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سُورَةُ الجَاثِيَةِ

45. अल-जासिया

(मक्का में उतरी, आयतें 37)

परिचय

नाम

आयत 28 के वाक्यांश ‘व तरा कुल-ल उम्मतिन जासिया' अर्थात् “उस समय तुम हर गिरोह को घुटनों के बल गिरा (जासिया) देखोगे,” से लिया गया है। मतलब यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'जासिया’ आया है।

उतरने का समय

इसकी विषय-वस्तुओं से साफ़ महसूस होता है कि यह सूरा-44 अद-दुखान के बाद निकटवर्ती समय में उतरी है। इन दोनों सूरतों की विषय-वस्तुओं में ऐसी एकरूपता पाई जाती है कि जिससे ये दोनों सूरतें जुड़वाँ महसूस होती हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय तौहीद (एकेश्वरवाद) और आख़िरत (परलोकवाद) के बारे में मक्का के इस्लाम-विरोधियों के सन्देहों और आपत्तियों का उत्तर देना और [उनके विरोधात्मक] रवैये पर उनको सचेत करना है। वार्ता की शुरुआत एकेश्वरवाद के प्रमाणों से की गई है। इस सिलसिले में इंसान के अपने अस्तित्त्व से लेकर ज़मीन और आसमान तक हर ओर फैली हुई अनगिनत निशानियों की ओर संकेत करके बताया गया है कि तुम जिधर भी दृष्टि उठाकर देखो, हर चीज़ उसी तौहीद की गवाही दे रही है जिसे मानने से तुम इंकार कर रहे हो। आगे चलकर आयत 12-13 में फिर कहा गया है कि इंसान इस दुनिया में जितनी चीज़ों से काम ले रहा है और जो अनगिनत चीज़ें और शक्तियाँ इस जगत् में उसके हित में सेवारत हैं [वे सब की सब एक ख़ुदा की दी हुई और वशीभूत की हुई हैं]। कोई व्यक्ति सही सोच-विचार से काम ले तो उसकी अपनी बुद्धि ही पुकार उठेगी कि वही अल्लाह इंसान का उपकारी है और उसी का यह अधिकार है कि इंसान उसका आभारी हो। इसके बाद मक्का के इस्लाम-विरोधियों की उस हठधर्मी, घमंड, उपहास और कुफ़्र के लिए दुराग्रह पर कड़ी निंदा की गई है जिससे वे क़ुरआन की दावत (आह्वान) का मुक़ाबला कर रहे थे, और उन्हें सचेत किया गया है कि यह क़ुरआन [एक बहुत बड़ी नेमत (वरदान) है, इसे रद्द कर देने का अंजाम अत्यन्त विनाशकारी होगा] । इसी सम्बन्ध में अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की पैरवी करनेवालों को आदेश दिया गया है कि ये अल्लाह से निडर लोग तुम्हारे साथ जो दुर्व्यवहार कर रहे हैं, उनपर क्षमा और सहनशीलता से काम लो। तुम धैर्य से काम लोगे तो अल्लाह ख़ुद उनसे निपटेगा और तुम्हें इस धैर्य का पुरस्कार देगा। फिर आख़िरत के अक़ीदे (धारणा) के बारे में इस्लाम-विरोधियों के अज्ञानपूर्ण विचारों की समीक्षा की गई है और उनके इस दावे के खंडन में कि मरने के बाद फिर कोई दूसरी जिंदगी नहीं है, अल्लाह ने निरन्तर कुछ प्रमाण दिए हैं। ये प्रमाण देने के बाद अल्लाह पूरे ज़ोर के साथ कहता है कि जिस तरह तुम आप से आप ज़िन्दा नहीं हो गए हो, बल्कि हमारे ज़िन्दा करने से ज़िन्दा हुए हो, इसी तरह तुम आप से आप नहीं मर जाते, बल्कि हमारे मौत देने से मरते हो, और एक वक़्त निश्चित रूप से ऐसा आना है, जब तुम सब एक ही समय में जमा किए जाओगे। जब वह समय आ जाएगा तो तुम स्वयं ही अपनी आँखों से देख लोगे कि अपने ख़ुदा के सामने पेश हो और तुम्हारा पूरा आमाल-नामा (कर्मपत्र) बिना घटाए-बढ़ाए तैयार है जो तुम्हारे एक-एक करतूत की गवाही दे रहा है। उस समय तुमको मालूम हो जाएगा कि आख़िरत के अक़ीदे (धारणा) का यह इंकार और उसका यह मज़ाक़ जो तुम उड़ा रहे हो, तुम्हें कितना महँगा पड़ा है।

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سُورَةُ الجَاثِيَةِ
45. अल-जासिया
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
حمٓ
(1) हा-मीम।
تَنزِيلُ ٱلۡكِتَٰبِ مِنَ ٱللَّهِ ٱلۡعَزِيزِ ٱلۡحَكِيمِ ۝ 1
(2) इस किताब का उतरना अल्लाह की तरफ़ से है जो ज़बरदस्त और हिकमतवाला है।1
1. ये इस सूरा की मुख़्तसर शुरुआती बातें हैं, जिनमें सुननेवालों को दो बातों से ख़बरदार किया गया है— एक यह कि यह किताब मुहम्मद (सल्ल०) ने ख़ुद तैयार नहीं की है, बल्कि अल्लाह तआला की तरफ़ से उनपर उतर रही है। दूसरी यह कि इसे वह ख़ुदा उतार रहा है जो ज़बरदस्त भी है और हिकमतवाला भी। उसका ज़बरदस्त होना इस बात का तक़ाज़ा करता है कि इनसान उसके हुक्म के मुक़ाबले में सरकशी न करे, क्योंकि नाफ़रमानी करके वह उसकी सज़ा से किसी तरह बच नहीं सकता और उसका हिकमतवाला होना इसका तक़ाज़ा करता है कि इनसान पूरे इत्मीनान के साथ अपनी मरज़ी और ख़ुशी से उसकी हिदायतों और उसके हुक्मों की पैरवी करे, क्योंकि उसकी किसी तालीम के ग़लत या नामुनासिब या नुक़सानदेह होने का कोई इमकान नहीं।
إِنَّ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِ لَأٓيَٰتٖ لِّلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 2
(3) हक़ीक़त यह है कि आसमानों और ज़मीन में अनगिनत निशानियाँ हैं ईमान लानेवालों के लिए।2
2. शुरुआती बातों के बाद अस्ल तक़रीर की इब्तिदा इस तरह करने से साफ़ महसूस होता है कि पसमंज़र (पृष्ठभूमि) में मक्कावालों के वे एतिराज़ हैं जो वे नबी (सल्ल०) की पेश की हुई तालीम पर कर रहे थे। वे कहते थे कि आख़िर सिर्फ़ एक आदमी के कहने से हम इतनी बड़ी बात कैसे मान लें कि जिन बुज़ुर्ग हस्तियों के आस्तानों से आज तक हमारी अक़ीदतें (आस्थाएँ) जुड़ी रही हैं उनकी कोई हैसियत नहीं है और ख़ुदाई (प्रभुत्त्व) बस एक ख़ुदा की है। इसपर कहा जा रहा है कि जिस हक़ीक़त को मानने की दावत तुम्हें दी जा रही है, उसकी सच्चाई के निशानों से तो सारी दुनिया भरी पड़ी है। आँखें खोलकर देखो, तुम्हारे अन्दर और तुम्हारे बाहर हर तरफ़ निशानियाँ-ही-निशानियाँ फैली हुई हैं जो गवाही दे रही हैं कि यह सारी कायनात एक ख़ुदा और एक ही ख़ुदा की बनाई हुई है और वही अकेला इसका मालिक, इसपर हुकूमत करनेवाला और इसका इन्तिज़ाम चलानेवाला है। यह कहने की ज़रूरत न थी कि आसमान और ज़मीन में निशानियाँ किस चीज़ की हैं। इसलिए कि सारा झगड़ा ही उस वक़्त इस बात का चल रहा था कि मुशरिक लोग अल्लाह तआला के साथ दूसरे ख़ुदाओं और माबूदों को मानने पर अड़े हुए थे और क़ुरआन की दावत यह थी कि एक ख़ुदा के सिवा न कोई ख़ुदा है, न माबूद। लिहाज़ा बे-कहे यह बात आप-ही-आप मौक़ा-महल से ज़ाहिर हो रही थी कि निशानियों से मुराद तौहीद के सच होने और शिर्क के ग़लत होने की निशानियाँ हैं। फिर यह जो फ़रमाया कि “ये निशानियाँ ईमान लानेवालों के लिए हैं,” इसका मतलब यह है कि अगरचे अपने आपमें ख़ुद तो ये निशानियाँ सारे ही इनसानों के लिए हैं, लेकिन इन्हें देखकर सही नतीजे पर वही लोग पहुँच सकते हैं जो ईमान लाने के लिए तैयार हों। गफ़लत में पड़े हुए लोग, जो जानवरों की तरह जीते हैं और हठधर्म लोग, जो न मानने की क़सम खाए बैठे हैं, उनके लिए इन निशानियों का होना और न होना बराबर है। चमन की रौनक और उसकी ख़ूबसूरती तो आँखोंवाले के लिए है। अन्धा किसी रौनक़ और किसी हुस्न व जमाल का एहसास नहीं कर सकता। उसके लिए चमन का वुजूद ही बेमतलब है।
