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سُورَةُ الصَّفِّ

61. अस-सफ़्फ़

(मदीना में उतरी, आयतें 14) 

परिचय

नाम

चौथी आयत के वाक्यांश ‘युक़ातिलू-न फ़ी सबीलिही सफ़्फ़ा' (जो उसके मार्ग में इस तरह पंक्तिबद्ध होकर लड़ते हैं) से लिया गया है। अभिप्राय यह है कि यह वह सूरा है जिसमें शब्द 'सफ़्फ़' आया है।

उतरने का समय

इसके विषयों पर विचार करने से अन्दाज़ा होता है कि यह सूरा शायद उहुद की लड़ाई के फ़ौरन बाद के समय में उतरी होगी, क्योंकि इसमें सूक्ष्मत: जिन स्थितियों की ओर संकेत का आभास होता है, वे स्थितियाँ उसी कालखण्ड की हैं।

विषय और वार्ता

इसका विषय है मुसलमानों को ईमान में सत्य-निष्ठा अपनाने और अल्लाह की राह में जान लड़ाने पर उभारना। इसमें कमज़ोर ईमानवाले मुसलमानों को भी सम्बोधित किया गया है और उन लोगों को भी जो ईमान का झूठा दावा करके इस्लाम में दाख़िल हो गए थे, और उनको भी जो निष्ठावान एवं निश्छल थे। वर्णनशैली से स्वयं मालूम हो जाता है कि कहाँ किसको सम्बोधित किया गया है। आरंभ में तमाम ईमानवालों को सचेत किया गया है कि अल्लाह की दृष्टि में अत्यन्त घृणित और वैरी हैं वे लोग जो कहें कुछ और करें कुछ; और अत्यन्त प्रिय हैं वे लोग जो सत्य-मार्ग में लड़ने के लिए सीसा पिलाई हुई दीवार की तरह डटकर खड़े हों। फिर आयत 5 से 7 तक अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की उम्मत (समुदाय) के लोगों को सचेत किया गया है कि अपने रसूल और अपने दीन (धर्म) के साथ तुम्हारा रवैया वह न होना चाहिए जो मूसा (अलैहि०) और ईसा (अलैहि०) के साथ बनी-इसराईल (इसराईल की संतान) ने अपनाया। [और जिसका] परिणाम यह हुआ कि उस क़ौम के स्वभाव का साँचा ही टेढ़ा होकर रह गया और उससे संमार्ग का सौभाग्य ही छीन लिया गया। फिर आयत 8-9 में पूरी चुनौती के साथ एलान किया गया कि यहूदी और ईसाई और उनसे साँठ-गाँठ रखनेवाले मुनाफ़िक़ (कपटाचारी) अल्लाह के इस प्रकाश (नूर) को बुझाने की चाहे कितनी ही कोशिश कर लें, यह पूरी चमक-दमक के साथ संसार में फैलकर रहेगा, और बहुदेववादियों को चाहे कितना ही अप्रिय हो, सच्चे रसूल (सल्ल०) का लाया हुआ धर्म हर दूसरे धर्म पर प्रभावी होकर रहेगा। इसके बाद आयत 10 से 13 में ईमानवालों को बताया गया है कि दुनिया और आख़िरत (लोक और परलोक) में सफलता का मार्ग केवल एक है, और वह यह है कि अल्लाह और उसके रसूल (सल्ल०) पर सच्चे दिल से ईमान लाओ और अल्लाह की राह में जान-माल से जिहाद (जान-तोड़ कोशिश) करो। अन्त में ईमानवालों को शिक्षा दी गई है कि जिस तरह हज़रत ईसा (अलैहि०) के निष्ठावान साथियों ने अल्लाह की राह में उनका साथ दिया था, उसी तरह वे भी 'अल्लाह के सहायक' बनें ताकि शत्रुओं के मुक़ाबले में उनको भी उसी तरह अल्लाह की सहायता और समर्थन प्राप्त हो, जिस तरह पहले ईमान लानेवालों को प्राप्त हुआ था।

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سُورَةُ الصَّفِّ
61. अस-सफ़्फ़
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي ٱلسَّمَٰوَٰتِ وَمَا فِي ٱلۡأَرۡضِۖ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡحَكِيمُ
(1) अल्लाह की तसबीह (महिमागान) की है हर उस चीज़ ने जो आसमानों और ज़मीन में है और वह ग़ालिब और हिकमतवाला है।1
1. यह इस तक़रीर की छोटी-सी तमहीद (भूमिका) है। तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-57 हदीद, हाशिए—1 और 2। बात की शुरुआत इस तमहीद से इसलिए की गई है कि आगे जो कुछ कहा जानेवाला है उसको सुनने या पढ़ने से पहले आदमी यह बात अच्छी तरह समझ ले कि अल्लाह तआला बेनियाज़ और इससे बहुत बुलन्द है कि उसकी ख़ुदाई के चलने का दारोमदार किसी के ईमान और किसी की मदद और क़ुर्बानियों पर हो। वह अगर ईमान लानेवालों को ईमान में ख़ुलूस (नेक-नीयती) अपनाने की नसीहत करता है और उनसे कहता है कि सच्चाई का बोलबाला करने के लिए जान-माल से जिहाद करो, तो यह सब कुछ उनके अपने ही भले के लिए है। वरना उसके इरादे उसके अपने ही ज़ोर और उसकी अपनी ही तदबीर से पूरे होकर रहते हैं, चाहे कोई बन्दा उनको पूरा करने में ज़र्रा बराबर भी कोशिश मान करे, बल्कि सारी दुनिया मिलकर उनको रोकने पर तुल जाए।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ لِمَ تَقُولُونَ مَا لَا تَفۡعَلُونَ ۝ 1
(2) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! तुम क्यों वह बात कहते हो जो करते नहीं हो?
كَبُرَ مَقۡتًا عِندَ ٱللَّهِ أَن تَقُولُواْ مَا لَا تَفۡعَلُونَ ۝ 2
(3) अल्लाह के नज़दीक यह सख़्त नापसन्दीदा हरकत है कि तुम कहो वह बात जो करते नहीं।2
2. इस बात का एक मक़सद तो आम है जो उसके अलफ़ाज़ से ज़ाहिर हो रहा है। और एक मक़सद ख़ास है जो बादवाली आयतों को इसके साथ मिलाकर पढ़ने से मालूम होता है। पहला मक़सद यह है कि एक सच्चे मुसलमान की कथनी और करनी में फ़र्क़ नहीं होना चाहिए। जो कुछ कहे उसे करके दिखाए, और करने की नीयत या हिम्मत न हो तो ज़बान से भी न निकाले। कहना कुछ और करना कुछ, यह इनसान की उन निहायत बुरी सिफ़ात में से है जो अल्लाह तआला की निगाह में इन्तिहाई नफ़रत के क़ाबिल हैं, कहाँ यह कि एक ऐसा शख़्स इस अख़लाक़ी ऐब में मुब्तला हो जो अल्लाह पर ईमान रखने का दावा करता हो। नबी (सल्ल०) ने बयान किया है कि किसी शख़्स में इस सिफ़त का पाया जाना उन अलामतों में से है जो ज़ाहिर करती हैं कि वह मोमिन नहीं, बल्कि मुनाफ़िक़ है। एक हदीस में है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया— “मुनाफ़िक़ की तीन निशानियाँ हैं, अगरचे वह नमाज़ पढ़ता हो और रोज़ा रखता हो और मुसलमान होने का दावा करता हो। यह कि जब बोले तो झूठ बोले, और जब वादा करे तो उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी करे, और जब कोई अमानत उसके सिपुर्द की जाए तो उसमें ख़ियानत (बेईमानी) कर गुज़रे।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) एक और हदीस में नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया है— "चार सिफ़तें ऐसी हैं कि जिस शख़्स में वे चारों पाई जाएँ वह पक्का मुनाफ़िक़ है और जिसमें कोई एक सिफ़त उनमें से पाई जाए उसके अन्दर निफ़ाक़ की एक आदत है जब तक कि वह उसे छोड़ न दे। यह कि जब अमानत उसके सिपुर्द की जाए तो उसमें ख़ियानत करे, और जब बोले तो झूठ बोले, और जब वादा करे तो उसकी ख़िलाफ़वर्ज़ी कर जाए, और जब लड़े तो अख़लाक़ और ईमानदारी की हदें तोड़ डाले।” (हदीस : बुख़ारी, मुस्लिम) इस्लाम के फ़क़ीह (इस्लामी क़ानून के माहिर) इस बात पर क़रीब-क़रीब एक राय रखते हैं कि कोई शख़्स अगर अल्लाह तआला से कोई वादा करे (मसलन किसी चीज़ की नज़्र व मन्नत माने) या बन्दों से कोई मामला करे, या किसी से कोई वादा करे, तो उसे पूरा करना लाज़िम है, सिवाय यह कि वह काम अपनी जगह ख़ुद गुनाह हो जिसका उसने वादा किया हो। और गुनाह होने की सूरत में वह काम तो नहीं करना चाहिए जिसका वादा किया गया है, लेकिन उसकी पाबन्दी से आज़ाद होने के लिए क़सम का काफ़्फ़ारा अदा करना चाहिए जो सूरा-5 माइदा, आयत-89 में बयान किया गया है। (अहकामुल-क़ुरआन लिल-जस्सास और इब्ने-अरबी) यह तो है इन आयतों का आम मक़सद। रहा वह ख़ास मक़सद जिसके लिए इस मौक़े पर ये आयतें बयान की गईं तो वह बादवाली आयत को इनके साथ मिलाकर पढ़ने से मालूम होता है। मक़सद उन लोगों को मलामत करना है जो इस्लाम के लिए सरफ़रोशी और जाँबाज़ी के लम्बे-चौड़े वादे करते थे, मगर जब आज़माइश का वक़्त आता था तो भाग निकलते थे। कमज़ोर ईमानवाले लोगों की इस कमज़ोरी पर क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर पकड़ की गई है। मसलन सूरा-4 निसा, आयत-77 में फ़रमाया— “तुमने उन लोगों को भी देखा जिनसे कहा गया था कि अपने हाथ रोके रखो और नमाज़ क़ायम करो और ज़कात दो? अब जो उन्हें लड़ाई का हुक्म दिया गया तो उनमें से एक गरोह का हाल यह है कि लोगों से ऐसा डर रहे हैं जैसा ख़ुदा से डरना चाहिए, या इससे भी कुछ बढ़कर। कहते हैं : ऐ हमारे रब! यह हमपर लड़ाई का हुक्म क्यों लिख दिया? क्यों न हमें अभी कुछ और मुहलत दी।" और सूरा-47 मुहम्मद, आयत-20 में फ़रमाया— "जो लोग ईमान लाए हैं, वे कह रहे थे कि कोई सूरा क्यों नहीं उतारी जाती (जिसमें जंग का हुक्म दिया जाए)। मगर जब एक पक्की सूरा उतार दी गई, जिसमें जंग का ज़िक्र था, तो तुमने देखा कि जिन लोगों के दिलों में बीमारी थी वे तुम्हारी तरफ़ इस तरह देख रहे थे जैसे किसी पर मौत छा गई हो।" उहुद की जंग के मौक़े पर ये कमज़ोरियाँ ख़ास तौर पर नुमायाँ होकर सामने आईं जिनकी तरफ़ सूरा-3 आले-इमरान में 13वें रुकू से 17वें रुकू (आयतें—121 से 171) तक लगातार इशारे किए गए हैं। क़ुरआन की तफ़सीर लिखनेवाले आलिमों ने इन आयतों के उतरने की वजहों में उन कमज़ोरियों की अलग-अलग शक्लें बयान की हैं जिनपर यहाँ पकड़ की गई है। इब्ने-अब्बास (रज़ि०) कहते हैं कि जिहाद फ़र्ज़ होने से पहले मुसलमानों में कुछ लोग थे जो कहते थे कि काश हमें वह अमल मालूम हो जाए जो अल्लाह को सबसे ज़्यादा प्यारा है तो हम वही करेंगे! मगर जब बताया गया कि वह अमल है जिहाद, तो उनपर अपनी उस बात का पूरा करना बहुत मुश्किल हो गया। मुक़ातिल-बिन-हय्यान कहते हैं कि उहुद की जंग में इन लोगों को आज़माइश का सामना करना पड़ा और ये नबी (सल्ल०) को छोड़कर भाग निकले। इब्ने-ज़ैद (रह०) कहते हैं कि बहुत-से लोग नबी (सल्ल०) को यक़ीन दिलाते थे कि आपको दुश्मनों के मुक़ाबले के लिए निकलना पड़ा तो हम आपके साथ निकलेंगे। मगर जब वक़्त आया तो उनके वादे झूठे निकले। क़तादा (रह०) और ज़ह्हाक (रह०) कहते हैं कि कुछ लोग जंग में शरीक होते भी थे तो कोई कारनामा अंजाम न देते थे, मगर आकर ये डींगें मारते थे कि हम यूँ लड़े और हमने यूँ मारा। ऐसे ही लोगों को अल्लाह तआला ने इन आयतों में मलामत की है।
إِنَّ ٱللَّهَ يُحِبُّ ٱلَّذِينَ يُقَٰتِلُونَ فِي سَبِيلِهِۦ صَفّٗا كَأَنَّهُم بُنۡيَٰنٞ مَّرۡصُوصٞ ۝ 3
(4) अल्लाह को तो पसन्द वे लोग हैं जो उसकी राह में इस तरह क़तार बनाकर लड़ते हैं मानो वे एक सीसा पिलाई हुई दीवार हैं।3
3. इससे एक तो यह मालूम हुआ कि अल्लाह तआला की ख़ुशनूदी वही ईमानवाले पाते हैं जो उसकी राह में जान लड़ाने और ख़तरे सहने के लिए तैयार हों। दूसरी बात यह मालूम हुई कि अल्लाह को जो फ़ौज पसन्द है उसमें सिफ़ात पाई जानी चाहिएँ। एक यह कि वह ख़ूब सोच-समझकर अल्लाह की राह में लड़े और किसी ऐसी राह में न लड़े जो 'फ़ी सबीलिल्लाह' के दायरे में न आती हो। दूसरी यह कि वह बद-नज़मी (अव्यवस्था) और बिखराव में मुब्तला न हो, बल्कि मज़बूती के साथ एकजुट होकर और क़तार बाँधकर लड़े। तीसरी यह कि दुश्मनों के मुक़ाबले में उसकी कैफ़ियत 'सीसा पिलाई हुई दीवार' की-सी हो। फिर यह आख़िरी सिफ़त अपनी जगह ख़ुद अपने अन्दर मानी की एक दुनिया रखती है। कोई फ़ौज उस वक़्त तक जंग के मैदान में सीसा पिलाई हुई दीवार की तरह खड़ी नहीं हो सकती जब तक उसमें नीचे लिखी सिफ़ात (गुण) पैदा न हो जाएँ— • अक़ीदे और मक़सद में पूरी तरह एक जैसा होना, जो उसके सिपाहियों और अफ़सरों को आपस में पूरी तरह एकजुट कर दे। • एक-दूसरे की नेक-नीयती (निष्ठा) पर भरोसा, जो कभी इसके बिना पैदा नहीं हो सकता कि सब सचमुच अपने मक़सद में नेक-नीयत और नापाक मक़सदों से पाक हों। वरना जंग जैसी सख़्त आज़माइश किसी का खोट छिपा नहीं रहने देती, और भरोसा ख़त्म हो जाए तो फ़ौज के लोग एक-दूसरे पर भरोसा करने के बजाय उलटा एक-दूसरे पर शक करने लगते हैं। • अख़लाक़ का एक बुलन्द मेयार (स्तर), जिससे अगर फ़ौज के अफ़सर और सिपाही नीचे गिर जाएँ तो उनके दिलों में न एक-दूसरे की मुहब्बत पैदा हो सकती है, न इज़्ज़त, न वे आपस में टकराने से बच सकते हैं। • अपने मक़सद का ऐसा इश्क और उसे हासिल करने का ऐसा पक्का इरादा जो पूरी फ़ौज में सरफ़रोशी और जाँबाज़ी का कभी कमज़ोर न होनेवाला जज़बा पैदा कर दे वह जंग के मैदान में सचमुच सीसा पिलाई हुई दीवार की तरह डट जाए। यही थीं वे बुनियादें जिनपर नबी (सल्ल०) की रहनुमाई में एक ऐसी ज़बरदस्त हथियारबन्द जमाअत उठी जिससे टकराकर बड़ी-बड़ी ताक़तें टुकड़े-टुकड़े हो गईं और सदियों तक दुनिया की कोई ताक़त उसके सामने न ठहर सकी।
