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سُورَةُ المُلۡكِ

67. अल-मुल्क

(मक्का में उतरी, आयतें 30)

परिचय

नाम

पहले वाक्यांश “तबा-र-कल्लज़ी बियदिहिल मुल्क” अर्थात् “अत्यन्त श्रेष्ठ और उच्च है वह जिसके हाथ में (जगत् का) राज्य (अल मुल्क) है” के शब्द ‘अल-मुल्क' (राज्य) को इस सूरा का नाम दिया गया है।

उतरने का समय

विषय-वस्तुओं और वर्णन-शैली से साफ़ मालूम होता है कि यह मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है।

विषय और वार्ता

इसमें एक ओर संक्षिप्त रूप से इस्लाम की शिक्षाओं का परिचय कराया गया है और दूसरी ओर बड़े प्रभावशाली अन्दाज़ में उन लोगों को चौंकाया गया है जो बेसुध पड़े हुए थे। पहली पाँच आयतों में मनुष्य को यह आभास कराया गया है कि वह जिस जगत् में रहता है वह एक अत्यन्त व्यवस्थित और सुदृढ़ राज्य है। इस राज्य को अनस्तित्व से अस्तित्व अल्लाह ही ने प्रदान किया है और इसके प्रबन्ध एवं व्यवस्था और शासन के सभी अधिकार भी पूरे तौर से अल्लाह ही के हाथ में है। इसके साथ मनुष्य को यह भी बताया गया है कि इस अत्यन्त तत्त्वदर्शिता पर आधारित जगत् में वह निरुद्देश्य नहीं पैदा कर दिया गया है, बल्कि उसे यहाँ परीक्षा के लिए भेजा गया है, और इस परीक्षा में वह अपने अच्छे कर्म द्वारा ही सफल हो सकता है। आयत 6-11 तक कुफ़्र (इनकार) के उन भयावह परिणामों का उल्लेख किया गया है जो परलोक में सामने आनेवाले हैं। आयत 12-14 तक इस तथ्य को मन में बिठाया गया है कि स्रष्टा अपने सृष्ट जीवों से बेखबर नहीं हो सकता। वह तुम्हारी हर खुली और छिपी बात, यहाँ तक कि तुम्हारे मन के विचारों तक को जानता है। अत: नैतिकता का वास्तविक आधार यह है कि मनुष्य उस अलख ईश्वर की पूछगछ से डरकर बुराई से बचे। यह नीति जो लोग अपनाएँगे वही परलोक में कृपा और महान प्रतिदान के अधिकारी होंगे। आयत 15-23 तक सामने के उन सामान्य साधारण तथ्यों की ओर जिन्हें मनुष्य संसार की नित्य व्यवहृत वस्तुएँ (मामूलात) समझकर उन्हें ध्यान देने योग्य नहीं समझता, निरन्तर संकेत करके उनपर सोचने के लिए आमंत्रित किया गया है। [और लोगों की इस बात पर निन्दा की गई है कि] ये सारी वस्तुएँ तुम्हें सत्य का ज्ञान कराने के लिए मौजूद हैं, मगर इन्हें तुम पशुओं की भाँति देखते हो और सुनने और देखने की उस शक्ति और सोचने-समझनेवाले मस्तिष्कों से काम नहीं लेते जो मनुष्य होने की हैसियत से ईश्वर ने तुम्हें दिए हैं। इसी कारण सीधा मार्ग तुम्हें दिखाई नहीं देता। आयत 24-27 तक बताया गया है कि अन्त में तुम्हें अनिवार्यतः अपने ईश्वर की सेवा में उपस्थित होना है। नबी का कार्य यह नहीं है कि तुम्हें उसके [क्रियामत के] आने का समय और तिथि बताए, [जैसा कि तुम इसकी माँग कर रहे हो] । उसका कर्तव्य बस यह है कि तुम्हें उस आनेवाले समय से पहले ही सचेत कर दे। आयत 28-29 में मक्का के उन सत्य-विरोधियों की उन बातों का उत्तर दिया गया है जो वे नबी (सल्ल०) और आपके साथियों के विरुद्ध करते थे। वे नबी (सल्ल०) को कोसते थे और आपके लिए और ईमानवालों के लिए विनाश की प्रार्थनाएँ करते थे। इसपर कहा गया है कि तुम्हें सीधे मार्ग की ओर बुलानेवाले चाहे विनष्ट हों या अल्लाह उनपर दया करे, इससे तुम्हारा भाग्य कैसे बदल जाएगा? तुम अपनी चिन्ता करो। [तुम ईमानवालों को गुमराह समझ रहे हो, एक समय आएगा जब यह बात खुल जाएगी कि वास्तव में गुमराह कौन था? अन्त में लोगों के समक्ष यह प्रश्न रख दिया गया है कि अरब के मरुस्थलों और पर्वतीय क्षेत्रों में जहाँ तुम्हारा जीवन पूर्ण रूप से उस पानी पर निर्भर करता है जो किसी स्थान पर धरती से निकल आया है, वहाँ यदि यह जल धरती में उतरकर विलुप्त हो जाए तो ईश्वर के सिवा कौन तुम्हें यह अमृत जल लाकर दे सकता है?

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سُورَةُ المُلۡكِ
67. अल-मुल्क
بِسۡمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحۡمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
अल्लाह के नाम से जो बेइन्तिहा मेहरबान और रहम फ़रमानेवाला है।
تَبَٰرَكَ ٱلَّذِي بِيَدِهِ ٱلۡمُلۡكُ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيۡءٖ قَدِيرٌ
(1) बहुत ही बुज़ुर्ग और आला है1 वह जिसके हाथ में कायनात की सल्तनत है,2 और वह हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।3
1. ‘तबा-र-क’ ‘बरकत’ को ज़ाहिर करता है। ‘बरकत’ में बुलन्दी और बेइन्तिहा अज़मत (महानता), तरक़्क़ी और फूलना-फलना, पायदारी और जमाव और भलाइयों की बहुतायत के मतलब शामिल हैं। इससे बना लफ़्ज़ ‘तबा-र-क’ इस्तेमाल किया जाए तो उसका मतलब होता है कि वह बेइन्तिहा बुज़ुर्ग और अज़ीम (महान) है, अपने वुजूद, सिफ़ात और कामों में अपने सिवा हर एक से बढ़कर है, बेहद और बेहिसाब भलाइयों का दरिया उसकी तरफ़ से बह रहा है, और उसके कमालात कभी न ख़त्म होनेवाले हैं (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-7 आराफ़, हाशिया-43; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-14; सूरा-25 फ़ुरक़ान, हाशिए—1 और 19)।
