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سُورَةُ المُجَادلَةِ

58. अल-मुजादला

(मदीना में उतरी, आयतें 22) 

परिचय

नाम

इस सूरा का नाम 'अल-मुजादला' भी है और 'अल-मुजादिला' भी। यह नाम पहली ही आयत के शब्द 'तुजादिलु-क' (तुमसे तकरार कर रही है) से लिया गया है।

उतरने का समय

सूरा-33 (अहज़ाब) में अल्लाह ने मुँहबोले बेटे के सगा बेटा होने को नकारते हुए केवल यह कहकर छोड़ दिया था कि "और अल्लाह ने तुम्हारी उन बीवियों (पत्‍नियों) को, जिनसे तुम 'ज़िहार' करते हो, तुम्हारी माएँ नहीं बना दिया है।" (ज़िहार से अभिप्रेत है पत्‍नी को माँ की उपमा देना।) मगर उसमें यह नहीं बताया गया था कि ज़िहार करना कोई पाप या अपराध है और न यह बताया गया था कि इस कर्म के विषय में शरीअत का क्या आदेश है। इसके विपरीत इस सूरा में ज़िहार का पूरा क़ानून बयान कर दिया गया है। इससे मालूम होता है कि ये विस्तृत आदेश उस संक्षिप्त आदेश के बाद उतरे हैं। [इस तथ्य के अन्तर्गत यह ] बात निश्चित रूप से कही जा सकती है कि इस सूरा के उतरने का समय अहज़ाब के अभियान (शव्वाल, 05 हिजरी) के बाद का है।

विषय और वार्ता

इस सूरा में मुसलमानों को उन विभिन्न समस्याओं के बारे में आदेश दिए गए हैं जो समस्याएँ उस समय पैदा हो गई थीं। सूरा के आरंभ से आयत 6 तक ज़िहार' के बारे में शरीअत के आदेश बयान किए गए हैं और उसके साथ मुसलमानों को अत्यन्त कड़ाई के साथ सावधान किया गया है कि इस्लाम के बाद भी अज्ञानकाल के तरीक़ों पर जमे रहना और अल्लाह की निर्धारित की हुई सीमाओं को तोड़ना निश्चित रूप से ईमान के विपरीत कर्म है, जिसकी सज़ा दुनिया में भी अपमान और अपयश है और आख़िरत में भी उसपर कड़ी पूछ-गच्छ होनी है। आयत 7 से 10 तक में मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) की इस नीति पर पकड़ गई है कि वे आपस में गुप्त कानाफूसियाँ करके तरह-तरह की शरारतों की योजनाएँ बनाते थे और अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को यहूदियों की तरह ऐसे ढंग से सलाम करते थे, जिससे दुआ के बजाय बद-दुआ का पहलू निकलता था। इस संबंध में मुसलमानों को तसल्ली दी गई है कि मुनाफ़िक़ों की ये कानाफूसियाँ तुम्हारा कुछ नहीं बिगाड़ सकर्ती, इसलिए तुम अल्लाह के भरोसे पर अपना काम करते रहो, और इसके साथ उनको यह नैतिक शिक्षा भी दी गई है कि सच्चे ईमानवालों का काम पाप और अत्याचार एवं अन्याय और रसूल की अवज्ञा के लिए कानाफूसियाँ करना नहीं है, वे अगर आपस में बैठकर एकान्त में कोई बात करें भी तो वह भलाई और ईशपरायणता (तक़वा) की बात होनी चाहिए। आयत 11 से 13 तक में मुसलमानों को सभा-सम्बन्धी कुछ नियम सिखाए गए हैं और कुछ ऐसे सामाजिक दोषों को दूर करने के लिए निर्देश दिए गए हैं जो पहले भी लोगों में पाए जाते थे और आज भी पाए जाते हैं। आयत 14 से सूरा के अन्त तक मुस्लिम समाज के लोगों को, जिनमें सच्चे ईमानवाले और मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) और दुविधाग्रस्त सब मिले-जुले थे, बिल्कुल दो-टूक तरीक़े से बताया गया है कि धर्म में आदमी के निष्ठावान होने की कसौटी क्या है। एक प्रकार के मुसलमान वे हैं जो इस्लाम के दुश्मनों से दोस्ती रखते हैं, अपने हित के लिए दीन से विद्रोह करने में वे कोई संकोच नहीं करते। दूसरे प्रकार के मुसलमान वे हैं जो अल्लाह के दीन (ईश्वरीय धर्म) के मामले में किसी और का ध्यान रखना तो अलग रहा स्वयं अपने बाप, भाई, सन्तान और परिवार तक की वे परवाह नहीं करते। अल्लाह ने इन आयतों में स्पष्ट रूप से कह दिया है कि पहले प्रकार के लोग चाहे कितनी ही क़समें खा-खाकर अपने मुसलमान होने का विश्वास दिलाएँ, वास्तव में वे शैतान के दल के लोग हैं और अल्लाह के दल में सम्मिलित होने का सौभाग्य केवल दूसरे प्रकार के मुसलमानों को प्राप्त है।

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سُورَةُ المُجَادلَةِ
58. अल-मुजादला
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
قَدۡ سَمِعَ ٱللَّهُ قَوۡلَ ٱلَّتِي تُجَٰدِلُكَ فِي زَوۡجِهَا وَتَشۡتَكِيٓ إِلَى ٱللَّهِ وَٱللَّهُ يَسۡمَعُ تَحَاوُرَكُمَآۚ إِنَّ ٱللَّهَ سَمِيعُۢ بَصِيرٌ
(1) अल्लाह ने सुन ली1 उस औरत की बात जो अपने शौहर के मामले में तुमसे तक़रार कर रही है और अल्लाह से फ़रियाद किए जाती है। अल्लाह तुम दोनों की बातचीत सुन रहा है,2 वह सब कुछ सुनने और देखनेवाला है।
1. यहाँ सुनने से मुराद सिर्फ़ सुन लेना नहीं है, बल्कि मुश्किल दूर करना है, जैसे हम उर्दू (और हिन्दी) में कहते हैं कि अल्लाह ने दुआ सुन ली, और इससे मुराद दुआ क़ुबूल कर लेना होता है।
2. आम तौर पर तर्जमा करनेवालों ने इस मक़ाम पर 'मुजादला कर रही थी', 'फ़रियाद कर रही थी', और अल्लाह सुन रहा था' तर्जमा किया है, जिसमें पढ़नेवाले का ज़ेहन यह समझ लेता है कि वे औरत अपनी शिकायत सुनाकर चली गई होगी और बाद में किसी वक़्त अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर वह्य आई होगी, इसी लिए तो अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि उस औरत की बात हमने सुन ली जो तुमसे तक़रार और हमसे फ़रियाद कर रही थी, और हम उस वक़्त तुम दोनों की बात सुन रहे थे। लेकिन इस वाक़िए के बारे में जो रिवायतें हदीसों में आई हैं उनमें से ज़्यादातर में यह बताया गया है कि जिस वक़्त वह औरत अपने शौहर के 'ज़िहार' का क़िस्सा सुना-सुनाकर बार-बार नबी (सल्ल०) से कह रही थी कि अगर हम दोनों की जुदाई हो गई तो मैं मुसीबत में पड़ जाऊँगी और मेरे बच्चे तबाह हो जाएँगे, ठीक उसी हालत में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) पर वह्य उतरने की कैफ़ियत छा गई और ये आयतें उतरीं। इस बुनियाद पर हमने इसको तरजीह दी है कि तर्जमा हाल (वर्तमान) के अन्दाज़ में किया जाए। ये औरत जिनके मामले में ये आयतें उतरी हैं, ख़ज़रज क़बीले की ख़ौला-बिन्ते-सअलबा थीं, और उनके शौहर औस-बिन-सामित अनसारी, औस क़बीले के सरदार हज़रत उबादा-बिन-सामित के भाई थे। उनके 'ज़िहार' का क़िस्सा आगे चलकर हम तफ़सील के साथ नक़्ल करेंगे। यहाँ बताने की बात यह है कि इन सहाबिया की फ़रियाद का अल्लाह के दरबार में सुना जाना और फ़ौरन ही वहाँ से उनकी मुश्किल हल करने के लिए मुबारक फ़रमान उतरना एक ऐसा वाक़िआ था जिसकी वजह से सहाबा किराम में उनको एक ख़ास क़द्र और इज़्ज़त हासिल हो गई थी। इब्ने-अबी-हातिम और बैहक़ी ने यह रिवायत नक़्ल की है कि एक बार हज़रत उमर (रज़ि०) कुछ सहाबा के साथ कहीं जा रहे थे। रास्ते में एक औरत मिली और उसने उनको रोका। वे फ़ौरन रुक गए। सर झुकाकर देर तक उसकी बात सुनते रहे और जब तक उसने बात ख़त्म न कर ली वे खड़े रहे। साथियों में से एक साहब ने पूछा, “अमीरुल-मोमिनीन! आपने क़ुरैश के सरदारों को इस बुढ़िया के लिए इतनी देर रोके रखा।" फ़रमाया, “जानते भी हो ये कौन हैं? ये ख़ौला-बिन्ते-सअलबा हैं। ये वे औरत हैं जिनकी शिकायत सात आसमानों पर सुनी गई। ख़ुदा की क़सम! अगर ये रात तक मुझे खड़ा रखतीं तो मैं खड़ा रहता, बस नमाज़ों के वक़्तों पर इनसे मजबूरी ज़ाहिर कर देता।” इब्ने-अब्दुल-बर्र (रह०) ने 'इस्तीआब' में क़तादा की रिवायत नक़्ल की है कि ये औरत रास्ते में हज़रत उमर (रज़ि०) को मिली तो उन्होंने इनको सलाम किया। ये सलाम का जवाब देने के बाद कहने लगीं, “ओहो, ऐ उमर! एक वक़्त था जब मैंने तुमको उकाज़ के बाज़ार में देखा था। उस वक़्त तुम उमैर कहलाते थे। लाठी हाथ में लिए बकरियाँ चराते फिरते थे। फिर कुछ ज़्यादा मुद्दत न गुज़री थी कि तुम उमर (रज़ि०) कहलाने लगे। फिर एक वक़्त आया कि तुम अमीरुल-मोमिनीन कहे जाने लगे। ज़रा रय्यत (जनता) के बारे में अल्लाह से डरते रहो और याद रखो कि जो अल्लाह के अज़ाब की धमकी से डरता है उसके लिए दूर का आदमी भी क़रीबी रिश्तेदार की तरह होता है, और जो मौत से डरता है उसके हक़ में अन्देशा है कि वह उसी चीज़ को खो देगा जिसे बचाना चाहता है।” इसपर जारूद अब्दी, जो हज़रत उमर (रज़ि०) के साथ थे, बोले, “ऐ औरत! तूने अमीरुल-मोमिनीन के साथ बहुत ज़बान-दराज़ी की।” हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया, “इन्हें कहने दो। जानते भी हो ये कौन हैं? इनकी बात तो सात आसमानों के ऊपर सुनी गई थी, उमर को तो पहले सुननी चाहिए।” इमाम बुख़ारी (रह०) ने भी अपनी तारीख़ में मुख़्तसर तौर पर इससे मिलता-जुलता क़िस्सा नक़्ल किया है।
ٱلَّذِينَ يُظَٰهِرُونَ مِنكُم مِّن نِّسَآئِهِم مَّا هُنَّ أُمَّهَٰتِهِمۡۖ إِنۡ أُمَّهَٰتُهُمۡ إِلَّا ٱلَّٰٓـِٔي وَلَدۡنَهُمۡۚ وَإِنَّهُمۡ لَيَقُولُونَ مُنكَرٗا مِّنَ ٱلۡقَوۡلِ وَزُورٗاۚ وَإِنَّ ٱللَّهَ لَعَفُوٌّ غَفُورٞ ۝ 1
(2) तुममें से जो लोग अपनी बीवियों से ‘ज़िहार’ करते हैं3 उनकी बीवियाँ उनकी माँएँ नहीं हैं, उनकी माँएँ तो वही हैं जिन्होंने उनको जना है।4 ये लोग एक सख़्त नापसन्दीदा और झूठी बात कहते हैं,5 और हक़ीक़त यह है कि अल्लाह बड़ा माफ़ करनेवाला और अनदेखी कर देनेवाला है।6
3. अरब में बहुत बार यह सूरत पेश आती थी कि शौहर और बीवी में लड़ाई होती तो शौहर ग़ुस्से में आकर कहता, “अन-ति अलय-य क-ज़हरि उम्मी।” इसका लफ़्जी मतलब तो यह है कि “तू मेरे ऊपर ऐसी है जैसे मेरी माँ की पीठ!” लेकिन इसका अस्ल मतलब यह है कि “तुझसे हमबिस्तरी करना मेरे लिए ऐसा है जैसे मैं अपनी माँ से हमबिस्तरी करूँ।” इस ज़माने में भी बहुत-से नादान लोग बीवी से लड़कर उसको माँ, बहन, बेटी से मिसाल दे बैठते हैं। जिसका साफ़ मतलब यह होता है कि आदमी मानो अब उसे बीवी नहीं, बल्कि उन औरतों की तरह समझता है जो उसके लिए हराम हैं। इसी हरकत का नाम 'ज़िहार' है। 'ज़हर' अरबी ज़बान में सवारी के लिए मिसाल के तौर पर बोला जाता है। मसलन सवारी के जानवर को 'ज़हर' कहते हैं, क्योंकि उसकी पीठ पर आदमी सवार होता है। चूँकि वे लोग बीवी को अपने ऊपर हराम करने के लिए कहते थे कि तुझे 'ज़हर' बनाना मेरे ऊपर ऐसा हराम है जैसे अपनी माँ को ज़हर बनाना, इसलिए ये अलफ़ाज़ ज़बान से निकालना उनकी ज़बान में 'ज़िहार' कहलाता था। जाहिलियत के ज़माने में अरबवालों के यहाँ यह तलाक़, बल्कि इससे भी ज़्यादा सख़्त ताल्लुक़ तोड़ने का एलान समझा जाता था, क्योंकि उनके नज़दीक इसका मतलब यह था कि शौहर अपनी बीवी से न सिर्फ़ मियाँ-बीवी का रिश्ता तोड़ रहा है, बल्कि उसे माँ की तरह अपने ऊपर हराम क़रार दे रहा है। इसी वजह से अरबवालों के नज़दीक तलाक़ के बाद तो रुजू (पलटने) की गुंजाइश हो सकती थी, मगर 'ज़िहार' के बाद पलटने का कोई इमकान बाक़ी न रहता था।
4. यह 'ज़िहार' के बारे में अल्लाह तआला का पहला फ़ैसला है। इसका मतलब यह है कि अगर एक आदमी मुँह फोड़कर बीवी को माँ से मिसाल दे देता है तो उसके ऐसा कहने से बीवी माँ नहीं हो सकती, न वह उस तरह हराम हो सकती है जिस तरह माँ हराम है। माँ का माँ होना तो एक हक़ीक़ी सच्चाई है, क्योंकि उसने आदमी को जना है। इसी वजह से वह हमेशा के लिए हराम है। अब आख़िर वह औरत जिसने उसको नहीं जना है, सिर्फ़ मुँह से कह देने पर उसकी माँ कैसे हो जाएगी, और उसके बारे में अक़्ल, अख़लाक़़, क़ानून, किसी चीज़ के एतिबार से भी उस तरह हराम होना कैसे साबित हो सकता है जो हक़ीक़ी तौर पर जननेवाली माँ के लिए है। इस तरह यह बात कहकर अल्लाह तआला ने जाहिलियत के उस क़ानून को ख़त्म कर दिया जिसके मुताबिक़ ज़िहार करनेवाले शौहर से उसकी बीवी का निकाह टूट जाता था और वह उसके लिए माँ की तरह बिलकुल हराम समझ ली जाती थी।
5. यानी बीवी को माँ जैसी कहना अव्वल तो एक निहायत ही बेहूदा और शर्मनाक बात है जिसका तसव्वुर भी किसी शरीफ़ आदमी को न करना चाहिए, कहाँ यह कि वह इसे ज़बान से निकाले। दूसरे यह झूठ भी है। क्योंकि ऐसी बात कहनेवाला अगर यह ख़बर दे रहा है कि उसकी बीवी उसके लिए अब माँ हो गई है तो झूठी ख़बर दे रहा है। और अगर वह अपना यह फ़ैसला सुना रहा है आज से उसने अपनी बीवी को माँ के जैसा एहतिराम दे दिया है तो भी उसका यह दावा झूठा है, क्योंकि ख़ुदा ने उसे ये इख़्तियार ही नहीं दिए हैं कि जब तक चाहे एक औरत को बीवी की हैसियत से रखे, और जब चाहे उसे माँ की हैसियत दे दे। शरीअत बनानेवाला वह नहीं, बल्कि अल्लाह तआला है, और अल्लाह तआला ने जननेवाली माँ के साथ माँ जैसे रिश्ते के दायरे में दादी, नानी, सास, दूध पिलानेवाली औरत और नबी (सल्ल०) की बीवियों को शामिल किया है। किसी को यह हक़ नहीं पहुँचता कि इस दायरे में अपनी तरफ़ से किसी और औरत को दाख़िल कर दे, कहाँ यह कि उस औरत को जो उसकी बीवी रह चुकी है– इस बात से यह दूसरा क़ानूनी हुक्म निकला कि 'ज़िहार' करना एक बड़ा गुनाह और हराम काम है जिसका करनेवाला सज़ा का हक़दार है।