وَفِي خَلۡقِكُمۡ وَمَا يَبُثُّ مِن دَآبَّةٍ ءَايَٰتٞ لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 3
(4) और तुम्हारी अपनी पैदाइश में और उन जानदारों में जिनको अल्लाह (ज़मीन में) फैला रहा है, बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो यक़ीन लानेवाले हैं।3
3. यानी जो लोग इनकार का फ़ैसला कर चुके हैं, या जिन्होंने शक ही की भूल-भुलैयों में भटकना अपने लिए पसन्द कर लिया है, उनका मामला तो दूसरा है, मगर जिन लोगों के दिल के दरवाज़े यक़ीन के लिए बन्द नहीं हुए हैं, वे जब अपनी पैदाइश पर और अपने वुजूद की बनावट पर और ज़मीन में फैले हुए तरह-तरह के जानदारों पर ग़ौर की निगाह डालेंगे तो उन्हें अनगिनत अलामतें (लक्षण) ऐसी नज़र आएँगी जिन्हें देखकर यह शक व शुब्हा करने की मामूली-सी गुंजाइश भी न रहेगी कि शायद यह सब कुछ किसी ख़ुदा के बिना बन गया हो, या शायद इसके बनाने में एक से ज़्यादा ख़ुदाओं का हाथ हो। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिए—25 से 27; सूरा-16 नहल, हाशिए—7 से 9; सूरा-22 हज, हाशिए—5 से 9; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—12, 13; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-69; सूरा-26 शुअरा, हाशिए—57, 58; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-80; सूरा-30 रूम, हाशिए—25 से 32, 79; सूरा-32 सजदा, हाशिए—14 से 18; सूरा-36 या-सीन, आयतें—71 से 73; सूरा-39 ज़ुमर, आयत-6; सूरा-40 मोमिन, हाशिए—97, 98, 110।
وَٱخۡتِلَٰفِ ٱلَّيۡلِ وَٱلنَّهَارِ وَمَآ أَنزَلَ ٱللَّهُ مِنَ ٱلسَّمَآءِ مِن رِّزۡقٖ فَأَحۡيَا بِهِ ٱلۡأَرۡضَ بَعۡدَ مَوۡتِهَا وَتَصۡرِيفِ ٱلرِّيَٰحِ ءَايَٰتٞ لِّقَوۡمٖ يَعۡقِلُونَ ۝ 4
(5) और रात-दिन के फ़र्क़ और इख़्तिलाफ़ (विभेद) में4 और उस रिज़्क़ में5 जिसे अल्लाह आसमान से उतारता है, फिर उसके ज़रिए से मुर्दा ज़मीन को जिला उठाता है,6 और हवाओं के चलने में7 बहुत निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो अक़्ल से काम लेते हैं।
4. रात और दिन का यह फ़र्क़ और अलग-अलग होना इस एतिबार से भी निशानी है कि दोनों बाक़ायदगी के साथ एक-दूसरे के बाद आते हैं और इस एतिबार से भी कि एक रौशन है और दूसरा अंधेरा और इस एतिबार से भी कि एक मुद्दत तक धीरे-धीरे करके दिन छोटा और रात बड़ी होती चली जाती है, यहाँ तक कि फिर एक वक़्त जाकर दोनों बराबर हो जाते हैं। फिर धीरे-धीरे दिन बड़ा और रात छोटी होती चली जाती है, फिर एक वक़्त जाकर दोनों बराबर हो जाते हैं। ये अलग-अलग तरह के फ़र्क़ और इख़्तिलाफ़ जो रात और दिन में पाए जाते हैं और उनसे जो हिकमतें जुड़ी हैं, वे इस बात की साफ़ निशानी हैं कि सूरज और ज़मीन और ज़मीन में मौजूद चीज़ों का पैदा करनेवाला एक ही है और इन दोनों गोलों को एक ही ज़बरदस्त ताक़त ने काबू में कर रखा है और वह कोई अन्धी-बहरी हिकमत से ख़ाली ताक़त नहीं है, बल्कि ऐसा हिकमत भरा इक़तिदार (सत्ता) है जिसने यह अटल हिसाब क़ायम करके अपनी ज़मीन को ज़िन्दगी की उन अनगिनत क़िस्मों के लिए मुनासिब जगह बना दिया है जो पेड़-पौधों, जानवरों और इनसान की शक्ल में उसने यहाँ पैदा किए हैं। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिया-65; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-104; सूरा-28 क़सस, हाशिया-92; सूरा-31 लुक़मान, आयत-9, हाशिया 50, 51; सूरा-36 या-सीन, आयत-37, हाशिया-32)।
5. रिज़्क़ से मुराद यहाँ बारिश है, जैसा की बाद के जुमले से साफ़ मालूम हो जाता है।
6. तशरीह के लिए देखिए; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-17; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिए—62 से 65; सूरा-26 शुअरा, हाशिया-5; सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73, 74; सूरा-30 रूम, हाशिए—35, 73; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—26 से 31।
7. हवाओं के चलने से मुराद अलग-अलग वक़्तों में ज़मीन के अलग-अलग हिस्सों पर और अलग-अलग ऊँचाइयों पर अलग-अलग हवाएँ चलना है, जिनसे मौसम बदलते हैं। देखने की चीज़ सिर्फ़ इतनी ही नहीं है कि ज़मीन के ऊपर हवा का एक बड़ा दायरा पाया जाता है जिसके अन्दर वे तमाम चीज़ें (तत्त्व) मौजूद हैं जो ज़िन्दा मख़लूक़ को साँस लेने के लिए दरकार हैं और हवा के इसी लिहाफ़ ने ज़मीन की आबादी को बहुत-सी आसमानी आफ़तों से बचा रखा है। इसके साथ देखने की चीज़ यह भी है कि यह हवा सिर्फ़ ऊपरी फ़िज़ा (वातावरण) में भरकर नहीं रह गई है, बल्कि वक़्त-वक़्त पर अलग-अलग तरीक़ों से चलती रहती है। कभी ठण्डी हवा चलती है और कभी गर्म। कभी बन्द हो जाती है और कभी चलने लगती है। कभी हलकी चलती है तो कभी तेज़ और कभी आँधी और तूफ़ान की शक्ल ले लेती है। कभी सूखी हवा चलती है और कभी नमी लिए हुए। कभी बारिश लानेवाली हवा चलती है और कभी उसको उड़ा ले जानेवाली चल पड़ती है। ये तरह-तरह की हवाएँ कुछ यूँ ही अन्धा-धुंध नहीं चलतीं, बल्कि इनका एक क़ानून और एक निज़ाम है जो गवाही देता है कि इस इन्तिज़ाम का दारोमदार इन्तिहाई दरजे की हिकमत पर है और इससे बड़े अहम मक़सद पूरे हो रहे हैं। फिर इसका बड़ा गहरा ताल्लुक़ उस सर्दी और गर्मी से है जो ज़मीन और सूरज के बीच बदलती हुई मुनासबतों (अनुकूलताओं) के मुताबिक़ घटती और बढ़ती रहती है और इसके अलावा इसका बहुत ही गहरा ताल्लुक़ मौसमी तब्दीलियों और बारिशों की तक़सीम से भी है। ये सारी चीज़ें पुकार-पुकारकर कह रही हैं कि किसी अन्धी फ़ितरत ने इत्तिफ़ाक़ से ये इन्तिज़ाम नहीं कर दिए हैं, न सूरज और ज़मीन और हवा और पानी और पेड़-पौधों और जानदारों के अलग-अलग इन्तिज़ाम करनेवाले (प्रबन्धक) हैं, बल्कि ज़रूर एक ही ख़ुदा इन सबका पैदा करनेवाला है और उसी की हिकमत ने एक बड़े मक़सद के लिए यह इन्तिज़ाम क़ायम किया है और उसी की क़ुदरत से यह पूरी बाक़ायदगी के साथ एक मुक़र्रर क़ानून पर चल रहा है।
تِلۡكَ ءَايَٰتُ ٱللَّهِ نَتۡلُوهَا عَلَيۡكَ بِٱلۡحَقِّۖ فَبِأَيِّ حَدِيثِۭ بَعۡدَ ٱللَّهِ وَءَايَٰتِهِۦ يُؤۡمِنُونَ ۝ 5
(6) ये अल्लाह की निशानियाँ हैं जिन्हें हम तुम्हारे सामने ठीक-ठीक बयान कर रहे हैं। अब आख़िर अल्लाह और उसकी आयतों के बाद और कौन-सी बात है जिसपर ये लोग ईमान लाएँगे।8