وَإِذۡ قَالَ مُوسَىٰ لِقَوۡمِهِۦ يَٰقَوۡمِ لِمَ تُؤۡذُونَنِي وَقَد تَّعۡلَمُونَ أَنِّي رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡكُمۡۖ فَلَمَّا زَاغُوٓاْ أَزَاغَ ٱللَّهُ قُلُوبَهُمۡۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلۡفَٰسِقِينَ ۝ 4
(5) और याद करो मूसा की वह बात जो उसने अपनी क़ौम से कही थी कि “ऐ मेरी क़ौम के लोगो! तुम क्यों मुझे तकलीफ़ देते हो, हालाँकि तुम ख़ूब जानते हो कि मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ?"4 फिर जब उन्होंने टेढ़ अपनाई तो अल्लाह ने भी उनके दिल टेढ़े कर दिए, अल्लाह फ़ासिक़ों (नाफ़रमानों) को हिदायत नहीं देता।5
4. क़ुरआन मजीद में कई जगहों पर बड़ी तफ़सील के साथ बताया गया है कि बनी-इसराईल ने हज़रत मूसा (अलैहि०) को अल्लाह का नबी और अपना मुहसिन (उपकारक) जानने के बावजूद किस-किस तरह तंग किया और कैसी-कैसी बेवफ़ाइयाँ उनके साथ कीं। मिसाल के तौर पर देखिए; सूरा-2 बक़रा, आयतें—51, 55, 60, 67 से 71; सूरा-4 निसा, आयत-153; सूरा-5 माइदा, आयतें—20 से 26; सूरा-7 आराफ़, आयतें—138 से 141, 148 से 151; सूरा-20 ता-हा, आयतें—86 से 98। बाइबल में ख़ुद यहूदियों की अपनी बयान की हुई तारीख़ भी इस तरह के वाक़िआत से भरी हुई है। सिर्फ़ नमूने के तौर पर कुछ वाक़िआत के लिए देखिए— निर्गमन, 5:20-21; 14:11-12; 16:2-3; 17:3-4; गिनती, 11:1-15, 14:1-10; 16:1-50, 20:1-5। यहाँ इन वाक़िआत की तरफ़ इशारा मुसलमानों को ख़बरदार करने के लिए किया जा रहा है कि वे अपने नबी के साथ वह रवैया न अपनाएँ जो बनी-इसराईल ने अपने नबी के साथ अपनाया था, वरना वे उस अंजाम से दोचार हुए बिना नहीं रह सकते जिससे बनी-इसराईल दोचार हुए।
5. यानी अल्लाह तआला का यह तरीक़ा नहीं है कि जो लोग ख़ुद टेढ़ी राह चलना चाहें उन्हें वह ख़ाह-मख़ाह सीधी राह चलाए, और जो लोग उसकी नाफ़रमानी पर तुले हुए हों उनको ज़बरदस्ती हिदायत दे दे। इससे यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद साफ़ हो गई कि किसी शख़्स या क़ौम की गुमराही की शरुआत अल्लाह तआला की तरफ़ से नहीं होती, बल्कि ख़ुद उस शख़्स या क़ौम की तरफ़ से होती है, अलबत्ता अल्लाह का क़ानून यह है कि जो गुमराही पसन्द करे वह उसके लिए सीधी राह के नहीं, बल्कि गुमराही के असबाब (साधन) ही जुटाता है, ताकि जिन-जिन राहों में वह भटकना चाहे भटकता चला जाए। अल्लाह ने तो इनसान को चुनने की आज़ादी (Freedom of Choice) दे दी है। इसके बाद यह फ़ैसला करना हर इनसान का और इनसानों के हर गरोह का अपना काम है कि वह अपने रब की फ़रमाँबरदारी करना चाहता है या नहीं, और सीधा रास्ता पसन्द करता है या टेढ़े रास्तों में से किसी पर जाना चाहता है। इस चुनाव में कोई ज़ोर-ज़बरदस्ती अल्लाह तआला की तरफ़ से नहीं है। अगर कोई फ़रमाँबरदारी और हिदायत की राह चुने तो अल्लाह उसे ज़बरदस्ती गुमराही और नाफ़रमानी की तरफ़ नहीं धकेलता, और अगर किसी का फ़ैसला यह हो कि उसे नाफ़रमानी ही करनी है और सीधी राह नहीं अपनानी, तो अल्लाह का यह तरीक़ा भी नहीं है कि उसे मजबूर करके फ़रमाँबरदारी और हिदायत की राह पर लाए। लेकिन यह अपनी जगह ख़ुद एक हक़ीक़त है कि जो शख़्स जिस रास्ते को भी अपने लिए चुने उसपर वह अमली तौर से एक क़दम भी नहीं चल सकता जब तक अल्लाह उसके लिए वे असबाब और ज़रिए (साधन-संसाधन) जुटा न दे और वे हालात पैदा न कर दे जो उसपर चलने के लिए दरकार होते हैं। यही अल्लाह की दी हुई वह 'तौफ़ीक़' (सुअवसर) है जिसपर इनसान की हर कोशिश की कामयाबी का दारोमदार है। अब अगर कोई शख़्स भलाई की तौफ़ीक़ सिरे से चाहता ही नहीं, बल्कि उलटी बुराई की तौफ़ीक़ चाहता है तो उसको वही मिलती है। और जब उसे बुराई की तौफ़ीक़ मिलती है तो उसी के मुताबिक़ उसकी ज़ेहनियत का साँचा टेढ़ा और उसकी कोशिश और अमल का रास्ता टेढ़ा होता चला जाता है, यहाँ तक कि धीरे-धीरे उसके अन्दर से भलाई को क़ुबूल करने की सलाहियत बिलकुल ख़त्म होकर रह जाती है। यही मतलब है इस बात का कि “जब उन्होंने टेढ़ अपनाई तो अल्लाह ने भी उनके दिल टेढ़े कर दिए।” इस हालत में यह बात अल्लाह के क़ानून के ख़िलाफ़ है कि जो ख़ुद गुमराही चाहता है और गुमराही की तलब ही में सरगर्म है और उसी में आगे बढ़ने के लिए अपनी सारी फ़िक्र और कोशिश लगा रहा है, उसे ज़बरदस्ती हिदायत की तरफ़ मोड़ दिया जाए, क्योंकि ऐसा करना उस आज़माइश और इम्तिहान के मंशा को ख़त्म कर देगा जिसके लिए दुनिया में इनसान को चुनने की आज़ादी दी गई है, और इस तरह की हिदायत पाकर अगर आदमी सीधा चले तो कोई मुनासिब वजह नहीं है कि उसपर वह किसी इनाम और बेहतर बदले का हक़दार हो। बल्कि इस सूरत में तो जिसे ज़बरदस्ती हिदायत न मिली हो और इस वजह से वह गुमराही में पड़ा रह गया हो वह भी किसी सज़ा का हक़दार नहीं होना चाहिए, क्योंकि फिर तो उसके गुमराह होने की ज़िम्मेदारी अल्लाह पर आती है और वह आख़िरत में पूछ-गछ के मौक़े पर यह दलील पेश कर सकता है कि जब आपके यहाँ से ज़बरदस्ती हिदायत देने का क़ायदा मौज़ूद था तो आपने मुझे इस मेहरबानी से क्यों महरूम रखा? यही मतलब है इस बात का कि “अल्लाह फ़ासिक़ों (नाफ़रमानों) को हिदायत नहीं देता।” यानी जिन लोगों ने अपने लिए ख़ुद फ़िस्क़ (नाफ़रमानी) की राह चुन ली है उनको वह फ़रमाँबरदारी की राह पर चलने की तौफ़ीक़ (सुअवसर) नहीं दिया करता।
وَإِذۡ قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ يَٰبَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ إِنِّي رَسُولُ ٱللَّهِ إِلَيۡكُم مُّصَدِّقٗا لِّمَا بَيۡنَ يَدَيَّ مِنَ ٱلتَّوۡرَىٰةِ وَمُبَشِّرَۢا بِرَسُولٖ يَأۡتِي مِنۢ بَعۡدِي ٱسۡمُهُۥٓ أَحۡمَدُۖ فَلَمَّا جَآءَهُم بِٱلۡبَيِّنَٰتِ قَالُواْ هَٰذَا سِحۡرٞ مُّبِينٞ ۝ 5
(6) और6 याद करो मरयम के बेटे ईसा की वह बात जो उसने कही थी कि “ऐ बनी-इसराईल! मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूँ, तसदीक़ (पुष्टि) करनेवाला हूँ उस तौरात की जो मुझसे पहले आई हुई मौज़ूद है,7 और ख़ुशख़बरी देनेवाला हूँ एक रसूल की जो मेरे बाद आएगा जिसका नाम अहमद होगा8 मगर जब वह उनके पास खुली-खुली निशानियाँ लेकर आया तो उन्होंने कहा: “यह तो खुला धोखा है।"9
6. यह बनी-इसराईल दूसरी नाफ़रमानी का ज़िक्र है। एक नाफ़रमानी वह थी जो उन्होंने अपनी तरक़्क़ी के दौर की शुरुआत में की। और दूसरी नाफ़रमानी यह है जो इस दौर के आख़िरी और पूरी तरह ख़ातिमे पर उन्होंने की, जिसके बाद हमेशा-हमेशा के लिए उनपर ख़ुदा की फिटकार पड़ गई। इन दोनों वाक़िआत को बयान करने का मक़सद यह है कि मुसलमानों को ख़ुदा के रसूल (सल्ल०) के साथ बनी-इसराईल का-सा रवैया अपनाने के नतीजों से ख़बरदार किया जाए।
7. इस जुमले के तीन मतलब हैं और तीनों सही हैं— एक यह कि मैं कोई अलग और निराला दीन नहीं लाया हूँ, बल्कि वही दीन लाया हूँ जो मूसा (अलैहि०) लाए थे। मैं तौरात को रद्द करता हुआ नहीं आया हूँ, बल्कि उसकी तसदीक़ (पुष्टि) कर रहा हूँ, जिस तरह हमेशा से ख़ुदा के रसूल अपने से पहले आए हुए रसूलों की तसदीक़ करते रहे हैं। लिहाज़ा कोई वजह नहीं कि तुम मेरी पैग़म्बरी को मानने में झिझक महसूस करो। दूसरा मतलब यह है कि मुझपर वे ख़ुशख़बरियाँ चस्पाँ होती हैं जो मेरे आने के बारे में तौरात में मौज़ूद हैं। लिहाज़ा बजाय इसके कि तुम मेरी मुख़ालफ़त करो, तुम्हें तो इस बात का स्वागत करना चाहिए कि जिसके आने की ख़बर पिछले नबियों ने दी थी वह आ गया। और इस जुमले को बादवाले जुमले के साथ मिलाकर पढ़ने से तीसरा मतलब यह निकलता है कि मैं अल्लाह के रसूल अहमद (सल्ल०) के आने के बारे में तौरात की दी हुई ख़ुशख़बरियों की तसदीक़ करता हूँ और ख़ुद भी उनके आने की ख़ुशख़बरी देता हूँ। इस तीसरे मतलब के लिहाज़ से हज़रत ईसा (अलैहि०) के इस क़ौल (बात) का इशारा उस ख़ुशख़बरी की तरफ़ है करते हुए दी थी। उसमें वे फ़रमाते हैं— “तेरा परमेश्वर यहोवा तेरे दरमियान से, यानी तेरे ही भाइयों में से मेरे समान एक नबी को उत्पन्न करेगा। तू उसी की सुनना। यह तेरी उस दरख़ास्त के मुताबिक़ होगा जो तूने होरेब पहाड़ के पास सभा के दिन अपने परमेश्वर यहोवा से की थी कि मुझे न तो अपने परमेश्वर यहोवा का शब्द फिर सुनना पड़े और न वह बड़ी आग फिर देखनी पड़े; कहीं ऐसा न हो कि मैं मर जाऊँ। तब यहोवा ने मुझसे कहा कि वे जो कुछ कहते हैं, ठीक कहते हैं। इसलिए मैं उनके लिए उनके भाइयों के बीच में से तेरे समान एक नबी को उत्पन्न करूँगा और अपना वचन उसके मुँह में डालूँगा और जिस-जिस बात का मैं उसे हुक्म दूँगा वही वह उनसे कहेगा। और जो मनुष्य मेरे वे वचन जो वह मेरे नाम से कहेगा, ग्रहण न करेगा, मैं उसका हिसाब उससे लूँगा।” (व्यवस्थाविवरण, अध्याय-18, आयतें 15 से 19) यह तौरात की साफ़ पेशीनगोई (भविष्यवाणी) है जो मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा किसी और पर चस्पाँ नहीं हो सकती। इसमें हज़रत मूसा (अलैहि०) अपनी क़ौम को अल्लाह तआला का यह फ़रमान सुना रहे हैं कि मैं तेरे लिए तेरे भाइयों में से एक नबी उठाऊँगा। ज़ाहिर है कि क़ौम के 'भाइयों' से मुराद ख़ुद उसी क़ौम का कोई क़बीला या ख़ानदान नहीं हो सकता, बल्कि कोई दूसरी ऐसी क़ौम ही हो सकती है जिसके साथ उसका क़रीबी नस्ली रिश्ता हो। अगर मुराद ख़ुद बनी-इसराईल में से किसी नबी का आना होता तो अलफ़ाज़ ये होते कि मैं तुम्हारे लिए ख़ुद तुम ही में से एक नबी बरपा करूँगा। लिहाज़ा बनी-इसराईल के भाइयों से मुराद हर हाल में बनी-इसमाईल ही हो सकते हैं जो हज़रत इबराहीम (अलैहि०) की औलाद होने की वजह से उनके ख़ानदानी रिश्तेदार हैं। इसके अलावा यह भविष्यवाणी बनी-इसराईल के किसी नबी पर इस वजह से भी चस्पाँ नहीं हो सकती कि हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद बनी-इसराईल में कोई एक नबी नहीं, बहुत सारे नबी आए हैं जिनके ज़िक्र से बाइबल भरी पड़ी है। दूसरी बात इस ख़ुशख़बरी में यह कही गई है कि जो नबी उठाया जाएगा वह हज़रत मूसा (अलैहि०) की तरह का होगा। इससे मुराद ज़ाहिर है कि शक्ल-सूरत या ज़िन्दगी के हालात में मिलता-जुलता होना तो नहीं है, क्योंकि इस लिहाज़ से कोई आदमी भी किसी दूसरे आदमी की तरह नहीं हुआ करता। और इससे मुराद सिर्फ़ पैग़म्बरी की सिफ़ात (गुण) में एक जैसा होना भी नहीं है, क्योंकि यह सिफ़त उन तमाम नबियों में एक जैसी है जो हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद आए हैं, इसलिए किसी एक नबी की यह ख़ासियत नहीं हो सकती कि वह इस सिफ़त में उनकी तरह हो। इसलिए इन दोनों पहलुओं से एक जैसा होने की बहस से अलग हो जाने के बाद यकसानियत (समानता) की कोई और वजह, जिसकी बुनियाद पर आनेवाले एक नबी का ख़ास होना समझ में आए, इसके सिवा नहीं हो सकती कि वह नबी एक मुस्तक़िल (स्थायी) शरीअत लाने के एतिबार से हज़रत मूसा (अलैहि०) की तरह हो। और यह ख़ासियत मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा किसी में नहीं पाई जाती, क्योंकि आप (सल्ल०) से पहले बनी-इसराईल में जो नबी भी आए थे वे मूसा (अलैहि०) की लाई हुई शरीअत की पैरवी करनेवाले थे, उनमें से कोई भी एक मुस्तक़िल (स्थायी) शरीअत लेकर नहीं आया था। इस मतलब को और ज़्यादा मज़बूती पेशीनगोई के इन अलफ़ाज़ से मिलती है कि “यह तेरी (यानी बनी-इसराईल की) उस दरख़ास्त के मुताबिक़ होगा जो तूने ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा से इकट्ठा होने के दिन होरेब में की थी कि मुझको न तो ख़ुदावन्द अपने ख़ुदा की आवाज़ फिर सुननी पड़े और न ऐसी बड़ी आग ही का नज़ारा हो, ताकि मैं मर न जाऊँ। और ख़ुदावन्द ने मुझसे कहा कि जो कुछ कहते हैं ठीक ही कहते हैं। मैं उनके लिए उन ही के भाइयों में से तेरी तरह एक नबी उठाऊँगा और अपना कलाम उसके मुँह में डालूँगा।” इस इबारत में होरेब से मुराद वह पहाड़ है जहाँ हज़रत मूसा (अलैहि०) को पहली बार शरीअत के हुक्म दिए गए थे। और बनी-इसराईल की जिस दरख़ास्त का उसमें ज़िक्र किया गया है उसका मतलब यह है कि आगे अगर कोई शरीअत हमको दी जाए तो उन ख़ौफ़नाक हालात में न दी जाए जो होरेब पहाड़ के दामन में शरीअत देते वक़्त पैदा किए गए थे। उन हालात का ज़िक्र क़ुरआन में भी मौज़ूद है और बाइबल में भी, (देखिए; सूरा-2 बक़रा, आयतें—55, 56, 63; सूरा-7 आराफ़, आयतें—155 से 171; बाइबल, किताब निर्गमन, अध्याय-19, आयतें—17, 18) । इसके जवाब में हज़रत मूसा (अलैहि०) बनी-इसराईल को बताते हैं कि अल्लाह ने तुम्हारी यह दरख़ास्त क़ुबूल कर ली है, उसका कहना है कि मैं उनके लिए एक ऐसा नबी बरपा करूँगा जिसके मुँह में मैं अपना कलाम डालूँगा। यानी आइन्दा शरीअत देने के वक़्त वे ख़ौफ़नाक हालात पैदा न किए जाएँगे जो होरेब पहाड़ के दामन में पैदा किए गए थे, बल्कि अब जो नबी इस मंसब पर मुक़र्रर किया जाएगा उसके मुँह में बस अल्लाह का कलाम डाल दिया जाएगा और वह उसे ख़ुदा के बन्दों को सुना देगा। इस बयान पर ग़ौर करने के बाद क्या इस बात में किसी शक की गुंजाइश रह जाती है कि मुहम्मद (सल्ल०) के सिवा यह किसी और पर चस्पाँ होती है? हज़रत मूसा (अलैहि०) के बाद मुस्तक़िल शरीअत सिर्फ़ आप (सल्ल०) को दी गई, उसके दिए जाने के वक़्त कोई ऐसी भीड़ नहीं जमा हुई जैसा होरेब पहाड़ के दामन में बनी-इसराईल की हुई थी और किसी वक़्त भी शरीअत के हुक्म देने के मौक़े पर वे हालात पैदा नहीं किए गए जो वहाँ पैदा किए गए थे।
8. यह क़ुरआन मजीद की एक बड़ी अहम आयत है जिसपर इस्लाम की मुख़ालफ़त करनेवालों की तरफ़ से बड़ी ले-दे भी की गई है और बदतरीन मुजरिमाना बेईमानी से भी काम लिया गया है, क्योंकि इसमें यह बताया गया है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) का साफ़-साफ़ नाम लेकर आप (सल्ल०) के आने की ख़ुशख़बरी दी थी। इसलिए ज़रूरी है कि उसपर तफ़सील के साथ बहस की जाए। (1) इसमें नबी (सल्ल०) का मुबारक नाम 'अहमद' बताया गया है। 'अहमद' के दो मतलब हैं। एक, वह शख़्स जो अल्लाह की सबसे ज़्यादा तारीफ़ करनेवाला हो। दूसरा, वह शख़्स जिसकी सबसे ज़्यादा तारीफ़ की गई हो, या जो बन्दों में सबसे ज़्यादा तारीफ़ के क़ाबिल हो। सही हदीसों से साबित है कि यह भी नबी (सल्ल०) का एक नाम था। मुस्लिम और अबू-दाऊद तयालिसी में हज़रत अबू-मूसा अशअरी (रज़ि०) की रिवायत है कि नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “मैं मुहम्मद हूँ और मैं अहमद हूँ और मैं हाशिर हूँ......।” इसी मज़मून की रिवायतें हज़रत ज़ुबैर-बिन-मुतइम (रज़ि०) से इमाम मालिक (रह०), बुख़ारी, मुस्लिम, दारमी, तिरमिज़ी और नसई ने नक़्ल की हैं। नबी (सल्ल०) का यह मुबारक नाम सहाबा में मशहूर था, चुनाँचे हज़रत हस्सान-बिन-साबित (रज़ि०) के शेर का तर्जमा है— “अल्लाह ने और उसके अर्श के गिर्द जमघटा लगाए हुए फ़रिश्तों ने और सब पाकीज़ा हस्तियों ने बरकतवाले अहमद पर दुरूद भेजा है।" तारीख़ से भी यह साबित है कि नबी (सल्ल०) का मुबारक नाम सिर्फ़ मुहम्मद ही न था, बल्कि अहमद भी था। अरब का पूरा लिट्रेचर इस बात से ख़ाली है कि नबी (सल्ल०) से पहले किसी का नाम अहमद रखा गया हो। और नबी (सल्ल०) के बाद अहमद और ग़ुलाम अहमद इतने लोगों के नाम रखे गए हैं कि जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। इससे बढ़कर इस बात का क्या सुबूत हो सकता है कि पैग़म्बरी के ज़माने से लेकर आज तक तमाम उम्मत (मुस्लिम समुदाय) में आप (सल्ल०) का यह मुबारक नाम जाना-माना और मशहूर रहा है। अगर नबी (सल्ल०) का यह मुबारक नाम न होता तो अपने बच्चों के नाम ग़ुलाम अहमद रखनेवालों ने आख़िर किस अहमद का ग़ुलाम उनको क़रार दिया था? (2) इंजील यूहन्ना इस बात पर गवाह है कि मसीह के आने के ज़माने में बनी-इसराईल तीन शख़्सियतों का इन्तिज़ार कर रहे थे। एक मसीह, दूसरे एलिय्याह (यानी हज़रत इलयास अलैहि, का दोबारा आना) और तीसरे 'वह नबी'। इंजील के अलफ़ाज़ ये हैं— "और यूहन्ना (हज़रत यह्या अलैहि०) की गवाही यह है कि जब यहूदियों ने यरूशलेम से मायाजकों (काहिनों) और लेवियों को उससे यह पूछने के लिए भेजा कि तू कौन है, तो उसने यह मान लिया और इनकार नहीं किया, परन्तु मान लिया कि मैं मसीह नहीं हूँ। तब उन्होंने उससे पूछा, तो फिर कौन है? क्या तू एलिय्याह है? उसने कहा, मैं नहीं हूँ। तो क्या तू वह नबी है? उसने जवाब दिया कि नहीं। तब उन्होंने उससे पूछा, फिर तू है कौन?...... उसने कहा, मैं जंगल में एक पुकारनेवाले की आवाज़ हूँ कि तुम प्रभु का मार्ग सीधा करो...... उन्होंने उससे सवाल किया कि अगर तू न मसीह है, न एलिय्याह, न वह नबी तो फिर बपतिस्मा क्यों देता है?” (अध्याय-1, आयतें—19 से 25) ये अलफ़ाज़ इस बात की खुली दलील देते हैं कि बनी-इसराईल हज़रत मसीह और हज़रत इलयास (अलैहि०) के अलावा एक और नबी के भी इन्तिज़ार में थे, और वह हज़रत यह्या न थे। उस नबी के आने का अक़ीदा बनी-इसराईल के यहाँ इतना ज़्यादा मशहूर और जाना-पहचाना था कि 'वह नबी' कह देना मानो उसकी तरफ़ इशारा करने के लिए बिलकुल काफ़ी था, यह कहने की ज़रूरत भी न थी कि “जिसकी ख़बर तौरात में दी गई है।” इसके अलावा इससे यह भी मालूम हुआ कि जिस नबी की तरफ़ वे इशारा कर रहे थे उसका आना पूरी तरह साबित था, क्योंकि जब हज़रत यह्या (अलैहि०) से ये सवालात किए गए तो उन्होंने यह नहीं कहा कि कोई और नबी आनेवाला नहीं है, तुम किस नबी के बारे में पूछ रहे हो? (3) अब वे पेशीनगोइयाँ देखिए जो यूहन्ना की इंजील में लगातार अध्याय 14 से 16 तक नक़्ल हुई हैं— “और मैं बाप से दरख़ास्त करूँगा तो वह तुम्हें दूसरा मददगार देगा कि वह सर्वदा तुम्हारे साथ रहे, यानी सत्य का आत्मा जिसे दुनिया हासिल नहीं कर सकती, क्योंकि वह न उसे देखता है और न उसे जानता है। तुम उसे जानते हो क्योंकि वह तुम्हारे साथ रहता है। और वह तुममें होगा।” (14:16-17) “ये बातें मैंने तुम्हारे साथ रहकर तुमसे कहीं। लेकिन मददगार यानी पवित्रात्मा जिसे बाप मेरे नाम से भेजेगा वह तुम्हें सब बातें सिखाएगा और जो कुछ मैंने तुमसे कहा है वह सब तुम्हें याद दिलाएगा।” (14:25-26) अब मैं तुम्हारे साथ बहुत-सी बातें न करूँगा, क्योंकि इस दुनिया का सरदार आता है। मुझपर उसका कोई अधिकार नहीं।” (14:30) “लेकिन जब वह मददगार आएगा जिसको मैं तुम्हारे पास बाप की तरफ़ से भेजूँगा, यानी सत्य का आत्मा जो बाप की ओर से निकलता है, तो वह मेरी गवाही देगा।" (15:26) "लेकिन मैं तुमसे सच कहता हूँ कि मेरा जाना तुम्हारे लिए फ़ायदेमन्द है, क्योंकि अगर मैं न जाऊँ तो वह मददगार तुम्हारे पास न आएगा, लेकिन अगर मैं जाऊँगा तो उसे तुम्हारे पास भेज दूँगा।” (16:7) "मुझे तुमसे और भी बहुत-सी बातें कहनी हैं, मगर उन्हें तुम सहन नहीं कर सकते। लेकिन जब वह यानी सत्य का आत्मा आएगा, तो तुमको तमाम सच्चाई की राह दिखाएगा, क्योंकि वह अपनी तरफ़ से न कहेगा, लेकिन जो कुछ सुनेगा वही कहेगा और तुम्हें आनेवाली बातें बताएगा। वह मेरी महिमा करेगा। क्योंकि वह मेरी बातों में से लेकर तुम्हें बताएगा। जो कुछ बाप का है वह सब मेरा है। इसलिए मैंने कहा कि वह मेरी बातों में से लेकर तुम्हें बताएगा। (16:12-15) (4) इन इबारतों के मानी तय करने के लिए सबसे पहले तो यह जानना ज़रूरी है कि मसीह (अलैहि०) और उनके ज़माने के फ़िलस्तीन के लोगों की आम ज़बान आरामी ज़बान की वह बोली थी जिसे सुरयानी (Syriac) कहा जाता है। मसीह की पैदाइश से दो-ढाई सौ बरस पहले ही सलूक़ी (seleucide) की हुकूमत के ज़माने में इस इलाक़े से इबरानी जा चुकी थी और सुरयानी ने उसकी जगह ले ली थी। अगरचे सलूक़ी और फिर रूमी हुकूमतों के असर से यूनानी ज़बान भी इस इलाक़े में पहुँच गई थी, मगर वह सिर्फ़ उस तबक़े तक महदूद रही जो सरकारे-दरबार में पहुँच पाकर, या पहुँच हासिल करने की ख़ातिर यूनानी के असर में आ गया था। फ़िलस्तीन के आम लोग सुरयानी की एक ख़ास बोली (Dialect) इस्तेमाल करते थे, जिसके लहजे और तलफ़्फ़ुज़ (उच्चारण) और मुहावरे दिमश्क़ के इलाक़े में बोली जानेवाली सुरयानी से अलग थे, और इस देश के आम लोग यूनानी से इतने अनजान थे कि जब सन् 70 ई० में यरूशलम पर क़ब्ज़ा करने के बाद रूमी जनरल तीतुस (Titus) ने यरूशलमवालों को यूनानी में मुख़ातब किया तो उसका तर्जमा सुरयानी ज़बान में करना पड़ा। इससे यह बात ख़ुद-ब-ख़ुद ज़ाहिर होती है कि हज़रत मसीह (अलैहि०) ने अपने शागिर्दो से जो कुछ कहा था वह हो-न-हो सुरयानी ज़बान ही में होगा। दूसरी बात यह जाननी ज़रूरी है कि बाइबल की चारों इंजीलें उन यूनानी बोलनेवाले कि ईसाइयों की लिखी हुई हैं जो हज़रत ईसा (अलैहि०) के बाद इस मज़हब में दाख़िल हुए थे। उन तक हज़रत ईसा (अलैहि०) की बातों और कामों की तफ़सीलात सुरयानी बोलनेवाले ईसाइयों के ज़रिए से किसी लेख की सूरत में नहीं, बल्कि ज़बानी रिवायतों की शक्ल में पहुँची थीं और इन सुरयानी रिवायतों को उन्होंने अपनी ज़बान में तर्जमा करके दर्ज किया था। उनमें से कोई इंजील भी सन् 70 ई० से पहले की लिखी हुई नहीं है, और यूहन्ना की इंजील तो हज़रत ईसा (अलैहि०) के एक सदी बाद शायद एशिया-ए-कोचक के शहर इफ़िसुस में लिखी गई है। इसके अलावा यह कि इन इंजीलों का कोई भी अस्ल नुस्ख़ा (मूल प्रति) उस यूनानी ज़बान में महफ़ूज़ नहीं है जिसमें शुरू में ये लिखी गई थीं। प्रेस की ईजाद से पहले के जितने यूनानी मुसव्वदे जगह-जगह से तलाश करके जमा किए गए हैं उनमें से कोई भी चौथी सदी से पहले का नहीं है। इसलिए यह कहना मुश्किल है। कि तीन सदियों के दौरान में उनके अन्दर क्या कुछ रद्दो-बदल हुए होंगे। इस मामले में जो चीज़ ख़ास तौर पर शक पैदा कर देती है वह यह है कि ईसाई अपनी इंजीलों में अपनी पसन्द के मुताबिक़ जान-बूझकर रद्दो-बदल करने को बिलकुल जाइज़ समझते रहे हैं। इनसाइक्लोपेडिया ब्रिटानिका (एडिशन 1946 ई०) के मज़मून (विषय) 'बाइबल' का लेखक लिखता है— "इंजीलों में ऐसी नुमायाँ तबदीलियाँ जान-बूझकर की गई हैं, जैसे मसलन कुछ पूरी-पूरी इबारतों को किसी दूसरे मूल-स्रोत से लेकर किताब में शामिल कर देना। ..... यह रद्दो-बदल साफ़ तौर से कुछ ऐसे लोगों ने जान-बूझकर किए हैं जिन्हें अस्ल किताब के अन्दर शामिल करने के लिए कहीं से कोई मवाद (मसाला) मिल गया, और वे अपने-आपको इसका हक़दार समझते रहे कि किताब को बेहतर या ज़्यादा फ़ायदेमन्द बनाने के लिए उसके अन्दर अपनी तरफ़ से इस चीज़ (मसाले) का इज़ाफ़ा कर दें। बहुत-से इज़ाफ़े दूसरी सदी ही में हो गए थे और कुछ नहीं मालूम कि उनको कहाँ से लिया गया। इस सूरते-हाल में पक्के तौर पर यह कहना बहुत मुश्किल है कि