2. ‘अल-मुल्क’ का लफ़्ज़ चूँकि बिना किसी से ताल्लुक़ जोड़े अलग से इस्तेमाल हुआ है, इसलिए इसे किसी महदूद (सीमित) मानी में नहीं लिया जा सकता। यक़ीनन इससे मुराद दुनिया की तमाम चीज़ों पर शाहाना इक़तिदार ही हो सकता है। और उसके हाथ में इक़तिदार होने का मतलब यह नहीं है कि वह जिस्मानी हाथ रखता है, बल्कि यह लफ़्ज़ मुहावरे के तौर पर क़ब्ज़े के मानी में इस्तेमाल हुआ है। अरबी की तरह हमारी ज़बान में भी जब यह कहते हैं कि इख़्तियार फ़ुलाँ के हाथ में हैं तो इसका मतलब यह होता है कि वही सारे इख़्तियारात का मालिक है, किसी दूसरे का उसमें दख़ल नहीं है।
3. यानी वह जो कुछ चाहे कर सकता है। कोई चीज़ उसे मजबूर करनेवाली नहीं है कि वह कोई काम करना चाहे और न कर सके।
ٱلَّذِي خَلَقَ ٱلۡمَوۡتَ وَٱلۡحَيَوٰةَ لِيَبۡلُوَكُمۡ أَيُّكُمۡ أَحۡسَنُ عَمَلٗاۚ وَهُوَ ٱلۡعَزِيزُ ٱلۡغَفُورُ ۝ 1
(2) जिसने मौत और ज़िन्दगी को ईजाद किया ताकि तुम लोगों को आज़माकर देखे कि तुममें से कौन बेहतर अमल करनेवाला है,4 और वह ज़बरदस्त भी है और माफ़ करनेवाला भी।5
4. यानी दुनिया में इनसानों के मरने और जीने का यह सिलसिला उसने इसलिए शुरू किया है कि उनका इम्तिहान ले और यह देखे कि किस इनसान का अमल ज़्यादा बेहतर है। इस छोटे-से जुमले में बहुत-सी हक़ीक़तों की तरफ़ इशारा कर दिया गया है। पहली यह कि मौत और ज़िन्दगी उसी की तरफ़ से है, कोई दूसरा न ज़िन्दगी देनेवाला है न मौत देनेवाला। दूसरी यह कि इनसान जैसा एक जानदार, जिसे भलाई और बुराई करने की ताक़त दी गई है, उसकी न ज़िन्दगी बेमक़सद है, न मौत। पैदा करनेवाले ने उसे यहाँ इम्तिहान के लिए पैदा किया है। ज़िन्दगी उसके लिए इम्तिहान की मुहलत है और मौत का मतलब यह है उसके इम्तिहान का वक़्त ख़त्म हो गया। तीसरी यह कि इसी इम्तिहान की ग़रज़ से पैदा करनेवाले (ख़ुदा) ने हर एक को अमल का मौक़ा दिया है, ताकि वह दुनिया में काम करके अपनी अच्छाई या बुराई का इज़हार कर सके और अमली तौर पर यह दिखा दे कि वह कैसा इनसान है। चौथी यह कि पैदा करनेवाला ख़ुदा ही अस्ल में इस बात का फ़ैसला करनेवाला है कि किसका अमल अच्छा है और किसका बुरा। आमाल की अच्छाई और बुराई का पैमाना तय करना इम्तिहान देनेवालों का काम नहीं है, बल्कि इम्तिहान लेनेवाले का काम है। लिहाज़ा जो भी इम्तिहान में कामयाब होना चाहे उसे यह मालूम करना होगा कि इम्तिहान लेनेवाले के नज़दीक अच्छा अमल क्या है। पाँचवाँ नुक्ता (Point) ख़ुद इम्तिहान के मतलब में छिपा है और वह यह कि जिस शख़्स का जैसा अमल होगा उसके मुताबिक़ उसको बदला दिया जाएगा, क्योंकि अगर बदला न हो तो सिरे से इम्तिहान लेने का कोई मतलब ही नहीं रहता।
5. इसके दो मतलब हैं और दोनो ही यहाँ मुराद हैं। एक यह कि वह बेइन्तिहा ज़बरदस्त और सबपर पूरी तरह ग़ालिब (हावी) होने के बावजूद अपने पैदा किए हुओं के हक़ में बहुत रहमदिल और माफ़ करनेवाला है, ज़ालिम और कठोर नहीं है। दूसरा यह कि बुरे अमल करनेवालों को सज़ा देने की वह पूरी क़ुदरत रखता है, किसी में यह ताक़त नहीं कि उसकी सज़ा से बच सके। मगर जो शर्मिन्दा होकर बुराई को छोड़ दे और माफ़ी माँग ले उसके साथ वह माफ़ कर देने का मामला करनेवाला है।
ٱلَّذِي خَلَقَ سَبۡعَ سَمَٰوَٰتٖ طِبَاقٗاۖ مَّا تَرَىٰ فِي خَلۡقِ ٱلرَّحۡمَٰنِ مِن تَفَٰوُتٖۖ فَٱرۡجِعِ ٱلۡبَصَرَ هَلۡ تَرَىٰ مِن فُطُورٖ ۝ 2
(3) जिसने एक-पर-एक सात आसमान बनाए।6 तुम रहमान (मेहरबान ख़ुदा) की पैदाइश में किसी तरह की बेरबती7 न पाओगे। फिर पलटकर देखो, कही तुम्हें कोई ख़लल8 नज़र आता है?
6. तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-34; सूरा-13 रअ्द, हाशिया-2; सूरा-15 हिज्र, हाशिया-8; सूरा-22 हज, हाशिया-113; सूरा-23 मोमिनून, हाशिया-15; सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिया-5; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-90।
7. अस्ल अरबी में ‘तफ़ावुत’ का लफ़्ज़ इस्तेमाल हुआ है जिसका मतलब है तनासुब (सन्तुलन) का न होना। एक चीज़ का दूसरी चीज़ से मेल न खाना। अनमेल या बेजोड़ होना। इसलिए इस बात का मतलब यह है कि पूरी कायनात में तुम कहीं बद-इन्तिज़ामी, बेतरतीबी और बेमेलपन न पाओगे। अल्लाह की पैदा की हुई इस दुनिया में कोई चीज़ अनमेल या बेजोड़ नहीं है। उसके तमाम हिस्से आपस में जुड़े हैं और उनमें पूरी तरह तनासुब (सन्तुलन) पाया जाता है।
8. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘फ़ुतूर’ इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब है दरार, शिगाफ़, फटा हुआ होना, टूटा-फूटा होना। मतलब यह है कि पूरी कायनात की बन्दिश ऐसी चुस्त है, और ज़मीन के एक ज़र्रे से लेकर बड़ी-बड़ी कहकशानों (आकाश-गंगाओं) तक हर चीज़ आपस में ऐसी वाबस्ता है कि कहीं कायनात के निज़ाम का सिलसिला नहीं टूटता। तुम चाहे कितनी ही कोशिश कर लो, तुम्हें इसमें किसी जगह कोई दरार नहीं मिल सकती (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-50 क़ाफ़, हाशिया-8)