8. यानी जब अल्लाह की हस्ती और इस बात पर कि वह एक है, उसका कोई शरीक नहीं, ख़ुद अल्लाह ही की बयान की हुई ये दलीलें सामने आ जाने के बाद भी ये लोग ईमान नहीं लाते तो अब क्या चीज़ ऐसी आ सकती है जिससे इन्हें ईमान की दौलत नसीब हो जाए। अल्लाह का कलाम तो वह आख़िरी चीज़ है जिसके ज़रिए से कोई शख़्स यह नेमत पा सकता है और एक अनदेखी हक़ीक़त का यक़ीन दिलाने के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा जो मुनासिब और सही दलीलें मुमकिन हैं, वे इस पाक कलाम में पेश कर दी गई हैं। इसके बाद अगर कोई इनकार ही करने पर तुला हुआ हो तो इनकार करता रहे। उसके इनकार से हक़ीक़त नहीं बदल जाएगी।
وَيۡلٞ لِّكُلِّ أَفَّاكٍ أَثِيمٖ ۝ 6
(7) तबाही है हर उस झूठे बुरा काम करनेवाले शख़्स के लिए
يَسۡمَعُ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِ ثُمَّ يُصِرُّ مُسۡتَكۡبِرٗا كَأَن لَّمۡ يَسۡمَعۡهَاۖ فَبَشِّرۡهُ بِعَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 7
(8) जिसके सामने अल्लाह की आयतें पढ़ी जाती हैं और वह उनको सुनता है, फिर पूरे घमण्ड के साथ अपने कुफ़्र पर इस तरह अड़ा रहता है कि मानो उसने उनको सुना ही नहीं।9 ऐसे शख़्स को दर्दनाक अज़ाब की ख़ुशख़बरी सुना दो
9. दूसरे अलफ़ाज़ में फ़र्क़ और बहुत बड़ा फ़र्क़ है उस आदमी में जो नेक और अच्छी नीयत के साथ अल्लाह की आयतों को खुले दिल से सुनता और संजीदगी के साथ उनपर ग़ौर करता है और उस शख़्स में जो पहले ही इनकार का फ़ैसला करके सुनता है और किसी सोच-विचार के बिना अपने उसी फ़ैसले पर क़ायम रहता है जो उन आयतों को सुनने से पहले वह कर चुका था। पहली क़िस्म का आदमी अगर आज इन आयतों को सुनकर ईमान नहीं ला रहा है तो उसकी वजह यह नहीं है कि वह इनकारी रहना चाहता है, बल्कि इसकी वजह यह है कि वह और ज़्यादा इत्मीनान करना चाहता है। इसलिए अगर उसके ईमान लाने में देर भी लग रही है तो इस बात की पूरी उम्मीद की जा सकती है कि कल कोई दूसरी आयत उसके दिल में उतर जाए और वह मुत्मइन होकर मान ले। लेकिन दूसरी क़िस्म का आदमी कभी कोई आयत सुनकर भी ईमान नहीं ला सकता, क्योंकि वह पहले ही अल्लाह की आयतों के लिए अपने दिल के दरवाज़े बन्द कर चुका है। इस हालत में आम तौर से वे लोग मुब्तला होते हैं जिनके अन्दर तीन तरह की बातें मौजूद होती हैं— एक, यह कि वे झूठे होते हैं, इसलिए, सच्चाई उनको अपनी तरफ़ नहीं खींचती। दूसरी यह कि वे बुरे काम करनेवाले होते हैं, इसलिए, किसी ऐसी तालीम और हिदायत को मान लेना उन्हें सख़्त नागवार होता है जो उनपर अख़लाक़ी पाबन्दियाँ लगाती हो। तीसरी, यह कि वे इस घमण्ड में मुब्तला होते हैं कि हम सब कुछ जानते हैं, हमें कोई क्या सिखाएगा, इसलिए अल्लाह की जो आयतें उन्हें सुनाई जाती हैं उनको वे सिरे से किसी सोच-विचार के लायक़ ही नहीं समझते और उनके सुनने का नतीजा भी वही कुछ होता है जो न सुनने का था।
وَإِذَا عَلِمَ مِنۡ ءَايَٰتِنَا شَيۡـًٔا ٱتَّخَذَهَا هُزُوًاۚ أُوْلَٰٓئِكَ لَهُمۡ عَذَابٞ مُّهِينٞ ۝ 8
(9) हमारी आयतों में से कोई बात जब उसके इल्म में आती है तो वह उनका मज़ाक़ बना लेता है।10 ऐसे सब लोगों के लिए रुसवा करनेवाला अज़ाब है।
10. यानी उसी एक आयत का मज़ाक़ उड़ाने पर बस नहीं करता, बल्कि तमाम आयतों का मज़ाक़ उड़ाने लगता है। मसलन जब वह सुनता है कि क़ुरआन में फ़ुलाँ बात बयान हुई है तो उसे सीधे मतलब में लेने के बजाय पहले तो उसी में कोई टेढ़ तलाश करके निकाल लाता है, ताकि उसे मज़ाक़ का मौज़ू (विषय) बनाए, फिर उसका मज़ाक़ उड़ाने के बाद कहता है, अजी, उनके क्या कहने हैं, वे तो रोज़ एक से एक निराली बात सुना रहे हैं, देखो फ़ुलाँ आयत में उन्होंने यह दिलचस्प बात कही है और फ़ुलाँ आयत की मज़ेदारी का तो जवाब ही नहीं है।
مِّن وَرَآئِهِمۡ جَهَنَّمُۖ وَلَا يُغۡنِي عَنۡهُم مَّا كَسَبُواْ شَيۡـٔٗا وَلَا مَا ٱتَّخَذُواْ مِن دُونِ ٱللَّهِ أَوۡلِيَآءَۖ وَلَهُمۡ عَذَابٌ عَظِيمٌ ۝ 9
(10) उनके आगे जहन्नम है।11 जो कुछ उन्होंने दुनिया में कमाया है उसमें से कोई चीज़ उनके किसी काम न आएगी, न उनके वे सरपरस्त ही उनके लिए कुछ कर सकेंगे जिन्हें अल्लाह को छोड़कर उन्होंने अपना वली (सरपरस्त) बना रखा है।12 उनके लिए बड़ा अज़ाब है।
11. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, 'मिंव-वराइहिम जहन्नम' । 'वरा' का लफ़्ज़ अरबी जबान में हर उस चीज़ के लिए बोला जाता है जो आदमी की नज़र से ओझल हो, चाहे वह आगे हो या पीछे इसलिए दूसरा तर्जमा इन अलफ़ाज़ का यह भी हो सकता है कि “उनके पीछे जहन्नम है।" अगर पहला मानी लिया जाए तो मतलब यह होगा कि वे बेख़बर मुँह उठाए इस राह पर दौड़े जा रहे हैं और उन्हें एहसास नहीं है कि आगे जहन्नम है जिसमें वे जाकर गिरनेवाले हैं। दूसरा मानी लेने की सूरत में मतलब यह होगा कि वे आख़िरत से बेपरवाह होकर अपनी इस शरारत में लगे हैं और उन्हें पता नहीं है कि जहन्नम उनके पीछे लगी हुई है।
12. यहाँ 'वली' का लफ़्ज़ दो मानी में इस्तेमाल हुआ है। एक, वे देवियाँ और देवता और ज़िन्दा या मुरदा पेशवा जिनके बारे में मुशरिक लोगों ने यह समझ रखा है कि जो आदमी उनसे जुड़ा हुआ हो, वह चाहे दुनिया में कुछ ही करता रहे, ख़ुदा के यहाँ उसकी पकड़ न हो सकेगी, क्योंकि उनका दख़ल उन्हें ख़ुदा के ग़ज़ब से बचा लेगा। दूसरे, वे सरदार और लीडर और पेशवा और हाकिम लोग जिन्हें ख़ुदा से बेपरवाह होकर लोग अपना रहनुमा और फ़रमाँबरदारी करने लायक़ बनाते हैं और आँखें बन्द करके उनकी पैरवी करते हैं और उन्हें ख़ुश करने के लिए ख़ुदा को नाराज़ करने में नहीं झिझकते। यह आयत ऐसे सब लोगों को ख़बरदार करती है कि जब इस रवैये के नतीजे में जहन्नम से उनका पाला पड़ेगा तो उन दोनों तरह के सरपरस्तों में से कोई भी उन्हें बचाने के लिए आगे न बढ़ेगा। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-42 शूरा, हाशिया-6)।
هَٰذَا هُدٗىۖ وَٱلَّذِينَ كَفَرُواْ بِـَٔايَٰتِ رَبِّهِمۡ لَهُمۡ عَذَابٞ مِّن رِّجۡزٍ أَلِيمٌ ۝ 10
(11) यह क़ुरआन सरासर हिदायत है और उन लोगों के लिए बला का दर्दनाक अज़ाब है जिन्होंने अपने रब की आयतों को मानने से इनकार किया।
۞ٱللَّهُ ٱلَّذِي سَخَّرَ لَكُمُ ٱلۡبَحۡرَ لِتَجۡرِيَ ٱلۡفُلۡكُ فِيهِ بِأَمۡرِهِۦ وَلِتَبۡتَغُواْ مِن فَضۡلِهِۦ وَلَعَلَّكُمۡ تَشۡكُرُونَ ۝ 11
(12) वह अल्लाह ही तो है जिसने तुम्हारे लिए समुद्र को ख़िदमत पर लगाया, ताकि उसके हुक्म से नावें उसमें चलें13 और तुम उसकी मेहरबानी तलाश करो14 और शुक्रगुज़ार हो।
13. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-83; सूरा-30 अर-रूम, हाशिया-69; सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-55; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-110; सूरा-12 शूरा, हाशिया-54।
14. यानी समुद्र में तिजारत, मछली पकड़ने, ग़ोताख़ोरी, जहाज़ चलाने और दूसरे ज़रिओं से हलाल रोज़ी हासिल करने की काशिश करो।