इंजीलों में हज़रत ईसा (अलैहि०) की बयान की हुई जो बातें हमें मिलती हैं वे बिलकुल ठीक-ठीक नक़्ल हुई हैं और उनके अन्दर कोई रद्दो-बदल नहीं हुआ है। तीसरी और निहायत अहम बात यह है कि मुसलमानों की फ़तह के बाद भी लगभग तीन सदियों तक फ़िलस्तीन के ईसाई बाशिन्दों की ज़बान सुरयानी रही और कहीं 9वीं सदी ई० में जाकर अरबी ज़बान ने उसकी जगह ली। इन सुरयानी बोलनेवाले फ़िलस्तीनियों के ज़रिए से ईसाई रिवायतों के बारे में जो मालूमात शुरू की तीन सदियों के मुसलमान आलिमों को हासिल हुईं वे उन लोगों की मालूमात के मुक़ाबले ज़्यादा भरोसेमन्द होनी चाहिएँ जिन्हें सुरयानी से यूनानी और फिर यूनानी से लातीनी (लैटिन) ज़बानों में तर्जमा-दर-तर्जमा होकर ये मालूमात पहुँची। क्योंकि मसीह की ज़बान से निकले हुए अस्ल सुरयानी अलफ़ाज़ उनके यहाँ महफ़ूज़ रहने के ज़्यादा इमकान थे। (5) इन नाक़ाबिले-इनकार तारीख़़ी सच्चाइयों को निगाह में रखकर देखिए कि यूहन्ना की इंजील की ऊपर बयान की गई इबारतों में हज़रत ईसा (अलैहि०) अपने बाद एक आनेवाले की ख़बर दे रहे हैं, जिसके बारे में वे कहते हैं कि वह 'दुनिया का सरदार' (सरवरे-आलम) होगा, 'अबद' (अनन्तकाल) तक रहेगा, सच्चाई की तमाम राहें दिखाएगा, और ख़ुद उनकी (यानी हज़रत ईसा की) गवाही देगा।' यूहन्ना की इन इबारतों में पवित्र आत्मा' और 'सच्चाई की आत्मा' वग़ैरा शामिल करके मक़सद को उलझा देने की पूरी कोशिश की गई है, मगर इसके बावजूद उन सब इबारतों को अगर ग़ौर से पढ़ा जाए जो साफ़ मालूम होता है कि जिस आनेवाले की ख़बर दी गई है वह कोई रूह नहीं, बल्कि कोई इनसान और ख़ास शख़्स है जिसकी तालीम पूरी दुनिया के लिए, तमाम मामलों के लिए और क़ियामत तक बाक़ी रहनेवाली होगी। उस ख़ास शख़्स के लिए उर्दू तर्जमे में 'मददगार' का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है और अस्ल इंजील में यूनानी ज़बान का जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया था, उसके बारे में ईसाइयों का का मानना है कि वह Paracletus था । मगर उसके मानी तय करने में ख़ुद ईसाई आलिमों को सख़्त मुश्किल पेश आई है। अस्ल यूनानी ज़बान में Paraclete के कई मानी हैं : किसी जगह की तरफ़ बुलाना, मदद के लिए पुकारना, डाँटना और ख़बरदार करना, उभारना, उकसाना, इलतिजा करना, दुआ माँगना। फिर यह लफ़्ज़ एक दूसरे मतलब में यह मानी देता है: तसल्ली देना, तसकीन देना, हिम्मत बढ़ाना। बाइबल में इस लफ़्ज़ को जहाँ-जहाँ इस्तेमाल किया गया है, उन सब जगहों पर इसका कोई मतलब भी ठीक नहीं बैठता। ओरीजन (origen) ने कहीं इसका तर्जमा Consolator किया है और कहीं Deprecator, मगर दूसरे तफ़सीर लिखनेवालों ने इन दोनों तर्जमों को रद्द कर दिया, क्योंकि एक तो ये यूनानी ग्रामर (व्याकरण) के लिहाज़ से ही सही नहीं हैं, दूसरे तमाम इबारतों में जहाँ यह लफ़्ज़ आया है, यह मतलब नहीं चलता। कुछ और तर्जमा करनेवालों ने इसका तर्जमा Teacher किया है, मगर यूनानी ज़बान के इस्तेमालों से यह मतलब भी नहीं लिया जा सकता। तरतूलियान और ऑगस्टाइन ने लफ़्ज़ Advocate को तरजीह (प्राथमिकता) दी है, और कुछ और लोगों ने Assistant और Comforter और Consoler वग़ैरा अलफ़ाज़ अपनाए हैं। (देखिए— इनसाइक्लोपेडिया ऑफ़ बिबलिकल लिट्रेचर, लफ़्ज़ 'Paracletus') अब दिलचस्प बात यह है कि यूनानी ज़बान ही में एक दूसरा लफ़्ज़ Periclytos मौज़ूद है, जिसका मतलब है 'तारीफ़ किया हुआ।' यह लफ़्ज़ बिलकुल ‘मुहम्मद' का हम-मानी (समानार्थक) है, और बोलने में इसके और Paracletus के बीच बहुत यकसानियत पाई जाती है। क्या अजब कि जो मसीही लोग अपनी किताबों में अपनी मरज़ी और पसन्द के मुताबिक़ बेझिझक रद्दो-बदल कर लेने के आदी रहे हैं, उन्होंने यूहन्ना की नक़्ल की हुई पेशीनगोई (भविष्यवाणी) के इस लफ़्ज़ को अपने अक़ीदे के ख़िलाफ़ पड़ता देखकर उसके इमला (अक्षरों) में यह ज़रा-सी तबदीली कर दी हो। इसकी पड़ताल करने के लिए यूहन्ना की लिखी हुई शुरुआती यूनानी इंजील भी कहीं मौज़ूद नहीं है, जिससे यह पता लगाया जा सके कि वहाँ इन दोनों अलफ़ाज़ में से अस्ल में कौन-सा लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया था। (6) लेकिन फ़ैसला इसपर भी टिका नहीं है कि यूहन्ना ने यूनानी ज़बान में अस्ल में कौन-सा लफ़्ज़ लिखा था, क्योंकि बहरहाल वह भी तर्जमा ही था और हज़रत मसीह की ज़बान, जैसा कि ऊपर हम बयान कर चुके हैं फ़िलस्तीन की सुरयानी थी, इसलिए उन्होंने अपनी ख़ुशख़बरी में जो लफ़्ज़ इस्तेमाल किया होगा वह ज़रूर कोई सुरयानी लफ़्ज़ ही होना चाहिए। ख़ुशक़िस्मती से वह अस्ल सुरयानी लफ़्ज़ हमें इब्ने-हिशाम की सीरत में मिल जाता है और साथ-साथ यह भी उस किताब से मालूम हो जाता है कि उसके जैसे मानी रखनेवाला यूनानी लफ़्ज़ क्या है। मुहम्मद-बिन-इसहाक़ (रह०) के हवाले से इब्ने-हिशाम ने युहन्नस (यूहन्ना) की इंजील के अध्याय-15, आयतें—23 से 27 और अध्याय-16, आयत-1 का पूरा तर्जमा नक़्ल किया है और इसमें यूनानी लफ़्ज़ ‘फ़ारक़लीत' के बजाय सुरयानी ज़बान का लफ़्ज़ 'मुन्हमन्ना' इस्तेमाल किया गया है। फिर इब्ने-इसहाक़ या इब्ने-हिशाम ने इसकी तशरीह यह की है कि “'मुन्हमन्ना' का मतलब सुरयानी में 'मुहम्मद' और यूनानी में 'बरक़लीतुस' हैं।” (इब्ने-हिशाम, हिस्सा-1, पेज. 248) अब देखिए कि तारीख़ी तौर पर फ़िलस्तीन के आम ईसाई बाशिन्दों की ज़बान 9वीं सदी ई० तक सुरयानी थी। यह इलाक़ा 7वीं सदी के शुरू के आधे हिस्से से इस्लामी क़ब्ज़े में आए हुए इलाक़ों में शामिल था। इब्ने-इसहाक़ का 768 ई० में और इब्ने-हिशाम का 828 ई० में इन्तिक़ाल हुआ है। इसका मतलब यह है कि इन दोनों के ज़माने में फ़िलस्तीनी ईसाई सुरयानी बोलते थे, और इन दोनों के लिए अपने देश की ईसाई जनता से राबिता करना कुछ भी मुश्किल न था। फिर यह कि उस ज़माने में यूनानी बोलनेवाले ईसाई भी लाखों की तादाद में इस्लामी क़ब्ज़ेवाले इलाक़ों के अन्दर रहते थे, इसलिए उनके लिए यह मालूम करना भी मुश्किल न था कि सुरयानी के किस लफ़्ज़ का हम-मानी यूनानी ज़बान का कौन-सा लफ़्ज़ है। अब अगर इब्ने-इसहाक़ के नक़्ल किए हुए तर्जमे में सुरयानी लफ़्ज़ 'मुन्हमन्ना' इस्तेमाल हुआ है, और इब्ने-इसहाक़ या इब्ने-हिशाम ने तो इसकी तशरीह यह की है कि अरबी में इसका हम-मानी लफ़्ज़ 'मुहम्मद' और यूनानी में 'बरक़लीतुस' है, तो इस बात में किसी शक की गुंजाइश नहीं रह जाती कि हज़रत ईसा (अलैहि०) ने नबी (सल्ल०) का मुबारक नाम लेकर आप ही के आने की ख़ुशख़बरी दी थी, और साथ-साथ यह भी मालूम हो जाता है कि यूहन्ना की यूनानी इंजील में अस्ल में लफ़्ज़ Periclytos इस्तेमाल हुआ था, जिसे ईसाई लोगों ने बाद में किसी वक़्त Paracletus से बदल दिया।
(7) इससे भी पुरानी तारीख़ी गवाही हज़रत अब्दुल्लाह-बिन-मसऊद (रज़ि०) की यह रिवायत है कि हबशा की तरफ़ हिजरत करनेवालों को जब नजाशी ने अपने दरबार में बुलाया, और हज़रत जाफ़र-बिन-अबू-तालिब (रज़ि०) से अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की तालीमात सुनीं तो उसने कहा— “मरहबा तुमको (स्वागत है तुम्हारा) और उस हस्ती को जिसके यहाँ से तुम आए हो! मैं गवाही देता हूँ कि वह अल्लाह के रसूल हैं, और वही हैं जिनका ज़िक्र हम इंजील में पाते हैं और वही हैं जिनकी ख़ुशख़बरी मरयम के बेटे ईसा (अलैहि०) ने दी थी।" (हदीस : मुसनद अहमद) यह क़िस्सा हदीसों में ख़ुद हज़रत जाफ़र (रज़ि०) और उम्मे-सलमा (रज़ि०) से भी नक़्ल हुआ है। इससे न सिर्फ़ यह साबित होता है कि 7वीं सदी के शुरू में नजाशी को यह मालूम था कि हज़रत ईसा (अलैहि०) एक नबी की पेशीनगोई कर गए हैं, बल्कि यह भी साबित होता है कि उस नबी की ऐसी साफ़ निशानदेही इंजील में मौजूद थी, जिसकी वजह से नजाशी को यह राय क़ायम करने में कोई झिझक महसूस न हुई कि मुहम्मद (सल्ल०) ही 'वह नबी' हैं। अलबत्ता इस रिवायत से यह नहीं मालूम होता कि हज़रत ईसा (अलैहि०) की इस ख़ुशख़बरी के बारे में नजाशी की मालूमात का ज़रिआ यही यूहन्ना की इंजील थी या कोई और ज़रिआ भी उसको जानने का उस वक़्त मौज़ूद था। (8) हक़ीक़त यह है कि सिर्फ़ अल्लाह के रसूल (सल्ल०) ही के बारे में हज़रत ईसा (अलैहि०) की पेशीनगोइयों (भविष्यवाणियों) को नहीं, ख़ुद हज़रत ईसा (अलैहि०) के अपने सही हालात और उनकी अस्ल तालीमात को जानने का भी भरोसेमन्द ज़रिआ वे चार इंजीलें नहीं हैं जिनको मसीही कलीसा ने भरोसेमन्द और तसलीमशुदा इंजीलें (Canonical Gospels) क़रार दे रखा है, बल्कि उसका ज़्यादा भरोसे लायक़ ज़रिआ बरनाबास की वह इंजील है जिसे कलीसा ग़ैर-क़ानूनी कहता है और उसे इसके सही होने में शक (Apocryphal) करता है। ईसाइयों ने उसे छिपाने का बड़ा एहतिमाम किया है। सदियों तक यह दुनिया से ग़ायब रही है। 16वीं सदी में इसके इटैलियन तर्जमे का सिर्फ़ एक नुस्ख़ा (प्रति) पोप सिक्सटस (Sixtus) की लाइब्रेरी में पाया जाता था और किसी को उसके पढ़ने की इजाज़त न थी। 18वीं सदी के शुरू में वह एक शख़्स जॉन टूलैंड के हाथ लगा। फिर अलग-अलग हाथों से गुज़रता हुआ 1788 ई० में वियाना की इम्पीरियल लाइब्रेरी में पहुँच गया। 1907 ई० में उसी नुस्ख़े का अंग्रेज़ी तर्जमा ऑक्सफ़ोर्ड के क्लेयरंडन प्रेस से छप गया था, मगर शायद उसके छपने के फ़ौरन बाद ही ईसाई दुनिया में यह एहसास पैदा हो गया कि यह किताब तो उस मज़हब की जड़ ही काटे दे रही है जिसे हज़रत ईसा (अलैहि०) के नाम से जोड़ा जाता है। इसलिए उसकी छपी हुई कापियाँ किसी ख़ास तरकीब से ग़ायब कर दी गईं और फिर कभी उसके छपने की नौबत न आ सकी। दूसरी एक कापी इसी इटैलियन तर्जमे से स्पेनी ज़बान में मुन्तक़िल की हुई 18वीं सदी में पाई जाती थी, जिसका ज़िक्र जॉर्ज सेल ने क़ुरआन के अपने अंग्रेज़ी तर्जमे की भूमिका में किया है। मगर वह भी कहीं ग़ायब कर दी गई और आज उसका भी कहीं पता-निशान नहीं मिलता। मुझे ऑक्सफ़ोर्ड से छपे हुए अंग्रेज़ी तर्जमे की एक फ़ोटोस्टेट कापी देखने का मौक़ा मिला है और मैंने उसे लफ़्ज़-ब-लफ़्ज़ पढ़ा है। मेरा एहसास यह है कि यह एक बहुत बड़ी नेमत है जिससे ईसाइयों ने सिर्फ़ तास्सुब और ज़िद की वजह से अपने-आपको महरूम कर रखा है। मसीही लिट्रेचर में इस इंजील का जहाँ कहीं ज़िक्र आता है, उसे यह कहकर रद्द कर दिया जाता है कि यह एक जाली इंजील है जिसे शायद किसी मुसलमान ने लिखकर बरनाबास के नाम से जोड़ दिया है। लेकिन यह एक बहुत बड़ा झूठ है जो सिर्फ़ इस वजह से बोल दिया गया कि इसमें जगह-जगह साफ़ तौर से नबी (सल्ल०) के बारे में भविष्यवाणियाँ मिलती हैं। एक तो इस इंजील को पढ़ने ही से साफ़ मालूम हो जाता है कि यह किताब किसी मुसलमान की लिखी हुई नहीं हो सकती। दूसरे, अगर यह किसी मुसलमान ने लिखी होती तो मुसलमानों में यह बहुत भारी तादाद में फैली हुई होती और इस्लाम के आलिमों की किताबों में इसका ज़िक्र बहुत ज़्यादा पाया जाता। मगर यहाँ सूरते-हाल यह है कि जॉर्ज सेल के अंग्रेज़ी क़ुरआन के मुक़द्दमे (भूमिका) से पहले मुसलमानों को सिरे से इसके वुजूद तक का पता न था। तबरी, याक़ूबी, मसऊदी, अल-बैरूनी, इब्ने-हज़्म और दूसरे मुसन्निफ़ीन (लेखक), जो मुसलमानों में मसीही लिट्रेचर की बहुत ज़्यादा जानकारी रखनेवाले थे, उनमें से किसी के यहाँ भी मसीही मज़हब पर बहस करते हुए बरनाबास की इंजील की तरफ़ इशारा तक नहीं मिलता। इस्लामी दुनिया की लाइब्रेरियों में जो किताबें पाई जाती थीं उनकी बेहतरीन फ़ेहरिस्ते (सूचियाँ) इब्ने-नदीम की 'अल-फ़ेहरिस्त' और हाजी ख़लीफ़ा की 'कश्फ़ुज़-ज़ुनून' हैं, और वे भी इसके ज़िक्र से ख़ाली हैं। 