुदा किसी को अपना रसूल मुक़र्रर करे और फिर उसे यूँ ही मक्का की गलियों में फिरने और हर तरह की ज़्यादतियाँ सहने के लिए बेसहारा छोड़ दे और कुछ नहीं तो कम-से-कम यही होता कि ख़ुदा अपने रसूल के लिए एक शानदार महल और एक लहलहाता बाग़ ही पैदा कर देता। यह तो न होता कि उसके रसूल की बीवी का माल जब ख़त्म हो जाए तो उसे फ़ाक़ों (भूखे रहने) की नौबत आ जाए और ताइफ़ जाने के लिए उसे सवारी तक हासिल न हो। फिर वे लोग नबी (सल्ल०) से तरह-तरह के मोजिज़ों (चमत्कारों) की माँग करते थे और ग़ैब (परोक्ष) की बातें आप (सल्ल०) से पूछते थे। उनके ख़याल में किसी शख़्स का ख़ुदा का रसूल होना यह मतलब रखता था कि वह इनसानी फ़ितरत से परे ताक़तों का मालिक हो, उसके एक इशारे पर पहाड़ टल जाएँ और रेगिस्तान देखते-देखते लहलहाती खेतियों में तबदील हो जाएँ। उसको तमाम गुज़रे हुए और आनेवाले वाक़िआत का इल्म हो और ग़ैब के परदे में छिपी हुई चीज़ उसपर रौशन हो। यही बातें हैं जिनका जवाब इन जुमलों में दिया गया है। इनमें से हर जुमले के अन्दर मानी और मतलबों की एक दुनिया छिपी है। फ़रमाया, इनसे कहो, “मैं कोई निराला रसूल तो नहीं हूँ।” यानी मेरा रसूल बनाया जाना दुनिया के इतिहास में कोई पहला वाक़िआ तो नहीं है कि तुम्हें यह समझने में परेशानी हो कि रसूल कैसा होता है और कैसा नहीं होता। मुझसे पहले बहुत-से रसूल आ चुके हैं और मैं उनसे अलग नहीं हूँ। आख़िर दुनिया में कब कोई रसूल ऐसा आया है जो बाल-बच्चे न रखता हो, या खाता-पीता न हो, या आम इनसानों की-सी ज़िन्दगी न गुज़ारता हो? किस रसूल के साथ कोई फ़रिश्ता उतरा है जो उसकी पैग़म्बरी का एलान करता हो और उसके आगे-आगे हाथ में कोड़ा लिए फिरता हो? किस रसूल के लिए बाग़ और महल पैदा किए गए और किसने ख़ुदा की तरफ़ बुलाने में वे सख़्तियाँ नहीं झेलीं जो मैं झेल रहा हूँ? कौन-सा रसूल ऐसा गुज़रा है जो अपने अधिकार से कोई मोजिज़ा (चमत्कार) दिखा सकता हो, या अपने इल्म से सब कुछ जानता हो? फिर ये निराले पैमाने मेरी ही पैग़म्बरी को परखने के लिए तुम कहाँ से लिए चले आ रहे हो। इसके बाद फ़रमाया कि उनके जवाब में यह भी कहो, “मैं नहीं जानता कि कल मेरे साथ क्या होनेवाला और तुम्हारे साथ क्या, मैं तो सिर्फ़ उस वह्य की पैरवी करता हूँ जो मुझे भेजी जाती है।” यानी मैं ग़ैब का जाननेवाला नहीं हूँ कि बीता हुआ कल, आज और आनेवाला कल सब मुझपर रौशन हों और दुनिया की हर चीज़ का मुझे इल्म हो। तुम्हारा मुस्तक़बिल (भविष्य) तो दूर रहा, मुझे तो अपना मुस्तक़बिल भी मालूम नहीं है। जिस चीज़ का वह्य के ज़रिए से मुझे इल्म दे दिया जाता है, बस उसी को मैं जानता हूँ। इससे ज़्यादा कोई इल्म रखने का मैंने आख़िर कब दावा किया था और कौन-सा रसूल ऐसे इल्म का मालिक कभी दुनिया में गुज़रा है कि तुम मेरी पैग़म्बरी को जाँचने के लिए मेरे ग़ैब जानने का इम्तिहान लेते फिरते हो। रसूल का यह काम कब से हो गया कि वह खोई हुई चीज़ों के पते बताए, या यह बताए कि हामिला (गर्भवती) औरत लड़का जनेगी या लड़की, या यह बताए कि रोगी अच्छा हो जाएगा या मर जाएगा। आख़िर में फ़रमाया कि इनसे कह दो, “मैं एक साफ़-साफ़ ख़बरदार करनेवाले के सिवा और कुछ नहीं हूँ।” यानी मैं ख़ुदाई अधिकारों का मालिक नहीं हूँ कि वे अजीब-ग़रीब मोजिज़े (चमत्कार) तुम्हें दिखाऊँ जिनकी माँग तुम मुझसे आए दिन करते रहते हो। मुझे जिस काम के लिए भेजा गया है वह तो सिर्फ़ यह है कि लोगों के सामने सीधी राह पेश करूँ और जो लोग उसे क़ुबूल न करें उन्हें बुरे अंजाम से ख़बरदार कर दूँ।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِن كَانَ مِنۡ عِندِ ٱللَّهِ وَكَفَرۡتُم بِهِۦ وَشَهِدَ شَاهِدٞ مِّنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ عَلَىٰ مِثۡلِهِۦ فَـَٔامَنَ وَٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡۚ إِنَّ ٱللَّهَ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 9
(10) ऐ नबी! इनसे कहो, “कभी तुमने सोचा भी कि अगर यह कलाम अल्लाह ही की तरफ़ से हुआ और तुमने इसका इनकार कर दिया (तो तुम्हारा क्या अंजाम होगा)13? और इस जैसे एक कलाम पर तो बनी-इसराईल का एक गवाह गवाही भी दे चुका है। वह ईमान ले आया और तुम अपने घमण्ड में पड़े रहे।14 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह हिदायत नहीं दिया करता।"
13. यह वही बात है जो इससे पहले एक-दूसरे तरीक़े से सूरा-41 हा-मीम सजदा, आयत-52 में गुज़र चुकी है। तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिया-69।
14. क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों के बड़े गरोह ने इस गवाह से मुराद हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-सलाम (रज़ि०) को लिया है जो मदीना तय्यिबा के मशहूर यहूदी आलिम थे और हिजरत के बाद नबी (सल्ल०) पर ईमान लाए। यह वाक़िआ चूँकि मदीना में पेश आया था, इसलिए तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों का कहना यह है कि यह आयत मदनी है। इस तफ़सीर की बुनियाद हज़रत सअद-बिन-अबी-वक़्क़ास (रज़ि०) का यह बयान है कि आयत हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-सलाम (रज़ि०) के बारे में उतरी थी। (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, नसई, इब्ने-जरीर) और इसी बुनियाद पर इब्ने-अब्बास, मुजाहिद, क़तादा, ज़ह्हाक़, इब्ने-सीरीन, हसन बसरी, इब्ने-ज़ैद और औफ़-बिन-मालिक अल-अशजई जैसे क़ुरआन के कई बड़े