وَسَخَّرَ لَكُم مَّا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِ جَمِيعٗا مِّنۡهُۚ إِنَّ فِي ذَٰلِكَ لَأٓيَٰتٖ لِّقَوۡمٖ يَتَفَكَّرُونَ ۝ 12
(13) उसने ज़मीन और आसमानों की सारी ही चीज़ों को तुम्हारी ख़िदमत में लगा दिया,15 सब कुछ अपने पास से`16 इसमें बड़ी निशानियाँ हैं उन लोगों के लिए जो सोच-विचार करनेवाले हैं।17
15. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-41; सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-35।
16. इस जुमले के दो मतलब हैं, एक यह कि अल्लाह की यह देन दुनिया के बादशाहों का-सा तोहफ़ा नहीं है जो जनता से हासिल किया हुआ माल जनता ही में से कुछ लोगों को दे देते हैं, बल्कि कायनात की ये सारी नेमतें अल्लाह की अपनी पैदा की हुई हैं और उसने अपनी तरफ़ से यह इनसान को दी हैं। दूसरा, यह कि न इन नेमतों के पैदा करने में कोई अल्लाह का शरीक, न उन्हें इनसान की ख़िदमत में लगाने में किसी और हस्ती का कोई दख़ल, अकेला अल्लाह ही उनका पैदा करनेवाला भी है और उसी ने अपनी तरफ़ से वे इनसान को दी हैं।
17. यानी ख़िदमत में लगाने के इस अमल में और इन चीज़ों को इनसान के लिए फ़ायदेमन्द बनाने में सोच-विचार करनेवालों के लिए बड़ी निशानियाँ हैं। ये निशानियाँ इस हक़ीक़त की तरफ़ खुला-खुला इशारा कर रही हैं कि ज़मीन से लेकर आसमानों तक कायनात की तमाम चीज़ों और क़ुव्वतों का पैदा करनेवाला और मालिक और इन्तिज़ाम करने और चलानेवाला एक ही ख़ुदा है, जिसने उनको एक क़ानून का पाबन्द बना रखा है और वही ख़ुदा इनसान का रब है जिसने अपनी क़ुदरत और हिकमत और रहमत से इन तमाम चीज़ों और क़ुव्वतों को इनसान की ज़िन्दगी, उसके माली मामलों, उसके आराम, उसकी तरक़्क़ी और उसकी तहज़ीब और रहन-सहन के लिए साज़गार (अनुकूल) और मददगार बनाया है और अकेला वही ख़ुदा इस बात का हक़दार है कि इनसान उसी की इबादत करे, उसी का शुक्रगुज़ार बने और उसी का फ़रमाँबरदार रहे। दूसरी हस्तियाँ जिनका न इन चीज़ों और क़ुव्वतों के पैदा करने में कोई हिस्सा है, न उन्हें इनसान की ख़िदमत में लगाने और उसके लिए फ़ायदेमन्द बनाने में कोई दख़ल है वे इन बातों की हक़दार नहीं हैं।
قُل لِّلَّذِينَ ءَامَنُواْ يَغۡفِرُواْ لِلَّذِينَ لَا يَرۡجُونَ أَيَّامَ ٱللَّهِ لِيَجۡزِيَ قَوۡمَۢا بِمَا كَانُواْ يَكۡسِبُونَ ۝ 13
(14) ऐ नबी, ईमान लानेवालों से कह दो कि जो लोग अल्लाह की तरफ़ से बुरे दिन आने का कोई अन्देशा नहीं रखते,18 उनकी हरकतों को अनदेखा कर दें, ताकि अल्लाह ख़ुद एक गरोह को उसकी कमाई का बदला दे।19
18. अस्ल अलफ़ाज़ हैं, 'अल्लज़ी-न ला यरजू-न अय्यामल्लाह'। लफ़्जी तर्जमा यह होगा कि “जो अल्लाह के दिनों की उम्मीद नहीं रखते।” लेकिन अरबी मुहावरे में ऐसे मौक़ों पर 'अय्याम' से मुराद सिर्फ़ दिन नहीं, बल्कि वे यादगार दिन होते हैं जिनमें अहम तारीख़ी (ऐतिहासिक) वाक़िआत पेश आए हों। मसलन 'अय्यामुल-अरब' का लफ़्ज़ अरब इतिहास के अहम वाक़िआत और अरब क़बीलों की उन बड़ी-बड़ी लड़ाइयों के लिए बोला जाता है जिन्हें बाद की नस्लें सदियों तक याद करती रही हैं। यहाँ 'अय्यामुल्लाह' से मुराद किसी क़ौम के वे बुरे दिन हैं जब अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप) उसपर टूट पड़े और अपने करतूतों की सज़ा में वह तबाह करके रख दी जाए। इसी मतलब के लिहाज़ से हमने इस जुमले का तर्जमा यह किया है कि “जो लोग अल्लाह की तरफ़ से बुरे दिन आने का कोई अन्देशा नहीं रखते," यानी जिनको यह ख़याल नहीं है कि कभी वह दिन भी आएगा जब हमारी इन हरकतों पर हमारी शामत आएगी और इसी ग़फ़लत ने उनको ज़ुल्मो-सितम पर दिलेर कर दिया है।
19. क़ुरआन के आलिमों ने इस आयत के दो मतलब बयान किए हैं और आयत के अलफ़ाज़ में दोनों मतलबों की गुंजाइश है। एक यह कि ईमानवाले इस ज़ालिम गरोह की ज़्यादतियों पर अनदेखा करने का रवैया अपनाएँ, ताकि अल्लाह उनको अपनी तरफ़ से उनके सब्र और बरदाश्त और इनकी शराफ़त का अच्छा बदला दे और ख़ुदा की राह में जो तकलीफ़ें उन्होंने बरदाश्त की हैं उनका इनाम दे। दूसरा मतलब यह है कि ईमानवाले इस गरोह को माफ़ करें, ताकि अल्लाह ख़ुद उनकी ज़्यादतियों का बदला उसे दे। क़ुरआन के कुछ आलिमों ने इस आयत को मंसूख़ (निरस्त) ठहराया है। वे कहते हैं कि यह हुक्म उस वक़्त तक था जब तक मुसलमानों को जंग की इजाज़त न दी गई थी। फिर जब उसकी इजाज़त आ गई तो यह हुक्म ख़त्म हो गया। लेकिन आयत के अलफ़ाज़ पर ग़ौर करने से साफ़ मालूम होता है कि मंसूख़ (निरस्त) होने का यह दावा दुरुस्त नहीं है। 'माफ़ करने का लफ़्ज़ इस मानी में कभी नहीं बोला जाता कि जब आदमी किसी की ज़्यादतियों का बदला लेने की क़ुदरत न रखता हो तो उसको माफ़ करे, बल्कि उस मौक़े पर सब्र और बरदाश्त के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए जाते हैं। इन अलफ़ाज़ को छोड़कर जब यहाँ माफ़ करने के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं तो इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि ईमानवाले बदला लेने की क़ुदरत रखने के बावजूद उन लोगों की ज़्यादतियों का जवाब देने से परहेज़ करें जिन्हें ख़ुदा से बेख़ौफ़ी ने अख़लाक़ और आदमियत की हदें तोड़ने पर दिलेर कर दिया है। इस हुक्म का कोई टकराव उन आयतों से नहीं है जिनमें मुसलमानों को जंग की इजाज़त दी गई है। जंग की इजाज़त का ताल्लुक़ उस हालत से है जब मुसलमानों की हुकूमत किसी ग़ैर-मुस्लिम क़ौम के ख़िलाफ़ बाक़ायदा कार्रवाई करने की कोई सही और मुनासिब वजह पाए और माफ़ करने और अनदेखा कर देने का हुक्म उन आम हालात के लिए है जिनमें ईमानवालों को ख़ुदा से न डरनेवाले लोगों के साथ किसी-न-किसी तरह वास्ता पड़े और वे उन्हें अपनी ज़बान और क़लम और अपने बरताव से तरह-तरह की तकलीफ़ें दें। इस हुक्म का मक़सद यह है कि मुसलमान अपने बुलन्द मक़ाम से नीचे उतरकर इन घटिया-अख़लाक़ लोगों से उलझने और झगड़ने और उनकी हर बेहूदगी का जवाब देने पर न उतर आएँ। जब तक शराफ़त और समझदारी के साथ किसी इलज़ाम या एतिराज का जवाब देना या किसी ज़्यादती से बचाव करना मुमकिन हो, उससे परहेज़ न किया जाए। मगर जहाँ बात इन हदों से गुज़रती नज़र आए, वहाँ चुप साध ली जाए और मामला अल्लाह के सिपुर्द कर दिया जाए। मुसलमान उनसे ख़ुद उलझेंगे तो अल्लाह उनसे निमटने के लिए उन्हें उनके हाल पर छोड़ देगा। माफ़ी से काम लेंगे तो अल्लाह ख़ुद ज़ालिमों से निमटेगा और मज़लूमों को उनकी बरदाश्त का इनाम देगा।
مَنۡ عَمِلَ صَٰلِحٗا فَلِنَفۡسِهِۦۖ وَمَنۡ أَسَآءَ فَعَلَيۡهَاۖ ثُمَّ إِلَىٰ رَبِّكُمۡ تُرۡجَعُونَ ۝ 14
(15) जो कोई नेक अमल करेगा अपने ही लिए करेगा और जो बुराई करेगा वह आप ही उसका ख़मियाज़ा भुगतेगा। फिर जाना तो सबको अपने रब ही की तरफ़ है।