19वीं सदी से पहले किसी मुसलमान आलिम ने बरनाबास की इंजील का नाम तक नहीं लिया है। तीसरी और सबसे बड़ी दलील इस बात के झूठ होने की यह है कि नबी (सल्ल०) की पैदाइश से भी 75 साल पहले पोप गिलासियस-1 (Gelasius-1) के ज़माने में बद-अक़ीदा और गुमराह करनेवाली (Heretical) किताबों की जो फ़ेहरिस्त तैयार की गई थी, और एक पॉप के फ़तवे के ज़रिए से जिनका पढ़ना मना कर दिया गया था, उनमें बरनाबास की इंजील (Evangelium Barnabe) भी शामिल थी। सवाल यह है कि उस वक़्त कौन-सा मुसलमान था जिसने यह जाली इंजील तैयार की थी? यह बात ख़ुद ईसाई आलिमों ने मानी है कि शाम (सीरिया), स्पेन, मिस्र वग़ैरा देशों के शुरुआती मसीही कलीसा में एक मुद्दत तक बरनाबास की इंजील मौज़ूद रही है और छटी सदी में इसके पढ़ने से मना कर दिया गया है। (9) इससे पहले कि इस इंजील से नबी (सल्ल०) के बारे में हज़रत ईसा (अलैहि०) की दी हुई ख़ुशख़बरियाँ नक़्ल की जाएँ, इसके बारे में थोड़ा-सा बता देना ज़रूरी है, ताकि इसकी दी हुई अहमियत मालूम हो जाए और ये भी समझ में आ जाए कि ईसाई लोग इतना नाराज़ क्यों हैं। बाइबल में जो चार इंजीलें क़ानूनी और भरोसेमन्द क़रार देकर शामिल की गई हैं, उनमें से किसी का लिखनेवाला भी हज़रत ईसा (अलैहि०) का साथी न था। और उनमें से किसी ने यह दावा भी नहीं किया है कि उसने हज़रत ईसा (अलैहि०) के साथियों से हासिल की हुई मालूमात अपनी इंजील में दर्ज की हैं। जिन ज़रिओं से उन लोगों ने मालूमात हासिल की हैं उनका कोई हवाला उन्होंने नहीं दिया है, जिससे यह पता चल सके कि रिवायत करनेवाले ने या तो ख़ुद वे वाक़िआत देखे और वे बातें सुनी हैं जिन्हें वह बयान कर रहा है या एक या कुछ ज़रिओं से ये बातें उसे पहुँची हैं। इसके बरख़िलाफ़ बरनाबास की इंजील का लेखक कहता है कि मैं मसीह (अलैहि०) के सबसे पहले के बारह हवारियों (साथियों) में से एक हूँ, शुरू से आख़िर वक़्त तक मसीह (अलैहि०) के साथ रहा हूँ और अपनी आँखों देखे वाक़िआत और कानों सुनी बातें इस किताब में दर्ज कर रहा हूँ। यही नहीं, बल्कि किताब के आख़िर में वह कहता है कि दुनिया से विदा होते वक़्त हज़रत मसीह (अलैहि०) ने मुझसे फ़रमाया था कि मेरे बारे में जो ग़लतफ़हमियाँ लोगों में फैल गई हैं उनको साफ़ करना और सही हालात दुनिया के सामने लाना तेरी ज़िम्मेदारी है। यह बरनाबास कौन था? बाइबल की किताब ‘आमाल’ (प्रेरितों के काम) में बार-बार इस नाम के एक शख़्स का ज़िक्र आता है जो क़िबरस के एक यहूदी ख़ानदान से ताल्लुक़ रखता था। मसीहियत की तबलीग़ (प्रचार-प्रसार) और मसीह (अलैहि०) के पैरौकारों की मदद के सिलसिले में उसके कामों की बड़ी तारीफ़ की गई है। मगर कहीं यह नहीं बताया गया है कि वह कब मसीही मज़हब में दाख़िल हुआ, और इबतिदाई बारह हवारियों की जो फ़ेहरिस्त तीन इंजीलों में दी गई है उसमें भी कहीं उसका नाम दर्ज नहीं है। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि उस इंजील का लेखक वही बरनाबास है या कोई और। मत्ती और मरक़ुस ने हवारियों (Apostles) की जो फ़ेहरिस्त दी है, बरनाबास की दी हुई फ़ेहरिस्त उससे सिर्फ़ दो नामों में अलग है। एक तूमा, जिसके बजाय बरनाबास ख़ुद अपना नाम दे रहा दूसरा शमऊन क़नानी, जिसकी जगह वह यहूदाह-बिन-याक़ूब का नाम लेता है। लूक़ा की इंजील में यह दूसरा नाम भी मौज़ूद है। इसलिए यह अन्दाज़ा करना सही होगा कि बाद में किसी वक़्त सिर्फ़ बरनावास को हवारियों से अलग करने के लिए तूमा का नाम दाख़िल किया गया है, ताकि उसकी इंजील से पीछा छुड़ाया जा सके, और इस तरह की तबदीलियाँ अपनी मज़हबी किताबों में कर लेना उन लोगों के यहाँ कोई नाजाइन काम नहीं रहा है। इस इंजील को अगर कोई आदमी तास्सुब (पक्षपात) के बिना खुली आँखों से पढ़े और ‘नए नियम' की चारों इंजीलों से इसका मुक़ाबला करे तो वह यह महसूस किए बिना नहीं रह सकता कि यह उन चारों से कई दरजे बढ़कर है। इसमें हज़रत ईसा (अलैहि०) के हालात ज़्यादा तफ़सील के साथ बयान हुए हैं और इस तरह बयान हुए हैं जैसे कोई आदमी सचमुच वहाँ सब कुछ देख रहा था और उन वाक़िआत में ख़ुद शरीक था। हज़रत ईसा (अलैहि०) की तालीमात चारों इंजीलों की बे-रब्त और बिखरी दास्तानों के मुक़ाबले में इस तारीख़़ी बयान में ज़्यादा साफ़ और तफ़सीली और असरदार तरीक़े से बयान हुई हैं। तौहीद (एकेश्वरवाद) की तालीम, शिर्क (अनेकेश्वरवाद) का रद्द, ख़ुदा की सिफ़ात, इबादतों की रूह, और बेहतरीन अख़लाक़ की बातें इसमें बड़े ही पुरज़ोर और दलीलों के साथ और तफ़सीली हैं। जिन सबक़ देनेवाली मिसालों के अन्दाज़ में मसीह (अलैहि०) ने यह बातें बयान की हैं उनका 100वाँ हिस्सा भी चारों इंजीलों में नहीं पाया जाता। इससे यह भी ज़्यादा तफ़सील के साथ मालूम होता है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) अपने शागिर्दों की तालीम व तरबियत किस हिकमत-भरे तरीक़े से करते थे। हज़रत ईसा (अलैहि०) की ज़बान, बयान का अन्दाज़ और तबीअत और मिज़ाज को कोई शख़्स अगर कुछ भी जानता हो तो वह इस इंजील को पढ़कर यह मजबूर होगा कि यह कोई जाली दास्तान नहीं है जो बाद में किसी ने गढ़ ली, बल्कि इसमें हज़रत मसीह (अलैहि०) चारों इंजीलों के मुक़ाबले में अपनी असली शान में बहुत नुमायाँ होकर हमारे सामने आते हैं, और इसमें आपस में टकरानेवाली बातों (विरोधाभास) का नाम व निशान भी नहीं है जो चारों इंजीलों में उनकी अलग-अलग की बातों के दरमियान पाया जाता है। इस इंजील में हज़रत ईसा (अलैहि०) की ज़िन्दगी और उनकी तालीमात ठीक-ठीक एक नबी की ज़िन्दगी और तालीमात के मुताबिक़ नज़र आती हैं। वे अपने-आपको एक नबी की हैसियत से पेश करते हैं। तमाम पिछले नबियों और किताबों की तसदीक़ (पुष्टि) करते हैं। साफ़ कहते हैं कि नबियों (अलैहि०) की तालीमात के सिवा हक़ (सत्य) के जानने का कोई दूसरा ज़रिआ नहीं है, और जो नबियों को छोड़ता है वह अस्ल में ख़ुदा को छोड़ता है। तौहीद, रिसालत (पैग़म्बरी) और आख़िरत के ठीक वही अक़ीदे पेश करते हैं जिनकी तालीम तमाम नबियों ने दी है। नमाज़, रोज़े और ज़कात की नसीहत करते हैं। उनकी नमाज़ों का जो ज़िक्र बहुत-सी जगहों पर बरनावास ने किया है उससे चलता है कि यही फ़ज्र, ज़ुह्‍र, अस्र, मग़रिब, इशा और तहज्जुद के वक़्त थे जिनमें वे नमाज़ पढ़ते थे, और हमेशा नमाज़ से पहले वुज़ू करते थे। नबियों में से वह हज़रत दाऊद (अलैहि०) और हज़रत सुलैमान (अलैहि०) को नबी क़रार देते हैं, हालाँकि यहूदियों और ईसाइयों ने उनको नबियों की फ़ेहरिस्त से बाहर कर रखा है। हज़रत इसमाईल (अलैहि०) को वह ज़बीह (जिनको ज़ब्ह करने का हुक्म हुआ था) क़रार देते हैं और एक यहूदी आलिम से इक़रार कराते हैं कि सचमुच ज़बीह हज़रत इसमाईल (अलैहि०) ही थे और बनी-इसराईल ने ज़बरदस्ती खींच-तानकर हज़रत इसहाक़ (अलैहि०) को ज़बीह बना रखा है। आख़िरत व क़ियामत और जन्नत व जहन्नम के बारे में उनकी तालीमात क़रीब-क़रीब वही हैं जो क़ुरआन में बयान हुई हैं। (10) ईसाई जिस वजह से बरनाबास की इंजील के मुख़ालिफ़ हैं, वह अस्ल में यह नहीं है कि इसमें अल्लाह के रसूल मुहम्मद (सल्ल०) के आने के बारे में जगह-जगह साफ़ और खुली-खुली ख़ुशख़बरियाँ हैं, क्योंकि वे तो नबी (सल्ल०) की पैदाइश से भी बहुत पहले इस इंजील को रद्द कर चुके थे। उनकी नाराज़ी की अस्ल वजह को समझने के लिए थोड़ी-सी तफ़सीली बहस दरकार है। हज़रत ईसा (अलैहि०) के इबतिदाई पैरौकार उनको सिर्फ़ नबी मानते थे, मूसवी शरीअत की पैरवी करते थे, अक़ीदों और हुक्मों और इबादतों के मामले में अपने-आपको दूसरे बनी-इसराईल से ज़रा भी अलग न समझते थे, और यहूदियों से उनका इख़्तिलाफ़ सिर्फ़ इस बात में था कि ये हज़रत ईसा (अलैहि०) को मसीह मान करके उनपर ईमान लाए थे और वे उनको मसीह मानने से इनकार करते थे। बाद में जब सेंट पॉल इस गरोह में दाख़िल हुआ तो उसने रूमियों, यूनानियों और दूसरे ग़ैर-यहूदी और ग़ैर-इसराईली लोगों में भी इस धर्म को फैलाना शुरू कर दिया, और इस मक़सद के लिए एक नया धर्म बना डाला, जिसके अक़ीदे और उसूल और हुक्म उस दीन से बिलकुल अलग थे जिसे हज़रत ईसा (अलैहि०) ने पेश किया था। यह आदमी हज़रत ईसा (अलैहि०) के साथ नहीं रहता था, बल्कि उनके ज़माने में वह उनका सख़्त मुख़ालिफ़ था और उनके बाद भी कई साल तक उनकी पैरवी करनेवालों का दुश्मन बना रहा। फिर जब इस गरोह में दाख़िल होकर उसने एक नया धर्म बनाना शुरू किया, उस वक़्त भी हज़रत ईसा (अलैहि०) के किसी क़ौल (बात) को दलील के तौर पर पेश नहीं किया, बल्कि अपने कश्फ़ और इलहाम (क़ुदरती तौर पर मन में आनेवाली बातों) को बुनियाद बनाया। इस नए दीन के गठन में उसके सामने बस यह मक़सद था कि दीन ऐसा हो जिसे आम ग़ैर-यहूदी (Gentile) दुनिया क़ुबूल कर ले। उसने एलान कर दिया कि एक ईसाई यहूदी शरीअत की तमाम पाबन्दियों से आज़ाद है। उसने खाने-पीने में हराम-हलाल की सारी क़ैदें ख़त्म कर दीं। उसने ख़तने के हुक्म को भी रद्द कर दिया जो ग़ैर-यहूदी दुनिया को ख़ास तौर पर नागवार था। यहाँ तक कि उसने मसीह (अलैहि०) के ख़ुदा होने और उनके ख़ुदा का बेटा होने और सलीब पर जान देकर आदम की औलाद के पैदाइशी गुनाह का कफ़्फ़ारा (प्रायश्चित) बन जाने का अक़ीदा भी गढ़ डाला, क्योंकि आम मुशरिकों के मिज़ाज से यह बहुत मेल रखता था। मसीह के इबतिदाई पैरोकारों ने इन बुराइयों की रोक-थाम की, मगर सेंट पॉल ने जो दरवाज़ा खोला था उससे ग़ैर-यहूदी ईसाइयों का एक ऐसा ज़बरदस्त सैलाब इस मज़हब में दाख़िल हो गया जिसके मुक़ाबले में वे मुट्ठी-भर लोग किसी तरह न ठहर सके। फिर भी तीसरी सदी ईसवी के ख़त्म होने तक बहुत-से लोग ऐसे मौज़ूद थे जो मसीह के ख़ुदा होने के अक़ीदे से इनकार करते थे। मगर चौथी सदी के आग़ाज़ (325 ई०) में नीक़िया (Nicaea) की काउंसिल ने सेंट पॉल के गढ़े हुए अक़ीदों को पूरी तरह मसीहियत का तसलीम-शुदा मज़हब ठहरा दिया। फिर रूमी सल्तनत ख़ुद ईसाई हो गई और क़ैसर (बादशाह) थ्योडोसियस के ज़माने में यही मज़हब मुल्क का सरकारी मज़हब बन गया। इसके बाद क़ुदरती बात थी कि वे तमाम किताबें जो इस अक़ीदे के ख़िलाफ़ हों, रद्द ठहरा दी जाएँ और सिर्फ़ वही किताबें भरोसेमन्द ठहराई जाएँ जो इस अक़ीदे से मेल खाती हों। सन् 367 ई० में पहली बार अथानासियूस (Athanasius) के एक ख़त के ज़रिए से भरोसेमन्द और तसलीम-शुदा किताबों के एक मजमूए (संग्रह) का एलान किया गया, फिर उसकी तौसीक़ (मान्यता, Recognition) सन् 382 ई० में पॉप डेमेसियस (Damasius) की सदारत (अध्यक्षता) में एक मजलिस ने की, और पाँचवीं सदी के आख़िर में पॉप गेलासियस (Gelasius) ने इस संग्रह को तसलीम-शुदा ठहराने के साथ-साथ उन किताबों की एक लिस्ट तैयार कर दी जो ग़ैर-तसलीम-शुदा थीं। हालाँकि सेंट पॉल के गढ़े हुए जिन अक़ीदों को बुनियाद बनाकर मज़हबी किताबों के भरोसेमन्द होने और न होने का यह फ़ैसला किया गया था, उनके बारे में कभी कोई ईसाई आलिम यह दावा नहीं कर सका है कि उनमें से किसी अक़ीदे की तालीम ख़ुद हज़रत ईसा (अलैहि०) ने दी थी। बल्कि भरोसेमन्द किताबों के मजमूए (संग्रह) में जो इंजीलें शामिल हैं, ख़ुद उनमें भी हज़रत ईसा (अलैहि०) के अपने किसी क़ौल (कथन) से इन अक़ीदों का सुबूत नहीं मिलता। बरनाबास की इंजील इन ग़ैर-तसलीम-शुदा किताबों में इसलिए शामिल की गई कि वह मसीहियत के इस सरकारी अक़ीदे के बिलकुल ख़िलाफ़ थी। उसका लिखनेवाला किताब के शुरू ही में लिखने का अपना मक़सद यह बयान करता है कि “उन लोगों के ख़यालात का सुधार किया जाए जो शैतान के धोखे में आकर येशू को ख़ुदा का बेटा क़रार देते हैं, ख़तने को ग़ैर-ज़रूरी ठहराते हैं और हराम खानों को हलाल कर देते