6. यानी यह हरकत तो ऐसी है कि आदमी को बहुत ही सख़्त सज़ा मिलनी चाहिए, लेकिन यह अल्लाह तआला की मेहरबानी है कि उसने एक तो ‘ज़िहार' के मामले में जाहिलियत के क़ानून को ख़त्म करके तुम्हारी घरेलू ज़िन्दगी को तबाही से बचा लिया, दूसरे इस हरकत के करनेवालों के लिए वह सज़ा बताई जो इस जुर्म की हल्की-से-हल्की सज़ा हो सकती थी, और सबसे बड़ी मेहरबानी यह है कि सज़ा किसी चोट या क़ैद की शक्ल में नहीं, बल्कि कुछ ऐसी इबादतों और नेकियों की शक्ल में बताई जो तुम्हारे नफ़्स (मन) का सुधार करनेवाली और तुम्हारे समाज में भलाई फैलानेवाली हैं। इस सिलसिले में यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि इस्लाम में कुछ जुर्मों और गुनाहों पर जो इबादतें कफ़्फ़ारे (प्रायश्चित) के तौर पर मुक़र्रर की गई हैं वे न सिर्फ़ सज़ा हैं कि इबादत की रूह से ख़ाली हों और न सिर्फ़ इबादत हैं कि सज़ा की तकलीफ़ का कोई पहलू उनमें न हो, बल्कि उनमें ये दोनों पहलू जमा कर दिए गए हैं, ताकि आदमी को तकलीफ़ भी हो और साथ-साथ वह एक नेकी और इबादत करके अपने गुनाह की भरपाई भी कर दे।
وَٱلَّذِينَ يُظَٰهِرُونَ مِن نِّسَآئِهِمۡ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا قَالُواْ فَتَحۡرِيرُ رَقَبَةٖ مِّن قَبۡلِ أَن يَتَمَآسَّاۚ ذَٰلِكُمۡ تُوعَظُونَ بِهِۦۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 2
(3) जो7 लोग अपनी बीवियों से 'ज़िहार' करें फिर अपनी उस बात को वापस ले लें जो उन्होंने कही थी,8 तो इससे पहले कि दोनों एक-दूसरे को हाथ लगाएँ, एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा। इससे तुमको नसीहत की जाती है,9 और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।10
7. यहाँ से 'ज़िहार' के क़ानूनी हुक्म का बयान शुरू हो रहा है। इसको समझने के लिए ज़रूरी है कि ज़िहार के वे वाक़िआत निगाह में रहें जो नबी (सल्ल०) के मुबारक दौर में पेश आए थे, क्योंकि इस्लाम में ज़िहार का तफ़सीली क़ानून इन ही आयतों और उन फ़ैसलों से लिया गया है जो इन आयतों के उतरने के बाद नबी (सल्ल०) ने पेश आनेवाले वाक़िआत में जारी किए। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) के बयान के मुताबिक़ इस्लाम में ज़िहार का पहला वाक़िआ औस-बिन-सामित अनसारी (रज़ि०) का है जिनकी बीवी ख़ौला की फ़रियाद पर अल्लाह तआला ने ये आयतें उतारी। हदीस के आलिमों ने इस वाक़िए की जो तफ़सीलात कई रिवायत करनेवालों से नक़्ल की हैं उनमें छोटे-मोटे फ़र्क़ तो बहुत-से हैं, मगर क़ानूनी अहमियत रखनेवाली ज़रूरी बातें क़रीब-क़रीब सबमें एक जैसी हैं। इन रिवायतों का ख़ुलासा यह है कि हज़रत औस-बिन-सामित (रज़ि०) बुढ़ापे में कुछ चिड़चिड़े भी हो गए थे और कुछ रिवायतों के मुताबिक़ उनके अन्दर कुछ जुनून का-सा असर भी पैदा हो गया था, जिसके लिए रिवायत करनेवालों ने 'का-न बिही ल-म-मुन' के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए है। ‘ल-ममुन' अरबी ज़बान में दीवानगी को नहीं कहते, बल्कि उस तरह की एक कैफ़ियत को कहते हैं जिसे हम उर्दू (और हिन्दी) में 'ग़ुस्से में पागल हो जाना' कहते हैं। इस हालत में वे पहले भी कई बार अपनी बीवी से 'ज़िहार' कर चुके थे, मगर इस्लाम में यह पहला मौक़ा था कि बीवी से लड़कर उनसे फिर यह हरकत हो गई थी। इसपर उनकी बीवी अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुई और सारा क़िस्सा आप (सल्ल०) से बयान करके पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! क्या मेरी और मेरे बच्चों की ज़िन्दगी को तबाही से बचाने के लिए रुख़सत (छूट) का कोई पहलू निकल सकता है?” नबी (सल्ल०) ने जो जवाब दिया वह अलग-अलग रिवायत करनेवालों ने अलग-अलग अलफ़ाज़़ में नक़्ल किया है। कुछ रिवायतों में अलफ़ाज़ ये हैं कि “अभी तक इस मामले में मुझे कोई हुक्म नहीं दिया गया है।” और कुछ में ये अलफ़ाज़ हैं कि "मेरा ख़याल यह है कि तुम उसपर हराम हो गई हो।” और कुछ में यह है कि आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुम उसपर हराम हो गई हो।” इस जवाब को सुनकर वे रोने और फ़रियाद करने लगीं। बार-बार उन्होंने नबी (सल्ल०) से कहा कि उन्होंने तलाक़ के अलफ़ाज़ तो नहीं कहे हैं, आप कोई रास्ता ऐसा बताएँ जिससे मैं और मेरे बच्चे और मेरे बूढ़े शौहर की ज़िन्दगी तबाह होने से बच जाए। मगर हर बार नबी (सल्ल०) उनको वही जवाब देते रहे। इतने में आप (सल्ल०) पर वह्य उतरने की कैफ़ियत छा गई और वे आयतें उतरीं। इसके बाद आप (सल्ल०) ने उनसे कहा (और कुछ रिवायतों के मुताबिक़ उनके शौहर को बुलाकर उनसे कहा) कि “एक ग़ुलाम आज़ाद करना होगा।” उन्होंने इससे मजबूरी ज़ाहिर की तो फ़रमाया कि “दो महीने के लगातार रोज़े रखने होंगे।” उन्होंने कहा कि औस का हाल तो यह है कि दिन में तीन बार खाएँ-पिएँ नहीं तो उनकी आँखों की रौशनी जवाब देने लगती है। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “फिर साठ (60) मिसकीनों को खाना देना पड़ेगा।” उन्होंने कहा कि वे इतनी ताक़त नहीं रखते, सिवाय यह कि आप मदद फ़रमाएँ। तब आप (सल्ल०) ने उन्हें इतना खाने का सामान दिया जो साठ (60) आदमियों के दो वक़्त के खाने के लिए काफ़ी हो। वह सामान कितना था, यह बात अलग-अलग रिवायतों में, अलग-अलग बयान की गई है और कुछ रिवायतों में यह है कि जितना सामान नबी (सल्ल०) ने दिया उतना ही ख़ुद हज़रत ख़ौला (रज़ि०) ने अपने शौहर को दिया, ताकि वे कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) अदा कर सकें। (इब्ने-जरीर, मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, इब्ने-अबी-हातिम) 'ज़िहार' का दूसरा वाक़िआ सलमा-बिन-सख़्र अल-बयाज़ी का है। इन साहब पर हद से ज़्यादा शहवत (कामेच्छा) का ग़लबा था। रमज़ान आया तो उन्होंने इस डर से कि कहीं रोज़े की हालत में दिन के वक़्त बेसब्री न कर बैठें, रमज़ान के आख़िर तक के लिए बीवी से ज़िहार कर लिया। मगर अपनी इस बात पर क़ायम न रह सके और एक रात बीवी के पास चले गए। फिर शर्मिन्दा होकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को क़िस्सा सुनाया। आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “एक ग़ुलाम आज़ाद करो।” उन्होंने कहा, “मेरे पास तो अपनी बीवी के सिवा कोई नहीं जिसे आज़ाद कर दूँ।” आप (सल्ल०) ने फरमाया, “दो महीने के लगातार रोज़े रखो।” उन्होंने कहा, “रोज़ों ही में तो सब न कर सकने की वजह से इस मुसीबत में फँसा हूँ।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “फिर साठ (60) मिसकीनों को खाना खिलाओ।” उन्होंने कहा, “हम तो इतने ज़्यादा ग़रीब हैं कि रात बिना खाए सोए हैं।” इसपर आप (सल्ल०) ने बनी-ज़ुरैक़ के ज़कात वुसूल करनेवाले से उनको खाने का इतना सामान दिलवाया कि उन्होंने उसमें से साठ (60) आदमियों में बाँट दिया और कुछ अपने बाल-बच्चों की ज़रूरतों के लिए भी रख लिया। (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी) तीसरा वाक़िआ नाम बताए बिना यह बयान किया गया है कि एक आदमी ने अपनी बीवी से ज़िहार किया और फिर कफ़्फ़ारा अदा करने से पहले ही उससे हमबिस्तरी कर ली। बाद में नबी (सल्ल०) से मसला पूछा तो आप (सल्ल०) ने हुक्म दिया कि “उससे अलग रहो जब तक कफ़्फ़ारा अदा न कर दो।" (हदीस अबू-दाऊद, तिरमिज़ी, नसई, इबने-माजा) चौथा वाक़िआ यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने एक आदमी को सुना कि अपनी बीवी को बहन कहकर पुकार रहा है। इसपर आप (सल्ल०) ने ग़ुस्से से फ़रमाया, “यह तेरी बहन है?” मगर आप (सल्ल०) ने उसे ज़िहार क़रार नहीं दिया। (हदीस : अबू-दाऊद) ये चार भरोसेमन्द वाक़िआत हैं जो भरोसेमन्द ज़रिओं से हदीसों में मिलते हैं और इन ही की मदद से क़ुरआन मजीद के इस हुक्म को अच्छी तरह समझा जा सकता है जो आगे की आयतों में बयान हुआ है।
8. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं : 'यऊदू-न लिमा कालू'। लफ़्जी तर्जमा यह होगा कि “पलटें उस बात की तरफ़ जो उन्होंने कही।” लेकिन अरबी ज़बान और मुहावरे के लिहाज़ से इन अलफ़ाज़ के मतलब में बड़ा इख़्तिलाफ़ पैदा हो गया है— एक मतलब इनका यह हो सकता है कि एक बार ज़िहार के अलफ़ाज़ मुँह से निकल जाने के बाद फिर उनको दोहराएँ। ज़ाहिरी मसलक के माननेवाले और बुकैर-बिन-अल-अशज्ज और यह्या-बिन-ज़ियाद अल-फ़र्रा इसी को मानते हैं, और अता-बिन-अबी-रबाह (रह०) से भी एक क़ौल (राय) इसी की ताईद में नक़्ल हुआ है। उनके नज़दीक एक बार का ज़िहार तो माफ़ है, अलबत्ता आदमी उसको बार-बार करे तब उसपर कफ़्फ़ारा लाज़िम आता है। लेकिन यह तफ़सीर दो वजहों से सरासर ग़लत है। एक यह कि अल्लाह तआला ने ज़िहार को बेहूदा और झूठी बात क़रार देकर उसके लिए सज़ा बताई है। अब क्या यह बात सोची जा सकती है कि एक बार झूठी और बेहूदा बात आदमी कहे तो माफ़ हो और दूसरी बार कहे तो सज़ा का हक़दार हो जाए? दूसरी वजह उसके ग़लत होने की यह है कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ने ज़िहार करनेवाले किसी शख़्स भी यह सवाल नहीं किया कि क्या उसने एक बार ज़िहार किया है या दो बार। दूसरा मतलब इसका यह है कि जो लोग जाहिलियत के ज़माने में यह हरकत करने के आदी थे, वे अगर इस्लाम में इसको दोहराएँ तो उसकी यह सज़ा है। इसका मतलब यह होगा कि ज़िहार करना अपनी जगह ख़ुद सज़ा का सबब हो और जो आदमी भी अपनी बीवी के लिए ज़िहार के अलफ़ाज़ मुँह से निकाले उसपर कफ़्फ़ारा लाज़िम आ जाए, चाहे वह उसके बाद बीवी को तलाक़ दे दे, या उसकी बीवी मर जाए, या उसका कोई इरादा अपनी बीवी से मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ रखने का न हो। फ़क़ीहों में से ताऊस, मुजाहिद, शअबी, ज़ुहरी, सुफ़ियान सौरी और क़तादा का यही मसलक (राय) है। वे कहते हैं कि ज़िहार के बाद अगर औरत मर जाए तो शौहर उस वक़्त तक उसकी विरासत नहीं पा सकता जब तक कफ़्फ़ारा अदा न कर दे। तीसरा मतलब यह है कि ज़िहार के अलफ़ाज़ ज़बान से निकालने के बाद आदमी पलटकर उस बात की भरपाई करना चाहे जो उसने कही है। दूसरे अलफ़ाज़ में 'आ-द लिमा क़ा-ल' का मतलब है, “कहनेवाले ने अपनी बात वापस ले ली।" चौथा मतलब यह है कि जिस चीज़ को आदमी ने ज़िहार करके अपने लिए हराम किया था उसे पलटकर फिर अपने लिए हलाल करना चाहे। दूसरे अलफ़ाज़ में 'आ-द लिमा क़ा-ल' का मतलब यह है कि जो शख़्स हराम करनेवाला हो गया था वह अब हलाल की तरफ़ पलट आया ज़्यादा तर फ़क़ीहों ने इन ही दोनों मतलबों में से किसी एक को तरजीह दी है।
9. दूसरे अलफ़ाज़ में यह हुक्म तुम्हें अदब सिखाने के लिए दिया जा रहा है, ताकि मुस्लिम समाज के लोग जाहिलियत की इस बुरी आदत को छोड़ दें और तुममें से कोई शख़्स इस बेहूदा हरकत को न करे। बीवी से लड़ना है तो भले आदमियों की तरह लड़ो। तलाक़ ही देना हो तो सीधी तरह तलाक़ दे दो। यह आख़िर क्या शराफ़त है कि आदमी जब बीवी से लड़े तो उसे माँ-बहन बनाकर ही छोड़े।
10. यानी अगर आदमी घर में चुपके-से बीवी के साथ ज़िहार कर बैठे और फिर कफ़्फ़ारा (जुर्माना) अदा किए बिना मियाँ-बीवी के दरमियान पहले की तरह मियाँ-बीवीवाले ताल्लुक़ात चलते रहें, तो चाहे दुनिया में किसी को भी इसकी ख़बर न हो, अल्लाह को तो हर हाल में इसकी ख़बर होगी। अल्लाह की पकड़ से बच निकलना उनके लिए किसी तरह मुमकिन नहीं है।
فَمَن لَّمۡ يَجِدۡ فَصِيَامُ شَهۡرَيۡنِ مُتَتَابِعَيۡنِ مِن قَبۡلِ أَن يَتَمَآسَّاۖ فَمَن لَّمۡ يَسۡتَطِعۡ فَإِطۡعَامُ سِتِّينَ مِسۡكِينٗاۚ ذَٰلِكَ لِتُؤۡمِنُواْ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦۚ وَتِلۡكَ حُدُودُ ٱللَّهِۗ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٌ أَلِيمٌ ۝ 3
(4) और जो शख़्स ग़ुलाम न पाए वह दो महीने के लगातार रोज़े रखे इससे पहले कि दोनों एक-दूसरे को हाथ लगाएँ। और जो यह भी न कर सकता हो वह साठ मिसकीनों को खाना खिलाए।11 यह हुक्म इसलिए दिया जा रहा है कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ।12 यह अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदें हैं, और इनकार करनेवालों के लिए दर्दनाक सज़ा है।13