ثُمَّ ٱرۡجِعِ ٱلۡبَصَرَ كَرَّتَيۡنِ يَنقَلِبۡ إِلَيۡكَ ٱلۡبَصَرُ خَاسِئٗا وَهُوَ حَسِيرٞ ۝ 3
(4) बार-बार निगाह दौड़ाओ। तुम्हारी निगाह थककर नामुराद पलट आएगी।
وَلَقَدۡ زَيَّنَّا ٱلسَّمَآءَ ٱلدُّنۡيَا بِمَصَٰبِيحَ وَجَعَلۡنَٰهَا رُجُومٗا لِّلشَّيَٰطِينِۖ وَأَعۡتَدۡنَا لَهُمۡ عَذَابَ ٱلسَّعِيرِ ۝ 4
(5) हमने तुम्हारे क़रीब के आसमान9 को अज़ीमुश्शान चराग़ों से सजा दिया है10 और उन्हें शैतानों को मार भगाने का ज़रिआ बना दिया है।11 इन शैतानों के लिए भड़कती हुई आग हमने जुटा रखी है।
9. क़रीब के आसमान से मुराद वह आसमान है जिसके तारों और सय्यारों (ग्रहों) को हम नंगी आँखों से देखते हैं। इससे आगे जिन चीज़ों के देखने के लिए मशीनों (यन्त्रों) की ज़रूरत पड़ती हो वे दूर के आसमान हैं। और उनसे भी ज़्यादा दूर के आसमान वे हैं जिन तक मशीनों की पहुँच भी नहीं है।
10. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘मसाबीह’ नकरा (जातिवाचक) इस्तेमाल हुआ है और इसके नकरा होने से ख़ुद-ब-ख़ुद इन चराग़ों के शानदार होने का मतलब पैदा होता है। कहने का मतलब यह है कि यह कायनात हमने अंधेरी और सुनसान नहीं बनाई है, बल्कि इसे सितारों से ख़ूब सजा दिया है, जिसकी शान और जगमगाहट रात के अंधेरों में देखकर इनसान दंग रह जाता है।
11. इसका यह मतलब नहीं है कि यही तारे शैतानों पर फेंक मारे जाते हैं, और यह मतलब भी नहीं है कि उल्का-पिंड सिर्फ़ शैतानों को मारने ही के लिए गिरते हैं, बल्कि मतलब यह है कि तारों से जो बेहद और बेहिसाब उल्का-पिंड निकलकर कायनात में बहुत तेज़-रफ़्तारी के साथ घूमते रहते हैं, और जिनकी बारिश ज़मीन पर भी हर वक़्त होती रहती है, वे इस बात में रुकावट है कि ज़मीन के शैतान ऊपरी दुनिया में जा सकें। अगर वे ऊपर जाने की कोशिश करें भी तो ये उल्का-पिंड उन्हें मार भगाते हैं। इस चीज़ को बयान करने की ज़रूरत इसलिए पड़ी है कि अरब के लोग काहिनों (ज्योतिषियों) के बारे में यह समझते थे और यही ख़ुद काहिनों का दावा भी था कि शैतान उनके मातहत हैं, या शैतानों से उनका ताल्लुक़ है, और उनके ज़रिए से उन्हें ग़ैब की ख़बरें हासिल होती हैं और वे सही तौर पर लोगों की क़िस्मतों का हाल बता सकते हैं। इसलिए क़ुरआन में कई जगहों पर यह बताया गया है कि शैतानों के ऊपरी दुनिया में जाने और वहाँ से ग़ैब (परोक्ष) की ख़बरें मालूम करने का हरगिज़ कोई इमकान नहीं है। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-15 हिज्र, हाशिए—9 से 12; सूरा-37 साफ़्फ़ात, हाशिए—6, 7) रहा यह सवाल कि इन उल्का-पिंडों की हक़ीक़त क्या है, तो इसके बारे में इनसान की जानकारी इस वक़्त तक किसी सच्चाई का पता लगाने में नाकाम है। फिर भी जितनी भी हक़ीक़तें और वाक़िआत नए ज़माने तक इनसान की जानकारी में आए हैं, और ज़मीन पर गिरे हुए उल्का-पिंडों को देखने से जो मालूमात हासिल की गई हैं, उनकी बुनियाद पर साइंसदानों में सबसे ज़्यादा मशहूर नज़रिया यही है कि ये उल्का-पिंड किसी सय्यारे (ग्रह) के फटने की वजह से निकलकर ख़ला (वायुमण्डल) में घूमते रहते हैं और फिर किसी वक़्त ज़मीनी कशिश (गुरुत्वाकर्षण) के दायरे में आकर इधर का रुख़ कर लेते हैं (देखिए— इंसाइक्लोपेडिया ब्रिटानिका, संस्करण 1967 ई०, हिस्सा-15, लफ़्ज़ Meteorites)।
تَكَادُ تَمَيَّزُ مِنَ ٱلۡغَيۡظِۖ كُلَّمَآ أُلۡقِيَ فِيهَا فَوۡجٞ سَأَلَهُمۡ خَزَنَتُهَآ أَلَمۡ يَأۡتِكُمۡ نَذِيرٞ ۝ 5
(8) ग़ुस्से की शिद्दत से फटी जाती होगी। हर बार जब कोई झुंड (समूह) उसमें डाला जाएगा, उसपर काम करनेवाले (कर्मचारी) उन लोगों से पूछेंगे, “क्या तुम्हारे पास कोई ख़बरदार करनेवाला नहीं आया था?”14
14. यह सवाल अस्ल में सवाल की तरह का नहीं होगा कि जहन्नम के कारिन्दे (कर्मचारी) उन लोगों से यह मालूम करना चाहते हों कि उनके पास अल्लाह तआला की तरफ़ से कोई ख़बरदार करनेवाला (पैग़म्बर) आया था या नहीं, बल्कि इसका मक़सद उनसे इस बात को मनवाना होगा कि उन्हें जहन्नम में डालकर उनके साथ कोई बेइनसाफ़ी नहीं की जा रही है। इसलिए वे ख़ुद उनकी ज़बान से यह इक़रार कराना चाहेंगे कि अल्लाह तआला ने उनको बेख़बर नहीं रखा था, उनके पास पैग़म्बर (अलैहि०) भेजे थे, उनको बता दिया था कि हक़ीक़त क्या है और सीधी राह कौन-सी है, और उनको ख़बरदार कर दिया था कि इस सीधी राह के ख़िलाफ़ चलने का नतीजा इसी जहन्नम का ईंधन बनना होगा जिसमें अब वे झोंके गए हैं। मगर उन्होंने पैग़म्बरों (अलैहि०) की बात न मानी, इसलिए अब जो सज़ा उन्हें दी जा रही है वह सचमुच इसके हक़दार हैं। यह बात क़ुरआन मजीद में बार-बार ज़ेहन में बिठाई गई है कि अल्लाह तआला ने जिस इम्तिहान के लिए दुनिया में इनसान को भेजा है वह इस तरह नहीं लिया जा रहा है कि उसे बिलकुल बेख़बर रखकर यह देखा जा रहा हो कि वह ख़ुद सीधी राह पाता है या नहीं, बल्कि उसे सीधी राह बताने का जो सबसे मुनासिब इन्तिज़ाम हो सकता था वह अल्लाह ने पूरी तरह कर दिया है, और वह यही इन्तिज़ाम है कि पैग़म्बर भेजे गए हैं और किताबें उतारी गई हैं। अब