आलिमों ने इस तफ़सीर को क़ुबूल किया है। मगर दूसरी तरफ़ इकरिमा और शअबी और मसरूक़ कहते हैं कि यह आयत अब्दुल्लाह-बिन-सलाम (रज़ि०) के बारे में नहीं हो सकती, क्योंकि यह पूरी सूरा मक्की है। इब्ने-जरीर तबरी (रह०) ने भी इसी क़ौल (कथन) को तरजीह (प्राथमिकता) दी है और उनका कहना यह है कि ऊपर से बात का सारा सिलसिला मक्का के मुशरिकों को मुख़ातब करते हुए चला आ रहा है और आगे भी सारी बात उन्हीं से कही जा रही है। इस मौक़ा-महल में यकायक मदीना में उतरनेवाली एक आयत के आ जाने की बात सोची भी नहीं जा सकती। बाद के जिन तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने इस दूसरे क़ौल को क़ुबूल किया है वे हज़रत सअद-बिन-अबी-वक़्क़ास (रज़ि०) की रिवायत को रद्द नहीं करते, बल्कि उनका ख़याल यह है कि यह आयत चूँकि हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-सलाम (रज़ि०) के ईमान लाने पर भी चस्पाँ होती है, इसलिए हज़रत सअद ने पहले के तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों की आदत के मुताबिक़ यह फ़रमा दिया कि यह उनके बारे में उतरी। इसका यह मतलब नहीं है कि जब वे ईमान लाए उस वक़्त उन्हीं के बारे में यह उतरी, बल्कि इसका मतलब सिर्फ़ यह है कि उनके हालात इस आयत के ठीक-ठीक मुताबिक़ हैं और उनके इस्लाम क़ुबूल करने पर यह पूरी तरह चस्पाँ होती है। बज़ाहिर यही दूसरी राय ज़्यादा सही और समझ में आनेवाली लगती है। इसके बाद यह सवाल हल होना रह जाता है कि इस 'गवाह' से मुराद कौन है। तफ़सीर लिखनेवाले जिन आलिमों ने इस दूसरी राय को अपनाया है उनमें से कुछ कहते हैं कि इससे मुराद मूसा (अलैहि०) हैं। लेकिन बाद का यह जुमला कि “वे ईमान ले आया और तुम अपने घमण्ड में पड़े रहे।” इस तफ़सीर के साथ कोई जोड़ नहीं रखता। ज़्यादा सही बात वही मालूम होती है जो तफ़सीर लिखनेवाले आलिम नेसाबूरी और इब्ने-कसीर ने बयान की है कि यहाँ गवाह से मुराद कोई ख़ास शख़्स नहीं, बल्कि बनी-इसराईल का एक आम आदमी है। अल्लाह के फ़रमान का मक़सद यह है कि क़ुरआन मजीद जो तालीम तुम्हारे सामने पेश कर रहा है, यह कोई अनोखी चीज़ भी नहीं है जो दुनिया में पहली बार तुम्हारे ही सामने पेश की गई हो और तुम यह बहाना कर सको कि हम यह निराली बातें कैसे मान लें जो इनसानों के सामने कभी आई ही न थीं। इससे पहले यही तालीमात इसी तरह वह्य के ज़रिए से बनी-इसराईल के सामने तौरात और दूसरी आसमानी किताबों की शक्ल में आ चुकी हैं और उनका एक आम आदमी उनको मान चुका है और यह भी मान चुका है अल्लाह की वह्य इन तालीमात के उतरने का ज़रिआ है। इसलिए तुम लोग यह दावा नहीं कर सकते कि वह्य और ये तालीमात समझ में न आनेवाली चीज़ें हैं। अस्ल बात सिर्फ़ यह है कि तुम्हारा ग़ुरूर और बेबुनियाद घमण्ड ईमान लाने में रुकावट है।
وَقَالَ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ لِلَّذِينَ ءَامَنُواْ لَوۡ كَانَ خَيۡرٗا مَّا سَبَقُونَآ إِلَيۡهِۚ وَإِذۡ لَمۡ يَهۡتَدُواْ بِهِۦ فَسَيَقُولُونَ هَٰذَآ إِفۡكٞ قَدِيمٞ ۝ 10
(11) जिन लोगों ने मानने से इनकार कर दिया है, वे ईमान लानेवालों के बारे में कहते हैं कि अगर इस किताब को मान लेना कोई अच्छा काम होता तो ये लोग इस मामले में हमसे आगे न बढ़ सकते थे।15 चूँकि इन्होंने उससे हिदायत न पाई, इसलिए अब ये ज़रूर कहेंगे कि यह तो पुराना झूठ है।16
15. यह उन दलीलों में से एक दलील है जो क़ुरैश के सरदार आम लोगों को नबी (सल्ल०) के ख़िलाफ़ बहकाने के लिए इस्तेमाल करते थे। उनका कहना यह था कि अगर यह क़ुरआन हक़ (सत्य) होता और मुहम्मद (सल्ल०) एक सही बात की तरफ़ बुला रहे होते तो क़ौम के सरदार और बड़े और इज़्ज़तदार लोग आगे बढ़कर इसको क़ुबूल करते। आख़िर यह कैसे हो सकता है कि कुछ ना-तजरिबेकार लड़के और कुछ मामूली दरजे के ग़ुलाम तो एक मुनासिब और सही बात को मान लें और क़ौम के बड़े-बड़े लोग, जो जानकार और दुनिया देखे हुए हैं और जिनकी अक़्ल और तदबीर पर आज तक क़ौम भरोसा करती रही है, उसको रद्द कर दें। धोखे से भरी इस दलील से वे आम लोगों को मुत्मइन करने की कोशिश करते थे कि इस नए पैग़ाम में ज़रूर कुछ ख़राबी है, इसी लिए तो क़ौम के बड़े इसको नहीं मान रहे हैं, इसलिए तुम लोग भी इससे दूर भागो।
16. यानी इन लोगों ने अपने आपको सही और ग़लत का पैमाना ठहरा रखा है। ये समझते हैं कि जिस हिदायत को ये क़ुबूल न करें वह ज़रूर गुमराही ही होनी चाहिए। लेकिन ये इसे 'नया झूठ' कहने की हिम्मत नहीं रखते, क्योंकि इससे पहले भी नबी (अलैहि०) यही तालीमात (शिक्षाएँ) पेश करते रहे हैं और तमाम आसमानी किताबें जो अहले-किताब के पास मौजूद हैं, इन्हीं अक़ीदों और इन्हीं हिदायतों से भरी हुई हैं। इसलिए ये इसे 'पुराना झूठ' कहते हैं। मानो उनके नज़दीक उन सभी लोगों के पास भी अक़्ल न थी जो हज़ारों साल से इन हक़ीक़तों को पेश करते और मानते चले आ रहे हैं और तमाम अक़्लमन्दी सिर्फ़ इनके हिस्से में आ गई है।
وَمِن قَبۡلِهِۦ كِتَٰبُ مُوسَىٰٓ إِمَامٗا وَرَحۡمَةٗۚ وَهَٰذَا كِتَٰبٞ مُّصَدِّقٞ لِّسَانًا عَرَبِيّٗا لِّيُنذِرَ ٱلَّذِينَ ظَلَمُواْ وَبُشۡرَىٰ لِلۡمُحۡسِنِينَ ۝ 11
(12) हालाँकि इससे पहले मूसा की किताब रहनुमा और रहमत बनकर आ चुकी है और यह किताब उसकी तसदीक़ (पुष्टि) करनेवाली ज़बान अरबी में आई है, ताकि ज़ालिमों को ख़बरदार कर दे17 और सही रवैया अपनानेवालों को ख़ुशख़बरी दे दे।