11. यह है ज़िहार के बारे में अल्लाह तआला का हुक्म। इस्लामी फ़क़ीहों (क़ानून के माहिर आलिमों) ने इस आयत के अलफ़ाज़, अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के फ़ैसलों और इस्लाम के आम उसूलों से इस मसले में जो क़ानून निकाला है उसकी तफ़सीलात ये हैं— (1) ज़िहार का यह क़ानून अरब में इस्लाम के आने से पहले के उस रिवाज को ख़त्म करता है जिसके मुताबिक़ यह हरकत निकाह के रिश्ते को तोड़ देती थी और बीवी शौहर पर हमेशा के लिए हराम हो जाती थी। इसी तरह यह क़ानून उन तमाम क़ानून और रिवाजों को भी ख़त्म करता है जो ज़िहार को बे-मतलब और बे-असर समझते हों और आदमी के लिए इस बात को जाइज़ रखते हों कि वह अपनी बीवी को माँ या उन औरतों से, जिनसे शादी करना हराम है, मिसाल देकर भी उसके साथ पहले की तरह मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ जारी रखे, क्योंकि इस्लाम की निगाह में माँ और दूसरी उन औरतों का, जिनसे शादी करना हराम है, एहतिराम ऐसी मामूली चीज़ नहीं है कि इनसान उनकी और बीवी की हैसियत को एक जैसी समझने का ख़याल भी करे, कहाँ यह कि उसको ज़बान पर लाए। इन दोनों इन्तिहाओं (अतियों) के दरमियान इस्लामी क़ानून ने इस मामले में जो पॉलिसी अपनाई है वह तीन बुनियादों पर क़ायम है। एक यह कि ज़िहार से निकाह नहीं टूटता, बल्कि औरत पहले की तरह शौहर की बीवी रहती है। दूसरी यह कि ज़िहार से औरत वक़्ती तौर पर शौहर के लिए हराम हो जाती है। तीसरी यह कि शौहर-बीवी के ताल्लुक़ का हराम होना उस वक़्त तक बाक़ी रहता है जब तक शौहर कफ़्फ़ारा अदा न कर दे, और यह कि सिर्फ़ कफ़्फ़ारा ही इसके हराम होने को हलाल कर सकता है। (2) ज़िहार करनेवाले शख़्स के बारे में यह बात सभी आलिम मानते हैं कि उस शौहर का ज़िहार भरोसेमन्द है जो अक़्लवाला और बालिग़ हो और पूरे होश व हवास की हालत में ज़िहार के अलफ़ाज़ ज़बान से अदा करे। बच्चे और पागल आदमी का ज़िहार भरोसेमन्द नहीं है। इसके अलावा ऐसे शख़्स का ज़िहार भी भरोसेमन्द नहीं जो इन अलफ़ाज़ को अदा करते वक़्त अपने होश व हवास में न हो, मसलन सोते में बड़बड़ाए, या किसी तरह की बेहोशी में मुब्तला हो गया हो। उसके बाद नीचे लिखी बातों में फ़क़ीहों के दरमियान इख़्तिलाफ़ है— (i) नशे की हालत में ज़िहार करनेवाले के बारे में चारों इमामों समेत फ़क़ीहों की एक बड़ी तादाद यह कहती है कि अगर किसी शख़्स ने कोई नशीली चीज़ जान-बूझकर इस्तेमाल की हो तो उसका ज़िहार उसकी तलाक़ की तरह क़ानूनन सही माना जाएगा, क्योंकि उसने यह हालत अपने ऊपर ख़ुद तारी की है। अलबत्ता अगर बीमारी की वजह से उसने कोई दवा पी हो और उससे नशा हो गया हो, या प्यास की शिद्दत में वह जान बचाने के लिए शराब पीने पर मजबूर हुआ हो तो इस तरह के नशे की हालत में उसके ज़िहार और तलाक़ को लागू नहीं किया जाएगा। हनफ़ी, शाफ़िई और हंबली फ़क़ीहों (आलिमों) की राय यही है और सहाबा का आम मसलक भी यही था। इसके बरख़िलाफ़ हज़रत उसमान (रज़ि०) का क़ौल यह है कि नशे की हालत में तलाक़ और ज़िहार भरोसेमन्द नहीं हैं। हनफ़ी आलिमों में इमाम तहावी (रह०) और करख़ी (रह०) इस क़ौल (राय) को तरजीह देते हैं और इमाम शाफ़िई (रह०) का भी एक क़ौल इसकी ताईद में है। मालिकी आलिमों के नज़दीक ऐसे नशे की हालत में ज़िहार भरोसेमन्द होगा जिसमें आदमी बिलकुल बहक न गया हो, बल्कि वह ठीक-ठाक बात कर रहा हो और उसे यह एहसास हो कि वह क्या कह रहा है। (ii) इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) और इमाम मालिक (रह०) के नज़दीक ज़िहार सिर्फ़ उस शौहर का भरोसेमन्द है जो मुसलमान हो। ज़िम्मियों (ग़ैर-मुस्लिमों) पर ये हुक्म लागू नहीं होते, क्योंकि क़ुरआन मजीद में 'अल्लज़ी-न युज़ाहिरू-न मिनकुम' (तुममें से जो लोग ज़िहार करते हैं) के अलफ़ाज़ कहे गए हैं, जिनका ख़िताब (सम्बोधन) मुसलमानों से है, और तीन क़िस्म के कफ़्फ़ारों में से एक कफ़्फ़ारा क़ुरआन मजीद में रोज़ा भी बताया गया है जो ज़ाहिर है कि ज़िम्मियों के लिए नहीं हो सकता। इमाम शाफ़िई (रह०) और इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक ये हुक्म ज़िम्मी और मुसलमान, दोनों के ज़िहार पर लागू होंगे, अलबत्ता ज़िम्मी के लिए रोज़ा नहीं है। वह या ग़ुलाम आज़ाद करे या साठ (60) मिसकीनों को खाना खिलाए। (iii) क्या मर्द की तरह औरत भी ज़िहार कर सकती है? मसलन अगर वह शौहर से कहे कि तू मेरे लिए मेरे बाप की तरह है, या मैं तेरे लिए तेरी माँ की तरह हूँ! तो क्या यह भी ज़िहार होगा? चारों इमाम कहते हैं कि यह ज़िहार नहीं है और उसपर ज़िहार के क़ानूनी हुक्म सिरे से लागू नहीं होते। क्योंकि क़ुरआन मजीद ने साफ़ अलफ़ाज़ में ये हुक्म सिर्फ़ उस सूरत के लिए बयान किए हैं जबकि शौहर बीवियों से ज़िहार करें (सूरा-58, आयत-3) और ज़िहार करने के इख़्तियार उसी को हासिल हो सकते हैं जिसे तलाक़ देने का इख़्तियार है। औरत को शरीअत ने जिस तरह यह इख़्तियार नहीं दिया कि शौहर को तलाक़ दे दे उसी तरह उसे यह इख़्तियार भी नहीं दिया कि अपने-आपको शौहर के लिए हराम कर ले। यही राय सुफ़ियान सौरी, इसहाक़ राहवैह, अबू-सौर और लैस-बिन-साद (रह०) की है कि औरत का ऐसा कहना बिलकुल बेमानी और बे-असर है। इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) कहते हैं कि यह ज़िहार तो नहीं है, मगर इससे औरत पर क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, क्योंकि औरत का ऐसे अलफ़ाज़ कहना यह मतलब रखता है कि उसने अपने शौहर से ताल्लुक़ न रखने की क़सम खाई है। इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) का मसलक भी इब्ने-क़ुदामा ने यही नक़्ल किया है। इमाम औज़ाई (रह०) कहते हैं कि अगर शादी से पहले औरत ने यह बात कही हो कि मैं उस शख़्स से शादी करूँ तो वह मेरे लिए ऐसा है जैसा मेरा बाप, तो यह ज़िहार होगा, और अगर शादी के बाद कहे तो यह क़सम के मानी में होगा, जिससे क़सम तोड़ने का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा। इसके बरख़िलाफ़ हसन बसरी, ज़ुहरी, इबराहीम नख़ई और हसन-बिन-ज़ियाद लुलुई (रह०) कहते हैं कि यह ज़िहार है और ऐसा कहने से औरत पर ज़िहार का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, अलबत्ता औरत को यह हक़ न होगा कि कफ़्फ़ारा देने से पहले शौहर को अपने पास आने से रोक दे। इबराहीम नख़ई (रह०) इसकी ताईद में यह वाक़िआ नक़्ल करते हैं कि हज़रत तलहा (रज़ि०) की बेटी आइशा से हज़रत ज़ुबैर (रज़ि०) के बेटे मुसअब ने निकाह का पैग़ाम दिया। उन्होंने उसे रद्द करते हुए ये अलफ़ाज़ कह दिए कि “अगर मैं उनसे निकाह करूँ तो वे मेरे ऊपर ऐसे हों जैसे मेरे बाप की पीठ!” कुछ मुद्दत बाद वे उनसे शादी करने पर राज़ी हो गईं। मदीना के आलिमों से उसके बारे में फ़तवा लिया गया तो बहुत-से फ़क़ीहों ने जिनमें कई सहाबा भी शामिल थे, यह फ़तवा दिया कि आइशा पर ज़िहार का कफ़्फ़ारा लाज़िम है। इस वाक़िए को नक़्ल करने के बाद इबराहीम नख़ई अपनी यह राय बयान करते हैं कि अगर आइशा यह बात शादी के बाद कहतीं तो कफ़्फ़ारा लाज़िम न आता, मगर उन्होंने शादी से पहले यह कहा था जब उन्हें निकाह करने या न करने का इख़्तियार हासिल था, इसलिए कफ़्फ़ारा उनपर वाजिब हो गया। (3) जो समझदार और बालिग़ आदमी ज़िहार के साफ़ अलफ़ाज़ होश व हवास की हालत में ज़बान से अदा करे उसका यह बहाना मानने लायक नहीं हो सकता कि उसने ग़ुस्से में, या मज़ाक़ में, या प्यार से ऐसा कहा, या यह कि उसकी नीयत ज़िहार की न थी। अलबत्ता जो अलफ़ाज़ इस मामले में वाज़ेह नहीं हैं, और जिनसे अलग-अलग मतलब निकाले जा सकते हों, उनके बारे में अलफ़ाज़ के मुताबिक़ फ़ैसला किया जाएगा। आगे चलकर हम बताएँगे कि ज़िहार के वाज़ेह अलफ़ाज़ कौन-से हैं और कौन-से अलफ़ाज़ वाज़ेह नहीं हैं। (4) यह बात सभी आलिम मानते हैं कि ज़िहार उस औरत से किया जा सकता है जो आदमी के निकाह में हो। अलबत्ता इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि क्या ग़ैर-औरत से भी ज़िहार हो सकता है। इस मामले में अलग-अलग मसलक (राएँ) ये हैं— हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि ग़ैर-औरत से अगर आदमी यह कहे कि “मैं तुझसे निकाह करूँ तो मेरे ऊपर तू ऐसी है जैसी मेरी माँ की पीठ,” तो जब भी वह उससे निकाह करेगा कफ़्फ़ारा अदा किए बिना उसे हाथ न लगा सकेगा। यही हज़रत उमर (रज़ि०) का फ़तवा है। उनके ज़माने में एक आदमी ने एक औरत से यह बात कही। और बाद में उससे निकाह कर लिया। हज़रत उमर (रज़ि०) ने फ़रमाया कि उसे ज़िहार का कफ़्फ़ारा देना होगा। मालिकी और हंबली मसलक के आलिम भी यही बात कहते हैं, और वे इसपर यह इज़ाफ़ा करते हैं कि अगर औरत को ख़ास न किया गया हो, बल्कि कहनेवाले ने यूँ कहा हो कि तमाम औरतें मेरे ऊपर ऐसी हैं, तो जिससे भी वह निकाह करेगा उसे हाथ लगाने से पहले कफ़्फ़ारा देना होगा। यही राय सईद-बिन-मुसय्यब, उरवा-बिन-ज़ुबैर, अता-बिन-अबी-रबाह, हसन बसरी और इसहाक़-बिन-राहवैह (रह०) की है। शाफ़िई मसलक के आलिम कहते हैं कि निकाह से पहले ज़िहार बिलकुल बेमानी है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) और क़तादा की भी यही राय है। (5) क्या ज़िहार एक ख़ास वक़्त तक के लिए हो सकता है? हनफ़ी और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि अगर आदमी ने किसी ख़ास वक़्त को तय करके ज़िहार किया हो तो जब तक वह वक़्त बाक़ी है, बीवी को हाथ लगाने से कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, और उस वक़्त के गुज़र जाने पर ज़िहार बे-असर हो जाएगा। इसकी दलील सलमा-बिन-सख़्र बयाज़ी का वाक़िआ है, जिसमें उन्होंने अपनी बीवी से रमज़ान के लिए ज़िहार किया था और नबी (सल्ल०) ने उनसे यह नहीं फ़रमाया था कि वक़्त को तय करना बेमानी है। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक (रह०) और इब्ने-अबी-लैला कहते हैं कि ज़िहार जब भी किया जाएगा, हमेशा के लिए होगा और वक़्त को ख़ास करना बे-असर होगा, क्योंकि जो चीज़ हराम हो गई है वह वक़्त गुज़र जाने पर आप-से-आप हलाल नहीं हो सकती। (6) शर्त के साथ ज़िहार किया गया हो तो जिस वक़्त भी शर्त की ख़िलाफ़वर्ज़ी होगी, कफ़्फ़ारा लाज़िम आ जाएगा। मसलन आदमी बीवी से यह कहता है कि “अगर मैं घर में आऊँ तो मेरे ऊपर तू ऐसी है जैसी मेरी माँ की पीठ!” इस सूरत में वह जब भी घर में दाख़िल होगा, कफ़्फ़ारा अदा किए बिना बीवी को हाथ न लगा सकेगा। (7) एक बीवी से कई बार ज़िहार के अलफ़ाज़ कहे गए हों तो हनफ़ी और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि चाहे एक ही बार में ऐसा किया गया हो या कई बैठकों में, बहरहाल जितनी बार ये अलफ़ाज़ कहे गए हों उतने की कफ़्फ़ारे लाज़िम आएँगे, सिवाय यह कि कहनेवाले ने एक बार कहने के बाद उस बात को बार-बार सिर्फ़ अपनी पहली बात की ताकीद के लिए कहा हो। इसके बरख़िलाफ़ इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद-बिन-हंबल (रह०) कहते हैं कि चाहे कितनी ही बार उस बात को दोहराया गया हो, फिर चाहे दोहराने की नीयत हो या ताकीद की, कफ़्फ़ारा एक ही लाज़िम होगा। यही क़ौल (राय) शअबी, ताऊस, अता-बिन-अबी-रबाह, हसन बसरी और औज़ाई (रह०) का है। हज़रत अली (रज़ि०) का फ़तवा यह है कि अगर तकरार एक बैठक में की गई हो तो एक ही कफ़्फ़ारा होगा, और अलग-अलग बैठकों में हो तो जितनी बैठकों में की गई हो उतने ही कफ़्फ़ारे देने होंगे। क़तादा और अम्र-बिन-दीनार की राय भी यही है। (8) दो या ज़्यादा बीवियों से एक ही वक़्त और एक ही लफ़्ज़ में ज़िहार किया जाए, मसलन उनको मुख़ातब करके शौहर कहे कि तुम मेरे ऊपर ऐसी हो जैसी मेरी माँ की पीठ, तो हनफ़ी और शाफ़िई मसलकवाले आलिम कहते हैं कि हर एक को हलाल करने के लिए अलग-अलग कफ़्फ़ारे देने होंगे। यही राय हज़रत उमर (रज़ि०), हज़रत अली (रज़ि०), उरवा-बिन-ज़ुबैर, ताऊस, अता, हसन बसरी, इबराहीम नख़ई, सुफ़ियान सौरी और इब्ने-शिहाब ज़ुहरी की है। इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) कहते हैं कि इस सूरत में सबके लिए एक ही कफ़्फ़ारा लाज़िम होगा। रबीआ, औज़ाई, इसहाक़-बिन-राहवैह और अबू-सौर की भी यही राय है। (9) एक ज़िहार का कफ़्फ़ारा देने के बाद अगर आदमी फिर से ज़िहार कर बैठे तो यह बात सभी आलिम कहते हैं कि फिर कफ़्फ़ारा दिए बिना बीवी उसके लिए हलाल न होगी। (10) कफ़्फ़ारा अदा करने से पहले अगर बीवी से मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ क़ायम कर बैठा हो तो चारों इमामों के नज़दीक अगरचे यह गुनाह है, और आदमी को इसपर तौबा करनी चाहिए, और फिर इसे दोहराना न चाहिए, मगर कफ़्फ़ारा उसे एक ही देना होगा। अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के ज़माने में जिन लोगों ने ऐसा किया था उनसे आप (सल्ल०) ने यह तो फ़रमाया था कि इसतिग़फ़ार (तौबा) करो और उस वक़्त तक अपनी बीवी से अलग रहो जब तक कफ़्फ़ारा अदा न कर दो, मगर यह हुक्म आप (सल्ल०) ने नहीं दिया था कि ज़िहार के कफ़्फ़ारे के अलावा इसपर उन्हें कोई और कफ़्फ़ारा भी देना होगा। हज़रत अम्र-बिन-आस, क़बीसा-बिन-ज़ुऐब, सईद-बिन-जुबैर, ज़ुहरी और क़तादा (रह०) कहते हैं कि इसपर दो कफ़्फ़ारे लाज़िम होंगे। और हसन बसरी और इबराहीम नख़ई (रह०) की राय यह है कि तीन कफ़्फ़ारे देने होंगे। शायद इन बुज़ुर्गों को वे हदीसें न पहुँची होंगी जिनमें इस मसले पर नबी (सल्ल०) का फ़ैसला बयान हुआ है। (11) बीवी को किसके जैसी कहना ज़िहार है? इस मसले में फ़क़ीहों के दरमियान राएँ अलग-अलग हैं— आमिर शअबी (रह०) कहते हैं कि बीवी को सिर्फ़ माँ के जैसी कहना ज़िहार है, और ज़ाहिरी मसलकवाले कहते हैं कि माँ की भी सिर्फ़ पीठ से मिसाल देना ज़िहार है, बाक़ी और किसी बात पर यह हुक्म चस्पाँ नहीं होता। मगर मुस्लिम समाज के फ़क़ीहों में से किसी ने भी इस मामले में उनसे इत्तिफ़ाक़ नहीं किया है, क्योंकि क़ुरआन ने माँ से मिसाल देने को गुनाह क़रार देने की वजह यह बयान की है कि यह निहायत बेहूदा और झूठी बात है। अब यह ज़ाहिर है कि जिन औरतों का एहतिराम (हराम होना) माँ जैसा है उनके साथ बीवी की मिसाल देना बेहूदगी और झूठ में इससे कुछ अलग नहीं है, इसलिए कोई वजह नहीं कि इसका हुक्म वही न हो जो माँ से मिसाल देने का हुक्म है। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि इस हुक्म में तमाम वे औरतें दाख़िल हैं जो नसब (ख़ून के रिश्ते) या रज़ाअत (दूध के रिश्ते), या शादी के रिश्ते की बुनियाद पर आदमी के लिए हमेशा के लिए हराम हैं। मगर वक़्ती तौर पर जो औरतें हराम हों और किसी वक़्त हलाल हो सकती हों वे इसमें दाख़िल नहीं हैं, जैसे बीवी की बहन, उसकी ख़ाला, उसकी फूफी, या ग़ैर-औरत आदमी के निकाह में न हो। हमेशा के लिए हराम औरतों में से किसी औरत के जिस्म के किसी ऐसे हिस्से के साथ मिसाल देना जिसपर नज़र डालना आदमी के लिए हलाल न हो, ज़िहार होगा। अलबत्ता बीवी के हाथ-पाँव, सिर, बाल, दाँत वग़ैरा को हमेशा के लिए हराम औरत की पीठ से, या बीवी को उसके सिर, हाथ-पाँव जैसे जिस्मानी हिस्सों से मिसाल देना ज़िहार न होगा क्योंकि माँ-बहन के इन हिस्सों पर निगाह डालना हराम नहीं है। इसी तरह यह कहना कि तेरा हाथ मेरी माँ के हाथ जैसा है, या तेरा पाँव मेरी माँ के पाँव जैसा है, ज़िहार नहीं है। शाफ़िई आलिम कहते हैं कि इस हुक्म में सिर्फ़ वही औरतें दाख़िल हैं जो हमेशा हराम थीं और हमेशा हराम रहें, यानी माँ, बहन, बेटी वग़ैरा। मगर वे औरतें इसमें दाख़िल नहीं हैं जो कभी हलाल रह चुकी हों, जैसे दूध पिलानेवाली माँ, बहन, सास और बहू, या किसी वक़्त हलाल हो सकती हों, जैसे साली। इन वक़्ती हराम औरतों के सिवाय हमेशा के लिए हराम औरतों में से किसी के जिस्म के उन हिस्सों के साथ बीवी को मिसाल देना ज़िहार होगा जिनका ज़िक्र इज़्ज़त और एहतिराम ज़ाहिर करने के लिए आदत के तौर पर नहीं किया जाता। रहे जिस्म के वे हिस्से जिनका इज़हार इज़्ज़त और एहतिराम के लिए किया जाता है तो उनकी मिसाल देना सिर्फ़ उस सूरत में ज़िहार होगा जबकि यह बात ज़िहार की नीयत से कही जाए। मसलन बीवी से यह कहना कि तू मेरे लिए मेरी माँ की आँख या जान की तरह है, या माँ के हाथ-पाँव या पेट की तरह है, या माँ के पेट या सीने से बीवी के पेट या सीने की मिसाल देना, या बीवी के सिर, पीठ या हाथ को अपने लिए माँ की पीठ जैसा क़रार देना, या बीवी को यह कहना कि तू मेरे लिए मेरी माँ जैसी है, ज़िहार की नीयत से हो तो ज़िहार है और इज़्ज़त की नीयत से हो तो इज़्ज़त है। मालिकी आलिम कहते हैं कि हर औरत जो आदमी के लिए हराम हो, उससे बीवी की मिसाल देना ज़िहार है, यहाँ तक कि बीवी से यह कहना भी ज़िहार कहलाता है कि तू मेरे ऊपर फ़ुलाँ ग़ैर-औरत की पीठ जैसी है। इसके अलावा वे कहते हैं कि माँ और हमेशा के लिए हराम औरतों के जिस्म के किसी हिस्से से बीवी की या बीवी के किसी हिस्से की मिसाल देना ज़िहार है, और इसमें यह शर्त नहीं है कि वे हिस्से ऐसे हों जिनपर नज़र डालना हलाल न हो, क्योंकि माँ के किसी हिस्से पर भी उस तरह की नज़र डालना जैसी बीवी पर डाली जाती है, हलाल नहीं है। हंबली आलिम इस हुक्म में तमाम उन औरतों को दाख़िल समझते हैं जो हमेशा के लिए हराम हों, चाहे वे पहले कभी हलाल रह चुकी हों, मसलन सास, या दूध पिलानेवाली माँ। रहीं वे औरतें जो बाद में किसी वक़्त हलाल हो सकती हों (मसलन साली), तो उनके मामले में इमाम अहमद की एक राय यह है कि उनसे मिसाल देना भी ज़िहार है और दूसरी राय यह है कि उनसे मिसाल देना ज़िहार नहीं है। इसके अलावा हंबली आलिमों के नज़दीक बीवी के जिस्म के किसी हिस्से को हराम की हुई औरतों के किसी हिस्से से मिसाल देना ज़िहार में आ जाता है। अलबत्ता बाल, नाख़ुन, दाँत जैसे आरज़ी हिस्से इस हुक्म में नहीं आते। (12) इस बात में तमाम फ़क़ीहों की राय एक है कि बीवी से यह कहना कि “तू मेरे ऊपर मेरी माँ की पीठ जैसी है!” साफ़ ज़िहार है, क्योंकि अरब के लोगों में यही ज़िहार का तरीक़ा था और क़ुरआन मजीद का हुक्म इसी के बारे में उतरा है। अलबत्ता इस बात में फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) के दरमियान इख़्तिलाफ़ है कि दूसरे अलफ़ाज़ में से कौन-से ऐसे हैं जो साफ़ ज़िहार के हुक्म में हैं, और कौन-से ऐसे हैं जिनके ज़िहार होने या न होने का फ़ैसला कहनेवाले की नीयत पर किया जाएगा। हनफ़ी आलिमों के नज़दीक ज़िहार के साफ़ अलफ़ाज़ ये हैं जिनमें साफ़ तौर पर हलाल औरत (बीवी) को हराम औरत (ऐसी औरतों में से कोई औरत जिनसे शादी करना हराम हो) से मिसाल दी गई हो, या मिसाल ऐसे हिस्से से दी गई हो जिसपर नज़र डालना हलाल नहीं है, जैसे यह कहना कि तू मेरे ऊपर माँ या फ़ुलाँ हराम औरत के पेट या रान जैसी है। इनके सिवा दूसरे अलफ़ाज़ में इस बात की गुंजाइश है कि इनसे ज़िहार के अलावा कोई दूसरा मतलब ले लिया जाए। अगर कहे कि “तू मेरे ऊपर हराम है जैसे मेरी माँ की पीठ!” तो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक यह साफ़ ज़िहार है, लेकिन इमाम अबू-यूसुफ़ (रह०) और इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक ज़िहार की नीयत हो तो ज़िहार है और तलाक़ की नीयत हो तो तलाक़। अगर कहे कि “तू मेरी माँ जैसी है या मेरी माँ की तरह है!” तो हनफ़ी आलिमों का आम फ़तवा यह है कि यह ज़िहार की नीयत से ज़िहार है, तलाक़ की नीयत से बाइन तलाक़, और अगर कोई नीयत न हो तो बेमानी है। लेकिन इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक यह पूरी तरह ज़िहार है। अगर बीवी को माँ या बहन या बेटी कहकर पुकारे तो सख़्त बेहूदा बात है, जिसपर नबी (सल्ल०) ने ग़ुस्से का इज़हार फ़रमाया था, मगर इसे ज़िहार नहीं क़रार दिया। अगर कहे कि “तू मेरे ऊपर माँ की तरह हराम है!” तो यह ज़िहार की नीयत से ज़िहार है, तलाक़ की नीयत से तलाक़, और कोई नीयत न हो तो ज़िहार है। अगर कहे कि “तू मेरे लिए माँ की तरह है या माँ जैसी है!” तो नीयत पूछी जाएगी। इज़्ज़त और एहतिराम की नीयत से कहा हो तो इज़्ज़त और एहतिराम है। ज़िहार की नीयत से कहा हो तो ज़िहार है। तलाक़ की नीयत से कहा हो तो तलाक़ है। कोई नीयत न हो और यूँ ही यह बात कह दी हो तो इमाम अबू-हनीफ़ा (रह०) के नज़दीक बेमानी है, इमाम अबू-यूसुफ़ के नज़दीक इसपर ज़िहार का तो नहीं, मगर क़सम का कफ़्फ़ारा लाज़िम आएगा, और इमाम मुहम्मद (रह०) के नज़दीक यह ज़िहार है। शाफ़िई आलिमों के नज़दीक ज़िहार के साफ़ अलफ़ाज़ ये हैं कि कोई शख़्स अपनी बीवी से कहे कि तू मेरे नज़दीक, या मेरे साथ, या मेरे लिए ऐसी है जैसी मेरी माँ की पीठ या तू मेरी माँ की पीठ की तरह है। या तेरा जिस्म, या तेरा बदन, या तेरा नफ़्स मेरे लिए मेरी माँ के जिस्म या बदन या नफ़्स की तरह है। इनके सिवा बाक़ी तमाम अलफ़ाज़ में कहनेवाले की नीयत पर फ़ैसला होगा। हंबली आलिमों के नज़दीक हर वह लफ़्ज़ जिससे किसी शख़्स ने बीवी को या उसके मुस्तक़िल हिस्सों में से किसी हिस्से को किसी ऐसी औरत से जिससे शादी करना उसके लिए हराम है, या उसके जिस्म के मुस्तक़िल हिस्सों में से किसी हिस्से से साफ़-साफ़ मिसाल दी हो, ज़िहार के मामले में साफ़ और वाज़ेह माना जाएगा। मालिकी आलिमों की राय भी क़रीब-क़रीब यही है, अलबत्ता तफ़सीलात में उनके फ़तवे अलग-अलग हैं। मसलन किसी शख़्स का बीवी से यह कहना कि “तू मेरे लिए मेरी माँ जैसी है, या मेरी माँ की तरह है!” मालिकी आलिमों के नज़दीक ज़िहार की नीयत से हो ज़िहार है, तलाक़ की नीयत से हो तो तलाक़ और कोई नीयत न हो तो ज़िहार है। हंबली आलिमों के नज़दीक यह नीयत की शर्त के साथ सिर्फ़ ज़िहार क़रार दिया जा सकता है। अगर कोई शख़्स बीवी से कहे कि “तू मेरी माँ है!” तो मालिकी आलिम कहते हैं कि यह ज़िहार है और हंबली आलिम कहते हैं कि यह बात अगर झगड़े और ग़ुस्से की हालत में कही गई हो तो ज़िहार है, और प्यार-मुहब्बत की बातचीत में कही गई हो तो अगरचे यह बहुत ही बुरी बात है, लेकिन ज़िहार नहीं है। अगर कोई शख़्स कहे, “तुझे तलाक़ तू मेरी माँ की तरह है!” तो हंबली आलिमों के नज़दीक यह तलाक़ है न कि ज़िहार, और अगर कहे, “तू मेरी माँ की तरह है, तुझे तलाक़ है!” तो ज़िहार और तलाक़ दोनों हो जाएँगे। यह कहना कि “तू मेरे ऊपर ऐसी हराम है जैसी मेरी माँ की पीठ!” मालिकी और हंबली मसलकवाले दोनों के नज़दीक ज़िहार है, चाहे तलाक़ ही की नीयत से ये अलफ़ाज़ कहे गए हों, या नीयत कुछ भी न हो। ज़िहार के अलफ़ाज़ की इस बहस में यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि फ़क़ीहों ने इस मामले में जितनी भी बहसें की हैं वे सब अरबी ज़बान के अलफ़ाज़ और मुहावरों से ताल्लुक़ रखती हैं, और ज़ाहिर है कि दुनिया की दूसरी ज़बानें बोलनेवाले न अरबी ज़बान में ज़िहार करेंगे, न ज़िहार करते वक़्त अरबी अलफ़ाज़ और जुमलों का ठीक-ठीक तर्जमा ज़बान से अदा करेंगे। इसलिए किसी लफ़्ज़ या जुमले के बारे में अगर यह फ़ैसला करना हो कि वह ज़िहार में आता है या नहीं, तो उसे उस लिहाज़ से नहीं जाँचना चाहिए कि वह फ़क़ीहों के बयान किए हुए अलफ़ाज़ में से किसका सही तर्जमा है, बल्कि सिर्फ़ यह देखना चाहिए कि क्या कहनेवाले ने बीवी को जिंसी (Sexual) ताल्लुक़ के लिहाज़ से हराम ठहराई गई औरतों में से किसी के साथ साफ़-साफ़ मिसाल दी है, या उसके अलफ़ाज़ का दूसरा मतलब भी लिया जा सकता है? इसकी सबसे नुमायाँ मिसाल ख़ुद वह जुमला है जिसके बारे में तमाम फ़क़ीहों और तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों की एक राय है कि अरब में ज़िहार के लिए वही लफ़्ज़ बोला जाता था और क़ुरआन मजीद का हुक्म उसी के बारे में उतरा है, यानी 'अन्ति अलय्-य क-ज़हरि उम्मी' (तू मेरे ऊपर मेरी माँ की पीठ जैसी है!)। शायद दुनिया की किसी ज़बान में, और कम-से-कम उर्दू (और हिन्दी) की हद तक हम यक़ीन के साथ कह सकते हैं कि इस ज़बान में कोई ज़िहार करनेवाला ऐसे अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं कर सकता जो इस अरबी जुमले का लफ़्ज़ी तर्जमा हों। अलबत्ता वह अपनी ज़बान (भाषा) के ऐसे अलफ़ाज़ ज़रूर इस्तेमाल कर सकता है जिनका मतलब ठीक वही हो जिसे अदा करने के लिए एक अरब यह जुमला बोला करता था। उसका मतलब यह था कि “तुझसे हमबिस्तरी मेरे लिए ऐसी है जैसे अपनी माँ से हमबिस्तरी करना!” या जैसे कुछ जाहिल लोग बीवी से कह बैठते हैं कि “तेरे पास आऊँ तो अपनी माँ के पास जाऊँ!” (13) क़ुरआन मजीद में जिस चीज़ को कफ़्फ़ारा लाज़िम आने का सबब ठहराया गया है वह सिर्फ़ ज़िहार नहीं है, बल्कि ज़िहार के बाद 'औद' है। यानी अगर आदमी सिर्फ़ ज़िहार करके रह जाए और ‘औद' न करे, तो उसपर कफ़्फ़ारा लाज़िम नहीं आता। अब सवाल यह है कि वह ‘औद’ क्या है जो कफ़्फ़ारे का सबब है? इस बारे में फ़क़ीहों (इस्लामी क़ानून के माहिर आलिमों) की राएँ ये हैं— हनफ़ी मसलक के आलिम कहते हैं कि 'औद' से मुराद मुबाशरत (हमबिस्तरी) का इरादा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि सिर्फ़ इरादे और ख़ाहिश पर कफ़्फ़ारा लाज़िम आ जाए, यहाँ तक कि अगर आदमी इरादा करके रह जाए और अमली क़दम न उठाए तब भी उसे कफ़्फ़ारा देना पड़े। बल्कि इसका सही मतलब यह है कि जो आदमी बीवी के हराम हो जाने की उस हालत को दूर करना चाहता है जो उसने ज़िहार करके बीवी के साथ मियाँ-बीवी के ताल्लुक़ात के मामले में अपने ऊपर लागू कर ली थी, वह पहले कफ़्फ़ारा दे, क्योंकि बीवी के हराम होने की यह हालत कफ़्फ़ारे के बिना ख़त्म नहीं हो सकती। इमाम मालिक (रह०) के इस मामले में तीन क़ौल (राएँ) हैं, मगर मालिकी मसलक के आलिमों के यहाँ सबसे मशहूर और सबसे सही बात उस मसलक के मुताबिक़ है जो ऊपर हनफ़ी मसलकवालों का बयान हुआ है। वे कहते हैं कि ज़िहार से जिस चीज़ को उसने अपने ऊपर हराम कर लिया था वह बीवी के साथ हमबिस्तरी का ताल्लुक़ था। उसके बाद ‘औद’ यह है कि वह उसके साथ यही ताल्लुक़ रखने के लिए पलटे। अहमद-बिन-हंबल (रह०) का मसलक भी इब्ने-क़ुदामा (रह०) ने क़रीब-क़रीब वही नक़्ल किया है जो ऊपर दोनों इमामों का बयान किया गया है। वे कहते हैं कि ज़िहार के बाद हमबिस्तरी के हलाल होने के लिए कफ़्फ़ारा शर्त है। ज़िहार करनेवाला जो शख़्स उसे हलाल करना चाहे वह मानो हराम की हुई हालत से पलटना चाहता है। इसलिए उसे हुक्म दिया गया कि उसे हलाल करने से पहले कफ़्फ़ारा दे, ठीक उसी तरह जैसे कोई शख़्स एक ग़ैर-औरत को अपने लिए हलाल करना चाहे तो उससे कहा जाएगा कि उसे हलाल करने से पहले निकाह करे। इमाम शाफ़िई (रह०) का मसलक इन तीनों से अलग है। वे कहते हैं कि आदमी का अपनी बीवी से ज़िहार करने के बाद उसे पहले की तरह बीवी बनाए रखना, या दूसरे अलफ़ाज़ में उसे बीवी की हैसियत से रोके रखना ‘औद’ है। क्योंकि जिस वक़्त उसने ज़िहार किया उसी वक़्त मानो उसने अपने लिए यह बात हराम कर ली कि उसे बीवी बनाकर रखे। लिहाज़ा अगर उसने ज़िहार करते ही फ़ौरन उसे तलाक़ न दी और इतनी देर तक उसे रोके रखा जिसमें वह तलाक़ के अलफ़ाज़ ज़बान से निकाल सकता था, तो उसने ‘औद’ कर लिया और उसपर कफ़्फ़ारा वाजिब हो गया। इसका मतलब यह है कि एक साँस में ज़िहार करने के बाद अगर आदमी दूसरी ही साँस में तलाक़ न दे, तो कफ़्फ़ारा लाज़िम आ जाएगा, चाहे बाद में उसका फ़ैसला यही हो कि उस औरत को बीवी बनाकर नहीं रखना है, और उसका कोई इरादा उसके साथ मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ रखने का न हो। यहाँ तक कि कुछ मिनट ग़ौर करके वह बीवी को तलाक़ भी दे डाले तो इमाम शाफ़िई (रह०) के मसलक के मुताबिक़ कफ़्फ़ारा उसके ज़िम्मे लाज़िम रहेगा। (14) क़ुरआन का हुक्म है कि ज़िहार करनेवाला कफ़्फ़ारा दे इससे पहले कि मियाँ बीवी एक-दूसरे को 'मस्स' (स्पर्श) करें। चारों इमामों की इस बात पर एक राय है कि इस आयत में 'मस्स' से मुराद छूना है, इसलिए कफ़्फ़ारे से पहले सिर्फ़ हमबिस्तरी ही हराम नहीं है, बल्कि शौहर किसी तरह भी बीवी को छू नहीं सकता। शाफ़िई मसलकवाले शहवत (कामुकता) के साथ छूने को हराम कहते हैं, हंबली मसलकवाले हर तरह की लज़्ज़त लेने को हराम ठहराते हैं, और मालिकी मसलकवाले लज़्ज़त के लिए बीवी के जिस्म पर नज़र डालने को भी नाजाइज़ ठहराते हैं और उनके नज़दीक सिर्फ़ चेहरे और हाथों पर नज़र डालना इस दायरे से बाहर है। (15) ज़िहार के बाद अगर आदमी बीवी को तलाक़ दे दे तो रजई तलाक़ (वह तलाक़ जिसमें दोबारा मिलन किया जा सकता है) होने की सूरत में रुजू करके भी कफ़्फ़ारा दिए बिना हाथ नहीं लगा सकता। बाइन (वह तलाक़ जिसमें दोबारा मिलन नहीं हो सकता) होने की सूरत में अगर उससे दोबारा निकाह करे तब भी उसे हाथ लगाने से पहले कफ़्फ़ारा देना होगा। यहाँ तक कि अगर तीन तलाक़ दे चुका हो, और औरत दूसरे आदमी से निकाह करने के बाद बेवा हो चुकी हो या तलाक़ पा चुकी हो, और उसके बाद ज़िहार करनेवाला शौहर उससे नए सिरे से निकाह कर ले, फिर भी कफ़्फ़ारे के बिना वह उसके लिए हलाल न होगी। क्योंकि वह उसे माँ या हराम ठहराई हुई औरतों से मिसाल देकर अपने ऊपर एक बार हराम कर चुका है, और हराम होने की यह हालत कफ़्फ़ारे के बिना ख़त्म नहीं हो सकती। इसपर चारों इमाम एक राय हैं। (16) औरत के लिए लाज़िम है कि जिस शौहर ने उसके साथ ज़िहार किया है उसे हाथ न लगाने दे जब तक वह कफ़्फ़ारा अदा न करे। और चूँकि मियाँ-बीवी का ताल्लुक़ औरत का हक़ है, जिससे ज़िहार करके शौहर ने उसे महरूम किया है, इसलिए अगर वह कफ़्फ़ारा न दे तो बीवी अदालत से मदद ले सकती है। अदालत उसके शौहर को मजबूर करेगी कि वह कफ़्फ़ारा देकर हराम होने की हालत की वह दीवार हटाए जो उसने अपने और उसके बीच खड़ी कर ली है। और अगर वह न माने तो अदालत उसे मार या क़ैद या दोनों तरह की सज़ाएँ दे सकती है। इस बात पर भी चारों फ़िक़ही मसलकों में एक राय पाई जाती है। अलबत्ता फ़र्क़ यह है कि हनफ़ी मसलक में औरत के लिए सिर्फ़ यही एक रास्ता है, वरना ज़िहार पर चाहे कितनी ही मुद्दत गुज़र जाए, औरत को अगर अदालत इस मुश्किल से न निकाले तो वह तमाम उम्र लटकी रहेगी, क्योंकि ज़िहार से निकाह ख़त्म नहीं होता, सिर्फ़ शौहर का हमबिस्तरी का हक़ छिन जाता है। मालिकी मसलक में अगर शौहर औरत को सताने के लिए ज़िहार करके लटकती हुई छोड़ दे तो उसपर 'ईला' के हुक्म जारी होंगे, यानी वह चार महीने से ज़्यादा औरत को रोककर नहीं रख सकता, (ईला के हुक्मों के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—245 से 247) शाफ़िई मसलकवालों के नज़दीक अगरचे ज़िहार में ईला के हुक्म तो सिर्फ़ उस वक़्त जारी हो सकते हैं जबकि शौहर ने एक ख़ास मुद्दत के लिए ज़िहार किया हो और वह मुद्दत चार महीने से ज़्यादा हो, लेकिन चूँकि शाफ़िई मसलक के मुताबिक़ शौहर पर उसी वक़्त कफ़्फ़ारा वाजिब हो जाता है जब वह औरत को बीवी बनाकर रखे रहे, इसलिए यह मुमकिन नहीं रहता कि वह किसी लम्बी मुद्दत तक उसको लटकाए रखे। (17) क़ुरआन और सुन्नत (हदीस) में यह साफ़ तौर से बताया गया है कि ज़िहार का पहला कफ़्फ़ारा ग़ुलाम आज़ाद करना है। इससे आदमी मजबूर हो तब दो महीने के रोज़ों की शक्ल में कफ़्फ़ारा दे सकता है। और इससे भी मजबूर हो तब साठ (60) मिसकीनों को खाना खिला सकता है। लेकिन अगर तीनों कफ़्फ़ारों से कोई आदमी मजबूर हो तो चूँकि शरीअत में कफ़्फ़ारे की कोई और शक्ल नहीं रखी गई है, इसलिए उसे उस वक़्त तक इन्तिज़ार करना होगा जब तक वह उनमें से किसी एक पर अमल करने के क़ाबिल न हो जाए। अलबत्ता सुन्नत से यह साबित है कि ऐसे शख़्स की मदद की जानी चाहिए, ताकि वह तीसरा कफ़्फ़ारा अदा कर सके। नबी (सल्ल०) ने बैतुल-माल से ऐसे लोगों की मदद की है जो अपनी ग़लती से इस मुश्किल में फँस गए थे, और तीनों कफ़्फ़ारों से मजबूर थे। (18) क़ुरआन मजीद कफ़्फ़ारे में 'र-क़-बह' आज़ाद करने का हुक्म देता है जिसमें लौंडी और ग़ुलाम दोनों आ जाते हैं और इसमें उम्र की कोई क़ैद नहीं है। दूध पीता बच्चा भी अगर ग़ुलामी की हालत में हो तो उसे आज़ाद कर देना कफ़्फ़ारा देने के लिए काफ़ी है। अलबत्ता फ़क़ीहों के बीच इस मामले में राएँ अलग-अलग हैं कि क्या मुस्लिम और ग़ैर-मुस्लिम, दोनों तरह के ग़ुलाम आज़ाद किए जा सकते हैं या सिर्फ़ मुस्लिम ग़ुलाम ही आज़ाद करना होगा। हनफ़ी और ज़ाहिरी मसलकवाले कहते हैं कि ग़ुलाम मुस्लिम हो या ग़ैर-मुस्लिम, उसका आज़ाद कर देना ज़िहार के कफ़्फ़ारे के लिए काफ़ी है, क्योंकि क़ुरआन में सिर्फ़ ‘र-क़-बह' का ज़िक्र है, यह नहीं कहा गया कि वह मुसलमान ही होना चाहिए। इसके बरख़िलाफ़ शाफ़िई, मालिकी और हंबली आलिम इसके लिए मुसलमान की शर्त लगाते हैं, और उन्होंने इस हुक्म को उन दूसरे कफ़्फ़ारों की तरह समझा है जिनमें 'र-क़-बह' के साथ क़ुरआन मजीद में मुसलमान की क़ैद लगाई है। (19) ग़ुलाम न पाने की सूरत में क़ुरआन का हुक्म है कि ज़िहार करनेवाला लगातार दो महीने रोज़े रखे इससे पहले कि मियाँ-बीवी एक-दूसरे को हाथ लगाएँ। अल्लाह के इस हुक्म पर अमल करने की तफ़सीलात अलग-अलग फ़िक़ही मसलकों में इस तरह हैं— (i) इस बात पर सब एक राय हैं कि महीनों से मुराद चाँद के महीने हैं। अगर चाँद निकलने से रोज़ों की शुरुआत की जाए तो दो महीने पूरे करने होंगे। अगर बीच में किसी तारीख़ से शुरू किया जाए तो हनफ़ी और हंबली आलिम कहते हैं कि साठ (60) रोज़े रखने चाहिएँ। और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि पहले और तीसरे महीने में कुल मिलाकर तीस (30) रोज़े रखे और बीच का चाँद का महीना चाहे 29 का हो या 30 का, उसके रोज़े रख लेना काफ़ी हैं। (ii) हनफ़ी और शाफ़िई आलिम कहते हैं कि रोज़े ऐसे वक़्त शुरू करने चाहिएँ जबकि बीच में न रमज़ान आए न दोनों ईदें, न क़ुरबानी का दिन और न हज के दिन, क्योंकि कफ़्फ़ारे के रोज़े रखने के दौरान में रमज़ान के रोज़े रखने और ईदों और क़ुरबानी और हज के दिनों के रोज़े छोड़ने से दो महीने का सिलसिला टूट जाएगा और नए सिरे से रोज़े रखने पड़ेंगे। हंबली आलिम कहते हैं बीच में रमज़ान के रोज़े रखने और हराम दिनों के रोज़े न रखने से सिलसिला नहीं टूटता। (iii) दो महीनों के दौरान में चाहे आदमी किसी मजबूरी की वजह से रोज़ा छोड़े या बिना मजबूरी, दोनों सूरतों में हनफ़ी और शाफ़िई आलिम के नज़दीक सिलसिला टूट जाएगा और नए सिरे से रोज़े रखने होंगे। यही राय इमाम मुहम्मद बाक़िर, इबराहीम नख़ई, सईद-बिन-जुबैर और सुफ़ियान सौरी (रह०) की है। इमाम मालिक (रह०) और इमाम अहमद (रह०) के नज़दीक बीमारी या सफ़र की मजबूरी से बीच में रोज़ा छोड़ा जा सकता है और इससे सिलसिला नहीं टूटता, अलबत्ता बिना मजबूरी के रोज़ा छोड़ देने से टूट जाता है। उनकी दलील यह है कि कफ़्फ़ारे के रोज़े रमज़ान के फ़र्ज़ रोज़ों से ज़्यादा ताकीदी नहीं हैं। जब उनको मजबूरी की वजह से छोड़ा जा सकता है तो कोई वजह नहीं कि इनको न छोड़ा जा सके। यही क़ौल (राय) हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०), हसन बसरी, अता-बिन-अबी-रबाह, सईद-बिन-मुसय्यब, अम्र-बिन-दीनार, शअबी, ताऊस, इसहाक़-बिन-राहवैह, अबू-उबैद और अबू-सौर (रह०) का है। (iv) दो महीनों के दौरान में अगर आदमी उस बीवी से हमबिस्तरी कर बैठे जिससे ज़िहार किया हो तो तमाम इमामों के नज़दीक इससे सिलसिला टूट जाएगा और नए सिरे से रोज़े रखने होंगे, क्योंकि हाथ लगाने से पहले दो महीने के लगातार रोज़े रखने का हुक्म दिया गया है। (20) क़ुरआन और सुन्नत के मुताबिक़ तीसरा कफ़्फ़ारा (यानी साठ मिसकीनों का खाना) वह शख़्स दे सकता है जो दूसरे कफ़्फ़ारे (दो महीनों के लगातार रोज़ों) की क़ुदरत न रखता हो। इस हुक्म पर अमल करने के लिए फ़क़ीहों ने जो तफ़सीली हुक्म जमा किए हैं वे इस तरह हैं— (i) चारों इमामों के नज़दीक रोज़े रखने के क़ाबिल न होने का मतलब यह है कि आदमी या तो बुढ़ापे की वजह से ताक़त न रखता हो, या बीमारी की वजह से, या इस वजह से कि वह लगातार दो महीने तक हमबिस्तरी से परहेज़ न कर सकता हो और उसे डर हो कि इस दौरान में कहीं बेसब्री न कर बैठे। इन तीनों मजबूरियों का सही होना उन हदीसों से साबित है जो औस-बिन-सामित अनसारी और सलमा-बिन-सख़्र बयाज़ी के मामले में आई हैं। अलबत्ता बीमारी के मामले में फ़कीहों के बीच थोड़ा-सा इख़्तिलाफ़ है। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि बीमारी का उज़्र उस सूरत में सही होगा, जबकि या तो उसके ख़त्म होने की उम्मीद न हो, या रोज़ों से बीमारी बढ़ जाने का अन्देशा हो। शाफ़िई आलिम कहते हैं कि अगर रोज़ों से ऐसी सख़्त तकलीफ़ होती हो जिससे आदमी को यह ख़तरा हो कि दो महीने के दौरान में कहीं सिलसिला न तोड़ना पड़े, तो यह उज़्र भी सही हो सकता है। मालिकी मसलकवाले कहते हैं कि अगर आदमी का ज़्यादा गुमान यह हो कि वह आगे रोज़ा रखने के क़ाबिल हो सकेगा तो इन्तिज़ार कर ले, और अगर ज़्यादा गुमान यह हो कि इस क़ाबिल न हो सकेगा तो मिसकीनों को खाना खिला दे। हंबली आलिम कहते हैं कि रोज़े से बीमारी बढ़ जाने का अन्देशा बिलकुल काफ़ी उज़्र (सबब) है। (ii) खाना सिर्फ़ उन मिसकीनों को दिया जा सकता है जिनका ख़र्च उठाना आदमी के ज़िम्मे वाजिब न होता हो। (iii) हनफ़ी आलिम कहते हैं कि खाना मुसलमान और ज़िम्मी (ग़ैर-मुस्लिम), दोनों तरह के मिसकीनों को दिया जा सकता है, अलबत्ता हरबी (जिनसे जंग हो रही हो) और मुस्तामिन (अम्न और पनाह में आए हुए) ग़ैर-मुस्लिमों को नहीं दिया जा सकता। मालिकी, शाफ़िई और हंबली आलिमों की राय यह है कि सिर्फ़ मुसलमान मिसकीनों ही को दिया जा सकता है। (iv) यह बात सभी फ़क़ीह मानते हैं कि खाना देने से मुराद दो वक़्त का पेट-भर खाना देना है। अलबत्ता खाना देने के मतलब में राएँ अलग-अलग हैं। हनफ़ी आलिम कहते हैं कि दो वक़्त का पेट भरने के क़ाबिल अनाज दे देना, या खाना पकाकर दो वक़्त खिला देना, दोनों ही सही हैं, क्योंकि क़ुरआन मजीद में 'इतआम' का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब खाने का सामान देना भी है और खाना खिलाना भी। मगर मालिकी, शाफ़िई और हंबली आलिम पकाकर खिलाने को सही नहीं समझते, बल्कि अनाज दे देना ही ज़रूरी क़रार देते हैं। अनाज देने की सूरत में इस बात पर सभी एक राय हैं कि वह अनाज देना चाहिए जो उस शहर या इलाक़े के लोग आम तौर पर खाते हों। और सब मिसकीनों को बराबर देना चाहिए। (v) हनफ़ी मसलकवालों के नज़दीक अगर एक ही मिसकीन को साठ (60) दिन तक खाना दिया जाए तो यह भी सही है, अलबत्ता यह सही नहीं है कि एक ही दिन उसे साठ (60) दिनों के खाने का सामान दे दिया जाए। लेकिन बाक़ी तीनों मसलक एक मिसकीन को देना सही नहीं समझते। उनके नज़दीक साठ (60) ही मिसकीनों को देना ज़रूरी है। और यह बात चारों मसलकों में जाइज़ नहीं है कि साठ (60) आदमियों को एक वक़्त का खाना और दूसरे साठ (60) आदमियों को दूसरे वक़्त का खाना दिया जाए। (vi) यह बात चारों मसलकों में से किसी में जाइज़ नहीं है कि आदमी तीस (30) दिन तक रोज़े रखे और तीस (30) मिसकीनों को खाना दे। दो कफ़्फ़ारे एक साथ जमा नहीं किए जा सकते। रोज़े रखने हों तो पूरे दो महीनों के लगातार रखने चाहिएँ। खाना खिलाना हो तो साठ (60) मिसकीनों को खिलाया जाए। (vii) अगरचे क़ुरआन मजीद में खाने के कफ़्फ़ारे के बारे में ये अलफ़ाज़ इस्तेमाल नहीं किए गए हैं कि यह कफ़्फ़ारा भी मियाँ-बीवी के एक-दूसरे को छूने से पहले अदा होना चाहिए, लेकिन मौक़ा-महल इसका तक़ाज़ा करता है कि इस तीसरे कफ़्फ़ारे पर भी यह उसूल लागू होगा। इसी लिए चारों इमामों ने इसको जाइज़ नहीं रखा है कि खाने के कफ़्फ़ारे के दौरान में आदमी बीवी के पास जाए। अलबत्ता फ़र्क़ यह है कि जो शख़्स ऐसा कर बैठे उसके बारे में हंबली आलिम यह हुक्म देते हैं कि उसे नए सिरे से खाना देना होगा। और हनफ़ी आलिम इस मामले में रिआयत करते हैं, क्योंकि इस तीसरे कफ़्फ़ारे के मामले में 'इससे पहले कि तुम उन्हें हाथ लगाओ' को बयान नहीं किया गया है और यह चीज़ रिआयत की गुंजाइश देती है। ये अहकाम फ़िक़्ह (इस्लामी क़ानून) की नीचे लिखी किताबों से लिए गए हैं— फ़िक़्हे-हनफ़ी : हिदाया, फ़तहुल-क़दीर, बदाइउस्सनाइ, अहकामुल-क़ुरआन तिल-जस्सास। फ़िकहे-शाफ़िई : अल-मिनहाजु लिन-न-ववी म-अ शरहि मुग़निल-मुहताज, तफ़सीरे-कबीर। फ़िक़्हे-मालिकी : हाशियतुद-दुसूक़ी अलश-शरहिल-कबीर, बिदायतुल-मुज्तहिद, अहकामुल-क़ुरआन लि-इबनिल-अरबी। फ़िकहे-हंबली : अल-मुग़नी लि-इब्ने-क़ुदामा। फ़िकहे-ज़ाहिरी : अल-मुहल्ला लि-इब्ने-हज़्म।