इनसान का सारा इम्तिहान इस बात में है कि वह पैग़म्बरों (अलैहि०) और उनकी लाई हुई किताबों को मानकर सीधा रास्ता अपनाता है या उनसे मुँह मोड़कर ख़ुद अपनी ख़ाहिशों और ख़यालात के पीछे चलता है। इस तरह पैग़म्बरी हक़ीक़त में अल्लाह तआला की वह हुज्जत (दलील) है जो उसने इनसान पर क़ायम कर दी है, और उसी के मानने या न मानने पर इनसान के मुस्तक़बिल (भविष्य) का दारोमदार है। नबियों के आने के बाद कोई शख़्स यह बहाना नहीं कर सकता कि हम हक़ीक़त से आगाह न थे, हमें अंधेरे में रखकर हमको इतने बड़े इम्तिहान में डाल दिया गया, और अब हमें बेक़ुसूर सज़ा दी जा रही है। इस बात को इतनी बार इतने अलग-अलग तरीक़ों से क़ुरआन में बयान किया गया है कि उसका गिनना मुश्किल है। मिसाल के तौर पर देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, आयत-213, हाशिया-230; सूरा-4 निसा, आयतें—41 से 42, हाशिया-64, आयत-165, हाशिया-208; सूरा-6 अनआम, आयतें—130, 131, हाशिए—98 से 100; सूरा-17 बनी-इसराईल, आयत-15, हाशिया-17; सूरा-20 ता-हा, आयत-134; सूरा-28 क़सस, आयत-47, हाशिया-66, आयत-59, हाशिया-83, आयत-65; सूरा-35 फ़ातिर, आयत-37, सूरा-40 मोमिन, आयत-50, हाशिया-66।
قَالُواْ بَلَىٰ قَدۡ جَآءَنَا نَذِيرٞ فَكَذَّبۡنَا وَقُلۡنَا مَا نَزَّلَ ٱللَّهُ مِن شَيۡءٍ إِنۡ أَنتُمۡ إِلَّا فِي ضَلَٰلٖ كَبِيرٖ ۝ 6
(9) वे जवाब देंगे, “हाँ, ख़बरदार करनेवाला हमारे पास आया था, मगर हमने उसे झुठला दिया और कहा अल्लाह ने कुछ भी नहीं उतारा है, तुम बड़ी गुमराही में पड़े हुए हो।”15
15. यानी तुम भी बहके हुए हो और तुमपर ईमान लानेवाले लोग भी सख़्त गुमराही में पड़े हुए हैं।
وَقَالُواْ لَوۡ كُنَّا نَسۡمَعُ أَوۡ نَعۡقِلُ مَا كُنَّا فِيٓ أَصۡحَٰبِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 7
(10) और वे कहेंगे, “काश हम सुनते या समझते16 तो आज इस भड़कती हुई आग की सज़ा पानेवालों में शामिल न होते।”
16. यानी हमने हक़ के तलबगार बनकर नबियों (अलैहि०) की बात को ध्यान से सुना होता, या अक़्ल से काम लेकर यह समझने की कोशिश की होती कि हक़ीक़त में वह बात क्या है जो वे हमारे सामने पेश कर रहे हैं। यहाँ सुनने को समझने से पहले रखा गया है। इसकी वजह यह है कि पहले नबी की तालीम को ध्यान से सुनना (या अगर वह लिखी हुई है तो हक़ के तलबगार बनकर उसे पढ़ना) हिदायत पाने के लिए पहली शर्त है। उसपर ग़ौर करके हक़ीक़त को समझने की कोशिश करने का नम्बर इसके बाद आता है। नबी की रहनुमाई के बिना अपनी अक़्ल से अपने तौर पर काम लेकर इनसान सीधे तौर पर हक़ तक नहीं पहुँच सकता।
فَٱعۡتَرَفُواْ بِذَنۢبِهِمۡ فَسُحۡقٗا لِّأَصۡحَٰبِ ٱلسَّعِيرِ ۝ 8
(11) इस तरह वे अपने क़ुसूर17 को ख़ुद मान लेंगे, लानत है इन जहन्नमियों पर।
17. अस्ल अरबी में ‘ज़ंब’ इस्तेमाल हुआ है, जिसका तर्जमा ‘क़ुसूर’ किया गया है। यह लफ़्ज़ वाहिद (एकवचन) इस्तेमाल हुआ है। इसका मतलब यह है कि अस्ल क़ुसूर, जिसकी वजह से वे जहन्नम के हक़दार हुए, रसूलों का झुठलाना और उनकी पैरवी से इनकार करना है। बाक़ी सारे गुनाह उसी की शाखाएँ हैं।
إِنَّ ٱلَّذِينَ يَخۡشَوۡنَ رَبَّهُم بِٱلۡغَيۡبِ لَهُم مَّغۡفِرَةٞ وَأَجۡرٞ كَبِيرٞ ۝ 9
(12) जो लोग बे-देखे अपने रब से डरते हैं,18 यक़ीनन उनके लिए माफ़ी है और बड़ा बदला।19
18. ख़ुदा को “बिना देखे उससे डरना” यह बात इस्लामी अख़लाक़ की अस्ल है। किसी का बुराई से इसलिए बचना कि उसकी निजी राय में वह बुराई है, या दुनिया उसे बुरा समझती है, या उसके करने से दुनिया में कोई नुक़सान पहुँचने का अन्देशा है, या उसपर किसी दुनियावी ताक़त की पकड़ का ख़तरा है, यह अख़लाक़ के लिए बहुत ही कमज़ोर बुनियाद है। आदमी की निजी राय ग़लत भी हो सकती है, वह अपने किसी फ़लसफ़े (दर्शन) की वजह से एक अच्छी चीज़ को बुरा और एक बुरी चीज़ को अच्छा समझ सकता है। दुनिया के भलाई-बुराई नापने के पैमाने पहले तो एक जैसे नहीं हैं, फिर वे वक़्त-वक़्त पर बदलते भी रहते हैं, कोई आलमगीर और हमेशा क़ायम रहनेवाला पैमाना दुनिया के अख़लाक़ी फ़लसफ़ों में न आज पाया जाता है, न कभी पाया गया है। दुनियावी नुक़सान का अन्देशा भी अख़लाक़ के लिए कोई मुस्तक़िल बुनियाद नहीं देता। जो शख़्स बुराई से इसलिए बचता हो कि वह दुनिया में उसकी ज़ात पर पड़नेवाले किसी नुक़सान से डरता है वह ऐसी हालत में उसको करने से रुक नहीं सकता जबकि उससे कोई नुक़सान पहुँचने का अन्देशा न हो। इसी तरह किसी दुनियावी ताक़त की पकड़ का ख़तरा भी वह चीज़ नहीं है जो इनसान को एक शरीफ़ इनसान बना सकती हो। हर कोई जानता है कि कोई दुनियावी ताक़त भी तमाम खुली और छिपी हक़ीक़तों की जाननेवाली नहीं है। बहुत-से जुर्म उसकी निगाह से बचकर किए जा सकते हैं। और हर दुनियावी ताक़त की पकड़ से बचने की अनगिनत तदबीरें हो सकती हैं। फिर किसी दुनियावी ताक़त के क़ानून भी तमाम बुराइयों को अपने दायरे में नहीं समेटते। ज़्यादातर बुराइयाँ ऐसी हैं जिनपर दुनियावी क़ानून कोई पकड़ सिरे से करते ही नहीं, हालाँकि वे उन बुराइयों से