وَلَقَدۡ ءَاتَيۡنَا بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ ٱلۡكِتَٰبَ وَٱلۡحُكۡمَ وَٱلنُّبُوَّةَ وَرَزَقۡنَٰهُم مِّنَ ٱلطَّيِّبَٰتِ وَفَضَّلۡنَٰهُمۡ عَلَى ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 15
(16) इससे पहले बनी-इसराईल को हमने किताब और हुक्म20 और नुबूवत दी थी। उनको हमने ज़िन्दगी गुज़ारने का बेहतरीन सामान दिया, दुनिया भर के लोगों पर उन्हें बड़ाई दी21
20. हुक्म से मुराद तीन चीज़ें हैं, एक, किताब का इल्म और दीन की समझ। दूसरी, किताब के मंशा के मुताबिक़ काम करने की हिकमत। तीसरी, मामलों में फ़ैसला करने की सलाहियत।
21. यह मतलब नहीं है कि हमेशा-हमेशा के लिए उन्हें तमाम दुनियावालों पर बड़ाई दे दी, बल्कि इसका सही मतलब यह है कि उस ज़माने में दुनिया की तमाम क़ौमों में से बनी- इसराईल को अल्लाह तआला ने इस काम के लिए चुन लिया था कि वे अल्लाह की किताब के रखनेवाले हों और ख़ुदा-परस्ती के अलमबरदार बनकर उठे।
وَءَاتَيۡنَٰهُم بَيِّنَٰتٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡرِۖ فَمَا ٱخۡتَلَفُوٓاْ إِلَّا مِنۢ بَعۡدِ مَا جَآءَهُمُ ٱلۡعِلۡمُ بَغۡيَۢا بَيۡنَهُمۡۚ إِنَّ رَبَّكَ يَقۡضِي بَيۡنَهُمۡ يَوۡمَ ٱلۡقِيَٰمَةِ فِيمَا كَانُواْ فِيهِ يَخۡتَلِفُونَ ۝ 16
(17) और दीन (मज़हब) के मामले में उन्हें साफ़-साफ़ हिदायतें दे दीं। फिर जो इख़्तिलाफ़ उनके बीच पैदा हुआ, वह (न जानने की वजह से नहीं, बल्कि) इल्म आ जाने के बाद हुआ और इस वजह से हुआ कि वे आपस में एक-दूसरे पर ज़्यादती करना चाहते थे22 अल्लाह क़ियामत के दिन उन मामलों का फ़ैसला कर देगा जिनमें वे इख़्तिलाफ़ करते रहे हैं।
22. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-230; सूरा-3 आले-इमरान, हाशिए—17, 18; सूरा-42 शूरा, हाशिए—22, 23।
ثُمَّ جَعَلۡنَٰكَ عَلَىٰ شَرِيعَةٖ مِّنَ ٱلۡأَمۡرِ فَٱتَّبِعۡهَا وَلَا تَتَّبِعۡ أَهۡوَآءَ ٱلَّذِينَ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 17
(18) इसके बाद अब ऐ नबी, हमने तुमको दीन के मामले में एक खुली राह (शरीअत) पर क़ायम किया है।23 लिहाज़ा तुम उसी पर चलो और उन लोगों की ख़ाहिशों की पैरवी न करो जो इल्म नहीं रखते।
23. मतलब यह है कि जो काम पहले बनी-इसराईल के सिपुर्द किया गया था, वह अब तुम्हारे सिपुर्द किया गया है। उन्होंने इल्म पाने के बावजूद अपनी-अपनी ख़ुदग़रज़ी से दीन में ऐसे इख़्तिलाफ़ पैदा किए और आपस में ऐसी गुटबाज़ियाँ कर डालीं जिनसे वे इस क़ाबिल न रहे कि दुनिया को ख़ुदा के रास्ते पर बुला सकें। अब उसी दीन की साफ़ राह पर तुम्हें खड़ा किया गया है, ताकि तुम वह काम पूरा करो जिसे बनी-इसराईल छोड़ चुके हैं और करने के क़ाबिल भी नहीं रहे हैं। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-42 शूरा, आयतें—13 से 15, हाशिए—20 से 26)।
إِنَّهُمۡ لَن يُغۡنُواْ عَنكَ مِنَ ٱللَّهِ شَيۡـٔٗاۚ وَإِنَّ ٱلظَّٰلِمِينَ بَعۡضُهُمۡ أَوۡلِيَآءُ بَعۡضٖۖ وَٱللَّهُ وَلِيُّ ٱلۡمُتَّقِينَ ۝ 18
(19) अल्लाह के मुक़ाबले में वे तुम्हारे कुछ भी काम नहीं आ सकते।24 ज़ालिम लोग एक-दूसरे के साथी हैं और परहेज़गारों का साथी अल्लाह है।
24. यानी अगर तुम उन्हें राज़ी करने के लिए अल्लाह के दीन में किसी तरह का फेर-बदल करोगे तो अल्लाह की पकड़ से वे तुम्हें न बचा सकेंगे।
هَٰذَا بَصَٰٓئِرُ لِلنَّاسِ وَهُدٗى وَرَحۡمَةٞ لِّقَوۡمٖ يُوقِنُونَ ۝ 19
(20) ये बसीरत (गहरी सूझ-बूझ) की रौशनियाँ हैं सब लोगों के लिए और हिदायत और रहमत उन लोगों के लिए जो यक़ीन लाएँ।25
25. मतलब यह है कि यह किताब और यह शरीअत दुनिया के तमाम इनसानों के लिए वह रौशनी पेश करती है जो सही और ग़लत का फ़र्क़ नुमायाँ करनेवाली है। मगर इससे हिदायत वही लोग पाते हैं जो इसके सच होने पर यक़ीन लाएँ और उन्हीं के लिए यह रहमत है।
أَمۡ حَسِبَ ٱلَّذِينَ ٱجۡتَرَحُواْ ٱلسَّيِّـَٔاتِ أَن نَّجۡعَلَهُمۡ كَٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ سَوَآءٗ مَّحۡيَاهُمۡ وَمَمَاتُهُمۡۚ سَآءَ مَا يَحۡكُمُونَ ۝ 20
(21) क्या26 वे लोग, जिन्होंने बुरे काम किए हैं, यह समझे बैठे हैं कि हम उन्हें और ईमान लानेवालों और अच्छा काम करनेवालों को एक जैसा कर देंगे कि उनका जीना-मरना यकसाँ (एक समान) हो जाए? बहुत बुरे हुक्म हैं जो ये लोग लगाते हैं।27
26. तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत के बाद अब यहाँ से आख़िरत पर बात शुरू हो रही है।
27. यह आख़िरत के सच होने पर एक अख़लाक़ी दलील है। अख़लाक़ में भलाई बुराई और आमाल में नेकी और बदी के फ़र्क़ का लाज़िमी तक़ाज़ा यह है कि अच्छे और बुरे लोगों का अंजाम एक जैसा न हो, बल्कि अच्छों को उनकी अच्छाई का अच्छा बदला मिले और बुरे अपनी बुराई का बुरा बदला पाएँ। यह बात अगर न हो और नेकी और बदी का नतीजा एक ही जैसा हो तो सिरे से अख़लाक़ में ख़ूबी और ख़राबी का फ़र्क़ ही बेमतलब हो जाता है और ख़ुदा पर बेइनसाफ़ी का इलज़ाम लगता है। जो लोग दुनिया में बुराई की राह चलते हैं, वे तो ज़रूर यह चाहते हैं कि कोई इनाम और सज़ा न हो, क्योंकि यह ख़याल ही उनके ऐश में ख़लल डालनेवाला है। लेकिन सारे जहानों के रब की हिकमत और उसके इनसाफ़ से यह बात बिलकुल परे है कि वह अच्छे और बुरे दोनों से एक जैसा मामला करे और कुछ न देखे कि नेक ईमानवाले ने दुनिया में किस तरह ज़िन्दगी गुज़ारी है और ख़ुदा को न माननेवाला और उसका नाफ़रमान क्या गुल खिलाता रहा है। एक शख़्स उम्र भर अपने ऊपर अख़लाक़ की पाबन्दियाँ लगाए रहा, हक़वालों के हक़ अदा करता रहा, नाजाइज़ फ़ायदों और लज़्ज़तों से अपने आपको महरूम किए रहा और हक़ और सच्चाई की ख़ातिर तरह-तरह के नुक़सान बरदाश्त करता रहा। दूसरे शख़्स ने अपनी ख़ाहिशें हर मुमकिन तरीक़े से पूरी कीं, न ख़ुदा का हक़ पहचाना और न बन्दों के हक़ मारने से बाज़ आया। जिस तरह से भी अपने लिए फ़ायदे और मज़े समेट सकता था, समेटता चला गया। क्या ख़ुदा से यह उम्मीद की जा सकती है कि इन दोनों तरह के आदमियों की ज़िन्दगी के इस फ़र्क़ को वह नजरअन्दाज़ कर देगा? मरते दम तक जिनका जीना एक जैसा नहीं रहा है, मौत के बाद अगर उनका अंजाम एक जैसा हो तो ख़ुदा की ख़ुदाई में इससे बढ़कर और क्या बेइनसाफ़ी हो सकती है? (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-10 यूनुस, हाशिए—9, 10; सूरा-11 हूद, हाशिया-106; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-35; सूरा-22 हज, हाशिया-9; सूरा-27 नम्ल, हाशिया-86; सूरा-30 रूम, हाशिए—6 से 8; सूरा-38 सॉद, आयत-28, हाशिया-30)।