12. यहाँ 'ईमान लाने' से मुराद सच्चे और मुख़लिस मोमिन का-सा रवैया अपनाना है। ज़ाहिर है कि आयत के मुख़ातब (सुननेवाले) ग़ैर-मुस्लिम नहीं हैं, बल्कि मुसलमान हैं जो पहले ही ईमान लाए हुए थे। उनको शरीअत का एक हुक्म सुनाने के बाद यह कहना कि 'यह हुक्म तुमको इसलिए दिया जा रहा है कि तुम अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ’, साफ़ तौर पर यह मानी रखता है कि जो शख़्स ख़ुदा के इस हुक्म को सुनने के बाद भी जाहिलियत के पुराने रिवाजी क़ानून की पैरवी करता रहे उसका यह रवैया ईमान के ख़िलाफ़ होगा। एक मोमिन का यह काम नहीं है कि अल्लाह और उसका रसूल जब ज़िन्दगी के किसी मामले में उसके लिए एक क़ानून मुक़र्रर कर दे तो वह उसको छोड़कर दुनिया के किसी दूसरे क़ानून की पैरवी करे, या अपने मन की ख़ाहिशों पर अमल करता रहे।
13. यहाँ 'इनकार करनेवाले' से मुराद ख़ुदा और पैग़म्बरी का इनकार करनेवाला नहीं है, बल्कि वह शख़्स है जो ख़ुदा और रसूल को मानने का इक़रार और इज़हार करने के बाद भी वह रवैया अपनाए जो एक इनकार करनेवाले के अपनाने का है। दूसरे अलफ़ाज़ में इस फ़रमान का मतलब यह है कि यह अस्ल में इनकार करनेवालों का काम है कि अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म सुनने के बाद भी अपनी मरज़ी चलाते रहें, या जाहिलियत के तरीक़ों ही की पैरवी करते रहें। वरना सच्चे दिल से ईमान लानेवाला तो कभी यह रवैया नहीं अपना सकता। यही बात सूरा-3 आले-इमरान, आयत-97 में भी हज के फ़र्ज़ होने का हुक्म देने के बाद कही गई है कि 'और जो कुफ़्र करे (यानी इस हुक्म पर अमल न करे) तो अल्लाह दुनियावालों से बेनियाज़ है। इन दोनों जगहों पर 'कुफ़्र' (इनकार) का लफ़्ज़ इस मानी में नहीं है कि जो शख़्स भी ज़िहार करने के बाद कफ़्फ़ारा अदा किए बिना बीवी से ताल्लुक़ रखे, या यह समझे कि ज़िहार ही से बीवी को तलाक़ हो गई है, या हैसियत और ताक़त रखने के बावजूद हज न करे, उसे शरीअत का क़ाज़ी ग़ैर-मुस्लिम और मुरतद ठहरा दे और सारे मुसलमान उसे इस्लाम से निकल जानेवाला क़रार दे दें, बल्कि यह इस मानी में है कि अल्लाह तआला के यहाँ ऐसे लोगों की गिनती मोमिनों में नहीं है जो उसके हुक्मों को ज़बान या अमल से रद्द कर दें और इस बात की कोई परवाह न करें कि उनके रब ने उनके लिए क्या हदें मुक़र्रर की हैं, किन चीज़ों को फ़र्ज़ किया है, किन चीज़ों को हलाल किया है और क्या चीज़ें हराम कर दी हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُحَآدُّونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ كُبِتُواْ كَمَا كُبِتَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡۚ وَقَدۡ أَنزَلۡنَآ ءَايَٰتِۭ بَيِّنَٰتٖۚ وَلِلۡكَٰفِرِينَ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 4
(5) जो लोग अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालफ़त करते हैं"14 वे इसी तरह बेइज़्ज़त और रुसवा कर दिए जाएँगे जिस तरह इनसे पहले के लोग बेइज़्ज़त और रुसवा किए जा जा चुके है।15 हमने साफ़-साफ़ आयतें उतार दी हैं, और इनकार करनेवालों के लिए रुसवाई का अज़ाब है।16
14. मुख़ालफ़त करने से मुराद अल्लाह की मुक़र्रर की हुई हदों को न मानना और उनके बजाय कुछ दूसरी हदें मुक़र्रर कर लेना है। इब्ने-जरीर तबरी (रह०) इस आयत की तफ़सीर यह करते हैं, “वे लोग जो अल्लाह की हदों और उसके फ़र्ज़ों के मामले में उसकी मुख़ालफ़त करते हैं और उसकी मुक़र्रर की हुई हदों की जगह दूसरी हदें बना लेते हैं।” बैज़ावी ने इसकी तफ़सीर यह की है, “अल्लाह और उसके रसूल से दुश्मनी और झगड़ा करते हैं, या उनकी मुक़र्रर की हुई हदों के सिवा दूसरी हदें ख़ुद गढ़ लेते हैं या दूसरों की गढ़ी हुई हदों को अपना लेते हैं।" आलूसी (रह०) ने रूहुल-मआनी में बैज़ावी की इस तफ़सीर की ताईद करते हुए शैख़ुल-इस्लाम सादुल्लाह चलपी का यह क़ौल (राय) नक़्ल किया है कि “इस आयत में उन बादशाहों और बुरे हाकिमों के लिए सख़्त अज़ाब की ख़बर है जिन्होंने शरीअत की मुक़र्रर की हुई हदों के ख़िलाफ़ बहुत-से हुक्म गढ़ लिए हैं और उनका नाम क़ानून रखा है।” इस मक़ाम पर अल्लामा आलूसी (रह०) शरई क़ानून के मुक़ाबले में गढ़े हुए क़ानून की आईनी (यानी इस्लामी नज़रिए से आईनी) हैसियत पर तफ़सीली बहस करते हुए लिखते हैं— “उस शख़्स के कुफ़्र (इनकार) में तो कोई शक ही नहीं है जो इस क़ानून को बेहतर और शरीअत के मुक़ाबले में बढ़कर ठहराता है, और कहता है कि यह ज़्यादा हिकमत-भरा और क़ौम के लिए ज़्यादा मुनासिब और दुरुस्त है, और जब किसी मामले में उससे कहा जाए कि शरीअत का हुक्म इसके बारे में यह है तो इसपर ग़ुस्से में भड़क उठता है, जैसा कि हमने कुछ उन लोगों को देखा है जिनपर अल्लाह की फटकार पड़ी हुई है।"
15. अस्ल अरबी में लफ़ज़ 'कब्त' इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है रुसवा करना, हलाक करना, लानत करना, फटकारकर भगा देना, धक्के देकर निकाल देना, बेइज़्ज़ती करना। अल्लाह के फ़रमान का मतलब यह है कि अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालफ़त और उसके हुक्मों से बग़ावत का जो अंजाम पिछले नबियों की उम्मतें देख चुकी हैं, उससे वे लोग हरगिज़ न बच सकेंगे जो अब मुसलमानों में से वही रवैया अपनाएँ। उन्होंने भी जब ख़ुदा की शरीअत के ख़िलाफ़ ख़ुद क़ानून बनाए, या दूसरों के बनाए हुए क़ानून को अपनाया तब अल्लाह की मेहरबानी और उसकी नज़रे-रहमत से वे महरूम हुए, और इसी का नतीजा यह हुआ कि उनकी ज़िन्दगी ऐसी गुमराहियों, बद-किरदारियों और अख़लाक़ी और सामाजिक बुराइयों से भरती चली गई जिन्होंने आख़िरकार दुनिया ही में उनको बेइज़्ज़त और रुसवा करके छोड़ा। यही ग़लती अगर अब मुस्लिम समाज करे तो कोई वजह नहीं कि यह अल्लाह का प्यारा बना रहे और अल्लाह इसे रुसवाई के गढ़े में गिरने से बचाए चला जाए। अल्लाह को न अपने पिछले रसूलों की उम्मत से कोई दुश्मनी थी, न इस रसूल की उम्मत से उसका कोई ख़ास रिश्ता है।
16. इबारत के मौक़ा-महल पर ग़ौर करने से यह बात मालूम होती है कि यहाँ इस रवैये की दो सज़ाओं का ज़िक्र है। एक 'कब्त', यानी वह ज़िल्लत और रुसवाई जो इस दुनिया में हुई और होगी। दूसरी 'अज़ाबे-मुहीन', यानी रुसवाई का वह अज़ाब जो आख़िरत में होनेवाला है।
يَوۡمَ يَبۡعَثُهُمُ ٱللَّهُ جَمِيعٗا فَيُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُوٓاْۚ أَحۡصَىٰهُ ٱللَّهُ وَنَسُوهُۚ وَٱللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ شَهِيدٌ ۝ 5
(6) उस दिन (यह रुसवाई का अज़ाब होना है) जब अल्लाह उन सबको फिर से ज़िन्दा करके उठाएगा और उन्हें बता देगा कि वे क्या कुछ करके आए हैं।17 वे भूल गए हैं, मगर अल्लाह ने उनका सब किया-धरा गिन-गिनकर महफ़ूज़ कर रखा है और अल्लाह एक-एक चीज़ पर गवाह है।
17. यानी उनके भूल जाने से मामला ख़त्म नहीं हो गया है। उनके लिए ख़ुदा की नाफ़रमानी और उसके हुक्मों की ख़िलाफ़वर्ज़ी ऐसी मामूली चीज़ हो सकती है कि उसको करके उसे याद तक न रखें, बल्कि उसे कोई एतिराज़ के क़ाबिल चीज़ ही न समझें कि उसकी कुछ परवाह उन्हें हो। मगर ख़ुदा के नज़दीक यह कोई मामूली चीज़ नहीं है। उसके यहाँ उनकी हर करतूत नोट हो चुकी है। किस शख़्स ने, कब, कहाँ, क्या हरकत की, उस हरकत के बाद उसका अपना रद्दे-अमल (प्रतिक्रिया) क्या था, और उसके क्या नतीजे, कहाँ-कहाँ, किस-किस शक्ल में निकले, यह सब कुछ उसके रजिस्टर में लिख लिया गया है।
أَلَمۡ تَرَ أَنَّ ٱللَّهَ يَعۡلَمُ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ مَا يَكُونُ مِن نَّجۡوَىٰ ثَلَٰثَةٍ إِلَّا هُوَ رَابِعُهُمۡ وَلَا خَمۡسَةٍ إِلَّا هُوَ سَادِسُهُمۡ وَلَآ أَدۡنَىٰ مِن ذَٰلِكَ وَلَآ أَكۡثَرَ إِلَّا هُوَ مَعَهُمۡ أَيۡنَ مَا كَانُواْۖ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُواْ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِۚ إِنَّ ٱللَّهَ بِكُلِّ شَيۡءٍ عَلِيمٌ ۝ 6
(7) क्या18 तुमको ख़बर नहीं है कि ज़मीन और आसमानों की हर चीज़ का अल्लाह को इल्म है? कभी ऐसा नहीं होता कि तीन आदमियों में कोई कानाफूसी हो और उनके बीच चौथा अल्लाह न हो, या पाँच आदमियों में कानाफूसी हो और उनके अन्दर छटा अल्लाह न हो।19 छिपाकर बात करनेवाले चाहे इससे कम हों या ज़्यादा, जहाँ कहीं भी वे हों, अल्लाह उनके साथ होता है।20 फिर क़ियामत के दिन वह उनको बता देगा कि उन्होंने क्या कुछ किया है। अल्लाह हर चीज़ का इल्म रखता है।
18. यहाँ से आयत-10 तक लगातार मुनाफ़िक़ों (कपटाचारियों) के उस रवैये पर पकड़ की गई है जो उन्होंने उस वक़्त मुस्लिम समाज में अपना रखा था। वे ज़ाहिर में तो मुसलमानों की जमाअत में शामिल थे, मगर अन्दर-ही-अन्दर उन्होंने ईमानवालों से अलग अपना एक जत्था बना रखा था। मुसलमान जब भी उन्हें देखते, यही देखते थे कि वे आपस में सर जोड़े खुसर-फुसर कर रहे हैं। इन ही ख़ुफ़िया कानाफूसियों में वे मुसलमानों के अन्दर फूट डालने और फ़ितने बरपा करने और डर फैलाने के लिए तरह-तरह की स्कीमें बनाते और नई-नई अफ़वाहें गढ़ते थे।
19. सवाल पैदा होता है कि यहाँ दो और तीन के बजाय तीन और पाँच का ज़िक्र किस मस्लहत से किया गया है? पहले दो और फिर चार को क्यों छोड़ दिया गया? क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने इसके बहुत-से जवाब दिए हैं। मगर हमारे नज़दीक सही बात यह है कि बयान का यह अन्दाज़ अस्ल में क़ुरआन मजीद की इबारत की अदबी (साहित्यिक) ख़ूबसूरती को बरक़रार रखने के लिए अपनाया गया है। अगर ऐसा न किया जाता तो इबारत यूँ होती, ‘मा यकूनु मिन-नज्वस्नैनि इल्ला हु-व सालिसुहुम व ला सला-सतिन इल्ला हु-व राबिउहुम।’ इसमें ‘नज्वस्नैन' भी कोई ख़ूबसूरत तरकीब न होती और 'सालिस' और 'सला-सतिन' का एक के बाद एक आना भी मिठास से ख़ाली होता। यही ख़राबी 'इल्ला हु-व राबिउहुम' के बाद 'व ला अर-ब-अतिन' कहने में भी थी। इसलिए तीन और पाँच कानाफूसी करनेवालों का ज़िक्र करने के बाद दूसरे जुमले में इस ख़ालीपन को यह कहकर भर दिया गया। ‘व ला अदना मिन ज़ालि-क व ला अक-स-र इल्ला हु-व म-अहुम’, कानफूसियाँ करनेवाले चाहे तीन से कम हों या पाँच से ज़्यादा, बहरहाल अल्लाह उनके साथ मौज़ूद होता है।
20. यह साथ होना अस्ल में अल्लाह तआला के सब कुछ जानने और ख़बर रखनेवाले, और सब कुछ सुनने और देखनेवाले और हर चीज़ की क़ुदरत रखनेवाले के लिहाज़ से है, न कि (अल्लाह की पनाह!) इस मानी में कि अल्लाह कोई शख़्स है जो पाँच लोगों के दरमियान एक छठे शख़्स की हैसियत से किसी जगह छिपा बैठा होता है। अस्ल में यह कहने का मक़सद लोगों को यह एहसास दिलाना है कि चाहे वे कैसी ही महफ़ूज़ जगह पर ख़ुफ़िया मशवरा कर रहे हों, उनकी बात दुनिया भर से छिप सकती है, मगर अल्लाह से नहीं छिप सकती, और वे दुनिया की हर ताक़त की पकड़ से बच सकते हैं, मगर अल्लाह की पकड़ से नहीं बच सकते।
أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ نُهُواْ عَنِ ٱلنَّجۡوَىٰ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا نُهُواْ عَنۡهُ وَيَتَنَٰجَوۡنَ بِٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَمَعۡصِيَتِ ٱلرَّسُولِۖ وَإِذَا جَآءُوكَ حَيَّوۡكَ بِمَا لَمۡ يُحَيِّكَ بِهِ ٱللَّهُ وَيَقُولُونَ فِيٓ أَنفُسِهِمۡ لَوۡلَا يُعَذِّبُنَا ٱللَّهُ بِمَا نَقُولُۚ حَسۡبُهُمۡ جَهَنَّمُ يَصۡلَوۡنَهَاۖ فَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 7
(8) क्या तुमने देखा नहीं उन लोगों को जिन्हें कानाफूसियाँ करने से मना कर दिया गया था, फिर भी वे वही हरकत किए जाते हैं जिससे उन्हें मना किया गया था?21 ये लोग छिप-छिपकर आपस में गुनाह और ज़्यादती और रसूल की नाफ़रमानी की बातें करते हैं, और जब तुम्हारे पास आते हैं तो तुम्हें उस तरीक़े से सलाम करते हैं जिस तरह अल्लाह ने तुमपर सलाम नहीं किया है?22 और अपने दिलों में कहते हैं कि हमारी इन बातों पर अल्लाह हमें अज़ाब क्यों नहीं देता23 उनके लिए जहन्नम ही काफ़ी है। उसी का वे ईंधन बनेंगे। बड़ा ही बुरा अंजाम है उनका!