ज़्यादा बुरी हैं जिनपर वे पकड़ करते हैं। इसलिए सच्चे दीन (इस्लाम) ने अख़लाक़ की पूरी इमारत इस बुनियाद पर खड़ी की है कि उस अनदेखे ख़ुदा से डरकर बुराई से बचा जाए जो हर हाल में इनसान को देख रहा है, जिसकी पकड़ से इनसान बचकर कहीं नहीं जा सकता, जिसने भलाई-बुराई का एक हमागीर (व्यापक), आलमगीर और मुस्तक़िल मेयार (पैमाना) इनसान को दिया है। उसी के डर से बुराई को छोड़ना और नेकी को अपनाना वह अस्ल भलाई है जो दीन की निगाह में क़ाबिले-क़द्र है। इसके सिवा किसी दूसरी वजह से अगर कोई इनसान बुरा काम नहीं करता, या अपनी ज़ाहिरी शक्ल के एतिबार से जो काम नेकी में गिने जाते हैं उनको अपनाता है, तो आख़िरत में उसके ये अख़लाक़ कुछ भी क़द्र और वज़्‌न के हक़दार न होंगे, क्योंकि उनकी मिसाल उस इमारत की-सी है जो रेत पर बनी हो।
19. यानी ख़ुदा से बिन देखे डरने के दो लाज़िमी नतीजे हैं। एक यह कि जो क़ुसूर भी इनसानी कमज़ोरियों की वजह से आदमी से हो गए हैं वे माफ़ कर दिए जाएँगे, शर्त यह है कि उनकी तह में ख़ुदा से निडरता काम न कर रही हो। दूसरे यह कि जो नेक आमाल भी इनसान इस अक़ीदे के साथ अंजाम देगा उसपर वह बड़ा बदला पाएगा।
وَأَسِرُّواْ قَوۡلَكُمۡ أَوِ ٱجۡهَرُواْ بِهِۦٓۖ إِنَّهُۥ عَلِيمُۢ بِذَاتِ ٱلصُّدُورِ ۝ 10
(13) तुम चाहे चुपके से बात करो या ऊँची आवाज़ से (अल्लाह के लिए बराबर है), वह तो दिलों का हाल तक जानता है।20
20. यह बात तमाम इनसानों को सुनाते हुए कही गई है, चाहे वे ईमानवाले हों या इनकारी। ईमानवाले के लिए इसमें यह नसीहत है कि उसे दुनिया में ज़िन्दगी गुज़ारते हुए हर वक़्त यह एहसास अपने ज़ेहन में ताज़ा रखना चाहिए कि उसकी खुली-छिपी बातें और आमाल ही नहीं, उसकी नीयतें और उसके ख़यालात तक अल्लाह से छिपे नहीं हैं। और ग़ैर-ईमानवाले के लिए इसमें यह तंबीह (चेतावनी) है कि वह अपनी जगह ख़ुदा से निडर होकर जो कुछ चाहे करता रहे, उसकी कोई बात अल्लाह की पकड़ से छूटी नहीं रह सकती।
أَلَا يَعۡلَمُ مَنۡ خَلَقَ وَهُوَ ٱللَّطِيفُ ٱلۡخَبِيرُ ۝ 11
(14) क्या वही न जानेगा जिसने पैदा किया है?21 हालाँकि वह बहुत छोटी-से-छोटी चीज़ तक को देख लेनेवाला और बाख़बर है।22
21. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “क्या वह अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) ही को न जानेगा?” अस्ल में अरबी लफ़्ज़ ‘मन ख़-ल-क़’ इस्तेमाल हुआ है। इसका मतलब “जिसने पैदा किया है” भी हो सकता है और “जिसको उसने पैदा किया है” भी। दोनों सूरतों में मतलब एक ही रहता है। यह दलील है उस बात की जो ऊपर के जुमले में कही गई है। यानी आख़िर यह कैसे मुमकिन है कि पैदा करनेवाला अपनी मख़लूक़ (सृष्टि) से बेख़बर हो? मख़लूक़़ ख़ुद अपने-आपसे बेख़बर हो सकती है, मगर पैदा करनेवाला उससे बेख़बर नहीं हो सकता। तुम्हारी रग-रग उसने बनाई है। तुम्हारे दिलो-दिमाग़ का एक-एक रेशा उसका बनाया हुआ है। तुम्हारी हर साँस उसके जारी रखने से जारी है। तुम्हारे जिस्म का हर हिस्सा उसकी तदबीर से काम कर रहा है। उससे तुम्हारी कोई बात कैसे छिपी रह सकती है?
22. अस्ल अरबी में लफ़्ज़ ‘लतीफ़’ इस्तेमाल हुआ है, जिसका मतलब गै़र-महसूस तरीक़े से काम करनेवाला भी है और छिपी हक़ीक़तों को जाननेवाला भी।
هُوَ ٱلَّذِي جَعَلَ لَكُمُ ٱلۡأَرۡضَ ذَلُولٗا فَٱمۡشُواْ فِي مَنَاكِبِهَا وَكُلُواْ مِن رِّزۡقِهِۦۖ وَإِلَيۡهِ ٱلنُّشُورُ ۝ 12
(15) वही तो है जिसने तुम्हारे लिए ज़मीन को ख़िदमत में लगा रखा है, चलो उसकी छाती पर और खाओ अल्लाह की रोज़ी,23 उसी के सामने तुम्हें दोबारा ज़िन्दा होकर जाना है।24
23. यानी यह ज़मीन तुम्हारी ख़िदमत में आप-से-आप नहीं लग गई है और वह रोज़ी जो तुम खा रहे हो ख़ुद-ब-ख़ुद यहाँ पैदा नहीं हो गई है, बल्कि अल्लाह ने अपनी हिकमत और क़ुदरत से इसको ऐसा बनाया है कि यहाँ तुम्हारी ज़िन्दगी मुमकिन हुई और यह धरती का ऐसा अज़ीमुश्शान गोला ऐसा पुरसुकून बन गया कि तुम इत्मीनान से इसपर चल-फिर रहे हो और नेमतों का ऐसा दस्तरख़ान बन गया कि इसमें तुम्हारे लिए ज़िन्दगी गुज़ारने का बेहद और बेहिसाब सरो-सामान मौजूद है। अगर तुम ग़फ़लत में न पड़ो और कुछ होश से काम लेकर देखो तो तुम्हें मालूम हो कि इस ज़मीन को तुम्हारी ज़िन्दगी के क़ाबिल बनाने और इसके अन्दर रोज़ी के अथाह ख़ज़ाने इकट्ठे कर देने में कितनी हिकमतें काम कर रही हैं। (तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-27 नम्ल, हाशिए—73, 74, 81; सूरा-36 या-सीन, हाशिए—29, 32; सूरा-40 मोमिन, हाशिए—90, 91; सूरा-43 ज़ुख़रुफ़, हाशिया-7; सूरा-45 जासिया, हाशिया-7; सूरा-50 क़ाफ़, हाशिया-18)
24. यानी इस ज़मीन पर चलते-फिरते और ख़ुदा की दी हुई रोज़ी खाते हुए इस बात को न भूलो कि आख़िरकार तुम्हें एक दिन ख़ुदा के सामने हाज़िर होना है।
ءَأَمِنتُم مَّن فِي ٱلسَّمَآءِ أَن يَخۡسِفَ بِكُمُ ٱلۡأَرۡضَ فَإِذَا هِيَ تَمُورُ ۝ 13
(16) क्या तुम इससे निडर हो कि वह जो आसमान में है25 तुम्हें ज़मीन में धँसा दे और यकायक यह ज़मीन झकोले खाने लगे?