हैं, जिनमें से एक धोखा खानेवाला पोलोस (सेंट पॉल) भी है।” वह बताता है कि जब हज़रत ईसा (अलैहि०) दुनिया में मौज़ूद थे उस ज़माने में उनके मोजिज़ों (चमत्कारों) को देखकर सबसे पहले मुशरिक रूमी सिपाहियों ने उनको ख़ुदा और कुछ ने ख़ुदा का बेटा कहना शुरू किया, फिर यह छूत बनी-इसराईल के आम लोगों को भी लग गई। इसपर हज़रत ईसा (अलैहि०) सख़्त परेशान हुए। उन्होंने बार-बार बहुत शिद्दत के साथ अपने बारे में इस ग़लत अक़ीदे को रद्द किया और उन लोगों पर लानत भेजी जो उनके बारे में ऐसी बातें कहते थे। फिर उन्होंने अपने शागिर्दों को पूरे यहूदिया में इस अक़ीदे को ग़लत बताने के लिए भेजा और उनकी दुआ से शागिर्दों के हाथों भी वही मोजिज़े (चमत्कार) कराए गए जो ख़ुद हज़रत ईसा (अलैहि०) के हाथों से होते थे, ताकि लोग इस ग़लत ख़याल को छोड़ दें कि जिस आदमी से ये मोजिज़े हो रहे हैं वह ख़ुदा या ख़ुदा का बेटा है। इस सिलसिले में वह हज़रत ईसा (अलैहि०) की तफ़सीली तक़रीरें नक़्ल करता है जिनमें उन्होंने बड़ी सख़्ती के साथ इस ग़लत अक़ीदे को रद्द किया था, और जगह-जगह यह बताता है कि वे इस गुमराही के फैलने पर कितने ज़्यादा परेशान थे। इसके अलावा वह सेंट पॉल के गढ़े हुए इस अक़ीदे को भी साफ़-साफ़ ग़लत ठहराता है कि मसीह (अलैहि०) ने सलीब (सूली) पर जान दी थी। वह अपने आँखों देखे हालात यह बयान करता है कि जब यहूदाह स्कृयूती यहूदियों के सरदार काहिन से रिश्वत लेकर हज़रत ईसा (अलैहि०) को गिरफ़्तार कराने के लिए सिपाहियों को लेकर आया तो अल्लाह तआला के हुक्म से चार फ़रिश्ते उन्हें उठा ले गए और यहूदाह स्कृयूती की शक्ल और आवाज़ बिलकुल वही कर दी गई जो हज़रत ईसा (अलैहि०) की थी। सलीब पर वही चढ़ाया गया था, न कि हज़रत ईसा (अलैहि०)। इस तरह यह इंजील सेंट पॉल की गढ़ी हुई मसीहियत की जड़ काट देती है और क़ुरआन के बयान को पूरी तरह सही बताती है। हालाँकि क़ुरआन के उतरने से 115 साल पहले उसके इन बयानों ही की वजह से मसीही पादरी उसे रद्द कर चुके थे। (11) इस बहस से यह बात साफ़ हो जाती है कि बरनाबास की इंजील हक़ीक़त में चारों इंजीलों से ज़्यादा भरोसेमन्द है, मसीह (अलैहि०) की तालीमात और सीरत और बातों को सही तौर से बयान करती है, और यह ईसाइयों की अपनी बदक़िस्मती है कि इस इंजील के ज़रिए से अपने अक़ीदों को सही करने और हज़रत मसीह (अलैहि०) की अस्ल तालीमात को जानने का जो मौक़ा उनको मिला था, उसे सिर्फ़ ज़िद और हठधर्मी की वजह से उन्होंने खो दिया। इसके बाद हम पूरे इत्मीनान के साथ वे बशारतें (ख़ुशख़बरियाँ) नक़्ल कर सकते हैं जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के बारे में बरनाबास ने हज़रत ईसा (अलैहि०) से रिवायत की हैं। इन ख़ुशख़बरियों में कहीं हज़रत ईसा (अलैहि०) नबी (सल्ल०) का नाम लेते हैं, कहीं 'अल्लाह का रसूल' कहते हैं, कहीं आप (सल्ल०) के लिए 'मसीह' का लफ़्ज़ इस्तेमाल करते हैं, कहीं तारीफ़ के क़ाबिल (Admirable) कहते हैं, और कहीं साफ़-साफ़ ऐसे जुमले कहते हैं जिनका मतलब बिलकुल वही है जो 'ला इला-ह इल्लल्लाह' का है। हमारे लिए उन सारी ख़ुशख़बरियों (को नक़्ल करना मुश्किल है, क्योंकि वे इतनी ज़्यादा हैं, और जगह-जगह अलग-अलग ढंग से और मौक़ा-महल के हिसाब से आई हैं कि उनसे एक अच्छी-ख़ासी किताब तैयार हो सकती है। यहाँ हम सिर्फ़ नमूने के तौर पर उनमें से कुछ को नक़्ल करते हैं— "तमाम नबी जिनको ख़ुदा ने दुनिया में भेजा, जिनकी तादाद एक लाख 44 हज़ार थी, उन्होंने साफ़ तौर से बात नहीं की। मगर मेरे बाद तमाम नबियों और पाक हस्तियों का नूर आएगा जो नबियों की कही हुई बातों के अंधेरे पर रौशनी डाल देगा, क्योंकि वह मत ख़ुदा का रसूल है।” (अध्याय-17) "फ़रीसियों और लावियों ने कहा, अगर तू न मसीह है, न इलयास, न कोई और नबी, तो क्यों तू नई तालीम देता है और अपने-आपको मसीह से भी ज़्यादा बनाकर पेश करता है? येशू ने जवाब दिया, जो मोजिज़े ख़ुदा मेरे हाथ से दिखाता है वे यह ज़ाहिर करते हैं कि मैं वही कुछ कहता हूँ जो ख़ुदा चाहता है, वरना हक़ीक़त में अपने-आपको उस (मसीह) से बड़ा समझे जाने के क़ाबिल नहीं क़रार देता जिसका तुम ज़िक्र कर रहे हो। मैं तो उस ख़ुदा के रसूल के मोज़े के बन्द या उसकी जूती के फ़ीते खोलने के लायक़ भी नहीं हूँ, जिसको तुम मसीह कहते हो, जो मुझसे पहले बनाया गया था और मेरे बाद कल आएगा और सच्चाई की बातें लेकर आएगा, ताकि उसके दीन की कोई इन्तिहा न हो।" (अध्याय-42) “यक़ीन के साथ मैं तुमसे कहता हूँ कि हर नबी जो आया है वह सिर्फ़ एक क़ौम के लिए ख़ुदा की रहमत का निशान बनकर पैदा हुआ है। इस वजह से इन नबियों की बातें उन लोगों के सिवा कहीं और नहीं फैलीं जिनकी तरफ़ वे भेजे गए थे। मगर ख़ुदा का रसूल जब आएगा, ख़ुदा मानो उसको अपने हाथ की मुहर दे देगा, यहाँ तक कि वह दुनिया की तमाम क़ौमों को जो उसकी तालीम पाएँगी, नजात और रहमत पहुँचा देगा। वह बेख़ुदा लोगों पर हुकूमत लेकर आएगा और बुतपरस्ती को ऐसे नष्ट-विनष्ट करेगा कि शैतान परेशान हो जाएगा।” इसके आगे शागिर्दो के साथ एक लम्बी बातचीत में हज़रत ईसा (अलैहि०) साफ़ तौर से बयान करते हैं कि वह बनी-इसमाईल में से होगा। (अध्याय-43) “इसलिए मैं तुमसे कहता हूँ कि ख़ुदा का रसूल वह रौनक़ है जिससे ख़ुदा की पैदा की हुई क़रीब-क़रीब तमाम चीज़ों को ख़ुशी नसीब होगी, क्योंकि वह समझ और नसीहत, हिकमत और ताक़त, डर और मुहब्बत, एहतियात और परहेज़गारी की रूह से सजा है। वह फ़ैयाज़ी (दानशीलता) और रहमत, इनसाफ़ और तक़वा (परहेज़गारी), शराफ़त और सब्र की रूह से आरास्ता (सुसज्जित) है, जो उसने ख़ुदा से उन तमाम चीज़ों के मुक़ाबले में तीन गुना पाई है जिन्हें ख़ुदा ने अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) में से यह रूह दी है। कैसा मुबारक वक़्त होगा जब वह दुनिया में आएगा! यक़ीन जानो, मैंने उसको देखा है और उसका एहतिराम किया है जिस तरह हर नबी ने उसको देखा है। उसकी रूह को देखने ही से ख़ुदा ने उनको नुबूवत (पैग़म्बरी) दी। और जब मैंने उसको देखा तो मेरी रूह सुकून से भर गई यह कहते हुए कि ऐ मुहम्मद! ख़ुदा तुम्हारे साथ हो, और वह मुझे तुम्हारी जूती के तसमे (फ़ीते) बाँधने के क़ाबिल बना दे, क्योंकि यह मर्तबा भी पा लूँ तो मैं एक बड़ा नबी और ख़ुदा की एक पाक हस्ती हो जाऊँगा।” (अध्याय-44) (मेरे जाने से) तुम्हारा दिल परेशान न हो, न तुम डरो, क्योंकि मैंने तुमको पैदा नहीं किया है, बल्कि ख़ुदा हमारा पैदा करनेवाला, जिसने तुम्हें पैदा किया है, वही तुम्हारी हिफ़ाज़त करेगा। रहा मैं, तो इस वक़्त मैं दुनिया में ख़ुदा के उस रसूल के लिए रास्ता तैयार करने आया हूँ जो दुनिया के लिए नजात लेकर आएगा ........ अंद्रयास ने कहा: उस्ताद! हमें उसकी निशानी बता दे, ताकि हम उसे पहचान लें। येशू ने जवाब दिया : “वह तुम्हारे ज़माने में नहीं आएगा, बल्कि तुम्हारे कुछ साल बाद आएगा, जबकि मेरी इंजील ऐसी बिगड़ चुकी होगी कि मुश्किल से कोई 30 आदमी ईमानवाले बाक़ी रह जाएँगे। उस वक़्त ख़ुदा दुनिया पर रहम करेगा और अपने रसूल को भेजेगा जिसके सर पर सफ़ेद बादल का साया होगा, जिससे वह ख़ुदा का पसन्दीदा जाना जाएगा और उसके ज़रिए से ख़ुदा की पहचान दुनिया को हासिल होगी। वह बेख़ुदा लोगों के ख़िलाफ़ बड़ी ताक़त के साथ आएगा और ज़मीन पर बुतपरस्ती को मिटा देगा। और मुझे इसकी बड़ी ख़ुशी है, क्योंकि उसके ज़रिए से हमारा ख़ुदा पहचाना जाएगा और उसका एहतिराम होगा और मेरी सच्चाई दुनिया को मालूम होगी और वह उन लोगों से इन्तिक़ाम लेगा जो मुझे इनसान से बढ़कर कुछ क़रार देंगे ........ वह एक ऐसी सच्चाई के साथ आएगा जो तमाम नबियों की लाई हुई सच्चाई से ज़्यादा साफ़ और खुली हुई होगी।” (अध्याय-72) "ख़ुदा का अह्द (वादा) यरूशलम में, सुलैमान की इबादतगाह के अन्दर, किया गया था न कि कहीं और। मगर मेरी बात का यक़ीन करो कि एक वक़्त आएगा जब ख़ुदा अपनी रहमत एक और शहर में उतारेगा, फिर हर जगह उसकी सही इबादत हो सकेगी, और ख़ुदा अपनी रहमत से हर जगह सच्ची नमाज़ को क़ुबूल करेगा ..... मैं अस्ल में इसराईल के घराने की तरफ़ नजात का नबी बनाकर भेजा गया हूँ, मगर मेरे बाद मसीह आएगा, ख़ुदा का भेजा हुआ, तमाम दुनिया की तरफ़, जिसके लिए ख़ुदा ने ये सारी दुनिया बनाई है। उस वक़्त सारी दुनिया में अल्लाह की इबादत होगी, और उसकी रहमत उतरेगी।" (अध्याय-83) (येशू ने सरदार काहिन से कहा :) ज़िन्दा ख़ुदा की क़सम, जिसके सामने मेरी जान हाज़िर है! मैं वह मसीह नहीं हूँ जिसके आने का तमाम दुनिया की क़ौमें इन्तिज़ार कर रही हैं, जिसका वादा ख़ुदा ने हमारे बाप इबराहीम (अलैहि०) से यह कहकर किया था कि तेरी नस्ल के ज़रिए से ज़मीन की सब क़ौमें बरकत पाएँगी।” (उत्पत्ति, 22:18) । मगर जब ख़ुदा मुझे दुनिया से ले जाएगा तो शैतान फिर यह बग़ावत बरपा करेगा कि जो लोग परहेज़गार नहीं हैं वे मुझे ख़ुदा और ख़ुदा का बेटा मानें। उसकी वजह से मेरी बातों और मेरी तालीमात को बिगाड़ दिया जाएगा, यहाँ तक कि मुश्किल से ईमानवाले 30 लोग बाक़ी रह जाएँगे। उस वक़्त ख़ुदा दुनिया पर रहम करेगा और अपना रसूल भेजेगा जिसके लिए उसने दुनिया की ये सारी चीज़ें बनाई हैं, जो क़ुव्वत के साथ दक्षिण से आएगा और बुतों को बुतपरस्तों के साथ बरबाद कर देगा, जो शैतान से वह हुकूमत छीन लेगा जो उसने इनसानों पर हासिल कर ली है। वह ख़ुदा की रहमत उन लोगों की नजात के लिए अपने साथ लाएगा जो उसपर ईमान लाएँगे, और मुबारक है वह जो उसकी बातों को माने!” (अध्याय-96) “सरदार काहिन ने पूछा: क्या ख़ुदा के उस रसूल के बाद दूसरे नबी भी आएँगे? येशू ने जवाब दिया : उसके बाद ख़ुदा के भेजे हुए सच्चे नबी नहीं आएँगे, मगर बहुत-से झूठे नबी आ जाएँगे, जिनका मुझे बड़ा दुख है। क्योंकि शैतान ख़ुदा के इनसाफ़ से भरे फ़ैसले की वजह से उनको उठाएगा और वे मेरी इंजील के परदे में अपने-आपको छिपाएँगे।" (अध्याय-97) "सरदार काहिन ने पूछा कि वह मसीह किस नाम से पुकारा जाएगा और क्या निशानियाँ उसके आने को ज़ाहिर करेंगी? येशू ने जवाब दिया, उस मसीह का नाम 'तारीफ़ के क़ाबिल' है, क्योंकि ख़ुदा ने जब उसकी रूह पैदा की थी उस वक़्त उसका यह नाम ख़ुद रखा था और वहाँ उसे एक फ़रिश्तोंवाली शान में रखा गया था। ख़ुदा ने कहा, “ऐ मुहम्मद! इन्तिज़ार कर, क्योंकि तेरी ही ख़ातिर मैं जन्नत, दुनिया और बहुत-से जानदारों को पैदा करूँगा और उसको तुझे तोहफ़े के तौर पर दूँगा, यहाँ तक कि जो तेरी बरकत का इक़रार करेगा उसे बरकत दी जाएगी और जो तुझपर लानत करेगा उसपर लानत की जाएगी। जब मैं तुझे दुनिया की तरफ़ भेजूँगा तो मैं तुझको अपने नजात देनेवाले पैग़म्बर की हैसियत से भेजूँगा। तेरी बात सच्ची होगी यहाँ तक कि ज़मीन और आसमान टल जाएँगे, मगर तेरा दीन नहीं टलेगा। सो उसका मुबारक नाम मुहम्मद है।” (अध्याय-97) बरनाबास लिखता है कि एक मौक़े पर शागिर्दों के सामने हज़रत ईसा (अलैहि०) ने बताया कि मेरे ही शागिर्दों में से एक (जो बाद में यहूदाह स्कृयूती निकला) मुझे 30 सिक्कों के बदले दुश्मनों के हाथ बेच देगा, फिर फ़रमाया— “इसके बाद मुझे यक़ीन है कि जो मुझे बेचेगा वही मेरे नाम से मारा जाएगा, क्योंकि ख़ुदा मुझे ज़मीन से ऊपर उठा लेगा और उस ग़द्दार की सूरत ऐसी बदल देगा कि हर आदमी यह समझेगा कि वह मैं ही हूँ। फिर भी जब बह एक बुरी मौत मरेगा, तो एक मुद्दत तक मेरी ही रुसवाई होती रहेगी। मगर जब मुहम्मद, ख़ुदा का पाक रसूल, आएगा तो मेरी वह बदनामी दूर कर दी जाएगी। और ख़ुदा यह इसलिए करेगा कि मैंने उस मसीह की सच्चाई का इक़रार किया है। वह मुझे इसका यह इनाम