17. यानी उन लोगों को बुरे अंजाम से ख़बरदार कर दे जो अल्लाह से कुफ़्र (इनकार) और दूसरों की बन्दगी करके अपने ऊपर और हक़ और सच्चाई पर ज़ुल्म कर रहे हैं और अपनी इस गुमराही की वजह से अख़लाक़ और आमाल की उन बुराइयों में मुब्तला हैं जिनसे इनसानी समाज तरह-तरह के ज़ुल्मों और बेइनसाफ़ियों से भर गया है।
إِنَّ ٱلَّذِينَ قَالُواْ رَبُّنَا ٱللَّهُ ثُمَّ ٱسۡتَقَٰمُواْ فَلَا خَوۡفٌ عَلَيۡهِمۡ وَلَا هُمۡ يَحۡزَنُونَ ۝ 12
(13) यक़ीनन जिन लोगों ने कह दिया कि अल्लाह ही हमारा रब है, फिर उसपर जम गए, उनके लिए न कोई डर है और न वे दुखी होंगे।18
18. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—33 से 35।
أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلۡجَنَّةِ خَٰلِدِينَ فِيهَا جَزَآءَۢ بِمَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 13
(14) ऐसे सब लोग जन्नत में जानेवाले हैं, जहाँ वे हमेशा रहेंगे, अपने उन आमाल (कर्मों) के बदले जो वे दुनिया में करते रहे हैं।
وَوَصَّيۡنَا ٱلۡإِنسَٰنَ بِوَٰلِدَيۡهِ إِحۡسَٰنًاۖ حَمَلَتۡهُ أُمُّهُۥ كُرۡهٗا وَوَضَعَتۡهُ كُرۡهٗاۖ وَحَمۡلُهُۥ وَفِصَٰلُهُۥ ثَلَٰثُونَ شَهۡرًاۚ حَتَّىٰٓ إِذَا بَلَغَ أَشُدَّهُۥ وَبَلَغَ أَرۡبَعِينَ سَنَةٗ قَالَ رَبِّ أَوۡزِعۡنِيٓ أَنۡ أَشۡكُرَ نِعۡمَتَكَ ٱلَّتِيٓ أَنۡعَمۡتَ عَلَيَّ وَعَلَىٰ وَٰلِدَيَّ وَأَنۡ أَعۡمَلَ صَٰلِحٗا تَرۡضَىٰهُ وَأَصۡلِحۡ لِي فِي ذُرِّيَّتِيٓۖ إِنِّي تُبۡتُ إِلَيۡكَ وَإِنِّي مِنَ ٱلۡمُسۡلِمِينَ ۝ 14
(15) हमने इनसान को हिदायत की कि वह अपने माँ-बाप के साथ अच्छा सुलूक करे। उसकी माँ ने तकलीफ़ उठाकर उसे पेट में रखा और तकलीफ़ उठाकर ही उसको जन्म दिया और उसके हम्ल (गर्भ) और दूध छुड़ाने में तीस महीने लग गए।19 यहाँ तक कि जब वह अपनी पूरी ताक़त को पहुँचा और चालीस साल का हो गया तो उसने कहा, “ऐ मेरे रब, मुझे तौफ़ीक़ दे कि मैं तेरी उन नेमतों का शुक्र अदा करूँ जो तूने मुझे और मेरे माँ-बाप को दीं और ऐसा नेक अमल करूँ जिससे तू राज़ी हो20 और मेरी औलाद को भी नेक बनाकर मुझे सुख दे। मैं तेरे सामने तौबा करता हूँ और फ़रमाँबरादर (मुस्लिम) बन्दों में से हूँ।”
19. यह आयत इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि अगरचे औलाद को माँ-बाप दोनों ही की ख़िदमत करनी चाहिए, लेकिन माँ का हक़ अपनी अहमियत में इस वजह से ज़्यादा है कि वह औलाद के लिए ज़्यादा तकलीफ़ें उठाती है। यही बात उस हदीस से मालूम होती है जो थोड़े-से लफ़्ज़ी फ़र्क़ के साथ बुख़ारी, मुस्लिम, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, इब्ने-माजा, मुसनद अहमद और इमाम बुख़ारी की अदबुल-मुफ़रद में आई है कि एक साहब ने नबी (सल्ल०) से पूछा, “किसकी ख़िदमत करने का हक़ मुझपर सबसे ज़्यादा है?” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तेरी माँ का।” उन्होंने पूछा, “उसके बाद कौन?” फ़रमाया, “तेरी माँ।” उन्होंने पूछा, “उसके बाद कौन?” फ़रमाया, “तेरी माँ।” उन्होंने पूछा, “उसके बाद कौन?” फ़रमाया, “तेरा बाप।” नबी (सल्ल०) का यह फ़रमान ठीक-ठीक इस आयत ही को बयान कर रहा है, क्योंकि इसमें भी माँ के तीन गुने हक़ की तरफ़ इशारा किया गया है: (1) उसकी माँ ने उसे तकलीफ़ उठाकर पेट में रखा, (2) तकलीफ़ उठाकर ही उसको जना (3) और उसके हम्ल (गर्भ) और दूध छुड़ाने में तीस (30) महीने लग गए। इस आयत और सूरा-31 लुक़मान की आयत-14 और सूरा-2 बक़रा की आयत-233 से एक और क़ानूनी नुक्ता (Point) भी निकलता है जिसकी निशानदेही एक मुक़द्दमे में हज़रत अली (रज़ि०) और हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने की और हज़रत उसमान (रज़ि०) ने इसी की बुनियाद पर अपना फ़ैसला बदल दिया। क़िस्सा यह है कि हज़रत उसमान (रज़ि०) की ख़िलाफ़त के दौर में एक आदमी ने क़बीला जुहैना की एक औरत से निकाह किया और शादी के छः ही महीने बाद उसके यहाँ सही सलामत बच्चा पैदा हो गया। उस आदमी ने हज़रत उसमान (रज़ि०) के सामने लाकर यह मामला पेश कर दिया। उन्होंने उस औरत को बदकार ठहराकर हुक्म दिया कि उसे रज्म (संगसार) कर दिया जाए। हज़रत अली (रज़ि०) ने यह क़िस्सा सुना तो फ़ौरन हज़रत उसमान (रज़ि०) के पास पहुँचे और कहा यह आपने क्या फ़ैसला कर दिया? उन्होंने जवाब दिया कि निकाह के छ: महीने बाद उसने ज़िन्दा सलामत बच्चा जन दिया, क्या यह उसके बदकार होने का खुला सुबूत नहीं है? हज़रत अली (रज़ि०) ने फ़रमाया, “नहीं!” फिर उन्होंने क़ुरआन मजीद की ऊपर बयान की गई तीनों आयतें सिलसिलेवार पढ़ीं। सूरा-2 बक़रा, आयत-233 में अल्लाह तआला का फ़रमान है कि “माएँ अपने बच्चों को पूरे दो साल दूध पिलाएँ उस बाप के लिए जो दूध पिलाने की पूरी मुद्दत तक दूध पिलवाना चाहे।” सूरा-31 लुक़मान, आयत-14 में फ़रमाया, “और दो साल उसका दूध छूटने में लगे।” और सूरा-16 अहक़ाफ़, आयत-15 में फ़रमाया, “उसके हम्ल (गर्भ) और उसका दूध छुड़ाने में तीस महीने लगे।” अब अगर तीस महीनों में से दूध पिलाने के दो साल निकाल दिए जाएँ तो हम्ल (गर्भ) के छः महीने रह जाते हैं। इससे मालूम हुआ कि हम्ल की कम-से-कम मुद्दत, जिसमें ज़िन्दा सलामत बच्चा पैदा हो सकता है, छ: महीने है। इसलिए जिस औरत ने निकाह के छ: महीने बाद बच्चा जना हो उसे बदकार नहीं ठहराया जा सकता। हज़रत अली (रज़ि०) की यह दलील सुनकर हज़रत उसमान (रज़ि०) ने फ़रमाया, इस बात की तरफ़ मेरा ज़ेहन बिलकुल न गया था। फिर उन्होंने औरत को वापस बुलवाया और अपना फ़ैसला बदल दिया। एक रिवायत में है कि हज़रत अली (रज़ि०) की