25. इसका यह मतलब नहीं है कि अल्लाह तआला आसमान में रहता है, बल्कि यह बात इस लिहाज़ से कही गई है कि इनसान फ़ितरी तौर पर जब ख़ुदा से रुजू करना चाहता है तो आसमान की तरफ़ देखता है। दुआ माँगता है तो आसमान की तरफ़ हाथ उठाता है। किसी आफ़त के मौक़े पर सब सहारों से मायूस होता है तो आसमान की तरफ़ मुँह करके ख़ुदा से फ़रियाद करता है। कोई अचानक मुसीबत आ पड़ती है तो कहता है यह ऊपर से आई है। ग़ैर-मामूली तौर पर हासिल होनेवाली चीज़ के बारे में कहता है कि यह ऊपरी दुनिया से आई है। अल्लाह तआला की भेजी हुई किताबों को कुतुबे-समाविया (आसमानी किताबें) कहा जाता है। हदीस की किताब अबू-दाऊद में हज़रत अबू-हुरैरा (रज़ि०) की रिवायत है कि एक शख़्स काली लौंडी को लेकर अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की ख़िदमत में हाज़िर हुआ और अर्ज़ किया कि मुझपर एक मोमिन ग़ुलाम आज़ाद करना वाजिब हो गया है, क्या मैं इस लौंडी को आज़ाद कर सकता हूँ? नबी (सल्ल०) ने उस लौंडी से पूछा, “अल्लाह कहाँ है?” उसने उँगली से आसमान की तरफ़ इशारा कर दिया। नबी (सल्ल०) ने पूछा, “और मैं कौन हूँ?” उसने पहले आप (सल्ल०) की तरफ़ और फिर आसमान की तरफ़ इशारा किया, जिससे उसका यह मतलब ज़ाहिर हो रहा था कि आप अल्लाह की तरफ़ से आए हैं। इसपर नबी (सल्ल०) ने फ़रमाया, “इसे आज़ाद कर दो, यह ईमान रखती है।” (इसी से मिलता-जुलता क़िस्सा हदीस की दूसरी किताबों मुवत्ता, मुस्लिम और नसई में भी रिवायत हुआ है)। हज़रत ख़ौला-बिन्ते-सालबा के बारे में हज़रत उमर (रज़ि०) ने एक बार लोगों से कहा, “यह वह औरत हैं जिनकी शिकायत सात आसमानों पर सुनी गई” (तफ़सीर सूरा-58 मुजादला, हाशिया-2 में हम इसकी तफ़सील नक़्ल कर चुके हैं)। इन सारी बातों से ज़ाहिर होता है कि यह बात कुछ इनसान की फ़ितरत ही में है कि वह जब ख़ुदा का तसव्वुर करता है तो उसका ज़ेहन नीचे ज़मीन की तरफ़ नहीं, बल्कि ऊपर आसमान की तरफ़ जाता है। इसी बात का ख़याल रखकर यहाँ अल्लाह तआला के बारे में ‘मन फ़िस-समाइ’ (वह जो आसमान में है) के अलफ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। इसमें इस शक व शुब्हे की कोई गुंजाइश नहीं है कि क़ुरआन अल्लाह तआला को आसमान में ठहरा हुआ बताता है। यह शक आख़िर कैसे पैदा हो सकता है जबकि इसी सूरा-67 मुल्क की शुरुआत में कहा जा चुका है कि “जिसने एक पर एक सात आसमान बनाए।” और सूरा-2 बक़रा में कहा गया है, “इसलिए तुम जिधर भी रुख़ करो उस तरफ़ अल्लाह का रुख़ है।”
أَمۡ أَمِنتُم مَّن فِي ٱلسَّمَآءِ أَن يُرۡسِلَ عَلَيۡكُمۡ حَاصِبٗاۖ فَسَتَعۡلَمُونَ كَيۡفَ نَذِيرِ ۝ 14
(17) क्या तुम इससे निडर हो कि वह जो आसमान में है तुमपर पथराव करनेवाली हवा भेज दे?26 फिर तुम्हें मालूम हो जाएगा कि मेरा डरावा कैसा होता है।27
26. मुराद यह ज़ेहन में बिठाना है कि इस ज़मीन पर तुम्हारे बाक़ी रहने और तुम्हारी सलामती का दारोमदार हर वक़्त अल्लाह तआला की मेहरबानी पर है। अपने बल-बूते पर तुम यहाँ मज़े से नहीं दनदना रहे हो। तुम्हारी ज़िन्दगी का एक-एक पल जो यहाँ गुज़र रहा है, अल्लाह की हिफ़ाज़त और देखभाल ही की वजह से गुज़र रहा है। वरना किसी वक़्त भी उसके एक इशारे से एक ज़लज़ला ऐसा आ सकता है कि यही ज़मीन तुम्हारे लिए माँ की गोद के बजाय क़ब्र का गढ़ा बन जाए, या हवा का ऐसा तूफ़ान आ सकता है जो तुम्हारी बस्तियों को तबाह करके रख दे।
27. तंबीह (चेतावनी) से मुराद वह तंबीह है जो अल्लाह के रसूल (सल्ल०) और क़ुरआन पाक के ज़रिए से मक्का के इस्लाम-दुश्मनों को की जा रही थी कि अगर कुफ़्र और शिर्क न छोड़ोगे और इस तौहीद (एकेश्वरवाद) की दावत को न मानोगे जो तुम्हें दी जा रही है तो अल्लाह के अज़ाब में गिरफ़्तार हो जाओगे।
وَلَقَدۡ كَذَّبَ ٱلَّذِينَ مِن قَبۡلِهِمۡ فَكَيۡفَ كَانَ نَكِيرِ ۝ 15
(18) इनसे पहले गुज़रे हुए लोग झुठला चुके हैं। फिर देख लो कि मेरी पकड़ कैसी सख़्त थी।28
28. इशारा है उन क़ौमों की तरफ़ जो अपने यहाँ आनेवाले नबियों को झुठलाकर इससे पहले अज़ाब में मुब्तला हो चुकी थीं।
أَوَلَمۡ يَرَوۡاْ إِلَى ٱلطَّيۡرِ فَوۡقَهُمۡ صَٰٓفَّٰتٖ وَيَقۡبِضۡنَۚ مَا يُمۡسِكُهُنَّ إِلَّا ٱلرَّحۡمَٰنُۚ إِنَّهُۥ بِكُلِّ شَيۡءِۭ بَصِيرٌ ۝ 16
(19) क्या ये लोग अपने ऊपर उड़नेवाले परिन्दों को पर फैलाए और सिकोड़ते नहीं देखते? रहमान (मेहरबान ख़ुदा) के सिवा कोई नहीं जो उन्हें थामे हुए हो।29 वही हर चीज़ का निगहबान है।30
29. यानी एक-एक परिन्दा जो हवा में उड़ रहा है, इन्तिहाई मेहरबान ख़ुदा की हिफ़ाज़त में उड़ रहा है। उसी ने हर परिन्दे को वह बनावट दी है जिससे वह उड़ने के क़ाबिल हुआ। उसी ने हर परिन्दे को उड़ने का तरीक़ा सिखाया। उसी ने हवा को उन क़ानूनों का पाबन्द किया जिनकी बदौलत हवा से ज़्यादा भारी जिस्म रखनेवाली चीज़ों का उसमें उड़ना मुमकिन हुआ। और वही हर उड़नेवाले को फ़ज़ा में थामे हुए है, वरना जिस वक़्त भी अल्लाह अपनी हिफ़ाज़त उससे हटा ले, वह ज़मीन पर आ रहे।
30. यानी कुछ परिन्दों ही की बात नहीं, जो चीज़ भी दुनिया में मौजूद है अल्लाह की निगहबानी की बदौलत मौजूद है। वही हर चीज़ के लिए वे असबाब (साधन) जुटा रहा है जो उसके वुजूद के लिए दरकार हैं, और वही इस बात की निगरानी कर रहा है कि उसके पैदा किए हुए हर जानदार को उसकी ज़रूरत की चीज़ें पहुँच जाएँ।
أَمَّنۡ هَٰذَا ٱلَّذِي هُوَ جُندٞ لَّكُمۡ يَنصُرُكُم مِّن دُونِ ٱلرَّحۡمَٰنِۚ إِنِ ٱلۡكَٰفِرُونَ إِلَّا فِي غُرُورٍ ۝ 17
(20) बताओ, आख़िर वह कौन-सा लश्कर तुम्हारे पास है जो रहमान के मुक़ाबले में तुम्हारी मदद कर सकता है?31 हक़ीक़त यह है कि ये इनकार करनेवाले धोखे में पड़े हुए हैं।
31. दूसरा तर्जमा यह भी हो सकता है कि “रहमान (मेहरबान ख़ुदा) के सिवा वह कौन है जो तुम्हारा लश्कर बना हुआ तुम्हारी मदद करता हो।” हमने आयत का जो तर्जमा किया है वह आगे के जुमले से मेल खाता है, और इस दूसरे तर्जमे का जोड़ बात के पिछले सिलसिले से है।
أَمَّنۡ هَٰذَا ٱلَّذِي يَرۡزُقُكُمۡ إِنۡ أَمۡسَكَ رِزۡقَهُۥۚ بَل لَّجُّواْ فِي عُتُوّٖ وَنُفُورٍ ۝ 18
(21) या फिर बताओ, कौन है जो तुम्हें रोज़ी दे सकता है अगर रहमान अपनी रोज़ी रोक ले? अस्ल में ये लोग सरकशी और हक़ से मुँह मोड़ने पर अड़े हुए हैं।
أَفَمَن يَمۡشِي مُكِبًّا عَلَىٰ وَجۡهِهِۦٓ أَهۡدَىٰٓ أَمَّن يَمۡشِي سَوِيًّا عَلَىٰ صِرَٰطٖ مُّسۡتَقِيمٖ ۝ 19
(22) भला सोचो, जो शख़्स मुँह औंधाए चल रहा हो32 वह ज़्यादा सही राह पानेवाला है या वह जो सिर उठाए सीधा एक हमवार (समतल) सड़क पर चल रहा हो?