देगा कि लोग यह जान लेंगे कि मैं ज़िन्दा हूँ और उस ज़िल्लत की मौत से मेरा कोई ताल्लुक़ नहीं है।" (अध्याय-113) (शागिर्दों से हज़रत ईसा अलैहि० ने कहा :) बेशक मैं तुमसे कहता हूँ कि अगर मूसा की किताब से सच्चाई बिगाड़ न दी गई होती तो ख़ुदा हमारे बाप दाऊद को एक दूसरी किताब न देता। और अगर दाऊद की किताब में फेर-बदल न किया गया होता तो ख़ुदा मुझे इंजील न देता, क्योंकि ख़ुदावन्द हमारा ख़ुदा बदलनेवाला नहीं है और उसने सब इनसानों को एक ही पैग़ाम दिया है। इसलिए जब अल्लाह का रसूल आएगा तो वह इसलिए आएगा कि उन सारी चीज़ों को साफ़ कर दे जिनसे बेख़ुदा लोगों ने मेरी किताब कर को गन्दा कर दिया है।” (अध्याय-124) इन साफ़ और तफ़सीली पेशीनगोइयों (भविष्यवाणियों) में सिर्फ़ तीन चीज़ें ऐसी हैं जो पहली नज़र में निगाह को खटकती हैं। एक यह कि इनमें और बरनावास की इंजील की कई दूसरी इबारतों में हज़रत ईसा (अलैहि०) ने अपने मसीह होने का इनकार किया है। दूसरी यह कि सिर्फ़ इन ही इबारतों में नहीं बल्कि इस इंजील की बहुत-सी जगहों पर अल्लाह के रसूल का अस्ल अरबी नाम 'मुहम्मद' लिखा गया है, हालाँकि यह नबियों की पेशीनगोइयों का आम तरीक़ा नहीं है कि बाद की आनेवाली किसी हस्ती का अस्ल नाम लिया जाए। तीसरी यह कि इसमें नबी (सल्ल०) को मसीह कहा गया है। पहले शक का जवाब यह है कि बरनाबास की इंजील ही में नहीं, बल्कि लूक़ा की इंजील में भी यह ज़िक्र मौज़ूद है कि हज़रत ईसा (अलैहि०) ने अपने शागिर्दों को इस बात से मना किया था कि वे उनको मसीह कहें। लूक़ा के अलफ़ाज़ ये हैं, “उसने उनसे कहा, लेकिन तुम मुझे क्या कहते हो? पतरस ने जवाब में कहा कि ख़ुदा का मसीह। उसने उनको ताकीद करके हुक्म दिया कि यह किसी से न कहना,” (9:20-21)। शायद इसकी वजह यह थी कि बनी-इसराईल जिस मसीह के इन्तिज़ार में थे उसके बारे में उनका ख़याल यह था कि वह तलवार के बल पर हक़ (सत्य) के दुश्मनों को हरा देगा, इसलिए हज़रत ईसा (अलैहि०) ने फ़रमाया कि वह मसीह मैं नहीं हूँ, बल्कि वह मेरे बाद आनेवाला है। दूसरे शक का जवाब यह है कि बरनाबास का जो इटैलियन तर्जमा इस वक़्त दुनिया में मौजूद है उसके अन्दर तो नबी (सल्ल०) का नाम बेशक मुहम्मद लिखा हुआ है, मगर यह किसी को भी मालूम नहीं है कि यह किताब किन-किन ज़बानों से तर्जमा-दर-तर्जमा होती हुई इटैलियन ज़बान तक पहुँची है। ज़ाहिर है कि बरनाबास की अस्ल इंजील सुरयानी ज़बान में होगी, क्योंकि वह हज़रत ईसा (अलैहि०) और उनके साथियों की ज़बान थी। अगर वह अस्ल किताब हासिल होती तो देखा जा सकता था कि उसमें नबी (सल्ल०) का नाम क्या लिखा गया था। अब जो कुछ अन्दाज़ा किया जा सकता है वह यह है कि अस्ल में तो हज़रत ईसा (अलैहि०) ने लफ़्ज़ 'मुन्हमन्ना' इस्तेमाल किया होगा, जैसा कि हम इब्ने-इसहाक़ के दिए हुए यूहन्ना की इंजील के हवाले से बता चुके हैं। फिर अलग-अलग तर्जमा करनेवालों ने अपनी-अपनी ज़बानों में इसके तर्जमे कर दिए होंगे। उसके बाद शायद किसी तर्जमा करनेवाले ने यह देखकर कि पेशीनगोई (भविष्यवाणी) में आनेवाले का जो नाम बताया गया है वह बिलकुल 'मुहम्मद' का हम-मानी है, आप (सल्ल०) का यही नाम लिख दिया होगा। इसलिए सिर्फ़ इस नाम का बयान होना यह शक पैदा कर देने के लिए हरगिज़ काफ़ी नहीं है कि बरनाबास की पूरी इंजील किसी मुसलमान ने गढ़ दी है। तीसरे शक का जवाब यह है कि लफ़्ज़ 'मसीह' हक़ीक़त में एक इसराईली इसतिलाह है जिसे क़ुरआन में ख़ास तौर पर हज़रत ईसा (अलैहि०) के लिए सिर्फ़ इस वजह से इस्तेमाल किया गया है कि यहूदी उनके मसीह होने का इनकार करते थे, वरना न यह क़ुरआन की इसतिलाह न क़ुरआन में कहीं इसको इसराईली इसतिलाह के मानी में इस्तेमाल किया गया है। इसलिए अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के हक़ में अगर हज़रत ईसा (अलैहि०) ने मसीह लफ़्ज़ इस्तेमाल किया हो और क़ुरआन में आप (सल्ल०) के लिए यह लफ़्ज़ इस्तेमाल न किया गया हो तो इससे यह नतीजा नहीं निकाला जा सकता कि बरनावास की इंजील आप (सल्ल०) की तरफ़ कोई ऐसी चीज़ जोड़ती है जिससे क़ुरआन इनकार करता है। अस्ल में बनी-इसराईल के यहाँ पुराना तरीक़ा यह था कि किसी चीज़ या किसी शख़्स को जब किसी पाक मक़सद के लिए ख़ास किया जाता था तो उस चीज़ पर या उस शख़्स के सर पर तेल मलकर उसे बरकतवाला (Ccnsecrate) कर दिया जाता था। इबरानी ज़बान में तेल मलने के इस काम को कि 'मसह' कहते थे और जिसपर यह मला जाता था उसे मसीह कहा जाता था। इबादतगाह के बरतन इसी तरह मसह करके इबादत के लिए वक़्फ़ किए जाते थे। काहिनों को कहानत (Priesthood) के मंसब पर मुक़र्रर करते वक़्त भी मसह किया जाता था। बादशाह और नबी भी जब ख़ुदा की तरफ़ से बादशाहत या पैग़म्बरी के लिए नामज़द किए जाते तो उन्हें मसह किया जाता। चुनाँचे बाइबल के मुताबिक़ बनी-इसराईल की तारीख़ में बहुत-से मसीह पाए जाते हैं। हज़रत हारून (अलैहि०) काहिन की हैसियत से मसीह थे। हज़रत मूसा (अलैहि०) काहिन और नबी की हैसियत से, तालूत बादशाह की हैसियत से, हज़रत दाऊद (अलैहि०) बादशाह और नबी की हैसियत से, मलिके-सदक़ बादशाह और काहिन की हैसियत से और हज़रत अल-यसअ (अलैहि०) नबी की हैसियत से मसीह थे। बाद में यह भी ज़रूरी न रहा था कि तेल मलकर ही किसी को मुक़र्रर किया जाए, बल्कि सिर्फ़ किसी का अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर होना ही मसीह होने का हम-मानी बन गया था। मिसाल के तौर पर देखिए राजा-1, अध्याय-19, आयतें—51 से 61 में ज़िक्र आया है कि ख़ुदा ने हज़रत इलयास (एलिय्याह) को हुक्म दिया कि हज़ाईल को मसह कर कि आराम (दिमश्क़) का बादशाह हो, और निम्सी के बेटे याहू को मसह कर कि इसराईल का बादशाह हो, और अल-यशअ (अल-यसअ अलैहि०) को मसह कर कि तेरी जगह नबी हो। इनमें से किसी के सर पर भी तेल नहीं मला गया। बस ख़ुदा की तरफ़ से उनके मुक़र्रर किए जाने का फ़ैसला सुना देना ही मानो उन्हें मसह कर देना था। इसलिए इसराईली नज़रिए के मुताबिक़ लफ़्ज़ मसीह हक़ीक़त में 'अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर होने' का हम-मानी था और इसी मानी में हज़रत ईसा (अलैहि०) ने अल्लाह के रसूल (सल्ल०) के लिए इस लफ़्ज़ को इस्तेमाल किया था। (लफ़्ज़ 'मसीह' के इसराईली मतलब की तशरीह के लिए देखिए— इनसाइक्लोपेडिया ऑफ़ बिबलिकल लिट्रेचर, लफ़्ज़ 'मेसियाह')
9. अस्ल में लफ़ज्र 'सिहरुन' इस्तेमाल हुआ है। ‘सिह्‍र’ यहाँ जादू के नहीं, बल्कि धोखे और छल के मानी में इस्तेमाल हुआ है। अरबी लुग़त में जादू की तरह इसका यह मतलब भी मशहूर है। कहते हैं : 'स-ह-रहू अय ख़-द-अहू' मतलब “उसने फ़ुलाँ शख़्स पर सिहर किया, यानी उसको धोखा दिया।” दिल छीन लेनेवाली आँख को ‘ऐनुन साहि-रतुन' कहा जाता है यानी 'साहिर आँख'। जिस ज़मीन में हर तरफ़ सराब (मरीचिका) ही सराब नज़र आए, उसको ‘अरज़ुन साहि-रतुन’ कहते हैं। चाँदी को मुलम्मा करके सोने जैसा कर दिया जाए तो कहते हैं 'सुहि-रतिल-फ़िज़्ज़तु'। इसलिए आयत का मतलब यह है कि जब वह नबी, जिसके आने की ख़ुशख़बरी ईसा (अलैहि०) ने दी थी, अपने नबी होने की खुली-खुली निशानियों के साथ आ गया तो बनी-इसराईल और ईसा (अलैहि०) की उम्मत ने उसके पैग़म्बरी के दावे को खुला धोखा क़रार दिया।
وَمَنۡ أَظۡلَمُ مِمَّنِ ٱفۡتَرَىٰ عَلَى ٱللَّهِ ٱلۡكَذِبَ وَهُوَ يُدۡعَىٰٓ إِلَى ٱلۡإِسۡلَٰمِۚ وَٱللَّهُ لَا يَهۡدِي ٱلۡقَوۡمَ ٱلظَّٰلِمِينَ ۝ 6
(7) अब भला उस शख़्स से बड़ा ज़ालिम और कौन होगा जो अल्लाह पर झूठे बुहतान बाँधे,10 हालाँकि उसे इस्लाम (अल्लाह के आगे फ़रमाँबरदारी के साथ सर झुका देने) की दावत दी जा रही हो?11 ऐसे ज़ालिमों को अल्लाह हिदायत नहीं दिया करता।
10. यानी अल्लाह के भेजे हुए नबी को झूठा दावेदार क़रार दे और अल्लाह के उस कलाम को, जो उसके नबी पर उतर रहा हो, नबी का अपना गढ़ा हुआ कलाम ठहराए।
11. यानी एक तो सच्चे नबी को झूठा दावेदार कहना ही अपने-आपमें ख़ुद कुछ कम ज़ुल्म नहीं है, कहाँ यह कि इसपर और ज़्यादा सितम यह किया जाए कि बुलानेवाला तो ख़ुदा की बन्दगी और फ़रमाँबरदारी की तरफ़ बुला रहा हो और सुननेवाला जवाब में उसे गालियाँ दे और उसकी दावत को नाकाम करने के लिए झूठ और बुहतान और झूठे प्रोपेगण्डों के हथकण्डे इस्तेमाल करे।
يُرِيدُونَ لِيُطۡفِـُٔواْ نُورَ ٱللَّهِ بِأَفۡوَٰهِهِمۡ وَٱللَّهُ مُتِمُّ نُورِهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡكَٰفِرُونَ ۝ 7
(8) ये लोग अपने मुँह की फूँकों से अल्लाह के नूर को बुझाना चाहते हैं, और अल्लाह का फ़ैसला यह है कि वह अपने नूर को पूरा फैलाकर रहेगा, चाहे इनकार करनेवालों को यह कितना ही नागवार हो।12
12. यह बात निगाह में रहे कि ये आयतें 3 हिज़री में उहुद की जंग के बाद उतरी थीं, जबकि इस्लाम सिर्फ़ मदीना शहर तक महदूद था, मुसलमानों की तादाद कुछ हज़ार से ज़्यादा न थी, और सारा अरब इस दीन को मिटा देने पर तुला हुआ था। उहुद की जंग में जो नुक़सान मुसलमानों को पहुँचा था, उसकी वजह से उनकी हवा उखड़ गई थी, और आसपास के क़बीले उनपर शेर हो गए थे। इन हालात में फ़रमाया गया कि अल्लाह का यह नूर किसी के बुझाए न बुझ सकेगा, बल्कि पूरी तरह रौशन होकर और दुनिया भर में फैलकर रहेगा। यह एक खुली पेशीनगोई (भविष्यवाणी) है जो पूरी तरह सही साबित हुई। अल्लाह के सिवा उस वक़्त और कौन यह जान सकता था कि इस्लाम का मुस्तक़बिल क्या है? इनसानी निगाहें तो उस वक़्त यह देख रही थीं कि यह एक टिमटिमाता हुआ चराग़ है जिसे बुझा देने के लिए बड़े ज़ोर की आँधियाँ चल रही हैं।
هُوَ ٱلَّذِيٓ أَرۡسَلَ رَسُولَهُۥ بِٱلۡهُدَىٰ وَدِينِ ٱلۡحَقِّ لِيُظۡهِرَهُۥ عَلَى ٱلدِّينِ كُلِّهِۦ وَلَوۡ كَرِهَ ٱلۡمُشۡرِكُونَ ۝ 8
(9) वही तो है जिसने अपने रसूल को हिदायत और सच्चे दीन के साथ भेजा है, ताकि उसे पूरे-के-पूरे दीन पर ग़ालिब कर दे चाहे मुशरिकों को यह कितना ही नागवार हो।13
13. 'मुशरिकों' को नागवार हो, यानी उन लोगों को जो अल्लाह की बन्दगी के साथ दूसरों की बन्दगियाँ मिलाते हैं, और अल्लाह के दीन में दूसरे दीनों की मिलावट करते हैं। जो इस बात पर राज़ी नहीं हैं कि पूरा-का-पूरा ज़िन्दगी का निज़ाम सिर्फ़ एक ख़ुदा की फ़रमाबरदारी और हिदायत पर क़ायम हो। जो इस बात पर अड़े हैं कि जिस-जिस माबूद की चाहेंगे बन्दगी करेंगे, और जिन-जिन फ़ल्सफ़ों और नज़रियों पर चाहेंगे अपने अक़ीदों और अख़लाक़ और तहज़ीब और समाज की बुनियाद रखेंगे। ऐसे सब लोगों के बरख़िलाफ़ यह फ़रमाया जा रहा है कि अल्लाह का रसूल उनके साथ समझौता करने के लिए नहीं भेजा गया है, बल्कि इसलिए भेजा गया है कि जो हिदायत और सच्चा दीन वह अल्लाह की तरफ़ से लाया है उसे पूरे दीन, यानी निज़ामे-ज़िन्दगी के हर पहलू पर ग़ालिब कर दे। यह काम उसे बहरहाल करके रहना है। इनकार करनेवाले और मुशरिक मान लें तो, और न मानें तो, और रुकावट में एड़ी-चोटी का ज़ोर लगा दें तो, रसूल (सल्ल०) का यह मिशन हर हालत में पूरा होकर रहेगा। यह एलान इससे पहले क़ुरआन में दो जगह हो चुका है। एक; सूरा-9 तौबा, आयत-33 में। दूसरा; सूरा-48 फ़तह, आयत-28 में। अब तीसरी बार उसे यहाँ दुहराया जा रहा है। (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, हाशिया-32; सूरा-48 फ़तह, हाशिया-51)
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ هَلۡ أَدُلُّكُمۡ عَلَىٰ تِجَٰرَةٖ تُنجِيكُم مِّنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 9
(10) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! मैं बताऊँ तुमको वह तिजारत14 जो तुम्हें दर्दनाक अज़ाब से बचा दे?