दलील की ताईद हज़रत इब्ने-अब्बास (रज़ि०) ने भी की और इसके बाद हज़रत उसमान (रज़ि०) ने अपना फ़ैसला वापस ले लिया। (हदीस : इब्ने-जरीर, अहकामुल-क़ुरआन, लिल-जस्सास, इब्ने-कसीर) इन तीनों आयतों को मिलाकर पढ़ने से जो क़ानूनी हुक्म निकलते हैं, वे ये हैं— (1) जो औरत निकाह के बाद छः महीने से कम मुद्दत में सही-सलामत बच्चा जने (यानी वह इसक़ात (गर्भपात) न हो, बल्कि बच्चा पैदा हो) वह बदकार ठहरेगी और उसके बच्चे का बाप उसके शौहर को नहीं कहा जाएगा। (2) जो औरत निकाह के छः महीने बाद या उससे ज़्यादा मुद्दत में ज़िन्दा सलामत बच्चा जने उसपर बदकारी का इलज़ाम सिर्फ़ इस पैदाइश की बुनियाद पर नहीं लगाया जा सकता, न उसके शौहर को उसपर तुहमत लगाने का हक़ दिया जा सकता है और न उसका शौहर बच्चे का बाप होने से इनकार कर सकता है। बच्चा लाज़िमन उसी का माना जाएगा और औरत को सज़ा न दी जाएगी। (3) दूध पिलाने की ज़्यादा-से-ज़्यादा मुद्दत दो साल है। इस उम्र के बाद अगर किसी बच्चे ने किसी औरत का दूध पिया हो तो वह उसकी रज़ाई (दूध शरीक) माँ नहीं ठहरेगी और न दूध के रिश्ते के वे हुक्म उसपर लगेंगे जो सूरा-4 निसा, आयत-23 में बयान हुए हैं। इस मामले में इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) ने एहतियात के तौर पर दो साल के बजाय ढाई साल की मुद्दत तय की है। दूध के रिश्ते से इनसान पर बहुत-सी पाबन्दियाँ लग जातीं और बहुत-सी चीज़ें मना हो जाती हैं, इसलिए ऐसे नाजुक मामले में ग़लती कर जाने का इमकान बाक़ी न रहे। (और ज़्यादा तफ़सील के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-23) इस जगह पर यह जान लेना फ़ायदे से ख़ाली न होगा कि मेडिकल की बिलकुल नई खोजों के मुताबिक़ माँ के पेट में एक बच्चे को कम-से-कम 28 हफ़्ते दरकार होते हैं, जिनमें वह पल-बढ़कर ज़िन्दा जन्म के क़ाबिल हो सकता है। यह मुद्दत साढ़े छः महीने से कुछ ज़्यादा बनती है। इस्लामी क़ानून में आधे महीने के क़रीब और रिआयत दी गई है, क्योंकि एक औरत का बदकार ठहर जाना और एक बच्चे का बाप के नाम से महरूम (वंचित) हो जाना बड़ा सख़्त मामला है और इसके नाज़ुक होने का तक़ाज़ा है कि माँ और बच्चे, दोनों को उसके क़ानूनी नतीजों से बचाने के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा गुंजाइश दी जाए। इसके अलावा किसी डॉक्टर, किसी क़ाज़ी (जज), यहाँ तक कि ख़ुद माँ बननेवाली औरत और उसे माँ बनानेवाले मर्द को भी ठीक-ठीक यह मालूम नहीं हो सकता कि बच्चा किस वक़्त ठहरा है। यह बात भी इस बात का तक़ाज़ा करती है कि हम्ल (यानी बच्चा ठहरने) की कम-से-कम क़ानूनी मुद्दत के तय करने में कुछ दिनों की गुंजाइश रखी जाए।
20. यानी मुझे ऐसे नेक अमल की ताक़त दे जो अपनी ज़ाहिरी सूरत में भी ठीक-ठीक तेरे क़ानून के मुताबिक़ हो और हक़ीक़त में भी तेरे यहाँ क़ुबूल किए जाने लायक़ हो। एक अमल अगर दुनियावालों के नज़दीक बड़ा अच्छा हो, मगर ख़ुदा के क़ानून की पैरवी उसमें न गई हो, तो दुनिया के लोग चाहे उसपर कितनी ही दाद दें, ख़ुदा के यहाँ वह किसी दाद का हक़दार नहीं हो सकता। दूसरी तरफ़ एक अमल ठीक-ठीक शरीअत के मुताबिक़ होता है और बज़ाहिर उसकी शक्ल में कोई कमी नहीं होती, मगर नीयत की ख़राबी, दिखावा, ख़ुदपसन्दी, घमण्ड और दुनिया की तलब उसको अन्दर से खोखला कर देती है और वह भी इस क़ाबिल नहीं रहता कि अल्लाह के यहाँ क़ुबूल किया जाए।
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ نَتَقَبَّلُ عَنۡهُمۡ أَحۡسَنَ مَا عَمِلُواْ وَنَتَجَاوَزُ عَن سَيِّـَٔاتِهِمۡ فِيٓ أَصۡحَٰبِ ٱلۡجَنَّةِۖ وَعۡدَ ٱلصِّدۡقِ ٱلَّذِي كَانُواْ يُوعَدُونَ ۝ 15
(16) इस तरह के लोगों से हम उनके बेहतर आमाल को क़ुबूल करते हैं और उनकी बुराइयों को अनदेखा कर जाते हैं।21 ये जन्नती लोगों में शामिल होंगे, उस सच्चे वादे के मुताबिक़ जो उनसे किया जाता रहा है।
21. यानी दुनिया में उन्होंने जो बेहतर-से-बेहतर काम किया है, आख़िरत में उनका दरजा उसी के लिहाज़ से तय किया जाएगा और उनकी कोताहियों, कमज़ोरियों और ग़लतियों पर पकड़ नहीं की जाएगी। यह बिलकुल ऐसा ही है जैसे एक मेहरबान और क़द्र पहचाननेवाला मालिक अपने ख़ादिम और वफ़ादार नौकर की क़द्र उसकी छोटी-छोटी ख़िदमतों के लिहाज़ से नहीं, बल्कि उसकी किसी ऐसी ख़िदमत के लिहाज़ से करता है जिसमें उसने कोई बड़ा कारनामा अंजाम दिया हो, जाँनिसारी और वफ़ादारी का कमाल कर दिखाया हो और ऐसे ख़ादिम के साथ वह यह मामला नहीं किया करता कि उसकी ज़रा-जरा-सी कोताहियों पर पकड़ करके उसकी सारी ख़िदमतों पर पानी फेर दे।
وَٱلَّذِي قَالَ لِوَٰلِدَيۡهِ أُفّٖ لَّكُمَآ أَتَعِدَانِنِيٓ أَنۡ أُخۡرَجَ وَقَدۡ خَلَتِ ٱلۡقُرُونُ مِن قَبۡلِي وَهُمَا يَسۡتَغِيثَانِ ٱللَّهَ وَيۡلَكَ ءَامِنۡ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ فَيَقُولُ مَا هَٰذَآ إِلَّآ أَسَٰطِيرُ ٱلۡأَوَّلِينَ ۝ 16
(17) और जिस शख़्स ने अपने माँ-बाप से कहा, “उफ़! तंग कर दिया तुमने, क्या तुम मुझे इससे डराते हो कि मैं मरने के बाद फिर क़ब्र से निकाला जाऊँगा, हालाँकि मुझसे पहले बहुत-सी नस्लें गुज़र चुकी हैं (उनमें से तो कोई उठकर न आया)।” माँ और बाप अल्लाह की दुहाई देकर कहते हैं, “अरे बदनसीब! मान जा, अल्लाह का वादा सच्चा है।” मगर वह कहता है, “ये सब अगले वक़्तों की घिसी-पिटी कहानियाँ हैं।”
أُوْلَٰٓئِكَ ٱلَّذِينَ حَقَّ عَلَيۡهِمُ ٱلۡقَوۡلُ فِيٓ أُمَمٖ قَدۡ خَلَتۡ مِن قَبۡلِهِم مِّنَ ٱلۡجِنِّ وَٱلۡإِنسِۖ إِنَّهُمۡ كَانُواْ خَٰسِرِينَ ۝ 17