21. इससे मालूम होता है कि इस आयत के उतरने से पहले नबी (सल्ल०) उन लोगों को इस रवैये से मना कर चुके थे, इसपर भी जब वे न माने तब सीधे तौर पर अल्लाह तआला की तरफ़ से अज़ाब का यह फ़रमान उतरा।
22. यह यहूदियों और मुनाफ़िक़ों का एक जैसा रवैया था। कई रिवायतों में यह बात आई है कि कुछ यहूदी नबी (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुए और उन्होंने 'अस्सामु अलै-क या अबल-क़ासिम' (ऐ अबुल-क़ासिम! तुम्हें मौत आए) कहा। यानी 'अस्सलामु अलै-क' को कुछ इस अन्दाज़ से कहा कि सुननेवाला समझे 'सलाम' कहा है, मगर अस्ल में उन्होंने 'साम' कहा था जिसका मतलब मौत है। नबी (सल्ल०) ने जवाब में फ़रमाया, 'व अलैकुम' (और तुमपर भी)। हज़रत आइशा (रज़ि०) से रहा न गया और उन्होंने कहा, “मौत तुम्हें आए और अल्लाह की लानत और फटकार पड़े!” नबी (सल्ल०) ने उन्हें ख़बरदार किया कि “ऐ आइशा! अल्लाह को बद-ज़बानी पसन्द नहीं है।” हज़रत आइशा (रज़ि०) ने पूछा, “ऐ अल्लाह के रसूल! आपने सुना नहीं कि उन्होंने क्या कहा?” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “और तुमने नहीं सुना कि मैंने उन्हें क्या जवाब दिया? मैंने उनसे कह दिया, और तुमपर भी,” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, इब्ने-जरीर, इब्ने-अबी-हातिम)। हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) का बयान है कि मुनाफ़िक़ों और यहूदियों, दोनों ने सलाम का यही तरीक़ा अपना रखा था। (हदीस : इब्ने-जरीर)
23. यानी वे अपने नज़दीक इस बात को अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के रसूल न होने की दलील समझते थे। उनका ख़याल यह था कि अगर ये रसूल होते तो जिस वक़्त हम इन्हें इस तरीक़े से सलाम करते उसी वक़्त हमपर अज़ाब आ जाता। अब चूँकि कोई अज़ाब नहीं आता, हालाँकि हम रात-दिन यह हरकत करते रहते हैं, लिहाज़ा ये रसूल नहीं हैं।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا تَنَٰجَيۡتُمۡ فَلَا تَتَنَٰجَوۡاْ بِٱلۡإِثۡمِ وَٱلۡعُدۡوَٰنِ وَمَعۡصِيَتِ ٱلرَّسُولِ وَتَنَٰجَوۡاْ بِٱلۡبِرِّ وَٱلتَّقۡوَىٰۖ وَٱتَّقُواْ ٱللَّهَ ٱلَّذِيٓ إِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 8
(9) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब तुम आपस में पोशीदा बात करो तो गुनाह और ज़्यादती और रसूल की नाफ़रमानी की बातें नहीं बल्कि नेकी और परहेज़गारी की बातें करो और उस ख़ुदा से डरते रहो जिसके सामने तुम्हें हश्र (इकट्ठा किए जाने के दिन) में पेश होना है।24
24. इससे मालूम हुआ कि 'नजवा' (आपस में राज़ की बात करना) अपनी जगह ख़ुद मना नहीं है, बल्कि उसके जाइज़ या नाजाइज़ होने का दारोमदार उन लोगों के किरदार पर है जो ऐसी बात करें, और उन हालात पर है जिनमें ऐसी बात की जाए, और इसपर है कि वे बातें किस तरह की हैं जो इस तरीक़े से की जाएँ। जिन लोगों की साफ़-दिली, जिनकी सच्चाई, जिनके किरदार की पाकीज़गी समाज में जानी-मानी हो, उन्हें किसी जगह सर जोड़े बैठे देखकर किसी को यह शक नहीं हो सकता कि वे आपस में किसी शरारत की स्कीम बना रहे हैं। इसके बरख़िलाफ़ जो लोग बुराई और बद-किरदारी के लिए जाने जाते हों उनकी कानाफूसियाँ हर शख़्स के दिल में यह खटक पैदा कर देती हैं कि ज़रूर किसी नए फ़ितने की तैयारी हो रही है। इसी तरह इत्तिफ़ाक़ से कभी दो-चार आदमी आपस में किसी मामले में कानाफूसी के अन्दाज़ में बात कर लें तो यह एतिराज़ के क़ाबिल नहीं है। लेकिन अगर कुछ लोगों ने अपना एक जत्था बना रखा हो और उनका रोज़ का काम यही हो कि हमेशा मुसलमानों की जमाअत से अलग उनके दरमियान खुसर-फुसर होती रहती हो तो ज़रूर यह ख़राबी की शुरुआत है। और कुछ नहीं तो इसका कम-से-कम नुक़सान यह है कि इससे मुसलमानों में पार्टी-बाज़ी की बीमारी फैलती है। इन सबसे बढ़कर जो चीज़ नजवा के जाइज़ और नाजाइज़ होने का फ़ैसला करती है वह यह है कि वे बातें किस तरह की हैं जो नजवा में की जाएँ। दो आदमी अगर इसलिए आपस में कानाफूसी करते हैं कि किसी झगड़े को ख़त्म कराना है, या किसी का हक़ दिलवाना है, या किसी नेक काम में हिस्सा लेना है, तो यह कोई बुराई नहीं, बल्कि सवाब का काम है। इसके बरख़िलाफ़ अगर यही नजवा दो आदमियों के दरमियान इस ग़रज़ के लिए हो कि कोई बिगाड़ डलवाना है, या किसी का हक़ मारना है, या किसी गुनाह का काम करना है तो ज़ाहिर है कि यह ग़रज़ अपनी जगह ख़ुद एक बुराई है और इसके लिए नजवा बुराई-पर-बुराई। नबी (सल्ल०) ने इस सिलसिले में मजलिस के आदाब (शिष्टाचार) की जो तालीम दी है वह यह है— “जब तीन आदमी बैठे हों तो दो आदमी आपस में खुसर-फुसर न करें, क्योंकि यह तीसरे आदमी के लिए दुख का सबब होगा।" (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम, मुसनद अहमद, तिरमिज़ी, अबू-दाऊद) दूसरी हदीस में नबी (सल्ल०) के अलफ़ाज़ ये हैं— "दो आदमी आपस में कानाफूसी न करें, मगर तीसरे से इजाज़त लेकर, क्योंकि यह उसके लिए दुख का सबब होगा,” (हदीस : मुस्लिम)। इसी नाजाइज़ कानाफूसी में यह बात भी आती है कि दो आदमी तीसरे आदमी की मौजूदगी में किसी ऐसी ज़बान में बात करने लगें जिसे वह न समझता हो। और इससे भी ज़्यादा नाजाइज़ बात यह है कि वे अपनी खुसर-फुसर के दौरान में किसी की तरफ़ इस तरह देखें या इशारे करें जिससे यह ज़ाहिर हो कि उनके दरमियान चर्चा उसी के बारे में हो रही है।
إِنَّمَا ٱلنَّجۡوَىٰ مِنَ ٱلشَّيۡطَٰنِ لِيَحۡزُنَ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَلَيۡسَ بِضَآرِّهِمۡ شَيۡـًٔا إِلَّا بِإِذۡنِ ٱللَّهِۚ وَعَلَى ٱللَّهِ فَلۡيَتَوَكَّلِ ٱلۡمُؤۡمِنُونَ ۝ 9
(10) कानाफूसी तो एक शैतानी काम है, और वह इसलिए की जाती है कि ईमान लानेवाले लोग उससे दुखी हों, हालाँकि बिना ख़ुदा की इजाज़त के वह उन्हें कुछ भी नुक़सान नहीं पहुँचा सकती, और ईमानवालों को अल्लाह ही पर भरोसा रखना चाहिए।25
25. यह बात इसलिए फ़रमाई गई है कि अगर किसी मुसलमान को कुछ लोगों की कानाफूसियाँ देखकर यह शक हो जाए कि वे उसी के ख़िलाफ़ की जा रही हैं, तब भी उसे इतना दुखी न होना चाहिए कि सिर्फ़ शक-ही-शक पर कोई जवाबी कार्रवाई करने की फ़िक्र में पड़ जाए, या अपने दिल में इसपर कोई दुख, या मैल, या ग़ैर-मामूली परेशानी पालने लगे। उसको यह समझना चाहिए कि अल्लाह की मरज़ी के बिना उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। भरोसा उसके दिल में ऐसी क़ुव्वत पैदा कर देगा कि बहुत-से बेकार के अन्देशों और ख़याली ख़तरों से उसको नजात मिल जाएगी और वह शरारतें करनेवालों को उनके हाल पर छोड़कर पूर इत्मीनान और सुकून के साथ अपने काम में लगा रहेगा। अल्लाह पर भरोसा करनेवाला मोमिन न थुड़दिला होता है कि हर अन्देशा और गुमान उसके सुकून को बरबाद कर दे, न इतने छोटे दिल का होता है कि ग़लत काम करनेवालों के मुक़ाबले में आपे से बाहर होकर ख़ुद भी इनसाफ़ के ख़िलाफ़ हरकतें करने लगे।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا قِيلَ لَكُمۡ تَفَسَّحُواْ فِي ٱلۡمَجَٰلِسِ فَٱفۡسَحُواْ يَفۡسَحِ ٱللَّهُ لَكُمۡۖ وَإِذَا قِيلَ ٱنشُزُواْ فَٱنشُزُواْ يَرۡفَعِ ٱللَّهُ ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ مِنكُمۡ وَٱلَّذِينَ أُوتُواْ ٱلۡعِلۡمَ دَرَجَٰتٖۚ وَٱللَّهُ بِمَا تَعۡمَلُونَ خَبِيرٞ ۝ 10
(11) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब तुमसे कहा जाए कि अपनी मजलिसों में कुशादगी पैदा करो तो जगह कुशादा कर दिया करो, अल्लाह तुम्हें कुशादगी देगा।26 और जब तुमसे कहा जाए कि उठ जाओ तो उठ जाया करो।27 तुममें से जो लोग ईमान रखनेवाले हैं और जिनको इल्म दिया गया है, अल्लाह उनको बुलन्द दरजे देगा,28 और जो कुछ तुम करते हो अल्लाह को उसकी ख़बर है।
26. इसकी तशरीह सूरा के परिचय में की जा चुकी है। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले कुछ आलिमों ने इस हुक्म को सिर्फ़ नबी (सल्ल०) की मजलिस तक महदूद समझा है। लेकिन जैसा कि इमाम मालिक (रह०) ने फ़रमाया है, सही बात यह है कि मुसलमानों की तमाम मजलिसों के लिए यह एक आम हिदायत है। अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) ने मुसलमानों को जो आदाब सिखाए हैं उनमें से एक बात यह भी है कि जब किसी मजलिस में पहले से कुछ लोग बैठे हों और बाद में कुछ और लोग आएँ, तो यह तहज़ीब पहले से बैठे हुए लोगों में होनी चाहिए कि वे ख़ुद नए आनेवालों को जगह दें और जहाँ तक मुमकिन हो कुछ सिकुड़-सिमटकर उनके लिए जगह पैदा करें, और इतनी शाइस्तगी (शालीनता) बाद के आनेवालों में होनी चाहिए कि वे ज़बरदस्ती उनके अन्दर न घुसें और कोई शख़्स किसी को उठाकर उसकी जगह बैठने की कोशिश न करे। हदीस में हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-उमर (रज़ि०) और हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “कोई शख़्स किसी को उठाकर उसकी जगह न बैठे, बल्कि तुम लोग ख़ुद दूसरों के लिए जगह कुशादा करो,” (हदीस : मुसनद अहमद, बुख़ारी, मुस्लिम)। और हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अम्र-बिन-आस की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “किसी शख़्स के लिए यह हलाल नहीं है कि दो आदमियों के दरमियान उनकी इजाज़त के बिना घुस जाए।” (हदीस : मुसनद अहमद, अबू-दाऊद, तिरमिज़ी)
27. अब्दुर्रहमान-बिन-ज़ैद-बिन-असलम (रह०) का बयान है कि लोग नबी (सल्ल०) की मजलिस में देर तक बैठे रहते थे और उनकी कोशिश यह होती थी कि आख़िर वक़्त तक बैठे रहें। इससे कई बार नबी (सल्ल०) को तकलीफ़ होती थी, आप (सल्ल०) के आराम में भी ख़लल पड़ता था और आप (सल्ल०) के कामों का भी हरज होता था। इसपर यह हुक्म उतरा कि जब तुम लोगों से कहा जाए कि उठ जाओ तो उठ जाओ। (इब्ने-जरीर और इब्ने-कसीर)
28. यानी यह न समझो कि अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की मजलिस में दूसरों को जगह देने की ख़ातिर अगर तुम आप (सल्ल०) से कुछ दूर जा बैठे तो तुम्हारा दरजा गिर गया, या अगर मजलिस बरख़ास्त करके तुम्हें उठ जाने के लिए कहा गया तो तुम्हारी कुछ बेइज़्ज़ती हो गई। दर्ज़ों के बुलन्द होने का अस्ल ज़रिआ ईमान और इल्म है, न यह कि किसको मजलिस में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के क़रीब बैठने का मौक़ा मिला, और कौन ज़्यादा देर तक आप कि (सल्ल०) के पास बैठा। कोई शख़्स अगर आप (सल्ल०) के क़रीब बैठ गया हो तो इसका मतलब यह नहीं है कि उसे बड़ा मर्तबा मिल गया। बड़ा मर्तबा तो उसी का रहेगा जिसने ईमान और इल्म की दौलत ज़्यादा पाई है। इसी तरह किसी शख़्स ने अगर ज़्यादा देर तक बैठकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) को तकलीफ़ दी तो उसने उलटा जहालत का काम किया। उसके दरजे में सिर्फ़ यह बात कोई इज़ाफ़ा न कर देगी कि उसे देर तक आप (सल्ल०) के पास बैठने का मौक़ा मिला। उससे कई गुना ज़्यादा मर्तबा अल्लाह के यहाँ उसका है जिसने आप (सल्ल०) के साथ रहक़र ईमान और इल्म की दौलत हासिल की और वे अख़लाक़ सीखे जो एक मोमिन में होने चाहिएँ।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُوٓاْ إِذَا نَٰجَيۡتُمُ ٱلرَّسُولَ فَقَدِّمُواْ بَيۡنَ يَدَيۡ نَجۡوَىٰكُمۡ صَدَقَةٗۚ ذَٰلِكَ خَيۡرٞ لَّكُمۡ وَأَطۡهَرُۚ فَإِن لَّمۡ تَجِدُواْ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٞ رَّحِيمٌ ۝ 11
(12) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! जब तुम रसूल से तन्हाई में बात करो तो बात करने से पहले कुछ सदक़ा दो।29 यह तुम्हारे लिए बेहतर और ज़्यादा पाकीज़ा है। अलबत्ता अगर तुम सदक़ा देने के लिए कुछ न पाओ तो अल्लाह माफ़ करनेवाला और रहम करनेवाला है।
29. हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-अब्बास (रज़ि०) इस हुक्म की वजह यह बयान करते हैं कि मुसलमान अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से बहुत ज़्यादा बातें (यानी तन्हाई की दरख़ास्त करके) पूछने लगे थे, यहाँ तक कि उन्होंने नबी (सल्ल०) को तंग कर दिया। आख़िरकार अल्लाह तआला ने यह चाहा कि अपने नबी पर से यह बोझ हल्का कर दे, (इब्ने-जरीर)। ज़ैद-बिन-असलम (रह०) कहते हैं कि नबी (सल्ल०) से जो शख़्स भी तन्हाई में बात करने की दरख़ास्त करता, आप (सल्ल०) उसे रद्द न करते थे। जिसका जी चाहता आकर कहता कि मैं जरा अलग बात करना चाहता हूँ, और आप (सल्ल०) उसे मौक़ा दे देते, यहाँ तक कि बहुत-से लोग ऐसे मामलों में भी आप (सल्ल०) को तकलीफ़ देने लगे जिनमें अलग बात करने की कोई ज़रूरत न होती। यह वह ज़माना था जिसमें सारा अरब मदीना के ख़िलाफ़ लड़ रहा था। कभी-कभी तो किसी शख़्स की इस तरह की खुसर-फुसर के बाद शैतान लोगों के कान में यह फूँक देता था कि यह फ़ुलाँ क़बीले की तरफ़ से हमला होने की ख़बर लाया था और इससे मदीना में अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो जाता था। दूसरी तरफ़ लोगों की इस हरकत की वजह से मुनाफ़िक़ों को यह कहने का मौक़ा मिल जाता था कि मुहम्मद (सल्ल०) तो कानों के कच्चे हैं, हर एक की सुन लेते हैं। इन वजहों से अल्लाह तआला ने यह पाबन्दी लगा दी कि जो आप (सल्ल०) से तन्हाई में बात करना चाहे वह पहले सदक़ा दे, (अहकामुल-क़ुरआन लि-इबनिल-अरबी)। क़तादा (रह०) कहते हैं कि दूसरों पर अपनी बड़ाई जताने के लिए भी कुछ लोग नबी (सल्ल०) से तन्हाई में बात करते थे। हज़रत अली (रज़ि०) फ़रमाते हैं कि जब यह हुक्म आया तो नबी (सल्ल०) ने मुझसे पूछा, कितना सदक़ा मुक़र्रर किया जाए? क्या एक दीनार?” मैंने कहा, “यह लोगों की हैसियत से ज़्यादा है।” आप (सल्ल०) ने कहा, “आधा दीनार?” मैंने कहा, “लोग इसकी भी हैसियत नहीं रखते।” नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “फिर कितना?” मैंने अर्ज़ किया, “बस एक जौ बराबर सोना।” आप (सल्ल०) ने फ़रमाया, “तुमने तो बड़ी कम मिक़दार (मात्रा) का मशवरा दिया”, (हदीस : इब्ने-जरीर, तिरमिजी, मुसनद अबू-याला)। एक दूसरी रिवायत में हज़रत अली (रज़ि०) फ़रमाते हैं, “क़ुरआन की यह एक ऐसी आयत है जिसपर मेरे सिवा किसी ने अमल नहीं किया। इस हुक्म के आते ही मैंने सदक़ा पेश किया और एक मसला आप (सल्ल०) से पूछ लिया।” (इब्ने-जरीर, हाकिम, इब्नुल-मुज़िर, अब्द-बिन-हुमैद)
ءَأَشۡفَقۡتُمۡ أَن تُقَدِّمُواْ بَيۡنَ يَدَيۡ نَجۡوَىٰكُمۡ صَدَقَٰتٖۚ فَإِذۡ لَمۡ تَفۡعَلُواْ وَتَابَ ٱللَّهُ عَلَيۡكُمۡ فَأَقِيمُواْ ٱلصَّلَوٰةَ وَءَاتُواْ ٱلزَّكَوٰةَ وَأَطِيعُواْ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥۚ وَٱللَّهُ خَبِيرُۢ بِمَا تَعۡمَلُونَ ۝ 12
(13) क्या तुम डर गए इस बात से कि तन्हाई में बात करने से पहले तुम्हें सदक़े देने होंगे? अच्छा, अगर तुम ऐसा न करो — और अल्लाह ने तुमको इससे माफ़ कर दिया — तो नमाज़ क़ायम करते रहो, ज़कात देते रहो और अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी करते रहो। तुम जो कुछ करते हो अल्लाह उसकी ख़बर रखता है।30
30. यह दूसरा हुक्म ऊपर के हुक्म के थोड़ी मुद्दत बाद ही उतर गया और इसने सदक़े के वाजिब होने को ख़त्म कर दिया। इस बात में इख़्तिलाफ़ है कि सदक़े का यह हुक्म कितनी देर रहा। क़तादा (रह०) कहते हैं कि एक दिन से भी कम मुद्दत तक बाक़ी रहा, फिर ख़त्म कर दिया गया। मुक़ातिल-बिन-हय्यान कहते हैं कि दस दिन रहा। यह ज़्यादा-से-ज़्यादा इस हुक्म के बाक़ी रहने की मुद्दत है जो किसी रिवायत में बयान हुई है।
۞أَلَمۡ تَرَ إِلَى ٱلَّذِينَ تَوَلَّوۡاْ قَوۡمًا غَضِبَ ٱللَّهُ عَلَيۡهِم مَّا هُم مِّنكُمۡ وَلَا مِنۡهُمۡ وَيَحۡلِفُونَ عَلَى ٱلۡكَذِبِ وَهُمۡ يَعۡلَمُونَ ۝ 13
(14) क्या तुमने देखा नहीं उन लोगों को जिन्होंने दोस्त बनाया है एक ऐसे गरोह को जिसपर अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) हुआ है?31 वे न तुम्हारे हैं न उनके,32 और वे जान-बूझकर झूठी बात पर क़समें खाते हैं।323
31. इशारा है मदीना के यहूदियों तरफ़ जिन्हें मुनाफ़िक़ों ने दोस्त बना रखा था।
32. यानी सच्चा ताल्लुक़ उनका न ईमानवालों से है न यहूदियों से। दोनों के साथ उन्होंने सिर्फ़ का अपने मक़सदों और फ़ायदों के लिए रिश्ता जोड़ रखा है।
33. यानी इस बात पर कि वे ईमान लाए हैं और मुहम्मद (सल्ल०) को अपना रहनुमा और पेशवा मानते हैं और इस्लाम और मुसलमानों के वफ़ादार हैं।
أَعَدَّ ٱللَّهُ لَهُمۡ عَذَابٗا شَدِيدًاۖ إِنَّهُمۡ سَآءَ مَا كَانُواْ يَعۡمَلُونَ ۝ 14
(15) अल्लाह ने उनके लिए सख़्त अज़ाब तैयार कर रखा है। बड़े ही बुरे करतूत हैं जो वे कर रहे हैं!