14. तिजारत वह चीज़ है जिसमें आदमी अपना माल, वक़्त, मेहनत और ज़हानत व क़ाबिलियत इसलिए खपाता है कि इससे नफ़ा हासिल हो। इसी रिआयत से यहाँ ईमान और अल्लाह की राह में जिहाद को तिजारत कहा गया है। मतलब यह है कि इस राह में अपना सब कुछ खपाओगे तो वह फ़ायदा तुम्हें हासिल होगा जो आगे बयान किया जा रहा है। यही बात सूरा-9 तौबा, आयत-111 में एक और तरीक़े से बयान की गई है। (देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-9 तौबा, हाशिया-106)
تُؤۡمِنُونَ بِٱللَّهِ وَرَسُولِهِۦ وَتُجَٰهِدُونَ فِي سَبِيلِ ٱللَّهِ بِأَمۡوَٰلِكُمۡ وَأَنفُسِكُمۡۚ ذَٰلِكُمۡ خَيۡرٞ لَّكُمۡ إِن كُنتُمۡ تَعۡلَمُونَ ۝ 10
(11) ईमान लाओ अल्लाह और उसके रसूल पर,15 और जिहाद करो अल्लाह की राह में अपने मालों से और अपनी जानों से। यही तुम्हारे लिए बेहतर है अगर तुम जानो।16
15. ईमान लानेवालों से जब कहा जाए कि ईमान लाओ, तो इससे ख़ुद-ब-ख़ुद यह मतलब निकलता है कि सच्चे मुसलमान बनो। ईमान के सिर्फ़ ज़बानी दावे पर बस न करो, बल्कि जिस चीज़ पर ईमान लाए हो उसकी ख़ातिर हर तरह की क़ुरबानियाँ देने और तक़लीफ़ें बरदाश्त करने के लिए तैयार हो जाओ।
16. यानी यह तिजारत तुम्हारे लिए दुनिया की तिजारतों से ज़्यादा बेहतर है।
يَغۡفِرۡ لَكُمۡ ذُنُوبَكُمۡ وَيُدۡخِلۡكُمۡ جَنَّٰتٖ تَجۡرِي مِن تَحۡتِهَا ٱلۡأَنۡهَٰرُ وَمَسَٰكِنَ طَيِّبَةٗ فِي جَنَّٰتِ عَدۡنٖۚ ذَٰلِكَ ٱلۡفَوۡزُ ٱلۡعَظِيمُ ۝ 11
(12) अल्लाह तुम्हारे गुनाह माफ़ कर देगा और तुमको ऐसे बाग़ों में दाख़िल करेगा जिनके नीचे नहरें बहती होंगी, और हमेशा के ठिकानोंवाली जन्नतों में बेहतरीन घर तुम्हें देगा। यह है बड़ी कामयाबी।17
17. ये इस तिजारत के अस्ल फ़ायदे हैं जो आख़िरत की हमेशा की ज़िन्दगी में हासिल होंगे। एक, ख़ुदा के अज़ाब से महफ़ूज़ रहना। दूसरे, गुनाहों की माफ़ी। तीसरे, ख़ुदा की उस जन्नत में दाख़िल होना जिसकी नेमतें कभी ख़त्म न होनेवाली हैं।
وَأُخۡرَىٰ تُحِبُّونَهَاۖ نَصۡرٞ مِّنَ ٱللَّهِ وَفَتۡحٞ قَرِيبٞۗ وَبَشِّرِ ٱلۡمُؤۡمِنِينَ ۝ 12
(13) और वह दूसरी चीज़ जो तुम चाहते हो, वह भी तुम्हें देगा, अल्लाह की तरफ़ से मदद और क़रीब ही में हासिल होने जानेवाली फ़त्‌ह.18 ऐ नबी! ईमानवालों को इसकी ख़ुशख़बरी दे दो।
18. दुनिया में फ़तह और कामयाबी भी अगरचे अल्लाह की एक बड़ी नेमत है, लेकिन ईमानवाले के लिए अस्ल अहमियत की चीज़ यह नहीं है, बल्कि आख़िरत की कामयाबी है। इसी लिए जो नतीजा दुनिया की इस ज़िन्दगी में हासिल होनेवाला है उसका ज़िक्र बाद में किया गया, और जो नतीजा आख़िरत में सामने आनेवाला है उसके ज़िक्र को पहले रखा गया।
يَٰٓأَيُّهَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ كُونُوٓاْ أَنصَارَ ٱللَّهِ كَمَا قَالَ عِيسَى ٱبۡنُ مَرۡيَمَ لِلۡحَوَارِيِّـۧنَ مَنۡ أَنصَارِيٓ إِلَى ٱللَّهِۖ قَالَ ٱلۡحَوَارِيُّونَ نَحۡنُ أَنصَارُ ٱللَّهِۖ فَـَٔامَنَت طَّآئِفَةٞ مِّنۢ بَنِيٓ إِسۡرَٰٓءِيلَ وَكَفَرَت طَّآئِفَةٞۖ فَأَيَّدۡنَا ٱلَّذِينَ ءَامَنُواْ عَلَىٰ عَدُوِّهِمۡ فَأَصۡبَحُواْ ظَٰهِرِينَ ۝ 13
(14) ऐ लोगो जो ईमान लाए हो! अल्लाह के मददगार बनो, जिस तरह मरयम के बेटे ईसा ने हवारियों19 को मुख़ातब करके कहा था, “कौन है अल्लाह की तरफ़ (बुलाने में) मेरा मददगार?” और हवारियों ने जवाब दिया था, “हम हैं अल्लाह के मददगार।"20 उस वक़्त बनी-इसराईल का एक गरोह ईमान लाया और दूसरे गरोह ने इनकार किया। फिर हमने ईमान लानेवालों की उनके दुश्मनों के मुक़ाबले में हिमायत की और वही ग़ालिब होकर रहे।21
19. हज़रत ईसा (अलैहि०) के साथियों के लिए बाइबल में आम तौर पर लफ़्ज़ 'शागिर्द' इस्तेमाल किया गया है, लेकिन बाद में उनके लिए 'रसूल' (Apostles) का लफ़्ज़ ईसाइयों में रिवाज पा गया, इस मानी में नहीं कि वे ख़ुदा के रसूल थे, बल्कि इस मानी में कि हज़रत ईसा (अलैहि०) उनको अपनी तरफ़ से तबलीग़ करनेवाला (प्रचारक) बनाकर फ़िलस्तीन के आसपास भेजा करते थे। यहूदियों के यहाँ यह लफ़्ज़ पहले से उन लोगों के लिए बोला जाता था जो हैकल के लिए चन्दा इकट्ठा करने के लिए भेजे जाते थे। इसके मुक़ाबले में क़ुरआन की इसतिलाह (पारिभाषिक शब्द) 'हवारी' इन दोनों मसीही इसतिलाहों से बेहतर है। इस लफ़्ज़ की अस्ल 'हौर' है जिसका मतलब सफ़ेदी है। धोबी को हवारी कहते हैं, क्योंकि वह कपड़े धोकर सफ़ेद कर देता है। ख़ालिस और बिना मिलावटवाली चीज़ को भी हवारी कहा जाता है। जिस आटे को छानकर उसकी भूसी निकाल दी गई हो उसे 'हुव्वारा' कहते हैं। इसी मानी में सच्चे दोस्त और बेग़रज़ (निस्स्वार्थ) हिमायती के लिए यह लफ़्ज़ बोला जाता है। इब्ने-सय्यिदा कहता है, “हर वह शख़्स जो किसी की मदद करने में हद से आगे बढ़ जाए, उसका हवारी है।” (लिसानुल-अरब)
20. यह आख़िरी मक़ाम है जहाँ क़ुरआन मजीद में उन लोगों को अल्लाह का मददगार कहा गया है जो अल्लाह के बन्दों को दीन की तरफ़ बुलाने और अल्लाह के दीन को कुफ़्र (बेदीनी) के मुक़ाबले में ग़ालिब करने की भरसक कोशिश करें। इससे पहले यही बात सूरा-3 आले-इमरान, आयत-52; सूरा-22 हज, आयत-40; सूरा-47 मुहम्मद, आयत-7; सूरा-57 हदीद, आयत-25 और सूरा-59 हश्र, आयत-8 में गुज़र चुकी है, और इन आयतों की तशरीह हम तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-3 आले-इमरान, हाशिया-50; सूरा-22 हज, हाशिया-84; सूरा-47 मुहम्मद, हाशिया-12 और सूरा-57 हदीद, हाशिया-47 में कर चुके हैं, इसके अलावा सूरा-47 मुहम्मद, हाशिया-9 में भी इस बात के एक पहलू पर वाज़ेह रौशनी डाली जा चुकी है। इसके बावजूद कुछ लोगों के ज़ेहन में यह उलझन पाई जाती है कि जब अल्लाह तआला सब कुछ करने की क़ुदरत रखता है, तमाम दुनियावालों से बेनियाज़ है, किसी का मुहताज नहीं है और सब उसके मुहताज हैं, तो कोई बन्दा आख़िर अल्लाह का मददगार कैसे हो सकता है? इस उलझन को दूर करने के लिए हम यहाँ इस बात को और ज़्यादा साफ़ तौर से बयान किए देते हैं। अस्ल में ऐसे लोगों को अल्लाह का मददगार इसलिए नहीं कहा गया है कि सारे जहान का रब अल्लाह (अल्लाह की पनाह!) किसी काम के लिए अपने किसी बन्दे की मदद का मुहताज है, बल्कि यह इसलिए फ़रमाया गया कि ज़िन्दगी के जिस दायरे में अल्लाह तआला ने ख़ुद इनसान को कुफ़्र व ईमान और फ़रमाँबरदारी व नाफ़रमानी की आजादी दी है उसमें वह लोगों को अपनी ज़बरदस्त क़ुव्वत से काम लेकर ज़ोर-जबरदस्ती से मोमिन (ईमानवाला) और फ़रमाँबरदार नहीं बनाता, बल्कि अपने नबियों और अपनी किताबों के ज़रिए से उनको सीधी राह दिखाने के लिए तालीम देने, नसीहत करने और समझाने-बुझाने का तरीक़ा अपनाता है। इस नसीहत और तालीम को जो शख़्स राज़ी-ख़ुशी क़ुबूल कर ले वह मोमिन है, जो अमली तौर से फ़रमाँबरदार बन जाए वह मुस्लिम, फ़रमाँबरदार और इबादतगुज़ार है, जो परहेज़गारी का रवैया अपना ले वह मुत्तक़ी है, जो नेकियों के कामों में बढ़-चढ़कर हिस्सा ले वह मुहसिन है, और इससे एक क़दम और आगे बढ़कर जो इसी नसीहत और तालीम के ज़रिए से ख़ुदा के बन्दों के सुधार के लिए और कुफ़्र और नाफ़रमानी की जगह अल्लाह की फ़रमाँबरदारी का निज़ाम क़ायम करने के लिए काम करने लगे उसे अल्लाह तआला ख़ुद अपना मददगार क़रार देता है, जैसा कि ऊपर बयान की गई आयतों में कई जगह साफ़ अलफ़ाज़ में कहा गया है। अगर अस्ल मक़सद अल्लाह का नहीं, बल्कि अल्लाह के दीन का मददगार कहना होता तो 'अनसारुल्लाह' (अल्लाह के मददगार) कहने के बजाय 'अनसारु दीनिल्लाह' (अल्लाह के दीन के मददगार) कहा जाता, 'यनसुरूनल्लाह' (अल्लाह की मदद करते हैं) के बजाय ‘यन्सुरू-न दीनल्लाह' (अल्लाह के दीन की मदद करते है) कहा जाता, 'इन तनसुरुल्लाह' (अगर तुम अल्लाह की मदद करोगे) के बजाय ‘इन तनसुरू दीनल्लाह' (अगर तुम अल्लाह के दीन की मदद करोगे) कहा जाता। जब एक बात को कहने के लिए अल्लाह तआला ने एक के बाद एक कई जगहों पर एक ही अन्दाज़े-बयान अपनाया है तो यह इस बात की खुली दलील है कि अस्ल मक़सद ऐसे लोगों को अल्लाह का मददगार ही कहना है। मगर यह 'मददगारी' (अल्लाह की पनाह!) इस मानी में नहीं है कि ये लोग अल्लाह तआला की कोई ज़रूरत पूरी करते हैं, जिसके लिए वह इनकी मदद का मुहताज है, बल्कि यह इस मानी में है कि ये लोग उसी काम में हिस्सा लेते हैं जिसे अल्लाह तआला अपनी ज़बरदस्त क़ुव्वत के ज़रिए से करने के बजाय अपने नबियों और अपनी किताबों के ज़रिए से करना चाहता है।
21. मसीह (अलैहि०) पर ईमान न लानेवालों से मुराद यहूदी, और ईमान लानेवालों से मुराद ईसाई और मुसलमान, दोनों हैं और अल्लाह तआला ने इन दोनों को मसीह (अलैहि०) के इनकार करनेवालों पर ग़लबा (जीत) दिया। इस बात को यहाँ बयान करने का मक़सद मुसलमानों को यह यक़ीन दिलाना है कि जिस तरह पहले हज़रत ईसा (अलैहि०) के माननेवाले उनका इनकार करनेवालों पर ग़ालिब आ चुके हैं, उसी तरह अब मुहम्मद (सल्ल०) के माननेवाले आप (सल्ल०) का इनकार करनेवालों पर ग़ालिब आएँगे।