(18) ये वे लोग हैं जिनपर अज़ाब का फ़ैसला चस्पाँ हो चुका है। इनसे पहले जिन्नों और इनसानों के जो टोले (इसी तरह के) हो गुज़रे हैं, उन्हीं में ये भी जा शामिल होंगे। बेशक ये घाटे में रह जानेवाले लोग हैं।22
22. यहाँ दो तरह के किरदार आमने-सामने रखकर मानो सुननेवालों के सामने यह ख़ामोश सवाल रख दिया गया है कि बताओ, इन दोनों में से कौन-सा किरदार बेहतर है। उस वक़्त ये दोनों ही किरदार समाज में अमली तौर पर मौजूद थे और लोगों के लिए यह जानना कुछ भी मुश्किल न था कि पहली क़िस्म का किरदार कहाँ पाया जाता है और दूसरी क़िस्म का कहाँ। यह जवाब है क़ुरैश के सरदारों की इस बात का कि अगर इस किताब को मान लेना कोई अच्छा काम होता तो ये कुछ नौजवान और कुछ ग़ुलाम इस मामले में हमसे बाज़ी न ले जा सकते थे। इस जवाब के आईने में हर शख़्स ख़ुद देख सकता था कि माननेवालों का किरदार क्या है और न माननेवालों का क्या।
وَلِكُلّٖ دَرَجَٰتٞ مِّمَّا عَمِلُواْۖ وَلِيُوَفِّيَهُمۡ أَعۡمَٰلَهُمۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 18
(19) दोनों गरोहों में से हर एक के दरजे उनके आमाल के लिहाज़ से हैं, ताकि अल्लाह उनके किए का पूरा-पूरा बदला उनको दे। उनपर ज़ुल्म हरगिज़ न किया जाएगा।23
23. यानी न अच्छे लोगों की नेकियाँ और क़ुरबानियाँ बरबाद होंगी, न बुरे लोगों को उनकी हक़ीक़ी बुराई से बढ़कर सज़ा दी जाएगी। नेक और भला आदमी अगर अपने इनाम से महरूम रह जाए, या अपने हक़ीक़ी हक़ से कम इनाम पाए तो यह भी ज़ुल्म है और बुरा आदमी अपने किए की सज़ा न पाए, या जितना कुछ क़ुसूर उसने किया है उससे ज़्यादा सज़ा पा जाए तो यह भी ज़ुल्म है।
وَيَوۡمَ يُعۡرَضُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَلَى ٱلنَّارِ أَذۡهَبۡتُمۡ طَيِّبَٰتِكُمۡ فِي حَيَاتِكُمُ ٱلدُّنۡيَا وَٱسۡتَمۡتَعۡتُم بِهَا فَٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ عَذَابَ ٱلۡهُونِ بِمَا كُنتُمۡ تَسۡتَكۡبِرُونَ فِي ٱلۡأَرۡضِ بِغَيۡرِ ٱلۡحَقِّ وَبِمَا كُنتُمۡ تَفۡسُقُونَ ۝ 19
(20) फिर जब ये इनकारी लोग आग के सामने ला खड़े किए जाएँगे तो इनसे कहा जाएगा, “तुम अपने हिस्से की नेमतें अपनी दुनिया की ज़िन्दगी में ख़त्म कर चुके और उनका लुत्फ़ तुमने उठा लिया, अब जो घमण्ड तुम ज़मीन में किसी हक़ के बिना करते रहे और जो नाफ़रमानियाँ तुमने कीं, उनके बदले में आज तुमको ज़िल्लत (रुसवाई) का अज़ाब दिया जाएगा।24
24. रुसवाई का अज़ाब उस घमण्ड के हिसाब से है जो उन्होंने किया। वे अपने आपको बड़ी चीज़ समझते थे। उनका ख़याल यह था कि रसूल पर ईमान लाकर ग़रीब और फ़क़ीर ईमानवालों के गरोह में शामिल हो जाना उनकी शान से गिरी हुई बात है। वे इस गुमान और घमंड में मुब्तला थे कि जिस चीज़ को कुछ ग़ुलामों और बे-हैसियत लोगों ने माना है उसे हम जैसे बड़े लोग मान लेंगे तो हमारी इज़्जत को बट्टा लग जाएगा। इसलिए अल्लाह तआला उनको आख़िरत में बे-इज़्ज़त और रुसवा करेगा और उनके घमण्ड को मिट्टी में मिलाकर रख देगा।
۞وَٱذۡكُرۡ أَخَا عَادٍ إِذۡ أَنذَرَ قَوۡمَهُۥ بِٱلۡأَحۡقَافِ وَقَدۡ خَلَتِ ٱلنُّذُرُ مِنۢ بَيۡنِ يَدَيۡهِ وَمِنۡ خَلۡفِهِۦٓ أَلَّا تَعۡبُدُوٓاْ إِلَّا ٱللَّهَ إِنِّيٓ أَخَافُ عَلَيۡكُمۡ عَذَابَ يَوۡمٍ عَظِيمٖ ۝ 20
(21) जरा इन्हें आद के भाई (हूद) का क़िस्सा सुनाओ जबकि उसने अहक़ाफ़ में अपनी क़ौम को ख़बरदार किया था25— और ऐसे ख़बरदार करनेवाले उससे पहले भी गुज़र चुके थे और उसके बाद भी आते रहे— कि “अल्लाह के सिवा किसी की बन्दगी न करो, मुझे तुम्हारे हक़ में एक बड़े हौलनाक दिन के अज़ाब का डर है।”
25. चूँकि क़ुरैश के सरदार अपनी बड़ाई का गुमान और घमंड रखते थे और अपनी मालदारी और सरदारी पर फूले न समाते थे, इसलिए यहाँ उनको आद की क़ौम का किस्सा सुनाया जा रहा है, जिसके बारे में अरब में मशहूर था कि पुराने ज़माने में वह उस सरज़मीन की सबसे ज़्यादा ताक़तवर क़ौम थी। 'अहक़ाफ़', 'हिक़्फ़' की जमा (बहुवचन) है और इसका मानी है रेत के लम्बे-लम्बे टीले जो बुलन्दी में पहाड़ों की हद को न पहुँचे हों। लेकिन उनकी ज़बान में ये अरब के रेगिस्तान (अर्रबउल-ख़ाली) के जुनूबी (दक्षिणी) हिस्से का नाम है, जहाँ आज कोई आबादी नहीं है। इब्ने-इसहाक़ (रह०) का बयान है कि आद का इलाक़ा उमान से यमन तक फैला हुआ था और क़ुरआन मजीद हमें बताता है कि उनका अस्ल वतन 'अल-अहक़ाफ़' था, जहाँ से निकलकर वे आस-पास के देशों में फैले और कमज़ोर क़ौमों पर छा गए। आज के ज़माने तक भी जुनूबी (दक्षिणी) अरब के रहनेवालों में यही बात मशहूर है कि आद इसी इलाक़े में आबाद थे। मौजूदा शहर 'मुकल्ला' से लगभग 125 मील की दूरी पर शिमाल (उत्तर) की तरफ़ हज़र-मौत में एक जगह है जहाँ लोगों ने हज़रत हूद (अलैहि०) का मज़ार बना रखा है और वह हूद (अलैहि०) की क़ब्र के नाम ही से मशहूर है। हर साल 15 शाबान को वहाँ उर्स होता है और अरब के अलग-अलग हिस्सों से हज़ारों आदमी वहाँ इकट्ठे होते हैं। यह क़ब्र अगरचे तारीख़़ी (ऐतिहासिक) तौर पर साबित नहीं है, लेकिन उसका वहाँ बनाया जाना और जुनूबी (दक्षिणी) अरब के लोगों का बड़ी तादाद में उधर आना कम-से-कम इस बात का सुबूत ज़रूर है कि मक़ामी रिवायतें इसी इलाक़े को आद की क़ौम का इलाक़ा ठहराती हैं। इसके अलावा हज़र-मौत में कई खण्डहर (Ruins) ऐसे हैं जिनको मक़ामी लोग आज तक आद के घर कहते हैं। अल-अहक़ाफ़ की मौजूदा हालत को देखकर कोई शख़्स यह गुमान भी नहीं कर सकता कि कभी यहाँ एक शानदार तमद्दुन (रहन-सहन) रखनेवाली ताक़तवर क़ौम आबाद होगी। ज़्यादा इमकान यह है कि हज़ारों साल पहले यह एक हरा-भरा इलाक़ा होगा और बाद में आबो-हवा (जलवायु) के बदलाव ने इसे रेगिस्तान बना दिया होगा। आज उसकी हालत यह है कि वह एक वीरान रेगिस्तान है जिसके अन्दरूनी हिस्सों में जाने की भी कोई हिम्मत नहीं रखता। 