32. यानी जानवरों की तरह मुँह नीचा किए हुए उसी डगर पर चला जा रहा हो जिसपर किसी ने उसे डाल दिया हो।
قُلۡ هُوَ ٱلَّذِيٓ أَنشَأَكُمۡ وَجَعَلَ لَكُمُ ٱلسَّمۡعَ وَٱلۡأَبۡصَٰرَ وَٱلۡأَفۡـِٔدَةَۚ قَلِيلٗا مَّا تَشۡكُرُونَ ۝ 20
(23) इनसे कहो, अल्लाह ही है जिसने तुम्हें पैदा किया, तुमको सुनने और देखने की ताक़तें दीं और सोचने-समझनेवाले दिल दिए, मगर तुम कम ही शुक्र अदा करते हो।33
33. यानी अल्लाह ने तो तुम्हें इनसान बनाया था, जानवर नहीं बनाया था। तुम्हारा काम यह नहीं था कि जो गुमराही भी दुनिया में फैली हुई हो उसके पीछे आँखें बन्द करके चल पड़ो और कुछ न सोचो कि जिस राह पर तुम जा रहे हो वह सही भी है या नहीं। ये कान तुम्हें इसलिए तो नहीं दिए गए थे कि जो शख़्स तुम्हें सही और ग़लत का फ़र्क़ समझाने की कोशिश करे उसकी बात सुनो ही नहीं और जो ग़लत-सलत बातें पहले से तुम्हारे दिमाग़ में बैठी हुई हैं उन्हीं पर अड़े रहो। ये आँखें तुम्हें इसलिए तो नहीं दी गई थीं कि अन्धे बनकर दूसरों की पैरवी करते रहो और ख़ुद अपनी आँखों की रौशनी से काम न लेकर यह न देखो कि ज़मीन से आसमान तक हर तरफ़ जो निशानियाँ फैली हुई हैं वे क्या उस तौहीद (एकेश्वरवाद) की गवाही दे रही हैं जिसे ख़ुदा का रसूल पेश कर रहा है या यह गवाही दे रही हैं कि कायनात का यह सारा निज़ाम बिना किसी ख़ुदा के है या बहुत-से ख़ुदा इसको चला रहे हैं। इसी तरह यह दिल व दिमाग़ भी तुम्हें इसलिए नहीं दिए गए थे कि तुम सोचने-समझने का काम दूसरों के हवाले करके हर उस तरीक़े की पैरवी करने लगो जो दुनिया में किसी ने जारी कर दिया है और अपनी अक़्ल से काम लेकर यह सोचने की कोई तकलीफ़ गवारा न करो कि वह ग़लत है या सही। अल्लाह ने इल्म, अक़्ल और सुनने-देखने की ये नेमतें तुम्हें हक़ पहचानने के लिए दी थीं। तुम नाशुक्री कर रहे हो कि इनसे और सारे काम तो लेते हो, मगर बस वही एक काम नहीं लेते जिसके लिए यह दी गई थीं (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-16 नह्ल, हाशिए—72, 73; सूरा-23 मोमिनून, हाशिए—75, 76; सूरा-32 सजदा, हाशिए—17, 18; सूरा-46 अहक़ाफ़, हाशिया-31)
قُلۡ هُوَ ٱلَّذِي ذَرَأَكُمۡ فِي ٱلۡأَرۡضِ وَإِلَيۡهِ تُحۡشَرُونَ ۝ 21
(24) इनसे कहो, अल्लाह ही है जिसने तुम्हें ज़मीन में फैलाया है और उसी की तरफ़ तुम समेटे जाओगे।34
34. यानी मरने के बाद दोबारा ज़िन्दा करके ज़मीन के हर हिस्से से घेर लाए जाओगे और उसके सामने हाज़िर कर दिए जाओगे।
وَيَقُولُونَ مَتَىٰ هَٰذَا ٱلۡوَعۡدُ إِن كُنتُمۡ صَٰدِقِينَ ۝ 22
(25) ये कहते हैं, “अगर तुम सच्चे हो तो बताओ यह वादा कब पूरा होगा?”35
35. यह सवाल इस मक़सद के लिए न था कि वे क़ियामत का वक़्त और उसकी तारीख़ मालूम करना चाहते थे और इस बात के लिए तैयार थे कि अगर उन्हें उसके आने का साल, महीना, दिन और वक़्त बता दिया जाए तो वे उसे मान लेंगे। बल्कि अस्ल में वह उसके आने को नामुमकिन और अक़्ल से परे समझते थे और यह सवाल इसलिए करते थे कि उसे झुठलाने का एक बहाना उनके हाथ आ जाए। उनका मतलब यह था कि आख़िरत में इकट्ठा होने की यह अजीब व ग़रीब कहानी जो तुम हमें सुना रहे हो आख़िर यह कब सच होगी? उसे किस वक़्त तक के लिए उठा रखा गया है? हमारी आँखों के सामने लाकर उसे दिखा क्यों नहीं देते कि हमें उसका यक़ीन आ जाए? इस सिलसिले में यह बात अच्छी तरह समझ लेनी चाहिए कि कोई शख़्स अगर क़ियामत को मान सकता है तो अक़्ली दलीलों से मान सकता है, और क़ुरआन में जगह-जगह वे दलीलें तफ़सील के साथ दे दी गई हैं। रही उसकी तारीख़, तो क़ियामत की बहस में उसका सवाल उठाना एक जाहिल आदमी ही का काम हो सकता है। क्योंकि अगर मान लीजिए वह बता भी दी जाए तो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इनकार करनेवाला यह कह सकता है कि जब वह तुम्हारी बताई हुई तारीख़ पर आ जाएगी तो मान लूँगा, आज आख़िर मैं कैसे यक़ीन कर लूँ कि वह उस दिन ज़रूर आ जाएगी (और ज़्यादा तशरीह के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-31 लुक़मान, हाशिया-63; सूरा-33 अहज़ाब, हाशिया-116; सूरा-34 सबा, हाशिए—5, 48; सूरा-36 या-सीन, हाशिया-45)।
قُلۡ إِنَّمَا ٱلۡعِلۡمُ عِندَ ٱللَّهِ وَإِنَّمَآ أَنَا۠ نَذِيرٞ مُّبِينٞ ۝ 23
(26) कहो, “इसका इल्म तो अल्लाह के पास है, मैं तो बस साफ़-साफ़ ख़बरदार कर देनेवाला हूँ।”36