وَخَلَقَ ٱللَّهُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضَ بِٱلۡحَقِّ وَلِتُجۡزَىٰ كُلُّ نَفۡسِۭ بِمَا كَسَبَتۡ وَهُمۡ لَا يُظۡلَمُونَ ۝ 21
(22) अल्लाह ने तो आसमानों और ज़मीन को हक़ के साथ पैदा किया है28 और इसलिए किया है कि हर जानदार को उसकी कमाई का बदला दिया जाए। लोगों पर ज़ुल्म हरगिज़ न किया जाएगा।29
28. यानी अल्लाह तआला ने ज़मीन और आसमान को खेल के तौर पर नहीं बनाया है, बल्कि यह एक बामक़सद हिकमत भरा निज़ाम है। इस निज़ाम में इस बात के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता कि अल्लाह के दिए हुए अधिकारों और ज़राए-वसाइल (साधन-संसाधनों) को सही तरीक़े से इस्तेमाल करके जिन लोगों ने अच्छा कारनामा अंजाम दिया हो और उन्हें ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल करके जिन दूसरे लोगों ने ज़ुल्म और बिगाड़ पैदा किया हो, यह दोनों तरह के इनसान आख़िरकार मरकर मिट्टी हो जाएँ और उस मौत के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी न हो जिसमें इनसाफ़ के मुताबिक़ उनके अच्छे और बुरे आमाल का कोई अच्छा या बुरा नतीजा निकले। अगर ऐसा हो तो यह कायनात खिलंदड़े का खिलौना होगी न कि एक हिकमतवाले (तत्त्वदर्शी) का बनाया हुआ बामक़सद निज़ाम। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-6 अनआम, हाशिया-46; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-11; सूरा-14 इबराहीम, हाशिया-26; सूरा-16 नह्ल; हाशिया-6; सूरा-29 अन्‌कबूत, हाशिया-75; सूरा-30 रूम, हाशिया-6)।
29. इस मौक़ा-महल में इस जुमले का साफ़ मतलब यह है कि अगर नेक इनसानों को उनकी नेकी का इनाम न मिले और ज़ालिमों को उनके ज़ुल्म की सज़ा न दी जाए और मज़लूमों की कभी फ़रियाद न सुनी जाए तो यह ज़ुल्म होगा। ख़ुदा की ख़ुदाई में ऐसा ज़ुल्म हरगिज़ नहीं हो सकता। इसी तरह ख़ुदा के यहाँ ज़ुल्म की यह दूसरी सूरत भी कभी ज़ाहिर नहीं हो सकती कि किसी नेक इनसान को उसके हक़ से कम इनाम दिया जाए, या किसी बुरे इनसान को उसके हक़ से ज़्यादा सज़ा दे दी जाए।
أَفَرَءَيۡتَ مَنِ ٱتَّخَذَ إِلَٰهَهُۥ هَوَىٰهُ وَأَضَلَّهُ ٱللَّهُ عَلَىٰ عِلۡمٖ وَخَتَمَ عَلَىٰ سَمۡعِهِۦ وَقَلۡبِهِۦ وَجَعَلَ عَلَىٰ بَصَرِهِۦ غِشَٰوَةٗ فَمَن يَهۡدِيهِ مِنۢ بَعۡدِ ٱللَّهِۚ أَفَلَا تَذَكَّرُونَ ۝ 22
(23) फिर क्या तुमने कभी उस शख़्स के हाल पर भी ग़ौर किया जिसने अपने मन की ख़ाहिश को अपना ख़ुदा बना लिया।30 और अल्लाह ने इल्म के बावजूद31 उसे गुमराही में फेंक दिया और उसके दिल और कानों पर मुहर लगा दी और उसकी आँखों पर परदा डाल दिया?32 अल्लाह के बाद अब और कौन है जो उसे हिदायत दे? क्या तुम लोग कोई सबक़ नहीं लेते?33
30. नफ़्स (मन) की ख़ाहिश को ख़ुदा बना लेने से मुराद यह है कि आदमी अपनी ख़ाहिश का बन्दा बनकर रह जाए। जिस काम को उसका दिल चाहे उसे कर गुज़रे, चाहे ख़ुदा ने उस को हराम किया हो और जिस काम को उसका दिल न चाहे उसे न करे, चाहे ख़ुदा ने उसे फ़र्ज़ कर दिया हो। जब आदमी इस तरह किसी की पैरवी करने लगे तो उसका मतलब यह है कि उसका माबूद (उपास्य) ख़ुदा नहीं है, बल्कि वह है जिसकी वह इस तरह पैरवी कर रहा है, यह देखे बग़ैर कि वह ज़बान से उसको अपना इलाह और माबूद कहता हो या न कहता हो और उसका बुत बनाकर उसकी पूजा करता हो या न करता हो। इसलिए कि ऐसी बिना ना-नुकुर की पैरवी ही उसके माबूद बन जाने के लिए काफ़ी है और इस अमली शिर्क के बाद एक आदमी सिर्फ़ इस बुनियाद पर शिर्क के जुर्म से बरी नहीं हो सकता कि उसने जिसकी पैरवी की हो उसको ज़बान से माबूद नहीं कहा है और सजदा उसको नहीं किया है। इस आयत की यही तशरीह क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले दूसरे बुज़ुर्ग आलिमों ने भी की है। इब्ने-जरीर (रह०) इसका मतलब यह बयान करते हैं कि “उसने अपने मन की ख़ाहिश को माबूद बना लिया। जिस चीज़ की मन ने ख़ाहिश की उसको कर गुज़रा, न अल्लाह के हराम किए हुए को हराम किया, न उसके हलाल किए हुए को हलाल किया।” अबू-बक्र जस्सास (रह०) इसका मतलब यह बयान करते हैं कि “वह मन की ख़ाहिश की इस तरह पैरवी करता है जैसे कोई ख़ुदा की फ़रमाँबरदारी करे।” ज़मख़शरी (रह०) इसकी तशरीह यूँ करते हैं कि "वह मन की ख़ाहिश का बहुत फ़रमाँबरदार है। जिधर उसका मन उसे बुलाता है उसी तरफ़ वह चला जाता है, मानो वह उसकी बन्दगी इस तरह करता है जैसे कोई आदमी अपने ख़ुदा की बन्दगी करे।” (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिया-56; सूरा-34 सबा, हाशिया-63; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-53; सूरा-42 शूरा, हाशिया-38)।
31. अस्ल अरबी अलफ़ाज़ हैं, 'अज़ल्लहुल्लाहु अला इल्म' । एक मतलब इन अलफ़ाज़ का यह हो सकता है कि वह शख़्स आलिम होने के बावजूद अल्लाह की तरफ़ से गुमराही में फेंका गया, क्योंकि वह मन की ख़ाहिश का बन्दा बन गया था। दूसरा मतलब यह भी हो सकता है कि अल्लाह ने अपने इस इल्म की बुनियाद पर कि वह अपने मन की ख़ाहिश को अपना ख़ुदा बना बैठा है, उसे गुमराही में फेंक दिया।
32. अल्लाह के किसी को गुमराही में फेंक देने और उसके दिल और कानों पर मुहर लगा देने और उसकी आँखों पर परदा डाल देने की तशरीह इससे पहले हम कई जगहों पर इस किताब में कर चुके हैं। देखिए— तफ़हीमुल क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिए—10, 16; सूरा-6 अनआम, हाशिए—17, 27; सूरा-7 आराफ़, हाशिया-80; सूरा-9 तौबा; हाशिए—89, 93; सूरा-10 यूनुस, हाशिया-71; सूरा-13 रअद, हाशिया-44; सूरा-14 इबराहीम, हाशिए—6, 7, 40; सूरा-16 नह्ल, हाशिया-110; सूरा-17 बनी-इसराईल, हाशिया-51; सूरा-30 रूम, हाशिया-84; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-8; हाशिए—16, 17; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-54।