1843 ई० में बवेरिया का एक फ़ौजी आदमी इसके जुनूबी (दक्षिणी) किनारे पर पहुँच गया था। वह कहता है कि हज़र-मौत की शिमाली (उत्तरी) ऊँची सतह पर से खड़े होकर देखा जाए तो यह रेगिस्तान एक हज़ार फ़िट गहराई में दिखाई देता है। इसमें जगह-जगह ऐसे सफ़ेद टुकड़े हैं जिनमें कोई चीज़ गिर जाए तो वह रेत में फँसती चली जाती हैं और बिलकुल गल जाती है। अरब के बद्दू (देहाती) इस इलाक़े से बहुत डरते हैं और किसी क़ीमत पर वहाँ जाने के लिए राज़ी नहीं होते। एक मौक़े पर जब देहाती उसे वहाँ ले जाने पर राज़ी न हुए तो वह अकेला वहाँ गया। उसका बयान है कि यहाँ की रेत बिलकुल बारीक पावडर की तरह है। मैंने दूर से एक शाक़ौल (भारी टुकड़ा) उसमें फेंका तो वह 25 मिनट के अन्दर उसमें फँस गया और उस रस्सी का सिरा गल गया जिसके साथ वह बंधा हुआ था। तफ़सीली जानकारी के लिए देखिए— Arabia and the Isles Haroid Ingrams, London, 1946. The Unveiling of Arabia, R.H. Kirnan, London. 1937. The Empty Quarter, philby. London 1933
قَالُوٓاْ أَجِئۡتَنَا لِتَأۡفِكَنَا عَنۡ ءَالِهَتِنَا فَأۡتِنَا بِمَا تَعِدُنَآ إِن كُنتَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ ۝ 21
(22) उन्होंने कहा, “क्या तू इसलिए आया है कि हमें बहकाकर हमारे माबूदों से फेर दे? अच्छा तो ले आ अपना वह अज़ाब जिससे तू हमें डराता है अगर वाक़ई तू सच्चा है।”
قَالَ إِنَّمَا ٱلۡعِلۡمُ عِندَ ٱللَّهِ وَأُبَلِّغُكُم مَّآ أُرۡسِلۡتُ بِهِۦ وَلَٰكِنِّيٓ أَرَىٰكُمۡ قَوۡمٗا تَجۡهَلُونَ ۝ 22
(23) उसने कहा कि “इसका इल्म तो अल्लाह को है।26 मैं सिर्फ़ वह पैग़ाम तुम्हें पहुँचा रहा हूँ जिसे देकर मुझे भेजा गया है। मगर मैं देख रहा हूँ कि तुम लोग जहालत बरत रहे हो।"27
26. यानी यह बात कि अल्लाह ही जानता है कि तुमपर अज़ाब कब आएगा। इसका फ़ैसला करना मेरा काम नहीं है कि तुमपर कब अज़ाब भेजा जाए और कब तक तुम्हें मुहलत दी जाए।
27. यानी तुम अपनी नादानी से मेरी इस तंबीह (चेतावनी) को मज़ाक़ समझ रहे हो और खेल के तौर पर अज़ाब की माँग किए जाते हो। तुम्हें अन्दाज़ा नहीं है कि ख़ुदा का अज़ाब क्या चीज़ होता है और तुम्हारी हरकतों की वजह से वह किस क़द्र तुम्हारे क़रीब आ चुका है।
فَلَمَّا رَأَوۡهُ عَارِضٗا مُّسۡتَقۡبِلَ أَوۡدِيَتِهِمۡ قَالُواْ هَٰذَا عَارِضٞ مُّمۡطِرُنَاۚ بَلۡ هُوَ مَا ٱسۡتَعۡجَلۡتُم بِهِۦۖ رِيحٞ فِيهَا عَذَابٌ أَلِيمٞ ۝ 23
(24) फिर जब उन्होंने उस अज़ाब को अपनी घाटियों की तरफ़ आते देखा तो कहने लगे, “यह बादल है जो हमको सैराब (सिंचित) कर देगा।”— नहीं,28 बल्कि यह वही चीज़ है जिसके लिए तुम जल्दी मचा रहे थे। यह हवा का तूफ़ान है जिसमें दर्दनाक अज़ाब चला आ रहा है,
28. यहाँ इस बात को साफ़ तौर से बयान नहीं किया गया कि उनको यह जवाब किसने दिया बात के अन्दाज़ से ख़ुद-ब-ख़ुद यह ज़ाहिर होता है कि यह वह जवाब था जो अस्ल सूरते-हाल ने अमली तौर पर उनको दिया। वे समझे थे कि यह बादल है जो उनकी घाटियों को सैराब (सिंचित) करने आया है और हक़ीक़त में था वह हवा का तूफ़ान जो उन्हें तबाह और बरबाद करने के लिए बढ़ा चला आ रहा था।
تُدَمِّرُ كُلَّ شَيۡءِۭ بِأَمۡرِ رَبِّهَا فَأَصۡبَحُواْ لَا يُرَىٰٓ إِلَّا مَسَٰكِنُهُمۡۚ كَذَٰلِكَ نَجۡزِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡمُجۡرِمِينَ ۝ 24
(25) अपने रब के हुक्म से हर चीज़ को तबाह कर डालेगा।” आख़िरकार उनका हाल यह हुआ कि उनके रहने की जगहों के सिवा वहाँ कुछ नज़र न आता था। इस तरह हम मुजरिमों को बदला दिया करते हैं।29
29. आद की क़ौम के क़िस्से की तफ़सीलात के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिए—51 से 56; सूरा-11 हूद, हाशिए—54 से 65; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—34 से 37; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—88 से 94; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-65; सूरा-41 हा-मीम सजदा, हाशिए—20, 21।
وَلَقَدۡ مَكَّنَّٰهُمۡ فِيمَآ إِن مَّكَّنَّٰكُمۡ فِيهِ وَجَعَلۡنَا لَهُمۡ سَمۡعٗا وَأَبۡصَٰرٗا وَأَفۡـِٔدَةٗ فَمَآ أَغۡنَىٰ عَنۡهُمۡ سَمۡعُهُمۡ وَلَآ أَبۡصَٰرُهُمۡ وَلَآ أَفۡـِٔدَتُهُم مِّن شَيۡءٍ إِذۡ كَانُواْ يَجۡحَدُونَ بِـَٔايَٰتِ ٱللَّهِ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 25
(26) उनको हमने वह कुछ दिया था जो तुम लोगों को नहीं दिया है।30 उनको हमने कान, आँखें और दिल, दे रखे थे, मगर न वे कान उनके किसी काम आए, न आँखें, न दिल, क्योंकि वे अल्लाह की आयतों का इनकार करते थे,31 और उसी चीज़ के फेर में वे आ गए जिसका वे मज़ाक़ उड़ाते थे।
30. यानी माल-दौलत, ताक़त, हुकूमत किसी चीज़ में भी तुम्हारा और उनका कोई मुक़ाबला नहीं है। तुम्हारी हुकूमत का दायरा तो मक्का की हदों से बाहर कहीं भी नहीं और वे ज़मीन के एक बड़े हिस्से पर छाए हुए थे।