ٱتَّخَذُوٓاْ أَيۡمَٰنَهُمۡ جُنَّةٗ فَصَدُّواْ عَن سَبِيلِ ٱللَّهِ فَلَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 15
(16) उन्होंने अपनी क़समों को ढाल बना रखा है जिसकी आड़ में वे अल्लाह की राह से लोगों को रोकते हैं,34 इसपर उनके लिए बेइज़्ज़ती और रुसवाई का अज़ाब है।
34. मतलब यह है कि एक तरफ़ तो वे अपने ईमान और अपनी वफ़ादारी की क़समें खाकर मुसलमानों की पकड़ से बचे रहते हैं और दूसरी तरफ़ इस्लाम और मुसलमानों और इस्लाम के पैग़म्बर (सल्ल०) के ख़िलाफ़ हर तरह के शक और वस्वसे लोगों के दिलों में पैदा करते हैं, ताकि लोग यह समझकर इस्लाम क़ुबूल करने से रुके रहें कि जब घर के भेदी ये ख़बरें दे रहे हैं तो ज़रूर अन्दर कुछ दाल में काला होगा।
لَّن تُغۡنِيَ عَنۡهُمۡ أَمۡوَٰلُهُمۡ وَلَآ أَوۡلَٰدُهُم مِّنَ ٱللَّهِ شَيۡـًٔاۚ أُوْلَٰٓئِكَ أَصۡحَٰبُ ٱلنَّارِۖ هُمۡ فِيهَا خَٰلِدُونَ ۝ 16
(17) अल्लाह से बचाने के लिए न उनके माल कुछ काम आएँगे न उनकी औलाद। वे जहन्नम के यार हैं, उसी में वे हमेशा रहेंगे।
يَوۡمَ يَبۡعَثُهُمُ ٱللَّهُ جَمِيعٗا فَيَحۡلِفُونَ لَهُۥ كَمَا يَحۡلِفُونَ لَكُمۡ وَيَحۡسَبُونَ أَنَّهُمۡ عَلَىٰ شَيۡءٍۚ أَلَآ إِنَّهُمۡ هُمُ ٱلۡكَٰذِبُونَ ۝ 17
(18) जिस दिन अल्लाह उन सबको उठाएगा, वे उसके सामने भी उसी तरह क़समें खाएँगे जिस तरह तुम्हारे सामने खाते हैं35 और अपने नज़दीक यह समझेंगे कि इससे उनका कुछ काम बन जाएगा। ख़ूब जान लो! वे परले दरजे के झूठे हैं।
35. यानी ये सिर्फ़ दुनिया ही में और सिर्फ़ इनसानों ही के सामने झूठी क़समें खाने पर बस नहीं करते, बल्कि आख़िरत में ख़ुद अल्लाह तआला के सामने भी यह झूठी क़समें खाने से बाज़ न रहेंगे। झूठ और फ़रेब इनके अन्दर इतना गहरा उतर चुका है कि मरकर भी यह इनसे न छूटेगा।
ٱسۡتَحۡوَذَ عَلَيۡهِمُ ٱلشَّيۡطَٰنُ فَأَنسَىٰهُمۡ ذِكۡرَ ٱللَّهِۚ أُوْلَٰٓئِكَ حِزۡبُ ٱلشَّيۡطَٰنِۚ أَلَآ إِنَّ حِزۡبَ ٱلشَّيۡطَٰنِ هُمُ ٱلۡخَٰسِرُونَ ۝ 18
(19) शैतान उनपर हावी हो चुका है और उसने ख़ुदा की याद उनके दिल से भुला दी है। वे शैतान की पार्टी के लोग हैं। ख़बरदार रहो! शैतान की पार्टीवाले ही घाटे में रहनेवाले हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يُحَآدُّونَ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥٓ أُوْلَٰٓئِكَ فِي ٱلۡأَذَلِّينَ ۝ 19
(20) यक़ीनन सबसे बेइज़्ज़त लोगों में से हैं वे लोग जो अल्लाह और उसके रसूल का मुक़ाबला करते हैं।
كَتَبَ ٱللَّهُ لَأَغۡلِبَنَّ أَنَا۠ وَرُسُلِيٓۚ إِنَّ ٱللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٞ ۝ 20
(21) अल्लाह ने लिख दिया है कि मैं और मेरे रसूल ग़ालिब (हावी) होकर रहेंगे।36 हक़ीक़त में अल्लाह ज़बरदस्त और ज़ोरावर है।
36. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-93।
لَّا تَجِدُ قَوۡمٗا يُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلۡيَوۡمِ ٱلۡأٓخِرِ يُوَآدُّونَ مَنۡ حَآدَّ ٱللَّهَ وَرَسُولَهُۥ وَلَوۡ كَانُوٓاْ ءَابَآءَهُمۡ أَوۡ أَبۡنَآءَهُمۡ أَوۡ إِخۡوَٰنَهُمۡ أَوۡ عَشِيرَتَهُمۡۚ أُوْلَٰٓئِكَ كَتَبَ فِي قُلُوبِهِمُ ٱلۡإِيمَٰنَ وَأَيَّدَهُم بِرُوحٖ مِّنۡهُۖ وَيُدۡخِلُهُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ خَٰلِدِينَ فِيهَاۚ رَضِيَ ٱللَّهُ عَنۡهُمۡ وَرَضُواْ عَنۡهُۚ أُوْلَٰٓئِكَ حِزۡبُ ٱللَّهِۚ أَلَآ إِنَّ حِزۡبَ ٱللَّهِ هُمُ ٱلۡمُفۡلِحُونَ ۝ 21
(22) तुम कभी यह न पाओगे कि जो लोग अल्लाह और आख़िरत पर ईमान रखनेवाले हैं वे उन लोगों से मुहब्बत करते हों जिन्होंने अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालफ़त की है, चाहे वे उनके बाप हों, या उनके बेटे, या उनके भाई, या उनके ख़ानदानवाले।37 ये वे लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान जमा दिया है और अपनी तरफ़ से एक रूह देकर उनको क़ुव्वत दी है। वह उनको ऐसी जन्नतों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी। उनमें वे हमेशा रहेंगे। अल्लाह उनसे राज़ी हुआ और वे अल्लाह से राजी हुए। वे अल्लाह की पार्टी के लोग हैं। ख़बरदार रहो! अल्लाह की पार्टीवाले ही कामयाबी पानेवाले हैं।
37. इस आयत में दो बातें कही गई हैं : एक बात उसूली है, और दूसरी हक़ीक़त का बयान। उसूली बात यह फ़रमाई गई है कि सच्चे दीन पर ईमान और दीन के दुश्मनों की मुहब्बत, दो बिलकुल एक-दूसरे के उलट चीज़ें हैं जिनका एक जगह जमा होना किसी तरह भी सोचा नहीं जा सकता। यह बात पूरी तरह नामुमकिन है कि ईमान और ख़ुदा और रसूल के दुश्मनों को मुहब्बत एक दिल में जमा हो जाएँ, बिलकुल उसी तरह जैसे एक आदमी के दिल में अपने-आपकी मुहब्बत और अपने दुश्मन की मुहब्बत एक ही वक़्त में जमा नहीं हो सकती। लिहाज़ा अगर तुम किसी शख़्स को देखो कि वह ईमान का दावा भी करता है और साथ-साथ उसने ऐसे लोगों से मुहब्बत का रिश्ता भी जोड़ रखा है जो इस्लाम के मुख़ालिफ़ हैं, तो यह ग़लतफ़हमी तुम्हें हरगिज़ न होनी चाहिए कि शायद वह अपने इस रवैये के बावजूद ईमान के दावे में सच्चा हो। इसी तरह जिन लोगों ने इस्लाम और इस्लाम के मुख़ालिफ़ों से एक ही वक़्त में रिश्ता जोड़ रखा है, वे ख़ुद भी अपनी पोज़ीशन पर अच्छी तरह ग़ौर कर लें कि वे हक़ीक़त में क्या हैं, मोमिन हैं या मुनाफ़िक़? और हक़ीक़त में क्या होना चाहते हैं, मोमिन बनकर रहना चाहते हैं या मुनाफ़िक़? अगर उनके अन्दर कुछ भी सच्चाई मौज़ूद है और वे कुछ भी यह एहसास अपने अन्दर रखते हैं कि अख़लाक़ी हैसियत से मुनाफ़क़त (कपटाचार) इनसान के लिए सबसे नीच और घटिया रवैया है, तो उन्हें एक ही वक़्त में दो नावों में सवार होने की कोशिश छोड़ देनी चाहिए। ईमान तो उनसे दो-टूक फ़ैसला चाहता है। मोमिन रहना चाहते हैं तो हर उस रिश्ते और ताल्लुक़ को क़ुरबान कर दें जो इस्लाम के साथ उनके ताल्लुक़ से टकराता हो। इस्लाम के रिश्ते से किसी और रिश्ते को ज़्यादा पसन्द करते हैं तो बेहतर है कि ईमान का झूठा दावा छोड़ दें। यह तो है उसूली बात। मगर अल्लाह तआला ने यहाँ सिर्फ़ उसूल बयान करने पर बस नहीं किया है, बल्कि इस हक़ीक़त को ईमान के दावेदारों के सामने नमूने के तौर पर पेश कर दिया है कि जो लोग सच्चे मोमिन थे उन्होंने हक़ीक़त में सबकी आँखों के सामने तमाम उन रिश्तों को काट फेंका जो अल्लाह के दीन के साथ उनके ताल्लुक़ में रुकावट बने। यह एक ऐसा वाक़िआ था जो बद्र और उहुद की जंगों में सारा अरब देख चुका था। मक्का से जो सहाबा किराम (रज़ि०) हिजरत करके आए थे, वे सिर्फ़ ख़ुदा और उसके दीन की ख़ातिर ख़ुद अपने क़बीले और अपने सबसे क़रीबी रिश्तेदारों से लड़ गए थे। हज़रत अबू-उबैदा (रज़ि०) ने अपने बाप अब्दुल्लाह-बिन-जर्राह को क़त्ल किया। हज़रत मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०) ने अपने भाई उबैद-बिन-उमैर को क़त्ल किया। हज़रत उमर (रज़ि०) ने अपने मामूँ आस-बिन-हिशाम-बिन-मुग़ीरा को क़त्ल किया। हज़रत अबू-बक्र (रज़ि०) अपने बेटे अब्दुर्रहमान से लड़ने के लिए तैयार हो गए। हज़रत अली (रज़ि०), हज़रत हमज़ा (रज़ि०) और हज़रत उबैदा-बिन-हारिस (रज़ि०) ने उतबा, शैबा और वलीद-बिन-उतबा को क़त्ल किया जो उनके क़रीबी रिश्तेदार थे। हज़रत उमर (रज़ि०) ने बद्र की जंग के क़ैदियों के मामले में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) से अर्ज़ किया कि इन सबको क़त्ल कर दिया जाए और हममें से हर एक अपने रिश्तेदार को क़त्ल करे। इसी बद्र की जंग में हज़रत मुसअब-बिन-उमैर (रज़ि०) के सगे भाई अबू-अज़ीज़-बिन-उमैर को एक अनसारी पकड़कर बाँध रहा था। हज़रत मुसअब ने देखा तो पुकारकर कहा, “ज़रा मज़बूत बाँधना, इसकी माँ बड़ी मालदार हैं, इसकी रिहाई के लिए वे तुम्हें बहुत-सा फ़िदया देंगी।” अबू-अज़ीज़ ने कहा, “तुम मेरे भाई होकर यह बात कह रहे हो?” हज़रत मुसअब ने जवाब दिया, “इस वक़्त तुम मेरे भाई नहीं हो, बल्कि यह अनसारी मेरा भाई है जो तुम्हें गिरफ़्तार कर रहा है।” इसी बद्र की जंग में ख़ुद नबी (सल्ल०) के दामाद अबुल-आस गिरफ़्तार होकर आए और उनके साथ रसूल (सल्ल०) के दामाद होने की वजह से बिलकुल कोई ख़ास सुलूक न किया गया जो दूसरे क़ैदियों से कुछ अलग होता। इस तरह हक़ीक़त की दुनिया में लोगों को यह दिखाया जा चुका था कि सच्चे मुसलमान कैसे होते हैं और अल्लाह और उसके दीन के साथ उनका ताल्लुक़ कैसा हुआ करता है। दैलमी ने हज़रत मुआज़ (रज़ि०) की रिवायत से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की यह दुआ नक़्ल की है— "ऐ अल्लाह! किसी फ़ाजिर (और एक रिवायत में फ़ासिक़) का मेरे ऊपर कोई एहसान न होने दे कि मेरे दिल में उसके लिए कोई मुहब्बत पैदा हो। क्योंकि तेरी उतारी हुई वह्य में यह बात भी मैंने पाई है कि अल्लाह और आख़िरत के दिन पर ईमान रखनेवालों को तुम अल्लाह और रसूल के मुख़ालिफ़ों से मुहब्बत करते न पाओगे।"