33. जिस मौक़ा-महल में यह आयत आई है, उससे यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद वाज़ेह हो जाती है कि आख़िरत का इनकार अस्ल में वही लोग करते हैं जो मन की ख़ाहिशों की बन्दगी करना चाहते हैं और आख़िरत के अक़ीदे को अपनी इस आज़ादी में रुकावट समझते हैं। फिर जब वे आख़िरत का इनकार कर देते हैं तो उनका मन की बन्दगी करना और ज़्यादा बढ़ता चला जाता है और वे अपनी गुमराही में दिन-ब-दिन ज़्यादा ही भटकते चले जाते हैं। कोई बुराई ऐसी नहीं होती जिसको करने से वे बाज़ रह जाएँ। किसी का हक़ मारने में उन्हें झिझक नहीं होती। किसी ज़ुल्म और ज़्यादती का मौक़ा पा जाने के बाद उनसे यह उम्मीद ही नहीं की जा सकती कि वे उससे सिर्फ़ इसलिए रुक जाएँगे कि हक़ और इनसाफ़ का कोई एहतिराम उनके दिलों में है। जिन वाक़िआत को देखकर कोई इनसान सबक़ ले सकता है, वही वाक़िआत उनकी आँखों के सामने भी आते हैं, मगर वे उनसे उलटा यह नतीजा निकालते हैं कि हम जो कुछ कर रहे हैं ठीक कर रहे हैं और हमें यही कुछ करना चाहिए। नसीहत की कोई बात उनपर असर नहीं करती। जो दलील भी किसी इनसान को बुराई से रोकने के लिए फ़ायदेमन्द हो सकती है, वह उनके दिल को अपील नहीं करती, बल्कि वे ढूँढ़-ढूँढ़कर सारी दलीलें अपनी इसी बे-क़ैद आज़ादी के हक़ में निकालते चले जाते हैं और उनके दिलो-दिमाग़ किसी अच्छी सोच के बजाय रात-दिन अपने फ़ायदों और ख़ाहिशों को हर मुमकिन तरीक़े से पूरा करने की उधेड़बुन ही में लगे रहते हैं। यह इस बात का खुला सुबूत है कि आख़िरत के अक़ीदे का इनकार इनसानी अख़लाक़ के लिए तबाह करनेवाला है। आदमी को आदमियत के दायरे में अगर कोई चीज़ रख सकती है तो वह सिर्फ़ यह एहसास है कि हम ग़ैर-ज़िम्मेदार नहीं हैं, बल्कि हमें ख़ुदा के सामने अपने आमाल (कर्मों) की जवाबदेही करनी होगी। इस एहसास से ख़ाली हो जाने के बाद कोई आदमी बड़े-से-बड़ा आलिम भी हो तो वह जानवरों से बदतर रवैया अपनाए बिना नहीं रहता।
وَقَالُواْ مَا هِيَ إِلَّا حَيَاتُنَا ٱلدُّنۡيَا نَمُوتُ وَنَحۡيَا وَمَا يُهۡلِكُنَآ إِلَّا ٱلدَّهۡرُۚ وَمَا لَهُم بِذَٰلِكَ مِنۡ عِلۡمٍۖ إِنۡ هُمۡ إِلَّا يَظُنُّونَ ۝ 23
(24) ये लोग कहते हैं कि “ज़िन्दगी बस यही हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है, यहीं हमारा मरना-जीना है और दिनों के आने-जाने के सिवा कोई चीज़ नहीं जो हमें हलाक करती हो।” हक़ीक़त में इस मामले में इनके पास कोई इल्म नहीं है। ये सिर्फ़ गुमान की बुनियाद पर ये बातें करते हैं।34
34. यानी इल्म का कोई ज़रिआ ऐसा नहीं है जिससे उनको सच्चाई का पता लगाकर यह मालूम हो गया हो कि इस ज़िन्दगी के बाद इनसान के लिए कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं है और यह बात भी उन्हें मालूम हो गई हो कि इनसान की रूह किसी ख़ुदा के हुक्म से नहीं निकाली जाती है, बल्कि आदमी सिर्फ़ दिनों के गुज़रने से मरकर मिट जाता है। आख़िरत का इनकार करनेवाले ये बातें किसी इल्म की बुनियाद पर नहीं, बल्कि सिर्फ़ गुमान की बुनियाद पर करते हैं। इल्मी हैसियत से अगर वे बात करें तो ज़्यादा-से-ज़्यादा जो कुछ कह सकते हैं, वह बस यह है कि "हम नहीं जानते कि मरने के बाद कोई ज़िन्दगी है या नहीं,” लेकिन यह हरगिज़ नहीं कह सकते कि “हम जानते हैं कि इस ज़िन्दगी के बाद कोई दूसरी ज़िन्दगी नहीं है।” इसी तरह इल्मी तरीक़े पर वे यह जानने का दावा नहीं कर सकते कि आदमी की रूह ख़ुदा के हुक्म से निकाली नहीं जाती, बल्कि वह सिर्फ़ उस तरह मरकर ख़त्म हो जाता है जैसे एक घड़ी चलते-चलते रुक जाए। ज़्यादा-से-ज़्यादा जो कुछ वे कह सकते हैं वह सिर्फ़ यह है कि हम इन दोनों में से किसी के बारे में यह नहीं जानते कि हक़ीक़त में क्या सूरत पेश आती है। अब सवाल यह है कि जब इनसानी इल्म के ज़रिओं की हद तक मरने के बाद की ज़िन्दगी के होने या न होने और रूह निकाले जाने या दिनों के गुज़रने से आप-ही-आप मर जाने का एक जैसा इमकान है, तो आख़िर क्या वजह है कि ये लोग आख़िरत के आने के इमकान को छोड़कर पूरी तरह आख़िरत के इनकार के हक़ में फ़ैसला कर डालते हैं। क्या इसकी वजह इसके सिवा कुछ और है कि अस्ल में इस मसले का आख़िरी फ़ैसला वे दलील की बुनियाद पर नहीं, बल्कि अपनी ख़ाहिश की बुनियाद पर करते हैं? चूँकि उनका दिल यह नहीं चाहता कि मरने के बाद कोई ज़िन्दगी हो और मौत की हक़ीक़त मिट जाना और ख़त्म हो जाना नहीं, बल्कि ख़ुदा की तरफ़ से रूह का क़ब्ज़े में लिया जाना हो, इसलिए वे अपने दिल की माँग को अपना अक़ीदा बना लेते हैं और दूसरी बात का इनकार कर देते हैं।
وَإِذَا تُتۡلَىٰ عَلَيۡهِمۡ ءَايَٰتُنَا بَيِّنَٰتٖ مَّا كَانَ حُجَّتَهُمۡ إِلَّآ أَن قَالُواْ ٱئۡتُواْ بِـَٔابَآئِنَآ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 24
(25) और जब हमारी साफ़-साफ़ आयतें इन्हें सुनाई जाती हैं35 तो इनके पास कोई दलील इसके सिवा नहीं होती कि उठा लाओ हमारे बाप-दादा को अगर तुम सच्चे हो।36
35. यानी वे आयतें जिनमें आख़िरत के इमकान पर मज़बूत अक़्ली दलीलें दी गई हैं और जिनमें यह बताया गया है कि उसका होना ठीक हिकमत और इनसाफ़ का तक़ाज़ा है और उसके न होने से दुनिया का यह सारा निज़ाम बे-मतलब हो जाता है।
36. दूसरे अलफ़ाज़ में उनकी इस दलील का मतलब यह था कि जब कोई उनसे यह कहे कि मौत के बाद दूसरी ज़िन्दगी होगी तो उसे ज़रूर क़ब्र से एक मुर्दा उठाकर उनके सामने ले आना चाहिए और अगर ऐसा नहीं किया जाता तो वे यह नहीं मान सकते कि मरे हुए इनसान किसी वक़्त नए सिरे से ज़िन्दा करके उठाए जानेवाले हैं। हालाँकि यह बात सिरे से किसी ने भी उनसे नहीं कही थी कि इस दुनिया में अलग-अलग तौर पर वक़्त-वक़्त पर मुर्दों को ज़िन्दा किया जाता रहेगा, बल्कि जो कुछ भी कहा गया था वह यह था कि क़ियामत के बाद अल्लाह तआला एक साथ तमाम इनसानों को नए सिरे से ज़िन्दा करेगा और उन सबके आमाल का हिसाब लेकर इनाम और सज़ा का फ़ैसला करेगा।
وَإِذَا قِيلَ إِنَّ وَعۡدَ ٱللَّهِ حَقّٞ وَٱلسَّاعَةُ لَا رَيۡبَ فِيهَا قُلۡتُم مَّا نَدۡرِي مَا ٱلسَّاعَةُ إِن نَّظُنُّ إِلَّا ظَنّٗا وَمَا نَحۡنُ بِمُسۡتَيۡقِنِينَ ۝ 25
(32) और जब कहा जाता था कि अल्लाह का वादा सच्चा है और क़ियामत के आने में कोई शक नहीं, तो तुम कहते थे कि हम नहीं जानते क़ियामत क्या होती है, हम तो बस एक गुमान-सा रखते हैं, यक़ीन हमको नहीं है।"44
44. इससे पहले आयत-24 में जिन लोगों का ज़िक्र गुज़र चुका है, वे आख़िरत का पूरी तरह और खुला इनकार करनेवाले थे और यहाँ उन लोगों का ज़िक्र किया जा रहा है जो उसका यक़ीन नहीं रखते अगरचे गुमान की हद तक उसके इमकान से इनकार करनेवाले नहीं हैं। बज़ाहिर इन दोनों गरोहों में इस लिहाज़ से बड़ा फ़र्क़ है कि एक बिलकुल इनकार करनेवाला है और दूसरा उसके मुमकिन होने का गुमान रखता है। लेकिन नतीजे और अंजाम के लिहाज़ से इन दोनों में कोई फ़र्क़ नहीं। इसलिए कि आख़िरत के इनकार और उसपर यक़ीन न होने के अख़लाक़ी नतीजे बिलकुल एक जैसे हैं। कोई आदमी चाहे आख़िरत को न मानता हो, या उसका यक़ीन न रखता हो, दोनों सूरतों में लाज़िमन वह ख़ुदा के सामने अपनी जवाबदेही के एहसास से ख़ाली होगा और यह एहसास न होना उसको लाज़िमन फ़िक्रो-अमल (विचार और व्यवहार) की गुमराहियों में मुब्तला करके रहेगा। सिर्फ़ आख़िरत का यक़ीन ही दुनिया में आदमी के रवैये को दुरुस्त रख सकता है। यह अगर न हो तो शक और इनकार, दोनों उसे एक ही तरह की ग़ैर-ज़िम्मेदारीवाली राह पर डाल देते हैं और चूँकि यही ग़ैर-ज़िम्मेदारी भरा रवैया आख़िरत के बुरे अंजाम का अस्ल सबब है, इसलिए जहन्नम में जाने से न इनकार करनेवाला बच सकता है, न यक़ीन न रखनेवाला।