31. इस छोटे-से जुमले में एक अहम हक़ीक़त बयान की गई है। अल्लाह की आयतें ही वे चीज़ हैं जो इनसान को हक़ीक़त की सही समझ-बूझ देती हैं। यह समझ-बूझ इनसान को हासिल हो तो वह आँखों से ठीक देखता है, कानों से ठीक सुनता है और दिलो-दिमाग़ से ठीक सोचता और सही फ़ैसले करता है। लेकिन जब वह अल्लाह की आयतों को मानने से इनकार कर देता है तो आँखें रखते हुए भी उसे हक़ को पहचाननेवाली निगाह नसीब नहीं होती, कान रखते हुए भी वह नसीहत की हर बात के लिए बहरा होता है और दिलो-दिमाग़ की जो नेमतें ख़ुदा ने उसे दी हैं, उनसे उलटी सोचता और एक-से-एक ग़लत नतीजा निकालता चला जाता है, यहाँ तक उसकी सारी क़ुव्वतें ख़ुद उसकी अपनी ही तबाही में ख़र्च होने लगती हैं।
وَلَقَدۡ أَهۡلَكۡنَا مَا حَوۡلَكُم مِّنَ ٱلۡقُرَىٰ وَصَرَّفۡنَا ٱلۡأٓيَٰتِ لَعَلَّهُمۡ يَرۡجِعُونَ ۝ 26
(27) तुम्हारे आस-पास के इलाक़ों में बहुत-सी बस्तियों को हम हलाक कर चुके हैं। हमने अपनी आयतें भेजकर बार-बार तरह से उनको समझाया, शायद कि वे बाज़ आ जाएँ।
فَلَوۡلَا نَصَرَهُمُ ٱلَّذِينَ ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ قُرۡبَانًا ءَالِهَةَۢۖ بَلۡ ضَلُّواْ عَنۡهُمۡۚ وَذَٰلِكَ إِفۡكُهُمۡ وَمَا كَانُواْ يَفۡتَرُونَ ۝ 27
(28) फिर क्यों न उन हस्तियों ने उनकी मदद की, जिन्हें अल्लाह को छोड़कर उन्होंने अल्लाह से क़रीब होने का ज़रिआ समझते हुए माबूद (उपास्य) बना लिया था?32 बल्कि वे तो उनसे खोए गए और यह था उनके झूठ और उन बनावटी अक़ीदों का अंजाम जो उन्होंने गढ़ रखे थे।
32. यानी उन हस्तियों के साथ अक़ीदत की शुरुआत तो इन्होंने इस ख़याल से की थी कि ये ख़ुदा के प्यारे बन्दे हैं, इनके ज़रिए से ख़ुदा के यहाँ हमारी पहुँच होगी। मगर बढ़ते-बढ़ते इन्होंने ख़ुद इन्हीं हस्तियों को माबूद (उपास्य) बना लिया, इन्हीं को मदद के लिए पुकारने लगे, इन्हीं से दुआएँ माँगने लगे और इन्हीं के बारे में यह समझ लिया कि ये सब कुछ कर सकते हैं, हमारी फ़रियाद यही सुनेंगे और हमारी मुश्किल यही हल करेंगे। इस गुमराही से उनको निकालने के लिए अल्लाह तआला ने अपनी आयतें अपने रसूलों के ज़रिए से भेजकर तरह-तरह से उनको समझाने की कोशिश की, मगर वे अपने इन झूठे ख़ुदाओं की बन्दगी पर अड़े रहे और ज़िद किए चले गए कि हम अल्लाह के बजाय इन्हीं का दामन थामे रहेंगे। अब बताओ, इन मुशरिक क़ौमों पर जब उनकी गुमराही की वजह से अल्लाह का अज़ाब आया तो उनके वे फ़रियाद सुननेवाले और मुश्किलें हल करनेवाले माबूद कहाँ मर रहे थे? क्यों न उस बुरे वक़्त में वह उनकी मदद को आए?
وَإِذۡ صَرَفۡنَآ إِلَيۡكَ نَفَرٗا مِّنَ ٱلۡجِنِّ يَسۡتَمِعُونَ ٱلۡقُرۡءَانَ فَلَمَّا حَضَرُوهُ قَالُوٓاْ أَنصِتُواْۖ فَلَمَّا قُضِيَ وَلَّوۡاْ إِلَىٰ قَوۡمِهِم مُّنذِرِينَ ۝ 28
(29) (और वह वाक़िआ ज़िक्र के क़ाबिल है) जब हम ज़िन्नों के एक गरोह को तुम्हारी तरफ़ ले आए थे, ताकि क़ुरआन सुनें।33 जब वे उस जगह पहुँचे (जहाँ तुम क़ुरआन पढ़ रहे थे) तो उन्होंने आपस में कहा, “चुप हो जाओ।” फिर जब वह पढ़ा जा चुका तो वे ख़बरदार करनेवाले बनकर अपनी क़ौम की तरफ़ पलटे।
33. इस आयत की तफ़सीर में जो रिवायतें हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०), हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०), हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) और हसन बसरी (रह०), सईद-बिन-जुबैर (रह०), ज़र्र-बिन-हुबैश (रह०), मुजाहिद (रह०), इकरिमा (रह०) और दूसरे बुजर्गों से नक़्ल हुई हैं, वे सब इस बात पर एकमत हैं कि जिन्नों की पहली हाज़िरी का यह वाक़िआ, जिसका इस आयत में ज़िक्र है, बतने-नख़ला में पेश आया था और इब्ने-इसहाक़, अबू-नुऐम अस्फ़हानी और वाक़िदी का बयान है कि यह उस वक़्त का वाक़िआ है जब नबी (सल्ल०) ताइफ़ से मायूस होकर मक्का की तरफ़ वापस हुए थे। रास्ते में नबी (सल्ल०) नख़ला में ठहरे। वहाँ इशा या फ़ज़्र की या तहज्जुद की नमाज़ में आप (सल्ल०) क़ुरआन की तिलावत कर रहे थे कि जिन्नों के एक गरोह का उधर से गुज़र हुआ और वह क़ुरआन सुनने के लिए ठहर गया। इसके साथ तमाम रिवायतें इस बात पर भी एकमत हैं कि इस मौक़े पर जिन्न नबी (सल्ल०) के सामने नहीं आए थे, न आप (सल्ल०) ने उनके आने को महसूस किया था, बल्कि बाद में अल्लाह तआला ने वह्य के ज़रिए से आप (सल्ल०) को उनके आने और क़ुरआन सुनने की ख़बर दी। यह जगह जहाँ यह वाक़िआ पेश आया, या तो 'अज़्ज़ैमा' था या 'अस्सैलुल-कबीर', क्योंकि ये दोनों जगहें नख़ला की घाटी में पाई जाती हैं, दोनों जगह पानी और हरियाली मौजूद है और ताइफ़ से आनेवालों को अगर इस घाटी में पड़ाव डालने की ज़रूरत पेश आए तो वह इन्हीं दोनों में से किसी जगह ठहर सकते हैं।
يَٰقَوۡمَنَآ أَجِيبُواْ دَاعِيَ ٱللَّهِ وَءَامِنُواْ بِهِۦ يَغۡفِرۡ لَكُم مِّن ذُنُوبِكُمۡ وَيُجِرۡكُم مِّنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 29
(31) ऐ हमारी क़ौम के लोगो! अल्लाह की तरफ़ बुलानेवाले की दावत क़ुबूल कर लो और उसपर ईमान ले आओ, अल्लाह तुम्हारे गुनाहों को माफ़ कर देगा और तुम्हें दर्दनाक अज़ाब से बचा देगा।35