36. यानी यह तो मुझे मालूम है कि वह ज़रूर आएगी, और लोगों को उसके आने से पहले ख़बरदार कर देने के लिए यही जानना काफ़ी है। रही यह बात कि वह कब आएगी, तो इसका इल्म अल्लाह को है, मुझे नहीं है, और ख़बरदार करने के लिए इस इल्म की कोई ज़रूरत नहीं। इस मामले को एक मिसाल से अच्छी तरह समझा जा सकता है। यह बात कि कौन शख़्स कब मरेगा, अल्लाह के सिवा किसी को मालूम नहीं। अलबत्ता यह हमें मालूम है कि हर शख़्स को एक दिन मरना है। हमारा यह इल्म इस बात के लिए काफ़ी है कि हम अपने किसी लापरवाह दोस्त को यह तंबीह करें कि वह मरने से पहले अपनी भलाई की हिफ़ाज़त का इन्तिज़ाम कर ले। इस तंबीह के लिए यह जानना ज़रूरी नहीं है कि वह किस दिन मरेगा।
فَلَمَّا رَأَوۡهُ زُلۡفَةٗ سِيٓـَٔتۡ وُجُوهُ ٱلَّذِينَ كَفَرُواْ وَقِيلَ هَٰذَا ٱلَّذِي كُنتُم بِهِۦ تَدَّعُونَ ۝ 24
(27) फिर जब ये उस चीज़ को क़रीब देख लेंगे तो उन सब लोगों के चेहरे बिगड़ जाएँगे जिन्होंने इनकार किया है,37 और उस वक़्त इनसे कहा जाएगा कि यही है वह चीज़ जिसकी तुम माँग कर रहे थे।
37. यानी उनका वही हाल होगा जो फाँसी के तख़्ते की तरफ़ ले जाए जानेवाले किसी मुजरिम का होता है।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَهۡلَكَنِيَ ٱللَّهُ وَمَن مَّعِيَ أَوۡ رَحِمَنَا فَمَن يُجِيرُ ٱلۡكَٰفِرِينَ مِنۡ عَذَابٍ أَلِيمٖ ۝ 25
(28) इनसे कहो, कभी तुमने यह भी सोचा कि अल्लाह चाहे मुझे और मेरे साथियों को हलाक कर दे या हमपर रहम करे, इनकारियों को दर्दनाक अज़ाब से कौन बचा लेगा?38
38. मक्का में जब अल्लाह के रसूल (सल्ल०) की दावत की शुरुआत हुई और क़ुरैश के अलग-अलग ख़ानदानों से ताल्लुक़ रखनेवाले लोगों ने इस्लाम क़बूल करना शुरू कर दिया तो घर-घर नबी (सल्ल०) और आप (सल्ल०) के साथियों को बद्दुआएँ दी जाने लगीं। जादू-टोने किए जाने लगे ताकि आप (सल्ल०) हलाक हो जाएँ। यहाँ तक कि क़त्ल की स्कीमें भी बनाई जाने लगीं। इसपर यह कहा गया कि इनसे कहो, चाहे हम हलाक हों या ख़ुदा की मेहरबानी से ज़िन्दा रहें, इससे तुम्हें क्या हासिल होगा? तुम अपनी फ़िक्र करो कि ख़ुदा के अज़ाब से तुम कैसे बचोगे।
قُلۡ هُوَ ٱلرَّحۡمَٰنُ ءَامَنَّا بِهِۦ وَعَلَيۡهِ تَوَكَّلۡنَاۖ فَسَتَعۡلَمُونَ مَنۡ هُوَ فِي ضَلَٰلٖ مُّبِينٖ ۝ 26
(29) इनसे कहो, वह बड़ा रहम करनेवाला है, उसी पर हम ईमान लाए हैं, और उसी पर हमारा भरोसा है,39 बहुत जल्द तुम्हें मालूम हो जाएगा कि खुली गुमराही में पड़ा हुआ कौन है।
39. यानी हम ख़ुदा पर ईमान लाए हैं और तुम इससे इनकार कर रहे हो, हमारा भरोसा ख़ुदा पर है और तुम्हारा अपने जत्थों और अपने वसाइल (संसाधनों) और अपने अल्लाह को छोड़कर दूसरे माबूदों पर। इसलिए ख़ुदा की रहमत के हक़दार हम ही हो सकते हैं, न कि तुम।
قُلۡ أَرَءَيۡتُمۡ إِنۡ أَصۡبَحَ مَآؤُكُمۡ غَوۡرٗا فَمَن يَأۡتِيكُم بِمَآءٖ مَّعِينِۭ ۝ 27
(30) इनसे कहो, कभी तुमने यह भी सोचा कि अगर तुम्हारे कुँओं का पानी ज़मीन में उतर जाए तो कौन है जो इस पानी की बहती हुई सोतें (स्रोत) तुम्हें निकालकर ला देगा?40
40. यानी क्या ख़ुदा के सिवा किसी में यह ताक़त है कि पानी के इन सोतों (स्रोतों) को फिर से जारी कर दे? अगर नहीं है, और तुम जानते हो कि नहीं है, तो फिर इबादत का हक़दार ख़ुदा है, या तुम्हारे वे माबूद जो उन्हें जारी करने की कोई क़ुदरत नहीं रखते? इसके बाद तुम ख़ुद अपने ज़मीर से पूछो कि गुमराह एक ख़ुदा को माननेवाले हैं या वे जो बहुत-से ख़ुदाओं को मानते हैं?
وَلِلَّذِينَ كَفَرُواْ بِرَبِّهِمۡ عَذَابُ جَهَنَّمَۖ وَبِئۡسَ ٱلۡمَصِيرُ ۝ 28
(6) जिन लोगों ने अपने रब से कुफ़्र किया है12 उनके लिए जहन्नम का अज़ाब है, और वह बहुत ही बुरा ठिकाना है।
12. यानी इनसान हों या शैतान, जिन लोगों ने भी अपने रब से इनकार का रवैया अपनाया है उनका यह अंजाम है (रब से इनकार का रवैया अपनाने का मतलब जानने के लिए देखिए— तफ़हीमुल-क़ुरआन, सूरा-2 बक़रा, हाशिया-161; सूरा-4 निसा, हाशिया-178; सूरा-18 कह्फ़, हाशिया-39; सूरा-40 मोमिन, हाशिया-3)।
إِذَآ أُلۡقُواْ فِيهَا سَمِعُواْ لَهَا شَهِيقٗا وَهِيَ تَفُورُ ۝ 29
(7) जब वे उसमें फेंके जाएँगे तो उसके दहाड़ने की हौलनाक आवाज़ सुनेंगे13 और वह जोश खा रही होगी,
13. अस्ल में लफ़्ज़ ‘शहीक़’ इस्तेमाल हुआ है जो गधे की-सी आवाज़ के लिए बोला जाता है। इस जुमले का मलतब यह भी हो सकता है कि यह ख़ुद जहन्नम की आवाज़ होगी, और यह भी हो सकता है कि यह आवाज़ जहन्नम से आ रही होगी, जहाँ उन लोगों से पहले गिरे हुए लोग चीख़ें मार रहे होंगे। इस दूसरे मतलब की ताईद सूरा-11 हूद की आयत-106 से होती है जिसमें कहा गया है कि जहन्नम में ये जहन्नमी लोग “हाँफेंगे और फ़ुँकारे मारेंगे।” और पहले मतलब की ताईद सूरा-25 फ़ुरक़ान, आयत-12 से होती है जिसमें कहा गया है कि जहन्नम में जाते हुए ये लोग दूर ही से उसके ग़ुस्से और जोश की आवाज़ें सुनेंगे। इस बिना पर सही यह है कि यह शोर ख़ुद जहन्नम का भी होगा और जहन्नमियों का भी।