وَبَدَا لَهُمۡ سَيِّـَٔاتُ مَا عَمِلُواْ وَحَاقَ بِهِم مَّا كَانُواْ بِهِۦ يَسۡتَهۡزِءُونَ ۝ 26
(33) उस वक़्त उनपर उनके आमाल की बुराइयाँ खुल जाएँगी45 और वे उसी चीज़ के फेर में आ जाएँगे जिसका वे मज़ाक़ उड़ाया करते थे।
45. यानी वहाँ उनको पता चल जाएगा कि अपने जिन तौर-तरीक़ों और आदतों और ख़स्लतों और कामों और मशग़लों (व्यस्तताओं) को वे दुनिया में बहुत अच्छा समझते थे, वे सब अच्छे नहीं थे। अपने आपको ग़ैर-जवाबदेह मानकर उन्होंने ऐसी बुनियादी ग़लती कर डाली जिसकी वजह से उनकी ज़िन्दगी का पूरा कारनामा ही ग़लत होकर रह गया।
وَقِيلَ ٱلۡيَوۡمَ نَنسَىٰكُمۡ كَمَا نَسِيتُمۡ لِقَآءَ يَوۡمِكُمۡ هَٰذَا وَمَأۡوَىٰكُمُ ٱلنَّارُ وَمَا لَكُم مِّن نَّٰصِرِينَ ۝ 27
(34) और उनसे कह दिया जाएगा कि “आज हम भी उसी तरह तुम्हें भुलाए देते हैं जिस तरह तुम इस दिन की मुलाक़ात को भूल गए थे। तुम्हारा ठिकाना अब जहन्नम है और कोई तुम्हारी मदद करनेवाला नहीं है।
ذَٰلِكُم بِأَنَّكُمُ ٱتَّخَذۡتُمۡ ءَايَٰتِ ٱللَّهِ هُزُوٗا وَغَرَّتۡكُمُ ٱلۡحَيَوٰةُ ٱلدُّنۡيَاۚ فَٱلۡيَوۡمَ لَا يُخۡرَجُونَ مِنۡهَا وَلَا هُمۡ يُسۡتَعۡتَبُونَ ۝ 28
(35) यह तुम्हारा अंजाम इसलिए हुआ है कि तुमने अल्लाह की आयतों का मज़ाक़ बना लिया था। और तुम्हें दुनिया की ज़िन्दगी ने धोखे में डाल दिया था। लिहाजा आज न ये लोग जहन्नम से निकाले जाएँगे और न इनसे कहा जाएगा कि माफ़ी माँगकर अपने रब को राज़ी करो।46
46. यह आख़िरी जुमला इस अन्दाज़ में है जैसे कोई मालिक अपने कुछ नौकरों को डाँटने के बाद दूसरों को सुनाते हुए कहता है कि अच्छा, अब इन नालायक़ों की यह सज़ा है।
فَلِلَّهِ ٱلۡحَمۡدُ رَبِّ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَرَبِّ ٱلۡأَرۡضِ رَبِّ ٱلۡعَٰلَمِينَ ۝ 29
(36) तो तारीफ़ अल्लाह ही के लिए है जो ज़मीन और आसमानों का मालिक और सारे जहानवालों का परवरदिगार है।
وَلَهُ ٱلۡكِبۡرِيَآءُ فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ ۝ 30
(37) ज़मीन और आसमानों में बड़ाई उसी के लिए है और वही ज़बरदस्त और सूझ-बूझवाला है।
قُلِ ٱللَّهُ يُحۡيِيكُمۡ ثُمَّ يُمِيتُكُمۡ ثُمَّ يَجۡمَعُكُمۡ إِلَىٰ يَوۡمِ ٱلۡقِيَٰمَةِ لَا رَيۡبَ فِيهِ وَلَٰكِنَّ أَكۡثَرَ ٱلنَّاسِ لَا يَعۡلَمُونَ ۝ 31
(26) ऐ नबी! इनसे कहो, अल्लाह ही तुम्हें ज़िन्दगी देता है, फिर वही तुम्हें मौत देता है,37 फिर वही तुमको उस क़ियामत के दिन इकट्ठा करेगा जिसके आने में कोई शक नहीं,38 मगर अकसर लोग जानते नहीं हैं।39
37. यह जवाब है उनकी इस बात का कि मौत दिनों के गुज़रने से आप-ही-आप आ जाती है। इसपर कहा जा रहा है कि न तुम्हें ज़िन्दगी इत्तिफ़ाक़ से मिलती है, न तुम्हारी मौत ख़ुद-ब-ख़ुद हो जाती है। एक ख़ुदा है जो तुम्हें ज़िन्दगी देता है और वही उसे वापस लेता है।
38. यह जवाब है उनकी इस बात का कि उठा लाओ हमारे बाप-दादा को। इसपर कहा जा रहा है कि यह अब नहीं होगा और एक-एक करके नहीं होगा, बल्कि एक दिन सब इनसानों के इकट्ठा करने के लिए मुक़र्रर है।
39. यानी जहालत और सोचने-देखने का ग़लत तरीक़ा ही लोगों के आख़िरत के इनकार का अस्ल सबब है, वरना हक़ीक़त में तो आख़िरत का होना नहीं, बल्कि उसका न होना अक़्ल से परे है। कायनात के निज़ाम और ख़ुद अपने वुजूद पर कोई शख़्स सही तरीक़े से ग़ौर करे तो उसे ख़ुद महसूस हो जाएगा कि आख़िरत के आने में किसी शक की गुंजाइश नहीं।
وَلِلَّهِ مُلۡكُ ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَٱلۡأَرۡضِۚ وَيَوۡمَ تَقُومُ ٱلسَّاعَةُ يَوۡمَئِذٖ يَخۡسَرُ ٱلۡمُبۡطِلُونَ ۝ 32
(27) ज़मीन और आसमानों की बादशाही अल्लाह ही की है,40 और जिस दिन क़ियामत की घड़ी आ खड़ी होगी, उस दिन बातिल-परस्त (असत्यवादी) घाटे में पड़ जाएँगे।
40. मौक़ा-महल को निगाह में रखकर देखा जाए तो इस जुमले से ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि जो ख़ुदा इस अज़ीमुश्शान कायनात पर हुकूमत कर रहा है, उसकी क़ुदरत से यह बात हरगिज़ दूर नहीं है कि जिन इनसानों को वह पहले पैदा कर चुका है, उन्हें दोबारा वुजूद में ले आए।
وَتَرَىٰ كُلَّ أُمَّةٖ جَاثِيَةٗۚ كُلُّ أُمَّةٖ تُدۡعَىٰٓ إِلَىٰ كِتَٰبِهَا ٱلۡيَوۡمَ تُجۡزَوۡنَ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 33
(28) उस वक़्त तुम हर गरोह को घुटनों के बल गिरा देखोगे।41 हर गरोह को पुकारा जाएगा कि आए और अपना आमालनामा देखे। उनसे कहा जाएगा, “आज तुम लोगों को उन आमाल (कर्मों) का बदला दिया जाएगा जो तुम करते रहे थे।
41. यानी वहाँ हश्र के मैदान की ऐसी घबराहट और अल्लाह की अदालत का ऐसा रोब छाया होगा कि बड़े-बड़े हेकड़ लोगों की अकड़ भी ख़त्म हो जाएगी और आजिज़ी (विनम्रता) के साथ सब घुटनों के बल गिरे होंगे।
هَٰذَا كِتَٰبُنَا يَنطِقُ عَلَيۡكُم بِٱلۡحَقِّۚ إِنَّا كُنَّا نَسۡتَنسِخُ مَا كُنتُمۡ تَعۡمَلُونَ ۝ 34
(29) यह हमारा तैयार कराया हुआ आमालनामा है जो तुम्हारे ऊपर ठीक-ठीक गवाही दे रहा है, जो कुछ भी तुम करते थे उसे हम लिखवाते जा रहे थे।42
42. लिखवाने की सिर्फ़ यही एक मुमकिन शक्ल नहीं है कि काग़ज़ पर क़लम से लिखवाया जाए इनसानी बातों और कामों को रिकार्ड करने और दोबारा उनको ठीक उसी शक्ल में पेश कर देने की कई दूसरी सूरतें इसी दुनिया में ख़ुद इनसान खोज चुका है और हम सोच भी नहीं सकते कि आगे इसके और क्या इमकान छिपे हैं जो कभी इनसान ही की पकड़ में आ जाएँगे। अब यह कौन जान सकता है कि अल्लाह तआला किस-किस तरह इनसान की एक-एक बात और उसकी हरकतों में से एक-एक चीज़ और उसकी नीयतों और इरादों और ख़ाहिशों और ख़यालात में से हर छिपी-से-छिपी चीज़ को रिकार्ड करा रहा है और किस तरह वह हर आदमी, हर गरोह और हर क़ौम की ज़िन्दगी का पूरा कारनामा बिना घटत-बढ़त के उसके सामने ला रखेगा।
فَأَمَّا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ وَعَمِلُواْ ٱلصَّٰلِحَٰتِ فَيُدۡخِلُهُمۡ رَبُّهُمۡ فِي رَحۡمَتِهِۦۚ ذَٰلِكَ هُوَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡمُبِينُ ۝ 35
(30) फिर जो लोग ईमान लाए थे और नेक अमल करते रहे थे, उन्हें उनका रब अपनी रहमत में दाख़िल करेगा और यही खुली कामयाबी है।
وَأَمَّا ٱلَّذِينَ كَفَرُوٓاْ أَفَلَمۡ تَكُنۡ ءَايَٰتِي تُتۡلَىٰ عَلَيۡكُمۡ فَٱسۡتَكۡبَرۡتُمۡ وَكُنتُمۡ قَوۡمٗا مُّجۡرِمِينَ ۝ 36
(31) और जिन लोगों ने कुफ़्र किया था, उनसे कहा जाएगा, “क्या मेरी आयतें तुमको नहीं सुनाई जाती थीं? मगर तुमने घमण्ड किया43 और मुजरिम बनकर रहे।
43. यानी अपने घमंड में तुमने यह समझा कि अल्लाह की आयतों को मानकर फ़रमाँबरदारी करने लगना तुम्हारी शान से गिरी हुई बात है और तुम्हारा दरजा बन्दगी के दरजे से बहुत ऊँचा है।