35. भरोसेमन्द रिवायतों से मालूम होता है कि इसके बाद जिन्नों के नुमाइन्दे और गरोह लगातार नबी (सल्ल०) के पास हाज़िर होने लगे और आप (सल्ल०) से उनकी आमने-सामने मुलाक़ातें होती रहीं। इसके बारे में जो रिवायतें हदीस की किताबों में नक़्ल हुई हैं, उनको इकट्ठा करने से मालूम होता है कि हिजरत से पहले मक्का में कम-से-कम छ: वफ़्द (नुमाइन्दा गरोह) आए थे। उनमें से एक नुमाइन्दा गरोह के बारे में हज़रत अबुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि एक दिन रसूल (सल्ल०) मक्का में रात-भर ग़ायब रहे। हम लोग बहुत परेशान थे कि कहीं आप (सल्ल०) पर कोई हमला न कर दिया गया हो। सुबह-सवेरे हमने आप (सल्ल०) को हिरा की तरफ़ से आते हुए देखा। पूछने पर आप (सल्ल०) ने बताया कि एक जिन्न मुझे बुलाने आया था, मैंने उसके साथ आकर यहाँ जिन्नों के एक गरोह को क़ुरआन सुनाया। (हदीस : मुस्लिम, मुसनद अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद) । हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) ही की एक और रिवायत है कि एक बार मक्का में नबी (सल्ल०) ने सहाबा (रज़ि०) से फ़रमाया कि आज रात तुममें से कौन मेरे साथ जिन्नों की मुलाक़ात के लिए चलता है? मैं आप (सल्ल०) के साथ चलने के लिए तैयार हो गया। मक्का के ऊपरी हिस्से में एक जगह नबी (सल्ल०) ने लकीर खींचकर मुझसे फ़रमाया कि इससे आगे न बढ़ना। फिर आप (सल्ल०) आगे तशरीफ़ ले गए और खड़े होकर क़ुरआन पढ़ना शुरू किया। मैंने देखा कि बहुत-से लोग हैं जिन्होंने आप (सल्ल०) को घेर रखा है और वे मेरे और आप (सल्ल०) के बीच में हैं। (इब्ने-जरीर, बैहक़ी, दलाइले-नुबूवत, अबू-नुऐम अस्फ़हानी, दलाइले-नुबूवत) एक और मौक़े पर भी रात के वक़्त हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) नबी (सल्ल०) के साथ थे और मक्का में हजून के मक़ाम पर जिन्नों के एक मुक़द्दमे का आप (सल्ल०) ने फ़ैसला फ़रमाया। इसके कई सालों बाद इले-मसऊद (रज़ि०) ने कूफ़ा में लोगों के एक गरोह को देखकर कहा, हजून के मक़ाम पर जिन्नों के जिस गरोह को मैंने देखा था, वह उन लोगों से बहुत मिलता-जुलता था। (इब्ने-जरीर)
وَمَن لَّا يُجِبۡ دَاعِيَ ٱللَّهِ فَلَيۡسَ بِمُعۡجِزٖ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَلَيۡسَ لَهُۥ مِن دُونِهِۦٓ أَوۡلِيَآءُۚ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٍ ۝ 30
(32) और36 जो कोई अल्लाह की तरफ़ बुलानेवाले की बात न माने, वह न ज़मीन में ख़ुद कोई बल-बूता रखता है कि अल्लाह को परेशान कर दे और न उसके कोई ऐसे मददगार और सरपरस्त हैं कि अल्लाह से उसको बचा लें। ऐसे लोग खुली गुमराही में पड़े हुए हैं।
36. हो सकता है कि यह जुमला भी जिन्नों ही की कही हुई बात का हिस्सा हो और यह भी हो सकता है कि यह उनकी बात पर अल्लाह तआला की तरफ़ से इज़ाफ़ा हो। मौक़ा-महल से दूसरी बात ज़्यादा मुमकिन लगती है।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ أَنَّ ٱللَّهَ ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ وَلَمۡ يَعۡيَ بِخَلۡقِهِنَّ بِقَٰدِرٍ عَلَىٰٓ أَن يُحۡـِۧيَ ٱلۡمَوۡتَىٰۚ بَلَىٰٓۚ إِنَّهُۥ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٞ ۝ 31
(33) और क्या इन लोगों को यह सुझाई नहीं देता कि जिस ख़ुदा ने ये ज़मीन और आसमान पैदा किए हैं और उनको बनाते हुए जो न थका, वह ज़रूर इसकी क़ुदरत रखता है कि मुर्दो को जिला उठाए? क्यों नहीं, यक़ीनन वह हर चीज़ की क़ुदरत रखता है।
وَيَوۡمَ يُعۡرَضُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ عَلَى ٱلنَّارِ أَلَيۡسَ هَٰذَا بِٱلۡحَقِّۖ قَالُواْ بَلَىٰ وَرَبِّنَاۚ قَالَ فَذُوقُواْ ٱلۡعَذَابَ بِمَا كُنتُمۡ تَكۡفُرُونَ ۝ 32
(34) जिस दिन ये इनकारी आग के सामने लाए जाएँगे, उस वक़्त इनसे पूछा जाएगा, “क्या यह हक़ नहीं है?” ये कहेंगे, “हाँ, हमारे रब की क़सम (यह वाक़ई हक़ है)।” अल्लाह फ़रमाएगा, “अच्छा तो अब अज़ाब का मज़ा चखो अपने उस इनकार के बदले में जो तुम करते रहे थे।"
فَٱصۡبِرۡ كَمَا صَبَرَ أُوْلُواْ ٱلۡعَزۡمِ مِنَ ٱلرُّسُلِ وَلَا تَسۡتَعۡجِل لَّهُمۡۚ كَأَنَّهُمۡ يَوۡمَ يَرَوۡنَ مَا يُوعَدُونَ لَمۡ يَلۡبَثُوٓاْ إِلَّا سَاعَةٗ مِّن نَّهَارِۭۚ بَلَٰغٞۚ فَهَلۡ يُهۡلَكُ إِلَّا ٱلۡقَوۡمُ ٱلۡفَٰسِقُونَ ۝ 33
(35) तो ऐ नबी! सब्र करो जिस तरह बुलन्द और मज़बूत इरादोंवाले रसूलों ने सब्र किया है और इनके मामले में जल्दी न करो।37 जिस दिन ये लोग उस चीज़ को देख लेंगे जिससे इन्हें डराया जा रहा है तो इन्हें यूँ मालूम होगा कि जैसे दुनिया में दिन की एक घड़ी भर से ज़्यादा नहीं रहे थे। बात पहुँचा दी गई, अब क्या नाफ़रमान लोगों के सिवा और कोई हलाक होगा?
37. यानी जिस तरह तुमसे पहले के पैग़म्बर अपनी क़ौम की बेरुख़ी, मुख़ालफ़त, रुकावटें डालने और तरह-तरह की तकलीफ़ें पहुँचाने का मुक़ाबला कई सालों तक लगातार सब्र और अनथक जिद्दो-जुद के साथ करते रहे, इसी तरह तुम भी करो और यह ख़याल दिल में न लाओ कि या तो ये लोग जल्दी से ईमान ले आएँ, या फिर अल्लाह तआला उनपर अज़ाब भेज दे।
قَالُواْ يَٰقَوۡمَنَآ إِنَّا سَمِعۡنَا كِتَٰبًا أُنزِلَ مِنۢ بَعۡدِ مُوسَىٰ مُصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيۡهِ يَهۡدِيٓ إِلَى ٱلۡحَقِّ وَإِلَىٰ طَرِيقٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 34
(30) उन्होंने जाकर कहा, “ऐ हमारी क़ौम के लोगो! हमने एक किताब सुनी है जो मूसा के बाद उतारी गई है, तसदीक़ (पुष्टि) करनेवाली है अपने से पहले आई हुई किताबों की, रहनुमाई करती है हक़ और सीधे रास्ते की तरफ़।34
34. इससे मालूम हुआ कि ये जिन्न पहले से हज़रत मूसा (सल्ल०) और आसमानी किताबों को मानते थे। क़ुरआन सुनने के बाद इन्होंने महसूस किया कि यह वही तालीम है जो पिछले पैग़म्बर देते चले आ रहे हैं, इसलिए वे इस किताब पर और इसके लानेवाले रसूल (सल्ल०) पर भी ईमान ले आए।